दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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ध्याय   २३

 

मनुष्य  और  विकास

 

एको देव: सर्वभूतेषु गु: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

कर्माध्यक्ष: साक्षी चेता केवल:... ।

एको वशी निष्क्रियाणां बहूनामेक बीज बहुधा य: करोति ।

 

वह एक देव जो सभी सत्ताओं में गुप्त है, सर्वव्यापक, सब का

अन्तःपुरुष, सभी कर्मों का अध्यक्ष, साक्षी, सचेतन ज्ञाता

और निरपेक्ष... प्रकृति के प्रति निष्क्रिय रहनेवाले बहु को वश में

रखनेवाला वह एक, एक ही बीज को अनेक प्रकार से रूप देता

है ।

श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.११ १२

 

एकैकं जाल बहुधा विकुर्वन् अस्मिन्  क्षेत्रे ञ्चत्येष देव: ।

... योनिस्वभावानधितिष्ठत्येक: ।

यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनि: पाच्याञ्च  सर्वान्यरिणामयेद्य: ।

... गुणांश्र्चर्वान्विनियोजयेद्य: ।।

 

वह देव, वस्तुओं के प्रत्येक जाल को अलग-अलग बहुत प्रकार से

बदलता हुआ इस क्षेत्र में विचरता है... वह एक ही सभी योनियों

का और स्वभावों का अध्यक्ष है । वह स्वयं विश्वयोनि है । यह वही

है जो सत्ता के स्वभाव को पकाता है और जिन्हें परिपक्य करता है

उन सबको उनका विकास-फल देता और उनकी क्रियाओं के सभी

गुणों का विनियोग करता है ।

श्वेताश्वतर उपनिषद् ५.३ -५

 

एक रूपं बहुधा य: करोति ।

वह वस्तुओं के एक ही रूप को नाना प्रकार से रूपायित करता है ।

 

कठोपनिषद् २.२ १२

 

क इम वो निण्यमा चिकेत वत्सो मातृ र्जनयत स्वधाभिः ।

व्हीर्भो अपसामुपस्थान्महान् कविर्निश्र्चरति स्वधाव ।।

आविष्ट्यो वर्धते चारुरासु जिहनानामूध्वः: स्वयशा उपत्थे ।...

 

किसने इस गुह्य ज्ञान का दर्शन किया है कि वत्स ही माता को

स्वधा की क्रियाओं से जन्म देता है ? अनेक जलों की गोद से

उत्पन्न वह शिशु अपनी प्रकृति के सारे विधान से युक्त

(स्वधावान्) द्रष्टा होकर उनमें से प्रकट होता है । अभिव्यक्त होकर

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वह उनकी कुटिलताओं की गोद में ब्‌ता है और उच्च, चारु तथा

महिमावान् हो जाता है ।

ऋग्वेद १.९५.४.५

 

असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्णमृत गमय ।

असत् से सत् की ओर, तम से ज्योति की ओर, मृत्यु से अमृत की

ओर ।

बृहदारण्यकोपनिषद् १. ३. २८

 

     तो पार्थिव जीवन का केन्द्रीय सार्थक उद्देश्य और मूलभूत तत्त्व है आध्यात्मिक विकास, चेतना का ज प्रकृति में सतत विकसनशील आत्म-रूपायन में तबतक विकास जबतक बाहरी काया भीतर स्थित आध्यात्म सत्ता को प्रकट कर सके । यह अर्थ शुरू में आत्मा, दिव्य सद्धस्तु की घनी ज निश्चेतना में अंतलर्नि रहने के कारण छिपा रहता है । निश्चेतना का पर्दा, जड़ पदार्थ की असंवेदनशीलता का पर्दा उस वैश्व चित्-शक्ति को छिपाये रहता है जो उसके अंदर कार्य करती है, ताकि ऊर्जा -जो वह पहला रूप है जिसे सृजन-शक्ति भौतिक विश्व में अपनाती है अपने-आप निश्चेतन मालूम होती है, फिर भी विशाल गुह्य प्रज्ञा के कार्य करती है । वास्तव में यह अंधेरी, रहस्यमय स्रष्ट्री अंत में गुप्त चेतना को उसकी घनी, अंधकारमय कारा से मुक्त करती है । लेकिन वह उसे धीर- धीरे, जरा-जरा करके, ऊर्जा और पदार्थ की, प्राण और मन की सूक्ष्म अत्यणु बूंदों, पतली धारों, लधु स्पन्दनशील संग्रथन में मुक्त करती है मानों अस्तित्व के निश्चेतन उपादान के घने विघ्न में से, उसके मलिन अनिच्छक माध्यम से वह इतना ही बाहर निकाल सकती है । पहले-पहल वह अपने-आपको जड़्‌तत्त्व के ऐसे रूपों में बसाती है जो एकदम से अचेतन मालूम होते हैं, तब वह जीवित जड़‌तत्त्व के वेश में मानसिकता की ओर हाथ-पैर मारती है और अपूर्ण रूप से उसे सचेतन पशु में पा लेती है । पहले यह चेतना प्रारम्भिक, अधिकतर अर्द्ध-अवचेतन या बस सचेतन सहज वृत्ति होती है । वह धीर- धीर विकसित होती है और सजीव जड़-भौतिक के अधिक संगठित रूपों में वह अपनी समझ की पराकाष्ठातक जा पहुंचती है और मनुष्य, विचारशील पशु में अपना भी अतिक्रमण करती है । मनुष्य तर्कशील मनोमय सत्ता में विकसित होता है लेकिन अपने उच्चतम उत्कर्ष में भी मूल पशुत्व का सांचा, शरीर की निश्चेतना का दुर्वह भार, आरंभ के तमस् और निर्ज्ञान की ओर गुरुत्वाकर्षण का अधोमुख दबाव, उनके सचेतन विकास पर निश्चेतन जड़-भौतिक प्रकृति का नियंत्रण, उसकी सीमांकन की शक्ति, उसके कठिन विकास का विधान, उसकी गतिरोध और विफलीकरण की अपरिमित शक्ति को अपने साथ लिये रहता है । आद्य निश्चेतना का उसमें से उभरनेवाली चेतना पर यह नियंत्रण ऐसी मानसिकता

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का सामान्य रूप लें लेता है जो ज्ञान की ओर हाथ-पैर तो मार रही है लेकिन अपने-आप आधारभूत प्रतीत होनेवाली प्रकृति में अज्ञान ही है । इस बाधा और भार के नीचे दबे मानसिक मनुष्य को अभी अपने अंदर से पूरी तरह सचेतन सत्ता को, दिव्य मानवता या आध्यात्मिक और अतिमानसिक अतिमानसता को विकसित करना है जो विकास का अगला उत्पादन होगा । वह संक्रमण अज्ञान में होते हुए विकास से ज्ञान में होनेवाले महत्तर विकास की ओर जाने का चिह्न होगा । वह अब अज्ञान और निश्चेतना के अंधकार में न होकर अतिचेतन के प्रकाश में प्रतिष्ठित और अग्रसर होगा ।

 

    जड़ से मनतक और उसके भी परे के इस पार्थिव विकास की प्रकृति की क्रिया की दोहरी प्रक्रिया होती है । एक भौतिक विकास की बाहरी दृश्य प्रक्रिया है जिसका यंत्र है जन्म -क्योकि विकसित शारीरिक रूप को, जो चेतना की अपनी-अपनी विकसित शक्ति का आवास होता है, वंश-परम्परा द्वारा सुरक्षित और अविच्छिन्न रखा जाता है । साथ ही आतरात्मिक विकास की एक अदृश्य प्रक्रिया चलती है जिसका यंत्र है रूप और चेतना की आरोहणकारी श्रेणियों में पुनर्जन्म । अपने- आपमें पहली प्रक्रिया का अर्थ होगा केवल वैश्व विकास, क्योकि व्यष्टि जल्दी- जल्दी नष्ट होनेवाला उपकरण होगा और जाति, एक अधिक टिकाऊ सामूहिक रूपायन ही, वैश्व निवासी, वैश्व आत्मा की उत्तरोत्तर अभिव्यक्ति में वास्तविक चरण होगा । पार्थिव जीवन में व्यष्टि-सत्ता के लम्बे समयतक निवास करने और विकास के लिये पुनर्जन्म अनिवार्य शर्त है । वैश्व अभिव्यक्ति का प्रत्येक सोपान, आकार का प्रत्येक प्ररूप जो अंदर निवास करनेवाले आध्यात्म पुरुष को स्थान दे सकता है वह पुनर्जन्म द्वारा व्यष्टिगत अंतरात्मा, चैत्य सत्ता के एक ऐसे साधन में बदल जाता है जिससे वह अपनी छिपी हुई चेतना को अधिकाधिक व्यक्त कर सके । प्रत्येक जीवन जड़-भौतिक पर विजय पाने में एक चरण बन जाता है और यह विजय उसके अंदर चेतना की अधिकाधिक प्रगति द्वारा आ सकती है जिससे अंतत: जड़‌तत्त्व भी आध्यात्म पुरुष की पूर्ण अभिव्यक्ति के लिये साधन बन जायेगा ।

 

     लेकिन पार्थिव सृजन की इस प्रक्रिया और अर्थ का यह विवरण स्वयं मनुष्य के मन में हर बिंदु पर आपत्ति उठाये जाने की संभावना रखता है । क्योंकि विकास अपनी यात्रा में अभीतक आधे रास्ते पर ही है, अभी अज्ञान में है, अभी अर्द्ध- विकसित मानव जाति के मन में अपने निजी प्रयोजन और अर्थ को खोज रहा है । विकास के सिद्धांत पर यह कहकर आपत्ति उठायी जा सकती है कि उसकी नींव काफी नहीं है और वह पार्थिव जीवन की प्रक्रिया की व्याख्या के रूप में अनावश्यक है । यदि विकास को मान भी लिया जाये तब भी यह सन्देहास्पद रहता है कि क्या मनुष्य के अंदर उच्चतर विकसनशील सत्ता में विकसित होने की क्षमता

है ? और यह भी संदेहास्पद है कि क्या विकास जहांतक पहुंच चुका है उसमें उससे

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आगे जाने की संभावना है, क्या अतिमानसिक विकास के, पूर्ण ऋत-चित् के, ज्ञान की सत्ता के प्रकट होने की पार्थिव प्रकृति के आधारभूत अज्ञान में संभावना है ? यहां की अभिव्यक्ति में आध्यात्म पुरुष के जो क्रिया-कलाप हो रहे हैं उनकी एक और व्याख्या दी जा सकती है जो न तो विकास के सिद्धांत को अपनाती हों और न यह मानती हो कि अभिव्यक्ति का कोई उद्देश्य है । ज्यादा अच्छा होगा यदि हम आगे बढ़ने से पहले संक्षेप में उस विचारधारा को भी देख लें जो ऐसी व्याख्या को संभव बनाती है ।

