दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २६

 

अतिमानस की ओर आरोहण

 

ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती ।

ऋत-ज्योति के पति जो ऋत को ऋत से बढ़ाते हैं ।

ऋग्वेद १.२३.५

 

तिस्त्रो वाच:... ज्योतिरग्रा: ।।

स त्रिधातु शरणं शर्म... विवर्त ज्योति: ।।

 

वाणी की तीन शक्तियां जो ज्योति को अपने आगे लिये चलती

हैं... शान्ति का तिहरा धाम, ज्योति का तिहरा मार्ग ।

ऋग्वेद -७. १०१. १, २

 

चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ।।

 

जब वह ऋतों से बढ्‌ता है तो सौंदर्य के अन्य चार धामों की सृष्टि

अपने रूपों में करता है ।

ऋग्वेद ९.७०. १

 

सं दक्षेण मनसा जायते कविऋतस्य गर्भ:.. ।

. . . गुहा हित जनिम नेममुद्मतम् ।।

 

वह विवेकशील मन के साथ दक्ष कवि के रूप में उत्पन्न हुआ;

ऋत के गर्भ से उत्पन्न, गुहाहित जन्म, अभिव्यक्ति में अर्ध-उदित ।

ऋग्वेद ९. ६८. ५

 

... बृहच्छ्र्वस: ज्योतिष्कृत: प्रचेतस: ।

... विश्ववेदस. . .  ऋतावृधः ।

 

बृहत् श्रुत (अन्तःप्रेरित) प्रज्ञा से संपन्न, ज्योति के स्रष्टा, सचेतन

सर्वज्ञ, ऋत में बढ़ते हुए ।

ऋग्वेद १०. ६६.

 

उद् वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम् ।

देव देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।।

तम से परे उच्चतर ज्योति का दर्शन करते हुए हम देवत्व में

प्रतिष्ठित, दिव्य सूर्य के पास, उत्तम ज्योति के पास आये ।

ऋग्वेद १.५०.१०

 

चैत्य रूपांतर और आध्यात्मिक रूपांतर की पहली स्थितियां भली-भांति हमारी धारणा में हैं । उनकी पूर्णता एक ऐसे ज्ञान और अनुभव की पूर्णता, समग्रता और

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संसिद्ध ऐक्य की पूर्णता होगी जो पहले से ही उपलब्ध वस्तुओं का भाग है, यद्यपि उपलब्धि हुई हो बहुत कम लोगों को । लेकिन अतिमानसिक परिवर्तन अपनी प्रक्रिया में हमें कम अन्वेषित क्षेत्रों में ले जाता है; वह चेतना के ऐसे शिखरों की दृष्टि का सूत्रपात करता है जिन्हें वस्तुत: देखा तो जा चुका है, उनकी यात्रा भी की जा चुकी है लेकिन अभी उनका पूरी तरह से अन्वेषण और मानचित्रण बाकी है । चेतना के इन शिखरों या उठे हुए पठारों में सबसे ऊंचा, अतिमानसिक शिखर, इस संभावना से बहुत परे रहता है कि मन उसकी कोई संतोषजनक रूपरेखा या चित्र बना सके या मन की दृष्टि और वर्णना उसे पकड़ सके । साधारण अप्रदीप्त और अरूपांतरित मानसिक धारणा के लिये किसी ऐसी चीज में प्रवेश करना या उसे अभिव्यक्त करना कठिन होगा जो इतनी मूलत: भिन्न वस्तुओं की अभिज्ञतावाली चेतना पर आधारित हो । यदि उन्हें दृष्टि के किसी प्रबोध या उन्मीलन द्वारा देख भी लिया गया हो या उनकी धारणा बना ली गयी हो तो भी उनकी वास्तविकता हमारी जरा भी पकड़ में आ सके, इसकी उपयुक्त अभिधाओं में उसे अनूदित करने के लिये हमारा मन जिन दरिद्र अमूर्त प्रतीकों का उपयोग करता है उनसे भिन्न किसी भाषा की जरूरत होगी । जैसे मानव मन के शिखर पशु-बोध के परे हैं उसी तरह अतिमानस की गतिविधि सामान्य मानव की मानसिक धारणा के परे है । जब हमें पहले से उच्चतर मध्यवर्ती चेतना का अनुभव हो चुके, केवल तभी अतिमानसिक सत्ता के वर्णन का प्रयत्न करनेवाले शब्द हमारी बुद्धि को उसका सच्चा अर्थ दे सकेंगे क्योंकि तब जिसका वर्णन किया गया है, उसके किसी सजातीय का अनुभव कर चुकने के बाद हम अपनी अपर्याप्त भाषा को अपनी ज्ञात वस्तु की आकृति में अनूदित कर सकेंगे । अगर मन अतिमानस की प्रकृति में प्रवेश नहीं कर सकता तो भी वह इन ऊंचे प्रकाशमान उपगमन-मार्गों से उसकी ओर देख सकता है और सत्यं, ॠतं, बृहत् का, जो मुक्त आत्मा का स्वराज्य है, कोई प्रतिबिंबित रूप पकड़ सकता है ।

 

     लेकिन मध्यवर्ती चेतना के बारे में भी जो कुछ कहा जा सकता है वह भी अपर्याप्त होने के लिये बाधित है । केवल कुछ अमूर्त और व्यापक नियम बनाये जा सकते हैं जो पथ-प्रदर्शन के लिये प्रारंभिक प्रकाश का काम दे सकते हैं । यहां एक सहायक परिस्थिति यह है कि उच्चतर चेतना संघटन और तत्त्व में चाहे जितनी भिन्न क्यों न हो हम उसे उसके जिस विकसनशील रूप में यहां पा सकते हैं, वह अब भी ऐसे तत्त्वों का परम विकास होती है जो हमारी चेतना में, अपनी आकृति और शक्ति के चाहे जितने प्रारंभिक और क्षीण भाव में क्यों न हो, पहले से मौजूद है । यह भी एक सहायक तथ्य है कि विकसनशील प्रकृति की प्रक्रिया का उच्चतम शिखरों के आरोहण में भी वही न्याय-विधान रहता है जो निचले प्रारंभों में था, उसकी क्रिया के कुछ नियमों में बहुत हेर-फेर हो जाता है परंतु सार-रूप में क्रिया

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वही होती है । इस तरह हम एक हदतक उसकी परम प्रक्रिया की रेखाओं का अन्वेषण और अनुसरण कर सकते हैं । क्योंकि हमने बौद्धिक से आध्यात्मिक संक्रमण के विधान और प्रकृति को कुछ-कुछ देखा है;  हम उस उपलब्ध आरंभ- बिंदु से नवचेतना की उच्चतर क्रियाशील कोटि की ओर और आध्यात्मिक मन से अतिमानस की ओर आगे संक्रमण का मार्ग आंकना शुरू कर सकते हैं । यह अवश्यंभावी है कि संकेत बहुत अपूर्ण हों क्योंकि तत्त्वज्ञान की खोज की पद्धति से कुछ अमूर्त और सामान्य प्रकार के आरंभिक प्रतिरूपोंतक ही पहुंचा जा सकता है । सच्चे ज्ञान और वर्णन को गुह्यवादी की भाषा और एक ही साथ प्रत्यक्ष तथा मूर्त अनुभूति के अधिक जीवंत और अधिक गहन रूपकों पर छोड़ देना होगा ।

 

     अधिमानस से अतिमानस में संक्रमण प्रकृति से, जिसे हम जानते हैं, परा प्रकृति में जाना है । इसी तथ्य के कारण केवल मन के किसी भी प्रयास के लिये इसको पा लेना असंभव है, बिना किसी सहायता के हमारी व्यक्तिगत अभीप्सा और प्रयास वहांतक नहीं पहुंच सकते । हमारा प्रयास प्रकृति की निचली शक्ति की चीज है और अज्ञान की शक्ति स्वयं अपने बल पर या अपनी विशिष्ट या उपलब्ध पद्धतियों से उसे नहीं पा सकती जो उसके अपने प्रकृति- क्षेत्र के परे है । पहले के सभी आरोहण एक गुप्त चित्-शक्ति से प्रभावित हुए हैं जो पहले निश्चेतना में क्रिया करती थी और फिर अज्ञान में । उसने अपनी अंतर्लीन शक्तियों के सतह पर आविर्भाव के द्वारा काम किया है, ऐसी शक्तियों के जो पर्दे के पीछे छिपी थीं और प्रकृति के पहले के रूपायणों से श्रेष्ठतर थीं लेकिन फिर भी, उन श्रेष्ठतर शक्तियों के दबाव की जरूरत है जो अपने स्तरों पर अपनी पूर्ण स्वाभाविक शक्ति में रूपायित हैं । ये श्रेष्ठतर स्तर हमारे अंतर्लीन भागों में अपना निजी आधार तैयार करते हैं और वहां से सतह के ऊपर विकास-प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं । पार्थिव प्रकृति में अधिमानस और अतिमानस भी अंतर्लीन और गुह्य हैं लेकिन हमारी अंतलर्नि, आंतरिक चेतना की पहुंच में आनेवाले स्तरों पर उनके कोई रूपायण नहीं हैं । अभीतक कोई अधिमानसिक सत्ता या व्यवस्थित अधिमानसिक प्रकृति नहीं है और न ही कोई अतिमानसिक सत्ता या व्यवस्थित अतिमानसिक प्रकृति है जो हमारी सतह पर या हमारे सामान्य अंतर्लीन भागों पर क्रिया करती हो, क्योंकि चेतना की ये महत्तर शक्तियां हमारे अज्ञान के स्तर के लिये अतिचेतन हैं । अधिमानस और अतिमानस के अंतर्लीन तत्त्व अपने अवगुंठित एकान्त में से बाहर निकलें इसके लिये अतिचेतन की सत्ता और शक्तियों को हमारे अंदर उतर कर हमें ऊपर उठाना चाहिये और अपने-आपको हमारी सत्ता और शक्तियों में रूपायित करना चाहिये । यह अवतरण संक्रमण एवं रूपांतर की अनिवार्य शर्त है ।

 

     निश्चय ही यह कल्पना की जा सकती है कि अवतरण के बिना ही, ऊपर से किसी गुप्त चाप द्वारा, लम्बे विकास द्वारा हमारी पार्थिव प्रकृति, अभीतक

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अतिचेतन, उच्चतर स्तरों के साथ निकट संपर्क में प्रवेश पाने में सफलता पा ले और पर्दे के पीछे अंतस्तलीय अधिमानस का रूपायण हो जाये और परिणामस्वरूप हमारी सतह पर इन उच्चतर स्तरों के लिये उचित चेतना का उदय हो । इस बात की कल्पना की जा सकती है कि इस तरह एक ऐसी मनोमय जाति प्रकट हो सकती है जो बुद्धि या युक्ति अथवा चिंतनशील बुद्धि द्वारा या मुख्य रूप से उनके द्वारा नहीं बल्कि अंतर्भासात्मक मानसिकता द्वारा सोचती या कार्य करती है । आरोहणकारी परिवर्तन में यह पहला कदम होगा । इसके पीछे अधिमानसीकरण हो सकता है जो हमें उन सीमाओंतक पहुंचा सकता है जिनके परे अतिमानस या दिव्य विज्ञान होता है । लेकिन अनिवार्य रूप से यह प्रक्रिया प्रकृति का लम्बा और श्रमसाध्य उद्यम होगी । और यह भी संभव है कि इस भांति जो प्राप्ति हो वह एक श्रेष्ठतर किंतु अपूर्ण मानसिकता हो, नये उच्चतर तत्त्वों का चेतना पर प्रबल रूप से आधिपत्य तो हो लेकिन फिर भी उनकी क्रिया निम्नतर मानसिकता के तत्त्व द्वारा बदल जाती हो । एक ज्यादा बड़ा विस्तृत और आलोकमय ज्ञान होगा, एक उच्चतर स्तर का ज्ञान होगा लेकिन फिर भी उसे एक ऐसे मिश्रण में से गुजरना होगा जो उसे अज्ञान के विधान के आधीन बना देगा, उसी तरह जैसे मन को प्राण और जड़- भौतिक के विधान की सीमाओं के आधीन होना होता है । वास्तविक रूपांतर के लिये ऊपर से प्रत्यक्ष और अनवगुंठित हस्तक्षेप होना चाहिये और साथ ही जरूरी है निचली सत्ता का संपूर्ण निवेदन और समर्पण, उसके आग्रह की पूर्ण समाप्ति, उसमें यह इच्छा हो कि उसका पृथक् क्रिया-विधान रूपांतर द्वारा पूरी तरह रद्द हो जाये और वह हमारी सत्ता पर समस्त अधिकार खो दे । अगर ये दो शर्तें अब भी पूरी हो सकें, आत्मा में सचेतन पुकार और इच्छा द्वारा पूरी हो सकें और हमारी समस्त अभिव्यक्त और आंतरिक सत्ता उसके परिवर्तन, उन्नयन और विकास में भाग ले तो रूपांतर अपेक्षाकृत तेज और सचेतन परिवर्तन द्वारा लाया जा सकता है । ऊपर से अतिमानसिक चित्-शक्ति और पर्दे के पीछे से जाग्रत् अभिज्ञता और मानसिक मानव सत्ता की इच्छा पर क्रिया करती हुई विकसनशील चित्-शक्ति अपनी सम्मिलित शक्ति से इस महत्त्वपूर्ण संक्रमण को संपादित कर देगी । उसके बाद मंथर-गति विकास की जरूरत न रहेगी जो हर कदम के लिये हजारों वर्ष ले, उस रुकते हुए कठिन विकास की जरूरत न रहेगी जिसे प्रकृति ने भूतकाल में अज्ञान के असचेतन जीवों में संपादित किया है ।

 

     इस परिवर्तन की पहली शर्त यह है कि मनोमय पुरुष, जो कि हम हैं, भीतर से अपनी सत्ता के गहनतर विधान और उसकी प्रक्रिया के बारे में अभिज्ञ हो और उन्हें अधिकृत करे । उसे वह चैत्य और आंतरिक मनोमय पुरुष बनना चाहिये जो अपनी ऊर्जाओं का स्वामी हो, जो निम्नतर प्रकृति की गतिविधि का दास न रहकर उसका नियंता हों, जो प्रकृति के उच्चतर विधान के साथ मुक्त सामंजस्य में सुरक्षित रूप

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से आसीन हो । विकसनशील तत्त्व-विधान और प्रक्रिया का विशिष्ट लक्षण, वस्तुत: तर्क-संगत निष्कर्ष है व्यक्ति का अपनी प्रकृति की क्रिया पर बढ़ता दुआ अधिकार और वैश्व प्रकृति की क्रिया में अधिकाधिक सचेतन सहयोग । जगत् में समस्त कर्म, सभी मानसिक, प्राणिक, भौतिक क्रियाएं वैश्व ऊर्जा की, चित्-शक्ति की क्रियाएं हैं जो विश्वात्मा की शक्ति है और वस्तुओं के वैश्व और व्यष्टिगत सत्य को क्रियान्वित करती है । लेकिन चूंकि यह सृजनात्मक चेतना जड़ भौतिक में निश्चेतना का मुखौटा पहन लेती है और सतह पर अंधी वैश्व शक्ति का आभास देती है जो यह जाने बिना कि वह क्या कर रही है वस्तुओं की किसी योजना या व्यवस्था को कार्यान्वित करती है, अत: पहला परिणाम इस आभास का सगोत्र होता है । वह है निश्चेतन भौतिक व्यष्टीकरण, यह सत्ताओं का नहीं, वस्तुओं का सृजन है । ये वस्तुएं रूपायित अस्तित्व होती हैं जिनके अपने गुण, धर्म, सत्ता की शक्ति, सत्ता के लक्षण होते हैं परंतु उनके अंदर प्रकृति की जो योजना होती है उसे और उनके संगठन को यांत्रिक रूप से क्रियान्वित करना होता है जिसमें उस व्यष्टिगत वस्तु का सहयोग, सूत्रपात या उसकी सचेतन अभिज्ञता नहीं होती और वहां विषय-वस्तु प्रकृति की क्रिया और सृष्टि के पहले मूक परिणाम और निर्जीव क्षेत्र के रूप में उभरती है । पशु-जीवन में शक्ति धीरे- धीरे सतह पर सचेतन होने लगती है, अब वस्तु का ही नहीं व्यक्तिगत सत्ता का रूप प्रकट करने लगती है; लेकिन यह अपूर्ण रूप से सचेतन व्यक्ति यद्यपि सहयोग देता है, बोध पाता है, अनुभव करता है फिर भी कार्यान्वित उसीको करता है जो शक्ति उसके अंदर करे -जो कुछ हो रहा है उसकी स्पष्ट समझ या अवलोकन के बिना । ऐसा लगता है कि उसमें उसकी रूपायित प्रकृति द्वारा आरोपित चुनाव या इच्छा के सिवा और कोई चुनाव या इच्छा नहीं है । मानव मन के अंदर जो किया जा रहा है उसका अवलोकन करनेवाली समझ पहली बार प्रकट होती है, और ऐसी इच्छा और चुनाव भी प्रकट होते हैं जो सचेतन हो चुके हैं । लेकिन चेतना फिर भी सीमित और ऊपरी रहती है, ज्ञान भी सीमित और अपूर्ण होता है । यह आंशिक समझ, आंशिक बुद्धि और अपने अधिकांश में टटोलती हुई और अनुभवाश्रित होती है या वह अगर तर्कसंगत हो भी तो निर्माणों, सिद्धातों और सूत्रों द्वारा होती है । अभीतक वह आलोकमय दृष्टि नहीं होती जो चीजों को प्रत्यक्ष पकड़ द्वारा जानती है और उस दृष्टि के अनुसार, उनके अंतर्निहित सत्य की योजना के अनुसार सहज यथार्थता में व्यवस्थित करती है; यद्यपि सहज वृत्ति, अंतर्भास और अंतर्दृष्टि का कुछ तत्त्व रहता है जिससे इस शक्ति का कुछ-कुछ आरंभ होता है तथापि मानव बुद्धि का सामान्य स्वभाव खोज करती हुई तर्कणा या चिंतनशील विचार का रहता है जो अवलोकन करता, मानता, अनुमान करता, निष्कर्ष निकालता, श्रम से एक निर्मित सत्यतक, ज्ञान की एक निर्मित योजनातक अपनी ही बनायी हुई सुचिन्तित क्रियातक पहुंचता है । या वह ऐसा होने की कोशिश करता

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और अंशत: है । क्योंकि उसके ज्ञान और इच्छा पर प्रायः सत्ता की ऐसी शक्तियां आक्रमण करती, उन्हें अंधेरा और कुंठित कर देती हैं जो प्रकृति के यंत्र-विन्यास के आधे अंधे उपकरण हैं ।

 

     स्पष्ट है कि यह वह अधिकतम नहीं है जो चेतना कर सकती है, यह उसका अंतिम विकास या उच्चतम शिखर नहीं है । एक महत्तर और घनिष्ठ अंतर्भास संभव होना चाहिये जो वस्तुओं के हृदय में प्रवेश करे, प्रकृति की गतिविधियों के साथ प्रकाशमय तादात्म्य में रहे, सत्ता को अपने जीवन के एक स्पष्ट नियंत्रण या कम- से-कम अपने विश्व के साथ सामंजस्य का आश्वासन दे । केवल एक स्वाधीन और अखंड अंतर्भासात्मक चेतना ही वस्तुओं के प्रत्यक्ष संपर्क और बोधक दृष्टि से या सहज सत्य-बोध से, जो मूल में स्थित एकत्व या तादात्म्य से उत्पन्न हो, देख और पकड़ सकेगी और प्रकृति के कर्म को प्रकृति के सत्य के अनुसार व्यवस्थित कर सकेगी । यह व्यक्ति द्वारा वैश्व चित्-शक्ति के कार्य में यथार्थ रूप से भाग लेना होगा । व्यष्टिगत पुरुष अपनी निजी कार्यकर्त्री ऊर्जा का स्वामी होगा और साथ ही वैश्व ऊर्जा के कार्य में वैश्व आत्मा का सचेतन साझेदार, अभिकर्ता और यंत्र होगा । वैश्व ऊर्जा उसके द्वारा कर्म करेगी लेकिन वह भी उसके द्वारा काम करेगा और अंतर्भासात्मक सत्य का सामंजस्य इस दोहरी क्रिया को एक क्रिया बना देगा । इस उच्चतर और अधिक अंतरंग प्रकार का सचेतन और बढ़ता हुआ सहयोग हमारी वर्तमान सत्ता की स्थिति से पराप्रकृति की स्थिति की ओर हमारे संक्रमण में एक साथी होना चाहिये ।

 

