Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १८
मानस और अतिमानस
मनो ब्रझेति व्यजानात् ।
उसने जाना कि मन ही ब्रह्म है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् ३-४
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।।
अविभक्त होते हुए भी मानों सत्ताओं में विभक्त हो ।
गीता १३-१७
अभीतक हम जो अवधारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं वह अतिमानसिक जीवन के केवल सारतत्त्व की है जिसे दिव्य आत्मा सच्चिदानंद की सत्ता में सुरक्षित रूप से अपने अधिकार में रखती है, लेकिन जिसे मानव आत्मा को मानसिक और भौतिक जीवन के सांचे में ढले हुए यहींपर बने सच्चिदानंद के इस शरीर में अभिव्यक्त करना है । लेकिन जहांतक हम इस अतिमानसिक जीवन की अभीतक परिकल्पना कर पाये हैं, ऐसा नहीं लगता कि उसका हमारे परिचित जीवन के साथ --हमारी सामान्य सत्ता के दो प्रांतों, मन और शरीर के दो आकाशों के बीच सक्रिय रहनेवाले जीवन के साथ -कोई संबंध या सादृश्य है । बल्कि ऐसा लगता है कि यह सत्ता की ऐसी स्थिति, चेतना की ऐसी स्थिति, सक्रिय संबंध और पारस्परिक उपभोग की ऐसी स्थिति है जिसे अशरीरी आत्माएं शायद भौतिक रूपों से रहित जगत् में अधिकृत और अनुभव कर सकती हों । ऐसे लोक में जिसमें आत्माओं में भेद तो संपन्न हो चुका है परंतु शारीरिक भेद नहीं, ऐसे लोक में जो सक्रिय और आनंदमय अनंतताओं का जगत् है, रूप की कारा में बंद आत्माओं का नहीं । अतः बुद्धिसंगत रूपसे यह संदेह किया जा सकता है कि शारीरिक रूप की इस सीमा को, रूप में काराबद्ध मन और रूप में काराबद्ध शक्ति के इस परिसीमन में, जिसे हम अभी जीवन मानते हैं, क्या ऐसा दिव्य जीवन संभव हो सकता है ?
वस्तुत: हमने उस परम अनंत सत्ता, चित्-शक्ति और आत्मानंद की कुछ ऐसी धारणा बनाने का प्रयास किया है जिसकी हमारा जगत् एक सृष्टि और हमारी मानवता एक विकृत रूप है । हमने अपने-आपको यह बतलाने की कोशिश की है कि यह दिव्य माया क्या हो सकती है, यह ऋत-चित् यह सत्य-संकल्प क्या हो सकता है जिसके द्वारा परात्पर और वैश्व सत्ता की चित्-शक्ति विश्व की, जो एक व्यवस्था है, सत्ता के अभिव्यक्त आनंद का एक सुव्यवस्थित जगत् है, उसकी अवधारणा करती, उसे रूपायित और नियंत्रित करती है, लेकिन हमने अभीतक यह
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अध्ययन नहीं किया है कि इन चार महान् व दिव्य पदों का अन्य तीन के साथ, अर्थात् मन, प्राण और शरीर के साथ -हमारा मानव अनुभव इन तीन से ही केवल परिचित है-क्या संबंध है । हमनें इस दूसरी प्रतीयमानत: अदिव्य माया की जांच नहीं की है जो हमारे सकल प्रयासों और दुःखों की जड़ है और यह नहीं देखा है कि वह दिव्य सद्वस्तु या दिव्य माया में से ठीक किस तरह विकसित होती है । और जबतक हम यह नहीं कर लेते, जबतक हम संबंध के खोए हुए धागों को नहीं बुन लेते तबतक हमारा जगत् हमारे लिये अ-समझा ही रहता है और उस उच्चतर सत्ता तथा इस निम्नतर जीवन के बीच के एक होने की संभावनामें संदेह के लिये आधार बना रहता है । हम जानते हैं कि हमारा जगत् सच्चिदानंद से आया है और उसीकी सत्ता में बना रहता है । हमारी यह धारणा भी है कि सच्चिदानंद ही इस जगत् में भोक्ता, ज्ञाता, प्रभु और आत्मा-रूप में निवास करता है । हम यह भी देख आये हैं कि हमारे संवेदन, मन, शक्ति और सत्ता के द्वंद्वात्मक रूप सच्चिदानंद के आनंद के, उसकी चित्-शक्ति के, उसकी दिव्य सत्ता के प्रतिरूप मात्र हो सकते हैं । लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि ये द्वंद्वात्मक रूप, वस्तुतः सच्चिदानंद सचमुच दिव्य भाव में जो कुछ है उससे एकदम उल्टे हैं, कि इन विपरीतताओ के कारण के बीच रहते हुए जीवन के निम्न त्रिपद में रहते हुए हम दिव्य जीवन को नहीं पा सकते । हमें या तो इस निचली सत्ता को उस उच्चतर स्थिति में उठाना होगा या फिर शरीर के स्थान पर उस शुद्ध सत्ता को, प्राण के स्थान पर चित्-शक्ति की उस शुद्ध अवस्था को, संवेदन और मानसिकता के स्थान पर उस शुद्ध आनंद और ज्ञान को लाना होगा जो कि आध्यात्मिक सद्वस्तु के सत्य में निवास करते हैं । और क्या इसका यह अर्थ नहीं होगा कि हमें समस्त पार्थिव या सीमित मानसिक जीवन को किसी ऐसी चीज के लिये छोड़ देना होगा जो उससे विपरीत है -या तो आत्मा की किसी शुद्ध स्थिति के लिये या वस्तुओं के सत्य के किसी लोक के लिये, यदि ऐसा कोई लोक है, या दिव्य आनंद, दिव्य ऊर्जा, दिव्य सत्ता के लोकों के लिये, यदि ऐसे लोक हों । ऐसी दशा में मानव जाति की पूर्णता, स्वयं मानव जाति से कहीं अन्यत्र है । उसके पार्थिव क्रम-विकास का शिखर लुप्त होती हुई मानसता का एक सूक्ष्म सिरा ही हो सकता है जहां से यह एक लंबी छलांग लगाकर या तो निराकार सत्ता में या शरीरधारी मन की पहुंच से परे के लोकों में चला जाता है ।
लेकिन वास्तव में जिसे हम अदिव्य कहते हैं वह सब स्वयं इन चार दिव्य तत्त्वों की क्रिया ही हो सकता है, ऐसी क्रिया जो इस रूप-जगत् की सृष्टि करने के लिये जरूरी थी । इन रूपों की सृष्टि दिव्य सत्ता, चित्-शक्ति और आनंद के बाहर नहीं वरन् उनके अंदर हुई है, दिव्य सत्य-संकल्प की क्रिया के बाहर नहीं बल्कि उसके अंदर और उसके एक अंश के रूप में हुई है । अतः यह मानने का कोई कारण नहीं है कि रूप-जगत् में उच्चतर दिव्य चेतना की कोई वास्तविक लीला नहीं हो
