दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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द्वितीय ग्रंथ

 

 विद्या और अविद्या

 

आध्यात्मिक क्रम विकास


 

 

प्रथम भाग  

 

अनन्त चेतना और अविद्या

 

 



 

अध्याय १

 

अनिर्धारित, वैश्व निर्धारण और अनिर्देश्य

 

 

            अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्म-

            प्रत्ययसारं प्रपझोपशम् शान्तं शिवं... स आत्स स विज्ञेय: ।।

 

वह ऐसा अदृष्ट है जिसके साथ कोई भी व्यावहारिक संबंध नहीं हो सकते, वह पकड़ में नहीं आता, वह लक्षण-रहित, अचिन्त्य है, किसी भी नाम से उसका निर्देश नहीं किया जा सकता, जिसका सार है, 'एकमेव आत्मा' की निश्चिति, उस वैश्व अस्तित्व का उपशमन हो गया है, वह 'शान्तं शिवम्' है -वही वह आत्मा है, वही वह है जिसे जानना है ।

                                                                    माण्ड़ूक्योपनिषद् ७

 

             आश्चर्यवत् पश्यति कश्चिदेनमाश्रर्यवद वदति तथैव चान्य: ।

             आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।

 

कोई उसे आश्चर्यवत् देखता है, कोई उसकी चर्चा आश्चर्यवत् करता है, कोई उसे आश्चर्यवत् सुनता है लेकिन उसे जानता कोई नहीं ।

                                                                        गीता २-२९

 

              ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।

              सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।।

              संनियम्मेन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय: ।

              ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: ।।

 

जो अक्षर की, अनिर्देश्य की, अव्यक्त की, सर्वव्यापक की, अचिन्त्य की, कूटस्थ की, अचल और ध्रुव की खोज करते हैं सभी जगह समबुद्धि रखनेवाले, सभी भूतों के हित में लगे वे लोग मेरे पास ही आते हैं ।

                                                                गीता १२. ३, ४ 

 

               बुद्धेरात्मा महान्परः ।।

               महत: परमव्यक्तम् अव्यक्तात्युरुष: पर: ।

               पुरुषान्न पर किन्श्चित सा काष्ठा सा परा गति: ।।

 

बुद्धि से परे महान् आत्मा है, महान् आत्मा से परे अव्यक्त है, अव्यक्त से परे पुरुष है, उस पुरुष से परे कुछ भी नहीं है, वह पराकाष्ठा है, वह परा गति, परम लक्ष्य है ।

                                   कठोपनिषद् ३. १०, ११

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                वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ।।

 

                ऐसा महात्मा दुर्लभ है जिसके लिये सब कुछ वासुदेव हो ।

                                                            गीता ७.१९

 

   एक चित्-शक्ति है जो सत्ता में हर जगह अंतर्निहित है, वह छिपी हुई भी क्रिया करती है, वह जगतों का सृजन करनेवाली, प्रकृति का गुह्य रहस्य है । लेकिन हमारे भौतिक जगत् में और हमारी अपनीं सत्ता में चेतना के दो पक्ष होते हैं, एक है ज्ञान की शक्ति और दूसरी अज्ञान की शक्ति । आत्म-अभिज्ञ अनंत सत् की अनंत चेतना में ज्ञान हर जगह निहित होगा या उसके हर कार्य के कण-कण में क्रियाशील होगा । लेकिन हम यहां वस्तुओं के आरंभ में एक निश्चेतना, एक पूर्ण अविद्या को सृजन करनेवाली विश्व ऊर्जा के आधार या उसकी प्रकृति के रूप में प्रकट देखते हैं । यही वह भंडार है जहां से भौतिक विश्व का आरंभ होता है । पहले चेतना और ज्ञान धुंधली अत्यणु गतियों में, बिंदुओं पर, छोटे ऊर्जाणु में, जो अपने-आपको एक साथ संबद्ध कर लेते हैं, उभरते हैं । एक धीमा और कठिन विकास होता है । चेतना की क्रियाओं का धीरे-धीर बढ़ता हुआ संगठन और सुधरता हुआ यंत्र-विन्यास होता है; अविद्या की कोरी सिलेट पर अधिकाधिक लाभ लिखे जाते हैं । फिर भी इनका रूप एक खोज करते हुए अज्ञान का और उस अज्ञान की इकट्ठी की हुई प्राप्तियों और निर्माणों का होता है जो जानने, समझने, खोजने और धीरे-धीरे संधर्ष के साथ उसे ज्ञान में बदलने की कोशिश करता है । जैसे यहां प्राण सर्वसामान्य मृत्यु की नींव पर और उसके वातावरण में अपनी क्रियाओं को कठिनाई के साथ स्थापित करता और बनाये रखता है, पहले वह इसे प्राण के अत्यणुओं में करता है, प्राण-स्वरूप और प्राण-ऊर्जा के ऊर्जाणु में करता है और बढ़ते हुए समुच्चयों में करता है और ये समुच्चय अधिकाधिक जटिल अवयव-संस्थानों, पेचीदे जीवन-यंत्रों की रचना करते हैं; उसी तरह चेतना भी एक आदि अविद्या और वैश्व अज्ञान के अंधकार में एक बढ़ती हुई किंतु अस्थिर ज्योति को प्रतिष्ठित करती और बनाये रखती है ।

 

   और फिर हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है वह चीजों की वास्तविकता या सत्ता के आधारों का नहीं बल्कि दृश्य रूपों का होता है । जहां कहीं हमारी चेतना उस चीज से मिलती है जो आधार प्रतीत होती है, वह आधार यदि शून्य का नहीं तो कोरी रिक्तता का रूप ले लेता है, एक ऐसी मूल अवस्था का जो आकृतिहीन है, और ऐसे असंख्य परिणामों का रूप ले लेता है जो उस मूल में अंतर्निहित नहीं होते और उस भूल में ऐसा कुछ नहीं होता जो उनका औचित्य सिद्ध कर सके या उनकी आवश्यकता दिखला सके; वहां बहुत-सी ऊपरी रचना होती है जिसका आधारभूत अस्तित्व के साथ कोई स्पष्ट सहज संबंध नहीं होता । विश्व-सत्ता का पहला रूप एक

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ऐसा अनंत होता है जो हमारी दृष्टि के लिये अनिर्देश्य नहीं तो अनिर्दिष्ट तो होता ही है । इस अनंत में स्वयं विश्व, चाहे ऊर्जा के रूप में हो या रचना-रूप में अनिर्धारित निर्धारण, ''सीमाहीन ससीम'' प्रतीत होता है । ये शब्द विरोधाभासी हैं लेकिन साथ ही आवश्यक भी जिनसे यह संकेत मिलता प्रतीत होता है कि हमारे सामने चीजों के आधार के रूप में वह बुद्धि से परे का रहस्य है । उस विश्व में बहुत बड़ी संख्या में विविध प्रकार के सामान्य और विशेष निर्दिष्ट उठ खड़े होते हैं जो अनंत की प्रकृति में दीखनेवाली किसी भी चीज द्वारा समर्थन पाते हुए नहीं दीखते । ऐसा लगता है कि उन्हें उसपर आरोपित किया गया है अथवा यह भी हो सकता है कि वे स्वयं अपने द्वारा आरोपित किये गये हों । ये आये कहां से ? जो ऊर्जा उन्हें पैदा करती है उसे हम प्रकृति का नाम देते हैं । लेकिन इस शब्द का तबतक कोई अर्थ नहीं निकलता जबतक हम यह न मान लें कि चीजों की प्रकृति जैसी हैं वैसी एक शक्ति के कारण है जो उन्हें उनमें अंतर्निहित सत्य के अनुसार संयोजित करती है । लेकिन स्वयं उस सत्य की प्रकृति, ये निर्दिष्ट जैसे हैं वैसे क्यों हैं, इसका कोई कारण कहीं दिखायी नहीं देता । वस्तुत: मानव विज्ञान के लिये भौतिक चीजों की प्रक्रिया या बहुत-सी प्रक्रियाओं का पता लगाना संभव रहा है परंतु यह ज्ञान मुख्य प्रश्न पर कोई प्रकाश नहीं डालता । हम मूल वैश्व प्रक्रियाओं का युक्तियुक्त विवरण तक नहीं जानते क्योंकि जो परिणाम हमारे सामने आते हैं वे उनके अवश्यंभावी परिणाम के रूप में नहीं बल्कि व्यावहारिक और वास्तविक परिणामों के रूप में ही आते हैं । अंत में हम नहीं जानते कि ये निर्दिष्ट आद्य अनिर्दिष्ट या अनिर्देश्य में या उसमें से कैसे आये जिस पर ये अपनी व्यवस्थित उपस्थिति में एक शून्य या समतल पृष्ठभूमि पर आधारित हैं । वस्तुओं के आरंभ में हमारा सामना होता है एक ऐसे अनंत से जिसमें बहुत-से सांतों की राशि है जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती, एक ऐसे अविभाज्य से जो अंतहीन विभाजनों से भरा है, एक ऐसे अक्षर से जो क्षरता और वैशिष्टय से भरा है । एक वैश्व विरोधाभास सभी वस्तुओं का आदि है, एक ऐसा विरोधाभास जिसके अर्थ की कोई चाबी नहीं है ।

 

   निश्चय ही यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि हमारे रूपायित विश्व को समाये रखनेवाले अनंत की धारणा करने की जरूरत ही क्या है ? हमारा मन अपनी धारणाओं के आवश्यक आधार-रूप में अनिवार्य रूप से ऐसी धारणा की मांग करता है क्योंकि वह देश या काल या सार सत्ता के परे कोई ऐसी सीमा निश्चित या निर्धारित करने में असमर्थ रहता है जिसके परे, पहले या पीछे कुछ न हो -यहां शून्य या असत् की धारणा का एक विकल्प भी है लेकिन ये तो अनंत की एक खाई मात्र हो सकते हैं जिसमें झांकने से हम इंकार करते हैं । ऐसी हालत में असत् का एक अनंत रहस्यमय शून्य एक अनंत 'क्ष' का आवश्यक आधारतत्त्व के रूप में स्थान ले लेगा, जो कुछ भी हमारे लिये अस्तित्व या सत् है उसे देखने के लिये

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यहीं आधार होगा । लेकिन अगर हम भौतिक विश्व के सीमाहीन विस्तृत होते हुए सांत के और उसके बहुप्रसवी निर्धारणों के सिवा और किसी को वास्तविक मानने से इंकार भी कर दें तब भी वही पहेली बनी रहती है । हमारे लिये अनंत सत् अनंत असत् या सीमाहीन सांत, सभी आदि अनिर्दिष्ट या अनिर्देश्य हैं । हम उनके लिये निश्चित गुण-धर्म या आकार या कोई ऐसी चीज नियत नहीं कर सकते जो उनके निर्देश्यों को पहले से निर्दिष्ट कर सके । विश्व के मौलिक या आधारभूत गुण-धर्म को देश या काल या देश-काल कह देने से भी हमें सहायता नहीं मिलती क्योंकि वे चाहे हमारी बुद्धि की अमूर्त कल्पनाएं न भी हों जिन्हें हम अपनी मानसिक दृष्टि से विश्व पर आरोपित कर रहे हों, वे अगर विश्व के चित्र के लिये मन के आवश्यक परिप्रेक्ष्य भी न हों फिर भी, ये भी वे अनिर्दिष्ट तो हैं ही जिनमें कोई ऐसा सूत्र नहीं मिलता जिससे उनके अंदर होनेवाले निर्दिष्टों के मूल का पता लग सके । अभीतक उस विचित्र प्रक्रिया की व्याख्या नहीं हो पायी है जिसके द्वारा चीजें निर्दिष्ट होती हैं, न उनकी शक्तियों, गुणों और विशेषताओं का स्पष्टीकरण हुआ और न उनके सच्चे स्वभाव, उद्गम और अर्थ का ही रहस्य खुला है ।

 

