योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १५

 

विराट् चेतना

 

सक्रिय ब्रह्म का साक्षात्कार करके उसके साथ एकत्व प्राप्त करने का अर्थ है वैयक्तिक चेतना को, इस एकत्व की आंशिक या समग्र पूर्णता के अनुसार पूर्ण या अपूर्ण रूप से, विराट् चेतना में परिवर्तित करना । मनुष्य की साधारण सत्ता एवं चेतना वैयक्तिक ही नहीं अहंमय भी है; अर्थात् इस चेतना में जीवात्मा या व्यक्तिगत आत्मा वैश्वप्रकृति की गति के अन्दर अपने मानसिक, प्राणिक, शारीरिक अनुभवों की केंद्रीय ग्रंथि के साथ, अपने मनोनिर्मित अहंभाव के साथ और, अपेक्षाकृत कम घनिष्ठ रूप में, अनुभवों को ग्रहण करनेवाले मन, प्राण और शरीर के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है । कारण, इनके बारे में तो वह ''यह मेरा मन, मेरा प्राण या मेरा शरीर है'' ऐसा कह सकता है, इन्हें अपना-आप समझ सकता है, पर कुछ अंश में इन्हें अपना स्वरूप न समझकर एक ऐसी चीज भी समझ सकता है जिसका वह स्वामी है तथा जिसे वह प्रयोग में लाता है, किन्तु अहं के बारे में तो वह कहता है, ''यह स्वयं मैं हूं ।'' मन, प्राण और शरीर के साथ समस्त तादात्म्य  से अपनेको अलग करके वह अपने अहं से पीछे हट उस सच्चे व्यष्टि अर्थात् जीवात्मा की चेतना को प्राप्त कर सकता है जो मन, प्राण और शरीर का वास्तविक स्वामी है । इस 'व्यष्टि' के पीछे अवस्थित उस सत्ता की ओर जिसका यह प्रतिनिधि एवं चेतन रूप है दृष्टि डालने पर वह शुद्ध आत्मा, निरपेक्ष सत् या निरपेक्ष असत् की परात्पर चेतना को प्राप्त कर सकता है; ये आत्मा, सत् और असत् एक ही सनातन परमार्थ-सत्ता की तीन स्थितियां हैं । परन्तु विश्व-प्रकृति की क्रिया और इस परात्पर सत्ता के बीच वैश्व चैतन्य किंवा विराट् पुरुष अवस्थित है जो प्रकृति की क्रिया का स्वामी तथा परात्पर का वैश्व आत्मा है; समस्त विश्व-शक्ति (Nature) इस विराट् पुरुष की प्रकृति या सक्रिय सचेतन शक्ति है । इस विराट् पुरुष को हम प्राप्त कर सकते हैं तथा यहीं बन भी सकते हैं, पर इसके लिये हमें या तो अहं की दीवारों को अपने चारों ओर से तोड़कर मानों एकमेव में सर्वभूतों के साथ तदात्मता स्थापित करनी होगी अथवा इन्हें ऊपर की ओर से तोड़कर शुद्ध आत्मा या निरपेक्ष सत्ता का उसके आविर्भावशील, अन्तर्यामी, सर्वग्राही तथा सर्वनिर्मायक ज्ञान से एवं आत्म-सर्जन की शक्ति से सम्पन्न रूप में साक्षात्कार करना होगा ।

 

    सबमें विद्यमान अन्तर्यामी एवं नीरव आत्मा का साक्षात्कार करके ही मनोमय मानव इस विराट् चेतना का आधार सवाधिक सहज रूप से स्थापित कर सकता है । उसे यह अनुभव करना होगा कि यह आत्मा शुद्ध और सर्वव्यापक साक्षी है