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सकती या कि रूप और उनके प्रत्यक्ष सहारे मानसिक चेतना, प्राणिक शक्ति की ऊर्जा और रूप-द्रव्य जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं उसे अवश्य विकृत करें ही । यह संभव है बल्कि शक्य है कि मन, प्राण और शरीर अपने शुद्ध रूप में स्वयं दिव्य सत्य के अंदर ही पाये जाते हों, ये वहांपर वस्तुत: उसकी चेतना की अधीनस्थ क्रिया के रूप में रहते हों और उस संपूर्ण यंत्र विन्यास के अंग हों जिसके द्वारा परम शक्ति सर्वदा कार्य किया करती है, तब तो मन, प्राण और शरीर अवश्य ही दिव्यता के लिये सक्षम होने चाहियें, भौतिक विज्ञान पार्थिव विकासक्रम के संभवत: किसी एक ही चक्र को प्रदर्शित करता है । यह जरूरी नहीं है कि उस चक्र की एक छोटी-सी अवधि में मन, प्राण और शरीर के जो रूप और क्रियाएं सामने आयें वे सजीव शरीर के अंदर इन तीनों तत्त्वों की सभी संभाव्य क्रियाओं को प्रदर्शित करें । वे जो करते हैं, इसलिये करते हैं कि किसी उपाय से वे अपनी चेतना में उस दिव्य सत्य से अलग हो गये हैं जिससे कि वे निकले थे । एक बार यह पृथक्ता मानवजाति में विस्तृत होती हुई दिव्य ऊर्जा के द्वारा निरस्त हो जाये तो उनकी वर्तमान कर्मरीति बहुत संभवतः बल्कि स्वाभाविक रूप से परम विकासक्रम और प्रगति के द्वारा सत्य-चेतना में उनकी जो शुद्धतर कार्य-प्रणाली है उसमें बदल जायेगी ।
ऐसी दशा में न केवल मानव मन और शरीर में दिव्य चेतना को अभिव्यक्त करना और बनाये रखना संभव होगा बल्कि यहांतक भी संभव है कि दिव्य चेतना अपनी विजयों को बढ़ाती हुई, अंत में स्वयं मन, प्राण और शरीर को अपने शाश्वत सत्य के अधिक पूर्ण प्रतिरूप में रूपायित कर दे और केवल आत्मा में ही नहीं बल्कि पदार्थ में भी अपने स्वर्ग के राज्य को धरती पर चरितार्थ कर दे । शायद कुछ लोगों ने, हो सकता है बहुतों ने, धरती पर इन विजयों में से पहली आतंरिक विजय निश्चय ही कम या अधिक मात्रा में प्राप्त कर ली है, दूसरी बाह्य विजय पिछले युगों में यद्यपि कम या अधिक मात्रा में इस रूप में कभी साधित नहीं भी हुई कि वह भावी युगचक्रों के लिये प्रथम प्ररूप का काम दे सके और अबतक भी पार्थिव प्रकृति की अवचेतन स्मृति में रखी हो फिर भी, हो सकता हैं कि मानव जाति में भगवान् की आगामी विजयशील उपलब्धि के रूप में वह अभिप्रेत हो । यह जरूरी नहीं है कि यह पार्थिव जीवन अनिवार्य रूप से और हमेशा के लिये आधे सुखद व आधे दुःखद प्रयास का चक्र बना रहे । लक्ष्य-प्राप्ति भी अभिप्रेत हो सकती है और ईश्वर की महिमा और आनंद को धरती पर अभिव्यक्त किया जा सकता है ।
हमें जिस अगली समस्या पर विचार करना है वह यह है कि मन, प्राण और शरीर अपने परम उत्स में क्या हैं, और परिणामत: दिव्य अभिव्यक्ति की सर्वांगीण पूर्णता में उन्हें क्या होना चाहिये जब वे सत्य से अनुप्राणित हों और जिस पार्थक्य और अज्ञान में आज हम रहते हैं उनके कारण उस सत्य से कटे न हों । क्योकि
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वहां उन्हें पहले ही वह पूर्णता प्राप्त होगी जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं --हम, जो अभीतक जड़ द्रव्य में विकसित होते हुए 'मन' की हथकड़ी में पड़ी पहली गतिमात्र हैं, हम, जो अभीतक रूप में आत्मा के उस अंतर्लयन की, अपनी ही छाया में महाज्योति की उस निमग्नता की अवस्थाओं और प्रभावों से मुक्त नहीं हुए हैं जिसके द्वारा भौतिक प्रकृति की अंधकारमय जड़-चेतना की सृष्टि की गयी थी । हम जिस समग्र पूर्णता की ओर बढ़ रहे हैं उसका प्ररूप, हमारे उच्चतम विकास की अवस्थाएं निश्चित रूप से पहले से दिव्य सत्य-संकल्प में विद्यमान होंगी । वे वहां रूपायित और सचेतन होंगी ताकि हम उनकी ओर और उनमें विकसित हो सकें । क्योंकि हमारी मानव मानसिकता भागवत ज्ञान में इस पूर्व-अस्तित्व को ही 'आदर्श' कहती और उसकी खोज करती है । यह 'आदर्श' एक शाश्वत सद्वस्तु हैं जिसे हमने अभीतक अपनी निजी सत्ता की अवस्थाओं में नहीं पाया है । यह कोई असत् नहीं है जिसे शाश्वत और दिव्य अभीतक पकड़ नहीं पाये हैं और केवल हम अपूर्ण प्राणियों ने ही उसकी झांकी पायी है और उसकी रचना करना चाहते हैं ।
पहले मन को लें जो हमारे मानव जीवन का जंजीर से बंधा, कुंठित राजा है । अपने सारतत्त्व में मन एक ऐसी चेतना है जो नापती, सीमित करती, अविभाज्य समग्र से वस्तुओं के रूप काटती और उन्हें इस तरह धारण करती है मानों उनमें से प्रत्येक एक पृथक् अखंड वस्तु हो । यहांतक कि जिनका अस्तित्व स्पष्ट रूप से अंग और अंश रूप में होता है उनके साथ भी मन अपने सामान्य व्यापार की यह कल्पना गढ़ लेता है कि वे ऐसी चीजें हैं जिनके साथ वह समग्र के मात्र एक पहलू के रूप में नहीं बल्कि पृथक् रूप में भी व्यवहार कर सकता है । क्योंकि जब वह जानता है कि वे अपने-आपमें पृथक् वस्तुएं नहीं हैं तब भी उसे उनके साथ ऐसे ही व्यवहार करना पड़ता है मानों वे अपने-आपमें पृथक् वस्तुएं हों अन्यथा वह उन्हें अपनी विशिष्ट क्रियाशीलता के आधीन नहीं ला सकता । मन की यह तात्त्विक