दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

ABOUT

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
English
 PDF    philosophymetaphysics
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
Translator:   Ravindra  PDF    LINK

अध्याय ४

 

दिव्य और अदिव्य

 

           कविर्मनीषी परिभू: स्वयम्भूर्याथातथ्यगेऽर्थाच्छदधाच्छाश्वतीभ्य:

           समाभ्य: ।।

 

           (कवि) द्रष्टा, मनीषी, स्वयंभू परिभू (जो हर जगह है) ने ही सब

           कुछ पूर्ण रूप से, शाश्वत काल से व्यवस्थित किया है ।

                                                        ईशोपनिषद् ८

 

           बहवो ज्ञानतपसा पूता मध्भावमागता: ।।

           ... मम साधर्म्यमागता: ।।

 

           ज्ञान-तप से पवित्र होकर बहुत-से मेरे भाव को प्राप्त हुए

           हैं... उन्होंने मेरे साथ साधर्म्य प्राप्त किया है ।

                                                गीता ४-१०; १४,

 

           तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।

           तत् को ब्रह्म जान, उसे नहीं जिसकी लोग यहां उपासना करते हैं ।

                                                    केनोपनिषद् १. ४

 

           एकों वशी सर्वभूतात्तरात्मा

           सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषै: ।।

           एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदु:खेन बाह्य: ।!

 

           वह एक, नियंता, सभी भूतों की अंतरात्मा... । जैसे सारे जगत्

           की आंख होते हुए भी सूर्य दृष्टि के बाहरी दोषों से अछूता रहता है

           इसी तरह यह सभी भूतों की अंतरात्मा जगत् के दुःख से अछूती

           रहती है ।

                                            कठोपनिषद् ११-२. १२-११

 

           ईश्वर: सर्वभूतानां हृदेशे... तिष्ठति ।।

           ईश्वर सब भूतों के हृदय में निवास करते हैं ।

                                                    गीता १८-६१

 

   विश्व अनंत और शाश्वत सर्व-सत् की अभिव्यक्ति है । जो कुछ है उस सबमें दिव्य सत्ता निवास करती है । स्वयं हम अपनी आत्मा में, अपनी गभीरतम सत्ता में, वही हैं । हमारी अंतरात्मा, हमारे भीतर निवास करनेवाली चैत्य सत्ता, दिव्य चेतना और दिव्य सार का एक अंश है । हमने अपने अस्तित्व के बारे में यही दृष्टि अपनायी है लेकिन साथ ही हम दिव्य जीवन के बारे में ऐसे बोलते हैं मानों वह

३८६


विकसनशील पद्धति की पराकाष्ठा हो, लेकिन इस कथन से ऐसा लगता है कि हमारा वर्तमान जीवन अदिव्य है और हमसे नीचे का सारा जीवन भी । पहली दृष्टि में यह परस्पर-विरोध मालूम होता है । जिस दिव्य जीवन के लिये हम अभीप्सा करते हैं और जिस वर्तमान अदिव्य जीवन को हम जीते हैं उन दोनों के बीच भेद करने की जगह दिव्य अभिव्यक्ति के एक स्तर से उच्चतर स्तर की ओर आरोहण की बात करना अधिक युक्ति-युक्त होगा । यह माना जा सकता है कि अगर हम केवल भीतरी वास्तविकता पर नजर डालें और बाहरी आकार से आनेवाले सुझावों की उपेक्षा कर दें तो विकास का स्वरूप, प्रकृति में हमें जिस परिवर्तन में से गुजरना है उसका स्वरूप, तत्त्वतः ऐसा ही होगा । और वैश्व दृष्टिवाली निष्पक्ष आंख को, जो हमारे ज्ञान और अज्ञान, शुभ और अशुभ, सुख-दुःख के द्वंद्वों से पीड़ित नहीं है, जो सच्चिदानंद की अबाधित चेतना और आनंद में भाग लेती है, उसे शायद ऐसा ही लगे । फिर भी व्यावहारिक और सापेक्ष दृष्टिकोण से, जो तात्त्विक दृष्टिकोण से अलग है, दिव्य और अदिव्य के बीच के भेद का एक आग्रही मूल्य रहता है, एक सबल सार्थकता रहती है । तो यह हमारी समस्या का एक ऐसा पहलू है जिसे प्रकाश में लाना और उसका सच्चा महत्त्व आंकना जरूरी है ।

 

   दिव्य और अदिव्य जीवन के बीच जो भेद है वह वास्तव में वही मूलगत भेद है जो आत्म-अभिज्ञता और ज्योति की शक्ति में जिये गये ज्ञानमय जीवन और अज्ञानमय जीवन के बीच होता है । बहरहाल, मूल निश्चेतना में से कठिनाई के साथ धीरे-धीरे विकसित होते हुए जगत् में यह भेद अपने-आपको इसी तरह प्रस्तुत करता है । वह सारा जीवन, जिसमें यह निश्चेतना अभीतक आधार बनी हुई है, उसपर एक मूलगत अपूर्णता की छाप लगी रहती है क्योंकि अगर वह अपने प्ररूप से संतुष्ट भी हो तो यह अपूर्ण, असामंजस्यभरे, असंगतियों के थिगड़ों से संतोष करना है । इसके विपरीत एक शुद्ध रूप से मानसिक या प्राणिक जीवन भी अपनी सीमाओं में पूर्ण हो सकता है अगर वह प्रतिबद्ध परंतु सामंजस्यपूर्ण आत्म-शक्ति और आत्मज्ञान पर आधारित हो । अपूर्णता और असामंजस्य की निरंतर मुहर से बंधे रहना ही अदिव्य का चिह्न है । इसके विपरीत दिव्य जीवन चाहे वह थोड़े-से अधिक की ओर प्रगति कर रहा हो फिर भी हर भूमिका पर तत्त्वतः और व्योरे में सामंजस्यपूर्ण होगा । वह एक सुरक्षित भूमि होगी जहां स्वाधीनता और पूर्णता अपनी उच्चतम महिमातक स्वाभाविक रूप से खिल या बढ़ सकेंगी, शुद्ध और विस्तृत होकर अपनी अधिक-से-अधिक सूक्ष्म समृद्धि में पहुंच सकेंगी । दिव्य और अदिव्य जीवन में भेद के बारे में सोचते समय हमें सभी अपूर्णताओं और सभी पूर्णताओं को दृष्टि में रखना होगा लेकिन सामान्यतः जब हम भेद करते हैं तो हम ऐसे मनुष्यों की तरह करते हैं जो जीवन के दबाव के नीचे तात्कालिक समस्याओं और जटिलताओं के बीच अपने आचरण की कठिनाइयों से दबे संघर्ष कर रहे होते हैं ।

३८७


हम सबसे बढ़कर उस भेद की बात सोचते हैं जो हम अच्छे और बुरे के बीच करने के लिये बाधित होते हैं या उसकी बात द्वंद्व की, अपने अंदर सुख और दुःख के सम्मिश्रण की सजातीय समस्या के साथ मिलाकर सोचते हैं । जब हम बौद्धिक रूप से वस्तुओं में दिव्य उपस्थिति की, जगत् के दिव्य उद्गम की, जगत् की क्रियाओं पर दिव्य के शासन की खोज करते हैं तो अशुभ की उपस्थिति, दुःख पर आग्रह, प्रकृति की व्यवस्था में पीड़ा, शोक और संताप को दिया गया विस्तृत और विशाल भाग हमारे सामने ऐसे क्रूर व्यापारों के रूप में आते हैं जो हमारी बुद्धि को चकरा देते हैं और ऐसे उद्गम और शासन या सर्व-द्रष्टा, सर्व-निर्धारक, सर्वव्यापक दिव्य अंतर्व्यापकता पर मनुष्य की सहज श्रद्धा को अभिभूत कर देते हैं । हम दूसरी कठिनाइयों को सुखपूर्वक आसानी से हल कर सकते हैं और अपने समाधानों के प्रस्तुत निर्णायक रूप से अधिक संतुष्ट होने के लिये कुछ परिवर्तन भी कर सकते हैं । लेकिन निर्णय करने का यह मानक काफी व्यापक नहीं है और बहुत ज्यादा मानवीय दृष्टिकोण पर आश्रित है । क्योंकि एक विशालतर दृष्टि के लिये अशुभ और दुःख केवल प्रभावशाली पहलू के रूप में प्रकट होते हैं, वे ही पूरा दोष या मामले की जड़ नहीं हैं । संसार की अपूर्णताओ का कुल योग केवल इन दो अपूर्णताओं से नहीं बना है । यदि हमारी आध्यात्मिक या भौतिक सत्ता का शुभ से और सुख से पतन हुआ था या हमारी प्रकृति अशुभ या दुःख पर विजय पाने में, असफल रही है, तो इस पतन से बढ़कर कुछ और भी है । हमारी सत्ता जिस नैतिक और सुखदायी संतुष्टि की मांग करती है उसकी कमी के, हमारे जगत्- अनुभव में शुभ और आनंद की कमी के अतिरिक्त अन्य दिव्य संपदाओं की भी कमी है । क्योंकि ज्ञान, सत्य, सौंदर्य, शक्ति, ऐक्य ये भी दिव्य जीवन के तत्त्व और उपादान हैं और ये हमें बहुत कम मात्रा में और अनिच्छा से दिये गये हैं फिर भी ये अपने परम पद में दिव्य प्रकृति की शक्तियां हैं ।

 

   तो हमारी और जगत् की अदिव्य अपूर्णता के वर्णन को केवल नैतिक अशुभ या संवेदनात्मक दुःखतक सीमित रखना संभव नहीं है । जगत् की पहेली में इस दोहरी समस्या से बढ़ कर कुछ और भी है -कारण ये तो केवल एक ही सामान्य तत्त्व के दो सबल परिणाम हैं । यह अपूर्णता का सामान्य तत्त्व ही है जिसे हमें स्वीकार करना और जिस पर विचार करना है । अगर हम इस सामान्य अपूर्णता को नजदीक से देखें तो हमें पता लगेगा कि इसमें पहली चीज है हमारे अंदर दिव्य तत्त्वों का परिसीमन जो उन्हें उनकी दिव्यता से वंचित कर देता है, फिर है विविध शाखाओंवाली विकृति, विपर्याय, विपरीत मोड़, सत्ता के किसी आदर्श सत्य से मिथ्या बनानेवाला विचलन । हमारे मनों के आगे, जिन्हें वह सत्य प्राप्त तो नहीं है लेकिन वे उसके बारे में सोच सकते हैं, यह विचलन अपने-आपको ऐसी अवस्था के रूप में प्रस्तुत करता है जिसे हम आध्यात्मिक रूप से खो चुके हैं या ऐसी

