दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय १३

 

दिव्य माया

 

          तदिन्नवस्थ वृषभस्य धेनोरा नामभिर्ममिरे सक्म्यं गो: ।

          अन्यदन्यदसुर्यं वसाना नि मायिनो ममिरे रूपमस्मिन् ।।

 

उन्होंने प्रभु और परादेवी के नामों से ज्योति की माता को आकार दिया और मापा । उस पराशक्ति के बल को एक के बाद एक वस्त्रों की तरह पहनते हुए माया के प्रभुओं ने इस 'सत्' में 'रूप' को आकार दिया ।

                                              ऋग्वेद ३.३८.७

 

           मायाविनो ममिरे अन्य मायया नृचक्षस: पितरो गर्भमादधु: ।

 

माया के प्रभुओं ने परमदेव की माया से सब कुछ को आकार दिया । दिव्य दृष्टिवाले पितरों ने उस परमदेव का गर्भस्थ शिशु की तरह अपने अंदर आधान किया ।

               ऋग्वेद १.८३.३

 

जो सत् अपनी चेतना की शक्ति और उसके शुद्ध आनंद द्वारा लीला और सृजन करता है वही जो कुछ हम हैं उसका वास्तविक रूप है, हमारे सभी बाह्याचारों और आंतरिक वृत्तियों की आत्मा है, हमारी सभी क्रियाओं, हमारे सभी संभवन और सृजन का कारण, उद्देश्य और लक्ष्य है । जैसें कोई कवि, कलाकार या संगीतकार जब कोई रचना करता है तो वह सचमुच कुछ नहीं करता, केवल अपनी अनभिव्यक्त आत्मा की किसी संभाव्यता को अभिव्यक्ति में रूप देता है और जैसे कोई विचारक, राजनेता, यांत्रिक, वस्तुओं के रूप में केवल उसी चीज को बाहर लाते हैं जो उनके अंदर छिपी हुई थी, स्वयं उनका रूप थी और बाह्य रूपों में ढालें जाने पर भी उनका आत्मरूप ही बनी रहती है, वही बात जगत् और शाश्वत के बारे में भी है । समस्त सृष्टि या संभूति इस आत्माभिव्यक्ति के सिवा कुछ नहीं है । बीज में से वही चीज अभिव्यक्त होती है जो पहले ही बीज में है, सत्ता में पहले से मौजूद, उसके संभूति के संकल्प में पहले से निर्दिष्ट, संभूति के आनंद में पहले से व्यवस्थित है । आदि जीवद्रव्य अपने अंदर अस्तित्व की शक्ति में परिणामी शरीर-विन्यास को धारे हुए था क्योंकि यह सदा वही गुप्त-गर्भा आत्मज्ञानवाली शक्ति है जो अपने ही अदम्य आवेश के अधीन अपने अंतर्गूढ़ रूप को अभिव्यक्त करने के लिये श्रम करती है । केवल वह व्यष्टि जो सृजन करता या अपने अंदर से विकसित करता है वही अपने, यानी अपने अंदर कार्य करनेवाली शक्ति और उस उपादान में भेद करता है जिसमें वह काम कर रहा है । वस्तुत:

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शक्ति वह स्वयं है, वह शक्ति जिस व्यष्टिभावापन्न चेतना का उपयोग करती है वह भी वह स्वयं है और वह जिस द्रव्य का उपयोग करती है वह भी वह स्वयं है और परिणामस्वरूप आनेवाला रूप भी वह स्वयं है । दूसरे शब्दों में कहें तो यह एक ही सत् है, एक ही शक्ति है, एक ही सत्ता का आनंद हैं जो विभिन्न बिंदुओं पर केंद्रित होकर हर एक के बारे में कहता है, ''यह मैं हूं,'' और आत्मरूपायन के बहुविध खेल के लिये आत्मशक्ति के नानाविध खेल द्वारा उसमें क्रिया करता है ।

 

    वह जो कुछ पैदा करता है वह स्वयं वह है, और उसके सिवा कुछ नहीं हो सकता । वह अपनी निजी सत्ता, चेतना की शक्ति और सत्ता के आनंद में से एक खेल, एक लय, एक विकास कार्यान्वित कर रहा है । अत: जो कुछ जगत् में आता है वह और कुछ नहीं, बस यहीं चाहता है, वह होना चाहता है, अभिप्रेत रूपतक पहुंचना चाहता है, अपनी आत्मसत्ता को उस रूप में विस्तृत करना चाहता है, उसके अंदर की चेतना और शक्ति को अनंत रूप से विकसित, अभिव्यक्त, समृद्ध और चरितार्थ करना चाहता है । अभिव्यक्ति में आने का आनंद, सत्ता के रूप का आनंद, चेतना के लय का आनंद, शक्ति के खेल का आनंद और जो भी साधन संभव हों उनके द्वारा उस आनंद को बढ़ाना और पूर्ण करना, चाहे जिस भी दिशा में हो, उसके बारे में उसका चाहे जो भी विचार हो जिसे उसकी गभीरतम सत्ता में सक्रिय सत् चित्-शक्ति और आनंद ने उसे सुझाया हो वह उस आनंद को बढ़ाना और पूर्ण करना चाहता है ।

