योग-समन्वय

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Synthesis of Yoga Vols. 20,21 872 pages 1971 Edition
English
 PDF     Integral Yoga
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Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo योग-समन्वय 1014 pages 1990 Edition
Hindi Translation
Translator:   Jagannath Vedalankar  PDF    LINK

अध्याय ६

 

यज्ञ का आरोहण (२)

 

 प्रेम के कर्म-प्राण के कर्म

 

चैत्य पुरुष को यज्ञ का नेता और पुरोहित बनाकर प्रेम, कर्म और ज्ञान का यश करने से यह प्राण भी अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप में रूपान्तरित किया जा सकता है । यदि ज्ञान-यज्ञ, यथाविधि करने पर, सहज ही एक ऐसी विशालतम और पवित्रतम हवि बन जाता है जो सर्वोच्च देव के प्रति अर्पित करने योग्य होती है, तो हमारी आध्यात्मिक पूर्णता के लिये प्रेम-यज्ञ भी इससे कुछ कम आवश्यक नहीं है । अपितु यह अपनी अनन्यता में अधिक तीव्र एवं समृद्ध होता है और ज्ञान-यज्ञ के समान ही विशाल तथा पवित्र भी बनाया जा सकता है । प्रेम-यज्ञ की तीव्रता में यह पावन विशालता तब आती है जब हमारे समस्त क्रिया-कलाप में एक दिव्य असीम आनन्द की भावना एवं शक्ति प्रवाहित होती है और हमारे जीवन का सम्पूर्ण वातावरण सर्वमय और परमोच्च एकमेव की अनन्य भक्ति से परिपूरित हो उठता है । प्रेम-यज्ञ अपनी पूर्णता की पराकाष्ठा को तब पहुंचता है जब सर्वमय भगवान् को अर्पित होकर यह सर्वांगीण, उदार और असीम हो जाता है तथा जब, पुरुषोत्तम की ओर उन्नीत होकर, यह वह दुर्बल, स्थूल तथा क्षणिक चेष्टा नहीं करता जिसे सामान्य लोग प्रेम कहते हैं, बल्कि एक विशुद्ध, बृहत् तथा गभीर एकीकारक आनन्द बन जाता है ।

 

   द्यपि परात्पर और विश्वव्यापी भगवान् के प्रति दिव्य प्रेम ही हमारे आध्यात्मिक जीवन का नियम होना चाहिये, तथापि यह वैयक्तिक प्रेम के अखिल रूपों का अथवा व्यक्त जगत् में एक आत्मा को दूसरी के प्रति आकृष्ट करनेवाले सम्बन्धों का नितान्त बहिष्कार नहीं करता । बल्कि, यह एक आन्तरात्मिक परिवर्तन की, अविद्या के आवरणों को दूर करने की और पुरानी निम्नतर चेतना को जारी रखनेवाली अहंभावमय मानसिक, प्राणिक और शारीरिक क्रियाओं को शुद्ध करने की मांग करता है । प्रेम की प्रत्येक गति को अध्यात्मभावापन्न होकर मानसिक अभिरुचि, प्राणिक आवेश या शारीरिक लालसा पर नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा आत्मा के अंगीकार और प्रत्यभिज्ञान पर निर्भर करना होगा । प्रेम को उसके मूलभूत आध्यात्मिक तथा आन्तरात्मिक सारतत्त्व में पुनः प्रतिष्ठित करके मन-प्राण-शरीर को उस महत्तर एकत्व के अभिव्यंजक यंत्र एवं अंग बनाकर रखना होगा । इस परिवर्तन में वैयक्तिक प्रेम भी आप-से-आप ऊंचा उठ जायगा और उस दिव्य अन्तर्वासी के

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प्रति, जो प्राणिमात्र में रहनेवाले एकमेव के द्वारा अधिकृत मन, आत्मा और शरीर के अन्दर विराजमान है, दिव्य प्रेम में परिणत हो जायगा ।

 

   निःसन्देह, समस्त आराधन-रूप प्रेम के मूल में एक आध्यात्मिक शक्ति होती है । जब यह अज्ञानपूर्वक तथा ससीम पदार्थ को अर्पित किया जाता है तब भी विधि-विधान की दरिद्रता तथा उसके परिणामों की तुच्छता में से आध्यात्मिक वैभव की कुछ छटा दिखायी देती है । पूजात्मक प्रेम एक साथ ही अभीप्सा भी होता है और तैयारी भी । यह अपनी अविद्यागत क्षुद्र सीमाओं के भीतर भी एक साक्षात्कार की झलक प्राप्त करा सकता है जो अभी न्यूनाधिक अन्ध तथा आंशिक होने पर भी आश्चर्यजनक होता है । अतएव, ऐसे क्षण भी आते हैं जब हम नहीं, बल्कि एकमेव ही हम में प्रेम करता है और प्रेम का पात्र होता है और मानवीय अनुराग भी इस अनन्त प्रेम और प्रेमी की जरा-सी झांकी सें उदात्त एवं महिमान्वित किया जा सकता है । यही कारण है कि देवता एवं प्रतिमा की अथवा किसी आकर्षक व्यक्ति या श्रेष्ठ पुरुष की पूजा को तुच्छता की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये, क्योंकि ऐसी पूजाएं सोपान होती हैं जिनके द्वारा मानवजाति अनन्त के आनन्दपूर्ण रागावेश और उल्लास की ओर गति करती है । ये अनन्त को सान्त करती हुई भी उसके रागावेश और उल्लास को हमारी अपूर्ण दृष्टि के समक्ष प्रकाशित करती हैं, जब कि अभी हमें निम्नतर सोपानों को, जो प्रकृति ने हमारी प्रगति के लिये बनाये हैं, प्रयोग में लाना तथा अपनी उन्नति के क्रमों को अंगीकार करना होता है । वस्तुत: हमारी भावमय सत्ता के विकास के लिये कई प्रकार की प्रतिमा-पूजाएं अनिवार्य हैं, अतएव ज्ञानीजन को तबतक किसी भी अवसर पर प्रतिमा को भंग करने के लिये उतावला नहीं होना चाहिये जबतक वह इसके स्थान पर इससे प्रतिरूपित सद्वस्तु को पुजारी के हृदय में प्रतिष्ठित न कर सके । अपिच, इनमें यह शक्ति इसलिये है कि इनके अन्दर सदैव कोई ऐसी चीज होती है जो इनके रूपों से बड़ी है, और यहां तक कि जब हम परमोच्च पूजा की अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं तब भी वह चीज बनी रहती है और इस पूजा का विस्तार या इसकी व्यापक समग्रता का अंग बन जाती है । सब रूपों और अभिव्यक्तियों से अतीत 'तत्' को जानकर भी यदि हम प्राणी और पदार्थ में, मनुष्य में और सम्पूर्ण जाति में, पशु पौधे और पुष्प में, अपने हाथों की कृति और प्रकृति की शक्ति में, जो अब हमारे लिये जड़ मशीनरी की अन्ध क्रिया नहीं रहती, वरन् विश्वशक्ति का मुखमंडल और बल-वैभव बन जाती है, भगवान् को स्वीकार नहीं कर सकते तो हमारा ज्ञान अभी हमारे अन्दर अपक्य है और हमारा प्रेम भी अपूर्ण है, क्योंकि वह सनातन इन चीजों में भी उपस्थित है ।

 

   परात्पर एवं परम सत् को किंवा अनिर्वचनीय को हमारे द्वारा अर्पित चरम

 

   १ परं भावम् । गीता--९-११.

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अवर्णनीय आराधना भी पूर्ण पूजा नही होती यदि हम मनुष्य, पदार्थ और प्रत्येक प्राणी में, जहां कहीं वह अपना दिव्यत्व प्रकट करता है अथवा जहां कहीं वह इसे छिपाता है वहां-वहां सर्वत्र उसे अपनी पूजा अर्पित नहीं करते । अवश्य ही, इसमें एक प्रकार का अज्ञान होता है जो हृदय को कैद कर रखता है, उसके भावों को विकृत कर डालता है और उसकी आहुति के मर्म को धुंधला कर देता है । समस्त आंशिक पूजा एवं समस्त धर्म, जो मानसिक या भौतिक प्रतिमा खड़ी करता है, इससे मोहित होकर इसके भीतरी सत्य को अज्ञान के किसी-न-किसी आवरण के द्वारा आच्छादित तथा रक्षित रखने का यत्न करता है और सत्य को उसकी मूर्त्ति में सहज ही खो बैठता है । परन्तु ऐकान्तिक ज्ञान का अभिमान भी एक अन्तराय और बाधा ही होता है । कारण, वैयक्तिक प्रेम के पीछे, इसके अज्ञ मानवीय रूप से ढका दुआ, एक रहस्य छुपा है जिसे मन पकड़ नहीं पाता । वह भगवान् के शरीर का रहस्य है, अनन्त के गुह्य रूप का मर्म है, जिसके पास हम हृदय के हर्षोन्माद तथा शुद्ध और उदात्त सम्वेदन की तीव्रता के द्वारा ही पहुंच सकते हैं । इसका आकर्षण, जो दिव्य मुरलीमोहन की पुकार और सर्व-सुन्दर की मोहक प्रेरणा है, गुह्य प्रेम एवं स्पृहा के द्वारा ही हमें प्राप्त हो सकता है तथा हमें अधिकृत कर सकता है । यह प्रेम एवं स्पृहा अन्त में रूप तथा रूपातीत को एक कर देती है, आत्मा तथा जड़ को अभिन्न कर देती है । इसी एकत्व को प्रेमगत भावना यहां अज्ञान के अन्धकार में खोज रही है और इसीको वह तब प्राप्त भी कर लेती है जब वैयक्तिक मानवी प्रेम स्थूल जगत् में प्रकट हुए अन्तर्यामी भगवान् के प्रेम में परिवर्तित हो जाता है ।

 

   जो बात वैयक्तिक प्रेम के सम्बन्ध में कही गयी है, वही सार्वभौम प्रेम के बारे में भी लता होती है । सहानुभूति, सद्भावना, सर्वजनीन शुभकामना और परोपकार, मानवजाति से प्रेम, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, हमारे चारों ओर के अखिल रूपों एवं आकृतियों का आकर्षण-इन सबके द्वारा ही आत्मा सब प्रकार से विशाल बनती है । फलत: मनुष्य मनोमय तथा भावमय रूप में अपने अहं की प्रथम सीमाओं से मुक्त हो जाता है । इस विशालता को फिर विश्वमय भगवान् के प्रति एकीकारक दिव्य प्रेम में ऊंचा उठाना आवश्यक होता है । प्रेम में परिसमाप्त आराधन, आनन्द में परिसमाप्त प्रेम--सीमातिशायी प्रेम, परात्पर में प्राप्त होनेवाले लोकोत्तर आनन्द का आत्म-परिवेष्टित हर्षावेश, जो भक्ति-मार्ग के अन्त में हमारी प्रतीक्षा करता है, -एक अधिक व्यापक परिणाम पैदा करता है, अर्थात् यह हमारे अन्दर भूतमात्र के प्रति सार्वभौम प्रेम एवं सत्मात्र का आनन्द सरसाता है । हम प्रत्येक पर्दे के पीछे भगवान् के दर्शन करते हैं, सभी गोचर पदार्थों में सर्व-सुन्दर का आत्मिक तौर पर आलिंगन करते हैं । उसकी असीम अभिव्यक्ति में विद्यमान सार्वभौम आनन्द

 

   १ मानुषीं तनुमाश्रितमू । गीता--९-११.

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हमार द्वारा प्रवाहित होता है, वह प्रत्येक रूप और गति को अपनी तरंग में समा लेता है, पर किसीमें बद्ध या स्थित नहीं हो जाता और सदैव एक महत्तर तथा पूर्णतर अभिव्यक्ति की ओर बढ़ता रहता है । यह सार्वभौम प्रेम मोक्षकारी है और साथ ही रूपान्तर करने में भी समर्थ है । आकृतियों और प्रतीतियों का विरोध-वैषम्य अब हृदय पर प्रभाव नहीं डालता, क्योंकि हृदय ने इन सबके पीछे विद्यमान एकमेव परम सत्य को अनुभव कर लिया है और इनका सम्पूर्ण प्रयोजन भी समझ लिया है । निःस्वार्थ कर्मी और ज्ञानी की आत्मा की निष्पक्ष समता दिव्य प्रेम के जादूभरे स्पर्श से आलिंगन करनेवाले हर्षावेश तथा शत-सहस्रदेहधारी दिव्यानन्द में परिवर्तित हो जाती है । सभी वस्तुएं दिव्य प्रियतम के असीम सुख-सदन में उसीकी मूर्त्तियां बन जाती हैं और अखिल गतियां उसीकी लीलाएं । यहां तक कि दुःख भी परिवर्तित हो जाता है और दुःखदायक वस्तुएं अपनी प्रतिक्रिया में तथा अपने सार रूप में भी बदल जाती हैं; दुःख के रूप झड़ जाते हैं, उनके स्थान पर आनन्द के रूप उत्पन्न हो जाते हैं ।

 

   चेतना के परिवर्तन का स्वरूप अपने सार रूप में यहीं है । यह परिवर्तन स्वयं जीवन को भी दिव्य प्रेम और आनन्द के महिमान्वित क्षेत्र में परिणत कर देता है । अपने सार-तत्त्व में यह जिज्ञासु के लिये तब आरम्भ होता है जब वह साधारण स्तर से आध्यात्मिक में पदार्पण करता है और संसार पर तथा अपने-आप और दूसरों पर एक प्रकाशयुक्त दृष्टि एवं अनुभूतिवाले नूतन हृदय से दृष्टिपात करता है । यह अपनी पराकाष्ठा को तब पहुंचता है जब आध्यात्मिक स्तर अतिमानसिक भी बन जाता है । वहां हम इसे केवल सार रूप में ही अनुभव नही करते, बल्कि समस्त आन्तर जीवन तथा सम्पूर्ण बाह्य सत्ता का रूपान्तर करनेवाली शक्ति के रूप में इसका सक्रिय अनुभव भी प्राप्त कर सकते हैं ।

*

 

   प्रेम की आत्मा और प्रकृति का मिश्रित एवं सीमित मानवी भाव के स्वरूप से परम तथा सर्व-समालिंगी दिव्य अनुराग में यह जो रूपान्तर होता है इसे स्वीकार करना अनेक पार्थिव बन्धनों में फंसे मानवी संकल्प के लिये कठिन भले ही हो, पर मन के लिये इसे कल्पना में लाना नितान्त कठिन नहीं है । हां, जब हम प्रेम के कर्मों पर आयेंगे तब एक प्रकार की समस्या खड़ी हो सकती है । जैसे ज्ञानमार्ग की एक अतीव अतिरंजित पद्धति में उस समस्या की ग्रंथि को ही काट डाला जाता है वैसे ही यहां भी समस्या की ग्रंथि को काट डालना और सांसारिक कर्म का परित्याग करके उसके असंस्कृत रूपों के साथ प्रेम की भावना को एकीभूत करने की कठिनाई से भाग जाना सम्भव है । हमारे सामने यह मार्ग खुला है कि हम बाह्य जीवन और कर्म से सर्वथा हटकर हृदय को नीरवता में भगवान् का आराधन

