Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १३
चित्-शक्ति का ऐकान्तिक केन्द्रण और अज्ञान
ऋतं च सत्यं चाभीदधात् तपसोऽध्याजायत । ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णवः ।। तप की प्रज्वलित अग्नि से सत्य और ऋत् की उत्पत्ति हुई, उससे रात्रि की उत्पत्ति हुई और रात्रि से सत्ता के बहते समुद्र की । ऋग्वेद १०. १९०. १
ऋतं च सत्यं चाभीदधात् तपसोऽध्याजायत ।
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णवः ।।
तप की प्रज्वलित अग्नि से सत्य और ऋत् की उत्पत्ति हुई, उससे
रात्रि की उत्पत्ति हुई और रात्रि से सत्ता के बहते समुद्र की ।
ऋग्वेद १०. १९०. १
चूंकि ब्रह्म अपनी वैश्व सत्ता के सारतत्त्व में एक भी है और बहु भी जो एक दूसरे से और एक दूसरे में अभिज्ञ है और चूंकि अपनी वास्तविकता में वह 'एक' तथा 'बहु' के परे और दोनों को समाये रहता है और दोनों के बारे में अभिज्ञ है इसलिये अज्ञान केवल अधीनस्थ व्यापार के रूप में चेतना की किसी एकाग्रता के द्वारा ही आ सकता है जो ज्ञान के एक भाग में या सत्ता की क्रिया के एक भाग में निमग्न हो और बाकी को अपनी अभिज्ञता से अलग करती हो । इसमें बहु का वर्जन करके 'एक' का स्वयं अपने अंदर केन्द्रण हो सकता है या 'बहु' का 'एक' की सर्व-अभिज्ञता को छोड़कर अपनी-अपनी क्रिया में केन्द्रण हो सकता है या फिर व्यक्तिगत सत्ता का स्वयं अपने अंदर केन्द्रण हो सकता है जिसमें 'एक' और शेष 'बहु' का वर्जन हो, वे 'बहु' उसके लिये पृथक् इकाइयां होते हैं जो उसकी प्रत्यक्ष अभिज्ञता में नहीं आते । या फिर कहीं ऐकान्तिक केन्द्रण का कोई सामान्य नियम हो सकता है या वह किसी हदतक हस्तक्षेप कर सकता है जो इन तीनों दिशाओं में सक्रिय हो, पृथक्कारी सक्रिय चेतना का पृथक्कारी गति में केन्द्रण हो । लेकिन यह सच्ची आत्मा या पुरुष में नहीं, बल्कि प्रकृति में, सक्रिय सत्ता की शक्ति में होता है ।
हम इस परिकल्पना को औरों से श्रेष्ठ मानकर अपनाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई भी ऐसी नहीं है जो अपने-आपमें खड़ी रह सके या जिसका जीवन के सभी तथ्यों के साथ मेल बैठ सके । संपूर्ण ब्रह्म अपनी संपूर्णता में अज्ञान का स्रोत नहीं हो सकता क्योंकि उसकी सपूर्णता स्वभाव से ही सर्व-चेतना है । वह 'एक' अपनी संपूर्ण चेतन-सत्ता में अपने अंदर से 'बहु' को अलग नहीं कर सकता क्योंकि तब 'बहु' का अस्तित्व ही न रह जायेगा । अधिक-से-अधिक वह अपनी चेतना में कहीं विश्व-लीला से पीछे हटकर खड़ा हो सकता है ताकि व्यष्टि-सत्ता में भी वैसी ही गति हो सके । 'बहु' संपूर्णता में या 'बहु' की प्रत्येक आत्मा में 'एक' के बारे में या दूसरों के बारे में वास्तव में अज्ञ नहीं हो सकता क्योंकि 'बहु' से हमारा मतलब है
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वही एक दिव्य आत्मा जो सबमें है, वह व्यष्टिभावापन्न भले हो फिर भी चेतन-सत्ता में सबके साथ विश्वत्व में एक और आदि तथा परात्पर सत् के साथ भी एक है । अतः अज्ञान आत्मा की चेतना का स्वाभाविक लक्षण नहीं है, व्यष्टिगत आत्मा की चेतना भी नहीं । जब कार्यकारिणी चित्-शक्ति अपने कार्य में तल्लीन होती है और अपने-आपको तथा प्रकृति की समग्र वास्तविकता को भूल जाती हैं उस समय उसकी किसी विशिष्टकारी क्रिया का परिणाम ही अज्ञान है । यह क्रिया समस्त सत्ता या सत्ता की समस्त शक्ति की नहीं हो सकती -क्योंकि उस पूर्णता का धर्म है समग्र चेतना, आंशिक चेतना नहीं -उसे एक बाहरी या आंशिक गति होना चाहिये जो चेतना और ऊर्जा की एक ऊपरी या आंशिक क्रिया में तल्लीन हो, जो अपने रूपायन में एकाग्र हो और उस सबको भूले हुए हो जो इस रूपायन में प्रत्यक्ष रूप से समाविष्ट नहीं हो या उसमें प्रकट रूप से सक्रिय न हो । अज्ञान है प्रकृति का किसी उद्देश्य के साथ आत्मा और सर्व को भूल जाना, उन्हें एक तरफ छोड़कर, अपने पीछे रख देना ताकि वह ऐकान्तिक भाव से वह कर सके जो उसे सत्ता की किसी बाहरी लीला में करना हैं ।
सत्ता की अनंतता में और उसकी अनंत अभिज्ञता में चेतना का संकेन्द्रण, तपस् हमेशा चित्-शक्ति की अंतर्निहित सामर्थ्य के रूप में विद्यमान रहता है । यह शाश्वत अभिज्ञता का अपने-आपमें और अपने-आपपर या अपने विषय पर आत्म- निगृहीत या आत्म-संगृहीत अनवरत चिन्तन है । लेकिन विषय हमेशा किसी-न- किसी तरह वह स्वयं होता है, उसकी अपनी सत्ता या उसकी सत्ता की कोई अभिव्यक्ति और गति होता है । यह संकेन्द्रण सारभूत हो सकता है, यहांतक कि वह अपनी ही सत्ता के सार में ऐकान्तिक अंतर्निवास या पूर्ण लीनता, एक ज्योतिर्मय या फिर अपने-आपको भूल जानेवाली आत्मनिमग्रता हो सकता है । या फिर वह संकेन्द्रण सर्वांगीण या समग्रत: बहुरूप या आंशिक रूप से बहुरूप हो सकता है या फिर वह अपनी सत्ता या गति के किसी एक क्षेत्र पर कोई एकाकी पृथक्कारी दृष्टि, किसी एक केन्द्र में एकाग्र संकेन्द्रण या आत्म सत्ता के किसी एक बाहर की ओर व्यक्त रूप में तल्लीनता हो सकता है । पहला सारगत संकेन्द्रण है एक ओर अतिचेतन नीरवता और दूसरे छोर पर निश्चेतना और दूसरा संपूर्ण संकेन्द्रण है सच्चिदानन्द की संपूर्ण चेतना, अतिमानसिक एकाग्रता । तीसरा, बहुविध, अधिमानस की समग्र या सार्वभौम अभिज्ञता की पद्धति है और चौथा पृथक्कारी, अज्ञान का विशिष्ट स्वभाव है । निरपेक्ष की परम पूर्णता अपनी चेतना की इन सभी अवस्थाओं या शक्तियों को एक अविभाज्य सत्ता के रूप में जोड़े रखती है जो युगपत् आत्म-दृष्टि से अभिव्यक्ति में सबको आत्मवत् देखती है ।
