Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १०
चित्-शक्ति
ते..... अपश्यन्देवात्मशक्तिं स्वगुणैर्निगढाम् ।
उन्हाने भगवान् की आत्म-शक्ति को उसकी अपनी ही क्रिया के सचेतन प्रकारों द्वारा गहरे छिपा देखा ।
श्वेताश्वतरोपनिषद् १.३
य एष सुप्तेषु जागर्ति ।|।
यह वही है जो सोते हुओं में जागता है ।
कठोपनिषद् ५.८
समस्त दृश्य सत्ता का वियोजन शक्ति में, ऊर्जा की एक ऐसी गति में होता है जो अपनी अनुभूति के आगे आत्म-प्रस्तुति करने के लिये न्यूनाधिक रूप से जड़ भौतिक, न्यूनाधिक रूप से स्थूल या सूक्ष्म रूप धारण करती है । मानव विचार ने सत्ता के उद्गम और विधान को अपने लिये बोधगम्य और वास्तविक बनाने के लिये जिन प्राचीन रूपकों की रचना की थी उनमें, शक्ति की इस अनंत सत्ता को सागर के रूप में चित्रित किया गया है जो प्रारंभिक रूप में अचल अत: रूपों से मुक्त है परंतु प्रथम विक्षोभ, गति का प्रथम सूत्रपात रूपों की सृष्टि को जरूरी बना देता है और यही है विश्व का बीज ।
जड़ तत्त्व शक्ति की वह प्रस्तुति है जो हमारी बुद्धि के लिये सबसे अधिक आसानी से बोधगम्य है क्योंकि उसे जड़तत्त्व के ऐसे संपर्कों से ढाला गया है जिन्हें भौतिक मस्तिष्क में अंतर्लीन मन प्रत्युत्तर देता है । प्राचीन भातीय भौतिक वैज्ञानिकों की दृष्टि में भौतिक शक्ति की प्रारंभिक स्थिति देश में शुद्ध भौतिक विस्तार की अवस्था है जिसका अपना विशेष गुण-स्पंदन है जो हमारे आगे ध्वनि का आभास बनकर आता है । किंतु आकाश की इस अवस्था में स्पंदन रूप की रचना करने के लिये काफी नहीं है । पहले 'शक्ति'--सागर के प्रवाह में कोई रुकावट आये, सिकुड़ना और फैलना हो, स्पंदनों की आपस में क्रीड़ा हो, शक्ति का शक्ति से टकराव हो ताकि निश्चित संबंधों और पारस्परिक प्रभावों के आरंभ की सृष्टि हो सके । भौतिक शक्ति अपनी पहली आकाशीय स्थिति में फेर-फार करती हुई एक दूसरी अवस्था को अपनाती है जिसे प्राचीन भाषा में वायवीय कहते हैं, जिसका विशेष गुण है शक्ति और शक्ति के बीच संपर्क, ऐसा संपर्क जो सभी भौतिक संबंधों का आधार है । अभीतक हमें वास्तविक रूप नहीं मिल पाये हैं, केवल
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अलग-अलग शक्तियां ही मिली हैं । एक सहारा देनेवाले तत्त्व की जरूरत है । यह आदि शक्ति के तीसरे आत्म-परिवर्तन द्वारा आता है जिसकी विशेष अभिव्यक्ति हमारे लिये प्रकाश, विश्व अग्नि और ऊष्मा के तत्त्व में होती है । फिर भी हम शक्ति के ऐसे रूप तो पा सकते हैं जो अपने विशेष गुणों और विशेष क्रियाओं को बनाये रखते हो लेकिन जड़ भौतिक के स्थिर रूप नहीं । एक चौथी स्थिति है जिसका विशेष गुण है फैलाव और यह स्थायी आकर्षणों और विकर्षणों का प्रथम साधन है, इसका चित्रमय नाम है जल अथवा द्रव स्थिति और पांचवां है संसक्ति का तत्त्व जिसे कहते हैं पृथ्वी या ठोस स्थिति । ये मिलकर, आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति कर देते हैं ।
जड़ पदार्थ के वे सभी रूप जिनके बारे में हम जानते हैं, यहांतक कि सूक्ष्मतम रूप भी इन्हीं पांच तत्त्वों से मिलकर बने हैं । हमारी इन्द्रियों की अनुभूतियां भी इन्हीं पर निर्भर हैं । स्पंदनों के ग्रहण करने से ध्वनि का संवेदन होता है, शक्ति के स्पंदनों के जगत् में वस्तुओं के संपर्क से स्पर्श का संवेदन होता हैं । प्रकाश की क्रिया द्वारा प्रकाश, अग्नि और ताप की शक्ति द्वारा सेये गये, रूपेरखा प्रदान किये गये और संपोषित रूपों में दृष्टि का संवेदन, चौथे तत्त्व से स्वाद और पांचवें से गंध का संवेदन होता है । सब कुछ सार रूप में शक्ति और शक्ति के बीच स्पंदनात्मक संपर्को के प्रत्युत्तर हैं । इस प्रकार प्राचीन विचारकों ने शुद्ध शक्ति और उसके अंतिम परिवर्तनों के बीच की खाई को पाट दिया और उस कठिनाई को संतुष्ट किया जो साधारण मानव के मन को यह समझने से रोकती है कि ये सब रूप जो उसकी इन्द्रियों के लिये इतने वास्तविक, ठोस और स्थायी हैं, वास्तव में केवल अस्थायी प्रपंच कैसे हो सकते हैं और शुद्ध ऊर्जा के जैसी चीज जो इन्द्रियों के लिये अस्तित्वहीन, अगोचर और लगभग अविश्वसनीय है वह स्थायी वैश्व वास्तविकता कैसे हो सकती है ।
