दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

ABOUT

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
English
 PDF    philosophymetaphysics
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
Translator:   Ravindra  PDF    LINK

अध्याय १४

 

अतिमानस स्रष्टा के रूप में

 

          जानीहि (विश्वानि) विज्ञानविजृम्भितानि ।

          सभी चीजें 'दिव्य ज्ञान' (विज्ञान) का आत्म-विस्तार हैं ।

                                              विष्णुपुराण २.१२.३९

 

तो सक्रिय इच्छा और ज्ञान का एक तत्त्व जौ मन से श्रेष्ठ है और जगतों का स्रष्टा है वही एकमेव की उस आत्मवत्ता और बहु के इस प्रवाह के बीच एक मध्यवर्ती शक्ति और सत्ता की स्थिति है । यह तत्त्व हमारे लिये बिलकुल विजातीय नहीं है, न ही वह हमसे एकदम परायी सत्ता की चीज है जिससे हमारा कोई संपर्क ही नहीं हों सकता, जो हमसे बिलकुल अलग है या सत्ता की कोई ऐसी स्थिति है जिसमें से हम किसी रहस्यमय ढंग से जन्म में प्रक्षिप्त तो हुए हैं, पर साथ ही परित्यक्त और वहां लौटने में असमर्थ हैं । अगर हमें ऐसा लगता है कि वे हमसे दूर कहीं ऊंचे शिखरों पर विराजमान हैं तो भी वे हमारी अपनी ही सत्ता की ऊंचाइयां हैं और हमारे पैरों की पहुंच के भीतर हैं । हम उस सत्य का केवल अनुमान ही नहीं कर सकते, उसकी केवल झलक ही नहीं पा सकते बल्कि उसकी उपलब्धि करने योग्य भी हैं । उत्तरोत्तर विस्तार द्वारा या किन्हीं अविस्मरणीय क्षणों मे सहसा ज्योतिर्मय आत्म-अतिक्रमण द्वारा इन शिखरों पर चढ़ सकते हैं या उच्चतम अतिमानवीय अनुभूति के काल में तो घंटों या दिनोंतक भी वहां निवास कर सकते हैं । फिर जब हम उतरते हैं तो संपर्क के ऐसे दरवाजे होते हैं जिन्हें हम हमेशा खुला रख सकते हैं या उन्हें हम फिर-फिर खोल सकते हैं चाहे वे बार-बार बंद हो जाते हों । परंतु जब हमारी विकसनशील मानव चेतना आत्म-विलोप नहीं आत्म-पूर्णता की खोज करती है तो सृष्ट और सर्जनशील सत्ता के इस अंतिम और उच्चतम शिखर पर स्थायी रूप से निवास ही अंत में हमारा परम आदर्श होता है । क्योंकि, जैसा कि हमने देखा है, यही वह आदि 'भाव' और चरम सामंजस्य एवं सत्य है जहां जगत् में धीरे-धीरे होनेवाली हमारी आत्माभिव्यक्ति लौट रही है और जिसे प्राप्त करना ही उसका उद्देश्य है ।

 

    फिर भी हमें यह संदेह हो सकता है कि क्या, अभी या कभी भी, यह संभव है कि इस स्थिति का मानव बुद्धि को विवरण दिया जा सके या उसकी दिव्य क्रियाओं का किसी कथनीय और व्यवस्थित ढंग से मानव ज्ञान और क्रिया के उन्नयन के लिये उपयोग किया जा सके । यह संदेह केवल इसलिये नहीं उठता कि इस दिव्य क्षमता के मानव क्रिया में प्रयोग को दर्शानिवाले ज्ञात तथ्य विरल और संदिग्ध हैं

१२२


या दूरी इस क्षमता की क्रिया को सामान्य मानवजाति के अनुभव और प्रमाणनीय ज्ञान से अलग कर देती है बल्कि इसलिये कि मानव मानसिकता और दिव्य अतिमानस के बीच, इनके सत्त्व और कार्यव्यापार दोनों में प्रकट विरोध है, वह भी इस संदेह को पक्का और पुष्ट करता है ।

 