तब कहा जा सकता है कि अपने अंदर या विषय के रूप में अपने ऊपर, आत्ममृत निवास के अर्थ में संकेन्द्रण सचेतन सत्ता का स्वभाव ही है । क्योंकि
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यद्यपि चेतना का अनन्त विस्तार और अनन्त प्रसार है पर वह है आत्ममृत और आत्म-पूर्ण विस्तार तथा आत्मधृत और आत्म-पूर्ण फैलाव ही । चाहे उसकी ऊर्जाओं का फैलाव दिखलायी देता हो, वह वास्तव में वितरण का एक रूप ही है और वह ऊपरी क्षेत्र में केवल इसी कारण संभव हैं कि उसे अपने-आपको धारण किये हुए अंतर्भूत संकेन्द्रण का सहारा होता है । किसी एक विषय या वस्तु या सत्ता के क्षेत्र या गति में या उनपर ऐकान्तिक संकेन्द्रण आत्मा की अभिज्ञता का निषेध या उससे विचलन नहीं है, वह तपस् की शक्ति के आत्म-संग्रहण का एक रूप है । लेकिन जब संकेन्द्रण ऐकान्तिक होता है तो वह अपने पीछे बाकी आत्मज्ञान को रोके रखता है । वह सारे समय बाकी के बारे में अभिज्ञ हो सकता है फिर भी क्रिया ऐसे करता है मानों वह उसके बारे में अभिज्ञ नहीं है । यह अज्ञान की स्थिति या क्रिया नहीं है । लेकिन अगर चेतना संकेन्द्रण द्वारा ऐकान्तिकता की दीवार खड़ी कर ले और अपने-आपको एक ही क्षेत्र, प्रदेश या गति में निवासतक सीमित कर दे, जिसके फलस्वरूप उसे केवल उसीकी अभिज्ञता रहती है या बाकी सबके बारे में इस रूप में अभिज्ञता रहती है कि वह स्वयं उसके बाहर है, तब हमें आत्म-सीमाकारी ज्ञान का ऐसा तत्त्व मिलता है जिसका परिणाम भेदात्मक ज्ञान हो सकता है, जिसकी अंतिम परिणति निश्चित और प्रभावकारी अज्ञान में हो सकती है ।
इसका अर्थ क्या है, क्रिया में क्या परिणाम होगा, इसकी झांकी हमें मानसिक मनुष्य में, स्वयं हमारी अपनी चेतना में होनेवाले ऐकान्तिक संकेन्द्रण के स्वरूप को देखने से मिल सकती है । सबसे पहले हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि मनुष्य से साधारणत: हमारा मतलब उसकी आंतरिक आत्मा न होकर केवल भूत, वर्तमान और भविष्य में चेतना तथा ऊर्जा के निरंतर प्रवाह के प्रतीयमान योगफल से होता है जिसे हम यह नाम देते हैं । यहीं प्रतीयमान रूप से मनुष्य के अंदर सब काम करता हैं, उसके सारे विचारों को सोचता और सारे भावों का अनुभव करता है । यह ऊर्जा अंतर्मुखी और बहिर्मुखी क्रियाओं के किसी कालिक प्रवाह पर केन्द्रित चित्-शक्ति की एक गति है । लेकिन हम जानते हैं कि ऊर्जा की इस धारा के पीछे चेतना का एक पूरा सागर है जो इस धारा के बारे में अभिज्ञ है लेकिन धारा उसके बारे में अनभिज्ञ है । क्योंकि सतही ऊर्जा का यह योग बाकी सबमें से, जो अदृश्य है, एक चुनाव, एक परिणाम है । वह सागर है अंतस्तलीय आत्मा, अतिचेतन, अवचेतन, अंतश्चेतन और परिचेतन सत्ता और इस सबको एक साथ धारण किये हुए है अंतरात्मा, चैत्य सत्ता । धारा है स्वाभाविक बाहरी मनुष्य । इस बाहरी मनुष्य में सत्ता की सक्रिय चेतना-शक्ति, तपस्, बाहरी क्रियाओं के विशेष पुंज में सतही स्तर पर केन्द्रित है । उसने अपना बाकी सारा भाग पीछे रख दिया है और हो सकता है कि वह अपनी चेतन-सत्ता के अरूपायित पिछले भाग में इसके बारे में अस्पष्ट रूप से अभिज्ञ हो, लेकिन वह सामने की इस ऊपरी तल्लीन गति
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में उसके बारे में अभिज्ञ न हो, वह अज्ञ के तात्त्विक अर्थ में अपने बारे में, कम- से-कम अपने उस पृष्ठ भाग या गहराई में तो ठीक अर्थों में अज्ञ नहीं होता लेकिन अपनी बाहरी गति के प्रयोजनों के लिये और केवल उस गति में ही, वह बाहरी रूप से जो कुछ कर रहा है उसमें तल्लीन और ऐकान्तिक रूप से केन्द्रित होने के कारण, वह अपनी सच्ची महत्तर आत्मा के प्रति विस्मरणशील है । फिर भी वास्तव में ऊपरी धारा नहीं बल्कि छिपा हुआ सागर सारी क्रिया कर रहा है, वह सागर ही इस गति का उत्स है न कि वह सचेतन तरंग जो समुद्र से उठती है । चाहे उस तरंग की चेतना अपनी गति में लीन रहते हुए, उसमें निवास करते हुए उसके अतिरिक्त और किसीको न देखते हुए इस विषय में कुछ क्यों न सोचे । और वह सागर, वह सच्ची आत्मा, पूर्ण सचेतन सत्ता, सत्ता की संपूर्ण शक्ति, तत्त्वतः अज्ञ नहीं है; यहांतक कि तरंग भी तत्त्वतः अज्ञ नहीं है -क्योंकि उसके अंदर वह समस्त चेतना समायी हुई है जिसे वह भूल गयी है और जिसके बिना वह न तो क्रिया कर सकती और न ही सहन कर पाती -लेकिन वह अपनी गति में आत्म-विस्मरणशील, आत्मलीन है, इतनी अधिक लीन कि जब वह उसमें लगी हो तो उसका ध्यान उस गति के अतिरिक्त और किसी चीज में नहीं जाता । इस ऐकान्तिक संकेन्द्रण का स्वरूप एक सीमित, व्यावहारिक आत्म-विस्मृति है न कि तात्त्विक और बाध्यकारी आत्म-अज्ञान; फिर भी यह उस संकेन्द्रण का मूल है जो अज्ञान की तरह क्रिया करता है ।
