Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
प्रथम ग्रंथ
सर्वव्यापक सदवस्तु और विश्व
अध्याय १
मानव अभीप्सा
परायततीनामन्वेति पाथ आयतीनां प्रथमा शश्वतीनाम् ।
व्युच्छन्ती जीवमुदीरयन्त्युषा मृत कं चन बोधयन्ती ।।
कियात्या यस्मया भवाति या व्यूषुर्यार्याच नूनं व्युच्छान् ।
अनु पूर्वा: कृपते वावशाना प्रदीध्याना जोषमन्याभिरेति ।।
वह उनके लक्ष्यों का अनुकरण करती है जो परे की ओर जा रहे हैं, वह आनेवाली उषाओं की शाश्वत परंपरा में सर्वप्रथम है--जो जीवित है उसे प्रकट करती है, किसी मृत को जगाती हुई उषा विस्तृत हो रही है... वह पहले प्रदीप्त उषाओं और अब प्रदीप्त होनेवाली उषाओं में सामंजस्य लाती है तो उसका विस्तार क्या है ? वह प्राचीन प्रभातों की इच्छा करती है और उनके प्रकाश को परिपूर्ण बनाती है, अपने आलोक को प्रक्षिप्त करती हुई वह आनेवाली शेष सभी उषाओं के साथ संपर्क साध लेती है ।
कुत्स अंगिरस, ऋग्वेद १. ११३ .८, १०
त्रिरस्थ ता परमा सत्ति सत्या स्पार्हा देवस्य जनिमान्यग्ने: |
अनन्ते अन्त: परिवीत आगाच्छुचि: शुक्रो अर्यो रोरुचान: ||
यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा देवो देवेष्वरतिर्निधायि ।
... अग्नि:...
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याध्यस्मदाविष्कृणुष्व दैव्यान्यग्रे ।।
इस जगत् में स्थित इस भागवत शक्ति के त्रिविध परम जन्म हैं, वे सच्चे हैं, वे वाछनीय हैं, वह पूरी तरह से खुला हुआ शाश्वत में विचरता है और विशुद्ध, देदीप्यमान और परिपूर्ण करता हुआ वह चमकता है... मर्त्यों में जो अमर्त्य है, और जिसे ऋत पर अधिकार है वह एक देव है और हमारी दिव्य शक्तियों में सक्रिय ऊर्जा के रूप में हमारे अंदर प्रतिष्ठित हो गया है... हे शक्ति, तू ऊपर उठ, हे अग्नि, समस्त आवरणों को भेद डाल, हमारे अंदर दिव्य वस्तुओं को प्रकट कर ।
वामदेव गौतम, ऋग्वेद ४.१.७; ४.२.१; ४४.५
मनुष्य के प्रबुद्ध विचारों में उसकी सबसे पहली तल्लीनता, जो उसकी चरम और अनिवार्य तल्लीनता भी मालूम होती है, क्योंकि वह संदेहवाद की लंबी से लंबी अवधियों के बाद, हर निष्कासन के बाद भी बनी रहती है, वही, जहांतक उसके
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विचार की उड़ान है, उसकी उच्चतम तल्लीनता भी मालूम होती है । वह अपने-आपको परम देव के पूर्वाभास में, पूर्णता के लिये आवेश में, शुद्ध सत्य और अमिश्रित आनंद की खोज में, गुप्त अमरता के भाव में प्रकट करती है । मानव ज्ञान की प्राचीन उषाएं इस सतत अभीप्सा के बारे में अपनी साक्षी छोड़ गयी हैं । आज हम ऐसी मानवजाति को देखते हैं जो प्रकृति के बाह्य रूप के विजयी विश्लेषण से अघा तो गयी है पर संतुष्ट नहीं है । वह अपनी आदिम ललकों की ओर लौटने की तैयारी कर रही है । प्रज्ञा का आदि सूत्र ही अंतिम सूत्र होने की प्रतिज्ञा करता है-- भगवान् प्रकाश, स्वाधीनता और अमरता ।