 

    यदि कोई लक्ष्य है, कोई पूर्णता है जिसकी ओर वस्तुएं प्रवृत्त होती हैं तो वह केवल पूर्णता हो सकती है --व्यक्ति में पूर्णता, उस समग्र में पूर्णता जो व्यष्टियों से बनता है --उसकी आत्मसत्ता की, उसकी शक्ति और चेतना की और उसकी सत्ता के आनंद की पूर्णता । परंतु व्यष्टिगत रूपायन में सीमित और केंद्रित व्यष्टिगत चेतना में ऐसी पूर्णता संभव नहीं है । सांत के अंदर निरपेक्ष पूर्णता संभव नहीं है क्योंकि वह सांत की आत्मधारणा के लिये विजातीय है, अतः एकमात्र संभव लक्ष्य है व्यष्टि में, अनंत चेतना का उदय । यह आत्मज्ञान और आत्मोपलब्धि के द्वारा अपने निजी सत्य की पुनःप्राप्ति है । सत्ता में अनंत, चेतना में अनंत, आनंद में अनंत के सत्य को अपनी निजी आत्मा और 'वास्तविकता' के रूप में पुनः पाना है । सांत उस अनंत का केवल एक मुखौटा और नानाविध अभिव्यक्ति के लिये साधन मात्र है ।

 

    इस प्रकार सच्चिदानंद अपनी सत्ता को देश और काल के रूप में विस्तारित कर जो लीला कर रहे हैं उस जगत्-लीला के स्वरूप को देखते हुए हमें यह धारणा बनानी पड़ती है कि चेतन सत्ता पहले पदार्थ की घनता और अनंत विभाज्यता में निवर्तित और अंतर्लीन हुई, कारण, अन्यथा यहां विविध प्रकार के सांत रूप नहीं बन सकते; फिर, वह आत्म-कासबद्ध शक्ति रूपमय सत्ता, प्राणमय सत्ता और

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चिंतनशील सत्ता के रूप में आविर्भूत हुई; और अंत में यह गठित चिंतनशील सत्ता जब अपने-आपको जगत् में लीला कर रहे एकमेव और अनंत के रूप में सुस्पष्टतया अनुभव कर लेती है तो मुक्त हो जाती है और इस मुक्ति के द्वारा असीम सत्-चित्-आनंद को फिर से पा लेती है जैसी कि वह अब भी गुप्त रूप से, वास्तविक रूप से और शाश्वत रूप से हैं ह । यह त्रिविध गति ही जगत्-पहेली की चाबी है ।

 

    इस भांति वेदांत का प्राचीन और शाश्वत सत्य विश्व में, विकासक्रम के आधुनिक और प्रतिभासिक सत्य के पूरे अर्थ को अपने अंदर समा लेता, उसपर प्रकाश डालता, उसे न्यायसंगत सिद्ध करता और उसका पूरा-पूरा अर्थ दिखलाता है । और इसी प्रकार विकासक्रम का यह नवीन सत्य जो 'वैश्व देव' के काल में अपने-आपको उत्तरोत्तर विकसित करने का पुराना सत्य ही है और जिसे शक्ति और जड़तत्त्व के अध्ययन द्वारा धुंधले रूप में ही देखा गया है, वह अपना पूरा अर्थ और न्यायसंगति तभी पा सकता है जब वह अपने-आपको वेदांत शास्त्रों में अब भी सुरक्षित, प्राचीन और शाश्वत सत्य के प्रकाश से आलोकित कर ले । इस पारस्परिक आत्म-अन्वेषण और आत्मप्रदीपन की ओर, जो प्राचीन पूर्वीय और नवीन पाश्चात्य ज्ञान के संलयन द्वारा ही साध्य है, जगत् की विचारधारा मुड़ रही है ।

 

