योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय १०

 

विश्वात्मा का साक्षात्कार

 

जब हम मन, प्राण और शरीर से तथा उन और सब वस्तुओं से जो हमारी नित्य सत्ता नहीं हैं, पीछे हटते हैं तो हमारा पहला अनिवार्य लक्ष्य यह होता है कि हम आत्म-विषयक मिथ्या विचार से` मुक्त हों जायें । कारण, ऐसे विचार के द्वारा हम निम्नतर सत्ता के साथ अपने-आपको एक कर देते हैं और नश्वर या सदा-परिवर्तनशील जगत् में नश्वर या क्षर प्राणियों के रूप में अपनी प्रतीयमान सत्ता को ही हृदयंगम कर सकते हैं । हमें अपने-आपको पुरुष, आत्मा एवं सनातन सत्ता के रूप में जानना होगा; हमें सचेतन रूप से अपनी सच्ची सत्ता में निवास करना होगा । अतएव, ज्ञानमार्ग में यह हमारा सर्वप्रथम, एकमात्र और अनन्य न सही, पर मुख्य विचार एवं प्रयत्न अवश्य होना चाहिये । किन्तु जब हम सनातन आत्मा को जो हमारा निज स्वरूप है अनुभव कर लेते हैं, जब हम अवियोज्य रूप से वही बन जाते हैं, तब भी एक अवान्तर लक्ष्य प्राप्त करना हमारे लिये शेष रह जाता है । वह लक्ष्य है-यह सनातन आत्मा जो हमारा निज स्वरूप है तथा यह क्षर सत्ता एवं क्षर जगत् जिसे हमने आजतक मिथ्या रूप से अपनी वास्तविक सत्ता और अपनी एकमात्र सम्भवनीय स्थिति समझ रखा था-इन दोनों के बीच सच्चा सम्बन्ध स्थापित करना ।

 

किसी भी सम्बन्ध के वास्तविक होने के लिये यह आवश्यक है कि वह दो वास्तविक सत्ताओं के बीच में हो । पहले हमने यह समझ रखा था कि सनातन आत्मा यदि मिथ्या-माया नहीं तो एक ऐसा परोक्ष प्रत्यय अवश्य है जो हमारी पार्थिव सत्ता से बहुत दूर है । क्योंकि, तब वस्तुओं की प्रकृति को देखते हुए हम यह सोच ही नहीं सकते थे कि हम काल के प्रवाह मे बदलने और गति करनेवाले इस मन, प्राण और शरीर के सिवाय कोई और चीज हैं 1 जब एक बार हम इस निम्नतर स्थिति के बन्धन से मुक्त हों जाते हैं तो हम स्वभाववश आत्मा और जगत् के बीच के उसी गलत सम्बन्ध के दूसरे पक्ष को पकड़कर बैठ सकते हैं, हम इस सनातन सत्ता को जो हम उत्तरोत्तर बनते जाते हैं या जिसमें हम निवास करते हैं, एकमात्र वास्तविक सत्ता समझने लगते हैं और इसपर से संसार तथा मनुष्य को अपने-आपसे सुदूर एक माया एवं मिथ्या वस्तु के रूप में तुच्छता की दृष्टि से देखने लगते हैं, क्योकि यह एक ऐसी स्थिति है जो हमारे नये आधार के सर्वथा विपरीत है, जिसमें हम अब और अधिक अपनी चेतना की जड़ें नहीं जमाते, जिससे हम ऊपर उठकर रूपान्तरित हो चुके हैं, और जिसके साथ हम अब आगे के लिये कोई अनिवार्य सम्बन्ध रखते नहीं प्रतीत होते । यदि निम्नतर त्रिविध सत्ता

