दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २०

 

मृत्यु कामना और अक्षमता

 

           ... अग्र आसीन्मृत्युनैवेदमावृतमासीत् ।

           अशनायया अशनाया हि मृत्यु:;

           तन्मोनोऽकुरुत आत्मन्यी स्यामिति ।।

 

शुरू में सब कुछ क्षुधा से, जो कि मृत्यु है, ढका हुआ था । उसने अपने लिये मन बनाया ताकि वह आत्मवान् बन सके ।

                                                बृहदारण्यकोपनिषद् १.२.१

 

            यं मर्त्यः पुरुस्पृहं विदद्विश्वस्थ धायसे ।

            प्रस्वादनं पितूनामस्तताति चिदायवे ।

 

यह वह शक्ति है जिसे मर्त्य ने खोजा, उसमें अपनी अनेक कामनाएं हैं ताकि वह सभी चीजों को धारण कर सके । वह सभी भोजनों का स्वाद लेता और सत्ता के लिये एक भवन बनाता है ।

                                             ऋग्वेद ५.७.६

 

पिछले अध्याय में हमने भौतिक अस्तित्व और जड़तत्त्व के प्राणिक तत्त्व के प्रकट होने और उसकी क्रिया की दृष्टि से प्राण के बारे में विचार किया है और इस विकसनशील पार्थिव जीवन की दी हुई सामग्री के आधार पर विचार किया है । लेकिन यह स्पष्ट है कि वह जहां कहीं प्रकट हों, चाहे जिस तरीके से, चाहे जैसी परिस्थितियों में कार्य करे, सामान्य सिद्धांत सब जगह एक ही रहेगा । प्राण वैश्व शक्ति है जो द्रव्यगत रूपों का सृजन करने, उनमें ऊर्जा भरने, उनका संरक्षण करने और उन्हें बदलने, यहांतक कि उनका विलयन और पुनर्निर्माण करने में भी सक्रिय रहती है । गुप्त या प्रकट रूप से सचेतन ऊर्जा की पारस्परिक क्रीड़ा और आदान-प्रदान इसका मूलभूत स्वभाव है । हम जिस भौतिक जगत् में निवास करते हैं, उसमें मन प्राण के अंदर अंतर्लीन और अवचेतन है, उसी तरह जैसे अतिमानस मन के अंदर अंतर्लीन और अवचेतन है और यह प्राण अंतर्लीन अवचेतन मन को लिये हुए फिर स्वयं जड़तत्त्व में निवर्तित रहता है । अतः यहां जड़ तत्त्व ही आधार और प्रकट रूप में आरंभ है, उपनिषद् की भाषा में 'पृथिवी पाजस्यम्' पृथ्वी ही हमारा आधार है । भौतिक विश्व का आरंभ होता है आकारित परमाणु से जो ऊर्जा से सिंचित और अवचेतन, कामना, इच्छा और बुद्धि के अरूपायित उपादान से अनुप्राणित होता है । इस जड़ द्रव्य में से प्रकट होता है दृश्य प्राण और वह अपने अंदर से सजीव शरीर के माध्यम द्वारा मन को, जिसे वह अपने अंदर कैद किये

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होता है, प्रकट करता है । मन को भी अभी अपने भीतर से अतिमानस को मुक्त करना है जो उसकी क्रियाओं में छिपा है । लेकिन हम एक ऐसे और तरह से बने जगत् की कल्पना कर सकते हैं जिसमें मन शुरू से ही छिपा नहीं रहता बल्कि जड़ द्रव्य के प्रारंभिक रूपों का सृजन करने के लिये अपनी सहजात ऊर्जा का सचेतन रूप में व्यवहार करता है और यहां की तरह शुरू में केवल अवचेतन नहीं रहता । हालांकि ऐसे जगत् की क्रिया-पद्धति हमारे जगत् से एकदम अलग होगी फिर भी उस ऊर्जा की क्रिया का मध्यवर्ती वाहन हमेशा प्राण ही होगा । चीज अपने-आपमें वह की वही रहेगी, भले सारी प्रक्रिया पूरी तरह से उलट क्यों न जाये ।

 

