दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २४

 

आध्यात्मिक मनुष्य का विकास

 

थे यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।

यो यो यां यां तनु भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च तत: कामानू मयैव विहितान् हि तान् ।।

अन्तवत्तु फलं तेषाम् ।

देवान् देवयजो यान्ति. . .  ।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ।।

 

जिस तरह मनुष्य मेरे पास आते हैं उसी तरह मै उन्हें स्वीकार करता

हूं । मनुष्य सभी ओर से मेरे ही पथ का अनुसरण करते हे...

भक्त जिस रूप की पूजा श्रद्धा से करता है, मैं उसकी श्रद्धा को

अचल करता हूं । वह अपनी कामना को अपनी आराधना में उस

श्रद्धा के साथ रखता है और मेरे द्वारा अपनी कामना की पूर्ति

करवाता है । लेकिन वह फल सीमित होता है । जो देवों के लिये

यजन करते हैं वे  देवों को पाते हैं, जो भूतों के लिये यज्ञ करते हैं वे

भूतों को पाते हैं लेकिन जो मेरे लिये यज्ञ करते हैं वे मुझे पाते हैं ।

गीता ४- ११, ७- २१-२३; ९ -२५

 

 ... न बासु चित्रं ददृशे न यक्षम् ।

... न वां निण्यान्यचिते अभूवन् ।।

 

इनमें न वह चमत्कार है न वह सामर्थ्य, गुह्य सत्य अज्ञानियों के

मन के लिये नहीं है ।

ऋग्वेद ७.६१. ५

 

कविर्न निण्यं विदथानि साधन् . . . ।

दिव इच्छा जीजनत् सप्त कारूनह्ना चिच्चर्वयुना गुणन्तः ।

 

जैसे कोई सत्य द्रष्टा गुह्य सत्यों और उनके ज्ञान के आविष्कारों को

कार्यान्वित करता है उसी तरह उसने द्युलोक के सात शिल्पियों को

जन्म दिया जिन्होने दिन के प्रकाश में ही बात कही और अपनी

प्रज्ञा की चीजें बनायीं ।

ऋग्वेद ४. १६.३

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... निण्या वचांसि । निवचना कवये काव्यानि. . . ।।

सत्य द्रष्टा-प्रज्ञाएं रहस्यमय शब्द, जो द्रष्टा को अपना अर्थ बताते

हैं  |

 

ऋग्वेद ४. ३.१६

 

नकिह्येंषां जनूंषि वेद ते अङ्ग विद्रे मिथो जनित्रम् ।

एतानि धीरो निण्या चिकेत पृश्रिनर्यदूधो मही जभार ।।

 

इनके जन्म को कोई नहीं जानता । वे एक-दूसरे के जन्म की विधि

जानते हैं । लेकिन ज्ञानी इन गुप्त रहस्यों को देखता है, उस रहस्य

को भी जिसे वह महादेवी, बहुरंगी माता अपने ज्ञान-स्तन की तरह

धारण करती है ।

ऋग्वेद ७.५६.२ ४

 

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः शुद्धसत्वाः ।

 

उच्चतम आध्यात्मिक ज्ञान के अर्थ के बारे में सुनिश्चित, जिनकी

सत्ता शुद्ध हो चुकी है ।

मुण्डकोपनिषद ३. २. ६

 

एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आज्य विशते ब्रह्मधाम ।।

ज्ञानतृप्ता: कृतात्मान: . . .  ।

ते सर्वर्ग सर्वत: प्राप्य धीरा युक्तात्मान: सर्वमेवाविशन्ति ।।

 

वह इन साधनों से प्रयास करता है और ज्ञान पाता है । उसमें यह

आत्मा अपने परम पद में प्रवेश करती है.. ज्ञानतृप्त, कृतात्मा

(ज्ञान में संतुष्ट, जो अपनी आध्यात्मिक सत्ता का निर्माण कर चुके

 हैं) धीर युक्तात्मा (जो ज्ञानी आध्यात्म-पुरुष से ऐक्य पा चुके हैं)

वे हर जगह सर्वव्यापक को पाते और सर्व मैं प्रवेश करते हैं ।

मुण्डकोपनिषद ३..४,५

 

विकसनशील प्रकृति की एकदम शुरू की अवस्थाओं में हमें उसकी निश्चितना की मूक गुप्तता मिलती है । उसके कार्यों में किसी महत्त्व या प्रयोजन का अंतःप्रकाश नहीं है । उसके पहले रूपायन में जो उसकी तात्कालिक व्यस्तता है और जो सदा के लिये उसका एकमात्र व्यापार मालूम होती है, उसके अतिरिक्त सत्ता के किन्हीं और तत्त्वों का संकेत नहीं मिलता क्योंकि उसके प्रारंभिक कार्यों में केवल जड़ ही प्रकट होता है, एकमात्र मूक और नग्न वैश्व सद्धस्तु । यदि सृष्टि का कोई सचेतन लेकिन अनसधा साक्षी होता तो वह केवल प्रतीयमान असत् के एक विशाल गह्वर में से एक ऊर्जा को निकलते हुए देखता जो जड़-तत्त्व, जड़-जगत् और जड़- वस्तुओं के सूजन में व्यस्त है, जो निश्चेतन के अनंत को किसी असीम विश्व की

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योजना में या ऐसे असंख्य विश्वों के तंत्र में संगठित कर रही है जो बिना किसी निश्चित लक्ष्य या सीमा के आकाश में उसके चारों ओर विस्तृत हैं, नीहारिकाओं और नक्षत्र-समूहों, सूर्यों और ग्रहों की अनथक सृष्टि जो केवल अपने लिये अस्तित्व धारण करती है जिसमें कोई भाव नहीं है, जो किसी कारण या उद्देश्य से रिक्त है । उसे वह एक विशाल मशीन मालूम होती जिसका कोई उपयोग नहीं है, एक महान् निरर्थक गति, दर्शक बिना कल्पोंतक चलनेवाला दृश्य, एक वैश्व प्रासाद जिसमें कोई रहनेवाला नहीं, क्योंकि उसे किसी अंतर्वासी अध्यात्म-पुरुष का चिह्न नहीं दिखायी देता, कोई ऐसी सत्ता नहीं दिखायी देती जिसके आनन्द के लिये उसकी रचना की गयी हो । इस प्रकार की सृष्टि केवल एक निश्चेतन ऊर्जा का परिणाम हो सकती है या वह किसी अतिचेतन, उदासीन निरपेक्ष पर प्रतिबिंबित रूपों का एक भ्रामक चलचित्र, छाया-क्रीड़ा या कठपुतली का खेल हो सकती है । वह जड़तत्त्व के इस अमेय और अंतहीन प्रदर्शन में अंतरात्मा का कोई साक्ष्य न देखता और न मन और प्राण का कोई चिह्न । उसे यह संभव या कल्पनीय तक न लगता कि इस बंजर, सदा के लिये निष्प्राण, संवेदनहीन विश्व में जीवन से भरपूर बाढ़ आ सकती है, किसी गुह्य और गणनातीत, सजीव और सचेतन, सतह की ओर राह टटोलती गुप्त आध्यात्मिक सत्ता का प्रथम स्पन्दन हो सकता है ।

 

     लेकिन कुछ युगों के बाद उसी व्यर्थ के दृश्य-पटल पर नजर डालते हुए, हो सकता है कि उस साक्षी ने कम-से-कम, विश्व के एक छोटे-से कोने में यह दृश्य देखा हो, एक छोटा-सा कोना जहां जड़तत्त्व तैयार किया गया था, उसकी क्रियाएं काफी हदतक निश्चित की जा चुकी थीं, संगठित और स्थायी और एक नये विकास के दृश्य के लिये अनुकूलित की जा चुकी थीं -यह दृश्य था जीवित जड़तत्त्व का, ऐसी चीजों में जीवन का जो कुछ उभर आया और दृश्य बन गया था । लेकिन तब भी साक्षी कुछ न समझ पाया होगा क्योंकि विकसनशील प्रकृति अभीतक अपने रहस्यों को पर्दे के पीछे रखे हुए थी । उसने एक ऐसी प्रकृति को देखा होता जो केवल प्राण की इस बाढ़ को, इस नयी सृष्टि को प्रतिष्ठित करने में लगी होती लेकिन यह जीवन सिर्फ अपने लिये था, जिसमें कोई अर्थ न था -एक मनमौजी प्रचुर स्रष्ट्री जो अपनी नयी शक्ति का बीज बिखेरने में, अपने बहुसंख्यक रूपों को सुन्दर और विलासप्रिय बहुलता में स्थापित करने में या बाद में केवल शुद्ध रूप से सृजन के आनन्द के लिये जातियों और उपजातियों को अंतहीन रूप से बढ़ाने में व्यस्त हो । तब अति विस्तृत वैश्व मरुभूमि में रंग और गति का एक हल्का-सा पुट ही डाला गया होगा और कुछ नहीं । साक्षी यह कल्पना न कर पाया होगा कि प्राण के इस छोटे-से द्वीप में एक विचारशील मन प्रकट होगा, कि निश्चेतना में चेतना जाग सकेगी, एक नया, विशालतर और अधिक सूक्ष्म स्पंदन सतह पर आकर अधिक स्पष्ट रूप से अंदर डूबे हुए अध्यात्म-पुरुष के अस्तित्व को प्रकट कर देगा । पहले-

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पहल उसे ऐसा लगा होगा कि किसी तरह से प्राण अपने बारे में अभिज्ञ हो गया और बस । क्योंकि ऐसा लगता था कि नवजात अपूर्ण मन प्राण का सेवक मात्र है, प्राण के जीने में सहायता देने के लिये एक यंत्र, उसके भरण-पोषण के लिये मशीन, आक्रमण और आत्म-रक्षा के लिये, कुछ आवश्यकताओं और प्राणिक तुष्टियों के लिये, प्राण-वृत्ति और प्राण-आवेग की मुक्ति के लिये मशीन है । उसे यह संभव न लग सकता होगा कि इस छोटे-से प्राण में, जो इन विशालताओं के बीच इतना नगण्य है, इस तुच्छ भीड़-भड़क्के के बीच केवल एक जाति में, मनोमय सत्ता प्रकट होगी, एक ऐसा मन होगा जो अब भी प्राण की सेवा तो करेगा लेकिन साथ ही प्राण और जड़ को अपना सेवक बना लेगा, अपने विचारों, इच्छा और कामना की पूर्ति के लिये उनका उपयोग करेगा -एक ऐसी मानसिक सत्ता जो जड़तत्त्व में से सब तरह के उपयोग के लिये सब तरह के बरतन, उपकरण और यंत्र बनायेगी, उसमें से नगर, मकान, मंदिर, नाट्यशाला, प्रयोगशालाएं और कारखाने खड़े करेगी । उसमें से मूर्तियां तराशेगी, गुफा-मंदिर गढ़ेगी, स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला, काव्य तथा सैंकड़ों कला-कौशल का आविष्कार करेगी, विश्व के गणित और भौतिकी की तथा उसकी रचना में छिपे रहस्यों की खोज करेगी । वह मन और उसके हितों के लिये, विचार और ज्ञान के लिये जीवित रहेगी, विचारक, दार्शनिक और वैज्ञानिक में विकसित होगी तथा जड़ के राज्य को परम चुनौती देने के रूप में अपने भीतर अपने-आपको प्रच्छन्न देव के प्रति जाग्रत् करेगी, अदृश्य के पीछे शिकारी बनेगी तथा रहस्यवादी और आध्यात्मिक जिज्ञासु बनेगी ।

 

     लेकिन अगर साक्षी कई युगों या कल्पों के बाद फिर से देखता और इस चमत्कार की पूरी प्रक्रिया पर नजर डालता तो शायद तब भी विश्व में जड़ की एकमात्र वास्तविकता होने के आद्य अनुभव से अंधकार-ग्रस्त होने के कारण वह अब भी न समझ पाता । उसे अब भी यह असंभव लगता कि प्रच्छन्न आत्मा पूरी तरह से प्रकट हो सकती है, अपनी चेतना में पूर्ण होकर धरती पर आत्म-ज्ञाता और जगत्-ज्ञाता प्रकृति की स्वामी और अधिपति होकर रह सकती है । वह कह सकता, ''यह असंभव है जो कुछ हुआ है, वह बड़ी बात नहीं है । बस मस्तिष्क के संवेदनशील धूसर द्रव्य में थोड़ी-सी बुदबुदाहट है, निष्प्राण जड़ में कोई अनोखी सनक है जो विश्व के एक छोटे-से बिंदु पर घूम-फिर रही है ।''  इसके विपरीत, कहानी के अंत में आ टपकनेवाला एक नया साक्षी जिसे पिछले विकास के बारे में पता तो होगा परंतु जो आरंभ की प्रवंचना से अभिभूत न होगा, वह शायद चिल्ला पड़े, ''ओहो, तो यह था वह अभिप्रेत चमत्कार, बहुतों में अंतिम -जो आध्यात्म- पुरुष निश्चेतना में डूबा हुआ था वह उससे छूट निकला है और अब बिना पर्दे के उन रूपों में निवास करता है जिन्हें पर्दे के साथ उसने अपने आवास और आविर्भाव के दृश्य के रूप में गढ़ा था ।'' लेकिन वस्तुत: एक ज्यादा सचेतन साक्षी

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उन्मीलन की पहले की अवस्थाओं में ही यह चाबी खोज लेता, यहांतक कि उसकी प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में, क्योंकि प्रक्रिया के हर चरण पर प्रकृति की मूक गोपनीयता रहती तो है परंतु घटती जाती है; अगले चरण के बारे में संकेत दिया जाता है, अधिक खुले रूप में अर्थपूर्ण तैयारी दिखलायी देती है । अब भी, जो प्राण में निश्चेतन मालूम होता है उसमें सतह की ओर आते हुए संवेदन के चिह्न दिखायी देते हैं, गति करते और श्वास लेते हुए प्राण में संवेदनशील मन का आविर्भाव दिखायी देता है और विचारशील मन की तैयारी पूरी तरह छिपी नहीं होती । जब विचारशील मन विकसित होता है तो प्रारंभिक अवस्था में ही आध्यात्मिक चेतना के प्राथमिक प्रयास और फिर एषणाएं प्रकट होती हैं । जैसे वनस्पति-जीवन में सचेतन पशु की संभावना अस्पष्ट रूप से रहती है, जैसे पशु-मन अनुभव, बोध और धारणा के ऐसे प्रारंभिक तत्त्वों से गतिशील हो उठता है जो चिंतनशील मनुष्य की पहली भूमि है, उसी तरह विकसनशील ऊर्जा के प्रयास द्वारा चिंतनशील मनुष्य का अपने अंदर से ऐसे आध्यात्मिक मनुष्य को विकसित करने के लिये उदात्तीकरण किया जाता है जो पूरी तरह सचेतन सत्ता हो, ऐसा मनुष्य जो प्रथम जड़-भौतिक मनुष्य का अतिक्रमण करता हो और अपनी सच्ची आत्मा और उच्चतम प्रकृति का शोधकर्ता हो ।

 

     लेकिन अगर इसे प्रकृति का अभिप्राय मान लिया जाये तो दो प्रश्न एकदम सामने आते हैं और निश्चित उत्तर की मांग करते हैं -पहला, मानसिक से आध्यात्मिक सत्तातक संक्रमण का ठीक-ठीक स्वरूप क्या है और जब उसका उत्तर मिल जाये तो मानसिक मनुष्य में से आध्यात्मिक के विकास की प्रक्रिया और विधि क्या है । पहली दृष्टि में ही यह स्पष्ट होता है कि जैसे हर एक श्रेणी न केवल अपने से पहले की श्रेणी से बल्कि उसके अंदर प्रकट होती है, जैसे प्राण जड़तत्त्व में आविर्भूत होता है और बड़ी हदतक अपनी भौतिक परिस्थितियों द्वारा अपनी आत्माभिव्यक्ति में सीमित और निर्धारित होता है, जैसे मन जड़ में प्राण के अंदर प्रकट होता है और उसी तरह अपनी-अपनी अभिव्यक्ति में प्राणिक स्थिति और जड़-स्थिति से सीमित और निर्धारित होता है, इसी तरह जड़ में स्थित प्राण के अंदर, मूर्त मन के अंदर आत्मा को भी आविर्भूत होना चाहिये और वह भी बड़ी हदतक उन मानसिक स्थितियों से सीमित और निर्धारित रहेगी जिनमें उसकी जड़ें हैं और साथ ही यहां उसके अस्तित्व की प्राणिक परिस्थितियों और जड़-भौतिक परिस्थितियों के द्वारा भी । यह स्थापना भी की जा सकती है कि अगर हमारे अंदर आध्यात्मिक विकास हुआ है तो वह केवल मानसिक विकास का भाग है, मनुष्य की मानसिकता की एक विशेष क्रिया है । आध्यात्मिक तत्त्व एक सुस्पष्ट और पृथक् सत्ता नहीं है और उसका कोई स्वतंत्र आविर्भाव या अतिमानसिक भविष्य नहीं हो सकता । मानसिक सत्ता आध्यात्मिक रस या तन्मयता विकसित कर सकती है और

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हो सकता है कि परिणामस्वरूप वह आध्यात्मिक और साथ-रही-साथ बौद्धिक मानसिकता विकसित कर सके, अपने मानसिक जीवन का एक सुन्दर आंतरात्मिक फूल विकसित कर सके । कुछ लोंगों में आध्यात्मिक प्रवृत्ति प्रधान हो सकती है, जैसे कुछ लोगों में कलात्मक या व्यावहारिक प्रवृत्ति होती है, लेकिन आध्यात्मिक सत्ता के जैसी कोई चीज नहीं हो सकती जो मानसिक को लेकर आध्यात्मिक प्रकृति में बदल दे । आध्यात्मिक मनुष्य का कोई विकास नहीं होता केवल मानसिक सत्ता में एक नये और संभवत: अधिक सूक्ष्म और अधिक विरल तत्त्व का विकास होता है । तो जिस चीज को बाहर निकालकर लाना है वह है -आध्यात्मिक और मानसिक के बीच स्पष्ट भेद, इस विकास का स्वरूप और वे तत्त्व जो इसे संभव और अनिवार्य बनाते हैं कि आत्मा का यह आविर्भाव सच्चे, स्पष्ट लक्षण में हो, वैसा न रहे जैसा कि वह अभी प्रक्रिया के अधिकांश में है या अपने प्रकट होने के मार्ग में दिखलायी देता है; हमारी मानसिकता का गौण या प्रधान रूप । वह अपना निरूपण एक नयी शक्ति के रूप में करे जो अंत में मानसिक भाग के ऊपर होगी और प्राण और प्रकृति के नेता के रूप में उसका स्थान लेगी ।

 

