Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
विशद विषय-सूची
१
जीवन
और योग ३-७
मनुष्यजाति का और भारतीय योग ३-४
सम्पूर्ण, योग है ४- ५,७
के मनोविज्ञान पर आधारित हैं भारतीय
यौगिक पद्धतियां : हठयोग, राजयोग,
भक्तियोग आदि ५
सांसारिक और आध्यात्मिक, में असंगति
भारत में ५- ६
में व्यापक हों जाने से ही योग का पूर्ण
उपयोग और सच्चा उद्देश्य साधित ६-७
प्रकृति [विश्व प्रकृति]
के तीन पग ८ - १८; इसे जानने की जरूरत ८
का विकास तीन तत्त्वों -विकसित हो
चुका, हो रहा, और होनेवाला -पर
अधिरित ८ - ११
का विकसित तत्त्व : शारीरिक जीवन ९-११
सूचना :
ऐसे पढ़ें : -
१.गुण
के
गुणों के
योग की प्रणालियां
योग की प्रणालियों के
मानव, की अक्षमता
मानव जीवन की अक्षमता
२. जिस वाक्य के शुरू मे (') है, वह अपने-आपमें स्वतंत्र वाक्य है । उसे मूल शब्द के साथ मिलाकर न पढ़ें । 'उदाहरण' के नीचे के सभी वाक्य स्वतन्त्र वाक्य हैं ।
३. कहीं-कहीं अधिक स्पष्टता के लिये इस प्रकार लिखा है. दे० 'पूर्णयोग' की क्रिया मे भी, इसका मतलब है 'पूर्णयोग' के नीचे का वह वाक्य जो की क्रिया में से शुरू होता ३ ।
४. पृष्ठसंख्या के बाद अ का मतलब है वह प्रसंग उस पृष्ठ के अन्त से शुरू होकर, बस, अगले पृष्ठ के आरम्भतक ही गया है । और दे० का मतलब है देखो, वि० का मतलब है विशद विषय-सूची, टि० का मतलब है टिप्पणी । दे० वि ०७ का मतलब है देखो विशद विषय-सूची में ७वां नम्बर अर्थात् 'आत्म-निवेदन'वाला अध्याय ।
५. लगातार के वाक्यों (running)में (;) के बाद के वाक्य को मूल शब्द के साथ पढ़ें, पर यदि पहले (:) हो और पृष्ठसंख्या के बाद (;) न देकर (,) दिया हो तो मूत्र शब्द को (:) तक के वाक्य के साथ मिलाकर अगला वाक्य पढ़ें ।
६. जहां कहीं वाक्य रचना मूल शब्द के साथ संगत न जान पड़े, वहां मूल शब्द के आगे कोष्ठ में जो शब्द दिया गया है उसके साध मिलाकर पढ़ने से वह सगंत बन जायेगी ।
७. वाक्य के अंत में (,) का मतलब है कि मूल शब्द को वहां अंत में पढ़ें ।
८. जहां (' ') का आरंभ नहीं दिखाया गया है, वहां मूल शब्द से पहले ('') की कल्पना कर लें ।
९. मूल शब्द के आगे या उसके वाक्यों में जो पृष्ठसंख्याएं होती हैं वहां मूल शब्द का कोई भी पर्याय हो सकता है । यह बात 'भगवान्' शब्द पर विशेष रूप से लागू होती है । वहां ईश्वर, परमेश्वर, परम आत्मा, परम देव, परम तत्त्व, परम सत् अनन्त, एकमेव, ब्रह्म, सनातन, सद्वस्तु आदि हों सकता है ।
१०. [ ] में पृष्ठसंख्या का मतलब है कि गौण या अवान्तर रूप से वह बात वहां भी है ।
९२९
का अगला पग. मानसिक जीवन
११-४
का वह तत्त्व जिधर विकास बढ़ रहा है :
उच्चतम जीवन १४-८
३
त्रिविध जीवन ( भौतिक, मानसिक,
आध्यात्मिक) १९-३०
परस्पर- आश्रित, हमारी समस्त क्रियाओं
की शर्त १९
मनुष्य में १९-२०
में प्रत्येक की--शारीरिक जीवन, मन,
आत्मा की-विशेष शक्ति २०
वैयक्तिक और समूहिक २१
'भौतिक जीवन [भौतिक मनुष्य] और
उसकी उन्नति तथा सामाजिक जीवन
२१-३
'मानसिक जीवन और भौतिक जीवन
२३-४
'मानसिक जीवन का भौतिक जीवन के
साथ सम्बन्ध व्यक्तिगत लाभ के
लिये या जाति के उत्थान के लिये
२४-५
'आध्यात्मिक जीवन और मानसिक
जीवन २५
'आध्यात्मिक जीवन और भौतिक जीवन
२५- ६
'आध्यात्मिक जीवन के बाह्य अस्तित्व
का उपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिये
या जाति के उत्थान के लिये २६-८
का परस्पर सम्बन्ध २९
का प्राकृतिक विकास और योग २९-३०
४
योग की प्रणालियां ३१-४०
के समन्वय का आधार और शर्त ३१
प्रत्येक, में तीन विचार-भगवान्,
प्रकृति, मानव आत्मा - आवश्यक
३१-२
में--हठयोग, राजयोग तथा भक्ति,
ज्ञान, कर्म के त्रिमार्ग में--एक
आरोहणकारी क्रम ३२-४०
५
समन्वय (योग प्रणालियो का) ४१-५०
सब प्रणालियों को सच्चा कर देने से या
उनके क्रमिक अभ्यास से प्राप्त नहीं
हों सकता ४१ - २
के लिये आवश्यकता हैं केन्द्रीय सामान्य
सिद्धांत को पकड़ने की ४२
की एक प्रणाली पहले से है : तत्र मार्ग
४२-३; तंत्र और योग की वैदिक
प्रणालियों में भेद, पुरुष और प्रकृति
की स्थिति में ४३
का समग्र विचार ४३-५
की आवश्यकता ४५
की प्रणाली ४५-६, इसमें तीन अवस्थाएं
और उच्चतर प्रकृति की तीन
विशेषताएं ४६-८
की इस सर्वांगीण प्रणाली का परिणाम
४८
विशालतम ४८-५०
६
साधन, चार ५३-६९
शाश्त्र ५३-७
उत्साह [प्रयत्न, वैयक्तिक] ५८-६१
गुरु ६१-८
काल ६८-९
७
आत्म -निवेदन ७०-९०
और आध्यात्मिक जागरण ७०
और पुकार का आना ७०; करणीय
९३०
आवश्क बातें ७०-१
का स्वरूप ७०-१
जब एकाएक और सुनिश्चित ७१
क्रमश: ७१-२
अपूर्ण, भी निष्फल नहीं ७२
पूर्ण, सफलता का रहस्य ७२
अपनी शक्तियों का ७२-३
पूर्ण, और प्रकृति के विरोध की कठिनाई
७३; करणीय आवश्यक बातें ७३-४
पूर्ण, और सरल उपायों का अनुसरण :
जगत् के जीवन को आंतरिक जीवन
से पृथक् करने की प्रवृत्ति ७४-५
अपनी संभूति और सत्ता दौनों का ७५;
यह हमारे संघर्ष में चाहे जो भी
कठिनाइयां बढ़ा दे. . . ७५-६
अपने जटिल, बहुविध व्यक्तित्व का
७६-७
पूर्ण, में विश्व की अंत:प्रवाही शक्तियों
का विचार भी ७७
सरल, में किसी एक शक्ति की एकांगी
एकाग्रता, शेष सभी को स्तब्ध...
७७-८
पूर्ण, में जगत् का भार भी : व्यष्टिगत
संग्राम नहीं, समष्टिगत युद्ध भी
७८-९
पूर्ण, में आंतरिक अंगों के संघर्ष को
मनमाने ढंग से हल करने की छूट भी
नहीं ७९
पूर्ण, में सर्वग्राही एकाग्रता, भगवान् पर
७९-८०
में उच्चतर मन और ह्रत्पूरुष, दो अंकुश
८१-२
में भगवान् पर एकाग्रता के लिये
भगवान् के ज्ञान की अपेक्षा आत्मा
की पुकार और मन का समर्थन
पर्याप्त ८२-३
के भाव के साथ कोई भी नाम, रूप
अर्ध्य... ८३
को प्रेरित करनेवाला भगवान् विषयक
विचार या भाव ८३-४
में कामना के निम्न तत्त्व का अवलंबन
८५- ६
और दिव्य कर्म का निर्दोष यंत्र ८६
और विचार, संकल्प, हृदय की एकाग्रता
८६-७
पूर्ण, से अभिप्राय ८७
में तीन अवस्थाएं ८७-९०
उस सबका जो हम हैं, जो हम सोचते,
करते हैं ८९
पूर्ण, का चिह्न ९०
८
कर्म
में आत्म-समर्पण-गीता का
मार्ग ९१-१०७
'समर्पण, संपूर्ण सत्ता का, साधन,
सामान्य मानव जीवन का दिव्य
जीवन-प्रणाली में रूपांतर साधित
करने का ९१; सामान्य जीवन और
उसका विकास ९१-२; प्राकृतिक
विकास और योग और नूतन
संभावनाएं ९२-३
सभी, ईश्वरार्पण-भाव से ९२
एवं संकल्प हमारे, का नूतन जन्म ९३
बहिर्मुख, जीवन का एक बड़ा भाग
९३-४
और बाह्य चेष्टाओं को भी समर्पित
करना होगा ९४
करने की सामर्थ्य का-कर्ता और कर्मी
भाव का--भी समर्पण ९४
का अर्पण ज्ञानी व भक्त के लिये भी
आवश्यक ९४
को योग की अंतिम गति के लिये रख
छोड़ने से हानि : हमारा कर्म
९३१
अंतज्योति से मेल नहीं खाता ९५
विषयक गीतोक्त सत्य ९६-१०७
में समता और एकता की दोहरी नींव
९७, ९८; एकता के विपरीत भिन्नता
और अहं की स्वतंत्रता का विचार
९८-९ अहं की स्वतंत्रता और निगूढ़
दिव्य इच्छा शक्ति ९९-१००
के बीच आत्मा की स्वतंत्रता का
आश्वासन ९७
अचल शांति के आधार पर ९७
मुक्त, के लिये गीता के पुरुष और
प्रकृति के भेद का शान महत्त्वपूर्ण
१००-२
का बंधन नहीं रहता १०२
में समर्पण का आदर्श, कुछ सूत्रों में
१०३
ईश्वर में निवास करते हुए अहं में नहीं
का चुनाव १०३
में कामना और अहं की ग्रन्थि को
खोलना १०३-४
का गीतोक्त पहला नियम : फल-कामना
का त्याग, निष्काम कर्म १०४
निष्काम, की कसौटी : पूर्ण समता
१०५-६
कामना के बगैर कैसे संभव १०६
सभी, भगवान् के प्रति यज्ञ-रूप में १०६
का प्रेरक भाव : ईश्वर-प्रेम, ईश्वर-सेवा
१०७
द्वारा ईश्वर-प्राप्ति के गीतोक्त तीन प्रधान
साधन १०७
९
यज्ञ
, त्रिदल पथ और यज्ञ के
अधीश्वर १०८-३५
सृष्टि और, १०८
का विधान १०८-९
का विधान और गीता १०८,११०
का विधान और अहं १०८
साधन, अंतिम पूर्णता का १०९,१११
अचेतन १०९
हर्षपूर्वक १०९, का आधार १०९
संगठन, निकटता और सच्ची एकता का
११०
आत्मबलिदान, आत्म-पीड़न नहीं
११०-१
का सार : आत्मार्पण १११
का प्रतिफल १११
के पात्र (यजनीय) और अर्ध्य १११-२
कर्मों के, का फल ११२
आत्मदान के सिवा, अन्य सभी एकांगी,
अपूर्ण ११२
पूर्ण रूप से स्वीकार्य ११२
सचेतन, का रूप दे दें अपने संपूर्ण
जीवन और उसके सब कर्मों को,
यही मांग हमसे की जाती है ११३
का त्रिदल पथ-इसके अभ्यास के तीन
परिणाम : उच्चतम भक्ति, सर्वस्पर्शी
ज्ञान, भगवान् से अंतर्मिलन ११४-६
कर्मों के, की क्रमिक प्रगति की नाप
११६
के अधीश्वर : के आधारभूत तीन
अनुभव ११६-२०, के द्वैत का
अनुभव १२ १-३१, के अन्यान्य
अनुभव १३१-२, का प्राकटय किसी
भी स्थिति में, किसी भी रूप में १३२
की सफलता का रूप १३३-४
की इस कठिन परिणति के लिये
आरोहण और अवतरण आवश्यक
१३४; यह अवतरण चारों ओर की
विरोधी शक्तियों के साथ संधर्ष होता
है १३४, १३५; दीर्घकाल तक
आयासपूर्ण, कष्टप्रद अवस्था..
