दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
Translator:   Ravindra  PDF    LINK

प्रथम संस्करण : १९९१
 

 

 

 

 

मूल्य : रु. २५०.००

 

 

 

 

 

 

 ISBN 81-7058-239-3

 

 

 © श्रीअरविंद आश्रम ट्रस्ट, पांडिचेरी - ६०५००२

प्रकाशक : श्रीअरविंद आश्रम प्रकाशन विभाग, पांडिचेरी - ६०५००२

मुद्रक : श्रीअरविद आश्रम प्रेस, पांडिचेरी - ६०५००२


दो शब्द

 

 श्रीअरविंद की 'लाइफ डिवाइन' अथवा 'सावित्री' का अनुवाद करना एकदम असंभव काम है फिर भी उन लोगों के लिये जो मूल पुस्तक नहीं पढ़ सकते या मूल का आनंद नहीं ले सकते, अनुवाद अत्यंत आवश्यक है । इसी दृष्टि से श्रीअरविंद अंतर्णष्ट्रीय शिक्षा-केंद्र के हिंदी-विभाग ने 'लाइफ डिवाइन' को हाथ में लेने का साहस किया है ।

 

     हमारा विश्वास है कि सचमुच अच्छा अनुवाद आने में तो अभी बहुत समय लगेगा, तबतक जितना प्रयास होता जाये कम है ।

 

     माताजी ने इस सिलसिले में कहा था कि यदि तुम्हारा अनुवाद पाठक को हमारे संपर्क में ला सके तो वह अपने-आपमें बहुत बड़ी सफलता होगी । इस बात को लक्ष्य में रखते हुए अपनी ओर से घूस प्रयत्न किया गया है ।

 

 

प्रथम ग्रंथ

 

सर्वव्यापक सदवस्तु और विश्व

 

 


 

अध्याय १

 

मानव अभीप्सा

 

 परायततीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम् ।

व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृत कं चन बोधयन्ती ।।

कियात्या यस्मया भवाति या व्यूषुर्यार्याच नूनं व्युच्छान् ।

अनु पूर्वा: कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति ।।

 

वह उनके लक्ष्यों का अनुकरण करती है जो परे की ओर जा रहे हैं, वह आनेवाली उषाओं की शाश्वत परंपरा में सर्वप्रथम है--जो जीवित है उसे प्रकट करती है, किसी मृत को जगाती हुई उषा विस्तृत हो रही है... वह पहले प्रदीप्त उषाओं और अब प्रदीप्त होनेवाली उषाओं में सामंजस्य लाती है तो उसका विस्तार क्या है ? वह प्राचीन प्रभातों की इच्छा करती है और उनके प्रकाश को परिपूर्ण बनाती है, अपने आलोक को प्रक्षिप्त करती हुई वह आनेवाली शेष सभी उषाओं के साथ संपर्क साध लेती है ।

कुत्स अंगिरस, ऋग्वेद १. ११३ .८, १०

 

त्रिरस्थ ता परमा सत्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्ने: |

अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्यो रोरुचान: ||

यो  मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि ।

... अग्नि:...

ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्रे ।।

 

इस जगत् में स्थित इस भागवत शक्ति के त्रिविध परम जन्म हैं, वे सच्चे हैं, वे वाछनीय हैं, वह पूरी तरह से खुला हुआ शाश्वत में विचरता है और विशुद्ध, देदीप्यमान और परिपूर्ण करता हुआ वह चमकता है... मर्त्यों में जो अमर्त्य है, और जिसे ऋत पर अधिकार है वह एक देव है और हमारी दिव्य शक्तियों में सक्रिय ऊर्जा के रूप में हमारे अंदर प्रतिष्ठित हो गया है... हे शक्ति, तू ऊपर उठ, हे अग्नि, समस्त आवरणों को भेद डाल, हमारे अंदर दिव्य वस्तुओं को प्रकट कर ।

वामदेव गौतम, ऋग्वेद ४.१.७; ४.२.१; ४४.५

 

 मनुष्य के प्रबुद्ध विचारों में उसकी सबसे पहली तल्लीनता, जो उसकी चरम और अनिवार्य तल्लीनता भी मालूम होती है, क्योंकि वह संदेहवाद की लंबी से लंबी अवधियों के बाद, हर निष्कासन के बाद भी बनी रहती है, वही, जहांतक उसके


विचार की उड़ान है, उसकी उच्चतम तल्लीनता भी मालूम होती है । वह अपने-आपको परम देव के पूर्वाभास में, पूर्णता के लिये आवेश में, शुद्ध सत्य और अमिश्रित आनंद की खोज में, गुप्त अमरता के भाव में प्रकट करती है । मानव ज्ञान की प्राचीन उषाएं इस सतत अभीप्सा के बारे में अपनी साक्षी छोड़ गयी हैं । आज हम ऐसी मानवजाति को देखते हैं जो प्रकृति के बाह्य रूप के विजयी विश्लेषण से अघा तो गयी है पर संतुष्ट नहीं है । वह अपनी आदिम ललकों की ओर लौटने की तैयारी कर रही है । प्रज्ञा का आदि सूत्र ही अंतिम सूत्र होने की प्रतिज्ञा करता है-- भगवान् प्रकाश, स्वाधीनता और अमरता ।

 

     मानवजाति के ये सतत आदर्श उसकी सामाना अनुभूति का खंडन करते हैं और साथ ही साथ उन उच्चतर और गहरी अनुभूतियों का समर्थन करते हैं जो मानवजाति के लिये असामान्य हैं और जो अपने पूरे संगठित रूप में किसी क्रांतिकारी व्यष्टिगत प्रयास या विकसनशील व्यापक प्रगति द्वारा हीं पाये जाते हैं । पाशविक और अहंकारयुक्त चेतना में दिव्य सत्ता को जानना, उसे पाना और वही हो जाना, अपनी झुटपुटी, अस्पष्ट भौतिक मानसिकता को पूर्ण अतिमानसिक प्रकाश में बदलना, जहां केवल शारीरिक पीड़ा और भावनामय कष्ट से घिरे अस्थायी संतोष का दबाव है वहां शांति और स्वयंभू आनंद का निर्माण करना, जो संसार अपने-आपको यांत्रिक आवश्यकताओं के झुंड के रूप में प्रकट करता है वहां अनंत स्वाधीनता को प्रतिष्ठित करना, मृत्यु .और सतत परिवर्तन के अधीनस्थ शरीर में अमर जीवन प्राप्त करना--ये हैं वे चीजें जो भौतिक में भगवान् की अभिव्यक्ति और प्रकृति के पार्थिव क्रम-विकास के लक्ष्य के रूप में हमारे आगे प्रस्तुत की जा रही हैं । चेतना के वर्तमान गठन को अपनी संभावनाओं की सीमा माननेवाली सामान्य भौतिक बुद्धि के लिये अभीतक अनुपलब्ध आदर्शों का उपलब्ध तथ्यों द्वारा प्रत्यक्ष खंडन ही उनकी तर्कसंगति के विरुद्ध अंतिम युक्ति है । लेकिन अगर हम संसार की क्रियाओं का जस अधिक विवेकशील अवलोकन करें तो वह प्रत्यक्ष निषेध प्रकृति के गहनतम उपाय का एक भाग और उसकी संपूर्ण स्वीकृति की मुहर मालूम होता है ।

 

     कारण, जीवन की सभी समस्याएं तत्त्वतः सामंजस्य की समस्याएं हैं । वे किसी अनसुलझी विसंगति के प्रत्यक्ष दर्शन से और अप्राप्त मेल और एकता के सहजबोध से उठती हैं । मनुष्य के व्यावहारिक और अधिक पाशविक भाग के लिये अनसुलझी विसंगतियों के साथ संतुष्ट बने रहना संभव है । परंतु उसके पूरी तरह जाग्रत् मन के लिये असंभव है । सामान्यतः उसके व्यावहारिक भाग भी इस व्यापक आवश्यकता से या तो समस्या को बाहर बंद रखकर या एक मोटा-झोटा, कामचलाऊ, प्रकाशहीन समझौता स्वीकार करके बचते हैं । क्योंकि अनिवार्य रूप से समस्त प्रकृति सामंजस्य की खोज में है, जैसे मन अपने प्रत्यक्ष दर्शनों की व्यवस्था


में, उसी तरह प्राण और भौतिक भी अपने-अपने क्षेत्र में सामंजस्य की खोज करते हैं । दी गयी सामग्री में जितनी अधिक अव्यवस्था या जितनी भी अधिक विसंगतियां दीखती हों, यहांतक कि जिन वस्तुओं का उपयोग हो उनमें परस्पर अशाम्य विरोध हो, प्रेरणा उतनी ही मजबूत होगी और वह साधारणत: कम कठिन प्रयास के परिणाम की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और सशक्त व्यवस्था की ओर ले जायेगी । सक्रिय जीवन की ऐसे रूप के द्रव्य के साथ संगति जिसमें तामसिक जड़ता ही क्रियाशीलता की स्थिति मालूम होती है --यह विरोधों की एक ऐसी समस्या है जिसे प्रकृति ने हल कर लिया है और हमेशा अधिक जटिलताओं के साथ ज्यादा अच्छी तरह हल करने की कोशिश करने में लगी है । क्योंकि उसका सम्पूर्ण समाधान होगा पाशविक शरीर को सहारा देते हुए पूर्णतया संगठित मन की भौतिक अमरता । सचेतन मन और सचेतन इच्छा-शक्ति की ऐसे रूप और जीवन के साथ संगति जो अपने-आप में प्रकट रूप से आत्म-सचेतन नहीं हैं और अधिक-से-अधिक यांत्रिक या अवचेतन इच्छा के योग्य हैं --यह परस्पर विरोधों की एक और समस्या है जिसमें उसने (प्रकृति ने) आष्चर्यजनक परिणाम पैदा किये हैं और हमेशा अधिक ऊंचे चमत्कारों के संधान में रहती है क्योंकि वहां उसका परम चमत्कार होगा एक ऐसी पाशविक चेतना जो सत्य और प्रकाश की खोज करनेवाली न रहकर उन्हें प्राप्त कर चुकी होगी और इस प्रत्यक्ष और पूर्णता-प्राप्त ज्ञान के परिणामस्वरूप व्यावहारिक सर्वशक्तिमत्ता पा लेगी । तब और भी ऊंचे विरोधों की संगति की ओर मनुष्य की ऊर्ध्वाभिमुख प्रेरणा अपने-आपमें युक्तिसंगत ही नहीं है, बल्कि वह केवल एक ऐसे नियम और एक प्रयास की ही अभिपूर्ति है जो प्रकृति का आधारभूत उपाय और उसके वैश्व प्रयासों का एकमात्र तात्पर्य मालूम होता है ।

 

     हम भौतिक पदार्थ में प्राण के विकास और भौतिक पदार्थ में मन के विकास की बात करते हैं लेकिन विकास एक ऐसा शब्द है जो केवल एक तथ्य या घटना की बात कह देता है, उसे समझाता नहीं । लेकिन जबतक कि हम वेदांत के इस समाधान को न स्वीकार कर लें कि 'प्राण' पहले से ही 'भौतिक' में अंतर्लीन है और 'मन' 'प्राण' में -क्योंकि तत्त्वत: भौतिक पदार्थ प्राण का ही एक छिपा हुआ रूप है और प्राण चेतना का छिपा हुआ रूप है --तबतक इसका कोई कारण नहीं दिखलायी देता कि भौतिक तत्त्व में से प्राण और जीवित रूप में से मन विकसित हो । और तब इस क्रम में एक कदम रखने पर यह मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखलायी देती कि स्वयं मानसिक चेतना मन से परे के उच्चतर स्तरों का एक रूप या उसका एक पर्दा हो । उस अवस्था में भगवान्, प्रकाश, आनंद, स्वाधीनता, अमरता के प्रति मनुष्य का अपराजेय मनोवेग अपने-आपको उचित रूप से उस शृंखला में रखता हैं जो केवल प्रक्रति का अनिवार्य आवेग है, जिसके द्वारा प्रकृति

 


मन के परे विकसित होने की कोशिश कर रहीं है और यह उतना ही स्वाभाविक, सच्चा और उचित प्रतीत होता है जैसे भौतिक द्रव्य के अमुक रूपों में उसने 'प्राण' के लिये प्रेरणा रोपी थी या जैसे प्राण के अमुक रूपों में उसने 'मन' के लिये प्रेरणा रोपी थी । वहां की तरह यहां भी यह मनोवेग उसके विचित्र पात्रों में न्यूनाधिक रूप में अस्पष्ट रहता है, वह हमेशा होने या बने रहने की इच्छा के ऊपर चढ़ते हुए क्रम में बना रहता है । वहां की तरह यहां भी, वह धीरे-धीरे विकसित होता और आवश्यक अंगों और क्षमताओं को विकसित करने के लिये बाधित है । जैसै 'मन' की ओर उठनेवाली प्रेरणा धातु और वनस्पति में 'प्राण' की अधिक संवेदनशील प्रतिक्रियाओं से लेकर मनुष्य के अंदर उसके पूर्ण व्यवस्थापनतक रहती है उसी तरह मनुष्य के अपने अंदर वही आरोहणशील क्रम, और कुछ नहीं तो उच्चतर और दिव्य जीवन की तैयारी करता है । कहते हैं पशु एक जीवित प्रयोगशाला है जिसमें प्रकृति ने मनुष्य को तैयार किया है । हो सकता है कि स्वयं मनुष्य एक ऐसी जीती--जागती विचारशील प्रयोगशाला हो जिसमें और जिसके सचेतन सहयोग से वह अतिमानव या देव को तैयार करना चाहती है। हम यह क्यों न कहें कि वह भगवान् को अभिव्यक्त करना चाहती है । क्योंकि अगर क्रमविकास प्रकृति के अंदर सोयी हुई या अंतर्लीन होकर काम करती हुई चीज की उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति है तो यह भी प्रकट रूप में उस चीज की चरितार्थता  है जो वह स्वयं गुप्त रूप से है । अतः हम उसे क्रमविकास के अमुक स्तर पर रुक जाने का हुकुम नहीं दे सकते और न हमें यह अधिकार है कि उसके परे जाने के प्रयास या प्रकट किये हुए इरादे को धार्मिक लोगों के साथ मिलकर उसे विकृत या पाखंडी कह सकें या फिर तर्क-बुद्धिवालों की तरह उसे बीमारी या मतिभ्रम ठहरा दें । अगर यह सच है कि 'आत्मा' भौतिक में अंतर्लीन है और दृश्य 'प्रकृति' गुप्त भगवान् है तो देवत्व की अपने में चरितार्थता और भगवान् की स्वयं अपने अंदर और बाहर अभिव्यक्ति धरती पर स्थित मनुष्य के .लिये उच्चतम और यथासम्भव अधिक-से-अधिक न्यायसंगत लक्ष्य है ।

 

     इस भांति पाशविक शरीर में दिव्य जीवन, मर्त्य आवास में निवास करनेवाली अमर अभीप्सा या सद्वस्तु सीमित मनों और विभक्त अहंकारों में अपने-आपको प्रस्तुत करती हुई एकमेव और वैश्व चेतना, काल, देश और विश्व को संभव बनानेवाली परात्पर, अनिर्वचनीय, देशकालातीत दिव्य सत्ता इनकी शाश्वत पहेली और इनका शाश्वत सत्य और इन सबमें निम्न तत्त्व द्वारा प्राप्य उच्चतर सत्य --ये सब मानव जाति की सुविवेचित तर्कबुद्धि और सतत, आग्रही सहज वृत्ति तथा अन्तर्भास के आगे अपने-आपको न्यायोचित सिद्ध करते हैं । कभी-कभी ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि ऐसे प्रश्नों को हमेशा के लिये ठप्प कर दिया जाये जिन्हें तर्कसंगत विचार कितनी ही बार असमाधेय घोषित कर चुका है और कोशिश की गयी है कि


मनुष्य अपने मानसिक क्रिया-कलापों को विश्व में अपनी व्यावहारिक और तात्कालिक समस्याओंतक ही सीमित रखें । लेकिन इस तरह बच निकलने का प्रभाव कभी स्थायी नहीं होता । मानवजाति हमेशा गवेषणा के अधिक तीव्र आवेग के साथ या तात्कालिक समाधान के लिये अधिक उग्र क्षुधा के साथ लौट आती है । रहस्यवाद इस क्षुधा का लाभ उठाता हैं और उन पुराने धर्मों का स्थान लेने के लिये नये धर्म उठ खड़े होते हैं जो संदेहवाद के कारण या तो नष्ट हो गये हैं या जिनका अर्थ जाता रहा है । यह संदेहवाद अपने-आपको संतुष्ट नहीं कर पाया क्योंकि यद्यपि उसका कार्य जांच-पड़ताल करना था परंतु वह जांच-पड़ताल करने के लिये काफी इच्छुक न था । किसी सत्य से इस कारण इंकार करना या उसे कुचल देने का प्रयास करना क्योंकि वह अपने बाह्य क्रिया-कलाप में अभीतक अंधकारमय है और बहुधा ज्ञानोन्नति विरोधी अंधश्रद्धा या अनगढ़ श्रद्धा द्वारा हमारे आगे प्रस्तुत किया जाता है, यह अपने-आपमें एक तरह का ज्ञानोन्नति-विरोध है । किसी वैश्व आवश्यकता से बच निकलने की इच्छा करना क्योंकि वह दुःसाध्य है और उसे तात्कालिक ठोस परिणामों द्वारा उचित ठहराना कठिन है तथा उसके क्रिया-कलाप का नियमन धीमा है --अंततोगत्वा यह प्रकृति के सत्य को स्वीकारना नहीं बल्कि महती माता की गुप्त, अधिक सशक्त इच्छा के विरुद्ध विद्रोह है । जिस चीज को वह माता मानवजाति को अस्वीकार नहीं करने देती उसे मान लेना ही ज्यादा अच्छा और तर्कसंगत है, उसे अंध सहजवृत्ति, अस्पष्ट अंतर्भास और अनियत अभीप्सा के क्षेत्र से तर्कबुद्धि के प्रकाश और प्रशिक्षित व सचेतनतया आत्मप्रेरित इच्छा के क्षेत्र में ले आना ज्यादा अच्छा है । और अगर प्रबुद्ध अंतर्भास या स्वयं आलोकित सत्य का उच्चतर प्रकाश जो अभी मनुष्य में या तो रुंधा हुआ है और क्रियाशील नहीं है या पर्दे के पीछे से रह-रहकर आनेवाली जगमगाहट की तरह या हमारे भौतिक गगन पर कभी-कदास आनेवाले उत्तरीय प्रकाश की तरह काम करता है तब भी हमें अभीप्सा करते डरना नहीं चाहिये क्योंकि यह संभव है कि चेतना की अगली उच्चतर अवस्था ऐसी हो । मन उसका केवल एक रूप और पर्दा है और संभव है उस प्रकाश की भव्यता में से होकर ही हमारे क्रमश: आत्मवर्धन का मार्ग उस जगह जाता हो जो मानवजाति की उच्चतम, चरम विश्राम--स्थली है ।


अध्याय २ 

 

दो नकार :

 

 १--जड़वादी का प्रतिवाद

 

 

 

 ... स तपोउतप्यत । स तपस्तप्त्वा || अन्न ब्रह्मेति व्यजानात्

अन्नादध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवत्ति ।

अन्न प्रयत्त्वभिसंविशन्तीति ।। तद्विज्ञाय । पुनरेव वरुणं पितर-

मुपससार। अधीहि क्यावो ब्रह्मेति । त होवाच । तपसा ब्रह्म

विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति... ।

 

उसने (मन के तप द्वारा) चिच्छक्ति को प्रदीप्त किया और इस ज्ञान पर पहुंचा कि अन्न (जड़ तत्त्व) ही ब्रह्म है । क्योंकि अन्न से ही ये समस्त भूत (प्राणी) उत्पन्न हुए हैं । अन्न से उत्पन्न ये जीते हैं और यहां से जाकर वे अन्न में ही प्रवेश करते हैं । तब वह अपने पिता वरुण के पास जाकर बोला : ''भगवन् मुझे बह्म का उपदेश दीजिये ।''  लेकिन वरुण ने उससे कहा, ''चिच्छक्ति को (फिर से) अपने अंदर प्रदीप्त कर, क्योंकि तप ही ब्रह्म है ।''

तैत्तिरीय उपनिषद् ३. १. २

 

धरती पर जीवन के और मर्त्य जीवन में अमरता के स्वीकरण का तबतक  कोई आधार नहीं हो सकता जबतक कि हम न केवल शाश्वत आत्मा को इस शारीरिक भवन के निवासी, इस परिवर्तनशील चोले के धारण करनेवाले के रूप में स्वीकार कर लें बल्कि भौतिक द्रव्य को भी जिससे यह बना है एक उपयुक्त और उत्कृष्ट द्रव्य न मान लें जिसमें से भगवान् हमेशा अपने परिणाम बुनते रहते हैं, अपने भवनों की अंतहीन शृंखला. को बार-बार बनाने में लगे रहते हैं ।

 

     लेकिन यह बात भी हमें शारीरिक जीवन के प्रति होनेवाली विरक्ति से बचाने के लिये पर्याप्त नहीं है । इसके लिये जरूरी है कि उपनिषदों की तरह हमें जीवन के इन दो चरम छोरों के बाहरी रूपों के पीछे रहनेवाली उनकी तात्त्विक एकता का बोध हो और इसे पाकर हम प्राचीन ग्रंथों की भाषा में कहने लगे, ''अन्न वै ब्रह्म'' । जड़तत्त्व भी ब्रह्म है और उस सशक्त रूपक को उसका पूरा-पूरा मूल्य दे सकें जिसमें भौतिक विश्व को दिव्य पुरुष का बाहरी शरीर कहा गया है । अगर हम जड़तत्त्व और आत्मा के बीच के आरोहणकारी सोपान को प्राण, मन और अतिमन को तथा मन और अतिमन को जोड़नेवाली श्रेणियों को स्वीकार न करें तो ये दो चरम छोर जड़तत्त्व और आत्मा इतने अधिक विभक्त प्रतीत होते हैं कि इनकी


एकात्मता तर्कसंगत बुद्धि को विश्वसनीय नहीं प्रतीत होती । अन्यथा ऐसा लगेगा कि ये दोनों असंगत विरोधी हैं जो एक दूसरे के साथ दुःखद परिणय-सूत्र में बंधे हुए हैं और उनका तलाक ही एकमात्र बुद्धिसंगत समाधान है । उनमें एकात्मता स्थापित करना, इनमें से एकको दूसरे की भाषा में प्रस्तुत करना, विचार का कृत्रिम सृजन हो जाता है जो तथ्यों के तर्क का विरोधी है और असंगत रहस्यवाद में ही संभव है ।

 

     अगर हम केवल विशुद्ध आत्मा और यांत्रिक बुद्धिहीन पदार्थ या ऊर्जा को ही मानें, एक को भगवान् या आत्मा कहें और दूसरे को प्रकृति तो इसका अनिवार्य अंत यह होगा कि हम या तो भगवान् को अस्वीकार करेंगे या प्रकृति से मुंह मोड़ लेंगे । तब विचार और जीवन दोनों के लिये चुनाव अत्यावश्यक हो जाता है । विचार एक को कल्पना की भ्रांति या दूसरे को इंद्रियों की भ्रांति मान लेगा । जीवन अभौतिक के साथ जुड़ जाता है और वितृष्णा या आत्मविस्मृतिकारी आनंद के साथ अपने-आपसे भागता है या फिर स्वयं अपनी अमरता से इंकार करता है और भगवान् से मुंह मोड़कर पशु की ओर अभिमुख होता है । पुरुष और प्रकृति, सांख्य की निष्क्रिय प्रकाशमय आत्मा और उनकी यांत्रिक रूप से क्रियाशील ऊर्जा में कोई भी चीज समान नहीं है, उनके तामसिकता के विरोधी तत्त्व में भी कोई समानता नहीं है । उनके विरोधों के समाधान का एक ही तरीका है : निष्क्रिय रूप से चालित क्रियाशीलता का समापन उस अपरिवर्तनशील विश्रांति में कर दिया जाये जिसमें वह अपने प्रतिबिंबों की निष्फल धारा व्यर्थ में डालती रहीं है । शंकर की निःशब्द, निष्क्रिय 'आत्मा' और उनकी बहुनाम-रूपधारी 'माया' भी समान रूप से विषम और असंगत सत्ताएं हैं । उनके कठोर विरोधों का अंत तभी हो सकता है जब बहुरूपधारी भ्रांति शाश्वत नीरवता के एकमात्र सत्य में विलीन हो जाये ।

 

     जड़वादी का क्षेत्र ज्यादा आसान है । उसके लिये यह ज्यादा आसान है कि आत्मा को नकारकर एक अधिक आसानी से विश्वास दिलानेवाले सरल वक्तव्य, सच्चे अद्वैत, भौतिक तत्त्व या शक्ति के अद्वैत पर पहुंच जाये । लेकिन उसके लिये भी इस कठोर वक्तव्य पर हमेशा डटे रहना संभव नहीं है । आखिर वह भी एक ऐसे अज्ञेय को ला खड़ा करता है जो उतना ही निष्क्रिय और ज्ञात विश्व से उतना ही दूर होता है जितना निश्चल पुरुष या नीरव आत्मा । इस भांति वह विचार की कठोर मांगों को एक अस्पष्ट-सी रियायत देकर टाल देता है या जिज्ञासा की सीमाओं को आगे बढ़ने की स्वीकृति न देने का बहाना पा लेता है --इसके सिवा उससे कोई काम नहीं बनता ।

 

     अतः मानव मन इन निष्फल विरोधों से संतुष्ट नहीं रह सकता । उसे हमेशा एक संपूर्ण प्रस्थापना की खोज करनी चाहिये और यह उसे प्रकाशमय समाधान से ही मिल सकती है । उस समाधान तक पहुंचने के लिये उसे उन श्रेणियों को पार करना होगा जिन्हें हमारी आंतरिक चेतना हमारे ऊपर आरोपित करती है और चाहे प्राण


और मन पर भौतिक तत्त्व की तरह ही विश्लेषण की वस्तुनिष्ठ पद्धति के द्वारा या आत्मनिष्ठ समन्वय और उद्भासन द्वारा, अभिव्यक्तिकारी बहुविधता की ऊर्जा को अस्वीकार किये बिना परम एकत्व की विश्रांति पर पहुंचना होगा । केवल इस प्रकार की पूर्ण और उदार प्रस्थापना में ही अस्तित्व के बहुविध और प्रत्यक्षत: विरोधी तथ्यों का सामंजस्य हो सकता है । इसी तरह हमारे विचार और प्राण पर शासन करनेवाली अनेकविध परस्पर-विरोधी शक्तियां उस केंद्रीय सत्य को खोज सकती हैं जिसका प्रतीक बनना और नाना रूपों से परिपूर्ण करना ही उनका प्रयोजन है । तभी हमारा विचार सच्चे केंद्र को पाकर, गोल-गोल चक्कर लगाना बंद करके, उपनिषद् के ब्रह्म की तरह काम कर सकता है, अपनी लीला और सारे संसार की दौड़ में स्थिर और ध्रुव रह सकता है, हमारा जीवन अपने लक्ष्य को जानकर शांत एवं स्थिर आनंद और प्रकाश के साथ तथा लयबद्ध तर्कमूलक ऊर्जा के साथ उसकी सेवा कर सकता है ।

 

     लेकिन एक बार वह लय भंग हो जाये तो यह आवश्यक और सहायक हो जाता है कि मनुष्य इन दो महान् विरोधी मतों को उनके चरम रूप में अलग-अलग लेकर उनकी जांच करे । अपनी खोयी हुई प्रस्थापना की ओर अधिक पूर्णता के साथ लौटने के लिये मन का यही स्वाभाविक तरीका है । हो सकता है कि वह मार्ग में आनेवाली श्रेणियों में आराम करने की कोशिश करे, सभी चीजों की व्याख्या एक आदि प्राण-शक्ति या संवेदना या भावों की परिभाषा में करे लेकिन इन ऐकांतिक समाधानों में हमेशा अवास्तविकता की छटा रहती है । हो सकता है कि वे कुछ समय के लिये तर्कबुद्धि को संतुष्ट कर सकें जो केवल शुद्ध विचारों से संबंध रखती है, परंतु वे मन के वास्तविकता के भाव को संतुष्ट नहीं कर सकते । मन जानता है कि उसके पीछे कोई चीज है जो विचार या भाव नहीं है । दूसरी ओर वह यह भी जानता है कि स्वयं उसके अंदर कोई चीज है जो जीवनश्वास से बढ़कर है । कुछ समय के लिये आत्मा या भौतिक द्रव्य उसे चरम वास्तविकता का भाव दे सकते हैं लेकिन ऐसा बीच में आनेवाले कोई और तत्त्व नहीं दे सकते । अतः उसे सफल होकर समग्र की ओर लौटने से पहले दोनों छोरोंतक जाना होगा । बुद्धि अपने स्वभाव के अनुसार, ऐसे संवेदन की सहायता से जो सुस्पष्ट रूप में जीवन के भागों को ही देख सकता है और ऐसी वाणी से जो तभी स्पष्ट हो पाती है जब वह सावधानी से विभाजन और सीमांकन करे, अपने सामने मूलभूत तत्त्वों की बहुलता को पाकर निर्दयता के साथ उन्हें एकत्व की अभिधा में पटाकर एकता खोजने के लिये प्रेरित होती है । व्यावहारिक रूप में उसका यह प्रयास होता है कि एक पर बल देने के लिये अन्यों से पीछा छुड़ा ले । इस ऐकांतिक प्रक्रिया के बिना उन विभिन्न तत्त्वों के वास्तविक एकत्व का बोध पाने के लिये यह जरूरी है कि या तो वह स्वयं अपना अतिक्रमण करे या पूरा चक्कर लगाकर यह जान ले कि सबके

१०


सब समान रूप से उस 'तत्' में समा जाते हैं जो परिभाषा या वर्णन से बच निकलता है और जो, फिर भी न केवल वास्तविक है बल्कि प्राप्य है । हम चाहे जिस रास्ते से जायें, 'तत्' ही वह लक्ष्य है जिसपर हम जा पहुंचते हैं । हम उससे उसी हालत में बच सकते हैं जब यात्रा को पूरा करने से इंकार कर दें ।

 

     इसलिये यह एक शुभ आरंभ है कि बहुत से परीक्षणों और शाब्दिक समाधानों के बाद हम आज अपने-आपको उन दो की उपस्थिति में पायें जिन्होंने एक लंबे अरसेतक कठोर परीक्षणों की जांच-पड़ताल को सहा है । ये दोनों छोर परीक्षण के अंत में एक ऐसे परिणाम पर आये हैं जिसे मानवजाति का वैश्व सहजबोध --वह अवगुंठित न्यायाधीश, प्रहरी और सत्य की वैश्व आत्मा का प्रतिनिधि --उचित या संतोषजनक मानने से इंकार करता है । यूरोप और भारत में क्रमश: जड़वादी के निषेध और संन्यासी के निषेध ने अपने-आपको एकमात्र सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करना और जीवन की धारणा पर अपना अधिकार जमाना चाहा है । भारत में यदि इसके परिणामस्वरूप 'आत्मा' की निधियों का या उनमें से कुछ का ढेर लग गया है तो साथ ही जीवन का बड़ा दिवालियापन भी आया है । यूरोप में समृद्धि की परिपूर्णता और इस जगत् की शक्तियों पर विजयी प्रभुत्व तथा अधिकार-प्राप्ति ने उसी तरह आत्मा की चीजों में समान रूप से दिवालियेपन की ओर प्रगति की है । और न ही सभी समस्याओं का समाधान भौतिक तत्त्व में ही पाने की कोशिश करनेवाली बुद्धि ने अपने पाये हुए उत्तर में संतोष पाया है ।

 

     अतः समय परिपक्य होता जा रहा है और जगत् की प्रवृत्ति इस ओर बढ़ रही है कि विचार और आंतरिक और बाह्य अनुभव में एक नयी तथा व्यापक प्रस्थापना आये और इसके फलस्वरूप संपूर्ण मानव जीवन में व्यक्ति तथा जाति दोनों के लिये नयी और समृद्ध आत्मपरिपूर्ति आये ।

 

     आत्मा और जड़ पदार्थ दोनों ही एक अज्ञेय के प्रतिनिधि हैं किंतु उसके साथ उनके संबंधों में जो भिन्नता है उससे जड़वादी और आध्यात्मिक नकार की प्रभावकारिता में भेद उत्पन्न होता है । जड़वादी का नकार यद्यपि अधिक आग्रही है और तात्कालिक सफलता पाता है, जनसाधारण को अधिक आकर्षित करता है फिर भी वह अंतत: संन्यासी के संकटमय मनमोहक नकार की अपेक्षा कम टिकाऊ और प्रभावकारी होता है । क्योंकि उसका उपचार उसीके अंदर होता है । उसका सबसे अधिक सबल तत्त्व है अज्ञेयवाद जो सारी अभिव्यक्ति के पीछे एक 'अज्ञेय' को मानते हुए अज्ञेय के क्षेत्र को बढ़ाता जाता है और अंत में जो कुछ भी अज्ञात है वह सब उसमें समा जाता है । उसका आधारवाक्य यह होता है कि शारीरिक इंद्रियां ही 'ज्ञान' के लिये हमारा एकमात्र साधन हैं और तर्कबुद्धि अपनी अधिक-से- अधिक विस्तृत और अधिक-से-अधिक सशक्त उड़ानों में भी इंद्रियों के प्रदेश से बाहर नहीं जा सकती । उसे हमेशा उन्हीं तथ्यों से व्यवहार करना चाहिये जिन्हें

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इन्द्रियां उसके सामने प्रस्तुत करें या जिनकी ओर इशारा करें । उन इशारों को भी हमेशा अपने मूल के साथ बंधा रहना पड़ेगा । हम उनके परे नहीं जा सकते । हम इनसे ऐसा पुल नहीं बना सकते जिससे किसी ऐसे क्षेत्र में पहुंचा जा सके जहां अधिक सशक्त और कम सीमित क्षमताओं की क्रिया होती हो और किसी और तरह के अन्वेषण की जरूरत हो ।

 

     यह आधारवाक्य इतना मनमाना है कि यह अपने-आप ही अपनी अपर्याप्तता का अपराध घोषित करता है । इसका समर्थन केवल तभी किया जा सकता है जब हम उसके विपरीत प्रमाणों और अनुभवों के विशाल क्षेत्र की उपेक्षा कर दें या किसी तरह जैसी-तैसी व्याख्या करके उसे उड़ा दें, सभी मनुष्यों में विद्यमान उदात्त और उपयोगी क्षमताओं को, जो सचेतन या अस्पष्ट रूप से सक्रिय हैं, निकृष्टतम दशा में जो सोयी हुई हैं उन्हें अस्वीकार करें या उनकी उपेक्षा कर दें और अतिभौतिक व्यापारों के बारे में अन्वेषण करने से तबतक इंकार करें जबतक उनका भौतिक पदार्थ तथा उसकी गतिविधि के साथ संबंध न हो और उसे भौतिक शक्ति की एक अधीनस्थ क्रिया के रूप में न स्वीकार किया जाये । जैसे ही हम मन और अतिमानस की क्रियाओं का अन्वेषण, शुरू से ही उन्हें जड़ की किसी निचली गति के रूप में देखने के पूर्वग्रह के बिना, उनके अपने स्वरूप में देखने के लिये करेंगे, वैसे ही हम ऐसे व्यापार-समूह के संपर्क में आयेंगे जो जड़ भौतिक सूत्र की कठोर पकड़ और सीमित करनेवाले मतवाद से बच निकलते हैं । जिस क्षण हम यह जान लें, और हमारी विस्तृत होती हुई अनुभूतियां हमें जानने के लिये बाधित करती हैं, कि हमारी इन्द्रियों के क्षेत्र के परे ज्ञेय वास्तविकताएं हैं और मनुष्यों में ऐसी शक्तियां और क्षमताएं हैं जो भौतिक अंगों द्वारा उस इन्द्रिय जगत् से संपर्क तो रखती हैं जो हमारी सच्ची और संपूर्ण सत्ता का बाह्य कोष है पर वे भौतिक अंगों द्वारा नियंत्रित न होकर उनका नियंत्रण करती हैं, उसी क्षण अज्ञेयवाद का आधारवाक्य लुप्त हो जाता है । हम विशालतर कथन और सदा विकसनशील अन्वेषण के लिये तैयार हो जाते हैं ।

 

     लेकिन पहले अच्छा हो कि हम मानवजाति जिस संक्षिप्त-सी तर्क-बुद्धिपरक अवधि में से गुजर रही है, उसकी अतिशय और अनिवार्य उपयोगिता को जान लें । क्योंकि प्रमाण और अनुभव का जो विशाल क्षेत्र फिर से अपने द्वार हमारे आगे खोलना शुरू कर रहा है उसमें सुरक्षा के साथ तभी प्रवेश किया जा सकता है जब बुद्धि को कड़ाई के साथ शुद्ध तापस कठोरता के लिये प्रशिक्षित किया जाये । यदि अपक्व मन उसे पकड़ ले तो बहुत संकटप्रद विकृतियों और भ्रातिकारी कल्पनाओं की संभावना रहती है । वास्तव में भूतकाल में सत्य के एक सच्चे केंद्र पर विकृतिकारी अंधविश्वासों और तर्कविरोधी मतों की ऐसी पपड़ी जम गयी कि सच्चे ज्ञान की ओर समस्त प्रगति असंभव हो गयी । कुछ समय के लिये यह जरूरी हो

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गया कि सत्य और उसके छद्मवेशों को एक साथ बुहार फेंका जाये ताकि एक नये प्रयाण और निश्चित प्रगति के लिये रास्ता साफ हो जाये । जड़वाद की तर्कणापरक वृत्ति ने मानवजाति की यह बड़ी सेवा की है ।

 

     चूंकि जो क्षमताएं इन्द्रियों का अतिक्रमण करती हैं वे भी जड़तत्त्व में फंसी हुई हैं, उन्हें भी भौतिक शरीर में काम करना है, ये भी भावुक कामनाओं और स्नायविक आवेशों के साथ एक ही रथ खींचने के लिये जुती हुई हैं । अतः यह एक मिश्रित क्रिया की ओर खुली रहती हैं जिसमें सत्य को स्पष्ट करने की जगह अस्तव्यस्तता को प्रकाशित करने का भय रहता है । यह मिश्रित क्रियावली तब और भी अधिक संकटमय हो जाती है जब असंशोधित मन और अशुद्ध संवेदनों सहित मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के उच्चतर क्षेत्रों में उठने का प्रयास करता है । मनुष्य अपने उद्धत और असामयिक साहस कार्यों के कारण उन निसार बादलों, अर्द्ध ज्योतिर्मय कुहासे या घने अंधकार के ऐसे प्रदेशों में खो जाता है जहां बिजली की कौंध तो आती है पर प्रकाश देने की जगह अंधा करने के लिये । प्रकृति अपनी प्रगति के लिये जो रास्ता चुनती है उसके लिये यह साहस निःसंदेह जरूरी है क्योंकि वह काम के साथ-साथ अपना मनोरंजन भी करती जाती है, फिर भी, तर्कबुद्धि के लिये यह उद्धत और असामयिक है ।

 

     अत: यह आवश्यक है कि आगे बढ्ता हुआ ज्ञान अपने-आपको स्पष्ट, शुद्ध और नियंत्रित बुद्धि पर प्रतिष्ठित करे । यह भी जरूरी है कि कभी-कभी वह इन्द्रियग्राह्य तथ्य के संयम और भौतिक जगत् की ठोस वास्तविकताओं में लौटकर अपनी भूल-भ्रांतियों को ठीक कर ले । पृथ्वी-पुत्र के लिये पृथ्वी का स्पर्श हमेशा शक्तिवर्द्धक होता है, तब भी जब वह अतिभौतिक 'ज्ञान' की खोज में हो । यह भी कहा जा सकता है कि यद्यपि हम अतिभौतिक के शिखरोंतक तो हमेशा पहुंच सकते हैं परंतु उसकी पूर्णता पर तभी अधिकार पाया जा सकता है जब हम अपने पैर दृढ़ता से भौतिक पर जमाये रखें । जब कभी उपनिषद् विश्व में प्रकट होनेवाली 'आत्मा' का चित्रण करता है, तब तब कहता है, 'पदभ्यां पृथ्वी, ' पृथ्वी पाजस्यम्, पृथ्वी उसकी पादभूमि है । और यह निश्चित है कि हम अपने भर्गतक जगत् के ज्ञान को जितना अधिक विस्तृत और जितना आधिक निश्चित बनायेंगे, उच्चतर ज्ञान बल्कि उच्चतम ज्ञान और ब्रह्म विद्या के लिये भी हमारा आधार उतना ही विस्तृत और निश्चित होगा ।

 

     अतः मानवज्ञान के जड़वादीकाल से निकलते हुए हमें इस बारे में सावधान रहना चाहिये कि हम जिस चीज को छोड़ रहे हैं उसकी उद्धतता के साथ निंदा न करें या उससे प्राप्त लाभों का लेशमात्र भी तबतक न फेकें जबतक हम उनके

 

     १ 'मुंडक २. १ .४.

     २ बृहदारण्यक १. १. १.

 

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स्थान को भरने के लिये ऐसे प्रत्यक्ष अनुभवों और शक्तियों को न ला सकें जो पूरी तरह हमारी पकड़ में और सुरक्षित हों । बल्कि भगवान् के लिये नास्तिकवाद ने जो कार्य किया है उसे हम आश्चर्य और मान के साथ देखेंगे और ज्ञान की असीम वृद्धि की तैयारी के लिये अज्ञेयवाद ने जो सेवा दी है उसके लिये हम उसकी सराहना करेंगे । हमारे जगत् में भूल-भ्रांति हमेशा सत्य की परिचारिका और पथ खोजनेवाली रही है क्योंकि सचमुच भूल अर्द्ध सत्य है जो अपनी सीमाओं के कारण लड़खड़ाती है । बहुधा वह सत्य ही होता है जो छद्मवेश धारण करके आता है ताकि अपने गंतव्य स्थान के निकट अलक्षित रूप से पहुंच जाये । अस्तु, हम जिस महान् काल को छोड़ रहे हैं उसमें भूल का जो एक विश्वासपात्र सेविका का रूप रहा है, कठोर, ईमानदार, व्यवहार-शुद्ध, अपनी सीमाओं में संयत प्रकाशमान, एक अर्द्धसत्य रूप रहा है अगर वही बना रहे, वह विवेकहीन धृष्ट और पथभ्रष्ट न हो जाये तो अच्छा है ।

 

     एक प्रकार का अज्ञेयवाद ही समस्त ज्ञान का अंतिम सत्य है । हम चाहे जिस मार्ग के अंततक पहुंचें, वहां विश्व एक अज्ञेय सद्वस्तु का प्रतीक और आभास मालूम होता है जो अपने-आपको मूल्यों की विभिन्न प्रणालियों में, भौतिक मूल्यों, प्राणिक तथा संवेदनशील मूल्यों, बौद्धिक, आदर्श तथा आध्यात्मिक मूल्यों में अनूदित करता है । 'तत्' हमारे लिये जितना अधिक वास्तविक बनता है उतना ही विचार की परिभाषा और शब्दों की अभिव्यंजना से दूर होता जाता है । ''न तत्र... वाग्गच्छित नो मन: ''  वहां न वाणी की पहुंच है न मन की । फिर भी जैसे मायावादियों के साथ मिलकर प्रत्यक्ष रूप या प्रतीयमान जगत् की अवास्तविकता के बारे में अतिशयोक्ति करना संभव है उसी तरह अज्ञेय की अज्ञेयता के बारे में भी अतिशयोक्ति करना संभव है । जब हम कहते हैं कि वह अज्ञेय है तो सचमुच हमारा मतलब यह होता है कि वह हमारे विचार और हमारी वाणी की पकड़ से बच निकलता है । ये ऐसे यंत्र हैं जो हमेशा भिन्नता के बोध से आगे बढ़ते और परिभाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं । लेकिन अगर वह विचार के लिये ज्ञेय नहीं है तो उसे चेतना के परम प्रयास से पाया जा सकता है । बल्कि एक प्रकार का ऐसा ज्ञान भी होता है जो तादात्म्य के साथ एकरूप होता है और एक अर्थ में 'उसे' उसके द्वारा जाना जा सकता है । निश्चय ही उस ज्ञान को सफलता के साथ विचार और वाणी में नहीं दोहराया जा सकता । अगर हम उसे प्राप्त कर लें तो परिणाम होता है 'उस'का हमारी वैश्व चेतना के प्रतीकों में पुनर्मूल्यन । और यह केवल एक नहीं प्रतीकों की सभी श्रेणियों में होता है । और इसके परिणामस्वरूप हमारी आंतरिक सत्ता में और आंतरिक के द्वारा बाह्य जीवन में क्रांति आ जाती है । और इसके अतिरिक्त एक प्रकार का ऐसा ज्ञान भी है जिसके द्वारा तत् अपने-

 

       केन उपनिषद् १. ३.

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आपको तथ्यात्मक जीवन के उन सब नाम रूपों में प्रकट करता है जो साधारण बुद्धि से 'उसे' छिपाते ही हैं । हम भौतिक सूत्रों की सीमाओं को पार करके और प्राण, मन और अतिमानस की उन तथ्यों में जांच करके जो उनके स्वभावानुरूप हैं और न केवल उन अधीनस्थ गतिविधियों में जांच करके जिनके द्वारा वे अपने- आपको जड़तत्त्व के साथ जोड़ते हैं, हम उच्चतम तो नहीं, उच्चतर ज्ञान की पद्धति को पा सकते हैं ।

 

     अज्ञात अज्ञेय नही, '' अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि '' । अगर हम अज्ञान का ही वरण न करें या अपनी पहली सीमाओं के लिये आग्रह न करें, तो यह जरूरी नहीं है कि यह हमारे लिये अज्ञात ही बना रहे । क्योंकि उन सब चीजों के लिये जो अज्ञेय नहीं हैं, विश्व की सभी चीजों के साथ मेल खाती हुई विश्व में ऐसी क्षमताएं हैं जो उनका ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं और मनुष्य में, जो अणु- ब्रह्मांड है, ये क्षमताएं हमेशा विद्यमान रहती हैं और एक विशेष स्थिति में विकसित हो सकती हैं । हों सकता है कि हम उन्हें विकसित न करना चाहें और जहां वे अंशत: विकसित हैं वहां हम उन्हें हतोत्साह करके क्षीण कर दें । परंतु मूलतः मनुष्य की सामर्थ्य के भीतर सभी संभव ज्ञान ज्ञेय है । और चूंकि मनुष्य में प्रकृति की आत्मसिद्धि के लिये अविच्छेद्य प्रेरणा विद्यमान है इसलिये हमारी क्षमताओं की क्रिया को एक सीमित क्षेत्र मे बंद रखने के लिये बुद्धि का कोई भी संघर्ष हमेशा के लिये सफल नहीं हो सकता । जब हम जडूतत्त्व को प्रमाणित कर चुकें और उसकी गुप्त क्षमताओं को चरितार्थ कर लें तो वही ज्ञान जो उस सामयिक सीमा मे सुविधा का अनुभव करता था, वैदिक नियन्ताओं की भांति चिल्ला उठेगा, ' निरन्यतष्चिदारत -आगे बढ़ो, अन्य क्षेत्रों मे भी प्रगति करो ।

 

     अगर आधुनिक जड़वाद केवल भौतिक, स्थूल जीवन की नासमझी के साथ चुपचाप स्वीकृति होता तो प्रगति में अनिश्चित काल की देर लगती । लेकिन चूंकि ज्ञान की खोज ही उसका मर्म है इसलिये वह रुक न सकेगा । जब वह इन्द्रिय ज्ञान की सीमा और इन्द्रिय ज्ञान पर आश्रित तर्क तक पहुंचेगा तब स्वयं उसकी गति का वेग उसे आगे ले जायेगा । उसने जिस तेजी और निश्चिति के साथ दृश्य जगत् को अपनी बांहों में भरा है वह उसकी शक्ति और सफलता का सूचक है । जब उसने सीमा को लांघनेवाला डग भर लिया है तो हम आशा कर सकते हैं कि जो कुछ परे है उसकी विजय में भी इसी शक्ति और सफलता की पुनरावृत्ति होगी । उस प्रगति का धुंधला-सा आरंभ हमें दिखायी देने लगा है ।

 

     न केवल अपनी अंतिम धारणा में, बल्कि ज्ञान के सामान्य परिणामों की एक बड़ी शृंखला में भी, हम चाहे जिस मार्ग से उसका अनुसरण करें, ज्ञान एक होने

 

        केन उपनिषद् १. ३

      ऋग्वेद १ .४. ५

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की ओर बढ़ रहा है । इससे बढ़कर देखने लायक और संकेतकारी कुछ भी नहीं है कि आधुनिक विज्ञान जड़ के प्रदेश में बड़ी हदतक उन्हीं धारणाओं और भाषा के उन्हीं सूत्रों को पुष्ट करता है जिन्हें एकदम भिन्न विधि से वेदांत ने, तत्त्वदार्शनिक मतों के वेदांत ने नहीं, मूल वेदांत, उपनिषदों के वेदांत ने पाया था । और दूसरी ओर वेदांत की ये धारणाएं अपना पूरा अर्थ, अपनी अधिक समृद्धि तभी प्रकट करती हैं जब उन्हें आधुनिक विज्ञान के द्वारा डाले गये नये प्रकाश में देखा जाये । उदाहरण के लिये वेदांत का यह कथन जो विश्व की चीजों का वर्णन इस रूप में करता है कि 'बहूनामेकं बीजं बहुधा य: करोति' , यानी विश्व ऊर्जा ने एक ही बीज को नानाविध रूपों में सजाया है । भौतिक विज्ञान की यह प्रवृत्ति विशेष रूप से अर्थपूर्ण है कि वह एक ऐसे अद्वैत की ओर जा रही है जो बहुत्व के साथ मेल खाता है, वह उस वैदिक विचार की ओर बढ़ रही है कि एक ही सारतत्त्व है और उसके रूप, उसकी संभूतियां बहुत हैं । अगर जड़तत्त्व और शक्ति के द्वैतवादी आभास पर बल दिया जाये तो भी वह सचमुच इस अद्वैत के मार्ग में बाधक नहीं होता क्योंकि यह स्पष्ट होगा कि मूलभूत जड़ इन्द्रियों के लिये एक अभावात्मक चीज है । सांख्यों के 'प्रधान' की तरह वह द्रव्य का एक भाव रूप ही है और वस्तुतः हम अधिकाधिक उस बिंदुतक पहुंच रहे हैं जहां विचार का एक मनमाना भेद ही द्रव्य के रूप को ऊर्जा के रूप से अलग करता है ।

 

     अंतत: जड़ पदार्थ अपने-आपको किसी अज्ञात शक्ति के सूत्रीकरण के रूप में प्रकट करता है, प्राण भी, जो अभीतक एक अथाह रहस्य है, भौतिक सूत्रीकरण में काराबद्ध संवेदनशीलता की अस्पष्ट ऊर्जा के रूप में अपने-आपको प्रकट करना शुरू करता है । और जब वह विभाजन करनेवाला अज्ञान दूर हो जाये जो हमें प्राण और जड़ के बीच एक खाई का भान कराता है, तब यह मानना कठिन हो जायेगा कि मन, प्राण और जड़ तत्त्व एक ही शक्ति के अलग-अलग तीन सूत्रीकरण, वैदिक ऋषियों के त्रिलोक के सिवा कुछ और हैं । तब यह धारणा भी बनी नहीं रह सकती कि जड़ भौतिक ऊर्जा ही 'मन' की जननी है । जो ऊर्जा जगत् की सृष्टि करती है वह इच्छा शक्ति के सिवा कुछ नहीं हो सकती और 'इच्छा शक्ति' अपने- आपको कार्य और परिणाम के लिये प्रयोग में लाती हुई चेतना ही तो है ।

 

     यह कार्य और यह परिणाम अगर रूप में चेतना का आत्मनिवर्तन और जिस विश्व की उसने सृष्टि की है उसके अंदर किसी महान् संभावना को पूर्ण करने के लिये रूप के भीतर से आत्मविकास नहीं तो और क्या है ? और मनुष्य के अंदर उसकी चेतना, इच्छाशक्ति या संकल्प अंतहीन जीवन, असीम ज्ञान और अबाध शक्ति के लिये इच्छा नहीं तो और क्या है ?  स्वयं भौतिक विज्ञान मृत्यु पर भौतिक विजय पाने के सपने देखना शुरू कर रहा है। उसमें ज्ञान के लिये कभी न

 

         श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१२

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बुझनेवाली प्यास दिखायी देती है, वह मानवजाति के लिये पार्थिव शक्तिमत्ता जैसी चीज को कार्यान्वित कर रहा है । उसके कार्यों में देश और काल सिकुड़ते-सिकुड़ते अदृश्यता के बिंदुतक पहुंच रहे हैं । वह सैंकड़ों तरीकों से मनुष्य को परिस्थितियों का स्वामी बनाने की और इस तरह कार्य-कारण की बेड़िया शिथिल करने की कोशिश कर रहा है । सीमा का विचार, असंभव का विचार छाया जैसा नि:सार लगने लगता है उसकी जगह ऐसा लगने लगता है कि मनुष्य जिस चीज के लिये सतत इच्छा करे, उसे अंतत: पा सकेगा क्योंकि अंतत: जाति की चेतना उसके लिये साधन ढूंढ़ निकालती है । यह सर्वशक्तिमत्ता अपने-आपको व्यष्टि में नहीं, मानवजाति के उस सामुदायिक संकल्प में व्यक्त करती है जो व्यष्टि को अपना साधन बनाकर काम करता है` । फिर भी जब हम ज्यादा गहराई में देखें तो समुदाय का सचेतन संकल्प नहीं बल्कि एक अतिचेतन 'शक्ति' है जो केंद्र और साधन के रूप में व्यक्ति को और परिस्थिति और क्षेत्र के रूप में समष्टि को काम में लाती है । यह शक्ति मानव के अंदर भगवान् के सिवा और क्या है ? अनंत तादात्म्य, बहुविध एकता, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान् ही तो है जो मनुष्य को अपनी प्रतिमा-स्वरूप बनाकर, अहंकार के क्रिया का केंद्र, जाति को अर्थात् समष्टिगत नारायण को, विश्व मानव को अपना सांचा और परिधि बनाकर उनके अंदर एकत्व, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता के किसी बिंब को प्रकट करना चाहता है जो भगवान् की आत्म- भावना हैं । ''मर्त्यो में'' जो अमर है वह भगवान् है और हमारी दिव्य शक्तियों में क्रिया करती हुई ऊर्जा के रूप में हमारे अंदर प्रतिष्ठित है --यों मर्त्येश्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वतिर्निधायि ।'' आधुनिक जगत् अपना लक्ष्य जाने बिना अपनी सभी क्रियाओं में इसी विशाल विश्वव्यापी प्रेरणा के अनुसार चल रहा है और अवचेतन रूपसे उसे पूरा करने की कोशिश करता है ।

 

     लेकिन हमेशा एक सीमा होती है और एक बाधा होती है । ज्ञान में भौतिक क्षेत्र की सीमा होती है और शक्ति में भौतिक यंत्र की बाधा । लेकिन इसमें भी जो नयी प्रवृत्ति चल रही है वह अधिक स्वतंत्र भविष्य के बारे में बहुत अर्थपूर्ण है । जैसे भौतिक विज्ञान की सीमा-चौकियां अधिकाधिक उन किनारोंतक पहुंचाती जा रही हैं जो भौतिक को अभौतिक से पृथक् करते हैं उसी तरह क्रियात्मक विज्ञान की उच्चतम उपलब्धियां वे हैं जो उन यंत्रों को सरल बनाते-बनाते विलोपन बिंदुतक पहुंचा देती हैं, जिनके द्वारा उच्चतम प्रभाव पैदा किये जाते हैं । बेतार का तार नयी दिशा देने के लिये प्रकृति का एक बाहरी चिह्न और बहाना है । इसमें भौतिक शक्ति के मध्यवर्ती संचारण के लिये इन्द्रियग्राही भौतिक साधनों को हटा दिया जाता है । उनका उपयोग केवल संदेश भेजने और पाने के स्थानों पर किया जाता है । अन्ततोगत्वा इन्हें भी गायब हो जाना चाहिये क्योंकि जब अतिभौतिक के नियमों

 

        ऋग्वेद ४.२.१.n

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और शक्तियों का भली-भांति अध्ययन उचित आरभ-बिंदु से किया जायेगा तो निश्चय ही ऐसे अमोघ साधन मिल जायेंगे जिनसे मन सीधा भौतिक ऊर्जा को पकड़कर उसे तेजी से ठीक-ठीक अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये लगा सकेगा । एक बार हम इसे मान लें तो वहीं पर हमें भविष्य के विशाल क्षेत्रों की ओर खुलनेवाले द्वार मिल जायेंगे ।

 

     लेकिन अगर हमें जड़ जगत् के निकट स्थित लोकों का पूरा ज्ञान और उनपर पूरा अधिकार हो भी जाये तो भी एक सीमा रहेगी और उसके परे भी कुछ होगा । हमारे बंधन की आखिरी गांठ वहां है जहां बाह्यतरिक के साथ एकता मे खिंच आता है, स्वयं अहंकार इतना सूक्ष्म हो जाता है मानों विलीन होने के बिंदु पर आ गया हो और अंत मे हमारे कार्य का नियम आज की तरह एकता के किसी रूप की ओर संघर्ष करनेवाले बहुत्व का संघर्ष नहीं, बल्कि बहुत्व का आलिंगन करता हुआ और उसपर अपना अधिकार करता हुआ एकत्व हो जाता है । वहीं है अपने विशालतम राज्य पर दृष्टिपात करते हुए वैश्व ज्ञान का केंद्रीय सिंहासन । यही है स्वयं अपने ऊपर और अपने जगत् पर राज्य, स्वराज्य और साम्राज्य । यही है हमारे मानव जीवन के अंदर सालोक्य मुक्ति और साधर्म्य मुक्ति ।

 

        १ स्वराज्य और साम्राज्य -प्राचीन भावात्मक योग का दोहरा लक्ष्य ।

       सालोक्य मुक्ति -भगवान् के साथ एक ही लोक मे सचेतन सत्ता के निवास द्वारा मुक्ति

       साधर्म्य मुक्ति -भगवान् के स्वभाव को अपनाने के द्वारा मुक्ति ।

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अध्याय ३

 

दो नकार

 

२ --संन्यासी का प्रतिवाद

 

 सर्वं ह्येद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्यात् ।।

... अव्यवहार्यम्. अलक्षणम् अचित्त्वम्... प्रपञ्चोपशमम् ।।

 

यह सभी ब्रह्म ३, यह आत्मा ब्रह्म है और यह आत्मा चतुष्पाद है... सब संबंधों से परे, अलक्षण, अचिच्य, जिसमें सब कुछ, सारा प्रपंच, निश्चल निश्चेष्ट है

मांडूक्योपनिषद् २.७.

 

और उसके भीं परे कुछ है

 

    क्योकि वैश्व चेतना की दूसरी ओर एक चेतना है जिसे हम पा सकते हैं । वह और भी अधिक परे की हैं । वह केवल अहं के परे नहीं, स्वयं विश्व के भी परे है । उसके आगे विश्व ऐसा दिखलायी देता है जैसे एक अमित पृष्ठभूमि के आगे एक छोटा-सा चित्र । वह चेतना विश्व के क्रियाकलाप को समर्थन देती है, या शायद केवल सह लेती है । वह 'जीवन' को अपनी बृहत्ता के आलिंगन मे बांध लेती है या फिर अपनी असीमता से उसे त्याग देती है

 

     यदि जड़वादी अपने दृष्टिबिदु से यह आग्रह करने मे युक्तिसंगत है कि ज ही एकमात्र सद्वस्तु है, सापेक्ष जगत् ही वह एकमात्र वस्तु है जिसके बारे मे हम किसी तरह निश्चित हो सकते हैं और इसके परे पूरी तरह अज्ञेहै, चाहे वह वस्तुतः अस्तित्वहीन, मन का स्वप्न, वास्तविकता से नाता तोड़ते हुए विचार की कपोल कल्पना न भी हो तो भी बिल्कुल अज्ञेय है; तो इसी तरह परात्पर का अनुरागी संन्यासी भी अपने दृष्टिकोण से इस बात पर आग्रह करने मे युक्तिसंगत है कि शुद्ध आत्मा ही सद्वस्तु है, ऐसी एकमात्र वस्तु है जो परिवर्तन और जन्म-मरण से मुक्त है और सापेक्षिक जगत् मन और इन्द्रियों की रचना है, एक स्वप्न है, विशुद्ध और शाश्वत ज्ञान से पीछे हटते हुए मानस का उल्टे अर्थों मे अमूर्तकरण है

 

     इन दोनों मे से किसी भी चरम सिद्धांत के बारे मे तर्क या अनुभव द्वारा ऐसा कौन-सा औचित्य सिद्ध किया जा सकता है जिसे समान रूप से अकट्य युक्ति द्वारा और उतने ही सार्थक अनुभव द्वारा दूसरे छोर के लिये प्रमाणित न किया जा सकता हो ? ज जगत् की पुष्टि भौतिक इन्द्रियों के अनुभव के द्वारा की जाती है । ये इन्द्रियां अपने-आप किसी अभौतिक चीज को या ऐसी चीज को देखने मे अक्षम हैं जो स्थूल ज के रूप मे व्यवस्थित न हो, इसलिये वे हमें विश्वास दिलाना चाहती

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हैं कि अतींद्रिय अवास्तविक है । अपने शारीरिक अंगों की इस गंवारू और भद्दी भूल को दार्शनिक तर्क के क्षेत्र में ले आने से मूल्य में कोई वृद्धि नहीं हो जाती । स्पष्ट ही उनका दावा निराधार है । इस जड़ जगत् में भी ऐसी चीजों का अस्तित्व है जिन्हें स्थूल इन्द्रियां नहीं जान पातीं । फिर भी अतींद्रिय को निश्चित रूप से भ्रम या भ्रांति मानकर अस्वीकार करने का आधार वह ऐंद्रिय संस्कार है कि जो स्थूल रूप से ग्राह्य है वही सद्वस्तु है । लेकिन यह मान्यता अपने-आपमें एक भ्रांति है । यह अस्वीकृति जिस बात को प्रमाणित करना चाहती है, सदा उसीको मानकर चलती है अतः इसमें एक गोले में चक्कर लगाती रहनेवाली युक्ति का दोष है । निष्पक्ष युक्तिसंगत विचार के लिये इसका कोई मूल्य नहीं रहता ।

 

     यही नहीं कि ऐसी भौतिक वस्तुएं हैं जो अतींद्रिय हैं बल्कि अगर प्रमाण और अनुभूति का सत्य की परख के लिये कोई मूल्य है तो ऐसी इन्द्रियां भी हैं जो अतिभौतिक हैं और वे केवल शारीरिक इन्द्रियों की सहायता के बिना भौतिक जगत् की वास्तविकताओं को ही नहीं जान पातीं बल्कि अन्य अतिभौतिक चीजों के साथ भी हमारा संपर्क स्थापित कर सकती हैं । ये अतिभौतिक चीजें अन्य जागतों की भी हो सकती हैं, यानी स्थूल जड़ जिसमें कि हमारे सूर्य और पृथिवियां निर्मित हुए प्रतीत होते हैं, उससे भिन्न प्रकार के तत्त्वों पर आधारित सचेतन अनुभवों से संगठित जगतों की भी हो सकती हैं ।

 

     आज जब कि जड़ भौतिक जगत् के रहस्यों पर ऐकान्तिक तन्मयता की जरूरत नहीं रही, मानव अनुभूति और विश्वास ने विचार के आरंभ से हमेशा जिसका समर्थन किया है वह सत्य वैज्ञानिक शोध के नवजात रूपों द्वारा समर्थित हो रहा है । ऐसे प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं जिनमें से अति स्पष्ट और बाह्य प्रमाणों को दूरबोध का नाम दिया गया है । इसकी तथा इसके सजातीय तथ्यों की ज्यादा समयतक उपेक्षा नहीं की जा सकती । इसमें अपवाद हैं ऐसे मन जो भूतकाल की चमकदार सीपियों में बंद हैं, ऐसे लोग जिनकी बुद्धि अपनी तीक्ष्याता के बावजूद अपनी अनुभूति और अन्वेषण के क्षेत्र में सीमित है या फिर वे लोग जो पिछली शताब्दियों के छोड़ें हुए सूत्रों की पुनरावृत्ति को और मृत या मृतप्राय: बौद्धिक मतवादों को सावधानीपूर्वक बनाये रखना ही बोध और तर्कबुद्धि मान लेते हैं ।

 

     यह सच है कि विधिवत् अन्वेषण को अतिभौतिक वास्तविकताओं की जो झांकी प्राप्त हुई है वह अभीतक अपूर्ण और अनिश्चित है क्योंकि जिन उपायों का उपयोग किया गया है वे अभीतक अधकचरे और त्रुटिपूर्ण हैं । लेकिन कम-से-कम यह तो पता लगा ही है कि ये पुन: -अन्वेषित सूक्ष्म इन्द्रियां शारीरिक इन्द्रियों के क्षेत्र सें बाहर के भौतिक तथ्यों के बारे में सच्ची साक्षियां हैं । तो हमारे पास कोई कारण नहीं कि जब वे चेतना के भौतिक संगठन के क्षेत्र के बाहर के अतिभौतिक तथ्यों की बात

 

       सूक्ष्म शरीर में रहनेवाली सूक्ष्म इन्द्रियां जो सूक्ष्म दृष्टि और अनुभव के साधन होती हैं ।

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कहें तो हम उन्हें झूठे साक्षी कहकर उड़ा दें । अन्य सभी साक्षियों की भांति, स्वयं भौतिक इन्द्रियों के साक्ष्य की भांति तर्कबुद्धि द्वारा उनकी साक्षी का भी नियंत्रण, उनकी जांच-पड़ताल और व्यवस्था करनी होगी और उन्हें ठीक तरह से अनूदित और संबंधित करना होगा, उनके क्षेत्र का, नियमों और प्रक्रियाओं का निश्चय करना होगा । परंतु अनुभूति के विशाल क्षेत्रों के सत्य की, जिसके विषय अधिक सूक्ष्म तत्त्व में रहते हैं और स्थूल भौतिक पदार्थ की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म साधनों से देखे जा सकते हैं, उतनी ही प्रामाणिकता है जितनी भौतिक जगत् के सत्य की । परे के लोकों का अस्तित्व है : उनकी अपनी वैश्व लय है, महान् रेखाएं और रचनाएं हैं, अपने स्वयंभू नियम और समर्थ ऊर्जाएं हैं, उनके ज्ञान के अपने उचित और प्रदीप्त साधन हैं । यहां हमारे भौतिक जीवन और भौतिक शरीर पर वे अपना प्रभाव डालते हैं, यहां भी वे अपनी अभिव्यक्ति के साधन व्यवस्थित करते, अपने संदेशवाहक और साक्षी नियुक्त करते हैं ।

 

     किंतु जगत् हमारी अनुभूति के लिये ढांचे मात्र हैं और इन्द्रियां अनुभूतियों के यंत्र और सुविधाएं । चेतना ही आधारभूत तथ्य है, वैश्व साक्षी है जिसके लिये जगत् क्षेत्र है और इन्द्रियां यंत्र हैं । ये लोक और उनके विषय अपनी वास्तविकता के लिये इस साक्षी का समर्थन जोहते हैं; क्योंकि जगत् एक हो या अनेक, भौतिक हो या अतिभौतिक, उनके अस्तित्व के बारे में हमारे पास इसके अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है । यह तर्क किया जाता है कि यह संबंध केवल मानव स्वभाव और उसकी विषय-जगत् की ओर दृष्टि की विशेषता नहीं है, यह तो सत्ता का अपना धर्म ही है । समस्त गोचर सत्ता एक अवलोकन करनेवाली चेतना और एक सक्रिय विषय-वस्तु से बनी है और 'साक्षी' के बिना 'कर्म' हो ही नहीं सकता क्योंकि विश्व केवल उस चेतना में या उस चेतना के लिये अस्तित्व रखता है जो अवलोकन करती है, उसकी कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है । इसके उत्तर में यह तर्क दिया गया है कि जड़ भौतिक जगत् एक शाश्वत स्वयंभू के अस्तित्व का रस लेता है । मन और प्राण के प्रकट होने से पहले इसका अस्तित्व था और तब भी बना रहेगा जब वे गायब हो जायेंगे और जब उनके क्षणिक प्रयासों और सीमित विचारों से सूर्यमंडल की शाश्वत और अचेतन लय में विघ्न पड़ना बंद हो जायेगा । यूं देखने में यह एकदम तत्त्वदर्शन का भेद मालूम होता है परंतु इसका व्यावहारिक महत्त्व बहुत है । यह जीवन के बारे में मनुष्य के समूचे दृष्टिकोण को निश्चित करता है, वह निश्चय करता है कि मनुष्य अपने प्रयासों के लिये कौन-सा लक्ष्य चुनेगा और अपनी शक्तियों को किन क्षेत्रों में सीमित करेगा क्योंकि यह वैश्व सत्ता की वास्तविकता और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानव जीवन के मूल्य का प्रश्न उठाता है ।

 

     अगर हम जड़ भौतिकवादी निष्कर्षों को काफी दूरतक ले जायें तो व्यक्ति और जाति के जीवन की ऐसी अर्थहीनता और असारतातक जा पहुंचते हैं जो

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युक्तिसंगत रूप से हमारे आगे दो विकल्प रखती है, एक तो यह कि व्यक्ति इस क्षणभंगुर जीवन से जितना अधिक छीन सके छीन ले, जैसा कहा जाता है, अपना जीवन जीने के लिये उद्विग्रतापूर्ण प्रयास करे या व्यक्ति और जाति की उद्वेगरहित और लक्ष्यहीन सेवा करे, यह जानते हुए कि व्यक्ति स्नायविक मानसिकता की एक क्षणभंगुर कल्पना है और जाति 'भौतिक जड़पदार्थ' के नियंत्रित स्नायविक ऐंठन का जस ज्यादा समयतक टिकनेवाला सामूहिक रूप । हम किसी भौतिक ऊर्जा की प्रेरणावश कर्म करते या भोग करते हैं । यही ऊर्जा हमें जीवन की संक्षिप्त भ्रांति या किसी नैतिक आदर्श और मानसिक चरितार्थता की ज्यादा उदात्त भ्रांति द्वारा ठगती है । जड़वाद भी आध्यात्मिक अद्वैतवाद की तरह एक ऐसी माया पर आ पहुंचता है जो है भी और नहीं भी है --है, क्योंकि वह उपस्थित और बाध्यकारी है । वह नहीं है क्योंकि वह अपनी क्रियाओं में आभासी और क्षणिक है । दूसरी ओर अगर हम बाहरी जगत् की अवास्तविकता पर बहुत अधिक जोर दें तो एक दूसरे रास्ते से वैसे ही परंतु अधिक तीक्ष्ण निष्कर्ष पर आ पहुंचते हैं --व्यष्टिगत अहं के मिथ्यात्व की छाप और मानव जीवन की अवास्तविकता और उद्देश्यहीनता । इस प्रतीयमान जीवन के निरर्थक जंजाल से बचने का एकमात्र युक्तियुक्त उपाय होता है असत् में या संबंधरहित निरपेक्ष में लौट जाना ।

 

     फिर भी हम अपने सामान्य भौतिक जीवन के तथ्यों के आधार पर तर्क-वितर्क करके इस प्रश्न का समाधान नहीं कर सकते क्योंकि उन तथ्यों में हमेशा अनुभव का एक ऐसा अंतराल रहता है जो सभी तर्क-वितर्क को अनिर्णयात्मक बना देता है । साधारणत: हमें न तो व्यक्तिगत शरीर से अनिरुद्ध वैश्व मन या अतिमन का कोई निश्चित अनुभव होता है और न ही दूसरी ओर अनुभव का कोई ऐसा दृढ़ निर्धारण ही हो पाता है जो इस बात में हमारा समर्थन करे कि हमारे अंदर रहनेवाली आत्मा भौतिक ढांचे पर ही निर्भर है और व्यष्टिगत शरीर के परे न तो जी सकती है न अपने-आपको विस्तारित कर सकती है । इस पुराने झगड़े का फैसला केवल हमारी चेतना के क्षेत्र के विस्तार से या हमारे ज्ञान के यंत्रों में एक अप्रत्याशित वृद्धि से ही हो सकता है ।

 

     हमारी चेतना का विस्तार संतोषजनक हो इसके लिये उसे अनिवार्यत: आंतरिक रूप में वैयक्तिक से वैश्व जीवन में बढ़ना चाहिये । क्योंकि यदि किसी 'साक्षी' का अस्तित्व है तो वह इस जगत् में उत्पन्न देहधारी मन नहीं हो सकता बल्कि वह वैश्व चेतना होगी जो विश्व को आलिंगन में लेती है और उसके सभी कार्यों में अंतर्वर्ती प्रज्ञा के रूप में प्रकट होती है । उसके लिये जगत् या तो वास्तविक और शाश्वत रूप में उसकी अपनी क्रियाशील सत्ता का रूप होता है या फिर वह उससे ज्ञान की क्रिया या सचेतन शक्ति की क्रिया द्वारा उत्पन्न होता और उसमें विलीन हो जाता है । व्यवस्थित मन नहीं बल्कि वह जो स्थिर और शाश्वत है, जो जीवित पृथ्वी और

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जीवित मानव शरीर को समान रूप से आच्छादित करता है, जिसके लिये मन और इन्द्रियां गौण यंत्र हैं, वही वैश्व जीवन का 'साक्षी' और उसका प्रभु है ।

 

     ज्ञान के अधिक नमनीय यंत्रों की संभावना की भांति मानव जाति में वैश्व चेतना की संभावना को भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे स्वीकारने लगा है यद्यपि उसके मूल्य और उसकी शक्ति को मानते हुए भी उसकी गणना भ्रम में ही की जाती है । पूर्व के मनोविज्ञान में इसे हमेशा वास्तविकता और हमारी आत्मगत प्रगति का लक्ष्य माना गया है । इस लक्ष्य की ओर संक्रमण का सार है हम पर अहं-भाव द्वारा आरोपित सीमाओं का अतिक्रमण तथा समस्त जीवन और प्रतीत होनेवाले समस्त निर्जीव में जो आत्मज्ञान गुप्त रूप से व्याप्त है उसमें कम-से-कम कुछ भाग लेना, और अधिक-से-अधिक की बात हो तो उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना ।

 

     उस चेतना में प्रवेश करके हम, उसीकी तरह, वैश्व सत्ता में निवास करते रह सकते हैं । वहां हमारी चेतना की सभी अवस्थाएं और हमारे इन्द्रियानुभव भी बदलने लगते हैं और हम इस बात को जान पाते हैं कि जड़तत्त्व एक अखंड सत्ता है और शरीर उसकी रचनाएं हैं जिनमें वह एक सत्ता अपने अविभक्त शरीर में अपने--आपको भौतिक रूप से अन्य सब रूपों में विभक्त करती है और फिर भौतिक उपायों से अपनी सत्ता के इन बहुविध बिंदुओं में संबंध स्थापित करती है । हम मन का भी इसी तरह अनुभव करते हैं और प्राण का भी, कि अपने बहुत्व के अंदर वही एक सत्ता है, जो प्रत्येक क्षेत्र में वहांकी गतिविधि के उपयुक्त साधनों द्वारा अपने-आपको विभक्त करती और फिर से एक कर देती है । और अगर हम चाहें तो हम और आगे बढ़ सकते हैं और बहुत-सी जोड़नेवाली अवस्थाओं को पार करके अतिमानस के बारे में अवगत हो सकते हैं जिसकी वैश्व क्रिया सभी न्यूनतर क्रियाकलाप की चाबी है । केवल इतना ही नहीं कि हम इस वैश्व सत्ता के बारे में सचेतन होते हैं बल्कि उसी तरह, उसके अंदर सचेतन होते हैं, अपने संवेदनों में उसे ग्रहण करते हैं और अभिज्ञता के साथ उसमें प्रवेश करते हैं । हम उसके अंदर उसी तरह रहते हैं जैसे पहले अहं-भाव में रहते थे, सक्रिय, जिस शरीर-रचना को हम अपना-आपा समझते हैं उससे भिन्न अन्य प्राणों, अन्य शरीरों और अन्य मनों के साथ अधिकाधिक संपर्क में, अधिकाधिक एक होकर रहते हैं । केवल अपनी ही नैतिक और मानसिक सत्ता पर या औरों की आत्मनिष्ठ सत्ता पर ही नहीं बल्कि भौतिक जगत् और उसकी घटनाओं पर भी, हमारी अहंकारपूर्ण क्षमता के लिये जो संभव था, उसकी अपेक्षा भगवान् के निकटस्थ उपायों द्वारा परिणाम उत्पन्न होते हैं ।

 

     यह वैश्व चेतना उस मनुष्य के लिये वास्तविक है जिसका इसके साथ संपर्क हो चुका है या जो उसीके अंदर निवास करता है, यह स्थूल भौतिक वास्तविकता से भी बढ़कर वास्तविक है; अपने-आपमें वास्तविक, अपने प्रभावों और कार्यों में वास्तविक है । और जैसे यह उस जगत् के लिये वास्तविक है जो उसीकी अपनी

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समग्र अभिव्यक्ति है, उसी तरह यह जगत् भी उसके लिये वास्तविक है, लेकिन एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में नहीं । क्योंकि उस उच्चतर और कम बाधाओंवाली अनुभूति में हम देखते हैं कि चेतना और सत्ता एक दूसरे से अलग नहीं हैं बल्कि सारी सत्ता परम चेतना है । समस्त चेतना अपने-आपमें स्वयंभू और शाश्वत है । वह अपने कार्यों में वास्तविक है, न तो वह स्वप्न है न क्रमविकास । जगत् वास्तविक इसीलिये है क्योंकि वह केवल चेतना में निवास करता है, जिसका कारण यह है कि वह 'चिच्छक्ति' है जो 'सत्' के साथ एक है, जिसने उसकी रचना की है । रूप धारण करनेवाली स्वयंप्रकाशित शक्ति से भिन्न रहकर भौतिक रूप का अपने ही अधिकार में कोई अलग अस्तित्व है यह मान्यता वस्तुओं के सत्य के विरुद्ध दिग्भ्रम, दुःस्वप्न और असंभव मिथ्यात्व होगी ।

 

     लेकिन यह चिन्मय 'सत्' जो अनंत अतिमानस का सत्य है वह विश्व से अधिक है और स्वतंत्र रूप से अपनी अनिर्वचनीय शाश्वतता में भी रहता है और साथ ही वैश्व सामंजस्यों में भी । संसार 'तत्' सें जीवित है, 'तत्' संसार से जीवित नहीं है और जैसे हम वैश्व चेतना में प्रवेश कर सकते हैं और वैश्व जीवन के साथ एक हो सकते हैं उसी प्रकार हम जगत् का अतिक्रमण करनेवाली चेतना में प्रवेश कर सकते हैं और समस्त वैश्व जीवन से ऊपर उठ सकते हैं । और तब वही प्रश्न उठता है जो पहले हमारे मन में आया था, क्या यह अतिक्रमण आवश्यक रूप से त्याग है ? इस विश्व का विश्वातीत के साथ क्या संबंध है ?

 

     क्योंकि विश्वातीत के द्वार पर खड़ी है वह शुद्ध, पूर्ण आत्मा जिसका उपनिषदों में इस प्रकार वर्णन है कि जो प्रकाशमय और शुद्ध है, जो जगत् को सहारा तो देती है (ईशानो भूतभव्यस्य) पर रहती है निष्क्रिय (अनेजत्), वह ऊर्जा की स्नायुओं से रहित (अस्नाविरं), द्वैत के दोष से मुक्त, भेद के व्रणों से रहित, केवल, एक, अभिन्न, संबंध तथा बहुत्व की प्रतीति से मुक्त है --यह वेदांती अद्वैतवाद का शुद्ध आत्मन् निच्छिय ब्रह्म, 'परमं निश्चलं' है । जब मन इन द्वारों से सहसा और बिना मध्यवर्ती संक्रमण के आगे बढ़ता है तो वह जगत् की अवास्तविकता का और निश्चल नीरवता की एकमात्र वास्तविकता का भाव पाता है जो उन सर्वाधिक सशक्त और विश्वासदायक अनुभूतियों में से एक है जिन्हें मानव मन पाने में सक्षम है । यहां इस विशुद्ध आत्मा के बोध में या उसके पीछे स्थित असत् के बोध में हमें एक और नकार का आरंभबिंदु मिलता है जो दूसरे छोर पर जड़वादी नकार का समकक्ष है । परंतु यह अधिक पूर्ण, अधिक सुनिश्चित है । जो व्यक्ति या समाज अरण्यवास के लिये उसकी प्रबल पुकार सुनते हैं उनपर इसका प्रभाव अधिक संकटपूर्ण होता है। यह है संन्यासी का नकार ।

जड़तत्त्व के विरुद्ध आत्मा का यह विद्रोह तब से भारतीय मानस पर अधिकाधिक आधिपत्य जमाये है जब से बौद्ध धर्म ने लगभग दो हजार वर्ष पहले

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प्राचीन आर्यजगत् का संतुलन बिगाड़ा था । ऐसी बात नहीं है कि वैश्व माया का भाव ही भारतीय विचार का सब कुछ है, अन्य दार्शनिक निरूपण, अन्य धार्मिक अभीप्साएं भी हैं । ऐसी बात भी नहीं है कि इन दो छोरों के बीच परम ऐकांतिक दर्शनों के द्वारा मेल साधने के प्रयास नहीं किये गये । लेकिन सभी महान् 'नकार' की छाया में पले हैं और सभी के लिये जीवन का चरम लक्ष्य रहा है संन्यासी का चोला । जीवन के बारे में साधारण धारणा बौद्धमत की कर्म-शृंखला के सिद्धांत से ओत-प्रोत है और उसके बाद आनेवाले बंधन और मुक्ति के, जन्म द्वारा बंधन और जन्म से छुटकारे द्वारा मुक्ति के, विरोधी-भाव से भरी रही है । इसलिये सभी आवाजें इस महान् सहमति में एक हो जाती हैं कि स्वर्ग का राज्य हमारे इस द्वंद्वात्मक जगत् में नहीं हो सकता, वह इसके परे होगा फिर चाहे वह शाश्वत वृन्दावन के सुख में हो, चाहे उच्चतर ब्रह्मलोक के आनंद में या समस्त अभिव्यक्तियों के परे अनिर्वचनीय निर्वाण  में या फिर जहां सभी पृथक् अनुभूतियां अनिर्वचनीय 'सत्' के निराकार एकत्व में खो जाती हैं वहां हो । और बहुत शताब्दियों से तेजस्वी साक्षियों, संतों और आचार्यों की विराट् सेना ने जिनके नाम भारतीय स्मृति के लिये पवित्र हैं, जिनका भारतीय कल्पना पर अधिकार रहा है, उन्होंने हमेशा यही साक्षी दी है, उसी सुदूर और उच्च आह्वान को उभारा है कि त्याग ही ज्ञान का एकमात्र मार्ग है, भौतिक जीवन को स्वीकारना अज्ञानी का कर्म है, जन्य की समाप्ति मानवजीवन का उचित उपयोग है और आत्मा की पुकार का अर्थ है जड़तत्त्व से विरक्ति ।

 

     एक ऐसे युग में जिसे संन्यास-भावना से सहानुभूति नहीं है --और बाकी सारे संसार में संन्यासी का समय लद चुका या लदता प्रतीत होता है --ऐसे समय इस महान् प्रवृत्ति को प्राणिक ऊर्जा का ह्रास मान लेना आसान है कि एक प्राचीन जाति, जिसने एक समय मानव प्रगति में बहुत भाग लिया था वह अपने भार से थक गयी । मानव ज्ञान और मानव प्रयास के योगफल में अपना बहुमुखी योगदान देकर श्रांत हो गयी । लेकिन हमने देखा है यह संन्यास भाव जीवन के एक सत्य से, सचेतन सिद्धि की उस अवस्था से सादृश्य रखता है जो हमारी संभावना के उच्चतम शिखर पर स्थित है । व्यवहार में भी मानव पूर्णता के अंदर संन्यास भाव एक अनिवार्य तत्त्व है । उसके पृथक् समर्थन से भी तबतक नहीं बचा जा सकता जबतक कि मानवजाति दूसरे छोर पर अपनी बुद्धि और अपनी प्राणिक आदतों को सतत दुराग्रही पशुत्व की दासता से मुक्त नहीं कर लेती ।

      १ वृन्दावन गो-लोक -शाश्वत 'सुंदरता' और आनंद का वैष्णव स्वर्ग ।

      २ ब्रह्मलोक--अनिर्वचनीय में पूरी तरह लुप्त हुए बिना अंतरात्मा सच्चिदानन्द की जिस उच्चतम स्थितितक पहुंच सकती है ।

      ३ निर्वाण--जिस सत्ता को हम जानते हैं, जरूरी नहीं है कि समस्त सत्ता का विलयन, अहं, कामना और अहंकार-जनित कर्म और मानसिकता का विलयन ।

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वस्तुत: हमें एक ज्यादा बड़ी और ज्यादा पूर्ण प्रस्थापना की खोज है । हम देखते हैं कि भारतीय संन्यास-आदर्श के महान् वेदांती सूत्र ' एकमेवाऽद्वितीयम् को उतने ही आदेशात्मक दूसरे सूत्र 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' के प्रकाश में अच्छी तरह नहीं देखा गया है । मनुष्य की भगवान् की ओर ऊपर उठती हुई आवेगपूर्ण अभीप्सा को भगवान् की उस नीचे उतरती हुई गति के साथ अच्छी तरह मिलाकर नहीं देखा गया है जिसमें भगवान् शाश्वत रूप से अपनी अभिव्यक्ति को बांहों में लेंने के लिये नीचे झुकते हैं । जिस तरह आत्मा के अंदर उसके सत्य को अच्छी तरह समझा गया है उसी तरह जड़ तत्त्व के अंदर उसके अर्थ को नहीं समझा गया । संन्यासी जिस सद्वस्तु को खोजा करता है उसे उसकी पूरी ऊंचाई पर ग्रहण तो किया गया है लेकिन प्राचीन वेदांतियों की तरह उसके पूर्ण विस्तार और व्यापक अर्थ में नहीं । फिर भी अपनी पूर्णतर प्रस्थापना में हमें शुद्ध आध्यात्मिक आवेग के महत्त्व को कम न करना चाहिये । जैसा कि हम देख आये हैं जड़वाद ने भगवान् के उद्देश्यों की कितनी बड़ी सेवा की है उसी भांति हमें संन्यास द्वारा की गयी जीवन की और भी अधिक बड़ी सेवा को स्वीकार करना चाहिये । हम भौतिक विज्ञान के सत्यों को और उसकी वास्तविक उपयोगिताओं को अंतिम सामंजस्य में सुरक्षित रखेंगे, चाहे उसके वर्तमान रूपों में से बहुतों को या सबको नष्ट करना या एक ओर क्यों न रख देना पड़े । प्राचीन आर्यों से हमें जो पैतृक संपत्ति मिली है, वह आज चाहे जितनी घटिया और क्षीण क्यों न हो गयी हो, उसके प्रति हमें और भी अधिक धार्मिक निष्ठा के साथ उचित संरक्षण की भावना रखनी चाहिये ।

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अध्याय ४

 

सर्वव्यापक सद्वस्तु

 

 असन्नेव स भवति असद ब्रह्मेति वेद चेत् ।

अस्ति ब्रह्मेति चेदवेद सन्तमेनं ततो विदु: ।।

 

यदि कोई उसे असद् ब्रह्म के रूप में जानता है तो वह केवल असत् बन जाता है । यदि कोई जानता है कि ब्रह्म 'है' तो वह जीवन में सत् के रूप मे जाना जाता है ।

                           तैत्तिरीय उपनिषद् २.६.

 

 चूंकि हम दोनों के दावों को स्वीकार करते हैं, शुद्ध आत्मा के दावे को कि वह हमारे अंदर अपनी पूर्ण स्वाधीनता के साथ अभिव्यक्त हो और वैश्व जड़तत्त्व के दावे को भी कि वह हमारी अभिव्यक्ति का ढांचा और निमित्त बने, हमें एक ऐसे सत्य की खोज करनी होगी जो इन विरोधियों में पूरी तरह मेल बैठा सके और दोनों को जीवन में अपना उचित भाग और विचार में अपना प्राप्य औचित्य दे सके और दोनों में से किसीको अपने अधिकार से वंचित न करे, दोनों में से किसीके परम सत्य को अस्वीकार न करे । इस सत्य से ही उसकी भूलें, यहांतक कि उसकी अतिशयोक्तियों की ऐकांतिकता भी सतत बल पाती है । क्योंकि जहां कहीं कोई ऐसा चरम कथन होता है जो मानव मन को बहुत जोर से आकर्षित करता है तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि हम किसी निरी भ्रांति, अंधविश्वास या निर्मूल भ्रम के आगे नहीं खड़े हैं, बल्कि हमारे आगे कोई परम सत्य छद्मवेश में खड़ा है और हमारी निष्ठा की मांग करता है और अगर हम उससे इंकार कर दें या उसका बहिष्कार कर दें तो वह अपना बदला लेगा । यही संतोषजनक समाधान की कठिनाई है और यही समाधान की निश्चयात्मकता में कमी का कारण है । निश्चयात्मकता की यह कमी आत्मा और जड़ तत्त्व के बीच सभी कामचलाऊ समझौतों में पायी जाती है । समझौता एक व्यापार है, दो संघर्षरत शक्तियों में हितों का एक सौदा होता है, यह सच्चा मेल-मिलाप नहीं होता । सच्चा मेल-मिलाप हमेशा परस्पर समझ से आता है जो किसी प्रकार का घनिष्ठ ऐक्य लाता है । अतः आत्मा और जड़ तत्त्व के यथासंभव अधिक-से-अधिक ऐक्य द्वारा ही हम उनके उस सत्यतक पहुंच पायेंगे जो उनका मेल-मिलाप कराता है और इसी तरह व्यक्ति के आंतरिक जीवन और बाह्य सत्ता में सामंजस्यपूर्ण व्यवहार के लिये सबलतम आधार पर पहुंचेंगे ।

 

     हम देख आये हैं कि वैश्व चेतना में एक ऐसा मिलन-स्थल है जला आत्मा के

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लिये जड़ तत्त्व वास्तविक हो जाता है और जड़ तत्त्व के लिये आत्मा वास्तविक हो जाती है । सामान्य अहंकारी मानसिकता में मन और प्राण अलगाव के उपकरण, एक ही अज्ञेय सद्वस्तु के सकारात्मक और नकारात्मक तत्त्वों के बीच कृत्रिम कलह करवानेवाले मालूम होते हैं । वैश्व चेतना में मन और प्राण का यह रूप नहीं रह जाता, वहां वे मध्यवर्ती होते हैं । वैश्व चेतना में पहुंचकर मन एक ऐसे ज्ञान से प्रदीप्त होता है जो एक साथ 'एकता' और 'बहुलता' के सत्य को देख लेता है और उनकी पारस्परिक क्रियाओं के सूत्र को पकड़ लेता है, दिव्य सामंजस्य में अपनी सभी असंगतियों की व्याख्या और उनका समाधान पा लेता है और संतुष्ट होकर भगवान् और जीवन के बीच उस परम मिलन का माध्यम बनना स्वीकार करता है जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं । जड़ तत्त्व सिद्धि प्राप्त करते हुए विचार और सूक्ष्म बनी हुई इन्द्रियों के आगे अपने-आपको आत्मा के आकार और शरीर के रूप में--आत्मा के रचनात्मक विस्तार--के रूप में प्रकट करता है । आत्मा अपने- आपको इन्हीं सहमत माध्यमों द्वारा जड़ तत्त्व की अंतरात्मा, सत्य और सारतत्त्व के रूप में प्रकट करती है । दोनों एक दूसरे को दिव्य, वास्तविक और तत्त्वत: एक मानते और स्वीकार करते हैं । इस प्रकाश में यह प्रकट होता है कि मन और प्राण परम चेतन-सत्ता के युगपत् रूप से रूप और साधन हैं, जिनके द्वारा वह सत्ता अपने-आपको जड़ भौतिक रूप के अंदर प्रसारित करती और उसमें निवास करती है और उसी रूप के अंदर अपनी चेतना के बहुविध केंद्रों में अपने-आपको अनावृत करती है । मन अपनी आत्मपूर्ति तब पाता है जब वह सत्ता के उस सत्य का शुद्ध दर्पण बन जाता है जो अपने-आपको विश्व के प्रतीकों में प्रकट करता है और 'प्राण' अपनी आत्मपूर्ति तब पाता है जब वह वैश्व जीवन के अंदर क्रिया- कलापों और नित नये रूपों मे भगवान् के पूर्ण आत्म-रूपायण के लिये सचेतन रूप से अपनी शक्ति की ऊर्जाओं को अर्पित कर देता है ।

 

     इस धारणा के प्रकाश में हम देख सकते है कि जगत् के अंदर मनुष्य के लिये ऐसा दिव्य जीवन संभव है जो विश्व और पृथ्वी के क्रम-विकास के लिये एक जीता-जागता अर्थ और बोधगम्य अभिप्राय प्रकट करता हो, एक ही साथ भौतिक विज्ञान का औचित्य सिद्ध करता हो, और मानव अंतरात्मा को भगवान् में रूपांतरित करके सभी उच्च धर्मों के महान् आदर्श स्वप्न को चरितार्थ करता हो ।

 

     तब फिर उस नीरव, निष्क्रिय, शुद्ध, स्वयंभू आत्मतृप्त आत्मा के बारे में क्या होगा जिसने अपने-आपको हमारे आगे संन्यासी के स्थायी औचित्य के रूप में प्रस्तुत किया था । यहां भी परस्पर मेल न खानेवाला विरोध नहीं बल्कि सामंजस्य को ही प्रकाशदायक सत्य होना चाहिये । नीरव और सक्रिय ब्रह्म पृथक्, विरोधी और असंगत सत्ताएं नहीं हैं जिनमें से एक वैश्व माया का विरोध करती है और दूसरी समर्थन । वह एक ही ब्रह्म है जिसके दो पक्ष हैं, सकारात्मक और नकारात्मक, और

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हर-एक दूसरे के लिये जरूरी है । इस नीरवता में से ही शाश्वत रूप से, जगतों का सृजन करनेवाला 'नाद' निकलता है । क्योंकि नाद उसे प्रकट करता है जो 'नीरवता' में स्वतः छिपा दुआ है । शाश्वत निष्क्रियता ही शाश्वत दिव्य सक्रियता की पूर्ण स्वाधीनता और शक्तिमत्ता को असंख्य वैश्व मंडलों में संभव बनाती है । क्योंकि उस क्रियाशीलता के समस्त संभवन अपनी ऊर्जाएं और विभिन्नता तथा सामंजस्य की असीम सामर्थ्य अक्षर ब्रह्म के निष्पक्ष समर्थन से पाते हैं और स्वयं अक्षर ब्रह्म की अपनी गतिशील प्रकृति की इस अनंत उर्वरता को दी गयी स्वीकृति से प्राप्त करते हैं ।

 

     मनुष्य भी तभी पूर्ण होता है जब वह अपने अंदर ब्रह्म की निरपेक्ष स्थिरता और निष्क्रियता को पा लेता है और उसके द्वारा उसी दिव्य सहनशीलता और उसी दिव्य आनंद द्वारा मुक्त और अक्षय क्रियाशीलता को सहारा देता है । जिन्होंने अपने अंदर 'स्थिरता' को पा लिया है, वे सदा उसकी निश्चल नीरवता में से जगत् में काम करनेवाली ऊर्जाओं के अविरल प्रवाह को उमड़ते हुए देख सकते हैं । अतः यह कहना 'निश्चल नीरवता' का सत्य नहीं है कि वह अपने स्वभाव से वैश्व क्रियाशीलता का त्याग है । इन दोनों स्थितियों की ऊपर से दीखनेवाली पारस्परिक विषमता सीमित मन की भ्रांति है जो स्वीकृति और अस्वीकृति के तीक्ष्ण विरोधों और अचानक एक छोर से दूसरे छोर तक जाने का अभ्यस्त है । वह ऐसी व्यापक चेतना के बारे में सोचने में असमर्थ है जो इतनी विस्तृत और इतनी प्रबल है कि दोनों को एक साथ आलिंगन में ले ले । नीरवता जगत् का त्याग नहीं करती, उसे सहारा देती है । या यूं कहें कि वह समान निष्पक्षता के साथ क्रियाशीलता और क्रियाशीलता से निवृत्ति को सहारा देती है और इनके मेल-मिलाप को भी स्वीकृति देती है जिसके द्वारा अंतरात्मा सभी क्रियाओं के बावजूद मुक्त और शांत रहती है ।

 

     लेकिन एक चरम निवृत्ति भी है, एक असत् भी है । प्राचीन शास्त्र का कहना है, ''असद्वा इदमग्र आसीत् ततो वै सदजायत'' --आरंभ में सब असत् था उसीसे सत् का जन्य हुआ (तैत्तिरीय उपनिषद् २.७.) । तब निश्चय ही वह फिर से असत् में डूब जायेगा । यदि अनंत निर्विशेष सत् सब प्रकार के वैशिष्ट्य और बहुविध उपलब्धियों की सभी संभावनाओं को अनुमति देता है तो क्या असत् प्रारंभिक स्थिति और एकमात्र चिर सद्वस्तु होने के नाते, वास्तविक विश्व की सभी संभावनाओं का निषेध और त्याग नहीं कर देता ? ऐसी हालत में कुछ बौद्ध मतों का 'शून्य' ही संन्यासी का सच्चा समाधान हो जायेगा । अहं की तरह आत्मा भी भ्रामक प्रातिभासिक चेतना की एक भावमूलक रचना रह जायेगी ।

 

     लेकिन हम फिर से यही देखते हैं कि शब्द हमें ठग रहे हैं, हम उस सीमित मानसिकता के तीक्ष्ण विरोधों से धोखा खा रहे हैं, जो शाब्दिक भेदों पर मुग्ध भाव से निर्भर रहती है मानों वे पूरी तरह से परम सत्य को निरूपित करते हों और जो

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इन असहिष्णु विभेदों के भाव में ही हमारी अतिमानसिक अनुभूतियों को अनूदित करती है । असत् केवल एक शब्द है । जब हम उस तथ्य को जांचते हैं जिसका यह प्रतिनिधित्व करता है तो हमें पूरा-पूरा यह विश्वास नहीं रहता कि अनंत आत्मा की अपेक्षा इस परम असत् के, मन की भावमूलक रचना के अधिक होने की कोई संभावना है । इस असत् से हमारा मतलब है कोई ऐसी चीज जो इस जगत् में रहते हुए हमारी विशुद्धतम धारणा और अत्यंत अमूर्त एवं सूक्ष्म अनुभूति जिस अंतिम छोर तक जा सकती है उसके भी परे जो कुछ है वह है । तो यह असत् भावात्मक धारणा से परे 'कुछ' है । हम शून्य या असत् की कल्पना इसलिये करते हैं ताकि हम जो कुछ जानते और सचेतन रूप से हैं उसका नेति नेति की प्रक्रिया से अतिक्रमण कर सकें । वस्तुतः जब हम कुछ दर्शन-शास्रों के 'शून्य' का निकट से अध्ययन करें तो देखने लगते हैं कि वह एक ऐसा शून्य है जो 'सर्व' या अनिर्वचनीय 'अनंत' है, वही एकमात्र सच्ची सत्ता है । लेकिन वह मन को रिक्त लगता है क्योंकि मन केवल सांत रचनाओं को ही पकड़ सकता है ।

 

     और जब हम कहते हैं कि असत् में से सत् प्रकट हुआ तो देखते हैं कि हम काल की भाषा में उसकी बात कर रहे हैं जो काल के परे है । क्योंकि शाश्वत शून्य के इतिहास में वह कौन-सी चमत्कारी तारीख थी जब उसके अंदर से सत् का जन्म हुआ या वह समान रूप से विकट तारीख कब आयेगी जब यह अवास्तविक सर्वनित्य शून्य में फिर से जा मिलेगा ? यदि सत् और असत् दोनों को स्वीकार करना है तो यह मानना होगा कि दोनों एक साथ रहते हैं । वे दोनों एक दूसरे में मिलना स्वीकार नहीं करते पर एक दूसरे को रहने देते हैं । चूंकि हमें काल की भाषा में बोलना है इसलिये कहना होगा दोनों शाश्वत हैं । शाश्वत सत्ता से यह कौन मनवायेगा कि उसका अस्तित्व ही नहीं है, केवल शाश्वत असत् का ही अस्तित्व है ? सभी अनुभूतियों को अस्वीकार करके भला हम ऐसा समाधान कहां पायेंगे जो सभी अनुभूतियों की व्याख्या कर सके ?

 

     शुद्ध सत् है 'अज्ञेय' का अपने-आपको समस्त वैश्व जीवन के मुक्त आधार के रूप में प्रस्थापित करना । हम इसके विपरीत प्रस्थापना को, समस्त वैश्व जीवन से मुक्ति को अर्थात् वास्तविक जीवन की ऐसी समस्त भावात्मक उपाधियों से मुक्ति को असत् कहते हैं जिनकी चेतना विश्व में अपने लिये रचना कर सकती है, इनमें

 

       १एक और उपनिषद् असत् से सत् की उत्पत्ति को असंभव कहकर अस्वीकार कर देता है, उसका कहना है कि सत् की उत्पत्ति सत् से ही हो सकती है । लेकिन अगर हम असत् को अस्तित्वहीन शून्य के स्थान पर ऐसे 'क' के रूप में लें जो हमारी सत्ता के अनुभव या भाव से परे है --इस रूप में यह अर्थ अद्वैतवादी के 'निर्विशेष ब्रह्म' और बौद्धों के शून्य पर भी लग सकता है --तो असंभावना विलीन हो जाती है क्योंकि तत् भली-भांति सत्ता का स्रोत हो सकता है फिर चाहे वह धारणात्मक या रचनात्मक माया द्वारा हो या अपने भीतर से अभिव्यक्ति या सृष्टि द्वारा ।

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पूर्णत: अमूर्त और पूर्णतः तुरीय अवस्थाएं भी आ जाती हैं । वह उन्हें अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति के रूप में अस्वीकार नहीं करता, वह अस्वीकार करता है समस्त अभिव्यक्ति द्वारा या किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति द्वारा अपने सीमांकन को । असत् सत् को अनुमति देता है जैसे निश्चल नीरवता क्रियाशीलता को अनुमति देती है । इस युगपत् प्रस्थापना और निषेध द्वारा, जो एक दूसरे के अंतकारी नहीं बल्कि सभी विपरीतताओं की तरह एक दूसरे के परिपूरक हैं, सचेतन आत्म-सत्ता की एक सद्वस्तु के रूप में और परे स्थित अज्ञेय की भी उसी 'सद्वस्तु' के रूप में युगपत् अभिज्ञता जाग्रत् मानव आत्मा के लिये प्राप्य हो जाती है । इसी तरह बुद्ध के लिये यह संभव हुआ कि निर्वाण की स्थिति पाकर भी जगत् में प्रबल रूप से कार्य कर सके । वे अपनी आंतरिक चेतना में निर्वैयक्तिक रहे परंतु अपने कार्य में, जहांतक हमें मालूम है, पृथ्वी पर रहनेवालों में सबसे अधिक सशक्त और परिणाम लानेवाले व्यक्तित्व थे ।

 

     जब हम इन चीजों पर विचार करते हैं तो हमें यह प्रत्यक्ष दीखने लगता है कि हम जिन शब्दों का उपयोग करते हैं वे स्वाग्रही उग्रता में कितने कमजोर और स्पष्टता में कितने उलझानेवाले और भ्रामक हैं । हमें यह भी प्रत्यक्ष होने लगता है कि हम ब्रह्म पर जो सीमाएं आरोपित करते हैं वे व्यष्टिगत मन की अनुभूति की संकीर्णता से आती हैं । यह मन अपने-आपको अज्ञेय के एक ही पक्ष पर केंद्रित कर बाकी सबको तुरंत अस्वीकार और तिरस्कृत कर देता है । हमारी हमेशा यह वृत्ति रहती है कि हम निरपेक्ष के बारे में जो धारणा बना सकें या जो जान सकें उसे बड़ी कठोरता के साथ अपनी विशेष सापेक्षता की भाषा में अनूदित करें । हम अपने निजी मतों और आंशिक अनुभूतियों के अहं को दूसरों के मतों और आंशिक अनुभूतियों के विरुद्ध खड़ा करके बड़े आवेग के साथ विभेद और समर्थन करते हुए एकमेवाद्वितीयमू की प्रस्थापना करते हैं । ज्यादा बुद्धिमानी इसमें है कि प्रतीक्षा करें, सीखें, बढ़े और चूंकि हम आत्म-पूर्ति के लिये उन चीजों के बारे में बोलने के लिये बाधित हैं जिन्हें कोई मानव भाषा व्यक्त नहीं कर सकती, सर्वाधिक विस्तृत, सर्वाधिक नमनीय और सर्वाधिक उदार प्रस्थापना को खोजकर उसके ऊपर सबसे अधिक विशाल और व्यापक सामंजस्य का आधार रखें ।

 

     तो हम यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति की चेतना के लिये यह संभव है कि ऐसी अवस्था में प्रवेश करे जिसमें ऐसा लगता है कि सापेक्ष सत्ता लुप्त हो चुकी है और आत्मा भी अपर्याप्त धारणा मालूम होती है । निश्चल नीरवता के परे की निश्चल नीरवता में चले जाना संभव है लेकिन यह हमारी संपूर्ण चरम अनुभूति नहीं है और न ही एकमात्र और सबका बहिष्कार करनेवाला सत्य । क्योंकि हम देखते हैं कि यह निर्वाण या आत्म-निर्वापन हमारी अंतस्थ अंतरात्मा को पूर्ण शांति और मुक्ति देता है पर साथ ही यह बाहर व्यवहार में कामना रहित परंतु प्रभावकारी क्रिया के

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साथ सुसंगत भी है । शायद बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक सार यही था कि भीतर पूर्ण निश्चल निर्वैयक्तिकता और शून्य स्थिरता को रखते हुए बाहरी रूप से प्रेम, सत्य और शील (नीति परायणता) आदि शाश्वत सत्यों के कार्यों को करना संभव है । भौतिक जन्म के कष्ट और दुःखों से छुटकारे का तुच्छ आदर्श नहीं बल्कि अहंकार और व्यक्तिगत कर्मों की शृंखला से तथा परिवर्तनशील रूप और भाव के साथ तादात्म्य से ऊपर उठना ही बुद्ध की शिक्षा का सार था । बहरहाल, जैसे पूर्ण मानव अपने अंदर नीरवता और क्रियाशीलता को एक करेगा उसी तरह पूर्णत: सचेतन अंतरात्मा जीवन और जगत् पर अपनी पकड़ खोये बिना असत् की पूर्ण स्वाधीनता पुनः प्राप्त कर लेगी । इस प्रकार वह भागवत 'अस्तित्व' का सतत चमत्कार अपने अंदर फिर से दोहरायेगी, विश्व के अंदर फिर भी उसके परे बल्कि मानों, स्वयं अपने-आपसे भी परे दोहरायेगी । इससे विपरीत अनुभूति केवल यही हो सकतीं है कि व्यक्ति के अंदर मानसिकता असत् पर केंद्रित हो जाये और परिणामस्वरूप व्यक्ति वैश्व क्रियाशीलता को भूल जाये और निजी रूप से अपने- आपको उससे खींच ले । फिर भी यह क्रियाशीलता शाश्वत सत्ता की चेतना में तो चलती ही रहेगी ।

 

     इस तरह वैश्व चेतना में आत्मा और जड़ में मेल बैठाने के बाद हम परात्पर चेतना में सभी की अंतिम स्वीकृति (इति) और उसके निषेध (नेति) का मेल देखते हैं । हम यह पाते हैं कि सभी प्रस्थापनाएं अज्ञेय के अंदर स्थिति या गति के अभिकथन हैं और उनके अनुरूप सभी नकार या नेतियां स्थिति और गति दोनों से और दोनों के अंदर उसकी मुक्ति के अभिकथन हैं । हमारे लिये अज्ञेय 'ऐसा कुछ' है जो हमारे लिये सर्वोत्कृष्ट या सर्वोच्च, अद्भुत और अनिर्वचनीय है और जो सदा अपने--आपको हमारी चेतना के आगे रूप देता रहता है और फिर सदा ही अपने बनाये हुए रूपों से बच निकलता है । यह चीज वह किसी दुष्टात्मा या मनमौजी जादूगर की तरह नहीं करता जो हमें मिथ्यात्व से अधिक बड़े मिथ्यात्व की ओर, फिर सभी चीजों के अंतिम निषेध की ओर ले जाता हो । वह यहां भी हमारी प्रज्ञा से परे 'परम प्रज्ञ' की तरह काम करता है जो हमें वास्तविकता से और भी गहरी और विस्तृत वास्तविकता की ओर ले जाता है जबतक कि हम उस गहरी से गहरी और विशाल से विशाल वास्तविकता को न पा जायें जिसके कि हम योग्य हैं । सर्वव्यापी सद्वस्तु ब्रह्म है, न कि डटी रहनेवाली भ्रांतियों का सर्वव्यापी कारण ।

 

     इस भांति यदि हम अपने सामंजस्य के लिये एक भावात्मक आधार स्वीकार कर लेते हैं --और सामंजस्य इसके सिवा किस आधार पर खड़ा हो सकता है ? --तो अज्ञेय के विभिन्न धारणात्मक रूपों को, जिनमें से हर एक किसी धारणातीत सत्य का प्रतिनिधि है, उन सबको जहांतक हो सके हमें इस दृष्टि से देखना चाहिये कि उनका आपस में क्या संबंध है और जीवन पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है । उन्हें

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न तो अलग-अलग और न ऐकांतिक रूप से और न इस तरह देखना चाहिये कि वे और सभी अभिकथनों को नष्ट कर दें या अनुचित रूप से घटा दें । सच्चा अद्वैत वह है जो सभी चीजों को एकमेव ब्रह्म के रूप में स्वीकार करता है और उसके अस्तित्व को दो विषम सत्ताओं- -शाश्वत सत्य और शाश्वत मिथ्या, ब्रह्म और अब्रह्म, आत्मा और अनात्मा, वास्तविक आत्मा और अवास्तविक होते हुए भी शाश्वत माया--में विभक्त नहीं करता । अगर यह सच है कि केवल आत्मा का अस्तित्व है तो यह भी सच होना चाहिये कि सब कुछ आत्मा ही है, और अगर यह आत्मा, भगवान् या ब्रह्म कोई असहाय अवस्था, परिमित शक्ति और सीमित व्यक्तित्व नहीं है बल्कि आत्मसचेतन 'सर्व' है तो उसमें अभिव्यक्ति के लिये कोई अच्छा सुसंगत कारण होना चाहिये । उस कारण को खोजने के लिये हमें इस प्राक्कल्पना को लेकर चलना होगा कि जो कुछ अभिव्यक्त हुआ है उसमें सत्ता की कुछ शक्ति, कुछ बुद्धिमत्ता और सत्य है । जगत् में जो असंगति और प्रतीयमान अशुभ है उन्हें उनके क्षेत्र में स्वीकार करना ही होगा लेकिन विजेता के रूप में उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिये । मानव जाति की यह बुद्धिमत्ता है कि वह अपनी गहरी से गहरी सहजवृत्ति में सदा ही जगत् की अभिव्यक्ति के अंतिम सूत्र को किसी शाश्वत परिहास या माया में नहीं बल्कि एक परम प्रज्ञा के रूप में, किसी सर्वसर्जक और अजेय अशुभ में नहीं बल्कि एक गुप्त और अंतत: विजयी शुभ में, अंतरात्मा के निराश होकर अपने महान् साहसिक कार्य से मुंह मोड़ लेने में नहीं बल्कि अंतिम विजय और परिपूर्ति में खोजती है ।

 

     क्योंकि हम यह नहीं मान सकते कि परम अद्वितीय 'सत्ता' अपने से बाहर की या अपने से भिन्न किसी चीज द्वारा बाधित की जाती है क्योंकि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं है । हम यह भी नहीं मान सकते कि वह अनिच्छा के साथ अपने भीतर की किसी ऐसी आंशिक चीज के आगे झुक जाती है जो उसकी समग्र सत्ता के विरुद्ध है, उसके द्वारा स्वीकृत भी नहीं है फिर भी उसके लिये बहुत ज्यादा मजबूत है क्योंकि यह दूसरे शब्दों में उसी विरोध को खड़ा करना होगा कि एक तो 'सर्व' है और दूसरा 'सर्व' से भिन्न कुछ और । अगर हम यह भी कहें कि विश्व केवल इस कारण बना हुआ है कि आत्मा अपनी पूर्ण निष्पक्षता के साथ सभी चीजों को समान रूप से सहन करती है, सभी वास्तविकताओं और सभी संभावनाओं को उदासीनता के साथ देखती है, फिर भी यह मानना होगा कि कोई ऐसी चीज है जो अभिव्यक्ति के लिये इच्छा करती है और उसे सहारा देती है । यह चीज 'सर्व' के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती । ब्रह्म सभी चीजों में अखंड है और जगत् में जिस किसी चीज की इच्छा की गयी है वह अंततः ब्रह्म की ही इच्छा होती है । हमारी सापेक्ष चेतना विश्व में अशुभ, अज्ञान और पीड़ा से घबड़ा कर या चकराकर ब्रह्म को अपनी तथा अपने कर्मों की जिम्मेदारी से बचाने के लिये

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एक विरोधी तत्त्व, माया या मार, या सचेतन शैतान या स्वयंभू अशुभ तत्त्व को खड़ा करती है । प्रभु और आत्मा बस एक ही है, बहु है उसके प्रतिरूप और उसकी संभूतियां ।

 

     तो अगर जगत् स्वप्न या माया या भूल है तो ऐसा स्वप्न है जिसकी इच्छा और उत्पत्ति 'आत्मा' की समग्रता में हुई थी, आत्मा से केवल इसकी इच्छा और उत्पत्ति ही नहीं हुई, बल्कि वही इसका सतत धारण और पोषण भी करती है । और फिर यह ऐसा स्वप्न है जिसका अस्तित्व सद्वस्तु में है और वह जिस पदार्थ से बना है वह भी वही 'सद्वस्तु' है । क्योंकि ब्रह्म ही जगत् का उपादान, उसका आधार और उसका आधान है । जिस सोने से पात्र बना है वह अगर सच्चा हो तो हम यह कैसे मान सकते हैं कि स्वयं पात्र मृगमरीचिका है । हम देखते हैं कि स्वप्न, माया आदि शब्द भाषा के खेल हैं, हमारी सापेक्ष चेतना के अभ्यास हैं । वे किसी सत्य को, बल्कि एक महान् सत्य को प्रदर्शित करते हैं लेकिन वे उसका गलत प्रदर्शन भी करते हैं । जैसे 'असत्' केवल शून्य से कुछ भिन्न निकलता है वैसे ही हम पाते हैं कि 'स्वप्न' भी मन के आभास और विभ्रम से भिन्न कुछ है । दृश्य घटना कोई छायामूर्ति नहीं है, दृश्य घटना एक 'सत्य' का सारवान् रूप है ।

 

     तो हम एक ऐसी सर्वव्यापक सद्वस्तु की धारणा से शुरू करते हैं जिसके एक छोर पर असत् और दूसरे छोर पर विश्व एक दूसरे का विलोपन करनेवाले नकार नहीं हैं, बल्कि ये दोनों एक ही सद्वस्तु की विभिन्न स्थितियां हैं, उसकी चित और पट प्रस्थापनाएं हैं । विश्व में इस सद्वस्तु की उच्चतम अनुभूति बतलाती है कि वह केवल एक सचेतन 'सत्ता' ही नहीं है बल्कि परम 'प्रज्ञा' और 'शक्ति' तथा स्वयंभू 'आनंद' भी है; और विश्व के परे कोई अन्य अज्ञेय सत्ता, कोई परम, अनिर्वचनीय आनंद है । अतः हमारा यह अनुमान करना भी उचित है कि इस विश्व के द्वंद्वों की भी व्याख्या जब आज की तरह सम्वेदनात्मक और आंशिक धारणाओं के द्वारा न करके हमारी स्वतंत्र बुद्धि और अनुभूति के द्वारा की जायेगी तो इनका समाधान भी उन्हीं उच्चतम अवस्थाओं में हो जायेगा । जबतक हम द्वंद्वों के दबाव तले श्रम करते रहते हैं तबतक निश्चय ही इस बोध को बनाये रखने के लिये सदा श्रद्धा का सहारा लेना होगा । लेकिन ऐसी श्रद्धा जिसे उच्चतम 'तर्कबुद्धि', विशालतम और सर्वाधिक धैर्यशील चिंतन अस्वीकृत नहीं बल्कि प्रस्थापित करते हैं । वास्तव में (श्रद्धा का) यह पंथ मानवजाति को उसकी यात्रा में तबतक सहायता देने के लिये दिया गया है जबतक कि वह विकास के ऐसे स्तर पर न आ जाये जब श्रद्धा ज्ञान और पूर्ण अनुभूति में परिवर्तित हो जाये और 'प्रज्ञा' का औचित्य उसके कर्मों से सिद्ध हो ।

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अध्याय ५

 

व्यक्ति की नियति

 

 अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्र्नुते ।

विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्र्नुते ।।

 

अविद्या के द्वारा वे मृत्यु के परे चले जाते हैं और विद्या (ज्ञान) द्वारा अमरता प्राप्त करते हैं...'अजन्म' के द्वारा वे 'मृत्यु' को पार करते हैं और 'जन्म' द्वारा अमरता का रस लेते हैं ।

                                              ईशोपनिषद् ११.१४

 

समस्त जीवन और अस्तित्व का, चाहे वह सापेक्ष हो या निरपेक्ष, सशरीर हो या शरीरहीन, प्राणमय हो या निष्प्राण, चाहे बुद्धिमान् हो या बुद्धिहीन, सभीका सत्य है एक सर्वव्यापक सद्वस्तु । उसकी अनंत रूपों में बदलनेवाली बल्कि सदा विरोधी आत्माभिव्यक्ति में भी, हमारी सामान्य अनुभूति के निकटतम विरोधों से लेकर उन सुदूरतम विरोधों या प्रतिषेधों तक जो अपने-आपको अनिर्वचनीय के तट पर खो देते हैं, इन सबमें एक ही सद्वस्तु है, वह कोई कुलयोग या समवाय नहीं । सभी विभिन्नताएं उसीसे शुरू होती हैं, सभी विभिन्नताएं उसीमें निवास करती हैं और सभी विभिन्नताएं उसीमें लौट जाती हैं । उसी सद्वस्तु को एक विशालतर प्रस्थापना की ओर ले जाने के लिये ही सभी प्रस्थापनाओं को अस्वीकार किया जाता है । सभी प्रतिषेध एक दूसरे के आमने-सामने आते हैं ताकि वे एकमेव 'सत्य' को उसके विरोधी पहलुओं में पहचान सकें और विरोध के मार्ग से पारस्परिक एकता का आलिंगन कर सकें । ब्रह्म ही अथ है और ब्रह्म ही इति । ब्रह्म ही एकमेव है और उसके सिवा किसीका अस्तित्व ही नहीं ।

 

     किंतु यह एकत्व स्वभावत: अनिर्वचनीय है । जब हम मन द्वारा इसे समझना चाहते हैं तो धारणाओं और अनुभूतियों की एक असीम शृंखला में से गुजरने के लिये बाधित होते हैं । फिर भी अंत में हम अपनी बड़ी-से-बड़ी धारणाओं और अधिक-से-अधिक व्यापक अनुभूतियों को नकारने के लिये बाधित होते हैं ताकि यह प्रस्थापित कर सकें कि सद्वस्तु सभी परिभाषाओं के परे है । हम भारतीय ऋषियों के सूत्र 'नेति नेति' --वह यह भी नहीं है, वह यह भी नहीं है --पर आ पहुंचते हैं । ऐसी कोई अनुभूति नहीं है जिसके द्वारा हम उसे सीमित कर सकें, ऐसी कोई धारणा नहीं है जिसके द्वारा हम उसकी व्याख्या कर सकें ।

 

      हम स्वयं जो अस्तित्व हैं और वह सब जो हमारे विचार और इन्द्रियों के सामने आता है उस सबके बारे में मन अंततः यही कह सकता है कि यह एक अज्ञेय है

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जो हमारे सामने सत्ता की अनेक अवस्थाओं और गुणों में, चेतना के अनेक रूपों में, ऊर्जा की अनेक क्रियाओं में प्रकट होता है । इन्हीं स्थितियों, इन्हीं रूपों और इन्हीं क्रियावलियों में और इनके द्वारा हमें अज्ञेय के निकट जाना और उसे पहचानना होगा । लेकिन अगर हम अपने मन के द्वारा ग्रहण और धारण किये जा सकनेवाले एकत्वतक पहुंचने की जल्दबाजी में, 'अनंत' को अपनी बांहों में भरकर सीमित कर देने के आग्रह में किसी एक विशिष्ट अवस्था को, वह चाहे जितनी भी पूर्ण और शाश्वत क्यों न हो, किसी विशेष गुण को, वह चाहे कितना भी सार्वभौम और व्यापक क्यों न हो, चेतना के किसी निष्चित निरूपण को, वह अपने क्षेत्र में चाहे कितना भी विशाल क्यों न हों, किसी ऊर्जा या क्रियाशीलता को, वह अपने व्यवहार में चाहे कितनी भी असीम क्यों न हो, सद्वस्तु मान लें और बाकी सबको अलग कर दें तो हमारे विचार उसकी अज्ञेयता के विरुद्ध पाप करेंगे और सच्चे ऐक्य पर नहीं बल्कि 'अविभाज्य' के विभाजन पर आ पहुंचेंगे ।

 

     प्राचीन काल में इस सत्य का साक्षात्कार इतने सशक्त रूप से किया गया था कि हमारी चेतना के लिये उस सद्वस्तु की उच्चतम भावात्मक अभिव्यक्ति के रूप में सच्चिदानंद की विश्वासदायक अनुभूति के शीर्षस्थ भावतक पहुंच कर भी वेदांती द्रष्टाओं ने अपने चिंतन में असत् को प्रतिष्ठित किया था या अपने प्रत्यक्ष दर्शन में वे परे के उस असत् तक जा पहुंचे थे जो वह अंतिम अस्तित्व, शुद्ध चेतना या अनंत आनंद नहीं है जिसकी अभिव्यक्तियां या विकृतियां ही हमारी समस्त अनुभूतियां हैं । और अगर यह कोई सत् चित् या आनंद है ही तो इन चीजों के जिन उच्चतम और शुद्धतम भावात्मक रूप को हम यहां पा सकते हैं उस रूप से परे है । अतः वह उन चीजों से अलग है जिन्हें हम यहां इन नामों से जानते हैं । बौद्ध धर्म, जिसे धर्मशास्त्रियों ने मनमाने ढंग से अवैदिक घोषित कर दिया था क्योंकि वह श्रुतियों को आप्त प्रमाण नहीं मानता, वह इस तत्त्वत: वैदांतिक धारणातक वापिस जाता है । केवल उपनिषदों की भावात्मक और समन्वयात्मक शिक्षा ने सत् और असत् को विरोधी और एक दूसरे के विनाशक के रूप में नहीं बल्कि उस अंतिम प्रतिषेध के रूप में देखा जिसके द्वारा हम अज्ञेय की ओर उन्मुख होते हैं । और हमारी भावात्मक चेतना के सभी व्यापारों में एकत्व को भी बहु के साथ लेखा-जोखा करना पड़ता है क्योंकि बहु भी ब्रह्म है । हम विद्या द्वारा, एकत्व के ज्ञान द्वारा भगवान् को जान सकते हैं । उसके बिना अविद्या, सापेक्ष और बहुत्व की चेतना, एक अंधकार की रात्रि और अज्ञान की अव्यवस्था है । फिर भी यदि हम अज्ञान के उस क्षेत्र को दूर कर दें, यदि हम अविद्या से इस तरह पिंड छुड़ा लें मानों वह अवास्तविक है, उसका अस्तित्व ही नहीं तो स्वयं ज्ञान एक प्रकार का धुंधलापन और अपूर्णता का स्रोत बन जाता है । हम ऐसे हो जाते हैं जैसे प्रकाश से चुंधियाये मनुष्य । इस तरह हम उस क्षेत्र को ही नहीं देख पाते जिसे वह प्रकाश आलोकित करता है ।

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     तो ऐसी है हमारे प्राचीनतम ऋषि-मुनियों की शिक्षा; स्थिर, प्रज्ञावान् और स्पष्ट । उनके अंदर खोजने और जानने का धैर्य था और शक्ति थी । उनके अंदर अपने ज्ञान की सीमा को स्वीकार करने की स्पष्टता और नम्रता भी थी । उन्होंने वे सीमांत भी देखे थे जहां पहुंचकर ज्ञान को अपनेसे परे की किसी चीज में जा मिलना होगा । यह तो बाद की मन और बुद्धि की अधीरता थी, परम आनंद के प्रति उत्कट आकर्षण था, या विशुद्ध अनुभूति और पैनी बुद्धि की उच्च प्रभावशालिता थी जिसने 'एकत्व' की खोज में 'बहु' को अस्वीकार कर दिया और चूंकि वह ऊंचाइयों की हवा में सांस ले चुकी थीं उसने गहराइयों के रहस्यों का तिरस्कार किया या उनसे पीछे हट गयी । परंतु प्राचीन प्रज्ञा की स्थिर आंख ने देखा था कि वास्तव में भगवान् को जानने के लिये उन्हें बिना भेदभाव के समान रूप से हर जगह देखना चाहिये और जिन विरोधों में से भगवान् चमकते हैं उनसे हमें अभिभूत हुए बिना उनपर विचार करना और उनका मूल्य आंकना होगा ।

 

     हम आंशिक तर्क के पैने भेदभाव को एक ओर रख देंगे जो घोषणा करता है कि चूंकि 'एकमेव' वास्तविक है इसलिये 'बहु' माया है और चूंकि निरपेक्ष सत् है, एकमात्र अस्तित्व है इसलिये सापेक्ष असत् और अस्तित्वहीन है । अगर हम लगन के साथ, बहु के अंदर एक की खोज करते हैं तो यह बहु के अंदर अपनी पुष्टि करनेवाले एकमेव की ओर आशीर्वाद और अंत:प्रकाश के साथ लौटने के लिये ।

 

     मन अपने अधिक सशक्त विस्तारों और परिवर्तनों में जब किन्हीं विशेष दृष्टिबिंदुओं को अतिशय महत्त्व देता है तो हमें अपने-आपको उस (मन) से सुरक्षित रखना होगा । हमारे लिये अध्यात्मभावापन्न मन के इस प्रत्यक्ष दर्शन का निरपेक्ष मूल्य, कि विश्व एक अवास्तविक स्वप्न है, जड़भावापन्न मन के इस प्रत्यक्ष दर्शन से अधिक नहीं हो सकता कि भगवान् और 'परम' भ्रांतिमूलक विचार हैं । एक दशा में केवल इन्द्रियों की साक्षी का अभ्यस्त मन जो वास्तविकता को शारीरिक तथ्यों के साथ जोड़ता है, या तो ज्ञान के अन्य साधनों का उपयोग करने के लिये अनभ्यस्त होता है या वास्तविकता की भावना को अतिभौतिक अनुभूतियोंतक विस्तृत करने में अक्षम होता है । दूसरी दशा में वही मन अशरीरी वास्तविकता की अभिभूत करनेवाली अनुभूति को पार करते हुए उसी अक्षमता, उसी स्वप्न या भ्रांति के परिणामी भाव को इन्द्रियों की अनुभूति पर लागू कर देता है । लेकिन हम उस सत्य का भी प्रत्यक्ष दर्शन पाते हैं जिसे ये दोनों धारणाएं विकृत कर देती हैं । यह सच है कि इस रूप-जगत् के लिये, जिसमें हम आत्मोपलब्धि के लिये उद्यत हैं कोई चीज तबतक पूरी तरह प्रामाणिक नहीं होती जबतक कि वह उपलब्धि हमारी भौतिक चेतना को अपने हाथ में न ले ले और ऊंचे-से-ऊंचे शिखरों की उपलब्धि के साथ सामंजस्य में आकर निचले स्तरों पर भी उस अभिव्यक्ति को न ले आये । यह भी समान रूप से सच है कि जब रूप और जड़ स्वयंभू सद्वस्तु होने का

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दावा करते हैं तो वे अज्ञान की भ्रांति होते हैं । रूप और जड़ अशरीरी और अभौतिक की अभिव्यक्ति के लिये केवल आकार और उपादान के रूप में ही सार्थक हो सकते हैं । वे अपने स्वरूप में दिव्य चेतना की एक क्रिया हैं और अपने लक्ष्य में आत्मा की एक स्थिति के प्रतिरूप ।

 

     दूसरे शब्दों में अगर ब्रह्म रूप में प्रविष्ट हुआ है और उसने अपनी सत्ता को भौतिक पदार्थ में निरूपित किया है तो यह केवल सापेक्ष और गोचर चेतना के प्रतिरूपों में आत्माभिव्यक्ति का रस लेना ही हो सकता है । ब्रह्म इस जगत् में अपने-आपको 'जीवन' के मूल्यों को निरूपित करने के लिये है । 'जीवन' ब्रह्म के अंदर निवास करता है ताकि अपने अंदर ब्रह्म को खोज सके । अतः जगत् में मनुष्य का महत्त्व यही है कि यह उसे चेतना का वह विकास प्रदान करता है जिसमें संपूर्ण आत्मान्वेषण के द्वारा उसका रूपांतर संभव होता है । भगवान् को जीवन में परिपूर्ण करना ही मनुष्य की मनुष्यता है । वह पाशविक प्राण और उसकी क्रियाओं से शुरू करता है परंतु उसका उद्देश्य है दिव्य सत्ता ।

 

     लेकिन 'विचार' की तरह 'जीवन' में भी आत्म-सिद्धि का सच्चा नियम है उत्तरोत्तर बढ़ती हुई अवधारणा । ब्रह्म अपने-आपको चेतना के क्रमिक रूपों में प्रकट करता है । ये रूप सत्ता में सहवर्ती या काल में समकालीन होते हुए भी अपने संबंध में क्रमिक रहते हैं और 'जीवन' को भी आत्मोन्मीलन में अपनी सत्ता के नित नवीन प्रदेशों में उठते रहना चाहिये । लेकिन यदि हम एक क्षेत्र में से दूसरे में जाते हुए नयी प्राप्ति की उत्कंठा में, जो हमें पहले प्राप्त हुआ था उसे छोड़ते चलें, यदि मानसिक जीवन तक पहुंचते-पहुंचते हम अपने भौतिक जीवन को, जो हमारा आधार है, फेंक दें या उसका अपमान करें, या आध्यात्मिक के आकर्षण के कारण मानसिक और भौतिक को त्याग दें तो हम भगवान् को पूर्ण रूप से चरितार्थ नहीं करते और न उनकी आत्माभिव्यक्ति की शर्ते ही पूरी करते हैं । हम पूर्ण नहीं बन जाते बल्कि अपनी अपूर्णता का क्षेत्र बदल देते हैं या अधिक--से-अधिक एक सीमित ऊंचाई पा लेते हैं । हम चाहे जितना ऊंचा चढ़े, चाहे स्वयं 'असत्' तक ही जा पहुंचें, फिर भी अगर हम अपने आधार को भूल जायें तो हमारा चढ़ना दोषपूर्ण होता है । निम्नतर को अपने भाग्य पर छोड़ देना नहीं बल्कि जिस उच्चता को हम प्राप्त कर चुके हैं उसके प्रकाश में उसे रूपांतरित करना प्रकृति का सच्चा दिव्यत्व है । ब्रह्म समग्र है और एक ही समय में चेतना की अनेक अवस्थाओं को एक करता है । हमें भी ब्रह्म की प्रकृति को अभिव्यक्त करते हुए समग्र और सर्वग्राही बनना चाहिये ।

 

     संन्यासी के आवेग में भौतिक जीवन से वितृष्णा के अतिरिक्त एक और अतिशयता है जिसे समग्र अभिव्यक्ति का यह आदर्श सुधार देता है । चेतना के तीन सामान्य रूपों, व्यष्टिगत, वैश्व और परात्पर या विश्वातीत का संबंध ही 'जीवन'

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की गतियों को जोड़नेवाला सूत्र है । जीवन की क्रियाशीलताओं के सामान्य वितरण में व्यष्टि अपने--आपको विश्व के अंदर रहते हुए एक अलग सत्ता मानता है और ये दोनों ही उसपर आश्रित हैं जो समान रूप से व्यष्टि और विश्व के परे है । इस परात्पर को हम चलती भाषा में भगवान् का नाम देते हैं । इस तरह वह हमारी धारणाओं के लिये इतना विश्वातीत नहीं है जितना विश्व के बाहर है । इस विभाजन का स्वाभाविक परिणाम होता है व्यष्टि और विश्व दोनों का पद और मूल्य घटना । इसका तर्कसंगत अंतिम परिणाम होगा इस परात्पर की प्राप्ति के द्वारा व्यष्टि और जगत् दोनों का समापन ।

 

     ब्रह्म के एकत्व की समग्र दृष्टि इन परिणामों से बचती है । जैसे हमें मानसिक और आध्यात्मिक की प्राप्ति के लिये शारीरिक जीवन को छोड़ने की जरूरत नहीं है उसी तरह हम एक ऐसे दृष्टिबिंदु तक पहुंच सकते हैं जहां व्यष्टिगत क्रियाकलाप को बनाये रखना हमारी वैश्व चेतना की अवधारणा या परात्पर और विश्वातीत की प्राप्ति से असंगत नहीं रहता । क्योंकि 'विश्व परात्पर' विश्व का आलिंगन करता है, उसके साथ एक है और उसका बहिष्कार नहीं करता, ठीक वैसे ही जैसे विश्व व्यष्टि का आलिंगन करता है, उसके साथ एक है और उसका बहिष्कार नहीं करता । व्यष्टि समस्त वैश्व चेतना का केंद्र है, विश्व एक रूप और परिभाषा है जिसमें निराकार और अनिर्वचनीय की सारी अंतर्यांमिता समायी रहती है ।

 

     यही हमेशा सच्चा संबंध होता है परंतु हमारे और उसके बीच, हमारे अज्ञान या वस्तुओं के बारे में हमारी गलत चेतना का परदा रहता हैं । जब हम ज्ञान या सत्य चेतना को पा लेते हैं तो हमारे शाश्वत संबंध में कोई तात्त्विक परिवर्तन नहीं होता, केवल व्यष्टिगत केंद्र से अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि में गहरा परिवर्तन आता है और परिणामस्वरूप उसके क्रियाकलाप की भावना और प्रभाव में भी । जगत् में परात्पर की क्रिया के लिये व्यष्टि फिर भी जरूरी होता है और व्यष्टि के ज्योतिर्मय हो जाने से उसके अंदर इस क्रिया की संभावना समाप्त नहीं हो जाती । इसके विपरीत चूंकि व्यष्टि में परात्पर की सचेतन अभिव्यक्ति वह साधन है जिसके द्वारा समुदाय को, वैश्व को भी अपने बारे में सचेतन होना है अतः ज्योतिर्मय व्यष्टि का जगत् के कार्य में बने रहना जगत् की लीला की एक अनिवार्य आवश्यकता है । ज्योतिर्मय हो जाने की क्रियामात्र के द्वारा व्यष्टि का जगत् से अटल रूप में अलग हो जाना ही यदि नियम होता तो यह जगत् हमेशा के लिये अनुद्धार्य अंधकार, मृत्यु और दुःख का रंगमंच बने रहने के लिये अभिशप्त होता । और इस तरह का जगत् एक निर्दय अग्निपरीक्षा या यांत्रिक भ्रम मात्र होता ।

 

     संन्यासी का दर्शनशास्त्र इसी तरह देखने की ओर प्रवृत्त होता है । लेकिन संसार यदि अपने-आप माया है तो व्यक्तिगत मुक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । अद्वैत दृष्टि के अनुसार व्यष्टिगत अंतरात्मा परम पुरुष के साथ एक है, पृथक्ता का

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भाव अज्ञान है, पृथक्ता के भाव से छुटकारा और परम पुरुष के साथ तादात्म्य ही उसकी मुक्ति हैं । परंतु तब इस छुटकारे से लाभ कौन पाता है ? परम आत्मा नहीं क्योंकि माना यह जाता है कि वह सदा अविच्छिन्न रूप से मुक्त, निश्चल, नीरव और शुद्ध है । जगत् भी नहीं क्योंकि वह सदा बद्ध रहता है और किसी व्यष्टिगत अंतरात्मा की वैश्व 'माया' सें मुक्ति द्वारा मुक्ति नहीं पाता । यह तो स्वयं व्यष्टिगत अंतरात्मा दुःख और विभाजन से छुटकारा पाकर शांति और आनंद में अपना परम कल्याण पाती है । तब ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्ति तथा ज्योतिर्मयता को प्राप्त कर लेने के बाद भी व्यष्टिगत अंतरात्मा की जगत् और परम पुरुष से स्पष्टत: भिन्न किसी प्रकार की वास्तविकता रहती है । लेकिन मायावादी के लिये व्यष्टिगत अंतरात्मा माया के अनिर्वचनीय रहस्य के बाहर एक भ्रांति और अनस्तित्व है । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक मायामय असत् संसार से, एक मायामय असत् अंतरात्मा का एक मायामय असत् बंधन से छुटकारा पाना ही वह परम कल्याण है जिसकी खोज उस असत् अंतरात्मा को करनी है ! क्योंकि यह ज्ञान का परम शब्द है कि ''न कोई बद्ध है, न कोई मुक्त और न ही कोई मुमुक्षु'' । विद्या भी उसी तरह आभासी जगत् का एक भाग सिद्ध होती है जैसे अविद्या । माया हमारे छुटकारे के समय भी हमसे आ मिलती है और उस विजयी तर्क पर हंसती है जिसके बारे में ऐसा लगता था कि उसने माया के रहस्य की गांठ काट दी है ।

 

     कहा जाता है कि इन चीजों की व्याख्या नहीं की जा सकती । ये आद्य चमत्कार हैं जिनका कोई समाधान नहीं । ये हमारे लिये व्यावहारिक तथ्य हैं और इन्हें स्वीकारना होगा । हमें एक संभ्रांति में से एक और संभ्रांति द्वारा निकलना होगा । व्यष्टिगत अंतरात्मा अहं की एक परम क्रिया के द्वारा, अपनी व्यक्तिगत मुक्ति पर ऐकांतिक संलग्नता द्वारा ही अहं की गांठ को काट सकती है जिसका मतलब होता है माया के अंदर उसके पृथक् अस्तित्व का प्रतिष्ठापन । हम ऐसा मानने लग जाते हैं मानों अन्य अंतरात्माएं हमारी कपोल-कल्पनाएं हैं और उनकी मुक्ति का महत्व नहीं, मानों हमारी अंतरात्मा ही पूर्णतया सत्य है और उसकी मुक्ति ही एकमात्र महत्त्व की चीज है । मैं बंधन से अपने निजी छुटकारे को वास्तविक मानने लगता हूं जब कि अन्य अंतरात्माएं जो समान रूप से मेरा अपना स्व हैं पीछे बंधन में पड़ी रह जाती हैं !

