दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २१

 

लोकों का क्रम

 

 सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा ।

गुहाशया निहिता: सप्त सप्त ।।

 

ये लोक सात हैं जिनमें निगूढ़ हृदय-रूपी निवास-स्थान में प्रच्छन्न

प्राण-शक्तियां विचरण करती हैं -सात गुणा सात ।

मुण्डकोपनिषद् २. १. ८

 

पञ्च जना मम होत्रं जुषन्तां गोजाता उत ये यज्ञियासः ।

पृथिवी न पार्थिवात्पात्वंहसोठन्तरिक्षं दिव्यात् पात्वस्मान् ।।

तन्तुं तन्वत् रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मत: पथो रक्ष धिया कृतान् ।

अनुल्वणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् ।।

सतो नूनं कवयः सं शिशीत वाशीभियांभिरमृताय तक्षथ ।

विद्वांसः पदा गुह्यानि कर्तन येन देवासो अमृतत्वमानशुः ।

 

पञ्चविध जन्मवाले (पञ्चना:) जो ज्योति से उत्पन्न और पूजनीय

हैं, मेरी आहुति स्वीकार करें; पृथ्वी पार्थिव अशुभ से हमारी रक्षा

करे और अंतरिक्ष दैवी विपदाओं से हमारी रक्षा करे । अंतरिक्ष में

तने हुए चमकते तंतु का अनुसरण करो, धी के द्वारा रचे गये

ज्योतिर्मय मार्गों की रक्षा करो, एक अक्षत कर्म को बुनो, मानव

त्ता बनो, दिव्य जाति का सृजन करो... । तुम सत्य के द्रष्टा हो,

उन चमकते भालों को तेज करो जिनसे तुम उसकी ओर का रास्ता

काटते हो जो अमर है । गुह्य लोकों के ज्ञाता, उनका निर्माण करो, उन

सीढ़ियों का निर्माण करो जिनके द्वारा देवों ने अमृतत्व पाया था ।

ऋग्वेद १०. ५३. ५,६, १०

 

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ: सनातन:।

तदेव शुक्रं तद्ब्रह्म तदेवामृतमुच्चते

तस्मिल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन एतद्वै तत् ।।

 

यही वह शाश्वत अश्वत्थ है जिसकी जड़ें ऊपर की ओर और

शाखाएं नीचे की ओर हैं । यही ब्रह्म है, यही अमृत है । इसीमें सब

लोक निवास करते हैं और कोई भी इसके परे नहीं जाता । ''यह''

और ''वह'' एक हैं ।

कठोपनिषद् २.३. १. ७५५

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     अगर जड़ जगत् में चेतना के आध्यात्मिक विकास को और व्यक्ति के पार्थिव शरीर में सतत या बारंबार जन्म को स्वीकार कर लिया जाये तो अगला प्रश्न यह उठता है कि क्या यह विकसनशील गति कोई पृथक् और अपने-आपमें संपूर्ण वस्तु है या बृहत्तर वैश्व समग्रता का अंग है जिसका जड़-जगत् केवल एक प्रदेश मात्र है । इस प्रश्न का उत्तर अंतर्लयन के उन सोपानों में पहले से ही निहित है जो विकास से पहले आते और उसे संभव बनाते हैः क्योंकि अगर उनका पहले होना एक तथ्य है तो ऐसे जगत् या कम-से-कम उच्चतर सत्ता के ऐसे स्तर होने चाहियें और उनका उस विकास के साथ कोई संबंध होना चाहिये जिसे उनके अस्तित्व ने संभव बनाया है । हो सकता है कि वे हमारे लिये जो करते हैं वह बस इतना ही हो कि वे अपनी प्रभावकारी उपस्थिति या धरती-चेतना पर दबाव द्वारा प्राण, मन और आत्मा के अंतर्लीन तत्त्वों को मुक्त करते हों, उन्हें अभिव्यक्त होने और जड़ प्रकृति पर अपना शासन स्थापित करने में समर्थ बनाते हों । लेकिन यह अत्यधिक मात्रा में असंभाव्य होगा कि संपर्क और हस्तक्षेप यहींपर बंद हो जायें; संभावना इस बात की है कि जड़- भौतिक जीवन तथा सत्ता के अन्य लोकों के जीवन में अविच्छेद्य, भले ही अवगुंठित क्यों न हों, आदान-प्रदान चलता रहता हो । अब यह जरूरी है कि इस समस्या को ज्यादा नजदीक से देखा जाये, उसे स्वयं उसके अपने रूप में देखा जाये और इस संबंध और पारस्परिक संपर्क के स्वभाव और सीमाओं को उस हदतक निर्धारित किया जाये जिस हदतक वह जड़-प्रकृति में विकासवाद और पुनर्जन्म के सिद्धांत को प्रभावित करता है ।

 

     अज्ञान में अंतरात्मा के अवरोहण को अतिचेतन आध्यात्मिक सद्वस्तु में से शुद्ध आध्यात्मिक सत्ता का आद्या निश्चेतना में और उसके अनुवर्ती भौतिक प्रकृति के विकसनशील आभासी जीवन में आकस्मिक पतन या अव्यवहित स्खलन माना जा सकता है । अगर ऐसा होता तो ऊपर निरपेक्ष होता और नीचे निश्चेतन, उसमें से जड़-जगत् की सृष्टि हुई होती और परिणामस्वरूप यहांसे वापिस जाना जड़ शरीरस्थ जगत्-सत्ता में से परात्पर नीरवता में वैसा ही अचानक या प्रपाती संक्रमण होता । जड़ और आध्यात्म पुरुष को छोड़कर कोई मध्यवर्ती शक्तियां या वास्तविकताएं न होतीं, जड़- भौतिक को छोड़कर कोई स्तर और जड़-जगत् को छोड़कर कोई लोक न होता । लेकिन यह विचार अति सरल और दृढ़ रचना है और यह सत्ता की जटिल प्रकृति के विशालतर दृष्टिकोण के आगे नहीं ठहर सकता ।

 

     निस्संदेह वैश्व जीवन की उत्पत्ति के बारे में और कई संभव विकल्प हैं जिनके फलस्वरूप चरम और अनम्य जगत्-संतुलन के अस्तित्व में आने की कल्पना की जा सकती है । हो सकता है कि सर्वेच्छा में इस तरह की कोई धारणा रही हो और उसका आदेश हुआ हो या जीव का कोई भाव या कोई गति अज्ञान के अहंकारात्मक जड़-जीवन की ओर हुई हो । यह माना जा सकता है कि शाश्वत

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व्यक्तिगत जीव ने अपने अंदर उठनेवाली किसी अव्याख्येय कामना से प्रेरित होकर अंधकार के अभियान की चाह की और अपने सहज प्रकाश में से निर्ज्ञान की गहराई में डुबकी लगायी जिसमें से अज्ञान का यह जगत् ऊपर उभरा या जीवों के एक समूह में, बहु में ऐसी प्रेरणा हुई होगी; क्योंकि एक व्यक्तिगत सत्ता से विश्व का निर्माण नहीं हो सकता । विश्व को या तो निर्वैयक्तिक होना चाहिये या बहु- वैयक्तिक या किसी वैश्व अथवा अनंत सत् का सृजन या आत्माभिव्यक्ति । हो सकता है कि इस कामना ने एक सर्वात्मा को निश्चेतना की शक्ति पर आधारित जगत् का निर्माण करने के लिये अपने साथ नीचे खींच लिया हो । अगर यह नहीं हैं तो शाश्वत रूप से सर्वज्ञ स्वयं सर्वात्मा ने सहसा अपने सर्व-ज्ञान को निश्चेतना के इस अंधकार में डुबकी लगवा दी होगी और साथ ही अपने अंदर के वैयक्तिक जीवों को भी प्राण और चेतना के आरोहणकारी सोपान द्वारा ऊर्ध्वामुखी विकास शुरू करने के लिये अपने साथ ले लिया हो । या अगर व्यक्ति पहले से मौजूद नहीं है, अगर हम सर्व-चेतना का सृजनमात्र हैं, अथवा आभासी अज्ञान की कल्पना हैं तो हो सकता है कि इन दोनों में किसी की भी स्रष्ट्री ने एक मूल अंधाधुंध प्रकृति में से नाम-रूप के विकास द्वारा इन असंख्य व्यष्टि-सत्ताओं की कल्पना की हो: तब जीव निश्चेतन शक्ति-द्रव्य के अविवेकी द्रव्य का, जो भौतिक विश्व में वस्तुओं का पहला रूप हैं, एक अस्थायी उत्पादन होगा ।

 

     इस मान्यता के अनुसार या इनमें से किसीके अनुसार सत्ता के केवल दो स्तर होंगे : एक ओर है जड़-विश्व जिसका सृजन किया है निश्चेतन में से शक्ति के अंधे निर्ज्ञान ने या प्रकृति ने जो शायद किसी आंतरिक अननुभूत आत्मा की आज्ञा का पालन करती है, जो आत्मा उसकी निद्राचारी क्रियाओं पर शासन करती है । दूसरी ओर वह अतिचेतन एकमेव है जिसकी ओर हम निश्चेतना और अज्ञान से वापिस जाते हैं । या फिर हम यह कल्पना कर सकते हैं कि केवल एक ही लोक है, जड़सत्ता, जड़ विश्व की आत्मा से भिन्न कोई अतिचेतन नहीं है । अगर हम देखें कि सचेतन सत्ता के और लोक भी हैं और यह कि जड़-भौतिक विश्व को छोड़कर अन्य जगत् भी हैं, तो इन विचारों को पुष्ट करना कठिन हो जायेगा । लेकिन हम यह मानकर इस निराकरण से छुटकारा पा सकते हैं कि इन जगतों का सृजन बाद में विकसनशील जीव द्वारा या उसके लिये निश्चेतना में से उसके आरोहण के समय किया गया होगा । इनमें से किसी भी दृष्टि के अनुसार विश्व निश्चेतना में से विकास-क्रम होगा -या तो जड़-जगत् की एकमात्र और पर्याप्त भूमिका या रंगमंच के साथ अथवा लोकों के चढ़ते हुए सोपान के साथ -जिसमें एक दूसरे में विकसित हो रहा हो, जिससे मूल सद्वस्तु की ओर लौटने के लिये श्रेणीबद्ध मार्ग पाने में सुविधा हो । हमारी अपनी दृष्टि यह रही है कि विश्व अतिचेतन सच्चिदानंद में से अपने-आप क्रमबद्ध किया हुआ विकास है । लेकिन इस विचार के अनुसार

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यह निश्चेतना के किसी ऐसे ज्ञान की ओर विकास के सिवा कुछ न होगा जो किसी आद्य अज्ञान या आरंभ करनेवाली कामना के विनाश द्वारा कुजात जीव के लोप या भ्रांत जगत्-अभियान में से बच निकलने के लिये पर्याप्त हो ।

 

     लेकिन ऐसे सिद्धांतों में या तो मन की प्रवर्तक शक्ति का प्रमुख महत्त्व अंतर्निहित होता है या व्यष्टिगत सत्ता का प्रमुख महत्त्व होता है । दोनों का वस्तुत: बहुत बड़ा स्थान है लेकिन एकमेव शाश्वत आध्यात्म पुरुष ही आरंभिक शक्ति और आद्या सत्ता है । भाव जो कल्पनात्मक रूप से सृजनशील है -वह सच्चा विचार नहीं जो सत्ता है और जो उससे अभिज्ञ है जो उसके अंदर है और अपने-आप उस सत्य-अभिज्ञता की शक्ति के कारण आत्म-स्रष्टा है -वह मन की एक गति है, कामना मन के अंदर प्राण की गति है । तो प्राण और मन पूर्ववर्ती शक्तियां रहे होंगे और जड़-जगत् के सृजन के निर्धारक रहे होंगे और उस हालत में वे समान रूप से अपनी अति-भौतिक प्रकृति के जगतों का सृजन भी कर सकते हैं । या फिर हमें यह मानना चाहिये कि जिसने क्रिया की वह किसी व्यष्टि या वैश्व मन या प्राण की कामना न होकर आध्यात्म पुरुष के अंदर इच्छा थी;  सत् की एक ऐसी इच्छा जो अपने किसी अंश को या अपनी चेतना के किसी अंश को फैला रही थी, जो एक सर्जक भाव को या आत्म-ज्ञान को या अपनी आत्म-क्रियाशील शक्ति की प्रेरणा को या अपने अस्तित्व के आनंद के किसी विशेष रूपायन की ओर एक घुमाव को सिद्ध कर रही थी । लेकिन अगर जगत् का सृजन वैश्व सत्ता के आनंद के द्वारा नहीं बल्कि व्यष्टिगत जीव की कामना के लिये, उसके अज्ञानभरे अहंकारपूर्ण सुख की सनक के लिये किया गया है तो परात्पर भगवान् या वैश्व सत्ता नहीं बल्कि मनोमय व्यष्टि को विश्व का स्रष्टा और साक्षी होना चाहिये । भूतकाल की मानव विचारधारा में हमेशा व्यष्टि-सत्ता वस्तुओं की अग्रिम योजना में बृहदाकार रूप में छायी रही है और महत्त्व के प्रमुख आयामों मे अतिविशाल रूप से छायी रही है । अगर अब भी इन अनुपातों को स्वीकार किया जाये तो सृष्टि के ऐसे जन्म की कल्पना स्वीकार की जा सकती है क्योंकि व्यष्टिगत पुरुष में अज्ञान के जीवन के लिये इच्छा या उसके लिये स्वीकृति निश्चय ही जड़-प्रकृति के अंदर आध्यात्म पुरुष के प्रतिविकासात्मक अवरोहण में क्रियाशील चेतना की गतिविधि का भाग होगी । लेकिन जगत् वैयक्तिक मन की सृष्टि नहीं हो सकता और न ही उसके द्वारा अपनी चेतना की लीला के लिये बनाया गया रंगमंच हो सकता है और न ही उसका सृजन केवल अहंकार की लीला, उसकी तुष्टि या कुंठा के लिये किया जा सकता है । जब हम इस बोध की ओर जागते हैं कि वैश्व का महत्त्व सबसे अधिक है और व्यक्ति उसपर निर्भर है तो हमारी बुद्धि के लिये इस तरह का सिद्धांत असंभव हो जाता है । जगत् अपनी गतिविधि में इतना बृहत् है कि उसकी क्रियाओं का ऐसा विवरण विश्वसनीय नहीं होता । केवल कोई वैश्व शक्ति या वैश्व