३८८


संभावना और प्रतिश्रुति के रूप में जिसे हम पूरा नहीं कर सकते या उपलब्ध नहीं कर सकते क्योंकि वह केवल आदर्श के रूप में ही है । या तो महत्तर चेतना और ज्ञान, आनंद, प्रेम और सौंदर्य, शक्ति और क्षमता, सामंजस्य और शुभ से भीतरी आत्मा की च्युति हो गयी है या हमारी संघर्षरत प्रकृति की असफलता या जिसे हम सहज वृत्ति से दिव्य और वांछनीय देखते हैं उसे प्राप्त करने में असामर्थ्य । अगर हम पतन के कारण में प्रवेश करें तो देखेंगे कि सब एक साथ एक आद्य तथ्य से शुरू होता हैं, हमारी सत्ता, चेतना, शक्ति, वस्तुओं का अनुभव, अपने प्रकृत आत्म-स्वरूप में नहीं बल्कि सतही व्यावहारिक प्रकृति में दिव्य सत्ता के ऐक्य में विभाजन के या विदारण के तत्त्व या प्रभावकारी व्यापार का निरूपण करते हैं । यह विभाजन अपने अनिवार्य व्यावहारिक प्रभाव में दिव्य चेतना और ज्ञान का, दिव्य आनंद और सौंदर्य का, दिव्य शक्ति और क्षमता का, दिव्य सामंजस्य और शुभ का परिसीमन हो जाता है । पूर्णता और समग्रता का परिसीमन हो जाता है, इन चीजों को देखने के लिये हमारी आंखों में अंधता आ जाती है, उनका अनुसरण करने में लंगड़ापन आ जाता है, उनका अनुभव करने में खंडन आ जाता है, शक्ति और तीव्रता का ह्रास हो जाता है, गुण नीचे उतर आता है -यह आध्यात्मिक ऊंचाइयों से उतरने का चिह्न या ऐसी चेतना का चिह्न है जो निश्चेतना की असंवेदनशील तटस्थ एकस्वरता में से उभर रहीं है । जो तीव्रताएं उच्चतर क्षेत्रों में सामान्य और स्वाभाविक होती हैं वे हमारे अंदर खो जाती हैं या हल्की पड़ जाती हैं ताकि वे हमारे भौतिक जीवन की कालिमाओं और धुंधलेपन के साथ मेल खा सकें । एक गौण और बाहरी प्रभाव द्वारा इन उच्चतम चीजों में एक और विकार भी आ जाता है । हमारी सीमित मानसिकता में निश्चेतना और गलत चेतना हस्तक्षेप करती है, अज्ञान हमारी सारी प्रकृति को ढक लेता है और - अपूर्ण इच्छा और ज्ञान के दुरुपयोग या गलत निर्देशन के कारण, हमारी घटी हुई चित्-शक्ति की यांत्रिक प्रतिक्रिया के और हमारे पदार्थ की अयोग्य दरिद्रता के कारण -दिव्य तत्त्वों की विरोधी चीजें अक्षमता, तमसू मिथ्यात्व, भ्रांति, कष्ट और दुःख, गलत क्रियाएं असंगति, अशुभ रूप लेती हैं । हमेशा हमारे अंदर कहीं पर छिपी हुई, हमारे अंतरालों में पोषित, सचेतन प्रकृति में प्रत्यक्ष रूप से अनुभव न होने पर भी, ये चीजें हमारे जिन अंगों को यातना देती हैं उनके द्वारा अस्वीकृत होने पर भी, विभाजन के अनुभव के लिये आसक्ति, सत्ता के विभक्त मार्ग से लगाव बना रहता है जो इन दुःखों के उन्मूलन या उनके त्याग और निष्कासन को रोकता है । चूंकि समस्त अभिव्यक्ति की जड़ में है चित्-शक्ति और आनंद अतः कोई चीज तबतक नहीं टिक सकती जबतक हमारी प्रकृति में उसके लिये इच्छा न हो, पुरुष की स्वीकृति न हो, सत्ता के किसी भाग में अविच्छिन्न सुख न हो, भले ही उसे जारी रखने में वह प्रच्छन्न या विकृत सुख क्यों न हों ।

३८९


जब हम कहते हैं कि सब कुछ दिव्य अभिव्यक्ति है, यहांतक कि वह भी जिसे हम अदिव्य कहते हैं, तो हमारा मतलब यह होता है कि अपने मूल में सब कुछ दिव्य है, भले उसका रूप हमें चकराता या पीछे धकेलता हो । या अगर इसे एक सूत्र के रूप में रखें जो हमारी मनोवैज्ञानिक समझ के लिये स्वीकार करने में आसान है, तो हम कहेंगे कि सभी चीजों में एक उपस्थिति है, एक आदि सद्वस्तु है, आत्मा, भगवान्, ब्रह्म है जो सर्वदा शुद्ध, पूर्ण, आनंदमय, अनंत रहता है । उसकी अनंतता सापेक्ष चीजों की सीमाओं से प्रभावित नहीं होती, उसकी शुद्धता पर हमारे पाप और अशुभ का दाग नहीं लगता, उसके आनंद को हमारा दुःख-दर्द छू भी नहीं सकता, उसकी पूर्णता हमारी चेतना, ज्ञा, इच्छा और ऐक्य की त्रुटियों की वजह से क्षीण नहीं होती । उपनिषदों के कुछ रूपकों में दिव्य पुरुष का वर्णन अग्नि के रूप में किया गया है जो सभी रूपों में प्रविष्ट है और अपने-आपको हर एक के आकार के अनुसार बना लेता है जैसे एक सूर्य सभी को निष्पक्ष रूप से प्रकाश देता है और हमारी दृष्टि के दोषों से प्रभावित नहीं होता । लेकिन यह प्रतिपादन भी काफी नहीं है, यह समस्या को हल किये बिना छोड़ देता है । जो अपने-आप सदा-सर्वदा शुद्ध पूर्ण, आनंदमय, अनंत रहता है वह क्यों अपनी अभिव्यक्ति में अपूर्णता और सीमाएं, अशुद्धि और दुःख-दर्द, मिथ्यात्व और अशुभ को न केवल सह लेता है, बल्कि लगता तो ऐसा है कि वह इन्हें समर्थन और प्रोत्साहन देता है । इसमें समस्या संघटन करनेवाले द्वैत का कथन तो है पर समाधान नहीं ।

 

   अगर हम जीवन के इन दो विसंगत तथ्यों को एक दूसरे की उपस्थिति में यूं ही खड़ा छोड़ दें तो हम इस परिणाम पर पहुंचेंगे कि इनमें समाधान बिठाना संभव ही नहीं है । हम बस इतना ही कर सकते हैं, हमसे जितना अधिक बन पड़े, शुद्ध और तात्त्विक भागवत उपस्थिति के आनंद के गहरे होते हुए भाव से चिपके रहें और विसंगत बाह्यताओं के साथ जो अच्छे-से-अच्छा कर सकते हैं तबतक करें जबतक हम उसके स्थान पर उसके दिव्य विपरीत के विधान को लागू न कर सकें । या फिर हमें समाधान की जगह बच निकलने का उपाय ढूंढ़ना होगा । क्योंकि हम कह सकते हैं कि केवल भीतरी उपस्थिति ही एकमात्र सत्य है और विसंगत बाह्यता अज्ञान के रहस्यमय तत्त्व द्वारा बनाया गया मिथ्यात्व या भ्रांति है । हमारी समस्या है अभिव्यक्त जगत् के मिथ्यात्व मे से छिपी हुई सद्वस्तु के सत्य मैं बच निकलने का कोई उपाय खोज निकालना । या फिर हम बौद्धों के साथ यह मान सकते हैं कि व्याख्या की कोई जरूरत नहीं क्योंकि वस्तुओं की अपूर्णता और नश्वरता एक व्यावहारिक तथ्य है, न कोई आत्मा है न भगवान् या ब्रह्म क्योंकि यह सब भी हमारी चेतना का भ्रम है । मोक्ष के लिये एकमात्र जरूरी चीज है भावों के दृढ़ ढांचे से और क्रिया की स्थायी ऊर्जा से पिंड छुड़ाना, जो नश्वरता के प्रवाह में निरंतरता को बनाये रखती है । मोक्ष के इस मार्ग पर हम निर्वाण में आत्म-समापन प्राप्त

३९०


करते हैं । वस्तुओं की समस्या हमारे आत्म-समापन द्वारा अपने-आप समाप्त हो जाती है । यह समस्या से बचने का उपाय तो है लेकिन, यह सच्चा और एकमात्र उपाय नहीं मालूम होता । दूसरे समाधान भी पूरी तरह संतोषजनक नहीं हैं । यह तो एक तथ्य है कि असंगत अभिव्यक्ति को अपनी आंतरिक चेतना में से सतही बाह्यता मानकर अलग करके, शुद्ध, पूर्ण उपस्थिति पर ही जोर देकर हम व्यक्तिगत रूप से इस नीरव दिव्यता के गहरे आनंदमय भाव को पा सकते हैं, उस मंदिर में प्रवेश कर सकते और प्रकाश तथा आनंद में निवास कर सकते हैं । यथार्थ पर, शाश्वत पर ऐकांतिक आंतरिक एकाग्रता संभव है, आत्म-निमज्जन भी संभव है जिसके द्वारा हम विश्व के विसवादों को छोड़ सकते या अलग कर सकते हैं । लेकिन साथ ही कहीं पर गहराई में हमारे अंदर समग्र चेतना की आवश्यकता भी है । प्रकृति में संपूर्ण भगवान् के लिये एक गुप्त वैश्व खोज भी है । सत्ता की किसी संपूर्ण अभिज्ञता, आनंद और शक्ति के लिये आवेग भी है । ये समाधान समग्र सत्ता की, समग्र ज्ञान की इस आवश्यकता को, हमारी संपूर्ण इच्छा को पूरी तरह संतुष्ट नहीं करते । जबतक कि जगत् की व्याख्या दिव्य रूप में नहीं की जाती, हमारा भगवान् का ज्ञान अपूर्ण रहता है क्योंकि जगत् भी तत् है और जबतक वह हमारी चेतना के आगे दिव्य सत्ता के रूप में नहीं आता और हमारी चेतना की शक्तियां उसे दिव्य सत्ता के भाव में ग्रहण नहीं करती तबतक संपूर्ण दिव्यता पर हमारा अधिकार नहीं होता ।

 

   समस्या से एक और तरह से भी बचा जा सकता है क्योंकि सदा सारभूत उपस्थिति को स्वीकार करते हुए हम पूर्णता के बारे में मानव दृष्टि को ठीक करके या उसे बहुत अधिक सीमित मानसिक मानक कहकर एक तरफ करके, अभिव्यक्ति की दिव्यता को उचित ठहराने का प्रयास कर सकते हैं । हम कह सकते हैं कि न केवल वस्तुओं के अंदर आत्मा पूरी तरह पूर्ण और दिव्य है बल्कि हर चीज अपने-आपमें, उसे सत्ता की संभावनाओं में से जिस चीज को अभिव्यक्त करना है, उसकी अपनी अभिव्यक्ति में, पूर्ण अभिव्यक्ति में अपना उचित स्थान धारण करने में सापेक्ष रूप से पूर्ण और दिव्य है । हर चीज अपने-आपमें दिव्य है क्योंकि हर एक दिव्य सत्ता, ज्ञान और इच्छा का तथ्य और भाव है और अभिव्यक्ति विशेष के नियम के अनुसार अचूक रूप से अपनी परिपूर्ति कर रही है । हर सत्ता को ठीक उसकी प्रकृति के अनुसार ज्ञान, शक्ति, सत्ता के आनंद का उचित प्रकार और उचित मात्रा प्राप्त होती है और हर एक गुप्त अंतर्लीन इच्छा द्वारा, सहज धर्म, आत्मा की अंतस्थ शक्ति और एक गुह्य तात्पर्य द्वारा आदिष्ट अनुभव के श्रेणीक्रम में कार्य करती है । इस तरह वह अपने जगत्-व्यापारों और स्वधर्म के बीच के संबंधों में पूर्ण रहती है क्योंकि सभी उससे सामंजस्य रखते, उसी में से प्रकट होते, जीव में क्रिया करनेवाली दिव्य इच्छा और ज्ञान की अचूकता के