 

     जब हम आत्मा और जगत् के बीच के सभी मेल न खा सकनेवाले विरोधों को एक ओर हटा देते हैं तभी कम विरोधाभासी तर्क द्वारा चीजें अपने-अपने स्थान पर आ पाती हैं । हमें अभिव्यक्ति की बहुमुखता को स्वीकार कर लेना चाहिये, उस समय भी जब हम अभिव्यक्त के ऐक्य पर बल दे रहे हों । तो क्या यही वह सत्य नहीं है जो, हम जिधर भी नजर घुमाएं उधर ही दिखायी देता है लेकिन अगर हम देखते हुए भी न देखना चाहें तो. और बात है । तो क्या आखिर सचेतन सत्ता का

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यह पूर्णतया स्वाभाविक और सरल रहस्य नहीं है कि वह न अपने ऐक्य से बंधा है न बहुलता से ? वह इस अर्थ में 'निरपेक्ष' है कि वह आत्माभिव्यक्ति की सभी संभव अवस्थाओं को चुनने और अपने ढंग से व्यवस्थित करने के लिये पूरी तरह स्वतंत्र है । न कोई बद्ध है, न मुक्त और न ही मुमुक्षु--क्योंकि सर्वदा वह 'तत्' पूर्ण स्वाधीनता है । वह इतना स्वतंत्र है कि वह अपनी स्वतंत्रता से भी बंधा नहीं है । वह सचमुच बंधन में आये बिना बद्ध होने का खेल खेल सकता है । उसकी बेड़ी स्वयं उसकी अपनी आरोपित परिपाटी होती है, उसका अपने-आपको अहं के अंदर सीमित करना एक संक्रमणकालीन साधन है जिसका उपयोग वह अपनी वैश्व और विश्वातीत स्थितियों को व्यष्टिगत ब्रह्म की योजना में दोहराने में करता है ।

 

     परात्पर, विश्वातीत है, देश और काल के परे, अनंत और सांत के काल्पनिक विरोध के परे अपने-आपमें निरपेक्ष और मुक्त है । परंतु विश्व में वह अपनी आत्म निर्माण की स्वाधीनता का, अपनी माया का उपयोग एकता और बहुलता के पूरक तत्त्वों में अपनी योजना बनाने के लिये करता है । वह अपने बहुमुखी ऐक्य को अवचेतन, सचेतन और अतिचेतन की तीन अवस्थाओं में स्थापित करता है । क्योंकि वास्तव में हम देखते हैं कि हमारे भौतिक जगत् में रूप के अंदर विषयभूत होनेवाले बहु का आरंभ अवचेतन एकत्व से होता है । यह एकता अपने-आपको वैश्व क्रिया और पदार्थ में काफी खुलकर प्रकट करती है लेकिन स्वयं ये उसके बारे में ऊपरी तौर पर अभिज्ञ नहीं होते । सचेतन में अहं वह ऊपरी बिंदु बन जाता है जिसमें एकता की अभिज्ञता उभर सकती है लेकिन वह एकता के बोध को रूप और तलीय कार्य के साथ संबद्ध कर देता है और जो कुछ पीछे से कार्य कर रहा है उसे दृष्टि में नहीं ला पाता और इस कारण यह भी अनुभव नहीं कर पाता कि वह न केवल अपने-आपमें एक है बल्कि औरों के साथ भी एक है । विभक्त अहं--बोध में वैश्व ''मैं'' की यह सीमा ही हमारे अपूर्ण व्यष्टिभावापन्न व्यक्तित्व का निर्माण करती है । लेकिन जब अहं व्यष्टिगत चेतना से परे चला जाता है तो वह उसे अपने अंदर समाविष्ट करने लगता और उसके द्वारा अभिभूत होने लगता है जो हमारे लिये अतिचेतन है । वह वैश्व ऐक्य के बारे में अभिज्ञ हो जाता है और परात्पर आत्मा में प्रवेश करता है जिसे यहां विश्व एक बहुविध एकत्व के द्वारा प्रकट करता है ।

 

     अतः व्यष्टिगत अंतरात्मा की मुक्ति ही निश्चित भागवत क्रिया का मूल सूत्र है । यह प्रथम दिव्य आवश्यकता है, यहीं वह धुरी है जिसपर सब कुछ घूमता है । यही वह 'प्रकाश बिंदु' है जहां से 'बहु' के अंदर अभिप्रेत पूर्ण आत्माभिव्यक्ति उभरनी शुरू होती है । परंतु मुक्त अंतरात्मा अपने एकत्व के बोध को क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर दोनों रूपों में फैलाती है । परात्पर 'एक' के साथ उसका एकत्व, वैश्व 'बहु' के साथ एकत्व के बिना, अपूर्ण रहता है । और वह पार्श्विक एकत्व अपने- आपको गुणा द्वारा अपनी मुक्तावस्था को बहुत्व के अन्य बिंदुओं पर दोहराकर

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अनूदित करता है । जैसे पशु अपने-आपको अपने जैसे शरीरों में उत्पन्न करता है उसी तरह दिव्य आत्मा अपने-आपको अपने जैसी मुक्त आत्माओं में उत्पन्न करती रहती है । अतः जब कभी एक भी अंतरात्मा मुक्ति पाती है तो हमारी पार्थिव मानव जाति के अंदर दूसरी व्यष्टि अंतरात्माओं में उसी दिव्य आत्मचेतना के फैलाव या विस्फोट की वृत्ति होती है --और कौन जाने, शायद पार्थिव चेतना के परे भी । हम उस फैलाव की सीमा कहां निश्चित करेंगे ? क्या यह एक कहानी मात्र है जो कहती है कि जब बुद्ध निर्वाण या असत् की देहली पर खड़े थे तो उनकी अंतरात्मा लौट पड़ी और उसने यह प्रण किया कि वह इस अटल देहली को तबतक न लांघेगी जबतक पृथ्वी पर एक भी सत्ता ऐसी रहेगी जो दुःख-दर्द की गांठ से, अहंकार के बंधन से मुक्त न हो ।

 

     लेकिन हम अपने-आपको वैश्व विस्तार से मिटाये बिना उच्चतम को प्राप्त कर सकते हैं । ब्रह्म अपनी दो अवस्थाओं को आंतरिक स्वाधीनता और बाह्य रूपायण की, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति से मुक्ति की दोनों अवस्थाओं को सदा बनाये रखता है । हम भी 'तत्' होने के नाते उसी दिव्य स्वाधिपत्य को प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे समस्त जीवन के लिये जिसका लक्ष्य है वस्तुतः दिव्य होना, यह आवश्यक है कि इन दोनों प्रवृत्तियों का सामंजस्य किया जाये । हमें जिस चीज को पार करना है उसका बहिष्कार करते हुए स्वतंत्रता पाना हमें नकार के मार्ग से उसे अस्वीकार करने की ओर ले जाता है जिसे भगवान् ने स्वीकार किया है । कर्म और ऊर्जा में तन्मय होकर क्रियाशीलता को स्वीकारने से हम निम्नतर को स्वीकार और उच्चतर को अस्वीकार करने की ओर ले जाये जाते हैं । लेकिन भगवान् जिनमें मेल और समन्वय साधते हैं, उनमें संबंध-विच्छेद का मनुष्य क्यों आग्रह करे ? तत् की समग्र उपलब्धि की शर्त है तत् के समान पूर्ण होना ।

 

     संक्रमणशील अहंकारमय आत्माभिव्यक्ति में मृत्यु और दुःख-दर्द की प्रधानता है । हमारे लिये उसमें से बाहर निकलने का मार्ग अविद्या में से, बहुलता में से होकर जाता है । अविद्या को सहमति देनेवाली विद्या के द्वारा, बहुलता के अंदर भी एकत्व के पूर्ण भाव के द्वारा हम समग्र रूप से अमरता और आनंद का भोग करते हैं । समस्त संभूति के परे ' अजन्मे' को प्राप्त करके हम निम्नतर जन्म--मरण से छुटकारा पाते हैं । भगवान् की तरह मुक्त रूप से संभूति को स्वीकार करके हम अमर आनंद द्वारा मर्त्यता पर आक्रमण करते हैं और मानव जाति में उसकी सचेतन आत्माभिव्यक्ति के ज्योतिर्मय केंद्र बन जाते हैं ।

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अध्याय ६

 

विश्व में मानव

 

            सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते अस्मिनृ हंसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे ।

            पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टसातस्तेनामृतत्वमेति ।।

 

हंस (मानव अंतरात्मा, एक यात्री) ब्रह्म के इस विशाल, सर्वजीवमय, सर्वअवस्थामय चक्र में विचरण करता रहता है और अपने-आपको इस यात्रा के 'प्रेरक' से भिन्न मानता है । ब्रह्म द्वारा स्वीकृत होकर वह अपना लक्ष्य, 'अमरता' पा लेता है ।

                                                       (श्वेताश्वतरोनिषद् १. ६)

 

यह जगत् जिसे हम देखते हैं और वे सब जगत् जिन्हें हम नहीं देख पाते उनकी बहुसंख्यक सापेक्षताओं को अपना साधन, उपादान, शर्त और क्षत्र  बनाती हुई एक महान् तुरीय, ज्योतिर्मय, 'सद्वस्तु' का उत्तरोत्तर प्रकट होना ही विश्व का आशय प्रतीत होता है क्योंकि उसका कुछ अर्थ और लक्ष्य तो है ही । वह न तो निष्प्रयोजक माया है न आकस्मिक संयोग । क्योंकि जो तर्क हमें इस निर्णय पर लाता है कि जगत् का अस्तित्व मन की धोखा देनेवाली चालाकी नहीं है वही समान रूप से इस निश्चय का समर्थन करता है कि यह ऐसी पृथक्-पृथक् प्रपंचात्मक सत्ताओं का अंधा और असहाय स्वयंभू समूह नहीं है जो अनंत काल में अपनी यात्रा का चक्कर काटता हुआ, जहांतक बन पड़े साथ-साथ चिपका रहता और संघर्ष करता रहता है । न ही वह किसी अज्ञानमयी शक्ति का विशाल विस्मयकारी आत्मसृजन और आत्मप्रेरण है । वह ऐसा नहीं है जिसमें अपनी यात्रा के आरंभ-बिंदु और लक्ष्य का ज्ञान रखनेवाली, उसकी प्रक्रिया और गति को निर्देशित करनेवाली कोई गुप्त 'बुद्धि' न हो । एक सत्ता, जो अपने-आपसे पूर्ण रूप से अभिज्ञ है और इस कारण जिसे अपने ऊपर पूरा प्रभुत्व प्राप्त है, वह इस ऐहिक सत्ता में निवर्तित रहती हैं और उसपर अधिकार किये रहती है, वह अपने-आपको रूप और आकार में चरितार्थ करती और व्यक्ति के अंदर अपने-आपको प्रस्फुटित करती है ।

 

    वह ज्योतिर्मय आविर्भाव ही वह उषा है जिसकी आर्य पुरखे पूजा किया करते थे । उसकी निष्पादित पूर्णता ही जगद्व्यापी विष्णु का वह उच्चतम पद है जिसे उन्होंन मन के विशुद्धतम आकाश में फैले एक दिव्य चक्षु के रूप में देखा था । क्योंकि वह सब कुछ प्रकट करनेवाले, समस्त निर्देशन देनेवाले वस्तुओं के सत्य के रूप में पहले से मौजूद है जो सारे संसार पर नजर रखता है और मर्त्य मनुष्य को पहले तो उसके सचेतन मन की जानकारी के बिना, प्रकृति की सामान्य गति द्वारा

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और अंत में सचेतन रूप से क्रमश: जागरण और आत्म-विस्तार द्वारा अपने दिव्य आरोहण की ओर आकर्षित करता है । दिव्य जीवन की ओर आरोहण ही मानव यात्रा है, कर्मों का 'कर्म' और स्वीकार्य 'यज्ञ' है । जगत् में मनुष्य का यहीं सच्चा कार्य है, यही उसके जीवन का औचित्य है, इसके बिना वह बस एक रेंगता हुआ कीड़ा रह जायेगा जो भौतिक विश्व की भयानक विशालताओं के बीच सतही पानी और कीचड़ के संयोग से किसी तरह बने एक छोटे-से कण पर अन्य स्वल्पायु कीटों के बीच रेंगता रहेगा ।

 

    वस्तुओं के इसी 'सत्य' को दृश्य जगत् के पारस्परिक विरोधों के बीच में से उभरना है । उस 'सत्य' के बारे में यह घोषित किया गया है कि वह अनंत 'आनंद' और आत्म-सचेतन 'सत्ता' है । वह सब जगह, सभी चीजों में, सब समय और समय के परे एक समान हैं । वह जानता है कि इन सब आभासों के पीछे वही है किंतु इन आभासों की क्रियाशीलता के तीव्रतम स्पंदन या इनकी विशालतम समग्रता उसे कभी पूरी तरह प्रकट नहीं कर सकती और न ही किसी तरह सीमित कर सकतीं है क्योंकि वह स्वयंभू है और अपनी सत्ता के लिये अपनी अभिव्यक्तियों पर निर्भर नहीं है । ये अभिव्यक्तियां उसका प्रतिनिधित्व करती हैं पर उसे निःशेष नहीं करतीं, उसकी ओर इशारा करती हैं पर उसे प्रकट नहीं कर सकतीं । इन सब रूपों में वह स्वयं अपने ही सामने प्रकट होता है । रूप में अंतर्लींन सचेतन सत्ता, अपने विकास के साथ-साथ अपने-आपको अंतर्भास, आत्म-दर्शन और आत्म-अनुभूति द्वारा जान पाती है । वह जगत् में अपने-आपको जानकर अपने-आप बनती है और अपने-आप बनकर अपने-आपको जानती हैं । इस भांति भीतर से अपने ऊपर अधिकार पाकर वह अपने रूपों और अपनी अवस्थाओं को सच्चिदानंद का सचेतन आनंद प्रदान करती है । मन, प्राण और शरीर में अनंत सच्चिदानंद की यह संभूति ही तो वह रूपांतर है जो अभीष्ट है और यही व्यष्टिगत सत्ता की उपयोगिता है --क्योंकि उनसे स्वतंत्र तो वह सदा ही बना रहता है । जैसे सच्चिदानंद ऐक्य के अंदर स्वरूप में रहता है उसी तरह व्यक्ति द्वारा संबंध में व्यक्त होता है ।

 

    वेदांत की चरम प्रस्थापना है कि एक 'अज्ञेय' है जो अपने-आपको सच्चिदानंद के रूप में जानता है । बाकी सब कुछ इसके अंदर आ जाता है या इसपर निर्भर है । यही एक सच्चा अनुभव है जो नकारात्मक भाव द्वारा सभी दृश्य वस्तुओं के आकारों और आवरणों को हटा देने पर या सकारात्मक भाव द्वारा उनके नामों और रूपों को उनके भीतर समाये नित्य सत्य में घटा देने पर भी बना रहता है । जीवन की परिपूर्ति के लिये हो या जीवन के परे जाने के लिये और चाहे हमारा लक्ष्य शुद्धि, अचंचलता और आत्मा में स्वाधीनता हो या शक्ति, आनंद और पूर्णता, सच्चिदानंद ही वह अज्ञात, सर्वव्यापक, अनिवार्य पद रहता है जिसके लिये मानव

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चेतना, ज्ञान और भावना में हो या सम्वेदन और कर्म में, निरंतर खोज करती रहती है ।

 

    विश्व और व्यक्ति ऐसे दो मूल रूप हैं जिनमें अज्ञेय उतरता है और जिनके द्वारा उसके पास पहुंचा जा सकता है । क्योंकि अन्य मध्यवर्ती समुदाय इन्हींकी क्रिया-प्रतिक्रिया से पैदा होते हैं । परम सद्वस्तु का यह अवतरण अपने स्वभाव में आत्मगोपन होता है; और अवतरण में आनुक्रमिक स्तर होते हैं और गोपन में आनुक्रमिक आवरण । अनिवार्य रूप से प्रकटन आरोहण का रूप लेता है और अनिवार्य रूप से ही आरोहण और प्रकटन दोनों ही प्रगतिशील होते हैं । क्योंकि भगवान् के अवतरण में हर आनुक्रमिक स्तर मनुष्य के आरोहण के लिये एक पड़ाव होता है । अज्ञात भगवान् को छिपानेवाला हर परदा भगवान् के प्रेमी और भगवान् को खोजनेवाले के लिये उसके उद्घाटन का एक साधन बन जाता है । जड़ प्रकृति उस अंतरात्मा और 'भाव' के बारे में अचेतन होती है जो उसकी मूक और सशक्त जड़ समाधि में भी उसकी ऊर्जा की व्यवस्थित क्रियाशीलताओं को बनाये रखती है । जड़ प्रकृति की ऐसी लयबद्ध मूर्च्छा में से, जगत् संघर्ष करता हुआ, आत्म चेतना के तटों पर जूझते प्राण की अधिक तेज, विविधतापूर्ण और अव्यवस्थित लय में जा पहुंचता है । प्राण में से यह ऊपर मन की ओर प्रयास करता है जिसमें व्यक्ति स्वयं अपने और अपने जगत् की ओर जागता है और इस जागरण में विश्व को अपने सर्वोत्कृष्ट कार्य के लिये आवश्यक उत्तोलन मिल जाता है, उसे आत्म सचेतन व्यक्तित्व मिल जाता है । लेकिन मन इस कार्य को सिर्फ जारी रखने के लिये हाथ में लेता है, पूरा करने के लिये नहीं । वह तीक्ष्ण किंतु सीमित बुद्धिवाला श्रमिक है जो प्राण द्वारा दी गयी अस्तव्यस्त सामग्री को हाथ में ले, अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें सुधारकर, अनुकूल बनाकर, विविधरूप देकर और वर्गीकृत करके हमारी दिव्य मानवता के परम 'कलाकार' के हाथों में सौंप देता है । वह 'कलाकार' अतिमानस में निवास करता है क्योंकि अतिमानस ही अतिमानव है । अत: हमारे जगत् को अभी मन के परे एक उच्चतर तत्त्व, एक उच्चतर स्थिति, एक उच्चतर क्रियाशीलता में उठना है जहां विश्व और मानव उस चीज के प्रति सचेतन होते और उसे अपने अधिकार में लेते हैं जो वे दोनों सचमुच हैं और इसलिये दोनों एक दूसरे को स्पष्ट रूप से जानते और एक दूसरे के साथ सामंजस्य में एक हो जाते हैं ।

 

    भौतिक से अधिक पूर्ण व्यवस्था के रहस्य को पहचान लेने से प्राण और मन की अव्यवस्थाएं समाप्त हो जाती हैं । प्राण और मन के नीचे स्थित जड़तत्त्व अपने अंदर शांति की पूर्ण समस्थिति और अपरिमेय ऊर्जा की क्रिया के बीच संतुलन तो रखता है परंतु वह जिसे अपने अंदर धारण किये हुए है उसका स्वामी नहीं है । उसकी शांति एक धुंधले तमसू का निस्तेज मुखौटा पहने रहती है, एक अचेतन या

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यूं कहें स्वापक द्वारा लायी गयी बंदी चेतना की नींद होती है । वह एक ऐसी शक्ति से परिचालित होता है जो उसकी वास्तविक आत्मा है लेकिन अभी वह न तो उसका आशय पकड़ पाता है न उसमें भाग ले सकता है । उसके अंदर अपनी सामंजस्यपूर्ण ऊर्जाओं का जाग्रत् आनंद नहीं है ।

 

    प्राण और मन अपनी इस कमी के भाव की ओर प्रयत्न एवं खोज में लगे अज्ञान और अशांत एवं असंतुष्ट कामना के रूप में जाग्रत् होते हैं । ये आत्मज्ञान और आत्मपरिपूर्ति की ओर प्रथम चरण हैं । परंतु तब उनकी आत्मपरिपूर्ति का राज्य कहां है ? यह उनके अंदर स्वयं अपना अतिक्रमण करने से आता है । मन और प्राण के परे हम सचेतन रूप से उस चीज को उसके अपने दिव्य सत्य में पाते हैं जिसे जड़ प्रकृति का संतुलन मोटे रूप में प्रदर्शित कर रहा था --एक ऐसी शांति जो न तो तमस् है न चेतना की मुहरबंद समाधि बल्कि पूर्ण शक्ति और पूर्ण आत्माभिज्ञता का केंद्रीकरण है और अपरिमेय ऊर्जा कीं क्रिया है जो साथ-ही-साथ अनिर्वचनीय आनंद का अतिरेक भी है क्योंकि उसकी हर एक क्रिया, किसी अभाव और अज्ञानपूर्ण प्रयास की नहीं बल्कि पूर्ण शांति और आत्मप्रभुता की अभिव्यक्ति है । इस उपलब्धि में हमारा अज्ञान उस प्रकाश को पाता है जिसका वह तमसाच्छन्न या आंशिक प्रतिबिंब था । हमारी कामनाएं उस प्रचुरता और परिपूर्णता में समाप्त हो जाती हैं जिसकी ओर ये अपने अत्यधिक जड़ भौतिक रूप में भी धूमिल और क्षीण अभीप्साएं थीं ।

 

    अपने आरोहण में व्यक्ति और विश्व दोनों एक दूसरे के लिये जरूरी हैं । वस्तुतः वे दोनों सदा ही एक दूसरे के लिये जीते और एक दूसरे से लाभ उठाते हैं । विश्व देश और काल में दिव्य सर्व का विस्तार है और व्यष्टि देश और काल की सीमाओं में उसका केंद्रीकरण । विश्व अनंत विस्तार में दिव्य समग्रता को खोजता है जिसे वह अपना स्वरूप अनुभव करता है परंतु पूरी तरह पा नहीं सकता क्योंकि विस्तार में सत्ता अपने ही बहुसंख्यक कुलयोग की तरफ बढ़ती है जो न तो उसकी मूल और न अंतिम इकाई हो सकता है, वह हो सकता है केवल आदि और अंतहीन आवर्तक दशमलव । अतः वह अपने अंदर सर्व का एक आत्म-सचेतन केंद्रीकरण पैदा कर लेता है जिसके द्वारा वह अभीप्सा कर सकता है । सचेतन व्यक्ति के अंदर प्रकृति पुरुष को देखने के लिये पीछे मुड़ती है, 'जगत्' ' आत्मा' की खोज करता है । भगवान् पूरी तरह से प्रकृति बन जाते हैं और प्रकृति उत्तरोत्तर भगवान् होना चाहती है ।

 

    और दूसरी ओर विश्व के द्वारा व्यष्टि को आत्मोपलब्धि की प्रेरणा मिलती है । विश्व केवल व्यष्टि का आधार, उसका साधन, उसका क्षेत्र, उसके भागवत कार्य का उपादान ही नहीं है बल्कि, चूंकि व्यष्टि सीमाओं के अंदर वैश्व जीवन का केंद्रीकरण भी है और चूंकि वह ब्रह्म के तीव्र ऐक्य की तरह समस्त बंधन और अवधि की

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धारणा से मुक्त नहीं है, उसे अनिवार्य रूप से अपने-आपको वैश्व और निर्वैयक्तिक बनाना होगा ताकि वह दिव्य सर्व को प्रकट कर सके जो उसकी वास्तविकता है । फिर भी जब वह चेतना की वैश्व स्थिति की ओर अपने-आपको अधिक-से-अधिक विस्तृत करे तब भी उससे यह मांग की जाती है कि वह रहस्यमय और परात्पर 'कुछ चीज' को बनाये रखे जिसका एक धुंधला-सा अहंकारमय चित्रण उसके व्यक्तित्व की भावना से मिलता है । अन्यथा वह अपना लक्ष्य चूक जाता है, जो समस्या उसके आगे रखी गयी थी वह हल नहीं होती, जिस दिव्य कर्म के लिये उसने जन्म लेना स्वीकार किया था वह पूरा नहीं होता ।

 

    विश्व व्यक्ति के पास जीवन के रूप में, एक ऐसी क्रियाशीलता के रूप में आता है जिसके सारे रहस्य पर उसे अधिकार करना है, टकरानेवाले परिणामों के समूह व संभाव्य ऊर्जाओं के भंवर के रूप में आता है जिसमें से किसी परम व्यवस्था और अभीतक अप्राप्त सामंजस्य को उसे मुक्त करना है । आखिर यही तो मनुष्य की प्रगति का वास्तविक आशय है । भौतिक प्रकृति अभीतक जो कुछ प्राप्त कर चुकी है, यह उसीको थोड़े-से हेर-फेर के साथ दोहराना नहीं है । मानव जीवन का आदर्श मानसिकता के उच्चतर स्तर पर पशु की पुनरावृत्ति मात्र भी नहीं हो सकता । अन्यथा ऐसी कोई भी पद्धति या व्यवस्था जो कामचलाऊ सुख और साधारण से मानसिक संतोष का आश्वासन दे पाती हमारी प्रगति को रोक देती । पशु थोड़ी-सी आवश्यकताओं की पूर्ति से संतुष्ट रहता है और देवता अपने वैभव से संतुष्ट रहते हैं लेकिन मनुष्य तबतक स्थायी रूप से विश्राम नहीं कर सकता जबतक कि वह किसी उच्चतम शुभ या श्रेय तक न पहुंच जाये । वह जीवित प्राणियों में सबसे महान् है क्योंकि चह सबसे अधिक असंतुष्ट है, क्योंकि वह सीमाओं का दबाव सबसे अधिक अनुभव करता है । शायद एक वही है जिसे किसी सुदूर आदर्श के लिये दिव्य पागलपन पकड़ सके ।

 

    प्राणमय पुरुष के लिये मुख्य रूप से 'मनुष्य' या पुरुष ही वह व्यक्ति है जिसमें उसकी अपनी संभाव्यताएं केंद्रित होती हैं । मनुष्य के पुत्र में ही भगवान् को अपने अंदर अवतरित करने की पूर्ण क्षमता है । मनुष्य ही प्राचीन मुनियों का मनु चिंतक, मनोमय पुरुष या मन में स्थित अंतरात्मा है । यह केवल एक उच्च कोटि का स्तनपायी पशु ही नहीं है बल्कि एक कल्पना करनेवाली अंतरात्मा है जो जड़तत्त्व में पाशविक शरीर को अपना आधार बनाती है । वह एक सचेतन नाम या न्यूमेन (नाम देवता, दिव्य शक्ति) है जो रूप को एक ऐसे साधन की तरह स्वीकार करता और उपयोग में लाता है जिसके द्वारा 'पुरुष' द्रव्य के साथ व्यवहार कर सकता है । जड़ पदार्थ में से उभरनेवाला पाशविक जीवन उसके अस्तित्व की एक निम्नतर अवस्था है । विचार, अनुभव, इच्छा, सचेतन प्रवर्तन का जीवन, जिसकी समग्रता को हम मन कहते हैं, जो जड़ पदार्थ और उसकी प्राणिक ऊर्जाओं को पकड़कर

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उन्हें अपने प्रगतिशील रूपांतर के विधान के आधीन करने का प्रयास करता हैं, यह वह बीच की स्थिति है जिसमें वह अपना प्रभावकारी आसन जमाता है । लेकिन ऐसी ही एक उच्चतर स्थिति भी है जिसकी मनुष्य का मन खोज करता है ताकि उसे पाकर वह अपनी मनोमय और भौतिक सत्ता में उसे प्रतिष्ठित कर सके । यह व्यावहारिक प्रस्थापना ही मानव सत्ता में दिव्य जीवन का आधार है कि उसके वर्तमान स्वरूप से तत्त्वत श्रेष्ठतर कोई वस्तु है ।

 

   जब मनुष्य अपने बारे में अपनी प्रथम मानसिक धारणा से अधिक गहरे ज्ञान की ओर जाग्रत् होता है तो वह किसी ऐसे सूत्र की कल्पना करने लगता है और किसी ऐसी चीज का अनुभव करने लगता है जिसकी उसे प्रस्थापना करनी है । लेकिन उसे लगता है कि वह चीज अपने दो नकारों के बीच लटक रही है । जब वह अपनी वर्तमान उपलब्धि के परे स्थित इस आत्मचेतन अनंत सत्ता की शक्ति, ज्योति और आनंद को देखता है या उसके स्पर्श में आता है और उसे अपने मन के लिये सुगम विचार या अनुभूति की भाषा में अनूदित करता है--अनंतता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, अमरता, स्वतंत्रता, प्रेम, आनंद, भगवान् के रूप में--फिर भी उसकी दृष्टि का यह सूर्य दोहरी 'रात्रि' के बीच चमकता प्रतीत होता है, एक अंधकार नीचे और एक अधिक गहरा अंधकार परे । क्योंकि जब वह इसे पूरी तरह जानने की कोशिश करता है तो ऐसा मालूम होता है कि वह किसी ऐसी चीज में चला जाता है जिसे इनमें से कोई भी एक परिभाषा या सब मिलकर किसी तरह चित्रित नहीं कर सकतीं । अंत में उसका मन भगवान् को एक 'परे' के लिये अस्वीकार कर देता है या कम-से-कम उसे ऐसा लगता है कि भगवान् अपना अतिक्रमण कर रहे हैं, जैसी कल्पना की जाती है उससे अपने-आपको नकार रहे हैं । यहां भी, जगत् में, अपने अंदर और अपने चारों ओर, उसकी भेंट हमेशा अपनी प्रस्थापना के विरोधी तत्त्वों से होती है । मृत्यु सदा उसके साथ रहती है । सीमाएं उसकी सत्ता और अनुभूतियों को घेरे रहती हैं, भूल-भ्रांति, निश्चेतना, दुर्बलता, तमस् दुःख, कष्ट, पीड़ा, अशुभ उसके प्रयास में निरंतर बाधा पहुंचानेवाले रहे हैं । यहां भी वह भगवान् को अस्वीकार करने के लिये विवश होता है या कम-से-कम ऐसा लगता है कि स्वयं भगवान् अपना निषेध कर रहे हैं या अपने-आपको ऐसी प्रतीति व परिणाम के अंदर छिपा रहे हैं जो सत्य तथा शाश्वत सद्वस्तु से भिन्न है ।

 

   और इस नकार के सूत्र उस दूसरे दूरवर्ती नकार की तरह उसके मन के लिये अकल्पनीय और इस कारण स्वभावत: रहस्यमय, अज्ञेय नहीं हैं बल्कि वे ज्ञेय, ज्ञात और सुनिश्चित प्रतीत होते हैं, फिर भी रहते हैं रहस्यमय ही । वह नहीं जानता कि वे क्या हैं, उनका अस्तित्व क्यों है और वे कैसे अस्तित्व में आये । वह उनकी प्रक्रियाओं को जिस तरह वे उसपर असर डालती और उसे प्रतीत होती हैं देखता है ।

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परंतु वह उनकी तात्त्विक वास्तविकता की थाह नहीं ले पाता ।

 

   शायद उनकी थाह नहीं ली जा सकती, शायद वे भी वास्तव में तत्त्वतः अज्ञेय हैं ? और यह भी हो सकता है कि तत्त्वतः उनकी कोई वास्तविकता न हो, वे एक भ्रांति, एक 'असत्' हों । कभी-कभी श्रेष्ठतर 'नास्ति' हमें 'शून्य' या असत् प्रतीत होता है, हो सकता है कि यह निम्नतर नास्ति भी अपने सार में शून्य या असत् ही हो । लेकिन जैसे इससे पहले हम उच्चतर 'असत्' की कठिनाई से बचने की राह छोड़ चुके हैं उसी तरह इस निम्नतर  'असत्' के संबंध में भी उसे छोड़ देते हैं । इस निम्नतर नकार की वास्तविकता से पूरी तरह इंकार करना या उसे केवल एक घोर भ्रांति मानना समस्या को अपने से अलग करना और अपने काम से बचना है । 'जीवन' के लिये ये सब चीजें जो भगवान् को नकारती प्रतीत होती हैं, सच्चिदानंद के विरोधी तत्त्व प्रतीत होती हैं, वास्तविक हैं चाहे वे अस्थायी ही क्यों न सिद्ध हों । ये और इनसे उल्टी चीजें शुभ, ज्ञान, आनंद, सुख, जीवन, अतिजीवन, शक्ति, बल, वृद्धि आदि जीवन की कार्यप्रणाली के असली उपादान है ।

 

   निश्चय ही, यह संभव है कि ये सब किसी भ्रांति के नहीं, बल्कि किसी गलत संबंध के परिणाम हों, उससे कभी न बिछुड़नेवाले संगी हों । गलत इसलिये कि यह संबंध विश्व में व्यावेत क्या है इसकी गलत दृष्टि पर आधारित होता है और इस कारण भगवान् और प्रकृति, आत्मा और परिवेश के बारे में भी गलत मनोवृत्ति पर आधारित होता है । मनुष्य जो कुछ बन गया है उसका सामंजस्य न तो उस जगत् से है जिसमें वह निवास करता है और न उसके साथ जो उसे बनना चाहिये और वह बनेगा । इसीलिये मनुष्य वस्तुओं के गुप्त सत्य के इन विरोधों के आधीन होता है, ऐसी अवस्था में ये चीजें किसी पतन का दंड नहीं बल्कि प्रगति की शर्तें होती हैं । व्यक्ति को जो काम पूरा करना है, ये उसके प्रथम तत्त्व हैं । वह जिस मुकुट को जीतने की आशा करता है उसका दाम है जो उसे चुकाना होगा, वह संकरा मार्ग है जिससे प्रकृति जड़तत्त्व में से बच निकलकर चेतना में आती है । ये एक ही साथ प्रकृति का मुक्ति-धन और उसका मूल धन हैं ।

 

    इन मिथ्या संबंधों में से और उनकी सहायता से ही सच्चे संबंध ढूंढ़ने होंगे । 'अज्ञान' या 'अविद्या' द्वारा हमें मृत्यु को पार करना होगा । वेद भी रहस्यमय भाषा में ऐसी ऊर्जाओं के बारे में कहते हैं जो अशुभ प्रेरणावाली, पथभ्रष्ट और अपने स्वामी को क्षति पहुचानेवाली नारियों के समान हैं, फिर भी, अपने-आप मिथ्या और दुःखी होते हुए भी ये ऊर्जाएं अंत में इस बृहत् सत्य का 'ऋतं बृहत्' का निर्माण करती हैं जो स्वयं आनंद है । तो, यह तब नहीं होगा जब वह अपनी प्रकृति में से नैतिक शल्य-क्रिया द्वारा अशुभ को काट फेंके या धृणा के साथ पीछे हटकर जीवन से किनारा कर ले बल्कि तब होगा जब व्यक्ति मृत्यु को एक अधिक पूर्ण जीवन

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में बदल दें, मानव सीमाओं की छोटी-छोटी चीजों को दिव्य विशालता की महान् चीजों में उठा ले, दुःख-दर्द को आनंद में रूपांतरित कर दें, अशुभ को उचित शुभ में बदल दें, भ्रांति और मिथ्यात्व को उनके गुप्त सत्य में अनूदित कर दे, तब जाकर यज्ञ का समापन होगा, यात्रा पूरी होगी, 'पृथ्वी' और 'स्वर्ग' समान होकर 'परम पुरुष' के आनंद में हाथ मिला सकेंगे ।

 

    फिर भी ये विपरीतताएं एक से दूसरे में कैसे जा सकेंगी ? किस कीमिया से मर्त्यता का यह सीसा दिव्य सत्ता के सोने में बदलेगा ? लेकिन अगर वे अपने सार तत्त्व में विपरीत न हों ? अगर वे एक ही सद्वस्तु की अभिव्यक्तियां हों जिनका द्रव्य एक ही है ? तब निश्चय ही दिव्य रूपांतर की बात समझ में आती है ।

 

    हम देख आये हैं कि, हो सकता है कि परे का असत् एक कल्पनातीत सत्ता हो और शायद अनिर्वचनीय आनंद हो । कम-से-कम बौद्ध धर्म का निर्वाण, जिसने इस उच्चतम असत् में पहुंचने और विश्राम करने के एक अत्यंत तेजोमय मानव प्रयास का प्रतिपादन किया, वह मुक्त होकर भी धरती पर रहनेवाले लोगों के मानस में अवर्णनीय शांति और सुख के रूप में चित्रित होता है । उसका व्यावहारिक प्रभाव है समज अहंकारमय भाव या संवेदन के लोपन द्वारा समस्त दुःख-दर्द का गायब हो जाना । और उसकी जिस निकटतम सकारात्मक कल्पनातक हम पहुंच सकते हैं वह यह कि वह एक अनिर्वचनीय 'परम आनंद' है (अगर इस नाम का या किसी और नाम का उपयोग इस तरह की अंतर्वस्तु-विहीन शांति के लिये किया जा सके) जिसमें अपने होने का भाव भी निगल लिया जाता है और गायब हो जाता है । यह एक ऐसा सच्चिदानंद है जिसके लिये हम सत् चित् और आनंद की परम संज्ञाओं का उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि वहां सभी संज्ञाएं रद्द हो जाती हैं और सभी संज्ञानात्मक अनुभूतियों का अतिक्रमण हो जाता है ।

 

    दूसरी ओर हमने यह प्रस्ताव रखने का साहस किया है कि चूंकि सब कुछ एक ही सद्वस्तु है इसलिये यह निम्नतर नकार भी, सच्चिदानंद का यह दूसरा प्रतिवाद या असत्-भाव भी, स्वयं सच्चिदानंद के अतिरिक्त कुछ नहीं है । बुद्धि द्वारा उसकी कल्पना की जा सकतीं है, अंतर्दर्शन में उसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, संवेदन द्वारा उसे ग्रहण किया जा सकता है मानों सचमुच वह वही हो जिसे वह नकारता प्रतीत होता है । और यदि चीजें किसी बहुत बड़ी मौलिक भ्रांति द्वारा, किसी अभिभूत और विवश करनेवाले अज्ञान, माया या अविद्या द्वारा मिथ्या न कर दी जातीं तो हमारी सचेतन अनुभूति के लिये सदा ऐसा ही रहता । इस अर्थ में एक समाधान खोजा जा सकता है लेकिन शायद वह तार्किक मन के लिये संतोषजनक तत्त्वदर्शनात्मक समाधान न हो,-क्योंकि हम अज्ञेय, अनिर्वचनीय की सीमा-रेखा पर खड़े हैं और उसके परे देखने के लिये आंखों पर जोर डाल रहे हैं --परंतु वह दिव्य जीवन की साधना के लिये अनुभूति का एक समुचित आधार हो सकता है ।

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    यह करने के लिये हमें चीजों की उन स्पष्ट सतहों के नीचे जाने का साहस करना चाहिये जिनपर रहना मन को सदा प्रिय लगता है । हमें विशाल और अंधकारमय को लुभाने का, चेतना की अथाह गहराइयों में पैठने का और सत्ता की ऐसी अवस्थाओं के साथ तादात्म्य करने का अभ्यास करना होगा जो हमारी अपनी नहीं हैं । ऐसी खोज में मानव भाषा सहायता देने लायक नहीं, किंतु हम उसमें कम-से-कम कुछ ऐसे संकेत और रूप पा सकते हैं, कुछ ऐसे अभिव्यक्त किये जा सकनेवाले संकेत लेकर लौट सकते हैं जो अंतरात्मा के प्रकाश को सहायता देंगे और मन पर उस अनिर्वचनीय आयोजन का प्रतिबिंब डालेंगे ।

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अध्याय ७

 

अहं और द्वंद्व

 

         समाने वृक्षे पुरुषो निमग्रोऽनीशया शोचति मुह्यमान: ।

         जुष्ट यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक: ।।

 

'प्रकृति' के उसी वृक्ष पर बैठी हुई अंतरात्मा तल्लीन और मोह में फंसी हुई, शोक पाती है क्योंकि वह ईश या प्रभु नहीं है । लेकिन जब वह दूसरी आत्मा को और उसकी महिमा को देखती हैं जो ईश है और उसके संपर्क में होती है तो शोक उससे चला जाता है ।

                                                                 श्वेताश्वतर उपनिषद् ४.७

 

यदि सब कुछ सचमुच सच्चिदानंद ही है तो मृत्यु दुःख-दर्द, अशुभ और सीमाएं केवल विकृति लानेवाली चेतना की रचनाएं ही हो सकते हैं जो व्यावहारिक प्रभाव में सकारात्मक और सारतत्त्व में नकारात्मक रचनाएं हैं । और यह चेतना अपने समग्र और एकता लानेवाले स्व-विषयक ज्ञान से च्युत होकर विभाजन और आंशिक अनुभूति की किसी भ्रांति में जा गिरी हैं । यह मनुष्य का वही पतन है जिसका यहूदियों के 'उत्पत्ति के अध्याय' में काव्यमय कथा के रूप में वर्णन है । यह पतन भगवान् को और अपने-आपको या यूं कहें, अपने अंदर भगवान् को पूरी तरह और शुद्ध रूप में स्वीकार करने से पतन है । यह एक विभाजनकारी चेतना में पतन है जो अपने साथ द्वंद्वों की जीवन-मरण, शुभ-अशुभ, हर्ष-विषाद, पूर्णता और अभाव की शृंखला लाती है जो विभक्त सत्ता का फल है । यही वह फल है जिसे आदम और हौआ, 'पुरुष' और 'प्रकृति ', प्रकृति द्वारा लुभाये गये पुरुष ने खाया है । व्यक्ति में वैध अवस्था की और भौतिक चेतना में आध्यात्मिक अवस्था की पुन: प्राप्ति के द्वारा उद्धार होता है । उसके बाद ही प्रकृति में स्थित अंतरात्मा को जीवन के वृक्ष का फल खाने दिया जा सकता है और तभी वह भगवान् जैसी हो सकती है और सदा वैसी ही रह सकती है । क्योंकि तभी भौतिक चेतना के अंदर उसके अवतरण का प्रयोजन सिद्ध हो सकता है जब शुभ और अशुभ, हर्ष-शोक, जीवन और मृत्यु का ज्ञान प्राप्त हो जाये, जो मानव आत्मा के द्वारा उच्चतर ज्ञान की पुन: प्राप्ति से मिलता है । यह उच्चतर ज्ञान इन विरोधी तत्त्वों का वैश्व चेतना में मेल बैठा कर उन्हें एक कर देता है और उनके विभाजनों को दिव्य एकता की प्रतिमा में रूपांतरित कर देता है ।

 

    जो सच्चिदानंद सभी चीजों में अधिक-से-अधिक व्यापक सामान्य भाव और निष्पक्ष वैश्व भाव में फैला हुआ है उसके लिये मृत्यु, कष्ट, अशुभ और सीमाएं

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अधिक-से-अधिक, अपने से एकदम उल्टी अवस्थाएं और अपने से विपरीत ज्योतिर्मय अवस्थाओं के छाया-रूप ही हो सकते हैं । हम इन्हें जिस रूप में अनुभव करते हैं वह असंगति के सुर हैं । जहां एकता होनी चाहिये वहां वें पृथक्ता की, जहां समझ होनी चाहिये वहां गलतफहमी की रचना करते हैं, जहां वृंद-वाद्य के साथ अपनी संगति साधने का प्रयास होना चाहिये वहां अपनी ढपली अपना राग अलापने का प्रयास करते हैं । सारी समग्रता, चाहे वह वैश्व स्पंदनों की किसी एक ही योजना में हो या चाहे वह केवल भौतिक चेतना की समग्रता हो, जिसे अपने से परे और पीछे गति करनेवाली चीजों पर कोई अधिकार न हो, तो भी उसे उस हदतक सामंजस्य की ओर प्रत्यावर्तन और विसंगत विरोधों में समन्वय होना चाहिये । इसके विपरीत जो सच्चिदानंद विश्व के रूपों से परात्पर है उसके लिये इन द्वंद्वात्मक पदों का उपयोग, इन अर्थों में समझने पर भी, उचित नहीं रहता । परात्परता रूपांतरित करती है, समाधान नहीं । वह विरोधों में मेल नहीं बैठाती; बल्कि उन्हें उनसे परे की ऐसी चीज में बदल देती है जो उनके विरोधों को मिटा देती है ।

 

    फिर भी पहले हमें व्यक्ति का समग्रता के सामंजस्य के साथ फिर से नाता जोड़ने की कोशिश करनी चाहिये । यहां हमारे लिये यह जान लेना जरूरी है कि --नहीं तो समस्या में से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रह जाता --हमारी वर्तमान चेतना विश्व के मूल्यों को अभी जिन पदों में प्रकट करती है वे यद्यपि मानव अनुभव और प्रगति के लिये व्यावहारिक रूप से तो उचित और न्यायसंगत हैं फिर भी वे ही एकमात्र पद नहीं हैं जिनमें इन्हें प्रकट करना संभव है । हो सकता है कि ये पूर्ण, उचित और अंतिम सूत्र न हों । जैसे हो सकता है कि हमारी इन्द्रियों और ऐंद्रिय क्षमताओं से भिन्न ऐसी इन्द्रियां और ऐंद्रिय क्षमताएं हों जो भौतिक जगत् को किसी और ही तरह, शायद ज्यादा अच्छी तरह देख सकतीं हों क्योंकि वे ज्यादा पूर्णता से देखती हैं । उसी तरह हो सकता है कि विश्व की अन्य मानसिक और अतिमानसिक कल्पना-शक्तियां हों जो हमारी अपनी शक्तियों से बढ़ चढ़ कर हों । चेतना की ऐसी अवस्थाएं हैं जिनमें 'मृत्यु' अमर 'जीवन' में केवल एक परिवर्तन है, दुःख-दर्द वैश्व आनंद के जलों का उग्र प्रतिक्षिप्त जल है, सीमांकन  'अनंत' का अपने ही ऊपर मुड़ना है, अशुभ शुभ का अपनी ही पूर्णता के चारों ओर चक्कर लगाना है और यह केवल अमूर्त कल्पना में ही नहीं अपितु वास्तविक दर्शन और सतत ठोस अनुभूति में पाया जाता है । चेतना की ऐसी स्थितियोंतक पहुंचना व्यक्ति की आत्म-परिपूर्णता की ओर प्रगति में उसके लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य चरणों में से एक हो सकता है ।

 

    निश्चय ही, हमारी इन्द्रियों और द्वैतात्मक इन्द्रिय-मन के द्वारा दिये गये व्यावहारिक मूल्यों का अपने क्षेत्रों में मान रहना चाहिये और उन्हें साधारण जीवन-अनुभूतियों

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के लिये तबतक मानक के रूप में स्वीकार करना चाहिये जबतक ज्यादा बड़ा सामंजस्य तैयार न हो जाये जिसमें वे प्रवेश कर सकें और अपने-आपको रूपांतरित कर सकें, साथ ही उन वास्तविकताओं पर उनकी पकड़ भी ढीली न हो पाये जिनका वे प्रतिनिधित्व करती हैं । ऐसे ज्ञान के बिना जो पुराने इन्द्रिय-मूल्यों को नूतन दृष्टिकोण से उनका उचित अर्थ दे, इन्द्रियों की क्षमताओं को बढ़ाना गंभीर अव्यवस्था और अक्षमता की ओर ले जा सकता है, व्यावहारिक जीवन और तर्कबुद्धि के सुव्यवस्थित और अनुशासित उपयोग के लिये अयोग्य बना सकता है । उसी तरह यदि हमारी मानसिक चेतना अहंकारमय द्वैतों के अनुभव से निकलकर समग्र चेतना के किसी पहलू के साथ अनियंत्रित एकता में विस्तार पा जाये तो वह जगत् की सापेक्षताओं पर आधारित व्यवस्था में मानवजाति के क्रियाशील जीवन में आसानी से अक्षमता और अस्तव्यस्तता ला सकती है । गीता ने ज्ञानी पुरुष को जो निषेधाज्ञा दी है कि वह अज्ञानी लोगों के जीवन-आधार और विचार-आधार को न छेड़े, उसकी जड़ में, निःसंदेह, यही चीज है क्योंकि उसके उदाहरण से वे लोग प्रेरित तो होंगे लेकिन उसकी क्रिया के सिद्धांतों को समझने में असमर्थ होने के कारण वे उच्चतर आधारतक पहुंचे बिना अपनी मूल्य-व्यवस्था को भी खो बैठेंगे ।

 

    ऐसी अव्यवस्था और अक्षमता को व्यक्तिगत रूप में स्वीकार किया जा सकता है और बहुत-सी महान् आत्माओं ने इसे एक सामयिक पथ के रूप में या ज्यादा विस्तृत सत्ता में प्रवेश के लिये मूल्य के रूप में स्वीकार किया है । किंतु मानव प्रगति का उचित लक्ष्य वस्तुओं का फिर से एक ऐसा प्रभावकारी और समन्वयात्मक पुन: -प्रतिपादन होगा जिसके द्वारा उस अधिक विस्तृत सत्ता का विधान सत्यों की एक नयी व्यवस्था में और विश्व की जीवन-सामग्री पर क्षमताओं की अधिक उचित और अधिक सशक्त क्रिया में चित्रित हो सके । इन्द्रियों के लिये सूर्य पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता है । उनके लिये यही जीवन का केंद्र था और जीवन की क्रियाएं इस गलत धारणा के आधार पर व्यवस्थित हैं । सत्य इससे बिल्कुल उल्टा है । लेकिन खोज बिल्कुल बेकार होती यदि ऐसा विज्ञान न होता जो इस नयी धारणा को तर्कसंगत और सुव्यवस्थित ज्ञान का केंद्र बनाकर उनके उचित मूल्यों को इन्द्रियों के प्रत्यक्ष दर्शन पर लागू करता । इसी भांति मानसिक चेतना के लिये भगवान् व्यक्तिगत अहं के चारों ओर घूमते हैं और उनके समस्त कार्य और पद्धतियां अहंकारमय संवेदनों, भावों और धारणाओं के आगे विचारार्थ लाये जाते हैं और उन्हें वे मूल्य और व्याख्याएं प्रदान की जाती हैं जो यद्यपि वस्तुओं के सत्य के विकार और विपर्यय होते हुए भी मानव जीवन और प्रगति के अमुक विकास के लिये उपयोगी और व्यावहारिक रूप से पर्याप्त हैं । ये हमारे वस्तुओं के अनुभव में आने के व्यावहारिक व्यवस्थापन हैं जो तबतक काम दे सकते हैं जबतक हम विचारों और क्रियाशीलताओ की एक अवस्था विशेष में रहते हैं परंतु ये मानव

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जीवन और ज्ञान की उच्चतम स्थिति के सूचक नहीं हैं । ''सत्य ही पथ है, मिथ्यात्व नहीं'', सत्य यह नहीं है कि भगवान् अहं को जीवन का केंद्र मानकर उसके चारों ओर घूमते हैं और अहं तथा उसकी द्वंद्वात्मक दृष्टि भगवान् की जांच कर सकती है बल्कि सच तो यह है कि स्वयं भगवान् ही केंद्र हैं और व्यक्ति का अनुभव अपना निजी वास्तविक सत्य तब पाता है जब उसे वैश्व और परात्पर की भाषा में जाना जाये । फिर भी ज्ञान के पर्याप्त आधार के बिना ही अहंकारजन्य धारणा के स्थान पर इस धारणा को बिठाना पुराने विचारों के स्थान पर नये परंतु साथ ही मिथ्या और मनमाने विचारों को और उचित मूल्यों की एक नियमित अव्यवस्था के स्थान पर एक उग्र अव्यवस्था को ला बिठाना होगा । ऐसी अव्यवस्था बहुधा नये दर्शनों और धर्मों के प्रारंभ की सूचना देती और उपयोगी क्रातियों का आरंभ करती है । परंतु सच्चा लक्ष्य तभी प्राप्त होता है जब हम उचित केंद्रीय धारणा के चारों ओर एक ऐसे तर्कसंगत और प्रभावकारी ज्ञान को एकत्र कर सकें जिसमें अहंकारी जीवन अपने सभी मूल्यों को रूपांतरित और संशोधित रूप में फिर से पा सके । तब हमें सत्यों की वह नयी व्यवस्था प्राप्त होगी जो हमारे लिये इस बात को संभव बनायेगी कि अभी हम जो जीवन जी रहे हैं उसके स्थान पर अधिक दिव्य जीवन प्रतिष्ठित कर सकें और विश्व की जीवन-सामग्री पर अपनी क्षमताओं का एक अधिक दिव्य और समर्थ प्रयोग सफलता के साथ कर सकें ।

 

   अखंड मानव के नये जीवन और शक्ति को अनिवार्य रूप से उन महान् सत्यों की उपलब्धि पर आधारित होना चाहिये जो दिव्य जीवन की प्रकृति को, वस्तुओं को समझने की हमारी पद्धति में अनूदित कर सकें । इस नये जीवन को जिन चीजों के द्वारा अग्रसर होना होगा वे हैं कि अहं अपने मिथ्या दृष्टिकोण और मिथ्या निष्चितियों का त्याग करे और यह अहं जिन समग्रताओं का अंग है और जिन तुरीय अवस्थाओं में से उतरा है उनके साथ उचित संबंध और सामंजस्य में प्रवेश करे और उस सत्य और विधान की ओर पूर्ण आत्मोद्घाटन करे जो उसकी अपनी रूढ़ मान्यताओं का अतिक्रमण करते हैं --एक ऐसा सत्य जो उसकी परिपूर्ति होगा, एक ऐसा विधान जो उसकी मुक्ति होगा । इस जीवन का लक्ष्य होना चाहिये उन मूल्यों का विलोपन जो वस्तुओं के बारे में उसकी अहंकारजन्य दृष्टि की सृष्टि हैं, उसका मुकुट होना चाहिये सीमा, अज्ञान, मृत्यु पीड़ा और अशुभ का अतिक्रमण ।

 

   यहां धरती पर और हमारे मानव जीवन में अतिक्रमण और विलोपन तबतक संभव नहीं हैं जबतक हमारे जीवन के तत्त्व अनिवार्य रूप से वर्तमान अहंकारमय मूल्यों के साथ बंधे रहें । यदि स्वभावत: जीवन एक व्यष्टिगत प्रपंच है, किसी वैश्व सत्ता का प्रतिरूप और एक महान् 'प्राण-पुरुष' का श्वास नहीं है, यदि व्यक्ति के संपर्क के प्रत्युत्तररूप द्वैत केवल प्रत्युत्तर न होकर समस्त जीवन का सारतत्त्व और उसकी आवश्यक परिस्थिति है, यदि ससीमता उस पदार्थ का अविच्छेद्य रूप है

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जिससे हमारा मन और शरीर बने हैं, यदि मृत्यु द्वारा विघटन समस्त जीवन की प्रथम और अंतिम अवस्था है, उसका आदि और अंत है, यदि सुख और दुःख समस्त संवेदन के अविभेद्य दोहरे उपादान हैं, यदि हर्ष और विषाद सभी भावावेगों के अनिवार्य प्रकाश और छाया रूप हैं, सत्य और भ्रांति दो ध्रुव हैं जिनके बीच समस्त ज्ञान को सदा घूमना पड़ेगा तब अतिक्रमण मानव जीवन का त्याग कर समस्त अस्तित्व के परे निर्वाण में जाकर ही संभव होगा या किसी अन्य लोक में, किसी ऐसे स्वर्ग में जाने से ही संभव होगा जो इस भौतिक विश्व से एकदम अलग तरह से बना हों ।

 

    साधारण रूढ़िबद्ध मन के लिये, जो हमेशा अपने भूत और वर्तमान साहचर्यों से बंधा रहता है, ऐसे जीवन की कल्पना बहुत आसान नहीं है जो मानव रहते हुए भी, हमारी वर्तमान निश्चित परिस्थितियों में रहते हुए भी मूल रूप से बदला हुआ हो । हमारे लिये जो उच्चतर विकास संभव है उसकी तुलना में हम बहुत कुछ उसी स्थिति में हैं जिसमें डार्विन के सिद्धांत का आदिम 'वानर' । आदिकालीन वनों में पेड़ों पर सहज बोध का जीवन बितानेवाले उस 'वानर' के लिये यह कल्पना करना असंभव रहा होगा कि एक दिन धरती पर एक ऐसा पशु आयेगा जो अपने भीतरी और बाहरी जीवन की सामग्री पर तर्कबुद्धि नामक एक नयी क्षमता का उपयोग करेगा । जो उस क्षमता के द्वारा अपनी सहज वृत्तियों और आदतों को वश में करेगा, अपने भौतिक जीवन की परिस्थितियों को बदल डालेगा, अपने लिये पत्थर के भवन बनायेगा, 'प्रकृति' की शक्तियों से काम लेगा, सागरों पर नौका चलायेगा, हवा पर सवारी करेगा, आचार-व्यवहार के नियम बनायेगा और अपने मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिये सचेतन उपाय विकसित करेगा । और अगर 'वानर' मन के लिये ऐसी कल्पना संभव भी होती तो भी उसके लिये यह कल्पना करना तो असंभव ही होता कि प्रकृति की किसी प्रगति द्वारा या इच्छा-शक्ति और प्रवृत्ति के लंबे प्रयास के द्वारा वह स्वयं उस पशु में विकसित हो सकेगा । चूंकि मनुष्य ने तर्क-बुद्धि पा ली है और इससे भी बढ़कर चूंकि उसने कल्पना और अंतर्भास की शक्ति का उपयोग किया है इसलिये वह अपने से ऊंचे जीवन के बारे में सोच सकता है और अपनी वर्तमान अवस्था का अतिक्रमण कर उस जीवन में व्यक्तिगत रूप से उठ जाने की परिकल्पना कर सकता है । चरम अवस्था के बारे में उसकी परिकल्पना ऐसी हैं कि जो कुछ भी उसकी कल्पना में भावात्मक है और उसकी अंतर्भासात्मक अभीप्सा के लिये वांछनीय है उसका निरपेक्ष और संपूर्ण रूप है--एक ऐसा 'ज्ञान' जिसमें उसके नकारात्मक रूप भूल-भ्रांति की छाया न हो, ऐसा 'आनंद' जिसमें उसके नकारात्मक रूप दुःख-दर्द का अनुभव न हो, ऐसी 'शक्ति' जिसमें उसकी सतत निषेधरूप अक्षमता न हो और ऐसी 'पवित्रता' और 'परिपूर्णता' जिसमें उनके विरोधी भाव, दोष और ससीमता न हों । इसी भांति वह

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अपने देवताओं की कल्पना करता है, इसी भांति वह अपने स्वर्ग की रचना करता है । परंतु उसकी बुद्धि संभाव्य पृथ्वी और संभाव्य मानव जाति की इसी तरह से कल्पना नहीं करती । 'देवताओं' और 'स्वर्ग' के बारे में उसका स्वप्न वस्तुतः उसकी अपनी पूर्णता का ही स्वप्न होता है, लेकिन उसे यहां व्यवहारतः चरितार्थ करना ही उसका अंतिम लक्ष्य है । इसे स्वीकारने में उसे वही कठिनाई होती है जो उसके पूर्वज 'वानर' को होती यदि उससे कहा जाता कि वह अपने-आपको भावी मानव के रूप में मान ले । उसकी कल्पना और उसकी धार्मिक अभीप्साएं उसके आगे यह लक्ष्य रख सकती हैं लेकिन जब उसकी बुद्धि कल्पना और लोकोत्तर अंतर्भास को नकारते हुए अपना दावा पेश करती है तो मनुष्य उसे भौतिक जगत् के कठोर तथ्यों के विपरीत एक चमकता अंधविश्वास कहकर टाल देता है । यह लक्ष्य उसके लिये किसी असंभव की ओर प्रेरणा देनेवाला दृश्य मात्र रह जाता है । उसके अनुसार जो कुछ संभव है वह है : ज्ञान, सुख, शक्ति और शुभ का केवल अनुकूलित, सीमित और अस्थिर रूप ।

 

    लेकिन स्वयं बुद्धि तो तत्त्व में एक 'लोकोत्तरता' की प्रस्थापना है क्योंकि बुद्धि अपने समग्र लक्ष्य और सारतत्त्व में 'ज्ञान' की खोज है यानी भ्रांति का निराकरण करके 'सत्य' की खोज । उसकी दृष्टि, उसका लक्ष्य किसी बड़ी भ्रांति से छोटी भ्रांति की ओर जाना नहीं है बल्कि वह एक भावात्मक, पहले से ही उपस्थित 'सत्य' को मानती है जिसकी ओर हम ठीक ज्ञान और गलत ज्ञान के द्वित्तों में से गुजरते हुए उत्तरोत्तर प्रगति कर सकते हैं । यदि हमारी बुद्धि में मानव जाति की अन्य अभीप्साओं के प्रति वैसी ही सहज वृत्तिवाली निश्चिति नहीं है तो उसका कारण यह हैं कि वहां उस तात्त्विक प्रकाश का अभाव है जो उसकी अपनी भावात्मक क्रियाशीलता में अंतर्निहित रहता है । हम सुख की भावात्मक या पूर्ण उपलब्धि की धारणा बना सकते हैं क्योंकि हृदय, जिसमें सुख की सहज वृत्ति का वास है उसमें निश्चिति का अपना रूप होता है, और वह श्रद्धा की क्षमता रखता है, क्योंकि हमारे मन उस अतृप्त अभाव के विलोपन की कल्पना कर सकते हैं जो दुःख-दर्द का ऊपर से दीखनेवाला कारण है । लेकिन हम स्नायविक संवेदन से पीड़ा और शारीरिक जीवन से मृत्यु के निष्कासन की बात कैसे सोच सकते हैं ? फिर भी पीड़ा को दूर करना संवेदनों की सबसे बड़ी सहज वृत्ति है, हमारी जीवनी शक्ति के तत्त्व में मृत्यु को अस्वीकार करने की मांग अंतर्निहित है । लेकिन ये चीजें हमारी बुद्धि के आगे सहजवृत्ति-मूलक अभीप्सा के रूप में आती हैं, ऐसी संभाव्यताओं के रूप में नहीं जिन्हें चरितार्थ किया जा सकता है ।

 

    फिर भी सब जगह एक ही नियम लागू होना चाहिये । व्यावहारिक बुद्धि की मूल यह है कि वह आभासी तथ्य के, जिसे वह तुरंत वास्तविक रूप में अनुभव कर सकती है, बहुत ज्यादा आधीन रहती है और उसमें इतना साहस नहीं होता कि

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संभाव्य के अधिक गहरे तथ्यों को तर्क-संगत निष्कर्षों तक ले जा सके । अभी जो है, वह अतीत की संभाव्यताओं की चरितार्थता है और आज की संभाव्यता भावी उपलब्धि का संकेत है । और यहां संभाव्यता मौजूद है क्योंकि जगत् के व्यापारों पर अधिकार प्राप्त करना उनके कारणों और प्रक्रियाओं के ज्ञान पर निर्भर है और अगर हम भ्रांति, दुःख, पीड़ा, मृत्यु का कारण जान लें तो कुछ आशा के साथ उनके निष्कासन के लिये श्रम कर सकते हैं क्योंकि ज्ञान ही शक्ति और प्रभुता है ।

 

    वस्तुत: जहांतक बन पड़े, हम आदर्श के रूप में इन नकारात्मक या विरोधी व्यापारों के निष्कासन के लिये प्रयास करते हैं । हम सदा भ्रांति, पीड़ा और दुःख के कारणों को कम करने की कोशिश करते हैं । जैसे-जैसे विज्ञान की जानकारी बढ़ती जाती है वह संतति-नियमन के और यदि मृत्यु पर पूर्ण विजय न पायी जा सके तो जीवन को अनिश्चित कालतक लंबा करने के स्वप्न ले रहा है । लेकिन चूंकि हम केवल बाहरी या गौण कारणों को ही देखते हैं अतः हम उन्हें दूरतक खदेड़ देने की बात ही सोच सकते हैं, और जिन चीजों के विरुद्ध हम संघर्ष कर रहे हैं उनकी असली जड़ों को निकाल देने की बात नहीं सोच पाते । इस भांति हम सीमित हो जाते हैं क्योंकि हम गौण बोध की ओर प्रयास करते हैं, मौलिक ज्ञान के लिये नहीं, क्योंकि हम वस्तुओं की प्रक्रिया को ही जानते हैं उनके सारतत्त्व को नहीं । इस तरह हम परिस्थितियों के अधिक सशक्त परिचालनतक ही पहुंच पाते हैं, उनपर आवश्यक नियंत्रण नहीं कर पाते । लेकिन यदि हम भ्रांति, दुःख और मृत्यु के मूलगत स्वभाव और सारभूत कारण को पकड़ सकें तो हम उनपर अधिकार पाने की आशा कर सकते हैं और यह अधिकार सापेक्ष नहीं पूर्ण होना चाहिये । हम उन्हें पूरी तरह निकाल बाहर करने की भी आशा कर सकते हैं और संपूर्ण शुभ, आनंद, ज्ञान और अमरता लाभ करके अपनी प्रकृति की प्रबल सहज वृत्ति का औचित्य सिद्ध कर सकते हैं । हमारे अंतर्भास इन्हें ही मानव सत्ता की सच्ची और चरम स्थिति मानते हैं ।

 

    प्राचीन वेदांत अपनी ब्रह्मविषयक धारणा और अनुभूति में इस तरह का एक समाधान हमारे आगे रखता है कि ब्रह्म ही वैश्व और सारभूत तथ्य है और ब्रह्म का स्वभाव है सच्चिदानंद ।

 

    इस दृष्टि से समस्त जीवन का सारतत्त्व है एक वैश्व और अमर सत्ता की गति, समस्त संवेदन और भाव का सारतत्त्व है सत्ता में वैश्व और स्वयंभू आनंद की लीला, समस्त विचार और बोध या प्रत्यक्ष दर्शन का सारतत्त्व है वैश्व और सर्वव्यापक सत्य का विकिरण, समस्त क्रियाशीलता का सारतत्त्व है वैश्व और स्वतःप्रभावी शुभ की प्रगति ।

 

    परंतु यह लीला और गतिविधि अपने-आपको रूपों की बहुविधता, वृत्तियों की

 

     सर्व खल्विदं ब्रह्म, सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म--अनु०

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विविधता, ऊर्जाओं की पारस्परिक क्रीड़ा में मूर्तिमान करती है । बहुविधता निर्धारण करनेवाले और कुछ समय के लिये विकृति लानेवाले तत्त्व के, व्यक्तिगत अहं के हस्तक्षेप को अनुमति देती है । अहं का स्वभाव है बाकी लीला की ओर से ऐच्छिक अज्ञान द्वारा चेतना का अपने-आपको सीमित कर लेना और एक ही रूप में, प्रवृत्तियों के एक ही समवाय में, ऊर्जाओं की गतिविधि के एक ही क्षेत्र में उसकी ऐकांतिक तल्लीनता । अहं ही वह तत्त्व है जो भ्रांति, दुःख, पीड़ा, अशुभ, मृत्यु की प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करता है । क्योंकि अहं ही उन गतिविधियों को ये मूल्य देता है जो अन्यथा अपने उचित संबंध में एकमेव 'सत्', 'आनंद', 'सत्य' और 'शुभ' के रूप में व्यक्त होतीं । उचित संबंध को पुन: प्राप्त करके हम अहं द्वारा निर्धारित प्रतिक्रियाओं का निष्कासन कर सकते हैं और अंतत: उन्हें अपने सच्चे मूल्यों में ला सकते हैं । और यह पुनः प्राप्ति व्यक्ति के समग्र की चेतना और समग्रता जिसका प्रतिनिधित्व करती हैं उस परात्पर की चेतना में उचित रूप से भाग लेने से संपन्न होती है ।

 

    बाद के वेदांत में यह विचार घुस आया और दृढ़ हो गया कि सीमित अहं न केवल द्वित्तों का कारण है बल्कि विश्व के अस्तित्व की अनिवार्य स्थिति भी है । अहं के अज्ञान और उससे आनेवाली सीमाओं सें पिंड छुड़ाकर निश्चय ही हम द्वंद्वों से छुटकारा पा लेते हैं पर उनके साथ ही साथ हम वैश्व गतिविधि में से अपना अस्तित्व भी मिटा देते हैं । इस भांति हम इस बात पर लौट आते हैं कि मानव सत्ता का स्वभाव तत्त्वतः अशुभ और भ्रमात्मक है और जगत् के जीवन में पूर्णता लाने के सभी प्रयास व्यर्थ हैं । यहां हम केवल एक सापेक्ष शुभ की ही खोज कर सकते हैं जो हमेशा अपने विरोधी तत्त्व के साथ जुड़ा रहता है । लेकिन अगर हम उस अधिक बड़े और गहरे भाव पर दृढ़ रहें कि अहं अपनेसे परे की किसी चीज का मध्यवर्ती प्रतिरूप मात्र है, तो हम इस परिणाम से बच सकते हैं और वेदांत का प्रयोग केवल जीवन से पलायन के लिये नहीं बल्कि उसकी परिपूर्ति के लिये भी कर सकते हैं । विश्व के अस्तित्व का मूल कारण और स्थिति है भगवान् ईश्वर या 'पुरुष' जो व्यष्टियों और वैश्व रूपों को अभिव्यक्त करता और उनमें निवास करता है । सीमित अहं चेतना का एक मध्यवर्ती प्रपंच मात्र है जो विकास की किसी विशेष धारा के लिये जरूरी है । इस धारा का अनुसरण करते हुए व्यष्टि वहांतक पहुंच सकता है जो स्वयं उसके परे है, जिसका वह प्रतिरूप है । इसके बाद भी वह उसका प्रतिनिधित्व कर सकता है किंतु अब एक अंधेरे और सीमित अहं के रूप में नहीं बल्कि भगवान् और वैश्व चेतना के एक केंद्र के रूप में जो समस्त व्यक्तिगत निर्धारणों को अंगीकार करता, उनका उपयोग करता और भगवान् के साथ सामंजस्य में उन्हें रूपांतरित कर देता है ।

 

    तो हम देखते हैं कि भौतिक प्रकृति की समग्रता में भागवत 'चेतन सत्ता' की

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अभिव्यक्ति जड़ भौतिक विश्व में मानव सत्ता का आधार है । उस 'चेतन सत्ता' का अंतर्लीन और अनिवार्य रूप से विकास पाते हुए प्राण, मन और अतिमानस में से ऊपर उभरना ही हमारी क्रियाशीलताओं का अर्थ है । क्योंकि इस विकास ने ही मनुष्य को 'जड़' में प्रकट होने योग्य बनाया है और यह विकास ही उसे भगवान् को शरीर में उत्तरोत्तर प्रकट करने के योग्य बनायेगा । यह होगा वैश्व 'अवतार' । अहंकारमय रचना में वह मध्यवर्ती और निर्धारक तत्त्व है जो एक सामान्य, अस्पष्ट, आकास्हीन, विशिष्टताहीन सर्व में से, जिसे हम अवचेतन कहते हैं और जो ऋग्वेद का 'हृद्य समुद्र' है, उसमें से 'एकमेव' को सचेतन 'बहु' के रूप में प्रकट होने देता है । हम जीवन और मृत्यु हर्ष और विषाद, सुख और पीड़ा, सत्य और भ्रांति, शुभ और अशुभ के द्वंद्वों को अहंकारमय चेतना की पहली रचनाओं के रूप में पाते हैं । यह विश्व में सत्ता के समग्र सत्य, शुभ, जीवन और आनंद से अलग अपनी ही कृत्रिम रचना में एकता लाने के अहंकारमय चेतना के प्रयत्न के स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम हैं । व्यक्ति के विश्व और भगवान् के प्रति आत्मोद्घाटन द्वारा इस अहंकारात्मक रचना का विघटन उस परम सिद्धि का साधन है जिसके लिये अहंकारमय जीवन एक भूमिका मात्र है जैसे पशु जीवन मानव जीवन के लिये एक भूमिका मात्र था । सीमित अहं का रूपांतरित होकर दिव्य एकत्व और स्वतंत्रता का एक सचेतन केंद्र बन जाना और इस तरह व्यक्ति का अपने अंदर सर्व की उपलब्धि पाना ही वह पद है जहां सिद्धि हमसे आ मिलती है और अनंत एवं निरपेक्ष सत् सत्य, शुभ और सत्ता के आनंद का उमड़कर जगत् में 'बहु' पर प्रवाहित होना ही वह दिव्य परिणाम है जिसकी ओर हमारे विकास के चक्र चल रहे हैं । यही वह परम प्रसव है जिसे 'प्रकृति माता' अपने अंदर धारण किये हुए है और जिसे जन्म देने के लिये वह प्रयत्न कर रही है ।

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अध्याय ८

 

वैदांतिक ज्ञान की प्रणाली

 

       एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते ।

       दृश्थते त्वग्र्यया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि: ।।

 

       सभी भूतों में यह आस्था गूढ़ है, प्रकट नहीं है परंतु सूक्ष्मदृष्टिवाले उसे सूक्ष्म परा बुद्धि के द्वारा देखते हैं ।

                                                              कठोपनिषद् ३.१२

 

लेकिन तब इस सच्चिदानंद की इस जगत् में क्या क्रिया है और वस्तुओं की किस प्रक्रिया से उसके और उसे रूप देनेवाले अहं के बीच पहले संबंध बनते और फिर अपनी पूर्णतातक ले जाये जाते हैं ? क्योंकि उन संबंधों और जिस पद्धति का वे संबंध अनुसरण करते हैं उसपर मनुष्य के लिये दिव्य जीवन का समस्त दर्शन और अभ्यास निर्भर है ।

 

    हम इन्द्रियों की साक्षी का अतिक्रमण करके और भौतिक मन की दीवार को भेदकर भगवान् के अस्तित्व की कल्पना और उसके ज्ञानतक पहुंचते हैं । जबतक हम अपने-आपको इन्द्रियों की साक्षी और भौतिक चेतनातक सीमित रखें तबतक हम भौतिक जगत् और उसके तथ्यों को छोड़कर और कुछ नहीं समझ या जान सकते । लेकिन हमारे अंदर कुछ क्षमताएं ऐसी हैं जिनसे हमारा मन ऐसी धारणाओं पर पहुंच सकता है जिनका अनुमान तो हम भौतिक जगत् के दीखते तथ्यों से तर्कणा या कल्पना-भेद के द्वारा लगा सकते हैं किंतु इनका समर्थन शुद्ध भौतिक तथ्य या भौतिक अनुभव के द्वारा नहीं होता । इन साधनों में सबसे पहला है विशुद्ध बुद्धि ।

 

    मानव बुद्धि की दो तरह की क्रिया होती है, एक मिश्रित या पराश्रित, दूसरी शुद्ध या स्वाधीन । बुद्धि जब अपने-आपको हमारी इन्द्रियों की अनुभूति के चक्र में बंद रखती, उसके नियमों को ही चरम सत्य मानती और केवल प्रकट तथ्यों के अध्ययन से ही, अर्थात् वस्तुओं के बाह्य रूपों, उनके परस्पर संबंधों, प्रक्रियाओं तथा उपयोगिताओं से ही संबंध रखती है, तब वह मिश्रित क्रिया को अपनाती है । तर्कबुद्धि की यह क्रिया जो है उसे जानने में असमर्थ रहती है । वह केवल उसीको जानती है जो दीखता है । उसके पास ऐसा कोई साहुल नहीं होता जिससे वह सत्ता की गहराइयों की थाह ले सके । वह केवल संभूति के क्षेत्रों का सर्वेक्षण कर सकतीं है । लेकिन तर्कबुद्धि, इसके विपरीत, अपनी शुद्ध क्रिया का आग्रह तब करती है जब हमारी इन्द्रियों के अनुभवों को आरंभबिंदु मानकर परंतु उनसे सीमित होने से इंकार करके वह उनके पीछे जाती, अपने निर्णय करती और अपने ही

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अधिकार से क्रिया करती है और ऐसी व्यापक और अपरिवर्तनशील धारणाओंतक पदुंचने का प्रयास करती है जो चीजों के बाहरी रूपों के साथ नहीं बल्कि जो उन रूपों के पीछे स्थित है उसके साथ नाता जोड़ती हैं । वह यह भी कर सकती है कि बाहरी रूपों से निकलकर, उनके पीछे जो कुछ है उसमें तुरंत प्रवेश कर जाये और सीधे निर्णय द्वारा अपने परिणामतक पहुंच जाये । उस अवस्था में जो धारणाएं बनती हैं वे इन्द्रियों की अनुभूति का परिणाम और उनपर निर्भर मालूम हो सकती हैं लेकिन सचमुच वह स्वयं अपने अधिकार से कार्य करती हुई बुद्धि का प्रत्यक्ष दर्शन होता है । लेकिन यह भी संभव है कि शुद्ध बुद्धि के प्रत्यक्ष दर्शन--जिनकी लाक्षणिक क्रिया ऐसी ही होती है--जिस अनुभव से आरंभ करते हैं उसे केवल निमित्त रूप में काम में लायें और अपने परिणामतक पहुंचते-पहुंचते उसे कहीं दूर छोड़ आयें, इतनी दूर कि ऐसा मालूम हो कि हमारी इन्द्रियों का अनुभव हमारे ऊपर जो बात लादना चाहता है, उससे यह परिणाम एकदम विपरीत है । यह क्रिया न्यायसंगत और अनिवार्य है क्योंकि हमारा साधारण अनुभव न केवल वैश्व तथ्य के एक छोटे से भाग को ही ले पाता है बल्कि अपने क्षेत्र की सीमाओं में भी ऐसे साधनों का उपयोग करता है जो त्रुटिपूर्ण हैं और गलत माप और भार बतलाते हैं । अगर हम वस्तुओं के सत्य की काफी अच्छी धारणाओं तक पहुंचना चाहें तो इस (साधारण अनुभव) के पार जाना, उसे दूर रखना और उसके आग्रहों को नकारना जरूरी है । मनुष्य ने जो मूल्यवान् शक्तियां विकसित की हैं उनमें से एक है ऐंद्रिय मन की भूलों को तर्कबुद्धि के प्रयोग से ठीक करना, और यह पार्थिव सत्ताओं में उसकी श्रेष्ठता का मुख्य कारण है ।

 

    शुद्ध बुद्धि का पूर्ण उपयोग हमें अंत में भौतिक से तत्त्वज्ञानात्मक ज्ञानतक ले आता है परंतु तत्त्वज्ञानात्मक ज्ञान की धारणाएं स्वयं अपने-आपमें हमारी संपूर्ण सत्ता की मांग को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं करतीं । वे निश्चय ही स्वयं तर्कबुद्धि के लिये पूर्णत: संतोषप्रद हैं क्योंकि वे उसके ही अस्तित्व के उपादान हैं । लेकिन हमारी प्रकृति चीजों को हमेशा दो आंखों से देखती है, क्योंकि वह उन्हें दोहरे रूप में, भाव तथा तथ्य के रूप में देखती है अतः हमारे लिये हर धारणा अपूर्ण रहती है और हमारी प्रकृति के एक भाग के लिये तबतक अवास्तविक रहती है जबतक कि वह एक अनुभव न बन जाये । लेकिन अभी हम जिन सत्यों की बात कर रहे हैं वे उस श्रेणी के हैं जो हमारे साधारण अनुभव के अधीन नहीं होते, वे अपनी प्रकृति में ''इन्द्रियों के बोध के परे परंतु तर्क-बुद्धि के द्वारा ग्राह्य हैं ।'' अतः अनुभव की किसी और क्षमता की जरूरत है जिसके द्वारा हमारी प्रकृति की मांग पूरी की जा सके और चूंकि हम अतिभौतिक के बारे में बात कर रहे हैं, यह केवल मनोवैज्ञानिक अनुभूति के प्रसार द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।

 

    एक अर्थ में हमारी सारी अनुभूतियां मनोवैज्ञानिक होती हैं क्योंकि हम जो कुछ

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इन्द्रियों से प्राप्त करते हैं उसका हमारे लिये तबतक कोई अर्थ या मूल्य नहीं होता जबतक कि उसका ऐंद्रिय मन की, भारतीय दार्शनिक परिभाषा में कहें तो 'मानस' की भाषा में अनुवाद न हो जाये । जैसा कि हमारे दार्शनिक कहते हैं मानस छठी इन्द्रिय है । लेकिन हम यह भी कह सकते हैं कि यही एकमात्र इन्द्रिय है और बाकी सब दर्शन, श्रवण, स्पर्श, गंध और रस केवल ऐंद्रिय मन की विशेषताएं हैं । यह मन यद्यपि साधारणत: अपनी अनुभूति के आधार-स्वरूप इन्द्रियों का उपयोग करता है फिर भी वह उनका अक्रिमण करता और सीधा अनुभव करने की क्षमता भी रखता है जो उसकी अपनी अंतर्निष्ठ क्रिया का स्वधर्म है । इसके फलस्वरूप मनोवैज्ञानिक अनुभव बुद्धि के ज्ञान की भांति मनुष्य में दोहरी क्रिया करने की क्षमता रखता है । वह क्रिया मिश्रित या निर्भर या फिर शुद्ध और स्वाधीन हो सकती है । उसकी मिश्रित क्रिया साधारणत: तब होती है जब मन बाह्य जगत् के, विषय के बारे में अभिज्ञ होना चाहता है, और शुद्ध क्रिया तब होती है जब वह अपने बारे में, कर्ता के बारे में अभिज्ञ होना चाहता है । पहली क्रिया में वह इन्द्रियों पर निर्भर होता है और उनकी साक्षी के अनुसार ही अपने प्रत्यक्ष दर्शन बनाता है और दूसरी क्रिया में वह अपने ही अंदर क्रिया करता है और उनके साथ एक प्रकार के तादात्म्य द्वारा वस्तुओं के बारे में सीधी अभिज्ञता रखता है । इस प्रकार हम अपने भावों के बारे में अभिज्ञ होते हैं । जैसा कि चुभती भाषा में कहा गया है 'हम क्रोध के बारे में अभिज्ञ होते हैं क्योंकि हम क्रोध बन जाते हैं' । हम स्वयं अपने अस्तित्व के बारे में भी इसी प्रकार अभिज्ञ होते हैं और यहां तादात्म्य द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का स्वरूप प्रकट हो जाता है । वास्तव में, समस्त अनुभूति अपने गुप्त स्वरूप में तादात्म्य द्वारा ज्ञान ही है लेकिन उसका सच्चा स्वरूप हमसे छिपा रहता है क्योंकि हमने अपने-आपको बाकी सारे जगत् से बहिष्करण के द्वारा, यह मानकर कि हम विषयी हैं और बाकी सब विषय, अलग कर लिया है और हम ऐसी प्रक्रियाएं और ऐसी इन्द्रियां विकसित करने के लिये बाधित होते हैं जिनके द्वारा हम फिर से उस सबके साथ संपर्क में आ सकें जिसे हमने अलग कर दिया है । हमें सचेतन तादात्म्य द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान के स्थान पर परोक्ष ज्ञान को लाना होता है, जिसके बारे में ऐसा लगता है कि वह भौतिक संपर्क और मानसिक सहानुभूति के कारण आया है । यह परिसीमन मूलतः अहंकार की रचना है और उसकी उस रीति का उदाहरण है जिसका उसने हर जगह उपयोग किया है, जिसमें वह एक आदिम मिथ्यात्व से शुरू करके चीजों के सच्चे सत्य को आनुषंगिक मिथ्यात्वों से ढक देता है । यही मिथ्यात्व हमारे लिये संबंधों के व्यावहारिक सत्य बन जाते हैं ।

 

    आज हमारे अंदर मानसिक और ऐद्रिय ज्ञान जिस तरह व्यवस्थित है उससे यही परिणाम निकलता है कि हमारी इन वर्तमान सीमाओं की कोई अनिवार्य आवश्यकता नहीं है । वे एक ऐसे विकास का परिणाम हैं जिसमें मन ने कुछ

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शारीरिक क्रियाओं और उनकी प्रतिक्रियाओं को भौतिक विश्व के साथ नाता जोड़ने के लिये साधन के रूप में स्वीकार करके उनपर निर्भर रहने का अपने-आपको अभ्यासी बना लिया है अतः यद्यपि नियम तो यही है कि जब हम बाहरी जगत् के साथ अभिज्ञता प्राप्त करना चाहें तो परोक्ष रूप से इन्द्रियों के द्वारा ही कर सकते हैं और मनुष्यों और वस्तुओं के सत्य के बारे में केवल उतना ही अनुभव कर सकते हैं जितना इन्द्रियां हमें बतलाये लेकिन यह नियम केवल एक प्रधान आदत की नियमितता ही है । मन के लिये यह संभव है --और उसके लिये यह स्वाभाविक भी होगा, बशर्तें कि जड़ भौतिक के आधिपत्य को जो उसने स्वीकृति दी हुई है उससे उसे मुक्त होने के लिये मनाया जा सके-कि वह इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना सीधा प्राप्त कर सके । सम्मोहन और सजातीय मानसिक व्यापारों के परीक्षणों में यही बात होती है । चूंकि हमारी जाग्रत् चेतना मन और जड़ के बीच के उस संतुलन द्वारा निश्चित और सीमित होती है जो जीवन के अपने विकासक्रम में अबतक प्राप्त किया गया है, यह सीधा बोध पाना हमारी साधारण जाग्रत् अवस्था में सामान्यत: संभव नहीं होता अतः यह ज्ञान पाने के लिये जाग्रत् मन को निद्रा की अवस्था में डाल दिया जाता है जिससे सच्चा या अंतस्तलीय मन मुक्त हो जाता है । तब मन अपने इस सच्चे स्वरूप को स्थापित करने में समर्थ होता है कि वही एकमात्र और सर्वपर्याप्त इन्द्रिय है और इन्द्रियों के विषयों पर अपनी मिश्रित एवं अधीनस्थ क्रिया की जगह शुद्ध और स्वाधीन क्रिया का प्रयोग करने के लिये स्वतंत्र है । इस क्षमता का विस्तार, वास्तव में, असंभव नहीं है, केवल इतना है कि जाग्रत् अवस्था में यह अधिक कठिन है, जो लोग मनोवैज्ञानिक परीक्षण के कुछ विशेष मार्गों पर काफी दूर तक जा सके हैं, उन सबको यह भली-भांति ज्ञात है ।

 

    जिन पांच इन्द्रियों का हम साधारणत: उपयोग करते हैं उनके अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों को विकसित करने के लिये भी ऐंद्रिय मन की स्वाधीन क्रिया का उपयोग किया जा सकता है । उदाहरण के लिये भौतिक साधनों के बिना, हाथ में ली हुई चीज का ठीक-ठीक भार जान सकने की क्षमता विकसित करना संभव है । यहां स्पर्श और दबाव के भाव का केवल आरंभ-बिंदु के रूप में उपयोग किया जाता है जैसे शुद्ध बुद्धि ऐंद्रिय अनुभूति से प्राप्त सामग्री का उपयोग करती है । सचमुच स्पर्श मन को भार का माप नहीं देता, मन अपने स्वतंत्र प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा सच्चा मूल्य आंकता है और स्पर्श का उपयोग वस्तु के साथ नाता जोड़ने के लिये ही करता है । और जैसा शुद्ध बुद्धि के साथ होता है उसी तरह ऐंद्रिय मन के लिये भी इन्द्रियानुभूति का उपयोग केवल एक प्रथम बिंदु के रूप में किया जा सकता है जहां से वह ऐसे ज्ञान की ओर जाता है जिसका इन्द्रियों के साथ कोई संबंध नहीं, जो प्रायः उनकी साक्षी का खंडन करता है । क्षमता का विस्तार केवल बाहरी विस्तार या ऊपरी

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सतहतक ही सीमित नहीं है । एक बार हम किसी बाहरी वस्तु के साथ किसी भी इन्द्रिय के द्वारा संपर्क बना लें तो मनस् को इस तरह लगाया जा सकता है कि हम वस्तु के भीतर की चीजों का भी परिचय प्राप्त कर लें । उदाहरण के लिये दूसरों के विचारों या भावों को उनके वचन, भाव-भंगिमा, क्रिया या चेहरे के भाव के बिना, बल्कि इन एकांगी और प्रायः भ्रामक संकेतों के विपरीत देख या पढ़ सकना । अंतत: भीतरी इन्द्रियों के उपयोग द्वारा यानी स्वयं इन्द्रिय शक्ति के उपयोग से, उनकी शुद्ध मानसिक या सूक्ष्म क्रियाओं के द्वारा जो भौतिक क्रियाओं से भिन्न होती हैं, --भौतिक क्रियाएं तो उनकी समग्र और सामान्य क्रियाओं मैं से बाह्य जीवन के प्रयोजन के लिये एक संकलन मात्र होती हैं --हम अपने जड़ भौतिक वातावरण की व्यवस्था से भिन्न चोजों के इन्द्रियानुभवों, रूपों और बिंबों को जान सकते हैं । क्षमता के इन सभी प्रसारणों को भौतिक मन हिचकिचाहट और अविश्वास के साथ लेता है क्योंकि वे हमारे सामान्य जीवन और अनुभूतियों की अभ्यस्त पद्धति के लिये असामान्य हैं, उन्हें क्रिया में लगाना कठिन है । उन्हें इस प्रकार क्रमबद्ध करना और भी कठिन है कि वे सुव्यवस्थित और उपयोगी यंत्र बन सकें । फिर भी उन्हें स्वीकार तो करना ही पड़ेगा क्योंकि क्षमताओं के वे प्रसारण चाहे अप्रशिक्षित प्रयास और अनियमित, अव्यवस्थित प्रभाव द्वारा हों या वैज्ञानिक और सुव्यवस्थित अभ्यास द्वारा, फिर भीं हैं तो निरपवाद रूप से सतही क्रियाशील चेतना के क्षेत्र को अधिक विस्तृत करने के लिये किये गये प्रयास का परिणाम ।

 

    फिर भी इनमें से कोई हमें उस लक्ष्यतक नहीं ले जाता जो हमारी दृष्टि में है --उन सत्यों का मनोवैज्ञानिक अनुभव जो ''इन्द्रियों की पकड़ के परे और बुद्धि के लिये ग्राह्य है'' - बुद्धियाह्यमतीनिन्द्रयम् (गीता ६.२१) । वे हमें केवल प्रपंच का एक विशालतर क्षेत्र और उसका अवलोकन करने के लिये अधिक प्रभावकारी साधन भर देते हैं । वस्तुओं का सत्य हमेशा इन्द्रियों की पकड़ से बाहर छटक जाता है । फिर भी स्वयं वैश्व रचना के अंदर ही यह एक यथार्थ नियम अंतर्निहित है कि जहां कहीं ऐसे सत्य हैं जो बुद्धि द्वारा पाये जाते हैं वहां उस बुद्धि से अधिकृत शरीर में ऐसे साधन होने चाहियें जिनसे अनुभूति द्वारा उन सत्यों तक पहुंचा जा सके या उन्हें अनुभूति द्वारा कसौटी पर कसा जा सके । हमारे मानस में जो एक साधन बच रहा है वह है तादात्म्य द्वारा ज्ञान के उस रूप का विस्तार जो हमें अपने निजी अस्तित्व की अभिज्ञता देता है । हमारे अंदर की वस्तुओं का ज्ञान वास्तव में न्यूनाधिक रूप से सचेतन, हमारी धारणा में न्यूनाधिक रूप से उपस्थित आत्म-अभिज्ञता पर आधारित होता है। अथवा इसे ज्यादा सामान्य सूत्र में कहें तो अंतर्वस्तुओं का ज्ञान अंतर्वस्तुओं के धारक के ज्ञान में समाया रहता है । तो यदि हम अपनी आत्म-अभिज्ञता की मानसिक क्षमता को अपने से परे और बाहर 'आत्मा' की, उपनिषदों की आत्मन् या ब्रह्म की, अभिज्ञता तक विस्तृत कर सकें तो हम अनुभूति में उन

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सत्यों पर अधिकार पा सकते हैं जो विश्व में आत्मा या ब्रह्म की अंतर्वस्तु बनते हैं । भारतीय वेदांत ने अपने-आपको इसी संभावना पर आधारित किया है । उसने आत्मा के ज्ञान द्वारा विश्व के ज्ञान की खोज की है ।

 

    लेकिन वेदांत ने हमेशा यह माना है कि मानसिक अनुभूति और बुद्धि की अव-धारणाएं अपने उच्चतम स्तर पर भी परम स्वयंभू तादात्म्य न होकर मानसिक तादात्म्यों में प्रतिबिंब मात्र हैं । हमें मन और बुद्धि के परे जाना चाहिये । हमारी जाग्रत् चेतना में सक्रिय रहनेवाली बुद्धि उस अवचेतन 'सर्व', जिसमें से हम अपने विकास में ऊपर आते हैं और अतिचेतन सर्व, जिसकी ओर यह विकास हमें प्रेरित करता है, उन दोनों के बीच मध्यस्थ मात्र है । अवचेतन और अतिचेतन एक ही सर्व के दो भिन्न रूपायण हैं । अवचेतन का महा-शब्द या व्याहृति है 'प्राण' और अतिचेतन का महा-शब्द है प्रकाश । अवचेतना में ज्ञान या चेतना क्रिया में अंतर्लीन है क्योंकि क्रिया ही प्राण का सारतत्त्व है । अतिचेतन में क्रिया फिर से प्रकाश में प्रवेश करती है और अपने अंदर अंतर्लींन ज्ञान को नहीं रखती बल्कि अपने-आप परम चेतना में अंतर्लीन रहती है । इन दोनों में अंतर्भासात्मक ज्ञान समान रूप से रहता है और अंतर्भासात्मक ज्ञान का आधार है ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सचेतन या प्रभावकारी तादात्म्य । यह दोनों की आत्म-सत्ता की वह समान अवस्था है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय ज्ञान द्वारा एक होते हैं । परंतु अवचेतना में अंतर्भास अपने-आपको क्रिया में, प्रभावकारिता में, प्रकट करता है और ज्ञान या सचेतन तादात्म्य पूरी तरह या न्यूनाधिक रूप में क्रिया में छिपा रहता है । इसके विपरीत अतिचेतन में प्रकाश ही नियम और सिद्धांत है अतः अंतर्भास अपने-आपको अपने सच्चे स्वरूप में, सचेतन तादात्म्य में से उभरते हुए ज्ञान के रूप में प्रकट करता है । क्रिया की प्रभावकारिता मौलिक तथ्य का मुखौटा न होकर उसका संगत या आवश्यक परिणाम होती है । इन दो अवस्थाओं के बीच बुद्धि और मन मध्यस्थ के रूप में काम करते हैं, वे सत्ता को इस योग्य बनाते हैं कि ज्ञान क्रिया के कारागार से मुक्त हो सके और अपनी तत्त्वगत प्रमुखता को फिर से प्राप्त करने के लिये तैयार हो जाये । जब मन की आत्म-अभिज्ञता दोनों पर अंतर्वस्तु और अंतर्वस्तु के धारक पर, अपने पर और दूसरों पर प्रयुक्त होती है तो वह ज्योतिर्मय, स्वतः-प्रकट तादात्म्य में उन्नत हो जाती है, बुद्धि भी अपने-आपको स्वतः प्रकाशमान, अंतर्भासात्मक ज्ञान के रूप में बदल

 

    १हम अंग्रेजी के 'इंटयूशन' शब्द के लिये अंतर्भास, सहज ज्ञान, संबोधि आदि शब्दों का प्रयोग करते है । यहांपर श्रीअरविंद इंट्युशन के बारे में कहते हैं, ''मैं ज्यादा उपयुक्त शब्द के अभाव में इंटयूशन शब्द का व्यवहार करता हूं । उससे जिस भाव की मांग की जाती है उसके लिये यह कामचलाऊ और अपर्याप्त है । यही बात कानशसनेस तथा कई और शब्दों के बारे में कही जा सकती है । हमारी शब्दों की दरिद्रता हमें इन शब्दों का अवैध विस्तार करने के लिये बाधित करती है ।'' -अनू०

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लेती है । यह हमारे ज्ञान की संभवनीय उच्चतम स्थिति है जब मन अतिमानस में अपनी परिपूर्ति कर लेता है ।

 

   यही मनुष्य की समझ की वह योजना है जिसपर प्राचीनतम वेदांत के निष्कर्ष खड़े किये गये थे । प्राचीन ऋषियों ने इस आधार पर जो निष्कर्ष निकाले थे उनको विकसित करना यहां मेरा उद्देश्य नहीं है । अभी हम केवल दिव्य जीवन की समस्या के साथ संबंध रखते हैं । यहां उसके साथ संबंध रखनेवाले वेदांत के कुछ मुख्य निष्कर्षों पर संक्षेप में नजर डाल लेना जरूरी है । क्योंकि हम जिसका पुनर्निर्माण करना चाहते हैं उसके लिये इससे पहले का सर्वोत्तम आधार हम इन्हीं विचारों में पा सकेंगे और यद्यपि, जैसा कि समस्त ज्ञान के साथ होता है, पुरानी अभिव्यंजना को एक हदतक हटाकर उसके स्थान पर ऐसी नयी अभिव्यंजना को लाना होगा जो बाद की मानसिकता के अनुकूल हो और एक उषा के बाद आनेवाली दूसरी उषा की तरह पुरातन प्रकाश को नूतन प्रकाश में विलीन हो जाना होगा । फिर भी सदा परिवर्तनशील और साथ ही सदा अपरिवर्तनशील अनंत के साथ अपने नये व्यापार में हम तभी अधिक-से-अधिक लाभ इकट्ठा कर पायेंगे जब हम अपने प्राचीन खजाने या उसके उतने भाग को जिसे हम फिर से पा सकें, अपना मूलधन बनाकर चलें ।

 

    विश्व के बारे में वैदांतिक विश्लेषण अपनी जिस अंतिम अवधारणा में पहुंचता है वह है सद्ब्रह्म, शुद्ध सत् अनिर्वचनीय अनंत, निरपेक्ष सत् । यही वह आधारभूत सद्वस्तु है जिसे वैदांतिक अनुभूति उन सभी गतिविधियों और रूपायणों के पीछे पाती है जिनसे आभासी सद्वस्तु बनी है । यह स्पष्ट है कि जब हम इस अवधारणा को अपनाते हैं तो अपनी साधारण चेतना की, अपनी सामान्य अनुभूति की धारण-सामर्थ्य और प्रामाणिकता से एकदम परे चले जाते हैं । इन्द्रियां या ऐंद्रिय मन किसी शुद्ध अथवा निरपेक्ष सत्ता के बारे में कुछ भी नहीं जानते । हमारी ऐंद्रिय अनुभूति केवल रूप और गति के बारे में ही हमें बताती है । रूप का अस्तित्व है लेकिन ऐसा अस्तित्व जो शुद्ध नहीं है बल्कि हमेशा मिश्रित, संयोजित, संकलित, संचित और सापेक्ष होता है । जब हम अपने अंदर पैठते हैं तो हम नियत आकारवाले रूप से पिंड छुड़ा सकते हैं पर गति से, परिवर्तन से अलग नहीं हों सकते । 'देश' में जड़ वस्तु की गति, 'काल' में परिवर्तन की गति अस्तित्व की अवस्थाएं मालूम होती हैं । अगर हम चाहें तो निश्चय ही यह कह सकते हैं कि यही अस्तित्व है और स्वयं अस्तित्व का भाव ही किसी खोजी जा सकनेवाली सद्वस्तु के साथ मेल नहीं खाता । अधिक-से-अधिक आत्म-अभिज्ञता के आभास में या उसके पीछे कभी-कभी हमें किसी अचल, अपरिवर्तनशील वस्तु की झांकी मिल जाती है, किसी ऐसी चीज की कि हम अस्पष्ट रूप से यह देखने या कल्पना करने लगते हैं कि हम समस्त जीवन और मृत्यु के परे हैं, समस्त परिवर्तन,

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रूपायण और क्रिया के परे हैं । हमारे अंदर यही वह द्वार है जो कभी-कभी परे के सत्य के वैभव की ओर खुल पड़ता है और दोबारा बंद होने से पहले एक रश्मि को हमें छू लेने देता है --यह एक प्रकाशमय संकेत है, जिसे अगर हमारे अंदर बल और दृढ़ता हों तो हम अपनी श्रद्धा के साथ पकड़े रह सकते हैं और उसे ऐंद्रिय मन से भिन्न चेतना की एक और लीला का, अतर्भास की लीला का आरंभ- बिंदु बना सकते हैं ।

 

    क्योंकि अगर हम सावधानी के साथ परीक्षा करें तो देखेंगे कि अंतर्भास ही हमारा प्रथम गुरु है । अंतर्भास हमेशा हमारी मानसिक क्रियाओं के पीछे पर्दे में खड़ा रहता है । अंतर्भास मनुष्यतक 'अज्ञात' से संदेश लाता है जो हमारे उच्चतर ज्ञान के आरंभ-बिंदु हैं । बुद्धि तो केवल पीछे से यह देखने आती है कि वह इस चमकती फसल से क्या लाभ उठा सकती है । हम जो कुछ जानते हैं और जो कुछ प्रतीत होते हैं उस सबके पीछे और परे की किसी चीज का भाव हमें अंतर्भास देता है । यह भाव मनुष्य की निम्नतर बुद्धि और उसके सारे सामान्य अनुभवों का प्रतिवाद करता हुआ मनुष्य का सतत रूप से पीछा करता है और उस आकाररहित बोध को ईश्वर, अमरता, स्वर्ग आदि अधिक भावात्मक सूत्रों में व्यक्त करने के लिये उसे प्रेरित करता है । इनके द्वारा ही हम उसे मन के आगे प्रकट करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि अतर्भास, स्वयं प्रकृति के जैसा ही बलवान् है जिसकी निज आत्मा से वह उत्पन्न हुआ है और वह बुद्धि के प्रतिवादों और अनुभव के खंडनों की परवाह नहीं करता । वह जानता है कि क्या है क्योंकि वह है, क्योंकि स्वयं वह उसीका है और उसीसे आया है और वह केवल संभवन और प्रतीति के मूल्यांकन के आगे झुकनेवाला नहीं है । अंतर्भास हमें जो कुछ बताता है वह सत्ता के बारे में इतना नहीं जितना स्वयं सत् के बारे में है क्योंकि वह हमारे अंदर स्थित उस ज्योतिबिंदु से चलता है जिससे उसे अपना लाभ प्राप्त होता है, जो कभी-कभी हमारी आत्म-अभिज्ञता में खुला द्वार होता है । प्राचीन वेदांत ने अंतर्भास के इस संदेश को ग्रहण किया और उपनिषदों के इन तीन महावाक्यों में व्यक्त किया । 'सोऽहम्', मैं वह हूं; 'तत्वमसि श्वेतकेतो, हे श्वेतकेतु तू वही है; ' सर्वं खल्विदं ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म, यह सब कुछ ब्रह्म है, यह आत्मा ब्रह्म है ।

 

    किंतु अंतर्भास मनुष्य में पर्दे के पीछे से काम करता है, उसके अधिक अप्रबुद्ध, और कम व्यक्त अंगों में अधिक सक्रिय रहता है और पर्दे के अग्रभाग में स्थित, सीमित प्रकाशवाली जो हमारी जाग्रत् चेतना है उसमें केवल ऐसे यंत्र उसकी सेवा करते हैं जो उसके संदेशों को पूरी तरह आत्मसात् करने में असमर्थ हैं, तो मनुष्य में अपनी क्रिया के इस स्वरूप के कारण ही अंतर्भास हमें उस सुव्यवस्थित और सुव्यक्त रूप में सत्य नहीं दे सकता जिसके लिये हमारी प्रकृति मांग करती है । वह हमारे अंदर प्रत्यक्ष ज्ञान की कोई पूर्णता प्रतिष्ठित कर सके

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उससे पहले उसे अपने-आपको हमारी सतही सत्ता में संगठित करना और वहां प्रधान भाग पर अधिकार करना होगा । लेकिन हमारी सतही सत्ता पर अंतर्भास नहीं, बुद्धि संगठित है और हमारे प्रत्यक्ष बोधों, विचारों और कर्मों को सुव्यवस्थित करने में सहायता देती है । इसीलिये अंतर्भासात्मक ज्ञान के युग को, जिसका प्रतिनिधित्व उपनिषदों की प्राचीन वेदांत-विचारणा करती है, बौद्धिक ज्ञान के युग को अपना स्थान देना पड़ा, अंतःप्रेरित शास्त्रों ने अपना स्थान तत्त्वमीमांसा को दिया, वैसे ही जैसे आगे चलकर तत्त्वमीमांसा को अपना स्थान परीक्षणात्मक विज्ञान को देना पड़ा । अंतर्भासात्मक विचार अतिचेतन का संदेशवाहक और इस कारण हमारी उच्चतम क्षमता है, उसका स्थान शुद्ध बुद्धि ने ले लिया जो केवल एक तरह का प्रतिनिधि है और हमारी सत्ता की निचली ऊंचाइयों की चीज हैं । फिर शुद्ध बुद्धि का स्थान, अपनी बारी पर, कुछ समय के लिये बुद्धि की मिश्रित क्रिया ने ले लिया जो हमारे मैदानों और निचली ऊंचाइयों में निवास करती है और उसकी दृष्टि उस अनुभव के क्षितिज से परे नहीं जाती जो हमें भौतिक मन और इन्द्रियों तथा उनके लिये आविष्कृत सहायक उपकरणों से प्राप्त हो सकता है । और यह प्रक्रिया जो एक अवतरण मालूम होती है सचमुच प्रगति का एक चक्र है । क्योंकि हर दशा में निचली क्षमता इस बात के लिये बाधित होती है कि उपरली क्षमता को जो कुछ दे चुकी है उसके जितने अंश को वह आत्मसात् कर सकती है करे और फिर अपने ही तरीके से उसे फिर से प्रतिष्ठित करने का प्रयास करे । इस प्रयास से स्वयं उसका क्षेत्र विस्तृत होता है और अंततः वह उच्चतर क्षमताओं के प्रति अधिक नमनीय और अधिक विस्तृत आत्मानुकूलनतक आ पहुंचती है । इस अनुक्रम और अलग-अलग आत्मसात् करने के प्रयास के बिना हम अपनी प्रकृति के एक भाग के ऐकांतिक अधिकार में रहने को बाधित होते और बाकी भाग या तो अनुचित रूप से दबा हुआ और पराधीन रहता या अपने क्षेत्र में अलग-थलग और इस कारण अपने विकास में दरिद्र बना रहता । इस अनुक्रम और अलग-अलग प्रयास से संतुलन ठीक हो जाता है और हमारे ज्ञान के अंगों का एक अधिक संपूर्ण सामंजस्य तैयार हो जाता है ।

 

    हम यह अनुक्रम उपनिषदों और बाद के भारतीय दर्शनों में देखते हैं । वेद और वेदांत के ऋषि पूरी तरह अंतर्भास और आध्यात्मिक अनुभूति पर निर्भर थे । मूल से बड़े-बड़े विद्वान् उपनिषदों में वाद-विवाद या शास्त्रार्थो की बात करते हैं । जहां कहीं विवाद का आभास है वहां वह शास्त्रार्थ के द्वारा, तर्कशास्त्र या युक्ति के प्रयोग द्वारा नहीं बल्कि अंतर्भास और अनुभूतियों की तुलना द्वारा आगे बढ़ता है, जिसमें कम ज्योतिर्मय अधिक ज्योतिर्मय को, अधिक संकीर्ण, अधिक दोषपूर्ण या कम तात्त्विक, अधिक व्यापक, अधिक पूर्ण और अधिक तात्त्विक को स्थान देता है । एक ऋषि दूसरे से पूछता है, 'तुम क्या जानते हो ?' यह नहीं कि 'तुम्हारा क्या

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विचार है', यह भी नहीं कि 'तुम्हारा तर्क किस निष्कर्ष पर पहुंचा है ?' हम उपनिषदों में कहीं भी वेदांत के सत्यों के समर्थन में तर्कयुक्त विवेचन नहीं पाते । ऐसा लगता है कि ऋषि यह मानते थे कि अंतर्भास का संशोधन तर्कयुक्त विवेचन से नहीं अधिक पूर्ण अतर्भास सें करना चाहिये ।

 

    परंतु फिर भी मानव तर्क-बुद्धि अपने ही तौर-तरीकों से संतुष्टि की मांग करती है । अत: जब युक्तिसंगत चिंतन का युग आया तो भूतकाल की परंपरा का मान करनेवाले भारतीय दार्शनिकों ने, वे जिस सत्य की खोज में थे उसके प्रति दोहरा मानक अपनाया । उन्होनई श्रुति को, जो पहले के अंतर्भास का परिणाम थी, या जैसा वे कहना पसंद करते थे, जो अंत:प्रेरित आगम या आप्त वचन थी, बुद्धि से श्रेष्ठतर माना । लेकिन साथ ही वे 'बुद्धि' से आरंभ करके उसके दिये गये परिणामों की परख करते थे और उन्हीं निष्कर्षों को स्वीकारते थे जो श्रेष्ठतर आप्तवाणी से अनुमोदित हों । इस भांति कुछ हदतक तत्त्वमीमांसा को घेरनेवाले इस दोष से बच जाते थे, उसकी बादलों में संघर्ष करने की वृत्ति से बच जाते थे । यह दोष इसलिये है क्योंकि तत्त्वमीमांसा शब्दों से ऐसे व्यवहार करती है मानों वे अनिवार्य तथ्य हों, न कि ऐसे प्रतीक जिन्हें हमेशा सावधानी के साथ जांचना और हमेशा उस आशय की ओर वापिस लाना पड़ता है जिसके वे प्रतिनिधि हैं । उनका चिंतन पहले-पहल अपने केंद्र को उच्चतम और गभीरतम अनुभूति के नजदीक रखने की कोशिश करता था और इन दो महान् प्रमाणों, 'बुद्धि' और 'अंतर्भास' की सम्मिलित सहमति से आगे बढ़ता था । फिर भी अपनी श्रेष्ठता प्रतिष्ठित करने की बुद्धि की स्वाभाविक वृत्ति ने उसे गौण मानकर चलने का जो सिद्धांत था उसपर यथार्थतः विजय पा ली । परिणामस्वरूप इतने सारे परस्पर-विरोधी मत-मतांतरों का उदय हुआ जिनमें से हर एक अपने-आपको सिद्धांततः वेद पर आधारित करता था और अन्यों का खंडन करने के लिये वेद के वचनों का अस्त्र के रूप में उपयोग करता था, क्योंकि उच्चतम अंतर्भासात्मक ज्ञान चीजों को उनकी समग्रता और विशालता में देखता है और ब्यौरों को केवल अविभाज्य समग्र के पार्श्वरूप में मानता हैं । उसकी प्रवृत्ति ज्ञान के तत्काल समन्वय और ऐक्य की ओर रहती है । इसके विपरीत बुद्धि विश्लेषण और विभाजन से चलती है और एक समग्र बनाने के लिये अपने तथ्यों को एकत्र करती है । लेकिन इस तरह से जो समवाय बनता है उसमें विरोध, विपरीतता और तार्किक दृष्टि से असंगतियां रह जाती हैं और बुद्धि की साधारण प्रवृत्ति होती है इनमें से कुछ को स्वीकार करने की और जो उसके चुने हुए निष्कर्षों के विपरीत हो उसे अस्वीकार करने की ताकि वह एक निर्दोष युक्तियुक्त प्रणाली बन सके । इस भांति पहले के अंतर्भासात्मक ज्ञान का ऐक्य टूट गया और तार्किकों की प्रवीणता हमेशा ऐसे उपाय, भाष्य-पद्धतियां और विभिन्न मृल्यों के मानक खोजने में सफल हुई जिनके द्वारा शास्त्रों के असुविधाजनक स्थलों

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को व्यावहारिक रूप से रद्द कर दिया जाये और उन्हें अपनी दार्शनिक परिकल्पना के लिये पूरी छूट मिल जाये ।

 

    फिर भी विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों में प्राचीन वेदांत की मुख्य अवधारणाएं आंशिक रूप में बनी रहीं और उन्हें फिर से जोड़कर अंतर्भासात्मक विचार की पुरानी उदारता और एकता का प्रतिरूप बनाने की समय-समय पर कोशिश की गयी और सभी के विचार के पीछे, विभिन्न रूपों में प्रतिपादित मूलभूत अवधारणा के रूप में 'पुरुष', 'आत्मा' या 'सद्ब्रह्म', उपनिषदों का शुद्ध 'सत् विद्यमान रहा है । बहुधा बुद्धि के सांचे में ढालकर उसे किसी भाव या मानसिक अवस्था का रूप दिया गया, फिर भी उस अनिर्वचनीय सद्वस्तु की पुरानी भावना की कोई चीज उसमें विद्यमान रही । संभूति की जिस गति को हम जगत् कहते हैं उसका निरपेक्ष इकाई के साथ क्या संबंध हो सकता है और अहं, चाहे वह गति से पैदा हुआ हो या उसका कारण हो, वेदांत द्वारा प्रतिपादित 'सद्-आत्मा', 'परमात्मा', 'परम सद्वस्तु' को फिर से कैसे प्राप्त कर सकता है, यही वे सैद्धांतिक और व्यावहारिक प्रश्न हैं जिन्होंने हमेशा भारतीय विचार को व्यस्त रखा है ।

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अध्याय ९

 

शुद्ध सत्

 

 

 

                    सदेव... एकमेवाद्वितीयम्

                    एक अविभक्त, शुद्ध सत् ।

                                               छान्दोग्योपनिषद् ६.२.१

 

जब हम अपनी दृष्टि को सीमित और क्षणिक आकर्षणों में अहंकारभरी तन्मयता से हटा लेते हैं और संसार को केवल 'सत्य' की खोज करनेवाली निष्पक्ष एवं जिज्ञासाभरी आंखों से देखते हैं तो पहला परिणाम होता है कि हम अनंत सत्ता की एक असीम ऊर्जा, अनंत गति, अनंत क्रियाशीलता को अपने-आपको सीमाहीन देश में, शाश्वत काल में उंडेलते हुए देखते हैं । एक ऐसी सत्ता या सत् जो हमारे अहं या किसी भी अहं या अहमो के समुदाय से असीम रूप में बढ़कर है, जिसकी तुला में युगों के महान् उत्पादन क्षण भर की धूलि के समान हैं और जिसके गणनातीत योगफल में अनगिनत अयुत केवल छोटे-से कीट-समूह की भांति हैं । हम सहज वृत्ति से इस प्रकार कार्य करते, अनुभव करते और अपने जीवन-विचार बुनते हैं मानों यह महान् जगत्-गति हमारे चारों ओर हमें ही केंद्र बनाकर, हमारे लाभ के लिये, हमें सहायता या हानि पहुंचाने के लिये कार्य कर रही है या मानों हमारी प्राणिक लालसाओं, भावावेगों, विचारों, मानकों को समर्थित करना ही उसका वास्तविक काम है, ऐसे ही जैसे ये हमारे लिये मुख्य तल्लीनताएं हैं । जब हम देखना शुरू करते हैं तो अनुभव करते हैं कि उसका अस्तित्व स्वयं अपने लिये है, हमारे लिये नहीं, उसके अपने विशाल लक्ष्य हैं, अपना जटिल और सीमाहीन विचार, अपनी विस्तृत कामना या आनंद है जिसे वह पूरा करना चाहती है, उसके अपने विशाल और विकराल मानक हैं जो हमारे मानकों की तुच्छता की ओर दया और व्यंग्यभरी मुस्कान के साथ देखते हैं । लेकिन फिर भी हमें दूसरे छोर की ओर छलांग लगाकर अपनी नगण्यता के बारे में बहुत अधिक निश्चित भाव न बना लेना चाहिये । वह भी अज्ञान का एक कर्म होगा और विश्व के महान् तथ्यों की ओर से अपनी आंखों को मूंद लेना होगा ।

 

    क्योंकि यह सीमाहीन 'गति' अपने लिये हमें महत्त्वहीन नहीं मानती । विज्ञान हमें दिखलाता है कि यह महान् शक्ति अपनी छोटी-से-छोटी क्रिया पर भी उतनी ही सावधानी, उतना ही चातुर्य-भरा कौशल, और उतनी ही तीव्र तल्लीनता का प्रयोग करती है जितना बड़े-से-बड़े कार्य के लिये । यह महान् ऊर्जा समदर्शी और निष्पक्ष माता या गीता के महावचन के अनुसार ' समं ब्रह्म है । उसकी गति की जो तीव्रता

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और शक्ति किसी सौर मंडल को बनाने और धारण करने में काम आती है वही दीमकों की बांबी की जीवन-व्यवस्था में लगती है । आकार और मात्रा का भ्रम हमें एक को महान् और दूसरे को क्षुद्र मानने के लिये प्रेरित करता है । इसके विपरीत अगर हम मात्रा की राशि को न देखकर गुण की शक्ति को देखें तो हम देखेंगे कि चींटी जिस सौर मंडल में निवास करती हैं वह उससे अधिक महान् है और मनुष्य, समस्त स्थावर प्रकृति के योग से बढ़कर है । लेकिन यह फिर गुण का भ्रम है । जब हम पीछे जाकर केवल गति की तीव्रता का निरीक्षण करते हैं जिसके कि राशि और गुण पहलू हैं तब हम यह अनुभव करते हैं कि यह ब्रह्म समस्त सत्ताओं में समान रूप से निवास करता है । उसकी सत्ता में सभी समान रूप से भाग लेते हैं इसलिये हमें यह कहने का लोभ हो आता है कि वह अपनी ऊर्जा में सभी के अंदर समान रूप से बंटा हुआ है । लेकिन यह भी परिमाण का भ्रम है । ब्रह्म सभी के अंदर निवास करता है, वह अविभाज्य है परंतु लगता है विभक्त और बंटा हुआ । अगर हम फिर एक ऐसी अवलोकात्मक दृष्टि से देखें जो बौद्धिक अवधारणाओं के अधीन नहीं बल्कि अंतर्भास से अनुप्राणित है, जिसकी परिपूर्ति तादात्म्य द्वारा ज्ञान में होती है, तो हम देखेंगे कि इस अनंत 'ऊर्जा' की चेतना हमारी मानसिक चेतना से भिन्न है, वह अविभाज्य है और वह सौर मंडल और दीमक की बांबी को अपना समान भाग नहीं बल्कि एक ही साथ अपना समस्त स्व देती है । ब्रह्म के लिये कोई समग्र और कोई अंश नहीं है बल्कि हर चीज ही पूर्ण ब्रह्म है और पूर्ण ब्रह्म से लाभ उठाती है । गुण और मात्रा में फर्क होता है परंतु 'आत्मा' समान है । क्रिया की शक्ति के रूप, प्रकार और परिणाम में अत्यधिक भेद होता है, लेकिन शाश्वत, आद्या, अनंत ऊर्जा सबमें एक ही है । एक मजबूत आदमी बनाने में जो शक्ति लगती है वह कमजोर आदमी को बनाने के लिये जो शक्ति लगती है उससे लेशमात्र भी कम नहीं होती, दमन में उतनी ही अधिक ऊर्जा खर्च होती है जितनी अभिव्यक्ति में, अस्वीकार करने में उतनी ही जितनी स्वीकारने में, नीरवता में उतनी ही जितनी शब्द में ।

 

    अतः सबसे पहले हमें इस अनंत 'गति', सत्ता की इस ऊर्जा, जो जगत् और स्वयं हम बन गयी हैं, उसके और अपने बीच लेखा-जोखा ठीक करना है । अभी हम गलत हिसाब रखते हैं । हम 'सर्व' के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं परंतु 'सर्व' हमारे लिये नगण्य है । अपने लिये स्वयं हम ही महत्त्वपूर्ण हैं । यह उस मौलिक अज्ञान का चिह्न है जो अहंकार की जड़ है । वह अपने-आपको केंद्र मानकर ही सोच सकता है मानों वही सर्व हो । और जो वह स्वयं न हो उसका वह उतना ही अंश स्वीकारने के लिये तैयार होता है जिसे स्वीकार करने के लिये वह मानसिक रूप से तैयार हो या जिसे स्वीकार करने के लिये परिवेश के आघात उसे बाधित करें । यहांतक कि जब वह दार्शनिक सिद्धांत बनाना शुरू करता है तो उस समय

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भी क्या यह प्रतिपादित नहीं करता कि जगत् का अस्तित्व उसीकी चेतना में और उसीकी चेतना द्वारा है ? उसके लिये अपनी निजी चेतना की स्थिति या अपने मानसिक मानक ही वास्तविकता की कसौटी हैं । जो कुछ भी उसकी परिधि या दृष्टि के बाहर है वह उसे मिथ्या या अस्तित्वहीन लगने लगता है । मनुष्य की यह आत्मपर्याप्तता गलत हिसाब की प्रणाली रच डालती है जो हमें जीवन से ठीक-ठीक और पूरा मूल्य पाने से रोकती है । एक अर्थ में मानव मन और अहं के ये दावे एक सत्य पर आश्रित हैं लेकिन यह सत्य तभी उभरता है जब मन अपने अज्ञान को जान लेता है और अहं 'सर्व' के आधीन होकर उसमें अपने पृथक् आत्म-समर्थन की वृत्ति खो देता है । सच्चे जीवन का आरंभ ही है यह स्वीकारना कि हम, या यूं कहें कि जिन परिणामों और आभासों को हम अपना-आपा कहते हैं वे, इस अनंत 'गति' की आंशिक गति हैं और हमें उस अनंत को जानना है, सचेतन रूप से वही होना है और निष्ठा के साथ उसीको चरितार्थ करना है । हिसाब का दूसरा पहलू है यह जानना कि अपने विशुद्ध आत्म-रूप में हम उस समग्र गति के साथ एक हैं, उसके आधीन या गौण नहीं और हमारी सत्ता के रंग, ढंग, विचार, आवेग और क्रिया में उसकी अभिव्यक्ति सच्चे या दिव्य जीवन के परमोत्कर्ष के लिये आवश्यक है ।

 

    लेकिन यह हिसाब पूरा करने के लिये हमें यह जानना होगा कि यह 'सर्व', यह अनंत और सर्वशक्तिमान् ऊर्जा है क्या ? और यहां एक नयी पेचीदगी आ जाती है । शुद्ध बुद्धि हमारे आगे यह प्रतिपादित करती है और ऐसा लगता है कि वेदांत भी यही प्रतिपादित करता है कि जैसे हम इस 'गति' के आधीन और उसके एक पार्श्व हैं उसी तरह स्वयं यह गति अपने से भिन्न किसी और चीज के आधीन और उसका एक पार्श्व है । वह चीज महान् कालातीत, देशातीत, स्थाणु है जो अपरिवर्तनशील, अक्षय और अव्यय है । वह स्वयं निष्क्रिय है लेकिन सारी कर्मण्यता उसीमें समायी रहती है । वह ऊर्जा नहीं, शुद्ध सत् है । जो लोग केवल इस विश्व-ऊर्जा को ही देखते हैं वे निश्चय ही घोषणा कर सकते हैं कि ऐसी कोई चीज नहीं है । हमारा शाश्वत स्थाणु का भाव, अपरिवर्तनशील शुद्ध सत् का भाव हमारी बौद्धिक धारणाओं की गढ़ी हुई कहानी है जिसका आरंभ स्थाणु के मिथ्या भाव से होता है, क्योंकि कोई भी चीज स्थिर नहीं है, सब कुछ गति है और स्थिर के बारे में हमारी धारणा हमारी मानसिक चेतना का कौशल मात्र है जिसके द्वारा हम गति के साथ व्यावहारिक रूप से क्रिया-कलाप करने के लिये एक आधार-बिंदु पा लेते हैं । यह दिखलाना आसान है कि स्वयं गति के अंदर यह बात सच्ची है । उसमें कोई चीज स्थिर नहीं है । जो कुछ स्थिर प्रतीत होता है वह गतियों का एक पिंड, कार्यरत ऊर्जा का रूपायन है जो हमारी चेतना पर इस तरह प्रभाव डालता है कि वह स्थिर मालूम होता है, कुछ-कुछ ऐसे ही जैसे पृथ्वी हमें स्थिर मालूम होती है, कुछ-कुछ

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उस रेलगाड़ी की तरह जिसमें हम यात्रा कर रहे हों, वह भागते हुए प्राकृतिक दृश्यों के बीच स्थिर मालूम होती है । लेकिन क्या यह भी समान रूप से सच है कि इस गति के नीचे उसे सहारा देती हुई कोई गतिहीन, अपरिवर्तनशील वस्तु नहीं है ? क्या यह सच हैं कि सत्ता या सत् केवल ऊर्जा की क्रिया का ही रूप है ? या क्या यह ज्यादा सच नहीं है कि ऊर्जा 'सत्' की ही उपज है ?

 

    हम तुरंत यह देख लेते हैं कि यदि कोई इस प्रकार की 'सत्ता' है तो वह भी ऊर्जा की भांति अनंत होनी चाहिये । न तो बुद्धि न अनुभूति, न अंतर्भास और न कल्पना ही हमें इस बात की साक्षी देते हैं कि किसी अंतिम लक्ष्यबिंदु की संभावना है । समस्त अंत और आरंभ इस पूर्व कल्पना को अपनेमें वहन करते हैं कि अंत और आरंभ के परे भी कुछ है । निरपेक्ष अंत, निरपेक्ष आरंभ केवल शाब्दिक विरोध ही नहीं बल्कि वस्तुओं के सारतत्त्व का विरोध, एक धींगा-मुश्ती और कपोल-कल्पना है । अनंतता अपनी निर्विवाद आत्मसत्ता द्वारा अपने-आपको सांत के रूपों पर आरोपित करती है ।

 

    लेकिन यह 'देश' और 'काल' के साथ संबंध रखनेवाली अनंतता है, शाश्वत अवधि, असीम विस्तार है । शुद्ध तर्कबुद्धि और आगे जाती है और अपने रंगहीन और कठोर प्रकाश में 'देश' व 'काल' पर नजर डालते हुए हमें बतलाती है कि ये दोनों हमारी चेतना के वैचारिक रूप हैं, ऐसी अवस्थाएं हैं जिनमें हम प्रपंच के अपने बोध को व्यवस्थित करते हैं । जब हम स्वयं सत् पर नजर डालते हैं तो 'देश' और 'काल' दोनों गायब हो जाते हैं । अगर कोई विस्तार है तो वह देश में नहीं मनोवैज्ञानिक है, अगर कोई अवधि हैं तो वह भौतिक नहीं मनोवैज्ञानिक अवधि है और तब यह देखना आसान हो जाता है कि यह विस्तार और अवधि केवल प्रतीक हैं जो मन के आगे ऐसी चीज प्रस्तुत करते हैं जिसे बौद्धिक परिभाषा में नहीं रखा जा सकता । एक ऐसी शाश्वतता है जो हमें वही सर्वसमावेशी, सर्वदा नवीन क्षण प्रतीत होती है, एक ऐसी अनंतता है जो हमें वही सर्वसमावेशी, सर्वव्यापी, किंतु विस्तारहीन बिंदु प्रतीत होती है । परिभाषाओं का यह विरोध, जो इतना उग्र होते हुए भी किसी ऐसी चीज को ठीक-ठीक व्यक्त करता है जिसका हमें बोध होता है, यह दिखलाता है कि मन और वाणी अपनी स्वाभाविक सीमाओं को पार कर गये हैं और एक ऐसी सद्वस्तु को प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें उनकी अपनी रूढ़ियां और आवश्यक विरोध एक अनिर्वचनीय तादात्म्य में लुप्त हो जाते हैं ।

 

    लेकिन क्या यह सच्चा अभिलेख है ? क्या यह नहीं हो सकता कि 'काल' और 'देश' इस तरह, केवल इसलिये लुप्त हो जाते हैं कि हम जिसे सत् मानते हैं वह बुद्धि की गढ़ी कहानी, वाणी द्वारा रचित अनोखा 'शून्य' है जिसे हम अवधारणात्मक सद्वस्तु के रूप में खड़ा करने का प्रयास करते हैं ? हम फिर से उस 'सत्-स्वरूप' को देखते और कहते हैं 'नहीं' । दृश्य प्रपंच के पीछे कोई ऐसी

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चीज है जो केवल अनंत ही नहीं अनिर्वचनीय भी है, किसी प्रपंच या प्रपंचों की समष्टि के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह निरपेक्ष रूप से है । यहांतक कि यदि हम सब प्रपंचों को खंडित करते-करते गति या ऊर्जा के एक मूलभूत, सर्वसामान्य, अखंडनीय तथ्यतक ले जायें तो हमारे हाथ जो चीज लगती है वह केवल एक अव्याख्येय तथ्य ही होता है । गति की अवधारणा ही अपने साथ विश्राम की संभाव्यता लिये रहती है और अपने-आपको किसी सत् या सत्ता की क्रिया के रूप में प्रकट करती है । क्रियारत ऊर्जा का विचार ही अपने साथ क्रिया से विरत ऊर्जा का विचार लिये रहता है, और क्रिया से रहित निरपेक्ष ऊर्जा शुद्ध और सरल रूप से निरपेक्ष सत् ही है । हमारे सामने बस यहीं दो विकल्प हैं --या तो अनिर्वचनीय शुद्ध सत् या क्रियारत अनिर्वचनीय ऊर्जा । किसी स्थायी आधार या कारण के बिना क्रियारत अनिर्वचनीय ऊर्जा ही अगर एकमात्र सच है तब तो ऊर्जा, क्रिया से उत्पन्न एक परिणाम और प्रपंच है और वह क्रिया या गति ही सच्ची है । तब तो 'सत्' है ही नहीं या फिर बौद्धों का शून्य है जिसका अस्तित्व एक शाश्वत तथ्य के, 'क्रिया' के, 'कर्म' के, 'गति' के केवल एक गुण के रूप में है । शुद्ध बुद्धि दावे के साथ कहती है कि यह निष्कर्ष मेरे प्रत्यक्ष दर्शनों को असंतुष्ट छोड़ देता है, मेरी आधारभूत दृष्टि के विपरीत है इसलिये ऐसा नहीं हों सकता । क्योंकि यह निष्कर्ष हमें ऊपर बढ़ने के सोपान पर अचानक समाप्त हो जानेवाली सीढ़ी पर लाकर खड़ा कर देता है और सारे सोपान को बिना किसी सहारे के शून्य में लटकता छोड़ देता है ।

 

    अगर यह अनिर्वचनीय, अनंत, कालहीन, देशहीन 'सत्' है तो निश्चय ही वह शुद्ध निरपेक्ष है । उसे किसी परिमाण या परिमाणों में नहीं समेटा जा सकता, वह किसी गुण की रचना या किन्हीं गुणों का संयोजन नहीं हो सकता, वह रूपों का समूह या रूपों का तात्त्विक आधार नहीं है । चाहे सभी रूप, परिमाण और गुण गायब हो जायें, वह बना रहेगा । परिमाणहीन, गुणहीन, रूपहीन 'सत्' की न केवल धारणा ही बनायी जा सकती है बल्कि एक वही चीज है जिसकी धारणा इन सब बाह्य आभासों के पीछे की जा सकती है । निश्चय ही जब हम कहते हैं कि यह सत् इनके बिना है तो हमारा मतलब होता है कि वह उनसे अतीत है, कि वह ऐसी चीज है जिसमें ये सब इस तरह प्रवेश कर जाती हैं कि वे वह नहीं रहतीं जिन्हें हम रूप, परिमाण, गुण कहते हैं और जिसके अंदर से वे गति में रूप, गुण और परिमाण बनकर उभरती हैं । वे एक ऐसे रूप, एक ऐसे गुण और एक ऐसे परिमाण में नहीं चली जातीं जो बाकी सबका आधार हो --क्योंकि ऐसा कुछ है ही नहीं --बल्कि वे ऐसी चीज में चली जाती हैं जिसका वर्णन इनमें से किसी परिभाषा द्वारा नहीं किया जा सकता । तो वे सभी चीजें जो गति की अवस्थाएं और आभास हैं तत् के अंदर समा जाती हैं जहां से वे आयी हैं और जबतक वे वहां रहती हैं,

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ऐसी बन जाती हैं कि उनका वर्णन उन परिभाषाओं से नहीं किया जा सकता जो उनकी गति की अवस्था में उपयुक्त थीं । इसीलिये हम कहते हैं कि शुद्ध सत् 'निरपेक्ष' है और अपने-आपमें हमारे विचार के लिये अज्ञेय है यद्यपि हम लौटकर उसके साथ ऐसे परम तादात्म्य में जा सकते हैं जो ज्ञान की परिभाषाओं के परे है । इसके विपरीत गति सापेक्ष का क्षेत्र है फिर भी सापेक्ष की परिभाषा के अनुसार गति में विद्यमान सब चीजें निरपेक्ष को अपने अंदर धारण किये रहती हैं, निरपेक्ष में समायी हुई हैं और स्वयं निरपेक्ष हैं । निरपेक्ष और सापेक्ष के बीच की भिन्नता में जो अभिन्नता है उसके निकटतम उदाहरण के रूप में वेदांत मूलभूत आकाश के साथ प्रकृति के प्रपंचों के संबंध को रखता है । यह आकाश प्रकृति के दृश्यों और व्यापारों का आधार, आधेय और उपादान है फिर भी उनसे इतना अधिक भिन्न रहता है कि जब वे उसमें प्रवेश कर जाते हैं तो वे वह नहीं रह जाते जो अब हैं ।

 

    निश्चय ही जब हम कहते हैं कि चीजें उसमें चली जाती हैं जिसमें से आयी थीं तो हम अपनी कालिक चेतना की भाषा का प्रयोग करते हैं और हमें अपने-आपको उसके भ्रमों से बचाना चाहिये । अक्षर में से गति का उभरना शाश्वत तथ्य है और केवल इसी कारण कि हम उसकी अवधारणा उस अनादि, अनंत, चिर-नवीन क्षण में नहीं कर पाते जो 'कालातीत' की शाश्वतता है इसलिये हमारी अवधारणाओं और धारणाओं को बाधित होकर उसे क्रमानुसार चलनेवाले प्रवाह की एक कालगत शाश्वतता में रखना पड़ता है जिसके साथ बार-बार दोहराये जानेवाले आदि, मध्य और अंत के भाव सदा लगे रहते हैं ।

 

    लेकिन कहा जा सकता है कि यह सब तभीतक सच है जबतक हम शुद्ध बुद्धि की अवधारणाओं को स्वीकारते और उनके आधीन रहते हैं । लेकिन बुद्धि की अवधारणाओं में बाधित करनेवाली शक्ति नहीं होती । हमें सत् या सत्ता का निर्णय अपनी मानसिक अवधारणा द्वारा नहीं बल्कि जो अस्तित्ववान् दीखता है उससे करना चाहिये । और सत् में जैसा कि वह है अधिक-से-अधिक शुद्ध और मुक्त अंतर्दृष्टि का रूप भी हमें गति के सिवा कुछ और नहीं दिखलाता । केवल दो चीजों का अस्तित्व है : 'देश' में गति, 'काल' में गति, पहला वस्तुनिष्ठ है और दूसरा आत्मनिष्ठ । विस्तार वास्तविक है, काल-प्रवाह वास्तविक है, देश और काल वास्तविक हैं । अगर हम 'देश' में विस्तार के पीछे जा सकें और उसे एक मनोवैज्ञानिक व्यापार के रूप में देखें, इस रूप में देखें कि यह अविभाज्य समग्र को धारणात्मक 'देश' में विभाजित कर सत्ता को व्यवहार्य बनाने के लिये मन का प्रयत्न है तो भी हम काल में होनेवाले अनुक्रम और परिवर्तन की गति के पीछे नहीं जा सकते क्योंकि यह तो हमारी चेतना का उपादान ही है । हम और जगत् दोनों ही एक ऐसी गति हैं जो लगातार प्रगति करती जा रही है और वर्तमान में भूतकाल के सभी अनुक्रमों को अपने अंदर लेती हुई बढ़ती जा रही है । और वर्तमान हमारे

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आगे भविष्य के सभी अनुक्रमों के आरंभ के रूप में आता है -एक ऐसा आरंभ, एक ऐसा वर्तमान जो हमेशा हमारी पकड़ से निकल जाता है क्योंकि वह है ही नहीं, क्योंकि वह तो जन्म लेने से पहले ही मर जाता है । जो कुछ है वह 'काल' का एक शाश्वत, अविभाज्य अनुक्रम है जो चेतना की प्रगतिशील गति को अपनी धारा में लिये जा रहा है । वह चेतना की गति भी अविभाज्य है । तो कालावधि, काल में शाश्वत रूप के आनुक्रमिक गति और परिवर्तन, यही एकमात्र निरपेक्ष है । संभूति ही एकमात्र सत् है ।

 

    वास्तव में सत्ता में पैठनेवाली यथार्थ अंतर्दृष्टि और शुद्ध बुद्धि की अवधारणाओं के बीच का वह विरोध मिथ्या है । यदि इस विषय में अंतर्भास का बुद्धि से सचमुच विरोध होता तो हम आधारभूत अंतर्दृष्टि के विरोध में केवल अवधारणात्मक तर्कबुद्धि का समर्थन विश्वास के साथ न कर पाते । परंतु अंतर्भासात्मक अनुभूति से समर्थन की यह मांग अपूर्ण है । यह अनुभूति वहींतक प्रामाणिक है जहांतक वह जा पाती है लेकिन वह संपूर्ण अनुभूतितक पहुंचने से पहले ही रुक जाने की भूल करती है । जहांतक अंतर्भास अपने-आपको केवल उसीपर दृढ़ रखता है जो हम बनते जाते हैं, हम अपने-आपको काल के सतत अनुक्रम में चेतना में होनेवाली गति और परिवर्तन की अविच्छिन्न धारा के रूप में देखते हैं । बौद्ध मत के रूपक के अनुसार हम एक नदी हैं, एक ज्वाला हैं । लेकिन एक परम अनुभूति है, एक परम अतर्भास है जिससे हम अपने सतही स्व के पीछे जाते हैं और देखते हैं कि यह संभूति, परिवर्तन, अनुक्रम केवल हमारी सत्ता का एक प्रकार मात्र है और हमारे भीतर वह चीज है जो संभवन में जरा भी नहीं फंसती । हम केवल इसका अंतर्भास ही नहीं पा सकते जो हमारे अंदर स्थिर और शाश्वत है, हम इन सतत पलायमान संभूतियों के पर्दे के पीछे इस अनुभूति की एक झांकी ही नहीं पा सकते बल्कि हम उसके अंदर लौटकर पूरी तरह उसीमें जी सकते हैं और इस तरह अपने बाहरी जीवन में, अपनी मनोवृत्ति में और जगत् की गति पर अपनी क्रिया में पूर्ण परिवर्तन भी ला सकते हैं । और यह स्थायित्व जिसमें हम इस प्रकार रह सकते हैं ठीक वही है जो शुद्ध बुद्धि हमें पहले ही दे चुकी है यद्यपि वहां तर्कबुद्धि के बिना ही, पहले से यह जाने बिना ही कि वह क्या है, पहुंचा जा सकता है --वह शुद्ध सत् है, शाश्वत, अनंत, अनिर्वचनीय, काल के

 

    १ गति की समग्रता में अविभाज्य । 'काल ' या 'चेतना' के प्रत्येक क्षण को अपने पहले के और अपने बाद आनेवाले क्षण से पृथक् माना जा सकता है । ऊर्जा की प्रत्येक आनुक्रमिक क्रिया एक नवीन परिमाण या नयी सृष्टि मानी जा सकती है लेकिन इससे उस अविच्छिन्नता का खंडन नहीं होगा जिसके बिना काल का प्रवाह या चेतना की संबद्धता संभव नहीं है । आदमी जब चलता या दौड़ता या छलांगें मारता है तो उसके कदम अलग-अलग पड़ते हैं लेकिन कोई ऐसी चीज होती है जो कदम उठाती और गति को अविच्छिन्न बनाती है ।

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अनुक्रम से अछूता, देश के विस्तार से अलग-थलग, रूप, गुण, परिमाण के परे है -केवल और निरपेक्ष आत्मा है ।

 

    तो शुद्ध सत् केवल अवधारणा नहीं, एक तथ्य है, वह मूलभूत सद्वस्तु है । लेकिन इसके साथ-ही-साथ हमें तुरंत यह भी कह देना चाहिये कि गति, ऊर्जा और संभवन भी एक तथ्य, एक सद्वस्तु हैं । परम अंतर्भास और उसके साथ मेल खाती हुई अनुभूति दूसरे को ठीक कर सकती है, उसके परे जा सकती है, उसे स्थगित कर सकती है पर उसका उन्मूलन नहीं कर सकती; अतः हमारे आगे दो मूलभूत तथ्य हैं, शुद्ध सत् और जगत्-सत्ता, सत् का तथ्य और संभवन का तथ्य । एक या दूसरे को अस्वीकार करना आसान है, चेतना के तथ्यों को पहचानना और उनके संबंध का पता लगाना सच्ची और सफल प्रज्ञा है ।

 

    हमें याद रखना चाहिये कि स्थायित्व और गति भी एकत्व और बहुत्व की तरह निरपेक्ष के केवल हमारे अपने मनोमय प्रतिरूप हैं । निरपेक्ष स्थिरता और गति के परे है जैसे कि वह ऐक्य और बहुलता के परे है । लेकिन वह एक और स्थिर में अपना शाश्वत विश्राम लेता है और गति और बहुत्व में अचिन्त्य, अनंत और निरापद रूप से अपने चारों ओर चक्कर लगाता है । जगत्-सत्ता शिव का आनंद नृत्य है जो भगवान् के रूप को दृष्टि के आगे अनंतत: बहुरूप में प्रस्तुत करता है । वह उस श्वेत सत्ता को ठीक वहीं और वैसा ही छोड़ देता है जैसी वह थी, सदा रहती है और सदा रहेगी, उसका एकमात्र परम उद्देश्य है नृत्य का आनंद ।

 

    लेकिन चूंकि हम स्थायित्व और गति से परे, एकत्व और बहुत्व से परे रहनेवाले निरपेक्ष का न तो वर्णन कर सकते हैं और न उसके बारे में सोच ही सकते हैं --ना ही यह हमारा विषय ही है --अतः हमें इस दोहरे तथ्य को स्वीकारना होगा, शिव और काली दोनों को मान्यता देनी होगी और यह जानने का प्रयास करना होगा कि शुद्ध 'सत्ता' जो कालातीत और देशातीत है, जो एक और अविचल है, जिसे न प्रमेय कहा जा सकता है न अप्रमेय, उसके संबंध में यह काल और देशगत अप्रमेय 'गति' क्या है । हम देख चुके हैं कि शुद्ध 'सत्ता' के, 'सत्' के विषय में शुद्ध-बुद्धि, अंतर्भास और अनुभूति का क्या कहना है । अब देखना यह है कि शक्ति और गति के बारे में उनकी क्या राय है ।

 

    अब जो पहला प्रश्न हमें अपने-आपसे पूछना है वह यह है कि क्या यह शक्ति बस शक्ति ही है, गति की केवल एक बुद्धिहीन ऊर्जा है या क्या चेतना, जो हमारे वासस्थान इस भौतिक जगत् में उस शक्ति में से उभरती मालूम होती है, वह उस शक्ति के दृश्य परिणामों में से एक परिणाम न होकर कहीं अधिक उसका सच्चा और गुप्त स्वभाव है ? वेदांत की भाषा में क्या शक्ति केवल प्रकृति है, केवल कर्म और प्रक्रिया की गति है या प्रकृति वास्तव में चित् की शक्ति है, अपने स्वभाव से सृजनात्मिका आत्म-चेतना की शक्ति है ? इस मूलभूत समस्या पर ही सब कुछ निर्भर है ।

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अध्याय १०

 

चित्-शक्ति

 

         ते..... अपश्यन्देवात्मशक्ति स्वगुणैर्निगढाम् ।

 

         उन्हाने भगवान् की आत्म-शक्ति को उसकी अपनी ही क्रिया के सचेतन प्रकारों द्वारा गहरे छिपा देखा ।

                                                  श्वेताश्वतरोपनिषद् १.

 

         य एष सुप्तेषु जागर्ति ।|

 

         यह वही है जो सोते हुओं में जागता है ।

                                                    कठोपनिषद् ५.८

 

समस्त दृश्य सत्ता का वियोजन शक्ति में, ऊर्जा की एक ऐसी गति में होता है जो अपनी अनुभूति के आगे आत्म-प्रस्तुति करने के लिये न्यूनाधिक रूप से जड़ भौतिक, न्यूनाधिक रूप से स्थूल या सूक्ष्म रूप धारण करती है । मानव विचार ने सत्ता के उद्गम और विधान को अपने लिये बोधगम्य और वास्तविक बनाने के लिये जिन प्राचीन रूपकों की रचना की थी उनमें, शक्ति की इस अनंत सत्ता को सागर के रूप में चित्रित किया गया है जो प्रारंभिक रूप में अचल अत: रूपों से मुक्त है परंतु प्रथम विक्षोभ, गति का प्रथम सूत्रपात रूपों की सृष्टि को जरूरी बना देता है और यही है विश्व का बीज ।

 

    जड़ तत्त्व शक्ति की वह प्रस्तुति है जो हमारी बुद्धि के लिये सबसे अधिक आसानी से बोधगम्य है क्योंकि उसे जड़तत्त्व के ऐसे संपर्कों से ढाला गया है जिन्हें भौतिक मस्तिष्क में अंतर्लीन मन प्रत्युत्तर देता है । प्राचीन भातीय भौतिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में भौतिक शक्ति की प्रारंभिक स्थिति देश में शुद्ध भौतिक विस्तार की अवस्था है जिसका अपना विशेष गुण-स्पंदन है जो हमारे आगे ध्वनि का आभास बनकर आता है । किंतु आकाश की इस अवस्था में स्पंदन रूप की रचना करने के लिये काफी नहीं है । पहले 'शक्ति'--सागर के प्रवाह में कोई रुकावट आये, सिकुड़ना और फैलना हो, स्पंदनों की आपस में क्रीड़ा हो, शक्ति का शक्ति से टकराव हो ताकि निश्चित संबंधों और पारस्परिक प्रभावों के आरंभ की सृष्टि हो सके । भौतिक शक्ति अपनी पहली आकाशीय स्थिति में फेर-फार करती हुई एक दूसरी अवस्था को अपनाती है जिसे प्राचीन भाषा में वायवीय कहते हैं, जिसका विशेष गुण है शक्ति और शक्ति के बीच संपर्क, ऐसा संपर्क जो सभी भौतिक संबंधों का आधार है । अभीतक हमें वास्तविक रूप नहीं मिल पाये हैं, केवल

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अलग-अलग शक्तियां ही मिली हैं । एक सहारा देनेवाले तत्त्व की जरूरत है । यह आदि शक्ति के तीसरे आत्म-परिवर्तन द्वारा आता है जिसकी विशेष अभिव्यक्ति हमारे लिये प्रकाश, विश्व अग्नि और ऊष्मा के तत्त्व में होती है । फिर भी हम शक्ति के ऐसे रूप तो पा सकते हैं जो अपने विशेष गुणों और विशेष क्रियाओं को बनाये रखते हो लेकिन जड़ भौतिक के स्थिर रूप नहीं । एक चौथी स्थिति है जिसका विशेष गुण है फैलाव और यह स्थायी आकर्षणों और विकर्षणों का प्रथम साधन है, इसका चित्रमय नाम है जल अथवा द्रव स्थिति और पांचवां है संसक्ति का तत्त्व जिसे कहते हैं पृथ्वी या ठोस स्थिति । ये मिलकर, आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति कर देते हैं ।

 

    जड़ पदार्थ के वे सभी रूप जिनके बारे में हम जानते हैं, यहांतक कि सूक्ष्मतम रूप भी इन्हीं पांच तत्त्वों से मिलकर बने हैं । हमारी इन्द्रियों की अनुभूतियां भी इन्हीं पर निर्भर हैं । स्पंदनों के ग्रहण करने से ध्वनि का संवेदन होता है, शक्ति के स्पंदनों के जगत् में वस्तुओं के संपर्क से स्पर्श का संवेदन होता हैं । प्रकाश की क्रिया द्वारा प्रकाश, अग्नि और ताप की शक्ति द्वारा सेये गये, रूपेरखा प्रदान किये गये और संपोषित रूपों में दृष्टि का संवेदन, चौथे तत्त्व से स्वाद और पांचवें से गंध का संवेदन होता है । सब कुछ सार रूप में शक्ति और शक्ति के बीच स्पंदनात्मक संपर्को के प्रत्युत्तर हैं । इस प्रकार प्राचीन विचारकों ने शुद्ध शक्ति और उसके अंतिम परिवर्तनों के बीच की खाई को पाट दिया और उस कठिनाई को संतुष्ट किया जो साधारण मानव के मन को यह समझने से रोकती है कि ये सब रूप जो उसकी इन्द्रियों के लिये इतने वास्तविक, ठोस और स्थायी हैं, वास्तव में केवल अस्थायी प्रपंच कैसे हो सकते हैं और शुद्ध ऊर्जा के जैसी चीज जो इन्द्रियों के लिये अस्तित्वहीन, अगोचर और लगभग अविश्वसनीय है वह स्थायी वैश्व वास्तविकता कैसे हो सकती है ।

 

    इस सिद्धांत द्वारा चेतना की समस्या का हल नहीं होता क्योंकि यह इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि शक्ति के स्पंदनों का स्पर्श सचेतन संवेदनों को कैसे पैदा करता है । अत: सांख्यों अथवा विश्लेषक विचारकों ने इन पांच तत्त्वों के पीछे और दो तत्त्वों को मान लिया जिन्हें उन्होंने महत् और अहंकार का नाम दिया है । ये ऐसे तत्त्व हैं जो वास्तव में अभौतिक हैं क्योंकि पहला शक्ति का विराट् वैश्व तत्त्व होने के सिवा कुछ नहीं है और दूसरा है अहं की रचना का विभाजनशील तत्त्व । फिर भी ये दोनों तत्त्व और साथ ही बुद्धि-तत्त्व चेतना में स्वयं शक्ति के बल पर सक्रिय नहीं होते बल्कि एक निष्क्रिय सचेतन-आत्मा या आत्माओं के बल पर जिनमें उसकी क्रियाएं प्रतिबिंबित होती हैं और उस प्रतिबिंब द्वारा चेतना का रंग पकड़ लेती हैं ।

 

    भारतीय दर्शन का एक मत चीजों की व्याख्या उक्त प्रकार से प्रस्तुत करता है, यह मत आधुनिक जड़वादी विचारों के अधिक-से-अधिक नजदीक है और यह

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प्रकृति में आसीन यांत्रिक या निश्चेतन शक्ति के विचार को उतनी दूरतक ले गया जितना भारतीय मानस के गभीर चिंतन के लिये संभव है । इसमें चाहे जो त्रुटियां हों, इसका मुख्य विचार इतना निर्विवाद था कि उसे व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया गया । चेतना के व्यापार की चाहे जैसे व्याख्या की जाये, चाहे प्रकृति एक जड़ आवेग हो या सचेतन तत्त्व, वह निश्चित ही शक्ति तो है ही । ऊर्जाओं की रचनात्मक गतिविधि ही वस्तुओं का तत्त्व है । सभी रूप असंघटित शक्तियों के मिलने और परस्पर अनुकूलन से पैदा होते हैं । शक्ति के किसी रूप के अंदर की कोई चीज शक्ति के अन्य रूपों के संपर्क में आकर जो प्रत्युत्तर देती है वही समस्त संवेदन और क्रिया है । हम जगत् को ऐसा ही अनुभव करते हैं और हमें सदा इस अनुभव से ही आरंभ करना चाहिये ।

 

    आधुनिक विज्ञान द्वारा जड़तत्त्व का भौतिक विश्लेषण भी इसी सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचता है, कुछ थोड़े से अंतिम संदेह भले बाकी हों । अंतर्भास और अनुभूति विज्ञान और दर्शन की इस सहमति का समर्थन करते हैं । शुद्ध बुद्धि इसमें अपनी सारभूत अवधारणाओं की संतुष्टि पाती है । अगर हम जगत् को सारतः चेतना की क्रिया मानें तो उसमें क्रिया तो आ ही गयी और साथ ही क्रिया में शक्ति की गति और ऊर्जा की क्रीड़ा भी आ जाती है । अगर हम अपने अंदर अपनी अनुभूति की परीक्षा करें तो यही जगत् का आधारभूत स्वरूप प्रमाणित होता है । हमारी सारी क्रियाएं प्राचीन दर्शनों में वर्णित त्रिविध शक्ति, ज्ञान-शक्ति, कामना-शक्ति और क्रिया-शक्ति का खेल हैं और वे एकमात्र आद्या शक्ति की ही वास्तव में तीन धाराएं सिद्ध होती हैं । यहांतक कि हमारी विश्राम की अवस्थाएं भी उस शक्ति की गति की क्रीड़ा की सम अवस्था या संतुलित अवस्था हैं ।

 

    शक्ति की गति को विश्व की समग्र प्रकृति मान लेने पर दो प्रश्न उठते हैं । पहला यह कि सत् के वक्ष में यह गति आयी ही कैसे ? अगर हम यह मान लें कि यह गति केवल शाश्वत ही नहीं, बल्कि समस्त सत् का सार तत्त्व है तब यह प्रश्न नहीं उठता लेकिन हम इस मत को अस्वीकार कर चुके हैं । हमें ऐसे सत् का पता है जो इस गति से बाधित नहीं है । तब फिर यह गति जो सत् के शाश्वत विश्राम के लिये विजातीय है, उसमें आती ही कैसे है ? किस कारण, किस संभावना से, किस रहस्यमयी प्रेरणा से ?

 

    प्राचीन भारतीय मानस ने जिस उत्तर को सबसे अधिक स्वीकार किया था वह यह है कि शक्ति सत् के अंदर अंतर्लीन है । शिव और काली, ब्रह्म और शक्ति एक हैं, दो नहीं जिन्हें अलग किया जा सके । सत् के अंदर अंतर्लीन शक्ति चाहे विश्राम में हो सकती हैं या गति में । लेकिन जब वह विश्राम में होती है तब भी वह उतनी ही उपस्थित रहती है, लुप्त या क्षीण या किसी भी रूप में तत्त्वतः

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परिवर्तित नहीं होती । यह उत्तर इतना अधिक तर्कसंगत और वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल है कि उसे स्वीकार करने में हमें सकुचाना न चाहिये । क्योंकि, तर्क-बुद्धि के विपरीत होने के कारण, यह मानना असंभव है कि शक्ति उस अनन्य और अनंत सत् के लिये कोई विजातीय चीज है और उसमें कहीं बाहर से आयी है या पहले उसका अस्तित्व न था और काल के किसी क्षण में वह सत्ता में उठ खड़ी हुई । यहांतक कि मायावाद को भी यह मानना पड़ेगा कि माया ब्रह्म की आत्म-संभ्रम की शक्ति, संभाव्य रूप में शाश्वत सत्ता के अंदर शाश्वत रूप से विद्यमान है । तब एकमात्र प्रश्न रह जाता है उसकी अभिव्यक्ति या अनभिव्यक्ति का । सांख्य भी प्रकृति और पुरुष के शाश्वत सह-अस्तित्व को और प्रकृति की दो अवस्थाओं को मानता है । ये अवस्थाएं बारी-बारी से आती हैं, एक विश्राम या संतुलन की अवस्था और दूसरी गति या संतुलन-भंग की अवस्था ।

 

    लेकिन चूंकि शक्ति इस तरह सत् के अंदर अंतर्निहित है और उसका स्वभाव है गति या विश्राम की यह द्विविध या बारी-बारी से आने की संभाव्यता यानी शक्ति में अपने-आपको केंद्रित करने और शक्ति में अपने-आपको छितराने की संभाव्यता, अत: गति के कैसे का, उसके संभव होने का, उसे शुरू करने की प्रेरणा या प्रवर्तक कारण का प्रश्न ही नहीं उठता । क्योंकि तब हम आसानी से यह कल्पना कर सकते हैं कि इस संभाव्यता को अपने-आपको दो में से एक रूप में अनूदित करना होगा, या तो 'काल' में विश्राम और गति के बारी-बारी से आनेवाले छंद के रूप में या अक्षर सत् में 'शक्ति' के ऐसे शाश्वत आत्म-संहरण में जहां समुद्र की सतह पर उठती और गिरती लहरों की तरह गति, परिवर्तन और साथ-साथ रूपायन की सतही क्रीड़ा भी चलती हो । हम अपर्याप्त रूपकों में बोलने के लिये बाधित हैं, हो सकता है कि सतह पर होनेवाली यह क्रीड़ा और आत्म-संहरण समकालीन हों और स्वयं क्रीड़ा भी शाश्वत हो, यह भी हो सकता है कि उसका काल में आदि और अंत होता हो और एक तरह के सतत छंद द्वारा उसका पुनः आरंभ होता हो । तब यह सातत्य में नहीं, पुनरावृत्ति में शाश्वत होती है ।

 

    इस तरह 'कैसे' की समस्या के निकल जाने पर 'क्यों' का प्रश्न उठता है । शक्ति की गति की क्रीड़ा की यह संभावना भला अपने-आपको अनूदित ही क्यों करे ? सत् की शक्ति हमेशा अपने अंदर ही शाश्वत रूप से केंद्रित, सब परिवर्तनों और रूपायनों से मुक्त, असीम क्यों न रहे ? अगर हम यह मान लें कि सत् अचेतन है और चेतना केवल भौतिक ऊर्जा का विकास मात्र है जिसे हम भूल से अभौतिक मान बैठते हैं, तो यह प्रश्न भी नहीं उठता । क्योंकि तब हम आसानी से कह सकते हैं कि यह छंद तो सत्ता की शक्ति का स्वभाव ही है और जो स्वभाव से, शाश्वत रूप से स्वयंभू हो उसके लिये क्यों, किस कारण, मूल प्रेरणा, अंतिम प्रयोजन ढूंढ़ना एकदम बेकार है । हम शाश्वत स्वयंभू से यह प्रश्न नहीं कर सकते

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कि उसका अस्तित्व क्यों है, वह कैसे अस्तित्व में आया । न हम सत्ता की आत्म-शक्ति से और न गति की ओर प्रेरित करनेवाले उसके अंतर्निहित स्वभाव से यह प्रश्न कर सकते हैं । हम केवल उसकी आत्माभिव्यक्ति की रीति, उसकी गति और रूपायन के सिद्धांतों तथा विकासक्रम की प्रक्रिया के बारे में जांच कर सकते हैं । जब सत्ता और शक्ति दोनों तामसिक हैं --तामसिक स्थिति और तामसिक प्रेरणा--दोनों अचेतन और अबौद्धिक हैं तो विकास-क्रम का कोई उद्देश्य या अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता और न कोई आदि कारण या प्रयोजन ही हो सकता है ।

 

    लेकिन अगर हम सत् को सचेतन सत्ता मानें या पायें तो समस्या उठ खड़ी होती है । वस्तुतः हम एक ऐसी सचेतन सत्ता मान सकते हैं जो अपनी शक्ति के स्वभाव के आधीन है, उसके द्वारा बाधित है, जिसके आगे यह विकल्प नहीं है कि वह विश्व में अभिव्यक्त या अनभिव्यक्त रहे । तांत्रिकों और मायावादियों का विश्वेश्वर ऐसा ही है, वह शक्ति या माया के आधीन है, पुरुष माया में आवेष्टित है या शक्ति द्वारा नियंत्रित है । परंतु यह स्पष्ट है कि ऐसा भगवान् अनंत परम सत् नहीं है जिसे लेकर हम चले थे । यह मानना होगा कि यह शक्ति ब्रह्म द्वारा विश्व में उस ब्रह्म का ही केवल एक रूपायन है जो स्वयं युक्तिसंगत रूप से शक्ति या माया का पूर्ववर्ती है और जब वह अपना काम समाप्त कर लेती है तो वह उसे अपनी परात्पर अवस्था में वापिस ले लेता है । एक ऐसे सचेतन सत् में जो निरपेक्ष है, अपने रूपायनों से स्वतंत्र हैं, अपने कार्यों द्वारा निर्धार्रित नहीं है, हमें यह मानना होगा कि उसे अपनी गति की संभाव्यता को व्यक्त करने या न करने की एक अंतर्निहित स्वाधीनता होगी । प्रकृति द्वारा बाधित रहनेवाला ब्रह्म ब्रह्म नहीं है बल्कि एक जड़ अनंत है जिसमें एक सक्रिय तत्त्व समाया रहता है जो समानेवाले से बढ़कर सशक्त है, शक्ति का एक सचेतन धारक है जिसपर उसकी शक्ति का ही स्वामित्व रहता है । यदि हम कहें कि वह अपने ही शक्ति रूप से बाधित रहता है, अपनी ही प्रकृति से बाधित रहता है तो भी हम प्रत्याख्यान से पिंड नहीं छुड़ा पाते, अपनी प्रथम अभिधारणा से कतराते हैं । हम एक ऐसे सत् पर वापिस जा पहुंचते हैं जो वस्तुत: शक्ति के सिवा कुछ नहीं है, फिर वह शक्ति चाहे विश्राम की अवस्था में हो या गति की । वह निरपेक्ष शक्ति भले हो पर निरपेक्ष सत्ता नहीं है ।

 

    तो शक्ति और चेतना के आपसी संबंध की जांच करना जरूरी है । लेकिन चेतना से हमारा मतलब क्या है ? साधारणतः हम मनुष्य के मन की उस जाग्रत् चेतना को चेतना कहते हैं जो उसके शारीरिक जीवन के मुख्य भाग में उस समय होती है जब वह सोया दुआ, मूर्च्छित या किसी और कारण से संवेदन के स्थूल और बाहरी साधनों से वंचित नहीं होता । यह स्पष्ट है कि भौतिक जगत् की व्यवस्था में इस अर्थ में चेतना एक नियम नहीं, अपवाद है । वह हमेशा हमारे

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अधिकार में नहीं रहती । लेकिन चेतना के स्वरूप के बारे में हमारे इस गंवारू और छिछले भाव को, यद्यपि इसका रंग अभीतक हमारे सामान्य विचारों और संस्कारों पर दिखलायी देता है, अब निश्चित रूप से दार्शनिक विचार से गायब हो जाना चाहिये । क्योंकि हम जानते हैं कि जब हम सोये हुए हों, स्तब्ध हों या स्वापक द्रव्यों के प्रभाव में हों या मूर्च्छा में हों यानी हमारी शारीरिक सत्ता की जितनी भी प्रत्यक्ष रूप में अचेतन अवस्थाएं हैं उन सभी में हमारे अंदर कोई चीज सचेतन होती है । इतना ही नहीं, हम इस बारे में भी निश्चित हो सकते हैं कि प्राचीन मनीषियों की यह घोषणा ठीक थी कि अपनी जाग्रत् अवस्था में भी, जिसे हम अपनी चेतना कहते हैं, वह हमारी समग्र सचेतन सत्ता का केवल एक छोटा-सा चयन होती है । यह एक ऊपरी सतह है । हमारी संपूर्ण मानसता भी नहीं । इसके पीछे, इससे कहीं अधिक विशाल एक अंतर्लीन या अवचेतन मन है जो हमारे 'स्व' का अधिक बड़ा भाग है और उसमें ऐसी ऊंचाइयां और गहराइयां हैं जिन्हें अभीतक किसी मनुष्य ने नहीं मापा हैं, उसकी थाह नहीं ली है । यह ज्ञान हमें शक्ति और उसकी क्रियाओं के सच्चे विज्ञान के लिये एक आरंभबिंदु देता है । वह हमें निश्चित रूप से भौतिक के परिसीमन और प्रत्यक्ष के भ्रम से मुक्त करता है ।

 

    वस्तुत: जड़वाद यह आग्रह करता है कि चेतना का चाहे जितना विस्तार क्यों न हो वह एक भौतिक प्रपंच ही है जिसे इन्द्रियों से अलग नहीं किया जा सकता और चेतना इन्द्रियों का उपयोग करनेवाली न होकर उनका परिणाम है । फिर भी यह कट्टरपंथी मान्यता बढ़ते हुए ज्ञान के ज्वार के आगे नहीं टिक सकती । उसकी व्याख्याएं अधिकाधिक अपर्याप्त और अस्वाभाविक होती जा रही हैं । यह बात सदा स्पष्ट से स्पष्टतर होती जा रही है कि हमारी समग्र चेतना की क्षमता हमारे अंगों, हमारी इन्द्रियों, स्नायुओं, मस्तिष्क की क्षमता से बहुत अधिक बढ़कर है, इतना ही नहीं, हमारे सामान्य विचार और चेतना के लिये भी ये अंग केवल अभ्यासगत यंत्र हैं उनके पैदा करनेवाले नहीं । चेतना मस्तिष्क का उपयोग करती ह, उसके ऊर्ध्वमुखी प्रयासों ने ही मस्तिष्क को पैदा किया है । मस्तिष्क ने न तो चेतना को पैदा किया है न वह उसका उपयोग करता है । ऐसे असामान्य दृष्टांत भी हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि हमारे अंग एकदम अनिवार्य उपकरण नहीं हैं, --कि हृदय की धड़कनें जीवन के लिये एकदम अनिवार्य नहीं हैं उसी तरह जैसे श्वासोच्छूवास अनिवार्य नहीं है और न संगठित मस्तिष्क-कोष विचार के लिये अनिवार्य है । जिस तरह इंजन का निर्माण बिजली या भाप की चालक शक्ति का कारण या उसकी व्याख्या नहीं हो सकता उसी तरह हमारे शारीरिक अवयव विचार और चेतना के कारण नहीं हों सकते, न उसकी व्याख्या कर सकते हैं । शक्ति पूर्ववर्ती है, भौतिक यंत्र नहीं ।

 

    इसके पीछे-पीछे अनेक महत्त्वपूर्ण तर्कसंगत परिणाम आते हैं । पहले स्थान पर

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हम यह पूछ सकते हैं कि जहां हम निर्जीवता और जड़ता देखते हैं वहां भी मानसिक चेतना का अस्तित्व रहता है तो क्या यह संभव नहीं है कि जड़ पदार्थों में भी एक वैश्व अवचेतन मन उपस्थित हो, भले वह अवयवों के अभाव में उसकी सतह पर कोई क्रिया या उसकी सतह के साथ कोई संपर्क स्थापित न कर सके । क्या जड़ अवस्था चेतना की रिक्तता है या क्या वह चेतना की निद्रामात्र नहीं है--चाहे क्रमविकास की दृष्टि से वह मध्यवर्ती नहीं, आदि निद्रा हों । और मानव दृष्टांत हमें बतलाता है कि निद्रा से हमारा मतलब चेतना का स्थगित होना नहीं बल्कि बाहरी चीजों के आघात से सचेतन भौतिक प्रत्युत्तर से विमुख होकर उसका भीतर की ओर एकत्र होना है । तो क्या वह सारी सत्ता ऐसी ही नहीं है जिसने अभीतक बाहरी भौतिक जगत् के साथ बाहरी संचार के साधन विकसित नहीं किये हैं ? क्या वहां एक 'सचेतन-अंतरात्मा', एक 'पुरुष' नहीं है जो हमेशा जागता रहता है, उन सबमें भी जो सोये रहते हैं ।

 

    हम आगे जा सकते हैं । जब हम अवचेतन मन की बात करते हैं तो इस शब्द से हमारा मतलब किसी ऐसी चीज से होना चाहिये जो बाहरी मानसिकता से भिन्न नहीं है, बस वह सतह के नीचे, जो जाग्रत् मनुष्य के लिये अज्ञात है, क्रिया करती है, शायद उसी अर्थ में वह ज्यादा गहराई और ज्यादा विस्तार में जाती है । लेकिन अंतर्लीन आत्मा के व्यापार किसी भी ऐसी परिभाषा की सीमा से बहुत आगे निकल जाते हैं । उसमें ऐसी क्रिया भी आ जाती है जो क्षमता के हिसाब से न केवल बहुत अधिक श्रेष्ठ है बल्कि हम जिसे जाग्रत् अवस्था में अपनी मानसिकता कहते हैं उससे बहुत भिन्न भी है । अतः हमें यह मानने का अधिकार है कि हमारे अंदर अवचेतना के साथ-ही-साथ एक अतिचेतना है, चेतन क्षमताओं का एक सोपान है और इस कारण चेतना का एक ऐसा संगठन है जो उस मनोवैज्ञानिक स्तर से बहुत ऊंचा उठता है जिसे हम मानसिकता का नाम देते हैं । और चूंकि हमारे अंदर की अंतर्लीन सत्ता मन से ऊपर अतिचेतन में उठती है तो क्या वह मानसिकता के नीचे अवचेतना में भी डुबकी न लगाती होगी ? क्या हमारे अंदर और जगत् में चेतना के ऐसे रूप नहीं हैं जो अवमानसिक हैं, जिन्हें हम प्राणिक और भौतिक चेतना का नाम दे सकते हैं । अगर ऐसा है तो हमें यह मानना चाहिये कि वनस्पति और धातु में भी एक शक्ति है जिसे हम चेतना का नाम दे सकते हैं यद्यपि वह मनुष्य या पशु की मानसिकता नहीं है जिसके लिये हमने अभीतक चेतना की यह परिभाषा सुरक्षित रख छोड़ी हैं ।

 

    यह केवल संभाव्य ही नहीं है बल्कि, अगर हम चीजों को निष्पक्ष रूप से देखें तो, निश्चित है । हमारे अंदर इस प्रकार की प्राणिक चेतना है जो शरीर के कोषाणुओं में और स्वचालित प्राणिक क्रियाओं में काम करती है जिसके कारण हम उद्देश्यपूर्ण गतियों में से गुजरते हैं और उन आकर्षणों-विकर्षणों के अधीन होते हैं

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जो हमारे मन के लिये अजनबी होते हैं । पशुओं में यह प्राणिक चेतना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण चीज होती है । वनस्पतियों में यह अंतर्भासात्मक रूप में स्पष्ट होती है । वनस्पति की ललक और सिकुड़न, उसके सुख-दुःख, उसकी नींद और जागती हुई अवस्था और वह विचित्र जीवन जिसकी सचाई को एक भारतीय वैज्ञानिक कठोर वैज्ञानिक पद्धति से प्रकाश में लाया है, ये सब चेतना की गतिविधियां हैं, परंतु जहांतक हम देख सकते हैं, मन की गतियां नहीं हैं । तो फिर एक अव-मानसिक, एक प्राणिक चेतना है जिसकी मौलिक प्रतिक्रियाएं ठीक वैसी हैं जैसी मन की होती हैं परंतु वह आत्मानुभूति के संघटन में भिन्न होती हैं जैसे जो अतिचेतन है वह स्वानुभूति के संधटन में मानसिक सत्ता से भिन्न है ।

 

    क्या उस चीज का सोपान जिसे हम चेतना कह सकते हैं वनस्पति के साथ ही समाप्त हो जाता है, उसके साथ जिसमें हम अव-पाशविक जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं ? अगर ऐसा है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि जीवन और चेतना की शक्ति जड़ तत्त्व से मूलतः विजातीय है फिर भी उसने जड़ तत्त्व में प्रवेश करके उसपर कब्जा कर लिया है --हो सकता है कि वह किसी और लोक से आयी हो । क्योंकि अन्यथा वह और कहां से आ सकती है ? प्राचीन विचारक ऐसे अन्य लोकों के अस्तित्व में विश्वास करते थे जो शायद हमारे जगत् में प्राण और चेतना का पोषण करते हैं या अपने दबाव से उन्हें अभिव्यक्त भी करते हैं, किंतु अपने प्रवेश द्वारा उनकी रचना नहीं करते । जड़ तत्त्व से ऐसी कोई चीज प्रकट नहीं की जा सकती जो पहले से ही उसमें समायी हुई न हो ।

 

    लेकिन यह मानने का कोई कारण नहीं है कि प्राण और चेतना का सप्तक वहीं जाकर समाप्त या परिसीमित हों जाता है जो हमें शुद्ध रूप से भौतिक मालूम होता है । आधुनिक शोध-कार्य और आधुनिक विचार का विकास इधर इशारा करता मालूम होता है कि धातुओं में और धरती में और अन्य 'अचेतन' रूपों में एक प्रकार के अस्पष्ट जीवन का आरंभ और शायद एक प्रकार की निष्क्रिय और दबी हुई चेतना है अथवा जो चीज हममें आकर चेतना का रूप लेती है उसका कम-से-कम प्रथम उपादान उनमें हो सकता है । जब कि वनस्पति में हम उस चीज को धुंधले रूप में पहचान सकते या उसकी कल्पना कर सकते हैं जिसे मैं प्राणिक चेतना कहता हूं तो जड़ पदार्थ की या निर्जीव चीज की चेतना को समझना और उसकी कल्पना करना हमारे लिये निश्चिय ही कठिन है और हम अपना अधिकार समझते हैं कि हमारे लिये जिस चीज को समझना या जिसकी कल्पना करना कठिन हो उसे

 

    आजकल एक विचित्र-सी कल्पना फैली हुई है कि धरती पर प्राण किसी अन्य लोक से नहीं, किसी अन्य ग्रह से आया है । विचारक के लिये इसका कोई अर्थ नेही होता । मूल प्रश्न यह है कि जड़ तत्त्व में प्राण आता ही कैसे है, यह नहीं कि वह किसी ग्रह-विशेष के जड़ तत्त्व में कैसे प्रविष्ट होता है ।

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नकार दें । फिर भी जब हम इतनी गहराइयों तक चेतना का अनुसरण करते आये हैं तो यह विश्वास करना मुश्किल है कि प्रकृति में अचानक इतनी बड़ी खाई आ जाये । विचार को यह अधिकार है कि वह ऐसी अवस्था में वहां एकता को मान ले जहां प्रपंच की सभी श्रेणियां उस एकता को स्वीकार करती हों और केवल एक श्रेणी ऐसी हों जो उसे नकारती तो नहीं, पर उसमें यह औरोंसे अधिक छिपी हुई हो । और अगर हम यह मानें कि यह एकता अविच्छिन्न है तो हम इस बात पर आ पहुंचते हैं कि जगत् में काम करनेवाली शक्ति के जितने भी रूप हैं उन सबमें चेतना का अस्तित्व है । चाहे सभी रूपों में सचेतन या अतिचेतन पुरुष का निवास न भी हो फिर भी उन रूपों में सत्ता की सचेतन शक्ति विद्यमान रहती है जिसमें उनके बाहरी अंग भी प्रत्यक्ष या निष्क्रिय रूप में भाग लेते हैं ।

 

    लेकिन इस दृष्टि में निश्चय ही चेतना शब्द का अर्थ ही बदल जाता है । वह मानसिकता का पर्याय नहीं रह जाता । वह सत्ता की आत्म-अभिज्ञ (चित्) शक्ति का द्योतक है जिसका मध्यपर्व है मन । मन के नीचे वह प्राणिक और भौतिक गतियों में डूब जाता है जो हमारे लिये अवचेतन हैं । ऊपर की ओर वह अतिमानस में उठता है जो हमारे लिये अतिचेतन है । परंतु सबमें यह एक और समान चीज है जो अपने-आपको अलग-अलग तरह से संगठित करती है । यह फिर, भारत की 'चित्' की अवधारणा है जो ऊर्जा के रूप में जगतों का निर्माण करती है । सारतः हम उसी एकत्व पर आ पहुंचते हैं जिसे भौतिक विज्ञान दूसरे छोर से देखकर यह दावा करता है कि मन जड़ तत्त्व के सिवा कोई और शक्ति नहीं हो सकता, उसे भौतिक ऊर्जा का विकास और परिणाम होना चाहिये । दूसरी ओर अपनी अधिक-से-अधिक गहराई में भारतीय विचार यह प्रतिपादित करता है कि मन और जड़ तत्त्व एक ही ऊर्जा की भिन्न-भिन्न श्रेणियां हैं, सत् की एक ही सचेतन शक्ति के भिन्न-भिन्न संगठन हैं ।

 

    लेकिन हमें यह मान लेने का क्या अधिकार है कि चेतना शब्द इस शक्ति का ठीक-ठीक वर्णन करता है । क्योंकि चेतना में, एक प्रकार की बुद्धि, प्रयोजन, आत्मज्ञान समाविष्ट है चाहे वे ऐसे रूप में न हों जिनका हमारा मन अभ्यस्त है । इस दृष्टिकोण से भी हर चीज वैश्व चित्-शक्ति के विचार का विरोध न करके समर्थन ही करती है । उदाहरण के लिये हम पशु में पूर्ण प्रयोजनशीलता की और यथार्थ और वस्तुतः वैज्ञानिक सूक्ष्म ज्ञान की क्रियाएं देखते हैं जो पशु के मन की क्षमताओं के एकदम परे हैं और जिन्हें स्वयं मनुष्य भी लंबे अनुशीलन और शिक्षण के बाद पा सकता है और फिर भी अपेक्षाकृत बहुत कम निश्चित शीघ्रता के साथ उनका प्रयोग कर सकता है । इस सामान्य तथ्य में इस बात का प्रमाण हमें देखने को मिलता है कि पशु और कीट में एक ऐसी चित् शक्ति काम करती है जो धरती पर किसी भी रूप में अभिव्यक्त उच्चतम मन की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान्,

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प्रयोजनशील, और अपने अभिप्रायों, लक्ष्यों, साधनों और अवस्थाओं से अधिक परिचित है । और अचेतन प्रकृति की क्रियाओं में भी हम एक परम प्रच्छन्न बुद्धि की, अपनी ही क्रियाओं में छिपी बुद्धि की - 'स्वगुणैर्निगूढाम्' --उसी व्यापक विशिष्टता को पाते हैं ।

 

    इस प्रयोजनशील कार्य के लिये, इस बुद्धिमत्ता, चयन, अनुकूलन और अन्वेषण के कार्य के लिये किसी सचेतन और प्रज्ञावान् उत्स को मानने के विरुद्ध जो एक ही युक्ति है वह है प्रकृति के कार्य में पाया जानेवाला वह बड़ा तत्त्व जिसे हम अपव्यय कहते हैं । लेकिन स्पष्ट है कि यह एक ऐसी आपत्ति है जो हमारी मानव बुद्धि की सीमाओं पर आधारित है जो वैश्व शक्ति की व्यापक क्रियाओं पर अपनी विशेष तर्कणा को लादना चाहती है, जो मानव के सीमित उद्देश्यों के लिये काफी अच्छी हो सकती है । हम प्रकृति के प्रयोजन का केवल एक भाग ही देखते हैं और जो कुछ उस भाग में उपयोगी नहीं होता उसे हम अपव्यय कहते हैं । फिर भी स्वयं हमारा मानव कार्य ऊपर से दीखनेवाले अपव्यय से भरा होता है, व्यक्तिगत दृष्टि से तो ऐसा ही लगता है, फिर भी, हमें विश्वास रखना चाहिये कि वह वस्तुओं के महान् वैश्व प्रयोजन में काफी अच्छी तरह सहायक होता है । प्रकृति के इरादे के उस भाग को जिसे हम पकड़ पाते हैं, प्रकृति अपने प्रतीयमान अपव्यय के बावजूद या शायद उसीके बल पर निश्चित रूप से पूरा कर लेती है । तो बाकी में भी जिसे अभी हम पकड़ नहीं पाते उसपर भरोसा कर सकते हैं ।

 

    बाकी के लिये, पशु वनस्पति और निर्जीव वस्तुओं में विश्व-शक्ति की क्रियाओं के लक्षणों में निश्चित प्रयोजन का जो वेग है, उसकी प्रतीयमान अंध प्रवृत्ति में जो निर्देशन है, अभिप्रेत लक्ष्य पर तुरंत या अंततः पहुंचने की जो निश्चित क्रिया है, उसकी उपेक्षा करना असंभव है । जबतक वैज्ञानिक मन के लिये जड़-तत्त्व ही अथ और इति था तबतक बुद्धि को बुद्धि की जन्मदात्री मानने से झिझक एक ईमानदार झिझक थी । लेकिन आज यह प्रतिपादित करना एक घिसा पिटा विरोधाभास होगा कि मानव चेतना, बुद्धि और प्रभुता एक ऐसी बुद्धिहीन और अंधता से परिचालित निश्चेतना से प्रकट हुई हैं जिसमें पहले उनके किसी रूप या तत्त्व का अस्तित्व नहीं था । मनुष्य की चेतना प्रकृति की चेतना के एक रूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं हों सकती । वह मन के नीचे अन्य अंतर्लीन रूपों में है, वह मन में उभरती है और मन से परे श्रेष्ठतर रूपों में चढ़ेगी, क्योंकि जो शक्ति जगतों का निर्माण करती है वह सचेतन शक्ति है, जो सत् अपने-आपको उनमें अभिव्यक्त करता है वह सचेतन पुरुष है । उसका रूपों के इस जगत् की अभिव्यक्ति का एकमात्र उद्देश्य जो हम युक्तियुक्त रूप से सोच सकते हैं वह है उसकी संभाव्यताओं का रूपों में पूर्ण आविर्भाव ।

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अध्याय ११

 

सत्ता का आनंद --समस्या

 

           को ह्येवान्यात्क.. प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ।

 

           यदि अस्तित्व का आनंद उस आकाश जैसा न होता जिसमें हम निवास करते हैं तो कौन जी सकता या श्वास ले सकता ?