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सत्ता ही विश्व का सर्जक या धारक हो सकती है और उसमें भी वैश्व वास्तविकता, अर्थ या तात्पर्य होना चाहिये, व्यष्टिगत नहीं ।

 

     तदनुसार, जगत् का सृजन करनेवाले या उसमें भाग लेनेवाले इस व्यक्ति, उसकी कामना और अज्ञान के लिये उसकी स्वीकृति, जगत् के अस्तित्व में आने से पहले से ही जाग्रत् रही होगी । वह किसी विश्वातीत अतिचेतन में एक तत्त्व की भांति रहा होगा जिसमें से वह आता है और जिसमें वह अहंकार के जीवन में से वापिस लौट जाता है । हमें एकमेव के अंदर बहु की मौलिक अंतयर्यामिता माननी होगी । तब यह कल्पना की जा सकती है कि किसी लोकातीत अनंत में एक इच्छा या एक वेग या एक आध्यात्मिक आवश्यकता बहु में से कुछ में आलोड़ित हुई हो जिसने उन्हें नीचे की ओर अवक्षिप्त किया और इस अज्ञान के जगत् की सृष्टि को जरूरी बनाया । लेकिन चूंकि, एकमेव जीवन का प्रथम तथ्य है, चूंकि, बहु एकमेव पर आश्रित है, एकमेव के जीव हैं, सत् की सत्ताएं हैं अतः इसी सत्य को वैश्व सत्ता के आधारभूत तत्त्व का निर्धारण करना चाहिये । वहां हम देखते हैं कि वैश्व व्यष्टि से पहले आता है, उसे उसका क्षेत्र प्रदान करता है, यह वही है जिसमें वह वैश्व रूप से निवास करता है यद्यपि उसका उद्गम परात्पर में है । यह व्यष्टिगत जीव यहां सर्वात्मा के आधार पर रहता है और उसीपर निर्भर है । बिल्कुल स्पष्ट है कि सर्वात्मा व्यष्टि के आधार पर नहीं रहता, न उसपर निर्भर है । वह व्यष्टिगत जीवों का कुलयोग, व्यक्तियों के सचेतन जीवन द्वारा निर्मित बहुत्ववादी समग्रता नहीं है । अगर किसी सर्वात्मा का अस्तित्व हैं तो उसे वह एकमात्र वैश्वात्मा होना चाहिये जो एकमात्र वैश्व शक्ति को उसके कार्यों में सहारा देती है और वह यहांपर वैश्व सत्ता की अभिधा में परिवर्तित करके एकमेव पर बहु की निर्भरता के प्राथमिक संबंध को दोहराती है। यह कल्पनातीत है कि बहु ने स्वतंत्र रूप से या एकमेव इच्छा से हटकर वैश्व सत्ता की कामना की और अपनी कामना द्वारा परम सच्चिदानंद को अनिच्छा के साथ या सहिष्णुता के साथ निर्ज्ञान में उतरने के लिये बाधित किया । यह तो वस्तुओं की सच्ची निर्भरता को एकदम उलट देना होगा । यदि जगत् सीधा बहु की इच्छा से या आध्यात्मिक प्रेरणा से उत्पन्न हुआ होता, जो एक अर्थ में संभव बल्कि संभाव्य भी है, फिर भी उस लक्ष्य के लिये पहले सच्चिदानंद के अंदर इच्छा पैदा हुई होगी अन्यथा यह प्रेरणा कहीं भी न उठ सकती जो सर्वेच्छा को यहां कामना में अनूदित करती है क्योंकि जो अहंकार में कामना बन जाती है वह आध्यात्म पुरुष में इच्छा होती है । एकमेव, सर्वात्मा, जो अकेला व्यष्टि की चेतना को निर्धारित करता है उसे जड़-भौतिक विश्व में, व्यक्ति अज्ञान का अवगुंठन अपने ऊपर डाले उससे पहले निश्चेतन प्रकृति का अवगुंठन स्वीकार करना होगा ।

 

     लेकिन एक बार हम परम और वैश्व सत्ता की इस इच्छा को जड़ विश्व के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त के रूप में स्वीकार कर लें तो फिर कामना को सर्जक

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तत्त्व के रूप में स्वीकार करना संभव नहीं रहता क्योंकि परम पुरुष या सर्व सत्ता में कामना के लिये कोई स्थान नहीं रहता । उसे किसी चीज की कामना नहीं होती । कामना अपूर्णता, अपर्याप्तता का, किसी ऐसी चीज का परिणाम है जो अधिकार में नहीं है या जिसका भोग नहीं किया गया और सत्ता जिसे अधिकार करने या भोगने के लिये खोजती है । परम पुरुष या वैश्व सत्ता में सर्व-सत्ता का आनंद हो सकता है लेकिन उस आनंद के लिये कामना विजातीय होती है -वह केवल उस अपूर्ण विकसनशील अहंकार का ही जन्मसिद्ध गुण है जो वैश्व क्रिया की उपज है । इसके अतिरिक्त अगर आध्यात्म पुरुष की सर्व-चेतना ने जड़ की निश्चेतना में डुबकी लगाने की इच्छा की तो वह इसलिये होगी कि यह उसके आत्म-सृजन या अभिव्यक्ति की संभावना थी । लेकिन एकमात्र जड़ विश्व और वहां निश्चेतना में से आध्यात्मिक चेतना में विकास सर्व सत्ता की अभिव्यक्ति की एकाकी और सीमित संभावना नहीं हो सकता । यह तभी हो सकता था जब जड़ ही अभिव्यक्त सत्ता की मूल शक्ति और मूल रूप होता और आत्मा के आगे कोई और विकल्प न होता और वह जड़-तत्त्व को आधार बनाकर निश्चेतना के द्वारा अभिव्यक्त होने के सिवा अभिव्यक्त हो ही न सकती । यह हमें जड़वादी विकसनशील सर्वेश्वरवाद की ओर ले आता है । जो सत्ताएं विश्व में बसी हैं उन सबको हमें एकमेव की आत्माएं मानना होगा, ऐसी आत्माएं जो यहां उसके अंदर पैदा हुई हैं और निर्जीव, सजीव और मानसिक रूप से विकसित रूपों द्वारा तबतक विकसित होती रहेंगी जबतक अतिचेतन सर्वेश्वर में उनके अविभक्त तथा संपूर्ण जीवन की पुनःप्राप्ति न हो जाये और उसका विश्वव्यापी एकत्व उनके विकास के लक्ष्य और अनंत के रूप में न आ जाये । ऐसी हालत में हर चीज यहीं विकसित हुई है; प्राण, मन और आत्मा जड़ विश्व में उसीकी गुप्त सत्ता की शक्ति द्वारा एकमेव में से उठे हैं और हर चीज यहां जड़ विश्व में अपनी परिपूर्ति पा लेगी । तब अतिचेतन का कोई अलग लोक नहीं है क्योंकि अतिचेतन यहीं उपस्थित है, कहीं और नहीं । कोई अतिभौतिक जगत् नहीं है, जड़तत्त्व के बाहर अतिभौतिक तत्त्वों की कोई क्रिया नहीं है, पहले से ही उपस्थित मन और प्राण का जड़ भूमि पर कोई दबाव नहीं है ।

 

     तब यह पूछा जा सकता है कि मन और प्राण क्या हैं और उत्तर यह दिया जा सकता है कि वे जड़-तत्त्व या जड़ की ऊर्जा के उत्पादन हैं । या वे चेतना के ऐसे रूप हैं जो निश्चेतना से अतिचेतना की ओर उठते हुए विकास के परिणाम हैं । चेतना अपने-आपमें केवल संक्रमण का पुल है । यह पुरुष है जो अपनी स्वाभाविक ज्योतिर्मय अतिचेतना की समाधि में डुबकी लगाने से पहले अपने बारे में अंशत: अभिज्ञ हो रहा है । अगर यह भी प्रमाणित हो जाये कि विशालतर मन और प्राण के लोक भी हैं तो वे इस मध्यवर्ती चेतना की आत्मनिष्ठ रचनाएं होंगी जो उस आध्यात्मिक परमोत्कर्ष के मार्ग में खड़ी की गयी हैं । लेकिन यहां कठिनाई यह है

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कि मन और प्राण जड़-तत्त्व से इतने भिन्न हैं कि वे उसके उत्पादन नहीं हो सकते । स्वयं जड़-तत्त्व ऊर्जा का उत्पादन है, मन और प्राण को उसी ऊर्जा के श्रेष्ठतर उत्पादन माना जा सकता है । अगर हम एक वैश्व आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करें तो ऊर्जा आध्यात्मिक होनी चाहिये । प्राण और मन को आध्यात्मिक ऊर्जा के स्वतंत्र उत्पादन और अपने-आपमें आत्मा की अभिव्यक्ति की शक्तियां होना चाहिये । तब यह मानना तर्क-संगत नहीं रहता कि केवल आध्यात्म पुरुष और जड़- तत्त्व का अस्तित्व है, कि वे दोनों एक-दूसरे का सामना करती हुई वास्तविकताएं हैं और यह कि जड़-तत्त्व आत्मा की अभिव्यक्ति के लिये एकमात्र संभव आधार है; तब एकमात्र जड़ जगत् के होने का विचार एकदम अतर्कसंगत हो जाता है। आध्यात्म सत्ता में यह क्षमता होनी चाहिये कि वह अपनी अभिव्यक्ति को मानसिक या प्राणिक तत्त्व पर आधारित करने में समर्थ हो, केवल जड़तत्त्व पर नहीं । तब मन के लोक और प्राण के लोक भी हो सकते हैं और तर्कसंगत रूप से होने भी चाहियें । हो सकता है कि ऐसे लोक भी हों जो जड़तत्त्व के अधिक सूक्ष्म और अधिक नमनीय, अधिक सचेतन तत्त्वों पर आधारित हों ।

 

    तब तीन प्रश्न उठते हैं जो आपस में संबंध रखते या एक-दूसरे पर आश्रित हैं : क्या ऐसे लोकों के अस्तित्व के बारे में कोई प्रमाण या कोई सच्चा संकेत है और अगर उनका अस्तित्व है तो क्या उनका स्वरूप वैसा ही है जिसकी ओर हमने संकेत किया है, क्या वे जड़ और आध्यात्म सत्ता के बीच सोपान-परंपरा की शृंखला और यौक्तिक व्यवस्था के अंतर्गत उठते या उतरते हैं; अगर उनकी सत्ता का यही सोपान है तो क्या वे और तरह से बिल्कुल असंबद्ध और स्वतंत्र हैं या जड़ तत्त्व के जगत् पर उच्चतर लोकों का संबंध है और पारस्परिक क्रिया होती है ? यह तथ्य है कि मानवजाति लगभग अपने अस्तित्व के आरंभ से, या जहांतक इतिहास या परंपरा की पैठ है, अन्य लोकों के अस्तित्व पर और उनकी शक्तियों और सत्ताओं और मानवजाति के बीच की संचार-व्यवस्था की संभावना पर विश्वास करती आयी है । मानव विचार के पिछले तर्क-प्रधान युग में, जिसमें से हम अभी बाहर निकल रहे हैं, इस विश्वास को चिरकालीन अंधविश्वास मानकर बुहार फेंका गया । उसकी सफाई के सभी प्रमाणों और संकेतों को उचित विचार किये बिना ही यह कहकर नकार दिया गया कि वे मूल रूप से ही मिथ्या हैं और खोजबीन के योग्य नहीं, क्योंकि वे इस स्वयंसिद्ध सत्य से मेल नहीं खाते कि केवल जड़ और जड़ जगत् और उसके अनुभव ही सत्य हैं । सच्चे होने का दावा करनेवाले बाकी सब अनुभव या तो भ्रम होने चाहियें या ढोंग या अंध श्रद्धाभरी आशुविश्वासिता और कल्पना का आत्मपरक परिणाम । या फिर अगर वह तथ्य है तो भी जैसा आभास होता है उससे भिन्न होगा और किसी भौतिक कारण से उसकी व्याख्या की जा सकेगी । ऐसे तथ्य का कोई प्रमाण तबतक स्वीकार नहीं किया जा सकता

