दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ११

 

अज्ञान की सीमाएं

 

 अयं  लोको नास्ति पर इति मानी ।।

 

जो यह सोचता है कि बस यही लोक है और कोई लोक नहीं... ।

कठोपनिषद् १.२. ६

 

अनन्ते अन्त: परिवीत:... ।।

अपादशीर्षा गुहमानो अन्ता ।।

 

अनन्त के अंदर विस्तृत... अशीर्ष, अपाद अपने दो सिरों को

छिपाये हुए ।

ऋग्वेद ४.१ .७, ११

 

य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति ।

अथ योऽन्यां  देवतामुपास्तेऽन्सेउसावन्योऽहमस्मीति न स वेद ।।

 

जिसे यह ज्ञान है कि मैं ब्रह्म हूं वह यह सब बन जाता है, जो है

लेकिन जो अद्वय आत्मा को छोड़कर किसी और देवता की उपासना

करता है और सोचता है, 'वह अन्य है, मैं अन्य हूं' वह नहीं जानता ।

वृहदारण्यकोपनिषद् १.४.१०

 

सोऽयमात्मा चतुष्पात् । जागरितस्थानो बहि  ज्ञष्प्रज्ञः... गलमुक्...

प्रथम: पाद; । स्वप्नस्थाक्तेऽत्त:प्रज्ञ:... प्रविविक्तभुक्... द्वितीय:

पाद: । सुषुप्तस्थान एकीभूत: प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्...

तृतीय: पाद: । एव सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽत्तर्यामी... ।

अदृष्टम्... अलक्षणम्... एकात्मप्रत्ययसारम्... चतुर्थम्     स

आत्मा स विज्ञेयः ।।

 

यह आत्मा चष्पाद है । जागरित स्थान की आत्मा जिसमें बाहरी

प्रज्ञा है, जो बाहरी चीजों का भोग करती है, यह उसका पहला पाद

है, स्वप्न स्थान की आत्मा जिसमें भीतरी प्रज्ञा है और जो सूक्ष्म

चीजों का भोग करती है, यह उसका दूसरा पाद है, सुषुप्त स्थान

की आत्मा जो एकीकृत, पुंजीभूत प्रज्ञा, आनन्दमय है और आनन्द

का भोग करती है, यह तीसरा पाद है... सर्वेश्वर, सर्वज्ञ,

अन्तर्यामी । वह जो अदृष्ट, अलक्षण है, अपनी एकात्मता में

 

      १ सिर और पैर, अतिचेतन और निश्चेतन ।

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 स्वयंसिद्ध है, यह चौथा पाद है -यहीं आत्मा है, यही जानने लायक है ।

माण्डूक्योपनिषद् २. ७

 

अङ्गुष्ठमात्र पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति |

ईशानो भूतभव्यस्य... स एवाद्य  स उ श्व: । |

 

हमारी आत्मा के केन्द्र में एक सचेतन पुरुष खड़ा है जो मनुष्य के

अंगूठे से बड़ा नहीं है । वह भूत और वर्तमान का स्वामी है...

वही आज और वही कल होगा ।

कठोपनिषद् २. १. १२--१३

 

     अब इस अज्ञान का या इस पृथक्कारी ज्ञान का, जो तद्रूप-ज्ञान के लिये परिश्रम करता रहा है, उसकी विशालतर रूप-रेखा में विवेचन करना संभव है । हमारी मानव मानसता, और एक अधिक अस्पष्ट रूप में, हमारे निचले स्तर से विकसित समस्त चेतना उसीसे बनी है । हम देखते हैं कि हमारे अंदर यह सत्ता और शक्ति की तरंगों के अनुक्रम से बनी है जो बाहर से दबाव डालती और भीतर से उठती हैं । वे चेतना का पदार्थ बन जाती हैं और देश तथा काल में अपने स्व और विषयों के मानसिक ज्ञान तथा मानसभावापन्न इन्द्रिय-संवेदन में रूपायित होती हैं । इस अपूर्ण और विकसनशील अभिज्ञता के अनुभव के लिये काल हमारे आगे अपने-आपको क्रियाशील गति की धारा के रूप में प्रस्तुत करता है और देश वस्तुओं से भरे विषयगत क्षेत्र के रूप में । काल में सचल मानसिक सत्ता तात्कालिक अभिज्ञता द्वारा सदा-सर्वदा वर्तमान में रहती है, स्मृति द्वारा वह स्वयं के और वस्तुओं के अनुभव के किसी अंश को अपने-आपसे पूरी तरह भूतकाल में बह जाने से रोक लेती है । विचार, इच्छा और क्रिया द्वारा, मानसिक ऊर्जा, प्राणिक ऊर्जा, शारीरिक ऊर्जा द्वारा वह उसका उपयोग उसके लिये करती है जो वह वर्तमान में बनी है और जो उसे भविष्य में बनना है । उसमें स्थित सत्ता की वह शक्ति, जिसने उसे वह बनाया है जो वह है, वही भविष्य में उसके संभवन को दीर्घ, विकसित और विस्तृत करने के लिये कार्य करती है । आत्माभिव्यक्ति और वस्तुओं के अनुभव की अस्थिर रूप से धारण की हुई यह सारी सामग्री, कालानुक्रम में संचित यह आंशिक ज्ञान उसके लिये प्रत्यक्ष दर्शन, स्मृति, बुद्धि और इच्छा-शेक्ति द्वारा समन्वित किये जाते हैं ताकि चिरनवीन और सदा दुहराये जानेवाले संभवन के लिये और ऐसी मानसिक, प्राणिक और भौतिक क्रिया के लिये उपयोग में लाये जा सकें जो उसे वह बनने के लिये बढ़ने में सहायता दे जो उसे बनना है और वह अभिव्यक्त करने में सहायता दे जो वह बन चुका है । चेतना के इस सारे अनुभव की वर्तमान समग्रता और ऊर्जा के उत्पादन को -जो उसकी सत्ता के साथ संबंध