३९१


अनुसार अपने-आपको उसके प्रयोजन के अनुकूल बना लेते हैं । वह समग्र के साथ अपने संबंध में, और समग्र में अपने उचित स्थान में भी पूर्ण और दिव्य होती है । उस समग्रता के लिये यह आवश्यक होती है और उसमें वह ऐसी भूमिका निभाती है जिसके द्वारा विश्व-सामंजस्य की वास्तविक और प्रगतिशील पूर्णता, उसमें उसके समग्र प्रयोजन और उसके समग्र अर्थ के प्रति सबके अनुकूलीकरण को सहायता और परिपूर्ति मिलती है । अगर चीजें हमें अदिव्य दीखती हैं, अगर हम इस या उस व्यापार को दिव्य सत्ता की प्रकृति के साथ असंगत कहकर लांछित करते हैं तो इसलिये कि हम जगत् की समग्रता में भगवान् के भाव और प्रयोजन से अनभिज्ञ हैं । चूंकि हम केवल भाव और खंड देखते हैं, हम हर एक के बारे में इस भांति निर्णय करते हैं मानों वही पूर्ण हों, इसी तरह बाहरी व्यापारों का निर्णय भी उनके गुप्त अर्थ जाने बिना ही करते हैं । लेकिन ऐसा करके हम अपने वस्तुओं के मूल्यांकन को दूषित कर देते हैं, उस पर एक प्रारंभिक और आधारभूत भ्रांति की मुहर लगा देते हैं । पूर्णता किसी वस्तु में उसकी पृथक्ता के साथ निवास नहीं कर सकती क्योंकि वह पृथक्ता भ्रम है । पूर्णता है समग्र भागवत सामंजस्य की पूर्णता ।

 

   यह सब एक बिंदु विशेषतक और अपनी सीमा में ही सच हो सकता है लेकिन यह भी अपने-आपमें एक अपूर्ण समाधान है और हमें पूरा-पूरा संतोष नहीं दे सकता । यह मानव चेतना और मानव दृष्टि का काफी ख्याल नहीं रखता, उन्हींसे तो हम आरंभ करते हैं, वह जिस सामंजस्य की बात करता हैं उसकी हमें झलक नहीं दिखाता इसलिये वह हमारी मांग को पूरा नहीं कर सकता और न ही विश्वास दिला सकता है । वह केवल एक शुष्क बौद्धिक धारणा द्वारा अशुभ और अपूर्णता की वास्तविकता के हमारे तीव्र बोध का प्रतिवाद करता है । वह हमारी प्रकृति में चैत्य तत्त्व का ज्योति और सत्य की ओर, आध्यात्मिक विजय, अपूर्णता और अशुभ पर विजय की ओर अंतरात्मा की अभीप्सा का पथ-प्रदर्शन नहीं करता । अपने-आपमें वस्तुओं के बारे में हमारी यह दृष्टि इस सीधे-से मत सें बढ़ कर कुछ नहीं है कि जो कुछ है ठीक है क्योंकि सब कुछ दिव्य प्रज्ञा द्वारा पूरी तरह समादिष्ट है । वह हमें एक आत्मतुष्ट बौद्धिक और दार्शनिक आशावाद से बढ़कर कुछ नहीं देता; इसमें पीड़ा, दुःख और विसंगति के क्षुब्ध करनेवाले तथ्य पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता जिनका हमारी मानव चेतना को सदा व्याकुल साक्षी बनना पड़ता है । अधिक से अधिक यह संकेत मिलता है कि वस्तुओं के दिव्य कारण में इन सब चीजों की चाबी है लेकिन उसतक हमारी पहुंच नहीं है । लेकिन ये हमारे असंतोष और हमारी अभीप्सा का पर्याप्त उत्तर नहीं हैं, जो अपनी प्रतिक्रियाओं में चाहे जितने अज्ञानी क्यों न हों, अपने मानसिक हेतुओं में चाहे जितने घुले-मिले क्यों न हों फिर भी उन्हें हमारी सत्ता की गहराई में किसी दिव्य वास्तविकता के साथ मेल खाना

३९२


चाहिये । जो दिव्य समग्र केवल अपने भागों की अपूर्णता के कारण ही पूर्ण है उसके बारे में यह खतरा रहता है कि वह स्वयं केवल अपूर्णता में पूर्ण है क्योंकि वह किसी अनुपलब्ध प्रयोजन के मार्ग में किसी अवस्था को पूरी तरह चरितार्थ करता है । अतः वह वर्तमान समग्रता भर है, परम समग्रता नहीं । यहां हम एक यूनानी कहावत का प्रयोग कर सकते हैं जिसका अर्थ है, ''भगवान् अभीतक सत्ता में नहीं, संभूति मे हैं ।'' तो सच्चे भगवान् शायद हमारे अंदर गुप्त और हमारे ऊपर परम होंगे और सच्चा समाधान होगा अपने अंदर या अपने ऊपर भगवान् को पाना, उसी तरह पूर्ण होना जैसे वे पूर्ण हैं, उनके साथ साम्य पाकर या उनकी प्रकृति के विधान को पाकर मोक्ष प्राप्त करना -सादृश्य और साधर्म्य ।

 

   अगर मानव चेतना अपूर्णता के भाव के साथ बंधी होती और उसे अपने जीवन का विधान और हमारे अस्तित्व के निश्चित लक्षण के रूप में मानने के लिये बाधित होती -यह न्यायसिद्ध स्वीकृति हमारी मानव प्रकृति में पशु-प्रकृति की अंध पाशविक स्वीकृति के उत्तर के समान होती -तब हम कह सकते थे कि हम जो कुछ हैं वह हमारे अंदर दिव्य आत्माभिव्यक्ति की सीमा है । हम यह भी मान सकते थे कि हमारी अपूर्णताएं और हमारे दुःख-दर्द वस्तुओं के सामान्य सामंजस्य और पूर्णता के लिये कार्य करते हैं । हम अपने-आपको अपने घावों के लिये दी गयी इस दार्शनिक मरहम (अमृत धारा) से सांत्वना दे सकते थे । हमारी अपूर्ण मानसिक बुद्धिमत्ता और हमारे अधीर प्राणिक अंग जितनी न्याय-संगत सावधानी या दार्शनिक दूरदर्शिता और वश्यता का अवकाश दें उसे लेकर जीवन के चोरगढ़ो में चक्कर लगाने में हीं हम संतुष्ट रह सकते थे । या फिर अधिक सान्त्वना देनेवाले धार्मिक उत्साह की शरण लेकर हम हर चीज को भगवान् की इच्छा मान कर उसके आगे इस आशा या श्रद्धा के साथ झुक सकते थे कि इसके बदले में हमें परलोक में स्वर्ग मिलेगा जहां हम एक ज्यादा सुखी जीवन में प्रवेश करेंगे और अधिक शुद्ध और पूर्ण प्रकृति को धारण करेंगे । लेकिन हमारी मानव चेतना और उसकी क्रियाओं में एक सारभूत तत्त्व है जो उसे, बुद्धि से कम नहीं, पशु से एकदम अलग करता है । हमारे अंदर केवल एक मानसिक भाग ही नहीं है जो अपूर्णताओं को पहचानता है, एक चैत्य भाग भी है जो उसे अस्वीकार करता है । पृथ्वी पर जीवन-विधान के रूप में अपूर्णता के प्रति हमारी अंतरात्मा का असंतोष, हमारी प्रकृति में सभी अपूर्णताओं के निराकरण के लिये उसकी अभीप्सा -और यह केवल किसी परलोक के स्वर्ग में नहीं जहां वैसे अपूर्ण होना असंभव होगा बल्कि यहां और अभी, ऐसे जीवन में जहां पूर्णता को विकास और संघर्ष के द्वारा जीत लाना है -यह असंतोष और यह अभीप्सा भी हमारी सत्ता के उसी तरह विधान हैं जैसे वे जिनके विरुद्ध ये विद्रोह कर रहे हैं । वे भी दिव्य हैं -एक दिव्य असंतोष, एक दिव्य अभीप्सा । उनके अंदर भीतर की एक ऐसी शक्ति की अंतस्थ ज्योति है

३९३


जो उन्हें हमारे अंदर बनाये रखती है ताकि भगवान् वहां हमारी आध्यात्मिक गुह्यताओं मे एक छिपी सद्वस्तु के रूप में ही न रहें बल्कि अपने-आपको प्रकृति के विकास में उन्मीलित करें ।

 

   इस प्रकाश में हम यह मान सकते हैं कि सब कुछ दिव्य प्रज्ञा द्वारा पूरी तरह से भागवत लक्ष्य की ओर कार्य करता चलता है और इसलिये उस अर्थ में हर चीज अपने स्थान पर भली-भांति व्यवस्थित है लेकिन हम कहते हैं कि यही पूरा दिव्य उद्देश्य नहीं है । क्योंकि जो कुछ है उसे अपने औचित्य, पूर्ण अर्थ और संतोष की प्राप्ति केवल उसके द्वारा होती है जो हो सकता है और होगा । निःसंदेह दिव्य तर्क में एक ऐसी कुंजी है जो चीजों के उस रूप का औचित्य भी सिद्ध करेगी जिसमें वे अभी हैं, वह उनकी सार्थकता और सच्चा रहस्य, बाहरी अर्थ और गोचर प्रतीतियों से अलग, अधिक सूक्ष्म, अधिक गहरे रूप प्रकट करेगी जब कि हमारी वर्तमान बुद्धि साधारणत: उन बाहरी अर्थों और गोचर रूपों को ही पकड़ सकती है । लेकिन हम बस इसी विश्वास से संतुष्ट नहीं रह सकते कि उनमें कोई दिव्य अर्थ और प्रयोजन है जो हमसे परे है क्योंकि हमारी सत्ता का धर्म है आध्यात्मिक चाबी की खोज करना और उसे प्राप्त करना । प्राप्ति का चिह्न दार्शनिक, बौद्धिक मान्यता, उदासीनता या वस्तुएं जैसी हैं उसी तरह से उनकी इस कारण बुद्धिमत्तापूर्ण स्वीकृति नहीं है कि उनमें कोई दिव्य अर्थ और प्रयोजन है जो हमसे परे है । सच्चा लक्षण है आध्यात्मिक ज्ञान और शक्ति की ओर उत्थान जो हमारे जीवन के विधान और बाहरी जीवन के रूपों और व्यापार को रूपांतरित कर दे और हमारे जीवन को उस दिव्य भाव और प्रयोजन के सच्चे बिंब के ज्यादा नजदीक ला सके । यह ठीक और युक्तियुक्त है कि दुःख और अपूर्णता की आधीनता को भगवान् की इस समय की इच्छा के रूप में, हमारे अंगों पर आरोपित अपूर्णता के वर्तमान नियम के रूप में समता के साथ सहा जाये । लेकिन इस शर्त पर कि हम अशुभ और दुःख का अतिक्रमण करने और अपूर्णता को पूर्णता में रूपांतरित करने तथा दिव्य प्रकृति के उच्चतर विधानतक उठने को भी अपने अंदर भगवान् की इच्छा के रूप में जानें और स्वीकार करें । हमारी मानव चेतना में सत्ता के आदर्श सत्य, दिव्य प्रकृति और प्रारंभिक देव का एक बिंब होता है । उस उच्चतर सत्य की तुलना में हमारी वर्तमान अपूर्णता की स्थिति को सापेक्ष रूप में अदिव्य जीवन, और हम जगत् की जिन अवस्थाओं से शुरू करते हैं, उन्हें अदिव्य स्थितियां कह सकते हैं । अपूर्णताएं हमें यह बतलाने के लिये दिये गये संकेत हैं कि वे प्रथम छद्मवेशों के रूप में हैं, दिव्य सत्ता और दिव्य प्रकृति की अभीष्ट अभिव्यक्ति नहीं । हमारे अंदर एक शक्ति है, छिपी हुई दिव्यता है जिसने अभीप्सा की ज्वाला जगायी हैं, जो आदर्श के बिंब को चित्रित करती है, जो हमारे असंतोष को जीवित रखती है, हमें छद्मवेशों को उतार फेंकने के लिये प्रेरित करती है और इस पार्थिव प्राणी की अभिव्यक्त आत्मा, मन,