     यह मानते हुए कि सृष्टि कालातीत शाश्वत की कालिक शाश्वतता में अभिव्यक्ति है, मान लें कि चेतना की सात श्रेणियां हैं और जड़ निश्चेतना को आध्यात्म पुरुष के पुनरारोहण की नींव के रूप में रखा गया है, मान लें कि पुनर्जन्म एक तथ्य है, पार्थिव व्यवस्था का एक भाग है, फिर भी व्यष्टिगत सत्ता का आध्यात्मिक विकास, इन मान्यताओं में से किसीका या सबका सम्मिलित निष्कर्ष हो, यह अनिवार्य नहीं है । पार्थिव जीवन की आंतरिक प्रक्रिया और उसके आध्यात्मिक अर्थ के बारे में एक और दृष्टि अपनाना भी संभव है । अगर बनी हुई हर चीज अभिव्यक्त दिव्य अस्तित्व का रूप है तो हर एक अपने अंदर आसीन आध्यात्मिक उपस्थिति के कारण अपने-आपमें दिव्य है, फिर प्रकृति में उसका रंग-रूप या स्वभाव चाहे जैसा हो । अभिव्यक्ति के प्रत्येक रूप में भगवान् सत्ता का आनन्द लेते हैं और उसके अंदर परिवर्तन या प्रगति की कोई आवश्यकता नहीं । कार्यान्वित संभावनाओं के जिस किसी व्यवस्थित प्रदर्शन या श्रेणीक्रम की अनन्त सत्ता की प्रकृति के कारण जरूरत होती है, उसके लिये चेतना के प्ररूपों, रूपों की उमड़ती बहुसंख्या, अनगिनत विभिन्नताओं द्वारा और हमारे चारों ओर हर जगह दिखायी देनेवाली प्रकृतियों द्वारा पर्याप्त रूप से व्यवस्था होती है । सृष्टि में कोई सोद्देश्य प्रयोजन नहीं है और हो भी नहीं सकता क्योंकि अनंत के अंदर सब कुछ है । ऐसी कोई चीज नहीं है जिसे पाने की भगवान् को जरूरत हो या जो उनके पास न हो । अगर सृष्टि और अभिव्यक्ति है तो किसी प्रयोजन के लिये नहीं बल्कि सृजन और अभिव्यक्ति के आनंद के लिये । तो फिर ऐसी विकसनशील गति की जरूरत नहीं है जिसका कोई गन्तव्य चरम उत्कर्ष हो या क्रियान्वित या निष्पन्न करने के लिये कोई लक्ष्य हो या अंतिम पूर्णतातक जाने की प्रेरणा हो ।

 

     वस्तुत: हम देखते हैं कि सृष्टि के तत्त्व स्थायी और अपरिवर्तनशील हैं । हर एक प्ररूप अपने-आपमें रहता है, न तो उसे अपने-आपसे भिन्न कुछ और बनने की जरूरत है और न वह इसकी कोशिश ही करता है । यह मान भी लिया जाये कि सत्ता के कुछ प्ररूप लुप्त हो जाते हैं और कुछ अन्य पैदा हो जाते हैं, तो यह इसलिये है कि विश्व में चित्-शक्ति उन रूपों से अपने जीवन-आनन्द को खींच लेती है और अपने हर्ष के लिये कुछ औरों का सृजन करने के लिये प्रवृत्त होती है । लेकिन

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जीवन का हर एक प्ररूप, जबतक कि वह रहता है, अपना निजी प्रतिमान रखता है और छोटे-मोटे हेर-फेर के बावजूद अपने प्रतिमान के प्रति निष्ठावान् रहता है । वह अपनी चेतना के साथ बंधा रहता है और उससे अन्य चेतना में नहीं जा सकता । वह अपनी प्रकृति से बंधा रहता है और इन सीमाओं को लांघकर अन्य प्रकृति में नहीं जा सकता । अगर अनंत की चित्-शक्ति ने जड़ को अभिव्यक्त करने के बाद प्राण को अभिव्यक्त किया है और प्राण के बाद मन को अभिव्यक्त किया है तो यह जरूरी नहीं है कि वह अगली पार्थिव सृष्टि के रूप में अतिमानस को प्रकट करने के लिये आगे बड़े क्योंकि मन और अतिमानस एकदम अलग गोलार्द्धो की चीजें हैं । मन अज्ञान की निचली स्थिति की चीज है और अतिमानस उच्चतर स्थिति, दिव्य ज्ञान की वस्तु है । यह जगत् अज्ञान का जगत् है और यही रहने के लिये अभिप्रेत है । उच्चतर गोलार्द्ध की शक्तियों को अस्तित्व के इस निचले आधे में उतारने का या यहां पर उनकी छिपी हुई उपस्थिति को अभिव्यक्त करने का इरादा होने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अगर वे यहां उपस्थित हैं भी तो यह एक गुह्य अप्रेषणीय सर्वव्यापिता है और केवल सृष्टि को बनाये रखने के लिये है, उसे पूर्ण करने के लिये नहीं । मनुष्य इस अज्ञानमय सृष्टि की पराकाष्ठा है । वह अपनी योग्यता के अनुसार उच्चतम चेतना और ज्ञानतक पहुंच चुका है; अगर वह और ऊंचा बढ़ने की कोशिश करेगा तो अपने मानसिकता के ज्यादा बड़े चक्रों में केवल चक्कर लगायेगा । क्योकि यहां पर उसके जीवन का यही चक्र है, एक सान्त चक्कर जो मन को अपने चक्करों में घुमाता है और हमेशा वहीं ले आता है जहां से चला था । मन अपने चक्र के बाहर नहीं जा सकता -गति या प्रगति की ऐसी सीधी लकीर के बारे में सारा विचार जो अनन्त रूप से ऊपर चढ़ती जाये या एक दिशा में अनन्त में बढ़ती जाये, एक भ्रम है । अगर मनुष्य की अंतरात्मा को मानवता के परे जाना है जहां वह अतिमानसिक या और भी ऊंची स्थितितक पहुंच सके तो उसे वैश्व-जीवन में से निकल कर आनन्द या ज्ञान के लोक अथवा जगत् में या अव्यक्त शाश्वत और अनन्त में जाना होगा ।

 

     यह सच है कि अब विज्ञान विकसनशील पार्थिव जीवन की पुष्टि करता हैं; लेकिन अगर वे तथ्य, जिनसे विज्ञान काम लेता है विश्वसनीय हैं तो वे सामान्य नियम जिन्हें वह लागू करने का साहस करता है वे अल्पजीवी हैं । वह उन्हें कुछ दशकों या शताब्दियों तक रखता है, फिर वह अन्य साधारण नियमों और वस्तुओं की अन्य परिकल्पनाओं में चला जाता है । यह भौतिक विज्ञान में भी होता है जिसमें तथ्यों की ठोस रूप से जांच की जा सकती है और परीक्षण से जांचा जा सकता है । मनोविज्ञान में -जो यहां संगत है क्योंकि चेतना का विकास चित्र में आ जाता है -उसकी अस्थिरता तो और भी अधिक है, वह एक परिकल्पना के प्रतिष्ठित होने से पहले दूसरी पर चला जाता है, वस्तुत: कई परस्पर-विरोधी

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परिकल्पनाएं एक साथ मैदान में होती हैं । इन स्थान बदलती हुई चोर बालुओं पर कोई दृढ़ तत्त्वदार्शनिक इमारत नहीं खड़ी की जा सकती । आनुवंशिकता, जिस पर विज्ञान अपनी जीवन-विकास की धारणा का निर्माण करता है, निश्चय ही किसी जाति के प्ररूप को अपरिवर्तित सत्ता में बनाये रखने के लिये एक शक्ति है, एक यंत्र है । यह प्रतिपादन बहुत संदिग्ध है कि वह सतत और प्रगितशील परिवर्तन का भी उपकरण है । उसकी प्रवृत्ति विकसनशील नहीं, संरक्षी होती है । ऐसा मालूम होता है कि प्राण-शक्ति उसपर जो नया चरित्र लादने की कोशिश करती है, उसे वह मुश्किल से ही स्वीकार करती है । सभी तथ्य यह बतलाते हैं कि कोई प्ररूप अपनी प्रकृति की विशिष्टताओं में रहते हुए अलग-अलग रूप ले सकता है लेकिन यह बतानेवाली कोई चीज नहीं है कि वह उसके परे जा सकता है । अभीतक यह वास्तव में सिद्ध नहीं किया जा सका है कि वानर-जाति विकसित होकर मनुष्य बनी । बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि बंदर से मिलती-जुलती एक जाति, जो बंदरपन से नहीं अपनी ही विशिष्टताओं से हमेशा युक्त थी, अपनी प्रकृति की प्रवृत्तियों के अंदर विकसित हुई और वह बन गयी जिसे हम मनुष्य कहते हैं, यह है वर्तमान मानव सत्ता । यह भी तो सिद्ध नहीं हुआ है कि मनुष्य की निम्नतर जातियों ने अपने अंदर से श्रेष्ठतर जातियों को विकसित किया; जिनमें घटिया संगठन और क्षमता थी वे नष्ट हो गयीं लेकिन यह नहीं सिद्ध किया गया है कि वे आज की मानव जातियों को अपने वंशजों के रूप में पीछे छोड़ गयीं; फिर भी प्ररूप के अंदर ऐसे विकास की संभावना की कल्पना की जा सकतीं है । जड़ से प्राण, प्राण से मन की ओर प्रकृति की प्रगति को माना जा सकता है लेकिन अभीतक इसका कोई प्रमाण नहीं है कि जड़ प्राण में विकसित हुआ या प्राण-ऊर्जा मानसिक ऊर्जा में विकसित हुई । बस इतना ही माना जा सकता है कि प्राण जड़ में अभिव्यक्त हुआ है और मन जीवित जड़ में । क्योंकि इसके लिये कोई पर्याप्त प्रमाण नहीं है कि वनस्पति की कोई जाति पशु-जीवन में विकसित हुई या निर्जीव जड़ का कोई संगठन जीवित अवयव में विकसित हुआ हो । अगर भविष्य में यह अन्वेषण हो कि अमुक रासायनिक या अन्य परिस्थितियों से जीवन प्रकट होता है तो इस संयोग से केवल इतना ही प्रतिष्ठित होगा कि अमुक भौतिक परिस्थितियों में जीवन अभिव्यक्त होता है, यह नहीं कि अमुक रासायनिक परिस्थितियां जीवन की घटक हैं, उसके तत्त्व हैं या निर्जीव पदार्थ में से सजीव जड़-पदार्थ के रूपान्तरित होने के विकासात्मक कारण हैं । यहां, जैसा कि अन्यत्र होता है, सत्ता की हर श्रेणी अपने-आपमें और अपने द्वारा अस्तित्व रखती है, अपने ही स्वभाव के अनुसार अपनी ही निजी ऊर्जा द्वारा अभिव्यक्त होती है और उससे ऊपर या नीचे की श्रेणियां उसके मूल या परिणामस्वरूप निष्कर्ष न होकर पृथ्वी-प्रकृति के निरन्तर क्रम में कोटियां ही हैं ।