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जोड़ने के लिये समन्वित किया जाता है -एक ऐसे अहंभाव के चारों ओर संगति में इकट्ठा किया जाता है जो प्रकृति के संपर्कों को सचेतन सत्ता के किसी स्थायी सीमित क्षेत्र में आत्मानुभव का प्रत्युत्तर देने की आदत बना लेता है । यह अहंभाव ही उस चीज को सुसंगति का पहला आधार देता है जो अन्यथा उतराते हुए प्रभावों की लड़ी या उतराती हुई राशि होती । इस तरह जो कुछ अनुभव होता है उसे बुद्धि में मानसिक चेतना के अनुरूप कृत्रिम केन्द्र के सामने यानी अहंभाव के आगे भेज दिया जाता है । प्राण तत्त्व में यह अहं-भाव और मन में यह अहं-विचार आत्मा का एक रचित प्रतीक, पृथक्कारी अहं बनाये रखते हैं जो छिपे सच्चे स्व का, आत्मा का या सच्ची सत्ता का कार्य करता है । परिणामतः सतही मानसिक व्यक्तित्व हमेशा अहं-केन्द्रित होता है, उसकी परोपकारिता भी उसके अहं-भाव का बढ़ा-चढ़ा रूप होती है । अहं वह किल्ली है जिसका आविष्कार हमारी प्रकृति के चक्र की गति को एक साथ रखने के लिये किया गया था । अहं के चारों ओर केन्द्रीकरण की आवश्यकता तबतक रहती है जबतक ऐसे उपाय या साधन की आवश्यकता बाकी न रहे क्योंकि सच्ची आत्मा, आध्यात्मिक सत्ता उभर आती हैं जो युगपत् रूप से चक्र और गति और वह चीज है जो उस सबको धारण करती है । वही केन्द्र है और वही परिधि ।

 

     परंतु जैसे ही हम स्वयं अपना अध्ययन करते हैं हम पाते हैं कि वह आत्मानुभव जिसे हम इस तरह समन्वित करते और सचेतन रूप से जीवन के लिये उपयोग में लाते हैं, वह हमारी जाग्रत् व्यक्तिगत चेतना का एक छोटा-सा भाग ही है । हमारे निरंतर वर्तमान में आत्मा और वस्तुओं के जो मानसिक संवेदन और प्रत्यक्ष दर्शन हमारी सतही चेतनातक आते हैं, हम उनमें से बहुत सीमित संख्या को ही पकड़ पाते हैं और फिर इनमें से भी स्मृति अतीत की विस्मरणशील खाई में से एक छोटे-से अंश को ही बचा रखती है और स्मृति के भंडार में से हमारी बुद्धि केवल एक छोटे-से हिस्से का समन्वित ज्ञान के लिये उपयोग करती है और हमारी इच्छा-शक्ति क्रिया के लिये उसमें से और भी एक छोटे अंश का उपयोग करती है । ऐसा मालूम होता है कि जड़ विश्व के क्षेत्र की तरह हमारे संभवन में भी प्रकृति की पद्धति रहती है संकीर्ण चुनाव, अधिक त्याग या आरक्षण, सामग्री की कंजूसीभरी फिज़ूलखर्च पद्धति, साधनों का अनुपयोग और उपयोगी व्यय और उपादेय बची हुई सामग्री की राशि का अव्यवस्थित और स्वल्प व्यय । लेकिन यह केवल प्रतीति है क्योंकि यह कहना एकदम गलत विवरण होगा कि जो कुछ इस तरह बचाया नहीं जाता या उपयोग में नहीं आता वह नष्ट हो जाता है, रद्द हो जाता है और प्रभावहीन और व्यर्थ चला जाता है । उसके एक बड़े हिस्से का प्रकृति ने चुपचाप हमारे निर्माण में उपयोग कर लिया है और वह हमारी वृद्धि, संभूति और क्रिया की उस काफी बड़ी राशि का परिचालन करती है जिसके लिये हमारी सचेतन

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 स्मृति, इच्छाशक्ति और बुद्धि उत्तरदायी नहीं हैं । एक और भी बड़े भाग का उपयोग वह भंडार के रूप में करती है जिसमें से वह लेती रहती है और जिसे वह उपयोग में लाती है जब कि स्वयं हम उस सामग्री के स्रोत और उद्गम को पूरी तरह भूल चुके होते हैं और इस सामग्री का उपयोग इस भूलभरी भावना से करते हैं कि स्वयं हमने इसे रचा है, क्योंकि हम यह समझते हैं कि हम अपने काम के लिये इस नयी सामग्री की रचना कर रहे हैं जब कि हम उस संचय में से केवल परिणामों को ही जोड़ते हैं जिसे हम तो भूल चुके होते हैं लेकिन हमारे अंदर की प्रकृति उसे याद रखे हुए है । अगर हम पुनर्जन्म को उसकी पद्धति के भाग के रूप में स्वीकार करें तो हम यह अनुभव करेंगे कि समस्त अनुभवों का अपना उपयोग है क्योंकि इस दीर्घीकृत निर्माण में सभी अनुभवों का स्थान होता है, केवल उसे ही छोड़ा जाता है जिसकी उपयोगिता समाप्त हो गयी हो और जो भविष्य के लिये भार बन गया हो । हमारी चेतना की ऊपरी सतह पर जो होता है उसके आधार पर निर्णय भ्रांति-मूलक है क्योंकि जब हम अध्ययन करते और समझते हैं तो दिखायी देता है कि हमारे अंदर उसकी क्रिया और वृद्धि का एक छोटा-सा अंश ही सचेतन है । उसका बड़ा भाग उसी तरह अवचेतन रूप से चलता रहता है जैसा उसके बाकी भौतिक जीवन में है । हम केवल वही नहीं हैं जितना हम अपने बारे में जानते हैं, उससे बहुत अधिक वह हैं जिसे हम नहीं जानते । हमारा इस मुहूर्त का व्यक्तित्व तो हमारी सत्ता के सागर पर बुलबुला मात्र है ।

 

