योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ३

 

विशुद्ध बुद्धि

 

ज्ञान की जिस भूमिका की हम अभीप्सा करते हैं उसका वर्णन ज्ञान के उन साधनों को निर्धारित कर देता है जिनका कि हम प्रयोग करेंगे ।  संक्षेप में यूं कहा जा सकता है कि ज्ञान की वह भूमिका एक अतिमानसिक उपलब्धि है जो मानसिक प्रतिरूपों के द्वारा हमारे अन्दर के नाना मानसिक तत्वों की सहायता से तैयार की जाती है और जो एक बार प्राप्त हो जाने पर फिर अपने-आपको हमारी सत्ता के सभी अंगों में अधिक पूर्णता के साथ प्रतिफलित करती है । यह उस भगवानन, एकमेव तथा सनातन के प्रकाश में, जो वस्तुओं की प्रतीतियों के एवं हमारी स्थूल सत्ता की बाह्य अवस्थाओं के प्रति अधीनता से मुक्त है, हमारी सम्पूर्ण सत्ता का पुनरवलोकन और अतएव पुनर्निर्माण है ।

 

     'मानवीय' से 'दैवी' की ओर 'विभक्त' और 'विसंवादी' से 'एकमेव' तथा 'दृग्विषय' से सनातन सत्य की ओर इस प्रकार के प्रयाण में एवं आत्मा के ऐसे पूर्ण पुनर्जन्म या नव-जन्म में दो अवस्थाएं अवश्यमेव आती हैं : एक अवस्था तैयारी की होती है जिसमें आत्मा तथा इसके करण योग्य बनते हैं, और, दूसरी, तैयार आत्मा में इसके योग्य करणों के द्वारा वास्तविक प्रकाश और उपलब्धि के उदय की । निःसन्देह इन दो अवस्थाओं के बीच काल-क्रम की कोई कठोर सीमारेखा नहीं है; बल्कि ये एक-दूसरी के लिये आवश्यक हैं और एक साथ चलती रहती हैं । कारण, जितनी- जितनी आत्मा योग्य बनती है उतनी-उतनी यह अधिक प्रकाशमय होती जाती है और ऊंची-से-ऊंची एवं पूर्ण-से-पूर्ण उपलब्धियों की ओर ऊपर उठती है, और जितक-जितना ये प्रकाश और ये उपलब्धियां बढ्ती हैं, उतनी-उतनी यह योग्य बनती है और उतना-उतना इसके करण अपने कार्य में अधिक समर्थ होते जाते हैं । आत्मा के प्रकाशरहित तैयारी के काल भी होते हैं और प्रकाशयुक्त प्रगति के काल भी, और अन्त में प्रकाशपूर्ण उपलब्धि की कम या अधिक लंबी आत्मिक घड़ियां भी आती हैं, ऐसी घड़ियां जो बिजली की चमक की न्याई क्षणिक होती हैं और फिर भी हमारा सम्पूर्ण आध्यात्मिक भविष्य पलट देती हैं; साथ ही, ऐसी घड़ियां भी आती हैं जो सत्य के सूर्य के अविच्छिन्न प्रकाश या रश्मि-जाल में अनेक मानवीय घण्टों, दिनों एवं सप्ताहों तक चलती रहती हैं । इन सबमें से होती हुई आत्मा, जो एक बार ईश्वर की ओर मुड़ चुकी है, अपने नये जन्म तथा वास्तविक अस्तित्व की नित्यता एवं पूर्णता की ओर विकसित होती जाती है ।

 

     तैयारी का सबसे पहला आवश्यक तत्त्व अपनी सत्ता के सभी अंगों को शुद्ध करना है; विशेषकर, ज्ञान-मार्ग के लिये, बुद्धि को शुद्ध करना आवश्यक है, यह