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जो सृष्टि के चिन्मय आत्मा के रूप में समस्त जगद्व्यापार का अवलोकन करता है, साथ ही यह आत्मा सच्चिदानन्द भी है जिसके आनन्द के लिये विश्व-प्रक्रति अपनी सनातन क्रिया-परम्परा को चला रही है । हमें अखणिडत आनन्द तथा शुद्ध और परिपूर्ण उपस्थिति का साक्षात्कार प्राप्त होता है, उस अनन्त और स्वयंपूर्ण शक्ति का अनुभव होता है, जो हममें तथा सब वस्तुओं में विद्यमान है, जो उनके भेदों से विभक्त नहीं होती, वैश्व अभिव्यक्ति के दबाव और संघर्ष से प्रभावित नहीं होती, इन सबके अन्दर है और फिर भी इन सबके ऊपर है । उसीके कारण इस सबका अस्तित्व है, परन्तु उसका अस्तित्व इस सबके कारण नहीं है; वह इतनी महान् है कि जिस देश-काल-गत क्रिया के अन्दर वह अवस्थित है तथा जिसे धारण करती है उससे सीमित नहीं होती । विराट् चेतना का यह आधार हमें दिव्य अस्तित्व की सुरक्षित स्थिति में सम्पूर्ण विश्व को अपनी सत्ता के अन्दर धारण करने की सामर्थ्य प्रदान करता है । जिसके अन्दर हम निवास करते हैं उससे हम तब और सीमित नहीं होते, न उसमें बन्द ही हों जाते हैं, बल्कि प्रकृति की जिस क्रिया में निवास करना हम स्वयमेव स्वीकार करते हैं उसके निमित्त हम इस सब को भगवान् की भांति अपने अन्दर धारण करते हैं । हम मन या प्राण या शरीर नहीं हैं, बल्कि इन्हें अन्दर से गढ़नेवाला तथा धारण करनेवाला, निश्चल-नीरव, शान्तिमय, सनातन पुरुष हैं जो इनका स्वामी है । और, हम देखते हैं कि यह आत्मा सर्वत्र विद्यमान है तथा सबके प्राण, मन और शरीर को धारण कर रहा एवं अन्दर से गढ़ रहा है और उनका स्वामी है । और, तब हम इसे अपने मन, प्राण और शरीर में उपस्थित एक पृथक् एवं व्यक्तिगत सत्ता के रूप में देखना छोड़ देते हैं । इसीमें यह सब गति और क्रिया कर रहा है; इस सबके अन्दर वह स्वयं स्थिर और अक्षर है । इसे प्राप्त कर लेने पर हम अपनी सनातन स्वयंभू सत्ता को उसके नित्य चैतन्य और आनन्द के अन्दर स्थिर रूप में प्रतिष्ठित अनुभव कर लेते हैं ।

 

    इसके बाद हमें अनुभव करना होगा कि यह नीरव आत्मा विश्व-प्रकृति के समस्त व्यापार का स्वामी है, एक ही स्वयंभू ईश्वर है जो अपनी सनातन चेतना की सर्जनशील शक्ति के रूप में विलसित हों रहा है । जगत् का यह समस्त व्यापार केवल उसका बल, ज्ञान और आनन्द ही है जो उसकी सनातन प्रज्ञा और संकल्प-शक्ति के कार्यों को करने के लिये उसकी अनन्त सत्ता में यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रकट हो रहे हैं । भगवान् का, सबके सनातन आत्मा का साक्षात्कार हमें सर्वप्रथम इस रूप में होता है कि वह समस्त कर्म और अकर्म, ज्ञान और अज्ञान, हर्ष और शोक, शुभ और अशुभ, पूर्णता और अपूर्णता, शक्ति और आकार, शाश्वत दिव्य तत्त्व से बाहर की ओर प्रकृति का समस्त विच्छुरण तथा भगवान् की ओर उसका समस्त प्रतिनिवर्तन--इन सबका मूल स्रोत है । इसके बाद हमें उसका साक्षात्कार इस रूप में होता है कि वह अपनी शक्ति और ज्ञान के रूप में स्वयं ही चारों ओर आविर्भूत

