दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय १२

 

अज्ञान  का मूल


 

 

तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते  ।

अन्नात्माणो मन... लोकाः... ।।

 

तप से ही अह्म घनीभूत होता है । उससे अन्न और अन्न से प्राण,

मन तथा लोक पैदा होते हैं ।

मुण्डकोपनिषद् १. १ .८

 

सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत   । स तपस्तप्त्वा इदं

सर्वमसृजत यदिदं किं च । तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य

सच्च त्यच्चाभवत् निरुक्तं चानिरुक्तं च, निलयनं चानिलयनं च,

विज्ञानं चाविज्ञानं च, सत्यं चानृतं च  सत्यमभवत् यदिदं कि च ।

तत्सत्यमित्याचक्षते ।।

 

उसने कामना की,  'मैं बहु हो जाऊं ।''  वह तप में एकाग्र हुआ,

उसने तप से जगत् की सृष्टि की, सृजन करके वह उसमें प्रविष्ट हो

गया, प्रवेश करके वह उसमें सत् और सत् से परे बन गया, वह

व्यक्त और अव्यक्त हो गया, वह ज्ञान और अज्ञान हो गया, वह

सत्य और अनृत हो गया, वह सत्य हो गया और यह जो कुछ है

वह सब हो गया उसे 'तत् सत्यम्' कहते हैं ।

तैत्तिरीय उपनिषद् २ .६

 

तपो बह्मेति ।।

तप ही ब्रह्म है ।

तैत्तिरीय उपनिषद् ३. २. ५

 

     इतना सब निश्चित हो जाने के बाद अज्ञान की समस्या पर उसके व्यावहारिक मूल की दृष्टि से, उस चेतना की प्रक्रिया के बारे में जो उसे अस्तित्व में लायी, नजदीक से विचार करना आवश्यक और संभव हो जाता है । एक सर्वांगीण एकत्व सत्ता का सत्य है, उसे आधार मानकर हमें समस्या पर विचार करना चाहिये और देखना चाहिये कि विभिन्न संभव समाधान इस आधार पर कहांतक लागू होते हैं । यह बहुविध अज्ञान या यह संकीर्ण रूप से अपने-आपको सीमित करनेवाला पृथक्- कारी ज्ञान एक ऐसी निरपेक्ष सत्ता में से, जो निरपेक्ष चेतना होनी चाहिये और इस कारण अज्ञान के आधीन नहीं हो सकती, कैसे ऊपर उठ सका और क्रिया रूप में आ सका या अपने-आपको क्रिया में बनाये रख सका ? अविभाज्य में विभाजन,

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 वह भले प्रतीयमान ही क्यों न हो -कैसे सफल रूप से संपन्न हुआ और जारी रहा ? जो सत् पूर्ण रूप से एक है वह अपने बारे में अज्ञ नहीं हो सकता और चूंकि सभी चीजें उसका अपना-आपा हैं, उसीके सचेतन संशोधन हैं, उसीकी सत्ता के निर्धारण हैं इसलिये वह वस्तुओं के बारे में, उनके सच्चे स्वभाव और उनकी सच्ची क्रिया के बारे में भी अज्ञ नहीं हो सकता । लेकिन, यद्यपि हम कहते हैं कि हम तत् हैं, कि जीवात्मा या व्यक्तिगत आत्मा परमात्मा से भिन्न नहीं, निरपेक्ष से भिन्न नहीं हैं फिर भी निश्चय ही हम स्वयं अपने और वस्तुओं के, दोनों के बारे में अज्ञ हैं और इसीसे यह विरोध उठ खड़ा होता है कि जिसे अपनी प्रकृति के अनुसार अज्ञान के लिये असमर्थ होना चाहिये वह उसके लिये सक्षम है और उसने अपनी सत्ता की किसी इच्छाशक्ति या अपनी प्रकृति की किसी आवश्यकता या संभावना के कारण उसमें डुबकी लगायी है । हम अपनी कठिनाई को यह कहकर आसान नहीं बना लेते कि अज्ञान की पीठ-मन-माया की वस्तु है, असत् अ-ब्रह्म है और ब्रह्म, निरपेक्ष, एकमात्र सत् को मन का अज्ञान, जो भ्रमात्मक सत्ता, असत् का भाग है, किसी तरह छू भी नहीं सकता । अगर हम यह स्वीकार करें कि एक पूर्ण एकत्व है तो बच निकलने का यह रास्ता हमारे लिये खुला नहीं रहता क्योंकि तब यह स्पष्ट होता है कि जब हम ऐसा आमूल भेद करते हैं और साथ ही उसे भ्रामात्मक कहकर रद्द भी कर देते हैं तो हम विचार और शब्द के जादू या माया का उपयोग अपने-आपसे इस तथ्य को छिपाने के लिये कर रहे हैं कि हम ब्रह्म के ऐक्य से इंकार  कर रहे हैं और उसके भाग कर रहे हैं क्योंकि हमने दो विरोधी शक्तियों, भ्रम के लिये असमर्थ ब्रह्म और आत्म-भ्रम पैदा करनेवाली माया को खड़ा कर दिया है और उन्हें किसी तरह एक असंभव एकत्व में डाल दिया है । यदि ब्रह्म एकमात्र सत् है तो माया ब्रह्म की शक्ति, वह उसकी चेतना की शक्ति या उसकी सत्ता के परिणाम के सिवा कुछ नहीं हो सकती और अगर जीवात्मा, जो ब्रह्म के साथ एक है, स्वयं अपनी ही माया के आधीन है तो उसमें स्थित ब्रह्म भी माया के आधीन है । लेकिन यह तात्त्विक या आधारभूत रूप से संभव नहीं है । अधीनता तो केवल प्रकृति की किसी क्रिया के प्रति प्रकृति में किसी चीज की वश्यता हो सकती है जो वस्तुओं में आत्मा की सचेतन और मुक्त गति-विधि का भाग है, उसकी अपनी आत्माभिव्यक्ति करनेवाली सर्वशक्तिमत्ता की लीला है । अज्ञान एकमेव की गतिविधि का एक भाग होना चाहिये, उसकी चेतना का कोई विशेष विकास होना चाहिये जिसे उसने जान-बूझकर स्वीकार किया हो, वह जबर्दस्ती जिसके आधीन नहीं किया गया है बल्कि जो अपने वैश्व उद्देश्य के लिये उसका व्यवहार करता है ।

 

      हमारे लिये यह भी संभव नहीं है कि सारी कठिनाई से यह कहकर पिंड छुड़ा लें कि जीवात्मा और परमात्मा एक नहीं हैं, शाश्वत रूप से भिन्न हैं जिनमें से एक