     हमारी जाग्रत् चेतना का एक ऊपरी अवलोकन हमें बतलाता है कि अपनी व्यक्तिगत सत्ता और संभूति के एक बड़े भाग के बारे में हम बिलकुल अज्ञानी हैं । वह हमारे लिये निश्चेतन है, ठीक उसी तरह जैसे कि वह जीवन जो वनस्पति, धातु मिट्टी तथा मूल तत्त्वों का है । लेकिन अगर हम अपने ज्ञान को और आगे ले जायें, मनोवैज्ञानिक परीक्षण और अवलोकन को उनकी सामान्य परिधि के परे ले जायें तो हमें पता चलता है कि इस तथाकथित निश्चेतना या इस अवचेतना का क्षेत्र हमारे समग्र अस्तित्व में कितना विस्तृत है । वह हमें अवचेतन इसलिये मालूम होता है और हम उसे इसलिये अवचेतन कहते हैं क्योंकि वह एक छिपी हुई चेतना है और हम देख पाते हैं कि हमारी जाग्रत् आत्म-अभिज्ञता हमारी सत्ता का कितना छोटा और खंडित अंश हैं । हम इस ज्ञान पर पहुंचते हैं कि हमारा जाग्रत् मन और अहंकार एक डूबे हुए एक अंतस्तलीय आत्मा पर अध्यारोपण हैं; क्योंकि वह पुरुष हमें ऐसा ही प्रतीत होता है । या ज्यादा ठीक तरह से कहें तो यह एक बहुत ही विस्तृत अनुभव की क्षमतावाली आंतरिक चेतना है । हमारा मन और अहंकार मानों लहरों से ऊपर उठते हुए मंदिर का मुकुट और गुंबज हैं, जब कि इस विशाल प्रासाद का शरीर जलों की सतह के नीचे जलमग्र है ।

यह प्रच्छन्न पुरुष और चेतना हमारी वास्तविक या संपूर्ण सत्ता है, बाह्य पुरुष

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और चेतना तो उसका एक अंग और दृश्य, एक बाहरी उपयोग के लिये चुनी हुई रचना है । हम वस्तुओं के संपर्कों की एक छोटी-सी संख्या को ही देखते हैं जो हमारे साथ टकराती है । आंतरिक सत्ता उस सबको देखती है जो हमारे अंदर या हमारे पर्यावरण में प्रवेश करता या उन्हें छूता है । हम अपने जीवन और अपनी सत्ता की क्रियाओं के केवल एक अंश को ही देखते हैं, हमारी आंतरिक सत्ता इतना अधिक देखती है कि हम यह मानने को प्रवृत्त होते हैं कि उसकी नजर से कुछ भी नहीं बच निकलता । हम अपने प्रत्यक्ष दर्शनों में से एक छोटे-से चुने हुए भाग को ही याद रखते हैं और इनमें से भी अधिकांश को हम एक गोदाम में जमा रखते हैं जहां हमारा हाथ हमेशा अपनी जरूरत की चीजों पर नहीं पहुंच पाता । आंतरिक सत्ता ने जब कभी जो कुछ पाया है उसे वह संचित रखती है और वह हमेशा उसकी पंहुच के भीतर होता है । हम अपने प्रत्यक्ष दर्शनों और स्मृतियों में से उतने को ही अपनी समझ और ज्ञान में समन्वित रूप दे सकते हैं जितने को हमारी प्रशिक्षित समझ और मानसिक क्षमता अपने बोध में पकड़ सकें और अपने संबंधों में आंक सकें । आंतरिक सत्ता की समझ को प्रशिक्षण की जरूरत नहीं होती लेकिन वह अपने सभी प्रत्यक्ष दर्शनों और स्मृतियों के ठीक-ठीक रूपों और संबंधों को सुरक्षित रखती है -यद्यपि यह एक ऐसी स्थापना है जिसे संदेहास्पद माना जा सकता है या जिसे पूरी तरह स्वीकार करने में कठिनाई हो सकती है -और अगर उसे पहले से ही उनका अर्थ मालूम न हो तो भी उन्हें तुरंत पकड़ सकती है, और जैसे सामान्यत: जाग्रत् मन के प्रत्यक्ष-दर्शन भौतिक इन्द्रियों के अल्प चयनोंतक सीमित होते हैं, उसके प्रत्यक्ष-दर्शन उस तरह के नहीं हैं बल्कि जैसा कि बहुत प्रकार के दूरबोधी व्यापार साक्षी देते हैं, वे उनसे बहुत आगे तक जाते और सूक्ष्म इन्द्रिय का उपयोग करते हैं जिसकी सीमाएं इतनी विस्तृत हैं कि उन्हें आसानी से निश्चित नहीं किया जा सकता । सतही इच्छा या प्रवृत्ति और दूसरी ओर अंतस्तलीय- प्रेरणा, जिसे भूल से अचेतन या अवचेतन कहा जाता है, इनके बीच के संबंधों का अध्ययन भली-भांति नहीं किया गया है । अध्ययन किया गया है केवल असामान्य और असंगठित अभिव्यक्तियों का और रुग्ण मानव मन के कुछ दूषित असामान्य व्यापारों का । लेकिन अगर हम अपने अवलोकन को काफी आगे चलायें तो हम देखेंगे कि वास्तव में सारी सचेतन संभूति के पीछे आंतरिक पुरुष का ज्ञान और उसकी इच्छा या प्रेरणा-शक्ति है । सचेतन संभूति आंतरिक पुरुष के गुप्त प्रयास और सिद्धि के केवल उस भाग का प्रतिनिधित्व करती है जो हमारे जीवन की सतह पर ऊपर आने में सफल हुआ है । अपने आंतरिक पुरुष को जानना वास्तविक आत्म-ज्ञान की ओर पहला कदम है ।

 

     अगर हम इस आत्म-शोध के काम को हाथ में लें और अपनी अंतर्लीन आत्मा के ज्ञान को बढ़ाये, उसके बारे में ऐसी धारणा बनायें जिससे उसमें हमारे सबसे