९३२
नमन, समर्पण अनिवार्य... दो
आभ्यन्तर परिवर्तन सहायक १३५
१०
का आरोहण ( १) ज्ञान के
कर्म -चैत्यपुरुष १३६-५९
त्रिविध १३६
कर्मों के, से हमारा मतलब बाह्य कर्मों
का नहीं, आंतरिक गतियों का भी
अर्पण है १३६
कर्मों के, का मूल तत्त्व : भगवत्-साधर्म्य
१३६
कर्मों के, में तब जीवन और कर्म के
वर्तमान रूप के साथ एवं अपनी
सत्ता की वर्तमान क्रियाओं के -ज्ञान,
भाव, संवेदन, इच्छाशक्ति की
क्रियाओं के -साथ किस प्रकार
व्यवहार करना होगा १३६-७; नैतिक
व धार्मिक-नैतिक समाधान और
पूर्णयोग की दृष्टि १३७-४१
कर्मों के, का विभाजन तीन श्रेणियों में :
ज्ञान के कर्म, प्रेम के कर्म, शक्ति के
कर्म १४१
ज्ञान के कर्म [ज्ञान-यज्ञ]
'पस विद्या और अपरा विद्या १४१
और दर्शन १४१-२
और धर्म १४२-३
जब अविधिपूर्वक और मिथ्या देवों को
अर्पित १४३
और पूर्ण योग १४३
सभी, यज्ञ रूप में १४३, १४४; यज्ञ की
ठीक भावना १४३
जो ज्वाला के निकट और जो उससे दूर
१४३अ, १४७
सभी, उत्सर्ग के लिये उचित
सामग्री... प्रत्येक सुनिर्मित कविता,
चित्र, मूर्ति, भवन सर्जनशील ज्ञान की
कृति १४४
को स्वीकार करने में योगी का भाव
१४४, १४७
'विद्याओं के अध्ययन में योगी का लक्ष्य
१४४-५
लोक संग्रहार्थ १४५
को उनकी सीमा से ऊपर उठा ले
जाना १४५
दिव्य और मानवीय, पवित्र और अपवित्र
का भेद १४६-७, १५१
का विकास आध्यात्मीकृत मन में :
सामान्य क्रम १४८
और योग शक्ति १४८-९
के रूपांतर के दो चिह्न १४९
का और भी ऊंचा आरोहण :
आध्यात्मीकृत मन से अतिमानसिक
ज्योति की ओर १५०- १
में मुक्ति का मार्ग १५१
का आरोहण : संक्षेप में १५१
चैत्य पुरुष
'प्रेम और ज्ञान अथवा हृदय और बुद्धि
१५१-२
'भावमय सत्ता का दोहरा स्वरूप
१५२-३
का स्थान गुह्य हृदय में १५२
को कम ही जानते हैं १५२
का सामने आना पूर्णयोग का निर्णायक
क्षण १५२ -३
'हृदय की क्रियाओं के दो भेद :
अंतरात्मा से प्रेरित और प्राणिक
संतुष्टि में लगे १५३
'हृदय की क्रियाओं के साधारणत: जो
भेद किये जाते हैं : धार्मिक
नैतिक... १५३-५ पूर्णयोग का
बल तीन केन्द्रीय विधियों पर १५५अ
विवरण १५६-९
९३३
का निज स्वभाव १५६, १५७, १५८
मानव जीवन में पहले-पहल और बाद
में १५६
का प्रयास मानव जीवन को देवत्व की
ओर लें जानें में १५६, १५७-८
और भूलें १५६
और तर्कबुद्धि १५७
अचूक पथप्रदर्शक १५७
की आवाज १५७
सामने आने में कब समर्थ १५७
की मांग १५८
और प्रेम व प्रेम-संबंध १५८, १५९
और बाहरी बुलावे १५९
और अधोमुख आकर्षण १५९
जगत् के लिये परात्पर प्रेम व आनन्द का
आह्वान भी करता है १५९
११
यज्ञ का आरोहण (२) प्रेम के
कर्म -प्राण के कर्म १६०-८९
प्रेम के कर्म [प्रेम-यज्ञ]
और ज्ञान-यज्ञ १६०
में पावन विशालता तब १६०
'वैयक्तिक लौकिक प्रेम १६०
वैयक्तिक आराधन रूप प्रेम -देवता
पूजा, प्रतिमा पूजा, व्यक्ति पूजा,
सुनिर्मित कृति की पूजा १६१-२;
पूजा उसे सर्वत्र अर्पित १६२
'वैयक्तिक प्रेम के पीछे एक रहस्य १६२
'सार्वभौम प्रेम १६२-३
का धार्मिक-नैतिक सूत्र और पूर्णयोग
की दृष्टि १६३-४
'समस्त जीवन पूजा-रूप १६४-५
'पत्र-पुष्प की बाहरी भेंट ही नहीं,
विचार, भाव, संवेदन, बाह्य चेष्टाएं
भी भक्ति-भेंट १६४-५
'पूजा-कर्म में तीन अवयव : क्रियात्मक
पूजा, पूजा-प्रतीक, हृदय की भावना
१६५-७
'कर्ममय आराधन. कर्मों के कठोरतर
पथ में भी प्रेम का रस १६७
का असली प्राण: अर्पण की
भाव-भावना १६७-८
और चैत्य पुरुष १६८-७०
और अतिमानसिक विज्ञान १७०-१
प्राण के कर्म [जीवन के कर्म]
और तपस्पात्मक आध्यात्मिकता की दृष्टि
१७१-२
और पूर्ण योग १७२, १७५, १७६अ,
१८७-८
और दर्शन व धर्म तथा ज्ञान-मार्ग व प्रेम
मार्ग १७२
में जीवनेच्छा के चंगुल की कठिनाईर
शरीर, स्थूल मन, कामनात्मा और
आदर्शात्मक मन में १७२-४
से--संकल्प, शक्ति, अधिकार,
उपार्जन, उत्पादन, युद्ध आदि
से--किनारा कठिनाई का हल नहीं
१७४-५
को स्थगित रखना भी हल नहीं
१७५-६
'प्राण-शक्ति को उदात्त किये बिना
अतिमानसिक चेतना का अवतरण
संभव नहीं १७६
में कठिनाई का मूल: कामनात्मा
१७७-८
के दिव्य अनुष्ठान की शर्तें १८७-८
'प्राण-प्रकृति के परिवर्तन की तीन शर्तें
१७८-८०
भगवान् के प्रति यज्ञ-रूप में १८१
और भगवान् का आत्म-प्राकटय
१८१-२
और भागवत शक्ति की क्रिया-
मार्गदर्शन, मन्थन, संरक्षण १८२-३;
९३४
खण्डित सत्ता का अखण्डीकरण
१८३ -४; मुक्ति, सिद्धि, स्वामित्व की
ओर १८५ - ६
को किस भाव से करना और उनका
क्या स्थान है इसमें धार्मिक, तापसी,
नैतिक और पूर्णयोग की दृष्टि
१८७-८; मार्गदर्शन के लिये
भागवत-शक्ति अकेली सर्वसमर्थ है,
उसे कार्य करने देने एवं पथ की
कठिनाई को कम करने के लिये
जरूरी चीजें १८८-९
१२
मानदष्ठ, आचार के,
और आध्यात्मिक स्वातंत्र १९०-२०९
अविभाज्य विश्व-कर्म में व्यक्ति-रूपी
कर्मी के भागवत संकल्प को उत्तरोत्तर
आविर्भूत करने के लिये वृद्धिशील
आत्म-विकास की सहज प्रवृत्ति के
परिणाम हैं १९०-२
और अनंत सत्ता १९२, १९४
अधिकाधिक ऊंचे, अस्थायी १९२-३
अस्थायी, पर अपने समयतक आवश्यक
१९३-४
का प्रयोजन १९४
मुख्य चार १९४
'वैयक्तिक आवश्यकता व कामना का
नियम १९४-५
'सामाजिक नियम ११५-७
'वैयक्तिक और सामाजिक नियमों का
संघर्ष १९७-९ उपाय १९८
'नैतिक नियम १९९-२००
'नैतिक नियम और समाज की स्थिति
२००-२
'नैतिक नियम और वैयक्तिक व सामा-
जिक नियम में असामंजस्य २०१
'नैतिक नियम का आग्रह प्रेम, सत्य,
न्याय पर २०१-२; प्रयोग में लाने पर
ये... २०१-२
'नैतिक आदर्श की अपर्याप्तता २०१-३
'नैतिक नियम की हमें सहायता २०३
'नैतिक आदर्श के पूर्ण प्रेम, न्याय, सत्य
का एकीकरण अतिमानसिक आत्मा
में २०३
'दिव्य नियम २०४-७
'दिव्य नियम द्विविध २०४
'नैतिक नियम और दिव्य नियम
२०४-५, २०६
'दिव्य नियम और धर्मशास्त्र २०५
'दिव्य नियम को वास्तविक बनाने की
आवश्यकता २०६
'दिव्य नियम की प्राप्ति कब २०७
और दिव्य शक्ति २०७
और हमारे अंदर का सच्चा पुरुष
२०७-८
और अतिमानसिक कर्म २०८; इसका
ध्येय २०८
'दिव्य नियम का मार्गदर्शक व्यक्ति
२०९
१३
परम इच्छा शक्ति २१०-२२
के हाथों में सौंप देता है कर्मयोगी सभी
मानदण्डों को २१०-१; अपने
वैयक्तिक आवश्यकता और कामना
के नियम को २११-२; सामाजिक
नियम व संबंधों को २१२-४; नैतिक
आदर्शों को २१४-५
क्या है ? २१६-८
का सचेतन यंत्र होने के लिये जो-जो
करना है २१८-२०
की क्रिया हमारे अन्दर २२०-१; इसमें
तीन अवस्थाएं २२१
९३५
और हमारी निम्न प्रकृति २२२;
अग्रि-परीक्षा को हल्का करने के लिये
अपेक्षित चीजें २२२ गुण, प्रकृति के
१४
समता
की प्राप्ति और अहं का नाश
२२३-३३
की प्राप्ति और कर्म-यज्ञ, कर्मों का
समग्र आत्मनिवेदन २२३-५
कर्मों के स्वामी की पूजा का प्रतीक है
२२५-६
सर्वभूतों के प्रति २२५
सब वस्तुओं के प्रति २२६
न होना इस बात का चिह्न कि
.. २२६
का अर्थ नया अज्ञान या अंधता नहीं :
विविधता एवं विभेद का लोप नहीं
२२६-७
सब घटनाओं के प्रति २२७
के विकास के काल : तितिक्षामय काल
२२८; उदासीनता का काल २२९;
महत्तर दिव्य समता में प्रवेश
२२९-३०
अहं (कर्म के) का नाश
समता-प्राप्ति के प्रयत्न की सफलता के
लिये आवश्यक २३०-१
का क्रम : कर्म का सच्चा स्वामी ईश्वर है
इसे मन से ही नहीं, गहराई के साथ
अनुभव करना २३१; ऐसी वृत्ति में
प्रच्छन्न अहं का भय : सद्हृदयता
और सजग दृष्टि आवश्यक २३१-२
का अगला कदम : अपनी प्रकृति का
साक्षी और फिर अनुमन्ता बनना
२३२
'अंत में अपने कर्मों का परम इच्छा को
पूर्ण समर्पण २३२-३
१५
गुण, प्रकृति के
तीन, २३४-४४
के अतिक्रमण की आवश्यकता २३४
सत्त्व : का लक्षण २३४, २३६; सात्त्विक
वृत्तियां २३६
रजस् : का लक्षण २३४, २३५, की
संतानें २३५, २३६, की देन २३५;
राजसिक वृत्तियां २३७
तमस् : का लक्षण २३४, २३५;
तामसिक वृत्तियां २३७
तीनों, हर एक में २३६-७
स्वाश्रित हैं २३७
की क्रीड़ामात्र हैं मनुष्य का चरित्र,
बुद्धि आदि २३८
का नियन्तृत्व ही सब कुछ नहीं है
२३८
की क्रीड़ा के लिये आत्मा की
अनुमति अपेक्षित २३८
दो निम्न, से छुटकारा पाना अनिवार्य
तम और रज, के दुष्प्रभाव २३८-९
सत्त्व, के ऐकान्तिक अवलंबन में
कठिनाई : कोई भी गुण अन्य दो के
विरोध में अकेला विजयी नहीं हो
सकता २३९
रज, को शांत करने पर सत्त्व में तम का
प्रवेश २३९
तमसू एक दुहरा तत्त्व २३९
सत्त्व और रज, के सम्मिलित प्रभाव से
तम को सुधारने का प्रयत्न २३९
सत्त्व, की प्रधानता आध्यात्मिक स्वातंत्र्य
या आत्मप्रभुता नहीं २३९अ
सत्त्व, को भी पार करना होगा २४०
की क्रीड़ा से पीछे हटकर साक्षी भाव
में स्थित होना २४०; इसके लाभ :
९३६
प्रकृति की क्रीड़ा की समझ और अहं
से मुक्ति २४०-१