     एक ऐसे सामंजस्यपूर्ण परलोक की कल्पना की जा सकती है जहां अंतर्भासात्मक मानसिक बुद्धि और उसका शासन ही नियम होंगे लकिन हमारी सत्ता के स्तर पर विकासात्मक योजना के आद्य अभिप्राय और पुरातन इतिहास के कारण ऐसे नियम और शासन की स्थायी प्रतिष्ठा मुश्किल से हो सकेगी और यह संभव नहीं लगता कि वह पूर्ण, अंतिम और निश्चायक हो । क्योकिं मिली-जुली मानसिक, प्राणिक और शारीरिक चेतना में हस्तक्षेप करनेवाली अंतर्भासात्मक मानसिकता चेतना के उस घटिया पदार्थ के साथ मिश्रित होने के लिये बाधित होगी जो पहले विकसित हो चुका है । उसपर क्रिया करने के लिये उसे घटिया में प्रवेश करना होगा और प्रवेश करने से वह उसमें उलझ जायेगी और वह इसमें घुस जायेगा । वह मन की क्रिया के पृथक्कारी और आंशिक प्रकृति और अज्ञान के सीमांकन और अज्ञान की प्रतिबंधक शक्ति से प्रभावित होगी । अंतर्भासात्मक बुद्धि की क्रिया इतने पर्याप्त रूप से तीव्र और ज्योतिर्मय है कि भेदन और संशोधन तो कर सके लेकिन इतनी विशाल और समग्र नहीं कि अपने अंदर अज्ञान और निश्चेतना की राशि को निगल सकें या समाप्त कर दे । वह समग्र चेतना का अपने ही द्रव्य और अपनी शक्ति में संपूर्ण भाव से रूपांतर नहीं साध सकेगी । फिर भी, हमारी वर्तमान

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अवस्था में भी, एक तरह का सहयोग रहता है और हमारी सामान्य बुद्धि इतने पर्याप्त रूप से जाग्रत् रहती है कि वैश्व चित्-शक्ति उसके द्वारा काम कर सके और बुद्धि तथा इच्छा को कुछ मात्रा में आंतरिक और बाह्य परिस्थितियों का निर्देशन करने दे । यह निर्देशन काफी घपला करता रहेगा, हर क्षण भूल उसका पीछा करेगी; वह केवल सीमित प्रभाव और शक्ति के योग्य होगा जो उस शक्ति की विस्तृत क्रियाओं की समग्रता के साथ मेल न खायेगा । पराप्रकृति की ओर विकास में, वैश्व क्रिया में सचेतन भाग लेनेवाली यह प्रारंभिक शक्ति व्यक्ति में वर्द्धित होकर उसमें उस प्रकृति की क्रियाओं की एक अधिकाधिक अंतरंग और विस्तृत अवलोकन-शक्ति हो जायेगी, वह प्रकृति जिस मार्ग को अपना रही थी उसका संवेदनशील बोध हो जायेगी, अधिक तेज और अधिक सचेतन आत्म-विकास के लिये जिन तरीकों को अपनाना आवश्यक था उनकी बढ़ती हुई समझ या अंतर्भासात्मक भाव हो जायेगी । जब उसका आंतरिक चैत्य या गुह्य आंतरिक मनोमय पुरुष अधिकाधिक सामने आयेगा तो चयन और स्वीकृति की शक्ति प्रबल होगी, प्रामाणिक स्वतंत्र इच्छा का आरंभ होगा जो अधिकाधिक प्रभावकारी होती जायेगी । लेकिन अधिकतर यह स्वतंत्र इच्छा व्यक्ति की अपनी प्रकृति की क्रियाओं के संबंध में ही होगी । इसका मतलब होगा उसकी अपनी सत्ता की गतिविधि पर अधिक पूर्ण, अधिक स्वतंत्र और अधिक साक्षात् रूप से सज्ञान नियंत्रण । यहां भी वह इच्छा पहले पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो सकती जबतक कि वह अपने ही रूपायणों से बनो सीमाओं में बंदी हो या उसे पुरानी और नयी चेतना के मिश्रण से पैदा अपूर्णता से युद्ध करना पड़े । फिर भी यह एक बढ़ता हुआ आधिपत्य और ज्ञान होगा, उच्चतर सत्ता की ओर, उच्चतर प्रकृति की ओर उन्मीलन होगा ।

 

     मुक्त इच्छा के बारे में हमारी धारणा मानव अहं के अत्यधिक व्यक्तित्व से दूषित होने की ओर प्रवृत्त रहती है और एक ऐसी स्वतंत्र इच्छा का रूप धारण करना चाहती है जो अपने अलग- थलग हिसाब से, अपने ही चुनाव और एकाकी पृथक् गति के सिवा किसी और निर्धारण के बिना पूरी स्वाधीनता से काम करती हो । यह भाव इस तथ्य की अवहेलना कर देता है कि हमारी प्राकृतिक सत्ता वैश्व प्रकृति का भाग है और हमारी आध्यात्मिक सत्ता केवल परम परात्परता के सहारे ही अस्तित्व धारण करती है । हमारी समग्र सत्ता वर्तमान प्रकृति की वस्तुस्थिति की अधीनता से केवल महत्तर सत्य और महत्तर प्रकृति के साथ तादात्म्य द्वारा ही ऊपर उठ सकती है । व्यक्ति की इच्छा, पूरी तरह स्वाधीन होते हुए भी एक अलग- थलग स्वाधीनता में काम नहीं कर सकती क्योंकि व्यष्टिगत सत्ता और प्रकृति वैश्व सत्ता और प्रकृति में अंतर्गत हैं और सबको अभिभूत करनेवाले परात्पर पर निर्भर हैं । निश्चय ही आरोहण में दोहरी धारा हो सकती है । एक धारा पर सत्ता एक स्वतंत्र स्वयंभू की तरह अनुभव और व्यवहार कर सकती है जो अपने-आपको अपनी

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निर्वैयक्तिक सद्‌वस्तु के साथ एक करती है । वह अपने बारे में ऐसी कल्पना करके बड़ी शक्ति के साथ काम कर सकती है लेकिन या तो यह कार्य तब भी प्रकृति की शक्ति के अपने भूत और वर्तमान आत्म-रूपायण के बड़े चौखटे में होगा या फिर वह वैश्व या परम शक्ति होगी जिसने अंदर क्रिया की, वह कार्य का कोई व्यष्टिगत सूत्रपात न होगा, अत: व्यक्तिगत स्वतंत्र इच्छा का भाव न होगा, केवल निर्वैयक्तिक वैश्व या परम इच्छा या ऊर्जा अपने काम में लगी होगी । दूसरी धारा में सत्ता अपने-आपको एक आध्यात्मिक यंत्र के रूप में अनुभव करेगी और परम सत्ता की शक्ति की तरह काम करेगी, वह अपनी क्रियाओं में पराप्रकृति की उन अंतर्निहित क्षमताओं ही से -जो कि निस्सीम हैं और जिनपर अपने ही सत्य और अपने विधान के अतिरिक्त और कोई प्रतिबंध नहीं है - और उस प्रकृति में रहती परम इच्छा से सीमित होगी । लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में, प्राकृतिक शक्तियों की यांत्रिक क्रिया के नियंत्रण से मुक्त होने की शर्त के रूप में महत्तर चिन्मय शक्ति के प्रति अधीनता या व्यष्टि-जीव के अपने और जगत् के जीवन में उस शक्ति के प्रयोजन और गति के साथ उसका मौन सहमत एकत्व होगा ।

 

     क्योंकि चेतना के उच्चतर प्रदेश में सत्ता की नयी शक्ति की क्रिया, बाहरी प्रकृति पर अपने नियंत्रण में भी, असाधारण रूप से प्रभावशाली हो सकती है लेकिन यह होता है केवल उसकी दृष्टि-ज्योति और परिणामत: वैश्व या विश्वातीत इच्छा के साथ सामंजस्य या तादात्म्य के कारण । क्योंकि जब वह निचली शक्ति की जगह उच्चतर शक्ति का यंत्र-विन्यास बन जाती है तब सत्ता की इच्छा वैश्व मानसिक ऊर्जा, प्राणिक ऊर्जा और जड़- भौतिक ऊर्जा की क्रिया और प्रक्रिया द्वारा होनेवाले यांत्रिक निर्धारण से और इस निचली प्रकृति के संचालन के प्रति अज्ञानमय अधीनता से मुक्त हो जाती है । वहां प्रवर्तन की शक्ति, यहांतक कि जगत्-शक्तियों के व्यष्टिगत पर्यवेक्षण की शक्ति भी हो सकतीं है लेकिन वह उपकरणात्मक प्रवर्तन होगा, एक प्रदत्त पर्यवेक्षण होगा । व्यष्टि का चुनाव शाश्वत की स्वीकृति पा लेगा क्योंकि वह स्वयं शाश्वत के किसी सत्य की अभिव्यंजना था । इस भांति व्यक्तित्व उसी अनुपात में अधिकाधिक बलवान् और प्रभावशाली होगा जिसमें वह अपने- आपको वैश्व और परात्पर सत्ता तथा प्रकृति का केंद्र और रूपायन अनुभव करेगा । क्योंकि जैसे-जैसे परिवर्तन की प्रगति आगे बढ़ेगी, मुक्त व्यष्टि की ऊर्जा मन, प्राण और शरीर की वह सीमित ऊर्जा न रहेगी जिसे लेकर वह चला था । सत्ता का आविर्भाव चेतना की महत्तर ज्योति और शक्ति की महत्तर क्रिया में होगा और वह उन्हें धारण कर लेगी, इसके साथ ही एक महत्तर चेतना- ज्योति और महत्तर शक्ति-क्रिया भी उसमें प्रकट होंगी, उतर आयेंगी और उसे अपने अंदर धारण करेंगी । उसका स्वभावगत जीवन एक श्रेष्ठतर शक्ति, अधिमानसिक और अतिमानसिक चित्-शक्ति, आद्या भगवती शक्ति का माध्यम

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होगा । विकास की सभी प्रक्रियाएं ऐसी मालूम होंगी मानों एक परम और वैश्व चेतना की क्रियाएं हैं, एक परम और वैश्व शक्ति है जो, जिस तरह उसे पसंद हो उस तरह, चाहे जिस स्तर पर, चाहे जिन आत्मनिर्धारित सीमाओं में हो, काम करती है । वे ऐसी प्रतीत होंगी मानों परात्पर और वैश्व सत्ता की सचेतन क्रिया हैं, उस सर्वशक्तिमयी, सर्वज्ञ जगज्जननी की क्रिया हैं जो सत्ता को अपने अंदर, अपनी अधिचेतना में उठा रही है । अज्ञान की ऐसी प्रकृति की जगह, जिसका बंद क्षेत्र और अचेतन या अर्द्ध-चेतन यंत्र है व्यक्ति, दिव्य विज्ञान की एक पराप्रकृति होगी और व्यष्टिगत जीव उसका सचेतन, खुला हुआ, स्वतंत्र क्षेत्र और यंत्र होगा, उसकी क्रिया में भाग लेनेवाला, उसके उद्देश्य और उसकी प्रक्रिया से अभिज्ञ होगा, साथ ही अपनी महत्तर आत्मा, वैश्व और परात्पर सद्‌वस्तु के बारे में अभिज्ञ होगा और अपने 'पुरुष' के साथ असीम्य रूप से एक होगा ओर फिर भी 'उस' की सत्ता की एक वैयक्तिक सत्ता, एक उपकरण और आध्यात्मिक केंद्र होगा ।

 

     पराप्रकृति की क्रिया में इस तरह भाग लेने की ओर पहला उन्मीलन अंतिम की ओर, अतिमानसिक रूपांतर की ओर मोड़ की शर्त है क्योंकि यह रूपांतर एक अंधी स्वचालित क्रिया के धुंधले सामंजस्य से चलकर, जहांसे प्रकृति शुरू करती है, सच्ची ज्योतिर्मय, स्वतः स्फूर्त तथा आध्यात्मिक सत्ता के स्वयंभू सत्य की अचूक गतितक की यात्रा को पूरा करना है । विकास जड़ प्रकृति की और निम्न प्राण की स्वतः -क्रिया से शुरू होता है जहां सब कुछ प्रकृति के संचालन को बिना ननुनच के स्वीकार करता है, यांत्रिक रूप से उसको सत्ता के विधान को स्वीकार करता है और इस कारण अपने सीमित प्रकार के जीवन और कर्म में सामंजस्य बनाये रखने में सफल होता है । वह इस निम्नतर प्रकृति से चालित किंतु उसको सीमाओं से बच निकलने के लिये उसका स्वामी बनकर उसे चलाने और उसके उपयोग करने के लिये इस संघर्षरत मानवता के मन, प्राण की अर्थ-भरी अस्तव्यस्तता में से चलकर, वस्तुओं के आध्यात्मिक सत्य पर आधारित स्वतः -चालित, आत्म-परिपूर्ति करनेवाली क्रिया के महत्तर सहज सामंजस्य में प्रकट होता है । इस उच्चतर स्थिति में चेतना उस सत्य को देखेगी और अपनी ऊर्जाओं की धारा का अनुसरण एक पूर्ण ज्ञान के साथ, सबल रूप से भाग लेती हुई, अपने उपकरणों पर अधिकार रखती हुई, कर्म और जीवन में संपूर्ण आनंद लेती हुई करेगी । व्यष्टि की वैश्व के प्रति अंध ओर विवश अधीनता की जगह .सबके साथ ऐक्य की प्रकाशमय और सुखद पूर्णता होगी और हर क्षण व्यक्ति में वैश्व और वैश्व में व्यक्ति की क्रिया परात्पर पराप्रकृति के प्रशासन से प्रशासित और प्रबुद्ध होगी ।

 

     लेकिन यह उच्चतम स्थिति कठिन है और स्पष्टत: इसे लाने में लंबा समय लगेगा क्योंकि संक्रमण के लिये पुरुष का सहयोग और स्वीकृति पर्याप्त नहीं है, प्रकृति का सहयोग और स्वीकृति भी जरूरी है । केवल केंद्रीय विचार और इच्छा

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को ही मौन स्वीकृति न देनी होगी बल्कि हमारी सत्ता के सभी भागों को आध्यात्मिक सत्य के विधान को स्वीकार करना और उसके प्रति समर्पण करना होगा । सभीको अपने अंगों में सचेतन दिव्य शक्ति के शासन की आज्ञा मानना सीखना होगा । हमारी सत्ता में हठीली कठिनाइयां हैं जो उसके विकसनशील गठन से उत्पन्न हुई हैं और जो इस स्वीकृति का विरोध करती हैं । क्योंकि इनमें से कुछ भाग तब भी निश्चेतना और अवचेतना के और आदतों के, निम्नतर यंत्र-विन्यास या प्रकृति के तथाकथित नियम के आधीन रहते हैं, जो मन की यांत्रिक आदत, प्राण की आदत, सहज वृत्ति की आदत, व्यक्तित्व की आदत, चरित्र की आदत, प्राकृत मनुष्य की गहरी मानसिक, प्राणिक, भौतिक आवश्यकताएं, आवेग और कामनाएं, सब प्रकार की पुरानी क्रियाएं हैं जिनकी जड़े इतनी गहरी गयी हुई हैं कि ऐसा लगता है उन्हें निकाल बाहर करने के लिये हमें रसातलीय आधारतक जाना होगा । ये भाग निश्चेतन में आधारित निम्नतर प्रकृति को प्रत्युत्तर देना छोड़ने से इंकार करते हैं । वे सदा सचेतन मन और प्राण में पुरानी प्रतिक्रिया ऊपर भेजते रहते हैं और उन्हें प्रकृति के शाश्वत नियम के रूप में पुनः-प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते रहते हैं । सत्ता के अन्य भाग कम अंधकारमय, यांत्रिक और निश्चेतना में बद्धमूल हैं लेकिन सभी हैं अपूर्ण और अपनी अपूर्णता से संलग्न और उनकी अपनी हठीली प्रतिक्रियाएं होती हैं । प्राणिक भाग आत्म-पोषण के और कामना के विधान से प्रतिबद्ध होता है, मन स्वयं अपनी रूपायित गतिविधियों से क्या होता है और दोनों बड़ी खुशी से अज्ञान के निम्नतर विधान के आज्ञापालक होते हैं । फिर भी सहयोग का विधान और समर्पण का विधान अनिवार्य है । संक्रमण के हर पग पर पुरुष की स्वीकृति की जरूरत होती है और साथ ही उच्चतर शक्ति उसके परिवर्तन के लिये जो कार्य कर रही है उसके लिये प्रकृति के हर भाग की स्वीकृति होनी चाहिये । और तब हमारे अंदर इस परिवर्तन के लिये, पुरानी प्रकृति की जगह परा-प्रकृति के इस प्रतिस्थापन, इस लोकातीत्व के लिये मानसिक सत्ता का सचेतन आत्म-निर्देशन भी होना चाहिये । आध्यात्म पुरुष के उच्चतम सत्य के प्रति सचेतन आज्ञापालन का नियम, समस्त सत्ता का पराप्रकृति से आनेवाली ज्योति और शक्ति के प्रति समर्पण दूसरी शर्त है जिसे अतिमानसिक रूपांतर के संभव होने से पहले स्वयं सत्ता के द्वारा धीरे-धीरे और कठिनाई से पूरा करना जरूरी है ।

 

     इसका परिणाम यह निकलता है कि तीसरे और चरम पूर्णतातक पहुंचानेवाले अतिमानसिक परिवर्तन से पहले चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर बहुत अधिक आगे बढ़ जाने चाहियें, इतने पूर्ण हों जाने चाहियें जितने कि हो सकते हैं । क्योंकि इस दोहरे रूपांतर द्वारा ही अज्ञान के हठ को पूरी तरह अनंत की महत्तर चेतना के पुनर्गठन करनेवाले सत्य और अनंत की महत्तर चेतना की इच्छा के प्रति आध्यात्मिक आज्ञाकारिता में बदला जा सकता है । ऐसी अधिक निर्णायक

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स्थितितक पहुंचने से पहले जिसमें परम सत् और परा-प्रकृति के प्रति अपनी समस्त सत्ता का आत्म-समर्पण पूर्ण और अबाध हो सके, सामान्यत: सतत प्रयास, क्रियाशीलता, व्यक्तिगत इच्छा के संयम, तपस्या की लंबी, कठिन स्थिति को पार करना पड़ता है । खोज और प्रयास की एक प्राथमिक अवस्था होनी चाहिये जिसमें हृदय, अंतरात्मा और मन का उच्चतम के प्रति केंद्रीय उत्सर्ग या आत्मदान हो और बाद की मध्यवर्ती अवस्था हो जिसमें उसकी महत्तर शक्ति पर संपूर्ण, सचेतन निर्भरता हो जो व्यक्तिगत प्रयास की सहायता करे और फिर वह पूर्ण निर्भरता हर भाग और हर गति में प्रकृति के उच्चतर सत्य की क्रिया के प्रति अपने संपूर्ण चरम आत्म-त्याग में विकसित हो । इस आत्म-त्याग की पूर्णता तभी आ सकती है अगर चैत्य परिवर्तन पूर्ण हो गया हो या आध्यात्मिक रूपांतर उपलब्धि की बहुत ऊंची अवस्थातक जा पहुंचा हो । इसका अर्थ होता है मन अपने सभी सांचों, भावों, मानसिक रचनाओं, सभी मतों, अपने बौद्धिक अवलोकन और मूल्यांकन की सभी आदतों को छोड़ दे और उनके स्थान पर पहले अंतर्भासात्मक और फिर अधिमानसिक या अतिमानसिक क्रिया को ले आये जो प्रत्यक्ष सत्य-चेतना और सत्य-दृष्टि, सत्य-विवेक, एक नयी चेतना की क्रिया का आरंभ करवाती है जो अपने सभी तौर-तरीकों में हमारे मन की वर्तमान प्रकृति के लिये बिल्कुल पराई है । प्राण से भी मांग की जाती है कि वह इसी तरह अपनी पोसी हुई कामनाओं, भावावेगों, भावनाओं, आवेगों, संवेदन-लीकों को, क्रिया और प्रतिक्रिया के सशक्त यंत्र-विन्यास को त्याग कर उनके स्थान पर प्रकाशमय, कामना-रहित, स्वतंत्र और फिर भी स्वचालित आत्म-निर्धारक शक्ति को लाये, केंद्रीभूत वैश्व और निर्वैयक्तिक ज्ञान, बल और आनंद की शक्ति आ जाये, प्राण जिसका यंत्र और अभिव्यक्ति तो जरूर हो लेकिन जिसके बारे में अभी उसे न कोई आभास है, न ही परिपूर्ति के लिये उसके महत्तर आनंद और बल का कोई अनुभव ही है । हमारे भौतिक भाग को अपनी सहज वृत्तियों, आवश्यकताओं, अंधी पुराण-पंथी आसक्तियों, प्रकृति के निश्चित खांचों, जो कुछ उसके अपने परे है उसके बारे में संदेह और अविश्वास को छोड़ देना होगा, उसे भौतिक मन की, भौतिक जीवन और शरीर की निश्चित क्रियावली की अनिवार्यता के बारे में अपनी श्रद्धा को छोड़ देना होगा ताकि उनकी जगह एक ऐसी नयी शक्ति आ सके जो अपने महत्तर विधान और क्रियावली को जड़तत्त्व के रूप और शक्ति में प्रतिष्ठित कर सके । हमारे अंदर अवचेतना और निश्चेतना को भी सचेतन, उच्चतर ज्योति के प्रति संवेदनशील होना होगा जो चित्- शक्ति की परिपूर्ति करनेवाली क्रिया के लिये बाधक न हो बल्कि आत्मा का अधिकाधिक सांचा और निम्नतर आधार हों । ये चीजें तबतक नहीं की जा सकतीं जबतक या तो मन, प्राण और शारीरिक चेतना सत्ता की मार्ग-निर्देशक शक्तियां हों या उनका कोई प्रभुत्व हो । इस प्रकार के परिवर्तन अंतरात्मा और आंतरिक सत्ता के