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अज्ञान के आधीन है दूसरा सत्ता और चेतना में और इस कारण ज्ञान में भी निरपेक्ष है क्योंकि यह इस परम अनुभूति और समग्र अनुभूति का खंडन करता है कि प्रकृति की क्रियाओं में चाहे जितना भेद हो, सत्ता एक ही है । विभिन्नता में एकता का तथ्य विश्व-रचना में इतना स्पष्ट और व्यापक है कि उसे स्वीकार करना और अपने-आपको इस वक्तव्य से संतुष्ट कर लेना आसान है कि हम एक होते हुए अलग-अलग हैं । तात्त्विक सत्ता में एक हैं अतः तात्त्विक प्रकृति में एक हैं और आत्मा के रूप में अलग हैं इस कारण सक्रिय प्रकृति में अलग-अलग हैं । लेकिन इस तरह हम केवल तथ्य का विवरण देते हैं और तथ्य द्वारा उठायी गयी कठिनाई को समाधान के बिना छोड़ देते हैं । जो अपनी सत्ता के सारतत्त्व में निरपेक्ष की एकता की चीज है, अतः जिसे उसके साथ और सबके साथ चेतना में एक होना चाहिये, वह अपनी आत्मा में क्रियाशील रूप में विभक्त और अज्ञान के आधीन कैसे हो जाता है । इसका भी ध्यान रखना चाहिये कि यह जरूरी नहीं है कि यह वक्तव्य पूरी तरह सच्चा हो क्योंकि जीवात्मा के लिये 'एक' के साथ केवल निष्क्रिय तात्त्विक एकत्व में ही नहीं बल्कि उसके सक्रिय स्वरूप के साथ भी एकता में प्रवेश करना संभव हैं । या हम यह कहकर कठिनाई से बच सकते हैं कि अस्तित्व और उसकी समस्याओं के परे या उनके ऊपर है अज्ञेय जो हमारे अनुभव के ऊपर और उसके परे है और माया की क्रिया संसार के शुरू होने से पहले ही अज्ञेय में शुरू हो गयी थी अत: वह अपने-आप कारण और मूल के बारे में अज्ञेय और अव्याख्येय है । यह जड़वादी अज्ञेयवाद से उल्टा एक तरह का भावमूलक अज्ञेयवाद होगा । लेकिन समस्त अज्ञेयवाद पर यह आपत्ति की जा सकतीं है कि वह हमारे जानने से इंकार के सिवा कुछ नहीं हो सकता, चेतना के प्रतीयमान और वर्तमान बंधन या संकुचन का आलिंगन करने के लिये एक ऐसी अत्यधिक तत्परता है, एक ऐसी असमर्थता का भाव है जिसे हमारे मन की वर्तमान सीमाओं में तो स्वीकार किया जा सकता है लेकिन जीवात्मा के लिये नहीं जो परमात्मा के साथ एक है । परमात्मा अपने-आपको और अज्ञान के कारण को अवश्य जानता है अतः कोई कारण नहीं कि जीवात्मा किसी ज्ञान के बारे में निराश हो या पूर्ण परमात्मा को या अपने वर्तमान अज्ञान के मूल कारण को जानने के लिये अपनी क्षमता से इंकार करे ।

 

     यदि कोई अज्ञेय है तो वह सच्चिदानंद की ऐसी परम अवस्था हो सकता है जो हमारी सत्, चित् और आनंद की उच्चतम धारणाओं से परे है । स्पष्ट है कि तैत्तिरीय उपनिषद् के असत् का मतलब यही था, जो आरंभ में था और जिसमें से सत् उत्पन्न हुआ और संभवतः बुद्ध के निर्वाण का अंतर्तम भाव भी यही था, क्योंकि हो सकता है कि निर्वाण द्वारा हमारी वर्तमान स्थिति के विलय का मतलब हो किसी ऐसी उच्चतम अवस्था में पहुंचना जो हमारे आत्म-संबंधी सभी भावों या अनुभवों के परे हो, वह हमारे अस्ति-बोध से भी एक अनिर्वचनीय मुक्ति हो । या हो सकता

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है कि यह उपनिषद् का परम और सहज आनंद हो जो अभिव्यक्ति के परे, समझ के परे है क्योंकि वह उस सबका अतिक्मण करता है जिसके बारे में हम चेतना या सत् के रूप में कल्पना या वर्णन कर सकें । हम पहले ही इसे इस भाव में स्वीकार कर चुके हैं क्योंकि यह स्वीकृति हमें केवल अनंत के आरोहण की सीमा बनाने से इंकार के साथ बांधती है । अथवा अगर यह नहीं है, अगर वह सत्ता से एकदम भिन्न कुछ हैं, किसी निरुपाधिक सत्ता से भी भिन्न है तो वह शून्यवादी विचारक का शुद्ध असत् ही हो सकता है ।

 

     लेकिन शुद्ध शून्य में से तो कुछ भी नहीं आ सकता, वह भी नहीं जो केवल प्रतीयमान है, कोई भ्रम भी नहीं और अगर पूर्ण असत् वह नहीं है तो वह केवल एक पूर्ण, शाश्वत रूप से असंसिद्ध एक संभाव्यता ही हो सकता है, अनंत का पहेली जैसा शून्य हो सकता है जिसमें से किसी भी समय सापेक्ष संभाव्यताएं उभर सकती हैं लेकिन वास्तव में उनमें से कुछ ही दृश्य-जगत् में उभरने में सफल होती हैं । इस असत् में से कुछ भी उभर सकता है और उसके क्यों और क्या बतलाने की कोई संभावना नहीं है । वास्तव में सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिये यह शुद्ध अस्तव्यस्तता का बीज है जिसमें से किसी शुभ या अशुभ--बल्कि अशुभ--आकस्मिक संयोग से विश्व की व्यवस्था प्रकट हो गयी है, या हम कह सकते हैं कि विश्व में कोई वास्तविक व्यवस्था नहीं है । जिसे हम व्यवस्था मान लेते हैं वह इन्द्रियों और प्राण का निरंतर अभ्यास और मन की कपोल-कल्पना है और वस्तुओं का कोई अंतिम कारण ढूंढना बेकार है । पूर्ण अव्यवस्था में से सब तरह के विरोधाभास और बेतुकेपन पैदा हो सकते हैं और यह जगत् इसी तरह का विरोधाभास है, विपरीतों और पहेलियों का एक रहस्यमय संकलन है या फलस्वरूप, जैसा कुछ लोगों ने सोचा या अनुभव किया है, यह एक बहुत बड़ी भ्रांति, एक विकट, अंतहीन प्रलाप हो सकता है, ऐसे विश्व का आदि स्रोत पूर्ण चेतना या ज्ञान न होकर पूर्ण निश्चेतना और अज्ञान हो सकते हैं । ऐसे विश्व में कुछ भी सच हो सकता है, ''कुछ भी नहीं"  में से सभी कुछ पैदा हो सकता है । विचारशील मन विचारहीन शक्ति या निश्चेतन जड़ का रोग हो सकता है । हो सकता है कि वह प्रबल व्यवस्था, जिसे हम वस्तुओं के सत्य के अनुसार अस्तित्व मानते हैं, वह वास्तव में एक शाश्वत आत्म-अज्ञान का यांत्रिक विधान हो, न कि एक परम आत्म-शासक सचेतन इच्छा-शक्ति का आत्म-विकास । हो सकता है कि अविरत अस्तित्व शाश्वत शून्य का निरंतर आभास हो । वस्तुओं के उद्भव के बारे में सभी मत समान शक्तिवाले हो जाते हैं क्योंकि सभी समान रूप से मान्य या अमान्य हैं, क्योंकि जब संभवन के चक्रों का कोई निश्चित आरंभ-बिंदु और निश्चित हो सकने लायक कोई लक्ष्य न हो तो सभी समान रूप से संभव होते हैं । मानव मन इन सब मतों को मानता रहा है और भले हम उन्हें भूल ही मानें  इनसे लाभ भी हुआ