से निर्लिप्त उत्कृष्टता, पहला कदम
२४१
से मुक्ति, सक्रिय अंगों में भी २४१;
प्रकृति का -शरीर, प्राण, मन का
--सक्रिय रूपान्तर २४२ -३
'महत्तर त्रिविध गुण का प्रारंभ २४३
'निस्त्रैगुण्य स्थिति २४३; इस भित्ति पर
प्रकृति की स्वतंत्रता के कर्मयोग,
ज्ञानयोग, भक्तियोग के तरीके
२४३-४
'त्रिगुणातीत की स्थिति २४४; यह
तबतक प्राप्त नहीं हो सकतीं
... २४४
१६
कर्म का स्वामी २४५-६६
की सत्ता की सत्ता हैं हम २४५
का साक्षात् २४५-६ श्रद्धा और धैर्य की
आवश्यकता इसमें २४६-९
हमारी प्रकृति का मान करता है २४७-९,
२५३
न प्रमादी है, न उदासीन २४८
का शुद्ध यंत्र बनना चाहें तो
... २४९-५५
से मिलन विश्वमय, विश्वातीत और घनिष्ठ
वैयक्तिक रूप में २५५-६०; इस
अधिक वैयक्तिक अभिव्यक्ति के
द्वारा ही परात्पर के पूर्ण अनुभव के
द्वार खुल सकते हैं २५९
की इन तीन मूल अवस्थाओं का
पृथक्-पृथक् अनुभव पर्याप्त नहीं
२६०-२ परात्पर आरोहण-अवरोहण
भी आवश्यक २६२-३
का दिव्य हस्त पहले भी नाना रूपों में
२६३-४ अतिमानसिक सीमाओं पर
ये रूप... २६४
भ्रमों का स्वामी नहीं २६५
की इच्छा : अतिमानसिक परात्परता की
अभिव्यक्ति विश्व-चेतना और
वैयक्तिक चेतना में हो २६५-६
१७
दिव्य कर्म=
कर्म (मुक्त आत्मा का) २६७-७९
शेष रहता है या नहीं ? २६७
शेष नहीं रहता, का आधार २६७-८
में आवश्यक वस्तु २६८
वैसे ही जैसे भगवान् का-बिना
आवश्यकता व अज्ञान के २६८-९
परिचालित कामना से नहीं, परम संकल्प
व ज्ञान से २७०,२७८
का क्षेत्र और रूप २७०-१
और मोक्ष का लक्ष्य २७१-४
मानवीय प्रतिमान से निश्चित नहीं
२७४-५, २७६अ
का अनुमोदन या निन्दा २७४अ
लोक संग्रहार्थ २७५
और कर्तव्य कर्म २७६-७
स्वभाव द्वारा निर्धारित २७७-८
'मुक्ति और पूर्णता की खोज का तथा
दिव्य प्रकृति को पाने का सच्चा हेतु
२७८-९
'ज्ञान-मार्ग और भक्ति-मार्ग में प्राप्य
स्थिति, पर कर्म-मार्ग में एक और ही
भविष्य... २७९; तीनों का मिलन
पूर्ण योग में और दिव्य प्रकृति की
पूर्णता की प्राप्ति २७९
१८
अतिमानस
और कर्मयोग २८०-६
में ज्ञान, भक्ति, कर्म का समग्रीकरण
९३७
पूर्णता के शिखर पर २८१
विवरण २८१
की खोज शक्ति व महानता की लालसा
से करना संकटपूर्ण २८१-२
दूरवर्ती लक्ष्य २८२-३ '
से पहले प्राप्तव्य चीजें २८३
को तात्क्षणिक लक्ष्य बनाने में संकट
२८३-४
योग में विकृति या संतुलन भंग को
स्थान नहीं २८४
समझ बैठना उच्चतर मध्यवर्ती चेतना को
२८४-६
का साक्षात्कार तो तभी.. २८५
१९
ज्ञान का लक्ष्य २८९-३०१
ज्ञानमार्ग
में प्राप्तव्य भूमिका २८९-९०; प्राप्ति के
साधन २९०,२९१
का निरपेक्ष सत्ता का विचार २८९,२९९
में व्यक्ति और विश्व का परित्याग २८९,
२९९
में कर्म और भक्ति २९०
बुद्धि [विचार] द्वारा साधित २९०-१
विचार से संकल्प अधिक सुनिश्चित
मार्गदर्शक २९१-२; विचार की ही
तृप्ति नहीं, अन्य अंगों की तृप्ति भी
अभिप्रेत २९२-३
की प्रक्रिया विवर्जन की २९३; एक मात्र
वर्जनीय वस्तु २९३-४
का मुक्ति का अनुभव २९४-५
का लक्ष्य है परम सत्-व्यक्ति के साथ
संबंध की दृष्टि से वह जो है, और
उसे पाने के लिये शरीर, प्राण, मन
को आत्मा समझने की भ्रामक
प्रतीतियों का त्याग २९६-८ विश्व के
साथ संबंध की दृष्टि से वह जो है
२९८; परात्पर रूप में वह जो है
उसके बारे में मन की परिकल्पना
और अतिमानस की दृष्टि व अनुभूति
२९८-९
बुद्धि और परम सत् के बीच के स्तरों
को नहीं देखता २९७-८
की सर्वोच्च परिणति का अर्थ अस्तित्व
एवं कर्म की परिसमाप्ति नहीं
३००-१
२०
ज्ञान की भूमिका ३०२-९
और सामान्य ज्ञान ३०२-३
भौतिक विज्ञान या बुद्धि से लभ्य नहीं
३०३-४
पाने में यथार्थ विचार, विवेक,
स्व-निरीक्षण आदि से सहायता
३०४-६, ३०९
में तीन क्रमिक अवस्थाएं : अंतर्दृष्टि,
आंतरिक अनुभव, तादात्म्य ३०६-९
का शिखर ३०९
में आरोहण की कुंजियां ३०९
२१
विशुद्ध शुद्धि ३१०-८
की आवश्यकता ३१०-१
तथा अन्य अंगों की शुद्धि अन्योन्य
निर्भर ३११,३१५
शक्तिशाली शोधक ३११
से हमारा अभिप्राय ३११-२
इन्द्रिय मानस नहीं ३११अ
औसत अर्द्ध-पाशविक बुद्धि भी नहीं
३१२
है बौद्धिक प्रज्ञा ३१२
और उच्चतर बुद्धि ३१३-१४
पाने के लिये बुद्धि की तीन अशुद्धताओं
का-कामना के मिश्रण, इन्द्रिय
९३८
मानस के मिश्रण और ज्ञानेच्छा की
अनुपयुका क्रिया का--निवारण
आवश्यक ३१४-७
बौद्धिक विचार का सच्चा, निर्दोष यंत्र
३१७
और वास्तविक ज्ञान (बोधि ज्ञान एवं
आत्मज्ञान) ३१७-८
और बौद्धिक निष्क्रियता ३१७-८
२२
एकाग्रता ३१९-२७
और शुद्धता ३१९,३२०
का अभिप्राय ज्ञानमार्ग में : विचार की
एकमेव पर एकाग्रता ३२०
में तीन शक्तिया : ज्ञान की प्राप्ति,
वस्तु की प्राप्ति, वही बन जाना ३२०
के प्रयोग का अर्थ ३२०अ
की अवस्थाएं राजयोग मे : ध्यान,
धारणा, समाधि ३२१
के अवलंबन ३२१
एवं समाधि, और पूर्णयोग का लक्ष्य
३२२-४
साधन, भगवान् के साथ ऐक्य-लाभ का
३२३
एकाग्रता विचार की ३२३-६
का लक्ष्य और परिणति ३२३,३२५
की आवश्यकता मन को, उपलब्धि के
बाद इसके बिना ही सहज रूप से
ज्ञान की प्राप्ति ३२४-५
और भगवान् की एकाग्रता ३२४
की तीन प्रक्रियाएं ३२५-६
का विषय यदि भागवत प्रेम हो ३२५
एकाग्रता संकल्प की ३२६-७
२३
त्याग ३२८-३६
असत्यों के निवारण के लिये ३२८
पूर्णता का साधन ३२८
साधन कि साध्य ! ३२८,३३१
जगत्-जीवन का, इस प्रथा के पीछे
अनेक कारण ३२८-९ इनमें कोई भी
युक्तियुक्त नहीं ३२९-३१
निषेधात्मक साधन, इसका मतलब ३३१
जगत् का नहीं, आंतरिक तीन चीजों
का : आसक्ति और कामना का
३३१-२; अहंतापूर्ण स्वेच्छा का
३३२-३ अहंभाव का ३३३-५
का प्रचलित अर्थ : स्वार्थ-त्याग, सुख
का वर्जन, सुख-भोग के विषयों का
त्याग ३३५-६
की आवश्यकता ही न पड़ती यदि...
३३५
बाह्य ३३५-६
अशुभ के साथ शुभ का भी ३३६
सबका, करके तू 'सर्व' का उपभोग कर
३३६
२४
ज्ञानयोग
की साधन-पद्धतियों का समन्वय
३३७-४५
में एकता और त्याग की दोहरी शक्ति
की सहायता ३३७, ३४१
और आत्मा का शरीर आदि के साथ
मिथ्या तादात्म्य ३३७-४०
की विधि मिथ्या तादात्म्यों से छुटकारा
पाने और आत्म-प्राप्ति तथा निरपेक्ष
सत् में प्रवेश की ३४१
निवृत्ति प्रधान, का समाधान दृश्य जगत्
और विश्व में व्याप्त आत्मा के संबंध
के बारे में : जगत् आकाश-ब्रह्म में
नाम-रूपात्मक भ्रम ३४१-२
की दृष्टि और समग्र ज्ञान की मांग
३४२-३
९३९
प्राचीन निवृत्ति-मार्ग, का समाधान :
विराट् पुरुष, हिरण्यगर्भ, प्राज्ञ और
निरपेक्ष ब्रह्म में क्रम-परंपरा ३४३
और पूर्णयोग : समन्वय ३४३-५
२५
देह [शरीर]
की दासता से मुक्ति ३४६-५२
की दासता का कारण : पुरुष की
आत्म-विस्मृति ३४६
के प्रति मन की अनासक्ति व उदासीनता
की वृत्ति ३४६-७
के प्रति पुरुष की वास्तविक वृत्ति
३४७-८
एक वस्त्र या यंत्र ३४७अ, ३५२
और मन में विभाजन, साक्षी भाव के
अभ्यास से ३४८,
की क्रियाएं और मनोमय पुरुष की
अनुमति -पुराने अभ्यासों में,
भूख-प्यास थकान रोग आदि में,
परिवर्तन और कार्य-क्षमता में वृद्धि ३४८-९
और मन के संबंध में जड़वादी विज्ञान
की मिथ्या धारणाएं ३४९
और मन की पूर्णता का ज्ञानमार्ग में
महत्त्व नहीं ३५०
'शारीरिक कर्म करने या न करने का प्रश्न ३५०-१
और देहबद्ध प्राण ३५१-२
की मृत्यु से जुगुप्सा ३५२
२६
हृदय [भावमय मन]
और मन के बंधन से मुक्ति
३५३-८
'इन्द्रियाश्रित मन और चिन्तनात्मक मन
में चैत्य प्राण का (कामनामय मन)
का हस्तक्षेप ३५३-५
और वास्तविक चैत्य सत्ता ३५४
का कामनामय मन से तादात्म्य-विच्छे
३५५
में विभाजन ३५५-६
की शुद्धि और मुक्ति ३५६
के आवेशों के स्थान पर क्या चीज आती
है ? नीरवता और उदासीनता या
सक्रिय प्रेम और आनन्द ३५६-७
की भावात्मक पूर्णता ३५७
चिन्तनात्मक मन
का यथार्थ कार्य ३५४
में चैत्य प्राण का हस्तक्षेप ३५५
में से कामनामय मन को निकालने का
उपाय ३५७-८
से पार्थक्य ३५८
का विभाजन ३५८
की दासता से मुक्ति ३५८
में पूर्णता की प्राप्ति तभी ३५८
२७
अहं
से मुक्ति ३५९-७०
की रचना, फिर अहं का विलय, दोहरी
क्रिया ३५९
की पूर्ति का जीवन या कि अहं पर
विजय : नाना मत ३५९-६०
से मुक्ति की आवश्यकता ३६०-१
का विलय दो प्रकार से ३६१
का विलय वैश्व आत्मा में, और मानव
जाति की सेवा का आदर्श ३६१-२
-बुद्धि का उन्मूलन ही नहीं, आधारभूत
अहं से मुक्ति भी ३६२-४
आधारभूत, की प्रतारकता ३६३
से मुक्ति और जीवात्मा के साथ एकत्व
इतने तक सब सहमत, पर विश्वात्मा
और परात्पर के साथ एकत्व भी
९४०
अपेक्षित ३६४-६
का विनाश निषेधात्मक और भावात्मक
रूप में ३६६
का विनाश और वर्धमान आध्यात्मिक
अनुभव का स्वरूप, और उसमें
अहंरहित वैयक्तिक कर्म की स्थिति ३६६-७०
भावना का स्थान कौन चीज लेगी ?
