दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २८

 

अतिमानस, मानस और अधिमानसी माया

 

ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वानृ ।

दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ।।

 

एक ध्रुव है, एक ऋत है जो एक ऋत से छिपा हुआ है जहां सूर्य

अपने घोड़ों को खोलता है । दस हज़ार (उसकी किरणें) इकट्ठी हो

गयीं -वह एक तत् । मैंने देवों के अत्यंत श्रेष्ठ रूपों को देखा है ।

                                            ऋग्वेद ५.६२.१

 

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

ततत्वं पूषन्नपावृयु सत्यधर्माय दृष्टये ।।

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह ।

तेजे यत् ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि

योऽसावसौ पुरुष: सोऽह्मस्मि ।।

 

सत्य का मुख एक सुनहरे पात्र से ढका हुआ है, हे पोषक सूर्य,

सत्य के धर्म के लिये, दृष्टि के लिये उसे हटा दो । हे सूर्य, हे

एकमात्र द्रष्टा, अपनी किरणों को क्रमबद्ध करो, उन्हें इकट्ठा

करो -अपना मंगलतम रूप मुझे दिखलाओ । वह जो पुरुष सब

जगह है, वही मैं हूं ।

                                     ईशोपनिषद् १५.१६

 

सत्य ऋतूं बृहइ ।

सत्य, ऋत, बृहत् । अथर्ववेद १२-१, १०

अभवत्... सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् यदिदं किञच ।।

 

वह सत्य और मिथ्या दोनों हो गया । वह सत्य बन गया, जो कुछ

यह है वह सब भी ।                     तैत्तरीयोपनिषद् २.६

 

   एक बात स्पष्ट करना जरूरी है जो अभीतक अस्पष्ट छोड़ दी गयी है । वह है अज्ञान में स्खलित होने की प्रक्रिया, क्योंकि हमने देखा है मन, प्राण और जड़ के मौलिक स्वरूप में, कोई चीज ऐसी नहीं जो ज्ञान से पतन को जरूरी बनाती हो । वस्तुत: यह दिखाया जा चुका है कि चेतना का विभाजन अज्ञान का आधार है, व्यष्टिगत चेतना का वैश्व और परात्पर से विभाजन जिनका वह अब भी एक अंतरंग भाग रहता है और तत्त्वतः अलग नहीं हो सकता । मन का उस अतिमानसिक सत्य से विभाजन जिसकी उसे एक गौण क्रिया होना चाहिये, प्राण

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का आद्या शक्तिसे विभाजन जिसका वह एक ऊर्जा रूप है और जड़ का मूल सत् से विभाजन जिसका वह एक द्रव्य रूप है । लेकिन अब भी यह स्पष्ट करना बाकी है कि अविभाज्य में यह विभाजन आया कैसे ? सत्ता में चित्-शक्ति की किस विशेष आत्म-क्षयी या आत्म-विलोपी क्रिया से ऐसा हुआ ? चूंकि सब कुछ उसी शक्ति की गतिविधि है इसलिये अज्ञान का क्रियात्मक और प्रभावकारी उद्धव केवल उसी शक्ति की किसी ऐसी क्रिया से ही हो सकता है जो उसकी अपनी पूर्ण ज्योति और शक्ति को धुंधला कर दे । लेकिन हम इस समस्या को तब तक के लिये छोड़ सकते हैं जब हम ज्ञान-अज्ञान के उस दोहरे व्यापार की परीक्षा ज्यादा नजदीक से करेंगे जो हमारी चेतना को प्रकाश और अंधकार का मिश्रण, अतिमानसिक सत्य के पूर्ण दिवस और जड़ निश्चेतना की रात के बीच एक अर्द्ध-प्रकाश बनाता है । अभी बस इतना देखना जरूरी है कि वह अपने सार रूप में चित्-सत्ता की किसी एक गति या स्थिति पर ऐकांतिक रूप से केंद्रीकरण है, वह बाकी चेतना और सत्ता को पीछे छोड़ देता और उसे उस एक गति के वर्तमान समय के आंशिक ज्ञान से ढक देता है ।

 

   फिर भी इस समस्या का एक ऐसा पक्ष है जिसपर तुरंत विचार करना होगा । यह है वह खाई जो मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं, उसके और उस अतिमानसिक ऋत-चित् के बीच बनायी गयी है जिसके बारे में हमने देखा है कि हमारा मन अपने मूल रूप में उसकी गौण क्रिया है । क्योंकि यह खाई काफी बड़ी है और चेतना के इन दो स्तरों के बीच अगर मध्यवर्ती श्रेणियां न होतीं तो एक से दूसरे की ओर संक्रमण, चाहे आत्मा के जड़ में उतरते हुए प्रतिविकास का हो या जड़ में छिपी हुई श्रेणियों का आत्मातक वापिस पहुंचनेवाला विकास हो, यह एकदम असंभव नहीं तो बहुत अधिक असंभाव्य जरूर लगता है । क्योंकि मन, जैसा हम उसे जानते हैं, अज्ञान की शक्ति है जो सत्य को खोज रही है, उसे पाने के लिये कठिनाई से टटोल रही है किंतु वह शब्द और भाव में, मन की रचनाओं में, इन्द्रियों की रचनाओं में उस सत्य की मानसिक रचनाओं और प्रतिरूपों तक ही पहुंच पाती है मानों उसकी प्राप्ति की सीमा सुदूर सद्वस्तु के चमकते या धुंधले छायाचित्रों या चलचित्रों तक सीमित है । इसके विपरीत, अतिमानस सत्य को वास्तविक और सहज-स्वाभाविक रूप से अधिकार में किये रहता है और उसकी रचनाएं परम सद्वस्तु के रूप होती हैं न कि उसकी रचनाएं प्रतिरूप या संकेतात्मक आकार । निःसंदेह, हमारे अंदर विकसित होनेवाले मन को प्राण और शरीर की अंधकार की पेटी में बंद रहने के कारण बाधा पहुंचती है और प्रतिविकासात्मक अवतरण में मौलिक मानसिक तत्त्व अधिक शक्तिशाली वस्तु है जिसके पास हम पूरी तरह नहीं पहुंच पाये हैं । वह अपने क्षेत्र या प्रदेश में स्वाधीनता के साथ काम कर सकता है, अधिक प्रकटनकारी रचनाओं का, अधिक सूक्ष्मता से प्रेरित

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रचनाओं का, अधिक सूक्ष्म तथा सार्थक मूर्त रूपों का निर्माण कर सकता है जिनमें सत्य की ज्योति उपस्थित और इन्द्रियगोचर रहती है । लेकिन फिर संभावना यह रहती है कि उसकी विशिष्ट क्रिया भी तत्त्वतः भिन्न नहीं होगी क्योंकि वह भी अज्ञान के अंदर गति हैं, ऋत-चित् का ऐसा भाग नहीं है जो उससे अलग न हुआ हो । सत्ता के आरोहण और अवरोहणकारी सोपान में कहीं पर एक मध्यवर्ती शक्ति और चेतना का स्तर होना चाहिये, शायद इससे कुछ अधिक, कोई ऐसी चीज जिसमें मौलिक सृजन-शक्ति हो, जिसके द्वारा ज्ञान में स्थित मन का प्रतिविकासात्मक संक्रमण अज्ञान में स्थित मन में हुआ और जिसके द्वारा फिर विकासात्मक उल्टा संक्रमण समझ में आने लायक और संभव बनता है । प्रतिविकासात्मक संक्रमण के लिये यह मध्यस्थता एक युक्ति-संगत अनिवार्यता और विकासात्मक के लिये एक व्यावहारिक आवश्यकता है । क्योंकि विकासक्रम में निःसंदेह आमूल संक्रांतियां होती हैं, ये अनिश्चित ऊर्जा के व्यवस्थित जड़-पदार्थ तक, निष्प्राण जड़-पदार्थ से प्राण की ओर, अवचेतन या अवमानसिक से अनुभूतिक्षम, अनुभवात्मक और कार्यकारी प्राण की ओर, आरंभिक पशु-मन से धारणात्मक युक्तिशील मन की ओर होती हैं जो प्राण का निरीक्षण और शासन करता है और स्वयं अपना भी निरीक्षण करता है । वह एक स्वतंत्र सत्ता की तरह काम करने की क्षमता रखता है और सचेतन रूप से अपना अतिक्रमण करना चाहता है । किंतु ये छलांगें चाहे काफी बड़ी क्यों न हों तब भी कुछ हदतक धीमे श्रेणी-क्रम के द्वारा तैयार की गयी होती हैं और इस कारण वे कल्पनीय और साध्य होती हैं । अतिमानसिक ऋत-चित् और अज्ञान में स्थित मन के बीच इतना बड़ा क्रम-भंग नहीं हो सकता जितना कि दिखायी देता है ।

 