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करते हुए एकाकी रहें । यह भी सम्भव है कि हम केवल वही कर्म अपनावें जो या तो स्वतः भगवत्प्रेम को प्रकट करते हैं, -जैसे प्रार्थना, स्तुति एवं प्रतीकात्मक पूजा-पाठादिरूप अनुष्ठान, --या ऐसी अंगभूत क्रियाएं लें जो इन चीजों से सम्बद्ध होकर इनकी भावना को कछ-कछ धारण कर सकती हैं, और अन्य सब कर्मों को एक तरफ छोड़ दें; आत्मा सन्त और भक्त के आत्म-मग्न या परमात्म-केंद्रित जीवन में अपनी अन्तरीय अभिलाषा पूरी करने के लिये संसार-पथ से हट जाय । टुसरी तरफ, यह भी सम्भव है कि जीवन के किवाड़ अधिक विशालतया खोल दिये जायं और अपना भगवत्प्रेम अपने अड़ोस-पड़ोस के लोगों के प्रति तथा मानवजाति के प्रति सेवा-कार्यों में लगाया जाय । हम मनुष्य तथा पशु एवं प्रत्येक प्राणी के प्रति विश्वप्रेम, शुभकामना एवं परोपकार और दान तथा सहायता के कार्य कर सकते हैं, एक प्रकार की आध्यात्मिक उमंग के द्वारा उन्हें रूपान्तरित भी कर सकते हैं, कम-से-कम उनके निरे नैतिक बाह्य रूप के भीतर आध्यात्मिक प्रेरक-भाव की एक महत्तर शक्ति का प्रवेश करा सकते हैं । आज के धार्मिक विचारक प्रायः इसी समाधान का समर्थन करते हैं, और हम देखते हैं कि इसीको वे सर्वत्र ईश्वरान्वेषक के या दिव्य प्रेम तथा ज्ञान पर अपने जीवन को आधारित करनेवाले मनुष्य के उपयुक्त कर्म-क्षेत्र के रूप में विश्वासपूर्वक प्रस्तुत कर रहे हैं । परन्तु पार्थिव जीवन के साथ भगवान् के पूर्ण मिलन के लिये प्रचालित पूर्णयोग इस संकुचित क्षेत्र में ही नहीं रुक सकता, न ही वह इस मिलन को भूतदया तथा परोपकार के नैतिक नियम की क्षुद्रतर चारदीवारी के अन्दर बन्द ही कर सकता है । इसमें तो कर्ममात्र को भगवज्जीवन का अंग बनाना होगा, केवल प्रेम और परोपकारमय सेवा के कर्मों को ही नहीं, बल्कि ज्ञान के कर्मों को, बल, उत्पादन एवं सर्जन के कर्मों को, हर्ष, सौन्दर्य एवं अध्यात्मसुख के कर्मों और संकल्प, प्रयत्न एवं सामर्थ्य के कर्मों को भी भगवज्जीवन के अंग बनाना होगा । ये सब कार्य करने का इस योग का तरीका बाह्य और मानसिक नहीं, बल्कि आंतरिक और आध्यात्मिक होगा । इसी आशय से यह सभी कर्मों में, वे चाहे जो भी हों, दिव्य प्रेम एवं भजन-पूजन की भावना और भगवान् एवं उसके सौन्दर्य में प्रसन्नता की भावना ले आयेगा, ताकि यह समस्त जीवन को आत्मा के भगवत्-प्रेममय कर्मों के यज्ञ तथा इसकी सत्ता के स्वामी की पूजा के रूप में परिणत कर सके ।

 

   इस प्रकार अपने कर्मों की भावना से मनुष्य अपने जीवन को पुरुषोत्तम के प्रति पूजात्मक कर्म में परिवर्तित कर सकता है । गीता में कहा गया है कि, ''जो मुझे भक्तिभरे हृदय से पत्र-पुष्प या फल-तोय अर्पित करता है, उसकी वह भक्ति-भेंट मैं स्वीकार करता हूं और उसका उपभोग करता हूं । ''  यह बात नहीं कि कोई

 

    १ पत्र पुष्य फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

     तदहं भक्त्पुपहृतमश्रामि प्रयतात्मना । गीता ९--२६

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समर्पित बाहरी भेंट ही इस प्रकार प्रेम और भक्तिपूर्वक दी जा सकती है, बल्कि हमारे सब विचार, हमारे सब भाव और सम्वेदन तथा हमारी सब बाह्य चेष्टाएं और उनके रूप एवं विषय भी सनातन के प्रति ऐसे उपहार हो सकते हैं । यह ठीक है कि एक विशेष कार्य का या कार्य के किसी विशेष रूप का अपना महत्त्व होता है, यहां तक कि भारी महत्त्व होता है, पर मुख्य वस्तु तो कार्यगत भावना ही है । कार्य जिस भावना का प्रतीक या मूर्त प्रकाश होता है वही इसे इसका सम्पूर्ण मूल्य प्रदान करती है तथा इसका मर्म बताकर इसका समर्थन करती है । अथवा यह कहा जा सकता है कि दिव्य प्रेम और पूजा के पूर्ण कर्म में तीन अवयव होते हैं जो एक ही अखण्ड अवयवी की अभिव्यक्तियां होते हैं, --कर्म में भगवान् की क्रियात्मक पूजा, कर्म के बाह्य रूप में किसी दिव्य दृष्टि और जिज्ञासा को या भगवान् के साथ किसी सम्बन्ध को प्रकट करनेवाला पूजा-प्रतीक, और तीसरा हृदय, अन्तरात्मा और आत्मा में एकत्व या एकत्वानुभूति के लिये आन्तरिक परानुरक्ति और अतिस्पृहा । इस तरीके से ही जीवन पूजा में परिवर्तित किया जा सकता है, --इसके पीछे परात्पर तथा सार्वभौम प्रेम की भावना और एकत्व की खोज एवं अनुभूति को प्रतिष्ठित करके, प्रत्येक कार्य को ईश्वरोन्मुख भाव का या भगवान् के साथ सम्बन्ध का प्रतीक या अभिव्यक्ति बनाकर, जो कुछ हम करें उस सब को पूजा के कार्य में तथा आत्मा के अन्तर्मिलन, मन की समझ, प्राण के आज्ञापालन और हृदय के समर्पण के कार्य में परिणत करके इसे पूजा का रूप दिया जा सकता है ।

 

    किसी भी पूजाविधि में प्रतीक, अर्थपूर्ण विधि-विधान या अभिव्यंजक प्रतिमा केवल गतिशील और समृद्धिवर्धक सौन्दर्यात्मक तत्त्व ही नहीं होती, अपितु एक ऐसा भौतिक साधन भी होती है जिससे मानव प्राणी अपने हृदय के भाव और अभीप्सा को बाहरी तौर पर सुनिश्चित, पुष्ट तथा क्रियाशील बनाने लगता है । क्योंकि, द्यपि आध्यात्मिक अभीप्सा के बिना पूजा निरर्थक और वृथा है, तथापि अभीप्सा भी कर्म और रूप के बिना एक शरीर-रहित शक्ति होती है और जीवन के लिये पूरी तरह फलप्रद नहीं हो सकती । परन्तु दुर्भाग्यवश मानव-जीवनगत सभी रूपों का यहीं अन्त बदा है कि वे स्थिर आकार में बंधकर निरे लोकाचारात्मक और, परिणामत:, निर्जीव हो जाते हैं । यद्यपि पूजापद्धति तथा रूप अपनी शक्ति को उस मनुष्य के लिये सदैव सुरक्षित रखते हैं जो उनके आशय में अब भी पैठ सकता है, तथापि अधिकतर लोग विधि-विधान को यान्त्रिक रीति-रस्म के रूप में तथा प्रतीक को निर्जीव चिह्न के रूप में बरतने लगते हैं । यह चीज धर्म की आत्मा का हनन कर डालती है, इसलिये अन्त में पूजा-विधि और रूप को बदलना या बिल्कुल छोड़ देना पड़ता है । यहां तक कि कुछ ऐसे लोग भी पाये जाते हैं जिनकी दृष्टि में समस्त पूजा-विधि और रूप इसी कारण संदिग्ध और सदोष होते हैं; किन्तु ऐसे तो विरले ही होते हैं जो बाह्य प्रतीकों की सहायता के बिना काम चला सकें । 

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और फिर, मानव-प्रकृति का एक दिव्य तत्त्व-विशेष भी अपनी आध्यात्मिक तृप्ति की पूर्णता के लिये सदैव इनकी अपेक्षा रखता है । सदा ही प्रतीक वहीं तक युक्तियुक्त होता है जहां तक वह यथार्थ एवं सत्य-शिव-सुन्दर होता है, और कोई यहां तक भी कह सकता है कि जो आध्यात्मिक चेतना रसग्राही या भावुक तत्त्व से सर्वथा रहित होती है वह पूर्ण रूप में या कम-से-कम सर्वांगीण रूप में आध्यात्मिक नहीं होती । आध्यात्मिक जीवन में कर्म का आधार आध्यात्मिक चेतना होती है जो नित्य-स्थायिनी और नवस्फूर्त्तिदायिनी है, अपने को नित नये रूपों में प्रकट करने को प्रेरित होती है अथवा सदैव किसी रूप के सत्य को आत्मा के प्रवाह के द्वारा पुन: नूतन कर सकती है । अपने को इस प्रकार प्रकट करके हर एक काम को आत्मा के किसी सत्य का जीवन्त प्रतीक बनाना ही इसकी सर्जनशील दृष्टि और प्रेरणा का वास्तविक स्वभाव है । इसी भाव से आत्म-जिज्ञासु को जीवन के साथ बरतना होगा, उसका रूप बदलना होगा तथा उसे उसके सारतत्त्व में महिमान्वित करना होगा ।

 

   परमोच्च दिव्य प्रेम एक सर्जनशील शक्ति है । यद्यपि यह स्वयं अपने में शान्त और निर्विकार रह सकता है तो भी यह बाह्य रूप और प्राकट्य में रस लेता है और मूक तथा निराकार देवत्व बने रहने के लिये बाधित नहीं है । यहां तक कहा गया है कि स्वयं यह सृष्टि भी प्रेम का कार्य थी या कम-से-कम एक ऐसे क्षेत्र का निर्माण थी जिसमें भागवत प्रेम अपने प्रतीकों का आविष्कार करके अपने को परस्पर-व्यवहार तथा आत्मदान के कर्म में चरितार्थ कर सके । यह सृष्टि का आदि स्वरूप भले ही न हो किन्तु यह इसका अन्तिम लक्ष्य और आशय सहज में हो सकता है । यह ठीक है कि इस समय सृष्टि का स्वरूप ऐसा नहीं प्रतीत होता, परन्तु इसका कारण यह है कि यद्यपि भागवत प्रेम संसार में है और प्राणियों के इस सब विकास को धारण कर रहा है तो भी जीवन का उपादान और कार्य-व्यवहार तो अहंमूलक रचना तथा भेदभावना से ही गठित है, वह एक ऐसे संघर्ष से निर्मित है जो हमारे जीवन और चेतना को, निष्प्राण तथा निष्चेतन प्रकृति के इस प्रत्यक्षत: - उदासीन, निष्ठुर, यहां तक कि शत्रुरूप जगत् में, अपने अस्तित्व तथा स्थायित्व के लिये करना पड़ता है । इस संघर्ष के गोलमाल और अन्धकार में सबकी एक-दूसरे से मुठभेड़ होती है, प्रत्येक की इच्छा होती है कि वह अपनी निजी अस्ति का अधिकार प्रथम और प्रधान जतावे और केवल गौण रूप में ही अपने-आपको दूसरों में तथा बहुत थोड़ा-सा दूसरों के लिये माने । यहां तक कि मनुष्य का परार्थ-भाव भी वास्तव में स्वार्थपूर्ण रहता है और वह ऐसा रहेगा ही जब तक कि आत्मा को दिव्य एकत्व का रहस्य प्राप्त नहीं हो जाता । उस एकत्व का परम उद्गम ढूंढ़ने, उसे अन्दर से निकाल लाने और बाह्य जीवन के परले छोरों तक प्रसारित करने के लिये ही योग का अभ्यास किया जाता है । कर्ममात्र तथा सर्जनमात्र को पूजा,

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उपासना और यज्ञ के ही एक रूप तथा प्रतीक में बदल जाना होगा । इसे अपने अन्दर एक ऐसी चीज धारण करनी होगी जो इस पर उत्सर्ग की और भागवत चेतना के ग्रहण एवं प्रतिरूपण की तथा प्रियतम की सेवा, आत्म-दान एवं समर्पण की छाप लगा दे । ऐसा हमें यथासम्भव कर्म के बाह्य शरीर और रूप में भी करना होगा; इसकी भीतरी उमंग में तो ऐसा सदा ही करना होगा, -ऐसी तीव्रता के साथ जिससे पता चले कि यह हमारी आत्मा से सनातन की ओर बहनेवाला एक प्रवाह है

 

   कर्ममय आराधन स्वतः एक महान्, पूर्ण एवं प्रभावशाली यज्ञ होता है जो अपने-आपको अनेकगुना करके एकमेव का ज्ञान प्राप्त करता है और भगवान् के तेजःपुंज के प्रसार को सम्भव बनाता जाता है । कारण, भक्ति अपने-आपको कर्म में मूर्त्त करके न केवल अपने मार्ग को विशाल, समृद्ध और शक्तिशाली बनाती है, बल्कि इस जगत् के अन्दर कर्मों के कठोरतर पथ में हर्ष तथा प्रेम का एक दिव्य-रसमय तत्त्व भी ले आती है । भक्तिमार्ग के प्रारम्भ में इस तत्त्व का प्रायः अभाव भी होता है, क्योंकि तब केवल तपोमय आध्यात्मिक संकल्प ही संघर्षमय उन्नतिकारी प्रयास के साथ एक सीधी चढ़ाई चढ़ता है और हृदय अभी या तो प्रसुप्त होता है या मूक रहने को बाध्य होता है । यदि दिव्य प्रेम की भावना प्रवेश पा सके तो पथ की कठोरता कम पड़ जायगी, तनाव हल्का हों जायगा, कठिनाई तथा संघर्ष के गर्भ में भी माधुर्य एवं हर्ष उपस्थित रहेगा । निश्चय ही, हमारे समस्त संकल्पों, कर्मों और चेष्टाओं का परम देव के प्रति अनिवार्य समर्पण पूरी तरह से संपन्न और सफल तभी होगा जब कि वह एक प्रेममय समर्पण हो । यदि समस्त जीवन इस पूजा-विधि में परिणत हो जाय, यदि सभी कर्म भगवान् के प्रेम में तथा संसार और इसके प्राणियों के प्रेम में किये जायें और सब प्राणी ऐसे दिखें और लगें मानों वे नाना छद्म-रूपों में अभिव्यक्त भगवान् ही हों तो इस भाव के बल पर सारा जीवन और कर्म पूर्णयोग के अंग बन जायेंगे ।