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पूर्ण आविर्भाव, चैत्य और आध्यात्मिक इच्छा के प्रभुत्व, सत्ता के अंगों पर उनके प्रकाश और उनकी शक्ति की लंबी क्रिया, समस्त प्रकृति के चैत्य और आध्यात्मिक नव-गठन के द्वारा ही हो सकते हैं ।

 

     भीतरी और बाहरी प्रकृति के बीच की दीवार को तोड़कर सारे आधार का एकीकरण, चेतना की स्थिति और केंद्र को बाहरी सत्ता से हटाकर उसका भीतरी सत्ता में स्थापन, इस नये आधार पर एक मजबूत नींव की स्थापना, इस भीतरी पुरुष और उसकी इच्छा और दृष्टि से कार्य करने का अभ्यास, व्यक्तिगत चेतना का वैश्व चेतना में खुलना -अतिमानसिक परिवर्तन के लिये एक और आवश्यक शर्त है । यह आशा करना कपोल-कल्पना जैसा होगा कि परम ऋत-चेतना अपने-आपको हमारे सतही मन, हृदय और प्राण के संकीर्ण रूपायन पर प्रतिष्ठित कर सकती है, वे आध्यात्मिकता की ओर कितने भी मुड़े हुए क्यों न हों । यह जरूरी है कि सभी भीतरी केंद्र प्रस्फुटित हो जायें और अपनी क्षमताओं को क्रिया में उतारें, चैत्य सत्ता उद्‌घाटित होकर शासन करे । अगर यह पहला परिवर्तन, जो सत्ता को भीतरी और महत्तर चेतना में, सामान्य चेतना की जगह, एक यौगिक चेतना में प्रतिष्ठित न करे तो महत्तर रूपांतर एकदम असंभव है । और फिर व्यक्ति को अपने-आपको पर्याप्त मात्रा में वैश्वभावापन्न कर लेना चाहिये, उसे अपने व्यक्तिगत मन को वैश्व मानसिकता की असीमता में फिर से ढाल लेना चाहिये, अपने व्यक्तिगत प्राण को वैश्व प्राण की गतिशील क्रिया के तात्कालिक बोध और प्रत्यक्ष अनुभव में बढ़ाना और जीवित करना चाहिये, अपने शरीर के संचरणों को वैश्व प्रकृति की शक्तियों की ओर खोलना चाहिये इससे पहले कि वह ऐसे परिवर्तन के योग्य बन सके जो वर्तमान वैश्व रूपायन का अतिक्रमण कर सके और उसे वैश्व भाव के निम्न गोलार्द्ध से ऊपर ऐसी चेतना में उठा ले जो आध्यात्मिक उच्चतर गोलार्द्ध की हो । इसके अतिरिक्त उसे पहले ही उसके बारे में अभिज्ञ हो जाना चाहिये जो अभीतक उसके लिये अतिचेतन है, उसे अभीतक ऐसी सत्ता हो जाना चाहिये जो उच्चतर आध्यात्मिक ज्योति, शक्ति, ज्ञान, आनंद के बारे में सचेतन हो और आध्यात्मिक परिवर्तन द्वारा नवीकृत अवरोहण करते हुए प्रभावों से व्याप्त हो । चैत्य के बहुत आगे बढ़ने या पूर्ण होने से पहले आध्यात्मिक उन्मीलन का होना और उसकी क्रिया का आगे बढ़ना संभव है क्योंकि ऊपर का आध्यात्मिक प्रभाव चैत्य रूपांतर को जगा सकता, उसकी सहायता कर सकता और उसे पूर्ण बना सकता है । जो कुछ जरूरी है वह यह कि उच्चतर आध्यात्मिक उद्‌घाटन के लिये चैत्य-पुरुष का पर्याप्त दबाव हो लेकिन तीसरा अतिमानसिक परिवर्तन, उच्चतम प्रकाश के समय से पहले अवतरण के लिये अनुमति नहीं देता क्योंकि यह तभी शुरू हो सकता है जब अतिमानसिक शक्ति प्रत्यक्ष कार्य शुरू कर दे और अगर प्रकृति तैयार न हो तो वह ऐसा नहीं करती । क्योंकि परा शक्ति की सामर्थ्य और सामान्य प्रकृति की

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योग्यता में बहुत अधिक असमानता है । निम्नतर प्रकृति या तो उसे सह न सकेगी और अगर सह भी ले तो उसे प्रत्युत्तर न दे सकेगी, ग्रहण न कर सकेगी या फिर ग्रहण कर भी ले तो उसे आत्मासात् न कर पायेगी । जबतक प्रकृति तैयार न हो जाये अतिमानसिक शक्ति को परोक्ष रूप से कार्य करना होता है । वह अधिमानस और अंतर्भास की मध्यस्थ शक्तियों को सामने रखती है या वह अपने किसी ऐसे परिवर्तित रूप से कार्य करती है जिसके प्रति अर्द्ध-रूपांतरित सत्ता पूरी या आंशिक तरह से प्रत्युत्तरशील हो सके ।

 

     आध्यात्मिक विकास उत्तरोत्तर प्रस्फुटन के तर्क का अनुसरण करता है । जब पिछले मुख्य चरण को पर्याप्त रूप में जीत लिया जाये तभी वह कोई नया निर्णायक कदम उठा सकता है । द्रुत और अतर्कित आरोहण द्वारा चाहे कुछ गौण अवस्थाओं को निगल लिया जाये या उनपर से छलांग लगा ली जाये, फिर भी चेतना को इस संबंध में विश्वस्त होने के लिये पीछे मुड़ना पड़ता है कि जिस भूमि को पार कर लिया गया है वह नयी अवस्था के साथ सुरक्षित रूप से संलग्न है या नहीं । यह सच है कि आत्मा की विजय एक ही जीवन में या कुछ जीवनों में ऐसी प्रक्रिया का कार्यान्वयन करती है जिसमें प्रकृति की सामान्य गति में शताब्दियों या सहस्राब्दियों की एक मंथर और अनिश्चित प्रक्रिया लग जाती; लेकिन यह उस गति का प्रश्न है जिससे कदम बढ़ाये जाते हैं; अधिक तेज या एकाग्र गति पदों को या उन्हें उत्तरोत्तर पार करने की आवश्यकता को समाप्त नहीं कर देती । बढ़ी हुई तेजी केवल इसलिये संभव होती है कि आंतरिक सत्ता का सचेतन सहयोग होता है और परा-प्रकृति की शक्ति पहले से ही अर्द्ध-रूपांतरित निम्नतर प्रकृति में कार्यरत होती है, इस तरह अन्यथा जो कदम परीक्षण के तौर पर निश्चेतना या अज्ञान की रात में लेने पड़ते वे अब ज्ञान की बढ़ती हुई ज्योति और शक्ति में लिये जा सकते हैं । विकसनशील शक्ति की प्रथम अंधकारमय जड़ गति युगीन क्रमिकता से चिन्हित होती है । प्राणिक प्रगति की गति चलती तो है धीरे-धीरे फिर भी अधिक द्रुत पगों से । वह सहस्राब्दियों में संहत हों जाती है । मन काल की धीमी मंथर गति को और भी अधिक सिकोड़ कर शताब्दियों के लंबे कदम ले सकता है लेकिन जब सचेतन आत्मा हस्तक्षेप करती है तो विकसनशील स्कूर्ति की अत्यधिक तेज गति संभव होती है । फिर भी विकास के प्रवाह की ऐसी अंतर्लीन तेज गति, जो बीच की भूमिकाओं को लीलती जाये, केवल तब आ सकती है जब सचेतन आध्यात्म पुरुष की शक्ति ने क्षेत्र तैयार कर दिया हो और अतिमानसिक शक्ति ने अपने प्रत्यक्ष प्रभाव का उपयोग शुरू कर दिया हो । निश्चय ही प्रकृति के सभी रूपांतर चमत्कार का रूप धारण कर लेते हैं लेकिन यह एक पद्धति सहित चमत्कार होता है । प्रकृति के लंबे-से-लंबे कदम निश्चित भूमि पर लिये जाते हैं, उसकी तेज-से- तेज छलांगें ऐसी नींव से ली जाती हैं जिनसे विकास की कूद को सुरक्षा और

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निश्चिति मिले । एक गुप्त सर्व-प्रज्ञा प्रकृति में हर चीज को, उन कदमों और प्रक्रियाओं को भी नियंत्रित रखती है जो सबसे अधिक रहस्यमय मालूम होती हैं ।

 

     प्रकृति की प्रक्रिया का यह विधान अंतिम सांक्रामिक क्रिया में एक क्रम की, क्रमों के आरोहण, ऊंची और अधिक ऊंची अवस्थाओं को खोलने की आवश्यकता को ले आता है जो अवस्थाएं हमें आध्यात्मिक मन से अतिमन की ओर ले जाती हैं -यह एक खड़ी चढ़ाई है जिसे किसी और तरह पार नहीं किया जा सकता । हम देख आये हैं कि हमारे ऊपर सत्ता की आनुक्रमिक स्थितियां, स्तर या श्रेणीबद्ध शक्तियां हैं जो हमारे सामान्य मन के ऊपर हैं, हमारे अपने अतिचेतन भागों में छिपी हैं, मन के उच्चतर प्रदेश हैं, आध्यात्मिक चेतना और अनुभव की कोटियां हैं; उनके बिना कोई कड़ियां न होंगी, कोई बीच में आनेवाले सहायक प्रदेश न होंगे जो विशाल आरोहण को संभव बनाते हों । वस्तुत: इन उच्चतर स्रोतों से प्रच्छन्न आध्यात्मिक शक्ति सत्ता पर काम करती है और अपने दबाव के द्वारा चैत्य रूपांतर या आध्यात्मिक परिवर्तन को ले आती है; लेकिन हमारे विकास की प्रारंभिक अवस्थाओं में यह क्रिया प्रकट नहीं होती, वह गुह्य और अग्राह्य रहती है । सबसे पहली जरूरी चीज यह है कि आध्यात्मिक शक्ति का शुद्ध स्पर्श मानसिक प्रकृति में हस्तक्षेप करे, वह जगानेवाला दबाव मन, हृदय और प्राण पर अपनी छाप लगाये और उन्हें ऊपर की ओर उन्मुख करे, एक सूक्ष्म ज्योति या रूपांतरकारी शक्ति उनकी गतिविधियों को शुद्ध और परिमार्जित करे, ऊपर की ओर उठा दे और एक ऐसी उच्चतर चेतना से प्लावित कर दे जो उनकी सामान्य क्षमता और स्वभाव की चीज नहीं है । यह अंदर से, चैत्य सत्ता और चैत्य व्यक्तित्व द्वारा अदृश्य क्रिया से किया जा सकता है, इसके लिये सचेतन रूप से अनुभव होनेवाला ऊर्ध्व-अवतरण अनिवार्य नहीं है । हर जीवित सत्ता में, हर स्तर पर, हर चीज में आत्मा की उपस्थिति है । और चूंकि वह है अत: सच्चिदानंद का, शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता और चेतना का, दिव्य उपस्थिति के आनंद, निकटता का अनुभव किया जा सकता है और संपर्क मन या हृदय, प्राण-संवेदन, यहांतक कि भौतिक चेतना द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है । अगर भीतरी द्वारों को काफी खोल दिया जाये तो मंदिर का प्रकाश बाहरी सत्ता के निकटतम और दूरतम कक्षों को परिप्लावित कर सकता है । ऊपर से आनेवाली आध्यात्मिक शक्ति के गुह्य अवतरण द्वारा आवश्यक मोड़ या परिवर्तन भी लाया जा सकता है जिसमें बाढ़, प्रभाव और आध्यात्मिक परिणाम का अनुभव तो किया जा सकता है परंतु उच्चतर स्रोत अज्ञात रहता है और अवतरण का वास्तविक अनुभव नहीं होता । इस तरह से प्रभावित चेतना का इतना अधिक उत्थान हो सकता है कि सत्ता आत्मा के साथ या भगवान् के साथ तात्कालिक ऐक्य की ओर मुड़े और विकास से विदा ले ले और अगर यह स्वीकृत हो जाये तो फिर अनुक्रम, चरण या पद्धति का प्रश्न हस्तक्षेप नहीं

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करता, प्रकृति के साथ संबंध-भंग निर्णायक हो सकता है; क्योंकि अगर एक बार विदा का विधान संभव बन जाये तो उसका विधान विकसनशील रूपांतर और पूर्णता के विधान जैसा नहीं रहता और न उसे वैसा रहने की जरूरत होती है । वह छलांग होती या हो सकती है, बंधनों में से तेजी के साथ या तत्काल छुटकारा होता या हो सकता है -आध्यात्मिक छुटकारा प्राप्त हो जाता है और उसका एकमात्र अनुमोदन बाकी रहता है शरीर का नियत अंत । लेकिन अगर पार्थिव जीवन का रूपांतर अभिप्रेत है तो आध्यात्मिक जागरण के प्रथम स्पर्श के पीछे-पीछे आना चाहिये उच्चतर स्रोतों और ऊर्जाओं के प्रति जागरण, उनकी खोज और सत्ता का उनके विशिष्ट स्तर में परिवर्द्धन और उन्नयन और चेतना का उनके विशालतर विधान और क्रियाशील और गतिशील प्रकृति में परिवर्तन । इस परिवर्तन को एक- एक सीढ़ी करके तबतक होते रहना चाहिये जबतक आरोहण के सोपान का अतिक्रमण न हो जाये और वेदों के कहे गये ''उरो अनिबाधे''  विशालतम उन्मुक्त अंतरिक्ष में, परम ज्योतिर्मयी तथा अनंत चेतना के स्वधामों में आविर्भाव न हो जाये ।

 

     क्योंकि, यहां भी विकास की वही प्रक्रिया है जैसी प्रकृति की बाकी क्रिया में है । चेतना ऊपर उठती और विस्तृत होती है, एक नये स्तर पर आरोहण होता है और नीचे के स्तरों को ऊपर उठाया जाता है । सत्ता की एक श्रेष्ठतर शक्ति जीवन को धारण करती और उसका नया समाकलन करती है । वह शक्ति अपनी क्रिया- विधि, अपने स्वभाव और अपनी पदार्थगत ऊर्जा की शक्ति का प्रकृति के पहले से विकसित अंगों के उतने भाग पर आरोपण करती है जहांतक वह पहुंच सके । प्रकृति की क्रियाओं की इस उच्चतम स्थिति में एकीकरण की मांग बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है । आरोहण की निचली श्रेणियों में, यह नया धारण, चेतना के उच्चतर तत्त्व में समाकलन अधूरा रहता है । मन पूरी तरह से प्राण और जड़-तत्त्व को मानसभावापन्न नहीं कर सकता, प्राण-सत्ता और शरीर के काफी भाग अवमानस, अवचेतन या अचेतन के क्षेत्र में रहते हैं । प्रकृति की पूर्णता के प्रति मन के प्रयास में यह एक गंभीर बाधा है; क्योंकि क्रिया-कलाप के शासन में अवमानस, अवचेतन और अचेतन का लगातार भाग लेते रहना, मानसिक सत्ता के विधान से इतर किसी विधान को ले आना, सचेतन प्राण और भौतिक चेतना को भी इसके लिये समर्थ बनाता है कि वे उनपर मन द्वारा लगाये गये विधान को अस्वीकार करके मानसिक तर्क-बुद्धि और विकसित बुद्धि की युक्तियुक्त इच्छा के विरोध में, अपने ही आवेगों और सहज प्रवृत्तियों का अनुसरण करें । यह मन के लिये अपने परे जाना, अपने स्तर को पार करना और प्रकृति को आध्यात्मभावापन्न बनाना कठिन बना देता है; क्योंकि जिसे वह पूरी तरह सचेतन ही नहीं बना सकता, मानसिक या तर्क-सम्मत नहीं बना सकता उसे वह आध्यात्मभावापन्न भी नहीं बना

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सकता क्योंकि आध्यात्मीकरण अधिक बड़ा और अधिक कठिन समाकलन है । निःसंदेह आध्यात्मिक शक्ति का आह्वान करके वह प्रकृति के कुछ भागों में, विशेषकर स्वयं विचारशील मन और हृदय में, जो स्वयं उसके प्रदेश के सबसे अधिक नजदीक हैं, एक प्रभाव और प्रारंभिक परिवर्तन स्थापित कर सकता है लेकिन यह परिवर्तन प्रायः सीमाओं के भीतर भी समग्र पूर्णता नहीं होता और वह जो कुछ प्राप्त कर भी लेता है वह विरल और कठिन होता है । मन का उपयोग करनेवाली आध्यात्मिक चेतना एक घटिया साधन का व्यवहार करती है और यद्यपि वह मन में दिव्य ज्योति, हृदय में दिव्य शुद्धि, आवेग, उत्साह लाती है या प्राण पर आध्यात्मिक विधान लागू करती है फिर भी इस नयी चेतना को प्रतिबंधों में रहकर काम करना होता है । अधिकतर वह प्राण की निचली क्रिया को केवल नियमित कर सकती या रोक सकती है और शरीर का कठोर नियंत्रण कर सकती है, लेकिन ये अंग परिमार्जित या अधीन हो जानें पर भी अपनी आध्यात्मिक पूर्ति नहीं पाते और न ही पूर्णता और रूपांतर प्राप्त करते हैं । इसके लिये उस उच्चतर क्रियाशील तत्त्व को लाना जरूरी है जो आध्यात्मिक चेतना का वासी हो, अत: जिसके द्वारा वह चेतना अपने विधान और अधिक पूर्ण स्वाभाविक प्रकाश और शक्ति से कार्य कर सके और उन्हें अंगों पर आरोपित कर सके ।

 

     लेकिन इस नये सक्रिय तत्त्व का हस्तक्षेप और प्रबल आरोपण भी सफल होने में लंबा समय ले सकता है क्योंकि सत्ता के निचले भागों के अपने अधिकार होते हैं और अगर उन्हें सचमुच रूपांतरित करना हो तो उन्हें अपने निजी रूपांतर के लिये राजी करना होगा, लेकिन यह करना मुश्किल है क्योंकि हमारे हर भाग की स्वाभाविक प्रवृत्ति, किसी ऐसे उच्चतर विधान या धर्म की अपेक्षा जो उसे अपना निजी न मालूम होता हो, स्वधर्म को पसंद करने की होती है -वह चाहे जितना घटिया क्यों न हो । वह अपनी ही चेतना या अचेतना, अपने आवेगों और प्रतिक्रियाओं, अपनी सत्ता की गतिशीलता, जीवन के आनंद के अपने ही तरीके से चिपका रहता है । अगर वह तरीका आनंद का विरोधी, अंधकार, दुःख-दर्द और क्लेश का मार्ग हो तो और भी ज्यादा चिपका रहता है क्योंकि इसके लिये भी उसने विकृत और विरोधी रस उत्पन्न कर लिया है, अंधेरे और दुःख का अपना सुख, कष्ट और वेदना में परपीड़न रति या स्वपीड़न रति का स्वाद पा लिया है । हमारी सत्ता का अगर यह भाग ज्यादा अच्छी चीजें खोजता है तो भी वह प्रायः अधिक बुरी चीजों का अनुसरण करने के लिये बाधित होता है क्योंकि वे उसकी अपनी, उसकी ऊर्जा के लिये स्वाभाविक, उसके पदार्थ के लिये स्वाभाविक हैं । संपूर्ण और आमूल परिवर्तन केवल तभी लाया जा सकता है जब आध्यात्मिक सत्य, शक्ति, आनंद के घनिष्ठ अनुभव और आध्यात्मिक प्रकाश को आग्रह के साथ अक्खड़ तत्त्वों में लाया जाये, यहांतक कि वे भी स्वीकार कर लें कि उनकी