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जबतक कि वह विषयगत न हो और उसका स्वरूप भौतिक न हो । अगर वह तथ्य बहुत ही प्रत्यक्ष रूप से अतिभौतिक हो तब भी उसे तबतक नहीं स्वीकारा जा सकता जबतक कि वह किसी भी कल्पनागम्य अनुमान या धारणागम्य अटकल के द्वारा पूरी तरह अव्याख्येय नहीं मान लिया जाता ।

 

     यह स्पष्ट होना चाहिये कि अतिभौतिक तथ्य के लिये भौतिक मान्य प्रमाण की यह मांग अयुक्तियुक्त और अतार्किक है । यह भौतिक मन की असंगत वृत्ति है जो यह मान लेती है कि केवल विषयगत और भौतिक ही मूलतः वास्तविक हैं और जो बाकी सबको केवल आत्मपरक कहकर एक ओर कर देती है । अतिभौतिक तथ्य भौतिक जगत् पर आघात कर सकता और भौतिक परिणाम पैदा कर सकता है; वह हमारी भौतिक इन्द्रियों पर प्रभाव भी डाल सकता और उनके आगे अभिव्यक्त हो सकता है; लेकिन यह उसकी निरपवाद क्रिया या सबसे अधिक स्वाभाविक गुण या प्रक्रिया नहीं हो सकता । साधारणत: उसे हमारे मन या प्राण- सत्ता पर -जो हमारे उसी श्रेणी के अंग हैं जिनका वह स्वयं है -सीधा प्रभाव या ठोस संस्कार डालना चाहिये और फिर वह उनके द्वारा तथा परोक्ष रूप से -यदि हो सके तो -भौतिक जगत् और भौतिक जीवन पर प्रभाव डाल सकता है । अगर वह अपने-आपको गोचर बना भी ले तो यह हमारी सूक्ष्म इन्द्रियों के लिये होता है, बाहरी भौतिक इन्द्रियों के लिये तो यह गौण ही रहता है । यह. गौण स्थूल रूप धारण करना निश्चय ही संभव है । यदि सूक्ष्म शरीर और उसके इन्द्रिय-संगठन की क्रिया का भौतिक शरीर और उसके भौतिक अवयवों की क्रिया के साथ मेल हो जाये तो अतिभौतिक हमारे लिये बाहरी दृष्टि से गोचर हो सकता है । उदाहरण के लिये जिस क्षमता को हम सूक्ष्म-दृष्टि कहते हैं उसमें यही होता है; वह उन सभी अतीन्द्रिय व्यापारों की प्रक्रिया है जिनके बारे में यह लगता है कि वे बाहरी इन्द्रियों से दिखायी या सुनायी देते हैं और ऐसे प्रतिरूपी या व्याख्यात्मक या प्रतीकात्मक प्रतिबिंबों द्वारा भीतर से अनुभव नहीं होते जिनपर आंतरिक अनुभव की छाप हो या जिनमें सूक्ष्म द्रव्य में रूपायित होने के स्पष्ट लक्षण हों । तो सत्ता के अन्य लोकों और उनके साथ संचार के अस्तित्व के नाना प्रकार के प्रमाण हो सकते हैं, -बाह्य इन्द्रियों के लिये विषयकरण, सूक्ष्म बोध का संपर्क, मानसिक संपर्क, प्राणिक संपर्क, हमारे सामान्य क्षेत्र का अतिक्रमण करती चेतना की विशेष अवस्थाओं में अंतस्तलीय के द्वारा संपर्क । हमारा भौतिक मन ही हमारा सब कुछ नहीं है, यद्यपि वह हमारी लगभग समस्त सतही चेतना पर शासन जमाये रहता है, न ही वह हमारा सर्वोत्तम या महत्तम भाग है । सद्वस्तु को इस संकीर्णता के एकमात्र क्षेत्र या उसके कठोर चक्र में सीमित आयामों के अंदर बांधा नहीं जा सकता ।

 

    अगर ऐसा कहा जाये कि आत्मनिष्ठ अनुभव या सूक्ष्म इन्द्रियों के बिंब आसानी से धोखा दे सकते हैं क्योंकि हमारे पास परखने के कोई प्रामाणिक मानक या मान्य

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उपाय नहीं हैं और असामान्य, चमत्कारिक और अतिप्राकृतिक को उसके प्रत्यक्ष मूल्य पर स्वीकार कर लेने की ओर हमारा बहुत अधिक झुकाव होता है तो इस बात को माना जा सकता है; परंतु भ्रांति हमारे आंतरिक आत्मनिष्ठ या अंतस्तलीय भाग का ही एकाधिकार नहीं है, वह भौतिक मन और उसके वस्तुनिष्ठ तरीकों और मानकों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है और अनुभव के एक विस्तृत और महत्त्वपूर्ण क्षेत्र की ओर से द्वार बंद कर देने के लिये भ्रांति की संभावना कोई कारण नहीं हो सकती; बल्कि यह तो उसकी जांच करने और उसके सच्चे मानकों और उसे प्रमाणित करने के विशिष्ट, उपयुक्त और मान्य साधनों का पता लगाने का कारण है । हमारी आत्म-निष्ठ सत्ता ही हमारे विषयगत अनुभव का आधार है । और यह शक्य नहीं है कि उसकी भौतिक विषयगत चीजें तो ठीक हों और बाकी अविश्वसनीय । अंतस्तलीय चेतना, उससे ठीक तरह पूछा जाये तो सत्य की साक्षी होती है और उसकी गवाही बार-बार भौतिक और विषयमूलक क्षेत्र में भी पुष्ट होती है; तो उस साक्ष्य की उस समय अवहेलना नहीं की जा सकती जब वह हमारे अंदर की चीजों की ओर या ऐसी चीजों की ओर ध्यान खींचता है जो अतिभौतिक स्तरों या लोकों की चीजें हों । साथ-ही-साथ अपने-आपमें केवल विश्वास वास्तविकता का साक्ष्य नहीं है । हम उसे स्वीकार करें इससे पहले उसे अपने- आपको किसी अधिक ठोस वस्तु पर प्रतिष्ठित करना होगा । यह स्पष्ट है कि भूतकाल की मान्यताएं ज्ञान के लिये पर्याप्त आधार नहीं हैं यद्यपि उनकी पूरी तरह अवहेलना भी नहीं की जा सकती, क्योंकि मान्यता एक मानसिक रचना है और वह गलत निर्माण भी हो सकती है । वह प्रायः किसी आंतरिक सूचना को उत्तर दे सकती है और तब उसका मूल्य होता है, लेकिन ऐसा होता भी है और नहीं भी होता कि वह सूचनाओं को विकृत कर दे, सामान्यत: वह उन्हें हमारे भौतिक और विषयगत अनुभवों के लिये परिचित परिभाषाओं में अनूदित करके विकृत करती है जैसे लोकों की सोपान-परंपरा को भौतिक सोपान-परंपरा या भौगोलिक देश-विस्तार में बदल दिया गया, सूक्ष्म द्रव्य की विरल ऊंचाइयों को जड़- भौतिक ऊंचाइयों में बदलकर देवों के आवास को भौतिक पर्वतों की चोटियों पर रख दिया गया । समस्त सत्य को, चाहे वह भौतिक हो या अतिभौतिक, केवल मानसिक विश्वास पर नहीं बल्कि अनुभव पर आधारित होना चाहिये । लेकिन हर अवस्था में अनुभव उस श्रेणी का होना चाहिये - भौतिक, अंतस्तलीय या आध्यात्मिक -जो सत्यों की उस श्रेणी के उपयुक्त हो जिसमें प्रवेश करने का हमें अधिकार मिला हो । उनकी प्रामाणिकता और सार्थकता की जांच तो करनी होगी किंतु यह जांच उनके स्वधर्म के अनुसार और ऐसी चेतना से करनी होगी जो उनमें प्रवेश कर सके, अन्य प्रदेशों के नियम के अनुसार नहीं या न ऐसी चेतना से जो केवल अन्य श्रेणी के सत्यों के लिये समर्थ हो । तभी हम अपने पगों के बारे में निश्चित हो सकते हैं और दृढ़ता के साथ अपने ज्ञान के क्षेत्र को विस्तृत कर सकते हैं ।

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अगर हम अतिभौतिक जगत्-वास्तविकताओं के उन संकेतों की जांच करें जिन्हें हम अपने आंतरिक अनुभव में प्राप्त करते हैं और उसके संकेतों के साथ उस विवरण की तुलना करें जो हमें मानव ज्ञान के प्रारंभ से मिलता रहा है और अगर हम उनकी व्याख्या और संक्षिप्त अनुक्रम का प्रयास करें तो हमें पता लगेगा कि यह आंतरिक अनुभव हमसे अत्यंत घनिष्ठता के साथ जो कहता है वह यह है कि शुद्ध भौतिक स्तर की अपेक्षा, जिसकी सत्ता और क्रिया संकुचित है और जिसकी अभिज्ञता हमें अपने संकीर्ण पार्थिव सूत्र से होती है, सत्ता और चेतना के अधिक विशाल क्षेत्रों का अस्तित्व है और हमपर उनकी क्रिया होती है । ये विशालतर सत्ता के क्षेत्र हमारी सत्ता तथा चेतना से बहुत दूर और एकदम अलग नहीं हैं क्योंकि यद्यपि वे अपने अंदर बने रहते हैं और उनकी सत्ता और अनुभव की अपनी लीला और प्रक्रिया और रूपायन हैं लेकिन साथ-ही-साथ वे अपनी अदृश्य उपस्थिति और प्रभावों के द्वारा भौतिक लोक में भिदे और उसपर छाये रहते हैं और उनकी शक्तियां यहां स्वयं भौतिक जगत् में, उसकी क्रियाओं और उसकी वस्तुओं के पीछे मौजूद मालूम होती हैं । उनके साथ संपर्क में अनुभव के दो विशेष क्रम हैं, एक शुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ है, यद्यपि वह अपनी आत्मनिष्ठता में पर्याप्त रूप से स्पष्ट और गोचर है, दूसरा अधिक विषयनिष्ठ है । आत्मनिष्ठ क्रम में हम देखते हैं कि जो अपने-आपको यहां जीवन-प्रयोजन, जीवन-प्रेरणा, जीवन-रूपायन का रूप देता है वह पहले ही से संभावनाओं की अधिक विशाल, अधिक सूक्ष्म, अधिक नमनीय श्रेणी में विद्यमान है । और ये पूर्ववर्ती शक्तियां और रूपायन अपने-आपको भातिक जगत् में भी चरितार्थ करने के लिये हमारे ऊपर दबाव डाल रहे हैं लेकिन उनका एक अंश ही पार होने में सफल हो पाता है और वह भी आंशिक रूप में एक एक रूप और परिस्थिति में उभर पाता है जो पार्थिव विधान और क्रम की पद्धति के अधिक उपयुक्त होते हैं । सामान्यत: यह प्रक्षेपण हमारे जाने बिना होता है; हम अपने ऊपर इन शक्तियों, बलों और प्रभावों के असर से अनभिज्ञ रहते हैं । हम उन्हें अपने ही प्राण और मन का रूपायन मान लेते हैं -तब भी जब हमारी बुद्धि या इच्छा उन्हें अस्वीकार करती और उनके आधीन होने से इंकार करती है । लेकिन जब हम अंदर पैठते और सीमित सतही चेतना से दूर चले जाते हैं और अधिक सूक्ष्म बोध, अधिक गहरी अभिज्ञता विकसित कर लेते हैं तो हम इन गतिविधियों के मूल के बारे में संकेत पाना शुरू करते हैं और उनकी क्रिया और प्रक्रिया का निरीक्षण कर सकते हैं, उन्हें स्वीकार या अस्वीकार कर सकते या उनमें हेर-फेर कर सकते हैं, उन्हें मार्ग देकर अपने मन, अपनी इच्छा और अपने प्राण का, अवयवों का उपयोग करने दे सकते हैं या मना कर सकते हैं । इसी भांति हमें मन के विशालतर प्रदेशों की अभिज्ञता प्राप्त होती है, अधिक नम्य क्रीड़ा, अनुभूति और रूपायन को, मानसिक रूपायनों के सभी संभव भरपूर प्राचुर्य की अभिज्ञता होती