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है, क्योंकि मन को भूलें करने की अनुमति दी गयी है क्योंकि वे सत्य की ओर दरवाजे खोलती हैं -नकारात्मक रूप से विरोधी भूलों को नष्ट करके और सकारात्मक रूप से किसी नयी रचनात्मक परिकल्पना में एक नया तत्त्व तैयार करके । लेकिन अगर वस्तुओं की इस दृष्टि को बहुत दूरतक ले जायें तो यह दर्शन-शास्त्र के सारे लक्ष्य को ही खंडन की ओर ले जाती है । दर्शन ज्ञान की खोज करता है अस्तव्यस्तता की नहीं । यह अपने-आपको सिद्ध नहीं कर सकता यदि ज्ञान का अंतिम शब्द बना रहे अज्ञेय, हां, केवल तभी जब यह उपनिषद् की भाषा में कुछ ऐसी चीज है जिसे जानने से सब कुछ जाना जाता है 'यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति ।'  अज्ञेय -पूर्णतया अज्ञेय नहीं, बल्कि मानसिक ज्ञान के परे--उसी 'कुछ' की सत्ता की प्रगाढ़ता की कोई उच्चतर कोटि, मानसिक सत्ताओं को प्राप्त हो सकनेवाले ऊंचे-से-ऊंचे शिखर से परे की कोटि ही हो सकता है और अगर वह उस रूप में ज्ञात हो जाये जैसा उसे अपने-आपको ज्ञात होना चाहिये, तो यह खोज, हमें हमारे परम संभव ज्ञान ने जो कुछ दिया है उसे नष्ट नहीं करेगी बल्कि उसे, उसने आत्म-दृष्टि और आत्म-अनुभव से जो कुछ पाया है उसकी उच्चतर परिपूर्ति और वृहत्तर सत्य की ओर ले जायेगी । अतः यह 'कुछ' ही, एक निरपेक्ष ही है जिसे हम इस तरह जान सकते हैं कि सभी सत्य उसमें और उसके द्वारा खड़े रह सकते हैं और उसमें अपनी संगति पा सकते हैं । हमें इसीको अपने आरंभ-बिंदु के रूप में जानना और अपने विचार करने और देखने के सतत आधार के रूप में रखना होगा और उसीके द्वारा समस्या का समाधान पाना होगा क्योंकि विश्व के विरोधाभासों की चाबी केवल तत् के पास ही हो सकती है ।

 

     जैसा कि वेदांत का आग्रह है और शुरू से हमारा भी आग्रह रहा है, यह 'कुछ' अपने व्यक्त स्वरूप में सच्चिदानंद है, निरपेक्ष सत् चेतना और आनंद की त्रिपुटी है । हमें, इस आद्य सत्य से आरंभ करके समस्या की ओर बढ़ना होगा । तब यह तो स्पष्ट है कि उसका समाधान चेतना की ऐसी क्रिया में होगा जिसमें वह ज्ञान के रूप में अभिव्यक्त होती है और फिर भी उस ज्ञान को इस तरह सीमित रखती है कि उससे अज्ञान के व्यापार की रचना हो जाती है--और चूंकि अज्ञान चेतना की शक्ति की गतिशील क्रिया का व्यापार है, कोई तात्त्विक तथ्य नहीं बल्कि उस क्रिया का एक सृजन, परिणाम है अतः चेतना के इस शक्ति-पक्ष के बारे में विचार करना फलप्रद होगा । निरपेक्ष चेतना अपने स्वरूप में निरपेक्ष शक्ति है, चित् की प्रकृति है शक्ति, वह ऐसा बल या ऐसी शक्ति है जो ज्ञान या क्रिया को चरितार्थ करनेवाली, प्रभावोत्पादक या सृजनात्मक शक्ति में एकाग्र या क्रियाशील है, सचेतन सत्ता की शक्ति है जो अपने ऊपर ही निवास करती है और मानों उद्भवन के ताप

 

     १ तपसू का शब्दार्थ है गरमी और उसके बाद किसी भी तरह का शक्ति-संचार, क्रिया-शक्ति, तपस्या, अपने ऊपर या अपने विषय पर क्रिया करनेवाली सचेतन शक्ति का तपोबल । प्राचीन रूपक

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से जो कुछ उसके अंदर है, बीज या विकास, उसे लेकर, या अगर ऐसी भाषा में कहें जो हमारे मन के लिये अधिक सहज है, सभी सत्यों और संभाव्यताओं से विश्व का सृजन करती है । अगर हम स्वयं अपनी चेतना की परीक्षा करें तो हम देखेंगे कि उसकी ऊर्जा की यह शक्ति, जिससे वह अपने-आपको अपने विषय पर लगाती है, सचमुच उसकी सबसे अधिक सुनिश्चित क्रियाशील शक्ति है । इसके द्वारा वह अपने समस्त ज्ञान, अपनी समस्त क्रिया और अपने समस्त सृजनतक पहुंचती है । लेकिन हमारे लिये दो उद्देश्य हैं जिनपर अंदर की क्रिया-शक्ति कार्य कर सकती है; एक तो स्वयं हम, आंतरिक जगत् और दूसरे, चाहे वे प्राणी हों या वस्तुएं हमारे चारों ओर का बाहरी जगत् । यह भेद अपने फलप्रद और क्रियाकारी परिणामों के साथ सच्चिदानंद पर उस तरह लागू नहीं होता जैसे हमपर होता है क्योंकि सब कछ वह स्वयं और उसके अंदर है और उसमें ऐसा कोई विभाजन नहीं है जैसा हम अपने मन की सीमाओं के द्वारा बना लेते हैं । दूसरे, हमारे अंदर हमारी सत्ता की शक्ति का केवल एक भाग ही हमारी ऐच्छिक क्रिया के साथ मानसिक या दूसरी क्रिया में व्यस्त हमारी इच्छा-शक्ति के साथ एक होता है, बाकी भाग हमारी सतही मानसिक अभिज्ञता के लिये अपनी क्रिया में अनैच्छिक है या फिर अवचेतन या अतिचेतन है और इस विभाजन से भी बहुत-से महत्त्वपूर्ण, व्यवाहारिक परिणाम निकलते हैं । लेकिन सच्चिदानंद में न तो यह विभाजन और न उसके परिणामों का उपयोग होता है क्योंकि सब कुछ उसकी अविभाज्य आत्मा है अतः सभी क्रियाएं और परिणाम उसकी एक अविभाज्य इच्छा की गतियां हैं, सक्रिय क्रिया में उसकी चित्-शक्ति हैं । जैसे हमारी चेतना की क्रिया का स्वभाव है तपस् उसी तरह सच्चिदानंद की चेतना की क्रिया का भी, लेकिन उसमें वह एक अविभाज्य सत्ता में एक अखंड चेतना का सर्वांगीण तपसू है ।

 

