दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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दिव्य जीवन

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय १७

 

दिव्य आत्मा

 

           यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मैवाभद् विजानत: ।

           तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ।।

 

           जिसकी आत्मा सर्वभूत बन गयी है क्योंकि उसे ज्ञान प्राप्त है, जिसे सब जगह एकत्व का दर्शन होता है उसे मोह कैसे हो सकता है, शोक कहां से आ सकता है ?

                        ईशोपनिषद् ७

 

अतिमानस के बारे में हमने जो धारणा बनायी है और जिस मानसता पर हमारी मानव-सत्ता आधारित है, उससे अतिमानस का जो विरोध है, उनके द्वारा हम दिव्यता और दिव्य जीवन के बारे में एक अस्पष्ट-सा भाव बनाने की जगह एक यथार्थ भाव बनाने में समर्थ हुए हैं । अन्यथा हम दिव्यता तथा दिव्य जीवन, इन शब्दों का उपयोग एक बृहत् किंतु लगभग स्पर्शातीत अभीप्सा के धुंधले शब्दों की तरह शिथिलता के साथ करने के लिये बाधित हैं । इसके अतिरिक्त हम इन भावों को दार्शनिक तर्क का दृढ़ आधार प्रदान करने में और इन्हें मानवता और मानव जीवन के साथ --एकमात्र यहीं है जिसमें हम अभी रस लेते हैं -एक स्पष्ट संबंध रखने में समर्थ हुए हैं । और जगत् के स्वयं अपने स्वरूप द्वारा, अपने ही वैश्व पूर्वगामी इतिहास और विकासक्रम के अनिवार्य भविष्य के द्वारा अपनी आशा और अभीप्सा को न्यायोचित ठहराने में भी समर्थ हुए हैं । हमने बौद्धिक रूप से यह पकड़ना शुरू किया है कि भगवान् क्या हैं, शाश्वत सद्वस्तु क्या है और यह समझने लगे हैं कि उसमें से जगत् कैसे निकला । हम यह भी देखना शुरू करते हैं कि कैसे जो कुछ भगवान् से निकला है उसे अनिवार्य रूप से भगवान् में लौट जाना होगा । अब यहां यह पूछना उपयोगी हो सकता है और स्पष्टतर उत्तर पाने की आशा भी है कि यदि हमें भगवान् तक केवल अपनी सत्ता की गहराइयों में ऐकांतिक और आनंददायी सिद्धि के द्वारा ही नहीं, वरन् अपनी प्रकृति में, अपने जीवन में और अन्यों के साथ संबंध में भी पहुंचना है तो हमें कैसे परिवर्तित होना होगा और क्या बनना होगा । निश्चय ही, हमारे आधार-वाक्यों में अभी कुछ कमी है क्योंकि हम अभीतक अपने लिये यह व्याख्या करने में लगे हैं कि सीमित प्रकृति की ओर अवतरित होते हुए भगवान् क्या हैं जब कि स्वयं हम वास्तव में जो हैं वह हैं सीमित प्रकृति में से वापस अपनी निजी दिव्यता की ओर आरोहण करते हुए व्यष्टिगत भगवान् । गति के इस भेद के कारण देवों के जीवन और मनुष्य के

 

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जीवन में भेद होगा ही -एक ओर देवगण, जिन्होंने कभी पतन जाना ही नहीं, दूसरी ओर मनुष्य जिसने उद्धार प्राप्त किया है, जो खोये हुए देवत्व का विजेता है और जो अपना एकदम नीचे उतरना स्वीकार करने के कारण नयी संपदाएं और अनुभूति लाता है । बहरहाल तात्त्विक गुणों में कोई अंतर नहीं हो सकता, भेद होता है तो केवल सांचे और रंग का । हम जिन निष्कर्षों पर पहुंचे हैं उनके आधार पर उस दिव्य जीवन के स्वरूप को जान सकते हैं जिसके लिये हम अभीप्सा करते हैं ।

 