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हों रहा है--क्योंकि शक्ति और ज्ञान स्वयं उसीका स्वरूप हैं, --वह इनके कार्यो का उद्गम ही नहीं, बल्कि स्रष्टा और कर्ता है, सब भूतों में एक ही है, क्योंकि विश्व-अभिव्यक्ति में जो अनेक आत्माएं हैं वे एक ही भगवान् की आकृतियांमात्र हैं, अनेक मन, प्राण और शरीर उसके अवगुंठन और छद्मरूप ही हैं । प्रत्येक सत्ता को हम विराट् नारायण के रूप में देखते हैं जो हमारे सामने अपने अनेक चेहरों को प्रकट कर रहा है; हम अपने को उसमें खो देते हैं और अपने मन, प्राण तथा शरीर को आत्मा का केवल एक रूप अनुभव करते हैं, और पहले हम जिन्हें पराया समझते थे वे सभी अब हमारी चेतना को अन्य मनों, प्राणों और शरीरों में अवस्थित अपनी ही आत्मा प्रतीत होते हैं । इस विश्व में विद्यमान समस्त शक्तियां, विचार तथा घटनाएं और पदार्थों के सभी आकार इस आत्मा के व्यक्त क्रमिक रूपमात्र हैं, भगवान् की विभिन्न मूल्योंवाली अभिव्यक्तियां हैं जो उसके सनातन आत्म-रूपायनों में प्रकट होती हैं । पदार्थों और प्राणियों पर इस प्रकार दृष्टिपात करने से हम पहले उन्हें इस रूप में देख सकते हैं मानो वे उसकी विभक्त सत्ता के अंग एवं खण्ड हों, परन्तु हमारा साक्षात्कार और ज्ञान तबतक पूर्ण नहीं हो सकते जबतक हम गुण, देश-काल और भेद-विभाग के इस विचार से परे जाकर सर्वत्र अनन्त भगवान् को नहीं देखने लगते, विश्व को और विश्व की प्रत्येक वस्तु को उसकी सत्ता और गुप्त चेतना में तथा शक्ति एवं आनन्द में पूरे-का-पूरा अखण्ड भगवान् नहीं अनुभव करते, भले ही, इस विश्व का या इसकी प्रत्येक वस्तु का हमारे मनों के सम्मुख प्रस्तुत रूप कितना ही अधिक एक आंशिक अभिव्यक्तिमात्र क्यों न प्रतीत हो । जब हम इस प्रकार भगवान् को शान्त एवं सर्वातीत साक्षी और क्रियाशील ईश्वर एवं उपादानभूत सत्तत्त्व के रूप में प्राप्त कर लेते हैं तथा इन दोनों रूपों में किसी प्रकार का भेद नहीं करते तब हम सम्पुर्ण विराट् परमेश्वर को उपलब्ध कर लेते हैं, समग्र वैश्व आत्मा एवं सद्वस्तु को सर्वात्मना ग्रहण कर लेते हैं, विराट् चैतन्य के प्रति जागरित हो जाते हैं ।

 

   यह जो विराट् चेतना हमने उपलब्ध की है उसके साथ हमारी व्यक्तिगत सत्ता का क्या सम्बन्ध होगा ? क्योंकि हमारा मन, शरीर एवं मानवीय जीवन अभीतक विद्यमान है, हमारी व्यक्तिगत सत्ता बनी रहती है यद्यपि हम अपनी पृथक् व्यक्तिगत चेतना को पार कर चुके हैं । यह सर्वथा सम्भव है कि हम विराट्--चैतन्य-स्वरूप बने बिना विराट् चेतना को उपलब्ध कर लें, अर्थात् आत्मा के द्वारा इसका साक्षात्कार प्राप्त कर लें, इसे अनुभव करके इसमें निवास करने लगें, इसके साथ पूर्णतया एक हुए बिना योगयुक्त हो जायें, संक्षेप में, विश्वात्मा की विराट् चेतना में जीवात्मा की व्यक्तिगत चेतना को सुरक्षित रखें । दूसरी ओर, यह भी सम्भव है कि हम इन दोनों के बीच एक विशेष प्रकार का भेद बनाये रखकर इनके पारस्परिक सम्बन्धों का रसास्वादन करें, विराट् आत्मा के आनन्द और आनंत्य में

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भाग लेते हुए हम व्यक्तिगत आत्मा भी बने रहें; या फिर हम महत्तर और लघुतर आत्मा के रूप में इन दोनों को ही अधिकृत कर सकते हैं, इनमें से एक तो दिव्य चेतना और शक्ति की विराट् लीला में अपने-आपको बाहर उंडेल रहा है, दूसरा जो उसी विराट् पुरुष की एक क्रिया है मन, प्राण और शरीर की व्यक्तिगत क्रीड़ा के निमित्त हमारे व्यक्तिगत आत्मा-रूपी केन्द्र या आत्मिक स्वरूप के

द्वारा अपने-आपको बाहर उंडेल रहा है । परन्तु ज्ञानयोग के साक्षात्कार की सर्वोच्च भूमिका में हमें सदा ही एक ऐसी शक्ति प्राप्त होती है जिससे हम व्यक्तित्व का विराट् सत्ता में तथा व्यक्तिगत चेतना का विराट् चेतना में लय कर सकते हैं, यहांतक कि अपने आत्मस्वरूप को भी परमात्मा की एकता और विश्वमयता में विलीन कर मुक्त कर सकते हैं । यह लय या मोक्ष ही ज्ञानयोग का लक्ष्य है । परम्परागत योग की भांति यहां भी यह अपने-आपको इतना विस्तारित कर सकता है कि स्वयं मन, प्राण और शरीर का भी नीरव आत्मा या निरपेक्ष सत्ता में लय हो जाय; पर मुक्ति का सार तो व्यक्तिगत सत्ता का अनन्त में लय ही है । जब योगी अपने-आपको पहले की तरह शरीर में अवस्थित या मन के द्वारा सीमित चेतना के रूप में अनुभव नहीं करता, बल्कि अनन्त चेतना की नि:सीमता मे द्वैतभाव को खो देता है, तो वह जो कुछ करने चला था वह सिद्ध हों जाता है । उसके बाद मानवजीवन को धारण करना या न करना कोई वास्तविक महत्त्व की बात नहीं रहती, क्योंकि सदैव निराकार 'एक सत्' ही मन, प्राण और शरीर के अपने अनेक रूपों के द्वारा कार्य करते हैं और प्रत्येक जीव तो उनका एक अन्यतम धाममात्र है जिसमें अवस्थित होकर वे निरीक्षण तथा ग्रहण करना और अपनी लीला को परिचालित करना पसन्द करते हैं ।

