योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय २३

 

विज्ञान की प्राप्ति की शर्तें

 

विज्ञान का प्रधान तत्त्व है ज्ञान, पर ज्ञान ही इसकी एकमात्र शक्ति नहीं है । सत्य- चेतना अन्य प्रत्येक भूमिका की तरह अपना आधार उस विशेष तत्त्व पर रखती है जो स्वभावत: ही इसकी सब क्रियाओं की कुंजी है; पर यह उसके द्वारा सीमित नहीं है, यह सत्ता की अन्य सब शक्तियों को भी अपने अन्दर धारण करती है । हां, इन अन्य शक्तियों का स्वरूप और कार्य इसके अपने मूल और सर्वोपरि नियम के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उसीके अनुरूप ढल जाता है । मन-बुद्धि, शरीर, इच्छा-शक्ति, चेतना और आनन्द सभी दिव्य ज्ञान से प्रकाशमान, जागरित और अनुप्राणित हो जाते हैं । वस्तुत:, पुरुष-प्रकृति की प्रक्रिया सर्वत्र यही है; यह व्यक्त सत्ता की समस्त स्तर-परम्परा और क्रमबद्ध सामञ्जस्यों की प्रधान गति है ।

 

  मनोमय प्राणी में अन्तःकरण या बुद्धि ही मूल और प्रधान तत्त्व है । मनोमय पुरुष मनोलोक में, जहां का वह निवासी है, अपने केंद्रीय और निर्धारक स्वरूप की दृष्टि से, बुद्धिप्रधान चैतन्य है । वह बुद्धि का केंद्र है, बुद्धि की एक पुंजित गति है, बुद्धि की ग्रहण और विकिरण करनेवाली क्रिया है । वह बुद्धि के द्वारा अपनी सत्ता को तथा अपनेसे भिन्न दूसरों की सत्ता को जानता है, बुद्धि के द्वारा अपने स्वभाव और कार्यों को तथा दूसरों के कार्यों को जानता है और बुद्धि के द्वारा ही वस्तुओं और व्यक्तियों के स्वभाव को तथा अपने साथ एवं एक-दुसरे के साथ उनके सम्बन्धों को जानता है । सत्ता के विषय में उसका बस यही अनुभव होता है । उसे सत्ता का अन्य किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता, जीवन और जड़तत्त्व जिस रूप में उसे गोचर होते हैं एवं जिस रूप में वे उसकी मानसिक बुद्धि के द्वारा ग्राह्य होते हैं उसे छोड़कर उनके किसी अन्य रूप का उसे ज्ञान नहीं होता । जो वस्तु उसे इन्द्रियगोचर नहीं होती और जिसे वह अपने विचार में नहीं ला सकता वह उसके लिये कार्यत: असत् होती है, या कम-से-कम उसके लोक और उसकी प्रकृति के लिये विजातीय होती है ।

 

  मनुष्य अपने मूलतत्त्व में मनोमय प्राणी है, पर ऐसा मनोमय प्राणी नहीं जो मन के लोक में रहता हों, बल्कि वह एक ऐसे जगत् में रहता है जो प्रधान रूप से भौतिक है । उसका मन जड़-तत्त्व के अन्दर आच्छादित और उसके द्वारा सीमित है । इसलिये उसे अपना कार्य स्थूल इन्द्रियों की क्रिया से आरम्भ करना होता है; ये स्थूल इन्द्रियां, सब-की-सब, भौतिक जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करने के लिये उसके साधन हैं । वह अपना कार्य मनरूपी इन्द्रिय से आरम्भ नहीं करता । किन्तु फिर भी इन स्थूल इन्द्रियों से ज्ञात किसी भी वस्तु का वह तबतक स्वतन्त्र रूप में