   

    यज्ञ का असली प्राण है--हृदय की भक्ति का आन्तरिक अर्पण और यज्ञ के प्रतीक एवं उसकी क्रिया में अर्पण की भाव-भावना । यदि अर्पण को पूर्ण और विराट् बनाना है, तो सब भावों को भगवान् की ओर मोड़ना ही होगा । यह मानव-हृदय की शुद्धि का एक अत्यन्त तीव्र उपाय है । कोई भी नैतिक या सौन्दर्यबोधात्मक शुद्धीकरण अपने अपूर्ण बल और ऊपरी दबाव को लिये हुए इसके समान प्रभावशाली कभी नहीं हो सकता । अन्तर में एक चैत्य अग्नि प्रज्ज्वलित करनी होगी जिसमें प्रत्येक चीज भगवान् के नाम से होम देनी होगी । उस अग्नि में सब भाव अपने स्थूलतर अंशों को त्याग देने के लिये बाधित किये जायंगे, जो भाव अदिव्य विकार हैं वे राख कर दिये जायंगे, और अन्य सब भाव भी अपनी न्यूनताएं त्यागते जायंगे जब तक कि विशालतम प्रेम और निर्मल दिव्य

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आनन्द की भावना ज्वाला और धूम और धूप में से उद्भूत नहीं हो उठेगी । इस प्रकार एक दिव्य प्रेम उदित होगा और उस प्रेम को जब एक सक्रिय विश्वव्यापिनी समता के साथ, मनुष्य एवं प्राणिमात्र में विराजमान भगवान् के प्रति एक अन्तरीय भाव के रूप में विस्तारित किया जायगा, तो वह जीवन की पूर्णता की सिद्धि के लिये अधिक समर्थ होगा और एक अधिक सच्चा साधन होगा । भ्रातृभाव का निर्बल मानसिक आदर्श कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकता । कर्मों में प्रवाहित इस प्रकार का प्रेम ही जगत् में समस्वरता और इसके सभी प्राणियों में सच्ची एकता सम्पादित कर सकता है । इसके सिवा अन्य सभी उपाय इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये व्यर्थ के प्रयास होंगे जब तक कि दिव्य प्रेम इस पार्थिव प्रकृति में प्रकट हुई अभिव्यक्ति के सार के रूप में अपने-आपको प्रकट नहीं कर देता ।

 

   यहीं हमारे अन्तःस्थ निगूढ़ चैत्य पुरुष का यज्ञ के अग्रणी के रूप में आविर्भाव अत्यन्त महत्त्व रखता है । यह अन्तरतम पुरुष ही कर्म में आत्मा का पूर्ण बल तथा प्रतीक में सारतत्त्व ला सकता है । यही प्रतीक की सनातन नूतनता, सत्यता और सुन्दरता का विश्वास दिला सकता है, तब भी जब कि आध्यात्मिक चेतना अपूर्ण होती है; यह उसे मृत रूप या दूषित तथा दूषक जादू-टोना बन जाने से बचा सकता है । यही कर्म के लिये प्रतीक की शक्ति को इसके आशय सहित सुरक्षित रख सकता है । हमारी सत्ता के अन्य सभी अंग--मन, प्राण-शक्ति, भौतिक या शारीरिक चेतना--इतने अधिक अविद्या के वश में हैं कि ये विश्वस्त यन्त्र नहीं हो सकते, किसी पथ-प्रदर्शक या निर्भ्रान्त आवेग के स्रोत बनना तो और भी दूर की बात है । इन अंगों या शक्तियों के प्रेरक भाव और कर्म का बहुत बड़ा भाग सदैव प्रकृति के पुराने नियम, धोखा देनेवाली मीठी गोलियों तथा रुचिकर निम्न गतियों से ही चिपटा रहता है । ये उन वाणियों और शक्तियों का, जो हमें अपनी ओर पुकारती हैं और प्रेरित करती हैं कि हम अपने को अतिक्रान्त करके महत्तर सत्ता तथा विशालतर प्रकृति में रूपान्तरित कर दें, अनिच्छा, धमकी या विद्रोह या बाधक जड़ता के द्वारा सामना करती हैं । इनके अधिकतर भाग का प्रत्युत्तर या तो विरोध-रूप होता है अथवा मर्यादित या समयानुकूल स्वीकृति-रूप । यदि ये पुकार के पीछे चलती भी हैं तो भी, जान-बूझकर नहीं तो यान्त्रिक अभ्यासवश, ये आध्यात्मिक क्रिया के अन्दर अपनी स्वभावगत दुर्बलताएं तथा भ्रान्तियां ले आने में लग जाती हैं । प्रतिक्षण ही ये आन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक प्रभावों से स्वार्थपूर्ण लाभ उठाने के लिये प्रेरित होती हैं । उन प्रभावों से हमारे भीतर जो बल, हर्ष या प्रकाश आता है उसे ये निम्नतर प्राणिक हेतु के लिये प्रयुक्त करती हुई पकड़ी जा सकती हैं । बाद में, जब जिज्ञासु विश्वातीत, विश्वव्यापी या अन्तर्यामी भागवत प्रेम की ओर खुल जाता है तब भी, यदि वह इसे जीवन के अन्दर उंडेलने का यत्न करता है, तो उसे इन निम्नतर प्रकृति-शक्तियों के अन्धकार तथा विकार पैदा करनेवाले बल

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का सामना करना पड़ता है । सदैव ये गइढों की ओर घसीटती हैं, उस उच्चतर तीव्रता में अपने पतनकारी तत्त्व ढार देती हैं, उतरती हुई शक्ति को अपने लिये तथा अपने स्वार्थों के लिये पकड़ लेने की चेष्टा करती हैं और इसे कामना तथा अहंकार का एक बढ़ा-चढ़ा मानसिक, प्राणिक या भौतिक साधन बनाकर पतित कर डालती हैं । भागवत प्रेम तो सत्य और प्रकाश के एक नये स्वर्ग तथा नये संसार की सृष्टि करनेवाला प्रेम है, किन्तु ये उलटे उसीको यहां बन्दी बना लेना चाहती हैं, इसलिये कि वह पुराने संसार की दलदल पर सोने का मुलम्मा चढ़ाने के लिये और भावोद्दीपक प्राणिक कल्पना तथा मानसिक आदर्शभूत मनोरथ-सृष्टि के पुराने मलिन मिथ्या आकाशों को अपने नीले-गुलाबी रंग से रंगने के लिये एक बड़ी भारी अनुमति तथा गौरवप्रट एवं उन्नायक बल बनकर रहे । यदि ऐसा मिथ्याकरण होने दिया गया तो उच्चतर प्रकाश, बल और आनन्द लौट जायंगे और हम निम्नतर अवस्था में पतित हो जायंगे; अथवा हमारी उपलब्धि एक अरक्षित पड़ाव और मिश्रण तक ही सीमित रहेगी या वह एक हीनतर हर्षावेग से ढक जायगी, यहां तक कि उसमें डूब ही जायगी, पर वह हर्षावेग सच्चा आनन्द नहीं होगा । यही कारण है कि भागवत प्रेम समस्त सृष्टि का हृदय और सभी उद्धारक तथा सर्जक शक्तियों में अत्यन्त बलशाली होता हुआ भी पार्थिव जीवन में बहुत ही कम सामने उपस्थित, सब से कम सफल रक्षक एवं सब से कम सर्जक रहा है । मानव-प्रकृति इसे इसकी शुद्धावस्था में सहन करने में असमर्थ रही है, कारण यही है कि यह सभी दिव्य बलों में सर्वाधिक प्रबल, पवित्र, विरल और तीव्र है । जो थोड़ा-सा ग्रहण किया जा सकता था उसे भी तुरन्त बिगाड़कर प्राणगत अतिशय पुण्याडम्बर, दुर्बल धार्मिक या नैतिक भावुकता, प्रफुल्ल मन या उत्तेजना-कलुषित जीवन-आवेग के ऐंद्रिय या यहां तक कि लंपट प्रेमसम्बन्धी गुह्यवाद का रूप दे दिया गया है । जो गुह्य ज्वाला अपनी होम-शिखाओं से संसार का नव-निर्माण कर सकती है, यह विकृत प्रेम उसे आश्रय देने में असमर्थ है और इस कमी की पूर्त्ति उक्त मिथ्याचारों से की गयी है । केवल अन्तरतम हृत्पुरुष ही अनावृत और अपनी पूरी शक्ति के साथ उदित होकर हमारी जीवनयात्रा के यज्ञ को इन गर्त्तजालों में से अक्षत ले चल सकता है । प्रतिक्षण यह मन और प्राण के असत्यों को पकड़ता है, उनकी पोल खोलता तथा उन्हें हटाता है, दिव्य प्रेम एवं आनन्द के सत्य को दृढ़तापूर्वक अधिकृत करता है और उसे मन की उमंगों के उत्तेजन से तथा मार्गभ्रष्ट करनेवाली प्राण-शक्ति के अन्ध-उत्साह से पृथक् करता है । परन्तु मन, प्राण और स्थूल सत्ता में जो भी चीजें अपने अन्तःसार की दृष्टि से सत्य हैं उन सबका यह उद्धार करता है और उन्हें तब तक यात्रा में अपने संग लिये चलता है जब तक कि वे भावना में नवीन तथा आकृति में उदात्त होकर शिखरों पर आरोहण करती चल सकती हैं ।

 

   परन्तु अन्तरतम हृत्युरुष का पथप्रदर्शन तब तक पर्याप्त नहीं प्रतीत होता जब

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तक यह अपने-आपको निम्नतर प्रकृति के इस ढेर में से निकालकर उच्चतम आध्यात्मिक स्तरों तक उठाने में सफल नहीं हो जाता और इहलोक में अवतीर्ण वह दिव्य स्फुलिंग एवं ज्वाला अपने-आपको अपने मूल, तेजोमय आकाश के साथ फिर से मिला नहीं देती । क्योंकि अब यह वह आध्यात्मिक चेतना नहीं है जो अपूर्ण है तथा मानव मन, प्राण एवं शरीर के घने कोषों में अपने-आपको खोये हुए है, अब तो यह वह पूर्ण आध्यात्मिक चेतना है जो अपनी पवित्रता, स्वतन्त्रता तथा तीव्र विशालता से सम्पन्न है । जिस प्रकार इसमें नित्य ज्ञाता ही हमारे अन्दर ज्ञाता तथा ज्ञानमात्र का प्रेरक एवं प्रयोक्ता बन जाता है, उसी प्रकार वह नित्य आनन्द-स्वरूप ही हमारा उपास्य देव हो जाता है और वह अपनी सत्ता तथा आनन्द के इस सनातन दिव्य अंश को, जो बाहर विश्व की लीला में संलग्न है, अपनी ओर आकर्षित करता है, वह अनन्त प्रेमी ही अपनेको अपनी असंख्य व्यक्त आत्माओं के अन्दर मधुर एकत्व में उंडेल देता है । संसार में जो भी सौन्दर्य है वह सब तब इस प्रियतम का सौन्दर्य हो जाता है; सौन्दर्य के सभी रूपों को उस शाश्वत सौन्दर्य के प्रकाश के तले स्थित होकर अनावृत दिव्य पूर्णता के एक उन्नायक तथा रूपान्तरकारी बल के आगे आत्मसमर्पण करना पड़ता है । तब समस्त आनन्द और हर्ष सर्वानन्दमय के ही हों जाते हैं; भोग, सुख या आराम के सभी हीनतर रूपों को इसकी बाढ़ों या धाराओं के वेग का आघात सहन करना पड़ता है । इसके आकर्षक दबाव के नीचे वे या तो असमर्थ वस्तुओं की तरह चूर-चूर हो जाते हैं या वे अपने को दिव्य आनन्द के रूपों में परिणत करने को बाध्य होते हैं । इस प्रकार वैयक्तिक चेतना के लिये एक ऐसी शक्ति प्रकट हो जाती है जो इसके अन्दर अज्ञान के मूल्यों की न्यूनताओं और हीनताओं का प्रभावपूर्वक प्रतिकार कर सकती है । अन्त में, सनातन के अपने निज प्रेम और हर्ष की अतिशय वास्तविकता तथा सघन मूर्त्तता को जीवन में उतार लाना सम्भव होने लगता है । अथवा, कम-से-कम हमारी अध्यात्म-चेतना के लिये अपनेको मन से अतिमानसिक ज्योति, शक्ति और विशालता में उठा ले जाना सम्भव हो जाता है । अतिमानसिक विज्ञान के प्रकाश और बल में ही दिव्य आत्म-प्रकटन तथा आत्म-संगठन की शक्ति का तेज और हर्ष विद्यमान हैं । वही अज्ञान के जगत् का परित्राण कर सकते हैं और वही आत्मा के सत्य की प्रतिमा में इसका नवसर्जन कर सकते हैं ।

 

   अतिमानसिक विज्ञान में ही आन्तरिक आराधना की कृतार्थता, परिपूर्ण उच्चता तथा सर्वसमालिंगी विस्तीर्णता है, गभीर और पूर्ण मिलन है, परम ज्ञान के बल और हर्ष को वहन करनेवाले प्रेम के प्रज्वलित पंख हैं । कारण, जो शून्य निष्क्रिय शान्ति तथा निस्तब्धता मुक्त मन का द्युलोक है उसे अतिक्रान्त करनेवाले सक्रिय हर्षावेश को अतिमानसिक प्रेम जन्म देता है, साथ ही यह अतिमानसिक निश्चल-नीरवता की प्रारम्भिक गम्भीरतम महत्तर प्रशान्ति का परित्याग भी नहीं करता । प्रेम

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की एकता, जो भेदों की वर्तमान सीमाओं तथा प्रत्यक्ष विषमताओं के द्वारा न्यून या नष्ट हुए बिना इन सबको अपने में सम्मिलित कर सकती है, अतिमानसिक स्तर पर अपनी सम्पूर्ण सम्भाव्य शक्ति के शिखर पर पहुंच जाती है । वहां प्राणिमात्र के बीच प्रगाढ़ एकत्व, जो भगवान् और आत्मा के गभीर एकत्व पर प्रतिष्ठित होता है, सम्बन्धों की क्रीड़ा से संगति स्थापित कर सकता है और यह क्रीड़ा ही एकत्व को अधिक पूर्ण एवं निरपेक्ष बनाती है । प्रेम की शक्ति विज्ञानमय होकर जीवन के सभी सम्बन्धों को बिना संकोच या भय के स्वायत्त कर सकती है और उन्हें अपरिष्कृत, मिश्रित तथा क्षूद्र मानवीय ढंगों से मुक्त करके तथा दिव्य जीवन की सुखमय साधन-सामग्री के रूप में उदात्त करके ईश्वर की ओर मोड़ सकती है । अतिमानसिक अनुभव का यह स्वभाव ही है कि यह दिव्य मिलन या अनन्त एक़त्व से च्युत हुए बिना या उसे जस भी कम किये बिना भेद की क्रीड़ा को जारी रख सकता है । अतिमानसीकृत चेतना के लिये मनुष्यों और जगत् के साथ स्थापित सभी सम्बन्धों को शुद्ध तेजोबल में तथा रूपान्तरित अर्थ के द्वारा आलिंगित करना पूरी तरह सम्भव होगा । कारण, आत्मा तब प्रेम या सौन्दर्य-विषयक समस्त भाव एवं सम्पूर्ण खोज के लक्ष्य के रूप में एकमेव सनातन को निरन्तर अनुभव करेगी और सब वस्तुओं तथा सब प्राणियों में उस एकमेव भगवान् से मिलने और उसके साथ एक हो जाने के लिये विस्तृत तथा मुक्त प्राणावेग का आत्मिक रूप में प्रयोग कर सकेगी ।