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शुद्धि एक ऐसी कुंजी है जो निश्चय ही सत्य का द्वार खोल देती है; पर अन्य अंगों को शुद्ध किये बिना बुद्धि को शुद्ध कर लेना शायद ही सम्भव हो । अशुद्ध हृदय, अशुद्ध इन्द्रिय, अशुद्ध प्राण बुद्धि को विभ्रान्त कर देते हैं, इसकी सामग्री को अस्त-व्यस्त, इसके निष्कर्षों को विकृत एवं इसकी दृष्टि को तमसावृत कर देते हैं और इसके ज्ञान का अशुद्ध प्रयोग करते हैं; अशुद्ध देह-संस्थान इसकी क्रिया को अवरुद्ध या प्रतिबद्ध कर देता है । अतएव, सर्वांगीण शुद्धि आवश्यक है । यहां भी अन्योन्य-निर्भरता देखने में आती है, क्योंकि हमारी सत्ता के प्रत्येक अंग का शोधन अन्य प्रत्येक अंग की शुद्धता से लाभान्वित होता है । उदाहरणार्थ, जैसे-जैसे भाविक हृदय अधिकाधिक शान्त होता जाता है वैसे-वैसे वह बुद्धि के शुद्ध करने में सहायक होता है; उधर शुद्ध बुद्धि, उसी प्रकार, अद्यावधि अपवित्र हद्भावों के मलिन एवं तमसाच्छन्न व्यापारों में शान्ति एवं प्रकाश की स्थापना करती है । यहां तक भी कहा जा सकता है कि यद्यपि हमारी सत्ता के प्रत्येक अंग के शोधन के अपने विशिष्ट नियम हैं तथापि शुद्ध बुद्धि ही मनुष्य में उसकी मलिन एवं अव्यवस्थित सत्ता का अत्यधिक शक्तिशाली शोधक है और जो उसके अन्य अंगों को समुचित क्रिया करने के लिये अत्यन्त प्रभुत्वशाली ढंग से विवश करता है । गीता कहती है कि ज्ञान परम पवित्र वस्तु है; प्रकाश समस्त निर्मलता एवं समस्वरता का स्रोत है जैसे कि अज्ञानान्धकार हमारे समस्त स्खलनों का मूल है । उदाहरणार्थ, प्रेम हृदय का शोधक है और हमारे सब भावों को दिव्य प्रेम के प्रतिरूपों में परिणत करने से हमारा हदय पूर्णता एवं कृतार्थता लाभ करता है, फिर भी स्वयं प्रेम को दिव्य ज्ञान के द्वारा पवित्र करने की आवश्यकता होती है । हृदय का ईश्वर-सम्बन्धी प्रेम अन्ध, संकीर्ण एवं अज्ञानयुक्त हो सकता है और वह धर्मान्धता और अन्धकारप्रियता की ओर ले जा सकता है; यहांतक कि, अन्य प्रकार से शुद्ध होने पर भी, वह ईश्वर को सीमित व्यक्तित्व के सिवाय अन्यत्र कहीं देखना अस्वीकार करके तथा सच्चे एवं अनन्त दिव्य दर्शन से पीछे हटकर हमारी पूर्णता को सीमित कर सकता है । इसी प्रकार हृदय का मानव-सम्बन्धी प्रेम भी भाव, कर्म एवं ज्ञान की विकृतियों एवं अतिरंजनाओं की ओर ले जा सकता है । अतएव, इन्हें बुद्धि के परिशोधन के द्वारा सुधारना और रोकना होगा ।

 

     तथापि हमें इस विषय पर गहराई के साथ और स्पष्ट रूप से विचार करना होगा कि अंडरस्टैण्डिंग (understanding--बुद्धि) तथा इसके शोधन से हमारा क्या अभिप्राय है । 'अंडरस्टैण्डिंग' शब्द का प्रयोग हम संस्कृत के दार्शनिक शब्द 'बुद्धि' के अंग्रेजी भाषा में प्राप्य निकटतम पर्याय के रूप में करते हैं; अतएव, हम 'इससे इन्द्रिय-मानस के उस व्यापार को बहिष्कृत कर देते हैं जो सब प्रकार के बोधों को, बिना किसी भेद के, चाहे वे ठीक हों या गलत, सच्चे दृग्विषय हों या निरे मिथ्या, सूक्ष्म हों या स्थूल, केवल अपने अन्दर अंकित कर लेता है । विशृंखल