   

    विराट् चेतना में हम जिसके अन्दर अपने-आपको निमज्जित करते हैं वह सच्चिदानन्द ही है, वह एकमेव सनातन सत्ता है जो तब हमारी निजी सत्ता होती है, एकमेव सनातन चेतना है जो हममें तथा दूसरों में अपने कार्यों का अवलोकन करती है, इस चेतना का एकमेव सनातन संकल्प या बल है जो अनन्त क्रियाओं में अपने-आपको प्रकट करता है, एकमेव सनातन-आनन्द-स्वरूप है जिसे अपनी सत्ता तथा अपने समस्त कार्यों का आनन्द सहज प्राप्त है,--अपने-आप स्थिर, अक्षर, देशकालातीत एवं परमोच्च है और अपने कार्य-व्यापारों की अनन्तता में भी अपने-आप निश्चल है, उनके विभेदों से परिवर्तित नहीं होता, उनके बहुत्व सें खण्ड-खणड नहीं हो जाता, देश और काल के समुद्रों में उनके ज्वार-भाटों से बढ़ता-घटता नहीं, उनके दीखनेवाले विरोधों से विभ्रान्त नहीं होता, न उनकी ईश्वराभिमत सीमाओं से सीमित ही होता है । सच्चिदानन्द व्यक्त वस्तुओं की बहुविधता मे रहनेवाली एकता है, उनके सब विभेदों और विरोधों की सनातन समस्वरता है, एक ऐसी अनन्त पूर्णता है जो उनकी सीमाओं का औचित्य सिद्ध करती है तथा उनकी अपूर्णताओं का लक्ष्य है

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   यह प्रत्यक्ष ही है कि इस विराट् चेतना में निवास करने से हमारे समस्त अनुभव में तथा जगत् की प्रत्येक वस्तु का हम जो मूल्यांकन करते हैं उसमें एक आमूल परिवर्तन आ जायगा । अहंमय व्यक्तियों के रूप में हम अज्ञान में निवास करते हैं और प्रत्येक वस्तु की परख ज्ञान के एक खणडित, आंशिक तथा व्यक्तिगत मापदण्ड से ही करते हैं; हम प्रत्येक वस्तु का अनुभव सीमित चेतना और शक्ति की क्षमता के अनुसार ही करते हैं और अतएव विश्व के अनुभव के किसी भी भाग के प्रति हम दैवी प्रतिक्रिया नहीं कर पाते और न उसका सच्चा मूल्य ही आंक सकते हैं । हम तो सीमा, दुर्बलता, अक्षमता, दुःख, वेदना, संघर्ष और इसके विरोधी भावों को ही अनुभव करते हैं अथवा यदि इनकी विरोधी चीजों का अनुभव हमें होता भी है तो सापेक्ष सुख-दुःख आदि के सनातन द्वंद्वों के रूप में ही होता है, निरपेक्ष शिव और सुख के सनातन रूप में नहीं । हम अनुभव के खण्डों के सहारे ही जीवन धारण करते हैं और अपने खण्डात्मक मूल्यों के द्वारा ही प्रत्येक वस्तु और समग्र विश्व के सम्बन्ध में निर्णय करते हैं । जब हम पूर्ण मूल्यों का ज्ञान प्राप्त करने का यत्न करते हैं तो हम वस्तुओं-विषयक किसी आंशिक दृष्टिकोण को ही दिव्य कार्य-व्यापारों में निहित समग्र दृष्टि के स्थान पर कार्य करने के लिये ऊंचा दर्जा भर प्रदान कर देते हैं । हम दम भरते हैं कि हमारे भिन्न भी पूर्णांक हैं और भगवान् की विराट् दृष्टि की व्यापकता में एकांगी दृष्टिकोणों को घुसेड़ देते हैं ।

 