   वास्तव में यह अनंत या अनिर्दिष्ट सत् हमारे विज्ञान के आगे अपने-आपको ऊर्जा के रूप में प्रकट करता है जिसे स्वयं उसके कारण नहीं बल्कि उसके कार्यों के द्वारा जाना जाता है, जो अपनी गति में शक्ति-तरंगों को और उनमें अनगिनत अत्यणुओं को प्रक्षिप्त करती है । ये अपने-आपको ज्यादा बड़े अत्यणु बनाने के लिये समूहों में इकट्ठा करते हैं और इस तरह ऊर्जा के सभी सृजनों के लिये आधार बन जाते हैं, उनके लिये भी जो भौतिक आधार से अधिक-से-अधिक दूर हैं, व्यवस्थित जड़ तत्त्व के जगत् के आविर्भाव के लिये, प्राण के आविर्भाव के लिये, चेतना के आविर्भाव के लिये और विकसनशील प्रकृति की ऐसी सभी क्रियाओं के लिये जिनकी अभीतक कोई व्याख्या नहीं दी जा सकी, उन सबके लिये आधार बन जाते हैं । मौलिक प्रक्रिया पर बहुत-सी प्रक्रियाएं खड़ी की गयी हैं जिनका हम अवलोकन और अनुसरण कर सकते हैं, उनमें से कइयों का लाभ उठा सकते और उपयोग कर सकते हैं लेकिन ये उनमें से नहीं हैं जिनकी आधारभूत रूप से व्याख्या की जा सकती है । अब हम जानते हैं कि वैद्युत अत्यणुओं के विभिन्न समूहन और उनकी बदलती हुई संख्याएं अलग-अलग स्वभाव, गुण और बलवाले ज्यादा बड़े परमाणविक अत्यणुओं के प्रकट होने के लिये संघटक अवसर पैदा कर सकते या बन सकते हैं । उन्हें भूल से कारण कहा जाता है क्योंकि यहां तो वे एक आवश्यक पूर्ववर्ती अवस्था ही मालूम होते हैं । लेकिन हम यह समझने में असफल रहते हैं कि ये भिन्न-भिन्न स्थितियां अलग-अलग परमाणुओं का घटन कैसे कर सकती हैं, कैसे संघटक अवसर या कारण का वैशिष्टय घटित परिणाम या फल के वैशिष्टय को जरूरी बना देता है । हम यह भी जानते हैं कि कुछ अदृश्य

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परमाणविक अत्यणुओं के कुछ संयोजन ऐसे नये और दृश्य निर्धारणों को पैदा करते या उन्हें अवसर देते हैं जो स्वभाव, गुण और शक्ति में घटक अत्यणुओं से भिन्न होते हैं । लेकिन हम यह खोजने में असफल रहते हैं, उदाहरण के लिये कि कैसे ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोजन का निश्चित सूत्र पानी के प्रकट होने का निर्धारण कर देता है जो स्पष्ट रूप से गैसों के संयोजन से अधिक, एक नया सृजन, पदार्थ का एक नया रूप, एक और ही स्वभाव की भौतिक अभिव्यक्ति होता है । हम देखते हैं कि बीज वृक्ष में विकसित होता है । हम इस रचना की प्रक्रिया की रेखा का अनुसरण कर उसका उपयोग करते हैं लेकिन यह पता नहीं लगा पाते कि बीज से वृक्ष कैसे विकसित होता है, बीज के पदार्थ या उसकी ऊर्जा में वृक्ष का प्राण या रूप कैसे अंतर्निहित रहता है या अगर यही तथ्य है तो बीज वृक्ष में कैसे विकसित होता है । हम जानते हैं कि जीन और क्रोमोसोम (गुणसूत्र) पैतृक वंशगत संचरण के कारण हैं, केवल भौतिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक विभिन्नताओं के भी । लेकिन हम यह नहीं खोज पाते कि इस निश्चेतन जड़ वाहक में मन के गुण कैसे धारण किये जाते और संचारित किये जाते हैं । हम देखते या जानते तो नहीं हैं लेकिन हमारे आगे यह बात प्रकृति की प्रक्रिया के रूप में प्रतिपादित की जाती है कि विद्युदणु की, परमाणुओं और उनसे बने अणुओं की, कोषाणुओं, ग्रंथियों, रासायनिक स्रावों और शारीरिक प्रक्रियाओं की ऐसी क्रीड़ा होतीं है जो किसी शेक्सपीयर या अफलातून के मस्तिष्क और स्नायुओं पर ऐसी क्रिया करती है कि वह हैमलेट या 'सिम्पोजियम' या 'रिपब्लिक' की रचना करा सकती है या उसकी रचना के लिये क्रियात्मक सुयोग बन जाती है । लेकिन हम यह खोज पाने या समझने में असफल रहते हैं कि ऐसी जड़ भौतिक क्रियाएं विचार और साहित्य के इन उच्चतम बिंदुओं का सृजन कैसे कर पायीं या उन्होने इस सृजन को आवश्यक कैसे बनाया । यहां निर्देशक और निर्दिष्ट के बीच का अंतर इतना चौड़ा हो जाता है कि इस प्रक्रिया को समझने या इसे व्यवहार में लाने की तो बात दूर रही, हम उसका अनुसरण भी नहीं कर सकते । विज्ञान के ये सूत्र व्यावहारिक रूप में ठीक और निर्भ्रांत हो सकते हैं । वे प्रकृति की प्रक्रिया के व्यावहारिक ''कैसे'' का नियंत्रण कर सकते हैं लेकिन वे उसके आंतरिक ''कैसे'' और ''क्यों'' का रहस्य नहीं खोलते । बल्कि उनका रूप किसी वैश्व जादूगर के मंत्रों जैसा होता है -यथार्थ, अरोध्य, अपने-अपने क्षेत्र में हर एक स्वचालित रूप से सफल लेकिन जिनका प्रयोजन अभीतक मूलतः समझ में न आनेवाला है

 

   हमें चकराने के लिये और भी बातें हैं क्योंकि हम देखते हैं कि मौलिक अनिर्दिष्ट ऊर्जा अपने अंदर से सामान्य निर्दिष्टों को प्रक्षिप्त करती है, उन रचनाओं के वैविध्य को दृष्टि में रखते हुए हम इन्हें समान रूप से जातीय अनिर्दिष्ट कह सकते हैं । इनके द्रव्य की उचित अवस्थाएं और उस द्रव्य के निर्दिष्ट रूप होते हैं ।

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ये रूप बहुसंख्यक और कभी-कभी अपने आधार द्रव्य-ऊर्जा की अनगिनत विविधताएं होते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इन विविधताओं में से कोई भी सामान्य अनिर्दिष्ट की प्रकृति की किसी भी चीज द्वारा पहले से निर्दिष्ट नहीं होती । वैद्युत ऊर्जा अपने धन, ऋण और उदासीन रूप पैदा करती है । ये रूप एक ही साथ लहरें भी हैं और कण भी । द्रव्य-ऊर्जा की एक वायवीय स्थिति बहुत प्रकार की गैसें तैयार करती है । द्रव्य ऊर्जा की ठोस स्थिति, जिसमें से पृथ्वी-तत्त्व विकसित होता है, वह पृथ्वी और चट्टान के विभिन्न रूपों और बहुसंख्या में खनिजों और धातुओं को विकसित करती है । प्राण-तत्त्व अपने वनस्पति-राज्य की रचना करता है जो विचित्र प्रकार के पौधों, वृक्षों, पुष्पों के असंख्य प्रकारों से भरा होता है । पशु जीवन का तत्त्व जाति, उपजाति, वैयक्तिक वैचित्र्यों के विशाल वैविध्य को उत्पन्न करता है । उसी तरह वह तत्त्व मानव प्राण और मन और उसके मानसिक प्ररूपों की ओर, क्रम-विकास के उस असमाप्त अध्याय के अभीतक अलिखित अंत या शायद अबतक गुह्य रहनेवाले उत्तरार्द्ध की ओर आगे बढ़ता है । मूल निर्दिष्ट में शुरू से अंततक व्यापक समानता का सतत नियम रहता है और आधारभूत पदार्थ और प्रकृति के इस स्वरूपगत अभेद के आधीन जातिगत और वैयक्तिक निर्दिष्टों में प्रचुर वैचित्र्य रहता है । जाति और उपजाति में भी समानता या सादृश्य का ऐसा ही नियम चलता है और वहां भी बहुसंख्यक वैविध्य रहता है जो व्यक्ति में प्रायः अतिसावधानी से व्योरोंतक में रहता है । लेकिन हम सामान्य या जातिगत निर्दिष्ट में ऐसी कोई चीज नहीं पाते जो उससे पैदा होनेवाले विविध निर्दिष्टों को आवश्यक बनाये । ऐसा लगता है कि आधार में एक अपरिवर्तनशील समानता और सतह पर मुक्त और बेहिसाब विभिन्नताओं की अनिवार्यता ही नियम है । लेकिन वह कौन है या क्या है जो इन्हें अनिवार्य या निर्दिष्ट बनाता है ? निर्धारण का प्रयोजन क्या है ? उसका मूल सत्य या उसका तात्पर्य क्या है ? बदलती हुई संभावनाओं की इस उल्लासमयी लीला को, जिसका सृजन की सुंदरता या उसके आनंद के सिवाय कोई लक्ष्य या अर्थ नहीं दिखायी देता, कौन बाधित या प्रेरित करता है ? हो सकता है कि वह कोई मन या कोई खोजनेवाला, कुतूहलभरा अन्वेषक विचार या कोई गुप्त निर्धारक इच्छा हो लेकिन उसका जड़ भौतिक प्रकृति के प्रथम मौलिक रूप में कहीं कोई लवलेश भी नहीं दिखायी देता ।

 

   पहली संभव व्याख्या यह संकेत करती है कि एक आत्म-संगठनकारी क्रियाशील संयोग काम कर रहा है । यह विरोधाभास इसलिये जरूरी हो जाता है कि हम जिस वैश्व व्यापार को प्रकृति कहते हैं उसमें एक तरफ तो अनिवार्य व्यवस्था और दूसरी और बेहिसाब मनमानापन और स्वैर कल्पना दिखायी देती है । हम कह सकते हैं कि प्रकृति की ऊर्जा एक निश्चेतन और असंबद्ध शक्ति है जो किसी निर्देशक नियम के बिना, विशृंखलता के साथ काम करती है और सामान्य

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संयोग से इसकी या उसकी रचना कर डालती है । उसकी क्रिया के एक-से छंद-लय के लगातार बार-बार दोहराये जाने के परिणामस्वरूप ही निर्देशन का आगमन होता है ओर चूंकि इस तरह दोहराया जानेवाला छंद ही चीजों के अस्तित्व को बनाये रखने में सफल होता है इसलिये निर्देशन भी सफल होते हैं -यह प्रकृति की ऊर्जा है । लेकिन इसमें यह अर्थ छिपा होता है कि चीजों के आरंभ में कहीं पर ऐसी असीम संभावना या अनगिनत संभावनाओं का गर्भ है जो आदि-ऊर्जा द्वारा उसमें से प्रकट होती हैं -यह एक अनिश्चित निश्चेतना है जिसे हम सत् या असत् कहते हुए सकुचाते हैं, क्योंकि ऐसे किसी उद्गम और आधार के बिना ऊर्जा का प्रकट होना या उसका क्रिया करना समझ में नहीं आता । लेकिन वैश्व व्यापार के स्वभाव का जैसा हमें एक उल्टा पहलू दीखता है, ऐसा लगता है कि वह हमें इस सिद्धांत को मानने की मनाही करता है कि कोई विशृंखल क्रिया एक स्थायी व्यवस्था को उत्पन्न करती है । वहां व्यवस्था पर, संभावनाओं के आधार के नियम पर एक लौह आग्रह है । यह मानना न्यायसंगत होगा कि वस्तुओं का एक अंतर्निहित अनिवार्य सत्य होता है जो हमारे लिये अदृश्य रहता है लेकिन यह ऐसा सत्य है जो बहुविध रूपों में अभिव्यक्त होने में सक्षम है, जो अपनी बहुत सारी संभावनाओं और रूप-भेदों में अपने-आपको प्रक्षिप्त कर सकता है जिन्हें सर्जक ऊर्जा अपनी क्रिया से बहुत सारी संसिद्ध वास्तविकताओं में बदल देती है । यह चीज हमें एक और व्याख्यातक लें आती है, वह है -वस्तुओं में विद्यमान यांत्रिक आवश्यकता जिसकी क्रियाओं को हम प्रकृति के बहुत सारे यांत्रिक नियमों के रूप में जानते हैं -हम कह सकते हैं कि वस्तुओं के किसी ऐसे गुप्त अंतनिर्हित सत्य की आवश्यकता है जिसकी हमने कल्पना की है, जो विश्व में, जिन क्रियाओं को हम क्रिया करते देखते हैं, उनकी प्रक्रियाओं को स्वतः -शासित करती है । लेकिन यांत्रिक आवश्यकता का सिद्धांत अपने-आपमें विकास में दीखनेवाले अंतहीन गणनातीत विभेदों की स्वतंत्र क्रीड़ा पर प्रकाश नहीं डालता । आवश्यकता के पीछे या उसके अंदर ऐक्य का एक नियम होना चाहिये जो साथ-ही-साथ चलनेवाले लेकिन अधीनस्थ बहुलता के नियम के साथ जुड़ा हो और दोनों ही अभिव्यक्ति पर जोर देते हों । लेकिन किसका ऐक्य ? किसकी बहुलता ? यांत्रिक आवश्यकता इसका कोई उत्तर नहीं दें सकती । और फिर इस सिद्धांत में निश्चेतना में से चेतना का आविर्भाव रास्ते का रोड़ा है क्योंकि यह एक ऐसा व्यापार है जिसका निश्चेतन यांत्रिक आवश्यकता के सर्वव्यापक सत्य में कोई स्थान नहीं हो सकता । अगर कोई ऐसी आवश्यकता है जो इस आविर्भाव को बाधित करती है तो वह केवल यही हो सकती है कि निश्चेतना में पहले से ही चेतना छिपी हुई है जो विकास की प्रतीक्षा में है, और जब सब कुछ तैयार हो तो अपनी प्रतीयमान निर्ज्ञान की कारा में से फूट निकलती है । वस्तुओं की अनिवार्य व्यवस्था की कठिनाई से हम यह मानकर पीछा छुड़ा सकते हैं कि उसका

