Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १६
अतिमानस की त्रिपुटी
भूतभृत्... ममात्मा भूतभावन: ।
अहमात्मा... सर्वभूताशयस्थित ।।
मेरी आत्मा वह है जो सभीको सहारा देती है और उनके अस्तित्व को संघटित करती है... । मैं वह आत्मा हूं जो सब सत्ताओं में निवास करती है ।
गीता ९.५ १०.२०
त्रर्यमा... त्री रोचना दिव्या धारयन्त ।
ज्योति की तीन शक्तियां तीन दिव्य ज्योतिर्मय लोकों को धारण करती हैं ।
ऋग्वेद ५.२९.१
हम जिस जगत् में निवास करते हैं उसे प्रज्ञान चेतना के इस अधिक सरल दृष्टिकोण से समझने से पहले -यह चेतना चीजों को उस तरह देखती है जैसे कोई मन की सीमाओं से मुक्त और दिव्य अतिमानस की क्रिया में भाग लेने के लिये प्रवेश-प्राप्त व्यष्टिगत आत्मा देखती है -रुककर हमें संक्षेप में उसको दोहरा लेना चाहिये जो हमने प्रभु की, ईश्वर की चेतना के बारे में जाना और समझा है, या अब भी जान और समझ सकते हैं कि कैसे वह अपनी सत्ता के आद्य संकेंद्रित एकत्व में से अपनी माया द्वारा जगत् की सृष्टि करता है ।
हम इस दृढ़ कथन को लेकर चले हैं कि समस्त अस्तित्व एक सत्ता है जिसका मूल स्वरूप है चेतना, एक ऐसी चेतना जिसका सक्रिय स्वरूप है शक्ति या इच्छा और यह सत्ता आनंद है, यह चेतना आनंद है, यह शक्ति या इच्छा आनंद है । सत्ता का शाश्वत और अविच्छेद्य आनंद, चेतना का आनंद, शक्ति या इच्छा का आनंद, चाहे वह अपने-आपमें संकेंद्रित और विश्रामावस्था मे हों अथवा सक्रिय और सृजनात्मक हो, वह ईश्वर ही है और वही हम हैं अपनी मूत्र, अपनी नाम-रूपरहित सत्ता में । आत्म-संकेंद्रित अवस्था में वह मूलभूत शाश्वत और अविच्छेद्य आनंद का स्वामी बल्कि स्वयं वही आनंद होता है । सक्रिय और सृजनात्मक रूप में वह सत्ता की क्रीड़ा के आनंद का, चेतना की क्रीड़ा के आनंद का, चेतना की क्रीड़ा के आनंद का, शक्ति और इच्छा का लीला के आनंद, का स्वामी होता है बल्कि स्वयं वही आनंद बन जाता है । वह लीला ही विश्व है और वह आनंद ही विश्व सत्ता का एकमात्र कारण, प्रेरक और उद्देश्य है । भागवत चेतना शाश्वत और अविच्छेद्य रूप से उस लीला और आनंद की स्वामी है । हमारी मूल सत्ता हमारी वास्तविक आत्मा जिसे हमारी मिथ्था आत्मा या मानसिक अहंकार हमसे
१४३
छिपाये हुए हैं, भी उस लीला और आनंद को शाश्वत और अविच्छेद्य रूप से भोगती है, इससे भिन्न वस्तुत: वह कुछ कर ही नहीं सकती क्योंकि वह अपनी सत्ता में दिव्य चेतना के साथ एक है । अतः यदि हम दिव्य जीवन के लिये अभीप्सा करते हैं तो उसे हम किसी और तरह से नहीं पा सकते सिवाय इसके कि हम अपने अंदर पर्दे में छिपी इस आत्मा को पर्दे से बाहर लायें, मिथ्या आत्मा या मानसिक अहं में निवास की अपनी वर्तमान स्थिति से वास्तविक स्व की, आत्मा की उच्चतर स्थिति में आरोहण करें, भागवत चेतना के साथ उस एकत्व में प्रवेश करें जिसमें हमारे अंदर की कोई अतिचेतन वस्तु सदा ही रस लेती है -अन्यथा हमारा अस्तित्व ही नहीं रह सकता था -परंतु जिसे हमारी सचेतन मानसिकता ने खो दिया है ।