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प्रयोग नहीं करता और न कर ही सकता है जबतक मानसेन्द्रिय उसे अपने अधिकार में लाकर उसकी बुद्धिप्रधान सत्ता के उपादान और मूल्य-मान में नहीं बदल देती । निम्नतर अवमानवीय और अवमानसिक लोक में प्राण और स्नायुओं की जो शक्तिशाली क्रिया-प्रतिक्रिया चल रहीं है, जिसे मानसिक रूपों में परिवर्तित या मन के द्वारा नियन्त्रित करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि जो वैसे ही खूब अच्छी तरह चलती रहती है, उसे भी मनुष्य के अन्दर किसी प्रकार की बुद्धितक उठा ले जाकर उसके प्रति अर्पित करना होता है । विशिष्ट रूप से मानवीय बनने के लिये उसे पहले शक्ति के बोध, कामना के बोध, संकल्प के बोध, बुद्धिप्रधान संकल्प-क्रिया के बोध का रूप ग्रहण करना होता है या फिर उसे बल-क्रिया के एक ऐसे बोध का रूप धारण करना पड़ता है जो मानसिक दृष्टि से सचेतन हो । उसका निम्न अस्तित्व-आनन्द मानसिक या मानसीकृत प्राणिक या भौतिक सुख एवं इसके विपर्यय-भूत दुःख के बोध में परिणत हो जाता है अथवा वह रुचि और अरुचि के मानसिक या मानसीकृत वेदन-सम्बेदन का या फिर आनन्द किंवा उसके अभाव के बोध का रूप ग्रहण कर लेता है, --ये सभी बुद्धिप्रधान मानसेन्द्रिय के ही अनुभव हैं । इसी प्रकार, जो वस्तु उसके ऊपर है, जो उसके चारों ओर है तथा जिसमें वह निवास करता है, अर्थात् ईश्वर, विराट् पुरुष, विश्व-शक्तियां---ये सभी उसके लिये तबतक असत् और अवास्तविक ही होते हैं जबतक उसका मन इनकी ओर जागरित नहीं हो जाता और अभी इनका वास्तविक सत्य न सही, पर अतीन्द्रिय वस्तुओं का कुछ बोध नहीं प्राप्त कर लेता, उनका कुछ निरीक्षण, अनुभव एवं कल्पना नहीं कर लेता तथा जबतक यह (मन) अनन्त का कुछ मानसिक बोध, उसके ऊपर तथा चारों ओर विद्यमान परम आत्मा की शक्तियों का कुछ बुद्धिगत एवं व्याख्यात्मक सचेतन ज्ञान नहीं प्राप्त कर लेता ।

 

   पर जब हम मन से विज्ञान में चले जाते हैं तब सब कुछ बदल जाता है; क्योंकि वहां प्रत्यक्ष और सहजात ज्ञान ही प्रधान तत्त्व है । विज्ञानमय पुरुष अपने स्वभाव से ही सत्य-चेतना से युक्त हैं, वस्तुविषयक सत्य-दृष्टि का केन्द्र और परिधि है, विज्ञान की पुंजित क्रिया या सूक्ष्म देह है । उसकी क्रिया वस्तुओ के अन्दर निहित सत्य-शक्ति की क्रिया है जो उनकी गहनतम और सत्यतम सत्ता और प्रकृति के आन्तरिक नियम के अनुसार उस सत्य-शक्ति को चरितार्थ करती तथा प्रसारित करती है । वस्तुओं के अन्दर निहित सत्य जो हमें विज्ञान में प्रवेश कर सकने से पहले प्राप्त करना होगा, --क्योंकि, विज्ञानमय स्तर पर तो सब कुछ इसीमें विद्यमान है और इसीसे उत्पन्न होता है, --सर्वप्रथम, एकता एवं अद्वैत का सत्य है, पर ऐसी एकता का जो विभिन्नता को उत्पन्न करती है, जो अनेकता में भी व्याप्त है और फिर भी सदा एकता एवं अजेय अद्वैत ही रहती है । विज्ञान की भूमिका अर्थात् विज्ञानमय पुरुष की अवस्था तबतक नहीं प्राप्त हो सकती जबतक हम समस्त सत्ता

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तथा सर्वभूतों के साथ विशाल और घनिष्ठ तादात्म्य नहीं प्राप्त कर लेते, विश्वव्यापी नहीं बन जाते, विश्व को अपने अन्दर समाविष्ट या धारण नहीं कर लेते, एक प्रकार से सर्वेसर्वा ही नहीं बन जाते । विज्ञानमय पुरुष में अपने विषय में स्वभाव से ही यह चेतना होती है कि मैं अनन्त हूं, उसमें सामान्य रूप से ही यह चेतना भी होती है कि मैं विश्व को अपने अन्दर धारण कर रहा हूं और इससे परे भी हूं; वह विभक्त मनोमय पुरुष की भांति सामान्यत: ही ऐसी चेतना से नहीं बंधा होता जो अपने-आपको विश्व में समाविष्ट तथा इसका एक अंग अनुभव करती है । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संकीर्ण और आबद्ध करनेवाले अहं से मुक्ति ही विज्ञानमय सत्ता को प्राप्त करने का पहला एवं प्रारम्भिक पग है; क्योंकि जबतक हम अहं में रहते हैं तबतक इस उच्चतर सद्वस्तु इस बृहत् आत्म-चैतन्य, इस वास्तविक आत्मज्ञान को पाने की आशा करना बेकार है । अहम्मय विचार, अहम्मय कर्म ओर अहम्मय संकल्प की ओर जरा-सा भी लौटने से हमारी चेतना ठोकर खाकर अपने उपलब्ध विज्ञानमय सत्य से विभक्त मानसिक प्रकृति के मिथ्या विचार और कर्म आदि में आ गिरती है । अपनी सत्ता को स्थिर रूप से विश्वमय बना लेना ही इस ज्योतिर्मय उच्चतर चेतना का असली आधार है । समस्त कठोर पृथक्ता का त्याग करके (पर उसके स्थान पर एक प्रकार की परात्पर ऊर्ध्व दृष्टि या स्वतन्त्रता प्राप्त करके) हमें सब पदार्थों और प्राणियों के साथ अपने-आपको एकमय अनुभव करना होगा, उनके साथ तादात्म्य स्थापित करना होगा, उन्हें इस रूप में जानना होगा कि वे हम ही हैं, उनकी सत्ता को अपनी सत्ता अनुभव करना तथा उनकी चेतना को अपनी चेतना का अंग स्वीकार करना होगा, उनकी शक्ति के साथ इस रूप में सम्पर्क स्थापित करना होगा कि वह हमारी शक्ति के साथ घनिष्ठतया सम्बद्ध है, सबके साथ एकात्मता लाभ करना सीखना होगा । निःसन्देह यह एकात्मता ही एकमात्र आवश्यक वस्तु नहीं है, पर यह सबसे पहली शर्त है और इसके बिना विज्ञान की प्राप्ति हो ही नहीं सकती ।