इसी तरह हम देखते हैं कि मनुष्य, जो यद्यपि काल में सचेतन ऊर्जा, तपसू की अविभाज्य धारा है, अपनी भूतकालीन क्रिया-शक्ति की राशि से ही वर्तमान में कार्य करने में समर्थ है, अपने भूत और वर्तमान कर्म द्वारा ही भविष्य की सृष्टि कर चुकता है, फिर भी वर्तमान क्षण में तल्लीन रहता है, एक-एक क्षण में जीता है इसलिये अपनी चेतना के बाहरी कार्य में अपने भविष्य के बारे में अज्ञ और भूत के बारे में भी, उस छोटे से भाग को छोड़कर जिसे वह किसी भी क्षण मति द्वारा वापिस ला सकता है, बाकी के बारे में वह अज्ञ रहता है । फिर भी वह भूतकाल में निवास नहीं करता । वह इस तरह जिसे वापिस ले आता है वह स्वयं भूत नहीं उसका प्रेत होता है, एक ऐसी वास्तवता की धारणात्मक छाया है जो अब उसके लिये मर चुकी है, असत् और अस्तित्वहीन है । लेकिन यह सब बाहरी अज्ञान की क्रिया है । भीतर की सच्ची चेतना अपने भूत के बारे में अनभिज्ञ नहीं होती । वह उसे लिये रहती है, यह जरूरी नहीं है कि वह स्मृति में हो, वह सत्ता में होता है, अब भी सक्रिय, जीवित, अपने परिणामों के साथ तैयार होता है और समय-समय पर वह भीतरी चेतना उसे स्मृति में या अधिक ठोस रूप में पिछले कर्म या पिछले कारणों के परिणामस्वरूप बाहरी सचेतन सत्ता में भेजती रहती है । हम जिसे कर्म कहते हैं उसका सच्चा मूलाधार यही है । वह भविष्य के बारे में भी अभिज्ञ होती या हो सकती है क्योंकि आंतरिक सत्ता में कहीं पर ज्ञान का ऐसा क्षेत्र है जो भावी
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ज्ञान के लिये खुला रहता है, जिसे भूतविषयक और भविष्यविषयक काल-बोध, काल-दर्शन, काल-प्रत्यक्षण है । उसमें कोई चीज तीनों कालों में अविभाज्य रूप से रहती है और उनके प्रतीयमान विभाजनों को अपने अंदर समाये रखती है और भविष्य को अपने अंदर अभिव्यक्त होने के लिये तैयार रखती है । तो यहां वर्तमान में ही रहने की इस आदत में हमारे अंदर एक दूसरी तल्लीनता, एक दूसरा ऐकांतिक संकेन्द्रण रहता है जो सत्ता को और भी ज्यादा सीमित तथा जटिल बनाता है । लेकिन वह कर्म की प्रतीयमान धारा को काल के समस्त अंनत प्रवाह के साथ नहीं बल्कि क्षणों के निश्चित अनुक्रम से संबद्ध करके सरल बना देता है ।
अतः इस बाह्य चेतना में मनुष्य अपने आगे क्रियात्मक, व्यावहारिक रूप से वर्तमान क्षण का मनुष्य है भूतकाल का मनुष्य नहीं जो एक समय था पर जिसका अब अस्तित्व नहीं और न भविष्य का मनुष्य है जो अभीतक अस्तित्व में नहीं आया है । स्मृति द्वारा वह एक के साथ नाता जोड़ता है और पूर्वानुमान द्वारा दूसरे के साथ । तीनों कालों में एक निरंतर अहंभाव चलता रहता है परंतु यह एक केन्द्रित करनेवाली मानसिक रचना है कोई तात्त्विक या विस्तीर्ण सत्ता नहीं जिसमें वह सब समाया हुआ है जो था, है और होगा । आत्मा का अंतर्भास इसके पीछे है लेकिन वह आधारभूत एकात्मता है जिसपर उसके व्यक्तित्व के परिवर्तनों का कोई असर नहीं होता । अपनी सत्ता के बाह्य रूपायण में वह वैसा नहीं है बल्कि वैसा है जैसा वह उस क्षण होता है, फिर भी सारे समय यह क्षण- क्षण का जीवन उसकी सत्ता का वास्तविक या पूर्ण सत्य न होकर केवल उसके जीवन की बाहरी गतिविधि के प्रयोजन के लिये, और उसीकी सीमा में एक उपयोगी और व्यावहारिक सत्य है । वह सत्य है, अवास्तविकता नहीं लेकिन है अपने भावात्मक अंश में ही सत्य, अपने अभावात्मक अंशों में वह अज्ञान है और यह निषेधात्मक अज्ञान व्यावहारिक सत्य को भी सीमित और प्रायः विकृत करता है जिससे मनुष्य का सचेतन जीवन अपने वास्तविक सत्य के अनुसार नहीं, जिसे वह भूला हुआ है, बल्कि अज्ञान, आंशिक, अर्द्ध-सत्य और अर्द्ध-मिथ्या ज्ञान के अनुसार चलता है । चूंकि उसकी वास्तविक आत्मा ही सचमुच निर्धारक है और पीछे से गुप्त रूप में सब कुछ का शासन करती है अतः अंततः पीछे रहनेवाला ज्ञान ही सचमुच उसकी सत्ता के रूपायित मार्ग का निश्चय करता है । बाह्य अज्ञान एक आवश्यक सीमा लगानेवाली रूप-रेखा बनाता और उन तत्त्वों की आपूर्ति करता है जिनके द्वारा उसकी चेतना और उसकी क्रियाशीलता को उसके वर्तमान मानव जीवन और उसके वर्तमान मानव क्षण के लिये जरूरी बाहरी रंग और मोड़ दिये जाते हैं । उसी तरह और उसी कारण मनुष्य अपने वर्तमान अस्तित्व के नाम और चोले के साथ पूरी तरह एक हो जाता है, वह अपने जन्म से पहले के भूतकाल और मृत्यु के बाद के भविष्य के बारे में अज्ञ रहता है । यद्यपि वह जो कुछ भूलता है वह सब उसके अंतर की सब कुछ संचित
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रखनेवाली पूर्ण चेतना में वर्तमान और प्रभावी रूप सें समाया रहता है ।