३७०
२८
विश्वात्मा का साक्षात्कार (विश्वात्मा के
साथ अपनी सत्ता की एकता का
साक्षात्कार) ३७१-७
की आवश्यकता ३७१-३
का विवरण तीन सूत्रों में ३७३
के प्रति मन का विरोध ३७३
के तीन रूप : सबको धारण करनेवाला,
सबमें व्याप्त, जो सब कुछ है
३७४-७
का अभ्यास ३७३-४
में सहायता आकाश-ब्रह्म के ध्यान से
३७४-५
और नाम-रूपात्मक जगत् के प्रति हमारी
दृष्टि ३७५-६
के बाद मन-प्राण-शरीर का फिर से
ग्रहण ३७६-७
२९
आत्मा की अभिव्यक्ति के प्रकार
३७८-८७
का ज्ञान जरूरी, आत्म-ज्ञान के बाद
३७८
परस्पर-विपरीत तत्त्वों की एकता पर
आधारित ३७९
एक और बहु ३७९-८२ क्षर, अक्षर,
परात्पर ३८३
सगुण और निर्गुण ३८३-५, ३८६
सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक ३८५-७
३०
सच्चिदानन्द का साक्षात्कार ३८८-९६
अत्यंत व्यावहारिक एवं उपयोगी
३८८-९१
ही पूर्ण ज्ञान की मांग ३८९-९१
'निर्व्यक्तिकता और व्यक्तित्व, निर्गुण
और सगुण, एकता और अनेकता,
व्यक्ति और विराट् -इन सब द्वंद्वों
का मूल एकीकारक तत्त्व है
सच्चिदानन्द का त्रैत ३९०-१
'सत्-चित्-आनन्द का त्रैत अविच्छेद्य
३९१-२
में चित् ३९२-४
में आनन्द ३९४-५
न कर सकने का कारण ३९५-६
है : अपने और सबके सच्चे आत्मा का
साक्षात्कार ३९६अ
३१
मनोमय सत्ता की कठिनाइयां
३९७-४०५
सच्चिदानन्द के परात्पर रूप के
साक्षात्कार में ३९७-८
१. दिव्य स्तर और मानवीय स्तर में भेद
है (सत्ता, चेतना, आनन्द, ज्ञान और
संकल्प में), और इनके बीच पर्दा
साक्षात्कार का वर्णन नानाविध नामों से
३९९-४००
२. परात्पर सत्ता और अपनी सत्ता में
एक खाई का अनुभव (सत्ता, चेतना,
आनन्द, ज्ञान और संकल्प में)
४००-१ खाई को पाटने की दो
संभावनाएं ४०१-३
९४१
३. मन का विभाजक स्वभाव :
सच्चिदानन्द के शुद्ध सत् या चित् या
आनन्द के पक्ष पर ही एकाग्रता
४०४-५
४. एकता और अनेकता को एक साथ
धारण करने की असमर्थता ४०५
३२
निष्क्रिय ब्रह्म
और सक्रिय ब्रह्म ४०६-१४
का साक्षात्कार ४०६-७
का साक्षात्कार और जगत्-सत्ता ४०७-९
और सक्रिय ब्रह्म में खाई ज्ञानयोग में
४०८-४११
के साक्षात्कार के बाद जगत् के प्रति दो
प्रकार की मनोवृत्ति : निष्क्रिय
साक्षीमात्र, और निष्क्रिय यंत्र की ४०९-११
और सक्रिय ब्रह्म में एकत्व की कठिनाई
का कारण ४१२-३; उपाय :
सच्चिदानन्द के सत्य को पकड़ रखना
४१३-४
३३
विशट् चेतना [वैश्व चेतना] ४१५-२३
का आधार ४१५-७
के साथ व्यक्तिगत सत्ता के संबंध
४१७-८
और सच्चिदानन्द ४१८,४२३
में निवास से हमारे मूल्यांकनों में
परिवर्तन ४१९-२०
को पूर्णतया उपलब्ध करना कठिन, मन
की विभाजक प्रवृत्ति के कारण
४२०-१
की प्राप्ति निम्न स्तरों पर निवास करते
हुए भी ४२१-२
की प्राप्ति के क्रमिक सोपान ४२२-३
और अतिमानस ४२३
३४
एकत्व (का साक्षात्कार) ४२४-३०
सच्चिदान्द के, अपनी सत्ता के सभी
व्यक्त स्तरों पर ४२४
परंपरागत ज्ञान और पूर्णज्ञान में ४२४-५
की क्रियान्विति, सच्चिदानन्द के व्यक्त
सत्ता के सात मूल तत्त्वों में ४२५-६
सच्चिदानन्द की उच्चतर प्रकृति और
निम्नतर प्रकृति [मन-प्राण--शरीर] के
बीच ४२६-७; और सत्य-चेतन मन
४२७; और अतिमानस ४२८-९
ज्ञान, कर्म, भक्ति के मार्गों के-सद
चित्तपस्, आनन्द के -बीच
४२९-३०
३५
पुरुष और प्रकृति का द्वैत ४३१-४०
के भिन्न-भिन्न नाम ४३२-३
सांख्य के अनुसार ४३३
का मूल मनोवैज्ञानिक अनुभव ४३३-४
निम्नतर और उच्चतर भूमिका
में -निम्नतर भूमिका में पुरुष पर
प्रकृति का निर्धारण, उच्चतर भूमिका
में स्थिति पलटी हुई-४३४-६
'गीता के अनुसार पुरुष की प्रकृति के
प्रति संभवनीय वृत्तियां : साक्षी, भर्ता,
अनुमन्ता, ज्ञाता, ईश्वर और भोक्ता
४३७-९
के सच्चे संबंध ४३९-४०
सच्चिदान्द की सत्ता से ही उद्धृत
४३९-४०
३६
पुरुष
और उसकी मुक्ति ४४१-५१
का प्रकृति के साथ उच्च संबंध ४४१
९४२
और प्रकृति की लीला सनातन एकत्व पर
आधारित ४४१-२; यह एकत्व सत्ता
और अभिव्यक्ति के द्वैत द्वारा
चरितार्थ ४४२
और प्रकृति ४४३
बनना होगा हमें ४४३
की शक्यताएं : अहं-प्रकृति में ग्रस्तता या
मुक्ति और अमरता ४४३
की प्रकृति के साथ मुक्त लीला ४४३-४
के ईश्वर-प्रकृति-जीव के ज्ञान [आत्म-
ज्ञान] का फल : मुक्ति और अमरता
४४४-५
का निर्धारक आनन्द ही निर्णय करता है
कि मुक्ति व अमरता की प्राप्ति
केवल निर्व्यक्तिक सत्ता में हो या
अभिव्यक्ति के आनन्द में भी
४४५- ६
की निरपेक्ष स्वतंत्रता की स्थापना निर्वाण
और लय के लक्ष्यों में ४४६-७
को आत्मानुभव के बाद जगत् के
अवास्तविक प्रतीत होने का तथा
जगत् में आनन्द लेने की उसकी
असमर्थता का कारण ४४७-८
आत्म-सा क्षात्कार के बाद जब
मुक्त-भाव से पुनः जगज्जीवन को
अपने अधिकार में लेता है ४४८-९
का मुक्त आत्म-ज्ञान और
ईश्वर-जीव-प्रकृति की अवस्थाएं ४४९
की नयी चेतना और दूसरी सत्ताएं ४४९
की स्वतंत्रता और स्वतंत्र-अस्तित्व का
अहम्मय सिद्धांत ४४९-५०
नित्य मुक्त, की स्थिति ४५०-१
नित्य मुक्त, और दीन-दुःखी लोग
४५०-१
३७
स्तर
हमारी सत्ता के, ४५२-६३
वर्तमान भौतिक, पर प्रेकृति का ही
शासन ४५२, ४५७
वर्तमान भौतिक, में स्वातंत्र्य एवं स्वामित्व
नहीं ४५२
दो कि अनेक, ज्ञानयोग और पूर्णयोग की
दृष्टि ४५२-३
सात, वैदिक व्यवस्था में ४५४
सें हमारा अभिप्राय ४५४-५
जड़ प्राकृतिक [स्थूल भौतिक] ४५४-७
जड़ प्राकृतिक ही यदि एकमात्र स्तर होता
४५७
उच्चतर, अन्य लोक, उच्चतर जीव हैं
४५७-८
प्राणिक या कामनामय ४५८-९
की शृंखला में सूक्ष्म सातत्य ४५८,
४६४
प्राणिक और जड़-जगत् के बीच संबंध
४५१-६०
प्राणिक, का प्रक्षेप है जड़-जगत् ४५९
प्राणिक, से हमारे सचेतन न होने का
कारण ४६०-१
मनोमय
मनोमय, के प्रक्षेप हैं प्राण लोक और
अन्नमय लोक ४६१
अतिमानसिक ४६२ -३
३८
निम्न त्रिविध, ४६४-७१
साधारण, की स्तर-शृंखला के बारे में
अज्ञाता ४६४,४६९
साधारण, का जगज्जीवन के विषय में
४६१-२
दृष्टिकोण ४६४-५; इस दृष्टि के परे
जाने का धर्म का प्रयत्न ४६५-७;
पीछे विद्यमान गुप्त सत्यों का ज्ञान
ज्ञान-योग का क्षेत्र ४६७-८
अन्नमय ४६८-९
९४३
प्राणमय ४६९-७०
मनोमय ४७०-१
३९
आत्म-अतिक्रमण की सीढ़ी ४७२-८१
और उच्च व निम्न गोलार्द्ध ४७२-३
अन्नमय पुरुष की ४७३-५
प्राणमय पुरुष की ४७५-७
मनोमय पुरुष की ४७७-९;
और विज्ञानमय पुरुष ४७९-८१
४०
विज्ञान ४८२-९४
में संक्रमण मनोमय पुरुष से : मतलब
४८२-३
क्या वस्तु है ४८३
बुद्धि या विवेक-बुद्धि नहीं ४८३-६
अनन्त ब्रह्म नहीं हैं ४८३-६
अंतर्ज्ञानात्मक बुद्धि भी नहीं है ४८६-८
का प्रतीक : सूर्य ४८८,४९२
का वर्णन बुद्धि से उसकी विषमता
दिखाकर -सत्य, निरीक्षण, कल्पना,
निर्णय, स्मरण-शक्ति, काल, समग्र
दृष्टि, एकता व भेद-प्रभेद, सांत वा
अनंत के बारे में -४८८-९१
चेतना का सर्वोच्च स्तर नहीं, जोड़नेवाला
स्तर है ४९१-२
ज्योति ही नहीं, शक्ति भी है ४९२
का सृजन-कार्य दिव्य आनन्द से प्रेरित
४९२
-मय भूमिका का उपादान तत्त्व ४९२
की तीन शक्तियां ४९३
-मय रूपांतर का मूल अनुभव ४९३अ
४१
विज्ञान की प्राप्ति
की शर्ते ४९५-५०४
और ज्ञान ४९५
से पहले बुद्धि मनुष्य का प्रधान तत्त्व,
पर विज्ञान में... ४९५- ६
की पहली शर्त : विश्वात्मभाव ४१६-७;
विश्वात्मभाव पूर्ण रूप से साधित
विज्ञान-केन्द्र में स्थित होने पर
४९७-९
का आधार अनन्त का बोध ४११-५००
में ज्ञान की उच्चतर शक्ति की
सहायता-वह हमारी इन्द्रियों, हमारे
संवेदन, वेदन, विचार, संकल्प,
कामना, भावावेग, सहजप्रेरणा, प्रेम,
आनन्द आदि को अपने हाथ में
कर... ५००-३
और सिद्धियां व गुह्य-शक्तियां ५०३
होने पर ईश्वर ही अपनी प्रकृति की
सहायता से व्यक्ति के द्वारा लीला
करता है ५०३-४
४२
विज्ञान [विज्ञानमय पुरुष]
और आनन्द ५०५-१८
-मय पूर्णता पहली पूर्णताओं की तुलना
में ५०५
-मय पूर्णता भी आनन्दमय पुरुष में
आरोहण का पथ मात्र ५०५-६
-मय आरोहण-अवरोहण के बिना भी
सच्चिदानन्द को सीधे प्रतिबिंबित कर
सकना : अन्नमय पुरुष का (जड़वत्
बालवत्) ५०६-७; प्राणमय पुरुष
का (उन्मत्तवत् पिशाचवत्) ५०७;
मनोमय पुरुष का ५०७-८
सनातन के स्वातंत्र्य में ही नहीं, उसकी
शक्ति और प्रभुता में भी भाग लेता
है ५०८-९
में पुरुष-प्रकृति का स्वरूप ५०९,५१०,
५१८
९४४
आत्म-विस्मृति की अवस्था ही नहीं,
आत्म-प्रभुत्व भी पा लेता : वहां
सत्ता और कर्म का नियमन...