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निचले अवचेतन और उच्चतर अतिचेतन छोर समा जायें तो हम यह पायेंगे कि वास्तव में यही हमारी प्रतीयमान सत्ता की सारी सामग्री जुटाता है और यह कि हमारे प्रत्यक्ष दर्शन, हमारी स्मृतियां, हमारी इच्छा-शक्ति और बुद्धि के कार्यान्वयन उसके प्रत्यक्ष-दर्शनों, स्मृतियों, क्रियाओं, इच्छा-शक्ति और बुद्धि के संबंधों में से चयन मात्र हैं । स्वयं हमारा अहंकार तक उसकी आत्म-चेतना और आत्मानुभव का गौण-सा और बाह्य रूपायन मात्र है । यह मानों दुराग्रही सागर है जिसमें से हमारी सचेतन संभूति की लहरें उठती हैं । लेकिन उसकी सीमाएं क्या हैं ? उसका विस्तार कहांतक है ? उसका आधारभूत स्वरूप क्या है ? सामान्यत: हम अवचेतन सत्ता की बात करते हैं और इस शब्द में उस सबको समा लेते हैं जो जाग्रत् तल पर नहीं है । लेकिन आंतरिक या अंतस्तलीय आत्मा का पूरा-पूरा या अधिकतर भाग मुश्किल से ही इस विशेषण से चित्रित किया जा सकता है । क्योंकि जब हम अवचेतन कहते हैं तो हम झट अंधेरी अचेतना या अर्द्ध-चेतना या फिर नीचे डूबी हुई चेतना की बात सोच लेते हैं जो एक तरह से हमारी संगठित जाग्रत् अभिज्ञता से अवर या कम है, या कम-से-कम उसे अपने ऊपर कम अधिकार है । लेकिन जब हम अंदर जाते हैं तो देखते हैं कि हमारे अंदर कहीं पर अंतस्तलीय भाग में -परंतु उसमें सहवर्ती नहीं, क्योंकि उसमें भी अंधेरे और अज्ञानभरे क्षेत्र हैं -ऐसी चेतना है जो हमारे बाहरी स्तर की जाग्रत् और हमारी दैनिक घड़ियों की द्रष्टा-चेतना की अपेक्षा बहुत अधिक विशाल, अधिक प्रकाशमय है और स्वयं अपने ऊपर तथा वस्तुओं पर अधिक अधिकार रखती है । वही हमारी आंतरिक सत्ता है और इसीको हमें अपनी अंतस्तलीय आत्मा समझना चाहिये और अवचेतन को अपनी प्रकृति का एक निकृष्ट, निम्नतम गुह्य प्रदेश कह कर अलग कर देना चाहिये । उसी तरह हमारी समग्र सत्ता का अतिचेतन भाग है जिसमें वह है जिसे हम अपनी ऊंची-से-ऊंची आत्मा पाते हैं और उसे भी हम अपनी प्रकृति का एक उच्चतर गुह्य प्रदेश कहकर अलग कर सकते हैं ।

 

     लेकिन तब फिर अवचेतन है क्या और वह कहां शुरू होता है और वह हमारी ऊपरी तल की सत्ता के साथ और उस अंतस्तलीय के साथ क्या संबंध रखता है जिसका अधिक उचित रूप में वह एक प्रदेश प्रतीत होता है ? हम अपने शरीर के बारे में अभिज्ञ हैं और यह जानते हैं कि हमारी एक भौतिक सत्ता है और बहुत बड़ी हदतक हम अपने-आपको उसके साथ एक मानते हैं और फिर भी उसकी अधिकतर क्रियाएं हमारी मानसिक सत्ता के लिये वास्तव में अवचेतन हैं । इतना ही नहीं कि मन उनमें कोई भाग नहीं लेता, बल्कि, जैसा कि हम मानते हैं, हमारी अत्यंत भौतिक सत्ता को स्वयं अपनी छिपी हुई क्रियाओं की या अपने-आपमें, अपने अस्तित्व की कोई अभिज्ञता नहीं होती । वह अपने उतने ही अंश को जानती या अनुभव करती है जिसे मानसिक भाव प्रदीप्त करता है और जिसका बुद्धि द्वारा

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 अवलोकन किया जा सकता है । हम वनस्पति और निचले पशुओं की तरह इस शारीरिक रूप और ढांचे में भी काम करती हुई प्राण-शक्ति के बारे में अभिज्ञ हैं । एक प्राणिक सत्ता है जो हमारे लिये अधिकांश में अवचेतन है क्योंकि हम केवल उसकी कुछ गतियों और प्रतिक्रियाओं को देखते हैं, हम उसकी कुछ क्रियाओं से अभिज्ञ हैं परंतु उसकी सभी या अधिकतर क्रियाओं के बारे में किसी हालत में नहीं । बल्कि यूं कहें कि हम उसकी सामान्य क्रियाओं की अपेक्षा असामान्य से अधिक परिचित हैं, उसकी संतुष्टियों की अपेक्षा उसके अभाव, उसके स्वास्थ्य और नियमित लय की अपेक्षा उसके रोग और उसके विकार हमारे ऊपर अपनी छाप ज्यादा जोर से डालते हैं, उसका जीवन जितना उज्जल होता है, मृत्यु उससे बढ़कर मर्मस्पर्शी होती हैं । हम उसके बारे में उतना ही जान सकते हैं जिसका हम सचेतन रूप से अवलोकन या उपयोग कर सकते हैं या जो अपने-आपको हमारे ऊपर सुख-दुःख या अन्य संवेदनों द्वारा आरोपित कर सकता या जो स्नायविक या भौतिक प्रतिक्रिया और बड़बड़ का कारण हो सकता है -उससे अधिक नहीं । उसके अनुसार हम मानते हैं कि हमारा यह प्राणिक-भौतिक भाग भी स्वयं अपनी क्रियाओं के बारे में सचेतन नहीं होता या उसमें वनस्पति की तरह अवरुद्ध चेतना या अ- चेतना या फिर आदिम जन्तु की तरह अविकसित चेतना है । वह उसी हदतक सचेतन बनता है जहांतक वह मन द्वारा आलोकित और बुद्धि द्वारा अवलोकनीय है ।

 

     यह एक अतिशयोक्ति और भ्रांति है जो हमारे चेतना को मानसता और मानसिक अभिज्ञता के साथ एकात्म मान लेने के कारण होती है । मन अपने-आपको एक हदतक भौतिक जीवन और शरीर की स्वाभाविक गतियों के साथ एकात्म कर लेता है और उन्हें अपनी मानसता के साथ जोड़ लेता है, इस तरह हमें समस्त चेतना मानसिक मालूम होती है । लेकिन अगर हम जस पीछे हटें, अगर हम अपने इन भागों से मन को साक्षी-रूप में अलग कर लें तो हम यह खोज कर सकते हैं कि प्राण और शरीर में -यहांतक कि जीवन के स्थूलतम भागों में भी अपनी चेतना होती है, एक ऐसी चेतना जो अधिक अंधकारमय प्राण और शारीरिक सत्ता के लिये स्वाभाविक है, एक तात्त्विक अभिज्ञता जैसी आदिम जैव रूपों में हो सकती है जिसे हमारे अंदर मन अंशतः अपना लेता है और वह उस हदतक मानसिक बन जाती है । उसकी स्वतंत्र गति में वह मानसिक अभिज्ञता नहीं होती जिसका उपभोग हम करते हैं । अगर उसमें मन है भी तो वह शरीर और शारीरिक प्राण में अंतर्लीन और अंतर्निहित होता है । उसमें कोई संगठित आत्म-चेतना नहीं है बल्कि हैं केवल क्रिया-प्रतिक्रिया का भाव, गति, आवेग और कामना, आवश्यकता, प्रकृति द्वारा आरोपित आवश्यक क्रियाएं, भूख, सहज-वृत्ति, दुःख-दर्द, संज्ञाहीनता और सुख । यद्यपि इस तरह निम्नतर होते हुए भी उसके अंदर यह अभिज्ञता