    तो भी, यह जान लेने पर कि सब कुछ सच्चिदानंद है, हर चीज की व्याख्या नहीं हों जाती । हम विश्व की सद्वस्तु को तो जानते हैं परंतु अभीतक उस प्रक्रिया को नहीं जानते जिसके द्वारा उस सद्वस्तु ने अपने-आपको इस दृश्य जगत् में बदल लिया । हमारे पास पहेली की चाबी है लेकिन हमें अभी उस ताले की खोज करनी होगी जिसमें यह घूम सके । क्योंकि यह सच्चिदानंद सीधी क्रिया नहीं करता और न ही अत्यधिक गैर जिम्मेदारी के साथ किसी जादूगर की तरह अपने शब्द के आदेशमात्र से जगती या विश्वों की सृष्टि करता है । हम एक प्रक्रिया देखते हैं, हम एक विधान का भान होता है ।

 

    यह ठीक है कि जब हम इस विधान का विश्लेषण करते हैं तो ऐसा लगता है कि उसने अपने-आपको शक्तियों के खेल के संतुलन में, और उस खेल की आकस्मिक विकासधारा और भूतकाल की उपलब्ध ऊर्जा के अभ्यास द्वारा सुनिश्चित रेखाओं में विभाजित किया है । परंतु यह प्रतीयमान और गौण सत्य हमारे लिये तभीतक अंतिम है जबतक हम केवल शक्ति की ही धारणा करते हैं । जब हम यह देखते हैं कि शक्ति सत् की ही आत्माभिव्यक्ति है तो हम यह देखने के लिये भी बाधित होते हैं कि शक्ति ने जो दिशा ली है वह उस सत् के किसी आत्म-सत्य के अनुरूप है । और वही सत् उसके नियत मोड़ और गंतव्य स्थान को निर्धारित करता और उसपर शासन करता है । चूंकि चेतना आद्य सत् का स्वधर्म है और उसकी शक्ति का मूलरूप है, इससे यह सत्य अवश्य ही चित्-पुरुष के अंदर आत्म-ईक्षण

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होता है और शक्ति द्वारा अपनायी गयी दिशा का निर्धारण अवश्य ही इस चेतना में अंतर्निहित आत्म-निदेशक ज्ञान के बल का परिणाम होता है । यह अंतर्निहित ज्ञान ही चेतना को यह सामर्थ्य प्रदान करता है कि वह अपनी शक्ति को अनिवार्य रूप से आद्य आत्म-ईक्षण की युक्तियुक्त दिशा के साथ-साथ संचालित कर सके । तो वैश्व चेतना में स्थित यह आत्म-निर्धारक शक्ति ही, अनंत सत्ता की आत्म-अभिज्ञता में किसी सत्य को अपने अंदर देखने और उसकी सर्जनात्मिका शक्ति को उस 'सत्य' की दिशा के अनुरूप प्रवृत्त कर सकने की क्षमता ही जागतिक अभिव्यक्ति की अध्यक्षता करती रही है ।

 

    लेकिन हम स्वयं अनंत चेतना और उसकी क्रियाओं के परिणाम के बीच किसी विशेष शक्ति या क्षमता को घुसेड़ें ही क्यों ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि अनंत की यह आत्म-अभिज्ञता ही रूपों को रचती हुई स्वच्छन्द लीला-विहार करे और ये रूप बाद में लीला में तबतक बने रहें जबतक कि उनके विलय का आदेश न हो जाये-जैसा कि प्राचीन सामी (यहूदी) अंतःप्रकाश हमसे कहता है, ''भगवान् ने कहा, प्रकाश हो जाये और प्रकाश हो गया ?'' परंतु जब हम कहते हैं, ''भगवान् ने कहा, ''प्रकाश हो जाये'' तो हम यह मान लेते हैं कि चेतना की शक्ति की ही यह क्रिया है जिसने अन्य सब चीजों में से जो प्रकाश नहीं हैं, प्रकाश का निर्धारण किया और जब हम कहते हैं, ''और प्रकाश हो गया'' तो हम निर्धारित करनेवाली एक क्षमता को, एक ऐसी शक्ति को मान लेते हैं जो मूल अनुबोधक शक्ति से सादृश्य रखती है और इस दृश्य तथ्य को प्रकट करती है और मूल प्रत्यक्ष की रेखा के अनुरूप प्रकाश को क्रियान्वित करती हुई उसे अपने से भिन्न दूसरी सभी अनंत संभावनाओं से अभिभूत होने से बचाती है । अनंत चेतना अपनी अनंत क्रिया में केवल अनंत परिणाम ही ला सकती है । किसी नियत सत्य या सत्यों की व्यवस्था पर स्थिर होने और जो कुछ नियत दुआ है उसके अनुसार एक जगत् का निर्माण करने के लिये ज्ञान की एक ऐसी चयनकारी क्षमता की जरूरत होती है जो अनंत सद्वस्तु में से सांत रूप को आकार देने के लिये नियुक्त हो ।