 

   यज्ञ के कर्मों की तीसरी वा अन्तिम श्रेणी में उन सब कर्मों का समावेश किया जा सकता है जो प्रत्यक्षत: ही कर्मयोग के विशेष अंग हैं; क्योंकि वही यज्ञ की सिद्धि का क्षेत्र और उसके मुख्य प्रदेश हैं । जीवन के अधिक प्रत्यक्ष कार्य-व्यवहार का सम्पूर्ण क्षेत्र भी इसके अन्दर आ जाता है । पार्थिव जीवन से अधिक-से-अधिक लाभ उठाने के लिये अपने-आपको बाहर की ओर झोंकनेवाली जीवनेच्छा के नानाविध सामर्थ्य भी इसी के अन्तर्गत हो जाते हैं । यहीं तपस्पात्मक या पारलौकिक आध्यात्मिकता अपनी खोज के लक्ष्यभूत सत्य का अकाट्य खण्डन अनुभव करती है; परिणामत: वह पार्थिव जीवन से मुंह मोड़ने को विवश हो जाती है और इसे अप्रतिकार्य अविद्या का एक नित्य अन्धकारमय क्रीड़ाक्षेत्र मानकर त्याग देती है । तथापि ठीक इसी कार्य-व्यवहार को पूर्णयोग आध्यात्मिक विजय और दिव्य रूपान्तर के लिये अपना क्षेत्र बनाने का दावा करता है । अधिक तपस्यामय अभ्यासक्रम जिस क्षेत्र को सर्वथा त्याग देते हैं तथा अन्य विधियां जिसे केवल अल्पकालिक अग्नि-परीक्षा के क्षेत्र या निगूढ़ आत्मा की एक क्षणिक, बाह्य तथा

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संदिग्धार्थक क्रीड़ा के रूप में स्वीकार करती हैं, पूर्णयोग का जिज्ञासु उसका पूरी तरह से आलिंगन एवं स्वागत करता है, इस नाते कि यह परिपूर्णता तथा दिव्य कर्म का और गुप्त एवं अन्तर्वासी आत्मा की पूर्ण आत्मोपलब्धि का क्षेत्र है । अपने अन्दर देवत्व की उपलब्धि उसका प्रथम लक्ष्य है, परन्तु संसार में--इसकी योजना और रूप-रचना द्वारा किये गये देवत्व के प्रत्यक्ष निषेध के पीछे भी-देवत्व की पूर्ण उपलब्धि और, अन्त में, किसी परात्पर सनातन की क्रियाशीलता की पूर्ण उपलब्धि उसका लक्ष्य है । इस क्रियाशीलता के अवतरण से ही यह संसार और आत्मा अपने आवरक कोषों को खोल डालने में समर्थ होंगे और अपने आविष्कारक स्वरूप तथा अभिव्यंजक प्रक्रिया में दिव्य बन जायंगे जैसे वे अब गुप्त रूप से अपने निगूढ़ सार में हैं ही ।

 

   पूर्णयोग का यह लक्ष्य इसके अनुगामियों को पूरी तरह से स्वीकार करना होगा, परन्तु इसे स्वीकार करते हुए भी इसकी प्राप्ति के मार्ग में आनेवाली अनन्त बाधाओं से अनभिज्ञ नहीं रहना होगा । बल्कि, हमें उस प्रबल कारण का पूरा ज्ञान होना आवश्यक है जिसके बल पर अन्य कितनी ही साधनाएं यह भी मानने से इनकार करती हैं कि यह लक्ष्य पार्थिव जीवन का सच्चा मर्म हों सकता है, इसकी अनिवार्यता स्वीकार करने की बात तो दूर रही । कारण, यहां पृथ्वी-प्रकृति में प्राण के कर्मों में ही उस कठिनाई का असली मर्म छिपा है जिसके कारण दर्शन एकाकिता के शिखरों की ओर झुक गया है तथा धर्म की आतुर दृष्टि भी मर्त्य-शरीरगत जन्म की व्याधि से दूरस्थ स्वर्ग या निर्वाण की नीरव शान्ति की ओर फिर गयी है । हमारी मर्त्य सीमाओं और अविद्या के गर्त्तजालों के होते हुए भी शुद्ध ज्ञान का मार्ग जिज्ञासु के अनुसरण के लिये अपेक्षाकृत सीधा और सरल होता है । शुद्ध प्रेम के पथ की अपनी ही विघ्न-बाधाएं विरह-वेदनाएं एवं अग्नि-परीक्षाएँ होती हैं तथापि वह, तुलनात्मक दृष्टि से, खुले आकाश में पक्षी के विचरने की भांति सुगम हो सकता है । ज्ञान और प्रेम तत्त्वतः पवित्र हैं और ये मिश्रित, जटिल, भ्रष्ट एवं पतित तभी होते हैं जब कि ये प्राण-शक्तियों की अस्पष्ट गति में भाग लेते हैं और उनके द्वारा बाह्य जीवन की असंस्कृत गतियों तथा हठीले निम्नतर प्रेरक-भावों के लिये बलात् अधिकृत किये जाते हैं । इन शक्तियों में से केवल जीवन-शक्ति या कम-से-कम एक प्रकार की प्रबल जीवनेच्छा अपने असली सार में भी एक अपवित्र, अभिशप्त या भ्रष्ट वस्तु प्रतीत होती है । इसके संसर्ग से, इसके मलिन आवरणों में लिपटी हुई या इसकी सतरंगी दलदल में फंसी हुई दिव्यताएं भी स्वयं सामान्य एवं पंकिल हो जाती हैं और इनके विकारों में नीचे की ओर घसीटी जाने तथा दुर्भाग्यवश दानव एवं असुर जैसी बन जाने से मुश्किल से ही बच पाती हैं । अंधेरी और मलिन जड़ता का तत्त्व इसकी जड़ में है; शरीर और इसकी आवश्यकताओं तथा कामनाओं के कारण सभी मनुष्य क्षुद्र मन, तुच्छ तृष्णाओं

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और उमंगों से, छोटी-छोटी व्यर्थ की चेष्टाओं, आवश्यकताओं, चिन्ताओं, व्यग्रताओं तथा सुख-दुःखों की निरर्थक आवृत्ति से बंधे हुए हैं । ये सब चीजें अपने से परे किसी चीज की ओर नहीं ले जातीं और इनपर एक ऐसे अज्ञान की छाप लगी हुई है जिसे अपने 'क्यों' और 'किधर' का कुछ पता नहीं है । यह जड़ स्थूल मन अपने छोटे पार्थिव देवों के अतिरिक्त और किसी देवत्व में विश्वास नहीं करता; यह सम्भवतः और भी अधिक सुख-सुविधा तथा सुप्रबन्ध की आकांक्षा करता है, पर ऊर्ध्वगति और आध्यात्मिक मुक्ति की याचना नहीं करता । सत्ता के केंद्र में हमारी एक अधिक रसिक और बलवत्तर जीवनेच्छा से भेंट होती है, पर यह एक अन्धी राक्षसी एवं विकृत आत्मा होती है और ठीक उन्हीं तत्त्वों में मजा लेती है जो जीवन को आयासमय संघर्ष तथा दुःखदायी कलह बना डालते हैं । यह मानवीय या पैशाचिक कामना की आत्मा है जो भड़कीले रंग, उच्छृंखल काव्य तथा शुभ-अशुभ, हर्ष-शोक, प्रकाश-अन्धकार, मादक हर्ष और कटु यंत्रणा के एक मिश्रित प्रवाह के उग्र दुःखान्त या उद्दीपक गीति-नाटक में आसक्त रहती है । यह इन चीजों से प्यार करती है और इन्हें अधिकाधिक पाना चाहती है, अथवा, जब यह दुःख भोगती तथा इनके विरुद्ध चिल्लाती भी है तब भी यह और कोई चीज स्वीकार नहीं कर सकती और न ही उसमें रस ले सकती है । यह उच्चतर वस्तुओं से घृणा और विद्रोह करती है और अपने आवेश में ऐसी किसी भी दिव्यतर शक्ति को कुचल देना, चीर डालना या गला घोंट के मार देना चाहती है जो जीवन को शुद्ध, उज्जल तथा सुखी बनाने तथा उस उत्तेजक मिश्रण की तीक्ष्ण सुरा को इसके अधरों से छीनने का प्रस्ताव रखने का दुःसाहस करती है । एक और जीवनेच्छा भी है जो एक उत्थापक आदर्शात्मक मन का अनुसरण करने को उद्यत होती है तथा उसके इस प्रस्ताव से आकृष्ट हो जाती है कि जीवन में से कुछ सामंजस्य, सौन्दर्य, प्रकाश तथा उत्कृष्टतर व्यवस्था का रस ले लेना चाहिये; परन्तु यह प्राणिक प्रकृति का एक बहुत छोटा-सा भाग है और अपने अधिक उग्र या अन्धतर एवं मूढ़तर साथियों से सहज ही अभिभूत हो सकती है । यह मन की पुकार से अधिक ऊंची किसी पुकार का तब तक आसानी से साथ नहीं देती जब तक वह पुकार अपना नाश आप ही नहीं कर लेती, जैसा कि धर्म प्रायः ही करता है, यह नाश वह अपनी मांग को उन अवस्थाओं तक कम कर लेने से करती है जिन्हें हमारी अन्ध प्राणिक प्रकृति अधिक अच्छी तरह से समझ सके । आध्यात्मिक जिज्ञासु अपने अन्दर इन सब शक्तियों से सचेतन हों जाता है तथा इन्हें अपने चारों ओर सब जगह अनुभव करता है । उसे इनके साथ निरन्तर संघर्ष तथा युद्ध केरना पड़ता है, ताकि वह इनके चंगुल से छुटकारा पा सके तथा इन्होंने उसकी सत्ता एवं पारिपार्श्विक मानव-सत्ता पर जो चिर-रक्षित आधिपत्य जमा रखा है उससे इन्हें च्युत कर सके । यह कठिनाई एक बड़ी भारी कठिनाई है; क्योंकि उनका अधिकार अत्यन्त दृढ़ है, स्पष्ट

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रूप से अदम्य है, यहां तक कि यह इस तिरस्कारपूर्ण उक्ति को सत्य सिद्ध करता है कि मानव-प्रकृति कुत्ते की दुम के समान है । इसे आचार-शास्त्र, धर्म, तर्कबुद्धि या अन्य किसी उद्धारक पुरुषार्थ के बल से चाहे कितना भी सीधा करने का यत्न क्यों न करो, यह अन्त में सदा ही विश्व-प्रकृति की कुटिल वक्रावस्था में पुनः-पुनः लौट आती है । इस अत्यन्त विक्षुब्ध जीवनेच्छा का बल तथा चंगुल इतना दृढ़ है, इसकी वासनाओं तथा भ्रान्तियों का संकट इतना महान् है, इसके आक्रमण का आवेश या इसके विघ्नों की कष्टकर बाधा इतनी सूक्ष्म-आग्रहशील या दृढ़-विद्रोही है तथा द्युलोक के ठेठ द्वारों तक ऐसी अड़ी रहती है कि संत और योगी भी इसके षड्यन्त्र या इसके बलात्कार के विरुद्ध खड़े होने के लिये अपनी मुक्त पवित्रता या अपने अभ्यस्त आत्मप्रभुत्व पर भरोसा नहीं कर सकते । इस जन्मजात कुटिलता को सीधा कर डालने का सारा परिश्रम संघर्षकारिणी संकल्पशक्ति को वृथा प्रतीत होता है । सुखमय स्वर्ग की ओर पलायन या निवृत्ति अथवा शान्तिपूर्ण लय, सहज ही, एकमात्र तत्त्व ज्ञान होने के श्रेय को प्राप्त कर लेता है और पुन: जन्म न लेने के मार्ग की खोज इस रूप में प्रचलित हो जाती है कि पार्थिव जीवन के नीरस बन्धन की या एक दयनीय मिथ्या उन्माद या अन्ध तथा संदिग्ध सुख-सौभाग्य एवं सिद्धि-सफलता की यहीं एकमात्र औषधि है ।

 

   तथापि इस विक्षुब्ध प्राणिक प्रकृति की कोई औषधि, इसके उद्धार का कोई उपाय तथा रूपान्तर की सम्भावना तो होनी ही चाहिये और है भी । किन्तु इसके लिये पहले इसकी पथ-भ्रष्टता का कारण ढूंढ़ना होगा और उस कारण का प्रतिकार स्वयं प्राण या जीवन के केंद्र में तथा उसके असली तत्त्व में करना होगा, चूंकि प्राण भी भगवान् की शक्ति है, यह किसी अतिदुष्ट आकस्मिकता या अन्धकारमय दानवीय आवेग की रचना नहीं है, इसकी वर्तमान आकृति चाहे कैसी भी तमसावृत या विकृत क्यों न हो । प्राण की मुक्ति का बीज स्वयं इसके अपने अन्दर ही है, प्राणशक्ति से ही हमें अपना साधन-बल प्राप्त करना होगा । कारण, द्यपि ज्ञान में रक्षाकारी प्रकाश है, प्रेम में उद्धारकारी तथा रूपान्तरकारी सामर्थ्य है, तथापि ये इह-जीवन में तबतक सफल नहीं हो सकते जबतक ये प्राण की अनुमति प्राप्त नहीं कर लेते और इसके केंद्र में निहित किसी मुक्त-शक्ति-रूपी साधन का प्रयोग भ्रान्तिशील मानवीय प्राण-शक्ति को दिव्य प्राणशक्ति में उठा ले जाने के लिये नहीं कर पाते । यश के कर्मों का विभाजन करके कठिनाई की गांठ काट डालना सम्भव नहीं । हम यह निश्चय करके इससे नहीं बच सकते कि हम केवल प्रेम और ज्ञान के ही कर्म करेंगे और संकल्प एवं शक्ति, अधिकार एवं उपार्जन, उत्पादन एवं सार्थक शक्ति-व्यय तथा युद्ध, विजय एवं प्रभुत्व के कर्मों से किनारा कर लेंगे, कि हम जीवन के अधिक बड़े भाग को अपनेसे दूर कर देंगे क्योंकि यह साक्षात् कामना और अहंकाररूपी उपादान से ही निर्मित प्रतीत होता है और इसलिये