लेकिन जब हम इस प्रकार एक ओर तो सच्चिदानंद के इस एकत्व का और दूसरी ओर इस विभक्त मानसता का प्रतिपादन करते हैं तो हम दो परस्पर-विरोधी तत्त्वों की स्थापना कर डालते हैं, उनमें से एक को अगर हम सच्चा मानें तो दूसरे को मिथ्या होना होगा, अगर एक का भोग करना हो तो दूसरे को मिटा देना होगा । परंतु हम धरती पर तो मन में और उसके जो रूप हैं प्राण और शरीर, उन्हीमें रहते हैं और अगर हमें उस एकमेव सत् चित् और आनंदतक पहुंचने के लिये मन, प्राण और शरीर की चेतना को मिटा देना पड़े तो दिव्य जीवन यहां असंभव होगा । परात्पर का आनंद पाने या फिर से परात्पर बन जाने के लिये हमें वैश्व जीवन को पूरी तरह से, भ्रांति मानकर, त्याग देना होगा । इस समाधान से तबतक नहीं बचा जा सकता जबतक दोनों के बीच एक ऐसी कड़ी न हो जो दोनों को एक-दूसरे का विवरण दे सके और उनके बीच ऐसा संबंध स्थापित कर सके कि वह मन, प्राण और शरीर के सांचे में सच्चिदानंद को पाना हमारे लिये संभव बना दे ।
और यह बीच की कड़ी मौजूद है । हम उसे अतिमानस या सत्य-चेतना (ऋत-चित्) कहते हैं क्योंकि वह मन से श्रेष्ठतर तत्त्व है और वह वस्तुओं के आधारभूत सत्य और ऐक्य में निवास करता, कार्य करता और आगे बढ़ता है, मन की तरह वस्तुओं के आभासों और प्रपंचगत विभाजनों में नहीं, अतिमानस का अस्तित्व हम जिस प्रस्थापना को लेकर चले हैं, सीधे उसीसे उठनेवाली एक युक्तियुक्त आवश्यकता है; क्योंकि अपने-आपमें सच्चिदानंद उस सचेतन सत् का जो कि आनंद है, एक देशहीन, कालहीन निरपेक्ष होना चाहिये । लेकिन जगत् इसके विपरीत, देश और काल में एक विस्तार है और इस देश और काल में एक गति है, एक कार्यान्वयन है, कार्य-कारण भाव द्वारा -या जो हमें ऐसा प्रतीत होता है -संबंधों और संभावनाओं का विकास है । इस कार्यकारण-भाव का सच्चा नाम है 'भागवत विधान' और इस विधान का सारतत्त्व है वस्तु के सत्य का अनिवार्य आत्म-विकास । यह सत्य, जो कुछ भी विकसित हुआ है, उसके स्वयं मूल में ही 'भाव' रूप से विद्यमान रहता है । यह अनंत संभावना के उपादान में, से रचित
१४४
सापेक्षिक गतियों का पूर्व-निश्चित निर्धारण है । तो वह जो इस प्रकार से सभी चीजों को विकसित करता है, अवश्य ही एक ज्ञानात्मिका इच्छा या चित्-शक्ति होनी चाहिये क्योंकि विश्व की समस्त अभिव्यक्ति चित्-शक्ति का खेल है जो जीवन का तात्त्विक स्वभाव है । परंतु विकसित होती हुई ज्ञानात्मिका इच्छा मानसिक नहीं हो सकती क्योंकि मन इस विधान को न जानता है, न वह उसके अधिकार में है और न ही वह उसपर शासन करता है, बल्कि वह इस विधान से शासित होता है, इसके परिणामों में से एक है, आत्म-विकास की प्रक्रिया में रहता है, उसके मूल में नहीं, विकास के परिणामों को विभक्त वस्तुओं के रूप में देखता है और उनके उद्गम और उनकी वास्तविकतातक पहुंचने का निष्फल प्रयास करता है । इसके अलावा यह ज्ञानात्मिका इच्छा जो सबका विकास साधित करती है, निश्चय ही इन वस्तुओं के एकत्व पर अधिकार रखती होगी और उस एकत्व में से बहुत्व को अभिव्यक्त करती होगी । परंतु मन का उस एकत्व पर अधिकार नहीं है, उसका केवल बहुत्व के एक भाग पर अधिकार है और वह भी अधूरा ।
अतः 'मन' से श्रेष्ठतर कोई तत्त्व होना चाहिये जो उन शर्तों को पूरा कर सके जिनमें मन असफल रहता है । निःसंदेह, यह तत्त्व स्वयं सच्चिदानंद है लेकिन वह सच्चिदानंद नहीं जो अपनी शुद्ध, अनंत, अपरिवर्तनशील चेतना में निवास करता है बल्कि वह जो इस आद्या स्थिति से चलकर या उसे आधार बनाकर और उसके अंदर आधेय बनकर ऐसी गति में आ जाता है जो उसीकी अपनी ऊर्जा-रूप होती है और जो वैश्व सृष्टि का निमित्त या कारण बनती है । चेतना और शक्ति सत् के शुद्ध सामर्थ्य के युगल अनिवार्य पक्ष हैं । अतः 'ज्ञान' और 'इच्छा' वे रूप होने चाहियें जिन्हें वह 'सामर्थ्य' देश और काल के विस्तार में संबंधों का एक जगत् बनाने के लिये अपनाती है । यह ज्ञान और यह इच्छा अवश्य ही अभिन्न होनी चाहिये, यह अनंत, सर्वालंगनकारी, सर्व-प्रभुत्वशाली, सर्व-रूपायणकारी होनी चाहिये तथा उस सबको अपने अंदर शाश्वत रूप से धारण किये हुए होनी चाहिये जिसे वह गति और रूप में ढालती है । तो अतिमानस एक ऐसी सत्ता है जो निर्णायक आत्म-ज्ञान में निःसृत होती है । वह अपने ही कुछ सत्यों को देखता है और उन्हें अपनी देशातीत और कालातीत सत्ता के देश और कालगत विस्तार में चरितार्थ करने की इच्छा करता है । जो कुछ उसकी अपनी सत्ता में है वह आत्म-ज्ञान का, ऋत-चित् का, सत्य-संकल्प का रूप ले लेता है और चूंकि आत्मज्ञान आत्मशक्ति भी हैं इसलिये वह अनिवार्य रूप से अपने-आपको काल और देश में परिपूर्ण और चरितार्थ करता है ।
तो यही है उस भागवत चेतना का स्वरूप जो अपनी चित्-शक्ति की क्रिया द्वारा अपने ही अंदर सब वस्तुओं की सृष्टि करती और उनके विकास को एक आत्म-विवर्तन के द्वारा और सत्ता के सत्य में अंतर्निहित ज्ञानात्मिका इच्छा के या सत्य-
१४५
भाव के द्वारा-जिसने कि उन्हें रूप दिया है -शासित करती है । जो सत् इस भांति सचेतन है उसे हम भगवान् कहते हैं और स्पष्ट है कि उसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होना चाहिये । सर्वव्यापक क्योंकि सभी रूप उसकी चित्-सत्ता के रूप हैं जिन्हें उसकी गति की शक्ति ने देश और काल के रूपों को उसके अपने ही विस्तार में रचा है, सर्वज्ञ क्योंकि सभी चीजें उसकी चित्-सत्ता में रहती, उसीके द्वारा रूपायित होती और उसीके अधिकार में रहती हैं, सर्वशक्तिमान् क्योंकि यह सर्वाधिपति चेतना, सर्वाधिपति शक्ति भी है और सबको अनुप्राणित करनेवाली इच्छा भी है और जैसे हमारा ज्ञान और हमारी इच्छा आपस में लड़ने में समर्थ होते हैं उस तरह यह इच्छा और ज्ञान आपस में नहीं लड़ते क्योंकि वे अलग-अलग न होकर उसी एक सत्ता की ही अभिन्न गति हैं । न ही बाहर या भीतर से कोई और इच्छा, शक्ति, या चेतना उनका प्रतिवाद कर सकती क्योंकि एकमेव के बाहर कोई चेतना या शक्ति है ही नहीं और भीतर ज्ञान की सभी ऊर्जाएं और ज्ञान की सभी रचनाएं स्वयं उससे भिन्न नहीं हैं । वे केवल एक सर्वनिर्णायक इच्छा और सर्वसामंजस्यकारी ज्ञान की लीला मात्र हैं । हम जिसे इच्छाओं और शक्ति के टकराव के रूप में देखते हैं --क्योंकि हम एक विशिष्ट और विभक्त स्थिति में निवास करते हैं और समग्र को नहीं देख पाते, -उसे अतिमानस एक पूर्व-निश्चित सामंजस्य के मिलकर काम करनेवाले तत्त्वों के रूप में देखता है, यह सामंजस्य उसके लिये सदा उपस्थित रहता है क्योंकि वस्तुओं की समग्रता हमेशा उसकी दृष्टि तले रहती है ।