     यह बिलकुल सच है कि सतही दृष्टि के लिये जीवन जड़ का ही व्यापार, मन प्राण की एक क्रिया मालूम होता है । इससे यह परिणाम निकलता मालूम होता है कि जिसे हम अंतरात्मा या अध्यात्म-पुरुष कहते हैं वह केवल मानसिकता की एक शक्ति है, अंतरात्मा मन का एक सूक्ष्म रूप है और आध्यात्मिकता साकार मानसिक सत्ता की एक उच्च क्रिया । लेकिन यह एक बाहरी दृष्टि है जो इस कारण आती है कि विचार केवल रूप-रंग और प्रक्रिया पर केन्द्रित होता है और उसपर नजर नहीं डालता जो प्रक्रिया के पीछे है । इसी लीक पर चलते हुए कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता था कि बिजली केवल पानी और बादल के द्रव्य की उपज है क्योंकि ऐसे ही क्षेत्र में बिजली कौंधती है । लेकिन ज्यादा गहरे शोध से पता लगा है कि इसके विपरीत पानी और बादल दोनों के आधार में बिजली की ऊर्जा है, उनकी घटक- शक्ति या ऊर्जा-पदार्थ है; जो परिणाम मालूम होती है वह अपनी वास्तविकता मे, यद्यपि रूप में नहीं, उद्धव है । सारतः कार्य प्रतीयमान कारण से पूर्ववर्ती होता है । उभरनेवाली क्रियाशीलता का तत्त्व उसके वर्तमान कार्य- क्षेत्र का पूर्ववर्ती है । विकसनशील प्रकृति में सब जगह ऐसा हीं है । जड सजीव न हो पाता यदि प्राण- तत्त्व जड़ के गठन में न होता और जड़ में प्राण के व्यापार के रूप में बाहर न आता । जड़ में प्राण अनुभव करना, देखना, सोचना, तर्क करना शुरू न कर सकता यदि मन का तत्त्व प्राण और पदार्थ के पीछे न होता, उसे अपना कार्य- क्षेत्र न बनाता और विचारशील प्राण और शरीर के व्यापार में न उभरता । इसी तरह मन में उभरती हुई आध्यात्मिकता उस शक्ति का चिह्न है जिसने अपने-आप प्राण, मन और शरीर का आधार रखा और गठन किया है और अब जीवित, विचारशील

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शरीर में से आध्यात्मिक सत्ता के रूप में उभर रही है । यह आविर्भाव कहांतक जायेगा, क्या वह प्रधान होकर अपने उपादान को रूपांतरित कर लेगा, यह बाद का प्रश्न है लेकिन पहले यह स्थापना करने की जरूरत है कि अध्यात्म-पुरुष का अस्तित्व मन से भिन्न और मन से बड़ी चीज है, कि आध्यात्मिकता मानसिकता से अलग कुछ और चीज है और इसलिये आध्यात्मिक सत्ता मानसिक सत्ता से भिन्न कुछ और है । अध्यात्म-पुरुष अंतिम विकसनशील उद्धव है क्योंकि यह आद्य अन्तर्लयात्मक तत्त्व और घटक है । क्रमविकास प्रतिविकास की विपर्यस्त क्रिया है; प्रतिविकास में जो सबसे बाद में और अंत में निःसृत हुआ है वह क्रमविकास में सबसे पहले प्रकट होता है; प्रतिविकास में जो आद्य और प्राथमिक था वह क्रम- विकास में अंतिम और चरम आविर्भाव है ।

 

     और फिर यह भी सच है कि मानव के मन के लिये अंतरात्मा या आध्यात्म पुरुष या अपने अंदर किसी आध्यात्मिक तत्त्व को उस मानसिक और प्राणिक रूपायन से अलग करके देखना मुश्किल है जिसमें से वह प्रकट होता है । लेकिन यह तभीतक होता है जबतक आविर्भाव पूरा न हो जाये । पशु के अंदर मन अपनी प्राणिक आधात्री और प्राण-द्रव्य से पूरी तरह से पृथक् नहीं होता । उसकी गतियां प्राणिक गतियों में इतनी उलझी होती हैं कि वह अपने-आपको उनसे अलग नहीं कर सकता, उनसे अलग खड़ा होकर उनका अवलोकन नहीं कर सकता लेकिन मनुष्य में मन अलग हो गया है, वह अपने मानसिक कार्यों के बारे में, प्राणिक व्यापारों से अलग, अभिज्ञ हो सकता है । उसके विचार और उसकी इच्छा अपने- आपको अपने संवेदनों, आवेगों, कामनाओं, भावनामय प्रतिक्रियाओं से अलग कर सकते हैं और उनसे अनासक्त होकर उनका अवलोकन और नियंत्रण कर सकते हैं, उनकी क्रियाओं को स्वीकृति दे सकते या उन्हें रह कर सकते हैं, वह अभीतक अपनी सत्ता के रहस्यों को इतनी अच्छी तरह नहीं जानता कि अपने-आपको निर्णायक रूप से निश्चिति के साथ प्राण और शरीर में मानसिक सत्ता के रूप में जाने, लेकिन उसे ऐसा लगता है और वह भीतर से यह स्थिति ले सकता है । इसी तरह पहले-पहल मनुष्य के अंदर अंतरात्मा मन और मानसिक प्राण से एकदम भिन्न वस्तु के रूप में प्रकट नहीं होती, उसकी गतियां मानसिक गतियों में उलझी रहती हैं, उसके कार्य मानसिक और भावमय क्रियाएं मालूम होते हैं । मानसिक मानव सत्ता मन, प्राण और शरीर से पीछे हटकर खड़ी हुई अपने अंदर की अंतरात्मा से अभिज्ञ नहीं होती जो अपने-आपको उनसे अलग करके उनकी क्रियाओं और उनके रूपायनों को देखती, उनका नियंत्रण करती और उन्हें गढ़ती है । लेकिन जैसे-जैसे भीतरी विकास आगे बढ़ता है, ठीक यही चीज हो सकती है, होनी चाहिये और होती भी है । यह हमारी विकसनशील नियति में बहुत देर से आया दुआ पर अनिवार्य अगला चरण है । एक निर्णायक आविर्भाव हो सकता है

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जिसमें सत्ता अपने-आपको विचार से अलग कर लेती है और अपने-आपको आंतरिक नीरवता में मन में स्थित अध्यात्म-पुरुष के रूप में देखती है या अपने-आपको प्राणिक गतियों, कामनाओं, संवेदनों, गतिज-आवेगों से अलग कर लेती है और अपने बारे में अभिज्ञ होती है कि वह प्राण को सहारा देनेवाली आत्मा है या वह अपने-आपको शारीरिक संवेदन से अलग कर लेती है और अपने-आपको ऐसी आत्मा के रूप में जानती है जो जड़तत्त्व को अनुप्राणित करती है; यह हमारा अपने पुरुष-रूप का इस बात का आविष्कार होता है कि हम शरीर को धारण करनेवाले मनोमय पुरुष, प्राणमय अंतरात्मा या सूक्ष्म आत्मा हैं । बहुत से इसे सच्चे आध्यात्म पुरुष का पर्याप्त अन्वेषण मानते हैं और किसी अर्थ में वे ठीक हैं क्योंकि आत्मा या आध्यात्म पुरुष ही प्रकृति की क्रियाओं के प्रसंग में अपने-आपको इस तरह निरूपित करता है और उसकी उपस्थिति का अंतःप्रकाश आध्यात्मिक तत्त्व को पृथक् करने के लिये काफी है । लेकिन आत्मान्वेषण और आगे जा सकता है, वह प्रकृति के रूप या क्रिया के सारे संबंध को एक ओर कर सकता है, क्योंकि देखा यह गया है कि ये सारी आत्माएं एक दिव्य सत्ता की प्रतिमाएं हैं जिसके लिये मन, प्राण और शरीर रूप और उपकरण मात्र हैं । तब हम प्रकृति को देखनेवाली अंतरात्मा होते हैं जो हमारे अंदर उसकी सारी क्रिया-शक्तियों को, मानसिक प्रत्यक्ष दर्शन और अवलोकन से नहीं बल्कि एक अंतर्भूत चेतना, चीजों के बारे में अपने प्रत्यक्ष अर्थ और आंतरिक यथातथ्य दृष्टि द्वारा जानती है, अतः अपने आविर्भाव द्वारा हमारी प्रकृति पर कड़ा नियंत्रण रखने और उसे बदलने योग्य होती है । जब सत्ता में पूर्ण नीरवता होती है, चाहे समस्त सत्ता की निस्तब्धता हो या पीछे की ओर की निस्तब्धता जो सतही गतियों से प्रभावित नहीं होती, तब हम आध्यात्म पुरुष, अपनी सत्ता के आध्यात्मिक द्रव्य के बारे में अभिज्ञ होते हैं, एक ऐसी सत्ता के बारे में अभिज्ञ होते हैं जो आत्मा-व्यक्तित्व का भी अतिक्रमण करके अपने-आपको सार्विकता में फैलाती, किसी भी प्राकृतिक रूप या क्रिया पर किसी भी तरह की अधीनता को पार करके ऊपर की ओर विस्तार में ऐसी परात्परता में चली जाती है जिसकी सीमाएं नहीं दिखायी देतीं । हमारे अंदर आध्यात्मिक भाग की ये मुक्तियां ही प्रकृति में आध्यात्मिक विकास के निर्णायक चरण हैं ।

 

     इन निर्णायक गतियों द्वारा ही विकास का सच्चा स्वरूप स्पष्ट होता है क्योंकि तबतक केवल तैयारी की गतियां होती हैं, मन, प्राण और शरीर पर चैत्य सत्ता का दबाव पड़ता है ताकि सच्ची आंतरात्मिक क्रिया का विकास हो, अहंकार से, सतही अज्ञान से मुक्ति के लिये आत्मा या आध्यात्म पुरुष का दबाव पड़ता है, किसी गुह्य सद्धस्तु की ओर मन और प्राण का घुमाव होता है अध्यात्मभावापन्न मन के, अध्यात्मभावापन्न प्राण के प्रारंभिक अनुभव, आंशिक रूपायन होते हैं परंतु पूर्ण परिवर्तन नहीं, अंतरात्मा या आध्यात्म पुरुष के पूर्ण उद्‌घाटन की या प्रकृति के

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आमूल रूपांतर की कोई संभावना नहीं होती । जब निर्णायक आविर्भाव होता है तो उसका एक चिह्न होता है हमारे अंदर एक ऐसी अंतर्निहित, नैसर्गिक, स्वयंभू चेतना की स्थिति या क्रिया जो अपने-आपको केवल होने के तथ्य द्वारा जानती है, उसके अंदर जो कुछ है उसे भी उसी तरह जानती है उसके साथ तादात्म्य द्वारा, इसी तरह उस सबको भी देखना शुरू करती है जो हमारे मन को बाहरी प्रतीत होता है तादात्म्य की गति या फिर ऐसी अंतर्विष्ट प्रत्यक्ष चेतना द्वारा जो अपने विषय को आवृत करती, भेदती और उसमें प्रवेश करती है, अपने-आपको विषय में खोजती और उसमें किसी ऐसी चीज के बारे में अभिज्ञ होती है जो मन, प्राण या शरीर नहीं है । तब फिर स्पष्टत: यह आध्यात्मिक चेतना है जो मानसिक से भिन्न है और जो हमारे अंदर ऐसी आध्यात्मिक सत्ता के अस्तित्व का प्रमाण देती है जो हमारे सतही मानसिक व्यक्तित्व से भिन्न है । लेकिन शुरू में यह चेतना अपने-आपको सत्ता की ऐसी स्थितितक सीमित रख सकती है जिसमें वह हमारी अज्ञानमयी बाहरी प्रकृति की क्रिया से अलग रहे और उसका अवलोकन करे, अपने-आपको ज्ञानतक सीमित रखे, वस्तुओं को अस्तित्व के आध्यात्मिक अर्थ और दृष्टि से देखनेतक सीमित रखे । तब भी वह क्रिया के लिये मानसिक, प्राणिक और शारीरिक उपकरणों पर आश्रित रह सकती है या वह उन्हें स्वयं अपनी प्रकृति के अनुसार काम करने दे सकती है और अपने-आप आत्मानुभव और आत्म-ज्ञान से, आंतरिक मुक्ति और उसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता से संतुष्ट रह सकती है; लेकिन हों सकता है कि वह विचार, प्राणिक गतिविधि और भौतिक क्रिया पर अमुक अधिकार, नियंत्रण और प्रभाव डाले और वह ऐसा करती भी है । उसका उन पर शुद्ध करनेवाला और ऊपर उठानेवाला नियंत्रण भी रह सकता है और होता भी है जो उन्हें अपने उच्चतर और शुद्धतर सत्य में विचरण करने के लिये बाधित करता है या वे किसी दिव्यतर शक्ति की बाढ़ या एक ऐसे आलोकमय निर्देशन का अनुसरण करें या उपकरण बनें जो मानसिक न होकर आध्यात्मिक हो और जिसमें कुछ दिव्य विशिष्टताएं पायी जा सकती हों जैसे उच्चतर आत्मा की प्रेरणा या समस्त सत्ता के स्वामी ईश्वर का आदेश । या प्रकृति चैत्य सत्ता के संकेतों का आज्ञापालन कर सकती है, आंतरिक प्रकाश में गति कर सकती और आंतरिक पथ-प्रदर्शनों का अनुसरण कर सकतीं है । यह अपने-आपमें यथेष्ट विकास है और कम-से-कम चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर के आरंभ के समान होता है । लेकिन इसके आगे जाना संभव है; क्योंकिं एक बार आध्यात्मिक सत्ता आंतरिक रूप से मुक्त हो जाये तो मन के अंदर ऐसी उच्चतर स्थितियों को विकसित कर सकती है जो उसका स्वाभाविक वातावरण हैं और अतिमानसिक ऊर्जा और क्रिया को नीचे उतार सकती है जो ऋत-चेतना के लिये समीचीन हैं । सामान्य मानसिक यंत्र-विन्यास, प्राणिक यंत्र-विन्यास और भौतिक यंत्र-विन्यासतक पूरी तरह रूपांतरित हो सकते हैं और

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तब वे अज्ञान के भाग न रह कर, वह चाहे जितना आलोकित क्यों न हो, अतिमानसिक सृष्टि का भाग हो जायेंगे जो आध्यात्मिक ऋत-चेतना और ज्ञान की सच्ची क्रिया होगी ।

 

     शुरू में आत्मा और आध्यात्मिकता का यह सत्य मन के लिये स्वतःसिद्ध नहीं होता । मनुष्य अपनी अंतरात्मा के बारे में मानसिक रूप से इस भांति अभिज्ञ हो जाता है मानों वह उसके शरीर से भिन्न, उसके सामान्य मन और प्राण से श्रेष्ठतर कोई चीज हो, लेकिन उसे इसका स्पष्ट भान नहीं होता, केवल अपन। प्रकृति पर उसके कुछ प्रभावों का अनुभव मात्र होता है । चूंकि ये प्रभाव मानसिक या प्राणिक रूप ले लेते हैं इसलिये इनका भेद दृढ़ता और तीव्रता के साथ नहीं दिखाई देता । आत्मा की दृष्टि स्पष्ट और निश्चित स्वतंत्रता नहीं पाती । वास्तव में बहुधा, मानसिक और प्राणिक भागों पर चैत्य दबाव के अर्द्ध-प्रभावों की संसृष्टि को, मानसिक अभीप्सा और प्राणिक कामनाओं से मिश्रित रूपायन को भूल से अन्तरात्मा मान लिया जाता है, उसी तरह जैसे पृथक्कारी अहंकार को आध्यात्म पुरुष मान लिया जाता है, यद्यपि अपनी सच्ची सत्ता में आध्यात्म पुरुष वैश्व और साथ-ही-साथ सार तत्त्व में व्यष्टिगत भी है -या ठीक वैसे ही जैसे किसी तरह के सबल या उच्च विश्वास या आत्मोत्सर्ग या परोपकार की उत्कंठा से उठी हुई किसी मानसिक अभीप्सा और प्राणिक उत्साह और आवेग को भूल से आध्यात्मिकता मान लिया जाता है । लेकिन यह अस्पष्टता और ये संभ्रम क्रम-विकास की अस्थायी स्थिति के लिये अनिवार्य है क्योंकि अज्ञान उसका आरंभ-बिंदु है और हमारी प्रथम प्रकृति की समस्त छाप है जिसके कारण क्रम-विकास को निश्चित रूप से उपार्जित अनुभव या स्पष्ट ज्ञान के बिना, एक अपूर्ण अंतर्भासात्मक प्रत्यक्षण और एक सहजवृत्ति की प्रेरणा या चाह से आरंभ करना होता है । यहांतक कि वे रूपायन भी, जो प्रत्यक्ष ज्ञान, या प्रेरणा या आध्यात्मिक विकास के प्रथम संकेत हैं, उनके पहले प्रभाव भी अनिवार्य रूप से अपूर्ण और प्रयोगात्मक होने चाहिये । लेकिन इस तरह से बनी भूल सच्ची समझ के मार्ग में जोर से आती है इसलिये इस बात पर जोर देना आवश्यक है कि आध्यात्मिकता उच्च बौद्धिकता नहीं है, आदर्शवाद नहीं है, मन का नैतिक मोड़ या आचरण की शुद्धि या तपस्या नहीं है । वह कोई धार्मिकता या तीव्र और उदात्त भावात्मक उत्साह नहीं है और न ही इन उत्तम वस्तुओं का मिश्रण है । वह मानसिक विश्वास, मत या श्रद्धा, भावुकताभरी अभीप्सा, धार्मिक या नैतिक नियम के अनुसार जीवन-व्यवहार के नियमन, आध्यात्मिक उपलब्धि या अनुभव नहीं है । ये चीजें मन और प्राण के लिये काफी महत्त्व की हैं । वे स्वयं आध्यात्मिक विकास के लिये प्रारंभिक गतियों के रूप में मूल्यवान् हैं जो अनुशासन लाती, शुद्ध करती या प्रकृति को उचित रूप देती हैं लेकिन फिर भी वे हैं मानसिक विकास की चीजें -इनमें आध्यात्मिक उपलब्धि, अनुभव और परिवर्तन का आरंभ नहीं है । अपने सारतत्त्व में आध्यात्मिकता अपनी सत्ता की आंतरिक सद्धस्तु के प्रति जागरण

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है, एक ऐसी आत्मा, ऐसे आध्यात्म पुरुष या अंतरात्मा के प्रति जो हमारे मन, प्राण और शरीर से भिन्न है, उसे जानने, अनुभव करने, वही होने की आंतरिक अभीप्सा है और विश्व के परे और उसमें व्यापक विशालतर सद्वस्तु के साथ संपर्क में आना है जो हमारी सत्ता में भी निवास करती है -उसके साथ संपर्क और ऐक्य रखना तथा अभीप्सा, संपर्क, ऐक्य के परिणामस्वरूप हमारी समस्त सत्ता का मोड़, परिवर्तन और रूपांतर है, एक नये संभवन या नयी सत्ता में या एक नयी आत्मा और नयी प्रकृति में विकास या जागरण है ।

 

