Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २४
जड़
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् ।
वह इस ज्ञान पर पहुंचा कि जड़द्रव्य (अन्न) ब्रह्म है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् ३.२
अब हमें तर्कसंगत रूप से यह विश्वास हो गया है कि प्राण न तो कोई ऐसा सपना हैं जिसकी व्याख्या न की जा सके न कोई असंभव अशुभ है लेकिन जो फिर भी दुःखदायी तथ्य बन गया है बल्कि वह दिव्य सर्व-सत् का एक विराद स्पंदन है । हम उसके आधार और उसके तत्त्व का कुछ अंश देख पाते हैं । हम ऊपर की ओर, उसकी उच्च शक्यता और चरम दिव्य प्रस्फुटन की ओर देखते हैं । लेकिन अन्य सभी तत्त्वों के नीचे एक तत्त्व है जिसपर हमने अभीतक पर्याप्त रूप में नहीं विचार किया है । वह है जड़-तत्त्व जिस पर प्राण ऐसे खड़ा है मानों वह उसका पादपीठ हो या जिसके अंदर से वह प्राण इस तरह विकसित होता हैं जैसे बहुत-सी शाखाओंवाले पेड़ का रूप कोष से आवृत बीज में से । मनुष्य का मन, प्राण और शरीर इस भौतिक तत्त्व पर निर्भर होते हैं और अगर प्राण का प्रस्फुटन मन की ओर बढ़ती हुई चेतना का, अतिमानसिक सत्ता की वृहत्ता के अंदर अपने स्वरूप- सत्य की खोज में अपना विस्तार और उन्नयन करती हुई चेतना का परिणाम है तो भी ऐसा लगता है कि वह शरीर के इस कोष पर और इस जड़ तत्त्व के आधार पर निर्भर है । शरीर का महत्त्व स्पष्ट है । चूंकि मनुष्य ने एक ऐसा शरीर और मस्तिष्क विकसित किया है या यूं कहें कि वे उसे दिये गये हैं जो एक प्रगतिशील मानसिक प्रकाश को ग्रहण करने और उसकी सेवा करने में समर्थ हैं इसीलिये मनुष्य पशु से ऊपर उठा है । इसी तरह, वह अपने-आपसे ऊपर केवल तभी उठ सकता है और पूर्णतः दिव्य मानवता को केवल अपने विचार और आंतरिक सत्ता में ही नहीं बल्कि जीवन में भी तभी पा सकता है जब वह ऐसे शरीर का, या कम-से-कम शारीरिक उपकरण की ऐसी क्रियाशीलता का विकास कर ले जो उच्चतर प्रकाश को ग्रहण करने और उसकी सेवा करने में समर्थ हो । अन्यथा या तो प्राण का वचन रद्द हों जायेगा, उसका अर्थ नष्ट हो जायेगा और पार्थिव जीव अपने-आपको नष्ट करके मन, प्राण और शरीर को त्याग कर और शुद्ध अनंत में लौटकर ही सच्चिदानंद को पा सकेगा या फिर मनुष्य दिव्य उपकरण ही नहीं है, उसे दूसरे पार्थिव जीवों से अलग करनेवाली जो सचेतन रूप से प्रगतिशील शक्ति है उसकी कोई सीमा निश्चित है और जैसे मनुष्य ने जगत् की दूसरी सत्ताओं को हटाकर आगे
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का स्थान पा लिया, उसी तरह अंततः कोई और सत्ता मनुष्य को हटाकर उसकी गद्दी संभाल लेगी ।