                                                                                               तैत्तिरीयोपनिषद् २.७

 

           आनन्दाइध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवत्ति आनन्द प्रयन्त्यभिसंविशत्तीति ||

 

           ये सभी भूत 'आनंद' से ही पैदा होते हैं, 'आनंद' में ही निवास करते हैं और बढ़ते हैं और 'आनंद' में ही लौट जाते हैं ।

                                                                                           तैत्तिरीयोपनिषद ३.६

 

किंतु यदि हम यह मान भी लें कि यह शुद्ध सत्ता, यह ब्रह्म, यह सत् वस्तुओं का निरपेक्ष आदि, अंत और आधान है और ब्रह्म में एक अंतर्निहित आत्म-चेतना है जिसे उसकी सत्ता से अलग नहीं किया जा सकता और वह अपने-आपको ऐसी चेतना की गति की शक्ति के रूप में प्रक्षिप्त करता है जो शक्तियों, रूपों और जगतों का निर्माण करनेवाली है, फिर भी हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है कि ''ब्रह्म जो पूर्ण निरपेक्ष, अनंत है, जिसे किसी चीज की जरूरत नहीं, कोई कामना नहीं वह अपने अंदर रूपों के इन जगती का निर्माण करने के लिये चेतना की शक्ति को आखिर क्यों प्रक्षिप्त करता है ?'' क्योंकि हमनें इस समाधान को तो एक ओर रख दिया है कि वह अपनी शक्ति के स्वभाव से सृजन करने के लिये बाधित है, अपनी गति और रूपायन की शक्यताओं के कारण रूपों में विचरने के लिये विवश है । यह सच है कि उसमें यह शक्यता है लेकिन वह उससे सीमित, बाधित या विवश नहीं है । वह स्वतंत्र है । तब यदि गति करने और सदा स्थिर रहने, अपने-आपको रूपों में प्रक्षिप्त करने और रूपायन की शक्यता को अपने अंदर ही बनाये रखने के लिये स्वतंत्र होते हुए भी वह अपनी गति और रूपायन की शक्ति में रस लेता है तो इसका बस, एक ही कारण हो सकता है--वह है आनंद ।

 

    यह प्राथमिक, अंतिम और शाश्वत सत् जैसा कि वेदांतियों ने उसे देखा है एक कोरी सत्ता नहीं है और न ही एक ऐसी सचेतन सत्ता, जिसकी चेतना अनगढ़ शक्ति या बल हो । वह ऐसा सचेतन सत् है जिसकी सत्ता की अभिधा, जिसकी चेतना की अभिधा ही आनंद है । जैसे निरपेक्ष सत् में कोई शून्यता, कोई निश्चेतना की

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रात्रि, कोई त्रुटि नहीं हों सकती, यानी शक्ति की चूक या उसका अभाव नहीं हो सकता--क्योंकि इनमें से कोई एक चीज भी हो तो वह निरपेक्ष या परम न रहेगा--इसी तरह कोई दुःख-दर्द या आनंद का नकार भी नहीं हो सकता । सचेतन सत् की निरपेक्षता सचेतन सत् का असीम आनंद है, ये दोनों एक ही चीज के अलग-अलग नाम हैं । समस्त असीमता, समस्त अनंतता, समस्त निरपेक्षता शुद्ध आनंद है । हमारी सापेक्ष मानवजाति को भी यह अनुभव है कि सारे असंतोष का अर्थ है सीमा का, एक बाधा का होना, --संतोष प्राप्त होता है किसी रोक रखी गयी चीज के प्राप्त होने से, सीमा के अतिक्रमण और बाधा पर विजय से । यह इसलिये है कि हमारी मौलिक सत्ता निरपेक्ष है जिसे अपनी अनंत और असीम आत्म-चेतना और आत्म-शक्ति पर पूरा अधिकार है । इस आत्मवत्ता का ही दूसरा नाम है आत्मानंद । और जिस अनुपात में सापेक्ष आत्मवत्ता के नजदीक आता है, वह संतोष की ओर बढ़ता और आनंद को छू लेता है ।

 

    फिर भी ब्रह्म का आत्मानंद उसकी निरपेक्ष आत्म-सत्ता की स्थिर और गतिहीन स्थिति से सीमित नहीं है । जैसे उसकी चेतना की शक्ति अपने-आपको अनंत परिवर्तनों के साथ अनंत रूपों में प्रक्षिप्त करने में समर्थ है उसी तरह उसका आत्मानंद भी अपने उस अनंत प्रवाह और परिवर्तन में गति करने, वैचित्र्य और आह्लाद पाने में समर्थ है जिसके प्रतिरूप हैं ये असंख्यासंख्य विश्व । अपने आत्मानंद की अनंत गतियों और वैचित्र्यों को खुली छूट देना और उनका रस लेना ही उसकी विस्तृत या सर्जक लीला का उद्देश्य है ।

 

    दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने अपने-आपको रूपों में प्रक्षिप्त किया है वह सत् चित् और आनंद की त्रयी सच्चिदानंद है जिसकी चेतना स्वभाव से सर्जक या यूं कहें आत्माभिव्यक्ति करनेवाली शक्ति है जो अपनी आत्मसचेतन सत्ता के व्यापारों और रूपों में अनंत वैचित्र्यों लाने और उन वैचित्र्यों के आनंद का अनंत रूपों में भोग करने में समर्थ है । इसका मतलब यह हुआ कि जितनी चीजों का अस्तित्व है, वे जो कुछ भी हैं वे उसी सत् से अपनी सत्ता पाती हैं, उसी सचेतन शक्ति से चेतना पाती हैं और उसीसे सत्ता का आनंद पाती हैं । जैसे हम सभी चीजों को एक ही अक्षर सत्ता के क्षर रूप, एक ही अनंत शक्ति के सांत परिणाम पाते हैं उसी भांति हम देखेंगे कि सभी चीजें आत्म-सत्ता के एक ही अपरिवर्तनशील और सर्वग्राही आनंद की परिवर्तनशील आत्माभिव्यक्तियां हैं । हर चीज में, जिसका अस्तित्व है, एक सचेतन शक्ति निवास करती है । उसका अस्तित्व और वह जो कुछ है वह सब उस सचेतन शक्ति के बल पर ही है । इसी तरह जो भी चीज यहां है उसमें सत्ता का आनंद विराजता है और उसका अस्तित्व और वह जो कुछ है वह उस आनंद के बल पर ही है ।

 

    विश्व के आरंभ के बोर में प्राचीन वेदांत के इस मत का सामना मानव मन में

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दो प्रबल नकारों से होता है, दुःख की भावमय और संवेदनात्मक चेतना और अशुभ की नैतिक समस्या । क्योंकि अगर जगत् सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति है, केवल सत् की नहीं जो साथ-ही-साथ चित्-शक्ति भी है --इतना तो आसानी से माना जा सकता है, --वरन् ऐसे सत् की जो अनंत आत्मानंद भीं है तो फिर विश्व भर में उपस्थित दुःख, कष्ट और पीड़ा की व्याख्या कैसे की जाये ? क्योंकि हमें तो यह जगत् सत्ता के आनंद का जगत् नहीं बल्कि कहीं अधिक दुःख का जगत् मालूम होता है । निश्चय ही जगत् के बारे में यह दृष्टि अतिशयोक्तिपूर्ण और भ्रामक है । अगर हम उसे तटस्थ होकर देखें और केवल यथार्थ और भावुकताहीन मूल्यांकन के लिये देखें तो हम पायेंगे कि अस्तित्व के सुख का कुल--योग--आभास और व्यक्तिगत उदाहरणों के बावजूद--अस्तित्व के दुःख के कुल-योग से बहुत बढ़-चढ़कर है । और यह कि सक्रिय हो या निष्क्रिय उपरितल पर हो या अधःस्थ, सत्ता का यह सुख ही प्रकृति की साधारण अवस्था है और दुःख एक विपरीत घटना है जो उस साधारण को कुछ समय के लिये स्थगित कर देती है या उसपर छा जाती है । लेकिन इसी कारण दुःख का न्यूनतर कुलयोग हमारे ऊपर ज्यादा तीव्रता से असर डालता है और प्रायः सुख के अधिक बड़े कुलयोग के ऊपर मंडराता रहता है । ठीक इसी कारण कि सुख सामान्य है हम उसका मूल्य नहीं समझते और मुश्किल से ही उसे देख पाते हैं जबतक कि वह अपने अधिक तीव्र रूप में, सुख की लहरों या हर्ष और उल्लास के शिखर पर नहीं आ जाता । हम इन्हीं चीजों को आनंद कहते हैं और उसीकी खोज करते हैं और सत्ता का सामान्य संतोष जो किसी घटना या विशिष्ट कारण या पदार्थ के बिना भी सदा वहां बना रहता है हमें इस भांति प्रभावित करता है मानों वह कोई तटस्थ वस्तु हो जो न सुख है न दुःख । यह वहां बना रहता है, यह एक बड़ा व्यावहारिक तथ्य है क्योंकि इसके बिना आत्म-संरक्षण की प्रबल वैश्व सहज वृत्ति नहीं होगी, किंतु हम इसकी खोज में नहीं हैं अतः हम इसे अपने भावुक और संवेदनात्मक लाभ-हानि के हिसाब में नहीं गिनते । इस हिसाब में हम एक ओर केवल निश्चित सुखों को रखते हैं और दूसरी ओर असुविधा और कष्ट को । पीड़ा हमें ज्यादा तीव्र रूप से प्रभावित करती है क्योंकि वह हमारी सत्ता के लिये अस्वाभाविक है, हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत है और उसका अनुभव हमारी सत्ता पर एक आघात के रूप में, हम जो कुछ हैं और होना चाहते हैं उसपर एक हमले और बाहरी आक्रमण के रूप में होता है ।

 

    फिर भी दुःख की असामान्यता या उसके न्यूनाधिक कुलयोग का दार्शनिक प्रश्न पर कोई असर नहीं पड़ता । उसकी उपस्थितिमात्र ही समस्या को खड़ा कर देती है । जब कि सब कुछ सच्चिदानंद है तो फिर दुःख-दर्द का अस्तित्व ही कैसे हो सकता है ? यही है वास्तविक समस्या । यह प्रायः और भी उलझ जाती है जब विश्व के

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बाहर एक व्यक्तिगत भगवान् की धारणा को लेकर एक मिथ्या प्रश्न उठ खड़ा होता है और नैतिक कठिनाई के रूप में एक दूसरा आंशिक प्रश्न सामने आता है ।

 

    यह तर्क किया जा सकता है कि सच्चिदानंद भगवान् है, एक सचेतन सत्ता है जो विश्व का निर्माता है । तो फिर भगवान् ने ऐसा जगत् कैसे बनाया जिसमें वह अपने ही बनाये हुए प्राणियों पर दुःख दागते हैं, कष्ट का समर्थन करते हैं और अशुभ को स्वीकृति देते हैं ? भगवान् सर्व-शिव हैं तो फिर दुःख और अशुभ की रचना किसने की ? अगर हम कहें कि दुःख एक कसौटी या अग्नि--परीक्षा है तो हम नैतिक समस्या का हल नहीं करते, हम एक अनैतिक या निर्नैतिक भगवान् पर आ पहुंचते हैं जो शायद एक अच्छा जगत्-कारीगर तो है, चालाक मनोवैज्ञानिक भी है परंतु शुभ और प्रेम का भगवान् नहीं है जिसकी हम पूजा कर सकें, वह केवल शक्ति और सामर्थ्य का भगवान् है जिसके विधान के आगे हमें झुकना ही होगा और जिसकी सनकों को संतुष्ट करने की हम आशा कर सकते हैं । क्योंकि जो जांच या अग्निपरीक्षा के लिये उत्पीड़न का आविष्कार करता है वह या तो जान-बुझकर क्रूरता करने या फिर नैतिक असंवेदनशीलता का अपराधी ठहरता है और अगर वह नैतिक सत्ता है भी तो अपने ही बनाये हुए प्राणियों की उच्चतम नैतिक वृत्ति के हिसाब से नीचा ठहरता है । और अगर इस नैतिक कठिनाई से बचने के लिये हम यह कहें कि दुःख नैतिक अशुभ का अनिवार्य परिणाम और स्वाभाविक दंड है --लेकिन यह एक ऐसी व्याख्या है जो जीवन के तथ्यों के साथ भी तबतक मेल नहीं खाती जबतक कि हम कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को न स्वीकार कर लें जिसके अनुसार जीव अब अपने अन्य शरीरों में किये गये पिछले जन्मों के पापों के लिये कष्ट पाता है --फिर भी हम नैतिक समस्या की जो असली जड़ है उससे पिंड नहीं छुड़ा सकते कि उस नैतिक अशुभ को किसने और क्यों और कहां से बनाया जिसने दुःख और कष्ट के परिणाम को अपरिहार्य बना दिया ? अगर यह देखते हुए कि नैतिक अशुभ वास्तव में किसी मानसिक रोग या अज्ञान का एक रूप है, यह प्रश्न उठता है कि इस विधान या अनिवार्य संबंध को किसने या किस चीज ने बनाया जो एक मानसिक रोग या अज्ञान के कर्म को इतनी भीषण प्रतिक्रिया और ऐसे चरम और दानवी उत्पीड़नों से दंडित करता है ? कर्म का अटल विधान एक परम नैतिक और व्यक्तिगत 'देव' के साथ मेल नहीं खाता इसीलिये बुद्ध के स्पष्ट तर्क ने किसी स्वतंत्र और सर्वशासक व्यक्तिगत भगवान् के अस्तित्व से ही इंकार कर दिया । उन्होंने घोषणा की कि समस्त व्यक्तित्व अज्ञान की सृष्टि और कर्म के आधीन है ।

 

    सचमुच इतने तीक्ष्णा रूप में रखी गयी समस्या केवल तभी उठती है जब हम एक ऐसे व्यक्तिगत भगवान् को मानते हैं जो विश्व से इतर है, स्वयं विश्व नहीं है । एक ऐसा भगवान् जिसने अपने प्राणियों के लिये शुभ और अशुभ, दुःख और कष्ट

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की रचना की लेकिन अपने-आप उनसे ऊपर, अप्रभावित रहता है, जो कष्टपीड़ित, संघर्षरत जगत् को देखता रहता है, उसपर शासन करता और अपनी इच्छा चलाता है । अथवा यदि वह अपनी इच्छा नहीं चलाता या यदि अपनी सहायता के बिना या अपर्याप्त सहायता से जगत् को एक अटल विधान द्वारा परिचालित होने देता है तब वह भगवान् नहीं है, सर्व-शक्तिमान्, सर्व-शिव और सर्व-प्रेममय नहीं है । विश्व से इतर नैतिक भगवान् के आधार पर बना कोई भी मत अशुभ और दुःख-दर्द की --अशुभ और दुःख-दर्द के सृजन की--व्याख्या नहीं कर सकता, सिवाय इसके कि वह इसकी एक ऐसे असंतोषजनक छल से व्याख्या करे जिससे प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर न देकर उससे बचा जाये या फिर स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से मैनिकी मत को मान ले जो ईश्वर के कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने या उन्हें क्षम्य बताने के प्रयास में व्यावहारिक रूप से स्वयं भगवान् को ही रद्द कर देता है । लेकिन ऐसा भगवान् वेदांतियों का सच्चिदानंद नहीं है । वेदांत का सच्चिदानंद तो एकमेवाद्वितीयम् है, जो कुछ भी है वह वही है, सर्वं खल्विदं ब्रह्म । तो फिर यदि अशुभ और दुःख का अस्तित्व है तो स्वयं भगवान्, सभी भूतों के अंदर शरीर धारण करनेवाले भगवान् ही अशुभ और दुःख को धारण करते हैं । तब समस्या एकदम बदल जाती है । अब प्रश्न यह नहीं रहता कि भगवान् ने अपनी सृष्टि के लिये ऐसे दुःख और अशुभ की रचना कैसे की जो उन्हें प्रभावित नहीं करते, जिनसे वे अस्पृष्ट हैं, बल्कि अब प्रश्न यह उठता है कि उस एकमेवाद्वितीयम्, अनंत, सत्-चित्-आनंद ने अपने अदंर ऐसी चीज को कैसे घुसने दिया जो आनंद नहीं है, जो उसका निश्चित रूप से नकार है ।

 

    आधी नैतिक कठिनाई, कठिनाई का वह रूप जिसका उत्तर नहीं दिया जा सकता, गायब हों जाती है । अब वह मुश्किल नहीं उठती, अब उसे पेश नहीं किया जा सकता । दूसरों के साथ क्रूरता जब कि मैं अछूता रहूं या बाद में रो-धोकर या देरी से दया दिखाकर उसमें भाग लूं यह एक चीज है और स्वयं अपने ऊपर दुःख को आरोपित करना दूसरी चीज है जब कि मैं ही एकमात्र सत्ता हूं । फिर भी जरा-से हेर-फेर के साथ नैतिक कठिनाई को वापिस लाया जा सकता है । सर्वानंदमय निश्चित रूप से सर्व-शुभ और सर्व-प्रेममय हैं, फिर सच्चिदानंद में अशुभ और कष्ट रह कैसे सकते हैं जब कि वह कोई यांत्रिक सत्ता नहीं, बल्कि स्वतंत्र और सचेतन सत्ता है जो अशुभ और दुःख को दोषी ठहराने और त्याग देने में भी समर्थ है ? हमें यह मानना होगा कि इस रूप में प्रस्तुत किया गया प्रश्न भी मिथ्या है क्योंकि वह एक आंशिक कथन के शब्दों का उपयोग इस तरह करता है मानों वे संपूर्ग पर लागू होते हों । क्योंकि हम शुभ और प्रेम के जिन विचारों को सर्व-आनंदमय

 

    तीसरी शताब्दी में मैनिकियस ने फारस में यह मत चलाया था कि हर चीज की उत्पत्ति दो प्रधान तत्त्वों, अंधकार और प्रकाश, से हुई है ।

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की धारणा में ले आते हैं वे वस्तुओं की दैतात्मक और विभाजनात्मक धारणा से आये हैं । उनका संपूर्ण आधार है प्राणी और प्राणी के बीच का संबंध, फिर भी हम उन्हें ऐसी समस्या पर हठपूर्वक लागू करते हैं जो इस धारणा से उल्टी, 'एक' को ही सर्व मानकर चलती है । पहले हमें यह देखना होगा कि यह समस्या अपने आदिम शुद्ध रूप में, विभिन्नता में एकता के आधार पर कैसी दीखती है या उसका समाधान कैसे हो सकता है । तभी हम निरापद रूप से उसके अंगों और विकासों के बारे में, उदाहरण के लिये विभाजन और द्वैत पर आधारित प्राणी और प्राणी के बीच संबंधों के बारे में विचार कर सकते हैं ।

 

    अगर हम अपने-आपको मानव कठिनाई और मानव दृष्टिकोण से सीमित न करें बल्कि समग्र को देखें तो हमें मानना होगा कि हम किसी नैतिक जगत् में नहीं रह रहे । सारी प्रकृति पर नैतिक अर्थ आरोपित करने का मानव विचार का प्रयास स्वेच्छा से और हठपूर्वक अपने-आपको भ्रांति में डालनेवाली उन क्रियाओं में से एक है, मनुष्य के उन दयनीय प्रयासों में से एक है जिसमें वह सभी चीजों में अपने-आपको, अपनी सीमित अभ्यासगत सत्ता को पढ़ने की कोशिश करता हैं और उनका मूल्यांकन ऐसे दृष्टिकोण से करता है जिसे स्वयं उसने विकसित किया है और यह बड़े प्रभावकारी ढंग से वास्तविक ज्ञान और संपूर्ण दृष्टितक पहुंचने से उसे रोकता है । भौतिक प्रकृति नैतिक नहीं है । जो नियम उसपर शासन करता है वह ऐसी बंधी हुई निश्चित आदतों का समन्वय है जो शुभ और अशुभ का हिसाब नहीं करता । उसे केवल शक्ति से मतलब है, उस शक्ति से जो सृजन करती है, जो व्यवस्था और संरक्षण करती है, उस शक्ति से जो बिना नैतिक विचार के निष्पक्ष भाव से, अपने अंदर स्थित रहस्यमय 'इच्छा' के अनुसार अस्तव्यस्त करती और नष्ट करती है, अपने रूपायनों और आत्मविघटन में उसी 'इच्छा' की मूक संतुष्टि के अनुसार चलती हैं । पाशविक और प्राणिक प्रकृति भी निर्नैतिक है यद्यपि जैसे-जैसे वह प्रगति करती है, वह उस कच्ची सामग्री को प्रकट करती है जिसमें से उच्चतर पशु नैतिक आवेग को विकसित करता है । हम शेर को इसलिये दोषी नहीं ठहराते कि वह अपने शिकार को मारकर खा जाता है और न ही तूफान को इसलिये दोष देते हैं कि वह विनाश करता है या आग को इसलिये कि वह बहुत कष्ट देती और मार डालती है । तूफान, आग और शेर में जो सचेतन शक्ति है वह अपने-आपको दोष नहीं देती, धिक्कारती नहीं । दोष देना और धिक्कारना, बल्कि यूं कहें अपने-आपको दोष देना और धिक्कारना सच्ची नैतिकता का आरंभ है । जब हम दूसरों को तो बुरा-भला कहते हैं परंतु वही नियम अपने ऊपर लागू नहीं करते तब हम सच्चे नैतिक न्याय की बात नहीं करते; बल्कि हमारे लिये नैतिकता ने जिस भाषा को विकसित किया है, उसका उपयोग हम उन चीजों में अपनी भावुकतापूर्ण जुगुप्सा या नापसंदगी प्रकट करने के लिये करते हैं जो हमें नाराज करती या चोट पहुंचाती हैं ।

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    यह जुगुप्सा या नापसंदगी नैतिकता का प्राथमिक उत्स है परंतु अपने-आपमें नैतिक नहीं है । हरिण को शेर से जो भीति होती है, या किसी बलवान् प्राणी को अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले पर जो क्रोध आता है वह सत्ता के व्यष्टिभूत आनंद की, अपने ऊपर संकट लानेवाले के प्रति प्राणिक जुगुप्सा है । मन की प्रगति में यह अपने-आपको परिष्कृत करके प्रतिकूलता, नापसंद और अस्वीकृति में अनूदित कर लेती है । जो चीज हमें जोखिम में डालती और चोट पहुंचाती है उसके लिये अस्वीकृति और जो चीज हमें प्रसन्न और संतुष्ट करती है उसकी स्वीकृति यह दोनों परिष्कृत होकर हमारे लिये, समाज के लिये, अपने से भिन्न औरों के लिये, अपने समाज से भिन्न समाजों के लिये भले और बुरे के रूप में और अंत में शुभ के लिये सामान्य स्वीकृति और अशुभ के लिये सामान्य अस्वीकृति का रूप ले लेती है । परंतु आद्योपांत इस चीज का आधारभूत स्वभाव वह-का-वही बना रहता है । मनुष्य चाहता है आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विकास, दूसरे शब्दों में कहें तो अपने अंदर सत् की चित्-शक्ति की प्रगति-तत्पर लीला । यह उसका आधारभूत आनंद है । जो कुछ उस आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विकास पर, उसकी प्रगतिशील आत्मा के संतोष पर चोट करता है वही उसके लिये अशुभ होता है, जो कुछ सहायता करता, अनुमोदन करता, ऊपर उठाता, बढ़ाता और उदात्त बनाता है वही उसका शुभ होता है । बस, इतना है कि उसकी आत्म-विकास के बारे में धारणा बदलती जाती है, अधिक ऊंची, अधिक विस्तृत होती जाती है, अपने सीमित व्यक्तित्व का अतिक्रमण करना, औरों को अपने आलिंगन में ले लेना, सभीको अपने क्षेत्र में आलिंगित कर लेना शुरू कर देती है ।

 

    दूसरे शब्दों में, नैतिकता विकासक्रम में एक अवस्था है । जो चीज सभी अवस्थाओं में समान है वह है आत्माभिव्यक्ति के लिये सच्चिदानंद की प्रेरणा । यह प्रेरणा पहले निर्नैतिक होती है, फिर पशु में अवनैतिक होती है, फिर बुद्धिमान् पशु में नैतिकता-विरोधी भी हो जाती है क्योंकि वह हमें दूसरों को ऐसी चोट पहुंचाने की स्वीकृति देती है जो अगर हमारे ऊपर आती तो हम स्वीकृति न देते । इस मामले में मनुष्य अब भी केवल अर्द्ध-नैतिक ही है । और जैसे हमसे नीचे सब कुछ अवनैतिक है, हो सकता है कि जो हमारे ऊपर है, जहां अंतत: हम जा पहुंचेंगे, वह अतिनैतिक हो, --उसमें नैतिकता की जरूरत न रहे । नैतिक प्रेरणा और वृत्ति जो मानवजाति के लिये इतनी महत्त्वपूर्ण है, एक साधन है जिसके द्वारा वह निश्चेतना पर आधारित निम्नतर सामंजस्य और वैश्वात्मकता में से, जिसे प्राण आकर वैयक्तिक असंगतियों के रूप में छिन्न-भिन्न कर देता है, संघर्ष करती हुई एक ऐसे उच्चतर सामंजस्य और वैश्वात्मकता की ओर ले जाती है जो सभी सत्ताओं के साथ सचेतन ऐक्य पर आधारित है । उस लक्ष्य पर पहुंचकर इस साधन की फिर कोई आवश्यकता या कोई शक्यता भी न रह जायेगी, क्योंकि वे गुण और विरोध जिनपर

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यह आधारित है, स्वभावतः अंतिम समन्वय में घुल-मिलकर गायब हो जायेंगे ।

 

    तब फिर अगर नैतिक दृष्टिकोण बहुत महत्त्वपूर्ण फिर भी अस्थायी तौर पर एक विश्वात्मकता से दूसरीतक काम आनेवाला मार्ग ही है तो हम उसका उपयोग विश्व की समस्या के पूर्ण समाधान के लिये नहीं कर सकते बल्कि उसे उस समाधान में एक तत्त्व के रूप में ही मान सकते हैं । इससे उल्टा करना विश्व के सभी तथ्यों को झुठलाने का, एक अस्थायी दृष्टि और वस्तुओं की उपयोगिता की अर्द्धविकसित दृष्टि के अनुकूल बनाने के लिये अपने पीछे और अपने परे विकास के सारे अर्थ को झुठलाने का खतरा मोल लेना होगा । जगत् के तीन स्तर हैं, अवनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक । हमें उसे खोजना है जो तीनों में समान हो क्योंकि तभी हम समस्या का समाधान कर सकेंगे ।

 

    हम देख आये हैं कि जो सबमें समान है वह है सत् की चित्-शक्ति की संतुष्टि जो अपने-आपको रूपों में विकसित कर रही है और उस विकास में अपना आनंद खोज रही है । यह स्पष्ट है कि चित्-शक्ति ने आत्मसत्ता की इस संतुष्टि या आनंद से ही शुरू किया था क्योंकि यही उसके लिये स्वाभाविक है । वह इसीके साथ चिपकी रहती और इसीको वह अपना आधार बनाती है । परंतु वह अपने लिये नये रूपों की खोज करती है और उच्चतर रूपों की ओर जाते हुए रास्ते में दुःख और कष्ट का तत्त्व घुस आता है जो उसकी सत्ता के मौलिक स्वभाव के विपरीत मालूम होता है । यह और केवल यही है मूल समस्या ।

 

    हम इसका समाधान कैसे करें ? क्या हम यह कहें कि चीजों का आदि-अंत सच्चिदानंद नहीं है बल्कि आदि-अंत शून्य है, एक ऐसा तटस्थ शून्य जो अपने-आपमें कुछ नहीं है परंतु अपने अंदर सत् या असत् की, चेतना या निश्चेतना की, आनंद या निरानंद की सभी संभाव्यताओं को समाये हुए है । हम चाहें तो इस उत्तर को स्वीकार कर लें लेकिन इसके द्वारा जहां हम सब कुछ की व्याख्या करना चाहते हैं वहां किसी चीज की भी व्याख्या नहीं कर पाते, बस हर चीज का समावेश भर कर लेते हैं । एक ऐसा शून्य जो सभी संभाव्यताओं से भरा हो, शब्दों और वस्तुओं का यथासंभव अधिक-से-अधिक विरोध है । इस तरह हम एक छोटे-से विरोध की व्याख्या एक बड़े विरोध से करते हैं, वस्तुओं के परस्पर-विरोध को उनकी चरम सीमातक पहुंचा कर करते हैं । शून्य रिक्तता है जिसमें कोई संभाव्यताएं नहीं रहतीं, सभी संभाव्यताओं के तटस्थ अनिर्धारण की स्थिति ही महान् 'अव्यवस्था' है । हमने बस, इतना ही किया कि 'अव्यवस्था' को 'शून्य' में बिठा दिया परंतु यह नहीं समझाया कि वह वहां आयी कैसे । तो हम अपनी सच्चिदानंद की मूल धारणा पर वापिस आयें ओर देखें कि उसके आधार पर अधिक संपूर्ण समाधान संभव है या नहीं ।

 

    पहले हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि जैसे, जब हम वैश्व

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चेतना की बात करते हैं तो हमारा मतलब मनुष्य की जाग्रत् मानसिक चेतना से भिन्न, किसी अधिक सारभूत और अधिक विशाल चीज से होता है, उसी भांति जब हम सत्ता के वैश्व आनंद की बात करते हैं तो हमारा मतलब मानव व्यक्ति के सामान्य भावमय और संवेदनात्मक सुख से भिन्न, अधिक सारभूत और अधिक विशाल चीज से होता है । सुख, हर्ष और आनंद, मनुष्य जिस रूप में इन शब्दों का उपयोग करता है, वे सीमित और नैमित्तिक गतियां हैं, जो कुछ-एक अभ्यासगत कारणों पर निर्भर होती हैं, और अपने विरोधी तत्त्वों दुःख-दर्द की तरह, जो इन्हींकी तरह समान रूप से सीमित और नैमित्तिक हैं, अपने-आपसे भिन्न किसी और पृष्ठभूमि से निकलती हैं । सत्ता का आनंद वैश्व है, असीम और स्वयंभू है । वह किन्हीं विशेष कारणों पर निर्भर नहीं है । वह सब पृष्ठभूमियों की पृष्ठभूमि है जिसमें से सुख, दुःख और अन्य अधिक तटस्थ अनुभूतियां निकलती हैं । जब सत्ता का आनंद अपने-आपको संभूति के आनंद के रूप में प्रकट करना चाहता है तो वह शक्ति की गति के रूप में स्पंदित होता है और गति के विभिन्न रूप अपनाता है जिनमें सुख-दुःख सकारात्मक और नकारात्मक धाराएं हैं । यह आनंद जड़तत्त्व में अवचेतन, मन के परे अतिचेतन होता है और मन तथा प्राण में, संभूति में उभरकर, गति की बढ़ती हुई आत्मचेतना में अपने-आपको चरितार्थ करना चाहता है । उसकी प्राथमिक अभिव्यक्तियां द्विविध और अशुद्ध होती हैं, वे सुख-दुःख के ध्रुवों के बीच गति करती हैं किंतु उसका लक्ष्य होता है विषयों तथा कारणों से मुक्त, सत्ता के स्वयंभू परम आनंद की विशुद्धता में आत्माभिव्यक्ति । जैसे सच्चिदानंद वैश्व सत्ता को व्यक्ति में और रूपातीत चेतना को शरीर और मन के रूपों में चरितार्थ करने के लिये बढ़ता है वैसे ही यह आनंद भी विशेष अनुभवों और विषयों के प्रवाह में वैश्व, स्वयंभू और विषय-रहित आनंद की ओर बढ़ता है । जिन विषयों की अभी हम क्षणिक संतोष और सुख के उद्दीपक कारण समझकर आकांक्षा करते हैं, मुक्त और आत्मवान् होकर हम इनकी आकांक्षा नहीं करेंगे बल्कि तब हम उनके मालिक होंगे और तब वे हमारे लिये आनंद के निमित्त न होकर ऐसे आनंद को प्रतिबिंबित करनेवाले होंगे जो हमेशा अस्तित्व रखता है ।

 

    अहंकारमय मानव सत्ता में, जिसमें मनोमय पुरुष जड़तत्त्व के धुंधले खोल में से उभरा होता है, सत्ता का आनंद तटस्थ, आधा छिपा हुआ और अभीतक अवचेतन की छाया में रहता है । वह मुश्किल से ही किसी ऐसी छिपी हुई उर्वर भूमि से अधिक कुछ होता है जो खूब फल रही कामनारूपी विषैली रूखड़ियों से और हमारी अहंकारभरी सत्ता के दुःख और सुख के उतने ही विषैले फूलों से ढकी होती है । जब हमारे अंदर गुप्त रूप से काम करती हुई दिव्य चित्-शक्ति इन रूखड़ियों को लील लेगी, ऋग्वेद के रूपक के अनुसार जब भगवान् की अग्नि धरती के बीजांकुरों को भस्म कर डालेगी तब इन दुःखों और सुखों की जड़ में

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छिपा हुआ उनका कारण और उनकी गुप्त सत्ता, आनंद का रस, नये-नये रूपों में, कामना के रूप में नहीं बल्कि स्वयंभू संतुष्टि के रूप में उभरेगा जो मर्त्य सुख के स्थान पर अमर के आनंदोल्लास को स्थापित कर देगा । और यह रूपांतर संभव है क्योंकि सुख की तरह कष्ट भी संवेदन और भावावेश की उपज है और अपने सार तत्त्व में सत्ता का वह आनंद है जिसे वे खोजते तो हैं परंतु प्रकट करने में असफल रहते हैं,--असफल रहते हैं विभाजन, आत्म-अज्ञान और अहंकार के कारण ।

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अध्याय १२

 

सत्ता का आनंद--समाधान

 

           तद्ध तद्वर्न नाम तद्वनमित्युपासितवयम्

 

           उस तत् का नाम है आनंद, हमें आनंद के रूप मे ही उसकी पूजा और खोज करनी चाहिये ।

                                                           केनोपनिषद् -४.६

 

 

इस धारणा मे कि सत्ता का अविच्छेद्य, नीचे छिपा दुआ एक आनंद हैं, सभी बाहरी या सतही संवेदन उसके भावात्मक, अभावात्मक, या तटस्थ खेल हैं, उसी असीम अगाध की लहरें और झाग हैं, हम उस समस्या का सच्चा समाधान पाते हैं जिसकी हम परीक्षा कर रहे हैं । वस्तुओं की आत्मा एक अनंत, अविभाज्य सत्ता है । उस सत्ता का मौलिक स्वभाव या सामर्थ्य आत्म-सचेतन सत्ता की एक असीम, अक्षय शक्ति है और फिर उस आत्म-चेतना का निजी स्वभाव या स्वयं अपना ज्ञान सत्ता का एक असीम अविच्छेद्य आनंद है । यह आत्म-सत्ता रूपहीनता मे और सभी रूपों मे, अनंत और अविभाज्य सत्ता की शाश्वत अभिज्ञता में और सांत विभाजन की नानारूप प्रतीतियों मे अपने आत्मानंद को सतत रूप से बनाये रखती है । हमारी अंतरात्मा अपनी ही सतही आदतों और अपने आत्मसचेतन अस्तित्व के विशेष तौर-तरीकों की दासता मे से विकास द्वारा बाहर आने पर जैसे जतत्त्व की प्रतीयमान निश्चेतना मे उस अनंत, चित्-शक्ति को पाती है जो सतत, अचल, चिंतनशील है, उसी तरह ज पदार्थ की संवेदनहीनता में वह एक अनंत सचेतन आनंद को पाती है जो अविचल, उल्लसित, सर्वग्राही है और उसके साथ तालमेल बिठाती है । यह आनंद उसका स्वयं अपना आनंद है, यह आत्मा सबके अंदर उसकी स्वयं अपनी आत्मा है लेकिन आत्मा और वस्तुओं की हमारी साधारण दृष्टि के लिये, जो केवल सतहों पर जागती और घूमती है, यह प्रच्छन्न, गूढ़ और अवचेतन रहता है । और जैसे वह सब रूपों मे है उसी तरह सब अनुभूतियों मे भी रहता है फिर चाहे वे सुखद हों या दुःखद अथवा उदासीन । वहां भी प्रच्छन्न, गूढ़ू और अवचेतन रहकर वही चीजों को अस्तित्व मे रहने के लिये बाधित करता है । यही जीवन के साथ उस चिपके रहने का, बने रहने की उस अतिप्रबल इच्छा का कारण है जो अपने-आपको प्राण मे आत्म-संरक्षण की सहजवृत्ति के, भौतिक मे जड़तत्त्व की अविनश्वरता के और मन मे अमरता के भाव के रूप मे अनूदित करती है । यही रूप जगत् को उसके आत्म-विकास की सभी स्थितियों मे सहारा देता है । और यहांतक कि इस आत्म-विकास मे जो कभी-कभी अपने-आपको

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मिटा देने का वेग आता है वह भी उसीका एक उल्टा रूप है, सत्ता की किसी दूसरी स्थिति के लिये आकर्षण और परिणामस्वरूप वर्तमान स्थिति के प्रति जुगुप्सा है । आनंद ही अस्तित्व है, आनंद ही सृष्टि का रहस्य है, आनंद ही जन्म का मूल है, आनंद ही जीवन में बने रहने का कारण है। आनंद ही जन्म का अंत है और वह है जिसमें सृजन समाप्त होता है । उपनिषद् का कहना है, ''आनंद से ही समस्त जीव जन्म लेते हैं, आनंद से ही जीवित रहते और बढ़ते हैं, और आनंद में ही प्रयाण कर जाते हैं ।''

 

    जब हम मूल सत् के इन तीन पहलुओं पर नजर डालते हैं जो वास्तव में एक परंतु हमारी मानसिक दृष्टि के लिये तीन हैं, जिन्हें केवल आभास में ही, विभक्त चेतना के व्यापार में ही, अलग किया जा सकता है तो हम प्राचीन दर्शनों के मतभेद के सूत्रों को उनके उचित स्थान पर बिठा सकते हैं, ताकि वे मिलकर एक बन जायें और उनका चिरकालीन वाद-विवाद समाप्त हो जाये । क्योंकि अगर हम जगत्-सत्ता को केवल उसके प्रतीयमान रूप में और शुद्ध, अनंत, अविभाज्य, अविकार सत् के साथ उसका जो संबंध है केवल उस रूप में देखें तो हमें उसे माया रूप में देखने, वर्णन करने और अनुभव करने का अधिकार हो जाता है । अपने मूल रूप में माया का अर्थ था समग्र बोध रखने और सबको अपने अंदर धारण करनेवाली चेतना जो सबका आलिंगन करने, मापने और सीमित करने में समर्थ हो और इसीलिये रूपों को गढ़ने में समर्थ है । यह वही चेतना है जो रूप-रेखा बनाती, नापती, अरूप के अंदर रूप ढालती, मानसिक रूप देती, अज्ञेय को ज्ञेय बनाती प्रतीत होती, ज्यामिति के रूप देती और असीम को परिमेय बनाती प्रतीत होती है । बाद में यह शब्द ज्ञान, कौशल और बुद्धिमत्ता के मूल अर्थ से हटकर चालाकी, धोखेबाजी या भ्रम के निंदात्मक अर्थ में चलने लगा और दर्शन शास्त्रों में इसका प्रयोग इंद्रजाल या भ्रम के अर्थ में होने लगा ।

 

    जगत् माया है । जगत् इस अर्थ में अवास्तविक नहीं है कि उसका किसी तरह का कोई अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि अगर वह आत्मा का स्वप्न भर होता तब भी वह उसमें स्वप्न की तरह निवास करता, उसके लिये वर्तमान में वास्तविक होता, भले अंतत: अवास्तविक होता । हमें यह भी न कहना चाहिये कि जगत् इस अर्थ में अवास्तविक है कि उसका कोई शाश्वत अस्तित्व नहीं । क्योंकि यद्यपि विशिष्ट जगत् या विशिष्ट रूप भौतिक रूप में विघटित हो सकते हैं और हो भी जाते हैं, और मानसिक रूप से अभिव्यक्ति की चेतना से अनभिव्यक्ति की चेतना में चले जाते हैं, फिर भी स्वयं 'रूप' और 'जगत्' अपने-आपमें शाश्वत हैं, वे अनिवार्य रूप से अनभिव्यक्ति में से अभिव्यक्ति में लौट आते हैं । उनमें शाश्वत स्थायित्व न सही शाश्वत पुनरावर्तन तो है ही, वे अपने समूचे रूप में और आधार में शाश्वत अपरिवर्तनशीलता और अपने पहलुओं में तथा आभास में शाश्वत परिवर्तनशीलता

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लिये रहते हैं । ना ही हमें इस बात का कोई निश्चय है कि काल में कभी ऐसा समय था या कभी ऐसा समय होगा जब शाश्वत चिन्मय सत्ता में विश्व का कोई रूप, सत्ता की कोई क्रीड़ा उसके आगे प्रतिबिंबित न होती हो । हमें तो बस यह अंतर्भासात्मक बोध होता है कि हम जिस जगत् को जानते हैं वह उस तत् में से प्रकट हो सकता और होता है और उसीमें लौट जाता हैं, यह गति सदा चलती रहती है ।

 

    फिर भी जगत् माया है क्योंकि वह अनंत सत् का सारभूत सत्य नहीं है बल्कि सिर्फ आत्मचेतन सत्ता की एक सृष्टि है, शून्य में बनी सृष्टि नहीं है, असत् में असत् से बनी सृष्टि नहीं है बल्कि यह शाश्वत सत्य में और स्वयंभू सत्ता के सनातन सत्य में से बनी है । उसका आधान, मूल और उपादान है सारभूत, वास्तविक सत्ता, उसके रूप 'तत्' के सचेतन स्वानुभव की भूमिका में उसीकी अपनी सर्जनात्मिका चिन्मय शक्ति द्वारा निश्चित किये गये उसके परिवर्तनशील रूपायन हैं । वे अभिव्यक्त होने में समर्थ हैं, अनभिव्यक्त रहने में समर्थ हैं, अन्य रूपों में अभिव्यक्त होने में भी समर्थ हैं । अगर हम चाहें तो उन्हें अनंत चेतना की भ्रांतियां कह सकते हैं, इस प्रकार हम अपने भ्रांति और अक्षमता के आधीन रहने के मानसिक बोध की छाया को धृष्टता के साथ उसपर फेंकेंगे जो 'मन' से अधिक महान् होने के कारण मिथ्यात्व और भ्रांति की अधीनता के परे है । लेकिन यह देखते हुए कि सत्ता का सार और उपादान झूठा नहीं है और हमारी विभक्त चेतना की सभी भूलें और विकृतियां अविभाज्य आत्म-चेतन सत्ता के किसी सत्य का प्रतिनिधित्व करती हैं, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि जगत् 'तत्' का तत्त्विक सत्य नहीं है बल्कि उसकी निर्बाध अनेकरूपता और अनंत सतही परिवर्तनशीलता का प्रपंचात्मक सत्य है, उसकी आधारभूत, अपरिवर्तनशील एकता का सत्य नहीं ।

 

    दूसरी ओर यदि हम जगत्-सत्ता को केवल चेतना और चेतना की शक्ति के संबंध में देखें तो हम उसे शक्ति की एक ऐसी गति के रूप में देख सकते, उसका वर्णन और अनुभव कर सकते हैं जो किसी गुप्त इच्छा की आज्ञा का पालन कर रही है या वह जिस चेतना के अधिकार में है या जो उसे देख रही है उसकी किसी आवश्यकता द्वारा आरोपित है । तब यह प्रकृति की, यानी कार्यकर्त्री शक्ति की क्रीड़ा है जो पुरुष को यानी साक्षी और भोग करनेवाली सचेतन सत्ता को संतुष्ट करने के लिये हो रही है, या फिर यह पुरुष की लीला है जो शक्ति की गतिविधियों में प्रतिबिंबित हो रही है और वह अपने-आपको इनके साथ एकात्म कर रहा है । तो जगत् वस्तुओं की जननी की क्रीड़ा है जो अपने-आपको नित्य अनंत रूपों में ढालने के लिये प्रवृत्त और अनुभवों को शाश्वत रूप से व्यक्त करने के लिये उत्सुक है ।

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और फिर यदि हम जगत्-सत्ता को शाश्वत सत्-पुरुष के आत्मानंद के साथ संबंध की दृष्टि से देखें तो हम उसका इस रूप में अवलोकन, वर्णन और अनुभव कर सकते हैं कि यह एक लीला हैं, बच्चे के आनंद, कवि के आनंद, अभिनेता के आनंद और यांत्रिक के आनंद के रूप में यह वस्तुओं की आत्मा का एक खेल हैं, जो आत्मा चिर युवा और चिर अक्षय है, और अपने-आपको अपने ही अंदर आत्म-सर्जन और आत्म-रूपायन के अहैतुक आनंद के लिये बनाती और फिर-फिर बनाती रहती हैं -वही खेल है, वही खिलाड़ी है और वही खेल का मैदान भी है । शाश्वत और स्थाणु अर्थात् अपरिवर्तनशील सच्चिदानंद के साथ संबंध की दृष्टि से सत्ता की क्रीड़ा के इन तीन सामान्यीकरणों का आरंभ माया, प्रकृति और लीला की तीन धारणाओं से होता है । ये हमारे दर्शन शास्त्रों में परस्पर विरोधी दर्शनों के रूप में देखने में आते हैं परंतु वस्तुतः ये एक-दूसरे के साथ पूरी तरह संगत हैं, और जीवन तथा जगत् की संपूर्ण दृष्टि के लिये अपनी समग्रता में एक-दूसरे के पूरक और एक-दूसरे के लिये आवश्यक हैं । बिल्कुल प्रत्यक्ष दृष्टि में यह जगत् जिसके हम भाग हैं, 'शक्ति' की एक गति है, लेकिन जब हम उस 'शक्ति' के बाहरी रूप को भेद लेते हैं तो वह सर्जनशील चेतना की एक स्थिर लेकिन फिर भी सदा परिवर्तनशील लय सिद्ध होती है जो सदा स्वयं अपनी अनंत और शाश्वत सत्ता के प्रपंच-विषयक सत्यों को अपने अंदर उछालती और प्रक्षिप्त करती रहती है । और यह लय अपने सारतत्त्व में अपने कारण और प्रयोजन में ऐसी सत्ता के अनंत आनंद की लीला है जो हमेशा अपने अनगिनत आत्म-निरूपणों में व्यस्त रहती है, विश्व को समझने के लिये यह तिहरी या त्रिविध दृष्टि हमारा आरंभबिंदु होनी चाहिये ।

 

    तो चूंकि संभूति के अनंत और परिवर्तनशील आनंद में शाश्वत और अपरिवर्तनशील सत्ता के आनंद का गति करना ही सारी चीज की जड़ है तो हमें एक अविभाज्य सचेतन सत्ता की धारणा करनी होगी जो हमारे सभी अनुभवों के पीछे है और उन्हें अपने अविच्छेद्य आनंद से सहारा देती है और हमारी संवेदनात्मक सत्ता में सुख, दुःख और उदासीन तटस्थता के परिवर्तनों को अपनी गतिविधि द्वारा संपन्न करती है । वह हमारी वास्तविक आत्मा हैं । त्रिविध स्पंदनों के आधीन रहनेवाला मनोमय पुरुष हमारी वास्तविक आत्मा का केवल प्रतिरूप हो सकता है जिसे वस्तुओं की उस संवेदनात्मक अनुभूति के लिये आगे रखा गया है जो इस विश्व के साथ बहुविध संपर्क की प्रतिक्रिया और उत्तर में हमारी विभक्त चेतना की पहली लय है । यह एक अपूर्ण उत्तर है, एक उलझा हुआ और विस्वर लय है जो हमारे अंदर सचेतन सत्ता की संपूर्ण और एकताबद्ध लीला की तैयारी करता और उसकी भूमिका बनाता है । यह वह सच्ची और संपूर्ण समस्वरता नहीं है जो हमें तब मिल सकती है जब हम सभी विभिन्नताओं में उस एकमेव के साथ

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एक बार सामंजस्य पा लें और निरपेक्ष एवं वैश्व स्वरलहरी के साथ अपने-आपको समस्वर कर लें ।

 

    अगर यह दृष्टि ठीक है तो कुछ परिणाम अपने-आपको अनिवार्य रूप से आरोपित करते हैं । पहली बात तो यह कि चूंकि अपनी गहराइयों में हम स्वयं वह एकमेव हैं, चूंकि अपनी सत्ता की वास्तविकता में हम अविभाज्य सर्व-चेतना हैं और इस कारण अविच्छेद्य सर्वानंद हैं अतः हमारी संवेदनात्मक अनुभूति का सुख, दुःख और उदासीनता के तीन स्पंदनों में विन्यास हमारे उस सीमित भाग का एक ऊपरी संयोजन ही हो सकता है जो हमारी जाग्रत् चेतना में सबसे ऊपर है । इसके पीछे हमारे अंदर कुछ होना चाहिये -जो हमारी बाहरी चेतना से कहीं अधिक विशाल, गभीर और सच्चा है -जो निष्पक्ष भाव से सब अनुभूतियों में आनंद लेता है । वही आनंद गुप्त रूप से बाहरी मनोमय पुरुष को सहारा देता है और उसे इस योग्य बनाता है कि वह संभवन की सभी उत्तेजित गतिविधियों में समस्त श्रम, दुःख और अग्निपयरीक्षाओं के बीच डटा रहे । हम जिसे अपना-आपा कहते हैं वह तो केवल ऊपरी सतह पर कांपती हुई किरण है, उसके पीछे है समस्त विशाल अवचेतना और विशाल अतिचेतन जो इन समस्त सतही अनुभूतियों से लाभ उठाता है और उन्हें अपनी इस बाहरी सत्ता पर आरोपित करता है जिसे वह जगत् के संपर्को के आगे एक तरह के संवेदनात्मक आवरण के रूप में प्रकट करता है । वह स्वयं पर्दे में रहकर इन संपर्कों को ग्रहण करता और उन्हें अधिक सच्ची, गहरी, आधिपत्यशाली, सृजनशील अनुभूतियों के मूल्यों में आत्मसात् करता है । वह उन्हें अपनी गहराइयों में से बल, चरित्र, ज्ञान, आवेग के रूप में वापिस सतह पर भेजता है जिनकी जड़ें हमारे लिये रहस्यमय बनी रहती हैं क्योंकि हमारा मन सतह पर ही घूमता और कांपता है, उसने अपनी गहराइयों में केंद्रित होना और जीना नहीं सीखा है ।

 

    हमारे सामान्य जीवन में यह सत्य हमसे छिपा रहता है या कभी-कभी हम उसकी धुंधली झांकी भर पा जाते हैं या उसे अपूर्ण रूप से पकड़ पाते और उसकी धारणा बना सकते हैं । लेकिन अगर हम अपने भीतर रहना सीख लें तो हम निश्चित रूप से अंदर की इस भागवत उपस्थिति के प्रति जाग उठते हैं जो हमारी अधिक वास्तविक आत्मा है । यह एक ऐसी उपस्थिति है जो गभीर, स्थिर, आनदपूर्ण और शक्तिशाली है, जगत् इसका स्वामी नहीं । यह उपस्थिति, स्वयं प्रभु भले न हो, अंदर के प्रभु का विकिरण अवश्य है । हमें उसका इस रूप में भान होता है कि वह अंदर रहती हुई प्रतीयमान और ऊपरी सत्ता को सहारा और सहायता देती और उसके सुखों और कष्टों पर इस तरह मुस्कराती है जैसे कोई किसी छोटे बच्चे की भूलों और आवेशों पर मुस्कराता है । और हम अपने अंदर लौट सकें और अपने-आपको अपनी ऊपरी अनुभूति के साथ नहीं, बल्कि भगवान्

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की उस ज्योतिर्मय उपच्छाया के साथ एकात्म कर सकें तो हम जगत् के संपर्कों के प्रति भी उसी वृत्ति को बनाकर रह सकते हैं और शरीर, प्राणिक सत्ता और मन के सुख-दुःखों से अपनी सारी चेतना में पीछे हटकर हम उन्हें ऐसी अनुभूतियों के रूप में ग्रहण कर सकते हैं जिनका स्वरूप ऊपरी होने के कारण हमारी अंतःस्थ और वास्तविक सत्ता को नहीं छूता या उसपर अपने-आपको आरोपित नहीं करता । इस भाव को पूरी तरह अभिव्यक्त करनेवाली संस्कृत परिभाषा में कहें तो मनोमय के पीछे एक आनंदमय है, सीमित मनोमय के पीछे एक बृहत् 'आनंदमय पुरुष' है । मनोमय आनंदमय की एक छाया-प्रतिमा और विक्षुब्ध प्रतिबिंब भर है । हमारा अपना सत्य भीतर रहता है, सतह पर नहीं ।

 

    फिर सुख, दुःख और उदासीनता का यह त्रिविध स्पंदन बाहरी है, हमारे अधकचरे विकास की व्यवस्था और परिणाम है इसलिये उसमें कोई निरपेक्षता या अनिवार्यता नहीं हो सकती । हमारे ऊपर ऐसी कोई वास्तविक बाध्यता नहीं है कि हम किसी संपर्क-विशेष की ओर लौटें, किसी विशेष सुख, दुःख या उदासीनता की प्रतिक्रिया के रूप में प्रत्युत्तर दें । बाध्यता केवल आदत की होती है । हमें किसी संपर्क-विशेष से सुख या दुःख होता है क्योंकि हमारी प्रकृति ने ऐसी आदत डाल ली है, क्योंकि ग्रहणकर्ता ने इस संपर्क के प्रति वैसा सतत संबंध बना लिया है । यह हमारी सामर्थ्य में है कि बिल्कुल उल्टे प्रत्युत्तर दें, जहां कष्ट होता था वहां सुख का और जहां सुख होता था वहां दुःख का प्रत्युत्तर दें । और यह भी समान रूप से हमारी सामर्थ्य में है कि अपनी बाहरी सत्ता को इस बात का अभ्यस्त कर दें कि वह सुख, दुःख और उदासीनता की यांत्रिक प्रतिक्रियाओं की जगह अक्षर आनंद का वह सहज प्रत्युत्तर दे जहां हमारे अंदर स्थित सच्चे और विशाल 'आनंद-पुरुष' का सतत अनुभव है । और यह ऊपरी सतह की अभ्यस्त प्रतिक्रियाओं को गहराई में प्रसन्न और अनासक्त भाव से ग्रहण करने की अपेक्षा अधिक बड़ी विजय तथा कहीं अधिक गहरी और अधिक संपूर्ण आत्मवत्ता है । क्योंकि वह आधीनता के बिना स्वीकृति, अनुभूतियों के अपूर्ण मूल्यों को स्वाधीनता से दी गयी मान्यता नहीं है बल्कि यह आत्मवत्ता हमें अपूर्ण को पूर्ण में, मिथ्या मूल्यों को सच्चे मूल्यों में बदलने की योग्यता देती है । वह है मानसिक सत्ता द्वारा अनुभव किये गये द्वंद्वों की जगह आत्मा द्वारा लिया गया वस्तुओं का सच्चा लेकिन सतत आनंद ।

 

    मन की चीजों में सुख-दुःख की प्रतिक्रियाओं की इस निरी अभ्यासगत सापेक्षता को देखना कठिन नहीं है । वस्तुत: हमारी स्नायविक सत्ता को इन चीजों में अमुक निश्चितता का, निरपेक्षता के झूठे संस्कार का अभ्यास है । उसके लिये विजय, सफलता, सम्मान, सब प्रकार का सौभाग्य आदि अपने-आपमें निरपेक्ष रूप से सुखद चीजें हैं और उन्हें उसी तरह आनंद पैदा करना चाहिये जैसे शक्कर को

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मीठा होना चाहिये । पराजय, असफलता, निराशा, अपमान, सब प्रकार का दुर्भाग्य आदि अपने-आपमें निरपेक्ष रूप से अप्रिय चीजें हैं और उन्हें दुःख पैदा करना चाहिये जैसे नागदमनी (नीम) का स्वाद कड़वा होना ही चाहिये । उसकी दृष्टि में इनसे भिन्न प्रतिक्रियाओं का होना तथ्य से भटक जाना, असाधारण और अस्वस्थ चीज है, क्योंकि स्नायविक सत्ता आदतों की दासी होती है और उसे प्रकृति ने प्रत्युत्तरों के सुनिश्चित सातत्य, अनुभूतियों की समरूपता और जीवन के साथ मनुष्य के संबंधों की सुनिश्चित योजना बनाये रखने के लिये, अपने-आपमें एक साधन के तौर पर बनाया है । दूसरी ओर मनोमय सत्ता आजाद होती है क्योंकि वह एक ऐसा साधन है जिसे प्रकृति ने नमनीयता और वैविध्य, परिवर्तन और प्रगति के लिये बनाया है । वह तभीतक अधीन रहती है जबतक कि वह आधीन रहना पसंद करे, मन की एक आदत की जगह दूसरी आदत में रहना चाहे या जबतक अपने-आपको अपने स्नायविक यंत्र के अधिकार में रहने दे । वह पराजय, अपमान या हानि के कारण दुःखी होने के लिये बाधित नहीं है, वह इन चीजों और सभी चीजों का सामना पूर्ण उदासीनता के साथ, यहांतक कि पूरी प्रसन्नता के साथ कर सकती है । अतः आदमी देखता है कि वह जितना ही स्नायुओं और शरीर के आधीन रहने से इंकार करता है, जितना ही भौतिक और प्राणिक भागों की उलझनों में से अपने- आपको खींच लेता है उतना ही अधिक वह स्वाधीन होता है । तब वह बाहरी स्पर्शों का दास न रहकर जगत् के प्रति अपने प्रत्युत्तरों का स्वामी बन जाता है ।

 

    इस वैश्व सत्य को भौतिक सुख-दुःख पर लागू करना अधिक कठिन होता है क्योंकि यह तो स्वयं स्नायुओं और शरीर का क्षेत्र है, जो हमारे अंदर उसका केंद्र और आसन है जिसका स्वभाव ही है बाहरी संपर्कों और बाहरी दबाव से शासित होना । तथापि, हमें यहां भी सत्य की झलकें मिल जाती हैं । हम यह तथ्य देखते हैं कि आदत के अनुसार एक ही भौतिक संबंध सुखद या दुःखद हो सकता है, केवल भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों या विकास के भिन्न-भिन्न स्तरों पर हम यह तथ्य देख सकते हैं कि बहुत उत्तेजना या उच्च भावोत्कर्ष के समय मनुष्य उन्हीं संपर्कों के तले कष्ट के प्रति शारीरिक रूप से उदासीन या अचेतन रहता है जो सामान्य रूप से तीव्र यंत्रणा या वेदना पहुंचाते । कई अवस्थाओं में, कष्ट का संवेदन तब वापिस आ जाता है जब स्नायुएं फिर से अपना अधिकार जमा लेती हैं और मनुष्य की मानसिकता को तकलीफ पाने की आदत की बाध्यता की याद दिलाती हैं । लेकिन इस आदत की बाध्यता की ओर लौटना अनिवार्य नहीं है, यह बस एक आदत है । हम देखते हैं कि सम्मोहन के मामले में न केवल यह कि सम्मोहित व्यक्ति को सफलता के साथ घाव या वेधन के दर्द का अनुभव करने से केवल तभीतक नहीं रोका जा सकता जबतक वह उस असाधारण स्थिति में रहे बल्कि जब वह जाग जाये तब भी उसे

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आदत के अनुसार पीड़ा की प्रतिक्रिया में लौटने से उसी सफलता के साथ रोका जा सकता है । इस व्यापार का कारण बहुत सरल है । इसका कारण यह है कि सम्मोहक व्यक्ति उस जाग्रत् चेतना को स्थगित कर देता है जो स्नायविक अभ्यासों की गुलाम है । वह गहराई में स्थित अंतर्लीन मानसिक सत्ता से समर्थन मांग सकता है । यह आंतरिक मनोमय पुरुष, अगर इच्छा करे तो, स्नायुओं का और शरीर का स्वामी होता है । लेकिन यह स्वाधीनता जो सम्मोहन द्वारा असामान्य रूप से तेजी के साथ, सच्चा अधिकार पाये बिना परायी इच्छा-शक्ति से मिलती है, यही स्वाधीनता सामान्य रूप से, धीमे-धीमे, सच्चे अधिकार के साथ, अपनी निजी इच्छा-शक्ति द्वारा मिल सकती है जिससे मानसिक सत्ता की शरीर की अभ्यासगत स्नायविक प्रतिक्रियाओं पर आंशिक या पूर्ण विजय साधित हो सके ।

 

    मन और शरीर की पीड़ा प्रकृति यानी कार्यरत दिव्य शक्ति का एक साधन है जो उसके ऊर्ध्वमुखी विकास में एक निश्चित संक्रमणकालीन उद्देश्य के लिये सहायक होता हैं । व्यष्टि की दृष्टि से जगत् एक लीला और बहुविध शक्तियों का एक जटिल आघात है । इस जटिल लीला के बीच व्यष्टि शक्ति की परिमित मात्रा से सीमित रूप में रचित सत्ता के रूप में रहता है । वह उन अनगिनत प्रहारों के प्रति खुला रहता है जो उस रचना को, जिसे वह अपना-आपा कहता है घायल, पंगु, खंडित या विघटित कर सकते हैं । पीड़ा अपने स्वभाव में किसी खतरनाक या हानिकर संपर्क से स्नायविक या शारीरिक रूप से पीछे हटना है, यह उस चीज का एक भाग है जिसे उपनिषद् जुगुप्सा कहते हैं यानी एक सीमित सत्ता का उससे खिंचाव जो उसका अपना स्व नहीं है, जो उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण या सामंजस्ययुक्त नहीं । यह 'परायों' से आत्म-रक्षा करने की प्रवृत्ति है । इस दृष्टिकोण से यह प्रकृति का उसकी ओर एक संकेत है जिससे बचना चाहिये अथवा यदि सफलतापूर्वक न बचा जा सके तो, जिसका उपचार करना चाहिये । पीड़ा का अस्तित्व शुद्ध भौतिक जगत् में तबतक नहीं आता जबतक कि उसमें प्राण का प्रवेश न हो, क्योंकि तबतक यांत्रिक उपाय ही काफी होते हैं । उसका व्यापार तब शुरू होता है जब प्राण अपनी दुर्बलता और जड़तत्त्व पर अधूरे अधिकार के साथ मंच पर प्रकट होता है, यह प्राण के अंदर मन की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ता जाता है । उसका व्यापार तबतक चलता रहता है जबतक मन प्राण और शरीर में बंधा रहता है, जिनका वह उपयोग करता है । वह अपने ज्ञान और क्रिया के साधनों के लिये उनपर निर्भर रहता है, उनकी सीमाओं और उन सीमाओं से उत्पन्न अहमात्मक आवेगों और उद्देश्यों के आधीन रहता है । लेकिन अगर जब मनुष्य का मन मुक्त, अहं-शून्य, अन्य सभी सत्ताओं और वैश्व शक्तियों की लीला के साथ सामंजस्य साधने में सक्षम हो जायेगा तब कष्ट का उपयोग और व्यापार कम होने लगेगा और अंत में उसके अस्तित्व का कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा और वह प्रकृति की

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एक परंपरागत वृत्ति के रूप में, अपनी उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद भी बनी रहनेवाली आदत के रूप में, उच्चतर के अभीतक अधूरे संघटन में निम्नतर के डटे रहने के रुप में रह सकेगा । जड़तत्त्व की अधीनता और मन की अहंकारपूर्ण सीमाओं पर अंतरात्मा की नियत विजय में पीड़ा का अंततः विलोपन एक अनिवार्य बिंदु होगा ।

 

    यह विलोपन संभव है क्योंकि अपने-आपमें सुख-दुःख दोनों ही तरंगें हैं, एक अपूर्ण है दूसरी विकृत, परंतु हैं दोनों ही सत्ता के आनंद की लहरें । इस अपूर्णता और इस विकृति का कारण है सीमित करने और मापनेवाली माया द्वारा सत्ता का अपनी चेतना में आत्मविभाजन और परिणामत: व्यक्ति द्वारा संपर्कों को वैश्व रूप में ग्रहण करने की जगह अहंकारमय और खंडशः रूप में ग्रहण करना । वैश्व आत्मा के लिये सभी चीजें और सभी संपर्क अपने अंदर आनंद का सार लिये रहते हैं जिसका सबसे अच्छा वर्णन संस्कृत के सौंदर्य-शास्त्र के शब्द रस के द्वारा होता है जिसका अर्थ एक ही साथ किसी चीज का द्रव या सार और स्वाद होता है । चूंकि हम अपने साथ संपर्क में आनेवाली वस्तु का सारतत्त्व नहीं ढूंढ़ते, केवल यही देखते हैं कि वह संपर्क हमारी कामनाओं और भयों, हमारी लालसाओं और अनिच्छाओं पर कैसा प्रभाव डालता है, इसीलिये वह रस दुःख और कष्ट, अपूर्ण एवं क्षणिक सुख या उदासीनता अर्थात् सारतत्त्व को ग्रहण करने में नितांत अक्षमता का रूप ले लेता है । अगर हम मन और हृदय में पूरी तरह अनासक्त हो सकें, और उस अनासक्ति को स्नायविक सत्ता पर आरोपित कर सकें तो रस के इन अधूरे और विकृत रूपों का क्रमिक विलोपन संभव होगा और सत्ता के अविच्छिन्न आनंद का सच्चा सारभूत स्वाद हमारी पहुंच के भीतर होगा । इस विविधतापूर्ण किंतु वैश्व आनंद को पाने की कुछ क्षमता हमें, जैसा कि कला और काव्य में होता है, चीजों को सौंदर्यबोध की दृष्टि से लिये जाने पर मिलती है, जिससे हम उनमें करुण, भयानक, यहांतक कि वीभत्स-रस का भी आनंद ले सकते हैं । इसका कारण यह है कि हम उस समय तटस्थ, उदासीन रहते हैं, हमें केवल वस्तु और उसके सारतत्त्व का ख्याल रहता है, अपना या आत्मारक्षा (जुगुप्सा) का नहीं । निश्चय ही, संपर्कों की यह सौंदर्यबोधात्मक ग्रहणशीलता शुद्ध आनंद का यथार्थ चित्र या प्रतिबिंब नहीं है, वह आनंद तो अतिमानसिक और सौंदर्यबोधातीत है । क्योंकि वह दुःख, भय, वीभत्सता और जुगुप्सा को उनके कारणों समेत समाप्त कर देता है जब कि सौंदर्यबोध उन तत्त्वों को स्वीकार करता है । किंतु यह प्रवृत्ति अपने-आपको अभिव्यक्त कर रही, वस्तुओं मे स्थित वैश्व 'आत्मा' के बढ़ते हुए आनंद की एक अवस्था का आंशिक और अपूर्ण रूप से निरूपण करती है और हमारी प्रकृति के एक भाग में अहंकारभरे संवेदन से अनासक्ति की उस अवस्था में और उस वैश्व वृत्ति में हमारा प्रवेश कराती है जिसके द्वारा 'अंतरात्मा' वहां सामंजस्य और सौंदर्य

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को देखती है जहां हम, विभक्त सत्ताएं अस्तव्यस्तता और असंगति का अनुभव करते हैं । पूर्ण मुक्ति हमें तभी मिल सकती है जब हमारे सभी भागों में ऐसी ही मुक्ति आ जाये, वैश्व सौंदर्यबोध, ज्ञान का वैश्व दृष्टिकोण, सभी चीजों से वैश्व अनासक्ति आ जाये और साथ ही हमारी स्नायविक और भावमय सत्ता में सबके लिये सहानुभूति भी रहे ।

 

    दुःख का स्वरूप है हमारे अंदर स्थित चित्-शक्ति की जीवन के आघातों का सामना करने में असफलता जिसके परिणाम सिकुड़ना और जुगुप्सा हैं । और दुःख की जड़ है उस ग्रहण और स्वायत्त करनेवाली शक्ति की असमानता जिसका कारण है अहंभाव द्वारा हमारा आत्म-परिसीमन । और यह अहंभाव हमारी सच्ची 'आत्मा' के, सच्चिदानंद के प्रति अज्ञान का परिणाम है । अतः दुःख का विलोपन करने के लिये पहले जुगुप्सा, सिकुड़ने और संकुचित होने के स्थान पर तितिक्षा को, अर्थात् जीवन के सभी आघातों का सामना करने, उन्हें सहने और उनपर विजय पाने की वृत्ति को लाना होगा । इस सहनशीलता और विजय से हम एक ऐसी समानता की ओर बढ़ते हैं जो सभी संपर्कों के प्रति या तो एक-सी उदासीनता या एक-समान प्रसन्नता होती है । और फिर इस समता को एक मजबूत नींव पानी होगी, अहंकारभरी चेतना के स्थान पर, जो सुख-दुःख भोगती है, सच्चिदानंद-चेतना को प्रतिष्ठित करना होगा जो सर्वानंद है । सच्चिदानंद-चेतना विश्वातीत और विश्व से अलग-थलग हो सकती है और इस सुदूर आनंद की अवस्था के लिये जो मार्ग है वह है एक-समान उदासीनता का । यह है संन्यासी का मार्ग । अथवा सच्चिदानंद--चेतना एक ही साथ विश्वातीत और विश्वव्यापक हो सकती है और इस उपस्थित तथा सर्वांलिंगनकारी आनंद की अवस्था के लिये जो मार्ग है वह है समर्पण का और विश्वचेतना में अहं को खो देने तथा सर्वव्यापी समरस आनंद को प्राप्त करने का । यह प्राचीन वैदिक मुनियों का मार्ग है । किंतु सुख के अपूर्ण स्पर्शों और दुःख-दर्द के विकृत स्पर्शों के प्रति उदासीनता अंतरात्मा के आत्मसंयम का पहला सीधा और स्वाभाविक परिणाम है और उनका समरस आनंद में परिवर्तन तो साधारणत: बाद में ही आता है । त्रिविध स्पंदनों का सीधा आनंद में रूपांतर संभव तो है पर मनुष्य के लिये कम सरल है ।

 

    तो वेदांत के पूर्ण सिद्धांत के अनुसार विश्व के बारे में जो दृष्टिकोण है वह इसी प्रकार का है । एक अनंत, अविभाज्य सत् अपनी शुद्ध आत्म-चेतना में सर्वानंद है । वह अपनी आधारभूत शुद्धि में से निकलकर शक्ति के, जो कि चेतना है उसके, वैचित्र्यपूर्ण खेल में, प्रकृति की गतिविधि में चला जाता है । यहीं माया का खेल है । भौतिक विश्व के आधार में सत्ता का आनंद शुरू में आत्म-समाहित, आत्म-लीन और अवचेतन रूप में रहता है । फिर वह तटस्थ गति की महान् राशिं के रूप में उभरता है लेकिन यह वह चीज नहीं होती जिसे हम संवेदन कहते हैं । उसके बाद

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 मन और अहं की वृद्धि के साथ वही आनंद ख्य, दुःख और उदासीनता के त्रिविध स्पंदन के रूप में प्रकट होता है । इसका आरंभ रूप में स्थित चेतना की शक्ति के परिसीमन और उसके वैश्व शक्ति के आघातों के प्रति खुले रहने से होता है जिन्हें वह अपने से विजातीय और अपनी मात्रा और प्रमाण के साध अ-सुस्वर पाती है । और अंत में सच्चिदानंद अपनी सृष्टियों में पूर्ण रूप से और सचेतन रूप से उभर आते हैं और यह वैश्वभाव, समता, आत्मवत्ता और प्रकृति पर विजय के द्वारा साधित होता है । संसार का यही क्रम और यहीं उसकी गतिधारा है ।

 

    तब अगर यह पूछा जाये कि एकमेव ऐसी गति में आनंद क्यों लेता है तो इसका उत्तर इस तथ्य में है कि उस सत् की अनंतता में सभी संभाव्यताएं छिपी हुई हैं और यह कि सत्ता का आनंद--अपनी अक्षर सत्ता में नहीं, बल्कि अपनी क्षर संभूति में--यथार्थतः अपनी इन संभावनाओं को विविध रूप से चरितार्थ करने में ही है । और यहां इस विश्व में, जिसके कि हम एक भाग हैं, जिस संभावना को चरितार्थ किया जाता है उसकी शुरूआत इस प्रकार होती है कि सच्चिदानंद उस तत्त्व में जा छिपते हैं जो उनका विरोधी मालूम होता है और उस विरोधी तत्त्व की शर्तों में से ही उन्हें अपने-आपको खोज निकालना होता है । अनंत सत् प्रकटत: असत् में अपने-आपको खो देता है और सांत अंतरात्मा के रूप में उभरता है । अनंत चेतना एक सुविशाल, निर्विशेष निश्चेतना की प्रतीति के रूप में अपने-आपको खो देती है और सतही, सीमित चेतना के रूप में उभरती है । अनंत आत्म-निर्भर शक्ति अपने-आपको परमाणुओं की अस्त-व्यस्तता के आभास में खो देती है और अस्थिर संतुलनवाले एक जगत् के रूप में उभरती है । अनंत आनंद प्रकटत: संवेदनशून्य जड़तत्त्व के रूप में अपने-आपको खो देता है और विविध प्रकार के दुःख, सुख और तटस्थ भावों के तथा प्रेम, घृणा और उदासीनता के विस्वर लय के रूप में उभरता है । अनंत एकता अपने-आपको विविधता की अस्तव्यस्तता के आभास में खो देती है और ऐसी शक्तियों एवं सत्ताओं की विषमता के रूप में प्रकट होती है जो एक-दूसरे पर अधिकार करने, एक-दूसरे को लुप्त कर देने या निगल जाने के द्वारा एकता की खोज करती हैं । ऐसी इस सृष्टि-रचना में वास्तविक सच्चिदानंद को उभरना है । मनुष्य को, व्यष्टि को वैश्व सत्ता बनना और उसकी तरह रहना है । उसकी सीमित मानसिक चेतना को ऐसी अतिचेतन एकता में विस्तार पाना है जिसमें प्रत्येक सर्व का आलिंगन करता है । उसके संकीर्ण हृदय को अनंत का आलिंगन सीखना है और अपनी वासनाओं और असंगतियों के स्थान पर वैश्व प्रेम को लाना है । उसके परिसीमित प्राण को समस्त विश्व से अपने ऊपर आनेवाले आघातों के समतुल्य और वैश्व आनंद के योग्य बनना है । उसके भौतिक शरीरतक को अपने-आपको इस रूप में जानना है कि वह कोई अलग अस्तित्व नहीं है बल्कि जो अविभाज्य शक्ति सब कुछ है, वह उसके सारे प्रवाह के साथ एक है

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और उसे अपने अंदर धारण किये हुए है । उसकी सारी प्रकृति को परम सत्-चित्-आनंद में एकत्व, सामंजस्य और 'सर्व के अंदर एकत्व' का व्यक्ति में प्रतिरूप तैयार करना है ।

 

    इस सारी लीला के बीच जो छिपी वास्तविकता है वह है सदा अस्तित्व का वही एक और समरस आनंद । व्यक्ति के उदय से पहले अवचेतन निद्रा के आनंद में वही है । व्यक्ति को केंद्र बनाकर अर्द्ध-चेतन स्वप्न की भूल-भुलैया में अपने--आपको पाने का जो संघर्ष है, उसमें जितने विविध प्रकार के उलटफेर, विकार, परिवर्तन और प्रत्यावर्तन हैं उन सबके आनंद में भी वही है । और शाश्वत अतिचेतन आत्मवत्ता में, जिसके प्रति मनुष्य को जागना होगा और वहां एक और अविभाज्य सच्चिदानंद के साथ एक होना होगा, उसमें भी वही है । यह एकमेव, प्रभु और सर्व की वह लीला है जो भौतिक विश्व के बारे में बौद्धिक दृष्टिकोण से अपने-आपको हमारे मुक्त और प्रबुद्ध ज्ञान में प्रकट करती है ।

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अध्याय १३

 

दिव्य माया

 

          तदिन्नवस्थ वृषभस्य धेनोरा नामभिर्ममिरे सक्म्यं गो: ।

          अन्यदन्यदसुर्यं वसाना नि मायिनो ममिरे रूपमस्मिन् ।।

 

उन्होंने प्रभु और परादेवी के नामों से ज्योति की माता को आकार दिया और मापा । उस पराशक्ति के बल को एक के बाद एक वस्त्रों की तरह पहनते हुए माया के प्रभुओं ने इस 'सत्' में 'रूप' को आकार दिया ।

                                              ऋग्वेद ३.३८.७

 

           मायाविनो ममिरे अन्य मायया नृचक्षस: पितरो गर्भमादधु: ।

 

माया के प्रभुओं ने परमदेव की माया से सब कुछ को आकार दिया । दिव्य दृष्टिवाले पितरों ने उस परमदेव का गर्भस्थ शिशु की तरह अपने अंदर आधान किया ।

               ऋग्वेद १.८३.३

 

जो सत् अपनी चेतना की शक्ति और उसके शुद्ध आनंद द्वारा लीला और सृजन करता है वही जो कुछ हम हैं उसका वास्तविक रूप है, हमारे सभी बाह्याचारों और आंतरिक वृत्तियों की आत्मा है, हमारी सभी क्रियाओं, हमारे सभी संभवन और सृजन का कारण, उद्देश्य और लक्ष्य है । जैसें कोई कवि, कलाकार या संगीतकार जब कोई रचना करता है तो वह सचमुच कुछ नहीं करता, केवल अपनी अनभिव्यक्त आत्मा की किसी संभाव्यता को अभिव्यक्ति में रूप देता है और जैसे कोई विचारक, राजनेता, यांत्रिक, वस्तुओं के रूप में केवल उसी चीज को बाहर लाते हैं जो उनके अंदर छिपी हुई थी, स्वयं उनका रूप थी और बाह्य रूपों में ढालें जाने पर भी उनका आत्मरूप ही बनी रहती है, वही बात जगत् और शाश्वत के बारे में भी है । समस्त सृष्टि या संभूति इस आत्माभिव्यक्ति के सिवा कुछ नहीं है । बीज में से वही चीज अभिव्यक्त होती है जो पहले ही बीज में है, सत्ता में पहले से मौजूद, उसके संभूति के संकल्प में पहले से निर्दिष्ट, संभूति के आनंद में पहले से व्यवस्थित है । आदि जीवद्रव्य अपने अंदर अस्तित्व की शक्ति में परिणामी शरीर-विन्यास को धारे हुए था क्योंकि यह सदा वही गुप्त-गर्भा आत्मज्ञानवाली शक्ति है जो अपने ही अदम्य आवेश के अधीन अपने अंतर्गूढ़ रूप को अभिव्यक्त करने के लिये श्रम करती है । केवल वह व्यष्टि जो सृजन करता या अपने अंदर से विकसित करता है वही अपने, यानी अपने अंदर कार्य करनेवाली शक्ति और उस उपादान में भेद करता है जिसमें वह काम कर रहा है । वस्तुत:

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शक्ति वह स्वयं है, वह शक्ति जिस व्यष्टिभावापन्न चेतना का उपयोग करती है वह भी वह स्वयं है और वह जिस द्रव्य का उपयोग करती है वह भी वह स्वयं है और परिणामस्वरूप आनेवाला रूप भी वह स्वयं है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक ही सत् है, एक ही शक्ति है, एक ही सत्ता का आनंद हैं जो विभिन्न बिंदुओं पर केंद्रित होकर हर एक के बारे में कहता है, ''यह मैं हूं,'' और आत्मरूपायन के बहुविध खेल के लिये आत्मशक्ति के नानाविध खेल द्वारा उसमें क्रिया करता है ।

 

    वह जो कुछ पैदा करता है वह स्वयं वह है, और उसके सिवा कुछ नहीं हो सकता । वह अपनी निजी सत्ता, चेतना की शक्ति और सत्ता के आनंद में से एक खेल, एक लय, एक विकास कार्यान्वित कर रहा है । अत: जो कुछ जगत् में आता है वह और कुछ नहीं, बस यहीं चाहता है, वह होना चाहता है, अभिप्रेत रूपतक पहुंचना चाहता है, अपनी आत्मसत्ता को उस रूप में विस्तृत करना चाहता है, उसके अंदर की चेतना और शक्ति को अनंत रूप से विकसित, अभिव्यक्त, समृद्ध और चरितार्थ करना चाहता है । अभिव्यक्ति में आने का आनंद, सत्ता के रूप का आनंद, चेतना के लय का आनंद, शक्ति के खेल का आनंद और जो भी साधन संभव हों उनके द्वारा उस आनंद को बढ़ाना और पूर्ण करना, चाहे जिस भी दिशा में हो, उसके बारे में उसका चाहे जो भी विचार हो जिसे उसकी गभीरतम सत्ता में सक्रिय सत् चित्-शक्ति और आनंद ने उसे सुझाया हो वह उस आनंद को बढ़ाना और पूर्ण करना चाहता है ।

 

    यदि कोई लक्ष्य है, कोई पूर्णता है जिसकी ओर वस्तुएं प्रवृत्त होती हैं तो वह केवल पूर्णता हो सकती है --व्यक्ति में पूर्णता, उस समग्र में पूर्णता जो व्यष्टियों से बनता है --उसकी आत्मसत्ता की, उसकी शक्ति और चेतना की और उसकी सत्ता के आनंद की पूर्णता । परंतु व्यष्टिगत रूपायन में सीमित और केंद्रित व्यष्टिगत चेतना में ऐसी पूर्णता संभव नहीं है । सांत के अंदर निरपेक्ष पूर्णता संभव नहीं है क्योंकि वह सांत की आत्मधारणा के लिये विजातीय है, अतः एकमात्र संभव लक्ष्य है व्यष्टि में, अनंत चेतना का उदय । यह आत्मज्ञान और आत्मोपलब्धि के द्वारा अपने निजी सत्य की पुनःप्राप्ति है । सत्ता में अनंत, चेतना में अनंत, आनंद में अनंत के सत्य को अपनी निजी आत्मा और 'वास्तविकता' के रूप में पुनः पाना है । सांत उस अनंत का केवल एक मुखौटा और नानाविध अभिव्यक्ति के लिये साधन मात्र है ।

 

    इस प्रकार सच्चिदानंद अपनी सत्ता को देश और काल के रूप में विस्तारित कर जो लीला कर रहे हैं उस जगत्-लीला के स्वरूप को देखते हुए हमें यह धारणा बनानी पड़ती है कि चेतन सत्ता पहले पदार्थ की घनता और अनंत विभाज्यता में निवर्तित और अंतर्लीन हुई, कारण, अन्यथा यहां विविध प्रकार के सांत रूप नहीं बन सकते; फिर, वह आत्म-कासबद्ध शक्ति रूपमय सत्ता, प्राणमय सत्ता और

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चिंतनशील सत्ता के रूप में आविर्भूत हुई; और अंत में यह गठित चिंतनशील सत्ता जब अपने-आपको जगत् में लीला कर रहे एकमेव और अनंत के रूप में सुस्पष्टतया अनुभव कर लेती है तो मुक्त हो जाती है और इस मुक्ति के द्वारा असीम सत्-चित्-आनंद को फिर से पा लेती है जैसी कि वह अब भी गुप्त रूप से, वास्तविक रूप से और शाश्वत रूप से हैं ह । यह त्रिविध गति ही जगत्-पहेली की चाबी है ।

 

    इस भांति वेदांत का प्राचीन और शाश्वत सत्य विश्व में, विकासक्रम के आधुनिक और प्रतिभासिक सत्य के पूरे अर्थ को अपने अंदर समा लेता, उसपर प्रकाश डालता, उसे न्यायसंगत सिद्ध करता और उसका पूरा-पूरा अर्थ दिखलाता है । और इसी प्रकार विकासक्रम का यह नवीन सत्य जो 'वैश्व देव' के काल में अपने-आपको उत्तरोत्तर विकसित करने का पुराना सत्य ही है और जिसे शक्ति और जड़तत्त्व के अध्ययन द्वारा धुंधले रूप में ही देखा गया है, वह अपना पूरा अर्थ और न्यायसंगति तभी पा सकता है जब वह अपने-आपको वेदांत शास्त्रों में अब भी सुरक्षित, प्राचीन और शाश्वत सत्य के प्रकाश से आलोकित कर ले । इस पारस्परिक आत्म-अन्वेषण और आत्मप्रदीपन की ओर, जो प्राचीन पूर्वीय और नवीन पाश्चात्य ज्ञान के संलयन द्वारा ही साध्य है, जगत् की विचारधारा मुड़ रही है ।

 

    तो भी, यह जान लेने पर कि सब कुछ सच्चिदानंद है, हर चीज की व्याख्या नहीं हों जाती । हम विश्व की सद्वस्तु को तो जानते हैं परंतु अभीतक उस प्रक्रिया को नहीं जानते जिसके द्वारा उस सद्वस्तु ने अपने-आपको इस दृश्य जगत् में बदल लिया । हमारे पास पहेली की चाबी है लेकिन हमें अभी उस ताले की खोज करनी होगी जिसमें यह घूम सके । क्योंकि यह सच्चिदानंद सीधी क्रिया नहीं करता और न ही अत्यधिक गैर जिम्मेदारी के साथ किसी जादूगर की तरह अपने शब्द के आदेशमात्र से जगती या विश्वों की सृष्टि करता है । हम एक प्रक्रिया देखते हैं, हम एक विधान का भान होता है ।

 

    यह ठीक है कि जब हम इस विधान का विश्लेषण करते हैं तो ऐसा लगता है कि उसने अपने-आपको शक्तियों के खेल के संतुलन में, और उस खेल की आकस्मिक विकासधारा और भूतकाल की उपलब्ध ऊर्जा के अभ्यास द्वारा सुनिश्चित रेखाओं में विभाजित किया है । परंतु यह प्रतीयमान और गौण सत्य हमारे लिये तभीतक अंतिम है जबतक हम केवल शक्ति की ही धारणा करते हैं । जब हम यह देखते हैं कि शक्ति सत् की ही आत्माभिव्यक्ति है तो हम यह देखने के लिये भी बाधित होते हैं कि शक्ति ने जो दिशा ली है वह उस सत् के किसी आत्म-सत्य के अनुरूप है । और वही सत् उसके नियत मोड़ और गंतव्य स्थान को निर्धारित करता और उसपर शासन करता है । चूंकि चेतना आद्य सत् का स्वधर्म है और उसकी शक्ति का मूलरूप है, इससे यह सत्य अवश्य ही चित्-पुरुष के अंदर आत्म-ईक्षण

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होता है और शक्ति द्वारा अपनायी गयी दिशा का निर्धारण अवश्य ही इस चेतना में अंतर्निहित आत्म-निदेशक ज्ञान के बल का परिणाम होता है । यह अंतर्निहित ज्ञान ही चेतना को यह सामर्थ्य प्रदान करता है कि वह अपनी शक्ति को अनिवार्य रूप से आद्य आत्म-ईक्षण की युक्तियुक्त दिशा के साथ-साथ संचालित कर सके । तो वैश्व चेतना में स्थित यह आत्म-निर्धारक शक्ति ही, अनंत सत्ता की आत्म-अभिज्ञता में किसी सत्य को अपने अंदर देखने और उसकी सर्जनात्मिका शक्ति को उस 'सत्य' की दिशा के अनुरूप प्रवृत्त कर सकने की क्षमता ही जागतिक अभिव्यक्ति की अध्यक्षता करती रही है ।

 

    लेकिन हम स्वयं अनंत चेतना और उसकी क्रियाओं के परिणाम के बीच किसी विशेष शक्ति या क्षमता को घुसेड़ें ही क्यों ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अनंत की यह आत्म-अभिज्ञता ही रूपों को रचती हुई स्वच्छन्द लीला-विहार करे और ये रूप बाद में लीला में तबतक बने रहें जबतक कि उनके विलय का आदेश न हो जाये-जैसा कि प्राचीन सामी (यहूदी) अंतःप्रकाश हमसे कहता है, ''भगवान् ने कहा, प्रकाश हो जाये और प्रकाश हो गया ?'' परंतु जब हम कहते हैं, ''भगवान् ने कहा, ''प्रकाश हो जाये'' तो हम यह मान लेते हैं कि चेतना की शक्ति की ही यह क्रिया है जिसने अन्य सब चीजों में से जो प्रकाश नहीं हैं, प्रकाश का निर्धारण किया और जब हम कहते हैं, ''और प्रकाश हो गया'' तो हम निर्धारित करनेवाली एक क्षमता को, एक ऐसी शक्ति को मान लेते हैं जो मूल अनुबोधक शक्ति से सादृश्य रखती है और इस दृश्य तथ्य को प्रकट करती है और मूल प्रत्यक्ष की रेखा के अनुरूप प्रकाश को क्रियान्वित करती हुई उसे अपने से भिन्न दूसरी सभी अनंत संभावनाओं से अभिभूत होने से बचाती है । अनंत चेतना अपनी अनंत क्रिया में केवल अनंत परिणाम ही ला सकती है । किसी नियत सत्य या सत्यों की व्यवस्था पर स्थिर होने और जो कुछ नियत दुआ है उसके अनुसार एक जगत् का निर्माण करने के लिये ज्ञान की एक ऐसी चयनकारी क्षमता की जरूरत होती है जो अनंत सद्वस्तु में से सांत रूप को आकार देने के लिये नियुक्त हो ।

 

    वैदिक ऋषि इसी शक्ति को माया के नाम से जानते थे । उनके लिये माया का अर्थ था अनंत चेतना की वह शक्ति जो समग्र बोध रखती, सबको अपने में धारण करती और नाप-जोख करती है अर्थात् रूप-रचना करती है -क्योंकि रूप है सीमांकन--अनंत सत् के बृहत् असीम सत्य को नाम और आकार देती है । माया के द्वारा ही मूलभूत सत्ता का स्थावर सत्य सक्रिय सत्ता का क्रमबद्ध सत्य बन जाता है या उसे अधिक तत्त्वज्ञान की भाषा में कहें तो उस परम सत् में से, जिसमें सब कुछ सर्व है, जिसमें पृथक् करनेवाली चेतना का कोई अवरोध नहीं, उसमें से सत्ता की सत्ता के साथ, चेतना की चेतना के साथ, शक्ति की शक्ति के साथ, आनंद की आनंद के साथ क्रीड़ा के लिये ऐसी प्रपंचात्मक सत्ता उभरती है जिसमें प्रत्येक

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में सर्व और सर्व में प्रत्येक स्थित है । प्रत्येक में सर्व और सर्व में प्रत्येक का यह खेल शुरू में माया की भ्रांति के मानसिक खेल द्वारा हमसे छिपा रहता है जो प्रत्येक को यह समझाता है कि वह तो सर्व में है परंतु सर्व उसमें नहीं है और वह भी सर्व में पृथक् सत्ता के रूप में है न कि बाकी सबके साथ सतत अविच्छिन्न रूप से एक होने के रूप में । बाद में हमें इस भ्रांति में से अतिमानसिक लीला या माया के सत्य में उभरना होता है जहां एक सत्य और बहुविध प्रतीक की अविभाज्य एकता में 'प्रत्येक' और 'सर्व' साथ-साथ रहते हैं । निचली, उपस्थित और भ्रामक मानसिक माया का पहले आलिंगन करना होता है और फिर उसे जीतना होता है क्योंकि वह विभाजन, अंधकार और परिसीमन, कामना, संघर्ष और संताप के साथ भगवान् का खेल है जिसमें भगवान् अपने-आपको उस शक्ति के आधीन कर देते हैं जो स्वयं उन्हींसे निकली है और उसके अंधकार के द्वारा अपने-आप भी अंधकार में आ जाते हैं । और जिस दूसरी माया को यह मानसिक माया छिपाये रहती है उसे भी पार करना और फिर उसका आलिंगन करना होगा क्योंकि यह भगवान् का सत्ता की अनतताओं, ज्ञान के वैभवों, अधिकृत शक्ति की महिमाओं, असीम प्रेम के उल्लासों का खेल है । वहां भगवान् शक्ति की पकड़ से बाहर निकल आते हैं, उसकी पकड़ में रहने के बदले उसपर अधिकार कर लेते हैं । और उस आलोकित शक्ति में उस लक्ष्य की पूर्ति करते हैं जिसके लिये वह पहले उनमें से निकली थी ।

 

    निम्नतर और उच्चतर माया का यह भेद ही विचार और जगत्-तथ्य के बीच की वह कड़ी है जो निराशावादी या मायावादी दर्शनों में छूट जाती या उपेक्षित रहती है । उनकी दृष्टि में मानसिक माया ने, या शायद किसी अधिमानस ने जगत् की सृष्टि की है और निश्चय ही मानसिक माया द्वारा बनाया गया जगत् एक ऐसा विरोधाभास होगा जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती । वह सचेतन सत् का एक निश्चित फिर भी उतराता हुआ दुःस्वप्न होगा जिसे न तो भांति में गिना जा सकता है न वास्तविकता में । हमें यह देखना है कि मन सर्जनकारी शासक ज्ञान और अपने कार्यों में बंदी अन्तरात्मा के बीच की एक भूमिका हैं । सच्चिदानंद अपनी निम्नतर गतिविधियों में से एक के द्वारा शक्ति की अपने-आपको भूलनेवाली तल्लीनता में अंतर्लीन रहता है । वह शक्ति अपनी ही क्रियाओं के रूप में खो जाती है और सच्चिदानंद अपने-आपको भूलने की अवस्था में से निकलकर अपनी ही ओर वापिस आता है । इस आरोहण-अवरोहण में मन एक उपकरण मात्र है । यह उतरती हुई सृष्टि का एक उपकरण है, उसका गुप्त स्रष्टा नहीं । वह आरोहण में एक मध्यवर्ती स्थिति है, हमारा परम आदि स्रोत नहीं और न ही जगत्-जीवन की परिपूर्ति की अंतिम स्थिति है ।

 

    जो दर्शन-शास्त्र एकमात्र मन को ही जगतों का स्रष्टा मानते हैं या जो किसी

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मूलतत्त्व को स्वीकार करने के साथ और उसके तथा विश्व के रूपों के बीच मन को एकमात्र मध्यस्थ मानते हैं उन्हें शुद्ध तात्त्विक (नाउमिनल) और आदर्शवादी इन दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शुद्ध तत्त्ववादी जगत् में केवल मन, विचार और भाव की क्रिया को मानता है किंतु भाव शुद्ध रूप से स्वेच्छाचारी हो सकता है । हो सकता है कि उसका सत्ता के किसी वास्तविक सत्य के साथ कोई तात्त्विक संबंध न हो या अगर ऐसे किसी सत्य का अस्तित्व हो भी तो उसे ऐसा निरपेक्ष माना जा सकता है जो सभी संबंधों से अलग-थलग हो और संबंधों के जगत् से मेल नहीं खाता हो । आदर्शवादी व्याख्या पीछे के सत्य और सामने के धारणात्मक प्रर्पच में एक संबंध मानती है और यह संबंध केवल विपरीतता और विरोध का नहीं होता । मैं जो दृष्टि प्रस्तुत कर रहा हूं वह आदर्शवाद में और आगे जाती है । वह सर्जक भाव को सत्य-संकल्प के रूप में देखती है यानी चित्-शक्ति की ऐसी शक्ति जो वास्तविक सत्ता को अभिव्यक्त करती, वास्तविक सत्ता से उत्पन्न होती और उसकी प्रकृति में भाग लेती है । वह न तो शून्य की संतान है न मिथ्या रचनाओं की बुनकर । यह सचेतन सद्वस्तु है जो अपने-आपको अपने ही अमर और अक्षर पदार्थ से बने क्षर रूपों में प्रक्षिप्त करती है । अतः जगत् वैश्व मन में अवधारित निरी कल्पना नहीं है बल्कि जो मन के परे है उसीका अपने रूपों में सचेतन जन्म है । एक सचेतन सत्ता का सत्य इन रूपों को सहारा देता है और उनमें अपने-आपको अभिव्यक्त करता है और इस तरह व्यक्त सत्य के अनुरूप ज्ञान अतिमानसिक ऋत-चित् के रूप में राज करता और सत् भावों को पूर्ण सामंजस्य में व्यवस्थित करता है इससे पहले कि उन्हें मानसिक, प्राणिक और शारीरिक सांचे में ढाला जाये । मन, प्राण और शरीर निम्नतर चेतना हैं और ऐसी आंशिक अभिव्यक्ति हैं जो एक नानाविध विकासक्रम के सांचे में अपनी उस श्रेष्ठतर अभिव्यक्ति पर पहुंचने की कोशिश करती है जो मनसातीत के लिये पहले से ही मौजूद है । मनसातीत में जो है वह मूल भाव है जिसे वह निम्नतर चेतना स्वयं अपनी अवस्थाओं में व्यक्त करने के लिये श्रम कर रही है ।

 

    अपने आरोहण की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि जो कुछ अस्तित्व में है उसके पीछे 'यथार्थ' है । वह यथार्थ मध्यस्थ के तौर पर अपने-आपको एक 'मूलभाव' के रूप में प्रकट करता है जो स्वयं उसीका सामंजस्यपूर्ण सत्य है । मूलभाव एक परिवर्तनशील सचेतन सत्ता की दृश्यमान वास्तविकता को प्रक्षिप्त करता है । यह दृश्यमान वास्तविकता अनिवार्य रूप से अपनी तात्त्विक यथार्थता की ओर आकर्षित होती है और अंत में उसे उग्रता से छलांग मारकर या उस 'मूलभाव' द्वारा, जिसने 

 

    मैंने यह शब्द ऋग्वेद से लिया है -ऋत-चित् का अर्थ है सत्ता के तात्त्विक सत्य की चेतना (सत्यम्), सक्रिय सत्ता के व्यवस्थित सत्य की चेतना (ऋतम्) और विस्तृत आत्म-अभिज्ञता (वृहत्), केवल इसीमें यह चेतना संभव है ।

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उसे उत्पन्न किया था, स्वाभाविक रूप में, पूरी तरह फिर से पाने का प्रयत्न करती है । यही मन द्वारा देखी गयी मानव-अस्तित्व की अपूर्ण वास्तविकता की व्याख्या करती है । यहीं मानसिक सत्ता में सदा अपने से परे की पूर्णता की ओर, मूलभाव के उस छिपे हुए सामंजस्य की ओर और मूलभाव से परे परात्पर की ओर आत्मा की उठती हिलोरों की सहज-प्रवृत्तिगत अभीप्सा की व्याख्या करती है । हमारी चेतना के अपने तथ्य ही, उसका गठन और उसकी आवश्यकता इस तरह के त्रिविध क्रम की ही पूर्वकल्पना करते हैं; वे केवल निरपेक्ष से सापेक्षिकता की ओर ले जानेवाली द्वैतपरक और असमाधेय प्रतिस्थापना का खंडन करते हैं ।

 

    वैश्व अस्तित्व की व्याख्या करने के लिये मन काफी नहीं है । पहले अनंत चेतना को अपने-आपको ज्ञान की अनंत क्षमता में या जिसे हम अपने दृष्टिकोण से सर्वज्ञता कहते हैं उसमें अनूदित करना होता है । परंतु मन ज्ञान की क्षमता नहीं है और न ही सर्वज्ञता का उपकरण है । वह एक ऐसी क्षमता है जो ज्ञान की खोज करने, वह जो कुछ पा सके उसे सापेक्ष विचार के अमुक रूपों में प्रकट करने और उसे क्रिया की अमुक समर्थताओं के लिये उपयोग में लाने का साधन है । जब वह ज्ञान पा भी लेता है तो उसका उसपर अधिकार नहीं होता । वह सत्य की प्रचलित मुद्रा के कुछ सिक्कों का-स्वयं सत्य का नहीं --कुछ कोष स्मृति के बैंक में जमा रखता है ताकि आवश्यकता के अनुसार काम में ला सके । कारण मन वह है जो कभी जानता नहीं, जो जानने की कोशिश करता है पर कभी जान नहीं पाता, जानता भी है तो धुंधले कांच की तरह । यह वह शक्ति है जो वस्तुओं के कतिपय विधान के क्रियात्मक उपयोग के लिये वैश्व अस्तित्व के सत्य की व्याख्या करती है । यह वह शक्ति नहीं है जो जानती और उस अस्तित्व का पथ-प्रदर्शन करती है अत: यह वह शक्ति नहीं हो सकती जिसने उसे रचा या अभिव्यक्त किया हो ।

 

    लेकिन अगर हम एक ऐसे मन को मान लें जो अनंत हो और हमारी सीमाओं से मुक्त हो तो वह तो भली-भांति विश्व का स्रष्टा हो ही सकता है ? लेकिन ऐसा मन उस मन की परिभाषा से बिलकुल भिन्न होगा जिसे हम जानते हैं । वह तो मानसिकता से परे की चीज होगी, वह अतिमानसिक सत्य होगा । हम जिस मानसिकता को जानते हैं उसकी अवस्थाओं में बना हुआ अनंत मन, केवल एक अनंत अस्तव्यस्तता की, किसी अनिर्दिष्ट लक्ष्य की ओर भटकते संयोग, आकस्मिक घटना और उलटफेर के एक विशाल संघर्ष की ही रचना करनेवाला होगा; इस अनिर्दिष्ट लक्ष्य को ही वह सदा परीक्षणात्मक रूप से टटोलता और उसकी अभीप्सा करता रहेगा । एक अनंत, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् 'मन', मन बिलकुल न होगा, वह तो अतिमानसिक ज्ञान होगा ।

 

    मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं, एक प्रतिबिंब दिखानेवाला आईना है जो पहले ही से उपस्थित सत्य या तथ्य के प्रतिपादनों या प्रतिरूपों को ग्रहण करता है ।

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ये सत्य या तथ्य या तो उसके बाहर या कम-से-कम उससे अधिक विस्तृत होते हैं । वह क्षण-पर-क्षण अपने आगे उस घटना को चित्रित करता है जो या तो उपस्थित है या हो चुकी है । उसमें यह क्षमता भी है कि वह अपने अंदर प्रस्तुत किये गये वास्तविक तथ्यों से भिन्न, संभव बिंबों का निर्माण कर ले यानी वह अपने आगे केवल उन्हीं घटनाओं को चित्रित नहीं करता जो हो चुकी हैं बल्कि उन्हें भी जो हो सकती हैं । यह ध्यान रहे कि वह अपने आगे उस घटना को चित्रित नहीं कर सकता जो निश्चित रूप से होगी, बशर्तें कि वह जो है और जो हो चुकी हैं उसकी सुनिश्चित पुनरावृत्ति ही न हो । और अंत में उसमें ऐसे नये परिवर्तनों की पूर्व-कल्पना करने की क्षमता भी है जिसे वह, जो हो चुका है और जो हो सकता है, जो संभावना पूरी हो चुकी है और जो पूरी नहीं हुई, उन्हें मिलाकर करने की कोशिश करता है । यह एक ऐसी चीज है जिसकी कम या अधिक सही-सही रचना करने में कभी वह सफल हो जाता है और कभी असफल । परंतु सामान्यत: वह देखता है कि उसने जैसी कल्पना की थी, वह चीज उनसे भिन्न रूपों में ढल गयी है और उसने जिन उद्देश्यों की इच्छा की थी, उसका जो इरादा था उनसे भिन्न दिशा में मुड़ गयी है ।

 

    ऐसे गुणवाला अनंत मन संभवत: संघर्षरत संभावनाओं का एक आकस्मिक विश्व बना ले और उसे किसी ऐसी चीज का रूप दे जो चलायमान, सदा अनित्य, अपने प्रवाह में सदा अनिश्चित हो, जो न वास्तविक हो और न अवास्तविक, जिसका कोई निश्चित उद्देश्य या लक्ष्य न हो बल्कि क्षणिक लक्ष्यों का अंतहीन अनुक्रम हो --क्योंकि ज्ञान की कोई श्रेष्ठतर निर्देशिका शक्ति तो है ही नहीं --जो अंततः कहीं नहीं पहुंचाता । इस प्रकार के शुद्ध तत्त्ववाद का एकमात्र युक्तियुक्त परिणाम शून्यवाद या मायावाद, या कोई उनका सजातीय दर्शन ही हो सकता है । इस तरह बना संसार किसी ऐसी चीज का प्रस्तुतीकरण या प्रतिबिंब हो सकता है जो वह स्वयं नहीं है बल्कि सदा और अंततक एक मिथ्या प्रस्तुतीकरण और विकृत प्रतिबिंब होगा । समस्त वैश्व सत्ता एक ऐसा मन होगा जो अपनी कल्पनाओं को पूरी तरह चरितार्थ करने के लिये संघर्षरत है, पर सफल नहीं हो पाता क्योंकि उन कल्पनाओं में आत्म-सत्य का अनिवार्य आधार नहीं होता । वह अपनी ही भूतकाल की ऊर्जा की धाराओं के द्वारा अभिभूत हो आगे बहाया जाता रहेगा । वह अनिर्दिष्ट रूप से तबतक सदा बिना किसी परिणाम के आगे बढ़ाया जाता रहेगा जबतक कि वह अपनी हत्या न कर लें या शाश्वत निश्चलता में न जा गिरे । इस विचार को इसके मूलतक ले जायें तो यही शून्यवाद या मायावाद है और अगर हम यह मान लें कि हमारी मानव मानसिकता या उसके जैसी कोई और चीज सर्वोच्च वैश्व शक्ति एवं विश्व में क्रिया करनेवाली मूल कल्पना का प्रतिनिधित्व करती है तो यही एकमात्र बुद्धिमत्ता है ।

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    किंतु जिस क्षण हमें यह पता चलता है कि ज्ञान की आदि शक्ति में एक ऐसी शक्ति है जो उस शक्ति से उच्चतर है जिसका प्रतिनिधित्व हमारी मानसिकता करती है, उसी क्षण विश्व की यह कल्पना अपर्याप्त और इस कारण अमान्य हो जाती है । उसमें अपना सत्य है परंतु यह पूर्ण सत्य नहीं है । यह विश्व के तात्कालिक रूप का विधान तो है किंतु उसके आदि सत्य या अंतिम तथ्य का नहीं । क्योंकि मन, प्राण और शरीर की क्रिया के पीछे हम कोई ऐसी चीज देखते हैं जो शक्ति के प्रवाह के आलिंगन में नहीं आती बल्कि उसका आलिंगन करती और उसपर नियंत्रण करती है, कोई ऐसी चीज जो ऐसे जगत् में पैदा नहीं हुई है जिसका वह अर्थ खोजती है; बल्कि एक ऐसी चीज जिसने अपनी सत्ता में ऐसे जगत् की रचना की है जिसके लिये वह सर्वज्ञ है, कोई ऐसी चीज जो सदा अपने अंदर से कोई और चीज बनाने के लिये श्रम नहीं करती जब कि वह अपनी अतीत ऊर्जाओं की --जिन पर उसका बस नहीं -अभिभूत करनेवाली तरंगों में बहती चली जाती है, बल्कि ऐसी वस्तु जिसकी चेतना में उसका अपना एक पूर्ण रूप होता है और उसे वह यहां पर धीरे-धीरे खोल रही है । जगत् एक पूर्वदृष्ट सत्य को अभिव्यक्त करता है, एक पूर्वनिर्धारण करनेवाली इच्छा की आज्ञा का पालन करता हैं, एक मौलिक रूपायन के आत्मदर्शन को चरितार्थ करता है --यह दिव्य सृष्टि का विकसित होता हुआ प्रतिरूप है ।

 

    जबतक हम प्रतीतियों से प्रभावित मानसिकता के द्वारा ही कार्य करते हैं तबतक परे या पीछे रहनेवाली परंतु फिर भी सदा अंतर्यामी यह वस्तु केवल अनुमान या अस्पष्ट अनुभूति का विषय हो सकती है । हम एक चक्राकार प्रगति का विधान देखते हैं और अनुमान करते हैं कि कहीं पर पहले से ज्ञात, सदा-वृद्धिशील कोई पूर्णता है क्योंकि हम हर जगह 'विधान' को आत्म-सत्ता के अंदर प्रतिष्ठित देखते हैं और जब हम उसकी प्रक्रिया के मूल हेतु के अंदर गहरे प्रवेश करते हैं तो देखते हैं कि वह विधान एक सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति है, उस ज्ञान की अभिव्यक्ति जो सत्ता में अंतर्निहित है, जो अपने-आपको प्रकट करता है और उस शक्ति में समाया हुआ है जो उसे प्रकट करती है । जब विधान ज्ञान के द्वारा इस तरह विकसित होता है कि प्रगति हो सके तो उसके अंदर दिव्य दृष्टि से देखा दुआ एक लक्ष्य छिपा रहता है जिसकी ओर गति हो रही है । हम यह भी देखते हैं कि हमारी तर्क-बुद्धि हमारी मानसिकता के असहाय बहाव में से ऊपर उभरना और उसपर आधिपत्य करना चाहती है और हम इस बोध पर पहुंचते हैं कि तर्कबुद्धि अपने से परे की एक महत्तर चेतना की केवल एक संदेशवाहक, एक प्रतिनिधि या छायामात्र है । उस महत्तर चेतना को तर्क की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह सर्व है और वह जो कुछ है उस सबको जानती है । तब हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि तर्कबुद्धि का यह मूल उस ज्ञान के साथ अभिन्न है जो जगत् में विधान के रूप में

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कार्य करता है । यह ज्ञान पूरी प्रभुता के साथ अपना विधान निश्चित करता है क्योंकि वह जानता है कि क्या हो चुका है, क्या है और क्या होगा । वह इसलिये जानता है क्योंकि वह शाश्वत रूप से है और अनंत रूप से अपने-आपको समझता है । वह ऐसा सत् है जो अनंत चेतना है, ऐसी अनंत चेतना है, जो सर्वशक्तिमान् शक्ति है । वह जब एक जगत् को यानी अपने-आपके एक सामंजस्य को अपनी चेतना का विषय बनाता है तब वह हमारे विचार द्वारा वैश्व सत्ता के रूप में पकड़ में आ जाता है जो अपना निजी सत्य जानती है और जिसे जानती है उसे रूपों में चरितार्थ करती है ।

 

    लेकिन यह दूसरी चेतना हमारे लिये वस्तुतः तभी अभिव्यक्त होती है जब हम तर्क करना छोड़ देते हैं और अपने अंदर की गहराइयों में उस गूढ़ एकांत में चले जाते हैं जहां मन निश्चल हो जाता है -चाहे वह अभिव्यक्ति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया के लंबे अभ्यास के और मानसिक सीमाओं के कारण कितनी भी अपूर्ण क्यों न हो । तब हम निश्चित रूप से बढ़ते हुए प्रकाश में उसे देख सकते हैं जिसकी हमनें तर्कबुद्धि की धुंधली और टिमटिमाती रोशनी से अनिश्चित रूप में कल्पना की थी । ज्ञान असीम आत्म-दर्शन के ज्योतिर्मय बृहत् में, हमारे मन और बौद्धिक तर्क के पीछे सिंहासन पर बैठा प्रतीक्षा करता है ।

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अध्याय १४

 

अतिमानस स्रष्टा के रूप में

 

          जानीहि (विश्वानि) विज्ञानविजृम्भितानि ।

          सभी चीजें 'दिव्य ज्ञान' (विज्ञान) का आत्म-विस्तार हैं ।

                                              विष्णुपुराण २.१२.३९

 

तो सक्रिय इच्छा और ज्ञान का एक तत्त्व जौ मन से श्रेष्ठ है और जगतों का स्रष्टा है वही एकमेव की उस आत्मवत्ता और बहु के इस प्रवाह के बीच एक मध्यवर्ती शक्ति और सत्ता की स्थिति है । यह तत्त्व हमारे लिये बिलकुल विजातीय नहीं है, न ही वह हमसे एकदम परायी सत्ता की चीज है जिससे हमारा कोई संपर्क ही नहीं हों सकता, जो हमसे बिलकुल अलग है या सत्ता की कोई ऐसी स्थिति है जिसमें से हम किसी रहस्यमय ढंग से जन्म में प्रक्षिप्त तो हुए हैं, पर साथ ही परित्यक्त और वहां लौटने में असमर्थ हैं । अगर हमें ऐसा लगता है कि वे हमसे दूर कहीं ऊंचे शिखरों पर विराजमान हैं तो भी वे हमारी अपनी ही सत्ता की ऊंचाइयां हैं और हमारे पैरों की पहुंच के भीतर हैं । हम उस सत्य का केवल अनुमान ही नहीं कर सकते, उसकी केवल झलक ही नहीं पा सकते बल्कि उसकी उपलब्धि करने योग्य भी हैं । उत्तरोत्तर विस्तार द्वारा या किन्हीं अविस्मरणीय क्षणों मे सहसा ज्योतिर्मय आत्म-अतिक्रमण द्वारा इन शिखरों पर चढ़ सकते हैं या उच्चतम अतिमानवीय अनुभूति के काल में तो घंटों या दिनोंतक भी वहां निवास कर सकते हैं । फिर जब हम उतरते हैं तो संपर्क के ऐसे दरवाजे होते हैं जिन्हें हम हमेशा खुला रख सकते हैं या उन्हें हम फिर-फिर खोल सकते हैं चाहे वे बार-बार बंद हो जाते हों । परंतु जब हमारी विकसनशील मानव चेतना आत्म-विलोप नहीं आत्म-पूर्णता की खोज करती है तो सृष्ट और सर्जनशील सत्ता के इस अंतिम और उच्चतम शिखर पर स्थायी रूप से निवास ही अंत में हमारा परम आदर्श होता है । क्योंकि, जैसा कि हमने देखा है, यही वह आदि 'भाव' और चरम सामंजस्य एवं सत्य है जहां जगत् में धीरे-धीरे होनेवाली हमारी आत्माभिव्यक्ति लौट रही है और जिसे प्राप्त करना ही उसका उद्देश्य है ।

 

    फिर भी हमें यह संदेह हो सकता है कि क्या, अभी या कभी भी, यह संभव है कि इस स्थिति का मानव बुद्धि को विवरण दिया जा सके या उसकी दिव्य क्रियाओं का किसी कथनीय और व्यवस्थित ढंग से मानव ज्ञान और क्रिया के उन्नयन के लिये उपयोग किया जा सके । यह संदेह केवल इसलिये नहीं उठता कि इस दिव्य क्षमता के मानव क्रिया में प्रयोग को दर्शानिवाले ज्ञात तथ्य विरल और संदिग्ध हैं

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या दूरी इस क्षमता की क्रिया को सामान्य मानवजाति के अनुभव और प्रमाणनीय ज्ञान से अलग कर देती है बल्कि इसलिये कि मानव मानसिकता और दिव्य अतिमानस के बीच, इनके सत्त्व और कार्यव्यापार दोनों में प्रकट विरोध है, वह भी इस संदेह को पक्का और पुष्ट करता है ।

 

    और निश्चय ही यदि इस चेतना का मन के साथ कोई संबंध न होता या मानसिक सत्ता के साथ कहीं कोई भी एकात्मता न होती तो मानव धारणाओं को इसका कोई भी विवरण देना एकदम असंभव होता । अथवा अगर यह चेतना अपने स्वरूप में ज्ञान की केवल एक दृष्टि होती, ज्ञान की गतिशील क्रिया की शक्ति बिलकुल न होती तो हम उसके संपर्क सें मानसिक प्रकाश की आनंदमय स्थिति को पाने की आशा तो कर सकते थे परंतु जगत्, के कार्यों के लिये महत्तर प्रकाश या शक्ति की नहीं । लेकिन चूंकि यह चेतना जगत् का सर्जन करनेवाली हैं इसलिये वह केवल ज्ञान की स्थिति ही नहीं, ज्ञान की शक्ति भी होनी चाहिये; वह न केवल प्रकाश और दृष्टि के लिये 'इच्छा' बल्कि शक्ति और कार्य के लिये भीं 'इच्छा' होनी चाहिये । और चूंकि स्वयं 'मन' भी उसीमें से बना है अतः 'मन' परम चेतना की इस आद्य क्षमता और इस मध्यस्थ क्रिया सें ही परिसीमन के द्वारा विकसित हुआ होगा और इस कारण उसे विस्तार के उल्टे विकास द्वारा अपने-आपको उसमें फिर से विघटित करने मे सक्षम होना चाहिये । क्योकि सदा मन को अतिमानस के साथ तत्त्वतः एकात्म होना और अपने अंदर अतिमानस की संभाव्यताओं को छिपाये रखना चाहिये, चाहे वह अपने प्रत्यक्ष रूपों और कार्य करने के रूढ़ तरीकों में कितना भी भिन्न और विपसईत क्यों न हो गया हो । तब संभव है कि हमारे बौद्धिक ज्ञान के दृष्टिकोण से और उसकी परिभाषाओं में समानता और विषमता की पद्धति द्वारा अतिमानस का कोई भाव प्रस्तुत करने का हमारा प्रयास अयुक्तियुक्त या व्यर्थ न हो । यह भाव और ये परिभाषाएं भले अपर्याप्त हों फिर भी ऐसे मार्ग की ओर प्रकाश की अंगुलि बनकर हमें आगे का रास्ता दिखा सकती हैं जिसपर हम कुछ दूर तो चल ही सकते हैं । और फिर मन के लिये यह भी संभव है कि वह अपने-आपसे परे चेतना की अमुक ऊंचाइयों या स्तरोंतक ऊपर उठ जाये और वहां अतिमानसिक चेतना के प्रकाश और शक्ति को कुछ परिवर्तन के साथ अपने अंदर ग्रहण कर सके और उसे एक प्रकाश के, अंतर्भास के या एक सीधे संपर्क या अनुभूति के द्वारा जान सके यद्यपि उसीमें निवास करना, वहीं से देखना और कार्य करना एक ऐसी विजय है जो मानव के लिये अभीतक संभव नहीं हुई है ।

 

    यहां क्षणभर के लिये रुककर हमें अपने-आपसे यह यह चाहिये कि क्या अतीत से ऐसा कोई प्रकाश नहीं पाया जा सकता जो शायद ही कभी ठीक रूप से खोजे गये इन प्रदेशों मे हमारा मार्ग-दर्शन कर सके । हमें एक नाम की आवश्यकता है और आवश्यकता है एक आरंभबिंदु की । क्योंकि हमनें चेतना की

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इस अवस्था को अतिमानस का नाम दिया है परंतु यह शब्द अनेकार्थक है क्योंकि इसे स्वयं मन के अर्थ में लिया जा सकता है । ऐसे मन के जो साधारण मानसिकता से ऊपर उठ गया है और उससे बहुत ऊंचा है लेकिन उसमें कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ है या इसके विपरीत इसमें वह सब आ सकता है जो मन के परे है और इस तरह उसमें बहुत अधिक व्याप्ति आ जायेगी, जिसमें स्वयं 'अनिर्वचनीय' भी आ जायेगा । एक सहायक वर्णन देने की जरूरत है जो उसके अर्थ को अधिक यथार्थ रूप में सीमित कर सके ।

 

    यहां वेद के रहस्यमय मंत्र हमारी सहायता करते हैं क्योकि उनमें दिव्य और अमर अतिमानस का संदेश है, यद्यपि है छिपा हुआ और पर्दे में से कुछ प्रकाशदायक कौंधें हमारे पास आती हैं । इन वचनों के द्वारा हम इस अतिमानस की कल्पना अपनी चेतना के सामान्य आकाश के परे एक बृहत् के रूप मे कर सकते हैं जिसमें हमारी सत्ता का सत्य उसको अभिव्यक्त करनेवाली सभी चीजों के साथ ज्योतिर्मय रूप में एक होता है और दृष्टि, रूपायन, व्यवस्था, शब्द, क्रिया और गति के सत्य की सुनिश्चितता और इस कारण गति के परिणाम के सत्य, क्रिया और अभिव्यक्ति के परिणाम के सत्य की सुनिक्षितता भी अनिवार्य रूप से बनी रहती है, अचल अध्यादेश और विधान सुनिश्चित रूप से बने रहते हैं । बृहत् सर्वव्यापकता, उस बृहत्ता में सत्ता का ज्योतिर्मय सत्य और सामंजस्य, न कि एक अस्पष्ट अस्तव्यस्तता और अपने में खोया दुआ अंधकार; धर्म और क्रिया का सत्य और सत्ता के सामंजस्यपूर्ण सत्य को अभिव्यक्त करनेवाला ज्ञान, ऐसा मालूम होता है कि वैदिक वर्णन के ये सारभूत तत्त्व हैं । देवता अपने उच्चतम गुह्य रूप मे इसी अतिमानस की शक्तियां हैं, वें इसीसे उत्पन्न हुए हैं, और इसीमें इस तरह बैठे हैं मानों अपने निजी घर में हों, वें अपने ज्ञान मे 'ऋत चिन्मय' (सत्य-चेतन) हैं और अपने कर्म में 'कविक्रतु:' (द्रष्टा संकल्प) से युक्त हैं । उनकी सचेतन शक्ति कर्म और सृष्टि की ओर मुड़ी हुई होती है और जो चीज की जानी है उसके और उस चीज के सत्त्व और धर्म के संपूर्ण और सीधे ज्ञान से युक्त होती है और उसीसे संचालित होती है । यह ऐसा ज्ञान है जो पूरी तरह प्रभावकारी ऐसी इच्छा-शक्ति को निर्धारित करता है जो अपनी प्रक्रिया या अपने परिणाम में न तो भटकती है और न लड़खड़ाती है । दिव्य दृष्टि में जो कुछ देखा गया है उसे वह सहज और अनिवार्य रूप से अभिव्यक्त और परिपूर्ण करती है । यहां 'प्रकाश' 'शक्ति' के साथ एकरूप होता है । ज्ञान के स्पन्दन इच्छा-शक्ति की लय के साथ एकरूप होते हैं और दोनों आनेवाले पूर्वनिक्षित परिणाम के साथ पूरी तरह एकरूप होते हैं, उन्हें परिणाम लाने के लिये खोजना, टटोलना या प्रयास नहीं करना पड़ता । दिव्य प्रकृति में दोहरी शक्ति होती है, सहज आत्म-रूपायन और आत्म-विन्यास की शक्ति जो अभिव्यक्त वस्तु के सत्त्व में से स्वाभाविक रूप से उमड़ती और उसके आदि सत्य को प्रकट

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करती है और प्रकाश की आत्म-सामर्थ्य जो स्वयं वस्तु के अंदर हीं अंतर्निहित रहती और उसके सहज और अनिवार्य आत्म-विन्यास का उद्गम है ।

 

    कुछ गौण परंतु महत्त्वपूर्ण विवरण हैं । ऐसा लगता है कि वैदिक द्रष्टा 'ऋत चिन्मय' अंतरात्मा की दो प्रारंभिक क्षमताओं की बात करते हैं, वे हैं 'दृष्टि' और 'श्रुति' जिनसे उनका मतलब है अंतर्लींन ज्ञान की सीधी क्रिया, इन्हें सत्य-दर्शन और सत्य-श्रवण कह सकते हैं, इन्हें सुदूर स्थान से हमारी मानव मानसिकता में अंतःप्रकाश और अंतःप्रेरणा की क्षमताओं द्वारा प्रतिबिंबित किया जाता है । इसके अतिरिक्त, ऐसा मालूम होता है कि अतिमानस की क्रियाओं में दो प्रकार के ज्ञान में भेद किया जाता है । एक है सर्वसमावेशी और सर्वव्यापी चेतना द्वारा प्राप्त ज्ञान जो तादात्म्य द्वारा प्राप्त आत्मनिष्ठ ज्ञान के बहुत नजदीक होता है, दूसरा है बहि:क्षिप्त, सम्मुखस्थ बहिर्ज्ञान, प्रवृत्त चेतना द्वारा प्राप्त ज्ञान जो वस्तुनिष्ठ ज्ञान का आरंभ है । ये वैदिक संकेत हैं और हम इस प्राचीन अनुभव के आधार पर अधिक लचीले शब्द अतिमानस को सामान्य अर्थ में मर्यादित करने के लिये सहायकारी शब्द 'सत्य चेतना' या 'ऋत-चित्' को स्वीकार कर सकते हैं ।

 

    हम तुरंत देखते हैं कि ऐसी चेतना जिसका वर्णन ऐसे शब्दों द्वारा किया गया है, अवश्य ही एक मध्यवर्ती रचना होगी जो अपने पीछे, ऊपर की एक अवस्था और अपने सामने नीचे की एक अवस्था की ओर निर्देश करती है । साथ ही हम देखते हैं वह स्पष्ट रूप से एक कड़ी और साधन है जिसके द्वारा श्रेष्ठतर मे से निम्नतर विकसित होता है और समान रूप से उसे वह कड़ी और साधन भी होना चाहिये जिसके द्वारा निम्नतर विकसित होकर अपने मूल की ओर लौट सके । ऊपर की अवस्था है शुद्ध सच्चिदानंद की एकत्वमयी या अविभाज्य चेतना जिसमें कोई अलग करनेवाले भेद नहीं होते और निचली अवस्था है विश्लेषणात्मक या विभाजनकारी 'मन' की चेतना जो केवल विभाजन और पृथक्करण के द्वारा ही जान सकती है और उसे एकता और अनंतता का अधिक-से-अधिक एक अस्पष्ट-सा बोध ही हो सकता है क्योकि यद्यपि वह अपने विभागों का समन्वय कर सकती है परंतु वह सच्ची समग्रता को नहीं पा सकती । उनके बीच यह सर्वसमावेशी और सर्जनात्मक चेतना है । अपने सर्वव्यापी और सर्वसमावेशी ज्ञान की शक्ति के नाते वह तादात्म्य से आनेवाली आत्म-अभिज्ञता की संतान है जो ब्रह्म की स्थिति है और अपनी बहि:क्षिप्त, सभुखस्थ, बहिर्ज्ञान-प्रवृत्त ज्ञान की शक्ति के नाते वह भेद से पैदा होनेवाली उस अभिज्ञता की जननी है जो 'मन' की प्रक्रिया है ।

 

    ऊपर शाश्वत रूप से स्थायी, अक्षर एकमेवाद्वितीयमू का तत्त्व है और नीचे बहु का तत्त्व है जो शाश्वत रूप से क्षर रहता है । वह चीजों के परिवर्तन-प्रवाह में एक स्थिर और दृढ़ और अविचल आधरबिंदु की खोज करता है पर मुश्किल से ही पाता है । बीच मे आसन है समस्त त्रयी, समस्त द्वयेक, उस सबका जो 'बहु' में एक

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और 'एक' में 'बहु' है क्योंकि मूलतः वह 'एक' ही था जो संभाव्यता में सदा 'बहु' रहा । अतः यह मध्यावस्था समस्त सृष्टि और विन्यास का आरंभ और अंत, अथ और इति है, यही समस्त विभेदीकरण का आरभबिंदु और समस्त एकीकरण का साधन है, सभी उपलब्ध या उपलब्ध हो सकनेवाले सामंजस्यों की प्रवर्तिका, उन्हें कार्यान्वित करने और पूर्णतातक पहुचानेवाली है । उसमें एकमेव का ज्ञान है परंतु वह एकमेव में से उसमें छिपे बहु को भी बाहर ला सकने में समर्थ हैं, वह 'बहु' को अभिव्यक्त करती है परंतु उनके विभेदों में अपने-आपको खो नहीं देती । क्या हम यह नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व ही अनिर्वचनीय एकत्व के हमारे उच्चतम बोध से भी परे की किसी वस्तु की ओर फिर से संकेत करता है --किसी ऐसी चीज की ओर जो केवल अपनी एकता और अविभाज्यता के कारण ही नहीं बल्कि हमारे मन के इन निरूपणों से भी मुक्त होने के कारण अनिर्वचनीय और मन के लिये अगम्य है-कोई ऐसी चीज जो एकत्व और बहुत्व दोनों के परे है ? 'वह' होगी परम निरपेक्ष और सद्वस्तु फिर भी वह हमारे ईश्वर के ज्ञान और जगत् के ज्ञान दोनों को उचित ठहराती है ।

 

   लेकिन ये शब्द व्यापक और समझने में कठिन हैं, चलो हम सुनिश्चितता पर आयें । हम 'एक' को सच्चिदानंद कहते हैं लेकिन इस वर्णन में ही हम तीन इकाइयों को आगे रखकर, उन्हें एक करके, एक त्रिक पर जा पहुंचते हैं । हम कहते हैं, '' 'सत्', 'चित्', और " आनंद' '' और फिर कहते हैं कि 'वे एक हैं' । यह मन की प्रक्रिया है परंतु एकत्वमयी चेतना के लिये ऐसी प्रक्रिया मान्य नहीं है । सत् ही चित् है और उनमें कोई विभेद नहीं हो सकता । चेतना (चित्) ही आनंद है और उनमें कोई विभेद नहीं हो सकता । और चूंकि वहां इतना भीं विभेद नहीं है इसलिये जगत् का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता । अगर यही एकमात्र सद्वस्तु है तब तो जगत् है ही नहीं । उसका कभी अस्तित्व नहीं रहा, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की गयी होगी क्योंकि अविभाज्य चेतना अविभाजनकारी चेतना है और वह विभाजन और विभेद का आरंभ नहीं कर सकती । लेकिन यह असंगति-दोष है । हम उसे तबतक नहीं स्वीकार कर सकते जबतक कि हम सारी चीज को एक असंभव विरोधाभास और विसंवादी प्रतिपक्ष के आधार पर प्रतिष्ठित करने से ही संतुष्ट न हों ।

 

    दूसरी ओर 'मन' सुनिश्चित रूप में विभाजनों को वास्तविक मान सकता है । वह समन्वयात्मक समग्रता की अथवा अपने-आपको अनंततक फैलानेवाले सांत की कल्पना कर सकता है । विभाजित वस्तुओं के कुल योग और उनके आधार में विद्यमान समरूपता उसकी पकड़ में आ सकते हैं लेकिन चरम एकत्व और पूर्ण अनंतता उसके वस्तुविषयक विवेक के लिये अमूर्त विचार हैं और पकड़ में न आनेवाले परिमाण हैं । यह ऐसी चीज नहीं है जो उसकी पकड़ के लिये वास्तविक

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हो, उसे एकमात्र सद्वस्तु समझना तो उसके लिये और भी कम संभव है । यहां, इसलिये एकत्वमयी चेतना से एकदम उल्टी अवस्था है । हम यहां अनिवार्य और अविभाज्य ऐक्य का सामना करते हुए एक तत्त्वतः बहुत्व को पाते हैं जो अपने-आपको नष्ट किये बिना एकत्व पर नहीं पहुंच सकता और ऐसा करते हुए वह स्वीकार करता है कि वस्तुत: कभी उसका अस्तित्व रहा ही नहीं । फिर भी वह था तो सही क्योंकि इसीने तो एकत्व पाया और अपने-आपको नष्ट किया । और हम फिर से इस असंगति-दोष पर आ पहुंचते हैं जिसमें हम पुनः उग्र विरोधाभास को पाते हैं जो विचार को सुन्न वारके उसे विश्वास दिलाना चाहता है और न सुलझी और न सुलझ सकनेवाली परस्पर-विरोधी स्थापना को पाते हैं ।

 

    अगर हम यह अनुभव कर लें कि 'मन' हमारी चेतना का प्रारंभिक रूपमात्र हैं तो निचली भूमिका, में कठिनाई लुप्त हो जाती है । मन विश्लेषण और संश्लेषण का यंत्र है, तात्त्विक ज्ञान का नहीं । उसका कार्य है स्वयं अपने अंदर की अज्ञात 'वस्तु' में से अस्पष्ट रूप में कुछ काट लेना और उसके इस कटे-छंटे या सीमित रूप को समग्र कहना, और समग्र को फिर से भागों में अलग-अलग बांट देना जिन्हें वह पृथक् मानसिक वस्तुएं समझता है । मन केवल भागों और बाह्य गुणों को ही निश्चित रूप से देख सकता और अपने ही ढंग से जान सकता है । समग्र के बारे में उसका एकमात्र निश्चित विचार यही है कि वह भागों का समवाय या तात्त्विक और बाह्य गुणों की समष्टि है । समग्र को जबतक 'मन' किसी दूसरी चीज के भाग के रूप मे या अपने ही भागों और तात्त्विक तथा बाह्य गुणों के रूप मे न देख ले तबतक यह उसके लिये एक धुंधली धारणा से अधिक कुछ नहीं होता । केवल तभी जब वह उसे टुकड़ो में अलग-अलग करके देख लेता है और उसे अपने-आपमें एक पृथक् निर्मित वस्तु के रूप में, एक अधिक बड़ी समग्रता के अंदर स्थित एक समग्रता के रूप में बिठा लेता है तो 'मन' अपने-आपसे कहता है, ''अब मैं इसे जानता हूं" । पर असल में वह जानता नहीं । वह केवल वस्तु के बारे में अपने विश्लेषणों को जानता है, और अलग-अलग भागों को जोड़ करके एवं देखे हुए गुणों को एक करके वस्तु के बारे में उसका जो विचार बना है केवल उसे जानता है । उसकी विशिष्ट शक्ति, उसकी निश्चित क्रिया यहीं समाप्त हो जाती है । और अगर हम कोई महत्तर, गभीरतर और वास्तविक ज्ञान पाना चाहें -ज्ञान, न कि कोई तीव्र किंतु आकारहीन भावना, जैसी कभी-कभी हमारी मानसिकता के किन्हीं गहरे परंतु अप्रक्ट भागों में आती है -तो मन को एक और चेतना के लिये स्थान खाली करना पड़ेगा जो उसका अतिक्रमण करके उसकी परिपूर्ति करेगी या उसे उलट देगी और इस प्रकार उसके परे छलांग लगाकर, उसकी क्रियाओं को सुधारेगी । मानसिक ज्ञान का शिखर केवल एक कूदने का तख्ता है जिससे आगे की यह छलांग लगायी जा सकती है । 'मन' का सबसे बड़ा काम है जड़तत्त्व के

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अंधेरे कारागार से निकली हमारी धुंधली चेतना को प्रशिक्षित करना, उसकी अंधी सहजवृत्तियों, अनियत अंतर्भासों, अस्पष्ट बोधों को तबतक प्रकाशित करना जबतक कि वह इस अधिक महान् प्रकाश और इस अधिक ऊंची चढ़ाई के योग्य न हो जाये । मन एक रास्ता है, चरम अवस्था नहीं ।

 

    दूसरी ओर एकत्वमयी चेतना या अविभाज्य एकत्व ऐंसी असंभव सत्ता नहीं हो सकती जिसके अंदर कुछ भी नहीं है लेकिन जिसेमें से सब कुछ निकला है और जिसमें सब कुछ गायब और नष्ट हो जाता है । यह एक ऐसा आदि-संकेंद्रीकरण होना चाहिये जिसमें सब कुछ समाया दुआ है परंतु इस देश-कालगत अभिव्यक्ति से भिन्न रूप में । तो जिसने अपने-आपको इस तरह संकेंद्रित किया है वह ऐसा सत् है जो पूरी तरह अनिर्वचनीय और अचिंत्य है । इसे शून्यवादी अपने मन में एक ऐसे अभावात्मक शून्य के रूप में चित्रित करता है जो उन सब चीजों से खाली है जिन्हें हम जानते हैं या जो हम हैं परंतु परात्परवादी उतने ही युकिायुक्त ढंग से उसी सत् को अपने मन के आगे इस रूप में चित्रित कर सकता है कि वह एक भावात्मक, पर जो कुछ हम जानते हैं और जो कुछ हैं उस सबसे अविभेद्य सद्वस्तु है । वेदांत का कहना है कि प्रारंभ में बस एक सत् ही था, दूसरा कुछ था ही नहीं - ' एकमेवाद्वितीयम्, लेकिन आरंभ के पहले और पीछे, अभी और सदा-सर्वदा, काल के परे वह है जिसे हम 'एक' भी नहीं कह सकते, उस समय भी नहीं जब हम यह कहते हैं कि तत् के सिवा कुछ नहीं है । सबसे पहले हम जिसके बारे में अभिज्ञ हो सकते हैं वह है आदि-आत्म-सकेंद्रीकरण जिसे हम अविभाज्य एक के रूप में पाने के लिये प्रयास करते हैं । दूसरे, जो कुछ अपने एकत्व में संकेंद्रित था उसका प्रसारण और प्रकटत: विभाजन -यही मन की विश्व-विषयक धारणा है । तीसरे, उसका ऋत-चित् मे दृढ़ आत्म-विस्तार । यह ऋत-चित् ही इस प्रसारण को समाये और धारण किये रहता है और उसे वास्तविक विभाजन से बचाता है । यह अतिशय अनेकरूपता में एकत्व को, अतिशय परिवर्तनशीलता में स्थिरता बनाये रखता है और सर्वव्यापी संघर्ष और टकराव के आभास में सामजस्य पर जोर देता और शाश्वत वैश्व व्यवस्था को बनाये रखता है जब कि मन केवल एक विशृंखलितता पर ही पहुंच पाता है जो निरंतर अपने-आपको रूप देंने के लिये प्रयत्नशील है । यहीं है अतिमानस सत्य-चेतना, सत्य-भाव जो अपने-आपको जानता है और अपने-आप जो कुछ बन जाता है उसे भी जानता है ।

 

    अतिमानस ब्रह्म का बृहत् आत्म-विस्तार है, वह उसको धारण और विकसित करता है । ' भाव' के द्वारा वह सत् चित् और आनंद के त्रिविध तत्त्व को उनकी अविभाज्य एकता में से विकसित करता है । वह उनमें भेद करता है परंतु उनका विभाजन नहीं करता । वह त्रयी को स्थापित करता है परंतु 'मन' की तरह तीन से 'एक' की ओर न जाकर 'एक' में से तीन को अभिव्यक्त करता है -क्योंकि वह

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अभिव्यक्त और विकसित करता है, फिर भी उनके एकत्व को बनाये रखता है, क्योंकि वह जानता और धारण करता है । भेद करके वह उनमें से एक-न-एक को प्रभावकारी देव के रूप में सामने ला पाता है जिसमें बाकी दो को अपने अंदर अंतर्निहित या प्रकट रूप में धारण किये रहता है और वह इस प्रक्रिया को समस्त विभेदन का आधार बना देता है । और वह सर्वरचनाकारी इस त्रिक में से जिन तत्त्वों और संभावनाओं को विकसित करता है, उन सबपर इसी विधि से क्रिया करता है । उसमें विकसित करने, उन्नत करने और सुस्पष्ट करने की शक्ति होती है और वह शक्ति अपने में एक दूसरी शक्ति को, निमज्जन या अंतर्लयन की, निमीलन की, अपने अंदर अव्यक्त कर लेने की शक्ति को लिये रहती है । एक अर्थ में समस्त सृष्टि दो अंतर्लयनों के बीच की होनेवाली गति है, आत्मा, जिसके अंदर सब कुछ अंतर्लींन है और जिसमें से सब कुछ नीचे की ओर जड़ पदार्थ के दूसरे छोर की ओर विकसित होता है । उधर जड़ पदार्थ में भी सब कुछ अंतर्लीन होता है, उसमें से ऊपर आत्मा के दूसरे छोर की ओर सब विकसित होता है ।

 

    इस प्रकार विश्व का सृजन करनेवाले सत्य-भाव की विभेद की सारी प्रक्रिया यह है कि वह मूलतत्त्वों, शक्तियों, रूपों को सामने रखती है जो समग्र बोधात्मिका चेतना के लिये शेष सारे अस्तित्व को अपने अंदर धारण किये रहते हैं और बहिर्बोधात्मिका चेतना के सम्मुख इस रूप में प्रस्तुत होते हैं कि शेष सारा अस्तित्व अव्यक्त रूम में उनके पीछे है । अतः सर्व प्रत्येक में है और प्रत्येक सर्व में । इसलिये वस्तुओं का हर बीज अपने अंदर विविध संभावनाओं की अनंतता लिये रहता है, परंतु 'इच्छा-शक्ति' के द्वारा उसे प्रक्रिया के एक ही विधान और परिणाम के आधीन रखा जाता है, अर्थात् सचेतन सत्ता की चित्-शक्ति द्वारा -जो अपने- आपको अभिव्यक्त कर रही है, जो अपने अंदर 'दिव्य-भाव' के बारे में निश्चित्त है, -वह अपने ही रूपों और गतियों को पूर्व निर्धारित करता है । बीज है उसकी अपनी सत्ता का सत्य जिसका यह स्वयंभू अपने अंदर दर्शन करता है । उस आत्म-दृष्टि के बीज का परिणाम है आत्म-क्रिया का सत्य, विकास, रूपायन और कर्म का स्वाभाविक विधान जो अनिवार्य रूप से आत्मदर्शन के पीछे आता है और आदि सत्य में अंतर्लीन प्रक्रिया के अनुसार होता है । समस्त प्रकृति सचेतन सत्ता (चिन्मय पुरुष) का कविक्रतु: (द्रष्टा संकल्प) और ज्ञान-शक्ति है जो भाव के उस अनिवार्य सत्य को शक्ति और रूप में विकसित करने के लिये कार्यरत है जिसमें उसने अपने-आपको आरंभ में प्रक्षिप्त किया था ।

 

    'भाव' की यह अवधारणा हमें मानसिक चेतना और सत्य-चेतना के बीच भेद की ओर इशारा करती है । हम विचार को सत्ता से भिन्न वस्तु के रूप में देखते हैं जो अमूर्त, नि:सत्त्व, वास्तविकता से भिन्न ऐसी चीज है जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वह कहां से प्रकट हुई है, जो वस्तुनिष्ठ वास्तविकता का निरीक्षण करने,

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उसे समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिये अपने-आपको उससे अलग कर लेती है । वह ऐसी ही प्रतीत होती है और इसलिये हमारी सर्वविभाजनकारी, सर्व-विश्लेषक मानसिकता के लिये ऐसी ही है । मन का पहला कार्य है 'पृथक् करना' । विवेक करने की अपेक्षा कहीं अधिक दरारें पैदा करना । इस तरह उसने विचार और सद्वस्तु के बीच यह पंगु करनेवाली खाई बना दी है । लेकिन अतिमानस में समस्त सत्ता चेतना है, समस्त चेतना सत्ता की है और भाव जो कि चेतना का (जो कुछ प्रकट होना है उससे) गर्भित स्पंदन है, वह समान रूप से सत्ता का भी स्पंदन है और उससे गर्भित यह असर्जनशील आत्म-अभिज्ञता में जो कुछ संकेंद्रित पड़ा हुआ था उसीका सर्जनकारी आत्म-ज्ञान में प्रथम आविर्भाव है । और यह भावगत वही सद्वस्तु है जो अपने-आपको सदा अपनी ही शक्ति और अपनी ही चेतना के द्वारा विकसित कर रही है । यह सदा आत्म-चेतन है, भाव में अंतर्निहित इच्छा-शक्ति के द्वारा सदा अपने-आपको उन्मीलित कर रही है, अपनी प्रत्येक प्रेरणा में निहित ज्ञान के द्वारा सदा अपने-आपको चरितार्थ करने मे लगी है । यही है सारी सृष्टि का, सारे क्रम-विकास का सत्य ।

 

    अतिमानस में सत्ता, ज्ञान की चेतना और इच्छा की चेतना उस तरह विभक्त नहीं हैं जैसे वे हमारी मानसिक क्रियाओं में विभक्त मालूम होती हैं । वे एक त्रयी हैं, एक ही गति हैं जिसके तीन अलग-अलग प्रभावकारी पक्ष हैं । हर एक का अपना प्रभाव होता है । सत्ता पदार्थ का प्रभाव देती है, चेतना ज्ञान का प्रभाव देती है, आत्मनिर्देशनकारी, आकार देनेवाले भाव, विज्ञान और प्रज्ञान (समग्रबोध और बहिर्बोध) के ज्ञान का और इच्छा का प्रभाव है आत्मपरिपूर्ति करनेवाली शक्ति । परंतु भाव तो केवल अपने-आपको आलोकित करनेवाली सद्वस्तु का प्रकाश है । वह मानसिक विचार या कल्पना नहीं, प्रभावकारी आत्म-अभिज्ञता है । वह सत्य- संकल्प है ।

 

    अतिमानस में, भाव के अंदर स्थित ज्ञान, भाव के अंदर स्थित इच्छा से अलग नहीं, उसके साथ एक होता है, ठीक उसी तरह जैसे वह सत्ता या द्रव्य से अलग नहीं बल्कि सत्ता के साथ, द्रव्य की आलोकमय शक्ति के साथ एक होता है । जैसे जलती अग्नि-शिखा की शक्ति अग्नि के द्रव्य से पृथक् नहीं होती उसी भांति 'भाव' की शक्ति 'सत्ता' के उस द्रव्य से अलग नहीं होती जो अपने-आपको ' भाव' और उसके विकास में चरितार्थ करता है । हमारी मानसिकता में सब भिन्न-भिन्न होते हैं । हमारे अंदर एक भाव आता है और भाव के अनुकूल एक इच्छा या आवेग, इच्छा का एक ऐसा भाव जो अपने-आपको उससे अलग कर लेता है; लेकिन हम प्रभावकारी ढंग से भाव का इच्छा से और दोनों का अपने-आपसे भेद करते हैं । मैं हूं यह 'भाव' एक रहस्यमय अमूर्तता है जो मेरे अंदर प्रकट होती है । इच्छा एक दूसरा रहस्य है, एक ऐसी शक्ति है जो मूर्तता के अधिक नजदीक है यद्यपि मूर्त

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नहीं है, वह सदा ऐसी चीज होती है जो मैं नहीं हूं कोई ऐसी चीज है जो मेरे अंदर है या बाहर से मेरे पास आती है या मुझपर कब्जा कर लेती है पर वह मैं नहीं हूं । मैं अपनी इच्छा, उसके साधन और प्रभाव के बीच एक खाई बना लेता हूं क्योंकि मैं इन्हें अपने से बाहर, अपने से भिन्न ठोस वास्तविकताएं मानता हूं । इसलिये न तो स्वयं मैं और न मेरे अंदर का भाव और न मेरे अंदर की इच्छा आत्म-प्रभावी होते हैं । हो सकता है कि भाव मुझसे झड़ जाये, इच्छा असफल हो, साधनों का अभाव हो और स्वयं मैं इनमें से किसी या इन सभी अभावों के कारण अपूर्ण रह जाऊं ।

 

    परंतु अतिमानस में ऐसा कोई पंगु बनानेवाला विभाजन नहीं होता क्योंकि वहां मन की तरह ज्ञान आत्म-विभाजित नहीं होता, शक्ति आत्म-विभाजित नहीं होती, सत्ता आत्म-विभाजित नहीं होती । वहां ये चीजें न तो अपने-आपमें खंडित होती हैं और न ही एक दूसरे से अलग होती हैं । क्योंकि अतिमानस 'बृहत्' है, वह ऐक्य से आरंभ होता है विभाजन से नहीं, वह मूलत: सर्वसमावेशी है, विभेदन उसकी गौण क्रिया है । अतः सत्ता का चाहे जो कोई भी सत्य प्रकट किया गया हो, भाव पूरी तरह उसके सदृश होता है, इच्छा-शक्ति भाव के सदृश रहती है -शक्ति चेतना का ही बल है - और परिणाम इच्छा के सदृश होता है । भाव अन्य भावों के साथ नहीं टकराता, इच्छा या शक्ति अन्य इच्छा या शक्ति के साथ नहीं टकराती जैसा मनुष्य तथा उसके संसार के अंदर होता है क्योंकि वह एक बृहत् चेतना है जो सभी भावों को अपने भाव के रूप मे अपनेमें समाये और एक-दुसरे से जोड़े रहती है, एक बृहत् 'इच्छा' है जो सभी ऊर्जाओं को अपने अंदर अपनी ऊर्जाओं के रूप में समाये और एक-दुसरे को जोड़े रहती है । वह अपनी पूर्व-दृष्टियुक्त ' भाव-इच्छा' के अनुसार किसीको पीछे रोक लेता है और किसीको आगे बढ़ाता है ।

 

    दिव्य सत्ता की सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता के बारे में धर्मों की प्रचलित धारणा का यही औचित्य है । इन विचारों का अयुक्तियुक्त कल्पनाएं होना तो दूर रहा, ये पूर्णतः युक्ति-संगत हैं और किसी भांति व्यापक दर्शन के तर्कों, अथवा अवलोकन तथा अनुभूति के संकेतों का खंडन नहीं करते । भूल बस यही होती है कि भगवान् और मनुष्य, ब्रह्म और जगत् के बीच न पट सकनेवाली खाई बना दी जाती है । यह भूल सत्ता, चेतना और शक्ति में जो वर्तमान और व्यावहारिक विभेद है, उसे बढ़ाकर तात्त्विक विभाजन का रूप दे देती है । लेकिन प्रश्न के इस पहलू को हम बाद में लेंगे । अभी हम दिव्य और सृजनात्मक अतिमानस की एक ऐसी प्रस्थापना और धारणा पर पहुंचे हैं जिसमें सब कुछ सत्ता, चेतना, इच्छा और आनंद में, एक है फिर भी उनमें विभेद की अनंत क्षमता है जो एकत्व का विस्तार करती है, पर उसे नष्ट नहीं करती -जिसमें सत्य ही द्रव्य है,

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सत्य ही ' भाव' में उठता है, सत्य ही रूप में प्रकट होता है । वहां ज्ञान और इच्छा का एक ही सत्य है, आत्म-परिपूर्णता और इस कारण आनंद का भी एक ही सत्य है क्योंकि समस्त आत्मपरिपूर्णता सत्ता का संतोष है । अतः सदा सभी परिवर्तनों और संयोजनों में एक स्वयंभू और अविच्छेद्य सामंजस्य बना रहता है ।

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अध्याय १५

 

परम ऋत-चित् (सत्य-चेतना)

 

            सुशुप्तस्थान एकीभूत: प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्...

            एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनि: सर्वस्य ।।...