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असामंजस्य तथा निरे संघर्ष एवं अव्यवस्था का क्षेत्र बनना ही इसके भाग्य में लिखा है । ऐसा विभाग वास्तव में किया ही नहीं जा सकता; अथवा, यदि इसके लिये प्रयत्न किया भी जाय तो यह अपने असली उद्देश्य में अवश्य ही असफल रहेगा । कारण, यह हमें संसार-शक्ति के कुल, सामर्थ्यों से पृथक् कर देगा और अखंड विश्व-प्रकृति के एक महत्त्वपूर्ण अंग को, इसकी एकमात्र उसी शक्ति को जो किसी भी सृष्ट्युत्पादक कर्म में आवश्यक साधन है, बन्धन बना देगा । प्राण-शक्ति यहां विश्वप्रकृति में एक अपरिहार्य माध्यम है, एक कार्य-साधक तत्त्व है । मन को इसकी सहायता की आवश्यकता हैं, यदि मन के कर्मों को केवल आकृतिहीन उज्जल आन्तरिक रचनाएं ही नहीं रहना है । आत्मा को इसकी इसलिये जरूरत है कि वह अपनी व्यक्त सम्भावनाओं को बाह्य सामर्थ्य और रूप प्रदान करके जड़-प्रकृति के अन्दर अपनी पूर्ण आत्म-अभिव्यक्ति को मूर्त्त रूप में चरितार्थ कर सके । यदि प्राण आत्मा की अन्य क्रिया-प्रणालियों को अपनी मध्यस्थ शक्ति की सहायता देने से इंकार करता है अथवा यदि आत्मा ही प्राण को अंगीकार नहीं करती है, तो ये दोनों इह-लोक पर अपने समस्त सभ्मव प्रभाव के होते हुए भी, स्थितिशील पर एकाकी या स्वर्णिम पर निर्वीर्य वस्तु में परिणत हो सकते हैं । अथवा, यदि कुछ सम्पन्न हुआ भी तो वह हमारे कर्म का एक आंशिक तेज: -प्रसार होगा जो बाह्य की अपेक्षा कहीं अधिक आन्तरिक ही होगा । वह शायद जीवन में कुछ हेर-फेर तो करेगा, पर उसे परिवर्तित नहीं कर सकेगा । दूसरी तरफ, यदि प्राण अपनी शक्तियों को आत्मा के समक्ष प्रस्तुत तो करे, पर असंस्कृत रूप में, तो इसका परिणाम और भी बुरा हो सकता है । कारण, सम्भव है कि वह प्रेम या ज्ञान की आध्यात्मिक क्रिया को हीन और भ्रष्ट गतियों में परिणत कर डाले अथवा उन्हें अपनी निकृष्ट या विकृत क्रियाओं की दु:सगिनी बना दे । प्राण एक सर्जनशील आध्यात्मिक उपलब्धि की पूर्णता के लिये अपरिहार्य है, किन्तु वह प्राण जो मुक्त, रूपान्तरित और उदात्त हो, न कि वह जो साधारण मानसीकृत मानव-पाशविक हो अथवा आसुरिक या पैशाचिक हो, और न ही वह जो दिव्य तथा अदिव्य दोनों का मिश्रण हो । अन्य संसार-त्यागी या स्वर्गकामी अभ्यास-विधियां चाहे जो करें, पर कठिन होते हुए भी पूर्णयोग का अटल व्रत यही है । यह जीवन के बाह्य कर्मों की समस्या को उलझा नहीं रहने दे सकता, इसे उनके अंदर की नैसर्गिक दिव्यता को ढूंढ़कर उसे प्रेम तथा ज्ञान की दिव्यताओं के साथ सदा के लिये और दृढ़तापूर्वक संबद्ध कर देना होगा ।

 

   यह भी कोई हल नहीं है कि जीवन के कर्मों से सम्बन्ध तबतक स्थगित रखा जाय जबतक प्रेम और ज्ञान उस शिखर तक विकसित नहीं हो जाते जहां वे जीवन-शक्ति का नव-निर्माण करने के लिये एक प्रभावशाली तथा सुरक्षित रूप में अपना अधिकार स्थापित कर सकें । कारण, हम देख चुके हैं कि इसके लिये उन्हें

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पहले अमित ऊंचाइयों तक उठना होता है; तभी वे उस प्राणिक विकार से सुरक्षित रह सकते हैं जो उनकी उद्धारक शक्ति को कुंठित या पंगु कर देता है । यदि एक बार हमारी चेतना अतिमानसिक प्रकृति के शिखरों तक पहुंच सके तो ये दुर्बलताएं सचमुच में दूर हो जायंगी । परन्तु इसमें द्विविधा यह है कि जहां अपने कन्धों पर असंस्कृत जीवन-शक्ति का भार उठाये अतिमानसिक शिखरों तक पहुंचना असम्भव है वहां आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक स्तरों के निर्भ्रान्त प्रकाश तथा अजेय बल को नीचे उतारे बिना प्राणेच्छा का जड़मूल से नव-निर्माण करना भी उतना ही असम्भव है । अतिमानसिक चेतना केवल ज्ञान, आनन्द, घनिष्ठ प्रेम और एकत्व ही नहीं है, वह तपस् या संकल्प भी है, बल और शक्ति का तत्त्व भी है, और वह तबतक अवतरित नहीं हो सकती जबतक इस व्यक्त प्रकृति में तपस् अर्थात् बल एवं शक्ति का तत्त्व उसे ग्रहण करने तथा स्पन्दित करने के लिये पर्याप्त विकसित तथा उदात्त नहीं हों जाता । परन्तु संकल्प, बल और शक्ति प्राण-शक्ति के सहजात तत्त्व हैं, इस कारण प्राण ठीक कहता है कि ज्ञान और प्रेम ही सर्वोच्च नहीं हैं, और वह ठीक ही किसी ऐसी चीज की तृप्ति के लिये प्रेरित होता है जो अपेक्षाकृत अत्यधिक विचारशून्य, दुर्दान्त और भयानक होते हुए भी भगवान् तथा परब्रह्म की प्राप्ति के लिये अपने ही वीरतापूर्ण और उत्साहपूर्ण ढंग से साहस कर सकती है । प्रेम और ज्ञान ही भगवान् के एकमात्र पहलू नहीं हैं, उसका एक पहलू शक्ति का भी है । जैसे मन ज्ञान के लिये टटोलता है, हृदय प्रेम के लिये टोहता है, वैसे ही प्राण भी शक्ति और शक्ति-लभ्य अधिकार की प्राप्ति के लिये यत्न करता है, भले ही यह यत्न वह लड़खड़ाते हुए अनाड़ीपन से या हड़बड़ी के साथ क्यों न करे । 'शक्ति' की इस प्रकार की निन्दा करना कि यह स्वभावत: पतनकारिणी और अशुभ होने के कारण अपने-आपमें अनुपादेय या अवांछनीय वस्तु है, नैतिक वा धार्मिक मन की भूल है । अनेकों उदाहरणों से प्रत्यक्षतः ठीक प्रमाणित होने पर भी, यह मूलतः एक अन्ध एवं अयुक्तियुक्त धारणा है । शक्ति चाहे कितनी भी विकृत और दुष्प्रयुक्त क्यों न हो, जैसे प्रेम और ज्ञान भी विकृत और दुष्प्रयुक्त होते हैं, फिर भी वह दिव्य है तथा भगवान् के उपयोग के लिये यहां प्रतिष्ठित की गयी है । शक्ति, -संकल्प वा बल--लोकों की संचालिका है और चाहे वह ज्ञान-शक्ति हो या प्रेम-शक्ति अथवा प्राण-शक्ति हो या कर्म-शक्ति या शरीर-शक्ति, वह सदा ही अपने मूल में आध्यात्मिक होती है और साथ ही अपने स्वभाव में दिव्य भी । परन्तु नर-पशु मानव या दानव अज्ञान में इसका जो प्रयोग करता है उसका त्याग करना होगा और उसके स्थान पर इसके एक ऐसे महत्तर एवं स्वाभाविक व्यापार को--हमारे लिये वह चाहे अलौकिक ही क्यों न हो--प्रतिष्ठित करना होगा जो कि अनन्त तथा सनातन के साथ एकीभूत अन्तश्चेतना के द्वारा ही प्रेरित और परिचालित हो । पूर्णयोग जीवन के कर्मों का वर्जन करके आन्तरिक अनुभव-मात्र से सन्तुष्ट

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नहीं रह सकता । उसका बाह्य को बदलने के लिये अन्दर जाना आवश्यक है, और इसके लिये प्राण-बल को उस योग-शक्ति का अंग तथा व्यापार बनाना होगा जो भगवान् के साथ सम्पर्क रखती है तथा जो अपने मार्गदर्शन में दिव्य है ।

 

   जीवन के कर्मों के साथ आध्यात्मिक तौर पर सम्बन्ध स्थापित करने में सारी कठिनाई इसलिये पैदा होती है कि जिजीविषा-शक्ति ने अपने अविद्यागत प्रयोजनों के लिये एक मिथ्या प्रकार की कामनात्मा को जन्म दिया है और इसे वास्तविक चैत्य-रूपी भगवत्स्फुलिंग के स्थान पर ला बिठाया है । जीवन के सभी या अधिकतर कर्म आज इस कामनामय आत्मा से प्रचालित या कलुषित हैं अथवा वे ऐसे प्रतीत होते हैं । जो कर्म नैतिक या धार्मिक हैं, जो परार्थवाद, परोपकार, आत्म-बलिदान एवं स्वार्थत्याग का जामा पहने हैं वे भी इसीके तैयार किये तानेबाने से बुने हुए हैं । यह कामनामय आत्मा एक अहमात्मक एवं विभाजक आत्मा है और इसकी सभी सहजप्रेरणाएं भेदमुलक अहंख्यापन के लिये होती हैं । यह खुल्लमखुल्ला या न्यूनाधिक चमकीले पर्दों की आमें अपनी ही वृद्धि के लिये, अपने स्वत्व एवं उपभोग तथा विजय और साम्राज्य के लिये सदा ही जोर लगाती रहती है । यदि विक्षोभ, असामंजस्य और विकार के अभिशाप को जीवन से हटाना है, तो सच्ची आत्मा वा हृत्युरुष को उसके प्रमुख पद पर प्रतिष्ठित करना ही होगा और साथ ही कामना तथा अहंकार की मिथ्या आत्मा का विनाश भी करना होगा । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि स्वयं जीवन पर ही बलात्कार करना होगा और उसे अपनी कृतार्थता की स्वाभाविक दिशा में चलने से मना करना होगा । कारण, इस बाह्य कामनामय आत्मा के पीछे हमारे भीतर एक आन्तर तथा वास्तविक प्राणमय पुरुष भी है जिसे विनष्ट नहीं करना, बल्कि प्रमुख स्थान देना है और भागवत प्रकृति की शक्ति के तौर पर अपनी सच्ची कार्यप्रणाली के प्रयोग के लिये उन्मुक्त करना है । हमारी सच्ची अन्तरतम आत्मा के पथप्रदर्शन में इस वास्तविक प्राणमय पुरुष का प्रधान बनकर रहना प्राण-शक्ति के दिव्य ढंग से चरितार्थ करने के लिये आवश्यक है । वे उद्देश्य अपने सार में चाहे वही रहेंगे, पर अपने आन्तरिक आशय और बाह्य स्वरूप में पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जायेंगे । भागवत प्राण-शक्ति भी विकास का एक संकल्प तथा आत्मख्यापन की शक्ति ही होगी, किन्तु यह ख्यापन तलवर्ती क्षुद्र अस्थायी व्यक्तित्व का नहीं, बल्कि अन्तरस्थ भगवान् का होगा, यह विकास भी उस सच्चे दिव्य व्यक्ति, केंद्रीय सत्ता एवं गुप्त अक्षर पुरुष के रूप में होगा जो अहं को वशीभूत तथा विलुप्त करके ही उदित हो सकता है । जीवन का सच्चा उद्देश्य है--विकास, पर प्रकृति में एक ऐसी आत्मा का विकास जो अपने-आपको मन, प्राण और शरीर में प्रतिष्ठित तथा अभिवर्धित करे; स्वामित्व, पर सब पदार्थों में भगवान् का भगवान् पर स्वामित्व, न कि अहं की कामना का वस्तुओं पर वस्तुओं के लिये स्वामित्वू उपभोग, पर संसार में दिव्य आनन्द का उपभोग; अन्धकार की

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शक्तियों के साथ एक विजयी संघर्ष के रूप में युद्ध, विजय और साम्राज्य, आन्तर तथा बाह्य प्रकृति पर पूर्ण आध्यात्मिक स्व-शासन और प्रभुत्व, अज्ञान के क्षेत्रों पर ज्ञान, प्रेम एवं भागवत संकल्प द्वारा विजय ।

 

  यही जीवन के कर्मों के इस दिव्य अनुष्ठान की तथा प्रगतिशील रूपात्तर की, जो त्रिविध यज्ञ का तीसरा अंग है, शर्तें हैं और यही इसके उद्देश्य भी होने चाहियें । योग का लक्ष्य जीवन को बौद्धिक नहीं, बल्कि अतिमानसिक बनाना है, नैतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक बनाना है । इसका मुख्य प्रयोजन बाह्य व्यवहारों या स्थूल मनोवैज्ञानिक हेतुओं को नियन्त्रित करना नहीं, वरन् जीवन तथा इसके कर्म को इनके गुप्त दिव्य तत्त्व पर पुनः प्रतिष्ठित करना है; क्योंकि, इस प्रकार नये आधार पर प्रतिष्ठित होकर ही जीवन सीधे ऊर्ध्व-स्थित गुप्त भागवती शक्ति के द्वारा परिचालित हो सकता है और आज की भांति सनातन नटवर का छद्मवेश और विरूपकारी आवरण न रहकर दिव्यता की एक स्पष्ट अभिव्यक्ति में रूपान्तरित हो सकता है । बाह्य कार्य-कुशलता नहीं, जो मन तथा बुद्धि का तरीका है, बल्कि चेतना का मूलगत आध्यात्मिक परिवर्तन ही जीवन का कायापलट कर सकता है और इसके दु:ख-द्विविधाग्रस्त वर्तमान स्वरूप से इसका परित्राण कर सकता है ।