वस्तुत: ऐसा लगता है कि शुरू से ही शरीर अंतरात्मा की बड़ी कठिनाई है, सदा उसके मार्ग का रोड़ा और अड़ंगा रहा है, अतः आध्यात्मिक परिपूर्णता के उत्सुक जिज्ञासु ने सदा शरीर को धिक्कारा है और जगत् के प्रति उसकी घृणा ने जगत् के इस तत्त्व को और सभी चीजों से बढ़ कर अपनी घृणा का विशेष पात्र चुना है । शरीर वह अंधकारमय भार है जिसे वह सह नहीं सकता । उसकी हठीली भौतिक स्थूलता भूत बनकर उसे मुक्ति के लिये संन्यासी जीवन की ओर धकेलती है । शरीर से पिंड छुड़ाने के लिये वह यहांतक बढ़ चुका है कि उसने उसके अस्तित्व और भौतिक विश्व की वास्तविकता से भी इंकार किया है । अधिकतर धर्मों ने जड़ तत्त्व को अभिशाप माना है और उसके निषेध या सामयिक तौरपर भौतिक जीवन को उदासीनता के साथ सह लेने को धार्मिक सत्य या आध्यात्मिकता की कसौटी माना है । पुराने मत अधिक धीर, चिन्तन में अधिक गंभीर रहे हैं, जिन्हें कलियुग के भार तले आत्मा की पीड़ा और उत्तप्त अधीरता का स्पर्श प्राप्त नहीं था, उन्होंने यह भयंकर विभाजन नहीं किया था । उन्हाने धरती को माता और द्यु को पिता माना था । उन्ंहोने दोनों को समान प्रेम और सम्मान दिया था लेकिन उनके प्राचीन रहस्य हमारी दृष्टि के लिये अस्पष्ट और अगाध हैं क्योंकि हमारी दृष्टि चाहे जड़वादी हो या आध्यात्मिक, हम समान रूप से जीवन की समस्या की जटिल ग्रंथि को एक निर्णायक वार से काट डालने में संतुष्ट हो जाते हैं और एक शाश्वत आनंद में पलायन को या एक शाश्वत समाप्ति या एक शाश्वत शांति में अंत को स्वीकार करके संतुष्ट हो जाते हैं ।
सचमुच यह विवाद हमारी अपनी आध्यात्मिक संभावनाओं की ओर जाग्रत् होने से नहीं शुरू होता । उसका आरंभ तो स्वयं प्राण के प्रकट होने और अपनी क्रियाशीलताओं को, सजीव रूप के समूहों को स्थापित करने के लिये संघर्ष से होता है । यह संघर्ष तामसिकता की शक्ति के विरुद्ध, निश्चेतना की शक्ति के विरुद्ध, परमाणुओं के विसंघटन की शक्ति के विरुद्ध होता है जो जड़ तत्त्व में उस महानिषेध की ग्रंथि है । प्राण जड़ के साथ हमेशा युद्ध करता है और ऐसा लगता है कि इस युद्ध का अंत हमेशा प्राण की प्रतीयमान पराजय में और जड़तत्त्व की ओर उस अधोमुखी पतन में होता है जिसे हम मृत्यु कहते हैं । मन के प्रकट होने के साथ यह विसंगति और भी बढ़ जाती है क्योंकि मन का प्राण और जड़ भौतिक दोनों के साथ अपना ही झगड़ा है । उसका उनके सीमाबंधनों से लगातार युद्ध रहता है । वह एक की स्थूलता और तामसिकता के और दूसरे के आवेशों और कष्टों के सतत शासन में रहता और उनके विरुद्ध विद्रोह करता रहता है और अंततः यह युद्ध यद्यपि बहुत निश्चित रूप से नहीं फिर भी मन की आंशिक और
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मंहगी विजय की ओर मुड़ता प्रतीत होता है । इसमें मन विजय पाता, प्राणिक लालसाओं को दबाता बल्कि खतम भी कर डालता है; भौतिक शक्ति को क्षीण करता और ज्यादा महान् मानसिक क्रियाशीलता और उच्चतर नैतिक सत्ता के हित में शरीर के संतुलन को बिगाड़ भी देता है । इस संघर्ष में ही यह होता है कि प्राण की अधीरता, शरीर की घृणा और दोनों के प्रति जुगुप्सा से शुद्ध मानसिक और नैतिक जीवन की ये चीजें उठ खड़ी होती हैं । मनुष्य जब मन के परे के अस्तित्व की ओर जागता है तो विसंगति के इस तत्त्व को और भी परे ले जाता है । मन, शरीर और प्राण को जगत् मांस और शैतान की त्रयी कह कर धिक्कारा जाता है । मन पर भी उसे हमारी सारी बीमारी का मूल कहकर प्रतिबंध लगाया जाता है, आत्मा और उसके उपकरणों के बीच युद्ध घोषित कर दिया जाता है । भीतर रहनेवाली आत्मा की विजय उसके अपने संकरे आवास से बच निकलने, मन, प्राण और शरीर को त्यागने और अपनी अनन्तताओं में वापिस चले जाने में मानी जाती है । जगत् एक विसंगति है और हम उसकी पेचीदगियों का सबसे अच्छा समाधान विसंगति के तत्त्व को उसकी चरम संभावनातक पहुंचाकर, जगत् को काटकर अलग करके अंतिम विच्छेद द्वारा ही पायेंगे ।
