Sri Aurobindo's principal work on yoga that examines the traditional systems of yoga and explains his own system of 'Integral Yoga'.
Sri Aurobindo's principal work on yoga. In this book Sri Aurobindo examines the traditional systems of yoga and provides an explanation of certain components of his own system of integral yoga. There is an Introduction, 'The Conditions of the Synthesis' and four parts: 'The Yoga of Divine Works', 'The Yoga of Integral Knowledge', 'The Yoga of Divine Love' and 'The Yoga of Self-Perfection'. The material was first published serially in the monthly review 'Arya' between 1914 and 1921; the introduction and first two parts were later revised by Sri Aurobindo for publication.
अध्याय ४
यज्ञ, त्रिदल-पथ और यज्ञ के अधीश्वर
यज्ञ के विधान का अभिप्राय वह सार्वजनीन दिव्य कर्म है जो इस सृष्टि के आदि में लोकसंग्रह के प्रतीक के रूप में प्रकट हुआ था । इसी विधान के आकर्षण से एक दिव्यीकारक, रक्षक शक्ति इस अहम्मय और विभक्त सृष्टि की भूलों को सीमित और संशोधित तथा उन्हें शनैः -शनैः दूर करने के लिये अवतरित होती है । यह अवतरण, अथवा पुरुष या भागवत आत्मा का यह यज्ञ, —जिसके द्वारा वह अपने- आपको शक्ति और जड़-प्रकृति के अधीन कर देता है, ताकि वह इन्हें अनुप्राणित और प्रकाशयुक्त कर सके—निश्चेतना और अविद्या के इस संसार की रक्षा का बीज है । कारण, गीता कहती है कि "यज्ञ को इन प्रजाओं का साथी बनाकर प्रजापति ने इन्हें उत्पन्न किया । ''१ यज्ञ के विधान को स्वीकार करना अहं का इस बात को क्रियात्मक रूप से अंगीकार करना है कि इस संसार में वह न तो अकेला है और न मुख्य ही है । यह उसका इस बात को मान लेना है कि, इस अत्यन्त खंडित सत्ता में भी, उसके परे और पीछे कोई ऐसी वस्तु है जो उसका अपना अहंमय व्यक्तित्व नहीं है, कोई ऐसी वस्तु है जो उससे महत्तर और पूर्णतर है, एक दिव्यतर सर्वमय सत्ता है जो उससे दास्य और सेवा की मांग करती है । निःसन्देह, विराट् विश्व-शक्ति यज्ञ को हमारे ऊपर थोपती है और जहां आवश्यकता हो वहां वह हमें इसके लिये बाध्य भी करती है । जो इस विधान को सचेतन रूप में स्वीकार नहीं करते उनसे भी यह यज्ञ का भाग ले लेती है—और यह अनिवार्य ही है, क्योंकि यह जगत् का अन्तरीय स्वभाव है । हमारे अज्ञान या हमारी मिथ्या अहंमूलक जीवन-दृष्टि से प्रकृति के इस शाश्वत आधारभूत सत्य में कोई अन्तर नहीं पड़ सकता । कारण, यह प्रकृति का एक अन्तर्निहित सत्य है कि यह अहं जो अपने को एक पृथक् एवं स्वतन्त्र सत्ता समझता है और स्वयं अपने लिये जीने का अपना अधिकार जताता है स्वतन्त्र नहीं है और हो भी नहीं सकता, न ही यह दूसरों से पृथक् है और न हो ही सकता है । यदि यह चाहे भी, तो भी यह केवल अपने लिये ही नहीं जी सकता, बल्कि सच पूछो तो सभी अहं एक निगूढ़ एकता के द्वारा परस्पर जुड़े हुए हैं । प्रत्येक सत्ता विवश होकर अपने भंडार में से लगातार कुछ-न-कुछ वितरण कर रही है । प्रकृति से प्राप्त उसकी मानसिक आय में से या उसकी प्राणिक और शारीरिक संपत्ति, उपलब्धि और निधि में से एक धारा उस सबकी ओर बहती रहती है जो उसके चारों ओर है । और, फिर वह अपनी ऐच्छिक या अनैच्छिक भेंट के बदले में अपने परिपार्श्व से सदैव कुछ-न-कुछ प्राप्त भी करती
१ सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति: । गीता ३ - १०
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है । अपने इस आदान-प्रदान से ही यह अपना विकास सम्पन्न कर सकती है और साथ ही इससे यह समष्टि को भी सहायता देती है । इस प्रकार प्रारम्भ में थोड़ा- थोड़ा और अपूर्ण रूप में यज्ञ करते हुए दीर्घ काल के बाद हम सचेतन रूप से यज्ञ करना सीख जाते हैं । यहां तक कि अन्त में हम अपने-आपको तथा उन सब चीजों को, जिन्हें हम अपनी समझते हैं, प्रेम और भक्तिभाव के साथ 'उस' को दे देने में आनन्द अनुभव करते हैं, चाहे 'वह' हमें आपातत: अपने से भिन्न प्रतीत होता है और निश्चय ही हमारे सीमित व्यक्तित्वों से भिन्न है भी । यज्ञ एवं उसका दिव्य प्रतिफल तब हमारी अन्तिम पूर्णता का साधन बन जाते हैं जिसे हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; कारण, अब हम इसे अपने अन्दर सनातन प्रयोजन की परिपूर्ति का मार्ग समझने लगते हैं ।
परन्तु बहुधा यज्ञ अचेतन रूप से, अहंभावपूर्वक और महान् सार्वभौम विधान के सच्चे अर्थ को जाने या अंगीकार किये बिना किया जाता है । पृथ्वीतल के अधिकांश प्राणी इसे इसी प्रकार करते हैं; और, जब यह इस प्रकार किया जाता है तब व्यक्ति इसके प्राकृतिक अवश्यम्भावी लाभ की एक यान्त्रिक न्यूनतम मात्रा ही प्राप्त करता है । इसके द्वारा वह धीमे-धीमे और कठिनाई से प्रगति करता है और वह प्रगति भी अहं की क्षुद्रता तथा यातना से सीमित एवं पीड़ित होती है । दिव्य यज्ञ का गम्भीर आनन्द और मंगलमय फल तो तभी उपलब्ध हो सकते हैं जब हृदय, संकल्प और ज्ञानात्मक मन अपने-आपको इस विधान से सम्बद्ध करके इसका हर्षपूर्वक अनुसरण करें । इस विधान के सम्बन्ध में मन के ज्ञान तथा हृदय की प्रसन्नता की पराकाष्ठा इस अनुभव में होती है कि हम जो उत्सर्ग करते हैं वह अपनी ही आत्मा और आत्मतत्त्व के तथा सबकी एकमेव आत्मा और आत्मतत्त्व के प्रति ही करते हैं । और, यह बात तब भी सत्य होती है जब कि हम अपनी आत्माहुति परम देव के प्रति नहीं, बल्कि मनुष्यों या क्षुद्रतर शक्तियों और तत्त्वों के प्रति अर्पित कर रहे होते हैं । याज्ञवल्क्य उपनिषद् में कहते हैं, ''पत्नी हमें पत्नी के लिये नहीं, बल्कि आत्मा के लिये प्यारी होती है । '' इसे व्यक्तिगत अहं के निम्नतर अर्थ में लिया जाय, तो भी यह एक ऐसा निर्विवाद सत्य है जो अहंमूलक प्रेम के रंजित एवं आवेशयुक्त दावों के पीछे छिपा रहता है । परन्तु उच्चतर अर्थ में यह उस प्रेम का भी आन्तरिक आशय है जो अहंभावमय नहीं, बल्कि दिव्य होता है । समस्त सच्चा प्रेम एवं समस्त यज्ञ वास्तव में, एक मूलगत अहंभाव और उसकी विभाजनात्मक भ्रान्ति का प्रकृतिद्वारा किया गया विरोध है; यह एक आवश्यक प्रथम विभाजन से एकत्व की पुनरुपलब्धि की ओर मुड़ने का उसका प्रयत्न है । प्राणियों की समस्त एकता वास्तव में एक आत्म-गवेषणा है, यह उसके साथ मिलन है जिससे हम पृथक् हो चुके हैं और साथ ही दूसरों में अपनी आत्मा की उपलब्धि
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परन्तु, एक दिव्य प्रेम और एकत्व ही उस वस्तु को प्रकाश में अधिकृत कर सकते हैं जिसे इन चीजों के मानवीय रूप अन्धकार में खोज रहे हैं । कारण, सच्चा एकत्व केवल उस प्रकार का संगठन और राशिकरण ही नहीं होता जिस प्रकार का समान हितवाले जीवन के द्वारा जुड़े हुए भौतिक कोषाणुओं का होता है, न यह भावों का ज्ञानमूलक सामंजस्य किंवा सहानुभूति, सामाजिकता या निकट संसर्ग ही होता है । जो हम से प्रकृतिजनित भेदों के कारण अलग हो गये हैं उनसे हम वास्तव में एकीभूत केवल तभी हो सकते हैं जब हम भेद को मिटाकर अपने को उस वस्तु में प्राप्त कर लें जो हमें 'अपना-आप' नहीं प्रतीत होती । संगठन प्राणिक और भौतिक एकता है; इसका यज्ञ पारस्परिक सहायता और पारस्परिक सहायता और सुविधाओं का यज्ञ है । निकटता, सहानुभूति और सामाजिकता, मानसिक, नैतिक और भावुक एकता को जन्म देती है; इनका यज्ञ पारस्परिक सहायता और पारस्परिक सन्तुष्टि का यज्ञ है । परन्तु सच्ची एकता तो केवल आध्यात्मिक एकता ही होती है; इसका यज्ञ पारस्परिक आत्मदान और हमारी आन्तरिक सत्ताओं का परस्पर मिलन होता है । यज्ञ का विधान विश्व-प्रकृति में इस पूर्ण और निःशेष आत्मदान की पराकाष्ठा की ओर ही गति करता है, यह इस चेतना को जागृत करता है कि यजनकर्ता में और यज्ञ के ध्येय में एक ही सार्वभौम आत्मा है । यज्ञ की यह पराकाष्ठा मानवीय प्रेम एवं भक्ति की भी सर्वोच्च अवस्था होती है जब कि वह दिव्य बनने के लिये प्रयत्न करती है । कारण, प्रेम की सब से ऊंची चोटी भी पूर्ण पारस्परिक आत्मदान के स्वर्ग की ओर इंगित करती है, इसका सर्वोच्च शिखर भी दो आत्माओं का उल्लासपूर्वक घुल-मिल जाना है ।
विश्वव्यापी विधान का यह गंभीरतर विचार गीता की कर्म-सम्बन्धी शिक्षा का मर्म है; यज्ञ के द्वारा सर्वोच्च देव के साथ आध्यात्मिक मिलन और सनातन देव के प्रति निःशेष आत्मदान इसके सिद्धान्त का सार है । यज्ञ के विषय में एक असंस्कृत विचार यह है कि यह कष्टमय आत्मबलिदान, कठोर आत्मपीड़न तथा कृच्छ्र आत्मोच्छेद का कार्य है । इस प्रकार का यज्ञ आत्मपंगूकरण और आत्म-यातना की सीमा तक भी पहुंच सकता है । ये चीजें मनुष्य के अपने प्रकृतिगत 'अहं' को अतिक्रान्त करने के कठिन प्रयास में कुछ समय के लिये आवश्यक हो सकती हैं । यदि मनुष्य की प्रकृति में अहंभाव उग्र और आग्रहपूर्ण हो तो कभी-कभी एक तदनुरूप प्रबल आन्तरिक अवदमन और उसीके तुल्य उग्रता के द्वारा उसका मुकाबला करना ही होता है । परन्तु गीता अपने प्रति किसी मात्रा में भी अधिक उग्रता के प्रयोग को मना करती है । क्यांकि अन्तःस्थित आत्मा वास्तव में विकसित हो रहा परमेश्वर ही है, वह कृष्ण है, वह भगवान् है । उसे उस प्रकार पीड़ा और यन्त्रणा पहुंचानी हैं जिस प्रकार संसार के असुर उसे पीड़ा और यन्त्रणा पहुंचाते हैं, बल्कि उसे उत्तरोत्तर संवर्धित, पालित-पोषित और दिव्य प्रकाश, बल, हर्ष और विशालता की ओर ज्वलन्त रूप से उद्घाटित करना है । अपनी आत्माको नहीं,
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बल्कि आत्मा के आन्तरिक रिपुओं के दल को हमें निरुत्साहित और निष्कासित करना है, इन्हें आत्मोन्नति की वेदी पर बलि चढ़ा देना है । निर्दयतापूर्वक इन सब का उच्छेद किया जा सकता है । इनके नाम हैं, —काम, क्रोध, असमता, लोभ, बाह्य सुख-दुःखों के प्रति मोह और बलात् आक्रमण करनेवाले दैत्यों का सैन्यदल जो आत्मा की भ्रान्तियों और दुःखों के मूल कारण हैं । इन्हें अपने अंग नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की वास्तविक और दिव्य प्रकृति पर अनधिकार आक्रमण करनेवाले और उसे विकृत करनेवाले समझना चाहिये; बलि शब्द के कठोरतर अर्थ के अनुसार इनकी बलि चढ़ा देनी होगी, भले ही ये जाते समय अपनी प्रतिच्छाया द्वारा जिज्ञासु की चेतना पर कैसा भी दुःख क्यों न डाल जायें ।
