Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २३
मनुष्य में दोहरी आत्मा
अड़्ष्ठमात्र: पुरुषोऽन्तरात्मा ।।
पुरुष यानी आन्तरिक आत्मा आकार में मनुष्य के अंगूठे से बड़ा नहीं
कठोपनिषद् ४.१२
श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.१७
य इमं मध्वर्द वेद आत्मानं जीवमन्तिकात् ।
ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते ।।
जो इस आत्मा को जानता है जो जीवन के मधु का खानेवाला है
और जो कुछ है और होगा उसका स्वामी है उसमें कोई जुगुप्सा नहीं
रहती ।
कठोपनिषद् ४.५
तत्र को मोह क शोक एकत्वमनुपश्यत: ।।
जो हर जगह एकत्व को देखता है उसे शोक कहा से होगा, मोह
कहां से होगा ?
ईशोपनिषद् ७
आनन्द ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन ।।
जिसने शाश्वत को, ब्रह्म को, आनन्द को पा लिया है उसे कहीं से
भय नहीं रहता ।
तैत्तिरीय उपनिषद् २.९
हम देख आये हैं कि प्राण के प्रथम चरण की विशेषता है मूक अचेतन प्रेरणा या प्रवृत्ति, भौतिक या परमाणविक जीवन में अंतर्लीन इच्छा की एक शक्ति जो न तो स्वतंत्र है न स्वयं अपनी या अपने कार्यों की या उनके परिणामों की मालिक है बल्कि पूरी तरह वैश्व शक्ति के अधिकार में है, जिसमें वह व्यक्तित्व के अंधेरे, अरूपायित बीज के रूप में ऊपर उठता है । दूसरे चरण का मूल है कामना जो अधिकार करने के लिये तो उत्सुक होती है पर अपनी क्षमता में सीमित होती है, तीसरे की कली है प्रेम जो अधिकार करना भी चाहता है और अधिकार में होना भी, जो लेना भी चाहता है और अपने-आपको देना भी । चौथा सुन्दर फूल उसकी पूर्णता का चिह्न है । हमने इसके बारे में जो धारणा बनायी है उसके अनुसार यह आद्य इच्छा का शुद्ध, संपूर्ण आविर्भाव, मध्यवर्ती कामना की आलोकित परिपूर्ति,
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जीवात्माओं की दिव्य एकता जो अतिमानसिक जीवन का आधार है उसमें अधिकृत होने की स्थिति के एक बन जाने के कारण प्रेम के सचेतन आदान-प्रदान की उच्च और गभीर तृप्ति है । अगर हम सावधानी के साथ इन पदों की छान-बीन करें तो हम देखेंगे कि ये चीजों के वैयक्तिक और वैश्व आनंद के लिये पुरुष की, अन्तरात्मा की एषणा के रूप और पड़ाव हैं । प्राण का आरोहण स्वभावत: चीजों में उपस्थित दिव्य आनन्द का आरोहण है जो जड़तत्त्व में अपनी मूक गर्भावस्था में से दिशा-विपर्ययों और विरोधों के बीच में से होता हुआ आत्मा में अपनी ज्योतिर्मयी परम गति को पाता है ।
जगत् जो कुछ है उससे भिन्न नहीं हो सकता क्योंकि जगत् सच्चिदानन्द और सच्चिदानन्द की चेतना की प्रकृति का एक छद्मवेशी रूप है अतः वह चीज जिसमें उसकी शक्ति को हमेशा अपने-आपको खोजना और पाना चाहिये, वह है दिव्य आनन्द, सर्वव्यापक आत्मानन्द । चूंकि जीवन भगवान् की चित्-शक्ति की ऊर्जा है इसलिये उसकी सभी गतिविधियों का रहस्य होना चाहिये प्रच्छन्न आनन्द जो सभी चीजों में अंतर्निहित है, जो एक ही साथ उसकी सभी गतिविधियों का कारण, हेतु और विषय है । और अगर अहंकारमय विभाजन के कारण वह आनन्द न मिले या उसे पर्दे के पीछे छिपा लिया जाये, स्वयं उसका विपरीत तत्त्व उसका प्रतिनिधित्व करे जैसे सत्ता मृत्यु के अवगुंठन में होती है, चेतना निश्चेतना का रूप धारण कर लेती है और शक्ति अपने-आपको असमर्थता के वेश में चिढ़ाती है, तो जो जीता है उसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता । न ही वह गति से विश्राम ले सकता है और न गति को सम्पन्न कर सकता है सिवाय इसके कि वह इस वैश्व आनन्द को अपनी पकड़ में ले ले जो एक ही साथ, स्वयं अपनी तथा मौलिक सत्ता का गुप्त पूर्ण आनन्द है, वह सबको घेरे हुए, अनुप्राणित करनेवाले, सबको सहारा देनेवाले परात्पर, अन्तर्यामी सच्चिदानन्द का आनन्द है । अतः आनन्द को पाना ही आधारभूत आवेग और जीवन का अभिप्राय है; उसे खोजना, अधिकार में करना और परिपूर्ण करना ही उसका पूरा-पूरा उद्देश्य है ।
लेकिन हमारे अन्दर यह आनन्द का तत्त्व है कहां ? जैसे चित्-शक्ति का तत्त्व अपनी वैश्व भूमिका के लिये प्राण को अभिव्यक्त करता एवं उपयोग में लाता और अतिमानस तत्त्व मन को अभिव्यक्त करता एवं व्यवहार में लाता है उसी तरह यह आनन्द हमारी सत्ता की किस भूमिका में से होकर वैश्व क्रिया में अपने-आपको अभिव्यक्त करता और परिपूर्ण करता है ? हमने विश्व के रचयिता दिव्य पुरुष के एक चतुर्विध तत्त्व को श्रेणीबद्ध किया है -सत्, चित्-शक्ति, आनन्द और अतिमानस । हमने देखा है कि अतिमानस भौतिक विश्व में सर्वव्यापक परंतु पर्दे के पीछे है । वह वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे रहता और वहां अपने-आपको गुह्य रूप से प्रकट करता है लेकिन अपना कार्य-संपादन करने के लिये अपनी गौण