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है । हम अपने साथ उनके संपर्क, उनकी शक्तियों और उनके प्रभावों को अपने मन के भागों पर उसी तरह गुह्य रूप में क्रिया करते हुए अनुभव करते हैं जैसे वे दूसरे जो हमारे प्राण के भागों पर क्रिया करते हैं । प्रथमतः इस तरह का अनुभव शुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ होता है, विचारों, सुझावों, भावावेगमय रूपायनों, संवेदन, कर्म, क्रियाशील अनुभवों की ओर प्रेरणाओं का दबाव होता है । इस दबाव का चाहे जितना बड़ा भाग हमारी अंतस्तलीय आत्मा या हमारे ही जगत् की वैश्व मानसिक शक्तियों या प्राणिक शक्तियों के घेरे से आता हुआ लगे, फिर भी एक तत्त्व ऐसा होगा जिसपर किसी और उद्गम की, एक आग्रही अतिपार्थिव गुण की छाप रहेगी ।

 

     लेकिन संपर्क यहीं समाप्त नहीं हो जाते क्योंकि हमारे मन और प्राण के भागों का उन्मीलन आत्मनिष्ठ-वस्तुनिष्ठ अनुभवों के एक बड़े प्रदेश की ओर होता है जिसमें ये स्तर अपने-आपको आत्मनिष्ठ सत्ता और चेतना के विस्तारों के रूप में नहीं बल्कि लोकों के रूप में प्रस्तुत करते हैं; क्योंकि वहां अनुभव व्यवस्थित तो उसी तरह होते हैं जैसे हमारे अपने जगत् में लेकिन एक दूसरी योजना के अनुसार, एक अलग प्रक्रिया और क्रिया-विधान के अनुसार और एक ऐसे द्रव्य में जो अतिभौतिक प्रकृति की चीज है । हमारी धरती की तरह इस संगठन में ऐसी सत्ताओं का अस्तित्व भी है जिनका रूप होता है या जो रूप धारण करती हैं, अपने-आपको व्यक्त करती या मूर्त्त रूप देनेवाले पदार्थ में स्वभावतः अभिव्यक्त होती हैं, लकिन यह हमारे पदार्थ से भिन्न होता है । वह एक ऐसा सूक्ष्म पदार्थ है जो केवल सूक्ष्म इन्द्रियों के लिये ग्राह्य है, वह अतिभौतिक रूपद्रव्य है । हो सकता है इन लोकों और सत्ताओं का हमारे या हमारे जीवन के साथ कोई संबंध न हो, वे हमारे ऊपर कोई क्रिया न करते हों लेकिन बहुधा वे पार्थिव सत्ता के साथ गुप्त संचार रखते हैं और जिन वैश्व शक्तियों और प्रभावों का हमें आत्मनिष्ठ अनुभव है उनकी आज्ञा का पालन करते या उन्हें मूर्त रूप देते हैं और उनके माध्यम और यंत्र होते हैं या अपने ही उपक्रमण से पार्थिव जगत् के जीवन, हेतुओं और घटनाओं पर क्रिया करते हैं । इन सत्ताओं से सहायता, पथ-प्रदर्शन या हानि या विमार्गदर्शन पाना संभव है । उनके प्रभाव के आधीन होना या उनके आक्रमण या प्रभुत्व के वश में हो जाना, उनके भले या बुरे प्रयोजन के लिये उनका यंत्र हो जाना भी संभव है । कभी-कभी पार्थिव जीवन की प्रगति दोनों तरह की अतिभौतिक शक्तियों के बीच एक विशाल युद्ध- क्षेत्र मालूम होती है -वे शक्तियां जो हमारे ऊपर उठते हुए विकास को या जड़ विश्व में अंतरात्मा की आत्माभिव्यक्ति को ऊपर उठाने, प्रोत्साहित करने और आलोकित करने के लिये प्रयास करती हैं और वे जो विचलित करती, हतोत्साह करती, रोकती, यहांतक कि चूर-चूर तक कर देती हैं । इनमें से कुछ सत्ताएं, शक्तियां और विभूतियां ऐसी हैं जिन्हें हम दिव्य मानते हैं । वे

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आलोकमय, सौम्य और प्रबल रूप से सहायता करनेवाली होती हैं लेकिन कुछ और दानवी, दैत्याकार या पैशाची होती हैं । वे विशृंखल ' प्रभाव' होती हैं, प्रायः विशाल और विकट आंतरिक उथल-पुथल या ऐसे कार्यों का सृजन करनेवाली या प्रेरणा देनेवाली होती हैं जो सामान्य मानव माप को पार कर जाते हैं । ऐसे प्रभावों, उपस्थितियो और सत्ताओं की भी अभिज्ञता हो सकती है जो हमसे परे अन्य लोकों की नहीं मालूम होतीं बल्कि यहीं पार्थिव प्रकृति में पर्दे के पीछे छिपे तत्त्व के रूप में हैं । जैसे अतिभौतिक के साथ संपर्क संभव है उसी तरह स्वयं हमारी अपनी चेतना और ऐसी दूसरी सत्ताओं की चेतना के बीच, जो एक बार शरीर- धारण करके अतिभौतिक अवस्था में सत्ता के इन अन्य प्रदेशों में जा चुकी हैं, उनके साथ आत्मनिष्ठ या वस्तुनिष्ठ बनाया गया संपर्क स्थापित हो सकता है । आत्मनिष्ठ संपर्क या सूक्ष्म इन्द्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान के परे जाना भी संभव है । चेतना की कुछ अंतस्तलीय स्थितियों में, वस्तुत: अन्य लोकों में प्रवेश करना और उनके कुछ रहस्यों को जानना संभव है । प्राचीन काल में मानवजाति की कल्पना अन्य लोकों के अनुभव की अधिक वस्तुपरक श्रेणी से सबसे अधिक आकर्षित थी, लेकिन मान्यता ने उसे स्थूल वस्तुपरक विवरण में बदल दिया जिसने अनुचित रूप में इन व्यापारों को हमारे परिचित भौतिक जगत् के व्यापारों के जैसा बनाकर अपनाया । क्योंकि हमारे मन की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह हर चीज को अपने ही अनुभव-प्रकार और अनुभव-पदों के उपयुक्त रूपों या प्रतीकों में बदल देता है ।

 

     अगर बहुत ही सामान्य भाषा में कहें तो मानवजाति के अतीत के सभी युगों में परलोक के बारे में विश्वास का सामान्य क्षेत्र और प्रकृति यहीं रही है; नाम, रूपों में हेर-फेर हो सकता है लेकिन सामान्य लक्षण सभी देशों और कालों में आश्चर्यजनक रूप से एक जैसे रहे हैं । हम इन स्थायी विश्वासों या अतिसामान्य अनुभवों की राशि का ठीक-ठीक क्या मूल्य लगायें ? जिस किसीको ये संपर्क किसी घनिष्ठता से मिले हों -केवल बिखरे हुए असामान्य संयोगों के रूप में नहीं -उसके लिये इन्हें अंधविश्वास या भ्रममात्र कहकर परे फेंक देना संभव नहीं क्यांकि वे अपने दबाव में इतने आग्रही, वास्तविक, प्रभावकारी और संगठित होते हैं, अपने कामों और परिणामों में इतने अविच्छिन्न रूप से समर्थन पाते हैं कि उन्हें इस तरह उड़ा नहीं दिया जा सकता । हमारे अनुभव की क्षमता के इस पक्ष का मूल्यांकन, उसकी व्याख्या और मानसिक व्यवस्था करना अनिवार्य है ।

 

     एक व्याख्या यह प्रस्तुत की जा सकती है कि मनुष्य अपने-आप ही अतिभौतिक लोकों का सृजन करता है जिनमें वह मृत्यु के बाद निवास करता है या सोचता है कि वह उनमें निवास करता है, वह देवों की भी रचना करता है जैसी कि पुरातन उक्ति थी -यह भी दावा किया जाता है कि स्वयं भगवान् की रचना मनुष्य ने ही की थी, कि भगवान् उसकी चेतना की कल्पना है और अब मनुष्य ने ही उसे

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समाप्त कर दिया है ! तब हो सकता है कि ये सब चीजें विकसनशील चेतना की एक तरह की कपोल-कल्पना हैं जिसमें वह निवास कर सकती है, वह अपनी ही रचना में बंदी है और एक प्रकार की चरितार्थ करनेवाली गतिशीलता द्वारा अपने-आपको अपनी कल्पनाओं में बनाये रख सकती है । लेकिन वे शुद्ध कल्पनाएं नहीं हैं, हम उन्हें तभीतक ऐसा मान सकते हैं जबतक जिन चीजों का वे प्रतिनिधित्व करती हैं, भले कितने भी गलत तरीके से क्यों न हो, हमारे अपने अनुभव का अंग न बन जाएं । फिर यह कल्पना की जा सकती है कि ऐसी गाथाएं और कल्पनाएं हैं जिनका उपयोग सृजन करनेवाली चित्-शक्ति अपनी भाव-शक्तियों को मूर्त्त रूप देने के लिये करती है । ये समर्थ बिंब रूप और शरीर धाराग कर सकते हैं, विचार के सूक्ष्म रूप से रूपायित जगत् में बने रह सकते हैं और अपने स्रष्टा पर प्रतिक्रिया कर सकते हैं । अगर ऐसा हो तो हम यह मान सकते हैं कि अन्य जगत् इसी प्रकार की रचनाएं हैं । लेकिन अगर ऐसा हो, यदि आत्मनिष्ठ चेतना इस तरह लोकों और सत्ताओं का निर्माण कर सकती है तो हो सकता है कि वस्तुगत जगत् भी परम चेतना की या हमारी चेतना की एक गाथा हो या यह कि स्वयं चेतना मूल निर्ज्ञान की गाथा हो । इस तरह विचार की इस रेखा पर हम फिर से विश्व के बारे में उस दृष्टि पर जा पहुंचते हैं जिसमें सभी चीजें अवास्तविकता का कोई रंग पकड़ लेती हैं, अपवाद रह जाती है सबका उत्पादन करनेवाली निश्चेतना जिसमें से सभी चीजों की रचना हुई है, रह जाता है वह अज्ञान जो उनकी रचना करता है और संभवत: एक अतिचेतन या निश्चेतना निर्वैयक्तिक सत्ता जिसकी उदासीनता में अंततः सब कुछ गायब हो जाता है या लौट जाता और समाप्त हो जाता है ।

 

     लेकिन हमारे पास इसका कोई प्रमाण नहीं है और इस बात की कोई संभावना भी नहीं दीखती कि मनुष्य का मन इस तरह एक जगत् बना सकता है जहां पहले कुछ भी न था, किसी ऐसे पदार्थ के बिना शून्य में सृष्टि कर सकता है जिसमें या जिसपर निर्माण हो सके, यद्यपि यह तो भली-भांति हो सकता है कि वह बने-बनाये जगत् में कुछ और जोड़ दे । निश्चय ही मन एक समर्थ अभिकर्ता है, हम सामान्यत: उसे जितना समर्थ मानते हैं उससे अधिक समर्थ है, वह ऐसे रूपायन तैयार कर सकता है जो हमारी या औरों की चेतना में और जीवन में अपने-आपको कार्यान्वित कर सकते हैं और उनका प्रभाव निश्चेतन जड़ पर भी होता है लेकिन शून्य में कोई एकदम मौलिक सृष्टि करना उसकी संभावनाओं के परे है । बल्कि, हम यह मान लेने का साहस कर सकते हैं कि मनुष्य का मन जैसे-जैसे बढ़ता है वह सत्ता और चेतना के ऐसे नये प्रदेशों के साथ नाता जोड़ता जाता है जिन्हें उसने नहीं बनाया है, जो उसके लिये बिल्कुल नये हैं, जो सर्वसत्ता के अंदर पहले से ही विद्यमान थे । अपने बढ़ते हुए आंतरिक अनुभव में वह अपने अंदर सत्ता के नये क्षेत्र खोलता है । जैसे-जैसे उसकी चेतना के गुप्त चक्र अपनी ग्रंथियों को विलीन