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अपनी परिपूर्णता का मार्ग यही है, कि वे स्वयं आत्मा की घटी हुई शक्ति हैं और सत्ता के इस नये तरीके से वे अपने निजी सत्य और संपूर्ण प्रकृति को फिर से पा सकते हैं । निम्न प्रकृति की शक्तियां और उनसे भी बढ़ करके विरोधी शक्तियां जो जगत् की अपूर्णताओं द्वारा जीती और राज्य करती हैं और जिन्होंने निश्चेतना की काली चट्टानों पर अपनी भयानक नींव डाली है, वे इस प्रदीपन का निरंतर विरोध करती हैं ।

 

     इस कठिनाई पर विजय पाने के लिये एक अनिवार्य कदम है आंतरिक सत्ता और उसकी क्रिया के केंद्रों का उद्‌घाटन; क्योंकि जो काम सतही मन नहीं कर सका वह वहांपर अधिक संभव हो उठता है । आंतरिक मन, आंतरिक प्राण-चेतना और प्राणिक मन, सूक्ष्म- भौतिक चेतना और उसकी सूक्ष्म-भौतिक मानसता को एक बार क्रिया में मुक्त कर दिया जाये तो वे एक अधिक विशाल, परिमार्जित और अधिक महान् मध्यस्थता करनेवाली अभिज्ञता को उत्पन्न करते हैं जो वैश्व के साथ और जो कुछ उनके ऊपर है उनके साथ संचरण कर सकती है और साथ ही सत्ता के सारे क्षेत्र पर, अवमानसिक पर और अवचेतन मन पर, अवचेतन प्राण पर, यहांतक कि शरीर की अवचेतना पर भी उनकी शक्ति प्रयुक्त करा सकती है । वे यद्यपि आधारभूत निश्चेतना को पूरी तरह आलोकित तो नहीं कर सकते फिर भी कुछ हदतक खोल सकते, भेद सकते और उसपर क्रिया कर सकते हैं । तब ऊपर से आनेवाले आध्यात्मिक प्रकाश, शक्ति, ज्ञान तथा आनंद मन और हृदय के परे उतर सकते हैं । इनतक पहुंचना और इन्हें आलोकित करना हमेशा सबसे अधिक सरल है; सारी प्रकृति को ऊपर से नीचेतक भरते हुए ये प्राण और शरीर में अधिक पूरी तरह व्याप्त हो सकते हैं और इससे भी अधिक गहरे संघात द्वारा निश्चेतना की नींव को हिला सकते हैं । लेकिन अंदर से की गयी यह विशालतर मानसभावापन्नता और प्राणिकभावापन्नता एक घटिया प्रदीपन है, वह अज्ञान को कम तो कर सकतीं है लेकिन उससे पिंड नहीं छुड़ा सकती; जो शक्तियां और बल निश्चेतना के सूक्ष्म और गुप्त शासन को बनाये रखते हैं उनपर आक्रमण तो करती है, पीछे हटने के लिये बाधित करती है परंतु उनपर विजय नहीं प्राप्त करती । इस विशालतर मानसिक और प्राणिकभावापन्नता के द्वारा काम करनेवाली आध्यात्मिक शक्तियां एक उच्चतर प्रकाश, बल और आनंद को ला सकती हैं लेकिन इस स्तर पर भी पूर्ण आध्यात्मीकरण और चेतना का अधिकतम पूर्ण नया समाकलन संभव नहीं है । अगर अंतर्तम सत्ता तथा चैत्य कार्य को अपने हाथ में ले लें तब वस्तुत: मानसिक परिवर्तन नहीं, अधिक गहरा परिवर्तन आध्यात्मिक शक्ति के अवतरण को अधिक प्रभावकारी बना सकता है, क्योंकि तब सचेतन सत्ता की समग्रता में प्रारंभिक आंतरात्मिक परिवर्तन हो चुकेगा जो मन, प्राण और शरीर को उनकी अपनी अपूर्णताओं और अशुद्धियों के जाल से मुक्त करता है । इस बिंदु पर एक अधिक

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बड़ी आध्यात्मिक क्रियाशीलता, आध्यात्मिक मन और अधिमानस की उच्चतर क्रिया-शक्तियां पूरी तरह से हस्तक्षेप कर सकती हैं । वस्तुत: हो सकता है कि वे शक्तियां पहले से ही अपना कार्य शुरू कर चुकी हों, भले केवल प्रभाव के रूप में; परंतु नयी परिस्थितियों में वे केंद्रीय सत्ता को स्वयं अपने स्तरतक उठा सकें और प्रकृति के अंतिम नूतन समाकलन को शुरू कर दें । ये उच्चतर शक्तियां पहले ही से अनाध्यात्मीकृत मानव मन में काम तो करती हैं पर परोक्ष रूप से और खंडित तथा घटी हुई क्रिया में । वे काम करने से पहले मन के पदार्थ और शक्ति में बदल जाती हैं । और वह पदार्थ तथा शक्ति अपने स्पंदनों में प्रदीप्त और तीव्र हो जाते हैं, और इस प्रवेश के द्वारा उनकी कुछ गतियां ऊपर उठती और आनंदपूर्ण हो जाती हैं लेकिन उनका रूपांतर नहीं होता । लेकिन जब आध्यात्मीकरण शुरू होता है, जब उसके बड़े परिणाम अभिव्यक्त होते हैं -मन की निश्चल नीरवता, हमारी सत्ता का वैश्व चेतना में प्रवेश, तुच्छ अहंकार का विश्वात्मा के भाव में निर्वाण, दिव्य सदवस्तु के साथ संपर्क -तो उच्चतर क्रियाशक्तियों के हस्तक्षेप र उनकी और हमारा खुलना ब सकता है, तब वे अपनी क्रिया की अधिक पूरी, अधिक प्रत्यक्ष, अधिक विशिष्ट शक्ति धारण कर सकतीं हैं और यह प्रगति तबतक चलती रहती ह जबतक उनकी कोई पूर्ण और परिपक्व क्रिया संभव न हो जाये । तब उसके बाद आध्यात्मिक रूपांतर का अतिमानसिक रूपांतर की ओर मुना शुरू होता है क्योकि चेतना का अधिकाधिक ऊंचे स्तरोंतक उठना हमारे अंदर अतिमानस की ओर आरोहण का, उस कठिन और उच्चतम मार्ग के अनुक्रम का निर्माण करता है

 

     यह न मान लेना चाहिये कि सभीके लिये संक्रमण की रेखाएं और परिस्थितियां समान होंगी; क्योकि यहां हम अनंत के प्रदेश में प्रवेश करते हैं; लेकिन चूंकि उन सबके पीछे आधारभूत सत्य का एकत्व है अत: आरोहण की किसी एक रेखा की सूक्ष्म छानबीन से यह आशा की जा सकती है कि वह समस्त आरोहणकारी संभावनाओं के तत्त्व पर प्रकाश डालेगी । हम बस इस प्रकार की किसी एक ही रेखा की छानबीन के लिये प्रयास कर सकते हैं । यह रेखा, जैसे अन्य सभी रेखाएं होंगी, आरोहण-सोपान की स्वाभाविक आकृति से नियंत्रित होती है । उसमें बहुत-सी सीढ़ियां हैं क्योकि यह एक अविच्छिन्न अनुक्रम है जिसके बीच में कहीं भी कोई अंतराल नहीं है । लेकिन हमारे मन से ऊपर चेतना के आरोहण के दृष्टिकोण से, जो गतिशील शक्तियों के उठते हुए क्रम में से होकर बढ़ता है, जिनसे चेतना अपने- आपको उदात्त कर सकती है, यह वर्गीकरण चार प्रधान आरोहणों के सोपान में नियोजित किया जा सकता है जिनमें प्रत्येक की परिपूर्ति का अपना उच्च स्तर होगा । संक्षेप में इन क्रमों को उच्चतर मन, प्रबुद्ध मन, अंतर्भास में से होते हुए अधिमानस और उसके परे चेतना के उदात्तीकरण की शृंखला कहा जा सकता है । आत्म-

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रूपातरों का एक अनुक्रम है जिसके शिखर पर है अतिमानस या दिव्य विज्ञान । अपने तत्त्व और अपनी शक्ति में ये सभी श्रेणियां विज्ञानमय हैं; क्योकि शुरू से ही हम आदि निश्चेतना पर आधारित और व्यापक अज्ञान या मिले-जुले ज्ञान, अज्ञान में क्रिया करनेवाली चेतना से एक ऐसी चेतना में जाना शुरू कर देते हैं जो गुह्य स्वयंभू ज्ञान पर आधारित है, जो पहले उस ज्योति और शक्ति द्वारा निर्देशित और अनुप्रेरित होती है और फिर अपने-आप उस पदार्थ में बदल जाती है और पूरी तरह उस नये यंत्र-विन्यास का उपयोग करती है । अपने-आपमें ये श्रेणियां आत्मा के ऊर्जा-पदार्थ की श्रेणियां हैं लेकिन यह न मान लेना चाहिये कि चूंकि हम उनके मुख्य लक्षण, उनके ज्ञान-साधन और ज्ञान-शक्ति के अनुसार इनमें भेद करते हैं इसलिये ये केवल ज्ञान की विधि या तरीका या संबोध की क्षमता या शक्ति हैं, ये तो सत्ता के प्रदेश हैं, आध्यात्मिक सत्ता के पदार्थ और ऊर्जा की श्रेणियां, अस्तित्व के क्षेत्र हैं जिनमें से हर एक उस वैश्व चित्-शक्ति का एा स्तर है जो अपने- आपको एक उच्चतर स्थिति में निर्मित और संगठित कर रही है । जब किसी श्रेणी की शक्तियां हमारे अंदर पूरी तरह उतर आती हैं तो केवल हमारे विचार और ज्ञान पर ही असर नहीं पता, हमारी सत्ता और चेतना के पदार्थ, उसके कण और तंतु- रचना, उसकी सभी स्थितियां और कार्य-कलाप भी उससे प्रभावित होते हैं, ये शक्तियां उनमें प्रविष्ट होती हैं और उन्हें फिर से गढ़ा जा सकता है और पूरी तरह रूपांतरित किया जा सकता है । अत: इस आरोहण में हर एक पर्व श्रेष्ठतर जीवन की नयी ज्योति और शक्ति में सत्ता का समग्र नहीं तो सामान्य धर्मांतरण अवश्य होता है ।

 

     स्वयं श्रेणीक्रम आधारभूत रूप से उच्चतर या निम्नतर पदार्थ पर, सामर्थ्य, सत्ता के स्पंदनों की तीव्रता, उसकी आत्म-अभिज्ञता, उसके अस्तित्व के आनंद, उसके अस्तित्व के बल पर आधारित होता है । जैसे-जैसे हम सोपान पर नीचे उतरते हैं, चेतना अधिकाधिक घट जाती और हल्की हो जाती है । निःसंदेह वह अपनी स्थूल अनगता के कारण घन तो है लेकिन जब कि गाढ़ेपन की वह अपक्वता अज्ञान के पदार्थ को संहत करती है, वह प्रकाश के पदार्थ को कम, और भी कम प्रवेश करने देती है, उसका विशुद्ध चेतना-सत्त्व पतला हो जाता है और उसकी चेतना- शक्ति क्षीण हो जाती है, उसका प्रकाश पतला हो जाता है, उसकी आनंद- क्षमता पतली और दुर्बल हो जाती है । उसे किसी चीजतक पहुंचने के लिये अपने घटे हुए पदार्थ की अधिक अपरिष्कृत मोटाई की ओर और अपनी अंधकारमय शक्ति के अधिक श्रमसाध्य परिणाम की ओर लौटना पता है, लेकिन प्रयास और परिश्रम की यह कष्टसाध्यता बल का नहीं, दुर्बलता का चिह्न है । इसके विपरीत, जब हम ऊपर चते हैं तो एक सूक्ष्मतर परंतु कहीं अधिक मजबूत और सच्चा और आध्यात्मिक दृष्टि से ठोस पदार्थ प्रकट होता है, चेतना की अधिक दीप्ति और

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समर्थ पदार्थ, सूक्ष्मतर, अधिक मधुर, शुद्ध और शक्तिशाली रूप से आनंद की अधिक उल्लासमय ऊर्जा प्रकट होती है । हमारे ऊपर इन उच्चतर श्रेणियों के अवतरण में यह महत्तर प्रकाश, शक्ति, सत्ता और चेतना का सारतत्त्व, आनंद की ऊर्जा ही मन, प्राण, शरीर में प्रविष्ट होकर उनके घटे हुए, तरलित और अशक्त पदार्थ को बदलती और सुधारती हैं और उसे आत्मा की अपनी उच्चतर और अधिक प्रबल शक्ति में और सद्वस्तु के मूलभूत सत्य और शक्ति में बदल देती हैं । यह इसलिये हो सकता है क्योकि सब कुछ आधारभूत रूप से एक ही पदार्थ, वही चेतना और वही शक्ति है लेकिन है अपने अलग-अलग रूपों, शक्तियों और कोटियों में । अत: निचले का उपरले में उठाया जाना एक संभव और -हमारी निश्चेतना की दूसरी प्रकृति न हो तो - आध्यात्मिक रूप से स्वाभाविक गति है । जो श्रेष्ठतर स्थिति में से प्रकट किया गया था उसे अपनी महत्तर सत्ता और सारतत्त्व में लपेटकर धारण कर लिया जाता है ।

 

     अपनी मानव बुद्धि, अपनी सामान्य मानसिकता से बाहर निकलने का हमारा पहला निर्णायक कदम होता है उच्चतर मन में आरोहण, ऐसे मन में जो अब प्रकाश और अंधकार का मिश्रण या अर्द्ध-प्रकाश न रहकर आत्मा की विशाल स्पष्टता होता है । उसका आधारभूत पदार्थ है सत्ता की एकात्मिका अनुभूति जिसके साथ एक सबल बहुविध सक्रियता होती है जो ज्ञान के बहुविध रूप-पक्षों, क्रिया के तरीकों, संभवन के रूपों और अर्थों के रूपायन के समर्थ है और उन सबका सहज अंतर्भूत ज्ञान है । अत: यह अधिमानस से आयी हुई शक्ति है लेकिन इसका अंतिम मूल है अतिमानस, उसी तरह जैसे ये सभी महत्तर शक्तियां वहींसे आयी हैं लेकिन इसके विशेष स्वभाव पर, इसकी चेतना की क्रियाशीलता पर 'विचार' का आधिपत्य रहता है; यह एक ज्योतिर्मय विचारात्मक मन, आध्यात्म से उत्पन्न प्रत्ययात्मक ज्ञान का मन है । मौलिक तादात्म्य से निकलनेवाली सर्व-अभिज्ञता, जो ऐसे सत्यों को धारण करती है जिन्हें तादात्म्य अपने अंदर लिये रहता है, तेजी से, विजयी भाव से, बहुविध रूप से धारणाएं बनाती और उन्हें निरूपित करती और भाव की आत्म-शक्ति से अपनी धारणाओं को कार्य में सिद्ध करती एक ऐसी सर्व- अभिज्ञता है जो इस ज्ञानमय महत्तर मन का धर्म है । इस तरह का ज्ञान अज्ञानाधार विभेदात्मक ज्ञान के सूत्रपात से पहले आद्य आध्यात्मिक तादात्म्य से उभरनेवाला आखिरी है, अत: अपने धारणात्मक और तर्क-विचारशील मन से उभर कर, जो हमारे अज्ञान की सबसे अच्छी तरह संगठित ज्ञान-शक्ति है, जब हम आध्यात्म तत्त्वों के राज्य में जाते हैं तो यही ज्ञान हमें सबसे पहले मिलता है । वास्तव में वह हमारे धारणात्मक मनोमय भावन का आध्यात्मिक जनक है । यह स्वाभाविक है कि हमारी मानसिकता की यह मार्ग-दर्शन शक्ति जब अपने परे जाती है तो अपने सन्निकट उत्स में चली जाती है ।

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लेकिन यहां इस महत्तर विचार में खोजने की और अपनी आलोचना करनेवाले तर्क की जरूरत नहीं होती, निष्कर्ष की ओर पग-पग बनेवाली तार्किक गति नहीं, प्रकट या अप्रकट निगमन और अनुमान का यंत्र-विन्यास नहीं, ज्ञान के किसी व्यवस्थित समाहार या परिणामतक पहुंचने के लिये भावों को लेकर निर्माण नहीं, उनकी विवेचना पर आश्रित शृंखला-रचना नहीं; क्योकि हमारी बुद्धि की यह पंगु क्रिया ज्ञान की खोज में लगे अज्ञान की क्रिया है जो अपने कदमों को भूल-भ्रांति से सुरक्षित रखने के लिये बाधित है, एक चयनात्मक मानसिक निर्माण को अपना सामयिक आश्रय बनाने के लिये और उसे ऐसे आधारों पर खड़ा करने के लिये बाधित है, जो पहले खड़े किये जा चुके हैं और सावधानी से तो खड़े किये गये हैं परंतु कभी दृ नहीं होते क्योकि उसे अभिज्ञता की सहजात भूमि का सहारा नहीं होता बल्कि वह निर्ज्ञान की आद्य मिट्टी पर आरोपित है । और फिर यहां हमारे मन की वह तीक्षातम तथा द्रुततम अन्य रीति भी नहीं है जो एक द्रुत संयोग से मिल जानेवाले पूर्वाभास तथा अंतर्दृष्टि की, अल्पज्ञात तथा अज्ञात में अन्वेषण करती हुई बुद्धि की खोज-बत्त की क्रीड़ा की रीति है । यह उच्चतर चेतना वह ज्ञान है जो अपने-आपको स्वयंभू सर्व-अभिज्ञता के आधार पर प्रतिपादित करता और अपनी समग्रता के कुछ अंश को प्रकट करता और विचार-रूप में रखे गये अपने अर्थों के सामंजस्य को अभिव्यक्त करता है । यह अपने-आपको मुक्त रूप से एकाकी भाव में प्रकट कर सकता है लेकिन इसकी सबसे अधिक विशिष्ट गति है समग्र- भावन, एक ही दृष्टि में सत्य-दर्शन की समग्रता या पद्धति । भाव के साथ भाव के, सत्य के साथ सत्य के संबंध तर्क द्वारा स्थापित नहीं होते बल्कि पहले से ही उपस्थित होते हैं और अखंड संपूर्ण में आत्म-दृष्ट होकर उभरते हैं । वहां सदा उपस्थित परंतु अभीतक निष्क्रिय ज्ञान के रूपों में प्रवेश होता है, आधार-वाक्यों या प्रदत्त सामग्री पर आधारित निष्कर्षों की पद्धति नहीं होती । यह विचार शाश्वत प्रज्ञा का आत्म-प्रकटन है उपार्जित ज्ञान नहीं । सत्य के विशाल पहलू दिखलायी देते है जिनमें अगर आतेही मन चाहे तो संतोष के साथ रह सकता है और अपने पुराने ढंग से इस तरह रह सकता है मानो किसी इमारत में रहता हो, लेकिन अगर प्रगति करनी है तो ये इमारतें सदा एक बड़ी इमारत में विस्तार पा सकती हैं या उनमें से बहुत-सी एक साथ मिलकर एक अस्थायी बृहत्तर समग्र बन सकती हैं जो अभीतक अनुपलब्ध-संपूर्णता के मार्ग पर हैं । और अंत में ज्ञात और अनुभूत सत्य की ज्यादा बड़ी समग्रता है जो अब भी अनंत रूप से बसकती है क्योकि ज्ञान के पहलुओं का कहीं कोई अंत नहीं है - नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।

 

     यह है उच्चतर मन अपने ज्ञान के पहलू में; लेकिन एक पहलू इच्छा का, सत्य के गतिशील संपादन का भी है । यहां हम देखते हैं कि यह विशालतर और अधिक प्रदीप्त मन हमेशा बाकी सारी सत्ता पर, मानसिक इच्छा, हृदय और उसके