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भूमिका मन का ही उपयोग करता हैं । दिव्य चित्-शक्ति भौतिक विश्व में सर्वव्यापक है लेकिन है पर्दे के पीछे । वह वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे गुप्त रूप से काम करती और अपने-आपको विशिष्ट रूप से अपने गौण तत्त्व, प्राण के द्वारा प्रकट करती है और यद्यपि हमने अभी तक जड़तत्त्व की अलग से परीक्षा नहीं की है फिर भी हम देख सकते हैं कि दिव्य सर्व सत्ता भी भौतिक विश्व में सर्व-व्यापक है लेकिन है पर्दे के पीछे, वस्तुओं के वास्तविक दृश्य के पीछे छिपी हुई और आरंभ में अपने-आपको गौण भूमिका 'भौतिक द्रव्य' द्वारा अभिव्यक्त करती है । ठीक उसी भांति दिव्य आनंद का तत्त्व भी विश्व में सर्वव्यापक होगा, निश्चय ही वह पर्दे के पीछे होगा और चीजों के वास्तविक दृश्य के पीछे अपने-आप पर अधिकार किये होगा किंतु फिर भी हमारे अंदर अपने ही किसी ऐसे गौणतत्त्व के द्वारा अभिव्यक्त होगा जिसमें वह छिपा हुआ है और जिसके द्वारा उसे पाना होगा और विश्व के कार्य में सिद्ध करना होगा ।
वह तत्त्व हमारे अंदर कोई ऐसी चीज है जिसे हम कभी-कभी विशेष अर्थ में अंतरात्मा यानी चैत्य तत्त्व कहते हैं जो प्राण या मन नहीं है और शरीर तो बिलकुल ही नहीं । वह इन सबके सार को उनके विशेष आत्मानंद की ओर, ज्योति की ओर, प्रेम, हर्ष और सौंदर्य की ओर और सत्ता की एक परिमार्जित शुद्धता की ओर खोलने और प्रस्फुटित करने के लिये अपने अंदर धारण किये रहता है । फिर भी, वस्तुत: हमारे अन्दर दोहरी अंतरात्मा या चैत्य पुरुष है, उसी तरह जैसे हमारे अंदर अन्य प्रत्येक वैश्व तत्त्व भी दोहरा होता है । क्योंकि हमारे अंदर दो मन होते हैं, एक तो अभिव्यक्त विकसनशील अहंकार का सतही मन, भौतिक तत्त्व में से बाहर निकलते हुए हमारी अपनी बनायी हुई सतही मानसिकता और दूसरा एक अन्तस्तलीय मन जो हमारे वास्तविक मानसिक जीवन से और उसकी कठोर सीमाओं से अवरुद्ध नहीं होता । यह वृहत् शक्तिशाली और प्रकाशमान चीज है, वह, हम मानसिक व्यक्तित्व के जिस बाहरी रूप को अपना रूप समझने की भूल करते हैं, उसके पीछे रहनेवाला सच्चा मनोमय पुरुष है । इसी तरह हमारे दो प्राण हैं एक बाहरी जो भौतिक शरीर में अन्तर्लीन है, अपने भूतपूर्व विकास के द्वारा भौतिक के साथ बंधा है, जो जीता है, पैदा हुआ था और मर जायेगा, दूसरा है प्राण की अन्तस्तलीय शक्ति जो हमारे भौतिक जन्म-मरण की तंग सीमाओं में बंधी नहीं है बल्कि वह जीने के जिस रूप को हम अज्ञानवश सच्चा जीवन मानते हैं उसके पीछे रहनेवाला सच्चा प्राण-पुरुष है । हमारी भौतिक सत्ता के बारे में भी यही दोहरापन है क्योंकि हमारे शरीर के पीछे एक सूक्ष्मतर भौतिक अस्तित्व है जो केवल हमारे भौतिक ही नहीं बल्कि प्राणमय और मनोमय कोषों को भी उपादान द्रव्य प्रदान करता है, अतः यहीं हमारा यथार्थ उपादान द्रव्य है, वही इस भौतिक रूप को सहारा देता है जिसे हम भूल से अपनी आत्मा का संपूर्ण शरीर मान बैठते हैं ।
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इसी तरह हमारे अंदर दोहरी चैत्य सत्ता है । एक तो सतही कामना-पुरुष जो हमारी प्राणिक लालसाओं, हमारे भावावेगों, रसवृत्ति में और बल, ज्ञान तथा सुख के लिये मन में जो चाह है उसमें क्रिया करता है और एक अन्तस्तलीय चैत्य सत्ता है, प्रकाश, प्रेम और हर्ष की शुद्ध शक्ति है जो सत्ता का परिमार्जित सारतत्त्व है, यह चैत्य अस्तित्व के बाहरी रूप के पीछे रहनेवाला हमारा सच्चा पुरुष है लेकिन साधारणत: उस बाहरी रूप को ही सच्चे पुरुष के नाम से सम्मानित किया जाता है । इस ज्यादा विशाल और ज्यादा शुद्ध चैत्य सत्ता का कोई प्रतिबिंब जब सतह पर आ जाता है तभी हम किसी मनुष्य के बोर में कहते हैं कि उसमें आत्मा है और जब यह प्रतिबिंब बाहरी चैत्य जीवन में अनुपस्थित रहता है तो हम कहते हैं कि उसमें आत्मा नहीं है ।
हमारी सत्ता के बाहरी रूप हमारे छोटे-से अहंकारमय जीवन के रूप हैं जब कि अन्तस्तलीय हमारे अधिक बड़े और सच्चे व्यक्तित्व के रूपायन हैं । अत: यही हमारी सत्ता का वह गुप्त भाग है जिसमें हमारा व्यक्तित्व हमारे वैश्व भाव के नजदीक रहता है, उसका स्पर्श करता, उसके साथ हमेशा संबंध रखता और आदान-प्रदान करता रहता है । अन्तस्तलीय मन हमारे अंदर वैश्व मन के वैश्व ज्ञान की ओर खुला रहता है, हमारे अंदर अन्तस्तलीय प्राण वैश्व प्राण की वैश्व शक्ति की ओर और अन्तस्तलीय भौतिक वैश्व भौतिक पदार्थ के वैश्व शक्ति-रूपायन की ओर खुला रहता है । जो मोटी दीवारें इन चीजों से हमारे सतही मन, प्राण और शरीर को अलग करती हैं और प्रकृति जिन्हें इतनी मुश्किल से भेदती है -और वह भी इतने अधूरे रूप से इतने कौशल के साथ, फिर भी भद्दे भौतिक उपायों से करती है -ये दीवारें वहां अन्तस्तलीय