परन्तु यज्ञ का वास्तविक सार बलिदान नहीं, आत्मार्पण है । इसका उद्देश्य आत्मोच्छेद नहीं आत्म-परिपूर्णता है । इसकी विधि आत्म-दमन नहीं, महत्तर जीवन है, आत्म-पंगकरण नहीं, बल्कि अपने प्राकृतिक मानवीय अंगों का दिव्य अंगों में रूपान्तर है, आत्म-यन्त्रणा नहीं, वरन् क्षुद्रतर सुख से महत्तर आनन्द की ओर प्रयाण है । केवल एक ही चीज है जो उपरितल की प्रकृति के अपरिपक्व या कलुषित भाग के लिये प्रारम्भ में दुःखदायी होती है । यह एक अनिवार्य अनुशासन है जिसकी उससे मांग की जाती है, एक ऐसा परित्याग है जो अपूर्ण अहं के विलय के लिये आवश्यक है । परन्तु इसके बदले में उसे शीघ्र ही एक अपरिमित फल मिल सकता है, यह दूसरों में, सभी वस्तुओं में, विश्वव्यापी एकता में, विश्वातीत आत्मा एवं आत्म-तत्त्व की स्वतन्त्रता में और भगवान् के स्पर्श के हर्षोन्माद में एक वास्तविक महत्तर या चरम पूर्णता प्राप्त कर सकती है । हमारा यज्ञ कोई ऐसा दान नहीं है जिसके बदले दूसरी ओर से कोई प्रतिदान या फलप्रद स्वीकृति प्राप्त न हो । यह तो हमारी सनातन आत्मा और हमारी शरीरधारी आत्मा एवं सचेतन प्रकृति का पारस्परिक आदान-प्रदान है । क्योंकि, यद्यपि हम किसी भी प्रतिफल की मांग नहीं करते, तथापि हमारे अन्दर गहराई में यह ज्ञान रहता ही है कि एक अद्भुत प्रतिफल की प्राप्ति अवश्यम्भावी है । आत्मा जानती है कि वह अपने-आपको भगवान् पर वृथा ही न्योछावर नहीं करती । कुछ भी याचना न करती हुई भी वह दिव्य शक्ति और उपस्थिति की अनन्त संपदाओं को प्राप्त करती है ।
अन्त में हमें यज्ञ के पात्र (यजनीय ) और यज्ञ की विधि पर विचार करना है । यश अदिव्य शक्तियों को अर्पण किया जा सकता है अथवा यह दिव्य शक्तियों को भी अर्पण किया जा सकता है । यह विराट् विश्वमय देव को अर्पण किया जा सकता है अथवा यह विश्वातीत परम देव को भी अर्पण किया जा सकता है । जो अर्घ्य चढ़ाया जाता है उसका कोई भी रूप हो सकता है—पत्र-पुष्प-फल-तोय या अन्न-धान्य का उत्सर्ग, यहां तक कि उस सबका निवेदन जो कुछ कि हमारे पास है और उस सबका अर्पण जो कुछ कि हम हैं । पात्र और हवि चाहे कोई भी हो, पर
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जो हवि को ग्रहण करता और स्वीकार करता है वह परात्पर और विश्वव्यापी सनातन देव ही होता है, भले ही तात्कालिक पात्र उसे अस्वीकार कर दे या उसकी ओर उपेक्षा दिखाये । परात्पर देव जो विश्व से अतीत है, यहां भी, प्रच्छन्न रूप में ही सही, हम में, जगत् में और इसकी घटनाओं में विद्यमान है; हमारे निखिल कर्मों के सर्वज्ञ द्रष्टा और ग्रहीता तथा उनके गुप्त स्वामी के रूप में वह यहां उपस्थित है । एकमेव देव ही हमारे सब कार्यों और प्रयत्नों, पापों और स्खलनों तथा दुःखों और संघर्षों का अन्तिम परिणाम निर्धारित करता है, चाहे हम इस बात के प्रति सचेतन हों या अचेतन, चाहे हम इसे जानते एवं प्रत्यक्ष अनुभव करते हों अथवा न जानते हों और न अनुभव करते हों । सब वस्तुएं उसके अगणित रूपों में उसीकी ओर प्रेरित होती और उन रूपों के द्वारा उसी एक सर्वव्यापक सत्ता के प्रति अर्पित होती हैं । चाहे जिस भी रूप में और चाहे जिस भी भावना के साथ हम उसके पास पहुंचें उसी रूप में और उसी भावना के साथ वह हमारे यज्ञ को ग्रहण करता है |
कर्मों के यज्ञ का फल भी कर्म और उसके प्रयोजन के अनुसार एवं उस प्रयोजन की मूल भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । परन्तु (आत्मदान के सिवा) अन्य सभी यज्ञ एकांगी, अहंभावमय, मिश्रित, कालावच्छिन्न तथा अपूर्ण होते हैं, —ऊंची-से-ऊंची शक्तियों और तत्त्वों के प्रति अर्पित यज्ञों का भी ऐसा ही स्वरूप होता है; उनका फल भी आंशिक, सीमित, कालावच्छिन्न तथा अपनी प्रतिक्रियाओं में मिश्रित होता है और उससे केवल एक तुच्छ या अवान्तर प्रयोजन ही सिद्ध हो सकता है । पूर्ण रूपसे स्वीकार्य यज्ञ तो केवल चरम और परम ऐकान्तिक आत्म-दान ही होता है अर्थात् एक ऐसा समर्पण होता है जो एकमेव देव के प्रति उसकी प्रत्यक्ष उपस्थिति में, भक्ति और ज्ञान के साथ, स्वेच्छापूर्वक और निःसंकोच किया जाता है, उस एकमेव देव के प्रति जो एक साथ ही हमारी अन्तर्यामी आत्मा एवं चतुर्दिग्व्यापी उपादानभूत विश्वात्मा है तथा अभिव्यक्तिमात्र से परे परम सद्वस्तु है और गुप्त रूप से एक साथ ये सभी चीजें है, जो सर्वत्र निगूढ़ अन्तर्यामी परात्परता है । जो आत्मा अपने-आपको पूर्ण रूप से ईश्वर को दे देती है, उसे ईश्वर भी अपने-आपको पूर्ण रूप से दे देता है । केवल वही जो अपनी सम्पूर्ण प्रकृति को अर्पित कर देता है आत्मा को प्राप्त करता है । केवल वही जो प्रत्येक वस्तु दे सकता है सर्वत्र विश्वमय भगवान् का रसास्वादन कर सकता है । केवल एक परम आत्म-उत्सर्ग ही परात्पर देव तक पहुंच पाता है । जो कुछ भी हम हैं उस सब को यज्ञद्वारा ऊपर उठा ले जाने से ही हम सर्वोच्च देव को साकार रूप में प्रकट करने और यहां परात्पर आत्मा की अन्तर्यामी चेतना में निवास करने में समर्थ हो सकते हैं ।
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जो मांग हम से की जाती है वह संक्षेप में यही है कि हम अपने सम्पूर्ण जीवन को एक सचेतन यज्ञ का रूप दे दें । हमें अपनी सत्ता के प्रत्येक पल और प्रत्येक गति को सनातन देव के प्रति एक सतत और भक्तियुक्त आत्मदान में परिणत करना होगा । अपने सब कर्मों को, छोटे-से-छोटे और अत्यन्त साधारण एवं तुच्छ कर्मों को तथा बड़े-से-बड़े और अत्यन्त असाधारण एवं श्रेष्ठ कर्मों को, सभी को एक समान, ईश्वरार्पण-भाव से करना होगा । हमारी व्यष्टिभावापन्न प्रकृति को एक ऐसी बाह्य तथा आन्तर क्रिया की अखंड चेतना में निवास करना होगा जो हम से परे की ओर अहं से महान् किसी वस्तु के प्रति निवेदित हो । यह कोई महत्त्व की बात नहीं कि हवि किस वस्तु की है और उसे हम किसकी भेंट चढ़ाते हैं, पर भेंट करते समय ऐसी चेतना होनी चाहिये कि सब सत्ताओं में विद्यमान एकमेव दिव्य परम सत्ता को ही हम यह वस्तु भेंट कर रहे हैं । हमारे अत्यन्त साधारण और अति स्थूल भौतिक कार्योंको भी ऐसा उदात्त रूप धारण करना होगा । जब हम भोजन करें, हमें इस रूप में सचेतन होना चाहिये कि हम अपना भोजन अपने अन्दर विराजमान उस दिव्य उपस्थिति को दे रहे हैं । अवश्य ही इसे मन्दिर में एक पवित्र आहुति होना चाहिये और केवल शारीरिक आवश्यकता या शारीरिक भोग का भाव हम से दूर हट जाना चाहिये । किसी महान् प्रयास में, किसी ऊंची साधना में अथवा किसी कठिन या उदात्त पुरुषार्थ में—चाहे हम उसका बीड़ा अपने लिये उठावें या दूसरों के लिये या जाति के लिये, —यह अब सम्भव नहीं होना चाहिये कि हम जाति-सम्बन्धी, अपने-आप-सम्बन्धी या दूसरों-सम्बन्धी धारणा में ही आबद्ध हो जायें । जो काम हम कर रहे हैं वह हमें सचेतन भाव से कर्मों के यज्ञ के रूप में अर्पित करना होगा, पर अपने- आपको, दूसरों को या जाति को नहीं, बल्कि इनके द्वारा या सीधे ही एकमेव देवाधिदेव को अर्पित करना होगा; जो अन्तर्वासी भगवान् इन आकारों के पीछे छिपा हुआ था उसे अब और अधिक हमसे छिपा नहीं रहना चाहिये, बल्कि हमारी आत्मा, हमारे मन और हमारी इंद्रियों के समक्ष सदा उपस्थित रहना चाहिये । अपने कर्मों की प्रक्रियाएं और परिणाम हमें उस एकमेव के हाथों में सौंप देने चाहियें, इस भाव से कि वह उपस्थिति अनन्त और परमोच्च है और वही हमारे प्रयत्न तथा हमारी अभीप्सा को सम्भव बनाती है । उसीकी सत्ता में सब कुछ घटित होता है; उसीके लिये प्रकृति हम से समस्त प्रयत्न और अभीप्सा करवाती है और उस सबको फिर उसीकी वेदी पर अर्पित कर देती है । जिन कार्यों में अति स्पष्ट रूप से प्रकृति स्वयं ही कर्त्री होती है और हम उसकी क्रिया के साक्षी, धारक और सहायक मात्र होते हैं उनमें भी हमें कर्म और उसके दिव्य स्वामी का ऐसा ही अखंड स्मरण और स्थिर ज्ञान रहना चाहिये । हमारे अन्दर हमारे श्वास-प्रश्वास और हमारे हृदय की धड़कन तक को भी सचेतन बनाया जा सकता है और बनाना होगा ही । उन्हें विश्वव्यापी यज्ञ के जीवित-जागृत लय-ताल के रूप में अनुभव करना होगा ।
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स्पष्ट है कि इस प्रकार के विचार और इसके प्रबल अभ्यास में तीन परिणाम अन्तर्निहित हैं जो हमारे आध्यात्मिक आदर्श के लिये केंद्रीय महत्त्व रखते हैं । सर्वप्रथम यह प्रत्यक्ष है कि यद्यपि ऐसा अभ्यास भक्ति के बिना भी प्रारम्भ किया जा सकता है तथापि वह सम्भवनीय उच्चतम भक्ति की ओर सीधे और अनिवार्य तौर पर ले जायगा, क्योंकि यह स्वभावत: ही गंभीर होकर एक कल्पनीय पूर्णतम आराधना एवं अत्यन्त गंभीर ईश्वर-प्रेम में परिणत हो जायगा । इसके साथ-साथ हमें सब वस्तुओं में भगवान् का अधिकाधिक अनुभव भी अवश्य प्राप्त होगा, अपने समस्त विचार, इच्छाशक्ति एवं कर्म में तथा अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में हम भगवान् के साथ उत्तरोत्तर गहरा अन्तर्मिलन लाभ करेंगे और अधिकाधिक भाव-विभोर होकर अपनी सम्पूर्ण सत्ता भगवान् को निवेदित कर देंगे । वस्तुतः, पूर्ण और निरपेक्ष भक्ति का असली सार भी कर्मयोग के इन फलितार्थों के अन्तर्गत हो जाता है । जो जिज्ञासु इन्हें जीवन्त-जाग्रत् रूप में चरितार्थ करता है वह आत्म-निष्ठता की असली भावना की एक स्थिर और प्रभावशाली प्रतिमूर्त्ति का अपने में निरन्तर निर्माण करता है, और यह अनिवार्य ही है कि इसमें से फिर उस सर्वोच्च देव की अत्यन्त मग्न करनेवाली पूजा का जन्म हो जिसे यह सेवा अर्पित की जाती है । समर्पित कर्मी जिस दिव्य उपस्थिति के साथ उत्तरोत्तर घनिष्ठ समीपता अनुभव करता है उसके प्रति उस में अनन्य प्रेम क्रमश: प्रबल होता जाता है । इसके साथ ही एक सार्वभौम प्रेम भी पैदा होता है या वह इस अनन्य प्रेम के अन्दर निहित रहता है । यह कोई भेदमूलक, क्षणिक, चंचल एवं लोलुप भाव नहीं होता, बल्कि एक सुस्थिर निःस्वार्थ प्रेम, एकत्व का एक गंभीरतर स्पन्दन होता है और सभी सत्ताओं, जीवित गोचर पदार्थों एवं प्राणियों के लिये, जो भगवान् के वास-स्थान हैं, समान रूप से उत्पन्न होता है । सभी में जिज्ञासु अपने एकमात्र सेव्य और आराध्य देव से मिलन अनुभव करने लगता है । कर्मों का मार्ग यज्ञ के इस पथ से चल कर भक्ति के मार्ग से जा मिलता है । यह स्वयं एक परिपूर्ण, तन्मयकारी और सर्वांगीण भक्ति हो सकता है, एक ऐसी गहरी-से-गहरी भक्ति हो सकता है जिसे हृदय की उमंग पाना चाह सकती है अथवा मन का प्रबल भाव कल्पना में ला सकता है ।