     लेकिन यहां एक प्रश्न उठ सकता है, चूंकि सत् में और प्रकृति में क्रियाशीलता भी है और निष्क्रियता भी, सचल क्रिया है और निश्चल स्थिति भी अतः इस सामर्थ्य की, इस शक्ति और उसके केंद्रीकरण की उस स्थिति के बारे में क्या स्थान और भूमिका है जहां ऊर्जा का कोई खेल नहीं, जहां सब कुछ निश्चल है । अपने अंदर हम आदत के अनुसार तपसू को, अपनी सचेतन शक्ति को, सक्रिय चेतना के अनुसार तप के द्वारा जगत् की सृष्टि अंड़े के रूप में हुई थी, सचेतन शक्ति की सेने की गरमी ने अंड़े को तोड़ और उसमें से, अंडे में से निकलनेवाले पक्षी की तरह पुरुष-प्रकृति में अंतरात्मा निकल आया । ध्यान रहे कि साधारणत: अंग्रेजी किताबों में तपस्या का अर्थ 'पेनेंस' किया जाता है, यह बिल्कुल भ्रामक है । भारत के तपस्वियों की तपस्या में 'पेनेंस' का भाव मुश्किल से ही आ पाता था । यहांतक कि बहुत अधिक कठोर और कष्टकर तपस्माओं में भी शरीर को पीड़ा देना मुख्य तत्त्व नहीं था । बल्कि लक्ष्य था चेतना पर शारीरिक प्रकृति की पकड़ का अतिक्रमण या किसी आध्यात्मिक या अन्य लक्ष्य की प्राप्ति के लिये चेतना और इच्छ-शक्ति का असामान्य ऊर्जन ।

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को, क्रीड़ा में लगी ऊर्जा तथा भीतरी या बाहरी क्रिया और गति के साथ जोड़ते हैं । हमारे अंदर जो निष्क्रिय है वह कोई क्रिया नहीं उत्पन्न करता और करता भी है तो केवल अनैच्छिक या यंत्रवत् क्रिया और हम उसका संबंध अपनी इच्छा-शक्ति या सचेतन शक्ति के साथ नहीं जोड़ते, फिर भी, चूंकि वहां भी क्रिया की या स्व- चालित क्रियाशीलता के उभरने की संभावना है इसलिये उसमें भी कम-से-कम निष्क्रिय रूप से प्रत्युत्तर देनेवाली या स्वचालित सचेतन-शक्ति होनी चाहिये या उसमें गुप्त रूप से भावात्मक या अभावात्मक प्रतिलोम तपस् है । यह भी हो सकता है कि हमारी सत्ता में, हमसे अज्ञात कोई वृहत्तर सचेतन शक्ति, सामर्थ्य या इच्छा है जो इस अनैच्छिक क्रिया के पीछे है--अगर इच्छा नहीं तो कम-से-कम एक प्रकार की शक्ति जो अपने-आप क्रिया का आरंभ करती है या वैश्व ऊर्जा के संपर्कों सुझावों और प्रेरणाओं को उत्तर देती है । हम जानते हैं कि प्रकृति में भी स्थिर, जड़ या निष्क्रिय वस्तुएं एक गुप्त और अनवरत गति द्वारा अपनी ऊर्जा में बनी रहती हैं, वह अनवरत गति एक क्रियाशील ऊर्जा है जो उनकी प्रतीयमान निश्चलता को सहारा देती है । तो यहां भी सब कुछ शक्ति की उपस्थिति का, संकेंद्रण में उसकी शक्ति की क्रिया का, उसके तपसू का ऋणी है । लेकिन इसके परे, स्थिति और क्रिया के इस सापेक्ष रूप के परे, हम देखते हैं कि हमारे अंदर वहांतक पहुंचने की सामर्थ्य है जो हमें अपनी चेतना की संपूर्ण निष्क्रियता या अचंचलता प्रतीत होती है, जिसमें सारी मानसिक और शारीरिक क्रिया बंद हो जाती है । तो ऐसा लगता है कि एक सक्रिय चेतना है जिसमें चेतना एक ऐसी ऊर्जा के रूप में काम करती है जो अपने अंदर से ज्ञान और क्रियाशीलता प्रक्षिप्त करती है, जिसका धर्म है तपसू और दूसरी निष्क्रिय चेतना है जिसमें चेतना ऊर्जा के रूप में काम नहीं करती, केवल स्थिति के रूप में रहती है, जिसका धर्म है तपसू या क्रियाशील शक्ति का अभाव । इस स्थिति में क्या तपत् की प्रतीयमान अनुपस्थिति वास्तविक है, या क्या सच्चिदानंद में ऐसा कोई सार्थक भेद है ? यह प्रतिपादित किया जाता है कि ऐसा है । ब्रह्म की दोहरी स्थिति, शांत-निष्क्रिय और सर्जनात्मक सक्रिय, निःसंदेह

 यह भारतीय दर्शन-शास्त्र के सबसे बढ़कर महत्त्वपूर्ण और फलप्रद भेदों में से है, और फिर यह आध्यात्मिक अनुभूति का एक तथ्य है ।

 

     यहां हम इस बात पर ध्यान दें कि पहले अपने अंदर इस निष्क्रियता के द्वारा हम विशिष्ट और खंडित ज्ञान से ज्यादा बड़े, एक और एकता लानेवाले ज्ञान में जा पहुंचते हैं, दूसरे, यदि हम निष्क्रियता की स्थिति में अपने-आपको पूरी तरह उसकी ओर खोलें जो परे है तो हम एक ऐसी शक्ति के बारे में अभिज्ञ हो सकते हैं जो हमारे ऊपर क्रिया करती है, जिसके बारे में हम अपने सीमित अहंकार में यह सोचते हैं कि वह हमारी अपनी नहीं हे, बल्कि वैश्व और परात्पर है, और यह कि यह शक्ति हमारे द्वारा ज्ञान की ज्यादा बड़ी लीला के लिये, ऊर्जा की ज्यादा बड़ी

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लीला, क्रिया और परिणाम के लिये काम करती है । उसके बारे में भी हम यही अनुभव करते हैं कि वह हमारी अपनी नहीं है बल्कि भगवान् की, सच्चिदानंद की है । हम केवल उसके क्षेत्र या माध्यम हैं । परिणाम दोनों हालतों में आता है क्योंकि हमारी व्यक्तिगत चेतना अज्ञानभरी सीमित क्रिया से अलग होकर अपने-आपको परम स्थिति या परम क्रिया की ओर खोलती है । दूसरी अवस्था, अधिक सक्रिय उन्मीलन में ज्ञान और क्रिया की शक्ति और क्रीड़ा होती है और वह है तपसू लेकिन पहली अवस्था में भी, निष्क्रिय स्थिति की चेतना में भी स्पष्ट रूप से ज्ञान की शक्ति और ज्ञान के संकेंद्रण के लिये या कम-से-कम निश्चलता और आत्मोपलब्धि में चेतना का संकेंद्रण होता है और यह भी तपसू है । अतः ऐसा लगता है कि तपसू या चेतना की शक्ति का संकेंद्रण ब्रह्म की सक्रिय और निष्क्रिय दोनों प्रकार की चेतना का लक्षण है और यह कि स्वयं हमारी निष्क्रियता में भी एक अदृष्ट सहारा देनेवाले या विनियोग करनेवाले तपसू का धर्म है । चेतना की ऊर्जा का संकेंद्रण ही, जबतक वह बना रहता है, समस्त सृजन, समस्त कर्म और गति को सहारा देता है । लेकिन वह चेतना की शक्ति का संकेंद्रण भी है जो सभी स्थितियों को भीतर से सहारा देती या उन्हें अनुप्राणित करती है, चाहे वह अधिक-से-अधिक निश्चल निष्क्रियता, अनंत स्थिरता या अनंत नीरव निश्चलता ही क्यों न हो ।