     वस्तुत: हमारी पार्थिव सत्ता में जो सृजनशील चित्-शक्ति है उसे एक दोहरे विकास को लगभग युगपत् प्रक्रिया से आगे ले जाना होता है लेकिन इसमें निम्नतर तत्त्व को अधिक प्राथमिकता दी जाती है और उसपर अधिक दबाव डाला जाता है । एक विकास हमारी बाहरी प्रकृति का, प्राण और शरीर में मनोमय सत्ता की प्रकृति का होता है और उसमें आत्म-प्रकाशन के लिये आगे बढ़ते हुए -क्योंकि मन के उदय से ही यह अंत: -प्रकाश संभव होता है -हमारी आंतरिक सत्ता, हमारी गुह्य, अंतस्तलीय और आध्यात्मिक प्रकृति के विकास की तैयारी, उसका आरंभ होता है । परंतु तब भी और लंबे समयतक आवश्यक रूप से प्रकृति की सर्वोपरि तल्लीनता प्रधानत: मन के विकास को यथासंभव विशालतर क्षेत्र, ऊंचाई और सूक्ष्मतातक ले जाना होगा क्योंकि इसी तरह पूरी तरह से अंतर्भासात्मक बुद्धि का, अधिमानस का, अतिमानस का उद्‌घाटन और आध्यात्म पुरुष के उच्चतर यंत्र- विन्यास की ओर का कठिन मार्ग तैयार किया जा सकता है । अगर तात्त्विक आध्यात्मिक सदर का अतःप्रकाश और उस शुद्ध सत् में हमारी सत्ता का अवसान ही एकमात्र उद्देश्य होता तो मानसिक विकास पर इस तरह जोर देने का कोई प्रयोजन न होता क्योंकि प्रकृति के हर बिंदु पर आध्यात्म सत्ता का स्फुरण और उसमें हमारी सत्ता का विलयन संभव है । हृदय की तीव्रता, मन की संपूर्ण निश्चल- नीरवता, इच्छा का एकमात्र तल्लीन करनेवाला आवेग उस चरम गति को लाने के लिये पर्याप्त होगा । अगर प्रकृति का अंतिम इरादा पारलौकिक होता तब भी यही विधान उचित होता क्योंकि हर जगह, प्रकृति के किसी भी बिंदु पर पारलौकिक एषणा की पर्याप्त शक्ति हो सकती है जो पार्थिव-क्रिया को पार कर सके, उससे अलग हो सके और आध्यात्मिक अन्यत्र में प्रवेश कर सके । लेकिन अगर उसका इरादा है सत्ता का व्यापक परिवर्तन तो यह दोहरा विकास बोधगम्य है और अपना औचित्य सिद्ध करता है क्योंकि इस उद्देश्य के लिये यह अनिवार्य है ।

 

     फिर भी, यह एक कठिन और धीमी आध्यात्मिक प्रगति आरोपित करती है क्योंकि पहले तो आध्यात्मिक आविर्भाव को हर कदम पर उपकरणों के तैयार होने के लिये प्रतीक्षा करनी पड़ती है; फिर जब आध्यात्मिक रूपायन का आविर्भाव होता है वह पेचीदे ढंग से अपूर्ण मन, प्राण और शरीर की शक्तियों, प्रेरणाओं और

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आवेगों से मिला रहता है । उसपर यह खिंचाव रहता है कि इन शक्तियों, प्रेरणाओं और आवेगों को स्वीकारे और उनकी सेवा करे । उसपर नीचे की ओर गुरुत्वाकर्षण और संकटप्रद मिश्रण रहता है, पतन या च्युति का प्रलोभन सदा लगा रहता है । कम-से-कम बेड़ियां, भार और विलम्ब तो आता ही है । जो कदम आगे बढ़ चुका है उसपर वापिस जाने की जरूरत होती है ताकि प्रकृति की उस चीज को ऊपर उठाया जा सके जो पीछे लटक रहीं है और आगे कदम उठाने से रोकती है और अंत में मन का अपना स्वरूप है जिसमें उसे काम करना होता है, उभरती हुई आध्यात्मिक ज्योति और शक्ति का सीमांकन और उसपर खण्ड-खण्ड करके आगे बढ़ने की बाध्यता, किसी एक लीक का अनुसरण, कभी दूसरी का, अपनी समग्रता की उपलब्धि को पीछे फिर कभी के लिये या पूरी तरह छोड़ देना । यह अड़ंगा, मन, प्राण और शरीर की यह बाधा -शरीर का भारी तमस् और हठ, प्रणिक भाग के गदले आवेग और मन की अस्पष्टता, संदेह-भरी अनिश्चितियां, इंकार और अन्य निरूपण -यह इतनी बड़ी और असह्य बाधा है कि आध्यात्मिक प्रेरणा अधीर हो उठती है और इन विरोधियों को कठोरता से कुचल देने की कोशिश करती है, प्राण को त्याग देने, शरीर को उत्पीड़ित करने और मन को मौन करके अपनी स्वतंत्र मुक्ति पा लेने की कोशिश करती है ताकि आत्मा शुद्ध आत्मा में चली जाये और अपने अंदर से अदिव्य, अंधकारमय प्रकृति को एकदम त्याग दे । परम आह्वान के सिवा हमारे अंदर आध्यात्मिक भाग का अपने उच्चतम तत्त्व और स्थिति की ओर वापिस लौटने का स्वाभाविक आग्रह होता है । शुद्ध आध्यात्मिकता के लिये प्राणिक तथा भौतिक प्रकृति का यह बाधक रूप संन्यास के लिये, मायावाद के लिये, पारलौकिकता की प्रवृत्ति, जीवन से वैराग्य के प्रति प्रेरणा, शुद्ध, अमिश्रित निरपेक्ष के लिये अनुराग का बाध्यकारी कारण है । शुद्ध, आध्यात्मिक निरपेक्षवाद आत्मा की अपनी परम आत्मस्थिति की ओर गति है लेकिन वह प्रकृति के अपने प्रयोजन के लिये भी जरूरी है क्योंकि उसके बिना मिश्रण, नीचे की ओर गुरुत्वाकर्षण आध्यात्मिक उभार को असंभव बना देगा । इस निरपेक्षवाद का चरमपंथी, एकान्तवासी, संन्यासी, आध्यात्म सत्ता का ध्वजावाहक है, उसका गेरुआ वस्र उसकी पताका है, सभी समझौतों से इंकार करने का प्रतीक है । वस्तुत: उभार का संघर्ष समझौते में समाप्त नहीं हो सकता बल्कि उसका अंत होगा संपूर्ण आध्यात्मिक विजय और निम्नतर प्रकृति के पूर्ण समर्पण में । अगर यहां पर वह असंभव है तो निश्चय ही उसे कहीं और पाना होगा । अगर प्रकृति उभरती हुई आत्मा के आधीन होने से इंकार करती है तो आत्मा को उससे अपने-आपको खींच लेना चाहिये । इस भांति आध्यात्मिक आविर्भाव में दोहरी प्रवृत्ति है; एक ओर किसी भी कीमत पर सत्ता में आध्यात्मिक चेतना की प्रतिष्ठा की ओर प्रेरणा, उसके लिये प्रकृति का बहिष्कार तक, और दूसरी ओर हमारी प्रकृति के भागों की ओर

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आध्यात्मिकता के विस्तार की प्रेरणा । लेकिन जबतक पहला पूरी तरह प्राप्त न हो जाये, दूसरा अधूरा और लड़खड़ाता ही रहेगा । आध्यात्मिक मनुष्य के विकास में पहला उद्देश्य है शुद्ध आध्यात्मिक चेतना का संस्थापन, और यही चीज और उस चेतना की सद्वस्तु, अध्यात्म-पुरुष या दिव्य सत्ता के साथ संपर्क के लिये ललक ही आध्यात्मिक जिज्ञासु की पहली, सबसे महत्त्वपूर्ण या जबतक कि वह पूरी तरह से चरितार्थ न हो, एकमात्र तल्लीनता होनी चाहिये । यही वह एक आवश्यक वस्तु है जिसे हर एक को -उसके लिये जो भी राह संभव है उससे -करना चाहिये, हर एक को अपनी प्रकृति में विकसित आध्यात्मिक क्षमता के अनुसार ।

 

     आध्यात्मिक सत्ता के विकास के उपलब्ध क्षेत्र के बारे में विचार करते हुए हमें उसे दो दिशाओं से देखना होगा; प्रकृति द्वारा काम में लाये हुए साधनों और विकास-रेखाओं पर विचार करना और उसके द्वारा मानव व्यष्टि में उपलब्ध वास्तविक परिणामों का अवलोकन करना । आंतरिक सत्ता को खोलने के प्रयत्न में प्रकृति ने चार मुख्य प्रणालियों का अनुसरण किया है - धर्म, गुह्यवाद, आध्यात्मिक विचार और आंतरिक आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूति । पहले तीन उपक्रम हैं और अंतिम है प्रवेश के लिये निर्णायक पथ । इन चारों शक्तियों ने सम्मिलित क्रिया में कार्य किया है, न्यूनाधिक रूप से सम्बद्ध, कभी-कभी परिवर्तनशील सहयोग में और कभी एक-दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते और कभी अलग स्वतंत्र रूप से । धर्म ने अपने आचार, अनुष्ठानों और संस्कारों में किसी गुह्य तत्त्व को प्रवेश दिया है, उसने आध्यात्मिक विचार का सहारा लिया है जिससे कभी किसी मत या विश्वास को और कभी अपना समर्थक आध्यात्म दर्शन प्राप्त किया है । साधारणत: पहली रीति पश्चिम की और दूसरी पूर्व की रही है । लेकिन धर्म का अंतिम लक्ष्य और उपलब्धि, उसका व्योम और शिखर रहा है आध्यात्मिक अनुभव । लेकिन साथ ही कभी-कभी धर्म ने गुह्यवाद की मनाही की है या अपने गुह्यवाद के अंश को कम-से-कम कर दिया है । उसने दार्शनिक मन को शुष्क, बौद्धिक और पराया मानकर दूर धकेल दिया है, अपने सारे भार सहित मत और सिद्धांत का, धर्मपरायण भक्तिभाव-भरी भावुकता, उत्साह और नैतिक आचार- व्यवहार का सहारा लिया है; उसने आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभव कम-से-कम कर दिया या एकदम हटा दिया है । गुह्यवाद ने कभी-कभी आध्यात्मिक लक्ष्य को अपना उद्देश्य माना है और गुह्य-ज्ञान और अनुभूति का अनुसरण उसके मार्ग- स्वरूप किया है । उसने किसी तरह का गुह्य-दर्शन बनाया है लेकिन बहुधा उसने अपने-आपको गुह्यज्ञान और क्रियातक ही सीमित रखा है जिसमें कोई आध्यात्मिक विचारधारा नहीं होती । वह इन्द्रजाल या केवल जादू की ओर मुड़ा है, कभी भटककर पैशाचिकता में पहुंच गया है । आध्यात्मिक दर्शन अपने सहारे या अनुभूति के मार्ग के रूप में धर्म पर सामान्यत: अवलम्बित रहा है । वह सिद्धि

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और अनुभूति के परिणामस्वरूप रहा है या उसने अपने निर्माण उसकी ओर उपगमन के रूप में खड़े किये हैं । लेकिन उसने धर्म की समस्त सहायता या बाधा को नकारा भी है और वह अपने ही बल-बूते पर आगे बढ़ा है । या तो वह मानसिक ज्ञान से संतुष्ट रहा है या अपना ही अनुभव और प्रभावशाली साधना का पथ खोज लेने के बारे में विश्वस्त रहा है । आध्यात्मिक अनुभूति ने तीनों साधनों का आरंभ-बिंदु के रूप में उपयोग किया है लेकिन केवल अपने बल पर खड़े होकर उसने तीनों को छोड़ भी दिया है; गुह्य ज्ञान और शक्तियों को भयानक प्रलोभन और उलझानेवाली बाधाएं मानकर निरुत्साहित किया है और उसने आत्मा के शुद्ध सत्य की ही खोज की है । दर्शन को छोड़कर वह हृदय के उत्साह या रहस्यवादी आंतरिक आध्यात्मीकरण द्वारा लक्ष्यतक पहुंचा है । समस्त धार्मिक मत-विश्वास, पूजा, अर्चना को पीछे डालकर, उन्हें एक निम्नतर स्थिति या पहला अभ्युपगम मानकर आगे बढ़ गया है और अपने पीछे इन सब सहारों को, इन सब सज्जाओं को छोड़कर आध्यात्मिक सद्वस्तु के शुद्ध संपर्कतक बढ़ गया है । ये सारी विभिन्नताएं जरूरी थीं, प्रकृति के विकसनशील प्रयास ने सभी लोकों पर परीक्षण किया है ताकि परम चेतना और सर्वांगीण ज्ञान की ओर वह अपना सच्चा मार्ग और पूर्ण मार्ग पा ले ।

 

     क्योंकि, इनमें से हर एक साधन या उपगम हमारी समग्र सत्ता की किसी चीज के साथ मेल खाता है और इस नाते उसके विकास के समग्र उद्देश्य के लिये आवश्यक किसी वस्तु के साथ मेल खाता है । अगर मनुष्य को सतही अज्ञान का वह प्राणी नहीं रहना है जो अस्पष्ट रूप से चीजों के सत्य की खोज करता है और ज्ञान के खण्डों और विभागों को इकट्ठा और व्यवस्थित करता है, वैश्व शक्ति का तुच्छ सीमित और अर्द्ध-सक्षम प्राणी नहीं रहना है, जो कि वह अभी अपनी वर्तमान दृश्य प्रकृति में है तो उसके आत्म-विस्तार के लिये चार आवश्यकताएं हैं । उसे अपने-आपको जानना चाहिये और अपनी सभी संभाव्यताओं को खोजना, उनका उपयोग करना चाहिये : लेकिन अपने-आपको और जगत् को पूरी तरह जानने के लिये उसे अपने तथा उसके बाहरी रूप के पीछे जाना होगा, उसे अपनी मानसिक सतह के और प्रकृति की भौतिक सतह के नीचे गहराई में डुबकी लगानी होगी । वह यह अपनी आंतरिक मानसिक, प्राणिक, शारीरिक और चैत्य सत्ता को तथा उसकी शक्तियों, गतियों तथा वैश्व नियमों और गुह्य मन और प्राण की प्रक्रियाओं को जानकर ही कर सकता है । ये विश्व के जड़ अग्रभाग के पीछे खड़े रहते हैं; यदि हम इस शब्द को उसके विशालतर अर्थ में लें तो यही गुह्यवाद का क्षेत्र है । उसे जगत् पर शासन करनेवाली प्रच्छन्न शक्ति या शक्तियों को भी जानना चाहिये । अगर कोई विश्वात्मा, वैश्व आध्यात्म पुरुष या कोई स्रष्टा है तो उसे उसके साथ संबंध जोड़ सकना चाहिये और जो भी संपर्क या सायुज्य संभव है उसमें रहना चाहिये, विश्व की प्रभु-सत्ताओं या वैश्व सत्ता और उसकी वैश्व इच्छा या परम सत्ता

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और उसकी परम इच्छा के साथ किसी तरह का सामंजस्य बिठाना चाहिये, मनुष्य को परम सत्ता द्वारा दिये गयें विधान और उसके अपने जीवन के उस लक्ष्य और आचरण का अनुसरण करना चाहिये जो उसे दिया गया है या उसके सामने प्रकट किया गया है । उसे अपने-आपको उस उच्चतम ऊंचाई तक उठा सकना चाहिये जिसकी वह उससे इस जीवन में या अगले जीवन में मांग करती है । अगर ऐसी कोई वैश्व या परम आत्मा या सत्ता नहीं है तो उसे जानना चाहिये कि आखिर है क्या और अपनी वर्तमान अपूर्णता और असमर्थता में से उसतक कैसे उठा जा सकता है । यह उपगमन ही धर्म का लक्ष्य है । उसका प्रयोजन है मनुष्य का भगवान् के साथ नाता जोड़ना और यह करते हुए विचार और प्राण और शरीर को उदात्त करना ताकि वे अंतरात्मा और अध्यात्म पुरुष के शासन को स्वीकार करें । लेकिन यह ज्ञान किसी मत या रहस्यमय अंतःप्रकाश से बढ़कर कुछ और होना चाहिये । उसके विचारशील मन को उसे स्वीकारना चाहिये, उसे वस्तुओं के तत्त्व और विश्व के अवलोकित सत्य के साथ सहसंबद्ध करना चाहिये । यह दर्शन का काम है और आत्मा के सत्य के क्षेत्र में यह केवल आध्यात्मिक दर्शन द्वारा ही किया जा सकता है; फिर वह अपने तरीके में बौद्धिक हो या अंतर्भासात्मक । लेकिन सभी ज्ञान और प्रयास अपनी सफलता तक तभी पहुंच सकते हैं जब वे अनुभूति में बदल जायें, चेतना का और उसकी प्रतिष्ठित क्रियाओं का एक भाग बन जायें । आध्यात्मिक क्षेत्र में इस सारे धार्मिक, गुह्य या दार्शनिक ज्ञान तथा प्रयास को सफल होने के लिये आध्यात्मिक चेतना के उद्‌घाटन में, उसे प्रतिष्ठित करने और सदा उठाने, विस्तृत और समृद्ध करनेवाले अनुभवों में और अध्यात्म के सत्य के साथ मेल खानेवाले जीवन और क्रिया के निर्माण में समाप्त होना होगा । यह आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूति का कार्य है ।

 

वस्तुस्थिति ही ऐसी है कि समस्त विकास को आरंभ में धीमे उन्मीलन के साथ शुरू होना होगा क्योंकि अपनी शक्तियों को विकसित करनेवाले हर नये तत्त्व को निश्चेतना और अज्ञान में अंतर्लयन में से रास्ता बनाना होता है । उसका अपने- आपको अंतर्लयन से, आद्य माध्यम के अंधेरे की पकड़ में से निश्चेतना के खिंचाव और दबाव का विरोध करते हुए सहज विरोध और अड़ंगे, अज्ञान के बाधक मिश्रण ओर अंधे तथा दुराग्रही विलंबनों में से खींच निकालना कठिन काम होता है । शुरू में प्रकृति एक अस्पष्ट प्रेरणा और प्रवृत्ति को पुष्ट करती है जो गुह्य, अंतस्तलीय और निमज्जित सदवस्तु की बाहरी सतह की ओर दबाव का चिह्न है । तब जो चीज होनेवाली है उसके छोटे-छोटे अर्द्धनिरुद्ध संकेत, अधूरे आरंभ, अनगढ़ तत्त्व, प्रारंभिक रंग-रूप, छोटे, नगण्य, मुश्किल से पहचाने जानेवाले परिमाण मिलते हैं । उसके बाद छोटे-बड़े रूपायन होते हैं । एक अधिक विशिष्ट और पहचान में आनेवाला गुण अपने-आपको प्रकट करना शुरू करता है, पहले

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आंशिक रूप में, इधर-उधर या क्षीण मात्रा में फिर अधिक स्पष्ट, अधिक रचनात्मक रूप में और अंत में निर्णायक आविर्भाव, चेतना का उल्टाव होता है । मौलिक परिवर्तन की संभावना का आरंभ होता है; लेकिन अभी हर दिशा में बहुत कुछ करना बाकी होता है । विकसनशील प्रयास के आगे पूर्णता की ओर लंबी और कठिन वृद्धि बाकी होती है । जो चीज की जा चुकी है उसे केवल पुष्ट करना ही नहीं, फिर से गिरने, नीचे की ओर गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध, असफलता और विलोपन के विरुद्ध ही सुरक्षित नहीं करना है बल्कि उसे अपनी संभावनाओं के सभी क्षेत्रों में, अपनी समस्त आत्म-सिद्धि की समग्रता में, अपनी चरम ऊंचाई, सूक्ष्मता, समृद्धि, विस्तार की ओर खोलना है; उसे मुख्य, सर्वालिंगनकारी और व्यापक बनना होता है । हर जगह प्रकृति की यही प्रक्रिया रही है और उसकी अवहेलना करना उसके कामों के इरादे को न पकड़ना और उसकी पद्धति के जंजाल में खो जाना है ।