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अंधेरी, सीमित और स्वचालित होती है लेकिन चूंकि उसे अपने ऊपर कम अधिकार होता है, वह उससे रहित होता है जिसे हम मानसिकता की छाप कहते हैं, इसलिये हम उसे उचित न्यायसंगत रूप से अवमानसिक कह सकते हैं लेकिन उतने ही न्यायसंगत रूप से अपनी सत्ता का अवचेतन भाग नहीं कह सकते । क्योंकि जब हम उससे पीछे हटकर खड़े होते हैं, जब हम अपने मन को उसके संवेदनों से अलग कर सकते हैं तो हम देखते हैं कि यह चेतना की एक स्नायविक, संवेदनात्मक, अपने-आप क्रिया करनेवाली विधि है, मन से अलग तरह की अभिज्ञता की श्रेणी है । संपर्कों के प्रति उसकी अपनी पृथक् प्रतिक्रियाएं होती हैं और वह उनके प्रति अपनी ही अनुभव करने की शक्ति द्वारा संवेदनशील होता है । वह उसके लिये मन के प्रत्यक्ष दर्शन और प्रत्युत्तर पर आश्रित नहीं होता । सच्चा अवचेतन इस प्राणिक या भौतिक निचले स्तर से अलग होता है । यह चेतना की सीमाओं पर स्पंदित होता हुआ निश्चेतन है जो अपनी गतियों को सचेतन पदार्थ में बदलने के लिये ऊपर उछालता है, भूतकाल के अनुभव के संस्कारों को अपनी गहराइयों में अचेतन अभ्यास के बीजों के रूप में निगल लेता है और उन्हें निरंतर, बहुधा अव्यवस्थित रूप में, सतही चेतना पर वापिस भेजता है, ऐसी बहुत-सी व्यर्थ और संकटजनक सामग्री को, जिसका मूल हमारे लिये धुंधला, दुर्बोध होता है, स्वप्न में, सब तरह की यांत्रिक पुनरावृत्तियों में, अज्ञात उत्स के प्रवर्तनों और उद्देश्यों के रूप में मानसिक, प्राणिक, शारीरिक उथल-पुथल और विक्षोभों के रूप में हमारी प्रकृति के अधिक-से-अधिक अंधेरे भागों की मूक स्वचालित आवश्यकताओं के रूप में ऊपर की ओर भेजता रहता है ।

 

     लेकिन अंतस्तलीय आत्मा की ऐसी अवचेतन प्रकृति बिलकुल नहीं होती । उसे मन, प्राण-शक्ति पर पूरा अधिकार होता है, वस्तुओं का स्पष्ट सूक्ष्म भौतिक बोध होता है । उसमें वही क्षमताएं होती हैं जो हमारी जाग्रत् सत्ता में होती हैं, सूक्ष्म संवेदन और प्रत्यक्ष-दर्शन, व्यापक विस्तृत स्मृति, तीव्र चुनाव करनेवाली बुद्धि, इच्छा-शक्ति, आत्म-चेतना । यद्यपि इनकी जाति वही है लेकिन ये हैं ज्यादा विस्तृत, अधिक विकसित और अधिक प्रभुतापूर्ण । और उसमें अन्य क्षमताएं भी होती हैं जो हमारे मर्त्य मन की क्षमताओं का अतिक्रमण कर जाती हैं जिसका कारण है सत्ता की प्रत्यक्ष अभिज्ञता की शक्ति, चाहे वह अपने ही ऊपर कार्य कर रही हो या अपने किसी विषय की ओर अभिमुख हो, जो ज्ञानतक अधिक तेजी से पहुंचती, इच्छा-शक्ति के कार्यान्वयनतक अधिक तेजी से पहुंचती, आवेग को अधिक गहराई से समझती और संतुष्ट करती है । हमारा सतही मन मुश्किल से ही सच्ची मानसता होता है क्योंकि वह शरीर और शारीरिक जीवन से, स्नायुतंत्र और शारीरिक अवयवों की सीमा से बहुत अधिक आवेष्टित, बद्ध, उलझा और प्रतिबंधित होता है । लेकिन अंतस्तलीय आत्मा में सच्ची मानसता होती है जो इन

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सीमाओं से ऊपर है । वह भौतिक मन और शारीरिक अवयवों के परे होती है यद्यपि वह उनके और उनके कार्यों के बारे में अभिज्ञ होती है और वस्तुत: एक बड़ी हदतक उनका कारण या रचयिता है । वह केवल इसी अर्थ में अवचेतन है कि वह अपने-आपको पूरी तरह से या अपने बड़े भाग को ऊपर सतह पर नहीं लाती । वह हमेशा पर्दे के पीछे काम करती है । वह अवचेतन होने की जगह गुप्त अंतश्चेतन और परिचेतन है क्योंकि वह बाहरी प्रकृति को जितना सहारा देती है उतना ही उसे घेरे भी रहती है । निःसंदेह यह वर्णन अंतस्तलीय के अधिक गहरे भागों के बारे में अधिक-से-अधिक सच है, उसके अन्य स्तरों पर, जो हमारी सतह के ज्यादा नजदीक हैं, अधिक अज्ञानमय क्रिया होती है और जो लोग अंतर में प्रवेश करते हुए अंतस्तलीय और बाहरी सतह के बीच के कम सामंजस्यवाले क्षेत्रों में या लावारिस भूमि में रुक जाते हैं वे बहुत भ्रांति और घपले में पड़ सकते हैं, लेकिन वह भी अज्ञानमय भले हों, अवचेतन प्रकृति का नहीं है । इन मध्यवर्ती क्षेत्रों की अस्त-व्यस्तता का निश्चेतना के साथ सादृश्य नहीं होता ।