 

  यह विश्वात्मभाव तबतक पूर्ण रूप से साधित नहीं हों सकता जबतक हम अपने-आपको आज की भांति वैयक्तिक मन, प्राण और शरीर में खनेवाली चेतना अनुभव करते रहेंगे । 'पुरुष' को अन्नमय और यहांतक कि मनोमय कोष से भी कुछ अंश में ऊपर उठकर विज्ञानमय कोष में पहुंचना होगा । ऐसा होने पर हमारे चिन्तन का केन्द्र न तो मस्तिष्क रह सकता है और न ही उससे सम्बद्ध मनोमय ''पद्म'', इसी प्रकार हमारी भावप्रधान और सम्वेदनात्मक सत्ता का उत्पादक केन्द्र न हृदय रह सकता है और न उससे सम्बद्ध ''हत्पद्म'' । हमारी सत्ता तथा हमारे विचार, संकल्प और कर्म का सचेतन केन्द्र, यहांतक कि हमारे सम्वेदनों और भावावेशों की मूल शक्ति-दोनों शरीर और मन से उठकर उनके ऊपर अपना स्वतन्त्र केन्द्र बना लेते हैं । तब हमें पहले की तरह यह बोध नहीं होता कि हम

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शरीर में रहते हैं, बल्कि हम इसके ऊपर इसके प्रभु स्वामी या ईश्वर के रूप में अधिष्ठित हो जाते हैं और साथ ही काराबद्ध स्थूल इन्द्रियों की चेतना से अधिक विस्तृत चेतना के द्वारा इसे परिवेष्टित कर देते हैं । तब हम सत्य की एक सतत और स्वाभाविक तथा अत्यन्त सजीव शक्ति के साथ ऋषियों के इस कथन का आशय अनुभव कर लेते हैं कि आत्मा शरीर को धारण कर रही है या आत्मा शरीर में नहीं है, बल्कि शरीर आत्मा में है । ऐसा अनुभव हो जाने पर हम विचार और संकल्प की क्रिया मस्तिष्क से नहीं, बल्कि शरीर के ऊपर के केन्द्र से करेंगे; मस्तिष्क की क्रिया केवल एक ऐसी क्रिया रह जायगी जिसे हमारा देह-यन्त्र ऊर्ध्व भूमिका की विचार-शक्ति और संकल्प-शक्ति के आघात के प्रत्युत्तर के रूप में करेगा । सब वस्तुओं और क्रियाओं का उद्भव ऊपर से ही होगा; विज्ञान में जो कुछ भी हमारे वर्तमान मानसिक व्यापार का सजातीय है वह सब ऊपर से ही घटित होता है । विज्ञानमय रूपान्तर की ये सब अवस्थाएं और यदि सब नहीं तो इनमें से बहुत-सी विज्ञानतक पहुंचने से बहुत पहले, स्वयं उच्चतर मन में तथा इसकी अपेक्षा अधिक पूर्ण रूप से मन और विज्ञान के बीच की ''अधिमानस'' --नामक चेतना में प्राप्त की जा सकती हैं और वस्तुत: प्राप्त करनी ही होंगी, --पर आरम्भ में इन्हें मानों मन के अन्दर इनकी प्रतिच्छाया ग्रहण करके अपूर्ण रूप से ही प्राप्त करना होगा ।

 