मानवजाति के ये सतत आदर्श उसकी सामाना अनुभूति का खंडन करते हैं और साथ ही साथ उन उच्चतर और गहरी अनुभूतियों का समर्थन करते हैं जो मानवजाति के लिये असामान्य हैं और जो अपने पूरे संगठित रूप में किसी क्रांतिकारी व्यष्टिगत प्रयास या विकसनशील व्यापक प्रगति द्वारा हीं पाये जाते हैं । पाशविक और अहंकारयुक्त चेतना में दिव्य सत्ता को जानना, उसे पाना और वही हो जाना, अपनी झुटपुटी, अस्पष्ट भौतिक मानसिकता को पूर्ण अतिमानसिक प्रकाश में बदलना, जहां केवल शारीरिक पीड़ा और भावनामय कष्ट से घिरे अस्थायी संतोष का दबाव है वहां शांति और स्वयंभू आनंद का निर्माण करना, जो संसार अपने-आपको यांत्रिक आवश्यकताओं के झुंड के रूप में प्रकट करता है वहां अनंत स्वाधीनता को प्रतिष्ठित करना, मृत्यु .और सतत परिवर्तन के अधीनस्थ शरीर में अमर जीवन प्राप्त करना--ये हैं वे चीजें जो भौतिक में भगवान् की अभिव्यक्ति और प्रकृति के पार्थिव क्रम-विकास के लक्ष्य के रूप में हमारे आगे प्रस्तुत की जा रही हैं । चेतना के वर्तमान गठन को अपनी संभावनाओं की सीमा माननेवाली सामान्य भौतिक बुद्धि के लिये अभीतक अनुपलब्ध आदर्शों का उपलब्ध तथ्यों द्वारा प्रत्यक्ष खंडन ही उनकी तर्कसंगति के विरुद्ध अंतिम युक्ति है । लेकिन अगर हम संसार की क्रियाओं का जस अधिक विवेकशील अवलोकन करें तो वह प्रत्यक्ष निषेध प्रकृति के गहनतम उपाय का एक भाग और उसकी संपूर्ण स्वीकृति की मुहर मालूम होता है ।
कारण, जीवन की सभी समस्याएं तत्त्वतः सामंजस्य की समस्याएं हैं । वे किसी अनसुलझी विसंगति के प्रत्यक्ष दर्शन से और अप्राप्त मेल और एकता के सहजबोध से उठती हैं । मनुष्य के व्यावहारिक और अधिक पाशविक भाग के लिये अनसुलझी विसंगतियों के साथ संतुष्ट बने रहना संभव है । परंतु उसके पूरी तरह जाग्रत् मन के लिये असंभव है । सामान्यतः उसके व्यावहारिक भाग भी इस व्यापक आवश्यकता से या तो समस्या को बाहर बंद रखकर या एक मोटा-झोटा, कामचलाऊ, प्रकाशहीन समझौता स्वीकार करके बचते हैं । क्योंकि अनिवार्य रूप से समस्त प्रकृति सामंजस्य की खोज में है, जैसे मन अपने प्रत्यक्ष दर्शनों की व्यवस्था
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में, उसी तरह प्राण और भौतिक भी अपने-अपने क्षेत्र में सामंजस्य की खोज करते हैं । दी गयी सामग्री में जितनी अधिक अव्यवस्था या जितनी भी अधिक विसंगतियां दीखती हों, यहांतक कि जिन वस्तुओं का उपयोग हो उनमें परस्पर अशाम्य विरोध हो, प्रेरणा उतनी ही मजबूत होगी और वह साधारणत: कम कठिन प्रयास के परिणाम की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म और सशक्त व्यवस्था की ओर ले जायेगी । सक्रिय जीवन की ऐसे रूप के द्रव्य के साथ संगति जिसमें तामसिक जड़ता ही क्रियाशीलता की स्थिति मालूम होती है --यह विरोधों की एक ऐसी समस्या है जिसे प्रकृति ने हल कर लिया है और हमेशा अधिक जटिलताओं के साथ ज्यादा अच्छी तरह हल करने की कोशिश करने में लगी है । क्योंकि उसका सम्पूर्ण समाधान होगा पाशविक शरीर को सहारा देते हुए पूर्णतया संगठित मन की भौतिक अमरता । सचेतन मन और सचेतन इच्छा-शक्ति की ऐसे रूप और जीवन के साथ संगति जो अपने-आप में प्रकट रूप से आत्म-सचेतन नहीं हैं और अधिक-से-अधिक यांत्रिक या अवचेतन इच्छा के योग्य हैं --यह परस्पर विरोधों की एक और समस्या है जिसमें उसने (प्रकृति ने) आष्चर्यजनक परिणाम पैदा किये हैं और हमेशा अधिक ऊंचे चमत्कारों के संधान में रहती है क्योंकि वहां उसका परम चमत्कार होगा एक ऐसी पाशविक चेतना जो सत्य और प्रकाश की खोज करनेवाली न रहकर उन्हें प्राप्त कर चुकी होगी और इस प्रत्यक्ष और पूर्णता-प्राप्त ज्ञान के परिणामस्वरूप व्यावहारिक सर्वशक्तिमत्ता पा लेगी । तब और भी ऊंचे विरोधों की संगति की ओर मनुष्य की ऊर्ध्वाभिमुख प्रेरणा अपने-आपमें युक्तिसंगत ही नहीं है, बल्कि वह केवल एक ऐसे नियम और एक प्रयास की ही अभिपूर्ति है जो प्रकृति का आधारभूत उपाय और उसके वैश्व प्रयासों का एकमात्र तात्पर्य मालूम होता है ।