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भाव, प्राण, शरीर पर, सदा विचार की शक्ति द्वारा, भाव-शक्ति द्वारा क्रिया करता है । वह ज्ञाद्वारा शुद्ध करना, ज्ञान द्वारा मुक्त करना, ज्ञान की सहजात शक्ति द्वारा सृजन करना चाहता है । भाव को हृदय में या प्राण में ऐसी शक्ति के रूप में रखा जाता है जिसे स्वीकार और कार्यान्वित किया जाये; हृदय और प्राण भाव के बारे में सचेतन हो जाते हैं और उसकी शक्ति को प्रत्युत्तर देते हैं और उनका पदार्थ उसी अर्थ में अपने अंदर हेर-फेर करने लगता है जिससे अनुभूतियां और क्रियाएं इस उच्चतर प्रज्ञा के स्पंदन बन जाती हैं, उससे अनुप्राणित होती हैं, उसके भाव और संवेदन से भर जाती हैं । इसी भांति इच्छा-शक्ति और प्राणावेग उसके बल और आत्म-संपादन की प्रेरणा से प्रभावित होते हैं । शरीर में भी भाव काम करता है ताकि, उदाहरण के लिये, स्वास्थ्य के समर्थ विचार और इच्छा-शक्ति शरीर के बीमारी पर विश्वास और उसके लिये स्वीकृति का स्थान ले लेते हैं या बल का भाव बल के पदार्थ में शक्ति, गति, संवेदन को बुलाता है । भाव भी शक्ति और उसके उपयुक्त रूप को पैदा करता और उसे हमारे मन, प्राण, शरीर के पदार्थ पर आरोपित करता है । पहला क्रियान्वयन इसी तरह चलता है । वह सारी सत्ता में नयी और श्रेष्ठतर चेतना का संचार करता, परिवर्तन की नींव डालता है और उसे जीवन के श्रेष्ठतर सत्य के लिये तैयार करता है ।

 

    जब उच्चतर शक्तियों की श्रेष्ठतर शक्ति पहले-पहल दिखायी देती है या अनुभूत होती है, उस समय स्वाभाविक रूप से हो सकनेवाली एक भ्रांति को दूर करने के लिये इस बात पर जोर देना जरूरी है कि ये उच्चतर शक्तियां अपने अवतरण में तुरंत वैसी सर्वशक्तिमान् नहीं जैसी वे स्वाभाविक रूप से अपनी क्रिया के निजी धाम में या अपने माध्यम में होती हैं । जड़तत्त्व के विकास में उन्हें एक पराये और घटिया माध्यम में प्रवेश करना और उसपर कार्य करना पड़ता है । वहां उनका हमारे मन, प्राण और शरीर की अक्षमताओं से सामना होता है, अज्ञान की अंध अस्वीकृति या अग्रहणशीलता से भेंट होती है या निश्चेतना के नकार या बाधाओं का अनुभव होता है । अपने निजी स्तर पर वे प्रदीप्त चेतना और सत्ता के प्रदीप्त पदार्थ के आधार पर काम करती हैं; और अपने-आप प्रभावशाली होती हैं । लेकिन यहां उन्हें पहले से ही मजबूत बनी हुई निर्ज्ञान की नींव का सामना करना पड़ता है, केवल जड़ के संपूर्ण निर्ज्ञान का ही नहीं बल्कि मन, हृदय और प्राण के किंचित् परिवर्तित निर्ज्ञान का भी । इस भांति जब उच्चतर भाव विकसित मानसिक बुद्धि में उतरता है तो उसे वहां भी ज्ञान-अज्ञान के पहले से गठित भावों के पुंज या तंत्र के व्यूह को और इन भावों के स्थायी होने और अपने-आपको चरितार्थ करने के संकल्प को हराना पड़ता है; क्योकि सभी भाव शक्तियां हैं और उनकों

 

     अगर भाव को व्यक्त करनेवाला शब्द आध्यात्मिक शक्ति से व्याप्त हो तो उसमें भी वही बल होता है, भारत में मंत्र के प्रयोग का युक्तियुक्त आधार यही है ।

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रूप देनेवाली या स्वतःप्रभावी क्षमता, अवस्था के अनुसार कम या ज्यादा होती है । निश्चेतन जड़ के साथ काम पड़ने पर उसे घटाकर व्यावहारिक रूप से शून्यतक किया जा सकता है लेकिन फिर भी शक्यता के रूप में वह वहां रहती ही है । इस तरह एक बनी-बनायी प्रतिरोध-शक्ति तो तैयार रहती ही है जो नीचे उतरती हुई ज्योति का विरोध करती या उसके प्रभावों को न्यूनतम कर देती है, एक ऐसा प्रतिरोध हो सकता है जो प्रकाश का वर्जन या नकार हो या जो उसे अज्ञान के पूर्वकल्पित विचारों के अनुकूल बनाने के लिये प्रकाश को क्षीण या दमित करने, पटुता से बदलने या अनुकूलित करने या दुराग्रह से विकृत करने के प्रयत्न का रूप ले ले । अगर पूर्वकल्पित या पहले से बने हुए भावों को रद्द कर दिया जाये और उन्हें बने रहने के अधिकार से वंचित कर दिया जाये तब भी उन्हें बाहर से, वैश्व मन में अपनी व्यापकता के कारण बार-बार आने का अधिकार रहता है या फिर वे प्राण, भौतिक या अवचेतन भागों में नीचे की ओर उतर सकते हैं और वहांसे जरा- सा अवसर पाते ही अपने खोये हुए क्षेत्र को हथिया लेने के लिये फिर से ऊपर उठ सकते हैं । क्योकि अपने कदमों को काफी स्थिरता और मजबूती देने के लिये विकसनशील प्रकृति को अपनी स्थापित की हुई चीजों को बने रहने का यह अधिकार देना ही पता है । और फिर होनेवाली अभिव्यक्ति की किसी भी शक्ति का स्वभाव और दावा होता है कि जहां कहीं संभव हो और जितना अधिक संभव हो बनी रहे और अपने-आपको कार्यान्वित करे । इसी कारण अज्ञान के जगत् में सब कुछ एक तंतुजाल द्वारा ही नहीं बल्कि शक्तियों के टकराव, संघर्ष और अंतर्मिश्रण द्वारा प्राप्त होता है । लेकिन इस उच्चतम विकास के लिये यह जरूरी है कि ज्ञान के साथ अज्ञान का सारा मिश्रण लुप्त कर दिया जाये और शक्तियों के संघर्ष द्वारा क्रिया और क्रम-विकास का स्थान शक्तियों के सामंजस्य द्वारा क्रिया और क्रम-विकास ले लें, लेकिन इस भूमिकातक तभी पहुंचा जा सकता है जब अंतिम संघर्ष हो जाये और प्रकाश और ज्ञान की शक्तियां अज्ञान की शक्तियों को जीत लें । सत्ता के निचले स्तरों पर, हृदय, प्राण और शरीर में यही व्यापार अधिक तीव्र पैमाने पर दोहराया जाता है; क्योकि यहा भावों का नहीं, निम्न प्रकृति की भावनाओं, कामनाओं, आवेगों, संवेदनों, प्राणिक आवश्यकताओं और आदतों का सामना करना होता है । चूंकि ये चीजें भावों से कम सचेतन हैं, अपनी प्रतिक्रियाओं में अधिक अंधी और दृता के साथ स्वाग्रही हैं, अत: इन सब में प्रतिरोध और पुनरावृत्ति की वही या उससे अधिक शक्ति होती है या ये परिचेतन विश्व प्रकृतिं में या हमारे ही निचले स्तरों में या अवचेतन में बीज की स्थिति में शरण लेती हैं । वहां उनमें फिर से उभर आने या आक्रमण करने की शक्ति होतीं है । प्रकृति में स्थापित चीजों में डटे रहने, बार-बार दोहराने और प्रतिरोध करने क यह शक्ति हमेशा वह बड़ी बाधा होती है जिसका विकसनशील शक्ति को सामना करना

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पड़ता है, जिसका वस्तुत: स्वयं उसीने बहुत अधिक तेज रूपांतर को रोकने के लिये सृजन किया है जब कि वह रूपांतर ही चीजों के अंदर उसका अंतिम अभिप्राय है ।

 

     इस महान् आरोहण की हर भूमिका पर यह बाधा तो रहेगी ही, चाहे वह धीरे- धीरे क्षीण क्यों न होती जाये । उच्चतर ज्योति को पर्याप्त प्रवेश और कार्य करने की शक्ति का अवकाश देने के लिये प्रकृति की निश्चलता प्राप्त करने की शक्ति पाना आवश्यक है, मन, हृदय, प्राण और शरीर को स्थिर करना, शांत करना, उनमें नियंत्रित निष्क्रियता या पूरी नीरवता प्रतिष्ठित करना आवश्यक है; परंतु ऐसा होने पर भी, विश्वव्यापी अज्ञान की शक्ति में प्रकट और अनुभूत रूप से, या व्यक्ति की मानसिक गठन की सत्त्व-ऊर्जा में, उसके प्राणिक रूप में, उसके जड़‌तत्त्व से बने शरीर में, अवगूढ़ और अव्यक्त रूप से विरोध का चलते रहना सदा संभव रहता है, अज्ञानमयी प्रकृति की नियंत्रित अथवा दमित ऊर्जाओं का कोई गुह्य प्रतिरोध या विद्रोह या पुन: -प्रतिष्ठापन का प्रयास सदा संभव है और अगर सत्ता में कोई चीज उन्हें स्वीकृति दे तो वे फिर से प्रभुत्व पा सकती हैं । अतः पहले से स्थापित चैत्य- नियंत्रण बहूत अधिक वांछनीय है क्योकि वह सामान्य अनुकूलता पैदा करता है और निचले अंगों में ज्योति के विरुद्ध विद्रोह या अज्ञान के दावों को अपनी सहमति देने से रोकता है । प्रारंभिक आध्यात्मिक रूपांतर भी अज्ञान की पकड़ को कम करेगा; लेकिन इन दोनों में से कोई भी प्रभाव उसकी बाधाओं और सीमा- बंधनों को पूरी तरह से समाप्त नहीं करता; क्योकि ये प्रारंभिक परिवर्तन संपूर्ण चेतना और ज्ञान को नहीं लाते । निर्ज्ञान का मौलिक आधार, जो निश्चेतना की अपनी चीज है, फिर भी बना रहेगा जिसे हर मोड़ पर, बदलने, प्रबुद्ध करने, उसके विस्तार और उसकी प्रतिक्रिया की शक्ति को घटाने की जरूरत रहेगी । आध्यात्मिक उच्चतर मन की शक्ति और उसकी भाव-शक्ति हमारी मानसिकता में प्रवेश करने से परिवर्तित होती और घटती तो है ही, वह इन सभी विष-बाधाओं को झा फेंकने उगैर विज्ञानमय सत्ता का सृजन करने में समर्थ नहीं होती, लकिन वह पहला परिवर्तन, थोड़ा देर-फेर ला सकतीं है जो उच्चतर आरोहण और अधिक सशक्त अवतरण की योग्यता देगा और चेतना और ज्ञान की महत्तर शक्ति में सत्ता के समाकलन की तैयारी करेगा ।

 

     यह महत्तर शक्ति आलोकित मन की है, ऐसे मन की जो अब उच्चतर विचार का मन न रहकर आध्यात्मिक प्रकाश का मन है । यहां आध्यात्मिक बुद्धि की स्पष्टता, उसका शांत दिवालोक, आध्यात्म तत्त्व की तीव्र ज्योति को, आध्यात्म तत्त्व क वैभव और प्रकाश को अपना स्थान दे देता या उसकी अधीनता स्वीकार कर लेता है । ऊपर से चेतना में आध्यात्मिक सत्य और शक्ति की दीप्तियों की लीला फुट पड़ती है और महत्तर कल्पनागत आध्यात्मिक तत्त्वों की क्रिया के साथ

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आनेवाली या उसकी विशेषता दिखानेवाली शांति के अवतरण या सिद्धि के आग्नेय उत्साह और ज्ञान के हर्षोन्मत्त आनंद को अपना स्थान सौंप देती है । बहुधा भीतरी दृष्टि से दीखनेवाले प्रकाश की मूसलाधार वर्षा इस क्रिया को घेर लेती है; क्योंकि यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि हमारी सामान्य धारणा के विपरीत प्रकाश प्रथमत: कोई भौतिक सृजन नहीं है और भीतरी दीप्ति के साथ आनेवाले प्रकाश का संवेदन या दर्शन आत्मनिष्ठ दृश्य रूप या प्रतीकात्मक आभास मात्र नहीं है । प्रथमतः प्रकाश प्रकाशात्मक और सृजनात्मक दिव्य सद्‌वस्तु की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति है और भौतिक प्रकाश भौतिक ऊर्जा हेतु जड़ भौतिक में उसका बाद का निरूपण या रूपांतरण है । इस अवतरण में आंतरिक बल और शक्ति की महत्तर क्रियाशीलता का, स्वर्णिम वेग का, एक ज्योतिर्मय उत्साह का आगमन होता है जिससे उच्चतर मन की अपेक्षया धीमी और क्रमिक प्रक्रिया की जगह तेज रूपांतर का एक क्षिप्त, कभी-कभी उग्र यहांतक कि प्रचंड वेग ले लेता है ।

 

     प्रदीप्त मन प्रथमत: विचार द्वारा नहीं बल्कि दृष्टि-शक्ति द्वारा काम करता है । यहां विचार दृष्टि को व्यक्त करनेवाली एक गौण गति होता है । मानव मन, जो मुख्य रूप से विचार पर आश्रित होता है, उसीको ज्ञान की उच्चतम या मुख्य प्रक्रिया मानता है लेकिन आध्यात्मिक क्रम में विचार एक गौण प्रक्रिया है जो अनिवार्य नहीं है । शाब्दिक विचार के रूप में लगभग यह कहा जा सकता है कि यह अज्ञान को ज्ञान द्वारा दी गयी छूट है । चूंकि वह अज्ञान सत्य को अपने लिये अपने पूरे विस्तार और बहुविध आशयों में, सार्थक स्पष्ट ध्वनियों की सहायता के बिना स्पष्ट और सुबोध बनाने में असमर्थ है अतः वह इस उपाय के बिना भावों को ठीक-ठीक रूप-रेखा और अभिव्यंजक शक्ति नहीं दे सकता । लेकिन यह स्पष्ट है कि यह एक उपाय, एक यंत्र है । अपने-आपमें विचार, चेतना के उच्चतर स्तरों पर मूलत: एक प्रत्यक्ष दर्शन, वस्तु को या वस्तुओं के किसी सत्य को ज्ञान-संबंधी पकड़ में लेना है और यह आध्यात्मिक दृष्टि का सबल किंतु फिर भी गौण और आनुषंगिक परिणाम, एक आत्मा का आत्मा पर, विषयी का अपने-आपपर या अपने किसी अंश पर विषय-रूप में अपेक्षाकृत बाहरी और छिछला अवलोकन है; क्योंकि, वहां सब कुछ आत्मा की विविधता और बहुलता है । मन में किसी दृष्ट या आविष्कृत वस्तु तथ्य या सत्य के संपर्क के प्रत्यक्ष दर्शन का एक बाहरी प्रत्युत्तर होता है और परिणाम में उसका एक प्रत्ययात्मक रूपायण होता है लेकिन आध्यात्मिक ज्योति में चेतना का पदार्थ ही एक अधिक गभीर प्रत्यक्ष-दर्शन का उत्तर देता है और उस पदार्थ में एक अवधारक रूपायण होता है । सत्ता के उपादान में उसका एक ठीक-ठीक आकार या प्रकट होनेवाला भाव-रेखाचित्र आता है -इस विचारात्मक ज्ञान की यथार्थता और संपूर्णता के लिये और किसी चीज की जरूरत नहीं होती, किसी शाब्दिक प्रतिरूपायण की जरूरत नहीं होती । विचार सत्य की एक

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प्रतिनिधिक प्रतिमा का सृजन करता है । वह उसे मन को सत्य को धारण करने और ज्ञान का विषय बनाने के साधन के रूप में देता है । लेकिन गभीरतर आध्यात्मिक दृष्टि के सूर्य-प्रकाश में सत्य का शरीर ही पकड़ में आ जाता और ठीक-ठीक बना रहता है, विचार की बनायी हुई प्रतिनिधिक आकृति उसके आगे गौण और अमौलिक होती है, वह ज्ञान के संचार के लिये तो सबल होती है लेकिन ज्ञान के ग्रहण करने या उसपर अधिकार करने के लिये अनिवार्य नहीं होती ।

 

     दृष्टि द्वारा चालित होनेवाली चेतना, ऋषि की, द्रष्टा की चेतना, ज्ञान के लिये विचारक की चेतना से एक अधिक बड़ी शक्ति है । आंतरिक दृष्टि की बोधात्मक शक्ति विचार की बोधात्मक शक्ति की अपेक्षा अधिक बड़ी और अधिक प्रत्यक्ष है । यह एक आध्यात्मिक भाव है जो सत्य के तत्त्व के कुछ भाग को, केवल उसके शरीर को नहीं, पकड़ लेता है बल्कि उसके शरीर की रूप-रेखा भी बनाता है, साथ ही रूप के अर्थ को भी ग्रहण करता है । वह सत्य को विचार- धारणा की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और स्पष्ट रूप से प्रकट करनेवाली रूप-रेखा और समग्रता के एक विशालतर अवधारण और बल के साथ मूर्त्त कर सकता है । जैसे उच्चतर मन सत्ता में आध्यात्मिक भाव द्धारा और उसके सत्य की शक्ति द्धारा महत्तर चेतना लाता है उसी तरह प्रदीप्त मन सत्य-दृष्टि और सत्य-ज्योति और उसकी देखने और ग्रहण करने की शक्ति द्धारा और भी विशाल चेतना को ले आता है । वह अधिक प्रबल और गतिशील समाकलन को साधित कर सकता है, वह विचार-मन को प्रत्यक्ष अंतर-दृष्टि और अंतःप्रेरणा से आलोकित करता, हृदय में आध्यात्मिक दृष्टि लाता और उससे अनुभव और भावों में आध्यात्मिक प्रकाश और ऊर्जा लाता, प्राण-शक्ति को आध्यात्मिक प्रेरणा, सत्य प्रेरणा देता है जो कर्म को सक्रिय करती और जीवन-गतियों को ऊंचा उठाती है । वह इन्द्रियों में आध्यात्मिक संवेदन की प्रत्यक्ष और समग्र क्षमता उंडेलता है ताकि हमारी प्राणिक और शारीरिक सत्ता सभी चीजों में भगवान् के साथ संपर्क कर सके और ठोस रूप से उनसे मिल सके बिल्कुल उस तीव्रता के साथ जैसे मन और भाव कल्पना कर सकते और प्रत्यक्ष दर्शन का अनुभव कर सकते हैं । वह भौतिक मन पर रूपांतरकारी प्रकाश डालता है जो उसको सीमाओं को और परंपरागत तमस् को तोड़ता , उसकी संकीर्ण विचारशक्ति और उसके संदेहों के स्थान पर दृष्टि ले आता है और शरीर के कोषाणुओं तक में प्रकाश और चेतना उंडेलता है । आध्यात्मिक द्रष्टा और मनीषी उच्चतर मन द्वारा रूपांतर में अपनी संपूर्ण और क्रियाशील परिपूर्त्ति पायेगा, प्रदीप्त मन द्वारा रूपांतर में द्रष्टा और प्रदीप्त रहस्यवादी के लिये -जिनमें अंतरात्मा दृष्टि में, प्रत्यक्ष संवेदन और अनुभव में निवास करती है -ऐसी ही परिपूर्त्ति होगी; क्योंकि वे इन उच्चतर स्रोतों से अपना प्रकाश पाते हैं, उस प्रकाश में उठना और वहां निवास करना उनका अपने निजी साम्राज्य में आरोहण होगा ।

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लेकिन आरोहण की ये दो अवस्थाएं केवल एक तीसरे स्तर के संदर्भ में ही अपने अधिकार का भोग कर सकती और स्वयं अपनी संयुक्त पूर्णता पा सकती हैं क्योंकि उन उच्चतर शिखरों से ही, जहां अंतर्भासात्मक सत्ता निवास करती है, वे उस ज्ञान को प्राप्त करती हैं जिसे वे विचार या दृष्टि में बदल देती हैं और मन के रूपांतर के लिये हमारे पास नीचे उतार लाती हैं । अंतर्भास चेतना की ऐसी शक्ति है जो तादात्म्य द्वारा आद्य ज्ञान के अधिक निकट और अधिक घनिष्ठ होती है; क्योंकि वह सदा एक ऐसी चीज होती है जो प्रच्छन्न तादात्म्य में से सीधी उछल पड़ती है । जब विषय की चेतना विषयी की चेतना के साथ मिलती है, उसमें प्रवेश करती, वह जिसके संपर्क में आती है उसके सत्य को देखती, अनुभव करती या उसके साथ स्पंदित होती है तब अंतर्भास मिलन के धक्के से चिंगारी या बिजली की कौंध की तरह उछल पड़ता है या जब चेतना, ऐसे किसी मिलन के बिना भी अपने अंदर देखती है और प्रत्यक्ष, अंतरंग रूप से वहां के सत्य और सत्यों का अनुभव करती है या आभासों के पीछे छिपी शक्तियों के संपर्क में आती है तब भी अंतर्भासात्मक प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है; या फिर जब चेतना परम सद्धस्तु अथवा वस्तुओं और सत्ताओं की आध्यात्मिक वास्तविकता से मिलती है और उसके साथ संपर्कात्मक ऐक्य पा लेती है तो उसकी गहराइयों में सत्य के घनिष्ठ प्रत्यक्ष दर्शन की चिंगारी, चमक या दमक प्रच्चलित हो उठती है । यह घनिष्ठ प्रत्यक्ष दर्शन दृष्टि से अधिक, धारणा से अधिक कुछ है । यह एक भेदक, प्रकट करनेवाले स्पर्श का परिणाम है जो अपने अंदर दृष्टि और धारणा को अपने ही भाग या स्वाभाविक परिणाम के रूप में लिये रहता है । एक छिपा हुआ या सोता हुआ तादात्म्य, जो अभीतक फिर से नहीं जागा है, फिर भी अंतर्भास द्वारा अपनी अंतर्वस्तुओं और वस्तुओं के साथ अपनी स्वभावना तथा आत्म-दृष्टि में अंतरंगता, सत्य के अपने प्रकाश और उसकी अभिभूत करनेवाली स्वयं-चालित निश्चिति को याद रखता और संचारित करता है ।

