दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २

 

ब्रह्म, पुरुष, ईश्वर-माया, प्रकृति, शक्ति

 

          अविभक्त च भूतेपु विभक्तमिव च स्थितम्

 

          वह भूतों में अविभक्त है फिर भी ऐसे रहता है मानों विभक्त हो ।

                                                       गीता १३.१७

 

          सत्य ज्ञानमनत्तं ब्रह्म

          सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, अनन्त ब्रह्म

                                                तैत्तिरीय उपनिषद् २.१

 

          प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि

          प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि जानो ।

                                                    गीता १३.२०

 

          माया तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।।

          माया को प्रकृति और माया के प्रभु को महेश्वर मानो ।

                                                श्वेताश्वतरोपनिषद् ४.१०

 

           देवस्यैष महिमा तु लोके येनेद भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ।।

           तमीश्वराणां परमं महेश्वर तं देवतानां परमं च दैवतम् ।

                       ......... विदाम.........

           पराऽत्य शक्तिर्विविधैव श्रुयते स्वभाश्वकी ज्ञानबलक्रिया च ||

           एको देव: सर्वभूतेपु गूढ़: सर्वव्यापी सर्वभूतात्तरात्मा ।

           कर्माध्यक्ष; सर्वभूताधिवास; साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।।

 

परम देव की महिमा ही इस जगत् में ब्रह्म के चक्र को घुमाती है । हमें उन ईश्वरों के महेश्वर, सकल देवों के परम देव को अवश्य जानना चाहिये । उनकी शक्ति भी परम है और उस शक्ति के ज्ञान और बल की स्वाभाविक क्रिया बहुविध है । एक परम देव, सभी सत्ताओं मे गुह्य, सभी सत्ताओं की आत्मा, सर्वव्यापक, निरपेक्ष, निर्गुण, केवल, सभी कर्मों का अध्यक्ष, साक्षी, ज्ञाता है ।

                                                                                श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१, ,,११

 

तो एक शाश्वत, निरपेक्ष और अनंत परम सद्वस्तु है । चूंकि वह निरपेक्ष और अनंत है इसलिये वह तत्वतः अनिर्देश्य है । यह सांत और परिभाषा करनेवाला मन उसकी परिभाषा और धारणा नहीं कर सकता । मन से बनी हुई वाणी उसका वर्णन नहीं कर सकती । न तो उसका वर्णन हमारे निषेधों से, नेति, नेति कहकर हो सकता है,

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क्योंकि वह यह नहीं है या वह नहीं है कहकर हम उसे सीमित नहीं कर सकते, और न ही हमारी स्वीकारोक्तियों से, क्योंकि हम उसे वह यह है, वह वह है इति इति कह कर निर्धारित नहीं कर सकते । वह इस तरीके से हमारे लिये अज्ञेय है फिर भी वह हर तरह से एकदम अज्ञेय भी नहीं है । वह अपने लिये स्वतः -सिद्ध है और अनिर्वचनीय होते हुए भी तादात्म्य द्वारा ज्ञान के लिये स्वतः-सिद्ध है । हमारे अंदर की आध्यात्मिक सत्ता को इसके योग्य होना चाहिये क्योंकि वह आध्यात्मिक सत्ता सारतः, अपनी मौलिक और घनिष्ठ वास्तविकता में इस परम सत् से भिन्न और कुछ नहीं है ।

 

   लेकिन, द्यपि यह परम और शाश्वत अनंत अपनी निरपेक्षता और अनंतता के कारण मन के लिये अनिर्देश्य है फिर भी हमें पता चलता है कि वह अपने-आपको विश्व में हमारी चेतना के आगे अपनी सत्ता के उन वास्तविक और आधारभूत सत्यों द्वारा निर्दिष्ट भी करता है जो विश्व के परे भी हैं और विश्व में भी, जो उसके अस्तित्व के यथार्थ आधार हैं । ये सत्य अपने-आपको हमारे धारणात्मक ज्ञान के आगे आधारभूत पहलुओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिनमें हम सर्वव्यापक सद्वस्तु को देखते और अनुभव करते हैं । अपने-आपमें वे बौद्धिक समझ द्वारा नहीं बल्कि हमारी चेतना के ठीक द्रव्य में आध्यात्मिक अंतर्भास द्वारा, आध्यात्मिक अनुभूति द्वारा सीधे ही पकड़ में आते हैं । लेकिन उन्हें विशाल और नमनीय भाव द्वारा धारणा में पकड़ा और किसी ऐसी नमनीय वाणी में व्यक्त किया जा सकता है जो कठोर परिभाषा पर आग्रह नहीं करती या भाव की विशालता और सूक्ष्मता को सीमित नहीं करती । इस अनुभव या भाव को किसी निकटता के साथ प्रकट करने के लिये एक ऐसी भाषा बनानी होगी जो एक ही साथ अंतर्भासात्मक ढंग से तत्त्वटार्शनिक और अंतःप्रकाशात्मक ढंग से काव्यमय हो, जो सार्थक, सजीव रूपकों को अंतरंग, सूचक, और स्पष्ट संकेत के वाहन के रूप में स्वीकार करती हो, ऐसी भाषा जैसी हमें वेदों और उपनिषदों की सूक्ष्म, सारगर्भित अति-विशालता में गढ़ी हुई मिलती है । तत्त्व दर्शन के विचार की साधारण भाषा में हमें एक दूर के संकेत से, अमूर्तो के दिये 'लगभग' से संतुष्ट हो जाना पड़ता है जो फिर भी हमारी बुद्धि के लिये कुछ उपयोगी हो सकती है क्योंकि इस तरह की वाणी हमारी तर्कसंगत और युक्तियुक्त समझ की विधि के अनुकूल होती है; लेकिन अगर उसे सचमुच उपयोगी होना हो तो बुद्धि को सांत तर्क की सीमाओं से बाहर निकलने के लिये राजी होना और अनंत के तर्क के लिये अपने-आपको अभ्यस्त करना चाहिये । केवल इसी शर्त पर, इस प्रकार देखने और सोचने से अनिर्वचनीय के बारे में बोलना विरोधाभासी या व्यर्थ नहीं रहता । लेकिन अगर हम अनंत पर सांत तर्क लगाने पर आग्रह करें तो सर्वव्यापक सद्वस्तु हमसे छटक जायेगी, हम उसके बदले एक अमूर्त छाया को पकड़ लेंगे, एक पथराया दुआ मृत रूप वाणी में या

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एक कठोर और तीक्ष्ण रेखाचित्र हो जायेगा जो सद्वस्तु की बात तो करेगा लेकिन उसे अभिव्यक्त न करेगा । यह जरूरी है कि हमारी जानने की विधि उसके उपयुक्त हो जिसे हमें जानना है नहीं तो हमें किसी दूरस्थ परिकल्पना की, ज्ञान के किसी आकार की ही प्राप्ति होगी, सच्चे ज्ञान की नहीं ।

 

   इस तरह हमारे आगे परम सत्य का जो पहलू अपने-आपको प्रकट करता है वह है सत्ता की शाश्वत, अनंत, निरपेक्ष आत्म-सत्ता, आत्म-अभिज्ञता, आत्म-आनंद । यह सभी चीजों का आधार है और गुप्त रूप से सभी को सहारा देता और सबमें व्यापक है । यह आत्म-सत्ता फिर अपने-आपको अपनी तात्त्विक प्रकृति की तीन अभिधाओं में प्रकट करती है : आत्मा, सचेतन सत्ता या आध्यात्म पुरुष और भगवान् या दिव्य सत्ता । भारतीय परिभाषाएं अधिक संतोषजनक हैं -ब्रह्म यानी सद्वस्तु है आत्मा, पुरुष, ईश्वर । क्योंकि ये परिभाषाएं अंतर्भास की जड़ से उपजी हैं । उनमें जहां व्यापक यथार्थता है, वहीं उनमें एक नमनीय प्रयोग का तत्त्व भी है जिससे प्रयोग की अस्पष्टता और अत्यधिक संकुचित करनेवाले बौर्द्धिक धारणा के कठोर जाल से बचा जा सकता है । परब्रह्म वे हैं जिन्हें पाश्चात्य तत्त्व-दर्शन में निरपेक्ष कहा जाता है, लेकिन साथ-ही-साथ ब्रह्म सर्वव्यापक सद्वस्तु भी है जिसमें जो कुछ सापेक्ष है वह सब उसके रूपों और गतिविधियों की तरह निवास करता है । यह एक ऐसा निरपेक्ष है जो सभी सापेक्षों को अपने आलिंगन में ले लेता है । उपनिषदों का कथन है कि सर्वं खल्विदं ब्रह्म यह सब कुछ ब्रह्म है, मन ब्रह्म है, प्राण ब्रह्म है, जड़ तत्त्व ब्रह्म है । प्राण के देवता, पवन के देवता, वायु को संबोधित करते हुए उपनिषद् कहता है, 'त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हों । मनुष्य, पशु पक्षी और कीट-पतंग हर एक का अलग-अलग एकमेव के साथ तादात्म्य किया गया है, ''हे ब्रह्म, तू ही यह वृद्ध पुरुष, लड़का और लड़की है, तू ही यह पक्षी और यह कीट है ।'' ब्रह्म वह चेतना है जो अपने-आपको उस सबमें जानती है जिसका अस्तित्व है, ब्रह्म वह शक्ति है जो देवता, दैत्य और राक्षस के बल को सहारा देती है, यह वह शक्ति है जो मनुष्य, पशु और प्रकृति के रूपों और ऊर्जाओं में क्रिया करती है । ब्रह्म आनंद है, सत्ता का वह गुप्त आनंद है जो हमारी सत्ता का आकाश है जिसके बिना कोई जी न सकता, सांस न ले सकता । ब्रह्म सभी के अंदर अंतरात्मा है । वह जिन रूपों में निवास करता है, जिनका उसीने निर्माण किया है, उसने उन्हींके अनुरूप रूप धारण किया है । सत्ताओं का स्वामी वह है जो सचेतन सत्ता के अंदर सचेतन है लेकिन वह निश्चेतन वस्तुओं में भी चेतन है, वह एकमेव जो बहु का स्वामी है और उनपर अधिकार रखता है । वे बहु शक्ति-प्रकृति के हाथों में निष्क्रिय हैं । वही कालातीत और काल है । वह स्वयं देश और देश में स्थित सब कुछ है, वह कार्य-कारण भाव, कारण और परिणाम है । वह मनीषी और उसका विचार, योद्धा और उसका साहस, जुआरी

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और उसका पांसा है । सभी वास्तविकताएं, सभी पहलू और सभी प्रतीतियां ब्रह्म हैं । ब्रह्म निरपेक्ष है, परात्पर और अव्यवहार्य है, वही अतिवैश्व सत् है जो विश्व को सहारा देता है, वैश्व आत्मा है जो सब सत्ताओं को धारण किये हुए है लेकिन वह प्रत्येक व्यष्टि की आत्मा भी है । अंतरात्मा या चैत्य सत्ता ईश्वर का एक शाश्वत अंश है । वह उसकी परम प्रकृति या चित्-शक्ति है जो जीवित सत्ताओं के लोक में जीवित सत्ता बन गयी है । केवल ब्रह्म ही है और ब्रह्म के कारण ही सब कुछ है क्योंकि सभी ब्रह्म है । यह सद्वस्तु उन सभी चीजों की वास्तविकता है जिन्हें हम आत्मा और प्रकृति में देखते हैं । ब्रह्म, यानी ईश्वर अपनी योगमाया से, आत्माभिव्यक्ति में प्रस्तुत की गयी अपनी चित्-शक्ति से यह सब है । वही सचेतन सत्ता, अंतरात्मा, आत्मा, पुरुष है और अपनी प्रकृति से, अपनी सचेतन आत्म-सत्ता की शक्ति से वह सब कुछ है । वह ईश्वर है यानी सर्वज्ञ, सर्व-शक्तिमान् सर्व-शासक है और वह अपनी शक्ति द्वारा, अपनी सचेतन शक्ति द्वारा अपने-आपको काल में अभिव्यक्त करता और विश्व पर शासन करता है, ये और इस तरह के कथन एक साथ लिये जायें तो उनमें सब कुछ समा जाता है । मन के लिये यह संभव है कि कतर-व्योंत करके, चुन कर, एक बंद प्रणाली बना ले और जो कुछ उसमें न समाये उसे किसी भी व्याख्या द्वारा उड़ा दे । लेकिन अगर हम पूर्ण ज्ञान पाना चाहें तो हमें पूर्ण और बहुमुखी वक्तव्य को अपना आधार बनाना होगा ।

 

   सत्ता की एक निरपेक्ष, शाश्वत और अनंत आत्म-सत्ता, आत्म-अभिज्ञता, आत्म-आनंद, जो गुप्त रूप से विश्व को सहारा देता और उसमें व्यापक है तब भी जब वह उसके परे हो -यह आध्यात्मिक अनुभूति का पहला सत्य है । लेकिन सत्ता के इस सत्य का एक ही साथ निर्गुण और सगुण पक्ष होता है, वह केवल सत् ही नहीं होता; वह निरपेक्ष, शाश्वत और अनंत सत्ता है । जैसे हम इस सद्वस्तु को तीन मूलभूत पहलुओं में देखते हैं -आत्मा, सचेतन सत्ता या आध्यात्म पुरुष और भगवान- दिव्य सत्ता; अगर भारतीय परिभाषाओं का उपयोग करें तो निरपेक्ष और सर्वव्यापक सद्वस्तु ब्रह्म जो हमारे आगे आत्मा, पुरुष और ईश्वर के रूप में अभिव्यक्त होता है, -उसी तरह उसकी चित्-शक्ति भी हमारे आगे तीन रूपों में प्रकट होती है । एक है उस चेतना की आत्म-शक्ति जो सभी चीजों की धारणात्मक रूप से रचना करती है -माया । यह प्रकृति या शक्ति है जो गतिशील रूप से कार्यकारिणी है, जो सभी चीजों को सचेतन सत् आत्मा या आध्यात्म पुरुष की साक्षी आंख के सामने कार्यान्वित करती है, यह दिव्य सत् की सचेतन शक्ति है जो एक ही साथ सभी दिव्य कार्यों की भावनात्मक रूप से सर्जक और गतिशील रूप से कार्यकारिणी है । ये तीन रूप और उनकी शक्तियां संपूर्ण विश्व-सत्ता और समस्त प्रकृति के आधार और आयतन हैं और उन्हें एक साथ अखंड इकाई की तरह लिया जाये तो इनसे विश्वातीत परात्परता, वैश्व सारभौमता और हमारी व्यष्टिगत सत्ता

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के अलगाव के बीच रहने वाली प्रतीयमान विषमता और असंगति में मेल बैठ जाता है । उस एक सद्वस्तु के इस त्रिविध रूप में निरपेक्ष, वैश्व प्रकृति और हम एक शृंखला में आ जाते हैं : क्योंकि अगर अपने-आपमें लें तो निरपेक्ष का, परब्रह्म का अस्तित्व सापेक्ष विश्व का निषेध करेगा और हमारा अपना वास्तविक अस्तित्व निरपेक्ष की एकमात्र अव्यवहार्य सद्वस्तु के साथ असंगत होगा । लेकिन ब्रह्म एक ही साथ सापेक्षताओं में सर्वव्यापक है, वह सभी सापेक्षों से मुक्त निरपेक्ष है, सभी सापेक्षों को आधार देनेवाला निरपेक्ष है, सभी सापेक्षों पर शासन करनेवाला, सबमें व्यापक और सबका उपादान निरपेक्ष है । ऐसा कुछ भी नहीं है जो सर्वव्यापक सद्वस्तु न हो । इस त्रिविध रूप और त्रिविध शक्ति का अवलोकन करने पर हम यह जान पाते हैं कि यह कैसे संभव हैं ।

 

   अगर हम आत्म सत्ता और उसकी कृतियों के इस चित्र को एकात्मक, नि:सीम समग्र की दृष्टि से देखें तो वह एकत्रित दीखता है और अपनी असंदिग्ध समग्रता द्वारा प्रभावित करता है लेकिन यह तार्किक बुद्धि के विश्लेषण के लिये प्रचुर कठिनाइयां ले आता है जैसा कि किसी भी असीम सत्ता के बोध में से कोई तर्क-संगत सिद्धांत निकालने के प्रयास में होना अनिवार्य है । क्योंकि ऐसा हर प्रयास या तो वस्तुओं के जटिल सत्य का मनमाने ढंग से विभाजन करता हुआ संगति में गड़बड़ पैदा करेगा या अपनी व्यापकता के कारण तार्किक रूप से असाध्य हो जायेगा । क्योंकि हम देखते हैं कि अनिर्देश्य अपने-आपको अनंत और सांत के रूप में निर्दिष्ट करता है, अक्षर निरंतर क्षरता और अंतहीन भेदों को स्वीकार करता है, एकमेव असंख्य बहु हो जाता है, निर्वैयक्तिक व्यक्तित्व का सृजन करता है या उसे सहारा देता है, वह अपने-आप 'व्यक्ति' है, आत्मा की प्रकृति है फिर भी वह अपनी प्रकृति से भिन्न है, सत् संभूति में बदल जाता है फिर भी सदा स्व बना रहता है और अपनी संभूतियों से अलग रहता है, वैश्व अपने-आपको व्यष्टि बनाता है और व्यष्टि अपने-आपको वैश्व बना लेता है । ब्रह्म एक ही साथ निर्गुण और अनंत गुण होने में समर्थ है, कर्मों का स्वामी और कर्ता होते हुए भी वह अकर्ता और प्रकृति के कर्मों का मौन साक्षी है । अगर हम प्रकृति की इन क्रियाओं को सावधानी से देखें, एक बार अतिपरिचय के पर्दे को हटाकर और चूंकि चीजें हमेशा ऐसी ही होती हैं इसलिये यही स्वाभाविक है, चीजों की प्रक्रिया के बारे में इस अविचारशील सहमति को अलग कर दें तो हम पाते हैं कि वह जो कुछ करती है, चाहे वह अंश में हो या समग्र में, वह एक चमत्कार है । समझ में न आनेवाले जादू की एक क्रिया है । स्वयंभू की सत्ता और उसमें जो जगत् प्रकट हुआ है उनमें से हर एक और दोनों मिलकर अति-तार्किक रहस्य हैं । हमें लगता है कि वस्तुओं में एक तर्क है क्योंकि भौतिक सांत की प्रक्रियाएं हमारी दृष्टि के साथ मेल खाती हैं और उनके नियम निर्देश्य हैं । लेकिन वस्तुओं के इस तर्क की बारीकी से

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जांच की जाये तो वह अतार्किक, अवतार्किक और अतितार्किक पर हर क्षण ठोकरें खाता दीखता है । जब हम जड़ पदार्थ से प्राण और प्राण से मानसिकता की ओर बढ़ते हैं तो प्रक्रिया की संगति और निर्देश्यता बढ़ने की जगह घटती हुई मालूम होती हैं । अगर सांत किसी हदतक तर्क संगत दीखना स्वीकार कर लेता है तो अत्यणु उन्हीं नियमों में बंधने से इंकार करता है और अनंत तो पकड़ में ही नहीं आता । रही बात विश्व के कार्य और उसके अर्थ या महत्त्व की तो वह हमसे बिलकुल बच निकलता है । अगर आत्मा, ईश्वर या आध्यात्म सत्ता है तो जगत् के साथ और हमारे साथ उसके व्यवहार अगम्य हैं, वे ऐसा कोई सूत्र नहीं देते जिसका हम अनुसरण कर सकें । भगवान् और प्रकृति और हम भी ऐसे रहस्यमय मार्ग से गति करते हैं जो केवल आंशिक रूप में और किन्हीं बिंदुओं पर समझ में आता है परंतु सब मिला कर हमारी समझ से बच निकलता है । माया के सभी कार्य किसी अतितार्किक जादुई शक्ति से उत्पन्न मालूम होते हैं जो उन्हें अपनी प्रज्ञा या अपनी मनमानी तरंग के अनुसार व्यवस्थित करती है, लेकिन ऐसी प्रज्ञा जो हमारी नहीं है और ऐसी मनमानी तरंग जो हमारी कल्पना को चकरा देती है । जो आत्मा चीजों को अभिव्यक्त करती या अपने-आपको उनमें इतने अस्पष्ट रूप में प्रकट करती है वह हमारी तर्क-बुद्धि को जादूगर की तरह और उसकी शक्ति या माया एक सृजनात्मक जादू प्रतीत होती है । लेकिन जादू भ्रांतियां पैदा कर सकता है या आश्चर्यजनक वास्तविकताएं पैदा कर सकता है और हमारे लिये यह निर्णय करना कठिन हो जाता हैं कि तर्क से परे की इन प्रक्रियाओं में से कौन-सी इस विश्व में हमारे सामने आती है ।