   इस प्रकार, जीवन के दृश्य-प्रपंच पर बाह्य कौशल-प्रयोग के द्वारा नहीं, बल्कि इसके असली तत्त्व के रूपान्तर के द्वारा ही पूर्णयोग इसे प्रकृति की विक्षुब्ध तथा अज्ञानमय गति से ज्योतिर्मय तथा समस्वर गति में परिवर्तित करने का विचार प्रस्तुत करता है । तीन शर्त्तें हैं जो इस केंद्रीय आन्तर क्रान्ति तथा नवीन निर्माण की सफलता के लिये अनिवार्य हैं । इनमें से एक भी अपने-आपमें पूर्ण रूप से पर्याप्त नहीं है, किन्तु इनकी संयुक्त त्रिगुण शक्ति से जीवन को ऊंचा उठाया जा सकता है, उसका रूपान्तर किया जा सकता है और सम्पूर्ण रूप से किया जा सकता है । सर्वप्रथम, जीवन, अपने वर्तमान रूप में, कामना की एक हलचल ही है और इसने हमारे अन्दर अपने केंद्र के तौर पर एक कामनामय पुरुष की रचना कर रखी है । यह कामना-पुरुष जीवन की सभी चेष्टाओं को अपने द्वारा जांचता है और उनमें अपने अज्ञानयुक्त, अर्द्ध-प्रकाशित एवं पराजित प्रयत्न की व्याकुल चीख-पुकार और दुःख-दर्द को निहित कर देता है । दिव्य जीवन प्राप्त करने के लिये कामना को मिटाना होगा और उसके स्थान पर एक शुद्धतर तथा स्थिरतर प्रेरक-शक्ति की प्रतिष्ठा करनी होगी, कामना की पीड़ित आत्मा को विनष्ट कर उसके स्थान पर अपने अन्दर के प्रच्छन्न सच्चे प्राणमय पुरुष की प्रशान्ति, शक्ति एवं प्रसन्नता को प्रकट करना होगा । दूसरे, जीवन का वर्तमान रूप कुछ तो प्राण-शक्ति के आवेग से

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प्रेरित वा परिचालित होता है और कुछ मन से । मन, अधिकांश में, अज्ञानयुक्त प्राणावेग का दास और पृष्ठ-पोषक है, पर अंशत: यह उसका एक चंचल और कम प्रकाशमय या कम योग्य मार्गदर्शक तथा उपदेशक भी है । दिव्य जीवन के लिये मन और प्राणावेग को यन्त्र मात्र बनकर रहना होगा, इससे अधिक कुछ नहीं, और अन्तरतम हृत्पुरुष को योगमार्ग के अग्रणी या दिव्य मार्ग-दर्शन के निर्देशक के तौर पर उनका स्थान ग्रहण करना होगा । अन्त में जीवन, अपने वर्तमान रूप में, विभाजक अहं की सन्तुष्टि में तत्पर है; इस अहं को विलुप्त होना होगा और इसका स्थान सच्चे आध्यात्मिक पुरुष अर्थात् केंद्रीय पुरुष को लेना होगा । स्वयं जीवन को भी पार्थिव सत्ता में भगवान् की चरितार्थता की ओर मोड़ देना होगा । इसे अपने भीतर जाग रही भागवत शक्ति को अनुभव करना तथा उसके लक्ष्य का आज्ञाकारी यन्त्र बनना होगा ।

 

   इन तीन रूपान्तरकारी आन्तर गतियों में से पहली में ऐसी कोई चीज नहीं है जो प्राचीन तथा परिचित न हो, क्योंकि यह सदैव आध्यात्मिक साधना का एक मुख्य उद्देश्य रही है । गीता के एक सुस्पष्ट सिद्धान्त में इसका अत्युत्तम निरूपण किया गया है । उसमें बताया गया है कि कर्म के प्रेरक के रूप में फलों की कामना का पूर्ण त्याग, स्वयं कामना का पूर्ण उच्छेद एवं विशुद्ध समता की पूर्ण प्राप्ति आध्यात्मिक व्यक्ति की सामान्य अवस्थाएं हैं । कामना के विनाश का एकमात्र सच्चा और अचूक चिह्न पूर्ण आध्यात्मिक समता है, अर्थात् सब पदार्थों के प्रति आत्मिक समता रखना, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय और सफलता-विफलता से चलायमान न होना, उच्च और नीच, मित्र और शत्रु पुण्यात्मा और पापी को सम दृष्टि से देखना, सर्वभूत में एकमेव की नानारूप अभिव्यक्ति और सब पदार्थों में देहधारी आत्मा की बहुविध क्रीड़ा या गुप्त क्रमविकास को अनुभव करना । हमारा लक्ष्य मन की अचंचलता, एकाकिता तथा उदासीनता की स्थिति नहीं है, न प्राण की जड़ निस्तब्धता एवं उस शरीर-चेतना की निष्क्रिय अवस्था ही हमारा लक्ष्य है जो या तो कोई भी चेष्टा करने को सहमत नहीं होती अथवा हर प्रकार की चेष्टा करने को उद्यत हो जाती है--यद्यपि इन चीजों को कभी-कभी भूल से आध्यात्मिक स्थिति मान लिया जाता है--बल्कि हमारा लक्ष्य एक ऐसा विशाल एवं सर्वग्राही अविचल विश्वात्मभाव है जैसा कि प्रकृति के पीछे रहनेवाली साक्षी आत्मा का होता है । यद्यपि यहां की सब वस्तुएं शक्तियों का एक अस्थिर और अर्द्ध-व्यवस्थित एवं अर्द्ध-अस्तव्यस्त संगठन प्रतीत होती हैं, फिर भी मनुष्य यह अनुभव कर सकता है कि इनके मूल में एक सर्वाधार शान्ति, निश्चल-नीरवता एवं विशालता विद्यमान है जो निष्क्रिय नहीं, बल्कि शान्त है, अशक्त नहीं, बल्कि गुप्त रूप से सर्वशक्तिमान् है; यह शान्ति एक ऐसी घनीभूत तथा अचल-अटल शक्ति से संपन्न है जो विश्व की सभी हलचलों को सहन करने में समर्थ है । यह पीछे रहनेवाली उपस्थिति सब

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वस्तुओं के प्रति आत्मिक समता रखती है । इसके अन्दर जो शक्ति निहित है वह किसी भी कार्य के लिये प्रवाहित की जा सकती है, पर साक्षी आत्मा की कोई भी कामना अपने लिये किसी भी कर्म का चुनाव नहीं करती । असल में कर्म का कर्त्ता तो वह सत्य है जो स्वयं कर्म तथा उसके प्रत्यक्ष रूपों और आवेगों से परे तथा अधिक महान् है, मन या प्राण-शक्ति या शरीर से भी परे तथा अधिक महान् है, चाहे अपने तात्कालिक प्रयोजन के लिये वह मानसिक, प्राणिक या शारीरिक रूप भी धारण कर सकता है । जब इस प्रकार कामना की मृत्यु हो जाती है और यह शान्त सम विशालता चेतना में सर्वत्र छा जाती है तभी हमारे अन्दर का सच्चा प्राणमय पुरुष पर्दे से बाहर निकल आता है और अपनी निर्विकार, गम्भीर तथा शक्तिशाली उपस्थिति को व्यक्त करता है । प्राणमय पुरुष का सच्चा स्वरूप यही है; यह दिव्य पुरुष का जीवन के अन्दर प्रसारित अंश है, -शान्त, सशक्त और प्रकाशमय है, नाना सामर्थ्यों से सम्पन्न है, भगवत्संकल्प का आज्ञाकारी है, अहं से रहित है और फिर भी, बल्कि वास्तव में इसी कारण समस्त कार्य, ध्येयसिद्धि तथा अत्यन्त उच्च या अति बृहत् साहस-कर्म करने में समर्थ है । तब एक सच्ची प्राण-शक्ति भी पहले की तरह क्षुब्ध, व्याकुल, विभक्त एवं आयासकारी स्थूल बल के रूप में नहीं, वरन् एक महान् ज्योतिर्मय दिव्य शक्ति के रूप में प्रकट होती है । वह शक्ति शान्ति, बल और आनन्द से परिपूर्ण है, वह विशाल पथ पर विचरण करनेवाला जीवन का देवदूत है जिसके शक्ति के पंख संसार को आच्छादित किये हैं ।

 

   परन्तु विशाल सामर्थ्य और समता की अवस्था में पहुंचानेवाला यह रूपान्तर भी पर्याप्त नहीं है, क्योंकि यद्यपि यह हमारे लिये दिव्य जीवन के करणोपकरण को खोल देता है, तथापि यह उसका शासन और सूत्र-संचालन हमें प्रदान नहीं करता । यहीं पर उन्मुक्त ह्रत्पूरुष की उपस्थिति हस्तक्षेप करती है । यह हृत्युरुष हमें सर्वोच्च शासन और मार्ग-दर्शन तो प्रदान नहीं करता, --क्योंकि वह इसका कार्य नहीं है, --किन्तु यह अज्ञान से दिव्य ज्ञान में संक्रमण के काल में आन्तर तथा बाह्य जीवन एवं कर्म के लिये एक वृद्धिशील पथ-प्रदर्शन अवश्य प्रदान करता है । प्रतिक्षण यह एक पद्धति, पथ एवं सोपानक्रम का निर्देश करता है जो हमें एक ऐसी संसिद्ध आध्यात्मिक स्थिति में पहुंचा देगा, जहां एक परम क्रियाशील उपक्रम-शक्ति सदा उपस्थित रहकर दिव्यीकृत प्राण-शक्ति की क्रियाओं का संचालन करती रहेगी । इसके द्वारा प्रसारित प्रकाश से प्रकृति के अन्य अंग भी आलोकित हो उठते हैं जो अबतक अपनी भ्रान्त तथा स्सलनशील शक्तियों से अधिक श्रेष्ठ किसी मार्गदर्शक के अभाव के कारण अज्ञान के घेरे में भटकते आ रहे हैं । मन को तो यह विचारों तथा बोधों का यथार्थ अनुभव प्रदान करता है और प्राण को इस बात का अचूक ज्ञान कि कौन-सी चेष्टाएं भ्रान्त हैं अथवा भ्रान्त करनेवाली हैं और कौन-सी

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सत्पेरित । अन्दर विराजमान एक शान्त भविष्यवक्ता के समान कोई हमारे पतनों के कारणों को हमारे सामने खोलकर हमें समय पर चेतावनी दे देता है कि वे फिर नहीं होने चाहियें, अनुभव तथा अन्तर्ज्ञान के द्वारा हमारे कार्यों की सही दिशा का, उनके ठीक कदम तथा यथार्थ आवेग का एक ऐसा नियम निकाल लेता है जो कठोर नहीं, बल्कि नमनीय होता है । एक ऐसी संकल्प-शक्ति उत्पन्न हो जाती है जो जिज्ञासाकुल पर अत्यधिक भ्रान्तिशील मन के साथ नहीं, बल्कि विकसनशील सत्य के साथ अधिक समस्वर होती है । उदय होनेवाले महत्तर प्रकाश के प्रति सुनिश्चित अभिमुखता, आत्मिक सहज-प्रेरणा, आन्तरात्मिक कुशलता, तथा वस्तुओं के वास्तविक तत्त्व, गति एवं आशय में पैठनेवाली एक ऐसी अन्तर्दृष्टि जो आन्तर संस्पर्श, आन्तर दृष्टि और यहां तक कि तादात्म्य के द्वारा उपलब्ध ज्ञान के तथा आध्यात्मिक दिव्य द्रष्टि के सदा अधिकाधिक निकट पहुंचती जाती है, ये सब मानसिक निर्णय की उथली सूक्ष्मता का और प्राण-शक्ति के उत्सुक अवधारणों का स्थान लेने लगते हैं । जीवन के कर्म भी अपने को शुद्ध करने तथा भ्रान्ति का त्याग करने लगते हैं और बुद्धिद्वारा थोपी हुई कृत्रिम या तार्किक व्यवस्था की तथा कामना के मनमाने नियम की जगह अन्तरात्मा की गभीर अन्तर्दृष्टि के निर्देश को प्रतिष्ठित करके परम आत्मा के गूढ़ पथों में प्रवेश करने लगते हैं । हृत्पूरुष जीवन पर यह नियम लागू कर देता है कि यह अपने सारे कर्मों को भगवान् और सनातन के प्रति आहुति के रूप में अर्पित करे । जीवन जीवनातीत के प्रति आह्वान बन जाता है; इसका प्रत्येक छोटे-से-छोटा कार्य भी अनन्त की भावना से विशाल हो उठता है ।

 

   जैसे-जैसे हमारे अन्दर आन्तरिक समता बढ्ती है और हमें उस सच्चे प्राणमय पुरुष का अधिकाधिक अनुभव प्राप्त होता है जो एक महत्तर आदेश-निर्देश देने के लिये प्रतीक्षा कर रहा है, जैसे-जैसे हमारी प्रकृति के सभी अंगों में अन्तरात्मा की पुकार बढ़ती है वैसे-वैसे वह, जिसे हमारी पुकार सम्बोधित करती है, अपनेको प्रकाशित करने लगता है, जीवन तथा इसके सामर्थ्यों को अधिकृत करने के लिये अवतरित होता है, और उन्हें अपनी उपस्थिति तथा प्रयोजन की उच्चता, गभीरता और विशालता से भर देता है । अधिकतर लोगों में नहीं तो बहुतों में यह समता तथा मुक्त आन्तरात्मिक संवेग या निर्देश की अवस्था से पहले भी अपना कुछ-न-कुछ अंश प्रकट करता है । बाह्य अज्ञान के ढेर के नीचे दबे पड़े और छुटकारे के लिये क्रन्दन कर रहे प्रच्छन्न चैत्य तत्त्व की पुकार, विह्वल ध्यान का एवं ज्ञान की खोज का दबाव, हृदय की उत्कण्ठा और एक ऐसा सच्चा एवं तीव्र संकल्प जो अभी अज्ञानमय है--ये सब उच्चतर प्रकृति को निम्नतर से पृथक् करनेवाले पर्दे को हटाकर मूल स्रोत के द्वार खोल सकते हैं । दिव्य पुरुष की एक कला अपने-आपको या अनन्त के कुछ प्रकाश, बल, आनन्द एवं प्रेम को व्यक्त कर सकती है । सम्भव है कि यह केवल एक क्षणिक सत्य-दर्शन, एक झलक या एक अचिर