इस दिव्य चेतना की क्रिया चाहे जो भी स्थिति या रूप अपनाये उसका स्वरूप हमेशा यही रहेगा । लेकिन चूंकि उसकी सत्ता अपने-आपमें निरपेक्ष है अतः उसकी सत्ता की शक्ति भी अपने विस्तार में निरपेक्ष है और इसलिये यह क्रिया की एक ही स्थिति या एक ही रूप से बंधी हुई नहीं है । हम, मानव-प्राणी, प्रतिभासिक रूप से, काल और देश के अधीन, चेतना के एक विशिष्ट रूप हैं और अपनी ऊपरी चेतना में--हम अपने बारे में बस इतना ही तो जानते हैं, --एक समय में एक ही चीज, एक ही रूप, सत्ता की एक ही स्थिति, अनुभूतियों की एक ही समष्टि हो सकते हैं और हमारे लिये वही एक चीज वस्तुओं का सत्य होती है, जिसे हम स्वीकार करते हैं । बाकी सब या तो सत्य नहीं होता या अब सत्य नहीं रहा क्योंकि वह हमारी दृष्टि से भूतकाल में विलीन हो गया है, या फिर अभीतक इसलिये सत्य नहीं है क्योंकि वह भविष्य में प्रतीक्षा कर रहा है और अभी हमारी पहुंच से बाहर है । लेकिन दिव्य चेतना किसी विशेष रूप में न तो इस तरह बंधी है और न सीमित है । वह एक ही समय में अनेक चीजें हो सकती है और सदा के लिये भी एक से अधिक स्थायी स्थितियां अपना सकती है । हम देखते हैं कि स्वयं अतिमानस के तत्त्व में उसकी जगत्-संस्थापिका चेतना की तीन ऐसी सामान्य
१४६
स्थितियां या तीन सत्र होते हैं । पहली स्थिति वस्तुओं की अविच्छेद्य एकता को आधार देती है, दूसरी उस एकता में इस तरह हेर-फेर करती है कि वह एक में बहु और बहु में एक की अभिव्यक्ति को सहारा दे सके । तीसरी उसमें और हेर-फेर लाती है ताकि नाना प्रकार की वैयक्तिकता के विकास को सहारा मिले । यह वैयक्तिकता ही अविद्या की क्रिया द्वारा हमारे अंदर, निचले स्तर पर एक पृथक् अहं का भ्रम बन जाती है ।
हम देख चुके है कि अतिमानस की इस पहली और आरंभिक स्थिति का स्वरूप क्या है जो वस्तुओं की अविच्छेद्य एकता को आधार देती है । वह शुद्ध अद्वैतवादी चेतना नहीं है क्योंकि वह तो सच्चिदानंद का स्वयं अपने अंदर कालहीन और देशहीन संकेंद्रीकरण है जिसमें चित्-शक्ति किसी भी प्रकार के विस्तार में अपने-आपको प्रक्षिप्त नहीं करती और अगर वह विश्व को अपने अंदर धारण किये भी है तो शाश्वत संभाव्यता में न कि कालगत तथ्य के रूप में । इसके विपरीत, अतिमानस की यह स्थिति सच्चिदानंद का ऐसा सम आत्म-विस्तार है जो अपने अंदर सबको समाविष्ट किये, सबपर अधिकार किये और सबका संघटन करता है । परंतु यह 'सर्व' एक है, बहु नहीं; यहां कोई वैयक्तिक भाव नहीं है । जब इस अतिमानस का प्रतिबिंब हमारी स्तब्ध और शुद्ध बनी हुई आत्मा पर पड़ता है तो हम अपना व्यक्तित्व का सारा भाव खो देते हैं क्योंकि वहां चेतना का कोई ऐसा संकेंद्रीकरण नहीं है जो व्यक्तिगत विकास को सहारा दे सके । सब कुछ ऐक्य में और जैसे सब एक ही हों, इस तरह विकसित हुआ है । सबको दिव्य चेतना अपनी ही सत्ता के रूपों की तरह धारण किये हुए है, किसी भी मात्रा में पृथक् सत्ताओं की तरह नहीं । कुछ-कुछ ऐसे जैसे हमारे मन में आनेवाले विचार और बिंब हमारे लिये पृथक् सत्ताएं नहीं