 

   लेकिन वस्तुत: इस धारणा का कारण अवश्य ही 'परम' या वैश्व स्वयंभू के अंदर, किसी भ्रांतिपूर्ण या कपोल-कल्पित चीज में नहीं, बल्कि उसकी बहुविध सत्ता के परम संधान-सूत्र को पकड़ पाने में या उसके कामों की गुप्त योजना और विधि का पता लगा सकने में अपनी असमर्थता में खोजना चाहिये । स्वयंभू-सत् अनंत है और उसके संभवन और उसकी क्रिया के तरीके भी अनंत के तरीके होने चाहियें । लेकिन हमारी चेतना सीमित है, वस्तुओं पर आधारित हमारी तर्क-बुद्धि सीमित है । यह मान लेना अयुक्तियुक्त होगा कि सीमित चेतना और बुद्धि अनंत के माप हो सकते हैं । यह क्षुद्रता उस विशालता का मूल्यांकन नहीं कर सकती । अपने अपर्याप्त साधनों के सीमित प्रयोग से बंधी यह दरिद्रता उन समृद्धियों की वैभवशाली व्यवस्था की धारणा नहीं कर सकती । अज्ञानभरा अर्द्ध ज्ञान सर्व ज्ञान की गतियों का अनुसरण नहीं कर सकता । हमारा तर्क भौतिक प्रकृति की सांत क्रियाओं के अनुभव पर, सीमाओं के भीतर काम करनेवाली किसी चीज के अधूरे निरीक्षण और अनिश्चित समझ पर आधारित होता हैं । उसने इस आधार पर कुछ धारणाओं की व्यवस्था की है जिन्हें वह व्यापक और वैश्व बनाना चाहता है । जो

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कुछ इन धारणाओं का खंडन करे या उनसे अलग हो वह उसे अयुक्तियुक्त, मिथ्या या अव्याख्येय मान लेता है । लेकिन सद्वस्तु की अलग-अलग श्रेणियां हैं और यह जरूरी नहीं है कि किसी एक के लिये उपयोगी धारणाएं माप या मानदंड और श्रेणियों पर भी लागू हों । हमारी भौतिक सत्ता पहले अत्यणुओं, विद्युदणुओं, परमाणुओं, अणुओं और कोषाणुओं के समुच्चय पर बनी है । लेकिन इन अत्यणुओं की क्रिया का नियम मानव शरीर की सब भौतिक क्रियाओं को भी स्पष्ट नहीं कर पाता, मनुष्य के अतिभौतिक भागों के सभी नियमों और प्रक्रियाओं, उसके जीवन की गतिविधियों, मन की गतिविधियों और अंतरात्मा की गति-विधियों की बात ही अलग है । शरीर में सांत अपनी ही आदतों, गुणों और कार्य की विशेष रीतियों को लेकर बने हैं । शरीर अपने-आपमें एक सांत है जो केवल इन छोटे-छोटे समूहों का कुल योग नहीं हैं जिनका उपयोग वह अंगों, अवयवों और क्रिया-व्यापारों के मूलभूत उपकरण के रूप में करता है । उसने एक अपनी सत्ता विकसित की है और उसका एक सामान्य नियम है जो इन तत्त्वों और घटकों पर आश्रित रहने का अतिक्रमण कर जाता है । प्राण और मन अतिभौतिक सांत हैं जिनकी अपनी क्रिया-पद्धति भिन्न और अधिक सूक्ष्म है । और यद्यपि वे शारीरिक अंगों को उपकरण बना कर क्रिया करते हैं तथापि उनकी यह निर्भरता उनके सहज गुण-धर्म को नष्ट नहीं कर सकती । हमारी मानसिक और प्राणिक सत्ता में और प्राणिक और मानसिक शक्तियों में हमारे भौतिक शरीर के क्रिया-कलाप से भिन्न और अधिक कुछ और भी है । लेकिन फिर हर सांत अपनी वास्तविकता में एक अनंत है --या अनंत उसके पीछे है -जिसने उसे अपने रूप में बनाया हैं, जो उसे सहारा और निर्देशन देता है । अतः सांत की सत्ता, उसके नियम और प्रक्रिया को भी उसके ज्ञान के बिना पूरी तरह नहीं समझा जा सकता जो गुह्य रूप से उसके भीतर या पीछे है । हमारा सांत ज्ञान, धारणाएं और मानक अपनी सीमा में उचित हो सकते हैं परंतु वे अपूर्ण और सापेक्ष होते हैं । जो देश और काल में विभाजित है उसके अवलोकन पर आधारित नियम को विश्वासपूर्वक अविभाज्य की सत्ता और क्रिया पर लागू नहीं किया जा सकता । केवल इतना ही नहीं कि उसे कालातीत और देशातीत पर लागू नहीं किया जा सकता बल्कि उसे अनंत काल और अनंत देश पर भी लागू नहीं किया जा सकता । जो नियम और प्रक्रिया हमारी ऊपरी सत्ता के लिये अनिवार्य है, वह, जरूरी नहीं है कि वह हमारे अंदर के गुह्य के लिये भी अनिवार्य हो । फिर, हमारी बुद्धि, जो तर्क पर आधारित है, उसे अवयौक्तिक से व्यवहार करना कठिन मालूम होता है । प्राण अवयौक्तिक है और हम देखते हैं कि हमारा बौद्धिक तर्क जब अपने-आपको प्राण पर लागू करता है तो सदा उसपर एक नियंत्रण, माप और कृत्रिम हिंसावादी नियम आरोपित करता है जो या तो प्राण को मार देने या पथरा देने में सफल होता है या उसे कठोर रूपों और रूढ़ियों में जकड़ देता है जो

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उसकी सामर्थ्य को पंगु या बंदी बना देते हैं या अंत में एक गड़बड़ की रचना हो जाती है । प्राण विद्रोह करता है, हमारी बुद्धि की उस पर खड़ी की गयी व्यवस्थाएं और अधिरचनाएं क्षीण होने लगती हैं या उनका विघटन हो जाता है । एक सहज वृत्ति की या अंतर्भास की आवश्यकता होती है जो सदा बुद्धि के अधिकार में नहीं होती और जब वह अपने-आप मानसिक क्रियाओं की सहायता करने आती है तो बुद्धि हमेशा उसकी बात पर कान नहीं देती । लेकिन हमारी तर्क-बुद्धि के लिये तब और भी ज्यादा मुश्किल होती है जब उसे अतिबौद्धिक को समझना और उसके साथ व्यवहार करना पड़े । अतिबौद्धिक आत्मा का क्षेत्र है और तर्क-बुद्धि उसकी गति की विशालता, सूक्ष्मता, गहराई और जटिलता में खो जाती है । यहां केवल अंतर्भास और आंतरिक अनुभूति ही मार्ग-दर्शक हो सकते हैं अथवा यदि कोई और है तो अंतर्भास उसकी केवल एक तेज धार, प्रक्षिप्त प्रखर किरण है । परम प्रकाश तो अतितार्किक ऋत-चित् से, अतिमानसिक दर्शन और ज्ञान से ही आयेगा ।

 

   लेकिन इस कारण अनंत की सत्ता और क्रिया को ऐसा नहीं मान लेना चाहिये मानों वह तर्कहीन जादू हो । इसके विपरीत अनंत की सभी क्रियाओं में एक महत्तर युक्ति होती है परंतु वह मानसिक या बौद्धिक नहीं होती, वह आध्यात्मिक और अतिमानसिक युक्ति होती हैं, उसमें एक तर्क होता है, क्योंकि उसमें संबंध और संपर्क बिना भूल के दिखायी देते और कार्यान्वित होते हैं । जो हमारी सांत तर्क-बुद्धि के लिये जादू है वह अनंत का तर्क है । वह ज्यादा बड़ी युक्ति, ज्यादा बड़ा तर्क है क्योंकि वह ज्यादा विस्तृत, सूक्ष्म और अपनी क्रियाओं में ज्यादा जटिल है । हमारा अवलोकन जिन तथ्यों को नहीं पकड़ पाता उन सबको अनंत की युक्ति, तर्क पकड़ लेता है, वह उनसे ऐसे परिणाम निकालता है जिनकी आशा भी हमारे निगमन और आगमन नहीं कर पाते क्योंकि हमारे निष्कर्ष और अनुमान कमजोर नींव पर खड़े, भ्रांत और भंगुर होते हैं । अगर हम किसी घटना का अवलोकन करें तो हम उसके परिणाम के और एकदम बाहरी घटकों की झांकी, परिस्थितियों और कारणों के आधार पर उसका मूल्यांकन और उसकी व्याख्या करते हैं । लेकिन हर तरह की घटना शक्तियों के जटिल अंतर्बंधन का परिणाम होती है लेकिन उसे न तो हम देखते हैं न देख सकते हैं क्योंकि हमारे लिये सभी शक्तियां अदृश्य होती हैं लेकिन वे अनंत की आध्यात्मिक दृष्टि के लिये अदृश्य नहीं होतीं, उनमें से कुछ ऐसी वास्तविकताएं होती हैं जो किसी नयी वास्तविकता को उत्पन्न करने के लिये कार्य करती हैं या उसके लिये अवसर होती हैं, कुछ ऐसी संभावनाएं होती हैं जो पूर्व-स्थित वास्तविकताओं के बहुत ही नजदीक होती हैं और एक तरह से उनके कुलयोग में ही गिनी जाती हैं । लेकिन हमेशा नयी संभावनाएं हस्तक्षेप कर सकती हैं जो अचानक क्रियाशील संभाव्यताएं बन जाती हैं और अपने-आपको शक्ति के

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अंतर्बंधन में मिला देती हैं और इन सबके पीछे कुछ अनिवार्यताएं या एक अनिवार्यता होती है जिन्हें वास्तविक बनाने के लिये ये संभावनाएं श्रम कर रही हैं । और फिर शक्तियों के उस एक ही अंतर्बंधन से भिन्न-भिन्न परिणाम संभव हैं । लेकिन उनमें से क्या परिणाम आयेगा इसका निर्णय उस स्वीकृति के द्वारा होता है जो नि:संशय सारे समय प्रतीक्षा में तैयार बैठी थी लेकिन लगता यह है कि वह तेजी से आकर सब कुछ बदल देती है । यह एक निर्णायक दिव्य आदेश होता है । लेकिन हमारी तर्क-बुद्धि इस सबको नहीं पकड़ सकतीं, क्योंकि वह अज्ञान का यंत्र है जिसकी दृष्टि बहुत सीमित होती और उसके संग्रह किये हुए ज्ञान का भंडार बहुत कम होता है और वह ज्ञान भी हमेशा बहुत निश्चित या विश्वास-योग्य नहीं होता, क्योंकि उसके पास प्रत्यक्ष अभिज्ञता के साधन नहीं होते । अंतर्भास और बुद्धि में यह फर्क है कि अंतर्भास एक प्रत्यक्ष अभिज्ञता से पैदा होता है जब कि बुद्धि एक ऐसे ज्ञान की परोक्ष क्रिया है जो अपने-आपको कठिनाई से ऐसे अज्ञात में से चिह्नों, संकेतों और दी हुई सामग्री से निर्मित करती है । लेकिन जो चीज हमारी तर्क-बूद्धि और इन्द्रियों के लिये स्पष्ट नहीं है वह अनंत चेतना के लिये स्वयं-सिद्ध है और अगर अनंत की कोई इच्छा हो तो वह ऐसी इच्छा होनी चाहिये जो पूर्ण ज्ञान में काम करती है और समग्र स्वयं-सिद्ध का पूर्णत: सहज परिणाम है । वह न तो उलझी हुई विकसनशील शक्ति है जो उससे बंधी है जिससे वह विकसित हुई है और न ही ऐसी कल्पनाशील इच्छा है जो शून्य में स्वच्छंद तरंग पर कार्य कर रही हो । वह अनंत का सत्य है जो अपने-आपको सांत के निर्देशनों में प्रतिष्ठित कर रहा है ।

 

   यह स्पष्ट है कि यह जरूरी नहीं है कि ऐसी चेतना और इच्छा हमारी सीमित तर्क-बुद्धि के निष्कर्षों के साथ सामंजस्य रखते हुए क्रिया करे या ऐसी प्रक्रिया के अनुसार क्रिया करे जो उससे परिचित हो और जो हमारी बनायी हुई धारणाओं से अनुमोदित हो या किसी सीमित और आंशिक शुभ के लिये क्रिया करनेवाली किसी नैतिक बुद्धि के आधीन रह कर कार्य करे । वह ऐसी चीजों को भी स्वीकार कर सकती और करती है जिन्हें हमारी बुद्धि तर्क-विरुद्ध और अनैतिक मानती है क्योंकि वह परम और समग्र शुभ के लिये और वैश्व प्रयोजन को चरितार्थ करने के लिये जरूरी है । जो हमें आंशिक तथ्यों, प्रयोजनों और आवश्यकताओं के संबंध से तर्क-विरुद्ध और धिक्कारने योग्य लगता है वही अधिक विशाल प्रयोजन तथा आधार-सामग्री तथा आवश्यकताओं के संबंध से पूरी तरह बुद्धि-संगत और स्वीकार करने योग्य हो सकता है । अपनी एकांगी दृष्टि के साथ तर्क-बुद्धि कुछ निर्मित निष्कर्षों को निश्चित करती है जिन्हें वह ज्ञान और कर्म के सामान्य नियम बनाने की कोशिश करती है और किसी मानसिक विधि से वह चीजों को अपने नियम में जबरदस्ती बिठाती है और जो उसमें न बैठ पाये उससे पिंड छुड़ा लेती

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है । अनंत चेतना में ऐसे कोई नियम न होंगे । इसकी जगह उसमें वृहत् अंतस्थ सत्य होंगे जो अपने-आप निष्कर्ष और परिणामों पर शासन करेंगे परंतु चेतना पूरी तरह भिन्न परिस्थितियों की समष्टि में सहज रूप से उनका और तरह अनुकूलन करेगी । इस लचीलेपन और मुक्त अनुकूलन के कारण अधिक संकीर्ण क्षमता यह मान लेती है कि उसके कोई मानक हैं ही नहीं । इसी भांति हम अनंत के तत्त्व और गतिशील क्रिया के बारे में सांत सत्ता के मानकों से कोई मूल्यांकन नहीं कर सकते । जो वस्तु एक के लिये असंभव हो वह विशालतर और अधिक मुक्त सद्वस्तु के लिये सामान्य और स्वयं-सिद्ध स्थिति और हेतु हो सकती है । यही हमारी खंडित मानसिक चेतना में, जो अपने खंडों में से अखंड वस्तुओं का निर्माण करती है, और तात्त्विक समग्र चेतना, दृष्टि और ज्ञान में फर्क करती है । जबतक हम अपने मुख्य अवलम्ब के रूप में तर्क-बुद्धि का उपयोग करने के लिये बाधित हैं तबतक वस्तुत: यह संभव नहीं है कि वह पूरी तरह अविकसित या अर्द्ध संगठित अंतर्भास के पक्ष में अपनी गद्दी छोड़ दे । लेकिन अनंत की सत्ता और क्रिया के बारे में विचार करते समय हमारे लिये अनिवार्य है कि हम अपनी तर्क-बुद्धि पर अधिक-से-अधिक नमनीयता आरोपित करें और उसे उसकी विशालतर स्थितियों और संभावनाओं के बोध की ओर खोलें जिसके बारे में विचार करने का हम प्रयास कर रहे हैं । तत् के बारे में, जिसकी कोई सीमा नहीं हो सकती, अपने सीमित और सीमित करनेवाले निष्कर्ष लगाने से काम न चलेगा । अगर हम एक ही पक्ष पर केन्द्रित हों और उसे ही समग्र मान लें तो हम हाथी और अंधों की उस कहानी के उदाहरण बनेंगे जिसमें हर अंधा-अन्वेषक हाथी के अलग-अलग अंगों को छूकर यह निष्कर्ष निकाल रहा था कि पूरा प्राणी, जिस अंग को उसने छुआ था, उससे मिलती-जुलती चीज है । अनंत के एक पक्ष की अनुभूति अपने-आपमें मान्य है लेकिन उसके आधार पर हम यह सामान्य नियम नहीं बना सकते कि अनंत बस यही है और न यह ठीक होगा कि बाकी अनंत को उसी पक्ष के हिसाब से देखा जाये और आध्यात्मिक अनुभूति के बाकी सब दृष्टि-बिंदुओं को अलग कर दिया जाये । अनंत एक ही साथ सार-तत्त्व है, असीम समग्रता है और बहुत्व है । अनंत को सचमुच जानने के लिये इन सब को जानना होगा । केवल भागों को देखना और समग्र को बिलकुल न देखना या केवल भागों का कुल योग मानना एक ज्ञान तो है पर साथ ही अज्ञान भी । केवल समग्रता को देखना और भागों की अवहेलना करना भी एक ज्ञान है और साथ ही अज्ञान भी क्योंकि हो सकता है कि एक भाग समग्र से महान् हों क्योंकि वह तत्त्वतः परात्पर है । केवल सारतत्त्व को देखना, क्योंकि वह हमें सीधा परात्पर की ओर लौटा ले जाता है और समग्रता और भागों से इंकार करना, अंतिम से पहले का ज्ञान है लेकिन इसमें भी बहुत बड़ा अज्ञान है । संपूर्ण ज्ञान होना चाहिये और तर्क-बुद्धि को इतना लचीला होना चाहिये

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कि सभी दिशाओं, सभी पक्षों को देख सके और उनके द्वारा उसे खोज सके जिसमें वे सब एक हैं ।

 