 

    फिर भी यह कहा जा सकता है कि अंत में ये दो अलग-अलग चीजें हैं और यह उनके विरोधी परिणामों के भेद से दिखायी देता है क्योंकि ब्रह्म की निष्क्रियता में शरण लेने से इस जीवन का अंत हो जाता है और सक्रिय ब्रह्म की शरण में जाने से वह जारी रहता है । लेकिन यहां भी, हमें देखना चाहिये कि यह भेद व्यक्तिगत जीवन की एक स्थिति से दूसरी स्थिति की ओर, जगत् में ब्रह्म-चेतना की स्थिति से, जहां वह वैश्व क्रिया के लिये आलंब है, जगत् से परे ब्रह्म-चेतना की उस स्थिति की ओर गतिशील होने के कारण ही पैदा होता है जहां वह चेतना ऊर्जा को विश्व-क्रिया में प्रवृत्त होने से रोके रखने की शक्ति है । इसके अतिरिक्त अगर सत्ता की शक्ति का जगत्-क्रिया में तपस् की ऊर्जा द्वारा वितरण संपन्न होता है तो समान रूप से तपस् की ऊर्जा द्वारा ही सत्ता की उस शक्ति को रोके रखना भी संपन्न होता है । ब्रह्म की स्थावर चेतना और उसकी जंगम चेतना दो अलग-अलग, टकराती हुई, आपस में मेल न खानेवाली चीजें नहीं हैं । वे एक ही चेतना, एक ही ऊर्जा हैं जो एक छोर पर आत्म-संग्रह की स्थिति में और दूसरे छोर पर आत्मदान और आत्म-प्रसारण की स्थिति में हैं जैसे किसी जलाशय की निश्चलता और उसमें से बहनेवाली नहरों की धारा । वास्तव में हर क्रियाशीलता के पीछे सत्ता की एक निष्क्रिय शक्ति होती है और होनी चाहिये जिसमें से बह उठती है, जो उसे सहारा देती, जो, जैसा कि हम अंत में देखते हैं, उसके साथ पूरी तरह एकात्म हुए बिना पीछे-से उसपर शासन करती है, कम-से-कम इस अर्थ में कि वह अपने-आपको

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क्रिया में पूरी तरह उंडेल देती है और उसमें भेद करना संभव नहीं रहता । अपने- आपको समाप्त करनेवाली ऐसी एकात्मता असंभव है क्योंकि कोई भी क्रिया चाहे जितनी विशाल क्यों न हों अपनी उद्गम शक्ति को, जिससे वह निकलती है, इस तरह समाप्त नहीं कर सकती कि बाकी कुछ भी न बचे । जब हम अपनी सचेतन सत्ता में लौटते हैं, जब हम अपनी क्रिया से पीछे हटकर देखते हैं कि वह कैसे की जाती है तो हमें पता लगता है कि हमारी सारी सत्ता हर विशिष्ट क्रिया के पीछे या क्रियाओं की हर राशि के पीछे खड़ी होती है, वह अपनी बाकी समग्रता में निष्क्रिय और अपनी ऊर्जा के सीमित वितरण में सक्रिय होती है । परंतु वह निष्क्रियता असमर्थ जड़ता नहीं है, वह आत्मसंगृहीत ऊर्जा की स्थिरता है । अनंत की सचेतन सत्ता में ऐसा ही सत्य अधिक पूर्णता के साथ लागू होना चाहिये, जिसकी शक्ति जैसे सृजन में होती है उसी तरह स्थिति की नीरवता में भी अनंत होनी चाहिये । 

 

     अभी यह पता लगाने का कोई महत्त्व नहीं कि जिस निष्क्रियता में से सब कुछ उभरता है वह निरपेक्ष है या वह अपने-आपको जिस दृश्य क्रिया से पीछे खींचती है उसके लिये सापेक्ष है । इतना ध्यान रखना काफी है कि चाहे हम अपने मन की सुविधा के लिये भेद कर लें परंतु एक निष्क्रिय ब्रह्म और एक सक्रिय ब्रह्म नहीं है । ब्रह्म एक है, एक ऐसा सत् जो अपने तपस् को उसमें संगृहीत रखता है जिसे हम निष्क्रियता कहते हैं और जिसे हम उसकी क्रियाशीलता कहते हैं उसमें अपने- आपको देता है । क्योंकि क्रिया के प्रयोजनों के लिये ये दोनों एक सत्ता के दो छोर हैं या सृजन के लिये आवश्यक दोहरी शक्ति हैं । संग्रहण से निकलकर क्रिया अपनी परिधि पर चलती और उसी संग्रहण पर वापिस आ जाती है और संभवत: जो ऊर्जाएं उसमें से निकली थीं उन्हें फिर से एक नयी परिधि में प्रक्षिप्त करने के लिये वापिस कर देती है । ब्रह्म की निष्क्रियता है उसकी सत्ता का तपस् या संकेंद्रण, जब वह अपनी निश्चल  ऊर्जा के आत्मलीन संकेंद्रण में स्वयं अपने अंदर निवास करता है; सक्रियता है उसकी सत्ता का तपसू जिसे उसने धारण किया था, वह उसे तप में से सचलता में मुक्त करता है और क्रिया की करोड़ों लहरों में यात्रा करता है और यात्रा करते हुए भी हर एक में निवास करता है और उसमें सत्ता के सत्यों और संभाव्यताओं को मुक्त करता है । वहां भी शक्ति का संकेंद्रण है लेकिन वह बहुमुखी संकेंद्रण है जो हमें प्रसारण मालूम होता है । लेकिन वह सचमुच प्रसारण नहीं फैलाव है । ब्रह्म अपनी ऊर्जा को अपने अंदर से किसी अवास्तविक बाहरी शून्य में खो जाने के लिये नहीं फैलाता बल्कि उसे अपनी ही सत्ता में क्रियारत रखता है, उसे पूरा-का-पूरा, संक्षिप्त या क्षीण किये बिना परिवर्तन और रूपांतरण की सतत प्रक्रिया में रखता है । निष्क्रियता है शक्ति का, तपसू का बहुत बड़ा संग्रह जो रूपों और घटनाओं में गति और रूपांतरण के बहुविध प्रवर्तन को सहारा देता है । सक्रियता है गति और रूपांतरण में शक्ति का, तपसू का संग्रह ।

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जैसा हमारे अंदर होता है उसी तरह ब्रह्म में भी दोनों एक दूसरे के लिये सापेक्ष हैं, दोनों का युगपत् अस्तित्व है, एकमेव सत् की क्रिया के दो ध्रुव हैं ।

 