इस सिद्धांत द्वारा चेतना की समस्या का हल नहीं होता क्योंकि यह इस बात को स्पष्ट नहीं करता कि शक्ति के स्पंदनों का स्पर्श सचेतन संवेदनों को कैसे पैदा करता है । अत: सांख्यों अथवा विश्लेषक विचारकों ने इन पांच तत्त्वों के पीछे और दो तत्त्वों को मान लिया जिन्हें उन्होंने महत् और अहंकार का नाम दिया है । ये ऐसे तत्त्व हैं जो वास्तव में अभौतिक हैं क्योंकि पहला शक्ति का विराट् वैश्व तत्त्व होने के सिवा कुछ नहीं है और दूसरा है अहं की रचना का विभाजनशील तत्त्व । फिर भी ये दोनों तत्त्व और साथ ही बुद्धि-तत्त्व चेतना में स्वयं शक्ति के बल पर सक्रिय नहीं होते बल्कि एक निष्क्रिय सचेतन-आत्मा या आत्माओं के बल पर जिनमें उसकी क्रियाएं प्रतिबिंबित होती हैं और उस प्रतिबिंब द्वारा चेतना का रंग पकड़ लेती हैं ।
भारतीय दर्शन का एक मत चीजों की व्याख्या उक्त प्रकार से प्रस्तुत करता है, यह मत आधुनिक जड़वादी विचारों के अधिक-से-अधिक नजदीक है और यह
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प्रकृति में आसीन यांत्रिक या निश्चेतन शक्ति के विचार को उतनी दूरतक ले गया जितना भारतीय मानस के गभीर चिंतन के लिये संभव है । इसमें चाहे जो त्रुटियां हों, इसका मुख्य विचार इतना निर्विवाद था कि उसे व्यापक रूप से स्वीकार कर लिया गया । चेतना के व्यापार की चाहे जैसे व्याख्या की जाये, चाहे प्रकृति एक जड़ आवेग हो या सचेतन तत्त्व, वह निश्चित ही शक्ति तो है ही । ऊर्जाओं की रचनात्मक गतिविधि ही वस्तुओं का तत्त्व है । सभी रूप असंघटित शक्तियों के मिलने और परस्पर अनुकूलन से पैदा होते हैं । शक्ति के किसी रूप के अंदर की कोई चीज शक्ति के अन्य रूपों के संपर्क में आकर जो प्रत्युत्तर देती है वही समस्त संवेदन और क्रिया है । हम जगत् को ऐसा ही अनुभव करते हैं और हमें सदा इस अनुभव से ही आरंभ करना चाहिये ।
आधुनिक विज्ञान द्वारा जड़तत्त्व का भौतिक विश्लेषण भी इसी सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचता है, कुछ थोड़े से अंतिम संदेह भले बाकी हों । अंतर्भास और अनुभूति विज्ञान और दर्शन की इस सहमति का समर्थन करते हैं । शुद्ध बुद्धि इसमें अपनी सारभूत अवधारणाओं की संतुष्टि पाती है । अगर हम जगत् को सारतः चेतना की क्रिया मानें तो उसमें क्रिया तो आ ही गयी और साथ ही क्रिया में शक्ति की गति और ऊर्जा की क्रीड़ा भी आ जाती है । अगर हम अपने अंदर अपनी अनुभूति की परीक्षा करें तो यही जगत् का आधारभूत स्वरूप प्रमाणित होता है । हमारी सारी क्रियाएं प्राचीन दर्शनों में वर्णित त्रिविध शक्ति, ज्ञान-शक्ति, कामना-शक्ति और क्रिया-शक्ति का खेल हैं और वे एकमात्र आद्या शक्ति की ही वास्तव में तीन धाराएं सिद्ध होती हैं । यहांतक कि हमारी विश्राम की अवस्थाएं भी उस शक्ति की गति की क्रीड़ा की सम अवस्था या संतुलित अवस्था हैं ।
शक्ति की गति को विश्व की समग्र प्रकृति मान लेने पर दो प्रश्न उठते हैं । पहला यह कि सत् के वक्ष में यह गति आयी ही कैसे ? अगर हम यह मान लें कि यह गति केवल शाश्वत ही नहीं, बल्कि समस्त सत् का सार तत्त्व है तब यह प्रश्न नहीं उठता लेकिन हम इस मत को अस्वीकार कर चुके हैं । हमें ऐसे सत् का पता है जो इस गति से बाधित नहीं है । तब फिर यह गति जो सत् के शाश्वत विश्राम के लिये विजातीय है, उसमें आती ही कैसे है ? किस कारण, किस संभावना से, किस रहस्यमयी प्रेरणा से ?