सत्ता में एक ही साथ विभाजन और संचारण की सूक्ष्म साधन हैं । इसी भांति हमारे अंदर अन्तस्तलीय अन्तरात्मा वैश्व आनन्द की ओर खुली रहती है जिसे वैश्व अंतरात्मा अपने अस्तित्व और उन बहुत सारी अंतरात्माओं के अस्तित्व में, जो उसका प्रतिरूप है, पाती हैं और मन, प्राण और जड़ की जिन क्रियाओं के द्वारा प्रकृति उनके खेल और विकास का साधन हो जाती है, उन क्रियाओं में पाती है लेकिन बाहरी सतह की अंतरात्मा इस वैश्व आनन्द की ओर से बड़ी मोटी अहंकारमय दीवारों से बंद रहती है । निःसंदेह इन दीवारों में प्रवेश पाने के द्वार हैं लेकिन उनमें से होकर प्रवेश करने में दिव्य वैश्व आनन्द के स्पर्श क्षीण और विकृत हो जाते हैं या उन्हें स्वयं अपने विरोधी तत्त्वों के मुखौटे पहनकर आना पड़ता है ।
मतलब यह निकला कि इस सतही या कामना पुरुष में कोई आंतरात्मिक जीवन नहीं है बल्कि एक चैत्य विकृति है और चीजों के स्पर्श को गलत रूप में ग्रहण किया जाता है । जगत् का रोग यह है कि व्यक्ति अपनी सच्ची अंतरात्मा को नहीं पा सकता और इस रोग का मूल कारण यह है कि व्यक्ति जिस जगत् में रहता है
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उस जगत् की यथार्थ अंतरात्मा उसे बाहरी चीजों के आलिंगन में नहीं मिल पाती । वह वहां सत्ता के सार को, शक्ति के सार को, सचेतन सत्ता और आनन्द के सार को पाने का प्रयत्न तो करता है परंतु इनके स्थान पर उसे विरोधी स्पर्शों और संस्कारों की भीड़ मिलती है । अगर उसे वह सार मिल जाये तो वह स्पर्शों और संस्कारों की इस भीड़ में भी उस एकमेव विश्वव्यापी सत्ता, शक्ति, सचेतन जीवन और आनंद को पा लेगा । ऊपर से दीखनेवाली जो विपरीतताएं हैं वे भी इन संपर्कों के द्वारा हमतक पहुंचनेवाले सत्य के एकत्व और सामंजस्य में संगति पा लेंगी । साथ-ही-साथ वह अपनी सच्ची अंतरात्मा और उसके द्वारा अपनी आत्मा को पा लेगा क्योंकि सच्ची अंतरात्मा उसके स्व की प्रतिनिधि है और उसके स्व और जगत् की आत्मा एक है । लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि उसके विचारशील. मन में, भावुक हृदय में, वस्तुओं के स्पर्श को उत्तर देनेवाली इन्द्रियों में अहंकारमय अज्ञान निवास करता है । वह जगत् की वस्तुओं के प्रति अनुक्रिया करने में जगत् का साहस और पूरी हार्दिकता से आलिंगन नहीं करता बल्कि इसके अनुसार कि वह स्पर्श सुखकर है या असुखकर, आराम देता है या भय, संतोषजनक है या असंतोषजनक, वह आगे बढ़ने का, पीछे सिकुड़ने का, सावधानी के साथ नजदीक आने या उत्सुकता के साथ तेजी से आगे बढ़ने का, विषाद या असंतोष या भय या क्रोध से पीछे हटने का बदलता हुआ क्रम चलाता रहता है । यह कामना-पुरुष ही है जो जीवन को गलत रूप से ग्रहण करने के कारण रस की, वस्तुओं में विद्यमान आनन्द की तिहरी विकृति का कारण बन जाता है जिससे वह रस सत्ता के शुद्ध स्वरूपवाले आनन्द को मूर्त रूप देने की जगह असमानता के साथ सुख, कष्ट और उदासीनता की तीन स्थितियों में प्रकट होता है ।
जब हम जगत् के साथ संबंध की दृष्टि से अस्तित्व के आनंद पर विचार कर रहे थे तब हमने देखा था कि हमारे सुख-दुःख और उदासीनता के मानकों में कोई निरपेक्षता या अनिवार्य तर्कसंगति नहीं है । उनका निर्धारण पूरी तरह ग्रहण करनेवाली चेतना की आन्तरिक भावना करती है और यह कि सुख-दुःख दोनों की मात्रा को अधिक-से-अधिक ऊंचाईतक उठाया जा सकता है या कम-से-कम मात्रातक घटाया जा सकता है या उन्हें उनकी प्रत्यक्ष प्रकृति में पूरी तरह मिटाया तक भी जा सकता है । सुख दुःख हो सकता है और दुःख सुख हो सकता है क्योंकि अपनी गुप्त वास्तविकता में वे एक ही चीज हैं जिसे संवेदनों और भावावेगों में अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जाता है । उदासीनता या तो बाहरी तल के कामना-पुरुष का अपने मन, संवेद्न, भावावेग और लालसाओं में वस्तुओं के रस के प्रति उपेक्षा या उसे ग्रहण करने में या उत्तर देने में असमर्थता या कोई भी सतही उत्तर देने से इंकार है या फिर इच्छा-शक्ति द्वारा सुख या दुःख को निकाल भगाना और उन्हें कुचल कर अस्वीकृति की उदासीनता के रंग में रंग देना है । इन सभी
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अवस्थाओं में होता यह है कि या तो किसी ऐसी चीज का, जो अभीतक अन्तस्तलीय रूप में सक्रिय है, सतह पर अनूदित करने या किसी भी भावात्मक रूप में प्रकट करने से एक निश्चयात्मक नकार होता है या नकारात्मक अनिच्छा या असमर्थता होती है ।