 

     तो हम कह सकते हैं कि हमारी सत्ता की समग्रता में तीन तत्त्व हैं : अवमानसिक और अवचेतन जो हमें ऐसा दीखता है मानों वह निश्चेतन हो, जिसके अंतर्गत हैं हमारे प्राण और शरीर का भौतिक आधार और उनका एक बड़ा भाग; फिर है अंतस्तलीय जिसमें सारी आंतरिक सत्ता समायी है, जिसमें आंतरिक मन, आंतरिक प्राण, आंतरिक शरीर और उन्हें धारण करनेवाली अंतरात्मा या चैत्य पुरुष सम्मिलित हैं, तीसरी है यह जाग्रत् चेतना जिसे अंतस्तलीय और अवचेतन ने सतह पर फेंका है, यह उनकी गुप्त हिलोर की लहर है । लेकिन यह भी हम जो कुछ हैं उसका पर्याप्त विवरण नहीं है क्योंकि हमारी सामान्य आत्म- अभिज्ञता के पीछे केवल गहराई में ही कोई चीज नहीं है बल्कि कोई चीज ऊपर, बहुत ऊंचाई पर भी है । वह भी हम ही हैं, हमारे सतही मानसिक व्यक्तित्व से अलग लेकिन हमारी सच्ची आत्मा के बाहर नहीं, वह भी हमारी आत्मा का एक देश है । क्योंकि वास्तविक अंतस्तलीय ज्ञान-अज्ञान के स्तर पर आंतरिक सत्ता से बढ़कर कुछ नहीं है, वह ज्योतिर्मय, शक्तिशाली हमारे जाग्रत् मन की दरिद्र धारणा से परे विस्तृत भी है । वह न तो हमारी सत्ता का परम या संपूर्ण अर्थ है न उसका अंतिम रहस्य ही । एक अनुभूति-विशेष में हमें सत्ता की एक ऐसी श्रेणी की अभिज्ञता होती है जो इन तीनों के लिये अतिचेतन है, जो किसी ऐसी चीज के बारे में अभिज्ञ होती है जो उच्चतम सद्वस्तु है, जो इन सबको धारण करती और उनका अतिक्रमण भी करती है, जिसे मनुष्य अस्पष्ट रूप से आत्मा, ईश्वर और अधि-आत्मा कहता है । इन अतिचेतन प्रदेशों से हमारे यहां आगमन होता है और अपनी उच्चतम सत्ता में हमारी प्रवृत्ति उन प्रदेशों की ओर, उस परम आत्मा की ओर होती है । अब हमारी सत्ता के संपूर्ण क्षेत्र में एक अतिचेतना है और अवचेतना भी और साथ ही निश्चेतना, जो

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हमारी अंतस्तलीय और जाग्रत् सत्ताओं पर मेहराब की तरह फैली हुई है और शायद उन्हें लपेटे रहती है लेकिन वह हमारे लिये अज्ञात है और अप्राप्य एवं अव्यवहार्य मालूम होती है ।

 

     लेकिन अपने ज्ञान के विस्तार के साथ हमें पता लगता है कि यह आत्मा या अधि-आत्मा क्या है । अन्तत: वह हमारी उच्चतम, गहरी से गहरी, विशालतम आत्मा है । वह अपने शिखरों पर या हमारे अंदर प्रतिबिंबों में सच्चिदानन्द-रूप में दिखायी देता है जो हमारा और जगत् का अपनी दिव्य आध्यात्मिक, अतिमानसिक, ऋत-चिन्मय, अनन्त ज्ञानात्मिका इच्छा की शक्ति से सृजन करता है । वही वास्तविक सत्ता, प्रभु और स्रष्टा है जो मन, प्राण और भौतिक में छिपे हुए विश्वात्मा के रूप में उसके अंदर अवतरित हुआ है जिसे हम निश्चेतन कहते हैं और वह अपनी अतिमानसिक इच्छा और ज्ञान से उसकी अवचेतन सत्ता का उपादान, रचयिता और निर्देशक है । वही विश्वात्मा के रूप में निश्चेतन से ऊपर चढ़ गया है और आंतरिक सत्ता में निवास करता है और उसी इच्छा तथा ज्ञान द्वारा उसकी अंतर्लीन सत्ता का उपादान, रचयिता और निर्देशक है । उसीने हमारी बाहरी सत्ता को अंतस्तलीय सत्ता में से ऊपर उछाला है और वही उसकी लड़खड़ाती और टटोलती गतियों का उसी परम प्रकाश और प्रभुत्व के साथ निरीक्षण करता और गुप्त रूप से उसमें निवास करता है । अगर अंतस्तलीय और अवचेतना की तुलना एक ऐसे सागर से की जाये जो हमारी सतही मानसिक सत्ता पर लहरें फेंकता है तो अतिचेतन की तुलना उस आकाश के साथ की जा सकती है जो उस सागर और उसकी लहरों की गतियों का उपादान और रचयिता है, उन्हें समाये रखता है, उनपर छाया रहता, उनमें निवास करता और उनका निर्देशन करता है । वहां उस उच्चतर आकाश में ही हम अपनी आत्मा और आध्यात्म सत्ता के बारे में अंतर्निहित और मूलभूत रूप से सचेतन रहते हैं । यहां नीचे की तरह नहीं जहां हम नीरव मन में प्रतिबिंब द्वारा या अपने अंदर की छिपी हुई सत्ता का ज्ञान प्राप्त करके अपनी आत्मा और आध्यात्म सत्ता के बारे में सचेतन होते हैं । उसके द्वारा, अतिचेतना के उस आकाश द्वारा हम परम स्थिति, ज्ञान, अनुभवतक पहुंच सकते हैं । इस अतिचेतन सत्ता के बारे में, जिसके द्वारा हम अपनी वास्तविक, अपनी परम आत्मा की उच्चतम स्थितितक पहुंच सकते हैं, उसके बारे में हम सामान्यत: अपनी सत्ता के बाकी सारे हिस्से की अपेक्षा अधिक अज्ञानी रहते हैं, फिर भी उसी के ज्ञान में विकसित होने के लिये निश्चेतना में अंतर्लीन अवस्था में से उभरती हुई हमारी सत्ता संघर्ष कर रही हैं । हमारी सतही सत्ता की यह सीमा, अपनी उच्चतम और अपनी अंतरतम आत्मा के बारे में यह अचेतनता हमारा प्रथम, हमारा प्रमुख अज्ञान है ।