 

     मानव मन और चेतना में धम के विकास ने यही प्रक्रिया अपनायी है । उसने मानवजाति के लिये जो कार्य किया है उसे समझा या भली- भांति का नहीं जा सकता यदि हम प्रक्रिया की परिस्थितियों और उनकी आवश्यकता की अवहेलना कर दें । यह तो स्पष्ट है कि धर्म के प्रथम आरंभ अनगढ़ और अधूरे रहे होंगे, उसका विकास मिश्रणों, भ्रांतियों और मानव मन और प्राणिक भाग को दी गयी सुविधाओं से उलझा हुआ होगा, ये सुविधाएं बहुधा बहुत अनाध्यात्मिक रूप की हो सकती हैं । अज्ञान-भरे, हानिकर, यहां तक कि संकटाकीर्ण तत्त्व भी अंदर घुस सकते और भ्रांति और अशुभ की ओर ले जा सकते हैं । मानव मन की मतांधता, उसकी स्वाग्रही संकीर्णता, उसका असहिष्णु और चुनौती देनेवाला अहंकार, उसकी अपने सीमित सत्यों के लिये आसक्ति और उससे भी बढ़कर अपनी भूल-भ्रांतियों के लिये आसक्ति या प्राण की उग्रता, कट्टरता, प्राण का युद्धप्रिय और उत्पीड़क स्वाग्रह, उसकी मन पर अपनी कामनाओं और प्रवृत्तियों के लिये अनुमति प्राप्त करने के लिये विश्वासघाती क्रिया -ये आसानी से धार्मिक क्षेत्र पर आक्रमण कर सकती हैं और धर्म को उसके उच्चतर आध्यात्मिक लक्ष्य और स्वरूप से रोक सकती हैं । धर्म के नाम के नीचे बहुत-सा अज्ञान छिप सकता है, बहुत-सी भ्रांतियों और विस्तृत गलत निर्माणों को अनुमति दी जा सकती है, यहांतक कि आत्मा के विरुद्ध बहुत-से अपराध और अहित किये जा सकते हैं । लेकिन समस्त मानव प्रयास का ऐसा ही उतार-चढ़ाववाला इतिहास है और अगर इसे धर्म के सत्य और उसकी आवश्यकता के विरुद्ध गिना जाये तो यह मानव प्रयास की हर धारा के विरुद्ध, मनुष्य के समस्त कर्म, उसके आदर्श, उसके विचार, उसकी कला, उसके विज्ञान के सत्य और उसकी आवश्यकता के विरुद्ध भी गिना जायेगा ।

 

     धर्म ने अपने प्रतिवाद का रास्ता खोल दिया यह दावा करके कि उसे सत्य का

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निर्धारण दैवी अधिकार से, प्रेरणा से, ऊपर से दिये गये परम पुनीत और अचूक प्रभुत्व से करने का अधिकार है । उसने अपने-आपको मानव-विचार, भावना और आचरण पर बिना विवाद और बिना ननुनच के आरोपित करने की कोशिश की है । यद्यपि धार्मिक भाव पर इस दावे के आरोपण का कारण एक तरह से उसके आधार और प्रमाण होनेवाली प्रेरणाओं और प्रदीप्तियों का अनुल्लंष्य और अकाट्य स्वरूप और मन के अज्ञान, संशयों और दुर्बलताओं, अनिश्चितियों के बीच अंतरात्मा से आती एक गुह्य ज्योति तथा शक्ति के रूप में श्रद्धा की आवश्यकता है तथापि यह दावा अतिशय और अपरिपक्व है । मनुष्य के लिये श्रद्धा अनिवार्य है क्योंकि उसके बिना वह अज्ञात में से अपनी यात्रा पर आगे न बढ़ पाता; लेकिन वह आरोपित नहीं होनी चाहिये । वह स्वतंत्र बोध या अनुल्लंष्य आदेश के रूप में अंतःपुरुष से आनी चाहिये । निर्विवाद स्वीकृति के लिये उसका दावा तभी न्याय- संगत हो सकता है जब आध्यात्मिक प्रयास के फल-स्वरूप मनुष्य की प्रगति सारे अज्ञानमय मानसिक और प्राणिक मिश्रण से मुक्त होकर उच्चतम, समग्र और पूर्ण ऋत-चित् को प्राप्त कर ले । हमारे आगे यही चरम उद्देश्य है लेकिन यह अभीतक चरितार्थ नहीं हुआ है और अपरिपक्व दावे ने मनुष्य में धार्मिक वृत्ति के सच्चे कार्य को धुंधला कर दिया है; वह कार्य है उसे दिव्य सद्धस्तु की ओर ले जाना, उसने अभीतक इस दिशा में जो कुछ पाया है उस सबको सूत्रबद्ध करना और हर मानव सत्ता को आध्यात्मिक साधना का सांचा देना, दिव्य सत्य को खोजने, छूने, उसके पास जाने की राह देना, ऐसी राह जो उसकी प्रकृति की क्षमताओं के अनुकूल हो ।

 

     विकसनशील प्रकृति की विस्तृत और नमनीय पद्धति जो मनुष्य की धार्मिक खोज के सबसे विस्तीर्ण प्रसार को अवसर देती है और उसके सच्चे अभिप्राय को सुरक्षित रखती है, वह भारत में धर्म के विकास में देखी जा सकती है । यहां अनेक धार्मिक निरूपणों, मत-मतांतरों और साधनाओं को स्वीकृति दी गयी है बल्कि उन्हें साथ-साथ रहने के लिये प्रोत्साहन दिया गया है, और हर आदमी को यह स्वतंत्रता थी कि जो उसके विचार, भाव, स्वभाव, प्रकृति के गठन के अनुकूल हो उसको स्वीकार करे, उसका अनुसरण करे । यह उचित और तर्कसंगत है कि परीक्षणात्मक विकास के उपयुक्त यह नमनीयता हो, क्योंकि धर्म का यथार्थ कार्य है मनुष्य के मन, प्राण और शारीरिक जीवन को तैयार किया जाये ताकि आध्यात्मिक चेतना उसे उठाकर उस स्थानतक ले जाये जहां आंतरिक आध्यात्मिक प्रकाश पूरी तरह से प्रकट होना शुरू करता है । इस बिंदु पर धर्म को अपने- आपको अधीनस्थ बनाना सीखना चाहिये, वह अपने बाहरी स्वरूप पर आग्रह न करे बल्कि स्वयं आंतरिक आत्मा को अपना निजी सत्य और वास्तविकता विकसित करने का पूरा क्षेत्र दे । इस बीच उसे मनुष्य के मन, प्राण और शरीर को जितना हो सके अपने हाथ में लेना चाहिये और मनुष्य के सभी क्रिया-कलाप को आध्यात्मिक

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दिशा, उनमें आध्यात्मिक अर्थ के अंतःप्रकाश, आध्यात्मिक सुरुचि की छाप, आध्यात्मिक चरित्र के आरंभ की ओर मोड़ना चाहिये । इस प्रयास में धर्म की भूल-भ्रांतियां आ जाती हैं क्योंकि वे उस वस्तु के स्वभाव के कारण आती हैं जिसके साथ वह व्यवहार करता है -वह निम्नतर पदार्थ के ठीक उन रूपों पर आक्रमण करता है जो आध्यात्मिक और मानसिक, प्राणिक या भौतिक चेतना के बीच मध्यस्थ होने के लिये बने हैं और बहुधा वह उन्हें घटाता है, पदच्युत और भ्रष्ट कर देता है । लेकिन धर्म का बड़े-से-बड़ा उपयोग भी इसी प्रयास में है जिसमें वह आत्मा और प्रकृति के बीच मध्यस्थ है । मानव-विकास में सत्य और भ्रांति सदा एक साथ रहते हैं और अपने साथ की भ्रांतियों के कारण सत्य को नहीं त्यागा जा सकता, यद्यपि इन्हें निकालना जरूरी है, यह बहुधा एक कठिन व्यापार होता है और अगर कच्चे ढंग से किया जाये तो धर्म के शरीर को परिणामस्वरूप शल्यहानि पहुंचाता है क्योंकि जिसे हम भूल-भ्रांति समझते हैं वह बहुधा किसी ऐसे सत्य का चिह्न, छद्मवेश, भ्रष्ट रूप या कुरचना होता है जो शल्यक्रिया की पाशविक उग्रता में खो जाता है । भूल-भ्रांति के साथ सत्य को भी काट दिया जाता है । स्वयं प्रकृति लंबे समयतक अच्छे अनाज के साथ-ही-साथ घास-पात और रुखड़ियों को बढ़ने देती है क्योंकि केवल इसी तरह उसकी अपनी वृद्धि और मुक्त विकास संभव है ।

 

     विकसनशील प्रकृति जब मनुष्य को पहले-पहल प्रारंभिक आध्यात्मिक चेतना के प्रति जगाती है तो उसे अपनी भौतिक सत्ता के चारों ओर से घेरे हुए अनंत और अदृश्य के अस्पष्ट भाव से, मानव मन और इच्छा की सीमितता और असमर्थता के भाव से आरंभ करती है कि मनुष्य से भी महत्तर कोई चीज जगत् में छिपी है, उसके कर्म के परिणामों को निर्धारित करनेवाली मंगलकारी या अनिष्टकारी शक्तियां हैं, एक ऐसी शक्ति है जो उस भौतिक जगत् के पीछे रहती है जिसमें वह निवास करता है, शायद इस शक्ति ने उसका और जगत् का निर्माण किया है, या ऐसी शक्तियां हैं जो प्रकृति की गतिविधियों को अनुप्राणित करती और उनपर शासन करती हैं और शायद वे स्वयं उस बृहत्तर अज्ञात द्वारा शासिंत होती हैं जो उनके परे है । उसे यह निश्चय करना था कि वे क्या हैं, और उनके साथ संपर्क के साधन ढूंढ़ने थे ताकि वह उन्हें खुश कर सके और अपनी सहायता के लिये बुला सके । उसने उन साधनों को खोजने की भी कोशिश की जिनके द्वारा वह प्रकृति की छिपी हुई गतियों के उत्सों को खोज सके और उनपर नियंत्रण कर सके । वह यह सब तुरंत अपनी तर्क-बुद्धि के द्वारा नहीं कर सकता था क्योंकि उसकी तर्क-बुद्धि पहले- पहल केवल भौतिक तथ्यों के साथ व्यवहार कर सकती थी परंतु यह अतिभौतिक का क्षेत्र था और इसके लिये अतिभौतिक दृष्टि और ज्ञान की जरूरत थी । यह उसे अंतर्भास और सहज वृत्ति की क्षमता के विस्तरण द्वारा करना था जो पहले से ही

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पशु में मौजूद थी । यह क्षमता विचारशील सत्ता में विस्तृत और मानसभावापन्न होकर आदिम मनुष्यों में अधिक संवेदनशील और सक्रिय रही होगी, यद्यपि तब भी अधिकतर एक निचले स्तर पर ही रही होगी क्योंकि मनुष्य को अपने पहले आवश्यक अन्वेषणों में उसीपर अधिकतर निर्भर रहना पड़ा, उसे अपने अंतस्तलीय अनुभव का भी सहारा लेना पड़ा; क्योंकि उसने अपनी बुद्धि और इन्द्रियों पर पूरी तरह निर्भर रहना सीखा, उससे पहले अंतस्तलीय भी उसके ऊपर अधिक सक्रिय रहा होगा, उमड़ पड़ने के लिये ज्यादा तैयार रहा होगा, सतह पर अपने व्यापारों को रूपायित करने के लिये ज्यादा समर्थ हुआ होगा, प्रकृति के साथ संपर्क द्वारा उसने जो अंतर्भास प्राप्त किये, उन्हें उसके मन ने प्रणालीबद्ध किया और इस तरह धर्म के पहले रूप बने । अंतर्भास की इस सक्रिय और प्रस्तुत शक्ति ने भी उसे उन अतिभौतिक शक्तियों का संवेदन दिया जो भौतिक के पीछे रहती हैं और अपनी सहज वृत्ति और किसी अंतस्तलीय या अधिसामान्य अनुभूति से कि ऐसी अतिभौतिक सत्ताएं हैं जिनसे वह किसी तरह संपर्क कर सकता है, वह इस ज्ञान के क्रियात्मक उपयोग के प्रभावी और व्यवस्थित साधन के आविष्कार की ओर अभिमुख हुआ । इस तरह जादू और गुह्य-विद्या के अन्य प्रारंभिक रूपों की रचना हुई । किसी समय उसमें यह विचार उदित हुआ होगा कि उसमें कोई ऐसी चीज है जो भौतिक नहीं है, एक अंतरात्मा है जो शरीर के बाद भी बनी रहती है, कुछ अधिसामान्य अनुभूतियां हैं जो अदृश्य को जानने के दबाव के कारण सक्रिय हो गयीं, अपने अंदर की इस सत्ता के बारे में उसके पहले अधकचरे विचारों को रूप देने में उन्होंने सहायता की होगी । बाद में उसने अनुभव करना शुरू किया होगा कि वह जिसे विश्व की क्रिया में देखता है वह किसी रूप में उसके अंदर भी मौजूद है और उसके अंदर भी ऐसे तत्त्व हैं जो भले या बुरे के लिये अदृश्य सत्ताओं और शक्तियों को उत्तर देते हैं । और इस तरह से उसकी धार्मिक-नैतिक रचनाओं और आध्यात्मिक अनुभूतियों की संभावनाओं का आरंभ हुआ होगा । प्रारंभिक अंतर्भाओं, गुह्य कर्मकांड, धार्मिक-सामाजिक आचार, रहस्यमय ज्ञान या अनुभूतियों का सम्मिश्रण जो पुराण कथाओं में प्रतीक रूप से मिलता है परंतु जिनके अर्थ का संरक्षण गुप्त दीक्षा या अनुशासन द्वारा किया जाता है, यही मानव धर्म की प्रारंभिक भूमिका है जो शुरू में बहुत छिछली और बाहरी रही है । शुरू में ये तत्त्व निःसंदेह अनगढ़, दीन और त्रुटिपूर्ण थे लेकिन उन्होंने गहराई और प्रसार प्राप्त करके कुछ संस्कृतियों में बढ़कर बहुत विस्तार और सार्थकता पायी ।

 

     लेकिन जैसे मानसिक और प्राणिक विकास बढ़ा -क्योंकि मनुष्य के अंदर प्रकृति की यही पहली तल्लीनता होती है, और जिन तत्त्वों को पूरी तरह बाद में हाथ में लिया जा सकता है उन्हें छोड़कर इस विकास को आगे धकेलने में संकोच नहीं करती -बौद्धीकरण की ओर प्रवृत्ति होती है और पहले आवश्यक

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अंतर्भासात्मक, सहज-वृत्तिमूलक और अंतर्लीन रूपायन तर्कबुद्धि और मनोमय बुद्धि की बढ़ती हुई शक्ति के द्वारा खड़ी की गयी रचनाओं से अच्छादित हो जाते हैं । जैसे-जैसे मनुष्य भौतिक प्रकृति के रहस्यों और प्रक्रियाओं की खोज करता है वह पहले के रहस्यवाद और जादू-टोने के सहारे से अधिकाधिक दूर होता जाता है । ज्यों-ज्यों अधिकाधिक चीजों की व्याख्या प्राकृतिक क्रियाओं से, प्रकृति की यांत्रिक पद्धति से होती जाती है त्यों-त्यों देवताओं और अदृश्य शक्तियों की उपस्थिति और अनुभूत प्रभाव दूर होता जाता है । फिर भी वह अपने जीवन में आध्यात्मिक तत्त्व और आध्यात्मिक तथ्यों की आवश्यकता का अनुभव करता है, अत: कुछ समय के लिये दोनों क्रियाओं को साथ-साथ जारी रखता है । लेकिन धर्म के गुह्य अंश, यद्यपि उन्हें विश्वास के रूप में माना या सुरक्षित रखा जाता है, कर्मकांड और पौराणिक गाथाओं में दबे होने के कारण अपना महत्त्व खो बैठते और कम हो जाते हैं और बौद्धिक अंश बढ़ता है और अंत में जब और जहां बौद्धिक बनने की वृत्ति बहुत मजबूत हो जाती है वहां मत, परिपाटी, औपचारिक अनुष्ठान और नैतिकता को छोड़कर बाकी सबको काट फेंकने का आंदोलन होता है । आध्यात्मिक अनुभूति का तत्त्व भी घट जाता है और निर्भर रहने के लिये केवल श्रद्धा, भावुक आवेग और नैतिक आचरण को काफी मान लिया जाता है । धर्म, गुह्यवाद और रहस्यमय अनुभूति का प्रथम सम्मिश्रण टूट जाता है और एक प्रवृत्ति होती है जो किसी भी अर्थ में सार्वभौम या पूर्ण तो नहीं फिर भी स्पष्ट और दृश्य होती है कि इनमें से हर शक्ति, अपने ही लक्ष्य की ओर, अपने ही अलग और स्वतंत्र स्वभाव के अनुसार अपने मार्ग का अनुसरण करे । इस पर्व का अंतिम परिणाम होता है धर्म, गुह्यवाद और जो कुछ अतिभौतिक है उसका संपूर्ण नकार । यह हमारी प्रकृति के अधिक गहरे भागों के लिये शरणरूप रहनेवाली आश्रयदाता रचनाओं को टुकड़े-टुकड़े कर डालनेवाली छिछली बुद्धि का निर्मम और शुष्क आवेग होता है । फिर भी विकसनशील प्रकृति अपने अव्यक्त इरादों को कुछ लोगों के मनों में जीवित रखती है और मनुष्य के विशालतर मानसिक विकास का उपयोग उन्हें उच्चतर स्तर और गहनतर परिणामोंतक ले जानें के लिये करती है । वर्तमान काल में ही, विजयी बौद्धिकता और जड़वादी युग के बाद हम इस स्वाभाविक प्रक्रिया के चिह्न देखते हैं -आंतरिक आत्मान्वेषण की ओर, आंतरिक खोज और विचार की ओर लौटना, रहस्यमय अनुभूति की ओर एक नया प्रयास, आंतरिक पुरुष की टोह, आत्मा के सत्य और शक्ति के किसी भाव की ओर पुनर्जागरण अपने-आपको अभिव्यक्त करने लगता है, अपनी आत्मा और अंतरात्मा और वस्तुओं के गहनतर सत्य के लिये मनुष्य की खोज पुनर्जीवित होने लगती है और अपने खोये हुए बल को फिर से पाने और पुराने मतों को नया जीवन देने और मतवादी धर्मों से अलग, स्वतंत्र रूप से नये विश्वासों को विकसित करने की ओर