   लेकिन अगर ऐसी मध्यवर्ती श्रेणियां हैं तो यह स्पष्ट है कि वे मानव मन के लिये अतिचेतन होंगी क्योंकि ऐसा लगता है कि मन अपनी स्वाभाविक अवस्था में इन उच्चतर श्रेणियों में प्रवेश नहीं पाता । मनुष्य अपनी चेतना में मन द्वारा बल्कि मन के किसी विशेष प्रसार या क्रम द्वारा भी सीमित होता है । जो कुछ उसके मन से नीचे होता है, चाहे वह अवमानसिक हो या मानसिक, पर हो उसके क्रम से नीचे, वह उसे सरलता से अवचेतन या पूर्ण निश्चेतना से अविभेद्य मालूम होता है और जो कुछ उसके ऊपर है वह उसे अतिचेतन लगता है और उसमें यह प्रवृत्ति होती है कि वह उसे अभिज्ञता से शून्य रूप में, एक प्रकार की ज्योतिर्मय निश्चेतना के रूप में माने । जैसे वह ध्वनियों और रंगों के एक क्रमतक सीमित रहता है और जो कुछ उस क्रम के ऊपर या नीचे हो वह उसे न दिखायी देता है न सुनायी देता है या कम-से-कम वह उसमें भेद तो नहीं कर पाता । वही बात उसके मानसिक चेतना के क्रम की है । उसके दोनों छोरों पर एक असामर्थ्य का सीमांकन रहता हैं जो उसकी ऊपर और नीचे की सीमा अंकित करता है । मनुष्य के पास पशु के

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साथ संपर्क के लिये भी काफी साधन नहीं हैं, जो उसके समान तो नहीं पर मानसिक सजातीय है । वह तो यहांतक कह बैठता है कि पशु में मन या वास्तविक चेतना नहीं है, क्योंकि उसके तौर-तरीके उन तौर-तरीकों से भिन्न और संकुचित हैं जिन्हें वह अपने और अपनी जाति के अंदर पाता है । वह अवमानसिक सत्ता का बाहर से अवलोकन कर सकता है परंतु वह उसके साथ जरा भी संपर्क नहीं साध सकता और न उसकी प्रकृति में अंतरंग रूप से प्रवेश कर सकता है । अतिचेतना भी उसके लिये समान रूप से एक बंद किताब है जो कोरे पृष्ठों से भरी हो सकती है । तो पहली दृष्टि में ऐसा प्रतीत होगा कि चेतना की इन उच्चतर श्रेणियों के साथ संपर्क बनाने के लिये उसके पास कोई साधन नहीं है । अगर ऐसा है तो वे कड़ियों या पुलों का काम नहीं दे सकतीं और उसके विकास को बस उपलब्ध मन की श्रेणी पर ही रुक जाना होगा, वह उसका अतिक्रमण नहीं कर सकता । ये सीमाएं अंकित करते समय प्रकृति ने उसके ऊपर उठने के प्रयास पर 'इति' लिख दिया है ।

 

   लेकिन जब हम ज्यादा नजदीक से देखते हैं तो पता लगता है कि यह सामान्य अवस्था धोखा देनेवाली है और वस्तुत: ऐसी कई दिशाएं हैं जिनमें मानव मन अपने से परे जाता है और अपना अतिक्रमण करने की ओर प्रवृत्त होता है । यथार्थ में ये संपर्क की वे जरूरी रेखाएं या अवगुंठित या अर्द्ध-अवगुंठित राहें हैं जो मनुष्य के मन को स्वयं-प्रकाश आत्मा की चेतना की उच्चतर भूमिकाओं के साथ जोड़ती हैं । पहले हमने देखा है कि मानव ज्ञान के साधनों में अन्तर्भास का क्या स्थान है और अंतर्भास अपने स्वभाव से ही इन उच्चतर श्रेणियों की विशिष्ट क्रिया का अज्ञान के मन में प्रक्षेपण है । यह सच है कि मानव मन में उसकी क्रिया बहुत हद तक हमारी सामान्य बुद्धि के हस्तक्षेप से ढकी रहती है । हमारी मानसिक क्रियाओं में शुद्ध अन्तर्भास एक विरल घटना है क्योंकि हम जिस चीज को इस नाम से पुकारते हैं वह सामान्यतः प्रत्यक्ष ज्ञान का एक बिंदु होता है जो तुरंत मानसिक पदार्थ की पकड़ में आकर उसमें लिपट जाता है । अतः अन्तर्भास एक ऐसे आकार-ग्रहण का अदृश्य या अतिसूक्ष्म केन्द्र ही हो पाता जो अपनी राशि में बौद्धिक या किसी और रूप से मानसिक लक्षणवाला होता है । या फिर अन्तर्भास की चमक अपने-आपको अभिव्यक्त करने का अवसर पाये, उससे पहले ही तुरंत उसका स्थान लेने या उसमें बाधा डालने के लिये कोई नकल करने वाली तेज गति, अंतर्दृष्टि या तेज प्रत्यक्ष बोध या विचार की कोई और तेजी से छलांगें मारनेवाली क्रिया आ जाती है जो अपने प्रकट रूप के लिये आते हुए अंतर्भास के उद्दीपन की ऋणी होती है परंतु सच्चे या भूल-भरे प्रतिस्थापित मानसिक सुझाव द्वारा उसके मार्ग में बाधा देती या उसे ढक देती है । किंतु इन दोनों में कोई भी अंतर्भास की प्रामाणिक क्रिया नहीं है । बहरहाल ऊपर से इस हस्तक्षेप का तथ्य, यह तथ्य कि हमारे सभी मौलिक विचारों के पीछे या वस्तुओं के प्रत्यक्ष दर्शन के पीछे एक

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अवगुंठित, अर्द्ध अवगुंठित या तेजी से खुल जानेवाले अंतर्भास का तत्त्व होता है, मन और उसके ऊपर के संबंध को स्थापित करने के लिये काफी है । वह उच्चतर आत्मा के क्षेत्रों के साथ संपर्क साधने और उनमें प्रवेश पाने का रास्ता खोल देता है । साथ ही मन का प्रयास होता है व्यक्तिगत अहंकार की सीमाओं को पार करने और वस्तुओं को एक विशेष निर्वैयक्तिकता और वैश्व भाव से देखने का । वैश्व आत्मा का पहला लक्षण है निर्वैयक्तिकता वैश्व-भाव, एकमात्र या सीमित करने वाले दृष्टिकोण से न बंधना वैश्व प्रत्यक्ष दर्शन और ज्ञान का लक्षण है । अतः यह प्रवृत्ति मन के इन सीमित क्षेत्रों को विस्तृत करती है, यह विस्तरण चाहे जितना प्रारंभिक हो, वह होता है विश्व की ओर, ऐसे गुण की ओर जो उच्चतर मानसिक लोकों का अपना विधान होता है, उस अतिचेतन विश्व मन की ओर जो, जैसा हम संकेत कर आये हैं, वस्तुओं के स्वरूप को देखते हुए वह मूल मानसिक क्रिया होगा जिससे हमारा मन निकला है और जिसकी वह गौण प्रक्रिया है । और फिर हमारी मानसिक सीमाओं के अंदर ऊपर से भेदन का पूरा-पूरा अभाव भी नहीं होता । प्रतिभा के व्यापार वास्तव में ऐसे ही भेदन के परिणाम होते हैं । निःसंदेह वे पर्दे के पीछे रहते हैं क्योंकि उच्चतर चेतना का प्रकाश न केवल तंग सीमाओं में ही काम करता है, सामान्यतः किसी क्षेत्र विशेष में, अपनी उन विशिष्ट ऊर्जाओं का कोई अलग नियमित संगठन किये बिना काम करता है जो निःसंदेह बहुधा मनमाने ढंग से, अनियमितता और अतिप्राकृतिक या अप्राकृतिक दायित्वहीन शासन के साथ काम करती हैं बल्कि मन में प्रवेश करते हुए वह अपने-आपको मानसिक द्रव्य के आधीन और अनुकूल बना देता है । इस कारण केवल एक बदली हुई या घटी हुई क्रिया ही हमतक पहुंच पाती है न कि वह पूरी-पूरी मूलगत दिव्य ज्योतिर्मयता जिसे हम अपने से परे की, अपने सिर से उपर की चेतना कह सकते हैं । फिर हमारी कम आलोकित या कम सबल सामान्य मानसिक क्रिया को पार करनेवाले अंतःप्रेरणा के, सत्य प्रकट करनेवाले दर्शनों या अंतर्भासात्मक प्रत्यक्ष दर्शन या अंतर्भासात्मक विवेक के व्यापार उपस्थित रहते हैं और उनके मूल के बारे में भूल नहीं हो सकती । अंत में रहस्यमय और आध्यात्मिक अनुभूति का बृहत् तथा बहुविध क्षेत्र है और वहां हमारी चेतना को वर्तमान सीमाओं के परे उसके विस्तार की संभावना के द्वार पूरे खुले मिलते हैं, बशर्ते कि हम अनुसंधान करने से इंकार करनेवाली ज्ञानविरोधी वृत्ति के द्वारा या अपनी मानसिक सामान्यता की सीमाओं से लगाव के कारण उन्हें बंद न कर दें या अपने सामने खुलते हुए प्रदेशों से मुंह न मोड़ लें । लेकिन अपनी इस वर्तमान खोज में हम उन संभावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकते जिन्हें मनुष्यजाति के प्रयास के ये क्षेत्र हमारे पास ले आते हैं, न ही हम उपेक्षा कर सकते हैं अपने संबंध में और पर्दे के पीछे छिपी सद्वस्तु के संबंध में उस अतिरिक्त ज्ञान की जो मानव मन को उन क्षेत्रों की देन है, न उस महत्तर