३९४


प्राण और शरीर में प्रकट होने या वैदिक भाषा में कहें तो परम देव को रूपायित और अनावृत करने के लिये प्रेरित करती है । हमारी वर्तमान प्रकृति केवल संक्रमणकालीन हो सकती है, हमारी अपूर्ण स्थिति एक और उच्चतर, विशालतर और बृहत्तर स्थिति को पाने के लिये आरंभ-बिंदु और अवसर हो सकती है जो न केवल अपने अंदर गुप्त आत्मा में बल्कि जीवन के अभिव्यक्त और जीवन के अत्यंत बाहरी रूप में भी दिव्य और पूर्ण होगी ।

 

   लेकिन ये निष्कर्ष हमारी आंतरिक आत्मानुभूति और वैश्व जीवन के भासमान तथ्यों पर आधारित प्रारंभिक तर्क या प्राथमिक अंतर्भास मात्र हैं, वे तबतक पूरी तरह प्रामाणिक नहीं माने जा सकते जबतक कि हम अज्ञान, अपूर्णता और दुःख का सच्चा कारण और वैश्व व्यवस्था में या वैश्व प्रयोजन में उनका स्थान न जान लें । अगर हम दिव्य सत्ता को स्वीकार करें तो भगवान् और जगत् के बारे में तीन मत पाये जाते हैं जिनकी साक्षी मानवजाति की सामान्य बुद्धि और चेतना देती है । लेकिन इन तीन में से एक, जो जिस जगत् में हम रहते हैं उसकी प्रकृति के कारण अनिवार्य है, ऐसा है जिसका बाकी दो के साथ सामंजस्य नहीं बैठता और इस असामंजस्य के कारण मानव मन विरोधों की बड़ी उलझनों में जा गिरता है और सदेह तथा इंकार की ओर प्रवृत्त होता है । क्योंकि पहले हम ऐसे सर्व-व्यापक भगवान् और सद्वस्तु का प्रतिपादन देखते हैं जो शुद्ध, पूर्ण और आनंदमय है, जिसके बिना, जिससे अलग किसी भी चीज का अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि सबका अस्तित्व केवल उसीके द्वारा और उसीकी सत्ता में हैं । इस विषय की सभी विचारधाराएं जो नास्तिक या जड़वादी या आदिम और मानव गुणारोपण करनेवाली नहीं हैं उन्हें इसी मान्यता से आरंभ करना या इसी मूलगत धारणा पर पहुंचना होगा । यह सच है कि कुछ धर्म ऐसे भगवान् को मानते हुए मालूम होते हैं जो विश्व के बाहर है, जिसने अपनी सत्ता से अलग और उसके बाहर जगत् की रचना की है लेकिन जब वे धर्मशास्त्र या आध्यात्मिक दर्शन बनाने बैठते हैं तो उन्हें भी सर्वव्यापकता या अंतर्व्यापकता को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि यह सर्वव्यापकता अपने-आपको आध्यात्मिक चिंतन की आवश्यकता के रूप में आरोपित करती है । अगर कोई ऐसी दिव्यता, आत्मा या सद्वस्तु है तो उसे हर जगह, एक और अविभाज्य होना चाहिये । उसके अस्तित्व से अलग और किसी चीज का अस्तित्व संभव नहीं हो सकता, उस तत् को छोड़कर और किसी से कोई चीज पैदा नहीं हो सकती, कोई चीज उसके सहारे के बिना, उससे स्वतंत्र नहीं रह सकती, उसकी सत्ता के श्वास और शक्ति से भरी न हो ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती । वस्तुत: यह माना गया है कि अज्ञान, अपूर्णता और इस जगत् के दुःख को भागवत सत्ता से अवलंब नहीं मिलता, तो तब हमें दो भगवान् मानने होंगे एक अहुर्मज़्द मंगलमय ईश्वर और दूसरा अहिर्मन अमंगलमय ईश्वर या शायद एक पूर्ण, अति-वैश्व और

३९५


अंतस्थ सत्ता और दूसरी अपूर्ण, वैश्व स्रष्टा या पृथक् अदिव्य प्रकृति । यह एक संभव धारणा तो है पर हमारी उच्चतम बुद्धि के लिये असंभव है -यह अधिक-से-अधिक वस्तुओं का एक गौण रूप हो सकता है, मौलिक सत्य या समग्र सत्य नही । और न हम यह मान सकते हैं कि सबमें जो एक आत्मा या आध्यात्म सत्ता है वह और सबकी सृष्टि करनेवाली जो एक शक्ति है वह अलग-अलग हैं, अपनी सत्ता के स्वरूप में एक-दूसरे से उल्टी हैं, अपनी इच्छा और उद्देश्य में अलग-अलग हैं । हमारी बुद्धि हमसे कहती है, हमारी अंतर्भासात्मक चेतना यह अनुभव करती है और आध्यात्मिक अनुभव उनकी साक्षी का अनुमोदन करता है कि एक शुद्ध निरपेक्ष सत् सभी चीजों और सत्ताओं में विद्यमान है जैसे सभी चीजें और सत्ताएं उसके अंदर और उससे विद्यमान हैं और सबमें निवास करनेवाली, सबको सहारा देनेवाली इस उपस्थिति के बिना किसीका अस्तित्व हो नहीं सकता या कुछ हो भी नहीं सकता ।

 

   पहली मान्यता के परिणामस्वरूप जिस दूसरे सिद्धांत को स्वाभाविक रूप से हमारा मन स्वीकार करता है वह यह है कि सभी चीजें अपने आधारभूत संबंधों और अपनी प्रक्रियाओं में इस सर्वव्यापक दिव्यता की परम चेतना और परम शक्ति के द्वारा अपने पूर्ण वैख ज्ञान और दिव्य प्रज्ञा में से व्यवस्थित और शासित होती हैं । लेकिन दूसरी ओर चीजों की वास्तविक प्रक्रिया और वास्तविक संबंध, जिन्हें हम देखते हैं, जिस तरह वे हमारी मानव चेतना के आगे प्रस्तुत किये जाते हैं, अपूर्णता के, परिसीमन के संबंध हैं । उनमें असामंजस्य बल्कि विकृति दिखलायी देती है; ऐसी चीज जो हमारी भागवत सत्ता की धारणा के विपरीत है, जो भागवत सत्ता का प्रतीयमान निषेध या कम-से-कम विकृत रूप या छद्मवेश तो है ही । अब यहां एक तीसरा प्रतिपादन उठ खड़ा होता है कि भागवत-सद्वस्तु और जगत्-सद्वस्तु सारतत्त्व में या क्रम में अलग-अलग हैं, इतनी ज्यादा अलग कि हमें एक के पास पहुंचने के लिये दूसरे से हटना पड़ेगा । अगर हम दिव्य निवासी को पाना चाहें तो हमें उस जगत् को त्याग देना होगा जिसमें वह निवास करता और जिसपर वह शासन करता है, जिसे उसने अपनी ही सत्ता में बनाया या अभिव्यक्त किया है । इन तीनों में से पहला प्रतिपादन अनिवार्य है, दूसरे को भी मान्य होना चाहिये यदि सर्वशक्तिमान् भगवान् का उस जगत् के साथ, जिसमें वह निवास करता है और उसकी अभिव्यक्ति, निर्माण, संरक्षण और शासन से उसका कोई संबंध है तो । लेकिन तीसरा सिद्धांत भी स्वतः सिद्ध मालूम होता है फिर भी उसका पहले दो से मेल नहीं बैठता और यह असंगति हमारे सामने ऐसी समस्या खड़ी कर देती है जिसका संतोषजनक समाधान संभव नहीं मालूम होता ।

 

   दार्शनिक बुद्धि की या धर्म-शास्त्र के तर्क की किसी रचना द्वारा कठिनाई को उड़ा देना कठिन नहीं है । एपीक्यूरस के देवों की तरह किसी निश्चेष्ट देवता को खड़ा

३९६


करना संभव है जो अपने-आपमें आनंदमय हो और प्रकृति के किसी यांत्रिक नियम के द्वारा भली-भांति या बुरी तरह बने जगत् को देखता रहे पर स्वयं उदासीन रहे । हमें अधिकार है कि एक ऐसी साक्षी आत्मा को, वस्तुओं के अंदर एक ऐसी नीरव अंतरात्मा को, एक ऐसे पुरुष को मान लें जो प्रकृति को अपनी मरजी के मुताबिक करने दे और उसकी सारी व्यवस्था और सारी अव्यवस्था को अपनी निष्क्रिय और अकलुष चेतना में प्रतिभासित करने में ही संतुष्ट रहे; या एक ऐसी परम आत्मा जो निरपेक्ष, निष्क्रिय है, सभी संबंधों से मुक्त है, वैश्व भ्रांति या सृष्टि के कार्यों से उदासीन है, ऐसी सृष्टि से जो रहस्यमय या विरोधाभासी रूप में उसीसे या उसके विरुद्ध उत्पन्न हुई हैं और जो कालगत जीवों को प्रलोभन देने या सताने के लिये है । लेकिन ये सब समाधान हमारे द्विविध अनुभव की प्रत्यक्ष असंगति को प्रतिबिंबित करने से बढ़कर कुछ नहीं करते, वे मेल बैठाने की या उसे हल करने और उसे समझाने की कोशिश नहीं करते बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष द्वैत के द्वारा और अविभाज्य के अनिवार्य विभाजन द्वारा उनका केवल दृढ़ समर्थन करते हैं । व्यावहारिक रूप से विविध देवत्व को, आत्मा या पुरुष तथा प्रकृति को मान लिया गया है लेकिन प्रकृति, वस्तुओं के अंदर की शक्ति, अंतरात्मा की, वस्तुओं की तात्त्विक सत्ता की शक्ति के सिवा कुछ और नहीं हो सकती । प्रकृति के कार्य आत्मा या पुरुष से एकदम स्वतंत्र नहीं हो सकते, पुरुष की स्वीकृति या अस्वीकृति से अप्रभावित, प्रकृति के अपने ही विपरीत परिणाम और क्रिया नहीं हो सकते, पुरुष की यांत्रिक निष्क्रियता की तामसिकता पर यांत्रिक शक्ति का जबर्दस्ती आरोपण भी नहीं हो सकते । फिर यह मान लेना भी संभव है कि एक केवल अवलोकन करनेवाली निष्क्रिय आत्मा है और एक सक्रिय सृजनशील देव लेकिन यह तरकीब भी काम नहीं देती क्योंकि अंत में इन दोनों को एक ही होना चाहिये जिसके दो पक्ष हैं, देवत्व जो निरीक्षण करनेवाली आत्मा का सक्रिय पक्ष है, साक्षी आत्मा जो अपने ही देवत्व को क्रियारत देखती है । ज्ञानमय आत्मा और उसीके कर्मरत पक्ष के बीच एक असंगति, खाई है जिसकी व्याख्या जरूरी है लेकिन वह अपने-आपको ऐसे रूप में प्रकट करती है जिसकी न तो कोई व्याख्या की गयी है न की जा सकती है । या फिर हम यह मान सकते हैं कि सद्वस्तु ब्रह्म की द्विविध चेतना है, एक निष्क्रिय दूसरी सक्रिय, एक सार स्वरूप और आध्यात्मिक है जिसमें वह पूर्ण और निरपेक्ष आत्मा है, दूसरा रूप है रचना करनेवाला और व्यावहारिक जिसमें वह अनात्मा हो जाता है और जिसमें उसकी पूर्णता और निरपेक्षता को भाग लेने की परवाह नहीं होती क्योंकि वह कालातीत सद्वस्तु में एक कालिक रचना मात्र है । लेकिन हम, जो चाहे केवल अर्द्ध-सत्, अर्द्ध-चेतन हैं फिर भी निरपेक्ष के जीवन के अर्द्ध-स्वप्न में निवास करते हैं, और प्रकृति द्वारा उसमें बहुत अधिक और सतत रस लेने और उसके साथ वास्तविक की तरह व्यवहार करने के लिये बाधित हैं, हमारे लिये यह