हम भौतिक पदार्थ में प्राण के विकास और भौतिक पदार्थ में मन के विकास की बात करते हैं लेकिन विकास एक ऐसा शब्द है जो केवल एक तथ्य या घटना की बात कह देता है, उसे समझाता नहीं । लेकिन जबतक कि हम वेदांत के इस समाधान को न स्वीकार कर लें कि 'प्राण' पहले से ही 'भौतिक' में अंतर्लीन है और 'मन' 'प्राण' में -क्योंकि तत्त्वत: भौतिक पदार्थ प्राण का ही एक छिपा हुआ रूप है और प्राण चेतना का छिपा हुआ रूप है --तबतक इसका कोई कारण नहीं दिखलायी देता कि भौतिक तत्त्व में से प्राण और जीवित रूप में से मन विकसित हो । और तब इस क्रम में एक कदम रखने पर यह मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखलायी देती कि स्वयं मानसिक चेतना मन से परे के उच्चतर स्तरों का एक रूप या उसका एक पर्दा हो । उस अवस्था में भगवान्, प्रकाश, आनंद, स्वाधीनता, अमरता के प्रति मनुष्य का अपराजेय मनोवेग अपने-आपको उचित रूप से उस शृंखला में रखता हैं जो केवल प्रक्रति का अनिवार्य आवेग है, जिसके द्वारा प्रकृति
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मन के परे विकसित होने की कोशिश कर रहीं है और यह उतना ही स्वाभाविक, सच्चा और उचित प्रतीत होता है जैसे भौतिक द्रव्य के अमुक रूपों में उसने 'प्राण' के लिये प्रेरणा रोपी थी या जैसे प्राण के अमुक रूपों में उसने 'मन' के लिये प्रेरणा रोपी थी । वहां की तरह यहां भी यह मनोवेग उसके विचित्र पात्रों में न्यूनाधिक रूप में अस्पष्ट रहता है, वह हमेशा होने या बने रहने की इच्छा के ऊपर चढ़ते हुए क्रम में बना रहता है । वहां की तरह यहां भी, वह धीरे-धीरे विकसित होता और आवश्यक अंगों और क्षमताओं को विकसित करने के लिये बाधित है । जैसै 'मन' की ओर उठनेवाली प्रेरणा धातु और वनस्पति में 'प्राण' की अधिक संवेदनशील प्रतिक्रियाओं से लेकर मनुष्य के अंदर उसके पूर्ण व्यवस्थापनतक रहती है उसी तरह मनुष्य के अपने अंदर वही आरोहणशील क्रम, और कुछ नहीं तो उच्चतर और दिव्य जीवन की तैयारी करता है । कहते हैं पशु एक जीवित प्रयोगशाला है जिसमें प्रकृति ने मनुष्य को तैयार किया है । हो सकता है कि स्वयं मनुष्य एक ऐसी जीती--जागती विचारशील प्रयोगशाला हो जिसमें और जिसके सचेतन सहयोग से वह अतिमानव या देव को तैयार करना चाहती है। हम यह क्यों न कहें कि वह भगवान् को अभिव्यक्त करना चाहती है । क्योंकि अगर क्रमविकास प्रकृति के अंदर सोयी हुई या अंतर्लीन होकर काम करती हुई चीज की उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति है तो यह भी प्रकट रूप में उस चीज की चरितार्थता है जो वह स्वयं गुप्त रूप से है । अतः हम उसे क्रमविकास के अमुक स्तर पर रुक जाने का हुकुम नहीं दे सकते और न हमें यह अधिकार है कि उसके परे जाने के प्रयास या प्रकट किये हुए इरादे को धार्मिक लोगों के साथ मिलकर उसे विकृत या पाखंडी कह सकें या फिर तर्क-बुद्धिवालों की तरह उसे बीमारी या मतिभ्रम ठहरा दें । अगर यह सच है कि 'आत्मा' भौतिक में अंतर्लीन है और दृश्य 'प्रकृति' गुप्त भगवान् है तो देवत्व की अपने में चरितार्थता और भगवान् की स्वयं अपने अंदर और बाहर अभिव्यक्ति धरती पर स्थित मनुष्य के .लिये उच्चतम और यथासम्भव अधिक-से-अधिक न्यायसंगत लक्ष्य है ।