प्राचीन भारतीय मानस ने जिस उत्तर को सबसे अधिक स्वीकार किया था वह यह है कि शक्ति सत् के अंदर अंतर्लीन है । शिव और काली, ब्रह्म और शक्ति एक हैं, दो नहीं जिन्हें अलग किया जा सके । सत् के अंदर अंतर्लीन शक्ति चाहे विश्राम में हो सकती हैं या गति में । लेकिन जब वह विश्राम में होती है तब भी वह उतनी ही उपस्थित रहती है, लुप्त या क्षीण या किसी भी रूप में तत्त्वतः
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परिवर्तित नहीं होती । यह उत्तर इतना अधिक तर्कसंगत और वस्तुओं के स्वभाव के अनुकूल है कि उसे स्वीकार करने में हमें सकुचाना न चाहिये । क्योंकि, तर्क-बुद्धि के विपरीत होने के कारण, यह मानना असंभव है कि शक्ति उस अनन्य और अनंत सत् के लिये कोई विजातीय चीज है और उसमें कहीं बाहर से आयी है या पहले उसका अस्तित्व न था और काल के किसी क्षण में वह सत्ता में उठ खड़ी हुई । यहांतक कि मायावाद को भी यह मानना पड़ेगा कि माया ब्रह्म की आत्म-संभ्रम की शक्ति, संभाव्य रूप में शाश्वत सत्ता के अंदर शाश्वत रूप से विद्यमान है । तब एकमात्र प्रश्न रह जाता है उसकी अभिव्यक्ति या अनभिव्यक्ति का । सांख्य भी प्रकृति और पुरुष के शाश्वत सह-अस्तित्व को और प्रकृति की दो अवस्थाओं को मानता है । ये अवस्थाएं बारी-बारी से आती हैं, एक विश्राम या संतुलन की अवस्था और दूसरी गति या संतुलन-भंग की अवस्था ।
लेकिन चूंकि शक्ति इस तरह सत् के अंदर अंतर्निहित है और उसका स्वभाव है गति या विश्राम की यह द्विविध या बारी-बारी से आने की संभाव्यता यानी शक्ति में अपने-आपको केंद्रित करने और शक्ति में अपने-आपको छितराने की संभाव्यता, अत: गति के कैसे का, उसके संभव होने का, उसे शुरू करने की प्रेरणा या प्रवर्तक कारण का प्रश्न ही नहीं उठता । क्योंकि तब हम आसानी से यह कल्पना कर सकते हैं कि इस संभाव्यता को अपने-आपको दो में से एक रूप में अनूदित करना होगा, या तो 'काल' में विश्राम और गति के बारी-बारी से आनेवाले छंद के रूप में या अक्षर सत् में 'शक्ति' के ऐसे शाश्वत आत्म-संहरण में जहां समुद्र की सतह पर उठती और गिरती लहरों की तरह गति, परिवर्तन और साथ-साथ रूपायन की सतही क्रीड़ा भी चलती हो । हम अपर्याप्त रूपकों में बोलने के लिये बाधित हैं, हो सकता है कि सतह पर होनेवाली यह क्रीड़ा और आत्म-संहरण समकालीन हों और स्वयं क्रीड़ा भी शाश्वत हो, यह भी हो सकता है कि उसका काल में आदि और अंत होता हो और एक तरह के सतत छंद द्वारा उसका पुनः आरंभ होता हो । तब यह सातत्य में नहीं, पुनरावृत्ति में शाश्वत होती है ।
इस तरह 'कैसे' की समस्या के निकल जाने पर 'क्यों' का प्रश्न उठता है । शक्ति की गति की क्रीड़ा की यह संभावना भला अपने-आपको अनूदित ही क्यों करे ? सत् की शक्ति हमेशा अपने अंदर ही शाश्वत रूप से केंद्रित, सब परिवर्तनों और रूपायनों से मुक्त, असीम क्यों न रहे ? अगर हम यह मान लें कि सत् अचेतन है और चेतना केवल भौतिक ऊर्जा का विकास मात्र है जिसे हम भूल से अभौतिक मान बैठते हैं, तो यह प्रश्न भी नहीं उठता । क्योंकि तब हम आसानी से कह सकते हैं कि यह छंद तो सत्ता की शक्ति का स्वभाव ही है और जो स्वभाव से, शाश्वत रूप से स्वयंभू हो उसके लिये क्यों, किस कारण, मूल प्रेरणा, अंतिम प्रयोजन ढूंढ़ना एकदम बेकार है । हम शाश्वत स्वयंभू से यह प्रश्न नहीं कर सकते