   वैश्व चेतना में प्रवेश करने पर हम इस विराट् दृष्टि में भाग लेने लगते हैं और प्रत्येक वस्तु को अनन्त तथा एकमेव के मूल्यों के दृष्टिकोण से देखते हैं । हमारे लिये स्वयं सीमा और अज्ञान का अर्थ भी बदल जाता है । अज्ञान दिव्य ज्ञान की एक विशिष्ट क्रिया में परिवर्तित हो जाता है, शक्ति, दुर्बलता और अक्षमता हमें इस रूप में जान पड़ती हैं कि दिव्य शक्ति अपनी विविध मात्राओं को स्वतन्त्रतापूर्वक प्रकट कर रही, किंवा पीछे की ओर अपने अन्दर धारण कर रही है, हर्ष-शोक और सुख-दुःख दिव्य आनन्द के स्वामी किंवा उसके अधीन होने के सूचक बन जाते हैं, संघर्ष दिव्य सामंजस्य मे शक्तियों और मूल्यों के सन्तुलन का रूप ग्रहण कर लेता है । तब हम अपने मन, प्राण और शरीर की सीमाओं के कारण दुःख नहीं भोगते; क्योंकि हम पहले की तरह इनमें नहीं, बल्कि आत्मा की अनन्तता में निवास करते हैं, और अभिव्यक्ति में इनके यथार्थ मूल्य, स्थान और प्रयोजन को समझते हुए हम इन्हें सृष्टि में अपने-आपको आवृत और व्यक्त करनेवाले सच्चिदानन्द की परम सत्ता, चिच्छक्ति और आनन्द के स्तरों के रूप में देखते हैं । मनुष्यों और पदार्थों के विषय में हम उनकी बाह्य आकृतियों के आधार पर निर्णय करना छोड़ देते हैं और द्वेषपूर्ण तथा परस्पर-विरोधी विचारों एवं भावावेशों से मुक्त हो जाते हैं; क्योंकि तब हम प्रत्येक पदार्थ और प्राणी में अन्तरात्मा को ही देखते हैं, भगवान् को ही ढूंढते और पाते हैं, और शेष सब कुछ तो हमारे लिये (जागतिक) सम्बन्धों की योजना

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में केवल गौण महत्त्व ही रखता है; ये सम्बन्ध अब हमारे लिये भगवान् की आत्म-अभिव्यक्तियों के रूप में ही अस्तित्व रखते हैं, पर वैसे अपने-आपमें इनका कोई निरपेक्ष मूल्य नहीं होता । इसी प्रकार, कोई भी घटना हमें क्षुब्ध नहीं कर सकती, क्योंकि सुखद और दुःखद, कल्याणकारी और अकल्याणकारी घटनाओं के भेद में कोई बल नहीं रह जाता, सभी घटनाओं को हम उनके दिव्य मूल्य और दिव्य प्रयोजन की दृष्टि से ही देखते हैं । इस प्रकार हम पूर्ण मुक्ति और अनन्त क्षमता प्राप्त कर लेते हैं । उपनिषद् में जहां यह कहा गया है कि ''जिस मनुष्य का आत्मा सर्वभूतरूप हों गया है उसे भला मोह क्योंकर होगा, जिसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया है और जो सब वस्तुओं में एकत्व का ही दर्शन करता है उसे भला शोक कहां से होगा ?'' वहां उक्त प्रकार की पूर्णता का ही उल्लेख किया गया है ।

 

   परन्तु यह स्थिति तभी प्राप्त होती है जब मनुष्य विराट् चेतना को पूर्णतया उपलब्ध कर लेता है, पर इसे उपलब्ध करना मनोमय प्राणी के लिये कठिन है । मन जब आत्मा एवं भगवान् के विचार या साक्षात्कारतक पहुंच जाता है तो वह सत्ता को दो विरोधी भागों, निम्नतर और उच्चतर सत्ता में विभक्त करने की ओर प्रवृत्त होता है । एक ओर तो उसे दीखता है अनन्त, निराकार एवं एकमेव, शान्ति एवं आनन्द, स्थिरता एवं नीरवता, निरपेक्ष, बृहत् एवं विशुद्ध सत्ता; दूसरी ओर उसे दीखता है सांत, रूपों का जगत्, असामंजस्पपूर्ण बहुत्व, कलह, क्लेश और अपूर्ण तथा अवास्तविक हित, आतुर प्रवृत्ति और तिरर्थक सफलता, सापेक्ष, सीमित, मिथ्या और जघन्य वस्तुएं । जो लोग इस प्रकार के भेद और विरोध की सृष्टि करते हैं उन्हें पूर्ण मुक्ति एकमेव की शान्ति में, अनन्त की निराकारता तथा निरपेक्ष की अव्यक्त अवस्था में ही प्राप्त हों सकती है, क्योंकि उनके लिये निरपेक्ष सत्ता ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है; उनके मत में, मुक्त होने के लिये सभी मूल्य-मर्यादाओं का विनाश करना होगा, सभी सीमाओं को केवल पार ही नहीं करना होगा, अपितु मिटा देना होगा । उन्हें दिव्य विश्राम की मुक्ति तो प्राप्त होती है, पर दिव्य कर्म की स्वतन्त्रता नहीं; है परात्पर की शान्ति का रसास्वादन तो करते हैं, पर उसके विराट् आनन्द का नहीं । उनकी स्वतन्त्रता जगद्व्यापार से विरत रहने पर ही निर्भर करती है, वह स्वयं जागतिक सत्ता को अपने अधिकार में लाकर उसपर अपना शासन नहीं स्थापित कर सकती । परन्तु वे विश्वव्यापी तथा विश्वातीत दोनों प्रकार की शान्ति को उपलब्ध करके उनमें भाग भी ले सकते हैं । फिर भी इससे उक्त प्रकार की भेदवृत्ति दूर नहीं हो जाती । जिस स्वतन्त्रता का वे उपभोग करते हैं वह नीरव निष्क्रिय साक्षी की स्वतन्त्रता होती है, उस दिव्य प्रभु-चेतना की नहीं जो सब

