Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ७
अहं और द्वंद्व
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्रोऽनीशया शोचति मुह्यमान: ।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोक: ।।
'प्रकृति' के उसी वृक्ष पर बैठी हुई अंतरात्मा तल्लीन और मोह में फंसी हुई, शोक पाती है क्योंकि वह ईश या प्रभु नहीं है । लेकिन जब वह दूसरी आत्मा को और उसकी महिमा को देखती हैं जो ईश है और उसके संपर्क में होती है तो शोक उससे चला जाता है ।
श्वेताश्वतर उपनिषद् ४.७
यदि सब कुछ सचमुच सच्चिदानंद ही है तो मृत्यु दुःख-दर्द, अशुभ और सीमाएं केवल विकृति लानेवाली चेतना की रचनाएं ही हो सकते हैं जो व्यावहारिक प्रभाव में सकारात्मक और सारतत्त्व में नकारात्मक रचनाएं हैं । और यह चेतना अपने समग्र और एकता लानेवाले स्व-विषयक ज्ञान से च्युत होकर विभाजन और आंशिक अनुभूति की किसी भ्रांति में जा गिरी हैं । यह मनुष्य का वही पतन है जिसका यहूदियों के 'उत्पत्ति के अध्याय' में काव्यमय कथा के रूप में वर्णन है । यह पतन भगवान् को और अपने-आपको या यूं कहें, अपने अंदर भगवान् को पूरी तरह और शुद्ध रूप में स्वीकार करने से पतन है । यह एक विभाजनकारी चेतना में पतन है जो अपने साथ द्वंद्वों की जीवन-मरण, शुभ-अशुभ, हर्ष-विषाद, पूर्णता और अभाव की शृंखला लाती है जो विभक्त सत्ता का फल है । यही वह फल है जिसे आदम और हौआ, 'पुरुष' और 'प्रकृति ', प्रकृति द्वारा लुभाये गये पुरुष ने खाया है । व्यक्ति में वैध अवस्था की और भौतिक चेतना में आध्यात्मिक अवस्था की पुन: प्राप्ति के द्वारा उद्धार होता है । उसके बाद ही प्रकृति में स्थित अंतरात्मा को जीवन के वृक्ष का फल खाने दिया जा सकता है और तभी वह भगवान् जैसी हो सकती है और सदा वैसी ही रह सकती है । क्योंकि तभी भौतिक चेतना के अंदर उसके अवतरण का प्रयोजन सिद्ध हो सकता है जब शुभ और अशुभ, हर्ष-शोक, जीवन और मृत्यु का ज्ञान प्राप्त हो जाये, जो मानव आत्मा के द्वारा उच्चतर ज्ञान की पुन: प्राप्ति से मिलता है । यह उच्चतर ज्ञान इन विरोधी तत्त्वों का वैश्व चेतना में मेल बैठा कर उन्हें एक कर देता है और उनके विभाजनों को दिव्य एकता की प्रतिमा में रूपांतरित कर देता है ।
जो सच्चिदानंद सभी चीजों में अधिक-से-अधिक व्यापक सामान्य भाव और निष्पक्ष वैश्व भाव में फैला हुआ है उसके लिये मृत्यु, कष्ट, अशुभ और सीमाएं
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अधिक-से-अधिक, अपने से एकदम उल्टी अवस्थाएं और अपने से विपरीत ज्योतिर्मय अवस्थाओं के छाया-रूप ही हो सकते हैं । हम इन्हें जिस रूप में अनुभव करते हैं वह असंगति के सुर हैं । जहां एकता होनी चाहिये वहां वें पृथक्ता की, जहां समझ होनी चाहिये वहां गलतफहमी की रचना करते हैं, जहां वृंद-वाद्य के साथ अपनी संगति साधने का प्रयास होना चाहिये वहां अपनी ढपली अपना राग अलापने का प्रयास करते हैं । सारी समग्रता, चाहे वह वैश्व स्पंदनों की किसी एक ही योजना में हो या चाहे वह केवल भौतिक चेतना की समग्रता हो, जिसे अपने से परे और पीछे गति करनेवाली चीजों पर कोई