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कि उसका अस्तित्व क्यों है, वह कैसे अस्तित्व में आया । न हम सत्ता की आत्म-शक्ति से और न गति की ओर प्रेरित करनेवाले उसके अंतर्निहित स्वभाव से यह प्रश्न कर सकते हैं । हम केवल उसकी आत्माभिव्यक्ति की रीति, उसकी गति और रूपायन के सिद्धांतों तथा विकासक्रम की प्रक्रिया के बारे में जांच कर सकते हैं । जब सत्ता और शक्ति दोनों तामसिक हैं --तामसिक स्थिति और तामसिक प्रेरणा--दोनों अचेतन और अबौद्धिक हैं तो विकास-क्रम का कोई उद्देश्य या अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता और न कोई आदि कारण या प्रयोजन ही हो सकता है ।
लेकिन अगर हम सत् को सचेतन सत्ता मानें या पायें तो समस्या उठ खड़ी होती है । वस्तुतः हम एक ऐसी सचेतन सत्ता मान सकते हैं जो अपनी शक्ति के स्वभाव के आधीन है, उसके द्वारा बाधित है, जिसके आगे यह विकल्प नहीं है कि वह विश्व में अभिव्यक्त या अनभिव्यक्त रहे । तांत्रिकों और मायावादियों का विश्वेश्वर ऐसा ही है, वह शक्ति या माया के आधीन है, पुरुष माया में आवेष्टित है या शक्ति द्वारा नियंत्रित है । परंतु यह स्पष्ट है कि ऐसा भगवान् अनंत परम सत् नहीं है जिसे लेकर हम चले थे । यह मानना होगा कि यह शक्ति ब्रह्म द्वारा विश्व में उस ब्रह्म का ही केवल एक रूपायन है जो स्वयं युक्तिसंगत रूप से शक्ति या माया का पूर्ववर्ती है और जब वह अपना काम समाप्त कर लेती है तो वह उसे अपनी परात्पर अवस्था में वापिस ले लेता है । एक ऐसे सचेतन सत् में जो निरपेक्ष है, अपने रूपायनों से स्वतंत्र हैं, अपने कार्यों द्वारा निर्धार्रित नहीं है, हमें यह मानना होगा कि उसे अपनी गति की संभाव्यता को व्यक्त करने या न करने की एक अंतर्निहित स्वाधीनता होगी । प्रकृति द्वारा बाधित रहनेवाला ब्रह्म ब्रह्म नहीं है बल्कि एक जड़ अनंत है जिसमें एक सक्रिय तत्त्व समाया रहता है जो समानेवाले से बढ़कर सशक्त है, शक्ति का एक सचेतन धारक है जिसपर उसकी शक्ति का ही स्वामित्व रहता है । यदि हम कहें कि वह अपने ही शक्ति रूप से बाधित रहता है, अपनी ही प्रकृति से बाधित रहता है तो भी हम प्रत्याख्यान से पिंड नहीं छुड़ा पाते, अपनी प्रथम अभिधारणा से कतराते हैं । हम एक ऐसे सत् पर वापिस जा पहुंचते हैं जो वस्तुत: शक्ति के सिवा कुछ नहीं है, फिर वह शक्ति चाहे विश्राम की अवस्था में हो या गति की । वह निरपेक्ष शक्ति भले हो पर निरपेक्ष सत्ता नहीं है ।
तो शक्ति और चेतना के आपसी संबंध की जांच करना जरूरी है । लेकिन चेतना से हमारा मतलब क्या है ? साधारणतः हम मनुष्य के मन की उस जाग्रत् चेतना को चेतना कहते हैं जो उसके शारीरिक जीवन के मुख्य भाग में उस समय होती है जब वह सोया दुआ, मूर्च्छित या किसी और कारण से संवेदन के स्थूल और बाहरी साधनों से वंचित नहीं होता । यह स्पष्ट है कि भौतिक जगत् की व्यवस्था में इस अर्थ में चेतना एक नियम नहीं, अपवाद है । वह हमेशा हमारे
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अधिकार में नहीं रहती । लेकिन चेतना के स्वरूप के बारे में हमारे इस गंवारू और छिछले भाव को, यद्यपि इसका रंग अभीतक हमारे सामान्य विचारों और संस्कारों पर दिखलायी देता है, अब निश्चित रूप से दार्शनिक विचार से गायब हो जाना चाहिये । क्योंकि हम जानते हैं कि जब हम सोये हुए हों, स्तब्ध हों या स्वापक द्रव्यों के प्रभाव में हों या मूर्च्छा में हों यानी हमारी शारीरिक सत्ता की जितनी भी प्रत्यक्ष रूप में अचेतन अवस्थाएं हैं उन सभी में हमारे अंदर कोई चीज सचेतन होती है । इतना ही नहीं, हम इस बारे में भी निश्चित