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प्रकाश की जो उन्हें हमारे ऊपर क्रिया करने का अधिकार देता है और उनके अस्तित्व का सहज बल होता है ।

 

   चेतना की दो क्रमगत गतियां हैं जो कठिन तो हैं पर हैं भली-भांति हमारी सामर्थ्य की पहुंच में, जिनके द्वारा हम अपने सचेतन अस्तित्व की श्रेष्ठतर श्रेणियों तक पहुंच सकते हैं । पहली एक भीतर की ओर गति है जिसके द्वारा हम अपने बाहरी मन में रहने के बदले अपने बाह्य और इस समय अंतस्तलीय आत्मा के बीच की दीवार तोड़ देते हैं । यह क्रमश: किये गये प्रयत्न और अनुशासन के द्वारा या उग्र संक्रमण के द्वारा किया जा सकता है । कभी-कभी प्रबल अनैच्छिक तोड़- फोड़ से भी हो सकता है परंतु यह पिछला रास्ता अपनी सामान्य सीमाओं में ही रहने के अभ्यस्त सीमित मानव मन के लिये कभी सुरक्षित नहीं होता । लेकिन दोनों ही तरीकों सें चाहे सुरक्षित हो या अरक्षित यह चीज की जा सकती है । हम अपने इस गुप्त भाग में जो चीज पाते हैं वह है आंतरिक सत्ता, अंतरात्मा, आंतरिक मन, आंतरिक प्राण, एक आंतरिक सूक्ष्म भौतिक सत्ता जो हमारे बाहरी मन, प्राण या शरीर की अपेक्षा अपनी संभाव्यताओं में बहुत ज्यादा विशाल, अधिक नमनीय, अधिक शक्तिशाली, बहुविध ज्ञान और क्रिया के लिये अधिक समर्थ है । विशेष रूप से उसमें वैश्व शक्तियों, वैश्व गतियों और वैश्व पदार्थों के साथ सीधे संपर्क की, उन्हें सीधे अनुभव करने और उनकी ओर सीधे खुलने की, उनपर सीधी क्रिया करने की, यहां तक कि स्वयं अपने-आपको व्यक्तिगत मन, व्यक्तिगत प्राण और शरीर की सीमाओं के परे विस्तृत करने की क्षमता होती है । इससे वह अपने-आपको अधिकाधिक ऐसे विश्व-पुरुष के रूप में अनुभव करती है जो हमारे बहुत संकुचित मानसिक, प्राणिक और भौतिक जीवन की वर्तमान दीवारों में सीमित नहीं रहता । यह फैलाव इतना अधिक विस्तृत हो सकता है कि वह वैश्व मन की चेतना में, वैश्व प्राण के साथ एकत्व में, वैश्व जड़-तत्त्व के साथ भी एकत्व में पूरी तरह प्रवेश कर जाये, फिर भी यह तादात्म्य या तो क्षीण बने हुए वैश्व सत्य या वैश्व अज्ञान के साथ होता है ।

 

   लेकिन एक बार आंतरिक सत्ता में यह प्रवेश प्राप्त हो जाये तो पता लगता है कि भीतर की आत्मा वर्तमान मानसिक स्तर के परे की चीजों की ओर खुलने, ऊपर की ओर चढ़ने में समर्थ है । यह हमारे अंदर दूसरी आध्यात्मिक संभावना है । इसका पहला और अतिसामान्य परिणाम है बृहत् निष्क्रिय, नीरव आत्मा की खोज जिसे हम अपनी वास्तविक या आधारभूत सत्ता अनुभव करते हैं, हम और जो कुछ भी हों उस सबका आधाररूप यही है । यह भी हो सकता है कि हमारी सक्रिय सत्ता और आत्मा के बोध दोनों का अंत या निर्वाण एक ऐसी सद्वस्तु में हो जो अनिर्देश्य और अनिर्वचनीय है । लेकिन हम यह भी अनुभव कर सकते हैं कि यह आत्मा न केवल हमारी अपनी आध्यात्मिक सत्ता है बल्कि और सबकी सच्ची आत्मा

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भी है तो वह अपने-आपको वैश्व सत्ता के मूल सत्य के रूप में भी प्रकट करती है । समस्त व्यक्तित्व के निर्वाण में निवास करना संभव है, किसी स्थाणु सिद्धि पर रुक जाना या वैश्व गतिविधि को नीरव आत्मा पर आरोपित भ्रांति या ऊपरी लीला मान लेना संभव है और यह भी संभव है कि किसी परम अचल और अपरिवर्तनशील विश्वातीत स्थिति में पहुंचा जाये । परंतु अतिप्राकृतिक अनुभूति की एक और, कम निषेधात्मक धारा भी सामने आती है क्योंकि वहां हमारी नीरव आत्मा में ज्योति, ज्ञान, बल, आनंद या अन्य अतिप्राकृतिक ऊर्जाओं का एक विशाल क्रियात्मक अवतरण होता है और हम आत्मा के उच्चतर प्रदेशों में आरोहण भी कर सकते हैं जहां उसकी निश्चल स्थिति उन महान् और ज्योतिर्मय ऊर्जाओं का आधार होती है । दोनों अवस्थाओं में यह स्पष्ट होता है कि हम अज्ञान के मन के परे एक आध्यात्मिक स्थिति में उठ आये हैं, लेकिन क्रियात्मक स्पंदन में, परिणाम- रूप में आनेवाली चित्-शक्ति की जो ज्यादा बड़ी क्रिया होती है वह या तो केवल ऐसी शुद्ध आध्यात्मिक क्रियात्मकता के रूप में उपस्थित हो सकती है जिसका स्वरूप किसी और तरह से निर्दिष्ट नहीं होता या वह एक आध्यात्मिक मानसिक क्षेत्र को प्रकट कर सकती है जहां मन सद्वस्तु के बारे में अनभिज्ञ नहीं रहता -यह अभी अतिमानसिक स्तर पर नहीं होता लेकिन फिर भी अतिमानसिक ऋत-चित् से उत्पन्न और उसके ज्ञान के कुछ अंश से प्रकाशित रहता है ।

 

   हमें दूसरे विकल्प में वह रहस्य मिलता है जिसे हम खोज रहे हैं, वह है संक्रमण का साधन, अतिमानसिक रूपांतर की ओर जरूरी कदम । क्योंकि हम आरोहण की एक क्रमिकता, ऊपर से आती हुई अधिकाधिक गहरी और असीम ज्योति और शक्ति के साथ संपर्क, तीव्रताओं के एक सोपान को देखते हैं जिसे मन के आरोहण में या मन से परे के तत् से मन में होनेवाले अवरोहण में इतनी सीढ़ियां माना जा सकता है । सहज ज्ञान की राशियों की समुद्र की-सी धारा-वृष्टि का हमें पता है जो विचार का रूप धारण कर लेती है लेकिन उसका स्वभाव उस विचार-प्रक्रिया से अलग होता है जिसका हमें अभ्यास है क्योंकि यहां कोई खोज जैसी चीज नहीं होती, मानसिक रचना का लेश मात्र भी नहीं होता, न चिंतन का श्रम और न कठिन खोज । यह स्वत:चालित और सहज ज्ञान होता है जो उच्चतर मन से आता है, जिसके बारे में ऐसा लगता है कि वह छिपी हुई और अवरुद्ध सच्चाइयों की खोज नहीं करता बल्कि सत्य उसके अधिकार में है । हम देखते हैं कि यह विचार एक ही दृष्टि में ज्ञान की बड़ी राशि को अंतर्गत कर लेने में मन की अपेक्षा बहुत अधिक समर्थ होता है । वह वैश्व स्वभाव का होता है, उसपर व्यक्तिगत विचार की छाप नहीं होती । इस सत्य विचार के परे हम एक ज्यादा बड़े प्रकाश को देख सकते हैं जो बढ़ी हुई शक्ति, तीव्रता और चालक-शक्ति से अनुप्राणित है । वहां सत्य-दर्शन के स्वरूप की एक ज्योतिर्मयता रहती है जिसमें