 

           अतिचेतन की सुषुप्ति में विराजमान वह 'एक', जो कि घनीभूत-प्रज्ञा है, आनंदमय है और 'आनंद' का भोक्ता है... वही सर्वशक्तिमान् है, वही सर्वज्ञ है, वही अंतर्यामी है, वही सबका उत्स है ।

                                               माण्डूपनिषद् ५. ६

 

अतः हमें सबको अपने अंदर धारण करनेवाले, सबके मूल, सबकी परिपूर्ति करनेवाले इस अतिमानस को 'दिव्य सत्ता' का स्वभाव मानना चाहिये, निश्चय ही उसके निरपेक्ष स्वयंभू रूप में नहीं बल्कि उसके क्रिया-रूप में, स्वयं अपने जगतों के प्रभु और स्रष्टा के रूप में दिव्य सत्ता का स्वभाव मानना चाहिये । जिसे हम भगवान् कहते हैं उसका सत्य यहीं है । स्पष्ट ही यह वह अत्यधिक व्यक्तिरूप और सीमित देव नहीं है, मनुष्य का ही एक बढ़ा-चढ़ा और अतिशायी रूप नहीं है जैसी कि सामान्य पाश्चात्य अवधारणा है, कारण, वह अवधारणा सृजनात्मक अतिमानस और अहंकार के बीच के एक विशेष संबंध की बहुत अधिक मानवीय प्रतिमा खड़ी कर लेती है । निस्संदेह हमें देव के सगुण या सवैयक्तिक रूप का बहिष्कार नहीं करना चाहिये क्योंकि निर्वैयक्तिक या निर्गुण रूप सत्ता का केवल एक पक्ष है । भगवान् सर्व सत्ता हैं, फिर भी वही एकमात्र सत् हैं, एकमात्र सचेतन सत्ता हैं फिर भी हैं तो सत्ता ही । बहरहाल, अभी-अभी हमारा इस पक्ष से संबंध नहीं है । हम दिव्य चेतना के निर्वैयक्तिक मनोवैज्ञानिक सत्य को पूरी तरह समझने की चेष्टा कर रहे हैं । इसे ही हमें एक विस्तृत और सुस्पष्ट अवधारणा के रूप में स्थापित करना है ।

 

    'ऋत-चित्' सारे विश्व में हर जगह एक ऐसे व्यवस्था करनेवाले आत्मज्ञान के रूप में उपस्थित है जिसके द्वारा एकमेव अपने अनंत संभाव्य बहुत्व के अंदर सामंजस्यों को अभिव्यक्त करता है । इस व्यवस्था करनेवाले आत्मज्ञान के बिना अभिव्यक्ति एक चलायमान अस्त-व्यस्तता होगी, ठीक इस कारण कि संभाव्यताएं अनंत हैं और यदि उन्हें अपने-आपपर छोड़ दिया जाये तो वह अनियंत्रित, अपरिबद्ध संयोग का ही एक खेल होगा । यदि केवल अनंत संभाव्यता ही होती जिसमें निर्देशनकारी सत्य का और सामंजस्यपूर्ण आत्म-दृष्टि का धर्म न होता, विकास के लिये छितराये गयें वस्तुओं के बीज में ही पहले से निर्धारित करनेवाला

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भाव न रहता तो जगत् असंख्य, आकारहीन, चकरायी हुई अनिश्चितता के सिवा कुछ न होता । परंतु जो ज्ञान सृजन करता है -चूंकि वह जो कुछ बनाता या उन्मुक्त करता है वह सब उसके अपने रूप और अपनी शक्तियां हैं, उनसे अलग कुछ नहीं --अपनी सत्ता में सत्य और विधान की उस दृष्टि का स्वामी होता है जो हर एक संभाव्यता पर शासन करती है और उसके साथ-ही-साथ उसमें अन्य संभाव्यताओं और उनके बीच संभव सामंजस्यों की आंतरिक अभिज्ञता रहती है । वह ज्ञान इस सबको पूर्व-चित्रित रूप में सामान्य निर्धारणकारी सामंजस्य में धारण किये रहता है । यह सामंजस्य विश्व के संपूर्ण व लयबद्ध भाव में उसके जन्म और आत्म-कल्पना के क्षण से ही रहता है अतः वह सामंजस्य अपने घटकों की पारस्परिक क्रीड़ा द्वारा अनिवार्य रूप से क्रियान्वित होगा । वह जगत् में धर्म का स्रोत और संरक्षक है, कारण वह धर्म मनमाना बिल्कुल नहीं हैवह आत्म-स्वभाव की अभिव्यक्ति है जिसका निर्धारण सत्य-संकल्प के उस बाध्यकारी सत्य से होता है जो हर वस्तु अपने आरंभ में होती है । अत: आरंभ से ही समस्त विकास अपने आत्म-ज्ञान में और हर क्षण अपनी आत्म-क्रिया में पूर्वनिश्चित है । हर क्षण वह ठीक वही होता है जो उसे अपने आदि अंतर्निहित सत्य के द्वारा होना चाहिये, इसी आदि अंतर्निहित सत्य के द्वारा उसकी ओर गति कर रहा है जो उसे अगले क्षण होना चाहिये; अंत में वह वही होगा जो उसके बीज में समाया हुआ था और अभिप्रेत था ।

 

    अपनी निजी सत्ता के मौलिक सत्य के अनुसार जगत् का यह विकास और उसको यह प्रगति काल के एक अनुक्रम को, देश में संबंध को और देश में संबंधित वस्तुओं की नियमित क्रिया-प्रतिक्रिया को सूचित करता है और इस क्रिया-प्रतिक्रिया को काल का अनुक्रम कार्य-कारण-भाव का रूप दे देता है । तत्त्वज्ञानी के अनुसार देश और काल का अस्तित्व यथार्थ नहीं केवल काल्पनिक है । लेकिन चूंकि केवल ये ही नहीं बल्कि सभी चीजें सचेतन सत्ता द्वारा अपनी ही चेतना में अपनाये गये रूपमात्र हैं इसलिये यह भेद बहुत महत्त्व नहीं रखता । काल और देश वही एक सचेतन सत्ता है जो अपने-आपको विस्तार मे -आत्मनिष्ठ रूप से काल और वस्तुनिष्ठ रूप से देश के रूप में देख रही है । इन दोनों श्रेणियों के बारे में हमारी मानसिक दृष्टि माप के भाव से निर्धारित होती है जो मन की विश्लेषणात्मक, विभाजनकारी गति की क्रिया में अंतर्निहित है । मन के लिये काल एक गतिशील विस्तार है जिसे वह भूत, वर्तमान और भविष्य के अनुक्रम से मापता है, जिसमें मन अपने-आपको किसी विशेष बिंदु पर रखकर वहां से आगे और पीछे देखता रहता है । देश एक स्थाणु विस्तार है जिसे मन पदार्थ की विभाज्यकता से मापता है, और उस विभाज्य विस्तार में मन अपने-आपको किसी बिंदु-विशेष पर खड़ा करता है और वहां से अपने चारों ओर के पदार्थ की स्थिति को देखता है ।

 

    वस्तुत: मन 'काल' को घटना से ओर देश को जड़तत्त्व द्वारा मापता है । परंतु

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यह भी संभव है कि शुद्ध मानसिकता में घटना की गति और द्रव्य की स्थिति की अवहेलना करके चित्-शक्ति की उस शुद्ध गति का अनुभव किया जाये जो 'देश' और 'काल' का निर्माण करती है । तो ये दोनों चेतना की उस वैश्व शक्ति के दो पक्ष मात्र होते हैं जो अपनी गुंथी हुई क्रिया-प्रतिक्रिया में उस शक्ति की स्वयं अपने ऊपर होती हुई क्रिया के ताने-बाने हैं । और मन से उच्चतर चेतना भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को एक ही दृष्टि में देख सकेगी । यह उनमें समायी हुई नहीं बल्कि उनको अपने अंदर समाये होगी, और अपने अवलोकन बिंदु के लिये काल के किसी क्षणविशेष पर स्थित नहीं होगी । इस चेतना के लिये काल एक शाश्वत वर्तमान के रूप में अपने-आपको प्रस्तुत कर सकता है । साथ ही यह चेतना देश के किसी बिंदु-विशेषपर टिकी हुई नहीं है बल्कि सभी बिंदुओं और क्षेत्रों को अपने भीतर समाये हुए है, देश भी अपने-आपको एक आत्मनिष्ठ-काल से कम आत्मनिष्ठ नहीं --और अविभाज्य विस्तार के रूप में प्रस्तुत कर सकता है । किन्हीं विशेष क्षणों में हम एक ऐसी अविभाज्य दृष्टि से अभिज्ञ हो जाते हैं जो अपने अपरिवर्तनशील आत्मचेतन एकत्व के द्वारा विश्व के परिवर्तनों को धारण किये रहती है । लेकिन अब हमें यह न पूछना चाहिये कि वहां अपने परात्पर सत्य में देश और काल की अंतर्वस्तुएं अपने-आपको किस तरह प्रस्तुत करेंगी क्योंकि हमारा मन इसकी धारणा नहीं कर सकता, --और यहांतक कि वह तो इस बात से भी इंकार करने के लिये तैयार है कि उस अविभाज्य के पास जगत् को जानने की कोई ऐसी संभावना हो सकती है जो हमारे मन और हमारी इन्द्रियों के तरीके से भिन्न हो ।

 

    हमें जो अनुभव करना है और जिसकी हम कुछ हदतक धारणा बना सकते हैं वह है वह अखंड दृष्टि, वह सर्वसमावेशी अवलोकन जिसके द्वारा अतिमानस काल के अनुक्रमों और देश के विभाजनों को आलिंगन में लेता और एकताबद्ध करता है । और पहली बात यह कि अगर कालानुक्रम का यह तत्त्व न होता तो कोई परिवर्तन या प्रगति न होती । पूर्ण सामंजस्य सदा अभिव्यक्त रहता, एक तरह के शाश्वत क्षण में वह अन्य सामंजस्यों के साथ सहकालीन रहता, भूत से भविष्य की ओर होनेवाली गति के रूप में उनका अनुक्रमिक न होता पर हम तो उसकी जगह यह पाते हैं कि विकसित होते हुए सामंजस्य का एक सतत अनुक्रम है जिसमें पहले के स्वर में से एक और स्वर निकलता है जो अपने अंदर उसे छिपा लेता है जिसका वह स्थान लेता है । और यदि इस आत्माभिव्यक्ति का अस्तित्व विभाज्य देश के तत्त्व के बिना होता तो रूपों का कोई परिवर्तनशील संबंध न हो पाता, या शक्तियों में आपस में घात-प्रतिघात न होता । सबका अस्तित्व तो होता परंतु कुछ भी क्रियान्वित न होता --जैसे एक वैश्व कवि या स्वप्न-द्रष्टा के मन में सब चीजें अनंत आत्मनिष्ठ पकड़ में रहती हैं वैसे देशातीत आत्म-चेतना पूर्णतया आत्मनिष्ठ हो सब चीजों को अपने अंदर समाये रहती, लेकिन सबके द्वारा एक अनिर्दिष्ट वस्तुगत

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आत्म-विस्तार में अपने-आपको न बांट पाती । या फिर अगर केवल काल ही यथार्थ होता तो उसके अनुक्रम शुद्ध ऐसा विकास होते जिसमें संगीत की क्रमागत स्वर-लहरियों के समान या काव्य की क्रमागत रूपकमाला के समान एक स्वर में से दूसरा स्वर आत्मनिष्ठ रूप में स्वतंत्र सहजता के साथ निकलता जाता । परंतु इसकी जगह हमें उन रूपों और शक्तियों की शक्ल में, जो सर्वाधारक देशीय विस्तार में एक-दूसरे के साथ संबंधों में स्थित हैं, काल द्वारा क्रियान्वित होता हुआ एक सामंजस्य दिखायी देता है; वस्तुओं और घटनाओं की शक्तियों और रूपों का एक सतत अनुक्रम मिलता है, जब हम जीवन पर दृष्टि डालते हैं ।

 

    काल और देश के क्षेत्र में विभिन्न संभाव्यताएं मूर्त होती, स्थान पाती और संबद्ध रहती हैं, हर एक की अपनी शक्तियां और संभावनाएं होती हैं जो दूसरी शक्तियों और संभावनाओं का सामना करती हैं और परिणामस्वरूप काल के अनुक्रम मन के सामने इस भांति प्रकट होते हैं मानों वस्तुएं एक स्वतःस्फूर्त अनुक्रम में नहीं, बल्कि आघात और संघर्ष के द्वारा कार्यान्वित हो रही हैं । वास्तव में, वस्तुएं अंदर से स्वतः -स्फूर्त रूप में कार्यान्वित होती हैं, बाह्य आघात और संघर्ष तो उस विस्तृत क्रिया के केवल सतही पक्ष हैं । क्योंकि अखंड और समग्र का आंतरिक और अंतर्निहित विधान, जो निश्चित रूप से सामंजस्य है, उन भागों तथा रूपों के बाहरी तथा प्रक्रियागत विधान पर शासन करता है जो सदा टकराते हुए प्रतीत होते हैं । और अतिमानसिक दृष्टि के लिये सामंजस्य का यह अधिक विशाल और अधिक गभीर सत्य सदैव उपस्थित रहता है । जो चीज मन को असंगति प्रतीत होती है, क्योंकि वह हर चीज को अपने-आपमें अलग-अलग रूप में देखता है, वही चीज अतिमानस के लिये एक व्यापक, सदा उपस्थित, सदा विकसनशील सामंजस्य का तत्त्व होती है क्योंकि वह सभी चीजों को बहुत्वमय एकत्व में देखता है । इसके अतिरिक्त मन केवल एक निर्दिष्ट काल और देश को ही देख पाता है, और उसमें बहुत-सी संभावनाओं को अस्तव्यस्त रूप में पड़ी देखता है और समझता है कि वे सब न्यूनाधिक रूप से उस काल और देश में चरितार्थ हो सकती हैं । दिव्य अतिमानस देश और काल के पूरे विस्तार को देखता है और मन की समस्त सभावनाओं को, और ऐसी भी बहुत-सी संभावनाओं को जिन्हें मन नहीं देख पाता, उन सबको वह बिना किसी मूल के, बिना टटोले या चकराये अपने आलिंगन में ले सकता है क्योंकि वह हर संभाव्यता को उसकी अपनी शक्ति, मूलभूत आवश्यकता और दूसरों के साथ सही संबंधों के रूप में जानता है और उस संभाव्यता की क्रमिक और अंतिम दोनों उपलब्धियों के समय, स्थान और परिस्थितियों को भी जानता है । मन के लिये यह संभव नहीं है कि वह चीजों को अविचल रूप से और पूर्ण रूप में देख सके लेकिन परात्पर अतिमानस का तो यह स्वभाव ही है ।

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यह अतिमानस अपने सब रूपों को, जिन्हें उसकी सचेतन शक्ति रचती है, अपनी सचेतन दृष्टि में केवल समाये ही नहीं रहता बल्कि वह उनमें अंत:स्थ उपस्थिति और अंत:स्फूरणात्मक प्रकाश के रूप में व्याप्त भी रहता है । वह विश्व के हर रूप और हर शक्ति में उपस्थित रहता है, यद्यपि रहता है प्रच्छन्न रूप में । यही प्रभुत्व के साथ और सहज रूप से रूप, शक्ति और क्रिया का निर्धारण करता है । वह जिन विभिन्नताओं को बाधित करता है उन्हें सीमित भी करता है । वह जिस ऊर्जा का उपयोग करता है उसे एकत्र करता, विघटित करता और परिवर्तित भी करता है और यह सब उन प्रथम धर्मों के अनुसार किया जाता है जिन्हें उसके आत्मज्ञान ने रूप की उत्पत्ति के साथ ही, शक्ति के आरंभबिंदु पर ही निश्चित कर दिया था । वह सभी चीजों के अंदर उसी तरह आसीन है जैसे भगवान् सब प्राणियों के हृदय में आसीन हैं; -वे भगवान् जो सबको अपने माया-बल से यंत्रारूढ़ की भांति घुमा रहे है । वह सबके अंदर है और सबको अपने आलिंगन में लिये हुए है उस दिव्य द्रष्टा की भांति जिसने सनातन काल से वस्तुओं को नानाविध रूपों में, प्रत्येक वस्तु को ठीक उसके अनुसार जो वह है, व्यवस्थित और आयोजित किया है ।

 

    अतः प्रकृति में हर चीज, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, चाहे वह मन से आत्म-सचेतन हो या आत्म-सचेतन न हो, अपनी सत्ता और अपनी क्रियाओं में, अपने भीतर रहनेवाली दृष्टि और शक्ति द्वारा शासित होती है । यह हमारे लिये अवचेतन या निश्चेतन भले हो, क्योंकि हम उसके बारे में सचेतन नहीं हैं, परंतु अपने लिये निश्चेतन नहीं है बल्कि गहरे और वैश्व रूप में सचेतन है । अत: ऐसा लगता है कि हर चीज, चाहे उसमें बुद्धि न भी हो, बुद्धि के काम करती है क्योंकि वह अपने अंदर बैठे दिव्य अतिमानस के सत्य-भाव का अनुसरण या तो वनस्पति एवं पशु की भांति अवचेतन रूप से या मनुष्य की भांति अर्द्धचेतन रूप से करती है । परंतु यह मानसिक बुद्धि नहीं है जो सभी चीजों को अनुप्राणित और संचालित करती है, बल्कि यह सत्ता का आत्म-अभिज्ञ सत्य है जिसमें आत्म-ज्ञान आत्म-सत्ता से अभिन्न है । यही ऋत-चित् है, इसे चीजों के बारे में सोचना नहीं पड़ता बल्कि वह उन्हें ऐसे ज्ञान के साथ कार्यान्वित करता है जो अपने-आपको चरितार्थ करनेवाली एकमेवाद्वितीय 'सत्ता' की निर्दोष आत्म-दृष्टि और और-निवारणीय शक्ति के अनुरूप होता है । मानसिक बुद्धि सोच-विचार करती है क्योंकि वह चेतना की

 

     १ यह वैदिक मुहावरा है । देवता प्रथम धर्मो के अनुसार कार्य करते हैं जो आद्य और इसलिये परम धर्म हैं और जो वस्तुओ के सत्य का विधान हैं ।

.    २ ईश्वर: सर्वमृतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

      भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।, गीता १८.६१

     ३ कविर्मनिषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छश्वतीभ्य:- समाप्य: । ईशोपनिषद् ८

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केवल विचार-विमर्श करनेवाली एक शक्ति है जो जानती तो नहीं, पर जानना चाहती है । वह काल में अपने से ऊंचे ज्ञान का क्रमश: अनुसरण करती है, एक ऐसे ज्ञान का अनुसरण जो सदा उपस्थित रहता है, जो अखंड और समग्र है, जो काल को अपनी पकड़ में रखता है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान को एक ही दृष्टि में देख लेता है ।

 

    तो यह हैं दिव्य अतिमानस का प्रथम क्रियाशील तत्त्व । यह एक वैश्व दृष्टि है जो सर्वधारक, सर्वव्यापक और सबके अंदर निवास करनेवाली है । चूंकि यह सत्ता में और स्थितिशील आत्म-अभिज्ञता में सब चीजों को आत्मनिष्ठ, कालातीत, देशातीत जानती है अतः यह सभी वस्तुओं को क्रियाशील ज्ञान में समाविष्ट करती और काल और देश में उनके वस्तुनिष्ठ आत्म-रूपायन पर शासन करती है ।

 

    इस चेतना में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय भिन्न-भिन्न सत्ताएं नहीं, वरन् मूलत: एक ही हैं । हमारी मानसिकता इन तीनों में भेद करती है क्योंकि भेद किये बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती । अपने उचित साधन और क्रिया का मौलिक विधान खोकर वह गतिशून्य और निष्क्रिय बन जाती है । अतः जब मैं अपने-आपको मानसिक रूप से देखता हूं तब भी मुझे यह भेद करना पड़ता है । मैं हूं -ज्ञाता के रूप में हूं जिस चीज को मैं अपने अंदर देखता हूं उसे मैं अपने ज्ञान का विषय मानता हूं जो मेरा अपनापन है भी और नहीं भी है, ज्ञान वह क्रिया है जिसके द्वारा मैं ज्ञाता और ज्ञेय में नाता जोड़ता हूं । परंतु इस क्रिया की कृत्रिमता, उसका शुद्ध रूप से व्यावहारिक और उपयोगितावादी गुण स्पष्ट है । यह स्पष्ट है कि वह वस्तुओं के आधारभूत सत्य को व्यक्त नहीं करती । वास्तव में, मैं ज्ञाता, एक चेतना हूं जो जानती है, ज्ञान वही चेतना है, मैं ही हूं जो क्रियाशील है, ज्ञेय भी मैं ही हूं उसी चेतना का एक रूप या गति । ये तीनों स्पष्ट रूप से एक सत्ता, एक गति हैं, वह सत्ता, वह गति अविभाज्य है यद्यपि विभक्त-सी प्रतीत होती है, वह अपने रूपों में बंटी हुई नहीं है यद्यपि ऐसा लगता है कि उसने अपने-आपको बांट रखा है और प्रत्येक में अलग-अलग रूप से स्थित है । परंतु यह एक ऐसा ज्ञान है जिसपर मन पहुंच सकता है, तर्क से पहुंच सकता है, अनुभव से पहुंच सकता है परंतु आसानी से इसे अपनी बौद्धिक क्रियाओं का व्यावहारिक आधार नहीं बना सकता । और जिस चेतना को मैं अपना स्व कहता हूं उसके दृष्टिकोण से बाहर की चीजों के बारे में कठिनाई दुर्लंध्य हो उठती है । वहां ऐक्य को अनुभव करना भी एक असाधारण प्रयास है, और उसे बनाये रखना, लगातार उसके अनुसार कार्य करना तो एक ऐसा नवीन और विजातीय कर्म होगा जो वस्तुत: मन के अपने क्षेत्र का नहीं है । मन अधिक-से-अधिक उसे एक अवगत सत्य के रूप में पकड़े रख सकता है ताकि वह उससे अपनी सामान्य क्रियाओं को, जो अभीतक विभाजन पर आधारित हैं ठीक कर सके, सुधार सके, कुछ-कुछ उसी तरह जैसे बौद्धिक रूप से हम जानते हैं कि

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धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है और इस ज्ञान के द्वारा हम उस कृत्रिम और भौतिक रूप से व्यावहारिक व्यवस्था को, जिसमें हमारी इन्द्रियां यह मानने पर आग्रह करती हैं कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर गति करता है, नष्ट तो नहीं करते पर सुधार लेते हैं ।

 

    परंतु अतिमानस तो ऐक्य के इस सत्य से संपन्न होता ही है और सर्वदा मूलतः इसीके अनुसार कार्य करता हैं जब कि मन के लिये यह गौण या प्रयत्न से प्राप्त चीज है और यह उसके देखने का अपना स्वाभाविक तरीका नहीं है । अतिमानस विश्व को और उसके अंतर्गत समस्त वस्तुओं को अपने-आपके रूप में देखता है, और इसे वह देखता है ज्ञान की एक अविभाज्य क्रिया में, एक ऐसी क्रिया में जो ज्ञान का ही प्राण, उसकी आत्म-सत्ता की ही गति है । अतः यह समग्र बोधात्मक दिव्य चेतना अपने इच्छा पक्ष में वैश्व जीवन के विकास का उतना निर्देशन या शासन नहीं करती जितना शक्ति की क्रिया से उसे अपने अंदर परिपूर्ण करती है । यह शक्ति की क्रिया ज्ञान की क्रिया से और आत्म-सत्ता की गति से अलग नहीं की जा सकती । वस्तुत: यह एक और अभिन्न क्रिया है । क्योंकि हम देख ही चुके हैं कि वैश्व शक्ति और वैश्व चेतना एक हैं -वैश्व शक्ति वैश्व चेतना की ही क्रिया है । इसी तरह दिव्य ज्ञान और दिव्य इच्छा भी एक हैं । वे सत्ता की एक ही आधारभूत गति या क्रिया हैं ।

 

    सर्वसमावेशी अतिमानस की यह अविभाज्यता ही वह सत्य है जिसपर सतत रूप से हमें अपना आग्रह रखना चाहिये, यदि हमें विश्व को समझना है और अपनी विश्लेषणात्मक मानसिकता की प्रारंभिक भूलों से बचना है । अतिमानस की यह अविभाज्यता अपनी एकता को कुछ भी कम किये बिना समस्त बहुविधता को अपने में समाये हूए है । वृक्ष बीज में से विकसित होता है जो पहले से ही बीज में समाया हुआ था और बीज वृक्ष में से आता है । एक अटल विधान, कभी परिवर्तित न होनेवाली एक प्रक्रिया अभिव्यक्ति के उस रूप के -जिसे हम वृक्ष कहते हैं -स्थायित्व को प्रबल रूप से बनाये रखती है । मन इस व्यापार को, वृक्ष के इस जन्म, जीवन और पुनरुत्पादन को, अपने-आपमें एक चीज मानता है और उसके आधार पर उसका अध्ययन, वर्गीकरण और उसकी व्याख्या करता है । वह वृक्ष की व्याख्या बीज से और बीज की व्याख्या वृक्ष से करता है । और प्रकृति के एक विधान की घोषणा कर देता है । लेकिन इससे वह कुछ भी समझा नहीं पाता । वह केवल एक रहस्य की प्रक्रिया का विश्लेषण और आलेखन भर करता है । मान लो कि मन किसी गुप्त सचेतन शक्ति को आत्मा के रूप में देख भी ले जो उसके रूप की सच्ची सत्ता है और बाकी सब कुछ उसी शक्ति की निश्चित क्रिया और अभिव्यक्ति भर है तब भी उसका झुकाव यही मानने की ओर रहता है कि रूप एक पृथक् सत्ता है जिसकी प्रकृति का अपना पृथक् विधान है और विकास की

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अपनी पृथक् प्रक्रिया है । पशु में और सचेतन मानसिकतावाले मनुष्य में यह पृथक्ता का भाव उसे यह मानने के लिये प्रेरित करता है कि वह भी एक पृथक् सत्ता, एक सचेतन कर्ता है और अन्य सभी रूप उसकी मानसिकता के पृथक् विषय हैं । इस उपयोगी व्यवस्था को, जो जीवन के लिये आवश्यक हैं और उसकी समस्त क्रियाओं का पहला आधार है, इसे मन यथार्थ तथ्य मान लेता है और यहीं से अहंकार की समस्त भ्रांति का आरंभ होता है ।

 

    लेकिन अतिमानस और तरह से काम करता है । वृक्ष और उसकी प्रक्रिया वह न होते जो वे हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व ही न होता, अगर वृक्ष का एक पृथक् अस्तित्व होता । रूप जो कुछ हैं वे वैश्व सत्ता की शक्ति से ही हैं, वे जिस रूप में विकसित होते हैं वैसे वे उस सत्ता के तथा उसकी अन्य सब अभिव्यक्तियों के साथ जो संबंध है उसके फलस्वरूप ही विकसित होते हैं । उनकी प्रकृति का पृथक् विधान वैश्व विधान और समस्त प्रकृति के सत्य का विनियोग मात्र है, उनका विशेष विकास सामान्य विकास में उनका जो स्थान है उसके द्वारा ही निर्धारित होता है । वृक्ष बीज की या बीज वृक्ष की व्याख्या नहीं करता । विश्व दोनों की व्याख्या करता है और भगवान् विश्व की व्याख्या करते हैं । अतिमानस जो एक ही साथ बीज, वृक्ष और सब वस्तुओं में व्याप्त है, और उनमें वास करता है, वह उस अधिक महान् ज्ञान में निवास करता है जो अविभाज्य और एक है यद्यपि अतिमानस की अविभाज्यता और एकता पूर्णत: निरपेक्ष न होकर परिवर्तित रहती है । इस व्यापक ज्ञान में सत्ता का कोई स्वतंत्र केंद्र नहीं होता, कोई व्यष्टिगत पृथक् अहं नहीं होता जैसा कि हम अपने अंदर देखते हैं । सारा विश्व उसकी आत्म-अभिज्ञता के लिये समभाव से विस्तार है जो एकत्व में एक, बहुत्व में एक, सभी परिस्थितियों में और सर्वत्र एकरूप है । यहां सर्व और एक एक ही सत्ता हैं । व्यष्टिगत सत्ता सब सत्ताओं के साथ और एकमेव सत्ता के साथ अपने तादात्म्य को न तो खोती है और न खो सकती है क्योंकि वह तादात्म्य अतिमानसिक ज्ञान में अंतर्निहित है, अतिमानसिक स्वयं-प्रकाश का एक अंग है ।

 

    एकत्व की उस विस्तृत समता में सत्ता विभक्त और वितरित नहीं होती । वह समानता के साथ आत्म-विस्तृत, अपने विस्तार को 'एक' के रूप में सब जगह व्यापक किये हुए रूपों की विभिन्नता में 'एकमेव' के रूप में निवास करते हुए, सब जगह, एक साथ एक और सम ब्रह्म है । क्योंकि देश और काल में सत्ता के इस विस्तार और इस व्याप्ति और अंतर्निवास का घनिष्ठ संबंध उस निरपेक्ष एकत्व के साथ है जिससे वह आयी है, उस निरपेक्ष अविभाज्य के साथ जिसमें न कोई केंद्र है न परिधि, है बस कालातीत, देशातीत एकमेव । अविस्तृत ब्रह्म में एकत्व की जो घन एकाग्रता है उसे आवश्यक रूप से विस्तार में भी इस समव्यापक एकाग्रता के द्वारा, सब वस्तुओं में इस अविभक्त व्याप्ति के द्वारा, इस विश्वव्यापी अवितरित

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अंतर्निवास के द्वारा, इस एकता के द्वारा अपने-आपको अनूदित करना होगा जिसे बहुत्व की कोई क्रीड़ा नष्ट या क्षीण न कर सके । ''ब्रह्म सब चीजों में है, सब चीजें ब्रह्म में हैं, सब चीजें ब्रह्म हैं'' यह व्यापक अतिमानस का त्रिसूत्र है, आत्माभिव्यक्ति का एक ही सत्य है जिसके तीन पहलू हैं, जिन्हें वह अपनी आत्मदृष्टि में आधारभूत ज्ञान के रूप में इकट्ठा और अविच्छेद्य रखता है जहां से वह विश्वलीला की ओर आगे बढ़ता है ।

 

    परंतु तब मानसिकता और मन, प्राण और भौतिक द्रव्य के त्रिविध रूपों में विद्यमान इस निम्नतर चेतना के संगठन का -जो हमारी दृष्टि में विश्व है, -मूल क्या है ? कारण, चूंकि वे सभी चीजें जिनका अस्तित्व है, आवश्यक रूप से सर्व-समर्थ अतिमानस की क्रिया से निकली हैं, उसके तीन आदि तत्त्वों, सत् चिच्छक्ति और आनंद पर होनेवाली क्रिया से उत्पन्न हुई हैं अतः सृजनात्मक 'ऋत-चित्' में कोई ऐसी क्षमता होगी जो इस तरह क्रिया करती है कि है इन नये तत्त्वों में मन, प्राण और भौतिक द्रव्य की इस निचली त्रिमूर्ति में ढल जाते हैं । इस क्षमता को हम सृजनात्मक ज्ञान की द्वितीय अनुपूरक शक्ति में पाते हैं, उसकी बहिःक्षिप्त, सम्मुखस्थ और बहिर्बोधात्मिका चेतना की शक्ति में पाते हैं । इसमें ज्ञान अपने-आपको संकेंद्रित करके अपने कार्यों से पीछे हट जाता है ताकि उनका अवलोकन कर सके । और जब हम संकेंद्रीकरण की बात करते हैं तो हमारा मतलब, हम अभीतक चेतना के जिस समभाव संकेंद्रण की बात कहते आये हैं, उससे भिन्न एक अ-समरूप संकेंद्रण से होता है जिसमें आत्म-विभाजन का आरंभ या उसका गोचर आभास होता है ।

 

    सबसे पहले 'ज्ञाता' अपने-आपको ज्ञान में विषयी के रूप में संकेंद्रित रखता है और अपनी चेतना की 'शक्ति' को इस तरह देखता है मानों वह सारे समय उससे निकल कर उसके अपने-आपके रूप के अंदर जाती रहती हो, उसमें क्रिया करती और फिर लौट आती हो और फिर से निरंतर निःसृत होती रहती हो । आत्म-परिवर्तन की इस एक ही क्रिया से वे सभी व्यावहारिक भेद उत्पन्न होते हैं जिनपर विश्व की सापेक्ष दृष्टि और सापेक्ष क्रिया आधारित है । एक व्यावहारिक भेद की रचना ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के बीच, परमेश्वर, उनकी शक्ति और शक्ति की संतानों और क्रियाओं के बीच, भोक्ता, भोग और भोग्य के बीच, आत्मा, माया और आत्मा की संभूतियों के बीच की गयी है ।

 

    दूसरे, ज्ञान में संकेंद्रित यह सचेतन 'आत्मा' यह 'पुरुष' जो अपने अंदर से निःसृत शक्ति का या अपनी 'प्रकृति' का अवलोकन और उसपर शासन करता है, अपने प्रत्येक रूप में अपने-आपको दोहराता है । अपनी चेतना की शक्ति के कार्यों में उसके साथ-साथ रहता है और वहां आत्मविभाजन की क्रिया को फिर से प्रस्तुत करता है जिससे इस बहिर्बोधात्मिका चेतना का जन्म होता है । प्रत्येक रूप के अंदर

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यह पुरुष अपनी प्रकृति के साथ रहता और चेतना के उस कृत्रिम और व्यावहारिक केंद्र से दूसरे रूपों में अपने-आपको देखता है । सभीके अंदर वही 'आत्मा' है, वही दिव्य सत्ता है । केंद्रों का गुणन चेतना की बस, एक व्यावहारिक क्रिया है जिसका उद्देश्य है विभिन्नता की, पारस्परिकता की, पारस्परिक ज्ञान की, शक्ति के पारस्परिक आघात की, पारस्परिक भोग की क्रीड़ा को आरंभ करना, ऐसी विभिन्नता की जो तात्त्विक एकता पर आधारित हो, ऐसी एकता पर जो विभिन्नता के व्यावहारिक आधार पर प्राप्त हो ।

 

    सर्वव्यापी अतिमानस की इस नयी स्थिति के बारे में हम कह सकते हैं कि यह वस्तुओं के एकत्वमय सत्य से और उस अविभाज्य चेतना से एक और विचलन है जो विश्व-सत्ता के लिये आवश्यक ऐक्य का अविच्छेद्य रूप से निर्माण करती है । हम देख सकते हैं कि और जस आगे बढ़कर यह चीज सचमुच अविद्या, महान् अज्ञान बन सकती है जो बहुत्व को आधारभूत वास्तविकता मानकर चलती है और वास्तविक ऐक्यतक लौटने के लिये उसे अहंकार के मिथ्या ऐक्य से शुरू करना पड़ता है । हम यह भी देख सकते हैं कि एक बार व्यष्टिगत केंद्र को निर्णायक बिंदु के रूप में, ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर लिया जाये तो मानसिक संवेदन, मानसिक बुद्धि और मन की इच्छा-क्रिया और उसके परिणाम आये बिना नहीं रह सकते । किंतु हमें यह भी देखना है कि जबतक आत्मा अतिमानस में कार्य करती है तबतक अविद्या का आरंभ नहीं होता, तबतक ज्ञान और क्रिया का क्षेत्र ऋन-चित् ही रहता है, तबतक एकत्व ही आधार रहता है ।

 

    क्योंकि आत्मा अभीतक अपने-आपको सबके अंदर एक और सभी चीजों को अपने अंदर और अपनी संभूतियां मानती है; प्रभु अभीतक अपनी शक्ति को अपना ही रूप जानते हैं जो क्रियारत है और हर एक सत्ता को आत्मा में और रूप में स्वयं अपना-आपा ही मानते हैं । अभी भी यह उन्हींकी अपनी सत्ता है, चाहे बहुत्व में है, जिसके साथ वे लीलामय लीला करते हैं । चेतना का जो एक वास्तविक परिवर्तन हुआ है वह है असमरूप संकेंद्रण और शक्ति का बहुविध वितरण । चेतना में एक व्यावहारिक भिन्नता तो दृष्टिगोचर होने लगी है परंतु चेतना का कोई तात्त्विक भेद या अपने बारे में उसकी अपनी दृष्टि में कोई वास्तविक विभाजन नहीं हुआ है । ऋत-चित् अब ऐसी स्थिति पर आ गया है जो हमारी मानसिकता को तैयार तो करती है लेकिन अभीतक हमारी मानसिकता नहीं बनी है । मन को अपने उद्गम स्थान पर पकड़ने  के लिये हमें इसीका अध्ययन करना चाहिये, उस बिंदु पर पकड़ने के लिये, जहां उसका ऋत-चित् की उच्च और बृहत् विशालता से स्खलन होता है और वह विभाजन और अविद्या में जा पड़ता है । अभीतक हम जिस सुदूर सिद्धि को बुद्धि की अपनी अपर्याप्त भाषा में व्यक्त करने का कठोर प्रयत्न करते रहे हैं, उसकी अपेक्षा, सौभाग्यवश, यह प्रज्ञान-चेतना हमारे ज्यादा नजदीक है, हमारी मानसिक क्रियाओं की पूर्व छाया है इस कारण हमारी पकड़ के लिये अधिक आसान है । यहां जिस व्यवधान को पार करना है वह कम दुष्कर है ।

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अध्याय १६

 

अतिमानस की त्रिपुटी

 

भूतभृत्... ममात्मा भूतभावन: ।

अहमात्मा... सर्वभूताशयस्थित ।।

 

मेरी आत्मा वह है जो सभीको सहारा देती है और उनके अस्तित्व को संघटित करती है... । मैं वह आत्मा हूं जो सब सत्ताओं में निवास करती है ।

                   गीता ९.५ १०.२०

 

त्रर्यमा... त्री रोचना दिव्या धारयन्त ।

ज्योति की तीन शक्तियां तीन दिव्य ज्योतिर्मय लोकों को धारण करती हैं ।

 

                                                  ऋग्वेद ५.२९.१

 

हम जिस जगत् में निवास करते हैं उसे प्रज्ञान चेतना के इस अधिक सरल दृष्टिकोण से समझने से पहले -यह चेतना चीजों को उस तरह देखती है जैसे कोई मन की सीमाओं से मुक्त और दिव्य अतिमानस की क्रिया में भाग लेने के लिये प्रवेश-प्राप्त व्यष्टिगत आत्मा देखती है -रुककर हमें संक्षेप में उसको दोहरा लेना चाहिये जो हमने प्रभु की, ईश्वर की चेतना के बारे में जाना और समझा है, या अब भी जान और समझ सकते हैं कि कैसे वह अपनी सत्ता के आद्य संकेंद्रित एकत्व में से अपनी माया द्वारा जगत् की सृष्टि करता है ।

 

    हम इस दृढ़ कथन को लेकर चले हैं कि समस्त अस्तित्व एक सत्ता है जिसका मूल स्वरूप है चेतना, एक ऐसी चेतना जिसका सक्रिय स्वरूप है शक्ति या इच्छा और यह सत्ता आनंद है, यह चेतना आनंद है, यह शक्ति या इच्छा आनंद है । सत्ता का शाश्वत और अविच्छेद्य आनंद, चेतना का आनंद, शक्ति या इच्छा का आनंद, चाहे वह अपने-आपमें संकेंद्रित और विश्रामावस्था मे हों अथवा सक्रिय और सृजनात्मक हो, वह ईश्वर ही है और वही हम हैं अपनी मूत्र, अपनी नाम-रूपरहित सत्ता में । आत्म-संकेंद्रित अवस्था में वह मूलभूत शाश्वत और अविच्छेद्य आनंद का स्वामी बल्कि स्वयं वही आनंद होता है   सक्रिय और सृजनात्मक रूप में वह सत्ता की क्रीड़ा के आनंद का, चेतना की क्रीड़ा के  आनंद का, चेतना की क्रीड़ा के आनंद का, शक्ति और इच्छा का लीला के आनंद, का स्वामी होता है बल्कि स्वयं वही आनंद बन जाता है । वह लीला ही विश्व है और वह आनंद ही विश्व सत्ता का एकमात्र कारण, प्रेरक और उद्देश्य है । भागवत चेतना शाश्वत और अविच्छेद्य रूप से उस लीला और आनंद की स्वामी है    हमारी मूल सत्ता हमारी वास्तविक आत्मा  जिसे हमारी मिथ्था आत्मा या मानसिक अहंकार हमसे

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छिपाये हुए हैं, भी उस लीला और आनंद को शाश्वत और अविच्छेद्य रूप से भोगती है, इससे भिन्न वस्तुत: वह कुछ कर ही नहीं सकती क्योंकि वह अपनी सत्ता में दिव्य चेतना के साथ एक है । अतः यदि हम दिव्य जीवन के लिये अभीप्सा करते हैं तो उसे हम किसी और तरह से नहीं पा सकते सिवाय इसके कि हम अपने अंदर पर्दे में छिपी इस आत्मा को पर्दे से बाहर लायें, मिथ्या आत्मा या मानसिक अहं में निवास की अपनी वर्तमान स्थिति से वास्तविक स्व की, आत्मा की उच्चतर स्थिति में आरोहण करें, भागवत चेतना के साथ उस एकत्व में प्रवेश करें जिसमें हमारे अंदर की कोई अतिचेतन वस्तु सदा ही रस लेती है -अन्यथा हमारा अस्तित्व ही नहीं रह सकता था -परंतु जिसे हमारी सचेतन मानसिकता ने खो दिया है ।

 

    लेकिन जब हम इस प्रकार एक ओर तो सच्चिदानंद के इस एकत्व का और दूसरी ओर इस विभक्त मानसता का प्रतिपादन करते हैं तो हम दो परस्पर-विरोधी तत्त्वों की स्थापना कर डालते हैं, उनमें से एक को अगर हम सच्चा मानें तो दूसरे को मिथ्या होना होगा, अगर एक का भोग करना हो तो दूसरे को मिटा देना होगा । परंतु हम धरती पर तो मन में और उसके जो रूप हैं प्राण और शरीर, उन्हीमें रहते हैं और अगर हमें उस एकमेव सत् चित् और आनंदतक पहुंचने के लिये मन, प्राण और शरीर की चेतना को मिटा देना पड़े तो दिव्य जीवन यहां असंभव होगा । परात्पर का आनंद पाने या फिर से परात्पर बन जाने के लिये हमें वैश्व जीवन को पूरी तरह से, भ्रांति मानकर, त्याग देना होगा । इस समाधान से तबतक नहीं बचा जा सकता जबतक दोनों के बीच एक ऐसी कड़ी न हो जो दोनों को एक-दूसरे का विवरण दे सके और उनके बीच ऐसा संबंध स्थापित कर सके कि वह मन, प्राण और शरीर के सांचे में सच्चिदानंद को पाना हमारे लिये संभव बना दे ।

 

    और यह बीच की कड़ी मौजूद है । हम उसे अतिमानस या सत्य-चेतना (ऋत-चित्) कहते हैं क्योंकि वह मन से श्रेष्ठतर तत्त्व है और वह वस्तुओं के आधारभूत सत्य और ऐक्य में निवास करता, कार्य करता और आगे बढ़ता है, मन की तरह वस्तुओं के आभासों और प्रपंचगत विभाजनों में नहीं, अतिमानस का अस्तित्व हम जिस प्रस्थापना को लेकर चले हैं, सीधे उसीसे उठनेवाली एक युक्तियुक्त आवश्यकता है; क्योंकि अपने-आपमें सच्चिदानंद उस सचेतन सत् का जो कि आनंद है, एक देशहीन, कालहीन निरपेक्ष होना चाहिये । लेकिन जगत् इसके विपरीत, देश और काल में एक विस्तार है और इस देश और काल में एक गति है, एक कार्यान्वयन है, कार्य-कारण भाव द्वारा -या जो हमें ऐसा प्रतीत होता है  -संबंधों और संभावनाओं का विकास है । इस कार्यकारण-भाव का सच्चा नाम है 'भागवत विधान' और इस विधान का सारतत्त्व है वस्तु के सत्य का अनिवार्य आत्म-विकास । यह सत्य, जो कुछ भी विकसित हुआ है, उसके स्वयं मूल में ही 'भाव' रूप से विद्यमान रहता है । यह अनंत संभावना के उपादान में, से रचित

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सापेक्षिक गतियों का पूर्व-निश्चित निर्धारण है । तो वह जो इस प्रकार से सभी चीजों को विकसित करता है, अवश्य ही एक ज्ञानात्मिका इच्छा या चित्-शक्ति होनी चाहिये क्योंकि विश्व की समस्त अभिव्यक्ति चित्-शक्ति का खेल है जो जीवन का तात्त्विक स्वभाव है । परंतु विकसित होती हुई ज्ञानात्मिका इच्छा मानसिक नहीं हो सकती क्योंकि मन इस विधान को न जानता है, न वह उसके अधिकार में है और न ही वह उसपर शासन करता है, बल्कि वह इस विधान से शासित होता है, इसके परिणामों में से एक है, आत्म-विकास की प्रक्रिया में रहता है, उसके मूल में नहीं, विकास के परिणामों को विभक्त वस्तुओं के रूप में देखता है और उनके उद्गम और उनकी वास्तविकतातक पहुंचने का निष्फल प्रयास करता है । इसके अलावा यह ज्ञानात्मिका इच्छा जो सबका विकास साधित करती है, निश्चय ही इन वस्तुओं के एकत्व पर अधिकार रखती होगी और उस एकत्व में से बहुत्व को अभिव्यक्त करती होगी । परंतु मन का उस एकत्व पर अधिकार नहीं है, उसका केवल बहुत्व के एक भाग पर अधिकार है और वह भी अधूरा ।

 

    अतः 'मन' से श्रेष्ठतर कोई तत्त्व होना चाहिये जो उन शर्तों को पूरा कर सके जिनमें मन असफल रहता है । निःसंदेह, यह तत्त्व स्वयं सच्चिदानंद है लेकिन वह सच्चिदानंद नहीं जो अपनी शुद्ध, अनंत, अपरिवर्तनशील चेतना में निवास करता है बल्कि वह जो इस आद्या स्थिति से चलकर या उसे आधार बनाकर और उसके अंदर आधेय बनकर ऐसी गति में आ जाता है जो उसीकी अपनी ऊर्जा-रूप होती है और जो वैश्व सृष्टि का निमित्त या कारण बनती है । चेतना और शक्ति सत् के शुद्ध सामर्थ्य के युगल अनिवार्य पक्ष हैं । अतः 'ज्ञान' और 'इच्छा' वे रूप होने चाहियें जिन्हें वह 'सामर्थ्य' देश और काल के विस्तार में संबंधों का एक जगत् बनाने के लिये अपनाती है । यह ज्ञान और यह इच्छा अवश्य ही अभिन्न होनी चाहिये, यह अनंत, सर्वालंगनकारी, सर्व-प्रभुत्वशाली, सर्व-रूपायणकारी होनी चाहिये तथा उस सबको अपने अंदर शाश्वत रूप से धारण किये हुए होनी चाहिये जिसे वह गति और रूप में ढालती है । तो अतिमानस एक ऐसी सत्ता है जो निर्णायक आत्म-ज्ञान में निःसृत होती है । वह अपने ही कुछ सत्यों को देखता है और उन्हें अपनी देशातीत और कालातीत सत्ता के देश और कालगत विस्तार में चरितार्थ करने की इच्छा करता है । जो कुछ उसकी अपनी सत्ता में है वह आत्म-ज्ञान का, ऋत-चित् का, सत्य-संकल्प का रूप ले लेता है और चूंकि आत्मज्ञान आत्मशक्ति भी हैं इसलिये वह अनिवार्य रूप से अपने-आपको काल और देश में परिपूर्ण और चरितार्थ करता है ।

 

    तो यही है उस भागवत चेतना का स्वरूप जो अपनी चित्-शक्ति की क्रिया द्वारा अपने ही अंदर सब वस्तुओं की सृष्टि करती और उनके विकास को एक आत्म-विवर्तन के द्वारा और सत्ता के सत्य में अंतर्निहित ज्ञानात्मिका इच्छा के या सत्य-

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भाव के द्वारा-जिसने कि उन्हें रूप दिया है -शासित करती है । जो सत् इस भांति सचेतन है उसे हम भगवान् कहते हैं और स्पष्ट है कि उसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होना चाहिये । सर्वव्यापक क्योंकि सभी रूप उसकी चित्-सत्ता के रूप हैं जिन्हें उसकी गति की शक्ति ने देश और काल के रूपों को उसके अपने ही विस्तार में रचा है, सर्वज्ञ क्योंकि सभी चीजें उसकी चित्-सत्ता में रहती, उसीके द्वारा रूपायित होती और उसीके अधिकार में रहती हैं, सर्वशक्तिमान् क्योंकि यह सर्वाधिपति चेतना, सर्वाधिपति शक्ति भी है और सबको अनुप्राणित करनेवाली इच्छा भी है और जैसे हमारा ज्ञान और हमारी इच्छा आपस में लड़ने में समर्थ होते हैं उस तरह यह इच्छा और ज्ञान आपस में नहीं लड़ते क्योंकि वे अलग-अलग न होकर उसी एक सत्ता की ही अभिन्न गति हैं । न ही बाहर या भीतर से कोई और इच्छा, शक्ति, या चेतना उनका प्रतिवाद कर सकती क्योंकि एकमेव के बाहर कोई चेतना या शक्ति है ही नहीं और भीतर ज्ञान की सभी ऊर्जाएं और ज्ञान की सभी रचनाएं स्वयं उससे भिन्न नहीं हैं । वे केवल एक सर्वनिर्णायक इच्छा और सर्वसामंजस्यकारी ज्ञान की लीला मात्र हैं । हम जिसे इच्छाओं और शक्ति के टकराव के रूप में देखते हैं --क्योंकि हम एक विशिष्ट और विभक्त स्थिति में निवास करते हैं और समग्र को नहीं देख पाते, -उसे अतिमानस एक पूर्व-निश्चित सामंजस्य के मिलकर काम करनेवाले तत्त्वों के रूप में देखता है, यह सामंजस्य उसके लिये सदा उपस्थित रहता है क्योंकि वस्तुओं की समग्रता हमेशा उसकी दृष्टि तले रहती है ।

 

    इस दिव्य चेतना की क्रिया चाहे जो भी स्थिति या रूप अपनाये उसका स्वरूप हमेशा यही रहेगा । लेकिन चूंकि उसकी सत्ता अपने-आपमें निरपेक्ष है अतः उसकी सत्ता की शक्ति भी अपने विस्तार में निरपेक्ष है और इसलिये यह क्रिया की एक ही स्थिति या एक ही रूप से बंधी हुई नहीं है । हम, मानव-प्राणी, प्रतिभासिक रूप से, काल और देश के अधीन, चेतना के एक विशिष्ट रूप हैं और अपनी ऊपरी चेतना में--हम अपने बारे में बस इतना ही तो जानते हैं, --एक समय में एक ही चीज, एक ही रूप, सत्ता की एक ही स्थिति, अनुभूतियों की एक ही समष्टि हो सकते हैं और हमारे लिये वही एक चीज वस्तुओं का सत्य होती है, जिसे हम स्वीकार करते हैं । बाकी सब या तो सत्य नहीं होता या अब सत्य नहीं रहा क्योंकि वह हमारी दृष्टि से भूतकाल में विलीन हो गया है, या फिर अभीतक इसलिये सत्य नहीं है क्योंकि वह भविष्य में प्रतीक्षा कर रहा है और अभी हमारी पहुंच से बाहर है । लेकिन दिव्य चेतना किसी विशेष रूप में न तो इस तरह बंधी है और न सीमित है । वह एक ही समय में अनेक चीजें हो सकती है और सदा के लिये भी एक से अधिक स्थायी स्थितियां अपना सकती है । हम देखते हैं कि स्वयं अतिमानस के तत्त्व में उसकी जगत्-संस्थापिका चेतना की तीन ऐसी सामान्य

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स्थितियां या तीन सत्र होते हैं । पहली स्थिति वस्तुओं की अविच्छेद्य एकता को आधार देती है, दूसरी उस एकता में इस तरह हेर-फेर करती है कि वह एक में बहु और बहु में एक की अभिव्यक्ति को सहारा दे सके । तीसरी उसमें और हेर-फेर लाती है ताकि नाना प्रकार की वैयक्तिकता के विकास को सहारा मिले । यह वैयक्तिकता ही अविद्या की क्रिया द्वारा हमारे अंदर, निचले स्तर पर एक पृथक् अहं का भ्रम बन जाती है ।

 

    हम देख चुके है कि अतिमानस की इस पहली और आरंभिक स्थिति का स्वरूप क्या है जो वस्तुओं की अविच्छेद्य एकता को आधार देती है । वह शुद्ध अद्वैतवादी चेतना नहीं है क्योंकि वह तो सच्चिदानंद का स्वयं अपने अंदर कालहीन और देशहीन संकेंद्रीकरण है जिसमें चित्-शक्ति किसी भी प्रकार के विस्तार में अपने-आपको प्रक्षिप्त नहीं करती और अगर वह विश्व को अपने अंदर धारण किये भी है तो शाश्वत संभाव्यता में न कि कालगत तथ्य के रूप में । इसके विपरीत, अतिमानस की यह स्थिति सच्चिदानंद का ऐसा सम आत्म-विस्तार है जो अपने अंदर सबको समाविष्ट किये, सबपर अधिकार किये और सबका संघटन करता है । परंतु यह 'सर्व' एक है, बहु नहीं; यहां कोई वैयक्तिक भाव नहीं है । जब इस अतिमानस का प्रतिबिंब हमारी स्तब्ध और शुद्ध बनी हुई आत्मा पर पड़ता है तो हम अपना व्यक्तित्व का सारा भाव खो देते हैं क्योंकि वहां चेतना का कोई ऐसा संकेंद्रीकरण नहीं है जो व्यक्तिगत विकास को सहारा दे सके । सब कुछ ऐक्य में और जैसे सब एक ही हों, इस तरह विकसित हुआ है । सबको दिव्य चेतना अपनी ही सत्ता के रूपों की तरह धारण किये हुए है, किसी भी मात्रा में पृथक् सत्ताओं की तरह नहीं । कुछ-कुछ ऐसे जैसे हमारे मन में आनेवाले विचार और बिंब हमारे लिये पृथक् सत्ताएं नहीं होते बल्कि वे हमारी ही चेतना के रूप होते हैं वैसे ही इस आरंभिक अतिमानस के लिये सभी नाम और रूप हैं । यह अनंत के अंदर शुद्ध दिव्य भावन और रूपायन हैं । यह मन के विचार की अयथार्थ क्रीड़ा की तरह नहीं है बल्कि सचेतन सत्ता की यथार्थ क्रीड़ा की तरह संगठित होता है । इस स्थिति में विद्यमान दिव्य आत्मा चित्-पुरुष और शक्ति-रूप पुरुष में भेद न करेगी क्योंकि सारी शक्ति चेतना की क्रिया होगी, जड़ द्रव्य और आत्मा में भी फर्क न करेगी क्योंकि सभी सांचे आत्मा के आकार भर होंगे ।

   

    अतिमानस की दूसरी स्थिति में दिव्य चेतना अपने अंदर समायी गति से पीछे हटकर भाव में स्थित हो जाती है । उस गति को एक प्रकार की बहिर्द्रष्ट्री चेतना द्वारा उपलब्ध करती, उसका अनुसरण करती, अपने कार्यों में निवास करती और अपने-आपको उसके रूपों में वितरित करती-सी मालूम होती है । प्रत्येक नाम-रूप में वह अपने-आपको स्थायी सचेतन आत्मा के रूप में अनुभव करेगी जो सभीके अंदर एक समान है परंतु साथ ही वह अपने-आपको चिदात्मा के एक ऐसे संकेंद्रण

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के रूप में भी अनुभव करेगी जो गति की व्यष्टिगत लीला का अनुसरण कर रहीं और उसे सहारा दे रही है और गति की अन्य क्रीड़ाओं से उसके भेद को आश्रय दे रही हैं, -वह आत्म-तत्त्व में सर्वत्र एक-समान है परंतु आत्म-रूप में अलग-अलग । आत्मा के रूप को सहारा देनेवाला यह संकेंद्रीकरण ही व्यष्टिगत भगवान् या जीवात्मा है जो वैश्व भगवान् या एकमेव सर्व संधटक आत्मा से भिन्न है । सारतः इनमें कोई भेद नहीं है, केवल लीला के हेतु व्यावहारिक भेद होता है जो सच्चे ऐक्य को नष्ट नहीं कर सकता । वैश्व भगवान् सभी आत्मा-रूपों को अपने-आपके रूप में जानते हैं, पर फिर भी हर एक के साथ और हर एक में अन्य सभीके साथ पृथक् रूप से भिन्न संबंध स्थापित करते हैं । व्यष्टिगत भगवान् अपनी सत्ता को एकमेव के आत्मा-रूप और आत्मा की गति के रूप में देखते हैं और जब वह चेतना की सर्वसमावेशी क्रिया के द्वारा एकमेव के साथ और उसके सभी आत्मा के रूपों के साथ ऐक्य का भोग करते हैं तब भी अग्रगभी या सामने की बहिर्द्रष्ट्री क्रिया के द्वारा अपनी व्यष्टिगत गति तथा एकमेव के साथ और उसके सभी रूपों के साथ ऐक्य में स्वतंत्र भेद के संबंधों को भी सहारा देते और भोगते हैं । अगर हमारा पवित्रीकृत मन अतिमानस की इस दूसरी अवस्था को प्रतिबिंबित करे तो हमारी आत्मा अपने व्यष्टिगत अस्तित्व को सहारा दे सकती और उसे धारण करती हुई भी वहां अपने-आपको उस एकमेव के रूप में जान सकती है जो सर्व बन गया है, सबके अंदर निवास करता, सबको धारण करता है और वह अपनी विशिष्ट विभिन्नता में भी भगवान् और अपने साथियों के साथ एकत्व का रस ले सकती है । अतिमानसिक सत्ता की अन्य किसी भी परिस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवर्तन आयेगा तो बस एकमेव की उस लीला के रूप में जिसने अपनी विभिन्नता प्रकट की है और उस बहु की लीला के रूप में जो अब भी एक है, और इसके साथ-ही-साथ वह सब जो इस खेल को बनाये रखने और चलाने के लिये जरूरी है ।

 

    अतिमानस की तीसरी स्थिति तब प्राप्त होगी जब सहास देनेवाला संकेंद्रण मानों अब और गति के पृष्ठभाग में स्थित नहीं रहता, उससे एक प्रकार से उच्च रहकर उसका अधिष्ठान नहीं करता और इस प्रकार उसका द्रष्टा और भोक्ता न रहकर अपने-आपको गति में प्रक्षिप्त कर देता और एक तरह से उसीमें शामिल हो जाता है । यहां लीला का स्वरूप बदल जायेगा लेकिन इसी हदतक कि व्यष्टि-भगवान् वैश्व भगवान् के साथ और उसके अन्य रूपों के साथ संबंधों की क्रीड़ा को इतने प्रमुख रूप से अपने सचेतन अनुभव का व्यावहारिक क्षेत्र बना लेंगे कि उनके साथ पूर्ण एकत्व की उपलब्धि सब अनुभूतियों की परम सहचरी और उनकी स्थायी पराकाष्ठा होगी । किंतु उच्चतर स्थिति में एकत्व ही प्रधान और आधारभूत अनुभव होगा और विभिन्नता एकत्व की एक क्रीड़ा मात्र होगी । अत: यह तीसरी स्थिति,

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व्यष्टि-भगवान् और उनके वैश्व उद्गम के बीच एक तरह से ऐक्य में -यह वह ऐक्य नहीं जिसमें द्वैत गौण रूप से लक्षित था -आधारभूत आनंदमय द्वैत होगी । इसके साथ ही वे सब परिणाम आयेंगे जो इस प्रकार के द्वैत के निर्वाह और क्रिया से उत्पन्न होते हैं ।

 

    कहा जा सकता है कि पहला परिणाम होगा अविद्या के उस अज्ञान में जा गिरना जो 'बहु' को जीवन का वास्तविक तथ्य मानता है और 'एक' को बहु के वैश्व योगफल के रूप में देखता है । किंतु इस तरह का पतन जरूरी नहीं है क्योंकि व्यष्टि-भगवान् (जीवात्मा) अपने बारे में इस रूप में सचेतन होगा कि वह एकमेव का और उसकी सचेतन आत्म-सृजन की शक्ति का परिणाम है अर्थात् उसके बहुत्वमय आत्म-संकेंद्रण का परिणाम है, जिसकी अवधारणा एकमेव इसलिये करता है कि वह देश और काल में फैली इस बहुरूप सृष्टि का नाना प्रकार से शासन और भोग कर सके । यह सच्चा आध्यात्मिक व्यष्टि अपने-आपको स्वतंत्र और पृथक् सत्ता मान लेने की धृष्टता न करेगा । वह स्थितिशील एकत्व के सत्य के साथ-साथ विभेद की गति के सत्य को भी मान्यता देगा, वह उन्हें एक ही सत्य के उपरले और निचले ध्रुव, उसी एक दिव्य लीला का आधार और चरम बिंदु मानेगा और वह विभिन्नता के आनंद पर इसलिये बल देगा कि वह एकत्व के आनंद की पूर्णता के लिये आवश्यक है ।

 

    यह स्पष्ट है कि ये तीनों स्थितियां उस एक ही सत्य के साथ व्यवहार करने की विभिन्न विधियां होंगी । सत्ता के जिस सत्य का भोग किया जायेगा वह एक ही होगा लेकिन उसे भोगने का तरीका या यूं कहें उसे भोगते समय आत्मा की स्थिति भिन्न होगी । आनंद में भिन्नता होगी किंतु वह रहेगा हमेशा ऋत-चित् की अवस्था में और उसका मिथ्यात्व या अविद्या में कभी पतन न होगा । अतिमानस की दूसरी और तीसरी स्थिति केवल उसी चीज को दिव्य बहुत्व के रूप में विकसित और चरितार्थ करेगी जिसे अतिमानस की पहली स्थिति ने दिव्य एकत्व के रूप में अपने अंदर धारण किया था । इन तीनों स्थितियों में से किसीपर भी हम मिथ्यात्व या भ्रांति का कलंक नहीं लगा सकते । उच्चतर अनुभव के इन सत्यों के लिये उच्चतम प्राचीन आप्त प्रमाण है उपनिषद् की वाणी । जब वह अपने-आपको अभिव्यक्त करनेवाले दिव्य सत् के बारे में बोलती है तो वह इन सब अनुभवों की सार्थकता को समाविष्ट करती है । हम केवल यह बात दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि एकत्व बहुत्व से पहले है और यह प्राथमिकता काल के हिसाब से नहीं, चेतना के साथ संबंध से हैं । परम आध्यात्मिक अनुभूति का कोई भी कथन, कोई भी वेदांत-दर्शन इस प्राथमिकता से या एक पर बहु की शाश्वत निर्भरता से इंकार नहीं करता । चूंकि काल में बहु शाश्वत नहीं मालूम होते प्रत्युत ऐसा लगता है कि वे 'एक' में से अभिव्यक्त होते हैं और उसीमें उसे अपना मूल समझ कर, लौटते हुए मालूम होते

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हैं इसलिये 'बहु' की वास्तविकता को नकारा जाता है । लेकिन इसी तरह यह युक्ति दी जा सकती है कि काल में अभिव्यक्ति की शाश्वत स्थिति या यूं कहा जा सकता है, उसकी शाश्वत पुनरावृत्ति इस बात का प्रमाण है कि दिव्य बहुत्व कालातीत परम का एक शाश्वत तथ्य होने में दिव्य एकत्व से कम नहीं है अन्यथा काल में अनिवार्य पुनरावर्तन का यह लक्षण उसे प्राप्त न हो सकता था ।

 

    वास्तव में केवल तभी जब हमारी मानव मानसिकता आध्यात्मिक अनुभूति के एक पक्ष पर ऐकांतिक बल देकर यह घोषणा करती है कि यही एकमात्र शाश्वत सत्य है और उसे सर्व-विभाजनकारी मानसिक तर्कणा की भाषा में प्रस्तुत करती है तो एक-दूसरे का खंडन करनेवाले दार्शनिक वादों की जरूरत पड़ती है । इस भांति द्वैत चेतना के एकमात्र सत्य पर जोर देते हुए हम दिव्य एकत्व का खेल देखते हैं जिसे हमारी मानसिकता भूल से वास्तविक विभेद की भाषा में रखती है । मन की इस भूल को उच्चतर तत्त्व के सत्य द्वारा ठीक करने से संतुष्ट न होकर हम यह आग्रह करते हैं कि सारी लीला ही एक भांति है । या फिर बहु के अंदर 'एक' की लीला पर जोर देते हैं तो विशिष्टाद्वैत की घोषणा करते हैं और व्यष्टि-आत्मा को परम देव का एक आत्मा-रूप मान लेते हैं परंतु साथ ही इस विशिष्ट रूप को शाश्वत मान बैठते हैं और शुद्ध चेतना की अविशिष्ट एकत्व की अनुभूति से एकदम इंकार कर देते हैं । या फिर विभेद के खेल पर जोर देते हुए हम यह स्थापना करते हैं कि परम पुरुष और मानव आत्मा (जीव) शाश्वत रूप से भिन्न-भिन्न हैं और ऐसी अनुभूति की सत्यता को अस्वीकार कर देते हैं जो उनके परे जाती हुई या भेद को लुप्त करती हुई प्रतीत होती है । लेकिन अब हमनें दृढ़ता के साथ जो स्थिति अपनायी है वह हमें इन नकारों और बहिष्कारों की आवश्यकता से मुक्त कर देती है । हम देखते हैं कि इन सभी स्वीकृतियों के पीछे कोई सत्य है लेकिन साथ ही उनमें ऐसा अतिरेक भी रहता है जो अधकचरे आधारवाले नकार की ओर ले जाता है । जैसा कि हम कह आये हैं, हम उस तत् की निरपेक्ष निरपेक्षता को स्वीकार करते हैं जो न तो हमारे एकत्व के विचारों से बंधा है और न हमारे बहुत्व के विचारों से । एकत्व को हमने बहुत्व की अभिव्यक्ति के आधार के तौर पर और बहुत्व को एकत्व की ओर लौटने के लिये और दिव्य अभिव्यक्ति में एकत्व का भोग करने के लिये आधार के तौर पर स्वीकार किया है । हमें अपने वर्तमान कथन को इन विवादों द्वारा बोझिल बनाने की अथवा अनंत भगवान् की परम स्वतंत्रता को अपने मानसिक विभेदों और परिभाषाओं में जकड़ने के व्यर्थ प्रयास में पड़ने की जरूरत नहीं ।

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अध्याय १७

 

दिव्य आत्मा

 

           यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभद् विजानत: ।

           तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ।।

 

           जिसकी आत्मा सर्वभूत बन गयी है क्योंकि उसे ज्ञान प्राप्त है, जिसे सब जगह एकत्व का दर्शन होता है उसे मोह कैसे हो सकता है, शोक कहां से आ सकता है ?

                        ईशोपनिषद् ७

 

अतिमानस के बारे में हमने जो धारणा बनायी है और जिस मानसता पर हमारी मानव-सत्ता आधारित है, उससे अतिमानस का जो विरोध है, उनके द्वारा हम दिव्यता और दिव्य जीवन के बारे में एक अस्पष्ट-सा भाव बनाने की जगह एक यथार्थ भाव बनाने में समर्थ हुए हैं । अन्यथा हम दिव्यता तथा दिव्य जीवन, इन शब्दों का उपयोग एक बृहत् किंतु लगभग स्पर्शातीत अभीप्सा के धुंधले शब्दों की तरह शिथिलता के साथ करने के लिये बाधित हैं । इसके अतिरिक्त हम इन भावों को दार्शनिक तर्क का दृढ़ आधार प्रदान करने में और इन्हें मानवता और मानव जीवन के साथ --एकमात्र यहीं है जिसमें हम अभी रस लेते हैं -एक स्पष्ट संबंध रखने में समर्थ हुए हैं । और जगत् के स्वयं अपने स्वरूप द्वारा, अपने ही वैश्व पूर्वगामी इतिहास और विकासक्रम के अनिवार्य भविष्य के द्वारा अपनी आशा और अभीप्सा को न्यायोचित ठहराने में भी समर्थ हुए हैं । हमने बौद्धिक रूप से यह पकड़ना शुरू किया है कि भगवान् क्या हैं, शाश्वत सद्वस्तु क्या है और यह समझने लगे हैं कि उसमें से जगत् कैसे निकला । हम यह भी देखना शुरू करते हैं कि कैसे जो कुछ भगवान् से निकला है उसे अनिवार्य रूप से भगवान् में लौट जाना होगा । अब यहां यह पूछना उपयोगी हो सकता है और स्पष्टतर उत्तर पाने की आशा भी है कि यदि हमें भगवान् तक केवल अपनी सत्ता की गहराइयों में ऐकांतिक और आनंददायी सिद्धि के द्वारा ही नहीं, वरन् अपनी प्रकृति में, अपने जीवन में और अन्यों के साथ संबंध में भी पहुंचना है तो हमें कैसे परिवर्तित होना होगा और क्या बनना होगा । निश्चय ही, हमारे आधार-वाक्यों में अभी कुछ कमी है क्योंकि हम अभीतक अपने लिये यह व्याख्या करने में लगे हैं कि सीमित प्रकृति की ओर अवतरित होते हुए भगवान् क्या हैं जब कि स्वयं हम वास्तव में जो हैं वह हैं सीमित प्रकृति में से वापस अपनी निजी दिव्यता की ओर आरोहण करते हुए व्यष्टिगत भगवान् । गति के इस भेद के कारण देवों के जीवन और मनुष्य के

 

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जीवन में भेद होगा ही -एक ओर देवगण, जिन्होंने कभी पतन जाना ही नहीं, दूसरी ओर मनुष्य जिसने उद्धार प्राप्त किया है, जो खोये हुए देवत्व का विजेता है और जो अपना एकदम नीचे उतरना स्वीकार करने के कारण नयी संपदाएं और अनुभूति लाता है । बहरहाल तात्त्विक गुणों में कोई अंतर नहीं हो सकता, भेद होता है तो केवल सांचे और रंग का । हम जिन निष्कर्षों पर पहुंचे हैं उनके आधार पर उस दिव्य जीवन के स्वरूप को जान सकते हैं जिसके लिये हम अभीप्सा करते हैं ।

 

    तब फिर उस दिव्य आत्मा का जीवन कैसा होगा जो आत्मा के जड़तत्त्व में निमज्जित होने और भौतिक प्रकृति द्वारा आत्मा के तमोग्रस्त होने के कारण उपन्न होनेवाले अज्ञान में नही उतरी है, उसकी चेतना कैसी होगी जो स्वयं भागवत सत्ता के समान ही वस्तुओं के आदि सत्य में, अविच्छेद्य ऐक्य में अपनी अनंत सत्ता के लोक में निवास करती है पर फिर भी भागवत माया की लीला के कारण और सर्वसमावेशी और बहिर्द्रष्ट्री ऋत-चेतना के भेद के कारण भगवान् के साथ भेद का और साथ ही ऐक्य का भी रस ले सकती है और बहुधा-रूपायित 'एकरूप' भगवान् की अनंत लीला में दूसरी दिव्य आत्माओं के साथ भेद का, पर साथ ही ऐक्य का भी आलिंगन कर सकती है ।

 

    स्पष्ट है कि इस प्रकार की अंतरात्मा का जीवन सच्चिदानंद की सचेतन लीला में हमेशा स्वत:पूर्ण होगा । वह अपनी सत्ता में शुद्ध, अनंत स्वयंभू और अपनी संभूति में अमर जीवन की मुक्त लीला होगा जिसपर जन्म और मरण या शरीर-परिवर्तन का आक्रमण न होगा क्योंकि वह अज्ञान के बादलों में न होगा और न ही हमारी भौतिक सत्ता के अंधकार में फंसा होगा । वह अपनी ऊर्जा में शुद्ध, असीम चेतना होगा जो शाश्वत और प्रकाशमय प्रशांति को अपना आधार बनाकर उसमें स्थित होगा, पर साथ ही, ज्ञान के रूपों और सचेतन शक्ति के रूपों के साथ मुक्त रूप से खेल सकेगा, जो प्रशांत होगा, मानसिक भूलों की ठोकरों और हमारी प्रयत्नशील इच्छा की भूल-चूक से अछूता रहेगा क्योंकि वह सत्य और एकत्व से कभी अलग नहीं होता, अपने दिव्य जीवन के अंतर्निहित प्रकाश और सहज-स्वाभाविक सामंजस्य से कभी नीचे नहीं गिरता । और अंत में वह अपनी शाश्वत आत्मानुभूति में शुद्ध और अविच्छेद्य आनंद होगा और काल में हमारी अरुचि, घृणा, असंतोष और दुःख-दर्द की विकृतियों से अस्पृष्ट आनंद की बहुरूप छटाएं लिये होगा क्योंकि वह अपनी सत्ता में अविभक्त होगा, मूल करनेवाले स्वेच्छाचरण से घबरायेगा नहीं, कामना की अज्ञानभरी उत्तेजना से अविकृत होगा ।

 

    उसकी चेतना अनंत-सत्य के किसी भाग की ओर से बंद न होगी और न वह औरों के साथ अपनाये हुए संबंधों की किसी स्थिरता या स्थिति के कारण सीमित होगी और न शुद्ध प्रपंचात्मक व्यक्तित्व की ओर व्यवहारतः विभेद की क्रीड़ा को स्वीकार कर लेने के कारण उसे आत्म-ज्ञान से थोड़ा भी वंचित होना पड़ेगा । वह

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अपनी आत्मानुभूति में सदा निरपेक्ष की उपस्थिति में निवास करेगी । हमारे लिये निरपेक्ष अनिर्वचनीय सत्ता की एक बौद्धिक अवधारणामात्र है । बुद्धि हमसे बस यही कहती है कि एक ऊंचे-से-ऊंचा, परात्पर ब्रह्म है, एक अज्ञेय पुरुष है जो अपने-आपको हमारे ज्ञान से इतर, किसी और ढंग से जानता है लेकिन बुद्धि हमें उसकी उपस्थिति में नहीं ले जा सकती । इसके विपरीत, वस्तुओं के सत्य में निवास करनेवाली दिव्य आत्मा को हमेशा यह सचेतन भान रहेगा कि वह निरपेक्ष की एक अभिव्यक्ति है । अपने अक्षर अस्तित्व के बारे में उसे यह भान होगा कि वह परात्पर का, सच्चिदानंद का आदि-आत्म-स्वरूप है, अपनी सचेतन सत्ता की क्रीड़ा में उसे यह भान होगा कि वह सच्चिदानंद के रूपों में उस तत् ही की अभिव्यक्ति है । अपने ज्ञान की हर स्थिति या क्रिया में उसे यह भान रहेगा कि अज्ञेय ही अपने-आपको परिवर्तनशील आत्मज्ञान के किसी प्रकार द्वारा जान रहा है । शक्ति, इच्छा या बल की अपनी प्रत्येक स्थिति या क्रिया मे उसे यह भान रहेगा कि सत्ता और ज्ञान के सचेतन बल के किसी प्रकार द्वारा वह परात्पर ही अपने-आपको उपलब्ध कर रहा हैं । आनंद, हर्ष या प्रेम की अपनी प्रत्येक स्थिति या क्रिया में उसे यह भान रहेगा कि सचेतन आत्मभोग के किसी प्रकार द्वारा परात्पर ही अपने भाव का आलिंगन कर रहा है । निरपेक्ष की यह उपस्थिति उसके साथ कभी-कदास झलक के रूप में मिलनेवाली अनुभूति न होगी, न ही यह ऐसी अनुभूति होगी जहां अंतत: वह पहुंच पाया हो और जिसे वह कठिनाई से पकड़े हुए हो, न ही यह ऐसी अनुभूति होगी जो उसकी सत्ता की सामान्य स्थिति पर एक वृद्धिगत वस्तु, एक उपार्जित वस्तु या चरमोत्कर्ष की स्थिति के रूप में ऊपर से थोपी हुई कोई चीज हो । यह उपस्थिति एकता और विभिन्नता दोनों स्थितियों में उसकी सत्ता का असली आधार होगी । यह उसके ज्ञान, इच्छा, कर्म और भोग की प्रत्येक क्रिया में विद्यमान रहेगी । यह उपस्थिति उससे अलग न होगी, न तो उसकी कालातीत सत्ता से और न काल के किसी क्षण से, न उसकी देशातीत सत्ता से और न ही उसकी विस्तारित सत्ता के किसी निर्धारण से, न समस्त कारण और परिस्थिति से परे उसकी निरुपाधिक पवित्रता से और न परिस्थिति, उपाधि और कारण के किसी संबंध से अलग होगी । निरपेक्ष की यह सतत उपस्थिति उसकी अनंत स्वाधीनता और आनंद का आधार होगी, लीला में उसकी सुरक्षा को सुनिश्चित करेगी और उसकी दिव्य सत्ता के मूल, रस और सार का संपोषण करेगी ।

 

    इसके अतिरिक्त, ऐसी दिव्य आत्मा युगपत् रूप से सच्चिदानंद के शाश्वत अस्तित्व से अलग न किये जा सकनेवाले उन दोनों छोरों में, निरपेक्ष के आत्मोन्मीलन के उन दोनों ध्रुवों में निवास करेगी जिन्हें हम एक और बहु कहते हैं । वास्तव में समस्त सत्ता इसी भांति निवास करती है लेकिन हमारी विभक्त आत्म-अभिज्ञता के लिये इन दोनों के बीच एक असंगति है, एक खाई है जो हमें

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चुनाव के लिये विवश करती है यानी, या तो हम उस बहुत्व में निवास करें जो 'एक' की अपरोक्ष और समग्र चेतना से निर्वासित हो या फिर उस एकत्व में निवास करें जो बहुत्व की चेतना को अस्वीकार करता है । लेकिन दिव्य आत्मा इस विच्छेद या द्वैत की दास नहीं बनेगी । वह अपने अंदर युगपत् रूप सें अनंत आत्म-संकेंद्रण और अनंत आत्म-विस्तार और प्रसार से अभिज्ञ होगी । वह युगपत् रूप से उस एक से अभिज्ञ होगी जो अपनी अद्वैत चेतना में असंख्य बहुत्व को अपने अंदर संभाव्य और अनभिव्यक्त रूप में धारण किये रहता है और इस कारण हमारी मानसिक अनुभूति के लिये उस स्थिति का अस्तित्व नहीं होता, और उस एक से भी अभिज्ञ होगी जो अपनी विस्तारित चेतना में अपनी सचेतन सत्ता, इच्छा और आनंद की लीला के रूप में बहि:प्रक्षिप्त और सक्रिय बहुत्व को धारण किये होता है । उसे समान रूप से बहु की अभिज्ञता होगी जो सदा उस एक को अपनी ओर खींचते रहते हैं जो उनके अस्तित्व का सनातन स्रोत और सद्वस्तु है और बहु के बारे में उसे यह भी मालूम होगा कि वे सदा उस एक से आकर्षित होकर ऊपर उठ रहे हैं जो उनकी सारी विभेद-क्रीड़ा का शाश्वत चरमोत्कर्ष और आनंदमय औचित्य है । वस्तुओं के बारे में बृहत् दृष्टि ऋत-चित् का स्वभाव है, वृहत् सत्य और ऋत की आधारशिला है जिसके लिये वैदिक ऋषियों ने मंत्र गाये हैं, इन सभी विरोधी तत्त्वों का यह एकत्व ही सच्चा अद्वैहै, अज्ञेय के ज्ञान का परम ग्राह्य शब्द है ।

 

    दिव्य आत्मा सत्ता, चेतना, इच्छा और आनंद के समस्त वैविध्य से इस रूप में अभिज्ञ होगी कि वह उस आत्म-संकेंद्रित ऐक्य का बहिर्प्रवाह, विस्तार और प्रसार है जो विभेद और विभाजन के रूप में नहीं बल्कि अनंत ऐक्य के एक दूसरे, एक विस्तारित रूप में अपने-आपको विकसित कर रहा है । अपनी सत्ता के सारतत्त्व में वह स्वयं भी हमेशा एकत्व में केंद्रित रहेगी, अपनी सत्ता के प्रसार में वह हमेशा विभिन्नता में अभिव्यक्त होगी । उसमें जो कुछ रूप धारण करता है वह एकमेव की अभिव्यक्त संभाव्यताओं के रूप में होगा, नामहीन नीरवता में से स्पंदित होते हुए नाम या शब्द के, अरूप तत्त्व में से प्रकट होते हुए रूप के, प्रशांत शक्ति में से बाहर आती हुई इच्छा या शक्ति के, कालातीत आत्म-अभिज्ञता के सूर्य में से झलकती हुई आत्मबोध की किरण के, शाश्वत चिन्मय सत्ता में से आत्म-सचेतन सत्ता के रूप में उठती हुई संभूति की लहर के, शाश्वत, स्थिर आनंद में से निरंतर उमड़ते हुए हर्ष और प्रेम के रूप में होगा । दिव्य आत्मा वही निरपेक्ष होगी जो अपने आत्म-प्रस्फुटन में द्विदल हो गया है और उसके अंदर की प्रत्येक सापेक्षता अपने लिये निरपेक्ष होगी क्योंकि वह अपने-आपको अभिव्यक्त निरपेक्ष के रूप में देखती हैं लेकिन उसमें वह अज्ञान नहीं होता जो अन्य सापेक्षताओं को अपनी सत्ता से पराया या अपने से कम पूर्ण मानकर अलग रखता है ।

 

    विस्तार में दिव्य सत्ता अतिमानसिक सत्ता की तीन श्रेणियों से अवगत होगी,

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उस तरह नहीं जैसे हम मानसिक रूप में उन्हें मानने के लिये बाधित होते हैं, श्रेणियों के रूप में नहीं, बल्कि सच्चिदानंद की आत्माभिव्यक्ति के त्रियेक तथ्य के रूप में । वह उन्हें एक अखंड सर्वग्राही आत्मोपलब्धि के आलिंगन में भर सकेगी-क्योंकि वृहत् सर्वसमावेशिता ऋत-चित् अतिमानस का आधार है । वह सभी चीजों की धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन इस दिव्य रूप में कर पायेगी कि वे सब आत्मा हैं, जो आत्मा कि उसकी अपनी आत्मा है, सबकी एक आत्मा है, एक ही आत्म-सत्ता और आत्म-संभूति है परंतु वह अपनी संभूतियों में विभक्त नहीं है, जिनका कि उसकी अपनी आत्म-चेतना से भिन्न कोई अस्तित्व ही नहीं है । वह दिव्य रूप में समस्त सत्ताओं की धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन 'एकमेव' के आत्मा-रूपों में कर पायेगी जिनमें से हर एक की 'एक' में अपनी सत्ता है, 'एक' में अपना दृष्टिकोण है, अनंत ऐक्य में बसी अन्य सत्ताओं के साथ अपना संबंध है लेकिन सब उस 'एक' पर निर्भर हैं, उस एक की अपनी अनंतता में उसीकी सचेतन आकृतियां हैं । वह इन सभी सत्ताओं की, उनके व्यष्टिगत रूप में, उनके पृथक् आधार-बिंदु के रूप में धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन, उनका संवेदन इस दिव्य रूप में कर पायेगी कि वे सभी व्यष्टिगत भगवान् के रूप में रहती हैं, हर एक के अंदर 'एक' और 'परम' निवास करता है इसलिये हर एक सर्वथा कोई भ्रम अथवा छाया नहीं है, वस्तुत: किसी वास्तविक समग्र का कोई भ्रमात्मक अंग नहीं है, एक अचल सागर की सतह पर उठती कोई झाग की लहर नहीं है -क्योंकि आखिर ये सब अपर्याप्त मानसिक बिंबों से बढ़कर कुछ नहीं हैं -बल्कि प्रत्येक उस समग्र के भीतर एक समग्र है, एक ऐसा सत्य है जो अनंत सत्य को दोहराता है, एक ऐसी लहर जो समस्त सागर है और एक ऐसा सापेक्ष है जिसे हम रूप के पीछे, उसकी पूर्णता में देखें तो स्वयं निरपेक्ष सिद्ध होता है ।

 

    क्योंकि ये तीनों उस एक ही सत् के पहलू हैं । पहला उस आत्मज्ञान पर आधारित है, जिसे हमारी भगवान् की मानव आत्मोपलब्धि में उपनिषद् हमारे अदंर की आत्मा का सर्वभूत बन जाना कहते हैं, दूसरा पहलू वह है जिसमें सभी भूतों को अपनी आत्मा में देखना कहते हैं और तीसरे के बारे में यूं कहा गया है कि वहां आत्मा को सभी भूतों में देखा जाता है । आत्मा का सर्वभूत बन जाना सर्व के साथ हमारे एकत्व का आधार है, आत्मा का सर्वभूतों को अपने अंदर समाये रखना विभिन्नता में हमारे ऐक्य का आधार है, आत्मा का सर्वभूतों में निवास, विश्व के अंदर हमारे व्यक्तित्व का आधार है । अगर हमारी मानसता की त्रुटि, अगर उसकी ऐकांतिक एकाग्रता की आवश्यकता, उसे इनमें से किसी एक पक्ष पर स्थित रहने और बाकी का बहिष्कार करने के लिये बाधित करे, यदि कोई अपूर्ण और साथ ही ऐकांतिक उपलब्धि हमें सदा इस ओर चलाती रहे कि हम स्वयं सत्य के अंदर भूल का और सभीको समाविष्ट कर लेनेवाले एकत्व में संघर्ष और पारस्परिक निषेध का

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मानव तत्त्व प्रविष्ट कर दें तो भी अतिमानसिक सत्ता के लिये, अतिमानस के तात्त्विक स्वरूप के कारण जो कि सर्वव्यापी, तादात्म्यकारी एकत्व और अनंत समग्रता है, वे अपने-आपको तिहरी या त्रियेक उपलब्धि के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं ।

 

    यदि हम ऐसा मान लें कि यह आत्मा अपनी स्थिति, अपना केंद्र व्यष्टि-भगवान् की चेतना में रखती है, जो औरों के साथ स्पष्टतया पृथक् संबंध में रहती और कार्य करती है तब भी उसकी चेतना की नींव में वह समस्त एकत्व रहेगा जिसमें से सब कुछ निःसृत होता है और उस चेतना की पृष्ठभूमि में विस्तारित और आपरिवर्तित एकत्व रहेगा और उसमें यह क्षमता होगी कि वह इनमें से किसी की ओर लौट सके और वहां से अपने व्यक्तित्व पर ध्यान दे । वेदों में देवों की ये सारी स्थितियां बतलायी गयी हैं । सारतत्त्व में देवता एक ही सत्ता हैं जिसे ऋषि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं परंतु अपने कार्य-व्यापार में, जो वृहत् सत्य और ऋत पर आधारित होते हैं और वहींसे उद्गत होते हैं, अग्नि या किसी अन्य देव के लिये कहा गया है कि वह अन्य सभी देव है । वही 'एक' है जो सर्व बन जाता है, साथ ही उसके लिये कहा गया है कि वह सभी देवों को अपने अंदर उसी तरह धारण किये रहता है जैसे चक्रनाभि में आरे हों वह 'एक' है जिसमे सब समाये रहते हैं फिर भी अग्नि रूप में उसका एक पृथक् देव के रूप में वर्णन किया जाता है, जो अन्य सबकी सहायता करता है, जो शक्ति और ज्ञान में उन सबसे बढ़कर है परंतु वैश्व स्थिति में उनसे नीचे है और उनके द्वारा संदेशवाहक, पुरोहित और कार्यकर्ता के रूप में नियुक्त होता है । जगत् का स्रष्टा और पिता होते हुए भी वह हमारे कर्मों से उत्पन्न पुत्र होता है, दूसरे शब्दों में वह आद्य और अभिव्यक्ति में आया हुआ अंतर्वासी आत्मा या भगवान् है, वह 'एक' है जो सबके अंदर निवास करता है ।

 

    दिव्य आत्मा के भगवान् या अपने परम स्व के साथ और अन्य रूपों में विद्यमान अपनी अन्य आत्माओं के साथ सभी संबंध इस सर्वग्राही आत्म-ज्ञान द्वारा निर्धारित होंगे । ये संबंध सत्ता के, चेतना और ज्ञान के, इच्छा और शक्ति के, प्रेम और आनंद के संबंध होंगे । ये अपनी विभिन्नता की शक्यताओं में अनंत हैं । आत्मा-आत्मा के बीच किसी भी ऐसे संभाव्य संबंध को अलग करने की जरूरत नहीं जो सब प्रकार के विभेदों के आभास के बावजूद एकता के अविच्छेद्य भाव के संरक्षण के साथ मेल खाता है । इस प्रकार अपने आनंद-भोग के संबंधों में दिव्य आत्मा अपने अंदर अपने सब अनुभवों का रस लेगी : दूसरों के साथ संबंध के अपने सभी अनुभवों का आनंद वह इस रूप में लेगी कि यह उन दूसरी आत्माओं के साथ सायुज्य है जो विश्व मे वैचित्र्यमय लीला के हेतु सृष्ट दूसरे रूपों में उपस्थित हैं । वह अपनी दूसरी आत्माओं के अनुभव का आनंद भी ऐसे लेगी कि मानों वे उसके अपने हों -जैसे कि सचमुच वे वास्तव में हैं ही । और यह सब सामर्थ्य उसमें इसलिये होगी क्योंकि वह अपने अनुभवों को, दूसरों के साथ अपने

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संबंधों को, दूसरों के अनुभवों और उनके अपने साथ संबंधों को इस रूप में जानेगी कि वे सब एकमेव का, परम आत्मा का, उसकी अपनी आत्मा का आनंद हैं जो अपनी ही सत्ता में समाविष्ट इन सब रूपों में पृथक्-पृथक् रूप से निवास करने के कारण विभिन्न रूपों में दिखलायी देता है लेकिन फिर भी भेद के बीच वह एक ही है । चूंकि यह एकत्व उसकी समस्त अनुभूति का आधार है अतः वह हमारी विभक्त चेतना के, अज्ञान तथा पृथक्कारी अहं द्वारा विभाजित चेतना के असामंजस्यों से मुक्त रहेगी । ये सभी आत्माएं और उनके संबंध सचेतन रूप से एक दूसरे के हाथों में खेला करेंगें । वे अलग होंगी और एक-दूसरे में घुल-मिल जाया करेंगी ऐसे ही जैसे शाश्वत संगीत के अनगिनत स्वर निकलते और एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं ।

 

    और यही नियम उसकी सत्ता, ज्ञान और इच्छा के दूसरों की सत्ता, ज्ञान और इच्छा के साथ जो संबंध हैं उनपर भी लागू होगा । क्योंकि उसकी समस्त अनुभूति और आनंद सत्ता की आत्मानंदपूर्ण चित्-शक्ति की लीला होगी जिसमें, एकत्व के इस सत्य की आज्ञाकारिता के कारण, न तो इच्छा का ज्ञान के साथ और न ही इनमें से किसीका आनंद के साथ संघर्ष हो सकेगा । न ही एक आत्मा के ज्ञान, इच्छा और आनंद का दूसरी आत्मा के ज्ञान, इच्छा और आनंद के साथ टकराव होगा क्योंकि अपने ऐक्य से उनके अभिज्ञ होने का परिणाम यह होगा कि जो चीज हमारी विभक्त सत्ता में टकराव, संघर्ष और असामंजस्य है वही, वहां एक अनंत संगीत के विभिन्न स्वरों का मिलन, संग्रंथन और पारस्परिक खेल होगा ।

 

    अपनी परम आत्मा के, ईश्वर के साथ संबंधों में दिव्य आत्मा को अपनी सत्ता के साथ परात्पर और वैश्व भगवान् के इस एकत्व का बोध रहेगा । वह अपने वैयक्तिक भाव में अपने साथ भगवान् के एकत्व का रस लेगा और साथ ही वैश्व भाव में अपनी अन्य आत्माओं के साथ । उसके ज्ञान के संबंध दिव्य सर्वज्ञता की लीला होंगे क्योकि भगवान् ज्ञान हैं और जो हमारे लिये अज्ञान है वह वहां केवल सचेतन आत्म-अभिज्ञता को विश्रांति के अंदर ज्ञान को पीछे की ओर रोके रहना होगा ताकि उस आत्म-अभिज्ञता के कुछ विशिष्ट रूप बाहर, सक्रिय प्रकाश में लाये जा सकें । वहांपर उसकी इच्छा-शक्ति के संबंध दिव्य सर्व-शक्तिमत्ता के खेल होंगे क्योंकि भगवान् शक्ति, इच्छा और सामर्थ्य हैं और जो हमारे लिये दुर्बलता और अक्षमता है वह वहांपर प्रशांत संकेंद्रित शक्ति के अंदर इच्छा-शक्ति को रोके रखना होगा ताकि दिव्य चित्-शक्ति के कुछ विशिष्ट रूप सामर्थ्य के रूप में आगे लाये जाकर अपने-आपको कार्यान्वित कर सकें । उसके प्रेम और आनंद के संबंध दिव्य आनंदोल्लास की लीला होंगे क्योंकि भगवान् प्रेम और आनंद हैं और जो हमारे लिये प्रेम और आनंद का निषेध है वह आनंद के प्रशांत सागर में हर्ष को पीछे रोके रखना होगा ताकि भागवत एकत्व और उपभोग के कुछ विशेष

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रूपों को आनंद की सक्रिय उमड़ती तरंगों में आगे लाया जा सके । इसी भांति उसकी समस्त संभूति इन क्रियाओं के उत्तर में दिव्य सत्ता का रूपायन होगी और जो हमारे लिये अवसान, मृत्यु और सत्यानाश है वह सच्चिदानंद की शाश्वत सत्ता में आनंदमयी सर्जनशील माया का विश्राम, संक्रमण या पीछे की ओर रुके रहना होगा । साथ-ही-साथ यह एकत्व दिव्य आत्मा के ईश्वर के साथ, अपनी परम आत्मा के साथ, उन संबंधों का निवारण नहीं करेगा जो भेद के रस पर आश्रित होते हैं जब वह उस एकत्व का किसी और तरह से रस लेने के लिये अपने-आपको एकत्व से अलग रखता है । भागवत माधुर्य के जितने भी उकृष्ट रूप हैं जो भगवान् के आलिंगन में बद्ध भगवद् भक्त को परमानंद देते हैं उनमें से किसी भी संभावना को यह एकत्व मिटायेगा नहीं ।

 

    लेकिन वे कौन-सी अवस्थाएं होंगी जिनमें और जिनके द्वारा दिव्य आत्मा के जीवन का यह स्वरूप चरितार्थ होगा ? संबंध के बारे में होनेवाला सारा अनुभव सत्ता की कुछ ऐसी शक्तियों द्वारा आगे बढ़ता है जो कुछ साधनों के सहारे रूपायित होती हैं, जिन्हें हम धर्म, गुण, क्रियाशीलताएं क्षमताएं कहते हैं । उदाहरण के लिये मन अपने-आपको मन: शक्ति के विभिन्न रूपों में प्रक्षिप्त करता है, जैसे निर्णय, अवलोकन, स्मृति, सहानुभूति जो कि उसकी सत्ता के लिये स्वाभाविक हैं । इसी तरह ऋत-चित् या अतिमानस को आत्मा के साथ आत्मा के संबंधों को उन शक्तियों, क्षमताओं एवं विशिष्ट क्रियाओं द्वारा प्रभावित करना चाहिये जो अतिमानसिक सत्ता के लिये स्वाभाविक हों अन्यथा विभेद की कोई लीला ही न हो पायेगी । ये क्रियाएं क्या हैं, यह हम उस समय देखेंगे जब हम दिव्य जीवन की मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं पर विचार करेंगे । अभी हम केवल उसकी तात्विक नींव, उसके मूल स्वभाव और स्वधर्म पर विचार कर रहे हैं । अभी इतना देख लेना काफी है कि चेतना में पृथक्कारी अहंभाव और प्रभावकारी विभाजन का अभाव या उन्मूलन ही दिव्य जीवन की एकमात्र मूलभूत शर्त है । अतः हमारे अंदर उनकी उपस्थिति ही हमारी मर्त्यता का और दिव्य स्थिति से पतन का कारण है । यही हमारा 'आदि पाप' है या अगर जस ज्यादा दार्शनिक भाषा में कहें तो आत्मा के सत्य एवं ऋत से, उसके एकत्व, पूर्णता एवं सामंजस्य से च्युति है । यह च्युति अज्ञान में डुबकी लगाने के लिये आवश्यक शर्त थी और अज्ञान में यह डुबकी ही जगत् में जीव का साहसिक कार्य है । और इसी अज्ञानगर्त में से हमारी दुःख-पीड़ित और अभीप्सा से भरी मानवजाति का जन्म हुआ ।

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अध्याय १८

 

मानस और अतिमानस

 

         मनो ब्रझेति व्यजानात् ।

         उसने जाना कि मन ही ब्रह्म है ।

                                         तैत्तिरीय उपनिषद् ३-४

 

         अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।।

         अविभक्त होते हुए भी मानों सत्ताओं में विभक्त हो ।

                                                   गीता १३-१७

 

 

अभीतक हम जो अवधारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं वह अतिमानसिक जीवन के केवल सारतत्त्व की है जिसे दिव्य आत्मा सच्चिदानंद की सत्ता में सुरक्षित रूप से अपने अधिकार में रखती है, लेकिन जिसे मानव आत्मा को मानसिक और भौतिक जीवन के सांचे में ढले हुए यहींपर बने सच्चिदानंद के इस शरीर में अभिव्यक्त करना है । लेकिन जहांतक हम इस अतिमानसिक जीवन की अभीतक परिकल्पना कर पाये हैं, ऐसा नहीं लगता कि उसका हमारे परिचित जीवन के साथ --हमारी सामान्य सत्ता के दो प्रांतों, मन और शरीर के दो आकाशों के बीच सक्रिय रहनेवाले जीवन के साथ -कोई संबंध या सादृश्य है । बल्कि ऐसा लगता है कि यह सत्ता की ऐसी स्थिति, चेतना की ऐसी स्थिति, सक्रिय संबंध और पारस्परिक उपभोग की ऐसी स्थिति है जिसे अशरीरी आत्माएं शायद भौतिक रूपों से रहित जगत् में अधिकृत और अनुभव कर सकती हों । ऐसे लोक में जिसमें आत्माओं में भेद तो संपन्न हो चुका है परंतु शारीरिक भेद नहीं, ऐसे लोक में जो सक्रिय और आनंदमय अनंतताओं का जगत् है, रूप की कारा में बंद आत्माओं का नहीं । अतः बुद्धिसंगत रूपसे यह संदेह किया जा सकता है कि शारीरिक रूप की इस सीमा को, रूप में काराबद्ध मन और रूप में काराबद्ध शक्ति के इस परिसीमन में, जिसे हम अभी जीवन मानते हैं, क्या ऐसा दिव्य जीवन संभव हो सकता है ?

 

    वस्तुत: हमने उस परम अनंत सत्ता, चित्-शक्ति और आत्मानंद की कुछ ऐसी धारणा बनाने का प्रयास किया है जिसकी हमारा जगत् एक सृष्टि और हमारी मानवता एक विकृत रूप है । हमने अपने-आपको यह बतलाने की कोशिश की है कि यह दिव्य माया क्या हो सकती है, यह ऋत-चित् यह सत्य-संकल्प क्या हो सकता है जिसके द्वारा परात्पर और वैश्व सत्ता की चित्-शक्ति विश्व की, जो एक व्यवस्था है, सत्ता के अभिव्यक्त आनंद का एक सुव्यवस्थित जगत् है, उसकी अवधारणा करती, उसे रूपायित और नियंत्रित करती है, लेकिन हमने अभीतक यह

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अध्ययन नहीं किया है कि इन चार महान् व दिव्य पदों का अन्य तीन के साथ, अर्थात् मन, प्राण और शरीर के साथ -हमारा मानव अनुभव इन तीन से ही केवल परिचित है-क्या संबंध है । हमनें इस दूसरी प्रतीयमानत: अदिव्य माया की जांच नहीं की है जो हमारे सकल प्रयासों और दुःखों की जड़ है और यह नहीं देखा है कि वह दिव्य सद्वस्तु या दिव्य माया में से ठीक किस तरह विकसित होती है । और जबतक हम यह नहीं कर लेते, जबतक हम संबंध के खोए हुए धागों को नहीं बुन लेते तबतक हमारा जगत् हमारे लिये अ-समझा ही रहता है और उस उच्चतर सत्ता तथा इस निम्नतर जीवन के बीच के एक होने की संभावनामें संदेह के लिये आधार बना रहता है । हम जानते हैं कि हमारा जगत् सच्चिदानंद से आया है और उसीकी सत्ता में बना रहता है । हमारी यह धारणा भी है कि सच्चिदानंद ही इस जगत् में भोक्ता, ज्ञाता, प्रभु और आत्मा-रूप में निवास करता है । हम यह भी देख आये हैं कि हमारे संवेदन, मन, शक्ति और सत्ता के द्वंद्वात्मक रूप सच्चिदानंद के आनंद के, उसकी चित्-शक्ति के, उसकी दिव्य सत्ता के प्रतिरूप मात्र हो सकते हैं । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ये द्वंद्वात्मक रूप, वस्तुतः सच्चिदानंद सचमुच दिव्य भाव में जो कुछ है उससे एकदम उल्टे हैं, कि इन विपरीतताओ के कारण के बीच रहते हुए जीवन के निम्न त्रिपद में रहते हुए हम दिव्य जीवन को नहीं पा सकते । हमें या तो इस निचली सत्ता को उस उच्चतर स्थिति में उठाना होगा या फिर शरीर के स्थान पर उस शुद्ध सत्ता को, प्राण के स्थान पर चित्-शक्ति की उस शुद्ध अवस्था को, संवेदन और मानसिकता के स्थान पर उस शुद्ध आनंद और ज्ञान को लाना होगा जो कि आध्यात्मिक सद्वस्तु के सत्य में निवास करते हैं । और क्या इसका यह अर्थ नहीं होगा कि हमें समस्त पार्थिव या सीमित मानसिक जीवन को किसी ऐसी चीज के लिये छोड़ देना होगा जो उससे विपरीत है -या तो आत्मा की किसी शुद्ध स्थिति के लिये या वस्तुओं के सत्य के किसी लोक के लिये, यदि ऐसा कोई लोक है, या दिव्य आनंद, दिव्य ऊर्जा, दिव्य सत्ता के लोकों के लिये, यदि ऐसे लोक हों । ऐसी दशा में मानव जाति की पूर्णता, स्वयं मानव जाति से कहीं अन्यत्र है । उसके पार्थिव क्रम-विकास का शिखर लुप्त होती हुई मानसता का एक सूक्ष्म सिरा ही हो सकता है जहां से यह एक लंबी छलांग लगाकर या तो निराकार सत्ता में या शरीरधारी मन की पहुंच से परे के लोकों में चला जाता है ।

 

    लेकिन वास्तव में जिसे हम अदिव्य कहते हैं वह सब स्वयं इन चार दिव्य तत्त्वों की क्रिया ही हो सकता है, ऐसी क्रिया जो इस रूप-जगत् की सृष्टि करने के लिये जरूरी थी । इन रूपों की सृष्टि दिव्य सत्ता, चित्-शक्ति और आनंद के बाहर नहीं वरन् उनके अंदर हुई है, दिव्य सत्य-संकल्प की क्रिया के बाहर नहीं बल्कि उसके अंदर और उसके एक अंश के रूप में हुई है । अतः यह मानने का कोई कारण नहीं है कि रूप-जगत् में उच्चतर दिव्य चेतना की कोई वास्तविक लीला नहीं हो

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सकती या कि रूप और उनके प्रत्यक्ष सहारे मानसिक चेतना, प्राणिक शक्ति की ऊर्जा और रूप-द्रव्य जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं उसे अवश्य विकृत करें ही । यह संभव है बल्कि शक्य है कि मन, प्राण और शरीर अपने शुद्ध रूप में स्वयं दिव्य सत्य के अंदर ही पाये जाते हों, ये वहांपर वस्तुत: उसकी चेतना की अधीनस्थ क्रिया के रूप में रहते हों और उस संपूर्ण यंत्र विन्यास के अंग हों जिसके द्वारा परम शक्ति सर्वदा कार्य किया करती है, तब तो मन, प्राण और शरीर अवश्य ही दिव्यता के लिये सक्षम होने चाहियें, भौतिक विज्ञान पार्थिव विकासक्रम के संभवत: किसी एक ही चक्र को प्रदर्शित करता है । यह जरूरी नहीं है कि उस चक्र की एक छोटी-सी अवधि में मन, प्राण और शरीर के जो रूप और क्रियाएं सामने आयें वे सजीव शरीर के अंदर इन तीनों तत्त्वों की सभी संभाव्य क्रियाओं को प्रदर्शित करें । वे जो करते हैं, इसलिये करते हैं कि किसी उपाय से वे अपनी चेतना में उस दिव्य सत्य से अलग हो गये हैं जिससे कि वे निकले थे । एक बार यह पृथक्ता मानवजाति में विस्तृत होती हुई दिव्य ऊर्जा के द्वारा निरस्त हो जाये तो उनकी वर्तमान कर्मरीति बहुत संभवतः बल्कि स्वाभाविक रूप से परम विकासक्रम और प्रगति के द्वारा सत्य-चेतना में उनकी जो शुद्धतर कार्य-प्रणाली है उसमें बदल जायेगी ।

 

    ऐसी दशा में न केवल मानव मन और शरीर में दिव्य चेतना को अभिव्यक्त करना और बनाये रखना संभव होगा बल्कि यहांतक भी संभव है कि दिव्य चेतना अपनी विजयों को बढ़ाती हुई, अंत में स्वयं मन, प्राण और शरीर को अपने शाश्वत सत्य के अधिक पूर्ण प्रतिरूप में रूपायित कर दे और केवल आत्मा में ही नहीं बल्कि पदार्थ में भी अपने स्वर्ग के राज्य को धरती पर चरितार्थ कर दे । शायद कुछ लोगों ने, हो सकता है बहुतों ने, धरती पर इन विजयों में से पहली आतंरिक विजय निश्चय ही कम या अधिक मात्रा में प्राप्त कर ली है, दूसरी बाह्य विजय पिछले युगों में यद्यपि कम या अधिक मात्रा में इस रूप में कभी साधित नहीं भी हुई कि वह भावी युगचक्रों के लिये प्रथम प्ररूप का काम दे सके और अबतक भी पार्थिव प्रकृति की अवचेतन स्मृति में रखी हो फिर भी, हो सकता हैं कि मानव जाति में भगवान् की आगामी विजयशील उपलब्धि के रूप में वह अभिप्रेत हो । यह जरूरी नहीं है कि यह पार्थिव जीवन अनिवार्य रूप से और हमेशा के लिये आधे सुखद व आधे दुःखद प्रयास का चक्र बना रहे । लक्ष्य-प्राप्ति भी अभिप्रेत हो सकती है और ईश्वर की महिमा और आनंद को धरती पर अभिव्यक्त किया जा सकता है ।

 

    हमें जिस अगली समस्या पर विचार करना है वह यह है कि मन, प्राण और शरीर अपने परम उत्स में क्या हैं, और परिणामत: दिव्य अभिव्यक्ति की सर्वांगीण पूर्णता में उन्हें क्या होना चाहिये जब वे सत्य से अनुप्राणित हों और जिस पार्थक्य और अज्ञान में आज हम रहते हैं उनके कारण उस सत्य से कटे न हों । क्योकि

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वहां उन्हें पहले ही वह पूर्णता प्राप्त होगी जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं --हम, जो अभीतक जड़ द्रव्य में विकसित होते हुए 'मन' की हथकड़ी में पड़ी पहली गतिमात्र हैं, हम, जो अभीतक रूप में आत्मा के उस अंतर्लयन की, अपनी ही छाया में महाज्योति की उस निमग्नता की अवस्थाओं और प्रभावों से मुक्त नहीं हुए हैं जिसके द्वारा भौतिक प्रकृति की अंधकारमय जड़-चेतना की सृष्टि की गयी थी । हम जिस समग्र पूर्णता की ओर बढ़ रहे हैं उसका प्ररूप, हमारे उच्चतम विकास की अवस्थाएं निश्चित रूप से पहले से दिव्य सत्य-संकल्प में विद्यमान होंगी । वे वहां रूपायित और सचेतन होंगी ताकि हम उनकी ओर और उनमें विकसित हो सकें । क्योंकि हमारी मानव मानसिकता भागवत ज्ञान में इस पूर्व-अस्तित्व को ही 'आदर्श' कहती और उसकी खोज करती है । यह 'आदर्श' एक शाश्वत सद्वस्तु हैं जिसे हमने अभीतक अपनी निजी सत्ता की अवस्थाओं में नहीं पाया है । यह कोई असत् नहीं है जिसे शाश्वत और दिव्य अभीतक पकड़ नहीं पाये हैं और केवल हम अपूर्ण प्राणियों ने ही उसकी झांकी पायी है और उसकी रचना करना चाहते हैं ।

 

   पहले मन को लें जो हमारे मानव जीवन का जंजीर से बंधा, कुंठित राजा है । अपने सारतत्त्व में मन एक ऐसी चेतना है जो नापती, सीमित करती, अविभाज्य समग्र से वस्तुओं के रूप काटती और उन्हें इस तरह धारण करती है मानों उनमें से प्रत्येक एक पृथक् अखंड वस्तु हो । यहांतक कि जिनका अस्तित्व स्पष्ट रूप से अंग और अंश रूप में होता है उनके साथ भी मन अपने सामान्य व्यापार की यह कल्पना गढ़ लेता है कि वे ऐसी चीजें हैं जिनके साथ वह समग्र के मात्र एक पहलू के रूप में नहीं बल्कि पृथक् रूप में भी व्यवहार कर सकता है । क्योंकि जब वह जानता है कि वे अपने-आपमें पृथक् वस्तुएं नहीं हैं तब भी उसे उनके साथ ऐसे ही व्यवहार करना पड़ता है मानों वे अपने-आपमें पृथक् वस्तुएं हों अन्यथा वह उन्हें अपनी विशिष्ट क्रियाशीलता के आधीन नहीं ला सकता । मन की यह तात्त्विक विशिष्टता ही उसकी समस्त कार्यकारिणी शक्तियों की क्रियाओं को प्रतिबन्धित करती है फिर चाहे वह धारणा हो, प्रत्यक्ष दर्शन हो, संवेदन हो या सृजनशील विचार के साथ व्यवहार । वह वस्तुओं की धारणा, प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन इस तरह करता है मानों वे किसी पृष्ठभूमि या बृहत्-पिंड में से कठोर आकार में काटी गयी वस्तुएं हों और वह उनका उपयोग इस तरह करता है मानों वे उसे सृजन या अधिकार करने के लिये दी गयी सामग्री की रूढ़ इकाइयां हों । उसकी सभी क्रियाएं और आनंद-प्रवृत्तियां उन समग्रों के साथ, जो बृहत्तर समग्र के अंगभूत होते हैं, इसी तरह बरताव करती हैं, और इन अंगभूत समग्रों को फिर से उपांगों में विखंडित कर दिया जाता है और उनसे भी उनसे मिलनेवाले विशेष प्रयोजनों की दृष्टि से समग्रों की तरह व्यवहार किया जाता है । मन उनके भाग कर सकता है, उनमें गुणन कर सकता है, उनमें जोड़-घटाव कर सकता है लेकिन वह इस गणित

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की सीमा के पार नहीं जा सकता । अगर वह परे जाकर वास्तविक समग्र की धारणा बनाने की कोशिश करता है तो वह अपने-आपको किसी विजातीय तत्त्व में खो बैठता है । वह अपनी ठोस भूमि से गिर कर अमूर्तता के सागर में, अनंत की खाई में जा पहुंचता है, जहां वह न तो धारणा, प्रत्यक्ष दर्शन, संवेदन कर सकता है और न अपने विषय के साथ सृजन या भोग के लिये व्यवहार ही कर सकता है । क्योंकि अगर कभी ऐसा लगता भी है कि मन अनंत की धारणा बना रहा है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन एवं संवेदन कर रहा है या उसे अपने अधिकार में करके उसका उपभोग कर रहा है तो यह केवल प्रतीति मात्र होती है और वह सदा अनंत की किसी आकृति में ही होती है । जिसे वह इस तरह अस्पष्ट रूप में अपने अधिकार में किये रहता है वह केवल एक रूपहीन वृहत् होता है वास्तविक देशातीत अनंत नहीं । जिस क्षण वह उसके साथ व्यवहार करना या उसे अधिकार में करना चाहता है उसी क्षण सीमित करने की अविच्छेद्य प्रवृत्ति आ जाती है और मन फिर से अपने-आपको प्रतिमाओं, रूपों और शब्दों से व्यवहार करता हुआ पाता है । मन अनंत पर अधिकार नहीं कर सकता, वह केवल उसे सह सकता है या उससे अधिकृत हो सकता है । वह सद्वस्तु की ज्योतिर्मय छाया के नीचे, जो उसकी पहुंच से परे के सत्ता के लोकों से उसपर नीचे डाली जाती है, बस सुखमय असहायता में पड़ा रह सकता है । अनंत पर अधिकार उन अतिमानसिक लोकों में आरोहण किये बिना नहीं हो सकता और न ही उसका ज्ञान ऋत-चिन्मय परम सद्वस्तु से उतरते हुए संदेशों के प्रति 'मन' के निस्पंद आत्मदान के बिना आ सकता है ।

 

    मन की यह स्वरूपगत क्षमता और उसके साथ आनेवाली मूलगत सीमा ही 'मन' के सत्य हैं और उसके स्वभाव और स्वधर्म को निश्चित करते हैं । यहां हमें परा माया के संपूर्ण यंत्र-विन्यास में उसे उसके काम पर नियुक्त करनेवाले भागवत आदेश की छाप देखने को मिलती है । यह कार्य उसके द्वारा निर्धारित होता है जो वह अपने स्वरूप में स्वयंभू की सनातन आत्म-परिकल्पना से उत्पत्ति के क्षण में होता हैं । वह कार्य है अनंतता को सदा सांत की भाषा में अनूदित करना, मापना, सीमित करना, खंड-खंड करना । वस्तुत: वह अनंत के सारे सच्चे भाव का बहिष्कार करके ही हमारी चेतना में यह कार्य करता है । इसीलिये मन महान् अज्ञान की ग्रंथि है क्योंकि वही मूल रूप में विभक्त और वितरित करता है । और यहांतक कि उसे गलत रूप में विश्व का कारण और भागवत माया का समग्र रूप मान लिया गया है । परंतु भागवत माया अपने अंदर जैसे विद्या को वैसे अविद्या को भी, जैसे ज्ञान को वैसे अज्ञान को भी समाविष्ट किये रहती है । क्योंकि यह स्पष्ट है कि चूंकि सांत अनंत का एक रूप है, उसीकी क्रिया का एक परिणाम, उसीकी कल्पना का एक खेल है और उसके बिना तो वह अस्तित्व में ही न आ सकता,

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उसके द्वारा, उसके अंदर और उसके साथ ही उसका अस्तित्व है इस तरह कि वही उसकी पृष्ठभूमि है, वह स्वयं उसी द्रव्य का एक रूप और उसी शक्ति की एक क्रिया है अतः एक मूलगत चेतना होनी चाहिये जो इन दोनों को एक साथ समाविष्ट करती और देखती हो और एक-दूसरे के समस्त संबंधों से घनिष्ठ रूप से सचेतन हो । उस चेतना में कोई अज्ञान नहीं है क्योंकि अनंत ज्ञात है और सांत उससे एक स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में पृथक् नहीं हुआ होता । परंतु, फिर भी सीमांकन की एक गौण प्रक्रिया वहां रहती है अन्यथा किसी जगत् का अस्तित्व ही न होता । यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मन की सतत विभाजन और फिर से संयोजन करनेवाली चेतना, प्राण की सतत विभिन्न दिशाओं में दौड़ने और फिर केंद्राभिमुख होनेवाली क्रिया और जड़ तत्त्व का अनंत रूप से विभक्त और आत्म-संकलित द्रव्य, सबके सब एक ही तत्त्व और आदि क्रिया के द्वारा गोचर सत्ता में आते हैं । सनातन कवि और मनीषी जो पूर्णतः ज्योतिर्मय है, अपने और सबके बारे में पूर्णतः अभिज्ञ है, जो पूरी तरह जानता है कि वह क्या कर रहा है, वह जिस सांत की रचना कर रहा है उसमें अनंत के बारे में सचेतन है, उस सनातन की इस गौण प्रक्रिया को दिव्य मन कहा जा सकता है । और यह स्पष्ट है कि वह सत्य-संकल्प की, अतिमानस की, वास्तव में कोई पृथक् क्रिया न होकर एक गौण क्रिया होता होगा और उसीके द्वारा कार्य करता होगा जिसका वर्णन हमने 'ऋत-चेतना' की प्रज्ञान गति कह कर किया है ।

 

    जैसा कि हम देख आये हैं वह प्रज्ञान चेतना, अविभाज्य सर्व की सक्रिय और रूप देनेवाली क्रिया को उसी सर्व की चेतना के आगे सृजनशील ज्ञान की एक प्रक्रिया और विषय के रूप में रखती है । वह सर्व अपनी निजी क्रिया का प्रवर्तक और ज्ञाता, प्रभु और साक्षी है । यह कुछ-कुछ ऐसा है जैसे कोई कवि अपनी चेतना की रचनाओं को अपनी चेतना में अपने सामने इस तरह रखी हुई देखता है मानों वे अपने रचयिता और उसकी रचना-शक्ति से भिन्न वस्तुएं हों परंतु वास्तव में वे वस्तुएं सारे समय उसकी अपनी सत्ता के अंदर आत्म-रूपायन की लीला होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होतीं और वहां वे अपने रचयिता से अविभाज्य होती हैं । इस भांति प्रज्ञान वह आधारभूत विभाजन कर देता है जो बाकी सबकी ओर, अर्थात् पुरुष और प्रकृति के विभाजन की ओर ले जाता है । इनमें पुरुष है सचेतन आत्मा जो जानता है, देखता और अपनी दृष्टि से सृजन करता एवं विधान बनाता है और प्रकृति है 'शक्ति-आत्मा' या 'निसर्ग-आत्मा' जो उसका ज्ञान और उसकी दृष्टि है, उसकी सृष्टि और सब कुछ व्यवस्थित करनेवाली शक्ति है, दोनों एक ही सत्ता, एक ही अस्तित्व हैं और जिन रूपों को पुरुष ने देखा और सृजा है वे रूप उसी सत्ता के बहुविध रूप हैं जिन्हें ज्ञाता-भाव में वह अपने सामने ज्ञान के रूप में और स्रष्टा-भाव में वह अपने आगे शक्ति के रूप में रखता है । इस प्रज्ञान चेतना की

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अंतिम क्रिया तब संपन्न होती है जब पुरुष अपनी सत्ता के सचेतन विस्तार में व्यापक होकर, अपने प्रत्येक बिंदु और साथ ही साथ अपनी समग्रता में विद्यमान रहता है, प्रत्येक रूप में निवास करता हुआ, उसने जितने दृष्टि-बिंदु अपनाये हैं उनमें से मानों समग्र को अलग-अलग देखता है । वह अपने अन्य आत्मा-रूपों के साथ अपने हर आत्मा-रूप के संबंधों को उस रूप विशेष के उपयुक्त इच्छा और ज्ञान की भूमिका से देखता और शासित करता है ।

 

    विभाजन के तत्त्व इस तरह अस्तित्व में आये हैं । पहले एकमेव की अनंतता ने अवधारणात्मक काल और देश के विस्तार में अपने-आपको अनूदित किया, दूसरे, एकमेव की सर्वव्यापकता ने उस आत्म-चेतन विस्तार में बहुसंख्यक सचेतन आत्माओं में अपने-आपको अनूदित किया, ये ही सांख्य के अनेक पुरुष हैं, तीसरे, आत्म-रूपों की बहुसंख्या ने अपने-आपको विस्तारित ऐक्य के विभक्त निवास में अनूदित कर लिया । यह विभक्त निवास उस समय अनिवार्य हो जाता है जब इन बहुसंख्यक पुरुषों में से प्रत्येक अपने ही पृथक् लोक में निवास नहीं करता, प्रत्येक की अपनी भिन्न प्रकृति न हो जो अलग विश्व की रचना करती हो, बल्कि सभी उसी एक प्रकृति का ही उपभोग करते हों -जैसा कि उन्हें करना ही चाहिये क्योंकि वे अपनी शक्ति की बहुविध सृष्टियों का अधिष्ठातृत्व करनेवाले एकमेव के ही आत्मा-रूप हैं -फिर भी इन आत्मा-रूपों के एक प्रकृति द्वारा बनाये गये सत्ता के एक जगत् में एक-दूसरे के साथ संबंध होते हैं । हर रूप में स्थित पुरुष अपने-आपको सक्रिय रूप से हर एक के साथ तदात्म कर लेता है, वह उसमें अपने-आपको सीमित कर लेता है और अपने अन्य रूपों के मुकाबले इस रूप को अपनी चेतना में इस तरह खड़ा करता है मानों उसने अपनी अन्य आत्माओं को अपने अंदर धारण किया हो जो आत्माएं सत्ता में तो उसके साथ एकात्म हैं लेकिन संबंध में भिन्न हैं -विभिन्न विस्तार, गति के विभिन्न क्षेत्र और एक ही द्रव्य, शक्ति, चेतना, आनंद की विभिन्न दृष्टि में अलग हैं, जिन्हें उनमें से हर एक काल के किसी निर्दिष्ट क्षण या देश के किसी निर्दिष्ट क्षेत्र में सचमुच प्रसारित करता है । यह मानते हुए कि दिव्य सत्ता के लिये, जो अपने बारे में पूरी तरह अभिज्ञ होती है, यह कोई बाध्यकारी सीमाबद्धता नहीं हैं, रूप के साथ कोई ऐसी तदात्मता नहीं है जिसकी 'आत्मा' दास बन जाये और उसे अतिक्रम न कर सके जैसे हम अपने शरीर के साथ तादात्म के दास हैं और अपने सचेतन अहं की सीमाबद्धता को अतिक्रम करने में असमर्थ हैं, देश में हमारे विशेष क्षेत्र का निर्धारण करनेवाली अपनी कालगत चेतना की विशेष गति से बाहर निकल आने में असमर्थ हैं, यह सब मान लेने के बाद भी वहां क्षण प्रति क्षण एक स्वच्छंद तदात्मता बनी रहती है जिसे दिव्य आत्मा का अविच्छेद्य ज्ञान ही इस बात से रोकता है कि वह अपने-आपको पृथक्ता और काल-अनुक्रम की प्रतीयमान रूप से कठोर शृंखला में जकड़ ले जिसमें हमारी चेतना बंधी और जकड़ी हुई प्रतीत होती है ।

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    इस प्रकार खंड-भाव अभीसे वहां शुरू हो गया है । रूप का रूप के साथ ऐसा संबंध कि मानों वे अलग-अलग सत्ताएं हों, सत्तागत इच्छा का सत्तागत इच्छा के साथ ऐसा संबंध मानों वे अलग-अलग शक्तियां हों, सत्तागत ज्ञान का सत्तागत ज्ञान के साथ ऐसा संबंध मानों वे अलग-अलग चेतनाएं हों -यह अभीसे स्थापित हो गया है । यह संबंध अभीतक ''मानों' की श्रेणी में है । क्योंकि दिव्य आत्मा मोहग्रस्त नहीं हुई है, वह सत्ता के सभी प्रपंचों से परिचित है और अपने अस्तित्व को सत्ता की वास्तविकता में दृढ़ रखती है, अपने एकत्व को खो नहीं बैठती : वह मन का उपयोग अनंत ज्ञान की एक अधीनस्थ क्रिया के रूप में करती है, चीजों की ऐसी व्याख्या के रूप में करती है जो उसकी अनंतता की अभिज्ञता के अधीन हो और ऐसे सीमाकरण के रूप में करती है जो उसकी मूलभूत समग्रता की अभिज्ञता पर आश्रित हों -ऐसी समग्रता पर नहीं जो संकलित और समूहित समुच्चय से बनी ऊपरी और बहु-समन्वित होती है, वह तो मन का एक और व्यापारमात्र है । इस प्रकार वहां कोई वास्तविक सीमाकन नहीं हुआ है, आत्मा अपनी सीमांकन-शक्ति का व्यवहार स्पष्टतया पहचाने जा सकनेवाले रूपों और शक्तियों की लीला के लिये करती है, वह उस शक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं होती ।

 

   अतः एक ऐसे मन की रचना के लिये जो स्वतंत्रता से सीमा बनानेवाला न होकर विवशता से सीमित मन होगा यानी जो मन अपनी लीला का मालिक है और उसे उसकी सत्यता में देखता है, उससे उल्टे उस मन की रचना के लिये जो अपनी लीला के आधीन है और उससे धोखा खाता है, दिव्य मन से उल्टे जीव-मन की रचना के लिये एक नये तत्त्व चित्-शक्ति की, एक नयी क्रिया की आवश्यकता होती है और वह नया तत्त्व है अविद्या, आत्म-अज्ञान की या आत्म-तिरोभाव की क्षमता, जो मन की क्रिया को उस अतिमानस की क्रिया से पृथक् करती है जिससे इसकी प्रथम उत्पत्ति हुई और जो अब भी पर्दे के पीछे से इसका नियमन करती है । इस प्रकार पृथक् होकर मन केवल एक अंश-विशेष को ही देखता है, वैश्व को नहीं अथवा अनधिकृत वैश्व में किसी विशिष्ट की अवधारणा करता है और विशिष्ट तथा वैश्व दोनों को अनंत की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं देख पाता । इस प्रकार हमें एक ऐसा सीमित मन प्राप्त होता है जो प्रत्येक अभिव्यक्ति को अपने-आपमें एक वस्तु के रूप में देखता है, उसे ऐसे समग्र के एक पृथक् अंश के रूप में देखता है जो फिर एक और बड़े समग्र में पृथक् अस्तित्व रखता है । और यह क्रम चलता जाता है । मन अपने समाहारों की परिधि तो बढ़ाता जाता है लेकिन सच्चे अनंत के बोधतक वापिस नहीं पहुंच पाता ।

 

    मन, अनंत की एक क्रिया होने के नाते, खंड-खंड करने और समुच्चय बनाने के क्रम को अंतहीन रूप से करता जाता है, वह सत्ता को समग्रों में काटता जाता है, उन्हें फिर और छोटे समग्रों में, अणुओं और उन अणुओं को आदि परमाणुओं

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मै काटता जाता है, यहांतक कि उसकी चले तो, वह आदि परमाणुओं को विघटित कर शून्यत्व में मिला दे । लेकिन वह ऐसा कर नहीं सकता क्योंकि इस खंड-खंड करने की क्रिया के पीछे अतिमानस का रक्षक ज्ञान रहता है जो यह जानता है कि प्रत्येक समग्र, प्रत्येक परमाणु सर्व-शक्ति का, सर्व-चेतना का, सर्व-सत्ता का अपने अभिव्यक्त रूपों में संकेंद्रण है । अतिमानस के लिये समुच्चय का अनंत शून्यत्व में विलोपन, जिसपर मन पहुंचता प्रतीत होता है, आत्म-संकेंद्रित सचेतन सत्ता का अपने अभिव्यक्तिगत रूप से निकलकर अपनी अनंत सत्ता में लौटना भर है । उसकी चेतना चाहे जिस भी राह से चले, अनंत विभाजन की राह से या अनंत वृद्धि की राह से, वह अपने-आपपर ही, अपने अनंत एकत्व और अपनी शाश्वत सत्ता पर ही पहुंचती है । और जब मन की क्रिया सचेतन रूप से अतिमानस के इस ज्ञान के आधीन हो तो उसे भी प्रक्रिया के सत्य का परिचय रहता है, उसकी उपेक्षा बिलकुल नहीं की जाती । सचमुच कोई विभाजन नहीं होता, केवल सत्ता के रूपों में अनगिनत, बहुविध संकेंद्रण होता है और सत्ता के रूपों के आपसी संबंध में व्यवस्था होती है । इसमें विभाजन संपूर्ण प्रक्रिया का एक अवर रूप है । यह प्रक्रिया उनकी देश और कालगत लीला के लिये आवश्यक है । क्योंकि तुम चाहे जितना विभाजन करते जाओ छोटे-से-छोटे अणुतक या सभी लोकों और संकायों के जो बड़े-से-बड़े समूह संभव हैं - अणोरणीयान् महतो महीयान् -दोनों में से किसी भी प्रक्रिया सें स्वयं वस्तुतक नहीं पहुंच सकते । सभी एक शक्ति के रूप हैं, केवल वही सद्वस्तु है बाकी सब शाश्वत चित्-शक्ति के आत्मकल्पना करनेवाले या अभिव्यक्त होनेवाले आत्म-रूप हैं ।

 

    तब फिर यह सीमित करनेवाली अविद्या, मन का अतिमन से पतन और उसके परिणामस्वरूप वास्तविक विभाजन का विचार कहां से आता है ? अतिमानसिक क्रिया की ठीक-ठीक किस विकृति से शुरू होता है ? यह तब शुरू होता है जब व्यष्टिभावापन्न आत्मा और सबको छोड़कर सब चीजों को केवल अपने ही दृष्टिकोण से देखती है; यह शुरू होता है, कह सकते हैं कि चेतना के ऐकांतिक संकेंद्रण से, कालगत और देशगत किसी क्रिया-विशेष के साथ आत्मा की ऐकांतिक एकात्मता से जो उसकी सत्ता की लीला का केवल एक भाग मात्र होती है । इसका आरंभ तब होता है जब आत्मा इस तथ्य की उपेक्षा करती है कि अन्य सब भी उसका अपना स्वयं है, अन्य सारी क्रिया उसीकी अपनी क्रिया है, सत्ता और चेतना की अन्य सभी अवस्थाएं समान रूप से उसकी अपनी और साथ ही काल में एक क्षण-विशेष, देश में एक विशेष दृष्टिकोण और उस रूप-विशेष की हैं जिसमें वह इस समय स्थित है । वह किसी क्षण, किसी क्षेत्र, किसी रूप, किसी गति पर इतनी संकेंद्रित हो जाती है कि बाकी को खो बैठती है । उसे इन्हें फिर से पाने के लिये क्षणों के अनुक्रम को, देश के बिंदुओं के अनुक्रम को, देश और काल में रूपों के

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अनुक्रम को, देश और काल में गतियों के अनुक्रम को आपस में जोड़ना पड़ता है । इस भांति वह काल की अविभाज्यता के, शक्ति और द्रव्य की अविभाज्यता के सत्य को खो बैठी है । उसकी आंखों से यह स्पष्ट सत्य भी ओझल हो गया है कि सभी मन एक ही 'मन' है जो विभिन्न दृष्टिबिंदु अपनाता है, सभी प्राण एक ही 'प्राण' है जो क्रियाशीलता की बहुत-सी धाराएं विकसित करता है, सभी शरीर और रूप शक्ति और चेतना का एक ही द्रव्य है जो शक्ति और चेतना के अनेक आभासी स्थायित्वों में संकेंद्रित होती है । परंतु सच यह है कि ये सभी स्थिरताएं वास्तव में लगातार तेजी से चक्राकार घूम रही गति ही हैं जो आकार को बार-बार दोहराती और उसमें कुछ हल्के परिवर्तन भी लाती जाती है । इससे ज्यादा कुछ नहीं है । कारण, मन की कोशिश रहती है कि वह प्रत्येक चीज को दृढ़तया स्थिर आकारों में और प्रकटत: अपरिवर्ती या अचलायमान बाह्य तत्त्वों में जकड़ दे, क्योंकि इसके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, तब वह सोचता है कि वह जो चाहता था वह उसे मिले गया : वास्तव में सब कुछ एक ऐसा प्रवाह है जिसमें सभी कुछ बदलता रहता और नया-नया रूप लेता रहता है, अपने-आपमें स्थिर आकार वहां कोई भी नहीं और अपरिवर्ती बाह्य तत्त्व भी वहां कोई नहीं । केवल शाश्वत सत्य-संकल्प ही दृढ़-स्थिर है और वही चीजों के इस प्रवाह में आकारों और संबंधों की एक विशेष क्रमिक स्थिरता को बनाये रखता है, ऐसी स्थिरता जिसकी मन व्यर्थ ही सतत रूप से अस्थिर वस्तुओं में स्थिरता को आरोपित कर नकल करने की कोशिश करता है । मन को इन सत्यों का फिर से अन्वेषण करना होगा । वह उन्हें सारे समय जानता तो है परंतु केवल अपनी चेतना के छिपे हुए पृष्ठभाग में ही, अपनी आत्म-सत्ता के गुप्त प्रकाश में । और वह प्रकाश उसके लिये अंधकार है क्योंकि उसने अविद्या की सृष्टि कर ली है, क्योंकि उसका विभेदक मानसिकता से विभक्त मानसिकता में पतन हो गया है, क्योंकि वह अपनी ही क्रियाओं और अपने ही सृजन में लीन हो गया है ।

 

    यह अविद्या मनुष्य के लिये उसके अपने शरीर के साथ एकात्म होने के कारण और भी गहरी हो गयी है । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मन शरीर के द्वारा निर्धारित होता है क्योंकि वह हमेशा उसको लेकर ही व्यस्त रहता और ऐसे शारीरिक क्रिया- कलापों में लगा रहता है जिनका उपयोग वह इस स्थूल भौतिक जगत् में अपनी सचेतन सतही क्रियाओं के लिये करता है । शरीर में अपने विकास के दौरान उसने मस्तिष्क और स्नायुओं की जिस क्रिया-पद्धति को विकसित किया है उसीका निरंतर व्यवहार करने के कारण यह शरीर-यंत्र उसे जो कुछ देता है उसीके अवलोकन में इतना अधिक निमग्न रहता है कि उससे पीछे हटकर अपनी शुद्ध क्रियावलि में नहीं जा पाता । यह शुद्ध क्रियावलि उसके लिये अधिकतर अवचेतन है । फिर भी हम एक ऐसे प्राण-मन या प्राण-सत्ता की कल्पना कर सकते हैं जो निमग्नता की इस

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विकासात्मक आवश्यकता के परे हो गया हो और जो देख सकता, यहांतक कि अनुभव कर सकता हो कि यह वही है जो शरीर के बाद शरीर धारण करता है, यह वह नहीं है जो प्रत्येक शरीर के साथ निर्मित होता और उसीके साथ समाप्त हो जाता हो, क्योंकि वह तो जड़ पदार्थ पर पड़नेवाली मन की केवल एक भौतिक छाप मात्र है, केवल दैहिक मानस है जो इस प्रकार निर्मित होता है, -संपूर्ण मानसिक सत्ता नहीं । यह दैहिक मानस हमारे मन की सतहमात्र है, वह अग्रभाग है जिसे वह भौतिक अनुभूति के आगे प्रस्तुत करता हैं । पीछे, यहांतक कि हमारी पार्थिव सत्ता में भी, वह अन्य मन है जो हमारे लिये अवचेतन या प्रच्छन्न चेतन हैं जो अपने-आपको शरीर से अधिक जानता है और कुछ कम जड़ भौतिक भावापत्र क्रिया करने में सक्षम है । हमारे ऊपरी मन की जो भी बृहत्तर, गभीरतर और अधिक शक्तिमय ऊर्जस्वी क्रिया होती है उसमें से अधिकांश के लिये हम इसी अवचेतन मन के ऋणी हैं । जब हम इसके या अपने ऊपर इसके संस्कार के बारे में सचेतन होते हैं तो यह अंतरात्मा या आंतरिक सत्ता के बारे में, पुरुष के बारे में हमारी पहली धारणा या पहली उपलब्धि होती है ।

 

    परंतु यह प्राणमय मानस भी, चाहे वह शारीरिक भ्रांति से भले मुक्त हो जाये हमें मन की संपूर्ण भ्रांति से मुक्त नहीं करता । वह अब भी अज्ञान की उस मौलिक क्रिया के आधीन रहता है जिसके कारण व्यक्तिभावापन्न जीव हर चीज को अपने ही दृष्टिबिंदु से देखता है और चीजों के सत्य को केवल उसी रूप में देख सकता है जिसमें वे अपने-आपको उसके सामने बाहर से प्रस्तुत करती हैं या जिस रूप में वे उसकी दृष्टि में उसकी पृथक् कालगत और देशगत चेतना में से, उसके भूत और वर्तमान अनुभव के आकारों और परिणामों के रूप में उभर आती हैं । वह अपनी अन्य आत्माओं के बारे में उनके अपने अस्तित्व के बारे में दिये गये बाहरी संकेतों द्वारा ही सचेतन हो पाता है । ये संकेत संचारित विचार, वाणी, क्रिया, क्रियाओं के परिणाम अथवा ऐसे प्राणिक संघात और संबंध के सूक्ष्मतर संकेत हैं जिन्हें भौतिक सत्ता सीधे अनुभव नहीं कर सकती । वह समान रूप से अपने बारे में भी अनभिज्ञ है क्योंकि वह अपने बारे में केवल काल में गति के द्वारा और ऐसे जीवनों के अनुक्रम द्वारा जानता है जिनमें उसने भिन्न प्रकार से शरीरस्थ ऊर्जाओं का उपयोग किया है । जैसे हमारे भौतिक करण-स्वरूप मन को शरीर की भ्रांति रहती है उसी तरह उस अवचेतन गतिशील मन को प्राण की भ्रांति होती है । वह उसीमें निमग्न और संकेंद्रित रहता है, वह उसीसे सीमित रहता है और अपनी सत्ता को उसीके साथ एकात्म करता है । यहां हम अभीतक मन और अतिमानस के उस मिलन-स्थलतक नहीं पहुंच पाये हैं जहां से वे पहले-पहल बिछुड़े थे ।

 

    लेकिन क्रियाशील और प्राणिक मन के पीछे एक और, अधिक स्पष्ट

 

     जिसे प्राणमय पुरुष के रूप में देखा जाता है ।

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चिंतनशील मन रहता है जो प्राण में इस निमग्नता से बचे रहने में समर्थ होता है । वह अपने-आपको इस तरह देखता है कि वह जिसे इच्छा और विचार के रूप में देखता है उसीको ऊर्जा के सक्रिय संबंधों में मूर्त रूप देने के लिये ही उसने शरीर और प्राण धारण किया है । यही हमारे अंदर शुद्ध मनीषी का उद्गम है । यही वह है जो मानसिकता को उसके अपने रूप में जानता है और वह जगत् को प्राण और शरीर के रूप में नहीं, बल्कि मन के रूप में देखता है । यही वह मनोमय पुरुष है जिसमें वापिस पहुंचकर हम कभी-कभी भूल से उसे शुद्ध आत्मा मान लेते हैं, जैसे क्रियाशील मन को हम अंतरात्मा मानने की भूल करते हैं । यह उच्चतर मन अन्य जीवों को अपनी शुद्ध आत्मा के अन्य रूपों की नाई देख सकता और उनके साथ उसी तरह व्यवहार कर सकता है । उसमें यह सामर्थ्य होती है कि उनका बोध केवल प्राणिक और स्नायविक आघात और स्थूल संकेत द्वारा ही नहीं, शुद्ध मनोमय आघात और संचार के द्वारा भी कर सके । एकत्व के एक मनोमय रूप की धारणा भी उसके पास होती है, और अपनी क्रिया और अपनी इच्छा में अधिक प्रत्यक्ष रूप में सर्जन और अधिकार की सामर्थ्य भी उसके पास होती है -केवल परोक्ष रूप से नहीं जैसा सामान्य भौतिक जीवन में होता है -और जैसे अपने मन, प्राण में वैसे ही दूसरों के मनों और प्राणों में भी वह ऐसा कर सकता है । लेकिन फिर भी यह शुद्ध मन भी मन की भूल-भ्रांति से नहीं बच सकता क्योंकि अब भी वह अपनी पृथक् मानस-सत्ता को ही विश्व का निर्णायक, साक्षी और केंद्र बनाता है और एकमात्र उसीके द्वारा अपनी उच्चतर सत्ता और सद्वस्तु तक पहुंचने की कोशिश करता है । अन्य सब उसके लिये 'अन्य' हैं जो उसके चारों ओर एकत्र हुए हैं । जब वह मुक्त होना चाहे तो उसे वास्तविक ऐक्य में लुप्त होने के लिये मन और प्राण से पीछे हटना होता है । क्योंकि वहां मानसिक और अतिमानसिक क्रिया के बीच अभीतक अविद्या का बनाया हुआ परदा रहता है, जिसमें से सत्य का प्रतिबिंब ही बाहर आ पाता है, स्वयं सत्य नहीं

 

    जब यह परदा फट जाये और विभक्त मन अतिमानसिक क्रिया द्वारा अभिभूत और उसके प्रति नीरव और निष्क्रिय हो जाता है केवल तभी मन वस्तुओं के सत्यतक लौट सकता हैं । वहां हम एक प्रकाशमय चिंतनशील मन पाते हैं जो दिव्य सत्य-संकल्प के प्रति आज्ञाकारी और यंत्रस्वरूप है । वहां हम देखते हैं कि संसार वास्तव में क्या है, हम हर तरह से अपने-आपको औरों में और औरों के रूप में और औरों को अपने रूप में और सभीको वैश्व तथा आत्म-संवर्द्धित एक के रूप में जानते हैं । हम उस कठोर रूप से पृथक् व्यक्तिगत दृष्टिबिंदु को खो देते हैं जो समस्त सीमाबद्धता और भ्रांति का उद्गम है । फिर भी हम यह भी देखते हैं कि वह सब जिसे मन के अज्ञान ने सत्य समझा था वह वस्तुतः सत्य तो था परंतु था राह से विचलित हुआ, गलत रूप में समझा गया और मिथ्या रूप से कल्पित किया गया

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सत्य । हम तब भी विभाजन, व्यष्टिकरण, आणविक सृजन को देखते हैं लेकिन हम उन्हें और अपने-आपको उस रूप में जानते हैं जो वे और हम सचमुच हैं । और इस तरह हम देखते हैं कि 'मन' सचमुच सत्य चेतना की एक अधीनस्थ क्रिया और उसका उपकरण था । जबतक कि वह स्वानुभव में आच्छादिका प्रभु-चेतना से अलग नहीं हो जाता और अपने लिये अलग आवास बनाने की कोशिश नहीं करता, जबतक वह यंत्र की तरह स्वाग्रहरहित होकर सेवा करता है, स्वयं अपने लाभ के लिये अधिकृत करने की कोशिश नहीं करता, तबतक 'मन' अपना कार्य आलोकमय रूप में करता है । वह कार्य है रूपों को सत्य के अंदर उनकी क्रिया के आभासी और शुद्ध रूप में औपचारिक सीमांकन द्वारा, एक-दूसरे से अलग रखना, जिनके पीछे सत्ता की शासिका विश्वव्यापकता सचेतन और अछूती रहती है । उसे वस्तुओं के सत्य को ग्रहण करना और परम तथा विश्वव्यापी चक्षु एवं इच्छा की निर्भ्रात दृष्टि के अनुसार उस सत्य को वितरित करना है । उसे सक्रिय चेतना, आनंद, शक्ति और द्रव्य के व्यष्टिकरण को धारण करना है जो अपनी सारी शक्ति, यथार्थता और आनंद पीछे स्थित अविच्छेद्य वैश्वभाव से प्राप्त करता है । उसे एकमेव की बहुलता को प्रतीयमान विभाजन में बदल देना है जिसके द्वारा संबंध निर्धारित होते हैं और उन्हें एक-दूसरे के सामने खड़ा किया जाता है जिससे वे फिर से मिल और जुड़ सकें । उसे शाश्वत ऐक्य और अन्योन्य सम्मिश्रण के बीच वियोग और संयोग का आनंद स्थापित करना है । उसे एकमेव को ऐसे व्यवहार का रूप लेने देना है कि मानों वह एक व्यष्टि सत्ता है जो दूसरी व्यष्टि सत्ताओं के साथ व्यवहार कर रहा है, लेकिन सदा अपने ऐक्य को बनाये रखते हुए ही, वास्तव में जगत् यही है । मन सत्य चेतना के प्रज्ञान या बाहर की ओर देखनेवाली दृष्टि की अंतिम क्रिया है जिसके द्वारा यह सब संभव हो पाता हैं । और जिसे हम अज्ञान कहते हैं वह कोई नयी या एकदम मिथ्या वस्तु नहीं बनाता, वह सत्य का केवल मिथ्या निरूपण करता है । अज्ञान वह मन है जिसका ज्ञान अपने ज्ञान-स्रोत से अलग हो गया है और जिसे विश्व में अभिव्यक्त हों रहे परम सत्य की सामंजस्यपूर्ण लीला में एक मिथ्या कठोरता दीखती और विरोध तथा संघर्ष की भ्रांत प्रतीति होती है ।

 

    तो मन की मूलगत भ्रांति है आत्म-ज्ञान से यह पतन जिसके कारण जीव अपने व्यक्तित्व की धारणा एकत्व के एक रूप में करने के बदले एक पृथक् तथ्य के रूप में करता है और अपने-आपको विश्वात्मा का एक संकेंद्रण जानने के बदले अपने-आपको ही अपने विश्व का केंद्र बना लेता है । सभी विशेष अज्ञान और सीमाएं उसी मूलगत भ्रांति के आनुषंगिक परिणाम हैं क्योंकि वह विश्व के प्रवाह को केवल उसी रूप में देखता है जिस रूप में वह स्वयं उसके ऊपर और उसमें से होकर बहता है । वह सत्ता को सीमित कर लेता है जिससे फिर चेतना सीमित हो जाती है और उसके कारण ज्ञान भी सीमित हो जाता है, चेतनशक्ति और इच्छा

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सीमित हो जाती है और इस कारण शक्ति भी सीमित हो जाती है, आत्म-संभोग सीमित हो जाता है और इस कारण आनंद भी सीमित हो जाता है । वह वस्तुओं के प्रति केवल उसी रूप में सचेतन होता और उन्हें केवल उसी रूप में जानता है जिस रूप में वस्तुएं उसकी वैयक्तिकता के सामने आती हैं अतः बाकी सबके बारे में वह अज्ञान में जा पड़ता है इससे जिनके बारे में उसे लगता है कि वह जानता है उनके बारे में भी वह प्रांत धारणा में पड़ जाता है क्योंकि, चूंकि समस्त सत्ता अन्योन्याश्रित है इसलिये किसी अंग का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिये या तो पूरी सत्ता का या फिर स्वरूप-तत्त्व का ज्ञान आवश्यक होता है । इसीलिये समस्त मानव-ज्ञान में भ्रांति का तत्त्व रहता ही है । इसी तरह हमारी इच्छा का, शेष सर्व-इच्छा से अनभिज्ञ रहने के कारण, क्रियासंबंधी मूल में और न्यूनाधिक मात्रा में असमर्थता और निःशक्तता में जा गिरना आवश्यक हो जाता है । जीव का स्वरूपानंद और वस्तुओं का आनंद सर्व-आनंद से अनभिज्ञ रहने के कारण और इच्छा तथा ज्ञान में त्रुटि के कारण, अपने जगत् को काबू में न कर पाने के कारण संपूर्णत: तृप्तिकर आनंद को पाने में असमर्थ रहेगा और परिणामस्वरूप दुःख-कष्ट में जा गिरेगा । अतः आत्म-अज्ञान ही हमारे जीवन की सभी विकृतियों का मूल है और वह विकृति हमारी आत्म-सीमितता में, अहंभाव में --जो कि उस आत्म-अज्ञान द्वारा ग्रहण किया गया रूप है -दृढ़-प्रतिष्ठ हो जाती है ।

 

    फिर भी समस्त अज्ञान और विकृति वस्तुओं के सत्य और ऋत का केवल मिथ्या निरूपण मात्र है, न कि पूर्ण मिथ्यात्व की लीला । यह मन का चीजों को विभाजन में देखने का -जो विभाजन उसने बनाया है -परिणाम है 'अविद्याया- मन्तरे',, जब वह अपने-आपको और अपने विभाजनों को सच्चिदानंद के सत्य की लीला के एक उपकरण और बाहरी रूप की तरह देखने के स्थान पर उक्त रूप में देखता है । अगर वह लौटकर उस सत्यतक जा पहुंचे जहां से वह गिरा था तो वह ऋत-चित् की प्रज्ञान-प्रक्रिया की फिर से अंतिम क्रिया बन जाता है और उस प्रकाश और शक्ति में उसकी सहायता से जो संबंध स्थापित होंगे वे सत्य के संबंध होंगे, न कि विकृति के । वैदिक ऋषियों की व्यंजक विशिष्ट वाणी में ये ऋजु वस्तुएं होंगी कुटिल नहीं, अर्थात् वे सत्य होंगे उस सत्ता के जो अपनी आत्मवश्य चेतना, इच्छा और आनंद के साथ अपने ही अंदर सामंजस्य में गति करती है । अभी तो हमारे मन और प्राण की विकृत और वक्र गति होती है, ये विकृति व वक्रताएं जीव के उस संघर्ष से पैदा होती हैं जब वह एक बार अपने सच्चे स्वरूप को भूल चुकने के बाद उसे फिर से पाने का प्रयास कर रहा होता है, समस्त भूल-भ्रांति को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस सत्य में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे दोनों --हमारा सत्य और हमारी भूल, हमारा उचित और हमारा अनुचित सीमित या विकृत करते हैं; समस्त असमर्थता को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस

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बल में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे हस्तगत करने के लिये दोनों, हमारी शक्ति और हमारी दुर्बलता, शक्ति के संघर्ष हैं; समस्त दुःख-कष्ट को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस आनंद में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे उपलब्ध करने के लिये दोनों, हमारा सुख और हमारा दुःख, संवेदना का विक्षोभभरा प्रयास है; समस्त मृत्यु को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस अमरता में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जहां लौटने के लिये हमारा जीवन और हमारी मृत्यु सत्ता का सतत प्रयास हैं ।

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अध्याय १

 

प्राण तथा जीवन

 

        प्राणो हि भूतानामायुः तस्मात्सर्वायुषमुच्यते ।

 

        प्राण-शक्ति ही सब भूतों का जीवन है इसी कारण उसे जीवन का विश्व-तत्त्व कहा जाता हैं ।

                                                        तैत्तिरीयोपनिषद् २,

 

तो हम देख पाते हैं कि मन, जो कि हमारे मानव अस्तित्व को बनानेवाले निम्न तीन तत्त्वों में सबसे ऊंचा है, वह अपने दिव्य मूल रूप में क्या है और उसका सत्य-चेतना के साथ क्या संबंध है । वह दिव्य चेतना की एक विशेष क्रिया है बल्कि यूं कहें कि वह सारी सृजनकारी क्रिया की अंतिम लड़ी हैं । मन ही पुरुष को यह क्षमता प्रदान करता है कि वह अपने विभिन्न रूपों और विभिन्न शक्तियों के संबंधों को एक-दूसरे से अलग रख सके । वह ऐसे आभासी भेदों की रचना करता है जो सत्य-चेतना से गिरे हुए व्यष्टि-जीव के आगे मूलगत विभाजन का रूप ले लेते हैं और उस आदि विकृति द्वारा वह समस्त परिणामगत विकृतियों का जनक बन जाता है, ये विकृतियां हमें, अज्ञान में रहनेवाली अंतरात्मा के जीवन के लिये स्वाभाविक, विपरीत द्वंद्वों और विरोधों के रूप में जान पड़ती हैं । लेकिन जबतक मन अतिमानस से अलग नहीं हो जाता तबतक वह विकृतियों और मिथ्यात्वों को नहीं, वैश्व सत्य की विभिन्न क्रियाओं को सहारा देता है ।

 

    इस भांति मन एक सृजनकारी वैश्व साधन प्रतीत होता है लेकिन अपनी मानसिकता के बारे में सामान्यतः हमारी जो धारणा है वह ऐसी नहीं है । हम तो बल्कि उसे प्रधानत: बोध प्राप्त करनेवाला एक अंग समझते हैं, उन चीजों का बोध प्राप्त करनेवाला एक अंग जो जड़तत्त्व में काम कर रही शक्ति ने पहले से बना रखा है । और जो मौलिक सृजन हम उसमें स्वीकार करते भी हैं वह, शक्ति ने जड़तत्त्व में जो रूप पहले से विकसित कर रखे हैं, उन रूपों से नये-नये संयोजन बनाने भर का गौण सृजन है । लेकिन भौतिक विज्ञान की नवीनतम खोजों की सहायता से जिस ज्ञान को हम अब फिर से प्राप्त कर रहे हैं उसने हमें यह बतलाना शुरू कर दिया है कि इस शक्ति और इस जड़ तत्त्व में एक अवचेतन मन कार्य कर रहा है जो निश्चय ही अपने आविर्भाव के लिये उत्तरदायी है । पहले प्राण के रूप में और फिर स्वयं मन के रूप में, पहले वनस्पति-जीवन एवं प्रारंभिक पशु की स्नायविक चेतना में और फिर विकसित पशु और मनुष्य की सदा विकसनशील मानसता में आविर्भाव के लिये उत्तरदायी होता है । और जैसा कि हम

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पहले ही पता लगा चुके हैं कि जड़ केवल शक्ति का द्रव्य-रूप ही है उसी तरह हमें यह भी पता चलेगा कि भौतिक शक्ति मन का ऊर्जा-रूप भर है । जड़ शक्ति वस्तुत: इच्छा-शक्ति की एक अवचेतन क्रियामात्र है, इच्छा-शक्ति हमारे अंदर उसमें कार्य करती है जो हमें प्रकाश मालूम होता है, द्यपि सच कहा जाये तो वह अर्द्ध-प्रकाश से बढ़कर नहीं है, और भौतिक शक्ति उसमें कार्य करती है जो हमें बुद्धिहीनता का अंधकार मालूम होता है; तथापि ये दोनों वस्तुत: और सार रूप में एक हैं, जैसा कि जड़वादी विचार ने वस्तुओं के गलत या निचले छोर से इस तथ्य को सहजप्रेरणावश सदा महसूस किया है और जैसा कि शिखर से काम करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान ने इस तथ्य को बहुत पहले ही खोज लिया था । इसलिये हम कह सकते हैं कि एक अवचेतन मन या बुद्धि ने ही शक्ति को अपने चालक बल, अपने कार्यकारी स्वभाव या अपनी प्रकृति के रूप में प्रकट करते हुए इस भौतिक जगत् का सृजन किया है ।

 

    लेकिन चूंकि जैसा कि हमने अब जान लिया है, मन कोई स्वतंत्र या मौलिक सत्ता न होकर केवल सत्य-चेतना या अतिमानस की अंतिम क्रिया हैं अतः जहां कहीं मन है वहां अतिमानस को होना ही चाहिये । अतिमानस या सत्य चेतना ही वैश्व अस्तित्व का वास्तविक सृजनात्मक माध्यम है । यहांतक कि जब मन अपने मूल स्रोत से अलग होकर अपनी अंधकारमय चेतना में होता है तब भी अतिमानस की वह विशालतर गति वहां मन की क्रियाओं में सदा विद्यमान रहती है । वह उन्हें अपने उचित संबंध बनाये रखने के लिये बाधित करती है, उनके अंदर से उन अनिवार्य परिणामों को विकसित करती है जिन्हें वे अपने अंदर धारण किये रहती हैं, उचित बीज से उचित वृक्ष उत्पन्न करती है, यहांतक कि वह जड़ शक्ति जो इतनी अनगढ़, तामसिक और अंधकारभरी चीज है उसकी क्रियाओं को भी ऐसा परिणाम पैदा करने के लिये बाधित करती है कि उनसे विधान का, व्यवस्था का, सही संबंधों का जगत् बने, न कि जैसा कि अन्यथा हुआ होता, टकराते संयोगों का और अव्यवस्था का जगत् । स्पष्ट ही, यह व्यवस्था और उचित संबंध केवल सापेक्षिक ही हों सकते हैं, वे वह परम व्यवस्था और परम ऋत नहीं हो सकते जिनका राज्य तब होता यदि मन अपनी चेतना में अतिमानस से पृथक् न हुआ होता; यह क्रम-विन्यास, यह व्यवस्था ऐसे परिणामों के कारण है जो विभाजनकारी मन की क्रिया के, उसके पृथक्कारी विरोधों की रचना के, उसके एक ही सत्य के द्वयात्मक विरोधी पहलुओं के लिये उचित और स्वाभाविक है । भागवत चेतना अपने इस द्वयात्मक या विभाजित प्रतिरूप के भाव की कल्पना करके और उसे क्रिया में केलकर उसे वहां से सत्य-भाव में लाती है और वहांसे विभिन्न संबंधों के अपने अवर सत्य या अनिवार्य परिणाम को -पीछे स्थित संपूर्ण सत्यचेतना की नियामिका क्रिया के द्वारा -व्यावहारिक रूप में जीवन-सत्व में प्रकट

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करती है । क्योंकि जगत् में विधान या सत्य का स्वरूप यही है कि जो कुछ सत्ता में समाया हुआ है, स्वयं वस्तु के सार और स्वरूप के अंदर उपस्थित है, उसके स्वभाव और स्वधर्म में छिपा हुआ है उसे दिव्य ज्ञान की दृष्टि के अनुसार कार्यान्वित और बाहर प्रकट करे । अंत:प्रकाशक थोड़े-से शब्दों में ज्ञान-जगत् को अपने अंदर समा रखनेवाले उपनिषद् के अद्भुत सूत्रों में कहें तो '' कविर्मनीषी परिभू: स्वयमभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य: '' (ईशोपनिषद् ८) -स्वयंभू ने ही सर्वत्र संभूति में आते समय द्रष्टा और मनीषी-रूप में सभी चीजों को, जो कुछ वे हैं उसके सत्य के अनुसार, सनातन काल से यथोचित क्रम में व्यवस्थित किया है ।

 

    फलस्वरूप, हम जिस त्रिलोक में निवास करते हैं, यानी मन, प्राण और शरीर के जगत् में, वह केवल अपने उपलब्ध विकास की वर्तमान अवस्था में ही त्रिविध है । जड़तत्त्व में अंतर्लीन जीवन विचारशील और मानसिक रूप से सचेतन जीवन के रूप में प्रकट हुआ है । लेकिन मन के अंदर और इसी कारण जीवन और जड़ तत्त्व के अंदर भी अतिमानस अंतर्लीन है जो अन्य तीनों का आदि कारण और शासक है । इसे भी उभरना चाहिये । हम जगत् के मूल में बुद्धि की खोज करते हैं क्योंकि बुद्धि ही वह उच्चतम तत्त्व है जिससे हम अभिज्ञ हैं और वही हमें लगता है कि हमारी समस्त क्रिया और रचना का नियंत्रण करता और उनका कारण बताता है । अतः यदि विश्व में कोई चेतना है तो हम मान लेते हैं कि वह बुद्धि या मानसिक चेतना ही होगी । लेकिन बुद्धि अपनी क्षमता की सीमा में अपने-आपसे श्रेष्ठतर सत्ता के एक सत्य की क्रिया का अवलोकन करती, उसे प्रतिबिंबित करती तथा व्यवहार में लाती है । अत: जो शक्ति पीछे रहकर काम करती है उसे उस सत्य के अनुरूप चेतना का एक और ही श्रेष्ठतर रूप होना चाहिये । हमें इसके अनुसार, अपनी धारणा को सुधारना होगा और यह प्रस्थापना करनी होगी कि इस भौतिक विश्व की रचना किसी अवचेतन मन या बुद्धि ने नहीं बल्कि अंतर्लीन अतिमानस ने की है । और वह अतिमानस शक्ति के अंदर अवचेतन रूप से विद्यमान उसकी जो ज्ञानात्मिका इच्छा है उसके प्रत्यक्षत: सक्रिय एक विशेष रूप के तौर पर मन को अपने आगे रखता है और सत्ता के सत्त्व के अंदर अवचेतन रूप से विद्यमान जो जड़ शक्ति या इच्छा है उसे अपने कार्यान्वित करनेवाले स्वभाव या प्रकृति के रूप में व्यवहार में लाता है ।

 

    लेकिन हम देखते हैं कि यहां पर मन शक्ति के एक विशिष्टीकरण के रूप में अभिव्यक्त हुआ है जिसे हम जीवन का नाम देते हैं । तब फिर जीवन है क्या और उसका अतिमानस के साथ, सच्चिदानंद की उस परम त्रयी के साथ, जो सत्य-संकल्प या सत्य चेतना द्वारा विश्व में सक्रिय है, क्या संबंध है ? त्रयी के किस तत्त्व से उसका जन्म होता है ? या सत्य या आभास की किस दैवी या अदैवी

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आवश्यकता के कारण वह अस्तित्व में आता है ? शताब्दियों से यह प्राचीन पुकार गूंजती आ रही है कि जीवन एक अशुभ है, एक भ्रम, प्रलाप और पागलपन है जिसमें से भागकर हमें शाश्वत सत्ता में विश्राम लेना है । क्या यह ऐसा है और अगर है तो क्यों ? शाश्वत ने क्यों अपने-आपपर या अपनी विकराल छलनामयी माया के द्वारा अस्तित्व में लाये गये जीवों पर मनमौजी ढंग से यह अशुभ आरोपित किया है, यह प्रलाप या पागलपन लादा है ? या फिर इसकी जगह क्या यह कोई दिव्य तत्त्व है जो अपने-आपको यूं प्रकट करता है, क्या शाश्वत के आनंद की कोई शक्ति ही है जिसे प्रकट होना था और जिसने देश और काल में जीवन के कोटि- कोटि रूपों के, जिनसे ब्रह्मांड के अगणित लोक भरे पड़े हैं, इस सतत विस्फोट में अपने-आपको उंडेल दिया है ?