जैसे अब हम मनोवैज्ञानिक निरीक्षण और परीक्षण से यह जानते हैं कि अन्तस्तलीय मन वस्तुओं के उन सब स्पर्शों को ग्रहण करता और याद रखता है जिनकी सतही मन अवहेलना करता है, उसी तरह हम देखेंगे कि अन्तस्तलीय अंतरात्मा उन वस्तुओं की अनुभूति के रस को उत्तर देती है जिसे सतही कामना-पुरुष अरुचि और इंकार द्वारा अस्वीकार करता है या जिसकी तटस्थ अस्वीकृति द्वारा अवहेलना करता है । आत्मज्ञान तबतक असंभव है जबतक हम अपने सतही जीवन के पीछे नहीं जाते क्योंकि यह सतही जीवन तो केवल कुछ चुने हुए बाहरी अनुभवों का परिणाम मात्र, एक अपूर्ण ध्वनि-पट्ट या हम जो बहुत कुछ हैं उसमें से कुछ हिस्से का जल्दबाजी में किया गया अयोग्य और खंडित अनुवाद है । तो आत्मज्ञान तबतक असंभव है जबतक हम इसके पीछे न जायें और अवचेतन मन में साहुल को नीचे न उतारें और अपने-आपको अतिचेतन की ओर न खोलें ताकि अपनी बाहरी सतह के जीव के साथ उनके संबंध को जान सकें; क्योंकि हमारा जीवन इन तीन चीजों के बीच घूमता रहता है और उन्हीं में अपनी समग्रता पाता है । हमारे अंदर का अतिचेतन जगत् की आत्मा और अंतरात्मा के साथ एक होता है और वह किसी प्रतीयमान विविधता से शासित नहीं होता । अतः वह चीजों के सत्य और चीजों के आनंद को उनकी परिपूर्णता में अपने अधिकार में रखता है । जिसे अवचेतन१ कहा जाता है और जिसके प्रकाशमान मस्तक को हम अन्तस्तलीय चेतना कहते हैं वह, इसके विपरीत, अनुभव का एक उपकरण है, सच्चा स्वामी नहीं । वह व्यावहारिक रूप से जगत् की आत्मा और अंतरात्मा के साथ एक नहीं होता बल्कि अपने वैश्व अनुभव के द्वारा उसकी ओर खुला रहता है । अन्तस्तलीय अंतरात्मा भीतर से वस्तुओं के रस से अवगत होती है और सब प्रकार के संपर्कों में समान रूप से आनंद लेती है । साथ ही वह सतही कामना-पुरुष के मूल्यों और मानकों के बारे में भी सचेतन होती है और स्वयं अपनी सतह पर सुख-दुःख और उदासीनता के अनुरूप स्पर्शों को ग्रहण करती है किंतु सबमें समान आनंद लेती है । दूसरे शब्दों में हमारे भीतर की वास्तविक अंतरात्मा सभी अनुभूतियों में आनंद लेती है, उनसे बल, सुख और ज्ञान जुटाती है और उनके द्वारा अपने भंडार और
१वास्तविक अवचेतन एक नीचे की घटी हुई चेतना है जो निश्चेतना के नजदीक है । अन्तस्तलीय हमारे सतही जीवन से अधिक बड़ी चेतना है । लेकिन दोनों ही हमारी सत्ता के भीतरी प्रदेश की चीजें हैं । हमारे बाहरी तल को उनकी अभिज्ञता नहीं रहती अतः हमारी सामान्य धारणा और बातचीत, दोनों में बड़बड़ हो जाती है ।
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अपनी प्रचुरता को बढ़ाती है । हमारे अंदर की यही वास्तविक अंतरात्मा जुगुप्साशील कामना-मन को बाधित करती है कि वह, उसे जो कुछ दुःखदायक लगता है उसे भी सहे बल्कि उसमें सुख पाये और जो सुखद लगता है उसे त्याग दे, अपने मूल्यों में हेर-फेर करे या उन्हें उलट दे, चीजों मे समता का बोध प्राप्त करे-चाहे वह उदासीनता में हो या आनंद में, सत्ता के वैविध्य के आनंद में । और वह यह इसलिये करती है क्योंकि वैश्व पुरुष उसे इस बात के लिये बाधित करता है कि वह सब तरह के अनुभव से अपना विकास करे ताकि वह प्रकृति में बढ़ सके । अन्यथा, अगर हम केवल सतही कामना-पुरुष में रहते तो वनस्पति या पत्थर से अधिक प्रगति या परिवर्तन न कर पाते जिनमें कि प्राण अपने बाहरी तल में सचेतन नहीं होता अत: जिनकी अचलता या अस्तित्व के बंधे क्रम में चीजों की गुप्त अंतरात्मा को ऐसा कोई साधन नहीं मिलता जिसके द्वारा वह प्राण का, उसकी जन्म से चली आ रही, स्थिर, निश्चित और संकुचित सीमा से उद्धार कर सके । कामना-पुरुष को अपने आप पर छोड़ दिया जाये तो वह हमेशा उन्हीं खांचों पर चक्कर लगाता रहेगा ।
पुराने दर्शन-शास्त्रों की दृष्टि से दुःख और सुख, बौद्धिक सत्य और मिथ्या, बल और असमर्थता जन्म और मरण की तरह ऐसे जुड़े हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । अतः उनसे बचने का एकमात्र संभव उपाय हैं संपूर्ण उदासीनता । विश्व- सत्ता की उत्तेजनाओं के प्रति भावशून्य प्रतिक्रिया । लेकिन एक सूक्ष्मतर मनोवैज्ञानिक ज्ञान हमें बतलाता है कि यह दृष्टि जो केवल जीवन के सतही तथ्यों पर आधारित है, वह समस्या की सभी संभावनाओं को समाप्त नहीं कर देती । यह संभव है कि हम सच्ची अंतरात्मा को सतह पर लाकर सुख-दुःख के अहंकारात्मक मानकों के स्थान पर एक सम, सर्वालिंगनकारी, वैयक्तिक-निर्वैयक्तिक आनंद को स्थापित कर दें । प्रकृतिप्रेमी यही करता है जब वह प्रकृति की सभी चीजों में सब जगह आनंद लेता है, अपने अंदर विकर्षण और भय या केवल पसंद-नापसंद को घुसने नहीं देता । वह उसमें भी सुंदरता को देखता है जो औरों को तुच्छ, महत्त्वहीन, नग्न और जंगली, भयंकर और वीभत्स लगता है । जिस तरह साधारण मानव विश्व-लीला के रस को पाने की कोशिश किसी चीज से मुंह मोड़कर और किसी सुखदायक अनुभूति की ओर आकर्षित होकर करता है उसी तरह कलाकार और कवि भी सौंदर्यग्राही भाव या भौतिक रेखा या सौंदर्य के मानसिक रूप से या आंतरिक अर्थ और शक्ति से वैश्व लीला के रस को पाने की कोशिश करते हैं । ज्ञान का जिज्ञासु भगवान् का प्रेमी, जो अपने प्रेम पात्र को हर जगह पाता है, आध्यात्मिक पुरुष, बौद्धिक, इन्द्रियों में आसक्त, सौंदर्य रसिक -ये सब अपने-अपने तरीके से यहीं करते हैं । और अगर उन्हें उस ज्ञान, सौंदर्य, आनंद या दिव्यत्व को व्यापक रूप से पाना है तो उन्हें यही करना होगा । केवल उन भागों में जहां छोटा-