विशिष्टता ही उसकी समस्त कार्यकारिणी शक्तियों की क्रियाओं को प्रतिबन्धित करती है फिर चाहे वह धारणा हो, प्रत्यक्ष दर्शन हो, संवेदन हो या सृजनशील विचार के साथ व्यवहार । वह वस्तुओं की धारणा, प्रत्यक्ष दर्शन और संवेदन इस तरह करता है मानों वे किसी पृष्ठभूमि या बृहत्-पिंड में से कठोर आकार में काटी गयी वस्तुएं हों और वह उनका उपयोग इस तरह करता है मानों वे उसे सृजन या अधिकार करने के लिये दी गयी सामग्री की रूढ़ इकाइयां हों । उसकी सभी क्रियाएं और आनंद-प्रवृत्तियां उन समग्रों के साथ, जो बृहत्तर समग्र के अंगभूत होते हैं, इसी तरह बरताव करती हैं, और इन अंगभूत समग्रों को फिर से उपांगों में विखंडित कर दिया जाता है और उनसे भी उनसे मिलनेवाले विशेष प्रयोजनों की दृष्टि से समग्रों की तरह व्यवहार किया जाता है । मन उनके भाग कर सकता है, उनमें गुणन कर सकता है, उनमें जोड़-घटाव कर सकता है लेकिन वह इस गणित
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की सीमा के पार नहीं जा सकता । अगर वह परे जाकर वास्तविक समग्र की धारणा बनाने की कोशिश करता है तो वह अपने-आपको किसी विजातीय तत्त्व में खो बैठता है । वह अपनी ठोस भूमि से गिर कर अमूर्तता के सागर में, अनंत की खाई में जा पहुंचता है, जहां वह न तो धारणा, प्रत्यक्ष दर्शन, संवेदन कर सकता है और न अपने विषय के साथ सृजन या भोग के लिये व्यवहार ही कर सकता है । क्योंकि अगर कभी ऐसा लगता भी है कि मन अनंत की धारणा बना रहा है, उसका प्रत्यक्ष दर्शन एवं संवेदन कर रहा है या उसे अपने अधिकार में करके उसका उपभोग कर रहा है तो यह केवल प्रतीति मात्र होती है और वह सदा अनंत की किसी आकृति में ही होती है । जिसे वह इस तरह अस्पष्ट रूप में अपने अधिकार में किये रहता है वह केवल एक रूपहीन वृहत् होता है वास्तविक देशातीत अनंत नहीं । जिस क्षण वह उसके साथ व्यवहार करना या उसे अधिकार में करना चाहता है उसी क्षण सीमित करने की अविच्छेद्य प्रवृत्ति आ जाती है और मन फिर से अपने-आपको प्रतिमाओं, रूपों और शब्दों से व्यवहार करता हुआ पाता है । मन अनंत पर अधिकार नहीं कर सकता, वह केवल उसे सह सकता है या उससे अधिकृत हो सकता है । वह सद्वस्तु की ज्योतिर्मय छाया के नीचे, जो उसकी पहुंच से परे के सत्ता के लोकों से उसपर नीचे डाली जाती है, बस सुखमय असहायता में पड़ा रह सकता है । अनंत पर अधिकार उन अतिमानसिक लोकों में आरोहण किये बिना नहीं हो सकता और न ही उसका ज्ञान ऋत-चिन्मय परम सद्वस्तु से उतरते हुए संदेशों के प्रति 'मन' के निस्पंद आत्मदान के बिना आ सकता है ।
मन की यह स्वरूपगत क्षमता और उसके साथ आनेवाली मूलगत सीमा ही 'मन' के सत्य हैं और उसके स्वभाव और स्वधर्म को निश्चित करते हैं । यहां हमें परा माया के संपूर्ण यंत्र-विन्यास में उसे उसके काम पर नियुक्त करनेवाले भागवत आदेश की छाप देखने को मिलती है । यह कार्य उसके द्वारा निर्धारित होता है जो वह अपने स्वरूप में स्वयंभू की सनातन आत्म-परिकल्पना से उत्पत्ति के क्षण में होता हैं । वह कार्य है अनंतता को सदा सांत की भाषा में अनूदित करना, मापना, सीमित करना, खंड-खंड करना । वस्तुत: वह अनंत के सारे सच्चे भाव का बहिष्कार करके ही हमारी चेतना में यह कार्य करता है । इसीलिये मन महान् अज्ञान की ग्रंथि है क्योंकि वही मूल रूप में विभक्त और वितरित करता है । और यहांतक कि उसे गलत रूप में विश्व का कारण और भागवत माया का समग्र रूप मान लिया गया है । परंतु भागवत माया अपने अंदर जैसे विद्या को वैसे अविद्या को भी, जैसे ज्ञान को वैसे अज्ञान को भी समाविष्ट किये रहती है । क्योंकि यह स्पष्ट है कि चूंकि सांत अनंत का एक रूप है, उसीकी क्रिया का एक परिणाम, उसीकी कल्पना का एक खेल है और उसके बिना तो वह अस्तित्व में ही न आ सकता,
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उसके द्वारा, उसके अंदर और उसके साथ ही उसका अस्तित्व है इस तरह कि वही उसकी पृष्ठभूमि है, वह स्वयं उसी द्रव्य का एक रूप और उसी शक्ति की एक क्रिया है अतः एक मूलगत चेतना होनी चाहिये जो इन दोनों को एक साथ समाविष्ट करती और देखती हो और एक-दूसरे के समस्त संबंधों से घनिष्ठ रूप से सचेतन हो । उस चेतना में कोई अज्ञान नहीं है क्योंकि अनंत ज्ञात है और सांत उससे एक स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में पृथक् नहीं हुआ होता । परंतु, फिर भी सीमांकन की एक गौण प्रक्रिया वहां रहती है अन्यथा किसी जगत् का अस्तित्व ही न होता । यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा मन की सतत विभाजन और फिर से संयोजन करनेवाली चेतना, प्राण की सतत विभिन्न दिशाओं में दौड़ने और फिर केंद्राभिमुख होनेवाली क्रिया और जड़ तत्त्व का अनंत रूप से विभक्त और आत्म-संकलित द्रव्य, सबके सब एक ही तत्त्व और आदि क्रिया के द्वारा गोचर सत्ता में आते हैं । सनातन कवि और मनीषी जो पूर्णतः ज्योतिर्मय है, अपने और सबके बारे में पूर्णतः अभिज्ञ है, जो पूरी तरह जानता है कि वह क्या कर रहा है, वह जिस सांत की रचना कर रहा है उसमें अनंत के बारे में सचेतन है, उस सनातन की इस गौण प्रक्रिया को दिव्य मन कहा जा सकता है । और यह स्पष्ट है कि वह सत्य-संकल्प की, अतिमानस की, वास्तव में कोई पृथक् क्रिया न होकर एक गौण क्रिया होता होगा और उसीके द्वारा कार्य करता होगा जिसका वर्णन हमने 'ऋत-चेतना' की प्रज्ञान गति कह कर किया है ।