५०९- १०
नीचे के स्तरों की उपलब्धि का त्याग नहीं
करता -उसकी जड़वत- बालवतु
उन्मत्तवत्, पिशाचवत् अवस्थाएं
५१०- १
राजशिशु है ५१०
का कार्य अतिबौद्धिक ५११
और मानवीय मानदण्ड ५११
और आनन्दमय पुरुष में भेद ५११-४
में आनन्द और निम्न स्तरों पर आनन्द
५१२
मय भुमिका का आधार आनन्द का
निज उपादान ५१२
में ज्ञान और आनन्द भूमिका में ज्ञान
५१२, ५१३-४
में क्रीड़ा के लिये केन्द्र, आनन्द-कोष में
कोई केन्द्र नहीं ५१३
आनन्द
-भूमिका : विवरण ५१४-५
-भूमिका का वर्णन विचार नहीं कर
सकता ५१५
'परम सत् और आनन्द के आकर्षण में
जीवन के त्याग की प्रवृत्ति ५१५-६
-मय पुरुष जन्म या अजन्म से बंधा नहीं
५१६-७
-मय प्रकृति में आरोहण से पहले जो
करना होगा ५१७
-मय प्रकृति का स्वरूप ५१७-८
४३
ज्ञान
उच्चतर और निम्नतर, ५१९-२६
-मार्ग का प्रथम लक्ष्य, इसे अमूर्त
भूमिका में ही नहीं, यहां भी प्राप्त
करना होगा ५१९
-मार्ग का दूसरा लक्ष्य : दिव्य अस्तित्व
एवं दिव्य प्रकृति को धारण करना
५१९-२०
दो प्रकार का-निम्नतर और उच्चतर
[यौगिक] ५
निम्नतर, की सभी शाखाएं- विज्ञान,
कला, दर्शन, नीतिशास्र, मनोविज्ञान,
इतिहास और स्वयं कर्म--हमें
ईश्वर-साक्षात्कार की ओर...
५२१-२
निम्नतर, और योग की क्रिया व पद्धति
में भेद ५२२-३
२०- १, ५२३अं
उच्चतर, की तीन क्रियाएं : शुद्धि,
एकाग्रता, तादात्म्य ५२३-४
निम्नतर, और योग ५२४-६
निम्नतर-नैतिक ज्ञान, दर्शन, कला,
विज्ञान -भी हमें शुद्धि, एकाग्रता,
तादात्म्य के लिये तैयार करते हैं पर
एक सीमातक ५२४-५
निम्नतर, का त्याग नहीं करता योग, वह
इस बात में भित्र है कि... ५२५-६
निम्नतर, का परिवर्तित स्वरूप ईश-प्राप्ति
के बाद भी बना रहता है ५२६
४४
समाधि ५२७-३५
का महत्त्व ज्ञानयोग, भक्तियोग,
राजयोग, हठयोग में ५२७
और पूर्णयोग ५२७
का महत्त्व जिस सत्य पर आधारित ५२७
'हमारी चेतना की चार अवस्थाएं :
जाग्रत् स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय ५२८
साधन, जाग्रत् के पीछे की उच्च
भूमिकाओं के अनुभव प्राप्त करने के
लिये ५२८,५३५
की गहरी-गहरी अवस्थाएं ५२८-९
९४५
में
से जगाना या वापस बुलाना ५२९
की अवस्था में जीवन का त्याग ५२९
'स्वप्न-समाधि और स्थूल मन के स्वप्न
५२९-३०
'स्वप्न-समाधि में बाह्य जगत् के ज्ञान की
प्राप्ति ५३०,५३१
'स्वप्न-समाधि के लिये आवश्यक
कार्य : स्थूल इन्द्रियों के द्वारों को बंद
करना और स्थूल निद्रा के हस्तक्षेप से
छुटकारा पाना ५३०-१
'स्वप्न-समाधि के अनुभव अनेक प्रकार
के ५३१
'स्वप्न-समाधि और दूरदर्शन, दूरश्रवण
की घटनाएं ५३२
'स्वप्न-समाधि का सबसे बड़ा महत्त्व
५३२-३
'स्वप्न-समाधि और पूर्णयोग ५३३
'स्वप्न-समाधि के अनुभव और जागरित
अवस्था ५३३,५३५
की सुषुप्ति अवस्था ५३३-४
'स्वप्न-समाधि और सुषुप्ति की
सीमा-रेखा ५३४
अतिमानसिक और आनन्द के स्तर पर
५३४
की उपयोगिता दो प्रकार की पूर्णयोग में
५३५
४५
हठयोग ५३६-४४
समाधि और, ५३६
और पूर्णयोग ५३६
की क्रियाओं का सिद्धांत : शरीर और
आत्मा में घनिष्ठ संबंध ५३७
की दृष्टि देह-संस्थान के पीछे सूक्ष्म
शरीर पर ५३७
का संपूर्ण लक्ष्य ५३७
की क्रियाएं वैज्ञानिक ५३७
और ज्ञानयोग ५३७-८
के, और सभी साधना के, तीन मूल
तत्त्व : शुद्धि, एकाग्रता, मुक्तता ५३८
के दो मुख्य अंग : आसन और
प्राणायाम ५३८-९
की आसन-प्रणाली : इसके मूल में दो
विचार ५३९-४० इसका उद्देश्य और
फल ५४०-२
और प्राणायाम : इसकी विधि, लक्ष्य
और लाभ ५४२-३
और राजयोग ५४४
४६
राजयोग ५४५-५१
हठयोग और, ५४५
में बंद द्वारों की कुंजी है मन ५४५; मन
के शरीर और प्राण के अधीन होने
का सिद्धांत ५४५
में चैत्य शरीर, षट्-चक्र, कुण्डलिनी...
५४५-७
आसन और प्राणायाम से आरंभ नहीं
करता, उसका आग्रह पहले मन की
नैतिक शुद्धि पर ५४८; सीधे
प्राणायाम से शुरू करना संकटपूर्ण
५४८ टि०
में यम और नियम ५४८
के आसन और प्राणायाम ५४८-९
की एकाग्रता की चार क्रमिक अवस्थाएं :
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
५४९
का कार्य एवं लक्ष्य ५५०
मे गुह्य शक्तियों या सिद्धियों का
अभ्यास और प्रयोग ५५०-१
और हठयोग की विधियां और पूर्णयोग
५५१
४७
त्रिमार्ग [त्रिवेणी]
९४६
प्रेम और, ५५५-६१
'इच्छा, ज्ञान, प्रेम तीनों में भगवान् से
मिलन पूर्णयोग की नींव ५५५
कर्म, ज्ञान, प्रेम की ५५५.
ज्ञान, कर्म, प्रेम की ५५५-६
प्रेम, ज्ञान, कर्म की ५५६-७
'ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग के अनुयायियों
में परस्पर निन्दा और धृणा की वृत्ति
५५८-६१; इन दोनों की कर्ममार्ग के
प्रति घृणा ५६१
'प्रेममार्ग और पूर्णयोग ५६१
भक्ति [भक्तिमार्ग, भक्तियोग]
के हेतु ५६२-७०
का श्रीगणेश ५६२
और धार्मिक पूजा ५६२-६; धार्मिक
पूजा के मिश्रित प्रेरक भाव और
सच्ची भक्ति की कसौटी ५६२-३;
धार्मिक वृत्ति के विकास में प्रेरक
भाव : भय और स्वार्थ ५६३-५; धर्म
की ईश्वर-विषयक परिकल्पना :
अनेक प्रेरकों का मिश्रण ५६४-५;
ईश्वर में संदेह और योग का अनुभव
५६५-६
में, और धर्म में, भागवत व्यक्तित्व,
भगवान् के साथ मानवीय संबंध,
और भगवान् का हमारे भावों के
अनुरूप उत्तर देना-इन बातों का
स्वीकार ५६६-८
और निर्व्यक्तिक भगवान् ५६६-७
में, (धर्म से), प्रवेश करने के लिये
प्रेरक भावों में करणीय आवश्यक
बातें तथा अहैतुक प्रेम ५६९
हृदय का विषय है, बुद्धि का नहीं ५६९
और भगवान् के रूप धारण करने का
प्रश्न ५६९अ
में मानव आत्मा और भगवान् के बीच
नित्य भेद का विचार ५७०
का मूल प्रेरक है : प्रेम ५७०
४९
भगवन्मुख भाव [संबंध] ५७१-९
में ईश्वर-भय का योग से बहुत कम
संबंध ५७१; ईश्वर-भय का धर्मों में
बहुत बड़ा स्थान ५७१-३; इन
असंस्कृत धारणाओं से मुक्ति
आवश्यक भक्तियोग में प्रवेश के
लिये ५७२-३
वे, जो हमें भक्तियोग के समीप ले जाते
हैं ५७
सदाचार से संबधित, पर योग का
नैतिक विकास का आदर्श...
५७४-५
स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र का ५७४,
५७५; इस संबंध की कुंजी है प्रेम,
स्वामी और सखा साथ-साथ, भय
असंगत ५७५
पिता और माता का, (अर्थार्थी वृत्ति)
३-४ ईश्वर-भय नैतिक
५७५-६ प्रार्थना के द्वारा
आवश्यकता की पूर्ति; रक्षा व आश्रय
के लिये शरण ५७६-७
पिता-पुत्र और सखा का ५७७-८
माता-पुत्र का ५७८
प्रेमी और प्रियतम का ५७८-९
५०
भक्ति का मार्ग [भक्ति] ५८०-५
किसी शास्त्रीय पद्धति से बांधी नहीं जा
सकती ५८०
की चार गतियां ५८०
का पहला रूप : आराधना ५८०; आरा-
धना, बाह्य पूजा ५८०-१; आराधना,
आत्म-निवेदन और शुद्धि ५८१-२
९४७
'आत्म-निवेदन व अर्पण संपूर्ण जीवन
और कर्मों का [प्रेम-यज्ञ] ५८२;
समर्पण भक्त का : तपस्यात्मक और
विशालतर ५८२
'आत्मनिवेदन विचारों का भी ५८३
का ध्यान ज्ञानयोग के ध्यान से भिन्न
५८३
'सर्वत्र भगवान् के दर्शन ५८३
अधिक अंतरंग-वंशी की तान पर
सुधबुध खो देनेवाला ५८४-५;
काव्यात्मक प्रतीक ५८४
में दिव्य व्यक्ति का दर्शन और मानवीय
संबंधों का प्रयोग ५८४-५; भीतर
और जगत् में आराध्य की खोज
५८५
५१
भागवत व्यक्तित्व ५८६-९४
'व्यक्तित्व, विचार की दृष्टि में ५८६
के बिना भक्तिमार्ग संभव नहीं ५८६
'व्यक्तित्व और निर्व्यक्तिकता के सत्य
को जानना जरूरी ५८६-७; दार्शनिक
बुद्धि की प्रवृत्ति निर्व्यक्तिकता की
ओर ५८७-८ हृदय और प्राण अमूर्त
भावो में नहीं जी सकते ५८८; कुछ
बौद्धिक दर्शन निर्गुण की तो कुछ
सगुण की स्थापना करते हैं ५८८-९;
बुद्धि और हृदय दोनों में सत्य ५८९;
समन्वय की शक्ति अंतर्ज्ञान में
५८९-९१
के विषय में हमारा विचार ५११-२
संबंधी विचारों की परीक्षा बुद्धि के द्वारा
और आध्यात्मिक अनुभव ५९२-३
'वैश्व स्तर पर भी दोनों पक्षों से भगवान्
के पास पहुंच ५९३-४
में कठोर या भीषण रूप भी ५९४
५२
भगवान् का आनन्द ५९५- ९
'हमारा आध्यात्मिक भविष्य ५१५
जब योग में प्रवेश करता है तभी पूर्ण
मिलन रूपी हेतु सर्वथा अपरिहार्य
बनता है ५९५-७
का अभिप्राय; भगवान् में आनन्द,
उन्हींके लिये, और किसी चीज के
लिये नहीं -परात्परता, विश्वमयता,
वैयक्तिक संतुष्टि के लिये नहीं,
शांति, स्वर्ग या वैयक्तिक सत्ता के
लिये नहीं ५९७-८
पूर्ण और अशेष, भक्तिमार्ग का मर्म
५९८
के अपने अंदर क्रियाशील हो जाने पर
अन्य सभी मार्ग इस नियम में
परिवर्तित हो जाते हैं : ईश्वर-प्रेमी
ईश्वर-ज्ञानी व दिव्य कर्मी भी होगा,
वह पूर्णता की खोज करेगा, जीवन
के समस्त व्यापार उसकी पूजा के क्षेत्र
होंगे और वह विश्व-प्रेमी होगा
५९८-९
में एकत्व की आधारशिला है पारस्परिक
अधिकार ५९९
५३
आनन्द ब्रह्म ६००-५
का निर्व्यक्तिक आकर्षण ६००
की पुकार ६००
छुपा हुआ है तलवर्ती मन के श्रम
के कारण ६०१
का प्रतिबिंब शुद्ध मन में पहले-पहल
सौंदर्य, प्रेम, उपस्थिति आदि रूपों में
६०१
साक्षात् की प्राप्ति के लिये...