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परिकल्पनाओं के उस समूह को भी हम इससे बहिष्कृत कर देते हैं जो इन बोधों का उल्थामात्र है और जो इन्हीं की भांति निर्णय एवं विवेक के उच्चतर तत्त्व से शून्य है । अभ्यासगत विचारों की उस उछल-कूद मचानेवाली अविच्छिन्न धारा को भी हम इसके अन्तर्गत नहीं कर सकते जो औसत अविचारशील मनुष्य के मन में बुद्धि का काम करती है, पर जो केवल अभ्यस्त संस्कारों, कामनाओं, पक्षपातों, पूर्वनिर्णयों, अन्यलब्ध या परम्पराप्राप्त अभिरुचियों की अनवरत आवृत्तिमात्र होती है, भले वह उन प्रत्ययों की, जो परिपार्श्व से हमारे भीतर प्रवाहित होते हैं और प्रभुत्वपूर्ण विवेककारी बुद्धि की चुनौती के बिना प्रविष्ट होने दिये जाते हैं, अभिनव निधि से अपनेको निरन्तर समृद्ध ही क्यों न करती रहे । इसमें सन्देह नहीं कि यह एक ऐसी बुद्धि है जो पशु से मनुष्य के विकसित होने में अत्यन्त उपयोगी रही है; परन्तु यह पशु के मन से केवल एक कदम ही ऊपर है; यह अर्द्ध-पाशविक बुद्धि है जो अभ्यास, कामना एवं इन्द्रियों की दासी है और वैज्ञानिक या दार्शनिक या आध्यात्मिक कैसे भी ज्ञान की खोज के लिये किसी काम की नहीं है । हमें इसके परे जाना होगा; इसका शोधन केवल इस प्रकार किया जा सकता है कि इसे पूर्ण रूप से पदच्युत या शान्त कर दिया जाये अथवा इसे वास्तविक बुद्धि में रूपान्तरित कर दिया जाये ।

 

     बुद्धि से हमारा अभिप्राय उस बुद्धि से है जो एक ही साथ अवलोकन, निर्णय और विवेक करती है, अर्थात् मानव प्राणी की उस सच्ची बुद्धि से है जो इन्द्रियगण एवं कामना के या अभ्यास की अन्ध शक्ति के वश में नहीं है, बल्कि जो प्रभुत्व और ज्ञान के लिये अपने निज अधिकार से ही कार्य करती है । निःसन्देह, मनुष्य जैसा आज है उसकी बुद्धि अपनी सर्वोत्तम अवस्था में भी पूर्णरूपेण इस स्वतन्त्र और प्रभुत्वशाली ढंग से कार्य नहीं करती; पर जहांतक यह असफल होती है उसका कारण यह होता है कि यह अभीतक भी निम्नतर अर्द्ध-पाशविक क्रिया से मिश्रित है तथा अशुद्ध है और अपनी विशिष्ट क्रिया से निरन्तर रोकी जाती एवं नीचे की ओर खींची जाती है । अपनी शुद्धावस्था में इसे इन निम्नतर गतियों में उलझे नहीं रहना चाहिये, बल्कि अपने विषय से पीछे हटकर स्थित होना चाहिये, और निष्पक्ष भाव से उसका निरीक्षण करके अन्यों के साथ साम्य और भेदमूलक तुलना एवं उपमान के बल पर समष्टि में उसे उसके समुचित स्थान पर रखना चाहिये, अपनी सुनिरीक्षित सामग्री के आधार पर निगमन, व्याप्ति एवं अनुमान के द्वारा तर्क-वितर्क करना चाहिये और अपनी सब प्राप्तियो को स्मृति में धारण करके तथा एक परिशोधन एवं सुनिर्देशित कल्पना के द्वारा उन्हें परिपूर्ण बनाकर सब कुछ को एक प्रशिक्षित एवं अनुशासित निर्णय के प्रकाश में देखना चाहिये । यही है बौद्धिक प्रज्ञा जिसके नियम एवं विशेषतासूचक व्यापार निष्पक्ष निरीक्षण, निर्णय और तर्कणा होते हैं ।