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अस्तित्व ही नहीं है, कि प्रकृति में नियति को हमारे विचार ने आरोपित किया है, जिस विचार को अपने इर्द-गिर्द की चीजों से व्यवहार करने के लिये ऐसी अनिवार्य व्यवस्था की जरूरत है लेकिन वास्तव में ऐसी कोई चीज है ही नहीं । केवल एक शक्ति है जो ऐसे अत्यणुओं की इतस्ततः क्रिया पर परीक्षण करती है जो अपने सामान्य परिणामों में, अपनी क्रिया के कुल योग में बार-बार दुहरायी जानेवाली क्रिया द्वारा भिन्न-भिन्न नियतियों की रचना करते हैं । इस तरह हम अपने जीवन के आधार के रूप में आवश्यकता से संयोग की ओर लौट जाते हैं । लेकिन तब यह मन, यह चेतना क्या है जो उसे बनानेवाली ऊर्जा से मूलत: इतनी भिन्न है कि उसे उस जगत् पर, जिसे उस ऊर्जा ने बनाया है और जिसमें रहने के लिये वह बाधित है, अपने नियम-व्यवस्था के भाव और आवश्यकताओं और अपनी क्रियाओं के लिये आरोपित करना पड़ा है । तो यहां दो तरह का विरोध आ जाता है; एक है चेतना का मूलगत निश्चेतना में से आविर्भाव और दूसरा व्यवस्था और तर्क-बुद्धिवाले मन का एक ऐसे जगत् के भव्य अंतिम परिणाम के रूप में प्रकट होना जिसे निश्चेतन संयोग ने पैदा किया था । ये चीजें संभव हो सकती हैं लेकिन इससे पहले कि हम उन्हें अपनी स्वीकृति दें, ये अभीतक जितनी व्याख्याएं दी गयी हैं उनसे ज्यादा अच्छी व्याख्या की मांग करती हैं ।

 

   यह अन्य व्याख्याओं के लिये रास्ता खोल देती है जो चेतना को एक प्रतीयमान मूल निश्चेतना में से इस जगत् का निर्माण करनेवाली कहती हैं । ऐसा लगता है कि एक मन ने, एक इच्छा ने विश्व की कल्पना और व्यवस्था की है लेकिन उसने अपने-आपको अपनी सृष्टि के पीछे छिपा लिया है । उसकी पहली रचना है निश्चेतन ऊर्जा का यह पर्दा और द्रव्य का जड़ रूप । यह एक ही साथ उसकी उपस्थिति को छिपानेवाला और सृजन का नमनीय आधार है जिसपर वह उस तरह काम कर सकता हैं जैसे कोई कारीगर आकारों और नमूनों को तैयार करने के लिये मूक और आज्ञाकारी पदार्थ का उपयोग करता है । तो फिर ये सब चीजें, जिन्हें हम अपने चारों ओर देखते हैं, वे किसी विश्व से बाहर की दिव्य सत्ता के विचार हैं । उस सत्ता में सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ मन और इच्छा है जो भौतिक विश्व के गणितीय नियम के लिये, उसके सौंदर्य की कला के लिये, समानता और विभिन्नता की, उसकी संगति और विसंगति की, संयुक्त होनेवाले और आपस में मिलनेवाले विरोधों की विचित्र क्रीड़ा के लिये एक निश्चेतन वैश्व व्यवस्था में अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करती और अपने-आपको प्रतिष्ठित करना चाहती हुई चेतना के नाटक के लिये उत्तरदायी है । इस तथ्य से कोई कठिनाई नहीं पैदा होती कि यह भागवत तत्त्व हमारे लिये अदृश्य और हमारे मन और इन्द्रियों की खोज के परे है, क्योंकि जिस विश्व में उसकी उपस्थिति का अभाव है उसमें विश्व से बाहर के स्रष्टा के स्वयंसिद्ध या प्रत्यक्ष लक्षण की आशा नहीं की जा सकती । हर जगह प्रज्ञा, विधान,

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परिकल्पना, नियम, साधनों के लक्ष्य के साथ अनुकूलन, सतत और अक्षय अन्वेषण के स्पष्ट संकेत, यहांतक कि स्वैर कल्पना को भी, भले वह व्यवस्थापक बुद्धि द्वारा नियंत्रित हो, वस्तुओं के इस उद्गम का पर्याप्त प्रमाण माना जा सकता है । और अगर यह स्रष्टा पूरी तरह विश्व के बाहर नहीं है बल्कि अपने कार्यों में व्याप्त भी है, तब भी उसके बारे में कोई और चिह्न होने की जरूरत नहीं है -ऐसा चिह्न निश्चय ही इस निश्चेतन जगत् में विकसित होती हुई चेतना को मिल सकता है, लेकिन तभी जब उसका विकास एक ऐसे बिंदु पर जा पहुंचे जहां वह अपने अंदर निवास करनेवाली उपस्थिति के बारे में अभिज्ञ हो सके । इस विकसनशील चेतना का हस्तक्षेप कोई कठिनाई न लायेगा क्योंकि उसके प्रकट होने से चीजों के आधारभूत स्वरूप में कोई विरोध न होगा । सर्वशक्तिमान् मन अपने-आपका कुछ अंश आसानी से अपने जीवों में भर सकता है । एक कठिनाई रह जाती है, वह है सृष्टि का मनमाना स्वरूप, उसके प्रयोजन का समझ में न आना, अनावश्यक अज्ञान, संघर्ष तथा पीड़ा के नियम की अनगढ़ व्यर्थता और उपसंहार या परिणाम के बिना उसकी समाप्ति । क्या यह नाटक है ? लेकिन जिसके स्वभाव को दिव्य मानना चाहिये उस एकमेव के नाटक में इतने सारे अदिव्य तत्त्वों और पात्रों की यह मुहर क्यों ? इस सुझाव के उत्तर में कि हम जो कुछ जगत् में चरितार्थ होते देखते हैं वह भगवान् का स्वप्न है, यह कहा जा सकता है कि भगवान् कुछ ज्यादा अच्छे स्वप्न देख सकते थे और सबसे अच्छा स्वप्न तो यही होता कि वे दुःखी और समझ में न आनेवाले विश्व के बनाने से बाज रहते । सभी आस्तिक व्याख्याएं, जो जगत् से बाहर स्थित भगवान् को लेकर चलती हैं इस कठिनाई पर आकर ठोकर खाती हैं और वे बस उससे बच कर निकल ही सकती हैं । यह तभी गायब हो सकती है यदि स्रष्टा, भले अपनी सृष्टि का अतिक्रमण करते हुए भी उसमें व्याप्त हो, किसी तरह अपने-आप खेल और खिलाड़ी दोनों हो, एक ऐसा अनंत हो जो एक विकसनशील विश्व-व्यवस्था के बंधे हुए रूप में अनंत संभावनाओं को प्रक्षिप्त करता हों ।

 

   इस मान्यता के अनुसार जड़ भौतिक ऊर्जा की क्रिया के पीछे एक गुप्त अंतर्निहित चेतना होनी चाहिये जो वैश्व और अनंत हो, जो उस सामने की ऊर्जा की क्रिया द्वारा विकसनशील अभिव्यक्ति के साधन खड़े करती हो, जड़ विश्व के सीमाहीन सांत में अपने अंदर से एक सृष्टि पैदा करती हो । तब जड़ भौतिक विश्व-पदार्थ की रचना के लिये, जिसके अंदर चेतना अपने-आपको अंतर्लीन करना चाहती है ताकि वह अपने दीखनेवाले विरोधों में से विकास के द्वारा वृद्धि पाये, उसमें जड़ भौतिक ऊर्जा की प्रतीयमान निश्चेतना एक अनिवार्य अवस्था होगी । क्योंकि किसी ऐसी तरकीब के बिना पूरा-पूरा अंतर्लयन संभव न होगा । यदि कोई ऐसी सृष्टि है जिसे अनंत ने अपने अंदर से बनाया है तो उसे एक जड़ भौतिक

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छद्मवेश में अपनी ही सत्ता के सत्यों या शक्तियों की एक अभिव्यक्ति होना चाहिये : इन सत्यों या शक्तियों के रूप या वाहन होंगे वे सामान्य या आधारभूत निर्दिष्ट जिन्हें हम प्रकृति में देखते हैं । वे विशेष निर्दिष्ट जो अन्यथा बेहिसाब वैविध्य हैं, जो उस अस्पष्ट सामान्य पदार्थ में से उभरे हैं जिनमें उनका आरंभ हुआ था, वे ही उन संभावनाओं के उचित रूप या वाहन होंगे जिन्हें इन मूलगत निर्दिष्टों के अंदर रहनेवाले सत्यों या शक्तियों ने अपने अंदर धारण कर रखा था । अनंत चेतना के लिये संभावनाओं का मुक्त वैचित्र्य स्वाभाविक है । यह विधान निश्चेतन संयोग के पक्ष की व्याख्या होगा जिसे हम प्रकृति की क्रियाओं में देखते हैं -वह केवल देखने में निश्चेतन है और जड़ तत्त्व में पूर्णतया अंतर्लीन होने के कारण या गुप्त चेतना ने अपनी उपस्थिति को जिस पर्दे से छिपा रखा है उसके कारण ऐसा दीखता है । सत्यों के तत्त्व, शाश्वत की वास्तविक शक्तियां, जो अपने-आपको अनिवार्य रूप से परिपूर्ण करती हैं, यही उस विरोधी पक्ष की यांत्रिक आवश्यकता की व्याख्या है जिसे हम प्रकृति में देखते हैं -ये केवल देखने में ही यांत्रिक हैं और उसी निश्चेतना के पर्दे के कारण ऐसे दीखते हैं । तब यह बिलकुल बोधगम्य बात होगी कि निश्चेतना अपने कार्य सदा गणितीय वास्तुकला, परिकल्पनाओं, अंकों की प्रभावकारी व्यवस्था, साधनों के लक्ष्य के अनुसार अनुकूलन, अक्षय युक्ति और अन्वेषण के स्थिर सिद्धांत, बल्कि हम कह सकते हैं अविच्छिन्न परीक्षणात्मक कौशल और उद्देश्य की यांत्रिकता के साथ करती है । तब दीखनेवाली निश्चेतना में से चेतना का प्रकट होना भी अव्याख्येय न रहेगा ।

 