अधिकार न हो, तो भी उसे उस हदतक सामंजस्य की ओर प्रत्यावर्तन और विसंगत विरोधों में समन्वय होना चाहिये । इसके विपरीत जो सच्चिदानंद विश्व के रूपों से परात्पर है उसके लिये इन द्वंद्वात्मक पदों का उपयोग, इन अर्थों में समझने पर भी, उचित नहीं रहता । परात्परता रूपांतरित करती है, समाधान नहीं । वह विरोधों में मेल नहीं बैठाती; बल्कि उन्हें उनसे परे की ऐसी चीज में बदल देती है जो उनके विरोधों को मिटा देती है ।
फिर भी पहले हमें व्यक्ति का समग्रता के सामंजस्य के साथ फिर से नाता जोड़ने की कोशिश करनी चाहिये । यहां हमारे लिये यह जान लेना जरूरी है कि --नहीं तो समस्या में से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं रह जाता --हमारी वर्तमान चेतना विश्व के मूल्यों को अभी जिन पदों में प्रकट करती है वे यद्यपि मानव अनुभव और प्रगति के लिये व्यावहारिक रूप से तो उचित और न्यायसंगत हैं फिर भी वे ही एकमात्र पद नहीं हैं जिनमें इन्हें प्रकट करना संभव है । हो सकता है कि ये पूर्ण, उचित और अंतिम सूत्र न हों । जैसे हो सकता है कि हमारी इन्द्रियों और ऐंद्रिय क्षमताओं से भिन्न ऐसी इन्द्रियां और ऐंद्रिय क्षमताएं हों जो भौतिक जगत् को किसी और ही तरह, शायद ज्यादा अच्छी तरह देख सकतीं हों क्योंकि वे ज्यादा पूर्णता से देखती हैं । उसी तरह हो सकता है कि विश्व की अन्य मानसिक और अतिमानसिक कल्पना-शक्तियां हों जो हमारी अपनी शक्तियों से बढ़ चढ़ कर हों । चेतना की ऐसी अवस्थाएं हैं जिनमें 'मृत्यु' अमर 'जीवन' में केवल एक परिवर्तन है, दुःख-दर्द वैश्व आनंद के जलों का उग्र प्रतिक्षिप्त जल है, सीमांकन 'अनंत' का अपने ही ऊपर मुड़ना है, अशुभ शुभ का अपनी ही पूर्णता के चारों ओर चक्कर लगाना है और यह केवल अमूर्त कल्पना में ही नहीं अपितु वास्तविक दर्शन और सतत ठोस अनुभूति में पाया जाता है । चेतना की ऐसी स्थितियोंतक पहुंचना व्यक्ति की आत्म-परिपूर्णता की ओर प्रगति में उसके लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य चरणों में से एक हो सकता है ।
निश्चय ही, हमारी इन्द्रियों और द्वैतात्मक इन्द्रिय-मन के द्वारा दिये गये व्यावहारिक मूल्यों का अपने क्षेत्रों में मान रहना चाहिये और उन्हें साधारण जीवन-अनुभूतियों
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के लिये तबतक मानक के रूप में स्वीकार करना चाहिये जबतक ज्यादा बड़ा सामंजस्य तैयार न हो जाये जिसमें वे प्रवेश कर सकें और अपने-आपको रूपांतरित कर सकें, साथ ही उन वास्तविकताओं पर उनकी पकड़ भी ढीली न हो पाये जिनका वे प्रतिनिधित्व करती हैं । ऐसे ज्ञान के बिना जो पुराने इन्द्रिय-मूल्यों को नूतन दृष्टिकोण से उनका उचित अर्थ दे, इन्द्रियों की क्षमताओं को बढ़ाना गंभीर अव्यवस्था और अक्षमता की ओर ले जा सकता है, व्यावहारिक जीवन और तर्कबुद्धि के सुव्यवस्थित और अनुशासित उपयोग के लिये अयोग्य बना सकता है । उसी तरह यदि हमारी मानसिक चेतना अहंकारमय द्वैतों के अनुभव से निकलकर समग्र चेतना के किसी पहलू के साथ अनियंत्रित एकता में विस्तार पा जाये तो वह जगत् की सापेक्षताओं पर आधारित