    तब फिर उस दिव्य आत्मा का जीवन कैसा होगा जो आत्मा के जड़तत्त्व में निमज्जित होने और भौतिक प्रकृति द्वारा आत्मा के तमोग्रस्त होने के कारण उपन्न होनेवाले अज्ञान में नही उतरी है, उसकी चेतना कैसी होगी जो स्वयं भागवत सत्ता के समान ही वस्तुओं के आदि सत्य में, अविच्छेद्य ऐक्य में अपनी अनंत सत्ता के लोक में निवास करती है पर फिर भी भागवत माया की लीला के कारण और सर्वसमावेशी और बहिर्द्रष्ट्री ऋत-चेतना के भेद के कारण भगवान् के साथ भेद का और साथ ही ऐक्य का भी रस ले सकती है और बहुधा-रूपायित 'एकरूप' भगवान् की अनंत लीला में दूसरी दिव्य आत्माओं के साथ भेद का, पर साथ ही ऐक्य का भी आलिंगन कर सकती है ।

 

    स्पष्ट है कि इस प्रकार की अंतरात्मा का जीवन सच्चिदानंद की सचेतन लीला में हमेशा स्वत:पूर्ण होगा । वह अपनी सत्ता में शुद्ध, अनंत स्वयंभू और अपनी संभूति में अमर जीवन की मुक्त लीला होगा जिसपर जन्म और मरण या शरीर-परिवर्तन का आक्रमण न होगा क्योंकि वह अज्ञान के बादलों में न होगा और न ही हमारी भौतिक सत्ता के अंधकार में फंसा होगा । वह अपनी ऊर्जा में शुद्ध, असीम चेतना होगा जो शाश्वत और प्रकाशमय प्रशांति को अपना आधार बनाकर उसमें स्थित होगा, पर साथ ही, ज्ञान के रूपों और सचेतन शक्ति के रूपों के साथ मुक्त रूप से खेल सकेगा, जो प्रशांत होगा, मानसिक भूलों की ठोकरों और हमारी प्रयत्नशील इच्छा की भूल-चूक से अछूता रहेगा क्योंकि वह सत्य और एकत्व से कभी अलग नहीं होता, अपने दिव्य जीवन के अंतर्निहित प्रकाश और सहज-स्वाभाविक सामंजस्य से कभी नीचे नहीं गिरता । और अंत में वह अपनी शाश्वत आत्मानुभूति में शुद्ध और अविच्छेद्य आनंद होगा और काल में हमारी अरुचि, घृणा, असंतोष और दुःख-दर्द की विकृतियों से अस्पृष्ट आनंद की बहुरूप छटाएं लिये होगा क्योंकि वह अपनी सत्ता में अविभक्त होगा, मूल करनेवाले स्वेच्छाचरण से घबरायेगा नहीं, कामना की अज्ञानभरी उत्तेजना से अविकृत होगा ।

 

    उसकी चेतना अनंत-सत्य के किसी भाग की ओर से बंद न होगी और न वह औरों के साथ अपनाये हुए संबंधों की किसी स्थिरता या स्थिति के कारण सीमित होगी और न शुद्ध प्रपंचात्मक व्यक्तित्व की ओर व्यवहारतः विभेद की क्रीड़ा को स्वीकार कर लेने के कारण उसे आत्म-ज्ञान से थोड़ा भी वंचित होना पड़ेगा । वह