 

     १ विजानतः । विज्ञान का अर्थ है 'एक' और 'बहु' का ज्ञान जिसके द्वारा 'बहु' को 'एक' की अवस्थाओं के रूप में तथा दिव्य सत्ता के अनन्त, एकीकारक 'सत्य-ऋत-वृहत्' स्वरूप के अन्तर्गत देखा जाता है ।

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वस्तुओं की स्वामिनी है, सबमें आनन्द लेती है तथा पतित या विलुप्त या बद्ध या कलुषित होने के भय के बिना सत्ता के सभी रूपों में अपने-आपको ढालती है । पर अभी उन्हें आत्मा के सारे अधिकार प्राप्त नहीं हुए हैं; अभी भी उनमें एक प्रकार के निषेध का भाव है, एक प्रकार की सीमितता है, समस्त सत्ता के पूर्ण एकत्व से जुगुप्सा है । तब मन, प्राण और शरीर के व्यापारों को मानसिक सत्ता के आध्यात्मिक स्तरों की स्थिरता एवं शान्ति में से देखा जाता है और वे इस स्थिरता एवं शान्ति से परिपूरित भी हो जाते हैं; परन्तु अभी वे सर्व-सम्राट् आत्मा के नियम के द्वारा अधिकृत एवं नियन्त्रित नहीं होते ।

 

   यह स्थिति तब प्राप्त होती है जब मनोमय मानव अपने आध्यात्मिक स्तरों में अर्थात् सत्, चित् आनन्द के मानसिक स्तरों में स्थित होकर उनके प्रकाश तथा आनन्द को निम्नतर सत्ता पर उंडेलता है । परन्तु स्वयं निम्नतर स्तरों पर निवास करते हुए भी एक प्रकार की विराट् चेतना को प्राप्त करने का यत्न किया जा सकता है । इसके लिये, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, उनकी सीमाओं को चारों ओर से तोड़कर उनमें उच्चतर सत्ता की ज्योति और विशालता को पुकार लाना होगा । कारण, केवल आत्मा ही एक नहीं है, बल्कि मन, प्राण और जड़तत्त्व भी एक ही हैं । इस विश्व में एक ही विराट् मन, एक ही विराट् प्राण एवं एक ही विराट् शरीर है । सार्वभौम सहानुभूति एवं सार्वभौम प्रेम की भावनातक पहुंचने तथा अन्य सब प्राणियों की अन्तरात्मा का बोध एवं ज्ञान प्राप्त करने के समस्त मानवीय प्रयास का अर्थ है विस्तृत होते हुए मन और हृदय की शक्ति के द्वारा अहं की दीवारों पर प्रहार करके उन्हें पतला कर देने तथा उनमें दरार करके अन्त में उन्हें तोड़ गिराने और सार्वभौम एकत्व के अधिक निकट पहुंचने का प्रयत्न करना । यदि हम मन और हृदय के द्वारा परमात्मा का स्पर्श प्राप्त कर सकें, इस निम्नतर मानव-सत्ता में भगवान् का शक्तिशाली अन्तःप्रवाह प्रहण कर सकें और प्रेम एवं सार्वभौम हर्ष के द्वारा तथा समस्त प्रकृति एवं समस्त भूतों के साथ मानसिक एकत्व के द्वारा अपनी प्रकृति को दिव्य प्रकृति की प्रतिच्छाया में परिणत कर सकें तो हम इन दीवारों को ढाह सकते हैं । यहांतक कि हमारे शरीर भी वस्तुत: पृथक् सत्ताएं नहीं हैं और अतएव हमारी ठेठ भौतिक चेतना भी दूसरों की तथा विश्व की भौतिक चेतना से एकत्व प्राप्त कर सकती हैं । योगी अपने शरीर को सभी शरीरों के साथ एकमय अनुभव कर सकता है, उनके विकारों से सचेतन हों सकता है, यहांतक कि इनमें भाग भी ले सकता है; वह समस्त जड़तत्त्व की एकता को निरन्तर अनुभव कर सकता है और अपनी भौतिक सत्ता को उसकी गति के अन्तर्गत केवल एक गति अनुभव कर सकता है । यह अनुभूति तो वह और भी सहज रूप से तथा सतत एवं सामान्य रूप से प्राप्त कर सकता है कि अनन्त प्राण का अगाध समुद्र