व्यवस्था में मानवजाति के क्रियाशील जीवन में आसानी से अक्षमता और अस्तव्यस्तता ला सकती है । गीता ने ज्ञानी पुरुष को जो निषेधाज्ञा दी है कि वह अज्ञानी लोगों के जीवन-आधार और विचार-आधार को न छेड़े, उसकी जड़ में, निःसंदेह, यही चीज है क्योंकि उसके उदाहरण से वे लोग प्रेरित तो होंगे लेकिन उसकी क्रिया के सिद्धांतों को समझने में असमर्थ होने के कारण वे उच्चतर आधारतक पहुंचे बिना अपनी मूल्य-व्यवस्था को भी खो बैठेंगे ।
ऐसी अव्यवस्था और अक्षमता को व्यक्तिगत रूप में स्वीकार किया जा सकता है और बहुत-सी महान् आत्माओं ने इसे एक सामयिक पथ के रूप में या ज्यादा विस्तृत सत्ता में प्रवेश के लिये मूल्य के रूप में स्वीकार किया है । किंतु मानव प्रगति का उचित लक्ष्य वस्तुओं का फिर से एक ऐसा प्रभावकारी और समन्वयात्मक पुन: -प्रतिपादन होगा जिसके द्वारा उस अधिक विस्तृत सत्ता का विधान सत्यों की एक नयी व्यवस्था में और विश्व की जीवन-सामग्री पर क्षमताओं की अधिक उचित और अधिक सशक्त क्रिया में चित्रित हो सके । इन्द्रियों के लिये सूर्य पृथ्वी के चारों ओर चक्कर काटता है । उनके लिये यही जीवन का केंद्र था और जीवन की क्रियाएं इस गलत धारणा के आधार पर व्यवस्थित हैं । सत्य इससे बिल्कुल उल्टा है । लेकिन खोज बिल्कुल बेकार होती यदि ऐसा विज्ञान न होता जो इस नयी धारणा को तर्कसंगत और सुव्यवस्थित ज्ञान का केंद्र बनाकर उनके उचित मूल्यों को इन्द्रियों के प्रत्यक्ष दर्शन पर लागू करता । इसी भांति मानसिक चेतना के लिये भगवान् व्यक्तिगत अहं के चारों ओर घूमते हैं और उनके समस्त कार्य और पद्धतियां अहंकारमय संवेदनों, भावों और धारणाओं के आगे विचारार्थ लाये जाते हैं और उन्हें वे मूल्य और व्याख्याएं प्रदान की जाती हैं जो यद्यपि वस्तुओं के सत्य के विकार और विपर्यय होते हुए भी मानव जीवन और प्रगति के अमुक विकास के लिये उपयोगी और व्यावहारिक रूप से पर्याप्त हैं । ये हमारे वस्तुओं के अनुभव में आने के व्यावहारिक व्यवस्थापन हैं जो तबतक काम दे सकते हैं जबतक हम विचारों और क्रियाशीलताओ की एक अवस्था विशेष में रहते हैं परंतु ये मानव
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जीवन और ज्ञान की उच्चतम स्थिति के सूचक नहीं हैं । ''सत्य ही पथ है, मिथ्यात्व नहीं'', सत्य यह नहीं है कि भगवान् अहं को जीवन का केंद्र मानकर उसके चारों ओर घूमते हैं और अहं तथा उसकी द्वंद्वात्मक दृष्टि भगवान् की जांच कर सकती है बल्कि सच तो यह है कि स्वयं भगवान् ही केंद्र हैं और व्यक्ति का अनुभव अपना निजी वास्तविक सत्य तब पाता है जब उसे वैश्व और परात्पर की भाषा में जाना जाये । फिर भी ज्ञान के पर्याप्त आधार के बिना ही अहंकारजन्य धारणा के स्थान पर इस धारणा को बिठाना पुराने विचारों के स्थान पर नये परंतु साथ ही मिथ्या और मनमाने विचारों को और उचित मूल्यों की एक नियमित अव्यवस्था के स्थान पर एक उग्र अव्यवस्था को ला बिठाना होगा । ऐसी अव्यवस्था बहुधा नये दर्शनों और धर्मों के प्रारंभ की सूचना देती और उपयोगी क्रातियों का आरंभ करती है । परंतु सच्चा लक्ष्य तभी प्राप्त