लेकिन ये पराजयें और विजयें केवल दीखती ही हैं, यह समाधान सच्चा समाधान न होकर समस्या से पलायन है । सचमुच जड़ द्रव्य प्राण को हराता नहीं है, वह जीवन के सातत्य को बनाये रखने के लिये मृत्यु का उपयोग करके एक समझौता कर लेता है । मन सचमुच प्राण और जड़ तत्त्व पर विजयी नहीं होता । वह कुछ ऐसी शक्यताओं की बलि देकर, जो उसके प्राण और शरीर के ज्यादा अच्छे उपयोग की अनुपलब्ध या छोड़ी हुई संभावनाओं से बंधी रहती हैं, कुछ और शक्यताओं को अपूर्ण रूप से विकसित करता है । वैयक्तिक जीव ने निम्न त्रयी को जीता नहीं है केवल अपने ऊपर उनके दावे को अस्वीकार किया है और उस काम से मुंह मोड़ लिया हैं जिसे करने का व्रत आत्मा ने उस समय लिया था जब उसने पहली बार अपने-आपको विश्व के रूप में ढाला था । समस्या जारी है क्योंकि विश्व में भगवान् का परिश्रम जारी है लेकिन है समस्या के किसी संतोषजनक समाधान या परिश्रम की किसी विजयी पूर्तिr के बिना । अतः, चूंकि हमारा अपना दृष्टिबिंदु यह है कि सच्चिदानंद ही आदि, मध्य और अंत है और विसंगति और संघर्ष भगवान् की सत्ता के शाश्वत और मौलिक तत्त्व नहीं हो सकते बल्कि उनके अस्तित्व मात्र में ही पूर्ण समाधान और एक पूर्ण विजय के लिये श्रम समाविष्ट है, अतः हमें उस समाधान की खोज जड़ पर प्राण की एक यथार्थ विजय में करनी होगी जिसमें प्राण के द्वारा शरीर का बाधा-रहित और पूर्ण उपयोग हो, प्राण और जड़पर मन की यथार्थ विजय में करनी होगी जिसमें मन द्वारा प्राण-शक्ति और शरीर दोनों का बाधा-रहित और पूर्ण उपयोग हो तथा मन, प्राण और शरीर पर आत्मा की एक
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यथार्थ विजय पानी होगी जिसमें सचेतन आत्मा का इन तीनों पर मुक्त और पूर्ण अधिकार हो । हमने जो दृष्टि सम्पादित की है, उसमें एकमात्र यह अंतिम विजय ही औरों को सचमुच संभव बना सकती है । तो यह देखने के लिये कि ये विजयें कैसे नितांत संभव या पूरी तरह संभव हो सकती हैं हमें जड़ की वास्तविकता को जानना होगा, जैसे मूलभूत ज्ञान की खोज करते हुए हमने मन, अंतरात्मा और प्राण की वास्तविकता को जान लिया था ।
एक विशेष अर्थ में जड़ अवास्तविक और असत् है, अर्थात् जड़ के बारे में हमारा वर्तमान ज्ञान, भाव और अनुभव उसका सत्य नहीं है बल्कि हम जिस सर्वमय सत्ता में विचरण करते हैं उसके और हमारी इन्द्रियों के बीच विशेष संबंध का एक व्यापार मात्र है । जब विज्ञान यह खोज करता है कि जड़तत्त्व अपने-आपको ऊर्जा के विभिन्न रूपों में खंडित करता है तो वह एक वैश्व आधारभूत सत्य को पा लेता है और जब दर्शन यह खोज करता है कि चेतना के लिये जड़ का अस्तित्व वस्तुमय (भौतिक) रूप की तरह ही है और आत्मा या शुद्ध चिन्मय पुरुष ही एकमात्र सद्वस्तु है तो वह एक अधिक महान् अधिक पूर्ण और अधिक आधारभूत सत्य को पा लेता है । फिर भी यह प्रश्न तो रहता ही है कि ऊर्जा जड़तत्त्व का रूप क्यों धारण करे, केवल शक्ति- धाराओं का क्यों नहीं ? या जो सचमुच आत्मा है वह जड़ के प्रपंच को क्यों स्वीकार करे, स्वयं आत्मा की स्थितियों, प्रेरणाओं और आह्लादों में विश्राम क्यों न करे ? कहा जाता है कि यह मन का काम है, या फिर चूंकि स्पष्टत: विचार न तो चीजों के भौतिक रूप की प्रत्यक्ष रचना करता है न उनका प्रत्यक्ष बोध ही पाता है अतः यह इन्द्रिय-बोध का ही काम है । इन्द्रिय-मन उन रूपों की रचना करता है जिनका उसे प्रत्यक्ष-बोध होता प्रतीत होता है और विचारात्मक मन उन रूपों पर क्रिया करता है जिन्हें इन्द्रिय-मन उसके सामने प्रस्तुत करता है । लेकिन स्पष्टत: व्यक्तिगत शरीरस्थ मन जड़ पदार्थ के प्रपंच का रचयिता नहीं है । पार्थिव अस्तित्व मानव मन का परिणाम नहीं हों सकता क्योंकि स्वयं यह मन पार्थिव अस्तित्व का परिणाम है । अगर हम कहें कि जगत् केवल हमारे मनों में अस्तित्व रखता है तो हम तथ्यहीन और भ्रामक बात कहेंगे, क्योंकि धरती पर मनुष्य के आने से पहले ही जड़-जगत् मौजूद था और अगर मनुष्य धरती से गायब हो जाये या हमारा व्यक्तिगत मन अपने-आपको अनन्त में विलीन कर दे तब भी वह बना रहेगा । तो हमें इस निष्कर्ष पर आना होगा कि एक वैश्व मन१ है जो हमारे लिये
१ मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं वह केवल सापेक्ष और यांत्रिक अर्थ में सृजन करता है । उसमें संयोजनों की अपार क्षमता है लेकिन उसकी सृजनात्मक प्रेरणा और रूप ऊपर से आते हैं; सभी सृष्ट चीजों का आधार मन, प्राण और जड़ से ऊपर अनंत में है । वे रूप वहां अत्यणु से निरूपित, पुनर्निर्मित, बहुधा गलत तरीके से निर्मित होते हैं । ऋग्वेद कहता है, उनका मूल ऊपर है और शाखाएं नीचे । हम जिसे अतिचेतन मन कहते हैं उसे अधिमानस कहा जा सकता है, आत्मा की शक्तियों के सोपान क्रम में उसका वास है, एक ऐसा क्षेत्र है जो सीधा अतिमानसिक चेतना पर आश्रित है ।
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विश्व के रूप में अवचेतन और अपनी आत्मा में अतिचेतन है जिसने अपने निवास के लिये इस रूप की रचना की है । और चूंकि स्रष्टा अवश्य अपनी सृष्टि से पहले आया होगा और उसका अतिक्रमण करेगा इसलिये इसका अर्थ होगा एक अतिचेतन मन जो एक वैश्व इन्द्रिय को उपकरण बना कर अपने अंदर रूप के साथ रूप के संबंध की रचना कर लेता है और जड़ विश्व की लय का निर्माण करता है, लेकिन यह भी पूरा समाधान नहीं है । यह हमसे कहता है कि जड़ चेतना की सृष्टि है परंतु यह नहीं बतलाता कि चेतना ने अपनी वैश्व क्रियाओं के आधार के रूप में जड़ की रचना किस तरह की ।
अगर हम तुरंत वस्तुओं के मूल तत्त्व की ओर लौट चलें तो ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेंगे । सत् अपनी क्रियाशीलता में एक चित्-शक्ति है जो अपनी शक्ति की क्रियाओं को अपनी चेतना के आगे अपनी निजी सत्ता के रूपों में उपस्थित करती है । चूंकि शक्ति 'एकमेव सत्' चिन्मय पुरुष की क्रिया मात्र है अत: उसके परिणाम भी उस चित्युरुष के रूप होने के सिवा कुछ और नहीं हो सकते । अत: पदार्थ या जड़ आत्मा का एक रूप मात्र है । आत्मा का यह रूप हमारी इन्द्रियों के आगे जिस तरह दिखायी देता है उसका कारण मन की वह विभाजक क्रिया है जिससे हम विश्व के सारे व्यापार का एक सुसंगत सिद्धांत बना पाये हैं । अब हम जानते हैं कि प्राण चित्-शक्ति की एक क्रिया है जिसके परिणाम हैं भौतिक रूप । इन रूपों में अंतर्निहित प्राण उनमें पहले निश्चेतन शक्ति की भांति प्रकट होता है और क्रमश: विकसित होता हुआ मन रूप में उसी चेतना को फिर से अभिव्यक्त करता है जो शक्ति की यथार्थ आत्मा है, जिसका अस्तित्व उस समय भी समाप्त नहीं हुआ था जब वह अनभिव्यक्त थी । हम यह भी जानते हैं कि मन मौलिक सचेतन ज्ञान या अतिमानस की एक घटिया शक्ति है, एक ऐसी शक्ति है जिसके लिये प्राण एक उपकरणात्मक ऊर्जा का काम करता है । कारण अतिमानस में उतरती हुई चेतना या चित् अपने-आपको मन के रूप में प्रस्तुत करता है, चेतना की शक्ति (तपसू) अपने-आपको प्राण के रूप में उपस्थित करती है । अतिमानस में अवस्थित अपने उच्चतर सत्य-स्वरूप से अलग होकर मन प्राण को विभाजन का रूप देता है और इससे भी आगे, अपनी ही प्राण-शक्ति में निवर्तित होकर प्राण में अवचेतन हो जाता है और इस तरह अपनी जड़ क्रियाओं को निश्चेतन शक्ति का बाहरी रूप देता है । अतः निश्चेतना, तामसिकता और जड़ के विखण्ड के का मूल अवश्य ही मन की इस सर्व-विभाजनकरी और आत्म-निवर्तनकारी क्रिया में होना चाहिये जिसके द्वारा हमारा विश्व अस्तित्व में आया है । जैसे मन सृष्टि की ओर अवरोहण में अतिमानस की अंतिम क्रियामात्र है, और प्राण मन के इस अवतरण के द्वारा बने अज्ञान की अवस्थाओं में क्रिया करती हुई चित्-शक्ति की एक क्रिया है, उसी तरह जड़, जैसा कि हम उसे जानते हैं उस क्रिया के परिणामस्वरूप चित् सत्ता द्वारा धारण किया हुआ अंतिम रूप मात्र है । जड़ है उस
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एकमेव चित् सत्ता का उपादान जो एक वैश्व मन१ की क्रिया द्वारा अपने अंदर आभास के रूप में बंटा हुआ है -यह ऐसा विभाजन है जिसे व्यष्टिगत मन दोहराता है और जिसमें वह निवास करता है, लेकिन जो आत्मा के एकत्व को या ऊर्जा के एकत्व को या जड़ तत्व के वास्तविक एकत्व को न तो नष्ट करता है न बिलकुल क्षीण ।
लेकिन एक अविभाज्य सत् का यह आभासमय और व्यावहारिक विभाजन किसलिये ? यह इसलिये कि मन को बहुत्व के तत्त्व को उसकी चरम शक्यता तक ले जाना है और यह केवल पृथक्करण और विभाजन के द्वारा ही हो सकता है । ऐसा करने के लिये यह जरूरी है कि बहु के लिये रूपों की रचना करने के लिये वह अपने-आपको प्राण में अवक्षिप्त करे ताकि वह सत्ता के वैश्व तत्त्व को एक शुद्ध या सूक्ष्म पदार्थ की जगह स्थूल भौतिक पदार्थ का रूप दे । यानी उसे ऐसे पदार्थ का रूप दे जो मन के संपर्क के लिये अपने-आपको विषयों के स्थायी बहुत्व के बीच एक स्थिर वस्तु या विषय मालूम हो, न कि किसी ऐसे पदार्थ का रूप जो शुद्ध चेतना के संपर्क को अपनी शाश्वत शुद्ध सत्ता तथा सत्यता का रूप लगे या सूक्ष्म इन्द्रियों को ऐसे नमनीय आकार का रूप मालूम पड़े जो चित्-सत्ता को मुक्त रूप से प्रकट कर सके । मन का अपने विषयों के साथ संपर्क उस चीज की रचना करता है जिसे हम इन्द्रिय-बोध कहते हैं लेकिन इस अवस्था में वह अस्पष्ट और बाह्य बोध होता है, उस बोध का जिस वस्तु के साथ संपर्क होता है उसकी वास्तविकता की निश्चितता प्राप्त करनी आवश्यक है । अतिमानस द्वारा मन और प्राण में सच्चिदानंद के अवतरण के अनिवार्य परिणामस्वरूप शुद्ध पदार्थ का जड़ पदार्थ में अवतरण होता है । यह सत्ता की बहुलता और चेतना के भिन्न-भिन्न केन्द्रों से वस्तुओं की अभिज्ञता को जीवन की इस निचली अनुभूति की पहली विधि बनाने की इच्छा का एक आवश्यक परिणाम होता है । अगर हम वस्तुओं के आध्यात्मिक आधार की ओर वापिस जायें तो पदार्थ अपनी चरम शुद्ध अवस्था में अपने-आपको ऐसी शुद्ध चित्-सत्ता में ढाल देता है जो स्वयंभू है, तादात्म्य द्वारा अंतर्निहित रूप से अपने-आपसे अभिज्ञ है लेकिन अभीतक अपने-आपको विषय बनाकर अपनी चेतना को उसकी ओर अभिमुख नहीं करता । अतिमानस तादात्म्य द्वारा प्राप्त इस आत्माभिज्ञाता को अपने आत्म-ज्ञान के पदार्थ के रूप में और आत्म-सृष्टि के प्रकाश के रूप में सुरक्षित रखता है लेकिन उस सृष्टि के लिये वह सत्ता को अपने आगे उसकी अपनी सक्रिय चेतना के विषयी-विषय, एक और बहु के रूप में उपस्थित करता है । वहां परम ज्ञान में सत्ता विषय के रूप में धारण की जाती है,
१यहां मन शब्द का प्रयोग उसके बड़े-से-बड़े अर्थ में किया गया है जिसमें अधिमानस-शक्ति की क्रिया भी शामिल है जो अतिमानसिक ऋत चित् के सबसे अधिक निकट है और अविद्या की सृष्टि का पहला स्रोत है ।
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वह ज्ञान- अवधारणा द्वारा उसे अपने अंदर ज्ञान के विषय रूप में और विषयी भाव से निज रूप में, दोनों रूपों में देखता है परंतु साथ ही प्रज्ञान द्वारा उसे अपनी चेतना की परिधि में ज्ञान के विषय या विषयों के रूप में प्रक्षिप्त कर सकता है । लेकिन यह स्वयं उससे भिन्न न होकर उसकी सत्ता का भाग होता है, लेकिन ऐसा भाग या ऐसे भाग जिन्हें अपनी सत्ता से अलग रख दिया गया हो -यानी दृष्टि के उस केन्द्र से अलग जिसमें सत्ता अपने-आपको ज्ञाता, साक्षी या पुरुष के रूप में केन्द्रित करती है । हमने देखा है कि इस प्रज्ञान चेतना से मन की गति उठती है, ऐसी गति जिसके द्वारा व्यष्टिगत ज्ञाता अपनी वैश्व सत्ता के एक रूप को अपने-आपसे भिन्न मानता है । लेकिन दिव्य मन में तत्काल या यूं कहें साथ-ही-साथ एक और गति या उसी गति का दूसरा पक्ष होता है, वह है सत्ता में एकत्व की क्रिया जो इस आभासमय विभाजन का उपचार करती और क्षण भर के लिये भी ज्ञाता के लिये उसे एकमात्र वास्तविकता बनने से रोकती है । सचेतन ऐक्य की यह क्रिया ही विभाजनकारी मन में कुंठित, अज्ञानी रूप से, एकदम बाहरी तीरपर चेतना में विभक्त