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से पराङ्मुख होते समय हमने सनातन आत्मा की प्राप्ति को अपना मुख्य ही नहीं, बल्कि एकमात्र एवं अनन्य लक्ष्य बनाया हो तो उपर्युक्त ढंग से संसार और मनुष्य को मिथ्या-माया समझना और भी अधिक सम्भव है । क्योंकि, तब हम इस मध्यवर्ती स्तर और उस शिखर के बीच के सोपानों को पार किये बिना एकदम, वेगपूर्वक शुद्ध मन से शुद्ध आत्मा की ओर चले जा सकते हैं और अपनी चेतना पर यह गहरी अनुभूति अंकित करते जा सकते हैं कि इन दोनों के बीच एक खाई है जिसपर हम, दुःखदायी पतन के बिना, पुल नहीं बांध सकते और जिसे हम अब पुन: पार भी नहीं कर सकते ।

 

परन्तु, आत्मा और जगत् में एक नित्य और घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा इन दोनों को जोड़नेवाला एक सूत्र भी है, इनके बीच कोई ऐसी खाई नहीं है जिसे छलांग लगाकर पार करने की जरूरत हो । आत्मा और जड़ जगत् एक क्रमबद्ध और विकसनशील सत्ता की सीढ़ी का सबसे उपरला और सबसे निचला डंडा हैं । अतएव, इन दो के बीच कोई वास्तविक सम्बन्ध एवं संयोजक सूत्र अवश्य होना चाहिये जिसके

द्वारा सनातन ब्रह्म शुद्ध आत्मा और पुरुष रहने के साथ-साथ अपने रचे विश्व को अपने अन्दर धारण करने में भी समर्थ है; और जो जीव सनातन के साथ एकीभूत या योगयुक्त है उसके लिये भी आज की भांति जगत् में अज्ञानपूर्वक डूबे रहने के बजाय दिव्य सम्बन्ध की इसी स्थिति को अपनाना अवश्य सम्भव होना चाहिये । सम्बन्ध जोड़नेवाला यह सूत्र है आत्मा और भूतमात्र की सनातन एकता; मुक्त जीव को यह सनातन एकता धारण करने में समर्थ होना चाहिये; ठीक वैसे ही जैसे नित्यमुक्त और बंधनातीत भगवान् इसे धारण करने में समर्थ हैं, और शुद्ध आत्मस्वरूप के साक्षात्कार के साथ, जिसे कि हमें अपना प्रथम लक्ष्य बनाना होगा, समान रूप से हमें इस एकता का भी साक्षात्कार करना होगा । पूर्ण आत्म-उपलब्धि के लिये हमें आत्मा एवं ईश्वर के साथ ही नहीं, बल्कि सब भूतों के साथ भी एकता प्राप्त करनी होगी । अपनी व्यक्त सत्ता के इस जगत् को हमें यथार्थ सम्बन्ध के साथ तथा सनातन सत्य की स्थिति में फिर से अपनाना होगा यह जानते हुए कि यह हमारे मनुष्य-भाइयों सें भरा दुआ है जिनसे हम इसलिये विमुख हो गये थे कि उनके साथ हम अशुद्ध सम्बन्ध के द्वारा और मिथ्यात्व की एक ऐसी स्थिति में बंधे हुए थे जिसे अपने समस्त विरोधों, विसंवादो और द्वंद्वों से युक्त विभक्त चेतना के सिद्धान्त ने काल में उत्पन्न किया था । हमें सभी पदार्थों और प्राणियों को अपनी नयी चेतना में फिर से अपनाना होगा, पर सबके साथ एक होकर, न कि अहंमय व्यष्टिभाव के द्वारा उनसे विभक्त रहकर ।

 

दूसरे शब्दों में, शुद्ध स्वयंभू और देशकालातीत परात्पर आत्मा की चेतना के अतिरिक्त हमें वैश्व चेतना को भी स्वीकार करना तथा उसके साथ एक होना होगा, हमें उस अनन्त के साथ अपनी सत्ता की एकता का साक्षात्कार करना होगा जो