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विचारों को रूप देना तो उसकी गौण और आश्रित क्रिया होती है । अगर हम सत्य के सूर्य का वैदिक रूपक स्वीकार करें -और यह रूपक इस अनुभूति में आकर वास्तविकता बन जाता है -तो हम उच्चतर मन की क्रिया की तुलना प्रशांत और स्थिर सूर्यालोक से कर सकते हैं और इस उच्चतर मन के आगे-आगे जो प्रकाशमय मन है उसकी ऊर्जा की तुलना ज्वलंत सूर्य-तत्त्व के पुंजों की मूसलाधार वर्षा से कर सकते हैं । इससे भी परे सत्य-शक्ति का एक और भी महान् बल मिल सकता है, एक अंतरंग और यथार्थ सत्य-दृष्टि, सत्य-विचार, सत्य-संवेदन, सत्य-अनुभव, सत्य-क्रिया जिसे हम एक विशेष अर्थ में अंतर्भास का नाम दे सकते हैं । क्योंकि, द्यपि एक ज्यादा अच्छे शब्द के अभाव में हमने इस शब्द का प्रयोग, जानने के किसी भी अति-बौद्धिक, प्रत्यक्ष तरीके के लिये किया है फिर भी हम जिसे अंतर्भास कहते हैं वह स्वयंभू ज्ञान की केवल एक विशेष गति है । यह नया प्रदेश उसका उद्गम है । वह हमारे अंतर्भासों को अपने स्पष्ट धर्म का कुछ भाग देता है और बहुत स्पष्ट रूप से एक ज्यादा बड़ी सत्य-ज्योति का मध्यवर्ती होता है । उस ज्योति के साथ हमारे मन का सीधा संपर्क नहीं हो सकता । हम अंतर्भास के मूलं में एक अतिचेतन विश्वमन को पाते हैं जिसका अतिमानसिक ऋत-चित् से सीधा संपर्क रहता है, एक मौलिक तीव्रता को पाते हैं जो अपने से नीचे की सभी गतियों और सभी मानसिक ऊर्जाओं का निर्धारण करती है -यह वह मन नहीं है जिसे हम जानते हैं बल्कि अधिमन है जो ज्ञान-अज्ञान के इस सारे अर्द्ध गोलार्द्ध को मानों सृजनात्मक अधि-आत्मा के विस्तृत पंखों से छाये रखता है, उसे उस महान् ऋत-चित् के साथ संपर्क में रखता है और साथ-ही-साथ वह उस महत्तर सत्य के मुख को अपने हिरण्मय पात्र से हमारी नजरों से ओझल करता है । हमारे जीवन के आध्यात्मिक धर्म की, उसके उच्चतम लक्ष्य की, उसकी गुप्त सद्वस्तु की खोज में वह अपनी अनंत संभावनाओं की बाढ़ ले आता है जो एक ही साथ बाधा भी होती है और मार्ग भी । यही वह गुह्य कड़ी है जिसकी हमें खोज थी, यही वह शक्ति है जो एक ही साथ परम ज्ञान और वैश्व अज्ञान को जोड़ती और अलग करती है ।

 

   अपने स्वभाव और स्वधर्म के अनुसार अधिमानस अतिमानस चेतना का प्रतिनिधि है -अज्ञान में उसका प्रतिनिधि है । या हम उसके बारे में कह सकते हैं कि वह संरक्षात्मक युगल, असदृश्य सादृश्य का पर्दा है जिसके द्वारा अतिमानस परोक्ष रूप से उस अज्ञान पर क्रिया कर सकता है जिसका अंधकार परम ज्योति के सीधे आघात को सहन या ग्रहण न कर सकता । यहांतक कि इस ज्योतिर्मय अधिमानस के परिमंडल के प्रक्षेप के कारण ही अज्ञान में एक हल्की-सी ज्योति का विकिरण और उस विपरीत छाया का, निश्चेतन का, प्रक्षेप संभव हो सका जो छाया सारी ज्योति को निगल जाती है । क्योंकि अतिमानस अधिमानस में अपने

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सभी परमार्थ तत्त्वों का संचार तो कर देता है परंतु उसे उन्हें ऐसी क्रिया-धारा में और वस्तुओं की ऐसी अभिज्ञता के अनुसार रूप देने के लिये छोड़ देता है जो सत्य की दृष्टि तो होती है लेकिन साथ ही साथ अज्ञान का पहला जनक भी । अतिमानस और अधिमानस को एक लकीर एक दूसरे से अलग करती है जो बिना किसी बाधा के संचरण होने देती है, जो निचली शक्ति को वह सब प्राप्त करने देती हैं जिसे उच्चतर शक्ति धारण करती या देखती है लेकिन संचार के समय मध्यवर्ती परिवर्तन के लिये भी सहज रूप से बाधित करती है । अतिमानस की समग्रता हमेशा वस्तुओं के तात्त्विक सत्य को बनाये रखती है, समग्र सत्य और अपने वैयक्तिक आत्म-निर्धारणों के सत्य को स्पष्ट रूप से आपस में गुंथा रखती है । वह उनमें कभी अलग न होने वाले एकत्व को और उनके बीच एक दूसरे की घनिष्ठ अंतर्व्याप्ति और एक दूसरे की मुक्त और संपूर्ण चेतना को बनाये रखती है परंतु अधिमानस में यह समग्रता नहीं रहती । फिर भी अधिमानस वस्तुओं के सारभूत सत्य से भली-भांति परिचित होता है, वह समग्रता का आलिंगन करता है, वह वैयक्तिक आत्म-निर्धारण से सीमित हुए बिना उनका उपयोग करता है । यद्यपि वह उनके एकत्व को जानता है, उसे आध्यात्मिक ज्ञान द्वारा अनुभव कर सकता है फिर भी उसकी क्रियात्मक गति, अपनी सुरक्षा के लिये उस एकत्व पर निर्भर रहती हुई भी सीधी उसके द्वारा निर्धारित नहीं होती । अधिमानस ऊर्जा समग्र और अविभाज्य सर्वव्यापी 'एकत्व' की शक्तियों और पक्षों के पृथक्करण और संयोजन की असीम क्षमता को लेकर चलती है । वह हर शक्ति या हर पक्ष को लेकर उसे एक स्वतंत्र क्रिया सौंप देती है जिसमें वह पक्ष पूर्ण पृथक् महत्त्व प्राप्त कर लेता है और कहा जा सकता है कि, रचना की एक अपनी ही दुनिया बना लेता है । पुरुष और प्रकृति, सचेतन आत्मा और प्रकृति की कार्य करने वाली शक्ति अतिमानसिक सामंजस्य में दो पहलुओंवाला एक ही सत्य है, परम सद्वस्तु की सत्ता और क्रियात्मक शक्ति है । इनमें आपस में कोई असंतुलन या एक की दूसरे पर प्रधानता नहीं होती । अधिमानस में दरार का मूल है, यहीं सांख्य दर्शन के किये गये तीक्ष्ण भेद का मूल है जिसमें ये दोनों अलग-अलग सत्ताओं जैसे मालूम होते हैं, प्रकृति पुरुष पर आधिपत्य जमा पाती और उसकी स्वाधीनता और शक्ति को धुंधला कर देती है, उसे एक साक्षी और उसके रूपों तथा क्रियाओं का ग्राही मात्र बना देती है, और पुरुष प्रकृति के आदि आवरणकारी भौतिक तत्त्व को त्याग कर अपनी अलग सत्ता में वापिस चला जाता है और अपने मुक्त आत्म-प्रभुत्व में निवास करता है । यही बात दिव्य सद्वस्तु के अन्य पक्षों और शक्तियों के लिये है । एक और बहु दिव्य व्यक्तित्व और दिव्य निर्व्यक्तित्व और बाकी सब, इनमें से हर एक एकमेव सद्वस्तु का पक्ष और शक्ति है लेकिन हर एक को अधिकार दिया गया है कि वह समग्र के अंदर एक स्वतंत्र सत्ता की तरह क्रिया करे, अपनी अलग

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अभिव्यक्ति की संभावनाओं की पूर्णता तक पहुंचे और इस पृथक्ता के क्रियात्मक परिणामों को विकसित करे । साथ ही अधिमानस में यह पृथक्ता अन्तर्निहित, अन्तर्गत ऐक्य के आधार पर खड़ी होती है । इन अलग हुए पक्षों और शक्तियों के संयोजन और संबंध की सभी संभावनाएं उनकी ऊर्जाओं के सारे आदान-प्रदान और पारस्परिकता मुक्त रूप से संगठित होती हैं और उनकी विद्यमानता सदा संभव रहती है ।

 

