Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २६
द्रव्य का आरोहणकारी सोपान
स वा एष पुरुषोऽन्नरसमय: ।... अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमय: । तेनैष
पूर्ण:... अन्योऽत्तर आत्मा मनोमय: ।... अन्योऽत्तर आत्मा
विज्ञानमय: ।... अन्योऽन्तर आत्मा आनन्दमय: ।
एक आत्मा है जो अन्न-रसमय है ।... एक और आन्तरिक आत्मा
है, प्राणमय जो उसे पूर्ण करती है ।... एक और आंतरिक आत्मा
है मनोमय ।... एक और आंतरिक आत्मा है विज्ञानमय (सत्य
ज्ञानमय) ।... एक और आंतरिक आत्मा है आनंदमय ।
तैत्तिरीयोपनिषद् २.१-५
... ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे ।।
यत् सानो: सानुमारुहद भूर्यस्पष्ट कर्त्वम् ।
तदिन्द्रो अर्थं चेतति... ।।
वे इन्द्र पर सीढ़ी की तरह चढ़े । चोटी के बाद चोटी चढनेवाले को
यह स्पष्ट हो जाता है कि अभी और कितना करना बाकी है, इन्द्र यह
चेतना लाता हैं कि वह ''तत्'' लक्ष्य है ।
ऋग्वेद १. १०. १, २
चमूषच्छयेन: शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।
अपामूर्मिं सचमान समुद्रं तुरीय धाम महिषो विवक्ति ।।
मर्यो न शुभ्रस्तन्वं मृजनोऽत्यो न सत्वा सनये धनानाम् ।
वृषेव यूथा परि कोशमर्षन् कच्छिदच्चम्वो३रा विवेश ।।
बाज की तरह, चील की तरह पात्र पर बैठता है और उसे ऊपर
उठाता है । अपनी गतिधारा में वह किरणों को प्राप्त करता है
क्योंकि वह अपने शस्त्र धारण किये हुए चलता है, वह जल की
सागर लहरों से चिपकता है । महान् राजा के रूप में वह चौथे धाम
की घोषणा करता है । जैसे मर्त्य प्राणी अपने शरीर को शुद्ध करता
है, जैसे युद्ध का घोड़ा धन जीतने के लिये छलांगे भरता हुआ
दौड़ता हैं, वह आवाहन करता हुआ समस्त कोष पर बरसता हुआ
आता है और इन पात्रों में प्रवेश करता है ।
ऋग्वेद ९.९६.१९, २०
अगर हम यह विचार करें कि हमारे लिये जड़ के जड़त्व की सबसे अधिक
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सूचना देनेवाला तत्त्व कौन-सा है तो हम उसके ये पहलू देखेंगे : उसकी घनता, स्पृश्यता, बढ़ती हुई प्रतिरोध-शक्ति, इन्द्रिय-स्पर्श के प्रति दृढ़ प्रतिक्रिया । द्रव्य हमारे आगे जितना अधिक ठोस प्रतिरोध खड़ा करता है उस प्रतिरोध के कारण इन्द्रियगम्य रूप का ऐसा स्थायित्व लाता है जिसपर हमारी चेतना टिक सकती है, उसी अनुपात में वह हमें अधिक सचमुच जड़ और वास्तविक प्रतीत होता है । वह जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उसका प्रतिरोध जितना कम ठोस होता है और इन्द्रियां जिसे थोड़ी देर को ही पकड़ पाती हैं, वह हमें उतना ही कम जड़ या भौतिक प्रतीत होता है । जड़ के प्रति हमारी सामान्य चेतना का यह भाव उस मूलभूत उद्देश्य का प्रतीक है जिसके लिये जड़ तत्त्व की रचना की गयी है । द्रव्य जड़ अवस्था में इसलिये जाता है ताकि जिस चेतना को उसके साथ व्यवहार करना है उसके आगे वह स्थायी, भली-भांति पकड़ में आनेवाले मूर्त रूप उपस्थित कर सके जिन पर मन टिक सके और उन्हें अपनी क्रियाओं का आधार बना सके और प्राण अंततः सापेक्ष स्थायित्व के विश्वास के साथ उस रूप पर काम कर सके जिसका वह व्यवहार करता है । इसी कारण प्राचीन वैदिक सूत्रों में पृथ्वी को, जो द्रव्य की अधिक ठोस स्थितियों का प्रतीक है, जड़ तत्त्व के प्रतीकात्मक नाम के रूप में स्वीकार किया गया था । अतः हमारे लिये स्पर्श या