    और निश्चय ही यदि इस चेतना का मन के साथ कोई संबंध न होता या मानसिक सत्ता के साथ कहीं कोई भी एकात्मता न होती तो मानव धारणाओं को इसका कोई भी विवरण देना एकदम असंभव होता । अथवा अगर यह चेतना अपने स्वरूप में ज्ञान की केवल एक दृष्टि होती, ज्ञान की गतिशील क्रिया की शक्ति बिलकुल न होती तो हम उसके संपर्क सें मानसिक प्रकाश की आनंदमय स्थिति को पाने की आशा तो कर सकते थे परंतु जगत्, के कार्यों के लिये महत्तर प्रकाश या शक्ति की नहीं । लेकिन चूंकि यह चेतना जगत् का सर्जन करनेवाली हैं इसलिये वह केवल ज्ञान की स्थिति ही नहीं, ज्ञान की शक्ति भी होनी चाहिये; वह न केवल प्रकाश और दृष्टि के लिये 'इच्छा' बल्कि शक्ति और कार्य के लिये भीं 'इच्छा' होनी चाहिये । और चूंकि स्वयं 'मन' भी उसीमें से बना है अतः 'मन' परम चेतना की इस आद्य क्षमता और इस मध्यस्थ क्रिया सें ही परिसीमन के द्वारा विकसित हुआ होगा और इस कारण उसे विस्तार के उल्टे विकास द्वारा अपने-आपको उसमें फिर से विघटित करने मे सक्षम होना चाहिये । क्योकि सदा मन को अतिमानस के साथ तत्त्वतः एकात्म होना और अपने अंदर अतिमानस की संभाव्यताओं को छिपाये रखना चाहिये, चाहे वह अपने प्रत्यक्ष रूपों और कार्य करने के रूढ़ तरीकों में कितना भी भिन्न और विपसईत क्यों न हो गया हो । तब संभव है कि हमारे बौद्धिक ज्ञान के दृष्टिकोण से और उसकी परिभाषाओं में समानता और विषमता की पद्धति द्वारा अतिमानस का कोई भाव प्रस्तुत करने का हमारा प्रयास अयुक्तियुक्त या व्यर्थ न हो । यह भाव और ये परिभाषाएं भले अपर्याप्त हों फिर भी ऐसे मार्ग की ओर प्रकाश की अंगुलि बनकर हमें आगे का रास्ता दिखा सकती हैं जिसपर हम कुछ दूर तो चल ही सकते हैं । और फिर मन के लिये यह भी संभव है कि वह अपने-आपसे परे चेतना की अमुक ऊंचाइयों या स्तरोंतक ऊपर उठ जाये और वहां अतिमानसिक चेतना के प्रकाश और शक्ति को कुछ परिवर्तन के साथ अपने अंदर ग्रहण कर सके और उसे एक प्रकाश के, अंतर्भास के या एक सीधे संपर्क या अनुभूति के द्वारा जान सके यद्यपि उसीमें निवास करना, वहीं से देखना और कार्य करना एक ऐसी विजय है जो मानव के लिये अभीतक संभव नहीं हुई है ।

 

    यहां क्षणभर के लिये रुककर हमें अपने-आपसे यह यह चाहिये कि क्या अतीत से ऐसा कोई प्रकाश नहीं पाया जा सकता जो शायद ही कभी ठीक रूप से खोजे गये इन प्रदेशों मे हमारा मार्ग-दर्शन कर सके । हमें एक नाम की आवश्यकता है और आवश्यकता है एक आरंभबिंदु की । क्योंकि हमनें चेतना की

१२३


इस अवस्था को अतिमानस का नाम दिया है परंतु यह शब्द अनेकार्थक है क्योंकि इसे स्वयं मन के अर्थ में लिया जा सकता है । ऐसे मन के जो साधारण मानसिकता से ऊपर उठ गया है और उससे बहुत ऊंचा है लेकिन उसमें कोई आमूल परिवर्तन नहीं हुआ है या इसके विपरीत इसमें वह सब आ सकता है जो मन के परे है और इस तरह उसमें बहुत अधिक व्याप्ति आ जायेगी, जिसमें स्वयं 'अनिर्वचनीय' भी आ जायेगा । एक सहायक वर्णन देने की जरूरत है जो उसके अर्थ को अधिक यथार्थ रूप में सीमित कर सके ।

 