परन्तु यह विज्ञान-केन्द्र और यह विज्ञानमय क्रिया स्वतन्त्र हैं, बद्ध नहीं हैं, शरीर की मशीन पर निर्भर नहीं हैं, संकुचित अहं-भावना के साथ जकड़े हुए नहीं हैं । विज्ञान-केन्द्र शरीर में आवेष्टित नहीं है; यह एक ऐसे पृथक् व्यक्तित्व के अन्दर बन्द नहीं है जो जगत् के साथ बेढंगे सम्बन्ध स्थापित करने के लिये बाहर रास्ता टटोल रहा है या अपनी अधिक गहरी आत्मा को पाने के लिये भीतर अन्धवत् खोज रहा है, क्योंकि, इस महत् रूपान्तर में हम एक ऐसी चेतना को प्राप्त करने लगते हैं जो किसी उत्पादक घट (generating box) में बन्द नहीं होती, बल्कि स्वतन्त्र रूप से व्याप्त तथा सर्वत्र स्वयंभू रूप से विस्तृत होती है । अवश्य ही वहां एक केन्द्र भी होता है या हो सकता है, पर वह वैयक्तिक क्रिया के लिये एक सुविधाजनक साधन भर होता है न कि कठोर किंवा व्यवस्थापक या पृथक्कारी केन्द्र । उस केन्द्र में स्थित होने के बाद से हमारे सचेतन कार्यों का स्वरूप ही विराट् हो जाता है; विराट् पुरुष के कार्यों के साथ एकमय होने के कारण, वे विराट् सत्ता से उत्पन्न होकर हमारे अन्दर एक नमनीय और परिवर्तनशील वैयक्तिक स्वरूप धारण करने में प्रवृत्त होते हैं । हमारी चेतना अब उस अनन्त पुरुष की चेतना बन जाती है जो सदा ही सारे विश्व के लिये कार्य करता है यद्यपि वह अपनी शक्तियों की वैयक्तिक रूप-रचना पर बल भी देता है । परन्तु यह बल वैशिष्टय को सूचित करता है पार्थक्य को नहीं, और यह व्यक्तिगत रूप-रचना वह चीज नहीं रह जाती जिसे हम आज 'व्यक्तित्व' के नाम से समझते हैं; उस क्षुद्र, सीमित और निर्मित

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'व्यक्ति' का अस्तित्व ही नहीं रह जाता जो अपनी यान्त्रिक रचना के सूत्र में बन्द रहता है । चेतना की यह भूमिका हमारी सत्ता की वर्तमान दशा के लिये इतनी असाधारण है कि जिस बुद्धि-प्रधान व्यक्ति को यह प्राप्त नहीं है उसे यह असम्भव लग सकती है अथवा यहांतक कि मतिभ्रम की अवस्था भी प्रतीत हो सकती है । परन्तु जब एक बार यह प्राप्त हों जाती है तो यह अपनी महत्तर शान्ति, स्वतन्त्रता, ज्योति एवं शक्ति के द्वारा तथा संकल्प की अमोघता और विचार एवं भाव-भावना की प्रमाण्य सत्यता के द्वारा मानसिक बुद्धि के प्रति भी अपने-आपको सत्य सिद्ध कर देती है । क्योंकि, यह अवस्था मुक्त मन के उच्चतर स्तरों पर ही शुरू हो जाती है और अतएव, मानसिक स्तरों को पीछे छोड़ देने पर ही हमारी मनोबुद्धि इसे कुछ अंश में अनुभव कर सकती और समझ सकती है । पर इसकी पूर्ण प्राप्ति अतिमानसिक विज्ञान में आरोहण करने पर ही हों सकती है ।

 

   चेतना की इस भूमिका में अनन्त हमारे लिये मूल और वास्तविक सद्वस्तु बन जाता है, एक ऐसी अनन्य वस्तु बन जाता है जो प्रत्यक्ष और गोचर रूप में सत्य है । 'अनन्त' --विषयक अपनी मूल अनुभूति से पृथक् रूप में 'सांत' का चिन्तन या अनुभव करना भी हमारे लिये असम्भव हो जाता है, क्योंकि हमारे लिये तो उस अनन्त में ही सांत अपना जीवन धारण कर सकता है, अपना निर्माण कर सकता है, कोई वास्तविक अस्तित्व या स्थायित्व रख सकता है । जबतक यह सान्त मन और शरीर हमारी चेतना के निकट हमारी सत्ता का प्रथम तथ्य हैं तथा हमारे समस्त चिन्तन, वेदन और संकल्प का आधार हैं और जबतक सान्त वस्तुएं हमारे लिये एक ऐसी स्वाभाविक सद्वस्तु हैं जिससे हम कभी-कभी या यहां तक कि बहुधा अनन्त के विचार एवं बोध तक उठ सकते हैं, तबतक हम विज्ञान से अभी कोसों दूर हैं । विज्ञान की भूमिका में अनन्त एक साथ ही हमारी सत्ता का स्वाभाविक चैतन्य एवं प्रथम तथ्य होता है, हमारा गोचर द्रव्य होता है । वहां अत्यन्त मूर्त्त रूप में वह हमारे लिये एक ऐसा आधार होता है जहांसे प्रत्येक सान्त वस्तु अपना रूप गठित करती है और उसकी असीम एवं अपरिमेय शक्तियां हमारे समस्त विचार, संकल्प और आनन्द का उद्गम हैं । परन्तु यह 'अनन्त' देश की कोई ऐसी व्यापक या विशाल अनन्तता ही नहीं है जिसमें प्रत्येक वस्तु अपना रूप पकड़ती है एवं प्रत्येक घटना घटित होती है । देश के इस अपरिमेय विस्तार के पीछे विज्ञानमय चेतना एक देशातीत आभ्यन्तरिक अनन्तता से सदा ही सचेतन रहती है । इस द्विविध अनन्तता में से ही हम सच्चिदानन्द की तात्त्विक सत्ता, अपनी सत्ता के सर्वोच्च आत्मा तथा अपने विश्वगत अस्तित्व के सम्पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे । तब हमारे सामने एक असीम सत्ता खुल जाती है । उसे हम यों अनुभव करते हैं मानो वह हमारे ऊपर स्थित एक अनन्त सत्ता हो जिसकी ओर उठने के लिये हम प्रयास करते हैं, अथवा मानों वह हमारे चारों ओर स्थित एक अनन्त