 

   'जगत्यां जगत् । -ईश उपनिषद्

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ही उसकी सच्ची प्राणिक सत्ता है और उसका अपना प्राण इस असीम प्राण-समुद्र की एक तरंगमात्र है । और, इससे भी अधिक सहज रूप से वह अपने मन और हृदय मे अपने-आपको सब भूतों के साथ एक कर सकता है, उनकीं कामनाओं तथा उनके संघर्षों हर्षों शोकों, विचारों और आवेगों को इस रूप में जान सकता है मानो वे एक अर्थ में उसके अपने ही हों या कम-से-कम, उसकी बृहत्तर आत्मा के अन्दर उसके अपने हृदय और मन की क्रियाओं की अपेक्षा कदाचित् कुछ कम अन्तरंग रूप में या बिल्कुल उन्हीकई समान अन्तंस रूप में घटित हो रहे हों । यह भी एक प्रकार का विराट् चेतना का साक्षात्कार है ।

 

    हमें ऐसा भी प्रतीत हो सकता है कि मानों यह विराट् एकत्व ही महान्-से-महान् एकत्व है, क्योंकि मनोनिर्मित जगत् में जो भी चीजें हमें इन्द्रियगोचर हो सकती हैं उन सबको यह हमारी अपनी स्वीकार करता है । कई बार तो हम इसे सवोंच्च उपलब्धि के रूप में वर्णित भी पाते हैं । निःसन्देह, यह एक महान् साक्षात्कार है तथा एक महत्तर साक्षात्कार की प्राप्ति का मार्ग है । इसीको गीता हर्ष किंवा शोक में सब भूतों को आत्मवत् देखना कहती है; यह सहानुभूतिमय एकत्व तथा अनन्त करुणा का मार्ग है जिसके द्वारा बौद्धमतावलम्बी अपने निर्वाण के लक्ष्य पर पहुंचता है । फिर भी विराट् चेतना की प्राप्ति में कुछ क्रमिक सोपान एवं अवस्थाएं आती हैं । पहली अवस्था में हमारी अन्तरात्मा अभी द्वंद्वों की प्रतिक्रियाओं के और अतएव निम्नतर प्रकृति के वश में होती है; वह विश्व की वेदना से विषण्ण या व्यथित होती है तथा उसके हर्ष से प्रफुल्लित । हम दूसरों के हर्ष को अनुभव करते हैं, उनके दुःख में दुःखी होते हैं, और इस एकता को देहतक भी विस्तारित किया जा सकता है जैसा कि एक भारतीय सन्त की कहानी से हमें विदित होता है । कहते हैं कि उन्होंने एक बार किसी खेत में एक बैल को उसके निर्दय स्वामी के द्वारा बुरी तरह पीटे जाते देखा । उस दृश्य को देखते ही वे उस प्राणी की पीड़ा के मारे चिल्ला पड़े और पीछे देखने पर कोड़े की मार का निशान उनकी देह के ऊपर भी पड़ा पाया गया । परन्तु हमें ऐसा एकत्व प्राप्त करना होगा जिसमें हम सच्चिदानन्द की मुक्त स्थिति में रह सकें और हमारी निम्नतर सत्ता भी प्रकृति की प्रतिक्रियाओं के अधीन न रहे । यह एकत्व तब प्राप्त होता है जब हमारी आत्मा मुक्त होकर जागतिक प्रतिक्रियाओं से ऊपर उठ जाती है, ये प्रतिक्रियाएं तब प्राण, मन और शरीर में एक हीनतर गति के रूप में अनुभूत होती हैं, इन सब प्रतिक्रियाओं को हमारी आत्मा समझती तथा स्वीकार करती है और इनके प्रति सहानुभूति भी दर्शाती है, पर इनसे अभिभूत या प्रभावित नहीं होती, परिणामतः मन और शरीर भी अपने ऊपरी तल को छोड़कर अन्य, सूक्ष्म एवं गहरे तलों में इनसे अभिभूत या प्रभावित तक हुए बिना इन्हें स्वीकार करना सीख जाते हैं । और, साधना की इस क्रिया की चरम परिणति तब होती है जब सत्ता के दोनों गोलार्द्ध पहले की तरह विभक्त नहीं