   इस तरह अगर हम केवल आत्मा के पहलू ही देखें तो हो सकता है कि हम उसकी निष्चल नीरवता पर केन्द्रित हो जायें और अनंत के क्रियाशील सत्य को खो बैठें, अगर हम केवल ईश्वर को देखें तो हो सकता है कि हम क्रियाशील सत्य को तो पकड़ पायें लेकिन शाश्वत स्थिति और अनंत नीरवता को खो बैठें, हम केवल क्रियाशील सत्, क्रियाशील चित्, सत्ता के क्रियाशील आनंद के बारे में तो अभिज्ञ हों जायें लेकिन शुद्ध सत्, शुद्ध चित्, शुद्ध सत्ता के आनंद को खो दें । अगर हम केवल पुरुष-प्रकृति पर केन्द्रित हों तो हो सकता है कि हम केवल अंतरात्मा और प्रकृति, आत्मा और जड़ तत्त्व के द्विभाजन को ही देख पायें और उनके ऐक्य को खो बैठें । अनंत की क्रिया पर विचार करते हुए हमें उस शिष्य की भूल से बचना चाहिये जिसने अपने-आपको ब्रह्म मानकर महावत की चेतावनी सुनने से इंकार किया जिसने उसे तंग रास्ता छोड़ कर एक ओर हो जाने के लिये कहा था । तब हाथी ने उसे सूंड से उठाकर एक ओर कर दिया था । इस पर भौंचक्के शिष्य से उसके गुरू ने कहा, ''निःसंदेह तुम ब्रह्म हो, लेकिन तुमने महावत ब्रह्म की बात क्यों नहीं सुनी और हाथी ब्रह्म के रास्ते में से हट क्यों नहीं गयें ?'' हमें सत्य के एक ही पक्ष पर जोर देने की और अनंत के अन्य सब पक्षों और पहलुओं को छोड़कर उसी एक से निष्कर्ष निकालने या उसीपर क्रिया करने की भूल न करनी चाहिये । मैं वही ब्रह्म हूं (सोऽहम्) की अनुभूति सत्य है लेकिन हम उसपर तबतक सुरक्षित रूप से नहीं चल सकते जबतक कि हम यह भी अनुभव न कर लें कि सब कुछ 'तत्' है । हमारा आत्म-अस्तित्व एक तथ्य है लेकिन हमें साथ ही दूसरी आत्माओं के बारे में भी अभिज्ञ होना चाहिये कि वही आत्मा और सत्ताओं में भी है और उस 'तत्' के बारे में भी जो हमारी आत्मा तथा अन्य आत्माओं के परे है । अनंत बहुत्व में एक है और उसकी क्रिया को केवल एक परम बुद्धि ही पकड़ सकती है जो सबको देखती और एक ऐसी एक-अभिज्ञता के रूप में काम करती है जो अपना अवलोकन भिन्नता में करती है और जो अपनी भिन्नताओं का मान करती है ताकि हर चीज और हर सत्ता अपनी तात्त्विक सत्ता का रूप पा सके और क्रियाशील प्रकृति का रूप पा सके -स्वरूप और स्वधर्म -और इन सबका समग्र क्रिया में मान किया जाता है । अनंत का ज्ञान और उसकी क्रिया अपार परिवर्तनशीलता में भी एक रहती है । अनंत सत्य की दृष्टि से सभी अवस्थाओं में क्रिया की समानता या भिन्नता के पीछे किसी एक करनेवाले सत्य और सामंजस्य के बिना क्रिया की भिन्नता पर आग्रह करना समान रूप से गलत होगा । स्वयं अपने आचार के नियमों में अगर हम इस महत्तर सत्य के अनुसार कार्य करना चाहें तो स्वयं अपने ऊपर जोर देना या केवल अन्य आत्माओं पर जोर देना समान

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रूप से गलत होगा । हमें कर्म के एकत्व को और कर्म के समग्र, अनंत रूप से नमनीय और साथ ही सामंजस्यपूर्ण वैचित्र्य को सर्व की आत्मा पर आधारित करना होगा क्योंकि यही अनंत की क्रिया का स्वभाव है ।

 

   अगर हम अनंत के तर्क को ध्यान में रखते हुए अधिक विशाल और अधिक नमनीय बुद्धि के दृष्टिकोण से उन कठिनाइयों को देखें जो निरपेक्ष और सर्वव्यापक सद्वस्तु के बारे में सोचते हुए हमारी बुद्धि के आगे आती हैं तो हम देखेंगे कि सारी कठिनाई वास्तविक नहीं, शब्दों और धारणाओं में है । हमारी बुद्धि निरपेक्ष के बारे में अपनी धारणा पर नजर डालती है और सोचती है कि उसे अनिर्देश्य होना चाहिये और साथ ही वह निर्दिष्टों की एक दुनिया को देखती है जो निरपेक्ष से उभरती और उसमें निवास करती है -क्योंकि वह और कहीं से नहीं निकल सकती और न और कहीं निवास कर सकती है । वह इस दृढ़ कथन से और भी ज्यादा चकरा जाती है और इसके आधार पर मुश्किल से ही कोई विवाद हो सकता है कि ये सभी निर्दिष्ट इसी अनिर्देश्य निरपेक्ष के सिवा और कुछ नहीं हैं । लेकिन यह विरोध तब मिट जाता है जब हम यह समझ लेते हैं कि अनिर्देश्यता अपने सच्चे अर्थों में नकारात्मक नहीं है, अनंत पर अक्षमता का आरोप नहीं है बल्कि भावात्मक है, स्वयं अपने निर्दिष्टों से, अपने भीतर सीमाओं से मुक्ति है और आवश्यक रूप से स्वयं अपने-आपसे भिन्न और सभी बाह्य निर्दिष्टों से मुक्ति है, चूंकि अपने से भिन्न किसी और चीज के होने की कोई वास्तविक संभावना नहीं है । अनंत असीम रूप से मुक्त है, अपने-आपको अनंत रूपों से निर्धारित करने के लिये स्वतंत्र है, अपनी ही सृष्टि के प्रतिबंध लगानेवाले सभी प्रभावों से मुक्त है । वस्तुत: अनंत सृजन नहीं करता, वह उसके अंदर जो कुछ है उसे अभिव्यक्त करता है । स्वयं अपनी वास्तविकता के सार में, स्वयं सभी वास्तविकताओं का वह सार है और सभी वास्तविकताएं उस एक सद्वस्तु की शक्तियां हैं । निरपेक्ष रचना करने और रचे जाने के प्रचलित अर्थों में न तो रचना करता है और न उसकी रचना की जाती हैं । हम सृजन की बात केवल इस अर्थ में कर सकते हैं कि सत् रूप और गति में वह बन जाये जो वह पहले से ही पदार्थ और स्थिति में है, फिर भी हमें उस विशेष और भावात्मक अर्थ में उसकी अनिर्देश्यता पर जोर देना चाहिये, किसी न- कार के रूप में नहीं बल्कि उसके मुक्त अनंत आत्म-निर्धारण की अनिवार्य शर्त के रूप में, क्योंकि उसके बिना सद्वस्तु एक बंधा हुआ शाश्वत निर्धारित या अपने अंदर निहित निर्देशन की संभावनाओं के कुल योग से बंधा और निश्चित अनिर्दिष्ट होगा । उसके सब सीमांकनों से, अपनी ही सृष्टि के किसी भी बंधन से जो स्वाधीनता है उसे एक सीमा का, एक नितांत अक्षमता का, आत्म-निर्देशन की समस्त स्वाधीनता के निषेध का रूप नहीं दिया जा सकता । यह परस्पर विरोध होगा, अनंत और असीम की निषेध द्वारा परिभाषा करने और उसे सीमित बनाने का

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प्रयास होगा । निरपेक्ष के स्वभाव के दो पक्षों के केन्द्रीय तथ्य में, तात्त्विक और आत्म-सर्जक या क्रियाशील में कोई सचमुच विरोध नहीं आता । केवल एक शुद्ध रूप से अनंत तत्त्व ही अपने-आपको अनंत प्रकार से रूपायित कर सकता है । एक कथन दूसरे का पूरक है, एक दूसरे को रद्द नहीं करता, उनमें कोई असंगति नहीं है । यह मानव बुद्धि द्वारा मानव भाषा में एक ही अनिवार्य तथ्य का दो तरह से कथन है

 

   जब हम सद्वस्तु के सत्य पर सीधी और यथार्थ दृष्टि डालते हैं तो हर जगह वही समाधान दीखता है । उसकी हमें जो अनुभूति होती है उसमें हम एक ऐसे अनंत से अभिज्ञ होते हैं जो गुण, धर्म, लक्षण के सभी सीमांकनों से मुक्त है, दूसरी ओर हम ऐसे अनंत से परिचित हैं जिसमें अनंत गुण, धर्म और लक्षण भरे हैं । यहां फिर असीम स्वाधीनता का कथन भावात्मक है, अभावात्मक नहीं । हम जो कुछ देखते हैं वह उससे इंकार नहीं करता बल्कि इसके विपरीत उसके लिये अनिवार्य परिस्थिति ला देता है । वह गुण, धर्म और लक्षणों में मुक्त और अनंत आत्माभिव्यक्ति को संभव बनाता है । गुण है सचेतन सत्ता की शक्ति की एक विशेषता या हम कह सकते हैं कि सत्ता की चेतना, अपने अंदर जो है उसे प्रकट करते हुए वह जिस शक्ति को बाहर लाती है उस पर एक स्वाभाविक मुहर लगा देती है जिससे वह पहचानी जा सके और उसे ही हम गुण या चरित्र कहते हैं । गुण के रूप में साहस सत्ता की इसी तरह की शक्ति है, वह मेरी चेतना का ऐसा विशिष्ट चरित्र है जो मेरी सत्ता की रूपायित शक्ति को अभिव्यक्त करता है और क्रिया में मेरे स्वभाव की एक निश्चित प्रकार की शक्ति को बाहर लाता या उसका सृजन करता है । इसी भांति औषध की रोग-मुक्त करने की शक्ति उसका गुण है, सत्ता की एक विशेष शक्ति उस वनस्पति या खनिज के लिये सहज होती है जिसमें से वह बनायी जाती है और यह विशेषता सत्य-संकल्प द्वारा निर्धारित होती है और वनस्पति या खनिज में रहनेवाली अंतर्निहित चेतना में छिपी रहती है । भाव उसमें उस चीज को बाहर निकाल लाता है जो उसकी अभिव्यक्ति की जड़ में थी और अब उसकी सत्ता की शक्ति के रूप में समर्थ बन कर बाहर आयी है । सभी गुण, धर्म और लक्षण सचेतन सत्ता की ऐसी शक्तियां हैं जिन्हें निरपेक्ष अपने अंदर से यूं बाहर निकालता है । उसके अंदर सब कुछ है, उसके अंदर सब कुछ प्रकट करने की स्वतंत्र शक्ति है । किंतु हम निरपेक्ष की परिभाषा करते हुए यह नहीं कह सकते कि वह साहस का गुण या नीरोग करने की शक्ति है । हम यह भी नहीं कह सकते कि ये निरपेक्ष के विशेष लक्षण हैं और न हम गुणों की समष्टि बनाकर ही यह कह सकते हैं कि 'यह निरपेक्ष है' । लेकिन हम निरपेक्ष के बारे में यह भी नहीं कह सकते कि निरपेक्ष शुद्ध रिक्तता है जो इन चीजों को अभिव्यक्त करने में असमर्थ है । इसके विपरीत उसमें सब क्षमताएं हैं । सभी गुणों और धर्मों की शक्तियां

 

   १ संस्कृत शब्द 'सृष्टि' का अर्थ है, जो सत्ता के अंदर है उसे मुक्त या प्रकट करना ।

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उसके अंदर अंतर्निहित हैं । मन कठिनाई में होता है क्योंकि उसे कहना पड़ता है, ''निरपेक्ष या अनंत इनमें से कोई चीज नहीं है । ये चीजें निरपेक्ष या अनंत नहीं हैं'' और साथ ही उसे कहना होता है, ''निरपेक्ष यह सब कुछ है, ये चीजें तत् से भिन्न कुछ नहीं हैं क्योंकि तत् एकमात्र सत्ता और सर्वसत्ता है ।'' यहां यह स्पष्ट है कि विचार-धारणा और शाब्दिक अभिव्यक्ति की यह अनुचित सीमितता इस कठिनाई को पैदा करती है परंतु वास्तव में कोई कठिनाई है नहीं । क्योंकि यह तो स्पष्ट ही हैं कि यह कहना बेतुकापन होगा कि निरपेक्ष साहस है या नीरोग करने की शक्ति है या यह कि साहस और नीरोग करने की शक्ति निरपेक्ष है । साथ ही यह कहना भी उतना ही बेतुका होगा कि वह निरपेक्ष अपनी अभिव्यक्ति में साहस या नीरोग करने की शक्ति को आत्माभिव्यक्ति में प्रकट नहीं कर सकता । जब सांत का तर्क हमें निराश कर देता है तो हमें प्रत्यक्ष और सीमारहित दृष्टि से देखना होगा कि अनंत के तर्क के पीछे क्या है ? तब हम यह अनुभव कर सकते हैं कि अनंत गुण, धर्म और शक्ति में अनंत है लेकिन गुण, धर्म और शक्तियों का कोई भी कुल योग अनंत की व्याख्या नहीं कर सकता ।

 

   हम देखते हैं कि निरपेक्ष, आत्मा, भगवान् आध्यात्म सत्ता, सत् केवल एक है, परात्पर एक है, वैश्व एक है लेकिन हम यह भी देखते हैं कि सत्ताएं अनेक हैं और हर एक में अपनी एक आत्मा है, एक आध्यात्म सत्ता है, एक-सी फिर भी अलग प्रकृति है । और चूंकि आत्मा और सत्ता का सार एक है इसलिये हम यह मानने के लिये बाधित होते हैं कि ये बहुत सारे बहु भी वह एकमेव ही होंगे, इसका मतलब होता है कि एकमेव ही बहु है या बहु बन गया है । लेकिन सीमित और सापेक्ष निरपेक्ष कैसे हो सकता है ? मनुष्य या पशु या पक्षी दिव्य सत्ता कैसे हो सकते हैं ? लेकिन इस प्रतीयमान विरोध को खड़ा करने में मन दोहरी भूल करता है । वह गणितीय भाषा में सांत इकाई की बात सोचता है जो सीमा में ही एक है, ऐसा एक है जो दो से कम है और केवल विभाजन और खंडन के द्वारा या फिर जोड़ या गुणा के द्वारा ही दो बन सकता है; परंतु यह अनंत इकाई है, यह सारभूत और अनंत इकाई है जिसमें सौ, हजार, लाख, करोड़, अरब भी समा सकते हैं । ज्योतिष की या ज्योतिष से परे की जितनी भी राशियों के ढेर लगाये जायें या उनका गुणन किया जाये वे कभी इस इकाई के परे नहीं जा सकते, इससे बढ़ नहीं सकते क्योंकि उपनिषद् की भाषा में 'वह' चलता नहीं है लेकिन उसका पीछा किया जाये और उसे पकड़ने की कोशिश की जाये तो वह हमेशा आगे, दूर, बहुत दूर रहेगा । उसके बारे में कहा जा सकता है कि अगर उसमें अनंत बहुलता की क्षमता न हो तो वह अनंत इकाई न रहेगा । लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि 'एक' बहु है या उसे सीमित किया जा सकता है या यह कहा जा सकता है कि वह कइयों का कुल-योग है । इसके विपरीत वह अनंत बहु हो सकता है क्योंकि वह बहुत्व के सभी

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सीमांकनों या वर्णन के परे जाता है और साथ-ही-साथ सांत धारणात्मक एकत्व के सभी सीमाबंधनों के भी परे है । बहुत्ववाद एक भूल है क्योंकि यद्यपि आध्यात्मिक बहुत्व तो है परंतु अनेक आत्माएं आश्रित हैं और अन्योन्याश्रित सत्ताएं हैं, उनका कुल-योग भी 'एक' नहीं है न ही वह वैश्व समग्रता है । वे एक पर आश्रित हैं और उसके एकत्व के कारण ही बनी हुई हैं । फिर भी बहुत्व अवास्तविक नहीं है । एकमेव अंतरात्मा व्यष्टिगत रूप में इन बहु अंतरात्माओं में निवास करती है और वे इस एक में शाश्वत हैं और उस शाश्वत एक के सहारे शाश्वत हैं । मानसिक बुद्धि के लिये यह कठिन है, वह अनंत और सांत के बीच विरोध खड़ा करती है और सान्तता को बहुत्व के साथ और अनंतता को एकत्व के साथ जोड़ती है लेकिन अनंत के तर्क में ऐसा कोई विरोध नहीं है और एक में बहु की शाश्वतता बिलकुल पूरी तरह स्वाभाविक और संभव है ।

 

   फिर हम देखते हैं कि आध्यात्मिक सत्ता की एक अनंत शुद्ध स्थिति और निश्चल नीरवता है । साथ ही हम यह भी देखते हैं कि आध्यात्म सत्ता की एक सीमाहीन गति है, एक शक्ति है, अनंत का एक क्रियाशील आध्यात्मिक, सबको धारण करनेवाला आत्म-प्रसार है । हमारी धारणाएं इस प्रत्यक्ष दर्शन पर अपने-आपको थोप देती हैं । इन दोनों का अनुभव अपने-आपमें प्रामाणिक और यथार्थ है फिर भी हमारी धारणाएं एक ओर निश्चल नीरवता और स्थिति, दूसरी ओर क्रियात्मकता और गति, इन अनुभवों के बीच एक विरोध खड़ा कर देती हैं लेकिन अनंत की बुद्धि या उसके तर्क के लिये ऐसा कोई विरोध नहीं हों सकता । केवल नीरव और निष्चल अनंत, अनंत शक्ति, गतिशीलता और ऊर्जा के बिना अनंत को एक पक्ष के प्रत्यक्ष दर्शन से बढ़कर नहीं माना जा सकता; शक्तिहीन निरपेक्ष, सामर्थ्यहीन आध्यात्म सत्ता के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता । अनंत की क्रियाशक्ति होनी चाहिये अनंत ऊर्जा, निरपेक्ष की शक्ति होनी चाहिये सर्वशक्ति, आध्यात्म सत्ता की शक्ति होनी चाहिये असीम शक्ति, लेकिन नीरवता और स्थिति गति के आधार हैं, शाश्वत निश्चलता अनंत गतिशीलता के लिये आवश्यक परिस्थिति, क्षेत्र, यहांतक कि उसका सार भी है । स्थिर सत्ता सत्ता की शक्ति की विशाल क्रिया के लिये परिस्थिति और आधार है । जब हम इस नीरवता, स्थिरता और निश्चलता पर आ पहुंचते हैं तब उसपर एक ऐसी शक्ति और ऊर्जा की नींव रख सकते हैं जो हमारी ऊपरी चंचल स्थिति में अकल्पनीय होगी । हम जो विरोध खड़ा करते हैं वह मानसिक और धारणात्मक है । वास्तव में ब्रह्म की निश्चल नीरवता और ब्रह्म की गतिशीलता एक दूसरे के पूरक सत्य हैं और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । अक्षर और निश्चल नीरव ब्रह्म अपनी अनंत ऊर्जा को अपने अंदर निश्चल और नीरव रूप से धारण किये रह सकता है क्योंकि वह अपनी शक्तियों से बंधा नहीं है, उनके अधीन या उनका उपकरण नहीं है बल्कि वह उनपर

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अधिकार रखता है, उन्हें मुक्त करता है, वह शाश्वत और अनंत क्रिया करने में सक्षम है, थकता नहीं, उसे रुकने की जरूरत नहीं होती । फिर भी सारे समय उसकी नीरव निश्चलता, जो उसकी क्रिया और गति में अंतर्निहित होती है, क्षण भर के लिये भी उसकी क्रिया या गति के कारण न तो हिलती-डुलती है न क्षुब्ध होती या बदलती है । प्रकृति की सभी आवाजों और क्रियाओं के स्वभाव में ब्रह्म की साक्षी नीरवता विद्यमान रहती है । हमारे लिये यह समझना कठिन हो सकता है क्योंकि दोनों दिशाओं में हमारी सतही सांत क्षमता सीमित होती है और हमारी धारणाएं हमारी सीमाओं पर आधारित हैं । लेकिन यह देखना आसान होना चाहिये कि ये सापेक्ष और सांत धारणाएं निरपेक्ष और अनंत पर लागू नहीं होतीं ।

 