 

    वैदिक ऋषि इसी शक्ति को माया के नाम से जानते थे । उनके लिये माया का अर्थ था अनंत चेतना की वह शक्ति जो समग्र बोध रखती, सबको अपने में धारण करती और नाप-जोख करती है अर्थात् रूप-रचना करती है -क्योंकि रूप है सीमांकन--अनंत सत् के बृहत् असीम सत्य को नाम और आकार देती है । माया के द्वारा ही मूलभूत सत्ता का स्थावर सत्य सक्रिय सत्ता का क्रमबद्ध सत्य बन जाता है या उसे अधिक तत्त्वज्ञान की भाषा में कहें तो उस परम सत् में से, जिसमें सब कुछ सर्व है, जिसमें पृथक् करनेवाली चेतना का कोई अवरोध नहीं, उसमें से सत्ता की सत्ता के साथ, चेतना की चेतना के साथ, शक्ति की शक्ति के साथ, आनंद की आनंद के साथ क्रीड़ा के लिये ऐसी प्रपंचात्मक सत्ता उभरती है जिसमें प्रत्येक

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में सर्व और सर्व में प्रत्येक स्थित है । प्रत्येक में सर्व और सर्व में प्रत्येक का यह खेल शुरू में माया की भ्रांति के मानसिक खेल द्वारा हमसे छिपा रहता है जो प्रत्येक को यह समझाता है कि वह तो सर्व में है परंतु सर्व उसमें नहीं है और वह भी सर्व में पृथक् सत्ता के रूप में है न कि बाकी सबके साथ सतत अविच्छिन्न रूप से एक होने के रूप में । बाद में हमें इस भ्रांति में से अतिमानसिक लीला या माया के सत्य में उभरना होता है जहां एक सत्य और बहुविध प्रतीक की अविभाज्य एकता में 'प्रत्येक' और 'सर्व' साथ-साथ रहते हैं । निचली, उपस्थित और भ्रामक मानसिक माया का पहले आलिंगन करना होता है और फिर उसे जीतना होता है क्योंकि वह विभाजन, अंधकार और परिसीमन, कामना, संघर्ष और संताप के साथ भगवान् का खेल है जिसमें भगवान् अपने-आपको उस शक्ति के आधीन कर देते हैं जो स्वयं उन्हींसे निकली है और उसके अंधकार के द्वारा अपने-आप भी अंधकार में आ जाते हैं । और जिस दूसरी माया को यह मानसिक माया छिपाये रहती है उसे भी पार करना और फिर उसका आलिंगन करना होगा क्योंकि यह भगवान् का सत्ता की अनतताओं, ज्ञान के वैभवों, अधिकृत शक्ति की महिमाओं, असीम प्रेम के उल्लासों का खेल है । वहां भगवान् शक्ति की पकड़ से बाहर निकल आते हैं, उसकी पकड़ में रहने के बदले उसपर अधिकार कर लेते हैं । और उस आलोकित शक्ति में उस लक्ष्य की पूर्ति करते हैं जिसके लिये वह पहले उनमें से निकली थी ।

 

    निम्नतर और उच्चतर माया का यह भेद ही विचार और जगत्-तथ्य के बीच की वह कड़ी है जो निराशावादी या मायावादी दर्शनों में छूट जाती या उपेक्षित रहती है । उनकी दृष्टि में मानसिक माया ने, या शायद किसी अधिमानस ने जगत् की सृष्टि की है और निश्चय ही मानसिक माया द्वारा बनाया गया जगत् एक ऐसा विरोधाभास होगा जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती । वह सचेतन सत् का एक निश्चित फिर भी उतराता हुआ दुःस्वप्न होगा जिसे न तो भांति में गिना जा सकता है न वास्तविकता में । हमें यह देखना है कि मन सर्जनकारी शासक ज्ञान और अपने कार्यों में बंदी अन्तरात्मा के बीच की एक भूमिका हैं । सच्चिदानंद अपनी निम्नतर गतिविधियों में से एक के द्वारा शक्ति की अपने-आपको भूलनेवाली तल्लीनता में अंतर्लीन रहता है । वह शक्ति अपनी ही क्रियाओं के रूप में खो जाती है और सच्चिदानंद अपने-आपको भूलने की अवस्था में से निकलकर अपनी ही ओर वापिस आता है । इस आरोहण-अवरोहण में मन एक उपकरण मात्र है । यह उतरती हुई सृष्टि का एक उपकरण है, उसका गुप्त स्रष्टा नहीं । वह आरोहण में एक मध्यवर्ती स्थिति है, हमारा परम आदि स्रोत नहीं और न ही जगत्-जीवन की परिपूर्ति की अंतिम स्थिति है ।

 

    जो दर्शन-शास्त्र एकमात्र मन को ही जगतों का स्रष्टा मानते हैं या जो किसी

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मूलतत्त्व को स्वीकार करने के साथ और उसके तथा विश्व के रूपों के बीच मन को एकमात्र मध्यस्थ मानते हैं उन्हें शुद्ध तात्त्विक (नाउमिनल) और आदर्शवादी इन दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है । शुद्ध तत्त्ववादी जगत् में केवल मन, विचार और भाव की क्रिया को मानता है किंतु भाव शुद्ध रूप से स्वेच्छाचारी हो सकता है । हो सकता है कि उसका सत्ता के किसी वास्तविक सत्य के साथ कोई तात्त्विक संबंध न हो या अगर ऐसे किसी सत्य का अस्तित्व हो भी तो उसे ऐसा निरपेक्ष माना जा सकता है जो सभी संबंधों से अलग-थलग हो और संबंधों के जगत् से मेल नहीं खाता हो । आदर्शवादी व्याख्या पीछे के सत्य और सामने के धारणात्मक प्रर्पच में एक संबंध मानती है और यह संबंध केवल विपरीतता और विरोध का नहीं होता । मैं जो दृष्टि प्रस्तुत कर रहा हूं वह आदर्शवाद में और आगे जाती है । वह सर्जक भाव को सत्य-संकल्प के रूप में देखती है यानी चित्-शक्ति की ऐसी शक्ति जो वास्तविक सत्ता को अभिव्यक्त करती, वास्तविक सत्ता से उत्पन्न होती और उसकी प्रकृति में भाग लेती है । वह न तो शून्य की संतान है न मिथ्या रचनाओं की बुनकर । यह सचेतन सद्वस्तु है जो अपने-आपको अपने ही अमर और अक्षर पदार्थ से बने क्षर रूपों में प्रक्षिप्त करती है । अतः जगत् वैश्व मन में अवधारित निरी कल्पना नहीं है बल्कि जो मन के परे है उसीका अपने रूपों में सचेतन जन्म है । एक सचेतन सत्ता का सत्य इन रूपों को सहारा देता है और उनमें अपने-आपको अभिव्यक्त करता है और इस तरह व्यक्त सत्य के अनुरूप ज्ञान अतिमानसिक ऋत-चित् के रूप में राज करता और सत् भावों को पूर्ण सामंजस्य में व्यवस्थित करता है इससे पहले कि उन्हें मानसिक, प्राणिक और शारीरिक सांचे में ढाला जाये । मन, प्राण और शरीर निम्नतर चेतना हैं और ऐसी आंशिक अभिव्यक्ति हैं जो एक नानाविध विकासक्रम के सांचे में अपनी उस श्रेष्ठतर अभिव्यक्ति पर पहुंचने की कोशिश करती है जो मनसातीत के लिये पहले से ही मौजूद है । मनसातीत में जो है वह मूल भाव है जिसे वह निम्नतर चेतना स्वयं अपनी अवस्थाओं में व्यक्त करने के लिये श्रम कर रही है ।

 

    अपने आरोहण की दृष्टि से हम कह सकते हैं कि जो कुछ अस्तित्व में है उसके पीछे 'यथार्थ' है । वह यथार्थ मध्यस्थ के तौर पर अपने-आपको एक 'मूलभाव' के रूप में प्रकट करता है जो स्वयं उसीका सामंजस्यपूर्ण सत्य है । मूलभाव एक परिवर्तनशील सचेतन सत्ता की दृश्यमान वास्तविकता को प्रक्षिप्त करता है । यह दृश्यमान वास्तविकता अनिवार्य रूप से अपनी तात्त्विक यथार्थता की ओर आकर्षित होती है और अंत में उसे उग्रता से छलांग मारकर या उस 'मूलभाव' द्वारा, जिसने 

 

    मैंने यह शब्द ऋग्वेद से लिया है -ऋत-चित् का अर्थ है सत्ता के तात्त्विक सत्य की चेतना (सत्यम्), सक्रिय सत्ता के व्यवस्थित सत्य की चेतना (ऋतम्) और विस्तृत आत्म-अभिज्ञता (वृहत्), केवल इसीमें यह चेतना संभव है ।