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करते हैं वह उनके द्वारा उन बृहत्तर प्रदेशों की कल्पना करने में, उनसे सीधा प्रभाव पाने में, उनके अंदर प्रवेश करने, उन्हें अपने पार्थिव मन और आंतरिक इन्द्रियों में मूर्त्तिमान् करने में समर्थ हो जाता है । वह उनकी ऐसी प्रतिमाओं, प्रतीक-रूपों, उनके ऐसे प्रतिबिंबात्मक रूपों की रचना करता है जिनके साथ उसका मन व्यवहार कर सके । इसी अर्थ में वह उस दिव्य प्रतिमा का निर्माण करता है जिसकी वह पूजा करता है, देवों के रूप गढ़ता है, अपने अंदर नये लोक और जगत् तैयार करता है और इन प्रतिमाओं के द्वारा वे वास्तविक जगत् और शक्तियां, जो हमारी सत्ता के ऊपर हैं, भौतिक जगत् में चेतना पर अधिकार कर सकती हैं, उसके अंदर अपनी क्षमताएं उंडेल सकती हैं, अपनी उच्चतर सत्ता के प्रकाश से उसे रूपांतरित कर सकती हैं । लेकिन यह सब सत्ता के उच्चतर लोकों की सृष्टि नहीं है । यह निर्ज्ञान में से विकसित होती हुई अंतरात्मा की चेतना के लिये जड़-भौतिक स्तर पर उनका अंतःप्रकाश है । यह उनकी शक्तियों को ग्रहण कर उनके रूपों का यहां सृजन है । इस भूमि पर हमारे आत्मनिष्ठ जीवन का उसकी अपनी सत्ता के उन उच्चतर स्तरों के साध सच्चे संबंध के अन्वेषण द्वारा परिवर्द्धन होता है जिनसे उसका जड़-निर्ज्ञान के पर्दे के कारण अलगाव हो गया था । इस पर्दे का अस्तित्व इस कारण है कि शरीरस्थ आत्मा ने इन महत्तर संभावनाओं को अपने पीछे रख दिया है ताकि वह ऐकांतिक रूप से अपनी चेतना और शक्ति को सत्ता के इस भौतिक जगत् में अपने प्राथमिक कार्य पर एकाग्र कर सके । लेकिन उस प्राथमिक कार्य का परिणाम तभी आ सकता है जब पर्दा कम-से-कम आंशिक रूप से उठ जाये या भेदने लायक हो जाये ताकि मन, प्राण और आत्मा की उच्चतर भूमिकाएं मानव जीवन के अंदर अपनी सार्थकता को उंडेल सके ।

 

     यह मानना संभव है कि इन उच्चतर भूमिकाओं और जगतों की सृष्टि जड़ भौतिक विश्व की अभिव्यक्ति के बाद, विकास में सहायता करने के लिये या किसी अर्थ में उसके परिणाम-स्वरूप हुई । यह एक ऐसी धारणा है जिसे भौतिक मन आसानी से मानने को तैयार हो सकता है अगर वह अतिभौतिक अस्तित्व को मानने के लिये बाधित हो;  वह भौतिक मन जो अपने सभी विचारों का आरंभ उस जड़ विश्व से करता हैं जिसे वह एकमात्र चीज के रूप में जानता है, जिसका उसने विश्लेषण किया है और जिसके साथ वह स्वामित्व के प्रारंभिक रूप में व्यवहार कर सकता है । तब वह जड़ भौतिक, निश्चेतन को समस्त सत्ता का आरंभ-बिंदु और अवलंब बना सकता है जैसा कि वह हमारे लिये निस्संदेह उस विकास की गति का आरंभ- बिंदु है जिसका घटनास्थल है भौतिक जगत् । हमारा मन तब भी जड़तत्त्व और जड़ शक्ति को प्रथम सत्ता के रूप में रख सकता है -उसने इन्हें इसी रूप में स्वीकारा और पोसा है क्योंकि यही वह पहली चीज है जिसे वह जानता है, यही वह एकमात्र चीज है जो हमेशा सुरक्षित रूप से उपस्थित और ज्ञेय है - और यही

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आध्यात्मिक और अतिभौतिक को जड़ में सुनिश्चित नींव पर आश्रित के रूप में बनाये रख सकेगा ।  तब फिर इन जगतों का सृजन कैसे किया गया, किस शक्ति द्वारा, किस यंत्र-विन्यास द्वारा ? हो सकता है कि मन और प्राण ने निश्चेतना में से विकसित होते हुए एक ही साथ इन लोकों या भूमिकाओं का विकास उन प्राणियों की अंतस्तलीय चेतना में किया हो जो उसमें निवास करते हैं । अंतस्तलीय सत्ता के लिये जीवन में और मृत्यु के बाद -क्योंकि आंतरिक सत्ता शरीर की मृत्यु के बाद भी बनी रहती है -ये जगत् वास्तविक होते हैं क्योंकि ये उसकी चेतना की विशालतर पहुंच के लिये संवेद्य हैं । वह उनमें उस वास्तविकता के भाव के साथ विचरण करेगी जो गौण भले हों पर विश्वासोत्पादक होगा । वह अपने वहां के अनुभवों को मान्यता और कल्पना के रूप में सतही सत्ता पर भेजेगी । यह एक संभव विवरण है -यदि हम चेतना को वास्तविक सर्जक शक्ति या अभिकर्ता और बाकी सब चीजों को चेतना के रूपायन मान लें, लेकिन यह सत्ता की अतिभौतिक भूमिकाओं को वह असारता या कम मूर्त वास्तविकता प्रदान नहीं करेगा जिसे भौतिक मन उनके साथ जोड़ना चाहेगा । उनके अपने अंदर वही वास्तविकता होगी जैसे भौतिक जगत् या भौतिक अनुभव की अपनी श्रेणी में है ।

 

     यदि इस तरह या किसी और तरह से उच्चतर जगत् भौतिक जगत् की सृष्टि के बाद, जो प्राथमिक सृष्टि है, निश्चेतना में से किसी विशालतर अंतर्लीन विकास द्वारा बनाये गये हों तो यह किसी ऐसी सर्वात्मा द्वारा अपने आविर्भाव में, ऐसी प्रक्रिया से बनाया गया होगा जिसके बारे में हमें कोई ज्ञान नहीं हो सकता । यह यहां के विकास-हेतु उसके आनुषंगिक व्यापारों या विशालतर परिणामों के रूप में किया गया होगा ताकि प्राण, मन और आध्यात्म सत्ता अधिक स्वतंत्र प्रसार के क्षेत्र में विचरण कर सकें और भौतिक स्वाभिव्यक्ति पर इन महान् शक्तियों तथा अनुभूतियों की प्रतिक्रिया हो सके । लेकिन इस प्राक्कल्पना के विरोध में यह तथ्य खड़ा है कि उनके बारे में अपने अंतर्दर्शन और अनुभव में हम इन उच्चतर जगतों को किसी भांति जड़ भौतिक विश्व पर आधारित नहीं देखते, वे किसी भांति इसके परिणाम नहीं हैं बल्कि सत्ता की विशालतर अभिधाएं हैं, हम उन्हें चेतना के अधिक विशाल और स्वतंत्र प्रदेश के रूप में देखते हैं और भौतिक स्तर की सभी क्रियाएं इन महत्तर अभिधाओं का उद्गम नहीं परिणाम ही अधिक दीखती हैं जिनकी व्यूत्पत्ति उनसे हुई हैं जो आंशिक रूप में अपने विकसनशील प्रयास में उनपर आश्रित हैं । शक्तियों, प्रभावों और घटनाओं की विशाल श्रेणियां अधिमानस से तथा उच्चतर मन और प्राण के प्रदेशों से हमपर गुप्त रूप से उतरती हैं लेकिन इनमें से केवल

 

     ऋग्वेद में ऐसे वचन हैं जो इस दृष्टि को व्यक्त करते हुए मालूम होते हैं । पृथ्वी (अन्नमय या जड़तत्त्व) को सभी लोकों का आधार कहा गया है या सप्तलोक को धरती की सात भूमिकाएं कहा गया है ।

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एक अंश, मानों एक संकलन या एक सीमित संख्या ही अपने-आपको भौतिक जगत् के क्रम में प्रकट करके चरितार्थ कर सकती है; शेष भौतिक नाम-रूप में प्रकट होने के लिये उचित समय और परिस्थितियों की प्रतीक्षा करती है ताकि वे उस पार्थिव विकास में अपनी भूमिका अदा कर सकें जो साथ ही अध्यात्म-सत्ता की सभी शक्तियों का भी विकास है ।

 

     अन्य जगतों का यह स्वरूप सत्ता के हमारे अपने स्तर को और पार्थिव अभिव्यक्ति में से हमारी अपनी भूमिका को प्रथम महत्त्व देने के सारे प्रयत्नों को पराजित कर देता है । हम अपनी चेतना की गाथा के रूप में भगवान् का निर्माण नहीं करते अपितु हम भौतिक सत्ता में भगवान् की उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति के यंत्र हैं । हम देवों को, उनकी शक्तियों को पैदा नहीं करते बल्कि हम जो कुछ देवत्व प्रकट करते हैं वह शाश्वत परम देवों का यहां आंशिक प्रतिबिंब और रूपायन है । हम उच्चतर भूमिकाओं की रचना नहीं करते बल्कि हम ऐसे माध्यम हैं जिनके द्वारा वे अपने प्रकाश, शक्ति और सौंदर्य को भौतिक स्तर पर प्रकृति-शक्ति द्वारा दिये गये किसी भी आकार और क्षेत्र में प्रकट करते हैं । प्राण-जगत् का दबाव यहांपर प्राण को विकास और प्रगति के योग्य बनाता है और यहां उसे ऐसे रूपों में विकसित करता है जिन्हें हम पहले से जानते हैं । वही बढ्ता हुआ दबाव उसे हमारे अंदर अपने बृहत्तर अंत:प्रकाश के लिये अभीप्सा करने के लिये प्रेरित करता है और एक दिन मर्त्य को अपनी वर्तमान असमर्थ और सीमित करती हुई भौतिकता की संकीर्ण सीमाओं से मुक्त करेगा । वह मानसिक जगत् का दबाव है जो यहां मन को विकसित करता और अपने मानसिक आत्म-उत्थापन और विस्तार के लिये उत्तोलक की खोज करने में हमें सहायता करता है ताकि हम अपनी बुद्धि-सत्ता को निरंतर बढ़ा सकें और अपनी जड़-तत्त्व से बंधी भौतिक मानसिकता के कारागार की दीवारों को तोड़ने की आशा कर सकें । अतिमानसिक और आध्यात्म जगतो का दबाव आध्यात्म पुरुष की अभिव्यक्त शक्ति को यहांपर विकसित करने की तैयारी में है और उसके द्वारा भौतिक स्तर पर हमारी सत्ता को अतिचेतन भगवान् की स्वतंत्रता और अनंतता की ओर खोलने के लिये तैयार कर रहा है । केवल वही संपर्क, वही दबाव हमारे अंदर छिपे सर्वचेतन परम देव को उस प्रतीयमान निश्चेतना से मुक्त कर सकता है जो हमारा आरंभबिंदु थी । वस्तुओं के इस क्रम में हमारी मानव चेतना यंत्र और माध्यम है । यह निश्चेतना में से प्रकाश और शक्ति के विकास में वह बिंदु है जहां मुक्ति संभव हो जाती है । हम इसे इससे बड़ी भूमिका नहीं दे सकते, लेकिन यह काफी बड़ी है क्योंकि यह हमारी मानवजाति को

 

     निश्चय ही पार्थिव से हमारा मतलब केवल इस धरती और इसके अस्तित्व-काल से नहीं है । पृथ्वी शब्द का व्यवहार उसके वैदांतिक पृथ्वी के विशालतर धातु-अर्थ में, अंतरात्मा के लिये भौतिक आकार के आवासों की सृष्टि करनेवाले पार्थिव-तत्त्व से है ।

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विकसनशील प्रकृति के प्रयोजन के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बना देती है ।

 