होता है जब हम उचित केंद्रीय धारणा के चारों ओर एक ऐसे तर्कसंगत और प्रभावकारी ज्ञान को एकत्र कर सकें जिसमें अहंकारी जीवन अपने सभी मूल्यों को रूपांतरित और संशोधित रूप में फिर से पा सके । तब हमें सत्यों की वह नयी व्यवस्था प्राप्त होगी जो हमारे लिये इस बात को संभव बनायेगी कि अभी हम जो जीवन जी रहे हैं उसके स्थान पर अधिक दिव्य जीवन प्रतिष्ठित कर सकें और विश्व की जीवन-सामग्री पर अपनी क्षमताओं का एक अधिक दिव्य और समर्थ प्रयोग सफलता के साथ कर सकें ।
अखंड मानव के नये जीवन और शक्ति को अनिवार्य रूप से उन महान् सत्यों की उपलब्धि पर आधारित होना चाहिये जो दिव्य जीवन की प्रकृति को, वस्तुओं को समझने की हमारी पद्धति में अनूदित कर सकें । इस नये जीवन को जिन चीजों के द्वारा अग्रसर होना होगा वे हैं कि अहं अपने मिथ्या दृष्टिकोण और मिथ्या निष्चितियों का त्याग करे और यह अहं जिन समग्रताओं का अंग है और जिन तुरीय अवस्थाओं में से उतरा है उनके साथ उचित संबंध और सामंजस्य में प्रवेश करे और उस सत्य और विधान की ओर पूर्ण आत्मोद्घाटन करे जो उसकी अपनी रूढ़ मान्यताओं का अतिक्रमण करते हैं --एक ऐसा सत्य जो उसकी परिपूर्ति होगा, एक ऐसा विधान जो उसकी मुक्ति होगा । इस जीवन का लक्ष्य होना चाहिये उन मूल्यों का विलोपन जो वस्तुओं के बारे में उसकी अहंकारजन्य दृष्टि की सृष्टि हैं, उसका मुकुट होना चाहिये सीमा, अज्ञान, मृत्यु पीड़ा और अशुभ का अतिक्रमण ।
यहां धरती पर और हमारे मानव जीवन में अतिक्रमण और विलोपन तबतक संभव नहीं हैं जबतक हमारे जीवन के तत्त्व अनिवार्य रूप से वर्तमान अहंकारमय मूल्यों के साथ बंधे रहें । यदि स्वभावत: जीवन एक व्यष्टिगत प्रपंच है, किसी वैश्व सत्ता का प्रतिरूप और एक महान् 'प्राण-पुरुष' का श्वास नहीं है, यदि व्यक्ति के संपर्क के प्रत्युत्तररूप द्वैत केवल प्रत्युत्तर न होकर समस्त जीवन का सारतत्त्व और उसकी आवश्यक परिस्थिति है, यदि ससीमता उस पदार्थ का अविच्छेद्य रूप है
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जिससे हमारा मन और शरीर बने हैं, यदि मृत्यु द्वारा विघटन समस्त जीवन की प्रथम और अंतिम अवस्था है, उसका आदि और अंत है, यदि सुख और दुःख समस्त संवेदन के अविभेद्य दोहरे उपादान हैं, यदि हर्ष और विषाद सभी भावावेगों के अनिवार्य प्रकाश और छाया रूप हैं, सत्य और भ्रांति दो ध्रुव हैं जिनके बीच समस्त ज्ञान को सदा घूमना पड़ेगा तब अतिक्रमण मानव जीवन का त्याग कर समस्त अस्तित्व के परे निर्वाण में जाकर ही संभव होगा या किसी अन्य लोक में, किसी ऐसे स्वर्ग में जाने से ही संभव होगा जो इस भौतिक विश्व से एकदम अलग तरह से बना हों ।