और फिर, इस योग का अभ्यास एकमात्र केंद्रीय मोक्षदायक ज्ञान के सतत आन्तरिक स्मरण की अपेक्षा रखता है । उस ज्ञान को निरन्तर सक्रिय ढंग से कर्मों के रूप में बाहर उंडेलने से इस स्मरण को उद्दीप्त करने में सहायता मिलती है । सबमें एक ही आत्मा है, एकमेव भगवान् ही सब कुछ है; सब भगवान् में हैं, सब भगवान् हैं और विश्व में भगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है—यह विचार या यह श्रद्धा तब तक कर्मी की चेतना की सम्पूर्ण पीठिका रहती है, जब तक कि यह उसकी चेतना का सार-सर्वस्व ही नहीं बन जाती । इस प्रकार के स्मरण को अर्थात अपने-आपको क्रियाशील बनानेवाले इस प्रकार के ध्यान को उस 'तत्'
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के—जिसका हम इतने शक्तिशाली रूप से स्मरण करते हैं अथवा इतने अनवरत रूप से ध्यान करते हैं, —प्रगाढ़ और निर्बाध सन्दर्शन तथा सजीव और सर्वस्पर्शी ज्ञान में बदल जाना चाहिये और निश्चय ही अन्त में यह इसमें बदल भी जाता है । क्योंकि इससे बाध्य होकर हम प्रतिक्षण समस्त सत्ता, संकल्प और कर्म के उद्गम के सामने निरन्तर अपनी जिज्ञासा निवेदित करते हैं और इन सब विभिन्न आकारों तथा प्रतीतियों का हम उस 'तत्' में, जो इनका कर्त्ता और धर्त्ता है, आलिङ्गन करते हैं और साथ-ही-साथ इन्हें अतिक्रान्त भी कर जाते हैं । यह मार्ग अपने लक्ष्य पर तब तक नहीं पहुंच सकता जब तक कि यह सर्वत्र एक विश्वव्यापी आत्मा की कृतियों को स्पष्ट एवं सजीव रूप में, भौतिक रूप में देखने के समान ही प्रत्यक्ष तौर पर नहीं देख लेता । अपने शिखर पर यह उस अवस्था तक ऊंचा उठ जाता है जहां हम नित्य-निरन्तर अतिमानसिक और परात्पर भगवान् की उपस्थिति में ही रहते-सहते, सोचते-विचारते और संकल्प तथा कर्म करते हैं । जो कुछ हम देखते और सुनते हैं, जो कुछ भी हम छूते और अनुभव करते हैं और जिस-किसी भी चीज के प्रति हम सचेतन होते हैं उस सबको हमें उसी वस्तु के रूप में जानना और अनुभव करना होगा जिसकी हम पूजा और सेवा करते हैं; सभीको भगवान् की प्रतिमा में परिणत करना होगा, सभीको उसके देवत्व का निवासधाम अनुभव करना होगा तथा नित्य सर्वव्यापकता से आच्छादित करना होगा । बहुत पहले नहीं तो अपनी समाप्ति के समय यह कर्ममार्ग, भागवत उपस्थिति और संकल्प एवं बल के साथ अन्तर्मिलन होने पर, एक ज्ञानमार्ग में बदल जाता है । वह ज्ञानमार्ग ऐसे किसी भी मार्ग से अधिक पूर्ण एवं सर्वांगीण होता है जिसे कोरी मानवी मति रच सकती या बुद्धि की खोज उपलब्ध कर सकती है ।
अन्त में, इस यज्ञ-रूपी योग का अभ्यास हमें इस बात के लिये बाध्य करता है कि हम अपने संकल्प, मन और कर्म में से अहंभाव के समस्त आन्तरिक अवलंबनों का त्याग कर दें और अपनी प्रकृति में से इसके बीज, इसकी उपस्थिति एवं इसके प्रभाव को निकाल फेंके । सब कुछ भगवान् के लिये ही करना होगा; सब कुछ भगवान् को लक्ष्य करके ही करना होगा । हमें अपने लिये पृथक् सत्ता के रूप में कुछ भी नहीं करना होगा, दूसरों के लिये भी, चाहे वे पड़ोसी, मित्र और परिजन हों, अथवा देश या मानवजाति या अन्य प्राणी हों, केवल इस नाते से कुछ नहीं करना होगा कि वे हमारे निजी जीवन, विचार और भावधारा से सम्बद्ध हैं, न इस नाते से ही कुछ करना होगा कि हमारा अहं उनकी भलाई में अपेक्षाकृत अधिक रुचि रखता है । कर्म तथा विचार के इस दृष्टिकोण से सभी काम और समस्त जीवन भगवान् की अपनी विराट् वैश्व सत्ता के निःसीम मन्दिर में उसकी दैनिक सक्रिय आराधना और सेवा ही बन जाते हैं । जीवन व्यक्ति में सनातन देव का उत्तरोत्तर एक ऐसा यज्ञ बनता जाता है जो अनवरत एक नित्य परात्परता के प्रति
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स्वयमेव अर्पित होता रहता है । यह सनानन विश्वगत आत्मा के क्षेत्र की विशाल यज्ञीय भूमि में अर्पित किया जाता है और नित्य शक्ति या सर्वव्यापिनी माता ही स्वयं इसे अर्पित करती है । अतएव, यह मार्ग कर्मोंद्वारा और कर्मगत भाव तथा ज्ञानद्वारा मिलन एवं अन्त:संभाषण प्राप्त करने का मार्ग है, और यह वैसा ही पूर्ण और सर्वांगीण है जैसे कि हमारी ईश्वराभिमुख इच्छाशक्ति आशा कर सकती है, अथवा जैसे कि हमारी आत्म-शक्ति कायर्गन्वत कर सकती है ।
सर्वांगीण और चरम-परम कर्मयोग की समस्त शक्ति इस मार्ग में विद्यमान है । साथ ही, दिव्य आत्मा और स्वामी के प्रति अपने यज्ञ और आत्मोत्सर्ग के विधान के कारण, यह प्रेममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों की सम्पूर्ण शक्ति से भी सम्पन्न है । इसके अन्त में ये तीनों दिव्य शक्तियां एक-दूसरे से घुलमिलकर और एकीभूत, परिपूरित एवं सर्वगुण-सम्पन्न होकर एक साथ काम करती है ।
भगवान् या सनातन पुरुष हमारे कर्मों के यज्ञ का अधीश्वर है और अपनी सम्पूर्ण सत्ता एवं चेतना में तथा इसके अभिव्यक्तिक्षम करणों में उसके साथ मिलन ही यज्ञ का एकमात्र लक्ष्य है । अतएव, कर्मों के यज्ञ की क्रमिक प्रगति की नाप दो प्रकार से करनी होगी—प्रथम, हमारी प्रकृति में किसी ऐसी वस्तु के विकास के द्वारा जो हमें भागवत प्रकृति की ओर अधिक निकट ले जाती है, और दूसरे, भगवान् के अर्थात् उसकी उपस्थिति के अनुभव के द्वारा, हमारे प्रति उसकी अभिव्यक्ति के तथा उस 'उपस्थिति' के साथ अधिकाधिक सान्निध्य एवं मिलन के अनुभव के द्वारा । परन्तु भगवान् तत्त्वत: अनन्त है और उसकी अभिव्यक्ति भी बहुल रूप से अनन्त है । यदि ऐसी ही बात है तो अपनी सत्ता और प्रकृति में सच्ची सर्वांगीण पूर्णता हम किसी एक ही प्रकार के अनुभव से नहीं प्राप्त कर सकते; इसके लिये तो दिव्य अनुभव की अनेक विभिन्न लड़ियों को मिलाना आवश्यक होगा । न ही हम इसे तादात्म्य की किसी एक ही दिशा का एकांगी अनुसरण करके और उसे उसकी चरम सीमा तक पहुंचाकर प्राप्त कर सकते हैं; बल्कि इसके लिये तो हमें अनन्त के अनेक पार्श्वों में सामंजस्य साधना होगा । हमारी प्रकृति के पूर्ण रूपान्तर के लिये यह अनिवार्य है कि हमारी चेतना सर्वांगीण हो और साथ ही बहुरूप एवं शक्तिमय अनुभव से सम्पन्न भी हो ।
इस अनन्त के किसी भी समग्र ज्ञान या बहुमुख अनुभव के लिये एक आधारभूत अनुभूति परमावश्यक है, वह यह कि हम भगवान् को एक ऐसी सारभूत सत्ता और सत्य अनुभव करें जिसके स्वरूप में आकृतियों या गोचर पदार्थों के कारण कुछ अन्तर नहीं पड़ता । अन्यथा, सम्भव है कि हम आकृतियों के जाल में ही फंसे रह जायं अथवा विश्वगत या विशेष रूपों के विशृंखल बाहुल्य में अव्यवस्थित रूप से भटकते फिरें । और, यदि हम इस गड़बड़ से बच भी जायं तो इसके बदले हमें किसी मानसिक सूत्र से या किसी सीमित व्यक्तिगत अनुभव के
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घेरे में आबद्ध होना पड़ेगा । एकमात्र सुनिश्चित और सर्वसमन्वयात्मक सत्य, जो विश्व की वास्तविक भित्ति है, यह है कि जीवन एक अज आत्मा तथा आत्मसत्ता की अभिव्यक्ति है, और जीवन के गुप्त रहस्य की कुंजी इस आत्मा का अपनी रची हुई सत्ताओं से सच्चा सम्बन्ध है । इस सब जीवन के पीछे सनातन पुरुष की एक ऐसी दृष्टि है जो अपने असंख्य भूतभावों को देख रही है; इसमें सब ओर तथा सभी जगह एक अव्यक्त कालातीत सनातन पुरुष कालगत अभिव्यक्ति के बाहर और भीतर ओत-प्रोत है । परन्तु यदि यह ज्ञान केवल एक ऐसा बौद्धिक तथा दार्शनिक विचारमात्र हो जिसमें न कोई जीवन हो और न जिसका कोई फल ही होता हो, तो योग के लिये यह किसी काम का नहीं; कारण, कोई भी निरी मानसिक उपलब्धि जिज्ञासु के लिये पर्याप्त नहीं हो सकती । योग जिसकी खोज करता है वह केवल विचार या मन का सत्य नहीं, वरंच एक सजीव और अभिव्यंजक अध्यात्म-अनुभव का सक्रिय सत्य है । एक सच्ची अनन्त उपस्थिति का सतत अन्तर्वासी और सर्वव्यापी सान्निध्य, जीवन्त बोध, घनिष्ठ सम्बेदन तथा समागम और प्रत्यक्ष अनुभव एवं संस्पर्श हमारे भीतर सदा-सर्वदा और सर्वत्र जागृत रहना चाहिये । वह उपस्थिति हमारे संग एक ऐसी सजीव और सर्वव्यापक सद्वस्तु के रूप में रहनी चाहिये जिसमें हम और सभी पदार्थ निवास करते, चलते-फिरते और काम-काज करते हैं । उसे हमें हर समय और हर जगह मूर्त्त, गोचर एवं घटघटवासी अनुभव करना होगा । हमें उसके प्रत्यक्ष दर्शन इस रूप में करने होंगे कि वह सब पदार्थों की सच्ची आत्मा है, उसे इस रूप में स्पर्श करना होगा कि वह सबका अविनाशी सार है, उससे इस रूप में घनिष्ठ मिलन लाभ करना होगा कि वह सबकी अन्तरतम आत्मा है । यहां सभी सत्ताओं में इस आत्मा और आत्म-तत्त्व को मानसिक विचारद्वारा ग्रहण करना ही नहीं, बल्कि इस देखना, अनुभव करना, इंद्रियों द्वारा जानना तथा प्रत्येक प्रकार से इसका संस्पर्श प्राप्त करना और ऐसे ही सुस्पष्ट रूप से सभी सत्ताओं को इस आत्मा और आत्मतत्त्व में अनुभव करना—यह एक आधारभूत अनुभव है जिसके चारों ओर अन्य समस्त ज्ञान को केंद्रित होना होगा ।
वस्तुओं की यह अनन्त और नित्य आत्मा सर्वव्यापक सद्वस्तु है, सर्वत्र विद्यमान एक ही सत्ता है; यह एकमेवाद्वितीय एकीकारक उपस्थिति है और भिन्न-भिन्न प्राणियों में भिन्न-भिन्न नहीं है । इस विश्व में प्रत्येक आत्मा या प्रत्येक दृश्य पदार्थ के भीतर हम उसके परिपूर्ण स्वरूप का साक्षात्कार, संदर्शन या अनुभव कर सकते हैं । कारण, इसकी अनन्तता एक निरी देश और काल की असीमता या अनन्तता ही नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक औरं सारभूत वस्तु है । एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म अणु में या काल के एक क्षण में भी वह अनन्त वैसे ही असंदिग्ध रूप में अनुभव किया जा सकता है जैसे कि युगों के विस्तार या सौर पिण्डों की पारस्परिक दूरी के बृहत्
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प्रमाण में किया जा सकता है । उसका ज्ञान या अनुभव कहीं भी शुरू हो सकता है और किसी भी वस्तु के द्वारा प्रकट हो सकता है; क्योंकि भगवान् सबमें हैं और सब कुछ भगवान् ही है ।