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प्रवृत्त होती है । स्वयं बुद्धि भौतिक अन्वेषण की क्षमता की स्वाभाविक सीमाओंतक पहुंचकर, उसके सुदृढ़ आधारतक का स्पर्श करके और यह पता लगाकर कि यह प्रकृति की बाहरी प्रक्रिया को छोड़कर और किसी चीज की व्याख्या नहीं कर पाती, अस्थायी रूप से, रुक-रुककर गवेषणा की आंख को मन के और प्राणिक शक्तियों के गहरे रहस्यों और गुह्य के क्षेत्र की ओर मोड़ना शुरू कर रही है, जिसे उसने कारण-कार्य संबंध के अनुसार वर्जित कर दिया था, यह जानने के लिये कि उसमें कौन-सी चीज हो सकती है जो सच है । स्वयं धर्म ने भी बचे रहने की शक्ति दिखलायी है और अब विकसित हो रहा है लेकिन जिसका चरम अर्थ अभीतक अस्पष्ट है । मन की इस नयी अवस्था में, जिसे हम शुरू होते हुए देख रहे हैं, वह चाहे कितने भी अनगढ़ और हिचकिचाते रूप में क्यों न हो, प्रकृति में आध्यात्मिक विकास के किसी निर्णायक मोड़ और प्रगति की ओर दबाव की संभावना दिखलायी देती है । धर्म, जो प्रकृति की पहली अवबौद्धिक भूमिका में समृद्ध लेकिन कुछ धुंधला रूप लिये था, बुद्धि के अतिभार के नीचे, तर्क-संगति के स्पष्ट किंतु खाली अंतराल में जाने की ओर प्रवृत्त हुआ था । लेकिन अंत में उसे मानव मन की ऊर्ध्वमुखी गोलाई का अनुसरण करना होगा और उसके शिखरों पर अपने सच्चे या श्रेष्ठतम क्षेत्र की ओर अधिक पूरी तरह से उठना होगा जो तर्क-बुद्धि से परे की चेतना और ज्ञान के क्षेत्र में है ।

 

     अगर हम भूतकाल की ओर नजर डालें तो हम प्राकृतिक विकास की इस रेखा के प्रमाण पा सकते हैं यद्यपि अपनी प्रारंभिक अवस्थाओं में से अधिकतम अवस्थाएं प्रागितिहास के अलिखित पृष्ठों में छिपी पड़ी हैं । यह कहा गया है कि अपने आदिकाल में धर्म जीववाद, जड़पूजा, जादू-टोना, टोटमवाद, निषेध, पुराण- गाथा और अंधविश्वास के प्रतीकों की एक राशि के सिवा कुछ न था । वहां चिकित्सक पुरोहित होता था । यह आदिम मानव अज्ञान का फफूंद था -आगे चलकर अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में यही चीज प्रकृति-पूजा बन गयी । आदिम मानस में ऐसा हो तो सकता था परंतु हमें इसके साथ यह परंतुक जोड़ देना चाहिये कि इनमें से बहुत सारे विश्वासों और क्रियाओं के पीछे कोई घटिया स्तर का परंतु बहुत प्रभावशाली प्रकार का सत्य रहा होगा जिसे हमने अपने श्रेष्ठतर विकास के साथ खो दिया है । आदिम मानव अपनी प्राणिक सत्ता के निचले और छोटे क्षेत्र में अधिक निवास करता है और गुह्य स्तर पर यह एक ऐसी अदृश्य प्रकृति के समरूप है जो समान- धर्मा होती है और जिसकी गुह्य शक्तियों को ऐसे ज्ञान और पद्धतियों द्वारा सक्रिय किया जा सकता है जिनके पास पहुंच का द्वार निम्नतर प्राणिक अंतर्भास और सहज वृत्तियां खोल सकती हैं । इसे धार्मिक विश्वास और क्रिया के प्रथम चरण के रूप में रूपायित किया जा सकता है जिसकी प्रकृति एवं रुचियां (रक अनगढ़ और अपक्व रूप में गुह्य होंगी लेकिन यह स्थिति तबतक

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आध्यात्मिक नहीं बनी होती : छोटी-छोटी प्राण-कामनाओं और अपरिमार्जित भौतिक कल्याण के लिये छोटी प्राण-शक्तियों और आदिभौतिक सत्ताओं को मदद के लिये बुलाना इसका मुख्य तत्त्व होगा ।

 

     लेकिन यह आदिम स्थिति -यदि वह सचमुच यही है और जैसी कि हमें अभीतक दिखायी देती है, कोई पतन या अवशेष, सभ्यता के किसी पिछले युग के उच्चतर ज्ञान से पुन: -पतन या किसी मृत या लुप्त संस्कृति के भ्रष्ट अवशेष नहीं -तो यह केवल आरंभ ही रही होगी । उसके बाद, चाहे जिन अवस्थाओं से होता हुआ अधिक उन्नत प्रकार का धर्म आया जिसका आलेख हमारे पास साहित्य या पहले की सभ्य जातियों के बचे हुए अभिलेखों में प्राप्त होता है । बहुदेवतावादी विश्वास और पूजा, एक सृष्टिशास्त्र, पुराणकथाओं, आचार-व्यवहार और अनुष्ठान और नैतिक कर्तव्यों की कभी-कभी सामाजिक व्यवस्था में गहराई से परस्पर गुंथी हुई एक जटिल प्रणाली से संरचित यह धर्म-प्रकार सामान्यत: एक राष्ट्रीय या कबीले का धर्म होता था जो विचार और जीवन के विकास की उस स्थिति की अंतरंग रूप से अभिव्यक्ति करता था जहांतक जाति पहुंच चुकी हो । बाहरी ढांचे में हम अब भी गहनतर आध्यात्मिक अर्थ को नहीं पाते लेकिन इसकी कमी को महत्तर, अधिक विकसित संस्कृतियों में गुह्य विद्या और क्रियाओं की मजबूत पृष्ठभूमि या फिर सावधानी से सुरक्षित रहस्यों के द्वारा पूरा किया जाता था जिनमें आध्यात्मिक प्रज्ञा और अनुशासन का पहला तत्त्व रहता था । गुह्यवाद बहुधा एक अतिरिक्त या अधिरचना के रूप में आता है लेकिन वह हमेशा उपस्थित नहीं रहता, दिव्य शक्तियों की पूजा, यज्ञ, सतही धर्मपरायणता और सामाजिक नीति-शास्त्र मुख्य अंग होते हैं । शुरू में आध्यात्मिक दर्शन या जीवन के अर्थ का विचार अनुपस्थित मालूम होता है लेकिन बहुधा उसका आरंभ पुराण-कथाओं और रहस्यों के अंदर रहता है और दो-एक उदाहरणों में इनमें से पूरी तरह उभर आता है और इस तरह एक सबल पृथक् अस्तित्व धारण कर लेता है ।

 

     निश्चय ही यह संभव है कि रहस्यवादी या प्रारंभी गुह्यवादी ही हर जगह धर्म का स्रष्टा था और उसने अपनी गुप्त गवेषणाएं विश्वास, पुराण-गाथा और कर्मकांड के रूप में जन-साधारण के मानस पर आरोपित कीं क्योंकि सदा व्यक्ति ही प्रकृति के अंतर्भास प्राप्त करता है और बाकी मानवजाति को अपने पीछे खींचते या घसीटते हुए आगे कदम रखता है । लेकिन अगर हम इस नूतन सृजन का श्रेय अवचेतन जन-मानस को दें तो भी उस मन के रहस्यवादी और गुह्यवादी तत्त्व ने उसका सृजन किया और उसने ऐसे व्यक्ति ढूंढ़ निकाले होंगे जिनमें से वह उभर सकता था क्योंकि व्यापक जन-अनुभव या खोज या अभिव्यक्ति प्रकृति का प्रथम उपाय नहीं है; किसी एक स्थान पर या कुछ स्थानों पर आग सुलगायी जाती है और फिर एक चूल्हे से दूसरे चूल्हेतक, एक वेदी से दूसरी वेदीतक फैलती है । लेकिन

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रहस्यवादियों की आध्यात्मिक अभीप्सा और अनुभूति सामान्यत: गुप्त सूत्रों की मंजूषा में बंद रहती थी और कुछ ही दीक्षितों को मिलती थी । बाकी लोगोंतक उसे धार्मिक या परंपरागत प्रतीकों के समुह के रूप में पहुंचाया या सुरक्षित रखा जाता था । ये प्रतीक ही आदि मानवजाति के मन में धर्म का हृदय-मर्म होते थे ।

 

     इस दूसरी स्थिति में से एक तीसरी का उदय हुआ जिसने गुप्त आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान को मुक्त करने और उन्हें सब लोंगों को सत्य के एक ऐसे रूप में देना चाहा जो सबको आकर्षित कर सके और सभीके लिये सुलभ हो । एक ऐसी प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा कि आध्यात्मिक तत्त्व को न केवल धर्म का सार-तत्त्व ही बनाया जाये बल्कि किसी बाहरी शिक्षा द्वारा उसे सभी पूजा करनेवालों के लिये सुलभ बना दिया जाये । जैसे हर रहस्वतंत्र की ज्ञान और साधना की अपनी-अपनी पद्धति थी, उसी तरह अब हर धर्म की अपनी ज्ञान-पद्धति, मत और आध्यात्मिक अनुशासन बने । यहां आध्यात्मिक विकास के इन दो रूपों में -गुह्य और लोकप्रचलित, रहस्यवादी का मार्ग और धार्मिक मनुष्य का मार्ग -हम विकसनशील प्रकृति का दोहरा तत्त्व-विधान देखते हैं । एक है छोटे-से स्थान में तीव्र और केंद्रित विकास का विधान और दूसरा विस्तार और प्रसार का ताकि नयी सृष्टि जितना हो सके उतने बड़े क्षेत्र में व्यापक हो सके । पहली संकेंद्रित, गतिशील और प्रभाव की गति है, दूसरी फैलाव और स्थिरता की ओर प्रवृत्त होती है । इस नये विकास के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक अभीप्सा, जो पहले कुछ लोगों द्वारा संचित रहती थी, वह मानवजाति में व्यापक बन गयी परंतु वह अपनी शुद्धि, उच्चता और तीव्रता खो बैठी । रहस्यवादियों ने अपने प्रयास को तर्क-बुद्धि के ज्ञान से ऊपर की उस शक्ति पर प्रतिष्ठित किया था जो अंतर्भासात्मक, अंतःप्रेरित और अंतःप्रकाशात्मक थी और अंतःपुरुष की उस सामर्थ्य पर जो गुह्य सत्य और अनुभूति में प्रवेश कर सकती है । लेकिन ये शक्तियां जन-साधारण के अधिकार में नहीं होतीं और होती भी हैं तो अनगढ़, अविकसित, खंडित प्राथमिक रूप में जिसपर किसी चीज को सुरक्षित रूप से आधारित नहीं किया जा सकता । अत: उनके लिये, इस नये विकास में आध्यात्मिक सत्य को मत और सिद्धांत के बौद्धिक रूपों, आराधना के भावुक रूपों, और सरल किंतु सार्थक कर्मकांड का परिधान पहनाना पड़ा । और साथ ही वह सबल आध्यात्मिक केंद्रक मिश्रित, हल्का और मिलावटवाला हो गया । मन, प्राण और शारीरिक प्रकृति के निचले तत्त्व उसपर आक्रमण करने और उसकी नकल करने लगे । अप्रामाणिक और बनावटी की यह मिलावट, खोट और आक्रमण, रहस्यों का यह दूषण, उनके सत्य और सार्थकता की हानि और अदृश्य शक्तियों के साथ मिलने-जुलने से आनेवाले गुह्य शक्तियों के दुरुपयोग से पहले के रहस्यवादी बहुत डरते थे और इनको रोकने के लिये वे गोपनीयता बनाये रखते थे, कठोर अनुशासन द्वारा रहस्य को केवल सुपात्र दीक्षितोंतक ही सीमित रखते थे ।

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विस्तार की गति का और अनुवर्ती आक्रमण का अशुभ परिणाम या संकट यह हुआ कि आध्यात्मिक ज्ञान को बौद्धिक आकार देकर उसके सिद्धांत-मत बनाये गये और जीती-जागती साधना को जड़ रूप देकर उपासना-पद्धति धर्माचार और अनुष्ठान का मुर्दा पिंड बना दिया गया । इस यंत्रीकरण के कारण कालक्रम में धर्म के शरीर में से आत्मा का विदा लेना जरूरी हो गया । लेकिन यह खतरा मोल लेना जरूरी था क्योंकि विकसनशील प्रकृति में आध्यात्मिक प्रेरणा की अंतर्निहित आवश्यकता थी विस्तरणशील गति ।

 

     इस भांति उन धर्मों का जन्म हुआ जो मुख्य रूप से या सब मिलाकर किसी आध्यात्मिक परिणाम के लिये मतों और अनुष्ठानों पर निर्भर हैं फिर भी अपनी अनुभूति के सत्य के कारण टिके हैं, उस आधारभूत आंतरिक वास्तविकता के कारण जो उनके अंदर शुरू से मौजूद थी और तबतक बनी रहती है जबतक उसे जारी रखनेवाले या नया रूप देनेवाले मनुष्य बाकी रहें । यह उनके लिये साधन रूप है जिन्हें भगवान् को पाने के और आत्मा को मुक्त करने के आध्यात्मिक आवेग ने छू लिया है । यह विकास आगे चलकर दो प्रवृत्तियों के विभाजन की ओर ले गया है; कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट- उदारपंथी और नवविधानवादी । एक है धर्म के आदि नमनीय स्वभाव को, उसकी बहुमुखता और मानव-प्राणी की समस्त प्रकृति को आकर्षित करने के लिये किसी संरक्षण की वृत्ति और दूसरी इस उदारता की विच्छेदक है और विश्वास, पूजा और आचार-व्यवहार पर शुद्ध निर्भरता और उनका ऐसा सरलीकरण जो साधारण बुद्धि, हृदय और नैतिक इच्छा को तुरंत और आसानी से आकर्षित करे । इस मोड़ की प्रवृत्ति एक अत्यधिक तार्किकता के सृजन की ओर रही है, उन गुह्य तत्त्वों में से अधिकांश का अपयश और तिरस्कार करने की रही है जो जो कुछ अदृश्य है उसके साथ संपर्क स्थापित करना चाहते हैं, बहिस्तलीय मन को आध्यात्मिक प्रयास का पर्याप्त वाहन मानकर उसपर निर्भर करने के उद्भव में सहायक रही है, आध्यात्मिक जीवन में एक विशेष शुष्कता, संकीर्णता और अल्पता प्रायः ही इसके परिणाम रहे हैं । और फिर जब बुद्धि ने इतने सारे को नकार दिया है, इतने को निकाल बाहर किया है तो उसे इस बात के लिये काफी अवसर और अवकाश मिल गया कि वह औरों को भी अस्वीकार कर दे, यहांतक कि आध्यात्मिक अनुभूति को भी अस्वीकार कर दे और आध्यात्मिकता तथा धर्म को निकाल बाहर करे और केवल स्वयं बुद्धि को बची हुई एकमात्र शक्ति के रूप में छोड़ दे । लेकिन आत्मा के बिना बुद्धि केवल बाह्य ज्ञान, उपादान और क्षमता के ढेर लगा सकती है और अंत में प्राण-शक्ति के गुप्त स्रोत सूख जाते हैं और क्षय शुरू हो जाता है, उस समय कोई ऐसी आंतरिक शक्ति भी नहीं रहती जो जीवन की रक्षा या नये जीवन की सृष्टि कर सके । तब मृत्यु और विघटन और पुराने अज्ञान में से एक नये आरंभ के सिवा कोई राह नहीं रहती ।

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विकसनशील तत्त्व के लिये यह संभव था कि वह संकेंद्रण के तत्त्व और प्रसारण के तत्त्व के श्रेष्ठतर समन्वय की ओर अधिक प्रज्ञ प्राचीन सामंजस्य को भंग करके नहीं बल्कि उसके प्रसार द्वारा बढ़ता हुआ गति की अपनी आदि-पूर्णता को बनाये रखता । हमने देखा है कि भारत में विकास का मौलिक अंतर्भास और विकसनशील प्रकृति की समग्र गति का आग्रह बना रहा है, क्योंकि भारत में धर्म ने अपने-आपको किसी एक मत या सिद्धांततक सीमित नहीं रखा । उसने विभिन्न प्रकार के निरूपणों को विपुल संख्या में प्रवेश ही नहीं दिया बल्कि सफलता के साथ अपने अंदर उन सभी तत्त्वों को समा लिया जो धर्म के विकास की प्रक्रिया में उग आये थे और उसने किसीपर पाबंदी लगाने या किसीको काट फेंकने से इंकार किया । उसने गुह्यवाद को उसकी चरम सीमातक विकसित किया, सब प्रकार के आध्यात्मिक दर्शनों को स्वीकार किया, आध्यात्मिक उपलब्धि, आध्यात्मिक अनुभूति, आध्यात्मिक आत्मनियंत्रण की हर संभव रेखा का उसके गभीरतम, उच्चतम और विशालतम परिणामतक अनुसरण किया । उसकी पद्धति क्रमविकास की प्रकृति की ही पद्धति रही है, उसने सभी विकासों, आधार के विभिन्न अंगों के साथ संपर्क और उनपर क्रिया करने के आत्मा के सभी साधनों को, मनुष्य और परम पुरुष या भगवान् के बीच सायुज्य के सभी मार्गों को स्वीकृति दी है । लक्ष्य की ओर बढ़ने के हर संभव मार्ग का अनुसरण और चरम सीमातक में उसका परीक्षण करने की स्वीकृति दी है । मनुष्य के अंदर आध्यात्मिक विकास की सभी भूमिकाएं हैं और हर एक को अध्यात्म पुरुषतक पहुंचने के लिये छूट मिलनी होगी और साधन जुटाने होंगे, ऐसे मार्ग के जो उसकी क्षमता या अधिकार के अनुकूल हो । यहांतक कि जो आदिम रूप बचे हुए थे उनपर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया बल्कि उन्हें ज्यादा गहरे अर्थतक ऊपर उठाया गया । फिर सूक्ष्मतम चरम आकाश में उच्चतम आध्यात्मिक शिखरों की ओर बढ़ने के लिये दबाव बना रहा । यहांतक कि धर्म के ऐकांतिक मतवादी रूपतक का बहिष्कार नहीं किया गया बशर्ते कि उसका सामान्य लक्ष्य और सिद्धांत के साथ मेल स्पष्ट हो, तब उसे सर्व-सामान्य व्यवस्था की अनंत विविधता में प्रवेश दिया जाता था । लेकिन इस नमनीयता ने एक बंधे हुए धार्मिक-नैतिक तंत्र पर अपना सहारा लेना चाहा जिसमें उसने मानव-प्रकृति के क्रमिक संपादन के सिद्धांत को व्याप्त कर दिया जो अपने ऊंचे-से-ऊंचे बिंदु पर आध्यात्मिक चरम उद्यम की ओर मुड़ा हुआ था । यह सामाजिक दृढ़ता जो शायद एक समय, आध्यात्मिक स्वाधीनता के निश्चित और व्यवस्थित आधार के रूप में न सही पर जीवन की एकता के लिये जरूरी थी, एक ओर संरक्षण के लिये शक्ति रही है पर साथ ही समस्त उदारता के सहजात अंतर्भाव के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा, अत्यधिक सुदृढ़ रूप धारण करने का और प्रतिबंध का तत्त्व भी रही है । एक सुनिश्चित आधार अनिवार्य हो सकता है लेकिन अगर वह सारतत्त्व में निश्चित 

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हो गया है तो इसे भी अपने रूपों में नमनीयता के विकसनशील परिवर्तन के योग्य होना चाहिये । उसे व्यवस्था तो होना चाहिये परंतु बढ़ती हुई व्यवस्था ।

 