   अगर यह परिकल्पना मान्य साबित हो तो प्रकृति की वे सब प्रक्रियाएं जो अव्याख्येय हैं, अपना अर्थ और अपना स्थान पा लेंगी । ऐसा लगता है कि ऊर्जा पदार्थ का सृजन करती है लेकिन वास्तव में जैसे सत् चित्-शक्ति में अतर्निहित है उसी तरह पदार्थ भी ऊर्जा में अंतर्निहित होगा -ऊर्जा शक्ति की अभिव्यक्ति है और पदार्थ गुप्त सत् की अभिव्यक्ति । लेकिन चूंकि यह आध्यात्मिक द्रव्य है, वह जड़ भौतिक इन्द्रियों द्वारा तबतक न समझा जायेगा जबतक कि ऊर्जा, उसे ऐसे जड़ पदार्थ का रूप न दे दे जिसे वे इन्द्रियां पकड़ सकें । हम यह भी समझना शुरू करते है कि रूप-रेखा, परिमाण और संख्या का विन्यास किस तरह गुण और धर्म की अभिव्यक्ति का आधार हो सकता है क्योंकि रूप-रेखा, परिमाण और संख्या सत्ता-द्रव्य की शक्तियां हैं, गुण और धर्म उस चेतना और उसकी शक्ति की शक्तियां हैं जो सत् में निवास करती हैं । तब उन्हें पदार्थ की प्रक्रिया और लय द्वारा अभिव्यक्त और क्रियाशील बनाया जा सकता है । बीज में से वृक्ष के विकास को, इसी तरह के दूसरे व्यापारों को भी, हम जिसे सत्य-संकल्प कहते हैं उसके अंदर निवास करनेवाली उपस्थिति के द्वारा समझा जा सकेगा । अनंत के सार्थक रूप का आत्मदर्शन, उसकी सत्ता की शक्ति का सजीव शरीर जिसे उसके ऊर्जा-द्रव्य में से

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आत्म-संपीड़न द्वारा उभरना है, वह आंतरिक रूप से बीज के रूप में ले जाया जायेगा और उस रूप में अंतर्निहित गुह्य चेतना में ले जाया जायेगा और स्वभावत: उसमें से विकसित होगा । और इस सिद्धांत के आधार पर यह समझने में कोई कठिनाई न होगी कि जड़ भौतिक प्रकार के अत्यणु जैसे जीन और क्रोमोसोम, अपने अंदर मनोवैज्ञानिक तत्त्वों का वहन कैसे करते हैं जिन्हें उस भौतिक रूप में संचारित किया जायेगा जो मानव बीज में से प्रकट होगा । यह कार्य जड़ तत्त्व की बाह्यता में भी मूलतः उसी नियम पर होगा जिसे हम अपने आंतरिक अनुभव में पाते हैं -क्योंकि हम देखते हैं कि अवचेतन स्थूल सत्ता अंतःकरण के मानसिक उपादानों को, पिछली घटनाओं के संस्कारों और अभ्यासों को, मन और प्राण के स्थिर रूपायनों को, चरित्र के स्थिर रूपों को अपने अंदर लिये चलती है और एक गुह्य प्रक्रिया द्वारा उन्हें ऊपर जाग्रत् चेतना में भेज देती है । इस तरह वह हमारी प्रकृति के बहुत-से क्रिया-कलापों को उत्पन्न या प्रभावित करती है ।

 

   इसी आधार पर यह समझने में भी कोई मुश्किल न होगी कि शरीर की दैहिक क्रियाएं किस तरह मन की मनोवैज्ञानिक क्रियाओं का निर्धारण करने में सहायता देती हैं क्योंकि शरीर केवल निश्चेतन जड़ पदार्थ नहीं है, वह एक गुप्त रूप से सचेतन ऊर्जा की रचना है जिसने उसमें रूप धारण किया है । स्वयं यह शरीर गुप्त रूप से सचेतन रहता है और साथ ही एक प्रत्यक्ष चेतना की अभिव्यक्ति का साधन है जो हमारे भौतिक ऊर्जा-द्रव्य में उभरी है और आत्म-संविद् है । इस मानसिक निवासी की गतिविधियों के लिये शरीर की क्रियाएं आवश्यक यंत्र या यंत्रविन्यास हैं । इस दैहिक यंत्र को गति में लाकर ही उसमें उभरती और विकसित होती हुई सचेतन सत्ता अपनी मानसिक रचनाओं को, अपनी इच्छा की रचनाओं को संचारित कर सकती है और उन्हें जड़ तत्त्व में अपनी भौतिक अभिव्यक्ति में बदल सकती है । यह जरूरी है कि यंत्र की क्षमता, उसकी प्रक्रियाएं एक हदतक मानसिक रूपायनों को मानसिक रूप से भौतिक अभिव्यक्तितक के संक्रमण के दौरान एक नया रूप दें । उसकी क्रियाएं जरूरी हैं और उन्हें उस अभिव्यक्ति के वास्तविक बनने से पहले अपना प्रभाव जमाना चाहिये । हों सकता है कि किन्हीं दिशाओं में शारीरिक साधन उपयोग करनेवाले पर छा जाये । यह भी हो सकता है कि वह आदत के बल पर, क्रियाशील मन या इच्छा नियंत्रण या हस्तक्षेप करें, उससे पहले अपने अंदर निवास करनेवाली चेतना की अनैच्छिक प्रतिक्रियाओं का सुझाव दे या उन्हें पैदा करे । यह सब संभव है क्योंकि शरीर में एक अपनी ''अवचेतन'' चेतना है जिसका हमारी समग्र आत्माभिव्यक्ति में महत्त्व है । अगर हम केवल बाहरी यंत्र-विन्यास को ही देखें तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि शरीर मन का निर्धारण करता है लेकिन यह एक गौण सत्य है, मुख्य सत्य तो यह है कि मन शरीर का निर्धारण करता है । इस दृष्टि से एक और ज्यादा गहरे

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सत्य की कल्पना की जा सकती है । शरीर और मन दोनों ही का मौलिक निर्धारण करनेवाली एक आध्यात्मिक सत्ता है जो उस द्रव्य को आत्मा प्रदान करती है जो उसे ढके रहता है, दूसरी ओर प्रक्रिया के विपरीत क्रम में देखें तो -जिसके द्वारा मन अपने विचार और आदेश शरीर को भेजता है -वह उसे नयी क्रियाओं का यंत्र होने के लिये प्रशिक्षित कर सकता है और उसे अपनी अभ्यासगत मांगों या आत्राओं के द्वारा इस तरह प्रभावित कर सकता है कि भौतिक सहजवृत्ति उन्हें तब भी यंत्रवत् क्रियान्वित कर देती है जब मन सचेतन रूप से उनकी इच्छा करना छोड़ देता है । यही नहीं, वे आदेश भी जो अधिक असाधारण परंतु भली-भांति प्रमाणित होते हैं, जिनके द्वारा मन क्रिया के सामान्य नियमों और परिस्थितियों को रद्द करके असाधारण और लगभग असीम हदतक शरीर की प्रतिक्रियाओं का निर्धारण करना सीख सकता है -हमारी सत्ता के इन दो तत्त्वों के बीच संबंध के ये और अन्य गणनातीत रहस्यमय पक्ष आसानी से समझ में आ जाते हैं क्योंकि जीवंत जड़ में निवास करनेवाली प्रच्छन्न चेतना अपने बृहत्तर साथी से इन्हें ग्रहण करती है । शरीर में रहने वाली यह चेतना ही अपनी उन्मज्जित और गुह्य विधि से अपने से की गयी मांग को देखती या उसका अनुभव करती है और उस प्रस्फुटित या विकसित चेतना की आज्ञा का पालन करती है जो शरीर की अध्यक्षता कर रही है । अंत में विश्व का सृजन करनेवाले दिव्य मन और दिव्य इच्छा की धारणा उचित और न्यायसंगत मालूम होती है साथ ही साथ उसमें जो पेचीदगियां हैं, जिन्हें हमारी तर्कसंगत मानसिकता स्रष्टा की मनमानी आज्ञा पर आरोपित करने से इंकार करती है, उनका समाधान भी अपने विरोधी तत्त्व में से कठिनाई के साथ उभरती हुई चेतना के अनिवार्य व्यापार में मिल जाता है -लेकिन उसका लक्ष्य है इन विपरीत व्यापारों को लांघ कर धीमे और कठिन विकास द्वारा अपनी महत्तर वास्तविकता और सच्चे स्वभाव को अभिव्यक्त करना ।

 

   लेकिन सत्ता के जड़ छोर से चलने पर हमें इस परिकल्पना की प्रामाणिकता की कोई निश्चिति नहीं मिल सकती, यही क्यों, प्रकृति और उसकी प्रक्रिया की किसी भी व्याख्या की निश्चित नहीं मिलती । मूल निश्चेतना ने जो पर्दा डाला है वह इतना मोटा है कि मन उसे भेद नहीं सकता और जो अभिव्यक्त किया गया है उसका गुप्त मूल उस पर्दे के पीछे छिपा है । प्रकृति के जड़ अग्रिम भाग में हमें जो व्यापार और प्रक्रियाएं दीखती हैं उनके मूल में रहनेवाले सत्य और शक्तियां वहीं आसीन हैं । उन्हें ज्यादा निश्चित के साथ जानने के लिये हमें विकसनशील चेतना के चक्र का तबतक अनुसरण करना होगा जबतक कि वह आत्मबोध के उस शिखर और विस्तार में न पहुंच जाये जहां आदि रहस्य आत्मोद्घाटित है । यह माना जा सकता है कि उसे विकसित होना चाहिये और अंतत: उस चीज को बाहर निकाल कर लाना चाहिये जिसे शुरू से वस्तुओं में विद्यमान गुह्यद्य चेतना ने छिपा रखा था,

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जिसकी वह क्रमिक अभिव्यक्ति है । प्राण में सत्य की खोज, करना स्पष्टतः निराशाजनक होगा क्योंकि प्राण एक ऐसे रूपायण से आरंभ होता है जहां चेतना अभीतक अवमानसिक है और इस कारण हम मनोमय सत्ताओं को निश्चेतन या अधिक-से-अधिक अवचेतन प्रतीत होता है और प्राण की इस अवस्था में हमारी खोज-बाहर से उसका अध्ययन करते हुए -जड़ तत्त्व में गुप्त सत्य के हमारे अन्वेषण से अधिक लाभप्रद नहीं हो सकती । प्राण में जब मन विकसित होता है तब भी पहला क्रियाशील पहलू होता है एक ऐसी मानसिकता जो क्रिया में, प्राणिक और भौतिक आवश्यकताओं और तल्लीनताओं में, आवेगों, कामनाओं, संवेदनों और भावों में अंतर्लीन हो, जो इन चीजों से पीछे हट कर उनका अवलोकन करने और उन्हें जानने में असमर्थ होती है । मानव मन में समझने, अन्वेषण करने और मुक्त धारणा की पहली आशा होती है । यहां ऐसा लग सकता है कि हम आत्म-ज्ञान और विश्व-ज्ञान के नजदीक आ रहे हैं । लेकिन वस्तुतः हमारा मन पहले तथ्यों और प्रक्रियाओं का अवलोकन ही कर सकता है और बाकी के लिये उसे निगमन और अनुमान करने पड़ते हैं, परिकल्पनाएं बनानी पड़ती हैं, तर्क करना होता है, अटकल लगानी पड़ती है । चेतना का रहस्य खोजने के लिये उसे अपने-आपको जानना होगा और अपनी सत्ता और प्रक्रिया की वास्तविकता निर्धारित करनी होगी । लेकिन जैसे पशु-जीवन में उभरती हुई चेतना प्राणिक क्रिया और गतिविधि में अंतर्निहित होती है उसी तरह मनुष्य में मानसिक चेतना अपने ही विचारों के भंवर में फंसी रहती है । यह एक ऐसी क्रियाशीलता होती है जो बिना विश्राम लिये चलती ही रहती है, जिसमें उसके तर्क और चिंतन अपनी प्रवृत्ति, दिशा और अवस्था में उसके अपने स्वभाव, मानसिक झुकाव, पिछले रूपायणों और ऊर्जाक्रम, प्रवृत्ति, पसंद और सहज स्वाभाविक चुनाव द्वारा निर्धारित होते हैं । हम वस्तुओं के सत्य के अनुसार मुक्त रूप से अपने विचारों का निर्धारण नहीं करते । इसे हमारी प्रकृति हमारे लिये निर्धारित कर देती है । हम निश्चय ही एक तरह की अनासक्ति के साथ पीछे हटकर खड़े हो सकते और अपने अंदर मानसिक ऊर्जा की क्रिया का अवलोकन कर सकते हैं फिर भी हम उसकी प्रक्रिया ही देख पाते हैं, अपने मानसिक निर्धारणों के मूल उद्गम को नहीं । हम मन की प्रक्रिया के बारे में सिद्धांत और परिकल्पनाएं बना सकते हैं फिर भी हमारे, हमारी चेतना और हमारी समग्र प्रकृति के आंतरिक रहस्य पर एक पर्दा पड़ा रहता है ।