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सत्ता हो जिसमें हम अपनी पृथक् सत्ता को विलीन कर देने का प्रयत्न करते हैं । तदनन्तर हम विशाल होकर उसमें मिल जाते हैं और आरोहण करके उसमें उन्नीत हो जाते हैं; हम अहं के बन्धनों को तोड़ उसकी विशालता में लीन हो जाते हैं और सदा के लिये वही बन जाते हैं । जब इस प्रकार की मुक्ति प्राप्त हो जाये तब यदि हम चाहें तो इसकी शक्ति हमारी निम्न सत्ता को भी अधिकाधिक अपने अधिकार में ला सकती है जिससे

अन्त में हमारी निम्न-से-निम्न और विकृत-से-विकृत क्रियाएं भी फिर से विज्ञान के सत्य में ढल जायें ।

 

  अनन्त का यह बोध और उसका हमपर यह अधिकार ही विज्ञान की प्राप्ति का आधार है और जब यह आधार प्राप्त हों जाये तभी हम अतिमानसिक विचार, बोध, सम्वेदन, तादात्म्य और ज्ञान की किसी स्वाभाविक अवस्था की ओर प्रगति कर सकते हैं । क्योंकि, अनन्त का यह बोध भी केवल एक प्रथम आधार है और, इसके पूर्व कि चेतना सक्रिय रूप से विज्ञानमय बन सके, इस बोध की प्राप्ति के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ करना होता है । कारण, अतिमानसिक ज्ञान परम ज्योति की लीला है; और भी बहुत-सी ज्योतियां हैं, ज्ञान के और भी बहुत-से स्तर हैं जो मानव मन से ऊंचे हैं । वे स्तर हमारे अन्दर खुल सकते हैं और विज्ञान में हमारे आरोहण करने के पहले भी उस महाज्योति के कुछ अंश को ग्रहण या प्रतिबिम्बित कर सकते हैं । परन्तु विज्ञान पर अधिकार पाने या उसे पूर्णतया प्राप्त करने के लिये हमें पहले परम ज्योतिःस्वरूप विज्ञामय पुरुष में प्रवेश करना तथा वही बनना होगा, हमारी चेतना को उस चेतना में रूपान्तरित हो जाना होगा, तादात्म्य के द्वारा अपने-आपको तथा सबको जानने के उसके सिद्धान्त और सामर्थ्य को हमारी सत्ता का वास्तविक तत्त्व बनना होगा । क्योंकि, ज्ञान और कर्म के हमारे साधन और मार्ग आवश्यक रूप से हमारी चेतना के स्वभाव के अनुसार ही होंगे और यदि हमें ज्ञान की इस उच्चतर शक्ति की केवल यदा-कदा झांकी ही नहीं प्राप्त करनी है, बल्कि इसपर पूर्ण अधिकार भी प्राप्त करना है तो हमें स्वयं चेतना का ही आमूल रूपान्तर करना होगा । पर यह शक्ति उच्चतर चिन्तनतक या एक प्रकार की दिव्य बुद्धि की क्रियातक ही सीमित नहीं है । ज्ञान के हमारे वर्तमान साधन जहां आज कुंठित, अन्ध और फलहीन हैं वहां यह उन सबको अत्यन्त विस्तृत, सक्रिय और प्रभावशाली बनाकर अपने हाथ में लेती है और विज्ञान की उच्च एवं तीव्र बोध-क्रिया में परिणत कर देती है । उदाहरणार्थ, हमारी इन्द्रियों की क्रिया को अपने हाथ में लेकर यह उसके साधारण कार्यक्षेत्र में भी उसे आलोकित कर देती है जिससे कि हमें पदार्थों का सच्चा इन्द्रिय-ज्ञान प्राप्त होता है । पर साथ ही यह मनरूपी इन्द्रिय को ऐसा सामर्थ्य प्रदान करती है कि वह आन्तरिक तथा बाह्य विषय का प्रत्यक्ष बोध प्राप्त कर सके, उदाहरणार्थ, जिस विषय पर उसे एकाग्र किया जाय उसके विचारों, वेदनों, सन्वेदनों तथा स्नायविक प्रतिक्रियाओं को