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उसे उत्पन्न किया था, स्वाभाविक रूप में, पूरी तरह फिर से पाने का प्रयत्न करती है । यही मन द्वारा देखी गयी मानव-अस्तित्व की अपूर्ण वास्तविकता की व्याख्या करती है । यहीं मानसिक सत्ता में सदा अपने से परे की पूर्णता की ओर, मूलभाव के उस छिपे हुए सामंजस्य की ओर और मूलभाव से परे परात्पर की ओर आत्मा की उठती हिलोरों की सहज-प्रवृत्तिगत अभीप्सा की व्याख्या करती है । हमारी चेतना के अपने तथ्य ही, उसका गठन और उसकी आवश्यकता इस तरह के त्रिविध क्रम की ही पूर्वकल्पना करते हैं; वे केवल निरपेक्ष से सापेक्षिकता की ओर ले जानेवाली द्वैतपरक और असमाधेय प्रतिस्थापना का खंडन करते हैं ।

 

    वैश्व अस्तित्व की व्याख्या करने के लिये मन काफी नहीं है । पहले अनंत चेतना को अपने-आपको ज्ञान की अनंत क्षमता में या जिसे हम अपने दृष्टिकोण से सर्वज्ञता कहते हैं उसमें अनूदित करना होता है । परंतु मन ज्ञान की क्षमता नहीं है और न ही सर्वज्ञता का उपकरण है । वह एक ऐसी क्षमता है जो ज्ञान की खोज करने, वह जो कुछ पा सके उसे सापेक्ष विचार के अमुक रूपों में प्रकट करने और उसे क्रिया की अमुक समर्थताओं के लिये उपयोग में लाने का साधन है । जब वह ज्ञान पा भी लेता है तो उसका उसपर अधिकार नहीं होता । वह सत्य की प्रचलित मुद्रा के कुछ सिक्कों का-स्वयं सत्य का नहीं --कुछ कोष स्मृति के बैंक में जमा रखता है ताकि आवश्यकता के अनुसार काम में ला सके । कारण मन वह है जो कभी जानता नहीं, जो जानने की कोशिश करता है पर कभी जान नहीं पाता, जानता भी है तो धुंधले कांच की तरह । यह वह शक्ति है जो वस्तुओं के कतिपय विधान के क्रियात्मक उपयोग के लिये वैश्व अस्तित्व के सत्य की व्याख्या करती है । यह वह शक्ति नहीं है जो जानती और उस अस्तित्व का पथ-प्रदर्शन करती है अत: यह वह शक्ति नहीं हो सकती जिसने उसे रचा या अभिव्यक्त किया हो ।

 

    लेकिन अगर हम एक ऐसे मन को मान लें जो अनंत हो और हमारी सीमाओं से मुक्त हो तो वह तो भली-भांति विश्व का स्रष्टा हो ही सकता है ? लेकिन ऐसा मन उस मन की परिभाषा से बिलकुल भिन्न होगा जिसे हम जानते हैं । वह तो मानसिकता से परे की चीज होगी, वह अतिमानसिक सत्य होगा । हम जिस मानसिकता को जानते हैं उसकी अवस्थाओं में बना हुआ अनंत मन, केवल एक अनंत अस्तव्यस्तता की, किसी अनिर्दिष्ट लक्ष्य की ओर भटकते संयोग, आकस्मिक घटना और उलटफेर के एक विशाल संघर्ष की ही रचना करनेवाला होगा; इस अनिर्दिष्ट लक्ष्य को ही वह सदा परीक्षणात्मक रूप से टटोलता और उसकी अभीप्सा करता रहेगा । एक अनंत, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् 'मन', मन बिलकुल न होगा, वह तो अतिमानसिक ज्ञान होगा ।

 

    मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं, एक प्रतिबिंब दिखानेवाला आईना है जो पहले ही से उपस्थित सत्य या तथ्य के प्रतिपादनों या प्रतिरूपों को ग्रहण करता है ।