तथापि इस आधारभूत अनुभव का प्रारम्भ भिन्न-भिन्न प्रकृति के व्यक्तियों के लिये विभिन्न प्रकार से होगा और उस सम्पूर्ण सत्य के विकसित होने में बहुत समय लगेगा जो इसके सहस्त्रों पहलुओं में छिपा हुआ है । उस शाश्वत उपस्थिति को मैं पहले-पहल सम्भवतः अपने में या अपनी आत्मा के तौर पर देखता अथवा अनुभव करता हूं और बाद में ही अपनी इस महत्तर आत्मा के दर्शन और अनुभव को प्राणिमात्र तक विस्तारित कर सकता हूं । तब मैं संसार को अपने अन्दर या अपने साथ एकीभूत अनुभव करता हूं । इस विश्व को मैं अपनी सत्ता के अन्दर एक नाटक के रूप में और इसकी प्रक्रियाओं के अभिनय को अपनी विराट् आत्मा के अन्दर पदार्थों आत्माओं और शक्तियों की एक गति के रूप में देखता हूं । सभी जगह मैं अपने-आपसे ही मिलता हूं, और किसीसे नहीं । किन्तु इस बात को ध्यान में रखना चाहिये कि यह सब मैं उस असुर की-सी भ्रांत दृष्टि के कारण नहीं करता जो अपनी ही अत्यधिक विस्तृत प्रतिमूर्त्ति में निवास करता है, अहं को ही भ्रमवश अपना स्वरूप और अपनी आत्मा समझता है और अपने आंशिक व्यक्तित्व को अपने चारों ओर की सभी वस्तुओं पर एक प्रभुत्वशाली सत्ता के रूप में थोपने का यत्न करता है । कारण, ज्ञान का उदय होने से मैं यह सत्य तो ग्रहण कर ही चुका हूं कि मेरी सच्ची आत्मा अहं नहीं है; और साथ ही अपनी महत्तर आत्मा मुझे सदा यूं अनुभव होती है कि यह एक निर्वैयक्तिक बृहत् सत्ता या एक तात्त्विक व्यक्ति है जो फिर भी अपने से परे सब व्यक्तियों को अंतर्गत रखता है या फिर यह एक ही साथ दोनों चीजें है । परन्तु कुछ भी हो, चाहे यह निर्वैयक्तिक हो या असीम व्यक्तित्व, अथवा युगपत् दोनों ही हो तो भी यह एक अहं-अतीत अनन्त है । यदि मैंने इसे पहले दूसरों के अन्दर नहीं, वरन् इसके उस रूप में ढूंढ़ा तथा पाया है, जिसे मैं 'अपना-आप' कहता हूं, तो इसका कारण यही है कि वहां, मेरी चेतना के विषयिगत होने के कारण, इसे पाना, तत्काल जान लेना और अनुभव करना मेरे लिये अत्यंत सुगम है । परन्तु ज्यों ही यह आत्मा दिखायी दे त्यों ही यदि संकुचित साधनरूप अहं इसमें विलीन न होने लगे, अथवा यदि क्षुद्रतर बाह्य मनोनिर्मित 'मैं' उस महत्तर स्थिर अजन्मा आध्यात्मिक 'मैं' में विलुप्त हो जाने से इन्कार करे, तो मेरा अनुभव या तो विशुद्ध नहीं है या उसके मूल में ही कहीं त्रुटि है । अभी भी मुझमें कहीं एक अहंमूलक बाधा है; मेरी प्रकृति के किसी भाग ने एक 'स्व' -दर्शी और 'स्व'-संरक्षी निषेध को आत्मा के सर्वग्रासी सत्य के विरोध में खड़ा कर दिया है ।
दूसरी तरफ— और कुछ लोगों के लिये यह अधिक सुगम तरीका है—मैं
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भगवान् को पहले अपने से बाहर जगत् में अर्थात् अपने में नहीं, बल्कि दूसरों में देख सकता हूं । वहां प्रारम्भ से ही मैं उससे इस रूप में मिलता हूं कि वह एक अन्तर्वासी और सर्वाधार अनन्त है जो अपने उपरितल पर धारण की हुई इन सब आकृतियों, प्राणियों और शक्तियों से बंधा हुआ नहीं है । अथवा मैं यह देखता और अनुभव करता हूं कि वह एक शुद्ध एकाकी आत्मा और आत्मतत्त्व है जो इन सब शक्तियों और सत्ताओं को अपने अन्दर धारण किये हुए है, और तब मैं अपनी अहंबुद्धि को अपने चारों ओर की इस निश्चल-नीरव सर्वव्यापक उपस्थिति में विलीन कर देता हूं । बाद में यही मेरी करणात्मक सत्ता को व्याप्त और अधिकृत करने लगती है, और कर्म-सम्बन्धी मेरी सभी प्रेरणाएं, विचार और वाणी का मेरा सब प्रकाश, मेरी चेतना की समस्त रचनाएं और इस एकमेव विश्व-विस्तृत सत्ता के अन्य आत्म-रूपों के साथ मेरी चेतना के सम्बन्ध और संघर्ष—ये सभी इसीमें से निकलते प्रतीत होते हैं । मैं अब पहले की तरह यह क्षुद्र व्यक्तिगत स्व नहीं, वरन् 'तत्' हूं जिसने अपना कुछ अंश आगे कर रखा है और वह अंश विश्व में उस ('तत्' ) की क्रियाओं के एक विशेष रूप को धारण करता है ।
एक और आधारभूत अनुभव भी है जो सबसे परले सिरे का है और फिर भी कभी-कभी प्रथम निर्णायक उद्घाटन या योग की प्रारम्भिक प्रगति के रूप में प्राप्त होता है । वह उस अनिर्वचनीय, उच्च, परात्पर एवं अविज्ञेय सत्ता के प्रति जागरण है जो मेरे और इस संसार के भी, जिसमें मैं निवास करता प्रतीत होता हूं ऊपर अवस्थित है, वह उस कालातीत और देशातीत अवस्था या सत्ता के प्रति जागरण है जो, साथ ही, मेरे अन्दर की तात्त्विक चेतना के लिये, सबल और असंदिग्ध रूप में, एक अनन्य दुर्निवार सत्य है । प्रायः इस अनुभव के साथ एक और भी इतना ही प्रबल बोध होता है, —वह यह कि इहलोक की सब वस्तुएं या तो स्वप्न वा छाया की भांति भ्रमात्मक हैं अथवा वे अस्थायी, गौण और केवल अर्द्ध-वास्तविक हैं । कम-से-कम कुछ समय के लिये मेरे चारों ओर का सब दृश्य जगत् ऐसा दिखायी दे सकता है कि यह चलचित्र-से छाया-रूपों या तलीय आकारों का चलना-फिरना है और मेरा अपना कर्म ऐसा मालूम हो सकता है कि यह मेरे ऊपर या बाहर के किसी अब तक अगृहीत और सम्भवतः अनधिगम्य स्रोत से निकली तरल रचना हो । इस चेतना में रहने और इस प्रवेशात्मक अनुभव को विकसित करने अथवा वस्तुओं के स्वरूप के इस प्रथम संकेत का अनुसरण करने का अर्थ होगा—अहं और जगत् का अज्ञेय में लय करने किंवा मोक्ष या निर्वाण प्राप्त करने के लक्ष्य की ओर अग्रसर होना । किन्तु परिणति की केवल यही एक दिशा हो ऐसी बात नहीं है । इसके विपरीत, मेरे लिये यह भी सम्भव है कि मैं तब तक प्रतीक्षा करता रहूं जब तक इस कालातीत रिक्त मोक्ष की निश्चल-नीरवता के द्वारा मैं अपनी सत्ता और अपने कार्यों के इस अद्यावधि अज्ञात स्रोत के साथ सम्बन्ध न जोड़ लूं ।
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तब रिक्तता भरने लगती है और इसमें से भगवान् का सकल बहुविध सत्य और क्रियाशील अनन्त सत्ता के समस्त रूप एवं अभिव्यक्तियां तथा अनेकानेक स्तर उदित होने लगते हैं अथवा वे इसके अन्दर ही प्रवाहित होने लगते हैं । यह अनुभव पहले तो मन में और फिर हमारी सारी सत्ता में एक चरम, अथाह और अतल-प्राय शान्ति और नीरवता स्थापित कर देता है । अभिभूत, वशीकृत, स्तब्ध तथा अपने-आपसे निर्मुक्त होकर मन स्वयं इस नीरवता को ही परात्पर सत्ता स्वीकार कर लेता है । परन्तु पीछे जिज्ञासु को पता चलता है कि उसके लिये सब कुछ ही अन्तर्निहित या नवसृष्ट रूप में इस निश्चल-नीरवता में विद्यमान है अथवा सब कुछ इस निश्चल-नीरवता के ही द्वारा एक महत्तर निगूढ़ परात्पर सत्ता से उसके अन्दर अवतरित होता है । कारण, यह परात्पर एवं निरपेक्ष सत्ता अलक्षण शून्यता की शान्तिमात्र नहीं है; इसके अपने अनन्त आधेय और ऐश्वर्य हैं जब कि हमारे आधेय और ऐश्वर्य इनसे हीन और न्यून हैं । यदि सब वस्तुओं का यह स्रोत न होता तो विश्व उत्पन्न ही न हो सकता; सब शक्तियां, क्रियाएं और कर्म भ्रमरूप होते, सृष्टि और अभिव्यक्तिमात्र असम्भव होती ।
यही हैं तीन मूल-रूप अनुभव इतने मूलभूत कि ज्ञानमार्ग के योगी को ये चरम तथा स्वतः-पर्याप्त प्रतीत होते हैं, साथ ही ये उसे निश्चित रूप में अन्य सब अनुभवों के शिरोमणि एवं प्रतिनिधि भी प्रतीत होते हैं । परन्तु परिपूर्णता के अन्वेषक के लिये ये अनन्य सत्य नहीं होते, न ही ये सनातन के समग्र सत्य के पूर्ण और एकमात्र सूत्र होते हैं, वरंच ये एक महत्तर दिव्य ज्ञान के अपूर्ण आरम्भ एवं विशाल आधारमात्र होते हैं, भले ही ये उसे कृपा के चमत्कार से शुरू की अवस्था में ही एकाएक और अनायास प्राप्त हो जायें या लंबी यात्रा और श्रम के पश्चात् कठिनाई से उपलब्ध हों । अन्य अनुभव भी हैं जिनकी निश्चय ही आवश्यकता है और जिनकी खोज उनकी सम्भाव्यताओं के परले छोर तक करनी होगी । यद्यपि उनमें से कुछ एक प्रथम दृष्टि में ऐसे प्रतीत होते हैं कि ये केवल उन भागवत रूपों को समाविष्ट करते हैं जो सत्ता की क्रियाशीलता के लिये यन्त्रात्मक हैं किन्तु उसके सारतत्त्व में अन्तर्निहित नहीं हैं, तो भी जब हम उनका अनुसरण अन्त तक करते हैं अर्थात् क्रियाशीलता में से होते हुए उनके सनातन स्रोत तक पहुंचते हैं तो हमें पता चलता है कि वे भगवान् के उस रूप का प्रकाश करते हैं जिसके बिना वस्तुओं के मूल सत्य का हमारा ज्ञान असमृद्ध और अपूर्ण ही रह जाता । ये यन्त्रात्मक सत्ताएं जो देखने में ऐसी प्रतीत होती हैं, उस रहस्य की कुंजी हैं जिसके बिना स्वयं मूलभूत तत्त्व भी अपना सम्पूर्ण गुह्यार्थ प्रकाशित नहीं करते । भगवान् का प्रकाश करने वाले सभी रूपों को हमें पूर्णयोग की विशाल परिधि के अन्दर ले आना होगा ।
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यदि संसार और उसके कर्मों से पलायन, अर्थात् परम मोक्ष एवं शम ही जिज्ञासु का एकमात्र ध्येय होता, तो ये तीन महान् आधारभूत अनुभव उसके आध्यात्मिक जीवन की कृतार्थता के लिये पर्याप्त होते । इन्हींमें एकाग्र होकर वह अन्य समस्त दिव्य या लौकिक ज्ञान का त्याग कर देता और स्वयं भारमुक्त होकर शाश्वत प्रशांति की ओर प्रयाण करता । परन्तु उसे संसार और उसके कर्मों को भी अपने ध्यान में रखना है, इनके मूलभूत दिव्य सत्य को जानना है और दिव्य सत्य तथा व्यक्त सृष्टि के उस प्रतीयमान विरोध का समाधान करना है जो अधिकतर आध्यात्मिक अनुभवों के आरम्भ में जिज्ञासु के सामने उपस्थित हुआ करता है । साधना की चाहे जिस भी दिशा का वह अनुसरण करे उसमें एक शाश्वत द्वैत अर्थात् सत्ता की दो अवस्थाओं का पार्थक्य उसके सामने उपस्थित होता है । उसे प्रतीत होता है कि ये अवस्थाएं परस्पर-विरोधी हैं और इनका विरोध ही जगत् की पहेली की असली जड़ है । बाद में, वह जान सकता है और अवश्य ही जान लेता है कि ये 'एकं सत्' के दो ऐसे ध्रुव हैं जो शक्ति की दो परस्पर-सम्बद्ध, ऋण- धनात्मक समकालीन धाराओं से जुड़े हुए हैं और इनकी एक दूसरे पर क्रिया ही सत्ता के अन्तर्निहित तत्त्वों की अभिव्यक्ति की वास्तविक अवस्था है, इनका पुनर्मिलन ही जीवन की विषमताओं के समाधान का एक नियत साधन है और इसीसे उस सर्वांगीण सत्य की उपलब्धि हो सकती है जिसकी कि वह खोज कर रहा है ।
एक ओर तो उसे भान होता है कि यह आत्मा या नित्य आत्म-तत्त्व—ब्रह्म, यह सनातन सब जगह रमा हुआ है, एक ही स्वयंभू-सत्ता यहां कालगत रूप में प्रत्येक दृश्य या गोचर पदार्थ के पीछे विद्यमान है और विश्व से परे कालातीत है । उसे एक प्रबल और सर्वाभिभावी अनुभव होता है कि यह आत्मा न तो हमारा सीमित अहं है और न ही यह हमारा मन, प्राण या शरीर है; यह विश्वव्यापी है पर बाह्य दृश्य प्रपंच-रूप नहीं है और फिर भी उसकी आत्मिक इन्द्रिय-शक्ति के लिये यह किसी भी साकार या दृश्य वस्तु की अपेक्षा कहीं अधिक प्रत्यक्ष है; यह सार्वभौम है पर अपने अस्तित्व के लिये संसार की किसी वस्तु पर या संसार की समूची सृष्टि पर भी निर्भर नहीं है; यदि यह सारे-का-सारा जगत् लुप्त हो भी जाय, तो भी इसके लय से उसके स्थिर अंतरीय अनुभव के विषयभूत इस सनातन में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा । उसे निश्चय हो चुका है कि एक अवर्णनीय स्वयंभू-सत्ता है जो उसका तथा सब वस्तुओं का सार है । उसे उस तात्त्विक चेतना का अन्तरंग ज्ञान हो गया है जिसकी हमारा चिन्तक मन, प्राण-सम्बेदन और देह-सम्बेदन आंशिक और हीन प्रतिमाएंमात्र हैं, उसे यह भी अनुभव हो गया है कि वह चेतना एक ऐसी असीम शक्ति से सम्पन्न है जो इन सब शक्तियों का आदिस्रोत है और फिर भी इन सब सम्मिलित शक्तियों के योग या बल या स्वरूप के द्वारा समझ में नहीं आ सकती,