 

     मानव मन में अंतर्भास एक ऐसी सत्य-स्मृति या सत्य-संचार होता है या ऐसी प्रकट करनेवाली चमक या अज्ञान के महान् पुंज में अथवा निर्ज्ञान के परदे में से फूट पड़नेवाली दमक होता है । लेकिन हमने देखा है कि वहां यह आक्रमण करनेवाले मिश्रण के आधीन हो जाता है या उसपर मानसिक ओप चढ़ जाता है या अवरोध या प्रतिस्थापन हो जाता है । वहां गलत अर्थ लगाने की बहुत-सी संभावनाएं रहती हैं जो उसकी क्रिया की शुद्धि और पूर्णता के मार्ग में आती हैं । और फिर सत्ता के सभी स्तरों पर आभासी अंतर्भास होते हैं जो अंतर्भास होने की जगह संचार होते हैं और उनके उद्‌गम, मूल्य और स्वभाव बहुत भिन्न होते हैं । अपने-आपको रहस्यवादी कहनेवाला अवयौक्तिक बहुधा प्राणिक स्तर पर अंधेरे और संकटपूर्ण स्रोत के ऐसे संचारों से प्रेरित होता है, क्योंकि सच्चा रहस्यवादी होने

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के लिये केवल तर्क-बुद्धि को अस्वीकार कर देना और विचार तथा क्रिया के ऐसे स्रोतों पर निर्भर रहना काफी नहीं होता जिनके बारे में हमें कोई समझ न हो । ऐसी परिस्थितियों में हम मुख्य रूप से तर्क-बुद्धि पर आश्रित रहने के लिये बाधित होते हैं और अंतर्भास या नकली अंतर्भास के सुझावों पर भी अवलोकन और विवेक- बुद्धि द्वारा -जो अधिक आया करते हैं -नियंत्रण लगाने के लिये प्रवृत्त होते हैं क्योंकि, हम अपने बौद्धिक भाग में यह अनुभव करते हैं कि इसके बिना हम इस बारे में निश्चित नहीं हो सकते कि कौन-सी सच्ची चीज है, कौन-सी मिश्रित और कौन-सी खोटवाली या झूठा प्रतिस्थापन है । लेकिन यह बड़ी हदतक हमारे लिये अंतर्भास की उपयोगिता कम कर देता है क्योंकि तर्क-बुद्धि इस क्षेत्र में कोई विश्वासपात्र मध्यस्थ नहीं है, क्योंकि उसके तौर-तरीके अलग, अस्थायी, अनिश्चित, एक बौद्धिक खोज होते हैं । यद्यपि वह स्वयं अपने निष्कर्षों के लिये वस्तुत: छद्म अंतर्भास पर आश्रित रहती है, क्योंकि उसकी मदद के बिना वह अपना रास्ता नहीं चुन सकती या किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकतीं, वह अपनी इस अधीनता को अपने-आपसे युक्ति-युक्त निष्कर्ष या परीक्षित अनुमान की प्रक्रिया तले छिपा लेती है । तर्क-बुद्धि के न्यायालय की आलोचना से निकला हुआ अतर्भास अंतर्भास नहीं रहता, उसमें केवल तर्क-बुद्धि की प्रामाणिकता रह जाती है जिसकी प्रत्यक्ष निश्चिति के लिये कोई आंतरिक स्रोत नहीं होता । लेकिन अगर मन मुख्यतया आतर्भासात्मक मन हो जाये, जो अपनी उच्चतर क्षमता के भाग पर निर्भर हो, तो भी उसके प्रत्ययों और अलग-अलग क्रियाओं के बीच सहयोजन तबतक कठिन बना रहेगा -क्योंकि मन में तो ये हमेशा अपूर्ण रूप से संबंध रखनेवाली दीप्तियों के क्रम की तरह रहेंगे -जबतक इस नयी मानसिकता का अपने अतिबौद्धिक स्रोत से संपर्क न हो जाये या वह अपने-आप उठकर चेतना की उस उच्चतर भूमि पर न पहुंच जाये जहां

 अंतभासिक क्रिया शुद्ध और सहजात है ।

 

     अंतर्भास सदा एक श्रेष्ठतर ज्योति की धार या किरण या छलांग होता है । वह हमारे अंदर दूरस्थ अतिमानसिक प्रकाश की प्रक्षिप्त धार, किनारा या बिंदु है जो हमारे ऊपर के किसी मध्यवर्ती सत्य-मन के पदार्थ में प्रवेश करता और उसके द्वारा कुछ परिवर्तित होता है और इस तरह परिवर्तित होकर फिर से हमारे सामान्य अज्ञानमय मन-पदार्थ में प्रवेश करके बहुत अंधा हो जाता है । लेकिन उच्चतर स्तर पर, जहां का वह निवासी है, वहां उसका प्रकाश अमिश्रित और इस कारण पूर्णतया, विशुद्ध रूप से सच्चा होता है । उसकी किरणें अलग-अलग न होकर उसकी लहरों की लीला में जुड़ी हुई या इकट्‌ठी हैं जिसे संस्कृत के काव्यमय रूपक में हम लगभग ''स्थिरा सौदामिनी'' का सागर या राशि कह सकते हैं । जब यह मौलिक या सहज अंतर्भास हमारे अंदर, हमारी चेतना के उसके स्तरतक आरोहण के उत्तर में या हमारे उसके साथ संचार के स्पष्ट तरीके को खोज लेने के

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परिणाम-स्वरूप उतरना शुरू करता है तो वह इक्की-दुक्की या सतत क्रियाशील बिजली की चमक की क्रीड़ा की तरह आना जारी रख सकता है लेकिन ऐसी अवस्था में तर्क-बुद्धि का निर्णय एकदम अनुपयुक्त हो जाता है । वह केवल एक प्रेक्षक या पंजीयक की तरह काम करती है जो उच्चतर शक्ति के अधिक प्रकाशमय संकेतों, निर्णयों और विवेचना को समझ और लिपिबद्ध कर सके । किसी अलग- थलग अंतर्भास को पूरा करने या उसके स्वभाव को पहचानने, उसके कार्यान्वयन और उसकी सीमाओं को जानने के लिये ग्रहण करनेवाली चेतना को एक और पूरक अंतर्भास पर निर्भर रहना होगा या अंतर्भास के ऐसे पुंज को नीचे उतारने में सक्षम होना होगा जो सबको यथा-स्थान रख सके । क्योंकि जब एक बार परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हो जाये तो मन के पदार्थ और क्रियाओं को अंतर्भास के सत्त्व, रूप और शक्ति में रूपांतरित करना अनिवार्य हो जाता है । जबतक चेतना की प्रक्रिया अंतर्भास की सेवा करने या उसे बाहर आने में सहायता देने या उसका उपयोग करने के लिये निम्नतर बुद्धि पर निर्भर है तबतक परिणाम केवल मिश्रित ज्ञान-अज्ञान का बना रहना हो सकता है जिसके ज्ञान-भागों में क्रिया करती हुई उच्चतर ज्योति और शक्ति उसे ऊपर उठाती या शांत करती है ।

 

     अंतर्भास में चतुर्विध शक्ति होती है, एक है सत्य-दर्शन की अंतःप्रकाशात्मक शक्ति, एक प्रेरणा की शक्ति या सत्य-श्रुति की, एक है सत्य-स्पर्श की या अर्थ के प्रत्यक्ष ग्रहण की शक्ति -हमारी मानसिक बुद्धि में अंतर्भास का हस्तक्षेप सामान्य रूप से इसीका सजातीय होता है -एक है सत्य के सत्य के साथ व्यवस्थित और यथार्थ संबंध की सच्ची और स्वतः -चालित विवेक-शक्ति -ये हैं अंतर्भास की चतुर्विध अंत-शक्तियां । अतः अंतर्भास तर्क-बुद्धि की सभी क्रियाएं कर सकता है -जिनमें तर्कसंगत बुद्धि की वे क्रियाएं भी आ जाती हैं जिनका काम है वस्तुओं का वस्तुओं के साथ और भाव का भाव के साथ उचित संबंध खोज निकालना -लेकिन अपनी ही श्रेष्ठतर प्रक्रिया और ऐसे चरणों से जो न तो असफल होते हैं न लड़खड़ाते हैं । साथ ही वह केवल विचारशील मन को ही नहीं बल्कि हृदय, प्राण, इंद्रिय और भौतिक चेतना को भी लेकर उन्हें अपने पदार्थ में रूपांतरित कर लेता है । इन सबमें पहले ही से अपनी अंतर्भास की विशिष्ट शक्तियां होती हैं जो प्रच्छन्न प्रकाश से अमल होती हैं । ऊपर से उतरती हुई शुद्ध शक्ति इन सबको अपने अंदर ले सकती और गहनतर हृदय के इन प्रत्यक्ष दर्शनों और प्राण के इन प्रत्यक्ष दर्शनों और शरीर के दिव्य होने को एक महत्तर समग्रता और पूर्णता दे सकती है । इस भांति वह समस्त चेतना को अंतर्भास के द्रव्य में बदल सकती है; क्योंकि, वह इच्छा में, अनुभवों और भावावेगों, प्राणिक आवेगों, इंद्रियों और संवेदनों की क्रिया में, यहांतक कि शरीर-चेतना की क्रियाओं में भी अपनी निजी, महत्तर, कांतिमय गतिविधि को ले आती है, वह उन्हें फिर से सत्य

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के प्रकाश और शक्ति में गढ़ती तथा उनके ज्ञान और अज्ञान को आलोकित करती है । इस तरह एक समाकलन तो हो सकता है लेकिन वह समग्र समाकलन है या नहीं यह इसपर निर्भर है कि नयी ज्योति अवचेतना को कहांतक ले सकी और आधारभूत निश्चेतना को कहांतक भेद सकी है । यहां अंतर्भासात्मक प्रकाश और शक्ति के काम में बाधा पड़ सकती है क्योंकि वह प्रतिनिधिक और परिवर्तित अतिमानस का किनारा तो होती है लेकिन तादात्म्य से पैदा ज्ञान की पूरी राशि या शरीर को अंदर नहीं लाती । हमारी प्रकृति में निश्चेतना का आधार बहुत अधिक विस्तृत, गहरा और ठोस है जिसे सत्य-प्रकृति की गौण शक्ति पूरी तरह भेद, प्रकाश में परिवर्तित और रूपांतरित नहीं कर सकती ।

 

     आरोहण का अगला चरण हमें अधिमानसतक ले आता है । अंतर्भासात्मक परिवर्तन इस उच्चतर आध्यात्मिक उन्मीलन के लिये एक भूमिका ही हो सकता है । लेकिन हम देख आये हैं कि जब अधिमानस अपनी क्रिया में समय न होकर वरणशील ही होता है, तब भी वह वैश्व चेतना की शक्ति, सार्वभौम ज्ञान का ही एक तत्त्व रहता है जिसमें अतिमानसिक विज्ञान की प्रतिनिधिक ज्योति रहती है । अत: वैश्व चेतना में खुलकर ही अधिमानसिक आरोहण और अवरोहण को पूरी तरह संभव बनाया जा सकता है -ऊपर की ओर 'उच्च और तीव्र वैयक्तिक उन्मीलन ही काफी नहीं है -शिखर की ज्योति की ओर उस ऊर्ध्वाधर आरोहण के साथ आध्यात्म सत्ता की किसी समग्रता में चेतना का क्षैतिज विस्तार भी जोड़ देना चाहिये । कम-से-कम आंतरिक सत्ता पहले ही सतही मन और उसके सीमित दृष्टिकोण की जगह अपनी गहरी और विस्तृत अभिज्ञता को प्रतिष्ठित कर चुकी हो और एक विशाल सार्विकता में रहना सीख चुकी हो; अन्यथा, अधिमानसिक दृष्टि और अधिमानसिक क्रिया-शक्ति को भीतर जाने और अपनी गतिशील क्रियाओं को कार्यान्वित करने के लिये जगह ही न मिलेगी । जब अधिमानस उतरता है तो केंद्रीकरण करनेवाले अहं- भाव की प्रमुखता पूरी तरह अधीनस्थ हो जाती, सत्ता की विशालता में खो जाती और अंत में लुप्त हो जाती है । उसके स्थान पर विस्तृत वैश्व दर्शन और सीमातीत वैश्व आत्मा और गतिविधि की अनुभूति आती है । बहुत- सी गति-विधियां, जो पहले अहं-केंद्रित थीं, फिर भी बनी रह सकती हैं लेकिन वे रहती हैं वैश्व विस्तार में लहरों या लहरियों की तरह । अब अधिकांश में विचार व्यष्टि-रूप में शरीर या व्यक्ति के अंदर से शुरू होता हुआ नहीं मालूम होता बल्कि ऊपर से प्रकट होता है या उसमें वैश्व मानसिक लहरियों पर आता है । वस्तुओं की समस्त भीतरी व्यक्तिगत दृष्टि या समझ, जो देखा गया है या समझ में आता है उसका अंत: -प्रकाश या आलोक है, परंतु उस अंत: -प्रकाश का स्रोत व्यक्ति की पृथक् आत्मा में न होकर वैश्व ज्ञान में होता है; भाव, आवेग, संवेदन भी इसी तरह उसी वैश्व विशालता की लहरों के रूप में अनुभव होते हैं जो सूक्ष्म और स्थूल

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शरीर से टकराती हैं और विश्व सत्ता का वैयक्तिक केंद्र उन्हें विशिष्ट रूप से उत्तर देता है; क्योंकि, विशाल वैश्व यंत्र-विन्यास की क्रिया के लिये शरीर केवल एक छोटा-सा आधार या उससे भी कम बस एक संबंध-बिंदु है । इस असीम विशालता में केवल पृथक् अहंकार ही नहीं बल्कि व्यक्तित्व का सारा बोध, यहांतक कि अधीनस्थ या यंत्रवत् व्यक्तित्व के सारे बोध भी गायब हो जाते हैं । रह जाती हैं केवल वैश्व सत्ता, वैश्व चेतना, वैश्व आनंद और वैश्व शक्तियों की लीला । अगर, पहले जो व्यक्तिगत मन, प्राण या शरीर था, उसमें आनंद का या शक्ति के केंद्र का अनुभव हो तो यह व्यक्तित्व के भाव के साथ नहीं बल्कि अभिव्यक्ति के क्षेत्र के रूप में होता है और आनंद का या शक्ति की क्रिया का यह भाव व्यक्ति या शरीरतक ही सीमित नहीं रहता बल्कि उसे हर जगह व्याप्त  ऐक्य की असीम चेतना में सभी बिंदुओं में अनुभव किया जा सकता है ।

 

     लेकिन अधिमानसिक चेतना और अनुभव के अनेक रूपायण हो सकते हैं क्योंकि अधिमानस में बहुत लचीलापन होता है और वह नाना संभावनाओं का क्षेत्र है । केंद्रहीन अनियत विस्तार के स्थान पर यह भाव हो सकता है कि विश्व हमारे अंदर है या हम ही विश्व हैं । लेकिन वहां भी यह आत्मा अहंकार नहीं है । वह एक मुक्त और शुद्ध तात्त्विक आत्म-चेतना का विस्तार है या सर्व के साथ तादात्म्य  है -एक ऐसा विस्तार या तादात्म्य जो एक वैश्व सत्ता, वैश्व व्यक्ति का निर्माण करता है । वैश्व चेतना की एक अवस्था में एक व्यक्ति होता है जो विश्व में समाया है लेकिन जो उसके अंदर की सभी चीजों के साथ, वस्तुओं और सत्ताओं के साथ, विचार और संवेदन के साथ, औरों के सुख-दुःख के साथ अपने-आपको तदात्म करता है; एक और अवस्था में अन्य सत्ताओं का हमारे अंदर समावेश होता है और उनके जीवन की वास्तविकता को अपनी निजी सत्ता के भाग के रूप में समाविष्ट किया जाता है । बहुधा इस विशाल गतिविधि का कोई नियम या शासन नहीं होता, वैश्व प्रकृति की मुक्त लीला होती है जिसे वह, जो व्यक्तिगत सत्ता थी, एक निष्क्रिय स्वीकृति या गतिशील तादात्म्य के साथ उत्तर देती है, जब कि आत्मा इस निष्क्रियता या इस वैश्व और निर्वैयक्तिक तादात्म्य और सहानुभूति की प्रतिक्रियाओं के किसी भी तरह के बंधन से स्वतंत्र और अक्षूब्ध रहती है । लेकिन अधिमानस के प्रबल प्रभाव या उसकी पूर्ण क्रिया से शासन का सर्वांगीण भाव, एक संपूर्ण अवलंब देनेवाली या अभिभूत करनेवाली उपस्थिति और वैश्वात्मा या ईश्वर का निर्देशन आ सकता और सामान्य बन सकता है या एक कोई विशेष केंद्र प्रकट हो सकता या बनाया जा सकता है जो भौतिक यंत्र के ऊपर रहता और उसपर आधिपत्य करता है, अस्तित्व के तथ्य में वैयक्तिक परंतु अनुभव करने में निर्वैयक्तिक हो और जिसे निर्बंध ज्ञान विश्वातीत और विश्वव्यापी पुरुष की क्रिया के यंत्र के रूप में मानता हो । अतिमानस की ओर संक्रमण में यह केंद्रीकरण

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करनेवाली क्रिया एक ऐसे सच्चे व्यक्ति की खोज की ओर प्रवृत्त होती है जो मृत अहं का स्थान लेता है, एक ऐसी सत्ता जो अपने सारतत्त्व में परम पुरुष के साथ एक है, विस्तार में विश्व के साथ एक है और फिर भी अनंत की विशिष्ट क्रिया का एक वैश्व केंद्र और उसकी परिधि है ।

 

     ये पहले सामाना परिणाम हैं और विकसित आध्यात्मिक सत्ता में अधिमानसिक चेतना की सामान्य नींव रखते हैं, लेकिन उसके प्रकार और विकास अनगिनत हैं । जो चेतना इस तरह कार्य करती है उसका अनुभव प्रकाश और सत्य की चेतना, प्रकाश और सत्य से भरी शक्ति, सामर्थ्य और क्रिया के रूप में होता है, सौंदर्य- बोध और सौंदर्य और आनंद के संवेदन के रूप में होता है, जो व्योरे में वैश्व और बहुविध है, जो समग्र में और सभी वस्तुओं में प्रकाशमय है, जो अपनी एक गति और सभी गतियों में, संभावनाओं के सतत विस्तार और लीला में अनंत है, यहांतक कि अपने अंतहीन और अनिर्धार्य निर्धारणों की बहुलता में भी । अगर आज्ञा देनेवाले अधिमानसिक विज्ञान की शक्ति हस्तक्षेप करे तो चेतना और क्रिया की एक वैश्व रचना बनती है लेकिन वह कठोर मानसिक रचनाओं की तरह नहीं होती । वह नम्य, जैव चीज होती है जो अनंत में बढ़ सकती, विकसित और प्रसारित हो सकती है । इस नयी प्रकृति में सभी आध्यात्मिक अनुभव अपना लिये जाते हैं और अभ्यासगत और सामान्य बन जाते हैं । मन, प्राण और शरीर के सभी तात्त्विक अनुभवों को लेकर आध्यात्मिक बना दिया जाता और बदला जाता है और उन्हें अनंत सत्ता की चेतना, आनंद और शक्ति के रूपों की तरह अनुभव किया जाता है । अंतर्भास, प्रदीप्त दृष्टि और विचार अपने-आपको विस्तृत करते, उनका पदार्थ अधिक सांद्रता, संहति और ऊर्जा धारण करता है, उनकी गतिविधि अधिक व्यापक, विश्वमंडलीय और बहुविध होती है जो अपनी सत्य-शक्ति में अधिक विस्तृत और शक्तिशाली होती है । सारी प्रकृति, ज्ञान, सौंदर्य-बोध, सहानुभूति, भावना, क्रियाशीलता, अधिक विश्वव्यापी, सर्वग्राही, सर्वालिंगनकारी और अनंत हो जाती हैं ।

