Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
दिव्य जीवन
त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्यन् पिपर्षि विदथे विचर्षणे. . . ।
हे द्रष्टा अग्नि तुम कुटिल राहों पर चलनेवाले मनुष्य को स्थायी सत्य
में और ज्ञान में ले जाते हो ।
ऋग्वेद १.३१.६
उभे पुनामि रोदसी ऋतेन. . . ।
मैं भूलोक और द्युलोक दोनों को ऋत के द्वारा पवित्र करता हूं।
ऋग्वेद १.१३३.१
सो...... मद:...... ।
द्वा जना यातयन्नत्तरीयते नरा च शंसं दैव्यं च धर्तरि ।।
उसका आनंद-मद अपने धारण करनेवाले में मानव आत्माभिव्यक्ति
और दिव्य आत्माभिव्यक्ति, इन दो जन्मों को प्रस्फुरित करता और
इनके बीच विचरण करता है ।
ऋग्वेद १.८६.४२
ते अस्य सन्तु केतवोऽमृत्यवोऽदाभ्यासो जनुषी उभे अनु ।
येभिर्नृम्णा च देव्या च पुनते. . . ।
उसके अंतर्भास की अजेय किरणें अमरता की खोज करती हुई,
दोनों जन्मों में व्याप्त होती हुई वहां रहें क्योंकि उनके द्वारा वह
मानव शक्तियों और दिव्य वस्तुओं को एक ही गति में प्रवाहित
करता है ।
ऋग्वेद ९.७०.३
अदित् ते विश्वे क्रतुं जुषन्त
शुष्काद् यद् देव जीवो जनिष्ठा: ।
भजन्त विश्वे देवत्वं नाम
ऋतु सपन्तो अमृतमेवैः ।।
जब तुम शुष्क वृक्ष से जीवित देव के रूप में जन्म लेते हो तब
सभी तुम्हारी इच्छा को स्वीकार करें ताकि वे देवत्व पा सकें और
तुम्हारी गतियों के वेग से ऋत और अमृत पर अधिकार पा सकें ।
ऋग्वेद १.६८.२.
हमारा प्रयास यह खोजने का रहा है कि जड़ जगत् में सचेतन सत्ताओं के रूप में
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हमारे जीवन की वास्तविकता और सार्थकता क्या है और एक बार हमें उस सार्थकता का पता लग जाये तो वह किस दिशा में और कितनी दूरतक, किस मानव या दिव्य भविष्य की ओर ले जाती है । हो सकता है कि यहांपर हमारा जीवन वस्तुत: जड़पदार्थ की एक परिणामहीन सनक हो या जड़पदार्थ को बनानेवाली किसी ऊर्जा की सनक हो या फिर आत्मा की कोई अव्याख्येय सनक हो । या फिर यह भी हो सकता है कि हमारा यह जीवन किसी विश्वातीत स्रष्टा की मनमौजी तरंग हो । ऐसी अवस्था में उसकी कोई मार्मिक सार्थकता नहीं हो सकती -यदि जड़-पदार्थ या निश्चेतन ऊर्जा सनक की निर्माता हो तब तो कोई भी सार्थक्य नहीं होता, क्योंकि तब अपने अच्छे-से-अच्छे रूप में वह संयोग के भटकते हुए चक्कर का भ्रांत वर्णन या अंधी आवश्यकता का कठोर चक्र होगा । उसकी बस एक काल्पनिक सार्थकता हो सकती है जो अगर आध्यात्म सत्ता की भूल है तो शून्य में विलीन हो जाती है । निश्चय ही यह हो सकता है कि किसी सचेतन स्रष्टा ने हमारे जीवन में कोई अर्थ रखा हो लेकिन उसे उसकी इच्छा प्रकट होने पर ही जाना जा सकता है, वह वस्तुओं के स्वभाव में निहित नहीं होता और वहां उसे जाना नहीं जा सकता । लेकिन अगर कोई स्वयंभू सद्वस्तु है, हमारा जीवन जिसका परिणाम है, तो उस सद्वस्तु का एक सत्य होना चाहिये जो यहां अपने-आपको अभिव्यक्त और कार्यान्वित कर रहा है और विकसित हो रहा है, वह हमारी सत्ता और जीवन का अर्थ होगा । वह सदवस्तु चाहे जो कुछ हो, वह कोई ऐसी चीज है जिसने काल में अपने ऊपर संभूति का रूप धारण किया है । और यह संभूति अविभाज्य है क्योंकि जिस अतीत ने हमारे वर्तमान और भविष्य की रचना की है उसे वे वर्तमान और भविष्य रूपांतरित कर अपने अंदर लिये चलते हैं और फिर, अतीत और वर्तमान ने भी तबतक असृष्ट भविष्य में अपने उस रूपांतर को अपने अंदर समाये रखा था और समाये रहते हैं जो हमारे लिये इसलिये अदृश्य है क्योंकि वह अभीतक अविकसित और अनभिव्यक्त है । हमारे इह-जीवन का अर्थ हमारी नियति को निर्धारित करता है । वह नियति एक ऐसी चीज है जो अब भी हमारे अंदर आवश्यकता और संभाव्यता के रूप में विद्यमान है । वह है हमारी सत्ता की गूढ़ और उभरती हुई सद्वस्तु की आवश्यकता और उसकी संभावनाओं का सत्य जो कार्यान्वित किया जा रहा है । दोनों यद्यपि अभीतक उपलब्ध तो नहीं हुए हैं फिर भी अभीतक जो कुछ अभिव्यक्त हुआ है उसमें निहित हैं । अगर कोई सत् है जो संभूत हो रहा है, जीवन की सद्वस्तु है जो अपने- आपको काल में फैलाती जा रही है तो वह सत्ता और वह सद्वस्तु जो कुछ गुप्त रूप से है वही हमें बनना है और वैसा बनना ही हमारे जीवन की सार्थकता है ।
इसी भांति काल में जो क्रियान्वित किया जा रहा है उसके संकेत शब्द होने चाहियें चेतना और जीवन । क्योंकि उनके बिना जड़-पदार्थ और जड़-पदार्थ का
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जगत् निरर्थक आभास होंगे, एक ऐसी चीज होंगे जो यूं ही, संयोग से या निश्चेतन आवश्यकता के कारण हो गयी । परंतु चेतना जैसी कि वह है, जीवन जैसा कि वह है, पूरा रहस्य नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों स्पष्ट रूप से अपूर्ण और प्रक्रिया में पड़ी हुई चीजें हैं । हमारे अंदर चेतना है मन और हमारा मन अज्ञानी और अपूर्ण है, एक ऐसी मध्यस्थ शक्ति है जो अपने से परे की किसी चीज की ओर बढ़ी और बढ़ रही है । इससे पहले निम्नतर चेतना के स्तर आये थे जिनमें से वह उभरा; तो स्पष्टत: और भी ऊंचे स्तर होने चाहियें जिनकी ओर वह उठ रहा है । हमारे विचारक, तर्कशील, मननशील मन से पहले एक विचारहीन परंतु जीवित और संज्ञासंपन्न चेतना थी और उससे भी पहले अवचेतना और निश्चेतना थीं । हमारे बाद या हमारे अभीतक अविकसित जीवों में संभवत: एक महत्तर, आत्म-ज्योतिर्मय चेतना प्रतीक्षा कर रही है जो रचनात्मक विचार पर निर्भर नहीं है । हमारा अपूर्ण और अज्ञानमय विचारात्मक मन निश्चय ही चेतना का अंतिम शब्द या चरम संभावना नहीं है । क्योंकि, चेतना का सारतत्त्व है अपने बारे में और अपने विषयों के बारे में अभिज्ञ होने की शक्ति और अपने सच्चे स्वभाव के अनुसार इस शक्ति को प्रत्यक्ष, आत्म-परिपूरित और संपूर्ण होना चाहिये । यदि हमारे अंदर वह परोक्ष, अपूर्ण, अपनी क्रिया में अपरिपूरित, बनाये हुए यंत्रों पर निर्भर है तो इसलिये कि यहां चेतना मौलिक निश्चेतन अवगुंठन में से उभर रही है और अभीतक उस प्रथम निर्ज्ञान से लिपटी और भारग्रस्त है जो निश्चेतना की अपनी चीज है । लेकिन उसमें पूरी तरह से उभरने की शक्ति होनी चाहिये, उसकी नियति होनी चाहिये अपनी ही पूर्णता में विकसित होना, यही उसका सच्चा स्वभाव है । उसका सच्चा स्वभाव है अपने विषयों के बारे में पूरी तरह अभिज्ञ होना और इन विषयों में पहला है जीव, वह सत्ता जो अपनी चेतना को यहां विकसित कर रही है और बाकी सब है वह जिसे हम अनात्म के रूप में देखते हैं, लेकिन अगर जीवन अविभाज्य है तो उसे भी वास्तव में आत्मा होना चाहिये । तब विकसनशील चेतना की नियति होनी चाहिये; उसका अभिज्ञता में पूर्ण होना, पूरी तरह आत्म-अभिज्ञ और सर्व-अभिज्ञ होना । हमारे लिये चेतना की यह पूर्ण और स्वाभाविक स्थिति अतिचेतना है -एक ऐसी स्थिति जो हमारे परे है । अगर हमारे मन को अचानक वहां स्थानांतरित कर दिया जाये तो वह शुरू में कार्य न कर सकेगा । लेकिन हमारी सचेतन सत्ता को इसी अतिचेतना की ओर विकसित होना चाहिये । लेकिन हमारी चेतना का अतिचेतना या स्वयं अपने परम की ओर विकास तभी संभव है यदि निश्चेतना, जो यहांपर हमारा आधार है, वह वास्तव में अंतर्लीन अतिचेतना हो; क्योंकि सद्वस्तु की संभूति में हमारे अंदर जो होनेवाला है उसे पहले से ही उसके आरंभ में अंतर्लीन या गुप्त रूप से होना चाहिये । हम भली-भांति कल्पना कर सकते हैं कि निश्चेतना इस प्रकार की अंतर्लीन सत्ता या शक्ति है जब हम बारीकी से इस
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निश्चेतन-ऊर्जा की जड़ सृष्टि को देखते हैं और उसे विलक्षण निर्माण और अनंत उपायों के साथ विशाल अंतर्लीन प्रज्ञा के कार्य पर परिश्रम करते देखते हैं और देखते हैं कि स्वयं हम उसी प्रज्ञा का अंश हैं जो उसके अंतर्लयन में से विकसित हो रहा है, एक उभरती हुई चेतना हैं जिसका उभरना तबतक मार्ग के बीच में नहीं रुक सकता जबतक अंतलर्नि विकसित होकर अपने-आपको परम प्रज्ञा, समग्र रूप से आत्म-अभिज्ञ और सर्व-अभिज्ञ प्रज्ञा के रूप में प्रकट न करे । हमने इसे अतिमानस या विज्ञान का नाम दिया है क्योंकि यह स्पष्ट है कि यही सद्वलू सत्ता तथा आध्यात्म पुरुष की चेतना होनी चाहिये जो हमारे अंदर गुप्त है और धीरे-धीरे यहां अभिव्यक्त हो रही है, हम उसी सत्ता की संभूतियां हैं और हमें उसीकी प्रकृति में विकसित होना चाहिये ।
अगर चेतना केंद्रीय मर्म है तो जीवन उसका बाहरी संकेत, जड़-पदार्थ में सत्ता की प्रभावशाली शक्ति है; क्योंकि वही चेतना को मुक्त करता और उसे आकार या शक्ति का मूर्तरूप और भौतिक क्रिया में कार्यान्वयन प्रदान करता है । यदि विकसनशील पुरुष का अपने जन्म में चरम लक्ष्य है जड़-पदार्थ में अपना कोई प्रकटन या कार्यान्वयन तो जीवन उस प्रकटन और कार्यान्वयन का बाहरी और क्रियाशील चिह्न तथा संकेत है । लेकिन जीवन भी, जैसा कि वह अब है, अपूर्ण और विकसनशील है, वह चेतना की वृद्धि द्वारा विकसित होता है जैसे चेतना जीवन के अधिक बड़े संगठन और पूर्णता द्वारा विकसित होती है । महत्तर चेतना का अर्थ है महत्तर जीवन । मनुष्य, मानसिक सत्ता का जीवन अपूर्ण होता है क्योंकि मन पुरुष की चेतना की प्रथम या उच्चतम शक्ति नहीं है । अगर मन पूर्ण हो भी जाये तो भी कोई ऐसी चीज बची रहेगी जो अभिव्यक्त नहीं हुई हो, जिसे उपलब्ध करना है; क्योंकि जो अंतर्लीन है, और प्रकट हो रहा है वह मन नहीं, आध्यात्म तत्त्व है और मन आध्यात्म पुरुष की चेतना की सहज गतिशीलता नहीं है; बल्कि अतिमानस, विज्ञान का प्रकाश उसकी सहज गतिशीलता है । तो अगर जीवन को आत्मा की अभिव्यक्ति बनना है तो विकसनशील प्रकृति का अभिप्राय और गुप्त टेक होनी चाहिये, हमारे अंदर आध्यात्मिक सत्ता की अभिव्यक्ति और आध्यात्मिक सत्ता में अतिमानसिक या विज्ञानमय शक्ति में पूर्णीकृत चेतना का दिव्य जीवन ।
तत्त्वतः सारा आध्यात्मिक जीवन दिव्य जीवन में विकास है । वह सीमा निर्धारित करना कठिन है जहां मन समाप्त होता और दिव्य जीवन आरंभ होता है क्योंकि दोनों एक-दूसरे में प्रक्षिप्त होते हैं और इनके मिले-जुले जीवन का एक लंबा अंतराल होता है । इस अंतराल का एक बड़ा भाग -जहां आध्यात्मिक प्रेरणा धरती या संसार से एकदम मुंह नहीं मोड़ लेती -बनते हुए उच्चतर जीवन की एक प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है । जैसे-जैसे मन और प्राण आध्यात्म पुरुष के प्रकाश से प्रदीप्त होने लगते हैं वे देवत्व, गुप्त महत्तर सदवस्तु की किसी चीज को धारण
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करने या प्रतिबिंबित करने लगते हैं; और इसे तबतक बढ़ते जाना चाहिये जबतक कि अंतराल पार न कर लिया जाये, पूरा जीवन आध्यात्म तत्त्व के पूर्ण प्रकाश और शक्ति में एक न हो जाये । लेकिन विकास की प्रेरणा की समग्र तथा पूर्ण परिपूर्ति के लिये इस प्रकाश और परिवर्तन को पूरी सत्ता, मन, प्राण और शरीर को हाथ में लेकर फिर से बनाना चाहिये । यह केवल भगवान् की एक भीतरी अनुभूति न होकर, उनकी शक्ति द्वारा भीतरी और बाहरी दोनों जीवनों का फिर से ढालना हो । उसे केवल व्यक्ति के जीवन में ही नहीं बल्कि विज्ञानमय सत्ताओं के सामूहिक जीवन के रूप में साकार होना है जो पार्थिव प्रकृति में आध्यात्म पुरुष की उच्चतम शक्ति तथा रूप की संभूति के रूप में प्रतिष्ठित हो । इसके संभव होने के लिये हमारे अंदर की आध्यात्मिक सत्ता को सत्ता की केवल आंतरिक स्थिति नहीं बल्कि सत्ता की बहिर्गामी शक्ति की समाकलित पूर्णता भी विकसित करनी होगी । उस पूर्णता के साथ और उस पूर्णता की आवश्यकता के लिये, उसने बाह्य जीवन के अपने ही क्रियाबल और साधनविनियोग विकसित कर लिये होंगे ।
निश्चय ही भीतर एक आध्यात्मिक जीवन हों सकता है, हमारे अंदर स्वर्ग का ऐसा राज्य जो किसी बाहरी अभिव्यक्ति, यंत्र-विन्यास या बाहरी सत्ता के सूत्र पर निर्भर नहीं होता । आंतरिक जीवन का परम आध्यात्मिक महत्त्व होता है और बाहरी जीवन का बस उतना ही मूल्य होता है जितना वह भीतरी स्थिति को अभिव्यक्त कर सके । फिर भी, आध्यात्मिक उपलब्धिवाला व्यक्ति जिस तरह भी रहता हो, कर्म करता हो, बर्ताव करता हो वह सत्ता और कर्म के सभी तरीकों में, जैसा गीता में कहा गया है, ''सर्वथा मयि वर्तते" मेरे अंदर रहता और कर्म करता है । वह भगवान् के अंदर निवास करता है, उसने दिव्य जीवन उपलब्ध कर लिया है । आध्यात्मिक बोध में निवास करता हुआ, अपने अंदर और सब जगह भगवान् की अनुभूति में निवास करता हुआ आध्यात्मिक मनुष्य अंतर में दिव्य जीवन जी रहा होगा और उसकी छाया उसके जीवन की बाहरी क्रियाओं पर पड़ेगी, भले ही वे कर्म पार्थिव प्रकृति के इस जगत् में मानव-विचार और क्रिया के सामान्य यंत्र-विन्यास के परे न गये हों या परे गये हुए प्रतीत न होते हों । विषय का यह पहला सत्य और सार-तत्त्व है, फिर भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से यह केवल अपरिवर्तित पर्यावरण के जीवन में व्यक्तिगत मुक्ति और पूर्णता होगी । क्योंकि पार्थिव प्रकृति में ज्यादा बड़ा क्रियाशील परिवर्तन लाने के लिये, जीवन और कर्म के सभी तत्त्वों और उपकरणों के आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये, समग्र सिद्धि की, दिव्य परिणाम की अपनी धारणा में हमें जीवों की एक नयी श्रेणी और एक नये पार्थिव जीवन के प्रादुर्भाव का समावेश करना होगा । यहां विज्ञानमय परिवर्तन एक प्राथमिक महत्त्व धारण कर लेता है, जो कुछ पहले हो चुका उसे समस्त प्रकृति के रूपांतरकारी परावर्तन के लिये निर्माण और तैयारी माना जा सकता है । क्योंकि,
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क्रियाशील जीवन की विज्ञान-रीति ही, ऐसी जीवन-रीति ही सिद्ध दिव्य जीवन होगी जो भौतिक जीवन में चेतना को सक्रिय करने के लिये जगत्-ज्ञान तथा जगत्-कर्म के उच्चतर साधनों का विकास करती हुई, जड़-प्रकृति के जगत् के मूल्यों को हाथ में लेती और रूपांतरित करती है ।
लेकिन स्वयं अपनी प्रकृति के अनुसार विज्ञान-जीवन की सारी नींव सदा ही बहिर्मुख नहीं, अंतर्मुख होनी चाहिये । आध्यात्म जीवन में आध्यात्म सत्ता, आंतरिक सदवस्तु ने ही मन, प्राणिक सत्ता और शरीर का अपने यंत्र-विन्यास के रूप में निर्माण किया है और वही उनका उपयोग करती है और विचार, भावना और क्रिया का अस्तित्व स्वयं उनके लिये नहीं है; वे साध्य नहीं, साधन हैं । वे हमारे अंदर अभिव्यक्त दिव्य सद्वस्तु को प्रकट करने का काम करते हैं : अन्यथा, इस आंतरिकता के बिना, इस आध्यात्मिक उद्गम के बिना, अत्यधिक बहिर्मुख चेतना में या केवल बाहरी साधनों द्वारा कोई श्रेष्ठतर या दिव्य जीवन संभव नहीं है । हमारे वर्तमान प्राकृतिक जीवन में, हमारे बहिर्मुख सतही जीवन में ऐसा प्रतीत होता है कि जगत् हमारा निर्माण कर रहा है, लेकिन आध्यात्मिक जीवन की ओर मोड़ में हमें स्वयं अपना और अपने जगत् का निर्माण करना चाहिये । सृष्टि के इस नये सूत्र में आंतरिक जीवन प्रथम महत्त्व ले लेता है और बाकी सब उसकी केवल अभिव्यक्ति और परिणाम ही हो सकता है । वस्तुत: पूर्णता की ओर, स्वयं हमारी अंतरात्मा, मन और प्राण की पूर्णता और जाति के जीवन की पूर्णता की ओर, हमारे अपने प्रयास इसीकी ओर संकेत करते हैं, क्योंकि हमें एक ऐसा जगत् दिया गया है जो अंधेरा, अज्ञानमय, जड़, अपूर्ण है और हमारी बाहरी सचेतन सत्ता स्वयं इस विशाल मूक अंधकार की ऊर्जाओं, दबाव और ढालनेवाली क्रियाओं से भौतिक जन्म द्वारा, पर्यावरण द्वारा, जीवन की टक्करों और आध्यात्म से दी गयी शिक्षा द्वारा निर्मित है । फिर भी, हम अपने अंदर किसी ऐसी चीज के बारे में अस्पष्ट रूप से अभिज्ञ हैं जो हमारे अंदर मौजूद है या होना चाहती है, उस चीज से भिन्न जो इस तरह बनी है; मानों एक स्वयंभू, आत्म-निर्धारक पुरुष है जो प्रकृति को अपनी गुह्य पूर्णता या पूर्णता के भाव की प्रतिमूर्ति के सृजन की ओर प्रवृत्त करता है । हमारे अंदर कुछ ऐसी चीज है जो इस मांग के उत्तर में हमारे अंदर विकसित होती है, जो दिव्य ''किंचित्'' की मूर्ति बनने की कोशिश करती है और उसे जो बाहरी जगत् दिया गया है उसपर परिश्रम करते को प्रेरित होती है और उसका भी एक ज्यादा बड़ी मूर्ति के रूप में, स्वयं उसकी अपनी आध्यात्मिक, मानसिक और प्राणिक वृद्धि की मूर्ति के रूप में पुनर्निर्माण करने को प्रेरित होती है । हमारे जगत् को भी ऐसी चीज बनाने को प्रेरित होती है जो हमारे मन और आत्म-भावक आत्मा के अनुसार बनी हो, कुछ नयी, सामंजस्यभरी और पूर्ण चीज ।
लेकिन हमारा मन अंधेरा है, अपनी धारणाओं में आंशिक है, विरोधी सतही
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आभासों से भटक जाता है और विभिन्न संभावनाओं में बंटा रहता है । वह तीन अलग-अलग दिशाओं में ले जाया जाता है जिनमें से किसी एक को वह अनन्य रूप से पसंद कर सकता है । क्या होना चाहिये इसकी खोज में हमारा मन हमारे अपने भीतरी आध्यात्मिक विकास और पूर्णता पर केंद्रण की ओर, अपनी वैयक्तिक सत्ता और आंतरिक जीवन की ओर मुड़ सकता है या वह हमारी सतही प्रकृति के व्यष्टिगत विकास पर केंद्रण की ओर मुड़ता है, यानी हमारे विचार और जगत् पर; बाह्य क्रियाशील या व्यावहारिक क्रिया पर अपने इर्द-गिर्द जगत् के साथ व्यक्तिगत संबंध के आदर्शवाद की ओर या फिर वह स्वयं बाह्य जगत् पर संकेंद्रण की ओर मुड़ता है, उसे ऐसा बनाने के लिये कि वह बाह्य जगत् हमारे विचारों, हमारे स्वभाव या क्या होना चाहिये इसके बारे में हमारी धारणा के अनुकृल हो । एक ओर तो हमारी उस आध्यात्मिक सत्ता की पुकार है जो हमारी सच्ची आत्मा, परात्पर सदवस्तु दिव्य सत्ता की सत्ता है जिसका निर्माण जगत् ने नहीं किया, जो अपने- आपमें रह सकती है, जो जगत् में से परात्पर में उठ सकती है, दूसरी ओर हमारे इर्द-गिर्द के जगत् की मांग है जो वैश्व रूप है, दिव्य सत्ता का रूपायन है, छद्मवेश में सदवस्तु की शक्ति है । फिर हमारी प्रकृति की सत्ता की विभक्त या दोहरी मांग भी है जो इन दो अवस्थाओं के बीच में स्थित है, उनपर निर्भर है और उन्हें जोड़ती है; क्योंकि प्रतीयमान रूप में तो उसे जगत् ने बनाया है, लेकिन चूंकि उसका सच्चा स्रष्टा हमारे अंदर है और जो जगत्-साधन उसे बनानेवाला मालूम होता है वह ऐसा साधन है जिसका पहले उपयोग किया गया था अतः सचमुच वह एक रूप है हमारे अंदर स्थित महत्तर आध्यात्मिक सत्ता का, छद्मवेश में उसकी एक अभिव्यक्ति है । यह मांग ही हमारी अंतर्मुख पूर्णता या आध्यात्मिक मुक्ति में तल्लीनता और बाहरी जगत् और उसकी रचना में तल्लीनता के बीच मध्यस्थता करती, इन दो अवस्थाओं के बीच अधिक सुखद संबंध पर आग्रह करती और ज्यादा अच्छे जगत् में ज्यादा अच्छे व्यक्ति का आदर्श बनाती है । लेकिन सदवस्तु को और पूर्ण-जीवन के स्रोत और आधार को हमारे भीतर ही खोजना चाहिये, कोई बाहरी रूपायन उसका स्थान नहीं लें सकता । अगर जगत् और प्रकृति में सच्चे जीवन को उपलब्ध करना है तो भीतर सच्ची आत्मा को उपलब्ध करना होगा ।
दिव्य जीवन के अंदर वृद्धि में आध्यात्म पुरुष हमारी पहली तल्लीनता होना चाहिये । जबतक हम उसे उसके मानसिक, प्राणिक, शारीरिक आच्छादनों और छद्मवेशों से निकाल कर अपनी सत्ता में प्रकट और विकसित नहीं कर देते, उपनिषद् के अनुसार, धीरज के साथ उसे शरीर में से बाहर नहीं निकाल लेते, जबतक हम अपने अंदर आध्यात्म-पुरुष का आंतरिक जीवन नहीं बना लेते, स्पष्ट है कि तबतक बाहरी दिव्य जीवन संभव नहीं हो सकता । हां, यदि कोई मानसिक या प्राणिक देव ही हमारी दृष्टि में हो और हम उस जैसा होना चाहें तो बात अलग है ।