होते बल्कि वे हमारी ही चेतना के रूप होते हैं वैसे ही इस आरंभिक अतिमानस के लिये सभी नाम और रूप हैं । यह अनंत के अंदर शुद्ध दिव्य भावन और रूपायन हैं । यह मन के विचार की अयथार्थ क्रीड़ा की तरह नहीं है बल्कि सचेतन सत्ता की यथार्थ क्रीड़ा की तरह संगठित होता है । इस स्थिति में विद्यमान दिव्य आत्मा चित्-पुरुष और शक्ति-रूप पुरुष में भेद न करेगी क्योंकि सारी शक्ति चेतना की क्रिया होगी, जड़ द्रव्य और आत्मा में भी फर्क न करेगी क्योंकि सभी सांचे आत्मा के आकार भर होंगे ।
अतिमानस की दूसरी स्थिति में दिव्य चेतना अपने अंदर समायी गति से पीछे हटकर भाव में स्थित हो जाती है । उस गति को एक प्रकार की बहिर्द्रष्ट्री चेतना द्वारा उपलब्ध करती, उसका अनुसरण करती, अपने कार्यों में निवास करती और अपने-आपको उसके रूपों में वितरित करती-सी मालूम होती है । प्रत्येक नाम-रूप में वह अपने-आपको स्थायी सचेतन आत्मा के रूप में अनुभव करेगी जो सभीके अंदर एक समान है परंतु साथ ही वह अपने-आपको चिदात्मा के एक ऐसे संकेंद्रण
१४७
के रूप में भी अनुभव करेगी जो गति की व्यष्टिगत लीला का अनुसरण कर रहीं और उसे सहारा दे रही है और गति की अन्य क्रीड़ाओं से उसके भेद को आश्रय दे रही हैं, -वह आत्म-तत्त्व में सर्वत्र एक-समान है परंतु आत्म-रूप में अलग-अलग । आत्मा के रूप को सहारा देनेवाला यह संकेंद्रीकरण ही व्यष्टिगत भगवान् या जीवात्मा है जो वैश्व भगवान् या एकमेव सर्व संधटक आत्मा से भिन्न है । सारतः इनमें कोई भेद नहीं है, केवल लीला के हेतु व्यावहारिक भेद होता है जो सच्चे ऐक्य को नष्ट नहीं कर सकता । वैश्व भगवान् सभी आत्मा-रूपों को अपने-आपके रूप में जानते हैं, पर फिर भी हर एक के साथ और हर एक में अन्य सभीके साथ पृथक् रूप से भिन्न संबंध स्थापित करते हैं । व्यष्टिगत भगवान् अपनी सत्ता को एकमेव के आत्मा-रूप और आत्मा की गति के रूप में देखते हैं और जब वह चेतना की सर्वसमावेशी क्रिया के द्वारा एकमेव के साथ और उसके सभी आत्मा के रूपों के साथ ऐक्य का भोग करते हैं तब भी अग्रगभी या सामने की बहिर्द्रष्ट्री क्रिया के द्वारा अपनी व्यष्टिगत गति तथा एकमेव के साथ और उसके सभी रूपों के साथ ऐक्य में स्वतंत्र भेद के संबंधों को भी सहारा देते और भोगते हैं । अगर हमारा पवित्रीकृत मन अतिमानस की इस दूसरी अवस्था को प्रतिबिंबित करे तो हमारी आत्मा अपने व्यष्टिगत अस्तित्व को सहारा दे सकती और उसे धारण करती हुई भी वहां अपने-आपको उस एकमेव के रूप में जान सकती है जो सर्व बन गया है, सबके अंदर निवास करता, सबको धारण करता है और वह अपनी विशिष्ट विभिन्नता में भी भगवान् और अपने साथियों के साथ एकत्व का रस ले सकती है । अतिमानसिक सत्ता की अन्य किसी भी परिस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो सकता । परिवर्तन आयेगा तो बस एकमेव की उस लीला के रूप में जिसने अपनी विभिन्नता प्रकट की है और उस बहु की लीला के रूप में जो अब भी एक है, और इसके साथ-ही-साथ वह सब जो इस खेल को बनाये रखने और चलाने के लिये जरूरी है ।