    तो सद्वस्तु न तो अचल सत् की शाश्वत निष्क्रियता है न गतिशील सत् की शाश्वत क्रियाशीलता है और न ही वह काल में इन दो चीजों की हेरा-फेरी है । वस्तुत: दोनों में से कोई भी ब्रह्म की वास्तविकता का संपूर्ण सत्य नहीं है । उनका विरोध भी ब्रह्म के विषय में, उसकी चेतना के क्रिया-कलाप के संबंध में ही सच्चा है । जब हम वैश्व क्रिया में उसकी सत्ता की सचेतन ऊर्जा के फैलाव को देखते हैं तो हम उसे चल और सक्रिय ब्रह्म कहते हैं । जब हम ब्रह्म की सत्ता की सचेतन ऊर्जा को युगपत् रूप से क्रिया से खिंचा हुआ, संग्रहीत देखते हैं तो हम उसे अचल निष्क्रिय ब्रह्म कहते हैं -सगुण और निर्गुण, क्षर और अक्षर; अन्यथा इन शब्दों का कोई अर्थ ही न होगा क्योंकि सद्वस्तु एक है, दो स्वतंत्र सद्वस्तुएं नहीं हैं, एक अचल और दूसरी चल । अंतरात्मा का क्रिया में विकास, प्रवृत्ति और उसका निष्क्रियता में प्रतिविकास, निवृत्ति में साधारण दृष्टि से यह माना जाता है कि क्रिया में व्यष्टिगत अंतरात्मा अज्ञानी बन जाती है, वह अपनी निष्क्रियता के बारे में अनभिज्ञ होती है जिसे उसकी सच्ची सत्ता माना जाता है । और निष्क्रियता में वह अपने सक्रिय रूप के बारे में अज्ञानी बन जाती है, जिसे उसकी मिथ्या या केवल आभासी सत्ता माना जाता है । लेकिन यह इसलिये है क्योंकि हमारे लिये ये दो गतियां बारी-बारी से होती हैं जैसे हमारी नींद और जाग्रत् अवस्था में । जाग्रत् अवस्था में हम अपनी नींद की अवस्था के बारे में अज्ञान में चले जाते हैं और नींद में जाग्रत् अवस्था के बारे में अज्ञान में । लेकिन यह इसलिये होता है क्योंकि हमारी सत्ता का एक हिस्सा ही बारी-बारी से यह गति करता है और हम मिथ्या रूप में इस आंशिक सत्ता को ही अपना स्वरूप मान लेते हैं । लेकिन अधिक गहरे मनोवैज्ञानिक अनुभव से हम यह पता लगा सकते हैं कि हमारे अंदर वृहत्तर सत्ता उस सबके बारे में भली-भांति अभिज्ञ होती है जो वहां होता है यहांतक कि उससे भी जो हमारी आंशिक या सतही सत्ता के लिये अचेतना की अवस्था है, वह न तो नींद से सीमित होती है न जागरण से । ब्रह्म के साथ हमारे संबंधों के बारे में भी यही बात है, जो हमारी वास्तविक और समग्र सत्ता है । अज्ञान में हम अपने- आपको केवल एक आंशिक चेतना के साथ एकात्म कर लेते हैं जो अपने स्वरूप में मानसिक या आध्यात्मिक-मानसिक होती है, जो गति के कारण अपनी स्थाणु आत्मा के बारे में अज्ञ हो जाती है । अपने इस भाग में जब हम गति को खो बैठते हैं तो साथ ही निष्क्रियता में प्रवेश के कारण कर्म की आत्मा पर अधिकार भी खो बैठते हैं । पूर्ण निष्क्रियता द्वारा मन सो जाता है या समाधि में प्रवेश करता है या आध्यात्मिक नीरवता में मुक्त हो जाता है । यद्यपि यह कर्म के प्रवाह में स्थित आंशिक सत्ता की अज्ञान से मुक्ति है लेकिन यह पायी जाती है सक्रिय

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सद्वस्तु के संबंध में ज्योतिर्मय निर्ज्ञान को स्वीकार करके या उससे ज्योतिर्मय पार्थक्य पाकर । आध्यात्मिक-मानसिक सत्ता अस्तित्व की नीरव सारभूत स्थिति में आत्मलीन रहती है और या तो सक्रिय चेतना के लिये असमर्थ या समस्त क्रियाशीलता से विरक्त हो जाती है । नीरव निश्चलता की यह मुक्ति एक ऐसी स्थिति है जिसमें से होकर अंतरात्मा निरपेक्ष की ओर यात्रा मे बढ़ती  है । लेकिन हमारी सच्ची और समग्र सत्ता मे एक अधिक बड़ी परिपूर्ति है जिसमें आत्मा के सक्रिय और निष्क्रिय दोनों पक्ष उस 'तत्' मे पूर्ति और मुक्ति पाते हैं जो दोनों को धारण करता है और न तो क्रिया से सीमित हैनिश्चल नीरवता से ।

 

      कारण, ब्रह्म बरी-बारी से निष्क्रियता से क्रियाशीलता मे और फिर अपनी त्ता की क्रियाशील शक्ति को बंद करके वापिस निष्क्रियता मे नहीं जाता । अगर संपूर्ण सद्वस्तु के बारे में यह बात ठीक होती तो जब विश्व चल रहा होता तो निष्क्रिय ब्रह्म की त्ता न रहती, सब कुछ क्रिया होती और, अगर हमारे विश्व को विलीन कर दिया जाये तो कोई सक्रिय ब्रह्म न रहेगा, सब कुछ समाप्त और निश्चल स्थिरता ही हो जायेगा । लेकिन ऐसा है नहीं, क्योकि हम शाश्वत निष्क्रियता और आत्म-केंद्रित स्थिरता के बारे मे अभिज्ञ हो सकते हैं जो समस्त वैश्व क्रियावली और उसकी बहुविध केंद्रित गति मे प्रविष्ट होती और उन्हें धारण करती है -और ऐसा हो नहीं सकता था, यदि यह न हो कि जबतक कोई भी क्रियाशीलता जारी रहे तबतक संकेंद्रित निष्क्रियता उसे सहारा देती हो और उसके अंदर रहती हो । संपूर्ण ब्रह्म मे निष्क्रियता और सक्रियता युगपत् रूप से रहती हैं, वह बारी-बारी से एक से दूसरी स्थिति मे, जैसे निद्रा से जागरण मे नहीं जाता । हमारे अंदर कोई आशिक क्रियाशीलता ही ऐसा करती हुई मालूम होती है और हमें उस आशिक क्रियाशीलता के साथ तादात्म्य के कारण एक निर्ज्ञान से दूसरे निर्ज्ञान में अदला-बदली का आभास होता है लेकिन हमारी सच्ची, संपूर्ण सत्ता इन विरोधों के आधीन नहीं है और उसे अपनी नीरवता की आत्मा को पाने के लिये अपनी क्रियाशील आत्मा से अनभिज्ञ होने की जरूरत नहीं होती । जब हमें आत्मा और प्रकृति दोनों का पूर्ण ज्ञान और पूर्ण स्वातत्र्य प्राप्त हो जाये जो सीमित, आशिक और अज्ञानी सत्ता की अक्षमताओं से मुक्त हो तो हम भी निष्क्रियता और सक्रियता पर युगपत् अधिकार पा सकते हैं और सार्विकता के इन दोनों ध्रुवों का अतिक्रमण कर सकते हैं और प्रकृति से संबंधयुक्त या संबंधहीन आत्मा की इन दोनों शक्तियों में से किसीसे सीमित नहीं होते ।

 