बाहरी स्तर पर ऐकान्तिक संकेन्द्रण का छोटा-सा व्यावहारिक उपयोग है और अपने अस्थायी स्वरूप के बावजूद वह हमें एक संकेत दे सकता है । बाहरी स्तर पर क्षण- क्षण में जीनेवाला मनुष्य अपने वर्तमान जीवन में मानों अनेक भूमिकाओं में अभिनय करता है और जब वह किसी एक भूमिका में व्यस्त होता है तो वह उसमें ऐकांतिक संकेन्द्रण करने, उसीमें रम जाने में सक्षम होता है जिससे वह अपने बाकी सब कुछ को भूल जाता है, उस समय के लिये उसे अपने पीछे डाल देता है और उस हदतक अपने-आपको भूला रहता है । उस क्षण के लिये मनुष्य अभिनेता, कवि, सैनिक होता है या ऐसा कुछ होता है जैसा उसे उसकी सत्ता की शक्ति, उसके तपसू उसके भूतकाल की सचेतन ऊर्जा की किसी विशेष या लाक्षणिक क्रिया और उससे विकसित होनेवाले कर्म ने उसे गाढ़ा और रूपायित किया है । केवल इतना ही नहीं कि उसमें अपने-आपको किसी विशेष समय के लिये अपने-आपके किसी अंग में इस ऐकान्तिक संकेन्द्रण मे डालने की क्षमता होती हैं बल्कि बड़ी हदतक कर्म में उसकी सफलता इसपर निर्भर होती है कि वह कितनी पूर्णता के साथ अपने-आपको अपने बाकी भाग से इस तरह अलग कर सकता है और अपने उस समय के काम में निवास कर सकता है । फिर भी सारे समय हम देख सकते हैं कि वास्तव में संपूर्ण मनुष्य ही कर्म कर रहा होता है केवल उसका यह विशेष भाग नहीं । वह जो कुछ करता है, जैसे करता है, वह उसमें जिन तत्त्वों को लाता है, अपने काम पर कैसी छाप देता है यह निर्भर है उसके पूर्ण चरित्र, मन, सूचना और प्रतिभा पर, इसपर कि उसके भूतकाल ने उसे क्या बनाया है -और केवल उसके इस जीवन के भूत ने नहीं बल्कि और जीवनों के भी भूत ने और फिर केवल उसका भूत नहीं बल्कि स्वयं उसके और उसके चारों तरफ के जगत् के भूत, वर्तमान और पूर्व-निर्धारितत भविष्य उसके कर्म के निर्धारक हैं । उसके अंदर वर्तमान अभिनेता, कवि या सैनिक उसके तपसू के केवल पृथक्कारी निर्धारण हैं । यह उसकी सत्ता की शक्ति है जो उसकी ऊर्जा के एक विशेष प्रकार के कर्म के लिये व्यवस्थित की गयी है । यह तपस् की एक पृथक्कारी गति है जो उस क्रिया-विशेष में अपने-आपको इस हदतक रमा सकती है कि अपने बाकी सबको अस्थायी तौर पर भूल जाये, चाहे वह बाकी भाग सारे समय चेतना के पीछे और स्वयं कार्य में भी बना रहे और कार्य को रूप देने में सक्रिय हो या अपना प्रभाव डालता हो और अपने-आपको क्रिया-विशेष में रमा सकने और बाकी सबको भूलने की यह क्षमता दुर्बलता या कमी नहीं है बल्कि चेतना की एक बड़ी शक्ति है । मनुष्य का अपने कार्य और अपनी भूमिका में यह सक्रिय आत्म-विस्मरण उस दूसरे अधिक गहरे आत्म-विस्मरण से इस दिशा में अलग होता है कि इसमें पृथक्ता की दीवार कम दृश्य रूप में पूर्ण होती और वह
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टिकाऊ रूप से बिलकुल भी पूर्ण नहीं होती । मन अपनी संकेन्द्रता विघटित करके किसी भी समय अपने कार्य से पीछे हटकर वृहत्तर आत्मा की चेतना में लौट सकता है, जिसकी वह एक आंशिक क्रिया ही था । बाहरी या आभासी मनुष्य इसी तरह से अपनी इच्छा से अपने भीतर के वास्तविक मनुष्य की ओर वापिस नहीं जा सकता । ऐसा वह केवल अपनी मानसता की अपवादिक स्थिति में असामान्य या अधिसामान्य रूप में कुछ हदतक ही कर सकता है या लंबे और कठोर आत्म- प्रशिक्षण, आत्म-निमज्जन, आत्म-उन्नयन और आत्म-विस्तार के परिणामस्वरूप अधिक स्थायी और पूर्ण रूप से कर सकता है । फिर भी वह वापिस लौट सकता है इसलिये यह भेद केवल आभासी है, तात्त्विक नहीं । सारतः दोनों स्थितियों में वह ऐकान्तिक संकेन्द्रण की, अपने किसी विशेष पहलू में, कर्म में या शक्ति की गति में तल्लीन होने की वही गति है यद्यपि है यह भिन्न परिस्थितियों में और भिन्न क्रिया-विधि से ।
ऐकान्तिक संकेन्द्रण की यह शक्ति अपनी वृहत्तर आत्मा के विशेष लक्षण या प्रकार में तल्लीन होनेतक सीमित नहीं रहती बल्कि हम जिस क्षण जिस कर्म में विशेष रूप से लगे हुए हैं उसमें पूरी तरह अपने-आपको भूल जानेतक फैली हुई है । प्रबल तीव्रता के समय अभिनेता भूल जाता है कि वह अभिनेता है और वही बन जाता है जिसकी भूमिका का वह रंगमंच पर अभिनय कर रहा है । ऐसी बात नहीं है कि वह सचमुच अपने-आपको राम या रावण मान बैठता है बल्कि वह उस समय के लिये चरित्र और कर्म के उस रूप के साथ एकात्म हो जाता है जिसका प्रतीक वह नाम है और इतनी पूर्णता के साथ एकात्म हो जाता है कि उस वास्तविक मनुष्य को ही भूल जाता है जो अभिनय कर रहा है । इसी तरह कवि अपने काम में अपने-आपको, अपने मनुष्य कार्यकर्ता को भूल जाता है और उस क्षण के लिये वह केवल अंतःप्रेरित, निर्वैयक्तिक ऊर्जा बन जाता है जो अपने- आपको शब्द और छन्द की रचना में क्रियान्वित कर रही है । वह बाकी सबको भूल जाता है । सैनिक अपने-आपको अपने कार्य में भूल जाता है और आक्रमण, क्रोधोन्माद और हत्या बन जाता है । इसी तरह जो मनुष्य तीव्र क्रोध से अभिभूत हो अपने-आपको भूल जाता है और जैसा कि साधारणत: कहा जाता है, या जैसा कि और भी अधिक ठीक रूप में और बलपूर्वक कहा गया है, वह स्वयं क्रोध बन जाता है । ये परिभाषाएं एक ऐसे वास्तविक सत्य को अभिव्यक्त करती हैं जो उस समय के मनुष्य की सत्ता का पूर्ण सत्य तो नहीं होता लेकिन उसकी क्रियाशील सचेतन ऊर्जा का व्यावहारिक तथ्य होता है । वह अपने-आपको भूल जाता है । वह अन्य आवेगों, आत्म-संयम और आत्म-निर्देशन की अन्य सभी शक्तियों के साथ अपने सारे अवशिष्ट को भी भूल जाता है ताकि वह केवल उस आवेश की ऊर्जा के रूप में कार्य करे जो उसे पूरी तरह अपने अधिकार में किये हुए हो, उस समय
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के लिये, वह वही ऊर्जा बन जाता है । सामान्य सक्रिय मानव मनोवृत्ति में आत्म- विस्मरण बस यहींतक जा सकता हैं क्योंकि उसे शीघ्र ही उस विशालतर आत्म-अभिज्ञ चेतना की ओर लौटना होता है जिसकी आत्म-विस्मृति एक अस्थायी गति मात्र है ।