अतिमानस की तीसरी स्थिति तब प्राप्त होगी जब सहास देनेवाला संकेंद्रण मानों अब और गति के पृष्ठभाग में स्थित नहीं रहता, उससे एक प्रकार से उच्च रहकर उसका अधिष्ठान नहीं करता और इस प्रकार उसका द्रष्टा और भोक्ता न रहकर अपने-आपको गति में प्रक्षिप्त कर देता और एक तरह से उसीमें शामिल हो जाता है । यहां लीला का स्वरूप बदल जायेगा लेकिन इसी हदतक कि व्यष्टि-भगवान् वैश्व भगवान् के साथ और उसके अन्य रूपों के साथ संबंधों की क्रीड़ा को इतने प्रमुख रूप से अपने सचेतन अनुभव का व्यावहारिक क्षेत्र बना लेंगे कि उनके साथ पूर्ण एकत्व की उपलब्धि सब अनुभूतियों की परम सहचरी और उनकी स्थायी पराकाष्ठा होगी । किंतु उच्चतर स्थिति में एकत्व ही प्रधान और आधारभूत अनुभव होगा और विभिन्नता एकत्व की एक क्रीड़ा मात्र होगी । अत: यह तीसरी स्थिति,
१४८
व्यष्टि-भगवान् और उनके वैश्व उद्गम के बीच एक तरह से ऐक्य में -यह वह ऐक्य नहीं जिसमें द्वैत गौण रूप से लक्षित था -आधारभूत आनंदमय द्वैत होगी । इसके साथ ही वे सब परिणाम आयेंगे जो इस प्रकार के द्वैत के निर्वाह और क्रिया से उत्पन्न होते हैं ।
कहा जा सकता है कि पहला परिणाम होगा अविद्या के उस अज्ञान में जा गिरना जो 'बहु' को जीवन का वास्तविक तथ्य मानता है और 'एक' को बहु के वैश्व योगफल के रूप में देखता है । किंतु इस तरह का पतन जरूरी नहीं है क्योंकि व्यष्टि-भगवान् (जीवात्मा) अपने बारे में इस रूप में सचेतन होगा कि वह एकमेव का और उसकी सचेतन आत्म-सृजन की शक्ति का परिणाम है अर्थात् उसके बहुत्वमय आत्म-संकेंद्रण का परिणाम है, जिसकी अवधारणा एकमेव इसलिये करता है कि वह देश और काल में फैली इस बहुरूप सृष्टि का नाना प्रकार से शासन और भोग कर सके । यह सच्चा आध्यात्मिक व्यष्टि अपने-आपको स्वतंत्र और पृथक् सत्ता मान लेने की धृष्टता न करेगा । वह स्थितिशील एकत्व के सत्य के साथ-साथ विभेद की गति के सत्य को भी मान्यता देगा, वह उन्हें एक ही सत्य के उपरले और निचले ध्रुव, उसी एक दिव्य लीला का आधार और चरम बिंदु मानेगा और वह विभिन्नता के आनंद पर इसलिये बल देगा कि वह एकत्व के आनंद की पूर्णता के लिये आवश्यक है ।
यह स्पष्ट है कि ये तीनों स्थितियां उस एक ही सत्य के साथ व्यवहार करने की विभिन्न विधियां होंगी । सत्ता के जिस सत्य का भोग किया जायेगा वह एक ही होगा लेकिन उसे भोगने का तरीका या यूं कहें उसे भोगते समय आत्मा की स्थिति भिन्न होगी । आनंद में भिन्नता होगी किंतु वह रहेगा हमेशा ऋत-चित् की अवस्था में और उसका मिथ्यात्व या अविद्या में कभी पतन न होगा । अतिमानस की दूसरी और तीसरी स्थिति केवल उसी चीज को दिव्य बहुत्व के रूप में विकसित और चरितार्थ करेगी जिसे अतिमानस की पहली स्थिति ने दिव्य एकत्व के रूप में अपने अंदर धारण किया था । इन तीनों स्थितियों में से किसीपर भी हम मिथ्यात्व या भ्रांति का कलंक नहीं लगा सकते । उच्चतर अनुभव के इन सत्यों के लिये उच्चतम प्राचीन आप्त प्रमाण है उपनिषद् की वाणी । जब वह अपने-आपको अभिव्यक्त करनेवाले दिव्य सत् के बारे में बोलती है तो वह इन सब अनुभवों की सार्थकता को समाविष्ट करती है । हम केवल यह बात दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि एकत्व बहुत्व से पहले है और यह प्राथमिकता काल के हिसाब से नहीं, चेतना के साथ संबंध से हैं । परम आध्यात्मिक अनुभूति का कोई भी कथन, कोई भी वेदांत-दर्शन इस प्राथमिकता से या एक पर बहु की शाश्वत निर्भरता से इंकार नहीं करता । चूंकि काल में बहु शाश्वत नहीं मालूम होते प्रत्युत ऐसा लगता है कि वे 'एक' में से अभिव्यक्त होते हैं और उसीमें उसे अपना मूल समझ कर, लौटते हुए मालूम होते