 

    जब हम जड़ तत्त्व को आधार बनाकर पृथ्वी पर प्रकट होनेवाले जीवन का अध्ययन करते हैं तो देखते हैं कि वह तत्त्वतः एक वैश्व ऊर्जा का ही रूप है, उसकी भावात्मक और अभावात्मक धारा या क्रियाशील गति, उस शक्ति की सतत क्रिया या लीला है जो रूपों का निर्माण करती, सतत उद्दीपन की धारा के द्वारा उनमें ऊर्जा का संचार करती और उनके उपादान के विघटन और पुनर्नवीकरण की अविरत प्रक्रिया द्वारा उनमें स्थायित्व लाती है । इससे ऐसा दिखलायी देगा कि हम जीवन और मृत्यु के बीच जो स्वाभाविक विरोध बना लेते हैं वह हमारी मानसिकता की एक भूल है, उन मिथ्या विरोधों में से एक है जो आंतरिक सत्य के लिये मिथ्या है जब कि ऊपरी व्यावहारिक अनुभूतियों के लिये प्रामाणिक और मान्य है हमारी मानसिकता इन प्रत्यक्ष रूपों के धोखे में आकर सदा उन्हें वैश्व ऐक्य में लाती रहती है । जीवन की एक प्रक्रिया होने के सिवा मृत्यु की कोई और वास्तविकता नहीं है । उपादान का विघटन और उपादान का पुनर्नवीकरण, रूप का संरक्षण और रूप का परिवर्तन --ये जीवन की सतत प्रक्रिया हैं । मृत्यु केवल तेजी से होनेवाला विघटन है जो जीवन के परिवर्तन की आवश्यकता और रूपात्मक अनुभूतियों में विभिन्नता के अधीन है । यहांतक कि शरीर की मृत्यु में भी जीवन का अंत नहीं हो जाता । केवल जीवन के एक रूप की सामग्री को तोड़ा जाता है ताकि वह जीवन के दूसरे रूपों के लिये सामग्री के तौर पर काम आ सके । इसी तरह हम निश्चित हो सकते हैं कि प्रकृति के अविकरी विधान में अगर शारीरिक रूप में मानसिक या चैत्य ऊर्जा है तो वह भी नष्ट नहीं होती, केवल एक रूप से दूसरा रूप धारण करने के लिये, पुनर्जन्म की किसी प्रक्रिया द्वारा या नये शरीर में अंतरात्मा को प्रतिष्ठित करने के लिये अलग हों जाती है ।

 

    परिणामस्वरूप यह प्रतिपादन किया जा सकता है कि एक ही सर्वव्यापी प्राण या सक्रिय ऊर्जा है जो भौतिक विश्व के इन सभी रूपों का सृजन करती है । भौतिक रूप तो उसकी बाह्यतम क्रिया मात्र है । प्राण नष्ट नहीं हो सकता, वह शाश्वत है ।

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चाहे विश्व का सारा रूप ही नष्ट हो जाये तब भी उसका अपना अस्तित्व बना रहेगा और वह पहले विश्व की जगह एक और विश्व बनाने में सक्षम होगा । निश्चय ही यदि कोई उच्चतर शक्ति उसे या वह स्वयं ही अपने-आपको विश्राम की अवस्था में न रोक रखे तो वह अनिवार्य रूप से सृजन करता चला जायेगा । उस दशा में प्राण और कुछ नहीं, बस वह शक्ति है जो जगत् में रूपों का निर्माण करती, उनका संरक्षण करती और उनका विनाश करती है । प्राण पृथ्वी के रूप में भी अपने-आपको उतना ही अभिव्यक्त करता है जितना पृथ्वी पर आनेवाली वनस्पति में और वनस्पति की जीवनी-शक्ति को या एक दूसरे को निगलकर अपने अस्तित्व को बनाये रखनेवाले प्राणियों एवं पशुओं में । यहां समस्त अस्तित्व वैश्व जीवन है जो जड़-पदार्थ का रूप धारण करता है । हो सकता है कि इस प्रयोजन के लिये, अवमानसिक संवेदन और मानसभावापन्न प्राण के रूप में उभरने से पहले, उसने जीवन-प्रक्रिया को भौतिक प्रक्रिया में छिपा रखा हों, पर फिर भी सभी दशाओं में वह होगा वह-का-वही सृजनकारी जीवन-तत्त्व ही ।

 

    तथापि यह कहा जा सकता है कि जीवन से हम जो मतलब समझते हैं वह यह नहीं है । हमारा मतलब वैश्व शक्ति के उस परिणाम विशेष से होता है जिसके साथ हम परिचित हैं, जो अपने-आपको पशु और वनस्पति में तो प्रकट करता है पर धातु पत्थर या गैस में नहीं, जो पशु के कोषाणु में तो क्रिया करता है पर शुद्ध भौतिक अणु में नहीं । अतः अपने आधार के बारे में निश्चित होने के लिये हमें यह जांच करनी होगी कि शक्ति की क्रीड़ा के जिस परिणाम विशेष को हम जीवन कहते हैं उसका यथार्थ स्वरूप क्या है और निष्प्राण वस्तुओं में शक्ति की क्रीड़ा का जो दूसरा परिणाम है जो, हम कहते हैं कि जीवन नहीं है, उससे वह किस तरह भिन्न है । हम तुरंत देखते हैं कि यहां धरती पर शक्ति की क्रीड़ा के तीन प्रदेश हैं । पहला है प्राचीन वर्गीकरण के अनुसार पशु-जगत् जिसमें हमारी भी गिनती है, दूसरा है वनस्पति-जगत् और तीसरा है विशुद्ध जड़-जगत् जो, हमारी मान्यता के अनुसार, जीवन-रहित है । हमारे अंदर का जीवन वनस्पति के जीवन से किस तरह भिन्न है ? और वनस्पति का जीवन जीवन-रहित जगत् से, उदाहरणार्थ प्राचीन भाषा में धातु व खनिज कहे जानेवाले जगत् से अथवा भौतिक विज्ञान द्वारा खोजे गये नये रासायनिक जगत् से किस तरह भिन्न है ?

 

    साधारणत: जब हम जीवन की बात करते हैं तो हमारा मतलब प्राणी व पशु के जीवन से होता है जो हिलता-डुलता है, सांस लेता है, खाता, अनुभव करता और कामना करता है । अगर हम वनस्पति में जीवन की बात करते हैं तो वास्तविकता से कहीं अधिक यह प्रायः एक रूपक ही रहा है क्योंकि यह माना जाता था कि वनस्पति जीवन एक जैविक घटना न होकर शुद्ध रूप से भौतिक प्रक्रिया है । विशेष रूप से हमने जीवन का संबंध श्वासोच्छूवास के साथ जोड़ा हुआ है । श्वास

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ही जीवन हैं, यह हर भाषा में कहा गया है और अगर हम 'जीवन के श्वास' के बारे में अपनी कल्पना बदल दें तो यह सूत्र बिल्कुल ठीक है । लेकिन यह स्पष्ट है कि सहज गति या चलना-फिरना, सांस लेना, खाना जीवन की प्रक्रियाएं मात्र हैं, अपने-आपमें स्वयं जीवन नहीं हैं । ये तो उस सतत प्रचोदनकारी ऊर्जा को पैदा करने या मुक्त करनेवाले साधन हैं जो हमारी जीवन-शक्ति है । और वे विघटन और पुनर्नवीकरण की फिर से नया बनाने की उस प्रक्रिया के साधन हैं जिनके द्वारा वह शक्ति हमारे ठोस पार्थिव जीवन को संभाले रखती है परंतु हमारी जीवन-शक्ति की ये प्रक्रियाएं हमारे श्वासोच्छूवास और हमारे पोषण के साधनों से भिन्न अन्य तरीकों से भी जारी रखी जा सकती हैं । यह एक प्रमाणित तथ्य है कि मानव जीवन तब भी शरीर में बना रह सकता है और पूर्ण चेतना के साथ बना रह सकता है जब श्वासोच्छूवास और हृदय की गति को तथा अन्य स्थितियों को, जो पहले जीवन के लिये अनिवार्य मानी जाती थीं, कुछ समय के लिये रोक दिया जाये । तथ्यों सहित, ऐसे नये प्रमाण सामने लाये गये हैं जिनसे यह प्रस्थापित होता है कि वनस्पति में, जिसमें किसी भी सचेतन प्रतिक्रिया को मानने से हम अब भी इंकार कर सकते हैं, उसमें भी कम-से-कम ऐसा भौतिक जीवन तो है ही जो हमारे जीवन के साथ मेल खाता है और अपने ऊपरी गठन में भले अलग हो फिर भी तत्त्वतः हमारे जीवन की तरह ही व्यवस्थित है । अगर यह बात सच साबित हो जाये तो हमें अपनी पुरानी, सरल एवं मिथ्या कल्पनाओं को एकदम बुहार कर बाहरी रूपों और लक्षणों के परे जाकर मामले की जड़तक पहुंचना होगा ।

 

    हाल ही में कुछ ऐसी खोजें हुई हैं जिनके निष्कर्षों को यदि स्वीकार कर लिया जाये तो उनसे अवश्य ही जड़तत्त्व में जीवन की समस्या पर अत्यधिक प्रकाश पड़ेगा । एक महान् भारतीय भौतिक विज्ञानी ने ध्यान खींचा है कि उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया जीवन के अस्तित्व का अचूक चिह्न है । इस वैज्ञानिक की दत्त-सामग्री से वनस्पति-

 

    ये विचार, जिस रूप में वे यहां प्रस्तुत किये गये हैं, हाल की वैज्ञानिक खोजों के आधार पर जड़ में जीवन के स्वरूप और प्रक्रिया को समझाने के लिये हैं, उसके प्रमाण के रूप में नहीं । भौतिक विज्ञान और तत्त्व ज्ञान (चाहे वह शुद्ध बौद्धिक चिंतन पर आधारित हो या जैसा कि भारत में रहा है, आध्यात्मिक दृष्टि और आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित हो) प्रत्येक की खोज का अपना-अपना क्षेत्र और अपनी-अपनी पद्धति है । जैसे भौतिक विज्ञान अपने निष्कर्षों को तत्त्व ज्ञान पर नहीं लाद सकता उसी तरह तत्त्व ज्ञान भी अपने निष्कर्षों को भौतिक विज्ञान पर आरोपित नहीं कर सकता । फिर भी अगर हम इस तर्कसिद्ध विश्वास को मान लें कि पुरुष और प्रकृति की सभी अवस्थाओं में सादृश्यों का तंत्र रहता है जो उनके आधार में रहनेवाले सामान्य सत्य को प्रकट करता है तो यह कल्पना करना न्यायसंगत होगा कि भौतिक विश्व के सत्य विश्व में क्रियाशील रहनेवाली शक्ति की प्रकृति और प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं, लेकिन संपूर्ण प्रकाश नहीं क्योंकि भौतिक विज्ञान अपनी खोज के क्षेत्र में अनिवार्य रूप से अपूर्ण रहता है और उसके पास इस शक्ति की गुह्य गतियों को जानने का कोई सूत्र या संकेत नहीं होता ।

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जीवन के व्यापार पर ही विशेष रूप से प्रकाश पड़ा है और उसकी सभी सूक्ष्म प्रवृत्तियों तक का चित्रण सामने आया है लेकिन हमें यह न भूलना चाहिये कि मूल प्रश्न की विवेचना में जीवन-शक्ति के उसी प्रमाण को, अर्थात् उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया को, जो कि जीवन की भावात्मक स्थिति है और उसकी अभावात्मक स्थिति, जिसे हम मृत्यु कहते हैं, इन्हींको उसने वनस्पति की तरह धातु में भी पुष्ट किया है । निश्चय ही उतनी प्रचुरता के साथ नहीं, निश्चय ही इस रूप में नहीं कि यह दिखलाया जा सके कि जीवन का गठन दोनों में तत्त्वतः एक समान है । लेकिन यह संभव है कि अगर ठीक तरह के और पर्याप्त सूक्ष्मतावाले यंत्रों का आविष्कार किया जा सके तो धातु और वनस्पति-जीवन में समानता के और अधिक बिंदुओं का पता लग सके और अगर यह सिद्ध भी हो जाये कि ऐसा नहीं है तो इसका यह अर्थ हो सकता है कि उसी प्रकार का या किसी भी प्रकार का जीवन-गठन तो वहां पर नहीं है फिर भी हो सकता है कि प्राणिक शक्ति का आदि रूप वहां हो । लेकिन अगर धातु में जीवन उपस्थित है, वह अपने लक्षणों में चाहे जितना प्रारंभिक क्यों न हो, तो हमें यह मानना पड़ेगा कि धरती या धातुओं के सजातीय अन्य जड़ पदार्थों में भी जीवन, शायद अंतर्लीन या प्रारंभिक और तात्त्विक रूप में विद्यमान है । अगर हम अपनी खोज को और आगे जारी रख सकें और वहीं रुक जाने के लिये बाधित न हों जहां हमारी खोज के वर्तमान साधन विफल हो जाते हैं तो प्रकृति के बारे में अपने सुनिश्चित अनुभव के आधार पर हमें निश्चय है कि इस प्रकार जारी रखी गयी खोजें अंत में हमारे आगे यह प्रमाणित कर देंगी कि धरती और उसमें बनी धातु के बीच या धातु और वनस्पति के बीच कहीं कोई विच्छेद या कोई कठोर सीमारेखा नहीं है और संश्लेषण की इस खोज को और जारी रखने पर प्रमाणित होगा कि धरती या धातु को बनानेवाले तत्त्वों या अणुओं के और उनसे बनी धातु या धरती के बीच भी कोई व्यवधान या कठोर सीमारेखा नहीं है । इस क्रमबद्ध अस्तित्व का हर कदम अगले कदम की तैयारी करता है और अपने अंदर उस चीज को लिये रहता है जो आनेवाले कदम पर प्रकट होगी । जीवन या प्राण सभी जगह है चाहे गुप्त हो या प्रकट, गठित हों या प्रारंभिक, अंतर्लीन हो या विकसित, लेकिन है वह वैश्व, सर्वव्यापी और अविनश्वर, केवल उसके रूप और संगठन भिन्न-भिन्न होते हैं ।

 

    हमें यह याद रखना चाहिये कि उद्दीपन के प्रति भौतिक अनुक्रिया हमारे हिलने-डुलने और श्वासोच्छूवास की तरह जीवन का एक बाहरी संकेत है । परीक्षण करनेवाला एक विशिष्ट उद्दीपन का प्रयोग करता है और सुस्पष्ट अनुक्रियाएं प्राप्त होती हैं जिन्हें हम परीक्ष्य पदार्थ में जीवन-शक्ति के संकेतों के रूप में तुरंत जान सकते हैं । लेकिन पौधा अपने सारे जीवन में, अपने आस-पास से निरंतर आ रहे अनेक उद्दीपनों के प्रति निरंतर अनुक्रिया कर रहा होता है । इसका मतलब है कि

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उसके अंदर एक सतत रूप से संरक्षित शक्ति विद्यमान है जो अपने इर्द-गिर्द से आ रहे शक्ति के दबावों के प्रति अनुक्रिया करने में समर्थ है । कहा जाता है कि इन परीक्षणों ने वनस्पति या अन्य सजीव संरचनाओं में प्राण-शक्ति के विचार को नष्ट कर दिया है, लेकिन जब हम कहते हैं कि वनस्पति पर किसी उद्दीपन का प्रयोग किया गया है तो उसका अर्थ होता है कि उस पदार्थ की ओर कोई अर्जित शक्ति या सक्रिय गति को भेजा गया है और जब हम कहते हैं कि उसकी अनुक्रिया हुई है तो उसका मतलब होता है कि सक्रिय गति और संवेदनशील स्पंदन करने में समर्थ एक ऊर्जित शक्ति उस आघात का प्रत्युत्तर देती है । वहां एक स्पंदनशील ग्रहणशीलता और अनुक्रिया होती है और साथ ही बढ़ने और बने रहने की इच्छा होती है जो इस बात का संकेत है कि सत्ता के उस रूप में चित्-शक्ति का एक अवमानसिक, एक प्राणिक-भौतिक संगठन छिपा है । तो तथ्य यह प्रतीत होता है कि जैसे विश्व में एक सतत क्रियात्मक ऊर्जा गतिशील है जो कम या ज्यादा, सूक्ष्म या स्थूल अलग-अलग जड़ रूप धारण करती है, वैसे ही हर जड़ शरीर या पदार्थ में, वनस्पति, पशु या धातु में वही सतत क्रियात्मक शक्ति संचित और क्रियाशील रहती है । इन दोनों का एक विशेष आदान-प्रदान ही हमारे आगे उस तथ्य को प्रस्तुत करता है जिसे हम जीवन-संबंधी विचार के साथ जोड़ते हैं । यही वह क्रिया है जिसे हम ऊर्जा की क्रिया के रूप में पहचानते हैं और जो अपने-आपको इस तरह अर्जित कर लेती है वही है प्राण-शक्ति । 'मानस-ऊर्जा', 'जीवन-ऊर्जा', 'भौतिक-ऊर्जा' ये एक ही 'जगत्-शक्ति' की विभिन्न गतिधाराएं हैं ।

 

    यहांतक कि जब हमें यह लगता है कि कोई रूप मर गया है तब भी यह शक्ति उसमें संभाव्यता के रूप में मौजूद रहती है यद्यपि उसकी जीवन-शक्ति की साधारण क्रियाएं स्थगित हो जाती हैं और स्थायी रूप से समाप्त होने को होती हैं । कुछ सीमाओं के अंतर्गत जो मर चुका है उसे फिर से जीवित किया जा सकता है, अभ्यासगत क्रियाओं को, अनुक्रिया एवं सक्रिय ऊर्जा के संचार को फिर से चालू किया जा सकता है और इससे यह प्रमाणित होता है कि हम जिसे जीवन कहते हैं वह वहां शरीर में अभीतक मौजूद था, छिपा हुआ था यानी अपनी रोजाना की आदतों में, अपनी साधारण भौतिक क्रिया-कलाप की आदतों, अपने स्नायविक व्यापार और अनुक्रिया की आदतों, पशु में अपनी सचेतन मानसिक अनुक्रिया की आदतों में सक्रिय नहीं था । यह मानना कठिन है कि जीवन नाम की एक विशिष्ट सत्ता है जो शरीर के अंदर से पूरी तरह बाहर निकल गयी है और जब उसे लगता है कि कोई रूप को उद्दीपित कर रहा है तो फिर से उसमें वापिस चली आती है -लेकिन कैसे ? क्योंकि उसे शरीर के साथ जोड़नेवाली कोई चीज तो वहां है ही नहीं ? स्तंभ जैसे रोगों में हम देखते हैं कि जीवन के बाहरी भौतिक चिह्न और व्यापार स्थगित हो जाते हैं फिर भी मानसिकता आत्मवान् और सचेतन रहती है,

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द्यपि वह स्वाभाविक शारीरिक अनुक्रियाओं को प्रेरित करने में असमर्थ रहती है । निश्चय ही तथ्य यह नहीं होता कि मनुष्य भौतिक रूप से तो मृत पर मानसिक रूप से जीवित रहता है या यह कि शरीर में से प्राण तो निकल गया परंतु मन बचा हुआ है । होता केवल यह है कि सामान्य भौतिक क्रिया-कलाप तो स्थगित हो जाते हैं परंतु मन तब भी सक्रिय बना रहता है ।

 

    इसी तरह समाधि के कुछ प्रकारों में शारीरिक और बाहरी मानसिक क्रिया-कलाप दोनों स्थगित हो जाते हैं । लेकिन बाद में अपनी क्रियाएं फिर से शुरू कर देते हैं । कुछ दशाओं में तो बाहरी उद्दीपन के द्वारा पर अधिकतर भीतर से ही अपनी क्रियाशीलता की ओर सहज रूप में लौटते हैं । वस्तुत: होता यह है कि सतही मन-शक्ति अवचेतन मन में और सतही प्राण-शक्ति अंत: -सक्रिय प्राण में अंदर खींच ली जाती है और संपूर्ण मनुष्य ही या तो अवचेतन सत्ता में जा गिरता है या फिर वह अपने बाहरी जीवन को अवचेतन में खींच लेता है जब कि उसकी आंतरिक सत्ता अतिचेतन में ऊपर उठ जाती है । लेकिन मुख्य बात हमारे लिये इस समय यह है कि शरीर में जीवन की सक्रिय ऊर्जा को बनाये रखनेवाली शक्ति ने--वह चाहे जो कुछ क्यों न हों --अपनी बाहरी क्रियाओं को तो बेशक स्थगित कर दिया होता है पर फिर भी सुघटित शरीर-रचनावाले द्रव्य को अनुप्राणित कर रही होती है । एक ऐसी स्थिति आती है जब स्थगित क्रियाओं को फिर से सक्रिय करना संभव नहीं रहता और यह तब होता है जब या तो शरीर पर कोई ऐसी चोट पहुंचायी गयी हो जो उसे बेकार या अपनी अभ्यासगत क्रियाओं के लिये असमर्थ बना दे या, ऐसी चोट के अभाव में, जब विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाये यानी जब वह 'शक्ति' जिसे जीवन-क्रिया को नया करते जाना चाहिये, वह इर्द-गिर्द की शक्तियों के दबाव के प्रति एकदम निष्क्रिय और जड़ हो जाये, उन शक्तियों के प्रति जिनके अनेक उद्दीपनों के साथ वह सतत आदान-प्रतिदान करने की अभ्यस्त थी । तब भी शरीर में प्राण रहता है लेकिन ऐसा प्राण जो केवल रूपायित द्रव्य को विघटित करने की प्रक्रिया में ही व्यस्त रहता है ताकि वह अपने तत्त्वों में चला जाये और उनके साथ मिलकर नये रूप गढ़ सके । वैश्व शक्ति मे विद्यमान 'इच्छा' जो रूप को एक साथ बांधकर रखे हुए थी, अब उस संरचना से अपने-आपको पीछे खींच लेती है और उसके बदले छितराव की प्रक्रिया का साथ देने लगती है । ऐसा न होनेतक शरीर की वास्तविक मृत्यु घटित नहीं होती ।

 

    तो जीवन वैश्व शक्ति की गतिशील क्रीड़ा है, इस शक्ति में मानसिक चेतना और स्नायविक प्राण-शक्ति किसी-न-किसी रूप में या कम-से-कम अपने तत्त्व में सदा अंतर्निहित रहती है अतः वे अपने-आपको हमारे जगत् में भौतिक पदार्थ के रूपों में प्रकट और संघटित करती हैं । इस शक्ति की यह जीवन-क्रीड़ा विभिन्न रूपों के, जिन्हें उसने बनाया है और जिनमें वह अपना सतत सक्रिय कंपन बनाये

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रखती है, उनके बीच उद्दीपन और उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया के आदान-प्रदान के रूप में अपने-आपको अभिव्यक्त करती है । हर एक रूप सर्वव्यवहार्य शक्ति के श्वास और ऊर्जा को सतत रूप से अपने अंदर लेता और फिर बाहर निकालता रहता है । प्रत्येक रूप उसीको अपना आहार बनाता और उसीसे अपना पोषण पाता है । ऐसा वह विभिन्न उपायों से करता है, या तो परोक्ष रूप से संचित ऊर्जावाले अन्य रूपों को अपने अंदर लेकर या फिर सीधे ही बाहर से प्राप्त शक्तिमय धाराओं को आत्मसात् करके । यह सारा प्राण का ही खेल है लेकिन हम उसे मुख्य रूप से तभी पहचान सकते हैं जब उसका संगठन इतना पर्याप्त हो कि हम उसकी अधिक बाहरी और जटिल गतियों को देख सकें और विशेषत: वहां जहां वह हमारे अपने संघटन में स्थित प्राणिक ऊर्जा के स्नायविक रूप से मिलता-जुलता हो । यही कारण है कि हम वनस्पति में जीवन की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिये काफी तैयार रहते हैं क्योंकि जीवन का स्पष्ट दीखनेवाला व्यापार वहां उपस्थित है, -और यह तब और भी आसान हो जाती है अगर यह दिखलाया जा सके कि वनस्पति स्नायविकता के ऐसे लक्षण प्रकट करती है और ऐसा प्राणिक संगठन रखती है जो हमारे लक्षणों और संगठन से बहुत भिन्न नहीं है, --लेकिन हम इसे धातु, धरती और रासायनिक परमाणु में मानने को अनिच्छक रहते हैं जहां इन दीखनेवाले विकासों का पता लगा सकना काफी कठिन होता है या प्रकट रूप में उनका अस्तित्व ही नहीं होता ।

 

    क्या इस अंतर को वास्तविक विभेद की कोटितक उठा देने में कोई औचित्य है ? उदाहरण के लिये हमारे जीवन और वनस्पति के जीवन में क्या फर्क है ? हम देखते हैं कि पहला भेद तो यह है कि हमारे अंदर चलने-फिरने की क्षमता है, जिसका स्पष्टतः जीवन-शक्ति के सारतत्त्व के साथ कोई संबंध नहीं, दूसरा यह कि हमारे अंदर सचेतन संवेदन की क्षमता है, जहांतक हमें मालूम है, यह क्षमता वनस्पति में अभीतक विकसित नहीं हुई है, हमारी स्नायविक अनुक्रियाओं के साथ अधिकतर सचेतन संवेदन की मानसिक अनुक्रिया लगी रहती है, द्यपि ऐसा हमेशा या पूरी तरह कदापि नहीं होता, उनका मन के लिये और साथ ही स्नायु-संस्थान तथा स्नायुओं की क्रिया से उत्तेजित शरीर के लिये एक मूल्य होता है । ऐसा मालूम होता है कि वनस्पति में भी स्नायविक संवेदन के लक्षण हैं, इन संवेदनों में वे भी हैं जो हमारे अंदर सुख-दुःख, जागना-सोना, प्रसन्नता-उदासी और थकान के रूप में अनूदित होते हैं, और उसका शरीर स्नायविक क्रिया से भीतर से आंदोलित होता है लेकिन वहां मानसिक रूप से सचेतन संवेदन की प्रत्यक्ष उपस्थिति का कोई चिह्न नहीं होता । परंतु संवेदन संवेदन है चाहे वह मानसिक रूप से सचेतन हो या प्राणिक रूप से संवेदनशील और संवेदन चेतना का एक रूप है । जब कोई संवेदनशील वनस्पति किसी संपर्क से सिकुड़ती है तो ऐसा लगता है कि वह

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स्नायविक ढंग से प्रभावित हुई है, कि उसके अंदर कोई चीज उस संपर्क को नापसंद करती और उससे दूर खिंच जाना चाहती है । एक शब्द में कहें तो वनस्पति में अवचेतन संवेदन है, यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम देख चुके हैं कि, हमारे अंदर उसी प्रकार की अवचेतन क्रियाएं होती हैं । मानव-संरचना में यह सर्वथा संभव है कि इन अवचेतन बोधों और संवेदनों को उनके हो चुकने और स्नायु-संस्थान पर उनका प्रभाव पड़ना बंद हों चुकने के बहुत बाद भी सतह पर लाया जा सके । दिन दूने बढ़ते हुए अनेकों प्रमाणों ने यह अकाटय रूप से सिद्ध कर दिया है कि हमारे अंदर एक अवचेतन मन विद्यमान है जो सचेतन मन से बहुत अधिक विशाल है । वनस्पति में कोई ऊपरी रूप से जागरूक मन नहीं है जिसे अवचेतन संवेदनों के मूल्यांकन के प्रति जगाया जा सके, केवल यह तथ्य वस्तु-व्यापार की तात्त्विक एकात्मता में कोई भेद नहीं लाता । जब व्यापार एक ही हों तो वे जिस वस्तु को प्रकट करते हैं वह भी एक ही होनी चाहिये और वह वस्तु है, अवचेतन मन । और यह बिल्कुल संभव है कि धातु में अवचेतन इन्द्रिय-मन की प्राण-क्रिया एक अधिक प्रारंभिक अवस्था में विद्यमान हो, हालांकि धातु में स्नायविक अनुक्रिया से मिलता-जुलता कोई शारीरिक आंदोलन नहीं होता । लेकिन शारीरिक आंदोलन के अभाव से धातु में प्राण-शक्ति की उपस्थिति में उसी तरह कोई वास्तविक फर्क नहीं पड़ता जैसे पौधे में शरीर के चलने-फिरने का अभाव उसकी प्राण-शक्ति की उपस्थिति के लिये कोई तात्त्विक अंतर नहीं लाता ।

 

    शरीर में जो चेतन है वह जब अवचेतन या जो अवचेतन है जब वह सचेतन बन जाता है तब क्या होता है ? वास्तविक अंतर वहां अपने कर्म के किसी एक अंश में सचेतन शक्ति की तल्लीनता का, उसके कम व अधिक ऐकांतिक संकेंद्रण का होता है । संकेंद्रण के कुछ रूपों में, हम जिसे मानसिकता कहते हैं, यानी प्रज्ञान या बहिर्मुख चेतना, वह सचेतन रूप में क्रिया करना लगभग या पूरी तरह बंद कर देती है, -फिर भी शरीर, स्नायुओं और ऐंद्रिय मन का कार्य अलक्षित रूप से किंतु बिना रुके पूरी तरह चलता रहता है; यह सब कुछ अवचेतन हो जाता है, केवल एक क्रिया या क्रिया-धारा में मन ज्योतिर्मय रूप से सक्रिय रहता है । जब मैं लिखता हूं तो लिखने की भौतिक क्रिया अधिकांश में या कभी-कभी पूरी तरह अवचेतन मन के द्वारा की जाती है । जैसा कि हम कहते हैं, शरीर निश्चेतन रूप में कुछ स्नायविक गतियां करता रहता है, मन केवल उसी विचार के प्रति जाग्रत् होता है जिसमें वह व्यस्त हो । निःसंदेह, ऐसा हो सकता है कि सारा मनुष्य ही अवचेतन में डूब जाये, पर फिर भी अभ्यासगत क्रियाएं मन की क्रियासहित चलती रहें, जैसा कि नींद के बहुत से व्यापारों में होता है या वह अतिचेतन में ऊपर उठ सकता है और फिर भी शरीर में अंतर्लीन मन से सक्रिय रहता है जैसा कि समाधि के कुछ व्यापारों में होता है । तो यह स्पष्ट है कि वनस्पति के संवेदन और हमारे संवेदन में

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बस यही फर्क है कि वनस्पति के अंदर विश्व में अपने-आपको अभिव्यक्त करनेवाली सचेतन शक्ति अभीतक जड़-पदार्थ की निद्रा में से पूरी तरह उभरी नहीं है, उस तल्लीनता से बाहर नहीं आयी है जो कार्य करनेवाली शक्ति का अतिचेतन ज्ञान में स्थित क्रिया के उद्गम से पूरी तरह विच्छेद करती है और इसीलिये वह उन क्रियाओं को अभी अवचेतन रूप से करती है जिन्हें वह तब सचेतन रूप से करेगी जब वह मनुष्य के अंदर अपनी तल्लीनता से बाहर जायेगी और अपनी ज्ञान-आत्मा के प्रति, भले परोक्ष रूप में ही, जाग्रत् होना शुरू कर देगी । वह ठीक वही चीजें करती है परंतु करती है एक अलग तरीके से और चेतना की दृष्टि से अलग मूल्यों के साथ ।

 

    अब यह धारणा करना संभव होता जा रहा है कि स्वयं परमाणु में कुछ ऐसी चीज है जो हमारे अंदर इच्छा और कामना बन जाती है, वहां एक आकर्षण और विकर्षण है जो, चाहे देखने में दूसरी चीज लगे, तत्त्वत: वही चीज है जो हमारे अंदर पसंद और नापसंद हैं, परंतु वे जैसा कि हम कहते हैं, अचेतन या अवचेतन हैं । इच्छा और कामना का यह तत्त्व प्रकृति में सब जगह प्रत्यक्ष है और यद्यपि इसपर अभीतक पर्याप्त रूप में ध्यान नहीं दिया गया है वे, अवचेतना या निश्चेतना कह लो, के साथ संबद्ध और वस्तुत: उसकी अभिव्यक्ति हैं या फिर पूरी तरह अंतर्निहित संवेदन और बुद्धि हैं जो समान रूप से व्यापक हैं । जड़ द्रव्य के हर परमाणु में उपस्थित होने के नाते यह सब आवश्यक रूप से, उन परमाणुओं के सम्मिलन से बनी हर चीज में उपस्थित रहता है । और वे परमाणु में इसलिये उपस्थित होते हैं क्योंकि वे उस शक्ति में विद्यमान होते हैं जो परमाणु की रचना और संघटना करती है । वह शक्ति मूलतः वेदांत की चित्-तपसू या चित्-शक्ति है, सत्-चित् की अंतर्हित चित् शक्ति है जो अपने-आपको वनस्पति में अवमानसिक संवेदन से भरी स्नायविक-ऊर्जा के रूप में, प्राथमिक पशु रूपों में कामना-संवेदन और कामना-इच्छा के रूप में, विकसनशील पशु में आत्म-सचेतन बोध और शक्ति के रूप में और मनुष्य में, इन सबसे बढ़कर, मानसिक इच्छा और ज्ञान के रूप में प्रकट करती है । प्राण वैश्व ऊर्जा का एक आरोहण-क्रम है जिसमें निश्चेतना से चेतना की ओर संक्रमण संपन्न किया जाता है । वह उस ऊर्जा की एक मध्यवर्ती शक्ति है जो जड़-तत्त्व में अंतर्हित या डूबी हुई रहती है, उसकी अपनी शक्ति ही उसे अवमानसिक सत्ता में उन्मुक्त करती है और अंत में मन के आविर्भाव के द्वारा वह अपनी सक्रियता की पूर्ण संभावना में उन्मुक्त हों जाती है ।

 

    अन्य सभी विचारों को छोड़कर, यदि हम विकासवाद के प्रकाश में उन्मज्जन की बाहरी प्रक्रिया को ही देखें तो भी यह निष्कर्ष एक युक्तिसंगत आवश्यकता के रूप में अपने-आपको बलपूर्वक स्थापित करता है । यह स्वतः -सिद्ध है कि वनस्पति में विद्यमान जीवन, चाहे वह पशु में विद्यमान जीवन से भिन्न रूप में गठित हो,

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फिर भी वह हैं वही शक्ति जिसके चिह्न हैं : जन्म, वृद्धि और मृत्यु बीज द्वारा प्रसार, ह्रास, रोग या हिंसा द्वारा मृत्यु, बाहर से पोषक तत्त्वों के ग्रहण द्वारा भरण-पोषण, प्रकाश और ऊष्मा पर निर्भरता, प्रजनन और वंध्यता, यहांतक कि सोने, जागने की अवस्थाएं ऊर्जा और प्राणिक ओज का ह्रास, बाल्यावस्था से प्रौढ़ता और वृद्धावस्था की ओर गमन । इसके अतिरिक्त वनस्पति में प्राण-शक्ति के सार-तत्त्व होते हैं और इसीलिये वह पशु-जीवन के लिये स्वाभाविक आहार है । अगर यह मान लिया जाता है कि वनस्पति में स्नायुतंत्र है और वह उत्तेजकों के प्रति अनुक्रियाएं करती है, जो अवमानसिक या विशुद्ध प्राणिक संवेदनों का प्रारंभ या उनकी अंतर्धारा हो तो तादात्म्य और भी अधिक हो जाता है, फिर भी स्पष्ट रूप से यह जीवन-विकास की एक अवस्था ही हैं जो पशु-जीवन और निष्प्राण जड़ द्रव्य के बीच मध्यवर्ती अवस्था है और ठीक इसी चीज की आशा की भी जानी चाहिये थी यदि प्राण एक ऐसी शक्ति हो जो जड़-द्रव्य में से प्रस्कृटित होती और मन में पराकाष्ठातक पहुंचती हो और अगर ऐसा है तो हम यह मानने के लिये बाध्य हैं कि वह पहले ही से स्वयं जड़तत्त्व में मौजूद होती है, जड़ अवचेतना या निश्चेतना में अंतर्लीन या अंतर्निहित होती है क्योंकि वह भला और कहां से उभर सकती है ? जड़ तत्त्व के अंदर प्राण का विकास यह मानकर चलता है कि वह उसके अंदर पहले ही से अंतलींन था जबतक कि उसके स्थान पर हम यह न मान लें कि यह एक नयी सृष्टि है जो किसी जादुई अनोखे ढंग से प्रकृति में लायी गयी है । अगर ऐसी बात है तो उसे ऐसा सृजन होना चाहिये जो शून्य से निकला हो या उसे ऐसी भौतिक क्रियाओं का परिणाम होना चाहिये जिसके लिये स्वयं क्रियाओं में कोई कारण न हो या उनमें ऐसा कोई तत्त्व न हो जिसे उनका सजातीय कहा जा सके । यह भी कल्पना की जा सकती है कि यह ऊपर से, जड़-भौतिक जगत् के ऊपर के किसी अतिभौतिक स्तर से अवतरण हो, पहली दो मान्यताओं को मनमानी कल्पनाएं कहकर उड़ा दिया जा सकता है लेकिन अंतिम व्याख्या संभव और सचमुच कल्पना में आने लायक है । वस्तुसंबंधी गुह्य ज्ञान की दृष्टि से यह सच है कि भौतिक विश्व से ऊपर के किसी प्राण के दबाव ने यहां पर प्राण के आविर्भाव में सहायता की है । लेकिन यह व्याख्या इस बात का बहिष्कार नहीं करती कि प्राण का प्रथम आविर्भाव स्वयं जड़तत्त्व में से ही प्राथमिक और आवश्यक क्रिया के रूप में हुआ क्योंकि भौतिक लोक के ऊपर किसी प्राण जगत् या प्राण लोक की उपस्थिति मात्र के कारण जड़ पदार्थ में प्राण नहीं उभर आता जबतक कि वह प्राणिक स्तर 'सत्' की अनेक श्रेणियों और शक्तियों में से अवतरित होता हुआ एक रचनात्मक स्तर न हो जो निश्चेतना में उतर आया हो और परिणामस्वरूप किसी भावी विकास और उन्नज्जन के लिये जड़-भौतिक में अंतर्निहित हो गया हो । इस प्रश्न का बहुत अधिक महत्त्व नहीं हैं कि इस अंतर्लीन प्राण के चिह्न जड़ वस्तुओं में

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पाये जा सकते हैं, चाहे वे अभीतक असंगठित या प्रारंभिक अवस्था में ही क्यों न हों, या वहां ऐसा कोई चिह्न नहीं है क्योंकि यह अंतर्ग्रस्त प्राण पूर्ण निद्रा की अवस्था में है । जो भौतिक ऊर्जा संहत करती, रूप देती और विघटन करती है वह वही शक्ति है जो अपनी ही एक अन्य भूमिका में जीवन-शक्ति के रूप में अपने-आपको जन्म, वृद्धि और मृत्यु में प्रकट करती है । जैसे सोयी हुई अवचेतना में बुद्धि के कार्यों को करने के नाते वह अपने-आपको उसी शक्ति के रूप में प्रकट करती है जो एक और भूमिका में मन की स्थिति को पा लेती है । उसका स्वरूप ही यह दिखा देता है कि वह अपने अंदर मन और प्राण की अभीतक अनुन्मुक्त शक्तियों को समोये हुए है, द्यपि अभीतक उनके स्वाभाविक संगठन या प्रक्रिया में नहीं ।

 

    तो प्राण अपने-आपको सभी जगह, परमाणु से लेकर मनुष्यतक में, सारतः इसी एक ही रूप में प्रकट करता है । परमाणु में सत्ता की अवचेतन सामग्री और गति समायी रहती है, वही पशु में चेतना के रूप में उन्मुक्त होती है, वनस्पति-जीवन इस विकास में एक बीच की भूमिका होता है । वस्तुत: प्राण चित्-शक्ति की वैश्व क्रिया है जो जड़द्रव्य पर और उसके अंदर अवचेतन रूप में कार्य करती है । यह वही क्रिया है जो रूपों या शरीरों का सृजन, संरक्षण, विनाश करती और पुनः सृजन करती है । यह स्नायविक शक्ति की क्रीड़ा द्वारा यानी उद्दीपक ऊर्जा के आदान-प्रदान की लहरों के द्वारा उन शरीरों में सचेतन संवेदन जगाने का प्रयास करती है । इस क्रिया में तीन स्थितियां आती हैं । निम्नतम, जिसमें स्पंदन अभीतक जड़तत्त्व की निद्रा में पूरी तरह अवचेतन रहता है जिससे वह पूरी तरह यंत्रवत् प्रतीत होता है । मध्यवर्ती, जिसमें वह ऐसी अनुक्रिया करने में सक्षम हो जाता है जो अभीतक होती तो अवमानसिक ही हैं पर उस छोरतक आ जाती है जिसे हम चेतना कहते हैं । उच्चतम, जिसमें प्राण सचेतन मानसिकता को एक मानसिक बोधगम्य संवेदन का रूप दे देता है जो इस संक्रमण में इन्द्रिय-मन और बुद्धि के विकास के लिये आधार बन जाता है । मध्यवर्ती स्थिति में ही जड़ तत्त्व और मन से भिन्न प्राण का विचार हमारी पकड़ में आता है परंतु वास्तव में वह सभी स्थितियों में एक ही है और सदा मन और जड़ तत्त्व के बीच एक मध्यवर्ती भूमिका

 

      प्राण का जन्म, वृद्धि और मृत्यु अपने बाहरी रूप में संहति, रूपायन और विघटन की वही प्रक्रिया है यद्यपि अपनी आंतरिक प्रक्रिया और अभिप्राय में उससे बहुत अधिक है । यहांतक कि चैत्य पुरुष भी शरीर में आत्म प्रतिष्ठा करते समय, यदि इन चीजों के बारे में गुह्य ज्ञान की दृष्टि ठीक है, तो ऐसी ही बाहरी प्रक्रिया का अनुसरण करता है क्योंकि अंतरात्मा केंद्रक के नाते अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोषों के तत्वों को और उनकी अंतर्वस्तुओं को जन्म के लिये अपनी ओर खींचती और उन्हें संहत करती है, काल में उन रूपों को बढ़ाती है और जाते समय इन संहत रूपों को फिर से छोड़ देती और विघटित कर देती है । और ऐसा करते हुए वह अपनी आंतरिक शक्तियों को तबतक के लिये अपने अंदर खींच लेती है जबतक कि नया जन्म लेते समय फिर से इसी मूल प्रक्रिया की पुनरावृत्ति न करने लगे ।

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बना रहता है, जो जड़ का तो उपादान है और मन से अनुप्राणित रहता है । यह चित्-शक्ति की ऐसी क्रिया है जो न तो जड़ द्रव्य का रूपायण मात्र है और न मन की कोई ऐसी क्रिया है जिसके प्रज्ञान का विषय हो जड़ पदार्थ और रूप; बल्कि यह चित्-सत्ता का एक ऊर्जायन है जो जड़ द्रव्य के रूपायण का कारण और आधार है और सचेतन मानसिक प्रज्ञान का मध्यवतीं उद्गम और आधार है । प्राण, चित्-सत्ता का यह मध्यवर्ती ऊर्जायन होने के नाते सत्ता की उस सर्जक शक्ति के एक रूप को संवेदनात्मक क्रिया और प्रतिक्रिया में उन्मुक्त करता है जो अपने ही द्रव्य में लीन रहकर अवचेतन या निश्चेतन रूप से क्रिया कर रही थी । यह सत्ता की उस बहिर्दृष्टि चेतना को, जिसे मन कहा जाता है, आधार प्रदान करता और क्रिया में उन्मुक्त करता है और उसे एक क्रियात्मक उपकरण प्रदान करता है ताकि वह केवल अपने रूपों पर ही नहीं बल्कि प्राण और जड़ द्रव्य के रूपों पर भी क्रिया कर सके, मन और जड़तत्त्व के बीच मध्यवर्ती तत्त्व होने के नाते वह उन दोनों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान करता, उन्हें जोड़ता और सहारा देता है । आदान-प्रदान का यह साधन प्राण अपनी उस स्पंदनशील स्नायविक ऊर्जा की सतत धाराओं के द्वारा प्रदान करता है जो मन को बदलने के लिये रूप की शक्ति को संवेदन के रूप में लेकर चलती है और जड़ तत्त्व को बदलने के लिये मन की शक्ति को इच्छा के रूप में वापिस लाती है । जब हम प्राण की बात करते हैं तो हमारा मतलब इसी स्नायविक ऊर्जा से होता है । भारतीय दर्शन में इसे प्राण या प्राण-शक्ति कहा गया है । परंतु स्नायविक ऊर्जा उसका केवल वह रूप है जिसे वह प्राणी में धारण करता हैं । वही प्राणिक ऊर्जा नीचे परमाणु तक सभी रूपों में विद्यमान रहती है क्योंकि वह सारतः सर्वत्र एक ही है और सर्वत्र यह चित्-शक्ति की एक ही क्रिया है । यह शक्ति अपने ही रूपों के द्रव्यगत अस्तित्व को सहारा देती और उसे आपरिवर्तित करती है । इस शक्ति के साथ-साथ इन्द्रिय और मन गुप्त रूप से सक्रिय रहते हैं, परंतु पहले वे रूप में अंतर्लीन रहते और प्रकट होने की तैयारी करते हैं और अंत में अपने अंतर्लयन में से बाहर उभर आते हैं । यह है सारे भौतिक विश्व को अभिव्यक्त करने और उसमें निवास करनेवाले सर्वव्यापक प्राण का संपूर्ण अर्थ ।

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अध्याय २०

 

मृत्यु कामना और अक्षमता

 

           ... अग्र आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत् ।

           अशनायया अशनाया हि मृत्यु:;

           तन्मोनोऽकुरुत आत्मन्यी स्यामिति ।।

 

शुरू में सब कुछ क्षुधा से, जो कि मृत्यु है, ढका हुआ था । उसने अपने लिये मन बनाया ताकि वह आत्मवान् बन सके ।

                                                बृहदारण्यकोपनिषद् १.२.१

 

            यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद्विश्वस्थ धायसे ।

            प्रस्वादनं पितूनामस्तताति चिदायवे ।

 

यह वह शक्ति है जिसे मर्त्य ने खोजा, उसमें अपनी अनेक कामनाएं हैं ताकि वह सभी चीजों को धारण कर सके । वह सभी भोजनों का स्वाद लेता और सत्ता के लिये एक भवन बनाता है ।

                                             ऋग्वेद ५.७.६

 

पिछले अध्याय में हमने भौतिक अस्तित्व और जड़तत्त्व के प्राणिक तत्त्व के प्रकट होने और उसकी क्रिया की दृष्टि से प्राण के बारे में विचार किया है और इस विकसनशील पार्थिव जीवन की दी हुई सामग्री के आधार पर विचार किया है । लेकिन यह स्पष्ट है कि वह जहां कहीं प्रकट हों, चाहे जिस तरीके से, चाहे जैसी परिस्थितियों में कार्य करे, सामान्य सिद्धांत सब जगह एक ही रहेगा । प्राण वैश्व शक्ति है जो द्रव्यगत रूपों का सृजन करने, उनमें ऊर्जा भरने, उनका संरक्षण करने और उन्हें बदलने, यहांतक कि उनका विलयन और पुनर्निर्माण करने में भी सक्रिय रहती है । गुप्त या प्रकट रूप से सचेतन ऊर्जा की पारस्परिक क्रीड़ा और आदान-प्रदान इसका मूलभूत स्वभाव है । हम जिस भौतिक जगत् में निवास करते हैं, उसमें मन प्राण के अंदर अंतर्लीन और अवचेतन है, उसी तरह जैसे अतिमानस मन के अंदर अंतर्लीन और अवचेतन है और यह प्राण अंतर्लीन अवचेतन मन को लिये हुए फिर स्वयं जड़तत्त्व में निवर्तित रहता है । अतः यहां जड़ तत्त्व ही आधार और प्रकट रूप में आरंभ है, उपनिषद् की भाषा में 'पृथिवी पाजस्यम्' पृथ्वी ही हमारा आधार है । भौतिक विश्व का आरंभ होता है आकारित परमाणु से जो ऊर्जा से सिंचित और अवचेतन, कामना, इच्छा और बुद्धि के अरूपायित उपादान से अनुप्राणित होता है । इस जड़ द्रव्य में से प्रकट होता है दृश्य प्राण और वह अपने अंदर से सजीव शरीर के माध्यम द्वारा मन को, जिसे वह अपने अंदर कैद किये

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होता है, प्रकट करता है । मन को भी अभी अपने भीतर से अतिमानस को मुक्त करना है जो उसकी क्रियाओं में छिपा है । लेकिन हम एक ऐसे और तरह से बने जगत् की कल्पना कर सकते हैं जिसमें मन शुरू से ही छिपा नहीं रहता बल्कि जड़ द्रव्य के प्रारंभिक रूपों का सृजन करने के लिये अपनी सहजात ऊर्जा का सचेतन रूप में व्यवहार करता है और यहां की तरह शुरू में केवल अवचेतन नहीं रहता । हालांकि ऐसे जगत् की क्रिया-पद्धति हमारे जगत् से एकदम अलग होगी फिर भी उस ऊर्जा की क्रिया का मध्यवर्ती वाहन हमेशा प्राण ही होगा । चीज अपने-आपमें वह की वही रहेगी, भले सारी प्रक्रिया पूरी तरह से उलट क्यों न जाये ।

 

    तब तो तत्काल यह मालूम होता है कि जैसे मन अतिमानस की एक अंतिम क्रिया मात्र है उसी तरह प्राण भी चित्-शक्ति की एक अंतिम क्रिया मात्र है । सत्य संकल्प ही इस प्राण का निर्धारणकारी रूप और इसकी सर्जनशक्ति है । चेतना, जो कि शक्ति है, वह सत् पुरुष की प्रकृति है और यह चेतनायुक्त सत्-पुरुष जब सर्जक ज्ञान-इच्छा के रूप में अभिव्यक्त होता है तो वही सत्य संकल्प या अतिमानस होता है, अतिमानसिक ज्ञान-इच्छा वह चित्-शक्ति है जो संयुक्त सत्ता के रूपों के व्यवस्थित सामंजस्य में सृजन के लिये, जिसे हम जगत् या विश्व कहते हैं, क्रियाशील बनायी गयी है । इसी भांति मन और प्राण भी वही चित्-शक्ति हैं, वही ज्ञान-इच्छा हैं किंतु उनकी क्रिया स्पष्ट रूप से वैयक्तिक रूपों को एक तरह की सीमा में बांधने, विरोध और आदान-प्रदान बनाये रखने के लिये होती है ताकि सत्ता के हर रूप में रहनेवाली अंतरात्मा अपने मन और प्राण को इस तरह क्रिया में लगा सके मानों वे औरों से अलग हैं यद्यपि वास्तव में वे कभी अलग नहीं होते बल्कि एक ही आत्मा, मन, प्राण की क्रीड़ा होते हैं जो उसकी एक ही वास्तविकता के अलग-अलग रूपों में होती है । दूसरे शब्दों में, जैसे मन समस्त अंतर्द्रष्ट्री और बहिर्द्रष्ट्री अतिमानस के व्यक्तिगत रूप लेने की अंतिम क्रिया है, वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा उसकी चेतना हर रूप में व्यक्तिगत रूप लेकर उसके उपयुक्त दृष्टिकोण से और उस दृष्टिकोण से आगे बढ़नेवाले वैश्व संबंधों को स्थापित करती हुई क्रिया करती है, उसी तरह प्राण भी वह अंतिम क्रिया है जिसके द्वारा चित्पुरुष की शक्ति वैश्व अतिमानस की सर्वधृत और सबका सृजन करनेवाली इच्छा द्वारा व्यक्तिगत रूपों का संरक्षण करती, उनमें ऊर्जा भरती, उन्हें संघटित और पुनः संघटित करती है और इस प्रकार शरीरधारी आत्मा के सभी क्रिया-कलाप के आधार के रूप में उनमें काम करती है । प्राण भगवान् की ऊर्जा है जो डाइनेमो की तरह अपने-आपको हमेशा रूपों के अंदर लगातार पैदा करती रहती है और वह न केवल परिपार्श्व में स्थित वस्तुओं के रूपों पर आघातोरूपी बहिर्गामी बैट्री के साथ क्रीड़ा करती है बल्कि परिपार्श्व के सारे जीवन से आनेवाले आघातों को, जैसे ही वे बाहर से, पास-पड़ोस के विश्व से रूप पर आकर पड़ते हैं और उसमें प्रवेश करते हैं, ग्रहण भी करती है ।

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    इस दृष्टि से प्राण चेतना की ऊर्जा का एक ऐसा रूप मालूम होता है जो जड़तत्त्व पर मन की क्रिया के लिये मध्यवर्ती और उपयुक्त है । एक अर्थ में कहा जा सकता है कि मन जब सृजन करता और भावों के साथ संबंध छोड़कर शक्ति की गतियों और जड़पदार्थ के रूपों से नाता जोड़ता है तब यह मन का ऊर्जा-रूप होता है । लेकिन साथ ही यह कहना भी जरूरी है कि जैसे मन कोई पृथक् सत्ता नहीं है बल्कि सारा अतिमानस उसके पीछे है और यह अतिमानस है जो सृजन करता है और मन उसकी वैयक्तिक रूप देनेवाली अंतिम क्रिया मात्र है उसी तरह प्राण भी कोई अलग सत्ता या क्रिया नहीं है बल्कि, उसके हर कार्य के पीछे सारी चित्-शक्ति रहती है और एकमात्र वह चित्-शक्ति ही है जिसका अस्तित्व है और वही सृष्ट वस्तुओं में क्रिया करती है । प्राण उसकी अंतिम क्रिया भर है जो मन और शरीर के बीच मध्यस्थता का काम करती है । अतः हम प्राण के बारे में जो कुछ कहें उस सबको इस निर्भरता से पैदा होनेवाले प्रतिबंधों के अधीन रहना होगा । हम प्राण को उसके स्वभाव या उसकी प्रक्रिया में वास्तविक रूप से तबतक नहीं जान पाते जबतक कि हम उसमें क्रिया करनेवाली उस चित्-शक्ति से अभिज्ञ और सचेतन न हो जायें जिसका बाहरी रूप और उपकरण है प्राण । इसके बाद ही हम भगवान् के विशिष्ट आत्मा-रूप और मानसिक तथा शारीरिक यंत्र के रूप में यह बोध पा सकते हैं कि प्राण में भगवान् की क्या इच्छा है और तभी हम उसे सज्ञान भाव से क्रियान्वित कर सकते हैं । केवल तभी प्राण और मन अज्ञान की टेढ़ी-मेढ़ी विकृतियों को निरंतर कम करते हुए अपने और वस्तुओं के अंदर सत्य की निरंतर बढ़ती हुई ऋजुता के पथों और गतियों में आगे बढ़ सकते हैं । जैसे मन को उस अतिमानस के साथ सचेतन रूप से एक होना है जिससे वह अविद्या की क्रिया के कारण अलग हो गया है उसी तरह प्राण को भी चित्-शक्ति के बारे में अभिज्ञ होना है, जो उसमें ऐसे उद्देश्यों के लिये और ऐसे अर्थ को लेकर क्रिया करती है जिनके बारे में हमारे अंदर का प्राण अपनी अंधकारमय क्रियाओं में असचेतन है क्योंकि वह केवल जीने की प्रक्रिया में लीन रहता है, जैसे कि हमारा मन प्राण और भौतिक द्रव्य को मानसिक बनाने में लीन रहता है । परिणामस्वरूप वह (प्राण) अंधता और अज्ञानता के साथ उन उद्देश्य और अर्थ की सेवा करता है, ज्योतिर्मय, आत्म-परिपूर्तिकारी ज्ञान, बल और आनंद के साथ नहीं जैसा कि उसे अपनी मुक्ति और परिपूर्णता पा लेने के बाद करना चाहिये और वह करेगा ।

 

    वस्तुत: हमारा प्राण, मन की अंधकारमय और विभाजनकारी क्रियाओं के आधीन होने के कारण अपने-आप अंधकारमय और विभक्त है और उसे मृत्य सीमितता, दुर्बलता, कष्ट, अज्ञानमय क्रिया-कलाप की उस सारी अधीनता में से गुजरना होता है जिसका जनक और कारण है बद्ध और सीमित देहस्थ मन । हम देख आये हैं कि विकृति का मूल स्रोत था आत्म-अज्ञान से बंधे व्यष्टि जीव का

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अपने-आपको सीमित कर लेना क्योंकि वह अपने-आपको ऐकांतिक एकाग्रता के कारण ऐसे देखता है जैसे वह एक पृथक्, अपने-आपमें अस्तित्व रखनेवाला व्यक्ति हो और संपूर्ण वैश्व क्रिया को उस रूप में देखता है जिस रूप में वह उसकी अपनी व्यक्तिगत चेतना, ज्ञान, इच्छा, शक्ति, भोग और सीमित सत्ता के सामने आती है बजाय इसके कि वह अपने-आपको इस रूप में देखे कि वह एकमेव का एक सचेतन रूप है और सर्व चेतना, सर्व ज्ञान, सर्व शक्ति, सर्व भोग और सर्व सत्ता का इस रूप में आलिंगन करे मानों वे उसकी अपनी चेतना, ज्ञान, शक्ति, भोग और सत्ता के साथ एक हैं । हमारे अंदर वैश्व प्राण मन के अंदर बंदी बने हुए जीव के आदेश का पालन करता हुआ अपने-आप वैयक्तिक क्रिया में बंदी बन जाता है । वह सीमित और अपर्याप्त सामर्थ्यवाले एक अलग प्राण के रूप में अस्तित्व रखता और क्रिया करता है और अपने चारों ओर के वैश्व जीवन के आघात और दबाव का मुक्त रूप से आलिंगन करने की जगह उसे बाधित होकर सहता है । विश्व में शक्ति का जो सतत वैश्व आदान-प्रदान चल रहा है उसमें फेंकी गयी एक दीन, सीमित वैयक्तिक सत्ता की तरह प्राण शुरू में उस दानवी पारस्परिक क्रीड़ा को असहाय होकर सहता और उसका आदेश मानता है । जो कुछ उसपर आक्रमण करता, उसे निगलता, उसका भोग करता, उसका उपयोग करता और उसे चलाता है, उन सबपर वह बस एक यंत्रवत् प्रतिक्रिया करता है । लेकिन जैसे-जैसे चेतना का विकास होता है, जैसे-जैसे उसकी अपनी सत्ता का प्रकाश अंतर्लीनता की निद्रा के जड़ अंधकार में से बाहर निकलता है, वैसे-वैसे वह वैयक्तिक सत्ता धुंधले रूप में अपने अंदर की शक्ति के बारे में अभिज्ञ होती जाती है और पहले स्नायविक रूप से और फिर मानसिक रूप से क्रीड़ा पर अधिकार पाने, उसका उपयोग और भोग करने का प्रयास करती है । उसके अंदर शक्ति के प्रति यह जागरण आत्मा के प्रति क्रमिक जागरण है । क्योंकि 'प्राण' 'शक्ति' है और 'शक्ति' 'बल' है और 'बल' 'इच्छा' है और 'इच्छा' 'ईश्वर-चेतना' की क्रिया है । व्यक्ति के अंदर का प्राण अपनी गहराइयों में इस बारे में अधिकाधिक अभिज्ञ होता जाता है कि वह भी उन सच्चिदानंद की इच्छा-शक्ति है जो विश्व के स्वामी हैं और वह स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से अपने जगत् का स्वामी बनने की अभीप्सा करता है । अतः समस्त व्यक्तिगत जीवन का बढ़ता हुआ आवेग है स्वयं अपनी शक्ति को पाना, अपने जगत् का ज्ञाता और स्वामी बनना । यह आवेग वैश्व जीवन में भगवान् की बढ़ती हुई आत्माभिव्यक्ति का एक सारभूत तत्त्व है ।

 

    परंतु यद्यपि प्राण शक्ति है और वैयक्तिक प्राण के विकास का अर्थ होता है वैयक्तिक शक्ति का विकास फिर भी उसके विभक्त वैयक्तिक प्राण और शक्ति होने का तथ्य ही उसे अपने जगत् का वास्तव में स्वामी होने से रोकता है । क्योंकि उसका अर्थ होगा 'सर्वशक्ति' का स्वामी होना; एक विभक्त और व्यष्टि-रूप चेतना

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के लिये, जो विभक्त और व्यष्टिभावापन्न और इस कारण सीमित शक्ति और सीमित इच्छावाली होती है, सर्व-शक्ति का स्वामी होना असंभव बात है । केवल सर्व-इच्छा ही ऐसी हो सकती है और यदि व्यक्ति को ऐसा होना ही हो तो वह सर्व-इच्छा के साथ फिर से एक होकर और इस तरह सर्व-शक्ति के साथ एक होकर ही ऐसा कर सकता है नहीं तो वैयक्तिक देह में स्थित वैयक्तिक प्राण को सदा-सर्वदा अनिवार्य रूप से अपनी सीमितता के इन तीन चिह्नों के -मृत्यु कामना और असमर्थता के आधीन रहना होगा ।

 

    वैयक्तिक प्राण पर मृत्यु आरोपित होती है इन दोनों के द्वारा; उसके अपने अस्तित्व की जो अवस्थाएं हैं उनके, और अपने-आपको विश्व में अभिव्यक्त करनेवाली सर्व शक्ति के साथ उसके जो संबंध हैं उनके द्वारा । क्योंकि वैयक्तिक प्राण उस ऊर्जा की एक विशेष क्रीड़ा है जो एक रूप-विशेष का निर्माण और संरक्षण करने, उसे ऊर्जित करने और अंत में उसकी उपयोगिता पूरी हो जाने पर, उसे विलीन करने के लिये विशेष रूप से बनी है । यह रूप-विशेष उन असंख्य रूपों में से एक है जो सभी, उनमें से हर एक, अपने-अपने स्थान, समय और क्षेत्र में समग्र विश्व-लीला में योगदान दे रहा होता है । शरीरस्थ प्राण की ऊर्जा को विश्वस्थ बाहरी ऊर्जाओं के आक्रमणों को सहना पड़ता है, उन्हें अपने भीतर खींचना और उनका भक्षण करना होता है और वे रूयं उसे भी हमेशा निगलती रहती हैं । उपनिषद् के अनुसार समस्त जड़ पदार्थ अन्न है और भौतिक जगत् का यह सूत्र है कि ''खानेवाला खाता हुआ स्वयं खाया जाता है ।'' शरीर में संगठित प्राण सदा इस संभावना की ओर खुला रहता है कि उससे बाहर का प्राण आक्रमण करके उसे छिन्न-भिन्न कर दे या उसकी भक्षण करने की क्षमता के अपर्याप्त होने या उचित रूप में पूरी न होने के कारण, या भक्षण की क्षमता और बाहर के प्राण के लिये भोजन देने की क्षमता या आवश्यकता के बीच ठीक संतुलन न होने के कारण वह अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाये और उसे खा लिया जाये या वह अपने-आपको फिर से नया करने में असमर्थ हो जाये और इसलिये क्षीण हो जाये या टूट-फूट जाये । तब उसे नये निर्माण या फिर से नया बनने के लिये मृत्यु की प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है ।

 

    केवल यही नहीं, बल्कि, अगर फिर से उपनिषद् की भाषा में कहें तो, प्राण-शक्ति शरीर का अन्न है और शरीर प्राण-शक्ति का अन्न । दूसरे शब्दों में, हमारे अंदर की प्राण-शक्ति एक साथ दो काम करती है, वह वह द्रव्य प्रदान करती है जिससे रूप बनता है, सदा संरक्षित रहता और नया-नया होता रहता है, और साथ ही वह जिस द्रव्यमय रूप को इस तरह बनाती और अस्तित्व में बनाये रखती है उसे निरंतर खर्च भी करती रहती है । अगर इन दोनों क्रियाओं के बीच संतुलन अपूर्ण हो या बगड़ जाये या प्राण- शक्ति की विभिन्न लहरों की व्यवस्थित क्रीड़ा

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बिगड़ जाये या अपनी धुरी से हिल जाये तो रोग और क्षय हस्तक्षेप कर विघटन की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं । और सचेतन स्वामित्व के लिये जो संघर्ष है वह अपने-आपमें ही, और यहांतक कि मन की वृद्धि भी प्राण के संरक्षण को अधिक कठिन बना देते हैं । क्योंकि रूप से प्राण-ऊर्जा की मांग बढ़ती जाती है । यह मांग आपूर्ति की मूल व्यवस्था से बहुत अधिक होती है और वह आपूर्ति और मांग के मूल संतुलन को भंग कर देती है; इससे पहले कि एक नया संतुलन स्थापित हो, बहुत-से ऐसे विकारों का प्रथम प्रवेश हो चुका होता है जो सामंजस्य और जीवन की दीर्घ विद्यमानता के प्रतिकूल होते हैं । इसके अतिरिक्त स्वामित्व के लिये किया जानेवाला प्रयास वातावरण में सदा उसीके अनुरूप प्रतिक्रिया पैदा करता है । वातावरण पहले ही से ऐसी शक्तियों से भरा रहता है जो अपनी परिपूर्ति चाहती हैं, अत: ऐसी सत्ता के प्रति असहिष्णु रहती हैं जो उनपर स्वामित्व स्थापित करना चाहे, वे उसके विरुद्ध विद्रोह करती और उसपर आक्रमण करती हैं । उस अवस्था में भी वह संतुलन भंग हो जाता है, एक अधिक तीव्र संघर्ष पैदा हो जाता है । स्वामित्व करनेवाला प्राण चाहे जितना प्रबल हो जबतक वह या तो असीम न हो जाये या अपने वातावरण के साथ एक नया सामंजस्य स्थापित करने में सफल न हो जाये तबतक वह सदा प्रतिरोध करके विजय नहीं पा सकता बल्कि एक दिन अवश्य ही पराजित और विघटित कर दिया जाता है ।

 

    लेकिन इन सब आवश्यकताओं के अतिरिक्त स्वयं शरीरधारी प्राण की प्रकृति और लक्ष्य की एक मूलभूत आवश्यकता है और वह है सांत आधार पर अनंत अनुभूति को खोजने की । और चूंकि रूप यानी आधार अपने गठन के ही कारण अनुभूति की संभावना को सीमित कर देता है अत: ऐसा केवल उसे विघटित कर और नये-नये रूप खोज कर ही किया जा सकता है । क्योंकि अंतरात्मा जब एक बार क्षण और क्षेत्र पर केंद्रित होकर अपने-आपको सीमित कर लेती है तो अपनी अनंतता को फिर से पाने के लिये उसे अनुक्रम के नियम का सहारा लेना पड़ता है । वह क्षण के साथ क्षण को जोड़कर एक कालिक अनुभव का संचय करती है, इसीको वह अपना अतीत कहती है । उस काल में वह उत्तरोत्तर क्षेत्रों में से, उत्तरोत्तर अनुभवों या जीवनों में से, ज्ञान, सामर्थ्य, भोग का उत्तरोत्तर संचय करती हुई आगे बढ़ती है और इन सब चीजों को वह काल के अंदर अपनी पुरानी कमाई के रूप में अवचेतन या अतिचेतन स्मृति में संजोये रहती है । इस प्रक्रिया के लिये रूप का परिवर्तन अनिवार्य है और व्यक्तिगत शरीर में अंतर्लीन अंतरात्मा के लिये रूप के परिवर्तन का अर्थ है शरीर का विघटन । यह विघटन भौतिक विश्व में सर्व-प्राण के विधान और उसकी बाध्यता के आधीन होता है, रूप के लिये द्रव्य-पूर्ति और उस द्रव्य पर की जानेवाली मांग का जो विधान है उसके और एक दूसरे को हड़पनेवाले जगत् में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये शरीरस्थ प्राण के

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पारस्परिक सतत आघात-प्रतिघात और संघर्ष का जो सिद्धांत है उसक आधीन होता है, और यही मृत्यु का विधान है ।

 

    तो यही मृत्यु की आवश्यकता और उसका औचित्य है, वह प्राण का न-कार नहीं उसकी एक प्रक्रिया है । मृत्यु आवश्यक है क्योंकि रूप का सतत परिवर्तन ही वह एकमात्र शाश्वतता है जिसके लिये सांत जीवित पदार्थ अभीप्सा कर सकता है और अनुभूति का सतत परिवर्तन वह एकमात्र अनंतता है जहांतक सजीव शरीर में अंतर्लीन रहनेवाला ससीम मन पहुंच सकता है । ऐसा नहीं होने दिया जा सकता कि रूप का यह परिवर्तन केवल इतना भर ही रहे कि जन्म और मृत्यु के बीच हमारे शारीरिक जीवन को बनानेवाला जो रूप-प्रकार है वही सतत रूप से नया-नया होता रहे क्योंकि जबतक रूप-प्रकार ही न बदले और अनुभव करनेवाला मन देश, काल और वातावरण की नयी परिस्थितियों में बने नये रूपों में न डाला जाये तबतक अनुभव का वह आवश्यक वैविध्य संपन्न नहीं हो सकता जिसकी मांग देश और काल में रहनेवाले जीवन का स्वभाव करता है । और विघटन से एवं जीवन को जीवन के द्वारा हड़प लिये जाने से होनेवाली मृत्यु की केवल यह प्रक्रिया और यह स्वाधीनता का अभाव, बाध्यता, संघर्ष, पीड़ा तथा अनात्म प्रतीत होनेवाली किसी चीज के प्रति अधीनता, केवल ये चीजें ही हैं जिनके कारण यह आवश्यक और हितकारी परिवर्तन हमारी मर्त्य मानसिकता को भीषण और अवांछनीय प्रतीत होता है । निगल लिये जाने, तोड़ दिये जाने, नष्ट कर दिये जाने या जबर्दस्ती हटा लिये जाने की जो यह भावना है वही मृत्यु का दंश है और इसे यहांतक कि यह विश्वास भी कि मृत्यु के बाद व्यक्ति का जीवन बना रहता है पूरी तरह मिटा नहीं पाता ।

 

    लेकिन यह प्रक्रिया उस पारस्परिक भक्षण के लिये जरूरी है जिसे हम जड़ भौतिक में प्राण के प्रारंभिक विधान के रूप में देखते हैं । उपनिषद् का कहना है कि प्राण क्षुधा है और क्षुधा मृत्यु है और इस सुधा के द्वारा जो कि मृत्यु है 'अशनाया मृत्यु:' भोतिक जगत् की रचना की गयी है । क्योंकि यहां प्राण भौतिक पदार्थ को सांचे के रूप में स्वीकार करता है और भौतिक पदार्थ सत्पुरुष ही है जो अनंत रूप से विभाजित हुआ है और अंनतरूप से अपने-आपको एकत्रित करना चाह रहा है । अनंत रूप से विभाजन और अनंत रूप से एकत्रीकरण के इन दो आवेगों के बीच विश्व का भौतिक अस्तित्व बना है । अपने संरक्षण और अपनी वृद्धि के लिये व्यष्टि का, सजीव परमाणु का जो प्रयत्न है वही कामना का सारा भाव है । अधिकाधिक सर्वालिंगनकारी अनुभूति, एक सर्वाधिक आलिंगनकारी अधिकार, अवशोषण, आत्मसात्करण और उपभोग के द्वारा शारीरिक, प्राणिक, नैतिक और मानसिक वृद्धि ही सत्ता का अनिवार्य, मूलभूत और अमिट आवेग है । यह सत्ता एक बार विभक्त हो जाने और व्यक्तिभाव धारण कर लेने पर भी हमेशा गुप्त रूप से अपनी सर्वालिंगनकारी, सर्वभोक्ता या सर्वाधिपति अनंतता के बारे में

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सचेतन रहती है । उस प्रच्छन्न चेतना को पाने का आवेग वैश्व भगवान् की प्रेरणा है, प्रत्येक व्यक्तिगत प्राणी में रहनेवाली शरीरधारी आत्मा की लालसा है । यह अनिवार्य, संगत और हितकर है कि वह उसे बढ़ती हुई वृद्धि और विस्तार द्वारा पहले प्राण की अवस्थाओं में पाना चाहे । भौतिक जगत् में ऐसा केवल वातावरण को हड़प कर, दूसरों को या दूसरों के अधिकार में जो कुछ हो उसे आत्मसात् कर अपने-आपको वर्धित करने से किया जा सकता है और यह आवश्यकता ही क्षुधा के सभी रूपों को सार्वभौम रूप से उचित ठहराती है । फिर भी जो औरों को हड़पता है वह हड़पा भी जायेगा क्योंकि भौतिक जगत् में आदान-प्रदान का, क्रिया-प्रतिक्रिया का, सीमित सामर्थ्य और इस कारण अंतिम श्रांति और मरण का विधान सारे जीवन को परिचालित करता है ।

 

    सचेतन मन में आकर वह चीज जो अवचेतन जीवन में अभीतक केवल प्राणिक क्षुधामात्र थी, वह अपने-आपको उच्चतर रूपों में बदल लेती है । प्राणिक भागों में जो चीज सुधा थी वही मानसभावापत्र जीवन में कामना की ललक बन जाती है और बुद्धि या चिंतनप्रधान जीवन में इच्छाशक्ति का आयास बन जाती है । कामना की इस गति को तबतक जारी रहना चाहिये और वह जारी रहेगी जबतक व्यक्ति पर्याप्त रूप में इतना विकसित नहीं हो जाता जिसके परिणामस्वरूप वह अब अंत में स्वराट् बन जाये और अनंत के साथ बढ़ते हुए ऐक्य के द्वारा इस विश्व का सम्राट् बन जाये । कामना वह उत्तोलक है जिसके द्वारा दिव्य प्राण तत्त्व जगत् में अपने अस्तित्व को दृढ़तया प्रस्थापित करने के उद्देश्य को पूरा करता है और जड़ता के हित में कामना को नष्ट करने का प्रयास दिव्य प्राण तत्त्व का निषेध है, अस्तित्वेच्छा को नकारना है जो निश्चय ही अज्ञान है क्योंकि वैयक्तिक अस्तित्व का अंत कोई तबतक नहीं कर सकता जबतक कि वह अनंत न बन जाये । कामना का भी ठीक अंत तभी हो सकता है जब वह अनंत की कामना हो जाये और अपने-आपको अनंत में पूर्ण ऐश्वर्यमय आनंद में एक दिव्य परिपूर्ति और एक अनंत संतुष्टि से तप्त कर ले । तबतक कामना को एक-दूसरे को हड़पनेवाली क्षुधा के प्रकार से निकल कर एक-दूसरे को देने के, परस्पर आदान-प्रदान के अधिकाधिक हर्षयुक्त यज्ञ के प्रकार की ओर प्रगति करनी होती है --व्यक्ति अपने-आपको अन्य व्यक्तियों को देता है और बदले में उन्हें पाता है, निम्नतर अपने-आपको उच्चतर को और उच्चतर निम्नतर को देता है ताकि वे दोनों एक-दूसरे में परिपूर्ण हो सकें, मानव अपने-आपको भगवान् को देता है और भगवान् मानव को, व्यक्ति के अंदर जो सर्व है वह अपने-आपको विश्व में स्थित सर्व को देता है और दिव्य प्रतिदान के रूप में अपना उपलब्ध विश्वत्व पाता है । इस भांति क्षुधा के विधान को क्रमश:, अपना स्थान प्रेम के विधान को, विभाजन के विधान को अपना स्थान ऐक्य के विधान को और मृत्यु के विधान को अपना स्थान अमरता के विधान को देना

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चाहिये । विश्व में क्रिया करती हुई कामना की आवश्यकता इसीलिये है । यही है उसकी सार्थकता, यहीं है उसकी चरम अवस्था और आत्म-परिपूर्ति ।

 

    प्राण के द्वारा धारण किया दुआ मृत्यु का यह मुखौटा जैसे अपने अमरत्व की प्रस्थापना करना चाह रहे सांत की चेष्टा का परिणाम है, वैसे ही कामना भी काल में अनुक्रम की और देश में विस्तार की अवस्थाओं में, सांत के सांचे के अंदर अपने अनंत आनंद को, सच्चिदानंद के आनंद को उत्तरोत्तर प्रस्थापित करने के लिये प्राण में व्यष्टिरूप बनी सत्-पुरुष की शक्ति का आवेग है । वह आवेग कामना के जिस मुखौटे को धारण करता है वह सीधे प्राण के तीसरे व्यापार के, उसकी असमर्थता के विधान से आता है । प्राण एक अनंत शक्ति है जो सांत की शर्तों में क्रिया कर रही है । अनिवार्य रूप से सांत के अंदर उसकी स्पष्ट व्यक्तिगत क्रिया में सर्वत्र उसकी सर्वशक्तिमत्ता को अवश्य ही एक सीमित सामर्थ्य और आंशिक अक्षमता के रूप में प्रकट होना और कार्य करना चाहिये यद्यपि व्यष्टि की प्रत्येक क्रिया के पीछे चाहे वह कितनी ही दुर्बल, कितनी ही व्यर्थ, कितनी ही लड़खड़ाती हुई क्यों न हो, अनंत सर्वसक्षम शक्ति की समग्र अतिचेतन और अवचेतन उपस्थिति विद्यमान रहती है, पीछे की उस उपस्थिति के बिना विश्व में कोई छोटी-से-छोटी गति भी नहीं हो सकती । उसकी वैश्व क्रिया की समष्टि में हर क्रिया और गति सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञता के उस आदेश से ही होती है जो चीजों में छिपे अतिमानस के रूप में कार्य करता है । लेकिन व्यष्टिरूप प्राण शक्ति स्वयं अपनी चेतना के लिये सीमित और अक्षमता से भरी होती है क्योंकि उसे न केवल वातावरण बनानेवाली अन्य व्यक्तिभावापन्न प्राण शक्तियों की राशि के विरुद्ध काम करना पड़ता है बल्कि उसीके साथ स्वयं अनंत प्राण के नियंत्रण और निषेध के अधीन भी रहना पड़ता है जिसकी संपूर्ण इच्छा और दिशा के साथ उसकी अपनी इच्छा और दिशा का तुरंत मेल नहीं बैठता । अत: शक्ति का सीमित होना, असामर्थ्य का व्यापार व्यष्टिरूप और विभक्त प्राण के तीन गुणों में से तीसरा है । दूसरी ओर अपने-आपको बढ़ाने और सबपर अधिकार करने का आवेग बना रहता है और अपने-आपको अपनी वर्तमान शक्ति या सामर्थ्य की सीमा से मापना तथा सीमित करना न तो इसमें है और न इसके लिये अभिप्रेत ही है । परिणामत: अधिकार करने के आवेग और अधिकार करने की शक्ति के बीच जो खाई है उसीसे कामना का उदय होता है क्योंकि अगर वहां इस तरह का कोई अंतर न होता, अगर शक्ति हमेशा अपने विषय पर अधिकार पा लेती, हमेशा आसानी से अपना उद्देश्य पूरा कर लेती तो कामना अस्तित्व में ही न आ पाती, वहां होती बस केवल एक ऐसी लालसारहित शांत, आत्मवान् इच्छा जैसी कि भगवान् की इच्छा है ।

 

    अगर व्यक्तिगत शक्ति अज्ञान से मुक्त मन की ऊर्जा होती तो इस प्रकार की सीमितता के, इस तरह की कामना के हस्तक्षेप की कोई जरूरत न होती । क्योंकि

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जो मन अतिमानस से पृथक् नहीं हुआ है, जो दिव्य ज्ञानात्मक मन है उसे प्रत्येक क्रिया के अभिप्राय, क्षेत्र और अनिवार्य परिणाम का ज्ञान रहेगा, उसमें लालसा या संघर्ष न होंगे । वह अपने-आपमें सीमित उतनी ही शक्ति निःसृत करेगा जितनी तात्कालिक उद्देश्य के लिये जरूरी हो । यहांतक कि वर्तमान के परे की चीजों के लिये प्रयास करते हुए भी, ऐसी गतियों का प्रवर्तन करते हुए भी जिनसे तात्कालिक सफलता निश्चित नहीं है वह कामना या सीमितता के परावर्ती न होगा । क्योंकि भगवान् की असफलताएं भी उनकी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता की ही क्रियाएं होती हैं जो कि अपनी वैश्व क्रिया-प्रवृत्तियों में से सभीके आरंभ करने का ठीक समय और परिस्थिति, उनके उतार-चढ़ाव और उनके तात्कालिक एवं अंतिम परिणामों को जानती हैं । ज्ञानात्मक मन दिव्य अतिमानस के साथ एक-स्वर होने के कारण इस ज्ञान और इस सर्वनिर्धारक शक्ति में भाग लेगा । परंतु जैसा कि हम देख आये हैं, व्यष्टिरूप प्राण-शक्ति यहां व्यष्टिरूप एवं अज्ञ मन की ऊर्जा है, उस मन की जो अपने अतिमानस के ज्ञान से च्युत हो गया है । अतः प्राण के अंदर उसके संबंधों के लिये असमर्थता जरूरी है और वस्तुओं का जैसा स्वरूप है उसमें अनिवार्य है । क्योंकि एक अज्ञ शक्ति की व्यवहारगत सर्वशक्तिमत्ता, भले ही वह सीमित क्षेत्र में ही क्यों न हो, अकल्पनीय चीज है, कारण, उस क्षेत्र में ऐसी शक्ति भागवत सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता के कार्य-कलाप के विरुद्ध अपने-आपको खड़ा कर देगी और वस्तुओं के नियत प्रयोजन को अस्त-व्यस्त कर देगी --यह एक असंभव वैश्व स्थिति है । अत: प्राण का पहला विधान है सीमित शक्तियों का संघर्ष और उस संघर्ष द्वारा सहज प्रवृत्तिगत या सचेतन कामना के परिचालक वेग के अधीन उनकी सामर्थ्य की वृद्धि । जैसा कि कामना के साथ है, वैसा ही संघर्ष के साथ है : इसे पारस्परिक रूप से सहायक ऐसी बलपरीक्षा में, भ्रातृ-शक्तियों के ऐसे सचेतन मल्लयुद्ध में समुन्नत हो जाना होगा जिसमें जीतनेवाला और हारनेवाला या यूं कहें कि ऊपर से क्रिया द्वारा प्रभाव डालनेवाला और नीचे से प्रतिक्रिया द्वारा प्रभाव डालनेवाला दोनों समान रूप से लाभ उठाते और दोनों संवर्धित होते हैं । और फिर इसे भी अंत में भागवत आदान-प्रदान का सुखद आघात, प्रेम का दृढ़ आलिंगन बन जाना होगा जो कि संघर्ष की विक्षुब्ध पकड़ का स्थान ले ले । अभीतक तो संघर्ष आवश्यक और हितकर आरंभ है । मृत्यु, कामना और संघर्ष विभक्त जीवन की त्रयी हैं, वैश्व आत्म-प्रस्थापन के अपने प्रथम प्रयास में दिव्य प्राण-तत्त्व द्वारा धारण किया गया त्रि-रूप मुखौटा हैं ।

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अध्याय २१

 

प्राण का आरोहण

 

           प्र देवत्रा ब्रह्मणे गातुरेत्वपो अच्छा मनसो न प्रयुक्ति ।

           अग्ने दिवो अर्णमच्छ जिगास्यच्छ देवाँ ऊचिषे धिष्ण्य ये ।

           या रोचने परस्तात्सुर्यस्य यश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आप : ।।

 

शब्द का मार्ग देवों की ओर ले जाये, मन की क्रिया के द्वारा अप (जल) की ओर ले जाये; हे अग्नि, तू द्युलोक के समुद्र की ओर जाता है, देवों की ओर जाता है, तू लोक-लोक के देवों का, सूर्य से ऊपर ज्योति-प्रदेश में रहनेवाले जल और नीचे रहनेवाले जल का मेल कराता है ।

                                ऋग्वेद १०. ३०. १; ३. २२. ३

 

            तृतीय धाम महिष: सिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप् ।

            चमूषच्छयेन: शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत्

            अपामूर्मि सचमान: समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ।।

 

आनंद-प्रभु तृतीय धाम पर विजय पाता है । वह विश्वात्मा के अनुसार रक्षा करता और शासन करता है । बाज़ की तरह, चील की तरह वह पात्र पर बैठ जाता और उसे ऊपर उठाता है । वह ज्योति को खोजनेवाला चौथे धाम (तुरीय) को अभिव्यक्त करता और उस सागर से चिपट जाता है जो उन जलों की महातरंगे है ।

                                             ऋग्वेद ९.९६. १८, १९

 

              इद विण्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् संर्ह्ममस्य पांसुरे ।।

              त्रीणि पदा वि चक्रमे विण्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ।।

              विष्णो: कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इत्रस्य युज्य: सखा ।।

              तद्विष्णो: परमं पद सदा पश्यन्ति सूरय: । दिवीव चक्षराततम् ।।

              तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांस: समिन्धते । विष्णोर्यत् परमं पदम् ।।

 

तीन बार विष्णु ने कदम उठाये और प्राथमिक धूल से ऊपर उठाये अपने पद को आगे बढ़ाया । रक्षक और अदम्य विष्णु ने तीन पद भरे है और वह परे के लोक से उनके धर्मों को धारण करते हैं । विष्णु के कर्मों का निरीक्षण करो और देखो उसने उन धर्मों को कहां से अभिव्यक्त किया । वह विष्णु का परम पद है जिसे ऋषि सदा द्युलोक में फैले चक्षु के रूप में देखते हैं । उसे विप्रगण, प्रबुद्धगण ज्वाला के रूप में प्रदीप्त करते हैं... विष्णु के परम पद को भी... ।

ऋग्वेद १.२२. १७-२१

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हम देख आये हैं कि जैसे सीमितता, अज्ञान और द्वंद्वों का जनक विभक्त मर्त्य मन अतिमानस का, स्वयंप्रकाश दिव्य चेतना का अपने ही प्रकटत: निषेध के साथ --जहां से हमारे जागतों का आरंभ हुआ है --अपने प्रथम व्यवहारों में एक अंधकारमय रूप है वैसे ही प्राण भी जब वह हमारे जड़-भौतिक विश्व में अवचेतन रूप से स्थित, उसमें निमग्न और बंदी बने विभाजनकारी मन की एक ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है, प्राण जो कि मृत्यु क्षुधा और असमर्थता के जनक के रूप में प्रकट होता है, वह भी उस दिव्य अतिचेतन शक्ति का ही केवल एक अंधकारमय रूप है जिसकी उच्चतम अवस्थाएं हैं अमरता, संतुष्ट आनंद और सर्वशक्तिमत्ता । यह संबंध उन महान् वैश्व प्रक्रियाओं का रूप निर्धारित कर देता है जिनके हम एक भाग हैं । वह हमारे क्रम-विकास की प्रथम, मध्यवर्ती और अंतिम अवस्थाएं निर्धारित कर देता है । प्राण की प्रथम अवस्थाएं हैं विभाजन, शक्ति द्वारा परिचालित अवचेतन इच्छा जो इच्छा के रूप में नहीं बल्कि भौतिक ऊर्जा की मूक ललक के रूप में प्रकट होती है, और रूप और उसके परिवेश के बीच होनेवाले आदान-प्रदान पर शासन करनेवाली यांत्रिक शक्तियों के प्रति जड़ अधीनता की असमर्थता; यह निश्चेतना और ऊर्जा की अंधी किंतु सशक्त क्रिया भौतिक विश्व का वह रूप है जिस रूप में भौतिक वैज्ञानिक उसे देखता है और वस्तुओं के संबंध में उसकी यह दृष्टि विस्तारित होकर यह रूप ले लेती है कि यही मूलभूत अस्तित्व का समग्र रूप है, यह तो जड़ भौतिक की चेतना है और जड़ भौतिक जीवन का सुस्थापित रूप है । लेकिन वहां अब एक नया संतुलन आ जाता है, नयी अवस्थाएं हस्तक्षेप करती हैं, जो उस अनुपात में बढ़ती जाती हैं जिसमें प्राण अपने-आपको इस रूप से मुक्त करता और सचेतन मन की ओर विकसित होता है । प्राण की मध्यवर्ती अवस्थाएं हैं मृत्यु और पारस्परिक भक्षण, क्षुधा और सचेतन कामना, सीमित अवकाश और क्षमता का भान और वृद्धि, विस्तार, विजय और आधिपत्य के लिये संघर्ष । ये तीनों अवस्थाएं विकास क्रम की उस भूमिका के आधार हैं जिसे पहले-पहल डार्विन के सिद्धांत ने मानव ज्ञान के आगे स्पष्ट किया । क्योंकि मृत्यु का व्यापार जीवित रहने के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है, क्योंकि मृत्यु केवल एक नकारात्मक अवस्था है जिसमें जीवन अपने-आपको अपने-आपसे छिपाता और अपनी भावात्मक सत्ता को अमरता की खोज के लिये प्रलोभित करता है । क्षुधा और कामना का व्यापार तृप्ति और सुरक्षा की स्थितितक पहुंचने के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है क्योंकि कामना केवल एक उद्दीपक है जिसके द्वारा जीवन अपनी भावात्मक सत्ता को अतृप्त क्षुधा के निषेध की ओर से सत्ता के आनंद पर पूर्ण अधिकार की ओर उठने के लिये प्रलोभन देता है । सीमित सामर्थ्य का व्यापार विस्तार, प्रभुता और अधिकार-अपने ऊपर अधिकार (स्वराज्य) और परिवेश पर विजय (साम्राज्य) -के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है ।

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चूंकि सीमाबंधन और त्रुटि केवल ऐसे निषेध हैं जिनके द्वारा प्राण अपनी भावात्मक सत्ता को प्रलोभित करता है कि वह उस पूर्णता को प्राप्त करे जिसके लिये वह शाश्वत काल से समर्थ है । जीवन के लिये जो संघर्ष है वह केवल बचे रहने के लिये ही संघर्ष नहीं है, वह अधिकार और पूर्णता की प्राप्ति के लिये भी संघर्ष है । क्योंकि केवल परिवेश को न्यूनाधिक रूप से कब्जे में कर लेने पर ही, चाहे अपने-आपको उसके अनुकूल बनाकर या उसे अपने अनुकूल बनाकर, चाहे उसे स्वीकार और संतुष्ट करके या उसे जीतकर और बदलकर ही उत्तर-जीविता प्राप्त की जा सकती है और यह भी उतना ही सच है कि अधिकाधिक पूर्णता ही निरंतर स्थायित्व का, स्थायी उत्तरजीविता का आश्वासन दे सकती है ।

 

    किंतु जब वैज्ञानिक मन ने यह देखे बिना कि एक नया तत्त्व आ गया है जिसके होने का एकमात्र कारण यही है कि वह यांत्रिक तत्त्व को अपने आधीन कर ले, यांत्रिक विधान को प्राण पर लागू करना शुरू किया जो जड़ तत्त्व में अस्तित्व और छिपी हई यांत्रिक चेतना के लिये ही था तब डारविन के सूत्र का उपयोग प्राण के आक्रामक तत्त्व को, व्यक्ति के प्राणिक स्वार्थ, आत्म संरक्षण की सहज वृत्ति और उसकी प्रक्रिया, आत्म प्रस्थापन और आक्रमणशील जीवन को बहुत अधिक विस्तृत करने के लिये किया गया । क्योंकि प्राण की यह पहली दो अवस्थाएं अपने भीतर एक नये तत्त्व का और एक नयी अवस्था का बीज लिये रहती हैं जिसे उसी अनुपात में बढ़ना चाहिये जिसमें मन प्राणिक सूत्र के द्वारा जड़ द्रव्य में से अपने निजी विधान में विकसित होता है । और सभी चीजों को तब और भी ज्यादा बदलना चाहिये जैसे प्राण ऊपर, मन की ओर विकसित होता है उसी तरह मन ऊपर अतिमानस और आत्मा की ओर विकसित होता है । चूंकि बने रहने के लिये संघर्ष का और नित्यता की ओर आवेग का खंडन करता है मृत्यु का विधान, ठीक इसी कारण व्यष्टि-जीवन अपनी रक्षा की अपेक्षा अपनी जाति की नित्यता को बनाये रखने के लिये बाधित और प्रयुक्त होता है । परंतु इसे वह दूसरों के सहयोग के बिना नहीं कर सकता और सहयोग तथा पारस्परिक सहायता का तत्त्व, दूसरों की चाह, त्नी, पुत्र, मित्र, सहायक एवं सहचयि दल की चाह, साहचर्य का सचेतन संसर्ग एवं आदान-प्रदान का आचरण --ये वे बीज हैं जिनमें से प्रेम का तत्त्व खिलता है । हम यह बात मान लेते हैं कि पहले-पहल प्रेम स्वार्थपरता का ही केवल एक विस्तारित रूप होता है और विस्तारित स्वार्थपरता का यह रूप विकास की उच्चतर अवस्थाओं में भी कायम रह सकता और प्रबल बना रह सकता है जैसा कि वह अभीतक कायम और प्रबल बना हुआ है । फिर भी जैसे-जैसे मन विकसित होता है और अपने-आपको अधिकाधिक पाता जाता है, वह जीवन के, प्रेम के और परस्पर सहायता के अनुभव से इस बोध पर आता है कि प्राकृत व्यक्ति सत्ता का एक गौण पद है और वह विश्व सत्ता के सहारे ही रहता है । एक बार यह मालूम

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हो जाये और मनोमय सत्तावाले मनुष्य को यह अनिवार्य रूप से मालूम होता है तो उसकी भावी नियति निश्चित हो जाती है क्योंकि तब वह एक ऐसे बिंदु पर जा पहुंचता है जहां से मन इस सत्य की ओर खुलना शुरू कर सकता है कि स्वयं उसके परे भी कोई चीज है । उस क्षण से उसका विकास, चाहे कितना भी अस्पष्ट और धीमा क्यों न हो, उस श्रेष्ठतर किसी चीज की ओर, आत्मा की ओर, अतिमानस की ओर, अतिमानवता की ओर अवश्यंभावी रूप से पूर्व-निर्दिष्ट हो जाता है ।

 

    अतः प्राण अपने स्वभाव द्वारा एक तीसरी भूमिका, आत्माभिव्यक्ति की एक तीसरी श्रेणी के पदों में आने के लिये पहले से ही निर्दिष्ट है । अगर हम प्राण के इस आरोहण का निरीक्षण करें तो हम देखेंगे कि इसके वास्तविक विकास की अंतिम अवस्थाएं, वे अवस्थाएं जिन्हें हमने इसकी तीसरी भूमिका कहा है, अवश्य ही ऊपर से देखने में, इसकी पहली अवस्थाओं के एकदम विपरीत और विरोधी मालूम होंगी, परंतु असल में, वे उन पहली अवस्थाओं की ही परिपूर्ति, उन्हींका रूपांतरित रूप होती हैं । प्राण का आरंभ होता है जड़ द्रव्य के चरम विभाजनों और कठोर रूपों के साथ, और इस कठोर विभाजन का ही ठीक प्रतिरूप है परमाणु, जो कि समस्त भौतिक रूपों का आधार है । परमाणु जब अन्यों के साथ संयुक्त हुआ रहता है तब भी उन सबसे पृथक् बना रहता है और किसी भी साधारण शक्ति के वश मरण या विघटन स्वीकार नहीं करता, वह प्रकृति के संयोजन के तत्त्व के विरोध में अपने अस्तित्व को निखारता हुआ पृथक् अहं का भौतिक प्ररूप है । लेकिन प्रकृति में एकत्व भी उतना ही सबल तथ्य है जितना विभाजन । सचमुच तो वही प्रधान तत्त्व है जिसका एक गौण पद है विभाजन । अतः प्रत्येक विभक्त रूप को एक-न-एक ढंग से यांत्रिक आवश्यकता के द्वारा, बाध्यता के द्वारा, सहमति या प्रलोभन के द्वारा अपने-आपको एकत्व के तत्त्व के आधीन कर देना होता है । अतः यदि प्रकृति अपने ही प्रयोजनों के लिये, अपने संयोजनों के लिये एक दृढ़ आधार पाने और रूपों का निश्चित बीज पाने के लिये सामान्यत: परमाणु को विघटन द्वारा गलने की प्रक्रिया का विरोध करने देती है तो भी वह उसे इस बात के लिये बाधित करती है कि वह एकत्रीकरण द्वारा विलयन की प्रक्रिया में सहायक हो । परमाणु जैसा कि वह प्रथम समूह है, वह समूहात्मक ऐक्यों का प्रथम आधार भी है ।

 

    जब प्राण अपनी दूसरी भूमिका में पहुंचता है, उस भूमिका में जिसे हम जीवनी-शक्ति कहते हैं तो विपरीत व्यापार प्रमुख हो जाता है और प्राणिक अहं का भौतिक आधार विघटन के लिये सहमत होने को बाधित हो जाता है । उसके अवयव छिन्न-भिन्न कर दिये जाते हैं ताकि एक प्राण के तत्त्व अन्य प्राणों की तात्त्विक रचना में प्रवेश करने के काम आ सकें । अभीतक यह भली-भांति नहीं

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जाना जा सका है कि प्रकृति में यह विधान कहांतक फैला है और निस्संदेह तबतक जाना भी नहीं जा सकता जबतक हमारे पास मानसिक जीवन और आध्यात्मिक सत्ता का उतना ही यथार्थ विज्ञान न हो जितना कि हमारा भौतिक जीवन और जड़ भौतिक पदार्थ का वर्तमान विज्ञान है । फिर भी हम मोटे तौर पर देख सकते हैं कि केवल हमारे स्थूल शरीर के तत्त्व ही नहीं बल्कि हमारी सृक्ष्मतर प्राणिक सत्ता के, हमारी जीवन-ऊर्जा के, हमारी कामना-ऊर्जा के, हमारी शक्तियों, प्रबल प्रयासों एवं भावावेशों के तत्त्व भी हमारे जीवन-काल में और हमारी मृत्यु के बाद औरों की प्राण-सत्ता में प्रवेश करते रहते हैं । एक प्राचीन गुह्य विद्या हमें बतलाती है कि भौतिक (अन्नमय) शरीर के समान ही हमारा एक प्राणिक शरीर भी होता है और यह भी मृत्यु के बाद छिन्न-भिन्न हो जाता और अपने-आपको अन्य प्राणिक शरीरों के निर्माण के लिये दे देता है । हमारी प्राणिक ऊर्जाएं हमारे जीवन-काल में भी अन्य सत्ताओं की ऊर्जाओं के साथ निरंतर मिश्रित होती रहती हैं । ऐसा ही विधान हमारे मानसिक जीवन और अन्य सभी मननशील प्राणियों के मानसिक जीवन के साथ जो संबंध है उसपर लागू होता है । मन पर मन के आघात के परिणामस्वरूप निरंतर विघटन, छितराव और पुनर्निर्माण होता रहता है, तत्त्वों का आदान-प्रदान और संलयन होता रहता है । सत्ता के साथ सत्ता का परस्पर आदान-प्रदान, परस्पर संमिश्रण और परस्पर संलयन -यही प्राण की अपनी प्रक्रिया है, उसका स्वधर्म है ।

 

    तो, प्राण में हम दो तत्त्व पाते हैं, एक तो पृथक् अहं की अपनी विशिष्टता बनाये रखने और अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की आवश्यकता या इच्छा और दूसरा है औरों के साथ अपने-आपको मिला देने की बाध्यता जिसे प्रकृति उसपर आरोपित करती है । भौतिक जगत् में प्रकृति पहले तत्त्व के आवेग पर बहुत बल देती है क्योंकि उसे स्थायी अलग-अलग रूप बनाने होते हैं । चूंकि उसकी पहली और सबसे अधिक कठिन समस्या है ऊर्जा के सतत प्रवाह और गतिशीलता के अंदर तथा अनंत के ऐक्य के अंदर पृथक् रूप से बने रहनेवाले व्यक्तित्व जैसी किसी चीज को और उसके लिये स्थायी रूप को बना पाना और बनाये रखना, अतः परमाणुमय जीवन में वैयक्तिक रूप आधार के रूप में टिका रहता है तथा औरों के साथ अपने ऐसे समूहात्मक रूपों का अधिक या कम दीर्घ जीवन पाता है जो प्राणिक और मानसिक व्यष्टि रूपों का आधार बनेंगे । लेकिन जैसे ही प्रकृति अपने उत्तरवर्ती व्यापारों के सुरक्षित संचालन के लिये पर्याप्त दृढ़ता पा लेती है वह प्रक्रिया को पलट देती है । व्यष्टि रूप नष्ट हो जाता है और इस तरह विघटित रूप के तत्त्वों से समष्टि-प्राण संवर्धित होता हैं । फिर भी यह चरमावस्था नहीं हो सकती । वह तो तभी पायी जा सकती है जब दोनों तत्त्वों को सामंजस्य में लाया जाये, जब व्यष्टि अपनी वैयक्तिकता की चेतना को बनाये रख सके और फिर भी अपनी परिरक्षित स्थिति के संतुलन को खोये बिना और चिरायु बने रहने की स्थिति में बाधा डाले बिना दूसरों के साथ घुल-मिल सके ।

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    इस समस्या के संबंध में हम पहले से ही मान लेते हैं कि मन का पूरा आविर्भाव हो चुका है क्योंकि प्राण-सत्ता में सचेतन मन के बिना कोई समीकरण नहीं हो सकता, केवल कुछ समय के लिये एक अस्थायी, समतोलता आ सकती है जिसका अंत शरीर की मृत्यु में, व्यक्ति के विघटन और उसके तत्त्वों के विश्व में बिखर जाने से होता है । भौतिक जीवन की प्रकृति इस विचार का निषेध करती है कि किसी व्यष्टि रूप को बने रहने, और इसलिये व्यष्टि जीवन को जारी रखने की अंतर्निहित क्षमता प्राप्त हो जो उसके घटक परमाणुओं को प्राप्त है । केवल मनोमय पुरुष ही, अंतर की चैत्य ग्रंथि के सहारे, जो निगूढ़ अंतरात्मा को व्यक्त करती या व्यक्त करना शुरू करती है, भूतकाल को भविष्य के साथ, एक सातत्य की धारा में जोड़ने के अपने सामर्थ्य द्वारा टिके रहने की आशा कर सकता है । रूप का खंडित होना इस धारा को स्थूल स्मृति में तो खंडित कर सकता है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह उसे स्वयं मनोमय पुरुष से भी मिटा दे, यहांतक कि यह भी संभव है कि मनोमय पुरुष एक संभावित विकास के द्वारा शरीर के जन्म-मरण के द्वारा बनायी गयी भौतिक स्मृति की खाई को पाट दे । आज की वस्तुस्थिति में भी, शरीरस्थ मन के वर्तमान अपूर्ण विकास में भी, मनोमय पुरुष शारीरिक जीवन के परे फैले हुए भूत और भविष्य के बारे में सचेतन होता है । वह उस व्यक्तिगत भूत के और उन व्यक्तिगत जीवनों के बारे में अभिज्ञ हो जाता है जिन्होंने उसके इस जीवन को रचा है और जिनका कि वह समुन्नत और आपरिवर्तित प्रतिरूप है और उन भावी व्यक्तिगत जीवनों के बारे में भी अभिज्ञ हो जाता है जिन्हें वह अपने अन्दर से रच रहा है । साथ ही वह ऐसे भूत और भावी जीवन-समुच्चय के बारे में भी सचेतन होता है जिसमें उसका सातत्य एक रेशे की भांति है । यह चीज जो भौतिक विज्ञान के लिये आनुवंशिकता की भाषा में स्पष्ट है, मानसिक सत्ता के पीछे विकास करनेवाली अन्तरात्मा के लिये चिरस्थायी व्यक्तित्व की भाषा में और तरह से स्पष्ट होती है । अन्तरात्मा की चेतना को अभिव्यक्त करनेवाला मनोमय पुरुष ही इसलिये सतत वैयक्तिक जीवन और सतत सामुदायिक जीवन की ग्रंथि हैं, उसीमें उनका ऐक्य और सामंजस्य सम्भव होते हैं ।

 

    प्रेम के साथ साहचर्य उसका गुप्त तत्व है और उसका उभरता दुआ शिखर है प्ररूप, इस नये सम्बन्ध की शक्ति और इसी कारण जीवन की तीसरी स्थिति में विकास का शासक तत्त्व । व्यक्तित्व की सचेतन परिरक्षा और साथ ही दूसरे व्यक्तियों के संग आदान-प्रदान की, आत्म-दान और सम्मिलन की सज्ञान अंगीकृत आवश्यकता एवं चाह प्रेमतत्त्व के व्यापार के लिये जरूरी हैं क्योंकि इन दोनों में से एक को भी यदि हटा दिया जाये तो प्रेम-व्यापार समाप्त हो जाता है, फिर उसका स्थान चाहे कोई भी चीज क्यों न ले । निःसन्देह प्रेम की पूर्ति आत्म-बलिदान द्वारा या ऐसे आत्म-बलिदान द्वारा करना जिसमें आत्म-विनाश का भ्रम होने लगे,

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मानसिक सत्ता का एक भाव और आवेश है लेकिन यह चीज प्राण की इस तीसरी भूमिका से परे के विकास की ओर इशारा करती है । यह तीसरी भूमिका वह अवस्था है जिसमें प्रगति करते हुए हम उस अवस्था के परे उठ जाते हैं जहां एक दूसरे को निगलकर ही जिन्दा रहने के लिये संघर्ष चलता और उस संघर्ष में योग्यतम ही टिका रहता है । क्योंकि वहां पारस्परिक सहायता द्वारा उत्तरजीविता और पारस्परिक अनुकूलन, आदान-प्रदान और संलयन द्वारा आत्म-परिपूर्णता आती है । जीवन सत्ता का आत्म-प्रस्थापन है, यहांतक कि वह अहं का विकास और उत्तरजीविता है, परन्तु ऐसी सत्ता का जिसे अन्य सत्ताओं की अपेक्षा है, ऐसे अहं का जो अन्य अहंभावों के साथ मिलना और उन्हें अपनेमें मिला लेना और उनके जीवन में समाविष्ट हो जाना चाहता है । जो व्यक्ति और समूह साहचर्य के विधान को और प्रेम के विधान को, समान सहायता, दयालुता, स्नेह, मैत्री और एकता बनाये रखने के विधान को सर्वाधिक विकसित करेंगे, जो अपने स्वत्व को बनाये रखने और एक-दूसरे के लिये अपने-आपको दे डालने में अधिकतम सफल समन्वय स्थापित करेंगे, परस्पर आदान-प्रदान द्वारा समूह व्यक्ति को और व्यक्ति समूह को बढ़ाये साथ ही व्यक्ति व्यक्ति को और समूह समूह को बढ़ाये, ऐसा जो करेंगे वे ही विकास की इस तीसरी भूमिका में बाद तक टिके रहने के लिये योग्यतम होंगे ।

 

    प्राण का अपनी तीसरी भूमिका की ओर यह आत्मविकास मन की बढ़ती हुई प्रधानता का द्योतक है जो भौतिक जीवन पर अपने निजी विधान को क्रमश: अधिकाधिक लागू करता जाता है । अपनी अधिक सूक्ष्मता के कारण मन को अन्यों को अपने अन्दर ले लेने, उन्हें भोगने या आयत्त करने और बढ़ने के लिये दूसरों को हड़पने की जरूरत नहीं होती बल्कि वह जितना अधिक देता है उतना ही अधिक पाता और बढ़ता है, और जितना ही अधिक वह अपने-आपको दूसरों में मिलाता है उतना ही वह दूसरों को अपने अन्दर मिलाकर अपना क्षेत्र-विस्तार कर लेता है । भौतिक प्राण अपने-आपको बहुत अधिक देकर अपनेको निःशेष कर डालता है और बहुत अधिक निगलकर आत्मविनाश कर लेता है । लेकिन यद्यपि मन मन जिस अनुपात में जड़ भौतिक के विधान का सहारा लेता है उतना ही उसे इस सीमितता को सहना पड़ता है, फिर भी, दूसरी ओर, जिस अनुपात में वह अपने निजी विधान में प्रगति करता जाता है, उतनी ही उसकी प्रवृत्ति इस सीमितता को

 

    यहां मन के उस रूप की बात कही जा रही है जिस रूप में वह जीवन में, प्राण-सत्ता में, हृदय के द्वारा सीधी क्रिया करता हैं । प्रेम -एक सापेक्ष तत्त्व के रूप में, अपने निरपेक्ष रूप में नहीं -प्राण का तत्व है, मन का नहीं, लेकिन वह अपने-आपको पा तभी सकता है और स्थायी बनना तभी शुरू होता है जब मन उसे अपने ही आलोक में समो लेता है । जिसे शरीर और प्राणिक भागों में प्रेम कहा जाता है वह अधिकतर क्षुधा का ही रूप है जिसमें स्थायित्व नहीं होता ।

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जीतने की होती है और वह जिस अनुपात में भौतिक परिसीमा को जीत लेता है, उतना ही उसके लिये देना और पाना एक हो जाते हैं । क्योंकि अपने ऊर्ध्वमुखी आरोहण में वह विभिन्नता में सचेतन एकता के नियम की ओर बढ़ता है और यही अभिव्यक्त सच्चिदानन्द का दिव्य विधान है

 

    प्राण की प्रथम भूमिका की द्वितीय अवस्था है अवचेतन इच्छा जो दूसरी भूमिका में जाकर क्षुधा और सचेतन कामना बन जाती है, - सुधा और कामना, ये सचेतन मन के पहले बीज हैं । प्राण का तीसरी भूमिका में विकास, जो साहचर्य और प्रेम की वृद्धि द्वारा होता है, कामना के विधान को नष्ट नहीं करता बल्कि उसे रूपान्तरित करता और परिपूर्ण बनाता है । प्रेम का अपना स्वरूप है अपने-आपको दूसरों को देने और बदले में दूसरों को पाने की कामना करना । यह प्राणी-प्राणी के बीच लेन-देन का एक व्यापार है । भौतिक प्राण अपने-आपको देना नहीं चाहता, वह केवल पाना-ही-पाना चाहता है, यह सच है कि वह अपने-आपको देने के लिये बाधित होता है क्योंकि जो प्राण केवल लेता ही जाता है और देता नहीं वह निश्चय ही अनुर्वर होकर मुरझा जायेगा और नष्ट हो जायेगा -यदि सचमुच इस तरह का जीवन यहां या किसी अन्य लोक में पूरी तरह सम्भव हो तो भी -लेकिन वह बाधित होता है, वह चाहता नहीं, वह प्रकृति की अवचेतन प्रेरणा का पालन करता है, सचेतन रूप से उसमें भाग नहीं लेता । यहांतक कि जब प्रेम हस्तक्षेप करता है तब भी शुरू में आत्मदान परमाणु में स्थित अवचेतन इच्छा के यान्त्रिक स्वरूप को ही काफी हदतक बनाये रखता है । स्वयं प्रेम भी शुरू में सुधा के विधान का पालन करता है और दूसरों से पाने और वसूल करने में ही मजा लेता है न कि दूसरों को देने और उनके प्रति समर्पित होने में । इसे तो वह मुख्यतः अपनी कामना की वस्तु को पाने के लिये अवश्यंदेय मूल्य के रूप में ही स्वीकार करता है । किन्तु यहां वह अपने सच्चे स्वरूप तक नहीं पहुंच पाया है । उसका सच्चा विधान है समान लेन-देन का व्यापार स्थापित करना जिसमें देने का आनन्द लेने के आनन्द के बराबर होता है और अन्त में जाकर तो वह और भी अधिक होता जाता है । लेकिन यह तब होता है जब चैत्य ज्वाला के दबाव से चरम ऐक्य की परिपूर्ति के लिये वह सहसा अपने-आपसे भी परे निकल जाता है और इसलिये उसे यह अनुभव करना होता है कि जो पहले अनात्म दीखता था वह उसके अपने व्यक्तित्व से भी बढ़कर महान् और प्रिय आत्मा है । अपने जीवन-मूल में प्रेम का धर्म है दूसरों में और दूसरों के द्वारा अपने-आपको चरितार्थ करने और परिपूर्ण बनाने का आवेग, औरों को समृद्ध करके अपने-आपको समृद्ध करने का आवेग, औरों पर अधिकार करने और उनसे अधिकृत होने का आवेग, क्योंकि किसी और के अधिकार में आये बिना वह स्वयं अपने ऊपर पूरा-पूरा अधिकार नहीं पा सकता ।

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परमाणविक जीवन की अपने पर अधिकार पाने में जड़ असमर्थता, मूर्त व्यष्टि की अनात्म के प्रति अधीनता, प्राण की प्रथम भूमिका की चीज है । सीमितता का बोध और अधिकार पाने, आत्म और अनात्म दोनों पर प्रभुत्व पाने के लिये संघर्ष दूसरी भूमिका का रूप है । यहां भी तीसरी भूमिका में ले जानेवाला विकास प्रथम भूमिका की अवस्थाओं में ऐसा रूपान्तर ले आता है जिससे उसकी परिपूर्णता साधित हो और ऐसा सामंजस्य लाता है जिसमें वे ही अवस्थाएं फिर से लौट आती हैं, जब कि देखने में वे उनकी विरोधी लगती हैं । साहचर्य के द्वारा और प्रेम के द्वारा अनात्म अब एक बड़े आत्म के रूप में स्वीकार किया जाने लगता है और इसलिये उसके विधान और आवश्यकता के प्रति सज्ञान रूप से अंगीकृत आत्मसमर्पण का भाव बनने लगता है जिससे कि व्यष्टि को अपने अन्दर मिला लेने के समष्टि-जीवन के अंतवेंग की पूर्ति होती है; और फिर व्यष्टि द्वारा दूसरों के जीवन पर और वह जो कुछ दे सकता हैं उसपर इस तरह अधिकार है मानों वह उसका अपना हो । इससे वैयक्तिक अधिकार के विरोधी अंतर्वेग की पूर्ति होती है । न ही व्यष्टि और संसार के बीच, जिसमें कि वह रहता है, पारस्परिकता का यह सम्बन्ध तबतक सुव्यक्त या पूर्ण या सुरक्षित हो सकता है जबतक कि व्यष्टि-व्यष्टि के बीच और समष्टि-समष्टि के बीच पारस्परिकता का वही सम्बन्ध स्थापित न हो जाये । आत्म-प्रस्थापन एवं स्वतंत्रता के, जिनके द्वारा मनुष्य अपने-आपको पाता है, साहचर्य, प्रेम, भ्रातृभाव व मैत्रीभाव के साथ, जिनमें वह अपने-आपको दूसरों को देता है, सामंजस्य बिठाने के मनुष्य के सब कठिन प्रयास और सुसमंजस संतुलन, न्याय, पारस्परिकता व समानता के उसके आदर्श जिनके द्वारा वह दो विरोधियों के बीच समतोलता लाता है -ये सब वास्तव में ऐसे प्रयत्न हैं जो प्रकृति की प्राथमिक समस्या को, स्वयं प्राण की ही समस्या को सुलझाने के लिये अपनी दिशाओं में अनिवार्यत: पूर्वनिर्धारित हैं । समस्या को सुलझाने के लिये जड़द्रव्य में स्थित प्राण के मूल में ही पाये जानेवाले दो विरोधियों के बीच संघर्ष का समाधान करना होगा । समाधान की कोशिश मन के उच्चतर तत्त्व को लाकर की गयी है, केवल वही तत्त्व अभीष्ट सामंजस्य के रास्ते का पता लगा सकता है यद्यपि स्वयं सामंजस्य ऐसी शक्ति में ही पाया जा सकता है जो अभीतक हमसे परे है ।

 

    क्योंकि, जिन तथ्यों को लेकर हम चले हैं यदि वे सही हैं तो, पथ के अंततक, अपने गंतव्यतक पहुंचा तभी जा सकता है जब मन अपने-आपको पारकर उसमें चला जाये जो मनसातीत है, चूंकि मन उस मनसातीत की ही एक निम्नतर अवस्था और उसीका एक यंत्र है प्रथम तो रूप और व्यक्तिभाव में अवतरण के लिये, दूसरे उस सद्वस्तु में पुन: आरोहण के लिये जिसे रूप आकार प्रदान करता है और व्यक्तिभाव प्रतिरूपित करता है । इसलिये प्राण की समस्या का पूरा-पूरा समाधान केवल साहचर्य, आदान-प्रदान और प्रेम की मूर्ति के द्वारा या केवल मन और हृदय

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के विधान के द्वारा पाया जाना बहुत संभव नहीं लगता । यह पाया जायेगा प्राण की चतुर्थ भूमिका के द्वारा जिसमें बहु की शाश्वत एकता चरितार्थ होगी आत्मा के द्वारा और जिसमें प्राण के समस्त व्यापारों का सचेतन आधार न तो पहले की तरह शरीर के विभाजनों में होगा न प्राण के आवेगों एवं क्षुधाओं में, न मन के समष्टिकरणों एवं अपूर्ण सामंजस्यों में और न ही इन सबके संयोजन में होगा बल्कि वह होगा आत्मा की एकता और स्वतंत्रता में ।

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अध्याय २२ 

 

प्राण की समस्या

 

 

 

            सर्वायुषमुच्चते ।।

            यही वह है जिसे वैश्व प्राण कहते हैं ।

                                                 तैत्तिरीय उपनिषद् २.३

 

            ईश्वर: सर्वभूतनां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

            भ्रामयन्सर्वभूतानि यत्न्त्रारूढानि मायया ।।

 

            ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं और सबको अपनी

            माया की चरखी पर चढ़ा कर घुमाते है  

                                                गीता १८,६१

            सत्यं ज्ञानमनत्तं ब्रह्म । यो वेद...

            सोऽअश्रुते सर्वान्कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता

 

            जो सत्य, ज्ञान और अनन्त स्वरूप ब्रह्म को जानता है वह सर्वज्ञ

            ब्रह्म के साथ सभी काम्य पदार्थो का भोग   करता है ।

                                                  तैत्तिरीय उपनिषद् २.१

 

 

हम देख आये हैं कि प्राण किन्हीं विशेष वैश्व परिस्थितियों में एक ऐसी चित्-शक्ति का फूट निकलना है जो अपने स्वरूप में अनन्त, निरपेक्ष, निर्बंध, अपने एकत्व और आनन्द को अविच्छेद्य रूप से अधिकार में किये हुए है । यह सच्चिदानन्द की चित्-शक्ति है । इस वैश्व प्रक्रिया की मुख्य परिस्थिति, जहांतक कि वह अनन्त सत् की विशुद्धता और अविभक्त ऊर्जा की आत्मवत्ता से अपने बाहरी रूपों में भिन्न है, अज्ञान के तम से धुंधले पड़े हुए मन की विभाजक शक्ति है । अविभक्त शक्ति की इस विभाजित क्रिया से द्वंद्वों का, विरोधों का आभास होता है जो सच्चिदानन्द के स्वरूप का खण्डन करता-सा प्रतीत होता है । इन चीजों का अस्तित्व मन के लिये तो एक स्थायी सत्य की तरह है लेकिन मन के पर्दे के पीछे छिपी दिव्य वैश्व चेतना के लिये एक बहुमुखी सद्वस्तु के गलत प्रतिरूप की तरह है । इसी कारण जगत् प्रतिरोधी सत्यों के संघर्ष का रूप धारण कर लेता है जिनमें से हर एक सत्य अपनी पूर्ति के लिये सचेष्ट है और हर एक को अपनी पूर्ति करने का अधिकार प्राप्त है और इसलिये जगत् अनेक समस्याओं और पहेलियों का रूप लिये हुए है जिन्हें सुलझाना है क्योंकि इस सारी अस्तव्यस्तता के पीछे छिपा हुआ एक सत्य है और एक ऐक्य है जो समाधान के लिये और समाधान के द्वारा जगत् में अपनी अनावृत अभिव्यक्ति के लिये दबाव डाल रहा है ।

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मन को यह समाधान ढूंढ़ निकालना है लेकिन केवल मन को ही नहीं । यह समाधान जीवन में, व्यक्ति की क्रिया में तथा व्यक्ति की चेतना में भी होना चाहिये । चेतना ने शक्ति-रूप से जगत् की गतिविधि और उसकी समस्याओं का सृजन किया है । शक्तिरूप में चेतना को ही अपनी बनायी हुई समस्याओं का समाधान करना और जगत् की गतिविधि को उसके गुप्त अभिप्राय और विकसनशील सत्य की अनिवार्य पूर्ति तक ले जाना है । लेकिन इस जीवन ने क्रमश: तीन रूप धारण किये हैं । पहला है भौतिक रूप -यह एक डूबी हुई चेतना है जो अपनी ही ऊपरी आत्म-अभिव्यंजक क्रिया में और शक्ति के प्रतिनिधि रूपों में छिपी रहती है क्योंकि क्रिया में स्वयं चेतना दृष्टि से ओझल हो जाती है और रूप में खो जाती है । दूसरा है प्राणिक रूप -यह एक उभरती हुई चेतना है जो जीवन की शक्ति और रूप की वृद्धि, क्रियाशीलता एवं क्षय की प्रक्रिया के रूप में अर्द्ध-प्रकट होती और अपनी प्रारम्भिक कारा से अर्द्ध मुक्त होती है । वह प्राणिक लालसा और संतुष्टि या विकर्षण के रूप में शक्ति का स्पन्दन तो होता है परन्तु अपने अस्तित्व और अपने वातावरण के ज्ञान के रूप में प्रकाश का स्पन्दन पहले-पहल उसमें होता ही नहीं, और बाद में होता है तो अपूर्ण रूप से । तीसरा है मानसिक रूप -यह एक उभरी हुई चेतना है जो जीवन के तथ्य को मानसिक बोध के और मानसिक प्रतिक्रिया से युक्त इन्द्रिय ज्ञान के और विचार के रूप में प्रतिबिंबित करती है जब कि नये विचार के फलस्वरूप यह जीवन का तथ्य बनने की कोशिश करती है, सत्ता के आन्तरिक जीवन को बदलती है और बाहरी जीवन को उसके अनुरूप बदलने की चेष्टा करती है । यहां मन में चेतना क्रिया में और अपनी ही शक्ति के रूप की कारा से मुक्त हो जाती है लेकिन अब भी वह क्रिया और रूप की स्वामिनी नहीं बन पाती क्योंकि वह व्यष्टि-चेतना के रूप में उभरी है इसलिये अपनी समग्र क्रियाओं की एक आंशिक गति से ही अभिग होती है ।

 

    मानव जीवन की सभी कठिनाइयों और जटिलताओं का मूल यहीं है । मनुष्य यह मानसिक सत्ता है । यह मानसिक चेतना मानसिक शक्ति के तौर पर काम करती हुई एक प्रकार से उस वैश्व शक्ति और प्राण से परिचित है जिसका वह एक भाग है लेकिन उसे उसकी सार्विकता या अपनी ही सत्ता की समग्रता का पूर्ण ज्ञान नहीं है इसलिये वह सामान्य जीवन या स्वयं अपनी सत्ता की समग्रता के साथ सचमुच प्रभावकारी ढंग से, प्रभुता की विजयी गति के साथ व्यवहार करने में असमर्थ है । वह जड़ भौतिक पदार्थ को जानने की कोशिश करता है ताकि वह भौतिक वातावरण का स्वामी बन सके, वह प्राण को जानना चाहता है ताकि प्राणिक जीवन का स्वामी बन सके, वह मन को जानना चाहता है ताकि मानसिकता की अंधेरी गति का स्वामी हो सके जिसमें वह पशु की तरह आत्मचेतना के प्रकाश की एक हल्की धारा नहीं, बढ़ते हुए ज्ञान की अधिकाधिक ज्वाला बन सके । इस भांति वह अपने-

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आपको जानना चाहता है ताकि अपना स्वामी बन सके, संसार को जानना चाहता है ताकि संसार का स्वामी बन सके । यह उसके अन्दर सत् की प्रेरणा है, यही चित् का, जो कि वह है, प्रयोजन है, यही शक्ति का, जो कि उसका प्राण है, अन्तर्वेग है, और यही उन सच्चिदानन्द की गुप्त इच्छा है जो व्यक्ति के रूप में एक ऐसे जगत् में प्रकट होते हैं जिसमें वे अपने-आपको व्यक्त करते पर फिर भी अपने-आपको नकारते प्रतीत होते हैं । तो ऐसी अवस्थाओं को पाना, जिनमें इस अन्तर्वेग की पूति हो, यही समस्या है जिसका समाधान पाने के लिये मनुष्य को अवश्य ही सतत परिश्रम करना है और इसके लिये वह अपनी सत्ता के स्वभाव के ही द्वारा और अन्तस्थ देव के द्वारा बाध्य किया जाता है और जबतक समस्या का समाधान नहीं हो जाता, अन्तर्वेग की पूर्ति नहीं हो जाती तबतक मानवजाति अपने श्रम से छुटकारा नहीं पा सकती । या तो मनुष्य को अपनी परिपूर्ति करके अपने अन्दर विराजमान भगवान् को संतुष्ट करना चाहिये या अपने अन्दर से एक नयी और अधिक महान् सत्ता को जन्म देना चाहिये जो उन्हें संतुष्ट करने में अधिक सक्षम हो । या तो स्वयं उसे दिव्य मानव बनना होगा या अतिमानव के लिये स्थान छोड़ना होगा ।

 

    यह परिणाम, वस्तुएं जैसी हैं उन्हींसे युक्तियुक्त रूप में निकलता है, क्योंकि मनुष्य की मनोमय चेतना जड़ भौतिक के अंधकार में से चूंकि पूरी तरह उभरी हुई पूरी प्रबुद्ध चेतना नहीं है बल्कि इस महान् ऊर्ध्वगति में वह केवल एक अवस्थामात्र है इसलिये सृष्टि का यह विकासक्रम, जिसमें कि मनुष्य प्रकट हुआ है, वहीं नहीं रुक सकता जहां वह इस समय है । वह या तो उसके अन्दर अपनी वर्तमान अवस्था के परे जायेगा या फिर मनुष्य को ही पार कर जायेगा यदि उसमें स्वयं आगे जाने की शक्ति न रहीं तो । जो मानसिक भाव जीवन का तथ्य बनने की कोशिश कर रहा है उसे तबतक बढ़ते जाना होगा जबतक कि वह अस्तित्व का संपूर्ण सत्य न बन जाये, जबतक कि वह अपने-आपको एक-पर-एक चढ़ें आवरणों सें मुक्त कर उद्धासित न कर ले और चेतना के प्रकाश में प्रगतिशील रूप से परिपूर्ण और शक्ति में आनन्दमय रूप से परिपूर्ण न बन जाये । क्योंकि शक्ति और प्रकाश के इन्हीं दो पदों में और इन्हींके द्वारा सत् अपने-आपको अभिव्यक्त करता है, क्योंकि सत् अपने स्वरूप में चित् और शक्ति है । किन्तु तीसरे चरण, जिसमें ये दोनों घटक मिलते और एक हो जाते हैं और अंततः परिपूर्ण होते हैं वह है स्वयंभू सत्ता का परिपूरित आनन्द । हमारे जैसे विकसनशील जीवन के लिये इस अनिवार्य चरम सिद्धि का अर्थ होना चाहिये उस आत्मा को पाना जो स्वयं जीवन के आविर्भाव के समय उसमें बीज रूप में निहित थी और उस आत्मप्राप्ति के द्वारा वे सम्भाव्यताएं पूरी तरह क्रियान्वित हो जायेंगी जो इस जीवन को जन्म देनेवाली चित्-शक्ति की क्रिया में निहित थीं । हमारे मानव-अस्तित्व में इस

 

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भांति समायी हुई शक्यता है सच्चिदानन्द जो वैयक्तिक और वैश्व जीवन के एक विशेष सामंजस्य और एकीकरण में अपने-आपको सिद्ध कर रहे हैं ताकि मानव जाति एक सार्वभौम चेतना में, सार्वभौम शक्ति की गति में, सार्वभौम आनन्द में उस परात्पर 'कुछ' को व्यक्त करेगी जिसने अपने-आपको चीजों के इस रूप में ढाला है ।

 

    समस्त प्राण अपने स्वभाव के लिये अपनी उपादान-चेतना की मूलभूत स्थिति पर निर्भर होता है क्योंकि जैसी चेतना होगी शक्ति भी वैसी ही होगी । जहां चेतना अनन्त, अविभक्त रूप से एक और अपनी क्रियाओं और रूपों से तब भी अतीत होती है जब कि वह उन्हें आलिंगित, अनुप्राणित, संगठित और कार्यान्वित कर रही होती है जैसी कि सच्चिदानन्द की चेतना है, तो वहां शक्ति भी वैसी ही होगी : अपने क्षेत्र-विस्तार में अनन्त, अपनी क्रियाओं में अविभक्त रूप से एक, अपनी शक्ति और आत्म-ज्ञान में परात्पर । जहां चेतना वैसी हो जैसी भौतिक प्रकृति की है यानी डूबी हुई, अपने-आपको भूली हुई, अपनी ही शक्ति के प्रवाह में बहती हुई जिसमें ऐसा लगता है कि वह कुछ जानती ही नहीं -यद्यपि इन दोनों तत्त्वों के बीच शाश्वत सम्बन्ध का स्वरूप ऐसा है कि जो प्रवाह उसे बहा ले जाता है, उसे वास्तव में वह स्वयं निर्धारित करती है -वहां शक्ति भी वैसी ही होगी; निश्चेतन और निश्चेतन की विकट दानवी गति होगी जिसे पता नहीं उसमें क्या समाया हुआ है । देखने में लगता है कि वह यान्त्रिक रूप से, एक प्रकार की अटल आकस्मिकता, अनिवार्यत: सुखद संयोग द्वारा अपने-आपको परिपूर्ण कर रही है जब कि वह सचमुच सदा ही ऋत और सत्य के विधान का ही निर्दोष रूप से पालन करती है जिसे उसके लिये उसकी गति में गुप्त रूप से स्थित परम चित्-पुरुष की इच्छा ने निर्धारित किया है । जहां चेतना अपने-आपमें विभाजित हो, जैसे मन में है, अपने-आपको विभिन्न केन्द्रों में सीमित रखती हो, अन्य केन्द्रों में क्या है और उनके साथ उसका क्या सम्बन्ध है यह जाने बिना हर एक को अपनी पूर्ति के लिये आगे बढ़ने को प्रवृत्त करती हो, वस्तुओं और शक्तियों को उनके यथार्थ एकत्व में नहीं बल्कि ऊपर से दीखनेवाले विभाजन और पारस्परिक विरोध में ही जानती हो तो वहां शक्ति भी वैसी ही होगी । यह वैसा ही जीवन होगा जैसा हम जी रहे हैं और अपने चारों ओर देखते हैं । यह व्यष्टिगत जीवनों का संघर्ष और गुंथन होगा जिसमें हर एक औरों के साथ अपने सम्बन्ध को जाने बिना बस, अपनी ही पूर्णता की खोज में रहता है, इसमें विभाजन और विरोध करनेवाली या मतभेद से भरी शक्तियों का संघर्ष या कठिन समझौता होगा । और मन में यह विभक्त विरोधी या विभिन्न विचारों का मिश्रण, आघात और द्वंद्व और समझौता होगा जो विचार एक-दूसरे की आवश्यकता के ज्ञान तक नहीं पहुंच सकते और न ही पीछे स्थित उस 'एकत्व' के तत्त्वों के रूप में अपना स्थान ले सकते हैं जो उनके द्वारा अपने-आपको प्रकट कर रहा है और जिसमें उनके विसंवादों का अन्त होगा । लेकिन जहां चेतना वैविध्य और एकत्व

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दोनों को अधिकार में लिये रहती है और एकत्व वैविध्य को अपने अन्दर धारण करता और नियन्त्रित करता है, जहां वह एक ही साथ 'सर्व' के धर्म, सत्य और ऋत तथा व्यष्टि के धर्म, सत्य और ऋत से परिचित रहती है और दोनों पारस्परिक ऐक्य में सचेतन रूप से सुसमन्वित हो जाते हैं, जहां चेतना का समग्र स्वभाव है कि एकमेव अपने-आपको बहु के रूप में जानता है और बहु अपने-आपको एकमेव के रूप में जानते हैं, वहां शक्ति का स्वभाव भी उसी प्रकार का होगा । वह एक ऐसा जीवन होगा जो सचेतन रूप से एकत्व के धर्म का पालन करेगा और साथ ही वैविध्य में प्रत्येक वस्तु को उसके अपने नियम और कर्म के अनुसार परिपूर्ण करेगा । वह ऐसा जीवन होगा जिसमें सभी व्यष्टि एक साथ अपने-आपमें और एक-दूसरेमें ऐसे रहेंगे जैसे बहु जीवों में एक ही चिन्मय पुरुष हो, बहु मन के अन्दर चेतना की एक ही शक्ति हो, बहु जीवनों में क्रियारत एक ही शक्ति का आनन्द हो, बहु हृदयों और शरीरों में आनन्द की एक ही वास्तविकता अपने-आपको परिपूर्ण कर रही हो ।

 

    इन चारों अवस्थाओं में पहली चेतना और शक्ति के बीच इस सारे प्रगतिशील सम्बन्ध का मूल है, वह उनकी सच्चिदानन्द में संतुलन-स्थिति है जहां वे दोनों अभिन्न रूप से एक हैं कारण वहां शक्ति सत्ता की चेतना ही है जो अपने-आपको क्रियान्वित करती हुई भी अपने चेतना-स्वरूप को नहीं खोती । इसी तरह चेतना सत्ता की ज्योतिर्मय शक्ति है जो अपने और अपने आनन्द के बारे में नित्य अभिज्ञ रहती हुई भी परम प्रकाश और परम आत्मवत्ता की शक्ति के स्वरूप को नहीं खोती । दूसरा सम्बन्ध है भौतिक प्रकृति का । यह सत्ता की जड़ जगत् में संतुलन-स्थिति है जो सच्चिदानन्द का स्वयं अपने ही द्वारा महा-निषेध है क्योंकि यहां शक्ति का चेतना से प्रकटत: पूर्ण पार्थक्य है, सर्व-शासक और निर्भ्रान्त निश्चेततन का ऊपर से सत्य प्रतीत होनेवाला चमत्कार है । यह निश्चेतन है तो केवल एक मुखौटा ही लेकिन इसे आधुनिक विज्ञान ने भूल से वैश्व 'देव' का सच्चा चेहरा मान लिया है । तीसरा सम्बन्ध है सत्ता की मन और प्राण में सन्तुलन-स्थिति, जिस प्राण को हम इस निषेध में से उभरते हुए उसके द्वारा चकित और मनुष्य के चकरानेवाले आविर्भाव के साथ लगी हजारों समस्याओं से संघर्ष करते हुए पाते हैं । यह मनुष्य भौतिक विश्व के सर्वशक्तिमान् निश्चेतन में से प्रकट हुआ अर्ध शक्तिमान् सचेतन सत्ता है और इस संघर्ष की न तो अधीनता स्वीकार कर लेने से अंत हो जाने की कोई सम्भावना दीखती है और न ही विजयी समाधान का कोई स्पष्ट ज्ञान या अंतर्बोध ही मिलता है । चौथा सम्बन्ध है सत्ता की अतिमानस में संतुलन स्थिति । यह वह परिपूर्ण सत्ता है जो अंतत: सम्पूर्ण निषेध में से उभरती हुई आंशिक स्वीकृति के द्वारा उत्पन्न उन सभी जटिल समस्याओं को हल कर देगी । यह उसे अवश्य ही एकमात्र संभव मार्ग से हल करेगी, यह उस सबको, जो उस महा-

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निषेध के मुखौटे के पीछे सम्भाव्यता के रूप में वहां छिपा हुआ था और विकास-क्रम के तथ्य के रूप में अभिप्रेत था, उसे उसकी परिपूर्णतातक पहुंचाकर पूर्ण प्रस्थापना के द्वारा हल करेगी । वही यथार्थ मानव का यथार्थ जीवन है जिसकी ओर यह आंशिक जीवन और आंशिक रूप से अचरितार्थ मानवता बढ़ने का प्रयास कर रहीं है । हमारे अन्दर जो तथाकथित निश्चेतन है उसमें तो यह पूरे-पूरे ज्ञान और मार्गदर्शन के साथ प्रयास कर रही है लेकिन हमारे सचेतन भागों में धुंधले और संघर्षरत पूर्व-ज्ञान के साथ, अनुभूति के अंशों के साथ, आदर्श की झांकियों के साथ, सत्य-प्रकाश और सत्य-ज्ञान की झलकों के साथ प्रयास कर रही है जिन्हें हम कवि, पैगम्बर, ऋषि, परात्परवादी, रहस्यवादी, विचारक और मानवजाति के महान् मनीषियों और महान् आत्माओं में पाते हैं ।

 

    हमारे सामने जो तथ्य इस समय उपस्थित हैं उनसे हम देख सकते हैं कि मन और प्राण की अपनी वर्तमान दशा में मनुष्य के अन्दर चेतना और शक्ति की जो अपूर्ण संतुलन-स्थिति है उससे आनेवाली कठिनाइयां, मुख्य रूप से तीन हैं । पहली, वह अपनी ही सत्ता के केवल एक छोटे-से भाग को जानता है । वह केवल अपने सतही मन, अपने सतही प्राण और अपने सतही शरीर को ही जानता है और वह भी सम्पूर्णतः नहीं । नीचे उसके अवचेतन और उसके अन्तस्तलीय मन की, उसके अवचेतन और उसके अन्तस्तलीय प्राणावेगो की, उसकी अवचेतन शारीरिकता की विशाल तरंगें हैं, यानी उसका वह बड़ा भाग जिसे वह नहीं जानता और जिसे वह नियन्त्रित नहीं कर सकता बल्कि वही उसे जानता और उसे नियन्त्रित करता है । कारण, सत्ता, चेतना और शक्ति चूंकि एक ही हैं, इसलिये हमें अपनी सत्ता के उतने ही भाग पर थोड़ा-बहुत सच्चा अधिकार प्राप्त हो सकता है जितने के साथ हम आत्म-अभिज्ञता के द्वारा एकात्म होते हैं । शेष भाग अवश्य ही अपनी उस चेतना के द्वारा ही शासित होता है जो हमारे सतही मन, प्राण और शरीर के लिये अन्तस्तलीय है । फिर भी चूंकि ये दोनों (सतही और अन्तस्तलीय) अलग-अलग गतियां न होकर एक ही गति हैं, इसलिये हमारे अधिक बड़े और अधिक समर्थ भाग को हमारे छोटे और कम समर्थ भागपर समग्र रूप में शासन और नियन्त्रण करना चाहिये, इसीलिये हम अपनी सचेतन सत्ता में भी अवचेतन और अन्तस्तलीय द्वारा शासित होते हैं । और हमारी आत्म-प्रभुता और हमारे आत्मनिदेशन में भी हम उसके केवल यंत्र भर हैं जो हमें अपने अन्दर निश्चेतन प्रतीत होता है ।

 

    प्राचीन प्रज्ञा का यही तात्पर्य था जब उसने कहा कि मनुष्य यह कल्पना करता है कि वह स्वेच्छा से कार्य करता है लेकिन वास्तव में प्रकृति उसके सभी कर्मों को निर्धारित करती हैं और प्रज्ञावान् भी अपनी-अपनी प्रकृति का अनुसरण करने के लिये बाधित होते हैं । किन्तु प्रकृति हमारे अन्दर विराजमान 'पुरुष' की चेतना की सर्जक शक्ति है और वह पुरुष अपनी प्रतिलोम क्रिया और स्वयं अपना प्रतीयमान

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निषेध है, इसलिये उन्होंने उस पुरुष की प्रतिलोम सृजन-शक्ति को माया या ईश्वर की भ्रम पैदा करनेवाली शक्ति का नाम दिया और कहा कि सभी भूतों के हृदय में बैठे हुए ईश्वर सब भूतों को अपनी माया द्वारा मानों यंत्र पर चढ़ाकर घुमाते हैं । तो यह स्पष्ट है कि मनुष्य अपनी सत्ता का स्वामी तभी बन सकता है जब वह मन से परे जाकर ईश्वर के साथ आत्म अभिज्ञता में एक हो जाये, और चूंकि निश्चेतन में या स्वयं अवचेतना में यह संभव नहीं, चूंकि फिर से अपनी गहराइयों में, निश्चेतना की ओर डुबकी लगाने से कोई लाभ नहीं, यह ऐक्य पूरी तरह प्रतिष्ठित हो सकता है उस गहराई में उतरने से जहां ईश्वर आसीन हैं, उस जगह चढ़ने से जो अभी तक हमारे लिये अतिचेतन है यानी अतिमानस में चढ़ने से । क्योंकि वहां उच्चतर और दिव्य माया में, अपने धर्म और सत्य रूप में, उस सबका सचेतन ज्ञान रहता है जो अवचेतन में अपरा माया द्वारा निषेध की अवस्थाओं में -जो कि प्रस्थापना का रूप लेना चाह रहा है -कार्य करता है । क्योंकि यह निम्न प्रकृति उस चीज को कार्यान्वित करती है जिसकी उच्चतर प्रकृति में इच्छा की जाती है और जो वहां ज्ञात होती है । भागवत ज्ञान की यह भ्रामक शक्ति, जो संसार में रूपों की सृष्टि करती है, वह उसी ज्ञान की सत्य शक्ति द्वारा शासित होती है जो रूपों के पीछे के सत्य को जानती है और जिसके लिये ये रूप कार्य कर रहे हैं उस प्रस्थापना को हमारे लिये तैयार रखती है । यहां का असम्पूर्ण और प्रतीयमान मानव वहां पूर्ण और वास्तविक मानव को पायेगा । यह पूर्ण मानव उन स्वयंभू के साथ, जो अपने विश्व-विकास और विश्व-यात्रा के सर्वज्ञ प्रभु हैं, पूर्णतः एकात्म होकर सम्पूर्ण रूप से आत्म-चेतन प्राणी बनने में सक्षम होगा ।

 

    दूसरी कठिनाई यह है कि मनुष्य अपने मन, अपने प्राण और अपने शरीर में वैश्व सत्ता से पृथक् हो गया है इसलिये जैसे वह अपने-आपको नहीं जानता उसी तरह, बल्कि उससे भी बढ़कर अपने साथी मनुष्यों को जानने में असमर्थ है । वह उनके बारे में अनुमान, परिकल्पना, निरीक्षण और सहानुभूति की एक अपूर्ण क्षमता, एक अनगढ़ मानसिक रचना बना लेता है, परन्तु यह तो ज्ञान नहीं है । ज्ञान तो केवल सचेतन तादात्म्य द्वारा ही आ सकता है क्योंकि वही एकमात्र सच्चा ज्ञान है -सत्ता की आत्म-अभिज्ञता । हम अपने-आपको बस उतना ही जानते हैं जितना सचेतन रूप से आत्म-अभिज्ञ रहते हैं, बाकी छिपा रहता है । इसी तरह हम जिसके साथ अपनी चेतना में एक हो जाते हैं उसीको जान सकते हैं, और वह भी उसी हदतक जहांतक उसके साथ एक हो सकें । अगर ज्ञान के साधन परोक्ष और अपूर्ण हों तो जो ज्ञान प्राप्त होगा वह भी परोक्ष और अपूर्ण होगा । यह ज्ञान हमें अनुमान पर आधारित कुछ अनाड़ीपन के साथ, द्यपि मन की दृष्टि से वह काफी कुछ पूर्णता ही होगी, कुछ एक सीमित व्यावहारिक उद्देश्यों, आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं को पा लेने की सामर्थ्य प्रदान करेगा और जिसे हम जानते हैं उसके

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साथ सम्बन्धों का एक अपूर्ण और अस्थिर सामंजस्य ले आयेगा, पर उसके साथ पूर्ण सम्बन्धोंपर पहुंचना तो केवल सचेतन एकात्मता के द्वारा ही हो सकेगा इसलिये हमें केवल प्रेम से पैदा हुई सहानुभूति या मानसिक ज्ञान से पैदा होनेवाली समझ ही नहीं, अपने साथी प्राणियों के साथ सचेतन ऐक्य पर पहुंचना चाहिये, यह मानसिक ज्ञान हमेशा ऊपरी सतह के जीवन का ज्ञान होता है इसलिये अपने-आपमें अपूर्ण और उनके अन्दर और हमारे अन्दर जो अवचेतन और अन्तस्तलीय है उसमें से अज्ञात और अनियन्त्रित के प्रवाह के कारण निषेध और अवसाद के अधीन रहेगा । हमें अपने साथी प्राणियों के साथ सचेतन एकत्व में पहुंचना होगा । लेकिन यह सचेतन एकात्मता तभी स्थापित हो सकती है जब हम उसमें प्रवेश करें जिसमें हम उनके साथ एक हैं यानी वैश्व सत्ता में और विश्व सत्ता की परिपूर्णता सचेतन रूप से केवल वहां अस्तित्व रखती है जो हमसे अतिचेतन है यानी अतिमानस में क्योंकि यहां हमारी सामान्य सत्ता में उसका अधिकांश अवचेतन रहता है अतः उसे मन, प्राण, शरीर की इस सामान्य सन्तुलन-स्थिति में नहीं पाया जा सकता । निम्नतर सचेतन प्रकृति अपनी सभी क्रियाओं में अहंकार से बंधी रहती है, व्यष्टिभाव के खूंटे से तिहरी जंजीर से बंधी रहती है । एकमात्र अतिमानस ही विविधता के बीच एकत्व पर अधिकार रखता है ।

 

    तीसरी कठिनाई है विकासशील सत्ता में शक्ति और चेतना के बीच विभाजन । पहले तो वह विभाजन है जिस स्वयं क्रम-विकास ने अपने तीन उत्तरोत्तर रूपायनों - भौतिक, प्राण और मन -में खड़ा किया है जिनमें हर एक के काम करने का अपना विधान है । प्राण शरीर के साथ लड़ता रहता है, वह उसे बाधित करके अपनी सीमित सामर्थ्य से जीवन की कामनाओं, आवेगों, तुष्टियों और मांगों की तृप्ति करने की कोशिश करता है, लेकिन यह किसी अमर दिव्य शरीर के लिये ही संभव है । और शरीर -अत्याचारपीड़ित और दास बना हुआ शरीर, कष्ट पाता और सदा प्राण की मांगों के विरुद्ध मूक विद्रोह करता रहता है । मन बाकी दोनों के साथ युद्ध करता है और कभी प्राणिक अनुरोधों पर लगाम लगाता और शरीर के ढांचे को प्राण की कामनाओं, आवेगों और हाक-हांककर थका देनेवाली ऊर्जाओं से बचाने की कोशिश करता है । वह प्राण पर भी अधिकार करने की कोशिश करता है और उसकी ऊर्जा का उपयोग अपनी लक्ष्य-सिद्धि के लिये, मन की अपनी क्रियाओं के अधिकाधिक उल्लास के लिये, मानसिक, सौंदर्यग्राही, भावमय उद्देश्यों की पूर्ति के लिये और मानव जीवन में उन्हें चरितार्थ करने के लिये करता है । प्राण भी देखता है कि वह दास बन गया है और उसका दुरुपयोग हो रहा है । वह अपने ऊपर डटे हुए अज्ञानी अर्द्ध बुद्धिमान् अत्याचारी के विरुद्ध प्रायः ही विद्रोह करता रहता है । यह हमारे अंगों का ऐसा संघर्ष है जिसका सन्तोषजनक समाधान मन के बस का नहीं है क्योंकि उसे एक ऐसी समस्या से पाला पड़ता है जो उसके लिये असाध्य है,

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वह है मर्त्य प्राण और शरीर में अमरता पाने की अभीप्सा । वह या तो समझौते के एक लंबे क्रम तक पहुंच सकता है या फिर जड़वादी के साथ हमारी प्रतीयमान सत्ता की मर्त्यता की अधीनता को स्वीकार करता हुआ या संन्यासी अथवा धार्मिक व्यक्ति की तरह पार्थिव जीवन का परित्याग और तिरस्कार करता हुआ जीवन के अधिक सुखद और अधिक आरामदेह क्षेत्रों में आश्रय लेकर समस्था से पिंड छुड़ा सकता है । किंतु सच्चा समाधान है मन के परे ऐसे तत्त्व को पाने में जिसका धर्म है अमरता और उसके द्वारा अपने जीवन की मर्त्यता पर विजय पाना ।

 

    लेकिन साथ ही हमारे अन्दर प्रकृति की शक्ति और सचेतन सत्ता के बीच आधारभूत विभाजन भी है जो इस असमर्थता का मौलिक कारण है । न केवल मानसिक, प्राणिक, और भौतिक सत्ताओं के बीच परस्पर विभाजन है बल्कि उनमें से हर एक अपने-आपमें भी विभक्त है । शरीर का सामर्थ्य उसके भीतर रहनेवाली सहज प्रवृत्तिमय आत्मा या सचेतन सत्ता से यानी भौतिक पुरुष से कम है; प्राणिक शक्ति का सामर्थ्य आवेगमय आत्मा से, प्राणिक सचेतन सत्ता से या उसके अन्दर स्थित पुरुष से कम है; मानसिक ऊर्जा का सामर्थ्य उसके अन्दर रहनेवाली बौद्धिक तथा भावनामय आत्मा से, मनोमय पुरुष से कम है । क्योंकि अन्तरात्मा वह आन्तरिक चेतना है जो अपनी पूर्ण आत्मसिद्धि के लिये अभीप्सा करती है इसलिये वह सदा ही तात्कालिक व्यक्तिगत रूपायन से आगे निकल जाती है और वह शक्ति, जिसने रूपायन में अपनी एक विशिष्ट स्थिति अपनायी है, वह अन्तरात्मा द्वारा हमेशा उसके लिये धकेली जाती है जो उस स्थिति विशेष के लिये असामान्य है, उससे परे है । इस भांति हमेशा धकेले जाने के कारण उसे उत्तर देने में बहुत कष्ट होता है और वर्तमान क्षमता से अधिक क्षमता की ओर विकसित होते हुए तो और भी अधिक । इस पुरुष-त्रयी की मांगों को पूरा करने में वह उद्विग्र हो जाती है और सहज वृत्ति को सहज वृत्ति के विरुद्ध, आवेग को आवेग के विरुद्ध, भाव को भाव के विरुद्ध, विचार को विचार के विरुद्ध खड़ा करने में, कभी इसको संतुष्ट करने, उसको नकारने, फिर पछताने और जो किया जा चुका है उसपर वापिस आने, व्यवस्था करने, क्षतिपूर्ति करने और फिर से व्यवस्था करने के लिये बाधित होती है । यह अनन्त कालतक चलता रहता है परन्तु एकत्व के किसी तत्त्व तक नहीं पहुंचता । और फिर मन में जो चित्-शक्ति है जिसे सामंजस्य और एकता लानी चाहिये वह न केवल ज्ञान और इच्छा शक्ति में सीमित है बल्कि ज्ञान और इच्छा में प्रायः विरोध और वैषम्य रहता है । एकत्व का तत्त्व ऊपर अतिमानस में रहता है क्योंकि केवल वहीं समस्त विविधताओं में सचेतन एकत्व है । केवल वहीं इच्छा शक्ति और ज्ञान समान और संपूर्ण सामंजस्य में रहते हैं । वहीं चेतना और शक्ति अपने दिव्य समीकरण तक पहुंचती हैं ।

 

    मनुष्य विकास करता हुआ जितना ही आत्म-सचेतन और यथार्थतः विचारशील

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प्राणी बनता जाता है उतना ही वह अपने अंगों के इस सम्पूर्ण विरोध और वैषम्य के बारे में तीव्र रूप में अभिज्ञ होता जाता है और वह अपने मन, प्राण और शरीर का सामंजस्य, ज्ञान, इच्छा-शक्ति और भावना का सामंजस्य, अपने सभी अंगों का सामंजस्य खोजता है । कभी-कभी यह कामना एक ऐसे कामचलाऊ समझौते पर पहुंच कर ही रुक जाती है जो अपने साथ एक सापेक्ष शांति ले आता है । लेकिन समझौता मार्ग पर एक पड़ाव ही हो सकता है क्योंकि भीतर आसीन देव अन्तत: ऐसे पूर्ण सामंजस्य से कम में संतुष्ट न होंगे जो हमारी बहुमुखी शक्यताओं के सर्वांगीण विकास को अपने अन्दर लिये हुये न हो । इससे कम तो समस्या का समाधान नहीं, उसे टालना होगा । या फिर वह केवल एक अस्थायी समाधान होगा जो आत्मा के सतत आत्म-संवर्धन और आरोहण में एक विश्रामस्थल के जैसा होगा । इस प्रकार का पूर्ण सामंजस्य आवश्यक शर्तों के रूप में पूर्ण मानसिकता, प्राणशक्ति की पूर्ण क्रीड़ा और पूर्ण भौतिक जीवन की मांग करता है । लेकिन जो मूलतः है ही अपूर्ण उसके अन्दर हम पूर्णता का तत्त्व और पूर्णता की शक्ति कहां पायेंगे ? मन की जड़ें विभाजन और परिसीमन में हैं, वह हमें यह त्तत्त्व नहीं दे सकता और न प्राण और शरीर ही यह दे सकते हैं, वे विभाजनकारी और सीमाकारी मनकी ऊर्जा और उसका ढांचा हैं । पूर्णता का तत्त्व और पूर्णता की शक्ति हैं तो अवचेतन में परन्तु हैं अपरा माया के आच्छादन या आवरण में लिपटे हुए, वे एक मूक पूर्वाभास की तरह, अनुपलब्ध आदर्श के रूप में उभर रहे हैं । अतिचेतन में वे खुले हुए प्रतीक्षा करते हैं, शाश्वत रूप में उपलब्ध होते हैं लेकिन फिर भी हमारे आत्म-अज्ञान के पर्दे से हमसे पृथक् रहते हैं । तो हमें सामंजस्यकारी शक्ति और ज्ञान की खोज ऊपर करनी होगी न कि अपनी वर्तमान अवस्था में और न ही उससे नीचे ।

 

    इसी तरह जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता है वैसे-वैसे उसे जगत् के साथ अपने सम्बन्ध को शासित करनेवाले विरोध और अज्ञान की तीव्र रूप में अभिज्ञता होती जाती है, और यह उसके बारे में तीव रूप से असहिष्णु हो उठता है और वह सामंजस्य, शान्ति, आनन्द और एकत्व के तत्त्व को पाने के लिये अधिकाधिक जोर लगाता है । यह भी उसे ऊपर से ही मिल सकता है । क्योंकि केवल तभी जब एक ऐसे मन का विकास हो जाये जो दूसरों के मनों का वैसा ही ज्ञान रखता हो जैसा उसका अपना है, और जो हमारे पारस्परिक अज्ञान और गलतफहमियों से मुक्त हो, जब ऐसी इच्छाशक्ति का विकास हो जाये जो दूसरों की इच्छा-शक्ति को अनुभव करती और उनके साथ एकात्म हो जाती हो, जब ऐसे भावुक हृदय का विकास हो जाये जो दूसरों के भावों को अपने ही भावों की भांति अपने अन्दर रखता हो, जब एक ऐसी प्राण-शक्ति का विकास हो जाये जो दूसरों की ऊर्जाओं को अपनी ही ऊर्जाओं की भांति अनुभव करती और स्वीकार करती हो और अपनी ही ऊर्जाओं

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की भांति उनकी भी परिपूर्ति करना चाहती हो, जब एक ऐसे शरीर का विकास हो जाये जो बन्दीगृह की दीवार और जगत् के विरुद्ध आत्म-रक्षा न हो, परन्तु यह सब 'ज्योति' और 'सत्य' के विधान के अन्तर्गत हो -ये 'ज्योति' और 'सत्य' हमारे और दूसरों के मनों, इच्छा-शक्तियों, भावों और प्राणिक ऊर्जाओं की भटकनों और भूलों से, अत्यधिक पाप और मिथ्यात्व से परे होंगे -केवल तभी आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से मनुष्य का जीवन अपने साथी प्राणियों के साथ एक हो सकता और व्यष्टि अपनी वैश्व आत्मा को फिर से पा सकता हैं । अवचेतन को यह सर्वमय जीवन प्राप्त है और अतिचेतन को भी, लेकिन वहां ऐसी अवस्थाओं में प्राप्त है जो इसे आवश्यक बना देती हैं कि हमारी गति ऊर्ध्वमुखी हो । कारण उन देव की ओर नहीं जो ''निश्चेतन समुद्र में छिपे हुए हैं, जहां अंधकार अंधकार में लिपटा हुआ है'' बल्कि उन देव की ओर जो शाश्वत ज्योति के समुद्र में, हमारी सत्ता के उच्चतम आकाश में आसीन हैं, उनकी ओर आदिकाल में शुरू हुआ यह संवेग बढ़ रहा है और यह विकासमान आत्मा को ऊपर की ओर बढ़ाता हुआ हमारी मानव जाति के स्तर तक ले आया है ।

 

    यदि जाति को कहीं रास्ते में ही नहीं गिर जाना और विजय को उत्सुक प्रसविनी दिव्य माता की किन्हीं और नयी सृष्टियों के लिये नहीं छोड़ देना है तो उसे इस आरोहण के लिये अभीप्सा करनी चाहिए । निश्चय ही यह आरोहण प्रेम, मानसिक प्रकाश, अधिकार और आत्मदान की प्राणिक प्रेरणा के ही रास्ते से होगा, किन्तु उसे और भी परे अतिमानस के एकत्व की ओर ले जायेगा जो उनका अतिक्रमण और उनकी पूर्तिr करता है । मानव जाति को अपने चरम श्रेय और मुक्ति की खोज अपने मानव जीवन को, अपनी सत्ता और उसके सारे अंगों में उन एकमेवाद्वितीय के साथ और सबके साथ सचेतन एकत्व की अतिमानसिक उपलब्धि के आधार पर प्रतिष्ठित करके करनी होगी । इसीको हमने जीवन के 'परमदेव' की ओर आरोहण में उसकी चतुर्थ भूमिका कहा है ।

 

 तम आसीत् तमसा गूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलम्-ऋग्वेद १०.१२९.३

 २या रोचने परस्तात्सूर्यस्य यश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आप: ।-ऋग्वेद ३.२२.३ वे जल जो कि सूर्य से ऊपर ज्योनिर्मय लोकों में हैं और वे जो कि नीचे रहते हैं ।

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अध्याय २३

 

मनुष्य में दोहरी आत्मा

 

          अड़्ष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा ।।

 

          पुरुष यानी आन्तरिक आत्मा आकार में मनुष्य के अंगूठे से बड़ा नहीं

                                                     कठोपनिषद् ४.१२

                                              श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.१७

 

           य इमं मध्वर्द वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।

           ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।।

 

           जो इस आत्मा को जानता है जो जीवन के मधु का खानेवाला है

           और जो कुछ है और होगा उसका स्वामी है उसमें कोई जुगुप्सा नहीं

           रहती ।

                                                      कठोपनिषद् ४.५

 

           तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत: ।।

 

           जो हर जगह एकत्व को देखता है उसे शोक कहा से होगा, मोह

           कहां से होगा ?