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अपनी आत्मानुभूति में सदा निरपेक्ष की उपस्थिति में निवास करेगी । हमारे लिये निरपेक्ष अनिर्वचनीय सत्ता की एक बौद्धिक अवधारणामात्र है । बुद्धि हमसे बस यही कहती है कि एक ऊंचे-से-ऊंचा, परात्पर ब्रह्म है, एक अज्ञेय पुरुष है जो अपने-आपको हमारे ज्ञान से इतर, किसी और ढंग से जानता है लेकिन बुद्धि हमें उसकी उपस्थिति में नहीं ले जा सकती । इसके विपरीत, वस्तुओं के सत्य में निवास करनेवाली दिव्य आत्मा को हमेशा यह सचेतन भान रहेगा कि वह निरपेक्ष की एक अभिव्यक्ति है । अपने अक्षर अस्तित्व के बारे में उसे यह भान होगा कि वह परात्पर का, सच्चिदानंद का आदि-आत्म-स्वरूप है, अपनी सचेतन सत्ता की क्रीड़ा में उसे यह भान होगा कि वह सच्चिदानंद के रूपों में उस तत् ही की अभिव्यक्ति है । अपने ज्ञान की हर स्थिति या क्रिया में उसे यह भान रहेगा कि अज्ञेय ही अपने-आपको परिवर्तनशील आत्मज्ञान के किसी प्रकार द्वारा जान रहा है । शक्ति, इच्छा या बल की अपनी प्रत्येक स्थिति या क्रिया मे उसे यह भान रहेगा कि सत्ता और ज्ञान के सचेतन बल के किसी प्रकार द्वारा वह परात्पर ही अपने-आपको उपलब्ध कर रहा हैं । आनंद, हर्ष या प्रेम की अपनी प्रत्येक स्थिति या क्रिया में उसे यह भान रहेगा कि सचेतन आत्मभोग के किसी प्रकार द्वारा परात्पर ही अपने भाव का आलिंगन कर रहा है । निरपेक्ष की यह उपस्थिति उसके साथ कभी-कदास झलक के रूप में मिलनेवाली अनुभूति न होगी, न ही यह ऐसी अनुभूति होगी जहां अंतत: वह पहुंच पाया हो और जिसे वह कठिनाई से पकड़े हुए हो, न ही यह ऐसी अनुभूति होगी जो उसकी सत्ता की सामान्य स्थिति पर एक वृद्धिगत वस्तु, एक उपार्जित वस्तु या चरमोत्कर्ष की स्थिति के रूप में ऊपर से थोपी हुई कोई चीज हो । यह उपस्थिति एकता और विभिन्नता दोनों स्थितियों में उसकी सत्ता का असली आधार होगी । यह उसके ज्ञान, इच्छा, कर्म और भोग की प्रत्येक क्रिया में विद्यमान रहेगी । यह उपस्थिति उससे अलग न होगी, न तो उसकी कालातीत सत्ता से और न काल के किसी क्षण से, न उसकी देशातीत सत्ता से और न ही उसकी विस्तारित सत्ता के किसी निर्धारण से, न समस्त कारण और परिस्थिति से परे उसकी निरुपाधिक पवित्रता से और न परिस्थिति, उपाधि और कारण के किसी संबंध से अलग होगी । निरपेक्ष की यह सतत उपस्थिति उसकी अनंत स्वाधीनता और आनंद का आधार होगी, लीला में उसकी सुरक्षा को सुनिश्चित करेगी और उसकी दिव्य सत्ता के मूल, रस और सार का संपोषण करेगी ।

 

    इसके अतिरिक्त, ऐसी दिव्य आत्मा युगपत् रूप से सच्चिदानंद के शाश्वत अस्तित्व से अलग न किये जा सकनेवाले उन दोनों छोरों में, निरपेक्ष के आत्मोन्मीलन के उन दोनों ध्रुवों में निवास करेगी जिन्हें हम एक और बहु कहते हैं । वास्तव में समस्त सत्ता इसी भांति निवास करती है लेकिन हमारी विभक्त आत्म-अभिज्ञता के लिये इन दोनों के बीच एक असंगति है, एक खाई है जो हमें