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ये सत्य या तथ्य या तो उसके बाहर या कम-से-कम उससे अधिक विस्तृत होते हैं । वह क्षण-पर-क्षण अपने आगे उस घटना को चित्रित करता है जो या तो उपस्थित है या हो चुकी है । उसमें यह क्षमता भी है कि वह अपने अंदर प्रस्तुत किये गये वास्तविक तथ्यों से भिन्न, संभव बिंबों का निर्माण कर ले यानी वह अपने आगे केवल उन्हीं घटनाओं को चित्रित नहीं करता जो हो चुकी हैं बल्कि उन्हें भी जो हो सकती हैं । यह ध्यान रहे कि वह अपने आगे उस घटना को चित्रित नहीं कर सकता जो निश्चित रूप से होगी, बशर्तें कि वह जो है और जो हो चुकी हैं उसकी सुनिश्चित पुनरावृत्ति ही न हो । और अंत में उसमें ऐसे नये परिवर्तनों की पूर्व-कल्पना करने की क्षमता भी है जिसे वह, जो हो चुका है और जो हो सकता है, जो संभावना पूरी हो चुकी है और जो पूरी नहीं हुई, उन्हें मिलाकर करने की कोशिश करता है । यह एक ऐसी चीज है जिसकी कम या अधिक सही-सही रचना करने में कभी वह सफल हो जाता है और कभी असफल । परंतु सामान्यत: वह देखता है कि उसने जैसी कल्पना की थी, वह चीज उनसे भिन्न रूपों में ढल गयी है और उसने जिन उद्देश्यों की इच्छा की थी, उसका जो इरादा था उनसे भिन्न दिशा में मुड़ गयी है ।

 

    ऐसे गुणवाला अनंत मन संभवत: संघर्षरत संभावनाओं का एक आकस्मिक विश्व बना ले और उसे किसी ऐसी चीज का रूप दे जो चलायमान, सदा अनित्य, अपने प्रवाह में सदा अनिश्चित हो, जो न वास्तविक हो और न अवास्तविक, जिसका कोई निश्चित उद्देश्य या लक्ष्य न हो बल्कि क्षणिक लक्ष्यों का अंतहीन अनुक्रम हो --क्योंकि ज्ञान की कोई श्रेष्ठतर निर्देशिका शक्ति तो है ही नहीं --जो अंततः कहीं नहीं पहुंचाता । इस प्रकार के शुद्ध तत्त्ववाद का एकमात्र युक्तियुक्त परिणाम शून्यवाद या मायावाद, या कोई उनका सजातीय दर्शन ही हो सकता है । इस तरह बना संसार किसी ऐसी चीज का प्रस्तुतीकरण या प्रतिबिंब हो सकता है जो वह स्वयं नहीं है बल्कि सदा और अंततक एक मिथ्या प्रस्तुतीकरण और विकृत प्रतिबिंब होगा । समस्त वैश्व सत्ता एक ऐसा मन होगा जो अपनी कल्पनाओं को पूरी तरह चरितार्थ करने के लिये संघर्षरत है, पर सफल नहीं हो पाता क्योंकि उन कल्पनाओं में आत्म-सत्य का अनिवार्य आधार नहीं होता । वह अपनी ही भूतकाल की ऊर्जा की धाराओं के द्वारा अभिभूत हो आगे बहाया जाता रहेगा । वह अनिर्दिष्ट रूप से तबतक सदा बिना किसी परिणाम के आगे बढ़ाया जाता रहेगा जबतक कि वह अपनी हत्या न कर लें या शाश्वत निश्चलता में न जा गिरे । इस विचार को इसके मूलतक ले जायें तो यही शून्यवाद या मायावाद है और अगर हम यह मान लें कि हमारी मानव मानसिकता या उसके जैसी कोई और चीज सर्वोच्च वैश्व शक्ति एवं विश्व में क्रिया करनेवाली मूल कल्पना का प्रतिनिधित्व करती है तो यही एकमात्र बुद्धिमत्ता है ।

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    किंतु जिस क्षण हमें यह पता चलता है कि ज्ञान की आदि शक्ति में एक ऐसी शक्ति है जो उस शक्ति से उच्चतर है जिसका प्रतिनिधित्व हमारी मानसिकता करती है, उसी क्षण विश्व की यह कल्पना अपर्याप्त और इस कारण अमान्य हो जाती है । उसमें अपना सत्य है परंतु यह पूर्ण सत्य नहीं है । यह विश्व के तात्कालिक रूप का विधान तो है किंतु उसके आदि सत्य या अंतिम तथ्य का नहीं । क्योंकि मन, प्राण और शरीर की क्रिया के पीछे हम कोई ऐसी चीज देखते हैं जो शक्ति के प्रवाह के आलिंगन में नहीं आती बल्कि उसका आलिंगन करती और उसपर नियंत्रण करती है, कोई ऐसी चीज जो ऐसे जगत् में पैदा नहीं हुई है जिसका वह अर्थ खोजती है; बल्कि एक ऐसी चीज जिसने अपनी सत्ता में ऐसे जगत् की रचना की है जिसके लिये वह सर्वज्ञ है, कोई ऐसी चीज जो सदा अपने अंदर से कोई और चीज बनाने के लिये श्रम नहीं करती जब कि वह अपनी अतीत ऊर्जाओं की --जिन पर उसका बस नहीं -अभिभूत करनेवाली तरंगों में बहती चली जाती है, बल्कि ऐसी वस्तु जिसकी चेतना में उसका अपना एक पूर्ण रूप होता है और उसे वह यहां पर धीरे-धीरे खोल रही है । जगत् एक पूर्वदृष्ट सत्य को अभिव्यक्त करता है, एक पूर्वनिर्धारण करनेवाली इच्छा की आज्ञा का पालन करता हैं, एक मौलिक रूपायन के आत्मदर्शन को चरितार्थ करता है --यह दिव्य सृष्टि का विकसित होता हुआ प्रतिरूप है ।