३९७


बात एक स्पष्ट रहस्यमयता का जामा पहन लेती है क्योंकि यह कालिक चेतना और उसकी रचनाएं भी अंत में उस एक आत्मा की शक्ति हैं, उसपर आधारित हैं, केवल उसीके सहारे रह सकती हैं । जो चीज सद्वस्तु की शक्ति से ही अस्तित्व रखे हुए है वह सद्वस्तु से या उसीकी शक्ति से बने जगत् से असंबद्ध नहीं रह सकती । यदि जगत् का अस्तित्व परम आत्मा से है तो उसकी व्यवस्था और उसके संबंधों का अस्तित्व भी आत्मा की शक्ति के द्वारा ही होना चाहिये, उसका विधान भी आध्यात्मिक चेतना और सत्ता के किसी विधान के अनुसार ही होना चाहिये । आत्मा या सद्वस्तु को अपनी ही सत्ता में अस्तित्व रखनेवाली विश्व-चेतना के बारे में और विश्व-चेतना में अभिज्ञ होना चाहिये । आत्मा की, सद्वस्तु की शक्ति को सदा उसके प्रपंचों या उसकी क्रियाओं का निर्धारण करना या कम-से-कम स्वीकृति देते रहना चाहिये क्योंकि ऐसी कोई स्वतंत्र शक्ति या कोई प्रकृति नहीं हो सकती जो मूल, शाश्वत स्वयंभू से न निकली हो । वह चाहे और अधिक कुछ न करे फिर भी उसे सचेतन सर्वव्यापकता के तथ्य से ही विश्व का आरंभ और निर्धारण तो करना ही चाहिये । निःसंदेह यह आध्यात्मिक अनुभूति का एक सत्य है कि वैश्व क्रियाशीलता के पीछे अनंत के अंदर शांति और नीरवता की एक स्थिति है, एक चेतना है जो सृष्टि की निष्क्रिय साक्षी है लेकिन यही पूरी-पूरी आध्यात्मिक अनुभूति नहीं है और हम ज्ञान के एक ही पक्ष में विश्व की आधारभूत और समग्र व्याख्या पाने की आशा नहीं कर सकते ।

 

   एक बार हम विश्व के दिव्य शासन को स्वीकार कर लें तो हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना ही होगा कि शासन करने की शक्ति पूर्ण और अबाध होगी अन्यथा हम यह मानने के लिये बाधित होंगे कि एक अनंत और निरपेक्ष सत्ता और चेतना में वस्तुओं पर नियंत्रण में सीमित ज्ञान और इच्छा और उलझी हुई कार्य करने की शक्ति है । यह मानना असंभव नहीं है कि परम और अंतस्थ देव ने किसी ऐसी चीज को, जो उसकी पूर्णता में प्रादुर्भूत हो गयी है पर अपने-आपमें अपूर्ण है और अपूर्णता का कारण है, ऐसी चीज को, अज्ञानभरी और निश्चेतन प्रकृति को, मानव मन और इच्छा की क्रिया को, यहांतक कि अंधकार और अशुभ की सचेतन शक्ति या क्षमताओं को, जो आधारभूत निश्चेतना के राज्य पर खड़ी हैं, उन्हें कार्य करने की एक हदतक छूट दे रखी हो । लेकिन इनमें से कोई भी चीज 'उस'की निजी सत्ता, प्रकृति और चेतना से स्वतंत्र नहीं है । इनमें से कोई भी उसकी उपस्थिति, उसकी स्वीकृति या छूट के बिना कार्य नहीं कर सकती । मनुष्य की स्वाधीनता सापेक्ष है और उसे अपनी प्रकृति की अपूर्णता के लिये पूरी तरह जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता । प्रकृति का अज्ञान और उसकी निश्चेतना स्वतंत्र रूप से नहीं उठी हैं बल्कि उस एकमेव सत् में से उठी हैं । उसकी क्रियाओं की अपूर्णता अंतस्थ की किसी इच्छा से एकदम विजातीय नहीं हो सकती । यह माना जा सकता है कि जो

३९८


शक्तियां गतिशील बनायी गयी हैं उन्हें अपनी गतिविधि के नियम के अनुसार कार्यान्वित होने दिया जाता है, लेकिन जिसे दिव्य सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता ने अपनी सर्वव्यापकता में, अपनी सर्व-सत्ता में उठने और क्रिया करने दिया है वह, हमें मान लेना चाहिये कि उसीसे उत्पन्न और आविष्ट होगी क्योंकि उस सत्ता के आदेश के बिना न तो वह अस्तित्व में आ पाती न बनी रहती । अगर भगवान् को उस जगत् की जस भी परवाह है जिसे उन्होंने अभिव्यक्त किया है, तो स्वयं उनके सिवा कोई और प्रभु नहीं है और हम इस अनिवार्य परिणाम से न तो बच सकते हैं न इसे छोड़ सकते हैं कि वही आद्य और वैश्व सत्ता हैं । हमें अपूर्णता, दुःख और अशुभ की समस्या पर अपनी पहली मान्यता का, इस स्वतःसिद्ध परिणाम की भित्ति पर, उसके निहितार्थों की उपेक्षा किये बिना, विचार करना होगा ।

 

   पहले हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि यह जरूरी नहीं है, जैसा कि हम उतावली में मान लेते हैं कि जगत् में अज्ञान, भ्रांति, सीमाबंधन, दुःख, विभाजन और असंगति अपने-आपमें विश्व में विद्यमान भागवत सत्ता, चेतना, शक्ति, ज्ञान, इच्छा, आनंद का नकार या खंडन हैं । अगर हमें इन्हें अपने-आपमें अलग-अलग लेना पड़े तो वे ऐसे हो सकते हैं लेकिन अगर हमें वैश्व क्रिया के पूर्ण दृश्य में उनका स्थान और महत्त्व स्पष्ट दिखलायी दे तो ऐसा करने की जरूरत नहीं रहती । समग्र में से टूटा हुआ एक भाग अपूर्ण, भद्दा और समझ में न आ सकनेवाला हो सकता है लेकिन जब हम उसे संपूर्ण में देखते हैं तो वह सामंजस्य में फिर से अपना स्थान पा लेता है, उसका अर्थ और उपयोग होता है । दिव्य सद्वस्तु अपनी सत्ता में अनंत है, इस अनंत सत्ता में हम हर जगह सीमित सत्ता पाते हैं । यह एक ऐसा प्रत्यक्ष तथ्य है जिससे हमारा यहां का जीवन शुरू होता हुआ मालूम होता है और हमारे अपने संकीर्ण अहं और अहं-केन्द्रित क्रिया-कलाप इसके सतत साक्षी हैं । लेकिन वास्तव में जब हम पूर्ण आत्मज्ञानतक जा पहुंचते हैं तो हम देखते हैं कि हम सीमित नहीं हैं क्योंकि हम भी अनंत हैं । हमारा अहंकार वैश्व सत्ता का एक चेहरा मात्र है, उसकी कोई अलग सत्ता नहीं है । हमारा अलग दीखनेवाला व्यक्तित्व केवल एक सतही गति है और उसके पीछे हमारा सच्चा व्यक्तित्व फैल कर सभी चीजों के साथ एकत्व प्राप्त करता है और ऊपर उठकर परात्पर दिव्य अनंत के साथ एक हो जाता है । इस भांति हमारा अहं जो जीवन का सीमांकन मालूम होता है सचमुच अनंतता की एक शक्ति है । जगत् में सत्ताओं की निस्सीम बहुलता सीमांकन या सांतता का नहीं बल्कि असीम अनंतता का परिणाम और विशिष्ट प्रमाण है । प्रतीयमान विभाजन अपने-आपको कभी वास्तविक पृथक्ता में नहीं बदल सकता । उसे सहारा देता हुआ और उसका अतिक्रमण करता हुआ एक अविभाज्य एकत्व है जिसे स्वयं विभाजन भी विभाजित नहीं कर सकता । अहंकार का यह आधारभूत जगत्-तथ्य और प्रतीयमान विभाजन और जगत्-सत्ता

३९९


में उनकी पृथक् करनेवाली क्रियाएं एकत्व की और अविभाज्य सत् की दिव्य प्रकृति में प्रतिवाद नहीं हैं । वे अनंत बहुलता के सतही परिणाम हैं जो अनंत एकत्व की शक्ति है ।

 

