Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २
दो नकार :
१--जड़वादी का प्रतिवाद
... स तपोउतप्यत । स तपस्तप्त्वा || अन्न ब्रह्मेति व्यजानात्
अन्नादध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । अन्नेन जातानि जीवत्ति ।
अन्न प्रयत्त्वभिसंविशन्तीति ।। तद्विज्ञाय । पुनरेव वरुणं पितर-
मुपससार। अधीहि क्यावो ब्रह्मेति । तं होवाच । तपसा ब्रह्म
विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति... ।
उसने (मन के तप द्वारा) चिच्छक्ति को प्रदीप्त किया और इस ज्ञान पर पहुंचा कि अन्न (जड़ तत्त्व) ही ब्रह्म है । क्योंकि अन्न से ही ये समस्त भूत (प्राणी) उत्पन्न हुए हैं । अन्न से उत्पन्न ये जीते हैं और यहां से जाकर वे अन्न में ही प्रवेश करते हैं । तब वह अपने पिता वरुण के पास जाकर बोला : ''भगवन् मुझे बह्म का उपदेश दीजिये ।'' लेकिन वरुण ने उससे कहा, ''चिच्छक्ति को (फिर से) अपने अंदर प्रदीप्त कर, क्योंकि तप ही ब्रह्म है ।''
तैत्तिरीय उपनिषद् ३. १. २
धरती पर जीवन के और मर्त्य जीवन में अमरता के स्वीकरण का तबतक कोई आधार नहीं हो सकता जबतक कि हम न केवल शाश्वत आत्मा को इस शारीरिक भवन के निवासी, इस परिवर्तनशील चोले के धारण करनेवाले के रूप में स्वीकार कर लें बल्कि भौतिक द्रव्य को भी जिससे यह बना है एक उपयुक्त और उत्कृष्ट द्रव्य न मान लें जिसमें से भगवान् हमेशा अपने परिणाम बुनते रहते हैं, अपने भवनों की अंतहीन शृंखला. को बार-बार बनाने में लगे रहते हैं ।
लेकिन यह बात भी हमें शारीरिक जीवन के प्रति होनेवाली विरक्ति से बचाने के लिये पर्याप्त नहीं है । इसके लिये जरूरी है कि उपनिषदों की तरह हमें जीवन के इन दो चरम छोरों के बाहरी रूपों के पीछे रहनेवाली उनकी तात्त्विक एकता का बोध हो और इसे पाकर हम प्राचीन ग्रंथों की भाषा में कहने लगे, ''अन्न वै ब्रह्म'' । जड़तत्त्व भी ब्रह्म है और उस सशक्त रूपक को उसका पूरा-पूरा मूल्य दे सकें जिसमें भौतिक विश्व को दिव्य पुरुष का बाहरी शरीर कहा गया है । अगर हम जड़तत्त्व और आत्मा के बीच के आरोहणकारी सोपान को प्राण, मन और अतिमन को तथा मन और अतिमन को जोड़नेवाली श्रेणियों को स्वीकार न करें तो ये दो चरम छोर जड़तत्त्व और आत्मा इतने अधिक विभक्त प्रतीत होते हैं कि इनकी
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एकात्मता तर्कसंगत बुद्धि को विश्वसनीय नहीं प्रतीत होती । अन्यथा ऐसा लगेगा कि ये दोनों असंगत विरोधी हैं जो एक दूसरे के साथ दुःखद परिणय-सूत्र में बंधे हुए हैं और उनका तलाक ही एकमात्र बुद्धिसंगत समाधान है । उनमें एकात्मता स्थापित करना, इनमें से एकको दूसरे की भाषा में प्रस्तुत करना, विचार का कृत्रिम सृजन हो जाता है जो तथ्यों के तर्क का विरोधी है और असंगत रहस्यवाद में ही संभव है ।
अगर हम केवल विशुद्ध आत्मा और यांत्रिक बुद्धिहीन पदार्थ या ऊर्जा को ही मानें, एक को भगवान् या आत्मा कहें और दूसरे को प्रकृति तो इसका अनिवार्य अंत यह होगा कि हम या तो भगवान् को अस्वीकार करेंगे या प्रकृति से मुंह मोड़ लेंगे । तब विचार और जीवन दोनों के लिये चुनाव अत्यावश्यक हो जाता है । विचार एक को कल्पना की भ्रांति या दूसरे को इंद्रियों की भ्रांति मान लेगा । जीवन अभौतिक के साथ जुड़ जाता है और वितृष्णा या आत्मविस्मृतिकारी आनंद के साथ अपने-आपसे भागता है या फिर स्वयं अपनी अमरता से इंकार करता है और भगवान् से मुंह मोड़कर पशु की ओर अभिमुख होता है । पुरुष और प्रकृति, सांख्य की निष्क्रिय प्रकाशमय आत्मा और उनकी यांत्रिक रूप से क्रियाशील ऊर्जा में कोई भी चीज समान नहीं है, उनके तामसिकता के विरोधी तत्त्व में भी कोई समानता नहीं है । उनके विरोधों के समाधान का एक ही तरीका है : निष्क्रिय रूप से चालित क्रियाशीलता का समापन उस अपरिवर्तनशील विश्रांति में कर दिया जाये जिसमें वह अपने प्रतिबिंबों की निष्फल धारा व्यर्थ में डालती रहीं है । शंकर की निःशब्द, निष्क्रिय 'आत्मा' और उनकी बहुनाम-रूपधारी 'माया' भी समान रूप से विषम और असंगत सत्ताएं हैं । उनके कठोर विरोधों का अंत तभी हो सकता है जब बहुरूपधारी भ्रांति शाश्वत नीरवता के एकमात्र सत्य में विलीन हो जाये ।