जैसा कि हम देख आये हैं वह प्रज्ञान चेतना, अविभाज्य सर्व की सक्रिय और रूप देनेवाली क्रिया को उसी सर्व की चेतना के आगे सृजनशील ज्ञान की एक प्रक्रिया और विषय के रूप में रखती है । वह सर्व अपनी निजी क्रिया का प्रवर्तक और ज्ञाता, प्रभु और साक्षी है । यह कुछ-कुछ ऐसा है जैसे कोई कवि अपनी चेतना की रचनाओं को अपनी चेतना में अपने सामने इस तरह रखी हुई देखता है मानों वे अपने रचयिता और उसकी रचना-शक्ति से भिन्न वस्तुएं हों परंतु वास्तव में वे वस्तुएं सारे समय उसकी अपनी सत्ता के अंदर आत्म-रूपायन की लीला होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होतीं और वहां वे अपने रचयिता से अविभाज्य होती हैं । इस भांति प्रज्ञान वह आधारभूत विभाजन कर देता है जो बाकी सबकी ओर, अर्थात् पुरुष और प्रकृति के विभाजन की ओर ले जाता है । इनमें पुरुष है सचेतन आत्मा जो जानता है, देखता और अपनी दृष्टि से सृजन करता एवं विधान बनाता है और प्रकृति है 'शक्ति-आत्मा' या 'निसर्ग-आत्मा' जो उसका ज्ञान और उसकी दृष्टि है, उसकी सृष्टि और सब कुछ व्यवस्थित करनेवाली शक्ति है, दोनों एक ही सत्ता, एक ही अस्तित्व हैं और जिन रूपों को पुरुष ने देखा और सृजा है वे रूप उसी सत्ता के बहुविध रूप हैं जिन्हें ज्ञाता-भाव में वह अपने सामने ज्ञान के रूप में और स्रष्टा-भाव में वह अपने आगे शक्ति के रूप में रखता है । इस प्रज्ञान चेतना की
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अंतिम क्रिया तब संपन्न होती है जब पुरुष अपनी सत्ता के सचेतन विस्तार में व्यापक होकर, अपने प्रत्येक बिंदु और साथ ही साथ अपनी समग्रता में विद्यमान रहता है, प्रत्येक रूप में निवास करता हुआ, उसने जितने दृष्टि-बिंदु अपनाये हैं उनमें से मानों समग्र को अलग-अलग देखता है । वह अपने अन्य आत्मा-रूपों के साथ अपने हर आत्मा-रूप के संबंधों को उस रूप विशेष के उपयुक्त इच्छा और ज्ञान की भूमिका से देखता और शासित करता है ।
विभाजन के तत्त्व इस तरह अस्तित्व में आये हैं । पहले एकमेव की अनंतता ने अवधारणात्मक काल और देश के विस्तार में अपने-आपको अनूदित किया, दूसरे, एकमेव की सर्वव्यापकता ने उस आत्म-चेतन विस्तार में बहुसंख्यक सचेतन आत्माओं में अपने-आपको अनूदित किया, ये ही सांख्य के अनेक पुरुष हैं, तीसरे, आत्म-रूपों की बहुसंख्या ने अपने-आपको विस्तारित ऐक्य के विभक्त निवास में अनूदित कर लिया । यह विभक्त निवास उस समय अनिवार्य हो जाता है जब इन बहुसंख्यक पुरुषों में से प्रत्येक अपने ही पृथक् लोक में निवास नहीं करता, प्रत्येक की अपनी भिन्न प्रकृति न हो जो अलग विश्व की रचना करती हो, बल्कि सभी उसी एक प्रकृति का ही उपभोग करते हों -जैसा कि उन्हें करना ही चाहिये क्योंकि वे अपनी शक्ति की बहुविध सृष्टियों का अधिष्ठातृत्व करनेवाले एकमेव के ही आत्मा-रूप हैं -फिर भी इन आत्मा-रूपों के एक प्रकृति द्वारा बनाये गये सत्ता के एक जगत् में एक-दूसरे के साथ संबंध होते हैं । हर रूप में स्थित पुरुष अपने-आपको सक्रिय रूप से हर एक के साथ तदात्म कर लेता है, वह उसमें अपने-आपको सीमित कर लेता है और अपने अन्य रूपों के मुकाबले इस रूप को अपनी चेतना में इस तरह खड़ा करता है मानों उसने अपनी अन्य आत्माओं को अपने अंदर धारण किया हो जो आत्माएं सत्ता में तो उसके साथ एकात्म हैं लेकिन संबंध में भिन्न हैं -विभिन्न विस्तार, गति के विभिन्न क्षेत्र और एक ही द्रव्य, शक्ति, चेतना, आनंद की विभिन्न दृष्टि में अलग हैं, जिन्हें उनमें से हर एक काल के किसी निर्दिष्ट क्षण या देश के किसी निर्दिष्ट क्षेत्र में सचमुच प्रसारित करता है । यह मानते हुए कि दिव्य सत्ता के लिये, जो अपने बारे में पूरी तरह अभिज्ञ होती है, यह कोई बाध्यकारी सीमाबद्धता नहीं हैं, रूप के साथ कोई ऐसी तदात्मता नहीं है जिसकी 'आत्मा' दास बन जाये और उसे अतिक्रम न कर सके जैसे हम अपने शरीर के साथ तादात्म के दास हैं और अपने सचेतन अहं की सीमाबद्धता को अतिक्रम करने में असमर्थ हैं, देश में हमारे विशेष क्षेत्र का निर्धारण करनेवाली अपनी कालगत चेतना की विशेष गति से बाहर निकल आने में असमर्थ हैं, यह सब मान लेने के बाद भी वहां क्षण प्रति क्षण एक स्वच्छंद तदात्मता बनी रहती है जिसे दिव्य आत्मा का अविच्छेद्य ज्ञान ही इस बात से रोकता है कि वह अपने-आपको पृथक्ता और काल-अनुक्रम की प्रतीयमान रूप से कठोर शृंखला में जकड़ ले जिसमें हमारी चेतना बंधी और जकड़ी हुई प्रतीत होती है ।