संपर्क संवेदन का मूलभूत आधार है । अन्य सभी भौतिक इन्द्रियां रसना, ध्राण, श्रवण और दृष्टि ये सब देखनेवाले और देखे जानेवाले के बीच अधिकाधिक सूक्ष्म और परोक्ष सक्ष्म की श्रेणी पर निर्भर हैं । इसी तरह सांख्य में द्रव्य का पंचभूतों में आकाश से पृथ्वीतक जो वर्गीकरण किया गया है उसमें हम देखते हैं कि उनकी विशेषता यह है कि अधिक सूक्ष्म से कम सूक्ष्म की ओर निरंतर प्रगति जिसमें एक ओर शिखर पर हैं आकाशीय तत्त्व के सूक्ष्म स्पंदन और नीचे, आधार में है पार्थिव या घनीभूत तत्त्व की अधिक स्थूल घनता । अतः शुद्ध द्रव्य की वैश्व संबंध के उस आधार की ओर प्रगति में जड़ ही वह अंतिम अवस्था है जो हमें ज्ञात है, जिसमें प्रथम शब्द आत्मा न होकर रूप होगा, ऐसा रूप जो अपनी अधिक-से-अधिक संभव विकास अवस्था में सान्द्रता, प्रतिरोध, स्थायी-स्थूल आकार, पारस्परिक अभेद्यता होगा -विभेद, पृथक्ता और विभाजन की पराकाष्ठा होगा । जड़ विश्व का यही प्रयोजन है और यही उसका स्वभाव है । यही संपादित विभाजन का सूत्र है ।
और यदि, जैसा कि वस्तुओं के स्वभाव में होना चाहिये, जड़ से आत्मा तक द्रव्य का कोई चढ़ता हुआ सोपान है तो उसकी विशेषता होनी चाहिये स्थूल तत्त्व की इन सबसे अधिक विशेष क्षमताओं में क्रमश: कमी और इनसे उल्टी विशेषताओं में क्रमश: वृद्धि जो हमें शुद्ध आध्यात्मिक आत्म-प्रसारण के सूत्र तक पहुंचा दे । मतलब यह कि उनमें स्पष्टत: रूप का बंधन कम होता जायेगा, पदार्थ और शक्ति में अधिकाधिक सूक्ष्मता और लचीलापन दिखायी देगा, अधिकाधिक
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सम्मिश्रण, अन्तव्याप्ति, आत्मसात् करने की शक्ति, अधिकाधिक आदान-प्रदान की शक्ति, वैविध्य, रूप-परिवर्तन और एकीकरण की शक्ति दिखायी देगी । रूप के स्थायित्व से दूर हट कर हम सारतत्त्व की शाश्वतता की ओर खिंचते हैं । भौतिक जड़ तत्त्व के प्रतिरोध तथा आग्रही विभाजन में स्थित अपने स्थायित्व से हटकर हम आत्मा की शाश्वतता, एकता और अविभाज्यता के उच्चतम दिव्य स्थायित्व के नजदीक पहुंचते हैं । स्थूल द्रव्य और शुद्ध आत्मा के द्रव्य में यह आधारभूत विरोध अवश्य रहेगा । जड़ में चित् या चित्-शक्ति अपने-आपको अधिकाधिक घनीभूत करती है ताकि वह उसी चित्-शक्ति की अन्य राशियों का प्रतिरोध कर सके और उनके विरुद्ध खड़ी हो सके । आत्मा के द्रव्य में शुद्ध चेतना सारभूत अविभाज्यता और सतत एकत्वकारी पारस्परिक आदान-प्रदान को आधारभूत सूत्र बना कर अपनी निजी शक्ति की अधिक से अधिक वैविध्यपूर्ण क्रीड़ा का भी यहीं आधार-सूत्र रखते हुए अपने आत्म-बोध में अपने-आपको स्वतंत्रता से मूर्त करती है । इन दो छोरों के बीच अनंत श्रेणीकरण की संभावना रहती है ।
ये विवेचन तब बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं जब हम पूर्णताप्राप्त मानव आत्मा के दिव्य जीवन, दिव्य मन और इस अतिशय स्थूल और अदिव्य प्रतीत होते हुए शरीर या भौतिक सत्ता के नियम -जिसमें हम वास्तव में निवास करते हैं --इनके संभव संबंध पर विचार करते हैं । वह नियम इन्द्रिय और द्रव्य के उस विशेष निर्धारित संबंध का परिणाम है जिससे जड़ जगत् का आरंभ हुआ है । लेकिन चूंकि यह संबंध ही एकमात्र संभव संबंध नहीं है उसी तरह वह नियम भी एकमात्र संभव नियम नहीं है । प्राण और मन अपने-आपको द्रव्य के साथ किसी और संबंध में