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     अगर यह पूछा जाये कि फिर ये सत्ता की विभिन्न श्रेणियां और प्रारूप आये कैसे, तो यह उत्तर दिया जा सकता है कि मूलत: वे जड़ पदार्थ में उसके अंदर स्थित चित्-शक्ति द्वारा अभिव्यक्त हुए अन्तर्वासी आत्मा के वैश्व अस्तित्व के लिये सत्य-संकल्प की शक्ति द्वारा अपने सार्थक रूप और प्ररूप का निर्माण करते हुए अभिव्यक्त हुए । विभिन्न श्रेणियों और अवस्थाओं में व्यावहारिक और भौतिक पद्धतियां काफी भिन्न हो सकती हैं, यद्यपि धारा की मूलभूत समानता दिखायी देती है । सृजनकारी शक्ति एक नहीं अनेक प्रक्रियाओं का उपयोग कर सकती है या बहुत-सी शक्तियों को एक साथ काम में लगा सकती है । जड़ में यह प्रक्रिया है अमेय ऊर्जा से भरे अत्यणुओं का सृजन और संख्या तथा अभिकल्पना के अनुसार उनका संयोजन, उस प्राथमिक आधार पर ज्यादा बड़े अत्यणुओं की अभिव्यक्ति और उन्हें एक साथ करके उनका गोष्टीकरण और संयोजन जिस पर मिट्टी, पानी, खनिज, धातु आदि गोचर वस्तुओं का, सारे भौतिक जगत् का प्रकट होना निर्भर होता है । प्राण में भी चित्-शक्ति वनस्पति जीवन के अत्यणु रूपों और जन्तुक अत्यणुओं से शुरू करती है । वह एक आदि जीव-द्रव्य (प्लाज़्मा) की रचना करके उसे अनेक गुणा बढ़ाती है, एक इकाई के रूप में सजीव कोष की रचना करती है, बीज या जीन (Gene) जैसे सूक्ष्म उपकरणों के और भी प्रकार बनाती है, हमेशा गोष्ठी बनाने और संयोजन करने की समान रीति का व्यवहार करती है जिससे वह अलग-अलग क्रियाओं द्वारा नाना प्रकार के सजीव अवयवों का निर्माण करती है । प्ररूपों का सतत सृजन दिखलायी देता है लेकिन यह विकास का असंदिग्ध प्रमाण नहीं है । कभी-कभी प्ररूप एक-दूसरे से दूर होते हैं और कभी-कभी बहुत ज्यादा एक से, कभी आधार में एक होते हैं परंतु व्योरे में भिन्न । सभी नमूने हैं और नमूनों में यह भिन्नता और साथ ही सबका एक-सा आरंभिक आधार इस बात का चिह्न है कि कोई सचेतन शक्ति अपने भाव के साथ खेल रही है और उसके द्वारा सृष्टि की सब तरह की संभावनाएं विकसित कर रही है । पशु-जाति जन्म लेते समय एक समान प्रारंभिक भ्रूणीय या आधारभूत नमूने से शुरू कर सकती है, वह कुछ दूरतक विकास की कुछ समरूपताओं का या उसकी कुछ रेखाओं या सभी रेखाओं का अनुसरण कर सकती है । ऐसी जातियां भी हों सकतीं हैं जो दोहरे स्वभाव की हों, उभयचर हों, दो प्ररूपों के बीच की हों । लेकिन यह जरूरी नहीं है कि इन सबका यह अर्थ हो कि उन प्ररूपों का विकास किसी विकासधारा में एक में से दूसरे में हुआ है । नयी विशिष्टताओं को प्रकट करने के लिये वंशानुक्रम विभिन्नता से अलग शक्तियां सक्रिय रही हैं । भौतिक शक्तियां हैं, जैसे भोजन, प्रकाश- रश्मियां तथा कुछ और जिनके बारे में हम अभी जानना शुरू कर रहे हैं, निश्चय ही कुछ और भी हैं जिनके बारे में हम अभीतक कुछ नहीं जानते; दुर्ज्ञेय अतीन्द्रिय शक्तियां और अदृश्य जीवन-शक्तियां भी कार्यरत हैं क्योकि भौतिक विकासात्मक

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परिकल्पना में भी प्राकृतिक चयन का लेखा-जोखा समझने के लिये इन सूक्ष्मतर शक्तियों को स्वीकार करना पड़ता है । अगर कुछ प्ररूपों में गुह्य अथवा अवचेतन ऊर्जा वातावरण का आवश्यकताओं को पूरा करती है तो दूसरों में वह उदासीन और जीने में भी अक्षम रहती है । यह स्पषट रूप से भिन्न प्राण-ऊर्जा और मनस्तत्त्व का चिन्ह्य है, एक ऐसी चेतना और शक्ति का चिन्ह है जो भौतिक चेतना और शक्ति से भिन्न है और प्रकृति में भिन्नता लाने के लिये कार्यरत है । क्रिया की पद्धति की समस्या अब भी अस्पष्ट और अज्ञात तत्त्वों से भरी है और अभी किसी निश्चित परिकल्पना का बनाना संभव नहीं है ।

 

     जड़तत्त्व के अंदर अभिव्यक्ति में बने प्ररूपों में से एक प्ररूप, बहुत सारे नमूनों में से एक नमूना है मनुष्य । जो कुछ सृष्ट दुआ है उसमें वह सबसे अधिक जटिल और चेतना के अंश में सबसे अधिक समृद्ध और अपने निर्माण की विल क्षण प्रवीणता में सबसे अधिक समृद्ध है । वह पार्थिव सृष्टि का शीर्ष है पर उसका अतिक्रमण नहीं करता । औरों की तरह उसके भी अपने सहज विधान हैं, सीमाएं विशेष प्रकार का जीवन, स्वभाव और स्वधर्म हैं । उन सीमाओं के भीतर वह बढ़ सकता और विकसित हो सकता है, लेकिन वह उनसे बाहर नहीं जा सकता । अगर कोई ऐसी पूर्णता है जिसतक उसे पहुंचना है तो वह स्वयं इसकी अपनी जाति में, अपनी सत्ता के नियम के भीतर होनी चाहिये -उसकी पूर्ण क्रीड़ा होगी लेकिन होगी उसकी रीति और युक्ति को मान्य रखकर, उनका अतिक्रमण करके नहीं । अपना अतिक्रमण करना, अतिमानव में वर्धित होना, देव के स्वभाव और क्षमताओं को धारण करना उसके स्वधर्म के विरुद्ध होगा, अव्यावहारिक और असंभव होगा । सत्ता के हर रूप और तरीके का, सत्ता के आनन्द का अपना ही मार्ग होता है । मन के द्वारा अपने परिवेश पर प्रभुत्व पाना, उसका उपयोग और उपभोग करना, जिसकी उसमें क्षमता है, उचित रूप में मन और मनोमय सत्ता का उद्देश्य है । लेकिन इसके परे देखना, जीवन के किसी दूरवर्ती उद्देश्य या लक्ष्य के पीछे दौड़ना, मानसिक आकृति से आगे बढ़ने की अभीप्सा करना जीवन में उद्देश्यात्मक तत्त्व को लाना है जो वैश्व निर्माण में दिखायी नहीं देता । अगर किसी अतिमानसिक सत्ता को पार्थिव सृष्टि में उतरना है तो उसे एक नयी और स्वतंत्र अभिव्यक्ति होना चाहिये । जैसे प्राण और मन जड़ में अभिव्यक्त हुए हैं उसी तरह अतिमानस को वहां प्रकट होना चाहिये और गुप्त चित्-शक्ति को अपनी अंतःशक्ति की इस नयी श्रेणी के लिये आवश्यक प्रतिमान तैयार करने होंगे । लेकिन प्रकृति की क्रिया में ऐसे किसी भी अभिप्राय का कोई चिह्न दिखायी नहीं देता ।

 

     लेकिन अगर कोई श्रेष्ठतर सृष्टि अभिप्रेत है तो निश्चय ही वह नयी श्रेणी, प्ररूप या प्रतिमान मनुष्य में से विकसित न होगी; क्योंकि, उस हालत में मानव सत्ताओं की कोई जाति या प्रकार या प्ररूप ऐसा होगा जिसमें पहले से ही अतिमानव का

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उपादान हो, जैसे जो अनोखी पशु-सत्ता मानव जाति में विकसित हुई उसमें पहले से ही मानव स्वभाव के तत्त्व संभाव्य या उपस्थित थे; ऐसी कोई जाति, प्रकार या प्ररूप नहीं है, अधिक-से-अधिक आध्यात्मभावापन्न मानसिक सत्ताएं हैं जो पार्थिव सृष्टि से बच निकलने की टोह में हैं । यदि प्रकृति के किसी गुह्य विधान द्वारा ऐसी अतिमानसिक सत्ता का मानव-विकास अभिप्रेत है तो यह मानव-जाति में से कुछ के द्वारा ही हो सकता है जो अपने-आपको जाति से अलग कर लें ताकि सत्ता के इस नये प्रतिमान की पहली नींव बन सके । यह मानने के लिये कोई कारण नहीं है कि समस्त जाति इस पूर्णता को विकसित कर सकती है । यह मानव जीव में व्यापक संभावना नहीं हो सकतीं ।

 