    तब तो तत्काल यह मालूम होता है कि जैसे मन अतिमानस की एक अंतिम क्रिया मात्र है उसी तरह प्राण भी चित्-शक्ति की एक अंतिम क्रिया मात्र है । सत्य संकल्प ही इस प्राण का निर्धारणकारी रूप और इसकी सर्जनशक्ति है । चेतना, जो कि शक्ति है, वह सत् पुरुष की प्रकृति है और यह चेतनायुक्त सत्-पुरुष जब सर्जक ज्ञान-इच्छा के रूप में अभिव्यक्त होता है तो वही सत्य संकल्प या अतिमानस होता है, अतिमानसिक ज्ञान-इच्छा वह चित्-शक्ति है जो संयुक्त सत्ता के रूपों के व्यवस्थित सामंजस्य में सृजन के लिये, जिसे हम जगत् या विश्व कहते हैं, क्रियाशील बनायी गयी है । इसी भांति मन और प्राण भी वही चित्-शक्ति हैं, वही ज्ञान-इच्छा हैं किंतु उनकी क्रिया स्पष्ट रूप से वैयक्तिक रूपों को एक तरह की सीमा में बांधने, विरोध और आदान-प्रदान बनाये रखने के लिये होती है ताकि सत्ता के हर रूप में रहनेवाली अंतरात्मा अपने मन और प्राण को इस तरह क्रिया में लगा सके मानों वे औरों से अलग हैं यद्यपि वास्तव में वे कभी अलग नहीं होते बल्कि एक ही आत्मा, मन, प्राण की क्रीड़ा होते हैं जो उसकी एक ही वास्तविकता के अलग-अलग रूपों में होती है । दूसरे शब्दों में, जैसे मन समस्त अंतर्द्रष्ट्री और बहिर्द्रष्ट्री अतिमानस के व्यक्तिगत रूप लेने की अंतिम क्रिया है, वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा उसकी चेतना हर रूप में व्यक्तिगत रूप लेकर उसके उपयुक्त दृष्टिकोण से और उस दृष्टिकोण से आगे बढ़नेवाले वैश्व संबंधों को स्थापित करती हुई क्रिया करती है, उसी तरह प्राण भी वह अंतिम क्रिया है जिसके द्वारा चित्पुरुष की शक्ति वैश्व अतिमानस की सर्वधृत और सबका सृजन करनेवाली इच्छा द्वारा व्यक्तिगत रूपों का संरक्षण करती, उनमें ऊर्जा भरती, उन्हें संघटित और पुनः संघटित करती है और इस प्रकार शरीरधारी आत्मा के सभी क्रिया-कलाप के आधार के रूप में उनमें काम करती है । प्राण भगवान् की ऊर्जा है जो डाइनेमो की तरह अपने-आपको हमेशा रूपों के अंदर लगातार पैदा करती रहती है और वह न केवल परिपार्श्व में स्थित वस्तुओं के रूपों पर आघातोरूपी बहिर्गामी बैट्री के साथ क्रीड़ा करती है बल्कि परिपार्श्व के सारे जीवन से आनेवाले आघातों को, जैसे ही वे बाहर से, पास-पड़ोस के विश्व से रूप पर आकर पड़ते हैं और उसमें प्रवेश करते हैं, ग्रहण भी करती है ।

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    इस दृष्टि से प्राण चेतना की ऊर्जा का एक ऐसा रूप मालूम होता है जो जड़तत्त्व पर मन की क्रिया के लिये मध्यवर्ती और उपयुक्त है । एक अर्थ में कहा जा सकता है कि मन जब सृजन करता और भावों के साथ संबंध छोड़कर शक्ति की गतियों और जड़पदार्थ के रूपों से नाता जोड़ता है तब यह मन का ऊर्जा-रूप होता है । लेकिन साथ ही यह कहना भी जरूरी है कि जैसे मन कोई पृथक् सत्ता नहीं है बल्कि सारा अतिमानस उसके पीछे है और यह अतिमानस है जो सृजन करता है और मन उसकी वैयक्तिक रूप देनेवाली अंतिम क्रिया मात्र है उसी तरह प्राण भी कोई अलग सत्ता या क्रिया नहीं है बल्कि, उसके हर कार्य के पीछे सारी चित्-शक्ति रहती है और एकमात्र वह चित्-शक्ति ही है जिसका अस्तित्व है और वही सृष्ट वस्तुओं में क्रिया करती है । प्राण उसकी अंतिम क्रिया भर है जो मन और शरीर के बीच मध्यस्थता का काम करती है । अतः हम प्राण के बारे में जो कुछ कहें उस सबको इस निर्भरता से पैदा होनेवाले प्रतिबंधों के अधीन रहना होगा । हम प्राण को उसके स्वभाव या उसकी प्रक्रिया में वास्तविक रूप से तबतक नहीं जान पाते जबतक कि हम उसमें क्रिया करनेवाली उस चित्-शक्ति से अभिज्ञ और सचेतन न हो जायें जिसका बाहरी रूप और उपकरण है प्राण । इसके बाद ही हम भगवान् के विशिष्ट आत्मा-रूप और मानसिक तथा शारीरिक यंत्र के रूप में यह बोध पा सकते हैं कि प्राण में भगवान् की क्या इच्छा है और तभी हम उसे सज्ञान भाव से क्रियान्वित कर सकते हैं । केवल तभी प्राण और मन अज्ञान की टेढ़ी-मेढ़ी विकृतियों को निरंतर कम करते हुए अपने और वस्तुओं के अंदर सत्य की निरंतर बढ़ती हुई ऋजुता के पथों और गतियों में आगे बढ़ सकते हैं । जैसे मन को उस अतिमानस के साथ सचेतन रूप से एक होना है जिससे वह अविद्या की क्रिया के कारण अलग हो गया है उसी तरह प्राण को भी चित्-शक्ति के बारे में अभिज्ञ होना है, जो उसमें ऐसे उद्देश्यों के लिये और ऐसे अर्थ को लेकर क्रिया करती है जिनके बारे में हमारे अंदर का प्राण अपनी अंधकारमय क्रियाओं में असचेतन है क्योंकि वह केवल जीने की प्रक्रिया में लीन रहता है, जैसे कि हमारा मन प्राण और भौतिक द्रव्य को मानसिक बनाने में लीन रहता है । परिणामस्वरूप वह (प्राण) अंधता और अज्ञानता के साथ उन उद्देश्य और अर्थ की सेवा करता है, ज्योतिर्मय, आत्म-परिपूर्तिकारी ज्ञान, बल और आनंद के साथ नहीं जैसा कि उसे अपनी मुक्ति और परिपूर्णता पा लेने के बाद करना चाहिये और वह करेगा ।