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इस प्रकार खंड-भाव अभीसे वहां शुरू हो गया है । रूप का रूप के साथ ऐसा संबंध कि मानों वे अलग-अलग सत्ताएं हों, सत्तागत इच्छा का सत्तागत इच्छा के साथ ऐसा संबंध मानों वे अलग-अलग शक्तियां हों, सत्तागत ज्ञान का सत्तागत ज्ञान के साथ ऐसा संबंध मानों वे अलग-अलग चेतनाएं हों -यह अभीसे स्थापित हो गया है । यह संबंध अभीतक ''मानों' की श्रेणी में है । क्योंकि दिव्य आत्मा मोहग्रस्त नहीं हुई है, वह सत्ता के सभी प्रपंचों से परिचित है और अपने अस्तित्व को सत्ता की वास्तविकता में दृढ़ रखती है, अपने एकत्व को खो नहीं बैठती : वह मन का उपयोग अनंत ज्ञान की एक अधीनस्थ क्रिया के रूप में करती है, चीजों की ऐसी व्याख्या के रूप में करती है जो उसकी अनंतता की अभिज्ञता के अधीन हो और ऐसे सीमाकरण के रूप में करती है जो उसकी मूलभूत समग्रता की अभिज्ञता पर आश्रित हों -ऐसी समग्रता पर नहीं जो संकलित और समूहित समुच्चय से बनी ऊपरी और बहु-समन्वित होती है, वह तो मन का एक और व्यापारमात्र है । इस प्रकार वहां कोई वास्तविक सीमाकन नहीं हुआ है, आत्मा अपनी सीमांकन-शक्ति का व्यवहार स्पष्टतया पहचाने जा सकनेवाले रूपों और शक्तियों की लीला के लिये करती है, वह उस शक्ति द्वारा नियंत्रित नहीं होती ।
अतः एक ऐसे मन की रचना के लिये जो स्वतंत्रता से सीमा बनानेवाला न होकर विवशता से सीमित मन होगा यानी जो मन अपनी लीला का मालिक है और उसे उसकी सत्यता में देखता है, उससे उल्टे उस मन की रचना के लिये जो अपनी लीला के आधीन है और उससे धोखा खाता है, दिव्य मन से उल्टे जीव-मन की रचना के लिये एक नये तत्त्व चित्-शक्ति की, एक नयी क्रिया की आवश्यकता होती है और वह नया तत्त्व है अविद्या, आत्म-अज्ञान की या आत्म-तिरोभाव की क्षमता, जो मन की क्रिया को उस अतिमानस की क्रिया से पृथक् करती है जिससे इसकी प्रथम उत्पत्ति हुई और जो अब भी पर्दे के पीछे से इसका नियमन करती है । इस प्रकार पृथक् होकर मन केवल एक अंश-विशेष को ही देखता है, वैश्व को नहीं अथवा अनधिकृत वैश्व में किसी विशिष्ट की अवधारणा करता है और विशिष्ट तथा वैश्व दोनों को अनंत की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं देख पाता । इस प्रकार हमें एक ऐसा सीमित मन प्राप्त होता है जो प्रत्येक अभिव्यक्ति को अपने-आपमें एक वस्तु के रूप में देखता है, उसे ऐसे समग्र के एक पृथक् अंश के रूप में देखता है जो फिर एक और बड़े समग्र में पृथक् अस्तित्व रखता है । और यह क्रम चलता जाता है । मन अपने समाहारों की परिधि तो बढ़ाता जाता है लेकिन सच्चे अनंत के बोधतक वापिस नहीं पहुंच पाता ।
मन, अनंत की एक क्रिया होने के नाते, खंड-खंड करने और समुच्चय बनाने के क्रम को अंतहीन रूप से करता जाता है, वह सत्ता को समग्रों में काटता जाता है, उन्हें फिर और छोटे समग्रों में, अणुओं और उन अणुओं को आदि परमाणुओं
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मै काटता जाता है, यहांतक कि उसकी चले तो, वह आदि परमाणुओं को विघटित कर शून्यत्व में मिला दे । लेकिन वह ऐसा कर नहीं सकता क्योंकि इस खंड-खंड करने की क्रिया के पीछे अतिमानस का रक्षक ज्ञान रहता है जो यह जानता है कि प्रत्येक समग्र, प्रत्येक परमाणु सर्व-शक्ति का, सर्व-चेतना का, सर्व-सत्ता का अपने अभिव्यक्त रूपों में संकेंद्रण है । अतिमानस के लिये समुच्चय का अनंत शून्यत्व में विलोपन, जिसपर मन पहुंचता प्रतीत होता है, आत्म-संकेंद्रित सचेतन सत्ता का अपने अभिव्यक्तिगत रूप से निकलकर अपनी अनंत सत्ता में लौटना भर है । उसकी चेतना चाहे जिस भी राह से चले, अनंत विभाजन की राह से या अनंत वृद्धि की राह से, वह अपने-आपपर ही, अपने अनंत एकत्व और अपनी शाश्वत सत्ता पर ही पहुंचती है । और जब मन की क्रिया सचेतन रूप से अतिमानस के इस ज्ञान के आधीन हो तो उसे भी प्रक्रिया के सत्य का परिचय रहता है, उसकी उपेक्षा बिलकुल नहीं की जाती । सचमुच कोई विभाजन नहीं होता, केवल सत्ता के रूपों में अनगिनत, बहुविध संकेंद्रण होता है और सत्ता के रूपों के आपसी संबंध में व्यवस्था होती है । इसमें विभाजन संपूर्ण प्रक्रिया का एक अवर रूप है । यह प्रक्रिया उनकी देश और कालगत लीला के लिये आवश्यक है । क्योंकि तुम चाहे जितना विभाजन करते जाओ छोटे-से-छोटे अणुतक या सभी लोकों और संकायों के जो बड़े-से-बड़े समूह संभव हैं - अणोरणीयान् महतो महीयान् -दोनों में से किसी भी प्रक्रिया सें स्वयं वस्तुतक नहीं पहुंच सकते । सभी एक शक्ति के रूप हैं, केवल वही सद्वस्तु है बाकी सब शाश्वत चित्-शक्ति के आत्मकल्पना करनेवाले या अभिव्यक्त होनेवाले आत्म-रूप हैं ।
तब फिर यह सीमित करनेवाली अविद्या, मन का अतिमन से पतन और उसके परिणामस्वरूप वास्तविक विभाजन का विचार कहां से आता है ? अतिमानसिक क्रिया की ठीक-ठीक किस विकृति से शुरू होता है ? यह तब शुरू होता है जब व्यष्टिभावापन्न आत्मा और सबको छोड़कर सब चीजों को केवल अपने ही दृष्टिकोण से देखती है; यह शुरू होता है, कह सकते हैं कि चेतना के ऐकांतिक संकेंद्रण से, कालगत और देशगत किसी क्रिया-विशेष के साथ आत्मा की ऐकांतिक एकात्मता से जो उसकी सत्ता की लीला का केवल एक भाग मात्र होती है । इसका आरंभ तब होता है जब आत्मा इस तथ्य की उपेक्षा करती है कि अन्य सब भी उसका अपना स्वयं है, अन्य सारी क्रिया उसीकी अपनी क्रिया है, सत्ता और चेतना की अन्य सभी अवस्थाएं समान रूप से उसकी अपनी और साथ ही काल में एक क्षण-विशेष, देश में एक विशेष दृष्टिकोण और उस रूप-विशेष की हैं जिसमें वह इस समय स्थित है । वह किसी क्षण, किसी क्षेत्र, किसी रूप, किसी गति पर इतनी संकेंद्रित हो जाती है कि बाकी को खो बैठती है । उसे इन्हें फिर से पाने के लिये क्षणों के अनुक्रम को, देश के बिंदुओं के अनुक्रम को, देश और काल में रूपों के