साधारण रूढ़िबद्ध मन के लिये, जो हमेशा अपने भूत और वर्तमान साहचर्यों से बंधा रहता है, ऐसे जीवन की कल्पना बहुत आसान नहीं है जो मानव रहते हुए भी, हमारी वर्तमान निश्चित परिस्थितियों में रहते हुए भी मूल रूप से बदला हुआ हो । हमारे लिये जो उच्चतर विकास संभव है उसकी तुलना में हम बहुत कुछ उसी स्थिति में हैं जिसमें डार्विन के सिद्धांत का आदिम 'वानर' । आदिकालीन वनों में पेड़ों पर सहज बोध का जीवन बितानेवाले उस 'वानर' के लिये यह कल्पना करना असंभव रहा होगा कि एक दिन धरती पर एक ऐसा पशु आयेगा जो अपने भीतरी और बाहरी जीवन की सामग्री पर तर्कबुद्धि नामक एक नयी क्षमता का उपयोग करेगा । जो उस क्षमता के द्वारा अपनी सहज वृत्तियों और आदतों को वश में करेगा, अपने भौतिक जीवन की परिस्थितियों को बदल डालेगा, अपने लिये पत्थर के भवन बनायेगा, 'प्रकृति' की शक्तियों से काम लेगा, सागरों पर नौका चलायेगा, हवा पर सवारी करेगा, आचार-व्यवहार के नियम बनायेगा और अपने मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिये सचेतन उपाय विकसित करेगा । और अगर 'वानर' मन के लिये ऐसी कल्पना संभव भी होती तो भी उसके लिये यह कल्पना करना तो असंभव ही होता कि प्रकृति की किसी प्रगति द्वारा या इच्छा-शक्ति और प्रवृत्ति के लंबे प्रयास के द्वारा वह स्वयं उस पशु में विकसित हो सकेगा । चूंकि मनुष्य ने तर्क-बुद्धि पा ली है और इससे भी बढ़कर चूंकि उसने कल्पना और अंतर्भास की शक्ति का उपयोग किया है इसलिये वह अपने से ऊंचे जीवन के बारे में सोच सकता है और अपनी वर्तमान अवस्था का अतिक्रमण कर उस जीवन में व्यक्तिगत रूप से उठ जाने की परिकल्पना कर सकता है । चरम अवस्था के बारे में उसकी परिकल्पना ऐसी हैं कि जो कुछ भी उसकी कल्पना में भावात्मक है और उसकी अंतर्भासात्मक अभीप्सा के लिये वांछनीय है उसका निरपेक्ष और संपूर्ण रूप है--एक ऐसा 'ज्ञान' जिसमें उसके नकारात्मक रूप भूल-भ्रांति की छाया न हो, ऐसा 'आनंद' जिसमें उसके नकारात्मक रूप दुःख-दर्द का अनुभव न हो, ऐसी 'शक्ति' जिसमें उसकी सतत निषेधरूप अक्षमता न हो और ऐसी 'पवित्रता' और 'परिपूर्णता' जिसमें उनके विरोधी भाव, दोष और ससीमता न हों । इसी भांति वह
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अपने देवताओं की कल्पना करता है, इसी भांति वह अपने स्वर्ग की रचना करता है । परंतु उसकी बुद्धि संभाव्य पृथ्वी और संभाव्य मानव जाति की इसी तरह से कल्पना नहीं करती । 'देवताओं' और 'स्वर्ग' के बारे में उसका स्वप्न वस्तुतः उसकी अपनी पूर्णता का ही स्वप्न होता है, लेकिन उसे यहां व्यवहारतः चरितार्थ करना ही उसका अंतिम लक्ष्य है । इसे स्वीकारने में उसे वही कठिनाई होती है जो उसके पूर्वज 'वानर' को होती यदि उससे कहा जाता कि वह अपने-आपको भावी मानव के रूप में मान ले । उसकी कल्पना और उसकी धार्मिक अभीप्साएं उसके आगे यह लक्ष्य रख सकती हैं लेकिन जब उसकी बुद्धि कल्पना और लोकोत्तर अंतर्भास को नकारते हुए अपना दावा पेश करती है तो मनुष्य उसे भौतिक जगत् के कठोर तथ्यों के विपरीत एक चमकता अंधविश्वास कहकर टाल देता है । यह लक्ष्य उसके लिये किसी असंभव की ओर प्रेरणा देनेवाला दृश्य मात्र रह जाता है । उसके अनुसार जो कुछ संभव है वह है : ज्ञान, सुख, शक्ति और शुभ का केवल अनुकूलित, सीमित और अस्थिर रूप ।