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     परन्तु 'बुद्धि' शब्द एक अन्य अधिक गंभीर अर्थ में भी प्रयुक्त किया जाता है । बौद्धिक प्रज्ञा केवल निम्नतर बुद्धि है; एक अन्य उच्चतर बुद्धि भी है जो प्रज्ञा नहीं बल्कि दृष्टि है, नीचे स्थित होना नहीं, वरन् ज्ञान में ऊपर स्थित होना है, और जो ज्ञान की खोज एवं प्राप्ति निरीक्षित सामग्री के अधीन रहकर नहीं करती, बल्कि सत्य को पहले से ही अपने अन्दर रखती है और सत्यदर्शक एवं अन्तर्ज्ञानात्मक विचार के रूपों में उसे प्रकट करती है । साधारणतया मानव मन इस सत्य-सचेतन ज्ञान के अधिक-से-अधिक निकट जिस ज्ञान-क्रियातक पहुंचता है वह प्रकाशयुक्त खोज की वह अपूर्ण क्रिया ही होती है जो तब घटित होती है जब विचार का अत्यधिक दबाव पड़ता है, और जब बुद्धि पर्दे के पीछे से निकलनेवाले अविच्छिन्न विद्युत्-कणों से आविष्ट हो जाती है तथा उच्चतर उत्साह के वशीभूत होकर ज्ञान की बोधिमूलक एवं अन्त:प्रेरित शक्ति से एक प्रचुर अन्तःप्रवाह को प्रवेश करने देती है । कारण, मनुष्य में एक बोधिमय मन है जो अतिमानसिक शक्ति से आनेवाले इन अन्तःप्रवाहों के ग्रहीता एवं इनकी प्रणालिका का काम करता है । परन्तु हमारे अन्दर बोधि और अन्तःप्रेरणा की क्रिया अपूर्ण ढंग की और रुक-रुककर होती है; साधारणतया, यह श्रमरत एवं संघर्षशील हृदय या बुद्धि की मांग के प्रत्युत्तर के रूप में आरम्भ होती है और इसके परिणाम सचेतन मन में प्रवेश करने से भी पहले उस विचार या अभीप्सा के द्वारा, जो उनसे मिलने के लिये ऊपर उठी थी, प्रभावित हो जाते हैं, वे शुद्ध नहीं रहते, बल्कि हृदय की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तित हो जाते हैं: और जब वे सचेतन मन में प्रविष्ट होते हैं तो हमारी बौद्धिक प्रज्ञा उन्हें तुरन्त ही अपने अधिकार में कर लेती है और विकीर्ण या छिन्न-भिन्न कर डालती है जिससे कि वे हमारे अपूर्ण बौद्धिक ज्ञान के साथ ठीक बैठ जायें, अथवा हमारा हृदय उन्हें अपने अधिकार में कर लेता है और उन्हें नये सिरे से इस प्रकार ढालता है कि हमारी अन्ध या अर्द्ध-अन्ध हृद्गत लालसाओं एवं अभिरुचियों के अनुकूल बन जायें, अथवा यहांतक कि निम्नतर तृष्णाएं भी उन पर अपना अधिकार जमा लेती हैं और उन्हें हमारी सुधाओं एवं आवेगों के उग्र प्रयोजनों के लिये विकृत कर डालती हैं ।

 

     यदि यह उच्चतर बुद्धि इन निम्नतर अंगों के हस्तक्षेप से निर्मुक्त रहकर कार्य कर सके तो यह सत्य के शुद्ध रूपों को प्रकट करेगी; तब निरीक्षण एक ऐसी अन्तर्दृष्टि के अधीन हो जायेगा या उसे अपना स्थान दे देगा जो इन्द्रिय-मानस तथा इन्द्रियों की साक्षी पर दासवत् आश्रित रहे बिना देख सकेगी; कल्पना सत्य की स्वयं-निश्चित अनुप्रेरणा को स्थान दे देगी, तर्क सम्बन्धों के स्वयंस्फूर्त्त विवेक को

 

       भागवत पुरुष को 'अध्यक्ष' कहा गया है, अध्यक्ष अर्थात् वह पुरुष जो सबके ऊपर परम व्योम में विराजमान रहकर वस्तुओं का अधीक्षण करता है, उन्हें ऊपर से देखता और नियन्त्रित करता है ।

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और तर्क का परिणाम एक ऐसे अन्तर्ज्ञान को स्थान दे देगा जो उन सम्बन्धों को अपने अन्दर निहित रखेगा न कि उनके आधार पर श्रमपूर्वक परिणाम निकालेगा, निर्णय एक ऐसी विचार-दृष्टि को स्थान दे देगा जिसके प्रकाश में सत्य उस पर्दे को जिसे यह आज ओढ़े हुए है और जिसका भेदन हमारे बौद्धिक निर्णय को करना पड़ता है हटाकर प्रकाशित हो जायेगा । उधर 'स्मृति' भी वह अधिक व्यापक अर्थ ग्रहण कर लेगी जो ग्रीक चिन्तन में उसे दिया गया है, वह अब पहले की तरह उस भंडार में से जो व्यक्ति ने अपने वर्तमान जीवन में उपलब्ध किया है, एक तुच्छ चुनाव नहीं रहेगी, प्रत्युत वह एक ऐसा ज्ञान बन जायगी जिसके अन्दर सब कुछ निहित है, जो उन सब चीजों को जिन्हें आज हम कष्टपूर्वक अर्जित करते प्रतीत होते हैं, पर वस्तुत: इस अर्थ में जिन्हें हम स्मरणमात्र करते हैं, अपने अन्दर गुप्त रूप से धारण करता है तथा अपने अन्दर से निरन्तर देता रहता है, वह एक ऐसा ज्ञान बन जायगी जो भूत के समान ही भविष्य को भी अपने अन्दर समाविष्ट रखता है । निःसन्देह यह अभिमत ही है कि हम सत्य-सचेतन ज्ञान की इस उच्चतर शक्ति के प्रति अपनी ग्रहणशीलता में विकसित होंवे, परन्तु इसके पूर्ण एवं अपरोक्ष प्रयोग का सौभाग्य अभीतक देवताओं को ही प्राप्त है और यह हमारी वर्तमान मानवीय अवस्था से परे की वस्तु है ।