६०१-३
९४८
हमारे सम्मुख प्रकट तीन प्रकार से :
भीतर, चारों ओर, ऊपर ६०३-५
के मुखमण्डल के दर्शन ६०५
५४
प्रेम [प्रेम-मार्ग]
का रहस्य ६०६-१२
और निर्व्यक्तिक भगवान् की उपासना
६०६
भागवत व्यक्तित्व की उपासना से आरंभ
करता है ६०६-७; भागवत पुरुष की
अशेष सर्वांग पूर्णता को प्रारंभ से
अधिकृत करना संभव नहीं... इष्ट
देवता... ६०७-८
सर्वांगीण, में ईश्वर-विषयक विचार का
रूप, और उनके साथ घनिष्ठ
वैयक्तिक संबंध के लिये जो-जो
करना होगा ६०८-९
सर्वांगीण, में प्रियतम के साथ गुरु,
स्वामी, सखा, प्रेमी और प्रियतम के
संबंध ६०९-११
में प्रेमी भी हमारा पीछा कर सकता है
६१२
'प्रेम और आनन्द, रहस्यों का रहस्य
और परमोच्च मुक्ति ६१२
५५
पूर्णयोग
का मूल सिद्धांत ६१५- २१
और अन्य योगों का--हठयोग,
राजयोग, त्रिमार्ग, तांत्रिक साधना
का--मूल सिद्धांत ६१५-८
में तंत्र के लक्ष्य को पाने के लिये वेदांत
की पद्धति ६१८
में मनुष्य मनोगत आत्मा है और वह मन
के स्तर से ही साधना आरंभ कर
सकता है ३६१८-९
का मूल सूत्र : आत्म-समर्पण ६१९
का लक्ष्य योग के लक्ष्यों से अधिक
विस्तृत ६१९-२०
मानव जाति में दिव्य प्रकृति के सामूहिक
योग का अंग है ६१९-२०
का लक्ष्य है ऐसी पूर्णता जिसमें
मानसिक प्रकृति अतिमानसिक
प्रकृतितक ऊंची उठ जाये ६२०
के सर्वांग पूर्ण होने की आवश्यकता
६२०-१
का आरंभ त्रिमार्ग में से किसी एक का
भी अनुसरण करके ६२१
का आरंभ एक साथ तीनों मार्गों से भी
६२१
५६
पूर्णता
सर्वांगीण ६२२-९
की ओर मनुष्य अग्रसर हो सकता है
६२२
लौकिक और धार्मिक ६२२-३
मन, प्राण, शरीर की अंतिम, की कुंजी
६२३-४
वास्तविक, की शर्त ६२४
की प्रक्रिया में दो अवस्थाएं : व्यक्तिगत
प्रयत्न और समर्पण ६२४-५
महान् की प्राप्ति तभी ६२५
लौकिक, का लक्ष्य, और समग्र पूर्णता
का योग ६२५-७
मानवीय, का अभिप्राय ६२५
का धार्मिक आदर्श, और पूर्ण योग
६२७-८
सर्वांगीण, की दो आवश्यक शर्ते
६२८-९
समग्र, का अभिप्राय ६२९
सर्वांगीण, और अतिमानसिक रूपांतर
६२९
९४९
सर्वांगीण दिव्य, के तीन तत्त्व व सार
५७
मनोविज्ञान आत्म-पूर्णता का, ६३०-९
की आवश्यकता ६३०
और साधारण मनोविज्ञान व जड़
वैज्ञानिक मनोविद्या ६३०-१
कि मनुष्य वास्तविक स्वरूप की दृष्टि से
एक आत्मा है, अनंत सत्ता, चेतना,
आनन्द है ६३१-२
कि आत्मा के चार करण हैं :
अतिमानस, मन, प्राण, शरीर
६३२-४
कि परम आत्मा ने अपनी सब क्रियाओं
का आधार पुरुष और प्रकृति पर रखा
है ६३४- ५
कि पुरुष अपनी इच्छानुसार किसी भी
स्थिति को (सनातन पुरुष, विराट्
पुरुष, व्यक्तिगत पुरुष या एक साथ
तीनों को) ग्रहण कर सकता है ६३५
कि पुरुष जितना कुछ दिखायी देता है
उससे वह और भी बहुत कुछ होता
है, और वह अपने जिस स्वरूप में
विश्वास रखता है वैसा बनता चला
जाता है ६३५-६
कि पुरुष का प्रकृति पर यह अधिकार
अत्यधिक महत्त्व रखता है ६३६
कि पुरुष सत्ता के किसी भी स्तर पर
प्रतिष्ठित हो सकता है सद चित्
आनन्द, विज्ञान, मन, प्राण, अन्न
किसी में भी ६३६-८
कि मनुष्य ब्रह्माण्ड का ही एक पिण्ड है,
उसमें सब भूमिकाएं हैं, वह उच्चतर
भूमिका की क्रिया शुरू करा सकता
है ६३८
कि साधना का आरंभ अपनी वर्तमान
अपूर्णता के से ही करना होगा,
उसके लिये उसे जो देखना और
करना जरूरी हैं ६३८-९
५८
मानसिक सत्ता की पूर्णता (या सिद्धि)
६४० - ५१
का पहला पग : बहिर्मुख अहं-बुद्धि से
मुक्ति और भीतर अंतरात्मा में प्रवेश
६४०; अंतरात्मा में प्रवेश के, मन से
भिन्न मनोमय पुरुष के, अनुभव का
लक्षण. तीन प्रकार के अंतर्ज्ञान
६४१-२; मनोमय पुरुष के अलावा
पुरुष अन्नमय या प्राणमय पुरुष की
स्थिति भी ग्रहण कर सकता है
६४२-३
का मार्ग ६४३; यह दो दिशाएं ग्रहण कर
सकता है : साक्षी पुरुष की ६४३-४,
और प्रभुत्व की (साक्षी, अनुमंता,
भर्ता, ईश्वर की) ६४४- ६
की शर्त : स्वरा बनना ६४६
का सर्वोच्च पथ : विज्ञानमय और
आनन्दमय पुरुष में आरोहण ६४६-७
के लिये वर्तमान अव्यवस्थित
व्यवस्थावाली प्रकृति में संशोधन
करना होगा ६४७-८
के चार घटक अवयव; शुद्धि, मुक्ति,
सिद्धि, भुक्ति ६४८
विश्वभावापत्र व्यक्तित्व को पाये बिना
प्राप्त नहीं की जा सकती ६४८- ५०;
विश्व-प्रकृति के तीन गुणों की विषम
क्रिया से उत्पन्न अपूर्णता के
अतिक्रमण के लिये विश्व के
विज्ञानमय पुरुष से एक होना होगा
६५०
अपनी आमा और अपने विश्वभावापन्न
व्यक्तित्व में परमात्मा से मिलन
९५०
साधित कर लेने पर ही ६५०
का प्रभाव जगत्-सत्ता पर ६५१
५९
आत्मा के करण ६५२-६३
की शुद्धि आवश्यक सक्रिय पूर्णता के
लिये ६५२-६
बाह्य, प्राणयुक्त शरीर ६५६
आभ्यंतरिक (अंतःकरण) के चार
विभाग : १ -चित्त (आधारभूत
चेतना, भावप्रधान मन, स्नायविक
मन, संवेदनात्मक मन) ६५७-६0;
२-मन (इन्द्रियाश्रित मन)
६६०-१; ३-बुद्धि ६६१-२;
४ -अहंकार ६६२-३
६०
शुद्धि
निम्नतर मन की, ६६४-७२
का आरंभ कहां से करें ६६४
बुद्धि मूलक संकल्प की प्रमुख ६६४-५;
यह साधित नहीं की जा सकती
अंतःकरण की क्रिया में सूक्ष्म प्राण
के मिश्रण की बाधा को दूर किये
बिना ६६५
सूक्ष्म प्राण की, शुद्धि का पहला कदम
६६५-७०
भावप्रधान मन की ६७०- १
ग्रहणशील संवेदनात्मक मन की ६७१-२
सक्रिय आवेगात्मक मन की ६७२
६१
बुद्धि
और संकल्प की शुद्धि ६७३-८४
और मन (इन्द्रियाश्रित मन) का भेद
६७३-५
पशु और मनुष्य में ६७४-५
३ क्या? ६७५
की सक्रियता के द्वारा पुरुष में पूर्ण
जागरण का आरंभ ६७५
का स्वामित्व पूर्ण नहीं ६७५
एक मध्यवर्ती करण ६७५-६
की क्रिया का अंतिम लक्ष्य ६७६
की शुद्धि का लक्ष्य ६७६-७
को ऐन्द्रिय मन की सीमाओं से मुक्त
करना बुद्धि का उच्चतर कार्य
६७७-८
की क्रिया अभीतक अपूर्ण ६७८
की क्रिया की पूर्णता के लिये द्विविध
क्रिया आवश्यक ६७८-९
में कामना के मिश्रण की अपवित्रता के
निवारण का सबसे सुनिश्चित पग :
अनासक्ति ६७९-८०
की क्रिया की तीन अवस्थाएं : रूढ़
चितनात्मक मन, व्यवहार-लक्षी मन,
ज्ञानात्मक मन ६८०-२
का मुख्य दोष. ज्ञान और संकल्प में
असामंजस्य ६८१
की कुछ अन्य स्वाभाविक सीमाएं
६८१-३
तब शुद्ध और नमनीय दर्पण बन सकती
है ६८२
को मनोमय भूमिका से विज्ञान में उठा ले
जाना होगा ६८३-४
की अंतिम शुद्धि ६८४
६२
मुक्ति
आत्मा की, [आध्यात्मिक मुक्ति]
६८५-९३
का स्वरूप ६८५
का अर्थ ६८५-६
का अभिप्राय दो चीजों से ६८५
की निषेधात्मक गति का अर्थ है चार
९५१
प्रधान ग्रन्धियों -कामना, अहंकार,
द्वंद्व और प्रकृति के तीन गुण--से मुक्ति
६८५-६
का भावात्मक अभिप्राय ६८६
कामना से ६८६-८
अहंबुद्धि से ६८८-९३
का सार ६९३
६३
प्रकृति
की मुक्ति ६९४-७०३
और पुरुष ६९४
के अंशदान दो : गुण और द्वंद्व ६९४
की मुक्ति दो प्रकार की ६९५
के तीन गुण : -
तमसू : का तत्त्व ६९५; का प्रबलतम
प्रभुत्व शरीर पर ६९६; जिन चीजों
को जन्म देता है ६९८; आलोकित
७००
रजस् : का तत्त्व ६९५; का प्रबलतम
प्रभुत्व प्राणिक प्रकृति पर ६९७; की
देनें ६९८
सत्त्व : का तत्त्व ६९५; का प्रबलतम
प्रभुत्व मन पर ६९७; की देनें
६९८-९
के गुणों की विषम क्रिया ही हमारे
व्यक्तित्व एवं स्वभाव का गठन...
६९६, ६९७अ
के गुणों से रहित हो जाना या उन्हें
अतिक्रम कर जाना होगा ६९६
की सात्विक समस्वरता से भी
आध्यात्मिक पूर्णता नहीं ६९९
के गुणों के परे जाना होगा ६९९-७००
'त्रिगुणातीत अवस्था पाने के लिये कर्म
के त्याग का आश्रय ७००-१
मै ऐसी मुक्ति जो सक्रियता और
निष्क्रियता दोनों अवस्थाओं में..