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अनुभव और ग्रहण कर सके अथवा जान सकें । यह सूक्ष्म तथा स्थूल इन्द्रियों का प्रयोग करती है और उन्हें उनकी भूलों से बचाती है । हमारा साधारण मन सत्ता के जिस भौतिक स्तर में अज्ञानपूर्वक आसक्त है उससे भिन्न स्तरों का ज्ञान और अनुभव यह हमें प्रदान करती है और इस ज्ञान के द्वारा यह हमारे लिये जगत् का विस्तार कर देती है । इसी प्रकार यह सम्वेदनों का रूपान्तर करके उन्हें उनकी पूर्ण तीव्रता तथा पूर्ण धारण-शक्ति प्रदान करती है; वस्तुत:, हमारे सामान्य मन में सम्वेदनों की पूर्ण तीव्रता प्राप्त करना सम्भव ही नहीं, क्योंकि एक विशेष सीमा के परे स्पन्दनों को धारण करने और स्थिर रखने की शक्ति से वह वंचित है, ऐसे कम्पनों के आघात या सतत दबाव से तो मन और शरीर दोनों ही चूर-चूर हो जायेंगे । यह हमारे वेदनों और भावावेशों में निहित ज्ञानरूपी तत्त्व को भी अपनाती है, -- क्योंकि हमारे वेदनों में भी ज्ञान और कार्य-सिद्धि की एक शक्ति है जिसे हम जानते नहीं और समुचित रूप से विकसित भी नहीं करते, --साथ ही यह उन वेदनों और भावावेगों को उनकी सीमाओं, भ्रान्तियों और विकृतियों से मुक्त भी कर देती है । क्योंकि, सभी वस्तुओं में विज्ञान सत्य, ऋत और सर्वोच्च विधान के रूप में उपस्थित है, देवानामदब्धानि व्रतानि ।

 

   ज्ञान और शक्ति या संकल्प--क्योंकि समस्त चेतन शक्ति संकल्प ही है--चेतना की क्रिया के युगल पक्ष हैं । हमारे मन में ये एक-दुसरेसे पृथक् हैं । विचार पहले आता है, संकल्प उसके पीछे लड़खड़ाता हुआ आता है या उसके विरुद्ध विद्रोह करता है, या फिर, उसके अपूर्ण यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है और अतएव, इसके परिणाम भी अपूर्ण ही होते हैं; अथवा संकल्प अपने अन्दर अन्ध या अर्द्धदर्शी विचार को लिये हुए पहले आरम्भ होता है और अव्यवस्थित रूप में कुछ कर डालता है जिसका यथार्थ बोध हमें बाद में ही प्राप्त होता है । हमारे अन्दर इन शक्तियों में कोई एकत्व किंवा पूर्ण सामंजस्य नहीं है; अथवा हमारे अन्दर आरम्भ का सिद्धि के साथ पूरा मेल कभी नहीं होता । न ही वैयक्तिक संकल्प विराट् संकल्प के साथ समस्वर होता है; वह इसके परे जाने का यत्न करता है अथवा इसतक नहीं पहुंच पाता या इससे विचलित होकर इसके विरुद्ध संघर्ष करता है । वह न तो सत्य के समयों और उसकी ऋतुओं को जानता है और न ही उसकी मात्राओं और परिमाणों को । विज्ञान संकल्प को हाथ में लेकर पहले उसे अतिमानसिक ज्ञान के सत्य के साथ समस्वर और फिर एकीभूत कर देता है । इस ज्ञान में व्यक्ति का विचार विराट् के विचार के साथ एक होता है, क्योंकि यह उन दोनों को परम ज्ञान और परात्पर संकल्प के सत्य की ओर वापिस ले आता है ।

 

   पतंजलि कहते हैं कि यह शक्ति पदार्थ पर 'संयम' (एकाग्रता) के द्वारा प्राप्त होती है । पर यह बात मन के लिये ही सत्य है, विज्ञान में संयम की आवश्यकता नहीं पड़ती । क्योंकि, इस प्रकार का बोध विज्ञान का स्वाभाविक कार्य है ।