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लेकिन तब भी हमारे अंदर के वैयक्तिक मानसिक पुरुष को या शक्ति, प्राणिक बल और कामना के पुरुष को विकसित होकर उसी देव की मूर्ति बनना होगा, उसके बाद ही हमारा जीवन उस अवर अर्थ में दिव्य हो सकेगा, अव-आध्यात्मिक अतिमानव, मानसिक अर्द्ध-देव, या प्राणिक राक्षस, देव या असुर का जीवन हो सकेगा । एक बार यह आंतरिक जीवन बन जाये तो हमारी दूसरी तल्लीनता होनी चाहिये सारी सतही सत्ता को, हमारे विचार, भावना और जगत् में क्रियाओं को उस आंतरिक जीवन की पूर्ण शक्ति में बदलना । अगर हम अपने सक्रिय अंगों में उस अधिक गभीर और महान् रीति से रहें तभी महत्तर जीवन के सृजन की शक्ति आ सकती है या जगत् का ऐसा पुनर्निर्माण किया जा सकता है जिससे वह मन या प्राण की किसी शक्ति या पूर्णता या अध्यात्म की शक्ति या पूर्णता का रूप ले । पूर्णीकृत मानव जगत् न तो ऐसे मनुष्यों के द्वारा बना हो सकता है और न ऐसे मनुष्यों का बना हो सकता है जो अपने-आप अपूर्ण हों । अगर हमारे सभी कर्म, शिक्षा, विधान, सामाजिक या राजनीतिक मशीन द्वारा बड़ी ही सावधानी के साथ नियंत्रित हों तो भी हमें प्राप्त होगा मनों का नियमबद्ध नमूना, जीवनों का गढ़ा हुआ नमूना, आचार का परिष्कृत नमूना । लेकिन इस तरह की अनुरूपता भीतरी मनुष्य को न तो बदल सकती है न उसका पुनर्निर्माण कर सकती है । वह काट-छांटकर या तराश कर पूर्ण अंतरात्मा या पूर्ण विचारशील मनुष्य या पूर्ण या विकसनशील जीवंत सत्ता को नहीं बना सकती । क्योंकि अंतरात्मा, मन और प्राण सत्ता की शक्तियां हैं जो बढ़ तो सकती हैं पर उन्हें तराशा या बनाया नहीं जा सकता । कोई बाहरी प्रक्रिया या रूपायन अंतरात्मा, मन और प्राण की सहायता कर सकता है, उन्हें प्रकट कर सकता है परंतु उनकी रचना या उनका विकास नहीं कर सकता । निश्चय ही हम सत्ता की वृद्धि में सहायता कर सकते हैं, निर्माण के प्रयास से नहीं बल्कि उसपर प्रेरक प्रभाव डालकर या अपनी अंतरात्मा, मन और प्राण की शक्तियां देकर; लेकिन ऐसा होने पर भी वृद्धि को बाहर से नहीं भीतर से ही आना चाहिये और वहीं से यह निर्णय करना होगा कि इन प्रभावों और शक्तियों का क्या किया जाये । यही वह पहला सत्य है जिसे हमारे सर्जनशील उत्साह और अभीप्सा को सीखना चाहिये, नहीं तो हमारा सारा मानव-प्रयास व्यर्थ के चक्कर में घूमते रहने के लिये अभिशप्त होगा और उसका अंत रमणीय दीखनेवाली असफलता में होगा ।
कुछ होना या बनना, किसी चीज को अस्तित्व में लाना, यही प्रकृति की शक्ति का सारा श्रम है । जानना, अनुभव करना और करना, ये अवर ऊर्जाएं हैं जिनका मूल्य इसलिये है क्योंकि वे सत्ता को, वह जो है उसे अभिव्यक्त करने की आंशिक आत्मोपलब्धि में सहायता करती हैं और साथ ही, उससे बढ़कर, जो अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है और जो उसे होना है, उसे व्यक्त करने की प्रेरणा में सहायता
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देती हैं । लेकिन ज्ञान, विचार, कर्म -चाहे धार्मिक, नैतिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, उपयोगितावादी या सुखवादी हों, चाहे वे जीवन का मानसिक, प्राणिक या शारीरिक रूप या निर्माण हों -वे जीवन का सार या लक्ष्य नहीं हो सकते; वे केवल सत्ता की शक्तियों की क्रियाएं या उसकी संभूति की क्रियाएं उसके अपने क्रियाशील प्रतीक, मूर्तरूप आध्यात्म पुरुष की रचनाएं, वह जो होना चाहता है उसे खोजने या रूपायित करने के साधन हैं । मनुष्य के भौतिक मन की प्रवृत्ति होती है और तरह से देखने की और वस्तुओं की सच्ची विधि को ऊपर से नीचे उलट देने की, क्योंकि वह प्रकृति के आभासोँ या सतही शक्तियों को तात्त्विक या आधारभूत मानता है । वह उसके सृजन को दृश्य, बाह्य प्रक्रिया द्वारा उसकी क्रिया के सारतत्त्व के रूप में मानता है और यह नहीं देखता कि यह केवल गौण आभास है जो एक महत्तर गुप्त प्रक्रिया को छिपाये रखता है । क्योंकि प्रकृति की गुह्य पद्धति है सत्ता को उसकी शक्तियों और उसके रूपों द्वारा बाहर निकाल कर प्रकट करना । उसका बाहरी दबाव केवल अंतर्लीन सत्ता को इस विकास की, इस आत्म-रूपायन की आवश्यकता के लिये जगाने का साधन है । जब उसके विकास की आध्यात्मिक स्थिति आ जाती है तो इस गुह्य प्रक्रिया को ही पूरी प्रक्रिया बन जाना चाहिये । सबसे अधिक महत्त्व होगा शक्तियों के परदे से निकलकर उनके गुप्त, मुख्य स्रोततक पहुंचना जो आध्यात्म पुरुष है । आत्म-स्वरूप बन जाना ही एकमात्र करने लायक काम है । लेकिन हमारा सच्चा आत्म-स्वरूप वह है जो हमारे अंदर है । इस उच्चतम सत्ता के लिये, जो हमारी सच्ची और दिव्य सत्ता है, उसके अपने-आपको प्रकट करने और सक्रिय होने के लिये शर्त यह है कि हम शरीर, प्राण और मन की बाहरी सत्ता का अतिक्रमण करें । केवल भीतर बढ़ने या भीतर निवास करने से ही हम उसे पा सकते हैं । एक बार यह हो जाये तो वहां से आध्यात्मिक और दिव्य मन, प्राण और शरीर का निर्माण करना और इस यंत्र-विन्यास द्वारा ऐसे जगत्-निर्माणतक पहुंचना जो दिव्य जीवन का सच्चा पर्यावरण होगा -यही वह चरम लक्ष्य है जिसे प्रकृति की शक्ति ने हमारे आगे प्रस्तुत किया है । अत: पहली आवश्यकता यह है कि व्यक्ति, प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्म पुरुष को, अपने अंदर की दिव्य सदवस्तु को खोजे और उसे अपनी पूरी सत्ता और जीवन में प्रकट करे । दिव्य जीवन को पहले-पहल और मुख्य रूप से आंतरिक जीवन होना चाहिये और, चूंकि बाह्य जीवन को जो कुछ भीतर है उसकी अभिव्यक्ति होना चाहिये, अतः अगर भीतरी सत्ता दिव्य न बनी हो तो बाहरी जीवन में दिव्यत्व नहीं आ सकता । मनुष्य के अंदर भगवान् परदे के अंदर उसके आध्यात्मिक केंद्र में निवास करते हैं । अगर मनुष्य के अंदर शाश्वत आत्मा, शाश्वत पुरुष की वास्तविकता न हो तो उसके लिये अपना अतिक्रमण करने की कोई बात ही नहीं हों सकती और न ही उसके जीवन का उच्चतर परिणाम हो सकता है ।
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हमारे अंदर प्रकृति का लक्ष्य है होना और पूरी तरह होना; परंतु पूरी तरह होने का अर्थ है अपनी सत्ता के बारे में पूरी तरह सचेतन होना । अचेतना, अर्द्ध-चेतना या अपूर्ण चेतना सत्ता की ऐसी स्थिति है जिसे अपने ऊपर अधिकार नहीं होता; वह अस्तित्व तो है पर सत्ता की पूर्णता नहीं । अपने बारे में और अपनी सत्ता के संपूर्ण सत्य के बारे में पूरी तरह और समग्र रूप में अभिज्ञ होना अस्तित्व पर सच्चे अधिकार की प्राप्ति की जरूरी शर्त है । आध्यात्मिक ज्ञान का अर्थ है यही आत्म-अभिज्ञता । आध्यात्मिक ज्ञान का सार-तत्त्व है अंतर्मुख स्वयंभू चेतना । उसका सारा ज्ञान-कर्म, वस्तुत: उसका किसी भी तरह का कर्म अपने-आपको निरूपित करती हुई यह चेतना ही होगा । अन्य समस्त ज्ञान है ऐसी चेतना जो अपने-आपको भूली हुई है और अपनी तथा अपनी अंतर्वस्तुओं के बारे में अपनी अभिज्ञता की ओर लौटने के लिये प्रयास कर रही है, वह आत्म-अज्ञान है जो अपने-आपको आत्म-ज्ञान में वापस रूपांतरित करने के लिये श्रम कर रहा है ।
लेकिन साथ ही, चूंकि चेतना अपने अंदर अस्तित्व की शक्ति लिये रहती है, अतः पूरी तरह होने का अर्थ है अपनी सत्ता की अंतरंग और अखंड शक्ति को धारण करना । यह अपनी सारी आत्म-शक्ति और उसके पूरे प्रयोग पर अधिकार करना है । केवल होना, अपनी सत्ता की शक्ति पर अधिकार पाये बिना या आधी शक्ति या त्रुटिपूर्ण शक्ति के साथ होना विकलांग या क्षीण अस्तित्व है, यह अस्तित्व रखना तो है लेकिन सत्ता की पूर्णता नहीं है । वस्तुत: यह संभव है कि केवल निष्क्रिय स्थिति में अस्तित्व बना रहे और सत्ता की शक्ति आत्मा में आत्म-संगृहीत और निश्चल रहे, फिर भी स्थिति और गति दोनों में होना अस्तित्व की पूर्णता है । आत्मा की शक्ति आत्मा के अंदर दिव्यता की शक्ति का चिह्न है । शक्तिहीन आध्यात्म पुरुष आध्यात्म पुरुष नहीं है । परंतु जैसे आध्यात्मिक चेतना अंतस्थ और स्वयंभू है उसी तरह हमारी आध्यात्मिक सत्ता की यह शक्ति भी अंतस्थ, क्रिया में स्वचालित, स्वयंभू और स्वयंसिद्धिका होनी चाहिये । वह जिस यंत्र-विन्यास का उपयोग करती है वह उसीका भाग होना चाहिये । अगर वह किसी बाहरी साधन का उपयोग करे तो उसे भी उसका अपना अंग और अपनी सत्ता की अभिव्यक्ति करनेवाला बना लेना चाहिये । सचेतन क्रिया में सत्ता की शक्ति ही इच्छा है और आध्यात्म-पुरुष की जो भी सचेतन इच्छा हो, उसकी सत्ता और संभूति की जो भी इच्छा हो, उसे सारे अस्तित्व को पूरे सामंजस्य के साथ पूरा कर सकना चाहिये । जिस किसी कर्म या क्रिया-ऊर्जा में यह प्रभुत्व न हो या क्रिया-विन्यास पर अधिकार न हो उसमें इस त्रुटि के कारण सत्ता की शक्ति की अपूर्णता का, चेतना के विभाजन या अक्षम बनानेवाले खंडीकरण का, सत्ता की अभिव्यक्ति में अपूर्णता का लक्षण रहेगा ।
और अंत में, पूरी तरह होने का अर्थ है सत्ता का पूर्ण आनंद पाना । ऐसी सत्ता
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जिसमें सत्ता का आनंद न हो, जो अपने-आपके और समस्त वस्तुओं के संपूर्ण आनंद से रहित हो, वह निष्प्रभ या ह्रसित चीज है । वह अस्तित्व तो है पर सत्ता की परिपूर्णता नहीं । यह आनंद भी अंतस्थ, स्वयंभू स्वचालित होना चाहिये । वह अपने से बाहर की चीजों पर आश्रित नहीं रह सकता । वह जिस चीज में आनंद लेता है उसे वह अपना अंश बना लेता है, उसके आनंद को अपनी सार्विकता के अंश के रूप में लेता है । समस्त निरानंद, समस्त कष्ट और वेदना अपूर्णता का, असंपूर्णता का लक्षण है । वे सत्ता के विभाजन, सत्ता की चेतना की अपूर्णता, सत्ता की शक्ति की अपूर्णता से उठते हैं । सत्ता में पूर्ण होना, सत्ता की चेतना में, सत्ता की शक्ति में, सत्ता के आनंद में पूर्ण होना और इस सर्वांगीण पूर्णता में निवास करना ही दिव्य जीवन है ।
लेकिन फिर, पूरी तरह से होने का अर्थ है वैश्व रूप में होना । एक छोटे-से सीमित अहंकार की सीमाओं में रहने का अर्थ है अस्तित्व धारण करना लेकिन वह अपूर्ण अस्तित्व होता है । उसकी प्रकृति के अनुसार उसका अर्थ होगा अपूर्ण चेतना में, अपूर्ण शक्ति और सत्ता के अपूर्ण आनंद में जीना । यह अपने-आपसे कम होना है और यह अज्ञान, दुर्बलता और कष्ट की अनिवार्य अधीनता ले आना है और अगर प्रकृति के किसी दिव्य संयोजन द्वारा वह इन चीजों को दूर भी रख सके तो यह अस्तित्व के सीमित क्षेत्र में, सीमित चेतना और शक्ति और सत्ता के हर्ष में जीना होगा । समस्त सत्ता एक है और पूरी तरह होने का अर्थ है वह सब होना जो अस्तित्व रखता है । सबकी सत्ता में होना, सबको अपनी सत्ता में मिला लेना, सबकी चेतना में सचेतन होना, अपनी शक्ति में वैश्व शक्ति के साथ मिल जाना, समस्त क्रिया और अनुभव को अपने अंदर वहन करना और उसे अपनी ही क्रिया और अपना ही अनुभव मानना, सभी आत्माओं को अपनी ही आत्मा के रूप में अनुभव करना, सत्ता के समस्त आनंद को अपनी ही सत्ता के आनंद के रूप में अनुभव करना -यह सर्वांगीण दिव्य जीवन की जरूरी शर्त है ।
लेकिन इस तरह वैश्व भाव से अपने वैश्व भाव की स्वाधीनता और पूर्णता में रहने के लिये साथ-ही-साथ परात्परता में भी रहना होता है । सत्ता की आध्यात्मिक पूर्णता है शाश्वतता । अगर किसी के अंदर कालातीत शाश्वत सत्ता की चेतना नहीं है, अगर कोई शरीर या शरीरस्थ मन या शरीरस्थ प्राण पर आश्रित है या इस जगत् या उस जगत् पर या सत्ता की इस स्थिति या उस स्थिति पर आश्रित है तो यह आत्मा की वास्तविकता नहीं है, हमारे आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता नहीं है । केवल शरीर की आत्मा होकर रहना या केवल शरीर के सहारे होना, मृत्यु और कामना, कष्ट और वेदना, अवनति और क्षय के आधीन क्षणभंगुर प्राणी होना है । अतिक्रमण करना, शरीर की चेतना के परे जाना, शरीर के अंदर बंधा न रहना, शरीर के भरोसे न रहना, शरीर को केवल यंत्रवत् मानना जो आत्मा का बाह्य
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छोटा-सा रूपायण है, यह दिव्य जीवन की पहली शर्त है । अज्ञान और चेतना के प्रतिबंध के अधीन मन न बने रहना, मन का अतिक्रमण करना और उसे यंत्र के रूप में काम में लाना, उसे आत्मा के सतही रूपायण के रूप में नियंत्रित करना, यह दूसरी शर्त है । आत्मा और आध्यात्म सत्ता के सहारे होना, प्राण पर निर्भर न करना, उसके साथ एकात्म न होना, उसका अतिक्रमण करना और उसे आत्मा की अभिव्यक्ति और उपकरण की तरह नियंत्रित करना और व्यवहार में लाना, यह तीसरी शर्त है । अगर चेतना शरीर का अतिक्रमण न करे और सारे जड़गत अस्तित्व के साथ अपना भौतिक एकत्व अनुभव न करे तो शारीरिक जीवन भी अपने निजी तरीके से अपनी परिपूर्ण सत्ता प्राप्त नहीं करता । अगर चेतना व्यष्टिगत प्राण की प्रतिबद्ध लीला का अतिक्रमण न करे और वैश्व प्राण को अपने प्राण के रूप मैं और समस्त जीवन के साथ अपना एकत्व अनुभव न करे तो प्राणिक जीवन भी अपने प्रकार में अपना पूर्ण जीवन नहीं प्राप्त करता । अगर हम वैयक्तिक मानसिक सीमाओं का अतिक्रमण न करें, विश्वमन और सकल मन के साथ एकत्व का अनुभव न करें और उनकी विभिन्नताओं के वैभव में परिपूरित अपनी चेतना के अखंड होने का स्वाद न लें तो मानसता अपने प्रकार से परिपूर्ण चेतन अस्तित्व या क्रिया नहीं होती । लेकिन हमें केवल व्यक्तिगत सूत्र का ही नहीं, वैश्व सूत्र का भी अतिक्रमण करना चाहिये, क्योंकि केवल इसी तरह व्यष्टिगत या विश्वगत सत्ता अपनी सच्ची सत्ता और पूर्ण समन्वय को पा सकती है । दोनों ही अपने बाह्य रूपायण में परात्पर की अपूर्ण अवस्थाएं हैं, लेकिन अपने सारतत्त्व में वे वही हैं और केवल उस सारतत्त्व के बारे में सचेतन होकर ही व्यक्तिगत चेतना या वैश्व चेतना अपनी वास्तविकता की निजी पूर्णता और स्वाधीनतातक पहुंच सकती है । अन्यथा, व्यक्ति वैश्व गतिविधि, उसकी प्रतिक्रियाओं और सीमाओं के अधीन रहकर अपनी पूरी आध्यात्मिक स्वाधीनता से वंचित रह सकता है । उसे चरम दिव्य सदवस्तु में प्रवेश करना चाहिये, उसके साथ अपने एकत्व का अनुभव करना, उसमें निवास करना और उसका आत्म-सृजन होना चाहिये । उसके समस्त मन, प्राण और शरीर को उसीकी पराप्रकृति की अवस्थाओं में बदलना चाहिये । उसके सभा विचार, संवेदन और क्रियाएं उसीके द्वारा निर्धारित और वही हो जाने चाहियें, उसके आत्म-रूपायण होने चाहियें । यह सब उसमें तभी पूर्ण हो सकता है जब वह अज्ञान में से ज्ञान में विकसित हो और ज्ञान द्वारा परम चेतना, उसकी क्रियात्मक शक्ति और सत्ता के परम आनंद में पहुंच गया हो । लेकिन इन चीजों का कुछ सारतत्त्व और उनका पर्याप्त यंत्र-विन्यास प्रथम आध्यात्मिक परिवर्तन के साथ ही आ सकता है जिसकी परिपूर्ति होगी विज्ञानमय पराप्रकृति के जीवन में ।
आंतरिक जीवन के बिना ये चीजें असंभव हैं । ऐसी बाह्य चेतना में रहते हुए, जो सदा बहिर्मुखी हो, जो मुख्यत: सतह पर और सतह से ही क्रिया करती हो,
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इनतक नहीं पहुंचा जा सकता । व्यक्तिगत सत्ता को अपने-आपको, अपने सच्चे अस्तित्व को खोजना होगा । अंतर्मुख होकर, भीतर जीकर और भीतर से ही यह किया जा सकता है । क्योंकि बाह्य या सतही चेतना या जीवन आंतरिक आध्यात्म पुरुष से अलग अज्ञान का क्षेत्र हैं, वे आंतरिक आत्मा और जीवन के विस्तार की ओर खुलकर ही अपना अतिक्रमण और अज्ञान का अतिक्रमण कर सकते हैं । अगर हमारे अंदर परात्परता की सत्ता है तो वह हमारे प्रच्छन्न पुरुष में होगी । सतह पर केवल प्रकृति की क्षणभंगुर सत्ता है जिसे सीमा और परिस्थिति ने बनाया है । अगर हमारे अंदर ऐसा पुरुष है जो विस्तार और वैश्व भाव के लिये सक्षम है, जो वैश्व चेतना में प्रवेश करने योग्य है तो वह भी हमारी आंतरिक सत्ता में होगा, बाहरी चेतना भौतिक चेतना है जो अपनी व्यक्तिगत सीमाओं में, मन, प्राण और शरीर की तीन रस्सियों से बंधी रहती है । सार्विकता के लिये किसी बाहरी प्रयास का परिणाम बस यही हो सकता है कि या तो अहंकार बहुत अधिक बढ़ जाये या जन-समूह में उसके विलयन द्वारा या जनसमूह के प्रति उसकी अधीनता द्वारा व्यक्तित्व का ही लोप हो जाये । केवल आंतरिक वृद्धि, गति, क्रिया द्वारा ही व्यक्ति आजादी से और प्रभावी रूप से अपनी सत्ता को वैश्व बना सकता और परात्परतातक उठा सकता है । दिव्य जीवन के लिये जरूरी है कि सत्ता के क्रियाशील संपादन के केंद्र और साक्षात् उत्स को बाहर से हटाकर भीतर की ओर कर दिया जाये क्योंकि अंतरात्मा वहीं विराजमान है, लेकिन है परदे में या आधी छिपी हुई; और हमारी साक्षात् सत्ता और क्रिया-उत्स अभी बाहरी सतह पर हैं । उपनिषद् का कहना है कि स्वयंभू ने चेतना के द्वार बाहर की ओर काटे हैं लेकिन कुछ धीर ऐसे होते हैं जो आंख को भीतर की ओर मोड़ते हैं और ये ही आध्यात्म पुरुष को देखते और जानते हैं और आध्यात्मिक सत्ता को विकसित करते हैं । इस भांति अपने अंदर झांकना, अपने अंदर देखना और प्रवेश करना और वहीं निवास करना प्रकृति के रूपांतर और दिव्य जीवन के लिये पहली जरूरत है ।
अंतर की ओर जाने और अंतर में निवास करने की इस प्रवृत्ति को मानव प्राणी की सामान्य चेतना पर जमाना कठिन काम है, फिर भी आत्मान्वेषण का और कोई तरीका नहीं है । जड़वादी विचारक अंतर्मुख और बहिर्मुख के बीच विरोध खड़ा करके बहिर्मुख वृत्ति को एकमात्र सुरक्षा के रूप में स्वीकार किये जाने के लिये सामने रखता है । उसके अनुसार अंदर जाने का अर्थ है अंधकार में या रिक्तता में प्रवेश करना या चेतना के संतुलन को खोकर अस्वस्थ हों जाना, मनुष्य जिस प्रकार के आंतरिक जीवन की रचना कर सकता है उसे बाहर से ही बनाया जा सकता है और उसका स्वास्थ्य हितकर और पौष्टिक बाहरी स्रोतों पर नियमित निर्भरता रखने से सुरक्षित रहता है, -व्यक्तिगत मन और प्राण का संतुलन बाह्य वास्तविकता के दृढ़ अवलंब से ही सुरक्षित किया जा सकता है क्योंकि जड़ जगत् ही एकमात्र
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मूलभूत वास्तविकता है । यह बात भौतिक मनुष्य के लिये, उस जन्मजात बहिर्मुख व्यक्ति के लिये सच्ची हो सकती है जो अपने-आपको बाह्य प्रकृति का जीव मानता है, जिसे उसी प्रकृति ने बनाया है और जो उसीपर निर्भर है, अगर वह भीतर प्रवेश करे तो अपने-आपको खो देगा, उसके लिये कोई आंतरिक सत्ता नहीं होती, आंतरिक जीवन नहीं होता । लेकिन इस भेद में, जिसे अंतर्मुख माना जाता है, उसमें भी आंतरिक जीवन नहीं होता; वह सच्ची आंतरिक आत्मा और आंतरिक वस्तुओं का द्रष्टा न होकर छोटा-सा मानसिक मनुष्य होता है जो छिछले रूप में अपने अंदर देखता है और वहां आध्यात्म पुरुष को नहीं बल्कि अपने प्राणमय अहंकार को, अपने मनोमय अहंकार को देखता है और अस्वस्थ रूप में इस क्षुद्र दयनीय बौने जीव की गतिविधियों में तल्लीन रहता है । जो मानसिकता सदा सतह पर रही है और जिसे आंतरिक सत्ता का अनुभव नहीं है, उसकी अंदर नजर डालते ही पहली प्रतिक्रिया होती है आंतरिक अंधकार के भाव या अनुभव की । उसे केवल निर्मित आंतरिक अनुभव प्राप्त होता है जो अपनी सत्ता के उपादान के लिये बाहरी जगत् पर निर्भर रहता है । लेकिन जिनके गठन में अधिक आंतरिक जीवन की शक्ति प्रवेश कर गयी है उनमें भीतर जाने और भीतर रहने की क्रिया अंधकार या मंद रिक्तता नहीं लाती बल्कि एक विस्तार, नये अनुभव का प्रवाह, महत्तर दृष्टि, विशालतर सामर्थ्य, एक विस्तृत जीवन लाती है जो हमारी सामान्य भौतिक मानवजाति के अपने लिये बने जीवन की प्रथम तुच्छता से अनंतगुना वास्तविक और विविध है, वह लाती है सत्ता का आनंद जो अस्तित्व में ऐसे किसी भी आनंद से अधिक महान् और समृद्ध है जिसे बाहरी प्राणिक मनुष्य या सतही मानसिक मनुष्य अपनी क्रियाशील प्राणिक शक्ति या क्रियाशीलता या मानसिक सत्ता की सूक्ष्मता या विस्तार द्वारा पा सकता है । एक निश्चल नीरवता, एक विस्तृत या प्रगाढ़ और अनंत रिक्तता में प्रवेश आंतरिक आध्यात्मिक अनुभव का अंश है । भौतिक मन को इस नीरवता और रिक्तता का अमुक प्रकार का भय लगता है । बाहरी सतह पर ही काम करनेवाले विचारशील या प्राणिक लघु मन को उससे जुगुप्सा या अरुचि होती है क्योंकि उसे नीरवता को मानसिक और प्राणिक अक्षमता और शून्य को अवसान या अनस्तित्व मान बैठने का भ्रम हों जाता है । लेकिन यह नीरवता आत्मा की नीरवता है जो महत्तर ज्ञान, शक्ति और आनंद की स्थिति है और यह रिक्तता हमारी प्राकृतिक सत्ता के प्याले को खाली करना है, उसे उसकी गदली अंतर्वस्तुओं से मुक्त करना है ताकि वह भागवत सुरा से भरा जा सके । यह अनस्तित्व में नहीं, महत्तर अस्तित्व में जाना है । जब सत्ता अवसान की ओर मुड़ती है तो यह अनस्तित्व में नहीं बल्कि आध्यात्मिक सत्ता के किसी विशाल अनिर्वचनीय में होता है या निरपेक्ष की किसी अव्यवहार्य अतिचेतना में गोता लगाना होता है ।