   अगर हम सद्वस्तु की शक्तियों को इतने देव मान लें तो हम कह सकते हैं कि अधिमानस लाखों देवों को कार्य-क्षेत्र में छोड़ता है, हर एक को अपना-अपना लोक रचने का अधिकार दिया गया है और हर लोक औरों के साथ नाता जोड़ने, संचारण और परस्पर क्रीड़ा करने में समर्थ है । वेद में देवों की प्रकृति के भिन्न-भिन्न सूत्रीकरण हैं : कहा गया है कि वे सब एक ही सत् हैं जिसे विप्र लोग अलग-अलग नाम देते हैं; फिर भी हर देवता की पूजा इस तरह की जाती है मानों वही वह सत् हो, एकमेव जो एक साथ अन्य सब देवता है या जो उन्हें अपने में समाये हुए है; और फिर भी इनमें से हरएक अलग देव है जो कभी साथी देवों के साथ मिलकर, कभी अलग होकर और कभी उस अनन्य सत् से संबंध रखनेवाले अन्य देवों के प्रतीयमान विरोध में भी कार्य करता है । अतिमानस के अंदर यह सब उस एक सत् की एक सामंजस्यपूर्ण क्रीड़ा के रूप में एक साथ धारण किया हुआ रहेगा । अधिमानस में इन तीनों अवस्थाओं में से हरएक अलग-अलग क्रिया या क्रिया-आधार हो सकेगी, हरएक के विकास का अपना विधान और अपने परिणाम हो सकेंगे, फिर भी हरएक औरों के साथ एक अधिक मिश्रित सामंजस्य में जुड़े रहने की शक्ति बनाये रख सकेगी । जो बात उस एक सत् की है वही उसकी चेतना और शक्ति की भी है । वह एक चेतना चेतना और ज्ञान के बहुत से स्वतंत्र रूपों में अलग-अलग हो जाती है, हर एक रूप सत्य की अपनी-अपनी रेखा का अनुसरण करता है जिसे उसे सिद्ध करना है । वह एक समग्र और बहुपक्षीय सत्य-भाव बहुत-से पक्षों में बंट जाता है । हरएक एक स्वतंत्र भाव-शक्ति बन जाता हैं जिसमें अपने-आपको सिद्ध करने की शक्ति रहती है । वह एक चित्-शक्ति अपनी करोड़ों शक्तियों में उन्मुक्त हो जाती है और इनमें से हर शक्ति को अपने-आपको पूर्ण बनाने या, अगर जरूरत हो तो प्रधानता धारण करने और दूसरी शक्तियों को अपने निजी उपयोग में लाने का अधिकार रहता है । इसी तरह अस्तित्व का आनंद भी सब तरह के आनंदों में उन्मुक्त होता है और आनंद का प्रत्येक प्रकार अपनी स्वतंत्र पूर्णता अथवा अपनी निरंकुश चरम परिणति अपने अंदर लिये रह सकता है । इस तरह अधिमानस उस एक सच्चिदानंद को यह विशिष्टता प्रदान करता है कि वह अनंत संभावनाओं से भरा रहे जिन्हें बहुत-से लोकों में विकसित किया जा सकता है या एक ही साथ एक ही लोक में डाला जा सकता है जिसमें उनकी क्रीड़ा का अनंत रूप से परिवर्तनशील परिणाम सृष्टि का, उसकी प्रक्रिया का, उसके मार्ग और उसके परिणाम का निर्धारक होता है ।

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   चूंकि विश्व का सृजन करनेवाली शाश्वत सत् की चित्-शक्ति है अतः किसी जगत् की प्रकृति इस पर निर्भर होगी कि वहां उस चेतना का कौन-सा आत्म-रूपायन प्रकट हो रहा हैं । समान रूप से, हर व्यष्टिगत सत्ता, जिस जगत् में रह रही है उसे वह किस भांति देखेगी या उसे अपने आगे कैसे उपस्थित करेगी यह इसपर निर्भर रहेगा कि उस चेतना ने उसमें कैसी स्थिति या बनावट को अपनाया है । हमारी मानव मानसिक चेतना जगत् को तर्क-बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा काटे गये खंडों में देखती हैं और फिर उसे ऐसी रचना में जोड़ती है जो अपने-आपमें खण्ड है । वह जिस घर का निर्माण करती है वह सत्य के किसी एक या दूसरे सामान्यीकृत सूत्र के निवास के लिये आयोजित होता है लेकिन वह बाकी को अलग रखती है या कुछ को मेहमानों या घर के आश्रितों के रूप में आने देती है । अधिमानस चेतना अपने ज्ञान में सार्वभौम होती है और ऊपर से दीखनेवाले आधारभूत भेदों की किसी भी संख्या को समाधानात्मक दृष्टि में एक साथ रख सकती है । इस तरह मानसिक बुद्धि सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक को विरोधियों के रूपों में देखती है; वह एक निर्व्यक्तिक सत्ता की धारणा बनाती है जिसमें व्यक्ति और व्यक्तित्व अज्ञान की कल्पनाएं या क्षणिक रचनाएं हैं या इसके विपरीत वह यूं भी देख सकती है कि सव्यक्तिक ही मूल सत्य है और निर्व्यक्तिक उसका भाव-रूप या अभिव्यक्ति का उपादान या साधन मात्र है । अधिमानस बुद्धि के लिये ये एक ही सत् की अलग-अलग हो सकनेवाली शक्तियां हैं जो अपनी स्वतंत्र आत्म-स्थापना का अनुसरण कर सकती हैं और अपनी अलग-अलग क्रिया-विधियों को एक साथ जोड़ भी सकती हैं और इस तरह अपनी स्वतंत्रता और अपने सम्मिलन, दोनों में चेतना और सत्ता की अलग-अलग सृष्टि कर सकती हैं और ये सभी स्थितियां सार्थक हो सकती हैं और सभी सह-अस्तित्व के लिये समर्थ हो सकती हैं । एक शुद्ध निर्वैयक्तिक सत्ता और चेतना सत्य है और संभव है लेकिन साथ ही पूरी तरह व्यक्तिगत चेतना और सत् भी सत्य है और संभव है । यहां निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म शाश्वत के समान और सहवर्ती पहलू हैं । निर्व्यक्तिक सव्यक्तिक को अपनी अभिव्यक्ति की विधि-रूप में अपने आधीन रख कर अभिव्यक्त हो सकता है लेकिन उसी तरह यह भी हो सकता है कि सव्यक्तिक मूल रूप हो और निर्व्यक्तिक उसकी प्रकृति का एक विशेष प्रकार है । सचेतन सत् की अनंत बहुविधता में अभिव्यक्ति के ये दोनों पहलू एक दूसरे के सामने होते हैं । जो मानसिक बुद्धि के लिये मेल न खानेवाले भेद होते हैं वे अपने-आपको अधिमानस-बुद्धि के सामने सहवर्ती, सह-संबंधी रूप में प्रस्तुत करते हैं । जो मानसिक बुद्धि के लिये एक दूसरे के विपरीत हैं वे अधिमानसिक बुद्धि के लिये एक दूसरे के पूरक हैं । हमारा मन देखता है कि सभी चीजें जड़ से या भौतिक ऊर्जा से पैदा होती हैं, उसके सहारे रहती और उसीमें लौट जाती हैं । वह निष्कर्ष

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निकालता हैं कि जड़ ही शाश्वत तत्त्व, प्राथमिक और चरम सद्वस्तु -ब्रह्म है । या वह देखता है कि सभी वस्तुएं प्राण-शक्ति या मन से पैदा हुई हैं, प्राण या मन के सहारे जीती हैं और वैश्व प्राण या मन में लौट जाती हैं और वह यह निष्कर्ष निकाल लेता है कि यह जगत् वैश्व प्राण-शक्ति या वैश्व-मन अथवा 'लोगोस' (परावाक्) की रचना है । या फिर वह देखता है कि यह जगत् और सभी वस्तुएं सत्य संकल्प या आत्मा की ज्ञानात्मिका इच्छा से पैदा हुई हैं, उसी के सहारे जीती और उसीमें या स्वयं आत्मा में लौट जाती हैं और वह विश्व के बारे में विज्ञानात्मक या आध्यात्मिक दृष्टि के निष्कर्ष पर पहुंचता है । वह इनमें से कोई भी एक दृष्टि निश्चित कर सकता है लेकिन उसकी सामान्य भेदकारी दृष्टि इनमें से हर एक मार्ग को औरों से अलग कर देती है । अधिमानसिक चेतना को यह प्रत्यक्ष होता है कि हरएक दृष्टि अपने बनाये हुए सिद्धांत की क्रिया के लिये सच्ची है । वह देख सकती है कि एक भौतिक जगद्-व्याख्या है, एक प्राणिक जगद्-व्याख्या है, एक मानसिक जगद्-व्याख्या है, एक आध्यात्मिक जगद्-व्याख्या है और इनमें से हर एक अपने निजी जगत् में प्रधान हों सकती है और साथ ही सब की सब एक जगत् में उसकी उपादान शक्तियों के रूप में इकट्ठे रह सकती हैं । चित्-शक्ति का वह आत्म-रूपायण, जिस पर हमारा जगत् प्रतीयमान निश्चेतन के रूप में आधारित है जो अपने अंदर परम चित्-सत्ता को छिपाये रहता है और सत्ता की समस्त शक्तियों को एक साथ अपनी निश्चेतन गुप्तता में धारण करता है, यह वैश्व जड़ तत्त्व का जगत् है जो अपने अंदर प्राण, मन, अधिमानस, अतिमानस, आध्यात्म पुरुष को चरितार्थ करता है । उनमें से हरएक को बारी-बारी से औरों को अपनी अभिव्यक्ति के साधन के रूप में लेता है । जड़ तत्त्व आध्यात्मिक दृष्टि से यह प्रमाणित करता है कि वह हमेशा आत्मा की अभिव्यक्ति रहा है -यह सब अधिमानसिक दृष्टि के लिये एक सामान्य और आसानी से उपलब्ध होनेवाली सृष्टि रहा है । अधिमानस अपनी प्रवर्तन-शक्ति और कार्य-कारिणी क्रिया में सत् की बहुत-सी संभाव्यताओं का व्यवस्थापक है जिनमें से हरएक अपनी अलग वास्तविकता को प्रतिष्ठित करती है । लेकिन यह सब-की-सब बहुत-सी अलग-अलग लेकिन युगपत् विधियों में अपने-आपको जोड़ने में भी समर्थ होती हैं । अधिमानस एक ऐन्द्रजालिक शिल्पी है जिसमें यह क्षमता है कि वह एक ही सत्ता की अभिव्यक्ति के बहुरंगी ताने-बाने से एक जटिल विश्व बुने ।