इस भांति पाशविक शरीर में दिव्य जीवन, मर्त्य आवास में निवास करनेवाली अमर अभीप्सा या सद्वस्तु सीमित मनों और विभक्त अहंकारों में अपने-आपको प्रस्तुत करती हुई एकमेव और वैश्व चेतना, काल, देश और विश्व को संभव बनानेवाली परात्पर, अनिर्वचनीय, देशकालातीत दिव्य सत्ता इनकी शाश्वत पहेली और इनका शाश्वत सत्य और इन सबमें निम्न तत्त्व द्वारा प्राप्य उच्चतर सत्य --ये सब मानव जाति की सुविवेचित तर्कबुद्धि और सतत, आग्रही सहज वृत्ति तथा अन्तर्भास के आगे अपने-आपको न्यायोचित सिद्ध करते हैं । कभी-कभी ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि ऐसे प्रश्नों को हमेशा के लिये ठप्प कर दिया जाये जिन्हें तर्कसंगत विचार कितनी ही बार असमाधेय घोषित कर चुका है और कोशिश की गयी है कि
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मनुष्य अपने मानसिक क्रिया-कलापों को विश्व में अपनी व्यावहारिक और तात्कालिक समस्याओंतक ही सीमित रखें । लेकिन इस तरह बच निकलने का प्रभाव कभी स्थायी नहीं होता । मानवजाति हमेशा गवेषणा के अधिक तीव्र आवेग के साथ या तात्कालिक समाधान के लिये अधिक उग्र क्षुधा के साथ लौट आती है । रहस्यवाद इस क्षुधा का लाभ उठाता हैं और उन पुराने धर्मों का स्थान लेने के लिये नये धर्म उठ खड़े होते हैं जो संदेहवाद के कारण या तो नष्ट हो गये हैं या जिनका अर्थ जाता रहा है । यह संदेहवाद अपने-आपको संतुष्ट नहीं कर पाया क्योंकि यद्यपि उसका कार्य जांच-पड़ताल करना था परंतु वह जांच-पड़ताल करने के लिये काफी इच्छुक न था । किसी सत्य से इस कारण इंकार करना या उसे कुचल देने का प्रयास करना क्योंकि वह अपने बाह्य क्रिया-कलाप में अभीतक अंधकारमय है और बहुधा ज्ञानोन्नति विरोधी अंधश्रद्धा या अनगढ़ श्रद्धा द्वारा हमारे आगे प्रस्तुत किया जाता है, यह अपने-आपमें एक तरह का ज्ञानोन्नति-विरोध है । किसी वैश्व आवश्यकता से बच निकलने की इच्छा करना क्योंकि वह दुःसाध्य है और उसे तात्कालिक ठोस परिणामों द्वारा उचित ठहराना कठिन है तथा उसके क्रिया-कलाप का नियमन धीमा है --अंततोगत्वा यह प्रकृति के सत्य को स्वीकारना नहीं बल्कि महती माता की गुप्त, अधिक सशक्त इच्छा के विरुद्ध विद्रोह है । जिस चीज को वह माता मानवजाति को अस्वीकार नहीं करने देती उसे मान लेना ही ज्यादा अच्छा और तर्कसंगत है, उसे अंध सहजवृत्ति, अस्पष्ट अंतर्भास और अनियत अभीप्सा के क्षेत्र से तर्कबुद्धि के प्रकाश और प्रशिक्षित व सचेतनतया आत्मप्रेरित इच्छा के क्षेत्र में ले आना ज्यादा अच्छा है । और अगर प्रबुद्ध अंतर्भास या स्वयं आलोकित सत्य का उच्चतर प्रकाश जो अभी मनुष्य में या तो रुंधा हुआ है और क्रियाशील नहीं है या पर्दे के पीछे से रह-रहकर आनेवाली जगमगाहट की तरह या हमारे भौतिक गगन पर कभी-कदास आनेवाले उत्तरीय प्रकाश की तरह काम करता है तब भी हमें अभीप्सा करते डरना नहीं चाहिये क्योंकि यह संभव है कि चेतना की अगली उच्चतर अवस्था ऐसी हो । मन उसका केवल एक रूप और पर्दा है और संभव है उस प्रकाश की भव्यता में से होकर ही हमारे क्रमश: आत्मवर्धन का मार्ग उस जगह जाता हो जो मानवजाति की उच्चतम, चरम विश्राम--स्थली है ।
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