 

   केवल तभी जब हम स्वयं मन की प्रक्रिया को अचंचल करने की यौगिक प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, हमारे आत्मावलोकन का ज्यादा गहरा परिणाम संभव हो सकता है । क्योंकि पहले हम यह खोज करते हैं कि मन एक सूक्ष्म तत्त्व है, एक सामान्य निर्दिष्ट या जातिमूलक अनिर्दिष्ट है जिसे मानसिक ऊर्जा क्रिया करते समय रूपों में या अपने किन्हीं विशेष निर्दिष्टों में, विचारों, धारणाओं, प्रत्यक्षों,

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मनोभावनाओं, इच्छा की क्रियाशीलताओं और अनुभव की प्रतिक्रियाओं में डालती है परंतु जब ऊर्जा निष्क्रिय हो तो वह या तो तामसिक अवसन्नता में या आत्म-सत्ता की निश्चल-नीरवता और शांति में निवास कर सकता है । फिर हम यह देखते हैं कि हमारे मन के सभी निर्देशन मन से ही नहीं शुरू होते क्योंकि उसमें मानसिक ऊर्जा की लहरें और धाराएं बाहर से प्रवेश करती हैं । ये उसके अंदर रूप ग्रहण करती हैं या किसी वैश्व मन या अन्य मनों में रूपायित होकर आती हैं और हम उन्हें अपने विचार के रूप में स्वीकार कर लेते हैं । हम अपने अंदर एक गुह्य या अंतस्तलीय मन भी देख सकते हैं जिसमें से विचार, प्रत्यक्ष बोध, इच्छा के आवेग और मन की भावनाएं उत्पन्न होती हैं । हम चेतना के उच्चतर स्तरों को भी देख सकते हैं जहां से एक श्रेष्ठतर मानस-ऊर्जा हमारे द्वारा या हम पर कार्य करती है । और अंत में हमें पता लगता है कि जो इस सबका निरीक्षण करता है वह एक मनोमय पुरुष है जो मन के पदार्थ और मानस ऊर्जा को सहारा देता है । इस सत्ता के बिना, जो उनका धारक और उनकी अनुमतियों का उत्स है उसके बिना, न तो उनका अस्तित्व रहता न क्रिया होती । यह मनोमय पुरुष पहले एक मौन साक्षी के रूप में दिखायी देता है, अगर यही उसका संपूर्ण स्वरूप होता तो हमें यह मानना पड़ता कि मन के निर्धारण ही प्रकृति द्वारा पुरुष पर आरोपित प्रतीयमान क्रियाशीलता हैं या प्रकृति द्वारा उसके सामने उपस्थित की गयी सृष्टि हैं । एक विचार-जगत् है जिसे प्रकृति बनाती और साक्षी पुरुष को भेंट में देती है । लेकिन बाद में हमें पता लगता है कि यह पुरुष, मानसिक सत्ता, अपने मौन या स्वीकार करनेवाले साक्षी की स्थिति से हट सकता है, प्रतिक्रियाओं का उत्स बन सकता है, स्वीकार कर सकता है, अस्वीकार कर सकता हैं यहांतक कि शासन और नियमन भी कर सकता है, शासक और ज्ञाता भी बन सकता है । इस ज्ञान का उदय भी होता है कि यह मानस द्रव्य जो मनोमय पुरुष को ही अभिव्यक्त करता है, उसका अपना ही अभिव्यंजक द्रव्य है और मानस-ऊर्जा उसीकी चित्-शक्ति है । तब यह निष्कर्ष भी युक्तिसंगत मालूम होता है कि मन के सभी निर्देशन पुरुष की सत्ता से ही आते हैं । लेकिन यह निष्कर्ष इस तथ्य के कारण और भी पेचीदा हो जाता है कि एक और दृष्टिकोण से हमारा निजी मन वैश्व मन की एक रचना, वैश्व विचार-तरंगों, भाव-लहरियों, इच्छा के सुझावों, संवेदन की मौजों, इन्द्रियों के सुझावों, रूप-सुझावों के ग्रहण, परिवर्तन और प्रसारण का यंत्र होने से बढ़ कर शायद ही कुछ हों । निःसंदेह इस मन की पहले से ही सिद्ध अभिव्यक्ति, पूर्वानुकूलता, प्रवृत्तियां, निजी स्वभाव और प्रकृति होती है । वैश्व मन से जो कुछ आता है उसे व्यक्तिगत मन में तभी जगह मिल सकती है जब वैयक्तिक मनोमय पुरुष की आत्माभिव्यक्ति में उसे पुरुष की व्यक्तिगत प्रकृति में स्वीकृत और आत्मसात् किया जा सके । फिर भी इन जटिलताओं को देखते हुए यह प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता हैं कि क्या यह

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सारा विकास और ये क्रियाएं किसी वैश्व ऊर्जा की प्रतीयमान सृष्टि हैं जिसे मनोमय पुरुष को भेंट में दिया गया है या कोई ऐसी क्रियाशीलता है जिसे मानसिक ऊर्जा ने पुरुष की अनिर्दिष्ट और शायद अनिर्देश्य सत्ता पर आरोपित किया है या फिर यह सब कुछ किसी अन्तस्थ आत्मा के किसी क्रियाशील सत्य द्वारा पहले से ही निश्चित वस्तु है जिसे मन की सतह पर प्रकट भर किया गया है । यह जानने के लिये हमें सत्ता और चेतना की वैश्व स्थिति का स्पर्श करना या उसमें प्रवेश करना होगा जिसके आगे चीजों की समग्रता और उनका सर्वांगीण तत्त्व हमारे सीमित मन के अनुभव की अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह अभिव्यक्त होगा ।

 

   अधिमानस चेतना एक ऐसी ही स्थिति या तत्त्व है जो अज्ञान में व्यष्टिगत मन के परे, वैश्व मन के भी परे है । वह अपने अंदर वैश्व सत्य का पहला प्रत्यक्ष और प्रभुतापूर्ण ज्ञान लिये रहती है । तो शायद यहां हम यह आशा कर सकते हैं कि चीजों की मौलिक क्रिया के कुछ अंश को हम समझ पायें, वैश्व प्रकृति की आधारभूत गतिविधियों की अन्तर्दृष्टि पा सकें । एक बात निश्चय ही स्पष्ट हो जाती है, यहां यह स्वयं-सिद्ध है कि व्यष्टि और वैश्व दोनों ही एक परात्पर सद्वस्तु से आते हैं जो उनके अंदर रूप ग्रहण करती है इसलिये व्यष्टिगत सत्ता के मन और प्राण और प्रकृति में उसका व्यष्टिगत पुरुष वैश्व सत्ता की एकांगी आत्माभिव्यक्ति होंगे, और दोनों उसके द्वारा और सीधा भी परात्पर सद्वस्तु की आत्माभिव्यक्ति होंगे -हो सकता है कि वह प्रतिबंधित और अर्द्ध-अवगुंठित अभिव्यक्ति भले हो फिर भी यही उसका अर्थ है । साथ ही हम यह भी देखते हैं कि वह अभिव्यक्ति क्या होगी यह भी स्वयं व्यष्टि ही निश्चित करता है; उसके मन, प्राण और शारीरिक अंगों में केवल वही आकार ग्रहण कर सकता है जिसे वह अपनी प्रकृति के अंदर ग्रहण और आत्मसात् और सूत्रबद्ध या प्रतिपादित कर सके, जो वैश्व सत्ता में या सद्वस्तु में उसका भाग हो, कुछ ऐसी चीज जो सद्वस्तु से व्युत्पन्न हो, कोई ऐसी चीज जो उस जगत् में हो जिसे वह प्रकट करता है, लेकिन करता है अपनी ही आत्माभिव्यक्ति की भाषा में, अपनी ही प्रकृति की परिभाषा में । लेकिन जिस मूल प्रश्न को विश्व-प्रपंच ने हमारे आगे रखा है उसे अधिमानस के ज्ञान द्वारा हल नहीं किया जा सकता । इस मामले में प्रश्न यह है कि क्या मनोमय पुरुष का विचार, अनुभव, प्रत्यक्ष दर्शनों के जगत् का निर्माण, सचमुच उसकी अपनी आध्यात्मिक सत्ता से आनेवाले सत्य की आत्माभिव्यक्ति, आत्म-निर्धारण है, उस सत्य की क्रियात्मक संभावनाओं की अभिव्यक्ति है ? अथवा क्या यह प्रकृति द्वारा उसे भेंट की गयी सृष्टि या रचना नहीं है और वह केवल इस अर्थ में उसकी अपनी या उसपर आश्रित कही जा सकती है कि वह उस प्रकृति के उसके व्यक्तिगत रूपायन में व्यष्टिगत हो गयी है या फिर यह वैश्व कल्पना का एक खेल हो, शाश्वत की कल्पना-सृष्टि हो जिसे उसने अपनी शुद्ध शाश्वत सत्ता के रिक्त अनिर्देश्य पर

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आरोपित किया हो ? सृष्टि के बारे में ये तीन दृष्टियां हैं और तीनों को ठीक होने का समान अवसर प्राप्त है और मन निश्चित रूप से उनके बीच फैसला करने में असमर्थ है क्योंकि हर दृष्टि अपने मानसिक तर्क और अन्तर्भास तथा अनुभव के समर्थन से सज्जित है । ऐसा लगता है कि अधिमानस पेचीदगी को और भी बढ़ा देता है क्योंकि अधिमानसिक दृष्टि हर संभावना को यह अनुमति देती है कि वह अपने-आपको आजादी से रूपायित करे और अपनी-अपनी सत्ता को ज्ञान में, क्रियात्मक आत्म-प्रदर्शन और अभिपुष्टि करनेवाले अनुभव में चरितार्थ करे ।

 

   हमें अधिमानस में, मन की उच्चतर भूमिकाओं में एक द्वंद्व की पुनरावृत्ति होती दिखायी देती है । एक ओर होती है शुद्ध, नीरव आत्मा-अलक्षण, निर्गुण, संबंध-रहित, स्वयंभू आत्म-स्थिर, आत्म-निर्भर और दूसरी ओर अपने-आपको विश्व के रूपों में प्रक्षिप्त करती हुई सृजनकारी चेतना और शक्ति की, निर्देशन करनेवाली एक ज्ञानात्मिका शक्ति की प्रबल क्रियात्मकता । यह विरोध जो विन्यास भी है, मानों, दोनों भले देखने में एक-दूसरे के विरोधी लगते हों पर हैं सह-संबंधी और पूरक । यहीं ऊपर उठकर निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म के सह-अस्तित्व में बदल जाता है -निर्गुण ब्रह्म है वह जिसमें कोई गुण नहीं है, जो आधारभूत दिव्य वास्तविकता है, सभी संबंधों और निर्दिष्टों से मुक्त है जब कि सगुण में, अनगिनत गुण हैं, वह एक ऐसी आधारभूत सद्वस्तु है जो सभी संबंधों और निर्दिष्टों का उद्गम, धारक और स्वामी है । अगर हम यथासंभव दूर से दूर तक की आत्मानुभूति में निर्गुण का अनुसरण करें तो हम परम निरपेक्ष तक जा पहुंचते हैं जो समस्त संबंधों और निर्दिष्टों से रिक्त, अनिर्वचनीय और सत्ता का प्रथम तथा अंतिम सूत्र है । अगर हम सगुण द्वारा अनुभव की किसी चरम संभावनातक पहुंचे तो हम दिव्य निरपेक्ष, व्यष्टिगत परम, सर्वव्यापक देवतक जा पहुंचते हैं जो परात्पर और साथ ही वैश्व है, सभी संबंधों और निर्देशनों का अनन्त स्वामी है, अपनी सत्ता में करोड़ों विश्वों को धारण कर सकता है और प्रत्येक को अपनी आत्म-ज्योति की केवल एक किरण से और अपनी अनिर्वचनीय सत्ता की एक कला से व्याप्त कर सकता है । अधिमानस चेतना शाश्वत के इन दो सत्यों को समान रूप से धारण करती है जो मन के आगे परस्पर अपवादिक विकल्पों के रूप में आते हैं । वह दोनों को एक सद्वस्तु के परम पक्षों के रूप में स्वीकार करती है । तो कहीं पर उनके पीछे एक महत्तर परात्परता होगी जो दोनों की उद्गम हो और अपनी परम शाश्वतता में उनकी धारक हो लेकिन वह क्या हो सकता है जिसमें ऐसे विरोधी तत्त्व समान सत्य हैं ? वह एक मौलिक अनिर्देश्य रहस्य होने के सिवा क्या हो सकता है जिसे जानना और समझना मन के लिये असंभव है । निश्चय ही हम उसे कुछ हदतक, किसी प्रकार के अनुभव या उपलब्धि में, उसके पहलुओं और शक्तियों द्वारा आधारभूत इति भाव और नेति भाव के अविच्छिन्न क्रम द्वारा जान सकते हैं, इन्हींके