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चुनाव के लिये विवश करती है यानी, या तो हम उस बहुत्व में निवास करें जो 'एक' की अपरोक्ष और समग्र चेतना से निर्वासित हो या फिर उस एकत्व में निवास करें जो बहुत्व की चेतना को अस्वीकार करता है । लेकिन दिव्य आत्मा इस विच्छेद या द्वैत की दास नहीं बनेगी । वह अपने अंदर युगपत् रूप सें अनंत आत्म-संकेंद्रण और अनंत आत्म-विस्तार और प्रसार से अभिज्ञ होगी । वह युगपत् रूप से उस एक से अभिज्ञ होगी जो अपनी अद्वैत चेतना में असंख्य बहुत्व को अपने अंदर संभाव्य और अनभिव्यक्त रूप में धारण किये रहता है और इस कारण हमारी मानसिक अनुभूति के लिये उस स्थिति का अस्तित्व नहीं होता, और उस एक से भी अभिज्ञ होगी जो अपनी विस्तारित चेतना में अपनी सचेतन सत्ता, इच्छा और आनंद की लीला के रूप में बहि:प्रक्षिप्त और सक्रिय बहुत्व को धारण किये होता है । उसे समान रूप से बहु की अभिज्ञता होगी जो सदा उस एक को अपनी ओर खींचते रहते हैं जो उनके अस्तित्व का सनातन स्रोत और सद्वस्तु है और बहु के बारे में उसे यह भी मालूम होगा कि वे सदा उस एक से आकर्षित होकर ऊपर उठ रहे हैं जो उनकी सारी विभेद-क्रीड़ा का शाश्वत चरमोत्कर्ष और आनंदमय औचित्य है । वस्तुओं के बारे में बृहत् दृष्टि ऋत-चित् का स्वभाव है, वृहत् सत्य और ऋत की आधारशिला है जिसके लिये वैदिक ऋषियों ने मंत्र गाये हैं, इन सभी विरोधी तत्त्वों का यह एकत्व ही सच्चा अद्वैहै, अज्ञेय के ज्ञान का परम ग्राह्य शब्द है ।

 

    दिव्य आत्मा सत्ता, चेतना, इच्छा और आनंद के समस्त वैविध्य से इस रूप में अभिज्ञ होगी कि वह उस आत्म-संकेंद्रित ऐक्य का बहिर्प्रवाह, विस्तार और प्रसार है जो विभेद और विभाजन के रूप में नहीं बल्कि अनंत ऐक्य के एक दूसरे, एक विस्तारित रूप में अपने-आपको विकसित कर रहा है । अपनी सत्ता के सारतत्त्व में वह स्वयं भी हमेशा एकत्व में केंद्रित रहेगी, अपनी सत्ता के प्रसार में वह हमेशा विभिन्नता में अभिव्यक्त होगी । उसमें जो कुछ रूप धारण करता है वह एकमेव की अभिव्यक्त संभाव्यताओं के रूप में होगा, नामहीन नीरवता में से स्पंदित होते हुए नाम या शब्द के, अरूप तत्त्व में से प्रकट होते हुए रूप के, प्रशांत शक्ति में से बाहर आती हुई इच्छा या शक्ति के, कालातीत आत्म-अभिज्ञता के सूर्य में से झलकती हुई आत्मबोध की किरण के, शाश्वत चिन्मय सत्ता में से आत्म-सचेतन सत्ता के रूप में उठती हुई संभूति की लहर के, शाश्वत, स्थिर आनंद में से निरंतर उमड़ते हुए हर्ष और प्रेम के रूप में होगा । दिव्य आत्मा वही निरपेक्ष होगी जो अपने आत्म-प्रस्फुटन में द्विदल हो गया है और उसके अंदर की प्रत्येक सापेक्षता अपने लिये निरपेक्ष होगी क्योंकि वह अपने-आपको अभिव्यक्त निरपेक्ष के रूप में देखती हैं लेकिन उसमें वह अज्ञान नहीं होता जो अन्य सापेक्षताओं को अपनी सत्ता से पराया या अपने से कम पूर्ण मानकर अलग रखता है ।

 