हो सकते हैं कि प्राचीन मनीषियों की यह घोषणा ठीक थी कि अपनी जाग्रत् अवस्था में भी, जिसे हम अपनी चेतना कहते हैं, वह हमारी समग्र सचेतन सत्ता का केवल एक छोटा-सा चयन होती है । यह एक ऊपरी सतह है । हमारी संपूर्ण मानसता भी नहीं । इसके पीछे, इससे कहीं अधिक विशाल एक अंतर्लीन या अवचेतन मन है जो हमारे 'स्व' का अधिक बड़ा भाग है और उसमें ऐसी ऊंचाइयां और गहराइयां हैं जिन्हें अभीतक किसी मनुष्य ने नहीं मापा हैं, उसकी थाह नहीं ली है । यह ज्ञान हमें शक्ति और उसकी क्रियाओं के सच्चे विज्ञान के लिये एक आरंभबिंदु देता है । वह हमें निश्चित रूप से भौतिक के परिसीमन और प्रत्यक्ष के भ्रम से मुक्त करता है ।
वस्तुत: जड़वाद यह आग्रह करता है कि चेतना का चाहे जितना विस्तार क्यों न हो वह एक भौतिक प्रपंच ही है जिसे इन्द्रियों से अलग नहीं किया जा सकता और चेतना इन्द्रियों का उपयोग करनेवाली न होकर उनका परिणाम है । फिर भी यह कट्टरपंथी मान्यता बढ़ते हुए ज्ञान के ज्वार के आगे नहीं टिक सकती । उसकी व्याख्याएं अधिकाधिक अपर्याप्त और अस्वाभाविक होती जा रही हैं । यह बात सदा स्पष्ट से स्पष्टतर होती जा रही है कि हमारी समग्र चेतना की क्षमता हमारे अंगों, हमारी इन्द्रियों, स्नायुओं, मस्तिष्क की क्षमता से बहुत अधिक बढ़कर है, इतना ही नहीं, हमारे सामान्य विचार और चेतना के लिये भी ये अंग केवल अभ्यासगत यंत्र हैं उनके पैदा करनेवाले नहीं । चेतना मस्तिष्क का उपयोग करती ह, उसके ऊर्ध्वमुखी प्रयासों ने ही मस्तिष्क को पैदा किया है । मस्तिष्क ने न तो चेतना को पैदा किया है न वह उसका उपयोग करता है । ऐसे असामान्य दृष्टांत भी हैं जो यह प्रमाणित करते हैं कि हमारे अंग एकदम अनिवार्य उपकरण नहीं हैं, --कि हृदय की धड़कनें जीवन के लिये एकदम अनिवार्य नहीं हैं उसी तरह जैसे श्वासोच्छूवास अनिवार्य नहीं है और न संगठित मस्तिष्क-कोष विचार के लिये अनिवार्य है । जिस तरह इंजन का निर्माण बिजली या भाप की चालक शक्ति का कारण या उसकी व्याख्या नहीं हो सकता उसी तरह हमारे शारीरिक अवयव विचार और चेतना के कारण नहीं हों सकते, न उसकी व्याख्या कर सकते हैं । शक्ति पूर्ववर्ती है, भौतिक यंत्र नहीं ।
इसके पीछे-पीछे अनेक महत्त्वपूर्ण तर्कसंगत परिणाम आते हैं । पहले स्थान पर
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हम यह पूछ सकते हैं कि जहां हम निर्जीवता और जड़ता देखते हैं वहां भी मानसिक चेतना का अस्तित्व रहता है तो क्या यह संभव नहीं है कि जड़ पदार्थों में भी एक वैश्व अवचेतन मन उपस्थित हो, भले वह अवयवों के अभाव में उसकी सतह पर कोई क्रिया या उसकी सतह के साथ कोई संपर्क स्थापित न कर सके । क्या जड़ अवस्था चेतना की रिक्तता है या क्या वह चेतना की निद्रामात्र नहीं है--चाहे क्रमविकास की दृष्टि से वह मध्यवर्ती नहीं, आदि निद्रा हों । और मानव दृष्टांत हमें बतलाता है कि निद्रा से हमारा मतलब चेतना का स्थगित होना नहीं बल्कि बाहरी चीजों के आघात से सचेतन भौतिक प्रत्युत्तर से विमुख होकर उसका भीतर की ओर एकत्र होना है । तो क्या वह सारी सत्ता ऐसी ही नहीं है जिसने अभीतक बाहरी भौतिक जगत् के साथ बाहरी संचार के साधन विकसित नहीं किये हैं ? क्या वहां एक 'सचेतन-अंतरात्मा', एक 'पुरुष' नहीं है जो हमेशा जागता रहता है, उन सबमें भी जो सोये रहते हैं ।