लेकिन स्वयं बुद्धि तो तत्त्व में एक 'लोकोत्तरता' की प्रस्थापना है क्योंकि बुद्धि अपने समग्र लक्ष्य और सारतत्त्व में 'ज्ञान' की खोज है यानी भ्रांति का निराकरण करके 'सत्य' की खोज । उसकी दृष्टि, उसका लक्ष्य किसी बड़ी भ्रांति से छोटी भ्रांति की ओर जाना नहीं है बल्कि वह एक भावात्मक, पहले से ही उपस्थित 'सत्य' को मानती है जिसकी ओर हम ठीक ज्ञान और गलत ज्ञान के द्वित्तों में से गुजरते हुए उत्तरोत्तर प्रगति कर सकते हैं । यदि हमारी बुद्धि में मानव जाति की अन्य अभीप्साओं के प्रति वैसी ही सहज वृत्तिवाली निश्चिति नहीं है तो उसका कारण यह हैं कि वहां उस तात्त्विक प्रकाश का अभाव है जो उसकी अपनी भावात्मक क्रियाशीलता में अंतर्निहित रहता है । हम सुख की भावात्मक या पूर्ण उपलब्धि की धारणा बना सकते हैं क्योंकि हृदय, जिसमें सुख की सहज वृत्ति का वास है उसमें निश्चिति का अपना रूप होता है, और वह श्रद्धा की क्षमता रखता है, क्योंकि हमारे मन उस अतृप्त अभाव के विलोपन की कल्पना कर सकते हैं जो दुःख-दर्द का ऊपर से दीखनेवाला कारण है । लेकिन हम स्नायविक संवेदन से पीड़ा और शारीरिक जीवन से मृत्यु के निष्कासन की बात कैसे सोच सकते हैं ? फिर भी पीड़ा को दूर करना संवेदनों की सबसे बड़ी सहज वृत्ति है, हमारी जीवनी शक्ति के तत्त्व में मृत्यु को अस्वीकार करने की मांग अंतर्निहित है । लेकिन ये चीजें हमारी बुद्धि के आगे सहजवृत्ति-मूलक अभीप्सा के रूप में आती हैं, ऐसी संभाव्यताओं के रूप में नहीं जिन्हें चरितार्थ किया जा सकता है ।
फिर भी सब जगह एक ही नियम लागू होना चाहिये । व्यावहारिक बुद्धि की मूल यह है कि वह आभासी तथ्य के, जिसे वह तुरंत वास्तविक रूप में अनुभव कर सकती है, बहुत ज्यादा आधीन रहती है और उसमें इतना साहस नहीं होता कि
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संभाव्य के अधिक गहरे तथ्यों को तर्क-संगत निष्कर्षों तक ले जा सके । अभी जो है, वह अतीत की संभाव्यताओं की चरितार्थता है और आज की संभाव्यता भावी उपलब्धि का संकेत है । और यहां संभाव्यता मौजूद है क्योंकि जगत् के व्यापारों पर अधिकार प्राप्त करना उनके कारणों और प्रक्रियाओं के ज्ञान पर निर्भर है और अगर हम भ्रांति, दुःख, पीड़ा, मृत्यु का कारण जान लें तो कुछ आशा के साथ उनके निष्कासन के लिये श्रम कर सकते हैं क्योंकि ज्ञान ही शक्ति और प्रभुता है ।
वस्तुत: जहांतक बन पड़े, हम आदर्श के रूप में इन नकारात्मक या विरोधी व्यापारों के निष्कासन के लिये प्रयास करते हैं । हम सदा भ्रांति, पीड़ा और दुःख के कारणों को कम करने की कोशिश करते हैं । जैसे-जैसे विज्ञान की जानकारी बढ़ती जाती है वह संतति-नियमन के और यदि मृत्यु पर पूर्ण विजय न पायी जा सके तो जीवन को अनिश्चित कालतक लंबा करने के स्वप्न ले रहा है । लेकिन चूंकि हम केवल बाहरी या गौण कारणों को ही देखते हैं अतः हम उन्हें दूरतक खदेड़ देने की बात ही सोच सकते हैं, और जिन चीजों के विरुद्ध हम संघर्ष कर रहे हैं उनकी असली जड़ों को निकाल देने की बात नहीं सोच पाते । इस भांति हम सीमित हो जाते हैं क्योंकि हम गौण बोध की ओर प्रयास करते हैं, मौलिक ज्ञान के लिये नहीं, क्योंकि हम वस्तुओं की प्रक्रिया को ही जानते हैं उनके सारतत्त्व को नहीं । इस तरह हम परिस्थितियों के अधिक सशक्त परिचालनतक ही पहुंच पाते हैं, उनपर आवश्यक