    यहां वेद के रहस्यमय मंत्र हमारी सहायता करते हैं क्योकि उनमें दिव्य और अमर अतिमानस का संदेश है, यद्यपि है छिपा हुआ और पर्दे में से कुछ प्रकाशदायक कौंधें हमारे पास आती हैं । इन वचनों के द्वारा हम इस अतिमानस की कल्पना अपनी चेतना के सामान्य आकाश के परे एक बृहत् के रूप मे कर सकते हैं जिसमें हमारी सत्ता का सत्य उसको अभिव्यक्त करनेवाली सभी चीजों के साथ ज्योतिर्मय रूप में एक होता है और दृष्टि, रूपायन, व्यवस्था, शब्द, क्रिया और गति के सत्य की सुनिश्चितता और इस कारण गति के परिणाम के सत्य, क्रिया और अभिव्यक्ति के परिणाम के सत्य की सुनिक्षितता भी अनिवार्य रूप से बनी रहती है, अचल अध्यादेश और विधान सुनिश्चित रूप से बने रहते हैं । बृहत् सर्वव्यापकता, उस बृहत्ता में सत्ता का ज्योतिर्मय सत्य और सामंजस्य, न कि एक अस्पष्ट अस्तव्यस्तता और अपने में खोया दुआ अंधकार; धर्म और क्रिया का सत्य और सत्ता के सामंजस्यपूर्ण सत्य को अभिव्यक्त करनेवाला ज्ञान, ऐसा मालूम होता है कि वैदिक वर्णन के ये सारभूत तत्त्व हैं । देवता अपने उच्चतम गुह्य रूप मे इसी अतिमानस की शक्तियां हैं, वें इसीसे उत्पन्न हुए हैं, और इसीमें इस तरह बैठे हैं मानों अपने निजी घर में हों, वें अपने ज्ञान मे 'ऋत चिन्मय' (सत्य-चेतन) हैं और अपने कर्म में 'कविक्रतु:' (द्रष्टा संकल्प) से युक्त हैं । उनकी सचेतन शक्ति कर्म और सृष्टि की ओर मुड़ी हुई होती है और जो चीज की जानी है उसके और उस चीज के सत्त्व और धर्म के संपूर्ण और सीधे ज्ञान से युक्त होती है और उसीसे संचालित होती है । यह ऐसा ज्ञान है जो पूरी तरह प्रभावकारी ऐसी इच्छा-शक्ति को निर्धारित करता है जो अपनी प्रक्रिया या अपने परिणाम में न तो भटकती है और न लड़खड़ाती है । दिव्य दृष्टि में जो कुछ देखा गया है उसे वह सहज और अनिवार्य रूप से अभिव्यक्त और परिपूर्ण करती है । यहां 'प्रकाश' 'शक्ति' के साथ एकरूप होता है । ज्ञान के स्पन्दन इच्छा-शक्ति की लय के साथ एकरूप होते हैं और दोनों आनेवाले पूर्वनिक्षित परिणाम के साथ पूरी तरह एकरूप होते हैं, उन्हें परिणाम लाने के लिये खोजना, टटोलना या प्रयास नहीं करना पड़ता । दिव्य प्रकृति में दोहरी शक्ति होती है, सहज आत्म-रूपायन और आत्म-विन्यास की शक्ति जो अभिव्यक्त वस्तु के सत्त्व में से स्वाभाविक रूप से उमड़ती और उसके आदि सत्य को प्रकट

१२४


करती है और प्रकाश की आत्म-सामर्थ्य जो स्वयं वस्तु के अंदर हीं अंतर्निहित रहती और उसके सहज और अनिवार्य आत्म-विन्यास का उद्गम है ।

 

    कुछ गौण परंतु महत्त्वपूर्ण विवरण हैं । ऐसा लगता है कि वैदिक द्रष्टा 'ऋत चिन्मय' अंतरात्मा की दो प्रारंभिक क्षमताओं की बात करते हैं, वे हैं 'दृष्टि' और 'श्रुति' जिनसे उनका मतलब है अंतर्लींन ज्ञान की सीधी क्रिया, इन्हें सत्य-दर्शन और सत्य-श्रवण कह सकते हैं, इन्हें सुदूर स्थान से हमारी मानव मानसिकता में अंतःप्रकाश और अंतःप्रेरणा की क्षमताओं द्वारा प्रतिबिंबित किया जाता है । इसके अतिरिक्त, ऐसा मालूम होता है कि अतिमानस की क्रियाओं में दो प्रकार के ज्ञान में भेद किया जाता है । एक है सर्वसमावेशी और सर्वव्यापी चेतना द्वारा प्राप्त ज्ञान जो तादात्म्य द्वारा प्राप्त आत्मनिष्ठ ज्ञान के बहुत नजदीक होता है, दूसरा है बहि:क्षिप्त, सम्मुखस्थ बहिर्ज्ञान, प्रवृत्त चेतना द्वारा प्राप्त ज्ञान जो वस्तुनिष्ठ ज्ञान का आरंभ है । ये वैदिक संकेत हैं और हम इस प्राचीन अनुभव के आधार पर अधिक लचीले शब्द अतिमानस को सामान्य अर्थ में मर्यादित करने के लिये सहायकारी शब्द 'सत्य चेतना' या 'ऋत-चित्' को स्वीकार कर सकते हैं ।

 

    हम तुरंत देखते हैं कि ऐसी चेतना जिसका वर्णन ऐसे शब्दों द्वारा किया गया है, अवश्य ही एक मध्यवर्ती रचना होगी जो अपने पीछे, ऊपर की एक अवस्था और अपने सामने नीचे की एक अवस्था की ओर निर्देश करती है । साथ ही हम देखते हैं वह स्पष्ट रूप से एक कड़ी और साधन है जिसके द्वारा श्रेष्ठतर मे से निम्नतर विकसित होता है और समान रूप से उसे वह कड़ी और साधन भी होना चाहिये जिसके द्वारा निम्नतर विकसित होकर अपने मूल की ओर लौट सके । ऊपर की अवस्था है शुद्ध सच्चिदानंद की एकत्वमयी या अविभाज्य चेतना जिसमें कोई अलग करनेवाले भेद नहीं होते और निचली अवस्था है विश्लेषणात्मक या विभाजनकारी 'मन' की चेतना जो केवल विभाजन और पृथक्करण के द्वारा ही जान सकती है और उसे एकता और अनंतता का अधिक-से-अधिक एक अस्पष्ट-सा बोध ही हो सकता है क्योकि यद्यपि वह अपने विभागों का समन्वय कर सकती है परंतु वह सच्ची समग्रता को नहीं पा सकती । उनके बीच यह सर्वसमावेशी और सर्जनात्मक चेतना है । अपने सर्वव्यापी और सर्वसमावेशी ज्ञान की शक्ति के नाते वह तादात्म्य से आनेवाली आत्म-अभिज्ञता की संतान है जो ब्रह्म की स्थिति है और अपनी बहि:क्षिप्त, सभुखस्थ, बहिर्ज्ञान-प्रवृत्त ज्ञान की शक्ति के नाते वह भेद से पैदा होनेवाली उस अभिज्ञता की जननी है जो 'मन' की प्रक्रिया है ।