    विस्तार में दिव्य सत्ता अतिमानसिक सत्ता की तीन श्रेणियों से अवगत होगी,

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उस तरह नहीं जैसे हम मानसिक रूप में उन्हें मानने के लिये बाधित होते हैं, श्रेणियों के रूप में नहीं, बल्कि सच्चिदानंद की आत्माभिव्यक्ति के त्रियेक तथ्य के रूप में । वह उन्हें एक अखंड सर्वग्राही आत्मोपलब्धि के आलिंगन में भर सकेगी-क्योंकि वृहत् सर्वसमावेशिता ऋत-चित् अतिमानस का आधार है । वह सभी चीजों की धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन इस दिव्य रूप में कर पायेगी कि वे सब आत्मा हैं, जो आत्मा कि उसकी अपनी आत्मा है, सबकी एक आत्मा है, एक ही आत्म-सत्ता और आत्म-संभूति है परंतु वह अपनी संभूतियों में विभक्त नहीं है, जिनका कि उसकी अपनी आत्म-चेतना से भिन्न कोई अस्तित्व ही नहीं है । वह दिव्य रूप में समस्त सत्ताओं की धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन 'एकमेव' के आत्मा-रूपों में कर पायेगी जिनमें से हर एक की 'एक' में अपनी सत्ता है, 'एक' में अपना दृष्टिकोण है, अनंत ऐक्य में बसी अन्य सत्ताओं के साथ अपना संबंध है लेकिन सब उस 'एक' पर निर्भर हैं, उस एक की अपनी अनंतता में उसीकी सचेतन आकृतियां हैं । वह इन सभी सत्ताओं की, उनके व्यष्टिगत रूप में, उनके पृथक् आधार-बिंदु के रूप में धारणा, उनका प्रत्यक्ष दर्शन, उनका संवेदन इस दिव्य रूप में कर पायेगी कि वे सभी व्यष्टिगत भगवान् के रूप में रहती हैं, हर एक के अंदर 'एक' और 'परम' निवास करता है इसलिये हर एक सर्वथा कोई भ्रम अथवा छाया नहीं है, वस्तुत: किसी वास्तविक समग्र का कोई भ्रमात्मक अंग नहीं है, एक अचल सागर की सतह पर उठती कोई झाग की लहर नहीं है -क्योंकि आखिर ये सब अपर्याप्त मानसिक बिंबों से बढ़कर कुछ नहीं हैं -बल्कि प्रत्येक उस समग्र के भीतर एक समग्र है, एक ऐसा सत्य है जो अनंत सत्य को दोहराता है, एक ऐसी लहर जो समस्त सागर है और एक ऐसा सापेक्ष है जिसे हम रूप के पीछे, उसकी पूर्णता में देखें तो स्वयं निरपेक्ष सिद्ध होता है ।

 

    क्योंकि ये तीनों उस एक ही सत् के पहलू हैं । पहला उस आत्मज्ञान पर आधारित है, जिसे हमारी भगवान् की मानव आत्मोपलब्धि में उपनिषद् हमारे अदंर की आत्मा का सर्वभूत बन जाना कहते हैं, दूसरा पहलू वह है जिसमें सभी भूतों को अपनी आत्मा में देखना कहते हैं और तीसरे के बारे में यूं कहा गया है कि वहां आत्मा को सभी भूतों में देखा जाता है । आत्मा का सर्वभूत बन जाना सर्व के साथ हमारे एकत्व का आधार है, आत्मा का सर्वभूतों को अपने अंदर समाये रखना विभिन्नता में हमारे ऐक्य का आधार है, आत्मा का सर्वभूतों में निवास, विश्व के अंदर हमारे व्यक्तित्व का आधार है । अगर हमारी मानसता की त्रुटि, अगर उसकी ऐकांतिक एकाग्रता की आवश्यकता, उसे इनमें से किसी एक पक्ष पर स्थित रहने और बाकी का बहिष्कार करने के लिये बाधित करे, यदि कोई अपूर्ण और साथ ही ऐकांतिक उपलब्धि हमें सदा इस ओर चलाती रहे कि हम स्वयं सत्य के अंदर भूल का और सभीको समाविष्ट कर लेनेवाले एकत्व में संघर्ष और पारस्परिक निषेध का