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अनुक्रम को, देश और काल में गतियों के अनुक्रम को आपस में जोड़ना पड़ता है । इस भांति वह काल की अविभाज्यता के, शक्ति और द्रव्य की अविभाज्यता के सत्य को खो बैठी है । उसकी आंखों से यह स्पष्ट सत्य भी ओझल हो गया है कि सभी मन एक ही 'मन' है जो विभिन्न दृष्टिबिंदु अपनाता है, सभी प्राण एक ही 'प्राण' है जो क्रियाशीलता की बहुत-सी धाराएं विकसित करता है, सभी शरीर और रूप शक्ति और चेतना का एक ही द्रव्य है जो शक्ति और चेतना के अनेक आभासी स्थायित्वों में संकेंद्रित होती है । परंतु सच यह है कि ये सभी स्थिरताएं वास्तव में लगातार तेजी से चक्राकार घूम रही गति ही हैं जो आकार को बार-बार दोहराती और उसमें कुछ हल्के परिवर्तन भी लाती जाती है । इससे ज्यादा कुछ नहीं है । कारण, मन की कोशिश रहती है कि वह प्रत्येक चीज को दृढ़तया स्थिर आकारों में और प्रकटत: अपरिवर्ती या अचलायमान बाह्य तत्त्वों में जकड़ दे, क्योंकि इसके बिना वह कार्य नहीं कर सकता, तब वह सोचता है कि वह जो चाहता था वह उसे मिले गया : वास्तव में सब कुछ एक ऐसा प्रवाह है जिसमें सभी कुछ बदलता रहता और नया-नया रूप लेता रहता है, अपने-आपमें स्थिर आकार वहां कोई भी नहीं और अपरिवर्ती बाह्य तत्त्व भी वहां कोई नहीं । केवल शाश्वत सत्य-संकल्प ही दृढ़-स्थिर है और वही चीजों के इस प्रवाह में आकारों और संबंधों की एक विशेष क्रमिक स्थिरता को बनाये रखता है, ऐसी स्थिरता जिसकी मन व्यर्थ ही सतत रूप से अस्थिर वस्तुओं में स्थिरता को आरोपित कर नकल करने की कोशिश करता है । मन को इन सत्यों का फिर से अन्वेषण करना होगा । वह उन्हें सारे समय जानता तो है परंतु केवल अपनी चेतना के छिपे हुए पृष्ठभाग में ही, अपनी आत्म-सत्ता के गुप्त प्रकाश में । और वह प्रकाश उसके लिये अंधकार है क्योंकि उसने अविद्या की सृष्टि कर ली है, क्योंकि उसका विभेदक मानसिकता से विभक्त मानसिकता में पतन हो गया है, क्योंकि वह अपनी ही क्रियाओं और अपने ही सृजन में लीन हो गया है ।
यह अविद्या मनुष्य के लिये उसके अपने शरीर के साथ एकात्म होने के कारण और भी गहरी हो गयी है । हमें ऐसा प्रतीत होता है कि मन शरीर के द्वारा निर्धारित होता है क्योंकि वह हमेशा उसको लेकर ही व्यस्त रहता और ऐसे शारीरिक क्रिया- कलापों में लगा रहता है जिनका उपयोग वह इस स्थूल भौतिक जगत् में अपनी सचेतन सतही क्रियाओं के लिये करता है । शरीर में अपने विकास के दौरान उसने मस्तिष्क और स्नायुओं की जिस क्रिया-पद्धति को विकसित किया है उसीका निरंतर व्यवहार करने के कारण यह शरीर-यंत्र उसे जो कुछ देता है उसीके अवलोकन में इतना अधिक निमग्न रहता है कि उससे पीछे हटकर अपनी शुद्ध क्रियावलि में नहीं जा पाता । यह शुद्ध क्रियावलि उसके लिये अधिकतर अवचेतन है । फिर भी हम एक ऐसे प्राण-मन या प्राण-सत्ता की कल्पना कर सकते हैं जो निमग्नता की इस
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विकासात्मक आवश्यकता के परे हो गया हो और जो देख सकता, यहांतक कि अनुभव कर सकता हो कि यह वही है जो शरीर के बाद शरीर धारण करता है, यह वह नहीं है जो प्रत्येक शरीर के साथ निर्मित होता और उसीके साथ समाप्त हो जाता हो, क्योंकि वह तो जड़ पदार्थ पर पड़नेवाली मन की केवल एक भौतिक छाप मात्र है, केवल दैहिक मानस है जो इस प्रकार निर्मित होता है, -संपूर्ण मानसिक सत्ता नहीं । यह दैहिक मानस हमारे मन की सतहमात्र है, वह अग्रभाग है जिसे वह भौतिक अनुभूति के आगे प्रस्तुत करता हैं । पीछे, यहांतक कि हमारी पार्थिव सत्ता में भी, वह अन्य मन है जो हमारे लिये अवचेतन या प्रच्छन्न चेतन हैं जो अपने-आपको शरीर से अधिक जानता है और कुछ कम जड़ भौतिक भावापत्र क्रिया करने में सक्षम है । हमारे ऊपरी मन की जो भी बृहत्तर, गभीरतर और अधिक शक्तिमय ऊर्जस्वी क्रिया होती है उसमें से अधिकांश के लिये हम इसी अवचेतन मन के ऋणी हैं । जब हम इसके या अपने ऊपर इसके संस्कार के बारे में सचेतन होते हैं तो यह अंतरात्मा या आंतरिक सत्ता के बारे में, पुरुष के१ बारे में हमारी पहली धारणा या पहली उपलब्धि होती है ।
परंतु यह प्राणमय मानस भी, चाहे वह शारीरिक भ्रांति से भले मुक्त हो जाये हमें मन की संपूर्ण भ्रांति से मुक्त नहीं करता । वह अब भी अज्ञान की उस मौलिक क्रिया के आधीन रहता है जिसके कारण व्यक्तिभावापन्न जीव हर चीज को अपने ही दृष्टिबिंदु से देखता है और चीजों के सत्य को केवल उसी रूप में देख सकता है जिसमें वे अपने-आपको उसके सामने बाहर से प्रस्तुत करती हैं या जिस रूप में वे उसकी दृष्टि में उसकी पृथक् कालगत और देशगत चेतना में से, उसके भूत और वर्तमान अनुभव के आकारों और परिणामों के रूप में उभर आती हैं । वह अपनी अन्य आत्माओं के बारे में उनके अपने अस्तित्व के बारे में दिये गये बाहरी संकेतों द्वारा ही सचेतन हो पाता है । ये संकेत संचारित विचार, वाणी, क्रिया, क्रियाओं के परिणाम अथवा ऐसे प्राणिक संघात और संबंध के सूक्ष्मतर संकेत हैं जिन्हें भौतिक सत्ता सीधे अनुभव नहीं कर सकती । वह समान रूप से अपने बारे में भी अनभिज्ञ है क्योंकि वह अपने बारे में केवल काल में गति के द्वारा और ऐसे जीवनों के अनुक्रम द्वारा जानता है जिनमें उसने भिन्न प्रकार से शरीरस्थ ऊर्जाओं का उपयोग किया है । जैसे हमारे भौतिक करण-स्वरूप मन को शरीर की भ्रांति रहती है उसी तरह उस अवचेतन गतिशील मन को प्राण की भ्रांति होती है । वह उसीमें निमग्न और संकेंद्रित रहता है, वह उसीसे सीमित रहता है और अपनी सत्ता को उसीके साथ एकात्म करता है । यहां हम अभीतक मन और अतिमानस के उस मिलन-स्थलतक नहीं पहुंच पाये हैं जहां से वे पहले-पहल बिछुड़े थे ।