                                                    ईशोपनिषद् ७

 

            आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।।

            जिसने शाश्वत को, ब्रह्म को, आनन्द को पा लिया है उसे कहीं से

            भय नहीं रहता ।

 

                                                 तैत्तिरीय उपनिषद् २.९

 

 

    हम देख आये हैं कि प्राण के प्रथम चरण की विशेषता है मूक अचेतन प्रेरणा या प्रवृत्ति, भौतिक या परमाणविक जीवन में अंतर्लीन इच्छा की एक शक्ति जो न तो स्वतंत्र है न स्वयं अपनी या अपने कार्यों की या उनके परिणामों की मालिक है बल्कि पूरी तरह वैश्व शक्ति के अधिकार में है, जिसमें वह व्यक्तित्व के अंधेरे, अरूपायित बीज के रूप में ऊपर उठता है । दूसरे चरण का मूल है कामना जो अधिकार करने के लिये तो उत्सुक होती है पर अपनी क्षमता में सीमित होती है, तीसरे की कली है प्रेम जो अधिकार करना भी चाहता है और अधिकार में होना भी, जो लेना भी चाहता है और अपने-आपको देना भी । चौथा सुन्दर फूल उसकी पूर्णता का चिह्न है । हमने इसके बारे में जो धारणा बनायी है उसके अनुसार यह आद्य इच्छा का शुद्ध, संपूर्ण आविर्भाव, मध्यवर्ती कामना की आलोकित परिपूर्ति,

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जीवात्माओं की दिव्य एकता जो अतिमानसिक जीवन का आधार है उसमें अधिकृत होने की स्थिति के एक बन जाने के कारण प्रेम के सचेतन आदान-प्रदान की उच्च और गभीर तृप्ति है । अगर हम सावधानी के साथ इन पदों की छान-बीन करें तो हम देखेंगे कि ये चीजों के वैयक्तिक और वैश्व आनंद के लिये पुरुष की, अन्तरात्मा की एषणा के रूप और पड़ाव हैं । प्राण का आरोहण स्वभावत: चीजों में उपस्थित दिव्य आनन्द का आरोहण है जो जड़तत्त्व में अपनी मूक गर्भावस्था में से दिशा-विपर्ययों और विरोधों के बीच में से होता हुआ आत्मा में अपनी ज्योतिर्मयी परम गति को पाता है ।

 

    जगत् जो कुछ है उससे भिन्न नहीं हो सकता क्योंकि जगत् सच्चिदानन्द और सच्चिदानन्द की चेतना की प्रकृति का एक छद्मवेशी रूप है अतः वह चीज जिसमें उसकी शक्ति को हमेशा अपने-आपको खोजना और पाना चाहिये, वह है दिव्य आनन्द, सर्वव्यापक आत्मानन्द । चूंकि जीवन भगवान् की चित्-शक्ति की ऊर्जा है इसलिये उसकी सभी गतिविधियों का रहस्य होना चाहिये प्रच्छन्न आनन्द जो सभी चीजों में अंतर्निहित है, जो एक ही साथ उसकी सभी गतिविधियों का कारण, हेतु और विषय है । और अगर अहंकारमय विभाजन के कारण वह आनन्द न मिले या उसे पर्दे के पीछे छिपा लिया जाये, स्वयं उसका विपरीत तत्त्व उसका प्रतिनिधित्व करे जैसे सत्ता मृत्यु के अवगुंठन में होती है, चेतना निश्चेतना का रूप धारण कर लेती है और शक्ति अपने-आपको असमर्थता के वेश में चिढ़ाती है, तो जो जीता है उसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता । न ही वह गति से विश्राम ले सकता है और न गति को सम्पन्न कर सकता है सिवाय इसके कि वह इस वैश्व आनन्द को अपनी पकड़ में ले ले जो एक ही साथ, स्वयं अपनी तथा मौलिक सत्ता का गुप्त पूर्ण आनन्द है, वह सबको घेरे हुए, अनुप्राणित करनेवाले, सबको सहारा देनेवाले परात्पर, अन्तर्यामी सच्चिदानन्द का आनन्द है । अतः आनन्द को पाना ही आधारभूत आवेग और जीवन का अभिप्राय है; उसे खोजना, अधिकार में करना और परिपूर्ण करना ही उसका पूरा-पूरा उद्देश्य है ।

 

    लेकिन हमारे अन्दर यह आनन्द का तत्त्व है कहां ? जैसे चित्-शक्ति का तत्त्व अपनी वैश्व भूमिका के लिये प्राण को अभिव्यक्त करता एवं उपयोग में लाता और अतिमानस तत्त्व मन को अभिव्यक्त करता एवं व्यवहार में लाता है उसी तरह यह आनन्द हमारी सत्ता की किस भूमिका में से होकर वैश्व क्रिया में अपने-आपको अभिव्यक्त करता और परिपूर्ण करता है ? हमने विश्व के रचयिता दिव्य पुरुष के एक चतुर्विध तत्त्व को श्रेणीबद्ध किया है -सत्, चित्-शक्ति, आनन्द और अतिमानस । हमने देखा है कि अतिमानस भौतिक विश्व में सर्वव्यापक परंतु पर्दे के पीछे है । वह वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे रहता और वहां अपने-आपको गुह्य रूप से प्रकट करता है लेकिन अपना कार्य-संपादन करने के लिये अपनी गौण

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भूमिका मन का ही उपयोग करता हैं । दिव्य चित्-शक्ति भौतिक विश्व में सर्वव्यापक है लेकिन है पर्दे के पीछे । वह वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे गुप्त रूप से काम करती और अपने-आपको विशिष्ट रूप से अपने गौण तत्त्व, प्राण के द्वारा प्रकट करती है और यद्यपि हमने अभी तक जड़तत्त्व की अलग से परीक्षा नहीं की है फिर भी हम देख सकते हैं कि दिव्य सर्व सत्ता भी भौतिक विश्व में सर्व-व्यापक है लेकिन है पर्दे के पीछे, वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे छिपी हुई और आरंभ में अपने-आपको गौण भूमिका 'भौतिक द्रव्य' द्वारा अभिव्यक्त करती है । ठीक उसी भांति दिव्य आनंद का तत्त्व भी विश्व में सर्वव्यापक होगा, निश्चय ही वह पर्दे के पीछे होगा और चीजों के वास्तविक दृश्य के पीछे अपने-आप पर अधिकार किये होगा किंतु फिर भी हमारे अंदर अपने ही किसी ऐसे गौणतत्त्व के द्वारा अभिव्यक्त होगा जिसमें वह छिपा हुआ है और जिसके द्वारा उसे पाना होगा और विश्व के कार्य में सिद्ध करना होगा ।

 

    वह तत्त्व हमारे अंदर कोई ऐसी चीज है जिसे हम कभी-कभी विशेष अर्थ में अंतरात्मा यानी चैत्य तत्त्व कहते हैं जो प्राण या मन नहीं है और शरीर तो बिलकुल ही नहीं । वह इन सबके सार को उनके विशेष आत्मानंद की ओर, ज्योति की ओर, प्रेम, हर्ष और सौंदर्य की ओर और सत्ता की एक परिमार्जित शुद्धता की ओर खोलने और प्रस्फुटित करने के लिये अपने अंदर धारण किये रहता है । फिर भी, वस्तुत: हमारे अन्दर दोहरी अंतरात्मा या चैत्य पुरुष है, उसी तरह जैसे हमारे अंदर अन्य प्रत्येक वैश्व तत्त्व भी दोहरा होता है । क्योंकि हमारे अंदर दो मन होते हैं, एक तो अभिव्यक्त विकसनशील अहंकार का सतही मन, भौतिक तत्त्व में से बाहर निकलते हुए हमारी अपनी बनायी हुई सतही मानसिकता और दूसरा एक अन्तस्तलीय मन जो हमारे वास्तविक मानसिक जीवन से और उसकी कठोर सीमाओं से अवरुद्ध नहीं होता । यह वृहत् शक्तिशाली और प्रकाशमान चीज है, वह, हम मानसिक व्यक्तित्व के जिस बाहरी रूप को अपना रूप समझने की भूल करते हैं, उसके पीछे रहनेवाला सच्चा मनोमय पुरुष है । इसी तरह हमारे दो प्राण हैं एक बाहरी जो भौतिक शरीर में अन्तर्लीन है, अपने भूतपूर्व विकास के द्वारा भौतिक के साथ बंधा है, जो जीता है, पैदा हुआ था और मर जायेगा, दूसरा है प्राण की अन्तस्तलीय शक्ति जो हमारे भौतिक जन्म-मरण की तंग सीमाओं में बंधी नहीं है बल्कि वह जीने के जिस रूप को हम अज्ञानवश सच्चा जीवन मानते हैं उसके पीछे रहनेवाला सच्चा प्राण-पुरुष है । हमारी भौतिक सत्ता के बारे में भी यही दोहरापन है क्योंकि हमारे शरीर के पीछे एक सूक्ष्मतर भौतिक अस्तित्व है जो केवल हमारे भौतिक ही नहीं बल्कि प्राणमय और मनोमय कोषों को भी उपादान द्रव्य प्रदान करता है, अतः यहीं हमारा यथार्थ उपादान द्रव्य है, वही इस भौतिक रूप को सहारा देता है जिसे हम भूल से अपनी आत्मा का संपूर्ण शरीर मान बैठते हैं ।

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इसी तरह हमारे अंदर दोहरी चैत्य सत्ता है । एक तो सतही कामना-पुरुष जो हमारी प्राणिक लालसाओं, हमारे भावावेगों, रसवृत्ति में और बल, ज्ञान तथा सुख के लिये मन में जो चाह है उसमें क्रिया करता है और एक अन्तस्तलीय चैत्य सत्ता है, प्रकाश, प्रेम और हर्ष की शुद्ध शक्ति है जो सत्ता का परिमार्जित सारतत्त्व है, यह चैत्य अस्तित्व के बाहरी रूप के पीछे रहनेवाला हमारा सच्चा पुरुष है लेकिन साधारणत: उस बाहरी रूप को ही सच्चे पुरुष के नाम से सम्मानित किया जाता है । इस ज्यादा विशाल और ज्यादा शुद्ध चैत्य सत्ता का कोई प्रतिबिंब जब सतह पर आ जाता है तभी हम किसी मनुष्य के बोर में कहते हैं कि उसमें आत्मा है और जब यह प्रतिबिंब बाहरी चैत्य जीवन में अनुपस्थित रहता है तो हम कहते हैं कि उसमें आत्मा नहीं है ।

 

    हमारी सत्ता के बाहरी रूप हमारे छोटे-से अहंकारमय जीवन के रूप हैं जब कि अन्तस्तलीय हमारे अधिक बड़े और सच्चे व्यक्तित्व के रूपायन हैं । अत: यही हमारी सत्ता का वह गुप्त भाग है जिसमें हमारा व्यक्तित्व हमारे वैश्व भाव के नजदीक रहता है, उसका स्पर्श करता, उसके साथ हमेशा संबंध रखता और आदान-प्रदान करता रहता है । अन्तस्तलीय मन हमारे अंदर वैश्व मन के वैश्व ज्ञान की ओर खुला रहता है, हमारे अंदर अन्तस्तलीय प्राण वैश्व प्राण की वैश्व शक्ति की ओर और अन्तस्तलीय भौतिक वैश्व भौतिक पदार्थ के वैश्व शक्ति-रूपायन की ओर खुला रहता है । जो मोटी दीवारें इन चीजों से हमारे सतही मन, प्राण और शरीर को अलग करती हैं और प्रकृति जिन्हें इतनी मुश्किल से भेदती है -और वह भी इतने अधूरे रूप से इतने कौशल के साथ, फिर भी भद्दे भौतिक उपायों से करती है -ये दीवारें वहां अन्तस्तलीय सत्ता में एक ही साथ विभाजन और संचारण की सूक्ष्म साधन हैं । इसी भांति हमारे अंदर अन्तस्तलीय अन्तरात्मा वैश्व आनन्द की ओर खुली रहती है जिसे वैश्व अंतरात्मा अपने अस्तित्व और उन बहुत सारी अंतरात्माओं के अस्तित्व में, जो उसका प्रतिरूप है, पाती हैं और मन, प्राण और जड़ की जिन क्रियाओं के द्वारा प्रकृति उनके खेल और विकास का साधन हो जाती है, उन क्रियाओं में पाती है लेकिन बाहरी सतह की अंतरात्मा इस वैश्व आनन्द की ओर से बड़ी मोटी अहंकारमय दीवारों से बंद रहती है निःसंदेह इन दीवारों में प्रवेश पाने के द्वार हैं लेकिन उनमें से होकर प्रवेश करने में दिव्य वैश्व आनन्द के स्पर्श क्षीण और विकृत हो जाते हैं या उन्हें स्वयं अपने विरोधी तत्त्वों के मुखौटे पहनकर आना पड़ता है ।

 

    मतलब यह निकला कि इस सतही या कामना पुरुष में कोई आंतरात्मिक जीवन नहीं है बल्कि एक चैत्य विकृति है और चीजों के स्पर्श को गलत रूप में ग्रहण किया जाता है । जगत् का रोग यह है कि व्यक्ति अपनी सच्ची अंतरात्मा को नहीं पा सकता और इस रोग का मूल कारण यह है कि व्यक्ति जिस जगत् में रहता है

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उस जगत् की यथार्थ अंतरात्मा उसे बाहरी चीजों के आलिंगन में नहीं मिल पाती । वह वहां सत्ता के सार को, शक्ति के सार को, सचेतन सत्ता और आनन्द के सार को पाने का प्रयत्न तो करता है परंतु इनके स्थान पर उसे विरोधी स्पर्शों और संस्कारों की भीड़ मिलती है । अगर उसे वह सार मिल जाये तो वह स्पर्शों और संस्कारों की इस भीड़ में भी उस एकमेव विश्वव्यापी सत्ता, शक्ति, सचेतन जीवन और आनंद को पा लेगा । ऊपर से दीखनेवाली जो विपरीतताएं हैं वे भी इन संपर्कों के द्वारा हमतक पहुंचनेवाले सत्य के एकत्व और सामंजस्य में संगति पा लेंगी । साथ-ही-साथ वह अपनी सच्ची अंतरात्मा और उसके द्वारा अपनी आत्मा को पा लेगा क्योंकि सच्ची अंतरात्मा उसके स्व की प्रतिनिधि है और उसके स्व और जगत् की आत्मा एक है । लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि उसके विचारशील. मन में, भावुक हृदय में, वस्तुओं के स्पर्श को उत्तर देनेवाली इन्द्रियों में अहंकारमय अज्ञान निवास करता है । वह जगत् की वस्तुओं के प्रति अनुक्रिया करने में जगत् का साहस और पूरी हार्दिकता से आलिंगन नहीं करता बल्कि इसके अनुसार कि वह स्पर्श सुखकर है या असुखकर, आराम देता है या भय, संतोषजनक है या असंतोषजनक, वह आगे बढ़ने का, पीछे सिकुड़ने का, सावधानी के साथ नजदीक आने या उत्सुकता के साथ तेजी से आगे बढ़ने का, विषाद या असंतोष या भय या क्रोध से पीछे हटने का बदलता हुआ क्रम चलाता रहता है । यह कामना-पुरुष ही है जो जीवन को गलत रूप से ग्रहण करने के कारण रस की, वस्तुओं में विद्यमान आनन्द की तिहरी विकृति का कारण बन जाता है जिससे वह रस सत्ता के शुद्ध स्वरूपवाले आनन्द को मूर्त रूप देने की जगह असमानता के साथ सुख, कष्ट और उदासीनता की तीन स्थितियों में प्रकट होता है ।

 

    जब हम जगत् के साथ संबंध की दृष्टि से अस्तित्व के आनंद पर विचार कर रहे थे तब हमने देखा था कि हमारे सुख-दुःख और उदासीनता के मानकों में कोई निरपेक्षता या अनिवार्य तर्कसंगति नहीं है । उनका निर्धारण पूरी तरह ग्रहण करनेवाली चेतना की आन्तरिक भावना करती है और यह कि सुख-दुःख दोनों की मात्रा को अधिक-से-अधिक ऊंचाईतक उठाया जा सकता है या कम-से-कम मात्रातक घटाया जा सकता है या उन्हें उनकी प्रत्यक्ष प्रकृति में पूरी तरह मिटाया तक भी जा सकता है । सुख दुःख हो सकता है और दुःख सुख हो सकता है क्योंकि अपनी गुप्त वास्तविकता में वे एक ही चीज हैं जिसे संवेदनों और भावावेगों में अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाता है । उदासीनता या तो बाहरी तल के कामना-पुरुष का अपने मन, संवेद्न, भावावेग और लालसाओं में वस्तुओं के रस के प्रति उपेक्षा या उसे ग्रहण करने में या उत्तर देने में असमर्थता या कोई भी सतही उत्तर देने से इंकार है या फिर इच्छा-शक्ति द्वारा सुख या दुःख को निकाल भगाना और उन्हें कुचल कर अस्वीकृति की उदासीनता के रंग में रंग देना है । इन सभी

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अवस्थाओं में होता यह है कि या तो किसी ऐसी चीज का, जो अभीतक अन्तस्तलीय रूप में सक्रिय है, सतह पर अनूदित करने या किसी भी भावात्मक रूप में प्रकट करने से एक निश्चयात्मक नकार होता है या नकारात्मक अनिच्छा या असमर्थता होती है ।

 

    जैसे अब हम मनोवैज्ञानिक निरीक्षण और परीक्षण से यह जानते हैं कि अन्तस्तलीय मन वस्तुओं के उन सब स्पर्शों को ग्रहण करता और याद रखता है जिनकी सतही मन अवहेलना करता है, उसी तरह हम देखेंगे कि अन्तस्तलीय अंतरात्मा उन वस्तुओं की अनुभूति के रस को उत्तर देती है जिसे सतही कामना-पुरुष अरुचि और इंकार द्वारा अस्वीकार करता है या जिसकी तटस्थ अस्वीकृति द्वारा अवहेलना करता है । आत्मज्ञान तबतक असंभव है जबतक हम अपने सतही जीवन के पीछे नहीं जाते क्योंकि यह सतही जीवन तो केवल कुछ चुने हुए बाहरी अनुभवों का परिणाम मात्र, एक अपूर्ण ध्वनि-पट्ट या हम जो बहुत कुछ हैं उसमें से कुछ हिस्से का जल्दबाजी में किया गया अयोग्य और खंडित अनुवाद है । तो आत्मज्ञान तबतक असंभव है जबतक हम इसके पीछे न जायें और अवचेतन मन में साहुल को नीचे न उतारें और अपने-आपको अतिचेतन की ओर न खोलें ताकि अपनी बाहरी सतह के जीव के साथ उनके संबंध को जान सकें; क्योंकि हमारा जीवन इन तीन चीजों के बीच घूमता रहता है और उन्हीं में अपनी समग्रता पाता है । हमारे अंदर का अतिचेतन जगत् की आत्मा और अंतरात्मा के साथ एक होता है और वह किसी प्रतीयमान विविधता से शासित नहीं होता । अतः वह चीजों के सत्य और चीजों के आनंद को उनकी परिपूर्णता में अपने अधिकार में रखता है । जिसे अवचेतन कहा जाता है और जिसके प्रकाशमान मस्तक को हम अन्तस्तलीय चेतना कहते हैं वह, इसके विपरीत, अनुभव का एक उपकरण है, सच्चा स्वामी नहीं । वह व्यावहारिक रूप से जगत् की आत्मा और अंतरात्मा के साथ एक नहीं होता बल्कि अपने वैश्व अनुभव के द्वारा उसकी ओर खुला रहता है । अन्तस्तलीय अंतरात्मा भीतर से वस्तुओं के रस से अवगत होती है और सब प्रकार के संपर्कों में समान रूप से आनंद लेती है । साथ ही वह सतही कामना-पुरुष के मूल्यों और मानकों के बारे में भी सचेतन होती है और स्वयं अपनी सतह पर सुख-दुःख और उदासीनता के अनुरूप स्पर्शों को ग्रहण करती है किंतु सबमें समान आनंद लेती है । दूसरे शब्दों में हमारे भीतर की वास्तविक अंतरात्मा सभी अनुभूतियों में आनंद लेती है, उनसे बल, सुख और ज्ञान जुटाती है और उनके द्वारा अपने भंडार और

 

    १वास्तविक अवचेतन एक नीचे की घटी हुई चेतना है जो निश्चेतना के नजदीक है । अन्तस्तलीय हमारे सतही जीवन से अधिक बड़ी चेतना है । लेकिन दोनों ही हमारी सत्ता के भीतरी प्रदेश की चीजें हैं । हमारे बाहरी तल को उनकी अभिज्ञता नहीं रहती अतः हमारी सामान्य धारणा और बातचीत, दोनों में बड़बड़ हो जाती है ।

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अपनी प्रचुरता को बढ़ाती है । हमारे अंदर की यही वास्तविक अंतरात्मा जुगुप्साशील कामना-मन को बाधित करती है कि वह, उसे जो कुछ दुःखदायक लगता है उसे भी सहे बल्कि उसमें सुख पाये और जो सुखद लगता है उसे त्याग दे, अपने मूल्यों में हेर-फेर करे या उन्हें उलट दे, चीजों मे समता का बोध प्राप्त करे-चाहे वह उदासीनता में हो या आनंद में, सत्ता के वैविध्य के आनंद में । और वह यह इसलिये करती है क्योंकि वैश्व पुरुष उसे इस बात के लिये बाधित करता है कि वह सब तरह के अनुभव से अपना विकास करे ताकि वह प्रकृति में बढ़ सके । अन्यथा, अगर हम केवल सतही कामना-पुरुष में रहते तो वनस्पति या पत्थर से अधिक प्रगति या परिवर्तन न कर पाते जिनमें कि प्राण अपने बाहरी तल में सचेतन नहीं होता अत: जिनकी अचलता या अस्तित्व के बंधे क्रम में चीजों की गुप्त अंतरात्मा को ऐसा कोई साधन नहीं मिलता जिसके द्वारा वह प्राण का, उसकी जन्म से चली आ रही, स्थिर, निश्चित और संकुचित सीमा से उद्धार कर सके । कामना-पुरुष को अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो वह हमेशा उन्हीं खांचों पर चक्कर लगाता रहेगा ।

 

    पुराने दर्शन-शास्त्रों की दृष्टि से दुःख और सुख, बौद्धिक सत्य और मिथ्या, बल और असमर्थता जन्म और मरण की तरह ऐसे जुड़े हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । अतः उनसे बचने का एकमात्र संभव उपाय हैं संपूर्ण उदासीनता । विश्व- सत्ता की उत्तेजनाओं के प्रति भावशून्य प्रतिक्रिया । लेकिन एक सूक्ष्मतर मनोवैज्ञानिक ज्ञान हमें बतलाता है कि यह दृष्टि जो केवल जीवन के सतही तथ्यों पर आधारित है, वह समस्या की सभी संभावनाओं को समाप्त नहीं कर देती । यह संभव है कि हम सच्ची अंतरात्मा को सतह पर लाकर सुख-दुःख के अहंकारात्मक मानकों के स्थान पर एक सम, सर्वालिंगनकारी, वैयक्तिक-निर्वैयक्तिक आनंद को स्थापित कर दें । प्रकृतिप्रेमी यही करता है जब वह प्रकृति की सभी चीजों में सब जगह आनंद लेता है, अपने अंदर विकर्षण और भय या केवल पसंद-नापसंद को घुसने नहीं देता । वह उसमें भी सुंदरता को देखता है जो औरों को तुच्छ, महत्त्वहीन, नग्न और जंगली, भयंकर और वीभत्स लगता है । जिस तरह साधारण मानव विश्व-लीला के रस को पाने की कोशिश किसी चीज से मुंह मोड़कर और किसी सुखदायक अनुभूति की ओर आकर्षित होकर करता है उसी तरह कलाकार और कवि भी सौंदर्यग्राही भाव या भौतिक रेखा या सौंदर्य के मानसिक रूप से या आंतरिक अर्थ और शक्ति से वैश्व लीला के रस को पाने की कोशिश करते हैं । ज्ञान का जिज्ञासु भगवान् का प्रेमी, जो अपने प्रेम पात्र को हर जगह पाता है, आध्यात्मिक पुरुष, बौद्धिक, इन्द्रियों में आसक्त, सौंदर्य रसिक -ये सब अपने-अपने तरीके से यहीं करते हैं । और अगर उन्हें उस ज्ञान, सौंदर्य, आनंद या दिव्यत्व को व्यापक रूप से पाना है तो उन्हें यही करना होगा । केवल उन भागों में जहां छोटा-

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सा अहंकार हमारे लिये बहुत प्रबल होता है, केवल हमारे भावात्मक या भौतिक हर्ष और शोक, हमारे जीवन के सुख-दुःख ही ऐसे हैं जिनके आगे हमारा कामना-पुरुष बहुत अधिक दुर्बल और भीरु होता है, वहां दिव्य सिद्धांत को लगाना अत्यधिक कठिन हो जाता है और कइयों को असंभव बल्कि वीभत्स और घिनौना प्रतीत होता है । यहां अहंकार का अज्ञान निर्वैयक्तिकता के सिद्धांत को लगाने से हिचकिचाता है जब कि वह उसे भौतिक विज्ञान, कला और एक तरह के अपूर्ण आध्यात्मिक जीवन में भी बहुत अधिक कठिनाई के बिना प्रयोग में लाता है क्योंकि वहां निर्वैयक्तिकता का नियम न तो उन कामनाओं पर आक्रमण करता है जिन्हें सतही पुरुष संजोये रखता है, न कामना के उन मूल्यों पर जिन्हें सतही मन निर्धारित करता है, जिनमें हमारा बाहरी जीवन अत्यधिक सक्रिय रूप से रुचि रखता है । अधिक स्वतंत्र और ऊंची गतिविधियों में चेतना और क्रिया के क्षेत्र-विशेष के अनुरूप हमसे केवल सीमित और विशिष्ट समता की और निवैंयक्तिकता की मांग की जाती है जब कि हमारे व्यावहारिक जीवन का अहंकारमय आधार हमारे लिये बचा रहता है । निचली गतियों में हमारे जीवन की सारी नींव को ही बदलना पड़ता है ताकि निर्वैयक्तिकता के लिये जगह बनायी जा सके, और यह कामना-पुरुष को असंभव लगता है ।

 

    हमारे अंदर सच्ची अंतरात्मा छिपी हुई है, इसे हमने अंतस्तलीय कहा है, यह शब्द भ्रामक है क्योंकि यह सक्रिय मन की देहली के नीचे नहीं है बल्कि यह अज्ञानी मन, प्राण, शरीर के मोटे पर्दे के पीछे अंतरतम हृदय के मंदिर में प्रज्ज्वलित रहती है । वह अन्तस्तलीय नहीं बल्कि पर्दे के पीछे है । यह पर्दे के पीछे रहनेवाली चैत्य सत्ता हमारे अंदर ईश्वर की सदा जलती रहनेवाली लौ है । हमारे अंदर के किसी भी आध्यात्मिक पुरुष के प्रति रहनेवाली वह घनी अचेतना भी, जो हमारी बाहरी प्रकृति को अंधेरा बना देती है, इस लौ को नहीं बुझा सकती । यह भगवान् से उत्पन्न लौ है और अज्ञान के अन्दर निवास करनेवाली ज्योतिर्मय वस्तु है जो उसमें तबतक बढ़ती रहती है जबतक वह उसे ज्ञान की ओर न मोड़ दे, वह छिपी हुई साक्षी और नियंता है, छिपी पथप्रदर्शिका है, सुकरात की डीमन; रहस्यवादी की आंतरिक ज्योति या आंतरिक ध्वनि है; यह वह है जो हमारे अंदर जन्म-जन्मांतर में बनी रहती और अविनश्वर हैं । मृत्यु, क्षय या विकार उसे छू नहीं सकते । यह भगवान् का ऐसा स्फुलिंग है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता । यह अजन्मी आत्मा नहीं है क्योंकि आत्मा व्यक्ति के जीवन की अध्यक्षता करते हुए भी सदा अपने वैश्व भाव और परात्परता से अभिज्ञ रहती है, फिर भी वह प्रकृति के रूपों में उसकी प्रतिनिधि है, वह व्यष्टिगत चैत्य पुरुष या अंतरात्मा है जो मन, प्राण और शरीर को

 

    सुकरात के अनुसार एक संरक्षक देवदूत जो देवता और मनुष्य के बचि बिचौले का काम करता है । -अनु

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धारण किये रहती है और हमारी मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म शारीरिक सत्ता के पीछे खड़ी रहती है और उनके विकास तथा अनुभव पर नजर रखती और उनसे लाभ उठाती है । मनुष्य में ये जो अन्य पुरुष-शक्तियां हैं, उसकी सत्ता की सत्ताएं हैं, उनका सच्चा स्वरूप भी पर्दे के पीछे रहता है लेकिन वे उन अस्थायी व्यक्तित्वों को प्रक्षिप्त करती हैं जिनसे हमारा बाहरी व्यक्तित्व बनता है और जिनकी मिली-जुली बाहरी क्रिया को और जिनकी स्थिति के रूप के आभास को हम अपना स्वरूप कहते हैं । यह अंतरतम सत्ता भी हमारे अंदर चैत्य पुरुष का रूप लेती हुई एक चैत्य व्यक्तित्व को सामने लाती है जो एक के बाद एक जीवन में बदलता, बढ़ता, विकसित होता है क्योंकि यही जन्म और मरण और मरण तथा जन्म के बीच का यात्री है, हमारी प्रकृति के अंग उसके बहुविध और बदलते हुए वस्त्र हैं । पहले-पहले चैत्य पुरुष मन, प्राण और शरीर के द्वारा, छिपी हुई, आंशिक और परोक्ष क्रिया ही कर सकता है क्योंकि उसकी आत्म-अभिव्यक्ति के साधन के रूप में प्रकृति के इन अंगों को विकसित करना होता है और वह उनका विकास होने तक लम्बे समय के लिये रुकने को विवश होता है । अज्ञान में पड़े मनुष्य को दिव्य चेतना के प्रकाश की ओर ले जाना उसका लक्ष्य है, वह अज्ञान में होनेवाले सभी अनुभवों का सारतत्त्व प्रकृति में जीव की वृद्धि का केन्द्र बनाने के लिये ले लेता है और बाकी को वह उपकरणों की भावी वृद्धि की सामग्री के रूप में लेता है जिनका उपयोग उसे तबतक करना होता है जबतक वे भगवान् के प्रकाशमय उपकरण बनने के लिये तैयार न हो जायें । यह गुप्त चैत्य सत्ता ही है जो हमारे अंदर सच्चा और मूल अंतःकरण है और यह नैतिकतावादी के निर्मित और रूढ़िगत अंतःकरण से ज्यादा गहरा है क्योंकि यहीं हमेशा सत्य, ऋत और सौंदर्य की ओर, प्रेम और सामंजस्य और हमारे अंदर जो भी दिव्य संभावना है उसकी ओर संकेत करता है और तबतक डटा रहता है जबतक ये चीजें हमारी प्रकृति की प्रधान आवश्यकताएं न बन जायें । हमारे अंदर यह चैत्य व्यक्तित्व ही है जो संत, मनीषी और द्रष्टा के रूप में खिलता है और जब वह अपनी पूरी सामर्थ्य पा लेता है तो सत्ता को आत्मा और भगवान् के ज्ञान की ओर, परम सत्य और परम शुभ की ओर, परम सौंदर्य, प्रेम और आनंद की ओर, दिव्य शिखरों और विस्तार की ओर मोड़ता है और हमें आध्यात्मिक सहानुभूति, सार्वभौमिकता और एकत्व के स्पर्शों की ओर खोलता है । इसके विपरीत जहां चैत्य व्यक्तित्व कमजोर हो, असंस्कृत या बुरी तरह से विकसित हो वहां भले मन प्रबल और तेजस्वी हो, प्राणिक भावोंवाला हृदय दृढ़, सबल और प्रभुतापूर्ण हो, प्राण-शक्ति दबंग और सफल हो, शारीरिक सत्ता समृद्ध, भाग्यवान् और देखने में स्वामी और विजयी हो फिर भी श्रेष्ठतर अंगों और वृत्तियों का अभाव रहता है या उनमें चरित्र और शक्ति की दरिद्रता रहती है । उस समय बाहरी कामना-पुरुष, नकली चैत्य सत्ता राज करती है और हम उसके

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चैत्य संकेतों और अभीप्सा के मिथ्या अर्थ को, उसके भावों और आदर्शों को, उसकी कामनाओं और लालसाओं को सच्चे आध्यात्मिक तत्त्व और आध्यात्मिक अनुभूति की संपदा मान लेने की भूल कर बैठते है । अगर गुप्त चैत्य पुरुष सामने आ सके और कामना-पुरुष का स्थान ले सके और आंशिक रूप में और परदे के पीछे से नहीं बल्कि पूरी तरह खुल कर मन, प्राण और शरीर की बाहरी प्रकृति पर शासन करने लगे तभी इन्हें जो सत्य, ऋत और सुंदर है उसकी आंतरात्मिक प्रतिमाओं के रूप में ढाला जा सकता है और अंत में सारी प्रकृति को जीवन के सच्चे लक्ष्य की ओर, परम विजय की ओर, आध्यात्मिक जीवन में आरोहण की ओर मोड़ा जा सकता है ।

 

    लेकिन ऐसा लग सकता है कि इस चैत्य सत्ता को, अपने अंदर की इस सच्ची अंतरात्मा को सामने लाकर और वहां से उसे नेतृत्व और शासन सौंपने से हम अपनी स्वाभाविक सत्ता की उस सारी परिपूर्ति को पा लेंगे जिसकी हमें खोज है और साथ ही आत्मा के राज्य के द्वार भी खोल सकेंगे । और यह तर्क भी भली-भांति दिया जा सकता है कि भागवत स्थिति या भागवत पूर्णता पाने में सहायता के लिये किसी श्रेष्ठतर सत्य चेतना या अतिमानसिक तत्त्व के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है । यद्यपि चैत्य रूपांतर हमारी सत्ता के पूर्ण रूपांतर की एक आवश्यक शर्त है फिर भी विशालतम आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये जो कुछ जरूरी है, चैत्य रूपांतर ही वह सब कुछ नहीं है । प्रथमत:, चूंकि यह प्रकृति में व्यष्टिगत अंतरात्मा है अतः वह हमारी सत्ता के छिपे हुए अधिक दिव्य क्षेत्रों की ओर खुल सकता है और वहां के प्रकाश, शक्ति और अनुभव को पा सकता और प्रतिबिंबित कर सकता है । लेकिन इसके अतिरिक्त एक दूसरा, ऊपर से आनेवाला आध्यात्मिक रूपांतर भी हमारे लिये जरूरी है ताकि हम अपनी आत्मा के वैश्व और परात्पर भाव को भी अपने अधिकार में कर सकें । अपने-आपमें चैत्य पुरुष किसी विशेष स्थिति में पहुंचकर सत्य, शुभ और सुंदर के रूपायन की सृष्टि से संतुष्ट हो सकता है और उसे अपना पड़ाव बना सकता है । इससे आगे की किसी और स्थिति में हो सकता है कि वह निष्क्रिय रूप से वैश्वात्मा के आधीन हो जाये, वैश्व सत्ता, चेतना, शक्ति,

 

    साधारणत: (अंग्रेजी में) बोल-चाल में साइकिक (चैत्य) शब्द का प्रयोग सच्चे चैत्य की जगह इसी के लिये अधिक होता है । इसका व्यवहार असामान्य या अतिसामान्य चरित्र के अंतःकरणिक और अन्य व्यापारों के लिये और भी अधिक शिथिलता के साथ होता है । यथार्थ में उनका संबंध आंतरिक मन, आंतरिक प्राण और सूक्ष्म भौतिक शरीर से होता है जो हमारे अंदर अन्तस्तलीय हैं, ये चैत्य की सीधी क्रियाएं हर्गिज नहीं हैं, भौतिकीकरण और अभौतिकीकरण जैसे व्यापारों को भी इसमें गिन लिया जाता है, द्यपि यदि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध हो भी जाये तो भी वे स्पष्टत: अंतरात्मा की क्रियाएं नहीं हैं और चैत्य पुरुष के स्वभाव या सत्ता पर कोई प्रकाश नहीं डाल पायेंगे । वे शायद एक गुह्य, सूक्ष्म भौतिक ऊर्जा की असामान्य क्रियाएं हों जो वस्तुओं के स्थूल शरीरवाली सामान्य स्थिति में हस्तक्षेप करती होंगी, उसे क्षीण करके अपनी सूक्ष्म अवस्था में ले जाती होंगी और स्थूल जड़ के रूपों में पुनर्निर्मित कर देती होंगी ।

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आनंद का दर्पण बन जाये परंतु उनका पूरा साझीदार या स्वामी नहीं । हो सकता है कि वह वैश्व चेतना के साथ ज्ञान, भाव, यहांतक कि इन्द्रियों द्वारा अनुभव में भी अधिक घनिष्ठता और पुलक के साथ एक हो जाये फिर भी संभवत: वह जगत् में क्रिया और प्रभुत्व से दूर रहे और शुद्ध रूप से ग्रहणकर्ता और निष्क्रिय ही बना रहे, या विश्व से पीछे निश्चल सत् के साथ एक हो जाये और भीतर से जगत्-गति से अलग ही रहे, अपने व्यक्तित्व को अपने उद्गम में खो दे । हो सकता है कि वह उस उद्गम की ओर लौट पड़े और उसमें उस चीज के लिये न तो और अधिक इच्छा रहे और न सामर्थ्य ही जो कि उसका यहां पर चरम लक्ष्य था यानी प्रकृति को दिव्य उपलब्धि की ओर ले जाना । क्योंकि चैत्य पुरुष प्रकृति में आत्मा से, भगवान् से आया है और वह प्रकृति से मुंह मोड़कर आत्मा की नीरवता और चरम आध्यात्मिक निश्चलता के द्वारा नीरव भगवान् की ओर जा सकता है । इसके अतिरिक्त, भगवान् का एक शाश्वत अंश होने के नाते यह अंश अनंत के विधान के अनुसार भागवत पूर्ण सत्ता से अलग नहीं हों सकता । वस्तुत: यह अंश अपने-आपमें वह पूर्ण या समग्र है, अपवाद है बस सामने दीखनेवाला रूप, उसका सामने दीखनेवाला, पृथक्कारी आत्मानुभव । वह उस सद्वस्तु के प्रति जाग कर उसमें इस तरह डूब सकता है कि वैयक्तिक अस्तित्व उसमें लुप्त प्रतीत हो या कम-से-कम उसमें लीन हो जाये । वह हमारी अज्ञानभरी प्रकृति की राशि में इतना छोटा-सा केन्द्र है कि उपनिषद् ने उसे 'अंगुष्ठ मात्र' कहा है फिर भी आध्यात्मिक प्रवाह द्वारा वह अपने-आपको बड़ा बना कर और घनिष्ठ सायुज्य या एकत्व में हृदय और मन द्वारा सारे संसार को आलिंगन में भर सकता है । या फिर वह अपने चिर साथी के प्रति सचेतन हो सकता है और उन्हींके सान्निध्य में शाश्वत प्रेमी की भांति शाश्वत प्रियतम के साथ अनश्वर मिलन और एकत्व में चिरकालतक बने रहने का चुनाव कर सकता है । यह अनुभव सभी आध्यात्मिक अनुभवों की अपेक्षा अधिक तीव्र रूप से सुंदर और आनंदमय होता है । ये सब हमारी आध्यात्मिक आत्म-प्राप्ति की महान् और वैभवशाली उपलब्धियां हैं परंतु यह जरूरी नहीं है कि वे अंतिम सीमा और संपूर्ण उत्कर्ष हों, इनसे अधिक भी संभव है ।

 

    क्योंकि ये मनुष्य में आध्यात्मिक मन की उपलब्धियां हैं, ये उस मन की गतियां हैं जो अपने से परे, फिर भी अपने ही स्तर पर आत्मा के वैभवों में प्रवेश करता है । हमारी वर्तमान मानसिकता के बहुत परे अपनी ऊंचे-से-ऊंची स्थिति में भी मन अपने स्वभाव के अनुसार विभाजन द्वारा काम करता है । वह शाश्वत के अलग-अलग पहलुओं को लेता है और हर पहलू से इस तरह व्यवहार करता है मानों वही शाश्वत सत्ता का संपूर्ण सत्य हो और हर एक के अंदर अपनी निजी पूर्ण पूर्ति पा सकता हो । यहांतक कि वह उन्हें विरोधियों के रूप में खड़ा कर देता है और

 

    १ गीता १५.७

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इन विरोधियों की एक पूरी शृंखला बना लेता है जैसे भगवान् की निश्चल नीरवता और भगवान् की क्रियाशीलता, विश्व-सत्ता से दूर निश्चल, निर्गुण ब्रह्म और विश्व सत्ता का स्वामी सगुण, सक्रिय ब्रह्म; सत्ता और संभूति, दिव्य पुरुष और निर्वैयक्तिक विशुद्ध सत्ता । तब वह किसी एक पहलू से अपने-आपको अलग कर सकता है और दूसरे को सत्ता का एकमात्र स्थायी सत्य मानकर उसमें निमग्न हो सकता है । वह व्यक्तिरूप को ही एकमात्र सद्वस्तु मान सकता है, या निर्वैयक्तिक को ही एकमात्र सत्य मान सकता है, वह प्रेमी को शाशत प्रेम की अभिव्यक्ति के साधन-रूप या प्रेम को प्रेमी की आत्माभिव्यक्ति के रूप में देख सकता है । वह सभी सत्ताओं को एक निर्वैयक्तिक सत्ता की व्यक्तिगत शक्तियों के रूप में या निर्वैयक्तिक सत्ता को एकमेव सत्ता की शाश्वत व्यक्ति की एक स्थिति के रूप में देख सकता है । उसकी आध्यात्मिक उपलब्धि, चरम लक्ष्य की ओर उसका यात्रा-पथ इन विभाजनकारी रेखाओं का अनुसरण करेगा, लेकिन आध्यात्मिक मन की इस क्रिया के परे अतिमानसिक ऋत-चित् की उच्चतर अनुभूति है जहां ये विरोधी गायब हो जाते हैं और ये आंशिकताएं सनातन पुरुष की चरम तथा सर्वांगीण उपलब्धि की समृद्ध पूर्णता में समा जाती हैं । यही वह लक्ष्य है जिसकी हमने कल्पना की है : अतिमानसिक ऋत-चित् की ओर हमारे आरोहण और हमारी प्रकृति में उसके अवतरण द्वारा यहां हमारे जीवन की निष्पत्ति । चैत्य रूपांतर का आध्यात्मिक परिवर्तन में उत्थान हो जाने के बाद उसे एक अतिमानसिक रूपांतर द्वारा सिद्ध और सर्वांगीण करना होगा, उसका अतिक्रमण करना और उसे ऊपर उठाना होगा । यह अतिमानसिक रूपांतर ही उसे आरोहण करनेवाले प्रयास के शिखरतक ले जायेगा ।

 

    जैसे अभिव्यक्त सत्ता की अन्य विभक्त और विरोधी अवस्थाओं में होता है उसी तरह हमारी सशरीर सत्ता की इन दो स्थितियों, आत्मिक स्थिति और जागतिक क्रियाशीलता के बीच, जिनमें केवल अज्ञान के कारण ही परस्पर विरोध प्रतीत होता है, अतिमानसिक चेतना-शक्ति ही पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर सकती है । अज्ञान में प्रकृति अपनी मनोवैज्ञानिक गतिविधियों की शृंखला को गुप्त अध्यात्म सत्ता के चारों ओर नहीं बल्कि उसके स्थानापन्न अहं-तत्त्व के चारों ओर केन्द्रित करती है । एक विशेष अहं-केन्द्रितता वह आधार है जिससे हम जगत् के, जिसमें हम निवास करते हैं, जटिल संपर्को विरोधों, द्वित्तों, असंगतियों को गूंथते हैं । यह अहं-केन्द्रितता ही वैश्व और अनंत के आगे हमारी निरापदता की शिला, हमारी सुरक्षा है । लेकिन अपने आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये हमें इस सुरक्षा को छोड़ना पड़ता है, अहंकार को गायब हो जाना पड़ता है, व्यक्तित्व अपने-आपको एक बृहत् निर्वैयक्तिकता में लीन होते हुए पाता है और पहले-पहल इस निर्वैयक्तिकता में कर्म की सुव्यवस्थित क्रियाशीलता की कोई चाबी नहीं मिलती । एक बहुत सामान्य परिणाम यह होता है

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कि आदमी अपने अंदर दो भागों मे बंट जाता है, भीतर आध्यात्मिक और बाहर प्राकृतिक । एक में दिव्य सिद्धि पूर्ण आन्तरिक स्वाधीनता में प्रतिष्ठित है किंतु प्राकृतिक अंग प्रकृति की पुरानी क्रिया चलाता रहता है, जिस आवेग को प्रकृति पहले संचारित कर चुकी है, उसे भूतकाल की ऊर्जाओं की यंत्रवत् क्रियाओं द्वारा जारी रखता है । अगर सीमित व्यक्ति और पुरानी अहं-केन्द्रित व्यवस्था का पूर्ण विलयन भी हो जाये तो हो सकता है कि बाहरी प्रकृति बाहर से दीखनेवाली असंगति का क्षेत्र बन जाये, चाहे भीतर सब कुछ आत्मा से प्रदीप्त हो । इस भांति हम बाहर से जड़ और निष्क्रिय, परिस्थितियों या शक्तियों के चलाये चलते हैं परंतु स्वयंचालित नहीं यानी जड़वत हो जाते हैं यद्यपि अंदर की चेतना प्रकाशित रहती है, या फिर हम बालवत् हो जाते हैं यद्यपि अंतर में पूर्ण आत्मज्ञान बना रहता है या हम उन्मत्तवत् हो जाते हैं, विचार और आवेगों में कोई संगति नहीं रह जाती यद्यपि अंतर में पूरी स्थिरता और प्रशांति रहती है, या हम पिशाचवत् हो जाते हैं, निरंकुश और उपद्रवी प्राणी बन जाते हैं, फिर भी अंतर में आत्मा की पवित्रता और संतुलन बने रहते हैं । या अगर बाहरी प्रकृति में व्यवस्थित क्रियात्मकता बनी रहती है तो हो सकता है वह ऊपरी अहं-क्रिया का ही सतत प्रवाह हो जिसे आंतरिक पुरुष साक्षी भाव से देखता है किंतु स्वीकार नहीं करता या वह मन की क्रियात्मकता हो जो भीतरी आध्यात्मिक सिद्धि की पूर्ण अभिव्यंजना नहीं हो सकती क्योंकि मन की क्रिया और आत्मा की स्थिति के बीच बल की कोई समानता नहीं है । अच्छी-से-अच्छी अवस्था में भी जब भीतर से 'प्रकाश' का अंतर्भासात्मक पथ-प्रदर्शन मिलता है, कर्म की धारा में उस प्रकाश की अभिव्यक्ति का स्वरूप मन, प्राण और शरीर की अपूर्णताओ के चिह्न अवश्य लिये रहता है । वह मानों ऐसा राजा है जिसके मंत्री अयोग्य हों, ऐसा ज्ञान है जिसे अज्ञान के मूल्यों में व्यक्त किया गया हो । जिस अतिमानस में सत्य-ज्ञान और सत्यात्मिका इच्छा पूरी तरह एक है उसका अवतरण ही बाह्य जीवन में भी आत्मा का सामंजस्य उसी तरह स्थापित कर सकता है जैसा आंतरिक जीवन में, क्योंकि केवल वही अज्ञान के मूल्यों को पूरी तरह ज्ञान के मूल्यों में बदल सकता है ।

 

    हमारे मानसिक और प्राणिक अंगों की तरह हमारे चैत्य पुरुष की परिपूर्ति में भी उसे उसके दिव्य उत्स के साथ परम सद्वस्तु में उसके सदृश सत्य के साथ नाता जोड़ना अनिवार्य होता है । यहां भी जैसे कि वहां, यह काम केवल अतिमानस की शक्ति द्वारा ही समग्र पूर्णता के साथ, उस घनिष्ठता के साथ जो प्रामाणिक एकात्मता बन जाती है, संपादित किया जा सकता है क्योंकि अतिमानस ही एकमेव सत्ता के उच्चतर और निम्नतर गोलार्द्धों को जोड़ता है । अतिमानस में ही समन्वय करनेवाला प्रकाश, पूर्णतातक पहुचानेवाली शक्ति, परम आनंदतक पहुंचानेवाला खुला द्वार है । उस ज्योति और शक्ति से ऊपर उठकर चैत्य पुरुष सत्ता के मूल

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दिव्यानंद के साथ एक हो सकता है जिसमें से वह आया था । तब वह सुख और दुःख के द्वंद्वों को हटाकर मन, प्राण और शरीर को समस्त भय और जुगुप्सा से मुक्त करके संसार के जीवन के संपर्कों को दिव्य आनंद के तत्त्वों में फिर से ढाल सकता है ।

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अध्याय २४

 

जड़

 

 

 

             अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्

 

             वह इस ज्ञान पर पहुंचा कि जड़द्रव्य (अन्न) ब्रह्म है ।

                                             तैत्तिरीय उपनिषद् ३.२

 

अब हमें तर्कसंगत रूप से यह विश्वास हो गया है कि प्राण न तो कोई ऐसा सपना हैं जिसकी व्याख्या न की जा सके न कोई असंभव अशुभ है लेकिन जो फिर भी दुःखदायी तथ्य बन गया है बल्कि वह दिव्य सर्व-सत् का एक विराद स्पंदन है । हम उसके आधार और उसके तत्त्व का कुछ अंश देख पाते हैं । हम ऊपर की ओर, उसकी उच्च शक्यता और चरम दिव्य प्रस्फुटन की ओर देखते हैं । लेकिन अन्य सभी तत्त्वों के नीचे एक तत्त्व है जिसपर हमने अभीतक पर्याप्त रूप में नहीं विचार किया है । वह है ज-तत्त्व जिस पर प्राण ऐसे खड़ा है मानों वह उसका पादपीठ हो या जिसके अंदर से वह प्राण इस तरह विकसित होता हैं जैसे बहुत-सी शाखाओंवाले पेड़ का रूप कोष से आवृत बीज में से । मनुष्य का मन, प्राण और शरीर इस भौतिक तत्त्व पर निर्भर होते हैं और अगर प्राण का प्रस्फुटन मन की ओर बढ़ती हुई चेतना का, अतिमानसिक सत्ता की वृहत्ता के अंदर अपने स्वरूप- सत्य की खोज में अपना विस्तार और उन्नयन करती हुई चेतना का परिणाम है तो भी ऐसा लगता है कि वह शरीर के इस कोष पर और इस जड़ तत्त्व के आधार पर निर्भर है । शरीर का महत्त्व स्पष्ट है । चूंकि मनुष्य ने एक ऐसा शरीर और मस्तिष्क विकसित किया है या यूं कहें कि वे उसे दिये गये हैं जो एक प्रगतिशील मानसिक प्रकाश को ग्रहण करने और उसकी सेवा करने में समर्थ हैं इसीलिये मनुष्य पशु से ऊपर उठा है । इसी तरह, वह अपने-आपसे ऊपर केवल तभी उठ सकता है और पूर्णतः दिव्य मानवता को केवल अपने विचार और आंतरिक सत्ता में ही नहीं बल्कि जीवन में भी तभी पा सकता है जब वह ऐसे शरीर का, या कम-से-कम शारीरिक उपकरण की ऐसी क्रियाशीलता का विकास कर ले जो उच्चतर प्रकाश को ग्रहण करने और उसकी सेवा करने में समर्थ हो । अन्यथा या तो प्राण का वचन रद्द हों जायेगा, उसका अर्थ नष्ट हो जायेगा और पार्थिव जीव अपने-आपको नष्ट करके मन, प्राण और शरीर को त्याग कर और शुद्ध अनंत में लौटकर ही सच्चिदानंद को पा सकेगा या फिर मनुष्य दिव्य उपकरण ही नहीं है, उसे दूसरे पार्थिव जीवों से अलग करनेवाली जो सचेतन रूप से प्रगतिशील शक्ति है उसकी कोई सीमा निश्चित है और जैसे मनुष्य ने जगत् की दूसरी सत्ताओं को हटाकर आगे

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का स्थान पा लिया, उसी तरह अंततः कोई और सत्ता मनुष्य को हटाकर उसकी गद्दी संभाल लेगी ।

 

    वस्तुत: ऐसा लगता है कि शुरू से ही शरीर अंतरात्मा की बड़ी कठिनाई है, सदा उसके मार्ग का रोड़ा और अड़ंगा रहा है, अतः आध्यात्मिक परिपूर्णता के उत्सुक जिज्ञासु ने सदा शरीर को धिक्कारा है और जगत् के प्रति उसकी घृणा ने जगत् के इस तत्त्व को और सभी चीजों से बढ़ कर अपनी घृणा का विशेष पात्र चुना है । शरीर वह अंधकारमय भार है जिसे वह सह नहीं सकता । उसकी हठीली भौतिक स्थूलता भूत बनकर उसे मुक्ति के लिये संन्यासी जीवन की ओर धकेलती है । शरीर से पिंड छुड़ाने के लिये वह यहांतक बढ़ चुका है कि उसने उसके अस्तित्व और भौतिक विश्व की वास्तविकता से भी इंकार किया है । अधिकतर धर्मों ने जड़ तत्त्व को अभिशाप माना है और उसके निषेध या सामयिक तौरपर भौतिक जीवन को उदासीनता के साथ सह लेने को धार्मिक सत्य या आध्यात्मिकता की कसौटी माना है । पुराने मत अधिक धीर, चिन्तन में अधिक गंभीर रहे हैं, जिन्हें कलियुग के भार तले आत्मा की पीड़ा और उत्तप्त अधीरता का स्पर्श प्राप्त नहीं था, उन्होंने यह भयंकर विभाजन नहीं किया था । उन्हाने धरती को माता और द्यु को पिता माना था । उन्ंहोने दोनों को समान प्रेम और सम्मान दिया था लेकिन उनके प्राचीन रहस्य हमारी दृष्टि के लिये अस्पष्ट और अगाध हैं क्योंकि हमारी दृष्टि चाहे जड़वादी हो या आध्यात्मिक, हम समान रूप से जीवन की समस्या की जटिल ग्रंथि को एक निर्णायक वार से काट डालने में संतुष्ट हो जाते हैं और एक शाश्वत आनंद में पलायन को या एक शाश्वत समाप्ति या एक शाश्वत शांति में अंत को स्वीकार करके संतुष्ट हो जाते हैं ।

 

    सचमुच यह विवाद हमारी अपनी आध्यात्मिक संभावनाओं की ओर जाग्रत् होने से नहीं शुरू होता । उसका आरंभ तो स्वयं प्राण के प्रकट होने और अपनी क्रियाशीलताओं को, सजीव रूप के समूहों को स्थापित करने के लिये संघर्ष से होता है । यह संघर्ष तामसिकता की शक्ति के विरुद्ध, निश्चेतना की शक्ति के विरुद्ध, परमाणुओं के विसंघटन की शक्ति के विरुद्ध होता है जो जड़ तत्त्व में उस महानिषेध की ग्रंथि है । प्राण जड़ के साथ हमेशा युद्ध करता है और ऐसा लगता है कि इस युद्ध का अंत हमेशा प्राण की प्रतीयमान पराजय में और जड़तत्त्व की ओर उस अधोमुखी पतन में होता है जिसे हम मृत्यु कहते हैं । मन के प्रकट होने के साथ यह विसंगति और भी बढ़ जाती है क्योंकि मन का प्राण और जड़ भौतिक दोनों के साथ अपना ही झगड़ा है । उसका उनके सीमाबंधनों से लगातार युद्ध रहता है । वह एक की स्थूलता और तामसिकता के और दूसरे के आवेशों और कष्टों के सतत शासन में रहता और उनके विरुद्ध विद्रोह करता रहता है और अंततः यह युद्ध यद्यपि बहुत निश्चित रूप से नहीं फिर भी मन की आंशिक और

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मंहगी विजय की ओर मुड़ता प्रतीत होता है । इसमें मन विजय पाता, प्राणिक लालसाओं को दबाता बल्कि खतम भी कर डालता है; भौतिक शक्ति को क्षीण करता और ज्यादा महान् मानसिक क्रियाशीलता और उच्चतर नैतिक सत्ता के हित में शरीर के संतुलन को बिगाड़ भी देता है । इस संघर्ष में ही यह होता है कि प्राण की अधीरता, शरीर की घृणा और दोनों के प्रति जुगुप्सा से शुद्ध मानसिक और नैतिक जीवन की ये चीजें उठ खड़ी होती हैं । मनुष्य जब मन के परे के अस्तित्व की ओर जागता है तो विसंगति के इस तत्त्व को और भी परे ले जाता है । मन, शरीर और प्राण को जगत् मांस और शैतान की त्रयी कह कर धिक्कारा जाता है । मन पर भी उसे हमारी सारी बीमारी का मूल कहकर प्रतिबंध लगाया जाता है, आत्मा और उसके उपकरणों के बीच युद्ध घोषित कर दिया जाता है । भीतर रहनेवाली आत्मा की विजय उसके अपने संकरे आवास से बच निकलने, मन, प्राण और शरीर को त्यागने और अपनी अनन्तताओं में वापिस चले जाने में मानी जाती है । जगत् एक विसंगति है और हम उसकी पेचीदगियों का सबसे अच्छा समाधान विसंगति के तत्त्व को उसकी चरम संभावनातक पहुंचाकर, जगत् को काटकर अलग करके अंतिम विच्छेद द्वारा ही पायेंगे ।

 

    लेकिन ये पराजयें और विजयें केवल दीखती ही हैं, यह समाधान सच्चा समाधान न होकर समस्या से पलायन है । सचमुच जड़ द्रव्य प्राण को हराता नहीं है, वह जीवन के सातत्य को बनाये रखने के लिये मृत्यु का उपयोग करके एक समझौता कर लेता है । मन सचमुच प्राण और जड़ तत्त्व पर विजयी नहीं होता । वह कुछ ऐसी शक्यताओं की बलि देकर, जो उसके प्राण और शरीर के ज्यादा अच्छे उपयोग की अनुपलब्ध या छोड़ी हुई संभावनाओं से बंधी रहती हैं, कुछ और शक्यताओं को अपूर्ण रूप से विकसित करता है । वैयक्तिक जीव ने निम्न त्रयी को जीता नहीं है केवल अपने ऊपर उनके दावे को अस्वीकार किया है और उस काम से मुंह मोड़ लिया हैं जिसे करने का व्रत आत्मा ने उस समय लिया था जब उसने पहली बार अपने-आपको विश्व के रूप में ढाला था । समस्या जारी है क्योंकि विश्व में भगवान् का परिश्रम जारी है लेकिन है समस्या के किसी संतोषजनक समाधान या परिश्रम की किसी विजयी पूर्तिr के बिना । अतः, चूंकि हमारा अपना दृष्टिबिंदु यह है कि सच्चिदानंद ही आदि, मध्य और अंत है और विसंगति और संघर्ष भगवान् की सत्ता के शाश्वत और मौलिक तत्त्व नहीं हो सकते बल्कि उनके अस्तित्व मात्र में ही पूर्ण समाधान और एक पूर्ण विजय के लिये श्रम समाविष्ट है, अतः हमें उस समाधान की खोज जड़ पर प्राण की एक यथार्थ विजय में करनी होगी जिसमें प्राण के द्वारा शरीर का बाधा-रहित और पूर्ण उपयोग हो, प्राण और जड़पर मन की यथार्थ विजय में करनी होगी जिसमें मन द्वारा प्राण-शक्ति और शरीर दोनों का बाधा-रहित और पूर्ण उपयोग हो तथा मन, प्राण और शरीर पर आत्मा की एक

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यथार्थ विजय पानी होगी जिसमें सचेतन आत्मा का इन तीनों पर मुक्त और पूर्ण अधिकार हो । हमने जो दृष्टि सम्पादित की है, उसमें एकमात्र यह अंतिम विजय ही औरों को सचमुच संभव बना सकती है । तो यह देखने के लिये कि ये विजयें कैसे नितांत संभव या पूरी तरह संभव हो सकती हैं हमें जड़ की वास्तविकता को जानना होगा, जैसे मूलभूत ज्ञान की खोज करते हुए हमने मन, अंतरात्मा और प्राण की वास्तविकता को जान लिया था ।

 

    एक विशेष अर्थ में जड़ अवास्तविक और असत् है, अर्थात् जड़ के बारे में हमारा वर्तमान ज्ञान, भाव और अनुभव उसका सत्य नहीं है बल्कि हम जिस सर्वमय सत्ता में विचरण करते हैं उसके और हमारी इन्द्रियों के बीच विशेष संबंध का एक व्यापार मात्र है । जब विज्ञान यह खोज करता है कि जड़तत्त्व अपने-आपको ऊर्जा के विभिन्न रूपों में खंडित करता है तो वह एक वैश्व आधारभूत सत्य को पा लेता है और जब दर्शन यह खोज करता है कि चेतना के लिये जड़ का अस्तित्व वस्तुमय (भौतिक) रूप की तरह ही है और आत्मा या शुद्ध चिन्मय पुरुष ही एकमात्र सद्वस्तु है तो वह एक अधिक महान् अधिक पूर्ण और अधिक आधारभूत सत्य को पा लेता है । फिर भी यह प्रश्न तो रहता ही है कि ऊर्जा जड़तत्त्व का रूप क्यों धारण करे, केवल शक्ति- धाराओं का क्यों नहीं ? या जो सचमुच आत्मा है वह जड़ के प्रपंच को क्यों स्वीकार करे, स्वयं आत्मा की स्थितियों, प्रेरणाओं और आह्लादों में विश्राम क्यों न करे ? कहा जाता है कि यह मन का काम है, या फिर चूंकि स्पष्टत: विचार न तो चीजों के भौतिक रूप की प्रत्यक्ष रचना करता है न उनका प्रत्यक्ष बोध ही पाता है अतः यह इन्द्रिय-बोध का ही काम है । इन्द्रिय-मन उन रूपों की रचना करता है जिनका उसे प्रत्यक्ष-बोध होता प्रतीत होता है और विचारात्मक मन उन रूपों पर क्रिया करता है जिन्हें इन्द्रिय-मन उसके सामने प्रस्तुत करता है । लेकिन स्पष्टत: व्यक्तिगत शरीरस्थ मन जड़ पदार्थ के प्रपंच का रचयिता नहीं है । पार्थिव अस्तित्व मानव मन का परिणाम नहीं हों सकता क्योंकि स्वयं यह मन पार्थिव अस्तित्व का परिणाम है । अगर हम कहें कि जगत् केवल हमारे मनों में अस्तित्व रखता है तो हम तथ्यहीन और भ्रामक बात कहेंगे, क्योंकि धरती पर मनुष्य के आने से पहले ही जड़-जगत् मौजूद था और अगर मनुष्य धरती से गायब हो जाये या हमारा व्यक्तिगत मन अपने-आपको अनन्त में विलीन कर दे तब भी वह बना रहेगा । तो हमें इस निष्कर्ष पर आना होगा कि एक वैश्व मन है जो हमारे लिये

 

    १ मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं वह केवल सापेक्ष और यांत्रिक अर्थ में सृजन करता है । उसमें संयोजनों की अपार क्षमता है लेकिन उसकी सृजनात्मक प्रेरणा और रूप ऊपर से आते हैं; सभी सृष्ट चीजों का आधार मन, प्राण और जड़ से ऊपर अनंत में है । वे रूप वहां अत्यणु से निरूपित, पुनर्निर्मित, बहुधा गलत तरीके से निर्मित होते हैं । ऋग्वेद कहता है, उनका मूल ऊपर है और शाखाएं नीचे । हम जिसे अतिचेतन मन कहते हैं उसे अधिमानस कहा जा सकता है, आत्मा की शक्तियों के सोपान क्रम में उसका वास है, एक ऐसा क्षेत्र है जो सीधा अतिमानसिक चेतना पर आश्रित है ।

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विश्व के रूप में अवचेतन और अपनी आत्मा में अतिचेतन है जिसने अपने निवास के लिये इस रूप की रचना की है । और चूंकि स्रष्टा अवश्य अपनी सृष्टि से पहले आया होगा और उसका अतिक्रमण करेगा इसलिये इसका अर्थ होगा एक अतिचेतन मन जो एक वैश्व इन्द्रिय को उपकरण बना कर अपने अंदर रूप के साथ रूप के संबंध की रचना कर लेता है और जड़ विश्व की लय का निर्माण करता है, लेकिन यह भी पूरा समाधान नहीं है । यह हमसे कहता है कि जड़ चेतना की सृष्टि है परंतु यह नहीं बतलाता कि चेतना ने अपनी वैश्व क्रियाओं के आधार के रूप में जड़ की रचना किस तरह की ।

 

    अगर हम तुरंत वस्तुओं के मूल तत्त्व की ओर लौट चलें तो ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेंगे । सत् अपनी क्रियाशीलता में एक चित्-शक्ति है जो अपनी शक्ति की क्रियाओं को अपनी चेतना के आगे अपनी निजी सत्ता के रूपों में उपस्थित करती है । चूंकि शक्ति 'एकमेव सत्' चिन्मय पुरुष की क्रिया मात्र है अत: उसके परिणाम भी उस चित्युरुष के रूप होने के सिवा कुछ और नहीं हो सकते । अत: पदार्थ या जड़ आत्मा का एक रूप मात्र है । आत्मा का यह रूप हमारी इन्द्रियों के आगे जिस तरह दिखायी देता है उसका कारण मन की वह विभाजक क्रिया है जिससे हम विश्व के सारे व्यापार का एक सुसंगत सिद्धांत बना पाये हैं । अब हम जानते हैं कि प्राण चित्-शक्ति की एक क्रिया है जिसके परिणाम हैं भौतिक रूप । इन रूपों में अंतर्निहित प्राण उनमें पहले निश्चेतन शक्ति की भांति प्रकट होता है और क्रमश: विकसित होता हुआ मन रूप में उसी चेतना को फिर से अभिव्यक्त करता है जो शक्ति की यथार्थ आत्मा है, जिसका अस्तित्व उस समय भी समाप्त नहीं हुआ था जब वह अनभिव्यक्त थी । हम यह भी जानते हैं कि मन मौलिक सचेतन ज्ञान या अतिमानस की एक घटिया शक्ति है, एक ऐसी शक्ति है जिसके लिये प्राण एक उपकरणात्मक ऊर्जा का काम करता है । कारण अतिमानस में उतरती हुई चेतना या चित् अपने-आपको मन के रूप में प्रस्तुत करता है, चेतना की शक्ति (तपसू) अपने-आपको प्राण के रूप में उपस्थित करती है । अतिमानस में अवस्थित अपने उच्चतर सत्य-स्वरूप से अलग होकर मन प्राण को विभाजन का रूप देता है और इससे भी आगे, अपनी ही प्राण-शक्ति में निवर्तित होकर प्राण में अवचेतन हो जाता है और इस तरह अपनी जड़ क्रियाओं को निश्चेतन शक्ति का बाहरी रूप देता है । अतः निश्चेतना, तामसिकता और जड़ के विखण्ड के का मूल अवश्य ही मन की इस सर्व-विभाजनकरी और आत्म-निवर्तनकारी क्रिया में होना चाहिये जिसके द्वारा हमारा विश्व अस्तित्व में आया है । जैसे मन सृष्टि की ओर अवरोहण में अतिमानस की अंतिम क्रियामात्र है, और प्राण मन के इस अवतरण के द्वारा बने अज्ञान की अवस्थाओं में क्रिया करती हुई चित्-शक्ति की एक क्रिया है, उसी तरह जड़, जैसा कि हम उसे जानते हैं उस क्रिया के परिणामस्वरूप चित् सत्ता द्वारा धारण किया हुआ अंतिम रूप मात्र है । जड़ है उस

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एकमेव चित् सत्ता का उपादान जो एक वैश्व मन की क्रिया द्वारा अपने अंदर आभास के रूप में बंटा हुआ है -यह ऐसा विभाजन है जिसे व्यष्टिगत मन दोहराता है और जिसमें वह निवास करता है, लेकिन जो आत्मा के एकत्व को या ऊर्जा के एकत्व को या जड़ तत्व के वास्तविक एकत्व को न तो नष्ट करता है न बिलकुल क्षीण ।

 

    लेकिन एक अविभाज्य सत् का यह आभासमय और व्यावहारिक विभाजन किसलिये ? यह इसलिये कि मन को बहुत्व के तत्त्व को उसकी चरम शक्यता तक ले जाना है और यह केवल पृथक्करण और विभाजन के द्वारा ही हो सकता है । ऐसा करने के लिये यह जरूरी है कि बहु के लिये रूपों की रचना करने के लिये वह अपने-आपको प्राण में अवक्षिप्त करे ताकि वह सत्ता के वैश्व तत्त्व को एक शुद्ध या सूक्ष्म पदार्थ की जगह स्थूल भौतिक पदार्थ का रूप दे । यानी उसे ऐसे पदार्थ का रूप दे जो मन के संपर्क के लिये अपने-आपको विषयों के स्थायी बहुत्व के बीच एक स्थिर वस्तु या विषय मालूम हो, न कि किसी ऐसे पदार्थ का रूप जो शुद्ध चेतना के संपर्क को अपनी शाश्वत शुद्ध सत्ता तथा सत्यता का रूप लगे या सूक्ष्म इन्द्रियों को ऐसे नमनीय आकार का रूप मालूम पड़े जो चित्-सत्ता को मुक्त रूप से प्रकट कर सके । मन का अपने विषयों के साथ संपर्क उस चीज की रचना करता है जिसे हम इन्द्रिय-बोध कहते हैं लेकिन इस अवस्था में वह अस्पष्ट और बाह्य बोध होता है, उस बोध का जिस वस्तु के साथ संपर्क होता है उसकी वास्तविकता की निश्चितता प्राप्त करनी आवश्यक है । अतिमानस द्वारा मन और प्राण में सच्चिदानंद के अवतरण के अनिवार्य परिणामस्वरूप शुद्ध पदार्थ का जड़ पदार्थ में अवतरण होता है । यह सत्ता की बहुलता और चेतना के भिन्न-भिन्न केन्द्रों से वस्तुओं की अभिज्ञता को जीवन की इस निचली अनुभूति की पहली विधि बनाने की इच्छा का एक आवश्यक परिणाम होता है । अगर हम वस्तुओं के आध्यात्मिक आधार की ओर वापिस जायें तो पदार्थ अपनी चरम शुद्ध अवस्था में अपने-आपको ऐसी शुद्ध चित्-सत्ता में ढाल देता है जो स्वयंभू है, तादात्म्य द्वारा अंतर्निहित रूप से अपने-आपसे अभिज्ञ है लेकिन अभीतक अपने-आपको विषय बनाकर अपनी चेतना को उसकी ओर अभिमुख नहीं करता । अतिमानस तादात्म्य द्वारा प्राप्त इस आत्माभिज्ञाता को अपने आत्म-ज्ञान के पदार्थ के रूप में और आत्म-सृष्टि के प्रकाश के रूप में सुरक्षित रखता है लेकिन उस सृष्टि के लिये वह सत्ता को अपने आगे उसकी अपनी सक्रिय चेतना के विषयी-विषय, एक और बहु के रूप में उपस्थित करता है । वहां परम ज्ञान में सत्ता विषय के रूप में धारण की जाती है,  

 

    यहां मन शब्द का प्रयोग उसके बड़े-से-बड़े अर्थ में किया गया है जिसमें अधिमानस-शक्ति की क्रिया भी शामिल है जो अतिमानसिक ऋत चित् के सबसे अधिक निकट है और अविद्या की सृष्टि का पहला स्रोत है ।

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वह ज्ञान- अवधारणा द्वारा उसे अपने अंदर ज्ञान के विषय रूप में और विषयी भाव से निज रूप में, दोनों रूपों में देखता है परंतु साथ ही प्रज्ञान द्वारा उसे अपनी चेतना की परिधि में ज्ञान के विषय या विषयों के रूप में प्रक्षिप्त कर सकता है । लेकिन यह स्वयं उससे भिन्न न होकर उसकी सत्ता का भाग होता है, लेकिन ऐसा भाग या ऐसे भाग जिन्हें अपनी सत्ता से अलग रख दिया गया हो -यानी दृष्टि के उस केन्द्र से अलग जिसमें सत्ता अपने-आपको ज्ञाता, साक्षी या पुरुष के रूप में केन्द्रित करती है । हमने देखा है कि इस प्रज्ञान चेतना से मन की गति उठती है, ऐसी गति जिसके द्वारा व्यष्टिगत ज्ञाता अपनी वैश्व सत्ता के एक रूप को अपने-आपसे भिन्न मानता है । लेकिन दिव्य मन में तत्काल या यूं कहें साथ-ही-साथ एक और गति या उसी गति का दूसरा पक्ष होता है, वह है सत्ता में एकत्व की क्रिया जो इस आभासमय विभाजन का उपचार करती और क्षण भर के लिये भी ज्ञाता के लिये उसे एकमात्र वास्तविकता बनने से रोकती है । सचेतन ऐक्य की यह क्रिया ही विभाजनकारी मन में कुंठित, अज्ञानी रूप से, एकदम बाहरी तीरपर चेतना में विभक्त सत्ताओं और पृथक् विषयों के बीच होनेवाले संपर्क की तरह भिन्न प्रकार से प्रतिपादित होती है और विभक्त चेतना में होनेवाला यह संपर्क हमारे लिये प्रथमत: इन्द्रिय बोध के तत्त्व के रूप में प्रतिपादित होता है । इन्द्रिय बोध के इस आधार पर, विभाजन के आधीन ऐक्य के संपर्क पर विचारात्मक मन की क्रिया खड़ी होती है और ऐक्य के एक ऐसे उच्चतर तत्त्व की ओर लौटने की तैयारी करती है जिसमें विभाजन एकता के आधीन और गौण बना दिया जाता है । तो जैसा कि हम द्रव्य को जानते हैं, भौतिक द्रव्य वह रूप है जिसमें मन इन्द्रिय बोध के द्वारा काम करते हुए उस सचेतन सत् के साथ संपर्क साधता है, वह स्वयं जिसके ज्ञान की एक गति मात्र है ।

 

    किंतु अपने स्वभाव से ही मन चेतन-सत्ता के द्रव्य को उसकी एकता और समग्रता में नहीं बल्कि विभाजन के सिद्धांत के द्वारा जानने और अनुभव करने की ओर प्रवृत्त होता है । ऐसा लगता है मानों यह उसे अत्यणु बिंदुओं में देखता है जिन्हें समग्रता तक पहुंचने के लिये वह इकट्ठा कर देता है और इन दृष्टि-बिंदुओं और संयोजनों में वैश्व मन अपने-आपको डालता है और उनमें निवास करता है । इस तरह निवास करता हुआ वैश्व मन 'सत्-भाव' के प्रतिनिधि के रूप में अपनी नैसर्गिक शक्ति से सृष्टि करता हुआ अपने सभी प्रत्यक्ष बोधों को प्राण की ऊर्जा में बदलने के लिये स्वभावत: विवश हुआ । जैसे सर्वसत्तामय अपने सभी आत्म-रूपों को अपनी चेतना की सर्जक शक्ति की विविध ऊर्जा के रूप में परिणत करता है, उसी तरह वैश्व मन वैश्व अस्तित्व के बोर में बहुविध दृष्टि-बिंदुओं को वैश्व जीवन के दृष्टिकोणों में बदल देता है`, वह जड़तत्त्व में उन्हें ऐसी परमाणविक सत्ता में बदल देता है जो रूप देनेवाले उस प्राण से अनुप्राणित होती हैं ओ रूपायन को

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क्रियान्वित करनेवाले मन और इच्छा द्वारा शासित होता है । साथ ही साथ वह जिन परमाणविक सत्ताओं का निर्माण करता है वे परमाणु के अपनी सत्ता के विधान के अनुसार इकट्ठे होने और समूह बनाने को विवश होते हैं और इनमें से हर समूह भी रूप देनेवाले गुप्त प्राण से और उन रूपों को प्रवर्तन करनेवाले गुप्त मन और इच्छा से अनुप्राणित होता हुआ एक अलग-थलग बने व्यष्टिगत अस्तित्व की मिथ्या कहानी लिये रहता है । ऐसे प्रत्येक व्यष्टिगत पदार्थ या अस्तित्व को, इस बात के अनुसार कि उसमें मन व्यक्त है या अव्यक्त, अभिव्यक्त है या अनभिव्यक्त, शक्ति के यान्त्रिक अहंकार का सहारा मिलता है जिसमें भवैषणा मूक और बंदी होते हुए भी शक्तिशाली होती है । या फिर आत्म-अभिज्ञ मानसिक अहंकार का सहारा होता है जिसमें भवैषणा मुक्त, सचेतन और पृथक् रूप से सक्रिय होती है ।

 

    अतः परमाणविक अस्तित्व का कारण वैश्व मन की किया का स्वभाव है न कि शाश्वत और आदि जड़ पदार्थ का कोई शाश्वत और भौतिक विधान । जड़ पदार्थ एक सृष्टि है और उसके सृजन के लिये आरंभ-बिंदु या आधार के रूप में, अत्यणु की, अनन्त के अत्यधिक विखण्डन की आवश्यकता थी । आकाश जड़ पदार्थ के लिये अमूर्त, लगभग आध्यात्मिक अवलम्ब के रूप में रह सकता और रहता है लेकिन कम-से-कम हमारे वर्तमान ज्ञान को वह भौतिक दृष्टि से तथ्य रूप में गोचर नहीं है । दृष्टिगोचर समूह या अणु रूप को मौलिक परमाणुओं में प्रविभाजित कर दो, उसे सत्ता की अत्याणविक धूलि में तोड़ दो फिर भी उन्हें बनानेवाले मन और प्राण के स्वभाव के कारण हम किसी ऐसे अनाणविक विस्तार पर नहीं जो कुछ भी धारण करने में असमर्थ हो बल्कि अत्यधिक आणविक अस्तित्व पर पहुंचेंगे जो शायद अस्थिर तो हो किंतु दृश्य-जागतिक रूप से हमेशा अपने-आपको शक्ति के शाश्वत प्रवाह में फिर से बनाता रहेगा । पदार्थ का अनाणविक विस्तार, वह विस्तार जो समूह नहीं है, ऐसा सह-अस्तित्व जो देश में वितरण से भिन्न है, ये शुद्ध सत् शुद्ध पदार्थ की वास्तविकताएं हैं । वे अतिमानस का एक ज्ञान और उसकी क्रियात्मक शक्ति का एक तत्त्व हैं । ये विभाजक मन का सर्जनात्मक प्रत्यय नहीं हैं यद्यपि मन अपनी क्रियाओं के पीछे उनके बारे में अभिज्ञ हो सकता है । ये जड़ की आधारभूत सद्वस्तु हैं लेकिन जिसको हम जड़ कहते हैं वह नहीं हैं । मन, प्राण और स्वयं जड़ भी अपने निष्क्रिय स्वरूप में उस शुद्ध सत्ता और सचेतन विस्तार के साथ एक हो सकते हैं लेकिन अपनी क्रियात्मक गति, आत्म-दर्शन और आत्म-रूपायण में उस एकत्व द्वारा क्रिया नहीं कर सकते ।

 

    अतः हम जड़ तत्त्व के इस सत्य पर पहुंचते हैं कि सत्ता का एक धारणात्मक आत्म-प्रसारण है जो विश्व में चेतना के पदार्थ या चेतना के विषय के रूप में चरितार्थ होता है और जिसे विश्व-मन तथा विश्व-प्राण अपनी सर्जक क्रिया में आणविक विभाजन तथा समूह द्वारा उस वस्तु के रूप में प्रकट करते हैं जिसे हम

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जड़ कहते हैं । किंतु यह जड़, मन और प्राण की तरह अब भी आत्म-सृजन करनेवाली क्रिया में लगा हुआ सत् या ब्रह्म ही है । यह सचेतन सत्ता की शक्ति का एक रूप है । यह रूप मन द्वारा दिया गया और प्राण द्वारा कार्यान्वित हुआ है । वह अपने अंदर चेतना को अपने यथार्थ स्वरूप की तरह धारण किये रहता है जो उससे छिपी रहती है । वह अपने आत्म-रूपायन के परिणाम में अन्तर्निहित और तल्लीन और इस कारण अपने-आपको भूली हुई रहती है । और वह हमें चाहे जितना मूढ़ और संवेदनहीन क्यों न लगे, फिर भी उसके अपने अंदर छिपी हुई चेतना की गुप्त अनुभूति के लिये वह सत्ता का आनंद है जो इस गुप्त चेतना के आगे अपने-आपको संवेदन के विषय के रूप में अर्पित करता है ताकि उस छिपे हुए देव को अपनी गुप्त अवस्था में से बाहर निकलने का प्रलोभन दे । पदार्थ के रूप में अभिव्यक्त सत्ता, गुप्त आत्म-चेतना के एक साकार आत्म निरूपण में ढली हुई सत्ता की शक्ति, अपनी ही चेतना के आगे अपने-आपको विषय के रूप में अर्पित करता हुआ आनंद -यह सच्चिदानन्द नहीं तो और क्या है ? जड़ तत्त्व सच्चिदानन्द ही है जो अपनी निजी मानसिक अनुभूति के आगे अस्तित्व के विषयरूपी ज्ञान, कर्म और आनंद के आकारगत आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।

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अध्याय २५

 

जड़तत्त्व की ग्रंथि

 

 नाहं यातुं सहसा न द्वयेन ऋतं सपाम्यरुषस्य वृण्णः ।

 ... के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचस: सन्ति गोपा: ।

 

मैं ज्योतिर्मय प्रभु के सत्य की ओर न शक्ति द्वारा जा सकता हूं न

 द्वै द्वारा... वे कौन हैं जो अनृत के आधार की रक्षा करते हैं ?

 असत् वाणी के संरक्षक कौन हैं ?

 ऋग्वेद ५.१२.२,

 

नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।

किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद गहनं गभीरम् ।।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्य आसीत् प्रकेत: ।

आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न पर: किं चनास ।।

तम आसीत्तमसा गुह्ळमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।

तुच्छूयेनाभ्रुपिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैक्य ।।

कामस्तदये समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत् ।

सतो बकुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।

तिरश्रिचिनो वितते रश्मिषामध: स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्

रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात् प्रयति: परस्तात् ।।

 

तब सत् नहीं था और असत् भी नहीं था, न तो अन्तरिक्ष था न

आकाश और न वह था जो इनके भी परे है । सबको किसने ढ़क

रखा था, वह कहां और किसकी शरण में था ? वह गहन, गंभीर

सागर क्या था ? न मृत्यु थीं न अमृतत्व और न ही दिन और रात

का ज्ञान था । वह एकमेव श्वास के बिना, अपने ही विधान से जीता

था । उसके सिवा कुछ न था और उसके परे भी कुछ नहीं । आरंभ

में तम ही तम से ढका हुआ था और यह सारा निश्चेतना का सागर

था । जब वैश्व सत्ता खण्हों में छिपी हुई थी तब अपनी ऊर्जा की

महिमा से 'वह एक' उत्पन्न हुआ । पहले वह भीतर ही भीतर

कामना के रूप में स्पंदित हुआ । यही मन का पहला बीज था ।

सत्य-द्रष्टाओं ने हृदय की इच्छा और मनीषा द्वारा असत् में सत् की

रचना की खोज की । उनकी किरण क्षितिजत: फैली । लेकिन वहां

नीचे क्या था, ऊपर क्या था ? वहां बीज का आधान करनेवाले

थे, वहां महिमाए थीं, वहां नीचे आत्म विधान था और ऊपर इच्छा ।

ऋग्वेद १०. १२९. १-५

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    अगर हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं वह ठीक है -और हम जिस सामग्री पर काम कर रहे हैं उसमें कोई और संभव भी नहीं है -तो व्यावहारिक अनुभव और मन के लम्बे अभ्यास ने आत्मा और जड़ के बीच जो तीक्ष्ण विभाजन रच दिया है उसकी कोई आधारभूत वास्तविकता नहीं रह जाती । जगत् एक भेदमय, बहुविध एकत्व है । वह शाश्वत विषमताओं के बीच समझौते का सतत प्रयास या मेल न खा सकनेवाले विरोधों के बीच सदा बना रहनेवाला संघर्ष नहीं है । उसका आधार और आरंभ है अविच्छेद्य एकत्व जो अनंत वैविध्य को पैदा करता है, विभाजन और संघर्ष के पीछे एक सतत संगतिकरण जो सभी संभव वैषम्यों को विशाल लक्ष्यों के लिये एक ऐसी गुप्त चेतना और इच्छा में संबद्ध करे जो सदा-सर्वदा एक है और अपनी सारी जटिल क्रिया की स्वामिनी है, यह उसका मध्य में वास्तविक स्वरूप मालूम होता है । अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि उभरती हुई इच्छा और चेतना की पूर्ति और विजयकारी सामंजस्य ही उसकी निष्पत्ति होनी चाहिये । पदार्थ उसी का अपना रूप है जिसपर उसकी क्रिया होती है और यदि उस पदार्थ का एक छोर जड़तत्त्व है तो दूसरा छोर आत्मा है । दोनों एक हैं । हम जिसे जड़ पदार्थ के रूप में अनुभव करते हैं, आत्मा उसका सत्त्व और तत्त्व है । जो हमारी अनुभूति के लिये आत्मा है, 'जड़' उसका रूप और शरीर है ।

 

    निश्चय ही, एक विशाल व्यावहारिक भेद है और उस भेद पर जगत्-सत्ता की अविभाज्य क्रम-परंपरा और निरंतर ऊपर उठती हुई श्रेणियां प्रतिष्ठित हैं । हम कह आये हैं कि पदार्थ चित्-सत्ता है जो अपने-आपको इन्द्रिय के आगे विषय के रूप में उपस्थित करती है ताकि जो कोई इन्द्रिय संबंध बने उसके आधार पर जगत् के निर्माण और विश्व की प्रगति का काम आगे चल सके । लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इन्द्रिय और पदार्थ के बीच संबंध का अपरिवर्तनशील रूप से बना एक ही आधार, एक ही मौलिक तत्त्व हो । उसके विपरीत ऊपर उठता हुआ और विकसित होता हुआ क्रम है । हम एक और पदार्थ के बारे में अभिज्ञ हैं जिसमें शुद्ध मन अपने स्वाभाविक माध्यम की तरह काम करता है । हमारी स्थूल इन्द्रियां जिस चीज की कल्पना द्रव्य के रूप में कर सकती हैं यह पदार्थ उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म, लचीला और नमनीय होता है । हम मन के पदार्थ के बारे में बात कर सकते हैं क्योंकि हम एक अधिक सूक्ष्म माध्यम के बारे में अभिज्ञ होते हैं जिसमें रूप उभरते हैं और क्रियाएं होती हैं । हम शुद्ध क्रियाशील प्राण-ऊर्जा के पदार्थ की बात कर सकते हैं जो जड़ पदार्थ के सूक्ष्मतम रूपों और उसकी स्थूल इन्द्रिय-ग्राह्य शक्ति की लहरों से भिन्न होती है । स्वयं आत्मा भी सत् का शुद्ध पदार्थ है जो अपने-आपको विषय-रूप में उपस्थित करता है लेकिन शारीरिक, मानसिक या प्राणिक संवेदन के आगे नहीं बल्कि एक शुद्ध आध्यात्मिक प्रत्यक्ष ज्ञान की ज्योति के आगे जिसमें स्वयं विषयी अपना विषय बन जाता है अर्थात् जिसमें कालातीत

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और देशातीत अपने-आपको सर्व सत्ता के आधार और आदि उपादान के रूप में एक शुद्ध आध्यात्मिक आत्म-धारणात्मक आत्म-विस्तार के अंदर देखता है । इस नींव के परे विषय और विषयी के बीच का सारा सचेतन भेद एक पूर्ण तादात्म्य में विलीन हो जाता है और तब वहां पदार्थ की बात तक नहीं होती ।

 

    अतः यह शुद्ध धारणात्मक भेद है । मानसिक रूप से धारणात्मक नहीं, आध्यात्मिक रूप से धारणात्मक जिसका अंत व्यावहारिक भेद में होता है जो आत्मा से चल कर मन से होता हुआ, जड़ में उतरनेवाली क्रम-परंपरा की ओर और फिर जड़ से चलकर मन से होता हुआ आत्मा की ओर चढ़ती क्रम-परंपरा की रचना करता है । लेकिन वास्तविक ऐक्य कभी रद्द नहीं होता और जब हम वस्तुओं की आद्य और समग्र दृष्टितक वापिस पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वह कभी जड़ के स्थूल घनत्व में भी वास्तव में न तो क्षीण होता है न दुर्बल । ब्रह्म विश्व का कारण और समर्थक शक्ति तथा उसमें निवास करनेवाला तत्त्व ही नहीं है बल्कि उसका उपादान और एकमात्र उपादान है । जड़ पदार्थ भी ब्रह्म है और ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अगर वस्तुत: जड़ पदार्थ आत्मा से कटा हुआ होता तो ऐसा न होता । लेकिन जैसा कि हम देख आये हैं, वह दिव्य सत्ता का अंतिम रूप और विषयगत पक्ष मात्र है । उसके अंदर और उसके पीछे अखंड भगवान् सदा उपस्थित हैं, जैसे यह मूढ़ और तामसिक लगनेवाला जड़ हर जगह, हमेशा प्राण की गतिशील शक्ति से अनुप्राणित रहता है, जैसे यह गतिशील किंतु निश्चेतन लगनेवाला प्राण अपने अंदर हमेशा क्रियाशील रहनेवाले अदृश्य मन को छिपाये रखता है और वह उस मन के गुप्त व्यवहारों की छिपी हुई ऊर्जा भी है, जैसे सजीव शरीर में यह अज्ञानी, प्रकाशहीन और अंधेरे में टटोलते रहनेवाला मन अपनी वास्तविक आत्मा, अतिमानस द्वारा धारित और पूर्णत: निर्देशित होता है और वह अतिमानस जो उस जड़ में भी समान रूप से उपस्थित होता है जो अभीतक मानसिक नहीं बना हैं, उसी तरह समस्त जड़, साथ ही मन, प्राण और अतिमानस भीं ब्रह्म की, शाश्वत की, आत्मा की, सच्चिदानंद की अवस्थाएं मात्र हैं । यह ब्रह्म उनमें केवल रहता ही नहीं है, बल्कि ये सभी चीजें भी हैं यद्यपि इनमें से कोई भी चीज उसकी पूर्ण सत्ता नहीं है ।

 

    लेकिन फिर भी यह धारणात्मक अंतर और व्यावहारिक भेद तो रहता ही है; चाहे जड़ पदार्थ आत्मा से वस्तुत: कटा हुआ न हो फिर भी इतनी व्यावहारिक निश्चितता के साथ अलग कटा हुआ प्रतीत होता है, वह अपने धर्म में इतना भिन्न, इतना विपरीत है, भौतिक जीवन सारे आध्यात्मिक अस्तित्व का इतना अधिक निषेध मालूम होता है कि उसे छोड़ देना ही कठिनाई से निकलने का एकमात्र संक्षिप्त मार्ग मालूम होता है और निःसंदेह है भी, परंतु कोई भी संक्षिप्त मार्ग या खंडित मार्ग समाधान तो नहीं होता । फिर भी, वहीं जड़ में ही समस्या का मूल है, वही

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बाधा खड़ी करता है । क्योंकि जड़ के कारण ही प्राण स्थूल, सीमित और मृत्यु तथा कष्ट से ग्रस्त रहता है, जड़ के कारण ही मन आधे से अधिक अंधा रहता है, उसके पर कतरे हुए और पांव एक संकरे अड्डे से बंधे रहते हैं और वह ऊपर की जिस बुहत्तता और स्वाधीनता को जानता है उससे दूर रखा जाता है । अतः आध्यात्म की ऐकान्तिक खोज करनेवाला यदि जड़ की कीचड़ से विरक्ति का अनुभव करता हुआ, प्राण की पाशविक स्थूलता से विद्रोह करता हुआ या मन के अपने बनाये हुए कारागार की संकीर्णता और अधोमुखी दृष्टि से अधीर होता हुआ इन सबसे नाता तोड़ करके निष्क्रियता और निश्चल नीरवता द्वारा आत्मा की अचल स्वाधीनता में लौट जाने का निश्चय करे तो यह उसके दृष्टिकोण से ठीक ही होगा । लेकिन यही एकमात्र दृष्टिकोण नहीं है और न हमारे लिये यह जरूरी है कि हम उसे इसलिये पूर्ण और चरम बुद्धिमत्ता मान लें क्योंकि उसे ऊंचा स्थान देनेवाले या महिमान्वित करनेवाले दीप्तिमान और सुनहरे उदाहरण मिलते हैं । बल्कि अपने-आपको समस्त आवेग और विद्रोह से मुक्त करके हमें यह देखना चाहिये कि विश्व की इस दिव्य व्यवस्था का अर्थ क्या है और जहांतक आत्मा का निषेध करनेवाली जड़ की इस महान् गांठ और उलझन की बात है, हमें उसके धागों का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिये और उन्हें अलग करना चाहिये ताकि किसी समाधान के द्वारा हम उसे सुलझा सकें न कि जोर-जबरदस्ती से उसे काट ही डालें । हमें इस कठिनाई को, इस विरोध को पहले तीक्ष्ण रूप में, उसे संकुचित करके नहीं, आवश्यक हो तो अतिशयोक्ति के साथ सामने लाना चाहिये और फिर उसका समाधान ढूंढ़ना चाहिये ।

 

    तो जड़ आत्मा के आगे प्रथमत: जिस मूलभूत विरोध को उपस्थित करता है वह यह है कि वह अज्ञान के तत्त्व की पराकाष्ठा है । यहां चेतना अपने कर्मों के एक रूप में खो गयी और अपने-आप को भूल गयी है, जैसे कोई आदमी अत्यधिक तल्लीनता के समय न केवल यह भूल जाये कि वह कौन है बल्कि यह भी भूल जाये कि वह है भी और क्षणिक रूप में वही कर्म बन जाये जो किया जा रहा है और वही शक्ति बन जाये जो उसे कर रही है । स्वयं-प्रकाश आत्मा जो शक्ति की सभी क्रियाओं के पीछे अपनी उपस्थिति के बारे में अनंत रूप में अभिज्ञ है और उनकी मालिक है उसके बारे में ऐसा लगता है कि वह गायब हो गयी है, उसका अस्तित्व ही नहीं है । वह शायद कहीं है लेकिन ऐसा लगता है यहां उसने केवल एक मूढ़ और निश्चेतन जड़-शक्ति रख छोड़ी है जो यह जाने बिना कि वह स्वयं क्या है अनन्ततः सृजन और विनाश करती रहती है । वह यह भी नहीं जानती कि वह किस चीज की रचना कर रही है या वह रचना करती ही क्यों है या जिस चीज को एक बार बना चुकी है उसे क्यों नष्ट करती है । वह नहीं जानती क्योंकि उसमें मन नहीं है । वह परवाह नहीं करती क्योंकि उसमें हृदय नहीं है । और अगर

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यह जड़-विश्व तक का भी यथार्थ सत्य नहीं है, यदि इस मिथ्या दृश्य के पीछे एक मन है, एक इच्छा है और मन या मन की इच्छा से अधिक श्रेष्ठ कोई चीज है तो भी वह जड़-विश्व, उसकी रात्रि में से उभरनेवाली चेतना के आगे इस अंधेरी आकृति को ही सत्य के रूप में उपस्थित करता है और अगर यह सत्य न हो, केवल मिथ्यात्व हो तो भी यह बहुत प्रभावकारी मिथ्यात्व है क्योंकि वह हमारे समस्त जागतिक जीवन की परिस्थितियों को निश्चित करता और हमारी समस्त अभीप्सा और हमारे प्रयास को घेरे रहता है ।

 

    कारण, जड़ विश्व की यही विकराल वस्तु है, यही उसका भयंकर और निर्दय चमत्कार है कि इस 'निर्मन' में से एक मन या अन्तत: बहुत-से मन उभरते हैं, वे बड़ी कमजोरी के साथ प्रकाश के लिये संघर्ष करते हैं । व्यष्टि रूप में वे असहाय होते हैं और जब महा अज्ञान के बीच, जो महा अज्ञान विश्व का नियम है, आत्म-रक्षा के लिये वे अपनी वैयक्तिक दुर्बलताओं को इकट्ठा करते हैं तो उनकी असहायता कुछ कम हो जाती है । इस हृदयहीन निश्चेतना में से और उसके कठोर न्यायक्षेत्र में से हृदयों ने जन्म लिया है, अभीप्सा की है, इस लौह सत्ता की अंधी और संवेदनहीन कूरता के बोझ तले उत्पीड़ित हुए हैं और अपना खून बहाया है, एक ऐसी क्रूरता जो उन पर अपना नियम लादती है और उनकी संवेदनशीलता में संवेदनशील हो उठती है, उन्हें भीषण और भयंकर लगती है । लेकिन आभासों के पीछे आखिर यह प्रतीयमान रहस्य है क्या ? हम देख सकते हैं कि यह वही चेतना है जो अपने-आपको खो चुकी थी और अब स्वयं अपनी ओर लौट रही है, एक दानवी आत्म-विस्मृति में से धीरे-धीरे कष्ट के साथ उभर रही है, एक ऐसे प्राण के रूप में जो भावी चेतन होता है, अर्द्ध चेतन होता है, अस्पष्ट रूप से चेतन होता है, पूरी तरह चेतन होता है और फिर अंत में चेतन से अधिक कुछ और होने के लिये, फिर से दिव्य रूप में आत्म चेतन, मुक्त, अनंत और अमर होने के लिये प्रयास करता है । लेकिन वह इस दिशा में ऐसे विधान के आधीन होकर काम करता है जो इन सभी चीजों से उल्टा है, वह जड़ की अवस्थाओं के आधीन यानी अज्ञान की पकड़ के विरोध में काम करता है । उसे जिन गतिविधियों का अनुसरण करना होता है, उसे जिन उपकरणों का उपयोग करना होता है उन्हें इस मूढ़ और विभाजित जड़ ने ही उसके लिये निर्धारित किया और बनाया है और वे पग-पग पर उस पर अज्ञान और सीमाएं लादते हैं ।

 

   कारण, दूसरा मूलगत विरोध जिसे जड़-तत्त्व आत्मा के आगे उपस्थित करता है, यह है कि वह यान्त्रिक विधान के आधीन दासता की पराकाष्ठा है और जो कुछ अपने-आपको मुक्त करना चाहता है उसके आगे एक भीमकाय तामसिकता का विरोध खड़ा कर देता है । ऐसी बात नहीं है कि स्वयं जड़ ही तामसिक या निष्क्रिय निश्चेष्ट है बल्कि वह अनन्त गति, धारणातीत शक्ति, असीम क्रिया है जिसकी भव्य

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गतियां हमारी सतत सराहना का विषय रहती हैं, लेकिन जहां आत्मा मुक्त, अपना और अपने कार्यों का स्वामी है, उनसे बंधा नहीं है, विधान के आधीन न होकर उसका स्रष्टा है, वहां यह दानवीय जड़ एक निर्धारित और यान्त्रिक नियम से कठोरता के साथ बंधा है । यह नियम उसपर लादा जाता है । वह स्वयं न तो उसे समझता है और न उसने कभी उसकी कल्पना ही की है लेकिन वह उसे निश्चेतन भाव से चलाता रहता है जैसे एक मशीन काम करती है । वह नहीं जानता कि उसे किसने, किस प्रक्रिया से या किस उद्देश्य से बनाया था । और जब प्राण जाग उठता है और अपने-आपको भौतिक रूप और जड़ शक्तिपर आरोपित करने की कोशिश करता है और सभी चीजों का अपनी ही इच्छा के अनुसार और अपनी ही आवश्यकता के लिये उपयोग करना चाहता है, जब मन जागता है और स्वयं अपने और सभी चीजों के बारे में कौन, क्या और क्यों को जानना चाहता है और सबसे बढ़कर जब वह अपने ज्ञान का उपयोग वस्तुओं पर अपने अघिक मुक्त विधान और स्वयं-निर्देशक क्रिया को आरोपित करने के लिये करना चाहता है तो ऐसा लगता है कि जड़ प्रकृति उसके आगे झुक जाती है, यहांतक कि स्वीकृति और सहायता भी देती है यद्यपि कुछ संघर्ष के बाद, अनिच्छा के साथ और केवल एक हदतक ही । लेकिन उस हद के बाद वह एक आग्रही तमस, बाधा और प्रत्याख्यान प्रस्तुत करती है यहांतक कि प्राण और मन को इस बात के लिये मनाती है कि वे और आगे नहीं जा सकते, अपनी आंशिक विजय को अन्ततक नहीं ले जा सकते । प्राण बढ़ने और दीर्घकालतक जीने का प्रयत्न करता और सफल होता है लेकिन जब वह पूर्ण विस्तार और अमरता की खोज करता है तो उसे जड़ की लौह बाधा का सामना करना पड़ता है और वह अपने-आपको संकीर्णता और मृत्यु से बंधा पाता है । मन प्राण की सहायता करना चाहता है और सर्वज्ञान का आलिंगन करने के लिये, सर्व प्रकाश बन जाने के लिये, सत्य को पाने और सत्य ही हो जाने के लिये, प्रेम तथा आनंद को प्रतिष्ठित करने के लिये और प्रेम तथा आनंद बन जाने के लिये अपने भीतरी वेग की पूर्ति करना चाहता हैं लेकिन वहां सदा भौतिक प्राण की सहज प्रवृत्तियों की मार्ग-च्युति, भ्रांति और स्थूलता और स्थूल इन्द्रियबोध तथा स्थूल उपकरणों का इंकार और विघ्न-बाधा उपस्थित होते हैं । मूल हमेशा उसके ज्ञान का पीछा करती रहती है, अंधकार उसके प्रकाश का अभिन्न सखा और पृष्ठ-भूमि है; सत्य को सफलता के साथ खोजा जाता है लेकिन फिर भी जब पकड़ में आता है तो वह सत्य नहीं रहता और खोज को जारी रखना पड़ता है; प्रेम वहां होता तो है परंतु वह अपने-आपको संतुष्ट नहीं कर पाता, हर्ष वहां होता तो है परंतु वह अपना औचित्य प्रमाणित नहीं कर सकता और इनमें से हर एक अपने विरोधी तत्त्व को, क्रोध, घृणा और उदासीनता को, वितृष्णा, दुःख और कष्ट को अपने साथ ऐसे घसीटता चलता है मानों वे उसके साथ बंधी जंजीर हों या उन्हें इस तरह

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प्रक्षिप्त करता है मानों वे उसकी छाया हों । जड़ मन और प्राण की मांगों का उत्तर जिस तामसिकता से देता है वह तामसिकता अज्ञान पर और जो मूढ़ शक्ति अज्ञान का बल है उस पर होनेवाली विजय को रोकती है ।

 

    और जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्यों है तो हम देखते हैं कि तमस और बाधाओं की विजय जड़ की एक तीसरी शक्ति के कारण होती है क्योंकि जड़ आत्मा के सामने जो तीसरा मूलगत विरोध खड़ा करता है वह यह है कि वह विभाजन और संघर्ष के तत्त्व की पराकाष्ठा है । वस्तुतः अविभाज्य होने पर भी उसकी क्रिया का सारा आधार है विभाजनशीलता और ऐसा लगता है मानों उसे इस आधार से हटने की सदा के लिये मनाही कर दी गयी है, क्योंकि उसके ऐक्य की दो ही विधियां हैं, या तो इकाइयों को समूह बनाना या आत्मसात् करना जिसमें एक इकाई का दूसरी के द्वारा नष्ट होना जरूरी है । ऐक्य की ये दोनों विधियां शाश्वत विभाजन की स्वीकृति हैं क्योंकि पहली विधि भी एक करने की जगह इकाइयों का संयोजन करती है और इसका सिद्धांत ही वियोजन और विलयन की सतत संभावना और इस कारण उनकी अंतिम आवश्यकता को स्वीकार करता है । दोनों विधियां मृत्यु का सहारा लेती हैं, एक जीवन के साधन के रूप में, दूसरी उसकी शर्त्त के रूप में । दोनों यह मान लेती हैं कि जगत् के अस्तित्व की अवस्था ही ऐसी है जिसमें विभक्त इकाइयों में सदा एक दूसरे के साथ संघर्ष चलता है, हर एक अपने-आपको बनाये रखने, अपने समूहों को बनाये रखने, जो उसका प्रतिरोध करता है उसे बाधित या नष्ट करने, औरों को अपने खाद्य के रूप में अपने अंदर मिला लेने और निगल जाने का प्रयत्न करती है लेकिन अपने-आप बाध्यता, विनाश और भक्षण द्वारा निगले जाने के विरुद्ध विद्रोह करने और बच भागने की प्रवृत्ति रखती है । जब प्राणिक तत्त्व जड़ में अपनी क्रियायें अभिव्यक्त करता है तो वह अपनी सभी क्रियाओं के लिये बस यही आधार पाता है और उसे जूए के नीचे गरदन देने के लिये बाधित होना पड़ता है । उसे मृत्यु कामना और सीमितता के नियम को और भक्षण करने, अधिकार जमाने और शासन करने के उस सतत संघर्ष को स्वीकार करना पड़ता है जिसे हम प्राण के पहले रूप की नाई देख चुके हैं । जब मानसिक तत्त्व जड़ में अभिव्यक्त होता है तो उसे, वह जिस सांचे और सामग्री को लेकर क्रिया करता है, उससे परिसीमन का, निश्चित प्राप्ति से रहित खोज का वही नियम स्वीकार करना पड़ता है । अपनी उपलब्धियों का और अपने कार्यों के उपादानों का वही सतत संयोजन और वियोजन स्वीकार करना पड़ता है जिससे मनोमय प्राणी यानी मनुष्य द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान कभी अंतिम या संदेह और अस्वीकृति से मुक्त नहीं मालूम होता । और ऐसा लगता है कि उसका सारा श्रम क्रिया-प्रतिक्रिया के और बनाने और तोड़ने के छन्द में चलने के लिये, रचना और अल्पकालिक संरक्षण और लंबे विनाश के चक्रों में घूमने के लिये

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अभिशप्त है । उसके लिये कोई निश्चित और आश्वासित प्रगति नहीं है ।

 

    विशेषत: सबसे अधिक घातक रूप से, जड़तत्त्व के अज्ञान, तमस और विभाजन उसमें उभरती हुई प्राणिक और मानसिक सत्ता पर दुःख और कष्ट का विधान और विभाजन, तमस और अज्ञान की अवस्था के प्रति असंतोष की बेचैनी लाद देते हैं । अगर मानसिक चेतना एकदम अज्ञानभरी होती, यदि वह किसी रीति-रिवाज के घोंघे में संतुष्ट होकर रुक जाती, उसे स्वयं अपने अज्ञान का पता न होता या वह चेतना और ज्ञान के उस सागर से पूरी तरह अनभिज्ञ होती जिससे वह घिरी रहती है तो निश्चय ही अज्ञान असंतोष का कोई दु:ख न का पाता । लेकिन जड़ में से उभरती हुई चेतना ठीक इसी चीज की ओर जागती है, पहले तो वह जिस जगत् में रहती है और जिसे जानना और जिसका मालिक होना उसके सुखी होने के लिये जरूरी है उसके बारे में अपने अज्ञान के प्रति जागती है, दूसरे अपने ज्ञान की अंतिम निष्फलता और सीमितता के प्रति, वह ज्ञान जिस बल और सुख को लाता है उसकी अल्पता और अस्थिरता के प्रति और एक ऐसी अनंत चेतना, ज्ञान तथा सच्ची सत्ता की अभिज्ञता के प्रति जागती है, केवल इसी चेतना में ही विजयी और अनंत सुख मिल सकता है । ना ही तमस की बाधा अपने साथ बेचैनी और असंतोष ला पाती यदि जड़ में से उभरती हुई प्राणिक संवेदनशीलता पूरी तरह निश्चेष्ट होती, यदि यह अपने अर्द्ध चेतन सीमित जीवन से संतुष्ट रहती, यदि जिस अनंत शक्ति और अमर जीवन के अंग रूप में, लेकिन फिर भी उससे अलग रहती हैं, उससे वह अनभिज्ञ रहती या यदि उसमें ऐसा कुछ भी न होता जो उसे उस अनंतता और अमरता में यथार्थ रूप से भाग लेने के लिये प्रयास करने को प्रेरित करता । लेकिन ठीक इसी चीज का अनुभव करने और उसे खोजने के लिये सारे प्राण को शुरू से प्रेरित किया जाता है, उसे अपनी असुरक्षितता का बोध होता है, बने रहने की आत्म-संरक्षण की आवश्यकता और उसके लिये संघर्ष का बोध होता है । अन्त में वह अपने जीवन की सीमाओं के प्रति जागता है और बृहतता तथा स्थायित्व की ओर, अनन्त और शाश्वत की ओर प्रेरणा अनुभव करना शुरू करता है ।

 

    और जब मनुष्य में प्राण पूरी तरह आत्म-सचेतन हो जाता है तो यह अपरिहार्य संघर्ष और प्रयास तथा अभीप्सा अपने चरम बिंदु पर पहुंच जाते हैं और जगत् के दुःख-दर्द और विसंगति आखिर इतनी उग्रता से अनुभव होने लगते हैं कि उन्हें संतोष के साथ नहीं सहा जा सकता । मनुष्य अपनी सीमाओं से संतुष्ट रहने की कोशिश करता हुआ या वह जिस भौतिक जगत् में निवास करता है उस पर जितनी प्रभुता पायी जा सकती है उतनी पाने के लिये, उसकी निश्चेतन दृढ़ताओं पर अपने प्रगतिशील ज्ञान की कुछ मानसिक और स्थूल विजय के लिये, उसकी तमस् द्वारा परिचालित प्रचण्ड शक्तियों पर अपनी छोटी-सी, एकाग्र सचेतन इच्छा और शक्ति की विजय के लिये अपने संघर्ष को सीमित करता हुआ एक लंबे अर्से तक अपने-

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आपको शांत रख सकता है । लेकिन यहां भी वह जिन बड़े-से-बड़े परिणामों को पा सकता है उनकी सीमा, उनकी दरिद्र निर्णयहीनता उसके सामने आती है और वह परे देखने के लिये बाधित होता है । ससीम जबतक अपने से बड़े ससीम के बारे में या अपने से परे असीम के बारे में सचेतन रहता है जिसके लिये वह अब भी अभीप्सा कर सकता है, तबतक वह स्थायी रूप से संतुष्ट नहीं रह सकता । अगर ससीम इस तरह संतुष्ट हो सकता तो भी ससीम दीखनेवाला जीव, जो अपने-आपको वास्तव में असीम अनुभव करता है, या अंदर एक असीम की मात्र उपस्थिति या उसके अन्तर्वेग या स्पंदन को अनुभव करता है, वह तबतक संतुष्ट नहीं हो सकता जबतक इन दोनों में सामंजस्य न हो जाये, जबतक वह ससीम उस असीम को और असीम ससीम को अपने अधिकार में न कर ले, वह चाहे जिस परिमाण में और चाहे जिस तरह से हो । मनुष्य ऐसा ही सान्त दीखनेवाला अनन्त है और वह अनंत की खोज किये बिना नहीं रह सकता । वह पृथ्वी का पहला पुत्र है जो भीतर के भगवान् के बारे में, अपनी अमरता या अमरता की आवश्यकता के बारे में अस्पष्ट रूप से अभिज्ञ होता है और इस ज्ञान को जबतक वह अनंत प्रकाश, आनंद और शक्ति के स्रोत में बदलने योग्य नहीं हो जाता तबतक वह ज्ञान हांकनेवाला चाबुक या बलि का क्रूस ही बना रहता है ।

 

    अगर जड़ का आरंभ कठोर विभाजनशीलता के सिद्धांत से न हुआ होता तो जड़ के अज्ञान और तमसू में अपने-आपको खो देनेवाली दिव्य चेतना, शक्ति, ज्ञान और इच्छा का यह क्रमिक विकास और यह बढ़ती हुई अभिव्यक्ति आनंद से अधिक आनंद और अंत में अनंत आनंद के सुखद प्रस्फुटन में हुई होती । व्यक्ति का पृथक् और सीमित मन, प्राण तथा शरीर की अपनी ही व्यक्तिगत चेतना में बंद रहना उस चीज को रोकता है जो अन्यथा हमारे विकास का प्राकृत धर्म होती । यह शरीर में आकर्षण और विकर्षण, आक्रमण और संरक्षण, असंगति और पीड़ा के विधान लाता है । क्योंकि सीमित चित्-शक्ति होने के नाते प्रत्येक शरीर यह अनुभव करता हैं कि वह ऐसी ही अन्य चित्-शक्तियों या वैश्व शक्तियों के आक्रमण, आघात, सबल संपर्क के प्रति खुला है । जहां वह अनुभव करता है कि उसपर कोई शक्ति टूट पड़ी है या वह संपर्क करनेवाली और ग्रहण करनेवाली चेतना में सामंजस्थ बैठाने में असमर्थ रहता है वहीं वह अशांति और पीड़ा अनुभव करता है आकर्षित या विकर्षित होता है, उसे अपनी रक्षा करनी होती है या आक्रमण करना होता है, जिसे वह सहन करने को अनिच्छुक या असमर्थ होता है उसीको भोगने के लिये उसे हमेशा विवश किया जाता है । भावनामय और ऐन्द्रिय मन में विभाजन का विधान उन्हीं प्रतिक्रियाओं को सुख-दुःख, प्रेम और घृणा, अत्याचार और अवसाद के ऊंचे मूल्यों के साथ लाता है । इन सबको कामना की अभिधा में ढाला जाता है और कामना के द्वारा प्रयास और दबाव में, दबाव से

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शक्ति के अतिरेक और उसकी कमी में, असामर्थ्य में, प्राप्ति और निराशा, उपलब्धि और जुगुप्सा, सतत संघर्ष, कष्ट और व्याकुलता में ढाला जाता है । सब मिलाकर मन में संकीर्णतर सत्य के विशालतर सत्य में आ मिलने, कम प्रकाश के अधिक प्रकाश में ले लिये जाने, निम्नतर इच्छा के उच्चतर रूपांतरकारी इच्छा में समर्पित होने, तुच्छ तुष्टियों के अधिक अभिजात और अधिक पूर्ण संतोष में बढ़ने के दिव्य विधान की जगह वह सत्य के वैसे ही द्वंद्वों को ले आता है जिनमें सत्य के साथ भ्रांति, प्रकाश के साथ अंधकार, शक्ति के साथ असमर्थता, खोज और प्राप्ति के सुख के साथ विरक्ति का और जो कुछ पाया है उसमें असंतुष्टि का दुःख लगा रहता है । मन प्राण और शरीर के दुःख के साथ अपने दुःख को भी ले लेता है और हमारी प्राकृत सत्ता की त्रिविध त्रुटि और अपर्याप्तता के बारे में अभिज्ञ हो जाता है । इस सबका अर्थ है आनंद का निषेध, सच्चिदानंद के त्रित्व का प्रतिवाद और अगर यह प्रतिवाद अलंध्य हो तो जीवन की व्यर्थता । क्योंकि जब सत्ता अपने-आपको चेतना और शक्ति के खेल में प्रक्षिप्त करती है तो गति की चाह निश्चित रूप से केवल गति के लिये ही नहीं करती बल्कि लीला से प्राप्त होनेवाली तृप्ति के लिये करती है और यदि लीला में कोई वास्तविक तृप्ति न मिले तो अंत में उसे अपने-आपको शरीर देनेवाली आत्मा का एक व्यर्थ प्रयास, उसकी बहुत बड़ी भूल, उसका प्रलाप मान कर छोड़ देना होगा ।

 

    जगत् के बारे में निराशावादी मत का सारा आधार यहीं है -वह भले परवर्ती लोकों और अवस्थाओं के बारे में आशावादी हो परंतु पार्थिव जीवन और भौतिक जगत् के साथ व्यवहार करनेवाले मानसिक प्राणी की नियति के संबंध में निराशावादी रहता है । क्योंकि वह इस बात की पुष्टि करता है कि चूंकि भौतिक जीवन का स्वरूप ही विभाजन है और शरीरधारी मन का बीज ही आत्म-परिसीमन, अज्ञान और अहंकार है; अतः, धरती पर आत्मा की तुष्टि खोजना या जगत्-लीला के किसी परिणाम और दिव्य प्रयोजन और उत्कर्ष की खोज व्यर्थ और भ्रांति है । इस जगत् में नहीं, आत्मा के स्वर्ग में ही या आत्मा की जागतिक क्रियाओं में नहीं बल्कि आत्मा की सच्ची प्रशांति में ही हम जीवन और चेतना को दिव्य आत्मानंद के साथ फिर से एक कर सकते हैं । असीम अपने-आपको फिर से तभी पा सकता है जब वह अपने-आपको ससीम में खोजने के प्रयास को भूल और गलत कदम मानकर त्याग दे, ना ही भौतिक विश्व में मानसिक चेतना का आविर्भाव दिव्य परिपूर्ति का कोई आश्वासन ही दे सकता है क्योंकि विभाजन का तत्त्व जड़ का नहीं, मन का धर्म है । जड़ मन की एक भ्रांति मात्र है जिसमें मन विभाजन और अज्ञान के अपने नियम को ले आता है । अतः इस भ्रांति में मन केवल अपने-आपको ही पा सकता है । वह विभाजित जीवन की अपनी बनायी हुई त्रयी के बीच ही घूम सकता है । यहां वह आत्मा का एकत्व या आध्यात्मिक जीवन का सत्य नहीं पा सकता ।

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    अब यह तो सच है कि जड़ में विभाजन का तत्त्व विभाजित मन की ही रचना हो सकता है जिसने अपने-आपको जड़ सत्ता में अवक्षिप्त कर लिया है; क्योंकि उस जड़ सत्ता की कोई आत्म-सत्ता नहीं होती, वह मौलिक व्यापार न होकर केवल एक रूप है जिसे ऐसी सर्वविभाजनकारी प्राण-शक्ति ने रचा है जो सर्वविभाजनकारी मन की धारणाओं को क्रियान्वित करती है । सत्ता को जड़ तत्त्व के अज्ञान, तमसू और विभाजन के इन रूपों में कायर्यन्वत करनेवाला विभाजनकारी मन अपने-आपको अपनी ही बनायी कारा में खो देता और बंदी बन जाता है, अपनी ही गढ़ी हुई जंजीरों में जकड़ जाता है । और अगर यह सच हो कि विभाजक मन ही सृष्टि का पहला तत्त्व है तो इसीको सृष्टि में संभव हो सकनेवाली अंतिम प्राप्ति भी होना चाहिये । और प्राण तथा जड़ के साथ व्यर्थ संधर्ष करनेवाली, अपने-आप उनसे पराजित होने के लिये उन्हें पराजित करनेवाली, अनंत काल तक निष्फल चक्र को चलाते रहनेवाली मानसिक सत्ता ही वैश्व जीवन का अंतिम और उच्चतम शब्द होगी । इसके विपरीत यदि अमर और अनंत आत्मा ने अपने-आपको जड़ द्रव्य के घने चोगे में छिपा रखा है और वहां वह अतिमानस की परम सृजनकारी शक्ति के द्वारा काम कर रही है और मन के विभाजनों और निम्नतम अथवा जड़ तत्त्व के शासन को अनुमति देती है तो यह बहु में एक की विकासमयी लीला की प्रारंभिक अवस्था है और इसमें ऐसा कोई परिणाम नहीं आता । दूसरे शब्दों में विश्व के रूपों में केवल मानसिक सत्ता ही नहीं छिपी हुई है बल्कि अनंत सत् ज्ञान और इच्छा है जिसका आविर्भाव पहले जड़ रूप में, फिर प्राण रूप में और फिर मन रूप में होता है और बाकी सब तब भी अप्रकट ही रहता है, तब आभासी निश्चेतना में से चेतना के आविर्भाव का एक और तथा अधिक संपूर्ण तत्त्व होना चाहिये । तब एक ऐसी अतिमानसिक आध्यात्मिक सत्ता का आविर्भाव असंभव नहीं रह जाता जो अपने मन, प्राण और शरीर की क्रियाओं पर विभाजनकारी मन के विधान की जगह एक उच्चतर विधान लागू करेगी । इसके विपरीत यह विश्व-सत्ता के स्वरूप की स्वाभाविक तथा अपरिहार्य निष्पत्ति है ।

 

    जैसा कि हम देख आये हैं, इस तरह की अतिमानसिक सत्ता मन को उसके विभक्त अस्तित्व की ग्रंथि से मुक्त कर देगी और व्यष्टि-रूप मन को सर्वालिंगनकारी अतिमानस की एक उपयोगी गौण-क्रिया के रूप में काम में लायेगी, वह प्राण को भी विभक्त अस्तित्व की ग्रंथि से मुक्त कर देगी और व्यष्टि-रूप प्राण को केवल एकमेव चित् शक्ति की एक उपयोगी और गौण क्रिया मात्र के रूप में काम में लायेगी । इस तरह प्राण की सत्ता और आनंद एक विविधतापूर्ण एकत्व में संपन्न किये जायेंगे । तो क्या इसका भी कोई कारण हो सकता है कि वह शारीरिक सत्ता को भी मृत्यु विभाजन और परस्पर भक्षण के वर्तमान विधान से मुक्त न करे और शरीर के व्यष्टि-रूप का उपयोग दिव्य चित्-सत् के केवल एक

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अधीनस्थ पद के रूप में न करे जो सांत में अनंत के आनंद के लिये उपयोगी हो ? या क्यों यह आत्मा रूप पर पूरा-पूरा अधिकार रखते हुए मुक्त न रहे, अपने जड़ पदार्थ के बदलते हुए चोगे में सचेतन रूप से अमर क्यों न रहे, एकत्व, प्रेम और सौंदर्य के विधान के अधीनस्थ जगत् में आत्मानंद क्यों न प्राप्त करे ? और अगर आदमी पार्थिव जगत् का वह निवासी है जिसके द्वारा अंततः मानसिक का अतिमानसिक में रूपांतर साधित हो सकता है तो क्या यह संभव नहीं है कि वह साथ ही दिव्य मन, प्राण और दिव्य शरीर भी विकसित कर ले ? या अगर ये शब्द मानव शक्यता के बारे में हमारी वर्तमान सीमित धारणा को बहुत अधिक चौंकानेवाले हों तो क्या मनुष्य अपनी सच्ची सत्ता का, उसके प्रकाश, आनंद और बल का विकास करता हुआ मन, प्राण और शरीर के ऐसे दिव्य उपयोग की स्थिति में नहीं पहुंच सकता जिसमें मानव दृष्टि से और साथ-ही-साथ दिव्य दृष्टि से आत्मा का रूप में अवतरण न्यायोचित सिद्ध हो ?

 

    उस चरम पार्थिव संभावना के रास्ते में जो एक चीज बाधा दे सकती है वह है अगर जड़ तत्त्व और उसके नियमोसंबधी हमारी वर्तमान दृष्टि ऐसा प्रस्तुत करे कि इन्द्रियों और पदार्थों के बीच, ज्ञाता-रूप भगवान् और ज्ञेय-रूप भगवान् के बीच संबंध ही एकमात्र संभव संबंध है और यदि अन्य संबंध संभव हों तो वे किसी भी हालत में यहां संभव नहीं हैं, उन्हें अस्तित्व के उच्चतर स्तरों पर खोजना होगा । उस हालत में, जैसा कि धर्म कहते हैं, हमें अपनी सारी दिव्य परिपूर्ति की खोज यहां से परे स्वर्गों में ही करनी होगी और धर्मों के दूसरे प्रतिपादन को, कि पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य हो या पूर्णता का राज्य हो, उसे भ्रम कहकर अलग कर देना होगा । यहां पर हम केवल आंतरिक तैयारी या विजय के लिये प्रयास कर सकते या उसे प्राप्त कर सकते हैं और भीतर मन, प्राण और अंतरात्मा को मुक्त करके हमें अविजित और अविजेय जड़ तत्त्व से मुंह मोड़ लेना होगा; अपुनरुज्जीवित और दुर्दमनीय धरती से हटकर अपने दिव्य पदार्थ को कहीं और पाना होगा । फिर भी इसका कोई कारण नहीं कि हम इस सीमित करने वाले परिणाम को स्वीकार करें । निश्चय ही स्वयं जड़-तत्त्व की भी और स्थितियां हैं । निःसंदेह, पदार्थ की दिव्य श्रेणियों की एक आरोहणकरी क्रम-परंपरा है । यह संभव है कि भौतिक सत्ता अपने विधान की अपेक्षा उच्चतर विधान को स्वीकार करके अपने-आपको रूपांतरित करे और उच्चतर विधान भी स्वयं उसीका हो क्योंकि वह उसके अन्तर की गहराई में हमेशा शक्यता रूप में अन्तर्निहित रहता है ।

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अध्याय २६

 

द्रव्य का आरोहणकारी सोपान

 

स वा एष पुरुषोऽन्नरसमय: ।... अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमय: । तेनैष

पूर्ण:... अन्योऽत्तर आत्मा मनोमय: ।... अन्योऽत्तर आत्मा

विज्ञानमय: ।... अन्योऽन्तर आत्मा आनन्दमय: ।

 

एक आत्मा है जो अन्न-रसमय है ।... एक और आन्तरिक आत्मा

है, प्राणमय जो उसे पूर्ण करती है ।... एक और आंतरिक आत्मा

है मनोमय ।... एक और आंतरिक आत्मा है विज्ञानमय (सत्य

ज्ञानमय) ।... एक और आंतरिक आत्मा है आनंदमय ।

तैत्तिरीयोपनिषद् २.१-५

 

... ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे ।।

त् सानो: सानुमारुहद भूर्यस्पष्ट कर्त्वम्

तदिन्द्रो अर्थं चेतति... ।।

 

वे इन्द्र पर सीढ़ी की तरह चढ़े । चोटी के बाद चोटी चढनेवाले को

यह स्पष्ट हो जाता है कि अभी और कितना करना बाकी है, इन्द्र यह

चेतना लाता हैं कि वह ''तत्'' लक्ष्य है ।

ऋग्वेद १. १०. १,

 

चमूषच्छयेन: शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।

अपामूर्मिं सचमान समुद्रं तुरीय धाम महिषो विवक्ति ।।

मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजनोऽत्यो न सत्वा सनये धनानाम्

वृषेव यूथा परि कोशमर्षन् कच्छिदच्चम्वो३रा विवेश ।।

 

बाज की तरह, चील की तरह पात्र पर बैठता है और उसे ऊपर

उठाता है । अपनी गतिधारा में वह किरणों को प्राप्त करता है

क्योंकि वह अपने शस्त्र धारण किये हुए चलता है, वह जल की

सागर लहरों से चिपकता है । महान् राजा के रूप में वह चौथे धाम

की घोषणा करता है । जैसे मर्त्य प्राणी अपने शरीर को शुद्ध करता

है, जैसे युद्ध का घोड़ा धन जीतने के लिये छलांगे भरता हुआ

दौड़ता हैं, वह आवाहन करता हुआ समस्त कोष पर बरसता हुआ

आता है और इन पात्रों में प्रवेश करता है ।

ऋग्वेद ९.९६.१९, २०

 

    अगर हम यह विचार करें कि हमारे लिये जड़ के जड़त्व की सबसे अधिक

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सूचना देनेवाला तत्त्व कौन-सा है तो हम उसके ये पहलू देखेंगे : उसकी घनता, स्पृश्यता, बढ़ती हुई प्रतिरोध-शक्ति, इन्द्रिय-स्पर्श के प्रति दृढ़ प्रतिक्रिया । द्रव्य हमारे आगे जितना अधिक ठोस प्रतिरोध खड़ा करता है उस प्रतिरोध के कारण इन्द्रियगम्य रूप का ऐसा स्थायित्व लाता है जिसपर हमारी चेतना टिक सकती है, उसी अनुपात में वह हमें अधिक सचमुच जड़ और वास्तविक प्रतीत होता है । वह जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उसका प्रतिरोध जितना कम ठोस होता है और इन्द्रियां जिसे थोड़ी देर को ही पकड़ पाती हैं, वह हमें उतना ही कम जड़ या भौतिक प्रतीत होता है । जड़ के प्रति हमारी सामान्य चेतना का यह भाव उस मूलभूत उद्देश्य का प्रतीक है जिसके लिये जड़ तत्त्व की रचना की गयी है । द्रव्य जड़ अवस्था में इसलिये जाता है ताकि जिस चेतना को उसके साथ व्यवहार करना है उसके आगे वह स्थायी, भली-भांति पकड़ में आनेवाले मूर्त रूप उपस्थित कर सके जिन पर मन टिक सके और उन्हें अपनी क्रियाओं का आधार बना सके और प्राण अंततः सापेक्ष स्थायित्व के विश्वास के साथ उस रूप पर काम कर सके जिसका वह व्यवहार करता है । इसी कारण प्राचीन वैदिक सूत्रों में पृथ्वी को, जो द्रव्य की अधिक ठोस स्थितियों का प्रतीक है, जड़ तत्त्व के प्रतीकात्मक नाम के रूप में स्वीकार किया गया था । अतः हमारे लिये स्पर्श या संपर्क संवेदन का मूलभूत आधार है । अन्य सभी भौतिक इन्द्रियां रसना, ध्राण, श्रवण और दृष्टि ये सब देखनेवाले और देखे जानेवाले के बीच अधिकाधिक सूक्ष्म और परोक्ष सक्ष्म की श्रेणी पर निर्भर हैं । इसी तरह सांख्य में द्रव्य का पंचभूतों में आकाश से पृथ्वीतक जो वर्गीकरण किया गया है उसमें हम देखते हैं कि उनकी विशेषता यह है कि अधिक सूक्ष्म से कम सूक्ष्म की ओर निरंतर प्रगति जिसमें एक ओर शिखर पर हैं आकाशीय तत्त्व के सूक्ष्म स्पंदन और नीचे, आधार में है पार्थिव या घनीभूत तत्त्व की अधिक स्थूल घनता । अतः शुद्ध द्रव्य की वैश्व संबंध के उस आधार की ओर प्रगति में जड़ ही वह अंतिम अवस्था है जो हमें ज्ञात है, जिसमें प्रथम शब्द आत्मा न होकर रूप होगा, ऐसा रूप जो अपनी अधिक-से-अधिक संभव विकास अवस्था में सान्द्रता, प्रतिरोध, स्थायी-स्थूल आकार, पारस्परिक अभेद्यता होगा -विभेद, पृथक्ता और विभाजन की पराकाष्ठा होगा । जड़ विश्व का यही प्रयोजन है और यही उसका स्वभाव है । यही संपादित विभाजन का सूत्र है ।

 

    और यदि, जैसा कि वस्तुओं के स्वभाव में होना चाहिये, जड़ से आत्मा तक द्रव्य का कोई चढ़ता हुआ सोपान है तो उसकी विशेषता होनी चाहिये स्थूल तत्त्व की इन सबसे अधिक विशेष क्षमताओं में क्रमश: कमी और इनसे उल्टी विशेषताओं में क्रमश: वृद्धि जो हमें शुद्ध आध्यात्मिक आत्म-प्रसारण के सूत्र तक पहुंचा दे । मतलब यह कि उनमें स्पष्टत: रूप का बंधन कम होता जायेगा, पदार्थ और शक्ति में अधिकाधिक सूक्ष्मता और लचीलापन दिखायी देगा, अधिकाधिक

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सम्मिश्रण, अन्तव्याप्ति, आत्मसात् करने की शक्ति, अधिकाधिक आदान-प्रदान की शक्ति, वैविध्य, रूप-परिवर्तन और एकीकरण की शक्ति दिखायी देगी । रूप के स्थायित्व से दूर हट कर हम सारतत्त्व की शाश्वतता की ओर खिंचते हैं । भौतिक जड़ तत्त्व के प्रतिरोध तथा आग्रही विभाजन में स्थित अपने स्थायित्व से हटकर हम आत्मा की शाश्वतता, एकता और अविभाज्यता के उच्चतम दिव्य स्थायित्व के नजदीक पहुंचते हैं । स्थूल द्रव्य और शुद्ध आत्मा के द्रव्य में यह आधारभूत विरोध अवश्य रहेगा । जड़ में चित् या चित्-शक्ति अपने-आपको अधिकाधिक घनीभूत करती है ताकि वह उसी चित्-शक्ति की अन्य राशियों का प्रतिरोध कर सके और उनके विरुद्ध खड़ी हो सके । आत्मा के द्रव्य में शुद्ध चेतना सारभूत अविभाज्यता और सतत एकत्वकारी पारस्परिक आदान-प्रदान को आधारभूत सूत्र बना कर अपनी निजी शक्ति की अधिक से अधिक वैविध्यपूर्ण क्रीड़ा का भी यहीं आधार-सूत्र रखते हुए अपने आत्म-बोध में अपने-आपको स्वतंत्रता से मूर्त करती है । इन दो छोरों के बीच अनंत श्रेणीकरण की संभावना रहती है ।

 

    ये विवेचन तब बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं जब हम पूर्णताप्राप्त मानव आत्मा के दिव्य जीवन, दिव्य मन और इस अतिशय स्थूल और अदिव्य प्रतीत होते हुए शरीर या भौतिक सत्ता के नियम -जिसमें हम वास्तव में निवास करते हैं --इनके संभव संबंध पर विचार करते हैं । वह नियम इन्द्रिय और द्रव्य के उस विशेष निर्धारित संबंध का परिणाम है जिससे जड़ जगत् का आरंभ हुआ है । लेकिन चूंकि यह संबंध ही एकमात्र संभव संबंध नहीं है उसी तरह वह नियम भी एकमात्र संभव नियम नहीं है । प्राण और मन अपने-आपको द्रव्य के साथ किसी और संबंध में व्यक्त कर सकते हैं और अन्य स्थूल नियमों को और अन्य तथा ज्यादा बड़े अभ्यासों को कार्यान्वित कर सकते हैं यहां तक कि शरीर के भिन्न द्रव्य को भी चरितार्थ कर सकते हैं जहां इन्द्रियों की अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी, प्राण की अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी, मन की भी अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी । मृत्यु, विभाजन और एक ही चेतन प्राण-शक्ति की शरीरधारी राशियों में परस्पर विरोध और बहिष्कार हमारे भौतिक अस्तित्व के सूत्र हैं और इन्द्रियों की क्रीड़ा का संकरा सीमाबंधन, प्राण की क्रियाओं के क्षेत्र, अवधि और बल का एक छोटे से घेरे में निर्धारण, मन की अस्पष्ट, पंगु गति, टूटी-फूटी सीमित क्रियाएं वह जूआ है जिसे पशु-शरीर में अभिव्यक्त यह नियम उच्चतर तत्त्वों पर लादता है । लेकिन ये चीजें ही वैश्व प्रकृति का एकमात्र संभव लय नहीं हैं । श्रेष्ठतर अवस्थाएं हैं, उच्चतर जगत् हैं । अगर मनुष्य की किसी प्रगति द्वारा और हमारे द्रव्य की अपनी वर्तमान अपूर्णताओं से किसी मुक्ति द्वारा उन उच्चतर स्थितियों और जगतों के विधान को हमारी सत्ता के इस गोचर रूप और यंत्र पर लागू किया जा सके तो उस अवस्था में यहां भी दिव्य मन और इन्द्रिय की भौतिक क्रिया, मानव ढांचे में दिव्य प्राण की

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भौतिक क्रिया हो सकती है । पृथ्वी पर भी ऐसी किसी चीज का विकास हो सकता है जिसे हम दिव्य मानव शरीर कह सकें । हो सकता है कि मानव शरीर भी किसी दिन अपना रूपांतर पा ले और धरती माता भी हमारे अंदर अपना देवत्व प्रकट कर दे ।

 

    भौतिक जगत् के विधान में भी जड़ के सोपान में एक ऊपर उठता हुआ क्रम है जो हमें अधिक घन से कम घन की ओर, कम सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म की ओर ले जाता है । जब हम इस क्रम के सबसे ऊंचे पदतक जा पहुंचते हैं, जड़ द्रव्य या शक्ति के रूपायन की सबसे अधिक अतिव्योम सूक्ष्मता पर जा पहुंचते हैं तो उसके परे क्या होता है ? नास्ति नहीं, शून्य नहीं क्योंकि परम शून्य या वास्तविक नास्ति के जैसी कोई चीज है ही नहीं और जिसे हम इस नाम से पुकारते हैं वह केवल एक ऐसी चीज है जो हमारी इन्द्रियों, हमारे मन और हमारी सूक्ष्मतम चेतना की पकड़ से बाहर है । और यह भी सच नहीं है कि परे कुछ है ही नहीं या यह कि जड़ द्रव्य का कोई आकाशीय तत्त्व ही शाश्वत आदिहै, क्योंकि हम जानते हैं कि जड़ द्रव्य और जड़ शक्ति केवल उस शुद्ध द्रव्य और शुद्ध शक्ति के अंतिम परिणाम हैं जिनमें चेतना ज्योतिर्मय रूप से आत्म-अभिज्ञ और आत्म-निष्ठ रहती है । उस तरह से नहीं जैसे जड़ द्रव्य में वह अपने लिये ही निश्चेतना की नींद सोयी और खोयी और गति में क्रिया-शून्य होती है । तो फिर इस जड़-द्रव्य और उस शुद्ध द्रव्य के बीच में क्या है ? क्योंकि हम एक से दूसरे की ओर छलांग नहीं मारते, निश्चेतना से एकदम परम चेतना में नहीं चले जाते । जैसे जड़-तत्त्व आत्मा के तत्त्व के बीच है उसी तरह निश्चेतन और पूरी तरह सचेतन आत्म-विस्तार के बीच भी क्रम सोपान होंगे और हैं ।

 

   जिन लोगों ने इन अगाध खाइयों की थाह ली है वे इस बात पर सहमत है और इसके साक्षी हैं कि द्रव्य के अधिकाधिक सूक्ष्म रूपायनों के क्रम हैं जो जड़ जगत् के विधान से बच निकलते और उसके परे चले जाते हैं । इन मामलों की अधिक गहराई में गये बिना, जो हमारी वर्तमान जांच के लिये बहुत ज्यादा गुह्य और कठिन हैं, हम जिस पद्धति के आधार पर चल रहे हैं उसी पर चलते हुए कह सकते हैं कि द्रव्य के ये क्रम इन श्रेणियों के रूपायन के एक महत्त्वपूर्ण पहलू में जड़, प्राण, मन, अतिमानस और इनसे भी ऊपर सच्चिदानंद के अन्य उच्चतर दिव्य त्रिक की ओर ऊपर चढ़ती हुई क्रम-परंपरा से मेल खाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो हम देखते हैं कि अपने आरोहण में द्रव्य इनमें से हर एक तत्त्व को अपना आधार बनाता है और उनमें से हर एक के चढ़ते हुए सोपानों में अपने-आपको क्रमश: उनकी प्रधान वैश्व अभिव्यक्ति का विशिष्ट वाहन बना लेता है ।

 

   यहां इस जड़ जगत् में हर चीज जड़ द्रव्य के नियम पर आधारित है । इन्द्रियां, प्राण, विचार ये अपना आधार उसपर रखते हैं जिसे प्राचीन लोग पृथ्वी-शक्ति

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कहते थे । ये वहीं से शुरू होते, उसीके नियमों का पालन करते, अपनी क्रियाओं को इसी मूलभूत तत्त्व के अनुकूल बनाते, अपने-आपको उसीकी संभावनाओं के द्वारा सीमित करते हैं । अगर वे किन्हीं और संभावनाओं को विकसित करना चाहें तो उस विकास में भी इस मूल तत्त्व का, उसके प्रयोजन और दिव्य विकास-क्रम से की गयी उसकी मांग का ख्याल रखते हैं । इन्द्रिय-बोध भौतिक उपकरणों द्वारा काम करता है, प्राण भौतिक स्नायु-संस्थान और प्राणिक अंगों द्वारा काम करता है । मन को अपनी क्रियाएं एक शारीरिक आधार पर खड़ी करनी पड़ती हैं और स्थूल यंत्र-विन्यास का उपयोग करना पड़ता है, उसकी विशुद्ध मानसिक क्रियाओं को भी इस प्रकार प्राप्त हुए तथ्यों को अपनी क्रिया का क्षेत्र और विषयवस्तु बनाना पड़ता है । मन, इन्द्रियों और प्राण के तात्त्विक स्वरूप में ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि वे इतने सीमित हों क्योंकि भौतिक इन्द्रियां इन्द्रिय-बोध की रचयिता नहीं हैं बल्कि वे स्वयं वैश्व इन्द्रिय-बोध की रचना, उसके यंत्र और यहां उसकी आवश्यक सुविधाजनक वस्तुएं हैं । स्नायु-तंत्र और प्राणिक अंग प्राणिक क्रिया-प्रतिक्रिया के स्रष्टा नहीं हैं बल्कि है स्वयं वैश्व प्राण-शक्ति की रचना, उसके यंत्र और यहां उसकी आवश्यक सुविधाजनक वस्तुएं हैं । मस्तिष्क विचार का स्रष्टा नहीं है बल्कि स्वयं वैश्व मन की रचना, उसका यंत्र और उसकी आवश्यक सुविधा की चीज है । अतः आवश्यकता अनिवार्य नहीं है बल्कि किसी विशेष प्रयोजन के लिये है । वह भौतिक विश्व में एक दिव्य वैश्व इच्छा का परिणाम है जो यहां इन्द्रिय और उसके विषय के बीच एक भौतिक संबंध बनाने का विचार रखती है, यहां चित्-शक्ति का एक भौतिक सूत्र और विधान स्थापित करती है, उसके द्वारा चिन्मय सत् के ऐसे स्थूल रूपों की रचना करती है जो, हम जिस जगत् में रहते हैं उसका प्रारंभिक, प्रमुख और निर्धारक तथ्य बन जाते हैं । यह मौलिक विधान नहीं है बल्कि यह एक रचनात्मक तथ्य है जो भौतिक जगत् में आत्मा के विकसित होने की इच्छा के कारण आवश्यक बन गया है ।

 

    द्रव्य की अगली श्रेणी में ठोस रूप और शक्ति नहीं बल्कि प्राण और सचेतन कामना ही आदि, प्रमुख और निर्धारक तथ्य हैं । अतः इस भौतिक लोक के परे एक ऐसा लोक होना चाहिये जो सचेतन वैश्व प्राणिक ऊर्जा पर प्राण की चाह की शक्ति, कामना की शक्ति और उनकी आत्माभिव्यक्ति पर आधारित हो न कि किसी निश्चेतन या अवचेतन इच्छा पर जो जड़ भौतिक शक्ति और ऊर्जा का रूप ले । उस लोक के सभी रूपों, शरीरों, शक्तियों, प्राणिक गतिविधियों, संवेदन-गतियों, विचार-गतियों, विकासों, पराकाष्ठाओं, आत्म-परिपूर्णताओं को चेतन प्राण के इस प्रारंभिक तथ्य के आधीन और उससे निर्धारित होना होगा । जड़ पदार्थ और मन को अपने-आपको इसके आधीन बनाना होगा, उससे आरंभ होना, उसीपर आधारित रहना, उसीके नियम, बल और क्षमता और सीमाओं से सीमित या विस्तृत होना

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होगा । अगर मन वहां किन्हीं उच्चतर संभावनाओं को विकसित करना चाहे तो उसे भी कामना-शक्ति के मूल प्राणिक सूत्र का, उसके उद्देश्य का और दिव्य अभिव्यक्ति से उसकी मांग का ख्याल रखना होगा ।

 

    उच्चतर श्रेणियों में भी यही होता है । इस क्रम की अगली श्रेणी में मन के प्रधान और निर्णायक तत्त्व का शासन होगा । वहां द्रव्य को इतना सूक्ष्म और लचीला होना चाहिये कि मन सीधा उसपर जो भी आकार आरोपित करना चाहे वह उसे धारण कर ले, उसकी क्रियाओं का अनुगामी हो, उसकी आत्माभिव्यक्ति और आत्मपरिपूर्ति की मांग के आधीन हो । इन्द्रिय बोध और द्रव्य के बीच के संबंधों को भी उससे मेल खाती सूक्ष्मता और नमनीयता प्राप्त होनी चाहिये और उनका निर्धारण भी स्थूल पदार्थ के साथ स्थूल अवयव के संबंधों द्वारा नहीं बल्कि मन की क्रिया जिस अधिक सूक्ष्म द्रव्य पर होती है उसके साथ मन के संबंधों द्वारा होगा । ऐसे लोक में प्राण मन का सेवक होगा, ऐसे अर्थों में जिसकी कल्पना हमारी दुर्बल मानसिक क्रियाएं और हमारी सीमित, अनगढ़ और विद्रोही प्राणिक क्षमताएं पर्याप्त रूप में नहीं कर सकतीं । वहां मन मौलिक सूत्र के रूप में प्रमुख रहता है, उसका प्रयोजन प्रबल रहता है, उसकी मांग दिव्य अभिव्यक्ति के विधान में सबसे बढ़- चढ़ कर रहती है । इससे भी ऊंची भूमिका अतिमानस -या बीच में उसके द्वारा स्पृष्ट तत्त्वों में -या और भी ऊपर शुद्ध आनंद, शुद्ध चित्-शक्ति या शुद्ध सत् ये प्रधान तत्त्व के रूप में मन का स्थान ले लेते हैं और हम वैश्व अस्तित्व के उन क्षेत्रों में जा पहुंचते हैं जो वैदिक द्रष्टाओं के लिये ज्योतिर्मय दिव्य सत्ता के लोक थे, ''धामानि दिव्यानि'' या जिसे वे अमृतत्व कहते थे उसके आधार थे । बाद में आनेवाले भारतीय धर्मों ने इनकी कल्पना ब्रह्म लोक, गो लोक जैसे रूपकों में की थी । ये सत् की आत्मा के रूप में परम आत्माभिव्यक्ति हैं जिनमें अपनी उच्चतम पूर्णता में मुक्त अंतरात्मा शाश्वत देव की अनंतता और आनंद पर अधिकार पा लेती है

 

    वस्तुओं के भौतिक रूपायन से परे उठते हुए इस निरंतर ऊर्ध्वगामी अनुभव और दृष्टि के आधार में जो तत्त्व रहता है वह यह है कि सारी वैश्व सत्ता एक जटिल सामंजस्य है और उसका अंत चेतना के उस सीमित क्षेत्र में नहीं हो जाता जिसमें बंदी बनकर रहने से सामान्य मानव मन और प्राण संतुष्ट रहते हैं । सत्, चेतना, शक्ति, द्रव्य बहुत से डंडोंवाली सीढ़ी पर चढ़ते-उतरते रहते हैं जिसके हर डंडे पर सत्ता का एक अधिक विशाल आत्म-प्रसारण होता है, चेतना को अपने निजी क्षेत्र, विशालता और आनंद का अधिक विस्तार अनुभव होता है, शक्ति में अधिक तीव्रता, अधिक तेज और आनंदमय सामर्थ्य होती है और द्रव्य अपनी प्राथमिक वास्तविकता को अधिक सूक्ष्म, नमनीय, प्रफुल्ल, लचीला रूप देता है । क्योंकि अधिक सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली भी होता है -हम कह सकते हैं कि वह

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सचमुच अधिक ठोस होता है । वह स्थूल की अपेक्षा कम बंधा होता है । उसमें अधिक स्थायित्व और उसकी संभूति में अधिक संभावना, नमनीयता और प्रसार होते हैं । सत्ता की पहाड़ी का हर एक पठार हमारी विस्तृत होती हुई अनुभूति को हमारी चेतना का एक ज्यादा ऊंचा स्तर और हमारे जीवन के लिये अधिक समृद्ध जगत् देता है ।

 

    लेकिन यह ऊपर चढ़ती हुई क्रम-परंपरा हमारे भौतिक जीवन की संभावनाओं पर कैसे असर डालती है ? अगर चेतना का हर एक स्तर, सत्ता का हर एक लोक, द्रव्य की हर श्रेणी, वैश्व शक्ति की हर कोटि अपने से पहले और अपने बाद आनेवालों से एकदम कटे रहते तो इसका उनपर कोई असर न होता, लेकिन सत्य इसके विपरीत है । आत्मा की अभिव्यक्ति एक जटिल बुनावट है और किसी एक तत्त्व की रूप-रेखा और बुनावट में अन्य सभी तत्त्व आध्यात्मिक समग्र के तत्त्वों के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । हमारा भौतिक जगत् बाकी सबका परिणाम है क्योंकि बाकी सब तत्त्व जड़ में भौतिक विश्व की रचना करने के लिये उतरे हैं । और हम जिसे जड़-पदार्थ कहते हैं उसके हर कण में वे सब अव्यक्त रूप में अन्तर्लीन हैं । जैसा कि हम देख चुके हैं उनकी गुप्त क्रिया उसके अस्तित्व के हर क्षण में और उसकी क्रिया की हर गति में अन्तर्निहित है । जैसे जड़ पदार्थ अवरोहण का अंतिम पद है उसी तरह वह आरोहण का पहला पद भी है । जैसे इन सभी स्तरों, लोकों, जगतों, श्रेणियों और कोटियों की शक्तियां भौतिक सत्ता में अन्तर्निहित हैं उसी तरह वे सब उसमें से विकसित होने में सक्षम हैं । यही कारण है कि भौतिक सत्ता का आदि और अंत गैसों और रासायनिक सम्मिश्रणों, भौतिक शक्तियों और गतियों से या नीहारिकाओं, सूर्यों और पृथ्यियों से नहीं होता बल्कि वह प्राण को विकसित करती है, मन को विकसित करती है और अंततः उसे अतिमानस और आध्यात्मिक अस्तित्व के उच्चतर स्तरों को विकसित करना चाहिये । विकास अतिभौतिक स्तरों के जड़ भौतिक पर अनवरत दबाव से आता है जो उसे अपने अंदर से उनके तत्त्वों और शक्तियों को मुक्त करने के लिये बाधित करता है अन्यथा यह कल्पना की जा सकती हैं कि ये जड़ सूत्र की कठोरता में बंदी बने सोये रहते । लेकिन यह यूं भी असम्भाव्य होता क्योंकि उनकी वहां उपस्थिति में ही उनके मुक्त होने का प्रयोजन समाविष्ट है । फिर भी नीचे की इस आवश्यकता को सजातीय ऊपर के दबाव से बहुत मदद मिलती है ।

 

    और न यह विकास जड़ भौतिक की अनिच्छक शक्ति द्वारा उच्चतर शक्तियों को दिये गये, प्राण, मन, अतिमानस और आत्मा के प्राथमिक तुच्छ-से रूपायन में समाप्त हो सकता है । क्योंकि जैसे-जैसे उनका विकास होता है, जैसे-जैसे वे जागते हैं, जैसे-जैसे वे अधिक सक्रिय और अपनी शक्यताओं के बारे में अधिक उत्कंठित होते हैं वैसे-वैसे उन पर ऊंचे स्तरों का दबाव भी, जो लोकों की सत्ता, उनके

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घनिष्ठ संबंध और अन्योन्याश्रय में अंतर्लीन रहता है, वह भी अपने आग्रह, शक्ति और प्रभावकारिता में जरूर बढ़ता जाता है । केवल इतना ही नहीं कि ये तत्त्व नीचे से सीमित और नियंत्रित ढंग से ऊपर उठें बल्कि यह भी जरूरी है कि वे जड़ सत्ता में अपनी विशिष्ट शक्ति और पूर्ण संभव प्रस्फुटन के साथ उतरें और भौतिक जीव जड़ पदार्थ में उनकी क्रियाओं की अधिकाधिक विस्तृत लीला की ओर खुले । बस आवश्यकता है एक योग्य आधार, माध्यम और यंत्र की । और इसकी व्यवस्था मनुष्य के शरीर, प्राण और चेतना में की गयी है ।

 

   निश्चय ही यदि शरीर, प्राण और चेतना इस स्थूल शरीर की संभावनाओंतक ही सीमित रहते, हमारी भौतिक इन्द्रियां और भौतिक मानसिकता बस इतना ही स्वीकार करती हैं, तो इस विकास की परिधि बहुत ही सीमित रहती और मनुष्य अपनी वर्तमान उपलब्धियों से अधिक और किसी तत्त्वतः बड़ी चीज को प्राप्त करने की आशा न कर सकता । लेकिन जैसा कि एक प्राचीन गुह्य विज्ञान ने पता लगाया था कि यह शरीर हमारी पूर्ण भौतिक सत्ता भी नहीं है, यह स्थूल घनता हमारा पूर्ण द्रव्य नहीं है । प्राचीनतम वैदान्तिक ज्ञान हमारी सत्ता की पांच कोटियों की बात करता है, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आध्यात्मिक या आनंदमय और हमारी अंतरात्मा की इन श्रेणियों में प्रत्येक के अनुरूप एक द्रव्य-श्रेणी होती हैं जिसे प्राचीन आलंकारिक भाषा में कोष कहा गया है । बाद के एक मनोविज्ञान ने यह पता लगाया है कि हमारे द्रव्य के ये पांच कोष स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन शरीरों के उपादान हैं और हमारी अंतरात्मा वस्तुत: इन सबमें एक साथ निवास करती है यद्यपि यहां, इस समय हम ऊपर से केवल भौतिक वाहन के बारे में सचेतन हैं । लेकिन हमारे लिये अपने अन्य शरीरों में भी सचेतन होना संभव है और वस्तुतः यह उनके बीच के पर्दे का खुलना और उसके परिणाम-स्वरूप हमारे भौतिक, चैत्य और विज्ञानमय व्यक्तित्वों के बीच के पर्दे का खुलना है जो उन 'चैत्य' या गुह्य व्यापारों का कारण है जिनकी अधिकाधिक परीक्षा की जाने लगी है, द्यपि अभीतक वह कम और बड़े भद्दे ढंग से की जाती है और उनका बहुत अधिक अनुचित लाभ उठाया जाता है । भारत के पुराने हठ-योगियों और तांत्रिकों ने उच्चतर मानव जीवन के इस मामले को बहुत पहले विज्ञान में बदल दिया था । उन्होंने स्थूल शरीर में जीवन के छह स्नायविक चक्रों की खोज की थी जो सूक्ष्म में प्राण और मन की क्षमता के छह केन्द्रों के साथ मेल खाते थे; और उन्होन ऐसे सूक्ष्म भौतिक व्यायाम खोज निकाले थे जिनके द्वारा इन चक्रों को, जो अभी बंद हैं, खोला जा सकता है और मनुष्य अपनी सूक्ष्म सत्ता के स्वाभाविक उच्चतर चैत्य जीवन में प्रवेश कर सकता है और विज्ञानमय और आध्यात्मिक सत्ता के अनुभव के रास्ते में जो शारीरिक और प्राणिक बाधाएं आ सकतीं हैं उन्हें भी नष्ट किया जा