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अपने-आपको सब लोकों का आदिमूल और आधार बनाता है और सर्वभूतों में निवास करता है । यह वह साक्षात्कार है जिसे प्राचीन वेदान्तियों ने 'आत्मा में सब भूतों का दर्शन और सब भूतों में आत्मा का दर्शन' कहा है; और इसके साथ ही वे एक ऐसे मनुष्य के सर्वोच्च साक्षात्कार का भी वर्णन करते हैं जिसमें सत्ता का आदि चमत्कार फिर से घटित हुआ है, अर्थात् जिसे इस साक्षात्कार की प्राप्ति हुई है कि 'उसकी अपनी सत्ता, आत्मा, ने ही व्यक्त सत्ता के लोकों के इन सब भूतों का रूप धारण कर रखा है ।' इन तीन सूत्रों में मूल रूप से, आत्मा और जगत् के उस समस्त वास्तविक सम्बन्ध का वर्णन आ गया है जो हमें संकीर्णकारी अहं के पैदा किये हुए मिथ्या सम्बन्ध के स्थान पर स्थापित करना होगा । अनन्त सत्ता के सम्बन्ध में यही वह नयी दृष्टि और अनुभूति है जो हमें प्राप्त करनी होगी, सबके साथ उक्त प्रकार की एकता का यही वह आधार है जिसकी हमें स्थापना करनी होगी ।

 

कारण, हमारी वास्तविक आत्मा व्यक्तिगत मानसिक सत्ता नहीं है, यह केवल एक रूप है, एक प्रतीति है; हमारी वास्तविक आत्मा तो विश्वव्यापी और अनन्त है, वह समस्त सत्ता के साथ एकीभूत तथा सर्वभूतों के अन्दर विराजमान है । हमारे मन, प्राण और शरीर के पीछे जो आत्मा विद्यमान है वह वही है जो हमारे सब मानव-बन्धुओं के मन, प्राण और शरीर के पीछे है, और यदि हम उसे प्राप्त कर लें, तो जब हम पुनः उनपर दृष्टिपात करने के लिये मुड़ेंगे, हम अपनी चेतना के सामान्य आधार में उनके साथ स्वभावत: ही एक होते चले जायेंगे । यह सच है कि मन ऐसे किसी भी तादात्म्य का विरोध करता है और यदि हम उसे उसकी पुरानी आदतों और चेष्टाओं पर अड़े रहने दें तो वह वस्तुओं-सम्बन्धी इस वास्तविक और सनातन अन्तर्दृष्टि के अनुरूप अपने-आपको ढालने तथा इसके अनुसार बरतने की अपेक्षा कहीं अधिक हमारे नये आत्म-साक्षात्कार एवं आत्मोपलब्धि पर फिर से अपनी विरोध-विषमताओं का पर्दा डालने का ही यत्न करेगा । परन्तु सर्वप्रथम, यदि हम अपने योग के मार्ग पर ठीक विधि से आगे बढ़े हों तो मन और हृदय के शुद्ध हो जाने से हम आत्मा को प्राप्त कर चुके होंगे, और शुद्ध मन का मतलब है एक ऐसा मन जो ज्ञान के प्रति अनिवार्य रूप से निष्किय और उन्मुक्त रहता है । दूसरे, मन को उसकी सीमित और विभाजित करने की प्रवृत्ति के होते हुए भी यह सिखाया जा सकता है कि वह संकीर्णताजनक प्रतीति के खण्डित रूपों के अनुसार विचार करने के स्थानपर एकीकारक सत्य के सामंजस्यपूर्ण स्वर के अनुसार विचार करे । अतएव, ध्यान और एकाग्रता के द्वारा हमें उसमें यह अभ्यास डालना चाहिये

 

'यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।

   सर्वभूतेषु चात्मान ततो न विजुगुप्सते ।।

   यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानत: ।

   तत्र को मोह: क: शोकः एकत्वमनुपश्यतः ।। --ईश उपनिषद्

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कि वह पदार्थों और प्राणियों के विषय में इस रूप में सोचना छोड़ दे कि ये अपने-आपमें पृथक् रूप से अस्तित्व रखते हैं, और इसके स्थान पर सदैव यों सोचे कि 'एकं सत्' ही सब जगह ओतप्रोत है और सब वस्तुओं के विषय में इस रूप में विचार करे कि ये 'एकं सत्' ही हैं । यद्यपि इससे पहले हम कह आये हैं कि जीव की मन, प्राण और शरीर से अलग होने की क्रिया ज्ञान-प्राप्ति की सबसे पहली आवश्यक विधि है और मानो अपने-आपमें केवल इसी का अनुसरण करना चाहिये, पर वास्तव में पूर्णयोग के साधक के लिये इन दोनों क्रियाओं का एक साथ अभ्यास करना अधिक अच्छा है । इनमें से एक के द्वारा वह अपने अन्दर आत्मा को प्राप्त करेगा, दूसरी के द्वारा वह उन सब चीजों में भी जो इस समय हमें अपने से बाहर प्रतीत होती हैं, इसी आत्मा को प्राप्त करेगा । निःसन्देह, कोई साधक इस दूसरी क्रिया से साधना आरम्भ कर सकता है, अर्थात् पहले वह इस दृश्य एवं इन्द्रियगोचर जगत् में सभी वस्तुओं को ईश्वर, ब्रह्म या विराट् पुरुष के रूप में अनुभव कर सकता है और फिर इसके परे, जो कुछ भी विराट् के पीछे अवस्थित है उस सब की ओर अग्रसर हो सकता है । परन्तु इस विधि में कुछ कठिनाइयां हैं और अतएव, यदि यह सम्भव जान पड़े तो, इन दोनों क्रियाओं को एक साथ चलाना अधिक अच्छा होगा ।

 

हम देख ही चुके हैं कि सब वस्तुओं में इस प्रकार ईश्वर या ब्रह्म का साक्षात्कार करने के तीन रूप हैं । इन्हें हम सुविधा के लिये अनुभव की तीन क्रमिक भूमिकाओं का रूप दे सकते हैं । सर्वप्रथम हमें उस विराट् आत्मा का अनुभव होता है जिसमें सब प्राणी जीवन धारण करते हैं । आत्मा एवं भगवान् ने एक ऐसी स्वयंभू शुद्ध, अनन्त और व्यापक सत्ता के रूप में अपने-आपको व्यक्त किया है जो देश और काल के अधीन नहीं है, बल्कि इन्हें अपनी चेतना के आकारों के रूप में धारण करती है । वह विश्व की सब वस्तुओं से अधिक कुछ है और इन सबको अपनी स्वतःव्याप्त सत्ता और चेतना में समाये हुए है । जिन भी चीजों को वह उत्पन्न और धारण करती है या जिन भी चीजों का रूप ग्रहण करती है उनमें से किसी से भी वह बंधी हुई नहीं है, बल्कि मुक्त, अनन्त और आनन्दमय है । एक प्राचीन रूपक के शब्दों में, वह उन्हें उसी प्रकार धारण करती है जिस प्रकार अनन्त आकाश अपने अन्दर सब पदार्थों को धारण करता है । किसी-किसी साधक को एक ऐसी वस्तु पर जो उसे आरम्भ में एक अमूर्त एवं अग्राह्य विचार-सी प्रतीत होती है ध्यान एकाग्र करने में कठिनाई प्रतीत होती है । उसके लिये आकाश-ब्रह्म का यह रूपक क्रियात्मक दृष्टि से, निश्चय ही, अत्यधिक सहायक हो सकता है । भौतिक आकाश के नहीं, बल्कि विशाल सत् चित् आनन्द के सर्वतोव्यापी आकाश के इस रूपक में वह इस परमोच्च सत्ता का मन के द्वारा दर्शन करने तथा अपनी मनोमय सत्ता में इसका अनुभव करने और इसके साथ अपनी अन्तःस्थ