लेकिन विशालतर वैश्व चेतना में इस गति को उसके चरम बिंदुतक, कोई सापेक्ष गति जहांतक पहुंच सकती है उसके दूरतम छोरतक पहुंचने के लिये कोई शक्ति होनी चाहिये । उस बिंदुतक मानव अचेतना में नहीं -जो स्थायी नहीं होती और हमेशा लौटकर उस जाग्रत् सचेतन सत्ता की ओर संकेत करती है, जैसा कि मनुष्य स्वभावत: और साधारणत: होता है -बल्कि जड़ भौतिक प्रकृति की निश्चेतना मे पहुंचा जा सकता है । यह निश्चेतना हमारी उस अस्थायी सत्ता के ऐकान्तिक संकेन्द्रण के अज्ञान से अधिक वास्तविक नहीं है जो मनुष्य की जाग्रत् चेतना को सीमित करती है । क्योंकि जैसे हमारे अंदर उसी तरह परमाणु में, धातु में, वनस्पति में, भौतिक प्रकृति के प्रत्येक रूप में, भौतिक प्रकृति की प्रत्येक ऊर्जा में, हम जानते हैं कि एक गुप्त अंतरात्मा, एक गुप्त इच्छा-शक्ति, एक गुप्त प्रज्ञा कार्यरत है जा मूक, आत्म-विस्मारक रूप से भिन्न है, जो उपनिषदों का वह ''चेतन'' है जो निश्चेतन वस्तुओं में भी सचेतन है - 'चेतनसस्वेच्तनानाम्' -जिसकी उपस्थिति और अनुप्राणित करनेवाली चित्-शक्ति या तपस् के बिना प्रकृति का कोई भी कार्य संभव न होता । वहां जो निश्चेतन है वह प्रकृति ही है, ऊर्जा की आकारगत गतिशील क्रिया जो अपनी क्रिया में इस हदतक तल्लीन, उसके साध इस हदतक एकात्म है कि वह एक तरह की समाधि में या एकाग्रता की मूर्च्छा में बंधी हुई है और जबतक उस रूप की कारा में बंद रहती है अपनी वास्तविक आत्मा, अपनी समग्र सचेतन सत्ता और सचेतन सत्ता की समग्र शक्ति की ओर लौटने में असमर्थ है जिसे उसने पीछे रख दिया है, जिसके बारे में वह केवल क्रियाशीलता और ऊर्जा की आनन्दमय समाधि में पूरी तरह विस्मरणशील है । प्रकृति, कार्यकारिणी शक्ति सचेतन सत् पूरुष के बारे में अनभिज्ञ हो जाती है, उसको अपने अंदर छिपाये रहती है और फिर निश्चेतना की इस मूर्च्छा में से केवल चेतना के आविर्भाव के साथ-साथ धीरे- धीरे अभिज्ञ होती है । पुरुष वस्तुत: अपना प्रतीयमान रूप धारण करने के लिये राजी हो जाता है जिसे प्रकृति उसके लिये बनाती है । वह निश्चेतन, भौतिक सत्ता, प्राणिक सत्ता, मानसिक सत्ता होता हुआ मालूम होता है लेकिन फिर भी इन सबमें वह वास्तव में अपना स्वरूप बना रहता है । गुप्त सचेतन सत्ता का प्रकाश निश्चेतन की या प्रकृति की आविर्भूत होती हुई सचेतन ऊर्जा की क्रिया को सहारा देता और अनुप्राणित करता है ।
निश्चेतना जाग्रत् मानव मन के अज्ञान या उसके सोये हुए मन के निश्चेतन या अवचेतन की तरह बाहरी तल की चीज है और उसके अंदर सर्व-चेतन विराजमान है । यह पूरी तरह प्रतिभासिक है परंतु है पूर्ण प्रतिभास । वह इतनी पूर्ण है कि
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केवल कार्य करने की इस निश्चेतन पद्धति से कम बंदी बने हुए दूसरे रूपों में आविर्भूत होनेवाली विकसनशील चेतना की प्रेरणा द्वारा ही अपना रूप फिर से पा सकती है, पशु में आंशिक अभिज्ञता का पुनरुद्धार कर सकती है, बाद में मनुष्य में उसकी उच्चतम अवस्थाओं में एक सच्ची क्रिया के प्रथम, अधिक संपूर्ण लेकिन फिर भी बाहरी सूत्रपात की ओर जाने की कुछ संभावना फिर से पा सकतीं है । फिर भी, जैसा कि बाहरी और वास्तविक मनुष्य में होता है, जहां ऐसी ही यद्यपि कम अयोग्यता है, भेद केवल प्रतिभासिक है । तत्त्वतः, वस्तुओं की वैश्व व्यवस्था में भौतिक प्रकृति की निश्चेतना वही ऐकान्तिक एकाग्रता, कर्म और ऊर्जा में वही तल्लीनता है जैसी जाग्रत् मानव मन के आत्म-परिसीमन में होती है या जैसी अपने कार्य में अपने-आपको भूल जानेवाले मन की एकाग्रता में होती है । उस आत्म- परिसीमन को आत्म-विस्मरण के अतिंम छोरतक पहुंचा दिया जाये तो वह एक अस्थायी क्रिया नहीं बल्कि उसकी क्रिया का विधान बन जाता है । प्रकृति में अविद्या संपूर्ण रूप से आत्म-अज्ञान है । मनुष्य का आंशिक ज्ञान और व्यापक अज्ञान आंशिक आत्म-अज्ञान है जो उसके विकसनशील क्रम में आत्मज्ञान की ओर लौटने का सूचक है । लेकिन दोनों ही, और परीक्षा करके देखा जाये तो समस्त अज्ञान, तपसू का, सत्ता की सचेतन ऊर्जा का अपनी गति की किसी दिशा विशेष या विभाग में बाहरी रूप से ऐकान्तिक आत्म-विस्मरणशील संकेन्द्रण है । वह केवल उसी के बारे में अभिज्ञ है या ऐसा लगता है कि बस वही सतह पर है । उस गतिविधि की सीमाओं के भीतर ही अज्ञान प्रभावकारी है और उसीके प्रयोजनों के लिये मान्य है फिर भी है प्रतिभासिक, एकांगी और सतही, वह तत्त्वतः वास्तविक या समग्र नहीं है । हमें 'वास्तविक' शब्द का उपयोग उसके पूर्ण निरपेक्ष अर्थ में नहीं बल्कि आवश्यक रूप से सीमित अर्थ में करना होता है क्योंकि अज्ञान काफी वास्तविक है पर हमारा सत्ता का पूर्ण सत्य नहीं है और उसे अपने-आपमें देखा जाये तो उसका सत्य हमारी बाहरी अभिज्ञता के आगे गलत तरीके से प्रस्तुत किया जाता है । अपने सच्चे सत्य में वह अंतर्निहित चेतना और ज्ञान है जो अपने असली रूप की ओर विकसित हो रहा है लेकिन वह निश्चेतना और अज्ञान के रूप में क्रियाशील रूप से प्रभावकारी है ।