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न इनके द्वारा उसकी व्याख्या ही हो सकती है । वह एक ऐसा अविच्छेद्य स्वयं-सत् आनन्द अनुभव करता है और उसमें निवास करता है जो हमारा क्षुद्रतर क्षणिक हर्ष या प्रसन्नता या सुख नहीं है । एक निर्विकार अविनाशी अनन्तता, एक कालातीत नित्यता, एक ऐसी आत्म-सचेतनता जो यह ग्रहणशील एवं प्रतिक्रियाकारी या स्पर्शक-तुल्य (tentacular) मानसिक चेतना नहीं है, वरन् इसके पीछे और ऊपर है तथा इसके नीचे भी विद्यमान है, यहां तक कि निश्चेतना में भी अन्तर्निहित है, और एक ऐसी एकता जिसमें किसी और सत्ता की सम्भावना ही नहीं है—यह इस सुस्थिर अनुभव का चतुर्विध स्वरूप है । तथापि यह नित्य स्वयंभू-सत्ता उसे इस रूप में भी दिखायी देती है कि यह एक चेतन काल-पुरुष है जो घटनाओं के प्रवाह को वहन करता है, एक आत्म-विस्तृत आत्मिक 'देश' है जो सब वस्तुओं और सत्ताओं को धारण करता है, एक आत्मिक सत्तत्त्व है जो अनाध्यात्मिक, अनित्य और सांत प्रतीत होनेवाली सभी वस्तुओं का वास्तविक रूप और उपादान है । जो क्षणभंगुर, देश-काल-बद्ध और सीमित है वह सब भी उसे यूं अनुभूत होता है कि वह अपने सारतत्व, बल और ऊर्जा में उस एकमेव, सनातन तथा अनन्त से भिन्न कुछ नहीं है ।
तो भी उसके अन्दर या उसके सामने केवल यह नित्य आत्म-सचेतन सत्ता, यह आध्यात्मिक चेतना, स्वयं-प्रकाश शक्ति की यह अनन्तता और यह कालातीत तथा अपार परमानन्द ही विद्यमान नहीं है । इसके साथ ही, परिमित देश-काल में बंधा यह विश्व या शायद एक प्रकार का निःसीम सांत भी उसके अनुभव के सम्मुख निरन्तर वर्तमान है । इसके अन्दर सब कुछ नश्वर, सीमित, खण्डित, अनेकात्मक तथा अज्ञ है, दुःख-द्वंद्व के प्रति खुला हुआ है, एकता की किसी असिद्ध किन्तु अन्तर्निहित स्वरमाधुरी की सन्देहपूर्वक खोज कर रहा है, अचेतन या अर्द्ध-चेतन है या, जब अधिक-से-अधिक चेतन होता है तब भी मूल अविद्या और निश्चेतना से बंधा रहता है । सुतरां, वह सदा शान्ति या आनन्द की समाधि में ही नहीं रहता और यदि वह रहे भी तो भी यह कोई हल नहीं होगा, क्योंकि वह जानता है कि यह अविद्यामय जगत् तब भी उससे बाहर अथच उसकी किसी विस्तीर्णतर आत्मा के भीतर मानो सदा के लिये चल रहा होगा । कभी तो उसे यह प्रतीत होता है कि उसकी आत्मा की ये दो अवस्थाएं उसकी चेतना की स्थिति के अनुसार उसके लिये बारी-बारी से आती हैं । और, कभी ऐसा लगता है कि ये उसकी सत्ता के दो अवयव हैं, दो अर्द्ध—ऊर्ध्व और निम्न या आन्तर और बाह्य अर्द्ध—हैं जिनमें मेल नहीं है और जिनमें मेल बैठाना आवश्यक है । उसे शीघ्र ही मालूम हो जाता है कि उसकी चेतना के इस पार्थक्य में एक बड़ी भारी मोक्षजनक शक्ति है, क्योंकि इसके कारण वह अब अविद्या एवं निश्चेतना से पूर्ववत् बद्ध नहीं रहता । यह पार्थक्य अब उसे अपना और जगत् का वास्तविक स्वरूप नहीं, वरन् एक भ्रम
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प्रतीत होता है जो दूर किया जा सकता है अथवा यह उसे कम-से-कम एक अस्थायी मिथ्या स्वानुभव अर्थात् माया मालूम देता है । उसके अन्दर प्रलोभन पैदा होता है कि वह इसे केवल भगवान् का प्रतिषेध, अथवा अनन्त की अगम रहस्य- लीला किंवा उसका छद्यवेश या हास्यास्पद अभिनय मान ले । समय-समय पर उसके अनुभव को यह वास्तव में दुर्दम रूप से ऐसा ही भासित होता है, —एक ओर तो ब्रह्म की प्रोज्ज्वल सत्यता और दूसरी ओर माया का अन्धकारमय भ्रम । परन्तु उसके अन्दर की कोई चीज उसे इस प्रकार सदा के लिये सत्ता को दो भागों में विभक्त कर डालने की अनुमति नहीं देगी । अधिक सूक्ष्मता से देखने पर वह जान जाता है कि इस अर्द्ध-प्रकाश या अन्धकार में भी सनातन विद्यमान है—माया का आवरण पहने हुए स्वयं ब्रह्म ही यहां विराजमान है ।
यह एक वर्द्धनशील आध्यात्मिक अनुभव का प्रारम्भ है । यह उसके समक्ष इस बात को अधिकाधिक प्रकट कर देता है कि जो चीज उसे पहले अन्धकारमय अगम माया प्रतीत होती थी वह तब भी सनातन पुरुष की चिच्छक्ति से भिन्न और कुछ नहीं थी । वह शक्ति इस विश्व से परे कालातीत और असीम है, पर वह यहां, उज्ज्वल और धूसर, विरोधी तत्त्वों का जामा पहन कर मन, प्राण और जड़ में भगवान् की क्रमिक अभिव्यक्ति के चमत्कार के लिये सर्वत्र फैली हुई है । समस्त कालातीत सत्ता कालगत क्रीडा के लिये दबाव डालती है; कालगत सभी कुछ कालातीत आत्म-तत्त्व के आधार पर और उसीके चारों ओर परिभ्रमण करता है । यदि पार्थक्य का अनुभव मोक्षजनक था तो यह एकत्व का अनुभव गतिशील और कार्यक्षम है । वह अब अपने को केवल ऐसा ही अनुभव नहीं करता कि वह अपने आत्म-तत्त्व में सनातन पुरुष का अंश है, अपनी तात्त्विक आत्मा और आत्म-तत्त्व में सनातन पुरुष के साथ पूर्णतया एकीभूत है, वरंच यह भी कि वह अपनी सक्रिय प्रकृति में उसकी सर्वज्ञ और सर्वसमर्थ चिच्छक्ति का यन्त्र है । उसके अन्दर सनातन देव की वर्तमान लीला चाहे कितनी भी सीमित और सापेक्ष क्यों न हो तथापि वह उसकी अधिकाधिक विस्तृत चेतना और शक्ति की ओर उद्घाटित हो सकता है और इस विस्तार की कोई भी निर्धारणीय सीमा नहीं प्रतीत होती । उस चिच्छक्ति का एक आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक स्तर भी उसके ऊर्ध्व में अपने को प्रकट करता है और सम्पर्क स्थापित करने के लिये नीचे झुकता हुआ प्रतीत होता है । उस स्तर में ये सीमाएं और शृंखलाएं नहीं हैं और उसकी शक्तियां भी सनातन के एक महत्तर अवतरण और एक कम प्रच्छन्न या अप्रच्छन्न आत्म-प्रकाश के आश्वासन के साथ कालगत क्रीड़ा पर दबाव डाल रही हैं । इस प्रकार, ब्रह्म-माया का जो द्वैत एक समय विरोधमय प्रतीत होता था और अब द्विदल या द्वयात्मक अनुभव होता है उसका रहस्य जिज्ञासु के समक्ष इस रूप में आविष्कृत हो जाता है कि वह सब आत्मा, सत्ता के स्वामी और विश्व-यज्ञ के एवं
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उसके अपने यज्ञ के अधीश्वर का प्रथम महान् और क्रियाशील रूप है ।
भगवत्प्राप्ति की एक और दिशा में एक दूसरा द्वैत जिज्ञासु के अनुभव के विषय के रूप में उपस्थित होता है । एक तरफ तो उसे यह ज्ञान प्राप्त होता है कि एक साक्षि-चेतना है जो ग्रहण, निरीक्षण और अनुभव करती है, जो कर्म करती नहीं जान पड़ती, किन्तु जिसके लिये हमारे भीतर और बाहर के ये सभी कर्म प्रारम्भ किये जाते और जारी रखे जाते प्रतीत होते हैं । उसके साथ ही, दूसरी तरफ वह एक कर्त्री शक्ति या कार्य-प्रक्रिया की शक्ति को जानता है जो सभी कल्पनीय क्रियाओं को गठित, प्रेरित और परिचालित करती, गोचर एवं अगोचर अगणित पदार्थों को उत्पन्न करती तथा अपनी अविरत कर्मधारा और सृष्टि-प्रवाह के स्थिर आधारों के तौर पर उन्हें प्रयोग में लाती दिखायी देती है । साक्षि-चेतना में एकान्तभाव से प्रवेश करके वह शान्त, निर्लिप्त तथा निश्चल हो जाता है । वह देखता है कि अब तक वह प्रकृति की गतियों को निष्क्रिय भाव में प्रतिबिंबित करता आया है और फिर पीछे उन्हींको अपनी मान लेता रहा है; तथाच, इसी प्रतिबिंबित करने की क्रिया के कारण उन्हें उसकी अन्तरस्थ साक्षी आत्मा से एक आध्यात्मिक-सा मूल्य और महत्त्व प्राप्त हो गया है । परन्तु अब उसने वह अध्यारोप या प्रतिबिंबात्मक तादात्म्य वापिस ले लिया है । वह केवल अपनी शान्त आत्मा के प्रति ही सचेतन है और उसके चारों ओर जो गतिशील है उस सबसे विलग है । सब चेष्टाएं उसके बाहर हो रही हैं और उनकी अन्तरीय वास्तविकता की एकदम इति हो गयी है । वे उसे अब यान्त्रिक प्रतीत होती हैं, अब वह उनसे अनासक्त रहकर उन्हें समाप्त कर सकता है । केवल राजसिक गति में प्रवेश करने पर उसे एक विपरीत प्रकार का आत्मज्ञान होता है । स्वयं अपने विषय में उसे ऐसा अनुभव होता है मानो वह क्रियाओं का एक पुंज और शक्तियों की रचना एवं परिणाम है; यदि इस सब प्रपंच के बीच कोई सक्रिय चेतना, यहां तक कि किसी प्रकार का गतिशील पुरुष हो भी सही तो भी इसमें स्वतन्त्र आत्मा तो कहीं नहीं है । सत्ता की ये दो विभिन्न और विरोधी अवस्थाएं उसमें बारी-बारी से आती हैं अथवा एक साथ एक-दूसरे के आमने-सामने ही आ उपस्थित होती है । एक तो आन्तर सत्ता में प्रशान्त रहकर निरीक्षण करती है, किन्तु चलायमान नहीं होती और प्रकृति की क्रिया में भाग नहीं लेती; दूसरी किसी बाह्य या तलवर्त्ती आत्मा में सक्रिय रहती हुई अपनी अभ्यस्त गतियां जारी रखती है । उसने पुरुष-प्रकृति के महान् द्वैत के एक तीव्र पृथक्कारक अनुभव में प्रवेश पा लिया है ।
परन्तु जैसे-जैसे चेतना गभीर होती जाती है, वैसे-वैसे वह इस बात से सचेतन होता जाता है कि यह केवल एक प्रारम्भिक सम्मुखीन प्रतीति है । उसे विदित हो जाता है कि उसकी अन्तःस्थित साक्षी आत्मा के प्रशान्त अवलम्बन के द्वारा अथवा उसकी स्वीकृति या अनुमति से ही यह कार्यवाहिका प्रकति उसकी सत्ता पर घनिष्ठता