     अगर वस्तुत: मनुष्य प्रकृति में पशु से विकसित हुआ है फिर भी, अब हम ऐसा कोई दूसरा पशु-प्ररूप नहीं देखते जो अपने से परे के विकास के लक्षण दिखाता हों । यदि पशु-जगत् में ऐसा कोई विकासात्मक दबाव था भी तो जैसे ही मनुष्य के प्रकट होने के साथ उसकी परिपूर्त्ति हुई वह फिर से शांति में जा डूबा होगा । अत: अगर विकास का अगला चरण अपने अतिक्रमण के लिये ऐसा दबाव है तो वह भी उसके उद्देश्य की परिपूर्ति के साथ, अतिमानसिक सत्ता के प्रकट होने के साथ ही शांति में धंस जायेगा । लेकिन वस्तुतः ऐसा कोई दबाव है नहीं । शायद मानव प्रगति का विचार अपने-आपमें भ्रम है । क्योंकि इसका कोई चिन्ह नहीं है कि जो मनुष्य एक बार पशु-स्थिति से उभरा था उसने अपनी जाति के इतिहास में मौलिक प्रगति कर ली है, उसने अधिक-से- अधिक भौतिक जगत् के ज्ञान, भौतिक विज्ञान, अपने इर्द-गिर्द की चीजों के साथ व्यवहार में, प्रकृति के गुप्त विधानों के शुद्ध रूप से बाह्य या व्यावहारिक उपयोग में प्रगति की है । अन्यथा वह अब भी वही है जो हमेशा से, संस्कृति के आरंभ से रहा है । वह उन्हीं क्षमताओं को अभिव्यक्त करने में लगा रहता है, वही गुण और वही त्रुटियां, वही प्रयास, बड़ी-बड़ी भूलें, उपलब्धियां और कुण्ठाएं । अगर प्रगति हुई भी है तो एक चक्कर में, अधिक-से-अधिक शायद चक्र को विस्तृत करने में । आज मनुष्य प्राचीन मनीषियों, द्रष्टाओं और विचारकों से अधिक बुद्धिमान नहीं है, अतीत के महान् अभीप्सुओं, प्रथम महान् रहस्यवादियों से अधिक आध्यात्मिक नहीं है, कला और कौशल में वह प्राचीन कलाकारों और कारीगरों से श्रेष्ठ नहीं है । जो प्राचीन जातियां लुप्त हो गयी हैं उन्होंने उतनी ही सशक्त और तात्त्विक मौलिकता, अन्वेषण, जीवन के साथ व्यवहार करने की योग्यता प्रदर्शित की थी । अगर आधुनिक मनुष्य इस दिशा में कुछ आगे गया है, किसी तात्त्विक प्रगति द्वारा नहीं बल्कि कोटि, क्षेत्र, प्रचुरता में, तो इसलिये कि उसे अपने पूर्वजों की उपलब्धियां विरासत में मिली थी । इस विचार का कोई आधार नहीं मिलता कि वह अर्द्ध-ज्ञान और अर्द्ध-अज्ञान से, जो उसकी जाति की छाप है, कभी रास्ता काटकर निकाल

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सकेगा या अगर वह उच्चतर ज्ञान विकसित कर भी सके, तो वह मानसिक चक्र की चरम सीमा को तोड़कर बाहर निकल सकेगा ।

 

     पुनर्जन्म को आध्यात्मिक विकास का समर्थ साधन और उसे संभव बनानेवाला तत्त्व मानने का लोभ होता है और यह तर्क-विरुद्ध भी नहीं है, फिर भी यदि पुनर्जन्म को एक तथ्य मान भी लिया जाये तो भी यह निश्चित नहीं है कि यही उसकी सार्थकता है । पुनर्जन्म के बारे में सभी पुरानी परिकल्पनाएं उसे पशु से मनुष्य में और साथ ही मनुष्य से पशु-शरीर में अंतरात्मा का सतत देहान्तरण मानती थीं । भारतीय विचार ने उसमें कर्म की, किये गये शुभ या अशुभ के बदले की व्याख्या, विगत इच्छा और प्रयास के फल को भी जोड़ दिया; लेकिन इसमें एक प्ररूप से दूसरे उच्चतर प्ररूपतक उत्तरोत्तर विकास का संकेत न था, उससे भी कम था इस प्रकार की सत्ता के जन्म का संकेत जिसका कभी अस्तित्व ही नहीं रहा लेकिन जिसे फिर भी भविष्य में विकसित होना है । यदि कोई विकास है भी तो मनुष्य अंतिम चरण है क्योंकि उसके द्वारा पार्थिव या शरीरस्थ जीवन का परित्याग हो सकता है, किसी स्वर्ग या निर्वाण में बचकर निकला जा सकता है । पुरानी परिकल्पनाओं ने इसी अंत को देखा था । चूंकि यह मूलत; और अपरिवर्तनशील रूप से अज्ञान का जगत् है - भले समस्त वैश्व जीवन अपने स्वभाव में अज्ञान की अवस्था न हो -अत: यह संभावना है कि इस तरह बच निकालना ही चक्र का सच्चा अंत है ।

 

     यह ऐसी तर्कधारा है जिसमें काफी अकाट्यता और महत्त्व है और उसके महत्त्व की दष्टि से, बहूत संक्षिप्त रूप में ही सही, उसका सामना करने के लिये उसका उल्लेख करना जरूरी था । क्योंकि, यद्यपि उसके प्रस्तावों में से कुछ प्रामाणिक हैं लेकिन उसकी वस्तुओं की दृष्टि पूर्ण और उसकी अकाट्यता निश्चायक नहीं है । और सबसे पहले हम बिना किसी कठिनाई के उस उद्देश्यात्मक तत्त्व के विरुद्ध उठायी जानेवाली आपत्ति से छुटकारा पा सकते हैं जिसका पार्थिव जीवन की रचना में इस विचार द्वारा समावेश होता है कि निश्चेतना से अतिचेतेना की ओर पूर्व-नियत विकास है,  सत्ताओं की ऊपर उठती हुई श्रेणियों का प्रगतिक्रम है जिसमें अज्ञान के जीवन से निकलकर ज्ञान के जीवन में परम उत्कर्षकारी संक्रमण होता है । विश्व के उद्देश्य के बारे में दो अलग-अलग आधारों पर आपत्ति उठायी जा सकती है -एक वैज्ञानिक तर्क जो यह मान कर चलता है कि सब कुछ निश्चेतन ऊर्जा का काम है जो स्वचालित रूप से यंत्रवत् प्रक्रियाओं द्वारा चलती है, जिसमें उद्देश्य का कोई तत्त्व नहीं हों सकता, दूसरी है तत्त्वदर्शनात्मक तर्कणा जो इस दर्शन से चलती है कि अनन्त और वैश्व में सब कुछ पहले से मौजूद है, उसमें उपलब्ध करने लायक कोई भी अनुपलब्ध चीज नहीं हो सकती, ऐसी कोई चीज नहीं हो सकती जिसे वह अपने अंदर जोड़े, क्रियान्वित करे, चरितार्थ करे । अत: उसमें प्रगति का कोई तत्त्व नहीं हो सकता, कोई मौलिक या उद्गामी प्रयोजन नहीं हो सकता ।

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     अगर जड़ में प्रतीयमान निश्चेतन ऊर्जा के अंदर या पीछे कोई गुप्त चेतना है तो वैज्ञानिक या जड़वादी आपत्ति की प्रामाणिकता टिक नहीं सकती । निश्चेतन के अंदर भी कम-से कम एक अंतस्थ आवश्यकता की प्रेरणा मालूम होती है जो रूपों के विकास को और रूपों में विकसित होती हुई चेतना को पैदा करती है और यह भली- भांति माना जा सकता है कि वह प्रेरणा एक गुप्त चित्-सत्ता की विकासात्मक इच्छा है और प्रगतिशील अभिव्यक्ति के लिये उसका वेग विकास में अंतर्जात प्रयोजन का प्रमाण है । यह एक सोद्देश्य तत्त्व है और इसे मानना अयुक्तियुक्त नहीं है क्योंकि सचेतन बल्कि निश्चेतन प्रयत्न का उद्धव चेतन सत्ता के किसी सत्य से होता है जो सक्रिय हो गया हो और जड़-प्रकृति की किसी स्वचालित प्रक्रिया से अपनी परिपूर्तिके लिये चल रहा हो । उस प्रयत्न में उद्देश्य का, अभिप्राय का जो तत्त्व है वह सत्ता के आत्म-क्रियाकारी सत्य का उस सत्ता की आत्म-प्रभावी इच्छा- शक्ति की भाषा में अनुवाद है और अगर चेतना है तो ऐसी इच्छा-शक्ति भी होनी चाहिये और अनुवाद स्वाभाविक और अनिवार्य है । अनिवार्यत: अपने-आपको परिपूर्ण करनेवाला सत्ता का सत्य विकास का आधारभूत तथ्य होगा लेकिन इच्छा और उसके उद्देश्य भी क्रियाकारी सिद्धांत-तत्त्व के यंत्र-विन्यास के अंग के रूप में, एक तत्त्व के रूप में होने चाहियें ।

 

     तत्त्वदार्शनिक की आपत्ति अधिक गम्भीर है क्योंकि यह स्वतःसिद्ध मालूम होता है कि निरपेक्ष का अपने-आपको अभिव्यक्त करने के आनन्द को छोड़कर अभिव्यक्ति में और कोई प्रयोजन नहीं हो सकता । अभिव्यक्ति के अंग-स्वरूप जड़-पदार्थ में विकसनशील गति को इसी वैश्व वक्तव्य में आ जाना चाहिये । वह केवल उन्मीलन, प्रगतिशील कार्यान्वयन, निरुद्देश्य क्रमिक आत्म-प्रकटन के आनन्द के लिये हो सकती है । वैश्व समग्रता को भी अपने- आपमें पूरण माना जा सकता है, समग्रता के रूप में उसके लिये अपनी सत्ता की पूर्णता में पाने या जोड़ने के लिये कुछ भी नहीं है । परंतु यहां जड़-जगत् समग्र पूर्णता नहीं है, वह एक समग्र का भाग, श्रेणीक्रम में एक श्रेणी है; अत: वह अपने अंदर न केवल समग्र के उन अविकसित अभौतिक तत्त्वों को या शक्तियों की उपस्थिति को प्रवेश दे सकता है जो उसके जड़तत्त्व में अंतर्निहित हैं बल्कि तंत्र की उच्चतर श्रेणियों से उन्हीं शक्तियों को अपने अंदर अवतरण करने देता है ताकि यहां उनकी सजातीय गतियों को भौतिक सीमांकन की कठोरता से मुक्त कर सके । अस्तित्व की महत्तर शक्तियों की अभिव्यक्ति को -जबतक कि सारी सत्ता भौतिक जगत् में उच्चतर, आध्यात्मिक दृष्टि के रूप में अभिव्यक्त न हो जाये -क्रमविकास का उद्देश्य माना जा सकता है । यह उद्देश्यवाद ऐसा कोई नया तत्त्व नहीं लाता जो समग्रता में न हों । वह केवल अंश में समग्रता की उपलब्धि का प्रस्ताव रखता है । विश्व की समग्रता की आंशिक गति में सोद्देश्य भाव के तत्त्व को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो

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सकती यदि उसका प्रयोजन है -मानव अर्थ में प्रयोजन नहीं बल्कि अंदर निवास करनेवाली आत्मा की इच्छा में सचेतन आंतरिक सत्य-आवश्यकता की प्रेरणा हो -वहां पर समग्र गति में छिपी सभी संभावनाओं की पूर्ण अभिव्यक्ति । निःसंदेह यहां पर सब कुछ अस्तित्व के आनन्द के लिये अस्तित्व रखता है, सभी लीला या खेल है लेकिन खेल के अंदर भी चरितार्थ करने के लिये कोई उद्देश्य रहता है और उस उद्देश्य की पूर्ति के बिना सार्थकता पूर्ण न होगी । समाप्ति के बिना नाटक कलात्मक संभावना तो हो सकता है जिसका अस्तित्व पात्रों को देखने के सुख और समाधान के बिना सामने रखी गयी समस्या या हमेशा के लिये समाधान के संदिग्ध तराजू पर लटकते सुख में है । पार्थिव-विकास के नाटक के बारे में कल्पना की जा सकती है कि वह उसी स्वभाव का हो लेकिन अभिप्रेत या अंदर से पूर्व-निर्धारित समाप्ति भी संभव और अधिक विश्वासोत्पादक रूप से संभव है । आनन्द समस्त सत्ता का गुह्य तत्त्व और सत्ता की समस्त क्रियाशीलता का सहार। है । बल्कि आनन्द सत्ता में अंतर्निष्ठ, सत्ता की शक्ति या इच्छा में व्यापक, उसकी चित्-शक्ति की गुप्त आत्म-अभिज्ञता में समर्थित सत्य के क्रियान्वयन में रस को नहीं त्यागता जो उसके समस्त क्रिया-कलापों की गतिशील और कार्यकारी अभिकर्त्री और उनके अर्थ की ज्ञाता है ।