   तो सत्ता का कोई वास्तविक विभाजन या परिसीमन नहीं है । सर्वव्यापक सद्वस्तु का कोई आधारभूत प्रत्याख्यान नहीं है लेकिन चेतना का वास्तविक परिसीमन अवश्य दिखायी देता है । आत्मा के बारे में अज्ञान है, आंतरिक दिव्यता पर पर्दा पड़ा है और समस्त अपूर्णता उसका परिणाम है क्योंकि हम मानसिक, प्राणिक और भौतिक रूप से इस सतही अहं की चेतना के साथ अपने-आपको एक कर लेते हैं । यह हमारा प्रथम आग्रहपूर्ण आत्मानुभव है । यह चेतना हमारे ऊपर आधारभूत वास्तविक नहीं परंतु व्यावहारिक विभाजन आरोपित करती है और इसके साथ उस परम सद्वस्तु से अलग होने के सभी अनिष्ट परिणाम आते हैं । परंतु यहां भी हमें इस बात का पता लगाना होता है कि भगवान् की क्रिया की दृष्टि से, सतह पर हमारी जो भी प्रतिक्रियाएं और जो भी अनुभव क्यों न हों, अज्ञान का यह तथ्य अपने-आपमें सच्चे अज्ञान की नहीं ज्ञान की क्रिया है, उसका अज्ञान का व्यापार एक सतही गति है क्योंकि उसके पीछे एक अविभाज्य सर्व-चेतना है । अज्ञान उस सर्व-चेतना की सम्मुखीन शक्ति है जो अपने-आपको अमुक क्षेत्र में, अमुक सीमाओं में -ज्ञान की किसी विशेष क्रिया के लिये, किसी प्रकार की सचेतन क्रिया के लिये-सीमित कर लेती है और बाकी ज्ञान को अपने पीछे एक शक्ति के रूप में प्रतीक्षा में रोके रखती है । वह सब जो इस तरह छिपा रहता है वह सर्व-चेतना के लिये प्रकाश और शक्ति का एक गुह्य भंडार होता है जहां से वह प्रकृति में हमारी सत्ता के विकास के लिये काम में ले सकती है । एक गुप्त क्रिया है जो सम्मुखीय अज्ञान की सभी त्रुटियों को भर देती है और प्रतीयमान स्थलनों के द्वारा क्रिया करती है, उन्हें ऐसे अंतिम परिणाम की ओर जाने से रोकती है जो सर्वज्ञान द्वारा समादिष्ट परिणाम से भिन्न है, अज्ञान में पड़ी अंतरात्मा को अनुभव से लाभ उठाने में सहायता देती है, यहांतक कि स्वाभाविक व्यक्तित्व के दुःखों और भ्रांतियो से भी वह सब लेने में सहायता देती है जो उसके विकास के लिये जरूरी है और जो उपयोगी नहीं रहा उसे पीछे छोड़ती जाती है । अज्ञान की यह सम्मुखीय शक्ति किसी सीमित क्रिया में एकाग्रता की शक्ति है । यह बहुत कुछ हमारी मानव मानसिकता की उस शक्ति की तरह है जिसके द्वारा हम अपने-आपको किसी विशेष विषय या विशेष कार्य में तल्लीन कर लेते हैं और तब ऐसा लगता है कि हम बस उतने-से ज्ञान, उतने भावों का उपयोग कर रहे हैं जितने उसके लिये जरूरी हैं, बाकी जो उससे विजातीय हैं या उसके काम में बाधा देंगे उन्हें उस समय के लिये पीछे रख दिया जाता है : फिर भी वास्तव में हम, सारे समय जो अविभाज्य चेतना हैं, उसीने वह सारा काम किया जिसे करना था, उस चीज को देखा है जिसे देखना

४००


था -वही, हमारे अंदर की कोई आंशिक चेतना या कोई ऐकांतिक अज्ञान नहीं, नीरव ज्ञाता या कार्यकर्ता होता हैं, यही बात हमारे अंदर सर्व-चेतना की एकाग्रता की सम्मुखीय शक्ति के बारे में भी है ।

 

   हमारी चेतना की गतियों के मूल्यांकन में एकाग्रता की यह क्षमता उचित रूप में मानव मानसिकता की सबसे बड़ी शक्तियों में गिनी जाती है । लेकिन समान रूप से, जो ऐकान्तिक रूप से सीमितज्ञान की क्रिया मालूम होती है, जो हमारे आगे अज्ञान के रूप में आती है उसे प्रकट करना भी दिव्य चेतना की सबसे बड़ी शक्तियों में से माना जाना चाहिये । केवल परम स्वरूप-स्थित ज्ञान ही इतना सशक्त हो सकता है कि जो अपने को क्रिया में इस तरह सीमित कर सके और फिर भी अज्ञान दीखनेवाली चीज के द्वारा अपने इरादों को पूर्णतया कार्यान्वित कर सके । विश्व में हम देखते हैं कि परम स्वरूप-स्थित ज्ञान अनेकविध अज्ञानों के द्वारा काम करता है, हर एक अपने ही अंधेपन के अनुसार कार्य करने की कोशिश करता है, फिर भी उन सबके द्वारा वैश्व सामंजस्यों का निर्माण और कार्यान्वयन करता है । और फिर उसकी सर्वज्ञता का चमत्कार सबसे अधिक आश्चर्यजनक रूप में उसमें दिखायी देता है जो हमें निश्चेतना की क्रिया मालूम होती है जब पूर्ण या आंशिक अविद्या द्वारा, जो हमारे अज्ञान से अधिक स्थूल होती है -विद्युदगु परमाणु कोषाणु वनस्पति, कीट-पतंग, पशु-जीवन के सबसे निचले रूपों में वह पूर्णतया अपनी वस्तुओं की व्यवस्था करती है और सहज वृत्तिवाले आवेग या निश्चेतन संवेग को एक ऐसे लक्ष्य की ओर संचालित करती है जो सर्व-ज्ञान के अधिकार में तो है लेकिन है पर्दे के पीछे, जिसे जीवन का यांत्रिक रूप नहीं जानता परंतु फिर भी आवेग या संवेग में पूर्णतया क्रियाशील है । तो हम कह सकते हैं कि अज्ञान या अविद्या का यह कार्य सचमुच अज्ञान नहीं है बल्कि सर्वज्ञ आत्मज्ञान और सर्व-ज्ञान की एक शक्ति, एक लक्षण, एक प्रमाण है । अगर हमें अज्ञान के पीछे की इस अविभाज्य सर्व चेतना के बारे में किसी व्यक्तिगत और आंतरिक साक्षी की जरूरत हो -समस्त प्रकृति उसका बाहरी प्रमाण है -तो हम उसे कुछ पूर्णता के साथ अपनी गहरी आंतरिक सत्ता में या विशाल और उच्च आध्यात्मिक स्थिति में तभी पा सकते हैं जब हम अपने सतही अज्ञान के पर्दे के पीछे जायें और उसके पीछे विद्यमान दिव्य भाव और इच्छा के साथ संपर्क में आयें । तब हम काफी स्पष्टता से देख सकते हैं कि हमने जिसे अपने अज्ञान में अपने-आप किया है उसे अदृश्य सर्वज्ञता देख रही और उसके परिणाम में उसका संचालन कर रही थी । हम अपनी अज्ञानभरी क्रियाओ के पीछे ज्यादा बड़ीं क्रिया को पाते हैं और अपने अंदर उसके प्रयोजन की झांकी पाना शुरु करते हैं । केवल तभी हम उसे देख और जान सकते हैं जिसकी अपनी श्रद्धा में हम अभी पूजा करते हैं, शुद्ध और वैश्व उपस्थिति (पुरुष) को पूरी तरह पहचान सकते हैं, सभी सक्तओं और समस्त प्रकृति के स्वामी से मिल सकते हैं ।

४०१


जैसा कारण -अज्ञान -के साथ है, वैसा ही अज्ञान के परिणाम के साथ है -जो कुछ हमें अक्षमता, दुर्बलता, निर्वीर्यता, शक्ति का सीमांकन, हमारी शक्ति का बाधाग्रस्त संघर्ष, बेड़ी-जड़ा श्रम मालूम होता है वह आत्म-क्रियारत भगवान् की दृष्टि से एक सर्वज्ञ शक्ति के उसकी अपनी इच्छा से समुचित सीमांकन का पहलू है ताकि सतही ऊर्जा उस कार्य के साथ ठीक मेल खाये जो उसे करना है, उसके प्रयास, उसे प्रदत्त सफलता या आवश्यक होने के कारण नियत असफलता के अनुरूप हो, जिन शक्तियों के समूह की वह ऊर्जा अंग हैं, उनके संतुलन के अनुरूप हो और उसके अपने परिणाम जिनके अविभाज्य अंश हैं उन विशालतर परिणामों के अनुरूप हो । शक्ति के इस परिसीमन के पीछे सर्व-शक्ति है और परिसीमन के अंदर वह सर्व-शक्ति काम कर रही है । लेकिन अविभाज्य सर्व-शक्तिमत्ता बहुत-सी सीमित क्रियाओं के समूह द्वारा अपने उद्देश्यों को अचूक और प्रभुत्वशाली रूप से सिद्ध करती है । अपनी शक्ति को सीमित करने और उस आत्म-परिसीमन द्वारा कार्य करने की वह शक्ति, जिसे हम परिश्रम, संघर्ष और कठिनाई कहते हैं, जो हमें असफलताओं या अधकचरी सफलताओं की एक शृंखला दिखायी देती है, उनके द्वारा अपने गुप्त प्रयोजन को सिद्ध करना दुर्बलता के चिह्न, प्रमाण या वास्तविकता न होकर उसकी अधिक-से-अधिक संभव, अबाध सर्वशक्तिमत्ता का चिह्न, प्रमाण या वास्तविकता है ।

 

   रही बात दुःख की जो हमारे लिये विश्व को समझने में इतनी बड़ी बाधा है । यह स्पष्ट है कि यह चेतना को सीमित करने का परिणाम है जो हमें उस स्पर्श पर अधिकार पाने या आत्मसात् करने से रोकता है जो हमें अन्य शक्ति प्रतीत होती है । इस अक्षमता और असामंजस्य का परिणाम यह होता है कि हम उस स्पर्श के आनंद को ग्रहण नहीं कर पाते और इसका प्रभाव हमारे इन्द्रिय-बोध में कष्ट या पीड़ा की प्रतिक्रिया के रूप में, अभाव या अतिरेक, बाह्य या आंतरिक क्षति में परिणामस्वरूप होनेवाली विसंगति के रूप में दिखायी देता है । यह हमारी सत्ता की शक्ति और हमें जो सत्ता की शक्ति मिलती है उन दोनों के बीच के विभाजन से पैदा होती है । हमारी आत्मा और आध्यात्म सत्ता में पीछे वैश्व सत्ता का सर्वानंद है जो उस स्पर्श को अपने ढंग से ग्रहण करता है । पहले तो दुःख-सहन में आनंद है, फिर उसपर विजय पाने में और अंत में उसके रूपांतर में, जो इसके बाद आयेगा, आनंद है । क्योंकि दुःख और दर्द अस्तित्व के आनंद की विकृत और विपरीत अभिधा हैं और वे अपने विपरीत रूप में, आदि सर्वानंद में भी बदल सकते हैं । यह सर्वानंद केवल विश्व पुरुष में ही नहीं है, वह यहां हमारे अंदर भी गुप्त रूप से है । जब हम बाहरी चेतना से अपने अंदर की आत्मा में लौट कर जाते हैं तो हमें इसका पता चलता है । हमारे अंदर चैत्य सत्ता अपने अधिक सौम्य अनुभवों को और साथ ही अपने अधिक-से-अधिक विकृत या विपरीत अनुभवों

४०२


को भी अपने ढंग से लेती है और उन्हें स्वीकार करते या छोड़ते हुए बढ़ती जाती है । वह हमारे बहुत उग्र दुःखों, कठिनाइयों, विपत्तियों में से एक दिव्य अर्थ और उपयोग निकाल लेती है । सर्व आनंद के सिवा किसी चीज में अपने ऊपर या हमारे ऊपर ऐसे अनुभवों को आरोपित करने का साहस या सहन शक्ति नहीं है, और कोई चीज ऐसी नहीं है जो उन्हें इस भांति अपने उपयोग और हमारे आध्यात्मिक लाभ के लिये मोड़ सके । इसी भांति सत्ता के अविच्छेद्य एकत्व में अंतर्निहित सत्ता के अविच्छेद्य सामंजस्य के सिवा और किसीके लिये यह संभव नहीं कि वह बाहर से इतने कठोर दीखनेवाले वैषम्यों को व्यक्त करे और फिर भी उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये बाधित करे ताकि अंत में वे एक बढ़ते हुए विश्व-छंद और चरम सामंजस्य की सेवा करने, रक्षा करने और अपने-आप उसके घटक तत्त्व बनने के सिवा और कुछ न कर सकें । हम जिस बाहरी चेतना में रहते हैं उसके स्वभाव के कारण जिसे हम अब भी अदिव्य कहने के लिये बाधित होते हैं, और एक अर्थ में इस नाम का उपयोग करना ठीक भी है, उसके पीछे, हर मोड़ पर, हम दिव्य सद्वस्तु को देख सकते हैं, क्योंकि ये आभास दिव्य पूर्णता पर पर्दा हैं, एक ऐसा पर्दा जो अभी जरूरी है लेकिन जो सच्ची और पूर्ण आकृति नहीं है ।