 

   इन बहुविध स्वतंत्र या संयुक्त शक्तियों और संभाव्यताओं के इस युगपत् विकास में अभी तक कोई अव्यवस्था नहीं, संघर्ष नहीं, सत्य या ज्ञान से पतन नहीं है अधिमानस सत्यों का स्रष्टा है, भ्रांतियों या मिथ्यात्वों का नहीं । किसी भी अधिमानसिक शक्ति-क्रिया या गति में जो कुछ क्रियान्वित किया जाता है वह स्वतंत्र क्रिया में उन्मुक्त रूप, शक्ति, भाव, बल, आनंद का सत्य होता है, उस

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स्वतंत्रता में विद्यमान उसकी सत्यता के परिणामों का सत्य होता है । वहां कोई ऐसी ऐकांतिकता नहीं होती जिसमें हर एक अपने को सत्ता का एकमात्र सत्य या औरों को घटिया सत्य माने । हर एक देवता सभी देवताओं को और विश्व में उनके स्थान को जानता है, हर एक भाव और सब भावों और उनके अस्तित्व के अधिकार को स्वीकार करता है, हर एक शक्ति अन्य सब शक्तियों और उनके सत्य तथा परिणामों का स्थान स्वीकार करती है । अलग पूर्णता-प्राप्त जीवन तथा अलग अनुभव का कोई आनंद किसी और जीवन या अनुभव के आनंद को न तो अस्वीकार करता है न उसका तिरस्कार ही करता है । अधिमानस वैश्व सत्य का एक तत्त्व है और एक बृहत् और असीम विश्वजनीनता उसका मुख्य भाव है । उसकी ऊर्जा सर्वगतिकता है और साथ ही अलग गतिकताओं का तत्त्व भी । वह एक तरह का निम्नतर अतिमानस है -यद्यपि वह मुख्यतया निरपेक्षों से संबंध नहीं रखता, बल्कि उनसे रखता है जिन्हें परम सद्वस्तु की गतिशील संभाव्यताएं या उसके व्यावहारिक सत्य कहा जा सकता है । या फिर निरपेक्षों के साथ मुख्यतः उनके व्यावहारिक या सृजनात्मक मूल्यों को उत्पन्न करने की शक्ति के नाते उनसे संबंध रखता है । यद्यपि यह भी है कि उसकी चीजों की अवधारणा समग्र होने की अपेक्षा सार्वभौम अधिक होती है क्योंकि उसकी समग्रता मंडलीय असमग्रताओं से बनी या एक साथ मिलती या जोड़ती हुई अलग-अलग स्वतंत्र वास्तविकताओं से बनी होती है । यद्यपि अधिमानस मूलभूत एकत्व को पकड़े रहता है और अनुभव करता है कि वह एकत्व ही वस्तुओं का आधार है और उनकी अभिव्यक्ति में फैला हुआ है फिर भी अतिमानस की तरह वह उनके लिये घनिष्ठ और सदा उपस्थित रहनेवाला रहस्य नहीं होता, उनका मुख्य आधार नहीं होता, उनकी क्रियाशीलता और प्रकृति के सामंजस्य-पूर्ण समग्र का प्रकट सतत निर्माता नहीं होता ।

 

   अगर हम इस सार्वभौम अधिमानसिक चेतना का अपनी पृथक्कारी और केवल अपूर्ण रूप से संश्लिष्ट मानसिक चेतना से फर्क समझना चाहें तो हम उसके अधिक निकट आ सकते हैं यदि हम शुद्ध रूप से मानसिक के साथ उसकी तुलना करें जो हमारे विश्व की क्रियाओं के बारे में अधिमानसिक दृष्टि होगी । उदाहरण के लिये अधिमानस के लिये सभी धर्म एक शाश्वत धर्म के विकास के रूप में सच्चे होंगे, सभी दर्शन अपने-अपने क्षेत्र में अपने-अपने दृष्टिकोण की अपनी-अपनी विश्व-दृष्टि के कथन के रूप में मान्य होंगे, सभी राजनैतिक सिद्धांत और उनके व्यावहारिक रूप एक ऐसी भाव-शक्ति का न्यायसंगत क्रियान्वयन होंगे जिसे प्रकृति की ऊर्जाओं की क्रीड़ा में इस्तेमाल होने और व्यवहार रूप में विकसित होने का अधिकार है । हमारी पृथक्कारी चेतना में, जिसमें विश्वजनीनता और सार्वभौमता की झलकें कभी-कभी अपूर्ण रूप से आ जाती हैं, ये चीजें विरोधियों के रूप में रहती हैं । इनमें से हर एक सत्य होने का दावा करती हैं और दूसरों को भ्रांति और

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मिथ्यात्व ठहराती है, हर एक दूसरे का खंडन या नाश करने के लिये प्रेरित होती है ताकि स्वयं वह एकमात्र सत्य हो और जी सके । बहुत दुआ तो हर एक सर्वोत्तम होने का दावा करती है और बाकी सबको सत्य की घटिया अभिव्यक्ति के रूप में मानती है । लेकिन अधिमानसिक बुद्धि इस धारणा या ऐकान्तिकता की ओर इस बहाव को क्षण भर के लिये भी मानने से इंकार कर देगी । वह सभी को समग्र के लिये आवश्यक होने के नाते स्वीकार करेगी या हर एक को समग्र के उसके स्थान पर रखेगी या हर एक को उसकी उपलब्धि या प्रयास का क्षेत्र प्रदान करेगी । यह इसलिये है क्यांकि हमारे अंदर चेतना अज्ञान के विभाजनों में पूरी तरह उतर आयी है । अब सत्य अनंत या वैश्व समग्र नहीं रह जाता जिसके बहुत-से रूप संभव हों बल्कि एक कठोर प्रतिपादन होता है जो दूसरे किसी भी प्रतिपादन को बस इसीलिये मिथ्या ठहराता है क्योंकि वह स्वयं उससे अलग होता है और दूसरी सीमाओं में फंसा रहता है । निश्चय ही हमारी मानसिक चेतना अपने ज्ञान में एक समग्र व्यापकता और सार्वभौमता की ओर काफी हद तक जा सकती है लेकिन उसे कर्म और जीवन में संगठित करना उसके बस की बात नहीं । विकसनशील मन, जो व्यक्तियों या समुदायों में अभिव्यक्त है, अलग-अलग दृष्टिकोणों की, कर्म की अलग-अलग धाराओं की बहुलता पैदा करता है और उन्हें एक दूसरे के साथ-साथ रहते हुए या आपस में टकराते हुए या एक विशेष तरह से मिलते हुए क्रियान्वित होने देता है । वह चुने हुए सामंजस्य तो बना सकता है लेकिन वह सच्ची समग्रता के सामंजस्य के पूर्ण नियंत्रण तक नहीं पहुंच सकता । सभी समग्रताओं की तरह विश्व-मन को विकासक्रम के अज्ञान में भी ऐसा सामंजस्य जरूर प्राप्त होगा, भले वह व्यवस्थित की गयी संगतियों और असंगतियों का ही सामंजस्य हो । उसके अंदर भी एकत्व की अधस्थ सक्रियता रहती है लेकिन इन चीजों की पूर्णता को वह अपनी गहराई में शायद एक अतिमानसिक-अधिमानसिक निचले स्तर में तो लिये रहता है लेकिन विकासक्रम में उसे व्यष्टि-मन को नहीं दे सकता, उसे गहराइयों में से निकाल कर ऊपरी सतह पर नहीं ला सकता या यूं कहें अभी तक लाया नहीं है । अधिमानसिक जगत् सामंजस्य का जगत् होगा जब कि अज्ञान का जगत् जिसमें हम निवास करते हैं, असामंजस्य और संघर्ष का जगत् है ।