चूंकि अज्ञान का मूल स्वभाव यही है कि वह एक वास्तविक रूप में नहीं, बल्कि प्रतिभासी रूप में विभाजनकारी, सीमित और पृथक् करनेवाली सचेतन ऊर्जा का व्यावहारिक सत्य है जो ऊर्जा अपने कार्य में इतनी तल्लीन है कि ऊपर से ऐसा लगता है कि वह अपनी समग्र और वास्तविक आत्मा के बारे में पूर्णत: विस्मरणशील है, तो अब हम इस गति के बारे में उठनेवाले क्यों, कहा और कैसे के उत्तर दे सकते हैं । अज्ञान का कारण, उसकी आवश्यकता काफी स्पष्ट हो जाती है अगर हम एक बार देख लें कि उसके बिना हमारे जगत् की अभिव्यक्ति का
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उद्देश्य असंभव होगा, या तो वह हो ही न पाता या पूरी तरह न होता या उस तरह न होता जैसे होना चाहिये या जैसे है । बहुमुखी अज्ञान के हर पार्श्व का कुछ औचित्य है जो एक सामान्य, व्यापक आवश्यकता का केवल एक भाग है। अपनी कालातीत सत्ता में रहते हुए मनुष्य अपने-आपको काल की धारा में प्रतिक्षण उसके प्रवाह की अधीनता की गति के साथ इस तरह न फेंक सकता जो उसके वर्तमान जीवन का स्वरूप है । अपनी अतिचेतन या अंतस्तलीय आत्मा में रहते हुए अपनी वैयक्तिक मानसता की गांठ में से उन सबंधों को कार्यान्वित न कर पाता जिन्हें उसे अपने चारों ओर के जगत् के साथ उलझाना और सुलझाना पड़ता है या फिर एक मूलतः भिन्न तरीके से करना पड़ता । अहैकारमय, पृथक्कारी चेतना में नहीं, वैश्व आत्मा में रहते हुए अपने-आपको एकमात्र या प्रारंभिक केन्द्र और निर्देश-बिंदु मानकर वह उस पृथक् क्रिया, व्यक्तित्व, दृष्टि-बिंदु को विकसित न कर पाता जो अहंभाव की जागतिक क्रियाओं का योगदान है । उसे कालिक, मनोवैज्ञानिक, अहंकारमय अज्ञान को धारण करना पड़ता है ताकि अपने-आपको अनन्त के प्रकाश और वैश्व की विशालता से बचा सके ताकि इस मोर्चाबंदी के पीछे से विश्व में अपने कालिक व्यक्तित्व को विकसित कर सके । उसे यूं रहना पड़ता है मानों बस एक यही जीवन है और अपने अनन्त भूत और भावी के अज्ञान को धारण करना पड़ता है अन्यथा, अगर उसके लिये अतीत उपस्थित होता तो वह अपने वातावरण के साथ वर्तमान चुने हुए संबंधों को अभीष्ट तरीके से कार्यान्वित न कर पाता । उसका ज्ञान उसके लिये बहुत अधिक हो जाता और अनिवार्य रूप से उसके कार्य के समस्त भाव, संतुलन और रूप को बदल देता । उसे अपने शारीरिक जीवन में रमें हुए मन में निवास करना है, अतिमानस के अंदर नहीं । अन्यथा सीमा बनानेवाली, विभाजन और विभेद करनेवाली मन की शक्ति की बनायी हुई अज्ञान की रक्षक दीवारें या तो बनती ही नहीं या इतनी पतली और पारदर्शक होतीं कि मनुष्य का प्रयोजन सिद्ध न हो पाता ।
वह प्रयोजन जिसके लिये यह सारी ऐकान्तिक एकाग्रता, जिसे हम अज्ञान कहते हैं, जरूरी है, वह है आत्म-विस्मरण और आत्मानुसंधान का चक्र पूरा करना जिसके आनंद के लिये गुप्त पुरुष प्रकृति में अज्ञान का रूप धारण करता है । इसका यह मतलब नहीं है कि समस्त वैश्व अभिव्यक्ति इसके बिना असंभव हो जाती, लेकिन हम जिस अभिव्यक्ति में निवास करते हैं, वह उससे एकदम भिन्न होती । वह केवल दिव्य अस्तित्व के उच्चतर जगतों तक ही सीमित होती या फिर अविकसनशील प्ररूपी जगत् तक ही सीमित होती जहां प्रत्येक सत्ता अपनी प्रकृति के विधान के संपूर्ण प्रकाश में रहती और यह प्रतिपक्षी अभिव्यक्ति, यह विकसनशील चक्र असंभव होता । यहां पर जो लक्ष्य है वह तब सतत अवस्था होता, यहां जो एक चरण है वह अस्तित्व का एक स्थायी किया हुआ प्ररूप होता ।
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सच्चिदानंद अपनी सत्ता और अपनी प्रकृति के प्रतीयमान विरोधों में अपने-आपको पाने के लिये नीचे जड़ भौतिक अविद्या में उतरता और उसके आभासी अज्ञान को ऊपरी छद्मवेश के रूप में धारण करता है जिसमें वह अपने-आपको अपनी सचेतन ऊर्जा से छिपाता है और उसे अपने कार्यों और रूपों में तल्लीन तथा आत्म-विस्मृत छोड़ देता है । धीरे- धीरे जागते हुए जीव को इन्हीं रूपों में अज्ञान की आभासी क्रिया को स्वीकार करना होता है जो सचमुच आद्य अविद्या में से उत्तरोत्तर जागता हुआ ज्ञान है । इन क्रियाओं द्वारा निर्मित नयी अवस्थाओं में उसे फिर से अपने- आपको खोजना होगा और उस जीवन को जो इस भांति अपने निश्चेतन में अवतरण के उद्देश्य को पूरा करने की कोशिश में है, उसे इस प्रकाश द्वारा दिव्य रूप में रूपांतरित करना है । इस वैश्व चक्र का उद्देश्य यह नहीं है कि वह जितनी तेजी से हो सके, उन स्वर्गों की ओर लौट जाये जहां पूर्ण प्रकाश और आनंद शाश्वत हैं या अतिवैश्व आनंद में जा पहुंचे । और न ही इसका उद्देश्य है अज्ञान के लंबे असंतोषजनक खांचे में एक प्रयोजनहीन चक्कर लगाये जाना, उसमें ज्ञान की सतत खोज करना और उसे पूरी तरह न पाना -उस अवस्था में अज्ञान सर्वचेतन की एक ऐसी भूल होगा जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती या फिर दुःखद उद्देश्यहीन और समान रूप से अव्याख्येय आवश्यकता । इसका उद्देश्य हैं अतिवैश्व से भिन्न अवस्थाओं मे, वैश्व सत्ता में आत्मा के आनंद को अनुभव करना और मूर्त रूप में जड़ सत्ता की अवस्था द्वारा प्रस्तुत विरोधों में भी आनंद और प्रकाश के स्वर्ग को पाना; अत: आत्मानुसंधान की ओर परिश्रम करना मानव शरीर में अंतरात्मा के जन्म का और अपने चक्रावर्तनों के क्रम में मानव जाति के श्रम का सच्चा लक्ष्य मालूम होता है । अज्ञान एक आवश्यकता है, यद्यपि है बहुत ही गौण, जिसे वैश्व ज्ञान ने अपने ऊपर आरोपित कर लिया है ताकि वह गति संभव हो सके जो बड़ी भूल या पतन नहीं बल्कि प्रयोजन सहित अवतरण है, कोई अभिशाप नहीं, दिव्य अवसर है । सर्व-आनंद को पाना और उसे उसकी बहुविधता के तीव्र सार में मूर्त करना, ऐसे अनंत सत् की संभावना को प्राप्त करना जिसे अन्य अवस्थाओं में नहीं पाया जा सकता, जड़ पदार्थ में से भगवान् के मंदिर का निर्माण करना ही वह काम मालूम होता है जो जड़ भौतिक विश्व में जन्मी आत्मा को सौंपा गया है ।