 

    ऊपर शाश्वत रूप से स्थायी, अक्षर एकमेवाद्वितीयमू का तत्त्व है और नीचे बहु का तत्त्व है जो शाश्वत रूप से क्षर रहता है । वह चीजों के परिवर्तन-प्रवाह में एक स्थिर और दृढ़ और अविचल आधरबिंदु की खोज करता है पर मुश्किल से ही पाता है । बीच मे आसन है समस्त त्रयी, समस्त द्वयेक, उस सबका जो 'बहु' में एक

१२५


और 'एक' में 'बहु' है क्योंकि मूलतः वह 'एक' ही था जो संभाव्यता में सदा 'बहु' रहा । अतः यह मध्यावस्था समस्त सृष्टि और विन्यास का आरंभ और अंत, अथ और इति है, यही समस्त विभेदीकरण का आरभबिंदु और समस्त एकीकरण का साधन है, सभी उपलब्ध या उपलब्ध हो सकनेवाले सामंजस्यों की प्रवर्तिका, उन्हें कार्यान्वित करने और पूर्णतातक पहुचानेवाली है । उसमें एकमेव का ज्ञान है परंतु वह एकमेव में से उसमें छिपे बहु को भी बाहर ला सकने में समर्थ हैं, वह 'बहु' को अभिव्यक्त करती है परंतु उनके विभेदों में अपने-आपको खो नहीं देती । क्या हम यह नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व ही अनिर्वचनीय एकत्व के हमारे उच्चतम बोध से भी परे की किसी वस्तु की ओर फिर से संकेत करता है --किसी ऐसी चीज की ओर जो केवल अपनी एकता और अविभाज्यता के कारण ही नहीं बल्कि हमारे मन के इन निरूपणों से भी मुक्त होने के कारण अनिर्वचनीय और मन के लिये अगम्य है-कोई ऐसी चीज जो एकत्व और बहुत्व दोनों के परे है ? 'वह' होगी परम निरपेक्ष और सद्वस्तु फिर भी वह हमारे ईश्वर के ज्ञान और जगत् के ज्ञान दोनों को उचित ठहराती है ।

 

   लेकिन ये शब्द व्यापक और समझने में कठिन हैं, चलो हम सुनिश्चितता पर आयें । हम 'एक' को सच्चिदानंद कहते हैं लेकिन इस वर्णन में ही हम तीन इकाइयों को आगे रखकर, उन्हें एक करके, एक त्रिक पर जा पहुंचते हैं । हम कहते हैं, '' 'सत्', 'चित्', और " आनंद' '' और फिर कहते हैं कि 'वे एक हैं' । यह मन की प्रक्रिया है परंतु एकत्वमयी चेतना के लिये ऐसी प्रक्रिया मान्य नहीं है । सत् ही चित् है और उनमें कोई विभेद नहीं हो सकता । चेतना (चित्) ही आनंद है और उनमें कोई विभेद नहीं हो सकता । और चूंकि वहां इतना भीं विभेद नहीं है इसलिये जगत् का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता । अगर यही एकमात्र सद्वस्तु है तब तो जगत् है ही नहीं । उसका कभी अस्तित्व नहीं रहा, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की गयी होगी क्योंकि अविभाज्य चेतना अविभाजनकारी चेतना है और वह विभाजन और विभेद का आरंभ नहीं कर सकती । लेकिन यह असंगति-दोष है । हम उसे तबतक नहीं स्वीकार कर सकते जबतक कि हम सारी चीज को एक असंभव विरोधाभास और विसंवादी प्रतिपक्ष के आधार पर प्रतिष्ठित करने से ही संतुष्ट न हों ।

 

    दूसरी ओर 'मन' सुनिश्चित रूप में विभाजनों को वास्तविक मान सकता है । वह समन्वयात्मक समग्रता की अथवा अपने-आपको अनंततक फैलानेवाले सांत की कल्पना कर सकता है । विभाजित वस्तुओं के कुल योग और उनके आधार में विद्यमान समरूपता उसकी पकड़ में आ सकते हैं लेकिन चरम एकत्व और पूर्ण अनंतता उसके वस्तुविषयक विवेक के लिये अमूर्त विचार हैं और पकड़ में न आनेवाले परिमाण हैं । यह ऐसी चीज नहीं है जो उसकी पकड़ के लिये वास्तविक