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आत्मा की एकता का ज्ञान प्राप्त करने का यत्न कर सकता है । ऐसे ध्यान के द्वारा मन को उन्मुखता की एक ऐसी अनुकूल अवस्था में लाया जा सकता है जिसमें पर्दे के फट जाने या हट जाने से अतिमानसिक अन्तर्दृष्टि का प्रवाह हमारे मन को परिप्लुत कर सकता है और हमारी समस्त दृष्टि को पूर्ण रूप से पलट सकता है । और, जैसे-जैसे दृष्टि का यह परिवर्तन अधिकाधिक सबल एवं सुदृढ़ होता जायगा तथा हमारी सारी चेतना को अपने अधिकार में करता जायगा, वैसे-वैसे अन्तत: हमारे बाह्य जीवन में भी परिवर्तन आता जायगा और, फलत:, जो कुछ हम देखते हैं, वही हम स्वयं बन भी जायेंगे । हमारी चेतना उतनी विराट् नहीं जितनी कि वह विराट् से भी परतर एवं अनन्त बन जायेगी । तब मन, प्राण और शरीर उस अनन्त चेतना में जो कि हम बन गये हैं, केवल विशेष प्रकार की गतियों के रूपमें प्रतीत होंगे, और हम देखेंगे कि जिस वस्तु का वास्तव में अस्तित्व है वह जगत् बिल्कुल नहीं है, बल्कि आत्मा की यह अनन्त सत्ता ही है जिसमें उसकी अपनी आत्म-सचेतन अभिव्यक्ति के रूपों के शक्तिशाली वैश्व सामंजस्य विचरण करते हैं ।

 

तो फिर इस सामंजस्य का गठन करनेवाले इन सब रूपों और सत्ताओं का क्या होगा ? क्या ये सब हमारे लिये केवल प्रतिमाएं होंगे, अन्दर से गठन करनेवाली किसी भी सद्वस्तु से रहित कोरे नाम-रूप तथा अपने-आपमें क्षुद्र एवं निरर्थक वस्तुएं होंगे और चाहे किसी समय ये हमारी मानसिक दृष्टि को कैसे ही भव्य, शक्तिशाली या सुन्दर क्यों न लगते रहे हों, पर अब क्या इन्हें त्याग देना होगा तथा कौड़ी कीमत का भी नहीं समझना होगा? नहीं, ऐसा नहीं; यद्यपि, सर्वाधारस्वरूप आत्मा में समाविष्ट अनन्त सत्ताओं का त्याग कर केवल उस आत्मा की अनन्तता में ही अत्यन्त प्रगाढ़ रूप से लीन रहने का पहला स्वाभाविक परिणाम ऐसा ही होगा । परन्तु ये चीजें वास्तविकता से शून्य नहीं हैं, विराट् मन के द्वारा कल्पित मिथ्या नाम-रूपमात्र नहीं हैं; जैसा कि हम कह चुके हैं, ये अपने वास्तविक रूप में आत्मा की सचेतन अभिव्यक्तियां हैं, अर्थात् आत्मा हमारी ही तरह इन सबके अन्दर भी उपस्थित है, इनसे सचेतन है तथा इनकी गति को नियन्त्रित करता है, जिन चीजों का रूप वह ग्रहण करता है, उनके अन्दर आनन्दपूर्वक निवास करता है तथा आनन्दपूर्वक ही उन्हें अपने अन्दर समाये रहता है । जैसे आकाश घट को अपने अन्दर धारण करता है और साथ ही मानों उसमें समाया भी रहता है वैसे ही यह आत्मा सब भूतों को धारण करता है और साथ ही उनमें व्याप्त भी रहता है, --भौतिक नहीं, वरन् आध्यात्मिक अर्थ में; और यही उनकी वास्तविक सत्ता है । आत्मा के इस अन्तर्व्यापी स्वरूप का हमें साक्षात्कार करना होगा; सब भूतों में अवस्थित इस आत्मा के हमें दर्शन करने होंगे और अपनी चेतना में हमें यही बन जाना होगा । अपनी बुद्धि और मानसिक संस्कारों के समस्त निरर्थक प्रतिरोध को एक ओर रखकर हमें यह जानना होगा कि भगवान् इन सब व्यक्त पदार्थों में

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निवास कर रहे हैं और इनका सच्चा आत्म-स्वरूप तथा चेतन आत्म-तत्त्व हैं और यह ज्ञान हमें केवल बुद्धि से नहीं, बल्कि एक ऐसे आत्मानुभव सें भी प्राप्त करना होगा जो हमारी मानसिक चेतना के सभी अभ्यासों को बलपूर्वक अपने दिव्यतर सांचे मे ढाल देगा ।

 