हम जिस अज्ञान को देखते हैं वह गुप्त अंतरात्मा में नहीं बल्कि प्रकट प्रकृति में है । वह उस समस्त प्रकृति की चीज भी नहीं है क्योंकि प्रकृति सर्व-चेतन की क्रिया है । वह प्रकाश और शक्ति की आद्य सर्वांगीणता में से होनेवाले किसी विकास में से उठता है । वह विकास किस जगह होता है, सत्ता के किस तत्त्व में वह अपना अवसर और आरंभ-बिंदु पाता है ? निश्चय ही अनंत सत्ता, अनंत चेतना और अनंत आनंद में नहीं जो सत्ता के परम लोक हैं और जिनसे शेष सब कुछ उत्पन्न होता है या इस तमसाच्छन्न अस्पष्ट अभिव्यक्ति में उतरता है । वहां इसका कोई स्थान नहीं
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हो सकता । अतिमानस में भी नहीं क्योंकि अतिमानस में अत्यंत सांत क्रिया में भी अनंत प्रकाश और शक्ति हमेशा उपस्थित रहती है और ऐक्य की चेतना विभिन्नता की चेतना का आलिंगन करती है । केवल मन के स्तर पर वास्तविक आत्म-चैतन्य को पीछे रखना संभव होता है । क्योंकि मन सचेतन सत्ता की वह शक्ति है जो भेद करती और एकत्व भाव को अपनी क्रियाओं का विशिष्ट धर्म, उनका उपादान मानने की जगह, उसे अपने पीछे रखती हुई, विविधता के भाव को प्रधान और विशिष्ट धर्म बनाती हुई भेद करनेवाली रेखाओं के साथ चलती है । अगर किसी संयोगवश एकता का यह सहारा देनेवाला भाव पीछे खींचा जा सके -मन उसपर स्वयं अपने अधिकार से कब्जा नहीं किये हुए है बल्कि इसलिये कि अतिमानस उसके पीछे है -क्योंकि वह अतिमानस के प्रकाश को प्रतिबिंबित करता है, वह स्वयं उससे उत्पन्न हुआ है और इसकी गौण शक्ति है -अगर मन और अतिमानस के बीच एक परदा गिरे जो सत्य की ज्योति को आने ही न दे या केवल छितरी हुई और बिखरी हुई किरणों के रूप में आने दे जिनमें वह ज्योति प्रतिबिंबित तो हो लेकिन विकृत और विभक्त होकर, तो अज्ञान का प्रपंच हस्तक्षेप करेगा । ऐसे परदे का अस्तित्व है, उपनिषद् का कहना है कि यह स्वयं मन की क्रिया से बना है । अधिमानस में यह एक सोने का ढक्कन (हिरण्यमय पात्र) है जो अतिमानसिक सत्य के चेहरे को ढके रहता है परंतु उसे प्रतिबिंबित करता है । मन में वह अधिक अपारदर्शक, धूमिल-प्रकाशमय ढक्कन बन जाता है । यह क्रिया मन की नीचे की ओर विभिन्नता पर तल्लीन दृष्टि है जो उसकी विशिष्ट गति है और उस परम ऐक्य से दूर है जिसे वह विभिन्नता तबतक अभिव्यक्त करती है जबतक कि वह उस ऐक्य को याद करना और उससे सहारा लेना एकदम भूल ही न जाये । तब भी वह ऐक्य उसे सहारा देता और उसकी क्रियाओं को संभव बनाता है, परंतु तल्लीन ऊर्जा अपने मूल और वृहत्तर, वास्तविक आत्मा से अनभिज्ञ रहती है । चूंकि मन रचनात्मक ऊर्जा की क्रियाओं में तल्लीन रहने के कारण उसे भूल जाता है जिससे वह उत्पन्न हुआ है अतः वह उस ऊर्जा के साथ इतना अधिक तदात्म हो जाता है कि उसे अपने ऊपर भी अधिकार नहीं रहता । वह ऐसी क्रिया की समाधि में इतना अधिक विस्मरणशील हो जाता है कि उसे बह अपनी निद्राचारी क्रिया में सहारा तो देता है पर उसे उसकी अभिज्ञता नहीं होती । यह चेतना के अवतरण की अंतिम भूमिका, चेतना की एक अगाध निद्रा, एक अथाह समाधि है जो जड़ भौतिक प्रकृति की क्रिया की गहरी नींव है ।
फिर भी यह याद रखना चाहिये कि जब हम चित्-शक्ति की आंशिक गति की बात करते हैं जो अपनी क्रिया के सीमित क्षेत्र में रूपों और क्रियाओं में तल्लीन है तो इसका अर्थ उसकी समग्रता का कोई वास्तविक विभाजन नहीं होता । अपने शेष भाग को पीछे रखने का यही प्रभाव होता है कि वह गतिविधि के सीमित क्षेत्र में
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शेष भाग को बाहर करके बंद तो नहीं करता परंतु उसे तात्कालिक सामने की ऊर्जा के लिये गुह्य बना देता है । वस्तुत: संपूर्ण शक्ति उपस्थित रहती है यद्यपि निश्चेतना उस पर पर्दा डाले रहती है और यहीं संपूर्ण शक्ति संपूर्ण आत्म-सत्ता की सहायता से अपनी सामने की ऊर्जा द्वारा सब कार्य करती और उस गतिविधि द्वारा निर्मित सभी रूपों में निवास करती है । यह भी ध्यान रखना चाहिये कि अज्ञान के पर्दे को हटाने के लिये हमारे अंदर सत्ता की सचेतन शक्ति अपनी ऐकान्तिक संकेन्द्रण की शक्ति की उल्टी क्रिया का उपयोग करती है । वह व्यष्टिगत चेतना में प्रकृति की सामने की गतिविधि को शांत कर देती है और छिपी हुई आंतरिक सत्ता पर, आत्मा या सच्ची आंतरिक चैत्य या मनोमय या प्राणमय सत्ता पर, पुरुष पर उसे प्रकट करने के लिये ऐकान्तिक रूप से केन्द्रित होती है । लेकिन ऐसा कर चुकने पर उसे इस विरोधी ऐकान्तिकता