 

     आध्यात्मिक विकास की परिकल्पना रूप-विकास और भौतिक जीवन-विकास की वैज्ञानिक परिकल्पना के साथ अभिन्न नहीं है, उसे अपने ही अंतर्निहित औचित्य के बल पर खड़ा रहना चाहिये । वह भौतिक विकास के वैज्ञानिक विवरण को समर्थन दे सकती या किसी तत्त्व के रूप में स्वीकार कर सकती है परंतु यह समर्थन अनिवार्य नहीं है । वैज्ञानिक कल्पना का केवल बाहरी और दृश्य यंत्र और प्रक्रिया के साथ, प्रकृति के कार्यान्वयन के व्योरे के साथ, जड़ में वस्तुओं के भौतिक विकास के साथ, जड़ में प्राण और मन के विकास के विधान के साथ संबंध रहता है । हो सकता है कि नये अन्वेषण के प्रकाश में उसकी प्रक्रिया के वर्णन में काफी हेर-फेर करना या उसे एकदम छोड़ देना पड़े, लेकिन इसका आध्यात्मिक विकास के, चेतना के विकास के, जड़ जीवन में अंतरात्मा की अभिव्यक्ति की प्रगति के स्वतःसिद्ध तथ्य पर कोई असर न पड़ेगा । बाहरी दृष्टि से देखें तो विकास का सिद्धांत पार्थिव जीवन के सोपान में रूपों और शरीरों का विकास होता है । जड़तत्त्व का, जड़ में प्राण का, सप्राण जड़ में चेतना का प्रगतिशील जटिल और समर्थ संगठन होता है और इस क्रम में, रूप जितनी अच्छी तरह संगठित हो वह उतने ही सुसंगठित, अधिक जटिल और समर्थ, अधिक वर्धित या विकसित प्राण और चेतना को आवास देने में समर्थ होता है । एक बार विकास की परिकल्पना को प्रस्तुत किया जाये और उसके समर्थक तथ्य सुव्यवस्थित कर दिये जायें तो पार्थिव जीवन का यह पहलू इतना स्पष्ट हो जाता है

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कि वह निर्विवाद-सा मालूम पड़ने लगता है । उस यथार्थ यंत्र को, जिसके द्वारा यह किया जाता है या सत्ता के प्ररूपों का ठीक-ठीक वंश-वृक्ष या उनके कालिक अनुक्रम को गौण माना जा सकता है यद्यपि अपने-आपमें यह एक रुचिकर और महत्त्वपूर्ण प्रश्न है; जीवन के एक रूप का अपने पूर्ववर्ती कम विकसित रूप में से विकसित होना, स्वाभाविक चुनाव, जीवन के लिये संघर्ष, उपलब्ध विशिष्टताओं का बना रहना -इन सबको चाहे स्वीकार किया जाये या न किया जाये लेकिन अपने अंदर विकास योजना के साथ उत्तरोत्तर सृजन का तथ्य, ऐसा एकमात्र निष्कर्ष है जिसका प्राथमिक महत्त्व है । दूसरा स्वतःसिद्ध निष्कर्ष यह है कि विकास में एक आवश्यक क्रम-शृंखला है, पहले जड़ पदार्थ का विकास, फिर जड़ में प्राण का विकास, फिर सप्राण जड़ में मन का विकास और इस अंतिम स्थिति में पशु का विकास जिसके पीछे-पीछे आता है मानव विकास । क्रम की पहली तीन श्रेणियां इतनी स्पष्ट हैं कि उनके बारे में कोई विवाद नहीं हो सकता । विवाद इस बात पर हो सकता है कि क्या अनुक्रम में मनुष्य पशु के बाद आया या आरंभिक विकास साथ-साथ हुआ, लेकिन मन के विकास में मनुष्य पशु के आगे निकल गया । एक परिकल्पना यह प्रस्तुत की गयी है कि मनुष्य अंतिम नहीं, पशु जाति में पहला और सबसे बड़ा है । मनुष्य की यह प्राथमिकता एक पुरानी कल्पना है, लेकिन यह व्यापक नहीं थी । यह मनुष्य के पार्थिव जीवों में स्पष्ट श्रेष्ठता के भाव से पैदा हुई है । इस श्रेष्ठता का गौरव जन्म में प्राथमिकता की मांग करता हुआ मालूम होता है; लेकिन विकसनशील तथ्य में श्रेष्ठ प्रकट होने में पहला नहीं पिछला होता है, कम विकसित अधिक विकसित से पहले आता है और उसकी तैयारी करता है ।

 

     वस्तुत: जीवन में निचले रूपों की प्राथमिकता का विचार प्राचीन विचार में एकदम अनुपस्थित न था । सृष्टि के पौराणिक वर्णन के अतिरिक्त हम भारत के प्राचीन और मध्ययुगीन विचार में ऐसे कथन पाते हैं जो कालक्रम में मनुष्य पर पशु को प्राथमिकता देते हैं, और एक ऐसे अर्श में जो आधुनिक विकास की कल्पना के साथ मेल खाता है । एक उपनिषद् घोषणा करता है कि आध्यात्म पुरुष या आत्मा ने जीवन-सृष्टि का निर्णय करने के बाद पहले गौ और घोड़े की पशु-जाति को रूप दिया । लेकिन देवताओं ने -जो उपनिषद् के विचार में चेतना की शक्तियां और प्रकृति की शक्तियां हैं -उन्हें अपर्याप्त वाहन पाया । अंत में आत्मा ने मनुष्य का रूप बनाया जिसे देवों ने अच्छी तरह बना हुआ और पर्याप्त पाया और उन्होंने अपनी वैश्व क्रियाओं के लिये उसमें प्रवेश किया । यह अधिकाधिक विकसित रूपों में सृजन की स्पष्ट कथा है, जबतक कि ऐसा रूप नहीं मिला जो विकसित चेतना का आवास हो सके । पुराणों में कहा गया है कि काल में तामसिक पशु-सृष्टि पहली थीं । चेतना और शक्ति की जड़ता के लिये भारतीय शब्द है तमस् । मंद और निस्तेज और आलसी, अपनी क्रीड़ा में असमर्थ चेतना को तामसिक कहा

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जाता है । ऐसी शक्ति, प्राण-ऊर्जा जो अलसी और अपनी क्षमता में सीमित हो, सहज वृत्ति के आवेगों की संकीर्ण श्रेणियों से बंधी हो, विकास न करती हुई, आगे न बढ़नेवाली, विशालतर गतिज क्रियाओं या अधिक प्रकाशमय सचेतन क्रिया की ओर प्रेरित न होनेवाली हो उसे भी इसी श्रेणी में रखा जायेगा । पशु, जिसमें चेतना की यह कम विकसित शक्ति है, सृजन में पूर्ववर्ती है । अधिक विकसित मानव चेतना, जिसमें गतिशील मानस ऊर्जा की अधिक शक्ति और दर्शन का प्रकाश. है, परवर्ती सृजन है । तंत्र ऐसी आत्मा की बात कहता है जो अपनी स्थिति से पतित हो गयी है, वनस्पति और पशु-रूपों में लाखों जन्म लेने के बाद मानव स्तर पर आकर मुक्ति के लिये तैयार होती है । यहां भी यह कल्पना अवगत है कि वनस्पति और पशु के प्राणी-रूप सोपान के निचले डंडे हैं और मनुष्य सचेतन सत्ता का अंतिम या विकास का चरम बिंदु है । यह ऐसा रूप है जिसमें अंतरात्मा को मन, प्राण और शरीर में से आध्यात्मिक प्रयोजन और आध्यात्मिक परिणाम पाने में समर्थ होने के लिये निवास करना पड़ता है । वस्तुत: यह सामान्य कल्पना है और यह बुद्धि और अंतर्भास दोनों को इतने जोर से जंच जाती है कि इस पर बहस करने की जरूरत नहीं रहती -निष्कर्ष लगभग अनिवार्य है ।

 

     हमें प्रगतिशील विकास की प्रक्रिया की इस पृष्ठभूमि में मनुष्य, उसके मूल, उसके पहले प्रादुर्भाव और अभिव्यक्ति में उसकी स्थिति को देखना चाहिये । यहां दो संभावनाएं है;  या तो मानव शरीर और चेतना का पार्थिव प्रकृति में अचानक आविर्भाव हुआ, जड़- भौतिक जगत् में आकस्मिक सृजन या तार्किक मन की स्वतंत्र, स्वचालित अभिव्यक्ति हुई जो पहले के इसी जैसे अवचेतन जीव-रूपों और जड़ में सजीव चेतना की अभिव्यक्ति में हस्तक्षेप कर रही थी या फिर पाशविक सत्ता में से मानवता का विकास हुआ, शायद वह अपनी तैयारी और विकास की अवस्थाओं में मन्द थी परंतु संक्रमण के निर्णायक स्थलों पर परिवर्तन सबल छलांगें मारने लगा । पिछली परिकल्पना में कोई कठिनाई नहीं आती क्योंकि यह निश्चित  है कि यद्यपि मौलिक प्ररूप में तो नहीं लेकिन प्ररूप के अंदर की विशिष्टताओं में परिवर्तन जाति और उपजाति में लाये जा सकते हैं और वस्तुत: स्वयं मनुष्य अपने- आप यह कर चुका है और आश्चर्यजनक रूप से उसकी संभावनाओं को छोटे पैमाने पर परीक्षणात्मक विज्ञान द्वारा संपादित कर रहा है । यह भली-भांति माना जा सकता है कि प्रकृति में गुप्त रूप से सचेतन ऊर्जा इस प्रकार की क्रियाओं को बड़े पैमाने पर ला सकती है और बहुत सारे निर्णायक और महत्त्वपूर्ण विकास अपनी सृजनात्मक परंपराओं के द्धारा ला सकती है । सामान्य पशु-जीवन से मानवीय प्रकार के जीवन में बदलने के लिये जरूरी शर्त होगी एक ऐसे भौतिक संगठन का विकास जो तेज प्रगति की, चेतना के विपर्यय या उलट जाने की, नयी ऊंचाइयोंतक पहुंचने और वहां से निचले स्तरों पर नजर डालने की क्षमता दे । क्षमता का ऐसा

