Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ५
यज्ञ का आरोहण ( १ )
ज्ञान के कर्म—चैत्य पुरुष
इस प्रकार, यही हमारे यज्ञ के यजनीय परम और अनन्त देव का आधारभूत सर्वांगीण ज्ञान है और यही त्रिविध यज्ञ अर्थात् कर्मों के यज्ञ, प्रेम और पूजा के यज्ञ एवं ज्ञान के यज्ञ का वास्तविक रूप है । कारण, जब हम केवल कर्मों के यज्ञ की चर्चा करते हैं तब भी हमारा मतलब केवल अपने बाह्य कर्मों के अर्पण से नहीं, अपितु उस सबके अर्पण से होता है जो हमारे अन्दर क्रियाशील और शक्तिमय है । अपनी बाह्य क्रियाओं के समान ही अपनी आन्तरिक गतियां भी हमें उसी एक वेदी पर अर्पित करनी होती हैं । यज्ञ के रूप में किये गये समस्त कर्म का मूल तत्त्व होता है आत्म-साधना तथा आत्म-पूर्णता का एक ऐसा प्रयत्न जिसके द्वारा हम उस ऊर्ध्व ज्योति से, जो हमारे मन, हृदय, संकल्प, इन्द्रिय, प्राण और शरीर की सभी गतियों में प्रवाहित होती है, चैतन्यमय और ज्योतिर्मय बनने की आशा कर सकते हैं । दिव्य चेतना की बढ़ती हुई ज्योति से हम अपनी आत्मा में संसार-यज्ञ के स्वामी का सान्निध्य और साथ ही अपनी अन्तरतम सत्ता तथा आध्यात्मिक स्वरूप में उससे तादात्म्य भी प्राप्त कर लेंगे, जो कि प्राचीन वेदान्त के अनुसार जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है । अपिच, इसकी सहायता से हम, अपनी प्रकृति में भगवत्-साधर्म्य लाभ कर, अपनी संभूति में भी उससे एकमय हो जायेंगे, जो कि वेद के ऋषियों की गूढ़ भाषा में यज्ञ के प्रतीक का गुह्य तात्पर्य है ।
परन्तु, यदि पूर्णयोग की दृष्टि में मानसिक सत्ता से आध्यात्मिक सत्ता की ओर द्रुत विकास का स्वरूप यही है तो एक प्रश्र पैदा होता है जो अत्यधिक जटिल होते हुए भी क्रियात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रबल महत्त्व रखता है । जीवन और कर्म के वर्तमान रूप के साथ और अपनी अभी भी अपरिवर्तित मानव-प्रकृति की विशेष प्रवृत्तियों के साथ हमें किस प्रकार व्यवहार करना होगा? एक महत्तर चेतना की ओर आरोहण करना एवं इसकी शक्तियों का हमारे मन, प्राण और शरीर पर अधिकार कर लेना योग का प्रमुख लक्ष्य माना गया है; तथापि इहलोक का जीवन ही——कहीं और का कोई अन्य जीवन नहीं—आत्मा के कार्य के वर्तमान क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है; यह कार्य हमारी यंत्रात्मक सत्ता और प्रकृति का रूपान्तर है, उसका उच्छेद नहीं । तो फिर हमारी सत्ता की वर्तमान क्रियाओं का क्या होगा? ज्ञान और इसके प्रकटय की ओर अभिमुख मन की क्रियाओं का, हमारी भावाग्राही अंगों की क्रियाओं का, बाह्य आचार, जनन और
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उत्पादन की क्रियाओं का और मनुष्य, पदार्थ, जीवन, संसार एवं विश्वप्रकृति की शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करने में प्रवृत्त इच्छाशक्ति की क्रियाओं का क्या होगा? क्या इनका त्याग करना होगा और इनके स्थान पर जीवन-यापन की कोई अन्य प्रणाली प्रतिष्ठित करनी होगी जिसमें अध्यात्मभावापन्न चेतना अपनी सच्ची अभिव्यक्ति और आकृति प्राप्त कर सके? क्या इन्हें वैसी-की-वैसी जारी रखना होगा जैसी कि ये अपने बाह्य रूप में हैं और केवल कर्मगत आन्तरिक भावना के द्वारा ही इन्हें रूपान्तरित करना होगा अथवा क्या इनका क्षेत्र विस्तृत करना और इन्हें नये रूपों में उन्मुक्त करना होगा? क्या यह कार्य चेतना के एक वैसे विपर्यय के द्वारा करना होगा जैसा कि भूतल पर तब देखने में आया था जब मनुष्य ने पशु की प्राणिक क्रियाओं को तर्क, विचारयुक्त इच्छा-शक्ति, परिष्कृत भाव एवं सुव्यवस्थित बुद्धि के अन्तःसंचार से मानसीकृत, विस्तारित और रूपान्तरित करने का बीड़ा उठाया था? अथवा, क्या कुछ कार्यों का तो त्याग करना होगा और केवल ऐसे ही कर्मों को जारी रखना होगा जो आध्यात्मिक परिवर्तन सहन कर सकें, और शेष कर्मों के स्थान पर एक नये जीवन का सर्जन करना होगा जो, अपनी स्फुरणा और प्रेरकशक्ति की भांति अपने रूप में भी, मुक्त आत्मा की एकता, विशालता, शान्ति, हर्ष और सामंजस्य को प्रकट करनेवाला हो? सभी समस्याओं में से यही एक ऐसी समस्या है जिसने उन लोगों के मन को बहुत व्याकुल कर रखा है जिन्होंने योग की लंबी यात्रा में मानव से भगवान् की ओर ले जानेवाले पथों का अनुसरण करने का यत्न किया है ।
इसके लिये सब प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये गये है, जिनके एक छोर पर तो यह समाधान है कि कर्म और जीवन का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिये, —जहां तक कि ऐसा करना शारीरिक तौर पर सम्भव है— और दूसरे छोर पर यह कि जीवन को ज्यों-का-त्यों पर एक नयी भावना के साथ अंगीकार करना चाहिये, एक ऐसी भावना के साथ जिससे इसकी सभी चेष्टाएं अनुप्राणित और उदात्त हो उठें, और देखने में चाहे वे वैसी ही रहें जैसी पहले थीं, किन्तु उनकी मूल भावना और, फलतः, उनका अन्तरीय अर्थ परिवर्तित हो जाय । संसारत्यागी तपस्वी या अन्तर्मुख, आनन्द-विभोर एवं आत्म-विस्मृत गुह्यदर्शी जिस आत्यन्तिक समाधान पर आग्रह करते हैं वह स्पष्ट ही पूर्णयोग के उद्देश्य के प्रतिकूल है; क्योंकि यदि हमें जगत् में भगवान् को उपलब्ध करना है तो यह जगत्-व्यवहार तथा स्वयं कर्म को सर्वथा एक ओर तजकर नहीं किया जा सकता । इससे कुछ निचले शिखर पर, प्राचीन काल में धार्मिक विचारकों ने यह नियम निर्धारित किया था कि मनुष्य को केवल ऐसे काम ही जारी रखने चाहियें जो स्वाभाविक रूप से भगवान् की जिज्ञासा, सेवा या पूजाप्रणाली के अंग हों और कुछ अन्य ऐसे काम जो इनसे सम्बद्ध हों अथवा इनके साथ ही कुछ वे काम भी जो जीवन की सामान्य
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व्यवस्था के लिये अनिवार्य हों, किन्तु जो धार्मिक भावना से और परंपरागत धर्म तथा धर्मशास्त्र के विधि-निषेधों के अनुसार ही किये जायं | परन्तु यह इतना रूढ़िबद्ध नियम है कि इसके द्वारा स्वतंत्र आत्मा अपने-आपको कर्मों में चरितार्थ नहीं कर सकती । इसके अतिरिक्त, यह एक घोषित तथ्य है कि यह नियम ऐहिक जीवन से पारलौकिक जीवन की ओर जाने की कठिनाइयों को पार करने के लिये एक अस्थायी समाधान से अधिक कुछ नहीं है । इसके अनुसार अन्तिम ध्येय तो एकमात्र पारलौकिक जीवन ही रहता है । वास्तव में, किसी भी सर्वांगीण योग को गीता के इस व्यापक आदेश की ही शरण लेनी होगी कि मुक्त आत्मा को भी, सत्य में निवास करते हुए जीवन के सभी कर्म करते रहने चाहियें, ताकि एक गुप्त दिव्य पथ-प्रदर्शन के अनुसार हो रहे विश्व-विकास की योजना मंद या विनष्ट न हो जाय । परंतु यदि सभी कर्म वैसे ही आकार-प्रकार के साथ और वैसी ही पद्धति के अनुसार करने होंगे जैसे वे अब अज्ञान में किये जाते हैं, तो हमारी प्राप्ति केवल आन्तरिक ही होगी और इस बात का भी भय रहेगा कि कहीं हमारा जीवन बाह्य क्षीण ज्योति के कार्यों में लगी हुई अन्तर्ज्योति का एक संदिग्ध और अस्पष्ट सूत्र ही न बन जाय और परिपूर्ण आत्मा अपनी दिव्य प्रकृति से भिन्न या विजातीय अपूर्णता के सांचे में ही अपने-आपको प्रकट न करती रहे । यदि कुछ समय तक इससे अच्छा कुछ नहीं किया जा सकता, —और संक्रमण के दीर्घकाल में ऐसा कुछ अनिवार्यत: होता ही है, —तो ऐसी स्थिति तबतक बनी ही रहेगी जबतक सब साधन-सामग्री तैयार नहीं हो जाती और अंतःस्थित आत्मा शरीर और बहिर्जगत् के जीवन पर अपने रूपों को लागू करने में पर्याप्त समर्थ नहीं हो जाती | किन्तु इसे केवल एक संक्रमणावस्था के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है, अपनी आत्मा के आदर्श या अपने पथ के चरम लक्ष्य के रूप में नहीं ।
इसी कारण, नैतिक समाधान भी अपर्याप्त है । नैतिक नियम प्रकृति के दुर्दम अश्वों के मुंह में लगाममात्र डालता है और उनपर एक कठिन तथा आंशिक नियंत्रण का प्रयोग करता है, परंतु इसमें प्रकृति का ऐसा रूपान्तर करने की शक्ति नहीं है कि वह दिव्य आत्म-ज्ञान से प्राप्त होनेवाली अन्त:स्फुरणाओं को चरितार्थ करती हुई सुरक्षित स्वतंत्रता में विचरण कर सके । इसके सर्वोत्तम रूप में भी इसकी विधि है—सीमाओं को निर्धारित करना, दानव का निग्रह करना तथा हमारे चारों तरफ एक सापेक्ष और अत्यन्त संदिग्ध रक्षा की दीवार खड़ी कर देना । आत्म-रक्षण का यह या इसी प्रकार का कोई अन्य उपाय साधारण जीवन में किवा योग में कुछ काल के लिये आवश्यक हो सकता है; किंतु योग में यह केवल संक्रमणावस्था का एक चिह्न भर हो सकता है । हमारा लक्ष्य है आमूल रूपान्तर और आध्यात्मिक जीवन की पावन विशालता और यदि हमें यह प्राप्त करना है तो हमें एक अधिक गम्भीर समाधान तथा एक अधिक विश्वस्त अति-नैतिक और क्रियाशील तत्त्व की