में रहने की आवश्यकता नहीं होती । वह फिर से अपनी समग्र चेतना को या सार्वभौम चेतना को अपना सकती है जिसके अंदर पुरुष की सत्ता और प्रकृति की क्रिया दोनों का समावेश है, अंतरात्मा और उसके यंत्रों का, आत्मा और उसकी आत्म- शक्ति का समावेश है । तब वह पूर्व-सीमाओं से मुक्त, प्रकृति की अंतर्निवासी आत्मा की विस्मृति के परिणामों से मुक्त महत्तर चेतना के साथ अपनी अभिव्यक्ति का आलिंगन कर सकती है । या वह अपनी अभिव्यक्त की हुई सारी क्रियाओं को स्थिर- शांत करके आत्मा और प्रकृति के एक उच्चतर स्तर पर केन्द्रित होकर सत्ता को वहां तक उठा और ज्यादा ऊंचे स्तर की शक्तियों को पिछली अभिव्यक्ति का रूपांतर करने के लिये नीचे उतार सकती है । वह सब जिसका रूपांतर किया जा चुका है वह अब भी समाविष्ट होगा पर एक नूतन और महत्तर आत्म-सृजन में, उच्चतर गतिकता और उसके उच्चतर मूल्यों के एक भाग के रूप में । यह तब हो सकता है जब हमारी सत्ता में चित्-शक्ति अपने विकास को मानसिक स्तर से उठाकर अतिमानसिक स्तरतक उठाने का निश्चय करे । हर मामले में तपसू ही प्रभावकारी होता है परंतु वह, जो कुछ करना है उसके अनुरूप, पूर्वनिश्चित प्रक्रिया, गतिकता और अनंत के आत्म-विस्तार के अनुसार भिन्न-भिन्न रीतियों से कार्य करता है ।
लेकिन फिर भी, अगर अज्ञान का यही क्रिया-विन्यास है तो यह पूछा जा सकता है कि क्या अब भी यह बात एक रहस्य नहीं है कि सर्व-सचेतन, चाहे अपनी सचेतन ऊर्जा की एक बहुत ही आंशिक क्रिया में ही सही, इस ऊपरी अज्ञान और निश्चेतक कैसे आ पहुंचता है । अगर ऐसा है भी तो इस रहस्य की ठीक-ठीक क्रिया को, उसकी प्रकृति, उसकी सीमाओं को निश्चित करना सार्थक होगा ताकि हम उससे भयभीत तथा विस्मित होकर उसके वास्तविक प्रयोजन और उसके दिये अवसर से भटक न जायें । लेकिन रहस्य विभाजक बुद्धि की कल्पना है जो चूंकि दो धारणाओं के बीच तर्क-सम्मत विरोध पाती है या निर्मित कर लेती है इसलिये सोचती है कि इन दो अवलोकित तथ्यों के बीच वास्तविक विरोध है और उनमें
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सह-अस्तित्व या ऐक्य असंभव है । जैसा कि हम देख आये हैं यह अज्ञान सचमुच अपने-आपको सीमित करने के लिये, हाथ में लिये हुए काम पर अपने-आपको केन्द्रित करने के लिये ज्ञान की एक शक्ति है, व्यवहार में एक ऐकान्तिक संकेन्द्रण है जो पीछे स्थित समग्र सचेतन सत्ता के पूर्ण अस्तित्व और क्रिया को रोकता नहीं है बल्कि प्रकृति पर अपने-आप आरोपित और चुनी हुई अवस्थाओं में कार्य करता है । समस्त सचेतन आत्म-सीमांकन कोई दुर्बलता नहीं, विशेष प्रयोजन के लिये एक शक्ति है, समस्त संकेन्द्रण सचेतन सत्ता की एक सामर्थ्य है, कोई असमर्थता नहीं । यह सच है कि जहां अतिमानस पूर्ण, व्यापक, बहुविध, अनंत आत्म-संकेन्द्रण में समर्थ है वहां यह विभाजित और सीमित करनेवाला है । यह भी सच है कि यह वस्तुओं को विकृत करता और साथ ही आंशिक और अभीतक मिथ्या और अर्द्ध-सत्य मूल्यों का निर्माण करता है लेकिन हम ज्ञान के इस सीमांकन और इस आंशिकता का उद्देश्य देख आये हैं । और जब उद्देश्य को स्वीकार कर लिया गया है तो निरपेक्ष सत्ता की निरपेक्ष शक्ति में उसे पूरा करने की शक्ति को भी मानना होगा । किसी विशेष क्रिया के लिये आत्म-सीमांकन की यह शक्ति उस सत्ता की निरपेक्ष सचेतन शक्ति से असंगत होने की जगह ठीक उन शक्तियों में से एक होनी चाहिये जिसके अस्तित्व की हम अनंत की बहुविध शक्तियों में आशा कर सकते हैं ।
सचमुच निरपेक्ष अपने अंदर से संबंधों का एक विश्व प्रकट करने से सीमित नहीं हो जाता । यह उसकी निरपेक्ष सत्ता, चेतना, शक्ति, आत्मानन्द की एक स्वाभाविक लीला है । अपने अंदर सांत प्रपंचों की अन्योन्य क्रियाओं की अनंत शृंखलाएं बनाने से अनंत सीमित नहीं हो जाता, बल्कि यह उसका स्वाभाविक आत्म-प्रकटन है । एकमेव अपने बहुत्व की क्षमता के कारण सीमित नहीं हो जाता जिसमें वह विभिन्न रूप से अपनी निजी सत्ता का आनंद लेता है, बल्कि यह तो अनन्त के सच्चे वर्णन का अंश है जो कठोर, सांत, धारणात्मक एकता से विपरीत है । इसी भांति अज्ञान, जिसे सचेतन सत्ता के बहुविध आत्मलीन और अपने-आपको सीमित करनेवाले संकेन्द्रण की एक शक्ति माना जाये तो, वह भी उसके आत्म सचेतन ज्ञान में विविध परिवर्तन लाने की स्वाभाविक क्षमता है । यह उन संभव स्थितियों में से एक है जिसे निरपेक्ष अपनी अभिव्यक्ति में संबंध के लिये, अनंत अपनी सांत क्रियाओं की शृंखला के लिये, एकमेव बहु में अपने आत्मानन्द के लिये अपनाता है । चेतना की इस क्षमता का एक छोर है तल्लीनता द्वारा जगत् के बारे में अनभिज्ञ होने की क्षमता, जब कि जगत् सत्ता में बना रहता है और दूसरा छोर है वैश्व क्रियाओं में ऐसी तल्लीनता कि व्यक्ति उस आत्मा के बारे में अज्ञ हो जाये जो सारे समय उन क्रियाओं को चलाती रहती है । लेकिन दोनों में से कोई भी वास्तव में सच्चिदानंद की संपूर्ण स्वयं-प्रज्ञ सत्ता को सीमित नहीं करती जो अपने इन प्रतीयमान विरोधों से श्रेष्ठतर है । वे अपने विरोध में भी अनिर्वचनीय को प्रकट और अभिव्यक्त करने में मदद देती हैं ।
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