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झांकी ही हो जो शीघ्र ही लौट जाये तथा प्रकृति के तैयार होने तक प्रतीक्षा करे, परन्तु यह बार-बार भी प्राप्त हो सकती है, बढ़ सकती है और देर तक भी रह सकती है । ऐसी दशा में एक लंबी और विस्तृत सर्वांगीण क्रिया आरम्भ हो जाती हैं, जो कभी विशद या तीव्र और कभी मन्द एवं धुंधली होती है । किसी-किसी समय एक भागवत शक्ति सामने आकर मार्ग दिखाती है और प्रेरणा या निर्देश तथा प्रकाश प्रदान करती है । अन्य समयों में यह पीछे हट जाती है तथा सत्ता को उसी के साधनों के भरोसे छोड़ती प्रतीत होती है । सत्ता में जो कुछ भी अज्ञ, अन्ध एवं कलुषित है अथवा केवल अपूर्ण तथा निकृष्ट हैं उसे उभाड़कर और शायद चरम सीमा को पहुंचाकर उसका उपाय वा सुधार किया जाता है, अथवा उसे समाप्त किया जाता है, उसे अपने दुखदायी परिणाम दिखाकर अपने लोप या रूपान्तर के लिये पुकार करने को विवश किया जाता है, या फिर उसे एक निकम्मी या सुधार के अयोग्य वस्तु की भांति प्रकृति से निकाल दिया जाता है । यह प्रक्रिया सरल तथा सम नहीं हो सकती, दिन और रात, प्रकाश और अन्धकार, शान्ति और निर्माण अथवा युद्ध और उथल-पुथल, वर्धमान भागवत चेतना की उपस्थिति और अनुपस्थिति, आशा के शिखर तथा निराशा के अतल गर्त, प्रियतम का आलिंगन और उसके विरह की वेदना, विरोधी शक्तियों का दुर्धर्ष आक्रमण तथा प्रबल धोखा, उग्र विरोध एवं दुर्बल करनेवाला परिहास अथवा देवताओं तथा ईश्वरीय दूतों की सहायता, सांत्वना एवं सन्देश बारी-बारी से आते हैं । जीवन-समुद्र को दीर्घकाल तक और बलपूर्वक अत्यधिक मथा और बिलोड़ा जाता है जिससे कि इसका अमृत और गरल प्रबलता के साथ उछल-उछलकर ऊपर आते हैं । यह क्रिया तबतक चलती रहती है जबतक कि हमारी सारी सत्ता और प्रकृति वृद्धिशील अवतरण के पूर्ण राज्य एवं उसकी व्यापक उपस्थिति के लिये पूर्ण रूप से सज्जित और सन्नद्ध नहीं हो जाती । परन्तु यदि समता, आन्तरात्मिक ज्योति और इच्छाशक्ति विद्यमान हों, तो यह प्रक्रिया-यद्यपि यह पूर्ण रूप से टाली तो नहीं जा सकती--बहुत हलकी एवं सुगम अवश्य की जा सकती है । निश्चय ही, तब यह अपनी अत्यन्त कष्टकर विपदाओं से मुक्त हो जायगी; आन्तर शम, प्रसाद एवं विश्वास रूपान्तर की सभी कठिनाइयों और परीक्षाओं में कदमों को सहारा देंगे और वर्धमान शक्ति प्रकृति की पूर्ण स्वीकृति से लाभ उठाकर विरोधी शक्तियों के सामर्थ्य को शीघ्र ही न्यून और नष्ट कर देगी । निश्चित मार्ग-दर्शन और रक्षण सदासर्वदा विद्यमान रहेंगे, कभी सामने उपस्थित और कभी पर्दे के पीछे कार्यरत । अन्तिम परिणाम की शक्ति प्रयत्न के आरम्भ में तथा बीच की लंबी अवस्थाओं में भी पहले से ही उपस्थित रहेगी । हर समय जिज्ञासु दिव्य मार्गदर्शक और रक्षक से या परम मातृ-शक्ति की क्रिया से सचेतन रहेगा; उसे इस बात का ज्ञान होगा कि सब कुछ अधिक-से-अधिक भले के लिये ही किया जा रहा है और प्रगति निश्चित है एवं विजय

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अनिवार्य । दोनों अवस्थाओं में एक ही प्रक्रिया अटल रूप से काम करती है; आन्तर तथा बाह्य, सम्पूर्ण प्रकृति को, सम्पूर्ण जीवन को, अपनाना होगा जिससे इसकी शक्तियों एवं इनकी गतियों को ऊर्ध्व के दिव्यतर जीवन के दबाव के द्वारा अभिव्यक्त, परिचालित तथा रूपान्तरित किया जा सके । ऐसा तबतक करना होगा जबतक कि महत्तर आध्यात्मिक शक्तियां इहलोक के सब कुछको अपने अधिकार में लाकर आध्यात्मिक कर्म तथा दिव्य लक्ष्य का साधन नहीं बना लेतीं ।

 

   इस प्रक्रिया में तथा इसकी प्रारम्भिक अवस्था में ही यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि अपने सम्बन्ध में हम जो कुछ जानते हैं वह अर्थात् हमारी वर्तमान चेतन सत्ता हमारी गुप्त सत्ता के विशाल संघात की एक प्रतिनिधि-रचना, तलीय क्रिया एवं परिवर्तनशील बाह्य परिणाम है । हमारा प्रत्यक्ष जीवन और इसके कर्म कुछ-एक अर्थपूर्ण अभिव्यक्तियों की शृंखला से अधिक कुछ नहीं हैं, किन्तु जिसे यह जीवन अभिव्यक्त करने का यत्न करता है वह उपरितल पर नहीं है । जिस गोचर सम्मुखस्थ सत्ता को हम 'अपना-आप' मानते हैं और जिसे हम अपने चारों ओर के संसार के सामने प्रस्तुत करते हैं, उसकी अपेक्षा हमारी सत्ता एक बहुत अधिक विस्तृत वस्तु है । यह सम्मुखस्थ तथा बाह्य सत्ता मानसिक रचनाओं, प्राणिक चेष्टाओं तथा शारीरिक व्यापारों का एक अस्त-व्यस्त संकर है । इसके घटक अवयवों तथा मशीनरी में इसका पूर्ण विश्लेषण करने पर भी हमारी वास्तविक सत्ता का सारा रहस्य प्रकाश में नहीं आता । उसे तो हम अपनी सत्ता के पीछे, नीचे और ऊपर, इसके प्रच्छन्न स्तरों में, प्रवेश करके ही जान सकते हैं । अत्यन्त पूर्ण तथा सूक्ष्मतलीय छानबीन और प्रयोग-कुशलता से भी हमें अपने जीवन का, उसके उद्देश्यों एवं उसकी प्रवृत्तियों का सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हों सकता, न हम उनका पूरी सफलता के साथ नियंत्रण ही कर सकते हैं । हमारी यह असमर्थता ही मानवजाति के जीवन को नियंत्रित, मुक्त तथा पूर्ण बनाने में हमारी बुद्धि, नैतिकता और अन्य प्रत्येक बाह्य क्रिया की असफलता का वास्तविक कारण है । हमारी अत्यन्त धुंधली भौतिक चेतना के भी नीचे एक अवचेतन सत्ता है । इसमें सब प्रकार के बीज, जो हमारे बिना जाने ही हमारे उपरितल पर अंकुरित हो उठते हैं, ऐसे छिपे पड़े हैं जैसे आच्छादक एवं पोषक धरती में सब प्रकार के बीज छिपे रहते हैं । साथ ही, इसमें हम निरन्तर ऐसे नये बीज भी डाल रहे हैं जो हमारे अतीत को चिरायु करते हैं और हमारे भविष्य पर प्रभाव डालते हैं । यह अवचेतन सत्ता एक अन्धकारपूर्ण सत्ता है जो अपनी गतियों में क्षुद्र एवं विशृंखल है और प्रायः ही मनमौजी ढंग से अवबौद्धिक होती है, किन्तु पार्थिव जीवन पर इसका अत्यधिक प्रभाव पड़ता है । अथच हमारे मन, हमारे प्राण एवं हमारी सचेतन स्थूल सत्ता के मूलl में एक विस्तृत प्रच्छन्न चेतना भी है, --आन्तर मनोमय, आन्तर प्राणमय, आन्तर सूक्ष्मतर अन्नमय स्तर हैं जो अन्तरतम चैत्य सत्ता, अर्थात् अन्य सब को सम्बद्ध करनेवाली अन्तरात्मा

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के द्वारा धारित हैं । इन निगूढ़ स्तरों में भी ऐसे अनेको पूर्व-विद्यमान व्यक्तित्व निहित हैं जो हमारी विकसनशील तलीय सत्ता की साधन-सामग्री, चालक शक्तियां तथा अन्तःप्रवृत्तिया जुटाते हैं । यहां हममें से प्रत्येक के अन्दर एक केंद्रीय पुरुष के साथ-साथ अनेक गौण व्यक्तित्व भी हो सकते हैं जो इस पुरुष की अभिव्यक्ति के विगत इतिहास के द्वारा अथवा बाह्य जड़जगत् में इसकी वर्तमान क्रीड़ा को आश्रय देनेवाले आन्तर स्तरों पर इसके आविर्भावों के द्वारा निर्मित होते हैं । अपने ऊपरी तल पर हम अपने चारों ओर के सब पदार्थों से विच्छिन्न हैं, सिवा इसके कि हम उस बाह्य मन एवं इंद्रिय-सन्निकर्ष के द्वारा उनसे सम्पर्क प्राप्त करते हैं जो हमें जगत् के प्रति तथा जगत् को हमारे प्रति केवल बहुत थोड़ा-सा ही खोलता है, किन्तु इन आन्तर स्तरों में हमारे तथा शेष सत्ता के बीच की दीवार पतली है तथा आसानी से टूट जाती है । यहां हम वैश्व तथा वैयक्तिक सत्ता का निर्माण करनेवाली गुप्त विश्व-शक्तियों, मानस-शक्तियों, प्राण-शक्तियों एवं सूक्ष्मभौतिक शक्तियों की क्रिया तुरन्त अनुभव कर सकते हैं--यह नहीं कि उनके परिणामों से इसका अनुमानमात्र कर सकते हैं, बल्कि इसे प्रत्यक्ष अनुभव भी कर सकते हैं । यदि हम अपनेको इसके लिये कुछ शिक्षित करें तो हम इन विश्व-शक्तियों को, जो अपने-आपको हम पर या हमारे चारों ओर फेंकती हैं, अपने हाथ में लेकर अधिकाधिक अपने वश में कर सकते हैं अथवा कम-से-कम हमपर तथा दूसरों पर होनेवाली इनकी क्रिया को और इनकी रचनाओं एवं वास्तविक गतियों को भी बहुत काफी परिवर्तित कर सकते हैं । हमारे मानव मन के ऊपर और भी महत्तर स्तर हैं जो इसके लिये अतिचेतन हैं । वहां से प्रभाव, शक्तियां तथा संस्पर्श गुप्त रूप से अवतीर्ण होते हैं; वे यहां की वस्तुओं के आद्य निर्धारक हैं और यदि उनके पूर्ण ऐश्वर्य समेत उनका यहां आवाहन किया जाय तो वे स्थूल संसार के जीवन की सम्पूर्ण रचना और व्यवस्था को पूर्ण रूप से बदल सकते हैं । यह सब एक गुप्त अनुभव और ज्ञान है । पूर्णयोग में जब हम भागवत शक्ति की ओर उद्घाटित होते हैं तो वह हमपर क्रिया करती हुई इस सब अनुभव और ज्ञान को उत्तरोत्तर हमारे समक्ष प्रकाशित करती है, इसे प्रयोग में लाती और इसके परिणामों को हमारी सम्पूर्ण सत्ता तथा प्रकृति के रूपान्तर के लिये साधनों एवं सोपानों के रूप में तैयार करती है । तब हमारा जीवन ऊपरी तल पर उछलती हुई एक छोटी-सी लहर नहीं रहता, बल्कि विश्व-जीवन और हमारा जीवन एक-दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं, भले ही अभी वे घुल-मिलकर एकीभूत नहीं हों जाते । हमारी आत्मसत्ता एवं हमारी आत्मा किसी विशाल विश्वात्मा के साथ आन्तरिक तादात्म्य की स्थिति में ही नहीं, अपितु परात्पर के साथ एक प्रकार के सायुज्य की स्थिति में भी उन्नीत हो जाती है, द्यपि विश्व-व्यापार से भी वह सचेतन रहती है और उसपर प्रभुत्व भी रखती है ।

 

   इस प्रकार हमारी खण्डित सत्ता को अखण्ड बनाने की प्रक्रिया से ही योगनिष्ठ

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भागवत शक्ति अपने ध्येय की ओर अग्रसर होगी । मुक्ति, सिद्धि एवं स्वामित्व इस अखंडीकरण पर ही आश्रित हैं, क्योंकि उपरितल की लधु तरंग अपनी ही गति पर काबू नहीं पा सकती, अपने चारों ओर के विराट् जीवन पर कोई वास्तविक नियंत्रण प्राप्त करना तो उसके लिये और भी कम सम्भव है । शक्ति, --अनन्त और सनातन देव की शक्ति, --हमारे भीतर अवतरित होती है, कार्य करती है, प्रत्येक आवरण को टुकड़े-टुकड़े करके हमें विशाल तथा मुक्त कर देती है, दृष्टि, विचारणा और प्रत्यक्ष ज्ञान की नित्य नवीनतर तथा महत्तर शक्तियों और नूतनतर तथा महत्तर प्राणिक प्रेरक-भावों को हमारे सामने प्रस्तुत करती है, आत्मा और उसके करणों को अधिकाधिक विस्तृत करके नये नमूने में ढालती है, प्रत्येक न्यूनता को हमारे सामने ला खड़ा करती है, ताकि उसे दोषी ठहराकर दूर किया जाय । यह हमें महत्तर पूर्णता की ओर खोल देती है, अनेक जन्मों या युगों का कार्य अल्प काल में कर डालती है जिसके फल-स्वरूप नूतन जन्म तथा अभिनव दृश्य हमारे भीतर लगातार खुलते जाते हैं । अपने कार्य में विस्तारशील यह हमारी चेतना को शरीर की सीमा से मुक्त कर देती है । फलत:, हमारी चेतना समाधि या निद्रा में अथवा यहां तक कि जागरित अवस्था में भी बाहर जाकर अन्य लोकों में या इस लोक के अन्य प्रदेशों में प्रवेश कर वहां कार्य कर सकती है अथवा अपना अनुभव अपने साथ ला सकती है । यह बाहर फैल जाती है, शरीर को अपना एक छोटा-सा भागमात्र अनुभव करती है, और उसे अपने अन्तर्गत करने लगती है जो पहले इसे अपने अन्तर्गत रखता था । यह विश्वचेतना को प्राप्त करती है और विश्व के समान व्यापक बनने के लिये अपने को विस्तृत करती है । जगत् में क्रीड़ारत शक्तियों को यह बाह्य निरीक्षण तथा सम्पर्क से ही नहीं, बल्कि अन्दर से तथा प्रत्यक्ष रूप से जानने लगती है, उनकी गति को अनुभव करती है, उनके व्यापार को पहचानती है, और उनपर तुरन्त ही उसी प्रकार क्रिया कर सकती है जिस प्रकार एक वैज्ञानिक भौतिक शक्तियों पर क्रिया करता है । हमारे मन-प्राण-शरीर में उनके कार्यों तथा परिणामों को स्वीकृत या अस्वीकृत करके अथवा संशोधित, परिवर्तित या पुनर्गठित करके यह प्रकृति की पुरानी क्षुद्र चेष्टाओं के स्थान पर नयी अति महत् शक्तियां तथा गतियां उत्पन्न कर सकती है । हम वैश्व मन की शक्तियों के व्यापार को अनुभव करने लगते हैं तथा यह जानने लगते हैं कि किस प्रकार उस व्यापार से हमारे विचार उत्पन्न होते हैं । अपने मानसिक बोधों के सत्य और अनृत को हम अन्दर से अलग-अलग करते हैं और उनका क्षेत्र बढ़ाते हैं तथा उनका अर्थ विस्तृत एवं प्रकाशित करते हैं । हम अपने मन तथा कर्म के स्वामी बन जाते हैं और अपने चारों ओर के जगत् में मन की गतियों का रूप निर्धारित करने में समर्थ और तत्पर हो जाते हैं । विश्वव्यापी प्राण-शक्तियों की धारा और तरंग को हम अनुभव करने लगते हैं, अपने बोधों, भावों, सम्वेदनों एवं आवेगों के उद्गम और नियम को जान