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मानव तत्त्व प्रविष्ट कर दें तो भी अतिमानसिक सत्ता के लिये, अतिमानस के तात्त्विक स्वरूप के कारण जो कि सर्वव्यापी, तादात्म्यकारी एकत्व और अनंत समग्रता है, वे अपने-आपको तिहरी या त्रियेक उपलब्धि के रूप में ही प्रस्तुत करते हैं ।

 

    यदि हम ऐसा मान लें कि यह आत्मा अपनी स्थिति, अपना केंद्र व्यष्टि-भगवान् की चेतना में रखती है, जो औरों के साथ स्पष्टतया पृथक् संबंध में रहती और कार्य करती है तब भी उसकी चेतना की नींव में वह समस्त एकत्व रहेगा जिसमें से सब कुछ निःसृत होता है और उस चेतना की पृष्ठभूमि में विस्तारित और आपरिवर्तित एकत्व रहेगा और उसमें यह क्षमता होगी कि वह इनमें से किसी की ओर लौट सके और वहां से अपने व्यक्तित्व पर ध्यान दे । वेदों में देवों की ये सारी स्थितियां बतलायी गयी हैं । सारतत्त्व में देवता एक ही सत्ता हैं जिसे ऋषि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं परंतु अपने कार्य-व्यापार में, जो वृहत् सत्य और ऋत पर आधारित होते हैं और वहींसे उद्गत होते हैं, अग्नि या किसी अन्य देव के लिये कहा गया है कि वह अन्य सभी देव है । वही 'एक' है जो सर्व बन जाता है, साथ ही उसके लिये कहा गया है कि वह सभी देवों को अपने अंदर उसी तरह धारण किये रहता है जैसे चक्रनाभि में आरे हों वह 'एक' है जिसमे सब समाये रहते हैं फिर भी अग्नि रूप में उसका एक पृथक् देव के रूप में वर्णन किया जाता है, जो अन्य सबकी सहायता करता है, जो शक्ति और ज्ञान में उन सबसे बढ़कर है परंतु वैश्व स्थिति में उनसे नीचे है और उनके द्वारा संदेशवाहक, पुरोहित और कार्यकर्ता के रूप में नियुक्त होता है । जगत् का स्रष्टा और पिता होते हुए भी वह हमारे कर्मों से उत्पन्न पुत्र होता है, दूसरे शब्दों में वह आद्य और अभिव्यक्ति में आया हुआ अंतर्वासी आत्मा या भगवान् है, वह 'एक' है जो सबके अंदर निवास करता है ।

 

    दिव्य आत्मा के भगवान् या अपने परम स्व के साथ और अन्य रूपों में विद्यमान अपनी अन्य आत्माओं के साथ सभी संबंध इस सर्वग्राही आत्म-ज्ञान द्वारा निर्धारित होंगे । ये संबंध सत्ता के, चेतना और ज्ञान के, इच्छा और शक्ति के, प्रेम और आनंद के संबंध होंगे । ये अपनी विभिन्नता की शक्यताओं में अनंत हैं । आत्मा-आत्मा के बीच किसी भी ऐसे संभाव्य संबंध को अलग करने की जरूरत नहीं जो सब प्रकार के विभेदों के आभास के बावजूद एकता के अविच्छेद्य भाव के संरक्षण के साथ मेल खाता है । इस प्रकार अपने आनंद-भोग के संबंधों में दिव्य आत्मा अपने अंदर अपने सब अनुभवों का रस लेगी : दूसरों के साथ संबंध के अपने सभी अनुभवों का आनंद वह इस रूप में लेगी कि यह उन दूसरी आत्माओं के साथ सायुज्य है जो विश्व मे वैचित्र्यमय लीला के हेतु सृष्ट दूसरे रूपों में उपस्थित हैं । वह अपनी दूसरी आत्माओं के अनुभव का आनंद भी ऐसे लेगी कि मानों वे उसके अपने हों -जैसे कि सचमुच वे वास्तव में हैं ही । और यह सब सामर्थ्य उसमें इसलिये होगी क्योंकि वह अपने अनुभवों को, दूसरों के साथ अपने