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विज्ञान हमारे बुद्धिप्रधान संकल्प को ही नहीं, बल्कि हमारी इच्छाओं तथा कामनाओं को, यहांतक कि निम्नतर कहलानेवाली कामनाओं को भी, और सहजप्रेरणाओं एवं आवेगों को तथा इन्द्रिय और सम्वेदन की बाह्य प्राप्तियों को भी अपनाकर रूपान्तरित कर देता है । वे अब इच्छाएं और कामनाएं नहीं रहतीं, क्योंकि प्रथम तो वे हमारी व्यक्तिगत कामनाएं नहीं रह जातीं और फिर वे अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिये संघर्ष करने के अपने उस रूप को त्याग देती हैं जिसे हम कामना और लालसा शब्द का अभिप्राय समझते हैं । सहज-प्रेरणात्मक या बुद्धिप्रधान मन की अन्धी या आधी अन्धी चेष्टाएं न रहकर वे सत्य-संकल्प की नानाविध क्रिया में रूपात्तरित हो जाती हैं; और वह संकल्प अपने निर्धारित कर्म के यथोचित उपायों के स्वाभाविक ज्ञान के साथ और अतएव, एक ऐसी प्रभावपूर्ण सफलता के साथ कार्य करता है जिसे हमारी मानसिक संकल्प-क्रिया जानती तक नहीं । यह भी एक कारण है कि विज्ञानमय संकल्प के कार्य में पाप का कोई स्थान नहीं; क्योंकि पापमात्र संकल्प की एक भूल है, अज्ञान की एक कामना एवं क्रिया है ।

 

   जब कामना पूर्ण रूप से मिट जाती है, दुःख और समस्त आन्तरिक शोक भी मिट जाते हैं । विज्ञान हमारे ज्ञान और संकल्प के केन्द्रों को ही नहीं, बल्कि भाव-भावना, प्रेम और आनन्द के केन्द्रों को भी हाथ में लेकर दिव्य आनन्द की क्रिया में रूपान्तरित कर देता है । क्योंकि, यदि ज्ञान और बल चेतना के कार्य के यमज पक्ष या उसकी यमज शक्तियां हैं तो आनन्द--जो सुख नामक वस्तु से अधिक ऊंचा तत्त्व है--चेतना का ठेठ उपादान है और ज्ञान तथा संकल्प किंवा शक्ति और आत्म-चैतन्य की परस्पर-क्रिया का स्वाभाविक परिणाम है । सुख और दुःख, हर्ष और शोक दोनों उसके विकार हैं । इनके उत्पन्न होने का कारण यह है कि जब ज्ञान और संकल्प नीचे के स्तर पर उतरते हैं तो हमारी चेतना और उसके द्वारा प्रयुक्त शक्ति के बीच, हमारे ज्ञान और संकल्प के बीच सामंजस्य भंग हो जाता है, उनकी एकता छिन्न-भिन्न हो जाती है, क्योंकि इस निम्न स्तर पर वे सीमित हैं, अपने-आपमें विभक्त हैं, अपना पूर्ण और वास्तविक कार्य करने में बाधा पाते हैं और अन्य शक्ति, अन्य चेतना, अन्य ज्ञान एवं अन्य संकल्प के साथ संघर्ष में रत रहते हैं । विज्ञान अपने सत्य की शक्ति से और हमारी सारी सत्ता को एकत्व और सामंजस्य तथा ऋत एवं सवोंच्च नियम में पुन: प्रतिष्ठित करके इस विकृत अवस्था को सुधार देता है । वह हमारे सब भावावेगों को, यहांतक कि हमारे घृणा और द्वेष के भावों तथा दुःख के कारणों को भी अपने हाथ में लेकर प्रेम और आनन्द के विविध रूपों में परिणत कर देता है । अपने जिस अर्थ को वे भूले हुए थे तथा भूलकर अपने वर्तमान विकृत रूपों में बदल गये थे उसे वह ढूंढ़ निकालता या प्रकट कर देता है; वह हमारी सम्पूर्ण प्रकृति को सनातन शुभ में पुनः प्रतिष्ठित कर देता है । हमारे बोधों और सम्वेदनों के साथ भी वह इसी प्रकार व्यवहार करता है

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और वे जिस आनन्द की खोज कर रहे हैं उसे समग्र रूप में प्रकट कर देता है, पर प्रकट करता है उसके सत्य स्वरूप में, न कि किसी विकृत अवस्था में और न किसी ऐसे रूप में जो गलत ढंग से खोजने और ग्रहण करने पर प्रकट होता है । वह हमारे निम्नतर आवेगों को भी सिखा देता है कि जिन बाह्य रूपों के पीछे वे दौड़ते हैं उनमें उन्हें भगवान् एवं अनन्त ब्रह्म को कैसे अधिगत करना चाहिये । यह सब निम्नतर सत्ता की अवस्थाओं में नहीं वरन् मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता को दिव्य आनन्द की अनपहार्य पवित्रता, स्वाभाविक तीव्रता तथा, एक पर बहुविध, अविच्छिन्न उन्मादना में उठा ले जाकर किया जाता है ।

 