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सकता है । यह बात महत्त्वपूर्ण है कि हठयोगियों ने अपने अभ्यासों के लिये एक महत्त्वपूर्ण परिणाम का दावा किया था और उसकी बहुत प्रकार से जांच की जा चुकी है वह है भौतिक प्राण शक्तिपर अधिकार, जो उन्हें बहुत ही सामान्य आदतों और ऐसे तथाकथित विधानों से मुक्त कर देता है जिन्हें भौतिक विज्ञान शरीर में प्राण के लिये अविच्छेद्य मानता था ।

 

    प्राचीन चैत्य-भौतिक विज्ञान की अभिधाओं के पीछे हमारी सत्ता का एक बड़ा तथ्य और विधान रहता है कि इस भौतिक विकास-क्रम में हमारी सत्ता के रूप, चेतना और बल की चाहे जो भी अस्थायी स्थिति क्यों न हो उसके पीछे एक अधिक सच्ची और अधिक श्रेष्ठ सत्ता होनी चाहिये और होती है, जिसका एक बाहरी परिणाम और स्थूल रूप से अनुभव होनेवाला रूप है यह स्थिति । हमारे द्रव्य का अन्त स्थूल शरीर के साथ ही नहीं हो जाता, स्थूल शरीर तो केवल पार्थिव पादपीठ, पार्थिव आधार और भौतिक आरंभ-बिंदु है । जैसे हमारी जाग्रत् मानसिकता के पीछे चेतना के ऐसे क्षेत्र हैं जो उसके लिये अवचेतन और अतिचेतन हैं, जिनके बारे में हम कभी-कभी असामान्य रूप से अभिज्ञ हो उठते हैं, उसी तरह हमारी स्थूल भौतिक सत्ता के पीछे द्रव्य की अन्य सूक्ष्मतर श्रेणियां, सूक्ष्मतर नियम और अधिक सामर्थ्यवाली शक्तियां हैं जो अधिक घन शरीर को अवलम्ब देती हैं और जो उनकी चेतना के क्षेत्रों में प्रवेश करके उस विधान और शक्ति को हमारे घन जड़द्रव्य पर आरोपित कर सकतीं हैं और हमारे वर्तमान भौतिक जीवन की स्थूलता और सीमा-बंधनों, अन्तर्वेंगों और अभ्यासों की जगह सत्ता की अधिक शुद्ध, उच्च और तीव्र स्थितियों को रख सकती हैं । अगर ऐसा हो तो एक अधिक अभिजात भौतिक जीवन का विकास एक स्वप्न या '' पुष्प का आभास नहीं रह जाता, ऐसे जीवन का जो पाशविक जन्म, जीवन और मृत्यु की, भरण-पोषण की कठिनता और अव्यवस्था और रोग की सुलभता की और तुच्छ, असन्तुष्ट प्राणिक लालसाओं की अधीनता की सामान्य अवस्थाओं से मुक्त हो, और तब यह तर्कसंगत, दार्शनिक सत्य पर आधारित एक ऐसी संभावना बन जाता है जो उस सबके अनुकूल होती है जो हमने अभीतक अपनी सत्ता के व्यक्त और गुप्त सत्य के बारे में जाना है, अनुभव किया है या जिसे हम सोच पाये हैं ।

 

    युक्ति-युक्त ढंग से ऐसा ही होना भी चाहिये, क्योंकि हमारी सत्ता के तत्त्वों के अविच्छिन्न अनुक्रम और उनके घनिष्ठ परस्पर संबंध से यह बहुत स्पष्ट है कि यह असंभव है कि उनमें से एक कटा हुआ और अभिशप्त हो जब कि बाकी सब दिव्य मुक्ति के लिये समर्थ हों । मनुष्य का भौतिक से अतिमानसतक का आरोहण निश्चय ही इस संभावना का द्वार खोल देगा कि जो आध्यात्मिक या कारण शरीर हमारी अतिमानसिक सत्ता के लिये उपयुक्त हो उसकी ओर द्रव्य की भूमिकाओं में उसके अनुरूप एक आरोहण हो और अतिमानस द्वारा निम्नतर तत्त्वों पर विजय

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और उसके द्वारा उनका मुक्त होकर दिव्य जीवन और दिव्य मानस में पहुंचना निश्चय ही अतिमानसिक द्रव्य के तत्त्व और शक्ति द्वारा हमारी भौतिक सीमाओं पर विजय को संभव बना देगा । और इसका अर्थ है न केवल एक निर्बन्ध चेतना का, ऐसे मन और इन्द्रिय बोध का विकास जो शारीरिक अहं की दीवारों में बंद न हो या शारीरिक इन्द्रियों के दिये हुए ज्ञान के दरिद्र आधारतक सीमित न हो, बल्कि एक ऐसी प्राणशक्ति का विकास जो अपनी मर्त्य सीमाओं से अधिकाधिक मुक्त हो, एक ऐसे शारीरिक जीवन का विकास हो जो दिव्य निवासी के योग्य हो और यह हमारे वर्तमान शारीरिक निर्माण के प्रति आसक्ति या उसके बंधन के अर्थ में नहीं बल्कि भौतिक शरीर के नियम के अतिक्रमण के अर्थ में मृत्यु पर विजय हो, एक पार्थिव अमरता हो क्योंकि दिव्य आनंद से, सत्ता के मौलिक आनंद से अमरता के प्रभु उस आनंद की मदिरा को, रहस्यमय सोम को, इन सजीव मानसिकभावापन्न जड़द्रव्य के पात्रों में उड़ेलते आते हैं । शाश्वत और सुंदर प्रभु द्रव्य के कोषों में सत्ता और प्रकृति के पूर्ण रूपांतर के लिये प्रवेश करते हैं ।

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अध्याय २७

 

सत्ता के सप्त तंतु

 

पाक: पृच्छामि मनसाविजानन् देवानामेना निहिता पदानि ।

वत्से बष्कयेऽधि सप्त तन्तून् वि तत्निरे कवय ओतवा उ ।।

 

अपने मन के अज्ञान में, मैं देवों के इन पदों से पूछता हूं जो भीतर

निहित हैं । सर्वज्ञ देवों ने एक वर्ष के शिशु को लिया है और

उन्होनने उसके चारों ओर कपड़ा बनाने के लिये सात सूत बुने हैं ।

                                            ऋग्वेद १.१६४.५

 

प्राचीन द्रष्टाओं ने सत्ता के जिन सात महान् तत्त्वों को समस्त विश्व-जीवन के आधार और सप्तगुण प्रणाली के रूप में निर्धारित किया था उनकी छान-बीन के द्वारा हम विकास और प्रतिविकास की भूमिकाओं को देख आये हैं और जिस ज्ञान तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं उसके आधार तक पहुंच गये हैं । हमने निर्धारित किया है कि विश्व के अंदर जो कुछ है उसका मूल, आधान, प्रथम और अंतिम सत् तत्त्व है परात्पर और अनंत सत् चित् और आनंद का त्रिविध तत्त्व जो दिव्य पुरुष का स्वरूप है । चेतना के दो पहलू हैं -ज्योतिर्मय और कार्य-साधक, आत्म- अभिज्ञता की अवस्था और शक्ति तथा आत्म-शक्ति की अवस्था और शक्ति जिसके द्वारा सत्-पुरुष अपने-आपको चाहे निष्क्रिय अवस्था में या सक्रिय गति में, स्व-प्रतिष्ठित रखता है । क्योंकि अपनी सर्जक क्रिया में वह सर्वशक्तिमान् आत्मचेतना के द्वारा उस सबको जानता है जो उसके अंदर छिपा है और एक सर्वदर्शी आत्म-ऊर्जा द्वारा अपनी शक्यताओं के विश्व को पैदा करता और उसपर शासन करता है । सर्व-सत् की इस सृजनात्मक क्रिया की ग्रंथि चौथे मध्यवर्ती तत्त्व अतिमानस या सत् भाव में मिलती है जिसमें दिव्य ज्ञान आत्म-सत्ता और आत्म-अभिज्ञता के साथ एक रहता है और एक क्रियागत इच्छा उस ज्ञान के साथ पूर्ण रूप से एकतान होती है क्योंकि वह अपने-आप अपने द्रव्य और स्वभाव में आत्म-चेतन स्वयंभू और ज्योतिर्मय क्रिया में गतिशील है । ज्ञान और इच्छा निर्भ्रांत रूप से वस्तुओं की गति, रूप और विधान को ठीक-ठीक उनके स्वयंभू सत्य के अनुसार और उसकी अभिव्यक्ति के तात्पर्यों के साथ सामंजस्य में विकसित करते हैं ।

 

    सृष्टि एकत्व और बहुत्व के दोहरे तत्त्व पर निर्भर रहती और गति करती है । यह भाव और शक्ति और रूप की बहुविधता है जो मौलिक ऐक्य की अभिव्यक्ति है और शाश्वत ऐक्य बहुविध लोकों का आधार और वास्तविकता है जो उनकी लीला को संभव बनाता है । अतः अतिमानस विज्ञान और प्रज्ञान की दोहरी कर्मशक्ति

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द्वारा आगे बढ़ता है । तात्त्विक ऐक्य से चलता हुआ यह परिणामगत बहुत्व की ओर जाता है । वह सभी चीजों को अपने अंदर इस तरह समाविष्ट करता है मानों स्वयं वह अपने बहुविध रूपों को धारण किये हुए 'एक' है और सभी वस्तुओं का अलग-अलग प्रज्ञान स्वयं अपने अंदर इस तरह पाता है मानों वे उसकी इच्छा और ज्ञान के विषय हैं । जब कि उसकी मौलिक आत्म-अभिज्ञता के लिये सभी चीजें एक ही सत्ता, एक चेतना, एक इच्छा, एक ही आत्मानंद हैं और चीजों की सारी गति एक और अविभाज्य गति है, वह अपनी क्रिया में एकत्व से बहुत्व की ओर और बहुत्व से एकत्व की ओर चलता है । तब वह उनके बीच एक व्यवस्थित संबंध और एक ऐसा विभाजन बनाता है जिसका आभास होता है परंतु उसमें कोई बाधित करने वाला सत्य नहीं होता । यह एक सूक्ष्म विभाजन होता है जो अलग नहीं करता बल्कि अविभाज्य के अंदर एक सीमांकन और निर्धारण होता है । अतिमानस वह दिव्य विज्ञान है जो लोकों का सृजन, शासन और उनको धारण करता है : वह वह गुप्त प्रज्ञा है जो हमारे ज्ञान और हमारे अज्ञान दोनों को धारण किये रहती है ।

 

    हमने यह भी जान लिया है कि मन, प्राण और जड़ तत्त्व इन तीन उच्चतर तत्त्वों के त्रिविध रूप हैं जो, जहां तक हमारे विश्व का संबंध है, अज्ञान के तत्त्व के आधीन, एकमेव की अपनी विभाजन और बहुत्व की लीला में, ऊपरी तल पर आभासी आत्म-विस्मृति के आधीन रहकर कार्य कर रहे हैं । वास्तव में ये तीनों दिव्य चतुष्टय की गौण शक्तियां हैं । मन अतिमानस की एक गौण शक्ति है जो विभाजन के दृष्टिकोण में स्थित है । वह वहां सचमुच अपने पीछे रहनेवाले एकत्व को भूल जाता है हालांकि वह अतिमानस से फिर से प्रकाश पाकर उस एकत्व तक लौट जाने में समर्थ होता है । इसी तरह प्राण सच्चिदानंद के ऊर्जा पक्ष की गौण शक्ति है, वह मन के द्वारा बनाये गये विभाजन के दृष्टिकोण से रूप और सचेतन ऊर्जा की लीला को कार्यान्वित करता है, जड़ पदार्थ सत्ता के पदार्थ का वह रूप है जिसे सच्चिदानंद की सत्ता अपने-आपको अपनी चेतना और शक्ति की इस प्रपंचात्मक क्रिया के आधीन करते समय धारण करती है ।

 

    इनके अतिरिक्त एक चौथा तत्त्व भी है जो मन, प्राण और शरीर की ग्रंथि में अभिव्यक्त होता है जिसे हम अंतरात्मा या पुरुष कहते हैं । इसके दो रूप होते हैं : एक सामने कामना-पुरुष जो वस्तुओं पर अधिकार करने और उनका मजा लेने के लिये कोशिश करता है और दूसरा पीछे जो कामना-पुरुष से पूरी तरह या बड़ी हदतक छिपा रहता है । यह है सच्ची चैत्य सत्ता जो आत्मा के अनुभवों का वास्तविक भंडार है । हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह चौथा मानव तत्त्व अनंत आनंद का, तीसरे दिव्य तत्त्व का प्रक्षेप और उसकी क्रिया हैं । लेकिन यह क्रिया इस जगत् में होनेवाले अंतरात्मा के विकास-क्रम की अवस्था के आधीन और

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हमारी चेतना के अनुरूप होती है । जैसे भगवान् का अस्तित्व स्वभावत: अनंत चेतना और उस चेतना की स्व-शक्ति है उसी तरह उसकी अनंत चेतना का स्वभाव भी शुद्ध और अनंत आनंद है । आत्मवत्ता और आत्म-अभिज्ञता उसके आत्मानंद का सार हैं । विश्व भी इस दिव्य आत्मानंद की लीला है और उस लीला का आनंद पूरी तरह से वैश्वात्मा को प्राप्त रहता है परंतु व्यष्टि में अज्ञान और विभाजन की क्रिया के कारण यह अन्तस्तलीय और अतिचेतन सत्ता में रुका रहता है । हमारी सतह पर वह नहीं रहता और वैश्व और परात्पर की ओर व्यष्टिगत चेतना के विकास द्वारा उसे खोजकर पाना और अधिकार में करना होता है ।

 

    अतः अगर हम चाहें तो सात की जगह आठ तत्त्व रख सकते हैं और तब हम देखेंगे कि हमारी सत्ता दिव्य सत्ता का एक तरह का अपवर्तन है जो आरोहण और अवरोहण के विपरीत क्रम में इस तरह आयोजित है :

 

        सत्                       जड़ या अन्न

        चित्-शक्ति                 प्राण

        आनंद                     चैत्य पुरुष या अंतरात्मा

        अतिमानस                 मन

 

    भगवान् वैश्व सत्ता में शुद्ध सत् से चित्-शक्ति और आनंद की लीला तथा अतिमानस के सृजनात्मक माध्यम द्वारा उतरते हैं । हम जड़ से विकसनशील प्राण, अंतरात्मा और मन तथा अतिमानस के ज्योतिर्मय माध्यम द्वारा दिव्य सत्ता की ओर चढ़ते हैं । परार्द्ध और अपरार्द्ध दोनों की गांठ वहां है जहां मन और अतिमानस बीच में एक पर्दा रखते हुए आपस में मिलते हैं । मानव जाति में दिव्य जीवन की शर्त्त है उस पर्दे का भेदन करना क्योंकि, उस भेदन के द्वारा निम्नतर सत्ता की प्रकृति में उच्चतर के ज्योतिर्मय अवतरण के द्वारा और निम्नतर सत्ता के उच्चतर सत्ता की प्रकृति में बलपूर्वक आरोहण द्वारा मन अपनी दिव्य ज्योति को सर्वधारक अतिमानस में फिर से पा सकता है, अंतरात्मा अपने दिव्य स्व को सब पर अधिकार रखने वाले सर्वानंद में प्राप्त कर सकती है, प्राण अपनी दिव्य शक्ति को सर्वशक्तिमान् चित्-शक्ति की लीला में फिर से अधिकार में ला सकता है और जड़ मानों दिव्य सत्ता के रूप में अपनी दिव्य स्वाधीनता की ओर खुल सकता है । और अगर इस विकास का, जिसका यहां इस समय मुकुट और सिरमौर मानव प्राणी है, उसका अगर कोई लक्ष्य है और वह लक्ष्य निरुद्देश्य चक्कर लगाने और उस चक्कर में से वैयक्तिक मुक्ति पाने के अलावा कुछ और है, और अगर इस प्राणी की -केवल यहीं यहां ऐसा प्राणी है जो आत्मा और जड़ के बीच इस रूप में अवस्थित है कि उसके पास उनके बीच मध्यस्थता करने की शक्ति है -अनंत

 

    वैदिक ऋषि सात किरणों की बात कहते हैं पर कभी-कभी आठ, नौ, दस और बारह की भी ।

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शक्यताओं का कुछ अर्थ है और वह अर्थ वैश्व प्रयास से निराश और विरक्त होकर जीवन के भ्रम से परम जागरण और उसके पूर्ण परित्याग के अलावा कुछ और है तो इस जीव में ऐसा प्रकाशमय और शक्तिशाली रूपांतर और भगवान् का आविर्भाव ही वह ऊंचा उठा हुआ लक्ष्य और परम अभिप्राय होगा ।

 

    लेकिन ऐसी मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक अवस्थाओं की ओर मुड़ने से पहले, जिनमें यह रूपांतर एक तात्त्विक संभावना से बदलकर क्रियात्मक शक्यता बन जाये, हमें बहुत कुछ सोचना होगा । क्योंकि हमें केवल सच्चिदानंद के भौतिक जगत् में अवतरण के सारभूत तत्त्व को ही नहीं देखना होगा, जिन्हें हम पहले ही देख आये हैं, बल्कि यहां पर उसकी व्यवस्था की विशाल योजना और चित्-शक्ति की अभिव्यक्त सामर्थ्य की क्रिया और उसके स्वभाव को भी देखना होगा जो उन परिस्थितियों पर शासन करते हैं जिनमें हमारा निवास है । अभी हमें पहले यह देखना है कि हमने जिन सात या आठ तत्त्वों की परीक्षा की है वे समस्त वैश्व सृष्टि के लिये जरूरी हैं और हमारे अंदर -इस 'वर्ष भर के बच्चे में' जो कि हम अभी तक हैं, क्योंकि हम अभी तक विकासशील प्रकृति के वयस्क होने से दूर हैं -व्यक्त या अव्यक्त रूप से मौजूद हैं । उच्चतर त्रयी समस्त अस्तित्व और अस्तित्व की लीला का उद्गम और आधार है । और सारे विश्व को उसकी सद्वस्तु की अभिव्यक्ति और क्रिया होना चाहिये । कोई विश्व सत्ता का ऐसा रूप नहीं हो सकता जो निरपेक्ष नास्ति और शून्य में से उठ खड़ा हुआ हो और अपनी रूप-रेखा प्रस्तुत कर रहा हो और एक असत् रिक्तता के आगे खड़ा हो । उसे या तो अनंत सत्ता में, जो सभी रूपों के परे है, एक रूप होना चाहिये या वह स्वयं सर्व सत्ता हो । वस्तुत: जब हम अपने-आपको वैश्व सत्ता के साथ एक कर देते हैं तो हम देखते हैं कि वह एक ही साथ दोनों चीजें है । यानी वह सर्व-सत्ता है जो अपने-आपको देश और काल के रूप में अपनी कल्पना के अनुसार आत्म-प्रसारण के छन्दों की अनंत शृंखला में रूपायित करता है । इसके सिवा हम देखते हैं कि यह वैश्व क्रिया या कोई भी वैश्व क्रिया इन सभी रूपों और गतियों को उत्पन्न और नियमित करनेवाली सत्ता की एक अनंत शक्ति की क्रीड़ा के बिना असंभव रहती है और उसी तरह वह शक्ति एक अनंत चेतना की क्रिया सूचित करती है या वह शक्ति अपने-आप ही वह क्रिया होती है क्योंकि वह अपने स्वभाव से एक वैश्व इच्छा है जो सभी संबंधों को निर्धारित करती और अपनी ही अभिज्ञता की विधि से उनका प्रज्ञान प्राप्त करती है । अगर उस वैश्व अभिज्ञता-विधि के पीछे विज्ञान चेतना न होती तो वह यह निर्धारण और प्रज्ञान-प्राप्ति न कर पाती । सत्-पुरुष के विकसित होते हुए आत्म-रूपायण या आत्म -संभूति में, जिसे हम विश्व कहते हैं, सत्ता के संबंधों का आरंभ, उनका धारण, उनका निर्धारण और प्रतिबिंबन उस विज्ञान चेतना से ही, उस वैश्व अभिज्ञता-विधि के साथ ही होते हैं ।

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    अंत में, चूंकि चेतना इस तरह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है, ज्योतिर्मय रूप से अपने ऊपर अधिकार रखती है और यह पूरा-पूरा ज्योतिर्मय अधिकार अपने स्वरूप में आनंद अवश्य होता है क्योंकि वह इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता, अतः एक बृहत् वैश्व आत्मानंद को वैश्व सत्ता का कारण, सार-तत्त्व और लक्ष्य होना चाहिये । प्राचीन ऋषि कहते हैं, ''यदि यह जीवन के आनंद का सबको घेरे रहनेवाला आकाश, जिसमें हम निवास करते हैं, न होता, अगर वह आनंद हमारा आकाश न होता तो कोई सांस न ले पाता, कोई जी न सकता'' । यह आत्मानंद अवचेतन हो सकता है, सतह पर खोया हुआ-सा मालूम हो सकता है लेकिन केवल इतना ही जरूरी नहीं है कि वह हमारी जड़ों में हो बल्कि समस्त सत्ता को आवश्यक रूप से उसे खोजने और पा लेने के लिये एक अन्वेषण और उसतक पहुंचने का प्रयास होना चाहिये । और विश्व के अंदर प्राणी जिस अनुपात में अपने-आपको पाता है, चाहे इच्छा और शक्ति में हो या प्रकाश और ज्ञान में, सत्ता और विस्तार में हो या प्रेम और स्वयं आनंद में, उसे गुप्त आनंद की किसी चीज की ओर जागना चाहिये । ज्ञान द्वारा सत्ता का आनंद, उपलब्धि का आनंद, इच्छा और शक्ति या सृजन-शक्ति द्वारा अधिकार करने का आनंदातिरेक, प्रेम और हर्ष में मिलन का उल्लास, विस्तृत होते हुए जीवन की उच्चतम अवस्थाएं हैं क्योंकि वे स्वयं अस्तित्व का सार-तत्त्व हैं, चाहे वह उसकी जड़ों में छिपा हो या अभी तक अदृष्ट ऊंचाइयों में -तो जहां कहीं वैश्व सत्ता अपने-आपको अभिव्यक्त करती है इन तीनों को उसके पीछे या उसके भीतर होना चाहिये ।

 

    किंतु अनंत सद चित् और आनंद अगर इस चौथे पद, अतिमानस या दिव्य विज्ञान को अपने में धारण या विकसित न करें और अपने में से प्रकट न करें तो उन्हें अपने-आपको दृश्य सत्ता में प्रकट करने की जरूरत ही न हो और अगर वे प्रकट हो ही जायें तो वैश्व सत्ता न होती बल्कि बिना किसी निश्चित व्यवस्था या बिना संबंध के रूपों की अनंतता होती । हर एक विश्व में ज्ञान और इच्छा की शक्ति होनी चाहिये जो अनंत संभाव्यता में से निश्चित संबंध निर्धारित करती है, बीज में से परिणाम को विकसित करती है, वैश्व विधान के सब सबल छन्दों को प्रकट करती और लोकों को उनके अमर और अनंत द्रष्टा तथा शासक की तरह देखती और शासित करती है । यह शक्ति स्वयं सच्चिदानंद के सिवा और कुछ नहीं है; यह ऐसी किसी चीज का सृजन नहीं करती जो उसकी अपनी आत्म-सत्ता में न हो और इस कारण समस्त वैश्व और वास्तविक विधान बाहर से आरोपित की हुई चीज न होकर भीतर से आता है, समस्त विकास आत्म-विकास है । सभी बीज और परिणाम वस्तुओं के सत्य का बीज हैं और उस बीज का परिणाम उसकी संभाव्यताओं में से निश्चित होता है । इसी कारण कोई भी विधान निरपेक्ष नहीं है

 

   कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: । ईशोपनिषद् ८

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क्योंकि केवल अनंत ही निरपेक्ष है और हर चीज अपने अंदर अपने निश्चित रूप और धारा से एकदम परे अंतहीन संभाव्यताओं को समाये रखती है । ये रूप और धारा केवल भीतर की अनंत स्वाधीनता से निःसृत होनेवाले भाव द्वारा आत्म-परिसीमन से निर्धारित होते हैं । आत्म-परिसीमन की यह शक्ति अनिवार्य रूप से असीम सर्व-सत्ता में अन्तर्लीन रहती है । अनंत अनंत न होगा अगर वह बहुविध सान्तताओं को धारण न कर सके । निरपेक्ष निरपेक्ष न होगा यदि वह ज्ञान, शक्ति और इच्छा में और सत्ता की अभिव्यक्ति में आत्म-निर्धारण की असीम सामर्थ्य से वंचित हों । तो यह अतिमानस सत्य या सत्य-संकल्प है जो समस्त वैश्व शक्ति और सत् में अन्तर्लीन है; यह जरूरी है ताकि वह अपने-आप अनंत रहता हुआ अभिव्यक्ति के संबंध, क्रम और विस्तृत दिशाओं को निर्धारित, संयोजित और धारण कर सके । वैदिक ऋषियों की भाषा में जैसे सत् चित् और आनंद अनाम के तीन सबसे महान् नाम हैं उसी तरह अतिमानस चौथा नाम है । यह तत् के अवरोहण में और हमारे आरोहण में चौथा है ।

 

   लेकिन मन, प्राण और जड़ पदार्थ, निचली त्रयी भी वैश्व सत्ता के लिये अनिवार्य है । यह जरूरी नहीं है कि ये उस रूप में, उस क्रिया या उन परिस्थितियों में हों जिन्हें हम धरती पर या इस जड़ विश्व में जानते हैं बल्कि किसी प्रकार की क्रिया में हों वह चाहे जितनी पुकाशमान्, चाहे जितनी शक्तिशाली, चाहे जितनी सूक्ष्म क्यों न हो । क्योंकि मन तत्त्वतः अतिमानस की वह क्षमता है जो नापती, सीमित करती है, जो एक विशेष केन्द्र निश्चित करती और वहां से वैश्व गतिविधि और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया को देखती हैं । मान लें कि किसी लोक विशेष में, किसी स्तर या वैश्व व्यवस्था में, जरूरी नहीं कि मन सीमित हो पर जो सत्ता मन का एक गौण क्षमता के रूप में उपयोग करती है, उसके लिये जरूरी नहीं कि वह वस्तुओं को अन्य केन्द्रों या दृष्टिकोणों से देखने में असमर्थ हो या सबके वास्तविक केन्द्र से या वैश्व आत्म-प्रसारण में देखने में अक्षम हो फिर भी अगर वह भागवत क्रिया के अमुक प्रयोजनों के लिये अपने-आपको सामान्य रूप से अपने दृढ़ दृष्टिबिंदु में स्थिर करने में असमर्थ है, यदि केवल वैश्व आत्म-प्रसारण या अनंत केन्द्र हों जिनमें प्रत्येक को निर्धारित या मुक्त भाव से सीमित करनेवाली क्रिया न हो तो कोई विश्व न होगा, केवल एक सत् रहेगा जो अपने अंदर अनंत रूप से चिंतन कर रहा होगा जैसे कोई स्रष्टा या कवि सृजन के निर्धारक कार्य की ओर बढ़ने से पहले स्वतंत्र रूप से, लचीलेपन से नहीं, चिंतन करता है । अस्तित्व के अनंत सोपान में कहीं-न- कहीं ऐसी अवस्था का अस्तित्व अवश्य होगा, लेकिन जब हम विश्व कहते हैं तो हमारा मतलब उससे नहीं होता । उसमें चाहे जैसी व्यवस्था क्यों न हो, वह होगी

 

    'तुरीय स्विद्ं, ''कोई चौथा'', इसीको 'तुरीयं धाम', सत्ता का चौथा धाम या पद भी कहा गया है ।

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एक तरह से अनिश्चित, ढीली व्यवस्था, जैसी व्यवस्था अतिमानस संबंधों के निर्धारित विकास, मापन और पारस्परिक क्रिया के कार्य की ओर बढ़ने से पहले कर सकता है । उस माप और क्रिया-प्रतिक्रिया के लिये मन आवश्यक है । लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने-आपको अतिमानस की एक गौण क्रिया के सिवा कुछ और माने या संबंधों की क्रिया-प्रतिक्रिया को अपने-आप बंदी बने हुए अहंकार के आधार पर उस रूप में विकसित करे जिसे हम पार्थिव प्रकृति में सक्रिय देखते हैं ।

 

   मन एक बार अस्तित्व में आ जाये तो प्राण और द्रव्य रूप भी आ जाते हैं क्योंकि प्राण केवल शक्ति और क्रिया का, चेतना के अनेक नियत केन्द्रों से ऊर्जा के संबंध और परस्पर-क्रिया का निर्धारण मात्र है । यह जरूरी नहीं है कि ये केन्द्र स्थान और काल के नियत हों, वे एक वैश्व सामंजस्य को सहारा देनेवाले शाश्वत के आत्मा-रूपों या सत्ताओं के निरंतर सह-अस्तित्व में नियत हो सकते हैं । हम जिस जीवन को जानते हैं या जिसकी कल्पना कर सकते हैं, उससे वह जीवन बहुत ज्यादा भिन्न हो सकता है लेकिन तत्त्वतः यह वही तत्त्व काम में लगा होगा जिसे हम यहां जीवन-शक्ति के रूप में चित्रित देखते हैं -यह वह तत्त्व है जिसे प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वायु या प्राण का नाम दिया था । यह विश्व में वह प्राण-द्रव्य, द्वस्तुमय इच्छा और ऊर्जा हैं जो सत्ता के नियत रूप और कर्म तथा सचेतन क्रियाशक्ति में कार्यान्वित होती है । हो सकता है कि द्रव्य भी हमारे जड़ शरीर के बोध और हमारे दृष्टिकोण से बहुत भिन्न हो, उससे बहुत अधिक सूक्ष्म, अपने आत्म-विभाजन और पारस्परिक प्रतिरोध के नियम में बहुत कम कठोरता से बांधनेवाला हो । हो सकता है वहां शरीर या रूप कारागार न होकर उपकरण मात्र हों; फिर भी विश्व की क्रिया-प्रतिक्रिया के लिये रूप और द्रव्य का कुछ निर्धारण हमेशा आवश्यक रहेगा, भले वह केवल मानसिक शरीर हो या कोई ऐसी चीज हो जो अधिक-से-अधिक स्वतंत्र मानसिक शरीर से भी अधिक ज्योतिर्मय, अधिक सूक्ष्म हो और अधिक सामर्थ्य और स्वतंत्रता के साथ क्रिया करती हो ।

 

   इसका मतलब यह निकलता है कि जहां कहीं विश्व है, जहां आरंभ में भले एक ही तत्त्व दिखायी देता हो, चाहे शुरू में यही लगता हो कि वही वस्तुओं का एकमात्र तत्त्व है और जगत् में प्रकट होनेवाली बाकी सभी चीजें उसीके रूपों और परिणामों से बढ़कर और कुछ न दीखती हों और अपने-आपमें वैश्व अस्तित्व के लिये जरूरी न हों, तो सत्ता के द्वारा प्रकट किया गया यह चेहरा उसके वास्तविक सत्य का केवल भ्रांतिमय मुखौटा या आभास ही हो सकता है । जहां विश्व में एक तत्त्व ही अभिव्यक्त हो वहां बाकी सब भी केवल उपस्थित और निष्क्रिय रूप से छिपे नहीं रहते बल्कि गुप्त रूप से सक्रिय भी रहते हैं । किसी भी लोक को ले लें, तो उसकी सत्ता के क्रम और सामंजस्य ऐसे हो सकते हैं कि ये सातों तत्त्व

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क्रियाशीलता की कम या अधिक मात्रा में खुले रूप से उपस्थित हों । हो सकता है कि किसी और लोक में वे सब एक में अंतर्लीन हों और वह उस लोक के विकास का प्राथमिक या आधारभूत तत्त्व बन जाये । लेकिन जो अंतर्लीन है उसका विकास जरूरी है । सत्ता की सातगुनी शक्ति का विकास, उसके सप्तविध नाम की उपलब्धि ऐसे किसी भी लोक की नियति होगी जो देखने में एक ही शक्ति के अंदर सबके अंतर्निहित होने से आरंभ होता है । इसलिये वस्तुओं की प्रकृति के अनुसार जड़-भौतिक विश्व अपने छिपे हुए प्राण में से प्रकट प्राण को, अपने छिपे हुए मन से प्रकट मन को विकसित करने के लिये बाधित था और उसी वस्तुस्थिति के अनुसार वह अपने अंदर छिपे अतिमानस में से प्रकट अतिमानस को और अपने अंदर छिपी आत्मा में से सच्चिदानंद की त्रिविध महिमा को अवश्य विकसित करेगा । एकमात्र प्रश्न यह है कि क्या पृथ्वी उस आविर्भाव का मंच बनेगी या मानव सृष्टि इस भौतिक मंच पर या कहीं और, काल के विशाल चक्रों के इस आवर्तन में या किसी अन्य में उस आविर्भाव का वाहन और उपकरण बनेगी ? प्राचीन ऋषि मनुष्य की इस संभावना पर विश्वास करते थे और इसे उसकी दिव्य नियति मानते थे । आधुनिक विचारक इसके बारे में सोचता तक नहीं और अगर सोचे भी तो या तो उसका प्रतिवाद करेगा या उसपर संदेह । अगर वह अतिमानव का अंतर्दर्शन पाता भी है तो मन या प्राण के बढ़े-चढ़े रूप में । वह किसी और आविर्भाव को नहीं स्वीकार करता, इन तत्त्वों के परे और कुछ नहीं देखता, क्योंकि अभीतक इन्होंने ही हमारी सीमा और हमारी परिधि को बनाया है । इस प्रगतिशील जगत् में, इस मानव प्राणी के लिये, जिसमें दिव्य चिनगारी चेतायी गयी है, वास्तविक बुद्धिमत्ता उच्चतर अभीप्सा रखने में है बजाय अभीप्सा को अस्वीकार करने अथवा ऐसी आशा रखने में जो अपने-आपको ऊपर से दीखनेवाली संभावनाओं की उन संकरी दीवारों में घेर लेती और सीमित करती है, जो हमारी बीच की प्रशिक्षण शालाएं ही हैं । वस्तुओं की आध्यात्मिक व्यवस्था में हम अपनी दृष्टि और अभीप्सा को जितना ही ऊंचा प्रक्षिप्त करेंगें उतना ही ऊंचा सत्य हमपर उतरना चाहेगा क्योंकि यह सत्य पहले ही से हमारे अंदर मौजूद है और अभिव्यक्त प्रकृति में जो आवरण उसे छिपाये हुए है उससे छुटकारा पाने के लिये पुकार रहा है ।

 

   हम जिस किसी लोक को लें उसमें अन्तर्लयन आवश्यक नहीं है । एक मुख्य तत्त्व के आगे औरों का गौण स्थान हो सकता है, हो सकता है कि और सब उस एक में ही समाविष्ट रहें । ऐसी हालत में उस लोक-व्यवस्था के लिये विकास जरूरी नहीं है ।

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अध्याय २८

 

अतिमानस, मानस और अधिमानसी माया

 

ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वानृ ।

दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ।।

 

एक ध्रुव है, एक ऋत है जो एक ऋत से छिपा हुआ है जहां सूर्य

अपने घोड़ों को खोलता है । दस हज़ार (उसकी किरणें) इकट्ठी हो

गयीं -वह एक तत् । मैंने देवों के अत्यंत श्रेष्ठ रूपों को देखा है ।

                                            ऋग्वेद ५.६२.१

 

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

ततत्वं पूषन्नपावृयु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह ।

तेजे यत् ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि

योऽसावसौ पुरुष: सोऽह्मस्मि ।।

 

सत्य का मुख एक सुनहरे पात्र से ढका हुआ है, हे पोषक सूर्य,

सत्य के धर्म के लिये, दृष्टि के लिये उसे हटा दो । हे सूर्य, हे

एकमात्र द्रष्टा, अपनी किरणों को क्रमबद्ध करो, उन्हें इकट्ठा

करो -अपना मंगलतम रूप मुझे दिखलाओ । वह जो पुरुष सब

जगह है, वही मैं हूं ।

                                     ईशोपनिषद् १५.१६

 

सत्य ऋतूं बृहइ ।

सत्य, ऋत, बृहत् । अथर्ववेद १२-१, १०

अभवत्... सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् यदिदं किञच ।।

 

वह सत्य और मिथ्या दोनों हो गया । वह सत्य बन गया, जो कुछ

यह है वह सब भी ।                     तैत्तरीयोपनिषद् २.६

 

   एक बात स्पष्ट करना जरूरी है जो अभीतक अस्पष्ट छोड़ दी गयी है । वह है अज्ञान में स्खलित होने की प्रक्रिया, क्योंकि हमने देखा है मन, प्राण और जड़ के मौलिक स्वरूप में, कोई चीज ऐसी नहीं जो ज्ञान से पतन को जरूरी बनाती हो । वस्तुत: यह दिखाया जा चुका है कि चेतना का विभाजन अज्ञान का आधार है, व्यष्टिगत चेतना का वैश्व और परात्पर से विभाजन जिनका वह अब भी एक अंतरंग भाग रहता है और तत्त्वतः अलग नहीं हो सकता । मन का उस अतिमानसिक सत्य से विभाजन जिसकी उसे एक गौण क्रिया होना चाहिये, प्राण

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का आद्या शक्तिसे विभाजन जिसका वह एक ऊर्जा रूप है और जड़ का मूल सत् से विभाजन जिसका वह एक द्रव्य रूप है । लेकिन अब भी यह स्पष्ट करना बाकी है कि अविभाज्य में यह विभाजन आया कैसे ? सत्ता में चित्-शक्ति की किस विशेष आत्म-क्षयी या आत्म-विलोपी क्रिया से ऐसा हुआ ? चूंकि सब कुछ उसी शक्ति की गतिविधि है इसलिये अज्ञान का क्रियात्मक और प्रभावकारी उद्धव केवल उसी शक्ति की किसी ऐसी क्रिया से ही हो सकता है जो उसकी अपनी पूर्ण ज्योति और शक्ति को धुंधला कर दे । लेकिन हम इस समस्या को तब तक के लिये छोड़ सकते हैं जब हम ज्ञान-अज्ञान के उस दोहरे व्यापार की परीक्षा ज्यादा नजदीक से करेंगे जो हमारी चेतना को प्रकाश और अंधकार का मिश्रण, अतिमानसिक सत्य के पूर्ण दिवस और जड़ निश्चेतना की रात के बीच एक अर्द्ध-प्रकाश बनाता है । अभी बस इतना देखना जरूरी है कि वह अपने सार रूप में चित्-सत्ता की किसी एक गति या स्थिति पर ऐकांतिक रूप से केंद्रीकरण है, वह बाकी चेतना और सत्ता को पीछे छोड़ देता और उसे उस एक गति के वर्तमान समय के आंशिक ज्ञान से ढक देता है ।

 

   फिर भी इस समस्या का एक ऐसा पक्ष है जिसपर तुरंत विचार करना होगा । यह है वह खाई जो मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं, उसके और उस अतिमानसिक ऋत-चित् के बीच बनायी गयी है जिसके बारे में हमने देखा है कि हमारा मन अपने मूल रूप में उसकी गौण क्रिया है । क्योंकि यह खाई काफी बड़ी है और चेतना के इन दो स्तरों के बीच अगर मध्यवर्ती श्रेणियां न होतीं तो एक से दूसरे की ओर संक्रमण, चाहे आत्मा के जड़ में उतरते हुए प्रतिविकास का हो या जड़ में छिपी हुई श्रेणियों का आत्मातक वापिस पहुंचनेवाला विकास हो, यह एकदम असंभव नहीं तो बहुत अधिक असंभाव्य जरूर लगता है । क्योंकि मन, जैसा हम उसे जानते हैं, अज्ञान की शक्ति है जो सत्य को खोज रही है, उसे पाने के लिये कठिनाई से टटोल रही है किंतु वह शब्द और भाव में, मन की रचनाओं में, इन्द्रियों की रचनाओं में उस सत्य की मानसिक रचनाओं और प्रतिरूपों तक ही पहुंच पाती है मानों उसकी प्राप्ति की सीमा सुदूर सद्वस्तु के चमकते या धुंधले छायाचित्रों या चलचित्रों तक सीमित है । इसके विपरीत, अतिमानस सत्य को वास्तविक और सहज-स्वाभाविक रूप से अधिकार में किये रहता है और उसकी रचनाएं परम सद्वस्तु के रूप होती हैं न कि उसकी रचनाएं प्रतिरूप या संकेतात्मक आकार । निःसंदेह, हमारे अंदर विकसित होनेवाले मन को प्राण और शरीर की अंधकार की पेटी में बंद रहने के कारण बाधा पहुंचती है और प्रतिविकासात्मक अवतरण में मौलिक मानसिक तत्त्व अधिक शक्तिशाली वस्तु है जिसके पास हम पूरी तरह नहीं पहुंच पाये हैं । वह अपने क्षेत्र या प्रदेश में स्वाधीनता के साथ काम कर सकता है, अधिक प्रकटनकारी रचनाओं का, अधिक सूक्ष्मता से प्रेरित

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रचनाओं का, अधिक सूक्ष्म तथा सार्थक मूर्त रूपों का निर्माण कर सकता है जिनमें सत्य की ज्योति उपस्थित और इन्द्रियगोचर रहती है । लेकिन फिर संभावना यह रहती है कि उसकी विशिष्ट क्रिया भी तत्त्वतः भिन्न नहीं होगी क्योंकि वह भी अज्ञान के अंदर गति हैं, ऋत-चित् का ऐसा भाग नहीं है जो उससे अलग न हुआ हो । सत्ता के आरोहण और अवरोहणकारी सोपान में कहीं पर एक मध्यवर्ती शक्ति और चेतना का स्तर होना चाहिये, शायद इससे कुछ अधिक, कोई ऐसी चीज जिसमें मौलिक सृजन-शक्ति हो, जिसके द्वारा ज्ञान में स्थित मन का प्रतिविकासात्मक संक्रमण अज्ञान में स्थित मन में हुआ और जिसके द्वारा फिर विकासात्मक उल्टा संक्रमण समझ में आने लायक और संभव बनता है । प्रतिविकासात्मक संक्रमण के लिये यह मध्यस्थता एक युक्ति-संगत अनिवार्यता और विकासात्मक के लिये एक व्यावहारिक आवश्यकता है । क्योंकि विकासक्रम में निःसंदेह आमूल संक्रांतियां होती हैं, ये अनिश्चित ऊर्जा के व्यवस्थित जड़-पदार्थ तक, निष्प्राण जड़-पदार्थ से प्राण की ओर, अवचेतन या अवमानसिक से अनुभूतिक्षम, अनुभवात्मक और कार्यकारी प्राण की ओर, आरंभिक पशु-मन से धारणात्मक युक्तिशील मन की ओर होती हैं जो प्राण का निरीक्षण और शासन करता है और स्वयं अपना भी निरीक्षण करता है । वह एक स्वतंत्र सत्ता की तरह काम करने की क्षमता रखता है और सचेतन रूप से अपना अतिक्रमण करना चाहता है । किंतु ये छलांगें चाहे काफी बड़ी क्यों न हों तब भी कुछ हदतक धीमे श्रेणी-क्रम के द्वारा तैयार की गयी होती हैं और इस कारण वे कल्पनीय और साध्य होती हैं । अतिमानसिक ऋत-चित् और अज्ञान में स्थित मन के बीच इतना बड़ा क्रम-भंग नहीं हो सकता जितना कि दिखायी देता है ।

 

   लेकिन अगर ऐसी मध्यवर्ती श्रेणियां हैं तो यह स्पष्ट है कि वे मानव मन के लिये अतिचेतन होंगी क्योंकि ऐसा लगता है कि मन अपनी स्वाभाविक अवस्था में इन उच्चतर श्रेणियों में प्रवेश नहीं पाता । मनुष्य अपनी चेतना में मन द्वारा बल्कि मन के किसी विशेष प्रसार या क्रम द्वारा भी सीमित होता है । जो कुछ उसके मन से नीचे होता है, चाहे वह अवमानसिक हो या मानसिक, पर हो उसके क्रम से नीचे, वह उसे सरलता से अवचेतन या पूर्ण निश्चेतना से अविभेद्य मालूम होता है और जो कुछ उसके ऊपर है वह उसे अतिचेतन लगता है और उसमें यह प्रवृत्ति होती है कि वह उसे अभिज्ञता से शून्य रूप में, एक प्रकार की ज्योतिर्मय निश्चेतना के रूप में माने । जैसे वह ध्वनियों और रंगों के एक क्रमतक सीमित रहता है और जो कुछ उस क्रम के ऊपर या नीचे हो वह उसे न दिखायी देता है न सुनायी देता है या कम-से-कम वह उसमें भेद तो नहीं कर पाता । वही बात उसके मानसिक चेतना के क्रम की है । उसके दोनों छोरों पर एक असामर्थ्य का सीमांकन रहता हैं जो उसकी ऊपर और नीचे की सीमा अंकित करता है । मनुष्य के पास पशु के

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साथ संपर्क के लिये भी काफी साधन नहीं हैं, जो उसके समान तो नहीं पर मानसिक सजातीय है । वह तो यहांतक कह बैठता है कि पशु में मन या वास्तविक चेतना नहीं है, क्योंकि उसके तौर-तरीके उन तौर-तरीकों से भिन्न और संकुचित हैं जिन्हें वह अपने और अपनी जाति के अंदर पाता है । वह अवमानसिक सत्ता का बाहर से अवलोकन कर सकता है परंतु वह उसके साथ जरा भी संपर्क नहीं साध सकता और न उसकी प्रकृति में अंतरंग रूप से प्रवेश कर सकता है । अतिचेतना भी उसके लिये समान रूप से एक बंद किताब है जो कोरे पृष्ठों से भरी हो सकती है । तो पहली दृष्टि में ऐसा प्रतीत होगा कि चेतना की इन उच्चतर श्रेणियों के साथ संपर्क बनाने के लिये उसके पास कोई साधन नहीं है । अगर ऐसा है तो वे कड़ियों या पुलों का काम नहीं दे सकतीं और उसके विकास को बस उपलब्ध मन की श्रेणी पर ही रुक जाना होगा, वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता । ये सीमाएं अंकित करते समय प्रकृति ने उसके ऊपर उठने के प्रयास पर 'इति' लिख दिया है ।

 

   लेकिन जब हम ज्यादा नजदीक से देखते हैं तो पता लगता है कि यह सामान्य अवस्था धोखा देनेवाली है और वस्तुत: ऐसी कई दिशाएं हैं जिनमें मानव मन अपने से परे जाता है और अपना अतिक्रमण करने की ओर प्रवृत्त होता है । यथार्थ में ये संपर्क की वे जरूरी रेखाएं या अवगुंठित या अर्द्ध-अवगुंठित राहें हैं जो मनुष्य के मन को स्वयं-प्रकाश आत्मा की चेतना की उच्चतर भूमिकाओं के साथ जोड़ती हैं । पहले हमने देखा है कि मानव ज्ञान के साधनों में अन्तर्भास का क्या स्थान है और अंतर्भास अपने स्वभाव से ही इन उच्चतर श्रेणियों की विशिष्ट क्रिया का अज्ञान के मन में प्रक्षेपण है । यह सच है कि मानव मन में उसकी क्रिया बहुत हद तक हमारी सामान्य बुद्धि के हस्तक्षेप से ढकी रहती है । हमारी मानसिक क्रियाओं में शुद्ध अन्तर्भास एक विरल घटना है क्योंकि हम जिस चीज को इस नाम से पुकारते हैं वह सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान का एक बिंदु होता है जो तुरंत मानसिक पदार्थ की पकड़ में आकर उसमें लिपट जाता है । अतः अन्तर्भास एक ऐसे आकार-ग्रहण का अदृश्य या अतिसूक्ष्म केन्द्र ही हो पाता जो अपनी राशि में बौद्धिक या किसी और रूप से मानसिक लक्षणवाला होता है । या फिर अन्तर्भास की चमक अपने-आपको अभिव्यक्त करने का अवसर पाये, उससे पहले ही तुरंत उसका स्थान लेने या उसमें बाधा डालने के लिये कोई नकल करने वाली तेज गति, अंतर्दृष्टि या तेज प्रत्यक्ष बोध या विचार की कोई और तेजी से छलांगें मारनेवाली क्रिया आ जाती है जो अपने प्रकट रूप के लिये आते हुए अंतर्भास के उद्दीपन की ऋणी होती है परंतु सच्चे या भूल-भरे प्रतिस्थापित मानसिक सुझाव द्वारा उसके मार्ग में बाधा देती या उसे ढक देती है । किंतु इन दोनों में कोई भी अंतर्भास की प्रामाणिक क्रिया नहीं है । बहरहाल ऊपर से इस हस्तक्षेप का तथ्य, यह तथ्य कि हमारे सभी मौलिक विचारों के पीछे या वस्तुओं के प्रत्यक्ष दर्शन के पीछे एक

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अवगुंठित, अर्द्ध अवगुंठित या तेजी से खुल जानेवाले अंतर्भास का तत्त्व होता है, मन और उसके ऊपर के संबंध को स्थापित करने के लिये काफी है । वह उच्चतर आत्मा के क्षेत्रों के साथ संपर्क साधने और उनमें प्रवेश पाने का रास्ता खोल देता है । साथ ही मन का प्रयास होता है व्यक्तिगत अहंकार की सीमाओं को पार करने और वस्तुओं को एक विशेष निर्वैयक्तिकता और वैश्व भाव से देखने का । वैश्व आत्मा का पहला लक्षण है निर्वैयक्तिकता वैश्व-भाव, एकमात्र या सीमित करने वाले दृष्टिकोण से न बंधना वैश्व प्रत्यक्ष दर्शन और ज्ञान का लक्षण है । अतः यह प्रवृत्ति मन के इन सीमित क्षेत्रों को विस्तृत करती है, यह विस्तरण चाहे जितना प्रारंभिक हो, वह होता है विश्व की ओर, ऐसे गुण की ओर जो उच्चतर मानसिक लोकों का अपना विधान होता है, उस अतिचेतन विश्व मन की ओर जो, जैसा हम संकेत कर आये हैं, वस्तुओं के स्वरूप को देखते हुए वह मूल मानसिक क्रिया होगा जिससे हमारा मन निकला है और जिसकी वह गौण प्रक्रिया है । और फिर हमारी मानसिक सीमाओं के अंदर ऊपर से भेदन का पूरा-पूरा अभाव भी नहीं होता । प्रतिभा के व्यापार वास्तव में ऐसे ही भेदन के परिणाम होते हैं । निःसंदेह वे पर्दे के पीछे रहते हैं क्योंकि उच्चतर चेतना का प्रकाश न केवल तंग सीमाओं में ही काम करता है, सामान्यतः किसी क्षेत्र विशेष में, अपनी उन विशिष्ट ऊर्जाओं का कोई अलग नियमित संगठन किये बिना काम करता है जो निःसंदेह बहुधा मनमाने ढंग से, अनियमितता और अतिप्राकृतिक या अप्राकृतिक दायित्वहीन शासन के साथ काम करती हैं बल्कि मन में प्रवेश करते हुए वह अपने-आपको मानसिक द्रव्य के आधीन और अनुकूल बना देता है । इस कारण केवल एक बदली हुई या घटी हुई क्रिया ही हमतक पहुंच पाती है न कि वह पूरी-पूरी मूलगत दिव्य ज्योतिर्मयता जिसे हम अपने से परे की, अपने सिर से उपर की चेतना कह सकते हैं । फिर हमारी कम आलोकित या कम सबल सामान्य मानसिक क्रिया को पार करनेवाले अंतःप्रेरणा के, सत्य प्रकट करनेवाले दर्शनों या अंतर्भासात्मक प्रत्यक्ष दर्शन या अंतर्भासात्मक विवेक के व्यापार उपस्थित रहते हैं और उनके मूल के बारे में भूल नहीं हो सकती । अंत में रहस्यमय और आध्यात्मिक अनुभूति का बृहत् तथा बहुविध क्षेत्र है और वहां हमारी चेतना को वर्तमान सीमाओं के परे उसके विस्तार की संभावना के द्वार पूरे खुले मिलते हैं, बशर्ते कि हम अनुसंधान करने से इंकार करनेवाली ज्ञानविरोधी वृत्ति के द्वारा या अपनी मानसिक सामान्यता की सीमाओं से लगाव के कारण उन्हें बंद न कर दें या अपने सामने खुलते हुए प्रदेशों से मुंह न मोड़ लें । लेकिन अपनी इस वर्तमान खोज में हम उन संभावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकते जिन्हें मनुष्यजाति के प्रयास के ये क्षेत्र हमारे पास ले आते हैं, न ही हम उपेक्षा कर सकते हैं अपने संबंध में और पर्दे के पीछे छिपी सद्वस्तु के संबंध में उस अतिरिक्त ज्ञान की जो मानव मन को उन क्षेत्रों की देन है, न उस महत्तर

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प्रकाश की जो उन्हें हमारे ऊपर क्रिया करने का अधिकार देता है और उनके अस्तित्व का सहज बल होता है ।

 

   चेतना की दो क्रमगत गतियां हैं जो कठिन तो हैं पर हैं भली-भांति हमारी सामर्थ्य की पहुंच में, जिनके द्वारा हम अपने सचेतन अस्तित्व की श्रेष्ठतर श्रेणियों तक पहुंच सकते हैं । पहली एक भीतर की ओर गति है जिसके द्वारा हम अपने बाहरी मन में रहने के बदले अपने बाह्य और इस समय अंतस्तलीय आत्मा के बीच की दीवार तोड़ देते हैं । यह क्रमश: किये गये प्रयत्न और अनुशासन के द्वारा या उग्र संक्रमण के द्वारा किया जा सकता है । कभी-कभी प्रबल अनैच्छिक तोड़- फोड़ से भी हो सकता है परंतु यह पिछला रास्ता अपनी सामान्य सीमाओं में ही रहने के अभ्यस्त सीमित मानव मन के लिये कभी सुरक्षित नहीं होता । लेकिन दोनों ही तरीकों सें चाहे सुरक्षित हो या अरक्षित यह चीज की जा सकती है । हम अपने इस गुप्त भाग में जो चीज पाते हैं वह है आंतरिक सत्ता, अंतरात्मा, आंतरिक मन, आंतरिक प्राण, एक आंतरिक सूक्ष्म भौतिक सत्ता जो हमारे बाहरी मन, प्राण या शरीर की अपेक्षा अपनी संभाव्यताओं में बहुत ज्यादा विशाल, अधिक नमनीय, अधिक शक्तिशाली, बहुविध ज्ञान और क्रिया के लिये अधिक समर्थ है । विशेष रूप से उसमें वैश्व शक्तियों, वैश्व गतियों और वैश्व पदार्थों के साथ सीधे संपर्क की, उन्हें सीधे अनुभव करने और उनकी ओर सीधे खुलने की, उनपर सीधी क्रिया करने की, यहां तक कि स्वयं अपने-आपको व्यक्तिगत मन, व्यक्तिगत प्राण और शरीर की सीमाओं के परे विस्तृत करने की क्षमता होती है । इससे वह अपने-आपको अधिकाधिक ऐसे विश्व-पुरुष के रूप में अनुभव करती है जो हमारे बहुत संकुचित मानसिक, प्राणिक और भौतिक जीवन की वर्तमान दीवारों में सीमित नहीं रहता । यह फैलाव इतना अधिक विस्तृत हो सकता है कि वह वैश्व मन की चेतना में, वैश्व प्राण के साथ एकत्व में, वैश्व जड़-तत्त्व के साथ भी एकत्व में पूरी तरह प्रवेश कर जाये, फिर भी यह तादात्म्य या तो क्षीण बने हुए वैश्व सत्य या वैश्व अज्ञान के साथ होता है ।

 

   लेकिन एक बार आंतरिक सत्ता में यह प्रवेश प्राप्त हो जाये तो पता लगता है कि भीतर की आत्मा वर्तमान मानसिक स्तर के परे की चीजों की ओर खुलने, ऊपर की ओर चढ़ने में समर्थ है । यह हमारे अंदर दूसरी आध्यात्मिक संभावना है । इसका पहला और अतिसामान्य परिणाम है बृहत् निष्क्रिय, नीरव आत्मा की खोज जिसे हम अपनी वास्तविक या आधारभूत सत्ता अनुभव करते हैं, हम और जो कुछ भी हों उस सबका आधाररूप यही है । यह भी हो सकता है कि हमारी सक्रिय सत्ता और आत्मा के बोध दोनों का अंत या निर्वाण एक ऐसी सद्वस्तु में हो जो अनिर्देश्य और अनिर्वचनीय है । लेकिन हम यह भी अनुभव कर सकते हैं कि यह आत्मा न केवल हमारी अपनी आध्यात्मिक सत्ता है बल्कि और सबकी सच्ची आत्मा

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भी है तो वह अपने-आपको वैश्व सत्ता के मूल सत्य के रूप में भी प्रकट करती है । समस्त व्यक्तित्व के निर्वाण में निवास करना संभव है, किसी स्थाणु सिद्धि पर रुक जाना या वैश्व गतिविधि को नीरव आत्मा पर आरोपित भ्रांति या ऊपरी लीला मान लेना संभव है और यह भी संभव है कि किसी परम अचल और अपरिवर्तनशील विश्वातीत स्थिति में पहुंचा जाये । परंतु अतिप्राकृतिक अनुभूति की एक और, कम निषेधात्मक धारा भी सामने आती है क्योंकि वहां हमारी नीरव आत्मा में ज्योति, ज्ञान, बल, आनंद या अन्य अतिप्राकृतिक ऊर्जाओं का एक विशाल क्रियात्मक अवतरण होता है और हम आत्मा के उच्चतर प्रदेशों में आरोहण भी कर सकते हैं जहां उसकी निश्चल स्थिति उन महान् और ज्योतिर्मय ऊर्जाओं का आधार होती है । दोनों अवस्थाओं में यह स्पष्ट होता है कि हम अज्ञान के मन के परे एक आध्यात्मिक स्थिति में उठ आये हैं, लेकिन क्रियात्मक स्पंदन में, परिणाम- रूप में आनेवाली चित्-शक्ति की जो ज्यादा बड़ी क्रिया होती है वह या तो केवल ऐसी शुद्ध आध्यात्मिक क्रियात्मकता के रूप में उपस्थित हो सकती है जिसका स्वरूप किसी और तरह से निर्दिष्ट नहीं होता या वह एक आध्यात्मिक मानसिक क्षेत्र को प्रकट कर सकती है जहां मन सद्वस्तु के बारे में अनभिज्ञ नहीं रहता -यह अभी अतिमानसिक स्तर पर नहीं होता लेकिन फिर भी अतिमानसिक ऋत-चित् से उत्पन्न और उसके ज्ञान के कुछ अंश से प्रकाशित रहता है ।

 

   हमें दूसरे विकल्प में वह रहस्य मिलता है जिसे हम खोज रहे हैं, वह है संक्रमण का साधन, अतिमानसिक रूपांतर की ओर जरूरी कदम । क्योंकि हम आरोहण की एक क्रमिकता, ऊपर से आती हुई अधिकाधिक गहरी और असीम ज्योति और शक्ति के साथ संपर्क, तीव्रताओं के एक सोपान को देखते हैं जिसे मन के आरोहण में या मन से परे के तत् से मन में होनेवाले अवरोहण में इतनी सीढ़ियां माना जा सकता है । सहज ज्ञान की राशियों की समुद्र की-सी धारा-वृष्टि का हमें पता है जो विचार का रूप धारण कर लेती है लेकिन उसका स्वभाव उस विचार-प्रक्रिया से अलग होता है जिसका हमें अभ्यास है क्योंकि यहां कोई खोज जैसी चीज नहीं होती, मानसिक रचना का लेश मात्र भी नहीं होता, न चिंतन का श्रम और न कठिन खोज । यह स्वत:चालित और सहज ज्ञान होता है जो उच्चतर मन से आता है, जिसके बारे में ऐसा लगता है कि वह छिपी हुई और अवरुद्ध सच्चाइयों की खोज नहीं करता बल्कि सत्य उसके अधिकार में है । हम देखते हैं कि यह विचार एक ही दृष्टि में ज्ञान की बड़ी राशि को अंतर्गत कर लेने में मन की अपेक्षा बहुत अधिक समर्थ होता है । वह वैश्व स्वभाव का होता है, उसपर व्यक्तिगत विचार की छाप नहीं होती । इस सत्य विचार के परे हम एक ज्यादा बड़े प्रकाश को देख सकते हैं जो बढ़ी हुई शक्ति, तीव्रता और चालक-शक्ति से अनुप्राणित है । वहां सत्य-दर्शन के स्वरूप की एक ज्योतिर्मयता रहती है जिसमें

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विचारों को रूप देना तो उसकी गौण और आश्रित क्रिया होती है । अगर हम सत्य के सूर्य का वैदिक रूपक स्वीकार करें -और यह रूपक इस अनुभूति में आकर वास्तविकता बन जाता है -तो हम उच्चतर मन की क्रिया की तुलना प्रशांत और स्थिर सूर्यालोक से कर सकते हैं और इस उच्चतर मन के आगे-आगे जो प्रकाशमय मन है उसकी ऊर्जा की तुलना ज्वलंत सूर्य-तत्त्व के पुंजों की मूसलाधार वर्षा से कर सकते हैं । इससे भी परे सत्य-शक्ति का एक और भी महान् बल मिल सकता है, एक अंतरंग और यथार्थ सत्य-दृष्टि, सत्य-विचार, सत्य-संवेदन, सत्य-अनुभव, सत्य-क्रिया जिसे हम एक विशेष अर्थ में अंतर्भास का नाम दे सकते हैं । क्योंकि, द्यपि एक ज्यादा अच्छे शब्द के अभाव में हमने इस शब्द का प्रयोग, जानने के किसी भी अति-बौद्धिक, प्रत्यक्ष तरीके के लिये किया है फिर भी हम जिसे अंतर्भास कहते हैं वह स्वयंभू ज्ञान की केवल एक विशेष गति है । यह नया प्रदेश उसका उद्गम है । वह हमारे अंतर्भासों को अपने स्पष्ट धर्म का कुछ भाग देता है और बहुत स्पष्ट रूप से एक ज्यादा बड़ी सत्य-ज्योति का मध्यवर्ती होता है । उस ज्योति के साथ हमारे मन का सीधा संपर्क नहीं हो सकता । हम अंतर्भास के मूलं में एक अतिचेतन विश्वमन को पाते हैं जिसका अतिमानसिक ऋत-चित् से सीधा संपर्क रहता है, एक मौलिक तीव्रता को पाते हैं जो अपने से नीचे की सभी गतियों और सभी मानसिक ऊर्जाओं का निर्धारण करती है -यह वह मन नहीं है जिसे हम जानते हैं बल्कि अधिमन है जो ज्ञान-अज्ञान के इस सारे अर्द्ध गोलार्द्ध को मानों सृजनात्मक अधि-आत्मा के विस्तृत पंखों से छाये रखता है, उसे उस महान् ऋत-चित् के साथ संपर्क में रखता है और साथ-ही-साथ वह उस महत्तर सत्य के मुख को अपने हिरण्मय पात्र से हमारी नजरों से ओझल करता है । हमारे जीवन के आध्यात्मिक धर्म की, उसके उच्चतम लक्ष्य की, उसकी गुप्त सद्वस्तु की खोज में वह अपनी अनंत संभावनाओं की बाढ़ ले आता है जो एक ही साथ बाधा भी होती है और मार्ग भी । यही वह गुह्य कड़ी है जिसकी हमें खोज थी, यही वह शक्ति है जो एक ही साथ परम ज्ञान और वैश्व अज्ञान को जोड़ती और अलग करती है ।

 

   अपने स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार अधिमानस अतिमानस चेतना का प्रतिनिधि है -अज्ञान में उसका प्रतिनिधि है । या हम उसके बारे में कह सकते हैं कि वह संरक्षात्मक युगल, असदृश्य सादृश्य का पर्दा है जिसके द्वारा अतिमानस परोक्ष रूप से उस अज्ञान पर क्रिया कर सकता है जिसका अंधकार परम ज्योति के सीधे आघात को सहन या ग्रहण न कर सकता । यहांतक कि इस ज्योतिर्मय अधिमानस के परिमंडल के प्रक्षेप के कारण ही अज्ञान में एक हल्की-सी ज्योति का विकिरण और उस विपरीत छाया का, निश्चेतन का, प्रक्षेप संभव हो सका जो छाया सारी ज्योति को निगल जाती है । क्योंकि अतिमानस अधिमानस में अपने

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सभी परमार्थ तत्त्वों का संचार तो कर देता है परंतु उसे उन्हें ऐसी क्रिया-धारा में और वस्तुओं की ऐसी अभिज्ञता के अनुसार रूप देने के लिये छोड़ देता है जो सत्य की दृष्टि तो होती है लेकिन साथ ही साथ अज्ञान का पहला जनक भी । अतिमानस और अधिमानस को एक लकीर एक दूसरे से अलग करती है जो बिना किसी बाधा के संचरण होने देती है, जो निचली शक्ति को वह सब प्राप्त करने देती हैं जिसे उच्चतर शक्ति धारण करती या देखती है लेकिन संचार के समय मध्यवर्ती परिवर्तन के लिये भी सहज रूप से बाधित करती है । अतिमानस की समग्रता हमेशा वस्तुओं के तात्त्विक सत्य को बनाये रखती है, समग्र सत्य और अपने वैयक्तिक आत्म-निर्धारणों के सत्य को स्पष्ट रूप से आपस में गुंथा रखती है । वह उनमें कभी अलग न होने वाले एकत्व को और उनके बीच एक दूसरे की घनिष्ठ अंतर्व्याप्ति और एक दूसरे की मुक्त और संपूर्ण चेतना को बनाये रखती है परंतु अधिमानस में यह समग्रता नहीं रहती । फिर भी अधिमानस वस्तुओं के सारभूत सत्य से भली-भांति परिचित होता है, वह समग्रता का आलिंगन करता है, वह वैयक्तिक आत्म-निर्धारण से सीमित हुए बिना उनका उपयोग करता है । यद्यपि वह उनके एकत्व को जानता है, उसे आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा अनुभव कर सकता है फिर भी उसकी क्रियात्मक गति, अपनी सुरक्षा के लिये उस एकत्व पर निर्भर रहती हुई भी सीधी उसके द्वारा निर्धारित नहीं होती । अधिमानस ऊर्जा समग्र और अविभाज्य सर्वव्यापी 'एकत्व' की शक्तियों और पक्षों के पृथक्करण और संयोजन की असीम क्षमता को लेकर चलती है । वह हर शक्ति या हर पक्ष को लेकर उसे एक स्वतंत्र क्रिया सौंप देती है जिसमें वह पक्ष पूर्ण पृथक् महत्त्व प्राप्त कर लेता है और कहा जा सकता है कि, रचना की एक अपनी ही दुनिया बना लेता है । पुरुष और प्रकृति, सचेतन आत्मा और प्रकृति की कार्य करने वाली शक्ति अतिमानसिक सामंजस्य में दो पहलुओंवाला एक ही सत्य है, परम सद्वस्तु की सत्ता और क्रियात्मक शक्ति है । इनमें आपस में कोई असंतुलन या एक की दूसरे पर प्रधानता नहीं होती । अधिमानस में दरार का मूल है, यहीं सांख्य दर्शन के किये गये तीक्ष्ण भेद का मूल है जिसमें ये दोनों अलग-अलग सत्ताओं जैसे मालूम होते हैं, प्रकृति पुरुष पर आधिपत्य जमा पाती और उसकी स्वाधीनता और शक्ति को धुंधला कर देती है, उसे एक साक्षी और उसके रूपों तथा क्रियाओं का ग्राही मात्र बना देती है, और पुरुष प्रकृति के आदि आवरणकारी भौतिक तत्त्व को त्याग कर अपनी अलग सत्ता में वापिस चला जाता है और अपने मुक्त आत्म-प्रभुत्व में निवास करता है । यही बात दिव्य सद्वस्तु के अन्य पक्षों और शक्तियों के लिये है । एक और बहु दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य निर्व्यक्तित्व और बाकी सब, इनमें से हर एक एकमेव सद्वस्तु का पक्ष और शक्ति है लेकिन हर एक को अधिकार दिया गया है कि वह समग्र के अंदर एक स्वतंत्र सत्ता की तरह क्रिया करे, अपनी अलग

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अभिव्यक्ति की संभावनाओं की पूर्णता तक पहुंचे और इस पृथक्ता के क्रियात्मक परिणामों को विकसित करे । साथ ही अधिमानस में यह पृथक्ता अन्तर्निहित, अन्तर्गत ऐक्य के आधार पर खड़ी होती है । इन अलग हुए पक्षों और शक्तियों के संयोजन और संबंध की सभी संभावनाएं उनकी ऊर्जाओं के सारे आदान-प्रदान और पारस्परिकता मुक्त रूप से संगठित होती हैं और उनकी विद्यमानता सदा संभव रहती है ।

 

   अगर हम सद्वस्तु की शक्तियों को इतने देव मान लें तो हम कह सकते हैं कि अधिमानस लाखों देवों को कार्य-क्षेत्र में छोड़ता है, हर एक को अपना-अपना लोक रचने का अधिकार दिया गया है और हर लोक औरों के साथ नाता जोड़ने, संचारण और परस्पर क्रीड़ा करने में समर्थ है । वेद में देवों की प्रकृति के भिन्न-भिन्न सूत्रीकरण हैं : कहा गया है कि वे सब एक ही सत् हैं जिसे विप्र लोग अलग-अलग नाम देते हैं; फिर भी हर देवता की पूजा इस तरह की जाती है मानों वही वह सत् हो, एकमेव जो एक साथ अन्य सब देवता है या जो उन्हें अपने में समाये हुए है; और फिर भी इनमें से हरएक अलग देव है जो कभी साथी देवों के साथ मिलकर, कभी अलग होकर और कभी उस अनन्य सत् से संबंध रखनेवाले अन्य देवों के प्रतीयमान विरोध में भी कार्य करता है । अतिमानस के अंदर यह सब उस एक सत् की एक सामंजस्यपूर्ण क्रीड़ा के रूप में एक साथ धारण किया हुआ रहेगा । अधिमानस में इन तीनों अवस्थाओं में से हरएक अलग-अलग क्रिया या क्रिया-आधार हो सकेगी, हरएक के विकास का अपना विधान और अपने परिणाम हो सकेंगे, फिर भी हरएक औरों के साथ एक अधिक मिश्रित सामंजस्य में जुड़े रहने की शक्ति बनाये रख सकेगी । जो बात उस एक सत् की है वही उसकी चेतना और शक्ति की भी है । वह एक चेतना चेतना और ज्ञान के बहुत से स्वतंत्र रूपों में अलग-अलग हो जाती है, हर एक रूप सत्य की अपनी-अपनी रेखा का अनुसरण करता है जिसे उसे सिद्ध करना है । वह एक समग्र और बहुपक्षीय सत्य-भाव बहुत-से पक्षों में बंट जाता है । हरएक एक स्वतंत्र भाव-शक्ति बन जाता हैं जिसमें अपने-आपको सिद्ध करने की शक्ति रहती है । वह एक चित्-शक्ति अपनी करोड़ों शक्तियों में उन्मुक्त हो जाती है और इनमें से हर शक्ति को अपने-आपको पूर्ण बनाने या, अगर जरूरत हो तो प्रधानता धारण करने और दूसरी शक्तियों को अपने निजी उपयोग में लाने का अधिकार रहता है । इसी तरह अस्तित्व का आनंद भी सब तरह के आनंदों में उन्मुक्त होता है और आनंद का प्रत्येक प्रकार अपनी स्वतंत्र पूर्णता अथवा अपनी निरंकुश चरम परिणति अपने अंदर लिये रह सकता है । इस तरह अधिमानस उस एक सच्चिदानंद को यह विशिष्टता प्रदान करता है कि वह अनंत संभावनाओं से भरा रहे जिन्हें बहुत-से लोकों में विकसित किया जा सकता है या एक ही साथ एक ही लोक में डाला जा सकता है जिसमें उनकी क्रीड़ा का अनंत रूप से परिवर्तनशील परिणाम सृष्टि का, उसकी प्रक्रिया का, उसके मार्ग और उसके परिणाम का निर्धारक होता है ।

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   चूंकि विश्व का सृजन करनेवाली शाश्वत सत् की चित्-शक्ति है अतः किसी जगत् की प्रकृति इस पर निर्भर होगी कि वहां उस चेतना का कौन-सा आत्म-रूपायन प्रकट हो रहा हैं । समान रूप से, हर व्यष्टिगत सत्ता, जिस जगत् में रह रही है उसे वह किस भांति देखेगी या उसे अपने आगे कैसे उपस्थित करेगी यह इसपर निर्भर रहेगा कि उस चेतना ने उसमें कैसी स्थिति या बनावट को अपनाया है । हमारी मानव मानसिक चेतना जगत् को तर्क-बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा काटे गये खंडों में देखती हैं और फिर उसे ऐसी रचना में जोड़ती है जो अपने-आपमें खण्ड है । वह जिस घर का निर्माण करती है वह सत्य के किसी एक या दूसरे सामान्यीकृत सूत्र के निवास के लिये आयोजित होता है लेकिन वह बाकी को अलग रखती है या कुछ को मेहमानों या घर के आश्रितों के रूप में आने देती है । अधिमानस चेतना अपने ज्ञान में सार्वभौम होती है और ऊपर से दीखनेवाले आधारभूत भेदों की किसी भी संख्या को समाधानात्मक दृष्टि में एक साथ रख सकती है । इस तरह मानसिक बुद्धि सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक को विरोधियों के रूपों में देखती है; वह एक निर्व्यक्तिक सत्ता की धारणा बनाती है जिसमें व्यक्ति और व्यक्तित्व अज्ञान की कल्पनाएं या क्षणिक रचनाएं हैं या इसके विपरीत वह यूं भी देख सकती है कि सव्यक्तिक ही मूल सत्य है और निर्व्यक्तिक उसका भाव-रूप या अभिव्यक्ति का उपादान या साधन मात्र है । अधिमानस बुद्धि के लिये ये एक ही सत् की अलग-अलग हो सकनेवाली शक्तियां हैं जो अपनी स्वतंत्र आत्म-स्थापना का अनुसरण कर सकती हैं और अपनी अलग-अलग क्रिया-विधियों को एक साथ जोड़ भी सकती हैं और इस तरह अपनी स्वतंत्रता और अपने सम्मिलन, दोनों में चेतना और सत्ता की अलग-अलग सृष्टि कर सकती हैं और ये सभी स्थितियां सार्थक हो सकती हैं और सभी सह-अस्तित्व के लिये समर्थ हो सकती हैं । एक शुद्ध निर्वैयक्तिक सत्ता और चेतना सत्य है और संभव है लेकिन साथ ही पूरी तरह व्यक्तिगत चेतना और सत् भी सत्य है और संभव है । यहां निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म शाश्वत के समान और सहवर्ती पहलू हैं । निर्व्यक्तिक सव्यक्तिक को अपनी अभिव्यक्ति की विधि-रूप में अपने आधीन रख कर अभिव्यक्त हो सकता है लेकिन उसी तरह यह भी हो सकता है कि सव्यक्तिक मूल रूप हो और निर्व्यक्तिक उसकी प्रकृति का एक विशेष प्रकार है । सचेतन सत् की अनंत बहुविधता में अभिव्यक्ति के ये दोनों पहलू एक दूसरे के सामने होते हैं । जो मानसिक बुद्धि के लिये मेल न खानेवाले भेद होते हैं वे अपने-आपको अधिमानस-बुद्धि के सामने सहवर्ती, सह-संबंधी रूप में प्रस्तुत करते हैं । जो मानसिक बुद्धि के लिये एक दूसरे के विपरीत हैं वे अधिमानसिक बुद्धि के लिये एक दूसरे के पूरक हैं । हमारा मन देखता है कि सभी चीजें जड़ से या भौतिक ऊर्जा से पैदा होती हैं, उसके सहारे रहती और उसीमें लौट जाती हैं । वह निष्कर्ष

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निकालता हैं कि जड़ ही शाश्वत तत्त्व, प्राथमिक और चरम सद्वस्तु -ब्रह्म है । या वह देखता है कि सभी वस्तुएं प्राण-शक्ति या मन से पैदा हुई हैं, प्राण या मन के सहारे जीती हैं और वैश्व प्राण या मन में लौट जाती हैं और वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि यह जगत् वैश्व प्राण-शक्ति या वैश्व-मन अथवा 'लोगोस' (परावाक्) की रचना है । या फिर वह देखता है कि यह जगत् और सभी वस्तुएं सत्य संकल्प या आत्मा की ज्ञानात्मिका इच्छा से पैदा हुई हैं, उसी के सहारे जीती और उसीमें या स्वयं आत्मा में लौट जाती हैं और वह विश्व के बारे में विज्ञानात्मक या आध्यात्मिक दृष्टि के निष्कर्ष पर पहुंचता है । वह इनमें से कोई भी एक दृष्टि निश्चित कर सकता है लेकिन उसकी सामान्य भेदकारी दृष्टि इनमें से हर एक मार्ग को औरों से अलग कर देती है । अधिमानसिक चेतना को यह प्रत्यक्ष होता है कि हरएक दृष्टि अपने बनाये हुए सिद्धांत की क्रिया के लिये सच्ची है । वह देख सकती है कि एक भौतिक जगद्-व्याख्या है, एक प्राणिक जगद्-व्याख्या है, एक मानसिक जगद्-व्याख्या है, एक आध्यात्मिक जगद्-व्याख्या है और इनमें से हर एक अपने निजी जगत् में प्रधान हों सकती है और साथ ही सब की सब एक जगत् में उसकी उपादान शक्तियों के रूप में इकट्ठे रह सकती हैं । चित्-शक्ति का वह आत्म-रूपायण, जिस पर हमारा जगत् प्रतीयमान निश्चेतन के रूप में आधारित है जो अपने अंदर परम चित्-सत्ता को छिपाये रहता है और सत्ता की समस्त शक्तियों को एक साथ अपनी निश्चेतन गुप्तता में धारण करता है, यह वैश्व जड़ तत्त्व का जगत् है जो अपने अंदर प्राण, मन, अधिमानस, अतिमानस, आध्यात्म पुरुष को चरितार्थ करता है । उनमें से हरएक को बारी-बारी से औरों को अपनी अभिव्यक्ति के साधन के रूप में लेता है । जड़ तत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से यह प्रमाणित करता है कि वह हमेशा आत्मा की अभिव्यक्ति रहा है -यह सब अधिमानसिक दृष्टि के लिये एक सामान्य और आसानी से उपलब्ध होनेवाली सृष्टि रहा है । अधिमानस अपनी प्रवर्तन-शक्ति और कार्य-कारिणी क्रिया में सत् की बहुत-सी संभाव्यताओं का व्यवस्थापक है जिनमें से हरएक अपनी अलग वास्तविकता को प्रतिष्ठित करती है । लेकिन यह सब-की-सब बहुत-सी अलग-अलग लेकिन युगपत् विधियों में अपने-आपको जोड़ने में भी समर्थ होती हैं । अधिमानस एक ऐन्द्रजालिक शिल्पी है जिसमें यह क्षमता है कि वह एक ही सत्ता की अभिव्यक्ति के बहुरंगी ताने-बाने से एक जटिल विश्व बुने ।

 

   इन बहुविध स्वतंत्र या संयुक्त शक्तियों और संभाव्यताओं के इस युगपत् विकास में अभी तक कोई अव्यवस्था नहीं, संघर्ष नहीं, सत्य या ज्ञान से पतन नहीं है अधिमानस सत्यों का स्रष्टा है, भ्रांतियों या मिथ्यात्वों का नहीं । किसी भी अधिमानसिक शक्ति-क्रिया या गति में जो कुछ क्रियान्वित किया जाता है वह स्वतंत्र क्रिया में उन्मुक्त रूप, शक्ति, भाव, बल, आनंद का सत्य होता है, उस

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स्वतंत्रता में विद्यमान उसकी सत्यता के परिणामों का सत्य होता है । वहां कोई ऐसी ऐकांतिकता नहीं होती जिसमें हर एक अपने को सत्ता का एकमात्र सत्य या औरों को घटिया सत्य माने । हर एक देवता सभी देवताओं को और विश्व में उनके स्थान को जानता है, हर एक भाव और सब भावों और उनके अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करता है, हर एक शक्ति अन्य सब शक्तियों और उनके सत्य तथा परिणामों का स्थान स्वीकार करती है । अलग पूर्णता-प्राप्त जीवन तथा अलग अनुभव का कोई आनंद किसी और जीवन या अनुभव के आनंद को न तो अस्वीकार करता है न उसका तिरस्कार ही करता है । अधिमानस वैश्व सत्य का एक तत्त्व है और एक बृहत् और असीम विश्वजनीनता उसका मुख्य भाव है । उसकी ऊर्जा सर्वगतिकता है और साथ ही अलग गतिकताओं का तत्त्व भी । वह एक तरह का निम्नतर अतिमानस है -यद्यपि वह मुख्यतया निरपेक्षों से संबंध नहीं रखता, बल्कि उनसे रखता है जिन्हें परम सद्वस्तु की गतिशील संभाव्यताएं या उसके व्यावहारिक सत्य कहा जा सकता है । या फिर निरपेक्षों के साथ मुख्यतः उनके व्यावहारिक या सृजनात्मक मूल्यों को उत्पन्न करने की शक्ति के नाते उनसे संबंध रखता है । यद्यपि यह भी है कि उसकी चीजों की अवधारणा समग्र होने की अपेक्षा सार्वभौम अधिक होती है क्योंकि उसकी समग्रता मंडलीय असमग्रताओं से बनी या एक साथ मिलती या जोड़ती हुई अलग-अलग स्वतंत्र वास्तविकताओं से बनी होती है । यद्यपि अधिमानस मूलभूत एकत्व को पकड़े रहता है और अनुभव करता है कि वह एकत्व ही वस्तुओं का आधार है और उनकी अभिव्यक्ति में फैला हुआ है फिर भी अतिमानस की तरह वह उनके लिये घनिष्ठ और सदा उपस्थित रहनेवाला रहस्य नहीं होता, उनका मुख्य आधार नहीं होता, उनकी क्रियाशीलता और प्रकृति के सामंजस्य-पूर्ण समग्र का प्रकट सतत निर्माता नहीं होता ।

 

   अगर हम इस सार्वभौम अधिमानसिक चेतना का अपनी पृथक्कारी और केवल अपूर्ण रूप से संश्लिष्ट मानसिक चेतना से फर्क समझना चाहें तो हम उसके अधिक निकट आ सकते हैं यदि हम शुद्ध रूप से मानसिक के साथ उसकी तुलना करें जो हमारे विश्व की क्रियाओं के बारे में अधिमानसिक दृष्टि होगी । उदाहरण के लिये अधिमानस के लिये सभी धर्म एक शाश्वत धर्म के विकास के रूप में सच्चे होंगे, सभी दर्शन अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने दृष्टिकोण की अपनी-अपनी विश्व-दृष्टि के कथन के रूप में मान्य होंगे, सभी राजनैतिक सिद्धांत और उनके व्यावहारिक रूप एक ऐसी भाव-शक्ति का न्यायसंगत क्रियान्वयन होंगे जिसे प्रकृति की ऊर्जाओं की क्रीड़ा में इस्तेमाल होने और व्यवहार रूप में विकसित होने का अधिकार है । हमारी पृथक्कारी चेतना में, जिसमें विश्वजनीनता और सार्वभौमता की झलकें कभी-कभी अपूर्ण रूप से आ जाती हैं, ये चीजें विरोधियों के रूप में रहती हैं । इनमें से हर एक सत्य होने का दावा करती हैं और दूसरों को भ्रांति और

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मिथ्यात्व ठहराती है, हर एक दूसरे का खंडन या नाश करने के लिये प्रेरित होती है ताकि स्वयं वह एकमात्र सत्य हो और जी सके । बहुत दुआ तो हर एक सर्वोत्तम होने का दावा करती है और बाकी सबको सत्य की घटिया अभिव्यक्ति के रूप में मानती है । लेकिन अधिमानसिक बुद्धि इस धारणा या ऐकान्तिकता की ओर इस बहाव को क्षण भर के लिये भी मानने से इंकार कर देगी । वह सभी को समग्र के लिये आवश्यक होने के नाते स्वीकार करेगी या हर एक को समग्र के उसके स्थान पर रखेगी या हर एक को उसकी उपलब्धि या प्रयास का क्षेत्र प्रदान करेगी । यह इसलिये है क्यांकि हमारे अंदर चेतना अज्ञान के विभाजनों में पूरी तरह उतर आयी है । अब सत्य अनंत या वैश्व समग्र नहीं रह जाता जिसके बहुत-से रूप संभव हों बल्कि एक कठोर प्रतिपादन होता है जो दूसरे किसी भी प्रतिपादन को बस इसीलिये मिथ्या ठहराता है क्योंकि वह स्वयं उससे अलग होता है और दूसरी सीमाओं में फंसा रहता है । निश्चय ही हमारी मानसिक चेतना अपने ज्ञान में एक समग्र व्यापकता और सार्वभौमता की ओर काफी हद तक जा सकती है लेकिन उसे कर्म और जीवन में संगठित करना उसके बस की बात नहीं । विकसनशील मन, जो व्यक्तियों या समुदायों में अभिव्यक्त है, अलग-अलग दृष्टिकोणों की, कर्म की अलग-अलग धाराओं की बहुलता पैदा करता है और उन्हें एक दूसरे के साथ-साथ रहते हुए या आपस में टकराते हुए या एक विशेष तरह से मिलते हुए क्रियान्वित होने देता है । वह चुने हुए सामंजस्य तो बना सकता है लेकिन वह सच्ची समग्रता के सामंजस्य के पूर्ण नियंत्रण तक नहीं पहुंच सकता । सभी समग्रताओं की तरह विश्व-मन को विकासक्रम के अज्ञान में भी ऐसा सामंजस्य जरूर प्राप्त होगा, भले वह व्यवस्थित की गयी संगतियों और असंगतियों का ही सामंजस्य हो । उसके अंदर भी एकत्व की अधस्थ सक्रियता रहती है लेकिन इन चीजों की पूर्णता को वह अपनी गहराई में शायद एक अतिमानसिक-अधिमानसिक निचले स्तर में तो लिये रहता है लेकिन विकासक्रम में उसे व्यष्टि-मन को नहीं दे सकता, उसे गहराइयों में से निकाल कर ऊपरी सतह पर नहीं ला सकता या यूं कहें अभी तक लाया नहीं है । अधिमानसिक जगत् सामंजस्य का जगत् होगा जब कि अज्ञान का जगत् जिसमें हम निवास करते हैं, असामंजस्य और संघर्ष का जगत् है ।

 

   फिर भी हम अधिमानस में आदि वैश्व-माया को तुरंत पहचान सकते हैं । वह अज्ञान की माया नहीं बल्कि ज्ञान की माया है फिर भी यह वह शक्ति है जिसने अज्ञान को संभव ही नहीं अनिवार्य भी बनाया है । क्योंकि अगर प्रत्येक तत्त्व को अपनी क्रिया में स्वतंत्र छोड़ दिया जाये ताकि वह अपनी स्वतंत्र रेखा पर चलता हुआ अपने पूर्ण परिणाम ला सके तो पृथक्ता के तत्त्व को भी अपनी पूरी यात्रा तय करने और अपने परम परिणामोंतक पहुंचने देना होगा । यह वह अनिवार्य अवतरण है जिसका अनुसरण चेतना एक बार पृथक्ता के तत्त्व को स्वीकार करने पर तबतक

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करती रहती है जबतक कि वह धुंधला करनेवाले सूक्ष्म से भी सूक्ष्म खंड भाव (तुच्छयेन) द्वारा भौतिक निश्चेतना में -ऋग्वेद में कहे गये निश्चेतन समुद्र (सलिलमप्रकेतम्) में नहीं जा पहुंचती और यदि एकमेव अपनी ही महिमा द्वारा उसमें से जन्म लेता है तब भी वह पहले हमारी खंडित पृथक्कारी सत्ता और चेतना द्वारा छिपा रहता है जिसमें हमें पूर्णतक पहुंचने के लिये खंड-खंड को जोड़ना पड़ता है । उस धीमे और कठिन आविर्भाव में हिरेक्लिटस का यह कथन कुछ सच लगने लगता है कि युद्ध ही सब चीजों का जनक है क्योंकि हर एक भाव, शक्ति, अलग चेतना, सजीव प्राणी अपने अज्ञान की आवश्यकता की वजह से ही औरों से टकराता है और बाकी सत्ता के साथ सामंजस्य द्वारा नहीं बल्कि स्वतंत्र आत्म-प्रतिपादन द्वारा जीने, बढ़ने और अपने-आपको पूर्ण बनाने का प्रयत्न करता है । फिर भी एक अज्ञात, आधारभूत ऐक्य बना ही रहता है जो हमें धीरे-धीरे सामंजस्य, अन्योन्याश्रय, विषमताओं की संगति, कठिन ऐक्य के किसी रूप की ओर प्रयास करने के लिये बाधित करता है । लेकिन हम जिस सामंजस्य और एकत्व के लिये प्रयास कर रहे हैं वह केवल अधूरे प्रयासों, अधूरे निर्माणों, रोज बदलनेवाले सादृश्यों में प्राप्त न होकर हमारी सत्ता के तंतुओंतक में और उसकी सारी आत्माभिव्यक्ति में क्रियात्मक रूप से तभी प्राप्त हो सकता है जब हमारे अंदर वैश्व सत्य की छिपी हुई अतिचेतन शक्तियों का विकास हो । और वे जिस परम तत्त्व में एक हों उसका विकास हो । अगर हमें इस वैश्व अस्तित्व में अपने जन्म की दिव्य संभावना को पूरा करना है तो हमारी सत्ता और चेतना पर आध्यात्मिक मन के उच्चतर लोकों को खुलना होगा और जो आध्यात्मिक मन से भी परे है उसे भी हमारे अंदर प्रकट होना होगा ।

 

   अधिमानस अपने अवतरण में एक ऐसी रेखा पर पहुंचता है जो वैश्व सत्य को वैश्व अज्ञान से अलग करती है । यह वही रेखा है जहां चित्-शक्ति के लिये संभव हो जाता है कि वह अधिमानस द्वारा बनायी गयी हर एक स्वतंत्र गति की पृथक्ता पर बल देती हुई और उनके एकत्व को छिपाती या अंधेरे से ढकती हुई ऐकान्तिक संकेद्रण द्वारा मन को अधिमानसिक मूल से विभक्त कर दे । इससे पहले अधिमानस का अपने अतिमानसिक मूल से ऐसा ही अलगाव हो चुका हैं लेकिन वहां आवरण में एक पारदर्शकता थी जो सचेतन संचरण होने देती थी और कुछ आलोकमय संबंध बनाए रहने देती थी परंतु यहां आवरण अपारदर्शक है और अधिमानस हेतुओं से मन की ओर होनेवाला संचरण गुह्य और अस्पष्ट है । पृथक् होकर मन ऐसे व्यवहार करता है मानों वह कोई स्वतंत्र तत्त्व हो और प्रत्येक मानसिक सत्ता, प्रत्येक आधारभूत मानसिक भाव, बल, शक्ति इसी तरह अपने स्वतंत्र स्व पर खड़ी रहती है । अगर वह औरों के साथ संचरण करती, उनके साथ

 

    १ ऋग्वेद १०,१२९, ३

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मिलती या संबंध जोड़ती है तो वह अधिमानस गति की उदार सार्वभौमता के साथ नहीं, आधारभूत ऐक्य की नींव पर नहीं, बल्कि स्वतंत्र इकाइयों की तरह जोड़ती है जो आपसमें मिलकर एक पृथक्-निर्मित समग्र बनाती हैं । यही वह गति है जिसके द्वारा हम सार्वभौम सत्य से सार्वभौम अज्ञान में जाते हैं । निःसंदेह इस स्तर पर वैश्व मन को अपने निजी एकत्व का बोध रहता है लेकिन उसे यह अभिज्ञता नहीं रहती कि उसका अपना मूल और आधार आत्मा में है, अथवा वह इसे बुद्धि द्वारा ही समझ सकता है, किसी स्थायी अनुभूति द्वारा नहीं । वह मानों अपने ही अधिकार से अपने अंदर क्रिया करता है और उसे जो कुछ उपादान के रूप में मिलता है उसे, जहां से वह उसे पाता है उस उद्गम से किसी सीधे संचरण के बिना ही अपने-आप क्रियान्वित करता है । उसकी इकाइयां भी एक दूसरे के और वैश्व समग्र के बारे में अज्ञान में रहते हुए कार्य करती हैं, उन्हें बस उतना ही ज्ञान रहता है जितना उन्हें संपर्क और संसर्ग द्वारा मिल सकता हो । तादात्म्य का आधारभूत बोध और उससे पैदा होनेवाले अन्योन्य प्रवेश और बोध वहां विद्यमान नहीं होते । इस मानस ऊर्जा की सभी क्रियाएं अज्ञान और उसके विभाजनों के विपरीत आधार पर चलती हैं और यद्यपि वे एक विशेष सचेतन ज्ञान का परिणाम होती हैं, वह ज्ञान आंशिक होता है न कि सच्चा और सर्वांगीण आत्म-ज्ञान और न ही सच्चा और सर्वांगीण जगत्-ज्ञान । यह विशेषता प्राण और सूक्ष्म भौतिक में बनी रहती है और उस स्थूल भौतिक विश्व में फिर से प्रकट होती है जो निश्चेतना में हुए अंतिम पतन से उद्भूत होता है ।

 

   तो भी हमारे अंतस्तलीय या आंतरिक मन की तरह इस मन में भी संसर्ग और पारस्परिकता का अधिक महान् बल अब भी बना रहता है, मानव मन की अपेक्षा मानसता और इन्द्रिय-संवेदन की एक अधिक स्वतंत्र क्रीड़ा रहती है और अज्ञान पूर्ण नहीं रहता; एक सचेतन सामंजस्य, उचित संबंधों का एक अन्योन्याश्रित संगठन अधिक संभव होता है, मन अभीतक अंधी प्राण-शक्तियों द्वारा विक्षुब्ध या प्रत्युत्तरशून्य जड़ से धुंधला नहीं होता । यह अज्ञान का लोक है, लेकिन अभीतक मिथ्यात्व या भ्रांति का नहीं -या अभी तक कम-से-कम मिथ्यात्व में और भ्रांति में जा गिरना अनिवार्य नहीं होता । यह अज्ञान सीमित करता है परंतु आवश्यक रूप से मिथ्या नहीं होता । ज्ञान सीमित हो जाता है, एकांगी सत्यों का संगठन होता है पर सत्य या ज्ञान से इंकार या उनका विपरीत पक्ष नहीं होता । पृथक्कारी ज्ञान के आधार पर आंशिक सत्यों के संगठन का यह रूप प्राण और सूक्ष्म भौतिक में अपना अस्तित्व बनाये रखता है क्योंकि चित्-शक्ति का ऐकांतिक केन्द्रीकरण, जो उन्हें अलग करनेवाली क्रियाओं में डालता है, मन को प्राण से अथवा मन और प्राण को भौतिक से पूरी तरह काट या ढक नहीं देता । पूरा-पूरा अलगाव तभी हो सकता है जब निश्चेतना की स्थिति आ जाये और हमारे बहुविध अज्ञान का जगत् उस तमोग्रस्त गर्भ से उद्भूत हो । अभीतक चेतन रहनेवाली प्रतिविकास की ये स्थितियां

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निःसंदेह चित्-शक्ति के संगठन हैं जिनमें हर एक अपने केन्द्र से जीता है, अपनी निजी संभावनाओं का अनुसरण करता है और जो तत्त्व प्रधान हो, चाहे वह मन हो या प्राण या जड़, वह चीजों को अपने निजी स्वाधीन आधार पर कार्यान्वित करता है लेकिन जो कार्यान्वित होता है वह उसके अपने निजी सत्य होते हैं भ्रम नहीं और न ही सत्य और मिथ्यात्व का, ज्ञान और अज्ञान का जाल । लेकिन जब शक्ति और रूप पर ऐकांतिक संकेन्द्रण द्वारा चित्-शक्ति दृश्य रूप में चेतना को शक्ति से अलग करती दीखती है या रूप और शक्ति में खोयी हुई वह अंध-निद्रा में चेतना को आत्मसात् करती है तो चेतना को खंडित विकास द्वारा अपने-आपतक वापिस पहुंचने के लिये उद्यम करना पड़ता है जिससे भ्रांति आवश्यक हो जाती है और मिथ्यात्व अनिवार्य । लेकिन ये चीजें भी किसी आदि असत् से उत्पन्न भ्रम नहीं हैं । हम कह सकते हैं कि ये निश्चेतना से उत्पन्न जगत् के अपरिहार्य सत्य हैं, क्योंकि अज्ञान वास्तव में एक ज्ञान ही है जो अपने-आपको निश्चेतना के आदि मुखौटे के पीछे खोज रहा है । वह खो देता और फिर पाता है । उसके परिणाम उनकी अपनी ही रेखा में स्वाभाविक और अनिवार्य, उस पतन के सच्चे परिणाम हैं -एक तरह से उस पतन से दोबारा उठने के लिये सही क्रिया भी होते हैं । सत् का आभासी असत् में, चेतना का आभासी निश्चेतना में, सत्ता के आनंद का बृहत् वैश्व असंवेदनशीलता में डुबकी लगाना उस पतन के पहले परिणाम हैं और वापिसी में संघर्षरत खंडित अनुभव, चेतना का सत्य और मिथ्यात्व के, ज्ञान और भ्रांति के दोहरे पदों में परिवर्तन, सत् का जीवन और मृत्यु के दोहरे पदों में परिवर्तन, सत्ता के आनंद का दुःख-सुख के दोहरे पदों में परिवर्तन, आत्मशोध के परिश्रम की आवश्यक प्रक्रिया हैं । सत्य, ज्ञान, आनंद, अविनश्वर सत्ता का शुद्ध अनुभव यहां पर अपने-आपमें वस्तुओं के सत्य का खंडन होगा । इससे भिन्न तभी हो सकता था जब विकासक्रम में सभी सत्ताएं अपने अंदर के चैत्य तत्त्वों के प्रति और प्रकृति के व्यापारों के आधार में रहनेवाले अतिमानस के प्रति शांत भाव से प्रत्युत्तर देतीं किंतु यहीं हर एक शक्ति का अपनी निजी संभावनाओं को कार्यान्वित करने का अधिमानसिक विधान आ जाता हैं । जिस जगत् में एक आदि निश्चेतना और चेतना का विभाजन प्रधान तत्त्व हों, उस जगत् की स्वाभाविक संभावनाएं होंगी -अंधकार की ऐसी शक्तियों का उभार जो अज्ञान के बल पर जीतीं और अज्ञान का अस्तित्व बनाये रखने के लिये प्रेरित रहती हैं, जानने का एक अज्ञानभरा प्रयास जिससे मिथ्यात्व और भ्रांति का आरंभ हो, जीने का एक अज्ञानभरा संघर्ष जो भूल और अशुभ को उत्पन्न करता हो, भोग करने के लिये अहंकारमय संघर्ष जो आंशिक सुखों, दुःखों और कष्टों का जनक हो । अतः ये चीजें यद्यपि हमारे विकासात्मक जीवन की एकमात्र संभावनाएं तो नहीं हैं किंतु उसके अनिवार्य रूप से पहली छापवाले लक्षण हैं । फिर भी, चूंकि असत् गुप्त सत् है, निश्चेतना छिपी हुई चेतना

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है और असंवेदनशीलता छिपा हुआ और सुप्त आनंद है अतः इन गुप्त वास्तविकताओं को अवश्य उभरना चाहिये और अंत में छिपे हुए अधिमानस और अतिमानस को भी अपनी परिपूर्ति अंधकारमय अनंत से उभरनेवाले, ऊपर से विरोधी मालूम होनेवाले संगठन में अवश्य करनी होगी ।

 

   दो चीजें हैं जो इस चरम स्थिति की प्राप्ति को, वह जैसी होती उसकी अपेक्षा अधिक सरल बनाती हैं । अधिमानस ने भौतिक सृष्टि की ओर उतरते हुए अपने कुछ परिवर्तित रूप बनाये हैं । इनमें विशेष है अंतर्भास जो अपनी सत्य की पैनी भेदनेवाली चमकदार झलकों को लिये हमारी चेतना में स्थानीय बिंदुओं और प्रदेश-विस्तारों को आलोकित करता है । ये रूप वस्तुओं के छिपे हुए सत्य को हमारे बोध के अधिक नजदीक ला सकते हैं और पहले तो आंतरिक सत्ता में और उसके फलस्वरूप बाहरी सतही सत्ता में भी चेतना के इन ऊंचे प्रदेशों के संदेशों के प्रति अधिक विस्तार से खुलते हुए उनके तत्त्व में बढ़ते हुए हम स्वयं भी अतर्भासमूलक और अधिमानसिक सत्ता बन सकते हैं । तब हम मानसिक बुद्धि और इन्द्रियों से सीमित नहीं रहेंगे बल्कि एक अधिक वैश्व बोध के लिये और सत्य के, स्वयं उसकी आत्मा और शरीर के साथ सीधे स्पर्श के लिये समर्थ होंगे वस्तुतः इन उच्चतर स्तरों से आलोक की झलकें अब भी हमारे पास आती हैं लेकिन उनका यह हस्तक्षेप अधिकतर खंडित, आकस्मिक या आशिक होता है । अब भी हमें उनके सादृश्य में अपने-आपको बढ़ाना और अपने अंदर महत्तर सत्य की उन क्रियावलियों को व्यवस्थित करना है जिनके लिये हमारी संभाव्यताओं में सामर्थ्य है । लेकिन फिर भी, दूसरी बात यह है कि, अधिमानस, अंतर्भास, बल्कि अतिमानस को भी न सिर्फ निश्चेतना में, जहां से हम विकासक्रम में ऊपर उठते हैं, अंतर्लीन और निहित तत्त्व होना चाहिये, जैसा कि हम देख आये हैं, और न केवल उनका विकास अनिवार्य नियति है, बल्कि वे गुप्त रूप से उपस्थित और अंतर्भासात्मक आर्विभाव की झलकों के रूप में मन, प्राण और भौतिक की वैश्व क्रियाओं में गुह्य रूप से सक्रिय हैं । यह सच है कि उनकी क्रिया छिपी रहती है और जब वे उभरते भी हैं तो उस क्रिया में मन, प्राण और भौतिक के माध्यम द्वारा -जिनमें से होकर वे काम करते हैं -हेर-फेर आ जाता है और उसे पहचानना आसान नहीं होता । अतिमानस आरंभ से ही विश्व में स्रष्टा शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट नहीं कर सकता क्योंकि अगर वह ऐसा करे तो अज्ञान और निश्चेतना असंभव हो जायेंगे या फिर अभी जो मंद विकास आवश्यक है वह तेज रूपांतर के दृश्य में बदल जायेगा । फिर भी भौतिक ऊर्जा के पग-पग पर हम अतिमानसिक स्रष्टा की लगायी हुई अनिवार्यता की मुहर देख सकते हैं । प्राण और मन के सारे विकास में संभावना की रेखाओं और उनके संयोजन की लीला को देख सकते हैं जो अधिमानसिक हस्तक्षेप की मुहर है; जैसे जड़ तत्त्व में से प्राण और मन मुक्त

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हुए हैं उसी तरह अपने समय में प्रच्छन्न देवत्व की इन महत्तर शक्तियों को प्रतिविकास में से उभरना होगा और उनकी परम ज्योति को ऊपर से हमारे अंदर उतरना होगा ।

 

   अगर ये चीजें वैसी हैं जैसी कि हमने देखी हैं तो अभिव्यक्ति के अंदर दिव्य जीवन हमारे वर्तमान अज्ञानमय जीवन के उच्च परिणाम और मुक्ति-मूल्य के रूप में न केवल संभव बल्कि प्रकृति के क्रमवैकासिक उद्यम की अनिवार्य परिणति और चरम सिद्धि है ।

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द्वितीय ग्रंथ

 

 विद्या और अविद्या

 

आध्यात्मिक क्रम विकास


 

 

प्रथम भाग  

 

अनन्त चेतना और अविद्या

 

 



 

अध्याय १

 

अनिर्धारित, वैश्व निर्धारण और अनिर्देश्य

 

 

            अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म-

            प्रत्ययसारं प्रपझोपशम् शान्तं शिवं... स आत्स स विज्ञेय: ।।

 

वह ऐसा अदृष्ट है जिसके साथ कोई भी व्यावहारिक संबंध नहीं हो सकते, वह पकड़ में नहीं आता, वह लक्षण-रहित, अचिन्त्य है, किसी भी नाम से उसका निर्देश नहीं किया जा सकता, जिसका सार है, 'एकमेव आत्मा' की निश्चिति, उस वैश्व अस्तित्व का उपशमन हो गया है, वह 'शान्तं शिवम्' है -वही वह आत्मा है, वही वह है जिसे जानना है ।

                                                                    माण्ड़ूक्योपनिषद् ७

 

             आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्रर्यवद वदति तथैव चान्य: ।

             आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।

 

कोई उसे आश्चर्यवत् देखता है, कोई उसकी चर्चा आश्चर्यवत् करता है, कोई उसे आश्चर्यवत् सुनता है लेकिन उसे जानता कोई नहीं ।

                                                                        गीता २-२९

 

              ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।

              सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।

              संनियम्मेन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय: ।

              ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।

 

जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिन्त्य की, कूटस्थ की, अचल और ध्रुव की खोज करते हैं सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं ।

                                                                गीता १२. ३, ४ 

 

               बुद्धेरात्मा महान्परः ।।

               महत: परमव्यक्तम् अव्यक्तात्युरुष: पर: ।

               पुरुषान्न पर किन्श्चित सा काष्ठा सा परा गति: ।।

 

बुद्धि से परे महान् आत्मा है, महान् आत्मा से परे अव्यक्त है, अव्यक्त से परे पुरुष है, उस पुरुष से परे कुछ भी नहीं है, वह पराकाष्ठा है, वह परा गति, परम लक्ष्य है ।

                                   कठोपनिषद् ३. १०, ११

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                वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।।

 

                ऐसा महात्मा दुर्लभ है जिसके लिये सब कुछ वासुदेव हो ।

                                                            गीता ७.१९

 

   एक चित्-शक्ति है जो सत्ता में हर जगह अंतर्निहित है, वह छिपी हुई भी क्रिया करती है, वह जगतों का सृजन करनेवाली, प्रकृति का गुह्य रहस्य है । लेकिन हमारे भौतिक जगत् में और हमारी अपनीं सत्ता में चेतना के दो पक्ष होते हैं, एक है ज्ञान की शक्ति और दूसरी अज्ञान की शक्ति । आत्म-अभिज्ञ अनंत सत् की अनंत चेतना में ज्ञान हर जगह निहित होगा या उसके हर कार्य के कण-कण में क्रियाशील होगा । लेकिन हम यहां वस्तुओं के आरंभ में एक निश्चेतना, एक पूर्ण अविद्या को सृजन करनेवाली विश्व ऊर्जा के आधार या उसकी प्रकृति के रूप में प्रकट देखते हैं । यही वह भंडार है जहां से भौतिक विश्व का आरंभ होता है । पहले चेतना और ज्ञान धुंधली अत्यणु गतियों में, बिंदुओं पर, छोटे ऊर्जाणु में, जो अपने-आपको एक साथ संबद्ध कर लेते हैं, उभरते हैं । एक धीमा और कठिन विकास होता है । चेतना की क्रियाओं का धीरे-धीर बढ़ता हुआ संगठन और सुधरता हुआ यंत्र-विन्यास होता है; अविद्या की कोरी सिलेट पर अधिकाधिक लाभ लिखे जाते हैं । फिर भी इनका रूप एक खोज करते हुए अज्ञान का और उस अज्ञान की इकट्ठी की हुई प्राप्तियों और निर्माणों का होता है जो जानने, समझने, खोजने और धीरे-धीरे संधर्ष के साथ उसे ज्ञान में बदलने की कोशिश करता है । जैसे यहां प्राण सर्वसामान्य मृत्यु की नींव पर और उसके वातावरण में अपनी क्रियाओं को कठिनाई के साथ स्थापित करता और बनाये रखता है, पहले वह इसे प्राण के अत्यणुओं में करता है, प्राण-स्वरूप और प्राण-ऊर्जा के ऊर्जाणु में करता है और बढ़ते हुए समुच्चयों में करता है और ये समुच्चय अधिकाधिक जटिल अवयव-संस्थानों, पेचीदे जीवन-यंत्रों की रचना करते हैं; उसी तरह चेतना भी एक आदि अविद्या और वैश्व अज्ञान के अंधकार में एक बढ़ती हुई किंतु अस्थिर ज्योति को प्रतिष्ठित करती और बनाये रखती है ।

 

   और फिर हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है वह चीजों की वास्तविकता या सत्ता के आधारों का नहीं बल्कि दृश्य रूपों का होता है । जहां कहीं हमारी चेतना उस चीज से मिलती है जो आधार प्रतीत होती है, वह आधार यदि शून्य का नहीं तो कोरी रिक्तता का रूप ले लेता है, एक ऐसी मूल अवस्था का जो आकृतिहीन है, और ऐसे असंख्य परिणामों का रूप ले लेता है जो उस मूल में अंतर्निहित नहीं होते और उस भूल में ऐसा कुछ नहीं होता जो उनका औचित्य सिद्ध कर सके या उनकी आवश्यकता दिखला सके; वहां बहुत-सी ऊपरी रचना होती है जिसका आधारभूत अस्तित्व के साथ कोई स्पष्ट सहज संबंध नहीं होता । विश्व-सत्ता का पहला रूप एक

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ऐसा अनंत होता है जो हमारी दृष्टि के लिये अनिर्देश्य नहीं तो अनिर्दिष्ट तो होता ही है । इस अनंत में स्वयं विश्व, चाहे ऊर्जा के रूप में हो या रचना-रूप में अनिर्धारित निर्धारण, ''सीमाहीन ससीम'' प्रतीत होता है । ये शब्द विरोधाभासी हैं लेकिन साथ ही आवश्यक भी जिनसे यह संकेत मिलता प्रतीत होता है कि हमारे सामने चीजों के आधार के रूप में वह बुद्धि से परे का रहस्य है । उस विश्व में बहुत बड़ी संख्या में विविध प्रकार के सामान्य और विशेष निर्दिष्ट उठ खड़े होते हैं जो अनंत की प्रकृति में दीखनेवाली किसी भी चीज द्वारा समर्थन पाते हुए नहीं दीखते । ऐसा लगता है कि उन्हें उसपर आरोपित किया गया है अथवा यह भी हो सकता है कि वे स्वयं अपने द्वारा आरोपित किये गये हों । ये आये कहां से ? जो ऊर्जा उन्हें पैदा करती है उसे हम प्रकृति का नाम देते हैं । लेकिन इस शब्द का तबतक कोई अर्थ नहीं निकलता जबतक हम यह न मान लें कि चीजों की प्रकृति जैसी हैं वैसी एक शक्ति के कारण है जो उन्हें उनमें अंतर्निहित सत्य के अनुसार संयोजित करती है । लेकिन स्वयं उस सत्य की प्रकृति, ये निर्दिष्ट जैसे हैं वैसे क्यों हैं, इसका कोई कारण कहीं दिखायी नहीं देता । वस्तुत: मानव विज्ञान के लिये भौतिक चीजों की प्रक्रिया या बहुत-सी प्रक्रियाओं का पता लगाना संभव रहा है परंतु यह ज्ञान मुख्य प्रश्न पर कोई प्रकाश नहीं डालता । हम मूल वैश्व प्रक्रियाओं का युक्तियुक्त विवरण तक नहीं जानते क्योंकि जो परिणाम हमारे सामने आते हैं वे उनके अवश्यंभावी परिणाम के रूप में नहीं बल्कि व्यावहारिक और वास्तविक परिणामों के रूप में ही आते हैं । अंत में हम नहीं जानते कि ये निर्दिष्ट आद्य अनिर्दिष्ट या अनिर्देश्य में या उसमें से कैसे आये जिस पर ये अपनी व्यवस्थित उपस्थिति में एक शून्य या समतल पृष्ठभूमि पर आधारित हैं । वस्तुओं के आरंभ में हमारा सामना होता है एक ऐसे अनंत से जिसमें बहुत-से सांतों की राशि है जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती, एक ऐसे अविभाज्य से जो अंतहीन विभाजनों से भरा है, एक ऐसे अक्षर से जो क्षरता और वैशिष्टय से भरा है । एक वैश्व विरोधाभास सभी वस्तुओं का आदि है, एक ऐसा विरोधाभास जिसके अर्थ की कोई चाबी नहीं है ।

 

   निश्चय ही यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि हमारे रूपायित विश्व को समाये रखनेवाले अनंत की धारणा करने की जरूरत ही क्या है ? हमारा मन अपनी धारणाओं के आवश्यक आधार-रूप में अनिवार्य रूप से ऐसी धारणा की मांग करता है क्योंकि वह देश या काल या सार सत्ता के परे कोई ऐसी सीमा निश्चित या निर्धारित करने में असमर्थ रहता है जिसके परे, पहले या पीछे कुछ न हो -यहां शून्य या असत् की धारणा का एक विकल्प भी है लेकिन ये तो अनंत की एक खाई मात्र हो सकते हैं जिसमें झांकने से हम इंकार करते हैं । ऐसी हालत में असत् का एक अनंत रहस्यमय शून्य एक अनंत 'क्ष' का आवश्यक आधारतत्त्व के रूप में स्थान ले लेगा, जो कुछ भी हमारे लिये अस्तित्व या सत् है उसे देखने के लिये

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यहीं आधार होगा । लेकिन अगर हम भौतिक विश्व के सीमाहीन विस्तृत होते हुए सांत के और उसके बहुप्रसवी निर्धारणों के सिवा और किसी को वास्तविक मानने से इंकार भी कर दें तब भी वही पहेली बनी रहती है । हमारे लिये अनंत सत् अनंत असत् या सीमाहीन सांत, सभी आदि अनिर्दिष्ट या अनिर्देश्य हैं । हम उनके लिये निश्चित गुण-धर्म या आकार या कोई ऐसी चीज नियत नहीं कर सकते जो उनके निर्देश्यों को पहले से निर्दिष्ट कर सके । विश्व के मौलिक या आधारभूत गुण-धर्म को देश या काल या देश-काल कह देने से भी हमें सहायता नहीं मिलती क्योंकि वे चाहे हमारी बुद्धि की अमूर्त कल्पनाएं न भी हों जिन्हें हम अपनी मानसिक दृष्टि से विश्व पर आरोपित कर रहे हों, वे अगर विश्व के चित्र के लिये मन के आवश्यक परिप्रेक्ष्य भी न हों फिर भी, ये भी वे अनिर्दिष्ट तो हैं ही जिनमें कोई ऐसा सूत्र नहीं मिलता जिससे उनके अंदर होनेवाले निर्दिष्टों के मूल का पता लग सके । अभीतक उस विचित्र प्रक्रिया की व्याख्या नहीं हो पायी है जिसके द्वारा चीजें निर्दिष्ट होती हैं, न उनकी शक्तियों, गुणों और विशेषताओं का स्पष्टीकरण हुआ और न उनके सच्चे स्वभाव, उद्गम और अर्थ का ही रहस्य खुला है ।

 

   वास्तव में यह अनंत या अनिर्दिष्ट सत् हमारे विज्ञान के आगे अपने-आपको ऊर्जा के रूप में प्रकट करता है जिसे स्वयं उसके कारण नहीं बल्कि उसके कार्यों के द्वारा जाना जाता है, जो अपनी गति में शक्ति-तरंगों को और उनमें अनगिनत अत्यणुओं को प्रक्षिप्त करती है । ये अपने-आपको ज्यादा बड़े अत्यणु बनाने के लिये समूहों में इकट्ठा करते हैं और इस तरह ऊर्जा के सभी सृजनों के लिये आधार बन जाते हैं, उनके लिये भी जो भौतिक आधार से अधिक-से-अधिक दूर हैं, व्यवस्थित जड़ तत्त्व के जगत् के आविर्भाव के लिये, प्राण के आविर्भाव के लिये, चेतना के आविर्भाव के लिये और विकसनशील प्रकृति की ऐसी सभी क्रियाओं के लिये जिनकी अभीतक कोई व्याख्या नहीं दी जा सकी, उन सबके लिये आधार बन जाते हैं । मौलिक प्रक्रिया पर बहुत-सी प्रक्रियाएं खड़ी की गयी हैं जिनका हम अवलोकन और अनुसरण कर सकते हैं, उनमें से कइयों का लाभ उठा सकते और उपयोग कर सकते हैं लेकिन ये उनमें से नहीं हैं जिनकी आधारभूत रूप से व्याख्या की जा सकती है । अब हम जानते हैं कि वैद्युत अत्यणुओं के विभिन्न समूहन और उनकी बदलती हुई संख्याएं अलग-अलग स्वभाव, गुण और बलवाले ज्यादा बड़े परमाणविक अत्यणुओं के प्रकट होने के लिये संघटक अवसर पैदा कर सकते या बन सकते हैं । उन्हें भूल से कारण कहा जाता है क्योंकि यहां तो वे एक आवश्यक पूर्ववर्ती अवस्था ही मालूम होते हैं । लेकिन हम यह समझने में असफल रहते हैं कि ये भिन्न-भिन्न स्थितियां अलग-अलग परमाणुओं का घटन कैसे कर सकती हैं, कैसे संघटक अवसर या कारण का वैशिष्टय घटित परिणाम या फल के वैशिष्टय को जरूरी बना देता है । हम यह भी जानते हैं कि कुछ अदृश्य

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परमाणविक अत्यणुओं के कुछ संयोजन ऐसे नये और दृश्य निर्धारणों को पैदा करते या उन्हें अवसर देते हैं जो स्वभाव, गुण और शक्ति में घटक अत्यणुओं से भिन्न होते हैं । लेकिन हम यह खोजने में असफल रहते हैं, उदाहरण के लिये कि कैसे ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोजन का निश्चित सूत्र पानी के प्रकट होने का निर्धारण कर देता है जो स्पष्ट रूप से गैसों के संयोजन से अधिक, एक नया सृजन, पदार्थ का एक नया रूप, एक और ही स्वभाव की भौतिक अभिव्यक्ति होता है । हम देखते हैं कि बीज वृक्ष में विकसित होता है । हम इस रचना की प्रक्रिया की रेखा का अनुसरण कर उसका उपयोग करते हैं लेकिन यह पता नहीं लगा पाते कि बीज से वृक्ष कैसे विकसित होता है, बीज के पदार्थ या उसकी ऊर्जा में वृक्ष का प्राण या रूप कैसे अंतर्निहित रहता है या अगर यही तथ्य है तो बीज वृक्ष में कैसे विकसित होता है । हम जानते हैं कि जीन और क्रोमोसोम (गुणसूत्र) पैतृक वंशगत संचरण के कारण हैं, केवल भौतिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक विभिन्नताओं के भी । लेकिन हम यह नहीं खोज पाते कि इस निश्चेतन जड़ वाहक में मन के गुण कैसे धारण किये जाते और संचारित किये जाते हैं । हम देखते या जानते तो नहीं हैं लेकिन हमारे आगे यह बात प्रकृति की प्रक्रिया के रूप में प्रतिपादित की जाती है कि विद्युदणु की, परमाणुओं और उनसे बने अणुओं की, कोषाणुओं, ग्रंथियों, रासायनिक स्रावों और शारीरिक प्रक्रियाओं की ऐसी क्रीड़ा होतीं है जो किसी शेक्सपीयर या अफलातून के मस्तिष्क और स्नायुओं पर ऐसी क्रिया करती है कि वह हैमलेट या 'सिम्पोजियम' या 'रिपब्लिक' की रचना करा सकती है या उसकी रचना के लिये क्रियात्मक सुयोग बन जाती है । लेकिन हम यह खोज पाने या समझने में असफल रहते हैं कि ऐसी जड़ भौतिक क्रियाएं विचार और साहित्य के इन उच्चतम बिंदुओं का सृजन कैसे कर पायीं या उन्होने इस सृजन को आवश्यक कैसे बनाया । यहां निर्देशक और निर्दिष्ट के बीच का अंतर इतना चौड़ा हो जाता है कि इस प्रक्रिया को समझने या इसे व्यवहार में लाने की तो बात दूर रही, हम उसका अनुसरण भी नहीं कर सकते । विज्ञान के ये सूत्र व्यावहारिक रूप में ठीक और निर्भ्रांत हो सकते हैं । वे प्रकृति की प्रक्रिया के व्यावहारिक ''कैसे'' का नियंत्रण कर सकते हैं लेकिन वे उसके आंतरिक ''कैसे'' और ''क्यों'' का रहस्य नहीं खोलते । बल्कि उनका रूप किसी वैश्व जादूगर के मंत्रों जैसा होता है -यथार्थ, अरोध्य, अपने-अपने क्षेत्र में हर एक स्वचालित रूप से सफल लेकिन जिनका प्रयोजन अभीतक मूलतः समझ में न आनेवाला है

 

   हमें चकराने के लिये और भी बातें हैं क्योंकि हम देखते हैं कि मौलिक अनिर्दिष्ट ऊर्जा अपने अंदर से सामान्य निर्दिष्टों को प्रक्षिप्त करती है, उन रचनाओं के वैविध्य को दृष्टि में रखते हुए हम इन्हें समान रूप से जातीय अनिर्दिष्ट कह सकते हैं । इनके द्रव्य की उचित अवस्थाएं और उस द्रव्य के निर्दिष्ट रूप होते हैं ।

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ये रूप बहुसंख्यक और कभी-कभी अपने आधार द्रव्य-ऊर्जा की अनगिनत विविधताएं होते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इन विविधताओं में से कोई भी सामान्य अनिर्दिष्ट की प्रकृति की किसी भी चीज द्वारा पहले से निर्दिष्ट नहीं होती । वैद्युत ऊर्जा अपने धन, ऋण और उदासीन रूप पैदा करती है । ये रूप एक ही साथ लहरें भी हैं और कण भी । द्रव्य-ऊर्जा की एक वायवीय स्थिति बहुत प्रकार की गैसें तैयार करती है । द्रव्य ऊर्जा की ठोस स्थिति, जिसमें से पृथ्वी-तत्त्व विकसित होता है, वह पृथ्वी और चट्टान के विभिन्न रूपों और बहुसंख्या में खनिजों और धातुओं को विकसित करती है । प्राण-तत्त्व अपने वनस्पति-राज्य की रचना करता है जो विचित्र प्रकार के पौधों, वृक्षों, पुष्पों के असंख्य प्रकारों से भरा होता है । पशु जीवन का तत्त्व जाति, उपजाति, वैयक्तिक वैचित्र्यों के विशाल वैविध्य को उत्पन्न करता है । उसी तरह वह तत्त्व मानव प्राण और मन और उसके मानसिक प्ररूपों की ओर, क्रम-विकास के उस असमाप्त अध्याय के अभीतक अलिखित अंत या शायद अबतक गुह्य रहनेवाले उत्तरार्द्ध की ओर आगे बढ़ता है । मूल निर्दिष्ट में शुरू से अंततक व्यापक समानता का सतत नियम रहता है और आधारभूत पदार्थ और प्रकृति के इस स्वरूपगत अभेद के आधीन जातिगत और वैयक्तिक निर्दिष्टों में प्रचुर वैचित्र्य रहता है । जाति और उपजाति में भी समानता या सादृश्य का ऐसा ही नियम चलता है और वहां भी बहुसंख्यक वैविध्य रहता है जो व्यक्ति में प्रायः अतिसावधानी से व्योरोंतक में रहता है । लेकिन हम सामान्य या जातिगत निर्दिष्ट में ऐसी कोई चीज नहीं पाते जो उससे पैदा होनेवाले विविध निर्दिष्टों को आवश्यक बनाये । ऐसा लगता है कि आधार में एक अपरिवर्तनशील समानता और सतह पर मुक्त और बेहिसाब विभिन्नताओं की अनिवार्यता ही नियम है । लेकिन वह कौन है या क्या है जो इन्हें अनिवार्य या निर्दिष्ट बनाता है ? निर्धारण का प्रयोजन क्या है ? उसका मूल सत्य या उसका तात्पर्य क्या है ? बदलती हुई संभावनाओं की इस उल्लासमयी लीला को, जिसका सृजन की सुंदरता या उसके आनंद के सिवाय कोई लक्ष्य या अर्थ नहीं दिखायी देता, कौन बाधित या प्रेरित करता है ? हो सकता है कि वह कोई मन या कोई खोजनेवाला, कुतूहलभरा अन्वेषक विचार या कोई गुप्त निर्धारक इच्छा हो लेकिन उसका जड़ भौतिक प्रकृति के प्रथम मौलिक रूप में कहीं कोई लवलेश भी नहीं दिखायी देता ।

 

   पहली संभव व्याख्या यह संकेत करती है कि एक आत्म-संगठनकारी क्रियाशील संयोग काम कर रहा है । यह विरोधाभास इसलिये जरूरी हो जाता है कि हम जिस वैश्व व्यापार को प्रकृति कहते हैं उसमें एक तरफ तो अनिवार्य व्यवस्था और दूसरी और बेहिसाब मनमानापन और स्वैर कल्पना दिखायी देती है । हम कह सकते हैं कि प्रकृति की ऊर्जा एक निश्चेतन और असंबद्ध शक्ति है जो किसी निर्देशक नियम के बिना, विशृंखलता के साथ काम करती है और सामान्य

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संयोग से इसकी या उसकी रचना कर डालती है । उसकी क्रिया के एक-से छंद-लय के लगातार बार-बार दोहराये जाने के परिणामस्वरूप ही निर्देशन का आगमन होता है ओर चूंकि इस तरह दोहराया जानेवाला छंद ही चीजों के अस्तित्व को बनाये रखने में सफल होता है इसलिये निर्देशन भी सफल होते हैं -यह प्रकृति की ऊर्जा है । लेकिन इसमें यह अर्थ छिपा होता है कि चीजों के आरंभ में कहीं पर ऐसी असीम संभावना या अनगिनत संभावनाओं का गर्भ है जो आदि-ऊर्जा द्वारा उसमें से प्रकट होती हैं -यह एक अनिश्चित निश्चेतना है जिसे हम सत् या असत् कहते हुए सकुचाते हैं, क्योंकि ऐसे किसी उद्गम और आधार के बिना ऊर्जा का प्रकट होना या उसका क्रिया करना समझ में नहीं आता । लेकिन वैश्व व्यापार के स्वभाव का जैसा हमें एक उल्टा पहलू दीखता है, ऐसा लगता है कि वह हमें इस सिद्धांत को मानने की मनाही करता है कि कोई विशृंखल क्रिया एक स्थायी व्यवस्था को उत्पन्न करती है । वहां व्यवस्था पर, संभावनाओं के आधार के नियम पर एक लौह आग्रह है । यह मानना न्यायसंगत होगा कि वस्तुओं का एक अंतर्निहित अनिवार्य सत्य होता है जो हमारे लिये अदृश्य रहता है लेकिन यह ऐसा सत्य है जो बहुविध रूपों में अभिव्यक्त होने में सक्षम है, जो अपनी बहुत सारी संभावनाओं और रूप-भेदों में अपने-आपको प्रक्षिप्त कर सकता है जिन्हें सर्जक ऊर्जा अपनी क्रिया से बहुत सारी संसिद्ध वास्तविकताओं में बदल देती है । यह चीज हमें एक और व्याख्यातक लें आती है, वह है -वस्तुओं में विद्यमान यांत्रिक आवश्यकता जिसकी क्रियाओं को हम प्रकृति के बहुत सारे यांत्रिक नियमों के रूप में जानते हैं -हम कह सकते हैं कि वस्तुओं के किसी ऐसे गुप्त अंतनिर्हित सत्य की आवश्यकता है जिसकी हमने कल्पना की है, जो विश्व में, जिन क्रियाओं को हम क्रिया करते देखते हैं, उनकी प्रक्रियाओं को स्वतः -शासित करती है । लेकिन यांत्रिक आवश्यकता का सिद्धांत अपने-आपमें विकास में दीखनेवाले अंतहीन गणनातीत विभेदों की स्वतंत्र क्रीड़ा पर प्रकाश नहीं डालता । आवश्यकता के पीछे या उसके अंदर ऐक्य का एक नियम होना चाहिये जो साथ-ही-साथ चलनेवाले लेकिन अधीनस्थ बहुलता के नियम के साथ जुड़ा हो और दोनों ही अभिव्यक्ति पर जोर देते हों । लेकिन किसका ऐक्य ? किसकी बहुलता ? यांत्रिक आवश्यकता इसका कोई उत्तर नहीं दें सकती । और फिर इस सिद्धांत में निश्चेतना में से चेतना का आविर्भाव रास्ते का रोड़ा है क्योंकि यह एक ऐसा व्यापार है जिसका निश्चेतन यांत्रिक आवश्यकता के सर्वव्यापक सत्य में कोई स्थान नहीं हो सकता । अगर कोई ऐसी आवश्यकता है जो इस आविर्भाव को बाधित करती है तो वह केवल यही हो सकती है कि निश्चेतना में पहले से ही चेतना छिपी हुई है जो विकास की प्रतीक्षा में है, और जब सब कुछ तैयार हो तो अपनी प्रतीयमान निर्ज्ञान की कारा में से फूट निकलती है । वस्तुओं की अनिवार्य व्यवस्था की कठिनाई से हम यह मानकर पीछा छुड़ा सकते हैं कि उसका

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अस्तित्व ही नहीं है, कि प्रकृति में नियति को हमारे विचार ने आरोपित किया है, जिस विचार को अपने इर्द-गिर्द की चीजों से व्यवहार करने के लिये ऐसी अनिवार्य व्यवस्था की जरूरत है लेकिन वास्तव में ऐसी कोई चीज है ही नहीं । केवल एक शक्ति है जो ऐसे अत्यणुओं की इतस्ततः क्रिया पर परीक्षण करती है जो अपने सामान्य परिणामों में, अपनी क्रिया के कुल योग में बार-बार दुहरायी जानेवाली क्रिया द्वारा भिन्न-भिन्न नियतियों की रचना करते हैं । इस तरह हम अपने जीवन के आधार के रूप में आवश्यकता से संयोग की ओर लौट जाते हैं । लेकिन तब यह मन, यह चेतना क्या है जो उसे बनानेवाली ऊर्जा से मूलत: इतनी भिन्न है कि उसे उस जगत् पर, जिसे उस ऊर्जा ने बनाया है और जिसमें रहने के लिये वह बाधित है, अपने नियम-व्यवस्था के भाव और आवश्यकताओं और अपनी क्रियाओं के लिये आरोपित करना पड़ा है । तो यहां दो तरह का विरोध आ जाता है; एक है चेतना का मूलगत निश्चेतना में से आविर्भाव और दूसरा व्यवस्था और तर्क-बुद्धिवाले मन का एक ऐसे जगत् के भव्य अंतिम परिणाम के रूप में प्रकट होना जिसे निश्चेतन संयोग ने पैदा किया था । ये चीजें संभव हो सकती हैं लेकिन इससे पहले कि हम उन्हें अपनी स्वीकृति दें, ये अभीतक जितनी व्याख्याएं दी गयी हैं उनसे ज्यादा अच्छी व्याख्या की मांग करती हैं ।

 

   यह अन्य व्याख्याओं के लिये रास्ता खोल देती है जो चेतना को एक प्रतीयमान मूल निश्चेतना में से इस जगत् का निर्माण करनेवाली कहती हैं । ऐसा लगता है कि एक मन ने, एक इच्छा ने विश्व की कल्पना और व्यवस्था की है लेकिन उसने अपने-आपको अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लिया है । उसकी पहली रचना है निश्चेतन ऊर्जा का यह पर्दा और द्रव्य का जड़ रूप । यह एक ही साथ उसकी उपस्थिति को छिपानेवाला और सृजन का नमनीय आधार है जिसपर वह उस तरह काम कर सकता हैं जैसे कोई कारीगर आकारों और नमूनों को तैयार करने के लिये मूक और आज्ञाकारी पदार्थ का उपयोग करता है । तो फिर ये सब चीजें, जिन्हें हम अपने चारों ओर देखते हैं, वे किसी विश्व से बाहर की दिव्य सत्ता के विचार हैं । उस सत्ता में सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ मन और इच्छा है जो भौतिक विश्व के गणितीय नियम के लिये, उसके सौंदर्य की कला के लिये, समानता और विभिन्नता की, उसकी संगति और विसंगति की, संयुक्त होनेवाले और आपस में मिलनेवाले विरोधों की विचित्र क्रीड़ा के लिये एक निश्चेतन वैश्व व्यवस्था में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करती और अपने-आपको प्रतिष्ठित करना चाहती हुई चेतना के नाटक के लिये उत्तरदायी है । इस तथ्य से कोई कठिनाई नहीं पैदा होती कि यह भागवत तत्त्व हमारे लिये अदृश्य और हमारे मन और इन्द्रियों की खोज के परे है, क्योंकि जिस विश्व में उसकी उपस्थिति का अभाव है उसमें विश्व से बाहर के स्रष्टा के स्वयंसिद्ध या प्रत्यक्ष लक्षण की आशा नहीं की जा सकती । हर जगह प्रज्ञा, विधान,

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परिकल्पना, नियम, साधनों के लक्ष्य के साथ अनुकूलन, सतत और अक्षय अन्वेषण के स्पष्ट संकेत, यहांतक कि स्वैर कल्पना को भी, भले वह व्यवस्थापक बुद्धि द्वारा नियंत्रित हो, वस्तुओं के इस उद्गम का पर्याप्त प्रमाण माना जा सकता है । और अगर यह स्रष्टा पूरी तरह विश्व के बाहर नहीं है बल्कि अपने कार्यों में व्याप्त भी है, तब भी उसके बारे में कोई और चिह्न होने की जरूरत नहीं है -ऐसा चिह्न निश्चय ही इस निश्चेतन जगत् में विकसित होती हुई चेतना को मिल सकता है, लेकिन तभी जब उसका विकास एक ऐसे बिंदु पर जा पहुंचे जहां वह अपने अंदर निवास करनेवाली उपस्थिति के बारे में अभिज्ञ हो सके । इस विकसनशील चेतना का हस्तक्षेप कोई कठिनाई न लायेगा क्योंकि उसके प्रकट होने से चीजों के आधारभूत स्वरूप में कोई विरोध न होगा । सर्वशक्तिमान् मन अपने-आपका कुछ अंश आसानी से अपने जीवों में भर सकता है । एक कठिनाई रह जाती है, वह है सृष्टि का मनमाना स्वरूप, उसके प्रयोजन का समझ में न आना, अनावश्यक अज्ञान, संघर्ष तथा पीड़ा के नियम की अनगढ़ व्यर्थता और उपसंहार या परिणाम के बिना उसकी समाप्ति । क्या यह नाटक है ? लेकिन जिसके स्वभाव को दिव्य मानना चाहिये उस एकमेव के नाटक में इतने सारे अदिव्य तत्त्वों और पात्रों की यह मुहर क्यों ? इस सुझाव के उत्तर में कि हम जो कुछ जगत् में चरितार्थ होते देखते हैं वह भगवान् का स्वप्न है, यह कहा जा सकता है कि भगवान् कुछ ज्यादा अच्छे स्वप्न देख सकते थे और सबसे अच्छा स्वप्न तो यही होता कि वे दुःखी और समझ में न आनेवाले विश्व के बनाने से बाज रहते । सभी आस्तिक व्याख्याएं, जो जगत् से बाहर स्थित भगवान् को लेकर चलती हैं इस कठिनाई पर आकर ठोकर खाती हैं और वे बस उससे बच कर निकल ही सकती हैं । यह तभी गायब हो सकती है यदि स्रष्टा, भले अपनी सृष्टि का अतिक्रमण करते हुए भी उसमें व्याप्त हो, किसी तरह अपने-आप खेल और खिलाड़ी दोनों हो, एक ऐसा अनंत हो जो एक विकसनशील विश्व-व्यवस्था के बंधे हुए रूप में अनंत संभावनाओं को प्रक्षिप्त करता हों ।

 

   इस मान्यता के अनुसार जड़ भौतिक ऊर्जा की क्रिया के पीछे एक गुप्त अंतर्निहित चेतना होनी चाहिये जो वैश्व और अनंत हो, जो उस सामने की ऊर्जा की क्रिया द्वारा विकसनशील अभिव्यक्ति के साधन खड़े करती हो, जड़ विश्व के सीमाहीन सांत में अपने अंदर से एक सृष्टि पैदा करती हो । तब जड़ भौतिक विश्व-पदार्थ की रचना के लिये, जिसके अंदर चेतना अपने-आपको अंतर्लीन करना चाहती है ताकि वह अपने दीखनेवाले विरोधों में से विकास के द्वारा वृद्धि पाये, उसमें जड़ भौतिक ऊर्जा की प्रतीयमान निश्चेतना एक अनिवार्य अवस्था होगी । क्योंकि किसी ऐसी तरकीब के बिना पूरा-पूरा अंतर्लयन संभव न होगा । यदि कोई ऐसी सृष्टि है जिसे अनंत ने अपने अंदर से बनाया है तो उसे एक जड़ भौतिक

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छद्मवेश में अपनी ही सत्ता के सत्यों या शक्तियों की एक अभिव्यक्ति होना चाहिये : इन सत्यों या शक्तियों के रूप या वाहन होंगे वे सामान्य या आधारभूत निर्दिष्ट जिन्हें हम प्रकृति में देखते हैं । वे विशेष निर्दिष्ट जो अन्यथा बेहिसाब वैविध्य हैं, जो उस अस्पष्ट सामान्य पदार्थ में से उभरे हैं जिनमें उनका आरंभ हुआ था, वे ही उन संभावनाओं के उचित रूप या वाहन होंगे जिन्हें इन मूलगत निर्दिष्टों के अंदर रहनेवाले सत्यों या शक्तियों ने अपने अंदर धारण कर रखा था । अनंत चेतना के लिये संभावनाओं का मुक्त वैचित्र्य स्वाभाविक है । यह विधान निश्चेतन संयोग के पक्ष की व्याख्या होगा जिसे हम प्रकृति की क्रियाओं में देखते हैं -वह केवल देखने में निश्चेतन है और जड़ तत्त्व में पूर्णतया अंतर्लीन होने के कारण या गुप्त चेतना ने अपनी उपस्थिति को जिस पर्दे से छिपा रखा है उसके कारण ऐसा दीखता है । सत्यों के तत्त्व, शाश्वत की वास्तविक शक्तियां, जो अपने-आपको अनिवार्य रूप से परिपूर्ण करती हैं, यही उस विरोधी पक्ष की यांत्रिक आवश्यकता की व्याख्या है जिसे हम प्रकृति में देखते हैं -ये केवल देखने में ही यांत्रिक हैं और उसी निश्चेतना के पर्दे के कारण ऐसे दीखते हैं । तब यह बिलकुल बोधगम्य बात होगी कि निश्चेतना अपने कार्य सदा गणितीय वास्तुकला, परिकल्पनाओं, अंकों की प्रभावकारी व्यवस्था, साधनों के लक्ष्य के अनुसार अनुकूलन, अक्षय युक्ति और अन्वेषण के स्थिर सिद्धांत, बल्कि हम कह सकते हैं अविच्छिन्न परीक्षणात्मक कौशल और उद्देश्य की यांत्रिकता के साथ करती है । तब दीखनेवाली निश्चेतना में से चेतना का प्रकट होना भी अव्याख्येय न रहेगा ।

 

   अगर यह परिकल्पना मान्य साबित हो तो प्रकृति की वे सब प्रक्रियाएं जो अव्याख्येय हैं, अपना अर्थ और अपना स्थान पा लेंगी । ऐसा लगता है कि ऊर्जा पदार्थ का सृजन करती है लेकिन वास्तव में जैसे सत् चित्-शक्ति में अतर्निहित है उसी तरह पदार्थ भी ऊर्जा में अंतर्निहित होगा -ऊर्जा शक्ति की अभिव्यक्ति है और पदार्थ गुप्त सत् की अभिव्यक्ति । लेकिन चूंकि यह आध्यात्मिक द्रव्य है, वह जड़ भौतिक इन्द्रियों द्वारा तबतक न समझा जायेगा जबतक कि ऊर्जा, उसे ऐसे जड़ पदार्थ का रूप न दे दे जिसे वे इन्द्रियां पकड़ सकें । हम यह भी समझना शुरू करते है कि रूप-रेखा, परिमाण और संख्या का विन्यास किस तरह गुण और धर्म की अभिव्यक्ति का आधार हो सकता है क्योंकि रूप-रेखा, परिमाण और संख्या सत्ता-द्रव्य की शक्तियां हैं, गुण और धर्म उस चेतना और उसकी शक्ति की शक्तियां हैं जो सत् में निवास करती हैं । तब उन्हें पदार्थ की प्रक्रिया और लय द्वारा अभिव्यक्त और क्रियाशील बनाया जा सकता है । बीज में से वृक्ष के विकास को, इसी तरह के दूसरे व्यापारों को भी, हम जिसे सत्य-संकल्प कहते हैं उसके अंदर निवास करनेवाली उपस्थिति के द्वारा समझा जा सकेगा । अनंत के सार्थक रूप का आत्मदर्शन, उसकी सत्ता की शक्ति का सजीव शरीर जिसे उसके ऊर्जा-द्रव्य में से

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आत्म-संपीड़न द्वारा उभरना है, वह आंतरिक रूप से बीज के रूप में ले जाया जायेगा और उस रूप में अंतर्निहित गुह्य चेतना में ले जाया जायेगा और स्वभावत: उसमें से विकसित होगा । और इस सिद्धांत के आधार पर यह समझने में कोई कठिनाई न होगी कि जड़ भौतिक प्रकार के अत्यणु जैसे जीन और क्रोमोसोम, अपने अंदर मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का वहन कैसे करते हैं जिन्हें उस भौतिक रूप में संचारित किया जायेगा जो मानव बीज में से प्रकट होगा । यह कार्य जड़ तत्त्व की बाह्यता में भी मूलतः उसी नियम पर होगा जिसे हम अपने आंतरिक अनुभव में पाते हैं -क्योंकि हम देखते हैं कि अवचेतन स्थूल सत्ता अंतःकरण के मानसिक उपादानों को, पिछली घटनाओं के संस्कारों और अभ्यासों को, मन और प्राण के स्थिर रूपायनों को, चरित्र के स्थिर रूपों को अपने अंदर लिये चलती है और एक गुह्य प्रक्रिया द्वारा उन्हें ऊपर जाग्रत् चेतना में भेज देती है । इस तरह वह हमारी प्रकृति के बहुत-से क्रिया-कलापों को उत्पन्न या प्रभावित करती है ।

 

   इसी आधार पर यह समझने में भी कोई मुश्किल न होगी कि शरीर की दैहिक क्रियाएं किस तरह मन की मनोवैज्ञानिक क्रियाओं का निर्धारण करने में सहायता देती हैं क्योंकि शरीर केवल निश्चेतन जड़ पदार्थ नहीं है, वह एक गुप्त रूप से सचेतन ऊर्जा की रचना है जिसने उसमें रूप धारण किया है । स्वयं यह शरीर गुप्त रूप से सचेतन रहता है और साथ ही एक प्रत्यक्ष चेतना की अभिव्यक्ति का साधन है जो हमारे भौतिक ऊर्जा-द्रव्य में उभरी है और आत्म-संविद् है । इस मानसिक निवासी की गतिविधियों के लिये शरीर की क्रियाएं आवश्यक यंत्र या यंत्रविन्यास हैं । इस दैहिक यंत्र को गति में लाकर ही उसमें उभरती और विकसित होती हुई सचेतन सत्ता अपनी मानसिक रचनाओं को, अपनी इच्छा की रचनाओं को संचारित कर सकती है और उन्हें जड़ तत्त्व में अपनी भौतिक अभिव्यक्ति में बदल सकती है । यह जरूरी है कि यंत्र की क्षमता, उसकी प्रक्रियाएं एक हदतक मानसिक रूपायनों को मानसिक रूप से भौतिक अभिव्यक्तितक के संक्रमण के दौरान एक नया रूप दें । उसकी क्रियाएं जरूरी हैं और उन्हें उस अभिव्यक्ति के वास्तविक बनने से पहले अपना प्रभाव जमाना चाहिये । हों सकता है कि किन्हीं दिशाओं में शारीरिक साधन उपयोग करनेवाले पर छा जाये । यह भी हो सकता है कि वह आदत के बल पर, क्रियाशील मन या इच्छा नियंत्रण या हस्तक्षेप करें, उससे पहले अपने अंदर निवास करनेवाली चेतना की अनैच्छिक प्रतिक्रियाओं का सुझाव दे या उन्हें पैदा करे । यह सब संभव है क्योंकि शरीर में एक अपनी ''अवचेतन'' चेतना है जिसका हमारी समग्र आत्माभिव्यक्ति में महत्त्व है । अगर हम केवल बाहरी यंत्र-विन्यास को ही देखें तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शरीर मन का निर्धारण करता है लेकिन यह एक गौण सत्य है, मुख्य सत्य तो यह है कि मन शरीर का निर्धारण करता है । इस दृष्टि से एक और ज्यादा गहरे

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सत्य की कल्पना की जा सकती है । शरीर और मन दोनों ही का मौलिक निर्धारण करनेवाली एक आध्यात्मिक सत्ता है जो उस द्रव्य को आत्मा प्रदान करती है जो उसे ढके रहता है, दूसरी ओर प्रक्रिया के विपरीत क्रम में देखें तो -जिसके द्वारा मन अपने विचार और आदेश शरीर को भेजता है -वह उसे नयी क्रियाओं का यंत्र होने के लिये प्रशिक्षित कर सकता है और उसे अपनी अभ्यासगत मांगों या आत्राओं के द्वारा इस तरह प्रभावित कर सकता है कि भौतिक सहजवृत्ति उन्हें तब भी यंत्रवत् क्रियान्वित कर देती है जब मन सचेतन रूप से उनकी इच्छा करना छोड़ देता है । यही नहीं, वे आदेश भी जो अधिक असाधारण परंतु भली-भांति प्रमाणित होते हैं, जिनके द्वारा मन क्रिया के सामान्य नियमों और परिस्थितियों को रद्द करके असाधारण और लगभग असीम हदतक शरीर की प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करना सीख सकता है -हमारी सत्ता के इन दो तत्त्वों के बीच संबंध के ये और अन्य गणनातीत रहस्यमय पक्ष आसानी से समझ में आ जाते हैं क्योंकि जीवंत जड़ में निवास करनेवाली प्रच्छन्न चेतना अपने बृहत्तर साथी से इन्हें ग्रहण करती है । शरीर में रहने वाली यह चेतना ही अपनी उन्मज्जित और गुह्य विधि से अपने से की गयी मांग को देखती या उसका अनुभव करती है और उस प्रस्फुटित या विकसित चेतना की आज्ञा का पालन करती है जो शरीर की अध्यक्षता कर रही है । अंत में विश्व का सृजन करनेवाले दिव्य मन और दिव्य इच्छा की धारणा उचित और न्यायसंगत मालूम होती है साथ ही साथ उसमें जो पेचीदगियां हैं, जिन्हें हमारी तर्कसंगत मानसिकता स्रष्टा की मनमानी आज्ञा पर आरोपित करने से इंकार करती है, उनका समाधान भी अपने विरोधी तत्त्व में से कठिनाई के साथ उभरती हुई चेतना के अनिवार्य व्यापार में मिल जाता है -लेकिन उसका लक्ष्य है इन विपरीत व्यापारों को लांघ कर धीमे और कठिन विकास द्वारा अपनी महत्तर वास्तविकता और सच्चे स्वभाव को अभिव्यक्त करना ।

 

   लेकिन सत्ता के जड़ छोर से चलने पर हमें इस परिकल्पना की प्रामाणिकता की कोई निश्चिति नहीं मिल सकती, यही क्यों, प्रकृति और उसकी प्रक्रिया की किसी भी व्याख्या की निश्चित नहीं मिलती । मूल निश्चेतना ने जो पर्दा डाला है वह इतना मोटा है कि मन उसे भेद नहीं सकता और जो अभिव्यक्त किया गया है उसका गुप्त मूल उस पर्दे के पीछे छिपा है । प्रकृति के जड़ अग्रिम भाग में हमें जो व्यापार और प्रक्रियाएं दीखती हैं उनके मूल में रहनेवाले सत्य और शक्तियां वहीं आसीन हैं । उन्हें ज्यादा निश्चित के साथ जानने के लिये हमें विकसनशील चेतना के चक्र का तबतक अनुसरण करना होगा जबतक कि वह आत्मबोध के उस शिखर और विस्तार में न पहुंच जाये जहां आदि रहस्य आत्मोद्घाटित है । यह माना जा सकता है कि उसे विकसित होना चाहिये और अंतत: उस चीज को बाहर निकाल कर लाना चाहिये जिसे शुरू से वस्तुओं में विद्यमान गुह्यद्य चेतना ने छिपा रखा था,

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जिसकी वह क्रमिक अभिव्यक्ति है । प्राण में सत्य की खोज, करना स्पष्टतः निराशाजनक होगा क्योंकि प्राण एक ऐसे रूपायण से आरंभ होता है जहां चेतना अभीतक अवमानसिक है और इस कारण हम मनोमय सत्ताओं को निश्चेतन या अधिक-से-अधिक अवचेतन प्रतीत होता है और प्राण की इस अवस्था में हमारी खोज-बाहर से उसका अध्ययन करते हुए -जड़ तत्त्व में गुप्त सत्य के हमारे अन्वेषण से अधिक लाभप्रद नहीं हो सकती । प्राण में जब मन विकसित होता है तब भी पहला क्रियाशील पहलू होता है एक ऐसी मानसिकता जो क्रिया में, प्राणिक और भौतिक आवश्यकताओं और तल्लीनताओं में, आवेगों, कामनाओं, संवेदनों और भावों में अंतर्लीन हो, जो इन चीजों से पीछे हट कर उनका अवलोकन करने और उन्हें जानने में असमर्थ होती है । मानव मन में समझने, अन्वेषण करने और मुक्त धारणा की पहली आशा होती है । यहां ऐसा लग सकता है कि हम आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान के नजदीक आ रहे हैं । लेकिन वस्तुतः हमारा मन पहले तथ्यों और प्रक्रियाओं का अवलोकन ही कर सकता है और बाकी के लिये उसे निगमन और अनुमान करने पड़ते हैं, परिकल्पनाएं बनानी पड़ती हैं, तर्क करना होता है, अटकल लगानी पड़ती है । चेतना का रहस्य खोजने के लिये उसे अपने-आपको जानना होगा और अपनी सत्ता और प्रक्रिया की वास्तविकता निर्धारित करनी होगी । लेकिन जैसे पशु-जीवन में उभरती हुई चेतना प्राणिक क्रिया और गतिविधि में अंतर्निहित होती है उसी तरह मनुष्य में मानसिक चेतना अपने ही विचारों के भंवर में फंसी रहती है । यह एक ऐसी क्रियाशीलता होती है जो बिना विश्राम लिये चलती ही रहती है, जिसमें उसके तर्क और चिंतन अपनी प्रवृत्ति, दिशा और अवस्था में उसके अपने स्वभाव, मानसिक झुकाव, पिछले रूपायणों और ऊर्जाक्रम, प्रवृत्ति, पसंद और सहज स्वाभाविक चुनाव द्वारा निर्धारित होते हैं । हम वस्तुओं के सत्य के अनुसार मुक्त रूप से अपने विचारों का निर्धारण नहीं करते । इसे हमारी प्रकृति हमारे लिये निर्धारित कर देती है । हम निश्चय ही एक तरह की अनासक्ति के साथ पीछे हटकर खड़े हो सकते और अपने अंदर मानसिक ऊर्जा की क्रिया का अवलोकन कर सकते हैं फिर भी हम उसकी प्रक्रिया ही देख पाते हैं, अपने मानसिक निर्धारणों के मूल उद्गम को नहीं । हम मन की प्रक्रिया के बारे में सिद्धांत और परिकल्पनाएं बना सकते हैं फिर भी हमारे, हमारी चेतना और हमारी समग्र प्रकृति के आंतरिक रहस्य पर एक पर्दा पड़ा रहता है ।

 

   केवल तभी जब हम स्वयं मन की प्रक्रिया को अचंचल करने की यौगिक प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, हमारे आत्मावलोकन का ज्यादा गहरा परिणाम संभव हो सकता है । क्योंकि पहले हम यह खोज करते हैं कि मन एक सूक्ष्म तत्त्व है, एक सामान्य निर्दिष्ट या जातिमूलक अनिर्दिष्ट है जिसे मानसिक ऊर्जा क्रिया करते समय रूपों में या अपने किन्हीं विशेष निर्दिष्टों में, विचारों, धारणाओं, प्रत्यक्षों,

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मनोभावनाओं, इच्छा की क्रियाशीलताओं और अनुभव की प्रतिक्रियाओं में डालती है परंतु जब ऊर्जा निष्क्रिय हो तो वह या तो तामसिक अवसन्नता में या आत्म-सत्ता की निश्चल-नीरवता और शांति में निवास कर सकता है । फिर हम यह देखते हैं कि हमारे मन के सभी निर्देशन मन से ही नहीं शुरू होते क्योंकि उसमें मानसिक ऊर्जा की लहरें और धाराएं बाहर से प्रवेश करती हैं । ये उसके अंदर रूप ग्रहण करती हैं या किसी वैश्व मन या अन्य मनों में रूपायित होकर आती हैं और हम उन्हें अपने विचार के रूप में स्वीकार कर लेते हैं । हम अपने अंदर एक गुह्य या अंतस्तलीय मन भी देख सकते हैं जिसमें से विचार, प्रत्यक्ष बोध, इच्छा के आवेग और मन की भावनाएं उत्पन्न होती हैं । हम चेतना के उच्चतर स्तरों को भी देख सकते हैं जहां से एक श्रेष्ठतर मानस-ऊर्जा हमारे द्वारा या हम पर कार्य करती है । और अंत में हमें पता लगता है कि जो इस सबका निरीक्षण करता है वह एक मनोमय पुरुष है जो मन के पदार्थ और मानस ऊर्जा को सहारा देता है । इस सत्ता के बिना, जो उनका धारक और उनकी अनुमतियों का उत्स है उसके बिना, न तो उनका अस्तित्व रहता न क्रिया होती । यह मनोमय पुरुष पहले एक मौन साक्षी के रूप में दिखायी देता है, अगर यही उसका संपूर्ण स्वरूप होता तो हमें यह मानना पड़ता कि मन के निर्धारण ही प्रकृति द्वारा पुरुष पर आरोपित प्रतीयमान क्रियाशीलता हैं या प्रकृति द्वारा उसके सामने उपस्थित की गयी सृष्टि हैं । एक विचार-जगत् है जिसे प्रकृति बनाती और साक्षी पुरुष को भेंट में देती है । लेकिन बाद में हमें पता लगता है कि यह पुरुष, मानसिक सत्ता, अपने मौन या स्वीकार करनेवाले साक्षी की स्थिति से हट सकता है, प्रतिक्रियाओं का उत्स बन सकता है, स्वीकार कर सकता है, अस्वीकार कर सकता हैं यहांतक कि शासन और नियमन भी कर सकता है, शासक और ज्ञाता भी बन सकता है । इस ज्ञान का उदय भी होता है कि यह मानस द्रव्य जो मनोमय पुरुष को ही अभिव्यक्त करता है, उसका अपना ही अभिव्यंजक द्रव्य है और मानस-ऊर्जा उसीकी चित्-शक्ति है । तब यह निष्कर्ष भी युक्तिसंगत मालूम होता है कि मन के सभी निर्देशन पुरुष की सत्ता से ही आते हैं । लेकिन यह निष्कर्ष इस तथ्य के कारण और भी पेचीदा हो जाता है कि एक और दृष्टिकोण से हमारा निजी मन वैश्व मन की एक रचना, वैश्व विचार-तरंगों, भाव-लहरियों, इच्छा के सुझावों, संवेदन की मौजों, इन्द्रियों के सुझावों, रूप-सुझावों के ग्रहण, परिवर्तन और प्रसारण का यंत्र होने से बढ़ कर शायद ही कुछ हों । निःसंदेह इस मन की पहले से ही सिद्ध अभिव्यक्ति, पूर्वानुकूलता, प्रवृत्तियां, निजी स्वभाव और प्रकृति होती है । वैश्व मन से जो कुछ आता है उसे व्यक्तिगत मन में तभी जगह मिल सकती है जब वैयक्तिक मनोमय पुरुष की आत्माभिव्यक्ति में उसे पुरुष की व्यक्तिगत प्रकृति में स्वीकृत और आत्मसात् किया जा सके । फिर भी इन जटिलताओं को देखते हुए यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता हैं कि क्या यह