     साथ ही हमारे अंतस्तलीय अनुभव में ऐसे तत्त्व हैं जो जड़ भौतिक अस्तित्व पर अन्य जगतों को निरपवाद प्राथमिकता देने के विरुद्ध प्रश्न खड़ा करते हैं । इनमें से एक संकेत यह है कि मृत्यु के उपरांत अंतर्दर्शन की अनुभूति में ऐसे आवासों की स्थायी परिपाटी दिखायी देती है जो पार्थिव परिस्थितियों, पार्थिव प्रकृति और पार्थिव अनुभव का अतिभौतिक दीर्घीकरण मालूम होते हैं । दूसरी बात यह है कि विशेष रूप से प्राणिक जगतों में हम ऐसी रचनाएं देखते हैं जो पार्थिव अस्तित्व की घटिया गतिविधियों से मिलती-जुलती मालूम होती हैं । यहां पहले से ही अंधकार, मिथ्यात्व, अक्षमता और अशुभ के तत्त्व मूर्तिमंत मालूम होते हैं जिनके बारे में हम यह मान चुके हैं कि वे जड़ निश्चेतना में से विकास के बाद के हैं । यह भी एक तथ्य मालूम होता है कि प्राणिक जगत् उन शक्तियों के स्वाभाविक आवास हैं जो मानव जीवन को अधिक-से-अधिक विक्षुब्ध करती हैं । निश्चय ही यह तर्कसंगत है क्योंकि वे हमारी प्राणिक सत्ता द्वारा हमें प्रभावित करती हैं, अतः उन्हें विशालतर और अधिक शक्तिशाली प्राण-सत्ता की शक्तियां होना चाहिये । विकास में मन और प्राण के अवरोहण सत्ता और चेतना के सीमायन के ऐसे अप्रिय परिणाम रचें -यह जरूरी नहीं । अपनी प्रकृति के अनुसार यह अवरोहण ज्ञान का सीमायन है । सत्ता के सत्, चित् और आनंद अपने-आपको न्यूनतर सत्य, शुभ और सौंदर्य तथा उसके अवंरतर सामंजस्य में सीमित कर लेते हैं और संकीर्ण प्रकाश के उन नियमों के अनुसार चलते हैं लेकिन ऐसी गतिविधि में अंधकार, दुःख और अशुभ अनिवार्य व्यापार नहीं हैं । लेकिन अगर हम उन्हें अन्य मन और अन्य प्राण के लोकों में उपस्थित पाते हैं, यद्यपि वे उनपर छाये नहीं रहते बल्कि अपने अलग प्रदेश में बसे रहते हैं, हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिये कि वे निम्नतर विकास में से, नीचे से ऊपर की ओर प्रक्षेपण द्वारा आये हैं, यह प्रकृति के अंतस्तलीय भागों में किसी चीज के द्वारा यहां सृष्ट अशुभ के विशालतर रूपायन के फट पड़ने से हुआ है, या फिर वे प्रतिविकासात्मक अवरोहण के समानांतर क्रम के रूप में पहले ही से बने थे । यह ऐसा क्रम है जो विकसनशील आरोहण के लिये आध्यात्म पुरुष की ओर ले जानेवाला सोपान है, ठीक वैसे ही जैसे प्रतिविकासात्मक आध्यात्म पुरुष के अवरोहण के लिये एक सीढ़ी था । बाद की परिकल्पना में ऊपर उठते हुए क्रम का दोहरा प्रयोजन हो सकता है क्योंकि उसके अंदर शुभ और अशुभ वे पूर्व-निर्माण होंगे जिन्हें धरती पर प्रकृति में अंतरात्मा की विकासात्मक वृद्धि के लिये आवश्यक संघर्ष के एक भाग के रूप में विकसित होना है । ये ऐसे निर्माण होंगे जिनका अस्तित्व स्वयं अपने लिये, अपने स्वतंत्र संतोष के लिये होगा । ये रूपायन इन वस्तुओं के पूरे प्रारूप को प्रस्तुत करेंगे, हर एक अपनी अलग प्रकृति में, और साथ ही वे विकसनशील सत्ताओं पर अपना विशेष प्रभाव डालेंगे ।

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     तो विशालतर प्राण के ये जगत् हमारे जगत्-जीवन के अधिक प्रकाशमय और अंधकारमय दोनों रूपायनों को अपने अंदर उस माध्यम में धारण किये रहेंगे जिसमें वे मुक्त रूप से अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्तितक, -शुभ या अशुभ के लिये -स्वयं अपने प्रारूप की पूर्ण स्वाधीनता, स्वाभाविक पूर्णता और सामंजस्यतक पहुंच सकेंगे -अगर वरतुत: इन प्रदेशों में यह भेद लागू होता हो -और यह संपूर्णता और स्वतंत्रता हमारे यहां के जीवन में असंभव है जहां एक अंतिम एकीकरण की ओर ले जानेवाले बहुमुख विकास के क्षेत्र के लिये जरूरी जटिल पारस्परिक क्रिया में सब कुछ घुला-मिला है । क्योंकि हम देखते हैं कि जिसे हम मिथ्या, अंधकारमय या अशुभ कहते हैं वहां उसका अपना सत्य प्रतीत होता है और वह अपने ही प्रारूप से पूरी तरह संतुष्ट होता हैं क्योंकि वह उसे पूरी अभिव्यंजना के साथ अधिकार में रखता है जिससे उसके अंदर अपनी निजी सत्ता की संतुष्ट शक्ति का भाव पैदा होता है, समस्त परिस्थितियों का उसके जीवन के तत्त्व के साथ एक संगतिपूर्ण अनुकूलीकरण होता है; वह वहां अपनी चेतना का, आत्म-शक्ति का, अपनी सत्ता के आनंद का भोग करता है जो हमारे मनों के लिये घिनौना हों पर खुद अपने लिये संतुष्ट कामना के हर्ष से भरा होता है । प्राण के जो आवेग पार्थिव प्रकृति के लिये विशृंखल और अमर्यादित मालूम होते हैं और यहांपर विकृत और असामान्य लगते हैं वे अपनी सत्ता के निजी प्रदेश में अपने प्रारूप और तत्त्व की स्वतंत्र पूर्त्ति और अबाध क्रीड़ा प्राप्त करते हैं । जो हमारे लिये दिव्य या दानवी, राक्षसी या पैशाचिक और इस कारण अतिप्राकृतिक हैं, उनमें से हर एक अपने क्षेत्र में अपने लिये सामान्य है और जो सत्ताएं इन चीजों को मूर्त्त रूप देती हैं वे उनके लिये आत्म-प्रकृति की भावना और अपने निजी तत्त्व में सामंजस्य प्रदान करती हैं । स्वयं असंगति, संघर्ष, असमर्थता, दुःख-दर्द एक प्रकार की ऐसी प्राण-तुष्टि का अंग बन जाते हैं जो उनके बिना अपने-आपको वंचित और क्षीण अनुभव करेगी । जब इन शक्तियों को हम उनकी पृथक् क्रियाओं में, उन्हें अपने प्राण-प्रासादों का निर्माण करते देखते हैं, जैसा कि वे उन गुप्त जगतो में करती हैं जहां उनकी प्रधानता है, हम अधिक स्पष्ट रूप से उनके उद्धव और उनके अस्तित्व के कारण और साथ ही मानव जीवन पर उनकी पकड़ के कारण और मनुष्य की अपनी अपूर्णता, अपनी विजय और पराजय, सुख-दुःख, हास्य और आंसू पाप और पुण्य के जीवन के नाटक के प्रति आसक्ति के कारण को भी देख सकते हैं । ये चीजें यहां धरती पर असंतुष्ट और इस कारण संधर्ष और सम्मिश्रण की असंतोषजनक और अंधेरी अवस्था में रहती हैं लेकिन वहां अपने रहस्य और सत्ता के प्रयोजन को प्रकट करती हैं क्योंकि वहां वे अपनी सहजात शक्ति को और अपने स्वभाव के पूर्ण रूप को साथ लिये अपने निजी जगत् और निजी ऐकांतिक वातावरण में प्रतिष्ठित रहती हैं । मनुष्य के स्वर्ग और नरक या ज्योति और अंधकार के लोक

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अपनी रचना में चाहे जितने काल्पनिक क्यों न हों, उनका आधार यह अनुभव है कि ये शक्तियां अपने निजी तत्त्व में अस्तित्व रखती हैं और परवर्ती जीवन से मनुष्य के जीवन पर प्रभाव डालती हैं जहां से उसे अपने विकसनशील जीवन के तत्त्व प्राप्त होते हैं ।

 

     इसी भांति जैसे प्राण की शक्तियां हमसे परे एक बृहत्तर प्राण में स्वप्रतिष्ठित हैं, पूर्ण और परिपूरित हैं उसी भांति मन की शक्तियां, उसके भाव और तत्त्व, जो हमारी पार्थिव सत्ता को प्रभावित करते हैं, वे भी बृहत्तर मानसिक जगत् में आत्म-प्रकृति की परिपूर्णता के अपने क्षेत्र में प्रतिष्ठित मालूम होते हैं, जब कि यहां मानव जीवन में वे केवल आंशिक रूपायन प्रक्षिप्त करते हैं जिन्हें अन्य शक्तियों और तत्त्वों के साथ मिलने और मिश्रित होने के कारण अपने-आपको स्थापित करने में बहुत कठिनाई होती है; यह मिलन और यह मिश्रण उनकी पूर्णता को दबा देता, उनकी शुद्धि में खोट मिलाता, उनके प्रभाव पर विवाद करता और उसे असफल कर देता है। तो ये अन्य जगत्, विकसनशील नहीं बल्कि प्ररूपी हैं । इनके अस्तित्व का एकमात्र तो नहीं, एक कारण यह भी है कि इनमें वे चीजें मिलती हैं जिन्हें सृष्टि की प्रतिविकासात्मक अभिव्यक्ति में उठना चाहिये और साथ ही वे भी जिन्हें विकास में अपनी निजी सार्थकता की संतुष्टि का क्षेत्र मिले, जहां वे अपने निजी अधिकार से रह सकती हैं । यह प्रस्थापित स्थिति वह नींव है जहां से उनकी वृत्तियां और उनकी क्रियाएं विकसनशील प्रकृति की जटिल प्रक्रिया के तत्त्वों के रूप में ढाली जा सकती हैं ।

 

     अगर हम इस द्रष्टिकोण सें पारलौकिक जीवन के बारे में, मनुष्य के परंपरागत विवरणों को देखें तो हम पायेंगे कि बहुधा वे एक बृहत्तर प्राण के जगतों की ओर संकेत करते हैं जो पार्थिव प्रकृति में प्राण के बंधनों, कमियों या अपूर्णताओं से मुक्त हैं । स्पष्ट है कि बड़ी हदतक ये विवरण कल्पना के रचे हुए होते हैं लेकिन इसमें अंतर्भास और पूर्वाभास का भी तत्त्व होता है, एक ऐसे अनुभूति होती है कि प्राण क्या हो सकता है और जैसा कि वह निश्चित रूप से अपनी अभिव्यक्त या अनुभवगम्य प्रकृति के किसी क्षेत्र में है । साथ ही किसी सच्चे अंतस्तलीय संपर्क या अनुभव का कोई तत्त्व भी है लेकिन मनुष्य का मन अन्य प्रकृति में जो कुछ देखता, जिसे ग्रहण करता या जिसके संपर्क में आता है उसे अपनी चेतना के रूपों में अनूदित कर लेता है । ये अतिभौतिक वास्तविकताओं के उसके अपने सार्थक रूपों और बिंबों में अनुवाद हैं और इन रूपों तथा बिंबों द्वारा वह वास्तविकताओं के साथ संपर्क जोड़ता है और उन्हें कुछ हदतक मूर्त और प्रभावकारी बना सकता है । मृत्यु के बाद कुछ बदले हुए रूप में पृथ्वी-जीवन के जारी रहने का जो अनुभव होता है उसकी व्याख्या इस तरह के अनुवाद से की जा सकती है लेकिन उसकी यह व्याख्या भी दी जा सकती है कि यह आंशिक रूप में मृत्यु के बाद की

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आत्मपरक स्थिति की रचना है जिसमें मनुष्य अन्य लोकों की वास्तविकताओं में प्रवेश करने से पहले अपने अभ्यस्त अनुभव की आकृतियों में निवास करता है । अंशत: यह प्राण-लोकों में से होता हुआ संक्रमण है जहां चीजों का प्रारूप अपने- आपको उन रूपायनों में व्यक्त करता है जो उन चीजों के उद्गम हैं या उनके सजातीय हैं जिनके साथ वह अपने पार्थिव शरीर में आसक्त था और इसलिये शरीर छोड़ने के बाद भी इन चीजों के प्रति उसकी प्राणिक सत्ता का स्वाभाविक आकर्षण रहता है । लेकिन इन सूक्ष्मतर प्राणिक स्थितियों के अतिरिक्त, पारलौकिक जीवन के परंपरागत विवरणों में एक अधिक विरल और उठे हुए तत्त्व के तौर पर, जिनकी गिनती प्रचलित धारणाओं में नहींहै, जीवन की ऐसी स्थितियों का एक उच्चतर क्रम रहता है जो प्राणिक लक्षण की नहीं स्पष्ट रूप से मानसिक होती हैं और कुछ अन्य स्थितियां आध्यात्मिक-मानसिक तत्त्व पर भी आधारित होती हैं । ये उच्चतर तत्त्व सत्ता की ऐसी स्थितियों में रूपायित होते हैं जिनमें हमारे आंतरिक अनुभव उठ सकते हैं या अंतरात्मा प्रवेश कर सकती है । अतः हमने वर्गीकरण के जिस सिद्धांत को स्वीकारा है वह न्यायोचित होता है बशर्ते कि हम यह स्वीकार करें कि अपने अनुभव को व्यवस्थित करने का यह एक तरीका है और अन्य दृष्टिकोणों से निकलनेवाले मार्ग भी संभव हैं । क्योंकि, कोई वर्गीकरण हमेशा उसी सिद्धांत और दृष्टिकोण से प्रामाणिक हो सकता है जिसे उसने अपनाया है जब कि अन्य सिद्धांतों और दृष्टिकोणों से उन्हीं चीजों का और तरह का वर्गीकरण उतना ही प्रामाणिक हो सकता है । लेकिन हमारे प्रयोजन के लिये जो पद्धति हमने अपनायी है वही अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि यह आधारभूत है और अभिव्यक्ति के एक ऐसे सत्य को उत्तर देती है जो अत्यधिक व्यावहारिक महत्त्व रखता है । वह हमें अपने निजी संघटित जीवन तथा प्रकृति की विकासात्मक और प्रतिविकासात्मक गति को समझने में सहायता देती है । साथ ही हम देखते हैं कि अन्य जगत् इस भौतिक विश्व और पार्थिव प्रकृति से एकदम भिन्न चीजें नहीं हैं बल्कि वे अपने प्रभावों द्वारा उसे भेदते और घेरे रहते हैं और उसपर रूपायनकारी और निर्देशिका शक्ति का गुप्त प्रभाव डालते हैं जिसका आसानी से हिसाब नहीं लगाया जा सकता । हमारे परलोकों के ज्ञान और अनुभव का यह संगठन हमें इस प्रभाव के स्वरूप और क्रिया की रेखाओं को जानने की चाबी देता है ।