 

    जबतक हम प्रतीतियों से प्रभावित मानसिकता के द्वारा ही कार्य करते हैं तबतक परे या पीछे रहनेवाली परंतु फिर भी सदा अंतर्यामी यह वस्तु केवल अनुमान या अस्पष्ट अनुभूति का विषय हो सकती है । हम एक चक्राकार प्रगति का विधान देखते हैं और अनुमान करते हैं कि कहीं पर पहले से ज्ञात, सदा-वृद्धिशील कोई पूर्णता है क्योंकि हम हर जगह 'विधान' को आत्म-सत्ता के अंदर प्रतिष्ठित देखते हैं और जब हम उसकी प्रक्रिया के मूल हेतु के अंदर गहरे प्रवेश करते हैं तो देखते हैं कि वह विधान एक सहज ज्ञान की अभिव्यक्ति है, उस ज्ञान की अभिव्यक्ति जो सत्ता में अंतर्निहित है, जो अपने-आपको प्रकट करता है और उस शक्ति में समाया हुआ है जो उसे प्रकट करती है । जब विधान ज्ञान के द्वारा इस तरह विकसित होता है कि प्रगति हो सके तो उसके अंदर दिव्य दृष्टि से देखा दुआ एक लक्ष्य छिपा रहता है जिसकी ओर गति हो रही है । हम यह भी देखते हैं कि हमारी तर्क-बुद्धि हमारी मानसिकता के असहाय बहाव में से ऊपर उभरना और उसपर आधिपत्य करना चाहती है और हम इस बोध पर पहुंचते हैं कि तर्कबुद्धि अपने से परे की एक महत्तर चेतना की केवल एक संदेशवाहक, एक प्रतिनिधि या छायामात्र है । उस महत्तर चेतना को तर्क की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वह सर्व है और वह जो कुछ है उस सबको जानती है । तब हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि तर्कबुद्धि का यह मूल उस ज्ञान के साथ अभिन्न है जो जगत् में विधान के रूप में

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कार्य करता है । यह ज्ञान पूरी प्रभुता के साथ अपना विधान निश्चित करता है क्योंकि वह जानता है कि क्या हो चुका है, क्या है और क्या होगा । वह इसलिये जानता है क्योंकि वह शाश्वत रूप से है और अनंत रूप से अपने-आपको समझता है । वह ऐसा सत् है जो अनंत चेतना है, ऐसी अनंत चेतना है, जो सर्वशक्तिमान् शक्ति है । वह जब एक जगत् को यानी अपने-आपके एक सामंजस्य को अपनी चेतना का विषय बनाता है तब वह हमारे विचार द्वारा वैश्व सत्ता के रूप में पकड़ में आ जाता है जो अपना निजी सत्य जानती है और जिसे जानती है उसे रूपों में चरितार्थ करती है ।

 

    लेकिन यह दूसरी चेतना हमारे लिये वस्तुतः तभी अभिव्यक्त होती है जब हम तर्क करना छोड़ देते हैं और अपने अंदर की गहराइयों में उस गूढ़ एकांत में चले जाते हैं जहां मन निश्चल हो जाता है -चाहे वह अभिव्यक्ति हमारी मानसिक प्रतिक्रिया के लंबे अभ्यास के और मानसिक सीमाओं के कारण कितनी भी अपूर्ण क्यों न हो । तब हम निश्चित रूप से बढ़ते हुए प्रकाश में उसे देख सकते हैं जिसकी हमनें तर्कबुद्धि की धुंधली और टिमटिमाती रोशनी से अनिश्चित रूप में कल्पना की थी । ज्ञान असीम आत्म-दर्शन के ज्योतिर्मय बृहत् में, हमारे मन और बौद्धिक तर्क के पीछे सिंहासन पर बैठा प्रतीक्षा करता है ।

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