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या दृढ़ता से कार्य कर सकती है । यदि आत्मा अपनी अनुमति वापिस ले ले तो भी प्रकृति की गतियां सर्वथा यंत्रवत् बार-बार होती ही रहती हैं । प्रारम्भ में ये जबर्दस्त होती हैं मानो अब भी बलात् अपना अधिकार जमाने का यत्न कर रही हों, पर बाद में इनकी सक्रियता और वास्तविकता न्यूनातिन्यून हो जाती है । स्वीकृति या अस्वीकृति की इस शक्ति का अधिक सक्रिय प्रयोग करने पर वह देखता है कि प्रकृति की गतियों को वह पहले तो धीमे-धीमे तथा अनिश्चित रूप से और पीछे अधिक निश्चित तौर पर परिवर्तित कर सकता है । अन्त में उसके समक्ष यह तथ्य प्रकट हो जाता है कि इस साक्षी आत्मा में या इसके पीछे एक ज्ञाता और अधिष्ठाता संकल्प विराजमान है जो प्रकृति में क्रिया कर रहा है । उसे उत्तरोत्तर ऐसा भासित होने लगता है कि प्रकृति के सब व्यापार उस चीज की अभिव्यक्तियां हैं जिसे प्रकृति की सत्ता का यह प्रभु जानता है और जिसके लिये यह या तो सक्रिय संकल्प करता है या निष्क्रिय अनुमति देता है । स्वयं प्रकृति भी यान्त्रिक इसी अंश में प्रतीत होती है कि उसके व्यापार सावधानी से व्यवस्थित किये हुए दिखायी देते हैं, परन्तु वास्तव में वह एक चिन्मय शक्ति है जिसके अन्दर एक आत्मा है, जिसकी प्रवृत्तियों में एक आत्मसचेतन आशय है और जिसकी गतिविधियों तथा रचनाओं में एक गुप्त संकल्प एवं ज्ञान का प्रकाश अभिव्यक्त होता है । यह द्वैत, पक्षत: भिन्न होने पर भी, अपने-आपमें अविच्छेद्य है; जहां-जहां प्रकृति है वहां-वहां पुरुष है, जहां-जहां पुरुष वहां-वहां प्रकृति । अपनी निष्क्रियता में भी वह प्रकृति की सम्पूर्ण शक्ति एवं बलों को, प्रयोग के लिये तैयार अवस्था में, अपने अन्दर धारण किये होता है । प्रकृति कर्म के वेग में भी अपने सर्जनोद्देश्य के सम्पूर्ण आधार तथा आशय के रूप में पुरुष की समस्त निरीक्षक और आदेशात्मक चेतना को अपने साथ लिये फिरती है । एक बार फिर जिज्ञासु अपने अनुभव से जान लेता है कि 'एकं सत्' के दो ध्रुव हैं और इनकी परस्पर-सम्बद्ध ऋण- धनात्मक शक्ति की दो दिशाएं या धाराएं हैं जो एक-दूसरी के साथ मिल कर 'सत्' के अन्तर्निहित वस्तुमात्र की अभिव्यक्ति संपादित करती हैं । यहां भी वह देखता है कि भेदात्मक रूप मोक्षजनक है; यह उसे उस बन्धन से मुक्त कर देता है जो अविद्या में प्रकृति की दोषपूर्ण क्रियाओं के साथ एकाकारता स्थापित करने से पैदा होता है । एकीकारक रूप क्रियाशील और फलोत्पादक है; यह उसे प्रभुत्व और पूर्णता प्राप्त करने की सामर्थ्य देता है । प्रकृति के अन्दर जो चीज कम दिव्य या प्रत्यक्षत: अदिव्य है उसे त्याग कर वह अपने अन्दर इसके आकारों और गतियों को एक महत्तर जीवन के उत्कृष्टतर आदर्श तथा उसके विधान एवं लयताल के अनुसार फिरसे गढ़ सकता है । एक आध्यात्मिक और अतिमानसिक स्तर-विशेष पर यह द्वैत और भी अधिक पूर्णता के साथ एक चिच्छक्तिमय परम आत्मा का द्विक बन जाता है । इसकी शक्तिमत्ता किन्हीं भी बाधाओं को नहीं मानती और प्रत्येक सीमा को
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तोड़ डालती है । इस प्रकार पुरुष-प्रकृति का यह द्वैत, जो पहले भेदयुक्त प्रतीत होता था पर अब द्वयात्मक अनुभव होता है, उसके समक्ष अपने समस्त सत्यसहित इस रूप में प्रकाशित हो जाता है कि यह सब आत्माओं की आत्मा का, सत्ता के स्वामी और यज्ञ के ईश्वर का द्वितीय महान् यन्त्रात्मक और कार्यसाधक रूप है ।
भगवत्प्राप्ति की इनसे भिन्न एक तीसरी दिशा में जिज्ञासु के सामने एक और, इनसे मिलता-जुलता पर पक्षतः विभिन्न, द्वैत उपस्थित होता है जिसमें द्वयात्मक स्वरूप अधिक शीघ्रता से प्रत्यक्ष होता है । वह ईश्वर और शक्ति का क्रियाशील द्वैत है । एक तरफ तो जिज्ञासु को अनन्त और स्वयंभू देवाधिदेव के उस सत्तात्मक रूप का ज्ञान होता है जिसमें वह देव सब वस्तुओं को सत्ता की अनिर्वचनीय गर्भावस्था में धारण करता है, जिसमें वह सब आत्माओं की आत्मा और सब जीवों का जीव है, सब पदार्थों का आध्यात्मिक पदार्थ और निर्वैयक्तिक अकथनीय सत् है; पर साथ ही वह एक असीम व्यक्ति भी है जो यहां अगणित व्यक्तित्वों में अपने-आपको ही प्रकट करता है, वह ज्ञान का स्वामी, शक्तियों का स्वामी, प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य का ईश्वर, सब लोकों का एक ही उद्गम, आत्म-अभिव्यंजक और आत्मसर्जक है, विश्वात्मा, विश्व-मन तथा विश्व-प्राण है, वह एक चेतन और सजीव सद्वस्तु है और इस दृश्य जगत् को, जो अचेतन एवं निर्जीव जड़तत्त्व प्रतीत होता है, आश्रय प्रदान करता है । दूसरी तरफ उसे देवाधिदेव के उस रूप का भी ज्ञान होता है जो कार्य-निष्पादक चिच्छक्ति से सम्पन्न है । वह चिच्छक्ति एक ऐसी आत्म-सचेतन शक्ति के रूप में प्रकट की गयी है जो अपने भीतर सब कुछ धारण और वहन करती है और उसे विश्वगत देश-काल में अभिव्यक्त करने के लिये नियुक्त है । उसे प्रत्यक्ष हो गया है कि यहां एक परम और अनन्त सत् है जो अपने दो भिन्न पार्श्वों में हमारे सामने प्रकट है और उन पार्श्वों का एक-दूसरे के साथ सीधे और उल्टे का सम्बन्ध है । उस सत्स्वरूप देवाधिदेव में सभी कुछ तैयार या पूर्व-वर्तमान है, वह उससे प्रादुर्भूत तथा उसके संकल्प और उपस्थिति के द्वारा धारित होता है । शक्तिस्वरूप देवाधिदेव सबको प्रकट करता है और उन्हें यहां गति में वहन भी करता है । उसी शक्ति से और उसी शक्ति में सब कुछ संभूत होता तथा क्रिया करता है और अपने वैयक्तिक या सार्वभौम प्रयोजन को विकसित करता है । यह भी एक द्वैत है जो अभिव्यक्ति के लिये आवश्यक है । यह शक्ति की उस द्विगुण धारा को उत्पन्न करता तथा समर्थ बनाता है जो जगत् के व्यापारों के लिये सदैव आवश्यक प्रतीत होती है । शक्ति की ये धाराएं एक ही सत्ता के दो ध्रुव हैं, परन्तु द्वैत के इस रूप में ये ध्रुव एक-दूसरे के अधिक निकट हैं तथा प्रत्येक दूसरे की शक्ति को अपने सारतत्त्व तथा सक्रिय प्रकृति में सदैव स्पष्ट रूप से धारण करता है । इस तथ्य के बल पर दिव्य परम रहस्य के दो महान् तत्त्व—वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक अथवा सगुण और निर्गुण —यहां परस्पर
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एकीभूत हैं, सर्वांगीण सत्य का अन्वेषक ईश्वरशक्ति के द्वैत में अपने-आपको दिव्य परत्परता और अभिव्यक्ति के उस परम रहस्य के निकट अनुभव करता है जो किसी अन्य अनुभव के द्वारा प्रस्तुत रहस्य की अपेक्षा अधिक अन्तरंग और चरम है ।
ईश्वरी शक्ति, भागवती चिच्छक्ति एवं जगज्जननी, सनातन 'एक' और व्यक्त 'बहु' के बीच मध्यस्था बनती है । एक तरफ तो यह एकमेव से लायी शक्तियों की क्रीड़ाद्वारा, अपने व्यक्तीकारक तत्त्व में 'एक' की अनन्त आकृतियों को तिरोभूत रखती और उसीमें से उन्हें आविर्भूत करती हुई, विश्व में बहुगुणित भगवान् को प्रकट करती है; दूसरी तरफ उन्हीं शक्तियो की पुनरारोहणकारिणी धारा से वह सब वस्तुओं को 'तत्' में, जिससे वे निर्गत हुई हैं, वापिस ले जाती है, जिससे कि आत्मा अपनी विकासशील अभिव्यक्ति में वहां भगवान् की ओर अधिकाधिक लौट सके अथवा यहां अपना दिव्य स्वरूप धारण कर सके । यद्यपि प्रकृति संसार के यन्त्रवत् चलने की क्रिया को आयोजित करती है तो भी उसका वास्तविक रूप यह नहीं कि वह निश्चेतन तथा यन्त्रवत् कार्य-निष्पादन करनेवाली शक्ति है, जैसा कि उसके बाह्याकार पर प्रथम दृष्टि डालते ही हम अनुभव करते हैं; न ही उसमें वह 'मिथ्यात्व' का धर्म है जो 'माया' -विषयक हमारी प्रथम धारणा के साथ जुड़ा रहता है, अर्थात् यह धर्म कि वह भ्रमों या अर्द्ध-भ्रमों की सृष्टि करनेवाली है । अनुभवित्री आत्मा को यह एकदम स्पष्ट हो जाता है कि यहां एक चिन्मय शक्ति है जिसका सारतत्त्व और स्वभाव वही है जो परमदेव का है, क्योंकि वह उसीसे प्रकट हुई है । यदि ऐसा लगता है कि उसने हमें अविद्या और निश्चेतना में डुबा दिया है, —किसी ऐसी योजना की पूर्त्ति के लिये जिसे हम अभी समझ नहीं पाते, —यदि उसकी शक्तियां हमें विश्व की इन सब अनिश्चित शक्तियों के रूप में दिखायी देती हैं तो भी यह पता चलते देर नहीं लगती कि वह हमारे अन्दर दिव्य चेतना के विकास के लिये कार्य कर रही है और ऊपर स्थित होकर वह हमें अपनी उच्चतर सत्ता की ओर खींच रही तथा दिव्य ज्ञान, संकल्प एवं आनन्द के वास्तविक सार को हमारे सम्मुख अधिकाधिक प्रकट कर रही है । अज्ञान की गतियों में भी जिज्ञासु की आत्मा को यह अनुभव हो जाता है कि प्रकृति का सचेतन मार्ग-निर्देश उसके पगों को अवलंब दे रहा है और उन्हें शनैः-शनैः या शीघ्रता से, सीधे रास्ते या बहुत घुमा-फिराकर, अन्धकार से महत्तर चेतना के प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरता की ओर और अशुभ एवं दुःख से उस शुभ और सुख की ओर ले जा रहा है जिनकी उसका मानवीय मन अभी एक धुंधली-सी कल्पना ही कर सकता है । इस प्रकार उसकी शक्ति एक साथ मोक्षप्रद तथा गतिशील, सर्जनकारी एवं कार्यक्षम है, —वस्तुएं जैसी आज हैं, केवल उन्हींकी नहीं, बल्कि जो आगे पैदा होने को हैं उनकी भी वह रचना करती है । अज्ञान के तत्त्व से निर्मित उसकी निम्नतर चेतना की टेढ़ी-मेढ़ी और उलझी गतियों को बहिष्कृत कर वह उसकी
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आत्मा और प्रकृति को फिरसे उच्चतर दैवी प्रकृति के सत्त्व और बलों में गढ़ती और नया बनाती है ।
इस द्वैत में भी भेदात्मक अनुभव सम्भव है । इसके एक सिरे पर जिज्ञासु केवल सत्ता के उस स्वामी से सचेतन हो सकता है जो उसे मुक्त और दिव्य बनाने के लिये उसके अन्दर अपने ज्ञान, शक्ति और आनन्द के सामर्थ्य बलपूर्वक उंडेल रहा है; शक्ति उसे इन ज्ञान आदि का द्योतक निर्वैयक्तिक बल या ईश्वर का गुणमात्र प्रतीत हो सकती है । दूसरे सिरे पर वह विश्व का सृजन करनेवाली उस जगज्जननी से मिलन प्राप्त कर सकता है जो अपने आत्मतत्त्व में से देवताओं और लोकों को तथा सब पदार्थों और सत्ताओं को उत्पन्न करती है । अथवा, यदि वह इन दोनों ही रूपों को देखता है तो भी वह इन्हें एक असम एवं विभेदक दृष्टि से ही देख सकता है, वह एक को दूसरे के अधीन कर देता है तथा शक्ति को ईश्वर के पास पहुंचने का साधनमात्र समझता है । इसके परिणामस्वरूप एक एकांगी प्रवृत्ति पैदा होती है अथवा समतोलता नष्ट हो जाती है; अर्थात् कार्य-निष्पादन का जो बल प्राप्त होता है वह अपने आधार पर सुप्रतिष्ठित नहीं होता अथवा ईश्वरीय सत्य का जो प्रकाश उपलब्ध होता है वह पूर्णत: क्रियाशील नहीं होता । जब इस द्वैत के दोनों पक्षों का पूर्ण मिलन साधित हो जाता है और वह उसकी चेतना पर अधिकार कर लेता है तब जिज्ञासु उस पूर्णतर शक्ति के प्रति उद्घाटित होने लगता है जो उसे यहां के विचारों और बलों के अस्त-व्यस्त संघर्ष से सर्वथा बाहर निकालकर उच्चतर सत्य में ले जायगी और इस अविद्यामय जगत् को प्रकाशयुक्त और मुक्त करने तथा इसपर प्रभुत्वपूर्ण ढंग से क्रिया करने के लिये उस सत्य के अवतरण को सम्भव बना देगी । उसने अब सर्वांगीण रहस्य को स्पर्श करना प्रारम्भ कर दिया है । यह रहस्य अपने पूर्ण रूप में तभी अधिगत हो सकता है जब वह मूल अज्ञान के साथ जटिलतापूर्वक गुंथे हुए ज्ञान के उस दोहरे स्तर को लांघ जाता है जिसका यहां राज्य छाया हुआ है और जब वह उस सीमा को पार कर लेता है जहां आध्यात्मिक मन अतिमानसिक विज्ञान में विलीन हो जाता है । एकमेव के इस तीसरे तथा अत्यन्त क्रियाशील द्वैत-पक्ष के द्वारा ही जिज्ञासु यज्ञ-महेश्वर की सत्ता के गहनतम रहस्य में अत्यन्त सर्वांगीण पूर्णता के साथ प्रवेश करने लगता है ।