१४९
हैं इसलिये 'बहु' की वास्तविकता को नकारा जाता है । लेकिन इसी तरह यह युक्ति दी जा सकती है कि काल में अभिव्यक्ति की शाश्वत स्थिति या यूं कहा जा सकता है, उसकी शाश्वत पुनरावृत्ति इस बात का प्रमाण है कि दिव्य बहुत्व कालातीत परम का एक शाश्वत तथ्य होने में दिव्य एकत्व से कम नहीं है अन्यथा काल में अनिवार्य पुनरावर्तन का यह लक्षण उसे प्राप्त न हो सकता था ।
वास्तव में केवल तभी जब हमारी मानव मानसिकता आध्यात्मिक अनुभूति के एक पक्ष पर ऐकांतिक बल देकर यह घोषणा करती है कि यही एकमात्र शाश्वत सत्य है और उसे सर्व-विभाजनकारी मानसिक तर्कणा की भाषा में प्रस्तुत करती है तो एक-दूसरे का खंडन करनेवाले दार्शनिक वादों की जरूरत पड़ती है । इस भांति अद्वैत चेतना के एकमात्र सत्य पर जोर देते हुए हम दिव्य एकत्व का खेल देखते हैं जिसे हमारी मानसिकता भूल से वास्तविक विभेद की भाषा में रखती है । मन की इस भूल को उच्चतर तत्त्व के सत्य द्वारा ठीक करने से संतुष्ट न होकर हम यह आग्रह करते हैं कि सारी लीला ही एक भांति है । या फिर बहु के अंदर 'एक' की लीला पर जोर देते हैं तो विशिष्टाद्वैत की घोषणा करते हैं और व्यष्टि-आत्मा को परम देव का एक आत्मा-रूप मान लेते हैं परंतु साथ ही इस विशिष्ट रूप को शाश्वत मान बैठते हैं और शुद्ध चेतना की अविशिष्ट एकत्व की अनुभूति से एकदम इंकार कर देते हैं । या फिर विभेद के खेल पर जोर देते हुए हम यह स्थापना करते हैं कि परम पुरुष और मानव आत्मा (जीव) शाश्वत रूप से भिन्न-भिन्न हैं और ऐसी अनुभूति की सत्यता को अस्वीकार कर देते हैं जो उनके परे जाती हुई या भेद को लुप्त करती हुई प्रतीत होती है । लेकिन अब हमनें दृढ़ता के साथ जो स्थिति अपनायी है वह हमें इन नकारों और बहिष्कारों की आवश्यकता से मुक्त कर देती है । हम देखते हैं कि इन सभी स्वीकृतियों के पीछे कोई सत्य है लेकिन साथ ही उनमें ऐसा अतिरेक भी रहता है जो अधकचरे आधारवाले नकार की ओर ले जाता है । जैसा कि हम कह आये हैं, हम उस तत् की निरपेक्ष निरपेक्षता को स्वीकार करते हैं जो न तो हमारे एकत्व के विचारों से बंधा है और न हमारे बहुत्व के विचारों से । एकत्व को हमने बहुत्व की अभिव्यक्ति के आधार के तौर पर और बहुत्व को एकत्व की ओर लौटने के लिये और दिव्य अभिव्यक्ति में एकत्व का भोग करने के लिये आधार के तौर पर स्वीकार किया है । हमें अपने वर्तमान कथन को इन विवादों द्वारा बोझिल बनाने की अथवा अनंत भगवान् की परम स्वतंत्रता को अपने मानसिक विभेदों और परिभाषाओं में जकड़ने के व्यर्थ प्रयास में पड़ने की जरूरत नहीं ।
१५०
Home
Sri Aurobindo
Books
SABCL
Hindi
Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.