 

   लेकिन जब हम विश्व को इस तरह देखते हैं तब भी हम उसे, स्वयं अपनी सीमित मानव चेतना द्वारा दिये गये मूल्यों को पूरी तरह और जड़ से ही मिथ्या और अवास्तविक कहकर उड़ा नहीं सकते और हमें उन्हें उड़ाना भी नहीं चाहिये क्योंकि शोक, पीड़ा, दुःख, भ्रांति, मिथ्यात्व, अज्ञान, दुर्बलता, दुष्टता, असामर्थ्य, कर्तव्य- उपेक्षा और अनुचित कर्म, इच्छा-शक्ति का व्यतिक्रम, इच्छा-शक्ति का निषेध, अहंकार, परिसीमन, जिन अन्य सत्ताओं के साथ हमें एक होना चाहिये उनसे विभाजन -ये सब मिलकर उसकी प्रभावकारी आकृति बनाते हैं जिसे हम अशुभ कहते हैं । ये सब जगत्-चेतना के तथ्य हैं, कपोल-कल्पनाएं और अवास्तविकताएं नहीं । यद्यपि वे ऐसे तथ्य हैं जिनका पूर्ण भाव या सच्चा मूल्य वह नहीं है जो हम अपने अज्ञान में उन्हें देते हैं । फिर भी उनके बारे में हमारा भाव एक सच्चे भाव का अंग है; उनके संपूर्ण मूल्यों के लिये हमारे दिये गये मूल्य जरूरी हैं । इन वस्तुओं के सत्य का एक पहलू हमें तब मालूम होता है जब हम एक गभीरतर और विशालतर चेतना में प्रवेश करते हैं क्योंकि तब हम यह जान पाते हैं कि जो हमारे सामने प्रतिकूल और बुरा बनकर उपस्थित होता है उसमें एक वैश्व और व्यक्तिगत उपयोगिता है । क्योंकि वस्तुत: पीड़ा के अनुभव के बिना हम दिव्य आनंद के उस अनंत मूल्य को नहीं पा सकते पीड़ा जिसकी प्रसव वेदना है । समस्त अज्ञान एक उपच्छाया है जो ज्ञान के आभामंडल को घेरे हुए है, हर एक भ्रांति सत्य के आविष्कार की संभावना और प्रयास का संकेत है, हर एक दुर्बलता और असफलता शक्ति और संभाव्यता की खाड़ियों की जांच का पहला प्रयास है, हर

 ४०३


विभाजन का अभिप्राय है एकत्व की विभिन्न मधुरताओं के अनुभव द्वारा उपलब्ध ऐक्य के आनंद को समृद्ध करना । हमारे लिये यह समस्त अपूर्णता अशुभ है परंतु समस्त अशुभ शाश्वत शुभ की प्रसव पीड़ा है क्योंकि सब कुछ अपूर्णता में है जो निश्चेतना में से विकसित होते हुए जीवन के विधान के अनुसार प्रच्छन्न दिव्यता की अभिव्यक्ति में महत्तर पूर्णता की पहली अवस्था है लेकिन साथ ही इस अशुभ और अपूर्णता के बारे में, हमारी वर्तमान अनुभूति, हमारी चेतना का उनके विरुद्ध विद्रोह भी आवश्यक मूल्यांकन है क्योंकि अगर हमें पहले उनका सामना करना और उनको सहना पड़ता है तो हमें अंतिम आदेश यह है कि उन्हें अस्वीकार करें, उनपर विजय पायें और जीवन तथा प्रकृति को रूपांतरित करें । इसी उद्देश्य के लिये उनके आग्रह को ढीला नहीं होने दिया जाता, अंतरात्मा को अज्ञान के परिणाम सीखने ही चाहिये, उसे यह अनुभव करना शुरू करना चाहिये कि उनकी प्रतिक्रियाएं प्रभुता और विजय पाने और अंततः रूपांतर और अतिक्रमण के अधिक बड़े प्रयास के लिये प्रेरणा हैं । जब हम आंतरिक रूप से गहराइयों में रहते हैं तो ऐसी विशाल आंतरिक समता और शांति की स्थितितक पहुंचना संभव होता है जो बाहरी प्रकृति की प्रतिक्रियाओं से अछूती रहती है । यह एक बहुत बड़ी पर अपूर्ण मुक्ति है -क्योंकि बाहरी प्रकृति को भी तो मुक्ति का अधिकार है । लेकिन अगर हमारी व्यक्तिगत मुक्ति पूर्ण भी हो जाये तो भी औरों के दुःख, जगत् की दारुण पीड़ा तो रहती ही है जिसे महान् आत्माएं उदासीनता से नहीं देख सकतीं । सभी सत्ताओं के साथ एक ऐसा ऐक्य है जिसे हमारे अंदर की कोई चीज अनुभव करती है और हमें औरों की मुक्ति के साथ भी अपनी मुक्ति के जैसा घनिष्ठ संबंध अनुभव करना चाहिये ।

 

   तो यही है अभिव्यक्ति का विधान, यहां की अपूर्णता का कारण । यह सच है कि यह केवल अभिव्यक्ति का विधान है, बल्कि हम जिस गतिविधि में जी रहे हैं उसका विशेष विधान है और हम कह सकते हैं कि इसका होना जरूरी न था अगर अभिव्यक्ति की गतिविधि न होती या यह गति न होती, लेकिन चूंकि गतिविधि और अभिव्यक्ति हैं ही तो विधान भी जरूरी है । केवल इतना कह देना काफी नहीं है कि यह विधान और इसकी सब परिस्थितियां एक अवास्तविकता हैं जिसे मानसिक चेतना ने रचा है, परमेश्वर में उनका अस्तित्व नहीं और इन द्वंद्वों से उदासीन रहना या अभिव्यक्ति में से निकलकर भगवान् के शुद्ध सत् में चला जाना ही एकमात्र बुद्धिमत्ता है । यह सच है कि ये मानसिक चेतना की रचनाएं हैं लेकिन मन इनके लिये केवल गौण रूप से जिम्मेदार है । जैसा कि हम पहले देख आये हैं, गहरी वास्तविकता में दिव्य चेतना की रचनाएं हैं जो मन को सर्व-ज्ञान से दूर प्रक्षिप्त करती हैं ताकि वह दिव्य चेतना अपनी सर्व-शक्ति, सर्व-ज्ञान, सर्व-आनंद, सर्व-सत् और ऐक्य के विरोधी या विपरीत मूल्यों का अनुभव कर सके । स्पष्ट ही,

४०४


हम दिव्य चेतना की इन क्रियाओं और इन फलों को इस अर्थ में अवास्तविक कह सकते हैं कि वे सत्ता के शाश्वत और मूलभूत सत्य नहीं हैं या हम उनपर मिथ्यात्व आरोपित कर सकते हैं क्योंकि वे सत्ता के मौलिक और अंतिम सत्य का प्रत्याख्यान करते हैं । फिर भी अभिव्यक्ति की हमारी वर्तमान स्थिति में उनकी आग्रहपूर्ण वास्तविकता और महत्ता है, वे दिव्य चेतना की भूल मात्र भी नहीं हो सकते जिसका दिव्य प्रज्ञा में कोई मूल्य न हो, जिसका दिव्य आनंद, शक्ति और ज्ञान के लिये प्रयोजन भी नहीं हो जो उनके होने को उचित ठहरा सके । अस्तित्व का औचित्य तो होना ही चाहिये -भले जबतक कि हम सतही अनुभव में जीते हैं -वह किसी ऐसे रहस्य पर आधारित हो जो हमारे सामने ऐसी पहेली के रूप में आता है जिसका कोई हल नहीं है ।

 

   लेकिन अगर प्रकृति के इस पक्ष को स्वीकारते हुए हम यह कहें कि सभी चीजें सत्ता के संवैधानिक निश्चल नियम में निश्चित हैं और मनुष्य को भी अपनी अपूर्णताओं में बंधा रहना चाहिये, अपने अज्ञान और पाप, दुर्बलता और दुष्टता और दुःख में जड़ा रहना चाहिये तो हमारा जीवन अपना सच्चा महत्त्व खो बैठता है । तब अपनी प्रकृति के अंधकार और अपर्याप्तता में से ऊपर उठने का मनुष्य का सतत प्रयास इस जगत् में, इस जीवन में कोई परिणाम नहीं ला सकता । उसका एकमात्र परिणाम, यदि कोई परिणाम हो सकता है, यही होगा कि वह जीवन से, जगत् से, अपने मानव अस्तित्व से बच निकले और इसलिये अपूर्ण सत्ता के शाश्वत असंतोषजनक विधान से बाहर हो जाये, या तो देवों के स्वर्ग में या भगवान् के स्वर्ग में या फिर निरपेक्ष की शुद्ध अनिर्वचनीयता में । अगर ऐसा है तो मनुष्य कभी वस्तुत: अज्ञान और मिथ्यात्व में से ज्ञान और सत्य को, अशुभ और कुरूपता में से शिव और सुंदर को, दुर्बलता और नीचता में से शक्ति और ऐश्वर्य को, शोक और दुःख में से हर्ष और आनंद को प्रकट नहीं कर सकता यद्यपि ज्ञान, सत्य, शिव, सुंदर, शक्ति, ऐश्वर्य, हर्ष और आनंद अपने विरोधी भावों के पीछे रहनेवाली आध्यात्म सत्ता में अंतर्निहित हैं और ये विरोधी वस्तुएं उनके उभरने में उपस्थित होनेवाली पहली विरोधी और विपरीत अवस्थाएं हैं । मनुष्य बस इतना ही कर सकता है कि अपूर्णताओं को काटकर फेंक दे और साथ ही संतुलन करनेवाले उनके विरोधी तत्वों को, जो स्वयं भी अपूर्ण हैं पार कर ले - अज्ञान के साथ मानव ज्ञान को, अशुभ के साथ मानव शुभ को, दुर्बलता के साथ मानव बल और शक्ति को, संघर्ष और दुःख के साथ मानव प्रेम और आनंद को भी छोड़ दे क्योंकि हमारी वर्तमान प्रकृति में ये आपस में इस तरह गुंथे हुए हैं कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता । ऐसा लगता है ये द्वंद्व जुड़े हुए हैं, एक ही अवास्तविकता के ऋण और धन दो ध्रुव हैं और चूंकि उन्हें उठाया और रूपांतरित नहीं किया जा सकता इसलिये इन दोनों को ही त्याग देना चाहिये । मानवता को दिव्यता में पूर्ण

४०५


नहीं किया जा सकता इसलिये उसे समाप्त हो जाना चाहिये, उसे पीछे छोड़ देना और त्याग देना चाहिये । धर्मों और दर्शनों में इस बात में मतभेद है कि इसका परिणाम निरपेक्ष दिव्य प्रकृति या दिव्य उपस्थिति का वैयक्तिक भोग होगा या अनिर्देश्य निरपेक्ष में निर्वाण । लेकिन दोनों ही हालतों में धरती पर मानव सत्ता को स्वयं अपनी सत्ता के विधान द्वारा शाश्वत अपूर्णता के लिये अभिशप्त मान लेना चाहिये । यह दिव्य सत्ता के अंदर एक सतत, अपरिवर्तनशील अदिव्य अभिव्यक्ति है । अंतरात्मा मानवता को स्वीकार करके, शायद जन्म के तथ्य के कारण ही भगवान् से च्युत हो गयी है । उसने एक आद्य पाप या भूल की है और मनुष्य का आध्यात्मिक लक्ष्य यह होना चाहिये कि जैसे ही वह बोध पा जाये, इसे पूरी तरह रद्द कर दे, निर्भीक होकर लुप्त कर दे ।