कारण, जीवन की पहेली का हल जैसे इस रहस्य में छिपा है कि अचित् में से चेतना, प्राणहीन में से प्राण और प्रकृति में से आत्मा प्रकट होती है वैसे ही यह इस रहस्य के पीछे भी छिपा है कि इस आपातत: निर्वैयक्तिक विश्व में भी व्यक्तित्व उपस्थित है । यहां फिर एक और क्रियाशील द्वैत विद्यमान है जो प्रथम दृष्टि में जैसा दिखायी देता है उससे कहीं अधिक व्यापक है और जो शनैः-शनैः आत्म-प्रकाश करनेवाली शक्ति की लीला के लिये नितान्त आवश्यक है । अपनी अध्यात्म- अनुभूति में जिज्ञासु के लिये यह सम्भव है कि वह द्वैत के एक ध्रुव पर खड़ा
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होकर विराट् मन का अनुसरण करता हुआ सभी जगह मूलभूत निर्वैयक्तिकता के दर्शन करे । कारण, जड़ जगत् में विकासोन्मुख आत्मा एक ऐसी बृहत् निर्वैयक्तिक निश्चेतना से प्रारम्भ करती है जिसमें हमारी अन्तर्दृष्टि को तब भी एक प्रच्छन्न अनन्त आत्मा की उपस्थिति दिखायी देती है । फिर यह उस अनिश्चित चैतन्य और व्यक्तित्व के प्रादुर्भाव के साथ-साथ आगे बढ़ती है जो अपनी पूर्णतम अवस्था में भी एक उपाख्यान से प्रतीत होते हैं—एक ऐसा उपाख्यान जो अविच्छिन्न धारा के रूप में बराबर ही चलता रहता है । बाद में, यह जीवन के अनुभवद्वारा मन से ऊपर उठकर एक अनन्त, निर्वैयक्तिक और निरपेक्ष अतिचेतना में जा पहुंचती है जहां व्यक्तित्व, मनश्चेतना, प्राण-चेतना-सभी निर्वाण या मोक्षकारक नास्ति के कारण अन्तर्धान होते जान पड़ते हैं । इससे निचले शिखर पर जिज्ञासु अब भी इस आधारभूत निर्वैयक्तिकता को ही एक सर्वत्र विद्यमान, साथ ही बड़ी भारी मोक्षप्रद शक्ति के रूप में अनुभव करता है । यह उसके ज्ञान को वैयक्तिक मन की संकीर्णता से मुक्त कर देती है, यह उसके संकल्प को वैयक्तिक कामना के पंजे से, उसके हृदय को क्षुद्र विकारी भावों के बन्धन से, उसके प्राण को उसकी तुच्छ निजी प्रणाली से और उसकी आत्मा को अहंबुद्धि से मुक्त कर देती है । यह उन्हें शान्ति, समता, विशालता एवं सार्वभौमता प्रदान करती है और साथ ही अनन्तता का आलिंगन करने की स्वतंत्रता भी । ऐसा प्रतीत होगा कि कर्मयोग के लिये व्यक्तित्व एक आवश्यक तत्त्व है, मानो यह उसका मुख्य अवलंब तथा उद्गमतुल्य है । परन्तु यहां भी पता चलता है कि निर्वैयक्तिक एक अत्यन्त प्रत्यक्ष मोक्षकारक शक्ति है, क्योंकि एक विशाल अहंरहित निर्वैयक्तिकता से ही मनुष्य स्वतन्त्र कर्त्ता और दिव्य स्रष्टा बन सकता है । कोई आश्चर्य की बात नहीं कि द्वैत के निर्वैयक्तिक ध्रुव से प्राप्त इस अनुभव के दुर्दम प्रभाव के द्वारा प्रेरित होकर ही ऋषियों ने यह घोषणा कर दी हो कि बस यही एक मार्ग है और निर्वैयक्तिक अतिचेतना ही सनातन का अनन्य सत्य है ।
परन्तु इस द्वैत के विपरीत ध्रुव पर स्थित जिज्ञासु को अनुभव की एक अन्य ही दिशा दिखायी देती है जो हमारे हृदय के मूल तथा हमारी ठेठ जीवन-शक्ति में गहरे जमे हुए अन्तर्ज्ञान को प्रमाणित करती है । वह यह है कि निर्वैयक्तिक सनातनता में व्यक्तित्व चेतना, प्राण और आत्मा की तरह थोड़े दिनों का मेहमान नहीं है, वरंच इसमें सत्ता का वास्तविक मर्म निहित है । विराट् शक्ति के इस सुन्दर पुष्प को विश्व-प्रयास के लक्ष्य का पूर्वाभास तथा इसके वास्तविक आशय की झलक प्राप्त है । जैसे ही जिज्ञासु में गुह्य नेत्र खुलता है, उसे पीछे अवस्थित उन लोकों का ज्ञान होता है जिनमें चैतन्य और व्यक्तित्व बहुत बड़ा स्थान रखते हैं तथा प्रथम महत्त्व की वस्तु बन जाते हैं । यहां स्थूल जगत् में भी इस गुह्य दृष्टि के लिये जड़-तत्त्व की निश्चेतना एक गुप्त व्यापक चेतना से भर उठती है, इसकी निर्जीवता
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स्पन्दनशील जीवन को बसाये हुए है और इसकी यांत्रिक प्रणाली एक अन्तर्वासी प्रज्ञा का कौशल है, क्योंकि ईश्वर और जीव सभी जगह हैं । सब से ऊपर वह अनन्त चिन्मय पुरुष है जिसने अपने-आपको इन सब लोकों के अन्दर नाना रूपों में प्रकट कर रखा है । निर्वैयक्तिकता तो उसके प्राकटय का केवल एक प्रथम साधन है । यह मूल तत्त्वों तथा शक्तियों का क्षेत्र है और अभिव्यक्ति का एक सम आधार है । परन्तु वे शक्तियां अपने-आपको सत्ताओं के द्वारा प्रकट करती हैं और सचेतन आत्माएं उनके अधिष्ठातृदेवता हैं । वे उस चिन्मय पुरुष की, जो उनका मूलस्रोत है, अंशविभूतियां हैं । नानारूप अगणित व्यक्तित्व, जो उस एकमेव को प्रकट करता है, अभिव्यक्ति का वास्तविक आशय और प्रधान उद्देश्य है । आज यदि व्यक्तित्व संकुचित, खंडित तथा प्रतिबन्धक प्रतीत होता है तो इसका कारण यही है कि यह अपने उद्गम की ओर नहीं खुला है अथवा अपने को विराट् तथा अनन्त से परिपूरित करके अपने दैवी सत्य और पूर्णत्व में कुसुमित नहीं हुआ है । इस प्रकार यह सृष्टि-रचना कोई भ्रम या आकस्मिक यान्त्रिक-संयोग नहीं है, कोई ऐसा नाटक नहीं है जिसके होने की जरूरत नहीं थी; यह कोई निष्फल प्रवाह भी नहीं है, बल्कि सचेतन और जीवन्त सनातन की प्रगाढ़ गतिशीलता है ।
एक ही सत्ता के दो सिरों से दिखायी देनेवाला यह दृश्यगत आत्यन्तिक विरोध पूर्णयोग के जिज्ञासु के सामने कोई मौलिक कठिनाई नहीं पैदा करता । उसके सम्पूर्ण अनुभव ने उसे दिखा दिया है कि इन युगलरूप अवस्थाओं और इनकी शक्तियों की परस्परसम्बद्ध ऋण-योगात्मक धाराओं की इसलिये आवश्यकता है कि एकमेव सत्ता के भीतर जो कुछ है उसकी अभिव्यक्ति साधित हो सके । स्वयं उसके लिये व्यक्तित्व और अव्यक्तित्व उसके आध्यात्मिक आरोहण के हितार्थ दो पंख रहे हैं और उसे यह भाविदृष्टि प्राप्त हो गयी है कि वह एक ऐसी चोटी पर पहुंचेगा जहां उनकी साहाय्यप्रद परस्पर-क्रिया उनकी शक्तियों के सम्मिलन का रूप ले लेगी और एक अखंड सद्वस्तु को आविर्भूत करेगी तथा भगवान् की आद्या शक्ति को क्रिया में प्रवृत्त कर देगी । सत्ता के मूलभूत पक्षों में ही नहीं, बल्कि अपनी साधना की सम्पूर्ण प्रक्रिया में भी उसने उनका दोहरा सत्य तथा परस्परपूरक व्यापार अनुभव किया है । एक निर्वैयक्तिक उपस्थिति ने उसकी प्रकृति पर ऊपर से अधिकार जमा लिया है अथवा उसके अन्दर प्रविष्ट होकर उसे अपने वश में कर लिया है । एक प्रकाश ने अवतीर्ण होकर उसके मन तथा जीवन-शक्ति को एवं उसके शरीर के ठेठ कोषों तक को उसके आप्लावित कर दिया है, उन्हें ज्ञान से प्रकाशित कर दिया है और उसके अपने स्वरूप को एवं उसकी अत्यन्त प्रच्छन्न तथा सन्देहातीत चेष्टाओं तक को उसके आगे खोलकर रख दिया है; जो-जो अज्ञान से सम्बन्ध रखता था उस सबको या तो प्रकाश में लाकर पवित्र कर दिया है या उसे मिटा डाला है अथवा उसे उज्ज्वल रूप में परिणत कर दिया है । एक शक्ति उसके अन्दर
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धाराओं में या समुद्र की भांति प्रवाहित हुई है, उसने उसकी सत्ता में तथा सभी अंगों में क्रिया की है, सभी जगह विघटन, नव-निर्माण, पुनर्गठन तथा रूपान्तर किया है । एक आनन्द ने उसे आक्रान्त किया है और जतला दिया है कि वह दुःख-ताप को असम्भव कर दे सकता है तथा स्वयं पीड़ा को भी दिव्य सुख में बदल सकता है । एक सीमातीत प्रेम ने प्राणिमात्र से उसका सम्बन्ध जोड़ दिया है अथवा एक अभेद्य घनिष्ठता और अकथ मधुरता एवं सुन्दरता का लोक उसके सामने प्रकाशित कर दिया है और पार्थिव जीवन की विषमता के बीच भी अपने पूर्णता के विधान तथा अपने परमोल्लास को आरोपित करना आरम्भ कर दिया है । एक आध्यात्मिक सत्य और ऋत ने इस संसार के शुभ और अशुभ को अपूर्णता या मिथ्यात्व का दोषी ठहराया है और एक परम शुभ एवं उसके सूक्ष्म सामंजस्य- सूत्र का तथा उसके द्वारा कर्म, अनुभूति और ज्ञान के उन्नयन का रहस्य खोल दिया है । परन्तु इन सबके पीछे तथा इनके अन्दर उसने एक देव को अनुभव किया है जो ये सभी चीजें है, —जो प्रकाश का दाता, मार्गदर्शक, सर्वज्ञ, शक्ति का स्वामी, आनन्ददाता सखा, सहायक, पिता, माता, संसार-क्रीड़ा में खेल का साथी, उसकी सत्ता का परम प्रभु उसकी आत्मा का प्रियतम और प्रेमी है । भगवान् के साथ आत्मा के सम्पर्क में वे सभी सम्बन्ध विद्यमान रहते हैं जिनसे मानव व्यक्ति परिचित है; किन्तु वे अतिमानवीय स्तरों पर पहुंच जाते हैं और उसे दिव्य प्रकृति धारण करने के लिये बाध्य कर देते हैं ।
जिस चीज की हम खोज कर रहे हैं वह पूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण शक्ति है और साथ ही सत्ता के मूल में अवस्थित 'सर्व' एवं अनन्त के साथ मिलन की परिपूर्ण विपुलता है । पूर्णयोग के जिज्ञासु के लिये कोई भी एक अनुभव या कोई भी एक भागवत पथ सनातन देव के ऐकान्तिक सत्य का रूप धारण नहीं कर सकता, चाहे वह मानव-मन के लिये कितना भी अभिभूतकारी, उसकी क्षमता के लिये कितना भी पर्याप्त और एकमात्र या चरम सद्वस्तु के रूप में कितनी भी सुगमता से स्वीकार्य क्यों न हो । भागवत एकत्व के चरम-परम अनुभव का और भी अधिक प्रगाढ़ आलिंगन तथा यथेष्ट अवगाहन वह केवल तभी कर सकता है यदि वह भागवत बहुत्व के अनुभव का पूर्ण रूप से अनुसरण करे । बहुदेवतावाद और एकदेवतावाद के पीछे जो कुछ भी सत्य है वह सब उसकी खोज के क्षेत्र के भीतर आ जाता है; परन्तु मानव-मन के निकट इनका जो स्थूल अर्थ है उसे लांघकर वह भगवान् के भीतर निहित इनके गुह्य सत्य को पकड़ पाता है । वह देख लेता है कि कलहायमान संप्रदायों और दर्शनों का लक्ष्य क्या है और सद्वस्तु के प्रत्येक पार्श्व को वह उसके अपने स्थान में स्वीकार करता है । किन्तु उनकी संकीर्णता और भ्रान्तियों को तजकर वह तब तक आगे बढ़ता जाता है जब तक वह उस एकमेव सत्य को ही नहीं ढूंढ़ लेता जो उन्हें एक साथ बांधे हुए है । मानवरूप-ईश्वरवाद ( ) एवं मनुष्यपूजा की निन्दा उसे
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विचलित नहीं कर सकती, क्योंकि वह देखता है कि ये तो उस अज्ञ तथा गर्वित तर्कबुद्धि या विश्लेषक मन के पक्षपात हैं जो अपने संकुचित क्षेत्र में अपनी ही धुरी के चारों ओर घूमता रहता है । यद्यपि मानवीय सम्बन्ध, जैसे कि ये आज मनुष्य द्वारा व्यवहार में लाये जाते हैं, तुच्छता, विकार और अज्ञान से पूर्ण हैं तो भी ये भगवान् की ही किसी वस्तु के विरूप प्रतिबिम्ब हैं और इन्हें भगवान् की ओर फेरकर वह उसे पा लेता है जिसके ये प्रतिबिम्ब हैं और उसे जीवन में अपनी अभिव्यक्ति करने के लिये नीचे उतार लाता है । मनुष्य के ही द्वारा, जब कि वह अपने-आपको अतिक्रान्त करके परम पूर्णत्व की ओर उद्घाटित हो जाता है, भगवान् अपने को यहां व्यक्त करते हैं । आध्यात्मिक विकास की धारा और प्रक्रिया में ऐसा होना अनिवार्य है । अतएव, वह ईश्वर को मानव-शरीर धारण किये देखकर, मानुषीं तनुमाश्रितम्, उससे घृणा नहीं करेगा, न उसके प्रति अपने को अन्धा ही बना लेगा । ईश्वर-विषयक सीमित मानवीय धारणा को पार कर वह एकमेव दिव्य सनातन के विचार पर पहुंच जायेगा । परन्तु वह देवताओं के, —सनातन के उन वैश्व व्यक्तित्वों के, —जो जगत्-क्रीड़ा को आश्रय देते हैं, रूपों में भी उस सनातन का साक्षात् करेगा और विभूतियों-देहधारी जगत्-शक्तियों या मानव-नायकों—के आवरण के पीछे भी उसे पहचानेगा, वह गुरु में उसका आदर और आज्ञा-पालन करेगा और अवतार में भी उसकी पूजा करेगा । यदि वह किसी ऐसे व्यक्ति से मिल सके जो उस 'सत् ' को उपलब्ध कर चुका है या वही 'तत्' बन रहा है जिसकी वह स्वयं खोज कर रहा है और यदि 'तत्' की अभिव्यक्ति के इस आधार में उसकी ओर खुल कर वह स्वयं भी उसे उपलब्ध कर सके तो इसे वह अपना परम सौभाग्य मानेगा । कारण, यह एक विकसनशील परिपूर्णता का अत्यन्त स्पष्ट चिह्न होता है और साथ ही जड़तत्त्व में उस वृद्धिशील अवतरण के महत् रहस्य का आश्वासन होता है जो स्थूल सृष्टि का गुप्त तात्पर्य है और पार्थिव सत्ता की सार्थकता है ।