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द्वारा हमें उसकी खोज करनी होती है । हम चाहें तो यह खोज अलग-अलग करें या दोनों में एक साथ अखंड रूप से लेकिन अंत में जाकर वह ऊंची-से-ऊंची मानसिक शक्ति की पहुंच के बाहर रहता प्रतीत होता हैं और अज्ञेय ही रहता है ।

 

   लेकिन अगर परम निरपेक्ष वस्तुत: शुद्ध रूप से अनिर्देश्य हो तो कोई सृष्टि, कोई अभिव्यक्ति, कोई विश्व संभव न होगा और फिर भी विश्व का अस्तित्व तो है ही । तो फिर वह क्या है जो इस विरोध को पैदा करता है, इस असंभव को संभव बनाता और आत्मविभाजन की कभी हल न होनेवाली पहेली को अस्तित्व में लाता है ? वह किसी तरह की शक्ति होनी चाहिये और चूंकि निरपेक्ष ही एकमात्र सद्वस्तु है, सभी वस्तुओं का एक उद्गम है इसलिये यह शक्ति उसी से आनी चाहिये, इसका उसके साथ कोई संबंध, कोई नाता, कोई निर्भरता होनी चाहिये । क्योंकि अगर वह परम सद्वस्तु से एकदम अलग कोई चीज है, एक वैश्व कल्पना है जो अपने निर्देशनों को अनिर्देश्य की शाश्वत रिक्तता पर आरोपित करती जाती है तो फिर निरपेक्ष परब्रह्म के एकमात्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता । तब वस्तुओं के उद्गम में ही द्वैत होगा जो सांख्य के आत्मा और प्रकृति के द्वैत से तत्त्वत: भिन्न न होगा । अगर वह निरपेक्ष की शक्ति है, वस्तुत: एकमात्र शक्ति तो हमारे आगे यह तार्किक असंभवता आती है कि परम पुरुष की सत्ता और उस सत्ता की शक्ति एक दूसरे से एकदम उल्टे दो परम विरोधी हैं क्योंकि ब्रह्म तो संबंधों और निर्देशनों की सभी संभावनाओं से मुक्त है लेकिन माया एक सृजन करने वाली कल्पना है जो इन्हीं वस्तुओं को ब्रह्म पर आरोपित करती है, वह संबंधों और निर्देशनों का प्रवर्तन करती है और ब्रह्म को अवश्य ही इनका समर्थक और साक्षी होना चाहिये । तर्कसंगत बुद्धि इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं कर सकती । अगर इसे स्वीकार कर लिया जाये तो यह एक तर्क-बुद्धि से परे का रहस्य होगा, कोई ऐसी चीज जो न वास्तविक है न अवास्तविक, जिसको समझाया नहीं जा सकता--अनिर्वचनीय । लेकिन कठिनाइयां इतनी बड़ी हैं कि इसे तभी स्वीकारा जा सकता है जब यह अपने-आपको अबाध्य रूप से दार्शनिक अनुसंधान और आध्यात्मिक अनुभूति के एक अनिवार्य निष्कर्ष, अंत और शिखर के रूप में आरोपित कर दे । क्योंकि अगर ये सब चीजें भी भ्रांतिमूलक सृजन हैं तो भी उनका कम-से-कम एक आत्मनिष्ठ अस्तित्व होना चाहिये और उनका अस्तित्व एकमात्र अस्तित्व की चेतना को छोड़कर और कहीं नहीं हो सकता । तब वे अनिर्देश्य के आत्मनिष्ठ निर्देशन हैं । इसके विपरीत यदि इस शक्ति के निर्देशन यथार्थ रचनाएं हैं तो वे किसमें से निर्दिष्ट होते हैं ? उनका उपादान क्या है ? यह संभव नहीं है कि वे असत् में से बने हों, किसी ऐसे असत् से जो निरपेक्ष से भिन्न हो क्योंकि इससे एक नया द्वैत खड़ा हो जायेगा, हमने जिस अनिर्धार्य 'क्ष' को एकमेव सद्वस्तु माना हैं उसके विरुद्ध एक भावात्मक शून्य । तो यह स्पष्ट है कि सद्वस्तु एक कठोर

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अनिर्देश्य नहीं हो सकती । जो कुछ भी रचा गया है वह उसीका और उसीमें होना चाहिये और जो पूर्ण सद्वस्तु के उपादान से बना हो उसे स्वयं भी सत् होना चाहिये । जो शाश्वत सत्य है, अनंत सत् है उसका एकमात्र परिणाम वास्तविक होने की प्रतीति देनेवाला वास्तविकता का कोई बड़ा निराधार नकार नहीं हो सकता । यह पूरी तरह समझ में आनेवाली बात है कि निरपेक्ष इस अर्थ में अनिर्देश्य है और होना ही चाहिये कि वह किसी भी निर्देशन से या सभी संभव निर्देशनों के कुल योग से सीमित नहीं हो सकता लेकिन उसका यह अर्थ नहीं कि वह आत्मनिर्देशन में असमर्थ है । परम सत् अपनी सत्ता के सच्चे आत्मनिर्देशन बनाने में असमर्थ नहीं हो सकता, यथार्थ आत्म-सृष्टि या अभिव्यक्ति को अपनी स्वयंभू अनंतता में धारण करने में असमर्थ नहीं हो सकता ।

 

   तो अधिमानस हमें कोई अंतिम या निश्चयात्मक समाधान नहीं देता । हमें उसके परे अतिमानसिक ज्ञान में ही इसका उत्तर खोजना होगा । अतिमानसिक ऋत्-चेतना एक ही साथ अनंत और शाश्वत की आत्माभिज्ञता और उस आत्माभिज्ञता में अंतर्निहित आत्म-निर्देशन की शक्ति है । पहली है उसका आधार और स्थिति और दूसरी है उसकी सत्ता की शक्ति, उसकी आत्म-सत्ता की क्रियात्मकता । वह सब जिसे आत्माभिज्ञता की कालातीत शाश्वतता अपने अंदर सत्ता के सत्य के रूप में देखती है, उसकी सत्ता की सचेतन शक्ति उसे काल-शाश्वतता में प्रकट करती है । अतः अतिमानस के लिये परम पुरुष कठोर अनिर्देश्य, सबका निषेध करनेवाला निरपेक्ष नहीं है । सत्ता का एक अनंत जो अपने-आपमें, अपने अक्षर अस्तित्व की शुद्धि में पूर्ण है, जिसकी एकमात्र शक्ति है एक शुद्ध चेतना जो केवल सत्ता की अपरिवर्तनशील शाश्वतता में, अपनी शुद्ध आत्म सत्ता के निश्चल आनंद में निवास करती है, वही समग्र सद्वस्तु नहीं है । जो सत्ता में अनंत है उसे शक्ति में भी अनंत होना चाहिये, जो अपने अंदर शाश्वत विश्राम और अचंचलता लिये रहे उसे शाश्वत क्रिया और सृजन के योग्य भी होना चाहिये लेकिन यह भी ऐसी क्रिया होनी चाहिये जो उसके भीतर हो, एक ऐसा सृजन जो उसकी अपनी शाश्वत और अनंत आत्मा में से हो क्योंकि और कोई ऐसी चीज हो ही नहीं सकती जिसमें से वह सृजन कर सके । सत्ता का कोई ऐसा आधार जो उससे भिन्न मालूम होता है उसे भी वास्तव में उसीमें और उसीका होना चाहिये और वह उसकी सत्ता से विजातीय कोई चीज नहीं हो सकता । कोई अनंत शक्ति केवल एक ऐसी सामर्थ्य नहीं हो सकती जो शुद्ध निष्क्रिय एकसमानता में, अक्षर निश्चलता में विश्राम करती रहे । उसमें उसकी सत्ता और ऊर्जा की अंतहीन शक्तियां होनी चाहियें । अनंत चेतना में अपने अंदर आत्माभिज्ञता के अंतहीन सत्य होने चाहियें । क्रिया में ये हमारे ज्ञान को उसकी सत्ता के पहलू के रूप में, हमारे आध्यात्मिक बोध को उसकी क्रियाशीलता की शक्तियां और गतिविधियां प्रतीत होंगे और हमारे सौंदर्य-बोध को उसके सत्ता

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के आनंद के साधन और रूपायन मालूम होंगे । तब सृष्टि एक आत्माभिव्यक्ति होगी, अनंत की अनंत संभावनाओं का एक व्यवस्थित विस्तार होगी लेकिन हर संभावना अपने पीछे सत्ता का एक सत्य, सत् के अंदर एक वास्तविकता को समाविष्ट किये रहती है क्योंकि उस अवलंब देनेवाले सत्य के बिना कोई संभावनाएं नहीं हो सकतीं । अभिव्यक्ति में सत् की आधारभूत वास्तविकता हमारे ज्ञान को निरपेक्ष भगवान् का आधारभूत आध्यात्मिक पक्ष प्रतीत होगी और उसीमें से सभी संभव अभिव्यक्तियां, उसकी अंतर्जात क्रियात्मकताएं उभरेंगी । और फिर ये अपने सार्थक रूपों, अभिव्यंजक शक्तियों और सहज प्रक्रियाओं की सृष्टि करेंगी या यूं कहें उन्हें अनभिव्यक्त सुप्तावस्था में से बाहर लायेंगी । उनकी अपनी सत्ता अपने स्वरूप और स्वभाव को विकसित करेंगी । तो यह होगी सृजन की पूरी प्रक्रिया लेकिन हम अपने मन में यह पूरी प्रक्रिया नहीं देखते । हम केवल ऐसी संभावनाएं देखते हैं जो अपने-आपको वास्तविकताओं में निर्धारित करती हैं और यद्यपि हम अनुमान करते और अटकलें लगाते हैं फिर भी हम किसी ऐसी आवश्यकता के बारे में, पहले ३ निर्धारित करनेवाले सत्य या किसी ऐसी अनिवार्यता के बारे में निश्चित नहीं होते जो उनके पीछे रहती हो और जो संभावनाओं को संभव बनाये और वास्तविकताओं का निर्णय करे । हमारा मन वास्तविकताओं का प्रेक्षक, संभावनाओं का खोजनेवाला या अन्वेषक तो है पर ऐसे गुह्य अनिवार्य आदेशों का द्रष्टा नहीं है जो सृजन की गतिविधियों और रूपों को जरूरी बना दें । क्योंकि वैश्व अस्तित्व के आगे के हिस्से में सिर्फ शक्तियां ही होती हैं जो अपने बलों के संयोग के संतुलन द्वारा परिणामों का निर्धारण करती हैं । आद्य निर्धारक अथवा अनेक निर्धारक, अगर उसका या उनका अस्तित्व है, हमारे अज्ञान द्वारा हमारी दृष्टि से ओझल हैं । लेकिन अतिमानसिक ऋत-चित् के लिये ये अनिवार्य विधान प्रत्यक्ष होंगे, उसकी दृष्टि और उसके अनुभव के उपादान ही होंगे । अतिमानसिक सृजन-प्रक्रिया में ये अनिवार्य विधान, संभावनाओं का संयोग और परिणामस्वरूप आनेवाली वास्तविकताएं सब मिलकर एक अखंड समग्रता होंगी, अविभाज्य गतिविधि होंगी । संभावनाएं और वास्तविकताएं अपने अंदर उनकी आद्य नियोजक की अनिवार्यता लिये रहेंगी । उनके सभी परिणाम, उनके सभी सृजन उस सत्य का शरीर होंगे जिसे वे सर्व-सत् के पहले से ही निश्चित महत्त्वपूर्ण रूपों में और शक्तियों में अभिव्यक्त करेंगी ।