 

     हम काल में संभूति द्वारा सतही रूप से जीते हैं लेकिन यहां फिर बाहरी मन

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को, जिसे हम अपना-आपा कहते हैं, उस कालगत संभूति के सारे लंबे अतीत और लंबे भविष्य का ज्ञान नहीं होता, वह केवल उस छोटे से जीवन से ही परिचित होता है जो उसे याद रहता है और उसमें भी पूरे से नहीं क्योंकि उसमें से बहुत-सा अवलोकन में नहीं आता और बहुत-सा स्मृति से खो जाता है । हम झटपट यह मान लेते हैं कि पहले-पहल इस जीवन में शारीरिक जन्म के साथ ही हम अस्तित्व में आये और इस शरीर के मरण और इस संक्षिप्त शारीरिक क्रिया-कलाप के समाप्त होने के साथ-साथ हमारा अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा; इसका सीधा-सा बाध्यकारी किंतु अपर्याप्त कारण यह है कि हमें किसी अन्य चीज की याद नहीं है, न हमने उसे देखा है, न हम कुछ और जानते हैं । लेकिन जहां यह बात हमारी भौतिक मानसता, भौतिक प्राण और शारीरिक कोष के लिये सच्ची है, क्योंकि वे हमारे जन्म के समय बनते और मृत्यु से विघटित हो जाते हैं, वहां यह काल में हमारे वास्तविक संभवन के बारे में सच नहीं है । क्योंकि विश्व में हमारी वास्तविक आत्मा अतिचेतन है जो अंतस्तलीय आत्मा बन जाती है और इस प्रतीयमान सतही आत्मा को ऊपर उछालती है ताकि वह जन्म-मरण के बीच में दी गयी संक्षिप्त और सीमित भूमिका का निर्वाह निश्चेतन प्रकृति के जगत् के पदार्थ में सत्ता के वर्तमान जीवित और सचेतन आत्म-रूपायन के रूप में कर सके । जैसे अपनी किसी भूमिका को पूरा कर लेने पर अभिनेता के अस्तित्व का अंत नहीं हो जाता, जैसे कवि का अपनी किसी कविता में अपने किसी अंश को उंड़ेलने पर उसके अस्तित्व का अंत नहीं हो जाता उसी तरह सच्चे पुरुष का, जो कि हम हैं, किसी एक जीवन की समाप्ति पर अवसान नहीं हो जाता । हमारा मर्त्य व्यक्तित्व एक ऐसी ही भूमिका या सृजनात्मक आत्माभिव्यक्ति है । चाहे हम इस धरती पर विभिन्न मानव शरीरों में एक ही अंतरात्मा या चैत्य पुरुष के अनेक जन्मों के सिद्धांत को मानें या न मानें, यह निश्चित है कि काल में हमारा संभवन अतीत में बहुत पीछेतक जाता है और भविष्य में दूरतक आगे चलता रहता है; क्योंकि न तो अतिचेतन और न अंतस्तलीय को काल के कुछ क्षणों द्वारा सीमित किया जा सकता है । एक शाश्वत है और काल उसके अनेक प्रकारों में से एक है और दूसरे के, अंतस्तलीय के लिये, काल विविध प्रकार के अनुभवों का अनन्त क्षेत्र है और सत्ता का अस्तित्व ही यह मान लेता है कि सारा अतीत उसका अपना है और समान रूप से सारा भविष्य भी उसका है । फिर भी इस अतीत के बारे में, जो अकेला ही हमारी वर्तमान सत्ता की व्याख्या करता है, हमारा मन केवल इस वर्तमान भौतिक सत्ता और उसकी स्मृतियों को जानता है, यदि इसे जानना-ज्ञान-कहा जा सके, और उस भविष्य के बारे में वह कुछ भी नहीं जानता जो अकेला हमारी संभूति की सतत-धारा की व्याख्या करता है । हम अपने अज्ञान के अनुभव में इतने बंधे हुए हैं कि हम इतनी हठ करते हैं कि अतीत को हम उसके लुप्त अवशेषों के द्वारा ही

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जान सकते हैं क्यांकि अब उसका अस्तित्व नहीं है, और दूसरे को हम जान ही नहीं सकते क्योंकि भविष्य अभीतक यहां नहीं है । फिर भी वे दोनों यहां, हमारे अंदर हैं, भूत है अंतर्लीन और सक्रिय तथा भविष्य हैं गुप्त आत्मा के सातत्य में विकसित होने के लिये तैयार । यह है दूसरा अज्ञान जो सीमा बांधनेवाला और कुंठित करनेवाला है ।

 