     फिर भी इस महान् और बहुमुखी धार्मिक और आध्यात्मिक विकास का सिद्धांत निर्दोष था और समस्त जीवन और मानव प्रकृति को अपने अंदर समोकर, बुद्धि के विकास को प्रोत्साहित करके, कभी उसका विरोध न करके या उसकी स्वाधीनता में रोड़े अटकाये बिना, बल्कि उसे आध्यात्मिक जिज्ञासा की सहायता के लिये बुलाकर, उसने संघर्ष या उसके अनुचित प्रभुत्व को रोका जिसके परिणाम-स्वरूप पश्चिम में धार्मिक सहज वृत्ति प्रतिबंधित हो गयी और सूख गयी और उसने जड़वाद और अधार्मिकता में डुबकी लगायी । नमनीय और सार्वभौम प्रकार की इस पद्धति ने सभी मतों और रूपों को स्वीकार किया लेकिन सबका अतिक्रमण भी किया और हर प्रकार के तत्त्व को अनुमति दी, इसके ऐसे बहुत से परिणाम हो सकते हैं जिनके बारे में विशुद्धिवादी आपत्ति करे लेकिन उसका औचित्य ठहरानेवाला बड़ा परिणाम रहा है आध्यात्मिक प्राप्ति, प्रयास और खोज की अनुपम प्रचुर समृद्धि और सहस्राब्दियों से भी अधिक स्थायित्व, अभेद्य टिकाऊपन, व्यापकता, सार्वभौमता, उच्चता, सूक्ष्मता और बहुमुखी विस्तार । वस्तुत: केवल ऐसी उदारता और नमनीयता के द्वारा ही विकास का अधिक विस्तृत लक्ष्य कुछ पूर्णता के साथ अपने-आपको कार्यान्वित कर सकता है । व्यक्ति धर्म से आध्यात्मिक अनुभूति की ओर उद्‌घाटन के द्वार या उसकी ओर मुड़ने के साधन, भगवान् के साथ सायुज्य या मार्ग पर पथ-प्रदर्शन के निश्चित प्रकाश, परलोक के लिये आश्वासन या अधिक सुखी अतिपार्थिव भविष्य के साधन की मांग करता है । ये आवश्यकताएं मतवादी विश्वास और सांप्रदायिक भक्ति-पूजा के संकीर्णतर आधार पर पूरी की जा सकती हैं । लेकिन प्रकृति का एक अधिक विस्तृत उद्देश्य है मनुष्य के अंदर आध्यात्मिक विकास को तैयार करना और आगे बढ़ाना और उसे एक आध्यात्मिक सत्ता में बदलना । धर्म मनुष्य के प्रयास और उसके आदर्श को वह दिशा दिखाने के लिये प्रकृति का साधन-रूप है और जो लोग तैयार हैं उनमें से प्रत्येक को उसकी ओर ले जानेवाले रास्ते की ओर कदम उठाने की संभावना प्रदान करता है । इस उद्देश्य को प्रकृति अपने द्वारा बनाये गये अनेकानेक प्रकार के मत- मतांतर द्वारा सिद्ध करती है, कुछ अंतिम, मानवीकृत और निश्चायक, अन्य अधिक नमनीय, विभिन्न और बहुमुखी होते हैं । जो धर्म अपने-आप धर्मों का समूह हो और साथ-ही-साथ हर व्यक्ति को आंतरिक अनुभव का अपना मोड़ देता हो वही प्रकृति के उद्देश्य के साथ सबसे अधिक सामंजस्य रखता होगा । वह आध्यात्मिक विकास और पुष्पण के लिये एक समृद्ध नर्सरी (संवर्धन -गृह) अंतरात्मा के अनुशासन, प्रयास और आत्म-सिद्धि के लिये विशाल और बहुरूप विद्यालय होगा । धर्म ने चाहे जो भूलें की हों, यही उसका मुख्य कार्य, उसकी महान् और

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अनिवार्य उपयोगिता और सेवा है -मन के अज्ञान में से अध्यात्म सत्ता की पूर्ण चेतना और आत्म-ज्ञान की ओर हमारी यात्रा में पथ-प्रदर्शन का बढ़ता हुआ प्रकाश दिखलाना ।

 

     अपने सारतत्त्व में गुह्यवाद है मनुष्य का प्रकृति के गुप्त सत्यों के ज्ञान और शक्यताओंतक पहुंचने का प्रयास जो उसे अपनी सत्ता की भौतिक सीमाओं की दासता से ऊपर उठा लेगा । यह विशेषकर प्राण पर मन की और जड़ पर मन तथा प्राण दोनों की रहस्यभरी, गुह्य, बाहरी रूप से अभीतक अविकसित प्रत्यक्ष शक्ति को अधिकार में करने और संगठित करने का प्रयास है । साथ ही अतिभौतिक ऊंचाइयों, गहराइयों और वैश्व सत्ता के मध्यवर्ती स्तरों, जगतों और सत्ताओं के साथ संपर्क स्थापित करने का प्रयास है और इस सायुज्य का उपयोग है एक उच्चतर सत्य पर अधिकार पाने और प्रकृति की शक्तियों और सामर्थ्यों पर अपने-आपको प्रमुसत्तासंपन्न बनाने की इच्छा में सहायता करना । यह मानव अभीप्सा इस विश्वास, अंतर्भास या सूचना पर आधार रखती है कि हम केवल मिट्टी की रचनाएं न होकर आत्मा, मन, इच्छा हैं, हम इस और हर एक जगत् के समस्त रहस्यों को जान सकते हैं और प्रकृति के केवल शिष्य ही नहीं, विशेषज्ञ और स्वामी भी हो सकते हैं । गुह्यवादी ने भौतिक चीजों के रहस्य भी जानने की कोशिश की और इस प्रयास में ज्योतिष को आगे बढ़ाया, रसायन शास्त्र की रचना की, अन्य विज्ञानों को आवेग दिया क्योंकि उसने रेखागणित का भी उपयोग किया और अंक-शास्त्र का भी, लेकिन इस सबसे बढ़कर उसने अतिप्राकृतिक रहस्यों को जानना चाहा । इस अर्थ में गुह्यवाद को अति प्राकृतिक का विज्ञान कहा जा सकता है; लेकिन वस्तुत: यह केवल अतिभौतिक की खोज, जड़ भौतिक सीमा का अतिक्रमण है गुह्यवाद  का मर्म वह असंभव ख-पुष्प नहीं है जो प्रकृति की समस्त शक्ति के परे या बाहर जाने की आशा करता है और शुद्ध कल्पना तथा मनमाने चमत्कारों को सर्वशक्तिमान् रूप से प्रभावी बनाना चाहता है । जो हमें अतिप्राकृतिक प्रतीत होता है वह वस्तुत: या तो अन्य-प्रकृति के भौतिक प्रकृति पर सहज धावे का मामला है या, गुह्यवाद  के कार्य में वैश्व सत्ता और ऊर्जा की उच्चतर व्यवस्थाओं या श्रेणियों के ज्ञान और बल को अधिकार में करना और उनकीं शक्तियों तथा प्रक्रियाओं को आपसी संबंध की संभावनाओं और भौतिक प्रभाव के साधन को पाकर, भौतिक जगत् में प्रभाव पैदा करने की ओर भेजना है । मन और प्राण-शक्ति की ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें प्रकृति द्वारा जड़-पदार्थ में मन और प्राण की वर्तमान क्रमबद्धता में नहीं लिया गया है पर वे हैं संभाव्य औग् जिन्हें भौतिक वस्तुओं और घटनाओं पर प्रभाव डालने के लिये लाया जा सकता है या वर्तमान व्यवस्था में लाकर जोड़ा भी जा सकता है ताकि हमारे अपने प्राण और शरीर पर मन का अधिकार बढ़ाया जा सके, या औरों के मन, प्राण और शरीरों पर या वैश्व शक्तियों की गतिविधि पर

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कार्य करने की क्षमता को बढ़ाया जा सके । सम्मोहन की आधुनिक मान्यता इस तरह के अन्वेषण और व्यवस्थित उपयोग का उदाहरण है -यद्यपि वह अभीतक संकीर्ण और सीमित है, अपनी विधि और नियमों से सीमित है -ऐसी गुह्य शक्तियों का उदाहरण है जो अन्यथा हमें किसी संयोगवश या गुप्त क्रिया द्वारा ही स्पर्श करती हैं, जिसकी प्रक्रिया हमारे लिये अज्ञात है या जो अधकचरे रूप में कुछ लोगों की पकड़ में आयी है क्योंकि हम सारे समय सुझावों के, विचार के सुझावों के, आवेगमय सुझावों के, इच्छा, भाव और संवेदन के सुझावों के, विचार- लहरियों और प्राण-लहरियों के प्रहार सहते रहते हैं जो हमारे ऊपर या हमारे अंदर औरों से या वैश्व ऊर्जा से आते रहते हैं लेकिन हमारे जाने बिना ही हमपर क्रिया करते और अपने प्रभाव डालते रहते हैं । इन गतिविधियों, उनके नियमों और संभावनाओं को जानने का, उनके पीछे स्थित शक्ति या प्रकृति-शक्ति का उपयोग करने और उसपर अधिकार कर लेने या उनसे अपनी रक्षा करने का सुव्यवस्थित प्रयास गुह्यवाद के प्रदेश में ले जाता है लेकिन यह उस प्रदेश का भी एक छोटा- सा भाग होगा क्योंकि ज्ञान के इस विशाल क्षेत्र के, जिसका अन्वेषण बहुत ही कम हुआ है, संभव विस्तार, उपयोग और प्रक्रिया विस्तृत और विविध हैं ।

 

     आधुनिक काल में जब भौतिक विज्ञान ने अपने अन्वेषण बढ़ाये और प्रकृति की गुप्त जड़ शक्तियों को मानव ज्ञान द्वारा शासित क्रिया में मानव उपयोग के लिये लगा दिया तो गुह्यवाद पीछे हट गया और अंत में उसे इस आधार पर अलग कर दिया गया कि केवल भौतिक ही यथार्थ है और मन तथा प्राण जड़ की विभागीय क्रियाएं हैं । । इस आधार पर जड़ भौतिक ऊर्जा को सभी चीजों की चाबी मानते हुए विज्ञान ने जड़ यंत्र-विन्यास और हमारे सामान्य और असामान्य मन और प्राण के क्रिया-कलापों और व्यापारों की प्रक्रिया के ज्ञान द्वारा मन और प्राण की प्रक्रिया पर नियंत्रण की ओर गति करने की कोशिश की है, इसमें आध्यात्मिक को मानसिकता का एक रूप मानकर उसकी अवहेलना की गयी है । प्रसंगवश यह भी कहा जा सकता है कि अगर यह प्रयास सफल हो जाये तो यह मानवजाति के अस्तित्व के लिये संकट से खाली नहीं होगा । जैसा कि अब भी कुछ अन्य वैज्ञानिक अन्वेषण हैं जिनका दुरुपयोग या भद्दा उपयोग इतनी बड़ी और संकटाकीर्ण शक्तियों के उपयोग के लिये मानसिक और नैतिक रूप से अप्रस्तुत मानवजाति करती है; क्योंकि यह एक कृत्रिम नियंत्रण होगा जिसका उपयोग हमारे जीवन को आधार और सहारा देनेवाली गुप्त शक्तियों के ज्ञान के बिना किया जायेगा । पश्चिम में गुह्यवाद को इस तरह आसानी से धकेला जा सका क्योंकि वह कभी प्रौढ़तातक पहुंच ही नहीं पाया, उसने कभी परिपक्वता और दार्शनिक या ठोस व्यवस्थित आधार नहीं पाया । उसने मुक्त रूप से अतिप्राकृतिक के रोमांस का उपभोग किया या अपने मुख्य प्रयास को अधि-सामान्य शक्तियों के उपयोग के लिये सूत्रों और

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प्रभावी विधियों की खोज पर ही एकाग्र करने की भूल की । वह च्युत होकर सफेद या काले जादू या गुह्य रहस्यवाद का रुमानी या ऐन्द्रजालिक साज-सामान हो गया और अंततः जो एक सीमित तथा अल्प ज्ञान ही था उसका एक अतिरंजित रूप हो गया । इन प्रवृत्तियों और इस मानसिक आधार की असुरक्षा ने उसकी रक्षा करना कठिन और उसे बदनाम करना आसान बना दिया । यह सरल और भेद्य लक्ष्य बन गया । मिस्र और पूर्व में यह ज्ञान-धारा महत्तर और अधिक व्यापक प्रयासतक पहुंच गयी । यह अधिक प्रभूत परिपक्वता अब भी तंत्र के विलक्षण विधान में अक्षुण्ण देखी जा सकती है । वह केवल अधिसामान्य का बहुमुखी विज्ञान ही नहीं था बल्कि उसने धर्म के सभी गुह्य तत्त्वों को आधार दिया और आध्यात्मिक अनुशासन और आत्म-सिद्धि की एक महान् और शक्तिशाली प्रणाली भी विकसित की । क्योंकि उच्चतम गुह्यविद्या वह है जो मन, प्राण और आत्मा की गुप्त गतिविधियों और गतिशील अधिसामान्य क्षमताओं को खोजती और उनकी सहज शक्ति में या क्रियात्मक प्रक्रिया में हमारे मानसिक, प्राणिक और आध्यात्मिक सत्ता की अधिक प्रभावशालिता के लिये उन्हें काम में लाती है ।

 

     प्रचलित विचार में गुह्यवाद जादू और जादुई सूत्रों और अतिप्राकृतिक की मानी हुई क्रियाविधि के साथ मिला हुआ है । लेकिन यह केवल एक पहलू है । यह पूरी तरह अंध-विश्वास भी नहीं है जैसा कि वे लोग दर्प के साथ कहते हैं जिन्होंने गुह्य प्रकृति-शक्ति के इस प्रच्छन्न रूप को गहराई से नहीं देखा या देखा ही नहीं या उसकी संभावनाओं को नहीं परखा । सूत्र और उनका उपयोग, प्रच्छन्न शक्तियों का यंत्रीकरण आश्चर्यजनक रूप से मानसिक शक्ति और प्राण-शक्ति के उपयोग में प्रभावकारी हो सकता है, ठीक वैसे ही जैसे भौतिक विज्ञान में होता है; लेकिन यह केवल एक गौण विधि और सीमित दिशा है । क्योंकि, मन और प्राण की शक्तियां अपनी क्रिया में अधिक नमनीय, सूक्ष्म और परिवर्तनशील होती हैं, उनमें जड़ भौतिक कठोरता नहीं होती; उनके ज्ञान में, उनके कार्य तथा प्रक्रिया की व्याख्या में और उनके प्रयोग में -यहांतक कि उनके प्रतिष्ठित सूत्रों को समझने और उनकी क्रियाओं में भी, सूक्ष्म और नमनीय अंतर्भास की जरूरत होती है । यंत्रीकरण पर बहुत ज्यादा जोर और कठोर सूत्रीकरण का परिणाम संभवत: यह हो कि ज्ञान बंध्या हो जाये या सूत्रों में सीमित रह जाये और व्यावहारिक दिशा में बहुत अधिक भूल- भ्रांति, अज्ञानभरी रूढ़ि, दुरुपयोग और असफलता हो । अब जब कि हम जड़ के एकमात्र सत्य होने के अंधविश्वास में से बाहर निकल रहे हैं तो प्राचीन गुह्यविद्या की ओर और नये निरूपणों की ओर लौटना, साथ ही मन के अभीतक छिपे हुए रहस्यों और शक्तियों का वैज्ञानिक अध्ययन और चैत्य असामान्य या अधिसामान्य अतीन्द्रिय व्यापारों के निकटस्थ अध्ययन की ओर लौटना संभव है और किन्हीं अंशों में अभी से दिखायी दे रहा है । लेकिन अगर उसे अपनी पूर्णता प्राप्त करनी

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है तो इस जांच की रेखा के सच्चे आधार, सच्चे लक्ष्य और दिशा, आवश्यक प्रतिबंधों और सावधानियों को फिर से खोजना होगा । उसका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य होना चाहिये मानसिक शक्ति, प्राण-शक्ति के छिपे हुए सत्यों और सामर्थ्थो का और छिपी हुई आत्मा की महत्तर शक्तियों का अन्वेषण । तत्त्वत: गुह्य विज्ञान अंतस्तल का विज्ञान है, हमारे अंदर का अंतस्तल, और जगत्-प्रकृति का अंतस्तल, और उस सबका जिसका संबंध अंतस्तल के साथ है, जिसमें अवचेतन और अतिचेतन भी आ गये -और उसका आत्मज्ञान और जगत्-ज्ञान के रूप में उपयोग और उस ज्ञान की उचित क्रियात्मकता ।

 

     मानव सत्ता में प्रकृति की इस गति में अनिवार्य रूप से सहायक है उच्चतम ज्ञान की ओर बौद्धिक उपगमन, मन के द्वारा उसपर अधिकार । सामान्यत: हमारी सतह पर मनुष्य के विचार और क्रिया का मुख्य उपकरण है तर्क-बुद्धि, अवलोकन करने, समझने और व्यवस्थित करनेवाली बुद्धि । आत्मा की किसी समग्र प्रगति या विकास में न केवल अंतर्भास, अंतर्दृष्टि, आंतरिक बोध, हृदय की भक्ति, आत्मा की वस्तुओं का गहरा और प्रत्यक्ष जीवन-अनुभव विकसित करना होता है बल्कि बुद्धि को भी आलोकित और संतुष्ट करना होता है; हमारे चिंतनशील और मननशील मन की सहायता करनी चाहिये कि वह समझ सके, इस उच्चतम विकास के लक्ष्य, पद्धति और तत्त्वों के बारे में और अपनी प्रकृति के क्रिया-कलाप के और उसके पीछे जो कुछ है उसके सत्य के बारे में सुविवेचित और प्रणालीबद्ध विचार बना सके । वस्तुत: इस विकास के उचित साधन हैं आध्यात्मिक उपलब्धि और अनुभूति, अंतर्भासात्मक और प्रत्यक्ष ज्ञान, आंतरिक चेतना की वृद्धि, अंतरात्मा और अंतरंग आंतरात्मिक प्रत्यक्ष-दर्शन, आंतरात्मिक दृष्टि और आंतरात्मिक बोध का विकास लेकिन मननधर्मी और आलोचक बुद्धि का सहारा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । अगर बहुत-से उसे छोड़ सकते हैं तो इसलिये कि उनका आंतरिक वास्तविकताओं के साथ स्पष्ट और प्रत्यक्ष संपर्क है और वे अनुभव तथा अंतर्दृष्टि से संतुष्ट हैं, फिर भी संपूर्ण गति में वह अनिवार्य है । अगर परम सत्य आध्यात्मिक सद्धस्तु है तो मनुष्य की बुद्धि को यह जानने की जरूरत होती है कि उस आद्य सत्य का स्वभाव क्या है और बाकी अस्तित्व के साथ, हमारे साथ, विश्व के साथ उसके संबंधों का सिद्धांत क्या है । अकेली बुद्धि में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह हमें ठोस आध्यात्मिक सद्धस्तु के स्पर्श में ला सके लेकिन वह आध्यात्म तत्त्व के सत्य के मानसिक निरूपण में सहायता दे सकती है; वह मानसिक निरूपण मन के आगे उसकी व्याख्या कर सकता है और अधिक प्रत्यक्ष खोज में भी उसका उपयोग हो सकता है । यह सहायता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।