 

   निरपेक्ष के बारे में हमारा आधारभूत ज्ञान, उसके बारे में हमारा सारवान् आध्यात्मिक अनुभव, एक अनंत और शाश्वत सत् का, अनंत और शाश्वत चित् का, अनंत और शाश्वत सत्ता के आनंद का अंतर्भास या प्रत्यक्ष अनुभूति होता है । अधिमानसिक और मानसिक ज्ञान में इस मौलिक ऐक्य को तीन स्वयंभू पक्षों में विविक्त करना या अलग-अलग करना संभव होता है क्योंकि हम शुद्ध अकारण

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शाश्वत आनंद का ऐसा तीव्र अनुभव कर सकते हैं कि हम बस वही हैं । ऐसा लगता है कि सत् और चित् को उसने निगल लिया है, उनकी कोई प्रत्यक्ष उपस्थिति नहीं रहती । इसी तरह का अनुभव शुद्ध और निरपेक्ष चेतना का हो सकता है और उसके साथ भी ऐसा ही ऐकान्तिक तादात्म्य हो सकता है, शुद्ध तथा निरपेक्ष सत् का भी ऐसा ही तादात्म्यवाला अनुभव हो सकता हैं । लेकिन अतिमानसिक ज्ञान के लिये ये तीनों सदा अलग न होनेवाली त्रयी रहती हैं यद्यपि एक औरों के आगे बढ़कर अपने आध्यात्मिक निर्दिष्टों को अभिव्यक्त कर सकता है क्योंकि हर एक के प्रमुख पक्ष या अंतर्निहित आत्म-रूपायण होते हैं लेकिन त्र्येक निरपेक्ष के लिये ये सब मौलिक हैं । प्रेम, आनंद और सुंदरता सत्ता के दिव्य आनंद के आधारभूत निर्दिष्ट हैं और हम तुरंत देख सकते हैं कि वह आनंद ही इनका उपादान और स्वरूप है । ये निरपेक्ष की सत्ता पर लादे गये विजातीय तत्त्व नहीं हैं और न उसके बाहर हैं परंतु उसके द्वारा समर्थित रचनाएं ही हैं । ये उसकी सत्ता के सत्य, उसकी चेतना के निवासी, उसकी सत्ता की शक्ति की सामर्थ्य हैं । निरपेक्ष चेतना के आधारभूत निर्दिष्टों -ज्ञान और इच्छा -के बारे में भी यही बात है । वे आद्य चित्-शक्ति के सत्य और उसकी शक्तियां हैं और उसकी प्रकृति में ही अंतर्निहित हैं । इसकी प्रामाणिकता और भी स्पष्ट हो जाती है जब हम निरपेक्ष सत् के आधारभूत आध्यात्मिक निर्दिष्टों को देखते हैं । वे उसकी त्रिक शक्तियां हैं, उसकी समस्त आत्म-सृष्टि या अभिव्यक्ति के लिये आवश्यक पहले आधार तत्त्व हैं -आत्मा, ईश्वर, पुरुष ।

 

   अगर हम आत्माभिव्यक्ति की प्रक्रिया का और आगेतक अनुसरण करें तो हम देखेंगे कि उसका हर पहलू या शक्ति अपनी पहली क्रिया में एक त्रिक या त्रिपुटी का सहारा लेता है, ज्ञान अनिवार्य रूप से ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रयी पर आश्रित होता है, प्रेम अपने-आपको प्रेमी, प्रेम-पात्र और प्रेम की त्रयी में पाता है । इच्छा अपनी पूर्ति इच्छा के स्वामी, इच्छा के विषय और कार्यकारी शक्ति की त्रयी में करती है; आनंद के आद्य और पूर्ण आह्लाद की त्रयी है भोक्ता, भोग्य और वह आनंद जो उन्हें मिलाता है । उसी अनिवार्य रूप से आत्मा भी प्रकट होती है और त्रयी को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाती है विषय-रूप आत्मा, विषयी रूप आत्मा और विषय--विषयी रूप में दोनों को एक साथ रखनेवाली आत्म अभिज्ञता । ये तथा अन्य आद्य शक्तियां और पक्ष अनंत के आधारभूत आध्यात्मिक आत्म-निर्देशनों में अपना स्थान पाते हैं । बाकी सब आधारभूत आध्यात्मिक निर्देशनों के निर्देशन हैं, सत्ता, चेतना, शक्ति और आनंद के सार्थक संबंध, सार्थक शक्तियां, सार्थक रूप, शाश्वत की चित्-शक्ति की सत्य प्रक्रिया की ऊर्जाएं, अवस्थाएं, विधियां, रेखाएं, उसकी अभिव्यक्ति के अटल विधान, संभावनाएं विशेषताएं हैं । शक्तियों और संभावनाओं का यह सारा फैलाव और

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उसमें अंतर्निहित परिणामों को अतिमानसिक ज्ञान अंतरंग एकत्व में एक साथ धारण किये रहता है । वह उन्हें मौलिक सत्य पर सचेतन रूप से आधारित रखता है और वे जिन सत्यों को अभिव्यक्त करते हैं और जो उनके स्वरूप में हैं उनके सामंजस्य में उन्हें बनाये रखता है । वहां कल्पनाओं का कोई आरोपण नहीं है, कोई मनमानी सृष्टि नहीं है, कोई विभाजन, खंडन नहीं, कोई ऐसा विरोध या विषमता नहीं है जिसका समाधान न हो सके । लेकिन अज्ञानमय मन में ये व्यापार प्रकट होते हैं क्योंकि वहां एक सीमित चेतना हर चीज को इस तरह देखती और उसके साथ व्यवहार करती है मानों सब कुछ ज्ञान के अलग-अलग विषय या अलग सत्ताएं हों । वह उन्हें इसी तरह जानना, उनपर अधिकार करना और उन्हें भोगना चाहती है और उनपर प्रभुता पाना या उनकी अधीनता को सहन करती है । लेकिन उसके अज्ञान के पीछे, उसके अंदर रहनेवाली अंतरात्मा जिसे खोज रही है वह है सद्वस्तु सत्य, चेतना, शक्ति, आनंद जिनके द्वारा उसका अस्तित्व है । मन को सीखना है अपने अंदर पर्दे में छिपी सच्ची खोज और सच्चे ज्ञान के प्रति जाग्रत् होना, उस सद्वस्तु के प्रति जाग्रत् होना जिससे सभी चीजें अपना सत्य पाती हैं, उस चेतना के प्रति, सभी चेतनाएं जिसकी सत्ताएं हैं, उस बल के प्रति जिससे सभी को अपनी अंतर्निहित सत्ता की शक्ति मिलती है, उस आनंद के प्रति, सभी आनंद जिसकी आंशिक कृतियां हैं । चेतना का यह परिसीमन और चेतना की अखंडता के प्रति यह जागृति भी आत्माभिव्यक्ति की एक प्रक्रिया है, आत्मा का एक आत्म-निर्देशन है । सीमित चेतना की चीजें अपने आभासी रूप में जब परम सत्य से उल्टी भी मालूम हों फिर भी अपने गहरे अर्थ में और वास्तविकता में दिव्य अर्थ रखती हैं । वे भी अनंत की एक संभावना या एक सत्य को प्रकट करती हैं । चीजों के बारे में अतिमानसिक ज्ञान जो सब जगह उसी एक सत्य को देखता है, जहांतक मन की भाषा में व्यक्त किया जा सकता है, किसी ऐसे ही स्वभाव का होगा और हमारे जीवन के विषय में अपनी व्याख्या, सृष्टि के रहस्य और विश्व की सार्थकता के विषय में अपना विवरण हमारे लिये किसी ऐसे ही रूप में व्यवस्थित करेगा ।

 

   साथ-ही-साथ निरपेक्ष के बारे में हमारी कल्पना में और हमारे आध्यात्मिक अनुभव में अनिर्देश्यता भी एक आवश्यक तत्त्व है । यह सत्ता और वस्तुओं पर अतिमानसिक दृष्टि का दूसरा पहलू है । निरपेक्ष को किसी एक निर्दिष्ट या निर्दिष्टों के योग के द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता, और न ही उसकी व्याख्या की जा सकती है और दूसरी ओर वह शुद्ध सत् की अनिर्देश्य रिक्तता से बंधा भी नहीं है । इसके विपरीत वह सभी निर्देशनों का स्रोत है । उसकी अनिर्देश्यता उसकी सत्ता की अनंतता और सत्ता की शक्ति की अनंतता दोनों की स्वाभाविक और आवश्यक स्थिति है । वह अनंत रूप से सब कुछ हो सकता है क्योंकि वह विशेष रूप से कोई चीज नहीं है और वह किसी भी ऐसी समग्रता के परे है जिसकी व्याख्या की

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जा सकती है, वह निरपेक्ष की तात्त्विक अनिवार्यता है जो अपने-आपको हमारी चेतना में हमारे आध्यात्मिक अनुभव के आधारभूत निषेधात्मक (नेति वाचक) भावों, अक्षर अचल आत्मा, निर्गुण ब्रह्म, निर्गुण शाश्वत, शुद्ध लक्षणरहित एकमात्र सत् निर्व्यक्तिक, निष्क्रिय नीरवता, अ-सत् अनिर्वचनीय और अज्ञेय द्वारा अनूदित करती है । दूसरी ओर वह सभी निर्देशनों का सारतत्त्व और स्रोत है और यह क्रियाशील तात्त्विकता हमारे अंदर आधारभूत इतिवाचक भावों में अभिव्यक्त होती है जिनमें निरपेक्ष हमें समान रूप से मिलता है क्योंकि यह आत्मा ही है जो सब चीजें बन जाती है, यह सगुण ब्रह्म, अनंतगुणसंपन्न शाश्वत एकमेव ही है जो बहु है, यह अनंत पुरुष है जो सभी पुरुषों और व्यक्तित्वों का स्रोत और आधार है, सृष्टि का स्वामी, शब्द, समस्त कर्मों और क्रियाओं का प्रभु है । यही है वह जिसे जानकर सब कुछ जान लिया जाता है । ये इति भाव उन नेति भावों के साथ मेल खाते हैं । क्योंकि अतिमानसिक ज्ञान में एक सत् के इन दो पक्षों को अलग करना संभव नहीं है, उनके बारे में यह कहना भी ज्यादती है कि वे पक्ष हैं क्योंकि वे एक दूसरे में हैं, उनका सह-अस्तित्व या एक-अस्तित्व शाश्वत है और उनकी शक्तियां एक दूसरे को सहारा देते हुए अनंत की आत्माभिव्यक्ति का आधार होती हैं ।

 

   लेकिन उनका पृथक् ज्ञान भी पूरी तरह भ्रमात्मक या अज्ञान की पूरी भूल नहीं है । आध्यात्मिक अनुभूति के लिये यह भी तर्कसंगत है क्योंकि निरपेक्ष के ये प्राथमिक पक्ष आधारभूत आध्यात्मिक निर्देशन या ऐसे अनिर्देश हैं जो इस आध्यात्मिक छोर से उत्तर देते हैं या फिर जड सिरे के सामान्य अनिदेंश हैं या फिर आरोहण या अवरोहण करती हुई अभिव्यक्ति का निश्चेतन आरंभ । जो हमें नेतिवाचक प्रतीत होते हैं वे अनंत की अपनी निजी निर्देशनों की सीमा में न बंधनेवाली स्वाधीनता अपने अंदर लिये चलते हैं । उनकी उपलब्धि भीतर स्थित अंतरात्मा को मुक्त करती, हमें मुक्त करती और इस परमता में भाग लेने में हमें समर्थ बनाती है । इस भांति एक बार जब हम अक्षर आत्मा के अनुभव में प्रवेश कर जाते या उसमें से होकर गुजरते हैं तो हम प्रकृति के निर्देशनों और सृजनों द्वारा अपनी सत्ता की आंतरिक अवस्था में बद्ध या सीमित नहीं रहते । दूसरी ओर क्रियाशील दिशा में यह मौलिक स्वाधीनता चेतना को निर्दिष्टों का जगत् -उसमें बंधे बिना -बनाने योग्य बनाती है । वह उसे इस योग्य भी बनाती है कि उसने जो सृजन किया है उससे अपने-आपको खींच ले और उच्चतर सत्य-सूत्र में फिर से सृजन करे । इसी स्वाधीनता पर सत् की सत्य संभावनाओं की अनंत विविधताएं लिये आत्मा की शक्ति आधारित है और अपनी क्रियाओं में अपने-आपको बांधे बिना नियति या व्यवस्था-तंत्र के किसी भी रूप और हर एक रूप को सृजन करने की शक्ति भी इसी स्वाधीनता पर आधारित है । व्यष्टि-सत्ता भी इन नेति वाचक निरपेक्षों के अनुभव द्वारा उस क्रियाशील स्वाधीनता में भाग ले सकती है,