     लेकिन मनुष्य का आत्म-अज्ञान यहां भी समाप्त नहीं होता क्योंकि वह केवल अतिचेतन आत्मा के बारे में, अपनी अंतस्तलीय आत्मा के बारे में और अपनी अवचेतन आत्मा के बारे में ही अज्ञ नहीं है बल्कि अपने उस जगत् के बारे में भी अज्ञ है जिसमें वह वर्तमान अवस्था में रहता है, जो सदा उसके ऊपर और उसके द्वारा क्रिया करता है; जिसपर और जिसके द्वारा उसे क्रिया करनी पड़ती है । और उसके अज्ञान की छाप यह है कि वह उसे अपने-आपसे बिलकुल अलग, अनात्मा मानता है क्योंकि वह उसके व्यक्तिगत प्रकृति-रूपायन और अहंकार से भिन्न है । इसी तरह जब उसका सामना अपनी अतिचेतन आत्मा से होता है तो वह पहले उसे अपने-आपसे बिलकुल अलग, बाहरी, बल्कि विश्वातीत ईश्वर मान लेता है, इसी तरह जब उसका सामना अपनी अंतस्तलीय आत्मा से होता है और वह उसके बारे में अभिज्ञ होता है तो उसे वह पहले एक और महत्तर पुरुष या उसकी अपनी चेतना से अलग कोई चेतना मालूम होती है जो उसे सहारा दे सकती और मार्ग दिखा सकती है । जगत् के बारे में वह मानता है कि यह केवल एक छोटा-सा झाग का बुलबुला है, अपने जीवन और प्राण को अपने-आपके रूप में देखता है । लेकिन जब हम अपनी अंतस्तलीय चेतना में प्रवेश करते हैं तो पाते हैं कि वह अपना प्रसार अपने जगत् के अनुरूप करता है, जब हम अपनी अतिचेतन आत्मा में प्रवेश करते हैं तो पाते हैं कि जगत् उसकी अभिव्यक्ति मात्र है और उसके अंदर सब कुछ एकमेव है, उसमें सब कुछ हमारी आत्मा है । हम देखते हैं कि एक अविभाज्य जड़ पदार्थ है, हमारा शरीर उसमें एक गाठ है, एक अविभाज्य प्राण है जिसमें हमारा जीवन एक भंवर हैं, एक अविभाज्य मन है जिसके लिये हमारा मन ग्रहण और अभिलेखन करनेवाला, रूप देनेवाला या अनुवाद करनेवाला और संचारित करनेवाला एक केन्द्र है, एक अविभाज्य आत्मा है, हमारी अंतरात्मा और व्यक्तिगत सत्ता उसीका एक भाग या एक अभिव्यक्ति है । यह अहंभाव ही है जो विभाजन को दृढ़ करता है और अज्ञान को -जो हम बाहरी स्तर पर हैं -अहंभाव से ही अपनी शक्ति मिलती है जिससे वह हमेशा अपने लिये अपने-आप बनाये हुए कारागार की दीवारों को मजबूत बनाये रखता है, यद्यपि इन दीवारों को हमेशा भेदा जा सकता है । अज्ञान के साथ हमें बांधे रखनेवाली गांठों में सबसे विकट गांठ है यह अहंभाव ।

 

     जैसे हम उस घड़ी को छोड़कर, जिसकी हमें याद रहती है, काल में अपने जीवन के बारे में अज्ञ रहते हैं, उसी तरह हम देश में उस छोटे-से विस्तार को

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 छोड़कर, जिसके बारे में हम मन और संवेदन द्वारा सचेतन हैं, एकमात्र शरीर जो वहां गति करता है और मन और प्राण जो उसके साथ एकात्म हैं, इन्हें छोड़कर अपने बाकी स्वरूप के बारे में अज्ञ हैं और हम उस पर्यावरण को अनात्म मानते हैं जिसके साथ हमें व्यवहार करना और जिसका उपयोग करना है । यह तादात्म्य और यह धारणा अहं-भाव के जीवन को रूपायित करते हैं । देश एक मान्यता के अनुसार वस्तुओं या अंतरात्माओं का सह-अस्तित्व मात्र है; सांख्य अंतरात्माओं के बहुत्व और उनके स्वतंत्र अस्तित्व का प्रतिपादन करता है और तब उनका सह-अस्तित्व संभव होता है केवल प्रकृति-शक्ति के एकत्व में, उस प्रकृति के एकत्व में जो उनके अनुभव का क्षेत्र है : लेकिन यह मान भी लें फिर भी सह-अस्तित्व तो है ही और है भी अन्ततः एकमेव सत् में सह-अस्तित्व । वह देश उसी एक सत् का आत्म-धारणात्मक विस्तार है । वह वही एकमेव आध्यात्मिक सत् है जो अपनी चित्-शक्ति की गति को अपनी ही सत्ता में देश के रूप में प्रदर्शित करता है । चूंकि वह चित्-शक्ति नानाविध शरीरों, प्राणों और मनों में केन्द्रित होती है और अंतरात्मा उनमें से एक पर अध्यक्षता करती है इसलिये हमारी मानसता इसमें केन्द्रित होती है और उसे ही अपना स्वरूप मान लेती है और बाकी सबको अनात्मा; उसी तरह जैसे वह अपने एक जीवन को, जिसमें वह केन्द्रित है, उसी तरह के अज्ञान के कारण भूत और भविष्य से कटे हुए जीवन की सारी अवधि मान लेती है । फिर भी हम एकमेव मन को जाने बिना अपनी मानसता को, एकमेव प्राण को जाने बिना अपने प्राण को और एकमेव जड़ भौतिक को जाने बिना अपने शरीर को नहीं जान सकते क्योंकि सिर्फ इतना ही नहीं कि इनका स्वभाव उसके स्वभाव से निर्धारित होता है बल्कि यह भी कि इनकी क्रियाएं हर क्षण उसकी क्रियाओं से प्रभावित और निर्धारित होती हैं । लेकिन हमारे ऊपर सत्ता के इस सागर के इस तरह हिलोरें लेते रहने के बावजूद हम उसकी चेतना में भाग नहीं लेते, हम उसका उतना ही अंश जान पाते हैं जिसे हमारे मन की सतह पर लाकर वहां समन्वित किया जा सके । संसार हमारे अंदर निवास करता है, विचार करता है, अपने-आपको हमारे अंदर रूपायित करता है लेकिन हम यह कल्पना करते हैं कि हम अपने-आप, अपने ही लिये अलग जीते, विचार करते और रूप धारण करते हैं । जैसे हम अपने कालातीत, अपने अतिचेतन, अपने अंतस्तलीय और अपने अवचेतन स्वरूपों के बारे में अज्ञ हैं उसी तरह हम अपने वैश्व सत् के बारे में अज्ञ हैं । हमारी सुरक्षा बस इसीमें है कि हमारा अज्ञान अंतर्वेग से भरा हुआ है और शाश्वत व अप्रतिरोध्य रूप से, अपनी सत्ता के धर्म के अनुसार, आत्मवत्ता और आत्मज्ञान के लिये प्रयास करता है । मानसिक सत्ता, मनुष्य की चेतना की परिभाषा है -एक बहुमुखी अज्ञान जो सर्वालिंगनकारी ज्ञान बनने के लिये प्रयास कर रहा है । या अगर उसे एक और दिशा से देखें तो हम समान रूप से कह सकते हैं कि यह वस्तुओ की सीमित पृथक्कारी अभिज्ञता है जो पूर्ण चेतना और पूर्ण ज्ञान बनने के लिये प्रयत्न कर रही है ।

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