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सा अहंकार हमारे लिये बहुत प्रबल होता है, केवल हमारे भावात्मक या भौतिक हर्ष और शोक, हमारे जीवन के सुख-दुःख ही ऐसे हैं जिनके आगे हमारा कामना-पुरुष बहुत अधिक दुर्बल और भीरु होता है, वहां दिव्य सिद्धांत को लगाना अत्यधिक कठिन हो जाता है और कइयों को असंभव बल्कि वीभत्स और घिनौना प्रतीत होता है । यहां अहंकार का अज्ञान निर्वैयक्तिकता के सिद्धांत को लगाने से हिचकिचाता है जब कि वह उसे भौतिक विज्ञान, कला और एक तरह के अपूर्ण आध्यात्मिक जीवन में भी बहुत अधिक कठिनाई के बिना प्रयोग में लाता है क्योंकि वहां निर्वैयक्तिकता का नियम न तो उन कामनाओं पर आक्रमण करता है जिन्हें सतही पुरुष संजोये रखता है, न कामना के उन मूल्यों पर जिन्हें सतही मन निर्धारित करता है, जिनमें हमारा बाहरी जीवन अत्यधिक सक्रिय रूप से रुचि रखता है । अधिक स्वतंत्र और ऊंची गतिविधियों में चेतना और क्रिया के क्षेत्र-विशेष के अनुरूप हमसे केवल सीमित और विशिष्ट समता की और निवैंयक्तिकता की मांग की जाती है जब कि हमारे व्यावहारिक जीवन का अहंकारमय आधार हमारे लिये बचा रहता है । निचली गतियों में हमारे जीवन की सारी नींव को ही बदलना पड़ता है ताकि निर्वैयक्तिकता के लिये जगह बनायी जा सके, और यह कामना-पुरुष को असंभव लगता है ।
हमारे अंदर सच्ची अंतरात्मा छिपी हुई है, इसे हमने अंतस्तलीय कहा है, यह शब्द भ्रामक है क्योंकि यह सक्रिय मन की देहली के नीचे नहीं है बल्कि यह अज्ञानी मन, प्राण, शरीर के मोटे पर्दे के पीछे अंतरतम हृदय के मंदिर में प्रज्ज्वलित रहती है । वह अन्तस्तलीय नहीं बल्कि पर्दे के पीछे है । यह पर्दे के पीछे रहनेवाली चैत्य सत्ता हमारे अंदर ईश्वर की सदा जलती रहनेवाली लौ है । हमारे अंदर के किसी भी आध्यात्मिक पुरुष के प्रति रहनेवाली वह घनी अचेतना भी, जो हमारी बाहरी प्रकृति को अंधेरा बना देती है, इस लौ को नहीं बुझा सकती । यह भगवान् से उत्पन्न लौ है और अज्ञान के अन्दर निवास करनेवाली ज्योतिर्मय वस्तु है जो उसमें तबतक बढ़ती रहती है जबतक वह उसे ज्ञान की ओर न मोड़ दे, वह छिपी हुई साक्षी और नियंता है, छिपी पथप्रदर्शिका है, सुकरात की डीमन१; रहस्यवादी की आंतरिक ज्योति या आंतरिक ध्वनि है; यह वह है जो हमारे अंदर जन्म-जन्मांतर में बनी रहती और अविनश्वर हैं । मृत्यु, क्षय या विकार उसे छू नहीं सकते । यह भगवान् का ऐसा स्फुलिंग है जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता । यह अजन्मी आत्मा नहीं है क्योंकि आत्मा व्यक्ति के जीवन की अध्यक्षता करते हुए भी सदा अपने वैश्व भाव और परात्परता से अभिज्ञ रहती है, फिर भी वह प्रकृति के रूपों में उसकी प्रतिनिधि है, वह व्यष्टिगत चैत्य पुरुष या अंतरात्मा है जो मन, प्राण और शरीर को
१सुकरात के अनुसार एक संरक्षक देवदूत जो देवता और मनुष्य के बचि बिचौले का काम करता है । -अनु
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धारण किये रहती है और हमारी मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म शारीरिक सत्ता के पीछे खड़ी रहती है और उनके विकास तथा अनुभव पर नजर रखती और उनसे लाभ उठाती है । मनुष्य में ये जो अन्य पुरुष-शक्तियां हैं, उसकी सत्ता की सत्ताएं हैं, उनका सच्चा स्वरूप भी पर्दे के पीछे रहता है लेकिन वे उन अस्थायी व्यक्तित्वों को प्रक्षिप्त करती हैं जिनसे हमारा बाहरी व्यक्तित्व बनता है और जिनकी मिली-जुली बाहरी क्रिया को और जिनकी स्थिति के रूप के आभास को हम अपना स्वरूप कहते हैं । यह अंतरतम सत्ता भी हमारे अंदर चैत्य पुरुष का रूप लेती हुई एक चैत्य व्यक्तित्व को सामने लाती है जो एक के बाद एक जीवन में बदलता, बढ़ता, विकसित होता है क्योंकि यही जन्म और मरण और मरण तथा जन्म के बीच का यात्री है, हमारी प्रकृति के अंग उसके बहुविध और बदलते हुए वस्त्र हैं । पहले-पहले चैत्य पुरुष मन, प्राण और शरीर के द्वारा, छिपी हुई, आंशिक और परोक्ष क्रिया ही कर सकता है क्योंकि उसकी आत्म-अभिव्यक्ति के साधन के रूप में प्रकृति के इन अंगों को विकसित करना होता है और वह उनका विकास होने तक लम्बे समय के लिये रुकने को विवश होता है । अज्ञान में पड़े मनुष्य को दिव्य चेतना के प्रकाश की ओर ले जाना उसका लक्ष्य है, वह अज्ञान में होनेवाले सभी अनुभवों