वस्तुत: यह अंदर की ओर मुड़ना और गति करना व्यक्तिगत आत्मा में बंदी
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होना नहीं है, यह सच्ची सार्विकता की ओर पहला कदम है । वह हमारे पास हमारे बाह्य सत्य और साथ ही आंतरिक अस्तित्व के सत्य को लेकर आता है । क्योंकि यह आंतरिक जीवन अपने-आपको विस्तृत करके वैश्व जीवन का आलिंगन कर सकता है, हमारी सतही चेतना में जो कुछ संभव है, यह उसकी अपेक्षा कहीं अधिक यथार्थता और क्रियाशील शक्ति के साथ सबके जीवन में संपर्क साध सकता, उनमें प्रवेश कर सकता, उन्हें घेर सकता है । सतह पर हमारा अधिक-से-अधिक वैश्वभावापन्न होना एक तुच्छ और लंगड़ाता-सा प्रयास है । वह एक निर्मित वस्तु छल है, सच्ची चीज नहीं, क्योंकि अपनी सतही चेतना में हम औरों के साथ चेतना के पार्थक्य से बंधे हैं और अहंकार की बेड़ियां पहने हुए हैं, वहां तो हमारी निःस्वार्थता भी बहुत बार स्वार्थपरता का ही सूक्ष्म रूप होती है या हमारे अहं की अधिक बड़ी स्थापना का रूप ले लेती है । अपनी परोपकार की मुद्रा से संतुष्ट होकर हम यह नहीं देखते कि हमने जिन दूसरों को अपने विस्तृत घेरे में ले रखा है वह उनपर अपने वैयक्तिक स्व, अपने विचारों, अपने मानसिक और प्राणिक व्यक्तित्व को, अपने अहं को बढ़ाने की आवश्यकता को आरोपित करने का एक आवरण है । जहांतक हम सचमुच दूसरों के लिये जीने में सफल होते हैं, यह प्रेम और सहानुभूति की आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति के द्धारा किया जाता है, लेकिन हमारे अंदर इस शक्ति की प्रभावोत्पादकता की सामर्थ्य और उसका क्षेत्र कम है, जो चैत्य गति उसे प्रेरित करती है वह अपूर्ण है, उसकी क्रिया अज्ञानमय है क्योंकि वहां मन और हृदय का संपर्क तो है लेकिन हमारी सत्ता औरों की सत्ता का अपने ही रूप में आलिंगन नहीं करती । औरों के साथ बाहरी ऐक्य हमेशा बाहरी जीवनों का जोड़ और सम्मिलन होता है जिसमें छोटे-मोटे आंतरिक परिणाम होते हैं । मन और हृदय अपनी गतिविधि को इस सामान्य जीवन और उन सत्ताओं के साथ जोड़ देते हैं जिनसे हम वहां मिलते हैं, लेकिन सामान्य बाह्य जीवन ही आधार बना रहता है -भीतरी निर्मित ऐक्य या उसमें का उतना अंश जो परस्पर अज्ञान और विसंगत अहंकारों, मनों के संघर्ष, हृदयों के संघर्ष, प्राणिक स्वभावों के संघर्ष, हितों के संघर्ष के बावजूद रह सकता है वह आंशिक और असुरक्षित अधिरचना है । आध्यात्मिक चेतना, आध्यात्मिक जीवन, निर्माण के इस सिद्धांत को उलट देता है । वह सामुदायिक जीवन में अपने कर्म को आंतरिक अनुभूति और अपनी सत्ता के अंदर औरों के समावेश, आंतरिक भाव और एकत्व की वास्तविकता पर आधारित करता है । आध्यात्मिक व्यक्ति एकत्व के उस बोध से कार्य करता है जो उसे आत्मा की अन्य आत्मा से की गयी मांग का, जीवन की जरूरत का, शुभ का, प्रेम और सहानुभूति के सत्यत: किये जा सकनेवाले कर्म का तुरंत और प्रत्यक्ष बोध देता है । आध्यात्मिक एकत्व की उपलब्धि, एकमेव सत्ता की, सभी भूतों में उपस्थित एकमेव आत्मा की अंतरंग चेतना का सक्रियकरण ही अपने सत्य
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के द्वारा दिव्य जीवन की क्रिया का आधार और प्रशासक बन सकता है ।
विज्ञानमय या दिव्य सत्ता में, विज्ञानमय जीवन में, दूसरों की आत्मा की घनिष्ठ और पूरी चेतना होगी, उनके मन, प्राण और शारीरिक सत्ता की चेतना होगी जिसका अनुभव अपनी निजी चेतना की तरह होगा । विज्ञानमय सत्ता प्रेम या सहानुभूति या ऐसे ही किसी सतही भावुकता द्वारा नहीं बल्कि इस घनिष्ठ पारस्परिक चेतना द्वारा, इस अंतरंग ऐक्य द्वारा कार्य करेगी । जगत् में उसका सारा कार्य, जो किया जाना चाहिये, उसकी दृष्टि के सत्य से आलोकित होगा -उसके अंदर भागवत सद्वस्तु की इच्छा के बोध से -जो औरों में भी भागवत सद्वस्तु है और वह कार्य किया जायेगा औरों के अंदर भगवान् के लिये, सबके अंदर स्थित भगवान् के लिये, सर्व के प्रयोजन के सत्य के कार्यान्वयन के लिये, जैसा कि वह उच्चतम चेतना के प्रकाश में दिखलायी देता है और उस तरह से और उन चरणों से होते हुए जिनमें उसे परा-प्रकृति की शक्ति में कार्यान्वित होना चाहिये । विज्ञानमय सत्ता केवल अपनी ही परिपूर्ति में अपने-आपको प्राप्त नहीं करती, जो उसके अंदर दिव्य सत्ता और दिव्य इच्छा की परिपूर्ति है, बल्कि औरों की परिपूर्ति में भी अपने-आपको प्राप्त करती है । उसका वैश्व व्यक्तित्व सभी सत्ताओं में अपनी महत्तर संभूति की और सर्व की जो गति है, उसमें अपने-आपको कार्यान्वित करता है । वह सर्वत्र दिव्य क्रिया को देखता है । उस दिव्य क्रिया की समष्टि में उसके अंदर से जो कुछ जाता है, उसके अंदर काम करती हुई आंतरिक ज्योति, इच्छा, शक्ति में से जो कुछ जाता है, वही उसकी क्रिया है । उसमें कोई पृथगात्मक अहं नहीं होता जो किसी चीज का आरंभ करे । उसके वैश्वभावापन्न व्यक्तित्व में से परात्पर और वैश्व ही विश्व की क्रिया में बाहर आते हैं । जैसे वह किसी पृथक् अहं के लिये नहीं जीता, उसी तरह वह किसी सामुदायिक अहं के प्रयोजन के लिये भी नहीं जीता । वह अपने अंदर स्थित भगवान् में और उन्हींके लिये, समष्टि में स्थित भगवान् में और उनके लिये, सभी सत्ताओं के अंदर स्थित भगवान् में और उनके लिये जीता है । कर्म में यह वैश्व भाव, जिसे सर्वद्रष्टा इच्छा ने सबकी उपलब्ध एकता के भाव में संगठित किया है, यही उसके दिव्य जीवन का धर्म है ।
अत: जब हम दिव्य जीवन की बात कहते हैं तो सबसे पहले हमारा मतलब व्यक्तिगत पूर्णता की प्रेरणा की इस आध्यात्मिक परिपूर्ति और सत्ता की आंतरिक संपूर्णता से होता है । धरती पर पूर्ण जीवन की यह पहली जरूरी शर्त है । अतः यथासंभव अधिक-से-अधिक वैयक्तिक पूर्णता को अपना पहला परम कर्तव्य बना लेना हमारे लिये ठीक है । व्यक्ति के अपने इर्द-गिर्द के सबके साथ आध्यात्मिक और व्यावहारिक संबंध की पूर्णता हमारा दूसरा सर्वोपरि व्यापार है । इस दूसरी आवश्यकता का समाधान धरती पर समस्त जीवन के साथ ऐक्य और पूर्ण वैश्व भाव में है जो विज्ञानमय चेतना और प्रकृति में विकास का दूसरा सहगामी परिणाम
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है । लेकिन तीसरी आवश्यकता अभी बाकी है, एक नया जगत् मानवजाति के समस्त जीवन में परिवर्तन या कम-से-कम नया, पार्थिव प्रकृति में संपूरित सामूहिक जीवन । इसके लिये अविकसित जन-समूह में काम करनेवाले एकाकी विकसित व्यक्तियों के आविर्भाव की ही नहीं बल्कि ऐसे बहुत-से विज्ञानमय व्यक्तियों के आविर्भाव की जरूरत है जो वर्तमान व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन से ज्यादा अच्छे जीवों के एक नये प्रकार की और नये सामाजिक जीवन की रचना करें । स्पष्ट है कि इस तरह के सामुदायिक जीवन को उन्हीं सिद्धांतों पर ढालना होगा जिनपर विज्ञानमय व्यष्टि का जीवन ढलेगा । हमारे वर्तमान मानव जीवन में एक भौतिक समष्टि है जिसे एक साथ जोड़े रखते हैं सर्व-सामान्य भौतिक जीवन के तथ्य और उससे आनेवाली सभी चीजें, हितों का मेल, सर्व-सामान्य सभ्यता या संस्कृति, सर्व-सामान्य सामाजिक नियम, समष्टि की मनोवृत्ति, आर्थिक सम्मिलन, आदर्श, भाव और सामूहिक अहंकार के प्रयास, जिनके साथ वैयक्तिक कड़ियों और संबंधों का धागा सभी में से गुजरता हुआ उन्हें साथ रखने में सहायक होता है । या जहां इन चीजों में भेद है, विरोध, संघर्ष है, वहां व्यावहारिक अनुकूलन या व्यवस्थित समझौता साथ रहने की आवश्यकता द्वारा आरोपित किया जाता है, एक स्वाभाविक या रचित व्यवस्था खड़ी कर दी जाती है । यह सामुदायिक जीवन का विज्ञानमय तरीका न होगा । क्योंकि वहां जो चीज सबको साथ बांधकर संयुक्त रखेगी वह किसी पर्याप्त रूप से संयुक्त सामाजिक चेतना को रचनेवाली जीवन-वास्तविकता नहीं बल्कि सामूहिक सामाजिक जीवन को इकट्ठा रखनेवाली एक सामान्य चेतना होगी । सब अपने अंदर ऋत-चेतना के विकास से जुड़े होंगे । यह चेतना उनमें सत्ता की जो बदली हुई विधि लायेगी उससे वे अपने-आपको एक ही आत्मा के शरीर, एकमात्र सदवस्तु के जीव अनुभव करेंगे; ज्ञान के आधारभूत ऐक्य से आलोकित और प्रेरित, एक मूलभूत संयुक्त इच्छा और भावना से परिचालित, आध्यात्मिक सत्य को प्रकट करनेवाला जीवन उनके द्वारा संभूति के अपने स्वाभाविक रूपों को पा लेगा । वहां व्यवस्था तो होगी क्योंकि ऐक्य का सत्य अपनी ही व्यवस्था का निर्माण करता है, जीवन का नियम या उसके विधान हो सकते हैं परंतु होंगे ये आत्म-निर्धारित । वे आध्यात्मिक ढंग से संयुक्त सत्ता के सत्य और आध्यात्मिक रूप से संयुक्त जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति होंगे । सामान्य जीवन का समस्त रूपायण उन आध्यात्मिक शक्तियों का आत्म-निर्माण होगा जिन्हें ऐसे जीवन में अपने-आपको सहज रूप से कार्यान्वित करना चाहिये । आंतरिक सत्ता इन शक्तियों को आंतरिक रूप से ग्रहण करेगी और वे भाव, क्रिया और प्रयोजन के सहज सामंजस्य में प्रकट होंगी या स्वतः व्यक्त होंगी ।
सामंजस्य को सुरक्षित करने के लिये मन का तरीका है बढ़ता हुआ यंत्रीकरण, मानकीकरण और सबको एक समान सांचे में ढालना, लेकिन इस जीवन का यह
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विधान न होगा । अलग-अलग विज्ञान-समाजों के बीच काफी खुली हुई विविधता होगी, हर एक समाज आत्मा के जीवन के लिये अपना-अपना शरीर तैयार करेगा, एक ही समाज के व्यक्तियों की आत्म-अभिव्यक्ति में भी काफी खुली विविधता होगी लेकिन यह खुली विविधता अव्यवस्था न होगी, यह किसी बेसुरेपन की रचना न करेगी । क्योंकि ज्ञान के एकमेव सत्य और जीवन के एकमेव सत्य की विविधता में सहसंबंध होगा, विरोध नहीं । विज्ञानमय चेतना में व्यक्तिगत भाव पर अहंकार-भरा आग्रह न होगा और व्यक्तिगत इच्छा और हित का दबाव या शोर-शराबा न होगा । इसकी जगह बहुत-से रूपों में सर्व-सामान्य सत्य का, बहुत-सी चेतनाओं और शरीरों में एक सर्व-सामान्य आत्मा का एक करनेवाला भाव होगा । एक सार्विकता और नम्यता होगी जो एकमेव को उसके अनेक आकारों में देखती और व्यक्त करती है और सभी विविधताओं में एकत्व को कार्यान्वित करती है जैसा कि ऋत-चित् और उसके स्वभाव के सत्य का अंतर्निहित विधान है । एकमेव चित्-शक्ति, जिसके बारे में सभी अभिज्ञ होंगे और अपने-आपको उसके यंत्र के रूप में देखेंगे, वह उनके अंदर से कार्य करेगी और उनके कार्यों में आपस में सामंजस्य लायेगी । विज्ञानमय पुरुष यह अनुभव करेगा कि पराप्रकृति की एक ही समस्वर-शक्ति सबमें काम कर रही है । वह अपने अंदर उसके रूपायण को स्वीकार करेगा और उसकी आज्ञा मानेगा या उसके दिये हुए ज्ञान और शक्ति का भगवान् के काम के लिये उपयोग करेगा, लेकिन वह किसी ऐसी प्रेरणा या बाध्यता के अधीन न होगा कि अपने अंदर के ज्ञान और शक्ति का दूसरों के अंदर के ज्ञान और शक्ति से टकराव करा दे या अपने-आपको ऐसा अहं सिद्ध करे जो अन्य अहंकारों के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है । क्योंकि, आध्यात्म पुरुष का अपना ही अविच्छेद्य आनंद होता है, सभी अवस्थाओं में अलंध्य रहनेवाली अपनी ही पूर्णता रहती है, अपने ही स्वरूप-सत्य की अनंतता रहती है, बाहरी प्रतिपादन चाहे जैसा क्यों न हो इन्हें वह हमेशा पूरी तरह अनुभव करता है । भीतरी आध्यात्म पुरुष का सत्य किसी रूपायन विशेष पर निर्भर नहीं होता इसलिये उसे किसी बाहरी निरूपण या आत्म-प्रतिष्ठापन के लिये संघर्ष करने की जरूरत नहीं होती । बहुत-से रूप अपने-आप नमनीयता से ऊपर उठेंगे, अन्य निरूपणों के साथ उनका उचित संबंध होगा और संपूर्ण निरूपण में हर एक अपने-अपने स्थान पर होगा । अपनी स्थापना करता हुआ विज्ञान-चेतना और सत्ता का सत्य अपने चारों ओर की सत्ताओं के अन्य सभी सत्यों के साथ अपना सामंजस्य प्राप्त कर सकता है । आध्यात्मिक या विज्ञानमय पुरुष अपने चारों ओर के सारे विज्ञानमय जीवन के साथ सामंजस्य का अनुभव करेगा, समग्र के अंदर उसका चाहे जो स्थान क्यों न हो । उसके अंदर अपने स्थान के अनुसार वह नेतृत्व या शासन करना जानेगा लेकिन साथ ही अपने-आपको आधीन करना भी जानेगा । उसके लिये दोनों में समान आनंद होगा; क्योंकि आत्मा शाश्वत, स्वयंभू
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और अविच्छेद्य है, अत: उसकी स्वाधीनता सेवा और स्वेच्छापूर्ण अधीनता तथा अन्य आत्माओं के साथ समायोजन में उसी तरह अनुभव की जा सकती है जैसे शक्ति और शासन में । आंतरिक आध्यात्मिक स्वतंत्रता अपना स्थान आंतरिक आध्यात्मिक श्रेणी-क्रम के सत्य में भी उसी तरह स्वीकार कर सकती है जैसे मूलभूत आध्यात्मिक समानता के सत्य में, और इस सत्य की उस सत्य से असंगति न होगी । विकसनशील विज्ञानमय सत्ता की अलग-अलग श्रेणियों तथा अवस्थाओं के सर्व-सामान्य जीवन में सत्य का यह स्वतःस्फूर्त विन्यास ही, जो आध्यात्म पुरुष की स्वाभाविक व्यवस्था है, उपस्थित रहेगा । ऐक्य विज्ञानमय चेतना का आधार है, पारस्परिकता विविधता के अंदर उसके एकत्व-संबंधी साक्षात् ज्ञान का स्वाभाविक परिणाम है, सामंजस्य उसकी शक्ति की क्रिया का अनिवार्य बल है । अतः एकता, पारस्परिकता और सामंजस्य को सर्वसामान्य या सामुदायिक विज्ञानमय जीवन का अपरिहार्य विधान होना चाहिये । वह कौन से रूप धारण करे यह निर्भर है पराप्रकृति की विकसनशील अभिव्यक्ति की इच्छा पर लेकिन यह होगा उसका सामान्य स्वभाव और सिद्धांत ।
शुद्ध रूप से मानसिक और जड़-भौतिक सत्ता और जीवन में से निकल कर आध्यात्मिक और अतिमानसिक सत्ता और जीवन में जाने का पूरा भाव, अंतर्निहित विधान और आवश्यकता यही है कि अज्ञान में सत्ता जिस मुक्ति, पूर्णता, आत्म-परिपूर्ति को खोज रही है वह सब उसे अपनी वर्तमान अज्ञान की प्रकृति में से निकलकर आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान और जगत्-ज्ञान की प्रकृति में जाने से ही मिल सकती है । हम इस महत्तर प्रकृति को पराप्रकृति कहते हैं क्योंकि वह उसकी चेतना और क्षमता के वास्तविक स्तर के परे है, लेकिन वस्तुत: वह मनुष्य की अपनी सच्ची प्रकृति है, उसकी उच्चता और पूर्णता है जिसे उसे पाना चाहिये, यदि वह अपनी सच्ची आत्मा को और सत्य की समस्त संभावना को पाना चाहता है । प्रकृति में जो कुछ होता है वह प्रकृति का ही परिणाम होना चाहिये, उसमें जो कुछ समाविष्ट या अंतर्निहित है उसका कार्यान्वयन, उसका अनिवार्य फल और परिणाम होना चाहिये । अगर हमारी प्रकृति मूलभूत निश्चेतना और अज्ञान है जो कठिनाई से चेतना तथा सत्ता के अपूर्ण ज्ञान और अपूर्ण रूपायणतक पहुंच सकती है तो हमारी सत्ता, जीवन और क्रिया और रचना के परिणामों को, जैसे कि वे अभी हैं, निरंतर अपूर्णता और असुरक्षित अर्द्ध-परिणाम, अपूर्ण मानसिकता, अपूर्ण जीवन और अपूर्ण भौतिक जीवन होना चाहिये । हम ऐसी ज्ञान-प्रणालियां और जीवन-पद्धतियां बनाना चाहते हैं जिनसे हम अपने जीवन की किसी पूर्णतातक, उचित संबंधों की किसी व्यवस्था, मन के उचित उपयोग, प्राण के उचित उपयोग, सुख तथा सौंदर्य, शरीर के उचित उपयोगतक पहुंच सकें । लेकिन हम पाते क्या हैं ? एक निर्मित अर्द्ध-औचित्य जो ऐसे बहुत-से अंश से मिला हुआ है जो गलत, अप्रिय और
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असुखकर है । हमारी क्रमिक रचनाओं में अपने अंदर के दोष के कारण, और चूंकि मन और प्राण अपनी खोज में कहीं भी स्थिर रूप से नहीं रह सकते, इसलिये उनके विनाश, अवनति और उनकी व्यवस्था के विघटन की संभावना बनी रहती है । हम उनसे दूसरी रचनाओं पर चले जाते हैं जो अंतत: अधिक सफल या स्थायी तो नहीं होतीं, चाहे वे किसी-न-किसी दिशा में अधिक समृद्ध, भरपूर या बौद्धिक रूप से अधिक सराहनीय हों । अन्यथा हो ही नहीं सकता, क्योंकि हम कोई ऐसी रचना नहीं कर सकते जो हमारी प्रकृति से परे जा सके; अपने-आप अपूर्ण होते हुए हम पूर्णता नहीं रच सकते, फिर हमारे मन की प्रवीणता द्वारा आविष्कृत यंत्र हमें चाहे जितने आश्चर्यजनक क्यों न लगें, वे बाहर से चाहे जितने प्रभावकारी क्यों न हों । अज्ञानी, हम पूर्णतया सत्य, सफल आत्म-ज्ञान और जगत्-ज्ञानवाली प्रणाली नहीं बना सकते । हमारा भौतिक विज्ञान भी सूत्रों और साधन-उपायों की एक रचना, उनका समूह ही है । प्रक्रियाओं के ज्ञान और उपयुक्त यंत्र की रचना में अधिकार के साथ रहनेवाला परंतु हमारी सत्ता और जगत्-सत्ता की नींव को न जाननेवाला यह विज्ञान हमारी प्रकृति को पूर्ण नहीं बना सकता और इस कारण हमारे जीवन को भी पूर्ण नहीं बना सकता ।
हमारी प्रकृति, हमारी चेतना ऐसी सत्ताओं की है जो एक-दूसरे से अजानी, एक-दूसरे से अलग हैं, उनकी जड़ें विभाजित अहं में हैं, उन्हें अपने मूर्त अज्ञान के बीच किसी तरह का संबंध स्थापित करने के लिये श्रम करना होता है क्योंकि, ऐक्य की प्रेरणा और ऐक्य के लिये कार्य करनेवाली शक्तियां प्रकृति में मौजूद हैं । सापेक्ष और सीमित पूर्णतावाले व्यक्तिगत और सामूहिक सामंजस्यों की रचना होती है, सामाजिक संबद्धता प्राप्त होती है परंतु समूह में जो संबंध बनते हैं वे सदा अपूर्ण सहानुभूति, अपूर्ण समझ, स्थूल गलतफहमियों, संघर्ष, असंगति और अवसाद से बगड़ जाते हैं । जबतक आत्म-ज्ञान, आंतरिक परस्पर-ज्ञान, ऐक्य की आंतरिक उपलब्धि, हमारी सत्ता की आंतरिक शक्तियों और जीवन की आंतरिक शक्तियों की सुसंगति प्रकृति पर आधारित चेतना का सच्चा एकत्व न हो तबतक अन्यथा हो भी नहीं सकता । अपने सामाजिक निर्माण में हम एकता, पारस्परिकता, सामंजस्य के नजदीक जाने का कोई तरीका स्थापित करने के लिये श्रम करते हैं क्योंकि इन चीजों के बिना पूर्ण सामाजिक जीवन नहीं हो सकता, लेकिन हम जो बनाते हैं वह निर्मित एकता होती है, हितों और अहं का मेल होता है जिसे विधान और परंपरा द्वारा लागू किया जाता है, जो बनावटी व्यवस्था ही लादता है जिसमें कुछ के हित औरों के हितों पर छा जाते हैं और आधे स्वीकृत, आधे आरोपित, आधे प्राकृतिक और आधे कृत्रिम समायोजन सामाजिक समग्र को बनाये रखते हैं । समुदाय और समुदाय के बीच समायोजन और भी बुरा होता है, उसमें हमेशा सामाजिक अहं का सामाजिक अहं के साथ टकराव होता रहता है । हम जो अच्छे-से-अच्छा कर
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सकते हैं वह यही है और समाज-व्यवस्था के हमारे समस्त सतत पुनःसमायोजन जीवन की अपूर्ण रचना से बढ़कर और कुछ नहीं ला सकते ।