हम आगे जा सकते हैं । जब हम अवचेतन मन की बात करते हैं तो इस शब्द से हमारा मतलब किसी ऐसी चीज से होना चाहिये जो बाहरी मानसिकता से भिन्न नहीं है, बस वह सतह के नीचे, जो जाग्रत् मनुष्य के लिये अज्ञात है, क्रिया करती है, शायद उसी अर्थ में वह ज्यादा गहराई और ज्यादा विस्तार में जाती है । लेकिन अंतर्लीन आत्मा के व्यापार किसी भी ऐसी परिभाषा की सीमा से बहुत आगे निकल जाते हैं । उसमें ऐसी क्रिया भी आ जाती है जो क्षमता के हिसाब से न केवल बहुत अधिक श्रेष्ठ है बल्कि हम जिसे जाग्रत् अवस्था में अपनी मानसिकता कहते हैं उससे बहुत भिन्न भी है । अतः हमें यह मानने का अधिकार है कि हमारे अंदर अवचेतना के साथ-ही-साथ एक अतिचेतना है, चेतन क्षमताओं का एक सोपान है और इस कारण चेतना का एक ऐसा संगठन है जो उस मनोवैज्ञानिक स्तर से बहुत ऊंचा उठता है जिसे हम मानसिकता का नाम देते हैं । और चूंकि हमारे अंदर की अंतर्लीन सत्ता मन से ऊपर अतिचेतन में उठती है तो क्या वह मानसिकता के नीचे अवचेतना में भी डुबकी न लगाती होगी ? क्या हमारे अंदर और जगत् में चेतना के ऐसे रूप नहीं हैं जो अवमानसिक हैं, जिन्हें हम प्राणिक और भौतिक चेतना का नाम दे सकते हैं । अगर ऐसा है तो हमें यह मानना चाहिये कि वनस्पति और धातु में भी एक शक्ति है जिसे हम चेतना का नाम दे सकते हैं यद्यपि वह मनुष्य या पशु की मानसिकता नहीं है जिसके लिये हमने अभीतक चेतना की यह परिभाषा सुरक्षित रख छोड़ी हैं ।
यह केवल संभाव्य ही नहीं है बल्कि, अगर हम चीजों को निष्पक्ष रूप से देखें तो, निश्चित है । हमारे अंदर इस प्रकार की प्राणिक चेतना है जो शरीर के कोषाणुओं में और स्वचालित प्राणिक क्रियाओं में काम करती है जिसके कारण हम उद्देश्यपूर्ण गतियों में से गुजरते हैं और उन आकर्षणों-विकर्षणों के अधीन होते हैं
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जो हमारे मन के लिये अजनबी होते हैं । पशुओं में यह प्राणिक चेतना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण चीज होती है । वनस्पतियों में यह अंतर्भासात्मक रूप में स्पष्ट होती है । वनस्पति की ललक और सिकुड़न, उसके सुख-दुःख, उसकी नींद और जागती हुई अवस्था और वह विचित्र जीवन जिसकी सचाई को एक भारतीय वैज्ञानिक कठोर वैज्ञानिक पद्धति से प्रकाश में लाया है, ये सब चेतना की गतिविधियां हैं, परंतु जहांतक हम देख सकते हैं, मन की गतियां नहीं हैं । तो फिर एक अव-मानसिक, एक प्राणिक चेतना है जिसकी मौलिक प्रतिक्रियाएं ठीक वैसी हैं जैसी मन की होती हैं परंतु वह आत्मानुभूति के संघटन में भिन्न होती हैं जैसे जो अतिचेतन है वह स्वानुभूति के संधटन में मानसिक सत्ता से भिन्न है ।
क्या उस चीज का सोपान जिसे हम चेतना कह सकते हैं वनस्पति के साथ ही समाप्त हो जाता है, उसके साथ जिसमें हम अव-पाशविक जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं ? अगर ऐसा है तो हमें यह मानना पड़ेगा कि जीवन और चेतना की शक्ति जड़ तत्त्व से मूलतः विजातीय है फिर भी उसने जड़ तत्त्व में प्रवेश करके उसपर कब्जा कर लिया है --हो सकता है कि वह किसी और लोक से आयी हो ।१ क्योंकि अन्यथा वह और कहां से आ सकती है ? प्राचीन विचारक ऐसे अन्य लोकों के अस्तित्व में विश्वास करते थे जो शायद हमारे जगत् में प्राण और चेतना का पोषण करते हैं या अपने दबाव से उन्हें अभिव्यक्त भी करते हैं, किंतु अपने प्रवेश द्वारा उनकी रचना नहीं करते । जड़ तत्त्व से ऐसी कोई चीज प्रकट नहीं की जा सकती जो पहले से ही उसमें समायी हुई न हो ।