का सारतत्त्व प्रकृति में जीव की वृद्धि का केन्द्र बनाने के लिये ले लेता है और बाकी को वह उपकरणों की भावी वृद्धि की सामग्री के रूप में लेता है जिनका उपयोग उसे तबतक करना होता है जबतक वे भगवान् के प्रकाशमय उपकरण बनने के लिये तैयार न हो जायें । यह गुप्त चैत्य सत्ता ही है जो हमारे अंदर सच्चा और मूल अंतःकरण है और यह नैतिकतावादी के निर्मित और रूढ़िगत अंतःकरण से ज्यादा गहरा है क्योंकि यहीं हमेशा सत्य, ऋत और सौंदर्य की ओर, प्रेम और सामंजस्य और हमारे अंदर जो भी दिव्य संभावना है उसकी ओर संकेत करता है और तबतक डटा रहता है जबतक ये चीजें हमारी प्रकृति की प्रधान आवश्यकताएं न बन जायें । हमारे अंदर यह चैत्य व्यक्तित्व ही है जो संत, मनीषी और द्रष्टा के रूप में खिलता है और जब वह अपनी पूरी सामर्थ्य पा लेता है तो सत्ता को आत्मा और भगवान् के ज्ञान की ओर, परम सत्य और परम शुभ की ओर, परम सौंदर्य, प्रेम और आनंद की ओर, दिव्य शिखरों और विस्तार की ओर मोड़ता है और हमें आध्यात्मिक सहानुभूति, सार्वभौमिकता और एकत्व के स्पर्शों की ओर खोलता है । इसके विपरीत जहां चैत्य व्यक्तित्व कमजोर हो, असंस्कृत या बुरी तरह से विकसित हो वहां भले मन प्रबल और तेजस्वी हो, प्राणिक भावोंवाला हृदय दृढ़, सबल और प्रभुतापूर्ण हो, प्राण-शक्ति दबंग और सफल हो, शारीरिक सत्ता समृद्ध, भाग्यवान् और देखने में स्वामी और विजयी हो फिर भी श्रेष्ठतर अंगों और वृत्तियों का अभाव रहता है या उनमें चरित्र और शक्ति की दरिद्रता रहती है । उस समय बाहरी कामना-पुरुष, नकली चैत्य सत्ता राज करती है और हम उसके
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चैत्य संकेतों और अभीप्सा के मिथ्या अर्थ को, उसके भावों और आदर्शों को, उसकी कामनाओं और लालसाओं को सच्चे आध्यात्मिक तत्त्व और आध्यात्मिक अनुभूति की संपदा मान लेने की भूल कर बैठते है१ । अगर गुप्त चैत्य पुरुष सामने आ सके और कामना-पुरुष का स्थान ले सके और आंशिक रूप में और परदे के पीछे से नहीं बल्कि पूरी तरह खुल कर मन, प्राण और शरीर की बाहरी प्रकृति पर शासन करने लगे तभी इन्हें जो सत्य, ऋत और सुंदर है उसकी आंतरात्मिक प्रतिमाओं के रूप में ढाला जा सकता है और अंत में सारी प्रकृति को जीवन के सच्चे लक्ष्य की ओर, परम विजय की ओर, आध्यात्मिक जीवन में आरोहण की ओर मोड़ा जा सकता है ।
लेकिन ऐसा लग सकता है कि इस चैत्य सत्ता को, अपने अंदर की इस सच्ची अंतरात्मा को सामने लाकर और वहां से उसे नेतृत्व और शासन सौंपने से हम अपनी स्वाभाविक सत्ता की उस सारी परिपूर्ति को पा लेंगे जिसकी हमें खोज है और साथ ही आत्मा के राज्य के द्वार भी खोल सकेंगे । और यह तर्क भी भली-भांति दिया जा सकता है कि भागवत स्थिति या भागवत पूर्णता पाने में सहायता के लिये किसी श्रेष्ठतर सत्य चेतना या अतिमानसिक तत्त्व के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है । यद्यपि चैत्य रूपांतर हमारी सत्ता के पूर्ण रूपांतर की एक आवश्यक शर्त है फिर भी विशालतम आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये जो कुछ जरूरी है, चैत्य रूपांतर ही वह सब कुछ नहीं है । प्रथमत:, चूंकि यह प्रकृति में व्यष्टिगत अंतरात्मा है अतः वह हमारी सत्ता के छिपे हुए अधिक दिव्य क्षेत्रों की ओर खुल सकता है और वहां के प्रकाश, शक्ति और अनुभव को पा सकता और प्रतिबिंबित कर सकता है । लेकिन इसके अतिरिक्त एक दूसरा, ऊपर से आनेवाला आध्यात्मिक रूपांतर भी हमारे लिये जरूरी है ताकि हम अपनी आत्मा के वैश्व और परात्पर भाव को भी अपने अधिकार में कर सकें । अपने-आपमें चैत्य पुरुष किसी विशेष स्थिति में पहुंचकर सत्य, शुभ और सुंदर के रूपायन की सृष्टि से संतुष्ट हो सकता है और उसे अपना पड़ाव बना सकता है । इससे आगे की किसी और स्थिति में हो सकता है कि वह निष्क्रिय रूप से वैश्वात्मा के आधीन हो जाये, वैश्व सत्ता, चेतना, शक्ति,
१ साधारणत: (अंग्रेजी में) बोल-चाल में साइकिक (चैत्य) शब्द का प्रयोग सच्चे चैत्य की जगह इसी के लिये अधिक होता है । इसका व्यवहार असामान्य या अतिसामान्य चरित्र के अंतःकरणिक और अन्य व्यापारों के लिये और भी अधिक शिथिलता के साथ होता है । यथार्थ में उनका संबंध आंतरिक मन, आंतरिक प्राण और सूक्ष्म भौतिक शरीर से होता है जो हमारे अंदर अन्तस्तलीय हैं, ये चैत्य की सीधी क्रियाएं हर्गिज नहीं हैं, भौतिकीकरण और अभौतिकीकरण जैसे व्यापारों को भी इसमें गिन लिया जाता है, यद्यपि यदि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध हो भी जाये तो भी वे स्पष्टत: अंतरात्मा की क्रियाएं नहीं हैं और चैत्य पुरुष के स्वभाव या सत्ता पर कोई प्रकाश नहीं डाल पायेंगे । वे शायद एक गुह्य, सूक्ष्म भौतिक ऊर्जा की असामान्य क्रियाएं हों जो वस्तुओं के स्थूल शरीरवाली सामान्य स्थिति में हस्तक्षेप करती होंगी, उसे क्षीण करके अपनी सूक्ष्म अवस्था में ले जाती होंगी और स्थूल जड़ के रूपों में पुनर्निर्मित कर देती होंगी ।
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आनंद का दर्पण बन जाये परंतु उनका पूरा साझीदार या स्वामी नहीं । हो सकता है कि वह वैश्व चेतना के साथ ज्ञान, भाव, यहांतक कि इन्द्रियों द्वारा अनुभव में भी अधिक घनिष्ठता और पुलक के साथ एक हो जाये फिर भी संभवत: वह जगत् में क्रिया और प्रभुत्व से दूर रहे और शुद्ध रूप से ग्रहणकर्ता और निष्क्रिय ही बना रहे, या विश्व से पीछे निश्चल सत् के साथ एक हो जाये और भीतर से जगत्-गति से अलग ही रहे, अपने व्यक्तित्व को अपने उद्गम में खो दे । हो सकता है कि वह उस उद्गम की ओर लौट पड़े और उसमें उस चीज के लिये न तो और अधिक इच्छा रहे और न सामर्थ्य ही जो कि उसका यहां पर चरम लक्ष्य था यानी प्रकृति को दिव्य उपलब्धि की ओर ले जाना । क्योंकि चैत्य पुरुष प्रकृति में आत्मा से, भगवान् से आया है और वह प्रकृति से मुंह मोड़कर आत्मा की नीरवता और चरम आध्यात्मिक निश्चलता के द्वारा नीरव भगवान् की ओर जा सकता है । इसके अतिरिक्त, भगवान् का एक शाश्वत अंश१ होने के नाते यह अंश अनंत के विधान के अनुसार भागवत पूर्ण सत्ता से अलग नहीं हों सकता । वस्तुत: यह अंश अपने-आपमें वह पूर्ण या समग्र है, अपवाद है बस सामने दीखनेवाला रूप, उसका सामने दीखनेवाला, पृथक्कारी आत्मानुभव । वह उस सद्वस्तु के प्रति जाग कर उसमें इस तरह डूब सकता है कि वैयक्तिक अस्तित्व उसमें लुप्त प्रतीत हो या कम-से-कम उसमें लीन हो जाये । वह हमारी अज्ञानभरी प्रकृति की राशि में इतना छोटा-सा केन्द्र है कि उपनिषद् ने उसे 'अंगुष्ठ मात्र' कहा है फिर भी आध्यात्मिक प्रवाह द्वारा वह अपने-आपको बड़ा बना कर और घनिष्ठ सायुज्य या एकत्व में हृदय और मन द्वारा सारे संसार को आलिंगन में भर सकता है । या फिर वह अपने चिर साथी के प्रति सचेतन हो सकता है और उन्हींके सान्निध्य में शाश्वत प्रेमी की भांति शाश्वत प्रियतम के साथ अनश्वर मिलन और एकत्व में चिरकालतक बने रहने का चुनाव कर सकता है । यह अनुभव सभी आध्यात्मिक अनुभवों की अपेक्षा अधिक तीव्र रूप से सुंदर और आनंदमय होता है । ये सब हमारी आध्यात्मिक आत्म-प्राप्ति की महान् और वैभवशाली उपलब्धियां हैं परंतु यह जरूरी नहीं है कि वे अंतिम सीमा और संपूर्ण उत्कर्ष हों, इनसे अधिक भी संभव है ।
क्योंकि ये मनुष्य में आध्यात्मिक मन की उपलब्धियां हैं, ये उस मन की गतियां हैं जो अपने से परे, फिर भी अपने ही स्तर पर आत्मा के वैभवों में प्रवेश करता है । हमारी वर्तमान मानसिकता के बहुत परे अपनी ऊंचे-से-ऊंची स्थिति में भी मन अपने स्वभाव के अनुसार विभाजन द्वारा काम करता है । वह शाश्वत के अलग-अलग पहलुओं को लेता है और हर पहलू से इस तरह व्यवहार करता है मानों वही शाश्वत सत्ता का संपूर्ण सत्य हो और हर एक के अंदर अपनी निजी पूर्ण पूर्ति पा सकता हो । यहांतक कि वह उन्हें विरोधियों के रूप में खड़ा कर देता है और
१ गीता १५.७
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इन विरोधियों की एक पूरी शृंखला बना लेता है जैसे भगवान् की निश्चल नीरवता और भगवान् की क्रियाशीलता, विश्व-सत्ता से दूर निश्चल, निर्गुण ब्रह्म और विश्व सत्ता का स्वामी सगुण, सक्रिय ब्रह्म; सत्ता और संभूति, दिव्य पुरुष और निर्वैयक्तिक विशुद्ध सत्ता । तब वह किसी एक पहलू से अपने-आपको अलग कर सकता है और दूसरे को सत्ता का एकमात्र स्थायी सत्य मानकर उसमें निमग्न हो सकता है । वह व्यक्तिरूप को ही एकमात्र सद्वस्तु मान सकता है, या निर्वैयक्तिक को ही एकमात्र सत्य मान सकता है, वह प्रेमी को शाशत प्रेम की अभिव्यक्ति के साधन-रूप या प्रेम को प्रेमी की आत्माभिव्यक्ति के रूप में देख सकता है । वह सभी सत्ताओं को एक निर्वैयक्तिक सत्ता की व्यक्तिगत शक्तियों के रूप में या निर्वैयक्तिक सत्ता को एकमेव सत्ता की शाश्वत व्यक्ति की एक स्थिति के रूप में देख सकता है । उसकी आध्यात्मिक उपलब्धि, चरम लक्ष्य की ओर उसका यात्रा-पथ इन विभाजनकारी रेखाओं का अनुसरण करेगा, लेकिन आध्यात्मिक मन की इस क्रिया के परे अतिमानसिक ऋत-चित् की उच्चतर अनुभूति है जहां ये विरोधी गायब हो जाते हैं और ये आंशिकताएं सनातन पुरुष की चरम तथा सर्वांगीण उपलब्धि की समृद्ध पूर्णता में समा जाती हैं । यही वह लक्ष्य है जिसकी हमने कल्पना की है : अतिमानसिक ऋत-चित् की ओर हमारे आरोहण और हमारी प्रकृति में उसके अवतरण द्वारा यहां हमारे जीवन की निष्पत्ति । चैत्य रूपांतर का आध्यात्मिक परिवर्तन में उत्थान हो जाने के बाद उसे एक अतिमानसिक रूपांतर द्वारा सिद्ध और सर्वांगीण करना होगा, उसका अतिक्रमण करना और उसे ऊपर उठाना होगा । यह अतिमानसिक रूपांतर ही उसे आरोहण करनेवाले प्रयास के शिखरतक ले जायेगा ।