 

    हमारा विचारशील मन मुख्य रूप से सामान्य आध्यात्मिक सत्य के कथन से, उसकी निरपेक्ष की युक्ति और उसकी सापेक्षताओं की युक्ति से संबंध रखता है, वे

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आपस में कैसा संबंध रखते हैं या कैसे एक-दूसरे की ओर ले जाते हैं और अस्तित्व के आध्यात्मिक सिद्धांत-सूत्र के मानसिक परिणाम क्या हैं, इनसे संबंध रखता है । लेकिन इस समझ और बौद्धिक कथन के अतिरिक्त, जो बुद्धि का मुख्य अधिकार और भाग है, उसपर बुद्धि एक आलोचनात्मक नियंत्रण रखना चाहती है । वह आनंदमय या अन्य ठोस आध्यात्मिक अनुभवों को स्वीकार कर सकती है लेकिन वह यह जानने की मांग करती है कि वे सत्ता के किन निश्चित और सुव्यवस्थित सत्यों पर आधारित हैं । वस्तुत: ऐसे ज्ञात और प्रमाण्य सत्य के बिना हमारी बुद्धि को ये अनुभव असुरक्षित और समझ में न आनेवाले लग सकते हैं । वह उनसे यह सोचकर पीछे हट सकती है कि संभवत: वे सत्य पर आधारित नहीं हैं या वह उनके आधार पर न सही रूप पर यह सोचकर अविश्वास कर सकती है कि वे भूल-भरे हैं, यहांतक कि कल्पनाशील प्राणिक मन, भावों, स्नायुओं या इन्द्रियों के विपथगमन से प्रभावित हैं । क्योंकि उनके भौतिक और गोचर से अदृश्य की ओर यात्रा-पथ या स्थानांतरण में इस भ्रांति की संभावना रहती है कि वे धोखा देनेवाले प्रकाश के पीछे चलें या कम-से-कम ऐसी चीजों का भ्रांतिपूर्ण ग्रहण करें जो अपने-आपमें तो प्रामाणिक हैं लेकिन जो कुछ अनुभव हुआ है उसकी गलत या अपूर्ण व्याख्या या सच्चे आध्यात्मिक मूल्यों के विषय में भ्रम और अव्यवस्था के कारण विकृत हो गयी हैं । अगर बुद्धि अपने-आपको गुह्यविद्या की क्रियाशीलता को मानने के लिये विवश पाती है तो वहां भी वह उन शक्तियों के सत्य, उचित पद्धति और वास्तविक अर्थ को देखने की सबसे अधिक कोशिश करेगी जिन्हें वह क्रीड़ा में लाये जाते हुए देखती है । उसे देखना होगा कि क्या उसका वही अर्थ है जो गुह्यवादी उसे देता है या कुछ और; शायद अधिक गहरा अर्थ है जिसका अपने तात्त्विक संबंधों और मूल्यों में गलत अर्थ लगाया गया है या जिसे समूचे अनुभव में अपना सच्चा स्थान नहीं दिया गया है । क्योंकि हमारी बुद्धि का काम है पहले तो समझना, दूसरे आलोचना करना और अंत में व्यवस्था करना, नियंत्रण करना और रूप देना ।

 

     जिस साधन के द्वारा यह आवश्यकता पूरी हो सकतीं है और जो हमारी मानसिक प्रकृति ने हमें दी है वह है दर्शन, और इस क्षेत्र में उसे आध्यात्मिक दर्शन होना चाहिये । पूर्व में ऐसी बहुत-सी पद्धतियां उठ खड़ी हुई हैं; क्योंकि प्रायः हमेशा जहां कहीं कोई विशेष आध्यात्मिक विकास हुआ है, वहीं उसे बुद्धि के आगे न्यायोचित ठहराने के लिये उसमें से एक दर्शन उठ खड़ा हुआ है । शुरू में अंतर्भासात्मक दृष्टि और अंतर्भासात्मक अभिव्यक्ति की विधि थीं जैसी उपनिषदों के अथाह विचार और गभीर भाषा में थी, लेकिन बाद में एक आलोचनात्मक विधि विकसित हुई -एक दृढ़ तार्किक प्रणाली और तर्कसम्मत व्यवस्था 1 बाद के दर्शन आंतरिक उपलब्धि से प्राप्त वस्तु के बौद्धिक विवरण या तार्किक औचित्य थे या

 

      १उदाहरण के लिये पातञ्जल योग-दर्शन

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उन्होंने अपने-आप उपलब्धि और अनुभूति के लिये मानसिक आधार और सुव्यवस्थित उपाय जुटाए । पश्चिम में, जहां चेतना की समन्वयात्मक वृत्ति का स्थान आलोचनात्मक और पृथक् करनेवाली वृत्ति ने ले लिया, आध्यात्मिक प्रेरणा और बौद्धिक तर्कणा ने लगभग शुरू में ही एक-दूसरे का संग छोड़ दिया । दर्शन ने शुरू से ही शुद्ध रूप से चीजों की बौद्धिक और तर्कात्मक व्याख्या की ओर मोड़ लिया । फिर भी पाइथागोरियन, स्टोइक और एपीक्यूरियन के जैसी प्रणालियां थीं जो केवल विचार के लिये नहीं बल्कि जीवन-संचालन के लिये भी सक्रिय थीं और उन्होंने सत्ता की आंतरिक पूर्णता के लिये एक अनुशासन, एक प्रयास का विकास किया । यह बाद के ईसाई या नव पैगन विचार-रचनाओं में ज्ञान के उच्चतर आध्यात्मिक स्तर पर जा पहुंचा जहां पूर्व और पश्चिम एक साथ मिल गये । लेकिन बाद में बीद्धीकरण पूर्ण हो गया और दर्शन का जीवन और उसकी ऊर्जाओं या आत्मा और उसकी सक्रियता के साथ संबंध या तो कट गया या उस छोटे-से भाग के साथ रह गया जिसे तत्त्व-विचार जीवन और कर्म पर अमूर्त तथा गौण प्रभाव से अंकित कर सकता है । पश्चिम में धर्म ने दर्शन का नहीं, सांप्रदायिक मतवाद का सहारा लिया है । कभी-कभी व्यक्तिगत प्रतिभा के जोर से आध्यात्मिक दर्शन उभर आता है लेकिन यह पूर्व की तरह आध्यात्मिक अनुभव और प्रयत्न की हर महत्त्वपूर्ण रेखा का आवश्यक अनुसंगी नहीं बना । यह सच है कि आध्यात्मिक विचार का दार्शनिक विकास पूरी तरह से अनिवार्य नहीं है क्योंकि आत्मा के सत्योंतक ज्यादा प्रत्यक्ष और पूर्ण रूप से अंतर्भास और ठोस आंतरिक संपर्क द्वारा पहुंचा जा सकता है । यह कहना भी जरूरी है कि आध्यात्मिक अनुभूति पर बुद्धि का आलोचनात्मक नियंत्रण बाधक और अविश्वसनीय हो सकता है क्योंकि यह एक निम्नतर प्रकाश है जो उच्चतर ज्योति के क्षेत्र पर मुड़ा हुआ है । सच्ची नियंत्रक शक्ति तो है आंतरिक विवेक, चैत्य बोध और कौशल, ऊपर से पथ-प्रदर्शन का श्रेष्ठतर हस्तक्षेप या फिर सहज प्रकाशमय आंतरिक पथ-प्रदर्शन । लेकिन फिर भी विकास की यह रेखा भी जरूरी है क्योंकि तर्क-बुद्धि और आत्मा के बीच एक पुल होना चाहिये : आध्यात्मिक या कम-से-कम आध्यात्म-भावापन्न बुद्धि का प्रकाश हमारे समग्र आंतरिक विकास की पूर्णता के लिये जरूरी है और उसके बिना, यदि एक और ज्यादा गहरे मार्ग-दर्शन का अभाव हो तो आंतरिक गति सनकी और अनियंत्रित, गदली और अनाध्यात्मिक तत्त्वों से मिली या एकांगी और अपनी व्यापक उदारता में अपूर्ण हो सकती है । अज्ञान के संपूर्ण ज्ञान में परिवर्तन के लिये हमारे अंदर आध्यात्मिक समझ की वृद्धि -जो उच्चतर प्रकाश को लेने और हमारी प्रकृति के सभी भागों में बांटने को तैयार हो -बहुत महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती आवश्यकता है ।

 

     लेकिन इन तीनों उपगमनों में से कोई भी धारा अपने-आपमें प्रकृति के महत्तर

 

      उदाहरण के लिये पातञ्जल योग-दर्शन ।

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और गूढ़ इरादे को पूरा नहीं कर सकती । वे मानसिक मानव के अंदर आध्यात्मिक सत्ता का सृजन नहीं कर सकतीं, जबतक कि वे आध्यात्मिक अनुभव के लिये द्वार न खोल दें । ये मार्गे जिसको खोज रहे हैं उसकी आंतरिक उपलब्धि से ही किसी अभिभूत करनेवाली अनुभूति या बहुत-सी अनुभूतियों से, जो आंतरिक परिवर्तन का निर्माण करनेवाली हों, चेतना के रूपांतर से, अध्यात्म पुरुष के वर्तमान मन, प्राण और शरीर के अवगुंठन से छुटकारे से ही आध्यात्मिक पुरुष का आविर्भाव हो सकता है । यही अंतरात्मा की प्रगति की वह अंतिम रेखा है जिसकी ओर और सब इशारा कर रहे हैं । जब वह प्रारंभिक उपगमनों से अपने-आपको मुक्त करने के लिये तैयार हो जाती है तब वास्तविक कार्य शुरू होता और परिवर्तन का अंतिम मोड़ दूर नहीं होता । तबतक मानव मनोमय सत्ता जहांतक पहुंच पाती है वह सब है अपने से परे की चीजों के विचार के साथ हेल-मेल, परलोक की गति की संभावना के साथ घनिष्ठता, किसी नैतिक पूर्णता के आदर्श के साथ घनिष्ठता । हो सकता है कि उसने कुछ महान् शक्तियों या सद्वस्तुओं के साथ भी संपर्क जोड़ा हो जो उसके मन या हृदय या प्राण की सहायता करते हैं । कुछ परिवर्तन हो सकता है किंतु मानसिक का आध्यात्मिक सत्ता में रूपांतर नहीं । प्राचीन काल में धर्म और उसके विचार, नैतिकता और गुह्य रहस्यवाद ने पुरोहित और जादूगर, धर्मभीरु पुरुष, न्यायनिष्ठ पुरुष, बुद्धिमान्, मानसिक मानवता के अनेक उच्च बिंदुओं का निर्माण किया । लेकिन केवल तभी जब आध्यात्मिक अनुभूति हृदय और मन में उठना शुरू कर दे तभी, हम संत, पैगंबर, ऋषि, योगी, द्रष्टा, आध्यात्मिक साधु रहस्यवादी को उठते देखते हैं । और जिन धर्मों में इस प्रकार की धार्मिक मानवता प्रकट हुई वही टिके रहे, वे ही पृथ्वी पर फैले हैं और उन्होंने ही मानवजाति को उसकी समस्त आध्यात्मिक अभीप्सा और संस्कृति दी है ।

 

     जब आध्यात्मिकता अपने-आपको चेतना में मुक्त करके अपना विशिष्ट स्वरूप धारण करती है तो शुरू में वह छोटा-सा बीजकोश, बढ्‌ती हुई प्रवृत्ति, सामान्य अप्रबुद्ध मानव मन, प्राणशक्ति और शरीर की विशाल राशि में -जो हमारी बाहरी सत्ता बनते और हमारी स्वाभाविक तल्लीनताओं को समो लेते हैं -अनुभूति की अपवादिक ज्योति होती है । प्रयोगात्मक प्रारंभ होते हैं और धीमा विकास और सकुचाता हुआ आविर्भाव होता है । उसका शुरू का एक प्रारंभिक रूप एक तरह की धार्मिकता की रचना करता है जो शुद्ध आध्यात्मिक स्वभाववाली नहीं होती बल्कि वह ऐसे मन या प्राण के स्वभाव की होती है जो अपने अंदर आध्यात्मिक अवलंब या तत्त्व खोजती या पाती है । इस स्थिति में मनुष्य अधिकतर जो उसके परे है उसके साथ ऐसे संपर्कों का उपयोग करने में तल्लीन रहता है जो उसे प्राप्त हो सकते हैं या जिन्हें वह बना सकता है ताकि वे उसके मानसिक भावों या नैतिक आदर्शों या प्राणिक और भौतिक हितों की सहायता अथवा सेवा करें । अभीतक

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आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये सच्चा मोड़ नहीं आया । पहले सच्चे रूपायन हमारी प्राकृतिक क्रियाओं के आध्यात्मभावापन्न होने का रूप लेते हैं, उनमें व्याप्त होनेवाले प्रभाव या दिशा-निर्देशन का रूप लेते हैं, किसी भाग में या मन या प्राण की किसी प्रवृत्ति में तैयार करनेवाला प्रभाव या अंतरागम होता है -ऊपर उठानेवाले प्रकाश के साथ विचार आध्यात्मभावापन्नता की ओर मुड़ते है या भावात्मक या सौंदर्य- बोधात्मक सत्ता आध्यात्मभावापन्न मोड़ लेती है, चरित्र के आध्यात्मभावापन्न नैतिक रूपायन, किसी प्राण-क्रिया में या प्रकृति की गतिशील प्राणिक क्रिया में आध्यात्मिक प्रेरणा आती है । शायद आंतरिक प्रकाश की, पथ-प्रदर्शन या सायुज्य की अभिज्ञता आती है, हमारे मन और इच्छा से अधिक बड़े नियंत्रण की अभिज्ञता जिसकी आज्ञा हमारे अंदर की कोई चीज मानती है । लकिन फिर भी सब कुछ उस अनुभूति के सांचे में ढला नहीं होता । परंतु जब ये अंतर्भास और ये दीप्तियां अपने आग्रह में बढ्‌ती हैं और अपने-आपको सरणीबद्ध करती हैं, एक मजबूत आंतरिक रूपायन बनाती हैं और सारे जीवन पर शासन करने का दावा करती हैं और समस्त प्रकृति पर अधिकार कर लेती हैं तब सत्ता के आध्यात्मिक रूपायन का आरंभ होता है । तब संत, भक्त, आध्यात्मिक साधु द्रष्टा, पैगंबर, भगवान् के सेवक और आत्मा के सैनिक का आविर्भाव होता है । ये सब प्राकृतिक सत्ता के किसी ऐसे भाग को आधार बनाते हैं जिसे आध्यात्मिक प्रकाश, शक्ति या आनंद ने ऊपर उठाया हो । ऋषि और द्रष्टा आध्यात्मिक मन में निवास करते हैं, उनके विचार या उनकी दृष्टि पर एक आंतरिक या ज्ञान का विशालतर दिव्य प्रकाश शासन करता और उन्हें ढालता है । भक्त हृदय की आध्यात्मिक अभीप्सा में, उसके आत्मोत्सर्ग और उसकी खोज में निवास करता है, संत आंतरिक हृदय में भावात्मक और प्राणिक सत्ता पर शासन करने के लिये समर्थ बनी हुई प्रबुद्ध चैत्य सत्ता द्वारा प्रेरित होता है । अन्य लोग उस प्राणिक गतिज-प्रकृति के आधार पर रहते हैं जिसे उच्चतर आध्यात्मिक ऊर्जा परिचालित करती है और किसी प्रेरित कार्य की ओर, भगवान् के दिये हुए कार्य या मिशन, किसी दिव्य शक्ति, विचार या आदर्श की सेवा की ओर मोड़ती है । अंतिम या उच्चतम आविर्भाव है मुक्त पुरुष जिसने अपने अंदर आत्मा या आध्यात्म पुरुष को पा लिया है, जो वैश्व चेतना में प्रवेश कर गया है, शाश्वत के साथ ऐक्य में चला गया है और जहांतक वह जीवन और क्रिया को स्वीकार करता है, उस शक्ति की ज्योति और ऊर्जा से कार्य करता है जो उसके अंदर है और उसके प्रकृति के दिये मानव उपकरणों द्वारा काम कर रही है । इस आध्यात्मिक परिवर्तन और उपलब्धि का सबसे बड़ा रूपायन है अंतरात्मा, मन, हृदय और क्रिया की संपूर्ण मुक्ति, उस सबका वैश्व आत्मा और दिव्य सदवस्तु के भाव में गढ़ा जाना । तब व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को अपना मार्ग मिल

 

     गीता ने हमारे आगे जो आध्यात्मिक आदर्श और उपलब्धि रखी है उसका सार यही है ।

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जाता है और वह अपने हिमालय जैसे ऊंचे प्रदेशों और उच्चतम प्रकृति के शिखरों को प्रकट करता है । इस ऊंचाई और विस्तार के परे रह जाता है केवल अतिमानसिक आरोहण या अकथनीय परात्पर ।

 

     तो अभीतक प्रकृति की मानव मानसिक सत्ता में आध्यात्मिक पुरुष के विकास का यही मार्ग रहा है और यह पूछा जा सकता है कि इस प्राप्ति का ठीक-ठीक परिमाण और उसकी वास्तविक सार्थकता क्या है । जड़ में मन के जीवन की ओर हाल की प्रतिक्रिया में इस महान् दिशा और विरल परिवर्तन को यह कलंक लगाया गया है कि यह चेतना का कोई सच्चा विकास न होकर सच्चे मानव विकास से च्युत अज्ञान की ऊपर उठायी हुई अपरिपक्वता है । उस विकास को होना चाहिये केवल जीवन-शक्ति, व्यावहारिक भौतिक मन, विचार और आचरण पर नियंत्रण करनेवाली तर्क-बुद्धि, अन्वेषण और संगठन करनेवाली बुद्धि का विकास । इस युग में धर्म को पुराना अंधविश्वास कहकर अलग खिसका दिया गया और आध्यात्मिक अनुभूति और उपलब्धि को छायावादी रहस्यवाद कहकर बदनाम किया गया । इस दृष्टि से रहस्यवादी वह आदमी है जो अवास्तविक में भटक जाता है, अपने बनाये हुए ख-पुष्यों के देश के गुह्य क्षेत्रों में जाकर अपना मार्ग खो देता है । यह निर्णय वस्तुओ के बारे में ऐसी दृष्टि पर आधारित है जो अपने-आप निंदित होने के लिये बाधित है क्योंकि यह अंतत: इस मिथ्या प्रत्यक्ष दर्शन पर निर्भर है कि केवल जड़ ही यथार्थ है और केवल बाहरी जीवन ही महत्त्वपूर्ण है । लेकिन वस्तुओं की इस अत्यंत जड़वादी दृष्टि से भिन्न यह कहा जा सकता है और मानव जीवन-परिपूर्णता के लिये उत्सुक बुद्धि और भौतिक मन कहता भी है कि -और यही प्रचलित मानसिकता और प्रबल आधुनिक झुकाव भी है -मानवजाति में आध्यात्मिक प्रवृत्ति का परिणाम बहुत ही कम रहा है, उसने जीवन की समस्या का कोई समाधान नहीं किया और न ही उन समस्याओं का हल निकाला जिनसे मानवजाति भिड़ी हुई है । रहस्यवादी या तो अपने-आपको जीवन से परलोकवादी संन्यासी या अलग- थलग स्वप्नद्रष्टा की तरह अलग कर लेता है और इस कारण जीवन में सहायता नहीं दे सकता या नहीं तो वह जो समाधान या परिणाम लाता है वे व्यावहारिक मनुष्य या बुद्धि तथा तर्क-शक्तिवाले मनुष्य के समाधान या परिणाम की अपेक्षा श्रेष्ठतर नहीं होते । इसकी जगह अपने हस्तक्षेप से वह मानव मूल्यों को अस्त-व्यस्त कर देता, अपने विजातीय और अप्रमाण्य, मानव समझ के लिये अंधेरे अस्पष्ट प्रकाश द्वारा उन्हें बिगाड़ देता है और हमारे आगे जीवन द्वारा रखी गयी महत्त्वपूर्ण और शुद्ध व्यावहारिक समस्याओं को उलझा देता है ।

 

     लेकिन यह वह दृष्टिबिंदु नहीं है जहांसे हम मनुष्य के अंदर आध्यात्मिक विकास का सच्चा अर्थ या आध्यात्मिकता का मूल्य जांच या आंक सकते हैं; क्योंकि, उसका वास्तविक कार्य भूत या वर्तमान मानसिक आधार पर मानव समस्याओं का

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हल करना नहीं है बल्कि उसे हमारी सत्ता, हमारे जीवन ओर ज्ञान के लिये नया आधार बनाना है । रहस्यवादी की संन्यासी अथवा पारलौकिक प्रवृत्ति इस बात की चरम पुष्टि है कि वह भौतिक प्रकृति द्वारा आरोपित सीमाओं को नहीं स्वीकार करता क्योंकि उसकी सत्ता का उद्देश्य ही है प्रकृति के परे जाना और अगर वह उसे रूपांतरित न कर सके तो उसे छोड़ जाना । लेकिन साथ ही आध्यात्मिक पुरुष मानवजाति के जीवन से पूरी तरह अलग- थलग भी नहीं खड़ा रहा है क्योंकि सभी सत्ताओं के साथ ऐक्य का भाव, सार्वभौम प्रेम और अनुकंपा पर जोर, सभी ऊर्जाओं का सभी प्राणियों के भले के लिये उपयोग, ये आत्मा के सक्रिय प्रस्फुटन में केंद्रीय चीजें हैं, अत: वह सहायता करने के लिये मुड़ा है, जैसे पुराने ऋषि या पैगंबर मार्गदर्शन करते थे या वह सृजन करने के लिये झुका है और जहां कहीं उसने ऐसा आत्मा की प्रत्यक्ष शक्ति के साथ किया है वहां परिणाम आश्चर्यजनक हुए हैं । लेकिन आध्यात्मिकता समस्या का जो समाधान देती है वह बाहरी उपायों द्वारा समाधान नहीं है, यद्यपि इनका भी उपयोग करना होता है, लेकिन वह किया जाता है आंतरिक परिवर्तन, प्रकृति और चेतना के रूपांतर द्वारा ।

 

     अगर कोई निर्णायक परिणाम न आकर केवल आंशिक ही आये हैं, चेतना के कुलयोग में नये सूक्ष्मतर तत्त्व की वृद्धि ही सामान्य परिणाम रहा है और जीवन का कोई रूपांतर नहीं हुआ तो इसका कारण यह है कि जन-साधारण हमेशा आध्यात्मिक प्रेरणा से हट गया है, आध्यात्मिक आदर्श से मुकर गया है या उसने उसे केवल एक रूप में बनाये रखा है और भीतरी परिवर्तन को अस्वीकार कर दिया है । आध्यात्मिकता से यह मांग नहीं की जा सकती कि वह जीवन के साथ अनाध्यात्मिक तरीके से व्यवहार करे या उसके रोगों का रामबाणों के द्वारा उपचार करे, उन राजनीतिक, सामाजिक या अन्य यांत्रिक उपचारों द्वारा जिनके लिये मन सदा प्रयत्न करता रहता है और जो हमेशा किसी भी चीज का समाधान करने में असफल रहे हैं और असफल होते रहेंगे । इन उपायों द्धारा लाये गये अधिक-से- अधिक कठोर परिवर्तन भी कुछ नहीं बदल पाते क्योंकि पुराने रोग नये रूपों में बने रहते हैं, बाहरी परिवेश का रूप बदल जाता है परंतु मनुष्य वही बना रहता है जो वह था । वह अब भी अज्ञानी मानसिक सत्ता बना रहता है जो अपने ज्ञान का दुरुपयोग करता है या प्रभावोत्पादक रूप में उपयोग नहीं करता । वह अब भी अहंकार द्वारा परिचालित, प्राणिक कामनाओं और आवेगों और शारीरिक आवश्यकताओं द्वारा शासित रहता है, वह अपने दृष्टिकोणों में छिछला और अनाध्यात्मिक रहता है, स्वयं अपने बारे में और उन शक्तियों के बारे में, जो उसका

 

     १गीता । बौद्ध धर्म के वैश्व करुणा और सहानुभूति (वसुधैव कुटुम्बकम्, सारी वसुधा मेरा कुटुंब है) को कर्म के उच्चतम तत्त्वतक ले जाना, ईसाइयों का प्रेम पर जोर, ये आध्यात्मिक सत्ता के इस क्रियाशील पक्ष की ओर इंगित करते हैं ।

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परिचालन करती हैं और उसका उपयोग करती हैं, अनभिज्ञ रहता है । उसकी जीवन-रचनाओं का मूल्य व्यक्तिगत और सामूहिक सत्ता जिस स्तरतक पहुंची है उसकी अभिव्यक्ति के रूप में, या उसके प्राणिक और भौतिक अंगों की सुविधा और कल्याण के लिये यंत्र-रूप में और उसके मानसिक विकास के क्षेत्र और साधन के रूप में है । लेकिन वे उसे उसकी वर्तमान सत्ता के परे नहीं ले जा सकतीं और न ही उसे रूपांतरित करने के माध्यम बन सकती हैं । उसकी ओर उनकी पूर्णता उसके और अधिक विकास से ही हो सकती है । केवल आध्यात्मिक परिवर्तन, उसकी सत्ता का सतही मानसिक से गहरी आध्यात्मिक चेतना की ओर विकास ही वास्तविक और प्रभावशाली भेद कर सकता है । अपने अंदर आध्यात्मिक सत्ता की खोज करना आध्यात्मिक व्यक्ति का मुख्य व्यापार है और दूसरों की इसी विकास में सहायता करना उसकी मानवजाति की सच्ची सेवा है । जबतक यह न हो जाये, बाहरी सहायता सहारा दे सकती है, उपशमन कर सकती है लेकिन इससे अधिक कुछ नहीं या बहुत ही कम संभव है ।

 

     यह सच है कि आध्यात्मिक प्रवृत्ति जीवन की ओर देखने की जगह जीवन के पर देखने की रही है । यह भी सच है कि आध्यात्मिक परिवर्तन सामूहिक न होकर व्यक्तिगत ही हुआ है, उसका परिणाम मनुष्य में सफल रहा है परंतु मानव-समूह में केवल असफल या परोक्ष रूप से सक्रिय है । प्रकृति में आध्यात्मिक विकास अभी प्रक्रिया में है और अपूर्ण है -बल्कि हम कह सकते हैं कि प्रारंभिक है -और उसका मुख्य व्यापार रहा है आध्यात्मिक चेतना और ज्ञान के आधार को पुष्ट और विकसित करना और आध्यात्म तत्त्व के सत्य में जो शाश्वत है उसके दर्शन के लिये एक भित्ति या रूपायण का अधिकाधिक निर्माण करना । जब प्रकृति पूरी तरह से इस तीव्र विकास को और रूपायण को व्यक्ति द्वारा पुष्ट कर ले तभी किसी विस्तृत होनेवाली या क्रियाशील रूप में विकीरित होनेवाली मूलगत वस्तु की आशा की जा सकती है या सामूहिक आध्यात्मिक जीवन के लिये प्रयास किया जा सकता है, -सफल रूप से सातत्य पाने के लिये ऐसे प्रयास किये जा चुके हैं परंतु वे प्रायः व्यक्ति की आध्यात्मिकता की वृद्धि की रक्षा के क्षेत्र के तौर पर थे -क्योकि तबतक मनुष्य अपनी इसी समस्या में लगा रहेगा कि अपने मन और प्राण को आध्यात्म तत्त्व के उस सत्य के अनुरूप पूरी तरह से बदले जिसे वह अपनी आतरिक सत्ता और ज्ञान में प्राप्त कर रहा है या कर चुका है । बड़े पैमाने पर सामूहिक आध्यात्मिक जीवन के लिये जो भी अपरिपक्व प्रयास होगा उसके क्रियाशील पक्ष में आध्यात्मिक ज्ञान की कुछ अपूर्णता के द्वारा, जिज्ञासु व्यक्तियों की अपूर्णता द्वारा, सामान्य मानसिक, प्राणिक और भौतिक चेतना के आक्रमण द्वारा, सत्य पर कब्जा करके उसे यांत्रिक बना देने, धुंधले या भ्रष्ट कर देने के कारण दूषित होने की संभावना रहती है । मानसिक बुद्धि और उसकी तर्क-बुद्धि की

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मुख्य शक्ति मानव जीवन के तत्त्व और उसके हठी स्वभाव को नहीं बदल सकती, वह केवल विभिन्न यंत्र-विन्यास, क्रिया-कौशल, परिवर्धन और सूत्रीकरण ही सिद्ध कर सकती है । लेकिन समस्त मन भी, यहांतक कि आध्यात्मिकभावापन्न मन भी, उसे बदलने में सक्षम नहीं है । आध्यात्मिकता आंतरिक सत्ता को मुक्त और प्रदप्त करती है, वह मन की सहायता करती है ताकि वह अपने से ऊंची चीज के साथ संपर्क बना सके, यहांतक कि अपने-आप से बच सके । वह आतरिक प्रभाव द्वारा  व्यक्तिगत मनुष्यों की बाहरी प्रकृति को शुद्ध कर सकती और ऊंचा उठा सकती है लेकिन जहांतक कि उसे मन को यंत्र बनाकर मानव समुदाय में कार्य करना है, वह पार्थिव जीवन पर प्रभाव डाल सकती है लेकिन उस जीवन का रूपांतर नहीं सिद्ध कर सकती । इसी कारण आध्यात्मिक मन में यह प्रवृत्ति प्रचलित रही है कि बस ऐसे ही प्रभाव से संतुष्ट रहा जाये और मुख्य रूप से कहीं किसी परलोक में पूर्णता खोजी जाये या पूरी तरह से बाहर के प्रयास को छोड़कर ऐकान्तिक भाव से व्यक्तिगत आध्यात्मिक मोक्ष या पूर्णता पर केन्द्रित हुआ जाये । अज्ञान द्वारा सृष्ट प्रकृति के समग्र रूपांतर के लिये मन की अपेक्षा अधिक ऊंची साधन-रूपी क्रियाशक्ति की जरूरत है ।

 

     रहस्यवादी और उसके ज्ञान के विरुद्ध एक और आपत्ति उठायी जाती है, वह जीवन पर उसके प्रभाव के विरुद्ध नहीं बल्कि उसके सत्य के अन्वेषण की पद्धति और वह जिस सत्य का अन्वेषण करता है उसके विरुद्ध है । पद्धति के विरुद्ध एक आपत्ति यह है कि यह शुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ है, व्यक्तिगत चेतना और उसकी रचनाओं से स्वतंत्र रूप में सच्ची नहीं है, इसकी परख नहीं की जा सकती । लेकिन वितण्डा की इस भूमि का बहुत महत्त्व नहीं है क्योकि रहस्यवादी का उद्देश्य है आत्म-ज्ञान और भागवत ज्ञान, और उसे बाहरी नहीं भीतरी दृष्टि से ही पाया जा सकता है । या फिर वह वस्तुओं के परम सत्य की खोज में है और उसे भी इन्द्रियों द्वारा बाहरी खोज से नहीं पाया जा सकता और न ही किसी ऐसी खोज या शोध द्वारा पाया जा सकता है जो बाहरी दिशा और सतह पर आधारित हो, न ही किसी ऐसे अनुमान द्धारा जो ज्ञान के परोक्ष साधनों की अनिश्चित सामग्री पर आधारित हो । उसे चेतना के अंतरात्मा के साथ और स्वयं सत्य के शरीर के साथ प्रत्यक्ष अंतदर्शन या संपर्क द्वारा या तादात्म्य द्वारा ज्ञान से उस आत्मा द्वारा आना चाहिये जो वस्तुओं और उनकी शक्ति के सत्य तथा सार-तत्त्व के सत्य के साथ एक हो जाती है । परंतु इस बात पर बल दिया जाता है कि इस तरीके का वास्तविक परिणाम कोई ऐसा सत्य नहीं होता जो सबके लिये समान हो, उनमें बहुत भेद होते हैं । यह निष्कर्ष सुझाया जाता है कि यह ज्ञान सत्य बिलकुल नहीं है, बल्कि एक आत्मनिष्ठ मानसिक रूपायण है । लेकिन यह आपत्ती आध्यात्मिक ज्ञान की प्रकृति के बारे में गलतफहमी पर आधारित होती है । आध्यात्मिक सत्य आत्मा का सत्य है, बुद्धि का सत्य नहीं, कोई गणित का प्रमेय या तर्क-सूत्र नहीं है । वह अनंत का

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सत्य, अनंत विभिन्नताओं में एक है । वह अनंत प्रकार के रूप और आकार ग्रहण कर सकता है । आध्यात्मिक विकास में यह अनिवार्य है कि एकमेव सत्य के पास पहुंचने का बहुविध मार्ग हो, उसकी प्राप्ति बहुविध हो । यह बहुविधता अंतरात्मा का एक जीवित सद्धस्तु की ओर जाने का चिह्न है, किसी अमूर्तीकरण या वस्तुओं के ऐसे निर्मित आकार की ओर नहीं जिसे प्राणहीन या अनमनीय सूत्र में पथराया जा सके । सत्य के बारे में यह कठोर बौद्धिक और तार्किक भावना कि उसे ऐसा एकमात्र भाव होना चाहिये जिसे सब स्वीकार करें, कोई ऐसा भाव या अनेक भावों का तंत्र जो ओर सभी विचारों या तंत्रों का निराकरण कर दे या एकमात्र सीमित तथ्य या तथ्यों का एकमात्र सूत्र जो सबको मान्य हो, भौतिक क्षेत्र के सीमित सत्य से प्राण, मन और आध्यात्म-सत्ता के बहुत अधिक जटिल और नमनीय क्षेत्र में अनधिकृत स्थानान्तरण है ।

 

     यह स्थानान्तरण बहुत हानि के लिये जिम्मेदार है । यह विचार में संकीर्णता, सीमांकन, दृष्टिकोणों की आवश्यक विविधता और बहुविधता के प्रति असहिष्णुता लाता है जिसके बिना सत्य-प्राप्ति में समग्रता नहीं आ सकती और संकीर्णता और सीमांकन के कारण भूल- भ्रांति में बहुत दुराग्रह आता है । वह दर्शन को व्यर्थ विवादों की अंतहीन भूल- भुलैया में बदल देता है । इस व्यतिक्रम ने धर्म पर भी आक्रमण किया है और उसमें सामुदायिक मत की, कट्टरता और असहिष्णुता की छूत लग गयी है । आत्मा का सत्य सत्ता और चेतना का सत्य है, विचारों का सत्य नहीं । मानसिक भाव उसके किसी रूप को, मन द्वारा अनूदित किसी तत्त्व या शक्ति को ही उपस्थित या निरूपित कर सकते है या उसके पहलुओं का विवरण दे सकते हैं लेकिन उसे जानने के लिये व्यक्ति को उसमें वर्धित होना होगा और वही होना होगा । वही हुए बिना, उसीमें वर्धित हुए बिना सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान नहीं हो सकता । आध्यात्मिक अनुभूति का आधारभूत सत्य एक है, उसकी चेतना एक है । वह हर जगह आध्यात्मिक सत्ता के जागरण और वृद्धि की उन्हीं सामान्य रेखाओं और प्रवृत्तियों का अनुसरण करता है क्योकि ये आध्यात्मिक चेतना के लिये अनिवार्य हैं, लेकिन इन अनिवार्यताओं पर आधारित अनुभूति और अभिव्यक्ति की विभिन्नताओं की अनगिनत संभावनाएं भी हैं, इन संभावनाओं का केन्द्रीकरण और सामंजस्य, लेकिन अनुभूति की किसी एक रेखा का ऐकान्तिक रूप से गहरा अनुसरण भी, ये दोनों हमारे अंदर आध्यात्मिक चित्-शक्ति के आविर्भाव के लिये आवश्यक गतियां हैं । और फिर मन और प्राण का आध्यात्मिक सत्य के अनुकूल होना, उनके अंदर उसकी अभिव्यक्ति, जिज्ञासु की मानसिकता के साथ तबतक बदलती रहेगी जबतक कि वह ऐसे अनुकूलीकरण की समस्त आवश्यकता या सीमित करनेवाली अभिव्यक्ति से ऊपर न उठ जाये । यही वह मानसिक और प्राणिक तत्त्व है जिसने उन विरोधों की सृष्टि की है जो अब भी आध्यात्मिक

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जिज्ञासुओं को विभक्त करते हैं या वे जिस सत्य का अनुभव करते हैं उसकी विभिन्न स्थापनाओं में प्रवेश करते हैं । यह भेद और विभिन्नता आध्यात्मिक खोज और आध्यात्मिक वृद्धि की स्वाधीनता के लिये जरूरी है । भेदों को पार कर जाना बिल्कुल संभव है लेकिन वह बहुत आसानी से शुद्ध अनुभव में किया जा सकता है । मानसिक रूपायण में भेद तबतक बने रहेंगे जबतक व्यक्ति मन के एकदम परे न चला जाये और आत्मा के बहुमुखी सत्य को उच्चतम चेतना में पूर्ण, एक और सामंजस्यपूर्ण न बना ले ।

 

     आध्यात्मिक मनुष्य के विकास में आवश्यक रूप से बहुत-सी अवस्थाएं होनी चाहियें और हर अवस्था में सत्ता के व्यक्तिगत रूपायणों, चेतना, जीवन, स्वभाव, भाव और चरित्र में बहुत-सी विविधता होनी चाहिये । उपकरणात्मक मन की प्रकृति और जीवन के साथ व्यवहार करने की आवश्यकता अपने-आप विकास की अवस्था और जिज्ञासु के व्यक्तित्व के अनुसार अनंत विविधताएं रच लेगी । लेकिन इसके अतिरिक्त, शुद्ध आध्यात्मिक आत्मोपलब्धि और आत्माभिव्यक्ति के प्रदेश के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह एक श्वेत एकरूपता हो । आधारभूत ऐक्य में बहूत विविधता हो सकती है । परम पुरुष एक है लेकिन पुरुष की अंतरात्माएं अनेक हैं और जैसा अंतरात्मा ने प्रकृति का गठन किया है उसी तरह की उसकी आध्यात्मिक आत्माभिव्यक्ति होगी । एकता में विविधता अभिव्यक्ति का विधान है । अतिमानसिक एकीकरण और संघटन इन विविधताओं में सामंजस्य लायेंगे लेकिन उनका उन्मूलन करना प्रकृति में बैठे पुरुष का अभिप्राय नहीं है ।

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