     गीता मे घोषणा की गयी है कि पुरुषोत्तम अक्षर पुरुष और क्षर सत्ता दोनों के परे है । इन दोनों को एक साथ रखा जाये तो भी वे  उस सारे का निरूपण नहीं करते जो वह है । क्योकि स्पष्ट है कि जब हम कहते हैं कि वह युगपत् रूप से उन दोनों पर अधिकार रखता है तो इसका यह मतलब नहीं होता कि वह एक निष्क्रियता और एक सक्रियता का योगफल है, उन दो भिन्नो से बनी हुई एक पूर्ण

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संख्या है, अपने तीन चौथाई भाग से तो वह निष्क्रिय है और अपनी सत्ता के एक चौथाई से सक्रिय । उस हालत में ब्रह्म निर्ज्ञानों का योगफल हो सकता है जिसमें निष्क्रिय तीन चौथाई क्रियाशीलता के कामों के बारे में केवल उदासीन ही नहीं, पूरी तरह अज्ञ रहता है और सक्रिय चौथाई निष्क्रियता के बारे में एकदम अनभिज्ञ और अपनी क्रिया को बंद करने के सिवा और किसी भी रूप मे उसपर अधिकार करने में असमर्थ रहता है । यहांतक कि इनका योगफल ब्रह्म कोई ऐसी चीज निकले जो अपने दो भिन्नों से एकदम अलग हो । मानों कोई ऐसी चीज हो जो ऊपर और पृथक् है और कोई रहस्यमयी माया उसकी सत्ता के इन दो भिन्नों मे से जो कुछ आग्रह के साथ करती रहती है और जो कुछ करने से दृढ़ता के साथ दूर रहती है, वह उन सबके प्रति अनभिज्ञ और उनके लिये अनुत्तरदायी है । लेकिन यह स्पष्ट है कि परम सत्ता ब्रह्म को निष्क्रियता और सक्रियता दोनों के बारे में अभिज्ञ होना चाहिये और वह उन्हें अपनी पूर्ण सत्ता नहीं बल्कि अपनी विश्वजनीनताओं के परस्पर-विरोधी और फिर भी आपस में एक-दूसरे को संतुष्ट करनेवाले पद माने । यह सच नहीं हो सकता कि अपनी शाश्वत निष्क्रियता के कारण ब्रह्म अपनी क्रियाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ और पृथक् है । मुक्त होते हुए वह उन्हें अपने अंदर धारण करता है, अपनी स्थिरता की शाश्वत शक्ति द्वारा उन्हें सहारा देता और अपनी ऊर्जा की शाश्वत स्थिति से उनका प्रवर्तन करता है । यह समान रूप से असत्य होना चाहिये कि अपनी सक्रियता मे ब्रह्म अपनी निष्क्रियता से अलग और उससे अनभिज्ञ है । सर्वव्यापक होने के नाते वह क्रिया को सहारा देता है, गति के हृदय में हमेशा उसपर अधिकार रखता है और अपनी ऊर्जाओं के भंवर मे शाश्वत रूप से स्थिर, निश्चल, मुक्त और आनंदमय रहता है । न तो निष्चल नीरवता और न क्रिया में वह अपनी पूर्ण सत्ता से पूरी तरह अनभिज्ञ हो सकता, बल्कि वह जानता है कि वह उनके द्वारा जो कुछ व्यक्त करता है वह उस परम सत्ता की शक्ति से हीं अपना मूल्य और शक्ति पाता है । अगर हमारे अनुभव को यह इससे भिन्न लगता है तो इसलिये कि हम एक पक्ष के साथ तादात्म्य कर लेते हैं और उस ऐकातिकता के कारण अपने- आपको संपूर्ण सद्वस्तु की ओर खोलने में असफल होते हैं ।

 

    अनिवार्य रूप सें इसका पहला महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकलता है, जिसे हम दूसरे दृष्टिकोणों से पा चुके हैं, कि अज्ञान की सत्ता का उद्गम या उसकी विभाजनकारी क्रियाओं का आरंभ-बिंदु परब्रह्म या पूर्ण सच्चिदानंद में नहीं हो सकता । यह सत्ता की उस आशिक क्रिया की चीज है जिसके साथ हम अपने- आपको एकात्म कर लेते हैं, ठीक उसी तरह जैसे शरीर मे हम अपने-आपको उस आशिक और सतही चेतना के साथ एक मान लेते हैं जो निद्रा और जागरण के बीच बदलती रहती है । वस्तुतः अज्ञान का उपादान-कारण यही एकात्मता है जो बाकी सद्वस्तु को अपने पीछे हटा देती है । और अगर अज्ञान ब्रह्म की पर। प्रकृति

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या ब्रह्म की अखंडता का तत्त्व या उसकी निजी शक्ति नहीं है तो कोई आद्य मूल अज्ञान नहीं हो सकता । अगर माया शाश्वत की चेतना की आद्या शक्ति है तो वह स्वयं अज्ञान नहीं हो सकती या किसी भाति अज्ञान की प्रकृति के सदृश नहीं हो सकती बल्कि उसे आत्मज्ञान और सर्वज्ञान की परात्पर और वैश्व शक्ति होना चाहिये । अज्ञान केवल एक गौण, आशिक, सापेक्ष, परवर्ती गति के रूप में हस्तक्षेप कर सकता है । तो क्या यह कोई आत्माओं की बहुलता मे अंतर्निहित चीज है ? क्या यह उस समय तुरंत उत्पन्न हो जाती है जब ब्रह्म अपने-आपको बहुलता मे देखता है ? क्या यह बहुत्व ऐसे जीवों का योगफल है जिनमें स हर एक स्वभावत: आशिक, और सभी जीवों से चेतना मे अलग है, उनके बारे में इससे ज्यादा जानकारी पाने में असमर्थ है कि वे उसके बाहर की चीजें हैं और उनके साथ शरीर से शरीर, मन से मन के संचार को छोड्कर ऐक्य पाने में असमर्थ है ? लेकिन हम देख आये हैं कि यह तो वही है जो हमें अपनी चेतना की सबसे बाहरी सतह पर, बाह्य मन और भौतिक मे दिखायी देता है । जब हम अपनी चेतना की सूक्ष्मतर, गहनतर और विशालतर क्रिया मे लौटते हैं तो हम विभाजन की दीवारों को पतला होता हुआ पाते हैं और अंत में विभाजन की कोई दीवार, कोई अज्ञान नहीं रह पाता ।

 