 

     इस प्रकार हमने देखा कि बुद्धि और उस उच्चतर शक्ति से, हमारा ठीक अभिप्राय क्या है जिसे हम सुविधा के लिये आदर्श शक्ति कह सकते हैं और जिसका विकसित बुद्धि के साथ बहुत कुछ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा इस बुद्धि का अविकसित मनुष्य की अर्द्ध-पाशविक बुद्धि से है; इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बुद्धि के लिये यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में अपना भाग यथावत् पूर्ण कर सकने के पूर्व उसके जिस शोधन की आवश्यकता है उसका स्वरूप क्या है । अशुद्धतामात्र का अर्थ है क्रिया की गड़बड़ी, वस्तुओं के धर्म से अर्थात् उनके युक्त एवं स्वभावत: उचित व्यापार से विस्मृति, ऐसी वस्तुओं के जो अपने उस उचित व्यापार में विशुद्ध तथा हमारी पूर्णता में सहायक होती हैं । इस प्रकार की विच्युति प्रायः धर्मों के उस अज्ञानयुका संकर (confusion) का परिणाम होती है जिसमें कोई कार्यकारी शक्ति अपनी विशिष्टतया निजी प्रवृत्तियों से भिन्न अन्य प्रवृत्तियों की मांग का अनुसरण करने लगती है ।

 

     बुद्धि की अशुद्धता का प्रथम कारण विचार की क्रियाओं में कामना का मिश्रण है, और स्वयं कामना भी हमारी सत्ता के प्राणिक एवं भाविक अंगों मे अन्तर्निहित इच्छा-शक्ति की एक अशुद्धि है । जब प्राण और हृदय की कामनाएं शुद्ध ज्ञानेच्छा में हस्तक्षेप करती हैं, तब विचार-क्रिया उनके अधीन हो जाती है, अपने विशिष्ट लक्ष्यों से भिन्न लक्ष्यों का अनुसरण करती है और इसके बोध प्रतिहत और अस्त-- 

 

        इस अर्थ में भविष्यवाणी। की शक्ति की ठीक ही भविष्य की स्मृति कहा गया है ।

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व्यस्त हो जाते हैं | बुद्धि को कामना और हद्भाव के घेरे से ऊपर उठना होगा और इसके आक्रमण से पूर्णतया मुक्त होने के लिये इसे स्वयं प्राणिक भागों एवं भावावेगों को भी शुद्ध कर लेना होगा । उपभोग की इच्छा प्राणिक सत्ता का निज धर्म है, पर उपभोग का चुनाव या पीछा करना इसका काम नहीं है, उसका निर्धारण तथा उपार्जन तो उच्चतर कार्य-शक्तियों को ही करना होगा; अतएव, प्राणसत्ता को यह सिखाना होगा कि भागवत संकल्प की क्रिया के अनुसार प्राण के यथावत् कार्य करने में जो कुछ भी लाभ या उपभोग इसे प्राप्त हो उसीको यह ग्रहण करे और लालसा एवं आसक्ति से अपने-आपको मुक्त कर ले । ऐसे ही, हृदय को प्राण- तत्त्व  एवं इन्द्रियों की कामनाओं के प्रति अधीनता से मुक्त करना होगा और इस प्रकार उसे काम, क्रोध, भय, घृणा आदि के मिथ्या भावों से जो हृदय की मुख्य अशुद्धियां हैं, मुक्त होना होगा । प्रेम करने की इच्छा हृदय का निज स्वभाव है, परन्तु यहां भी प्रेम का चुनाव और अनुसरण त्यागना होगा अथवा इन्हें शान्त करना होगा और निश्चय ही हृदय को गहराई एवं तीव्रता के साथ प्रेम करना सिखाना होगा, पर ऐसी गहराई के साथ जो शान्त हो तथा ऐसी तीव्रता के साथ जो क्षुब्ध और विशृंखलित नहीं, बल्कि सुस्थिर एवं समान हो । बुद्धि को भ्रांति, अज्ञान और विपर्यय से मुक्त करने के लिये इन अंगों को शान्त करना तथा इन पर प्रभुत्व स्थापित करना सबसे पहली शर्त है ।

 

     इस शोधन में स्नायविक सत्ता और हृदय की पूर्ण समता की प्राप्ति भी समाविष्ट है; अतएव, जिस प्रकार समता कर्ममार्ग का आदिमन्त्र थी उसी प्रकार यह ज्ञानमार्ग का भी आदिमन्त्र है ।

 

     बुद्धि की अशुद्धता का दूसरा कारण इन्द्रियजन्य भ्रांति और विचार की क्रियाओं में इन्द्रिय-मानस का मिश्रण है । जो कोई भी ज्ञान अपने-आपको इन्द्रिय के अधीन रखता है अथवा उन्हें ऐसे प्रथम दिग्दर्शकों के रूप में प्रयुक्त न करके जिनकी तथ्य-सामग्री का निरन्तर संशोधन एवं अतिक्रमण करना होता है, किसी अन्य रूप में प्रयुक्त करता है वह सत्य ज्ञान नहीं हों सकता । विज्ञान (Science) का आरम्भ तभी होता है जब हम विश्वशक्ति के प्रतीयमान व्यापारों के, जैसा कि हमारी इन्द्रियां हमें इनका स्वरूप दिखाती हैं, आधारभूत सत्यों की परीक्षा करने लगते हैं; दर्शन-शास्त्र का आरम्भ तभी होता है जब हम वस्तुओं के मूलतत्त्वों की, जिन्हें हमारी इन्द्रियां अशुद्ध रूप में हमारे सामने उपस्थित करती हैं, परीक्षा करने लगते हैं; आध्यात्मिक ज्ञान का आरम्भ तभी होता है जब हम इन्द्रियाश्रित जीवन की सीमाओं को अंगीकार करने अथवा दृश्य एवं इन्द्रियग्राह्य पदार्थों को सद्वस्तु के नाम-रूप से अधिक कुछ मानने से इंकार करने लगते हैं ।

 

 शम और दम |

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इसी प्रकार इन्द्रिय-मानस को भी शान्त करना होगा और उसे यह सिखाना होगा कि वह विचार करने का कार्य उस मन पर छोड़ दे जो निर्णय करता और बोध प्राप्त करता है । जब हमारी बुद्धि इन्द्रिय-मानस के कार्य से पीछे हटकर स्थित हो जाती है और इसके मिश्रण का निराकरण करती है, तो इन्द्रिय-मानस अपनेको बुद्धि से पृथक् कर लेता है और इसकी पृथक् क्रिया का निरीक्षण किया जा सकता है । तब इसका यह स्वरूप प्रकट हो जाता है कि यह उन अभ्यस्त प्रत्ययों, संस्कारों, बोधों एवं कामनाओं की निरन्तर चक्राकार घूमनेवाली निम्न धारा है जिनमें कोई वास्तविक क्रम, पौर्वापर्य या प्रकाश का नियम नहीं है । यह निरन्तर पुनः-पुन: ज्ञानहीन और निरर्थक रूप में चक्कर काटता रहता है । साधारणतया मानव-बुद्धि उस निम्नधारा को अपना लेती है और इसे आंशिक क्रम एवं पौर्वापर्य में बांधने का यत्न करती है; किन्तु ऐसा करने से वह स्वयं इसके अधीन हो जाती है और उस अव्यवस्था, चंचलता, अभ्यास के प्रति मूढ़ दासता और अंध निष्मयोजन पुनरावृत्ति में भागीदार बनती है जो साधारण मानवीय तर्कबुद्धि को एक मूक, सीमित और यहांतक कि तुच्छ एवं निरर्थक यन्त्र बना डालती है । इस अस्थिर, चंचल, उग्र और विघ्नकारी तत्त्व से हमें किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं रखना है; हां, इसे पृथक् करके और फिर निस्तब्ध करके अथवा विचार में ऐसी एकाग्रता एवं अनन्यता लाकर जिसके द्वारा वह इस विजातीय एवं विमूढ़कारी तत्त्व का स्वयमेव त्याग कर दे, इससे हमें मुक्त भर होना है ।