 

   फिर भी हम अधिमानस में आदि वैश्व-माया को तुरंत पहचान सकते हैं । वह अज्ञान की माया नहीं बल्कि ज्ञान की माया है फिर भी यह वह शक्ति है जिसने अज्ञान को संभव ही नहीं अनिवार्य भी बनाया है । क्योंकि अगर प्रत्येक तत्त्व को अपनी क्रिया में स्वतंत्र छोड़ दिया जाये ताकि वह अपनी स्वतंत्र रेखा पर चलता हुआ अपने पूर्ण परिणाम ला सके तो पृथक्ता के तत्त्व को भी अपनी पूरी यात्रा तय करने और अपने परम परिणामोंतक पहुंचने देना होगा । यह वह अनिवार्य अवतरण है जिसका अनुसरण चेतना एक बार पृथक्ता के तत्त्व को स्वीकार करने पर तबतक

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करती रहती है जबतक कि वह धुंधला करनेवाले सूक्ष्म से भी सूक्ष्म खंड भाव (तुच्छयेन) द्वारा भौतिक निश्चेतना में -ऋग्वेद में कहे गये निश्चेतन समुद्र (सलिलमप्रकेतम्) में नहीं जा पहुंचती और यदि एकमेव अपनी ही महिमा द्वारा उसमें से जन्म लेता है तब भी वह पहले हमारी खंडित पृथक्कारी सत्ता और चेतना द्वारा छिपा रहता है जिसमें हमें पूर्णतक पहुंचने के लिये खंड-खंड को जोड़ना पड़ता है । उस धीमे और कठिन आविर्भाव में हिरेक्लिटस का यह कथन कुछ सच लगने लगता है कि युद्ध ही सब चीजों का जनक है क्योंकि हर एक भाव, शक्ति, अलग चेतना, सजीव प्राणी अपने अज्ञान की आवश्यकता की वजह से ही औरों से टकराता है और बाकी सत्ता के साथ सामंजस्य द्वारा नहीं बल्कि स्वतंत्र आत्म-प्रतिपादन द्वारा जीने, बढ़ने और अपने-आपको पूर्ण बनाने का प्रयत्न करता है । फिर भी एक अज्ञात, आधारभूत ऐक्य बना ही रहता है जो हमें धीरे-धीरे सामंजस्य, अन्योन्याश्रय, विषमताओं की संगति, कठिन ऐक्य के किसी रूप की ओर प्रयास करने के लिये बाधित करता है । लेकिन हम जिस सामंजस्य और एकत्व के लिये प्रयास कर रहे हैं वह केवल अधूरे प्रयासों, अधूरे निर्माणों, रोज बदलनेवाले सादृश्यों में प्राप्त न होकर हमारी सत्ता के तंतुओंतक में और उसकी सारी आत्माभिव्यक्ति में क्रियात्मक रूप से तभी प्राप्त हो सकता है जब हमारे अंदर वैश्व सत्य की छिपी हुई अतिचेतन शक्तियों का विकास हो । और वे जिस परम तत्त्व में एक हों उसका विकास हो । अगर हमें इस वैश्व अस्तित्व में अपने जन्म की दिव्य संभावना को पूरा करना है तो हमारी सत्ता और चेतना पर आध्यात्मिक मन के उच्चतर लोकों को खुलना होगा और जो आध्यात्मिक मन से भी परे है उसे भी हमारे अंदर प्रकट होना होगा ।

 

   अधिमानस अपने अवतरण में एक ऐसी रेखा पर पहुंचता है जो वैश्व सत्य को वैश्व अज्ञान से अलग करती है । यह वही रेखा है जहां चित्-शक्ति के लिये संभव हो जाता है कि वह अधिमानस द्वारा बनायी गयी हर एक स्वतंत्र गति की पृथक्ता पर बल देती हुई और उनके एकत्व को छिपाती या अंधेरे से ढकती हुई ऐकान्तिक संकेद्रण द्वारा मन को अधिमानसिक मूल से विभक्त कर दे । इससे पहले अधिमानस का अपने अतिमानसिक मूल से ऐसा ही अलगाव हो चुका हैं लेकिन वहां आवरण में एक पारदर्शकता थी जो सचेतन संचरण होने देती थी और कुछ आलोकमय संबंध बनाए रहने देती थी परंतु यहां आवरण अपारदर्शक है और अधिमानस हेतुओं से मन की ओर होनेवाला संचरण गुह्य और अस्पष्ट है । पृथक् होकर मन ऐसे व्यवहार करता है मानों वह कोई स्वतंत्र तत्त्व हो और प्रत्येक मानसिक सत्ता, प्रत्येक आधारभूत मानसिक भाव, बल, शक्ति इसी तरह अपने स्वतंत्र स्व पर खड़ी रहती है । अगर वह औरों के साथ संचरण करती, उनके साथ

 

    १ ऋग्वेद १०,१२९, ३

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मिलती या संबंध जोड़ती है तो वह अधिमानस गति की उदार सार्वभौमता के साथ नहीं, आधारभूत ऐक्य की नींव पर नहीं, बल्कि स्वतंत्र इकाइयों की तरह जोड़ती है जो आपसमें मिलकर एक पृथक्-निर्मित समग्र बनाती हैं । यही वह गति है जिसके द्वारा हम सार्वभौम सत्य से सार्वभौम अज्ञान में जाते हैं । निःसंदेह इस स्तर पर वैश्व मन को अपने निजी एकत्व का बोध रहता है लेकिन उसे यह अभिज्ञता नहीं रहती कि उसका अपना मूल और आधार आत्मा में है, अथवा वह इसे बुद्धि द्वारा ही समझ सकता है, किसी स्थायी अनुभूति द्वारा नहीं । वह मानों अपने ही अधिकार से अपने अंदर क्रिया करता है और उसे जो कुछ उपादान के रूप में मिलता है उसे, जहां से वह उसे पाता है उस उद्गम से किसी सीधे संचरण के बिना ही अपने-आप क्रियान्वित करता है । उसकी इकाइयां भी एक दूसरे के और वैश्व समग्र के बारे में अज्ञान में रहते हुए कार्य करती हैं, उन्हें बस उतना ही ज्ञान रहता है जितना उन्हें संपर्क और संसर्ग द्वारा मिल सकता हो । तादात्म्य का आधारभूत बोध और उससे पैदा होनेवाले अन्योन्य प्रवेश और बोध वहां विद्यमान नहीं होते । इस मानस ऊर्जा की सभी क्रियाएं अज्ञान और उसके विभाजनों के विपरीत आधार पर चलती हैं और यद्यपि वे एक विशेष सचेतन ज्ञान का परिणाम होती हैं, वह ज्ञान आंशिक होता है न कि सच्चा और सर्वांगीण आत्म-ज्ञान और न ही सच्चा और सर्वांगीण जगत्-ज्ञान । यह विशेषता प्राण और सूक्ष्म भौतिक में बनी रहती है और उस स्थूल भौतिक विश्व में फिर से प्रकट होती है जो निश्चेतना में हुए अंतिम पतन से उद्भूत होता है ।

 

   तो भी हमारे अंतस्तलीय या आंतरिक मन की तरह इस मन में भी संसर्ग और पारस्परिकता का अधिक महान् बल अब भी बना रहता है, मानव मन की अपेक्षा मानसता और इन्द्रिय-संवेदन की एक अधिक स्वतंत्र क्रीड़ा रहती है और अज्ञान पूर्ण नहीं रहता; एक सचेतन सामंजस्य, उचित संबंधों का एक अन्योन्याश्रित संगठन अधिक संभव होता है, मन अभीतक अंधी प्राण-शक्तियों द्वारा विक्षुब्ध या प्रत्युत्तरशून्य जड़ से धुंधला नहीं होता । यह अज्ञान का लोक है, लेकिन अभीतक मिथ्यात्व या भ्रांति का नहीं -या अभी तक कम-से-कम मिथ्यात्व में और भ्रांति में जा गिरना अनिवार्य नहीं होता । यह अज्ञान सीमित करता है परंतु आवश्यक रूप से मिथ्या नहीं होता । ज्ञान सीमित हो जाता है, एकांगी सत्यों का संगठन होता है पर सत्य या ज्ञान से इंकार या उनका विपरीत पक्ष नहीं होता । पृथक्कारी ज्ञान के आधार पर आंशिक सत्यों के संगठन का यह रूप प्राण और सूक्ष्म भौतिक में अपना अस्तित्व बनाये रखता है क्योंकि चित्-शक्ति का ऐकांतिक केन्द्रीकरण, जो उन्हें अलग करनेवाली क्रियाओं में डालता है, मन को प्राण से अथवा मन और प्राण को भौतिक से पूरी तरह काट या ढक नहीं देता । पूरा-पूरा अलगाव तभी हो सकता है जब निश्चेतना की स्थिति आ जाये और हमारे बहुविध अज्ञान का जगत् उस तमोग्रस्त गर्भ से उद्भूत हो । अभीतक चेतन रहनेवाली प्रतिविकास की ये स्थितियां