अगर हमारी प्रकृति अपने परे विकसित हो सके, अगर वह आत्म-ज्ञान, पारस्परिक समझ, ऐक्य की प्रकृति बन जाये, सच्ची सत्ता और सच्चे जीवन की प्रकृति बन जाये तो उसका परिणाम हो सकता है हमारी पूर्णता, हमारे जीवन की पूर्णता, सच्ची सत्ता का जीवन, एकता, पारस्परिकता, सामंजस्य का जीवन, सच्चे सुख का सामंजस्यपूर्ण सुंदर जीवन । अगर हमारी प्रकृति उसीमें जड़ी रहे जो वह है, जो वह बन चुकी है तब कोई पूर्णता, कोई सच्चा और स्थायी सुख पार्थिव जीवन में संभव ही नहीं हो सकता, हमें उसकी तलाश बिल्कुल न करनी चाहिये, हमें अपनी अपूर्णताओं का ही अच्छे-से-अच्छा उपयोग करना चाहिये या हमें उसे कहीं और खोजना चाहिये, या तो धरती से परे परलोक में या हमें इस समस्त खोज के परे चले जाना चाहिये और जिस किसी निरपेक्ष में से हमारी यह विचित्र और असंतोषजनक सत्ता अस्तित्व में आयी है, उसीमें प्रकृति तथा अहं का निर्वापण करके जीवन का अतिक्रमण करना चाहिये । लेकिन अगर हमारे अंदर कोई आध्यात्मिक सत्ता है जिसका आविर्भाव हो रहा है और हमारी वर्तमान अवस्था एक अपूर्णता या अर्द्ध-आविर्भाव है, यदि निश्चेतना आरंभ-बिंदु है जो अपने अंदर अतिचेतना और पराप्रकृति की सामर्थ्य को समाये हुए है जिसे विकसित होना है, यदि वह प्रत्यक्ष प्रकृति का एक आवरण है जिसमें वह महत्तर चेतना छिपी है और जिसमें से उसे उन्मीलित होना है, यदि सत्ता का विकास ही विधान है तो हम जिस चीज को खोज रहे हैं वह केवल संभव ही नहीं बल्कि वस्तुओं की अंतिम नियति का अंग है । हमारी आध्यात्मिक नियति है कि उस पराप्रकृति को व्यक्त करें और वही बन जाएं -क्योंकि यह हमारी सच्ची आत्मा की, अविकसित होने के कारण अभीतक गुह्य, समग्र सत्ता की प्रकृति है । तब ऐक्य की प्रकृति अपना एकत्व, पारस्परिकता और सामंजस्य का जीवन-परिणाम अवश्य लायेगी । जिनका आंतरिक जीवन परिपूर्ण चेतना और चेतना की परिपूर्ण शक्ति की ओर जाग्रत् होगा उन सब में वह जीवन अपना अवश्यंभावी फल -आत्म-ज्ञान, पूर्णताभरा जीवन, संतुष्ट सत्ता का हर्ष, निष्पन्न प्रकृति का सुख - उत्पन्न करेगा ।
विज्ञान-चेतना और पराप्रकृति के अभिव्यक्ति-साधनों का अंतर्विष्ठ लक्षण है दृष्टि और कर्म की समग्रता, ज्ञान के साथ ज्ञान का एकत्व, मन से देखने और जानने में हमें जो कुछ विरोधी लगता है उस सबकी संगति, ज्ञान और इच्छा का तादात्म्य जो वस्तुओं के सत्य के साथ पूर्ण ऐक्य में एक ही शक्ति की तरह कार्य करे । पराप्रकृति का यह अंतर्जात लक्षण उसके कार्य के पूर्ण ऐक्य, पारस्परिकता और सामंजस्य का आधार है । मानसिक सत्ता में उसके निर्मित ज्ञान की वस्तुओं के सच्चे या समग्र सत्य के साथ असंगति रहती है, अत: जो उसमें सत्य है भी वह बहुधा
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या अंतत: प्रभावहीन या आंशिक रूप से प्रभावी होता है । सत्य के हमारे आविष्कार उखाड़ फेंके जाते हैं, सत्य के लिये हमारे आवेगपूर्ण कार्यान्वयन कुंठित हो जाते हैं । प्रायः हमारे कर्म का परिणाम ऐसी योजना का अंश बन जाता है जिसके लिये हमारा इरादा न था, किसी ऐसे प्रयोजन के लिये जिसकी वैधता को हम स्वीकार नहीं करते या भाव का सत्य उसकी व्यावहारिक सफलता के वास्तविक परिणाम से धोखा खा जाता है । अगर भाव की सफल चरितार्थता हो भी जाये फिर भी, चूंकि भाव अपूर्ण है, मन की एक एकाकी रचना है जो वस्तुओं के एक और समग्र सत्य से अलग है, इसलिये जल्दी हो या देर में, उसकी सफलता का अंत मोह-भंग और नये प्रयास में होगा । हमारी कुंठा का कारण है हमारी दृष्टि और हमारी धारणाओं का वस्तुओं के सच्चे सत्य और पूर्ण सत्य से विसंवाद, हमारे मन की भ्रामक रचनाओं की आंशिकता और छिछलापन । लेकिन केवल ज्ञान का ज्ञान के साथ विसंवाद नहीं होता बल्कि साथ ही एक ही व्यक्ति में इच्छा का इच्छा से और ज्ञान का इच्छा के साथ विसंवाद होता है, उनके बीच विभाजन और असामंजस्य होता है । फलत: जहां ज्ञान परिपक्व या पर्याप्त है वहां सत्ता में कोई इच्छा उसका विरोध करती या उसे धोखा दे जाती है, जहां इच्छा सशक्त है, उग्र, दृढ़ या सशक्त रूप में प्रभावकारी है वहां उस ज्ञान का अभाव है जो उसे अपने उचित उपयोग की ओर ले जाये । हमारे ज्ञान, इच्छा, क्षमता, कार्यकारिणी शक्ति और व्यवहार की सब प्रकार की विषमता, अव्यवस्था, अधूरापन हमेशा हमारे कर्म के और जीवन के कार्यान्वयन के बीच में पड़ते रहते हैं और अपूर्णता या प्रभावहीनता के प्रचुर स्रोत होते हैं । ये अव्यवस्थाएं दोष और असामंजस्य अज्ञान की स्थिति और ऊर्जा के लिये सामान्य हैं और मानसिक प्रकृति या प्राणिक प्रकृति के प्रकाश में से ज्यादा बड़े प्रकाश के द्वारा ही विलीन किये जा सकते हैं । समस्त विज्ञानमय दृष्टि और क्रिया का सहज लक्षण है सत्य का सत्य के साथ तादात्म्य, प्रामाणिकता और सामंजस्य । जैसे-जैसे हमारा मन विज्ञान में विकसित होता है, हमारी मानसिक दृष्टि और क्रिया को विज्ञानमय प्रकाश में उठा लिया जाता है या वह प्रकाश यहां आता और उनपर शासन करने लगता है वैसे-वैसे मन इस विशेषता में भाग लेने लगेगा और चाहे प्रतिबद्ध और सीमाओं में रहे फिर भी बहुत अधिक पूर्ण और अपनी सीमाओं में प्रभावी होगा । हमारी कुंठा और अक्षमता के कारण कम होने लगेंगे और गायब हो जायेंगे । साथ ही बृहत्तर सत्ता बृहत्तर चेतना और बृहत्तर शक्ति की सामर्थ्य के साथ मन पर आक्रमण करेगी और सत्ता की नयी शक्तियां बाहर निकाल लायेगी । ज्ञान चेतना की शक्ति और क्रिया है, इच्छा सत्ता की शक्ति की सचेतन शक्ति और सचेतन क्रिया है; विज्ञानमय सत्ता में दोनों ही हमारे अभीतक के परिचित विस्तार से अधिक विस्तृत, अपने से उच्चतर कोटि, अधिक समृद्ध यंत्र-विन्यासतक पहुंचेगी क्योकि जहां कहीं चेतना की वृद्धि
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होती है वहीं जीवन की संभाव्य शक्ति और वास्तविक बल की वृद्धि होती है ।
ज्ञान और शक्ति के पार्थिव रूपायन में यह सहसंबंध पूरी तरह प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि वहां स्वयं चेतना ही मूलभूत निश्चेतना में छिपी रहती है और उसकी शक्तियों का स्वाभाविक बल और छंद उनके आविर्भाव में अज्ञान की विसंगतियों और परदों से घट जाता और क्षुब्ध हो जाता है । वहां निश्चेतन मौलिक, समर्थ और स्वचालित रूप से प्रभावी शक्ति है, सचेतन मन तो छोटा-सा श्रमिक अभिकर्ता है । लेकिन यह इसलिये कि हमारे अंदर सचेतन मन का सीमित व्यक्तिगत कार्य होता है और निश्चेतना प्रच्छन्न वैश्व चेतना की विशाल क्रिया है । वैश्व शक्ति जड़-भौतिक ऊर्जा के छद्मवेश में हमारी दृष्टि से प्रक्रिया की हठीली भौतिकता द्वारा इस गुह्य तथ्य को ओझल रखती है कि निश्चेतन की क्रियाशीलता यथार्थ में एक विशाल विश्व प्राण, एक आवृत विश्व-मन और आच्छन्न विज्ञान की अभिव्यक्ति है और अपने इन स्रोतों के बिना उसमें क्रिया की कोई शक्ति, व्यवस्था करनेवाली कोई सुसंगति न होती । जड़- जगत् में मन की अपेक्षा प्राण-शक्ति ही अधिक क्रियाशील और प्रभावकारी मालूम होती है । हमारा मन केवल भाव और ज्ञान में ही स्वतंत्र और पूरी तरह सशक्त है । इस मानसिक क्षेत्र के बाहर उसकी क्रिया-शक्ति और कार्यान्वयन की शक्ति प्राण और जड़ को साधन बनाकर काम करने के लिये बाधित है और प्राण और जड़ की आरोपित की गयी शर्तों के आधीन काम करते हुए हमारे मन में बाधा आती है और प्रभाव आधा हो जाता है । लेकिन इसके बावजूद हम देखते हैं कि पशु में रहनेवाली प्रकृति-शक्ति की अपेक्षा मानसिक जीव में रहनेवाली प्रकृति-शक्ति स्वयं उसके साथ और प्राण और जड़ के साथ व्यवहार करने में बहुत अधिक सशक्त है । यह श्रेष्ठता चेतना और ज्ञान की महत्तर शक्ति से ही, सत्ता और इच्छा की महत्तर शक्ति के आविर्भाव से ही बनी है । स्वयं मानव-जीवन में प्राणिक मनुष्य अपनी श्रेष्ठतर क्रियात्मक प्राण-शक्ति के कारण मानसिक मनुष्य की अपेक्षा कर्म में अधिक सबल मालूम होता है । बौद्धिक मनुष्य विचार से अधिक प्रभावी मालूम होता है, लेकिन शक्ति में जगत् पर प्रभावहीन होता है जब कि गतिज, प्राणिक कर्मठ मनुष्य जीवन पर आधिपत्य रखता है । लेकिन उसका मन का उपयोग उसे इस श्रेष्ठता का पूरा उपयोग करने का अवसर देता है और अंत में मानसिक मनुष्य अपनी ज्ञान-शक्ति से, अपने भौतिक विज्ञान से जीवन पर अपने अधिकार के विस्तार को उससे बहुत परे ले जा सकता है जिसे जड़ में प्राण अपने साधनों द्वारा प्राप्त कर सकता या जो कुछ प्राणिक मनुष्य अपनी प्राण-शक्ति और प्राण-बोध द्वारा प्रभावी ज्ञान को उस रूप में बढ़ाये बिना प्राप्त कर सकता था । जब एक और अधिक महान् चेतना का आविर्भाव होगा और वह हमारे जीवन की अत्यधिक व्यष्टिभावापन्न और प्रतिबंधित जीवन-शक्ति में होनेवाली मानसिक ऊर्जा की उलझी हुई क्रियाओं की जगह लेगी तो जीवन और प्रकृति पर एक बड़ा अधिकार अवश्य प्राप्त हो जायेगा ।
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अपने और वस्तुओं के ऊपर अधिकतम मानसिक प्रभुत्व के बीच भी, मन की प्राण और जड़ के प्रति अमुक मूलभूत अधीनता और इस अधीनता की स्वीकृति, मन के विधान को प्रत्यक्ष रूप में प्रमुख बनाने और उसकी शक्तियों से सत्ता की अवर शक्तियों के अधिक अंधे विधान और क्रियाओं में हेर-फेर करने में एक असमर्थता बनी रहती है । लेकिन यह सीमा ऐसी नहीं जिसे लांघा न जा सके । गुह्य ज्ञान हमें यह दिखलाने में रुचि लेता है, -और आध्यात्मिक ज्ञान की क्रियाशील शक्ति भी यही प्रमाणित करती है, -कि मन की जड़ के प्रति, आत्मा की प्राण के निम्नतर विधान के प्रति यह अधीनता वह नहीं है जो वह पहले-पहल दिखलायी देती है, वह वस्तुओं की मूलभूत अवस्था, प्रकृति का अलंध्य और अपरिवर्तनशील नियम नहीं है । मनुष्य जो सबसे श्रेष्ठ और सबसे महत्त्वपूर्ण स्वाभाविक आविष्कार कर सकता है वह यह है कि मन और उससे भी बढ़कर, आध्यात्म-शक्ति बहुत-सी परीक्षित और अभीतक की अपरीक्षित राहों और सभी दिशाओं में - अपनी प्रकृति और साक्षात् शक्ति से, केवल ऐसे उपायों और आविष्कारों से नहीं जिनकी खोज भौतिक विज्ञान ने की है -प्राण और जड़ को जीत सकती और नियंत्रित कर सकती है । विज्ञानमय पराशक्ति के विकास में चेतना की यह प्रत्यक्ष शक्ति, सत्ता की शक्ति की यह प्रत्यक्ष क्रिया, प्राण और जड़ पर उसका मुक्त प्रभुत्व और नियंत्रण, अपनी पूर्णता पायेंगे और पराकाष्ठातक पहुंचेंगे । क्योंकि विज्ञानमय सत्ता का महत्तर ज्ञान मुख्य रूप से बाहर से पाया हुआ या सीखा दुआ ज्ञान न होगा बल्कि चेतना और चेतना की शक्ति के विकास का परिणाम होगा, सत्ता की एक नयी गतिकता होगा । परिणामत: वह बहुत-सी चीजों की ओर जाग्रत् होगा और उनपर अधिकार करेगा, अपना स्पष्ट और पूर्ण ज्ञान, औरों का प्रत्यक्ष ज्ञान, प्रच्छन्न शक्तियों का प्रत्यक्ष ज्ञान, मन, प्राण और जड़ के गुह्य यंत्र-विन्यास का प्रत्यक्ष ज्ञान, जो हमारी वर्तमान उपलब्धि के परे हैं; इन सबपर अधिकार करेगा । यह नया ज्ञान और ज्ञान की क्रिया वस्तुओं की साक्षात् अंतर्भासात्मक चेतना और वस्तुओं के साक्षात् अंतर्भासात्मक नियंत्रण पर आधारित होंगे, एक ऐसी कार्यकारी अंतर्दृष्टि जो अभी तो हमारे लिये अधिसामान्य है वह इस चेतना की क्रिया के लिये सामान्य होगी और इस परिवर्तन का परिणाम होगा कर्म की राशि और उसके ब्योरों में, दोनों में, सर्वांगीण, सुनिश्चित प्रभावकारिता । क्योंकि विज्ञानमय सत्ता उस चित्-शक्ति के साथ स्वरैक्य में होगी जो हर चीज के मूल में है, उसकी दृष्टि और उसकी इच्छा अतिमानसिक सद्वस्तु आत्म-प्रभावी सत्य-शक्ति की वाहिका होगी; उसकी क्रिया जीवन की मूल शक्ति की क्रिया और शक्ति की निर्बाध अभिव्यक्ति, सर्व-निर्धारक सचेतन आध्यात्म पुरुष की शक्ति होगी जिसकी चेतना के रूपायन अनिवार्य रूप से मन, प्राण और जड़ में क्रियान्वित होते हैं । अतिमानसिक ज्ञान की ज्योति और शक्ति में कार्य करते हुए विकसनशील विज्ञानमय पुरुष अधिकाधिक अपना स्वामी,
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चेतना की शक्तियों का स्वामी, प्रकृति की ऊर्जाओं का स्वामी, अपने प्राण और जड़ के उपकरणों का स्वामी होगा । न्यूनतर अवस्था में, विकसनशील विज्ञानमय प्रकृति की मध्यवर्ती अवस्थाओं या रूपायनों में यह शक्ति पूरी तरह उपस्थित न होगी, लेकिन अपनी क्रियाओं की किसी मात्रा में वह उपस्थित होगी । सोपान पर चढ़ती हुई प्रारंभिक और बढ़ती हुई यह शक्ति चेतना और ज्ञान की वृद्धि की स्वाभाविक सहगामिनी होगी ।
अत: मन से आगे बढ़कर श्रेष्ठतर ज्ञानात्मक और सक्रिय तत्त्व की ओर चित्- शक्ति के विकास का अनिवार्य परिणाम होगा चेतना की एक नयी शक्ति और चेतना की नयी शक्तियों का आविर्भाव । अपनी सारभूत प्रकृति में इन नयी शक्तियों का धर्म होना चाहिये प्राण और जड़ पर मन का अधिकार, जड़ पर सचेतन प्राण-इच्छा और प्राण-शक्ति का अधिकार, मन, प्राण तथा जड़ पर आत्मा का अधिकार । उनका एक और लक्षण होगा अंतरात्मा और अंतरात्मा के बीच, मन और मन तथा प्राण और प्राण के बीच अवरोधों का टूट जाना । इस तरह का परिवर्तन विज्ञानमय जीवन के साधन-विनियोग के लिये अनिवार्य होगा । क्योकि संपूर्ण विज्ञानमय या दिव्य जीवन केवल सत्ता के व्यक्तिगत जीवन का ही नहीं बल्कि सबको एक करनेवाली चेतना में व्यक्ति के साथ एक हुए दूसरों के जीवन का भी समावेश करेगा । ऐसे जीवन की मुख्य घटक शक्ति बनावटी नहीं, सहज स्वाभाविक ऐक्य और सामंजस्य होनी चाहिये । यह अपने आध्यात्मिक पदार्थ में एकीभूत ऐसे व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सत्ता और चेतना के विशालतर तादात्म्य के आने से हो सकता है जो अपने-आपको आत्मा, एक ही स्वयंभू सत्ता की आत्मा अनुभव करते हों, जो ज्ञान की बुरहत्तर एकत्वमय शक्ति में, सत्ता की महत्तर शक्ति में कार्य करते हों । उनमें एकत्व और तादात्म्य की चेतना पर आधारित आंतरिक और प्रत्यक्ष पारस्परिक ज्ञान होगा, एक दूसरे की सत्ता की, विचार, अनुभूति, भीतरी और बाहरी गतिविधि की चेतना होगी, मन का मन के साथ, हृदय का हृदय के साथ सचेतन संपर्क, प्राण का प्राण पर सचेतन प्रभाव, सत्ता की शक्तियों का सत्ता की शक्तियों के साथ सचेतन आदान-प्रदान होगा । इन शक्तियों और इनके अंतरंग प्रकाश की अनुपस्थिति या कमी में प्रत्येक व्यक्ति की सत्ता, विचार, भावना, आंतरिक या बाह्य गतिविधि का अपने चारों ओर के व्यक्तियों की सत्ता, विचार, भावना, आंतरिक और बाह्य गतिविधि के साथ यथार्थ या पूरा एकत्व या यथार्थ और पूरा स्वाभाविक मेल न बैठ सकेगा । हम कह सकते हैं कि इस अधिक विकसित जीवन का लक्षण होगा सचेतन एकचित्तता की बढ़ती हुई नींव और रचना ।
सामंजस्य आध्यात्म सत्ता का स्वाभाविक नियम है । वह बहुल में एकत्व का, विविधता में एकता का, एकत्व की बहुविध अभिव्यक्ति का अंतर्निहित विधान और
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सहज परिणाम है । निश्चय ही शुद्ध और कोरे एकत्व में सामंजस्य के लिये कोई जगह नहीं हो सकती क्योंकि वहां सामंजस्य करने के लिये कुछ होता ही नहीं । पूर्ण या प्रमुख विविधता में या तो विसंगति होगी या भेदों के बीच मेल बिठाया जायेगा, एक बनावटी सामंजस्य होगा । लेकिन विज्ञान के बहुत्वगत एकत्व में सामंजस्य एकत्व के सहज प्रकटन की तरह होगा और इस सहज प्रकटन के लिये जरूरी है ऐसी चेतना की पारस्परिकता जो अन्य चेतना के बारे में प्रत्यक्ष भीतरी संपर्क और आदान-प्रदान द्वारा अभिज्ञ होती है । अवबौद्धिक जीवन में सामंजस्य प्रकृति की सहज-वृत्तिमूलक एकता और प्रकृति की क्रिया के एकत्व, एक वृत्तिमूलक संचार, वृत्तिमूलक या प्रत्यक्ष प्राणिक अंतर्भासात्मक संवेदनशील समझ द्वारा प्राप्त किया जाता है, जिसके द्वारा पशु-समाज या कीट-पतंग समाज के व्यक्ति सहयोग कर पाते हैं । मानव जीवन में इसका स्थान ले लेती है इंद्रिय ज्ञान और मानसिक दृष्टि तथा वाणी द्वारा भावों के आदान-प्रदान से होनेवाली समझ, लेकिन जिन साधनों का उपयोग करना होता है वे अपूर्ण हैं और सामंजस्य और सहयोग अधूरे । विज्ञानमय जीवन में, एक ऐसे जीवन में जो अतिबौद्धिक और पराप्राकृतिक जीवन है, सत्ता का आत्म-अभिज्ञ आध्यात्मिक एकत्व और आध्यात्मिक रूप से सचेतन समुदाय और प्रकृति का परस्पर आदान-प्रदान, समझ की गहरी और पर्याप्त जड़ होंगे । इस महत्तर जीवन ने चेतना को भीतर से चेतना के साथ एक करने के नये और श्रेष्ठतर साधनों और शक्तियों का विकास किया होगा; चेतना का भीतर से और सीधे चेतना के साथ संपर्क, विचार का विचार के साथ, दृष्टि का दृष्टि के साथ, संवेद का संवेद के साथ, प्राण का प्राण के साथ, शारीरिक अभिज्ञता का शारीरिक अभिज्ञता के साथ अंतरंगता उसका स्वाभाविक आधारभूत साधन होगा । ये सभी नयी शक्तियां पुराने बाहरी साधनों को अपनाकर उन्हें कहीं बड़ी शक्ति के साथ और अधिक विस्तृत उद्देश्य के लिये निम्नतर साधनों के रूप में व्यवहार में लायेंगी । वे सत्ता और जीवन के गहरे एकत्व में आध्यात्म पुरुष की आत्माभिव्यक्ति के लिये काम में लायी जायेंगी ।
आधुनिक मन चेतना की अंतर्विष्ट और सुप्त लेकिन अभीतक अविकसित शक्तियों के विकास को स्वीकार नहीं करता क्योंकि वे शक्तियां हमारे वर्तमान प्राकृतिक रूपायन का अतिक्रमण कर जाती हैं और सीमित अनुभवों पर आधारित हमारी अज्ञानमय पूर्वधारणाओं को वे अति-प्राकृतिक, चमत्कारिक और गुह्य जगत् की चीजें मालूम होती हैं, क्योंकि वे जड़ ऊर्जा की ज्ञात क्रियाओं को पार कर जाती हैं जिसे आज सामान्यत: वस्तुओ का एकमात्र कारण और प्रकार और जगत्-शक्ति का एकमात्र साधन माना जाता है । स्वयं प्रकृति ने जो कुछ संगठित किया है, चेतन सत्ता उस सबसे आगे जानेवाली भौतिक शक्तियों के साधन-विनियोग का आविष्कार तथा विकास करे, मनुष्य ऐसे अद्भुत काम करता चले -इसे हमारे
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जीवन के प्राकृतिक तथ्य या लगभग असीम संभावना के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन मनुष्य या प्रकृति ने अभीतक जो कुछ संगठित किया है उससे आगे जानेवाली चेतना-शक्तियों और आध्यात्मिक, मानसिक तथा प्राणिक-शक्तियों का जागरण, आविष्कार, साधन-विनियोग भी संभव है -यह बात नहीं मानी जाती । लेकिन इस प्रकार के विकास में अति-प्राकृतिक या चमत्कारिक कुछ नहीं होगा । इसके सिवाय कि वह श्रेष्ठतर प्रकृति, हमारी प्रकृति से श्रेष्ठतर होगी, उसी तरह जैसे मानव प्रकृति पशु, वनस्पति या जड़ वस्तुओं की प्रकृति से श्रेष्ठतर है । हमारा मन और उसकी शक्तियां, हमारा तर्क-बुद्धि का उपयोग, हमारा मानसिक अंतर्भास और अंतर्दृष्टि, वाणी, दार्शनिक, वैज्ञानिक, सौंदर्यबोध संबंधी सत्ता के सत्यों और अंतःशक्तियों के आविष्कार की संभावनाएं और उसकी शक्तियों पर अधिकार-एक ऐसा विकास है जो हो चुका है लेकिन अगर हम सीमित पशु- चेतना और उसीकी क्षमताओं को आधार बनाकर देखें तो यह असंभव मालूम होगा क्योंकि वहां ऐसी कोई चीज नहीं है जो ऐसी विपुल प्रगति को उचित ठहराये । फिर भी पशु में कुछ प्रारंभिक अभिव्यक्तियां, प्रारंभिक तत्त्व या अवरुद्ध संभावनाएं हैं जिन्हें अपने असाधारण विकास के साथ, हमारी तर्क-बुद्धि और समझ एक तुच्छ, निराशाजनक आरंभ-बिंदु से एक कल्पनातीत यात्रातक ले जाती है । इसी भांति, विज्ञानमय पराप्रकृति की प्रारंभिक आध्यात्मिक शक्तियां हमारे सामान्य गठन में भी रहती तो हैं परंतु कभी-कदास, और मितव्ययता के साथ सक्रिय होती हैं । यह मानना न्याय-विरुद्ध न होगा कि विकास की इस बहुत अधिक ऊंची स्थिति में एक वैसी ही किंतु बहुत अधिक महान् प्रगति इन प्रारंभिक आरंभों से लेकर एक अन्य बहुत बड़े विकास और उपक्रम की ओर ले जाये ।