७००; क्या ऐसी मुक्ति और पूर्णता
संभव है ? ७००-१
के त्रिगुण के स्थान पर महत्तर त्र्यात्मक
एकता ७०१
की मुक्ति पा लेने पर द्वंद्वों से भी मुक्ति
७०१-२
की मुक्ति और आध्यात्मिक विज्ञान
७०२-३
६४
सिद्धि
के मूल तत्त्व ७०४-१०
की अनिवार्य पूर्वावस्थाएं ७०४
का अर्थ ७०४-५
के लिये हमारा प्रयत्न और मार्ग भागवत
सत्ताविषयक हमारी परिकल्पना पर
निर्भर ७०४; भागवत सत्ताविषयक
विचार मायावादी और बौद्धमतावलंबी
का ७०४
के मूल तत्त्व छ: ७०५
का प्रथम आवश्यक साधन : समता
७०५- ६
के अगले आवश्यक साधन : शक्ति,
वीर्य, दैवी प्रकृति और श्रद्धा ७०६
का अगला सोपान : मनोमय सत्ता का
विज्ञानमय सत्ता में विकास ७०७;
विज्ञानमय सिद्धि इस देह में
७०७-८; विज्ञान के आधार पर पूर्ण
कर्म और उपभोग ७०८-९
की पराकाष्ठा ७१०
६५
की पूर्णता ७११-२१
सिद्धि का प्रथम आवश्यक तत्त्व ७११;
सिद्धि शब्द से हमारा आशय, ज्ञान
और भक्ति की परिभाषा में इसका
९५२
अर्थ ७११
पर प्रतिष्ठित है परमोच्च दिव्य प्रकृति
७११
विरक्ति का नाम नहीं ७११
साधन, 'राज्यं समृद्धम्' को पाने का
७१२
एवं शांति अनिवार्य मन से आत्मतत्त्व में
जाने, समरूप भगवान् का यंत्र बनने
व दिव्य कर्म करने के लिये ७१२-४
अपरिहार्य मानवीय पूर्णता के लिये भी
७१४-५
निम्न प्रकृति पर विजय की शर्त ७१५
प्रकृति की भी ७१५-२०
भाव प्रधान और प्राणिक सत्ता में, शुद्धि
और मुक्ति से ७१५-८
मुक्ति का असली चिह्न ७१५
क्रियाशील सत्ता में ७१८-९
संकल्प शक्ति की ७१९
स्सलन, भूल और त्रुटि में ७१९
चितनात्मक मन की ७१९-२०; इसका
अर्थ बुद्धि की जिज्ञासाओं का त्याग
नहीं ७२०
प्रकृति की, तैयारी है सच्चिदानन्द की
समता को पाने की ७२०- १
६६
का मार्ग ७२२-३४
के दो पहलू : निष्क्रिय या अभावात्मक,
और सक्रिय या भावात्मक ७२२
निष्क्रिय, की प्राप्ति के तीन मार्ग ७२२
निष्क्रिय, का तितिक्षा का मार्ग ७२२-५,
७३३; इस साधना के तीन परिणाम
७२४
निष्क्रियय, का तटस्थ उदासीनता का मार्ग
७२५-६, ७३३; इसके तीन परिणाम
७२५-६
निष्क्रिय, का नति का मार्ग ७२६-७,
७३३
निष्क्रिय, के ये तीनों मार्ग एक ही बिंदु
पर आकर मिलते हैं ७२७
सक्रिय, पाना संभव ७२७-८
सक्रिय, के लिये आवश्यकता है नये
ज्ञान की ७२८-९
सक्रिय, के तीन परिणाम ७२९
की भावात्मक पद्धति का कार्य ऐन्द्रिय
संवेदन में ७३०-१ ज्ञान में ७३१-२
(बुद्धि की समता अतिमानसिक
ज्ञानतक पहुंचने का शर्त ७३२);
संकल्प में ७३२-३
की निष्क्रिय तथा सक्रिय दोनों
विधियों का प्रयोग ७३३
की भावात्मक पद्धति का प्रयोग
व्यक्तिगत उद्देश्य से नहीं बल्कि
दूसरों की सहायता के लिये और
भगवान् के लिये ७३४
६७
समता [की क्रिया] ७३५-४२
का मतलब ७३५-६
प्रभुत्व की पहली शर्त ७३५
मानसिक, और आत्मिक ७३५-६
में साधक का पहला कर्तव्य: समता का
निरीक्षण और त्रुटि को दूर करने के
लिये संकल्प-शक्ति का प्रयोग
७३६-७ 'चार चीजें साधक में
अवश्य होनी चाहियें ७३६; 'वर्तमान
स्थिति में पहला कार्य डंक को
निकाल डालना ७३६, इसकी कसौटी
७३६
अशांति, चिंता, शोक आदि के प्रति
७३६-७ किसी भी कारण इनके
लिये कोई बहाना स्वीकार न करना
७३७
९५३
क्षुब्ध भाग यदि प्राण या भाव-प्रधान मन
या स्वयं बुद्धि हो तो... ७३७
में मुख्य आधार : आत्मसमर्पण ७३७
अशांति के प्रति, यदि वह निरंतर बनी
रहे ७३७-८
में लंबा समय लगने के कारण भी
निरुत्साहित या अधीर न होना
७३७-८
से स्थापित शांति सभी परिस्थितियों में
एक-सी बनी रहनी चाहिये ७३८;
एकता का दर्शन इसमें सहायक ७३८
का थोड़ा-सा भी अंश पूर्णता की ओर
महान् पग ७३८
से शांति एक बार प्राप्त हो जाने पर प्राण
और मन की पसंदगी रूढ़ अभ्यास
मात्र रह जाती है और फिर समाप्त हो
जाती है ७३१
से 'यथा प्रयुक्तोऽस्मि तथा करोमि' यह
एक सजीव सत्य बन जाता ७३९
में इस अवस्था के भी परे जाना होगा,
कारण, कर्म और अनुभव का
निर्धारण... ७३९-४०
के फलस्वरूप प्राप्त स्थिरता घनी होकर
शांति का, फिर सुख, फिर हास्य का
रूप ले लेती है ७४०-१
जब पूर्णता प्राप्त कर लेती है तो वह
पदार्थों के सभी मूल्यों का
रूपांतर... ७४१; व्यक्ति के संबंध
में भी हमारी दृष्टि में परिवर्तन...
७४२
६८
करण
की शक्ति [पूर्णता] ७४३-५३
के विकास का लक्ष्य ७४३
शरीर
की चतुर्विध पूर्णता : महत्त्व, बल,
लघुता और धारण सामर्थ्य ७४३-९
के रूपांतर की आवश्यकता ७४३-४
में नया अभ्यास, उच्चतर स्वर का
विकास ७४४
में आध्यात्मिक शक्ति की क्रिया
के परिणाम ७४५-६
में प्राण-शक्ति का आहरण ७४६-९
में मन की शक्ति में श्रद्धा ७४७-८
चैत्य प्राण
की चतुर्विध पूर्णता : पूर्णता, प्रसन्नता,
समता, भोगसामर्थ्य ७४९-५०
चित्त [हृदय और चैत्य पुरुष]
की चतुर्विध पूर्णता : सौम्यत्व, तैजस्
श्रद्धा और प्रेम-सामर्थ्य ७५०-२
बुद्धि और त्त्वंतनात्मक मन
की चतुर्विध पूर्णता : विशुद्धि, प्रकाश,
विचित्र बोध, सर्वज्ञान-सामर्थ्य
७५२-३
करणों की पूर्णता के मुख्य-मुख्य साधन ७५३
६९
आत्मशक्ति
और चतुर्विध व्यक्तित्व ७५४-६६
और करणों की शक्ति ७५४
क्या है ७५४
ही हमारी प्रकृति के विशिष्ट रूप का
निर्धारण करती है ७५४-५
सतह पर आयी होती है विभूतिमत् पुरुषों
में ७५५
मन:शक्ति, प्राण-शक्ति, बुद्धि-शक्ति से
भिन्न है ७५५
में प्रकृतिगत भगवान् ज्ञान-शक्ति,
क्षात्र-शक्ति, वैश्य-शक्ति और
शूद्र-शक्ति के रूप में प्रकट...
७५५
'व्यक्तित्व ब्राह्मण का ७५७-८
'व्यक्तित्व क्षत्रिय का ७५८-९
९५४
'व्यक्तित्व वैश्य का ७५९-६१
'व्यक्तित्व शूद्र का ७६१-३
'व्यक्तित्व के इन चारों भेदों में कोई यदि
अन्य गुणों का कुछ अंश अपने में
नहीं लाता तो वह अपने क्षेत्र में भी
पूर्ण नहीं हो सकता ७६३-४
और प्रकृतिगत शक्ति : भेद ७६४-५
की समग्र, समस्वर चतुर्विध पूर्णता
७६५-६
के पीछे स्थित अंतरात्मा जब
अपने-आपको प्रकट करती है ७६६
७०
भागवती शक्ति ७६७-७७
आध्यात्मिक सत्य में ७६७
बाह्य यांत्रिक रूप में ७६७
आधुनिक वैज्ञानिक की दृष्टि में ७६७- ८
हमारे आंतर आत्मपरक अनुभव में ७६८
और पुरुष द्वैतात्मक सत्ता हमारे अन्दर
७६८
और पुरुष के द्वैत का समाधान सांख्य
का तथा एक और ७६८-९
और पुरुष का द्वैत एकमेव सत्ता का
द्विविध रूप ७६९
और पुरुष की वर्तमान स्थिति हमारे
अन्दर और मुक्ति का उपाय
७६९-७०
' अहम्मय वैयक्तिक संकल्प एवं शक्ति
के स्थान पर वैश्व और भागवत
संकल्प एवं शक्ति को प्रतिष्ठित करना
होगा ७७०
वैश्व-शक्ति
की ओर अपने- आपको खोलना हमारे
लिये सदा ही संभव ७७०
'वैश्व प्राण-शक्ति का अपने अंदर
आहरण, उसका उपयोग और प्रभाव
७७१
' वैश्व-प्राण-शक्ति की क्रिया पर हम
अपने कार्यों का समस्त भार नहीं
छोड़ सकते ७७१-२
' प्राण-शक्ति का नियमन मानसिक
शक्ति के द्वारा ७७२; मानसिक
शक्ति का नियंत्रण अपूर्ण ७७२-३
'मन के स्तर पर पुरुष और प्रकृति के
पार्थक्य से प्राप्त सापेक्ष स्वतंत्रता का
उपयोग सत्त्वोत्कर्ष, मानसिक शांति,
आत्मिक शांति या महत्तर रूपायण के
लिये ७७३-४; इन्हें संपन्न करने के
लिये भागवत साहाय्य की
आवश्यकता ७७४- ५
'एकमेव अनंत का साक्षात्कार ७७५;
पुरुष-पक्ष में और प्रकृति-पक्ष में
७७५; प्रकृति-पक्ष में यह भगवती
शक्ति का साक्षात्कार होता है ७७५
भागवती शक्ति
का साक्षात्कार... व्यष्टि सत्ता का
लोप... ७७५- ६
का अपने अंदर आवाहन करना होगा
ताकि वह हमारे सारे कार्यों का भार
अपने हाथ में ले लें ७७६
की रूपातरकारी क्रिया ७७६-७
पुरुषोत्तम के रूप में प्रकट ७७७
७१
की क्रिया ७७८-८६
ही वैश्व शक्ति के रूप में समस्त गतियों
और क्रियाओं का संचालन करती है
इस सत्य को हृदयंगम करना
आवश्यक अहं-कर्तृत्वभाव से मुक्ति
के लिये ७७८; अहं के पूर्ण विनाश
के लिये सर्वप्रथम सब क्रियाओं के
पीछे अवस्थित एकमेव सर्वगत पुरुष
९५५
का विचार रखना होगा, दूसरे वैश्व
शक्ति को उसकी उच्चतर क्रिया के
रूप में उपलब्ध करना होगा ७७९
उच्चतर भूमिका में, और उसकी क्रिया
७७९-८०
की क्रिया और बारी-बारी से आनेवाले
उतार-चढ़ाव ७८०
की क्रिया की सिद्धि [रूपांतर] तबतक
पूर्ण नहीं जबतक बीच की
अतिमानसिक शक्ति की कड़ी
स्थापित नहीं... ७८०
की क्रिया के लिये पहली आवश्यकता :
अहंकर्तृत्वभावना का त्याग और
विराट् शक्ति के साक्षात्कार में
अहंबुद्धि का निमज्जन ७८०-१
का साक्षात्कार यदि निम्न रूपों में, तो
सावधान, कि हम उसी से संतुष्ट न
हो रहें ७८१
का साक्षात्कार यदि उच्चतर वास्तविक
रूप में तो कठिनाई उसे सहन और
धारण करने की ७८१; कठिनाई उसी
अनुपात में कम... ७८१
' भगवान् की तीन शक्तियां : ईश्वर,
प्रकृति, जीव ७८१-२, ७८५
या ईश्वर के साथ स्थापित होनेवाले
संबंध में कठिनाई अहं-चेतना से :
अहं आध्यात्मिक मांग से भिन्न अन्य
मांगें करता है ७८२
' भगवान् के प्रति जीव के आत्म-समर्पण
का आशय ७८२
' अनंत शक्ति के प्रति सचेतन होने पर
अहंबुद्धि की प्रवृत्ति उस पर अधिकार
जमाने की ७८२-३; इससे बचने का
उपाय : समर्पण और शुद्धि ७८३;
शुद्धि और आत्म-प्रभुत्व ७८३अ
'सक्रिय आत्म-प्रभुत्व और आत्म-
समर्पण को समन्वित कैसे करें ७८४;
इस क्रियाशील साधना की तीन
अवस्थाएं ७८४- ६
७२
श्रद्धा
और शक्ति ७८७-९८
पूर्ण, का अर्थ ७८७
'आत्म-श्रद्धा इतनी अनिवार्य कि...