यज्ञ की प्रगति में यज्ञ का अधीश्वर जिज्ञासु के सामने अपने को इसी प्रकार प्रकट करता है । यह प्राकटय किसी भी स्थिति में प्रारम्भ हो सकता है; किसी भी रूप में कर्म का स्वामी उसके अन्दर कर्म को अपने हाथ में ले सकता है और अपनी उपस्थिति को निरावृत करने के लिये उसपर तथा कर्म पर उत्तरोत्तर दबाव डाल सकता है । समय आने पर सभी रूप अपने-आपको प्रकाशित करते हैं, एक-दूसरे से वियुक्त और संयुक्त होते हैं, घुलते-मिलते और एक हो जाते हैं । अन्त में उस सबमें से वह परम सर्वांगीण सद्वस्तु उद्भासित हो उठती है जो मन के लिये अज्ञेय है, क्योंकि मन अज्ञान का अंग है, पर जो फिर भी ज्ञेय है, क्योंकि वह अध्यात्म-चेतना और अतिमानसिक ज्ञान के प्रकाश में अपने प्रति सचेतन है ।
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यज्ञ का प्रथम लक्ष्य और इसकी चरम सफलता की शर्त है—सर्वोच्च सत्य या सर्वोच्च सत् चित्, शक्ति, आनन्द और प्रेम का दिव्य दर्शन— उन सत्य आदि का जो निर्वैयक्तिक भी हैं और वैयक्तिक भी और जो इस कारण हमारी सत्ता के दोनों पार्श्वों को ऊंचा उठा ले जाते हैं—क्योंकि हमारे अन्दर भी तो व्यक्तित्व, और अव्यक्तित्वमय तत्त्वों तथा शक्तियों का समुदाय अस्पष्ट रूप से मिले हुए हैं । यज्ञ की सफलता का रूप यह होता है कि जो 'तत्' हमारी दृष्टि और अनुभूति के समक्ष इस प्रकार व्यक्त होता है उसके साथ हम अपनी सत्ता का मिलन प्राप्त कर लेते हैं । यह मिलन तीन प्रकार का होता है । एक तो आध्यात्मिक सारतत्त्व में तादात्म्य, दूसरा इस परमोच्च सत्ता और चेतना में हमारी आत्मा का अन्तर्वास, तीसरा 'तत्' और हमारी ऐहिक यन्त्रात्मक सत्ता में प्रकृतिगत साधर्म्य या एकत्वरूपी सक्रिय मिलन । पहला अज्ञान से मुक्ति और सत्य तथा सनातन से तादात्म्य अर्थात् मोक्ष और सायुज्य है जो ज्ञानयोग का विशेष लक्ष्य है । दूसरा आत्मा का भगवान् के साथ या उसके अन्दर निवास अर्थात् सामीप्य और सालोक्य है । यह सब प्रकार के प्रेमयोग एवं आनन्दयोग की बलवती आशा है । तीसरा प्रकृति में एकरूपता या भगवत्साधर्म्य है अर्थात् वैसा ही पूर्ण बनना जैसा पूर्ण 'वह' है, —यह शक्ति एवं पूर्णता के या दिव्य कर्मों तथा सेवा के सभी योगों का उच्च उद्देश्य है । तीनों की सम्मिलित पूर्णता, —जो यहां आत्म-अभिव्यंजक भगवान् की बहुगुणित एकता पर आधारित होती है, —सर्वांगीण योग की परिणति है, इसके त्रिविध पथ का लक्ष्य तथा इसके त्रिविध यज्ञ का फल है ।
तादात्म्य-रूप मिलन हमें उपलब्ध हो सकता है अर्थात् हमारी सत्ता के उपादान का उस परम आत्मिक उपादान में, हमारी चेतना का उस दिव्य चेतना में, हमारी आत्मस्थिति का आध्यात्मिक परमानन्द की उस मस्ती में अथवा सत्ता के उस शान्त शाश्वत आनन्द में मोक्ष तथा रूपान्तर साधित हो सकता है । भगवान् में प्रकाशमय अन्तर्निवास हम प्राप्त कर सकते हैं; इससे हम अन्धकार तथा अज्ञान की इस निम्नतर चेतना में किसी प्रकार के पतन या निर्वासन से सुरक्षित रहेंगे और हमारी आत्मा प्रकाश, हर्ष, स्वातंत्र्य और एकत्व के अपने स्वाभाविक लोक में स्वतन्त्रता तथा स्थिरतापूर्वक विचरण करेगी । यह अन्तर्निवास हमें किसी अन्य पारलौकिक जीवन में ही प्राप्त नहीं करना है, वरन् इसे यहां भी खोजना और उपलब्ध करना है, और ऐसा तभी हो सकता है यदि एक अवतरण सम्पन्न हो, अर्थात् यदि भागवत सत्य को यहां उतार लाया जाय और आत्मा के निज धाम को, प्रकाश, हर्ष, स्वतंत्रता और एकता के धाम को यहां प्रतिष्ठित किया जाय । हमारी आत्मा और चेतन तत्त्व के समान ही जब हमारी करणात्मक सत्ता भी मिलन लाभ कर लेगी, तब हमारी अपूर्ण प्रकृति दैवी प्रकृति के साक्षात् रूप और प्रतिमूर्ति में परिणत हो जायगी । इसे अज्ञान की अन्ध, कुंठित, पंगु और विषम चेष्टाओं को तजकर ज्योति,
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शान्ति, आनन्द, सामंजस्य, सार्वभौमता, प्रभुता, पवित्रता और पूर्णता का स्वभाव धारण करना होगा । इसे अपने-आपको दिव्य ज्ञान के पात्र में, सत्ता की दिव्य संकल्पशक्ति और बल के यंत्र में तथा दिव्य प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य के स्रोत में रूपान्तरित कर देना होगा । यही वह रूपान्तर है जो हमें सम्पन्न करना होगा, अपनी कालबद्ध सांत सत्ता को सनातन और अनन्त के साथ योगयुक्त करके हमें उस सब को, जो कुछ कि हम इस समय हैं या प्रतीत होते हैं, पूर्ण रूप से रूपान्तरित करना होगा ।
यह सब कठिन परिणति तभी सम्भव हो सकती है यदि हमारी चेतना का एक महान् परिवर्तन तथा आमूलचूल विपर्यय और हमारी प्रकृति का एक अलौकिक समग्र रूपान्तर सम्पन्न हो जाय । सम्पूर्ण सत्ता को आरोहण करना होगा, इहलोक में बंधी हुई और अपने करणोंपकरणों तथा अपनी परिस्थितियोंसे जकड़ी हुई आत्माको ऊर्ध्वस्थ स्वतंत्र शुद्ध आत्मा की और आरोहण करना होगा, जीव को किसी आनन्दमय अति-जीव की ओर, मन को किसी प्रकाशमय अतिमानस की ओर तथा प्राण को किसी बृहत् अति-प्राण की ओर आरोहण करना होगा; यहां तक कि हमारे शरीर को भी अपने उद्गम से मिलने के लिये एक शुद्ध तथा नमनीय आत्मिक उपादान की ओर आरोहण करना होगा । यह आरोहण एक ही तेज उड़ान में पूरा नहीं हो सकता, बल्कि वेद में वर्णित यज्ञ के आरोहण की भांति यह एक शिखर से दूसरे शिखर पर आरोहण होता है जिसमें मनुष्य प्रत्येक चोटी से यह देखता है कि अभी ऊपर और बहुत कुछ है जिसे सम्पन्न करना शेष है । १ साथ ही, ऊपर हमने जो उपलब्ध किया है उसे नीचे प्रतिष्ठित करने के लिये अवतरण का होना भी आवश्यक है । प्रत्येक शिखर को जीतने के बाद हमें उसकी शक्ति और प्रकाश को निम्नतर मर्त्य गति में उतारने के लिये लौटना होता है । ऊर्ध्व में नित्य-प्रकाशमान ज्योति की उपलब्धि के अनुरूप ही नीचे अवचेतन प्रकृति की गहनतम गुहाओं तक प्रत्येक अंग में छिपी हुई उस ज्योति का उन्मुक्त होना भी आवश्यक है । आरोहण की यह तीर्थयात्रा एवं रूपान्तर के प्रयास के लिये यह अवतरण अनिवार्य रूप से अपने साथ तथा अपने चारों ओर की विरोधी शक्तियों के साथ एक संघर्ष होता है, एक लंबा युद्ध होता है । जब तक यह चलता रहता है तब तक स्वभावतः ही ऐसा लग सकता है कि यह कभी समाप्त नहीं होगा । क्योंकि, हमारी सारी पुरानी तमसावृत और अज्ञ प्रकृति रूपान्तरकारी प्रभाव का बार-बार हठपूर्वक विरोध करेगी, पारिपार्श्विक विश्वप्रकृति की अनेकों बद्धमूल शक्तियां इसकी शिथिल अनिच्छुकता या इसके सबल प्रतिरोध का पृष्ठपोषण करेंगी, अज्ञान की शक्तियां, उसकी शासक सत्ताएं और उसके अधिपति अपना राज्य आसानी से नहीं छोड़ेंगे । प्रारम्भ में दीर्घ काल के लिये एक प्रायः आयासपूर्ण तथा कष्टप्रद अवस्था आ
१ यत्सानोः सानुमारुहद् भृर्यस्पष्ट कर्त्वम्—। ऋ. - १. १०. २
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सकती है जिसमें हमारी सत्ता की तैयारी और शुद्धि होती रहती है । यह अवस्था तब तक रहती है जब तक कि सारी-की-सारी सत्ता ही महत्तर सत्य और प्रकाश अथवा भागवत प्रभाव और उपस्थिति के प्रति उद्घाटित होने के लिये उद्यत और उपयुक्त नहीं हो जाती । और, जब यह केंद्रत योग्य, उद्यत और उद्घाटित हो जाती है तब भी उस अवस्था के आने में बहुत समय लग जाता है जब हमारे मन, प्राण और शरीर की सब गतियां और हमारे व्यक्तित्व के सब बहुविध एवं संघर्षकारी अंग तथा तत्त्व रूपांतर की कठिन और कठोर प्रक्रिया को स्वीकार करने के योग्य बन जाते हैं और स्वीकार करके उसे सहन करने में भी समर्थ होते हैं । जब हम अपनी चेतना का अंतिम अतिमानसिक रूपान्तर और विपर्यय करना चाहते हैं, तब अपनी सत्ता के सभी अंगों के इच्छुक रहते भी हमें वर्तमान अस्थिर सृष्टि से संबद्ध सार्वभौम शक्तियों के विरुद्ध जो संघर्ष जीतना पड़ता है वह अत्यधिक कठिन होता है । कारण, वह अतिमानसिक रूपान्तर तो किसी प्रकाशयुक्त अज्ञान को नहीं, वरन् भागवत सत्य को उसकी परिपूर्णता में हमारे अंदर प्रतिष्ठित करेगा जब कि ये शक्तियां केवल प्रकाशयुक्त अज्ञान को ही अधिक सुगमता से अवकाश देना चाहेंगी ।
इसीलिये यह अनिवार्य है कि हम उस 'तत्' के प्रति जो हमसे परे है पूर्ण रूप से नमन और समर्पण करें । इससे उसकी शक्ति हमारे अन्दर पूर्ण और स्वतंत्र रूप से किया कर सकेगी । जैसे-जैसे यह आत्म-दान बढ़ता है, यज्ञ का कर्म अधिक सुगम और अधिक शक्तिशाली होता जाता है और विरोधी शक्तियों की बाधा का अधिकांश बल, वेग और सत्त्य नष्ट हो जाता है । जो कुछ इस समय कठिन या अव्यवहार्य प्रतीत होता है उसे सम्भवनीय और यहां तक कि सुनिश्चित वस्तु में परिणत करने के लिये दो आभ्यन्तर परिवर्तन अत्यधिक सहायक होते हैं । प्रथम तो अन्दर की वह गुप्त अन्तरतम आत्मा सामने आ जाती है जो मन की चंचल क्रियाशीलता से, हमारे प्राणिक आवेगों की हलचल से तथा भौतिक चेतना के अन्धकार से आवृत थी—यही वे तीन शक्तियां हैं जिन्हें हम इस समय, इनके अस्तव्यस्त संयोग में, अपनी आत्मा कहकर पुकारते हैं । आत्मा के सामने आने के फलस्वरूप केंद्र में एक भागवत उपस्थिति अपनी मोक्षजनक ज्योति और अमोघ शक्ति के सहित, अपेक्षाकृत निर्बाध रूप में, विकसित होने लगेगी और फिर उसकी ज्योति एवं शक्ति हमारी प्रकृति के समस्त चेतन और अवचेतन स्तरों के भीतर विकीर्ण होने लगेगी । यही दो चिह्न हैं, इनमें से पहला यह सूचित करता है कि परम खोज के प्रति हमारी दीक्षा और समर्पण पूर्ण हो गये हैं, दूसरा यह कि भगवान् ने हमारा यज्ञ अन्तिम रूप में स्वीकार कर लिया है ।
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