   इस प्रकार विज्ञान की भूमिका अपने सब कार्यों में पूर्णता-प्राप्त ज्ञानशक्ति, संकल्पशक्ति और आनन्द-शक्ति की लीला की भूमिका है; ज्ञान, संकल्प और आनन्द की ये शक्तियां मन, प्राण और शरीर के स्तर से ऊंचे स्तर पर उठी होती हैं । यह भूमिका सर्वव्यापी है, विश्वात्मभाव से युक्त और अहंपूर्ण व्यक्तित्व एवं व्यष्टिभाव से मुक्त है; अतएव, यह उच्चतर आत्मा एवं उच्चतर चेतना की और फलतः सत्ता के उच्चतर बल एवं उच्चतर आनन्द की लीला का स्तर है । विज्ञान में ये सब ऊर्ध्वतर या दिव्य प्रकृति की पवित्रता में, उसके ऋत और सत्य में कार्य करते हैं । इसकी शक्तियां हमें प्रायः ही वे शक्तियां प्रतीत हो सकती हैं जिन्हें योग की साधारण भाषा में सिद्धियां कहा जाता है; यूरोप के लोग उन्हें गुह्य शक्तियां कहते हैं, भक्तगण और बहुतेरे योगी उन्हें जाल, अन्तराय, तथा भगवान् की सच्ची खोज से विचलित करनेवाली मानकर उनसे दूर रहते तथा डरते हैं । हां, यहां उनका स्वरूप ऐसा ही है और वे संकटपूर्ण भी होती हैं, पर उसका कारण यह है कि उनकी खोज यहां अहं के द्वारा निम्नतर सत्ता में, अस्वाभाविक रूप से तथा अहं की तुष्टि के लिये की जाती है । विज्ञान में वे न तो गुह्य शक्तियां हैं न सिद्धियां, बल्कि उसकी प्रकृति की खुली, स्वेच्छाकृत और स्वाभाविक क्रीड़ा हैं । विज्ञान दिव्य तादात्म्यों से युक्त भागवत सत्ता की सत्य-शक्ति और सत्य-क्रिया है और जब यह विज्ञानमय भूमिकातक उठे हुए व्यक्ति के द्वारा कार्य करता है तो यह किसी विकार, त्रुटि या अहंमय प्रक्रिया के बिना तथा भगवत्पाप्ति से च्युत हुए बिना अपने-आपको चरितार्थ करता है । वहां व्यक्ति पहले की तरह अहं नहीं, बल्कि एक स्वतन्त्र जीव होता है, यह जीव उस उच्चतर दिव्य प्रकृति में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है जिसका वह एक अंश है, परा प्रकृतिर्जीवाभूता, वह प्रकृति उस परात्पर और विराट् आत्मा की प्रकृति है जिसे हम निःसन्देह अनेकविध व्यक्तित्व की लीला में, पर अज्ञान के आवरण के बिना एवं आत्मज्ञान के साथ देखते हैं, उसके बहुगुणित एकत्व में तथा उसकी दिव्य शक्ति के रूप में देखते हैं ।

 

  पुरुष और प्रकृति का सच्चा सम्बन्ध और सच्चा कार्य हमें विज्ञान में ही विदित होते हैं, क्योंकि वहां वे एक हो जाते हैं और भगवान् माया में समावृत नहीं रहते ।

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वहां सब उन्हींका कर्म होता है । जीव तब पहले की तरह यह नहीं कहता ''मैं विचार और कार्य करता हूं मैं कामना और अनुभव करता हूं''; एक ऐसे साधक की भांति जो एकता की प्राप्ति के लिये यत्न कर रहा है, पर अभी उसे पा नहीं सका है, वह यह भी नहीं कहता कि ''अपने हृदय में विराजमान तुझ देव के द्वारा मैं जैसे प्रेरित होता हूं वैसा ही करता हूं ।'' क्योंकि, तब हृदय किंवा मानसिक चेतना का केन्द्र विचार और कर्म आदि की उत्पत्ति का केन्द्र नहीं रहता, बल्कि केवल एक आनन्दपूर्ण माध्यम बन जाता है । वस्तुतः उसे यह ज्ञान हो जाता है कि भगवान् सबके प्रभु के रूप में उसके ऊपर 'अधिष्ठित' हैं तथा उसके अन्दर भी कार्य कर रहे हैं । और, स्वयं भी उस उच्चतर भूमिका में, परार्द्धे परमस्यां परावति, स्थित होने के कारण वह सच्चे अर्थों में और साहस के साथ कह सकता है, ''स्वयं ईश्वर ही अपनी प्रकृति की सहायता से मेरे व्यक्तित्व तथा इसके रूपों के द्वारा वस्तुओं को जानता और कर्म करता है, प्रेम करता और आनन्द लेता है और वहां अपने उच्चतर तथा दिव्य लयताल के साथ उस बहुविध लीला को चरितार्थ करता है जिसे अनन्त ब्रह्म विश्व में--अपने ही सनातन व्यक्त रूप में-नित्य-निरन्तर करता रहता है ।''

 

   १ '' त्वया हृषीकेश हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि '' - अनु०

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