नियंत्रण नहीं कर पाते । लेकिन यदि हम भ्रांति, दुःख और मृत्यु के मूलगत स्वभाव और सारभूत कारण को पकड़ सकें तो हम उनपर अधिकार पाने की आशा कर सकते हैं और यह अधिकार सापेक्ष नहीं पूर्ण होना चाहिये । हम उन्हें पूरी तरह निकाल बाहर करने की भी आशा कर सकते हैं और संपूर्ण शुभ, आनंद, ज्ञान और अमरता लाभ करके अपनी प्रकृति की प्रबल सहज वृत्ति का औचित्य सिद्ध कर सकते हैं । हमारे अंतर्भास इन्हें ही मानव सत्ता की सच्ची और चरम स्थिति मानते हैं ।
प्राचीन वेदांत अपनी ब्रह्मविषयक धारणा और अनुभूति में इस तरह का एक समाधान हमारे आगे रखता है कि ब्रह्म ही वैश्व और सारभूत तथ्य है और ब्रह्म का स्वभाव है सच्चिदानंद ।१
इस दृष्टि से समस्त जीवन का सारतत्त्व है एक वैश्व और अमर सत्ता की गति, समस्त संवेदन और भाव का सारतत्त्व है सत्ता में वैश्व और स्वयंभू आनंद की लीला, समस्त विचार और बोध या प्रत्यक्ष दर्शन का सारतत्त्व है वैश्व और सर्वव्यापक सत्य का विकिरण, समस्त क्रियाशीलता का सारतत्त्व है वैश्व और स्वतःप्रभावी शुभ की प्रगति ।
परंतु यह लीला और गतिविधि अपने-आपको रूपों की बहुविधता, वृत्तियों की
१सर्व खल्विदं ब्रह्म, सत्यं ज्ञान अनन्तं ब्रह्म । --अनु०
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विविधता, ऊर्जाओं की पारस्परिक क्रीड़ा में मूर्तिमान करती है । बहुविधता निर्धारण करनेवाले और कुछ समय के लिये विकृति लानेवाले तत्त्व के, व्यक्तिगत अहं के हस्तक्षेप को अनुमति देती है । अहं का स्वभाव है बाकी लीला की ओर से ऐच्छिक अज्ञान द्वारा चेतना का अपने-आपको सीमित कर लेना और एक ही रूप में, प्रवृत्तियों के एक ही समवाय में, ऊर्जाओं की गतिविधि के एक ही क्षेत्र में उसकी ऐकांतिक तल्लीनता । अहं ही वह तत्त्व है जो भ्रांति, दुःख, पीड़ा, अशुभ, मृत्यु की प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करता है । क्योंकि अहं ही उन गतिविधियों को ये मूल्य देता है जो अन्यथा अपने उचित संबंध में एकमेव 'सत्', 'आनंद', 'सत्य' और 'शुभ' के रूप में व्यक्त होतीं । उचित संबंध को पुन: प्राप्त करके हम अहं द्वारा निर्धारित प्रतिक्रियाओं का निष्कासन कर सकते हैं और अंतत: उन्हें अपने सच्चे मूल्यों में ला सकते हैं । और यह पुनः प्राप्ति व्यक्ति के समग्र की चेतना और समग्रता जिसका प्रतिनिधित्व करती हैं उस परात्पर की चेतना में उचित रूप से भाग लेने से संपन्न होती है ।
बाद के वेदांत में यह विचार घुस आया और दृढ़ हो गया कि सीमित अहं न केवल द्वित्तों का कारण है बल्कि विश्व के अस्तित्व की अनिवार्य स्थिति भी है । अहं के अज्ञान और उससे आनेवाली सीमाओं सें पिंड छुड़ाकर निश्चय ही हम द्वंद्वों से छुटकारा पा लेते हैं पर उनके साथ ही साथ हम वैश्व गतिविधि में से अपना अस्तित्व भी मिटा देते हैं । इस भांति हम इस बात पर लौट आते हैं कि मानव सत्ता का स्वभाव तत्त्वतः अशुभ और भ्रमात्मक है और जगत् के जीवन में पूर्णता लाने के सभी प्रयास व्यर्थ हैं । यहां हम केवल एक सापेक्ष शुभ की ही खोज कर सकते हैं जो हमेशा अपने विरोधी तत्त्व के साथ जुड़ा रहता है । लेकिन