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उन्नयन और विस्तार जो सत्ता को इस योग्य बना दे कि वह पुरानी पाशविक क्षमताओं को महत्तर और अधिक नमनीय मानव बुद्धि के साथ ले ले, और साथ ही या बाद में सत्ता के नये प्ररूप के उपयुक्त अधिक बड़ी और सूक्ष्म शक्तियों को, तर्क, चिन्तन, जटिल अवलोकन, व्यवस्थित अन्वेषण, विचार और खोज की शक्तियों को विकसित करे । अगर कोई उभरती हुई चित्-शक्ति है तो, यदि यंत्र प्राप्त हों तो, संक्रमण में कोई कठिनाई न होगी -सिवाय जड़ निश्चेतना की बाधा और प्रतिरोध के । पशु में पहले ही सीमित मात्रा मैं मिलते-जुलते कुछ गुण हैं, परंतु सिर्फ क्रिया के लिये और उनका संगठन प्रारंभिक, सरल और अनगढ़ रहता है, उनका क्षेत्र और उनकी नमनीयता बहुत निचले स्तर की होती है, क्षमता पर उसका अधिकार संकीर्ण और अनियमित रहता है । लेकिन विशेष रूप से इन क्षमताओं की क्रिया अधिकतर यांत्रिक और कम आयोजित है । उसपर प्रकृति-ऊर्जा के यांत्रिक स्वभाव की छाप होती है जो आरंभिक चेतना की क्रियाओं का संचालन करती है, उस तरह नहीं जैसे मनुष्य की सचेतन ऊर्जा अपनी क्रियाओं का अवलोकन करती और एक बड़ी हदतक निदेशन और नियंत्रण करती है और सोच- समझ कर बदलती या संशोधित करती है । चेतना की दूसरी पाशविक आदतें मौलिक रूप से मनुष्य की आदतों से भिन्न नहीं हैं । उसे बस इतना ही करना पड़ा कि उसने उन्हें एक उच्चतर मानसिक स्तर पर विकसित और वर्धित किया और जहां कहीं संभव हुआ उन्हें मानसभावापन्न, परिमार्जित और सूक्ष्म बनाया । संक्षेप में, उसे अपनी नयी समझ और बौद्धिक क्षमता के प्रकाश और सुविवेचित नियंत्रण की शक्ति को उनतक लाना पड़ा जिससे पशु वंचित था । एक बार यह परिवर्तन या उलटाव सिद्ध हो जाये तो स्वयं अपने ऊपर और वस्तुओं पर क्रिया करने की, सृजन करने, जानने और चिन्तन करने की मानव मन की शक्ति उसके विकासक्रम में विकसित होगी और यद्यपि जैसी कि कल्पना की जा सकती है, आरंभ में ये चीजें अपने क्षेत्र में छोटी, पशु के निकट फिर भी अपनी क्रिया में अपेक्षाकृत सरल और अनगढ़ होंगी । प्रकृति के हर आमूल संक्रमण में ऐसा उलटाव किया गया है । उभरती हुई प्राण-शक्ति जड़-पदार्थ पर मुड़ती है, जड़ ऊर्जा की क्रियाओं पर प्राणिक पदार्थ आरोपित करती है और साथ ही अपनी नयी गतियों और क्रियाओं को विकसित करती है । जड़ और प्राण-शक्ति में प्राणिक मन उभरता है और अपनी चेतना का पदार्थ उनकी क्रियाओं पर आरोपित करता है जब कि वह स्वयं अपनी क्रिया और क्षमताओं को विकसित करता है । एक नया आविर्भाव और उलटाव, मानव-जाति का आविर्भाव प्रकृति के पहले उदाहरणों के साथ संगत है । यह एक सामान्य नियम का नया प्रयोग होगा ।

 

     अत: इस परिकल्पना को स्वीकार करना आसान है और इसकी क्रिया समझ में आनेवाली है लेकिन दूसरी परिकल्पना काफी कठिनाइयां लाती है । चेतना की दिशा

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में नयी अभिव्यक्ति, मानव अभिव्यक्ति की व्याख्या वैश्व प्रकृति में अंतर्निष्ठ में से छिपी हुई चेतना का उमड़ना कहकर की जा सकती है । लेकिन उस हालत में अपने आविर्भाव के वाहन के लिये पहले से मौजूद कोई जड़ रूप रहा होगा । आविर्भाव की शक्ति वाहन को अपने नये आंतरिक सृजन की आवश्यकताओं के अनुकूल बना लेती है या हो सकता है कि पिछले भौतिक प्ररूपों या नमूनों से तेजी के साथ अलग होने की वजह से कोई नयी सत्ता अस्तित्व में आयी हो । लेकिन चाहे जिस परिकल्पना को माना जाये उसका अर्थ होता है विकास-प्रक्रिया -केवल भिन्नता या संक्रमण के तरीके और यंत्र-विन्यास में फर्क होता है । या, इसके विपरीत, हो सकता है कि उमड़ने की जगह हमारे ऊपर के मानसिक लोक से पार्थिव प्रकृति में मानसिकता का अवतरण या शायद एक अंतरात्मा का या मनोमय सत्ता का अवतरण हुआ हो । तब कठिनाई होगी मानव शरीर के प्रकट होने के बारे में क्योंकि यह शरीर इतना जटिल और कठिन साधन है कि यह अचानक सृष्ट या अभिव्यक्त नहीं हो सकता । क्योंकि प्रक्रिया की ऐसी चमत्कारिक तेजी यद्यपि सत्ता के अतिभौतिक स्तर पर बिलकुल संभव है, फिर भी जड़ ऊर्जा की साधारण संभावनाओं या संभाव्यताओं में प्रकट होती हुई नहीं दिखलायी देती । यह केवल किसी अतिभौतिक शक्ति या प्राकृतिक विधान के हस्तक्षेप या सीधे जड़ पर पूरी शक्ति के साथ कार्य करते हुए सर्जक मन के द्वारा हो सकता है । जड़ के अंदर हर नये आविर्भाव के लिये अतिभौतिक शक्ति और सर्जक की क्रिया को माना जा सकता है । ऐसा हर आविर्भाव अपनी तह में एक चमत्कार है जिसका संचालन अवगुंठित मानसिक ऊर्जा या प्राण-ऊर्जा द्वारा समर्थित गुप्त चेतना द्धारा होता है लेकिन कहीं भी क्रिया सीधी, प्रत्यक्ष और आत्मनिर्भर नहीं मालूम होती । वह हमेशा किसी पहले से ही चरितार्थ किये गये भौतिक आधार पर ऊपर से आरोपित की जाती है और प्रकृति की किसी प्रतिष्ठित प्रक्रिया के फैलाव से काम करती है । यह अधिक धारणागम्य है कि किसी वर्तमान शरीर में अतिभौतिक अंतरागमन के लिये कोई उद्‌घाटन था और उससे वह एक नये शरीर में रूपांतरित हो गया । लेकिन हम यूं ही हल्के-फुल्के रूप में यह नहीं मान सकते कि जड़ प्रकृति के विगत इतिहास में ऐसी कोई घटना घटी हो । ऐसा लगता है कि इसके लिये, ऐसा शरीर बनाने के लिये जिसमें वह निवास करना चाहता है, किसी अदृश्य मनोमय सत्ता के सचेतन हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती हो । या फिर स्वयं जड़ में मनोमय सत्ता का कोई पूर्ववर्ती विकास रहा हो जो अतिभौतिक शक्ति के ग्रहण करने में और उसे अपने भौतिक अस्तित्व के कठोर संकीर्ण तत्त्वों पर आरोपित करने में पहले से ही सक्षम हो । अन्यथा हमें यह मानना होगा कि एक पूर्ववर्ती शरीर पहले से ही इतना विकसित था कि एक बड़े मानसिक अंतर्वाह को ग्रहण करने में सक्षम था या अपने अंदर मनोमय सत्ता के अवरोहण को नमनशील उत्तर देने में समर्थ था ।

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लेकिन तब यह मानना होगा कि शरीर में मन का विकास पहले ही उस बिंदुतक पहुंच गया था जहां ऐसी ग्रहणशीलता संभव हो । यह बिलकुल बुद्धिगम्य है कि नीचे से इस प्रकार के विकास और ऊपर से ऐसे अवतरण ने मानव जाति की पार्थिव प्रकृति में आविर्भाव के लिये सहयोग दिया हो । हो सकता है कि पशु में पहले से विद्यमान गुप्त चैत्य सत्ता ने ही मनोमय सत्ता का, मनोमय पुरुष का सजीव जड़ में आव्हान किया हो ताकि वहां पर कार्यरत प्राणिक-मानसिक ऊर्जा को लेकर वह एक उच्चतर मानसिकता में उठा ले । लेकिन यह तब भी एक विकास-प्रक्रिया होगी जिसमें उच्चतर लोक पार्थिव प्रकृति में अपने ही तत्त्व के आविर्भाव और वृद्धि में सहायता करने के लिये हस्तक्षेप करेगा ।

 

     और इसके बाद यह माना जा सकता है कि शरीर में चेतना और सत्ता के हर रूप और नमूने को, एक बार प्रतिष्ठित हो जाने के बाद उस प्ररूप की सत्ता के विधान के प्रति, अपने परिरूप और प्रकृति के नियम के प्रति निष्ठावान् रहना पड़ता है । लेकिन यह भी भली-भांति हो सकता है कि मानव प्ररूप के विधान का एक अंश है अपना अतिक्रमण करने के लिये आवेग, कि मनुष्य की आध्यात्मिक शक्तियों में सचेतन संक्रमण के लिये साधन भी जुटाये गये हैं । हो सकता है कि ऐसी क्षमता का होना उस योजना का भाग हो जिसके अनुसार सर्जक ऊर्जा ने उसे बनाया है । यह माना जा सकता है कि मनुष्य ने अभीतक मुख्य रूप से जो किया है वह है अपनी प्रकृति के चक्कर के भीतर ही भीतर, प्रकृति की गतिविधि के वृत्त में, कभी चढ़ते और कभी उतरते हुए कर्म करना -प्रगति की कोई सीधी रेखा नहीं रही, उसकी विगत प्रकृति का कोई निर्विवाद, आधारभूत या मौलिक अतिक्रमण नहीं हुआ : उसने बस यही किया है कि अपनी क्षमताओं को तेज और सूक्ष्म बनाया है, उनका अधिकाधिक जटिल और नमनीय उपयोग किया है । सचमुच यह नहीं कहा जा सकता कि जब से मनुष्य का आविर्भाव हुआ है या हाल के इतिहास में, जिसका हमें पता है, कोई मानव प्रगति नहीं हुई; क्योकि पुरखे चाहे जितने महान् रहे हों, उनकी कुछ उपलब्धियां और रचनाएं चाहे जितनी उत्कृष्ट रही हों, उनकी आध्यात्मिकता, बुद्धि या चरित्र की शक्तियां चाहे जितनी प्रभावशाली रही हों फिर भी बाद की विकासधारा में मनुष्य की उपलब्धियों में, उसकी राजनीति में, समाज, जीवन, विज्ञान, तत्त्वदर्शन में, सब प्रकार के ज्ञान, कला और साहित्य में एक बढ्‌ती हुई सूक्ष्मता, जटिलता, ज्ञान और संभावना का बहुविध विकास रहा है; उसके आध्यात्मिक प्रयास में भी, जो कि पुरखों के प्रयास की तुलना में अध्यात्म-शक्ति में कम आश्चर्यजनक रूप से उदात्त और कम विशाल है, यह बढ्‌ती हुई सूक्ष्मता, नमनीयता, गहराइयों की थाह तथा खोज का विस्तार रहे हैं । सस्कृति के उच्च प्ररूप से पतन हुए हैं, कुछ काल के लिये किसी विशेष रूढ़िवाद में तेजी से अवतरण हुआ है, आध्यात्मिक प्रेरणा में विराम आये हैं, प्राकृत बर्बर जड़वाद में गोते लगे