लेकिन क्रियाशील और प्राणिक मन के पीछे एक और, अधिक स्पष्ट
१ जिसे प्राणमय पुरुष के रूप में देखा जाता है ।
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चिंतनशील मन रहता है जो प्राण में इस निमग्नता से बचे रहने में समर्थ होता है । वह अपने-आपको इस तरह देखता है कि वह जिसे इच्छा और विचार के रूप में देखता है उसीको ऊर्जा के सक्रिय संबंधों में मूर्त रूप देने के लिये ही उसने शरीर और प्राण धारण किया है । यही हमारे अंदर शुद्ध मनीषी का उद्गम है । यही वह है जो मानसिकता को उसके अपने रूप में जानता है और वह जगत् को प्राण और शरीर के रूप में नहीं, बल्कि मन के रूप में देखता है । यही वह मनोमय पुरुष है जिसमें वापिस पहुंचकर हम कभी-कभी भूल से उसे शुद्ध आत्मा मान लेते हैं, जैसे क्रियाशील मन को हम अंतरात्मा मानने की भूल करते हैं । यह उच्चतर मन अन्य जीवों को अपनी शुद्ध आत्मा के अन्य रूपों की नाई देख सकता और उनके साथ उसी तरह व्यवहार कर सकता है । उसमें यह सामर्थ्य होती है कि उनका बोध केवल प्राणिक और स्नायविक आघात और स्थूल संकेत द्वारा ही नहीं, शुद्ध मनोमय आघात और संचार के द्वारा भी कर सके । एकत्व के एक मनोमय रूप की धारणा भी उसके पास होती है, और अपनी क्रिया और अपनी इच्छा में अधिक प्रत्यक्ष रूप में सर्जन और अधिकार की सामर्थ्य भी उसके पास होती है -केवल परोक्ष रूप से नहीं जैसा सामान्य भौतिक जीवन में होता है -और जैसे अपने मन, प्राण में वैसे ही दूसरों के मनों और प्राणों में भी वह ऐसा कर सकता है । लेकिन फिर भी यह शुद्ध मन भी मन की भूल-भ्रांति से नहीं बच सकता क्योंकि अब भी वह अपनी पृथक् मानस-सत्ता को ही विश्व का निर्णायक, साक्षी और केंद्र बनाता है और एकमात्र उसीके द्वारा अपनी उच्चतर सत्ता और सद्वस्तु तक पहुंचने की कोशिश करता है । अन्य सब उसके लिये 'अन्य' हैं जो उसके चारों ओर एकत्र हुए हैं । जब वह मुक्त होना चाहे तो उसे वास्तविक ऐक्य में लुप्त होने के लिये मन और प्राण से पीछे हटना होता है । क्योंकि वहां मानसिक और अतिमानसिक क्रिया के बीच अभीतक अविद्या का बनाया हुआ परदा रहता है, जिसमें से सत्य का प्रतिबिंब ही बाहर आ पाता है, स्वयं सत्य नहीं ।
जब यह परदा फट जाये और विभक्त मन अतिमानसिक क्रिया द्वारा अभिभूत और उसके प्रति नीरव और निष्क्रिय हो जाता है केवल तभी मन वस्तुओं के सत्यतक लौट सकता हैं । वहां हम एक प्रकाशमय चिंतनशील मन पाते हैं जो दिव्य सत्य-संकल्प के प्रति आज्ञाकारी और यंत्रस्वरूप है । वहां हम देखते हैं कि संसार वास्तव में क्या है, हम हर तरह से अपने-आपको औरों में और औरों के रूप में और औरों को अपने रूप में और सभीको वैश्व तथा आत्म-संवर्द्धित एक के रूप में जानते हैं । हम उस कठोर रूप से पृथक् व्यक्तिगत दृष्टिबिंदु को खो देते हैं जो समस्त सीमाबद्धता और भ्रांति का उद्गम है । फिर भी हम यह भी देखते हैं कि वह सब जिसे मन के अज्ञान ने सत्य समझा था वह वस्तुतः सत्य तो था परंतु था राह से विचलित हुआ, गलत रूप में समझा गया और मिथ्या रूप से कल्पित किया गया
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सत्य । हम तब भी विभाजन, व्यष्टिकरण, आणविक सृजन को देखते हैं लेकिन हम उन्हें और अपने-आपको उस रूप में जानते हैं जो वे और हम सचमुच हैं । और इस तरह हम देखते हैं कि 'मन' सचमुच सत्य चेतना की एक अधीनस्थ क्रिया और उसका उपकरण था । जबतक कि वह स्वानुभव में आच्छादिका प्रभु-चेतना से अलग नहीं हो जाता और अपने लिये अलग आवास बनाने की कोशिश नहीं करता, जबतक वह यंत्र की तरह स्वाग्रहरहित होकर सेवा करता है, स्वयं अपने लाभ के लिये अधिकृत करने की कोशिश नहीं करता, तबतक 'मन' अपना कार्य आलोकमय रूप में करता है । वह कार्य है रूपों को सत्य के अंदर उनकी क्रिया के आभासी और शुद्ध रूप में औपचारिक सीमांकन द्वारा, एक-दूसरे से अलग रखना, जिनके पीछे सत्ता की शासिका विश्वव्यापकता सचेतन और अछूती रहती है । उसे वस्तुओं के सत्य को ग्रहण करना और परम तथा विश्वव्यापी चक्षु एवं इच्छा की निर्भ्रात दृष्टि के अनुसार उस सत्य को वितरित करना है । उसे सक्रिय चेतना, आनंद, शक्ति और द्रव्य के व्यष्टिकरण को धारण करना है जो अपनी सारी शक्ति, यथार्थता और आनंद पीछे स्थित अविच्छेद्य वैश्वभाव से प्राप्त करता है । उसे एकमेव की बहुलता को प्रतीयमान विभाजन में बदल देना है जिसके द्वारा संबंध निर्धारित होते हैं और उन्हें एक-दूसरे के सामने खड़ा किया जाता है जिससे वे फिर से मिल और जुड़ सकें । उसे शाश्वत ऐक्य और अन्योन्य सम्मिश्रण के बीच वियोग और संयोग का आनंद स्थापित करना है । उसे एकमेव को ऐसे व्यवहार का रूप लेने देना है कि मानों वह एक व्यष्टि सत्ता है जो दूसरी व्यष्टि सत्ताओं के साथ व्यवहार कर रहा है, लेकिन सदा अपने ऐक्य को बनाये रखते हुए ही, वास्तव में जगत् यही है । मन सत्य चेतना के प्रज्ञान या बाहर की ओर देखनेवाली दृष्टि की अंतिम क्रिया है जिसके द्वारा यह सब संभव हो पाता हैं । और जिसे हम अज्ञान कहते हैं वह कोई नयी या एकदम मिथ्या वस्तु नहीं बनाता, वह सत्य का केवल मिथ्या निरूपण करता है । अज्ञान वह मन है जिसका ज्ञान अपने ज्ञान-स्रोत से अलग हो गया है और जिसे विश्व में अभिव्यक्त हों रहे परम सत्य की सामंजस्यपूर्ण लीला में एक मिथ्या कठोरता दीखती और विरोध तथा संघर्ष की भ्रांत प्रतीति होती है ।