गुह्य अनुभव में -जब आंतरिक चक्रों का उद्घाटन होता है या अन्य विधियों से, सहज रूप से या इच्छा या प्रयास या स्वयं आध्यात्मिक वृद्धि द्वारा -चेतना की नयी शक्तियां विकसित होती हुई देखी गयी हैं । वे अपने-आपको इस तरह प्रस्तुत करती हैं मानों किसी आंतरिक उन्मीलन का स्वचालित परिणाम या सत्ता के अंदर से किसी पुकार का उत्तर हों । यहांतक कि साधकों को यह परामर्श देना आवश्यक समझा गया है कि वे इन शक्तियों का पीछा न करें, न उन्हें स्वीकार करें और न उनका उपयोग करें । यह अस्वीकृति उन लोगों के लिये मुक्ति-युक्त है जो जीवन से किनारा करना चाहते हैं क्योंकि महत्तर शक्ति की कोई भी स्वीकृति उसे जीवन के साथ बांध देगी या मोक्ष की ओर शुद्ध और कोरी आकांक्षा पर भार होगी । भगवान् के प्रेमी के लिये, जो भगवान् को स्वयं उनके लिये खोजता है, शक्ति या किसी और घटिया आकर्षण के लिये नहीं, अन्य सभी लक्ष्यों और परिणामों के प्रति उदासीनता स्वाभाविक है । इन लुभावनी लेकिन बहुधा संकटपूर्ण शक्तियों का अनुसरण उसके अपने लक्ष्य से विचलन होगा । अपरिपक्व साधक के लिये इसी
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तरह का त्याग आवश्यक आत्म-संयम और आध्यात्मिक अनुशासन होता है क्योंकि ऐसी शक्तियां एक महान् संकट, यहांतक कि घातक संकट भी हो सकती हैं, क्योंकि उनकी अलौकिकता आसानी से उसके अंदर एक असामान्य रूप से बढ़े हुए अहंकार का पोषण कर सकती है । पूर्णता का अभीष्ट स्वयं शक्ति को ही प्रलोभन मानकर उससे डर सकता है क्योंकि शक्ति जहां उठा सकती है वहां गिरा भी सकती है, इससे अधिक दुरुपयोग और किसी चीज का नहीं हो सकता । लेकिन जब नयी क्षमताएं महत्तर चेतना और महत्तर जीवन में विकास के अनिवार्य परिणाम-स्वरूप आती हैं और वह विकास हमारे अंदर आध्यात्मिक सत्ता के लक्ष्य का भाग होता है, तो यह रुकावट नहीं आती; क्योंकि सत्ता का पराप्रकृति में विकास और पराप्रकृति में जीवन तबतक चरितार्थ नहीं हो सकते या पूर्ण नहीं बन पाते जबतक कि वे अपने साथ चेतना की महत्तर शक्ति और जीवन की महत्तर शक्ति और ज्ञान और शक्ति के यंत्र-विन्यास के सहज विकास में उसे न ला सकें जो पराप्रकृति के लिये सामान्य है । सत्ता के इस भावी विकास में ऐसा कुछ नहीं है जिसे अयुक्त या अविश्वसनीय कहा जा सके । उसमें कोई चीज असामान्य या चमत्कारिक नहीं है । वह हमारे जीवन के मानसिक निरूपण से विज्ञानमय या अतिमानसिक की ओर जाते हुए चेतना और उसकी शक्तियों के विकास की आवश्यक गति होगी । पराप्रकृति की शक्तियों की यह क्रिया नयी, उच्चतर या महत्तर चेतना की स्वाभाविक, सामान्य और सहज रूप से सरल क्रिया होगी जिसमें वह अपने आत्म-विकास के क्रम में प्रवेश करती है । विज्ञानमय सत्ता विज्ञानमय जीवन को स्वीकार करते हुए इस महत्तर चेतना की शक्तियों को विकसित करेगी और उपयोग में लायेगी, जैसे मनुष्य अपनी मानसिक प्रकृति की शक्तियों को विकसित करता और काम में लाता है ।
यह स्पष्ट है कि महत्तर और अधिक पूर्ण जीवन के लिये चेतना की शक्ति या शक्तियों की इस प्रकार वृद्धि केवल सामान्य नहीं, अनिवार्य होगी । अपने आंशिक सामंजस्य के साथ मानव-जीवन अपने मन, हृदय, जीवन-भाव के प्रबुद्ध या हितबद्ध तत्त्वों के मेल पर आधारित है, सर्व-सामान्य भावों, कामनाओं, प्राणिक तुष्टियों, जीवन के लक्ष्यों के मिश्रित समूह की स्वीकृति पर आधारित है जहांतक वह अंशत: सहयोगशील, अंशत: प्रेरित, अंशत: जबरदस्ती लादी गयी या अपरिहार्य स्वीकृति द्वारा समाज के अंगभूत व्यक्तियों पर लादे गये विधान और व्यवस्था पर टिका न हो । लेकिन समुदाय के घटक व्यक्तियों में उनके द्वारा माने गये भावों, जीवन-लक्ष्यों, जीवन-हेतुओं के बारे में अपूर्ण समझ और अपूर्ण ज्ञान होता है, उनके क्रियान्वित करने में अपूर्ण शक्ति, उन्हें सदा अक्षुण्ण बनाये रखने, उन्हें पूरी तरह निष्पादित करने या जीवन को महत्तर पूर्णता की ओर ले जाने के लिये अपूर्ण इच्छा रहती है; संघर्ष और विसंगति का तत्त्व, दबायी हुई या
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अपरिपूरित कामनाओं और कुंठित इच्छाओं का समूह, दबाये हुए असंतोष की खदबदाहट या जाग्रत् या विस्फोटक असंतोष या असमान रूप से संतुष्ट हितों का तत्त्व होता है; नये भाव, प्राणिक हेतु घुस पड़ते हैं जिन्हें उथल-पुथल और विक्षोभ के बिना सहसंबद्ध नहीं किया जा सकता । मानव सत्ताओं में और उनके वातावरण में ऐसी जीवन-शक्तियां कार्यरत रहती हैं जो निर्मित सामंजस्य से भिन्न होती हैं और इतनी भरपूर शक्ति नहीं होतीं जो मन और प्राण की टकराती हुई विभिन्नता और वैश्व प्रकृति में विघटन लानेवाली शक्तियों के आक्रमण से पैदा असंगतियों और स्थापनों पर विजय पा सकें । जिस चीज की कमी है वह है आध्यात्मिक ज्ञान और आध्यात्मिक शक्ति, स्वयं अपने ऊपर अधिकार, औरों के साथ एक होने से आनेवाली शक्ति, चारों ओर से घेरनेवाली या आक्रमणकारी जगत्-शक्तियों पर अधिकार, ज्ञान के कार्यान्वयन के लिये पूर्ण दृष्टि और पूरी तरह सज्जित शक्ति -ये हैं वे क्षमताएं जिनकी हमारे अंदर कमी है या जो त्रुटिपूर्ण हैं । ये विज्ञानमय सत्ता के सत्त्व की चीजें हैं और विज्ञानमय प्रकृति के प्रकाश और क्रियाशक्ति में अंतर्निहित हैं ।
लेकिन मानव-समाज जिन व्यक्तियों से बनता है उनके मन, हृदय और प्राण के समायोजन की अपूर्णता के सिवा स्वयं व्यक्ति के मन और प्राण ऐसी शक्तियों से परिचालित होते हैं जिनका आपस में मेल नहीं बैठता । उनमें मेल बैठाने के हमारे प्रयत्न अपूर्ण होते हैं और उससे भी ज्यादा अपूर्ण होती है उनमें से किसी एक को भी सर्वांगीण या संतोषप्रद रूप में जीवन में कार्यान्वित करने की हमारी शक्ति । इस भांति प्रेम और सहानुभूति का विधान हमारी चेतना के लिये स्वाभाविक है । हम ज्यों-ज्यों आध्यात्म सत्ता में विकसित होते हैं हमसे उसकी मांग भी बढ़ती जाती है । लेकिन साथ ही, बुद्धि की मांग होती है, प्राणिक शक्ति और उसके आवेगों का हमपर दबाव होता है, और भी कई तत्त्वों का दावा और चाप होता है जो प्रेम और सहानुभूति के धर्म के साथ ठीक नहीं बैठते, और हम यह भी नहीं जानते कि उन सबको जीवन के समग्र विधान में किस तरह ठीक जगह पर बैठायें या उनमें से किसीको या सबको उचित रूप से पूर्णत: प्रभावी या अनुल्लंध्य बनाएं । उन्हें सुसंगत और क्रियाशील रूप से सारी सत्ता और समस्त जीवन में फलप्रद बनाने के लिये हमें अधिक पूर्ण आध्यात्मिक प्रकृति में विकसित होना चाहिये । उस विकास द्वारा हमें उच्चतर, विशालतर और अधिक समग्र चेतना के प्रकाश और उसकी शक्ति में जीना चाहिये जिसमें ज्ञान और शक्ति, प्रेम और सहानुभूति और जीवन-इच्छा की लीला स्वाभाविक और सतत उपस्थित समस्वर तत्त्व होंगे । हमें सत्य के प्रकाश में गति और कार्य करना चाहिये जो प्रकाश अंतर्भासात्मक सहज रूप से देखता है कि क्या करना और कैसे करना चाहिये; अंतभीसात्मक सहज रूप से कार्य अपने-आपको चरितार्थ करता है और हमें उस शक्ति में गति और कार्य
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करना चाहिये जो हमारी सत्ता की शक्तियों की जटिलता को उनके सत्य की उस अंतर्भासात्मक सहजता में, अपनी सरल आध्यात्मिक और परम स्वाभाविकता में समा लेती और प्रकृति में सभी चरणों को उनके सामंजस्यपूर्ण सत्यों से भर देती है ।
यह स्पष्ट होना चाहिये कि बुद्धि के सहारे टुकड़ों का मेल बैठाना या मानसिक रचना का कोई कौशल इस जटिलता में सुसंगति या सामंजस्य नहीं ला सकता । केवल जाग्रत् आध्यात्म पुरुष का अंतर्भास और आत्मज्ञान ही इसे ला सकता है । यह विकसित अतिमानसिक सत्ता और उसके जीवन का स्वभाव होगा; उसकी आध्यात्मिक दृष्टि और बोध ही सत्ता की सभी शक्तियों को एक करनेवाली चेतना में लेकर, उन्हें सुसंगत क्रिया की सामान्यता में ले आते हैं क्योंकि यही सुसंगति और सामंजस्य आध्यात्म पुरुष की सामान्यता हैं । हमारे जीवन और प्रकृति की असंगति और असामंजस्य उसके लियें असामान्य है, यद्यपि वह अज्ञान के जीवन के लिये सामान्य है । वस्तुत: चूंकि वह आध्यात्म पुरुष के लिये सामान्य नहीं है इसलिये हमारे भीतर का ज्ञान असंतुष्ट रहता है और हमारे जीवन में विशालतर सामंजस्य के लिये प्रयास करता है । सारी सत्ता का यह मेल और यह संगति, जो विज्ञानमय व्यक्ति के लिये स्वाभाविक है, विज्ञानमय सत्ताओं के समाज के लिये समान रूप से स्वाभाविक होगी क्योंकि वह सर्व-सामान्य, पारस्परिक आत्म-अभिज्ञता के प्रकाश में आत्मा के साथ आत्मा के ऐक्य पर आधारित होगी । यह सच है कि पार्थिव जीवन की समग्रता में, जिसका विज्ञानमय जीवन भी एक अंग होगा, उसके अंदर अब भी एक कम विकसित श्रेणी का जीवन चलता रहेगा । अंतर्भासात्मक और विज्ञानमय जीवन को इस समग्र जीवन में पूरा उतरना और उसके अंदर जहांतक हो सके अपने ऐक्य और सामंजस्य के विधान को अपने साथ ले चलना होगा । यहां सहज सामंजस्य का विधान अनुपयुक्त मालूम हो सकता है क्योंकि विज्ञानमय जीवन का अपने चारों ओर के अज्ञानमय जीवन के साथ संबंध आत्म-ज्ञान की पारस्परिकता, सत्ता के एकत्व के बोध और सर्वसामान्य चेतना पर आधारित न होगा । वह ज्ञान की क्रिया और अज्ञान की क्रिया का संबंध होगा, लेकिन यह कठिनाई इतनी बड़ी नहीं होनी चाहिये जितनी कि हमें इस समय प्रतीत होती है क्योंकि विज्ञानमय ज्ञान अपने अंदर अज्ञान की चेतना की पूरी समझ लिये रहेगा और इसलिये आश्वस्त विज्ञानमय जीवन के लिये यह असंभव न होगा कि वह अपने से कम विकसित ऐसे सभी जीवनों के साथ अपने जीवन का सामंजस्य बैठा ले जो पार्थिव प्रकृति में उसके साथ रहते हैं ।
अगर हमारी विकसनशील नियति यही है तो हमें यह देखना होगा कि विकसनशील प्रगति की इस संधि में हम कहां खड़े हैं -इस प्रगति में, जो चक्राकार या सर्पिल रही है, सीधी लीक में नहीं या कम-से-कम जो प्रगति की बहुत ही टेढ़ी-मेढ़ी, बल खाती गोलाइयों में यात्रा रही है -और निकट या मापे जा
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सकनेवाले भविष्य में किसी निर्णायक चरण की ओर मुड़ने की क्या संभावना है । व्यक्तिगत पूर्णता और जाति के जीवन की पूर्णता के लिये हमारी मानव-अभीप्सा में भावी विकास के तत्त्वों का पूर्वाभास मिलता है और उनके लिये कोशिश भी की जाती है लेकिन यह होता है अर्द्ध-प्रकाशमय ज्ञान की अस्त-व्यस्तता में । आवश्यक तत्त्वों में असंगति, विरोधी आग्रह रहता है, आरंभिक और असंतोषजनक समाधानों की प्रचुरता होती है जिनमें ठीक संगति नहीं बैठती । वे हमारे आदर्शवाद की तीन मुख्य प्रवृत्तियों के बीच झूलते हैं -मानव सत्ता का अपने अंदर पूर्ण एकाकी विकास, व्यक्ति की पूरणीयता; सामूहिक सत्ता का पूर्ण विकास, समाज की पूरणीयता और व्यावहारिक दृष्टि से अधिक प्रतिबंधित रूप में, व्यक्ति के व्यक्ति और समाज से, समुदाय के समुदाय से पूर्ण या यथासंभव अच्छे-से-अच्छे संबंध । कभी व्यक्ति पर ऐकांतिक या प्रमुख जोर दिया जाता है और कभी समुदाय या समाज पर तो कभी व्यक्ति और मानव की सामुदायिक समग्रता के उचित संतुलित संबंध पर । एक विचार मानव व्यक्ति के बढ़ते हुए जीवन, स्वतंत्रता और पूर्णता को हमारे जीवन का सच्चा लक्ष्य मानता है -फिर वह आदर्श चाहे व्यक्तिगत सत्ता की केवल स्वच्छंद आत्माभिव्यक्ति हों या पूर्ण मन, उत्कृष्ट तथा समृद्ध प्राण और पूर्ण शरीर की आत्मशासित संपूर्णता या फिर आध्यात्मिक मुक्ति और पूर्णता हो । इस दृष्टि से समाज व्यष्टिगत मनुष्य के क्रिया-कलाप और विकास का केवल एक क्षेत्र है और वह अपना कार्य अच्छे-से-अच्छी तरह तब करता है जब वह व्यक्ति के विचार, उसकी क्रिया, उसकी वृद्धि, उसकी सत्ता की पूर्णता की संभावना को, जहांतक हो सके, विकास के लिये विस्तृत क्षेत्र, प्रचुर साधन, पर्याप्त स्वाधीनता या पथ-प्रदर्शन दे । इससे विपरीत विचार सामुदायिक जीवन को प्रथम या एकमात्र महत्त्व देता है; जाति का जीवन और विकास ही सब कुछ है । व्यक्ति को समाज के लिये या मानवजाति के लिये जीना होता है, या वह समाज का एक कोषाणु मात्र है । उसके जन्म का कोई और उपयोग या प्रयोजन नहीं है, प्रकृति में उसको उपस्थिति का कोई और अर्थ नहीं है और न ही कोई और कार्य है । या फिर यह माना जाता है कि राष्ट्र, समाज, जाति एक सामुदायिक सत्ता है जो अपनी अंतरात्मा को संस्कृति, जीवन-शक्ति, आदर्शों संस्थाओं और आत्माभिव्यक्ति के सभी उपायों में प्रकट करती है । व्यक्तिगत जीवन को अपने-आपको संस्कृति के उस सांचे में ढालने, जीवन की उस शक्ति की सेवा करने और सामुदायिक जीवन को बनाये रखने और उसकी कुशलता के केवल साधन के रूप में रहने के लिये अनुमति देनी होगी । एक और विचार के अनुसार मनुष्य की पूर्णता अन्य मनुष्यों के साथ उसके नैतिक और सामाजिक संबंधों पर निर्भर है । वह एक सामाजिक प्राणी है और उसे समाज के लिये, औरों के लिये, जाति के लिये उसकी जो उपयोगिता है उसके लिये जीना चाहिये । समाज भी सबकी सेवा के लिये है, उन्हें अपने उचित
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संबंध, शिक्षा, प्रशिक्षण, आर्थिक अवसर, जीवन का उचित ढांचा देने के लिये है । प्राचीन संस्कृतियों में समुदाय और समुदाय के अंदर व्यक्ति को यथा-स्थान बैठाने को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया जाता था । लेकिन साथ ही पूर्ण बनाये गये व्यक्ति का भाव भी उठा । प्राचीन भारत में आध्यात्मिक व्यक्ति का विचार अधिक प्रधान था लेकिन समाज का बहुत अधिक महत्त्व था क्योंकि उसमें व्यक्ति को पहले समाज में और उसे ढालनेवाले प्रभाव के आधीन होकर शारीरिक, प्राणिक और मानसिक सत्ता की एक सामाजिक स्थिति में से गुजरना होता था जिसमें उसे अर्थ और काम की तुष्टि मिलती थी और वह ज्ञान तथा सम्यक् जीवन की खोज करता था, उसके बाद ही वह अधिक सत्य आत्मोपलब्धि और मुक्त आध्यात्मिक जीवन के अधिकारतक पहुंच सकता था । अर्वाचीन काल में सारा जोर जाति के जीवन की ओर, पूर्ण समाज की खोज की ओर और उसके बाद समूचे रूप में मानवजाति के सम्यक् संगठन और वैज्ञानिक यंत्रीकरण पर एकाग्र हो गया है । अब प्रवृत्ति यह मानने की ओर है कि व्यक्ति केवल समूह का एक सदस्य है, जाति की एक इकाई है जिसके जीवन को संगठित समाज के सर्व-सामान्य लक्ष्यों और संपूर्ण हित के आधीन होना चाहिये । यह बहुत कम या नहीं के बराबर माना जाता है कि वह मानसिक या आध्यात्मिक सत्ता है जिसके अस्तित्व का अपना अधिकार और बल है, यह प्रवृत्ति अभीतक सब जगह अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुंची, लेकिन वह हर जगह तेजी से बढ़ रही और प्रधानता की ओर बढ़ रही है ।
इस तरह मानव-विचार के उलट-फेर में एक ओर तो व्यक्ति को यह प्रेरणा दी जाती है या निमंत्रण मिलता है कि वह आत्म-प्रतिष्ठापन की खोज करे, अपने मन, प्राण और शरीर के विकास और आध्यात्मिक पूर्णता में लगे और दूसरी ओर उससे मांग की जाती है कि वह अपने-आपको मिटा दे, आधीन कर दे और समुदाय के भावों, आदर्शों इच्छाओं, सहज-वृत्तियों और हितों को अपना माने । प्रकृति उसे प्रेरित करती है कि वह अपने लिये जिये और उसके अंदर गहराई में कोई चीज उसे प्रेरित करती है कि वह अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करे । समाज और अमुक मानसिक आदर्शवाद उससे मानव जाति के लिये और समुदाय की श्रेष्ठतर भलाई के लिये जीने की मांग करते हैं । अहं के तत्त्व और उसके हित का सामना और विरोध होता है परोपकार के तत्त्व से । प्रशासन अपना देवता खड़ा करता है और व्यक्ति के आज्ञा-पालन की, उसके समर्पण, अधीनता, आत्मबलि की मांग करता है । इस अतिशय मांग के विरोध में व्यक्ति को अपने आदर्शों अपने भावों, अपने व्यक्तित्व, अपने विवेक के अधिकारों की स्थापना करनी होती है । यह स्पष्ट है कि मानकों का यह संघर्ष मनुष्य के मानसिक अज्ञान का टटोलना है, अपना मार्ग ढूंढ़ने का प्रयास और सत्य के विभिन्न पार्श्वों को पकड़ना है, परंतु ज्ञान की समग्रता के अभाव में वह उनका एक साथ समन्वय नहीं कर पाता । केवल एकता और
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सामंजस्य लानेवाला ज्ञान ही मार्ग पा सकता है लेकिन वह ज्ञान हमारी सत्ता के ऐसे ज्यादा गहरे तत्त्व की चीज है जिसके लिये ऐक्य और सामंजस्य सहज हैं । केवल उसीको अपने अंदर पाकर हम अपने जीवन की समस्या और उसके साथ ही व्यक्तिगत और सामुदायिक जीवन के सच्चे मार्ग की समस्या का समाधान कर सकते हैं ।
एक सद्वस्तु है, समस्त सत्ता का एक सत्य है जो अपने सभी रूपायणों और अभिव्यक्तियों से अधिक स्थायी और महान् है । उस सत्य और सद्वस्तु को पाना और उसमें निवास करना, उसकी यथा-संभव पूर्णतम अभिव्यक्ति और रूपायण पाना पूर्णता का मर्म होना चाहिये, फिर चाहे वह व्यक्ति की पूर्णता हो या सामुदायिक सत्ता की । यह सद्वस्तु प्रत्येक वस्तु में है और अपने रूपायणों में से प्रत्येक को सत्ता की अपनी शक्ति और सत्ता की अपनी महत्ता प्रदान करती है । विश्व सदवस्तु की एक अभिव्यक्ति है और वैश्व सत्ता का एक सत्य है, वैश्व सत्ता की एक शक्ति है -सर्वात्मा या जगदात्मा । मानवजाति विश्व में उस सद्वस्तु का एक रूपायण या उसकी एक अभिव्यक्ति है और मानवजाति का एक सत्य और उसकी एक आत्मा है, एक मानव आत्मा है, मानव जीवन की नियति है । समुदाय सद्वस्तु का एक रूपायण है, मानव-आत्मा की अभिव्यक्ति है और सामूहिक सत्ता का एक सत्य, उसकी एक आत्मा और शक्ति होती है । व्यक्ति सद्वस्तु का रूपायण है और व्यक्ति का एक सत्य होता है, एक व्यष्टिगत आत्मा या अंतरात्मा जो अपने-आपको व्यष्टिगत मन, प्राण और शरीर द्वारा अभिव्यक्त करती है और अपने-आपको किसी ऐसी चीज में भी प्रकट कर सकती है जो मन, प्राण, शरीर से परे, मानवजाति से भी परे चली जाती हो । क्योंकि हमारी मानवजाति न तो पूरी सदवस्तु है और न यथा-संभव उसका सर्वोत्तम रूपायण या आत्माभिव्यक्ति । सद्वस्तु ने मनुष्य के अस्तित्व से पहले अवमानव रूप धारण किया और अवमानव रूप में आत्मसृजन किया था और उसके बाद या उसीमें वह अतिमानव रूप ओर अतिमानव आत्म-सृजन कर सकती है । आत्मा या सत्ता के रूप में व्यक्ति अपनी मानवजातितक ही सीमित नहीं है; वह मनुष्य से कम रह चुका है, वह मनुष्य से बढ़कर हो सकता है । जैसे वह अपने-आपको विश्व में पाता है उसी तरह विश्व अपने-आपको उसके द्वारा पाता है । लेकिन वह विश्व से बढ़कर होने के योग्य है, चूंकि वह उसका अतिक्रमण कर सकता है, ऐसी किसी चीज में प्रवेश कर सकता है जो उसमें है, विश्व में है, विश्व के परे है, निरपेक्ष है । वह समुदाय में सीमित नहीं है यद्यपि उसके मन और प्राण, एक तरह से, सामुदायिक मन और प्राण के अंग हैं, उसके अंदर कोई चीज है जो उनके परे जा सकती है । समुदाय व्यक्ति पर खड़ा है क्योंकि उसका मन, प्राण और शरीर उसके घटक व्यक्तियों के मन, प्राण और शरीर से बने हैं; अगर उन्हें लुप्त या विघटित कर दिया जाये तो उसका