   अनंत के बारे में हमारी धारणा यह है कि वह अरूप है लेकिन जहां नजर डालते हैं हर जगह रूप ही रूप हमें घेरे हुए दीखते हैं । दिव्य पुरुष के बारे में यह प्रतिपादित किया जा सकता है और किया जाता है कि वह एक ही साथ रूप और अरूप है । यहां भी प्रतीयमान विरोध किसी वास्तविक विरोध के अनुरूप नहीं है । अरूप रूपायन की शक्ति का खंडन नहीं है बल्कि अनंत के मुक्त रूपायन की शर्त है, अन्यथा सांत विश्व में केवल एक ही रूप होता या संभव रूपों का नियत निर्धारण या कुल-योग होता । अरूपता सद्वस्तु के आध्यात्मिक सार का, अध्यात्म वस्तु का धर्म होती है । सभी सांत वास्तविकताएं उसी वस्तु की शक्तियां, रूप और आत्म-रूपायन हैं । भगवान् अरूप और अनाम हैं लेकिन इसी कारण सत्ता के सभी संभव नामों और रूपों को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं । रूप अभिव्यक्तियां हैं, न कि शून्य में से किये गये मनमाने आविष्कार, क्योंकि रेखा और रंग, राशि और रूपांकन, जो रूप के अनिवार्य अंग हैं, हमेशा अपने अंदर एक अर्थ रखते हैं और कहा जा सकता है कि वे एक अदृश्य सद्वस्तु के दिखायी देनेवाले गुप्त मूल्य और अर्थ हैं, इसी कारण आकृति, रेखा, रंग, राशि और संघटन उसे मूर्त कर सकते हैं जो अन्यथा अदृष्ट ही रह जाता, उसका बोध करा सकते हैं जो अन्यथा इन्द्रियों के लिये अगोचर रहता । रूप को अरूप का अंतर्जात शरीर, अनिवार्य आत्म-प्रकटन कहा जा सकता है और यह बात केवल बाहरी आकारों के बारे में ही नहीं बल्कि मन और प्राण के उन अदृश्य रूपायनों के बारे में भी ठीक है जिन्हें हम केवल अपने विचार द्वारा ही पकड़ सकते हैं और उन इन्द्रियग्राह्य रूपों के संबंध में भी यह सच है जिनकी अभिज्ञता केवल आंतरिक चेतना की सूक्ष्म पकड़ को ही हो सकती है । नाम, अपने गहरे अर्थ में वह शब्द नहीं है जिससे हम किसी चीज का वर्णन करते हैं बल्कि वह सद्वस्तु की शक्ति, गुण और प्रकृति का कुल-योग है जिसे वस्तुओं का रूप मूर्तिमान करता है और जिसे हम एक निर्देशक ध्वनि में, एक ज्ञेय नाम में इकट्ठा करने का प्रयत्न करते हैं । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि नाम है नामेन (या लैटिन का न्यूमेन) । न्यूमेन या देवों के गुप्त नाम उनकी शक्ति,

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गुण, प्रकृति हैं जिन्हें चेतना पकड़ सकती है और कल्पना में आने लायक बना सकती है । अनंत अनाम है लेकिन उस नामहीनता में सभी संभव नाम, देवों के 'न्यूमेन', सभी वास्तविकताओं के नाम और रूप पहले से ही देखे और कल्पित किये जा चुके हैं क्योंकि वे वहां सर्व-सत् में गुप्त और अंतर्निहित हैं ।

 

   इन विचारों से यह स्पष्ट होता है कि सांत और अनंत का सह अस्तित्व, जो वैश्व सत्ता का अपना स्वभाव ही है, वह दो विरोधों का एक सान्निध्य या पारस्परिक समावेशन नहीं है बल्कि उतना ही स्वाभाविक और अनिवार्य है जैसे प्रकाश और अग्नि के तत्त्वों का सूर्यो के साथ संबंध । सांत अनंत का सामने का पक्ष और आत्मनिर्धारण है । कोई सांत अपने-आपमें या अपने ही द्वारा अस्तित्व नहीं रख सकता । वह अनंत के द्वारा अस्तित्व रखता है, क्योंकि वह सार रूप में अनंत के साथ एक है, क्योंकि अनंत से हमारा मतलब केवल देश और काल में असीम आत्म-प्रसारण नहीं बल्कि किसी ऐसी चीज से है जो देशातीत, कालातीत है, जो स्वयंभू अनिर्वचनीय, असीम है, जो अत्यणु में भी, वृहत् में भी, काल के एक निमिष में, देश के एक बिंदु में, गुजरती हुई परिस्थिति में भी अपने-आपको व्यक्त कर सकती है । सांत को अविभाज्य के एक विभाजन के रूप में देखा जाता है लेकिन ऐसी कोई चीज है नहीं क्योंकि यह विभाजन केवल ऊपर से दिखायी देता है, एक सीमांकन तो है पर सचमुच कोई अलगाव संभव नहीं है । जब हम भौतिक आंख से नहीं, आंतरिक दृष्टि और अंतरिन्द्रिय से एक पेड़ या किसी और चीज को देखते हैं तो हम जिस चीज के बारे में अभिज्ञ होते हैं वह है एक अनंत एकमेव सद्वस्तु जिससे पेड़ या वस्तु का निर्माण हुआ है, वह उसके हर अणु-परमाणु में व्याप्त होती है, अपने अंदर से उनका निर्माण करती है, समस्त प्रकृति को बनाती है, संभवन की प्रक्रिया, भीतर निवास करनेवाली ऊर्जा की क्रिया; ये सब वह स्वयं हैं, ये सब अनंत हैं, यह सद्वस्तु है । हम उसे अविभाज्य रूप से फैलते और सभी वस्तुओं को जोड़ते हुए देखते हैं ताकि कोई भी चीज सचमुच उससे अलग न रह जाये या और चीजों से पूरी तरह अलग न हो । गीता का कहना है, ''वह सत्ताओं में अविभक्त है फिर भी मानों विभक्त हैं'' इस तरह हर एक वस्तु वह अनंत है और अन्य सब वस्तुओं के साथ तात्त्विक सत्ता में एक है जो वस्तुएं अनंत के रूप, नाम, शक्तियां और न्यूमेन हैं ।

 

   सभी विभाजनों और विभिन्नताओं में रहनेवाली, किसी तरह न दबाई जा सकनेवाली एकता ही अनंत का गणित है जिसका संकेत उपनिषद् ने यूं दिया है : ''पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदचयते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।'' यह पूर्ण है और वह पूर्ण है, पूर्ण में से पूर्ण को घटाने से पूर्ण बाकी रहता है । सद्वस्तु के अनंत आत्मगुणन के बारे में भी यही कहा जा सकताहै कि सभी चीजें वही आत्मगुणन हैं । वह एक बहु हो जाता है , लेकिन ये सब बहु वह तत् है जो पहले

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भी आत्म-स्वरूप था और सदा ही है और बहु होता हुआ भी वही एक रहता है । सांत के प्रकट होने से उस एक का विभाजन नहीं होता क्योंकि वह एक अनंत ही हमें बहु सांत मालूम होता है । सृष्टि अनंत में कुछ नहीं जोड़ती । वह सृष्टि के बाद भी वही रहता है जो सृष्टि से पहले था । अनंत वस्तुओं का कुलयोग नहीं है, तत् ही सब कुछ है और उससे भी अधिक । अगर अनंत का यह तर्क हमारे सांत तर्क की धारणाओं का विरोध करता है तो इसलिये कि वह उससे आगे बढ़ जाता है और अपना आधार सीमित प्रपंच की दी हुई सामग्री पर नहीं खड़ा करता बल्कि सद्वस्तु को आलिंगन में लेकर सद्वस्तु के सत्य में सभी प्रपंचों के सत्य को देखता है । वह उन्हें अलग-अलग सत्ताओं, गतियों, नामों, रूपों, वस्तुओ के रूप में नहीं देखता क्योंकि वे ऐसी नहीं हो सकतीं । वे ऐसी तभी हो सकतीं अगर वे शून्य में स्थित प्रपंच होतीं, ऐसी चीजें होतीं जिनका कोई सामान्य आधार या सारतत्त्व नहीं होता, जिनका आधार में कोई संबंध न होता, उनका संबंध केवल सह--अस्तित्व और व्यावहारिक संबंध होता, वे ऐसी वास्तविकताएं न होतीं जो अपनी एकता की जड़ के आधार पर जीती हैं । जहांतक उन्हें स्वतंत्र समझा जा सकता है, अपनी बाहरी या भीतरी आकृति और गति की उस स्वतंत्रता में अपने जनक अनंत पर सतत आश्रित रहने के कारण ही, उस एकमेव अभिन्न के साथ अपने गुप्त तादात्म्य के कारण ही वे सुरक्षित रहती हैं । वह अभिन्न उनका मूल, उनके रूप का कारण, उनकी विभिन्न शक्तियों की मात्र एक शक्ति और उनका उपादान द्रव्य है ।

 

   वह अभिन्न हमारे विचारों के अनुसार अक्षर है । वह शाश्वत काल से सदा एकरूप रहता है क्योंकि अगर वह परिवर्तन के आधीन हो या हो जाये या भेदों को स्वीकार कर ले तो वह अभिन्न न रहेगा; लेकिन हम चारों ओर जो देखते हैं वह है अनंत प्रकार से परिवर्तनशील मूलभूत एकत्व । ऐसा लगता है कि यही प्रकृति का मूल तत्त्व है । आधारभूत शक्ति एक है लेकिन वह अपने अंदर से असंख्य शक्तियां अभिव्यक्त करती है, आधारभूत द्रव्य एक है लेकिन वह बहुत से अलग-अलग द्रव्य और लाखों, करोड़ों असदृश पदार्थों को विकसित करता है । मन एक है परंतु बहुत-सी मानसिक अवस्थाओं मे, मानसिक रचनाओं, विचारों और दृष्टियों में अपने-आपको अलग-अलग कर लेता है जो एक-दूसरे से अलग होते, सामंजस्य या संघर्ष करते रहते हैं । प्राण एक है पंरतु प्राण के रूप असदृश और अनगिनत हैं । स्वभाव में मानवजाति एक है लेकिन उसमें बहुत-से जाति-प्ररूप हैं, हर व्यष्टिरूप मनुष्य अपने-आपमें अलग है और किसी-न-किसी तरह औरों से असदृश है । प्रकृति एक ही पेड़ की पत्तियों पर भिन्नता की लकीर आंकने का आग्रह करती है । वह इन भेदों को इतनी दूरतक ले गयी है कि यह पाया गया है कि एक आदमी के अंगूठे की लकीरें हर दूसरे आदमी के अंगूठे की लकीरों से भिन्न होती हैं । इस कारण वह उस भेद के कारण ही पहचाना जा सकता है -फिर

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भी आधारभूत रूप में सब आदमी एक-से हैं, उनमें कोई मूलभूत भिन्नता नहीं है । एकता या समानता सब जगह है । अंदर निवास करनेवाली सद्वस्तु ने विश्व की रचना एक बीज के लाखों भिन्न प्रकार के विकास के सिद्धांत के आधार पर की है । लेकिन फिर यह भी अनंत का तर्क है : चूंकि सद्वस्तु का सार तत्त्व अक्षर रूप से वह का वही है इसलिये वह सुरक्षित रूप से रूप, लक्षण और गति के अनगिनत भेदों को अपना सकता है, यहांतक कि अगर वे अरबों गुणा भी बढ़ जायें तो भी उससे उनके नीचे स्थित शाश्वत 'अभिन्न' की अक्षरता में कोई फर्क न पड़ेगा क्योंकि आत्मा और आध्यात्म सत्ता सब जगह वस्तुओं और सत्ताओं में एक ही है इसलिये प्रकृति अनंत विभेदों की यह विलासिता कर सकती है । अगर यह सुरक्षित आधार न होता जिसके कारण सब कुछ बदलते हुए कुछ भी नहीं बदलता तो इस लीला में प्रकृति की सभी क्रियाएं और सृजन छिन्न-भिन्न होकर अस्त- व्यस्तता में ढह जाते । ऐसी कोई चीज न रहती जो उसकी विसंगत गतियों और रचनाओं को इकट्ठा रख सकती । अभिन्न की अक्षरता विचित्रता में असमर्थ अपरिवर्तनशील एकरूपता की एकस्वरता में नहीं बल्कि सत्ता की ऐसी अपरिवर्तनशीलता में है जो सत्ता के अनंत रूपायनों में समर्थ है लेकिन कोई भी विभेद जिसे नष्ट या विकल नहीं कर सकता, उसमें ह्रास नहीं ला सकता । आत्मा ही कीट-पतंग, पक्षी, पशु और मनुष्य बन जाती है लेकिन इन सब परिवर्तनों में आत्मा वह की वही रहती है क्योंकि यह वही एक है जो हमेशा अपने-आपको अनंत रूप से अंतहीन विभिन्नता में व्यक्त करता है । हमारी सतही बुद्धि यह मानने को प्रवृत्त होती है कि विभिन्नता अवास्तविक है, केवल एक आभास है, लेकिन अगर हम जरा गहराई में, देखें तो हमें पता चलेगा कि वास्तविक विभिन्नता ही वास्तविक ऐक्य को बाहर लाती है, उसे मानों अपनी अधिकतम क्षमता में दिखलाती है, वह जो कुछ हो सकती है और अपने-आपमें है उसे प्रकट करती है, उसके रंग की सफेदी में जो अनेक रंग-छटाएं घुली-मिली हैं उन्हें मुक्त करती है, एकत्व अपने-आपको उसमें अनंत रूप से पाता है जो हमें उसका एकत्व से से जा गिरना लगता है परंतु यह वास्तव में ऐक्य का अक्षय विभिन्नता-प्रदर्शन है । यह विश्व का चमत्कार, उसकी माया है फिर भी अनंत की आत्म-दृष्टि और आत्मानुभूति के लिये पूरी तरह तर्क संगत और स्वाभाविक रूप से सामान्य है ।

 

   क्योंकि ब्रह्म की माया एक ही साथ अनंत रूप से परिवर्तनशील ऐक्य का जादू और उसका तर्कविधान है । वस्तुत: अगर सीमित एकत्व और एकसमानता की केवल एक कठोर एकस्वरता ही होती तो बौद्धिक युक्ति और तर्क के लिये कोई जगह न रहती क्योंकि तर्क का काम हैं संबंधों को ठीक-ठीक रूप में देखना; बौद्धिक युक्ति का उच्चतम कार्य है उस एक उपादान, एक नियम, उस जोड़नेवाली गुप्त वास्तविकता का पता लगाना जो बहु विभिन्न, विसंवादी और विषम को

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मिलाती और एक करती है । समस्त विश्व- सत्ता इन्हीं दो छोरों के बीच घूमती है -एक का विविध रूप लेना और बहु तथा विविध का एक होना, और ऐसा अवश्य ही इस कारण होता है क्योंकि एक और बहु अनंत के आधारभूत पक्ष हैं । क्योंकि दिव्य आत्म-ज्ञान और सर्वज्ञान अपनी अभिव्यक्ति में जो कुछ प्रकट करता है वह उसकी सत्ता का सत्य ही होगा और उस सत्य का खेल ही उसकी लीला है

 

   तो यही ब्रह्म की वैश्व सत्ता की रीति का न्याय है और यही माया की अनंत प्रज्ञा, अनंत बुद्धि की आधारभूत क्रिया है । जैसा ब्रह्म की सत्ता के साथ है वैसा ही उसकी चेतना, माया के साथ भी है । वह अपने किसी सांत प्रतिबंध या किसी एक स्थिति से या अपने किसी क्रिया-विधान से बंधी नहीं है । वह एक ही साथ बहुत-सी चीजें हो सकती है, उसकी बहुत-सी समन्वित क्रियाएं हो सकती हैं जो सांत बुद्धि को परस्पर विरोधी लगें, वह है तो एक पर है अनगिनत रूप से बहुविध, अनंत रूप से नमनशील, अक्षयरूप से अनुकूलनशील । माया शाश्वत और अनंत की परम और वैश्व चेतना और शक्ति है । अपने स्वभाव से ही निर्बंध और असीम होने के नाते वह एक ही समय चेतना के बहुत-से स्तर, शक्ति के बहुत-से विन्यास प्रकट कर सकती है और यह करते हुए भी सदा वही चित्-शक्ति बनी रहती है । वह एक साथ ही परात्पर, वैश्व और व्यष्टि है । वह परम अति वैश्व सत्ता है जो अपने बारे में सर्व-सत्ता के रूप में, वैश्व आत्मा के रूप में, वैश्व प्रकृति की चित्-शक्ति के रूप में अभिज्ञ है और साथ ही सभी सत्ताओं में अपने-आपको व्यष्टिगत सत्ता और चेतना के रूप में भी अनुभव करती हैं । व्यष्टिगत चेतना अपने-आपको सीमित और पृथक् रूप में देख सकती है लेकिन अपनी सीमाओं को अलग करके अपने-आपको वैश्व और विश्व से भी परात्पर रूप में देख सकती है । यह इसलिये कि इन सभी अवस्थाओं और स्थितियों में या इनके नीचे वही त्रिक चेतना त्रिविध अवस्था में रहती है । अतः इस एक को अपने-आपको तीन रूपों में देखने या अनुभव करने में कोई कठिनाई नहीं होती फिर चाहे वह ऊपर से परात्पर सत्ता में देखें या बीच में से वैश्व आत्मा में या नीचे से चेतन व्यष्टि-सत्ता में, इस सबको स्वाभाविक तर्कसंगत रूप में स्वीकार करने के लिये यह मानना जरूरी है कि एकमेव सत्ता की चेतना के भिन्न-भिन्न वास्तविक स्तर हो सकते हैं और वैसा होना उस सत् के लिये असंभव नहीं है जो मुक्त और अनंत है और जिसे किसी एक अवस्था के साथ बाधा नहीं जा सकता । जो चेतना अनंत है उसके लिये अपने अनंत विभेद करने की शक्ति स्वाभाविक होगी । अगर चेतना की बहुविध स्थिति की संभावना को स्वीकार कर लिया जाये तो स्थिति की विभिन्नताओं पर कोई सीमा नहीं लगायी जा सकती बशर्ते कि वह एक उन सबमें एक साथ अपने बारे में अभिज्ञ हो क्योंकि उस एक और अनंत को इस तरह वैश्व रूप में सचेतन होना

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चाहिये । हमारी जैसी सीमित या निर्मित चेतना की अवस्था और अज्ञान की अवस्था के साथ अनंत आत्मज्ञान और सर्व-ज्ञान के संबंध को समझना ही एकमात्र कठिनाई है जिसे और अधिक सोच-विचार से हल किया जा सकता है ।

 

   अनंत चेतना की जिस दूसरी संभावना को मानना होगा वह है उसकी अपने-आपको सीमित करने की शक्ति या समग्र असीम चेतना और ज्ञान के अंदर एक गौण गति में आनुषंगिक आत्म-रूप बनाने की शक्ति क्योंकि यह अनंत की आत्म-निर्देशन की शक्ति का एक आवश्यक परिणाम है । आत्म-सत्ता के हर एक आत्म-निर्देशन में अपने आत्म-सत्य और आत्म-प्रकृति की अभिज्ञता होनी चाहिये या अगर हम यूं कहना ज्यादा पसंद करें तो उस निर्देशन में सत् को इस तरह से आत्म-अभिज्ञ होना चाहिये । आध्यात्मिक व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि हर व्यष्टिगत जीव या आत्मा आत्म-दर्शन और सर्व-दर्शन का केन्द्र हो और इस अंतर्दर्शन की परिधि-असीम परिधि, जैसा कि हम कह सकते हैं -सभी के लिये एक ही हो सकती है परंतु केन्द्र भिन्न हो सकते हैं -किसी स्थानिक वृत्त के अंदर स्थानिक बिंदु के रूप में स्थित केन्द्र की तरह नहीं बल्कि अंतश्चेतना के एक केन्द्र की तरह जो विश्व सत्ता में विविध रूपों में सचेतन रहनेवाले बहु के सह अस्तित्व द्वारा औरों के साथ संबंध रखेगा । किसी लोक में हर सत्ता उसी लोक को देखेगी परंतु देखेगी अपनी आत्म-सत्ता से और अपनी ही आत्म-प्रकृति के तरीके से क्योंकि हर एक अनंत का अपना सत्य अभिव्यक्त करेगी, उसका अपना आत्म-निर्देशन का तरीका होगा और वैश्व निर्देशन से मिलने का भी अपना तरीका होगा । निःसंदेह विभिन्नता में एकता के नियम के अनुसार उसकी दृष्टि मूल रूप से वही होगी जो औरों की होगी लेकिन फिर भी वह अपना ही विभेदन विकसित करेगी -जैसा कि हम देखते हैं कि सभी मानव सत्ताएं समान वैश्व वस्तुओं के बारे में एक ही मानव ढंग से सचेतन होती हैं लेकिन हमेशा व्यष्टिगत भेद के साथ । यह आत्म-सीमांकन आधारभूत नहीं होगा बल्कि सर्वसामान्य विश्वात्मकता या समग्रता का व्यष्टिगत विशिष्टीकरण होगा । आध्यात्मिक व्यक्ति एक सत्य के अपने केन्द्र से और अपनी आत्म-प्रकृति के अनुसार काम करेगा लेकिन एक सामान्य आधार पर अन्य आत्मा या अन्य प्रकृति की ओर से अंधा हुए बिना । वह ऐसी चेतना होगी जो पूर्ण ज्ञान के साथ अपनी क्रिया को सीमित करती है, कोई अज्ञान की क्रिया नहीं । लेकिन व्यष्टि भाव देनेवाले इस आत्म-सीमांकन के सिवा अनंत की चेतना में एक वैश्व सीमांकन की शक्ति भी होनी चाहिये, उसे इस योग्य होना चाहिये कि वह अपनी क्रिया को इस तरह सीमित कर सके कि किसी प्रदत्त जगत् या विश्व को अपनी व्यवस्था, सामंजस्य और आत्म-निर्माण पर आधारित और अपनी देख-रेख में रख सके क्योंकि किसी विश्व का सृजन यह जरूरी बना देता है कि अनंत चेतन में यह दृढ़ निश्चय हो कि वह उस जगत् की अध्यक्षता करे और ऐसी सब चीजों को रोके