व्यक्त कर सकते हैं और अन्य स्थूल नियमों को और अन्य तथा ज्यादा बड़े अभ्यासों को कार्यान्वित कर सकते हैं यहां तक कि शरीर के भिन्न द्रव्य को भी चरितार्थ कर सकते हैं जहां इन्द्रियों की अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी, प्राण की अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी, मन की भी अधिक स्वतंत्र क्रिया होगी । मृत्यु, विभाजन और एक ही चेतन प्राण-शक्ति की शरीरधारी राशियों में परस्पर विरोध और बहिष्कार हमारे भौतिक अस्तित्व के सूत्र हैं और इन्द्रियों की क्रीड़ा का संकरा सीमाबंधन, प्राण की क्रियाओं के क्षेत्र, अवधि और बल का एक छोटे से घेरे में निर्धारण, मन की अस्पष्ट, पंगु गति, टूटी-फूटी सीमित क्रियाएं वह जूआ है जिसे पशु-शरीर में अभिव्यक्त यह नियम उच्चतर तत्त्वों पर लादता है । लेकिन ये चीजें ही वैश्व प्रकृति का एकमात्र संभव लय नहीं हैं । श्रेष्ठतर अवस्थाएं हैं, उच्चतर जगत् हैं । अगर मनुष्य की किसी प्रगति द्वारा और हमारे द्रव्य की अपनी वर्तमान अपूर्णताओं से किसी मुक्ति द्वारा उन उच्चतर स्थितियों और जगतों के विधान को हमारी सत्ता के इस गोचर रूप और यंत्र पर लागू किया जा सके तो उस अवस्था में यहां भी दिव्य मन और इन्द्रिय की भौतिक क्रिया, मानव ढांचे में दिव्य प्राण की
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भौतिक क्रिया हो सकती है । पृथ्वी पर भी ऐसी किसी चीज का विकास हो सकता है जिसे हम दिव्य मानव शरीर कह सकें । हो सकता है कि मानव शरीर भी किसी दिन अपना रूपांतर पा ले और धरती माता भी हमारे अंदर अपना देवत्व प्रकट कर दे ।
भौतिक जगत् के विधान में भी जड़ के सोपान में एक ऊपर उठता हुआ क्रम है जो हमें अधिक घन से कम घन की ओर, कम सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म की ओर ले जाता है । जब हम इस क्रम के सबसे ऊंचे पदतक जा पहुंचते हैं, जड़ द्रव्य या शक्ति के रूपायन की सबसे अधिक अतिव्योम सूक्ष्मता पर जा पहुंचते हैं तो उसके परे क्या होता है ? नास्ति नहीं, शून्य नहीं क्योंकि परम शून्य या वास्तविक नास्ति के जैसी कोई चीज है ही नहीं और जिसे हम इस नाम से पुकारते हैं वह केवल एक ऐसी चीज है जो हमारी इन्द्रियों, हमारे मन और हमारी सूक्ष्मतम चेतना की पकड़ से बाहर है । और यह भी सच नहीं है कि परे कुछ है ही नहीं या यह कि जड़ द्रव्य का कोई आकाशीय तत्त्व ही शाश्वत आदिहै, क्योंकि हम जानते हैं कि जड़ द्रव्य और जड़ शक्ति केवल उस शुद्ध द्रव्य और शुद्ध शक्ति के अंतिम परिणाम हैं जिनमें चेतना ज्योतिर्मय रूप से आत्म-अभिज्ञ और आत्म-निष्ठ रहती है । उस तरह से नहीं जैसे जड़ द्रव्य में वह अपने लिये ही निश्चेतना की नींद सोयी और खोयी और गति में क्रिया-शून्य होती है । तो फिर इस जड़-द्रव्य और उस शुद्ध द्रव्य के बीच में क्या है ? क्योंकि हम एक से दूसरे की ओर छलांग नहीं मारते, निश्चेतना से एकदम परम चेतना में नहीं चले जाते । जैसे जड़-तत्त्व आत्मा के तत्त्व के बीच है उसी तरह निश्चेतन और पूरी तरह सचेतन आत्म-विस्तार के बीच भी क्रम सोपान होंगे और हैं ।