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निःसंदेह चित्-शक्ति के संगठन हैं जिनमें हर एक अपने केन्द्र से जीता है, अपनी निजी संभावनाओं का अनुसरण करता है और जो तत्त्व प्रधान हो, चाहे वह मन हो या प्राण या जड़, वह चीजों को अपने निजी स्वाधीन आधार पर कार्यान्वित करता है लेकिन जो कार्यान्वित होता है वह उसके अपने निजी सत्य होते हैं भ्रम नहीं और न ही सत्य और मिथ्यात्व का, ज्ञान और अज्ञान का जाल । लेकिन जब शक्ति और रूप पर ऐकांतिक संकेन्द्रण द्वारा चित्-शक्ति दृश्य रूप में चेतना को शक्ति से अलग करती दीखती है या रूप और शक्ति में खोयी हुई वह अंध-निद्रा में चेतना को आत्मसात् करती है तो चेतना को खंडित विकास द्वारा अपने-आपतक वापिस पहुंचने के लिये उद्यम करना पड़ता है जिससे भ्रांति आवश्यक हो जाती है और मिथ्यात्व अनिवार्य । लेकिन ये चीजें भी किसी आदि असत् से उत्पन्न भ्रम नहीं हैं । हम कह सकते हैं कि ये निश्चेतना से उत्पन्न जगत् के अपरिहार्य सत्य हैं, क्योंकि अज्ञान वास्तव में एक ज्ञान ही है जो अपने-आपको निश्चेतना के आदि मुखौटे के पीछे खोज रहा है । वह खो देता और फिर पाता है । उसके परिणाम उनकी अपनी ही रेखा में स्वाभाविक और अनिवार्य, उस पतन के सच्चे परिणाम हैं -एक तरह से उस पतन से दोबारा उठने के लिये सही क्रिया भी होते हैं । सत् का आभासी असत् में, चेतना का आभासी निश्चेतना में, सत्ता के आनंद का बृहत् वैश्व असंवेदनशीलता में डुबकी लगाना उस पतन के पहले परिणाम हैं और वापिसी में संघर्षरत खंडित अनुभव, चेतना का सत्य और मिथ्यात्व के, ज्ञान और भ्रांति के दोहरे पदों में परिवर्तन, सत् का जीवन और मृत्यु के दोहरे पदों में परिवर्तन, सत्ता के आनंद का दुःख-सुख के दोहरे पदों में परिवर्तन, आत्मशोध के परिश्रम की आवश्यक प्रक्रिया हैं । सत्य, ज्ञान, आनंद, अविनश्वर सत्ता का शुद्ध अनुभव यहां पर अपने-आपमें वस्तुओं के सत्य का खंडन होगा । इससे भिन्न तभी हो सकता था जब विकासक्रम में सभी सत्ताएं अपने अंदर के चैत्य तत्त्वों के प्रति और प्रकृति के व्यापारों के आधार में रहनेवाले अतिमानस के प्रति शांत भाव से प्रत्युत्तर देतीं किंतु यहीं हर एक शक्ति का अपनी निजी संभावनाओं को कार्यान्वित करने का अधिमानसिक विधान आ जाता हैं । जिस जगत् में एक आदि निश्चेतना और चेतना का विभाजन प्रधान तत्त्व हों, उस जगत् की स्वाभाविक संभावनाएं होंगी -अंधकार की ऐसी शक्तियों का उभार जो अज्ञान के बल पर जीतीं और अज्ञान का अस्तित्व बनाये रखने के लिये प्रेरित रहती हैं, जानने का एक अज्ञानभरा प्रयास जिससे मिथ्यात्व और भ्रांति का आरंभ हो, जीने का एक अज्ञानभरा संघर्ष जो भूल और अशुभ को उत्पन्न करता हो, भोग करने के लिये अहंकारमय संघर्ष जो आंशिक सुखों, दुःखों और कष्टों का जनक हो । अतः ये चीजें यद्यपि हमारे विकासात्मक जीवन की एकमात्र संभावनाएं तो नहीं हैं किंतु उसके अनिवार्य रूप से पहली छापवाले लक्षण हैं । फिर भी, चूंकि असत् गुप्त सत् है, निश्चेतना छिपी हुई चेतना

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है और असंवेदनशीलता छिपा हुआ और सुप्त आनंद है अतः इन गुप्त वास्तविकताओं को अवश्य उभरना चाहिये और अंत में छिपे हुए अधिमानस और अतिमानस को भी अपनी परिपूर्ति अंधकारमय अनंत से उभरनेवाले, ऊपर से विरोधी मालूम होनेवाले संगठन में अवश्य करनी होगी ।

 

   दो चीजें हैं जो इस चरम स्थिति की प्राप्ति को, वह जैसी होती उसकी अपेक्षा अधिक सरल बनाती हैं । अधिमानस ने भौतिक सृष्टि की ओर उतरते हुए अपने कुछ परिवर्तित रूप बनाये हैं । इनमें विशेष है अंतर्भास जो अपनी सत्य की पैनी भेदनेवाली चमकदार झलकों को लिये हमारी चेतना में स्थानीय बिंदुओं और प्रदेश-विस्तारों को आलोकित करता है । ये रूप वस्तुओं के छिपे हुए सत्य को हमारे बोध के अधिक नजदीक ला सकते हैं और पहले तो आंतरिक सत्ता में और उसके फलस्वरूप बाहरी सतही सत्ता में भी चेतना के इन ऊंचे प्रदेशों के संदेशों के प्रति अधिक विस्तार से खुलते हुए उनके तत्त्व में बढ़ते हुए हम स्वयं भी अतर्भासमूलक और अधिमानसिक सत्ता बन सकते हैं । तब हम मानसिक बुद्धि और इन्द्रियों से सीमित नहीं रहेंगे बल्कि एक अधिक वैश्व बोध के लिये और सत्य के, स्वयं उसकी आत्मा और शरीर के साथ सीधे स्पर्श के लिये समर्थ होंगे वस्तुतः इन उच्चतर स्तरों से आलोक की झलकें अब भी हमारे पास आती हैं लेकिन उनका यह हस्तक्षेप अधिकतर खंडित, आकस्मिक या आशिक होता है । अब भी हमें उनके सादृश्य में अपने-आपको बढ़ाना और अपने अंदर महत्तर सत्य की उन क्रियावलियों को व्यवस्थित करना है जिनके लिये हमारी संभाव्यताओं में सामर्थ्य है । लेकिन फिर भी, दूसरी बात यह है कि, अधिमानस, अंतर्भास, बल्कि अतिमानस को भी न सिर्फ निश्चेतना में, जहां से हम विकासक्रम में ऊपर उठते हैं, अंतर्लीन और निहित तत्त्व होना चाहिये, जैसा कि हम देख आये हैं, और न केवल उनका विकास अनिवार्य नियति है, बल्कि वे गुप्त रूप से उपस्थित और अंतर्भासात्मक आर्विभाव की झलकों के रूप में मन, प्राण और भौतिक की वैश्व क्रियाओं में गुह्य रूप से सक्रिय हैं । यह सच है कि उनकी क्रिया छिपी रहती है और जब वे उभरते भी हैं तो उस क्रिया में मन, प्राण और भौतिक के माध्यम द्वारा -जिनमें से होकर वे काम करते हैं -हेर-फेर आ जाता है और उसे पहचानना आसान नहीं होता । अतिमानस आरंभ से ही विश्व में स्रष्टा शक्ति के रूप में अपने-आपको प्रकट नहीं कर सकता क्योंकि अगर वह ऐसा करे तो अज्ञान और निश्चेतना असंभव हो जायेंगे या फिर अभी जो मंद विकास आवश्यक है वह तेज रूपांतर के दृश्य में बदल जायेगा । फिर भी भौतिक ऊर्जा के पग-पग पर हम अतिमानसिक स्रष्टा की लगायी हुई अनिवार्यता की मुहर देख सकते हैं । प्राण और मन के सारे विकास में संभावना की रेखाओं और उनके संयोजन की लीला को देख सकते हैं जो अधिमानसिक हस्तक्षेप की मुहर है; जैसे जड़ तत्त्व में से प्राण और मन मुक्त

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हुए हैं उसी तरह अपने समय में प्रच्छन्न देवत्व की इन महत्तर शक्तियों को प्रतिविकास में से उभरना होगा और उनकी परम ज्योति को ऊपर से हमारे अंदर उतरना होगा ।

 

   अगर ये चीजें वैसी हैं जैसी कि हमने देखी हैं तो अभिव्यक्ति के अंदर दिव्य जीवन हमारे वर्तमान अज्ञानमय जीवन के उच्च परिणाम और मुक्ति-मूल्य के रूप में न केवल संभव बल्कि प्रकृति के क्रमवैकासिक उद्यम की अनिवार्य परिणति और चरम सिद्धि है ।

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