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रखे जिनकी उस गति में जरूरत नहीं है । इसी भांति मन, प्राण या जड़ तत्त्व जैसी किसी शक्ति की स्वतंत्र क्रिया को सामने लाने के लिये अपने समर्थन के तौर पर उसी प्रकार के आत्म-सीमांकन के तत्त्व का होना जरूरी है । यह नहीं कहा जा सकता कि अनंत के लिये इस प्रकार की गति असंभव है क्योंकि वह असीम है, इसके विपरीत यह उसकी अनेक शक्तियों में से एक होनी चाहिये क्योंकि उसकी शक्तियों की भी कोई सीमा नहीं, लेकिन अन्य आत्म-निर्धारणों, अन्य सांत रचनाओं की तरह अलगाव या वास्तविक विभाजन न होगा क्योंकि समस्त अनंत चेतना उसके चारों ओर और पीछे उसे अवलम्ब देती रहेगी और वह विशेष गति भी अंदर से केवल अपने बारे में ही नहीं बल्कि तत्त्वतः उस सबके बारे में भी जो उसके पीछे है, सचेतन होगी । अनंत की समग्र चेतना में अनिवार्य रूप से ऐसा ही होगा लेकिन हम यह भी मान सकते हैं कि इस तरह की सक्रिय नहीं बल्कि अपने- आपको सीमांकित करती हुई परंतु अविभाज्य आंतरिक अभिज्ञता सांत की गति की समग्र आत्म-चेतना में भी होगी । स्पष्टतः अनंत के लिये इतना वैश्व या व्यष्टिगत सचेतन आत्म-सीमांकन संभव होगा और उसे विशालतर बुद्धि आध्यात्मिक संभावनाओं में से एक के रूप में स्वीकार कर सकती है, लेकिन इस आधार पर अभीतक कोई विभाजन या अज्ञान-भरा अलगाव या बाधित करने या अंधा कर देनेवाला सीमांकन, जैसा कि हमारी चेतना में दिखायी देता है, अनुत्तरदायित्वपूर्ण होगा ।

 

   लेकिन अनंत चेतना की एक तीसरी शक्ति या संभावना को स्वीकार किया जा सकता है, वह है आत्मलीनता की, स्वयं अपने अंदर डुबकी लगाने की शक्ति, एक ऐसी स्थिति में डुबकी लगाने की जहां आत्म-अभिज्ञता तो होती है लेकिन ज्ञान या सर्वज्ञान के रूप में नहीं । तब सर्वशुद्ध आत्म-अभिज्ञता में अंतर्लीन होगा और ज्ञान और स्वयं आंतरिक शुद्ध सत् में खोये हुए रहेंगे । यह प्रकाशमय रूप में, वह अवस्था है जिसे हम संपूर्ण भाव में अतिचेतन कहते हैं -हालांकि जिसे हम अतिचेतन कहते हैं उसका अधिकतर भाग सचमुच यह नहीं है । बल्कि वह केवल एक उच्चतर चेतना है, कोई ऐसी चीज है जो आत्म-सचेतन है और केवल हमारी सीमित अभिज्ञता के स्तर के लिये ही अतिचेतन है । फिर अनंत की यह आत्म-तल्लीनता, यह समाधि, प्रकाशमय रूप में ही नहीं, अंधकारमय रूप में भी है, यह वह अवस्था है जिसे हम निश्चेतना कहते हैं क्योंकि अनंत की सत्ता वहां विद्यमान है लेकिन अपने निश्चेतना के आभास के कारण वह हमें अनंत असत् मालूम होती है । उस प्रतीयमान असत् में अपने-आपको भूली हुई आंतरिक चेतना और शक्ति रहती है क्योंकि निश्चेतना की ऊर्जा द्वारा एक व्यवस्थित जगत् की सृष्टि होती है । उसका सृजन आत्म-विस्मृति की समाधि में होता है । शक्ति यांत्रिक रूप से अंधेपन का आभास देती हुई, मानों समाधि में कार्य करती है फिर भी अनंत के सत्य की

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अनिवार्यता और शक्ति के साथ । अगर हम एक कदम आगे लें और यह मान लें कि अनंत के लिये विशेष या सीमित और एकांगी आत्म-तल्लीनता की क्रिया संभव है, ऐसी क्रिया जो हमेशा अपने अंदर असीम रूप से केन्द्रित अनंतता की क्रिया नहीं होती बल्कि किसी स्थिति विशेष या किसी वैयक्तिक या वैश्व आत्म-निर्देशन में सीमित रहती है, तो हमें उस संकेन्द्रित अवस्था या स्थिति की व्याख्या मिल जाती है जिसके द्वारा वह पृथक् रूप से अपनी सत्ता के एक पक्ष के बारे में अभिज्ञ होता है । तब एक आधारभूत दोहरी स्थिति हो सकती है, उस अवस्था जैसी जहां निर्गुण सगुण के पीछे खड़ा रहता और अपनी निजी शुद्धि और अचंचलता में लीन रहता है जब कि बाकी सबको पर्दे के पीछे रोके रखा जाता है और उसे इस स्थिति विशेष में आने नहीं दिया जाता । उसी तरह हम चेतना की उस स्थिति की व्याख्या कर सकते हैं जो सत्ता के एक क्षेत्र या उसकी एक गति के बारे में अभिज्ञ होती है जब कि बाकी सब की अभिज्ञता पीछे रोक दी जाती है या पर्दे के पीछे रहती है या फिर मानों क्रियात्मक एकाग्रता की जाग्रत् समाधि द्वारा केवल अपने निजी क्षेत्र या गति में व्यस्त रहनेवाली विशेष या सीमित अभिज्ञता से कट जाती है । अनंत चेतना की समग्रता बनी रहेगी, विलीन न होगी, फिर से प्राप्त की जा सकेगी लेकिन वह प्रत्यक्ष रूप से सक्रिय नहीं होगी । वह अपनी प्रकट समर्थता और उपस्थिति द्वारा नहीं बल्कि केवल परोक्ष रूप में, अन्तर्हित रहती हुई या सीमित अभिज्ञता को यंत्र बनाकर सक्रिय होगी । यह स्पष्ट है कि इन तीनों शक्तियों को अनंत चेतना की क्रियाशीलता के लिये संभव माना जा सकता है और वे जिन बहुत-से तरीकों से काम कर सकती हैं उनपर विचार करके हम माया के कार्यों का संधान-सूत्र पा सकते हैं ।

 

   यह हमारे मनों के द्वारा रचे गये शुद्ध चेतना, शुद्ध सत् और शुद्ध आनंद और विश्व में होनेवाली सत्, चित् और आनंद की प्रचुर क्रियाशीलता, बहुविध प्रयोग और उतार-चढ़ाव के विरोध पर आनुषंगिक रूप से प्रकाश डालता है । शुद्ध चेतना और शुद्ध सत्ता की स्थिति में हमें केवल उसीकी अभिज्ञता होती है जो सरल, अक्षर, स्वयंभू निराकार या विषयहीन हो और हम बस उसे ही सच्चा और वास्तविक अनुभव करते हैं । दूसरी या क्रियात्मक स्थिति में हम उसकी क्रियात्मकता को पूरी तरह सच्चा और स्वाभाविक मानते हैं और यह भी सोच सकते हैं कि शुद्ध चेतना के जैसा कोई अनुभव संभव ही नहीं है । फिर भी अब यह स्पष्ट है कि अनंत चेतना के लिये निष्क्रिय और सक्रिय दोनों स्थितियां संभव हैं । ये दोनों उसकी स्थितियां हैं और वैश्व अभिज्ञता में एक साथ रह सकतीं हैं, एक दूसरी को देखती और उसको सहारा देती हो या उसे न देखते हुए भी अपने-आप यांत्रिक रूप में उसकी सहायता करती हो; या नीरवता और स्थिति क्रियाशीलता को भेदती हो या जैसे तली में निश्चल समुद्र अपनी सतह पर लहरों की क्रियाशीलता को फेंकता है

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उसी तरह क्रियाशीलता को उछालती हो । यह भी एक कारण है जिससे हमारे लिये यह संभव होता है कि हम अपनी सत्ता की अमुक अवस्थाओं में एक ही समय में चेतना की अनेक अवस्थाओं के बारे में अभिज्ञ हो सकें । योग में सत्ता की एक ऐसी स्थिति का अनुभव होता है जिसमें हम दोहरी चेतना बन जाते हैं, एक सतह पर, छोटी, सक्रिय, अज्ञानभरी, विचारों और भावनाओं से, दुःख-सुख और सब तरह की प्रतिक्रियाओं से इधर-उधर डोलनेवाली और दूसरी भीतर, स्थिर, बृहत् सम है, सतही सत्ता को अविचल अनासक्ति या अनुग्रह के साथ देखती है या हो सकता है उसे शांत, विस्तृत और रूपांतरित करने के लिये उसके आंदोलन पर क्रिया करती है । इसी भांति हम एक उच्चतर चेतनातक ऊपर उठ सकते हैं और अपनी सत्ता के विभिन्न भागों का अवलोकन कर सकते हैं, भीतरी, बाहरी, मानसिक, प्राणिक, भौतिक और सबके नीचे अवचेतन का, और उस उच्चतर स्थिति से इनमें से एक या दूसरे पर या सब पर क्रिया कर सकते हैं । यह भी संभव है कि हम उस ऊंचाई से या किसी भी ऊंचाई से इनमें से किसी निचली स्थिति में चले जायें और उसके सीमित प्रकाश या उसके धुंधलेपन को अपने कार्य का स्थान बना लें जब कि हमारा जो कुछ अवशिष्ट है उसे या तो अस्थायी तौरपर एक ओर कर दें या पीछे डाल दें या उसे एक संदर्भ-क्षेत्र के रूप में रखें जिससे हम अवलम्ब, स्वीकृति, प्रकाश या प्रभाव पा सकें या एक ऐसी स्थिति के रूप में जिसमें हम ऊपर चढ़ सकते या पीछे हट सकते हैं और वहां से निचली गतिविधियों का अवलोकन कर सकते हैं । या फिर हम समाधि में डुबकी लगा कर अपने अंदर जा सकते हैं और वहां सचेतन रह सकते हैं जब कि हमारी और सब बाहरी चीजें अलग रहेंगी या हम इस आंतरिक अभिज्ञता के भी परे जाकर अपने-आपको किसी ज्यादा गहरी दूसरी चेतना या किसी उच्च अतिचेतना में खो सकते हैं । एक व्यापक सम चेतना भी है जिसमें हम प्रवेश कर सकते हैं और एक आवृत्त करनेवाली दृष्टि से ही या एक और अविभाज्य सर्वव्यापक अभिज्ञता से अपने-आपको पूरी तरह देख सकते हैं । यह सब जो हमारी सतही बुद्धि को, जो केवल हमारी सीमित अज्ञान की सामान्य स्थिति और हमारी भीतरी, उच्चतर समग्र सद्वस्तु से कटी हुई गतिविधियों से ही परिचित है, अजीब, बेतुका लगता है या ऊटपटांग मालूम हो सकता है, वही अनंत की विशालतर बुद्धि और न्याय के प्रकाश में या आत्मा की, हमारे अंदर जो अध्यात्म पुरुष है जो तत्त्वतः अनंत के साथ एक है, उसकी महत्तर असीम शक्तियों के प्रवेश के कारण आसानी से समझ में आ जाता और स्वीकार करने योग्य हो जाता है ।

 

   ब्रह्म या सद्वस्तु है स्वयंभू निरपेक्ष और माया है इस स्वयंभू की चेतना और शक्ति । लेकिन विश्व के संबंध में ब्रह्म समस्त अस्तित्वों की आत्मा, वैश्व आत्मा ही नहीं बल्कि परम आत्मा के रूप में भी प्रकट होता है जो अपने विश्व-रुप से भी परे

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और साथ-ही-साथ हर सत्ता में व्यष्टि-विश्वरूप भी है । तब माया को आत्मा की आत्मशक्ति के रूप में देखा जा सकता है । यह सच है कि जब हम पहले-पहल इस पक्ष से परिचित होते हैं तो यह सामान्यत: समस्त सत्ता की नीरवता या कम-से-कम ऐसी नीरवता में होता है जो ऊपरी कर्म से हाथ खींच लेती या पीछे हट जाती है । तब इस आत्मा का नीरवता में एक स्थिति के रूप में अनुभव होता है, निश्चल, अक्षर सत्ता, स्वयंभू समस्त विश्व में व्यापक, सर्व व्यापक लेकिन क्रियाशील या सक्रिय नहीं, माया की सदा सक्रिय रहनेवाली ऊर्जा से अलग-थलग । इसी तरह हम पुरुष रूप में उससे अभिज्ञ हो सकते हैं जो प्रकृति से अलग सचेतन सत्ता है और प्रकृति के क्रिया-कलाप से दूर खड़ा रहता है । लेकिन यह एक ऐकांतिक घनता है जो अपने-आपको एक आध्यात्मिक स्थितितक ही सीमित रखती है और स्वयंभू सद्वस्तु ब्रह्म की स्वाधीनता को अपनी ही क्रिया और अभिव्यक्ति के सीमांकन द्वारा चरितार्थ करने के लिये अपनी समस्त क्रियाशीलता को उससे परे कर देती है । यह एक अनिवार्य अनुभूति है परंतु समग्र अनुभूति नहीं । क्योंकि हम देख सकते हैं कि चित्-शक्ति, वह शक्ति जो क्रिया और सृजन करती है, वह माया या ब्रह्म के सर्वज्ञान से भिन्न नहीं है । यह आत्मा की शक्ति है, प्रकृति पुरुष की क्रिया है, सचेतन सत्ता अपनी ही प्रकृति से सक्रिय है । इसलिये अंतरात्मा और जगत्-ऊर्जा का द्वैत, नीरव आत्मा और आत्मा की सृजन-शक्ति सचमुच द्वैत और अलग-अलग न होकर द्वयेक है । जैसे हम अग्नि और अग्नि की शक्ति को अलग नहीं कर सकते, उसी तरह कहा गया है कि हम दिव्य सद्वस्तु और उसकी चित्-शक्ति को अलग नहीं कर सकते । आत्मा का यह पहला अनुभव जिसमें वह घन नीरव और शुद्ध स्थाणु मालूम होती है पूर्ण सत्य नहीं है, आत्मा की अनुभूति उसके शक्ति-रूप में, विश्व-क्रिया और विश्व-सत्ता के निमित्त के रूप में भी हो सकती है । फिर भी आत्मा ब्रह्म का एक मौलिक पक्ष है जिसमें उसके निर्वैयक्तित्व पर जस जोर होता है इसलिये आत्मा की शक्ति एक ऐसी शक्ति का आभास देती है जो यंत्रवत् काम करती है और आत्मा उसे सहारा देती है, वह उसकी क्रियाओं की साक्षी, अवलम्ब, प्रवर्तक और भोक्ता होती है परंतु एक क्षण के लिये भी उसमें अंतर्लीन नहीं होती । जैसे ही हम आत्मा के बारे में अभिज्ञ होते हैं, हम उसके शाश्वत, अजन्मे, अशरीरी रूप के बारे में सचेतन होते हैं जो अपनी क्रियाओं में फंसा नहीं होता । उसे सत्ता के रूप के अंदर अनुभव किया जा सकता है परंतु ऐसे भी अनुभव किया जा सकता है जैसे वह उसे लपेटे हुए हो, उसके ऊपर हो, ऊपर से अपने मूर्त्त विग्रह का सर्वेक्षण कर रहा हो, ''अध्यक्ष'' । वह सर्वव्यापक है, हर चीज में समान है और हमेशा के लिये अनंत, शुद्ध और अमूर्त है । इस आत्मा का अनुभव व्यष्टि की आत्मा, विचारक, कर्ता, भोक्ता की आत्मा के रूप में किया जा सकता है लेकिन इस तरह भी उसमें यह महत्तर स्वभाव

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विद्यमान रहता है । उसकी वैयक्तिकता साथ-ही-साथ विशाल विश्वात्मकता भी होती है या आसानी से उसमें प्रवेश कर सकती है और उससे अगला कदम है शुद्ध परात्परता या पूर्णतया अनिर्वचनीय रूप से निरपेक्ष में प्रवेश । आत्मा ब्रह्म का वह पक्ष है जिसमें अंतरंग रूप से ऐसा अनुभव होता है जैसे वह एक ही साथ व्यष्टिगत, विश्वगत और विश्व से परात्पर हो । आत्मा की उपलब्धि व्यष्टिगत मुक्ति, निष्क्रिय विश्वात्मकता, और प्रकृति से परात्परता पाने के लिये सीधा और तेज रास्ता है । उसके साथ ही आत्मा की एक और उपलब्धि होती है जिसमें यह लगता है कि वह केवल सब चीजों को सहारा ही नहीं दे रही, सबमें व्यापक और सबको लपेटे हुए ही नहीं है बल्कि हर चीज का उपादान है और प्रकृति में अपनी सभी संभूतियों के साथ एक स्वतंत्र तादात्म्य में एकात्म है । फिर भी स्वाधीनता और निर्वैयक्तिकता हमेशा आत्मा का नित्य स्वभाव होती हैं । जैसे पुरुष प्रकृति के आधीन मालूम होता है वैसे आत्मा विश्व में अपनी ही शक्ति की क्रियाओं के आधीन नहीं मालूम होती । आत्मा की उपलब्धि का अर्थ है आत्मा की शाश्वत स्वाधीनता की उपलब्धि ।

 

   सचेतन सत्ता यानी पुरुष आत्मा है, इस रूप में वह प्रकृति के रूपों और कर्मों का प्रवर्तक, साक्षी, अवलम्ब, स्वामी और भोक्ता है । जैसे आत्मा का स्वरूप अपने मूल स्वभाव में व्यष्टिगत और वैश्व संभूतियों में अंतर्लीन और एकात्म होने के बावजूद परात्पर रहता है इसी तरह पुरुष स्वरूप भी स्वभावत: वैश्व-व्यष्टिगत है और प्रकृति से अलग होते हुए भी उसके साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध होता है । क्योंकि यह सचेतन आत्मा अपनी निर्वैयक्तिकता और शाश्वतता को, अपने वैश्व भाव को बनाये रखते हुए भी एक ज्यादा व्यष्टिगत रूप धारण करता है । वह प्रकृति के अंदर की निर्व्यक्तिक-सव्यक्तिक सत्ता है, वह प्रकृति से पूरी तरह अलग नहीं है क्योंकि वह प्रकृति के साथ सदा जूड़ी रहती है । प्रकृति पुरुष के लिये और उसकी अनुमति से, उसकी इच्छा और प्रसन्नता के लिये कार्य करती है । सचेतन पुरुष, जिस ऊर्जा को हम प्रकृति कहते हैं, उसे अपनी चेतना प्रदान करता है और उस चेतना में उसकी क्रियाओं को दर्पण की तरह स्वीकार करता है, उन रूपों को स्वीकार करता है जिन्हें वह कार्यकारी वैश्व शक्ति प्रकृति बनाती है और उसपर आरोपित करती है, उसकी गतिविधि को अपनी अनुमति देता या वापिस ले लेता है । पुरुष-प्रकृति के अनुभव का, प्रकृति के साथ अध्यात्म या चिन्मय पुरुष के संबंधों के अनुभव का बहुत अधिक व्यावहारिक महत्त्व है । क्योंकि शरीरस्थ सत्ता में चेतना की संपूर्ण लीला इन्हीं संबंधों पर निर्भर होती है । अगर हमारा अंतस्थ