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हैं, फिर भी ये अस्थायी दृश्य हैं और अपने बुरे-से-बुरे रूप में प्रगति की सर्पिल रेखा में अधोमुखी मोड़ रहे हैं । निश्चय हीं यह प्रगति मनुष्य-जाति को स्वयं अपने परे, अपने अतिक्रमण में, मानसिक सत्ता के रूपांतर में नहीं ले गयी है । लेकिन इसकी आशा भी नहीं की जा सकती थी क्योकि विकसनशील प्रकृति का सत्ता और चेतना के प्ररूप में कार्य है पहले प्ररूप को उसकी अधिकतम क्षमतातक ऐसे सूक्ष्मीकरण और बढ्‌ती हुई जटिलता द्वारा इतना विकसित करना कि वह कोष के फटने, परिपक्व निर्णायक के उभरने, उल्टाव, चेतना के स्वयं अपनी ओर अभिमुख होने के लिये तैयार हो जाये जिससे विकास का एक नया पर्व बनता है । अगर यह मान लिया जाये कि उसका अगला चरण आध्यात्मिक और अतिमानसिक सत्ता है तो जाति में आध्यात्मिक दबाव को प्रकृति के इरादे का चिह्न माना जा सकता है, यह इस बात का भी चिह्न है कि मनुष्य में अपने अंदर संक्रमण को संपादित करने की या प्रकृति को से संपादित करने में सहायता करने की क्षमता है । यदि पशु- सत्ता में एक ऐसे प्ररूप का आविर्भाव, जो कुछ बातों में वानर-जाति का था लेकिन फिर भी आरंभ से ही मानवता के तत्त्वो से संपन्न था, मानव विकास का उपाय था तो मनुष्य में मानसिक पशु-मानवता से मिलते-जुलते आध्यात्मिक प्ररूप का प्रकट होना, जिसपर आध्यात्मिक अभीप्सा की छाप लगी हो, स्पष्टत: प्रकृति का आध्यात्मिक और अतिमानव सत्ता की विकसनशील उत्पत्ति का उपाय होगा ।

प्रासंगिक रूप से यह प्रस्ताव रखा जा सकता है कि यदि विकास की इस प्रकार की पराकाष्ठा अभिप्रेत है और मनुष्य को उसका माध्यम होना है तो कुछ गिनी-चुनी विशेष रूप से विकसित मानव सत्ताएं ही नये रूप को आकार देंगी और नये जीवन की ओर गति करेंगी । एक बार यह हो जाये तो बाकी सारी मानव जाति प्रकृति की आध्यात्मिक अभीप्सा की अवस्था से फिर से पतित हो जायेगी क्योंकि तब फिर प्रकृति के उद्देश्य के लिये उसकी आवश्यकता न रहेगी और वह अपनी सामान्य स्थिति से निष्क्रिय बनी रहेगी । समान रूप से यह तर्क दिया जा सकता है कि अगर वास्तव में विकसनशील कोटियों में से होते हुए अंतरात्मा का पुनर्जन्म द्वारा आध्यात्मिक शिखर की ओर आरोहण होता है तो मानव श्रेणीक्रम का बना रहना जरूरी है, क्योंकि, अन्यथा मध्यवर्ती चरण में सबसे अधिक आवश्यक चरण का अभाव होगा । यह तो एकदम स्वीकार कर लेना चाहिये कि सारी मानव-जाति के मिलकर एक साथ अतिमानसिक स्तरतक उठ जाने की तनिक भी सम्भाव्यता या संभावना नहीं है । जिस चीज का संकेत किया जा रहा है वह ऐसी क्रांतिकारी या आश्चर्यजनक चीज नहीं है, केवल मानव मानसता में क्षमता की बात है कि जब वह विकसनशील प्रेरणा के अमुक स्तर या अमुक बिंदु के दबावतक पहुंच जाये तो वह चेतना के उच्चतर लोक और उसके सत्ता में मूर्त होने की ओर बल लगाये । निश्चय ही इस शरीर- धारण के कारण प्रकृति के साधारण गठन में परिवर्तन आयेगा, निश्चय

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ही उसके मानसिक, भावनामय और संवेदनात्मक गठन का और एक बड़ी हदतक शारीरिक चेतना और हमारे जीवन और ऊर्जाओं के भौतिक-अनुकूलन में परिवर्तन आयेगा । लेकिन चेतना का परिवर्तन ही मुख्य तत्त्व और प्राथमिक गति होगा । भौतिक हेर-फेर गौण तत्त्व और परिणाम होंगे । जब अंतरात्मा की ज्वाला, चैत्य ज्वाला हृदय और मन में समर्थ हो जाये और प्रकृति तैयार हो तो मनुष्य के लिये चेतना का यह रूपांतर हमेशा संभव रहेगा । आध्यात्मिक अभीप्सा मनुष्य के अंदर अंतर्जात होती है क्योंकि वह पशु से भिन्न, अपूर्णता और सीमा से अभिज्ञ रहता है और यह अनुभव करता है कि वह अब जो है उसे उसके परे कुछ प्राप्त करना है । अपना अतिक्रमण करने की यह प्रवृत्ति जाति में से कभी पूरी तरह मिटनेवाली नहीं लगती । मानव मानसिक स्थिति तो हमेशा रहेगी लेकिन केवल पुनर्जन्म के क्रम में एक स्तर के रूप में नहीं बल्कि आध्यात्मिक और अतिमानसिक स्थिति की ओर खुले चरण के रूप में ।

 

     यह बात ध्यान देने योग्य है कि मानव मन और शरीर का धरती पर आविर्भाव विकास के मार्ग तथा प्रक्रिया में एक निर्णायक पग का चिह्न है, एक निर्णायक परिवर्तन है, यह निरा पुरानी लीकों का जारी रहना नहीं है । जड़ में विकसित विचारशील मन के इस आगमन से पहलेतक विकास सजीव सत्ता की आत्म- अभिज्ञ अभीप्सा, निश्चय, इच्छा या खोज द्वारा नहीं बल्कि अवमानसिक या अंतर्लीन ढंग से प्रकृति की स्वचालित क्रिया द्वारा सम्पादित हुआ था । यह ऐसा इसलिये था क्योंकि विकास निश्चेतना से शुरू हुआ था और प्रच्छन्न चेतना अभीतक उसमें से इतने पर्याप्त रूप से नहीं उभरी थी कि अपने जीवित प्राणी में भाग लेनेवाली आत्म-अभिज्ञ व्यष्टिगत इच्छा में से कार्य करे । लेकिन मनुष्य में आवश्यक परिवर्तन कर दिया गया है -सत्ता जाग्रत् और अपने बारे में अभिज्ञ हो गयी है । उसकी विकसित होने की, ज्ञानवृद्धि की, आंतरिक सत्ता को गहरा और बाहरी सत्ता को विस्तृत करने की और प्रकृति की क्षमताओं को बढ़ाने की इच्छा मन में व्यक्त कर दी गयी है । मनुष्य ने देखा है कि उसकी अपनी चेतना-स्थिति से उच्चतर चेतना-स्थिति हो सकती है, उसके मन और प्राण के भागों में विकसनशील उद्दीपन है । उसमें अपना अतिक्रमण करने की अभीप्सा मुक्त और व्यक्त है । वह अंतरात्मा के बारे में सचेतन हो गया है, उसने आत्मा और आध्यात्मिक पुरुष को खोज लिया है । अतः उसमें अवचेतन की जगह सचेतन विकास कल्पनागम्य और व्यावहारिक बन गया है । भली-भांति यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसमें अभीप्सा, प्रेरणा और सतत प्रयास परिपूर्ति की ओर उच्चतर मार्ग के लिये, एक महत्तर स्थिति के उभार के लिये प्रकृति की इच्छा का निश्चित चिह्न है ।

 

     विकास की पिछली स्थितियों में प्रकृति का पहला ध्यान और प्रयास भौतिक संगठन में परिवर्तन की ओर था क्योंकि केवल इसी तरह चेतना में परिवर्तन हो

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सकता था । यह एक ऐसी आवश्यकता थी जो शरीर में परिवर्तन लाने के लिये पहले से गठित होती हुई चेतना की शक्ति की अपर्याप्तता के कारण आरोपित हुई थी । लेकिन मनुष्य में उल्टाव संभव है, वस्तुत: अनिवार्य है क्योंकि उसकी चेतना द्वारा, चेतना के रूपांतर द्वारा ही -उसके पहले यंत्र-विन्यास के रूप में नये शारीरिक संगठन द्वारा नहीं -क्रमविकास संपन्न हो सकता है और होना चाहिये । वस्तुओं की आंतरिक वास्तविकता में चेतना का परिवर्तन हमेशा प्रधान तत्त्व रहा है, विकास का हमेशा आध्यात्मिक महत्त्व रहा है और भौतिक परिवर्तन केवल उपकरण की तरह था लेकिन यह संबंध इन दो तत्त्वों के प्रथम असामान्य संतुलन के कारण छिपा रहता था जब कि बाहरी निश्चेतना का शरीर आध्यात्मिक तत्त्व से, सचेतन सत्ता से महत्त्व में बढ़कर था और उसे आवृत्त किये हुए था । लेकिन एक बार संतुलन ठीक हो जाये तो फिर चेतना के परिवर्तन से पहले शरीर के परिवर्तन का आना जरूरी नहीं रह जाता । स्वयं चेतना अपने परिवर्तन द्वारा शरीर के लिये जो कोई परिवर्तन आवश्यक है उसे कार्यान्वित करेगी । यह ध्यान देने योग्य है कि मानव मन ने वनस्पति और पशु के नये प्ररूप विकसित करने में, प्रकृति की सहायता करने में पहले ही क्षमता दिखलायी है । उसने वातावरण के नये रूप बनाये हैं, ज्ञान और अनुशासन द्वारा स्वयं अपनी मानसिकता में काफी परिवर्तन विकसित किये हैं । यह असंभव नहीं है कि मनुष्य स्वयं अपने भौतिक और आध्यात्मिक विकास और रूपांतर में प्रकृति की सचेतन सहायता भी करे । उसके लिये प्रेरणा पहले से ही है और अंशत: बह सफल - भी है यद्यपि अभीतक सतही मानसिकता उसे अपूर्ण रूप से समझती और स्वीकार करती है । हो सकता है कि एक दिन वह समझ ले, स्वयं अपने अंदर ज्यादा गहराई में जाये और साधन, गुप्त ऊर्जा, और चित्-शक्ति की अभिप्रेत क्रिया को खोज ले जिसके भीतर, जिसे हम प्रकृति कहते हैं उसकी वास्तविकता छिपी है ।