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खोज करनी होगी । इस विषय में साधारण धार्मिक समाधान यह है कि व्यक्ति को अंदर से आध्यात्मिक और बाहरी जीवन में नैतिक होना चाहिये, पर यह एक समझौता मात्र है । हम जिस लक्ष्य की खोज कर रहे हैं वह जीवन और आत्मा में समझौता नहीं, वरन् आन्तर सत्ता और बाह्य जीवन दोनों का आध्यात्मीकरण है । अतएव, वस्तुओं के मूल्य और महत्त्व के सम्बन्ध में मनुष्य ने जो गड़बड़ मचा रखी है, —ऐसी गड़बड़ जो आध्यात्मिक और नैतिक के भेद को उड़ा देती है और यहां तक दावा करती है कि नैतिक तत्त्व ही हमारी प्रकृति में एकमात्र सच्चा आध्यात्मिक तत्त्व है, — वह हमारे लिये किसी काम की नहीं हो सकती । वास्तव में नीतिधर्म एक मानसिक नियंत्रण है और सीमित भ्रांतिशील मन स्वतंत्र और सदा-प्रकाशमान आत्मा नहीं है और न हो ही सकता है । इसी प्रकार, उस सिद्धान्त को भी स्वीकार करना असम्भव है जो जीवन को ही अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है, उसके तत्त्वों को ज्यों-का-त्यों मूलभूत रूप में ग्रहण करता है और उसे रंजित तथा सुशोभित करने के लिये एक अर्द्ध-आध्यात्मिक या मिथ्या-आध्यात्मिक प्रकाश को आमंत्रित करता है । न ही प्राण और अध्यात्म में एक प्रकार का कुसम्बन्ध स्थापित करने के लिये बार-बार यत्न करना उपयुक्त हो सकता है, —ऐसा कुसम्बन्ध कि भीतर तो गुह्य अनुभव हो और बाहर एक ऐसा सौन्दर्यरसिक, बौद्धिक एवं ऐन्द्रिय प्रकृतिपूजावाद या उच्च सुखवाद हो जो गुह्य अनुभव का सहारा लेकर और आध्यात्मिक स्वीकृति की चमक-दमक में अपनी कामनाओं को तृप्त करता रहे । कारण, यह भी एक अनिश्चित समझौता है और यह कभी भी सफल नहीं हो सकता, यह दिव्य सत्य और उसकी सर्वांगपूर्णता से उतना ही दूर है जितना कि इससे उल्टा अतिनैतिकवाद । ये सभी उस भ्रांतिशील मानव-मन के स्खलनपूर्ण हल हैं जो उच्च आध्यात्मिक शिखरों और साधारण मानसिक एवं प्राणिक प्रेरक-भावों की निम्नतर उपत्यका के बीच कार्य-निर्वाह करने का मार्ग टटोल रहा है । इनके मूल में जो भी आंशिक सत्य छिपा हो उसे केवल तभी स्वीकार किया जा सकता है जब कि उसे आध्यात्मिक स्तर तक ऊचा उठाकर और परम सत्य-चेतना में परखकर अविद्या की मलिनता और भ्रांति से छुड़ा लिया जाय ।
संक्षेप में, यह निःशंक होकर कहा जा सकता है कि जबतक वह अति- मानसिक सत्य-चेतना प्राप्त नहीं हो जाती जिसके द्वारा वस्तुओं के बाह्य रूप अपने-अपने स्थान में सुस्थित हो जायेंगे और उनका सारतत्त्व तथा वह अन्तरीय तत्त्व भी जो सीधा इस आध्यात्मिक सारतत्त्व से निकलता है प्रकट हो जायेंगे, तबतक कोई भी प्रस्तावित समाधान सामयिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता । इस बीच हमारी एकमात्र सुरक्षा इस बात में है कि हम आध्यात्मिक अनुभूति के पथ- प्रदर्शक नियम की खोज करें अथवा अपने भीतर के उस प्रकाश को उन्मुक्त करें जो हमें तबतक मार्ग दिखा सकता है जबतक कि वह महत्तर साक्षात सत्य-चेतना
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हमें अपने से ऊर्ध्व स्तर में प्राप्त नहीं हो जाती या हमारे अन्दर ही उत्पन्न नहीं हो जाती । क्योंकि हमारे अन्दर की और सब चीजें जो केवल बाहरी हैं, वह सब कुछ जो आध्यात्मिक बोध या प्रत्यक्षानुभव नहीं है, —बुद्धि की कल्पनाएं उसके उपपादन अथवा निष्कर्ष, जीवन-शक्ति के निर्देश या उसकी प्रेरणाएं तथा भौतिक पदार्थों की असंदिग्ध आवश्यकताएं ये सब कभी अर्ध-प्रकाश होते हैं और कभी मिथ्या प्रकाश । ये प्रकाश, अपने श्रेष्ठ रूप में भी, केवल कुछ काल के लिये ही सहायक हो सकते हैं या केवल थोड़ी-सी ही सहायता कर सकते हैं और शेषांश में तो ये हमें बाधा पहुंचाते या भ्रम में ही डालते हैं । आध्यात्मिक अनुभूति का पथ- प्रदर्शक नियम तो मानव-चेतना को भागवत चेतना की ओर खोल देने से ही अवगत हो सकता है । हममें ऐसी शक्ति होनी चाहिये कि हम भागवती शक्ति की क्रिया, आज्ञा और सक्रिय उपस्थिति को अपने अन्दर ग्रहण कर सकें और अपने- आपको उसके नियंत्रण के प्रति समर्पित कर सकें । इस समर्पण और नियंत्रण से ही पथ-प्रदर्शन प्राप्त होता है । परन्तु समर्पण तबतक निश्चित रूप से साधित नहीं हो सकता और न ही तब तक पथ-प्रदर्शन का कोई पूरा भरोसा हो सकता है जबतक कि हम उन मानसिक रचनाओं, प्राणिक आवेगों और अहं के उत्तेजनों से आक्रान्त हैं जो हमें आसानी से छल कर मिथ्या अनुभव के हाथों में सौंप सकते हैं । इस विपत्ति का सामना हम अपनी उस अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष के उद्घाटन के द्वारा ही कर सकते हैं जो अभी नौ बटा दस भाग छिपा हुआ है । यह हमारे अन्दर विद्यमान तो आरम्भ से ही होता है, पर साधारणतया क्रियाशील नहीं होता । यही हमारी वह अन्तर्ज्योति है जिसे हमें उन्मुक्त करना होगा । कारण, जबतक हम अविद्या के घेरे में ही घूमते रहते हैं और सत्य-चेतना हमारे ईश्वराभिमुख पुरुषार्थ का सम्पूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में नहीं ले लेती, तबतक इस अन्तरतम आत्मा का प्रकाश ही हमारा एकमात्र अचूक प्रकाश होता है । भागवती शक्ति की क्रिया जो हमारे अन्दर संक्रमण के नियमों के अनुसार कार्य करती है, और चैत्य पुरुष का प्रकाश जो हमें सदा अज्ञान की शक्तियों की मांगों और उत्तेजनाओं से बचाकर एक उच्चतर संवेग का सचेतन रूप में और सावधानता के साथ अनुसरण करने के लिये प्रेरित करता है—ये दोनों अपने बीच के संक्रमण-काल में हमारे कर्म के एक नित्य- विकसनशील आभ्यन्तर नियम को जन्म देते हैं । वह नियम तब तक चालू रहता है जब तक हम अपनी प्रकृति में आध्यात्मिक और अतिमानसिक विधान को प्रतिष्ठित नहीं कर पाते । इस संक्रमण में, स्वभावत: ही, तीन अवस्थाएं आ सकती हैं, एक तो वह जिसमें हम समस्त जीवन और कर्म को स्वीकार करते और इन्हें भगवान् को सौंप देते हैं ताकि वह इन्हें शुद्ध तथा परिवर्त्तित करे और इनके अन्दर के सत्य को उन्मुक्त कर दे, दूसरी वह जिसमें हम पीछे की ओर हट जाते हैं और अपने चारों और एक आध्यात्मिक दीवार खड़ी करके इसके दरवाजों में से केवल ऐसे कार्यों
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को प्रवेश करने देते हैं जो आध्यात्मिक रूपान्तर के नियम के अधीन रहना स्वीकार करते हैं, तीसरी वह जिसमें आत्मा के सम्पूर्ण सत्य के उपयुक्त नये रूपों से सम्पन्न, स्वतंत्र और सर्वस्पर्शी कर्म करना हमारे लिये फिर से सम्भव हो जाता है । किन्तु इन चीजों का निर्णय किसी मानसिक नियम से नहीं, बल्कि अपनी अन्तरस्थ आत्मा के प्रकाश में और भागवती शक्ति के नियामक बल एवं वृद्धिशील मार्गदर्शन के अनुसार करना होगा । वह भागवती शक्ति पहले तो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप में प्रेरित करती है, फिर स्पष्ट रूप में नियंत्रण रखना और आदेश देना आरम्भ करती है और अन्त में योग का सम्पूर्ण भार ही अपने हाथ में ले लेती है ।
यज्ञ के त्रिविध स्वरूप के अनुसार हम कर्मों को भी तीन श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं, ज्ञान के कर्म, प्रेम के कर्म तथा प्राणगत शक्ति के कर्म, और यह देख सकते हैं कि किस प्रकार यह अधिक सुनम्य आध्यात्मिक नियम प्रत्येक क्षेत्र में लागू होता है और निम्नतर प्रकृति से उच्चतर प्रकृति की ओर के संक्रमण को सम्पादित करता है ।
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ज्ञान की खोज में मानव-मन की जो क्रियाएं होती हैं उन्हें योग के दृष्टिकोण से स्वभावत: ही दो कोटियों में विभक्त किया जा सकता है । एक तो है पराविद्या या परम अतिबौद्धिक ज्ञान जो अपने-आपको परात्पर-रूप एकमेव और अनन्त की खोज पर एकाग्र करता है अथवा प्राकृतिक प्रपंच के मूल में स्थित चरम सत्यों के भीतर अन्तर्ज्ञान, निदिध्यासन एवं साक्षात् आन्तर संस्पर्श के द्वारा प्रवेश करने का यत्न करता है । दूसरी है अपरा विद्या; यह अपने-आपको गोचर पदार्थों अर्थात् एकमेव और अनन्त देव के उन छद्य-रूपों के बाह्य ज्ञान में विकीर्ण कर देती है जिनमें वह देव हमें अपने चारों ओर की जगत्-अभिव्यक्ति के बाह्यतर पदार्थों के भीतर और इनके द्वारा दृष्टिगोचर होता है । इन दो, पर और अपर, गोलार्धों का जो स्वरूप मनुष्यों ने मन की अज्ञ सीमाओं में निर्मित या कल्पित किया है उसमें भी ये, विकसित होकर, कुछ तीव्र रूप में पृथक् हो गये है... दर्शन ने कभी तो आध्यात्मिक या कम-से-कम अन्तर्ज्ञानात्मक और कभी वस्तुनिरपेक्ष एवं बौद्धिक बनकर तथा कभी आध्यात्मिक अनुभव को बौद्धिक रूप देकर या आत्मिक उपलब्धियों को तर्क के उपकरण का सहारा देकर, सदैव अन्तिम सत्य के निर्धारण को अपना क्षेत्र मानने का दावा किया है । परन्तु जब बौद्धिक दर्शन ने तत्त्व-चिन्तन के अति सूक्ष्म शिखरों पर पहुंचकर अपने को व्यावहारिक जगत्-सम्बन्धी तथा नश्वर पदार्थों के अनुशीलन-विषयक ज्ञान से विलग नहीं भी किया तब भी यह, अमूर्त चिन्तन के अपने स्वभाव के कारण, जीवन के लिये शक्ति का स्रोत शायद कभी