सत्ताओं और पृथक् विषयों के बीच होनेवाले संपर्क की तरह भिन्न प्रकार से प्रतिपादित होती है और विभक्त चेतना में होनेवाला यह संपर्क हमारे लिये प्रथमत: इन्द्रिय बोध के तत्त्व के रूप में प्रतिपादित होता है । इन्द्रिय बोध के इस आधार पर, विभाजन के आधीन ऐक्य के संपर्क पर विचारात्मक मन की क्रिया खड़ी होती है और ऐक्य के एक ऐसे उच्चतर तत्त्व की ओर लौटने की तैयारी करती है जिसमें विभाजन एकता के आधीन और गौण बना दिया जाता है । तो जैसा कि हम द्रव्य को जानते हैं, भौतिक द्रव्य वह रूप है जिसमें मन इन्द्रिय बोध के द्वारा काम करते हुए उस सचेतन सत् के साथ संपर्क साधता है, वह स्वयं जिसके ज्ञान की एक गति मात्र है ।
किंतु अपने स्वभाव से ही मन चेतन-सत्ता के द्रव्य को उसकी एकता और समग्रता में नहीं बल्कि विभाजन के सिद्धांत के द्वारा जानने और अनुभव करने की ओर प्रवृत्त होता है । ऐसा लगता है मानों यह उसे अत्यणु बिंदुओं में देखता है जिन्हें समग्रता तक पहुंचने के लिये वह इकट्ठा कर देता है और इन दृष्टि-बिंदुओं और संयोजनों में वैश्व मन अपने-आपको डालता है और उनमें निवास करता है । इस तरह निवास करता हुआ वैश्व मन 'सत्-भाव' के प्रतिनिधि के रूप में अपनी नैसर्गिक शक्ति से सृष्टि करता हुआ अपने सभी प्रत्यक्ष बोधों को प्राण की ऊर्जा में बदलने के लिये स्वभावत: विवश हुआ । जैसे सर्वसत्तामय अपने सभी आत्म-रूपों को अपनी चेतना की सर्जक शक्ति की विविध ऊर्जा के रूप में परिणत करता है, उसी तरह वैश्व मन वैश्व अस्तित्व के बोर में बहुविध दृष्टि-बिंदुओं को वैश्व जीवन के दृष्टिकोणों में बदल देता है`, वह जड़तत्त्व में उन्हें ऐसी परमाणविक सत्ता में बदल देता है जो रूप देनेवाले उस प्राण से अनुप्राणित होती हैं ओ रूपायन को
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क्रियान्वित करनेवाले मन और इच्छा द्वारा शासित होता है । साथ ही साथ वह जिन परमाणविक सत्ताओं का निर्माण करता है वे परमाणु के अपनी सत्ता के विधान के अनुसार इकट्ठे होने और समूह बनाने को विवश होते हैं और इनमें से हर समूह भी रूप देनेवाले गुप्त प्राण से और उन रूपों को प्रवर्तन करनेवाले गुप्त मन और इच्छा से अनुप्राणित होता हुआ एक अलग-थलग बने व्यष्टिगत अस्तित्व की मिथ्या कहानी लिये रहता है । ऐसे प्रत्येक व्यष्टिगत पदार्थ या अस्तित्व को, इस बात के अनुसार कि उसमें मन व्यक्त है या अव्यक्त, अभिव्यक्त है या अनभिव्यक्त, शक्ति के यान्त्रिक अहंकार का सहारा मिलता है जिसमें भवैषणा मूक और बंदी होते हुए भी शक्तिशाली होती है । या फिर आत्म-अभिज्ञ मानसिक अहंकार का सहारा होता है जिसमें भवैषणा मुक्त, सचेतन और पृथक् रूप से सक्रिय होती है ।