७८७
जिस, की मांग पूर्णयोग करता है ७८७
का शत्रु है : सन्देह ७८७-८
के साथ अंततक डटे रहना ७८९
अंध, अज्ञ ७८९,७९०
पूर्णयोग के लिये जैसी अपेक्षित
७८९-९०
परम आत्मा का प्रभाव है, इसे प्रत्युत्तर
बुद्धि, हृदय, प्राणिक मन इतना नहीं
जितना अंतरात्मा... ७९०-१
दैनन्दिन, लक्ष्यों को साधित करने की
अपनी शक्ति में ७९१-२
परिवर्तनों, संघर्षों के बीच ७९२
को भूलों से विचलित नहीं होने देना
चाहिये ७९३
बुद्धि की ७९३-४
हृदय और प्राण की ७९४
को उपरितल पर लाकर तृप्त, धारित,
वर्धित किया जाता है ७९४अ
आध्यात्मिक अनुभवों के प्रति ७९५
सफलतापूर्वक बढ़ने की अपनी शक्ति में
७९६
'आत्म-अविश्वास ७९६
'आत्म-श्रद्धा, अहंकारमय ७९६
भागवत शक्ति में ७९७
ईश्वर में ७९८
तब ज्ञान में परिणत ७९८
की सर्वोच्च पूर्णता ७९८
९५६
७३
का स्वरूप ७९९-८१६
'आध्यात्मिक चेतना और मानसिक
चेतना : भेद ७९९
'दिव्य सत्ता को जान सकने या वही बन
सकने के लिये मनुष्य से जो मांग की
जाती है ७९९-८००
'आध्यात्मिक चेतना में रूपांतर के लिये
जिस आत्मसिद्धि योग की
आवश्यकता है ८००
के माध्यम के द्वारा या कि मन के
माध्यम के द्वारा भागवत शक्ति
मनुष्य में काम करेगी ? ८००-१
क्या है ? ८०१-२, ८१६
का प्रादुर्भाव एक अनिवार्य, तर्क-सिद्ध
सत्य ८०१
का मूल स्वभाव : तीन विशेषताएं :
तादात्म्य जनित ज्ञान, व्यापक समग्र
दृष्टि, ऋत चित् ८०२-५
का ज्ञान ८०२-४, ८१६; और मन का
ज्ञान ८०४-५
की और मन की सत्यतक पहुंच ८०५-७
सत्य चेतना ही नहीं, सत्य संकल्प भी है
८०७
में और मन में ज्ञान और संकल्प
८०७-८
की निर्भ्रान्त क्रिया सभी पदार्थों में ८०७
सत्यमय, सुसमंजस, एकात्म है, मन
आत्म-विरोध से पूर्ण है ८०८
को त्रिकाल दृष्टि प्राप्त है, मन केवल
वर्तमान को जानता है ८०८
'सत्' के उच्चतम स्तरों पर, और अपने
क्रमिक अवरोहण में ८०९
की क्रिया जुड़-तत्त्व में और सभी जगह
८१०-१
की क्रिया पर जड़ देह, प्राण और मन
का स्वत्व नहीं ८११-२
अंतर्ज्ञान के रूप में निम्न प्रकृति में
विद्यमान ८११-४
'अतिमानसिक ज्ञान की ओर पहला पग
अंतर्ज्ञानात्मक मन के विकास के द्वारा
८१३-४
ईश्वर का परमोच्च, और जीव को प्राप्त
हो सकनेवाला ८१४-५, ८१६
७४
अंतर्ज्ञानात्मक मन ८१६-२८
'उच्चतर तत्त्व में संक्रमण का अभिप्राय
है मन, तर्क-शक्ति और बुद्धि का
(जिन पर ही मनुष्य ने विश्वास करना
सीखा है) आमूल परिवर्तन...
साहस-यात्रा ८१७; यह परिवर्तन
तभी साधित... ८१८; यह रूपांतर
अंतर्ज्ञान की मध्यवर्ती अवस्था में से
८१८
का कार्य अभी हमारे अंदर, और मन का
उसमें हस्तक्षेप ८१८-९
की ओर प्रगति : दो दिशाएं ८१९
की ओर प्रगति : मन को सर्वथा शांत
करके ८२०-१; हृदय की अंतर्वाणी
पर कान देकर ८२१-२; सहस्रदल
कमल पर समस्त चिंतन और कार्य
का निर्णय छोड़कर ८२२-३ बुद्धि के
विकास और उसके रूपांतर के द्वारा
८२३-४ सब विधियों को मिलाकर
८२४-५
का संघटन : चिंतन, संकल्प शक्ति,
वेदन आदि का अंतर्ज्ञानात्मक रूपांतर
८२५-६
और अतिमानस ८२६
को निम्न मन और समष्टि मन के मिश्रण
व आक्रमण से सावधान रहना होगा
८२६-७
९५७
और भ्रांति ८२६-७
मन
संक्रमणात्मक अवस्था है ८२७-८
७५
अतिमानस के क्रमिक सोपान ८२९-४३
इनमें आत्मा का अनुभव ८२९-३०
अंतर्ज्ञानात्मक मन, अतिमानसिक बुद्धि
और महत्तर अतिमानस ८३०-१
अंतर्ज्ञानात्मक मन
की चार शक्तियां : संकेतकारी अंतर्ज्ञान,
अतर्ज्ञानात्मक विवेक, अंतर्ज्ञानात्मक
अंतःप्रेरणा, अंतर्ज्ञानात्मक साक्षात्कार
८३१-६; ये शक्तियां सामान्य बुद्धि
की तीव्र क्रियाओं से भिन्न हैं ८३१-२
अतिमानसिक बुद्धि
मे परिवर्तन : इसके लक्षण ८३६-८
का स्वरूप ८३८-९
का कार्य ८३९-४०
महत्तर अतिमानस
और अतिमानसिक बुद्धि ८४०-१
में निवास ८४१
में विचार, संकल्प, संवेदन ८४१-२
का कार्य ८४२
में निवास से अन्य लोगों के ज्ञान एवं
अनुभूति से विच्छिन्नता नहीं ८४३
'ये स्तर हमारे अनुभव के प्रति बंद नहीं,
भगवान् हमारे सामान्य मन में ही
अपने आवरणों को भेदकर प्रकट हो
उठते हैं ८४२-३
७६
अतिमानसिक विचारशक्ति और ज्ञान
८४४-५९
में, मन से, संक्रमण का अर्थ ८४४
'अतिमानसिक क्रिया को मानसिक क्रिया
से पृथकृ पहचानने के लिये शुद्धि
आवश्यक ८४४-५
में, मन से, रूपांतर की अंतिम अवस्था
तब... ८४५
और मन ८४५...
से उद्धृत मन का समस्त कार्य ८४५
वह सब कर सकता है जो मन करता है
८४६
के निरूपण और मन के निरूपण
८४६-७
की चेतना एकात्मक है, मनोमय चेतना
का लक्षण है विभाजन, पार्थक्य
८४७-८
के मन पर दबाव से विपरीत दृग्विषय :
कारण ८४८
की ओर एक दिशा में विकास से सत्ता
में असमस्वरता ८४८-९
में ज्ञान, संकल्प, वेदन तथा अन्य सब
क्रियाएं एक ही गति का रूप
धारण.. ८४९-५०
में ज्ञान [आत्मज्ञान] ही आधार है ८५०
अतिमानसिक ज्ञान
और विचारात्मक ज्ञान ८५०-२
और अतिमानसिक अंतर्दर्शन
[आध्यात्मिक दृष्टि] ८५२-३; और
तादात्म्य ८५३; और आध्यात्मिक
श्रवण व स्पर्श ८५३
अतिमानसिक विचार
का स्वरूप ८५४
का कार्य ८५४
और बौद्धिक विचार ८५४-५
के तीन स्तर और अंतर्ज्ञानात्मक मन की
तीन शक्तियां ८५५
और अतिमानसिक शब्द ८५६
और मानसिक चिंतन ८५७-९
का संगठन ८५९
और त्रिकाल दृष्टि ८५९
९५८
७७
अतिमानसिक करण -विचार-प्रक्रिया
८६०-८२
'अतिमानस हमारी चेतना के लिये
विजातीय नहीं ८६०
'यह नयी शक्ति हमारे मन, प्राण की
क्रियाओं का त्याग नहीं करती, उन्हें
उदात्त बनाती है ८६०
'अतिमानसिक प्रकृति में ये गुह्य,
दुर्लभतर शक्तियां असामान्य नहीं
रहतीं ८६०
-क्रिया का मन की क्रिया से भेद
८६०- १, ८६३
'मन की विचार-क्रिया के तीन स्तर :
रूढ़ विचारात्मक मन, व्यवहारलक्षी
मन, शुद्ध विचारणात्मक मन
८६१-२; इन तीन क्रियाओं को
मिलाना मानव मन के लिये कठिन
८६२-३
की शुद्ध विचारणात्मक क्रिया ८६३-४
की व्यवहारलक्षी क्रिया ८६५-६
की रूढ़ मन के सदृश क्रिया ८६७-८
की जटिल गति में असामंजस्य एवं
विषमता नहीं होती ८६८
तर्क बुद्धि
का नियंत्रण ८६८
अंतर्ज्ञान और प्राणिक मन-इनकी
मिश्रित क्रिया मन में ८६८-९
प्राणिक मन और अतिमानसिक अंतर्ज्ञान
के बीच का करण ८७०
का कार्य मध्यस्थ का ८७०
में अपनी सीमाओं की उपेक्षा की प्रवृत्ति
८७०- १
की विशिष्ट शक्ति : तार्किक क्रिया ८७१
का पहला कार्य : स्वीकृत तथ्यों
का-प्राकृतिक जगत्, अपनी
आंतरिक सत्ता, अन्य जीवों, सामान्य
मनोमय बुद्धि की क्रिया, अन्य स्तर,
आत्मा का
२
का सचेतन विकास ८७३
की विश्लेषण और संश्लेषणात्मक रचना
की क्रिया ८७३-४
के अनिवार्य साधन : स्मृति,
निर्णय-शक्ति और कल्पना-शक्ति
८७४-५
की उपयोगिता और अंतर्ज्ञान की ओर
-निरीक्षण ८७१-
बढ़ने की आवश्यकता ८७५
अतिमानस का प्रथम सुव्यवस्थित करण
८७५-६
और तर्कबुद्धि ८७५-६
'मनोमय बुद्धि के मुकाबले : -
अतिमानसिक इन्द्रिय ८७६
अतिमानसिक चिंतन ८७६
अतिमानसिक अवलोकन ८७६-८०
अतिमानसिक स्मरण-शक्ति ८८०- १
अतिमानसिक कल्पना-शक्ति ८८१
अतिमानसिक विवेक-शक्ति ८८१
अतिमानसिक तर्क ८८१-२
के ऊपर के स्तरों में ज्ञान-प्राप्ति की
प्रक्रिया ८८२
'अतिमानसिक विज्ञान पूर्णतया अनावृत
तभी... ८८२
७८
अतिमानसिक इन्द्रिय ८८३-९०६
भी है ८८३; अतिमानसिक विज्ञान,
अतिमानसिक प्रज्ञान, अतिमानसिक
संज्ञान [इन्द्रिय] ८८३-५
के ज्ञान का ढंग, अतिमानसिक विज्ञान
के ढंग से भिन्न ८८६
का अभिप्राय ८८६
९५९
-ज्ञान भगवान् का ८८६
की क्रिया ८८६-८
(२)
अतिमानसीकरण
भौतिक इन्द्रियों का ८८८-९०
चक्षुरिन्द्रिय का ८८९-९०
श्रवणेन्द्रिय का ८९१
स्पर्शेन्द्रिय का ८९१-२
प्राणेन्द्रिय का ८९२-५
(३)
'प्राणेन्द्रिय के दृग्विषय और चैत्य
दृग्विषय ८९६
'प्रच्छन्न मन-प्राण की क्रिया और इसके
संकटों के विषय में निरापद नियम
८९६-७
चैत्य चेतना एवं इन्द्रिय
में दर्शनेन्द्रिय प्रथम विकसित
८९७-८
की शक्तियां (पार्थिव या अतिपार्थिव
सत्ताओं के साथ सीधा संबंध, अंश
विभूति किसी अन्य स्थान पर प्रकट
करना, अन्य स्तरों की व परिपार्श्व की
शक्तियों, उपस्थितियों, प्रभावों के
प्रति सचेतनता...) ८९८-९०१
की शक्तियों का उपयोग ९०१
की शक्तियों का आध्यात्मिक उपयोग
९०१ -२
का अतिमानसिक रूपांतर ९०२-५
'इस रूपांतर के बाद जीव की अवस्था
९०५-६
७९
अतिमानसिक काल-दृष्टि की ओर
९०७-२७
'कालातीत 'अनन्त' और कालगत
'अनन्त' ९०७
'कालातीत अनन्त की चेतना में यदि
हमारा मन प्रवेश करे... ९०७-८
'कालातीत अनन्त और कालगत अनन्त
की एकीकृत अनन्त कालचेतना है
अतिमानसिक चेतना की ९०८
'मानव चेतना के आरोहण में तीन
क्रमिक अवस्थाएं : अज्ञानमय मन,
आत्मविस्मृतिपूर्ण ज्ञान से युक्त मन,
ज्ञानमय मन ९०९-१०
(त्रि) काल दृष्टि [वर्तमान, भूत, भविष्य
का ज्ञान]
अज्ञानमय मन
भविष्य के आकलन के इसके
साधन : बुद्धि ९१३-४ अंतर्ज्ञान
९१४-५ शकुन, स्वप्न, फलित
ज्योतिष ९१५; चैत्य चेतना और चैत्य
की ९११-८; भूत और
शक्तियों का उद्घाटन ९१५-८
और आत्मविस्मृतिपूर्ण ज्ञान से युक्त मन
९१८-९ इसमें अज्ञानमय मन का
हस्तक्षेप ९१९ (इलाज : अंतर्-
ज्ञानात्मक मन का विकास ९१९-
२१); हस्तक्षेप करनेवाली मानसिक
रचनाएं दो प्रकार की : व्यक्तिगत
इच्छाशक्ति और मन-बुद्धि की
रचनाएं ९२१-३
से संबंधित अतर्ज्ञानात्मक मन को यथार्थ
तथ्यों, संभाव्य पदार्थों तथा अटल
भावी वस्तुओं को -तीनों को देखना
होगा, अंत:प्रेरित मन, और
सत्योद्धासक मन का गठन करना
होगा ९२३-५
के लिये सीमित यंत्र है यह मन भी
९२५-६
की महत्तर पूर्णता और ज्ञानमय मन का
गठन ९२६-७
अतिमानसिक, की ओर ९२६-७
९६०
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.