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आत्मरूपायन के एक क्रम से उच्चतर क्रमतक जा सकती है । उस स्थिति में जब उसे मानसिक से अपनी अतिमानसिक स्थिति की ओर गति करनी होती है, एक अनिवार्य नहीं तो बहुत अधिक सहायक, मुक्तिदाता अनुभव जो उस समय हस्तक्षेप कर सकता है वह है मानसिकता और मनोमय अहंकार के संपूर्ण निर्वाण में प्रवेश, आत्मा की नीरवता में गमन । बहरहाल चेतना के उस मध्यवर्ती शिखर पर जाने से पहले--जहां से अभिव्यक्त सत्ता के आरोहण और अवरोहण करते सोपान स्पष्ट दिखलायी देते हैं और ऊपर चढ़ने और नीचे उतरने की शक्ति आध्यात्मिक प्राधिकार बन जाती है -शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जरूरी है । आद्य रूपों और शक्तियों में से हर एक के साथ तादात्म्य की स्वतंत्र संपूर्णता --उस तरह संकुचित होना नहीं जैसे मन में होता है यानी किसी एकमात्र तल्लीन करनेवाली अनुभूति में नहीं जो अंतिम या संपूर्ण मालूम होती है, क्योंकि वह सत्ता के सभी पहलुओं और शक्तियों के ऐक्य की अनुभूति के साथ मेल न खायेगा --अनंत के अंदर चेतना में अंतर्निहित क्षमता है । वस्तुत: वही अधिमानसिक ज्ञान और उसके हर पक्ष, हर शक्ति, हर संभावना को उसकी स्वतंत्र पूर्णतातक पहुंचाने की इच्छा का आधार और औचित्य है । लेकिन अतिमानस हमेशा, हर स्थिति में, हर अवस्था में सब के ऐक्य की आध्यात्मिक उपलब्धि बनाये रखता है । उस ऐक्य की घनिष्ठ उपस्थिति हर चीज की पूरी-पूरी पकड़ में भी वहां विद्यमान रहती है, हर स्थिति को अपना आनंद, शक्ति और मूल्य प्राप्त होता है । इस तरह नेति के सत्य की पूर्ण स्वीकृति के होते हुए भी इति के पहलू आंख से ओझल नहीं हो पाते । अधिमानस अब भी इस मूलभूत ऐक्य का भाव बनाये रखता है, वही उसके लिये स्वतंत्र अनुभूति का सुरक्षित आधार होता है । मन में आकर सब पहलुओं के ऐक्य का ज्ञान सतह पर खो जाता है, चेतना तल्लीन करनेवाले, ऐकान्तिक पृथक्-पृथक् प्रतिज्ञानों में डूबी रहती है । लेकिन वहां भी, मन के अज्ञान में भी ऐकांतिक तल्लीनता के पीछे पूर्ण सद्वस्तु बनी रहती है और गहरे मानसिक अंतर्भास के रूप में या फिर समग्र ऐक्य के मूल सत्य के विचार या भाव में फिर से पायी जा सकती है । आध्यात्मिक मन में यह सदा उपस्थित अनुभूति के रूप में विकसित हो सकती है ।

 

   सर्वशक्तिमान् सद्वस्तु के सभी पहलुओं का आधारभूत सत्य परम सत् में है । इस भांति निश्चेतना का पहलू या शक्ति भी, जो शाश्वत सद्वस्तु का विरोधी, निषेध प्रतीत होता है, फिर भी वह एक ऐसे सत्य के अनुरूप है जिसे आत्माभिज्ञ और सर्व-सचेतन अनंत अपने अंदर धारण किये रहता है । अगर हम नजदीक से देखें तो यह अनंत की अपनी चेतना को आत्म-अंतर्लयन की समाधि में डुबकी लगाने की शक्ति है, आत्मा का ऐसा आत्म-विस्मरण है जो अपनी खाइयों से ढका हुआ है, जहां कुछ भी अभिव्यक्त नहीं पर सब कुछ कल्पनातीत रूप से है और उस

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अकथनीय अव्यक्तता में से उभर सकता है । आत्मा की ऊंचाइयों में वैश्व या अनंत समाधि-निद्रा की यह अवस्था हमारे ज्ञान को प्रकाशमान उच्चतम अतिचेतना के रूप में दिखायी देती है । सत्ता के दूसरे छोर पर वह हमारे ज्ञान के आगे आत्मा के उस सामर्थ्य-रूप में प्रकट होती है जिसमें वह स्वयं अपने आगे अपनी सत्ता के सत्यों के विरोधी रूपों को उपस्थित करती है । ये विरोधी रूप हैं : असत् की खाई, निश्चेतना की गहन गभीर रात, एक अगाध संवेदनहीन मूर्च्छा जिसमें से सत् चित् और आनंद के सभी रूप अपने-आपको अभिव्यक्त कर सकते हैं लेकिन वे व्यक्त होते हैं सीमित अभिधाओं में, धीमे-धीमे उभरते और बढ़ते हुए आत्म-रूपायनों में, यहांतक कि स्वयं अपनी विरोधी अभिधाओं में । यह गुप्त सर्व-सत् सर्व-आनंद, सर्व-ज्ञान का खेल है लेकिन वह आत्म-विस्मृति, आत्म-विरोध और आत्म-सीमांकन के नियमों का पालन तबतक करता है जबतक वह उसे पार करने योग्य न हो जाये । यह वह निश्चेतना और अज्ञान है जिसे हम जड़ भौतिक विश्व में कार्य करते हुए देखते हैं । यह अनंत और शाश्वत सत् का निषेध नहीं, उसीकी एक अभिधा, उसका एक सूत्र है ।

 

   विश्व-सत्ता के इस समग्र ज्ञान में अज्ञान का व्यापार जो अर्थ धारण करता है, विश्व की आध्यात्मिक व्यवस्था में उसका जो स्थान नियत है, उसका अवलोकन करना यहां महत्त्वपूर्ण है । हम जो कुछ अनुभव करते हैं वह सब यदि अध्यारोप हो, निरपेक्ष में एक अवास्तविक सृजन हो तो वैश्व और व्यष्टिगत जीवन दोनों ही स्वभावत: अज्ञान होंगे, एकमात्र वास्तविक ज्ञान होगा निरपेक्ष की अनिर्देश्य आम-अभिज्ञता । अगर सब कुछ कालातीत साक्षी शाश्वत की सत्यता की भूमिका में उपस्थित की गयी कालिक, प्रपंचात्मक सृष्टि की रचना ही हो और अगर सृष्टि उस सद्वस्तु की अभिव्यक्ति न हो बल्कि कोई मनमानी, अपने-आप प्रभाव डालनेवाली वैश्व रचना हो तो यह भी एक तरह का अध्यारोप होगा । सृष्टि के बारे में हमारा ज्ञान एक क्षण-भंगुर चेतना और सत्ता की अस्थायी रचना का ज्ञान होगा, एक ऐसे संदिग्ध संभवन का ज्ञान जो शाश्वत की दृष्टि के सामने से गुजरता है, द्वस्तु का ज्ञान नहीं । वह भी अज्ञान होगा लेकिन अगर सब कुछ सद्वस्तु की अभिव्यक्ति है और अपने-आप भी वास्तविक है क्योंकि सद्वस्तु उपादान के रूप में उसके अंदर मौजूद है और उसमें सद्वस्तु का सार और उपस्थिति है तब व्यष्टिगत सत्ता और विश्व सत्ता की अभिज्ञता अपने आध्यात्मिक मूल और प्रकृति में अनंत आत्म-ज्ञान और सर्व-ज्ञान की लीला होगी । अज्ञान केवल एक गौण गतिविधि होगा, एक दबा हुआ सीमित ज्ञान या एकांगी और अपूर्ण विकसनशील ज्ञान होगा जिसके अंदर और जिसके पीछे, दोनों जगह सच्ची और पूर्ण आत्म-अभिज्ञता और सर्व-अभिज्ञता छिपी हुई है । यह एक अस्थायी प्रपंच होगा, वैश्व सत् का कारण और सार नहीं । उसकी अनिवार्य परम परिणति आत्मा के फिर से लौटने में होगी, विश्व से निकल कर

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किसी एकमात्र अतिचेतन आत्मज्ञान की ओर नहीं बल्कि स्वयं विश्व के अंदर संपूर्ण आत्म-ज्ञान और सर्व-ज्ञान में ।

 

   यह आपत्ति की जा सकती है कि आखिर अतिमानसिक ज्ञान वस्तुओं का अंतिम सत्य नहीं है । चेतना के अतिमानसिक स्तर के परे, जो अधिमानस और मन से सच्चिदानंद की पूर्ण अनुभूति के बीच मध्यवर्ती चरण है, अभिव्यक्त आत्मा के उच्चतम शिखर हैं । निश्चय ही वहां पर सत्ता बहुत्व के भीतर एक के निर्धारण पर आधारित न होगी । वह एकत्व में केवल एकमात्र शुद्ध तादात्म्य को अभिव्यक्त करेगी । लेकिन इन लोकों में अतिमानसिक ऋत-चित् का अभाव न होगा क्योंकि वह सच्चिदानंद की अंतर्निहित शक्ति है । फर्क बस यहीं होगा कि निर्धारण सीमांकन नहीं होंगे, वे नमनीय, सम्मिलित और सीमाहीन सांत होंगे । क्योंकि वहां मूलत: और सर्वांगीण रूप से प्रत्येक सर्व में और सर्व प्रत्येक में है । वहां तादात्म्य की एक परम मूलभूत अभिज्ञता के लिये चेतना के परस्पर समावेश और एक दूसरे में प्रवेश की पराकाष्ठा होगी । हम ज्ञान की जैसी कल्पना करते हैं वैसा ज्ञान वहां न होगा क्योंकि उसकी जरूरत ही न होगी, क्योंकि सब कुछ स्वयं सत्ता के अंदर चेतना की प्रत्यक्ष क्रिया होगी -तदात्म, घनिष्ठ, स्वाभाविक रूप से आत्म-अभिज्ञ और सर्व-अभिज्ञ । फिर भी चेतना के संबंध, सत्ता के परस्पर आनंद के संबंध, सत्ता की आत्म-शक्ति के साथ सत्ता की आत्म-शक्ति के संबंध को त्यागा नहीं जायेगा । ये उच्चतम आध्यात्मिक लोक कोरी अनिर्देश्यता के क्षेत्र या शुद्ध सत् की रिक्तता न होंगे ।

 

   यह फिर से कहा जा सकता है कि ऐसा होने पर भी, कम-से-कम, स्वयं सच्चिदानंद में, अभिव्यक्ति के सभी लोकों के ऊपर शुद्ध सत् और चित् की और शुद्ध सत्ता के आनंद की आत्म-अभिज्ञता के सिवा कुछ नहीं हो सकता । या वस्तुतः हो सकता है कि स्वयं यह त्रिक सत्ता अनंत के आदि आध्यात्मिक आत्म निर्देशनों की त्रिपुटी हो । तब सभी निर्देशनों की तरह इस अस्तित्व का अंत भी अनिर्वचनीय निरपेक्ष में हो जायेगा । लेकिन हम यह मानते हैं कि इन्हें परम सत्ता के अंतर्निहित सत्य होना चाहिये । उनकी परम वास्तविकता को निरपेक्ष में पूर्वस्थित होना चाहिये चाहे वे आध्यात्मिक मन के लिये संभव होनेवाली उच्चतम अनुभूति से अनिर्वचनीय रूप से भिन्न ही क्यों न हों । निरपेक्ष न तो अनंत रिक्तता की कोई पहेली है, न निषेधों का चरम योगफल है । ऐसी कोई चीज अभिव्यक्त नहीं हो सकती जिसका औचित्य आद्य, सर्वव्यापक सद्वस्तु की किसी आत्म-शक्ति द्वारा सिद्ध न होता हो ।

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