 

    सांख्य दर्शन इस व्यष्टिगत पक्ष पर जोर देता हैं । वह पुरुष को अनेक, बहु बताता है और प्रकृति को विश्वात्मकता प्रदान करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक पुरुष की स्वतंत्र सत्ता होती है यद्यपि सभी पुरुष एक ही सर्वसामान्य विश्वव्यापी प्रकृति का अनुभव करते हैं ।

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पुरुष निष्क्रिय है और प्रकृति को कार्य करने देता है, वह उसपर जो कुछ आरोपित कर दे उसे स्वीकार करता है, सदा-सर्वदा अपने-आप स्वीकृति देता रहता है तो हमारे मन, प्राण और शरीर में अंतरात्मा अर्थात् मनोमय, प्राणमय, अन्नमय पुरुष हमारी प्रकृति के आधीन हो जाते हैं, उसके रूपायनों से शासित होते, उसकी क्रियाशीलताओं से संचालित होते हैं । हमारे अज्ञान में यहीं सामान्य अवस्था है । अगर हमारे अंदर पुरुष अपने बारे में साक्षी के रूप में अभिज्ञ हो जाता और प्रकृति से पीछे हटकर खड़ा रहता है तो यह अंतरात्मा की स्वाधीनता की दिशा में पहला कदम है, क्योंकि वह अनासक्त हो जाती है और तब प्रकृति और उसकी प्रक्रियाओं को जानना संभव हो जाता है और चूंकि हम उसके कार्यों में अंतर्लीन नहीं रहते इसलिये उन्हें पूरी स्वाधीनता के साथ स्वीकार करना या न करना संभव होता है, स्वीकृति को यंत्रवत् न रख कर मुक्त और प्रभावकारी बनाना संभव होता है । तब हम यह चुनाव कर सकते हैं कि वह हमारे अंदर क्या करेगी और क्या न करेगी या हम उसके कामों से पूरी तरह पीछे हटकर खड़े रह सकते हैं और आत्मा की आध्यात्मिक नीरवता में अपने-आपको आसानी से खींच सकते हैं या हम उसके वर्तमान रूपायनों को रद्द करके अस्तित्व के आध्यात्मिक स्तरतक उठ सकते हैं और वहां से अपने जीवन को फिर से गढ़ सकते हैं । पुरुष प्रजा या अनीश होना बंद करके प्रकृति का ईश्वर बन सकता है ।

 

   सांख्य दर्शन में हम पुरुष-प्रकृति के तात्त्विक विचार को पूरी तरह से विकसित रूप में पाते हैं । ये दोनों शाश्वत रूप से अलग-अलग सत्ताएं हैं लेकिन दोनों का एक-दूसरे के साथ संबंध है । प्रकृति, प्रकृति-शक्ति, एक कार्यकारिणी शक्ति है । वह चेतना से अलग ऊर्जा है क्योंकि चेतना पुरुष की चीज है, पुरुष के बिना प्रकृति जड़, यांत्रिक और निश्चेतन है । प्रकृति अपनी रूपात्मा और क्रिया के आधार के रूप में आदि जड़-तत्त्व को विकसित करती है और उसमें प्राण और संवेदन और मन और बुद्धि को अभिव्यक्त करती है । लेकिन बुद्धि भी, चूंकि वह प्रकृति का अंग और आदि जड़-तत्त्व में उसका उत्पादन है इसलिये जड़, यांत्रिक और निश्चेतन है । यह एक ऐसी धारणा है जो भौतिक विश्व में निश्चेतन की सुव्यवस्थित और पूरी तरह संबद्ध क्रियाओं पर कुछ प्रकाश डालती है । संवेदनशील मन और बुद्धि को अंतरात्मा का, अध्यात्म सत्ता का प्रकाश दिया जाता है, वे उसकी चेतना से सचेतन होते हैं, वैसे ही जैसे वे आत्मा की स्वीकृति से सक्रिय बनते हैं । पुरुष प्रकृति से पीछे हटकर स्वतंत्र होता है, वह जड़-तत्त्व में फंसने से इंकार करके उसका स्वामी बन जाता है । प्रकृति अपने उपादान और कर्म के तीन तत्त्वों, गुणों या रीतियों द्वारा क्रिया करती है जो हमारे अंदर हमारे मन और शरीर के उपादान और उसकी क्रियाओं की मूलभूत रीतियां बन जाते हैं, तामसिकता या जड़ता का तत्त्व, क्रियात्मकता का तत्त्व और संतुलन, प्रकाश और सामंजस्य का तत्त्व । जब

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इनकी गति विषम होती है तो उसकी क्रिया होती है, जब वे संतुलन में आ जायें तो वह निश्चलता में चली जाती है । पुरुष, सचेतन सत्ता एक या अद्वय नहीं बहु है जब कि प्रकृति एक है । इससे ऐसा मालूम होता है कि हम जीवन में एकत्व के जिस किसी सिद्धांत को पाते हैं वह प्रकृति का होता है लेकिन हर अंतरात्मा स्वतंत्र और अनोखी है, अपने-आपमें एकमात्र और पृथक् है चाहे प्रकृति का भोग करने में हों या प्रकृति से मुक्ति पाने में । जब हम व्यष्टिगत अंतरात्मा और वैश्व प्रकृति के साथ सीधे आंतरिक संपर्क में आते हैं तो हमें सांख्य की ये सभी स्थापनाएं अनुभव में वैध मालूम होती हैं परंतु ये व्यावहारिक सत्य हैं लेकिन हम उन्हें आत्मा या प्रकृति का पूरे तौर पर या आधारभूत सत्य मानने के लिये बाधित नहीं हैं । प्रकृति अपने-आपको जड़-भौतिक जगत् में निश्चेतन ऊर्जा के रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन जैसे-जैसे चेतना का सप्तक उठता है वह अपने-आपको अधिकाधिक सचेतन शक्ति के रूप में प्रकट करती है और हम देखते हैं कि उसकी निश्चेतना भी एक गुप्त चेतना को छिपाये हुए थी । इस तरह अपने व्यष्टि-जीवों में चिन्मय सत्ता भी बहु है लेकिन अपनी आत्मा में हम यह अनुभव कर सकते हैं कि वह सबके अंदर एक है और अपनी सारभूत सत्ता में एक है । इसके अतिरिक्त आत्मा और प्रकृति का दो के रूप में अनुभव भी सच्चा है लेकिन उनके ऐक्य का अनुभव भी अपनी प्रामाणिकता रखता है । अगर प्रकृति या ऊर्जा अपने रूपों और क्रियाओं को सत् पर आरोपित कर सकती है तो केवल इसलिये क्योंकि वह सत् की प्रकृति या ऊर्जा है इसलिये सत् उन्हें अपना मान सकता है । अगर सत् प्रकृति का स्वामी बन सकता तो यह इसीलिये हो सकता है क्योंकि वह उसकी अपनी प्रकृति है जिसे उसने निष्क्रिय रूप से अपना काम करते हुए देखा है लेकिन वह उसपर काबू और अधिकार कर सकता है; सत् की स्वीकृति जरूरी है भले वह प्रकृति की क्रियाशीलता के लिये निष्क्रिय क्यों न हो । और यह संबंध पर्याप्त रूप से दिखाता है कि ये दोनों एक दूसरे के लिये विजातीय नहीं हैं । उन्होंने द्वैत की स्थिति अपनायी है । सत्ता की आत्माभिव्यक्ति के कार्यों के लिये दोहरी स्थिति अपनायी है लेकिन उनमें कोई शाश्वत या आधारभूत अलगाव और सत्ता और उसकी सचेतन शक्ति का, आत्मा और प्रकृति का द्वैत नहीं है ।

 

   यह सद्वस्तु ही, आत्मा ही अपनी प्रकृति की क्रियाओं के साक्षी, अनुमति देनेवाले, शासक पुरुष की भूमिका निभाता है । एक प्रतीयमान द्वैत की सृष्टि की जाती है ताकि आत्मा की सहायता से प्रकृति अपने-आपको क्रियान्वित करने के लिये स्वतंत्र क्रिया कर सके और फिर प्रकृति को क्रियान्वित करने के लिये आत्मा भी उसपर नियंत्रण करते हुए स्वतंत्र, प्रभुतापूर्ण क्रिया कर सके । यह द्वैत इसलिये भी जरूरी है कि आत्मा किसी भी समय प्रकृति के किसी रूपायन से अपना हाथ खींच ले और सारे रूपायन विलीन करने या नयी या उच्चतर रचना को स्वीकार

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करने या आरोपित करने के लिये स्वतंत्र हो । आत्मा के अपनी शक्ति के साथ व्यवहार करने में ये कुछ बहुत स्पष्ट संभावनाएं हैं और स्वयं हमारी अनुभूति में इनका अवलोकन और इनकी परख हो सकती है । ये अनंत चेतना की शक्तियों के न्याय-संगत परिणाम हैं । हमने देखा है कि ऐसी शक्तियां उसकी अनंतता के लिये नैसर्गिक हैं । पुरुष-पक्ष और प्रकृति-पक्ष हमेशा साथ-साथ चलते हैं । प्रकृति या चेतना-शक्ति अपनी क्रिया में जो भी स्थिति अपनाये, अभिव्यक्त या विकसित करे पुरुष की भी स्थिति उसके अनुरूप होती है । अपनी उच्चतम स्थिति में आत्मा परम-सचेतन-सत्ता पुरुषोत्तम है और चित्-शक्ति उसकी परा-प्रकृति है । प्रकृति के क्रम की हर स्थिति में, आत्मा उस क्रम के अनुकूल भूमिका धारण करती है । मन-प्रकृति में वह मनोमय पुरुष, प्राण-प्रकृति में प्राणमय पुरुष, जड़-प्रकृति में अन्नमय पुरुष और अतिमानस में वह विज्ञानमय-पुरुष बन जाता है और उच्चतम आध्यात्मिक स्थिति में वह आनंदमय पुरुष और शुद्ध सत् बन जाता है । हमारे अंदर शरीरधारी व्यक्तियों में वह सबके पीछे चैत्य सत्ता के आंतरिक आत्मा के रूप में खड़ा रहता है, जो हमारी चेतना और आध्यात्मिक सत्ता की अन्य रचनाओं को सहारा देती है । जो पुरुष हमारे अंदर व्यष्टि है वही विश्व में वैश्व तथा परात्परता में परात्पर : इस आत्मा के साथ एकात्मता स्पष्ट है लेकिन वस्तुओं और प्राणियों में स्थित आध्यात्म सत्ता की अपनी शुद्ध निर्वैयक्तिक-सव्यक्तिक स्थिति में रहती हुई यह आत्मा ही निर्वैयक्तिक इसलिये है कि वहां व्यक्तिगत गुण भेद-भाव नहीं करते । सव्यक्तिक इसलिये कि वह हर व्यक्ति के अंदर आत्मा के व्यष्टिभाव लेने की क्रिया की अध्यक्षता करता है - अपनी चित्-शक्ति के, अपनी आत्म-प्रकृति की कार्यकारिणी शक्ति के साथ व्यवहार करता है और उस प्रयोजन के लिये जो भी स्थिति जरूरी हो उसे अपनाता है ।

 

   लेकिन यह स्पष्ट है कि पुरुष-प्रकृति की किसी भी व्यष्टिगत ग्रंथि में, चाहे कोई भी स्थिति क्यों न अपनायी जाये या कोई भी संबंध क्यों न बनाया जाये, मूलभूत वैश्व संबंध में पुरुष अपनी प्रकृति का स्वामी और शासक ही है, क्योंकि जब वह प्रकृति को अपने साथ अपने ही तौर-तरीके बरतने देता है तब भी उसकी क्रिया को सहारा देने के लिये पुरुष की स्वीकृति जरूरी है । यह तत्त्व सद्वस्तु दिव्य पुरुष के तीसरे रूप में पूरी तरह प्रकट होता है जहां वह विश्व का स्वामी और स्रष्टा है । वहां परम पुरुष, परम सत्ता अपनी परात्पर और वैश्व चेतना और शक्ति में सामने आता है, वह है सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सभी ऊर्जाओं का नियंता, जो कुछ सचेतन या निश्चेतन है उसमें सचेतन, सभी अंतरात्माओं, मनों, हृदयों और शरीरों में निवास करनेवाला, सभी कार्यों का शासक या अधिशासक, समस्त आनंद का भोक्ता, ऐसा स्रष्टा जिसने सभी चीजों का सृजन अपनी सत्ता में किया, वह सर्व पुरुष सभी सत्ताएं जिसके व्यक्तित्व हैं, वह शक्ति जिससे सब शक्तियां आती हैं, सभीके अंदर

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आध्यात्म चेतना या आत्मा, अपनी सत्ता में जो कुछ है उसका पिता, अपनी चित्-शक्ति में दिव्य जननी, सभी प्राणियों का सखा, सर्वानंदमय और सर्व-सुंदर जिसके अंतःप्रकाश हैं सुंदरता और आनंद, सर्वप्रिय और सर्वप्रेमी । अमुक अर्थ में इस तरह देखे और समझे जानेपर यह परम सद्वस्तु का सबसे अधिक व्यापक रूप होता है क्योंकि यहां सभी एक रूपायण में मिल जाते हैं, क्योंकि ईश्वर विश्वातीत और विश्वान्तर्यामी दोनों है । वह वह है जो समस्त व्यक्तित्व में निवास करता है और उसके परे भी है और उसका समर्थन भी करता हैं । वह परम और वैश्व ब्रह्म है, निरपेक्ष, परम आत्मा, परम पुरुष (पुरुषोत्तम) है, लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि यह प्रचलित धर्मों का सगुण भगवान् नहीं है, ऐसी सत्ता नहीं है जो अपने गुणों से सीमित हो, जो व्यक्तिगत और अन्य सबसे अलग हो क्योंकि इस तरह के सभी व्यक्तिगत देवता एक ईश्वर के केवल सीमित प्रतिरूप या नाम और दिव्य व्यक्तित्व हैं । न यह सगुण ब्रह्म है जो सक्रिय और गुणों का धाम है क्योंकि यह तो ईश्वर की सत्ता का केवल एक पक्ष है । निर्गुण, अचल, गुणरहित उसकी सत्ता का दूसरा पक्ष है । ईश्वर ब्रह्मन्, सद्वस्तु, आत्मा, आध्यात्मिक जीव जो अपनी आत्म-सत्ता के अधिष्ठाता और भोक्ता रूप में प्रकट होता है, वह सृष्टि का कर्ता और उसके साथ एक है, विश्व के होते हुए भी उससे श्रेष्ठ है, शाश्वत, अनंत, अनिर्वचनीय, दिव्य परात्पर है ।

 

   हमारे मनसे सोचने की रीति में वैयक्तिकता और निर्वैयक्तिकता में जो तीक्ष्ण विरोध खड़ा किया गया हैं वह हमारे मन की रचना है और जड़-भौतिक जगत् के आभासों पर आधारित है । क्योंकि यहां पार्थिव अस्तित्व में निश्चेतना, जिससे हर चीज का उद्गम होता है, वह एकदम निर्वैयक्तिक मालूम होती है । प्रकृति, निश्चेतन ऊर्जा अपने अभिव्यक्त सारतत्त्व और व्यवहार में बिल्कुल निर्वैयक्तिक है, सभी शक्तियां निर्वैयक्तिकता का यह मुखड़ा पहने रहती हैं । सभी गुण और शक्तियां, प्रेम आनंद यहांतक कि स्वयं चेतना का भी यही पहलू है । व्यक्तित्व निर्वैयक्तिक जगत् में चेतना की सृष्टि के रूप में प्रकट होता है । यह शक्तियों, गुणों, प्रकृति-क्रिया की अभ्यासगत शक्तियों की प्रतिबद्ध रचना द्वारा सीमांकन है, आत्मानुभव के सीमित चक्र में कारावास है जिसे हमें पार करना है । अगर हम विश्वात्मकता प्राप्त करना चाहें तो वैयक्तिकता को खोना जरूरी है, यह और भी अधिक जरूरी है अगर हम परात्परतातक उठना चाहें । लेकिन हम इस तरह जिसे व्यक्तित्व कहते हैं वह केवल सतही चेतना की एक रचना है, उसके पीछे वह पुरुष होता है जो बहुत-से व्यक्तित्व धारण कर लेता है, जो अपने-आप एक, वास्तविक और शाश्वत होते हुए बहुत-से व्यक्तित्व एक साथ धारण कर सकता है । अगर हम चीजों को ज्यादा विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो कह सकते हैं कि जो निर्वैयक्तिक है वह केवल पुरुष की एक शक्ति है, सत् के बिना स्वयं सत्ता का कोई अर्थ नहीं, चेतना के खड़े रहने के लिये भी जगह न होगी यदि कोई सचेतन न हो, भोक्ता के बिना आनंद

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व्यर्थ और अमान्य है, अगर प्रेमी न हो तो प्रेम की परिपूर्ति या उसका कोई आधार ही नहीं हो सकता, अगर सर्वशक्तिमान् न हो तो सर्वशक्ति बेकार होगी । क्योंकि पुरुष से हमारा मतलब है सचेतन सत्ता, वह यहां भले निश्चेतना की अभिधा या रचना के रूप में उभरे फिर भी वह वास्तव में ऐसी नहीं है क्योंकि स्वयं निश्चेतना गुप्त चेतना की एक अभिधा है । जो उभरता है वह उससे महान् होता है जिसमें वह उभरता है, जैसे मन जड़-पदार्थ से अधिक महान् है, अंतरात्मा मन से महान् है और आत्मा जो कि सबसे अधिक रहस्यमयी है, परम उन्मज्जन है, अंतिम अंत:--प्रकाश है, वह सबसे अधिक महान् है और आत्मा ही पुरुष, सर्व-पुरुष, सर्व-व्यापक सचेतन सत्ता है । हमारे अंदर जो यह सच्चा पुरुष है उसके बारे में मन का अज्ञान, उसका पुरुष और हमारे अहं के अनुभव तथा सीमित व्यक्तित्व के बीच घपला, एक निश्चेतन अस्तित्व में सीमित चेतना और व्यक्तित्व के उभरने का पथभ्रष्ट व्यापार -यहीं वे चीजें हैं जिन्होंने हमसे सद्वस्तु के इन दोनों पक्षों में विरोध पैदा करवाया है लेकिन सचमुच उनमें कोई विरोध नहीं है । एक शाश्वत, अनंत स्वयंभू ही परम सद्वस्तु है लेकिन परम परात्पर अनंत सत्ता, आत्मा और आध्यात्म-सत्ता -या यूं कहें एक अनंत पुरुष -क्योंकि उसकी सत्ता सभी व्यक्तित्व का सारतत्त्व और स्रोत है -ही स्वयंभू की वास्तविकता और उसका अर्थ है । इसी तरह विश्वात्मा, आध्यात्म सत्ता, सत्ता, पुरुष ही वैश्व सत्ता की वास्तविकता और अर्थ है । वही आत्मा, आध्यात्म सत्ता, सत्ता या पुरुष अपनी बहुलता को अभिव्यक्त कर व्यष्टिगत सत्ता की वास्तविकता और अर्थ होता है ।

 