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नहीं रहा । अवश्य ही, कभी-कभी यह उच्च चिन्तन के लिये शक्तिशाली रहा है, इसने बिना किसी परोक्ष उपयोग या लक्ष्य के मानसिक सत्य का उसीके लिये अनुसन्धान किया है और कभी-कभी शब्दों और विचारों के अस्पष्ट एवं काल्पनिक आदर्शलोक में मन के सूक्ष्म व्यायाम के लिये भी इसने शक्तिशाली रूप में कार्य किया है । परन्तु जीवन के अधिक गोचर तथ्यों से यह दृर ही हट गया है अथवा उनके ऊपर से छलांग मार कर उन्हें छोड़ता चला गया है । यूरोप में प्राचीन दर्शन बहुत शक्तिशाली रहा, पर केवल कुछ एक लोगों के लिये ही; भारत में इसने, अपने अधिक आध्यात्मीकृत रूपों में, प्रबल प्रभाव डाला, किन्तु जाति के जीवन का रूपान्तर नहीं कर सका... धर्म ने, दर्शन की भांति, शिखरों पर ही रहने का यत्न नहीं किया, वरन् इसका लक्ष्य मनुष्य के मन के भागों की अपेक्षा कहीं अधिक उसके प्राण या जीवन के भागों को अधिकार में लाना और उन्हें ईश्वर की और आकृष्ट करना था | इसने आध्यात्मिक सत्य और प्राणिक तथा भौतिक जविन के बीच सेतु बांधने की घोषणा की | इसने निम्नतर को उच्चतर के अधीन करने और दोनों में संगति बैठाने, जीवन को भगवान् की सेवा करने के योग्य तथा भृतल को द्युलोक का आज्ञा-पालक बनाने का यत्न किया । यह स्वीकार करना होगा कि बहुधा इस आवश्यक प्रयत्न का र्पारेणाम विपरीत ही हुआ, इसने द्यौ को पृथ्वी की कामनाओं का समर्थक बना दिया, क्योंकि धार्मिक विचार का बहाना बनाकर मनुष्य लगातार अपने अहं की पूजा और सेवा ही करता रहा । धर्म अपने सारभृत आध्यात्मिक अनुभव की छोटी-सी उज्ज्वल रश्मि को निरन्तर त्याग कर, जीवन के साथ किये गये अपने सदा-विस्तारशील अनिश्चित समझौतों के धुंधले समुदाय में ही पूरी तरह खो गया । चिन्तनात्मक मन को सन्तुष्ट करने के प्रयत्न में इसने बहुत बार इसे या तो दबा डाला या मत-मजहब के सिद्धान्तों को बेड़ी पहिना दी । मानव- हृदय को अपने पाश में पकड़ने की चेष्टा करते हुए, यह स्वयं ही धर्मानुरागी भावुकतावाद और सम्बेदनवाद के गर्त्तों में जा गिरा । मनुष्य की प्राणिक प्रकृति पर शासन करने के लिये उसे अपने अधिकार में लाने का यत्न करते हुए, यह स्वयं ही कलुषित हो गया और उस समस्त धर्मान्धता, नरसंहारी क्रोधोन्माद, अत्याचार की जंगली या कठोर प्रवृत्ति, प्ररोही मिथ्यात्व एवं दृढ़ अज्ञानासक्ति का शिकार हो गया जिनमें कि प्राणिक प्रकृति की स्वाभाविक रुचि होती है । मनुष्य के स्थूल भाग को ईश्वर की ओर आकृष्ट करने की इसकी इच्छा ने स्वयं इसे ही धोखा देकर धर्मसम्बन्धी यांत्रिकता, खोखले संस्कार और निर्जीव कर्मकांड की जंजीर से बांध दिया । सर्वोत्कृष्ट वस्तु ने बिगड़कर सब से निकृष्ट को जन्म दिया; कारण, जीवन- शक्ति की विचित्र रसायन-विद्या अच्छाई में से बुराई पैदा करती है जैसे कि यह बुराई में से अच्छाई भी पैदा कर सकती है । साथ ही, इस अधोमुख पतन के विरुद्ध आत्मरक्षा के व्यर्थ प्रयास में, धर्म ने एक प्रबल प्रेरणा के वश ज्ञान, कर्म-
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कलाप, कला एवं जीवन तक को दो विपरीत श्रेणियों, -आध्यात्मिक और सांसारिक, धार्मिक और ऐहिक, पवित्र और अपवित्र, -में बांट कर सत्तामात्र को दो खंडों में विभक्त कर दिया । परन्तु स्वयं यह रक्षात्मक विभाजन भी रूढ़िरूप तथा कृत्रिम बन गया और इसने रोग को ठीक करने के स्थान पर उसे बढ़ा दिया... दूसरी ओर विज्ञान, कला और जीवन-विद्या यद्यपि पहले धर्म की छत्रछाया में ही सेवा या निवास करते रहे, पर आगे चलकर ये उससे अलग हो गये, उसके विजातीय या विरोधी बन गये, अथवा यहां तक कि उसके उन शिखरों से, जिनके लिये तत्त्वशानात्मक दर्शन और धर्म अभीप्सा करते हैं, पर जो इन्हें निरुत्साह, वन्ध्य और सुदूर या नि:सार और मायामय तथा अवास्तविकता के शिखर प्रतीत होते हैं, ये उदासीनता, घृणा या सन्देहपूर्वक पीछे हट गये । कुछ काल के लिये यह विच्छेद उस चरम सीमा को पहुंच गया जहां तक कि मानव-मन की एकांगी असहिष्णुता इसे लें जा सकती थी, यहां तक कि यह भय पैदा हो गया कि कहीं इसके परिणामस्वरूप एक अधिक उच्च या अधिक आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्नमात्र सर्वथा लुप्त ही न हो जाय । पर वास्तव में पार्थिव जीवन में भी एक उच्चतर ज्ञान ही एकमात्र ऐसी चीज है जिसकी सदा-सर्वदा आवश्यकता पड़ती है । इसके बिना निम्नतर विज्ञान और कार्य-व्यवहार, चाहे वे अपने परिणामों की प्रचुरता की दृष्टि से कितने भी फलप्रद, समृद्ध, स्वतंत्र और चमत्कारक क्यों न हों, सहज ही एक ऐसे यश का रूप धर लेते हैं जो बिना ठीक विधि के मिथ्या देवों को अर्पित होता है । अन्त में वे मनुष्य के हृदय को कलुषित और कठोर बनाकर एवं उसके मन के क्षितिजों को सीमित कर या तो एक पाषाणमय भौतिक कारागृह में बंद कर देते हैं या एक अन्तिम निराशाजनक संशय-विकल्प और मोहभंग की ओर ले जाते हैं । इस अर्द्ध-ज्ञान के, जो अभी तक अज्ञान ही है, भास्वर प्रस्कुरण के ऊपर एक वन्ध्य अज्ञेयवाद हमारी प्रतीक्षा कर रहा है
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एक ऐसा योग, जो परम देव को सर्वांगीण रूप में प्राप्त करने के लिये किया जाता है, विश्वात्मा के कर्मों या स्वप्नों की भी- यदि वे स्वप्न हैं तो-अवहेलना नहीं करेगा, न ही वह उस भव्य उद्यम और बहुमुखी विजय से पराङ्मुखी होगा जिसे परम देव ने मानव प्राणी में अपने लिये निर्धारित किया है । परन्तु इस प्रकार की व्यापकता के लिये इसकी पहली शर्त्त यह है कि संसार में हमारे कर्म भी यज्ञ के अंग होने चाहियें और वह यज्ञ हमें सर्वोच्च देव तथा भागवती शक्ति को ही अर्पित करना चाहिये, किसी अन्य देव तथा अन्य शक्ति को नहीं, साथ ही वह हमें ठीक भावना के साथ और यथार्थ ज्ञानपूर्वक, अपनी स्वतंत्र आत्मा के द्वारा अर्पित करना चाहिये, जड़-प्रकृति के सम्मोहित क्रीतदास द्वारा नहीं । यदि कर्मों का विभाजन करना ही हो तो इन दो प्रकार के कर्मों में ही विभाजन करना होगा--एक तो वे जो हृदय की पावन ज्वाला के अत्यन्त निकट हैं और दूसरे वे जो इससे
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अधिक दूर हैं तथा इसी कारण इसके द्वारा न्यूनतम प्रभावित या प्रकाशित हैं, --अथवा यूं कहें कि एक तो वे समिधाएं जो जोर से या चमक के साथ जलती हैं और दूसरे वे काष्ठ जो वेदी पर अत्यन्त घना ढेर लगा दिये जाने के कारण अपनी आर्द्र, भारी और विस्तृत बहुलता से आग की तेजी को रोक देते हैं । परन्तु वैसे, इस विभाजन के अतिरिक्त, ज्ञान के सभी कर्म जो सत्य को खोजते या प्रकट करते हैं, अपने-आपमें, पूर्ण उत्सर्ग के लिये उचित सामग्री हैं; उनमें से किसीको भी दिव्य जीवन के विशाल ढांचे से बहिष्कृत करने की आवश्यकता नहीं । मानसिक और भौतिक विज्ञान जो पदार्थों के नियमों, आकारों तथा प्रक्रियाओं का अनुसंधान करते हैं, वे विज्ञान जो मनुष्यों और जीव-जन्तुओं के जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, सामाजिक, राजनीतिक, भाषासम्बन्धी तथा ऐतिहासिक विज्ञान और साथ ही वे विज्ञान जो उन कार्यों और व्यापारों को जानने तथा नियंत्रित करने का यत्न करते हैं जिनसे मनुष्य अपने संसार और परिपार्श्व को वशीभूत कर उन्हें उपयोग में लाता है, उत्कृष्ट ललित कलाएं जो एक साथ ही कर्म भी हैं और ज्ञान भी, --कारण, प्रत्येक सुनिर्मित और अर्थगर्भित कविता, चित्र, मूर्त्ति या भवन सर्जनशील ज्ञान की कृति होता है, चेतना की जीवन्त उपलब्धि एवं सत्य की प्रतिमा होता है, मानसिक और प्राणिक अभिव्यक्ति या जगत्-अभिव्यक्ति का सक्रिय रूप होता है, --वह सब जो कि खोज करता है, वह सब जो कि उपलब्ध करता है, वह सब जो कि वाणी या आकार प्रदान करता है, अनन्त की लीला के ही किसी अंश को चरितार्थ करता है और उतने अंश में वह ईश्वर-उपलब्धि या दिव्य सृष्टि का साधन बनाया जा सकता है । परन्तु योगी को देखना होगा कि आगे से वह उसे अज्ञ मानसिक जीवन के अंग के रूप में कभी स्वीकार न करे । उसे वह केवल तभी स्वीकार कर सकता है यदि वह अपने अन्तर्निहित सम्वेदन, स्मरण और समर्पण के द्वारा अध्यात्म-चेतना की गति में परिणत हो जाय और इसके सर्वग्राही एवं प्रकाशप्रद ज्ञान की विशाल पकड़ का अंग बन जाय ।
सब कुछ यज्ञ के रूप में ही करना चाहिये, सब कार्यों का ध्येय और उनके प्रयोजन का सार एकमेव भगवान् ही होना चाहिये । जो विद्याएं ज्ञान-वृद्धि में सहायक हैं उनके अध्ययन में योगी का लक्ष्य यह होना चाहिये कि वह मनुष्य में तथा प्राणियों, पदार्थों और शक्तियों में भागवती चित्-शक्ति के व्यापारों तथा उसके सृष्टि-सम्बन्धी आशयों की खोज करे और उन्हें हृदयंगम करे, साथ ही उन रहस्यों एवं प्रतीकों का, जिनमें वह अपनी अभिव्यक्ति को व्यवस्थित करती है, कार्यान्वित करने के उसके ढंग को भी खोजे और समझे । व्यावहारिक विद्याओं में, चाहे वे मानसिक और भौतिक हों अथवा गुह्य और आन्तरात्मिक, योगी का लक्ष्य यह होना चाहिये कि वह भगवान् के तरीकों और उसकी गतिविधियों की तह में जाय और जो काम हमें सौंपा गया है उसकी साधन-सामग्री का ज्ञान प्राप्त करे जिससे हम