जड़वादी का क्षेत्र ज्यादा आसान है । उसके लिये यह ज्यादा आसान है कि आत्मा को नकारकर एक अधिक आसानी से विश्वास दिलानेवाले सरल वक्तव्य, सच्चे अद्वैत, भौतिक तत्त्व या शक्ति के अद्वैत पर पहुंच जाये । लेकिन उसके लिये भी इस कठोर वक्तव्य पर हमेशा डटे रहना संभव नहीं है । आखिर वह भी एक ऐसे अज्ञेय को ला खड़ा करता है जो उतना ही निष्क्रिय और ज्ञात विश्व से उतना ही दूर होता है जितना निश्चल पुरुष या नीरव आत्मा । इस भांति वह विचार की कठोर मांगों को एक अस्पष्ट-सी रियायत देकर टाल देता है या जिज्ञासा की सीमाओं को आगे बढ़ने की स्वीकृति न देने का बहाना पा लेता है --इसके सिवा उससे कोई काम नहीं बनता ।
अतः मानव मन इन निष्फल विरोधों से संतुष्ट नहीं रह सकता । उसे हमेशा एक संपूर्ण प्रस्थापना की खोज करनी चाहिये और यह उसे प्रकाशमय समाधान से ही मिल सकती है । उस समाधान तक पहुंचने के लिये उसे उन श्रेणियों को पार करना होगा जिन्हें हमारी आंतरिक चेतना हमारे ऊपर आरोपित करती है और चाहे प्राण
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और मन पर भौतिक तत्त्व की तरह ही विश्लेषण की वस्तुनिष्ठ पद्धति के द्वारा या आत्मनिष्ठ समन्वय और उद्भासन द्वारा, अभिव्यक्तिकारी बहुविधता की ऊर्जा को अस्वीकार किये बिना परम एकत्व की विश्रांति पर पहुंचना होगा । केवल इस प्रकार की पूर्ण और उदार प्रस्थापना में ही अस्तित्व के बहुविध और प्रत्यक्षत: विरोधी तथ्यों का सामंजस्य हो सकता है । इसी तरह हमारे विचार और प्राण पर शासन करनेवाली अनेकविध परस्पर-विरोधी शक्तियां उस केंद्रीय सत्य को खोज सकती हैं जिसका प्रतीक बनना और नाना रूपों से परिपूर्ण करना ही उनका प्रयोजन है । तभी हमारा विचार सच्चे केंद्र को पाकर, गोल-गोल चक्कर लगाना बंद करके, उपनिषद् के ब्रह्म की तरह काम कर सकता है, अपनी लीला और सारे संसार की दौड़ में स्थिर और ध्रुव रह सकता है, हमारा जीवन अपने लक्ष्य को जानकर शांत एवं स्थिर आनंद और प्रकाश के साथ तथा लयबद्ध तर्कमूलक ऊर्जा के साथ उसकी सेवा कर सकता है ।
लेकिन एक बार वह लय भंग हो जाये तो यह आवश्यक और सहायक हो जाता है कि मनुष्य इन दो महान् विरोधी मतों को उनके चरम रूप में अलग-अलग लेकर उनकी जांच करे । अपनी खोयी हुई प्रस्थापना की ओर अधिक पूर्णता के साथ लौटने के लिये मन का यही स्वाभाविक तरीका है । हो सकता है कि वह मार्ग में आनेवाली श्रेणियों में आराम करने की कोशिश करे, सभी चीजों की व्याख्या एक आदि प्राण-शक्ति या संवेदना या भावों की परिभाषा में करे लेकिन इन ऐकांतिक समाधानों में हमेशा अवास्तविकता की छटा रहती है । हो सकता है कि वे कुछ समय के लिये तर्कबुद्धि को संतुष्ट कर सकें जो केवल शुद्ध विचारों से संबंध रखती है, परंतु वे मन के वास्तविकता के भाव को संतुष्ट नहीं कर सकते । मन जानता है कि उसके पीछे कोई चीज है जो विचार या भाव नहीं है । दूसरी ओर वह यह भी जानता है कि स्वयं उसके अंदर कोई चीज है जो जीवनश्वास से बढ़कर है । कुछ समय के लिये आत्मा या भौतिक द्रव्य उसे चरम वास्तविकता का भाव दे सकते हैं लेकिन ऐसा बीच में आनेवाले कोई और तत्त्व नहीं दे सकते । अतः उसे सफल होकर समग्र की ओर लौटने से पहले दोनों छोरोंतक जाना होगा । बुद्धि अपने स्वभाव के अनुसार, ऐसे संवेदन की सहायता से जो सुस्पष्ट रूप में जीवन के भागों को ही देख सकता है और ऐसी वाणी से जो तभी स्पष्ट हो पाती है जब वह सावधानी से विभाजन और सीमांकन करे, अपने सामने मूलभूत तत्त्वों की बहुलता को पाकर निर्दयता के साथ उन्हें एकत्व की अभिधा में पटाकर एकता खोजने के लिये प्रेरित होती है । व्यावहारिक रूप में उसका यह प्रयास होता है कि एक पर बल देने के लिये अन्यों से पीछा छुड़ा ले । इस ऐकांतिक प्रक्रिया के बिना उन विभिन्न तत्त्वों के वास्तविक एकत्व का बोध पाने के लिये यह जरूरी है कि या तो वह स्वयं अपना अतिक्रमण करे या पूरा चक्कर लगाकर यह जान ले कि सबके
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सब समान रूप से उस 'तत्' में समा जाते हैं जो परिभाषा या वर्णन से बच निकलता है और जो, फिर भी न केवल वास्तविक है बल्कि प्राप्य है । हम चाहे जिस रास्ते से जायें, 'तत्' ही वह लक्ष्य है जिसपर हम जा पहुंचते हैं । हम उससे उसी हालत में बच सकते हैं जब यात्रा को पूरा करने से इंकार कर दें ।
इसलिये यह एक शुभ आरंभ है कि बहुत से परीक्षणों और शाब्दिक समाधानों के बाद हम आज अपने-आपको उन दो की उपस्थिति में पायें जिन्होंने एक लंबे अरसेतक कठोर परीक्षणों की जांच-पड़ताल को सहा है । ये दोनों छोर परीक्षण के अंत में एक ऐसे परिणाम पर आये हैं जिसे मानवजाति का वैश्व सहजबोध --वह अवगुंठित न्यायाधीश, प्रहरी और सत्य की वैश्व आत्मा का प्रतिनिधि --उचित या संतोषजनक मानने से इंकार करता है । यूरोप और भारत में क्रमश: जड़वादी के निषेध और संन्यासी के निषेध ने अपने-आपको एकमात्र सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करना और जीवन की धारणा पर अपना अधिकार जमाना चाहा है । भारत में यदि इसके परिणामस्वरूप 'आत्मा' की निधियों का या उनमें से कुछ का ढेर लग गया है तो साथ ही जीवन का बड़ा दिवालियापन भी आया है । यूरोप में समृद्धि की परिपूर्णता और इस जगत् की शक्तियों पर विजयी प्रभुत्व तथा अधिकार-प्राप्ति ने उसी तरह आत्मा की चीजों में समान रूप से दिवालियेपन की ओर प्रगति की है । और न ही सभी समस्याओं का समाधान भौतिक तत्त्व में ही पाने की कोशिश करनेवाली बुद्धि ने अपने पाये हुए उत्तर में संतोष पाया है ।
अतः समय परिपक्य होता जा रहा है और जगत् की प्रवृत्ति इस ओर बढ़ रही है कि विचार और आंतरिक और बाह्य अनुभव में एक नयी तथा व्यापक प्रस्थापना आये और इसके फलस्वरूप संपूर्ण मानव जीवन में व्यक्ति तथा जाति दोनों के लिये नयी और समृद्ध आत्मपरिपूर्ति आये ।
आत्मा और जड़ पदार्थ दोनों ही एक अज्ञेय के प्रतिनिधि हैं किंतु उसके साथ उनके संबंधों में जो भिन्नता है उससे जड़वादी और आध्यात्मिक नकार की प्रभावकारिता में भेद उत्पन्न होता है । जड़वादी का नकार यद्यपि अधिक आग्रही है और तात्कालिक सफलता पाता है, जनसाधारण को अधिक आकर्षित करता है फिर भी वह अंतत: संन्यासी के संकटमय मनमोहक नकार की अपेक्षा कम टिकाऊ और प्रभावकारी होता है । क्योंकि उसका उपचार उसीके अंदर होता है । उसका सबसे अधिक सबल तत्त्व है अज्ञेयवाद जो सारी अभिव्यक्ति के पीछे एक 'अज्ञेय' को मानते हुए अज्ञेय के क्षेत्र को बढ़ाता जाता है और अंत में जो कुछ भी अज्ञात है वह सब उसमें समा जाता है । उसका आधारवाक्य यह होता है कि शारीरिक इंद्रियां ही 'ज्ञान' के लिये हमारा एकमात्र साधन हैं और तर्कबुद्धि अपनी अधिक-से- अधिक विस्तृत और अधिक-से-अधिक सशक्त उड़ानों में भी इंद्रियों के प्रदेश से बाहर नहीं जा सकती । उसे हमेशा उन्हीं तथ्यों से व्यवहार करना चाहिये जिन्हें
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इन्द्रियां उसके सामने प्रस्तुत करें या जिनकी ओर इशारा करें । उन इशारों को भी हमेशा अपने मूल के साथ बंधा रहना पड़ेगा । हम उनके परे नहीं जा सकते । हम इनसे ऐसा पुल नहीं बना सकते जिससे किसी ऐसे क्षेत्र में पहुंचा जा सके जहां अधिक सशक्त और कम सीमित क्षमताओं की क्रिया होती हो और किसी और तरह के अन्वेषण की जरूरत हो ।
यह आधारवाक्य इतना मनमाना है कि यह अपने-आप ही अपनी अपर्याप्तता का अपराध घोषित करता है । इसका समर्थन केवल तभी किया जा सकता है जब हम उसके विपरीत प्रमाणों और अनुभवों के विशाल क्षेत्र की उपेक्षा कर दें या किसी तरह जैसी-तैसी व्याख्या करके उसे उड़ा दें, सभी मनुष्यों में विद्यमान उदात्त और उपयोगी क्षमताओं को, जो सचेतन या अस्पष्ट रूप से सक्रिय हैं, निकृष्टतम दशा में जो सोयी हुई हैं उन्हें अस्वीकार करें या उनकी उपेक्षा कर दें और अतिभौतिक व्यापारों के बारे में अन्वेषण करने से तबतक इंकार करें जबतक उनका भौतिक पदार्थ तथा उसकी गतिविधि के साथ संबंध न हो और उसे भौतिक शक्ति की एक अधीनस्थ क्रिया के रूप में न स्वीकार किया जाये । जैसे ही हम मन और अतिमानस की क्रियाओं का अन्वेषण, शुरू से ही उन्हें जड़ की किसी निचली गति के रूप में देखने के पूर्वग्रह के बिना, उनके अपने स्वरूप में देखने के लिये करेंगे, वैसे ही हम ऐसे व्यापार-समूह के संपर्क में आयेंगे जो जड़ भौतिक सूत्र की कठोर पकड़ और सीमित करनेवाले मतवाद से बच निकलते हैं । जिस क्षण हम यह जान लें, और हमारी विस्तृत होती हुई अनुभूतियां हमें जानने के लिये बाधित करती हैं, कि हमारी इन्द्रियों के क्षेत्र के परे ज्ञेय वास्तविकताएं हैं और मनुष्यों में ऐसी शक्तियां और क्षमताएं हैं जो भौतिक अंगों द्वारा उस इन्द्रिय जगत् से संपर्क तो रखती हैं जो हमारी सच्ची और संपूर्ण सत्ता का बाह्य कोष है पर वे भौतिक अंगों द्वारा नियंत्रित न होकर उनका नियंत्रण करती हैं, उसी क्षण अज्ञेयवाद का आधारवाक्य लुप्त हो जाता है । हम विशालतर कथन और सदा विकसनशील अन्वेषण के लिये तैयार हो जाते हैं ।
लेकिन पहले अच्छा हो कि हम मानवजाति जिस संक्षिप्त-सी तर्क-बुद्धिपरक अवधि में से गुजर रही है, उसकी अतिशय और अनिवार्य उपयोगिता को जान लें । क्योंकि प्रमाण और अनुभव का जो विशाल क्षेत्र फिर से अपने द्वार हमारे आगे खोलना शुरू कर रहा है उसमें सुरक्षा के साथ तभी प्रवेश किया जा सकता है जब बुद्धि को कड़ाई के साथ शुद्ध तापस कठोरता के लिये प्रशिक्षित किया जाये । यदि अपक्व मन उसे पकड़ ले तो बहुत संकटप्रद विकृतियों और भ्रातिकारी कल्पनाओं की संभावना रहती है । वास्तव में भूतकाल में सत्य के एक सच्चे केंद्र पर विकृतिकारी अंधविश्वासों और तर्कविरोधी मतों की ऐसी पपड़ी जम गयी कि सच्चे ज्ञान की ओर समस्त प्रगति असंभव हो गयी । कुछ समय के लिये यह जरूरी हो
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गया कि सत्य और उसके छद्मवेशों को एक साथ बुहार फेंका जाये ताकि एक नये प्रयाण और निश्चित प्रगति के लिये रास्ता साफ हो जाये । जड़वाद की तर्कणापरक वृत्ति ने मानवजाति की यह बड़ी सेवा की है ।
चूंकि जो क्षमताएं इन्द्रियों का अतिक्रमण करती हैं वे भी जड़तत्त्व में फंसी हुई हैं, उन्हें भी भौतिक शरीर में काम करना है, ये भी भावुक कामनाओं और स्नायविक आवेशों के साथ एक ही रथ खींचने के लिये जुती हुई हैं । अतः यह एक मिश्रित क्रिया की ओर खुली रहती हैं जिसमें सत्य को स्पष्ट करने की जगह अस्तव्यस्तता को प्रकाशित करने का भय रहता है । यह मिश्रित क्रियावली तब और भी अधिक संकटमय हो जाती है जब असंशोधित मन और अशुद्ध संवेदनों सहित मनुष्य आध्यात्मिक अनुभूति के उच्चतर क्षेत्रों में उठने का प्रयास करता है । मनुष्य अपने उद्धत और असामयिक साहस कार्यों के कारण उन निसार बादलों, अर्द्ध ज्योतिर्मय कुहासे या घने अंधकार के ऐसे प्रदेशों में खो जाता है जहां बिजली की कौंध तो आती है पर प्रकाश देने की जगह अंधा करने के लिये । प्रकृति अपनी प्रगति के लिये जो रास्ता चुनती है उसके लिये यह साहस निःसंदेह जरूरी है क्योंकि वह काम के साथ-साथ अपना मनोरंजन भी करती जाती है, फिर भी, तर्कबुद्धि के लिये यह उद्धत और असामयिक है ।
अत: यह आवश्यक है कि आगे बढ्ता हुआ ज्ञान अपने-आपको स्पष्ट, शुद्ध और नियंत्रित बुद्धि पर प्रतिष्ठित करे । यह भी जरूरी है कि कभी-कभी वह इन्द्रियग्राह्य तथ्य के संयम और भौतिक जगत् की ठोस वास्तविकताओं में लौटकर अपनी भूल-भ्रांतियों को ठीक कर ले । पृथ्वी-पुत्र के लिये पृथ्वी का स्पर्श हमेशा शक्तिवर्द्धक होता है, तब भी जब वह अतिभौतिक 'ज्ञान' की खोज में हो । यह भी कहा जा सकता है कि यद्यपि हम अतिभौतिक के शिखरोंतक तो हमेशा पहुंच सकते हैं परंतु उसकी पूर्णता पर तभी अधिकार पाया जा सकता है जब हम अपने पैर दृढ़ता से भौतिक पर जमाये रखें । जब कभी उपनिषद् विश्व में प्रकट होनेवाली 'आत्मा' का चित्रण करता है, तब तब कहता है, 'पदभ्यां पृथ्वी,१ ' पृथ्वी पाजस्यम्२, पृथ्वी उसकी पादभूमि है । और यह निश्चित है कि हम अपने भर्गतक जगत् के ज्ञान को जितना अधिक विस्तृत और जितना आधिक निश्चित बनायेंगे, उच्चतर ज्ञान बल्कि उच्चतम ज्ञान और ब्रह्म विद्या के लिये भी हमारा आधार उतना ही विस्तृत और निश्चित होगा ।
अतः मानवज्ञान के जड़वादीकाल से निकलते हुए हमें इस बारे में सावधान रहना चाहिये कि हम जिस चीज को छोड़ रहे हैं उसकी उद्धतता के साथ निंदा न करें या उससे प्राप्त लाभों का लेशमात्र भी तबतक न फेकें जबतक हम उनके
१ 'मुंडक २. १ .४.
२ बृहदारण्यक १. १. १.
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स्थान को भरने के लिये ऐसे प्रत्यक्ष अनुभवों और शक्तियों को न ला सकें जो पूरी तरह हमारी पकड़ में और सुरक्षित हों । बल्कि भगवान् के लिये नास्तिकवाद ने जो कार्य किया है उसे हम आश्चर्य और मान के साथ देखेंगे और ज्ञान की असीम वृद्धि की तैयारी के लिये अज्ञेयवाद ने जो सेवा दी है उसके लिये हम उसकी सराहना करेंगे । हमारे जगत् में भूल-भ्रांति हमेशा सत्य की परिचारिका और पथ खोजनेवाली रही है क्योंकि सचमुच भूल अर्द्ध सत्य है जो अपनी सीमाओं के कारण लड़खड़ाती है । बहुधा वह सत्य ही होता है जो छद्मवेश धारण करके आता है ताकि अपने गंतव्य स्थान के निकट अलक्षित रूप से पहुंच जाये । अस्तु, हम जिस महान् काल को छोड़ रहे हैं उसमें भूल का जो एक विश्वासपात्र सेविका का रूप रहा है, कठोर, ईमानदार, व्यवहार-शुद्ध, अपनी सीमाओं में संयत प्रकाशमान, एक अर्द्धसत्य रूप रहा है अगर वही बना रहे, वह विवेकहीन धृष्ट और पथभ्रष्ट न हो जाये तो अच्छा है ।
एक प्रकार का अज्ञेयवाद ही समस्त ज्ञान का अंतिम सत्य है । हम चाहे जिस मार्ग के अंततक पहुंचें, वहां विश्व एक अज्ञेय सद्वस्तु का प्रतीक और आभास मालूम होता है जो अपने-आपको मूल्यों की विभिन्न प्रणालियों में, भौतिक मूल्यों, प्राणिक तथा संवेदनशील मूल्यों, बौद्धिक, आदर्श तथा आध्यात्मिक मूल्यों में अनूदित करता है । 'तत्' हमारे लिये जितना अधिक वास्तविक बनता है उतना ही विचार की परिभाषा और शब्दों की अभिव्यंजना से दूर होता जाता है । ''न तत्र... वाग्गच्छित नो मन: '' १ वहां न वाणी की पहुंच है न मन की । फिर भी जैसे मायावादियों के साथ मिलकर प्रत्यक्ष रूप या प्रतीयमान जगत् की अवास्तविकता के बारे में अतिशयोक्ति करना संभव है उसी तरह अज्ञेय की अज्ञेयता के बारे में भी अतिशयोक्ति करना संभव है । जब हम कहते हैं कि वह अज्ञेय है तो सचमुच हमारा मतलब यह होता है कि वह हमारे विचार और हमारी वाणी की पकड़ से बच निकलता है । ये ऐसे यंत्र हैं जो हमेशा भिन्नता के बोध से आगे बढ़ते और परिभाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं । लेकिन अगर वह विचार के लिये ज्ञेय नहीं है तो उसे चेतना के परम प्रयास से पाया जा सकता है । बल्कि एक प्रकार का ऐसा ज्ञान भी होता है जो तादात्म्य के साथ एकरूप होता है और एक अर्थ में 'उसे' उसके द्वारा जाना जा सकता है । निश्चय ही उस ज्ञान को सफलता के साथ विचार और वाणी में नहीं दोहराया जा सकता । अगर हम उसे प्राप्त कर लें तो परिणाम होता है 'उस'का हमारी वैश्व चेतना के प्रतीकों में पुनर्मूल्यन । और यह केवल एक नहीं प्रतीकों की सभी श्रेणियों में होता है । और इसके परिणामस्वरूप हमारी आंतरिक सत्ता में और आंतरिक के द्वारा बाह्य जीवन में क्रांति आ जाती है । और इसके अतिरिक्त एक प्रकार का ऐसा ज्ञान भी है जिसके द्वारा तत् अपने-
१केन उपनिषद् १. ३.
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आपको तथ्यात्मक जीवन के उन सब नाम रूपों में प्रकट करता है जो साधारण बुद्धि से 'उसे' छिपाते ही हैं । हम भौतिक सूत्रों की सीमाओं को पार करके और प्राण, मन और अतिमानस की उन तथ्यों में जांच करके जो उनके स्वभावानुरूप हैं और न केवल उन अधीनस्थ गतिविधियों में जांच करके जिनके द्वारा वे अपने- आपको जड़तत्त्व के साथ जोड़ते हैं, हम उच्चतम तो नहीं, उच्चतर ज्ञान की पद्धति को पा सकते हैं ।
अज्ञात अज्ञेय नही, '' अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि '' १ । अगर हम अज्ञान का ही वरण न करें या अपनी पहली सीमाओं के लिये आग्रह न करें, तो यह जरूरी नहीं है कि यह हमारे लिये अज्ञात ही बना रहे । क्योंकि उन सब चीजों के लिये जो अज्ञेय नहीं हैं, विश्व की सभी चीजों के साथ मेल खाती हुई विश्व में ऐसी क्षमताएं हैं जो उनका ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं और मनुष्य में, जो अणु- ब्रह्मांड है, ये क्षमताएं हमेशा विद्यमान रहती हैं और एक विशेष स्थिति में विकसित हो सकती हैं । हों सकता है कि हम उन्हें विकसित न करना चाहें और जहां वे अंशत: विकसित हैं वहां हम उन्हें हतोत्साह करके क्षीण कर दें । परंतु मूलतः मनुष्य की सामर्थ्य के भीतर सभी संभव ज्ञान ज्ञेय है । और चूंकि मनुष्य में प्रकृति की आत्मसिद्धि के लिये अविच्छेद्य प्रेरणा विद्यमान है इसलिये हमारी क्षमताओं की क्रिया को एक सीमित क्षेत्र मे बंद रखने के लिये बुद्धि का कोई भी संघर्ष हमेशा के लिये सफल नहीं हो सकता । जब हम जडूतत्त्व को प्रमाणित कर चुकें और उसकी गुप्त क्षमताओं को चरितार्थ कर लें तो वही ज्ञान जो उस सामयिक सीमा मे सुविधा का अनुभव करता था, वैदिक नियन्ताओं की भांति चिल्ला उठेगा, ' निरन्यतष्चिदारत -आगे बढ़ो, अन्य क्षेत्रों में भी प्रगति करो ।२
अगर आधुनिक जड़वाद केवल भौतिक, स्थूल जीवन की नासमझी के साथ चुपचाप स्वीकृति होता तो प्रगति में अनिश्चित काल की देर लगती । लेकिन चूंकि ज्ञान की खोज ही उसका मर्म है इसलिये वह रुक न सकेगा । जब वह इन्द्रिय ज्ञान की सीमा और इन्द्रिय ज्ञान पर आश्रित तर्क तक पहुंचेगा तब स्वयं उसकी गति का वेग उसे आगे ले जायेगा । उसने जिस तेजी और निश्चिति के साथ दृश्य जगत् को अपनी बांहों में भरा है वह उसकी शक्ति और सफलता का सूचक है । जब उसने सीमा को लांघनेवाला डग भर लिया है तो हम आशा कर सकते हैं कि जो कुछ परे है उसकी विजय में भी इसी शक्ति और सफलता की पुनरावृत्ति होगी । उस प्रगति का धुंधला-सा आरंभ हमें दिखायी देने लगा है ।
न केवल अपनी अंतिम धारणा में, बल्कि ज्ञान के सामान्य परिणामों की एक बड़ी शृंखला में भी, हम चाहे जिस मार्ग से उसका अनुसरण करें, ज्ञान एक होने
१ केन उपनिषद् १. ३
२ ऋग्वेद १ .४. ५
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की ओर बढ़ रहा है । इससे बढ़कर देखने लायक और संकेतकारी कुछ भी नहीं है कि आधुनिक विज्ञान जड़ के प्रदेश में बड़ी हदतक उन्हीं धारणाओं और भाषा के उन्हीं सूत्रों को पुष्ट करता है जिन्हें एकदम भिन्न विधि से वेदांत ने, तत्त्वदार्शनिक मतों के वेदांत ने नहीं, मूल वेदांत, उपनिषदों के वेदांत ने पाया था । और दूसरी ओर वेदांत की ये धारणाएं अपना पूरा अर्थ, अपनी अधिक समृद्धि तभी प्रकट करती हैं जब उन्हें आधुनिक विज्ञान के द्वारा डाले गये नये प्रकाश में देखा जाये । उदाहरण के