 

     अशुद्धता का तीसरा कारण स्वयं बुद्धि से ही उद्भूत होता है और वह है ज्ञानेच्छा की अनुपयुक्त क्रिया । ज्ञानेच्छा बुद्धि का निज स्वभाव है, परन्तु यहां भी चुनाव और ज्ञान का समतारहित अनुसंधान इसे अवरुद्ध तथा विकृत कर देते हैं । ये पक्षपात एवं आसक्ति पैदा करते हैं जिसके कारण बुद्धि कम या अधिक आग्रहपूर्ण इच्छा के साथ कुछ विचारों और सम्मतियों से चिपट जाती है और अन्य विचारों एवं सम्मतियों के सत्य की उपेक्षा कर देती है । किसी सत्य के कुछ खण्डों के साथ चिपक जाती है और अन्य खण्डों को, जो उसकी पूर्णता के लिये आवश्यक होते हैं, अंगीकार करने से सकुचाती है, वह ज्ञान के कुछ पूर्वाग्रहों से चिपक जाती है और जो भी ज्ञान विचारक के अतीत द्वारा उपार्जित की हुई वैयक्तिक विचार-प्रकृति से मेल नहीं खाता उसे अस्वीकार कर देती है । इस अशुद्धता को दूर करने का उपाय है मन की पूर्ण समता प्राप्त करना, पूर्ण बौद्धिक शुद्धता का विकास करना और मन को पूर्ण रूप से निष्पक्ष बनाना । शुद्ध बुद्धि जैसे किसी कामना या लालसा का साथ नहीं देगी वैसे ही यह किसी विशेष विचार या सत्य के लिये किसी पूर्वराग किंवा विराग को भी प्रश्रय नहीं देगी, और जिन विचारों के सम्बन्ध में यह अत्यन्त निश्चयवान् है उनमें भी आसक्त होने से इंकार कर देगी, न यह उनपर ऐसा अनुचित बल देगी जो सत्य का सन्तुलन बिगाड़ दे

 

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और पूर्ण एवं सर्वांगीण ज्ञान के अन्य तत्त्वों के मूल्य कम कर दे ।

 

     इस प्रकार शुद्ध की हुई बुद्धि बौद्धिक विचार का एक पूर्णतः नमनीय, सच्चा और निर्दोष यन्त्र होगी और बाधा तथा विकृति के निम्नतर स्रोतों से मुक्त होने के कारण आत्मा और जगत् के सत्यों का इतना पूर्ण और यथार्थ अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होगी जितना कि बुद्धि के द्वारा प्राप्त हों सकता है । परन्तु वास्तविक ज्ञान के लिये किसी और वस्तु की भी आवश्यकता है, क्योंकि वास्तविक ज्ञान, हमारी की हुई इसकी परिभाषा के ही कारण, अतिबौद्धिक है । बुद्धि को वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति में हस्तक्षेप न करने देने के लिये हमें उस ''और वस्तु'' तक पहुंचना होगा और एक ऐसी शक्ति का विकास करना होगा जो सक्रिय बौद्धिक विचारक के लिये अतीव दुर्लभ है और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के लिये अरुचिकर भी है, अर्थात् बौद्धिक निष्क्रियता की शक्ति । इससे दो प्रकार का उद्देश्य सिद्ध होता है और अतएव, दो विभिन्न प्रकार की निष्क्रियताओं को प्राप्त करना होगा ।

 