जिन लोगों ने इन अगाध खाइयों की थाह ली है वे इस बात पर सहमत है और इसके साक्षी हैं कि द्रव्य के अधिकाधिक सूक्ष्म रूपायनों के क्रम हैं जो जड़ जगत् के विधान से बच निकलते और उसके परे चले जाते हैं । इन मामलों की अधिक गहराई में गये बिना, जो हमारी वर्तमान जांच के लिये बहुत ज्यादा गुह्य और कठिन हैं, हम जिस पद्धति के आधार पर चल रहे हैं उसी पर चलते हुए कह सकते हैं कि द्रव्य के ये क्रम इन श्रेणियों के रूपायन के एक महत्त्वपूर्ण पहलू में जड़, प्राण, मन, अतिमानस और इनसे भी ऊपर सच्चिदानंद के अन्य उच्चतर दिव्य त्रिक की ओर ऊपर चढ़ती हुई क्रम-परंपरा से मेल खाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो हम देखते हैं कि अपने आरोहण में द्रव्य इनमें से हर एक तत्त्व को अपना आधार बनाता है और उनमें से हर एक के चढ़ते हुए सोपानों में अपने-आपको क्रमश: उनकी प्रधान वैश्व अभिव्यक्ति का विशिष्ट वाहन बना लेता है ।
यहां इस जड़ जगत् में हर चीज जड़ द्रव्य के नियम पर आधारित है । इन्द्रियां, प्राण, विचार ये अपना आधार उसपर रखते हैं जिसे प्राचीन लोग पृथ्वी-शक्ति
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कहते थे । ये वहीं से शुरू होते, उसीके नियमों का पालन करते, अपनी क्रियाओं को इसी मूलभूत तत्त्व के अनुकूल बनाते, अपने-आपको उसीकी संभावनाओं के द्वारा सीमित करते हैं । अगर वे किन्हीं और संभावनाओं को विकसित करना चाहें तो उस विकास में भी इस मूल तत्त्व का, उसके प्रयोजन और दिव्य विकास-क्रम से की गयी उसकी मांग का ख्याल रखते हैं । इन्द्रिय-बोध भौतिक उपकरणों द्वारा काम करता है, प्राण भौतिक स्नायु-संस्थान और प्राणिक अंगों द्वारा काम करता है । मन को अपनी क्रियाएं एक शारीरिक आधार पर खड़ी करनी पड़ती हैं और स्थूल यंत्र-विन्यास का उपयोग करना पड़ता है, उसकी विशुद्ध मानसिक क्रियाओं को भी इस प्रकार प्राप्त हुए तथ्यों को अपनी क्रिया का क्षेत्र और विषयवस्तु बनाना पड़ता है । मन, इन्द्रियों और प्राण के तात्त्विक स्वरूप में ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है कि वे इतने सीमित हों क्योंकि भौतिक इन्द्रियां इन्द्रिय-बोध की रचयिता नहीं हैं बल्कि वे स्वयं वैश्व इन्द्रिय-बोध की रचना, उसके यंत्र और यहां उसकी आवश्यक सुविधाजनक वस्तुएं हैं । स्नायु-तंत्र और प्राणिक अंग प्राणिक क्रिया-प्रतिक्रिया के स्रष्टा नहीं हैं बल्कि है स्वयं वैश्व प्राण-शक्ति की रचना, उसके यंत्र और यहां उसकी आवश्यक सुविधाजनक वस्तुएं हैं । मस्तिष्क विचार का स्रष्टा नहीं है बल्कि स्वयं वैश्व मन की रचना, उसका यंत्र और उसकी आवश्यक सुविधा की चीज है । अतः आवश्यकता अनिवार्य नहीं है बल्कि किसी विशेष प्रयोजन के लिये है । वह भौतिक विश्व में एक दिव्य वैश्व इच्छा का परिणाम है जो यहां इन्द्रिय और उसके विषय के बीच एक भौतिक संबंध बनाने का विचार रखती है, यहां चित्-शक्ति का एक भौतिक सूत्र और विधान स्थापित करती है, उसके द्वारा चिन्मय सत् के ऐसे स्थूल रूपों की रचना करती है जो, हम जिस जगत् में रहते हैं उसका प्रारंभिक, प्रमुख और निर्धारक तथ्य बन जाते हैं । यह मौलिक विधान नहीं है बल्कि यह एक रचनात्मक तथ्य है जो भौतिक जगत् में आत्मा के विकसित होने की इच्छा के कारण आवश्यक बन गया है ।