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अपना अस्तित्व लुप्त या विघटित हो जायेगा । हो सकता है कि उसकी कोई अंत: -सत्ता या शक्ति अन्य व्यक्तियों में फिर से रूप धारण कर ले । लेकिन व्यक्ति सामुदायिक सत्ता का एक कोषाणु! मात्र नहीं है । अगर उसे सामुदायिक पिंड से निकाल दिया जाये या अलग कर दिया जाये तो उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जायेगा । कारण, समूह ही, समुदाय ही समूची मानवजाति नहीं है और न ही वह जगत् है । व्यक्ति अपने-आपको मानवजाति में अन्यत्र पा सकता और रह सकता है, या वह अपने-आप जगत् में रह सकता है । समुदाय का जीवन अपने घटक व्यक्तियों के ऊपर छाया रहे तब भी वह उनका समस्त जीवन नहीं बनता । अगर समूह की अपनी सत्ता है जिसे वह व्यक्तियों के जीवन द्वारा प्रतिष्ठित करना चाहता है तो व्यक्ति की भी अपनी ऐसी सत्ता होती है जिसे वह समूह के जीवन में प्रतिष्ठित करना चाहता है । लेकिन वह उससे बंधा हुआ नहीं है । वह अपने-आपको किसी और सामुदायिक जीवन में प्रतिष्ठित कर सकता है और अगर वह काफी मजबूत है तो वह किसी यायावर जीवन या संन्यासी के एकांतवास में रह सकता है जहां अगर वह पूर्ण भौतिक जीवन की खोज या प्राप्ति न भी कर सके तो वह आध्यात्मिक रूप से जी सकता है और अपनी सत्ता के अंदर निवास करनेवाली आत्मा और स्वयं अपने स्वरूप को पा सकता है ।
वस्तुत: व्यक्ति विकासात्मक गति की चाबी है क्योंकि व्यक्ति ही अपने- आपको पाता और सद्वस्तु के बारे में सचेतन होता है । समूह की गतिविधि अधिकतर अवचेतन सामूहिक गतिविधि होती है और सचेतन होने के लिये उसे व्यक्तियों द्वारा निरूपित और प्रकट होना पड़ता है । उसकी सामान्य सामूहिक चेतना अपने सबसे अधिक विकसित व्यक्तियों की चेतना से कम विकसित होती है और उसकी प्रगति वहींतक होती है जहांतक वह उनके प्रभाव को स्वीकार करती या उसे विकसित करती है जिसे वे विकसित करते हैं । व्यक्ति अपनी चरम निष्ठा न तो प्रशासन को अर्पित करता है जो केवल यंत्र है और न समुदाय को जो समस्त जीवन न होकर जीवन का एक भाग है । उसकी चरम निष्ठा होनी चाहिये सत्य, आत्मा, आध्यात्म पुरुष, भगवान् के लिये जो उसमें और सबमें है । उसे अपने-आपको समूह में खो न देना चाहिये या उसके अधीन न होना चाहिये, बल्कि सत्ता के उस सत्य के। अपने अंदर खोजना और व्यक्त करना चाहिये और समाज तथा मानवजाति की अपने सत्य और सत्ता की पूर्णता को खोजने में सहायता करनी चाहिये । यही उसके जीवन का असली उद्देश्य होना चाहिये । लेकिन व्यक्तिगत जीवन की शक्ति या उसके अंदर की आध्यात्मिक सद्वस्तु किस हदतक क्रियाशील हो सकती है, यह उसके अपने विकास पर निर्भर है । जबतक वह अविकसित है, उसे बहुत प्रकार से अपने अविकसित व्यक्तित्व को उसके आधीन करना होगा जो उससे महान् है । विकसित होने के साथ-साथ वह आध्यात्मिक मुक्ति की ओर गति करता है ।
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लेकिन यह मुक्ति सर्व-सत्ता से एकदम पृथक् चीज नहीं है । उसकी उसके साथ एकात्मता है क्योंकि यह भी वही आत्मा, वही आध्यात्म पुरुष है । वह ज्यों-ज्यों आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर बढ़ता है, त्यों-त्यों आध्यात्मिक एकत्व की ओर भी बढ़ता है । गीता का कहना है कि आध्यात्म-सिद्ध पुरुष, मुक्त पुरुष, सभी के हित में लगा रहता है ''सर्वभूतहिते रत:'' । निर्वाण के मार्ग का पता लगा लेने के बाद भी बुद्ध को पीछे मुड़ना होता है ताकि उस मार्ग को उन लोगों के लिये खोल सकें जो अपनी वास्तविक सत्ता या असत्ता को छोड़कर कृत्रिम के मोह में हैं; निरपेक्ष द्वारा आकर्षित विवेकानंद मानवजाति में छिपे परम देव की, सबसे बढ़कर पतित और पीड़ित की, विश्व के अंधकारमय शरीर में आत्मा की आत्मा से की गयी आवाज सुनते हैं । जाग्रत् व्यक्ति के लिये अपनी सत्ता के सत्य, अपनी आंतरिक मुक्ति और पूर्णता की उपलब्धि ही प्रथम खोज होनी चाहिये -प्रथम इसलिये क्योंकि वह उसके अंदर के आध्यात्म पुरुष की पुकार है, साथ ही इसलिये भी कि केवल मुक्ति और पूर्णता और सत्ता के सत्य की उपलब्धि द्वारा ही मनुष्य जीवन के सत्यतक पहुंच सकता है । पूर्ण समुदाय का अस्तित्व भी अपने व्यक्तियों की पूर्णता से आ सकता है । और पूर्णता केवल तब आ सकती है जब जीवन में प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी आध्यात्मिक सत्ता को खोजकर स्थापित कर ले और सभी अपने आध्यात्मिक ऐक्य और परिणामतः जीवन-ऐक्य की खोज कर लें । हमारे लिये यथार्थ पूर्णता तभी हो सकती है जब हमारे अंदर आत्मा और आध्यात्मिक जीवन का सत्य हमारी सहायक सत्ता के सारे सत्य को अपने अंदर समो ले और उसे एकता, समाकलन और सामंजस्य दे । जैसे हमारी एकमात्र सच्ची स्वाधीनता है अपने अंदर की आध्यात्मिक सदवस्तु की खोज और मुक्ति उसी तरह हमारी सच्ची पूर्णता का एकमात्र साधन है हमारी प्रकृति के सभी तत्त्वों में आध्यात्मिक सदवस्तु का प्रभुत्व और आत्म-संपादन ।
हमारी प्रकृति जटिल है और हमें उसकी जटिलता के किसी पूर्ण ऐक्य और उसकी पूर्णता की चाबी खोजनी है । उसका पहला विकसनशील आधार है जड़ जीवन । प्रकृति ने उसीसे आरंभ किया था और मनुष्य को भी उसीसे आरंभ करना है । उसे पहले अपने जड़-भौतिक और प्राणिक जीवन को प्रतिष्ठित करना है, लेकिन अगर वह वहीं रुक जाये तो उसके लिये कोई विकास नहीं हो सकता । उसकी अगली और महत्तर तल्लीनता होनी चाहिये अपने-आपको जड़-प्राणिक जीवन में अधिक-से-अधिक पूर्ण मानसिक सत्ता के रूप में पाने की, दोनों ही रूपों में यानी व्यक्तिगत और सामाजिक रूप में । यूनानी विचारधारा ने यूरोप को यही दिशा दी थी और रोम ने उसे व्यवस्थित शक्ति के आदर्श द्वारा मजबूत बनाया -या कमजोर -किया । तर्कबुद्धि का वाद, जीवन की आलोचनात्मक, उपयोगितावादी, संगठक और रचनात्मक बौद्धिक विचार द्वारा व्याख्या, जीवन पर भौतिक विज्ञान
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द्वारा शासन, इसी प्रेरणा के अंतिम परिणाम हैं । लेकिन प्राचीन काल में उच्चतर सर्जनात्मक, क्रियाशील तत्त्व था आदर्श सत्य, शिव, सुंदर का अनुसरण और इस आदर्श द्वारा मन, प्राण, शरीर को पूर्णता और सामंजस्य के साथ गढ़ना । इस लगन के परे और ऊपर, जैसे ही मन पर्याप्त रूप से विकसित हो जाये मनुष्य के अंदर आध्यात्मिक लगन जागती है जो आत्मा और सत्ता के अंतरतम सत्य की खोज, मनुष्य के मन और प्राण की आत्मा के सत्य में मुक्ति, आध्यात्म सत्ता की शक्ति द्वारा उसकी पूर्णता, आत्मा में सभी सत्ताओं की एकात्मता, ऐक्य और पारस्परिकता पाने की होती है । यह पूर्व का आदर्श था जिसे बौद्ध धर्म और अन्य प्राचीन साधनाओं ने एशिया और मिस्र के तटोंतक पहुंचाया और वहांसे ईसाइयत ने इसे यूरोप में उंडेला । लेकिन पुरानी सभ्यताओं को डुबा देनेवाली बर्बरता की बाढ़ से उत्पन्न अस्त-व्यस्तता और अंधकार में ये उद्देश्य कुछ समयतक धीमी मशालों की तरह जलते रहे लेकिन इन्हें आधुनिक मनोवृत्ति ने त्याग दिया जिसने एक और प्रकाश, विज्ञान का प्रकाश पा लिया । आधुनिक मनोभाव ने जिस चीज की खोज की है वह है आर्थिक, सामाजिक परिणाम -सभ्यता और आराम का एक आदर्श जड़ भौतिक संगठन, उपयोगितावादी विवेक को व्यापक बनाने के लिये बुद्धि, विज्ञान और शिक्षा का उपयोग जिससे व्यक्ति पूर्ण बने हुए आर्थिक समाज में पूर्ण सामाजिक जीव बन सके । आध्यात्मिक आदर्श में से जो बच रहा, वह था -कुछ समय के लिये - धर्म के रंग से पूरी तरह मुक्त, मानसिकभावापन्न और नैतिक मानवतावाद और सामाजिक सदाचारवाद जिसे धार्मिक और वैयक्तिक सदाचार की जगह लेंने के लिये पूर्णतया पर्याप्त मान लिया गया । जाति अभी इतनी ही दूर आयी थी कि उसका अपना वेग उसे आगे बढ़ाकर तेजी से आंतरिक अस्तव्यस्तता और उसके जीवन की अस्त-व्यस्तता में लें गया जिसमें सभी प्राप्त मूल्यों को उठा फेंका गया और ऐसा लगा कि उसके सामाजिक संगठन, उसके आचरण और उसकी संस्कृति के नीचे से सारी ठोस जमीन गायब होने लगी ।
क्योंकि, यह आदर्श, भौतिक और आर्थिक जीवन पर यह सचेतन जोर वस्तुत: मनुष्य की पहली स्थिति, उसकी प्रारंभिक बर्बर स्थिति और प्राण और जड़ में उसकी तल्लीनता का सभ्य प्रत्यावर्तन था, आध्यात्मिक अधोगति थी जिसे विकसित मानवजाति का मन और पूरी तरह विकसित भौतिक विज्ञान के साधन प्राप्त थे । समय के अंदर, मानव जीवन की समग्र जटिलता में आर्थिक तथा भौतिक जीवन को पूर्ण बनाने के इस जोर का एक तत्त्व के रूप में अपना स्थान है लेकिन एकमात्र या प्रमुख जोर के रूप में वह मानवजाति के लिये, स्वयं विकास के लिये संकटपूर्ण है । पहला संकट है पुरानी प्राणिक और भौतिक आदिम बर्बरता का सभ्य रूप में लौट आना, भौतिक विज्ञान ने हमारे हाथ में जो साधन सौंपा हैं उनके कारण यह भय तो दूर हो जाता है कि अधिक बलवान् आदिम जातियां अशक्त सभ्यता
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का उच्छेदन या विनाश कर दें, लेकिन संकट यह है कि स्वयं हमारे अंदर सभ्य मनुष्य में बर्बर फिर से न उठ खड़ा हो -यही संकट है जिसे हम चारों ओर देखते हैं । और यह होना अवश्यंभावी है यदि हमारे अंदर के प्राणिक और भौतिक मनुष्य को नियंत्रित करने और ऊपर उठानेवाले कोई उच्च और सबल मानसिक और नैतिक आदर्श न हों और कोई ऐसा आध्यात्मिक आदर्श न हो जो उसे अपने-आपसे अपनी आंतरिक सत्ता में मुक्त करे । अगर इस पुनःपतन से बचा भी जाये तो भी एक और संकट है -क्योंकि एक और संभव परिणाम है विकास की प्रेरणा का समापन, किसी आदर्श या दृष्टिकोण के बिना स्थायी और आरामदेह यांत्रिक सामाजिक जीवन में अश्मीकरण । अपने-आपमें तर्क-बुद्धि जाति को लंबे समयतक प्रगति में बनाये नहीं रख सकती, वह ऐसा तभी कर सकती है जब वह एक और प्राण और शरीर तथा दूसरो और मनुष्य के अंदर की उच्चतर और महत्तर वस्तु के बीच मध्यस्थ हो । क्योंकि एक बार मन को उपलब्ध कर लेने के बाद केवल आंतरिक आध्यात्मिक आवश्यकता, अभीतक उसमें जो अनुपलब्ध है उसकी प्रेरणा ही विकास के चाप और आध्यात्मिक प्रेरणा को बनाये रख सकतीं है । उसे त्यागने पर मनुष्य को या तो फिर से गिरकर पूरी तरह फिर से शुरू करना होगा या विकास की असफलता के रूप में अपने से पहले के जीवन के उन रूपों की तरह गायब हो जाना होगा जो विकास की प्रेरणा को बनाये रखने या उसे चलाने में असमर्थ रहे । अपनी अच्छे-से-अच्छी अवस्था में वह अन्य पशु-जातियों की तरह किसी प्रकार की मध्यवर्ती प्ररूपी पूर्णता में अवरुद्ध हो जायेगा, जब कि प्रकृति उसके परे एक महत्तर सृष्टि की ओर चलती चली जायेगी ।
इस समय मानवजाति विकास के संकट में से गुजर रही है जिसमें उसकी नियति का चुनाव छिपा है; क्योंकि एक ऐसी अवस्था पहुंच गयी है जहां मानव-मन अमुक दिशाओं में बहुत अधिक विकसित हो चुका है जब कि अन्य दिशाओं में वह अवरुद्ध और भ्रमित खड़ा है और अपना मार्ग नहीं पा सकता । मनुष्य के सदा सक्रिय मन और प्राण-इच्छा ने बाहरी जीवन का एक ढांचा खड़ा कर दिया है ओर वह ढांचा इतना विशाल, इतना जटिल है कि उसकी व्यवस्था करना असंभव है । यह उसने बनाया है अपने मानसिक, प्राणिक और भौतिक दावों और प्रेरणाओं की सेवा के लिये, यह एक जटिल राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासकीय, आर्थिक, सांस्कृतिक यंत्र है, उसके बौद्धिक, संवेदनात्मक, सौंदर्यग्राही और भौतिक संतोष के लिये एक संगठित सामूहिक साधन है । मनुष्य ने एक ऐसे सभ्यता-तंत्र की रचना की है जो उसकी सीमित मानसिक क्षमता और समझ के लिये तथा उसकी और भी अधिक सीमित आध्यात्मिक और नैतिक क्षमता के लिये उस तंत्र के उपयोग और व्यवस्था की दृष्टि से बहुत ज्यादा बड़ा है । वह भूलें करनेवाले उसके अहं और उसकी क्षुधाओं के लिये अत्यधिक भयानक सेवक बन गया है । क्योंकि
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उसकी चेतना की सतह पर अभीतक कोई महत्तर द्रष्टा मन, ज्ञान की कोई अंतर्भासात्मक आत्मा नहीं आयी है जो जीवन की इस आधारभूत पूर्णता को उसका अतिक्रमण करनेवाली किसी वस्तु की मुक्त वृद्धि के लिये उपयुक्त परिस्थिति बना सके । जीवन के साधनों की यह नयी परिपूर्णता मनुष्य को उसकी आर्थिक और भौतिक आवश्यकताओं के लगातार अतृप्त दबाव से छुड़ा सकने की अपनी सामर्थ्य के कारण, भौतिक जीवन से ऊपर उठे हुए अन्य और महत्तर लक्ष्यों की पूरी खोज का अवसर हो सकती है; उच्चतर सत्य, शुभ और सौंदर्य के अन्वेषण, एक महत्तर और अधिक दिव्य आत्मा की खोज का अवसर हो सकती है जो हस्तक्षेप करके जीवन का उपयोग सत्ता की उच्चतर पूर्णता के लिये करे, लेकिन इसकी जगह उसका उपयोग नयी-नयी मांगों को बढ़ाने और सामूहिक अहंकार के आक्रामक विस्तार के लिये हो रहा है । साथ ही, भौतिक विज्ञान ने वैश्व शक्ति की बहुत-सी क्षमताएं उसके हाथों में सौंप दी हैं और मानवजाति के जीवन को जड़-भौतिक रूप में एक बना दिया है, लेकिन जो इस वैश्व शक्ति का उपयोग करता है वह छोटा-सा मानव वैयक्तिक या सामूहिक अहंकार है जिसके ज्ञान के प्रकाश या गतिविधियों में कुछ भी वैश्व नहीं है, कोई आंतरिक बोध या शक्ति नहीं है जो मानव जगत् के इस भौतिक रूप से नजदीक खिंच आने में सच्चा जीवन-ऐक्य, मानसिक ऐक्य या आध्यात्मिक ऐक्य की रचना कर सके । वहां जो कुछ है वह है संघर्षरत मानसिक भावों की अस्तव्यस्तता, भौतिक और प्राणिक चाहों और आवश्यकताओं की वैयक्तिक और सामूहिक प्रेरणाएं प्राणिक दावे और कामनाएं अज्ञानमय जीवन-प्रेरणा के आवेग, व्यक्तियों, वर्गों, राष्ट्रों की जीवन-संतुष्टि के लिये क्षुधाएं और पुकारें, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक धारणाओं और रामबाणों के प्रचुर कुकुरमुत्ते, नारों और सर्वरोगहर औषधियों की भीड़-भाड़ और रेल-पेल जिनके लिये मनुष्य अत्याचार करने और अत्याचार सहने, मरने-मारने के लिये तैयार रहता है, उन्हें अपने हाथ में आये हुए विशाल और अतिकराल साधनों से किसी-न-किसी तरह आरोपित करने को तैयार रहता है और यह सब वह इस विश्वास के साथ करता है कि उसके लिये यही किसी आदर्शतक पहुंचने का रास्ता है । निश्चित रूप से मानव मन और प्राण का विकास बढ़ते हुए वैश्व भाव की ओर ले जायेगा लेकिन अहंकार तथा खंडित करने और विभक्त करनेवाले मन के आधार पर वैश्व भाव की ओर यह उन्मीलन केवल असंगत विचारों और अंतर्वेगों के विशाल प्रदूषण, विपुल शक्तियों और कामनाओं का उभार, एक विशालतर जीवन की आत्मसात् न हुई और आपस में घुली-मिली मानसिक, प्राणिक और भौतिक सामग्री का अस्त-व्यस्त समूह ही रच सकता है और चूंकि वह सामग्री आध्यात्म-सत्ता के सर्जनशील और सामंजस्यकारी प्रकाश द्वारा ऊपर उठायी हुई नहीं होगी, वह विश्वव्यापी अस्त-व्यस्तता और असंगति में लथपथ होगी जिसमें से विशालतर
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सामंजस्यपूर्ण जीवन को बनाना असंभव होगा । भूतकाल में मनुष्य ने जीवन का संगठित उद्भावन और सीमायन द्वारा समंजस किया है । उसने निश्चित विचारों और बंधे रीति-रिवाजों पर आधारित निश्चित सांस्कृतिक तंत्र या जैविक जीवन-तंत्र पर आधारित समाजों की रचना की जिनमें से हर एक की अपनी व्यवस्था थी । इन सबको अधिकाधिक आपस में मिलते हुए जीवन की कुठाली में डालना और रोज नये भावों और उद्देश्यों, वास्तविकताओं और संभावनाओं की बाढ़ का अंदर आना, जीवन की बढ़ती संभावनाओं का सामना करने, उनपर अधिकार करने और उनमें सामंजस्य लाने के लिये एक नयी, महत्तर चेतना की मांग करते हैं । तर्क-बुद्धि और भौतिक विज्ञान केवल मानक बनाने में, हर चीज को भौतिक जीवन के कृत्रिम रूप से व्यवस्थित और यंत्रीकृत एकता में निर्धारित करने में ही सहायक हो सकते हैं । एक महत्तर समग्र-सत्ता, समग्र-ज्ञान, समग्र-शक्ति की जरूरत होती है, इन सबको समग्र-जीवन के महत्तर ऐक्य में मिला देने के लिये ।
हमारी सत्ता के अधिक गहन और अधिक विस्तृत सत्य से उत्पन्न ऐक्य, पारस्परिकता और सामंजस्य का जीवन ही जीवन का एकमात्र सत्य है जो भूतकाल की उन अपूर्ण मानसिक रचनाओं का सफलतापूर्वक स्थान ले सकता है जो साहचर्य और नियमबद्ध संघर्ष का सम्मिलन थीं, समाज-रचना के लिये गोष्ठीबद्ध या परस्पर गुंथे हुए अहंकारों और हितों का समायोजन, सामान्य और सार्वजनीन जीवन-उद्देश्यों के सहारे होनेवाली सममिति थीं, आवश्यकता के कारण और बाहरी शक्तियों के संघर्ष के दबाव के कारण होनेवाला एकीकरण थीं । यह एक ऐसा परिवर्तन और जीवन का ऐसा नवगठन है जिसके लिये मानवजाति आखें मूंदे खोजना शुरू कर रही है और अब तो अधिकाधिक इस भाव के साथ कि उसका अस्तित्व ही मार्ग ढूंढ़ लेने पर निर्भर है । प्राण पर कार्य करते हुए मन के विकास ने मन के कार्य-कलाप का ऐसा संगठन और जड़-भौतिक का ऐसा उपयोग विकसित किया है जिसे आंतरिक परिवर्तन के बिना मानव क्षमता से अवलंब नहीं मिल सकता । अहं-केंद्रित मानव व्यक्तित्व का, जो सम्मिलन में भी पृथक्कारी रहता है, जीवन की एक ऐसी व्यवस्था के साथ समायोजन जो ऐक्य, पूर्ण पारस्परिकता, सामंजस्य की मांग करता है, अनिवार्य है । लेकिन चूंकि मानवता पर जो भार रखा जा रहा है वह मानव व्यक्तित्व की वर्तमान क्षुद्रता और उसके तुच्छ मन और छोटी-मोटी जीवन प्रवृत्तियों के लिये बहुत अधिक है, क्योंकि वह आवश्यक परिवर्तन को संपादित नहीं कर सकता, क्योंकि वह इस नये यंत्र और संगठन का उपयोग मानव-जाति की अव-आध्यात्मिक और अव-यौक्तिक प्राण-सत्ता की सेवा के लिये कर रहा है इसलिये ऐसा लगता है कि मानवजाति की नियति भयानक रूप से, मानों स्वयं अपने बावजूद, अधीरता के साथ, प्राणिक अहं से प्रेरित होकर, ऐसी विशाल शक्तियों की पकड़ में आकर, जो उसी अनुपात की हैं जैसे जीवन
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और वैज्ञानिक ज्ञान का वह विशाल यांत्रिक संगठन है जिसे स्वयं उसने विकसित किया है, एक ऐसा अनुपात जो उसकी तर्क-बुद्धि और इच्छा-शक्ति द्वारा परिचालित होने के लिये बहुत अधिक बड़ा है, उसमें से वह नियति दीर्घ अस्तव्यस्तता, भयंकर संकट और उग्र, विचलित होती हुई अनिश्चितता के अंधकार की ओर बढ़ती चली जा रही है । अगर यह एक अस्थायी अवस्था या आभास ही निकले और रचना के ढांचे में कोई ऐसा कामचलाऊ समायोजन मिल जाये जो मानवजाति को उसकी अनिश्चित यात्रा में कम संकटाकीर्ण रूप से आगे बढ़ने दे तो यह केवल एक विश्राम होगा । क्योंकि समस्या आधारभूत है और उसे मनुष्य में प्रस्तुत करके विकसनशील प्रकृति अपने आगे बहुत कड़ा और महत्त्वपूर्ण चुनाव उपस्थित कर रही है । अगर मानवजाति को लक्ष्यतक पहुंचना या जीवित ही रहना है तो एक दिन उसका सच्चे अर्थ में समाधान करना ही होगा । विकसनशील अंत: -प्रवृत्ति पार्थिव जीवन में वैश्व शक्ति को विकास की ओर धकेल रही है जिसे अवलंब देने के लिये एक बृहत्तर मानसिक और प्राणिक सत्ता की, बृहत्तर मन, विशालतर और बृहत्तर, अधिक चेतन, एकमतवाले प्राण-पुरुष -अणिमा की जरूरत है और उसे फिर से आवश्यकता होती है अपने भीतर उसे बनाये रखने के लिये अवलंब देनेवाली आत्मा और आध्यात्म पुरुष के उद्घाटन की ।
प्राणिक और जड़-भौतिक मानव सत्ता और उसके जीवन का एक तर्क-बुद्धि और विज्ञान पर आधारित सूत्र, पूर्णीकृत आर्थिक समाज की खोज और सामान्य आदमी का जनतंत्र -बस यही चीजें हैं जो आधुनिक मन इस संकट के समय हमें समाधान के लिये प्रकाश के रूप में देता है । इन भावों को अवलंब देनेवाला चाहे जो सत्य क्यों न हो, यह तो स्पष्ट है कि यह उस मानवजाति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये काफी नहीं है जिसका उद्देश्य है अपने परे विकसित होना, या कम-से-कम, यदि उसे जीवित रहना है तो अभी वह जो कुछ भी है उसे उसके बहुत परे विकसित होना होगा । जाति और सामान्य मनुष्य के अंदर प्राणिक सहज वृत्ति ने इस अपर्याप्तता का अनुभव कर लिया है और वह मूल्यों को उलट देने या नये मूल्यों की खोज करने और जीवन को एक नयी नींव पर स्थानांतरित करने को प्रेरित कर रही है । इसने सामान्य जीवन के लिये एकता, पारस्परिकता और सामंजस्य के लिये सरल और बनी-बनायी नींव खोजने के प्रयास का, उस नींव को अहंकारों के प्रतियोगितात्मक संघर्षों को दबाकर लागू करने और भेदभाव के जीवन की जगह समुदाय के लिये एकात्मता के जीवनतक पहुंचने के प्रयास का रूप ले लिया । लकिन इन वांछनीय उद्देश्यों को पाने के लिये उसने जो साधन अपनाये हैं वे और सभी विचारों का बहिष्कार करके कुछ थोड़े-से सीमित भावों या नारों की प्रतिष्ठा और जबरदस्ती चरितार्थता ही हैं । वे व्यक्ति के मन को दबाकर, जीवन- तत्त्वों का यांत्रिक संपीडन, प्राण-शक्ति की यांत्रिक एकता और परिचालन, मनुष्य