     सर्वप्रथम, हम देख ही चुके हैं कि बौद्धिक विचार अपने-आपमें पर्याप्त नहीं है और न ही वह सर्वोच्च चिन्तन है; सर्वोच्च चिन्तन तो वह है जो सम्बोधि-मानस के द्वारा तथा अतिमानसिक शक्ति से प्राप्त होता है । जब तक हम बौद्धिक अभ्यास और निम्नतर व्यापारों के द्वारा शासित होते हैं, सम्बोधि-मानस हमें केवल अचेतन रूप से अपने सन्देश ही भेज सकता है जो सचेतन मन तक पहुंचने से पूर्व कम या अधिक पूर्ण रूप से विकृत हो जाते हैं; अथवा यदि यह सचेतन रूप से कार्य करता भी है तो इसके कार्य में पर्याप्त सूक्ष्मता नहीं होती और त्रुटि भी बहुत अधिक रहती है । अपने अन्दर इस उच्चतर ज्ञान-शक्ति को सुदृढ़ करने के लिये हमें अपने विचार के बोधिमय और बौद्धिक तत्त्वों को उसी प्रकार पृथक्-पृथक् करना होगा जिस प्रकार हम बुद्धि और इन्द्रियमानस को कर चुके हैं; और यह कोई सरल कार्य नहीं है, क्योंकि केवल इतना ही नहीं कि हमारे बोधि-ज्ञान बौद्धिक व्यापार में लिपटकर हमारे पास आते हैं, अपितु बहुत-से ऐसे मानसिक व्यापार भी हैं जो इस उच्चतर शक्ति का स्वांग भरते और इसके रूपों का अनुकरण करते हैं । इसका उपाय यह है कि सबसे पहले बुद्धि को सिखाया जाय कि वह सत्य सम्बोधि को पहचाने, असत्य सम्बोधि से इसका भेद करे और फिर उसके अन्दर यह अभ्यास डाला जाय कि जब वह बोध या बौद्धिक निष्कर्ष पर पहुंचे तो उसे कोई चरम महत्त्व की वस्तु न मान ले, बल्कि ऊर्ध्व की ओर देखे, सब बोधों या निष्कर्षों को निर्णयार्थ दिव्य तत्त्व के सामने उपस्थित करे और ऊर्ध्व के प्रकाश के लिये यथाशक्य पूर्ण नीरवता में प्रतीक्षा करे । इस प्रकार अपने बौद्धिक चिन्तन के एक बड़े भाग को ज्योतिर्मय सत्य-चेतन दृष्टि में रूपान्तरित किया जा सकता है, —आदर्श अवस्था तो पूर्ण संक्रमण की ही होगी—अथवा कम-से-कम, बुद्धि के पीछे कार्य करनेवाले आदर्श ज्ञान की बहुलता, शुद्धता और सचेतन शक्ति को

 

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तो अत्यधिक बढ़ाया ही जा सकता है । बुद्धि को आदर्श शक्ति के अधीन एवं उसके प्रति निष्क्रिय होना सीखना होगा ।

 

     परन्तु आत्म-ज्ञान के लिये यह आवश्यक है कि हम पूर्ण बौद्धिक निष्क्रियता की शक्ति अधिगत करें, अर्थात् समस्त विचार को बहिष्कृत करने तथा बिल्कुल ही चिन्तन न करने की वह मानसिक शक्ति प्राप्त करें जिसका गीता ने एक प्रकरण में आदेश दिया है । पाश्चात्य मन के लिये, जिसकी दृष्टि में चिन्तन सर्वोंच्च वस्तु है और जो मन की विचार न करने की शक्ति एवं इसकी पूर्ण नीरवता को चिन्तन करने की अक्षमता समझने की भूल कर सकता है, यह एक दुर्बोध उक्ति है । परन्तु नीरवता की यह शक्ति एक क्षमता है, अक्षमता नहीं, एक शक्ति है, निर्बलता नहीं । यह एक गभीर और फलपूर्ण नीरवता है । जब मन इस प्रकार स्वच्छ, शान्त, निस्तरंग सागर के समान पूर्ण रूप से निश्चल हो जाता है, जब वह समस्त सत्ता की पूर्ण शुद्धि और शान्ति में अवस्थित हों जाता है और जब अन्तरात्मा विचार को अतिक्रान्त कर जाती है केवल तभी वह आत्मा जो सभी क्रियाओं और सभुतियों से परे है और उन सबका उद्गम भी है, वह नीरवता जिससे सब शब्द उत्पन्न होते हैं, वह निरपेक्ष जिसके कि सब सापेक्ष वस्तुएं आंशिक प्रतिबिम्ब हैं, हमारी सत्ता के शुद्ध सारतत्त्व में अपने को अभिव्यक्त कर सकता है । पूर्ण नीरवता में ही 'नीरव' की वाणी सुनायी देती है, विशुद्ध शान्ति में ही उसकी सत्ता प्रकाशित होती है । अतएव, हमारे लिये 'उस 'का नाम है 'नीरवता' और 'शान्ति' ।

 

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