द्रव्य की अगली श्रेणी में ठोस रूप और शक्ति नहीं बल्कि प्राण और सचेतन कामना ही आदि, प्रमुख और निर्धारक तथ्य हैं । अतः इस भौतिक लोक के परे एक ऐसा लोक होना चाहिये जो सचेतन वैश्व प्राणिक ऊर्जा पर प्राण की चाह की शक्ति, कामना की शक्ति और उनकी आत्माभिव्यक्ति पर आधारित हो न कि किसी निश्चेतन या अवचेतन इच्छा पर जो जड़ भौतिक शक्ति और ऊर्जा का रूप ले । उस लोक के सभी रूपों, शरीरों, शक्तियों, प्राणिक गतिविधियों, संवेदन-गतियों, विचार-गतियों, विकासों, पराकाष्ठाओं, आत्म-परिपूर्णताओं को चेतन प्राण के इस प्रारंभिक तथ्य के आधीन और उससे निर्धारित होना होगा । जड़ पदार्थ और मन को अपने-आपको इसके आधीन बनाना होगा, उससे आरंभ होना, उसीपर आधारित रहना, उसीके नियम, बल और क्षमता और सीमाओं से सीमित या विस्तृत होना
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होगा । अगर मन वहां किन्हीं उच्चतर संभावनाओं को विकसित करना चाहे तो उसे भी कामना-शक्ति के मूल प्राणिक सूत्र का, उसके उद्देश्य का और दिव्य अभिव्यक्ति से उसकी मांग का ख्याल रखना होगा ।
उच्चतर श्रेणियों में भी यही होता है । इस क्रम की अगली श्रेणी में मन के प्रधान और निर्णायक तत्त्व का शासन होगा । वहां द्रव्य को इतना सूक्ष्म और लचीला होना चाहिये कि मन सीधा उसपर जो भी आकार आरोपित करना चाहे वह उसे धारण कर ले, उसकी क्रियाओं का अनुगामी हो, उसकी आत्माभिव्यक्ति और आत्मपरिपूर्ति की मांग के आधीन हो । इन्द्रिय बोध और द्रव्य के बीच के संबंधों को भी उससे मेल खाती सूक्ष्मता और नमनीयता प्राप्त होनी चाहिये और उनका निर्धारण भी स्थूल पदार्थ के साथ स्थूल अवयव के संबंधों द्वारा नहीं बल्कि मन की क्रिया जिस अधिक सूक्ष्म द्रव्य पर होती है उसके साथ मन के संबंधों द्वारा होगा । ऐसे लोक में प्राण मन का सेवक होगा, ऐसे अर्थों में जिसकी कल्पना हमारी दुर्बल मानसिक क्रियाएं और हमारी सीमित, अनगढ़ और विद्रोही प्राणिक क्षमताएं पर्याप्त रूप में नहीं कर सकतीं । वहां मन मौलिक सूत्र के रूप में प्रमुख रहता है, उसका प्रयोजन प्रबल रहता है, उसकी मांग दिव्य अभिव्यक्ति के विधान में सबसे बढ़- चढ़ कर रहती है । इससे भी ऊंची भूमिका अतिमानस -या बीच में उसके द्वारा स्पृष्ट तत्त्वों में -या और भी ऊपर शुद्ध आनंद, शुद्ध चित्-शक्ति या शुद्ध सत् ये प्रधान तत्त्व के रूप में मन का स्थान ले लेते हैं और हम वैश्व अस्तित्व के उन क्षेत्रों में जा पहुंचते हैं जो वैदिक द्रष्टाओं के लिये ज्योतिर्मय दिव्य सत्ता के लोक थे, ''धामानि दिव्यानि'' या जिसे वे अमृतत्व कहते थे उसके आधार थे । बाद में आनेवाले भारतीय धर्मों ने इनकी कल्पना ब्रह्म लोक, गो लोक जैसे रूपकों में की थी । ये सत् की आत्मा के रूप में परम आत्माभिव्यक्ति हैं जिनमें अपनी उच्चतम पूर्णता में मुक्त अंतरात्मा शाश्वत देव की अनंतता और आनंद पर अधिकार पा लेती है ।
वस्तुओं के भौतिक रूपायन से परे उठते हुए इस निरंतर ऊर्ध्वगामी अनुभव और दृष्टि के आधार में जो तत्त्व रहता है वह यह है कि सारी वैश्व सत्ता एक जटिल सामंजस्य है और उसका अंत चेतना के उस सीमित क्षेत्र में नहीं हो जाता जिसमें बंदी बनकर रहने से सामान्य मानव मन और प्राण संतुष्ट रहते हैं । सत्, चेतना, शक्ति, द्रव्य बहुत से डंडोंवाली सीढ़ी पर चढ़ते-उतरते रहते हैं जिसके हर डंडे पर सत्ता का एक अधिक विशाल आत्म-प्रसारण होता है, चेतना को अपने निजी क्षेत्र, विशालता और आनंद का अधिक विस्तार अनुभव होता है, शक्ति में अधिक तीव्रता, अधिक तेज और आनंदमय सामर्थ्य होती है और द्रव्य अपनी प्राथमिक वास्तविकता को अधिक सूक्ष्म, नमनीय, प्रफुल्ल, लचीला रूप देता है । क्योंकि अधिक सूक्ष्म अधिक शक्तिशाली भी होता है -हम कह सकते हैं कि वह
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सचमुच अधिक ठोस होता है । वह स्थूल की अपेक्षा कम बंधा होता है । उसमें अधिक स्थायित्व और उसकी संभूति में अधिक संभावना, नमनीयता और प्रसार होते हैं । सत्ता की पहाड़ी का हर एक पठार हमारी विस्तृत होती हुई अनुभूति को हमारी चेतना का एक ज्यादा ऊंचा स्तर और हमारे जीवन के लिये अधिक समृद्ध जगत् देता है ।
लेकिन यह ऊपर चढ़ती हुई क्रम-परंपरा हमारे भौतिक जीवन की संभावनाओं पर कैसे असर डालती है ? अगर चेतना का हर एक स्तर, सत्ता का हर एक लोक, द्रव्य की हर श्रेणी, वैश्व शक्ति की हर कोटि अपने से पहले और अपने बाद आनेवालों से एकदम कटे रहते तो इसका उनपर कोई असर न होता, लेकिन सत्य इसके विपरीत है । आत्मा की अभिव्यक्ति एक जटिल बुनावट है और किसी एक तत्त्व की रूप-रेखा और बुनावट में अन्य सभी तत्त्व आध्यात्मिक समग्र के तत्त्वों के रूप में प्रवेश कर जाते हैं । हमारा भौतिक जगत् बाकी सबका परिणाम है क्योंकि बाकी सब तत्त्व जड़ में भौतिक विश्व की रचना करने के लिये उतरे हैं । और हम जिसे जड़-पदार्थ कहते हैं उसके हर कण में वे सब अव्यक्त रूप में अन्तर्लीन हैं । जैसा कि हम देख चुके हैं उनकी गुप्त क्रिया उसके अस्तित्व के हर क्षण में और उसकी क्रिया की हर गति में अन्तर्निहित है । जैसे जड़ पदार्थ अवरोहण का अंतिम पद है उसी तरह वह आरोहण का पहला पद भी है । जैसे इन सभी स्तरों, लोकों, जगतों, श्रेणियों और कोटियों की शक्तियां भौतिक सत्ता में अन्तर्निहित हैं उसी तरह वे सब उसमें से विकसित होने में सक्षम हैं । यही कारण है कि भौतिक सत्ता का आदि और अंत गैसों और रासायनिक सम्मिश्रणों, भौतिक शक्तियों और गतियों से या नीहारिकाओं, सूर्यों और पृथ्यियों से नहीं होता बल्कि वह प्राण को विकसित करती है, मन को विकसित करती है और अंततः उसे अतिमानस और आध्यात्मिक अस्तित्व के उच्चतर स्तरों को विकसित करना चाहिये । विकास अतिभौतिक स्तरों के जड़ भौतिक पर अनवरत दबाव से आता है जो उसे अपने अंदर से उनके तत्त्वों और शक्तियों को मुक्त करने के लिये बाधित करता है अन्यथा यह कल्पना की जा सकती हैं कि ये जड़ सूत्र की कठोरता में बंदी बने सोये रहते । लेकिन यह यूं भी असम्भाव्य होता क्योंकि उनकी वहां उपस्थिति में ही उनके मुक्त होने का प्रयोजन समाविष्ट है । फिर भी नीचे की इस आवश्यकता को सजातीय ऊपर के दबाव से बहुत मदद मिलती है ।
और न यह विकास जड़ भौतिक की अनिच्छक शक्ति द्वारा उच्चतर शक्तियों को दिये गये, प्राण, मन, अतिमानस और आत्मा के प्राथमिक तुच्छ-से रूपायन में समाप्त हो सकता है । क्योंकि जैसे-जैसे उनका विकास होता है, जैसे-जैसे वे जागते हैं, जैसे-जैसे वे अधिक सक्रिय और अपनी शक्यताओं के बारे में अधिक उत्कंठित होते हैं वैसे-वैसे उन पर ऊंचे स्तरों का दबाव भी, जो लोकों की सत्ता, उनके
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घनिष्ठ संबंध और अन्योन्याश्रय में अंतर्लीन रहता है, वह भी अपने आग्रह, शक्ति और प्रभावकारिता में जरूर बढ़ता जाता है । केवल इतना ही नहीं कि ये तत्त्व नीचे से सीमित और नियंत्रित ढंग से ऊपर उठें बल्कि यह भी जरूरी है कि वे जड़ सत्ता में अपनी विशिष्ट शक्ति और पूर्ण संभव प्रस्फुटन के साथ उतरें और भौतिक जीव जड़ पदार्थ में उनकी क्रियाओं की अधिकाधिक विस्तृत लीला की ओर खुले । बस आवश्यकता है एक योग्य आधार, माध्यम और यंत्र की । और इसकी व्यवस्था मनुष्य के शरीर, प्राण और चेतना में की गयी है ।
निश्चय ही यदि शरीर, प्राण और चेतना इस स्थूल शरीर की संभावनाओंतक ही सीमित रहते, हमारी भौतिक इन्द्रियां और भौतिक मानसिकता बस इतना ही स्वीकार करती हैं, तो इस विकास की परिधि बहुत ही सीमित रहती और मनुष्य अपनी वर्तमान उपलब्धियों से अधिक और किसी तत्त्वतः बड़ी चीज को प्राप्त करने की आशा न कर सकता । लेकिन जैसा कि एक प्राचीन गुह्य विज्ञान ने पता लगाया था कि यह शरीर हमारी पूर्ण भौतिक सत्ता भी नहीं है, यह स्थूल घनता हमारा पूर्ण द्रव्य नहीं है । प्राचीनतम वैदान्तिक ज्ञान हमारी सत्ता की पांच कोटियों की बात करता है, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आध्यात्मिक या आनंदमय और हमारी अंतरात्मा की इन श्रेणियों में प्रत्येक के अनुरूप एक द्रव्य-श्रेणी होती हैं जिसे प्राचीन आलंकारिक भाषा में कोष कहा गया है । बाद के एक मनोविज्ञान ने यह पता लगाया है कि हमारे द्रव्य के ये पांच कोष स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन शरीरों के उपादान हैं और हमारी अंतरात्मा वस्तुत: इन सबमें एक साथ निवास करती है यद्यपि यहां, इस समय हम ऊपर से केवल भौतिक वाहन के बारे में सचेतन हैं । लेकिन हमारे लिये अपने अन्य शरीरों में भी सचेतन होना संभव है और वस्तुतः यह उनके बीच के पर्दे का खुलना और उसके परिणाम-स्वरूप हमारे भौतिक, चैत्य और विज्ञानमय व्यक्तित्वों के बीच के पर्दे का खुलना है जो उन 'चैत्य' या गुह्य व्यापारों का कारण है जिनकी अधिकाधिक परीक्षा की जाने लगी है, यद्यपि अभीतक वह कम और बड़े भद्दे ढंग से की जाती है और उनका बहुत अधिक अनुचित लाभ उठाया जाता है । भारत के पुराने हठ-योगियों और तांत्रिकों ने उच्चतर मानव जीवन के इस मामले को बहुत पहले विज्ञान में बदल दिया था । उन्होंने स्थूल शरीर में जीवन के छह स्नायविक चक्रों की खोज की थी जो सूक्ष्म में प्राण और मन की क्षमता के छह केन्द्रों के साथ मेल खाते थे; और उन्होन ऐसे सूक्ष्म भौतिक व्यायाम खोज निकाले थे जिनके द्वारा इन चक्रों को, जो अभी बंद हैं, खोला जा सकता है और मनुष्य अपनी सूक्ष्म सत्ता के स्वाभाविक उच्चतर चैत्य जीवन में प्रवेश कर सकता है और विज्ञानमय और आध्यात्मिक सत्ता के अनुभव के रास्ते में जो शारीरिक और प्राणिक बाधाएं आ सकतीं हैं उन्हें भी नष्ट किया जा
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सकता है । यह बात महत्त्वपूर्ण है कि हठयोगियों ने अपने अभ्यासों के लिये एक महत्त्वपूर्ण परिणाम का दावा किया था और उसकी बहुत प्रकार से जांच की जा चुकी है वह है भौतिक प्राण शक्तिपर अधिकार, जो उन्हें बहुत ही सामान्य आदतों और ऐसे तथाकथित विधानों से मुक्त कर देता है जिन्हें भौतिक विज्ञान शरीर में प्राण के लिये अविच्छेद्य मानता था ।
प्राचीन चैत्य-भौतिक विज्ञान की अभिधाओं के पीछे हमारी सत्ता का एक बड़ा तथ्य और विधान रहता है कि इस भौतिक विकास-क्रम में हमारी सत्ता के रूप, चेतना और बल की चाहे जो भी अस्थायी स्थिति क्यों न हो उसके पीछे एक अधिक सच्ची और अधिक श्रेष्ठ सत्ता होनी चाहिये और होती है, जिसका एक बाहरी परिणाम और स्थूल रूप से अनुभव होनेवाला रूप है यह स्थिति । हमारे द्रव्य का अन्त स्थूल शरीर के साथ ही नहीं हो जाता, स्थूल शरीर तो केवल पार्थिव पादपीठ, पार्थिव आधार और भौतिक आरंभ-बिंदु है । जैसे हमारी जाग्रत् मानसिकता के पीछे चेतना के ऐसे क्षेत्र हैं जो उसके लिये अवचेतन और अतिचेतन हैं, जिनके बारे में हम कभी-कभी असामान्य रूप से अभिज्ञ हो उठते हैं, उसी तरह हमारी स्थूल भौतिक सत्ता के पीछे द्रव्य की अन्य सूक्ष्मतर श्रेणियां, सूक्ष्मतर नियम और अधिक सामर्थ्यवाली शक्तियां हैं जो अधिक घन शरीर को अवलम्ब देती हैं और जो उनकी चेतना के क्षेत्रों में प्रवेश करके उस विधान और शक्ति को हमारे घन जड़द्रव्य पर आरोपित कर सकतीं हैं और हमारे वर्तमान भौतिक जीवन की स्थूलता और सीमा-बंधनों, अन्तर्वेंगों और अभ्यासों की जगह सत्ता की अधिक शुद्ध, उच्च और तीव्र स्थितियों को रख सकती हैं । अगर ऐसा हो तो एक अधिक अभिजात भौतिक जीवन का विकास एक स्वप्न या 'ख' पुष्प का आभास नहीं रह जाता, ऐसे जीवन का जो पाशविक जन्म, जीवन और मृत्यु की, भरण-पोषण की कठिनता और अव्यवस्था और रोग की सुलभता की और तुच्छ, असन्तुष्ट प्राणिक लालसाओं की अधीनता की सामान्य अवस्थाओं से मुक्त हो, और तब यह तर्कसंगत, दार्शनिक सत्य पर आधारित एक ऐसी संभावना बन जाता है जो उस सबके अनुकूल होती है जो हमने अभीतक अपनी सत्ता के व्यक्त और गुप्त सत्य के बारे में जाना है, अनुभव किया है या जिसे हम सोच पाये हैं ।
युक्ति-युक्त ढंग से ऐसा ही होना भी चाहिये, क्योंकि हमारी सत्ता के तत्त्वों के अविच्छिन्न अनुक्रम और उनके घनिष्ठ परस्पर संबंध से यह बहुत स्पष्ट है कि यह असंभव है कि उनमें से एक कटा हुआ और अभिशप्त हो जब कि बाकी सब दिव्य मुक्ति के लिये समर्थ हों । मनुष्य का भौतिक से अतिमानसतक का आरोहण निश्चय ही इस संभावना का द्वार खोल देगा कि जो आध्यात्मिक या कारण शरीर हमारी अतिमानसिक सत्ता के लिये उपयुक्त हो उसकी ओर द्रव्य की भूमिकाओं में उसके अनुरूप एक आरोहण हो और अतिमानस द्वारा निम्नतर तत्त्वों पर विजय
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और उसके द्वारा उनका मुक्त होकर दिव्य जीवन और दिव्य मानस में पहुंचना निश्चय ही अतिमानसिक द्रव्य के तत्त्व और शक्ति द्वारा हमारी भौतिक सीमाओं पर विजय को संभव बना देगा । और इसका अर्थ है न केवल एक निर्बन्ध चेतना का, ऐसे मन और इन्द्रिय बोध का विकास जो शारीरिक अहं की दीवारों में बंद न हो या शारीरिक इन्द्रियों के दिये हुए ज्ञान के दरिद्र आधारतक सीमित न हो, बल्कि एक ऐसी प्राणशक्ति का विकास जो अपनी मर्त्य सीमाओं से अधिकाधिक मुक्त हो, एक ऐसे शारीरिक जीवन का विकास हो जो दिव्य निवासी के योग्य हो और यह हमारे वर्तमान शारीरिक निर्माण के प्रति आसक्ति या उसके बंधन के अर्थ में नहीं बल्कि भौतिक शरीर के नियम के अतिक्रमण के अर्थ में मृत्यु पर विजय हो, एक पार्थिव अमरता हो क्योंकि दिव्य आनंद से, सत्ता के मौलिक आनंद से अमरता के प्रभु उस आनंद की मदिरा को, रहस्यमय सोम को, इन सजीव मानसिकभावापन्न जड़द्रव्य के पात्रों में उड़ेलते आते हैं । शाश्वत और सुंदर प्रभु द्रव्य के कोषों में सत्ता और प्रकृति के पूर्ण रूपांतर के लिये प्रवेश करते हैं ।
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