 

   ऐसी हालत में, ऐसी विरोधाभासी अभिव्यक्ति या सृष्टि की एकमात्र न्यायसंगत व्याख्या यह होती है कि यह एक वैश्व खेल है, एक लीला है, दिव्य सत्ता का मनोरंजन है । हों सकता है कि वह अदिव्य होने का ढोंग करती है, उस रूप को केवल ढोंग या नाटक के आनंद के लिये अभिनेता के छद्मवेश या बनावटी रूप की तरह पहनती है या फिर उसने अदिव्य का सृजन किया है, अज्ञान का, पाप और दुःख का सृजन किया है केवल बहुविध सृष्टि के आनंद के लिये । या शायद जैसा कुछ धर्म विचित्र ढंग से मानते हैं, उसने यह सृजन इसलिये किया है ताकि ऐसे निम्नतर प्राणी हों जो उसके शाश्वत शुभ, बुद्धिमत्ता, आनंद और सर्व- शक्तिमत्ता के लिये उसकी प्रशंसा करें और महिमा गायें और दुर्बल प्रयास के साथ, भलाई के एक इंच निकटतर आने की कोशिश करें ताकि वे आनंद में भाग ले सकें -अन्यथा वे किसी कल्पित शाश्वत से दंड पायेंगे और मनुष्यों की बहुसंख्या का अपनी अपूर्णता के कारण प्रयास में असफल होना अवश्यंभावी है । किंतु इतने अनगढ़ ढंग से प्रस्तुत किये गये लीला के इस सिद्धांत के लिये हमेशा यह प्रत्युत्तर संभव रहता है कि एक ऐसा भगवान् जो अपने-आप तो सर्वानन्दमय है, जो प्राणियों के दुःख में मजा लेता है या जो अपने ही अपूर्ण सृजन के दोषों के कारण उनपर दुःख आरोपित करता है, वह भगवान् नहीं हों सकता और मनुष्य की नैतिक सत्ता या बुद्धि को उसके विरुद्ध विद्रोह करना या उसके अस्तित्व से इंकार करना चाहिये । लेकिन अगर मानव अंतरात्मा भगवान् का अंश है, अगर मनुष्य के अंदर की दिव्य आध्यात्म-सत्ता इस अपूर्णता को ओढ़ लेती है और मानवता के रूप में इस दुःख को सहना स्वीकार करती है या अगर मानवजाति में अंतरात्मा का उद्देश्य ही है भागवत आत्मा की ओर आकर्षित होना और वह यहां अपूर्णता के खेल में, उसकी साथी है और पूर्ण सत्ता के आनंद में कहीं और उसकी साथी है, फिर भी लीला एक विरोधाभास बनी रहती है परंतु वह क्रूर और जुगुप्साजनक विरोधाभास नहीं रहती । अधिक-से-अधिक यह माना जा सकता है कि वह एक

४०६


अजीब रहस्य है जिसकी व्याख्या बुद्धि के द्वारा नहीं हो सकती । उसकी व्याख्या करने के लिये दो तत्त्वों की कमी रहती है, इस अभिव्यक्ति के लिये अंतरात्मा की सचेतन स्वीकृति और सर्व प्रज्ञा में कोई ऐसा कारण जो इस लीला को सार्थक और बोधगम्य बनाये ।

 

   लीला की विचित्रता तब कम हो जाती है, विरोधाभास की तीक्ष्णता तब क्षीण हो जाती है जब हम यह खोज पाएं कि यद्यपि ऐसी सुनिश्चित श्रेणियां हैं जिनमें हर एक की प्रकृति की अपनी व्यवस्था है फिर भी वे जड़ के रूपों में शरीर धारण की हुई अंतरात्माओ के प्रगतिशील आरोहण के दृढ़ सोपान मात्र हैं, निश्चेतन से अतिचेतन या सर्वचेतन की स्थिति की ओर उठती हुई प्रगतिशील दिव्य अभिव्यक्ति हैं जिसमें मानव चेतना संक्रमण का निर्णायक-बिंदु है । तब अपूर्णता अभिव्यक्ति की एक जरूरी स्थिति बन जाती है क्योंकि समस्त दिव्य प्रकृति निश्चेतना में छिपी हुई होते हुए भी उपस्थित है इसलिये उसे उसके अंदर से धीरे-धीरे मुक्त करना होगा । यह अनुक्रम आंशिक उन्मीलन को जरूरी बनाता है और उन्मीलन का यह आंशिक रूप या अधूरापन अपूर्णता को जरूरी बनाता है । क्रमिक विकासवाली अभिव्यक्ति एक बीच की स्थिति की मांग करती है जिसके ऊपर और नीचे क्रम हों -ठीक ऐसी ही स्थिति जैसी मनुष्य की मानसिक चेतना है; आंशिक रूप से ज्ञान और आंशिक रूप से अज्ञान, सत्ता की एक मध्यवर्ती शक्ति जो अब भी निश्चेतना की ओर झुकी हुई है लेकिन धीरे-धीरे सर्वचेतन दिव्य प्रकृति की ओर उठ रही है । आंशिक उन्मीलन, जिसमें अपूर्णता और अज्ञान समाविष्ट हैं, अपने अनिवार्य सहचर के रूप में, शायद अपनी अमुक गतियों के आधार-रूप में, सत्ता के आद्य सत्य की प्रतीयमान विकृति को ले सकता है । अज्ञान और अपूर्णता के बने रहने के लिये जो कुछ दिव्य प्रकृति की विशेषता है -उसके ऐक्य, उसकी सर्व-चेतना, उसकी सर्व-शक्ति, उसका सर्व-सामंजस्य, उसका सर्व-शुभ, उसका सर्व-आनंद उसके प्रतीयमान प्रतिकूल होने चाहियें; परिसीमन, असंगति, अचेतना, असामंजस्प, अक्षमता, संज्ञाहीनता, दुःख और अशुभ प्रकट होने चाहियें । क्योंकि उस विकृति के बिना अपूर्णता की कोई मजबूत आधार-भूमि नहीं हो सकती थी । वह आधारभूत दिव्यता की उपस्थिति के विरुद्ध अपने स्वरूप को इतनी आजादी से अभिव्यक्त न कर पाती और न अपने-आपको बनाये रख सकती । एकांगी शान अपूर्ण ज्ञान है और अपूर्ण ज्ञान उस हदतक अज्ञान है, भागवत प्रकृति का विरोधी है लेकिन जो उसके ज्ञान के परे है उसके बारे में अपनी दृष्टि में यह विपरीत निषेध, विपरीत भाव हो जाता है । वह चीजों के प्रति, जीवन और कर्म के प्रति भ्रांति को, गलत ज्ञान को, गलत व्यवहार को शुरू करता है । गलत ज्ञान प्रकृति में गलत इच्छा बन जाता है, हो सकता है कि पहले वह भूल से गलत होता है लेकिन बाद में चुनाव से, आसक्ति से, मिथ्यात्व में सुख से गलत होता है । सरल-सा विरोध जटिल

४०७


विकार बन जाता है । एक बार अज्ञान और निश्चेतना को स्वीकार कर लिया जाये तो ये चीजें न्याय-संगत अनुक्रम में स्वाभाविक परिणाम-स्वरूप प्रकट होती जाती हैं और उन्हें आवश्यक तत्त्वों के रूप में स्वीकार करना होता है । प्रश्न बस एक ही है कि इस प्रकार की प्रगतिशील अभिव्यक्ति अपने-आपमें क्यों जरूरी हुई, इसका कारण क्या है । हमारी बुद्धि के लिये यही एक बात अस्पष्ट रह जाती है ।

 

   इस प्रकार की अभिव्यक्ति, आत्मसृजन या लीला न्याय-संगत न प्रतीत होती यदि उसे अनिच्छक जीव पर लाद दिया जाता । लेकिन यह स्पष्ट है कि शरीरधारी आत्मा की सहमति पहले से ही रही होगी क्योंकि प्रकृति पुरुष की स्वीकृति के बिना कुछ नहीं कर सकती । वैश्व सृष्टि को संभव बनाने के लिये केवल दिव्य पुरुष की इच्छा ही नहीं बल्कि व्यष्टिगत अभिव्यक्ति के लिये व्यष्टिगत पुरुष की स्वीकृति भी रही होगी । लेकिन यह कहा जा सकता है कि इस तरह की कठिन और यातना-पीड़ित क्रमिक अभिव्यक्ति के लिये दिव्य इच्छा और आनंद का कारण और अंतरात्मा की स्वीकृति का कारण अब भी एक रहस्य है । लेकिन अगर हम अपनी निजी प्रकृति को देखें और यह अनुमान कर सकें कि वैश्व मूल के आरंभ में सत्ता की कोई ऐसी ही, सजातीय गतिविधि रही होगी तो यह बात एकदम रहस्य नहीं रहती । इसके विपरीत अपने-आपको छिपाने और खोजने का खेल उन सबसे बढ़कर श्रमसाध्य हर्षों में से है जो सचेतन सत्ता अपने-आपको दे सकती है, यह अत्यधिक आकर्षक खेल है । स्वयं मनुष्य के लिये ऐसी विजय-प्राप्ति से बढ़कर सुखद कोई और चीज नहीं है जो कि अपने तत्त्व रूप में कठिनाइयों पर विजय होती है, ज्ञान में विजय, शक्ति में विजय, सृष्टि की असम्भवताओं पर सृष्टि में विजय -जो कि एक कष्टमय श्रम और दुःख की कठिन अग्निपरीक्षा में विजय-प्राप्ति का आनंद होता है । वियोग के अंत में आता है मिलन का प्रगाढ़ सुख, एक ऐसी आत्मा से मिलने का सुख जिससे हम विभक्त हो गये थे । स्वयं अज्ञान में एक आकर्षण है क्योंकि यह हमें अन्वेषण का सुख देता है, नयी, अदृष्ट सृष्टि का आश्चर्य, अंतरात्मा का महान् साहस-कार्य प्रदान करता है । यात्रा का, खोज का और पाने का आनंद होता है, युद्ध और मुकुट का, श्रम और श्रम के परिणाम का आनंद होता है । अगर सत्ता का आनंद सृष्टि का रहस्य है तो यह भी सत्ता का एक आनंद है । उसे प्रतीयमान रूप से परस्पर-विरोधी और विपरीत लीला का कारण या कारणों में से एक माना जा सकता है । लेकिन व्यष्टिगत पुरुष के चुनाव से भिन्न, एक अधिक गहरा सत्य आद्य सत् में अंतर्निहित है जो निश्चेतना के अंदर डुबकी में अपनी अभिव्यक्ति पाता है, जिसका परिणाम है अपने विरोधी दीखनेवाले तत्त्व में सच्चिदानंद की फिर से स्थापना । अगर यह मान लिया जाये कि अनंत को विविध प्रकार की आत्माभिव्यक्ति का अधिकार है तो यह भी अभिव्यक्ति की एक संभावना के रूप में बोधगम्य हो जाता है और उसकी अपनी गभीर सार्थकता है ।

४०८










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates