Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २५
जड़तत्त्व की ग्रंथि
नाहं यातुं सहसा न द्वयेन ऋतं सपाम्यरुषस्य वृण्णः ।
... के धासिमग्ने अनृतस्य पान्ति क आसतो वचस: सन्ति गोपा: ।।
मैं ज्योतिर्मय प्रभु के सत्य की ओर न शक्ति द्वारा जा सकता हूं न
द्वैत द्वारा... वे कौन हैं जो अनृत के आधार की रक्षा करते हैं ?
असत् वाणी के संरक्षक कौन हैं ?
ऋग्वेद ५.१२.२, ४
नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीव: कुह कस्य शर्मन्नम्भ: किमासीद गहनं गभीरम् ।।
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्य आसीत् प्रकेत: ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न पर: किं चनास ।।
तम आसीत्तमसा गुह्ळमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् ।
तुच्छूयेनाभ्रुपिहितं यदासीत् तपसस्तन्महिनाजायतैक्य ।।
कामस्तदये समवर्तताधि मनसो रेत: प्रथमं यदासीत् ।
सतो बकुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ।।
तिरश्रिचिनो वितते रश्मिषामध: स्विदासी३दुपरि स्विदासी३त् ।
रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात् प्रयति: परस्तात् ।।
तब सत् नहीं था और असत् भी नहीं था, न तो अन्तरिक्ष था न
आकाश और न वह था जो इनके भी परे है । सबको किसने ढ़क
रखा था, वह कहां और किसकी शरण में था ? वह गहन, गंभीर
सागर क्या था ? न मृत्यु थीं न अमृतत्व और न ही दिन और रात
का ज्ञान था । वह एकमेव श्वास के बिना, अपने ही विधान से जीता
था । उसके सिवा कुछ न था और उसके परे भी कुछ नहीं । आरंभ
में तम ही तम से ढका हुआ था और यह सारा निश्चेतना का सागर
था । जब वैश्व सत्ता खण्हों में छिपी हुई थी तब अपनी ऊर्जा की
महिमा से 'वह एक' उत्पन्न हुआ । पहले वह भीतर ही भीतर
कामना के रूप में स्पंदित हुआ । यही मन का पहला बीज था ।
सत्य-द्रष्टाओं ने हृदय की इच्छा और मनीषा द्वारा असत् में सत् की
रचना की खोज की । उनकी किरण क्षितिजत: फैली । लेकिन वहां
नीचे क्या था, ऊपर क्या था ? वहां बीज का आधान करनेवाले
थे, वहां महिमाए थीं, वहां नीचे आत्म विधान था और ऊपर इच्छा ।
ऋग्वेद १०. १२९. १-५
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अगर हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं वह ठीक है -और हम जिस सामग्री पर काम कर रहे हैं उसमें कोई और संभव भी नहीं है -तो व्यावहारिक अनुभव और मन के लम्बे अभ्यास ने आत्मा और जड़ के बीच जो तीक्ष्ण विभाजन रच दिया है उसकी कोई आधारभूत वास्तविकता नहीं रह जाती । जगत् एक भेदमय, बहुविध एकत्व है । वह शाश्वत विषमताओं के बीच समझौते का सतत प्रयास या मेल न खा सकनेवाले विरोधों के बीच सदा बना रहनेवाला संघर्ष नहीं है । उसका आधार और आरंभ है अविच्छेद्य एकत्व जो अनंत वैविध्य को पैदा करता है, विभाजन और संघर्ष के पीछे एक सतत संगतिकरण जो सभी संभव वैषम्यों को विशाल लक्ष्यों के लिये एक ऐसी गुप्त चेतना और इच्छा में संबद्ध करे जो सदा-सर्वदा एक है और अपनी सारी जटिल क्रिया की स्वामिनी है, यह उसका मध्य में वास्तविक स्वरूप मालूम होता है । अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि उभरती हुई इच्छा और चेतना की पूर्ति और विजयकारी सामंजस्य ही उसकी निष्पत्ति होनी चाहिये । पदार्थ उसी का अपना रूप है जिसपर उसकी क्रिया होती है और यदि उस पदार्थ का एक छोर जड़तत्त्व है तो दूसरा छोर आत्मा है । दोनों एक हैं । हम जिसे जड़ पदार्थ के रूप में अनुभव करते हैं, आत्मा उसका सत्त्व और तत्त्व है । जो हमारी अनुभूति के लिये आत्मा है, 'जड़' उसका रूप और शरीर है ।
निश्चय ही, एक विशाल व्यावहारिक भेद है और उस भेद पर जगत्-सत्ता की अविभाज्य क्रम-परंपरा और निरंतर ऊपर उठती हुई श्रेणियां प्रतिष्ठित हैं । हम कह आये हैं कि पदार्थ चित्-सत्ता है जो अपने-आपको इन्द्रिय के आगे विषय के रूप में उपस्थित करती है ताकि जो कोई इन्द्रिय संबंध बने उसके आधार पर जगत् के निर्माण और विश्व की प्रगति का काम आगे चल सके । लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इन्द्रिय और पदार्थ के बीच संबंध का अपरिवर्तनशील रूप से बना एक ही आधार, एक ही मौलिक तत्त्व हो । उसके विपरीत ऊपर उठता हुआ और विकसित होता हुआ क्रम है । हम एक और पदार्थ के बारे में अभिज्ञ हैं जिसमें शुद्ध मन अपने स्वाभाविक माध्यम की तरह काम करता है । हमारी स्थूल इन्द्रियां जिस चीज की कल्पना द्रव्य के रूप में कर सकती हैं यह पदार्थ उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म, लचीला और नमनीय होता है । हम मन के पदार्थ के बारे में बात कर सकते हैं क्योंकि हम एक अधिक सूक्ष्म माध्यम के बारे में अभिज्ञ होते हैं जिसमें रूप उभरते हैं और क्रियाएं होती हैं । हम शुद्ध क्रियाशील प्राण-ऊर्जा के पदार्थ की बात कर सकते हैं जो जड़ पदार्थ के सूक्ष्मतम रूपों और उसकी स्थूल इन्द्रिय-ग्राह्य शक्ति की लहरों से भिन्न होती है । स्वयं आत्मा भी सत् का शुद्ध पदार्थ है जो अपने-आपको विषय-रूप में उपस्थित करता है लेकिन शारीरिक, मानसिक या प्राणिक संवेदन के आगे नहीं बल्कि एक शुद्ध आध्यात्मिक प्रत्यक्ष ज्ञान की ज्योति के आगे जिसमें स्वयं विषयी अपना विषय बन जाता है अर्थात् जिसमें कालातीत
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और देशातीत अपने-आपको सर्व सत्ता के आधार और आदि उपादान के रूप में एक शुद्ध आध्यात्मिक आत्म-धारणात्मक आत्म-विस्तार के अंदर देखता है । इस नींव के परे विषय और विषयी के बीच का सारा सचेतन भेद एक पूर्ण तादात्म्य में विलीन हो जाता है और तब वहां पदार्थ की बात तक नहीं होती ।
अतः यह शुद्ध धारणात्मक भेद है । मानसिक रूप से धारणात्मक नहीं, आध्यात्मिक रूप से धारणात्मक जिसका अंत व्यावहारिक भेद में होता है जो आत्मा से चल कर मन से होता हुआ, जड़ में उतरनेवाली क्रम-परंपरा की ओर और फिर जड़ से चलकर मन से होता हुआ आत्मा की ओर चढ़ती क्रम-परंपरा की रचना करता है । लेकिन वास्तविक ऐक्य कभी रद्द नहीं होता और जब हम वस्तुओं की आद्य और समग्र दृष्टितक वापिस पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वह कभी जड़ के स्थूल घनत्व में भी वास्तव में न तो क्षीण होता है न दुर्बल । ब्रह्म विश्व का कारण और समर्थक शक्ति तथा उसमें निवास करनेवाला तत्त्व ही नहीं है बल्कि उसका उपादान और एकमात्र उपादान है । जड़ पदार्थ भी ब्रह्म है और ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अगर वस्तुत: जड़ पदार्थ आत्मा से कटा हुआ होता तो ऐसा न होता । लेकिन जैसा कि हम देख आये हैं, वह दिव्य सत्ता का अंतिम रूप और विषयगत पक्ष मात्र है । उसके अंदर और उसके पीछे अखंड भगवान् सदा उपस्थित हैं, जैसे यह मूढ़ और तामसिक लगनेवाला जड़ हर जगह, हमेशा प्राण की गतिशील शक्ति से अनुप्राणित रहता है, जैसे यह गतिशील किंतु निश्चेतन लगनेवाला प्राण अपने अंदर हमेशा क्रियाशील रहनेवाले अदृश्य मन को छिपाये रखता है और वह उस मन के गुप्त व्यवहारों की छिपी हुई ऊर्जा भी है, जैसे सजीव शरीर में यह अज्ञानी, प्रकाशहीन और अंधेरे में टटोलते रहनेवाला मन अपनी वास्तविक आत्मा, अतिमानस द्वारा धारित और पूर्णत: निर्देशित होता है और वह अतिमानस जो उस जड़ में भी समान रूप से उपस्थित होता है जो अभीतक मानसिक नहीं बना हैं, उसी तरह समस्त जड़, साथ ही मन, प्राण और अतिमानस भीं ब्रह्म की, शाश्वत की, आत्मा की, सच्चिदानंद की अवस्थाएं मात्र हैं । यह ब्रह्म उनमें केवल रहता ही नहीं है, बल्कि ये सभी चीजें भी हैं यद्यपि इनमें से कोई भी चीज उसकी पूर्ण सत्ता नहीं है ।
लेकिन फिर भी यह धारणात्मक अंतर और व्यावहारिक भेद तो रहता ही है; चाहे जड़ पदार्थ आत्मा से वस्तुत: कटा हुआ न हो फिर भी इतनी व्यावहारिक निश्चितता के साथ अलग कटा हुआ प्रतीत होता है, वह अपने धर्म में इतना भिन्न, इतना विपरीत है, भौतिक जीवन सारे आध्यात्मिक अस्तित्व का इतना अधिक निषेध मालूम होता है कि उसे छोड़ देना ही कठिनाई से निकलने का एकमात्र संक्षिप्त मार्ग मालूम होता है और निःसंदेह है भी, परंतु कोई भी संक्षिप्त मार्ग या खंडित मार्ग समाधान तो नहीं होता । फिर भी, वहीं जड़ में ही समस्या का मूल है, वही
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बाधा खड़ी करता है । क्योंकि जड़ के कारण ही प्राण स्थूल, सीमित और मृत्यु तथा कष्ट से ग्रस्त रहता है, जड़ के कारण ही मन आधे से अधिक अंधा रहता है, उसके पर कतरे हुए और पांव एक संकरे अड्डे से बंधे रहते हैं और वह ऊपर की जिस बुहत्तता और स्वाधीनता को जानता है उससे दूर रखा जाता है । अतः आध्यात्म की ऐकान्तिक खोज करनेवाला यदि जड़ की कीचड़ से विरक्ति का अनुभव करता हुआ, प्राण की पाशविक स्थूलता से विद्रोह करता हुआ या मन के अपने बनाये हुए कारागार की संकीर्णता और अधोमुखी दृष्टि से अधीर होता हुआ इन सबसे नाता तोड़ करके निष्क्रियता और निश्चल नीरवता द्वारा आत्मा की अचल स्वाधीनता में लौट जाने का निश्चय करे तो यह उसके दृष्टिकोण से ठीक ही होगा । लेकिन यही एकमात्र दृष्टिकोण नहीं है और न हमारे लिये यह जरूरी है कि हम उसे इसलिये पूर्ण और चरम बुद्धिमत्ता मान लें क्योंकि उसे ऊंचा स्थान देनेवाले या महिमान्वित करनेवाले दीप्तिमान और सुनहरे उदाहरण मिलते हैं । बल्कि अपने-आपको समस्त आवेग और विद्रोह से मुक्त करके हमें यह देखना चाहिये कि विश्व की इस दिव्य व्यवस्था का अर्थ क्या है और जहांतक आत्मा का निषेध करनेवाली जड़ की इस महान् गांठ और उलझन की बात है, हमें उसके धागों का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिये और उन्हें अलग करना चाहिये ताकि किसी समाधान के द्वारा हम उसे सुलझा सकें न कि जोर-जबरदस्ती से उसे काट ही डालें । हमें इस कठिनाई को, इस विरोध को पहले तीक्ष्ण रूप में, उसे संकुचित करके नहीं, आवश्यक हो तो अतिशयोक्ति के साथ सामने लाना चाहिये और फिर उसका समाधान ढूंढ़ना चाहिये ।
तो जड़ आत्मा के आगे प्रथमत: जिस मूलभूत विरोध को उपस्थित करता है वह यह है कि वह अज्ञान के तत्त्व की पराकाष्ठा है । यहां चेतना अपने कर्मों के एक रूप में खो गयी और अपने-आप को भूल गयी है, जैसे कोई आदमी अत्यधिक तल्लीनता के समय न केवल यह भूल जाये कि वह कौन है बल्कि यह भी भूल जाये कि वह है भी और क्षणिक रूप में वही कर्म बन जाये जो किया जा रहा है और वही शक्ति बन जाये जो उसे कर रही है । स्वयं-प्रकाश आत्मा जो शक्ति की सभी क्रियाओं के पीछे अपनी उपस्थिति के बारे में अनंत रूप में अभिज्ञ है और उनकी मालिक है उसके बारे में ऐसा लगता है कि वह गायब हो गयी है, उसका अस्तित्व ही नहीं है । वह शायद कहीं है लेकिन ऐसा लगता है यहां उसने केवल एक मूढ़ और निश्चेतन जड़-शक्ति रख छोड़ी है जो यह जाने बिना कि वह स्वयं क्या है अनन्ततः सृजन और विनाश करती रहती है । वह यह भी नहीं जानती कि वह किस चीज की रचना कर रही है या वह रचना करती ही क्यों है या जिस चीज को एक बार बना चुकी है उसे क्यों नष्ट करती है । वह नहीं जानती क्योंकि उसमें मन नहीं है । वह परवाह नहीं करती क्योंकि उसमें हृदय नहीं है । और अगर
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यह जड़-विश्व तक का भी यथार्थ सत्य नहीं है, यदि इस मिथ्या दृश्य के पीछे एक मन है, एक इच्छा है और मन या मन की इच्छा से अधिक श्रेष्ठ कोई चीज है तो भी वह जड़-विश्व, उसकी रात्रि में से उभरनेवाली चेतना के आगे इस अंधेरी आकृति को ही सत्य के रूप में उपस्थित करता है और अगर यह सत्य न हो, केवल मिथ्यात्व हो तो भी यह बहुत प्रभावकारी मिथ्यात्व है क्योंकि वह हमारे समस्त जागतिक जीवन की परिस्थितियों को निश्चित करता और हमारी समस्त अभीप्सा और हमारे प्रयास को घेरे रहता है ।
कारण, जड़ विश्व की यही विकराल वस्तु है, यही उसका भयंकर और निर्दय चमत्कार है कि इस 'निर्मन' में से एक मन या अन्तत: बहुत-से मन उभरते हैं, वे बड़ी कमजोरी के साथ प्रकाश के लिये संघर्ष करते हैं । व्यष्टि रूप में वे असहाय होते हैं और जब महा अज्ञान के बीच, जो महा अज्ञान विश्व का नियम है, आत्म-रक्षा के लिये वे अपनी वैयक्तिक दुर्बलताओं को इकट्ठा करते हैं तो उनकी असहायता कुछ कम हो जाती है । इस हृदयहीन निश्चेतना में से और उसके कठोर न्यायक्षेत्र में से हृदयों ने जन्म लिया है, अभीप्सा की है, इस लौह सत्ता की अंधी और संवेदनहीन कूरता के बोझ तले उत्पीड़ित हुए हैं और अपना खून बहाया है, एक ऐसी क्रूरता जो उन पर अपना नियम लादती है और उनकी संवेदनशीलता में संवेदनशील हो उठती है, उन्हें भीषण और भयंकर लगती है । लेकिन आभासों के पीछे आखिर यह प्रतीयमान रहस्य है क्या ? हम देख सकते हैं कि यह वही चेतना है जो अपने-आपको खो चुकी थी और अब स्वयं अपनी ओर लौट रही है, एक दानवी आत्म-विस्मृति में से धीरे-धीरे कष्ट के साथ उभर रही है, एक ऐसे प्राण के रूप में जो भावी चेतन होता है, अर्द्ध चेतन होता है, अस्पष्ट रूप से चेतन होता है, पूरी तरह चेतन होता है और फिर अंत में चेतन से अधिक कुछ और होने के लिये, फिर से दिव्य रूप में आत्म चेतन, मुक्त, अनंत और अमर होने के लिये प्रयास करता है । लेकिन वह इस दिशा में ऐसे विधान के आधीन होकर काम करता है जो इन सभी चीजों से उल्टा है, वह जड़ की अवस्थाओं के आधीन यानी अज्ञान की पकड़ के विरोध में काम करता है । उसे जिन गतिविधियों का अनुसरण करना होता है, उसे जिन उपकरणों का उपयोग करना होता है उन्हें इस मूढ़ और विभाजित जड़ ने ही उसके लिये निर्धारित किया और बनाया है और वे पग-पग पर उस पर अज्ञान और सीमाएं लादते हैं ।
कारण, दूसरा मूलगत विरोध जिसे जड़-तत्त्व आत्मा के आगे उपस्थित करता है, यह है कि वह यान्त्रिक विधान के आधीन दासता की पराकाष्ठा है और जो कुछ अपने-आपको मुक्त करना चाहता है उसके आगे एक भीमकाय तामसिकता का विरोध खड़ा कर देता है । ऐसी बात नहीं है कि स्वयं जड़ ही तामसिक या निष्क्रिय निश्चेष्ट है बल्कि वह अनन्त गति, धारणातीत शक्ति, असीम क्रिया है जिसकी भव्य
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गतियां हमारी सतत सराहना का विषय रहती हैं, लेकिन जहां आत्मा मुक्त, अपना और अपने कार्यों का स्वामी है, उनसे बंधा नहीं है, विधान के आधीन न होकर उसका स्रष्टा है, वहां यह दानवीय जड़ एक निर्धारित और यान्त्रिक नियम से कठोरता के साथ बंधा है । यह नियम उसपर लादा जाता है । वह स्वयं न तो उसे समझता है और न उसने कभी उसकी कल्पना ही की है लेकिन वह उसे निश्चेतन भाव से चलाता रहता है जैसे एक मशीन काम करती है । वह नहीं जानता कि उसे किसने, किस प्रक्रिया से या किस उद्देश्य से बनाया था । और जब प्राण जाग उठता है और अपने-आपको भौतिक रूप और जड़ शक्तिपर आरोपित करने की कोशिश करता है और सभी चीजों का अपनी ही इच्छा के अनुसार और अपनी ही आवश्यकता के लिये उपयोग करना चाहता है, जब मन जागता है और स्वयं अपने और सभी चीजों के बारे में कौन, क्या और क्यों को जानना चाहता है और सबसे बढ़कर जब वह अपने ज्ञान का उपयोग वस्तुओं पर अपने अघिक मुक्त विधान और स्वयं-निर्देशक क्रिया को आरोपित करने के लिये करना चाहता है तो ऐसा लगता है कि जड़ प्रकृति उसके आगे झुक जाती है, यहांतक कि स्वीकृति और सहायता भी देती है यद्यपि कुछ संघर्ष के बाद, अनिच्छा के साथ और केवल एक हदतक ही । लेकिन उस हद के बाद वह एक आग्रही तमस, बाधा और प्रत्याख्यान प्रस्तुत करती है यहांतक कि प्राण और मन को इस बात के लिये मनाती है कि वे और आगे नहीं जा सकते, अपनी आंशिक विजय को अन्ततक नहीं ले जा सकते । प्राण बढ़ने और दीर्घकालतक जीने का प्रयत्न करता और सफल होता है लेकिन जब वह पूर्ण विस्तार और अमरता की खोज करता है तो उसे जड़ की लौह बाधा का सामना करना पड़ता है और वह अपने-आपको संकीर्णता और मृत्यु से बंधा पाता है । मन प्राण की सहायता करना चाहता है और सर्वज्ञान का आलिंगन करने के लिये, सर्व प्रकाश बन जाने के लिये, सत्य को पाने और सत्य ही हो जाने के लिये, प्रेम तथा आनंद को प्रतिष्ठित करने के लिये और प्रेम तथा आनंद बन जाने के लिये अपने भीतरी वेग की पूर्ति करना चाहता हैं लेकिन वहां सदा भौतिक प्राण की सहज प्रवृत्तियों की मार्ग-च्युति, भ्रांति और स्थूलता और स्थूल इन्द्रियबोध तथा स्थूल उपकरणों का इंकार और विघ्न-बाधा उपस्थित होते हैं । मूल हमेशा उसके ज्ञान का पीछा करती रहती है, अंधकार उसके प्रकाश का अभिन्न सखा और पृष्ठ-भूमि है; सत्य को सफलता के साथ खोजा जाता है लेकिन फिर भी जब पकड़ में आता है तो वह सत्य नहीं रहता और खोज को जारी रखना पड़ता है; प्रेम वहां होता तो है परंतु वह अपने-आपको संतुष्ट नहीं कर पाता, हर्ष वहां होता तो है परंतु वह अपना औचित्य प्रमाणित नहीं कर सकता और इनमें से हर एक अपने विरोधी तत्त्व को, क्रोध, घृणा और उदासीनता को, वितृष्णा, दुःख और कष्ट को अपने साथ ऐसे घसीटता चलता है मानों वे उसके साथ बंधी जंजीर हों या उन्हें इस तरह
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प्रक्षिप्त करता है मानों वे उसकी छाया हों । जड़ मन और प्राण की मांगों का उत्तर जिस तामसिकता से देता है वह तामसिकता अज्ञान पर और जो मूढ़ शक्ति अज्ञान का बल है उस पर होनेवाली विजय को रोकती है ।
और जब हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसा क्यों है तो हम देखते हैं कि तमस और बाधाओं की विजय जड़ की एक तीसरी शक्ति के कारण होती है क्योंकि जड़ आत्मा के सामने जो तीसरा मूलगत विरोध खड़ा करता है वह यह है कि वह विभाजन और संघर्ष के तत्त्व की पराकाष्ठा है । वस्तुतः अविभाज्य होने पर भी उसकी क्रिया का सारा आधार है विभाजनशीलता और ऐसा लगता है मानों उसे इस आधार से हटने की सदा के लिये मनाही कर दी गयी है, क्योंकि उसके ऐक्य की दो ही विधियां हैं, या तो इकाइयों को समूह बनाना या आत्मसात् करना जिसमें एक इकाई का दूसरी के द्वारा नष्ट होना जरूरी है । ऐक्य की ये दोनों विधियां शाश्वत विभाजन की स्वीकृति हैं क्योंकि पहली विधि भी एक करने की जगह इकाइयों का संयोजन करती है और इसका सिद्धांत ही वियोजन और विलयन की सतत संभावना और इस कारण उनकी अंतिम आवश्यकता को स्वीकार करता है । दोनों विधियां मृत्यु का सहारा लेती हैं, एक जीवन के साधन के रूप में, दूसरी उसकी शर्त्त के रूप में । दोनों यह मान लेती हैं कि जगत् के अस्तित्व की अवस्था ही ऐसी है जिसमें विभक्त इकाइयों में सदा एक दूसरे के साथ संघर्ष चलता है, हर एक अपने-आपको बनाये रखने, अपने समूहों को बनाये रखने, जो उसका प्रतिरोध करता है उसे बाधित या नष्ट करने, औरों को अपने खाद्य के रूप में अपने अंदर मिला लेने और निगल जाने का प्रयत्न करती है लेकिन अपने-आप बाध्यता, विनाश और भक्षण द्वारा निगले जाने के विरुद्ध विद्रोह करने और बच भागने की प्रवृत्ति रखती है । जब प्राणिक तत्त्व जड़ में अपनी क्रियायें अभिव्यक्त करता है तो वह अपनी सभी क्रियाओं के लिये बस यही आधार पाता है और उसे जूए के नीचे गरदन देने के लिये बाधित होना पड़ता है । उसे मृत्यु कामना और सीमितता के नियम को और भक्षण करने, अधिकार जमाने और शासन करने के उस सतत संघर्ष को स्वीकार करना पड़ता है जिसे हम प्राण के पहले रूप की नाई देख चुके हैं । जब मानसिक तत्त्व जड़ में अभिव्यक्त होता है तो उसे, वह जिस सांचे और सामग्री को लेकर क्रिया करता है, उससे परिसीमन का, निश्चित प्राप्ति से रहित खोज का वही नियम स्वीकार करना पड़ता है । अपनी उपलब्धियों का और अपने कार्यों के उपादानों का वही सतत संयोजन और वियोजन स्वीकार करना पड़ता है जिससे मनोमय प्राणी यानी मनुष्य द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान कभी अंतिम या संदेह और अस्वीकृति से मुक्त नहीं मालूम होता । और ऐसा लगता है कि उसका सारा श्रम क्रिया-प्रतिक्रिया के और बनाने और तोड़ने के छन्द में चलने के लिये, रचना और अल्पकालिक संरक्षण और लंबे विनाश के चक्रों में घूमने के लिये
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अभिशप्त है । उसके लिये कोई निश्चित और आश्वासित प्रगति नहीं है ।
विशेषत: सबसे अधिक घातक रूप से, जड़तत्त्व के अज्ञान, तमस और विभाजन उसमें उभरती हुई प्राणिक और मानसिक सत्ता पर दुःख और कष्ट का विधान और विभाजन, तमस और अज्ञान की अवस्था के प्रति असंतोष की बेचैनी लाद देते हैं । अगर मानसिक चेतना एकदम अज्ञानभरी होती, यदि वह किसी रीति-रिवाज के घोंघे में संतुष्ट होकर रुक जाती, उसे स्वयं अपने अज्ञान का पता न होता या वह चेतना और ज्ञान के उस सागर से पूरी तरह अनभिज्ञ होती जिससे वह घिरी रहती है तो निश्चय ही अज्ञान असंतोष का कोई दु:ख न का पाता । लेकिन जड़ में से उभरती हुई चेतना ठीक इसी चीज की ओर जागती है, पहले तो वह जिस जगत् में रहती है और जिसे जानना और जिसका मालिक होना उसके सुखी होने के लिये जरूरी है उसके बारे में अपने अज्ञान के प्रति जागती है, दूसरे अपने ज्ञान की अंतिम निष्फलता और सीमितता के प्रति, वह ज्ञान जिस बल और सुख को लाता है उसकी अल्पता और अस्थिरता के प्रति और एक ऐसी अनंत चेतना, ज्ञान तथा सच्ची सत्ता की अभिज्ञता के प्रति जागती है, केवल इसी चेतना में ही विजयी और अनंत सुख मिल सकता है । ना ही तमस की बाधा अपने साथ बेचैनी और असंतोष ला पाती यदि जड़ में से उभरती हुई प्राणिक संवेदनशीलता पूरी तरह निश्चेष्ट होती, यदि यह अपने अर्द्ध चेतन सीमित जीवन से संतुष्ट रहती, यदि जिस अनंत शक्ति और अमर जीवन के अंग रूप में, लेकिन फिर भी उससे अलग रहती हैं, उससे वह अनभिज्ञ रहती या यदि उसमें ऐसा कुछ भी न होता जो उसे उस अनंतता और अमरता में यथार्थ रूप से भाग लेने के लिये प्रयास करने को प्रेरित करता । लेकिन ठीक इसी चीज का अनुभव करने और उसे खोजने के लिये सारे प्राण को शुरू से प्रेरित किया जाता है, उसे अपनी असुरक्षितता का बोध होता है, बने रहने की आत्म-संरक्षण की आवश्यकता और उसके लिये संघर्ष का बोध होता है । अन्त में वह अपने जीवन की सीमाओं के प्रति जागता है और बृहतता तथा स्थायित्व की ओर, अनन्त और शाश्वत की ओर प्रेरणा अनुभव करना शुरू करता है ।
और जब मनुष्य में प्राण पूरी तरह आत्म-सचेतन हो जाता है तो यह अपरिहार्य संघर्ष और प्रयास तथा अभीप्सा अपने चरम बिंदु पर पहुंच जाते हैं और जगत् के दुःख-दर्द और विसंगति आखिर इतनी उग्रता से अनुभव होने लगते हैं कि उन्हें संतोष के साथ नहीं सहा जा सकता । मनुष्य अपनी सीमाओं से संतुष्ट रहने की कोशिश करता हुआ या वह जिस भौतिक जगत् में निवास करता है उस पर जितनी प्रभुता पायी जा सकती है उतनी पाने के लिये, उसकी निश्चेतन दृढ़ताओं पर अपने प्रगतिशील ज्ञान की कुछ मानसिक और स्थूल विजय के लिये, उसकी तमस् द्वारा परिचालित प्रचण्ड शक्तियों पर अपनी छोटी-सी, एकाग्र सचेतन इच्छा और शक्ति की विजय के लिये अपने संघर्ष को सीमित करता हुआ एक लंबे अर्से तक अपने-
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आपको शांत रख सकता है । लेकिन यहां भी वह जिन बड़े-से-बड़े परिणामों को पा सकता है उनकी सीमा, उनकी दरिद्र निर्णयहीनता उसके सामने आती है और वह परे देखने के लिये बाधित होता है । ससीम जबतक अपने से बड़े ससीम के बारे में या अपने से परे असीम के बारे में सचेतन रहता है जिसके लिये वह अब भी अभीप्सा कर सकता है, तबतक वह स्थायी रूप से संतुष्ट नहीं रह सकता । अगर ससीम इस तरह संतुष्ट हो सकता तो भी ससीम दीखनेवाला जीव, जो अपने-आपको वास्तव में असीम अनुभव करता है, या अंदर एक असीम की मात्र उपस्थिति या उसके अन्तर्वेग या स्पंदन को अनुभव करता है, वह तबतक संतुष्ट नहीं हो सकता जबतक इन दोनों में सामंजस्य न हो जाये, जबतक वह ससीम उस असीम को और असीम ससीम को अपने अधिकार में न कर ले, वह चाहे जिस परिमाण में और चाहे जिस तरह से हो । मनुष्य ऐसा ही सान्त दीखनेवाला अनन्त है और वह अनंत की खोज किये बिना नहीं रह सकता । वह पृथ्वी का पहला पुत्र है जो भीतर के भगवान् के बारे में, अपनी अमरता या अमरता की आवश्यकता के बारे में अस्पष्ट रूप से अभिज्ञ होता है और इस ज्ञान को जबतक वह अनंत प्रकाश, आनंद और शक्ति के स्रोत में बदलने योग्य नहीं हो जाता तबतक वह ज्ञान हांकनेवाला चाबुक या बलि का क्रूस ही बना रहता है ।
अगर जड़ का आरंभ कठोर विभाजनशीलता के सिद्धांत से न हुआ होता तो जड़ के अज्ञान और तमसू में अपने-आपको खो देनेवाली दिव्य चेतना, शक्ति, ज्ञान और इच्छा का यह क्रमिक विकास और यह बढ़ती हुई अभिव्यक्ति आनंद से अधिक आनंद और अंत में अनंत आनंद के सुखद प्रस्फुटन में हुई होती । व्यक्ति का पृथक् और सीमित मन, प्राण तथा शरीर की अपनी ही व्यक्तिगत चेतना में बंद रहना उस चीज को रोकता है जो अन्यथा हमारे विकास का प्राकृत धर्म होती । यह शरीर में आकर्षण और विकर्षण, आक्रमण और संरक्षण, असंगति और पीड़ा के विधान लाता है । क्योंकि सीमित चित्-शक्ति होने के नाते प्रत्येक शरीर यह अनुभव करता हैं कि वह ऐसी ही अन्य चित्-शक्तियों या वैश्व शक्तियों के आक्रमण, आघात, सबल संपर्क के प्रति खुला है । जहां वह अनुभव करता है कि उसपर कोई शक्ति टूट पड़ी है या वह संपर्क करनेवाली और ग्रहण करनेवाली चेतना में सामंजस्थ बैठाने में असमर्थ रहता है वहीं वह अशांति और पीड़ा अनुभव करता है आकर्षित या विकर्षित होता है, उसे अपनी रक्षा करनी होती है या आक्रमण करना होता है, जिसे वह सहन करने को अनिच्छुक या असमर्थ होता है उसीको भोगने के लिये उसे हमेशा विवश किया जाता है । भावनामय और ऐन्द्रिय मन में विभाजन का विधान उन्हीं प्रतिक्रियाओं को सुख-दुःख, प्रेम और घृणा, अत्याचार और अवसाद के ऊंचे मूल्यों के साथ लाता है । इन सबको कामना की अभिधा में ढाला जाता है और कामना के द्वारा प्रयास और दबाव में, दबाव से
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शक्ति के अतिरेक और उसकी कमी में, असामर्थ्य में, प्राप्ति और निराशा, उपलब्धि और जुगुप्सा, सतत संघर्ष, कष्ट और व्याकुलता में ढाला जाता है । सब मिलाकर मन में संकीर्णतर सत्य के विशालतर सत्य में आ मिलने, कम प्रकाश के अधिक प्रकाश में ले लिये जाने, निम्नतर इच्छा के उच्चतर रूपांतरकारी इच्छा में समर्पित होने, तुच्छ तुष्टियों के अधिक अभिजात और अधिक पूर्ण संतोष में बढ़ने के दिव्य विधान की जगह वह सत्य के वैसे ही द्वंद्वों को ले आता है जिनमें सत्य के साथ भ्रांति, प्रकाश के साथ अंधकार, शक्ति के साथ असमर्थता, खोज और प्राप्ति के सुख के साथ विरक्ति का और जो कुछ पाया है उसमें असंतुष्टि का दुःख लगा रहता है । मन प्राण और शरीर के दुःख के साथ अपने दुःख को भी ले लेता है और हमारी प्राकृत सत्ता की त्रिविध त्रुटि और अपर्याप्तता के बारे में अभिज्ञ हो जाता है । इस सबका अर्थ है आनंद का निषेध, सच्चिदानंद के त्रित्व का प्रतिवाद और अगर यह प्रतिवाद अलंध्य हो तो जीवन की व्यर्थता । क्योंकि जब सत्ता अपने-आपको चेतना और शक्ति के खेल में प्रक्षिप्त करती है तो गति की चाह निश्चित रूप से केवल गति के लिये ही नहीं करती बल्कि लीला से प्राप्त होनेवाली तृप्ति के लिये करती है और यदि लीला में कोई वास्तविक तृप्ति न मिले तो अंत में उसे अपने-आपको शरीर देनेवाली आत्मा का एक व्यर्थ प्रयास, उसकी बहुत बड़ी भूल, उसका प्रलाप मान कर छोड़ देना होगा ।
जगत् के बारे में निराशावादी मत का सारा आधार यहीं है -वह भले परवर्ती लोकों और अवस्थाओं के बारे में आशावादी हो परंतु पार्थिव जीवन और भौतिक जगत् के साथ व्यवहार करनेवाले मानसिक प्राणी की नियति के संबंध में निराशावादी रहता है । क्योंकि वह इस बात की पुष्टि करता है कि चूंकि भौतिक जीवन का स्वरूप ही विभाजन है और शरीरधारी मन का बीज ही आत्म-परिसीमन, अज्ञान और अहंकार है; अतः, धरती पर आत्मा की तुष्टि खोजना या जगत्-लीला के किसी परिणाम और दिव्य प्रयोजन और उत्कर्ष की खोज व्यर्थ और भ्रांति है । इस जगत् में नहीं, आत्मा के स्वर्ग में ही या आत्मा की जागतिक क्रियाओं में नहीं बल्कि आत्मा की सच्ची प्रशांति में ही हम जीवन और चेतना को दिव्य आत्मानंद के साथ फिर से एक कर सकते हैं । असीम अपने-आपको फिर से तभी पा सकता है जब वह अपने-आपको ससीम में खोजने के प्रयास को भूल और गलत कदम मानकर त्याग दे, ना ही भौतिक विश्व में मानसिक चेतना का आविर्भाव दिव्य परिपूर्ति का कोई आश्वासन ही दे सकता है क्योंकि विभाजन का तत्त्व जड़ का नहीं, मन का धर्म है । जड़ मन की एक भ्रांति मात्र है जिसमें मन विभाजन और अज्ञान के अपने नियम को ले आता है । अतः इस भ्रांति में मन केवल अपने-आपको ही पा सकता है । वह विभाजित जीवन की अपनी बनायी हुई त्रयी के बीच ही घूम सकता है । यहां वह आत्मा का एकत्व या आध्यात्मिक जीवन का सत्य नहीं पा सकता ।
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अब यह तो सच है कि जड़ में विभाजन का तत्त्व विभाजित मन की ही रचना हो सकता है जिसने अपने-आपको जड़ सत्ता में अवक्षिप्त कर लिया है; क्योंकि उस जड़ सत्ता की कोई आत्म-सत्ता नहीं होती, वह मौलिक व्यापार न होकर केवल एक रूप है जिसे ऐसी सर्वविभाजनकारी प्राण-शक्ति ने रचा है जो सर्वविभाजनकारी मन की धारणाओं को क्रियान्वित करती है । सत्ता को जड़ तत्त्व के अज्ञान, तमसू और विभाजन के इन रूपों में कायर्यन्वत करनेवाला विभाजनकारी मन अपने-आपको अपनी ही बनायी कारा में खो देता और बंदी बन जाता है, अपनी ही गढ़ी हुई जंजीरों में जकड़ जाता है । और अगर यह सच हो कि विभाजक मन ही सृष्टि का पहला तत्त्व है तो इसीको सृष्टि में संभव हो सकनेवाली अंतिम प्राप्ति भी होना चाहिये । और प्राण तथा जड़ के साथ व्यर्थ संधर्ष करनेवाली, अपने-आप उनसे पराजित होने के लिये उन्हें पराजित करनेवाली, अनंत काल तक निष्फल चक्र को चलाते रहनेवाली मानसिक सत्ता ही वैश्व जीवन का अंतिम और उच्चतम शब्द होगी । इसके विपरीत यदि अमर और अनंत आत्मा ने अपने-आपको जड़ द्रव्य के घने चोगे में छिपा रखा है और वहां वह अतिमानस की परम सृजनकारी शक्ति के द्वारा काम कर रही है और मन के विभाजनों और निम्नतम अथवा जड़ तत्त्व के शासन को अनुमति देती है तो यह बहु में एक की विकासमयी लीला की प्रारंभिक अवस्था है और इसमें ऐसा कोई परिणाम नहीं आता । दूसरे शब्दों में विश्व के रूपों में केवल मानसिक सत्ता ही नहीं छिपी हुई है बल्कि अनंत सत् ज्ञान और इच्छा है जिसका आविर्भाव पहले जड़ रूप में, फिर प्राण रूप में और फिर मन रूप में होता है और बाकी सब तब भी अप्रकट ही रहता है, तब आभासी निश्चेतना में से चेतना के आविर्भाव का एक और तथा अधिक संपूर्ण तत्त्व होना चाहिये । तब एक ऐसी अतिमानसिक आध्यात्मिक सत्ता का आविर्भाव असंभव नहीं रह जाता जो अपने मन, प्राण और शरीर की क्रियाओं पर विभाजनकारी मन के विधान की जगह एक उच्चतर विधान लागू करेगी । इसके विपरीत यह विश्व-सत्ता के स्वरूप की स्वाभाविक तथा अपरिहार्य निष्पत्ति है ।
जैसा कि हम देख आये हैं, इस तरह की अतिमानसिक सत्ता मन को उसके विभक्त अस्तित्व की ग्रंथि से मुक्त कर देगी और व्यष्टि-रूप मन को सर्वालिंगनकारी अतिमानस की एक उपयोगी गौण-क्रिया के रूप में काम में लायेगी, वह प्राण को भी विभक्त अस्तित्व की ग्रंथि से मुक्त कर देगी और व्यष्टि-रूप प्राण को केवल एकमेव चित् शक्ति की एक उपयोगी और गौण क्रिया मात्र के रूप में काम में लायेगी । इस तरह प्राण की सत्ता और आनंद एक विविधतापूर्ण एकत्व में संपन्न किये जायेंगे । तो क्या इसका भी कोई कारण हो सकता है कि वह शारीरिक सत्ता को भी मृत्यु विभाजन और परस्पर भक्षण के वर्तमान विधान से मुक्त न करे और शरीर के व्यष्टि-रूप का उपयोग दिव्य चित्-सत् के केवल एक
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अधीनस्थ पद के रूप में न करे जो सांत में अनंत के आनंद के लिये उपयोगी हो ? या क्यों यह आत्मा रूप पर पूरा-पूरा अधिकार रखते हुए मुक्त न रहे, अपने जड़ पदार्थ के बदलते हुए चोगे में सचेतन रूप से अमर क्यों न रहे, एकत्व, प्रेम और सौंदर्य के विधान के अधीनस्थ जगत् में आत्मानंद क्यों न प्राप्त करे ? और अगर आदमी पार्थिव जगत् का वह निवासी है जिसके द्वारा अंततः मानसिक का अतिमानसिक में रूपांतर साधित हो सकता है तो क्या यह संभव नहीं है कि वह साथ ही दिव्य मन, प्राण और दिव्य शरीर भी विकसित कर ले ? या अगर ये शब्द मानव शक्यता के बारे में हमारी वर्तमान सीमित धारणा को बहुत अधिक चौंकानेवाले हों तो क्या मनुष्य अपनी सच्ची सत्ता का, उसके प्रकाश, आनंद और बल का विकास करता हुआ मन, प्राण और शरीर के ऐसे दिव्य उपयोग की स्थिति में नहीं पहुंच सकता जिसमें मानव दृष्टि से और साथ-ही-साथ दिव्य दृष्टि से आत्मा का रूप में अवतरण न्यायोचित सिद्ध हो ?
उस चरम पार्थिव संभावना के रास्ते में जो एक चीज बाधा दे सकती है वह है अगर जड़ तत्त्व और उसके नियमोसंबधी हमारी वर्तमान दृष्टि ऐसा प्रस्तुत करे कि इन्द्रियों और पदार्थों के बीच, ज्ञाता-रूप भगवान् और ज्ञेय-रूप भगवान् के बीच संबंध ही एकमात्र संभव संबंध है और यदि अन्य संबंध संभव हों तो वे किसी भी हालत में यहां संभव नहीं हैं, उन्हें अस्तित्व के उच्चतर स्तरों पर खोजना होगा । उस हालत में, जैसा कि धर्म कहते हैं, हमें अपनी सारी दिव्य परिपूर्ति की खोज यहां से परे स्वर्गों में ही करनी होगी और धर्मों के दूसरे प्रतिपादन को, कि पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य हो या पूर्णता का राज्य हो, उसे भ्रम कहकर अलग कर देना होगा । यहां पर हम केवल आंतरिक तैयारी या विजय के लिये प्रयास कर सकते या उसे प्राप्त कर सकते हैं और भीतर मन, प्राण और अंतरात्मा को मुक्त करके हमें अविजित और अविजेय जड़ तत्त्व से मुंह मोड़ लेना होगा; अपुनरुज्जीवित और दुर्दमनीय धरती से हटकर अपने दिव्य पदार्थ को कहीं और पाना होगा । फिर भी इसका कोई कारण नहीं कि हम इस सीमित करने वाले परिणाम को स्वीकार करें । निश्चय ही स्वयं जड़-तत्त्व की भी और स्थितियां हैं । निःसंदेह, पदार्थ की दिव्य श्रेणियों की एक आरोहणकरी क्रम-परंपरा है । यह संभव है कि भौतिक सत्ता अपने विधान की अपेक्षा उच्चतर विधान को स्वीकार करके अपने-आपको रूपांतरित करे और उच्चतर विधान भी स्वयं उसीका हो क्योंकि वह उसके अन्तर की गहराई में हमेशा शक्यता रूप में अन्तर्निहित रहता है ।
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