इस आत्मा को जो हमारा निज स्वरूप है, अन्तत:, हमारी आत्म-चेतना के प्रति इस रूप में प्रकट करना होगा कि यह इन सब भूतों को अतिक्रम करता हुआ भी इन सबके साथ पूर्णतया एक है । हमें इसे केवल एक ऐसे आत्मा के रूप में नहीं देखना होगा जो सबको धारण करता है तथा सबमें व्याप्त है, वरन् ऐसे आत्मा के रूप में भी जो सब कुछ है, जो घट-घटवासी आत्मा ही नहीं है, बल्कि नाम और रूप भी है, गति और गति का स्वामी है तथा मन, प्राण और शरीर भी है । इस अन्तिम साक्षात्कार के द्वारा ही हम उन सब चीजों को जिनसे हम निवृत्ति और पराङ्मुखता की पहली क्रिया में पीछे हट गये थे, यथार्थ संतुलन की तथा सत्य के अन्तर्दर्शन की अवस्था में फिर से पूर्णतया ग्रहण कर लेंगे । अपने व्यक्तिगत मन, प्राण और शरीर को जिनसे हम, उन्हें अपनी सच्ची सत्ता न समझते हुए विमुख हो गये थे, आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति के रूप में फिर से अंगीकार कर लेंगे, पर हां, अब हम उन्हें निरी वैयक्तिक संकीर्णता के साथ ग्रहण नहीं करेंगे । मन को हम एक क्षुद्र गति में आबद्ध पृथक् मन के रूप में नहीं, बल्कि वैश्व मन की विशाल गति के रूप में ग्रहण करेंगे, प्राण को जीवन-शक्ति, संवेदन और कामना की अहंभावमय चेष्टा के रूप में नहीं, बल्कि वैश्व प्राण की मुक्त क्रिया के रूप में, शरीर को आत्मा के भौतिक कारागार के रूप में नहीं, बल्कि एक गौण यंत्र तथा उतारकर अलग कर सकने योग्य वस्त्र के रूप में ग्रहण करेंगे, -इसे भी हम वैश्व जड़तत्त्व की एक गति तथा विश्व-शरीर का एक कोषाणु अनुभव करेंगे । भौतिक जगत् की समस्त चेतना को हम अपनी भौतिक चेतना के साथ एकमय अनुभव करने लगेंगे, अपने चारों ओर व्याप्त विश्व-प्राण की समस्त शक्तियों को अपनी ही शक्तियां अनुभव करेंगे, दिव्य आनन्द के साथ तालमेल साधे हुए अपने हृदय के स्पन्दनों में हम महान् वैश्व आवेग और कामना के सभी हृत्-स्पन्दनों को अनुभव करेंगे, वैश्व मन की समस्त क्रिया को अपने मन के अन्दर प्रवाहित होते हुए अनुभव करेंगे और अपनी विचारक्रिया को बाहर उस वैश्व मन की ओर, विशाल सागर में लहर की भांति, प्रवाहित होते अनुभव करेंगे । अतिमानसिक सत्य की ज्योति में और आध्यात्मिक आनन्द के स्पन्दन में समस्त मन, प्राण और जड़तत्त्व का आलिंगन करनेवाली यह एकता ही हमारे लिये पूर्ण वैश्व चेतना में भगवान् की हमारे अपने अन्दर चरितार्थता होगी ।

 

पर

, क्योकि हमें इस सबका आलिंगन सत्ता और अभिव्यक्ति के दोहरे रूप में करना होगा, जो ज्ञान हम प्राप्त करें वह पूर्ण और समग्र होना चाहिये । उसे शुद्ध

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पुरुष और आत्मा के साक्षात्कार पर ही नहीं रुक जाना होगा, बल्कि आत्मा के उन सब रूपों को भी अपने अन्दर समाविष्ट करना होगा जिनके द्वारा वह अपनी विराट् अभिव्यक्ति का धारण, भरण और विकास करता है तथा इसमें अपने-आपको व्यक्त करता है । मतलब यह कि ब्रह्म-शान के सर्वग्राही एवं व्यापक क्षेत्र में आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान को एक कर देना होगा ।

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