 

     ये सब ऐसे निष्कर्ष हैं जिनतक हम प्रकृति की प्रगति के बाहरी व्यापारों, भौतिक जन्म और शरीर में चेतना के और उसकी सत्ता के बाहरी सतह के विकास के अवलोकन द्वारा भी पहुंच सकते हैं । लेकिन दूसरा अदृश्य तत्त्व भी है, पुनर्जन्म होता है, विकसनशील अस्तित्व की एक श्रेणी से दूसरी श्रेणीतक चढ़ाई द्वारा अंतरात्मा की प्रगति और स्वयं श्रेणियों में शारीरिक और मानसिक यंत्र-विन्यास के उच्च से उच्चतर प्ररूपों में आरोहण द्वारा प्रगति । इस प्रगति में चैत्य सत्ता अभीतक अवगुंठित रहती है; मनुष्य में भी, जो सचेतन मानसिक सत्ता है, वह अपने यंत्रों, मन, प्राण और शरीर द्वारा अवगुंठित रहती है । वह पूरी तरह अभिव्यक्त होने में अक्षम रहती है, सामने आने से रोकी जाती है जहां वह अपनी प्रकृति के स्वामी के रूप में खड़ी हों सकती है; अपने यंत्रों के अमुक निर्धारण के आगे झुकने के लिये बाधित होती है, प्रकृति द्वारा पुरुष पर आधिपत्य को मानने के लिये बाधित होती

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है । परंतु मनुष्य में व्यक्तित्व का चैत्य भाग निम्नतर सृष्टि की अपेक्षा बहुत अधिक तेजी के साथ विकसित होने योग्य होता है और एक समय आ सकता है कि आंतरात्मिक सत्ता उस बिंदु के नजदीक पहुंच जाये जहां वह पर्दे के पीछे से निकलकर खुले में आ जाये और प्रकृति में उसके यंत्र-विन्यास की स्वामी बन जाये । लेकिन इसका अर्थ होगा कि गुप्त अंतर्वासी पुरुष, अंतस्थ प्रेरक आत्मा, अंतस्थ ईश्वर का आविर्भाव होने को है और इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता कि जब उसका आविर्भाव हो तो उसकी मांग एक अधिक दिव्य, अधिक आध्यात्म जीवन के लिये होगी, जैसी कि वह स्वयं मन में तब होती है जब वह आंतरिक चैत्य प्रभाव तले आता है । पार्थिव जीवन की प्रकृति में, जहां मन अज्ञान का यंत्र है, यह केवल चेतना के परिवर्तन द्वारा, अज्ञान के आधार की जगह ज्ञान के आधार की ओर, मानसिक से अतिमानसिक चेतना की ओर, प्रकृति के अतिमानसिक यंत्र-विन्यास की ओर संक्रमण से ही हो सकता है ।

 

     इस युक्ति में कोई निर्णायक बल नहीं है कि चूंकि यह अज्ञान का जगत् है इसलिये इस प्रकार का रूपांतर परे के स्वर्ग में ही हो सकता है या बिलकुल नहीं हो सकता और चैत्य सत्ता की मांग अपने-आपमें अज्ञानमय है और उसका स्थान अंतरात्मा के निरपेक्ष में मिल जाने को लेना चाहिये । यह निष्कर्ष तभी पूरी तरह से प्रामाणिक हो सकता था यदि अज्ञान ही जगत् की अभिव्यक्ति का संपूर्ण अर्थ, उपादान और बल होता या स्वयं जगत्-प्रकृति में ऐसा कोई तत्त्व न होता जिसके द्वारा उस अज्ञानमय मानसिकता का अतिक्रमण हो पाता जो अभीतक हमारी सत्ता की वर्तमान स्थिति को भाराक्रांत किये हुए है । लेकिन अज्ञान तो इस जगत्-प्रकृति का एक अंश मात्र है, वह उसका सब कुछ नहीं है,द्या शक्ति या स्रष्टा नहीं है । अपने उच्चतर उत्स में वह अपने-आपको सीमित करनेवाला ज्ञान है और अपने निचले मूल में भी, उसका शुद्ध जड़ निश्चेतना में से आविर्भाव, वह एक दबाई हुई चेतना है जो फिर से अपने-आपको पाने के लिये, उस ज्ञान को सत्ता के आधार के रूप में अभिव्यक्त करने के लिये उद्यम कर रही है जो इसका सच्चा धर्म है । स्वयं वैश्व मन में हमारी मानसिकता से ऊंचे क्षेत्र हैं जो वैश्व सत्य-ज्ञान के यंत्र हैं और निश्चय ही मानसिक सत्ता इनमें अवश्य उठ सकती है क्योंकि अब भी वह इनमें अति साधारण अवस्थाओं में उठती है या अभीतक उन्हें जानें या उनपर अधिकार किये बिना, उनसे अंतर्भास, आध्यात्मिक प्रेरणाएं, प्रबोध या आध्यात्मिक क्षमता की बाढ़ पाती रहती है । ये सब क्षेत्र अपने से परे के बारे में सचेतन हैं और उनमें से जो उच्चतम है वह अतिमानस की ओर प्रत्यक्ष रूप से खुला है उस सत्य-चेतना से अभिज्ञ है जो उसका अतिक्रमण करती है । और फिर स्वयं विकसनशील सत्ता में चेतना की वे महत्तर शक्तियां उपस्थित रहती हैं जो मानसिक सत्य को समर्थन देती, उनपर परदा डालनेवाली क्रिया के नीचे अवस्थित रहती हैं । यह अतिमानस

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और वे सत्य-शक्तियां प्रकृति को अपनी प्रच्छन्न उपस्थिति द्वारा समर्थन. देती हैं । यहांतक कि मन का सत्य, उनका परिणाम, एक घटी हुई क्रिया, आंशिक आकारों में चित्रण है । अत: यह केवल स्वाभाविक ही नहीं है बल्कि अनिवार्य मालूम होता है कि सत्ता की ये उच्चतर शक्तियां यहां, मन में अभिव्यक्त हैं जैसे स्वयं मन प्राण और जड़ में अभिव्यक्त हुआ था ।

 

     आध्यात्मिकता की ओर मनुष्य की प्रेरणा उसके अंदर स्थित आत्मा के आविर्भाव के लिये आंतरिक संचालन है, सत्ता की चित्-शक्ति का अपनी अभिव्यक्ति के अगले चरण की ओर आग्रह है । यह सच है कि बहुत बड़े भाग में आध्यात्मिक प्रेरणा पारलौकिक रही है या मानसिक व्यष्टि के आध्यात्मिक नकार और आत्म-विलोपन की ओर ही रही है लेकिन यह उसकी प्रवृत्ति का केवल एक पहलू है जिसके बने रहने और मजबूत होने का कारण है मूलभूत निश्चेतना के राज्य में से बाहर निकलने, शरीर की बाधा को जीतकर अंधकारमय प्राण को हटाकर, अज्ञानमय मानसिकता से पिण्ड छुड़ाने की आवश्यकता, इन सभी विघ्नों को अस्वीकार करके आध्यात्मिक सत्ता, आध्यात्मिक पद को सबसे पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण मानकर उसे पाने की आवश्यकता । आध्यात्मिक-प्रेरणा का दूसरा, क्रियाशील पहलू भी अनुपस्थित नहीं रहा है -प्रकृति पर आध्यात्मिक प्रभुता पाने और उसके परिवर्तन की अभीप्सा, सत्ता की आध्यात्मिक पूर्णता की, मन, हृदय और शरीरतक के दिव्य बनने की अभीप्सा । ऐसी सिद्धि जो वैयक्तिक रूपांतर के भी आगे जाती है, एक नयी धरती, एक नया स्वर्ग, एक दिव्य नगरी, पृथ्वी पर दिव्य अवतरण, सिद्ध पुरुषों का शासन, ईश्वर का राज्य - और यह राज्य हमारे अंतर में ही नहीं, बाहर भी, सामूहिक मानव जीवन में भी -इन सबके हमनें भूतकाल में सपने देखे हैं, हमारे आंतरिक पुरुष ने इन्हें चैत्य पूर्व-दर्शन के रूप में देखा था । इस अभीप्सा ने कई रूप चाहे जितने अस्पष्ट लिये हों फिर भी पार्थिव प्रकृति में उभरने के लिये भीतर स्थित गुह्य आध्यात्मिक पुरुष की प्रेरणा का संकेत उनमें सुस्पष्ट रहता है ।

 

     अगर जड़- भौतिक में हमारे जन्म का गुप्त सत्य पृथ्वी पर आध्यात्मिक उन्मीलन है, अगर यह मूलत: चेतना का विकास है जो प्रकृति में चरितार्थ हो रहा है तो मनुष्य जैसा कि वह है, उस विकास का उच्चतम पद नहीं हो सकता । वह आत्मा का अत्यधिक अपूर्ण प्रकटन है । मन अपने-आपमें अत्यधिक सीमित रूप और यंत्र-विन्यास है । मन चेतना का केवल एक मध्यवर्ती तत्त्व है, मानसिक सत्ता एक संक्रमणकालीन सत्ता हो सकती है । तो अगर मनुष्य अपनी मानसिकता का अतिक्रमण करने में असमर्थ है तो मनुष्य का अतिक्रमण करना चाहिये और अतिमानस और अतिमानव को अभिव्यक्त होना और सृष्टि का नेतृत्व हाथ में लेना चाहिये । लेकिन अगर मन, जो उसका अतिक्रमण करता है उसकी ओर खुलने में

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समर्थ है तो इसका कोई कारण नहीं कि स्वयं मनुष्य अतिमानस और अतिमानसतातक क्यों न पहुंचे या कम-से-कम अपने मन, प्राण और शरीर का योगदान प्रकृति में अभिव्यक्त होते आध्यात्म पुरुष के महत्तर पद के विकास में क्यों न दे ।

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