जैसे अभिव्यक्त सत्ता की अन्य विभक्त और विरोधी अवस्थाओं में होता है उसी तरह हमारी सशरीर सत्ता की इन दो स्थितियों, आत्मिक स्थिति और जागतिक क्रियाशीलता के बीच, जिनमें केवल अज्ञान के कारण ही परस्पर विरोध प्रतीत होता है, अतिमानसिक चेतना-शक्ति ही पूर्ण सामंजस्य स्थापित कर सकती है । अज्ञान में प्रकृति अपनी मनोवैज्ञानिक गतिविधियों की शृंखला को गुप्त अध्यात्म सत्ता के चारों ओर नहीं बल्कि उसके स्थानापन्न अहं-तत्त्व के चारों ओर केन्द्रित करती है । एक विशेष अहं-केन्द्रितता वह आधार है जिससे हम जगत् के, जिसमें हम निवास करते हैं, जटिल संपर्को विरोधों, द्वित्तों, असंगतियों को गूंथते हैं । यह अहं-केन्द्रितता ही वैश्व और अनंत के आगे हमारी निरापदता की शिला, हमारी सुरक्षा है । लेकिन अपने आध्यात्मिक परिवर्तन के लिये हमें इस सुरक्षा को छोड़ना पड़ता है, अहंकार को गायब हो जाना पड़ता है, व्यक्तित्व अपने-आपको एक बृहत् निर्वैयक्तिकता में लीन होते हुए पाता है और पहले-पहल इस निर्वैयक्तिकता में कर्म की सुव्यवस्थित क्रियाशीलता की कोई चाबी नहीं मिलती । एक बहुत सामान्य परिणाम यह होता है
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कि आदमी अपने अंदर दो भागों मे बंट जाता है, भीतर आध्यात्मिक और बाहर प्राकृतिक । एक में दिव्य सिद्धि पूर्ण आन्तरिक स्वाधीनता में प्रतिष्ठित है किंतु प्राकृतिक अंग प्रकृति की पुरानी क्रिया चलाता रहता है, जिस आवेग को प्रकृति पहले संचारित कर चुकी है, उसे भूतकाल की ऊर्जाओं की यंत्रवत् क्रियाओं द्वारा जारी रखता है । अगर सीमित व्यक्ति और पुरानी अहं-केन्द्रित व्यवस्था का पूर्ण विलयन भी हो जाये तो हो सकता है कि बाहरी प्रकृति बाहर से दीखनेवाली असंगति का क्षेत्र बन जाये, चाहे भीतर सब कुछ आत्मा से प्रदीप्त हो । इस भांति हम बाहर से जड़ और निष्क्रिय, परिस्थितियों या शक्तियों के चलाये चलते हैं परंतु स्वयंचालित नहीं यानी जड़वत हो जाते हैं यद्यपि अंदर की चेतना प्रकाशित रहती है, या फिर हम बालवत् हो जाते हैं यद्यपि अंतर में पूर्ण आत्मज्ञान बना रहता है या हम उन्मत्तवत् हो जाते हैं, विचार और आवेगों में कोई संगति नहीं रह जाती यद्यपि अंतर में पूरी स्थिरता और प्रशांति रहती है, या हम पिशाचवत् हो जाते हैं, निरंकुश और उपद्रवी प्राणी बन जाते हैं, फिर भी अंतर में आत्मा की पवित्रता और संतुलन बने रहते हैं । या अगर बाहरी प्रकृति में व्यवस्थित क्रियात्मकता बनी रहती है तो हो सकता है वह ऊपरी अहं-क्रिया का ही सतत प्रवाह हो जिसे आंतरिक पुरुष साक्षी भाव से देखता है किंतु स्वीकार नहीं करता या वह मन की क्रियात्मकता हो जो भीतरी आध्यात्मिक सिद्धि की पूर्ण अभिव्यंजना नहीं हो सकती क्योंकि मन की क्रिया और आत्मा की स्थिति के बीच बल की कोई समानता नहीं है । अच्छी-से-अच्छी अवस्था में भी जब भीतर से 'प्रकाश' का अंतर्भासात्मक पथ-प्रदर्शन मिलता है, कर्म की धारा में उस प्रकाश की अभिव्यक्ति का स्वरूप मन, प्राण और शरीर की अपूर्णताओ के चिह्न अवश्य लिये रहता है । वह मानों ऐसा राजा है जिसके मंत्री अयोग्य हों, ऐसा ज्ञान है जिसे अज्ञान के मूल्यों में व्यक्त किया गया हो । जिस अतिमानस में सत्य-ज्ञान और सत्यात्मिका इच्छा पूरी तरह एक है उसका अवतरण ही बाह्य जीवन में भी आत्मा का सामंजस्य उसी तरह स्थापित कर सकता है जैसा आंतरिक जीवन में, क्योंकि केवल वही अज्ञान के मूल्यों को पूरी तरह ज्ञान के मूल्यों में बदल सकता है ।
हमारे मानसिक और प्राणिक अंगों की तरह हमारे चैत्य पुरुष की परिपूर्ति में भी उसे उसके दिव्य उत्स के साथ परम सद्वस्तु में उसके सदृश सत्य के साथ नाता जोड़ना अनिवार्य होता है । यहां भी जैसे कि वहां, यह काम केवल अतिमानस की शक्ति द्वारा ही समग्र पूर्णता के साथ, उस घनिष्ठता के साथ जो प्रामाणिक एकात्मता बन जाती है, संपादित किया जा सकता है क्योंकि अतिमानस ही एकमेव सत्ता के उच्चतर और निम्नतर गोलार्द्धों को जोड़ता है । अतिमानस में ही समन्वय करनेवाला प्रकाश, पूर्णतातक पहुचानेवाली शक्ति, परम आनंदतक पहुंचानेवाला खुला द्वार है । उस ज्योति और शक्ति से ऊपर उठकर चैत्य पुरुष सत्ता के मूल
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दिव्यानंद के साथ एक हो सकता है जिसमें से वह आया था । तब वह सुख और दुःख के द्वंद्वों को हटाकर मन, प्राण और शरीर को समस्त भय और जुगुप्सा से मुक्त करके संसार के जीवन के संपर्कों को दिव्य आनंद के तत्त्वों में फिर से ढाल सकता है ।
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