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सारा विकास और ये क्रियाएं किसी वैश्व ऊर्जा की प्रतीयमान सृष्टि हैं जिसे मनोमय पुरुष को भेंट में दिया गया है या कोई ऐसी क्रियाशीलता है जिसे मानसिक ऊर्जा ने पुरुष की अनिर्दिष्ट और शायद अनिर्देश्य सत्ता पर आरोपित किया है या फिर यह सब कुछ किसी अन्तस्थ आत्मा के किसी क्रियाशील सत्य द्वारा पहले से ही निश्चित वस्तु है जिसे मन की सतह पर प्रकट भर किया गया है । यह जानने के लिये हमें सत्ता और चेतना की वैश्व स्थिति का स्पर्श करना या उसमें प्रवेश करना होगा जिसके आगे चीजों की समग्रता और उनका सर्वांगीण तत्त्व हमारे सीमित मन के अनुभव की अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह अभिव्यक्त होगा ।

 

   अधिमानस चेतना एक ऐसी ही स्थिति या तत्त्व है जो अज्ञान में व्यष्टिगत मन के परे, वैश्व मन के भी परे है । वह अपने अंदर वैश्व सत्य का पहला प्रत्यक्ष और प्रभुतापूर्ण ज्ञान लिये रहती है । तो शायद यहां हम यह आशा कर सकते हैं कि चीजों की मौलिक क्रिया के कुछ अंश को हम समझ पायें, वैश्व प्रकृति की आधारभूत गतिविधियों की अन्तर्दृष्टि पा सकें । एक बात निश्चय ही स्पष्ट हो जाती है, यहां यह स्वयं-सिद्ध है कि व्यष्टि और वैश्व दोनों ही एक परात्पर सद्वस्तु से आते हैं जो उनके अंदर रूप ग्रहण करती है इसलिये व्यष्टिगत सत्ता के मन और प्राण और प्रकृति में उसका व्यष्टिगत पुरुष वैश्व सत्ता की एकांगी आत्माभिव्यक्ति होंगे, और दोनों उसके द्वारा और सीधा भी परात्पर सद्वस्तु की आत्माभिव्यक्ति होंगे -हो सकता है कि वह प्रतिबंधित और अर्द्ध-अवगुंठित अभिव्यक्ति भले हो फिर भी यही उसका अर्थ है । साथ ही हम यह भी देखते हैं कि वह अभिव्यक्ति क्या होगी यह भी स्वयं व्यष्टि ही निश्चित करता है; उसके मन, प्राण और शारीरिक अंगों में केवल वही आकार ग्रहण कर सकता है जिसे वह अपनी प्रकृति के अंदर ग्रहण और आत्मसात् और सूत्रबद्ध या प्रतिपादित कर सके, जो वैश्व सत्ता में या सद्वस्तु में उसका भाग हो, कुछ ऐसी चीज जो सद्वस्तु से व्युत्पन्न हो, कोई ऐसी चीज जो उस जगत् में हो जिसे वह प्रकट करता है, लेकिन करता है अपनी ही आत्माभिव्यक्ति की भाषा में, अपनी ही प्रकृति की परिभाषा में । लेकिन जिस मूल प्रश्न को विश्व-प्रपंच ने हमारे आगे रखा है उसे अधिमानस के ज्ञान द्वारा हल नहीं किया जा सकता । इस मामले में प्रश्न यह है कि क्या मनोमय पुरुष का विचार, अनुभव, प्रत्यक्ष दर्शनों के जगत् का निर्माण, सचमुच उसकी अपनी आध्यात्मिक सत्ता से आनेवाले सत्य की आत्माभिव्यक्ति, आत्म-निर्धारण है, उस सत्य की क्रियात्मक संभावनाओं की अभिव्यक्ति है ? अथवा क्या यह प्रकृति द्वारा उसे भेंट की गयी सृष्टि या रचना नहीं है और वह केवल इस अर्थ में उसकी अपनी या उसपर आश्रित कही जा सकती है कि वह उस प्रकृति के उसके व्यक्तिगत रूपायन में व्यष्टिगत हो गयी है या फिर यह वैश्व कल्पना का एक खेल हो, शाश्वत की कल्पना-सृष्टि हो जिसे उसने अपनी शुद्ध शाश्वत सत्ता के रिक्त अनिर्देश्य पर

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आरोपित किया हो ? सृष्टि के बारे में ये तीन दृष्टियां हैं और तीनों को ठीक होने का समान अवसर प्राप्त है और मन निश्चित रूप से उनके बीच फैसला करने में असमर्थ है क्योंकि हर दृष्टि अपने मानसिक तर्क और अन्तर्भास तथा अनुभव के समर्थन से सज्जित है । ऐसा लगता है कि अधिमानस पेचीदगी को और भी बढ़ा देता है क्योंकि अधिमानसिक दृष्टि हर संभावना को यह अनुमति देती है कि वह अपने-आपको आजादी से रूपायित करे और अपनी-अपनी सत्ता को ज्ञान में, क्रियात्मक आत्म-प्रदर्शन और अभिपुष्टि करनेवाले अनुभव में चरितार्थ करे ।

 

   हमें अधिमानस में, मन की उच्चतर भूमिकाओं में एक द्वंद्व की पुनरावृत्ति होती दिखायी देती है । एक ओर होती है शुद्ध, नीरव आत्मा-अलक्षण, निर्गुण, संबंध-रहित, स्वयंभू आत्म-स्थिर, आत्म-निर्भर और दूसरी ओर अपने-आपको विश्व के रूपों में प्रक्षिप्त करती हुई सृजनकारी चेतना और शक्ति की, निर्देशन करनेवाली एक ज्ञानात्मिका शक्ति की प्रबल क्रियात्मकता । यह विरोध जो विन्यास भी है, मानों, दोनों भले देखने में एक-दूसरे के विरोधी लगते हों पर हैं सह-संबंधी और पूरक । यहीं ऊपर उठकर निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म के सह-अस्तित्व में बदल जाता है -निर्गुण ब्रह्म है वह जिसमें कोई गुण नहीं है, जो आधारभूत दिव्य वास्तविकता है, सभी संबंधों और निर्दिष्टों से मुक्त है जब कि सगुण में, अनगिनत गुण हैं, वह एक ऐसी आधारभूत सद्वस्तु है जो सभी संबंधों और निर्दिष्टों का उद्गम, धारक और स्वामी है । अगर हम यथासंभव दूर से दूर तक की आत्मानुभूति में निर्गुण का अनुसरण करें तो हम परम निरपेक्ष तक जा पहुंचते हैं जो समस्त संबंधों और निर्दिष्टों से रिक्त, अनिर्वचनीय और सत्ता का प्रथम तथा अंतिम सूत्र है । अगर हम सगुण द्वारा अनुभव की किसी चरम संभावनातक पहुंचे तो हम दिव्य निरपेक्ष, व्यष्टिगत परम, सर्वव्यापक देवतक जा पहुंचते हैं जो परात्पर और साथ ही वैश्व है, सभी संबंधों और निर्देशनों का अनन्त स्वामी है, अपनी सत्ता में करोड़ों विश्वों को धारण कर सकता है और प्रत्येक को अपनी आत्म-ज्योति की केवल एक किरण से और अपनी अनिर्वचनीय सत्ता की एक कला से व्याप्त कर सकता है । अधिमानस चेतना शाश्वत के इन दो सत्यों को समान रूप से धारण करती है जो मन के आगे परस्पर अपवादिक विकल्पों के रूप में आते हैं । वह दोनों को एक सद्वस्तु के परम पक्षों के रूप में स्वीकार करती है । तो कहीं पर उनके पीछे एक महत्तर परात्परता होगी जो दोनों की उद्गम हो और अपनी परम शाश्वतता में उनकी धारक हो लेकिन वह क्या हो सकता है जिसमें ऐसे विरोधी तत्त्व समान सत्य हैं ? वह एक मौलिक अनिर्देश्य रहस्य होने के सिवा क्या हो सकता है जिसे जानना और समझना मन के लिये असंभव है । निश्चय ही हम उसे कुछ हदतक, किसी प्रकार के अनुभव या उपलब्धि में, उसके पहलुओं और शक्तियों द्वारा आधारभूत इति भाव और नेति भाव के अविच्छिन्न क्रम द्वारा जान सकते हैं, इन्हींके

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द्वारा हमें उसकी खोज करनी होती है । हम चाहें तो यह खोज अलग-अलग करें या दोनों में एक साथ अखंड रूप से लेकिन अंत में जाकर वह ऊंची-से-ऊंची मानसिक शक्ति की पहुंच के बाहर रहता प्रतीत होता हैं और अज्ञेय ही रहता है ।

 

   लेकिन अगर परम निरपेक्ष वस्तुत: शुद्ध रूप से अनिर्देश्य हो तो कोई सृष्टि, कोई अभिव्यक्ति, कोई विश्व संभव न होगा और फिर भी विश्व का अस्तित्व तो है ही । तो फिर वह क्या है जो इस विरोध को पैदा करता है, इस असंभव को संभव बनाता और आत्मविभाजन की कभी हल न होनेवाली पहेली को अस्तित्व में लाता है ? वह किसी तरह की शक्ति होनी चाहिये और चूंकि निरपेक्ष ही एकमात्र सद्वस्तु है, सभी वस्तुओं का एक उद्गम है इसलिये यह शक्ति उसी से आनी चाहिये, इसका उसके साथ कोई संबंध, कोई नाता, कोई निर्भरता होनी चाहिये । क्योंकि अगर वह परम सद्वस्तु से एकदम अलग कोई चीज है, एक वैश्व कल्पना है जो अपने निर्देशनों को अनिर्देश्य की शाश्वत रिक्तता पर आरोपित करती जाती है तो फिर निरपेक्ष परब्रह्म के एकमात्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता । तब वस्तुओं के उद्गम में ही द्वैत होगा जो सांख्य के आत्मा और प्रकृति के द्वैत से तत्त्वत: भिन्न न होगा । अगर वह निरपेक्ष की शक्ति है, वस्तुत: एकमात्र शक्ति तो हमारे आगे यह तार्किक असंभवता आती है कि परम पुरुष की सत्ता और उस सत्ता की शक्ति एक दूसरे से एकदम उल्टे दो परम विरोधी हैं क्योंकि ब्रह्म तो संबंधों और निर्देशनों की सभी संभावनाओं से मुक्त है लेकिन माया एक सृजन करने वाली कल्पना है जो इन्हीं वस्तुओं को ब्रह्म पर आरोपित करती है, वह संबंधों और निर्देशनों का प्रवर्तन करती है और ब्रह्म को अवश्य ही इनका समर्थक और साक्षी होना चाहिये । तर्कसंगत बुद्धि इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकती । अगर इसे स्वीकार कर लिया जाये तो यह एक तर्क-बुद्धि से परे का रहस्य होगा, कोई ऐसी चीज जो न वास्तविक है न अवास्तविक, जिसको समझाया नहीं जा सकता--अनिर्वचनीय । लेकिन कठिनाइयां इतनी बड़ी हैं कि इसे तभी स्वीकारा जा सकता है जब यह अपने-आपको अबाध्य रूप से दार्शनिक अनुसंधान और आध्यात्मिक अनुभूति के एक अनिवार्य निष्कर्ष, अंत और शिखर के रूप में आरोपित कर दे । क्योंकि अगर ये सब चीजें भी भ्रांतिमूलक सृजन हैं तो भी उनका कम-से-कम एक आत्मनिष्ठ अस्तित्व होना चाहिये और उनका अस्तित्व एकमात्र अस्तित्व की चेतना को छोड़कर और कहीं नहीं हो सकता । तब वे अनिर्देश्य के आत्मनिष्ठ निर्देशन हैं । इसके विपरीत यदि इस शक्ति के निर्देशन यथार्थ रचनाएं हैं तो वे किसमें से निर्दिष्ट होते हैं ? उनका उपादान क्या है ? यह संभव नहीं है कि वे असत् में से बने हों, किसी ऐसे असत् से जो निरपेक्ष से भिन्न हो क्योंकि इससे एक नया द्वैत खड़ा हो जायेगा, हमने जिस अनिर्धार्य 'क्ष' को एकमेव सद्वस्तु माना हैं उसके विरुद्ध एक भावात्मक शून्य । तो यह स्पष्ट है कि सद्वस्तु एक कठोर

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अनिर्देश्य नहीं हो सकती । जो कुछ भी रचा गया है वह उसीका और उसीमें होना चाहिये और जो पूर्ण सद्वस्तु के उपादान से बना हो उसे स्वयं भी सत् होना चाहिये । जो शाश्वत सत्य है, अनंत सत् है उसका एकमात्र परिणाम वास्तविक होने की प्रतीति देनेवाला वास्तविकता का कोई बड़ा निराधार नकार नहीं हो सकता । यह पूरी तरह समझ में आनेवाली बात है कि निरपेक्ष इस अर्थ में अनिर्देश्य है और होना ही चाहिये कि वह किसी भी निर्देशन से या सभी संभव निर्देशनों के कुल योग से सीमित नहीं हो सकता लेकिन उसका यह अर्थ नहीं कि वह आत्मनिर्देशन में असमर्थ है । परम सत् अपनी सत्ता के सच्चे आत्मनिर्देशन बनाने में असमर्थ नहीं हो सकता, यथार्थ आत्म-सृष्टि या अभिव्यक्ति को अपनी स्वयंभू अनंतता में धारण करने में असमर्थ नहीं हो सकता ।

 

   तो अधिमानस हमें कोई अंतिम या निश्चयात्मक समाधान नहीं देता । हमें उसके परे अतिमानसिक ज्ञान में ही इसका उत्तर खोजना होगा । अतिमानसिक ऋत्-चेतना एक ही साथ अनंत और शाश्वत की आत्माभिज्ञता और उस आत्माभिज्ञता में अंतर्निहित आत्म-निर्देशन की शक्ति है । पहली है उसका आधार और स्थिति और दूसरी है उसकी सत्ता की शक्ति, उसकी आत्म-सत्ता की क्रियात्मकता । वह सब जिसे आत्माभिज्ञता की कालातीत शाश्वतता अपने अंदर सत्ता के सत्य के रूप में देखती है, उसकी सत्ता की सचेतन शक्ति उसे काल-शाश्वतता में प्रकट करती है । अतः अतिमानस के लिये परम पुरुष कठोर अनिर्देश्य, सबका निषेध करनेवाला निरपेक्ष नहीं है । सत्ता का एक अनंत जो अपने-आपमें, अपने अक्षर अस्तित्व की शुद्धि में पूर्ण है, जिसकी एकमात्र शक्ति है एक शुद्ध चेतना जो केवल सत्ता की अपरिवर्तनशील शाश्वतता में, अपनी शुद्ध आत्म सत्ता के निश्चल आनंद में निवास करती है, वही समग्र सद्वस्तु नहीं है । जो सत्ता में अनंत है उसे शक्ति में भी अनंत होना चाहिये, जो अपने अंदर शाश्वत विश्राम और अचंचलता लिये रहे उसे शाश्वत क्रिया और सृजन के योग्य भी होना चाहिये लेकिन यह भी ऐसी क्रिया होनी चाहिये जो उसके भीतर हो, एक ऐसा सृजन जो उसकी अपनी शाश्वत और अनंत आत्मा में से हो क्योंकि और कोई ऐसी चीज हो ही नहीं सकती जिसमें से वह सृजन कर सके । सत्ता का कोई ऐसा आधार जो उससे भिन्न मालूम होता है उसे भी वास्तव में उसीमें और उसीका होना चाहिये और वह उसकी सत्ता से विजातीय कोई चीज नहीं हो सकता । कोई अनंत शक्ति केवल एक ऐसी सामर्थ्य नहीं हो सकती जो शुद्ध निष्क्रिय एकसमानता में, अक्षर निश्चलता में विश्राम करती रहे । उसमें उसकी सत्ता और ऊर्जा की अंतहीन शक्तियां होनी चाहियें । अनंत चेतना में अपने अंदर आत्माभिज्ञता के अंतहीन सत्य होने चाहियें । क्रिया में ये हमारे ज्ञान को उसकी सत्ता के पहलू के रूप में, हमारे आध्यात्मिक बोध को उसकी क्रियाशीलता की शक्तियां और गतिविधियां प्रतीत होंगे और हमारे सौंदर्य-बोध को उसके सत्ता

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के आनंद के साधन और रूपायन मालूम होंगे । तब सृष्टि एक आत्माभिव्यक्ति होगी, अनंत की अनंत संभावनाओं का एक व्यवस्थित विस्तार होगी लेकिन हर संभावना अपने पीछे सत्ता का एक सत्य, सत् के अंदर एक वास्तविकता को समाविष्ट किये रहती है क्योंकि उस अवलंब देनेवाले सत्य के बिना कोई संभावनाएं नहीं हो सकतीं । अभिव्यक्ति में सत् की आधारभूत वास्तविकता हमारे ज्ञान को निरपेक्ष भगवान् का आधारभूत आध्यात्मिक पक्ष प्रतीत होगी और उसीमें से सभी संभव अभिव्यक्तियां, उसकी अंतर्जात क्रियात्मकताएं उभरेंगी । और फिर ये अपने सार्थक रूपों, अभिव्यंजक शक्तियों और सहज प्रक्रियाओं की सृष्टि करेंगी या यूं कहें उन्हें अनभिव्यक्त सुप्तावस्था में से बाहर लायेंगी । उनकी अपनी सत्ता अपने स्वरूप और स्वभाव को विकसित करेंगी । तो यह होगी सृजन की पूरी प्रक्रिया लेकिन हम अपने मन में यह पूरी प्रक्रिया नहीं देखते । हम केवल ऐसी संभावनाएं देखते हैं जो अपने-आपको वास्तविकताओं में निर्धारित करती हैं और यद्यपि हम अनुमान करते और अटकलें लगाते हैं फिर भी हम किसी ऐसी आवश्यकता के बारे में, पहले ३ निर्धारित करनेवाले सत्य या किसी ऐसी अनिवार्यता के बारे में निश्चित नहीं होते जो उनके पीछे रहती हो और जो संभावनाओं को संभव बनाये और वास्तविकताओं का निर्णय करे । हमारा मन वास्तविकताओं का प्रेक्षक, संभावनाओं का खोजनेवाला या अन्वेषक तो है पर ऐसे गुह्य अनिवार्य आदेशों का द्रष्टा नहीं है जो सृजन की गतिविधियों और रूपों को जरूरी बना दें । क्योंकि वैश्व अस्तित्व के आगे के हिस्से में सिर्फ शक्तियां ही होती हैं जो अपने बलों के संयोग के संतुलन द्वारा परिणामों का निर्धारण करती हैं । आद्य निर्धारक अथवा अनेक निर्धारक, अगर उसका या उनका अस्तित्व है, हमारे अज्ञान द्वारा हमारी दृष्टि से ओझल हैं । लेकिन अतिमानसिक ऋत-चित् के लिये ये अनिवार्य विधान प्रत्यक्ष होंगे, उसकी दृष्टि और उसके अनुभव के उपादान ही होंगे । अतिमानसिक सृजन-प्रक्रिया में ये अनिवार्य विधान, संभावनाओं का संयोग और परिणामस्वरूप आनेवाली वास्तविकताएं सब मिलकर एक अखंड समग्रता होंगी, अविभाज्य गतिविधि होंगी । संभावनाएं और वास्तविकताएं अपने अंदर उनकी आद्य नियोजक की अनिवार्यता लिये रहेंगी । उनके सभी परिणाम, उनके सभी सृजन उस सत्य का शरीर होंगे जिसे वे सर्व-सत् के पहले से ही निश्चित महत्त्वपूर्ण रूपों में और शक्तियों में अभिव्यक्त करेंगी ।

 

   निरपेक्ष के बारे में हमारा आधारभूत ज्ञान, उसके बारे में हमारा सारवान् आध्यात्मिक अनुभव, एक अनंत और शाश्वत सत् का, अनंत और शाश्वत चित् का, अनंत और शाश्वत सत्ता के आनंद का अंतर्भास या प्रत्यक्ष अनुभूति होता है । अधिमानसिक और मानसिक ज्ञान में इस मौलिक ऐक्य को तीन स्वयंभू पक्षों में विविक्त करना या अलग-अलग करना संभव होता है क्योंकि हम शुद्ध अकारण

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शाश्वत आनंद का ऐसा तीव्र अनुभव कर सकते हैं कि हम बस वही हैं । ऐसा लगता है कि सत् और चित् को उसने निगल लिया है, उनकी कोई प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं रहती । इसी तरह का अनुभव शुद्ध और निरपेक्ष चेतना का हो सकता है और उसके साथ भी ऐसा ही ऐकान्तिक तादात्म्य हो सकता है, शुद्ध तथा निरपेक्ष सत् का भी ऐसा ही तादात्म्यवाला अनुभव हो सकता हैं । लेकिन अतिमानसिक ज्ञान के लिये ये तीनों सदा अलग न होनेवाली त्रयी रहती हैं यद्यपि एक औरों के आगे बढ़कर अपने आध्यात्मिक निर्दिष्टों को अभिव्यक्त कर सकता है क्योंकि हर एक के प्रमुख पक्ष या अंतर्निहित आत्म-रूपायण होते हैं लेकिन त्र्येक निरपेक्ष के लिये ये सब मौलिक हैं । प्रेम, आनंद और सुंदरता सत्ता के दिव्य आनंद के आधारभूत निर्दिष्ट हैं और हम तुरंत देख सकते हैं कि वह आनंद ही इनका उपादान और स्वरूप है । ये निरपेक्ष की सत्ता पर लादे गये विजातीय तत्त्व नहीं हैं और न उसके बाहर हैं परंतु उसके द्वारा समर्थित रचनाएं ही हैं । ये उसकी सत्ता के सत्य, उसकी चेतना के निवासी, उसकी सत्ता की शक्ति की सामर्थ्य हैं । निरपेक्ष चेतना के आधारभूत निर्दिष्टों -ज्ञान और इच्छा -के बारे में भी यही बात है । वे आद्य चित्-शक्ति के सत्य और उसकी शक्तियां हैं और उसकी प्रकृति में ही अंतर्निहित हैं । इसकी प्रामाणिकता और भी स्पष्ट हो जाती है जब हम निरपेक्ष सत् के आधारभूत आध्यात्मिक निर्दिष्टों को देखते हैं । वे उसकी त्रिक शक्तियां हैं, उसकी समस्त आत्म-सृष्टि या अभिव्यक्ति के लिये आवश्यक पहले आधार तत्त्व हैं -आत्मा, ईश्वर, पुरुष ।

 

   अगर हम आत्माभिव्यक्ति की प्रक्रिया का और आगेतक अनुसरण करें तो हम देखेंगे कि उसका हर पहलू या शक्ति अपनी पहली क्रिया में एक त्रिक या त्रिपुटी का सहारा लेता है, ज्ञान अनिवार्य रूप से ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रयी पर आश्रित होता है, प्रेम अपने-आपको प्रेमी, प्रेम-पात्र और प्रेम की त्रयी में पाता है । इच्छा अपनी पूर्ति इच्छा के स्वामी, इच्छा के विषय और कार्यकारी शक्ति की त्रयी में करती है; आनंद के आद्य और पूर्ण आह्लाद की त्रयी है भोक्ता, भोग्य और वह आनंद जो उन्हें मिलाता है । उसी अनिवार्य रूप से आत्मा भी प्रकट होती है और त्रयी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाती है विषय-रूप आत्मा, विषयी रूप आत्मा और विषय--विषयी रूप में दोनों को एक साथ रखनेवाली आत्म अभिज्ञता । ये तथा अन्य आद्य शक्तियां और पक्ष अनंत के आधारभूत आध्यात्मिक आत्म-निर्देशनों में अपना स्थान पाते हैं । बाकी सब आधारभूत आध्यात्मिक निर्देशनों के निर्देशन हैं, सत्ता, चेतना, शक्ति और आनंद के सार्थक संबंध, सार्थक शक्तियां, सार्थक रूप, शाश्वत की चित्-शक्ति की सत्य प्रक्रिया की ऊर्जाएं, अवस्थाएं, विधियां, रेखाएं, उसकी अभिव्यक्ति के अटल विधान, संभावनाएं विशेषताएं हैं । शक्तियों और संभावनाओं का यह सारा फैलाव और

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उसमें अंतर्निहित परिणामों को अतिमानसिक ज्ञान अंतरंग एकत्व में एक साथ धारण किये रहता है । वह उन्हें मौलिक सत्य पर सचेतन रूप से आधारित रखता है और वे जिन सत्यों को अभिव्यक्त करते हैं और जो उनके स्वरूप में हैं उनके सामंजस्य में उन्हें बनाये रखता है । वहां कल्पनाओं का कोई आरोपण नहीं है, कोई मनमानी सृष्टि नहीं है, कोई विभाजन, खंडन नहीं, कोई ऐसा विरोध या विषमता नहीं है जिसका समाधान न हो सके । लेकिन अज्ञानमय मन में ये व्यापार प्रकट होते हैं क्योंकि वहां एक सीमित चेतना हर चीज को इस तरह देखती और उसके साथ व्यवहार करती है मानों सब कुछ ज्ञान के अलग-अलग विषय या अलग सत्ताएं हों । वह उन्हें इसी तरह जानना, उनपर अधिकार करना और उन्हें भोगना चाहती है और उनपर प्रभुता पाना या उनकी अधीनता को सहन करती है । लेकिन उसके अज्ञान के पीछे, उसके अंदर रहनेवाली अंतरात्मा जिसे खोज रही है वह है सद्वस्तु सत्य, चेतना, शक्ति, आनंद जिनके द्वारा उसका अस्तित्व है । मन को सीखना है अपने अंदर पर्दे में छिपी सच्ची खोज और सच्चे ज्ञान के प्रति जाग्रत् होना, उस सद्वस्तु के प्रति जाग्रत् होना जिससे सभी चीजें अपना सत्य पाती हैं, उस चेतना के प्रति, सभी चेतनाएं जिसकी सत्ताएं हैं, उस बल के प्रति जिससे सभी को अपनी अंतर्निहित सत्ता की शक्ति मिलती है, उस आनंद के प्रति, सभी आनंद जिसकी आंशिक कृतियां हैं । चेतना का यह परिसीमन और चेतना की अखंडता के प्रति यह जागृति भी आत्माभिव्यक्ति की एक प्रक्रिया है, आत्मा का एक आत्म-निर्देशन है । सीमित चेतना की चीजें अपने आभासी रूप में जब परम सत्य से उल्टी भी मालूम हों फिर भी अपने गहरे अर्थ में और वास्तविकता में दिव्य अर्थ रखती हैं । वे भी अनंत की एक संभावना या एक सत्य को प्रकट करती हैं । चीजों के बारे में अतिमानसिक ज्ञान जो सब जगह उसी एक सत्य को देखता है, जहांतक मन की भाषा में व्यक्त किया जा सकता है, किसी ऐसे ही स्वभाव का होगा और हमारे जीवन के विषय में अपनी व्याख्या, सृष्टि के रहस्य और विश्व की सार्थकता के विषय में अपना विवरण हमारे लिये किसी ऐसे ही रूप में व्यवस्थित करेगा ।

 

   साथ-ही-साथ निरपेक्ष के बारे में हमारी कल्पना में और हमारे आध्यात्मिक अनुभव में अनिर्देश्यता भी एक आवश्यक तत्त्व है । यह सत्ता और वस्तुओं पर अतिमानसिक दृष्टि का दूसरा पहलू है । निरपेक्ष को किसी एक निर्दिष्ट या निर्दिष्टों के योग के द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता, और न ही उसकी व्याख्या की जा सकती है और दूसरी ओर वह शुद्ध सत् की अनिर्देश्य रिक्तता से बंधा भी नहीं है । इसके विपरीत वह सभी निर्देशनों का स्रोत है । उसकी अनिर्देश्यता उसकी सत्ता की अनंतता और सत्ता की शक्ति की अनंतता दोनों की स्वाभाविक और आवश्यक स्थिति है । वह अनंत रूप से सब कुछ हो सकता है क्योंकि वह विशेष रूप से कोई चीज नहीं है और वह किसी भी ऐसी समग्रता के परे है जिसकी व्याख्या की

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जा सकती है, वह निरपेक्ष की तात्त्विक अनिवार्यता है जो अपने-आपको हमारी चेतना में हमारे आध्यात्मिक अनुभव के आधारभूत निषेधात्मक (नेति वाचक) भावों, अक्षर अचल आत्मा, निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण शाश्वत, शुद्ध लक्षणरहित एकमात्र सत् निर्व्यक्तिक, निष्क्रिय नीरवता, अ-सत् अनिर्वचनीय और अज्ञेय द्वारा अनूदित करती है । दूसरी ओर वह सभी निर्देशनों का सारतत्त्व और स्रोत है और यह क्रियाशील तात्त्विकता हमारे अंदर आधारभूत इतिवाचक भावों में अभिव्यक्त होती है जिनमें निरपेक्ष हमें समान रूप से मिलता है क्योंकि यह आत्मा ही है जो सब चीजें बन जाती है, यह सगुण ब्रह्म, अनंतगुणसंपन्न शाश्वत एकमेव ही है जो बहु है, यह अनंत पुरुष है जो सभी पुरुषों और व्यक्तित्वों का स्रोत और आधार है, सृष्टि का स्वामी, शब्द, समस्त कर्मों और क्रियाओं का प्रभु है । यही है वह जिसे जानकर सब कुछ जान लिया जाता है । ये इति भाव उन नेति भावों के साथ मेल खाते हैं । क्योंकि अतिमानसिक ज्ञान में एक सत् के इन दो पक्षों को अलग करना संभव नहीं है, उनके बारे में यह कहना भी ज्यादती है कि वे पक्ष हैं क्योंकि वे एक दूसरे में हैं, उनका सह-अस्तित्व या एक-अस्तित्व शाश्वत है और उनकी शक्तियां एक दूसरे को सहारा देते हुए अनंत की आत्माभिव्यक्ति का आधार होती हैं ।

 

   लेकिन उनका पृथक् ज्ञान भी पूरी तरह भ्रमात्मक या अज्ञान की पूरी भूल नहीं है । आध्यात्मिक अनुभूति के लिये यह भी तर्कसंगत है क्योंकि निरपेक्ष के ये प्राथमिक पक्ष आधारभूत आध्यात्मिक निर्देशन या ऐसे अनिर्देश हैं जो इस आध्यात्मिक छोर से उत्तर देते हैं या फिर जड सिरे के सामान्य अनिदेंश हैं या फिर आरोहण या अवरोहण करती हुई अभिव्यक्ति का निश्चेतन आरंभ । जो हमें नेतिवाचक प्रतीत होते हैं वे अनंत की अपनी निजी निर्देशनों की सीमा में न बंधनेवाली स्वाधीनता अपने अंदर लिये चलते हैं । उनकी उपलब्धि भीतर स्थित अंतरात्मा को मुक्त करती, हमें मुक्त करती और इस परमता में भाग लेने में हमें समर्थ बनाती है । इस भांति एक बार जब हम अक्षर आत्मा के अनुभव में प्रवेश कर जाते या उसमें से होकर गुजरते हैं तो हम प्रकृति के निर्देशनों और सृजनों द्वारा अपनी सत्ता की आंतरिक अवस्था में बद्ध या सीमित नहीं रहते । दूसरी ओर क्रियाशील दिशा में यह मौलिक स्वाधीनता चेतना को निर्दिष्टों का जगत् -उसमें बंधे बिना -बनाने योग्य बनाती है । वह उसे इस योग्य भी बनाती है कि उसने जो सृजन किया है उससे अपने-आपको खींच ले और उच्चतर सत्य-सूत्र में फिर से सृजन करे । इसी स्वाधीनता पर सत् की सत्य संभावनाओं की अनंत विविधताएं लिये आत्मा की शक्ति आधारित है और अपनी क्रियाओं में अपने-आपको बांधे बिना नियति या व्यवस्था-तंत्र के किसी भी रूप और हर एक रूप को सृजन करने की शक्ति भी इसी स्वाधीनता पर आधारित है । व्यष्टि-सत्ता भी इन नेति वाचक निरपेक्षों के अनुभव द्वारा उस क्रियाशील स्वाधीनता में भाग ले सकती है,

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आत्मरूपायन के एक क्रम से उच्चतर क्रमतक जा सकती है । उस स्थिति में जब उसे मानसिक से अपनी अतिमानसिक स्थिति की ओर गति करनी होती है, एक अनिवार्य नहीं तो बहुत अधिक सहायक, मुक्तिदाता अनुभव जो उस समय हस्तक्षेप कर सकता है वह है मानसिकता और मनोमय अहंकार के संपूर्ण निर्वाण में प्रवेश, आत्मा की नीरवता में गमन । बहरहाल चेतना के उस मध्यवर्ती शिखर पर जाने से पहले--जहां से अभिव्यक्त सत्ता के आरोहण और अवरोहण करते सोपान स्पष्ट दिखलायी देते हैं और ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने की शक्ति आध्यात्मिक प्राधिकार बन जाती है -शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जरूरी है । आद्य रूपों और शक्तियों में से हर एक के साथ तादात्म्य की स्वतंत्र संपूर्णता --उस तरह संकुचित होना नहीं जैसे मन में होता है यानी किसी एकमात्र तल्लीन करनेवाली अनुभूति में नहीं जो अंतिम या संपूर्ण मालूम होती है, क्योंकि वह सत्ता के सभी पहलुओं और शक्तियों के ऐक्य की अनुभूति के साथ मेल न खायेगा --अनंत के अंदर चेतना में अंतर्निहित क्षमता है । वस्तुत: वही अधिमानसिक ज्ञान और उसके हर पक्ष, हर शक्ति, हर संभावना को उसकी स्वतंत्र पूर्णतातक पहुंचाने की इच्छा का आधार और औचित्य है । लेकिन अतिमानस हमेशा, हर स्थिति में, हर अवस्था में सब के ऐक्य की आध्यात्मिक उपलब्धि बनाये रखता है । उस ऐक्य की घनिष्ठ उपस्थिति हर चीज की पूरी-पूरी पकड़ में भी वहां विद्यमान रहती है, हर स्थिति को अपना आनंद, शक्ति और मूल्य प्राप्त होता है । इस तरह नेति के सत्य की पूर्ण स्वीकृति के होते हुए भी इति के पहलू आंख से ओझल नहीं हो पाते । अधिमानस अब भी इस मूलभूत ऐक्य का भाव बनाये रखता है, वही उसके लिये स्वतंत्र अनुभूति का सुरक्षित आधार होता है । मन में आकर सब पहलुओं के ऐक्य का ज्ञान सतह पर खो जाता है, चेतना तल्लीन करनेवाले, ऐकान्तिक पृथक्-पृथक् प्रतिज्ञानों में डूबी रहती है । लेकिन वहां भी, मन के अज्ञान में भी ऐकांतिक तल्लीनता के पीछे पूर्ण सद्वस्तु बनी रहती है और गहरे मानसिक अंतर्भास के रूप में या फिर समग्र ऐक्य के मूल सत्य के विचार या भाव में फिर से पायी जा सकती है । आध्यात्मिक मन में यह सदा उपस्थित अनुभूति के रूप में विकसित हो सकती है ।

 

   सर्वशक्तिमान् सद्वस्तु के सभी पहलुओं का आधारभूत सत्य परम सत् में है । इस भांति निश्चेतना का पहलू या शक्ति भी, जो शाश्वत सद्वस्तु का विरोधी, निषेध प्रतीत होता है, फिर भी वह एक ऐसे सत्य के अनुरूप है जिसे आत्माभिज्ञ और सर्व-सचेतन अनंत अपने अंदर धारण किये रहता है । अगर हम नजदीक से देखें तो यह अनंत की अपनी चेतना को आत्म-अंतर्लयन की समाधि में डुबकी लगाने की शक्ति है, आत्मा का ऐसा आत्म-विस्मरण है जो अपनी खाइयों से ढका हुआ है, जहां कुछ भी अभिव्यक्त नहीं पर सब कुछ कल्पनातीत रूप से है और उस

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अकथनीय अव्यक्तता में से उभर सकता है । आत्मा की ऊंचाइयों में वैश्व या अनंत समाधि-निद्रा की यह अवस्था हमारे ज्ञान को प्रकाशमान उच्चतम अतिचेतना के रूप में दिखायी देती है । सत्ता के दूसरे छोर पर वह हमारे ज्ञान के आगे आत्मा के उस सामर्थ्य-रूप में प्रकट होती है जिसमें वह स्वयं अपने आगे अपनी सत्ता के सत्यों के विरोधी रूपों को उपस्थित करती है । ये विरोधी रूप हैं : असत् की खाई, निश्चेतना की गहन गभीर रात, एक अगाध संवेदनहीन मूर्च्छा जिसमें से सत् चित् और आनंद के सभी रूप अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकते हैं लेकिन वे व्यक्त होते हैं सीमित अभिधाओं में, धीमे-धीमे उभरते और बढ़ते हुए आत्म-रूपायनों में, यहांतक कि स्वयं अपनी विरोधी अभिधाओं में । यह गुप्त सर्व-सत् सर्व-आनंद, सर्व-ज्ञान का खेल है लेकिन वह आत्म-विस्मृति, आत्म-विरोध और आत्म-सीमांकन के नियमों का पालन तबतक करता है जबतक वह उसे पार करने योग्य न हो जाये । यह वह निश्चेतना और अज्ञान है जिसे हम जड़ भौतिक विश्व में कार्य करते हुए देखते हैं । यह अनंत और शाश्वत सत् का निषेध नहीं, उसीकी एक अभिधा, उसका एक सूत्र है ।

 

   विश्व-सत्ता के इस समग्र ज्ञान में अज्ञान का व्यापार जो अर्थ धारण करता है, विश्व की आध्यात्मिक व्यवस्था में उसका जो स्थान नियत है, उसका अवलोकन करना यहां महत्त्वपूर्ण है । हम जो कुछ अनुभव करते हैं वह सब यदि अध्यारोप हो, निरपेक्ष में एक अवास्तविक सृजन हो तो वैश्व और व्यष्टिगत जीवन दोनों ही स्वभावत: अज्ञान होंगे, एकमात्र वास्तविक ज्ञान होगा निरपेक्ष की अनिर्देश्य आम-अभिज्ञता । अगर सब कुछ कालातीत साक्षी शाश्वत की सत्यता की भूमिका में उपस्थित की गयी कालिक, प्रपंचात्मक सृष्टि की रचना ही हो और अगर सृष्टि उस सद्वस्तु की अभिव्यक्ति न हो बल्कि कोई मनमानी, अपने-आप प्रभाव डालनेवाली वैश्व रचना हो तो यह भी एक तरह का अध्यारोप होगा । सृष्टि के बारे में हमारा ज्ञान एक क्षण-भंगुर चेतना और सत्ता की अस्थायी रचना का ज्ञान होगा, एक ऐसे संदिग्ध संभवन का ज्ञान जो शाश्वत की दृष्टि के सामने से गुजरता है, द्वस्तु का ज्ञान नहीं । वह भी अज्ञान होगा लेकिन अगर सब कुछ सद्वस्तु की अभिव्यक्ति है और अपने-आप भी वास्तविक है क्योंकि सद्वस्तु उपादान के रूप में उसके अंदर मौजूद है और उसमें सद्वस्तु का सार और उपस्थिति है तब व्यष्टिगत सत्ता और विश्व सत्ता की अभिज्ञता अपने आध्यात्मिक मूल और प्रकृति में अनंत आत्म-ज्ञान और सर्व-ज्ञान की लीला होगी । अज्ञान केवल एक गौण गतिविधि होगा, एक दबा हुआ सीमित ज्ञान या एकांगी और अपूर्ण विकसनशील ज्ञान होगा जिसके अंदर और जिसके पीछे, दोनों जगह सच्ची और पूर्ण आत्म-अभिज्ञता और सर्व-अभिज्ञता छिपी हुई है । यह एक अस्थायी प्रपंच होगा, वैश्व सत् का कारण और सार नहीं । उसकी अनिवार्य परम परिणति आत्मा के फिर से लौटने में होगी, विश्व से निकल कर

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किसी एकमात्र अतिचेतन आत्मज्ञान की ओर नहीं बल्कि स्वयं विश्व के अंदर संपूर्ण आत्म-ज्ञान और सर्व-ज्ञान में ।

 

   यह आपत्ति की जा सकती है कि आखिर अतिमानसिक ज्ञान वस्तुओं का अंतिम सत्य नहीं है । चेतना के अतिमानसिक स्तर के परे, जो अधिमानस और मन से सच्चिदानंद की पूर्ण अनुभूति के बीच मध्यवर्ती चरण है, अभिव्यक्त आत्मा के उच्चतम शिखर हैं । निश्चय ही वहां पर सत्ता बहुत्व के भीतर एक के निर्धारण पर आधारित न होगी । वह एकत्व में केवल एकमात्र शुद्ध तादात्म्य को अभिव्यक्त करेगी । लेकिन इन लोकों में अतिमानसिक ऋत-चित् का अभाव न होगा क्योंकि वह सच्चिदानंद की अंतर्निहित शक्ति है । फर्क बस यहीं होगा कि निर्धारण सीमांकन नहीं होंगे, वे नमनीय, सम्मिलित और सीमाहीन सांत होंगे । क्योंकि वहां मूलत: और सर्वांगीण रूप से प्रत्येक सर्व में और सर्व प्रत्येक में है । वहां तादात्म्य की एक परम मूलभूत अभिज्ञता के लिये चेतना के परस्पर समावेश और एक दूसरे में प्रवेश की पराकाष्ठा होगी । हम ज्ञान की जैसी कल्पना करते हैं वैसा ज्ञान वहां न होगा क्योंकि उसकी जरूरत ही न होगी, क्योंकि सब कुछ स्वयं सत्ता के अंदर चेतना की प्रत्यक्ष क्रिया होगी -तदात्म, घनिष्ठ, स्वाभाविक रूप से आत्म-अभिज्ञ और सर्व-अभिज्ञ । फिर भी चेतना के संबंध, सत्ता के परस्पर आनंद के संबंध, सत्ता की आत्म-शक्ति के साथ सत्ता की आत्म-शक्ति के संबंध को त्यागा नहीं जायेगा । ये उच्चतम आध्यात्मिक लोक कोरी अनिर्देश्यता के क्षेत्र या शुद्ध सत् की रिक्तता न होंगे ।

 

   यह फिर से कहा जा सकता है कि ऐसा होने पर भी, कम-से-कम, स्वयं सच्चिदानंद में, अभिव्यक्ति के सभी लोकों के ऊपर शुद्ध सत् और चित् की और शुद्ध सत्ता के आनंद की आत्म-अभिज्ञता के सिवा कुछ नहीं हो सकता । या वस्तुतः हो सकता है कि स्वयं यह त्रिक सत्ता अनंत के आदि आध्यात्मिक आत्म निर्देशनों की त्रिपुटी हो । तब सभी निर्देशनों की तरह इस अस्तित्व का अंत भी अनिर्वचनीय निरपेक्ष में हो जायेगा । लेकिन हम यह मानते हैं कि इन्हें परम सत्ता के अंतर्निहित सत्य होना चाहिये । उनकी परम वास्तविकता को निरपेक्ष में पूर्वस्थित होना चाहिये चाहे वे आध्यात्मिक मन के लिये संभव होनेवाली उच्चतम अनुभूति से अनिर्वचनीय रूप से भिन्न ही क्यों न हों । निरपेक्ष न तो अनंत रिक्तता की कोई पहेली है, न निषेधों का चरम योगफल है । ऐसी कोई चीज अभिव्यक्त नहीं हो सकती जिसका औचित्य आद्य, सर्वव्यापक सद्वस्तु की किसी आत्म-शक्ति द्वारा सिद्ध न होता हो ।

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अध्याय २

 

ब्रह्म, पुरुष, ईश्वर-माया, प्रकृति, शक्ति

 

          अविभक्त च भूतेपु विभक्तमिव च स्थितम्

 

          वह भूतों में अविभक्त है फिर भी ऐसे रहता है मानों विभक्त हो ।

                                                       गीता १३.१७

 

          सत्य ज्ञानमनत्तं ब्रह्म

          सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, अनन्त ब्रह्म

                                                तैत्तिरीय उपनिषद् २.१

 

          प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि

          प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि जानो ।

                                                    गीता १३.२०

 

          माया तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।।

          माया को प्रकृति और माया के प्रभु को महेश्वर मानो ।

                                                श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१०

 

           देवस्यैष महिमा तु लोके येनेद भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ।।

           तमीश्वराणां परमं महेश्वर तं देवतानां परमं च दैवतम् ।

                       ......... विदाम.........

           पराऽत्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वभाश्वकी ज्ञानबलक्रिया च ||

           एको देव: सर्वभूतेपु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतात्तरात्मा ।

           कर्माध्यक्ष; सर्वभूताधिवास; साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।

 

परम देव की महिमा ही इस जगत् में ब्रह्म के चक्र को घुमाती है । हमें उन ईश्वरों के महेश्वर, सकल देवों के परम देव को अवश्य जानना चाहिये । उनकी शक्ति भी परम है और उस शक्ति के ज्ञान और बल की स्वाभाविक क्रिया बहुविध है । एक परम देव, सभी सत्ताओं मे गुह्य, सभी सत्ताओं की आत्मा, सर्वव्यापक, निरपेक्ष, निर्गुण, केवल, सभी कर्मों का अध्यक्ष, साक्षी, ज्ञाता है ।

                                                                                श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१, ,,११

 

तो एक शाश्वत, निरपेक्ष और अनंत परम सद्वस्तु है । चूंकि वह निरपेक्ष और अनंत है इसलिये वह तत्वतः अनिर्देश्य है । यह सांत और परिभाषा करनेवाला मन उसकी परिभाषा और धारणा नहीं कर सकता । मन से बनी हुई वाणी उसका वर्णन नहीं कर सकती । न तो उसका वर्णन हमारे निषेधों से, नेति, नेति कहकर हो सकता है,

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क्योंकि वह यह नहीं है या वह नहीं है कहकर हम उसे सीमित नहीं कर सकते, और न ही हमारी स्वीकारोक्तियों से, क्योंकि हम उसे वह यह है, वह वह है इति इति कह कर निर्धारित नहीं कर सकते । वह इस तरीके से हमारे लिये अज्ञेय है फिर भी वह हर तरह से एकदम अज्ञेय भी नहीं है । वह अपने लिये स्वतः -सिद्ध है और अनिर्वचनीय होते हुए भी तादात्म्य द्वारा ज्ञान के लिये स्वतः-सिद्ध है । हमारे अंदर की आध्यात्मिक सत्ता को इसके योग्य होना चाहिये क्योंकि वह आध्यात्मिक सत्ता सारतः, अपनी मौलिक और घनिष्ठ वास्तविकता में इस परम सत् से भिन्न और कुछ नहीं है ।

 

   लेकिन, द्यपि यह परम और शाश्वत अनंत अपनी निरपेक्षता और अनंतता के कारण मन के लिये अनिर्देश्य है फिर भी हमें पता चलता है कि वह अपने-आपको विश्व में हमारी चेतना के आगे अपनी सत्ता के उन वास्तविक और आधारभूत सत्यों द्वारा निर्दिष्ट भी करता है जो विश्व के परे भी हैं और विश्व में भी, जो उसके अस्तित्व के यथार्थ आधार हैं । ये सत्य अपने-आपको हमारे धारणात्मक ज्ञान के आगे आधारभूत पहलुओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनमें हम सर्वव्यापक सद्वस्तु को देखते और अनुभव करते हैं । अपने-आपमें वे बौद्धिक समझ द्वारा नहीं बल्कि हमारी चेतना के ठीक द्रव्य में आध्यात्मिक अंतर्भास द्वारा, आध्यात्मिक अनुभूति द्वारा सीधे ही पकड़ में आते हैं । लेकिन उन्हें विशाल और नमनीय भाव द्वारा धारणा में पकड़ा और किसी ऐसी नमनीय वाणी में व्यक्त किया जा सकता है जो कठोर परिभाषा पर आग्रह नहीं करती या भाव की विशालता और सूक्ष्मता को सीमित नहीं करती । इस अनुभव या भाव को किसी निकटता के साथ प्रकट करने के लिये एक ऐसी भाषा बनानी होगी जो एक ही साथ अंतर्भासात्मक ढंग से तत्त्वटार्शनिक और अंतःप्रकाशात्मक ढंग से काव्यमय हो, जो सार्थक, सजीव रूपकों को अंतरंग, सूचक, और स्पष्ट संकेत के वाहन के रूप में स्वीकार करती हो, ऐसी भाषा जैसी हमें वेदों और उपनिषदों की सूक्ष्म, सारगर्भित अति-विशालता में गढ़ी हुई मिलती है । तत्त्व दर्शन के विचार की साधारण भाषा में हमें एक दूर के संकेत से, अमूर्तो के दिये 'लगभग' से संतुष्ट हो जाना पड़ता है जो फिर भी हमारी बुद्धि के लिये कुछ उपयोगी हो सकती है क्योंकि इस तरह की वाणी हमारी तर्कसंगत और युक्तियुक्त समझ की विधि के अनुकूल होती है; लेकिन अगर उसे सचमुच उपयोगी होना हो तो बुद्धि को सांत तर्क की सीमाओं से बाहर निकलने के लिये राजी होना और अनंत के तर्क के लिये अपने-आपको अभ्यस्त करना चाहिये । केवल इसी शर्त पर, इस प्रकार देखने और सोचने से अनिर्वचनीय के बारे में बोलना विरोधाभासी या व्यर्थ नहीं रहता । लेकिन अगर हम अनंत पर सांत तर्क लगाने पर आग्रह करें तो सर्वव्यापक सद्वस्तु हमसे छटक जायेगी, हम उसके बदले एक अमूर्त छाया को पकड़ लेंगे, एक पथराया दुआ मृत रूप वाणी में या

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एक कठोर और तीक्ष्ण रेखाचित्र हो जायेगा जो सद्वस्तु की बात तो करेगा लेकिन उसे अभिव्यक्त न करेगा । यह जरूरी है कि हमारी जानने की विधि उसके उपयुक्त हो जिसे हमें जानना है नहीं तो हमें किसी दूरस्थ परिकल्पना की, ज्ञान के किसी आकार की ही प्राप्ति होगी, सच्चे ज्ञान की नहीं ।

 

   इस तरह हमारे आगे परम सत्य का जो पहलू अपने-आपको प्रकट करता है वह है सत्ता की शाश्वत, अनंत, निरपेक्ष आत्म-सत्ता, आत्म-अभिज्ञता, आत्म-आनंद । यह सभी चीजों का आधार है और गुप्त रूप से सभी को सहारा देता और सबमें व्यापक है । यह आत्म-सत्ता फिर अपने-आपको अपनी तात्त्विक प्रकृति की तीन अभिधाओं में प्रकट करती है : आत्मा, सचेतन सत्ता या आध्यात्म पुरुष और भगवान् या दिव्य सत्ता । भारतीय परिभाषाएं अधिक संतोषजनक हैं -ब्रह्म यानी सद्वस्तु है आत्मा, पुरुष, ईश्वर । क्योंकि ये परिभाषाएं अंतर्भास की जड़ से उपजी हैं । उनमें जहां व्यापक यथार्थता है, वहीं उनमें एक नमनीय प्रयोग का तत्त्व भी है जिससे प्रयोग की अस्पष्टता और अत्यधिक संकुचित करनेवाले बौर्द्धिक धारणा के कठोर जाल से बचा जा सकता है । परब्रह्म वे हैं जिन्हें पाश्चात्य तत्त्व-दर्शन में निरपेक्ष कहा जाता है, लेकिन साथ-ही-साथ ब्रह्म सर्वव्यापक सद्वस्तु भी है जिसमें जो कुछ सापेक्ष है वह सब उसके रूपों और गतिविधियों की तरह निवास करता है । यह एक ऐसा निरपेक्ष है जो सभी सापेक्षों को अपने आलिंगन में ले लेता है । उपनिषदों का कथन है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्म यह सब कुछ ब्रह्म है, मन ब्रह्म है, प्राण ब्रह्म है, जड़ तत्त्व ब्रह्म है । प्राण के देवता, पवन के देवता, वायु को संबोधित करते हुए उपनिषद् कहता है, 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हों । मनुष्य, पशु पक्षी और कीट-पतंग हर एक का अलग-अलग एकमेव के साथ तादात्म्य किया गया है, ''हे ब्रह्म, तू ही यह वृद्ध पुरुष, लड़का और लड़की है, तू ही यह पक्षी और यह कीट है ।'' ब्रह्म वह चेतना है जो अपने-आपको उस सबमें जानती है जिसका अस्तित्व है, ब्रह्म वह शक्ति है जो देवता, दैत्य और राक्षस के बल को सहारा देती है, यह वह शक्ति है जो मनुष्य, पशु और प्रकृति के रूपों और ऊर्जाओं में क्रिया करती है । ब्रह्म आनंद है, सत्ता का वह गुप्त आनंद है जो हमारी सत्ता का आकाश है जिसके बिना कोई जी न सकता, सांस न ले सकता । ब्रह्म सभी के अंदर अंतरात्मा है । वह जिन रूपों में निवास करता है, जिनका उसीने निर्माण किया है, उसने उन्हींके अनुरूप रूप धारण किया है । सत्ताओं का स्वामी वह है जो सचेतन सत्ता के अंदर सचेतन है लेकिन वह निश्चेतन वस्तुओं में भी चेतन है, वह एकमेव जो बहु का स्वामी है और उनपर अधिकार रखता है । वे बहु शक्ति-प्रकृति के हाथों में निष्क्रिय हैं । वही कालातीत और काल है । वह स्वयं देश और देश में स्थित सब कुछ है, वह कार्य-कारण भाव, कारण और परिणाम है । वह मनीषी और उसका विचार, योद्धा और उसका साहस, जुआरी

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और उसका पांसा है । सभी वास्तविकताएं, सभी पहलू और सभी प्रतीतियां ब्रह्म हैं । ब्रह्म निरपेक्ष है, परात्पर और अव्यवहार्य है, वही अतिवैश्व सत् है जो विश्व को सहारा देता है, वैश्व आत्मा है जो सब सत्ताओं को धारण किये हुए है लेकिन वह प्रत्येक व्यष्टि की आत्मा भी है । अंतरात्मा या चैत्य सत्ता ईश्वर का एक शाश्वत अंश है । वह उसकी परम प्रकृति या चित्-शक्ति है जो जीवित सत्ताओं के लोक में जीवित सत्ता बन गयी है । केवल ब्रह्म ही है और ब्रह्म के कारण ही सब कुछ है क्योंकि सभी ब्रह्म है । यह सद्वस्तु उन सभी चीजों की वास्तविकता है जिन्हें हम आत्मा और प्रकृति में देखते हैं । ब्रह्म, यानी ईश्वर अपनी योगमाया से, आत्माभिव्यक्ति में प्रस्तुत की गयी अपनी चित्-शक्ति से यह सब है । वही सचेतन सत्ता, अंतरात्मा, आत्मा, पुरुष है और अपनी प्रकृति से, अपनी सचेतन आत्म-सत्ता की शक्ति से वह सब कुछ है । वह ईश्वर है यानी सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान् सर्व-शासक है और वह अपनी शक्ति द्वारा, अपनी सचेतन शक्ति द्वारा अपने-आपको काल में अभिव्यक्त करता और विश्व पर शासन करता है, ये और इस तरह के कथन एक साथ लिये जायें तो उनमें सब कुछ समा जाता है । मन के लिये यह संभव है कि कतर-व्योंत करके, चुन कर, एक बंद प्रणाली बना ले और जो कुछ उसमें न समाये उसे किसी भी व्याख्या द्वारा उड़ा दे । लेकिन अगर हम पूर्ण ज्ञान पाना चाहें तो हमें पूर्ण और बहुमुखी वक्तव्य को अपना आधार बनाना होगा ।

 

   सत्ता की एक निरपेक्ष, शाश्वत और अनंत आत्म-सत्ता, आत्म-अभिज्ञता, आत्म-आनंद, जो गुप्त रूप से विश्व को सहारा देता और उसमें व्यापक है तब भी जब वह उसके परे हो -यह आध्यात्मिक अनुभूति का पहला सत्य है । लेकिन सत्ता के इस सत्य का एक ही साथ निर्गुण और सगुण पक्ष होता है, वह केवल सत् ही नहीं होता; वह निरपेक्ष, शाश्वत और अनंत सत्ता है । जैसे हम इस सद्वस्तु को तीन मूलभूत पहलुओं में देखते हैं -आत्मा, सचेतन सत्ता या आध्यात्म पुरुष और भगवान- दिव्य सत्ता; अगर भारतीय परिभाषाओं का उपयोग करें तो निरपेक्ष और सर्वव्यापक सद्वस्तु ब्रह्म जो हमारे आगे आत्मा, पुरुष और ईश्वर के रूप में अभिव्यक्त होता है, -उसी तरह उसकी चित्-शक्ति भी हमारे आगे तीन रूपों में प्रकट होती है । एक है उस चेतना की आत्म-शक्ति जो सभी चीजों की धारणात्मक रूप से रचना करती है -माया । यह प्रकृति या शक्ति है जो गतिशील रूप से कार्यकारिणी है, जो सभी चीजों को सचेतन सत् आत्मा या आध्यात्म पुरुष की साक्षी आंख के सामने कार्यान्वित करती है, यह दिव्य सत् की सचेतन शक्ति है जो एक ही साथ सभी दिव्य कार्यों की भावनात्मक रूप से सर्जक और गतिशील रूप से कार्यकारिणी है । ये तीन रूप और उनकी शक्तियां संपूर्ण विश्व-सत्ता और समस्त प्रकृति के आधार और आयतन हैं और उन्हें एक साथ अखंड इकाई की तरह लिया जाये तो इनसे विश्वातीत परात्परता, वैश्व सारभौमता और हमारी व्यष्टिगत सत्ता

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के अलगाव के बीच रहने वाली प्रतीयमान विषमता और असंगति में मेल बैठ जाता है । उस एक सद्वस्तु के इस त्रिविध रूप में निरपेक्ष, वैश्व प्रकृति और हम एक शृंखला में आ जाते हैं : क्योंकि अगर अपने-आपमें लें तो निरपेक्ष का, परब्रह्म का अस्तित्व सापेक्ष विश्व का निषेध करेगा और हमारा अपना वास्तविक अस्तित्व निरपेक्ष की एकमात्र अव्यवहार्य सद्वस्तु के साथ असंगत होगा । लेकिन ब्रह्म एक ही साथ सापेक्षताओं में सर्वव्यापक है, वह सभी सापेक्षों से मुक्त निरपेक्ष है, सभी सापेक्षों को आधार देनेवाला निरपेक्ष है, सभी सापेक्षों पर शासन करनेवाला, सबमें व्यापक और सबका उपादान निरपेक्ष है । ऐसा कुछ भी नहीं है जो सर्वव्यापक सद्वस्तु न हो । इस त्रिविध रूप और त्रिविध शक्ति का अवलोकन करने पर हम यह जान पाते हैं कि यह कैसे संभव हैं ।

 

   अगर हम आत्म सत्ता और उसकी कृतियों के इस चित्र को एकात्मक, नि:सीम समग्र की दृष्टि से देखें तो वह एकत्रित दीखता है और अपनी असंदिग्ध समग्रता द्वारा प्रभावित करता है लेकिन यह तार्किक बुद्धि के विश्लेषण के लिये प्रचुर कठिनाइयां ले आता है जैसा कि किसी भी असीम सत्ता के बोध में से कोई तर्क-संगत सिद्धांत निकालने के प्रयास में होना अनिवार्य है । क्योंकि ऐसा हर प्रयास या तो वस्तुओं के जटिल सत्य का मनमाने ढंग से विभाजन करता हुआ संगति में गड़बड़ पैदा करेगा या अपनी व्यापकता के कारण तार्किक रूप से असाध्य हो जायेगा । क्योंकि हम देखते हैं कि अनिर्देश्य अपने-आपको अनंत और सांत के रूप में निर्दिष्ट करता है, अक्षर निरंतर क्षरता और अंतहीन भेदों को स्वीकार करता है, एकमेव असंख्य बहु हो जाता है, निर्वैयक्तिक व्यक्तित्व का सृजन करता है या उसे सहारा देता है, वह अपने-आप 'व्यक्ति' है, आत्मा की प्रकृति है फिर भी वह अपनी प्रकृति से भिन्न है, सत् संभूति में बदल जाता है फिर भी सदा स्व बना रहता है और अपनी संभूतियों से अलग रहता है, वैश्व अपने-आपको व्यष्टि बनाता है और व्यष्टि अपने-आपको वैश्व बना लेता है । ब्रह्म एक ही साथ निर्गुण और अनंत गुण होने में समर्थ है, कर्मों का स्वामी और कर्ता होते हुए भी वह अकर्ता और प्रकृति के कर्मों का मौन साक्षी है । अगर हम प्रकृति की इन क्रियाओं को सावधानी से देखें, एक बार अतिपरिचय के पर्दे को हटाकर और चूंकि चीजें हमेशा ऐसी ही होती हैं इसलिये यही स्वाभाविक है, चीजों की प्रक्रिया के बारे में इस अविचारशील सहमति को अलग कर दें तो हम पाते हैं कि वह जो कुछ करती है, चाहे वह अंश में हो या समग्र में, वह एक चमत्कार है । समझ में न आनेवाले जादू की एक क्रिया है । स्वयंभू की सत्ता और उसमें जो जगत् प्रकट हुआ है उनमें से हर एक और दोनों मिलकर अति-तार्किक रहस्य हैं । हमें लगता है कि वस्तुओं में एक तर्क है क्योंकि भौतिक सांत की प्रक्रियाएं हमारी दृष्टि के साथ मेल खाती हैं और उनके नियम निर्देश्य हैं । लेकिन वस्तुओं के इस तर्क की बारीकी से

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जांच की जाये तो वह अतार्किक, अवतार्किक और अतितार्किक पर हर क्षण ठोकरें खाता दीखता है । जब हम जड़ पदार्थ से प्राण और प्राण से मानसिकता की ओर बढ़ते हैं तो प्रक्रिया की संगति और निर्देश्यता बढ़ने की जगह घटती हुई मालूम होती हैं । अगर सांत किसी हदतक तर्क संगत दीखना स्वीकार कर लेता है तो अत्यणु उन्हीं नियमों में बंधने से इंकार करता है और अनंत तो पकड़ में ही नहीं आता । रही बात विश्व के कार्य और उसके अर्थ या महत्त्व की तो वह हमसे बिलकुल बच निकलता है । अगर आत्मा, ईश्वर या आध्यात्म सत्ता है तो जगत् के साथ और हमारे साथ उसके व्यवहार अगम्य हैं, वे ऐसा कोई सूत्र नहीं देते जिसका हम अनुसरण कर सकें । भगवान् और प्रकृति और हम भी ऐसे रहस्यमय मार्ग से गति करते हैं जो केवल आंशिक रूप में और किन्हीं बिंदुओं पर समझ में आता है परंतु सब मिला कर हमारी समझ से बच निकलता है । माया के सभी कार्य किसी अतितार्किक जादुई शक्ति से उत्पन्न मालूम होते हैं जो उन्हें अपनी प्रज्ञा या अपनी मनमानी तरंग के अनुसार व्यवस्थित करती है, लेकिन ऐसी प्रज्ञा जो हमारी नहीं है और ऐसी मनमानी तरंग जो हमारी कल्पना को चकरा देती है । जो आत्मा चीजों को अभिव्यक्त करती या अपने-आपको उनमें इतने अस्पष्ट रूप में प्रकट करती है वह हमारी तर्क-बुद्धि को जादूगर की तरह और उसकी शक्ति या माया एक सृजनात्मक जादू प्रतीत होती है । लेकिन जादू भ्रांतियां पैदा कर सकता है या आश्चर्यजनक वास्तविकताएं पैदा कर सकता है और हमारे लिये यह निर्णय करना कठिन हो जाता हैं कि तर्क से परे की इन प्रक्रियाओं में से कौन-सी इस विश्व में हमारे सामने आती है ।

 

   लेकिन वस्तुत: इस धारणा का कारण अवश्य ही 'परम' या वैश्व स्वयंभू के अंदर, किसी भ्रांतिपूर्ण या कपोल-कल्पित चीज में नहीं, बल्कि उसकी बहुविध सत्ता के परम संधान-सूत्र को पकड़ पाने में या उसके कामों की गुप्त योजना और विधि का पता लगा सकने में अपनी असमर्थता में खोजना चाहिये । स्वयंभू-सत् अनंत है और उसके संभवन और उसकी क्रिया के तरीके भी अनंत के तरीके होने चाहियें । लेकिन हमारी चेतना सीमित है, वस्तुओं पर आधारित हमारी तर्क-बुद्धि सीमित है । यह मान लेना अयुक्तियुक्त होगा कि सीमित चेतना और बुद्धि अनंत के माप हो सकते हैं । यह क्षुद्रता उस विशालता का मूल्यांकन नहीं कर सकती । अपने अपर्याप्त साधनों के सीमित प्रयोग से बंधी यह दरिद्रता उन समृद्धियों की वैभवशाली व्यवस्था की धारणा नहीं कर सकती । अज्ञानभरा अर्द्ध ज्ञान सर्व ज्ञान की गतियों का अनुसरण नहीं कर सकता । हमारा तर्क भौतिक प्रकृति की सांत क्रियाओं के अनुभव पर, सीमाओं के भीतर काम करनेवाली किसी चीज के अधूरे निरीक्षण और अनिश्चित समझ पर आधारित होता हैं । उसने इस आधार पर कुछ धारणाओं की व्यवस्था की है जिन्हें वह व्यापक और वैश्व बनाना चाहता है । जो

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कुछ इन धारणाओं का खंडन करे या उनसे अलग हो वह उसे अयुक्तियुक्त, मिथ्या या अव्याख्येय मान लेता है । लेकिन सद्वस्तु की अलग-अलग श्रेणियां हैं और यह जरूरी नहीं है कि किसी एक के लिये उपयोगी धारणाएं माप या मानदंड और श्रेणियों पर भी लागू हों । हमारी भौतिक सत्ता पहले अत्यणुओं, विद्युदणुओं, परमाणुओं, अणुओं और कोषाणुओं के समुच्चय पर बनी है । लेकिन इन अत्यणुओं की क्रिया का नियम मानव शरीर की सब भौतिक क्रियाओं को भी स्पष्ट नहीं कर पाता, मनुष्य के अतिभौतिक भागों के सभी नियमों और प्रक्रियाओं, उसके जीवन की गतिविधियों, मन की गतिविधियों और अंतरात्मा की गति-विधियों की बात ही अलग है । शरीर में सांत अपनी ही आदतों, गुणों और कार्य की विशेष रीतियों को लेकर बने हैं । शरीर अपने-आपमें एक सांत है जो केवल इन छोटे-छोटे समूहों का कुल योग नहीं हैं जिनका उपयोग वह अंगों, अवयवों और क्रिया-व्यापारों के मूलभूत उपकरण के रूप में करता है । उसने एक अपनी सत्ता विकसित की है और उसका एक सामान्य नियम है जो इन तत्त्वों और घटकों पर आश्रित रहने का अतिक्रमण कर जाता है । प्राण और मन अतिभौतिक सांत हैं जिनकी अपनी क्रिया-पद्धति भिन्न और अधिक सूक्ष्म है । और यद्यपि वे शारीरिक अंगों को उपकरण बना कर क्रिया करते हैं तथापि उनकी यह निर्भरता उनके सहज गुण-धर्म को नष्ट नहीं कर सकती । हमारी मानसिक और प्राणिक सत्ता में और प्राणिक और मानसिक शक्तियों में हमारे भौतिक शरीर के क्रिया-कलाप से भिन्न और अधिक कुछ और भी है । लेकिन फिर हर सांत अपनी वास्तविकता में एक अनंत है --या अनंत उसके पीछे है -जिसने उसे अपने रूप में बनाया हैं, जो उसे सहारा और निर्देशन देता है । अतः सांत की सत्ता, उसके नियम और प्रक्रिया को भी उसके ज्ञान के बिना पूरी तरह नहीं समझा जा सकता जो गुह्य रूप से उसके भीतर या पीछे है । हमारा सांत ज्ञान, धारणाएं और मानक अपनी सीमा में उचित हो सकते हैं परंतु वे अपूर्ण और सापेक्ष होते हैं । जो देश और काल में विभाजित है उसके अवलोकन पर आधारित नियम को विश्वासपूर्वक अविभाज्य की सत्ता और क्रिया पर लागू नहीं किया जा सकता । केवल इतना ही नहीं कि उसे कालातीत और देशातीत पर लागू नहीं किया जा सकता बल्कि उसे अनंत काल और अनंत देश पर भी लागू नहीं किया जा सकता । जो नियम और प्रक्रिया हमारी ऊपरी सत्ता के लिये अनिवार्य है, वह, जरूरी नहीं है कि वह हमारे अंदर के गुह्य के लिये भी अनिवार्य हो । फिर, हमारी बुद्धि, जो तर्क पर आधारित है, उसे अवयौक्तिक से व्यवहार करना कठिन मालूम होता है । प्राण अवयौक्तिक है और हम देखते हैं कि हमारा बौद्धिक तर्क जब अपने-आपको प्राण पर लागू करता है तो सदा उसपर एक नियंत्रण, माप और कृत्रिम हिंसावादी नियम आरोपित करता है जो या तो प्राण को मार देने या पथरा देने में सफल होता है या उसे कठोर रूपों और रूढ़ियों में जकड़ देता है जो

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उसकी सामर्थ्य को पंगु या बंदी बना देते हैं या अंत में एक गड़बड़ की रचना हो जाती है । प्राण विद्रोह करता है, हमारी बुद्धि की उस पर खड़ी की गयी व्यवस्थाएं और अधिरचनाएं क्षीण होने लगती हैं या उनका विघटन हो जाता है । एक सहज वृत्ति की या अंतर्भास की आवश्यकता होती है जो सदा बुद्धि के अधिकार में नहीं होती और जब वह अपने-आप मानसिक क्रियाओं की सहायता करने आती है तो बुद्धि हमेशा उसकी बात पर कान नहीं देती । लेकिन हमारी तर्क-बुद्धि के लिये तब और भी ज्यादा मुश्किल होती है जब उसे अतिबौद्धिक को समझना और उसके साथ व्यवहार करना पड़े । अतिबौद्धिक आत्मा का क्षेत्र है और तर्क-बुद्धि उसकी गति की विशालता, सूक्ष्मता, गहराई और जटिलता में खो जाती है । यहां केवल अंतर्भास और आंतरिक अनुभूति ही मार्ग-दर्शक हो सकते हैं अथवा यदि कोई और है तो अंतर्भास उसकी केवल एक तेज धार, प्रक्षिप्त प्रखर किरण है । परम प्रकाश तो अतितार्किक ऋत-चित् से, अतिमानसिक दर्शन और ज्ञान से ही आयेगा ।

 

   लेकिन इस कारण अनंत की सत्ता और क्रिया को ऐसा नहीं मान लेना चाहिये मानों वह तर्कहीन जादू हो । इसके विपरीत अनंत की सभी क्रियाओं में एक महत्तर युक्ति होती है परंतु वह मानसिक या बौद्धिक नहीं होती, वह आध्यात्मिक और अतिमानसिक युक्ति होती हैं, उसमें एक तर्क होता है, क्योंकि उसमें संबंध और संपर्क बिना भूल के दिखायी देते और कार्यान्वित होते हैं । जो हमारी सांत तर्क-बुद्धि के लिये जादू है वह अनंत का तर्क है । वह ज्यादा बड़ी युक्ति, ज्यादा बड़ा तर्क है क्योंकि वह ज्यादा विस्तृत, सूक्ष्म और अपनी क्रियाओं में ज्यादा जटिल है । हमारा अवलोकन जिन तथ्यों को नहीं पकड़ पाता उन सबको अनंत की युक्ति, तर्क पकड़ लेता है, वह उनसे ऐसे परिणाम निकालता है जिनकी आशा भी हमारे निगमन और आगमन नहीं कर पाते क्योंकि हमारे निष्कर्ष और अनुमान कमजोर नींव पर खड़े, भ्रांत और भंगुर होते हैं । अगर हम किसी घटना का अवलोकन करें तो हम उसके परिणाम के और एकदम बाहरी घटकों की झांकी, परिस्थितियों और कारणों के आधार पर उसका मूल्यांकन और उसकी व्याख्या करते हैं । लेकिन हर तरह की घटना शक्तियों के जटिल अंतर्बंधन का परिणाम होती है लेकिन उसे न तो हम देखते हैं न देख सकते हैं क्योंकि हमारे लिये सभी शक्तियां अदृश्य होती हैं लेकिन वे अनंत की आध्यात्मिक दृष्टि के लिये अदृश्य नहीं होतीं, उनमें से कुछ ऐसी वास्तविकताएं होती हैं जो किसी नयी वास्तविकता को उत्पन्न करने के लिये कार्य करती हैं या उसके लिये अवसर होती हैं, कुछ ऐसी संभावनाएं होती हैं जो पूर्व-स्थित वास्तविकताओं के बहुत ही नजदीक होती हैं और एक तरह से उनके कुलयोग में ही गिनी जाती हैं । लेकिन हमेशा नयी संभावनाएं हस्तक्षेप कर सकती हैं जो अचानक क्रियाशील संभाव्यताएं बन जाती हैं और अपने-आपको शक्ति के

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अंतर्बंधन में मिला देती हैं और इन सबके पीछे कुछ अनिवार्यताएं या एक अनिवार्यता होती है जिन्हें वास्तविक बनाने के लिये ये संभावनाएं श्रम कर रही हैं । और फिर शक्तियों के उस एक ही अंतर्बंधन से भिन्न-भिन्न परिणाम संभव हैं । लेकिन उनमें से क्या परिणाम आयेगा इसका निर्णय उस स्वीकृति के द्वारा होता है जो नि:संशय सारे समय प्रतीक्षा में तैयार बैठी थी लेकिन लगता यह है कि वह तेजी से आकर सब कुछ बदल देती है । यह एक निर्णायक दिव्य आदेश होता है । लेकिन हमारी तर्क-बुद्धि इस सबको नहीं पकड़ सकतीं, क्योंकि वह अज्ञान का यंत्र है जिसकी दृष्टि बहुत सीमित होती और उसके संग्रह किये हुए ज्ञान का भंडार बहुत कम होता है और वह ज्ञान भी हमेशा बहुत निश्चित या विश्वास-योग्य नहीं होता, क्योंकि उसके पास प्रत्यक्ष अभिज्ञता के साधन नहीं होते । अंतर्भास और बुद्धि में यह फर्क है कि अंतर्भास एक प्रत्यक्ष अभिज्ञता से पैदा होता है जब कि बुद्धि एक ऐसे ज्ञान की परोक्ष क्रिया है जो अपने-आपको कठिनाई से ऐसे अज्ञात में से चिह्नों, संकेतों और दी हुई सामग्री से निर्मित करती है । लेकिन जो चीज हमारी तर्क-बूद्धि और इन्द्रियों के लिये स्पष्ट नहीं है वह अनंत चेतना के लिये स्वयं-सिद्ध है और अगर अनंत की कोई इच्छा हो तो वह ऐसी इच्छा होनी चाहिये जो पूर्ण ज्ञान में काम करती है और समग्र स्वयं-सिद्ध का पूर्णत: सहज परिणाम है । वह न तो उलझी हुई विकसनशील शक्ति है जो उससे बंधी है जिससे वह विकसित हुई है और न ही ऐसी कल्पनाशील इच्छा है जो शून्य में स्वच्छंद तरंग पर कार्य कर रही हो । वह अनंत का सत्य है जो अपने-आपको सांत के निर्देशनों में प्रतिष्ठित कर रहा है ।

 

   यह स्पष्ट है कि यह जरूरी नहीं है कि ऐसी चेतना और इच्छा हमारी सीमित तर्क-बुद्धि के निष्कर्षों के साथ सामंजस्य रखते हुए क्रिया करे या ऐसी प्रक्रिया के अनुसार क्रिया करे जो उससे परिचित हो और जो हमारी बनायी हुई धारणाओं से अनुमोदित हो या किसी सीमित और आंशिक शुभ के लिये क्रिया करनेवाली किसी नैतिक बुद्धि के आधीन रह कर कार्य करे । वह ऐसी चीजों को भी स्वीकार कर सकती और करती है जिन्हें हमारी बुद्धि तर्क-विरुद्ध और अनैतिक मानती है क्योंकि वह परम और समग्र शुभ के लिये और वैश्व प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिये जरूरी है । जो हमें आंशिक तथ्यों, प्रयोजनों और आवश्यकताओं के संबंध से तर्क-विरुद्ध और धिक्कारने योग्य लगता है वही अधिक विशाल प्रयोजन तथा आधार-सामग्री तथा आवश्यकताओं के संबंध से पूरी तरह बुद्धि-संगत और स्वीकार करने योग्य हो सकता है । अपनी एकांगी दृष्टि के साथ तर्क-बुद्धि कुछ निर्मित निष्कर्षों को निश्चित करती है जिन्हें वह ज्ञान और कर्म के सामान्य नियम बनाने की कोशिश करती है और किसी मानसिक विधि से वह चीजों को अपने नियम में जबरदस्ती बिठाती है और जो उसमें न बैठ पाये उससे पिंड छुड़ा लेती

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है । अनंत चेतना में ऐसे कोई नियम न होंगे । इसकी जगह उसमें वृहत् अंतस्थ सत्य होंगे जो अपने-आप निष्कर्ष और परिणामों पर शासन करेंगे परंतु चेतना पूरी तरह भिन्न परिस्थितियों की समष्टि में सहज रूप से उनका और तरह अनुकूलन करेगी । इस लचीलेपन और मुक्त अनुकूलन के कारण अधिक संकीर्ण क्षमता यह मान लेती है कि उसके कोई मानक हैं ही नहीं । इसी भांति हम अनंत के तत्त्व और गतिशील क्रिया के बारे में सांत सत्ता के मानकों से कोई मूल्यांकन नहीं कर सकते । जो वस्तु एक के लिये असंभव हो वह विशालतर और अधिक मुक्त सद्वस्तु के लिये सामान्य और स्वयं-सिद्ध स्थिति और हेतु हो सकती है । यही हमारी खंडित मानसिक चेतना में, जो अपने खंडों में से अखंड वस्तुओं का निर्माण करती है, और तात्त्विक समग्र चेतना, दृष्टि और ज्ञान में फर्क करती है । जबतक हम अपने मुख्य अवलम्ब के रूप में तर्क-बुद्धि का उपयोग करने के लिये बाधित हैं तबतक वस्तुत: यह संभव नहीं है कि वह पूरी तरह अविकसित या अर्द्ध संगठित अंतर्भास के पक्ष में अपनी गद्दी छोड़ दे । लेकिन अनंत की सत्ता और क्रिया के बारे में विचार करते समय हमारे लिये अनिवार्य है कि हम अपनी तर्क-बुद्धि पर अधिक-से-अधिक नमनीयता आरोपित करें और उसे उसकी विशालतर स्थितियों और संभावनाओं के बोध की ओर खोलें जिसके बारे में विचार करने का हम प्रयास कर रहे हैं । तत् के बारे में, जिसकी कोई सीमा नहीं हो सकती, अपने सीमित और सीमित करनेवाले निष्कर्ष लगाने से काम न चलेगा । अगर हम एक ही पक्ष पर केन्द्रित हों और उसे ही समग्र मान लें तो हम हाथी और अंधों की उस कहानी के उदाहरण बनेंगे जिसमें हर अंधा-अन्वेषक हाथी के अलग-अलग अंगों को छूकर यह निष्कर्ष निकाल रहा था कि पूरा प्राणी, जिस अंग को उसने छुआ था, उससे मिलती-जुलती चीज है । अनंत के एक पक्ष की अनुभूति अपने-आपमें मान्य है लेकिन उसके आधार पर हम यह सामान्य नियम नहीं बना सकते कि अनंत बस यही है और न यह ठीक होगा कि बाकी अनंत को उसी पक्ष के हिसाब से देखा जाये और आध्यात्मिक अनुभूति के बाकी सब दृष्टि-बिंदुओं को अलग कर दिया जाये । अनंत एक ही साथ सार-तत्त्व है, असीम समग्रता है और बहुत्व है । अनंत को सचमुच जानने के लिये इन सब को जानना होगा । केवल भागों को देखना और समग्र को बिलकुल न देखना या केवल भागों का कुल योग मानना एक ज्ञान तो है पर साथ ही अज्ञान भी । केवल समग्रता को देखना और भागों की अवहेलना करना भी एक ज्ञान है और साथ ही अज्ञान भी क्योंकि हो सकता है कि एक भाग समग्र से महान् हों क्योंकि वह तत्त्वतः परात्पर है । केवल सारतत्त्व को देखना, क्योंकि वह हमें सीधा परात्पर की ओर लौटा ले जाता है और समग्रता और भागों से इंकार करना, अंतिम से पहले का ज्ञान है लेकिन इसमें भी बहुत बड़ा अज्ञान है । संपूर्ण ज्ञान होना चाहिये और तर्क-बुद्धि को इतना लचीला होना चाहिये

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कि सभी दिशाओं, सभी पक्षों को देख सके और उनके द्वारा उसे खोज सके जिसमें वे सब एक हैं ।

 

   इस तरह अगर हम केवल आत्मा के पहलू ही देखें तो हो सकता है कि हम उसकी निष्चल नीरवता पर केन्द्रित हो जायें और अनंत के क्रियाशील सत्य को खो बैठें, अगर हम केवल ईश्वर को देखें तो हो सकता है कि हम क्रियाशील सत्य को तो पकड़ पायें लेकिन शाश्वत स्थिति और अनंत नीरवता को खो बैठें, हम केवल क्रियाशील सत्, क्रियाशील चित्, सत्ता के क्रियाशील आनंद के बारे में तो अभिज्ञ हों जायें लेकिन शुद्ध सत्, शुद्ध चित्, शुद्ध सत्ता के आनंद को खो दें । अगर हम केवल पुरुष-प्रकृति पर केन्द्रित हों तो हो सकता है कि हम केवल अंतरात्मा और प्रकृति, आत्मा और जड़ तत्त्व के द्विभाजन को ही देख पायें और उनके ऐक्य को खो बैठें । अनंत की क्रिया पर विचार करते हुए हमें उस शिष्य की भूल से बचना चाहिये जिसने अपने-आपको ब्रह्म मानकर महावत की चेतावनी सुनने से इंकार किया जिसने उसे तंग रास्ता छोड़ कर एक ओर हो जाने के लिये कहा था । तब हाथी ने उसे सूंड से उठाकर एक ओर कर दिया था । इस पर भौंचक्के शिष्य से उसके गुरू ने कहा, ''निःसंदेह तुम ब्रह्म हो, लेकिन तुमने महावत ब्रह्म की बात क्यों नहीं सुनी और हाथी ब्रह्म के रास्ते में से हट क्यों नहीं गयें ?'' हमें सत्य के एक ही पक्ष पर जोर देने की और अनंत के अन्य सब पक्षों और पहलुओं को छोड़कर उसी एक से निष्कर्ष निकालने या उसीपर क्रिया करने की भूल न करनी चाहिये । मैं वही ब्रह्म हूं (सोऽहम्) की अनुभूति सत्य है लेकिन हम उसपर तबतक सुरक्षित रूप से नहीं चल सकते जबतक कि हम यह भी अनुभव न कर लें कि सब कुछ 'तत्' है । हमारा आत्म-अस्तित्व एक तथ्य है लेकिन हमें साथ ही दूसरी आत्माओं के बारे में भी अभिज्ञ होना चाहिये कि वही आत्मा और सत्ताओं में भी है और उस 'तत्' के बारे में भी जो हमारी आत्मा तथा अन्य आत्माओं के परे है । अनंत बहुत्व में एक है और उसकी क्रिया को केवल एक परम बुद्धि ही पकड़ सकती है जो सबको देखती और एक ऐसी एक-अभिज्ञता के रूप में काम करती है जो अपना अवलोकन भिन्नता में करती है और जो अपनी भिन्नताओं का मान करती है ताकि हर चीज और हर सत्ता अपनी तात्त्विक सत्ता का रूप पा सके और क्रियाशील प्रकृति का रूप पा सके -स्वरूप और स्वधर्म -और इन सबका समग्र क्रिया में मान किया जाता है । अनंत का ज्ञान और उसकी क्रिया अपार परिवर्तनशीलता में भी एक रहती है । अनंत सत्य की दृष्टि से सभी अवस्थाओं में क्रिया की समानता या भिन्नता के पीछे किसी एक करनेवाले सत्य और सामंजस्य के बिना क्रिया की भिन्नता पर आग्रह करना समान रूप से गलत होगा । स्वयं अपने आचार के नियमों में अगर हम इस महत्तर सत्य के अनुसार कार्य करना चाहें तो स्वयं अपने ऊपर जोर देना या केवल अन्य आत्माओं पर जोर देना समान

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रूप से गलत होगा । हमें कर्म के एकत्व को और कर्म के समग्र, अनंत रूप से नमनीय और साथ ही सामंजस्यपूर्ण वैचित्र्य को सर्व की आत्मा पर आधारित करना होगा क्योंकि यही अनंत की क्रिया का स्वभाव है ।

 

   अगर हम अनंत के तर्क को ध्यान में रखते हुए अधिक विशाल और अधिक नमनीय बुद्धि के दृष्टिकोण से उन कठिनाइयों को देखें जो निरपेक्ष और सर्वव्यापक सद्वस्तु के बारे में सोचते हुए हमारी बुद्धि के आगे आती हैं तो हम देखेंगे कि सारी कठिनाई वास्तविक नहीं, शब्दों और धारणाओं में है । हमारी बुद्धि निरपेक्ष के बारे में अपनी धारणा पर नजर डालती है और सोचती है कि उसे अनिर्देश्य होना चाहिये और साथ ही वह निर्दिष्टों की एक दुनिया को देखती है जो निरपेक्ष से उभरती और उसमें निवास करती है -क्योंकि वह और कहीं से नहीं निकल सकती और न और कहीं निवास कर सकती है । वह इस दृढ़ कथन से और भी ज्यादा चकरा जाती है और इसके आधार पर मुश्किल से ही कोई विवाद हो सकता है कि ये सभी निर्दिष्ट इसी अनिर्देश्य निरपेक्ष के सिवा और कुछ नहीं हैं । लेकिन यह विरोध तब मिट जाता है जब हम यह समझ लेते हैं कि अनिर्देश्यता अपने सच्चे अर्थों में नकारात्मक नहीं है, अनंत पर अक्षमता का आरोप नहीं है बल्कि भावात्मक है, स्वयं अपने निर्दिष्टों से, अपने भीतर सीमाओं से मुक्ति है और आवश्यक रूप से स्वयं अपने-आपसे भिन्न और सभी बाह्य निर्दिष्टों से मुक्ति है, चूंकि अपने से भिन्न किसी और चीज के होने की कोई वास्तविक संभावना नहीं है । अनंत असीम रूप से मुक्त है, अपने-आपको अनंत रूपों से निर्धारित करने के लिये स्वतंत्र है, अपनी ही सृष्टि के प्रतिबंध लगानेवाले सभी प्रभावों से मुक्त है । वस्तुत: अनंत सृजन नहीं करता, वह उसके अंदर जो कुछ है उसे अभिव्यक्त करता है । स्वयं अपनी वास्तविकता के सार में, स्वयं सभी वास्तविकताओं का वह सार है और सभी वास्तविकताएं उस एक सद्वस्तु की शक्तियां हैं । निरपेक्ष रचना करने और रचे जाने के प्रचलित अर्थों में न तो रचना करता है और न उसकी रचना की जाती हैं । हम सृजन की बात केवल इस अर्थ में कर सकते हैं कि सत् रूप और गति में वह बन जाये जो वह पहले से ही पदार्थ और स्थिति में है, फिर भी हमें उस विशेष और भावात्मक अर्थ में उसकी अनिर्देश्यता पर जोर देना चाहिये, किसी न- कार के रूप में नहीं बल्कि उसके मुक्त अनंत आत्म-निर्धारण की अनिवार्य शर्त के रूप में, क्योंकि उसके बिना सद्वस्तु एक बंधा हुआ शाश्वत निर्धारित या अपने अंदर निहित निर्देशन की संभावनाओं के कुल योग से बंधा और निश्चित अनिर्दिष्ट होगा । उसके सब सीमांकनों से, अपनी ही सृष्टि के किसी भी बंधन से जो स्वाधीनता है उसे एक सीमा का, एक नितांत अक्षमता का, आत्म-निर्देशन की समस्त स्वाधीनता के निषेध का रूप नहीं दिया जा सकता । यह परस्पर विरोध होगा, अनंत और असीम की निषेध द्वारा परिभाषा करने और उसे सीमित बनाने का

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प्रयास होगा । निरपेक्ष के स्वभाव के दो पक्षों के केन्द्रीय तथ्य में, तात्त्विक और आत्म-सर्जक या क्रियाशील में कोई सचमुच विरोध नहीं आता । केवल एक शुद्ध रूप से अनंत तत्त्व ही अपने-आपको अनंत प्रकार से रूपायित कर सकता है । एक कथन दूसरे का पूरक है, एक दूसरे को रद्द नहीं करता, उनमें कोई असंगति नहीं है । यह मानव बुद्धि द्वारा मानव भाषा में एक ही अनिवार्य तथ्य का दो तरह से कथन है

 

   जब हम सद्वस्तु के सत्य पर सीधी और यथार्थ दृष्टि डालते हैं तो हर जगह वही समाधान दीखता है । उसकी हमें जो अनुभूति होती है उसमें हम एक ऐसे अनंत से अभिज्ञ होते हैं जो गुण, धर्म, लक्षण के सभी सीमांकनों से मुक्त है, दूसरी ओर हम ऐसे अनंत से परिचित हैं जिसमें अनंत गुण, धर्म और लक्षण भरे हैं । यहां फिर असीम स्वाधीनता का कथन भावात्मक है, अभावात्मक नहीं । हम जो कुछ देखते हैं वह उससे इंकार नहीं करता बल्कि इसके विपरीत उसके लिये अनिवार्य परिस्थिति ला देता है । वह गुण, धर्म और लक्षणों में मुक्त और अनंत आत्माभिव्यक्ति को संभव बनाता है । गुण है सचेतन सत्ता की शक्ति की एक विशेषता या हम कह सकते हैं कि सत्ता की चेतना, अपने अंदर जो है उसे प्रकट करते हुए वह जिस शक्ति को बाहर लाती है उस पर एक स्वाभाविक मुहर लगा देती है जिससे वह पहचानी जा सके और उसे ही हम गुण या चरित्र कहते हैं । गुण के रूप में साहस सत्ता की इसी तरह की शक्ति है, वह मेरी चेतना का ऐसा विशिष्ट चरित्र है जो मेरी सत्ता की रूपायित शक्ति को अभिव्यक्त करता है और क्रिया में मेरे स्वभाव की एक निश्चित प्रकार की शक्ति को बाहर लाता या उसका सृजन करता है । इसी भांति औषध की रोग-मुक्त करने की शक्ति उसका गुण है, सत्ता की एक विशेष शक्ति उस वनस्पति या खनिज के लिये सहज होती है जिसमें से वह बनायी जाती है और यह विशेषता सत्य-संकल्प द्वारा निर्धारित होती है और वनस्पति या खनिज में रहनेवाली अंतर्निहित चेतना में छिपी रहती है । भाव उसमें उस चीज को बाहर निकाल लाता है जो उसकी अभिव्यक्ति की जड़ में थी और अब उसकी सत्ता की शक्ति के रूप में समर्थ बन कर बाहर आयी है । सभी गुण, धर्म और लक्षण सचेतन सत्ता की ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें निरपेक्ष अपने अंदर से यूं बाहर निकालता है । उसके अंदर सब कुछ है, उसके अंदर सब कुछ प्रकट करने की स्वतंत्र शक्ति है । किंतु हम निरपेक्ष की परिभाषा करते हुए यह नहीं कह सकते कि वह साहस का गुण या नीरोग करने की शक्ति है । हम यह भी नहीं कह सकते कि ये निरपेक्ष के विशेष लक्षण हैं और न हम गुणों की समष्टि बनाकर ही यह कह सकते हैं कि 'यह निरपेक्ष है' । लेकिन हम निरपेक्ष के बारे में यह भी नहीं कह सकते कि निरपेक्ष शुद्ध रिक्तता है जो इन चीजों को अभिव्यक्त करने में असमर्थ है । इसके विपरीत उसमें सब क्षमताएं हैं । सभी गुणों और धर्मों की शक्तियां

 

   १ संस्कृत शब्द 'सृष्टि' का अर्थ है, जो सत्ता के अंदर है उसे मुक्त या प्रकट करना ।

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उसके अंदर अंतर्निहित हैं । मन कठिनाई में होता है क्योंकि उसे कहना पड़ता है, ''निरपेक्ष या अनंत इनमें से कोई चीज नहीं है । ये चीजें निरपेक्ष या अनंत नहीं हैं'' और साथ ही उसे कहना होता है, ''निरपेक्ष यह सब कुछ है, ये चीजें तत् से भिन्न कुछ नहीं हैं क्योंकि तत् एकमात्र सत्ता और सर्वसत्ता है ।'' यहां यह स्पष्ट है कि विचार-धारणा और शाब्दिक अभिव्यक्ति की यह अनुचित सीमितता इस कठिनाई को पैदा करती है परंतु वास्तव में कोई कठिनाई है नहीं । क्योंकि यह तो स्पष्ट ही हैं कि यह कहना बेतुकापन होगा कि निरपेक्ष साहस है या नीरोग करने की शक्ति है या यह कि साहस और नीरोग करने की शक्ति निरपेक्ष है । साथ ही यह कहना भी उतना ही बेतुका होगा कि वह निरपेक्ष अपनी अभिव्यक्ति में साहस या नीरोग करने की शक्ति को आत्माभिव्यक्ति में प्रकट नहीं कर सकता । जब सांत का तर्क हमें निराश कर देता है तो हमें प्रत्यक्ष और सीमारहित दृष्टि से देखना होगा कि अनंत के तर्क के पीछे क्या है ? तब हम यह अनुभव कर सकते हैं कि अनंत गुण, धर्म और शक्ति में अनंत है लेकिन गुण, धर्म और शक्तियों का कोई भी कुल योग अनंत की व्याख्या नहीं कर सकता ।

 

   हम देखते हैं कि निरपेक्ष, आत्मा, भगवान् आध्यात्म सत्ता, सत् केवल एक है, परात्पर एक है, वैश्व एक है लेकिन हम यह भी देखते हैं कि सत्ताएं अनेक हैं और हर एक में अपनी एक आत्मा है, एक आध्यात्म सत्ता है, एक-सी फिर भी अलग प्रकृति है । और चूंकि आत्मा और सत्ता का सार एक है इसलिये हम यह मानने के लिये बाधित होते हैं कि ये बहुत सारे बहु भी वह एकमेव ही होंगे, इसका मतलब होता है कि एकमेव ही बहु है या बहु बन गया है । लेकिन सीमित और सापेक्ष निरपेक्ष कैसे हो सकता है ? मनुष्य या पशु या पक्षी दिव्य सत्ता कैसे हो सकते हैं ? लेकिन इस प्रतीयमान विरोध को खड़ा करने में मन दोहरी भूल करता है । वह गणितीय भाषा में सांत इकाई की बात सोचता है जो सीमा में ही एक है, ऐसा एक है जो दो से कम है और केवल विभाजन और खंडन के द्वारा या फिर जोड़ या गुणा के द्वारा ही दो बन सकता है; परंतु यह अनंत इकाई है, यह सारभूत और अनंत इकाई है जिसमें सौ, हजार, लाख, करोड़, अरब भी समा सकते हैं । ज्योतिष की या ज्योतिष से परे की जितनी भी राशियों के ढेर लगाये जायें या उनका गुणन किया जाये वे कभी इस इकाई के परे नहीं जा सकते, इससे बढ़ नहीं सकते क्योंकि उपनिषद् की भाषा में 'वह' चलता नहीं है लेकिन उसका पीछा किया जाये और उसे पकड़ने की कोशिश की जाये तो वह हमेशा आगे, दूर, बहुत दूर रहेगा । उसके बारे में कहा जा सकता है कि अगर उसमें अनंत बहुलता की क्षमता न हो तो वह अनंत इकाई न रहेगा । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि 'एक' बहु है या उसे सीमित किया जा सकता है या यह कहा जा सकता है कि वह कइयों का कुल-योग है । इसके विपरीत वह अनंत बहु हो सकता है क्योंकि वह बहुत्व के सभी

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सीमांकनों या वर्णन के परे जाता है और साथ-ही-साथ सांत धारणात्मक एकत्व के सभी सीमाबंधनों के भी परे है । बहुत्ववाद एक भूल है क्योंकि यद्यपि आध्यात्मिक बहुत्व तो है परंतु अनेक आत्माएं आश्रित हैं और अन्योन्याश्रित सत्ताएं हैं, उनका कुल-योग भी 'एक' नहीं है न ही वह वैश्व समग्रता है । वे एक पर आश्रित हैं और उसके एकत्व के कारण ही बनी हुई हैं । फिर भी बहुत्व अवास्तविक नहीं है । एकमेव अंतरात्मा व्यष्टिगत रूप में इन बहु अंतरात्माओं में निवास करती है और वे इस एक में शाश्वत हैं और उस शाश्वत एक के सहारे शाश्वत हैं । मानसिक बुद्धि के लिये यह कठिन है, वह अनंत और सांत के बीच विरोध खड़ा करती है और सान्तता को बहुत्व के साथ और अनंतता को एकत्व के साथ जोड़ती है लेकिन अनंत के तर्क में ऐसा कोई विरोध नहीं है और एक में बहु की शाश्वतता बिलकुल पूरी तरह स्वाभाविक और संभव है ।

 

   फिर हम देखते हैं कि आध्यात्मिक सत्ता की एक अनंत शुद्ध स्थिति और निश्चल नीरवता है । साथ ही हम यह भी देखते हैं कि आध्यात्म सत्ता की एक सीमाहीन गति है, एक शक्ति है, अनंत का एक क्रियाशील आध्यात्मिक, सबको धारण करनेवाला आत्म-प्रसार है । हमारी धारणाएं इस प्रत्यक्ष दर्शन पर अपने-आपको थोप देती हैं । इन दोनों का अनुभव अपने-आपमें प्रामाणिक और यथार्थ है फिर भी हमारी धारणाएं एक ओर निश्चल नीरवता और स्थिति, दूसरी ओर क्रियात्मकता और गति, इन अनुभवों के बीच एक विरोध खड़ा कर देती हैं लेकिन अनंत की बुद्धि या उसके तर्क के लिये ऐसा कोई विरोध नहीं हों सकता । केवल नीरव और निष्चल अनंत, अनंत शक्ति, गतिशीलता और ऊर्जा के बिना अनंत को एक पक्ष के प्रत्यक्ष दर्शन से बढ़कर नहीं माना जा सकता; शक्तिहीन निरपेक्ष, सामर्थ्यहीन आध्यात्म सत्ता के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता । अनंत की क्रियाशक्ति होनी चाहिये अनंत ऊर्जा, निरपेक्ष की शक्ति होनी चाहिये सर्वशक्ति, आध्यात्म सत्ता की शक्ति होनी चाहिये असीम शक्ति, लेकिन नीरवता और स्थिति गति के आधार हैं, शाश्वत निश्चलता अनंत गतिशीलता के लिये आवश्यक परिस्थिति, क्षेत्र, यहांतक कि उसका सार भी है । स्थिर सत्ता सत्ता की शक्ति की विशाल क्रिया के लिये परिस्थिति और आधार है । जब हम इस नीरवता, स्थिरता और निश्चलता पर आ पहुंचते हैं तब उसपर एक ऐसी शक्ति और ऊर्जा की नींव रख सकते हैं जो हमारी ऊपरी चंचल स्थिति में अकल्पनीय होगी । हम जो विरोध खड़ा करते हैं वह मानसिक और धारणात्मक है । वास्तव में ब्रह्म की निश्चल नीरवता और ब्रह्म की गतिशीलता एक दूसरे के पूरक सत्य हैं और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । अक्षर और निश्चल नीरव ब्रह्म अपनी अनंत ऊर्जा को अपने अंदर निश्चल और नीरव रूप से धारण किये रह सकता है क्योंकि वह अपनी शक्तियों से बंधा नहीं है, उनके अधीन या उनका उपकरण नहीं है बल्कि वह उनपर

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अधिकार रखता है, उन्हें मुक्त करता है, वह शाश्वत और अनंत क्रिया करने में सक्षम है, थकता नहीं, उसे रुकने की जरूरत नहीं होती । फिर भी सारे समय उसकी नीरव निश्चलता, जो उसकी क्रिया और गति में अंतर्निहित होती है, क्षण भर के लिये भी उसकी क्रिया या गति के कारण न तो हिलती-डुलती है न क्षुब्ध होती या बदलती है । प्रकृति की सभी आवाजों और क्रियाओं के स्वभाव में ब्रह्म की साक्षी नीरवता विद्यमान रहती है । हमारे लिये यह समझना कठिन हो सकता है क्योंकि दोनों दिशाओं में हमारी सतही सांत क्षमता सीमित होती है और हमारी धारणाएं हमारी सीमाओं पर आधारित हैं । लेकिन यह देखना आसान होना चाहिये कि ये सापेक्ष और सांत धारणाएं निरपेक्ष और अनंत पर लागू नहीं होतीं ।

 

   अनंत के बारे में हमारी धारणा यह है कि वह अरूप है लेकिन जहां नजर डालते हैं हर जगह रूप ही रूप हमें घेरे हुए दीखते हैं । दिव्य पुरुष के बारे में यह प्रतिपादित किया जा सकता है और किया जाता है कि वह एक ही साथ रूप और अरूप है । यहां भी प्रतीयमान विरोध किसी वास्तविक विरोध के अनुरूप नहीं है । अरूप रूपायन की शक्ति का खंडन नहीं है बल्कि अनंत के मुक्त रूपायन की शर्त है, अन्यथा सांत विश्व में केवल एक ही रूप होता या संभव रूपों का नियत निर्धारण या कुल-योग होता । अरूपता सद्वस्तु के आध्यात्मिक सार का, अध्यात्म वस्तु का धर्म होती है । सभी सांत वास्तविकताएं उसी वस्तु की शक्तियां, रूप और आत्म-रूपायन हैं । भगवान् अरूप और अनाम हैं लेकिन इसी कारण सत्ता के सभी संभव नामों और रूपों को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं । रूप अभिव्यक्तियां हैं, न कि शून्य में से किये गये मनमाने आविष्कार, क्योंकि रेखा और रंग, राशि और रूपांकन, जो रूप के अनिवार्य अंग हैं, हमेशा अपने अंदर एक अर्थ रखते हैं और कहा जा सकता है कि वे एक अदृश्य सद्वस्तु के दिखायी देनेवाले गुप्त मूल्य और अर्थ हैं, इसी कारण आकृति, रेखा, रंग, राशि और संघटन उसे मूर्त कर सकते हैं जो अन्यथा अदृष्ट ही रह जाता, उसका बोध करा सकते हैं जो अन्यथा इन्द्रियों के लिये अगोचर रहता । रूप को अरूप का अंतर्जात शरीर, अनिवार्य आत्म-प्रकटन कहा जा सकता है और यह बात केवल बाहरी आकारों के बारे में ही नहीं बल्कि मन और प्राण के उन अदृश्य रूपायनों के बारे में भी ठीक है जिन्हें हम केवल अपने विचार द्वारा ही पकड़ सकते हैं और उन इन्द्रियग्राह्य रूपों के संबंध में भी यह सच है जिनकी अभिज्ञता केवल आंतरिक चेतना की सूक्ष्म पकड़ को ही हो सकती है । नाम, अपने गहरे अर्थ में वह शब्द नहीं है जिससे हम किसी चीज का वर्णन करते हैं बल्कि वह सद्वस्तु की शक्ति, गुण और प्रकृति का कुल-योग है जिसे वस्तुओं का रूप मूर्तिमान करता है और जिसे हम एक निर्देशक ध्वनि में, एक ज्ञेय नाम में इकट्ठा करने का प्रयत्न करते हैं । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि नाम है नामेन (या लैटिन का न्यूमेन) । न्यूमेन या देवों के गुप्त नाम उनकी शक्ति,

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गुण, प्रकृति हैं जिन्हें चेतना पकड़ सकती है और कल्पना में आने लायक बना सकती है । अनंत अनाम है लेकिन उस नामहीनता में सभी संभव नाम, देवों के 'न्यूमेन', सभी वास्तविकताओं के नाम और रूप पहले से ही देखे और कल्पित किये जा चुके हैं क्योंकि वे वहां सर्व-सत् में गुप्त और अंतर्निहित हैं ।

 

   इन विचारों से यह स्पष्ट होता है कि सांत और अनंत का सह अस्तित्व, जो वैश्व सत्ता का अपना स्वभाव ही है, वह दो विरोधों का एक सान्निध्य या पारस्परिक समावेशन नहीं है बल्कि उतना ही स्वाभाविक और अनिवार्य है जैसे प्रकाश और अग्नि के तत्त्वों का सूर्यो के साथ संबंध । सांत अनंत का सामने का पक्ष और आत्मनिर्धारण है । कोई सांत अपने-आपमें या अपने ही द्वारा अस्तित्व नहीं रख सकता । वह अनंत के द्वारा अस्तित्व रखता है, क्योंकि वह सार रूप में अनंत के साथ एक है, क्योंकि अनंत से हमारा मतलब केवल देश और काल में असीम आत्म-प्रसारण नहीं बल्कि किसी ऐसी चीज से है जो देशातीत, कालातीत है, जो स्वयंभू अनिर्वचनीय, असीम है, जो अत्यणु में भी, वृहत् में भी, काल के एक निमिष में, देश के एक बिंदु में, गुजरती हुई परिस्थिति में भी अपने-आपको व्यक्त कर सकती है । सांत को अविभाज्य के एक विभाजन के रूप में देखा जाता है लेकिन ऐसी कोई चीज है नहीं क्योंकि यह विभाजन केवल ऊपर से दिखायी देता है, एक सीमांकन तो है पर सचमुच कोई अलगाव संभव नहीं है । जब हम भौतिक आंख से नहीं, आंतरिक दृष्टि और अंतरिन्द्रिय से एक पेड़ या किसी और चीज को देखते हैं तो हम जिस चीज के बारे में अभिज्ञ होते हैं वह है एक अनंत एकमेव सद्वस्तु जिससे पेड़ या वस्तु का निर्माण हुआ है, वह उसके हर अणु-परमाणु में व्याप्त होती है, अपने अंदर से उनका निर्माण करती है, समस्त प्रकृति को बनाती है, संभवन की प्रक्रिया, भीतर निवास करनेवाली ऊर्जा की क्रिया; ये सब वह स्वयं हैं, ये सब अनंत हैं, यह सद्वस्तु है । हम उसे अविभाज्य रूप से फैलते और सभी वस्तुओं को जोड़ते हुए देखते हैं ताकि कोई भी चीज सचमुच उससे अलग न रह जाये या और चीजों से पूरी तरह अलग न हो । गीता का कहना है, ''वह सत्ताओं में अविभक्त है फिर भी मानों विभक्त हैं'' इस तरह हर एक वस्तु वह अनंत है और अन्य सब वस्तुओं के साथ तात्त्विक सत्ता में एक है जो वस्तुएं अनंत के रूप, नाम, शक्तियां और न्यूमेन हैं ।

 

   सभी विभाजनों और विभिन्नताओं में रहनेवाली, किसी तरह न दबाई जा सकनेवाली एकता ही अनंत का गणित है जिसका संकेत उपनिषद् ने यूं दिया है : ''पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदचयते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।'' यह पूर्ण है और वह पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटाने से पूर्ण बाकी रहता है । सद्वस्तु के अनंत आत्मगुणन के बारे में भी यही कहा जा सकताहै कि सभी चीजें वही आत्मगुणन हैं । वह एक बहु हो जाता है , लेकिन ये सब बहु वह तत् है जो पहले

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भी आत्म-स्वरूप था और सदा ही है और बहु होता हुआ भी वही एक रहता है । सांत के प्रकट होने से उस एक का विभाजन नहीं होता क्योंकि वह एक अनंत ही हमें बहु सांत मालूम होता है । सृष्टि अनंत में कुछ नहीं जोड़ती । वह सृष्टि के बाद भी वही रहता है जो सृष्टि से पहले था । अनंत वस्तुओं का कुलयोग नहीं है, तत् ही सब कुछ है और उससे भी अधिक । अगर अनंत का यह तर्क हमारे सांत तर्क की धारणाओं का विरोध करता है तो इसलिये कि वह उससे आगे बढ़ जाता है और अपना आधार सीमित प्रपंच की दी हुई सामग्री पर नहीं खड़ा करता बल्कि सद्वस्तु को आलिंगन में लेकर सद्वस्तु के सत्य में सभी प्रपंचों के सत्य को देखता है । वह उन्हें अलग-अलग सत्ताओं, गतियों, नामों, रूपों, वस्तुओ के रूप में नहीं देखता क्योंकि वे ऐसी नहीं हो सकतीं । वे ऐसी तभी हो सकतीं अगर वे शून्य में स्थित प्रपंच होतीं, ऐसी चीजें होतीं जिनका कोई सामान्य आधार या सारतत्त्व नहीं होता, जिनका आधार में कोई संबंध न होता, उनका संबंध केवल सह--अस्तित्व और व्यावहारिक संबंध होता, वे ऐसी वास्तविकताएं न होतीं जो अपनी एकता की जड़ के आधार पर जीती हैं । जहांतक उन्हें स्वतंत्र समझा जा सकता है, अपनी बाहरी या भीतरी आकृति और गति की उस स्वतंत्रता में अपने जनक अनंत पर सतत आश्रित रहने के कारण ही, उस एकमेव अभिन्न के साथ अपने गुप्त तादात्म्य के कारण ही वे सुरक्षित रहती हैं । वह अभिन्न उनका मूल, उनके रूप का कारण, उनकी विभिन्न शक्तियों की मात्र एक शक्ति और उनका उपादान द्रव्य है ।

 

   वह अभिन्न हमारे विचारों के अनुसार अक्षर है । वह शाश्वत काल से सदा एकरूप रहता है क्योंकि अगर वह परिवर्तन के आधीन हो या हो जाये या भेदों को स्वीकार कर ले तो वह अभिन्न न रहेगा; लेकिन हम चारों ओर जो देखते हैं वह है अनंत प्रकार से परिवर्तनशील मूलभूत एकत्व । ऐसा लगता है कि यही प्रकृति का मूल तत्त्व है । आधारभूत शक्ति एक है लेकिन वह अपने अंदर से असंख्य शक्तियां अभिव्यक्त करती है, आधारभूत द्रव्य एक है लेकिन वह बहुत से अलग-अलग द्रव्य और लाखों, करोड़ों असदृश पदार्थों को विकसित करता है । मन एक है परंतु बहुत-सी मानसिक अवस्थाओं मे, मानसिक रचनाओं, विचारों और दृष्टियों में अपने-आपको अलग-अलग कर लेता है जो एक-दूसरे से अलग होते, सामंजस्य या संघर्ष करते रहते हैं । प्राण एक है पंरतु प्राण के रूप असदृश और अनगिनत हैं । स्वभाव में मानवजाति एक है लेकिन उसमें बहुत-से जाति-प्ररूप हैं, हर व्यष्टिरूप मनुष्य अपने-आपमें अलग है और किसी-न-किसी तरह औरों से असदृश है । प्रकृति एक ही पेड़ की पत्तियों पर भिन्नता की लकीर आंकने का आग्रह करती है । वह इन भेदों को इतनी दूरतक ले गयी है कि यह पाया गया है कि एक आदमी के अंगूठे की लकीरें हर दूसरे आदमी के अंगूठे की लकीरों से भिन्न होती हैं । इस कारण वह उस भेद के कारण ही पहचाना जा सकता है -फिर

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भी आधारभूत रूप में सब आदमी एक-से हैं, उनमें कोई मूलभूत भिन्नता नहीं है । एकता या समानता सब जगह है । अंदर निवास करनेवाली सद्वस्तु ने विश्व की रचना एक बीज के लाखों भिन्न प्रकार के विकास के सिद्धांत के आधार पर की है । लेकिन फिर यह भी अनंत का तर्क है : चूंकि सद्वस्तु का सार तत्त्व अक्षर रूप से वह का वही है इसलिये वह सुरक्षित रूप से रूप, लक्षण और गति के अनगिनत भेदों को अपना सकता है, यहांतक कि अगर वे अरबों गुणा भी बढ़ जायें तो भी उससे उनके नीचे स्थित शाश्वत 'अभिन्न' की अक्षरता में कोई फर्क न पड़ेगा क्योंकि आत्मा और आध्यात्म सत्ता सब जगह वस्तुओं और सत्ताओं में एक ही है इसलिये प्रकृति अनंत विभेदों की यह विलासिता कर सकती है । अगर यह सुरक्षित आधार न होता जिसके कारण सब कुछ बदलते हुए कुछ भी नहीं बदलता तो इस लीला में प्रकृति की सभी क्रियाएं और सृजन छिन्न-भिन्न होकर अस्त- व्यस्तता में ढह जाते । ऐसी कोई चीज न रहती जो उसकी विसंगत गतियों और रचनाओं को इकट्ठा रख सकती । अभिन्न की अक्षरता विचित्रता में असमर्थ अपरिवर्तनशील एकरूपता की एकस्वरता में नहीं बल्कि सत्ता की ऐसी अपरिवर्तनशीलता में है जो सत्ता के अनंत रूपायनों में समर्थ है लेकिन कोई भी विभेद जिसे नष्ट या विकल नहीं कर सकता, उसमें ह्रास नहीं ला सकता । आत्मा ही कीट-पतंग, पक्षी, पशु और मनुष्य बन जाती है लेकिन इन सब परिवर्तनों में आत्मा वह की वही रहती है क्योंकि यह वही एक है जो हमेशा अपने-आपको अनंत रूप से अंतहीन विभिन्नता में व्यक्त करता है । हमारी सतही बुद्धि यह मानने को प्रवृत्त होती है कि विभिन्नता अवास्तविक है, केवल एक आभास है, लेकिन अगर हम जरा गहराई में, देखें तो हमें पता चलेगा कि वास्तविक विभिन्नता ही वास्तविक ऐक्य को बाहर लाती है, उसे मानों अपनी अधिकतम क्षमता में दिखलाती है, वह जो कुछ हो सकती है और अपने-आपमें है उसे प्रकट करती है, उसके रंग की सफेदी में जो अनेक रंग-छटाएं घुली-मिली हैं उन्हें मुक्त करती है, एकत्व अपने-आपको उसमें अनंत रूप से पाता है जो हमें उसका एकत्व से से जा गिरना लगता है परंतु यह वास्तव में ऐक्य का अक्षय विभिन्नता-प्रदर्शन है । यह विश्व का चमत्कार, उसकी माया है फिर भी अनंत की आत्म-दृष्टि और आत्मानुभूति के लिये पूरी तरह तर्क संगत और स्वाभाविक रूप से सामान्य है ।

 

   क्योंकि ब्रह्म की माया एक ही साथ अनंत रूप से परिवर्तनशील ऐक्य का जादू और उसका तर्कविधान है । वस्तुत: अगर सीमित एकत्व और एकसमानता की केवल एक कठोर एकस्वरता ही होती तो बौद्धिक युक्ति और तर्क के लिये कोई जगह न रहती क्योंकि तर्क का काम हैं संबंधों को ठीक-ठीक रूप में देखना; बौद्धिक युक्ति का उच्चतम कार्य है उस एक उपादान, एक नियम, उस जोड़नेवाली गुप्त वास्तविकता का पता लगाना जो बहु विभिन्न, विसंवादी और विषम को

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मिलाती और एक करती है । समस्त विश्व- सत्ता इन्हीं दो छोरों के बीच घूमती है -एक का विविध रूप लेना और बहु तथा विविध का एक होना, और ऐसा अवश्य ही इस कारण होता है क्योंकि एक और बहु अनंत के आधारभूत पक्ष हैं । क्योंकि दिव्य आत्म-ज्ञान और सर्वज्ञान अपनी अभिव्यक्ति में जो कुछ प्रकट करता है वह उसकी सत्ता का सत्य ही होगा और उस सत्य का खेल ही उसकी लीला है

 

   तो यही ब्रह्म की वैश्व सत्ता की रीति का न्याय है और यही माया की अनंत प्रज्ञा, अनंत बुद्धि की आधारभूत क्रिया है । जैसा ब्रह्म की सत्ता के साथ है वैसा ही उसकी चेतना, माया के साथ भी है । वह अपने किसी सांत प्रतिबंध या किसी एक स्थिति से या अपने किसी क्रिया-विधान से बंधी नहीं है । वह एक ही साथ बहुत-सी चीजें हो सकती है, उसकी बहुत-सी समन्वित क्रियाएं हो सकती हैं जो सांत बुद्धि को परस्पर विरोधी लगें, वह है तो एक पर है अनगिनत रूप से बहुविध, अनंत रूप से नमनशील, अक्षयरूप से अनुकूलनशील । माया शाश्वत और अनंत की परम और वैश्व चेतना और शक्ति है । अपने स्वभाव से ही निर्बंध और असीम होने के नाते वह एक ही समय चेतना के बहुत-से स्तर, शक्ति के बहुत-से विन्यास प्रकट कर सकती है और यह करते हुए भी सदा वही चित्-शक्ति बनी रहती है । वह एक साथ ही परात्पर, वैश्व और व्यष्टि है । वह परम अति वैश्व सत्ता है जो अपने बारे में सर्व-सत्ता के रूप में, वैश्व आत्मा के रूप में, वैश्व प्रकृति की चित्-शक्ति के रूप में अभिज्ञ है और साथ ही सभी सत्ताओं में अपने-आपको व्यष्टिगत सत्ता और चेतना के रूप में भी अनुभव करती हैं । व्यष्टिगत चेतना अपने-आपको सीमित और पृथक् रूप में देख सकती है लेकिन अपनी सीमाओं को अलग करके अपने-आपको वैश्व और विश्व से भी परात्पर रूप में देख सकती है । यह इसलिये कि इन सभी अवस्थाओं और स्थितियों में या इनके नीचे वही त्रिक चेतना त्रिविध अवस्था में रहती है । अतः इस एक को अपने-आपको तीन रूपों में देखने या अनुभव करने में कोई कठिनाई नहीं होती फिर चाहे वह ऊपर से परात्पर सत्ता में देखें या बीच में से वैश्व आत्मा में या नीचे से चेतन व्यष्टि-सत्ता में, इस सबको स्वाभाविक तर्कसंगत रूप में स्वीकार करने के लिये यह मानना जरूरी है कि एकमेव सत्ता की चेतना के भिन्न-भिन्न वास्तविक स्तर हो सकते हैं और वैसा होना उस सत् के लिये असंभव नहीं है जो मुक्त और अनंत है और जिसे किसी एक अवस्था के साथ बाधा नहीं जा सकता । जो चेतना अनंत है उसके लिये अपने अनंत विभेद करने की शक्ति स्वाभाविक होगी । अगर चेतना की बहुविध स्थिति की संभावना को स्वीकार कर लिया जाये तो स्थिति की विभिन्नताओं पर कोई सीमा नहीं लगायी जा सकती बशर्ते कि वह एक उन सबमें एक साथ अपने बारे में अभिज्ञ हो क्योंकि उस एक और अनंत को इस तरह वैश्व रूप में सचेतन होना

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चाहिये । हमारी जैसी सीमित या निर्मित चेतना की अवस्था और अज्ञान की अवस्था के साथ अनंत आत्मज्ञान और सर्व-ज्ञान के संबंध को समझना ही एकमात्र कठिनाई है जिसे और अधिक सोच-विचार से हल किया जा सकता है ।

 

   अनंत चेतना की जिस दूसरी संभावना को मानना होगा वह है उसकी अपने-आपको सीमित करने की शक्ति या समग्र असीम चेतना और ज्ञान के अंदर एक गौण गति में आनुषंगिक आत्म-रूप बनाने की शक्ति क्योंकि यह अनंत की आत्म-निर्देशन की शक्ति का एक आवश्यक परिणाम है । आत्म-सत्ता के हर एक आत्म-निर्देशन में अपने आत्म-सत्य और आत्म-प्रकृति की अभिज्ञता होनी चाहिये या अगर हम यूं कहना ज्यादा पसंद करें तो उस निर्देशन में सत् को इस तरह से आत्म-अभिज्ञ होना चाहिये । आध्यात्मिक व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि हर व्यष्टिगत जीव या आत्मा आत्म-दर्शन और सर्व-दर्शन का केन्द्र हो और इस अंतर्दर्शन की परिधि-असीम परिधि, जैसा कि हम कह सकते हैं -सभी के लिये एक ही हो सकती है परंतु केन्द्र भिन्न हो सकते हैं -किसी स्थानिक वृत्त के अंदर स्थानिक बिंदु के रूप में स्थित केन्द्र की तरह नहीं बल्कि अंतश्चेतना के एक केन्द्र की तरह जो विश्व सत्ता में विविध रूपों में सचेतन रहनेवाले बहु के सह अस्तित्व द्वारा औरों के साथ संबंध रखेगा । किसी लोक में हर सत्ता उसी लोक को देखेगी परंतु देखेगी अपनी आत्म-सत्ता से और अपनी ही आत्म-प्रकृति के तरीके से क्योंकि हर एक अनंत का अपना सत्य अभिव्यक्त करेगी, उसका अपना आत्म-निर्देशन का तरीका होगा और वैश्व निर्देशन से मिलने का भी अपना तरीका होगा । निःसंदेह विभिन्नता में एकता के नियम के अनुसार उसकी दृष्टि मूल रूप से वही होगी जो औरों की होगी लेकिन फिर भी वह अपना ही विभेदन विकसित करेगी -जैसा कि हम देखते हैं कि सभी मानव सत्ताएं समान वैश्व वस्तुओं के बारे में एक ही मानव ढंग से सचेतन होती हैं लेकिन हमेशा व्यष्टिगत भेद के साथ । यह आत्म-सीमांकन आधारभूत नहीं होगा बल्कि सर्वसामान्य विश्वात्मकता या समग्रता का व्यष्टिगत विशिष्टीकरण होगा । आध्यात्मिक व्यक्ति एक सत्य के अपने केन्द्र से और अपनी आत्म-प्रकृति के अनुसार काम करेगा लेकिन एक सामान्य आधार पर अन्य आत्मा या अन्य प्रकृति की ओर से अंधा हुए बिना । वह ऐसी चेतना होगी जो पूर्ण ज्ञान के साथ अपनी क्रिया को सीमित करती है, कोई अज्ञान की क्रिया नहीं । लेकिन व्यष्टि भाव देनेवाले इस आत्म-सीमांकन के सिवा अनंत की चेतना में एक वैश्व सीमांकन की शक्ति भी होनी चाहिये, उसे इस योग्य होना चाहिये कि वह अपनी क्रिया को इस तरह सीमित कर सके कि किसी प्रदत्त जगत् या विश्व को अपनी व्यवस्था, सामंजस्य और आत्म-निर्माण पर आधारित और अपनी देख-रेख में रख सके क्योंकि किसी विश्व का सृजन यह जरूरी बना देता है कि अनंत चेतन में यह दृढ़ निश्चय हो कि वह उस जगत् की अध्यक्षता करे और ऐसी सब चीजों को रोके

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रखे जिनकी उस गति में जरूरत नहीं है । इसी भांति मन, प्राण या जड़ तत्त्व जैसी किसी शक्ति की स्वतंत्र क्रिया को सामने लाने के लिये अपने समर्थन के तौर पर उसी प्रकार के आत्म-सीमांकन के तत्त्व का होना जरूरी है । यह नहीं कहा जा सकता कि अनंत के लिये इस प्रकार की गति असंभव है क्योंकि वह असीम है, इसके विपरीत यह उसकी अनेक शक्तियों में से एक होनी चाहिये क्योंकि उसकी शक्तियों की भी कोई सीमा नहीं, लेकिन अन्य आत्म-निर्धारणों, अन्य सांत रचनाओं की तरह अलगाव या वास्तविक विभाजन न होगा क्योंकि समस्त अनंत चेतना उसके चारों ओर और पीछे उसे अवलम्ब देती रहेगी और वह विशेष गति भी अंदर से केवल अपने बारे में ही नहीं बल्कि तत्त्वतः उस सबके बारे में भी जो उसके पीछे है, सचेतन होगी । अनंत की समग्र चेतना में अनिवार्य रूप से ऐसा ही होगा लेकिन हम यह भी मान सकते हैं कि इस तरह की सक्रिय नहीं बल्कि अपने- आपको सीमांकित करती हुई परंतु अविभाज्य आंतरिक अभिज्ञता सांत की गति की समग्र आत्म-चेतना में भी होगी । स्पष्टतः अनंत के लिये इतना वैश्व या व्यष्टिगत सचेतन आत्म-सीमांकन संभव होगा और उसे विशालतर बुद्धि आध्यात्मिक संभावनाओं में से एक के रूप में स्वीकार कर सकती है, लेकिन इस आधार पर अभीतक कोई विभाजन या अज्ञान-भरा अलगाव या बाधित करने या अंधा कर देनेवाला सीमांकन, जैसा कि हमारी चेतना में दिखायी देता है, अनुत्तरदायित्वपूर्ण होगा ।

 

   लेकिन अनंत चेतना की एक तीसरी शक्ति या संभावना को स्वीकार किया जा सकता है, वह है आत्मलीनता की, स्वयं अपने अंदर डुबकी लगाने की शक्ति, एक ऐसी स्थिति में डुबकी लगाने की जहां आत्म-अभिज्ञता तो होती है लेकिन ज्ञान या सर्वज्ञान के रूप में नहीं । तब सर्वशुद्ध आत्म-अभिज्ञता में अंतर्लीन होगा और ज्ञान और स्वयं आंतरिक शुद्ध सत् में खोये हुए रहेंगे । यह प्रकाशमय रूप में, वह अवस्था है जिसे हम संपूर्ण भाव में अतिचेतन कहते हैं -हालांकि जिसे हम अतिचेतन कहते हैं उसका अधिकतर भाग सचमुच यह नहीं है । बल्कि वह केवल एक उच्चतर चेतना है, कोई ऐसी चीज है जो आत्म-सचेतन है और केवल हमारी सीमित अभिज्ञता के स्तर के लिये ही अतिचेतन है । फिर अनंत की यह आत्म-तल्लीनता, यह समाधि, प्रकाशमय रूप में ही नहीं, अंधकारमय रूप में भी है, यह वह अवस्था है जिसे हम निश्चेतना कहते हैं क्योंकि अनंत की सत्ता वहां विद्यमान है लेकिन अपने निश्चेतना के आभास के कारण वह हमें अनंत असत् मालूम होती है । उस प्रतीयमान असत् में अपने-आपको भूली हुई आंतरिक चेतना और शक्ति रहती है क्योंकि निश्चेतना की ऊर्जा द्वारा एक व्यवस्थित जगत् की सृष्टि होती है । उसका सृजन आत्म-विस्मृति की समाधि में होता है । शक्ति यांत्रिक रूप से अंधेपन का आभास देती हुई, मानों समाधि में कार्य करती है फिर भी अनंत के सत्य की

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अनिवार्यता और शक्ति के साथ । अगर हम एक कदम आगे लें और यह मान लें कि अनंत के लिये विशेष या सीमित और एकांगी आत्म-तल्लीनता की क्रिया संभव है, ऐसी क्रिया जो हमेशा अपने अंदर असीम रूप से केन्द्रित अनंतता की क्रिया नहीं होती बल्कि किसी स्थिति विशेष या किसी वैयक्तिक या वैश्व आत्म-निर्देशन में सीमित रहती है, तो हमें उस संकेन्द्रित अवस्था या स्थिति की व्याख्या मिल जाती है जिसके द्वारा वह पृथक् रूप से अपनी सत्ता के एक पक्ष के बारे में अभिज्ञ होता है । तब एक आधारभूत दोहरी स्थिति हो सकती है, उस अवस्था जैसी जहां निर्गुण सगुण के पीछे खड़ा रहता और अपनी निजी शुद्धि और अचंचलता में लीन रहता है जब कि बाकी सबको पर्दे के पीछे रोके रखा जाता है और उसे इस स्थिति विशेष में आने नहीं दिया जाता । उसी तरह हम चेतना की उस स्थिति की व्याख्या कर सकते हैं जो सत्ता के एक क्षेत्र या उसकी एक गति के बारे में अभिज्ञ होती है जब कि बाकी सब की अभिज्ञता पीछे रोक दी जाती है या पर्दे के पीछे रहती है या फिर मानों क्रियात्मक एकाग्रता की जाग्रत् समाधि द्वारा केवल अपने निजी क्षेत्र या गति में व्यस्त रहनेवाली विशेष या सीमित अभिज्ञता से कट जाती है । अनंत चेतना की समग्रता बनी रहेगी, विलीन न होगी, फिर से प्राप्त की जा सकेगी लेकिन वह प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं होगी । वह अपनी प्रकट समर्थता और उपस्थिति द्वारा नहीं बल्कि केवल परोक्ष रूप में, अन्तर्हित रहती हुई या सीमित अभिज्ञता को यंत्र बनाकर सक्रिय होगी । यह स्पष्ट है कि इन तीनों शक्तियों को अनंत चेतना की क्रियाशीलता के लिये संभव माना जा सकता है और वे जिन बहुत-से तरीकों से काम कर सकती हैं उनपर विचार करके हम माया के कार्यों का संधान-सूत्र पा सकते हैं ।

 

   यह हमारे मनों के द्वारा रचे गये शुद्ध चेतना, शुद्ध सत् और शुद्ध आनंद और विश्व में होनेवाली सत्, चित् और आनंद की प्रचुर क्रियाशीलता, बहुविध प्रयोग और उतार-चढ़ाव के विरोध पर आनुषंगिक रूप से प्रकाश डालता है । शुद्ध चेतना और शुद्ध सत्ता की स्थिति में हमें केवल उसीकी अभिज्ञता होती है जो सरल, अक्षर, स्वयंभू निराकार या विषयहीन हो और हम बस उसे ही सच्चा और वास्तविक अनुभव करते हैं । दूसरी या क्रियात्मक स्थिति में हम उसकी क्रियात्मकता को पूरी तरह सच्चा और स्वाभाविक मानते हैं और यह भी सोच सकते हैं कि शुद्ध चेतना के जैसा कोई अनुभव संभव ही नहीं है । फिर भी अब यह स्पष्ट है कि अनंत चेतना के लिये निष्क्रिय और सक्रिय दोनों स्थितियां संभव हैं । ये दोनों उसकी स्थितियां हैं और वैश्व अभिज्ञता में एक साथ रह सकतीं हैं, एक दूसरी को देखती और उसको सहारा देती हो या उसे न देखते हुए भी अपने-आप यांत्रिक रूप में उसकी सहायता करती हो; या नीरवता और स्थिति क्रियाशीलता को भेदती हो या जैसे तली में निश्चल समुद्र अपनी सतह पर लहरों की क्रियाशीलता को फेंकता है

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उसी तरह क्रियाशीलता को उछालती हो । यह भी एक कारण है जिससे हमारे लिये यह संभव होता है कि हम अपनी सत्ता की अमुक अवस्थाओं में एक ही समय में चेतना की अनेक अवस्थाओं के बारे में अभिज्ञ हो सकें । योग में सत्ता की एक ऐसी स्थिति का अनुभव होता है जिसमें हम दोहरी चेतना बन जाते हैं, एक सतह पर, छोटी, सक्रिय, अज्ञानभरी, विचारों और भावनाओं से, दुःख-सुख और सब तरह की प्रतिक्रियाओं से इधर-उधर डोलनेवाली और दूसरी भीतर, स्थिर, बृहत् सम है, सतही सत्ता को अविचल अनासक्ति या अनुग्रह के साथ देखती है या हो सकता है उसे शांत, विस्तृत और रूपांतरित करने के लिये उसके आंदोलन पर क्रिया करती है । इसी भांति हम एक उच्चतर चेतनातक ऊपर उठ सकते हैं और अपनी सत्ता के विभिन्न भागों का अवलोकन कर सकते हैं, भीतरी, बाहरी, मानसिक, प्राणिक, भौतिक और सबके नीचे अवचेतन का, और उस उच्चतर स्थिति से इनमें से एक या दूसरे पर या सब पर क्रिया कर सकते हैं । यह भी संभव है कि हम उस ऊंचाई से या किसी भी ऊंचाई से इनमें से किसी निचली स्थिति में चले जायें और उसके सीमित प्रकाश या उसके धुंधलेपन को अपने कार्य का स्थान बना लें जब कि हमारा जो कुछ अवशिष्ट है उसे या तो अस्थायी तौरपर एक ओर कर दें या पीछे डाल दें या उसे एक संदर्भ-क्षेत्र के रूप में रखें जिससे हम अवलम्ब, स्वीकृति, प्रकाश या प्रभाव पा सकें या एक ऐसी स्थिति के रूप में जिसमें हम ऊपर चढ़ सकते या पीछे हट सकते हैं और वहां से निचली गतिविधियों का अवलोकन कर सकते हैं । या फिर हम समाधि में डुबकी लगा कर अपने अंदर जा सकते हैं और वहां सचेतन रह सकते हैं जब कि हमारी और सब बाहरी चीजें अलग रहेंगी या हम इस आंतरिक अभिज्ञता के भी परे जाकर अपने-आपको किसी ज्यादा गहरी दूसरी चेतना या किसी उच्च अतिचेतना में खो सकते हैं । एक व्यापक सम चेतना भी है जिसमें हम प्रवेश कर सकते हैं और एक आवृत्त करनेवाली दृष्टि से ही या एक और अविभाज्य सर्वव्यापक अभिज्ञता से अपने-आपको पूरी तरह देख सकते हैं । यह सब जो हमारी सतही बुद्धि को, जो केवल हमारी सीमित अज्ञान की सामान्य स्थिति और हमारी भीतरी, उच्चतर समग्र सद्वस्तु से कटी हुई गतिविधियों से ही परिचित है, अजीब, बेतुका लगता है या ऊटपटांग मालूम हो सकता है, वही अनंत की विशालतर बुद्धि और न्याय के प्रकाश में या आत्मा की, हमारे अंदर जो अध्यात्म पुरुष है जो तत्त्वतः अनंत के साथ एक है, उसकी महत्तर असीम शक्तियों के प्रवेश के कारण आसानी से समझ में आ जाता और स्वीकार करने योग्य हो जाता है ।

 

   ब्रह्म या सद्वस्तु है स्वयंभू निरपेक्ष और माया है इस स्वयंभू की चेतना और शक्ति । लेकिन विश्व के संबंध में ब्रह्म समस्त अस्तित्वों की आत्मा, वैश्व आत्मा ही नहीं बल्कि परम आत्मा के रूप में भी प्रकट होता है जो अपने विश्व-रुप से भी परे

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और साथ-ही-साथ हर सत्ता में व्यष्टि-विश्वरूप भी है । तब माया को आत्मा की आत्मशक्ति के रूप में देखा जा सकता है । यह सच है कि जब हम पहले-पहल इस पक्ष से परिचित होते हैं तो यह सामान्यत: समस्त सत्ता की नीरवता या कम-से-कम ऐसी नीरवता में होता है जो ऊपरी कर्म से हाथ खींच लेती या पीछे हट जाती है । तब इस आत्मा का नीरवता में एक स्थिति के रूप में अनुभव होता है, निश्चल, अक्षर सत्ता, स्वयंभू समस्त विश्व में व्यापक, सर्व व्यापक लेकिन क्रियाशील या सक्रिय नहीं, माया की सदा सक्रिय रहनेवाली ऊर्जा से अलग-थलग । इसी तरह हम पुरुष रूप में उससे अभिज्ञ हो सकते हैं जो प्रकृति से अलग सचेतन सत्ता है और प्रकृति के क्रिया-कलाप से दूर खड़ा रहता है । लेकिन यह एक ऐकांतिक घनता है जो अपने-आपको एक आध्यात्मिक स्थितितक ही सीमित रखती है और स्वयंभू सद्वस्तु ब्रह्म की स्वाधीनता को अपनी ही क्रिया और अभिव्यक्ति के सीमांकन द्वारा चरितार्थ करने के लिये अपनी समस्त क्रियाशीलता को उससे परे कर देती है । यह एक अनिवार्य अनुभूति है परंतु समग्र अनुभूति नहीं । क्योंकि हम देख सकते हैं कि चित्-शक्ति, वह शक्ति जो क्रिया और सृजन करती है, वह माया या ब्रह्म के सर्वज्ञान से भिन्न नहीं है । यह आत्मा की शक्ति है, प्रकृति पुरुष की क्रिया है, सचेतन सत्ता अपनी ही प्रकृति से सक्रिय है । इसलिये अंतरात्मा और जगत्-ऊर्जा का द्वैत, नीरव आत्मा और आत्मा की सृजन-शक्ति सचमुच द्वैत और अलग-अलग न होकर द्वयेक है । जैसे हम अग्नि और अग्नि की शक्ति को अलग नहीं कर सकते, उसी तरह कहा गया है कि हम दिव्य सद्वस्तु और उसकी चित्-शक्ति को अलग नहीं कर सकते । आत्मा का यह पहला अनुभव जिसमें वह घन नीरव और शुद्ध स्थाणु मालूम होती है पूर्ण सत्य नहीं है, आत्मा की अनुभूति उसके शक्ति-रूप में, विश्व-क्रिया और विश्व-सत्ता के निमित्त के रूप में भी हो सकती है । फिर भी आत्मा ब्रह्म का एक मौलिक पक्ष है जिसमें उसके निर्वैयक्तित्व पर जस जोर होता है इसलिये आत्मा की शक्ति एक ऐसी शक्ति का आभास देती है जो यंत्रवत् काम करती है और आत्मा उसे सहारा देती है, वह उसकी क्रियाओं की साक्षी, अवलम्ब, प्रवर्तक और भोक्ता होती है परंतु एक क्षण के लिये भी उसमें अंतर्लीन नहीं होती । जैसे ही हम आत्मा के बारे में अभिज्ञ होते हैं, हम उसके शाश्वत, अजन्मे, अशरीरी रूप के बारे में सचेतन होते हैं जो अपनी क्रियाओं में फंसा नहीं होता । उसे सत्ता के रूप के अंदर अनुभव किया जा सकता है परंतु ऐसे भी अनुभव किया जा सकता है जैसे वह उसे लपेटे हुए हो, उसके ऊपर हो, ऊपर से अपने मूर्त्त विग्रह का सर्वेक्षण कर रहा हो, ''अध्यक्ष'' । वह सर्वव्यापक है, हर चीज में समान है और हमेशा के लिये अनंत, शुद्ध और अमूर्त है । इस आत्मा का अनुभव व्यष्टि की आत्मा, विचारक, कर्ता, भोक्ता की आत्मा के रूप में किया जा सकता है लेकिन इस तरह भी उसमें यह महत्तर स्वभाव

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विद्यमान रहता है । उसकी वैयक्तिकता साथ-ही-साथ विशाल विश्वात्मकता भी होती है या आसानी से उसमें प्रवेश कर सकती है और उससे अगला कदम है शुद्ध परात्परता या पूर्णतया अनिर्वचनीय रूप से निरपेक्ष में प्रवेश । आत्मा ब्रह्म का वह पक्ष है जिसमें अंतरंग रूप से ऐसा अनुभव होता है जैसे वह एक ही साथ व्यष्टिगत, विश्वगत और विश्व से परात्पर हो । आत्मा की उपलब्धि व्यष्टिगत मुक्ति, निष्क्रिय विश्वात्मकता, और प्रकृति से परात्परता पाने के लिये सीधा और तेज रास्ता है । उसके साथ ही आत्मा की एक और उपलब्धि होती है जिसमें यह लगता है कि वह केवल सब चीजों को सहारा ही नहीं दे रही, सबमें व्यापक और सबको लपेटे हुए ही नहीं है बल्कि हर चीज का उपादान है और प्रकृति में अपनी सभी संभूतियों के साथ एक स्वतंत्र तादात्म्य में एकात्म है । फिर भी स्वाधीनता और निर्वैयक्तिकता हमेशा आत्मा का नित्य स्वभाव होती हैं । जैसे पुरुष प्रकृति के आधीन मालूम होता है वैसे आत्मा विश्व में अपनी ही शक्ति की क्रियाओं के आधीन नहीं मालूम होती । आत्मा की उपलब्धि का अर्थ है आत्मा की शाश्वत स्वाधीनता की उपलब्धि ।

 

   सचेतन सत्ता यानी पुरुष आत्मा है, इस रूप में वह प्रकृति के रूपों और कर्मों का प्रवर्तक, साक्षी, अवलम्ब, स्वामी और भोक्ता है । जैसे आत्मा का स्वरूप अपने मूल स्वभाव में व्यष्टिगत और वैश्व संभूतियों में अंतर्लीन और एकात्म होने के बावजूद परात्पर रहता है इसी तरह पुरुष स्वरूप भी स्वभावत: वैश्व-व्यष्टिगत है और प्रकृति से अलग होते हुए भी उसके साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध होता है । क्योंकि यह सचेतन आत्मा अपनी निर्वैयक्तिकता और शाश्वतता को, अपने वैश्व भाव को बनाये रखते हुए भी एक ज्यादा व्यष्टिगत रूप धारण करता है । वह प्रकृति के अंदर की निर्व्यक्तिक-सव्यक्तिक सत्ता है, वह प्रकृति से पूरी तरह अलग नहीं है क्योंकि वह प्रकृति के साथ सदा जूड़ी रहती है । प्रकृति पुरुष के लिये और उसकी अनुमति से, उसकी इच्छा और प्रसन्नता के लिये कार्य करती है । सचेतन पुरुष, जिस ऊर्जा को हम प्रकृति कहते हैं, उसे अपनी चेतना प्रदान करता है और उस चेतना में उसकी क्रियाओं को दर्पण की तरह स्वीकार करता है, उन रूपों को स्वीकार करता है जिन्हें वह कार्यकारी वैश्व शक्ति प्रकृति बनाती है और उसपर आरोपित करती है, उसकी गतिविधि को अपनी अनुमति देता या वापिस ले लेता है । पुरुष-प्रकृति के अनुभव का, प्रकृति के साथ अध्यात्म या चिन्मय पुरुष के संबंधों के अनुभव का बहुत अधिक व्यावहारिक महत्त्व है । क्योंकि शरीरस्थ सत्ता में चेतना की संपूर्ण लीला इन्हीं संबंधों पर निर्भर होती है । अगर हमारा अंतस्थ

 

    सांख्य दर्शन इस व्यष्टिगत पक्ष पर जोर देता हैं । वह पुरुष को अनेक, बहु बताता है और प्रकृति को विश्वात्मकता प्रदान करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक पुरुष की स्वतंत्र सत्ता होती है यद्यपि सभी पुरुष एक ही सर्वसामान्य विश्वव्यापी प्रकृति का अनुभव करते हैं ।

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पुरुष निष्क्रिय है और प्रकृति को कार्य करने देता है, वह उसपर जो कुछ आरोपित कर दे उसे स्वीकार करता है, सदा-सर्वदा अपने-आप स्वीकृति देता रहता है तो हमारे मन, प्राण और शरीर में अंतरात्मा अर्थात् मनोमय, प्राणमय, अन्नमय पुरुष हमारी प्रकृति के आधीन हो जाते हैं, उसके रूपायनों से शासित होते, उसकी क्रियाशीलताओं से संचालित होते हैं । हमारे अज्ञान में यहीं सामान्य अवस्था है । अगर हमारे अंदर पुरुष अपने बारे में साक्षी के रूप में अभिज्ञ हो जाता और प्रकृति से पीछे हटकर खड़ा रहता है तो यह अंतरात्मा की स्वाधीनता की दिशा में पहला कदम है, क्योंकि वह अनासक्त हो जाती है और तब प्रकृति और उसकी प्रक्रियाओं को जानना संभव हो जाता है और चूंकि हम उसके कार्यों में अंतर्लीन नहीं रहते इसलिये उन्हें पूरी स्वाधीनता के साथ स्वीकार करना या न करना संभव होता है, स्वीकृति को यंत्रवत् न रख कर मुक्त और प्रभावकारी बनाना संभव होता है । तब हम यह चुनाव कर सकते हैं कि वह हमारे अंदर क्या करेगी और क्या न करेगी या हम उसके कामों से पूरी तरह पीछे हटकर खड़े रह सकते हैं और आत्मा की आध्यात्मिक नीरवता में अपने-आपको आसानी से खींच सकते हैं या हम उसके वर्तमान रूपायनों को रद्द करके अस्तित्व के आध्यात्मिक स्तरतक उठ सकते हैं और वहां से अपने जीवन को फिर से गढ़ सकते हैं । पुरुष प्रजा या अनीश होना बंद करके प्रकृति का ईश्वर बन सकता है ।

 

   सांख्य दर्शन में हम पुरुष-प्रकृति के तात्त्विक विचार को पूरी तरह से विकसित रूप में पाते हैं । ये दोनों शाश्वत रूप से अलग-अलग सत्ताएं हैं लेकिन दोनों का एक-दूसरे के साथ संबंध है । प्रकृति, प्रकृति-शक्ति, एक कार्यकारिणी शक्ति है । वह चेतना से अलग ऊर्जा है क्योंकि चेतना पुरुष की चीज है, पुरुष के बिना प्रकृति जड़, यांत्रिक और निश्चेतन है । प्रकृति अपनी रूपात्मा और क्रिया के आधार के रूप में आदि जड़-तत्त्व को विकसित करती है और उसमें प्राण और संवेदन और मन और बुद्धि को अभिव्यक्त करती है । लेकिन बुद्धि भी, चूंकि वह प्रकृति का अंग और आदि जड़-तत्त्व में उसका उत्पादन है इसलिये जड़, यांत्रिक और निश्चेतन है । यह एक ऐसी धारणा है जो भौतिक विश्व में निश्चेतन की सुव्यवस्थित और पूरी तरह संबद्ध क्रियाओं पर कुछ प्रकाश डालती है । संवेदनशील मन और बुद्धि को अंतरात्मा का, अध्यात्म सत्ता का प्रकाश दिया जाता है, वे उसकी चेतना से सचेतन होते हैं, वैसे ही जैसे वे आत्मा की स्वीकृति से सक्रिय बनते हैं । पुरुष प्रकृति से पीछे हटकर स्वतंत्र होता है, वह जड़-तत्त्व में फंसने से इंकार करके उसका स्वामी बन जाता है । प्रकृति अपने उपादान और कर्म के तीन तत्त्वों, गुणों या रीतियों द्वारा क्रिया करती है जो हमारे अंदर हमारे मन और शरीर के उपादान और उसकी क्रियाओं की मूलभूत रीतियां बन जाते हैं, तामसिकता या जड़ता का तत्त्व, क्रियात्मकता का तत्त्व और संतुलन, प्रकाश और सामंजस्य का तत्त्व । जब

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इनकी गति विषम होती है तो उसकी क्रिया होती है, जब वे संतुलन में आ जायें तो वह निश्चलता में चली जाती है । पुरुष, सचेतन सत्ता एक या अद्वय नहीं बहु है जब कि प्रकृति एक है । इससे ऐसा मालूम होता है कि हम जीवन में एकत्व के जिस किसी सिद्धांत को पाते हैं वह प्रकृति का होता है लेकिन हर अंतरात्मा स्वतंत्र और अनोखी है, अपने-आपमें एकमात्र और पृथक् है चाहे प्रकृति का भोग करने में हों या प्रकृति से मुक्ति पाने में । जब हम व्यष्टिगत अंतरात्मा और वैश्व प्रकृति के साथ सीधे आंतरिक संपर्क में आते हैं तो हमें सांख्य की ये सभी स्थापनाएं अनुभव में वैध मालूम होती हैं परंतु ये व्यावहारिक सत्य हैं लेकिन हम उन्हें आत्मा या प्रकृति का पूरे तौर पर या आधारभूत सत्य मानने के लिये बाधित नहीं हैं । प्रकृति अपने-आपको जड़-भौतिक जगत् में निश्चेतन ऊर्जा के रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन जैसे-जैसे चेतना का सप्तक उठता है वह अपने-आपको अधिकाधिक सचेतन शक्ति के रूप में प्रकट करती है और हम देखते हैं कि उसकी निश्चेतना भी एक गुप्त चेतना को छिपाये हुए थी । इस तरह अपने व्यष्टि-जीवों में चिन्मय सत्ता भी बहु है लेकिन अपनी आत्मा में हम यह अनुभव कर सकते हैं कि वह सबके अंदर एक है और अपनी सारभूत सत्ता में एक है । इसके अतिरिक्त आत्मा और प्रकृति का दो के रूप में अनुभव भी सच्चा है लेकिन उनके ऐक्य का अनुभव भी अपनी प्रामाणिकता रखता है । अगर प्रकृति या ऊर्जा अपने रूपों और क्रियाओं को सत् पर आरोपित कर सकती है तो केवल इसलिये क्योंकि वह सत् की प्रकृति या ऊर्जा है इसलिये सत् उन्हें अपना मान सकता है । अगर सत् प्रकृति का स्वामी बन सकता तो यह इसीलिये हो सकता है क्योंकि वह उसकी अपनी प्रकृति है जिसे उसने निष्क्रिय रूप से अपना काम करते हुए देखा है लेकिन वह उसपर काबू और अधिकार कर सकता है; सत् की स्वीकृति जरूरी है भले वह प्रकृति की क्रियाशीलता के लिये निष्क्रिय क्यों न हो । और यह संबंध पर्याप्त रूप से दिखाता है कि ये दोनों एक दूसरे के लिये विजातीय नहीं हैं । उन्होंने द्वैत की स्थिति अपनायी है । सत्ता की आत्माभिव्यक्ति के कार्यों के लिये दोहरी स्थिति अपनायी है लेकिन उनमें कोई शाश्वत या आधारभूत अलगाव और सत्ता और उसकी सचेतन शक्ति का, आत्मा और प्रकृति का द्वैत नहीं है ।

 

   यह सद्वस्तु ही, आत्मा ही अपनी प्रकृति की क्रियाओं के साक्षी, अनुमति देनेवाले, शासक पुरुष की भूमिका निभाता है । एक प्रतीयमान द्वैत की सृष्टि की जाती है ताकि आत्मा की सहायता से प्रकृति अपने-आपको क्रियान्वित करने के लिये स्वतंत्र क्रिया कर सके और फिर प्रकृति को क्रियान्वित करने के लिये आत्मा भी उसपर नियंत्रण करते हुए स्वतंत्र, प्रभुतापूर्ण क्रिया कर सके । यह द्वैत इसलिये भी जरूरी है कि आत्मा किसी भी समय प्रकृति के किसी रूपायन से अपना हाथ खींच ले और सारे रूपायन विलीन करने या नयी या उच्चतर रचना को स्वीकार

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करने या आरोपित करने के लिये स्वतंत्र हो । आत्मा के अपनी शक्ति के साथ व्यवहार करने में ये कुछ बहुत स्पष्ट संभावनाएं हैं और स्वयं हमारी अनुभूति में इनका अवलोकन और इनकी परख हो सकती है । ये अनंत चेतना की शक्तियों के न्याय-संगत परिणाम हैं । हमने देखा है कि ऐसी शक्तियां उसकी अनंतता के लिये नैसर्गिक हैं । पुरुष-पक्ष और प्रकृति-पक्ष हमेशा साथ-साथ चलते हैं । प्रकृति या चेतना-शक्ति अपनी क्रिया में जो भी स्थिति अपनाये, अभिव्यक्त या विकसित करे पुरुष की भी स्थिति उसके अनुरूप होती है । अपनी उच्चतम स्थिति में आत्मा परम-सचेतन-सत्ता पुरुषोत्तम है और चित्-शक्ति उसकी परा-प्रकृति है । प्रकृति के क्रम की हर स्थिति में, आत्मा उस क्रम के अनुकूल भूमिका धारण करती है । मन-प्रकृति में वह मनोमय पुरुष, प्राण-प्रकृति में प्राणमय पुरुष, जड़-प्रकृति में अन्नमय पुरुष और अतिमानस में वह विज्ञानमय-पुरुष बन जाता है और उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति में वह आनंदमय पुरुष और शुद्ध सत् बन जाता है । हमारे अंदर शरीरधारी व्यक्तियों में वह सबके पीछे चैत्य सत्ता के आंतरिक आत्मा के रूप में खड़ा रहता है, जो हमारी चेतना और आध्यात्मिक सत्ता की अन्य रचनाओं को सहारा देती है । जो पुरुष हमारे अंदर व्यष्टि है वही विश्व में वैश्व तथा परात्परता में परात्पर : इस आत्मा के साथ एकात्मता स्पष्ट है लेकिन वस्तुओं और प्राणियों में स्थित आध्यात्म सत्ता की अपनी शुद्ध निर्वैयक्तिक-सव्यक्तिक स्थिति में रहती हुई यह आत्मा ही निर्वैयक्तिक इसलिये है कि वहां व्यक्तिगत गुण भेद-भाव नहीं करते । सव्यक्तिक इसलिये कि वह हर व्यक्ति के अंदर आत्मा के व्यष्टिभाव लेने की क्रिया की अध्यक्षता करता है - अपनी चित्-शक्ति के, अपनी आत्म-प्रकृति की कार्यकारिणी शक्ति के साथ व्यवहार करता है और उस प्रयोजन के लिये जो भी स्थिति जरूरी हो उसे अपनाता है ।

 

   लेकिन यह स्पष्ट है कि पुरुष-प्रकृति की किसी भी व्यष्टिगत ग्रंथि में, चाहे कोई भी स्थिति क्यों न अपनायी जाये या कोई भी संबंध क्यों न बनाया जाये, मूलभूत वैश्व संबंध में पुरुष अपनी प्रकृति का स्वामी और शासक ही है, क्योंकि जब वह प्रकृति को अपने साथ अपने ही तौर-तरीके बरतने देता है तब भी उसकी क्रिया को सहारा देने के लिये पुरुष की स्वीकृति जरूरी है । यह तत्त्व सद्वस्तु दिव्य पुरुष के तीसरे रूप में पूरी तरह प्रकट होता है जहां वह विश्व का स्वामी और स्रष्टा है । वहां परम पुरुष, परम सत्ता अपनी परात्पर और वैश्व चेतना और शक्ति में सामने आता है, वह है सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सभी ऊर्जाओं का नियंता, जो कुछ सचेतन या निश्चेतन है उसमें सचेतन, सभी अंतरात्माओं, मनों, हृदयों और शरीरों में निवास करनेवाला, सभी कार्यों का शासक या अधिशासक, समस्त आनंद का भोक्ता, ऐसा स्रष्टा जिसने सभी चीजों का सृजन अपनी सत्ता में किया, वह सर्व पुरुष सभी सत्ताएं जिसके व्यक्तित्व हैं, वह शक्ति जिससे सब शक्तियां आती हैं, सभीके अंदर

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आध्यात्म चेतना या आत्मा, अपनी सत्ता में जो कुछ है उसका पिता, अपनी चित्-शक्ति में दिव्य जननी, सभी प्राणियों का सखा, सर्वानंदमय और सर्व-सुंदर जिसके अंतःप्रकाश हैं सुंदरता और आनंद, सर्वप्रिय और सर्वप्रेमी । अमुक अर्थ में इस तरह देखे और समझे जानेपर यह परम सद्वस्तु का सबसे अधिक व्यापक रूप होता है क्योंकि यहां सभी एक रूपायण में मिल जाते हैं, क्योंकि ईश्वर विश्वातीत और विश्वान्तर्यामी दोनों है । वह वह है जो समस्त व्यक्तित्व में निवास करता है और उसके परे भी है और उसका समर्थन भी करता हैं । वह परम और वैश्व ब्रह्म है, निरपेक्ष, परम आत्मा, परम पुरुष (पुरुषोत्तम) है, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह प्रचलित धर्मों का सगुण भगवान् नहीं है, ऐसी सत्ता नहीं है जो अपने गुणों से सीमित हो, जो व्यक्तिगत और अन्य सबसे अलग हो क्योंकि इस तरह के सभी व्यक्तिगत देवता एक ईश्वर के केवल सीमित प्रतिरूप या नाम और दिव्य व्यक्तित्व हैं । न यह सगुण ब्रह्म है जो सक्रिय और गुणों का धाम है क्योंकि यह तो ईश्वर की सत्ता का केवल एक पक्ष है । निर्गुण, अचल, गुणरहित उसकी सत्ता का दूसरा पक्ष