 

     पार्थिव प्रकृति में हमारे विकास के क्षेत्र और संभावनाओं के लिये अन्य लोकों का अस्तित्व और उनका प्रभाव प्राथमिक महत्त्व का तथ्य है । क्योंकि अगर भौतिक विश्व ही अनंत सद्वस्तु की अभिव्यक्ति का एकमात्र क्षेत्र होता और साथ ही उसकी समस्त अभिव्यक्ति का, तो हमें मानना पड़ेगा कि चूंकि जड़ से लेकर आध्यात्मतक उसकी सत्ता के सभी तत्त्व पूरी तरह प्रतीयमान रूप से निश्चेतन शक्ति में अंतर्लीन हैं, जो इस विश्व की प्रथम क्रियाओं का आधार है, अतः वे यहां पूर्ण

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रूप से, यहां ऐकांतिक रूप से विकसित किये जा रहे हैं, जिसमें उसके अंदर प्रच्छन्न अतिचेतन के सिवा कोई और सहायता या दबाव नहीं है । तब वस्तुओं की एक ऐसी पद्धति होगी जिसमें जड़-भौतिक का तत्त्व हमेशा अभिव्यक्त अस्तित्व का प्रथम तत्त्व, अनिवार्य और आद्य निर्धारक परिस्थिति या शर्त रहेगा । निःसंदेह, हो सकता है कि आत्मा अंत में एक सीमित हदतक अपनी स्वाभाविक प्रभुता को पा ले, हो सकता है, वह अपने भौतिक जड़तत्त्व के आधार को एक अधिक लचीला यंत्र बना ले जो आत्मा के उच्चतम स्वधर्म और प्रकृति की क्रिया का पूरी तरह निषेधक और विरोधी न रहे जैसा कि वह अपने वर्तमान प्रतिरोध में है । लेकिन आत्मा हमेशा अपने क्षेत्र और अभिव्यक्ति के लिये जड़-भौतिक पर आधारित रहेगी, उसे और कोई क्षेत्र नहीं मिलता । वह उसमें से किसी और तरह की अभिव्यक्ति के लिये बाहर नहीं निकल सकती और उसके अंदर भी वह अपनी सत्ता के किसी और तत्त्व को जड़-भौतिक आधार पर अधिपति बनने के लिये भली-भांति मुक्त नहीं कर सकती । जड़-तत्त्व ही उसकी अभिव्यक्ति का एकमात्र निर्धारक बना रहेगा । प्राण प्रमुख और निर्धारक नहीं बन पाया, मन स्वामी और स्रष्टा नहीं बन पाया । उनकी क्षमता की सीमाएं जड़-तत्त्व की सीमाओं के द्वारा निर्धारित होंगी, जिन्हें वे बढ़ा सकते हैं, उनमें कुछ हेर-फेर कर सकते हैं परंतु उन्हें आमूल रूपांतरित या मुक्त नहीं कर सकते । सत्ता की किसी शक्ति की मुक्त और पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये कोई स्थान न होगा । सब कुछ हमेशा के लिये तमसाच्छन्न करनेवाले जड़- भौतिक रूपायन की परिस्थितियों से सीमित होगा । आत्मा, मन और प्राण का कोई प्राकृत क्षेत्र या उनकी अपनी विशिष्ट शक्ति और तत्त्व के लिये पूर्ण अवकाश न होगा । अगर आत्मा स्रष्टा है और इन तत्त्वों का स्वतंत्र अस्तित्व है, वे जड़तत्त्व की ऊर्जा के उत्पादन, परिणाम या घटनाएं नहीं हैं तो इस आत्म-परिसीमन की अनिवार्यता पर विश्वास करना आसान नहीं है ।

 

     लेकिन अगर इस तथ्य को मान लिया जाये कि अनंत सद्वस्तु अपनी चेतना की क्रीड़ा में स्वतंत्र है तो अभिव्यक्त हो सकने से पहले वह इस बात के लिये बाधित नहीं है कि वह अपने-आपको जड़तत्त्व के निर्ज्ञान में अंतर्लीन कर ले । उसके लिये यह संभव है कि वस्तुओं की एकदम विपरीत व्यवस्था पैदा करे, एक ऐसा जगत् बनाये जिसमें आध्यात्मिक सत्ता का एकत्व ही किसी रूपायन या क्रिया का उत्पत्ति -स्थान और प्रथम अवस्था हो, कार्यकारी ऊर्जा गति के अंदर आत्म- अभिज्ञ आध्यात्मिक सत्ता हो और उसके सभी नाम, रूप, आध्यात्मिक एकत्व की आत्म-चेतन क्रीड़ा हों । या वह एक ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिसमें आध्यात्म पुरुष की चिन्मय शक्ति या इच्छा की सहजात शक्ति अपनी संभावनाओं को अपने अंदर मुक्त और प्रत्यक्ष रूप से क्रियान्वित करे, उस तरह नहीं जैसा यहां होता है यानी जड़ वस्तु में प्राण-शक्ति के प्रतिबंध लगानेवाले माध्यम द्वारा; वह उपलब्धि

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एक ही साथ उसकी अभिव्यक्ति का प्रथम तत्त्व और उसकी समस्त मुक्त और आनंदमय क्रिया का उद्देश्य होगी । या फिर यह एक ऐसी व्यवस्था हो सकती है जिसका उद्देश्य ऐसी सत्ताओं के वैविध्य में एक अनंत पारस्परिक आत्मानंद की मुक्त क्रीड़ा हो जो केवल अपनी प्रच्छन्न या अंतर्निष्ठ एकता के बारे में ही नहीं बल्कि ऐक्य के वर्तमान आनंद के बारे में भी सचेतन हो । ऐसी व्यवस्था में स्वयंभू आनंद के तत्त्व की क्रिया प्रथम तत्त्व और वैश्व परिस्थिति होगी । और फिर यह एक ऐसी जगत्-व्यवस्था हो सकती है जिसमें अतिमानस शुरू से ही प्रमुख तत्त्व होगा । तब अभिव्यक्ति का स्वरूप ऐसी सत्ताओं की बहुलता होगा जो अपने दिव्य व्यक्तित्व की मुक्त और प्रकाशमान क्रीड़ा के द्वारा एकता में अपनी विभिन्नता के समस्त बहुविध आनंद को पा रही होंगी ।

 

     यह जरूरी नहीं  है कि यह क्रम यहीं रुक जाये क्योंकि हम देखते हैं कि हमारे अंदर मन को जड़ में स्थित प्राण से बाधा पहुंचती है और उसे इन दो भिन्न शक्तियों के प्रतिरोध पर अधिकार पाने में सब तरह की संभव कठिनाइयों का सामना करना होता है, इसी भांति स्वयं प्राण पर जड़ भौतिक की मर्त्यता, तमसू और अस्थिरता के बंधन होते हैं । लेकिन स्पष्ट है कि ऐसी जगत् व्यवस्था हो सकती है जिसमें इन दोनों अक्षमताओं में से कोई भी अस्तित्व की प्रथम परिस्थितियों का अंश न हो । ऐसे जगत् की संभावना है जिसमें मन शुरू से ही प्रमुख होगा, सुनम्य पदार्थ के रूप में स्वयं अपने तत्त्व या जड़तत्त्व पर क्रिया करने के लिये स्वतंत्र होगा या जहां जड़-पदार्थ, बिल्कुल स्पष्ट रूप में, वैश्व मानसिक शक्ति का जीवन में स्वयं अपने ऊपर क्रिया करने का परिणाम होगा । यहां वास्तविकता में ठीक ऐसा ही है लेकिन यहां मानसिक शक्ति शुरू से ही अंतलींन है, लंबे कालतक अवचेतन रही है और जब ऊपर उभर भी आती है तो कभी अपने ऊपर मुक्त अधिकार नहीं पाती बल्कि आवरण चढ़ानेवाले द्रव्य के आधीन रहती है, जब कि वहां उसे अपने ऊपर अधिकार होगा, वह अपने उस उपादान की स्वामिनी होगी जो प्रधानत: भौतिक विश्व में जैसा है उसकी अपेक्षा कहीं अधिक सूक्ष्म और नमनीय होगा । इसी भांति प्राण की अपनी जगत्-व्यवस्था हो सकती है जहां वह प्रमुख होगा, अपनी निजी अधिक नमनीय और मुक्त रूप से परिवर्तनशील कामनाओं और प्रवृत्तियों को फैला सकेगा, जहां हर क्षण विघटनकारी शक्तियां उसे तंग न करती रहेंगी और इसलिये मुख्य रूप से वह आत्म-संरक्षण की चिंता में नहीं लगा रहेगा और न अपनी इस स्थिति में संकटपूर्ण तनाव के कारण अपनी क्रीड़ा में सीमित रहेगा जो मुक्त रूपायन, मुक्त आत्मतुष्टि और मुक्त साहसिकता की प्रवृत्तियों को सीमित करती है । सत्ता की अभिव्यक्ति में प्रत्येक तत्त्व की प्रमुखता एक शाश्वत संभावना है । यह मानी हुई बात है कि ये तत्त्व अपनी क्रियाशील शक्ति और क्रिया- विधि में स्पष्ट रूप से अलग हैं यद्यपि अपने मौलिक उपादान में एक ही हैं ।

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     इससे कोई फर्क न पड़ता अगर यह कोई दार्शनिक संभावना या सच्चिदानंद की सत्ता में ऐसी संभाव्यता ही होती जिसे वह कभी चरितार्थ नहीं करता या जिसे उसने अभीतक चरितार्थ नहीं किया है या अगर चरितार्थ किया भी है तो अभीतक भौतिक विश्व में रहनेवाली सत्ताओं की चेतना के क्षेत्र में नहीं लाया है । लेकिन हमारा सारा आध्यात्मिक और चैत्य अनुभव भावात्मक रूप से साक्षी है और हमारे आगे उच्चतर जगतों और सत्ता की अधिक मुक्त भूमियों के बारे में सतत और अपने मुख्य तत्त्वों में अपरिवर्तनशील साक्ष्य प्रस्तुत करता है । आधुनिक विचार का बहुत बड़ा भाग इस अंध-विश्वास के साथ बंधा हुआ है कि केवल भौतिक अनुभव या भौतिक इन्द्रियों पर आधारित अनुभव ही सच्चा है और भौतिक अनुभव का विश्लेषण केवल तर्क-बुद्धि के द्वारा ही परखा जा सकता है और बाकी सब भौतिक अनुभव और भौतिक सत्ता का ही परिणाम है और उसके परे जो कुछ है वह भ्रांति, आत्मसंभ्रम और मतिभ्रम है; लेकिन चूंकि हम इस विचार के साथ बंधे हुए नहीं हैं इसलिये हम इस साक्ष्य को स्वीकार करने और इन लोकों की वास्तविकता को मानने के लिये स्वतंत्र हैं । हम देखते हैं कि वे व्यावहारिक रूप से भौतिक विश्व के सामंजस्य से भिन्न सामंजस्य हैं । वे, जैसा कि ''स्तर'' शब्द से प्रकट होता है, सत्ता के सोपान में अलग-अलग तल पर हैं और अपने तत्त्वों की भिन्न पद्धति और व्यवस्था को अपनाते हैं । अपने वर्तमान प्रयोजन के लिये हमें इसकी जांच करने की जरूरत नहीं है कि क्या वे हमारे जगत् के साथ देश और काल में ठीक-ठीक मेल खाते हैं या देश के किसी और क्षेत्र में, काल की किसी और धारा में गति करते हैं -दोनों ही हालतों में यह अधिक सूक्ष्म पदार्थ में और अन्य गतियों में है । हमारा केवल इतने के साथ सीधा संबंध है कि यह जानें कि क्या वे विभिन्न विश्व हैं, हर एक अपने-आपमें पूर्ण है, और किसी तरह दूसरों के साथ न मिलते, न परस्पर-संकर करते या प्रभाव डालते हैं या वे सत्ता के एक ही श्रेणीबद्ध और आपस में ताना-बाना बनाते हुए तंत्र के अलग-अलग क्रम हैं, अतः एक जटिल वैश्व-तंत्र के भाग हैं । यह तथ्य कि वे हमारी मानसिक चेतना के क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं स्वभावत: दूसरे विकल्प के औचित्य के बारे में संकेत देता है लेकिन वह अपने-आपमें पूरी तरह निश्चायक न होगा । लेकिन हम जो देखते हैं वह तो यह है कि ये उच्चतर स्तर वस्तुत: हर क्षण हमारी सत्ता के स्तर के साथ संसर्ग रखते और उसपर क्रिया करते हैं, यद्यपि यह क्रिया स्वभावतः हमारी सामान्य जाग्रत् या बाह्य चेतना के लिये उपस्थित नहीं होती क्योंकि वह अधिकांश में भौतिक जगत् के संपर्कों को ग्रहण करने और उनका उपयोग करने में सीमित रहती है; लेकिन, जैसे ही हम अपनी अंतस्तलीय चेतना में लौटते हैं या अपनी जाग्रत् चेतना को भौतिक संपर्कों के क्षेत्र से परे ज्यादा बड़ा कर लेते हैं, हम इस उच्चतर क्रिया की किसी चीज से कुछ-कुछ अभिज्ञ हो उठते हैं । हम यह भी देखते हैं कि कुछ विशेष