लिये वेदांत का यह कथन जो विश्व की चीजों का वर्णन इस रूप में करता है कि 'बहूनामेकं बीजं बहुधा य: करोति' १, यानी विश्व ऊर्जा ने एक ही बीज को नानाविध रूपों में सजाया है । भौतिक विज्ञान की यह प्रवृत्ति विशेष रूप से अर्थपूर्ण है कि वह एक ऐसे अद्वैत की ओर जा रही है जो बहुत्व के साथ मेल खाता है, वह उस वैदिक विचार की ओर बढ़ रही है कि एक ही सारतत्त्व है और उसके रूप, उसकी संभूतियां बहुत हैं । अगर जड़तत्त्व और शक्ति के द्वैतवादी आभास पर बल दिया जाये तो भी वह सचमुच इस अद्वैत के मार्ग में बाधक नहीं होता क्योंकि यह स्पष्ट होगा कि मूलभूत जड़ इन्द्रियों के लिये एक अभावात्मक चीज है । सांख्यों के 'प्रधान' की तरह वह द्रव्य का एक भाव रूप ही है और वस्तुतः हम अधिकाधिक उस बिंदुतक पहुंच रहे हैं जहां विचार का एक मनमाना भेद ही द्रव्य के रूप को ऊर्जा के रूप से अलग करता है ।
अंतत: जड़ पदार्थ अपने-आपको किसी अज्ञात शक्ति के सूत्रीकरण के रूप में प्रकट करता है, प्राण भी, जो अभीतक एक अथाह रहस्य है, भौतिक सूत्रीकरण में काराबद्ध संवेदनशीलता की अस्पष्ट ऊर्जा के रूप में अपने-आपको प्रकट करना शुरू करता है । और जब वह विभाजन करनेवाला अज्ञान दूर हो जाये जो हमें प्राण और जड़ के बीच एक खाई का भान कराता है, तब यह मानना कठिन हो जायेगा कि मन, प्राण और जड़ तत्त्व एक ही शक्ति के अलग-अलग तीन सूत्रीकरण, वैदिक ऋषियों के त्रिलोक के सिवा कुछ और हैं । तब यह धारणा भी बनी नहीं रह सकती कि जड़ भौतिक ऊर्जा ही 'मन' की जननी है । जो ऊर्जा जगत् की सृष्टि करती है वह इच्छा शक्ति के सिवा कुछ नहीं हो सकती और 'इच्छा शक्ति' अपने- आपको कार्य और परिणाम के लिये प्रयोग में लाती हुई चेतना ही तो है ।
यह कार्य और यह परिणाम अगर रूप में चेतना का आत्मनिवर्तन और जिस विश्व की उसने सृष्टि की है उसके अंदर किसी महान् संभावना को पूर्ण करने के लिये रूप के भीतर से आत्मविकास नहीं तो और क्या है ? और मनुष्य के अंदर उसकी चेतना, इच्छाशक्ति या संकल्प अंतहीन जीवन, असीम ज्ञान और अबाध शक्ति के लिये इच्छा नहीं तो और क्या है ? स्वयं भौतिक विज्ञान मृत्यु पर भौतिक विजय पाने के सपने देखना शुरू कर रहा है। उसमें ज्ञान के लिये कभी न
१ श्वेताश्वतरोपनिषद् ६.१२
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बुझनेवाली प्यास दिखायी देती है, वह मानवजाति के लिये पार्थिव शक्तिमत्ता जैसी चीज को कार्यान्वित कर रहा है । उसके कार्यों में देश और काल सिकुड़ते-सिकुड़ते अदृश्यता के बिंदुतक पहुंच रहे हैं । वह सैंकड़ों तरीकों से मनुष्य को परिस्थितियों का स्वामी बनाने की और इस तरह कार्य-कारण की बेड़िया शिथिल करने की कोशिश कर रहा है । सीमा का विचार, असंभव का विचार छाया जैसा नि:सार लगने लगता है उसकी जगह ऐसा लगने लगता है कि मनुष्य जिस चीज के लिये सतत इच्छा करे, उसे अंतत: पा सकेगा क्योंकि अंतत: जाति की चेतना उसके लिये साधन ढूंढ़ निकालती है । यह सर्वशक्तिमत्ता अपने-आपको व्यष्टि में नहीं, मानवजाति के उस सामुदायिक संकल्प में व्यक्त करती है जो व्यष्टि को अपना साधन बनाकर काम करता है` । फिर भी जब हम ज्यादा गहराई में देखें तो समुदाय का सचेतन संकल्प नहीं बल्कि एक अतिचेतन 'शक्ति' है जो केंद्र और साधन के रूप में व्यक्ति को और परिस्थिति और क्षेत्र के रूप में समष्टि को काम में लाती है । यह शक्ति मानव के अंदर भगवान् के सिवा और क्या है ? अनंत