लेकिन यह मानने का कोई कारण नहीं है कि प्राण और चेतना का सप्तक वहीं जाकर समाप्त या परिसीमित हों जाता है जो हमें शुद्ध रूप से भौतिक मालूम होता है । आधुनिक शोध-कार्य और आधुनिक विचार का विकास इधर इशारा करता मालूम होता है कि धातुओं में और धरती में और अन्य 'अचेतन' रूपों में एक प्रकार के अस्पष्ट जीवन का आरंभ और शायद एक प्रकार की निष्क्रिय और दबी हुई चेतना है अथवा जो चीज हममें आकर चेतना का रूप लेती है उसका कम-से-कम प्रथम उपादान उनमें हो सकता है । जब कि वनस्पति में हम उस चीज को धुंधले रूप में पहचान सकते या उसकी कल्पना कर सकते हैं जिसे मैं प्राणिक चेतना कहता हूं तो जड़ पदार्थ की या निर्जीव चीज की चेतना को समझना और उसकी कल्पना करना हमारे लिये निश्चिय ही कठिन है और हम अपना अधिकार समझते हैं कि हमारे लिये जिस चीज को समझना या जिसकी कल्पना करना कठिन हो उसे
१आजकल एक विचित्र-सी कल्पना फैली हुई है कि धरती पर प्राण किसी अन्य लोक से नहीं, किसी अन्य ग्रह से आया है । विचारक के लिये इसका कोई अर्थ नेही होता । मूल प्रश्न यह है कि जड़ तत्त्व में प्राण आता ही कैसे है, यह नहीं कि वह किसी ग्रह-विशेष के जड़ तत्त्व में कैसे प्रविष्ट होता है ।
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नकार दें । फिर भी जब हम इतनी गहराइयों तक चेतना का अनुसरण करते आये हैं तो यह विश्वास करना मुश्किल है कि प्रकृति में अचानक इतनी बड़ी खाई आ जाये । विचार को यह अधिकार है कि वह ऐसी अवस्था में वहां एकता को मान ले जहां प्रपंच की सभी श्रेणियां उस एकता को स्वीकार करती हों और केवल एक श्रेणी ऐसी हों जो उसे नकारती तो नहीं, पर उसमें यह औरोंसे अधिक छिपी हुई हो । और अगर हम यह मानें कि यह एकता अविच्छिन्न है तो हम इस बात पर आ पहुंचते हैं कि जगत् में काम करनेवाली शक्ति के जितने भी रूप हैं उन सबमें चेतना का अस्तित्व है । चाहे सभी रूपों में सचेतन या अतिचेतन पुरुष का निवास न भी हो फिर भी उन रूपों में सत्ता की सचेतन शक्ति विद्यमान रहती है जिसमें उनके बाहरी अंग भी प्रत्यक्ष या निष्क्रिय रूप में भाग लेते हैं ।
लेकिन इस दृष्टि में निश्चय ही चेतना शब्द का अर्थ ही बदल जाता है । वह मानसिकता का पर्याय नहीं रह जाता । वह सत्ता की आत्म-अभिज्ञ (चित्) शक्ति का द्योतक है जिसका मध्यपर्व है मन । मन के नीचे वह प्राणिक और भौतिक गतियों में डूब जाता है जो हमारे लिये अवचेतन हैं । ऊपर की ओर वह अतिमानस में उठता है जो हमारे लिये अतिचेतन है । परंतु सबमें यह एक और समान चीज है जो अपने-आपको अलग-अलग तरह से संगठित करती है । यह फिर, भारत की 'चित्' की अवधारणा है जो ऊर्जा के रूप में जगतों का निर्माण करती है । सारतः हम उसी एकत्व पर आ पहुंचते हैं जिसे भौतिक विज्ञान दूसरे छोर से देखकर यह दावा करता है कि मन जड़ तत्त्व के सिवा कोई और शक्ति नहीं हो सकता, उसे भौतिक ऊर्जा का विकास और परिणाम होना चाहिये । दूसरी ओर अपनी अधिक-से-अधिक गहराई में भारतीय विचार यह प्रतिपादित करता है कि मन और जड़ तत्त्व एक ही ऊर्जा की भिन्न-भिन्न श्रेणियां हैं, सत् की एक ही सचेतन शक्ति के भिन्न-भिन्न संगठन हैं ।