 

     अधिमानसिक परिवर्तन क्रियाशील आध्यात्मिक रूपांतर की अंतिम परिपूर्तिदायक गति है । वह आध्यात्मिक मानस स्तर पर आत्मा की यथासंभव ऊंची-से-ऊंची स्थिति-गति है । उससे नीचे के तीनों चरणों में जो कुछ है वह उन सबको लेकर उनकी विशिष्ट क्रियाओं को उनकी उच्चतम और विशालतम शक्तितक उठाती है और उनके अंदर चेतना और शक्ति का अधिक-से- अधिक विस्तार, ज्ञान का स्वर- सामंजस्य, सत्ता का अधिक बहुविध आनंद जोड़ देती है । लेकिन उसकी अपनी विशिष्ट स्थिति और शक्ति से कुछ ऐसे कारण उठते हैं जो उसे आध्यात्मिक विकास की अंतिम संभावना होने से रोकते हैं । वह एक शक्ति है, यद्यपि निचले गोलार्द्ध की उच्चतम शक्ति है, यद्यपि उसका आधार है वैश्व ऐक्य, पर उसकी

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क्रिया विभाजन और पारस्परिक क्रिया की है, वह एक ऐसी क्रिया है जो बहुलता की लीला पर आधारित है । सर्व-मन की लीला की तरह उसकी लीला भी संभावनाओं का खेल है । यद्यपि वह अज्ञान में नहीं बल्कि इन संभावनाओं के सत्य के ज्ञान द्वारा क्रिया करती है, फिर भी वह उन्हें उनकी शक्तियों के स्वतंत्र विकास द्वारा संपादित करती है । वह प्रत्येक वैश्व नियम में उसी नियम के मौलिक अर्थ के अनुसार काम करती है, वह क्रियाशील परात्परता की शक्ति नहीं है । यहां पार्थिव जीवन में उसे एक वैश्व नियम के अनुसार चलना पड़ता है जिसका आधार है वह समस्त निर्ज्ञान जो मन, प्राण और शरीर के अपने ही मूल और चरम स्रोत से अलगाव से पैदा होता है । अधिमानस उस विभाजन को पाट सकता है लेकिन उसी बिंदुतक जहां पृथक्कारी मन अधिमानस में प्रवेश करता और उसकी क्रिया का अंग बन जाता हैं । वह व्यष्टिगत मन को वैश्व मन के साथ उसके उच्चतम स्तर पर युक्त कर सकता है, व्यष्टिगत आत्मा और वैश्व आत्मा का समीकरण कर सकता और प्रकृति को वैश्व क्रिया दे सकता है परंतु वह मन को उसके अपने परे नहीं लें जा सकता और आद्य निश्चेतना के इस जगत् में वह परात्परता को सक्रिय नहीं बना सकता क्योंकि केवल अतिमानस ही उस परात्परता की अभिव्यक्ति की परम आत्म-निर्धारक सत्य-क्रिया और प्रत्यक्ष शक्ति है । तो अगर विकसनशील प्रकृति की क्रिया यहां समाप्त हो जाती है तो चेतना को बृहत् ज्योतिर्मय विश्वात्मकता के बिंदुतक और अखंड सत्, चित् और आनंद की इस विशाल और सबल आध्यात्मिक अभिज्ञता की व्यवस्थित क्रीड़ातक ला चुकने के बाद अधिमानस उसके आगे तभी जा सकता है जब आध्यात्म तत्त्व के द्वार परार्द्वकी ओर खोल दिये जायें और एक ऐसी इच्छा-शक्ति हो जो जीव को वैश्व रूपायण में से निकलकर परात्परता में जाने में समर्थ बनाये ।

 

     स्वयं पार्थिव विकास में अधिमानस का अवतरण निश्चेतना को पूरी तरह बदलने में समर्थ न होगा । वह बस इतना ही कर सकता है कि प्रत्येक मनुष्य में, जिसका वह स्पर्श करे, उसकी आंतरिक और बाह्य, वैयक्तिक और वैश्व रूप से निर्वैयक्तिक, पूरी चेतन सत्ता को अपने पदार्थ में परिवर्तित करे और उसे अज्ञान पर आरोपित करे जिससे वह वैश्व सत्य और ज्ञान में आलोकित हो । लेकिन निर्ज्ञान की नींव बनी रहेगी । यह ऐसा होगा मानों सूर्य और उसका ग्रह-मंडल देश के आद्य अंधकार में चमकें और जहांतक उनकी किरणें पहुंच सकें वहांतक हर चीज को आलोकित कर दें ताकि जो कुछ प्रकाश में निवास करता है वह ऐसा अनुभव करे मानों उसके जीवन के अनुभव में कहीं कोई अंधकार नहीं है । लेकिन अनुभव के उस क्षेत्र या विस्तार के बाहर आद्य अंधकार बना रहेगा और: चूंकि अधिमानसिक रचना में सब कुछ संभव है अतः यह भी हो सकता है कि वह उसके साम्राज्य के भीतर बने इस प्रकाश-द्वीप पर फिर से आक्रमण करे । और फिर चूंकि अधिमानस

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विभिन्न संभावनाओं के साथ व्यवहार करता है अत: उसकी स्वाभाविक क्रिया आध्यात्मिक रूपायणों की किसी एक या अधिक या बहुत-सी पृथक् संभावनाओं को उनकी चरम सीमातक विकसित करने या उन्हें जोड़ने या अनेक संभावनाओं को एक साथ सामंजस्य में लाने की होगी । लेकिन यह आद्य पार्थिव सृष्टि में एक या अनेक सृजन होंगे जिनमें से हर एक अपने पृथक् अस्तित्व में पूर्ण होगा । इनमें विकसित आध्यात्मिक व्यक्ति होगा, उसी जगत् में एक या अनेक आध्यात्मिक समुदाय विकसित होंगे जैसे मानसिक मनुष्य पशु की प्राणिक सत्ता है, लेकिन हर एक पार्थिव नियम में एक शिथिल संबंध में अपने स्वतंत्र अस्तित्व को क्रियान्वित करेगा । एकत्व के तत्त्व की वह परम शक्ति सभी विभिन्नताओं को अपने अंदर लेती हुई और उन्हें एकत्व का भाग मानकर, उनपर शासन करती हुई -यही तो नयी विकसनशील चेतना का विधान होगा -अभी वहां न होगी । साथ ही, इतने से विकास से निश्चेतना के उस नीचे की ओर खिंचाव या गुरुत्वाकर्षण से बचाव नहीं हो सकता; यह मन और प्राण द्वारा उसके अंदर बने सभी रूपायणों को लुप्त कर देती, उसके अंदर से उठनेवाली या उसपर आरोपित सभी चीजों को लील जाती और उन्हें आद्य जड़ पदार्थ में विघटित कर देती है । निश्चेतना के इस खिंचाव से छुटकारा और अविच्छिन्न दिव्य या विज्ञानमय विकास के लिये सुरक्षित आधार केवल पार्थिव सूत्र में अतिमानस के अवतरण से ही प्राप्त हो सकता है, वह अपने साथ उसमें आध्यात्म पुरुष का परम विधान, प्रकाश और क्रियाशीलता लाता है और उसके साथ जड़-भौतिक आधार की निश्चेतना में प्रवेश करता और उसे रूपांतरित करता है । अत: अधिमानस से अतिमानस की ओर अंतिम संक्रमण और अतिमानस के अवतरण को विकसनशील प्रकृति की इस अवस्था में हस्तक्षेप करना ही चाहिये ।

 

    अधिमानस और उसकी प्रतिनिधिक शक्तियां मन को और मन पर निर्भर प्राण और शरीर को हाथ में लेकर उन्हें भेदते हुए सभी को एक विशाल करनेवाली प्रक्रिया के अधीन कर देंगी । इस प्रक्रिया के हर कदम पर विज्ञान की महत्तर शक्ति और उच्चतर तीव्रता, मन के शिथिल, बिखरे हुए घटते हुए और हल्के पड़ते हुए पदार्थ से कम-से-कम मिश्रित होते हुए अपने-आपको स्थापित कर सकेगी परंतु, चूंकि समस्त विज्ञान अपने मूल में अतिमानस की आद्या शक्ति है, अत: इसका अर्थ होगा प्रकृति में अतिमानसिक प्रकाश और शक्ति की अधिकाधिक अर्द्ध-अवगुण्ठित और अप्रत्यक्ष बाढ़ । यह तबतक चलता रहेगा जबतक उस बिंदुतक न पहुंचा जाये जहां स्वयं अधिमानस अतिमानस में रूपांतरित होने लगे । अतिमानसिक चेतना और शक्ति रूपांतर को सीधा अपने हाथ में ले लेगी, पार्थिव मन, प्राण और शारीरिक सत्ता के आगे उनके आध्यात्मिक सत्य और दिव्यता को प्रकट करेगी और अंत में समस्त प्रकृति में अतिमानसिक सत्ता का पूर्ण ज्ञान, शक्ति और सार्थकता उंडेलेगी । जीव अज्ञान- की सीमाओं के परे चला जायेगा और परम

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ज्ञान से अलग होने की आद्य रेखा को पार करके वह अतिमानसिक विज्ञान की समग्रता में प्रवेश करेगा, विज्ञानमय प्रकाश का अवतरण अज्ञान का संपूर्ण रूपांतर साधित करेगा ।

 

     इसे या इन्हीं रेखाओं पर ज्यादा बड़े रूप में संयोजित किसी चीज को आध्यात्मिक रूपांतर का योजना-बद्ध, तर्क-संगत और आदर्श विवरण माना जा सकता है । और अगर इसे सीढ़ियों का ऐसा अनुक्रम माना जाये जिसमें से हर एक को अगलेतक जाने से पहले पूरा करना जरूरी है तो इसे अतिमानसिक शिखर की चढ़ाई का संरचनात्मक नक्शा माना जा सकता है । यह ऐसा होगा मानों जीव एक संगठित प्राकृतिक व्यक्तित्व को व्यक्त करनेवाला यात्री है जो वैश्व प्रकृति में तराशी हुई चेतना- श्रेणियों पर चढ़ता चला जा रहा है और हर चढ़ाई उसे निश्चित समग्रता की तरह, चेतन पुरुष के एक पृथक् शरीर की तरह, उसकी सत्ता की एक अवस्था में से क्रमबद्ध दूसरी अवस्था में, समग्र के रूप में ले जाती है । यहांतक तो यह बात ठीक है कि अगली ऊपरी मंजिल की चढ़ाई को पूरी तरह सुरक्षित बनाने के लिये, उसके पहले की स्थिति का पर्याप्त समाकलन पूरा किया जाये । हों सकता है कि यह स्पष्ट अनुक्रम ऐसा मार्ग हो जिसका अनुसरण इस विकास-क्रम की पहली मंजिलों में कुछ लोगों ने किया हो और हो सकता है कि विकास का सारा सोपान निर्मित हो जाने और सुरक्षित बना लेने के बाद यह सामान्य पद्धति बन जाये । लेकिन विकसनशील प्रकृति विभिन्न खण्डों का युक्तिसंगत अनुक्रम नहीं है । वह सत्ता की ऊपर चढ़ती हुई ऐसी शक्तियों की समग्रता है जो एक-दूसरे में प्रवेश करती, समन्वय बिठाती और अपनी क्रिया में एक-दूसरे पर पारस्परिक संशोधन करती हैं । जब उच्चतर चेतना निम्नतर चेतना में उतरती है तो वह निम्नतर में परिवर्तन लाती है लेकिन साथ ही वह भी उसके द्वारा बदलती और घटती है । जब निचली ऊपर को चढ़ती है तो उसका उदात्तीकरण होता है लेकिन साथ-ही-साथ उदात्त करनेवाले पदार्थ और शक्ति को वह सीमित भी करती है । यह पारस्परिक क्रिया सत्ता की शक्ति और चेतना की अलग-अलग मध्यवर्ती और गुंथी हुई अवस्थाओं की प्रचुर संख्या का निर्माण करती है और साथ ही किसी एक शक्ति के पूर्ण निर्देशन में सभी शक्तियों का संपूर्ण समाकलन करना मुश्किल बना देती है । इसी कारण व्यक्ति के विकास में वस्तुत: सीधी-सादी, कटी-छंटी अवस्थाओं के अनुक्रम की शृंखला नहीं हैं, बल्कि एक जटिलता और अंशत: निर्दिष्ट, अंशत: अस्तव्यस्त व्यापकतावाली गति होती है । फिर भी जीव का वर्णन यूं किया जा सकता है कि वह एक यात्री और आरोही है जो अपने उच्च लक्ष्य की ओर एक- एक कदम करके जोर दे कर चढ़ रहा है; जिसके हर कदम को उसे पूरी तरह से निर्मित करना और बहुधा फिर-फिर उतरना पड़ता है ताकि वह सहार देनेवाले सोपान को फिर से बना सके और सुरक्षित कर सके, ताकि वह उसके बोझ से ढह

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न जाये : बल्कि समस्त चेतना के विकास की गति प्रकृति के चढ़ते हुए सागर की गति की सी होती है, उसकी तुलना ज्वार या ऊपर उठते हुए प्रवाह से की जा सकती है जिसका अगला भाग किसी चट्टान या पहाड़ी के उपरले हिस्से को छू रहा है और बाकी भाग नीचे ही हो । हर पर्व में प्रकृति के उच्चतर भागों को सामयिक किंतु अपूर्ण रूप से एक नयी चेतना में व्यवस्थित किया जा सकता है जब कि निचले भाग निरंतर प्रवाह या रूपायण की अवस्था में रहते हैं, जो अंशत: पुराने ही ढर्रे पर चलते रहते हैं, यद्यपि उनपर आंशिक प्रभाव भी पड़ता है और परिवर्तन भी शुरू होता है, एक अंश नयी तरह का होता है, उसकी प्राप्ति अधूरी होती है और वह परिवर्तन में मजबूत नहीं होता । दूसरा रूपक एक सेना का हो सकता है जो दस्तों में आगे बढ़ रही है, जो नयी-नयी जमीन हथियाते जाते हैं, जब कि मुख्य सेना अभीतक उस प्रदेश में पीछे ही है जिसे उसने जीत तो लिया है किंतु जो इतना अधिक बड़ा है कि प्रभावी रूप से हस्तगत नहीं किया जा सकता, अतः जीते हुए देश को संगठित करने और अधिकृत प्रदेश के ऊपर पकड़ बनाये रखने तथा वहां के लोगों को अपनाने के लिये उसे बार-बार रुकना और आंशिक रूप से लौटना पड़ता है । तेज विजय संभव हो सकती है लेकिन वह होगी विदेश में किसी पड़ाव या आधिपत्य स्थापित करने के जैसी । वह उस तरह का अंगीकरण, संपूर्ण आत्मसात्‌करण, समाकलन न होगा जो संपूर्ण अतिमानसिक परिवर्तन के लिये जरूरी है ।

 

     यह कुछ ऐसे परिणामों को जरूरी बना देता है जो विकास के स्पष्ट अनुक्रमों में हेर-फेर कर देते हैं और उसे स्पष्ट रूप से निश्चित और दृढ़ता से प्रतिष्ठित मार्ग का अनुसरण करने से रोकते हैं जिसकी मांग हमारी तर्क-बुद्धि प्रकृति से करती है परंतु पाती कभी-कदास ही है । जैसे जब जड़ पदार्थ का संगठन मन और प्राण को प्रवेश देने के लिये पर्याप्त हो जाये तो वे आना शुरू करते हैं लेकिन जड़ पदार्थ का अधिक जटिल और पूर्ण संगठन प्राण और मन के विकास के साथ ही आता है, जैसे मन तब प्रकट होता है जब प्राण इतना काफी संगठित हो जाये कि वह चेतना के विकसित स्पंदनों को प्रवेश दे सके, लेकिन प्राण अपना पूर्ण संगठन और विकास तभी पाता है जब मन उस पर क्रिया कर सके, जैसे आध्यात्मिक विकास तब शुरू होता है जब मन के रूप में मानव आध्यात्मिकता की गतियों को प्रवेश देने योग्य हो जाये लेकिन मन भी अपनी उच्चतम पूर्णतातक अपनी आत्मा की तीव्रताओं और ज्योतियों की वृद्धि द्वारा ही पहुंच सकता है । आत्मा की ऊपर चढ़नेवाली शक्तियों के इस उच्चतर विकास के बारे में भी यही बात है । जैसे ही काफी आध्यात्मिक विकास हो जाये, अंतर्भास का कोई अंश, सत्ता का आलोक, चेतना की उच्चतर आध्यात्मिक श्रेणियों की गतिविधियां, कभी एक, कभी दूसरी या सब मिलकर, प्रकट होना शुरू करती हैं और वे इसकी प्रतीक्षा नहीं करतीं कि किसी

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उच्चतर शक्ति के क्रियाशील होने के पहले शृंखला की प्रत्येक शक्ति अपने- आपको पूर्ण बना ले । एक अधिमानसिक ज्योति और शक्ति किसी तरह उतर सकती है, सत्ता में अपना एक आंशिक रूप बना सकती है, प्रमुख भाग ले सकती या निगरानी या हस्तक्षेप कर सकती है जब कि अंतर्भासमय और प्रदीपक मन और उच्चतर मन अभीतक अपूर्ण हैं । ये तब समग्र में बने रहेंगे और उच्चतर शक्ति के साथ कार्य करते रहेंगे । वह कभी इनमें प्रवेश करेगी कभी इन्हें उदात्त बनायेगी या ये उसमें ऊपर उठकर एक महत्तर या अधिमानसिक अंतर्भास, महत्तर या अधिमानसिक प्रकाश, महत्तर या अधिमानसिक आध्यात्मिक विचारणा को रूप देंगे । यह जटिल क्रिया इसलिये होती है क्योंकि हर उतरती हुई शक्ति प्रकृति पर अपने दबाव की तीव्रता और उत्थापक प्रभाव से सत्ता को अभी से ही -पहले की शक्ति स्वयं अपने आत्म-रूपायण में पूरी हो उससे पहले ही -अधिक ऊंचे आक्रमण के लिये तैयार कर देती है । लेकिन ऐसा इसलिये भी होता है क्योंकि अगर, अधिकाधिक उच्चतर हस्तक्षेप न हो तो निचली प्रकृति के अंदर उठने और रूपांतरित होने का कार्य मुश्किल से किया जा सकता है । प्रदीपन और उच्चतर विचार को अंतर्भास की सहायता की जरूरत होती है, अंतर्भास को अधिमानस की सहायता की जरूरत होती है ताकि वे जिस अंधकार और अज्ञान में परिश्रम कर रहे हैं उनसे लड़ सकें और अपनी पूर्णता उन्हें दे सकें । फिर भी, अंत में, जबतक उच्चतर मन और प्रदीप्त मन का अंतर्भास में समाकलन और अंतर्लयन न हों जाये और बाद में स्वयं अंतर्भास का समाकलन और अंतर्लयन सर्व-वृद्धिकारी तथा सर्व-उन्नायिका अधिमानसी ऊर्जा में न हो जाये तबतक अधिमानसिक स्थिति और समाकलन का सम्पादित होना संभव नहीं है । विकासशील प्रकृति की प्रक्रिया की जटिलता में भी क्रम के सिद्धांत को संतुष्ट करना पड़ता है ।

 

     स्वयं समाकलन की आवश्यकता के कारण जटिलता का एक और कारण उठ खड़ा होता है, क्योंकि इस प्रक्रिया में जीव का एक उच्चतर स्थिति की ओर आरोहण ही नहीं बल्कि इस तरह से प्राप्त उच्चतर चेतना का अवरोहण भी है ताकि वह निम्नतर प्रकृति को लेकर रूपांतरित कर दे । लेकिन इस प्रकृति में पहले के रूपायन की घनता होती है जो अवरोहण का प्रतिरोध करती और उसमें बाधा देती है । जब उच्चतर शक्ति बाधा को तोड़कर, नीचे उतरकर काम में लग जाती है तब भी हमने देखा है कि अज्ञान की प्रकृति प्रतिरोध करती और काम में बाधा देती है । वह या तो रूपांतर से एकदम इंकार करने की कोशिश करती है या नयी शक्ति में कुछ ऐसे हेर-फेर लाने की कोशिश करती है जो उसकी क्रियाओं के साथ मेल खाती हो या अपने-आपको उसपर फेंक देती है ताकि उसे अपनी पकड़ में लेकर, उसे अवनत कर अपनी ही क्रियाविधि और घटिया प्रयोजन का दास बना ले । साधारणत: प्रकृति के इस कठिन द्रव्य के ग्रहण और आत्मसात् करने के काम में