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पर राज्य का बलात्कार और. वैयक्तिक अहं की जगह सामुदायिक अहं की स्थापना ही रहे हैं । सामुदायिक अहं को आदर्श बनाकर उसे देश, जाति या समुदाय की आत्मा के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यह बहुत बड़ी भूल है और हो सकता है कि घातक भी हो । एक जबरदस्ती आरोपित की गयी मन, प्राण और कर्म की एकता जिसे किसी विशालतर मानी गयी चीज के संचालन के अधीन सामुदायिक आत्मा, सामुदायिक प्राण के दबाव से उनके उच्चतम तनावतक उठाया जाये, यही है वह उपलब्ध सूत्र । लेकिन यह अंधकारमय सामूहिक सत्ता जाति की अंतरात्मा या आत्मा नहीं है, यह अवचेतना से उठनेवाली जीवन-शक्ति है और अगर इसे तर्क-बुद्धि के प्रकाश का पथ-प्रदर्शन न मिले तो इसे अंधेरी दानवाकार शक्तियां ही चला सकती हैं जो शक्तिशाली होते हुए जाति के लिये भंयकर होती हैं, क्योंकि वे उस सचेतन विकास के लिये विजातीय हैं जिसका मनुष्य वाहक और न्यासी है । विकसनशील प्रकृति ने मानवजाति को इस दिशा की ओर इशारा नहीं किया है, यह तो किसी ऐसी चीज की ओर उलटाव है जिसे वह पीछे छोड़ आयी है ।
एक और समाधान जिसके लिये प्रयास किया गया है वह भी भौतिक तर्क-बुद्धि और जाति के आर्थिक जीवन के सम्मिलित संगठन पर आश्रित है, लेकिन जिस विधि का प्रयोग किया जा रहा है वह वही है -मन और प्राण का बलात् संपीडन और आरोपित एकमतता तथा सामुदायिक जीवन का यांत्रिक संगठन । इस तरह की एकमतता विचार और प्राण की स्वाधीनता को दबाकर ही रखी जा सकती है और वह निश्चित रूप से या तो दीमकों की सभ्यता की सक्षम स्थिरता ला सकती है या जीवन के स्रोत सुखा डालेगी और जल्दी या धीरे ह्रास लायेगी । चेतना के विकास से सामूहिक आत्मा और उसके जीवन को अपनी अभिज्ञता प्राप्त हो सकती और उसका विकास हो सकता है; चेतना के विकास के लिये मन और प्राण की मुक्त क्रीड़ा जरूरी है क्योंकि जबतक उच्चतर यंत्र-विन्यास विकसित न हो तबतक मन और प्राण ही अंतरात्मा के उपकरण हैं । उनको अपने कार्य में अवरुद्ध न करना चाहिये और न ही उन्हें कठोर, अनम्य और अप्रगतिशील बना देना चाहिये । व्यक्तिगत मन और प्राण की वृद्धि से उत्पन्न कठिनाइयों और उपद्रवों को स्वस्थ रूप से व्यक्ति के दमन द्वारा नहीं हटाया जा सकता । सच्चा उपचार बृहत्तर चेतना में व्यक्ति द्वारा प्रगति करने से ही हो सकता है जिसमें उसे परिपूर्ति और पूर्णता मिल सकें ।
एक और वैकल्पिक समाधान यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रकाश-प्रदीप्त तर्क-बुद्धि और इच्छा-शक्ति का विकास एक नये सामाजिक जीवन को स्वीकार करे जिसमें वह अपने अहंकार को समुदाय के जीवन की उचित व्यवस्था के लिये गौण स्थान दे । अगर हम पूछें कि यह आमूल परिवर्तन कैसे लाया जा सकता है तो
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ऐसा लगता है मानों दो साधन सुझाए जाते हैं, पहला है, विशालतर और श्रेष्ठतर मानसिक ज्ञान, सही विचार, सही सूचनाएं सामाजिक और नागरिक व्यक्ति का सही प्रशिक्षण और दूसरा साधन है, एक नया समाज-तंत्र जो उस सामाजिक यंत्र के जादू से हर चीज का समाधान कर देगा, जो मानवजाति को श्रेष्ठतर नमूने के अनुसार तराश देगा । भले कैसी भी आशाएं क्यों न की गयी हों, लेकिन अनुभव से यह नहीं लगा कि अपने-आपमें शिक्षा और मानसिक प्रशिक्षण मनुष्य को बदल सकते हैं । वह तो उसे केवल मानव व्यक्तिगत और सामूहिक अहं को आत्मप्रतिष्ठापन के लिये अधिक सूचना और अधिक सक्षम यंत्र ला देता है परंतु मानव अहं को बदले बिना वह का वही छोड़ देता है । और न ही मानव मन और प्राण को किसी तरह के सामाजिक यंत्र से पूर्णता में -उसमें भी नहीं जिसे पूर्णता माना जाता है पर है कृत्रिम स्थानापन्न -तराशा जा सकता है, जड़ पदार्थ को इस तरह तराशा जा सकता है, विचार को इस तरह काटा जा सकता है लेकिन हमारे मानव-जीवन में जड़तत्त्व और विचार तो केवल अंतरात्मा और जीवन-शक्ति के उपकरण हैं । यंत्र अंतरात्मा और जीवन-शक्ति को मानक आकारों में नहीं गढ़ सकता । वह अधिक-से-अधिक उनका दमन करके अंतरात्मा और मन को जड़ और स्थिर बना सकता और जीवन के बाहरी कर्मों को नियंत्रित कर सकता है, लेकिन, अगर इसे प्रभावी रूप से करना है तो मन और प्राण का दमन और संपीडन अनिवार्य है और इसका अर्थ होता है या तो अप्रगतिशील स्थिरता या ह्रास । अपनी युक्ति-युक्त व्यावहारिकता समेत तार्किक मन के पास प्रकृति की अस्पष्ट और जटिल गतियों से श्रेष्ठतर परिणाम पाने के लिये मन और प्राण के नियमन और यंत्रीकरण के अतिरिक्त कोई और साधन नहीं होता । अगर यह कर दिया जाये तो मानवजाति की अंतरात्मा को या तो विद्रोह करके और जिस यंत्र की जकड़ में उसे डाल दिया गया है उसका विनाश करके अपनी स्वाधीनता और वृद्धि को पुनः पाना होगा या उसे अपने अंदर लौटकर और जीवन का त्याग कर निष्कृति पानी होगी । मनुष्य के लिये बाहर निकलने का सच्चा उपाय यह है कि वह अपनी अंतरात्मा और उसकी आत्म-शक्ति तथा यंत्र-विन्यास को जाने और उन्हें जीवन- प्रकृति की अव्यवस्था और अज्ञान तथा मन के यंत्र-विन्यास के स्थान पर बिठा दे । लेकिन एक पूरी तरह नियंत्रित और यंत्रीकृत सामाजिक जीवन में आत्माविष्कार और आत्म-चरितार्थता की किसी भी ऐसी गतिविधि के लिये बहुत ही कम जगह और स्वाधीनता रहेगी ।
यह संभावना है कि जीवन और समाज की यांत्रिक धारणा से वापिसी की पेंग में मानव मन धार्मिक भाव और धर्म द्वारा शासित या अनुमोदित समाज में फिर से शरण लें । लेकिन संगठित धर्म ने मानव जीवन या समाज को बदला नहीं है, यद्यपि वह व्यक्ति के आंतरिक उत्थान के साधन जुटा सकता है और उसमें अपने
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अंदर या अपने पीछे उसकी आध्यात्मिक अनुभूति के लिये रास्ता खोल सकता है । वह परिवर्तन इसलिये नहीं कर पाया क्योंकि समाज पर शासन करते हुए उसे जीवन के निचले भागों से समझौता करना पड़ा और वह समस्त सत्ता के आंतरिक परिवर्तन पर जोर न दे सका, वह केवल किसी मत के लिये निष्ठा, अपने नैतिक मानकों के औपचारिक रूप से स्वीकार करने और संस्था, रीति-रिवाज और आचार-अनुष्ठान के पालन पर ही आग्रह कर सकता था । इस तरह का कल्पित धर्म धार्मिक-नैतिक रंग या सतही झलक ही दे सकता है -कभी-कभी यदि वह आंतरिक अनुभव की मजबूत गरी या सारतत्त्व रखता है तो कुछ हदतक अधूरी आध्यात्मिक वृत्ति को व्यापक बना सकता है लेकिन वह जाति का रूपांतर नहीं करता, वह मानव जीवन का कोई नया तत्त्व उत्पन्न नहीं कर सकता । मानवजाति को स्वयं उसके परे तो केवल संपूर्ण जीवन और संपूर्ण प्रकृति को दी गयी समग्र आध्यात्मिक दिशा ही उठा सकती है । एक और संभव धारणा, जो धार्मिक समाधान के सदृश है, वह है समाज का आध्यात्मिक उपलब्धिवालों द्वारा पथ-प्रदर्शन, श्रद्धा या अनुशासन में सबका भ्रातृभाव या ऐक्य, जीवन या समाज का जीवन के पुराने यंत्र-विन्यास को लेकर ऐसे एकीकरण में आध्यात्मीकरण या फिर नये यंत्र-विन्यास का आविष्कार । इसका पहले प्रयत्न किया जा चुका है किंतु सफलता नहीं मिली, यह अनेक धर्मों का मूल आधारभूत विचार रहा है । लेकिन मानव अहंकार और प्राणिक प्रकृति मन पर और मन द्वारा क्रिया करनेवाले धार्मिक विचार के प्रतिरोध को जीतने के लिये बहुत ज्यादा प्रबल थे । केवल अंतरात्मा का पूर्ण आविर्भाव, आध्यात्म पुरुष की सहज ज्योति और शक्ति का पूर्ण अवतरण और परिणामत: हमारी अपर्याप्त मानसिक और प्राणिक प्रकृति का आध्यात्मिक और अतिमानसिक पराप्रकृति द्वारा स्थानांतरण या रूपांतर और उन्नयन ही इस विकसनशील चमत्कार को चरितार्थ कर सकता है ।
पहली दृष्टि में ऐसा मालूम हो सकता है कि प्रकृति के आमूल परिवर्तन पर यह आग्रह मानवजाति की सारी आशाओं को क्रम-विकास के किसी सुदूर भविष्य में टाल देता है, क्योंकि हमारी साधारण मानव-प्रकृति का अतिक्रमण, हमारी मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता का अतिक्रमण एक ऐसे प्रयास के रूप में दिखायी देता है जो बहुत अधिक ऊंचा, बहुत अधिक कठिन लगता है और मनुष्य के लिये, जैसा कि वह अभी है, असंभव भी । अगर ऐसा हो भी तो भी वह जीवन के रूपांतर के लिये एकमात्र संभावना रहेगा क्योंकि मानव प्रकृति के परिवर्तन के बिना मानव जीवन के सच्चे परिवर्तन की आशा करना अयुक्तिसंगत और अनाध्यात्मिक प्रस्ताव है । यह किसी अस्वाभाविक और अवास्तविक. वस्तु की, किसी असंभव चमत्कार की मांग करना होगा । लेकिन यह परिवर्तन जिस चीज की मांग करता है वह कोई एकदम दूर की चीज नहीं है जो हमारे जीवन के लिये परायी और मूलतः
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असंभव हों, क्योंकि जिस चीज को विकसित करना है वह हमारी सत्ता में मौजूद है, उसके बाहर नहीं है । विकसनशील प्रकृति जिस चीज के लिये दबाव डाल रही है वह है आत्मज्ञान की ओर जागना, आत्मान्वेषण, अपने अंदर की आत्मा और आध्यात्म पुरुष की अभिव्यक्ति और उसके आत्मज्ञान की, आत्म-शक्ति की उसके सहज आत्म-यंत्रविन्यास की मुक्ति । इसके अतिरिक्त यह एक ऐसा चरण है जिसके लिये समस्त विकास एक तैयारी था और मानव नियति की हर संकटावस्था में, जब कभी सत्ता का मानसिक और प्राणिक विकास एक ऐसे बिंदु को छूता है जहां बुद्धि और प्राण-शक्ति तनाव के शिखर पर पहुंच जाती हैं और यह जरूरी हो जाता है कि वे ढह जायें, पराजय की अवसन्नता या अप्रगतिशील निष्क्रियता की जड़ता की विश्रांति में वापस जा डूबें या वे जिस आवरण के विरुद्ध जोर लगा रही हैं उसके बीच में से अपनी राह चीर निकालें -वह चरण ज्यादा नजदीक लाया जा सकता है । जो चीज जरूरी है वह यह कि मानवजाति में इस परिवर्तन के आदर्श की ओर दृष्टि मुड़े, उसका अनुभव थोड़े-से या बहुत सारे लोंगों को हो, उन्हें उसकी अनुल्लंध्य आवश्यकता का अनुभव हो, उसकी संभावना का बोध हो, उसे अपने अंदर संभव बनाने और मार्ग पाने की इच्छा हो । यह प्रवृत्ति अनुपस्थित नहीं है और मानव जगत् की नियति में संकट के तनाव के साथ-ही-साथ बढ़नी चाहिये; किसी निष्कृति या समाधान की आवश्यकता, यह भावना बढ़े बिना नहीं रह सकती कि आध्यात्मिक समाधान के सिवा कोई और समाधान नहीं हों सकता और इसे संकटमय परिस्थिति की गुरुता के सामने बढ़ना और अनिवार्य होना चाहिये । सत्ता के अंदर उस पुकार का दिव्य सद्वस्तु और प्रकृति में सदा कोई उत्तर होना चाहिये ।
निश्चय ही, इसका उत्तर केवल व्यक्तिगत हो सकता है, इसके परिणाम-स्वरूप आध्यात्म-भावापन्न व्यक्तियों की संख्या बढ़ सकती है या इसकी कल्पना तो की जा सकती है, पर संभावना नहीं है कि एक या अनेक विज्ञानमय पुरुष मानवजाति की अनाध्यात्मिक भीड़ में अलग-अलग रहें । ऐसे अलग-थलग सिद्ध पुरुषों को या तो अपने गुप्त दिव्य राज्य में पीछे हट जाना होगा और अपने-आपको आध्यात्मिक एकांत में सुरक्षित रखना होगा या वे मानवजाति पर अपने आंतरिक प्रकाश से ऐसी अवस्था में सुखद भविष्य के लिये, जो थोड़ा-बहुत तैयार किया जा सकता है, उसके लिये क्रिया करेंगे । सामूहिक रूप में आंतरिक परिवर्तन तभी आकार ग्रहण करना शुरू कर सकता है अगर विज्ञानमय व्यक्ति ऐसे लोगों को पा सके जिनका आंतरिक जीवन उसीके जैसा हो और उनके साथ ऐसा दल बना सके जिसका अपना ही स्वतंत्र अस्तित्व हो या सत्ताओं का अलग समुदाय या वर्ग हो, जिसके जीवन के अपने आंतरिक नियम हों । पृथक् जीवन की यह आवश्यकता जिसके अपने ऐसे जीवन के नियम हों, जो आध्यात्मिक सत्ता की आंतरिक शक्ति
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या प्रेरक बल के अनुकूल हों, जो अपना सहज वातावरण तैयार करें, इस आवश्यकता ने ही भूतकाल में अपने-आपको मठवासीय जीवन में या उन विभिन्न प्रयत्नों में व्यक्त किया है जिन्होंने ऐसे नये पृथक् सामूहिक जीवन की रचना करनी चाही थी जो स्वशासित था और अपने आध्यात्मिक तत्त्व के कारण सामान्य जीवन से भिन्न था । अपने स्वरूप में मठीय जीवन परलोक की खोज करनेवाले लोगों का संघ होता है जिनका सारा प्रयास यह होता है कि वे आध्यात्मिक सदवस्तु को खोजकर अपने अंदर चरितार्थ कर सकें । ये अपने सामान्य जीवन का गठन ऐसे नियमों से करते है जो उस प्रयास में सहायता कर सकें । सामान्यत: यह किसी नये जीवन के रूपायण की रचना के लिये प्रयास नहीं होता जो सामान्य मानव-समाज का अतिक्रमण कर जाये और एक नयी जगत्-व्यवस्था की रचना करे । कोई धर्म अपने आगे उस संभाव्य भविष्य को रख सकता है या उसकी ओर बढ़ने का पहला प्रयास कर सकता है या कोई मानसिक आदर्शवाद भी यही प्रयास कर सकता है, लेकिन ये प्रयास सदा हमारी मानव प्राणिक प्रकृति के अज्ञान और आग्रही निश्चेतना से पराजित होते आये हैं, क्योंकि वह प्रकृति ऐसी बाधा है जिसके दुर्दांत समूह को केवल आदर्शवाद या अधकचरी आध्यात्मिक अभीप्सा बदल नहीं सकती या स्थायी रूप से उसपर प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकती । या तो प्रयास अपनी ही अपूर्णता के कारण असफल हो जाता है या उसपर बाहरी जगत् की अपूर्णता का आक्रमण होता है और वह अपनी अभीप्सा के आलोकमय शिखर से सामान्य मानव स्तर पर किसी मिश्रित घटिया चीज में डूब जाता है । सामान्य आध्यात्मिक जीवन, जो मानसिक, प्राणिक और भौतिक सत्ता को नहीं बल्कि आध्यात्मिक जीवन को प्रकट करने के लिये है, उसे अपने-आपको सामान्य मानव-समाज के मानसिक, प्राणिक और भौतिक मूल्यों पर नहीं बल्कि इनसे बड़े मूल्यों पर आधारित करना और बनाये रखना चाहिये । अगर वह इस भांति आधारित नहीं है तो वह थोड़े से अंतर के साथ सामान्य मानव-समाज ही होगा । नये जीवन के प्रकट होने के लिये बहुत-से व्यक्तियों में पूरी तरह नयी चेतना की जरूरत है जो उनकी सारी सत्ता को रूपांतरित करे, उनकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक प्राकृत सत्ता का रूपांतर करे । सर्वसामान्य मन, प्राण और शारीरिक प्रकृति का ऐसा रूपांतर ही एक नये सार्थक सामूहिक जीवन को अस्तित्व में ला सकता है । विकसनशील अंत: -प्रवृत्ति को केवल एक नये प्रकार की मानसिक सत्ताएं बनाने की ओर ही नहीं बल्कि सत्ताओं की एक और श्रेणी बनाने की ओर प्रवृत्त होना चाहिये जो अपनी सारी सत्ता को हमारी वर्तमान मानसभावापन्न पाशविकता से उठाकर पार्थिव प्रकृति के एक महत्तर आध्यात्मिक स्तरतक उठा चुकी हों ।
पार्थिव जीवन का ऐसा संपूर्ण रूपांतर अनेक व्यक्तियों के अंदर अपने-आपको तुरंत पूर्णतया स्थापित नहीं कर सकता । मोड़ के बिंदुतक पहुंच जाने पर, निर्णायक
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रेखा पार कर लेने पर भी नये जीवन को शुरू में अग्निपरीक्षा और श्रमसाध्य विकास के काल में से गुजरना होगा । पुरानी चेतना का एक सामान्य परिवर्तन, जो सारे जीवन को आध्यात्मिक तत्त्व में उठा दे, पहला आवश्यक चरण होगा । इसकी लंबी तैयारी हो सकती है और एक बार स्वयं रूपांतर शुरू हो जाये तो वह एक-एक चरण करके आगे बढ़ सकता है । एक विशेष बिंदु के बाद व्यक्ति में यह रूपांतर तेजी से हो सकता है, यहांतक कि छलांगें भी लगा सकता है, विकास की छलांग द्वारा अपने-आपको चरितार्थ कर सकता है, लेकिन वैयक्तिक रूपांतर सत्ताओं के किसी नये प्ररूप या नये सामूहिक जीवन की सृष्टि नहीं होगा । हम यह कल्पना कर सकते हैं कि कुछ व्यक्ति पुराने जीवन के बीच इस तरह अलग-अलग विकसित हों और बाद में मिलकर नये जीवन के केंद्र की स्थापना करें । लेकिन ऐसी संभावना नहीं है कि प्रकृति इस ढंग से कार्य करेगी, और व्यक्ति के लिये निम्नतर प्रकृति के जीवन से घिरे रहते हुए पूर्ण परिवर्तनतक पहुंचना कठिन होगा । अमुक अवस्था में पृथक् समाज की चिरकालीन व्यवस्था का अनुसरण जरूरी हो सकता है जिसके दो उद्देश्य होंगे, एक तो ऐसा सुरक्षित वातावरण, एक ऐसा अलग- थलग स्थान और जीवन प्रदान करना जिसमें व्यक्ति की चेतना ऐसी परिपार्श्विक अवस्थाओं में, जहां सब कुछ एक ही प्रयास की ओर मुड़ा हुआ और केंद्रित हो, अपने विकास पर एकाग्र हो सके और दूसरे, जब चीजें तैयार हों तो उन परिपार्श्विक अवस्थाओं में और तैयार किये हुए इस आध्यात्मिक वातावरण में नये जीवन को रूपायित और विकसित करना । हो सकता है कि प्रयास के ऐसे केंद्रीकरण में परिवर्तन की सभी कठिनाइयां अपने-आपको केंद्रित शक्ति के साथ प्रस्तुत करें । क्योंकि प्रत्येक जिज्ञासु अपने साथ उस जगत् की, जिसका रूपांतर करना है, सभी संभावनाएं ही नहीं सब अपूर्णताएं भी लिये रहता हे । वह अपने साथ सिर्फ अपनी क्षमताएं ही नहीं कठिनाइयां भी लाता है और साथ ही पुरानी प्रकृति के विरोध भी । एक छोटे-से अन्नीकट संघ-जीवन की सीमित परिधि में घुल-मिलकर ये काफी बढ़ी हुई बाधक शक्ति बन सकती हैं जो विकास के लिये काम करनेवाली शक्तियों के बढ़े हुए बल और संकेंद्रण का प्रतितुलन कर सकती हैं । यह एक ऐसी कठिनाई है जिसने भूतकाल में मानसिक मनुष्य के सामान्य मानसिक और प्राणिक जीवन से अधिक अच्छी, अधिक सच्ची और सामंजस्यपूर्ण चीज विकसित करने के सभी प्रयत्नों को तोड़ दिया था । लेकिन अगर प्रकृति तैयार है और विकसनशील निश्चय ले चुकी है या उच्चतर लोकों से उतरनेवाली आध्यात्म पुरुष की शक्ति काफी बलवान् है तो कठिनाई को जीत लिया जायेगा और पहला या पहले विकसनशील रूपायण संभव होंगे ।
लेकिन अगर मार्गदर्शक ज्योति और इच्छा पर पूरी निर्भरता को और जीवन में आध्यात्म तत्त्व के सत्य की ज्योतिर्मय अभिव्यक्ति को ही विधान बनना है तो इसके
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लिये विज्ञानमय जगत् का, एक ऐसे जगत् का होना जरूरी मालूम होता है जिसमें उसके सभी जीवों की चेतना इसी आधार पर प्रतिष्ठित होगी । यहां यह बात समझ में आती है कि विज्ञानमय समुदाय या समुदायों में, विज्ञानमय व्यक्तियों के जीवन का आदान-प्रदान स्वभावत: विवेकपूर्ण और सामंजस्यपूर्ण प्रक्रिया होगी । परंतु यहां वास्तव में विज्ञानमय सत्ताओं का जीवन अज्ञान में रहनेवाले प्राणियों के जीवन के बीच या साथ-साथ बढ़ रहा होगा, उसमें या उसमें से आविर्भूत होने का प्रयत्न कर रहा होगा, फिर इन दोनों जीवनों के धर्म एक-दूसरे के विपरीत और एक-दूसरे पर आघात करते हुए मालूम होंगे । तब ऐसा लगेगा कि आध्यात्मिक समुदाय के जीवन का अज्ञानमय जीवन से पूरा-पूरा अलगाव या पार्थक्य ही आवश्यक है । कारण, अन्यथा दोनों जीवनों के बीच समझौता जरूरी होगा और समझौते के साथ ही महत्तर जीवन में संगदूषण या अपूर्णता का भय रहेगा । जीवन के दो भिन्न-भिन्न और मेल न खानेवाले तत्त्व संपर्क में रहेंगे, यद्यपि महत्तर तत्त्व लघुतर तत्त्व पर असर डालेगा फिर भी लघुतर जीवन भी महत्तर पर अपना प्रभाव डालेगा, क्योंकि यह पारस्परिक संघात समस्त सान्निध्य और आदान-प्रदान का विधान है । यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या संघर्ष और टकराव उनके संबंध के पहले नियम न होंगे क्योंकि अज्ञान के जीवन में अंधकार की उन शक्तियों का भयानक प्रभाव उपस्थित और सक्रिय रहता है जो अशुभ और हिंसा को समर्थन देती हैं, जिनका हित इसीमें है कि समस्त उच्चतर प्रकाश को, जो मानव जीवन में प्रवेश करता है, प्रदूषित या नष्ट कर दें । जो कुछ नया है या मानव अज्ञान की स्थापित व्यवस्था से ऊपर उठने या उसे तोड़कर अलग हो जाने का प्रयत्न करता है उसका विरोध और उसके प्रति असहिष्णुता, यहांतक कि उसका उत्पीड़न भी या अगर वह विजयी हो जाये तो उसमें निचली शक्तियों की घुस-पैठ, जगत् द्वारा उसका स्वीकार किया जाना -जो उसके विरोध की अपेक्षा अधिक भयानक है और अंत में जीवन के नये तत्त्व का विलोपन, उसका ह्रास या प्रदूषण भूतकाल की प्रायिक घटनाएं रही हैं । और अगर कोई आमूल नयी ज्योति या नयी शक्ति पृथ्वी पर अपना दाय के रूप में दावा करती है तो बहुत संभव है कि यह विरोध और भी अधिक उग्र होगा और कुंठा और भी अधिक होगी । लेकिन हम यह मान सकते हैं कि नयी और पूर्णतर ज्योति एक नयी और पूर्णतर शक्ति को भी लेकर आयेगी । उसके लिये एकदम पृथक् होना शायद जरूरी न हो । वह अपने-आपको बहुत-से छोटे-मोटे टापुओं में स्थापित कर सकती है और वहां से पुराने जीवन पर अपना प्रभाव डालती हुई, उसमें आंतरिक स्पंदन करती हुई, उसपर अधिकार करती हुई, उसके लिये एक ऐसी सहायता और दीप्ति के साथ उसमें फैल जाये जिसे मानवजाति में एक नयी अभीप्सा कुछ समय के बाद समझना और चाहना शुरू कर सकती है ।