तो मन की मूलगत भ्रांति है आत्म-ज्ञान से यह पतन जिसके कारण जीव अपने व्यक्तित्व की धारणा एकत्व के एक रूप में करने के बदले एक पृथक् तथ्य के रूप में करता है और अपने-आपको विश्वात्मा का एक संकेंद्रण जानने के बदले अपने-आपको ही अपने विश्व का केंद्र बना लेता है । सभी विशेष अज्ञान और सीमाएं उसी मूलगत भ्रांति के आनुषंगिक परिणाम हैं क्योंकि वह विश्व के प्रवाह को केवल उसी रूप में देखता है जिस रूप में वह स्वयं उसके ऊपर और उसमें से होकर बहता है । वह सत्ता को सीमित कर लेता है जिससे फिर चेतना सीमित हो जाती है और उसके कारण ज्ञान भी सीमित हो जाता है, चेतनशक्ति और इच्छा
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सीमित हो जाती है और इस कारण शक्ति भी सीमित हो जाती है, आत्म-संभोग सीमित हो जाता है और इस कारण आनंद भी सीमित हो जाता है । वह वस्तुओं के प्रति केवल उसी रूप में सचेतन होता और उन्हें केवल उसी रूप में जानता है जिस रूप में वस्तुएं उसकी वैयक्तिकता के सामने आती हैं अतः बाकी सबके बारे में वह अज्ञान में जा पड़ता है इससे जिनके बारे में उसे लगता है कि वह जानता है उनके बारे में भी वह प्रांत धारणा में पड़ जाता है क्योंकि, चूंकि समस्त सत्ता अन्योन्याश्रित है इसलिये किसी अंग का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिये या तो पूरी सत्ता का या फिर स्वरूप-तत्त्व का ज्ञान आवश्यक होता है । इसीलिये समस्त मानव-ज्ञान में भ्रांति का तत्त्व रहता ही है । इसी तरह हमारी इच्छा का, शेष सर्व-इच्छा से अनभिज्ञ रहने के कारण, क्रियासंबंधी मूल में और न्यूनाधिक मात्रा में असमर्थता और निःशक्तता में जा गिरना आवश्यक हो जाता है । जीव का स्वरूपानंद और वस्तुओं का आनंद सर्व-आनंद से अनभिज्ञ रहने के कारण और इच्छा तथा ज्ञान में त्रुटि के कारण, अपने जगत् को काबू में न कर पाने के कारण संपूर्णत: तृप्तिकर आनंद को पाने में असमर्थ रहेगा और परिणामस्वरूप दुःख-कष्ट में जा गिरेगा । अतः आत्म-अज्ञान ही हमारे जीवन की सभी विकृतियों का मूल है और वह विकृति हमारी आत्म-सीमितता में, अहंभाव में --जो कि उस आत्म-अज्ञान द्वारा ग्रहण किया गया रूप है -दृढ़-प्रतिष्ठ हो जाती है ।
फिर भी समस्त अज्ञान और विकृति वस्तुओं के सत्य और ऋत का केवल मिथ्या निरूपण मात्र है, न कि पूर्ण मिथ्यात्व की लीला । यह मन का चीजों को विभाजन में देखने का -जो विभाजन उसने बनाया है -परिणाम है 'अविद्याया- मन्तरे',, जब वह अपने-आपको और अपने विभाजनों को सच्चिदानंद के सत्य की लीला के एक उपकरण और बाहरी रूप की तरह देखने के स्थान पर उक्त रूप में देखता है । अगर वह लौटकर उस सत्यतक जा पहुंचे जहां से वह गिरा था तो वह ऋत-चित् की प्रज्ञान-प्रक्रिया की फिर से अंतिम क्रिया बन जाता है और उस प्रकाश और शक्ति में उसकी सहायता से जो संबंध स्थापित होंगे वे सत्य के संबंध होंगे, न कि विकृति के । वैदिक ऋषियों की व्यंजक विशिष्ट वाणी में ये ऋजु वस्तुएं होंगी कुटिल नहीं, अर्थात् वे सत्य होंगे उस सत्ता के जो अपनी आत्मवश्य चेतना, इच्छा और आनंद के साथ अपने ही अंदर सामंजस्य में गति करती है । अभी तो हमारे मन और प्राण की विकृत और वक्र गति होती है, ये विकृति व वक्रताएं जीव के उस संघर्ष से पैदा होती हैं जब वह एक बार अपने सच्चे स्वरूप को भूल चुकने के बाद उसे फिर से पाने का प्रयास कर रहा होता है, समस्त भूल-भ्रांति को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस सत्य में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे दोनों --हमारा सत्य और हमारी भूल, हमारा उचित और हमारा अनुचित सीमित या विकृत करते हैं; समस्त असमर्थता को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस
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बल में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे हस्तगत करने के लिये दोनों, हमारी शक्ति और हमारी दुर्बलता, शक्ति के संघर्ष हैं; समस्त दुःख-कष्ट को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस आनंद में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जिसे उपलब्ध करने के लिये दोनों, हमारा सुख और हमारा दुःख, संवेदना का विक्षोभभरा प्रयास है; समस्त मृत्यु को निर्मुक्त कर फिर से वापस उस अमरता में बदल देने का प्रयास कर रहा होता है जहां लौटने के लिये हमारा जीवन और हमारी मृत्यु सत्ता का सतत प्रयास हैं ।
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