   अगर हम दिव्य सत्ता, परम पुरुष और सर्व-पुरुष को ईश्वर मान लें तो उसके विश्व--सत्ता के शासन या संचालन को समझने में एक कठिनाई आती है, क्योंकि हम तुरंत उसपर मानव शासक की कल्पना लागू कर देते हैं । हम उसके बारे में यह चित्र बना लेते हैं मानों वह मन और मानसिक इच्छा से सर्वशक्तिमान् स्वेच्छाचारी ढंग से ऐसे जगत् पर कार्य करता है जिसपर वह अपनी मानसिक धारणाओं को कानून के रूप में आरोपित करता है । हम उसकी इच्छा को उसके व्यक्तित्व की एक स्वच्छंद सनक मान लेते हैं । लेकिन भागवत सत्ता के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह एक सर्वशक्तिमान् फिर भी अज्ञानी मनुष्य की तरह-यदि ऐसी सर्वशक्तिमत्ता संभव हो -स्वेच्छाचारी इच्छा या भाव द्वारा कार्य करे; क्योंकि भगवान् मन द्वारा सीमित नहीं हैं । उनमें सर्व-चेतना है जिसमें वे सभी चीजों के सत्य के बारे में अभिज्ञ होते हैं और अपनी सर्व-प्रज्ञा से अभिज्ञ होते हैं जो उन वस्तुओं में जो सत्य है उसके, उनके अर्थ के, उनकी संभावना या आवश्यकता के, उनकी प्रकृति के अनिवार्य आत्म-स्वरूप के अनुसार कार्य करती है । भगवान् स्वतंत्र हैं, किसी तरह के नियमों से बंधे नहीं हैं फिर भी वे नियमों और प्रक्रियाओं के अनुसार काम करते हैं क्योंकि वे चीजों के सत्य की अभिव्यक्ति हैं, उनके केवल

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यांत्रिक, गणितीय या अन्य बाहरी सत्य की नहीं बल्कि आध्यात्मिक वास्तविकता की, वे जो हैं, जो बन गये हैं और उन्हें अभी जो बनना है, जो कुछ उनमें ऐसा है जिसे उन्हें उपलब्ध करना है, उसकी अभिव्यक्ति हैं । वे स्वयं क्रिया में विद्यमान हैं लेकिन वे उसका अतिक्रमण भी कर सकते हैं और उसे रद्द भी कर सकते हैं क्योंकि एक ओर प्रकृति अपने नियमों के सीमित समूह के अनुसार क्रिया करती और उन्हें कार्यान्वित करने में भागवत उपस्थिति द्वारा अनुप्राणित और उसपर आश्रित होती है लेकिन दूसरी ओर एक निरीक्षण, एक उच्चतर क्रिया और निर्देशन, यहांतक कि एक हस्तक्षेप भी है जो स्वतंत्र तो है पर स्वेच्छाचारी नहीं; वह हमें प्रायः जादुई या चमत्कारिक लगता है क्योंकि वह दिव्य परा प्रकृति से चलकर प्रकृति पर कार्य करता है । यहां प्रकृति उस परा प्रकृति की एक सीमित अभिव्यक्ति है और उसके प्रकाश, उसकी शक्ति, उसके प्रभाव, हस्तक्षेप या परिवर्तन के लिये खुली रहती है । वस्तुओं का यांत्रिक, गणितीय और स्वचालित नियम एक तथ्य है लेकिन उसके अंदर चेतना का एक आध्यात्मिक नियम कार्य करता है जो प्रकृति की शक्तियों के यांत्रिक कदमों को एक आंतरिक मोड़ और मूल्य, अर्थपूर्ण औचित्य और गुप्त रूप से सचेतन आवश्यकता प्रदान करता है और उसके ऊपर है आध्यात्मिक स्वतंत्रता जो आत्मा के परम और वैश्व सत्य में जानती और कार्य करती है । भगवान् के विश्व-शासन के बारे में या उसकी क्रिया के रहस्य के बारे में हमारी दृष्टि असाध्य रूप से मनुष्यत्व आरोपण करनेवाली या असाध्य रूप से यांत्रिक होती है । मनुष्यत्व आरोपित करने और यंत्रवत् चलाने दोनों में सत्य का तत्त्व होता है परंतु वे केवल एक पार्श्व या एक पक्ष हैं । सच्चा सत्य तो यह है कि जगत् का शासन सबके अंदर और सबके ऊपर रहनेवाले उस 'एक' के द्वारा होता है जो अपनी चेतना में अनंत है । हमें विश्व के अर्थ, उसकी रचना और गतिविधि को अनंत चेतना के नियम और न्याय के अनुसार ही समझना चाहिये ।

 

   अगर हम एकमेव सद्वस्तु के इस पक्ष का अवलोकन करें और उसे अन्य पक्षों के निकट संबंध में रखें तो शाश्वत स्वयंभू सत्ता, और जिस चित्-शक्ति के द्धारा वह विश्व को अभिव्यक्त करती है, उसकी क्रियात्मकता, इनके बीच के संबंध का पूरा दृश्य हमारे सामने आ सकता है । अगर हम अपने-आपको नीरव स्वयंभू अविचल, स्थिर, निष्क्रिय अवस्था में रख दें तो ऐसा लगेगा कि अपनी सभी कल्पनाओं को कार्यान्वित करने में समर्थ, निश्चल-नीरव आत्मा की क्रियाशील सहचरी कल्पनात्मक चित्-शक्ति, माया ही सब कुछ कर रही है, वह निश्चित, अविचल, शाश्वत स्थिति को अपना आधार बनाती है और सत् के आध्यात्मिक द्रव्य को सब तरह के रूपों और गतियों में ढालती है जिसके लिये उसकी निष्क्रियता अनुमति प्रदान करती है या जिसमें वह आत्मा निष्पक्ष सुख पाता है, अपना सर्जनात्मक और सचल सत्ता का अचल आनंद लेता है, यह सत्ता चाहे वास्तविक

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हो या भ्रम, उसका द्रव्य, उपादान और अर्थ यही है । चेतना सत् के साथ खेल रही है, प्रकृति की शक्ति सत् के साथ अपनी मरजी के मुताबिक जो चाहे करती है और उसे अपनी रचनाओं का द्रव्य बनाती है लेकिन इसे संभव बनाने के लिये गुप्त रूप से पग-पग पर सत् की स्वीकृति जरूरी है । वस्तुओं के इस बोध में एक स्पष्ट सत्य है । यह वही है जिसे होते हुए हम अपने अंदर और अपने चारों ओर देखते हैं । यह विश्व का एक सत्य है और इसे निरपेक्ष के आधारभूत सत्य-पक्ष के अनुसार होना चाहिये । लेकिन जब हम चीजों के बाहरी क्रियाशील आभासों से पीछे हट जाते हैं, साक्षी नीरवता में नहीं बल्कि आंतरिक क्रियाशीलता में जो आध्यात्म जीव के अनुभव में भाग लेती है, तो हम देखते हैं कि यह चित्-शक्ति, माया, शक्ति स्वयं ही सत् की, स्वयंभू की, ईश्वर की शक्ति है । सत् उसका और सभी चीजों का स्वामी है । हम उसे अपनी प्रभुता में, अपनी अभिव्यक्ति के स्रष्टा और शासक के रूप में सब कुछ करते देखते हैं । अगर वह पीछे खड़ा रहकर प्रकृति की शक्तियों और उसके प्राणियों को कार्य करने की छूट देता है तो भी उसकी अनुमति में उसकी प्रभुता छिपी रहती है, पद-पद पर उसकी मौन स्वीकृति 'तथास्तु' छिपी रहती है क्योंकि इसके बिना कुछ भी होना या करना संभव नहीं है, सत् और उसकी चित्-शक्ति, पुरुष और प्रकृति मूलत: द्वैत नहीं हो सकते । प्रकृति जो कुछ करती है, वास्तव में पुरुष का ही किया हुआ होता है । यह भी एक सत्य है जो तब स्पष्ट होता है जब हम पर्दे के पीछे जाते हैं और एक जीवित-जाग्रत् सद्वस्तु की उपस्थिति का अनुभव करते हैं जो सब कुछ है और सब कुछ निर्धारित करती है, जो सर्वशक्तिमान् सम्राट् है यह भी निरपेक्ष का एक आधारभूत सत्य-पक्ष है ।

 

   और अगर हम नीरवता में तल्लीन रहें तो सृजनात्मक चेतना और उसके कार्य भी नीरव निश्चलता में गायब हो जाते हैं । हमारे लिये प्रकृति और उसकी सृष्टि का अस्तित्व नहीं रहता, वे वास्तविक नहीं रह पाते । इसके विपरीत यदि हम ऐकांतिक रूप से सत् को उसके एकमात्र विद्यमान पुरुष और शासक के रूप में देखें तो शक्ति या सामर्थ्य, जिसके द्वारा वह सब कुछ करता है, उसकी अद्वितीयता में गुम हो जाती है या उसकी वैश्व सत्ता का एक गुण बन जाती है और एक सत् का निरंकुश राज्य विश्व के बारे में हमारा प्रत्यक्ष दर्शन बन जाता है, ये दोनों ही अनुभव मन के लिये बहुत-सी कठिनाइयां उपस्थित करते हैं क्योंकि उसके आगे आत्मा की शक्ति के निष्क्रिय या सक्रिय किसी भी अवस्था का प्रकृत रूप प्रत्यक्ष नहीं हुआ है या आत्मा का एक अति ऐकांतिक नेति भावात्मक अनुभव हुआ है या इस कारण कि हमारी धारणाएं परम पुरुष के शासक रूप पर मानव गुणों और स्वभाव को बहुत ज्यादा आरोपित कर देती हैं । यह स्पष्ट है कि हम ऐसे अनंत को देख रहे हैं जिसकी आत्म-शक्ति बहुत-सी गतिविधियों में समर्थ है और ये सब

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प्रामाणिक हैं । अगर हम और ज्यादा विशालता से देखें और वस्तुओं के वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक दोनों प्रकार के सत्य को एक सत्य के रूप में देखें, अगर उस प्रकाश में, निर्वैयक्तिकता में वैयक्तिकता के प्रकाश में देखें तो हम आत्मा और आत्म-शक्ति के द्विदल स्वरूप को देखते हैं तब पुरुष-रूप में से पुरुष-युगल, ईश्वर-शक्ति, दिव्य आत्मा और स्रष्टा और दिव्य माता और विश्व की स्रष्ट्री का आविर्भाव होता है । तब हमारे लिये वैश्व तत्त्वों में नर और नारी तत्त्वों का रहस्य खुलता है जिनकी क्रीड़ा और पारस्परिक क्रिया समस्त सृष्टि के लिये जरूरी है । स्वयंभू सत्ता के अतिचेतन सत्य में ये दोनों एक-दूसरे में लीन और समाविष्ट, एक और अविभेद्य हैं लेकिन विश्व की क्रियाशीलता के आध्यात्मिक व्यावहारिक सत्य में वे प्रकट और सक्रिय होते हैं । विश्व का सृजन करनेवाली दिव्य मातृ ऊर्जा, माया, परा प्रकृति, चित्-शक्ति ही विश्वात्मा और ईश्वर को तथा अपनी आत्म-शक्ति को द्विविध तत्त्व के रूप में अभिव्यक्त करती है । उसीके द्वारा सत्, आत्मा, ईश्वर कार्य करता है । वह इसके बिना कुछ नहीं करता, द्यपि उसकी इच्छा प्रकृति में अंतर्निहित होती है फिर भी यह वही है जो परम चित्-शक्ति के रूप में, जो सभी आत्माओं और सत्ताओं को अपने अंदर धारण करती है, और कार्यकारिणी प्रकृति के रूप में सब कुछ को कार्यान्वित करती हैं, सब कुछ प्रकृति के अनुसार ही जीता और कार्य करता है । सब कुछ चित्-शक्ति है जो सत् के साथ उन करोड़ों रूपों और गतियों में अभिव्यक्त होती और खेलती है जिनमें प्रकृति उसे ढालती है । अगर हम अपने-आपको उसकी क्रियाओं से पीछे हटा लें तो सब कुछ निष्क्रियता में गिर जा सकता है और हम नीरव निश्चलता में प्रवेश कर सकते हैं क्योंकि वह अपनी सचल क्रियाओं को बंद करना स्वीकार कर लेती है । लेकिन यह उसकी निष्चलता और नीरवता ही है जिसमें हम निश्चल और निवृत्त होते हैं । अगर हम प्रकृति से स्वतंत्र होने का दावा करें तो वह हमारे आगे ईश्वर की सर्वव्यापी परम शक्ति को प्रकट करती है और यह दिखा देती है कि हम उस ईश्वर की सत्ता की सत्ताएं हैं लेकिन वह शक्ति वह स्वयं है और उसकी पस प्रकृति में हम भी वही हैं । अगर हम सत्ता की एक उच्चतर रचना या स्थिति उपलब्ध करना चाहें तो यह भी उसीके द्वारा, दिव्य शक्ति, आत्मा की चित्-शक्ति के द्वारा ही करना होगा । भागवत सत्ता को हमारा समर्पण दिव्य जननी के द्वारा ही होना चाहिये : क्योंकि हमारा आरोहण पस प्रकृति में या उसकी ओर होना चाहिये और यह तभी हो सकता है जब अतिमानसिक शक्ति हमारी मानसिकता को लेकर उसे अपनी अतिमानसिकता में रूपांतरित कर दे । इस तरह हम देखते हैं कि सत्ता के इन तीन पहलुओं के बीच या उनकी शाश्वत स्वरूप स्थिति में उनके बीच और विश्व में उसकी क्रियाशील क्रिया-शक्ति की तीन रीतियों के बीच कोई विरोध या असंगति नहीं है । एक ही सद एक सद्वस्तु आत्मा के रूप में धारण करता, सहारा देता

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और अनुप्राणित करता है, पुरुष या सचेतन सत्ता के रूप में अनुभव करता और ईश्वर-रूप से इच्छा करता, शासन करता और अधिकार में रखता है उस अपनी अभिव्यक्ति के जगत् को जिसे उसकी अपनी ही चित् शक्ति-या आत्म-शक्ति-माया, प्रकृति, शक्ति ने सृजा और गतिशील और क्रियाशील रखा है ।

 

   एकमेव आत्मा तथा आध्यात्म सत्ता के इन अलग-अलग रूपों या मुखड़ों के बीच संगति बैठाने में हमारे मन के सामने एक विशेष कठिनाई आती है क्योंकि ऐसे 'कुछ' के लिये जो अमूर्त नहीं है, ऐसे 'कुछ' के लिये जो आध्यात्मिक रूप से जीवंत और तीव्र रूप से वास्तविक है, हमें अमूर्त धारणाओं और व्याख्या करनेवाले शब्दों और भावों का उपयोग करना पड़ता है । हमारे अमूर्तकरण भेद करनेवाली धारणाओं में बंध जाते हैं और उनके बीच में तेज रेखाएं होती हैं, लेकिन सद्वस्तु इस तरह की नहीं है, उसके बहुत-से पहलू तो हैं पर सभी छटाएं एक दूसरे के अंदर घुल-मिल जाती हैं । उसका सत्य केवल ऐसे भावों और रूपकों द्वारा चित्रित किया जा सकता है जो अतीन्द्रिय होने के साथ जीवंत और ठोस हों -शुद्ध बुद्धि चाहे ऐसे रूपकों को आकृतियां और प्रतीक ही मानें लेकिन वे इससे कुछ अधिक होते हैं और अंतर्भासात्मक दृष्टि और अनुभूति के लिये इनका इससे अधिक गभीर अर्थ होता है क्योंकि ये क्रियात्मक आध्यात्मिक अनुभव की वास्तविकताएं हैं । वस्तुओं के निर्वैयक्तिक सत्य को शुद्ध बुद्धि के अमूर्त सूत्रों में अनूदित किया जा सकता है लेकिन सत्य का एक और पक्ष भी है जो आध्यात्मिक या गुह्य दृष्टि की चीज है और वास्तविकताओं की उस आंतरिक दृष्टि के बिना उनका अमूर्त निरूपण काफी सजीव या संपूर्ण नहीं होता । वस्तुओं का रहस्य ही वस्तुओं का वास्तविक सत्य है, उन्हें बौद्धिक रूप में प्रस्तुत करना प्रतिरूप बनाने में, अमूर्त प्रतीकों में, मानों विचार-भाषा की क्यूबिस्ट कला या ज्यामिति की आकृतियों में आनेवाला सत्य है । दार्शनिक अनुसंधान में अधिकतर अपने-आपको इस बौद्धिक प्रस्तुतितक ही सीमित रखना जरूरी है लेकिन यह याद रखना भी जरूरी है कि यह केवल सत्य का अमूर्त रूप है और उसे पूरी तरह पकड़ पाने या पूरी तरह अभिव्यक्त करने के लिये एक ठोस अनुभूति और अधिक जीवंत तथा सांगोपांग भाषा की जरूरत है ।

 

   यहां यह देखना भी उपयुक्त होगा कि सद्वस्तु के इस पक्ष में, हमने एक और बहु के बीच जिस संबंध को खोज निकाला है, उसे किस तरह देखा जाये । इसका अर्थ होगा व्यक्ति और दिव्य सत्ता के बीच, अंतरात्मा और ईश्वर के बीच के सच्चे संबंध का निर्धारण । सामान्य आस्तिक धारणा में बहु भगवान् की सृष्टि है । वे भगवान् द्वारा इस तरह बनाये गये हैं जैसे कुम्हार घड़े बनाता है और वे उसपर इसी तरह निर्भर हैं जैसे सृष्ट जीव अपने स्रष्टा पर । लेकिन ईश्वर के बारे में इस विशालतर दृष्टि में बहु भी अपनी अंतरतम वास्तविकता में दिव्य एक ही है । परम और वैश्व स्वयंभू की वैयक्तिक आत्माएं हैं जो उसीकी तरह शाश्वत भी हैं लेकिन

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शाश्वत हैं उसकी सत्ता में । हमारा भौतिक जीवन निश्चय ही प्रकृति की सृष्टि है लेकिन अंतरात्मा भगवान् का अमर अंश है और उसके पीछे प्रकृतिसृष्ट प्राणी के अंदर परमात्मा विराजमान हैं । फिर भी चूंकि एकमेव ही जीवन का आधारगत सत्य है, बहु एकमेव के द्वारा ही अस्तित्व रखते हैं अतः अभिव्यक्त सत्ता पूरी तरह से ईश्वर पर निर्भर है । यह निर्भरता अहं के पृथक् करनेवाले अज्ञान के कारण छिपी रहती है । यह अहं अपने ही अधिकार से जीने की कोशिश करता है यद्यपि पग-पग पर वह स्पष्ट रूप से उस वैश्व शक्ति पर निर्भर रहता है जिसने उसे पैदा किया है और वह उसीके द्वारा चलाया जाता है, उसीकी वैश्व सत्ता और क्रिया का एक भाग है । अहं का यह प्रयास स्पष्ट ही हमारे अंदर रहनेवाली स्वयंभू सत्ता के सत्य का व्यतिक्रम और भ्रांत प्रतिबिंब है । यह सच है कि हमारे अंदर कुछ ऐसा है, हमारे अहं में नहीं बल्कि हमारी आत्मा में, हमारी अंतरतम सत्ता में कुछ ऐसा है जो वैश्व प्रकृति के परे चला जाता है और परात्पर का वासी है । लेकिन यह भी अपने-आपको प्रकृति से स्वतंत्र पाता है तो केवल अपने से ऊंची सद्वस्तु पर निर्भरता के कारण । आत्मा तथा प्रकृति के भगवान् के प्रति आत्म-दान या समर्पण द्वारा ही हम अपनी उच्चतम आत्मा और परम सद्वस्तुतक पहुंच सकते हैं । क्योंकि यह भागवत सत्ता ही है जो उच्चतम आत्मा और परम सद्वस्तु है और अगर हम स्वयंभू और शाश्वत हैं तो उसीकी शाश्वतता में और उसके स्वयंभू होने के कारण । यह निर्भरता एकात्मकता के विपरीत नहीं है बल्कि वह स्वयं एकात्मता-प्राप्ति का द्वार है -इस प्रकार यहां फिर हम उस द्वैत तत्त्व के प्रपंच से आ मिलते हैं जो एकत्व को प्रकट करता है, एकत्व से चलकर फिर से एकत्व में आ खुलता है और यही विश्व का सतत रहस्य और उसकी आधारभूत क्रिया है । अनंत की चेतना का यह सत्य ही है जो बहु और 'एक के बीच समस्त संबंधों की संभावना पैदा करता है जिनमें से मन के द्वारा एकत्व की उपलब्धि, हृदय में एकत्व की उपस्थिति, सभी अंगों में एकत्व की स्थिति -यह एक उच्चतम शिखर है फिर भी वह अन्य सभी व्यक्तिगत संबंधों को रद्द नहीं करता बल्कि पुष्ट करता है और उन्हें अपनी पूर्णता और अपना पूर्ण आनंद और अपना पूरा अर्थ देता है । यह भी जादू है, साथ ही अनंत का तर्क भी ।