लेकिन हमें यह मान लेने का क्या अधिकार है कि चेतना शब्द इस शक्ति का ठीक-ठीक वर्णन करता है । क्योंकि चेतना में, एक प्रकार की बुद्धि, प्रयोजन, आत्मज्ञान समाविष्ट है चाहे वे ऐसे रूप में न हों जिनका हमारा मन अभ्यस्त है । इस दृष्टिकोण से भी हर चीज वैश्व चित्-शक्ति के विचार का विरोध न करके समर्थन ही करती है । उदाहरण के लिये हम पशु में पूर्ण प्रयोजनशीलता की और यथार्थ और वस्तुतः वैज्ञानिक सूक्ष्म ज्ञान की क्रियाएं देखते हैं जो पशु के मन की क्षमताओं के एकदम परे हैं और जिन्हें स्वयं मनुष्य भी लंबे अनुशीलन और शिक्षण के बाद पा सकता है और फिर भी अपेक्षाकृत बहुत कम निश्चित शीघ्रता के साथ उनका प्रयोग कर सकता है । इस सामान्य तथ्य में इस बात का प्रमाण हमें देखने को मिलता है कि पशु और कीट में एक ऐसी चित् शक्ति काम करती है जो धरती पर किसी भी रूप में अभिव्यक्त उच्चतम मन की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान्,
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प्रयोजनशील, और अपने अभिप्रायों, लक्ष्यों, साधनों और अवस्थाओं से अधिक परिचित है । और अचेतन प्रकृति की क्रियाओं में भी हम एक परम प्रच्छन्न बुद्धि की, अपनी ही क्रियाओं में छिपी बुद्धि की - 'स्वगुणैर्निगूढाम्' --उसी व्यापक विशिष्टता को पाते हैं ।
इस प्रयोजनशील कार्य के लिये, इस बुद्धिमत्ता, चयन, अनुकूलन और अन्वेषण के कार्य के लिये किसी सचेतन और प्रज्ञावान् उत्स को मानने के विरुद्ध जो एक ही युक्ति है वह है प्रकृति के कार्य में पाया जानेवाला वह बड़ा तत्त्व जिसे हम अपव्यय कहते हैं । लेकिन स्पष्ट है कि यह एक ऐसी आपत्ति है जो हमारी मानव बुद्धि की सीमाओं पर आधारित है जो वैश्व शक्ति की व्यापक क्रियाओं पर अपनी विशेष तर्कणा को लादना चाहती है, जो मानव के सीमित उद्देश्यों के लिये काफी अच्छी हो सकती है । हम प्रकृति के प्रयोजन का केवल एक भाग ही देखते हैं और जो कुछ उस भाग में उपयोगी नहीं होता उसे हम अपव्यय कहते हैं । फिर भी स्वयं हमारा मानव कार्य ऊपर से दीखनेवाले अपव्यय से भरा होता है, व्यक्तिगत दृष्टि से तो ऐसा ही लगता है, फिर भी, हमें विश्वास रखना चाहिये कि वह वस्तुओं के महान् वैश्व प्रयोजन में काफी अच्छी तरह सहायक होता है । प्रकृति के इरादे के उस भाग को जिसे हम पकड़ पाते हैं, प्रकृति अपने प्रतीयमान अपव्यय के बावजूद या शायद उसीके बल पर निश्चित रूप से पूरा कर लेती है । तो बाकी में भी जिसे अभी हम पकड़ नहीं पाते उसपर भरोसा कर सकते हैं ।
बाकी के लिये, पशु वनस्पति और निर्जीव वस्तुओं में विश्व-शक्ति की क्रियाओं के लक्षणों में निश्चित प्रयोजन का जो वेग है, उसकी प्रतीयमान अंध प्रवृत्ति में जो निर्देशन है, अभिप्रेत लक्ष्य पर तुरंत या अंततः पहुंचने की जो निश्चित क्रिया है, उसकी उपेक्षा करना असंभव है । जबतक वैज्ञानिक मन के लिये जड़-तत्त्व ही अथ और इति था तबतक बुद्धि को बुद्धि की जन्मदात्री मानने से झिझक एक ईमानदार झिझक थी । लेकिन आज यह प्रतिपादित करना एक घिसा पिटा विरोधाभास होगा कि मानव चेतना, बुद्धि और प्रभुता एक ऐसी बुद्धिहीन और अंधता से परिचालित निश्चेतना से प्रकट हुई हैं जिसमें पहले उनके किसी रूप या तत्त्व का अस्तित्व नहीं था । मनुष्य की चेतना प्रकृति की चेतना के एक रूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं हों सकती । वह मन के नीचे अन्य अंतर्लीन रूपों में है, वह मन में उभरती है और मन से परे श्रेष्ठतर रूपों में चढ़ेगी, क्योंकि जो शक्ति जगतों का निर्माण करती है वह सचेतन शक्ति है, जो सत् अपने-आपको उनमें अभिव्यक्त करता है वह सचेतन पुरुष है । उसका रूपों के इस जगत् की अभिव्यक्ति का एकमात्र उद्देश्य जो हम युक्तियुक्त रूप से सोच सकते हैं वह है उसकी संभाव्यताओं का रूपों में पूर्ण आविर्भाव ।
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