    शरीर प्रतीयमान विभाजन का बाहरी चिह्न और सबसे नीचे का आधार है जिसे अज्ञान और आत्म-निर्ज्ञान में डुबकी लगाती हुई प्रकृति व्यष्टिगत आत्मा के द्वारा फिर से एकत्व पाने के लिये, अपनी बहुविध चेतना के अधिक-से-अधिक अतिरंजित रूपों के बीच भी एकत्व पाने के लिये, आरंभबिंदु बनाती है । शरीर एक-दूसरे के साथ बाहरी साधनों के बिना और बाह्यता की खाड़ी को पार किये बिना संचार नहीं कर सकते, जिसमें प्रवेश करना है उसे छेदेै बिना एक-दसरे में प्रवेश नहीं कर सकते या फिर पहले से ही उपस्थित दसर या पहले के विभाजन का लाभ उठाकर प्रवेश कर सकते हैं । वे तोड़े बिना, निगले बिना, हड़प किये बिना, अर्थात् आत्मसात् किये बिना एक नहीं हो सकते या अधिक-से-अधिक एक ऐसा विलयन हो सकता है जिसमें दोनों रूप गायब हो जायें । मन भीं जब वह शरीर के साथ एकात्म हो, तो उसकी सीमाओं से अवरुद्ध हो जाता है लेकिन अपने-आपमें वह अधिक सूक्ष्म है । दो मन बिना विभाजन और बिना चोट पहुंचाये एक-दूसरे के अंदर प्रवेश कर सकते हैं, एक-दूसरे को तकलीफ पहुंचाये बिना अपने पदार्थ का विनिमय कर सकते हैं, एक तरह से एक-दूसरे का भाग बन सकते हैं; फिर भी मन का अपना रूप है जो उसे दूसरे मनों से अलग करता है और वह इस अलगाव पर खड़ा  रहने के लिये प्रवृत्त होता है । जब हम आतरात्मिक चेतना में लौट आते हैं तो ऐक्य मे बाधाएं कम हो जाती हैं और अंत में उनका अस्तित्व ही एकदम से समाप्त हो जाता है । अंतरात्मा अपनी चेतना मे दूसरी अंतरात्माओं के

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साथ एक हो सकती है, उन्हें धारण कर सकती है, उनमें प्रवेश कर सकती और उनके द्वारा धारण की जा सकती है, उनके साथ अपना ऐक्य चरितार्थ कर सकती है और यह किसी आकारहीन, अभेद्य निद्रा मे नहीं, ऐसे निर्वाण में नहीं जिसमें अंतरात्मा, मन और शरीर के सभी वैशिष्टय और व्यक्तित्व खो जाते हैं; बल्कि एक पूर्णत: जाग्रत् अवस्था मे होता है जो सभी भेदों का अवलोकन करती, उनका ध्यान रखती परंतु उनका अतिक्रमण कर जाती है ।

 

     अतः अतरात्माओ की बहुलता मे अज्ञान और आत्म-सीमांकन करनेवाले विभाजन अंतर्निहित और अलंध्य नहीं हैं और न ही वे ब्रह्म की बहुलता की अपनी प्रकृति मे हैं । जैसे ब्रह्म सक्रियता और निष्क्रियता का अतिक्रमण करता है उसी भांति वह एकता और बहुलता के भी परे है । वह अपने-आपमें एक है लेकिन एक ऐसी आत्म-सीमांकनकारी एकता में नहीं जो बहु होने की शक्ति से अलग हो, जैसी शरीर और मन की विभक्त एकता होती है । वह गणित की पूर्ण-संख्या एक नहीं है जो सौ को अपने अंदर समाने मे अक्षम है इसलिये सौ से कम है । ब्रह्म तो सौ को अपने अंदर समाये रहता है और सारे सौ में स्थित एक है । स्वयं अपने अंदर एक होते हुए वह बहु के अंदर एक है और बहु उसके अंदर एक हैं । दूसरे शब्दों मे, अपनी आत्मा के एकत्व में ब्रह्म अपनी अंतरात्माओं के बहुत्व के बारे मे अभिज्ञ है और अपनी बहु अतरात्माओं की चेतना मे समस्त आत्मा के एकत्व के बारे में अभिज्ञ है । प्रत्येक अंतरात्मा मे वह अंतर्यामी आत्मा, प्रत्येक हृदय मे स्थित स्वामी अपने एकत्व के बारे में अभिज्ञ है । उससे आलोकित जीवात्मा, एकमेव के साथ अपने एकत्व के बारे मे अभिज्ञ, साथ ही बहु के साथ अपने एकत्व के बारे मे अभिज्ञ है । हमारी सतही चेतना, जो शरीर के साथ और विभक्त प्राण और विभाजक मन के साथ एकात्म है, अज्ञ है लेकिन उसे भी आलोकित और अभिज्ञ बनाया जा सकता है । अतः बहुलता अज्ञान का आवश्यक कारण नहीं है ।

 

     जैसा हम पहले ही कह आये हैं, अज्ञान बाद की अवस्था मे, बाद की गति के रूप मे आता है, जब मन अपने आध्यात्मिक और अतिमानसिक आधार से अलग हो जाता है और पार्थिव जीवन मे अपनी पराकाष्ठा को पहुंचता हैं जहां बहु के अंदर व्यष्टिगत चेतना विभाजन करनेवाले मन द्वारा रूप के साथ एकात्म होती है जो विभाजन का एकमात्र सुरक्षित आधार है । लेकिन रूप है क्या ? वह, कम-से- कम जैसा हम यहां देखते हैं, केन्द्रित ऊर्जा का एक रूपायण है, अपनी गति मे चेतना की शक्ति की एक गांठ है, एक ऐसी गांठ है जिसका अस्तित्व क्रिया के निरंतर घुमाव के कारण बना रहता है । लेकिन रूप चाहे जिस परात्पर सत्य या वास्तविकता से आया हो या उसे अभिव्यक्त करता हो, वह अभिव्यक्ति में अपने किसी भी अंग मे स्थायी या शाश्वत नहीं है । वह अपनी समग्रता मे शाश्वत नहीं है और न ही अपने घटक परमाणुओं मे शाश्वत है क्योकि उन्हें, ऊर्जा की गांठ को

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सतत केन्द्रित क्रिया में -जो एकमात्र वस्तु है, जो उनकी प्रतीयमान स्थिरता को बनाये रखती है -विलीन करके विघटित किया जा सकता है । शक्ति की गति में तपस् का रूप पर केन्द्रण ही रूप को अस्तित्व में रखता है और विभाजन का स्थूल आधार खड़ा करता है । लेकिन हम देख चुके हैं कि क्रियाशीलता में सभी चीजें शक्ति की गति में तपस् का अपने विषय पर केन्द्रण हैं । तो अज्ञान के मूल की खोज कहीं तपस् के आत्मलीन केन्द्रण में, शक्ति की किसी पृथक् गति पर, क्रियारत चित्-शक्ति के आत्मलीन संकेन्द्रण में करनी चाहिये । हमारे लिये यह ऐसा रूप ले लेती है कि मन अपने-आपको पृथक् गति के साथ एकात्म कर रहा हो और साथ ही अपने-आपको पृथक् रूप से पैदा होनेवाले रूपों के परिणामों के साथ भी एकात्म कर रहा हो । इस तरह वह पृथक्ता की एक दीवार बनाता है जो हर एक में चेतना को अपनी समग्र आत्मा की अभिज्ञता की ओर से, अन्य मूर्तरूपधारी चेतनाओं और वैश्व सत्ता की ओर से बंद कर देती है । यही वह जगह है जहां हमें शरीरधारी मानसिक सत्ता और साथ-ही-साथ भौतिक प्रकृति की प्रतीयमान विशाल अचेतना के प्रतीयमान अज्ञान के रहस्य की खोज करनी होगी । हमें अपने-आपसे पूछना होगा कि इस निमग्रकारी, इस पृथक्कारी, इस अपने- आपको भूल जानेवाले संकेन्द्रण का स्वभाव, जो विश्व का अंधकारमय चमत्कार है, क्या है ?

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