 

   एक समस्या फिर भी रह जाती है जिसे सुलझाना बाकी है और इसे भी उसी आधार पर हल किया जा सकता है और यह समस्या है व्यक्त और अव्यक्त के बीच विरोध की समस्या । क्योंकि यह कहा जा सकता है कि अभीतक जो कुछ कहा गया है वह व्यक्ति के लिये सच हो सकता है, लेकिन अभिव्यक्ति निम्नतर कोटि की वास्तविकता है, अनभिव्यक्त सद्वस्तु से निकली हुई एकांगी गति है और जब हम उसमें प्रवेश करते हैं जो परम सद्वस्तु है तो विश्व के ये सत्य प्रामाणिक नहीं रहते । अव्यक्त कालातीत, पूर्णतया शाश्वत, अपराजेय निरपेक्ष स्वयंभू है जिसके बारे में अभिव्यक्ति और उसकी सीमाएं कोई अता-पता नहीं दे सकतीं और अगर

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देती भी हैं तो उसकी अपर्याप्तता भ्रांतिमूलक और भ्रामक होती है । यह काल और कालातीत आत्मा के संबंध की समस्या खड़ी करता है क्योंकि हमने इसके विपरीत यह मान लिया है कि जो कालातीत शाश्वत में अनभिव्यक्त है वही काल-शाश्वतता में अभिव्यक्त होता है । अगर ऐसी बात है, अगर कालिक शाश्वत की अभिव्यक्ति है तो अवस्थाएं चाहे जितनी भिन्न हों, अभिव्यक्ति चाहे जितनी एकांगी हो फिर भी कालिक अभिव्यक्ति में जो कुछ आधारभूत है उसे किसी-न-किसी तरह परात्परता में पहले से मौजूद होना चाहिये और उसे कालातीत सद्वस्तु से आया हुआ होना चाहिये । क्योंकि, अगर ऐसा नहीं है तो इन आधारभूत चीजों को अभिव्यक्ति में सीधा उस निरपेक्ष से आना चाहिये जो काल या कालातीत से अलग है और कालातीत आत्मा को एक परम आध्यात्मिक नकार होना चाहिये, एक ऐसा अनिर्देश्य होना चाहिये जो काल में रूपायित सब कुछ के सीमायन की ओर से निरपेक्ष की स्वतंत्रता का आधार होता है । वह अस्तिकाल का नास्ति होगा, इसके साथ उसका वैसा ही संबंध होगा जैसे सगुण के साथ निर्गुण का । लेकिन वस्तुत: कालातीत से हमारा मतलब होता है सत्ता की एक ऐसी आध्यात्मिक अवस्था जो काल-गतियों या भूतकाल, वर्तमान और भविष्य के सापेक्ष काल के अनुभव या क्रम के आधीन नहीं है । कालातीत आत्मा का रिक्त होना जरूरी नहीं है, काल या रूप या संबंध या परिस्थिति के संदर्भ के बिना वह अपने अंदर सब कुछ धारण किये रह सकती है पर सार रूप में, शायद एक शाश्वत ऐक्य में । शाश्वतता काल और कालातीत आत्मा दोनों के बीच की सामान्य अभिधा है । जो कुछ कालातीत में अनभिव्यक्त है, निहित है, सारगत है वह काल में, गति में या कम-से-कम परिकल्पना और संबंध में परिणाम और परिस्थिति में प्रकट होता है । तो ये दोनों वही एक शाश्वतता हैं या द्विविध स्थिति में विद्यमान वही एक शाश्वत पुरुष हैं, ये सत्ता और चेतना की द्विविध अवस्थाएं हैं, एक है अचल स्थिति की शाश्वतता, दूसरी है स्थिति में गति की शाश्वतता ।

 

   मूल स्थिति है कालातीत और देशातीत सद्वस्तु की । देश और काल उसी सद्वस्तु का आत्म-विस्तार हैं जो अपने अंदर की चीजों के फैलाव को समाविष्ट करने के लिये किया गया है । भेद केवल यही होगा, जो अन्य सभी विरोधों में होता है कि एक में 'आत्मा' अपने-आपको सत्ता के स्वरूप और तत्त्व में देखती है और दूसरी अवस्था में वही अपने-आपको अपने स्वरूप और तत्त्व की क्रियात्मकता में देखती है । देश और काल उस एक सद्वस्तु के इस आत्म-विस्तार के लिये हमारे दिये नाम हैं । हम देश को एक ऐसे स्थाणु विस्तार के रूप में देखने के लिये प्रवृत्त होते हैं जिसमें सभी चीजें निश्चित क्रम में एक साथ खड़ी रहती या गति करती हैं । हम काल को एक गतिशील विस्तार के रूप में देखते हैं जिसे गति और घटना से नापा जाता है । तो देश हुआ आत्म-विस्तारित स्थिति में ब्रह्म और काल

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होगा आत्म-विस्तारित गति में ब्रह्म लेकिन यह केवल पहली दृष्टि हो सकती है, शायद गलत भी हो । हों सकता है कि देश वस्तुत: सतत चलायमान हो, उसमें वस्तुओं की नित्यता और सतत काल-संबंध से देश की स्थिरता का भाव पैदा होता हो, सचलता से स्थिर देश में काल-गति का भाव पैदा होता हो । या फिर हो सकता है कि देश रूपों और वस्तुओं को एक साथ धारण करने के लिये विस्तारित ब्रह्म हो और काल होगा रूपों और वस्तुओं को वहन करती हुई आत्मशक्ति की गति के फैलाव के लिये आत्म-विस्तारित ब्रह्म । तब दोनों उसी वैश्व शाश्वत के एक और समान आत्म-विस्तार के दो पहलू होंगे ।

 

   शुद्ध भौतिक देश को अपने-आपमें जड़ द्रव्य का गुण माना जा सकता है लेकिन जड़ द्रव्य गतिशील ऊर्जा की सृष्टि है अतः भौतिक जगत् में देश या तो भौतिक ऊर्जा का आधारभूत आत्म-प्रसारण हो सकता है या उसका अपना बनाया हुआ सत्ता-क्षेत्र होगा, जिस निश्चेतन अनंतता में वह ऊर्जा क्रिया कर रही है उसीका उस ऊर्जा द्वारा बनाया गया प्रतिरूप होगा, एक ऐसा रूप होगा जिसमें वह अपनी क्रिया और अपनी रचना के नियमों और गतिविधियों को आयोजित करती है । काल अपने-आपमें उस गति का पथ होगा या फिर उससे बननेवाला आभास, किसी ऐसी चीज का आभास जो हमारे आगे नियमित अनुक्रम के रूप में आता है -एक ऐसा विभाजन या सातत्य जो गति की निरंतरता को धारण किये रहता है फिर भी उसके अनुक्रमों को रेखांकित करता हैं क्योंकि वह गति स्वयं नियमित रूप से आनुक्रमिक है । या फिर काल देश का ऐसा आयाम हो सकता है जो ऊर्जा की पूरी क्रिया के लिये जरूरी है लेकिन हम उसे इस तरह नहीं देख पाते क्योंकि उसे हमारी सचेतन आत्मनिष्ठता ऐसे देखती है मानों वह अपने-आप आत्मनिष्ठ हो, उसे हमारा मन अनुभव करता है परंतु इन्द्रियां नहीं देख पातीं अतः उसे देश के आयाम के रूप में नहीं स्वीकार किया जाता क्योंकि देश हमें इन्द्रियों द्वारा रचित या इन्द्रियों द्वारा अनुभव किये गये वस्तुनिष्ठ विस्तार के रूप में दिखायी देता है ।

 

   बहरहाल, अगर आत्मा आधारभूत सद्वस्तु है तो काल और देश या तो धारणात्मक अवस्थाएं हैं जिनमें आत्मा अपनी ही ऊर्जा की लीला को देखती है या वे आत्मा की ही आधारभूत अवस्थाएं हैं जो चेतना की उस स्थिति के अनुसार, जिसमें वे अभिव्यक्त होती हैं, भिन्न-भिन्न रूप या अवस्था ग्रहण करती हैं । दूसरे शब्दों में हमारी चेतना की हर एक स्थिति के लिये अलग-अलग देश और काल होते हैं बल्कि हर स्थिति के अंदर देश और काल की अलग-अलग गतियां होती हैं लेकिन वे सब देश और काल की आधारभूत आध्यात्मिक सद्वस्तु के रूप होंगे । वस्तुत: जब-जब हम भौतिक देश के पीछे जाते हैं तो हम एक ऐसे विस्तार के बारे में अभिज्ञ होते हैं जिसपर यह सारी गति आधारित है और यह प्रसार भौतिक न होकर आध्यात्मिक होता है । यह आत्मा या आध्यात्म तत्त्व है जो अपनी

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ऊर्जा की समस्त क्रियाओं को अपने अंदर समाये है । देश की यह मूल या आधारभूत वास्तविकता तब स्पष्ट होना शुरू करती है जब हम भौतिक से पीछे हटते हैं क्योंकि तब हम आत्मनिष्ठ देश-विस्तार के बारे में अभिज्ञ होते हैं जिसमें स्वयं मन निवास और गति करता है और जो भौतिक देश-काल से भिन्न है और फिर भी एक परस्पर प्रवेश होता है क्योंकि हमारा मन अपने ही देश में इस तरह गति कर सकता है कि वह भौतिक तत्त्व के देश में गति पर भी प्रभाव डाल सके या जड़ तत्त्व के देश में किसी दूरस्थ चीज पर क्रिया कर सके । चेतना की और अधिक गहरी अवस्था में हमें एक शुद्ध आध्यात्मिक देश की अभिज्ञता प्राप्त होती है, इस अभिज्ञता में ऐसा लग सकता है कि काल का अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि सारी गति रुक जाती है या अगर कोई गति या घटना है भी तो वह किसी दृष्टिगोचर हो सकनेवाले कालक्रम से स्वतंत्र रूप में भी हो सकती है ।

 

   अगर हम एक ऐसी ही आंतरिक गति से काल के पीछे जायें, भौतिक से पीछे हटकर, उसमें अंतर्लीन हुए बिना देखें तो हमें पता चलता है कि काल-अवलोकन और कालगति सापेक्ष होते हैं लेकिन स्वयं काल वास्तविक और शाश्वत है । काल-अवलोकन केवल उन मापों पर आश्रित नहीं होता जिनका हम उपयोग करते हैं, बल्कि अवलोकन करनेवाले की चेतना और उसकी स्थिति पर निर्भर होता है । और फिर चेतना की हर स्थिति का एक अलग ही काल-संबंध है । मानसिक चेतना और मानसिक देश में काल की गतियों का वही अर्थ और मापदंड नहीं होता जो भौतिक देश में होता है । चेतना की अवस्था के अनुसार तेज या धीमी गति होती है । चेतना की हर एक अवस्था का अपना काल होता है फिर उनके बीच काल के संबंध हो सकते हैं और जब हम भौतिक सतह के पीछे जाते हैं तो कई अलग-अलग काल-स्थितियों और काल-गतियों को एक ही चेतना में साथ रहते हुए पाते हैं । यह स्वप्न-काल में स्पष्ट होता है जहां घटनाओं का एक लंबा क्रम इतनी अवधि में हो जाता है जो भौतिक काल के एक सेकेंड या कुछ सेकेंडो के अनुरूप हो । तो भिन्न-भिन्न काल-स्थितियों में एक संबंध रहता है लेकिन उनके माप की अनुरूपता का पता नहीं लगाया जा सकता । ऐसा प्रतीत होगा कि काल की कोई वस्तुनिष्ठ वास्तविकता नहीं है बल्कि वह उन परिस्थितियों पर निर्भर रहता है जिन्हें चेतना की क्रिया सत्ता की स्थिति और गति के साथ संबंध में स्थापित कर दे । काल पूरी तरह आत्मनिष्ठ मालूम होता है लेकिन वस्तुत: मानसिक देश और द्रव्यगत देश के आपसी संबंध से देश भी आत्मनिष्ठ मालूम होगा । दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों मूलतः आध्यात्मिक प्रसारण हैं किंतु शुद्ध मन के द्वारा वह एक आत्मनिष्ठ मानस क्षेत्र में अनूदित होता है और इन्द्रियमन के द्वारा इन्द्रिय-बोध के वस्तुनिष्ठ क्षेत्र में । आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता केवल एक ही चेतना के दो पार्श्व हैं और मुख्य तथ्य यह है कि किसी भी काल विशेष या देश विशेष को या समग्र रूप में किसी भी

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काल-देश विशेष को लें तो वह सत्ता की ऐसी स्थिति होता है जिसमें सत्ता की चेतना और शक्ति की कोई गति होती है, ऐसी गति जो घटनाओं की सृष्टि करती है या उन्हें अभिव्यक्त करती है । यह घटनाओं को देखनेवाली चेतना और रचनेवाली शक्ति के बीच का संबंध है, यह संबंध उस स्थिति में छिपा रहता है । यही काल के बोध को निर्धारित करता है और हमारी काल-गति की काल-संबंधी और काल के माप की अभिज्ञता को पैदा करता है । अपने आधारभूत सत्य में अपनी सब विभिन्नताओं के पीछे काल की मूल स्थिति शाश्वत की शाश्वतता के सिवा कुछ भी नहीं है, ठीक वैसे ही जैसे देश का आधारभूत सत्य, उसकी वास्तविकता का मूल भाव है अनंत की अनंतता ।

 

   सत्ता की स्वयं अपनी शाश्वतता के संबंध में चेतना की तीन अलग-अलग स्थितियां हो सकती हैं । पहली वह जिसमें आत्मा की अपने तात्त्विक अस्तित्व में अचल स्थिति होती है, वह आत्मलीन या आत्म चेतन भले हो पर दोनों अवस्थाओं में गति या घटना में चेतना का विकास नहीं होता । इसे हम कालातीत शाश्वतता का नाम देते हैं । दूसरी है नियत या वस्तुतः होती हुई अभिव्यक्ति से संबंध रखनेवाली सभी चीजों के उत्तरोत्तर संबंध की समग्र चेतना जिसमें जिन्हें हम भूत, भविष्य और वर्तमान कहते हैं वे सब ऐसे इकट्ठे रहते हैं मानों एक नक्शे या निश्चित अभिकल्पना में हों या बहुत कुछ इस तरह जैसे कोई कलाकार या चित्रकार या वास्तुशिल्पी अपनी कृति को समग्र रूप से देखता हुआ अपने कार्य के संपूर्ण विवरण को धारण करता है जो उसके मन में अभिप्रेत या पर्यावलोकित होता है या एक ऐसी योजना में व्यवस्थित होता है जिसे कार्यान्वित करना है । यह काल की स्थायी स्थिति या उसकी युगपत् सर्वांगीणता है । काल का यह दर्शन घटनाओं के होने के साथ जो हमारी सामान्य अभिज्ञता होती है उसका अंग बिल्कुल नहीं होता यद्यपि भूत के बारे में हमारी दृष्टि, चूंकि वह पहले से ही ज्ञात है और उसे पूर्ण के अंदर देखा जा सकता हैं, इस प्रकार का लक्षण धारण कर सकती है । लेकिन हम जानते हैं कि इस चेतना का अस्तित्व है क्योंकि एक अपवादिक स्थिति में उसके अंदर प्रवेश करना और चीजों को काल-दृष्टि की इस समकालिकता की दृष्टि से देखना संभव है । तीसरी अवस्था है चित्-शक्ति की प्रक्रियात्मक गति की और उसने जो कुछ शाश्वत की स्थायी दृष्टि में देखा है उसका उत्तरोत्तर कार्यान्वयन । यह है काल-गति । लेकिन यह एकमात्र और वही शाश्वतता है जिसमें यह तिहरी स्थिति विद्यमान रहती है और गति पाती है । सचमुच दो शाश्वतताएं नहीं हैं, एक तो स्थिति की शाश्वतता और दुसरी गति की शाश्वतता, लेकिन चेतना एक ही शाश्वतता के बारे में विभिन्न अवस्थाएं और स्थितियां ग्रहण करती है क्योंकि तब वह समस्त कालविकास को गति के बाहर से या ऊपर से देख सकती है । वह गति के अंदर एक स्थायी स्थिति ले सकती है और एक निश्चित, निर्धारित या नियत क्रम में पूर्व

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और पश्चात् को देख सकती है या इसकी जगह वह गति में एक चलायमान स्थिति ले सकती है, अपने-आप उसके साथ क्षण- क्षण गति कर सकती है और वह सब जो कुछ हो चुका है उसे भूत में हटते हुए और वह सब जो कुछ होनेवाला है उसे भविष्य में से अपनी ओर आते हुए देख सकती है या वह जिस क्षण में है उसीपर केंद्रित रह सकती है और उसके सिवा कुछ नहीं देख पाती जो उस क्षण में है या तत्काल उसके चारों ओर या पीछे है । अनंत की सत्ता ये सभी स्थितियां दृष्टि या अनुभव में एक साथ अपना सकती है । वह काल को उसके ऊपर या भीतर से देख सकती है । और उसके भीतर न रहते हुए वह काल का अतिक्रमण कर सकती है । वह कालातीत को, कालातीत हुए बिना काल-गति को विकसित करते हुए देख सकती है । वह सारी गति को एक स्थायी और क्रियाशील दृष्टि में आलिंगन में भर सकती है और साथ-ही-साथ अपनी कुछ चीज क्षण-दृष्टि को दे सकती है । क्षण-दृष्टि से बंधी हुई, सांत चेतना को यह समकालिकता अनंत का जादू, माया का जादू मालूम हो सकती है । उसके अपने देखने के तरीके को, जिसे सीमित करने की, सामंजस्य के हेतु एक समय में एक ही स्थिति को दृष्टि के सामने लाने की आवश्यकता होती है, यह अस्तव्यस्त और असंगत अवास्तविकता का भाव देगी । परंतु एक अनंत चेतना के लिये दृष्टि और अनुभव की यह समग्र समकालिकता बिल्कुल तर्कयुका और सुसंगत मालूम होगी । वहां ये सब एक ऐसे समग्र दर्शन के तत्त्व हो सकेंगे जो एक सामंजस्यभरी व्यवस्था में नजदीक से आपस में संबद्ध हो सकेंगे, ऐसी दृष्टि की बहुविधता के तत्त्व हो सकेंगे जो देखी हुई चीजों की एकता को बाहर ला सकती है, और जो एकमेव सद्वस्तु के सहवर्ती पक्षों का विभिन्न रूप से प्रस्तुतीकरण होगा ।

 

   अगर एकमेव सद्वस्तु की आत्म-प्रस्तुति की यह युगपत् बहुविधता हो सकती है तो हम देख सकते हैं कि कालातीत शाश्वत और काल-शाश्वत के एक साथ रहने में भी कोई असंभवता नहीं है । वह द्विविध आत्म-अभिज्ञता द्वारा देखी गयी वही एक शाश्वतता होगी और उनके बीच कोई विरोध नहीं हो सकता । यह अनंत और शाश्वत सद्वस्तु की आत्म-अभिज्ञता की दो शक्तियों के बीच सह-संबंध होगा -एक स्थायित्व और अनभिव्यक्ति की शक्ति और एक प्रभावकारी क्रिया और गति की और अभिव्यक्ति की शक्ति । हमारी सांत सतही दृष्टि को उनकी युगपत्ता चाहे जितनी विरोधी और समन्वय के लिये कठिन क्यों न प्रतीत हो, माया या ब्रह्म के शाश्वत आत्मज्ञान और ईश्वर के सर्वज्ञान, अनंत और शाश्वत ज्ञान, और प्रज्ञा-शक्ति, स्वयंभू सच्चिदानंद की चित् शक्ति के लिये सहज और स्वाभाविक होगी ।

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