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संबंधों को, दूसरों के अनुभवों और उनके अपने साथ संबंधों को इस रूप में जानेगी कि वे सब एकमेव का, परम आत्मा का, उसकी अपनी आत्मा का आनंद हैं जो अपनी ही सत्ता में समाविष्ट इन सब रूपों में पृथक्-पृथक् रूप से निवास करने के कारण विभिन्न रूपों में दिखलायी देता है लेकिन फिर भी भेद के बीच वह एक ही है । चूंकि यह एकत्व उसकी समस्त अनुभूति का आधार है अतः वह हमारी विभक्त चेतना के, अज्ञान तथा पृथक्कारी अहं द्वारा विभाजित चेतना के असामंजस्यों से मुक्त रहेगी । ये सभी आत्माएं और उनके संबंध सचेतन रूप से एक दूसरे के हाथों में खेला करेंगें । वे अलग होंगी और एक-दूसरे में घुल-मिल जाया करेंगी ऐसे ही जैसे शाश्वत संगीत के अनगिनत स्वर निकलते और एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं ।

 

    और यही नियम उसकी सत्ता, ज्ञान और इच्छा के दूसरों की सत्ता, ज्ञान और इच्छा के साथ जो संबंध हैं उनपर भी लागू होगा । क्योंकि उसकी समस्त अनुभूति और आनंद सत्ता की आत्मानंदपूर्ण चित्-शक्ति की लीला होगी जिसमें, एकत्व के इस सत्य की आज्ञाकारिता के कारण, न तो इच्छा का ज्ञान के साथ और न ही इनमें से किसीका आनंद के साथ संघर्ष हो सकेगा । न ही एक आत्मा के ज्ञान, इच्छा और आनंद का दूसरी आत्मा के ज्ञान, इच्छा और आनंद के साथ टकराव होगा क्योंकि अपने ऐक्य से उनके अभिज्ञ होने का परिणाम यह होगा कि जो चीज हमारी विभक्त सत्ता में टकराव, संघर्ष और असामंजस्य है वही, वहां एक अनंत संगीत के विभिन्न स्वरों का मिलन, संग्रंथन और पारस्परिक खेल होगा ।

 

    अपनी परम आत्मा के, ईश्वर के साथ संबंधों में दिव्य आत्मा को अपनी सत्ता के साथ परात्पर और वैश्व भगवान् के इस एकत्व का बोध रहेगा । वह अपने वैयक्तिक भाव में अपने साथ भगवान् के एकत्व का रस लेगा और साथ ही वैश्व भाव में अपनी अन्य आत्माओं के साथ । उसके ज्ञान के संबंध दिव्य सर्वज्ञता की लीला होंगे क्योकि भगवान् ज्ञान हैं और जो हमारे लिये अज्ञान है वह वहां केवल सचेतन आत्म-अभिज्ञता को विश्रांति के अंदर ज्ञान को पीछे की ओर रोके रहना होगा ताकि उस आत्म-अभिज्ञता के कुछ विशिष्ट रूप बाहर, सक्रिय प्रकाश में लाये जा सकें । वहांपर उसकी इच्छा-शक्ति के संबंध दिव्य सर्व-शक्तिमत्ता के खेल होंगे क्योंकि भगवान् शक्ति, इच्छा और सामर्थ्य हैं और जो हमारे लिये दुर्बलता और अक्षमता है वह वहांपर प्रशांत संकेंद्रित शक्ति के अंदर इच्छा-शक्ति को रोके रखना होगा ताकि दिव्य चित्-शक्ति के कुछ विशिष्ट रूप सामर्थ्य के रूप में आगे लाये जाकर अपने-आपको कार्यान्वित कर सकें । उसके प्रेम और आनंद के संबंध दिव्य आनंदोल्लास की लीला होंगे क्योंकि भगवान् प्रेम और आनंद हैं और जो हमारे लिये प्रेम और आनंद का निषेध है वह आनंद के प्रशांत सागर में हर्ष को पीछे रोके रखना होगा ताकि भागवत एकत्व और उपभोग के कुछ विशेष

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रूपों को आनंद की सक्रिय उमड़ती तरंगों में आगे लाया जा सके । इसी भांति उसकी समस्त संभूति इन क्रियाओं के उत्तर में दिव्य सत्ता का रूपायन होगी और जो हमारे लिये अवसान, मृत्यु और सत्यानाश है वह सच्चिदानंद की शाश्वत सत्ता में आनंदमयी सर्जनशील माया का विश्राम, संक्रमण या पीछे की ओर रुके रहना होगा । साथ-ही-साथ यह एकत्व दिव्य आत्मा के ईश्वर के साथ, अपनी परम आत्मा के साथ, उन संबंधों का निवारण नहीं करेगा जो भेद के रस पर आश्रित होते हैं जब वह उस एकत्व का किसी और तरह से रस लेने के लिये अपने-आपको एकत्व से अलग रखता है । भागवत माधुर्य के जितने भी उकृष्ट रूप हैं जो भगवान् के आलिंगन में बद्ध भगवद् भक्त को परमानंद देते हैं उनमें से किसी भी संभावना को यह एकत्व मिटायेगा नहीं ।

 

    लेकिन वे कौन-सी अवस्थाएं होंगी जिनमें और जिनके द्वारा दिव्य आत्मा के जीवन का यह स्वरूप चरितार्थ होगा ? संबंध के बारे में होनेवाला सारा अनुभव सत्ता की कुछ ऐसी शक्तियों द्वारा आगे बढ़ता है जो कुछ साधनों के सहारे रूपायित होती हैं, जिन्हें हम धर्म, गुण, क्रियाशीलताएं क्षमताएं कहते हैं । उदाहरण के लिये मन अपने-आपको मन: शक्ति के विभिन्न रूपों में प्रक्षिप्त करता है, जैसे निर्णय, अवलोकन, स्मृति, सहानुभूति जो कि उसकी सत्ता के लिये स्वाभाविक हैं । इसी तरह ऋत-चित् या अतिमानस को आत्मा के साथ आत्मा के संबंधों को उन शक्तियों, क्षमताओं एवं विशिष्ट क्रियाओं द्वारा प्रभावित करना चाहिये जो अतिमानसिक सत्ता के लिये स्वाभाविक हों अन्यथा विभेद की कोई लीला ही न हो पायेगी । ये क्रियाएं क्या हैं, यह हम उस समय देखेंगे जब हम दिव्य जीवन की मनोवैज्ञानिक अवस्थाओं पर विचार करेंगे । अभी हम केवल उसकी तात्विक नींव, उसके मूल स्वभाव और स्वधर्म पर विचार कर रहे हैं । अभी इतना देख लेना काफी है कि चेतना में पृथक्कारी अहंभाव और प्रभावकारी विभाजन का अभाव या उन्मूलन ही दिव्य जीवन की एकमात्र मूलभूत शर्त है । अतः हमारे अंदर उनकी उपस्थिति ही हमारी मर्त्यता का और दिव्य स्थिति से पतन का कारण है । यही हमारा 'आदि पाप' है या अगर जस ज्यादा दार्शनिक भाषा में कहें तो आत्मा के सत्य एवं ऋत से, उसके एकत्व, पूर्णता एवं सामंजस्य से च्युति है । यह च्युति अज्ञान में डुबकी लगाने के लिये आवश्यक शर्त थी और अज्ञान में यह डुबकी ही जगत् में जीव का साहसिक कार्य है । और इसी अज्ञानगर्त में से हमारी दुःख-पीड़ित और अभीप्सा से भरी मानवजाति का जन्म हुआ ।

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