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परिस्थितियों में शरीर में रहते हुए भी मानव सत्ता इन उच्चतर भूमियों में अपने- आपको आंशिक रूप से प्रक्षिप्त कर सकती है । सुतरां उसे, जब वह शरीर से बाहर हो तो यह जरूर कर सकना चाहिये और तब और भी ज्यादा पूरी तरह कर सकना चाहिये क्योंकि तब शरीर के साथ बंधे भौतिक जीवन को अक्षम बनानेवाली परिस्थिति न रहेगी । इस संबंध और स्थानांतरण की शक्ति के परिणाम बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं । एक ओर वे तुरंत उस प्राचीन परंपरा का औचित्य अंतत: एक वास्तविक संभावना के रूप में सिद्ध करते हैं कि भौतिक शरीर के विघटन के बाद मनुष्य की सचेतन सत्ता का भौतिक लोकों से भिन्न लोकों में कम- से-कम कुछ समय के लिये अस्थायी प्रवास अवश्य होता है । दूसरी ओर वे हमारे लिये भौतिक जीवन पर उच्चतर भूमिकाओं की एक ऐसी क्रिया की संभावना खोल देते हैं जो उन शक्तियों को मुक्त कर सकती है जिनका वे प्रतिनिधित्व करती हैं, उस विकसनशील अभिप्राय के लिये जो उनके जड़-तत्त्व में मूर्त्तिमान होने के तथ्य के नाते ही अंतर्निहित हैं -वे शक्तियां हैं प्राण, मन और आध्यात्म शक्ति ।

 

     ये जगत् अपने आदि सृजन में भौतिक विश्व के पीछे के नहीं, उससे पहले के हैं, भले काल में न हों, अनुवर्ती क्रम में तो हैं ही । क्योंकि भले एक आरोहणकारी और अवरोहणकारी वर्गीकरण क्यों न हो, इस आरोहणकारी वर्गीकरण को अपने प्रमुख स्वभाव के अनुसार जड़-प्रकृति में विकसनशील आविर्भाव के लिये आयोजन होना चाहिये, उसके उद्योग के लिये एक रचनात्मक शक्ति होना चाहिये, उसके अनुकूल और प्रतिकूल तत्त्वों में योगदान देना चाहिये, उर्से केवल पार्थिव विकास का परिणाम नहीं होना चाहिये क्योंकि वह न तो तर्क-संगत संभाव्यता है न उसका कोई आध्यात्मिक या क्रियाशील और व्यावहारिक अर्थ है । दूसरे शब्दों में, उच्चतर लोक निम्नतर भौतिक विश्व के, उदाहरण के लिये भौतिक निश्चेतना में स्थित सच्चिदानंद के दबाव के कारण अस्तित्व में नहीं आये हैं या फिर उसकी सत्ता की प्रेरणा के द्वारा जब वह निश्चेतना में से प्राण, मन और आध्यात्म सत्ता में आती है या ऐसे लोकों या भूमियों की रचना करने की आवश्यकता का अनुभव करती है जिनमें उन तत्त्वों की अधिक स्वतंत्र क्रीड़ा होगी और जिनमें मानव आत्मा अपनी प्राणिक, मानसिक या आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को सबल बना सकेगी तो उनसे भी ये लोक अस्तित्व में नहीं आये हैं । और वे स्वयं मानव अंतरात्मा की रचनाएं तो और भी कम हैं, चाहे स्वप्न कह लो या मानवजाति का भौतिक चेतना की सीमाओं से परे अपनी गतिशील और सृजनात्मक सत्ता में निरंतर आत्म-प्रक्षेपणों का परिणाम । इस दिशा में एकमात्र चीज, जिसका मनुष्य स्पष्ट रूप से सृजन करता है, वह इन लोकों का अपनी शरीरी चेतना में प्रतिवर्ती बिंबों का सृजन है, और अपनी अंतरात्मा में उनका प्रत्युत्तर देने की, उनके बारे में अभिज्ञ होने की और सचेतन रूप से भौतिक लोक की क्रियाओं के साथ उनके प्रभावों के आपस में गुंथने की

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क्षमता का सृजन है । वह निश्चय ही अपने उच्चतर प्राण और मन की क्रियाओं के परिणामों या प्रक्षेपणों का योगदान इन लोकों की क्रियाओं में कर सकता है लेकिन अगर ऐसा है तो ये प्रक्षेपण, आखिर, उच्चतर लोकों का स्वयं अपनी ओर लौटना है, धरती से उनकी ऐसी शक्तियों का लौटना जो उनसे पार्थिव मन में उतरी हैं, चूंकि यह उच्चतर प्राण और मन की क्रिया अपने-आपमें ऊपर से संचारित प्रभावों का परिणाम होती है । यह भी संभव है कि वह इन अतिभौतिक लोकों के लिये किसी विशेष प्रकार के वस्तुनिष्ठ उपलोकों की रचना करे या कम-से-कम उनमें से निचलों के लिये अर्द्ध-अवास्तविक प्रकार के परिवेश तैयार करे जो सच्चे जगतो की जगह उसके सचेतन मन और प्राण के अपने बनाये हुए आवरण हों, वे उसकी अपनी सत्ता की परछाइयां, एक ऐसा कृत्रिम पर्यावरण होते हैं जो उन अन्य लोकों के साथ मेल खाता है जिन्हें चित्रित करने का उसने अपने जीवनकाल में प्रयत्न किया हो -उसकी सचेतन सत्ता की मानवशक्ति में बिंब रचने की क्षमता द्वारा प्रक्षिप्त स्वर्ग और नरक । लेकिन इन दोनों में से किसी योगदान का अर्थ यह हर्गिज नहीं होता कि सत्ता की किसी ऐसी वास्तविक भूमि का पूर्ण सृजन हो जो अपने अलग तत्त्व पर आधारित हो और उसके अनुसार क्रिया करती हो ।

 

     तो ये भूमियां और ये तंत्र कम-से-कम उसके सम-सामयिक और सहवर्ती तो हैं ही जो हमारे आगे अपने-आपको भौतिक विश्व के रूप में उपस्थित करता है । हम इस निष्कर्ष पर आये हैं कि भौतिक सत्ता में प्राण, मन और आत्मा का विकास मानने से पहले उनके अस्तित्व को मानना जरूरी है । क्योंकि यहांपर इन शक्तियों का विकास दो आपस में सहयोग करनेवाली शक्तियों के द्वारा होता है, एक नीचे से ऊपर की ओर चढ़नेवाली शक्ति, एक ऊपर की ओर खींचनेवाली और ऊपर से नीचे की ओर दबाव डालनेवाली शक्ति । क्योंकि निश्चेतन के अंदर, जो कुछ अंदर छिपा हुआ है उसे बाहर लाने की जरूरत हैं और उच्चतर लोकों में श्रेष्ठतर तत्त्वों का दबाव है जो न केवल इस सामान्य आवश्यकता को अपने- आपको चरितार्थ करने में सहायता देता है बल्कि बड़ी हदतक वे विशेष उपाय भी निर्धारित कर सकता है जिनसे अंततः उसे चरितार्थ किया जा सके । ऊपर की ओर खींचनेवाली यह क्रिया और यह दबाव, यह ऊपर से आग्रह ही भौतिक स्तर पर आध्यात्मिक, मानसिक और प्राणिक जगती के सतत प्रभाव का कारण स्पष्ट करता है । यह स्पष्ट है कि अगर यह विश्व जटिल है और इसके सात तत्त्व उसके तंत्र के हर भाग में एक-दूसरे के साथ गुंथे हुए हैं अतः स्वाभाविक रूप से जब कभी वे आपस में एक-दूसरे के संपर्क में आ सकें तो एक-दूसरे पर क्रिया करने और उत्तर-प्रत्युत्तर देने के लिये आकर्षित होते हैं । वहां ऐसी क्रिया, सतत दबाव और प्रभाव अनिवार्य परिणाम है और उन्हें अभिव्यक्त विश्व के स्वरूप में ही आवश्यक रूप से अंतर्लीन होना चाहिये ।

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उच्चतर शक्तियों और तत्त्वों का स्वयं अपनी भूमिकाओं से पार्थिव सत्ता और प्रकृति पर अंतस्तलीय पुरुष द्वारा लगातार गुप्त रूप से आनेवाली क्रिया का कोई प्रभाव और महत्त्व होना ही चाहिये । यह अंतस्तलीय अपने-आप निश्चेतना से जन्मे इस जगत् में उन भूमिकाओं का प्रक्षेपण है । उसका प्रथम प्रभाव रहा है जड़- भौतिक में से प्राण और मन की मुक्ति । उसका अंतिम प्रभाव रहा है पार्थिव जीव में आध्यात्मिक चेतना, आध्यात्मिक इच्छा और जीवन के एक आध्यात्मिक अर्थ के उभरने में सहायता देना; इसीसे वह पूरी तरह से अपने बाह्यतम जीवन में ही तल्लीन नहीं रहता, साथ-ही-साथ मन के व्यापारों और रुचियों में अनन्य रूप से ही नहीं लगा रहता, बल्कि उसने अंतर में देखना, अपने आंतरिक पुरुष, अपने आध्यात्मिक पुरुष को खोजना, पृथ्वी और उसकी सीमाओं को पार करने की अभीप्सा करना सीख लिया है । जैसे-जैसे वह अधिकाधिक अंदर की ओर बढ़ता है, उसकी मानसिक, प्राणिक और आध्यात्मिक सीमाएं विस्तृत होने लगती हैं, जो बंधन प्राण मन और आध्यात्म पुरुष को अपनी पहली सीमाओं में जकड़े हुए थे, ढीले हो जाते या टूट जाते हैं और मानव मनोमय पुरुष, आत्मा और जगत् के विशालतर राज्य की ऐसी झांकियां पाना शुरू करता है जो पहले के पार्थिव जीवन के लिये बंद थीं । निःसंदेह जबतक वह मुख्य रूप से अपनी सतह पर रहता है वह केवल अपने सामान्य संकीर्ण जीवन की जमीन पर एक प्रकार की आदर्श, काल्पनिक और विचारात्मक अधिरचना ही बना सकता है । लेकिन अगर वह भीतर की ओर गति करता है, जिसे स्वयं उसका उच्चतम अंतर्दर्शन उसके आगे उसकी सबसे बड़ी आध्यात्मिक आवश्यकता के रूप में रखता है, तो वह वहां, अपनी आंतरिक सत्ता में एक बृहत्तर चेतना और बृहत्तर प्राण को पायेगा । भीतरी क्रिया और ऊपर से आनेवाली क्रिया जड़-भौतिक के नियम की प्रधानता को अभिभूत कर सकती, निश्चेतना की शक्ति को घटा और अंत में समाप्त कर सकती है, चेतना के क्रम को उल्टा कर सकती, जड़ के स्थान पर आत्मा को उसकी सत्ता के सचेतन आधार के रूप में रख सकती और आत्मा की उच्चतर शक्तियों को प्रकृति में शरीरस्थ जीव के जीवन में अपनी संपूर्ण और विशिष्ट अभिव्यक्ति पाने के लिये मुक्त कर सकती है ।

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