लेकिन स्पष्ट रूप से ये संक्रमण-काल की समस्याएं हैं, उस समय से पहले के
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विकास की जब अभिव्यक्त होनेवाली शक्ति का पूरा-पूरा विजयी परावर्तन हो जाये और विज्ञानमय सत्ता का जीवन मानसिक सत्ता के जीवन के समान ही पार्थिव जगत्-व्यवस्था का स्थापित अंग हो जाये । अगर हम यह मान लें कि विज्ञानमय चेतना पार्थिव जीवन में प्रतिष्ठित है तो जो शक्ति और ज्ञान उसे उपलब्ध होंगे वे मानसिक मनुष्य की शक्ति और ज्ञान से बहुत अधिक महान् होंगे, और अगर यह भी मान लिया जाये कि विज्ञानमय सत्ताओं के समुदाय का जीवन पृथक् होगा तो वह भी आक्रमण से उतना ही सुरक्षित होगा जितना मनुष्य का संगठित जीवन निम्नतर जातियों के आक्रमण से सुरक्षित है । लेकिन जैसे यह ज्ञान और विज्ञानमय प्रकृति का तत्त्व, विज्ञानमय सत्ताओं के सर्व-सामान्य जीवन में ज्योतिर्मय एकता को सुरक्षित रखने का आश्वासन है, इसी तरह यह जीवन के इन दो प्ररूपों के बीच प्रभुत्वशाली सामंजस्य और मेल को सुनिश्चित रखने के लिये पर्याप्त होगा । अतिमानसिक तत्त्व का जो प्रभाव पृथ्वी पर पड़ेगा वह अज्ञान के जीवन पर भी पड़ेगा और उसकी सीमाओं के अंदर उसपर सामंजस्य आरोपित करेगा । यह कल्पना की जा सकती है कि विज्ञानमय जीवन पृथक् होगा, लेकिन वह निश्चय ही अपनी सीमाओं में उतने मानव जीवन को प्रवेश करने देगा जो आध्यात्मिकता की ओर मुड़ा हो और ऊंचाइयों की ओर प्रगति कर रहा हो । बाकी जीवन अपने-आपको मुख्य रूप से मानसिक तत्त्व और पुराने आधारों पर संगठित कर सकता है, लेकिन अभिज्ञेय श्रेष्ठतर ज्ञान से सहायता और प्रभाव पाकर संभव है कि वह अधिक पूर्ण सामंजस्य-संपादन की रेखाओं पर ऐसा कर सकेगा, जिनके लिये अभीतक मानव समष्टि समर्थ नहीं है । फिर भी, मन यहां भी, केवल संभावनाओं और संभाव्यताओं के बारे में पूर्वकथन कर सकता है; पराप्रकृति में विद्यमान स्वयं अतिमानसिक तत्त्व ही वस्तुओं के सत्य के अनुसार नयी जगत्-व्यवस्था के संतुलन का निर्धारण करेगा ।
विज्ञानमय पराप्रकृति हमारी सामान्य अज्ञानमय प्रकृति के सभी मूल्यों का अतिक्रमण करती है । हमारे मानक और मूल्य अज्ञान के बनाये हुए हैं इसलिये वे पराप्रकृति के जीवन का निर्धारण नहीं कर सकते । साथ ही, हमारी वर्तमान प्रकृति पराप्रक्रति से व्यूत्पन्न है और शुद्ध अज्ञान नहीं बल्कि अर्द्धज्ञान है, इसलिये यह मानना तर्क-संगत होगा कि उसके मानकों और मूल्यों के अंदर या पीछे जो भी आध्यात्मिक सत्य है वह उच्चतर जीवन में मानकों की तरह नहीं बल्कि उन रूपांतरित तत्त्वों की तरह फिर से प्रकट होगा जिन्हें अज्ञान से उठाकर अधिक ज्योतिर्मय जीवन के सच्चे सामंजस्य में खड़ा किया गया हो । जैसे-जैसे विश्व-भावापन्न आध्यात्मिक व्यक्ति, सीमित व्यक्तित्व को, अहं को झाडू देता है, जैसे- जैसे वह मन के परे पराप्रकृति में पूर्णतर शान की ओर उठता है, मन के संघर्षरत आदर्शों को भी उससे झड़ जाना चाहिये, लेकिन उनके पीछे जो सत्य है वह परा-
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प्रकृति के जीवन में बना रहेगा । विज्ञानमय चेतना एक ऐसी चेतना है जिसमें सभी विरोध या तो रद्द हो जाते हैं या दृष्टि और स्थिति के उच्चतर प्रकाश में, एकीकृत आत्मज्ञान या जगत्-ज्ञान में एक-दूसरे के अंदर मिल जाते हैं । विज्ञानमय पुरुष मन के आदर्शों और मानकों को स्वीकार न करेगा, वह स्वयं अपने लिये, अपने अहं के लिये या मानवजाति के लिये या औरों के लिये, जाति अथवा राज्य के लिये जीने को प्रेरित न होगा; क्योंकि, वह इन अर्द्ध-सत्यों से बड़ी किसी चीज से, दिव्य सद्वस्तु से अभिज्ञ होगा और वह उसीके लिये, अपने अंदर और सबके अंदर उसकी इच्छा के लिये, एक विशाल विश्वात्मकता के भाव में, परात्पर की इच्छा के प्रकाश में जियेगा । इसी कारण विज्ञानमय जीवन में आत्म-समर्थन और परोपकार में कोई संघर्ष नहीं हो सकता, क्योंकि विज्ञानमय सत्ता की आत्मा सर्व की आत्मा के साथ एक है -व्यक्तिवाद और समष्टिवाद के आदर्श में कोई संघर्ष नहीं होता क्योंकि दोनों एक महत्तर सद्वस्तु के पद हैं और विज्ञान-पुरुष की आत्मा के लिये उनका मूल्य वहींतक हों सकता है जहांतक वे सद्वस्तु को अभिव्यक्त करें या उनकी परिपूर्ति सद्वस्तु की इच्छा के लिये उपयोगी हो । लेकिन साथ ही, जो मानसिक आदर्शों में सत्य है और उनमें धुंधले रूप से व्यक्त है, वह विज्ञानमय पुरुष के जीवन में परिपूरित होगा; जब कि उसकी चेतना मानव मूल्यों का अतिक्रमण करती है और इस कारण वह मानवजाति या समुदाय या राष्ट्र या औरों को या अपने- आपको ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकता, उसका अपने अंदर भगवान् का प्रतिष्ठापन तथा औरों में भगवान् का बोध और मानवजाति, तथा अन्य सभी सत्ताओं और समस्त जगत् के साथ एकता का बोध -क्योंकि भगवान् उनमें हैं - और उनमें बढ़ती हुई सदवस्तु के महत्तर और श्रेष्ठतर प्रतिष्ठापन की ओर पथ-प्रदर्शन, उसके जीवन-कार्य का एक अंग होगा । लेकिन वह क्या करेगा इसका निश्चय उसके अंदर ज्ञान का सत्य और इच्छा करेंगे, एक समग्र और अनंत सत्य जो किसी एकाकी मानसिक विधान या मानक से बंधा नहीं है बल्कि स्वाधीनता से समस्त सत्य में कार्य करता है, जो हर सत्य को उसके उचित स्थान पर आदर देता और विश्व-विकास के पग-पग पर, हर घटना और परिस्थिति में क्रियारत शक्तियों और अभिव्यक्त होते हुए भागवत आवेग के अभिप्राय का स्पष्ट ज्ञान रखते हुए कार्य करता है ।
आध्यात्मिक या विज्ञानमय सिद्ध चेतना के लिये समस्त जीवन आध्यात्म सत्ता के सिद्ध सत्य की अभिव्यक्ति होना चाहिये । केवल जो अपने-आपको रूपांतरित कर सके, अपने आध्यात्मिक स्वरूप को उस महत्तर सत्य में पा सके और उसके सामंजस्य में घुल-मिल सके, उसीको जीवन-स्वीकृति मिल सकती है । इस तरह से क्या बच रहेगा इसका निश्चय मन नहीं कर सकता क्योंकि अतिमानसिक विज्ञान अपने-आप अपने सत्य को नीचे लेकर आयेगा और वह सत्य, उसका जो भी अंश
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हमारे मन, प्राण, शरीर के आदर्शों और उपलब्धियों में व्यक्त किया गया है, उसे अपने अंदर धारण कर लेगा । उसने वहां जो रूप ग्रहण किये हैं वे शायद न बचे रहें क्योंकि वे संभवत: परिवर्तन या प्रतिस्थापन के बिना नये जीवन के लिये उपयुक्त न हों; लेकिन उनके अंदर या उनके रूपों में जो कुछ सत्य और टिकाऊ है उसका बने रहने के लिये जरूरी रूपांतर हो जायेगा । मानव जीवन के लिये जो सामान्य है उसमें से बहुत कुछ गायब हो जायेगा । विज्ञान के प्रकाश में बहुत-सी मानसिक प्रतिमाएं, निर्मित सिद्धांत और प्रणालियां और परस्पर-विरोधी आदर्श, जिन्हें मनुष्य ने अपने मन और प्राण के सभी क्षेत्रों में निर्मित कर रखा है, उन्हें कोई आदर या मान्यता प्राप्त न होगी । अगर ये आकर्षक आभासी प्रतिमाएं अपने अंदर किसी सत्य को छिपाये हुए हैं तो उन्हें एक अधिक विस्तृत आधार पर प्रतिष्ठित सामंजस्य के तत्त्वों के रूप में प्रवेश का अवसर मिल सकेगा । यह स्पष्ट है कि विज्ञान-चेतना द्वारा शासित जीवन में न तो अपनी विरोध और शत्रुता की भावना को, कुरता, विनाशकारिता और अज्ञानभरी हिंसा को साथ रखनेवाले युद्ध के अस्तित्व का कोई आधार रह सकेगा और न अपने चिरकलह प्रायिक अत्याचार, बेईमानियों, भ्रष्टाचार, स्वार्थभरे हित, अपने अज्ञान, अकुशलता और अव्यवस्था को साथ रखनेवाले राजनीतिक संघर्ष को वहां रहने के लिये कोई आधार मिलेगा । कला और शिल्प रहेंगे लेकिन किसी घटिया मानसिक या प्राणिक विनोद के लिये नहीं, फुरसत के समय मन-बहलाव या आरामदेह उत्तेजना या सुख के लिये नहीं, बल्कि आध्यात्म सत्ता के सत्य तथा जीवन के सौंदर्य तथा आनंद की अभिव्यक्ति और उसके साधन के रूप में । तब प्राण और शरीर अत्याचारी स्वामी नहीं रहेंगे जो जीवन का नव दशांश अपने संतोष के लिये मांग लेते हैं, वे आध्यात्म सत्ता की अभिव्यक्ति के लिये साधन और शक्ति होंगे । साथ ही, चूंकि जड़-पदार्थ और शरीर को स्वीकार कर लिया जायेगा अतः भौतिक वस्तुओं पर नियंत्रण और उनका उचित उपयोग पृथ्वी-प्रकृति में होनेवाली अभिव्यक्ति में आध्यात्मसत्ता के सिद्ध जीवन का अंग होगा ।
प्रायः सभी जगह ऐसा माना जाता है कि आध्यात्मिक जीवन आवश्यक रूप से संन्यासियों की-सी मितव्ययता का जीवन होना चाहिये, जिसमें शरीर के निर्वाह भर के लिये जरूरी चीजों के सिवा बाकी सबको धकेल दिया जाये । यह ऐसे आध्यात्मिक जीवन के लिये उचित है जिसका स्वभाव और अभिप्राय है, जीवन से किनारा करना । उस आदर्श के सिवा यह भी सोचा जा सकता है कि आध्यात्मिकता की ओर झुकाव हमेशा अत्यधिक सादगी के पक्ष में होगा, क्योंकि बाकी सब प्राणिक कामना और भौतिक विलास का जीवन होगा । लेकिन अधिक विस्तृत दृष्टि-बिंदु से यह अज्ञान के विधान पर आधारित मानसिक मानक है जिसमें कामना प्रेरक होती है । अज्ञान पर विजय पाने के लिये, अहंकार को त्यागने के
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लिये केवल कामना का ही नहीं बल्कि उन सब चीजों का त्याग -जो कामना को संतुष्ट कर सकती हैं -बीच में एक वैध-नियम के रूप में आ सकता है । परंतु यह मानक या कोई भी मानसिक मानक पूर्ण नहीं हो सकता और न यह उस चेतना पर किसी नियम के रूप में बाध्यकारी हो सकता है जो कामना से ऊपर उठ चुकी है । पूर्ण-शुद्धि और आत्म-प्रभुता उसकी प्रकृति के मर्म में होगी, फिर चाहे वह संपन्नता में हो या विपन्नता में । क्योंकि, अगर इन दोनों में से कोई उसे हिला सके या गदला कर सके तो वह वास्तविक या पूर्ण न होगी । विज्ञानमय जीवन का एकमात्र नियम होगा आध्यात्म सत्ता की आत्माभिव्यक्ति, दिव्य पुरुष की इच्छा । वह इच्छा, वह आत्माभिव्यक्ति अत्यधिक सरलता द्वारा या अत्यधिक जटिलता और अतिसमृद्धि द्वारा या उनके स्वाभाविक संतुलन में प्रकट हो सकती है -क्योंकि सुंदरता और समृद्धि, वस्तुओं में छिपी मधुरता और हंसी, जीवन का सूर्यालोक और प्रसन्नता भी आध्यात्म पुरुष की शक्तियां और अभिव्यक्तियां हैं । प्रकृति के विधान का निश्चय करनेवाला अंतस्थ आध्यात्म पुरुष सभी दिशाओं से जीवन के ढांचे, उसके ब्यौरे और परिस्थिति का निर्धारण करेगा । सभीमें वही एक नमनीय तत्त्व होगा । कठोर मानकीकरण वस्तुओं की मन की व्यवस्था के लिये चाहे जितना जरूरी हो, आध्यात्मिक जीवन का विधान नहीं हो सकता । अंदर की एकता पर आधारित आत्माभिव्यक्ति की एक बड़ी विविधता और स्वतंत्रता भली-भांति प्रकट हो सकेगी लेकिन हर जगह सामंजस्य और व्यवस्था का सत्य रहेगा ।
विकास को उच्चतर अतिमानसिक स्तरतक ले जानेवाला विज्ञानमय सत्ताओं का जीवन उचित रूप से दिव्य जीवन कहा जा सकता है क्योंकि वह भगवान् में जीवन होगा, जड़- भौतिक प्रकृति में अभिव्यक्त आध्यात्मिक दिव्य प्रकाश और शक्ति और आनंद के आरंभ का जीवन होगा । चूंकि वह मानसिक मानव जीवन-स्तर का अतिक्रमण करता है इसलिये उसे आध्यात्मिक और अतिमानसिक अतिमानवता का जीवन कहा जा सकता है । लेकिन इसे अतिमानवता के प्राचीन और वर्तमान विचारों के साथ उलझा न देना चाहिये क्योंकि मानसिक भाव में अतिमानवता का मतलब होता है सामान्य मानव स्तर से ऊपर चढ़ जाना, स्तर के प्रकार से नहीं बल्कि उसी प्रकार में पद के हिसाब से, एक वर्द्धित व्यक्तित्व, बढ़ा हुआ और अतिरंजित अहं, मन की बढ़ी हुई शक्ति, प्राणिक सामर्थ्य की बढ़ी हुई शक्ति, मानव अज्ञान की शक्तियों की सूक्ष्म या स्थूल और विशालकाय अतिरंजना । सामान्यत: उसमें यह विचार भी मिला होता है कि अतिमानव द्वारा मानवजाति पर जबर्दस्ती आधिपत्य होगा । इसका अर्थ होगा नीत्शे की अतिमानवता और अपने बुरे-से-बुरे अर्थ में ''गौरवर्ण पशु'' या काले रंग के पशु का, किसी भी या हर एक पशु का राज; बर्बर बल, निर्ममता और शक्ति की ओर वापिस जाना । लेकिन यह विकास न होगा, यह होगा प्राचीन दुर्निवार बर्बरता की ओर लौटना । या उसका
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मतलब हो सकता है मानवजाति को अपने-आपको पार करने, अपना अतिक्रमण करने के लिये गलत दिशा में किये गये कठोर प्रयास में से राक्षस या असुर का उद्भव । राक्षसी अतिमानवता का प्ररूप होगा हिंसक, दुर्दांत और बढ़ा-चढ़ा प्राणिक अहं जो आत्म-परिपूर्ति के चरम अत्याचारी या अराजक बल से अपनी तुष्टि करेगा । लेकिन दानव, दैत्य, जगत्भक्षी राक्षस -यद्यपि अभीतक बचा हुआ है -अंतश्चेतना में अतीत की चीज है । उसका बृहत्तर उन्मज्ज्न भी पीछे की ओर विकास होगा । एक दुर्धर्ष शक्ति का, आत्म-प्रतिष्ठ, आत्म-धृत -यहांतक कि शायद तपस्या के साधनों द्वारा आत्म-नियंत्रित -मानसिक सामर्थ्य और प्राण-बल का बहुत बड़ा प्रदर्शन, सशक्त, घनीभूत प्रचंडता में स्थिर या भावशून्य या कराल, सूक्ष्म और अभिभावी; मानसिक अहं और प्राणिक अहं दोनों का चरम विकास -यह है असुर का प्ररूप । लेकिन भूतकाल में पृथ्वी को इस तरह का काफी कुछ मिल चुका है और उसकी पुनरावृत्ति केवल पुरानी रेखाओं को और अधिक लंबा कर सकती है । उसे इससे अपने भविष्य के लिये कोई सच्चा लाभ नहीं हो सकता, राक्षस या असुर से अपना अतिक्रमण करने की शक्ति नहीं मिल सकती । उसके अंदर महान् और अधिसामान्य शक्ति भी उसे उसके पुराने कक्ष पर ज्यादा बड़े-बड़े चक्करों में ले जायेगी, लेकिन जिसे प्रकट होना है वह कहीं अधिक कठिन और कहीं अधिक सरल है । वह है आत्मसिद्धि-प्राप्त सत्ता, आध्यात्मिक सत्ता की रचना, अंतरात्मा की तीव्रता और प्रेरणा और ज्योति, शक्ति और सौंदर्य का उन्मोचन और आधिपत्य--अहंकारपूर्ण अतिमानवता नहीं जो मानवजाति पर मानसिक और प्राणिक आधिपत्य पा लेना चाहती है, बल्कि आध्यात्म पुरुष का स्वयं अपने यंत्रों पर प्रभुत्व, उसका स्वयं अपने ऊपर अधिकार और आध्यात्म पुरुष की शक्ति में जीवन पर अधिकार, एक नयी चेतना जिसमें स्वयं मानवजाति, उस दिव्यता के प्रकाशन द्वारा, जो उसमें जन्म लेने के लिये प्रयास कर रही है, अपना अतिक्रमण और अपनी परिपूर्ति पा लेगी । यही एकमात्र सच्ची अतिमानसता है, यही है विकसनशील प्रकृति में अगले कदम की वास्तविक संभावना ।
यह नयी स्थिति वस्तुत: मानव चेतना और जीवन के वर्तमान विधान का प्रत्यावर्तन होगी, क्योंकि वह अज्ञान के जीवन के सारे सिद्धांत को ही उलट देगी । कहा जा सकता है कि अज्ञान के रसास्वादन के लिये, उसके आश्चर्य और साहस-कार्य के लिये ही जीव निश्चेतना में उतरा और उसने जड़ का छद्मवेश धारण किया है । सृजन और अन्वेषण के साहसिक अभियान. और आनंद के लिये, आत्मा के अभियान के लिये, मन और प्राण के अभियान और जड़तत्त्व में उनकी क्रिया के दुस्साहस-भरे कौतुक के लिये, नूतन और अज्ञात के अन्वेषण और उसपर विजय के लिये -इस सबसे ही जीवन का उद्यम बनता है और ऐसा प्रतीत हो सकता है कि अज्ञान के समाप्त होने के साथ-साथ यह सब भी समाप्त हो जायेगा । मनुष्य
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का जीवन अज्ञान के प्रकाश और अंधकार से, लाभ और हानियों से, कठिनाइयों और संकटों से, सुख-दुःखों से बना है । यह एक रंगों का खेल है जो जड़ की सर्व-सामान्य तटस्थता की भूमि पर गतिशील है, जिस जड़-तत्त्व का आधार है निर्ज्ञान और निश्चेतना की असंवेदनशीलता । सामान्य प्राण पुरुष के लिये एक ऐसा जीवन जिसमें सफलता और कुंठा, प्राणिक हर्ष और दुःख, संकट और अनुराग, सुख-दुःख की प्रतिक्रियाएं नहीं हैं, भाग्य और संघर्ष, संग्राम और प्रयास के उलट-फेर और अनिश्चितियां नहीं हैं, नूतनता और आश्चर्य का हर्ष नहीं, अज्ञात में प्रक्षिप्त होनेवाली सृष्टि का आनंद नहीं है वह विविधता से रहित और फलस्वरूप प्राणिक रस से रहित लग सकता है । ऐसा कोई भी जीवन जो इन सबका अतिक्रमण कर दे वह उसे नीरस और रिक्त या अपरिवर्तनशील एकरूपता के आकार में ढला हुआ प्रतीत हो सकता है । मनुष्य के मन में स्वर्ग का चित्र है एक ही चिरंतन तान की सतत पुनरावृत्ति । लेकिन यह एक गलत धारणा है; क्योंकि विज्ञान-चेतना में प्रवेश का मतलब है अनंत में प्रवेश करना । वह ऐसा आत्म-सृजन होगा जो अनंत को सत्ता के अनंत रूपों में व्यक्त कर रहा होगा और अनंत का रस सांत के रस की अपेक्षा कहीं अधिक महान्, बहुविध और अक्षय रूप से आनंदप्रद है । ज्ञान में होनेवाला विकास अज्ञान में हो सकनेवाले किसी भी विकास की अपेक्षा अधिक सुंदर और महिमामय अभिव्यक्ति होगा, वहां के क्षितिज अधिक विशाल और अपने-आपको अधिकाधिक खोलते हुए होंगे जिनकी घनता हर तरह से अधिक होगी । आध्यात्म पुरुष का आनंद नित्य नवीन है, वह जिन सौंदर्य-रूपों को धारण करता है वे अनगिनत हैं उसका देवत्व सदा युवा रहता है और आनंद का रस शाश्वत और अक्षय रहता है । जीवन की विज्ञानमय अभिव्यक्ति अधिक पूर्ण और फलप्रद होगी और उसका रस अज्ञान के सृजनात्मक रस की अपेक्षा अधिक उज्ज्वल होगा । वह महत्तर और अधिक सुखकर सतत चमत्कार होगी ।
अगर भौतिक प्रकृति में क्रमविकास है और अगर वह सत्ता का ऐसा विकास है जिसकी दो कुंजियां और शक्तियां हैं चेतना और प्राण, तो सत्ता की यह पूर्णता, चेतना की यह पूर्णता, प्राण की यह पूर्णता विकास का ऐसा लक्ष्य होनी चाहिये जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं और हमारी नियति में जल्दी हो या देर में वह प्रकट होगी । प्राण और जड़ की प्राथमिक निश्चेतना में जो आत्मा, जो आध्यात्म पुरुष, जो सद्वस्तु अपने-आपको प्रकट कर रही है वह अपनी सत्ता और चेतना के पूर्ण सत्य को उसी प्राण और जड़ में विकसित करेगी । वह स्वयं अपनी और लौटेगी, या अगर व्यक्ति के रूप में उसका लक्ष्य अपने निरपेक्ष में लौटना है तो वह उसमें भी लौट सकेगी -जीवन के प्रति कुंठा द्वारा नहीं बल्कि जीवन में अपनी आध्यात्मिक पूर्णता द्वारा । अज्ञान में हमारा विकास आत्मान्वेषण और जगत्-अन्वेषण के सुख-दुःख, उसकी अर्द्ध-परिपूर्णता, उसके सतत पाने और खोने के उतार-चढ़ाव से सजा
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है । यह तो हमारी पहली स्थिति है । यह अनिवार्य रूप से हमें ऐसे विकास की ओर ले जायेगी जो ज्ञान में होगा, तब आध्यात्म पुरुष की आत्म-प्राप्ति होगी, उसका आत्मोन्मेष होगा, वस्तुओं में विराजमान भगवान् का उस सच्ची आत्मशक्ति के साथ उस प्रकृति में आत्म-प्रकाश होगा जो हमारे लिये पराप्रकृति है ।
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