१२६


हो, उसे एकमात्र सद्वस्तु समझना तो उसके लिये और भी कम संभव है । यहां, इसलिये एकत्वमयी चेतना से एकदम उल्टी अवस्था है । हम यहां अनिवार्य और अविभाज्य ऐक्य का सामना करते हुए एक तत्त्वतः बहुत्व को पाते हैं जो अपने-आपको नष्ट किये बिना एकत्व पर नहीं पहुंच सकता और ऐसा करते हुए वह स्वीकार करता है कि वस्तुत: कभी उसका अस्तित्व रहा ही नहीं । फिर भी वह था तो सही क्योंकि इसीने तो एकत्व पाया और अपने-आपको नष्ट किया । और हम फिर से इस असंगति-दोष पर आ पहुंचते हैं जिसमें हम पुनः उग्र विरोधाभास को पाते हैं जो विचार को सुन्न वारके उसे विश्वास दिलाना चाहता है और न सुलझी और न सुलझ सकनेवाली परस्पर-विरोधी स्थापना को पाते हैं ।

 

    अगर हम यह अनुभव कर लें कि 'मन' हमारी चेतना का प्रारंभिक रूपमात्र हैं तो निचली भूमिका, में कठिनाई लुप्त हो जाती है । मन विश्लेषण और संश्लेषण का यंत्र है, तात्त्विक ज्ञान का नहीं । उसका कार्य है स्वयं अपने अंदर की अज्ञात 'वस्तु' में से अस्पष्ट रूप में कुछ काट लेना और उसके इस कटे-छंटे या सीमित रूप को समग्र कहना, और समग्र को फिर से भागों में अलग-अलग बांट देना जिन्हें वह पृथक् मानसिक वस्तुएं समझता है । मन केवल भागों और बाह्य गुणों को ही निश्चित रूप से देख सकता और अपने ही ढंग से जान सकता है । समग्र के बारे में उसका एकमात्र निश्चित विचार यही है कि वह भागों का समवाय या तात्त्विक और बाह्य गुणों की समष्टि है । समग्र को जबतक 'मन' किसी दूसरी चीज के भाग के रूप मे या अपने ही भागों और तात्त्विक तथा बाह्य गुणों के रूप मे न देख ले तबतक यह उसके लिये एक धुंधली धारणा से अधिक कुछ नहीं होता । केवल तभी जब वह उसे टुकड़ो में अलग-अलग करके देख लेता है और उसे अपने-आपमें एक पृथक् निर्मित वस्तु के रूप में, एक अधिक बड़ी समग्रता के अंदर स्थित एक समग्रता के रूप में बिठा लेता है तो 'मन' अपने-आपसे कहता है, ''अब मैं इसे जानता हूं" । पर असल में वह जानता नहीं । वह केवल वस्तु के बारे में अपने विश्लेषणों को जानता है, और अलग-अलग भागों को जोड़ करके एवं देखे हुए गुणों को एक करके वस्तु के बारे में उसका जो विचार बना है केवल उसे जानता है । उसकी विशिष्ट शक्ति, उसकी निश्चित क्रिया यहीं समाप्त हो जाती है । और अगर हम कोई महत्तर, गभीरतर और वास्तविक ज्ञान पाना चाहें -ज्ञान, न कि कोई तीव्र किंतु आकारहीन भावना, जैसी कभी-कभी हमारी मानसिकता के किन्हीं गहरे परंतु अप्रक्ट भागों में आती है -तो मन को एक और चेतना के लिये स्थान खाली करना पड़ेगा जो उसका अतिक्रमण करके उसकी परिपूर्ति करेगी या उसे उलट देगी और इस प्रकार उसके परे छलांग लगाकर, उसकी क्रियाओं को सुधारेगी । मानसिक ज्ञान का शिखर केवल एक कूदने का तख्ता है जिससे आगे की यह छलांग लगायी जा सकती है । 'मन' का सबसे बड़ा काम है जड़तत्त्व के

१२७


अंधेरे कारागार से निकली हमारी धुंधली चेतना को प्रशिक्षित करना, उसकी अंधी सहजवृत्तियों, अनियत अंतर्भासों, अस्पष्ट बोधों को तबतक प्रकाशित करना जबतक कि वह इस अधिक महान् प्रकाश और इस अधिक ऊंची चढ़ाई के योग्य न हो जाये । मन एक रास्ता है, चरम अवस्था नहीं ।

 

    दूसरी ओर एकत्वमयी चेतना या अविभाज्य एकत्व ऐंसी असंभव सत्ता नहीं हो सकती जिसके अंदर कुछ भी नहीं है लेकिन जिसेमें से सब कुछ निकला है और जिसमें सब कुछ गायब और नष्ट हो जाता है । यह एक ऐसा आदि-संकेंद्रीकरण होना चाहिये जिसमें सब कुछ समाया दुआ है परंतु इस देश-कालगत अभिव्यक्ति से भिन्न रूप में । तो जिसने अपने-आपको इस तरह संकेंद्रित किया है वह ऐसा सत् है जो पूरी तरह अनिर्वचनीय और अचिंत्य है । इसे शून्यवादी अपने मन में एक ऐसे अभावात्मक शून्य के रूप में चित्रित करता है जो उन सब चीजों से खाली है जिन्हें हम जानते हैं या जो हम हैं परंतु परात्परवादी उतने ही युकिायुक्त ढंग से उसी सत् को अपने मन के आगे इस रूप में चित्रित कर सकता है कि वह एक भावात्मक, पर जो कुछ हम जानते हैं और जो कुछ हैं उस सबसे अविभेद्य सद्वस्तु है । वेदांत का कहना है कि प्रारंभ में बस एक सत् ही था, दूसरा कुछ था ही नहीं - ' एकमेवाद्वितीयम्, लेकिन आरंभ के पहले और पीछे, अभी और सदा-सर्वदा, काल के परे वह है जिसे हम 'एक' भी नहीं कह सकते, उस समय भी नहीं जब हम यह कहते हैं कि तत् के सिवा कुछ नहीं है । सबसे पहले हम जिसके बारे में अभिज्ञ हो सकते हैं वह है आदि-आत्म-सकेंद्रीकरण जिसे हम अविभाज्य एक के रूप में पाने के लिये प्रयास करते हैं । दूसरे, जो कुछ अपने एकत्व में संकेंद्रित था उसका प्रसारण और प्रकटत: विभाजन -यही मन की विश्व-विषयक धारणा है । तीसरे, उसका ऋत-चित् मे दृढ़ आत्म-विस्तार । यह ऋत-चित् ही इस प्रसारण को समाये और धारण किये रहता है और उसे वास्तविक विभाजन से बचाता है । यह अतिशय अनेकरूपता में एकत्व को, अतिशय परिवर्तनशीलता में स्थिरता बनाये रखता है और सर्वव्यापी संघर्ष और टकराव के आभास में सामजस्य पर जोर देता और शाश्वत वैश्व व्यवस्था को बनाये रखता है जब कि मन केवल एक विशृंखलितता पर ही पहुंच पाता है जो निरंतर अपने-आपको रूप देंने के लिये प्रयत्नशील है । यहीं है अतिमानस सत्य-चेतना, सत्य-भाव जो अपने-आपको जानता है और अपने-आप जो कुछ बन जाता है उसे भी जानता है ।

 

    अतिमानस ब्रह्म का बृहत् आत्म-विस्तार है, वह उसको धारण और विकसित करता है । ' भाव' के द्वारा वह सत् चित् और आनंद के त्रिविध तत्त्व को उनकी अविभाज्य एकता में से विकसित करता है । वह उनमें भेद करता है परंतु उनका विभाजन नहीं करता । वह त्रयी को स्थापित करता है परंतु 'मन' की तरह तीन से 'एक' की ओर न जाकर 'एक' में से तीन को अभिव्यक्त करता है -क्योंकि वह

१२०


अभिव्यक्त और विकसित करता है, फिर भी उनके एकत्व को बनाये रखता है, क्योंकि वह जानता और धारण करता है । भेद करके वह उनमें से एक-न-एक को प्रभावकारी देव के रूप में सामने ला पाता है जिसमें बाकी दो को अपने अंदर अंतर्निहित या प्रकट रूप में धारण किये रहता है और वह इस प्रक्रिया को समस्त विभेदन का आधार बना देता है । और वह सर्वरचनाकारी इस त्रिक में से जिन तत्त्वों और संभावनाओं को विकसित करता है, उन सबपर इसी विधि से क्रिया करता है । उसमें विकसित करने, उन्नत करने और सुस्पष्ट करने की शक्ति होती है और वह शक्ति अपने में एक दूसरी शक्ति को, निमज्जन या अंतर्लयन की, निमीलन की, अपने अंदर अव्यक्त कर लेने की शक्ति को लिये रहती है । एक अर्थ में समस्त सृष्टि दो अंतर्लयनों के बीच की होनेवाली गति है, आत्मा, जिसके अंदर सब कुछ अंतर्लींन है और जिसमें से सब कुछ नीचे की ओर जड़ पदार्थ के दूसरे छोर की ओर विकसित होता है । उधर जड़ पदार्थ में भी सब कुछ अंतर्लीन होता है, उसमें से ऊपर आत्मा के दूसरे छोर की ओर सब विकसित होता है ।

 

    इस प्रकार विश्व का सृजन करनेवाले सत्य-भाव की विभेद की सारी प्रक्रिया यह है कि वह मूलतत्त्वों, शक्तियों, रूपों को सामने रखती है जो समग्र बोधात्मिका चेतना के लिये शेष सारे अस्तित्व को अपने अंदर धारण किये रहते हैं और बहिर्बोधात्मिका चेतना के सम्मुख इस रूप में प्रस्तुत होते हैं कि शेष सारा अस्तित्व अव्यक्त रूम में उनके पीछे है । अतः सर्व प्रत्येक में है और प्रत्येक सर्व में । इसलिये वस्तुओं का हर बीज अपने अंदर विविध संभावनाओं की अनंतता लिये रहता है, परंतु 'इच्छा-शक्ति' के द्वारा उसे प्रक्रिया के एक ही विधान और परिणाम के आधीन रखा जाता है, अर्थात् सचेतन सत्ता की चित्-शक्ति द्वारा -जो अपने- आपको अभिव्यक्त कर रही है, जो अपने अंदर 'दिव्य-भाव' के बारे में निश्चित्त है, -वह अपने ही रूपों और गतियों को पूर्व निर्धारित करता है । बीज है उसकी अपनी सत्ता का सत्य जिसका यह स्वयंभू अपने अंदर दर्शन करता है । उस आत्म-दृष्टि के बीज का परिणाम है आत्म-क्रिया का सत्य, विकास, रूपायन और कर्म का स्वाभाविक विधान जो अनिवार्य रूप से आत्मदर्शन के पीछे आता है और आदि सत्य में अंतर्लीन प्रक्रिया के अनुसार होता है । समस्त प्रकृति सचेतन सत्ता (चिन्मय पुरुष) का कविक्रतु: (द्रष्टा संकल्प) और ज्ञान-शक्ति है जो भाव के उस अनिवार्य सत्य को शक्ति और रूप में विकसित करने के लिये कार्यरत है जिसमें उसने अपने-आपको आरंभ में प्रक्षिप्त किया था ।

 

    'भाव' की यह अवधारणा हमें मानसिक चेतना और सत्य-चेतना के बीच भेद की ओर इशारा करती है । हम विचार को सत्ता से भिन्न वस्तु के रूप में देखते हैं जो अमूर्त, नि:सत्त्व, वास्तविकता से भिन्न ऐसी चीज है जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वह कहां से प्रकट हुई है, जो वस्तुनिष्ठ वास्तविकता का निरीक्षण करने,

१२९


उसे समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिये अपने-आपको उससे अलग कर लेती है । वह ऐसी ही प्रतीत होती है और इसलिये हमारी सर्वविभाजनकारी, सर्व-विश्लेषक मानसिकता के लिये ऐसी ही है । मन का पहला कार्य है 'पृथक् करना' । विवेक करने की अपेक्षा कहीं अधिक दरारें पैदा करना । इस तरह उसने विचार और सद्वस्तु के बीच यह पंगु करनेवाली खाई बना दी है । लेकिन अतिमानस में समस्त सत्ता चेतना है, समस्त चेतना सत्ता की है और भाव जो कि चेतना का (जो कुछ प्रकट होना है उससे) गर्भित स्पंदन है, वह समान रूप से सत्ता का भी स्पंदन है और उससे गर्भित यह असर्जनशील आत्म-अभिज्ञता में जो कुछ संकेंद्रित पड़ा हुआ था उसीका सर्जनकारी आत्म-ज्ञान में प्रथम आविर्भाव है । और यह भावगत वही सद्वस्तु है जो अपने-आपको सदा अपनी ही शक्ति और अपनी ही चेतना के द्वारा विकसित कर रही है । यह सदा आत्म-चेतन है, भाव में अंतर्निहित इच्छा-शक्ति के द्वारा सदा अपने-आपको उन्मीलित कर रही है, अपनी प्रत्येक प्रेरणा में निहित ज्ञान के द्वारा सदा अपने-आपको चरितार्थ करने मे लगी है । यही है सारी सृष्टि का, सारे क्रम-विकास का सत्य ।

 

    अतिमानस में सत्ता, ज्ञान की चेतना और इच्छा की चेतना उस तरह विभक्त नहीं हैं जैसे वे हमारी मानसिक क्रियाओं में विभक्त मालूम होती हैं । वे एक त्रयी हैं, एक ही गति हैं जिसके तीन अलग-अलग प्रभावकारी पक्ष हैं । हर एक का अपना प्रभाव होता है । सत्ता पदार्थ का प्रभाव देती है, चेतना ज्ञान का प्रभाव देती है, आत्मनिर्देशनकारी, आकार देनेवाले भाव, विज्ञान और प्रज्ञान (समग्रबोध और बहिर्बोध) के ज्ञान का और इच्छा का प्रभाव है आत्मपरिपूर्ति करनेवाली शक्ति । परंतु भाव तो केवल अपने-आपको आलोकित करनेवाली सद्वस्तु का प्रकाश है । वह मानसिक विचार या कल्पना नहीं, प्रभावकारी आत्म-अभिज्ञता है । वह सत्य- संकल्प है ।

 

    अतिमानस में, भाव के अंदर स्थित ज्ञान, भाव के अंदर स्थित इच्छा से अलग नहीं, उसके साथ एक होता है, ठीक उसी तरह जैसे वह सत्ता या द्रव्य से अलग नहीं बल्कि सत्ता के साथ, द्रव्य की आलोकमय शक्ति के साथ एक होता है । जैसे जलती अग्नि-शिखा की शक्ति अग्नि के द्रव्य से पृथक् नहीं होती उसी भांति 'भाव' की शक्ति 'सत्ता' के उस द्रव्य से अलग नहीं होती जो अपने-आपको ' भाव' और उसके विकास में चरितार्थ करता है । हमारी मानसिकता में सब भिन्न-भिन्न होते हैं । हमारे अंदर एक भाव आता है और भाव के अनुकूल एक इच्छा या आवेग, इच्छा का एक ऐसा भाव जो अपने-आपको उससे अलग कर लेता है; लेकिन हम प्रभावकारी ढंग से भाव का इच्छा से और दोनों का अपने-आपसे भेद करते हैं । मैं हूं यह 'भाव' एक रहस्यमय अमूर्तता है जो मेरे अंदर प्रकट होती है । इच्छा एक दूसरा रहस्य है, एक ऐसी शक्ति है जो मूर्तता के अधिक नजदीक है यद्यपि मूर्त

१३०


नहीं है, वह सदा ऐसी चीज होती है जो मैं नहीं हूं कोई ऐसी चीज है जो मेरे अंदर है या बाहर से मेरे पास आती है या मुझपर कब्जा कर लेती है पर वह मैं नहीं हूं । मैं अपनी इच्छा, उसके साधन और प्रभाव के बीच एक खाई बना लेता हूं क्योंकि मैं इन्हें अपने से बाहर, अपने से भिन्न ठोस वास्तविकताएं मानता हूं । इसलिये न तो स्वयं मैं और न मेरे अंदर का भाव और न मेरे अंदर की इच्छा आत्म-प्रभावी होते हैं । हो सकता है कि भाव मुझसे झड़ जाये, इच्छा असफल हो, साधनों का अभाव हो और स्वयं मैं इनमें से किसी या इन सभी अभावों के कारण अपूर्ण रह जाऊं ।

 

    परंतु अतिमानस में ऐसा कोई पंगु बनानेवाला विभाजन नहीं होता क्योंकि वहां मन की तरह ज्ञान आत्म-विभाजित नहीं होता, शक्ति आत्म-विभाजित नहीं होती, सत्ता आत्म-विभाजित नहीं होती । वहां ये चीजें न तो अपने-आपमें खंडित होती हैं और न ही एक दूसरे से अलग होती हैं । क्योंकि अतिमानस 'बृहत्' है, वह ऐक्य से आरंभ होता है विभाजन से नहीं, वह मूलत: सर्वसमावेशी है, विभेदन उसकी गौण क्रिया है । अतः सत्ता का चाहे जो कोई भी सत्य प्रकट किया गया हो, भाव पूरी तरह उसके सदृश होता है, इच्छा-शक्ति भाव के सदृश रहती है -शक्ति चेतना का ही बल है - और परिणाम इच्छा के सदृश होता है । भाव अन्य भावों के साथ नहीं टकराता, इच्छा या शक्ति अन्य इच्छा या शक्ति के साथ नहीं टकराती जैसा मनुष्य तथा उसके संसार के अंदर होता है क्योंकि वह एक बृहत् चेतना है जो सभी भावों को अपने भाव के रूप मे अपनेमें समाये और एक-दुसरे से जोड़े रहती है, एक बृहत् 'इच्छा' है जो सभी ऊर्जाओं को अपने अंदर अपनी ऊर्जाओं के रूप में समाये और एक-दुसरे को जोड़े रहती है । वह अपनी पूर्व-दृष्टियुक्त ' भाव-इच्छा' के अनुसार किसीको पीछे रोक लेता है और किसीको आगे बढ़ाता है ।

 

    दिव्य सत्ता की सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता के बारे में धर्मों की प्रचलित धारणा का यही औचित्य है । इन विचारों का अयुक्तियुक्त कल्पनाएं होना तो दूर रहा, ये पूर्णतः युक्ति-संगत हैं और किसी भांति व्यापक दर्शन के तर्कों, अथवा अवलोकन तथा अनुभूति के संकेतों का खंडन नहीं करते । भूल बस यही होती है कि भगवान् और मनुष्य, ब्रह्म और जगत् के बीच न पट सकनेवाली खाई बना दी जाती है । यह भूल सत्ता, चेतना और शक्ति में जो वर्तमान और व्यावहारिक विभेद है, उसे बढ़ाकर तात्त्विक विभाजन का रूप दे देती है । लेकिन प्रश्न के इस पहलू को हम बाद में लेंगे । अभी हम दिव्य और सृजनात्मक अतिमानस की एक ऐसी प्रस्थापना और धारणा पर पहुंचे हैं जिसमें सब कुछ सत्ता, चेतना, इच्छा और आनंद में, एक है फिर भी उनमें विभेद की अनंत क्षमता है जो एकत्व का विस्तार करती है, पर उसे नष्ट नहीं करती -जिसमें सत्य ही द्रव्य है,

१३१


सत्य ही ' भाव' में उठता है, सत्य ही रूप में प्रकट होता है । वहां ज्ञान और इच्छा का एक ही सत्य है, आत्म-परिपूर्णता और इस कारण आनंद का भी एक ही सत्य है क्योंकि समस्त आत्मपरिपूर्णता सत्ता का संतोष है । अतः सदा सभी परिवर्तनों और संयोजनों में एक स्वयंभू और अविच्छेद्य सामंजस्य बना रहता है ।

१३२










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates