दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय १७

 

ज्ञान की ओर प्रगति -

ईश्वर, मनुष्य और प्रकृति

 

त्त्वमसि श्वेतकेतो !

है श्वेतकेतु तू वह है !

छान्दोग्योपनिषद् ६.८.७

 

ब्रह्मैव जीवस्यकलं जगच्च... ।

जीव ब्रह्म को छोड़कर और कोई नहीं है, सारा जगत् ब्रह्म है ।

विवेकचूडामणि श्लोक ४७९

 

प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां... ययेदं धार्यते जगत् ।।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणि... ।।

 

मेरी परम प्रकृति ही जीव हो गयी है और वही इस जगत् को धारण

करती है... सभी सत्ताओं (भूतों) की उत्पत्ति का उद्गम यही है ।

गीता ७ - ५,६

 

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी

त्व जीर्णो दण्डेन वच्चसि...

नील: पतङ्गो हरितो लोहिताक्ष: ।।

 

तू ही पुरुष और स्त्री, कुमार और कुमारी है । जीर्ण-शीर्ण होकर तू

ही लाठी के सहारे चलता है; तू ही नील पक्षी, हरित पक्षी और

लाल आंखोवाला पक्षी है ।

श्वेताश्वेतरोपनिषद् ४ - ३,४

 

तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ।।

 

यह सारा जगत् ''तत्'' की अवयव-रूपी सत्ताओं से भरा है ।

श्वेताश्वेतरोपनिषद् ४ - १०

 

 

विकास का आरंभ-बिंदु है दिव्य सत् का, आध्यात्मिक सद्वस्तु का जड़ की दीखनेवाली निश्चेतना में निवर्तन । लेकिन वह सद्वस्तु स्वभावत: शाश्वत सत्, चित् और सत्ता का आनंद है; तो फिर विकास को इस सत् चित् आनंद का आविर्भाव होना चाहिये, पहले-पहल उसके 'सार या समय रूप में नहीं बल्कि उसे व्यक्त करनेवाले या छिपानेवाले विकसनशील रूपों में । निश्चेतना में से प्रथम विकसनशील रूप में सत् निश्रेतन ऊर्जा द्वारा बनाये गये जड़ पदार्थ के रूप में प्रकट होता है,                         

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जड़ पदार्थ में अंतर्लीन और अप्रत्यक्ष रूप चेतना पहले प्राणिक स्पंदनो के छद्मवेश में उभरती है जिसमें प्राण तो होता है परंतु अवचेतन, फिर सचेतन जीवन के अपूर्ण निरूपणों में वह उस जड़ पदार्थ के उत्तरोत्तर रूपों द्वारा आत्मान्वेषण के लिये प्रयास करती है -ऐसे रूपों द्वारा जो उसके पूर्णतर प्रकटन के साथ अधिकाधिक मेल खाते हों । जीवन में चेतना जड़ पदार्थ की निर्जीवता और अविद्या की आदिम असंवेदनशीलता को फेंककर अपने-आपको अधिकाधिक पूर्णता के साथ अज्ञान में पाने का प्रयास करती है जो उसका पहला अनिवार्य निरूपण है, लेकिन पहले वह स्व और वस्तुओं का एक प्राथमिक मानसिक प्रत्यक्ष-दर्शन और प्राणिक अभिज्ञता पाती है, एक ऐसा जीवन-दर्शन जो अपने प्रथम रूपों में एक ऐसे आंतरिक बोध पर निर्भर होता है जो अन्य प्राणों और भौतिक द्रव्य के संपर्कों के प्रति अनुक्रियाशील होता है । चेतना संवेदन की अपर्याप्तता के द्वारा अपने अंदर छिपे सत्ता के आनंद को जितना हो सके अच्छे-से-अच्छी तरह व्यक्त करने के लिये परिश्रम करती है लेकिन वह केवल आंशिक दुःख-सुख को ही निरूपित कर पाती है । मनुष्य के अंदर उभरती हुई चेतना ऐसे मन के रूप में प्रकट होती है जो अपने और वस्तुओं के बारे में अधिक स्पष्टता के साथ अभिज्ञ है; फिर भी यह उसका अपना आंशिक और सीमित सामर्थ्य होता है । वह उसकी अपनी पूर्ण शक्ति नहीं बल्कि पूर्ण आविर्भाव की प्रथम धारणात्मक सामर्थ्य और पूर्ण आविर्भाव का प्रथम आश्वासन दिखलायी देता है । वह पूर्ण आविर्भाव ही विकसनशील प्रकृति का लक्ष्य है ।

 

   मनुष्य अपने-आपको विश्व में प्रतिष्ठित करने के लिये है । यह उसका पहला काम है, लेकिन साथ ही उसे विकसित होना और अंत में अपना अतिक्रमण भी करना है । उसे अपनी आंशिक सत्ता को बढ़ाकर पूरी सत्ता बनाना है, अपनी आंशिक चेतना को बढ़ाकर पूर्ण चेतना बनाना है । उसे अपने परिवेश पर प्रभुता पानी है और साथ ही विश्व-ऐक्य और विश्व-सामंजस्य भी । उसे अपने व्यक्तित्व का अनुभव करना है पर साथ ही उसे वैश्व आत्मा में बढ़ाकर सत्ता के वैश्व और आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करना है । उसकी मानसिकता में जो कुछ धुंधला, भ्रांतिमय और अज्ञानमय है उस सबका परिमार्जन, शोधन और रूपांतर करना है । उसकी प्रकृति का स्पष्ट अभिप्राय है अंत में ज्ञान, इच्छा, संवेदन, कर्म और चरित्र के मुक्त और विस्तृत सामंजस्य तथा ज्योतिर्मयता की प्राप्ति । यही वह आदर्श है जिसे सृजनशील ऊर्जा ने उसकी बुद्धि पर आरोपित किया है, उसने इस आवश्यकता को उसके मानसिक और प्राणिक पदार्थ में रोप दिया है । लेकिन यह तभी हो सकता है जब मनुष्य विशालतर सत्ता, विशालतर चेतना में वर्द्धित हो : मनुष्य अपनी वास्तविक और प्रत्यक्ष प्रकृति में अंशतया तथा अस्थायी रूप से जैसा है उसमें से उसका उस ओर आत्मवर्द्धन, आत्म-परिपूर्ति, आत्म-विकास जैसा कि वह अपनी गुह्म आत्मा तथा अध्यात्म-सत्ता में पूर्णतया है और फलस्वरूप जैसा वह

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अपने अभिव्यक्त जीवन में भी हो सकता है । यही उसके सृजन का उद्देश्य है । यही आशा वैश्व व्यापार के बीच धरती पर उसके जीने का औचित्य है । बाह्य प्रतीयमान मनुष्य, क्षणभंगुर सत्ता, जो अपने भौतिक शरीर के निरोधों के अधीन और सीमित मानसिकता में बंद रहता है, उसे आंतरिक, वास्तविक मनुष्य बनना है जो स्वयं अपने और अपने परिवेश का स्वामी हो और अपनी सत्ता में वैश्व हो । अधिक स्पष्ट और कम तत्त्वज्ञानात्मक भाषा में कहें तो प्राकृत मनुष्य को अपने-आपको दिव्य मनुष्य में विकसित करना है । मृत्यु के पुत्रों को अपने-आपको अमृत-पुत्र के रूप में जानना है । इस आधार पर मानव जन्म को विकास में एक मोड़, पार्थिव प्रकृति में क्रांतिक पर्व कहा जा सकता है ।

 

   इसका तुरंत यह मतलब निकलता है कि हमें जिस ज्ञानतक पहुंचना है वह बुद्धि का सत्य नहीं है, वह हमारे अपने और वस्तुओं के बारे में ठीक विश्वास, ठीक मत, ठीक सूचना नहीं है -वह केवल ज्ञान के बारे में सतही मन का विचार है । भगवान् के, अपने और विश्व के बारे में किसी मानसिक धारणातक पहुंचना एक ऐसा उद्देश्य है जो बुद्धि के लिये तो अच्छा है परंतु आत्मा के लिये काफी बड़ा नहीं है । वह हमें अनंत के सचेतन पुत्र न बना सकेगा । प्राचीन भारतीय मनीषा का ज्ञान से मतलब होता था एसी चेतना जो प्रत्यक्ष दर्शन और आत्मानुभव में उच्चतम सत्य को अपने अधिकार में रखती है । हम जिस उच्चतम को जानते हैं वही होना, वही बन जाना इस बात का चिह्न है कि हमें वास्तव में ज्ञान प्राप्त है । इसी कारण हमारे व्यावहारिक जीवन को, हमारे कर्म को, हमारी सत्य या ऋत की बौद्धिक धारणाओं या किसी सफल व्यावहारिक ज्ञान के साथ जहांतक हो सके संयत रखते हुए गढ़ना -नैतिक या प्राणिक परिपूर्ति -न तो हमारे जीवन का चरम लक्ष्य हैं और न हो सकता है । हमारा लक्ष्य होना चाहिये अपनी सच्ची सत्ता में, अपनी आत्मा की सत्ता में, परम और वैश्व सच्चिदानंद में वृद्धि ।

 

   हमारा सारा अस्तित्व उस परम सत् पर निर्भर है, हमारे अंदर वही विकसित हो रहा है, हम उसी सत् की एक सत्ता, उसी चित् की चेतना की एक अवस्था, उसी सचेतन ऊर्जा की एक ऊर्जा, उसी आनंद से उत्पन्न सत्ता की एक आनंद-एषणा, चेतना का आनंद, ऊर्जा का आनंद हैं : यही हमारी सत्ता का मूल-तत्त्व है । लेकिन हमारा इन चीजों का सतही निरूपण वह नहीं है, वह अज्ञान की भाषा में गलत अनुवाद है । हमारा अहं वह आध्यात्मिक सत्ता नहीं है जो भागवत अस्तित्व की ओर देखकर कह सके, 'सोऽहमस्मि'; हमारी मानसिकता वह आध्यात्मिक चेतना नहीं है, हमारी इच्छा चेतना की वह शक्ति नहीं है, हमारे सुख-दुःख, यहांतक कि हमारे उच्चतम हर्ष और उल्लास भी सत्ता का वह आनंद नहीं हैं । सतह पर हम अब भी ऐसे अहं हैं जो आत्मा का रूप लिये हुए हैं; अज्ञान हैं जो ज्ञान में बदल रहा है, एक इच्छा हैं जो सच्ची शक्ति की ओर परिश्रम कर रही है, एक कामना हैं जो

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अस्तित्व के आनंद को खोज रही है । एक अर्ध-अंध द्रष्टा के अनुप्रेरित वचनों को प्रतिध्वनित करते हुए जिन्हें उस आत्म-स्वरूप का ज्ञान नहीं था जिसकी वह चर्चा कर रहे थे, हम कह सकते हैं कि अपना अतिक्रमण करके अपने-आप बनना वह दुष्कर और संकटपूर्ण अनिवार्यता है, अदृश्य मुकुट की प्राप्ति के पूर्व आनेवाली वह कृच्छ तपस्या है जिसके लिये हम बाधित हैं, मनुष्य की सत्ता के सच्चे स्वरूप की वह पहेली है जो मनुष्य के आगे नीचे से निश्चेतना की अंधेरी रहस्यमयी मूर्ति द्वारा और भीतर तथा ऊपर से अनंत चेतना और शाश्वत प्रज्ञा की ज्योतिर्मयीअवगुण्ठित रहस्यमयी मूर्ति द्वारा एक गुह्य दिव्य माया के रूप में उपस्थित की जाती है । अतः यहां पर हमारे जीवन का चरम अर्थ हैं अहंकार का अतिक्रमण करना और अपना सच्चा स्व बनना, अपनी सच्ची सत्ता के बारे में अभिज्ञ होना, उसपर अधिकार करना, सत्ता के वास्तविक आनंद पर अधिकार पाना; हमारे व्यष्टिगत और पार्थिव जीवन का यही छिपा हुआ अर्थ है ।

 

   बौद्धिक ज्ञान और व्यावहारिक कर्म -ये दो प्रकृति के साधन हैं जिनके द्वारा हम अपनी सत्ता, चेतना, ऊर्जा और भोग-शक्ति का उतना अंश प्रकट कर सकते हैं जितने को हम अपनी प्रतीयमान प्रकृति में रूपायित कर सके हैं और जिसके द्वारा हम उस बहुत कुछ को, जिसे हमें यथार्थ बनाना है, उसे अधिक जानने की, प्रकट करने की और अधिक यथार्थ बनाने की कोशिश करते और उसमें वर्धित होने की कोशिश करते हैं । लेकिन हमारी बुद्धि, हमारा मानसिक ज्ञान और क्रिया के लिये इच्छा ही हमारे एकमात्र साधन नहीं हैं, हमारी चेतना और ऊर्जा के सारे उपकरण नहीं हैं । हमारी प्रकृति, यह नाम हम अपने अंदर सत्ता की उस शक्ति का देते हैं जो अपनी क्रीड़ा और शक्ति में हमारे अंदर यथार्थ और संभाव्य है, यह प्रकृति अपनी चेतना की व्यवस्था में जटिल है, शक्ति-विन्यास में जटिल है । यह आवश्यक है कि उस जटिलता के हर एक आविष्कृत और आविष्कृत किये जा सकनेवाले पद और परिस्थिति को, जिसे हम काम-लायक व्यवस्था में ला सकते हैं, उसे अपने लिये यथासंभव उच्चतम और श्रेष्ठतम मूल्यों में कार्यान्वित करें, उसकी विशालतम और समृद्धतम शक्तियों का उस एक उद्देश्य के लिये उपयोग करें । वह उद्देश्य है आत्म-संभूति, सचेतन होना, अपनी उपलब्ध सत्ता में और अपनी तथा वस्तुओं की उपलब्ध अभिज्ञता में निरंतर बढ़ना, सत्ता की यथार्थ बनी हुई शक्ति और सत्ता के यथार्थ बने आनंद में बढ़ना और उस संभूति को जगत् पर और अपने-आप पर क्रियाशील रीति से इस तरह क्रिया में प्रकट करना कि हम और वह (जगत्) सार्वभौमिकता और अनंतता के उच्चतम संभव शिखर की ओर, विशालतम संभव प्रसार की ओर, अधिक और सदा अधिकाधिक बढ़ते चलें ।- मनुष्य के युग-युग से चले आये प्रयास, उसके कर्म, समाज, कला, नीति, विज्ञान, धर्म की सभी बहुविध क्रियाएं जिनके द्वारा वह अपनी मानसिक, प्राणिक, भौतिक,

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आध्यात्मिक सत्ता को प्रकट करता और बढ़ाता है, प्रकृति के इस प्रयास के विशाल नाटक में आनेवाले उपाख्यान हैं और उनके सीमित प्रतीयमान लक्ष्यों के पीछे कोई और सच्चा भाव या आधार नहीं है । प्राचीन वैदिक ऋषियों का ज्ञान से यहीं मतलब था कि व्यक्ति दिव्य सार्वभौमिकता और परम अनंततातक पहुंच जाये, उसमें निवास करे, उस पर अधिकार करे, केवल वही हो, अपनी सारी सत्ता में चेतना, ऊर्जा, सत्ता के आनंद में उसीको जाने, अनुभव करे और व्यक्त करे । यही वह अमरता है जिसे उन्होंने मनुष्य के आगे उसके दिव्य परमोत्कर्ष के रूप में रखा ।

 

   लेकिन अपनी मानसिकता की प्रकृति के कारण, अपनी ओर अंतर्मुखी और जगत् पर बहिर्मुखी दृष्टि के कारण, दोनों में इन्द्रिय और शरीर द्वारा सापेक्ष, स्पष्ट और प्रतीयमान में अपने मूल सीमायन के कारण मनुष्य इस विशाल विकसनशील गति में, पहले प्रकाशहीन और अज्ञानभरे ढंग से, एक-एक कदम करके चलने को बाधित होता है । उसके लिये यह संभव नहीं है कि पहले से ही सत्ता को उसके पूर्ण ऐक्य में देख ले । वह अपने-आपको उसके आगे विभिन्नता द्वारा प्रस्तुत करती है और उसकी ज्ञान की खोज तीन मुख्य श्रेणियों में तल्लीन रहती है जिनमें उसके लिये सारी विभिन्नता समा जाती है : वह स्वयं अर्थात् मनुष्य या व्यष्टिगत अंतरात्मा, भगवान् और प्रकृति । वह अपनी साधारण अज्ञानमय सत्ता में केवल पहली के बारे में ही प्रत्यक्ष रूप से अभिज्ञ होता है; वह अपने-आपको, व्यष्टि को देखता है जो यूं देखने में अपनी सत्ता में अलग है फिर भी बाकी सत्ता से अलग नहीं हो सकता, जो सदा पर्याप्त होने की कोशिश करता है फिर भी अपने लिये अपर्याप्त ही रहता है क्योंकि यह कभी नहीं जाना गया कि वह बाकी से अलग, उनकी सहायता के बिना, विश्व-सत्ता और विश्व-प्रकृति से स्वतंत्र रूप में जीवन में आया हो, जीवन में रहता या उसमें परम परिणति पाता हो । दूसरी वह है जिसे वह अपने मन और शारीरिक इन्द्रियों द्वारा और उनपर उसके प्रभाव द्वारा परोक्ष रूप से जानता है फिर भी जिसे अधिकाधिक पूर्ण रूप से जानने के लिये उसे प्रयास करना चाहिये । क्योंकि वह सत्ता के इस शेष को भी देखता है जिसके साथ वह नजदीक से संबंध रखते हुए भी इतना अलग है -विश्व, जगतू प्रकृति, अन्य व्यष्टिगत सत्ताएं जिन्हें वह हमेशा अपने जैसा फिर भी अपने से भिन्न देखता है क्योंकि वे प्रकृति में वनस्पति और पशु के साथ भी एक ही हैं और फिर भी प्रकृति में भिन्न हैं । हर एक अपने रास्ते जाता हुआ मालूम होता है, हर एक अलग सत्ता मालूम होता है फिर भी हर एक एक ही गति से प्रेरित होता है और अपनी-अपनी श्रेणी में विकास के उसी विशाल घुमाव का अनुसरण करता है जो उसका अपना है । और अंत में वह कोई ऐसी चीज देखता या उसका अनुमान करता है जिसके बारे में वह एकदम परोक्ष रूप के सिवा किसी और तरह से नहीं जानता; क्योंकि वह उसे केवल अपने द्वारा और उसके द्वारा जानता है जो उसकी सत्ता का लक्ष्य है, जगत् के द्वारा और

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उसके द्वारा जानता है जिसकी ओर जगत् निर्देश करता मालूम होता है और जिसतक पहुंचने और जिसे अपनी अपूर्ण आकृतियों से व्यक्त करने का वह धुंधला-सा प्रयास करता है या कम-से-कम उसे जाने बिना, उन्हें अदृश्य सद्वस्तु और गुह्य अनन्तता के साथ गुप्त संबंध पर प्रतिष्ठित करता है ।

 

   इस तीसरी और अज्ञात चीज, उभयेतर वस्तु को वह भगवान् कहता है और इस शब्द से उसका मतलब होता है ऐसा कुछ या कोई जो परम हो, दिव्य हो, सर्वकारण हो, सर्व हो, इनमें से कोई एक या ये सब एक साथ हो, वह यहां जो कुछ आंशिक या अपूर्ण है उसकी पूर्णता या समग्रता है, इन सभी विभिन्न सापेक्षताओं का निरपेक्ष है । वह ऐसा अज्ञात है जिसे जानने से ज्ञात का सच्चा रहस्य ज्यादा बोधगम्य होने लगता है । मनुष्य ने इन सभी श्रेणियों को नकारने की कोशिश की है -उसने अपने वास्तविक अस्तित्व से इंकार करने की कोशिश की है, उसने विश्व के वास्तविक अस्तित्व से इंकार करने की कोशिश की है, उसने भगवान् के वास्तविक अस्तित्व से इंकार करने की कोशिश की है । लेकिन इन सभी नकारों के पीछे हमें ज्ञान के लिये उसके प्रयास की वही सतत आवश्यकता दिखलायी देती है क्योंकि वह इन तीनों पदों में ऐक्यतक पहुंचने की आवश्यकता को अनुभव करता है, चाहे वह उनमें से किन्हीं दो को दबाने या बचे हुए एक के साथ मिला देने से ही किया जा सके । ऐसा करने के लिये वह अपने-आपको ही कारण-रूप में प्रतिष्ठित करता है और बाकी सबको अपने मन की रचना मानता है या वह केवल प्रकृति को ही मानता है और बाकी सबको प्रकृति-ऊर्जा के व्यापार के सिवा कुछ नहीं मानता; या फिर वह केवल भगवान् निरपेक्ष को मानता है और बाकी सबको भ्रांति जिसे तत् अपने ऊपर या हमपर किसी अव्याख्येय माया के द्वारा आरोपित करता है । इनमें से कोई भी न-कार पूरी तरह संतोष नहीं दे पाता । कोई भी पूरी समस्या को हल नहीं कर पाता और न ही कोई निश्चित और निर्विवाद हो सकता है- और वह तो हर्गिज नहीं जिसकी ओर उसकी इन्द्रियों द्वारा शासित बुद्धि बहुत अधिक प्रवृत्त है लेकिन जिसमें बुद्धि अधिक समयतक नहीं टिक सकती । भगवान् को नकारना उसकी अपनी सच्ची खोज को, अपने ही परम पद को नकारना है । प्रकृतिवादी नास्तिकता के युग हमेशा छोटे रहे हैं क्योंकि वे कभी मनुष्य के अंदर गुह्य ज्ञान को संतुष्ट नहीं कर सकते । वह अंतिम वेद नहीं हो सकता क्योंकि वह भीतरी वेद के साथ मेल नहीं खाता जिसे बाहर निकालने के लिये सभी मानसिक ज्ञान प्रयास कर रहे हैं । जिस क्षण मेल न बैठने का अनुभव होता है उसी क्षण उस समाधान का, वह चाहे जितना कौशलपूर्ण और तर्क-संगत और पूर्ण क्यों न हो, फिर भी मनुष्य के अंदर स्थित शाश्वत साक्षी ने उसका फैसला दे दिया है और वह अभिशप्त है । वह ज्ञान का अंतिम शब्द नहीं हो सकता ।

 

   मनुष्य, जैसा कि वह है, अपने लिये पर्याप्त नहीं है, वह अलग नहीं है, न वह

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शाश्वत और सर्व है इसलिये वह अपने-आपमें विश्व की व्याख्या नहीं हो सकता । उसके मन, प्राण और शरीर स्पष्ट रूप से विश्व के अत्यणु गौण अंग हैं । वह देखता है कि दृश्य विश्व भी अपने लिये पर्याप्त नहीं है और न ही वह अदृश्य जड़-शक्तियों द्वारा अपनी व्याख्या कर सकता है क्योंकि वह देखता है कि स्वयं उसमें और जगत् में ऐसा बहुत कुछ है जो उनके परे है और जिसके वे केवल अग्रभाग, त्वचा, बल्कि मुखौटे दीखते हैं । न तो उसकी बुद्धि, न उसके अंतर्भास और न उसके भाव उस एक या एकत्व के बिना रह सकते हैं जिसके साथ ये वैश्व शक्तियां या वह स्वयं कोई संबंध रखता हो जो उन्हें सहारा देता और सार्थकता प्रदान करता है । वह अनुभव करता है कि एक अनंत होना चाहिये जो इन सांतों को धारण करता है, जो समस्त दृश्य विश्व के भीतर, पीछे और चारों ओर है, जो बहुविध वस्तुओं के सामंजस्य और पारस्परिक संबंध और तात्त्विक एकत्व को आधार देता है । उसके विचार को एक निरपेक्ष की जरूरत है जिसपर ये अनगिनत और सांत सापेक्षताएं अपने अस्तित्व के लिये निर्भर हैं; वस्तुओं का परम सत्य, एक सृजनात्मक शक्ति, सामर्थ्य या सत्ता जो विश्व में अनगिनत सत्ताओं को उत्पन्न करती और बनाये रखती है । वह उसे जो मरजी नाम दे ले, उसे एक परम, एक ईश्वर, एक कारण, एक अनंत, एक शाश्वत, एक स्थायी, एक पूर्णतातक पहुंचना होगा जिसकी ओर सभी प्रवृत्त होते और अभीप्सा करते हैं, या फिर एक सर्वतक जिसके प्रति प्रत्येक वस्तु अदृश्य और चिरस्थायी रूप से बढ़ती है और जिसके बिना ये वस्तुएं हो ही न पातीं ।

 

   लेकिन वास्तव में वह इस निरपेक्ष को भी, बाकी दो श्रेणियों से अलग कर अपने-आपमें प्रतिष्ठित नहीं कर सकता क्योंकि तब, यहां उसके सामने हल करने के लिये जो समस्या है, वह उससे उग्र छलांग लगाकर दूर हो जाता है और स्वयं वह और यह विश्व एक उद्देश्यहीन रहस्य या एक ऐसी पहेली बने रहते हैं जिसे बूझा नहीं जा सकता । ऐसे समाधान से उसकी बुद्धि के एक भाग और उसकी विश्राम की चाह को राजी किया जा सकता है, जैसे उसकी भौतिक बुद्धि ''परे'' को नकारने और जड़-प्रकृति को देवता बना देने से आसानी से संतुष्ट हो जाती है । लेकिन उसका हृदय, उसकी इच्छा -जो सत्ता के सबसे अधिक बलवान् और तीव्र भाग हैं -निरर्थक, किसी प्रयोजन या औचित्य से वंचित रह जाते हैं या शुद्ध सत् के शाश्वत विश्राम के आगे या विश्व की शाश्वत निश्चेतना के बीच मात्र एक निरुद्देश्य मूर्खता बन जाते हैं जो व्यर्थ, बेचैन छाया की तरह अपने-आपको विक्षुब्ध करती है । रही बात विश्व की, वह एक सावधानी से निर्मित अनंत के झूठ, विकराल रूप से आक्रामक और फिर भी वास्तव में अस्तित्वहीन विशृंखलता, एक कष्टदायक दुःखद विरोधाभास का अनोखा स्वरूप बना रहता है जिसमें आश्चर्य, सौंदर्य और आनंद का झूठा दिखावा होता है । या फिर यह अंधी संगठित ऊर्जा की विशाल निरर्थक क्रीड़ा है और उसकी अपनी सत्ता कुछ समय के लिये

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घटनेवाली संक्षिप्त-सी असंगति है जो दुर्बोध्य रूप से उस संवेदनहीन विशालता में बार-बार घटती है । इस मार्ग में, उस चेतना, उस ऊर्जा के लिये कोई संतोषजनक परिपूर्ति नहीं मिल सकती जिसने अपने-आपको जगत् में और मनुष्य में अभिव्यक्त किया है । मन को कोई ऐसी चीज पाने की जरूरत है जो इन सबको आपस में जोड़ती है, कोई ऐसी चीज जिससे मनुष्य के अंदर प्रकृति की और प्रकृति की मनुष्य में परिपूर्ति होती है और दोनों अपने-आपको भगवान् में पाते हैं क्योंकि अंतत: भगवान् मनुष्य और प्रकृति दोनों में स्वतः अभिव्यक्त होते हैं ।

 

   इन तीनों श्रेणियों के एकत्व की स्वीकृति और उनका प्रत्यक्ष दर्शन परम ज्ञान के लिये जरूरी है । व्यष्टि की वृद्धि पाती हुई आत्म-चेतना को इनके एकत्व और इनकी समग्रता की दिशा में खुलना चाहिये और अगर उसे अपने-आपसे संतुष्ट और संपूर्ण होना है तो उसे उनतक पहुंचना ही होगा । क्योंकि एकत्व के ज्ञान के बिना इन तीनों में से किसी का ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता, उनका एकत्व उनमें से हर एक की अपनी समग्रता के लिये एक शर्त है । और फिर हर एक को उसकी पूर्णता में जानकर तीनों हमारी चेतना में मिलते हैं और एक हो जाते हैं । संपूर्ण ज्ञान में सब कुछ जानना एक और अविभाज्य हो जाता है, अन्यथा केवल विभाजन और तीसरे से दो को अलग करके ही हम किसी तरह के एकत्वतक पहुंच सकते हैं । अतः मनुष्य को अपने आत्म-ज्ञान, अपने जगत्-ज्ञान और अपने ईश्वर-ज्ञान को इतना बढ़ाना होगा कि वह उनकी समग्रता में उनके पारस्परिक अंतर्निवास और एकत्व के बारे में अभिज्ञ हो जाये क्योंकि जबतक वह उन्हें अंशों में ही जानेगा तबतक अपूर्णता रहेगी जिसका परिणाम होता है विभाजन और जबतक उसने समन्वयकारी एकत्व में उनका अनुभव नहीं किया तबतक न तो वह उनके संपूर्ण सत्य को जान पायेगा न सत्ता के आधारभूत अर्थों को ।

 

   इसका यह मतलब नहीं है कि 'परम' स्वयंभू और स्वयंपूर्ण नहीं है । भगवान् अपने अंदर निवास करते हैं न कि विश्व या मनुष्य के बलपर, जब कि मनुष्य और जगत् भगवान् के सहारे रहते हैं, अपने बलपर नहीं । जहां उनकी सत्ता भगवान् की सत्ता के साथ एक है वहींतक वे अपने सहारे हैं । फिर भी वे भगवान् की शक्ति के आविर्भाव हैं और भगवान् की शाश्वत सत्ता में भी उनकी आध्यात्मिक वास्तविकता को किसी-न-किसी तरह उपस्थित या अन्तस्थ होना चाहिये अन्यथा उनकी अभिव्यक्ति की कोई संभावना न होगी और अगर वे अभिव्यक्त हुए भी तो उनका कोई अर्थ न होगा । यहां जो मनुष्य दिखायी देता है वह भगवान् की व्यष्टिगत सत्ता है । बहुलता में विस्तारित भगवान् ही सभी व्यक्तिगत सत्ताओं की आत्मा हैं - एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा (कठोपनिषद् २. २. १२) । और फिर मनुष्य आत्मा और जगत् के ज्ञान के द्वारा भगवान् के ज्ञानतक पहुंचता है, वह और किसी भी तरह से उसे नहीं पा सकता । भगवान् की अभिव्यक्ति को अस्वीकार

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करके नहीं बल्कि उसके बारे में स्वयं अपने अज्ञान और अपने अज्ञान के परिणामों को अस्वीकार करके मनुष्य सबसे अच्छी तरह अपनी सारी सत्ता, चेतना और ऊर्जा और सत्ता के आनंद को ऊपर उठाकर दिव्य सत्ता को अर्पित कर सकता हैं । वह यह स्वयं अपने द्वारा, एक अभिव्यक्ति द्वारा या विश्व द्वारा अर्थात् दूसरी अभिव्यक्ति द्वारा कर सकता है । केवल अपने द्वारा पहुंचकर उसके लिये यह संभव है कि वह अनिर्वचनीय में, एक व्यष्टिगत विलय या तल्लीनता में डुबकी लगाकर विश्व को खो दे । और केवल विश्व के द्वारा आकर वह अपने व्यक्तित्व को या तो वैश्व सत्ता के ।निर्वैक्तित्व में या वैश्व चित्-शक्ति की गतिशील आत्मा में डुबा सकता है । वह या तो वैश्व आत्मा के साथ एक हो जाता है या वैश्व ऊर्जा की निर्वैयक्तिक वाहिनी बन जाता है । दोनों के द्वारा उनकी समान पूर्णता से पहुंचता हुआ, उनके द्वारा और उनके परे भगवान् के सभी पक्षों को पकड़ता हुआ वह दोनों के परे हो जाता है और उस अतिक्रमण द्वारा दोनों की परिपूर्ति कर देता है । वह भगवान् को अपनी सत्ता में उसी तरह अधिकार में रखता है जैसे स्वयं वह भागवत सत्ता, चेतना, प्रकाश, शक्ति, आनंद और ज्ञान से घिरा हुआ, भिदा हुआ, व्याप्त और अधिकृत रहता है । वह भगवान् को अपने अंदर और विश्व के अंदर अधिकृत रखता है । सर्वज्ञान मनुष्य के आगे स्वयं मनुष्य के सृजन का औचित्य और सर्वज्ञान की अपने बनाये जगत् की सृष्टि मनुष्य की पूर्णता-प्राप्ति से कैसे सार्थक होती है इसके औचित्य को सिद्ध करता है । यह सब अतिमानसिक और परम पराप्रकृति में आरोहण और उसकी शक्तियों का अभिव्यक्ति में अवरोहण द्वारा पूरी तरह वास्तविक और प्रभावकारी बन जाता है । लेकिन जब उस चरम-बिंदुतक पहुंचना कठिन और सुदूर हो तब भी मन-प्राण-शरीरमय प्रकृति में आध्यात्मिक प्रतिबिंबन और ग्रहण द्वारा सच्चा ज्ञान आत्मनिष्ठ रूप से वास्तविक बनाया जा सकता है ।

 

   लेकिन इस आध्यात्मिक सत्य और उसकी सत्ता के सच्चे लक्ष्य को काफी यात्रा होनेतक प्रकट नहीं होने दिया जाता; क्योंकि प्रकृति के विकसनशील चरणों में मनुष्य की प्रारंभिक तैयारी का काम है अपने निजी व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करना, उसे स्पष्ट और समृद्ध बनाना, उसे सशक्त और दृढ़ रूप से तथा पूरी तरह अधिकृत करना । परिणामस्वरूप पहले उसे मुख्य रूप से अपने अहंकार के साथ ही लगा रहना पड़ता है । अपने विकास की इस अहंकारमय अवस्था में मनुष्य के लिये जगत् तथा अन्य, वह अपने लिये जितना महत्त्वपूर्ण है उससे कम महत्त्वपूर्ण होते हैं, वस्तुत: वे उसके आत्म-प्रतिष्ठापन के लिये केवल सहायता तथा अवसर के रूप में महत्त्वपूर्ण होते हैं । इस अवस्था में भगवान् भी उसके लिये अपनी तुलना में कम महत्त्वपूर्ण होते हैं इसलिये शुरू के रूपायनों में धार्मिक विकास के निचले स्तरों पर भगवान् या देवों के साथ यूं व्यवहार किया जाता है मानों वे मनुष्य के लिये ही अस्तित्व रखते हों, उसकी कामनाओं की तुष्टि के लिये सर्वोत्कृष्ट यंत्र हों, वह जिस

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जगत् में रहता है उसमें उसकी आवश्यकताएं, चाहें और महत्त्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिये सहायक हों । इस प्राथमिक अहंकारमय विकास को, अपने समस्त पापों, उग्रताओं और अपरिपक्यताओं के बावजूद, अपने स्थान पर, किसी भी हालत में अशुभ या प्रकृति की भ्रांति नहीं माना जा सकता । यह आवश्यक है मनुष्य के प्रथम कार्य के लिये, यानी अपने व्यक्तित्व की खोज और निम्न अवचेतना से उसके पूर्ण अलगाव के लिये जिसमें व्यक्ति जगत् की सामुदायिक चेतना से अभिभूत और प्रकृति की यांत्रिक क्रियाओं के पूरी तरह आधीन रहता है । मानव व्यष्टि को प्रकृति के विरुद्ध अपने व्यक्तित्व को अलग और प्रतिष्ठित करना होता है, सशक्त रूप से अपने-आप होना, ज्ञान, शक्ति और भोग की अपनी सभी मानव क्षमताओं को विकसित करना होता है ताकि वह उन्हें प्रकृति और जगत् पर अधिकाधिक प्रभुत्व और शक्ति के साथ मोड़ सके । उसका आत्म-विवेक करनेवाला अहंकार उसे इसी प्राथमिक उद्देश्य के लिये दिया गया है । जबतक कि वह अपने व्यक्तित्व और वैयक्तिकता, अपनी पृथक् क्षमता को विकसित न कर ले तबतक वह उस महान् कार्य के योग्य नहीं हो सकता जो उसके सामने है और न ही सफलता के साथ अपनी क्षमताओं को उच्चतर, विशालतर और अधिक दिव्य लक्ष्यों की ओर मोड़ सकता है । वह अपने-आपको ज्ञान में पूर्ण कर सके उससे पहले उसे अपने-आपको अज्ञान में प्रतिष्ठित करना होता है ।

 

   क्योंकि निश्चेतना में से विकसनशील आविर्भाव का आरंभ दो शक्तियों द्वारा काम करता है, एक गुप्त वैश्व चेतना और एक व्यक्तिगत चेतना जो सतह पर अभिव्यक्त होती है । गुप्त वैश्व चेतना सतही व्यक्ति के लिये गुप्त और अन्तस्तलीय रहती है । वह पृथक् वस्तुओं और व्यक्तियों के सृजन द्वारा अपने-आपको सतह पर व्यवस्थित करती है । लेकिन जब कि वह पृथक् वस्तु और व्यक्ति के शरीर तथा मन की व्यवस्था करती है वहां, साथ ही चेतना की सामूहिक शक्तियों का सृजन भी करती है जो वैश्व प्रकृति के महान् आत्मनिष्ठ रूपायण होते हैं लेकिन वह उनके लिये संगठित मन और शरीर की व्यवस्था नहीं करती । वह उन्हें व्यष्टियों के समुदाय पर आधारित रखती है, वह एक सामुदायिक मन, बदलता हुआ किन्तु अविच्छिन्न सामुदायिक शरीर विकसित करती है । इसका मतलब यह होता है कि जैसे-जैसे व्यष्टि अधिकाधिक सचेतन होते जाएं वैसे ही सामुदायिक सत्ता भी अधिक सचेतन हो सकती है । सामूहिक सत्ता की बाहरी शक्ति और विस्तार से भिन्न, भीतरी वृद्धि के लिये व्यक्ति की वृद्धि अनिवार्य साधन है । व्यष्टि का वस्तुतः यह द्विविध महत्त है कि उसके द्वारा वैश्व आत्मा अपनी सामूहिक इकाइयां संगठित करती और उन्हें आत्माभिव्यंजक और प्रगतिशील बनाती और उसी के द्वारा वह प्रकृति को निश्चेतना से अतिचेतनातक उठाती और परात्पर से मिलने के लिये उन्नीत करती है । जनसाधारण में सामूहिक चेतना निश्चेतना के निकट होती है । उसमें एक

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अवचेतना, एक धुंधली, मूक गति होती है जिसे अपने-आपको अभिव्यक्त करने, प्रकाश में लाने और प्रभावी होने के लिये और व्यवस्थित करने के लिये व्यक्ति की जरूरत होती है । जन-चेतना अपने-आपमें एक अस्पष्ट, अर्द्ध-निर्मित या अनिर्मित अंतस्तलीय और सामान्यतः अवचेतन अंतर्वेग द्वारा गति करती है जो बाहरी सतह की ओर उठता है । वह अंधी या आधा देखनेवाली सर्व-सम्मति की ओर प्रवृत्त होती है जो सामान्य गति में व्यक्ति को दबा देती है । अगर वह सोचती भी है तो आदर्श-वाक्य, नारे, किसी दल-सिद्धांत, किसी सामान्य अपरिमार्जित या गठित भाव, किसी परंपरा से चली आयी स्वीकृत रीति के अनुसार भावना द्वारा ही । वह कर्म करती है और जब वह सहजवृत्ति या अंतर्वेग के कारण न हो तो झुंड के नियम के अनुसार, भेड़ियाधसान वृत्ति या जातीय नियम के अनुसार होता है । यह जन-चेतना, प्राण, कर्म तब असाधारण रूप से प्रभावशाली हो सकते हैं जब वह एक या कुछ ऐसे बलशाली व्यक्तियों को पा ले जो उसे मूर्त रूप दे सकें, अभिव्यक्त, संगठित और निर्देशित कर सकें । उसकी अचानक होनेवाली सामूहिक गतियां कुछ समय के लिये हिम-स्खलन या तूफान के वेग की तरह अप्रतिरोध्य हो सकती हैं । जन-चेतना के अंदर व्यक्ति का दमन या उसकी पूर्ण अधीनता किसी राष्ट्र या जाति को व्यावहारिक क्षमता दे सकती है अगर अंतस्तलीय सामुदायिक सत्ता एक बाध्यकारी परंपरा बना ले या किसी ऐसे दल, वर्ग या अध्यक्ष को खोज ले जो उसकी आत्मा और दिशा को मूर्त रूप दे सके । शक्तिशाली सैनिक राज्यों की शक्ति के पीछे, व्यक्तियों पर तनावभरे और कठोर जीवन की संस्कृति को कठोरता से लादनेवाले समुदायों की शक्ति के पीछे, महान् विश्व-विजेताओं की सफलता के पीछे प्रकृति का यहीं रहस्य था । लेकिन यह दक्षता बाहरी जीवन की होती है और यह जीवन उच्चतम या हमारी सत्ता का परम पद नहीं है । हमारे अंदर मन है, अंतरात्मा और आत्मा है और हमारे जीवन का कोई सच्चा मूल्य नहीं यदि उसमें बढ़ती हुई चेतना, विकसनशील मन न हो और यदि प्राण और मन अंतरात्मा की, अंदर निवास करनेवाली आत्मा की मुक्ति और परिपूर्णता की अभिव्यक्ति, यंत्र और साधन न हों ।

 

   लेकिन मन की प्रगति, अंतरात्मा की वृद्धि, समुदाय के मन और अंतरात्मा की प्रगति तथा वृद्धि भी व्यक्ति पर, उसकी पर्याप्त स्वतंत्रता और स्वाधीनता पर, जन-समूह में अभीतक जो अनभिव्यक्त है, जो अवचेतन में से अविकसित है या जिसे अंदर से बाहर नहीं लाया गया है या अतिचेतन में से नीचे नहीं उतारा गया है, उसे व्यक्त करने और सत्ता में लाने की उसकी पृथक् शक्ति पर निर्भर है । समुदाय एक पिंड, रूपायण का एक क्षेत्र है और व्यक्ति सत्य को खोजनेवाला, रूप देनेवाला, स्रष्टा है । भीड़ में व्यक्ति अपनी आंतरिक दिशा खो बैठता है और जनसाधारण के शरीर का एक कोषाणु बन जाता है जिसे सामुदायिक इच्छा, भाव या जन-संवेग

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गति देता है । उसे अलग खड़ा होना, अपनी अलग वास्तविकता को समग्र में प्रतिष्ठित करना होता है । उसका अपना मन सामान्य मानसिकता में से ऊपर उभरता है, उसका प्राण सार्वजनिक प्राण-एकरूपता के बीच से अलग रूप दिखाता है जैसे उसके शरीर ने सार्वजनिक शारीरिकता में कुछ अनोखी और अलग पहचानी जानेवाली चीज विकसित कर ली है । और अंत में उसे स्वयं अपने अंदर निवृत्त होना पड़ता है ताकि वह अपने-आपको पा सके, और जब वह अपने-आपको पा ले केवल तभी यह संभव हो सकता है कि वह सबके साथ आध्यात्मिक रूप से एक हो जाये । अगर वह उस ऐक्य को मन में, प्राण में, भौतिक में प्राप्त करना चाहे और उसमें काफी मजबूत व्यक्तित्व न हो तो वह जनचेतना से अभिभूत हो सकता है और अपनी आत्मा की परिपूर्ति, मन की परिपूर्ति, प्राण की परिपूर्ति को खोकर समूहगत शरीर का कोषाणु मात्र बन सकता है । तब सामुदायिक सत्ता मजबूत और प्रधान बन सकती है लेकिन संभव है कि वह अपनी नमनीयता, अपनी विकसनशील गति खो बैठे । मानव जाति के महान् विकसनशील युग उन जातियों में आये हैं जहां व्यक्ति सक्रिय बने हैं, मानसिक, प्राणिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सजीव बने हैं । प्रकृति ने अहंकार का इसीलिये अन्वेषण किया है ताकि व्यक्ति अपने-आपको निश्चेतना या जनसमूह की अवचेतना से अलग कर सके और एक स्वतंत्र जीवन्त मन, प्राण-शक्ति, अंतरात्मा, आत्मा बन जाये, अपने चारों ओर के जगत् के साथ अपने-आपको सहयोजित करे पर वह जगत् में डूब न जाये और उसका पृथक् अस्तित्व या प्रभाव न रहे क्योंकि वस्तुत: व्यक्ति वैश्व सत्ता का एक अंश है, लेकिन वह कुछ और भी है । वह एक अंतरात्मा है जो परात्पर से उतरी है । इसे वह एकदम प्रकट नहीं कर सकता क्योंकि वह वैश्व निश्चेतना के बहुत नजदीक है; मौलिक अतिचेतना के काफी नजदीक नहीं । उसे अपने-आपको अंतरात्मा या आत्मा के रूप में जानने से पहले अपने-आपको मानसिक और प्राणिक अहंकार के रूप में जानना होगा ।

 

   फिर भी अपने अहंकारात्मक व्यक्तित्व को पा लेना ही अपने-आपको जानना नहीं है; सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति मानसिक अहं, प्राणिक अहं या शारीरिक अहं नहीं है । प्रधान रूप से यह पहली गति, इच्छा, शक्ति और अहंकारमय आत्म-संपादन का कार्य है, ज्ञान का तो गौण रूप से ही है । अत: एक ऐसा समय आना चाहिये जब मनुष्य को अपनी अहंकारात्मक सत्ता की अंधेरी सतह के नीचे देखना होगा और अपने-आपको जानने का प्रयास करना होगा । उसे वास्तविक मनुष्य को पाने के लिये चल पड़ना होगा । उसके बिना वह प्रकृति की प्राथमिक शिक्षा में ही रुक जायेगा और कभी उसकी विशालतर और गहनतर शिक्षातक न पहुंच पायेगा । उसका व्यावहारिक ज्ञान और दक्षता चाहे जितनी अधिक क्यों न हो, वह पशु से बस जस ही ऊंचा होगा । पहले उसे अपनी नजर अपने मनोविज्ञान पर डालनी होगी

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और उसके स्वाभाविक तत्त्वों -अहं, मन और उसके यंत्र, प्राण और शरीर -को अलग-अलग जानना होगा, यहांतक कि उसे पता चले कि उसकी सारी सत्ता को एक ऐसी व्याख्या की जरूरत है जो प्राकृतिक तत्त्वों की क्रिया से भिन्न हो, अपने क्रिया-कलाप के लिये अहंकारभरे आत्म-प्रतिष्ठापन और संतोष से भिन्न कोई लक्ष्य हो । वह इसकी खोज प्रकृति और मानव जाति में कर सकता और इस तरह बाकी जगत् के साथ अपने एकत्व की खोज की दिशा में चल सकता है । वह अतिप्रकृति में, भगवान् में इसे खोज सकता और इस तरह भगवान् के साथ एकत्व की खोज की दिशा में चल सकता है । व्यावहारिक रूप में वह दोनों मार्गों पर कोशिश करता है और सदा डगमगाते हुए अपने-आपको उत्तरोत्तर आनेवाले उन समाधानों पर सतत रूप से स्थिर करने की कोशिश करता है जो उसकी उन विभिन्न आंशिक खोजों के सबसे अधिक अनुकूल हैं जिन्हें उसने खोज और आविष्कार के दोहरे मार्ग पर पाया है ।

 

   लेकिन इस सबके बीच जो वह इस अवस्था में है, वह अपने-आपको खोजने, जानने और परिपूरित करने में लगा रहता है । उसका प्रकृति का ज्ञान, उसका भगवान् का ज्ञान, आत्म-ज्ञान की ओर, अपनी सत्ता की पूर्णता की ओर, वैयक्तिक आत्म-सत्ता के परम उद्देश्य की प्राप्ति की ओर सहायक भर हैं । प्रकृति और विश्व की ओर अभिमुख होकर उसका वह प्रयास मानसिक और प्राणिक भाव में, आत्म-ज्ञान और आत्म-प्रभुत्व का और जगत्-प्रभुत्व का रूप धारण कर सकता है जिसमें हम अपने-आपको पाते हैं । भगवान् की ओर अभिमुख होकर भी यह रूप धारण कर सकता है लेकिन जगत् और आत्मा के उच्चतर अर्थों में, या फिर वह यह रूप ले सकता है जो धार्मिक मन के लिये इतना परिचित और निर्णायक है -व्यक्तिगत मोक्ष की खोज, चाहे वह परलोक के स्वर्ग में हो या परम आत्मा या परम अनात्मा में पृथक् निमज्जन द्वारा--आनंद या निर्वाण की चाह । फिर भी शुरू से आखिरतक व्यक्ति ही वैयक्तिक आत्म-ज्ञान की और अपने अलग अस्तित्व के लक्ष्य की खोज करता है, बाकी सब-परोपकार, मानव जाति के लिये प्रेम और उसकी सेवा, आत्म-विलोपन और आत्म-विसर्जन--उसमें चाहे जितने सूक्ष्म छद्मवेश क्यों न हों, सब उसके उपलब्ध व्यक्तित्व की एकमात्र महान् तल्लीनता के लिये सहायक और साधन हैं । यह एक विस्तृत अहंकार मालूम हो सकता है और तब पृथक्कारी अहं ही मनुष्य की सत्ता का सत्य हो सकता है जो उसमें अंततक बना रहेगा या जबतक वह आत्म-विलोपन द्वारा अनंत की निराकार शाश्वतता में मुक्त न हो जाये । लेकिन पीछे एक गहनतर रहस्य है जो उसके व्यक्तित्व और उसकी मांग को उचित ठहराता है । वह है आध्यात्मिक और शाश्वत व्यक्ति, पुरुष का रहस्य ।

 

   व्यक्ति में भागवत तत्त्व, आध्यात्मिक पुरुष के कारण पूर्णता या मुक्ति, जिसे पश्चिम में 'सैलवेशन' (salvation) कहते हैं, को व्यक्तिगत होना होता है,

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सामुदायिक नहीं; क्योंकि समुदाय की चाहे जिस पूर्णता की खोज की जाये, वह व्यक्तियों की पूर्णता द्वारा ही आ सकती है, व्यक्ति से ही तो समुदाय बनता है । चूंकि व्यक्ति तत् है इसलिये उसे अपने-आपको पाना ही उसकी बड़ी आवश्यकता है । परम के प्रति अपने पूर्ण समर्पण और आत्म-निवेदन द्वारा व्यक्ति अपने पूर्ण आत्म-निवेदन में ही पूर्ण आत्मोपलब्धि पाता है । मानसिक, प्राणिक और भौतिक अहं, यहांतक कि आध्यात्मिक अहं के विलोपन में, रूपहीन, सीमाहीन व्यक्ति ही अपनी ही अनंतता में बच निकलने की शांति और आनंद को पाता है । इस अनुभव में कि वह कुछ नहीं और कोई नहीं है या सब कुछ और सब कोई है, या वह एकमेव है जो सभी चीजों के परे और निरपेक्ष है, व्यक्ति में स्थित ब्रह्म ही अपनी शाश्वत सत्ता के विशाल, सबका समावेश करनेवाले या परम सर्वातीत एकत्व के साथ अपनी शाश्वत वैयक्तिक सत्ता का यह महाविलय या यह चमत्कारपूर्ण योग सम्पन्न करता है । अहं से परे जाना अत्यंत आवश्यक है लेकिन तुम आत्मा के परे नहीं जा सकते -यह तो परम और वैश्व भाव में जाकर ही किया जा सकता है । क्योंकि आत्मा अहं नहीं है; वह सर्व तथा एकमेव के साथ एक है और उसे खोजने में हम सर्व और एकमेव को अपनी आत्मा में खोज लेते हैं, परस्पर-विरोध और पृथकता दूर हो जाते हैं लेकिन उस मुक्तिदाता तिरोभाव के कारण आत्मा और आध्यात्मिक सद्वस्तु एक और सर्व के साथ एक होकर बने रहते हैं ।

 

   जैसे ही मनुष्य अपनी बाहरी सत्ता के साथ अपनी अत्यधिक प्रतीयमान आत्मा की प्रकृति और भगवान् के साथ संबंधों की अत्यधिक व्यस्त रहने की अवस्था से परे जाता है, वैसे ही उच्चतर आत्म-ज्ञान शुरू हो जाता है । उसका एक चरण है यह जानना कि यही जीवन सब कुछ नहीं है, अपनी कालिक नित्यता की धारणातक पहुंचना, जिस आंतरिक स्थायित्व को अंतरात्मा की अमरता कहा जाता है उसकी अनुभूति, उसकी ठोस अभिज्ञता पाना । जब वह जानता है कि जड़ के परे भी लोक हैं, उसके आगे और पीछे भी जीवन है, कम-से-कम पूर्व जन्म और पुनर्जन्म है तो वह अपने-आपको काल के तात्कालिक क्षणों के परे, स्वयं अपनी शाश्वतता पर अधिकार पाकर, कालिक अज्ञान से पिंड छुड़ाने के मार्ग पर पाता है । आगे की ओर दूसरा चरण है यह जानना कि उसकी सतही जाग्रत् अवस्था उसकी सत्ता का एक छोटा-सा अंश ही है, निश्चेतना की खाई की, अवचेतन तथा अंतस्तलीय की गहराई की थाह लेना शुरू करना और अतिचेतन की ऊंचाइयों पर चढ़ना आरंभ करना है; इस तरह वह अपने मनोवैज्ञानिक आत्म-अज्ञान को हटाना शुरू करता है । तीसरा चरण है यह जान लेना कि उसके अंदर सहायक मन, प्राण और शरीर के सिवा कुछ और भी है, केवल अमर, सदा विकसनशील व्यक्तिगत अंतरात्मा ही नहीं जो उसकी प्रकृति को सहारा देती है बल्कि एक शाश्वत, निर्विकार आत्मा और

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आध्यात्म पुरुष है, और यह जानना कि उसकी आध्यात्मिक सत्ता की कौन-कौन-सी श्रेणियां हैं; यहांतक कि वह खोज लेता है कि उसके अंदर सब कुछ आत्मा का प्रकटन है, और वह उच्चतर और निम्नतर अस्तित्व के बीच की कड़ी को पहचान लेता है और इस तरह वह अपने संरचनागत आत्म-अज्ञान को हटाना शुरू करता हैं । आत्मा और आध्यात्म सत्ता की खोज करते-करते वह भगवान् को खोज लेता है । उसे पता चलता हैं कि कालिक के परे एक आत्मा है । वह उस आत्मा का दर्शन वैश्व चेतना में प्रकृति और सत्ताओं के इस जगत् के पीछे दिव्य सद्वस्तु के रूप में पाता है । उसका मन उस निरपेक्ष के विचार या बोध की ओर खुलता है जिसके अलग-अलग बहुत-से चेहरे हैं; आत्मा, व्यक्ति और विश्व वैश्व, अहंकारात्मक और मौलिक अज्ञान उसपर अपनी पकड़ की कठोरता खोने लगते हैं । अपने अस्तित्व को इस बढ़ते हुए ज्ञान के सांचे में ढालने के प्रयास में जीवन के बारे में उसकी सारी दृष्टि और अभिप्राय, विचार और क्रिया उत्तरोत्तर बदलते और रूपान्तरित होते रहते हैं, अपने, अपनी प्रकृति और अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में उसका व्यावहारिक अज्ञान कम होने लगता हैं । उसने अपना पग उस पथ पर रख दिया है जो मिथ्यात्व और दुःख-दर्द के सीमित और आंशिक जीवन से बाहर निकालकर सच्चे और संपूर्ण जीवन पर पूर्ण अधिकार और भोग की ओर ले जाता है ।

 

   इस प्रगति के दौरान उसे एक-एक कदम करके उन तीन श्रेणियों की एकता का पता लगता है जिन्हें लेकर वह चला था । क्योंकि पहले उसे पता लगता है कि अपनी अभिव्यक्त सत्ता में वह विश्व और प्रकृति के साथ एक है; मन, प्राण और शरीर, काल के अनुक्रम में अंतरात्मा, चेतन, अवचेतन और अतिचेतन -ये अपने विभिन्न संबंधों में और उन संबंधों के परिणाम में विश्व और प्रकृति हैं । लेकिन साथ ही उसे पता चलता है कि जो कुछ उनके पीछे स्थित है या जिसपर वे आधारित हैं उस सब में वह ईश्वर के साथ एक है क्योंकि निरपेक्ष, आत्मा, देशकालातीत आत्मा, विश्व में अभिव्यक्त आत्मा और प्रकृति के स्वामी -भगवान् से हमारा मतलब यह सब होता है । और इस सब में मनुष्य की अपनी सत्ता भगवान् की ओर लौट जाती है और उन्हींसे निःसृत होती है । वह निरपेक्ष, आत्मा, आध्यात्म सत्ता, विश्व के अंदर अपने बहुत्व में आत्म-प्रक्षिप्त और प्रकृति में अवगुण्ठित है । इन दोनों ही उपलब्धियों में वह अन्य सभी अंतरात्माओं और सत्ताओं के साथ अपना एकत्व पाता है -प्रकृति में सापेक्ष रूप से क्योंकि वह मन, प्राणशक्ति, जड़-भौतिक, अंतरात्मा, हर वैश्व तत्त्व और परिणाम में एक है, ऊर्जा और ऊर्जा-क्रिया में, तत्त्व के विन्यास और परिणाम के विन्यास में, उनकी चाहे जितनी भिन्नता क्यों न हो, फिर भी भगवान् में पूरी तरह एक है क्योंकि एकमात्र निरपेक्ष, एक आत्मा, एक आध्यात्म पुरुष सदा सबकी आत्मा और सबका मूल है,

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उनकी बहुविध विभिन्नताओं पर अधिकार रखनेवाला और उन्हें भोगनेवाला है । उसके आगे भगवान् और प्रकृति का एकत्व प्रकट होने से नहीं चूक सकता क्योंकि अंत में उसे पता चलता है कि निरपेक्ष हीं ये सब सापेक्षताए हैं । वह देखता है कि यह एक आत्मा है और हर अन्य तत्त्व इसीकी अभिव्यक्ति है; उसे पता लगता हैं कि आत्मा ही ये सब संभूतियां बन गयी है । वह अनुभव करता है कि शक्ति, सभी सत्ताओं के प्रभु की सत्ता और चेतना की शक्ति ही वह प्रकृति है जो विश्व में कार्य कर रही है । इस भांति आत्म-ज्ञान की प्रगति में हम उसतक जा पहुंचते हैं जिसे जानकर सब कुछ जान लिया जाता है, सब कुछ हमारी आत्मा के साथ एक जाना जाता है और जिसपर अधिकार करने से हमारी आत्म-सत्ता में सब पर अधिकार और सबका भोग हो जाता है ।

 

   समान रूप से, इस एकत्व के कारण, विश्व का ज्ञान भी निश्चित रूप से मनुष्य के मन को उसी महान् अंतःप्रकाश की ओर ले जायेगा । क्योंकि वह प्रकृति को जड़-तत्त्व, शक्ति और प्राण के रूप में तबतक नहीं जान सकता जबतक कि वह इन तत्त्वों के साथ मानसिक चेतना के संबंध की जांच न कर ले और एक बार वह मन के सच्चे स्वभाव को जान ले तो अनिवार्य रूप से उसे हर सतही आभास के परे जाना पड़ेगा । उसे शक्ति के कार्यों में प्रच्छन्न इच्छा और प्रज्ञा का पता लगाना होगा जो भौतिक और प्राणिक व्यापारों में क्रियाशील है; उसे उसको इस रूप में देखना होगा कि जाग्रत् चेतना, अवचेतन और अतिचेतन एक हैं, उसे जड़-भौतिक विश्व के शरीर में अंतरात्मा को पाना होगा । इन श्रेणियों में प्रकृति का अनुसरण करते हुए जिनमें वह शेष विश्व के साथ अपने एकत्व को पहचानता है, जो कुछ दिखलायी देता है उस सबके पीछे वह एक पराप्रकृति को पाता है जो काल में, और काल के परे, देश में और देश के परे आध्यात्म-पुरुष की परम-शक्ति है, आत्मा की चिन्मय-शक्ति है जिसके द्वारा आत्मा सभी संभूतिया बन जाती है, जिसके द्वारा निरपेक्ष सभी सापेक्षों को अभिव्यक्त करता है । वह उसे जानता है, दूसरे शब्दों में, वह उसे केवल जड़-भौतिक ऊर्जा, प्राण-शक्ति, मानसिक ऊर्जा, प्रकृति के नाना रूप ही नहीं बल्कि सत्ता के दिव्य प्रभु की ज्ञान-इच्छा की शक्ति, स्वयंभू शाश्वत और अनंत की चित्-शक्ति के रूप में जानता है ।

 

   मनुष्य की भगवान् के लिये खोज, जो अंत में उसकी सभी खोजों में सबसे अधिक तव्रि और मोहक बन जाती है, शुरू होती है प्रकृति के बारे में उसके अस्पष्ट प्रश्नों से और किसी ऐसी चीज के बोध से जो अपने में और प्रकृति में दोनों में ही देखने में नहीं आती । जैसा आधुनिक विज्ञान का आग्रह है कि अगर धर्म का आरंभ सर्वात्मवाद, प्रेत-पूजा, राक्षस-पूजा और सभी प्राकृतिक शक्तियों को दैवी शक्तियां मान करके ही हुआ हो तो वे पहले रूप आदिम आकारों में अवचेतना के अवगुण्ठित अंतर्भासों को मूर्त रूप देते हैं, छिपे हुए प्रभावों और अनिश्चित

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शक्तियों, या किसी अचेतन मालूम होनेवाली चीजों में सत्ता, इच्छा, प्रज्ञा के भाव, दृश्य के पीछे अदृश्य, ऊर्जा की हर क्रिया में अपने-आपको बांटती हुई गुप्त रूप से सचेतन आत्मा के बोध को ही आदिम आकारों में मूर्त रूप देते हैं । प्रथम दर्शन की अस्पष्टता और आदिम अपर्याप्तता मानव हृदय और मन की इस महान् खोज के मूल्य या सत्य को घटाती नहीं है क्योंकि हमारी सभी खोजों -जिनमें स्वयं विज्ञान भी है -को छिपी हुई वास्तविकताओं के अस्पष्ट और अज्ञानभरे दर्शन से ही चलना पड़ता है और सत्य के अधिकाधिक प्रकाशमान दर्शन की ओर जाना पड़ता है, जो पहले-पहल हमारे पास अज्ञान के कुहासे से ढका होकर, छद्मवेश में, आवृत होकर आता है । मानव गुणारोपण इस सत्य की मान्यता का रूपक है कि मनुष्य जो कुछ है वह इस कारण है कि भगवान् जो कुछ हैं वही हैं और यह कि वस्तुओं की एक ही आत्मा है और एक ही शरीर है और यह कि अपनी अपूर्णता में भी मानवजाति यहांपर अभीतक उपलब्ध सबसे अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति है और मनुष्य में जो अपूर्ण है उसकी पूर्णता ही दिव्यता है । वह अपने-आपको सब जगह देखता और उसे भगवान् मानकर पूजता है, यह भी सच है लेकिन यहां भी उसने अपने टटोलते हुए अज्ञान के हाथ को अस्तव्यस्तता के साथ एक सत्य पर रख दिया है -सत्य यह है कि उसकी सत्ता और परम सत्ता एक हैं, कि यह तत् का आंशिक प्रतिबिंब है और इस बृहत्तर आत्मा को हर जगह पाना भगवान् को पाना है और वस्तुओं में सद्वस्तु के, समस्त अस्तित्व की वास्तविकता के निकट आना है ।

 

   मानव धर्मों और दर्शनों की विविधता का रहस्य है विभिन्नता और विसंगति के पीछे छिपा हुआ एकत्व क्योंकि वे सब एक सत्य के किसी बिंब या किसी गौण संकेततक पहुंचते हैं, उस अद्वय सत्य के किसी अंश का स्पर्श करते या उसके बहुत से पहलुओं में से किसी एक को देखते हैं । वे चाहे जड़-जगत् को धुंधले-से रूप में भगवान् के शरीर के रूप में देखें या प्राण को भागवत सत्ता के श्वास के बड़े स्पंदन के रूप में या सभी वस्तुओं को वैश्व मन के विचारों के रूप में देखें या यह अनुभव करें कि एक आत्मा है जो इन सब वस्तुओं से महान् है, निश्चेतन जो उनका सूक्ष्मतर और फिर भी अधिक अद्धृत स्रोत और स्रष्टा है -भगवान् को चाहे वे केवल निश्चेतना में ही पायें या उसे निश्रेतन वस्तुओं के बीच एकमात्र सचेतन के रूप में या उसे ऐसी अनिर्वचनीय अतिचेतन सत्ता के रूप में जिसके पास पहुंचने के लिये हमें अपनी पार्थिव सत्ता को पीछे छोड़ना और मन, प्राण और शरीर को रद्द करना होगा या विभाजन पर विजय पाकर यह देखना होगा कि वह यह सब एक साथ है और निर्भय होकर उस दृष्टि के विशाल परिणाम को स्वीकार करें - चाहे वे उसे वैश्व सत्ता मानकर वैश्व रूप में पूजे या उसे और अपने-आपको ही केवल मानव जाति में सीमित कर लें जैसे प्रत्यक्षवादी करते हैं या उसके विपरीत देशातीत, कालातीत, निर्विकार के दर्शन में बहकर भगवान् को प्रकृति और विश्व में

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नकार दें -चाहे वे उसे मानव अहंकार के विभिन्न अजीब या सुन्दर या बढ़े हुए रूपों में पूजे या उसके ऐसे गुणों के पूर्ण धारक होने के कारण पूजें जिनके लिये मनुष्य अभीप्सा करता है, उसकी दिव्यता उनके आगे परम शक्ति, प्रेम, सौंदर्य, सत्य, नीतिपरायणता, प्रज्ञा के रूप में प्रकट होती है -चाहे वे उसे प्रकृति के स्वामी, पिता और स्रष्टा के रूप में देखें या स्वयं प्रकृति और विश्वजननी के रूप में, चाहे वे परम प्रेमी के रूप में और अंतरात्माओं को आकर्षित करनेवाले के रूप में उसका पीछा करें या समस्त कर्मों के छिपे हुए स्वामी के रूप में उसकी सेवा करें या एक देव के आगे झुकें या अनेकविध देवों के आगे; एक दिव्य मानव या सभी मनुष्यों में स्थित एक देव के आगे झुकें या ज्यादा बड़े रूप में उस एकमेव को खोजें जिसकी उपस्थिति हमें चेतना में, कर्म में, या जीवन में सब प्राणियों के साथ एक होने योग्य बना देती है, देश और काल में सभी चीजों के साथ, प्रकृति और उसके प्रभावों, बल्कि उसकी निर्जीव शक्तियों के साथ भी एक होने योग्य बना देती है -पीछे का सत्य हमेशा वह का वही होना चाहिये क्योंकि सब कुछ एक ही दिव्य अनंतता है जिसे सब खोज रहे हैं । चूंकि हर चीज वही एक है इसलिये उसे अधिकृत करने के लिये मानव के उसकी ओर जाने के तरीके भी अनगिनत होने चाहियें । मनुष्य भगवान् को पूरी तरह जान ले इसके लिये जरूरी था कि वह उसे नाना-प्रकार से पाये लेकिन जब ज्ञान अपने उच्चतम पहलुओंतक पहुंचता है तभी उसके अधिकतम एकत्वतक पहुंचना संभव होता है । उच्चतम और विशालतम दृष्टि ही सबसे अधिक प्रज्ञावान् होती है क्योंकि तब समस्त ज्ञान उसके एक व्यापक अर्थ में एक हो जाता हैं । सभी धर्म एक, अद्वितीय सत्य की ओर जानेवाले मार्ग दिखायी देते हैं, सभी दर्शन एक ही सद्वस्तु के भिन्न-भिन्न पार्श्वों को देखने के लिये भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं, सभी विज्ञान एक परम विज्ञान के अंदर आ मिलते हैं । क्योंकि वह जिसे हमारा मानसिक ज्ञान, इन्द्रिय-ज्ञान और अतीन्द्रिय दृष्टि खोज रहे हैं वह भगवान् और मनुष्य और प्रकृति और जो कुछ प्रकृति में है उसकी एकता में अपनी अधिकतम पूर्णता के साथ पाया जाता है ।

 

   ब्रह्म, निरपेक्ष ही आध्यात्म पुरुष है, कालातीत आत्मा है, काल को अधिकार में करनेवाली आत्मा है, प्रकृति का स्वामी, विश्व का स्रष्टा और आधान और सभी सत्ताओं में अंतर्निहित है, वह आत्मा है जिससे सभी आत्माएं पैदा होती हैं और जिसकी ओर वे आकर्षित होती हैं -यही है सत्ता का वह सत्य जिसे मनुष्य की भगवान् के संबंध में उच्चतम धारणा इसी रूप में देखती है । सभी सापेक्षों में प्रकट वही निरपेक्ष, वह आत्मा जो अपने-आपको वैश्व मन, प्राण और जड़ में मूर्त करती है और प्रकृति जिसकी ऊर्जा की आत्मा है, जिससे वह जो कुछ रचती हुई प्रतीत होती है वह स्वयं उसकी सत्ता में, उसीकी सचेतन शक्ति के आगे उसी बहुविध सत्ता के आनंद के लिये विभिन्न रूप से अभिव्यक्त हुआ स्व और आत्मा

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है -यह सत्ता का वह सत्य है जिसकी ओर मनुष्य का प्रकृति-ज्ञान और विश्व-ज्ञान उसे लिये जा रहा है और जिसतक वह तब पहुंचेगा जब उसका प्रकृति का ज्ञान अपने-आपको भगवान् के ज्ञान के साथ एक कर लेगा । निरपेक्ष का यह सत्य जगत् के युग-चक्रों का औचित्य है, उनका खण्डन नहीं । आत्म-सत् ही ये सब संभूतियां बन गया है । आत्मा ही इन सब सत्ताओं का शाश्वत ऐक्य है - सोऽहम् । वैश्व ऊर्जा उस स्वयंभू की सचेतन शक्ति से भिन्न नहीं है । उस ऊर्जा द्वारा वह वैश्व प्रकृति के माध्यम से अपने अनगिनत रूप धारण करता है, वह अपनी दिव्य प्रकृति द्वारा वैश्व को आलिंगन में लेता हुआ, बल्कि उसे पार करता हुआ, उनके भीतर अपनी संपूर्ण सत्ता पर तब व्यक्तिगत अधिकार पा सकता है जब उसकी उपस्थिति और शक्ति का एक में, सबमें और एक तथा सबके संबंधों में अनुभव होता है -सत्ता का यहीं वह सत्य है जिसकी ओर मनुष्य का समस्त आत्मज्ञान भगवान् और प्रकृति में उठता और विस्तृत होता है । एक तिहरा ज्ञान; भगवान् का पूर्ण ज्ञान, अपना पूर्ण ज्ञान और प्रकृति का पूर्ण ज्ञान, उसे अपना उच्च लक्ष्य प्रदान करता है, मानव जाति के परिश्रम और प्रयास को विशाल और पूर्ण अर्थ प्रदान करता है । मनुष्य की अपनी चेतना में भगवान् आत्मा और प्रकृति, तीनों का सचेतन ऐक्य ही उसकी पूर्णता का निश्चित आधार है और उसके सभी सामंजस्यों की उपलब्धि है । यह उसकी अधिक-से-अधिक ऊंची और विस्तृत अवस्था होगी, यह उसकी दिव्य चेतना और दिव्य जीवन की स्थिति होगी और इसका सूत्रपात उसके आत्म-ज्ञान, जगत्-ज्ञान और ईश्वर-ज्ञान के समस्त विकास का आरंभ-बिंदु होगा ।

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