अतः परमाणविक अस्तित्व का कारण वैश्व मन की किया का स्वभाव है न कि शाश्वत और आदि जड़ पदार्थ का कोई शाश्वत और भौतिक विधान । जड़ पदार्थ एक सृष्टि है और उसके सृजन के लिये आरंभ-बिंदु या आधार के रूप में, अत्यणु की, अनन्त के अत्यधिक विखण्डन की आवश्यकता थी । आकाश जड़ पदार्थ के लिये अमूर्त, लगभग आध्यात्मिक अवलम्ब के रूप में रह सकता और रहता है लेकिन कम-से-कम हमारे वर्तमान ज्ञान को वह भौतिक दृष्टि से तथ्य रूप में गोचर नहीं है । दृष्टिगोचर समूह या अणु रूप को मौलिक परमाणुओं में प्रविभाजित कर दो, उसे सत्ता की अत्याणविक धूलि में तोड़ दो फिर भी उन्हें बनानेवाले मन और प्राण के स्वभाव के कारण हम किसी ऐसे अनाणविक विस्तार पर नहीं जो कुछ भी धारण करने में असमर्थ हो बल्कि अत्यधिक आणविक अस्तित्व पर पहुंचेंगे जो शायद अस्थिर तो हो किंतु दृश्य-जागतिक रूप से हमेशा अपने-आपको शक्ति के शाश्वत प्रवाह में फिर से बनाता रहेगा । पदार्थ का अनाणविक विस्तार, वह विस्तार जो समूह नहीं है, ऐसा सह-अस्तित्व जो देश में वितरण से भिन्न है, ये शुद्ध सत् शुद्ध पदार्थ की वास्तविकताएं हैं । वे अतिमानस का एक ज्ञान और उसकी क्रियात्मक शक्ति का एक तत्त्व हैं । ये विभाजक मन का सर्जनात्मक प्रत्यय नहीं हैं यद्यपि मन अपनी क्रियाओं के पीछे उनके बारे में अभिज्ञ हो सकता है । ये जड़ की आधारभूत सद्वस्तु हैं लेकिन जिसको हम जड़ कहते हैं वह नहीं हैं । मन, प्राण और स्वयं जड़ भी अपने निष्क्रिय स्वरूप में उस शुद्ध सत्ता और सचेतन विस्तार के साथ एक हो सकते हैं लेकिन अपनी क्रियात्मक गति, आत्म-दर्शन और आत्म-रूपायण में उस एकत्व द्वारा क्रिया नहीं कर सकते ।
अतः हम जड़ तत्त्व के इस सत्य पर पहुंचते हैं कि सत्ता का एक धारणात्मक आत्म-प्रसारण है जो विश्व में चेतना के पदार्थ या चेतना के विषय के रूप में चरितार्थ होता है और जिसे विश्व-मन तथा विश्व-प्राण अपनी सर्जक क्रिया में आणविक विभाजन तथा समूह द्वारा उस वस्तु के रूप में प्रकट करते हैं जिसे हम
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जड़ कहते हैं । किंतु यह जड़, मन और प्राण की तरह अब भी आत्म-सृजन करनेवाली क्रिया में लगा हुआ सत् या ब्रह्म ही है । यह सचेतन सत्ता की शक्ति का एक रूप है । यह रूप मन द्वारा दिया गया और प्राण द्वारा कार्यान्वित हुआ है । वह अपने अंदर चेतना को अपने यथार्थ स्वरूप की तरह धारण किये रहता है जो उससे छिपी रहती है । वह अपने आत्म-रूपायन के परिणाम में अन्तर्निहित और तल्लीन और इस कारण अपने-आपको भूली हुई रहती है । और वह हमें चाहे जितना मूढ़ और संवेदनहीन क्यों न लगे, फिर भी उसके अपने अंदर छिपी हुई चेतना की गुप्त अनुभूति के लिये वह सत्ता का आनंद है जो इस गुप्त चेतना के आगे अपने-आपको संवेदन के विषय के रूप में अर्पित करता है ताकि उस छिपे हुए देव को अपनी गुप्त अवस्था में से बाहर निकलने का प्रलोभन दे । पदार्थ के रूप में अभिव्यक्त सत्ता, गुप्त आत्म-चेतना के एक साकार आत्म निरूपण में ढली हुई सत्ता की शक्ति, अपनी ही चेतना के आगे अपने-आपको विषय के रूप में अर्पित करता हुआ आनंद -यह सच्चिदानन्द नहीं तो और क्या है ? जड़ तत्त्व सच्चिदानन्द ही है जो अपनी निजी मानसिक अनुभूति के आगे अस्तित्व के विषयरूपी ज्ञान, कर्म और आनंद के आकारगत आधार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।
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