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लेते हैं, स्वीकार, परित्याग एवं पुनर्गठन करने में स्वतंत्र होते हैं और प्राणशक्ति के उच्चतर स्तरों की ओर उठ जाते हैं । 'जड़तत्त्व' की पहेली की कुंजी भी हमें उपलब्ध होने लगती है, 'मन', 'प्राण' तथा 'चेतना' के साथ होनेवाली इसकी क्रीड़ा को हम समझ लेते हैं, इसका करणात्मक तथा फलित व्यापार हम अधिकाधिक जानते जाते हैं तथा अन्त में इसके इस चरम रहस्य का पता पा लेते हैं कि यह केवल शक्ति का नहीं, बल्कि निवर्त्तित तथा अवरुद्ध या अस्थिर तथा बद्ध चेतना का भी रूप है और हम यह भी देखने लगते हैं कि यह मुक्त हो सकता है तथा उच्चतर शक्तियों को प्रत्युत्तर देने के लिये नमनीय बन सकता है, और साथ ही इसमें ऐसी शक्यताएं भी हैं कि यह आत्मा की आधी से अधिक निश्चेतन प्रतिमूर्ति और अभिव्यक्ति न रहकर उसका सचेतन शरीर बन सकता है । यह सब और इससे भी अधिक कुछ उत्तरोत्तर सम्भव होता जाता है जैसे-जैसे भागवती शक्ति की क्रिया हमारे अन्दर बढ़ती है और प्रत्युत्तर देने में हमारी तमसाच्छन्न चेतना के अत्यधिक प्रतिरोध या आयास के विरुद्ध आगे बढ़ने, पीछे हटने और फिर आगे बढ़ने के बहुत अधिक संघर्ष और प्रयत्न के द्वारा महत्तर पवित्रता, सत्यता, उच्चता तथा विशालता की ओर अग्रसर होती है--एक ऐसे संघर्ष और प्रयत्न के द्वारा जो अर्द्ध-निश्चेतन तत्त्व का सचेतन तत्त्व में सुमहान् रूपान्तर करने के कार्य के कारण अनिवार्य हो जाता है । यह सब हमारे अन्दर होनेवाले आन्तरात्मिक जागरण पर, भागवत शक्ति के प्रति हमारे प्रत्युत्तर की पूर्णता तथा हमारे वर्धमान समर्पण पर निर्भर करता है ।

 

   परन्तु यह सब तो केवल बाह्य कर्म की महत्तर सम्भावना से समन्वित एक महत्तर आन्तर जीवन ही कहला सकता है और केवल एक संक्रमण-कालीन उपलब्धि होता है । पूर्ण रूपान्तर तो तभी हो सकता है यदि हमारा यज्ञ अपने उच्चतम शिखरों पर आरोहण करे और दिव्य अतिमानसिक विज्ञान की शक्ति, ज्योति एवं आनन्द के द्वारा जीवन पर अपनी क्रिया करे । कारण, केवल तभी वे सब शक्तियां, जो विभक्त हैं और अपने-आपको जीवन तथा इसके कर्मों में अधूरे तौर पर प्रकट करती हैं, अपने मूत्र एकत्व, सामंजस्य, एकमेव सत्य, वास्तविक पूर्णत्व तथा पूर्ण मर्म तक ऊंची उठ सकती हैं । वहां ज्ञान और संकल्प एक ही हैं, प्रेम और बल एक अखण्ड गति हैं । जो-जो द्वंद्व हमें यहां सताते हैं वे वहां अपनी समस्वरित एकता में परिणत हो जाते हैं । शिव वहां अपना चरम रूप विकसित करता है और अशिव अपने को अपने दोष से मुक्त करके उस शिव में लौट जाता है जो इसके पीछे बराबर ही विद्यमान था । पाप-पुण्य एक दिव्य पवित्रता तथा निर्भ्रान्त सत्य गतिमें विलीन हों जाते हैं । सुख की दोलायमान क्षणिकता एक ऐसे आनन्द में विलीन हो जाती है जो एक शाश्वत तथा प्रसन्न आध्यात्मिक ध्रुवता की क्रीड़ा है । दुःख ध्वस्त होता हुआ उस आनन्द का स्पर्श पा लेता है जो निश्चेतन

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की इच्छा के किसी घोर विकार के वश तथा आनन्द को ग्रहण करने में इसकी असमर्थता के कारण विश्वासघातपूर्वक त्याग दिया गया था । जैसे-जैसे हमारी चेतना सीमित एवं देहबद्ध अन्न-मन में से परा-प्रज्ञा के उच्चात्युच्च शिखर की स्वतंत्रता तथा पूर्णता में उठती जाती है, वैसे-वैसे ये चीजें, जो मन के निकट एक कल्पना या रहस्यमात्र हैं, प्रत्यक्ष तथा अनुभवग्राह्य होती जाती हैं । परन्तु ये पूर्ण रूप से सत्य तथा स्वाभाविक तभी हो सकती हैं जब अतिमानस-सत्य हमारी प्रकृति का नियम बन जाय ।

 

   अतएव, जीवन की सार्थकता एवं इसकी मुक्ति और रूपान्तरित पार्थिव प्रकृति के अन्दर इसका दिव्य जीवन में कायापलट-यह सब इसपर निर्भर करता है कि आरोहण सफलतापूर्वक सम्पन्न हो और इन उच्चतम स्तरों से पृथ्वी-चेतना में एक परिपूर्ण गतिशीलता का अवतरण साधित हो जाय ।

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   जैसी कि पूर्णयोग के स्वरूप की कल्पना या अवधारणा की गयी है, यह इन आध्यात्मिक साधनों को लेकर आगे बढ़ता है तथा इसका सारा आधार प्रकृति के इस पूर्ण रूपान्तर पर ही है । इसका यह स्वरूप अपने-आप इस प्रश्न का निश्चित उत्तर दें देता है कि इस योग में जीवन के साधारण कार्यों को किस भाव से करना होता है और उनका क्या स्थान है ।

 

   पूर्णयोग में कर्मो और जीवन का तपस्वी या ध्यानी या रहस्यवादी का-सा कोई भी नितान्त त्याग, निमग्न ध्यान और निष्क्रियता का कोई सिद्धान्त, प्राण-शक्ति और इसकी क्रियाओं का कोई भी उन्मूलन या तिरस्कार, पृथ्वी-प्रकृति में अभिव्यक्ति का किसी प्रकार का परिवर्जन-इन सबका कुछ भी स्थान नहीं है और हो भी नहीं सकता । जिज्ञासु के लिये किसी समय यह आवश्यक हो सकता है कि वह तब तक अपने भीतर, पीछे की ओर हटकर रहे, अपनी आन्तर सत्ता में निमग्न रहे, वर्तमान जीवन के कलह-कोलाहल के प्रति अपने द्वार बन्द रखे जबतक कि एक विशेष आन्तर परिवर्तन सम्पादित न हो जाय या कोई ऐसी चीज उपलब्ध न हो जाय जिसके बिना अब जीवन पर कोई प्रभावपूर्ण क्रिया करना कठिन या असम्भव हो गया हो । परन्तु यह केवल एक अवसर या प्रसंग, एक अस्थायी आवश्यकता या उपक्रमरूप आध्यात्मिक दांव-पेच ही हो सकता है; यह उसके योग का नियम या सिद्धान्त नहीं हो सकता ।

 

   मानव-जीवन के कार्यकलाप का धार्मिक या नैतिक आधार पर अथवा एक साथ दोनों आधारों पर विभाग करना, उन्हें केवल पूजासम्बन्धी कर्मों या केवल लोकसेवा और परोपकार के कर्मों तक सीमित कर देना पूर्णयोग की भावना के

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विपरीत होगा । कोई निपट मानसिक नियम या निरा मानसिक अंगीकार या निषेध इसकी साधना के उद्देश्य और क्रम के विरुद्ध होता है । सभी चीजों को आध्यात्मिक शिखर तक ऊंचा उठा ले जाना होगा और आध्यात्मिक आधार पर प्रतिष्ठित करना होगा । आन्तर आध्यात्मिक परिवर्तन के प्रत्यक्षानुभव तथा बाह्य रूपान्तर को जीवन के किसी एक भाग पर ही नहीं, बल्कि सारे-के-सारे जीवन पर लागू करना होगा । जो कुछ इस परिवर्तन में सहायक है या इसे अनुमति देता है वह सब स्वीकार करना होगा, जो कुछ अपने-आपको रूपान्तरकारिणी गति के अधीन कर देने में अशक्त या अयोग्य है अथवा इससे इन्कार करता है वह सब त्याग देना होगा । वस्तुओं के या जीवन के किसी भी रूप के प्रति, किसी पदार्थ और कार्य के प्रति नाममात्र की भी आसक्ति नहीं रखनी होगी । सब कुछ त्याग देना होगा यदि ऐसी जरूरत आ पड़े; वह सब कुछ स्वीकार करना होगा जिसे भगवान् दिव्य जीवन के लिये अपनी साधन-सामग्री के रूप में वरण करें । परन्तु जो स्वीकार या परित्याग करे वह न तो मन होना चाहिये, न कामना की स्पष्ट या प्रच्छन्न प्राणिक शक्ति, और न ही नैतिक भावना, प्रत्युत वह होना चाहिये हृत्युरुष का आग्रह, योग के दिव्य मार्गदर्शक का आदेश, उच्चतर आत्मा या आत्म-तत्त्व की दिव्य दृष्टि और परम प्रभु का ज्ञानदीप्त मार्गदर्शन । अध्यात्म-मार्ग कोई मानसिक मार्ग नहीं है । मानसिक नियम या मानसिक चेतना इसकी निर्धारयित्री या इसकी नेत्री नहीं हो सकती ।

 

    ऐसे ही, चेतना की दो श्रेणियों, आध्यात्मिक और मानसिक अथवा आध्यात्मिक और प्राणिक, में मेल या समझौता करना अथवा बाह्य; अपरिवर्तित जीवन को केवल भीतर से उदात्त कर देना योग का नियम या लक्ष्य नहीं हो सकता । सारे जीवन को अपनाना होगा पर सारे ही जीवन का रूपान्तर भी करना होगा; सारे जीवन को अतिमानस-प्रकृति में अवस्थित आध्यात्मिक सत्ता का एक अंग, रूप एवं समुचित अभिव्यक्ति बनना होगा । जड़ जगत् में आध्यात्मिक विकास का शिखर और उसकी सर्वोच्च गति यही है । जैसे प्राण-प्रधान पशु से मनोमय मनुष्य में परिवर्तित होने पर जीवन अपनी मूल चेतना, क्षेत्र और प्रयोजन में कुछ-से-कुछ हो गया था, वैसे ही देहभावापन्न मनोमय जीव से एक ऐसे आध्यात्मिक तथा अतिमानसिक जीव में परिवर्तन, जो जड़तत्त्व का प्रयोग तो करेगा, पर इसके वश में नहीं होगा, जीवन को ऊंचा उठा कर कुछ-से-कुछ बना देगा । तब जीवन दोषयुक्त, त्रुटिपूर्ण, सीमित एवं मानवीय न रहकर अपनी आधारिक चेतना, क्षेत्र और प्रयोजन में बिल्कुल और ही चीज बन जायगा । जीवन के उन सब रूपों को, जो परिवर्तन को नहीं सह सकते, लुप्त हो जाना होगा, जो इसे सहन कर सकते हैं केवल वही जीवित बचे रहेंगे और आत्मा के राज्य में प्रवेश करेंगे । भागवत शक्ति कार्य कर रही है और वह हर क्षण चुनाव करेगी कि क्या करना है या क्या नहीं

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करना है, किसे क्षणिक या स्थायी रूप से ग्रहण करना है और किसे क्षणिक या स्थायी रूप से त्याग देना है । यदि हम उसके स्थान पर अपनी कामना या अपनी 'मैं' को नहीं ला बिठाते, --और इस बारे में आत्मा को सदा जाग्रत्, सदा सावधान, दिव्य मार्गदर्शन के प्रति सचेतन तथा हमारे अन्दर या बाहर से होनेवाले अदिव्य कुपथप्रवर्तन के प्रति प्रतिरोधपूर्ण रहना होगा, -तो वह शक्ति सुपर्याप्त है तथा अकेली ही सर्वसमर्थ है और वही हमें ऐसे मार्गों एवं ऐसे साधनों से कृतार्थता की ओर ले जायगी जो मन के लिये इतने विशाल, इतने अन्तरीय और इतने जटिल हैं कि यह उनका अनुसरण ही नहीं कर सकता, उनके सम्बन्ध में आदेश-निर्देश देना तो दूर रहा । यह एक दुर्गम, विकट एवं विपत्संकुल पथ है, पर इसके सिवाय और कोई पथ है भी नहीं ।

 

    दो नियम ऐसे हैं जो कठिनाई को कम कर देंगे और विपदा का निवारण करेंगे । हमें उस सबका परित्याग करना होगा जिसका स्रोत अहंकार में, प्राणिक कामना, कोरे मन और उसकी अत्यभिमानपूर्ण तर्कणा और अक्षमता में है, तथा उस सबका भी जो अविद्या के इन प्रतिनिधियों की सहायता करता है । हमें अन्तरतम आत्मा की वाणी, गुरु के निर्देश, परम प्रभु के आदेश और भगवती माता की क्रियाप्रणाली का श्रवण और अनुसरण करना सीखना होगा । जो कोई शरीर की कामनाओं तथा दुर्बलताओं से, क्षुब्ध-अज्ञानयुक्त प्राण की तृष्णाओं और वासनाओं से, तथा महत्तर ज्ञान की शान्ति और ज्योति को न पाये हुए वैयक्तिक मन के आदेशों से चिपटा रहता है वह सच्चे आन्तरिक नियम को नहीं ढूंढ़ सकता और दिव्य चरितार्थता के मार्ग में रोड़े अटका रहा है । जो कोई तमसाच्छन्न करनेवाली उन शक्तियों को जान लेने तथा त्यागने और भीतर तथा बाहर विद्यमान सच्चे मार्गदर्शक को पहचानने तथा उसके पीछे चलने में समर्थ है वह आध्यात्मिक नियम को खोज लेगा और योग के लक्ष्य पर पहुंच जायगा ।

 

    चेतना का आमूल तथा पूर्ण रूपान्तर पूर्णयोग का सम्पूर्ण मर्म है । इतना ही नहीं, अपने उत्तरोत्तर प्रबल रूप में तथा अपनी विकसनशील अवस्थाओं के द्वारा यह इस योग की सम्पूर्ण पद्धति भी है ।

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