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रहते और मन, प्राण तथा शरीर जागतिक स्पर्शों के प्रति निम्नतर या अज्ञानपूर्ण प्रतिक्रिया से मुक्त रहनेवाले आत्मा की स्थिति में विकसित हो जाते हैं और आगे को द्वंद्वों के दास नहीं रहते । इस उच्च स्थिति का अर्थ दूसरे के संघर्षों और कष्टों के प्रति अचेतन होना नहीं, वरन् निश्चय ही एक ऐसी आध्यात्मिक प्रभुता एवं मुक्ति है जो हमें वस्तुओं को पूरी तरह से समझने, उनका यथार्थ मूल्य आंकने तथा नीचे से संघर्ष करने के स्थान पर ऊपर से दुःख-ताप का निवारण करने की सामर्थ्य प्रदान करती है । यह स्थिति दैवी करुणा और सहायता का निषेध नहीं करती, पर यह मानवीय तथा पाशव दुःख-कष्ट का निवारण अवश्य करती है ।

 

   मनोमय सत्ता के आध्यात्मिक और निम्नतर स्तरों के बीच में जो शृंखला है उसे प्राचीन वैदान्तिक परिभाषा में विज्ञान कहा जाता है और हम उसे सत्य भूमिका या विज्ञानमय मन या अतिमानस का नाम दे सकते हैं । इस भूमिका में 'एक' और 'बहु' परस्पर मिलकर एकीभूत हो जाते हैं और हमारी सत्ता भागवत सत्य के ज्ञानोद्भासक प्रकाश तथा भागवत संकल्प और ज्ञान की अन्तःप्रेरणा की ओर मुक्त रूप से खुल जाती है । हमारी साधारण सत्ता ने हमारे और भगवान् के बीच बौद्धिक, भावप्रधान एवं सम्वेदनात्मक मन का जो आवरण रच रखा है उसे यदि हम छिन्न-भिन्न कर सकें तो हम सत्य-मानस के द्वारा अपने समस्त मानसिक, प्राणिक एवं भौतिक अनुभव को अपने हाथ में लेकर उसे सच्चिदानन्द के अनन्त सत्य के रूपों में परिणत करने के लिये आध्यात्मिक अनुभव के प्रति समर्पित कर सकते हैं--प्राचीन वैदिक  ''यश'' का गुप्त या रहस्यमय आशय यही था--और हम अनन्त सत्ता की शक्तियों एवं ज्योतियों को दिव्य ज्ञान, संकल्प एवं आनन्द के रूपों में ग्रहण कर सकते हैं; इस शान, संकल्प एवं आनन्द को हमें अपने मन, प्राण और शरीर में प्रबल रूप से स्थापित करना होगा जिससे कि अन्त में निम्नतर सत्ता उच्चतर सत्ता के सर्वांगपूर्ण आधार में रूपान्तरित हो जाय । यह वेद में वर्णित दोहरी क्रिया थी जिसके द्वारा मानव-प्राणी में देवताओं का अवतरण एवं जन्म होता था और दिव्य ज्ञान, शक्ति एवं आनन्द की प्राप्ति के लिये संघर्ष करने तथा देवताओं की ओर ऊपर उठनेवाली मानवीय शक्तियों का आरोहण सम्पन्न होता था । इस क्रिया के परिणामस्वरूप एकमेव तथा अनन्त ब्रह्म की, आनन्दमय जीवन, भगवन्मिलन तथा अमरत्व की प्राप्ति होती थी । इस विज्ञानमय भूमिका को प्राप्त करके हम निम्नतर तथा उच्चतर सत्ता के विरोध का पूर्ण रूप से उन्मूलन कर डालते हैं, सांत और अनन्त, ईश्वर और प्रकृति, एक और बहु के बीच अज्ञान के द्वारा रचित मिथ्या खाई को दूर कर देते हैं, भगवान् के द्वार खोल डालते हैं, विराट् चेतना की पूर्ण समस्वरता में अपनी व्यक्तिगत सत्ता को कृतकृत्य कर लेते हैं तथा विराट् सत्ता में परात्पर सच्चिदानन्द के दिव्य आविर्भाव को अनुभव कर लेते हैं ।

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