अगर हम उस अधिक बड़े और गहरे भाव पर दृढ़ रहें कि अहं अपनेसे परे की किसी चीज का मध्यवर्ती प्रतिरूप मात्र है, तो हम इस परिणाम से बच सकते हैं और वेदांत का प्रयोग केवल जीवन से पलायन के लिये नहीं बल्कि उसकी परिपूर्ति के लिये भी कर सकते हैं । विश्व के अस्तित्व का मूल कारण और स्थिति है भगवान् ईश्वर या 'पुरुष' जो व्यष्टियों और वैश्व रूपों को अभिव्यक्त करता और उनमें निवास करता है । सीमित अहं चेतना का एक मध्यवर्ती प्रपंच मात्र है जो विकास की किसी विशेष धारा के लिये जरूरी है । इस धारा का अनुसरण करते हुए व्यष्टि वहांतक पहुंच सकता है जो स्वयं उसके परे है, जिसका वह प्रतिरूप है । इसके बाद भी वह उसका प्रतिनिधित्व कर सकता है किंतु अब एक अंधेरे और सीमित अहं के रूप में नहीं बल्कि भगवान् और वैश्व चेतना के एक केंद्र के रूप में जो समस्त व्यक्तिगत निर्धारणों को अंगीकार करता, उनका उपयोग करता और भगवान् के साथ सामंजस्य में उन्हें रूपांतरित कर देता है ।
तो हम देखते हैं कि भौतिक प्रकृति की समग्रता में भागवत 'चेतन सत्ता' की
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अभिव्यक्ति जड़ भौतिक विश्व में मानव सत्ता का आधार है । उस 'चेतन सत्ता' का अंतर्लीन और अनिवार्य रूप से विकास पाते हुए प्राण, मन और अतिमानस में से ऊपर उभरना ही हमारी क्रियाशीलताओं का अर्थ है । क्योंकि इस विकास ने ही मनुष्य को 'जड़' में प्रकट होने योग्य बनाया है और यह विकास ही उसे भगवान् को शरीर में उत्तरोत्तर प्रकट करने के योग्य बनायेगा । यह होगा वैश्व 'अवतार' । अहंकारमय रचना में वह मध्यवर्ती और निर्धारक तत्त्व है जो एक सामान्य, अस्पष्ट, आकास्हीन, विशिष्टताहीन सर्व में से, जिसे हम अवचेतन कहते हैं और जो ऋग्वेद का 'हृद्य समुद्र' है, उसमें से 'एकमेव' को सचेतन 'बहु' के रूप में प्रकट होने देता है । हम जीवन और मृत्यु हर्ष और विषाद, सुख और पीड़ा, सत्य और भ्रांति, शुभ और अशुभ के द्वंद्वों को अहंकारमय चेतना की पहली रचनाओं के रूप में पाते हैं । यह विश्व में सत्ता के समग्र सत्य, शुभ, जीवन और आनंद से अलग अपनी ही कृत्रिम रचना में एकता लाने के अहंकारमय चेतना के प्रयत्न के स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम हैं । व्यक्ति के विश्व और भगवान् के प्रति आत्मोद्घाटन द्वारा इस अहंकारात्मक रचना का विघटन उस परम सिद्धि का साधन है जिसके लिये अहंकारमय जीवन एक भूमिका मात्र है जैसे पशु जीवन मानव जीवन के लिये एक भूमिका मात्र था । सीमित अहं का रूपांतरित होकर दिव्य एकत्व और स्वतंत्रता का एक सचेतन केंद्र बन जाना और इस तरह व्यक्ति का अपने अंदर सर्व की उपलब्धि पाना ही वह पद है जहां सिद्धि हमसे आ मिलती है और अनंत एवं निरपेक्ष सत् सत्य, शुभ और सत्ता के आनंद का उमड़कर जगत् में 'बहु' पर प्रवाहित होना ही वह दिव्य परिणाम है जिसकी ओर हमारे विकास के चक्र चल रहे हैं । यही वह परम प्रसव है जिसे 'प्रकृति माता' अपने अंदर धारण किये हुए है और जिसे जन्म देने के लिये वह प्रयत्न कर रही है ।
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