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उच्चतर शक्तियां पहले मन में उतरती हैं और मानसिक केन्द्रों पर अधिकार कर लेती हैं क्योकि वे समझ और ज्ञान-शक्ति में उनके सबसे अधिक नजदीक हैं । अगर वे हृदय में या शक्ति और संवेदन की प्राणिक सत्ता में उतरें, जैसा कि वे कभी-कभी करती हैं, क्योंकि कई व्यक्तियों में ये केंद्र ज्यादा खुले हुए होते हैं और उन्हें पहले बुलाते हैं, तो परिणाम उस अवस्था की अपेक्षा, जिसमें चीजें तर्क-संगत क्रम में होती हैं, अधिक मिश्रित, और संदिग्ध, अपूर्ण और असुरक्षित होते हैं । लेकिन उतरनेवाली शक्ति अपनी सामान्य क्रिया में भी, जब वह सत्ता को एक-एक भाग करके, अवरोहण के स्वाभाविक क्रम में लेती है, वह आगे जाने से पहले हर एक पर संपूर्ण अधिकार और उनका रूपांतर नहीं ला सकती । वह केवल एक सामान्य और अपूर्ण अधिकार कार्यान्वित कर सकती है ताकि हर एक की क्रियाएं फिर भी अंशत: नये उच्चतर क्रम की, अंशत: मिश्रित और अंशत: अपरिवर्तित निम्नतर क्रम की चीज रहती हैं । पूरा-का-पूरा मन अपने सारे क्षेत्र में एकदम रूपांतरित नहीं किया जा सकता क्योंकि मानसिक केन्द्र शेष सत्ता से अलग-थलग क्षेत्र नहीं है । मन की क्रिया में प्राणिक और भौतिक अंगों की क्रियाएं प्रवेश करती हैं और स्वयं उन भागों के अंदर मन की निचली रचनाएं हैं, प्राणिक मन है और भौतिक मन भी और मनोमय सत्ता के संपूर्ण रूपांतर से पहले उनका बदलना जरूरी है । अत: संपूर्ण मानसिक रूपांतर की प्रतीक्षा किये बिना, उच्चतर रूपांतरकारी शक्ति को जितनी जल्दी हो सके, हृदय में उतरना चाहिये ताकि वह भावात्मक प्रकृति पर अधिकार कर सके और उसे बदल सके, उसके बाद निम्नतर प्राणिक केन्द्रों में, ताकि वह समस्त प्राणिक और क्रियाशील तथा संवेदनशील प्रकृति पर कब्ज़ा कर सके और उसे बदल सके और अंत में भौतिक केन्द्रों में, ताकि वह समस्त भौतिक प्रकृति पर कब्जा कर सके और उसे बदल सके । लेकिन यह अंतिमता भी अंतिम नहीं है क्योंकि अभी अवचेतन भाग और निश्चेतन आधार बाकी है । सत्ता की इन शक्तियों और भागों की जटिलताएं और आपस में गुंथी क्रिया इतनी ज्यादा पेचीदा है कि यह कहा जा सकता है कि इस परिवर्तन में, जबतक सब कुछ उपलब्ध न हो जाये तबतक कुछ भी प्राप्त नहीं होता । ज्वार और भाटा होता है; पुरानी प्रकृति की शक्तियां पीछे हटती हैं और फिर आंशिक रूप से अपने पुराने राज्य पर अधिकार कर लेती हैं । वे धीरे- धीरे पीछे हटती हैं, उनकी टुकड़ियां पुष्ट-रक्षक युद्ध करती हैं, फिर से आक्रमण करती हैं और आक्रमणों का जवाब भी देती हैं । हर बार उच्चतर प्रवाह अधिक जीते हुए देशों में फैलता है लेकिन उसकी प्रभुता की निश्चिति तबतक अधूरी रहती है जबतक ऐसा कुछ भी बचा रह जाये जौ उसके आलोकमय राज्य का अंग न बन गया हो ।

 

     चेतना की एक ही समय में एक से अधिक स्थितियों में रहने की शक्ति एक तीसरी जटिलता ले आती है । विशेषकर कठिनाई पैदा होती है हमारी सत्ता के

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भीतरी और बाहरी या सतही प्रकृति के विभाजन में और उस गुह्य परिचेतन या पर्यावरण की चेतना की और अधिक जटिलता से जिसमें अपने से बाहर के जगत् के साथ हमारे अदृष्ट संबंधों का निश्चय होता है । आध्यात्मिक उद्‌घाटन में जाग्रत् आंतरिक सत्ता आसानी से उच्चतर प्रभावों को ग्रहण और आत्मसात् करती और उच्चतर प्रकृति को धारण कर लेती है, बाहरी सतही आत्मा पूरी तरह से अज्ञान और निश्चेतना की शक्तियों द्वारा गढ़ी जाती है । वह जागने में अधिक धीमी, ग्रहण करने में अधिक धीमी और आत्मसात् करने में अधिक धीमी है । अत: एक लम्बी अवस्था होती है जिसमें आंतरिक सत्ता पर्याप्त रूप से रूपांतरित होती है लेकिन बाहरी अपूर्ण परिवर्तन की मिश्रित और कठिन गतिविधि में फंसी रहती है । आरोहण के एक-एक चरण पर यह असमानता अपने-आपको दोहराती है क्योंकि प्रत्येक परिवर्तन में आंतरिक सत्ता अधिक खुशी से अनुसरण करती है और बाहरी पीछे-पीछे लंगड़ाती है या अपनी अभीप्सा और इच्छा के बावजूद अनिच्छुक या अक्षम होती है; इस कारण अंगीकार करने, अनुकूल बनाने और स्थिति-निर्धारण के लिये बार-बार किये गये सतत श्रम की जरूरत होती है । इस श्रम को बार-बार नये रूपों में लाया जाता है परंतु तत्त्व हमेशा वह का वही रहता है । लेकिन जब व्यक्ति की बाहरी और भीतरी प्रकृति सामंजस्यपूर्ण आध्यात्मिक चेतना में मिल भी जाये तब भी उसका वह बाह्यतम किंतु गुह्य भाग, जिसमें उसकी सत्ता बाहरी जगत् की सत्ता के साथ मिलती है, जिसके द्वारा बाहरी जगत् उसकी चेतना पर आक्रमण करता है, वह अपूर्णता का क्षेत्र बना रहता है । निश्चय ही यहां विषम प्रभावों के बीच आदान-प्रदान होता है । भीतरी आध्यात्मिक प्रभाव से विपरीत प्रभाव मिलते हैं जो वर्तमान जगत्-व्यवस्था पर शासन करने में सबल हैं । नयी आध्यात्मिक चेतना को अज्ञान की उन प्रधान और प्रतिष्ठित आध्यात्मिकभावापन्नता-विहीन शक्तियों के आघात सहने पड़ते हैं । यह एक ऐसी कठिनाई पैदा कर देती है जो आध्यात्मिक विकास और प्रकृति के परिवर्तन के लिये अपनी प्रेरणा के सभी क्षेत्रों में बहुत महत्व रखती है ।

 

     एक आत्मनिष्ठ आध्यात्मिकता स्थापित की जा सकतीं है जो जगत् के साथ आदान-प्रदान करने से इंकार करती या उसे बहुत कम कर देती है या उसकी क्रियाओं को साक्षी बनकर देखने से संतुष्ट होती है और उसके आक्रमणकारी प्रभावों को किसी प्रतिक्रिया की या उनकी घुसपैठ की अनुमति दिये बिना उन्हें पीछे फेंक देती या बाहर फेंक देती है । लेकिन अगर आंतरिक आध्यात्मिकता को स्वतंत्र जगत्-व्यापार में वस्तुनिष्ठ बनाना है, अगर व्यक्ति को अपने-आपको जगत् में प्रक्षिप्त करना है और एक अर्थ में जगत् को अपने अंदर लेना है तो यह अपनी परिचेतन या अपने पर्यावरण की सत्ता द्वारा जगत् के प्रभावों को ग्रहण किये बिना सक्रिय रूप से नहीं किया जा सकता । तब आध्यात्मिक अंतश्चेतना को इन प्रभावों

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के साथ इस तरह व्यवहार करना होता है कि जैसे ही वे नजदीक आयें या प्रवेश करें तो वे या तो लुप्त और निष्फल हो जाएं या अपने प्रवेश मात्र से उसकी रीति और पदार्थ में रूपांतरित हो जाएं । या हो सकता है कि वह उन्हें आध्यात्मिक प्रभाव ग्रहण करने और जिस लोक से वे आते हैं उसपर रूपांतरकारी बल लेकर लौट जाने के लिये बाधित करे क्योंकि निचली वैश्व प्रकृति को इस तरह बाधित करना संपूर्ण आध्यात्मिक क्रिया का अंग है । लेकिन, उसके लिये परिचेतन या पर्यावरण की सत्ता को आध्यात्मिक ज्योति और आध्यात्मिक पदार्थ में इतना अधिक डूबा हुआ होना चाहिये कि रूपांतरित हुए बिना कोई भी चीज उसके अंदर प्रवेश न कर सके । आक्रामक बाहरी प्रभाव अपनी निम्नतर अभिज्ञता, अपनी निम्नतर दृष्टि, अपनी निम्नतर क्रियाशीलता को बिलकुल न ला सके । लेकिन यह कठिन पूर्णता है क्योंकि सामान्यत: परिचेतन पूरी तरह से हमारी रूपायित और उपलब्ध आत्मा नहीं है बल्कि हमारी सत्ता और बाहरी जगत्-प्रकृति का योग है । इस कारण बाहरी क्रिया को रूपांतरित करने की अपेक्षा आंतरिक आत्म-निर्भर भागों को आध्यात्मिक बनाना हमेशा ज्यादा आसान होता है । अंतर्दर्शी, अंतर्निवासी या आत्मनिष्ठ आध्यात्मिकता की पूर्णता जो संसार से अलग- थलग हों या उससे सुरक्षित हो, ऐसी पूर्णता जगत् का आलिंगन करनेवाली, उसके पर्यावरण की मालिक होनेवाली, जगत्- प्रकृति के साथ अपने संसर्ग में प्रभुतासंपन्न होनेवाली, जीवन में वस्तुनिष्ठ, क्रियाशील और गतिशील आध्यात्मिकता में सारी प्रकृति की पूर्णता की अपेक्षा ज्यादा सरल है । लेकिन, चूंकि सर्वांगीण रूपांतर को पूरी तरह से क्रियाशील सत्ता को आलिंगन में ले लेना होगा और अपने अंदर क्रिया के जीवन और अपने बाहर की जगदात्मा को समाविष्ट करना होगा अत: विकसनशील प्रकृति से इस अधिक संपूर्ण परिवर्तन की मांग की जाती है ।

 

     मुख्य कठिनाई इस तथ्य से आती है कि हमारी सामान्य सत्ता का पदार्थ निश्चेतना में से गढ़ा गया है । हमारा अज्ञान सत्ता के ऐसे पदार्थ में ज्ञान का विकास है जो निर्ज्ञान है । वह जिस चेतना को विकसित करता है, वह जिस ज्ञान को स्थापित करता है, यह निर्ज्ञान हमेशा उनका पीछा करता रहता, उनमें प्रवेश करता और उन्हें घेरे रहता है । निर्ज्ञान के इस पदार्थ को, अतिचेतन के पदार्थ में, एक ऐसे पदार्थ में रूपांतरित करना होगा जिसमें चेतना और आध्यात्मिक अभिज्ञता हमेशा रहती हैं चाहे वे सक्रिय न हों, प्रकट न हों, ज्ञान के रूप में न रखी गयी हों । जबतक यह न हो जाये निर्ज्ञान, जो कुछ उसमें प्रवेश करता है उसपर आक्रमण करता, उसे घेर लेता, यहांतक कि निगलकर अपने विस्मरणशील अंधकार में आत्मसात् कर लेता है । वह उतरनेवाले प्रकाश को उस अवर प्रकाश के साथ समझौता करने के लिये बाधित करता है जिसमें वह प्रवेश करता है : एक मिश्रण होता है, प्रकाश क्षुण्ण और मद्धम पड़ जाता है, उसके सत्य और बल में ह्रास

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और परिवर्तन आता है, उसके सत्य और शक्ति की प्रामाणिकता पूर्ण नहीं रह जाती या कम-से-कम, निर्ज्ञान उसके सत्य को सीमित करता है, उसकी शक्ति को सीमाबद्ध करता, उसकी व्यावहारिकता और क्षेत्र को खंडित करता है; उसके तात्त्विक सत्य को व्यक्तिगत उपलब्धि के पूर्ण सत्य होने से या वैश्व व्यवहार के उपलब्ध सत्य होने से रोक दिया जाता है । इस तरह जीवन-विधान के रूप में प्रेम व्यावहारिक रूप से अपनी स्थापना एक आंतरिक सक्रिय तत्त्व के रूप में कर सकता है लेकिन जबतक वह सत्ता के सारे पदार्थ में न व्याप्त हो जाये तबतक संपूर्ण वैयक्तिक भावना और कर्म को प्रेम के विधान से नहीं गढ़ा जा सकता । अगर उसे व्यक्ति में पूर्ण कर भी दिया जाये तो भी उसके प्रति अंधा और प्रतिरोधी रहनेवाला व्यापक निर्ज्ञान उसे एकांगी और निष्प्रभावभाव बना सकता है या फिर प्रेम अपने वैश्व व्यवहार के क्षेत्र को सीमाबद्ध करने के लिये बाधित होता है । मानव प्रकृति में सत्ता के नये विधान के साथ सामंजस्य रखनेवाला पूर्ण कार्य हमेशा कठिन होता है क्योंकि निश्चेतना के द्रव्य में अंधी आदेशात्मक आवश्यकता का विधान होता है जो उसमें से निकलनेवाली या उसमें प्रवेश करनेवाली संभावनाओं की लीला को सीमित कर देती है और उन्हें अपनी स्वतंत्र क्रिया और परिणाम स्थापित करने या अपनी निजी पूर्णता की तीव्रता को चरितार्थ करने से रोकती है । उन्हें बस मिश्रित, सापेक्ष, दमित और घटी हुई लीला की ही स्वीकृति मिलती है अन्यथा वे निश्चेना के ढांचे को रद्द कर देंगी और विश्व-व्यवस्था के आधार को प्रभावी रूप से बदले बिना उग्र रूप से विक्षुब्ध कर देंगी; क्योंकि, उनमें से किसी के अंदर भी अपनी मानसिक या प्राणिक लीला में वह दिव्य शक्ति नहीं है कि इस अंधकारमय मूल तत्त्व का स्थान ले ले और एक पूर्णतया नयी वैश्व-व्यवस्था संगठित कर सके ।

 

     मानव प्रकृति का रूपांतर केवल तभी सिद्ध हो सकता है जब सत्ता का पदार्थ आध्यात्मिक तत्त्व में इतना डूबा हुआ हों कि उसकी सभी गतियां आत्मा की सहज क्रियाशीलता और सामंजस्यपूर्ण प्रक्रिया हों । लेकिन तब भी, जब उच्चतर शक्तियां और उनकी तीव्रताएं निश्चेतना के पदार्थ में प्रवेश करती हैं, उनका सामना इस अंधी, विरोधी 'आवश्यकता' से होता है और वे निर्ज्ञान पदार्थ के इस सीमित करनेवाले और घटानेवाले विधान के आधीन हो जाती हैं । यह आवश्यकता उनका विरोध हमेशा अपने स्थापित और अटल विधान के सबल स्वत्वाधिकार प्रस्तुत करके करती है, हमेशा जीवन के दावे का सामना मृत्यु के विधान से, प्रकाश की मांग का सामना छाया के उभार और अंधकार की पृष्ठभूमि की आवश्यकता से, आत्मा के प्रभुत्व, स्वाधीनता और क्रियाशीलता का सामना अपनी उस शक्ति से करती है जो परिसीमित करके समायोजन करती है, असमर्थता से सीमा आंकती है, और उसका सामना एक आद्य तमस् की विश्रान्ति पर ऊर्जा की स्थापना से करती

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है । उसके नकारों के पीछे एक गुह्य सत्य है । अतिमानस ही आद्या सद्धस्तु में विपरीतताओं के बीच मेल बैठाने की अपनी क्रिया से इस सत्य को ग्रहण कर सकता और इस पहेली का व्यावहारिक समाधान खोज सकता है । आधारभूत निर्ज्ञान की इस कठिनाई को केवल अतिमानसिक शक्ति ही पूरी तरह जीत सकती है क्योंकि उसके साथ एक विपरीत, प्रकाशमय आदेशात्मक आवश्यकता प्रवेश करती है जो सभी चीजों के नीचे रहती है और स्वयंभू अनन्त की मूल तथा अंतिम आत्म-निर्धारक सत्य-शक्ति है । यह महत्तर प्रकाशमय आध्यात्मिक आवश्यकता और उसका प्रमुसत्तात्मक आदेश ही निश्चेतना की अंधी नियति को स्थान से हटाकर पूरी तरह अनुविद्ध कर सकते और उसे अपने- आपमें रूपांतरित करके उसका स्थान ले सकते हैं ।

 

     सत्ता के सारे पदार्थ का अतिमानसिक रूपांतर, और साथ ही आवश्यक रूप से उसके समस्त गुणों, शक्तियों, गतिविधियों का रूपांतर तभी हो सकता है जब प्रकृति में अंतर्लीन अतिमानस अतिप्रकृति से आनेवाले अतिमानसिक प्रकाश और शक्ति से मिलने और एक होने के लिये आविर्भूत होता है । व्यष्टि को रूपांतर का यंत्र और पहला क्षेत्र होना चाहिये लेकिन एक अलग- थलग व्यष्टिगत रूपांतर काफी नहीं होता और पूरी तरह साध्य भी नहीं हों सकता । अगर वैयक्तिक परिवर्तन हो भी जाये तो उसकी स्थायी और वैश्व सार्थकता तभी होगी जब व्यक्ति प्रकृति की पार्थिव क्रियाओं के बीच एक प्रकट सक्रिय शक्ति के रूप में अतिमानसिक चित्- शक्ति की स्थापना के लिये एक केन्द्र और चिह्न बन जाये -उसी तरह जैसे विचारशील मन मानव विकास द्वारा एक प्रकट क्रियाशील शक्ति के रूप में प्राण और जड़-पदार्थ में स्थापित हुआ है । इसका अर्थ होगा विकास-क्रम में एक विज्ञानमय सत्ता या पुरुष और विज्ञानमय प्रकृति का प्रकटन । पार्थिव समग्र में मुक्त और सक्रिय अतिमानसिक चित्-शक्ति का उन्मेष और प्राण तथा शरीर में आध्यात्म पुरुष का व्यवस्थित अतिमानसिक माध्यम होना चाहिये; क्योंकि शरीर- चेतना को भी नयी अतिमानसिक शक्ति और उसकी नयी व्यवस्था की क्रियावली का उचित साधन बनने के लिये पर्याप्त रूप से जाग्रत् होना चाहिये । तबतक कोई मध्यवतीं परिवर्तन केवल आंशिक और असुरक्षित ही हो सकता है । प्रकृति का एक अधिमानसिक या अंतर्भासात्मक साधन विकसित किया जा सकता है लेकिन वह आधारभूत और पर्यावरण संबंधी निश्चेतना पर आरोपित ज्योतिर्मय रूपायन होगा । अगर अतिमानसिक तत्त्व और उसकी वैश्व-क्रिया एक बार स्थायी रूप से स्वयं अपने आधार पर प्रतिष्ठित हो जायें तो अधिमानस और आध्यात्मिक मन की मध्यवर्ती शक्तियां उसपर अपने-आपको सुरक्षित रूप से प्रतिष्ठित कर सकती हैं और अपनी पूर्णतातक पहुंच सकती हैं । वे पार्थिव जीवन में मन और स्थूल प्राण से उठकर परम आध्यात्मिक स्तर की ओर जानेवाली चेतना की स्थितियों का

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सोपानक्रम होंगी । मन और मानसिक मानवता आध्यात्मिक विकास में एक चरण के रूप में रहेंगे लेकिन इनके ऊपर और कोटियां होंगी जो रूपायित और पहुंच के अंदर होंगी, जिनके द्वारा शरीरधारी मानसिक जीव, जैसे-जैसे तैयार होता जायेगा, ऊपर विज्ञान में चढ़ सकेगा और शरीरधारी अतिमानसिक और आध्यात्मिक सत्ता में बदल सकेगा । इस आधार पर पार्थिव प्रकृति में दिव्य जीवन का तत्त्व अभिव्यक्त होगा, अज्ञान और निश्चेतना का जगत् भी अपने अंदर छिपे रहस्य को खोज सकेगा और हर निचली कोटि में उसका दिव्य अर्थ अनुभव करना शुरू करेगा ।

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