तादात्म्य, बहुविध एकता, सर्वदर्शी, सर्वशक्तिमान् ही तो है जो मनुष्य को अपनी प्रतिमा-स्वरूप बनाकर, अहंकार के क्रिया का केंद्र, जाति को अर्थात् समष्टिगत नारायण को, विश्व मानव को अपना सांचा और परिधि बनाकर उनके अंदर एकत्व, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता के किसी बिंब को प्रकट करना चाहता है जो भगवान् की आत्म- भावना हैं । ''मर्त्यो में'' जो अमर है वह भगवान् है और हमारी दिव्य शक्तियों में क्रिया करती हुई ऊर्जा के रूप में हमारे अंदर प्रतिष्ठित है --यों मर्त्येश्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वतिर्निधायि ।'' १ आधुनिक जगत् अपना लक्ष्य जाने बिना अपनी सभी क्रियाओं में इसी विशाल विश्वव्यापी प्रेरणा के अनुसार चल रहा है और अवचेतन रूपसे उसे पूरा करने की कोशिश करता है ।
लेकिन हमेशा एक सीमा होती है और एक बाधा होती है । ज्ञान में भौतिक क्षेत्र की सीमा होती है और शक्ति में भौतिक यंत्र की बाधा । लेकिन इसमें भी जो नयी प्रवृत्ति चल रही है वह अधिक स्वतंत्र भविष्य के बारे में बहुत अर्थपूर्ण है । जैसे भौतिक विज्ञान की सीमा-चौकियां अधिकाधिक उन किनारोंतक पहुंचाती जा रही हैं जो भौतिक को अभौतिक से पृथक् करते हैं उसी तरह क्रियात्मक विज्ञान की उच्चतम उपलब्धियां वे हैं जो उन यंत्रों को सरल बनाते-बनाते विलोपन बिंदुतक पहुंचा देती हैं, जिनके द्वारा उच्चतम प्रभाव पैदा किये जाते हैं । बेतार का तार नयी दिशा देने के लिये प्रकृति का एक बाहरी चिह्न और बहाना है । इसमें भौतिक शक्ति के मध्यवर्ती संचारण के लिये इन्द्रियग्राही भौतिक साधनों को हटा दिया जाता है । उनका उपयोग केवल संदेश भेजने और पाने के स्थानों पर किया जाता है । अन्ततोगत्वा इन्हें भी गायब हो जाना चाहिये क्योंकि जब अतिभौतिक के नियमों
१ ऋग्वेद ४.२.१.n
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और शक्तियों का भली-भांति अध्ययन उचित आरभ-बिंदु से किया जायेगा तो निश्चय ही ऐसे अमोघ साधन मिल जायेंगे जिनसे मन सीधा भौतिक ऊर्जा को पकड़कर उसे तेजी से ठीक-ठीक अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये लगा सकेगा । एक बार हम इसे मान लें तो वहीं पर हमें भविष्य के विशाल क्षेत्रों की ओर खुलनेवाले द्वार मिल जायेंगे ।
लेकिन अगर हमें जड़ जगत् के निकट स्थित लोकों का पूरा ज्ञान और उनपर पूरा अधिकार हो भी जाये तो भी एक सीमा रहेगी और उसके परे भी कुछ होगा । हमारे बंधन की आखिरी गांठ वहां है जहां बाह्य आंतरिक के साथ एकता में खिंच आता है, स्वयं अहंकार इतना सूक्ष्म हो जाता है मानों विलीन होने के बिंदु पर आ गया हो और अंत में हमारे कार्य का नियम आज की तरह एकता के किसी रूप की ओर संघर्ष करनेवाले बहुत्व का संघर्ष नहीं, बल्कि बहुत्व का आलिंगन करता हुआ और उसपर अपना अधिकार करता हुआ एकत्व हो जाता है । वहीं है अपने विशालतम राज्य पर दृष्टिपात करते हुए वैश्व ज्ञान का केंद्रीय सिंहासन । यही है स्वयं अपने ऊपर और अपने जगत् पर राज्य, स्वराज्य और साम्राज्य । यही है हमारे मानव जीवन के अंदर सालोक्य मुक्ति और साधर्म्य मुक्ति ।१
१ स्वराज्य और साम्राज्य -प्राचीन भावात्मक योग का दोहरा लक्ष्य ।
सालोक्य मुक्ति -भगवान् के साथ एक ही लोक में सचेतन सत्ता के निवास द्वारा मुक्ति ।
साधर्म्य मुक्ति -भगवान् के स्वभाव को अपनाने के द्वारा मुक्ति ।
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