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आत्मा के रहस्य, आनन्द और आत्म-कृतार्थता को सचेतन और निर्दोष रूप से प्रकट करने के लिये उस ज्ञान को काम में ला सकें । कलाओं में योगी का लक्ष्य केवल सौन्दर्य-भावना की और मन या प्राण की तृप्ति करना नहीं, बल्कि यत्र-तत्र-सर्वत्र भगवान् को देखना, उसके कार्यों में उसके भाव और अर्थ का आत्म-प्रकाश अनुभव करते हुए उसकी पूजा करना तथा देवताओं, मनुष्यों, प्राणियों और पदार्थों में उसी एकमेव भगवान् को व्यक्त करना होना चाहिये । जो सिद्धान्त धार्मिक अभीप्सा और सच्ची-से-सच्ची तथा महान्-से-महान् कला में घनिष्ठ सम्बन्ध देखता है वही सार-रूप में सही देखता है; किन्तु हमें मिश्रित और संदिग्ध धार्मिक प्रेरकभाव के स्थान पर आध्यात्मिक अभीप्सा, दृष्टि एवं अर्थ-प्रकाशक अनुभूति को प्रतिष्ठित करना होगा । क्योंकि दृष्टि जितनी अधिक विशाल और व्यापक होगी, जितना ही अधिक यह मानवता में और सब पदार्थों में छुपे हुए भगवान् की अनुभूति को अपने अन्दर धारण करेगी और एक स्थूल धार्मिकता के परे अध्यात्म-जीवन में उन्नीत हो जायगी, इस उच्च आशय से उद्भूत होनेवाली कला भी उतनी ही अधिक प्रकाशमान, नमनीय, गभीर और शक्तिशाली होगी । योगी की दूसरे लोगों से विशेषता यह होती है कि वह एक उच्चतर तथा विशालतर अध्यात्म-चेतना में निवास करता है; अतः उसकी समस्त ज्ञान-कृति या सर्जन-कृति निश्चय ही वहीं से उद्भूत होनी चाहिये, वह मन में नहीं गढ़ी जानी चाहिये, -क्योंकि वह दृष्टि एवं सत्य मनोमय मनुष्य की दृष्टि एवं सत्य से अधिक महान् है जिसकी अभिव्यक्ति योगी को करनी होती है अथवा यूं कहना चाहिये कि जो योगी की व्यक्तिगत संतुष्टि के हित नहीं, बल्कि दिव्य प्रयोजन के हित अपने-आपको उसके द्वारा प्रकट करने तथा उसके कार्यों को ढालने के लिये उसपर दबाव डालता ।
इसके साथ ही जो योगी परम देव को जानता है वह इन कर्मों में किसी प्रयोजन या आवश्यकता के वशीभूत नहीं होता, क्योंकि उसके लिये ये न तो कोई कर्तव्य होते हैं, न मन का आवश्यक धंधा और न ही कोई उत्कृष्ट विनोद या सर्वोच्च मानवीय प्रयोजन द्वारा आरोपित कोई कार्य । वह किसी कर्म में भी आसक्त और अवरुद्ध नहीं हो जाता, न ही इन कर्मों में यश, गौरव या व्यक्तिगत सन्तोषरूपी उसका कोई निजी हेतु होता है; वह इन्हें छोड़ भी सकता है या जारी भी रख सकता है, जैसी भी उसके अन्तःस्थित भगवान् की इच्छा हो, परन्तु उच्चतर पूर्ण ज्ञान की खोज में किसी अन्य कारण से इनका त्याग करने की उसे आवश्यकता नहीं । वह इन कर्मों को ठीक वैसे ही करेगा जैसे परम शक्ति कर्म करती है और सर्जन करती है, अर्थात् सर्जन और अभिव्यंजन के आध्यात्मिक हर्षविशेष के लिये अथवा ईश्वर के रचे इस संसार को सुसंबद्ध रखने या लोकसंग्रह करने और इसे यथावत् व्यवस्थित या परिचालित करने में सहायता देने के लिये । गीता की शिक्षा है कि ज्ञानी मनुष्य को अपने जीवन के ढंग से उन लोगों में भी जिन्हें अभी
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आध्यात्मिक चेतना प्राप्त नहीं हुई है 'सभी' कर्मों के लिये-केवल उन्हींके लिये नहीं जो अपने स्वरूप की दृष्टि से पुण्यमय, धार्मिक या तपोमय समझे जाते हैं, बल्कि सभी के लिये-प्रेम पैदा करना चाहिये, साथ ही उसे उनके अन्दर सब कर्म करने का अभ्यास भी डलवाना चाहिये । उसे अपने दृष्टान्त से मनुष्यों को संसार-कर्म से हटाना नहीं चाहिये । कारण, संसार को उसकी महान् ऊर्ध्वमुखी अभीप्सा में आगे बढ़ाना होगा; मनुष्यों और राष्ट्रों को ऐसी राह से नहीं ले चलना होगा कि वे अज्ञानमय कर्म से अकर्म के निकृष्टतर अज्ञान में जा गिरें अथवा शोचनीय विघटन और विनाश की उस प्रवृत्ति में जा डूबें जो जातियों तथा राष्ट्रों पर तब आक्रमण करती हैं जब कि तामसिक तत्त्व, -अन्धकारमय अस्तव्यस्तता और भ्रान्ति का या क्लान्ति और जड़ता का तत्त्व-प्रबल हो जाता है । गीता में भगवान् कहते हैं, ''मुझे भी कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ऐसी कोई चीज नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो या जो मुझे अभी अपने लिये प्राप्त करनी आवश्यक हो; तो भी मैं संसार में कर्म करता हूं क्योंकि यदि मैं कर्म न करूं तो सब नियम-धर्म अस्त-व्यस्त हो जायंगे, लोकों में अव्यवस्था छा जायगी और मैं इन प्रजाओं का विनाशक बन जाऊंगा ।'' आध्यात्मिक जीवन को अपनी पवित्रता के लिये इस बात की आवश्यकता नहीं कि वह अवर्णनीय ब्रह्म के सिवा और सभी वस्तुओं में रस लेना छोड़ दें या ज्ञान-विज्ञान, कला-कलाप और जीवन के मूल पर ही कुठाराघात करे । अपितु पूर्ण उगध्यात्मिक ज्ञान एवं कर्म का एक सहज फल यह हो सकता है कि यह उन्हें उनकी सीमाओं से ऊपर उठा ले जा सकता है, साथ ही उनमें हमारे मन को जो अज्ञानयुक्त, परिमित, मंद या क्षुब्ध सुख मिलता है उसके स्थान पर आनन्द का एक स्वतंत्र, प्रगाढ़ और उन्नायक वेग प्रतिष्ठित करके यह उन्हें सर्जनशील आध्यात्मिक बल और प्रकाश का एक नवीन उद्गम प्रदान कर सकता है । वह उद्गम फिर उन्हें उनकी परिपूर्ण ज्ञान-ज्योति और अद्यावधि स्वप्नातीत सम्भावनाओं की ओर तथा अर्थ, रूप और प्रयोग की अत्यन्त सक्रिय शक्ति की और अधिक शीघ्रता तथा गम्भीरता के साथ ले जा सकता है । जो एकमात्र आवश्यक वस्तु है उसीका सर्वप्रथम तथा सदा-सर्वदा अनुसरण करना होगा, और सभी चीजें तो उसके परिणाम-स्वरूप स्वयमेव प्राप्त हो जायंगी । उनकी हमें अपने अन्दर कोई नयी वृद्धि नहीं करनी पड़ेगी, वरंच उस आवश्यक वस्तु के आत्म-प्रकाश में तथा उसके आत्म-प्रकाशक बल के अंशों ण रूप में उनकी पुन: -प्राप्ति एवं पुनर्निर्माण ही करना होगा ।
यही दिव्य और मानवीय ज्ञान में सच्चा सम्बन्ध है । इनके पारस्परिक भेद का मर्म यह नहीं है कि ये पवित्र और अपवित्र दो विषम क्षेत्रों में विभक्त हैं, बल्कि
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यह है कि इनकी क्रिया के मूल में रहनेवाली चेतना भिन्न-भिन्न प्रकार की है । जो ज्ञान उस साधारण मानसिक चेतना से उत्पन्न होता है जो पदार्थों की बाहरी या ऊपरी सतहों में, क्रिया-पद्धति और प्रपंच में रुचि रखती है, -चाहे वह रुचि उस प्रपंच के लिये हो या किसी ऊपरी उपयोगिता के लिये अथवा कामना या बुद्धि की मानसिक या प्राणिक सन्तुष्टि के लिये हो, -वह मानवीय ज्ञान है । परन्तु ज्ञान की यह क्रिया यदि आध्यात्मिक या आध्यात्मीकारक चेतना से उत्पन्न हो तो यह योग का अंग बन सकती है । कारण, आध्यात्मिक चेतना जिस भी वस्तु का निरीक्षण करती है या जिस भी वस्तु के भीतर प्रवेश करती है उसमें कालातीत सनातन की उपस्थिति को और सनातन की कालगत अभिव्यक्ति के तरीकों को खोजती और उपलब्ध करती है । यह तो स्पष्ट ही है कि अज्ञान से ज्ञान की ओर संक्रमण करने के लिये एकनिष्ठता अनिवार्य रूप से आवश्यक है । अतएव, जिज्ञासु के लिये यह आवश्यक हो सकता है कि वह अपनी शक्तियां एकत्र कर उन्हें केवल उसीपर केंद्रित करे जो संक्रमण की क्रिया में सहायक है, साथ ही, जो कुछ सीधा उस अनन्य लक्ष्य की ओर उन्मुख नहीं है उस सबसे कुछ काल के लिये किनारा खींच ले या उसे केवल गौण स्थान ही दे । वह अनुभव कर सकता है कि मानव-ज्ञान का यह या वह अनुशीलन, जिसमें वह अपने मन की स्थूल शक्ति के द्वारा व्यस्त रहने का अभ्यस्त था, अब भी उसे उसी प्रवृत्ति या अभ्यास के वश, गहराइयों में से ऊपरी सतह की ओर ले आता है अथवा यह उसे उन शिखरों से, जिन पर वह चढ़ चुका है या जिनके पास वह पहुंचनेवाला ही है, निचले स्तरों पर उतार लाता है । तब ये प्रवृत्तियां कुछ काल के लिये स्थगित रखनी या छोड़नी पड़ सकती हैं जब तक कि वह उच्चतर चेतना में सुस्थिर होकर इसकी शक्तियों को सभी मानसिक क्षेत्रों पर प्रयुक्त करने में समर्थ नहीं हो जाता; बाद में ये उस प्रकाश के अधीन होकर या उसमें उन्नीत होकर उसकी चेतना के रूपान्तर के द्वारा अध्यात्म तथा देवत्व के क्षेत्र में परिवर्तित हो जाती हैं । जो कुछ इस प्रकार रूपान्तरित नहीं किया जा सकता या दिव्य चेतना का अंग बनने से इन्कार करता है उस सबको वह बिना झिझक के त्याग देगा । पर ऐसा वह किसी ऐसी पूर्वनिश्चित धारणा के कारण नहीं करेगा कि यह सब सारशून्य है या नये अन्तर्जीवन का अंश बनने में असमर्थ है । इन चीजों के लिये कोई निश्चित मानसिक कसौटी या सिद्धान्त नहीं हो सकता । अतः वह किसी अपरिवर्तनीय नियम का अनुसरण नहीं करेगा, बल्कि मन की किसी भी प्रवृत्ति को अपने सम्वेदन, अन्तर्दृष्टि या अनुभूति के अनुसार स्वीकार या अस्वीकार करेगा । इस प्रकार, अन्त में महत्तर शक्ति और ज्योति प्रकट हो जायंगी, नीचे जो कुछ भी है उस सबकी ये अचूक छानबीन करेंगी और मानव-विकास ने दिव्य प्रयास के लिये जो कुछ तैयार किया है उसमें से अपने लिये सामग्री का ग्रहण या वर्जन करेंगी ।
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ठीक किस प्रकार से या किस क्रम से यह विकास एवं परिवर्तन होगा यह बात निश्चय ही वैयक्तिक प्रकृति के स्वरूप, उसकी आवश्यकता और सामर्थ्यों पर निर्भर करेगी । आध्यात्मिक क्षेत्र में सारतत्त्व सदा एक ही होता है, पर फिर भी वहां विविधता का कोई अन्त नहीं होता; कम-से-कम पूर्णयोग में तो सीमित तथा सुनिश्चित मानसिक नियम की कठोरता प्रायः ही लता नहीं होती । कारण, कोई भी दो प्रकृतिया, जब वे एक ही दिशा में चलती हैं तब भी, ठीक एकसमान लीकों अथवा पद-चिहों पर या अपनी प्रगति की सर्वथा एकसमान अवस्थाओं में से होती हुई आगे नहीं बढ़ती । तथापि यह कहा जा सकता है कि उन्नति की अवस्थाओं का तर्क-सम्मत क्रम बहुत कुछ इस प्रकार का होता है । सर्वप्रथम, एक विस्तीर्ण परिवर्तन होता है जिसमें व्यक्तिगत प्रकृति की सभी विशिष्ट एवं स्वाभाविक मानसिक क्रियाएं ऊंची उठायी जाती हैं या उच्चतर दृष्टिबिन्दु से जांची जाती हैं और हमारी अन्तःस्थित आत्मा, चैत्य पुरुष अथवा यज्ञ के पुरोहित के द्वारा भगवान् की सेवा में उत्सर्ग कर दी जाती हैं । उसके बाद सत्ता के आरोहण के लिये तथा इसके ऊर्ध्वमुख प्रयास से प्राप्त होनेवाले चेतना-सम्बन्धी एक नवीन शिखर की विशिष्ट ज्योति और शक्ति को ज्ञान की सम्पूर्ण क्रिया में उतार लाने के लिये प्रयत्न होता है । इस अवस्था में व्यक्ति अपने-आपको चेतना के आभ्यन्तर केंद्रीय परिवर्तन पर प्रबल रूप से एकाग्र कर सकता है और बहिर्गामी मानसिक जीवन के बड़े भारी भाग को त्याग सकता है अथवा उसे तुच्छ और गौण स्थान दे सकता है । भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में वह इसे या इसके कुछ भागों को समय-समय पर फिर से अपना भी सकता है-यह देखने के लिये कि कहां तक नवीन अन्तरीय आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक चेतना इसकी गतियों के भीतर लायी जा सकती है । परन्तु शनैः -शनैः स्वभाव या प्रकृति का वह दबाव कम होता जायगा जो मानव प्राणियों में किसी एक या दूसरे प्रकार के कर्म को ऐसा आवश्यक बना देता है कि वह जीवन का एक अनिवार्य-सा अंग प्रतीत होने लगता है । अन्त में कोई भी आसक्ति शेष नहीं रहेगी, कहीं भी कोई निम्नतर दबाव या चालक शक्ति अनुभूत नहीं होगी । हमें केवल भगवान् से ही मतलब होगा, केवल भगवान् ही हमारी सारी सत्ता की एकमात्र आवश्यकता होंगे । यदि कर्म करने के लिये कोई दबाव होगा भी तो वह दृढ़मूल कामना का या विश्वप्रकृति की शक्ति का नहीं, बल्कि उस महत्तर चित्-शक्ति की ज्योतिर्मयी प्रेरणा का दबाव होगा जो उत्तरोत्तर हमारी सारी सत्ता का एकमात्र प्रेरक-बल बनती जा रही है । दूसरी तरफ, आन्तर आध्यात्मिक विकास के किसी काल में व्यक्ति को कर्मों के निषेध की अपेक्षा कहीं अधिक उनके विस्तार का अनुभव भी हो सकता है; योगशक्ति के चमत्कारी स्पर्श से मानसिक सर्जन की नयी क्षमताओं और ज्ञान के नये क्षेत्रों का उद्घाटन भी हों सकता है । सौन्दर्यात्मक अनुभूति, एक क्षेत्र में या युगपत् अनेक क्षेत्रों में कलात्मक सर्जन की शक्ति,
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साहित्यिक भावप्रकाशन की बुद्धि या प्रतिभा, दार्शनिक चिन्तन की योग्यता, आंख या कान या हाथ की कोई शक्ति या मन की शक्ति भी उद्बुद्ध हो सकती है जहां पहले इनमें से कोई भी दिखायी नहीं देती थी । अन्तरस्थ भगवान् इन निगूढ़ ऐश्वर्यों को उन गहराइयों में से जिनमें ये छिपे पड़े हैं, बाहर निकाल ला सकता है अथवा ऊपर से कोई शक्ति अपने सामर्थ्यों को नीचे उंडेल सकती है, इसलिये कि वह हमारी यंत्रात्मक प्रकृति को उस कर्म या सर्जन के योग्य बना सके जिसकी प्रणालिका या निर्मात्री बनना ही इसका प्रयोजन है । योग के गुप्त महेश्वर की चुनी हुई विधि या विकास-पद्धति कोई भी क्यों न हों, फिर भी इस अवस्था की सामान्य परिसमाप्ति इस वृद्धिशील चेतना में होती है कि वह ऊर्ध्वस्थित योग-महेश्वर हमारे मन की सभी गतियों का तथा ज्ञान की सम्पूर्ण क्रियाओं का संचालक, निर्णायक तथा निर्मायक है ।
जिस रूपान्तर से जिज्ञासु का ज्ञानात्मक मन और ज्ञान के कर्म अविद्या की कार्यप्रणाली छोड़कर, पहले थोड़ा- थोड़ा और फिर पूरी तरह से आत्मा के प्रकाश में काम करनेवाली मुक्त चेतना की कार्यप्रणाली का अनुसरण करने लगते हैं, उसके दो चिह्न होते हैं । प्रथम यह कि चेतना का एक केंद्रीय परिवर्तन हो जाता है और परम तथा विश्वमय सत्ता का, स्वयं भगवान् और सर्वगत भगवान् का एक वर्धमान प्रत्यक्ष अनुभव, दर्शन तथा वेदन प्राप्त होता है । फलत: मन उन्नीत होकर सबसे पहले और प्रधान रूप से इसी चीज में अधिकाधिक संलग्न होता जायगा और यह अनुभव करने लगेगा कि वह उच्च एवं विशाल होकर एकमात्र आधारभूत ज्ञान के प्रकाशन का एक उत्तरोत्तर उद्दीप्त साधन बन रहा है । पर साथ ही केंद्रीय चेतना समय पाकर ज्ञान की बाह्य मानसिक क्रियाओं को उत्तरोत्तर ऊंचा ले जायगी और इन्हें अपना एक भाग या अधिकृत प्रदेश बना लेगी । यह इनके भीतर अपनी अधिक विशुद्ध गति का संचार करेगी और अधिकाधिक आध्यात्मीकृत तथा ज्ञानोद्दीप्त मन को इन तलीय क्षेत्रों अर्थात् अपने नवविजित प्रदेशों में, और साथ ही अपने गभीरतर आध्यात्मिक साम्राज्य में अपना यंत्र बना लेगी । यह दूसरा चिह्न होगा जो इस बात की विशेष पूर्ति तथा सिद्धि का चिह्न होगा कि भगवान् स्वयं ज्ञाता बन गये हैं और जो किसी समय शुद्ध रूप से मानवीय मानसिक कार्य था उसकी गतियों सहित, सभी आन्तरिक व्यापार उनके ज्ञान का क्षेत्र बन गये हैं । वैयक्तिक चुनाव, सम्मति किंवा अभिरुचि न्यूनातिन्यून होती जायगी, बौद्धिक क्रिया, मानसिक उधेड़बुन या अतिकठोर मस्तिष्क-श्रम भी न्यूनातिन्यून हों जायगा; जो कुछ देखना आवश्यक है, जो कुछ जानना आवश्यक है वह सब अन्दर की एक ज्योति ही देखेगी और जानेगी, वही विकास, निर्माण एवं संघटन भी करेगी । अन्दर का ज्ञाता ही व्यक्ति के मुक्त तथा विश्वभावापन्न मन में एक सर्वग्राही ज्ञान के कर्म करेगा ।
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ये दो परिवर्तन उस प्रारम्भिक सफलता के चिह्न हैं जिसके होने पर मानसिक प्रकृति के कार्य उन्नीत, आध्यात्मीकृत, विस्तारित, विश्वमय एवं मुक्त हो जाते हैं और अपने इस असली प्रयोजन से सचेतन हो जाते हैं कि वे कालावच्छिन्न विश्व में अपनी अभिव्यक्ति को विरचित और विकसित करनेवाले भगवान् के साधन हैं । परन्तु यह नहीं हो सकता कि रूपान्तर का सम्पूर्ण क्षेत्र केवल इतना ही हो, क्योंकि पूर्ण सत्य का जिज्ञासु अपना आरोहण केवल इन सीमाओं तक ही समाप्त नहीं कर सकता, न वह अपनी प्रकृति के विशालीकरण को ही यहीं तक सीमित कर सकता है । यदि वह ऐसा करेगा तो ज्ञान अभी भी उस मन का व्यापार बना रहेगा जो मुक्त, विश्वमय एवं अध्यात्ममय तो बन चुका है, पर फिर भी अपेक्षाकृत सीमाबद्ध एवं सापेक्ष है और अपनी क्रियाशीलता के असली सार में भी अपूर्ण है, जैसा कि मनमात्र स्वभावत: ही होता है । यह सत्य की महान् रचनाओं को स्पष्ट रूप से प्रतिक्षिप्त तो करेगा, पर जिस क्षेत्र में सत्य विशुद्ध, प्रत्यक्ष, प्रभुत्वशाली और स्वाभाविक है वहां-वहां विचरण नहीं कर सकेगा । इस शिखर से अभी और ऊंचा आरोहण करना होगा, जिससे आध्यात्मीकृत मन अपने को अतिक्रान्त कर ज्ञान की अतिमानसिक शक्ति में रूपान्तरित हो जायगा । आध्यात्मीकरण की प्रक्रिया में यह मानव-बुद्धि को भड़कीली दरिद्रता में से बाहर निकलना शुरू कर ही चुका होगा; और अब यह पहले उच्चतर मन के विशुद्ध विपुल विस्तारों में और तदनन्तर ऊर्ध्व के प्रकाश से प्रकाशित और भी महत्तर प्रज्ञा के ज्योतिष्मान् मण्डलों में क्रमश: आरोहण करेगा । इस अवस्था में यह एक अन्तर्शान की जो परत: -प्रकाशित नहीं, बल्कि स्वतः -प्रकाशमान एवं स्वतः -सत्य होता है और जो पहले की तरह पूर्ण रूप से मानसिक न होने के कारण भ्रांति के बहुल आक्रमण से अभिभूत भी नहीं होता, -प्रारम्भिक दीप्तियों को अधिक खुलकर अनुभव करने लगेगा और एक कम मिश्रित प्रतिक्रिया के साथ उन्हें अपने अन्दर प्रवेश भी करने देगा । परन्तु यहां भी आरोहण की समाप्ति नहीं हो जायगी, फिर इसे और भी ऊपर उस अखण्डित अन्तर्ज्ञान के असली स्तर में उठना होगा जो मूलभूत सत् की आत्मसंवित् से निकला दुआ प्रथम प्रत्यक्ष प्रकाश है और, इससे भी परे, वह तत्त्व प्राप्त करना होगा जहां से यह प्रकाश आता है । कारण, मन से भी परे एक अधिमानस है, एक अधिक मूलभूत और क्रियाशील शक्ति है जो मन को आश्रय देती है, उसे अपने में से निकली हुई एक क्षीण रश्मि समझती है और एक अधोमुखी गति को संक्रान्त करनेवाले पट्टे या अविद्या को उत्पन्न करनेवाले साधन के तौर पर उसका प्रयोग करती है । आरोहण का अन्तिम पग होगा स्वयं इस अधिमानस को भी पार करना, अथवा इसका अपने और भी महत्तर उद्गम में लौट जाना तथा विज्ञान की अतिमानसिक ज्योति में रूपान्तरित हो जाना । अतिमानसिक ज्योति में ही भागवत सत्य-चेतना की मुहर है । इस चेतना में विश्वगत निश्चेतना और छाया से अकलषित
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परम सत्य के कर्मों को संगठित करने की एक ऐसी स्वाभाविक शक्ति है जैसी इससे नीचे की अन्य किसी चेतना में हो ही नहीं सकती । वहां पहूंचना और अविद्या का रूपान्तर कर सकनेवाली अतिमानसिक क्रियाशक्ति को वहां से उतार लाना पूर्णयोग का सुदूर पर अटल और परम लक्ष्य है ।
जैसे ही इनमें से प्रत्येक उच्चतर शक्ति का प्रकाश ज्ञान के मानवीय कार्यों पर डाला जाता है, पवित्र एवं अपवित्र और मानवीय एवं दैवी का सब प्रकार का भेद अधिकाधिक क्षीण होने लगता है और आगे चलकर यह अन्तिम तौर पर मिट जाता है, मानो यह एक सर्वथा निरर्थक वस्तु हो । भागवत विज्ञान जिस चीज को स्पर्श करता तथा जिसके भीतर पूर्णरूपेण प्रवेश करता है, वह रूपान्तरित होकर इसके निज प्रकाश और बल की गति बन जाती है । वह गति निम्नतर बुद्धि की मलिनता और सीमाओं से मुक्त होती है । अतएव, कुछ कार्यों से नाता तोड़ लेना नहीं, वरन् उन्हें अनुप्राणित करनेवाली चेतना को बदलकर उन सबका कायापलट कर देना ही मुक्ति का मार्ग है, यही ज्ञानयज्ञ का एक अधिक महान्-सदा ही अधिकाधिक महान्-ज्योति और शक्ति की ओर अरोहण है । मन और बुद्धि के सब कर्मों को पहले उच्च और विशाल बनाना होगा, फिर उन्हें प्रकाशयुक्त करके उच्चतर प्रज्ञा के स्तर में उठा ले जाना होगा, तत्पश्चात् उन्हें एक महत्तर मनोतीत अन्तर्ज्ञान की क्रियाओं में परिणत कर अधिमानस-ज्योति के प्रबल प्रवाहों में रूपान्तरित करना होगा, और फिर इन्हें भी अतिमानसिक विज्ञान के पूर्ण प्रकाश और प्रभुत्व में रूपान्तरित कर देना होगा । इस जगत् में चेतना का जो विकास हो रहा है उसमें इस चीज के पूर्वचिह्न विद्यमान हैं पर अभी यह वहां बीजरूप में तथा उसकी प्रक्रिया के आयासपूर्ण दृढ़ आशय में छुपी हुई है । यह प्रक्रिया या यह विकास तब तक नहीं रुक सकता जब तक यह आत्मा की अद्यावधि-अपूर्ण अभिव्यक्ति के स्थान पर पूर्ण अभिव्यक्ति के यंत्र विकसित नहीं कर लेता ।
यदि ज्ञान चेतना की एक विशालतम शक्ति है और इसका व्यापार मुक्त और आलोकित करना है, तो प्रेम एक गंभीरतम तथा तीव्रतम शक्ति है और दिव्य परम रहस्य की अतिशय गम्भीर तथा निगूढ़ गुहाओं की कुंजी बनने का विशेष सौभाग्य भी इसीको प्राप्त है । मनोमय जीव होने के कारण मनुष्य की प्रवृत्ति यह है कि वह चिन्तक मन तथा इसके तर्क एवं संकल्प को और सत्य के पास पहुंचने तथा उसे कार्यान्वित करने के इसके तरीके को सर्वोपरि महत्त्व देता है, यहां तक कि उसका झुकाव यह मानने की ओर है कि और कोई तरीका है ही नहीं । उसका हृदय, जो अपने भावों और अपरिमेय गतियों से सम्पन्न है, उसकी बुद्धि को ऐसा दिखायी
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देता है कि यह एक अन्धकारयुक्त एवं संदिग्ध शक्ति है-जो प्रायः ही भयानक तथा भ्रामक होती है--और इसलिये इसे तर्कबुद्धि, मानसिक संकल्प और प्रज्ञा के नियन्त्रण में रखने की आवश्यकता है । परन्तु हृदय में या इसके पीछे एक गंभीरतर गुह्य ज्योति भी है । यह हृदय की ज्योति चाहे वह चीज नहीं है जिसे हम अन्तर्ज्ञान कहते हैं,--क्योंकि अन्तर्ज्ञान मन की चीज न होते हुए भी मन से होकर ही नीचे आता है- तथापि, यह सत्य से सीधा सम्बन्ध रखती है और ज्ञानगर्वित मानवीय बुद्धि की अपेक्षा भगवान् के अधिक निकट है । प्राचीन शिक्षा के अनुसार अन्तर्यामी भगवान् या निगूढ़ पुरुष का स्थान गुह्य हृदय में है, --हृदये गुहायाम्, जैसा कि उपनिषदें कहती हैं,--और अनेक योगियों के अनुभव के अनुसार, इसी की गहराइयों से आन्तर आप्त पुरुष की वाणी या निःश्वास प्रकट होता है ।
हृदयसम्बन्धी यह द्विविध भाव, उसकी यह गभीरता और अन्धता, जो परस्परविरोधी दिखायी देती हैं, मानव की भावमय सत्ता के दोहरे स्वरूप के कारण पैदा होती हैं । सामने की तरफ तो मनुष्य में प्राणमय भाव का हृदय है जो पशु के हृदय जैसा है, यद्यपि है अधिक विविध रूप से विकसित । इसके भाव अहंकारमय आवेश के द्वारा अन्ध और सहज राग-अनुराग तथा उन जीवन-आवेगों की समस्त क्रीड़ा के द्वारा शासित होते हैं जो दोषों और विकारों से भरे हुए हैं और प्रायः ही निकृष्ट पतन का कारण बनते हैं । यह निस्तेज तथा भ्रष्ट जीवन-शक्ति की वासनाओं, कामनाओं, क्रोधों, उत्कट या भयानक मांगों या तुच्छ लोभों और नीच क्षुद्रताओं से आक्रान्त है और उनमें आबद्ध है और साथ ही, आवेगमात्र के अधीन होने के कारण, हीन अवस्था में गिरा दुआ है । भावमय हृदय और सम्वेदनशील सतृष्ण प्राण का यह मिश्रण मनुष्य में कामना की मिथ्या आत्मा को जन्म देता है । यह कामनात्मा वह अपरिष्कृत और भयावह तत्त्व है जिस पर तर्कबुद्धि, ठीक ही, अविश्वास करती है तथा नियंत्रण रखने की आवश्यकता अनुभव करती है, यद्यपि जिस वास्तविक नियंत्रण किंवा निग्रह को यह हमारी अपरिपक्य और आग्रहशील प्राणिक प्रकृति पर स्थापित करने में सफल होती है वह सदा अत्यन्त अनिश्चित और वंचनात्मक ही रहता है । परन्तु मनुष्य की सच्ची आत्मा इस भावमय हृदय में नहीं है । वह प्रकृति की किसी ज्योतिर्मयी गुहा में निभृत एक सच्चे और अदृश्य हृदय में है । वहां, दिव्य ज्योति के एक विशेष अन्तर्निस्पंदन की छाया में हमारी आत्मा वा प्रशान्त अन्तरतम सत्ता अवस्थित है जिसका ज्ञान विरले ही लोगों को है । चाहे आत्मा है तो सभीमें, पर बहुत कम ही अपनी सच्ची आत्मा को जानते हैं अथवा इसकी प्रत्यक्ष प्रेरणा अनुभव करते हैं । भगवान् की इस नन्ही-सी चिनगारी का वास हम सभीमें है । यह हमारी प्रकृति के इस तमसाच्छन्न पिण्ड को धारण करती है और इसीके चारों ओर चैत्य पुरुष अर्थात् हमारे अन्दर की गठित आत्मा या वास्तविक 'मनुष्य' वर्धित होता है | ज्यों-ज्यों मनुष्य के अन्दर का यह चैत्य पुरुष
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विकसित होता है और हृदय की गतियां इसकी भविष्यवाणियों तथा प्रेरणाओं को प्रतिबिंबित करने लगती हैं त्यों-त्यों मनुष्य अपनी आत्मा के प्रति उत्तरोत्तर सचेतन होता चलता है; वह अब केवल एक ऊंची श्रेणी का पशु नहीं रहता । वह अपने अन्तर्यामी परमेश्वर की झांकियों के प्रति जागृत होकर इसकी गंभीरतर जीवन और चेतना-विषयक सूचनाओं को तथा दिव्य वस्तुओं के प्रति संवेग को अपने अन्दर अधिकाधिक ग्रहण करने लगता है । वह पूर्णयोग का एक निर्णायक क्षण होता है जब कि यह चैत्य पुरुष मुक्त होकर, पर्दे के पीछे से सामने की ओर आकर, अपनी भविष्य-सूचनाओं, दृष्टियों और प्रेरणाओं की परिपूर्ण बाढ़ से मनुष्य के तन-मन-प्राण को आप्लावित करने और पार्थिव प्रकृति में देवत्व के निर्माण का उपक्रम करने में समर्थ होता है ।
हृदय की क्रियाओं पर विचार करते हुए ज्ञान के कर्मों की भांति ही, इसकी दो प्रकार की गतियों में प्रारम्भिक भेद करना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है । एक तो वे गतियां हैं जो सच्ची अन्तरात्मा सें प्रेरित होती हैं अथवा उसके मुक्त होने में सहायता करती हैं और प्रकृति पर शासन करती हैं और दूसरी वे जो अशुद्ध प्राणिक प्रकृति की सन्तुष्टि में ही लगी रहती हैं । परन्तु इस अर्थ में साधारणत: जो भेद किये जाते हैं वे योग के गम्भीर या आध्यात्मिक प्रयोजन के लिये नहीं के बराबर उपयोगी हैं । उदाहरणार्थ, धार्मिक भावों और लौकिक सम्वेदनों में भी भेद किया जा सकता है और आध्यात्मिक जीवन का यह एक नियम बनाया जा सकता है कि केवल धार्मिक भावों को ही बढ़ाना उचित है और सभी सांसारिक सम्वेदनों तथा रागों को या तो त्याग देना चाहिये या उन्हें अपनी सत्ता से निकाल फेंकना चाहिये । क्रियात्मक रूप में इसका अर्थ होगा--एक ऐसे संत या भक्त का धार्मिक जीवन जो भगवान् के साथ अकेला रहता है या केवल सार्वभौम ईश्वर-प्रेम में ही दूसरों से जुड़ा होता है अथवा, अधिक-से-अधिक, बाह्य संसार पर पवित्र, धार्मिक या भक्तिमूलक प्रेम के स्रोतों को प्रवाहित कर रहा होता है । परन्तु स्वयं धार्मिक भाव भी प्राणिक चेष्टाओं के उपद्रव और अन्धकार सें प्रायः निरन्तर ही आक्रान्त होता रहता है । यह बहुत बार या तो असंस्कृत होता है या संकुचित या मतांध, अथवा यह ऐसी चेष्टाओं से मिला रहता है जो आत्मिक पूर्णता के चिह्न नहीं होतीं । इसके अतिरिक्त, यह स्पष्ट है कि सन्तभाव की यह उत्कट प्रतिमूर्त्ति, जो कठोर पुरोहितीय पद्धति में जकड़ी हुई है, अपने सर्वोत्तम रूप में भी, पूर्णयोग के व्यापक आदर्श से बिल्कुल भिन्न वस्तु है । ईश्वर और जगत् के साथ एक अधिक व्यापक आन्तरात्मिक तथा भावमय सम्बन्ध जोड़ना अनिवार्य है जो अपने स्तर में अधिक गम्भीर तथा नमनीय हो, अपने व्यवहारों में अधिक व्यापक और सर्वस्पर्शी हो और अपने क्षेत्र के भीतर सारे-के-सारे जीवन को समा लेने में अधिक समर्थ हो ।
मनुष्य के संसारी मन ने एक इससे भी अधिक व्यापक सूत्र प्रदान किया है जो
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नैतिक भावना पर आधारित है । संसारी मन भावों को दो श्रेणियों में विभक्त करता है, एक तो वे भाव हैं जो नैतिक भावना से अनुमोदित हैं और दूसरे वे जो अहम्मूलक हैं तथा स्वार्थपूर्ण रूप में सर्वसाधारण एवं लौकिक हैं । परार्थ, परोपकार, करुणा, शुभेच्छा, मानवहित, सेवा-कार्य, अथवा मनुष्य तथा प्राणिमात्र के मंगल के लिये प्रयत्न ही हमारा आदर्श होना चाहिये; इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के अन्तर्विकास का पथ यह है कि वह अहंभाव की केंचुली उतारकर आत्म-त्याग की एक ऐसी आत्मा में विकसित हो जाय जो केवल या मुख्यतः दूसरों के लिये अथवा समूची मनुष्यजाति के लिये जीवन यापन करे । अथवा, यदि यह पथ इतना अधिक सांसारिक और मानसिक है कि हमारी सम्पूर्ण सत्ता इससे सन्तुष्ट नहीं हो सकती, -क्योंकि हमारे अन्दर एक अधिक गहरा धार्मिक तथा आध्यात्मिक स्वर भी है जिसे यह मानवहितवादी सूत्र विचार में नहीं लाता, --तो इसे एक धार्मिक-नैतिक आधार पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है, और वास्तव में इसकी मूल भित्ति थी भी ऐसी ही । एवं, हृदय की भक्तिद्वारा भगवान् या पुरुषोत्तम की आन्तरिक पूजा में या परम ज्ञान की खोज द्वारा अनिर्वचनीय के अनुसन्धान में एक और चीज भी सम्मिलित की जा सकती है । वह है परार्थ के कार्यों द्धारा पुरुषोत्तम की पूजा अथवा मनुष्यजातिके प्रति या अपने आस-पास के लोगों के प्रति प्रेम और सेवा के कार्यों के द्धारा अपनी सत्ता की तैयारी । सच पूछो तो इस धार्मिक-नैतिक भावनाद्धारा ही सार्वभौम हितकामना या विश्वजनीन करुणा के नियम का या पड़ोसी के प्रति प्रेम और सेवा के नियम का, अर्थात् वैदान्तिक, बौद्ध या ईसाई आदर्श का जन्म दुआ था । कारण, मानव-हित का आदर्श सब बन्धनों से मुक्त होकर मानसिक और नैतिक आचार--धर्म की सांसारिक पद्धति का उच्चतम स्तर तभी बन सकता था यदि वह एक प्रकार के सांसारिक शीतलीकरण (refrigeration) के द्वारा अपने अन्दर के धार्मिक तत्त्व की प्रचण्डता को शान्त कर देता । धार्मिक प्रणाली में कर्मों का यह नियम एक ऐसा साधन है जो अपना उद्देश्य सिद्ध होने पर लुप्त हो जाता है या फिर यह एक गौण विषय ही है । यह उस मतवाद का अंश है जिसके द्वारा मनुष्य देवत्व की पूजा और खोज करता है अथवा यह निर्वाण के मार्ग में आत्मा के उच्छेद का अन्तिम से पहला कदम है । सांसारिक आदर्श में इसे अपने-आपमें एक उद्देश्य का उच्च पद प्रदान किया जाता है । यह मानव-प्राणी की नैतिक पूर्णता का चिह्न बन जाता है, अथवा यह भूतल पर मनुष्य की एक अधिक सुखमय अवस्था या एक अधिक श्रेष्ठ समाज की किंवा जाति के एक अधिक एकीभूत जीवन की शर्त बन जाता है । परन्तु इनमें से कोई भी चीज आत्मा की उस मांग को पूरा नहीं करती जिसे पूर्णयोग हमारे सामने रखता है ।
परार्थ, परोपकार, मानवहित और सेवा मानसिक चेतना के पुष्प हैं और, अपने सर्वोत्तम रूप में भी, ये सार्वभौम दिव्य प्रेम की आध्यात्मिक ज्योतिशिखा का मन
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द्वारा किया गया एक भावशन्य और निस्तेज अनुकरणमात्र हैं । ये वास्तव में मनुष्य को अहं-बुद्धि से मुक्त नहीं करते, बल्कि इसे केवल विस्तारित कर उच्चतर तथा विपुलतर तृप्ति प्रदान करते हैं । मनुष्य के प्राणिक जीवन एवं प्रकृति का परिवर्तन करने में क्रियात्मक रूप से अशक्त होते हुए ये केवल इसकी चेष्टा को कुछ संशोधित और शान्त करके इसके अपरिवर्तित अहंभावमय मूलतत्त्व पर लीपापोती कर देते हैं । अथवा यदि एक पूर्ण सत्य-संकल्प के साथ एवं अतिकठोरतापूर्वक इनका अनुसरण किया जाय तो इसके लिये हमारी प्रकृति के एक ही अंग को अतीव विस्तृत करने की जरूरत होगी । इस प्रकार की अति करने से विश्वमय और विश्वातीत सनातन की ओर हमारी व्यष्टिभूत सत्ता के अनेक पहलुओं के पूर्ण तथा समग्र दिव्य विकास के लिये कोई आधार नहीं रह जायगा । धार्मिक-नैतिक आदर्श भी पर्याप्त पथप्रदर्शक नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो केवल धार्मिक और नैतिक आवेगों में पारस्परिक सहायता के लिये समझौता है या पारस्परिक रियायतों का शर्तनामा । धार्मिक आवेग साधारण मानव-प्रकृति की उच्चतर प्रवृत्तियों को अपने अन्दर समाकर पृथ्वी पर एक अधिक दृढ़ आधिपत्य जमाना चाहता है और नैतिक आवेग थोड़े-से धार्मिक उत्साह के द्वारा अपने-आपको अपनी मानसिक कठोरता और रूक्षता में से निकालकर ऊपर उठने की आशा करता हैं । इन दोनों के बीच शर्तनामा करने में धर्म अपने-आपको गिराकर मानसिक स्तर पर ले आता है और इस प्रकार उसे मन की स्वभावगत त्रुटियां तथा जीवन का परिवर्तन एवं रूपान्तर करने में इसकी अक्षमता उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती हैं । मन द्वंद्वों का क्षेत्र है और जैसे इसके लिये केवल सापेक्ष या भ्रम-मिश्रित सत्यों को छोड़ कर किसी निरपेक्ष सत्य को प्राप्त करना असम्भव है वैसे ही किसी निरपेक्ष शुभ की प्राप्ति भी असम्भव है । कारण, नैतिक शुभ तो अशुभ के सहायक और संशोधक के रूप में ही अपना अस्तित्व रखता है और अशुभ उसके साथ सदा लगा रहता है, मानो यह उसकी छाया, उसका पूरक एवं उसकी सत्ता का हेतु-सा हो । परन्तु आध्यात्मिक चेतना मानसिक स्तर से ऊंचे स्तर के साथ सम्बन्ध रखती है और वहां सब द्वंद्व समाप्त हों जाते हैं । वहां असत्य जब उस सत्य के सामने आता है जिसे मिथ्या बना कर तथा बलपूर्वक हथियाकर यह उससे लाभ उठाता था और अशुभ जब उस शुभ के सम्मुख खड़ा होता है जिसका यह विकार या मलिन प्रतिनिधि था, तब ये असत्य और अशुभ, पोषण न मिलने के कारण, विवश होकर क्षीण होने लगते हैं और अन्त में समाप्त हो जाते हैं । पूर्णयोग मानसिक तथा नैतिक आदर्शों के भंगुर सत्त्व का अवलंबन लेने से इन्कार करता है और इस क्षेत्र में अपना सारा बल तीन केंद्रीय प्रबल विधियों पर लगाता है--सच्ची अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष को विकसित करना जिससे कि यह कामना की मिथ्या आत्मा का स्थान ले ले, मानव-प्रेम को दिव्य प्रेम में उदात्त करना और चेतना को उसके मानसिक स्तर से उठाकर
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उस आध्यात्मिक और अतिमानसिक स्तर में ले जाना जिसकी शक्ति से ही आत्मा और जीवन-शक्ति-दोनों अविद्या के आवरणों और छलछद्मों से पूर्णरूपेण मुक्त की जा सकती हैं ।
अन्तरात्मा या चैत्य पुरुष का निज स्वभाव भागवत सत्य की ओर मुड़ना है, वैसे ही जैसे सूर्यमुखी का स्वभाव सूर्य की ओर मुड़ना है । जो कुछ भी दिव्य है या दिव्यता की ओर बढ़ रहा है उस सबको यह स्वीकार करता है और उससे चिपक जाता है और जो कुछ उस दिव्यता का विकार या इन्कार है तथा जो कुछ मिथ्या और अदिव्य है उस सबसे यह परे हटता है । परन्तु यह अन्तरात्मा पहले-पहल देवाधिदेव की एक चिनगारीमात्र और बाद में घने अन्धकार के बीच जल रही एक नन्हीं-सी ज्वाला ही होती है । अधिकांश में यह अपने आन्तर पावन धाम में छिपी रहती है और अपने-आपको आविर्भूत करने के लिये इसे मन, प्राणशक्ति और भौतिक चेतना से अनुरोध करना और उन्हें प्रेरित करना पड़ता है कि वे यथासम्भव उत्तम प्रकार से इसे प्रकट करें । साधारणतः यह अधिक-से-अधिक उनकी बहिर्मुखता को अपने अन्तःप्रकाश से आप्लावित करने तथा उनके अन्ध तमस् या उनके स्थूलतर मिश्रण को अपनी पावन सूक्ष्मता द्वारा कुछ कम करने में ही सफल होती है । यहां तक कि जब चैत्य पुरुष गठित हो जाता है और अपने-आपको जीवन में कुछ प्रत्यक्ष ढंग से प्रकट करने में समर्थ होता है तब भी यह इने-गिने लोगों के सिवा शेष सभी में सत्ता का एक छोटा-सा अंश ही होता है । प्राचीन ऋषि इसके लिये जिस रूपक का प्रयोग करते थे वह यह है कि ''इस देह-संघात में यह मनुष्य के अंगूठे से अधिक बड़ा नहीं है ।'' यह शारीरिक चेतना के अन्धकार एवं अज्ञ क्षुद्रता और मन के भ्रान्त निश्चयों या प्राणिक प्रकृति की धृष्टता तथा उग्रता पर विजय पाने में सदा सक्षम नहीं होता । यह अन्तरात्मा मनुष्य के मानसिक, भावुक एवं सम्वेदनात्मक जीवन को, जैसा कि यह है, उसके सम्बन्धों, उसकी चेष्टाओं, उसके पालित-पोषित रूपों तथा आकारों के सहित स्वीकार करने के लिये बाध्य होती है । इसे इस सब सापेक्ष सत्य में से जो एक सतत मिथ्याकारी भ्रम से मिला हुआ है, इस प्रेम में से जो पाशविक शरीर के प्रयोजनों या प्राणिक अहंकार की तृप्ति में लगा दुआ है, औसत मनुष्य के इस जीवन में से जो देवाधिदेव की विरल तथा मन्द झांकियों तथा राक्षस और पिशाच की घोरतर बीभत्सताओं से बिंधा दुआ है, दिव्य तत्त्व को निर्मुक्त और संवर्धित करने के लिये यत्न करना होता है । यद्यपि इसका संकल्प सारतः निर्भ्रान्त होता है तो भी यह प्रायः अपने करणों के दबाव में आकर अपने कार्य में गलती कर जाती है, अशुद्ध वेदन प्राप्त कर लेती है, व्यक्ति के चुनाव में अशुद्धि करती है और अपने संकल्प के यथार्थ रूप के विषय में तथा अप्राप्त आन्तर आदर्श की अभिव्यक्ति की अवस्थाओं के सम्बन्ध में बरबस भूलें कर बैठती है । तथापि इसके अन्दर एक
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ऐसा भविष्य-ज्ञान है जो इसे तर्क-बुद्धि की अपेक्षा या ऊंची-से-ऊंची कामना की भी अपेक्षा अधिक अचूक पथप्रदर्शक बना देता है, प्रत्यक्ष भ्रान्तियों तथा स्खलनों के मध्य भी इसकी आवाज सूक्ष्म बुद्धि और विवेकपूर्ण मानसिक निर्णय की अपेक्षा अधिक अच्छा मार्गदर्शन कर सकती है । आत्मा की यह आवाज वह चीज नहीं हैं जिसे हम नैतिक भावना (Conscience) कहते हैं, वह तो केवल एक मानसिक स्थानापन्न-वस्तु है जो प्रायः ही रूढ़ तथा भ्रान्तिशील होती है । आत्मा की आवाज एक अधिक गम्भीर और बहुत ही कम सुनायी देनेवाली पुकार है । तथापि जब कभी यह सुनायी दे, इसका अनुसरण करना अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण होता है, यहां तक कि तर्कबुद्धि और बाह्य नैतिक उपदेश की सहायता से प्रत्यक्षतया सीधे रास्ते पर चलने की अपेक्षा अपनी आत्मा की पुकार के पीछे भटकना अधिक अच्छा होता है । परन्तु जब जीवन भगवान् की ओर मुड़ता है तभी अन्तरात्मा वास्तव में आगे आ सकती है और बाह्य अंगों पर अपनी शक्ति का बलपूर्वक प्रयोग कर सकती है । स्वयं भगवान् की चिनगारी होने से, भगवान् की ओर ज्योतिशिखा के रूप में बढ़ना ही इसका सच्चा जीवन और इसके अस्तित्व का वास्तविक हेतु है ।
योग में एक विशेष अवस्था में पहुंचने पर जब कि मन पर्याप्त अचंचल हो जाता है और पहले की तरह पग-पग पर अपने मानसिक निश्चयों की क्षमता का आश्रय नहीं लेता, जब प्राण स्थिर और वशीभूत हो चुकता है और अपनी अविवेकपूर्ण इच्छाशक्ति, मांग और कामना के सम्बन्ध में पूर्ववत् निरन्तर आग्रहशील नहीं रहता, और जब शरीर को भी इतना बदल दिया जाता है कि वह अन्तरीय ज्वाला को अपनी बहिर्मुखता, जड़ता या निष्क्रियता के ढेर के नीचे पूरी तरह से दबा नहीं सकता, तब एक भीतर छुपी हुई और अपने विरल प्रभावों के समय ही अनुभूत होनेवाली अन्तरतम सत्ता सामने आने में समर्थ हों जाती है, यह शेष अंगों को भी आलोकित कर सकती है तथा साधना का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकती है । इसका स्वभाव ही भगवान् या सर्वोच्च देव की ओर अनन्य अभिमुखता है, -एक ऐसी अनन्य अभिमुखता जो अनन्य होती हुई भी क्रिया तथा गति में नमनशील होती है । यह एकनिष्ठ बुद्धि की तरह किसी लक्ष्य की कट्टरता को अथवा एकनिष्ठ प्राणिक शक्ति की भांति किसी प्रभुत्वशाली विचार या आवेग की हठधर्मिता को जन्म नहीं देती । प्रतिक्षण और नमनशील असंदिग्धता के साथ यह सत्य की ओर ले जानेवाले मार्ग का निर्देश करती है, सही कदम और गलत कदम में सहज ही भेद जतलाती हे, दिव्य या ईश्वरमुखी गति को अदिव्य वस्तु के चिमटनेवाले मिश्रण से पृथक् कर देती है । इसका कार्य एक जाज्वल्यमान मशाल के समान है जो, प्रकृति में जो कुछ भी परिवर्तनीय है, उस सबको स्पष्ट दिखा देती है । इसमें संकल्प की एक अग्नि है जो पूर्णता के लिये और समस्त आन्तर तथा बाह्य सत्ता के रूपान्तरकारी परिवर्तन के लिये आग्रह करती है । यह सर्वत्र दिव्य
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सारतत्त्व ही देखती है और आवरण एवं आवरक आकारमात्र का परित्याग कर देती है । यह सत्य, संकल्पशक्ति, बल एवं प्रभुत्व तथा हर्ष, प्रेम एवं सौन्दर्य की आग्रहपूर्वक मांग करती है, स्थिर ज्ञान के उस सत्य की जो अज्ञान के केवल व्यावहारिक क्षणिक सत्य का अतिक्रमण कर जाता है, केवल प्राणिक सुख की नहीं, बल्कि आन्तरिक हर्ष की, -क्योंकि यह पतनकारी सुखों की अपेक्षा पवित्रीकारक कष्ट-क्लेश को कहीं अधिक पसन्द करती है, --उस प्रेम की नहीं जो अहंकारमय लालसा के खूंटे से बंधा दुआ है या जिसके पैर पंक में फंसे हुए हैं, बल्कि ऊंची उड़ान लेनेवाले प्रेम की, उस सौन्दर्य की जो सनातन का निरूपण करने के अपने पुरोहित-पद पर प्रतिष्ठित है तथा अहं के नहीं, बल्कि आत्मा के यन्त्रों के रूप में काम आनेवाले बल, संकल्प और प्रभुत्व की आग्रहपूर्वक मांग करती है । इसका संकल्प जीवन को दिव्य बनाने, उसके द्वारा उच्चतर सत्य को अभिव्यक्त करने और उसे भगवान् तथा सनातन सत्ता पर उत्सर्ग कर देने के लिये होता है ।
परन्तु चैत्य पुरुष का अत्यन्त अन्तरंग स्वभाव है भगवान् को पाने के लिये पवित्र प्रेम, हर्ष और एकत्व द्वारा प्रवृत्त होना । भागवत प्रेम ही उसकी खोज का प्रथम विषय होता है, यही प्रेरक, उसका लक्ष्य तथा उसका सत्य का सितारा होता है जो हमारे अन्दर के नवजात देवत्व के नवोदित या अभी भी अन्धकारावृत पालने की प्रकाशमय गुहा पर चमक रहा होता है । अपने विकास और अपरिपक्व अस्तित्व की प्रथम दीर्घ अवस्था में वह पार्थिव प्रेम, वात्सल्य, मृदुता, सद्भावना, करुणा और दया की और समस्त सुन्दरता, कोमलता, सूक्ष्मता, प्रकाश, बल एवं साहस आदि उन सब चीजों की सहायता ले चुका होता है जो मानव-प्रकृति की स्थूलता तथा साधारणता को सूक्ष्म एवं पवित्र करने में सहायक हो सकती हैं । परन्तु वह जानता है कि अपने सर्वोत्तम रूप में भी ये मानवीय गतियां कितनी मिश्रित होती हैं, वह यह भी जानता है कि अपने निकृष्टतम रूप में ये कैसी पतित होती हैं और साथ ही अहं तथा आत्मवंचक कल्पना-जनित मिथ्यात्व की और आत्मगति के अनुकरण से लाभ उठानेवाले निम्नतर 'स्व' की मुहरछाप से कैसी चिह्नित होती हैं । आविर्भूत होते ही यह, एकदम, सभी पुराने सम्बन्धों तथा त्रुटिपूर्ण भावमय चेष्टाओं का उच्छेद करने और उनके स्थान पर प्रेम तथा एकत्व के महत्तर आध्यात्मिक सत्य को स्थापित करने के लिये उद्यत तथा उत्सुक होता है । यह मानवीय रीतियों और गतियों को फिर भी स्वीकार कर सकता है, किन्तु इस शर्त पर कि वे एकमेव देव की ओर ही मोड़ दी जायंगी । यह केवल उन्हीं सम्बन्धों को स्वीकार करता है जो सहायक होते हैं, -हृदय में गुरु के लिये मान, ईश्वरान्वेषकों का समागम, अज्ञानमय मानवीय और जीव-जन्तुमय जगत् तथा इसके प्राणियों के प्रति आध्यात्मिक करुणा, सौन्दर्य का वह हर्ष, सुख एवं सन्तोष जो सर्वत्र भगवान् के
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दर्शन करने से ही प्राप्त होता है । यह हृदय के गुह्य केंद्र में विराजमान अन्तर्यामी भगवान् के साथ प्रकृति का मिलन सम्पादित करने के लिये उसे भीतर निमज्जित करता है और जब ऐसी पुकार विद्यमान होगी तब अहंभाव की कोई भर्त्सना, परार्थ या कर्तव्य या परोपकार या सेवा के कोरे बाहरी बुलावे इसे धोखा नहीं देंगे अथवा इसे इसकी पवित्र अभीप्सा से और निज अन्तःस्थित दिव्यता के आकर्षण के प्रति इसकी आज्ञाकारिता से विमुख नही करेंगे । यह सत्ता को परात्पर आनन्दोद्रेक की ओर उठा ले जाता है और एकमेव सर्वोच्च देव तक पहुंचने के लिये अपनी ऊर्ध्वगति में संसार के समस्त अधोमुख आकर्षण को अपने पंखोंपर से झाड़ फेंकने के लिये उद्यत रहता है । पर साथ ही यह घृणा, कलह, विभाजन, अन्धकार और कलहशील अज्ञान के इस जगत् को मुक्त तथा रूपान्तरित करने के लिये उस परात्पर प्रेम तथा परम आनन्द का यहां आह्वान भी करता है । सार्वभौम भागवत प्रेम, व्यापक करुणा तथा तीव्र और अति महान् संकल्प की ओर यह अपने-आपको खोल देता है--सबके मंगल के लिये, उस जगन्माता के आलिंगन के लिये जो अपनी सन्तानों को सब ओर से आच्छादित किये हुई है या अपने चारों ओर एकत्र कर रही है, उस दिव्य अनुराग के संस्पर्श के लिये जिसने संसार का सार्वभौम अज्ञान से उद्धार करने के लिये रात्रि के भीतर डुबकी लगायी है । यह सत्ता के इन महान् एवं सुप्रतिष्ठित सत्यों के मानसिक अनुकरणों या किसी प्राणिक दुरुपयोग से आकृष्ट या भ्रान्त नहीं होता । यह अपनी अन्वेषक विद्युत्-दृष्टि से इन्हें प्रकाश में ले आता है और दिव्य प्रेम के सम्पूर्ण सत्य का नीचे आवाहन करता है इसलिये कि वह इन दूषित रचनाओं में सुधार करे, मानसिक, प्राणिक एवं दैहिक प्रेम को इनकी त्रुटियों या इनके विकारों से मुक्त करे और घनिष्ठता, एकता, आरोही हर्षावेश तथा अवरोही उल्लास का इनका प्रचुर भाग इनके सामने प्रकट करे ।
प्रेम के और प्रेमसम्बन्धी कर्मों के सभी सच्चे सत्यों को चैत्य पुरुष उनके अपने स्थान में स्वीकार करता है । परन्तु इसकी ज्वाला सदा ऊपर की ओर आरोहण करती है और यह आरोहण को सत्य की निम्नतर से उच्चतर कोटियों की ओर अग्रसर करने को उत्कण्ठित होता है । कारण, यह जानता है कि सर्वोच्च सत्य की ओर आरोहण के तथा उस सर्वोच्च सत्य के अवरोहण के द्वारा ही प्रेम को शूली से मुक्त किया जा सकता है और सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है । शूली एक ऐसे भागवत अवतरण का चिह्न है जो जागतिक रूप-विकृति की आड़ी रेखा से अवरुद्ध और प्रतिबद्ध है । यह विकृति जीवन को दुःख और दुर्भाग्य की अवस्था में परिणत कर देती है । मूल सत्य की ओर आरोहण के द्वारा ही यह विकृति सुधारी जा सकती है और प्रेम के सभी कर्म तथा ज्ञान के और जीवन के सब कर्म भी पुन: दिव्य अर्थ प्राप्त करके सर्वांगीण आध्यात्मिक सत्ता के अंग बन सकते हैं ।
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