 

    वस्तुत: हमारा प्राण, मन की अंधकारमय और विभाजनकारी क्रियाओं के आधीन होने के कारण अपने-आप अंधकारमय और विभक्त है और उसे मृत्य सीमितता, दुर्बलता, कष्ट, अज्ञानमय क्रिया-कलाप की उस सारी अधीनता में से गुजरना होता है जिसका जनक और कारण है बद्ध और सीमित देहस्थ मन । हम देख आये हैं कि विकृति का मूल स्रोत था आत्म-अज्ञान से बंधे व्यष्टि जीव का

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अपने-आपको सीमित कर लेना क्योंकि वह अपने-आपको ऐकांतिक एकाग्रता के कारण ऐसे देखता है जैसे वह एक पृथक्, अपने-आपमें अस्तित्व रखनेवाला व्यक्ति हो और संपूर्ण वैश्व क्रिया को उस रूप में देखता है जिस रूप में वह उसकी अपनी व्यक्तिगत चेतना, ज्ञान, इच्छा, शक्ति, भोग और सीमित सत्ता के सामने आती है बजाय इसके कि वह अपने-आपको इस रूप में देखे कि वह एकमेव का एक सचेतन रूप है और सर्व चेतना, सर्व ज्ञान, सर्व शक्ति, सर्व भोग और सर्व सत्ता का इस रूप में आलिंगन करे मानों वे उसकी अपनी चेतना, ज्ञान, शक्ति, भोग और सत्ता के साथ एक हैं । हमारे अंदर वैश्व प्राण मन के अंदर बंदी बने हुए जीव के आदेश का पालन करता हुआ अपने-आप वैयक्तिक क्रिया में बंदी बन जाता है । वह सीमित और अपर्याप्त सामर्थ्यवाले एक अलग प्राण के रूप में अस्तित्व रखता और क्रिया करता है और अपने चारों ओर के वैश्व जीवन के आघात और दबाव का मुक्त रूप से आलिंगन करने की जगह उसे बाधित होकर सहता है । विश्व में शक्ति का जो सतत वैश्व आदान-प्रदान चल रहा है उसमें फेंकी गयी एक दीन, सीमित वैयक्तिक सत्ता की तरह प्राण शुरू में उस दानवी पारस्परिक क्रीड़ा को असहाय होकर सहता और उसका आदेश मानता है । जो कुछ उसपर आक्रमण करता, उसे निगलता, उसका भोग करता, उसका उपयोग करता और उसे चलाता है, उन सबपर वह बस एक यंत्रवत् प्रतिक्रिया करता है । लेकिन जैसे-जैसे चेतना का विकास होता है, जैसे-जैसे उसकी अपनी सत्ता का प्रकाश अंतर्लीनता की निद्रा के जड़ अंधकार में से बाहर निकलता है, वैसे-वैसे वह वैयक्तिक सत्ता धुंधले रूप में अपने अंदर की शक्ति के बारे में अभिज्ञ होती जाती है और पहले स्नायविक रूप से और फिर मानसिक रूप से क्रीड़ा पर अधिकार पाने, उसका उपयोग और भोग करने का प्रयास करती है । उसके अंदर शक्ति के प्रति यह जागरण आत्मा के प्रति क्रमिक जागरण है । क्योंकि 'प्राण' 'शक्ति' है और 'शक्ति' 'बल' है और 'बल' 'इच्छा' है और 'इच्छा' 'ईश्वर-चेतना' की क्रिया है । व्यक्ति के अंदर का प्राण अपनी गहराइयों में इस बारे में अधिकाधिक अभिज्ञ होता जाता है कि वह भी उन सच्चिदानंद की इच्छा-शक्ति है जो विश्व के स्वामी हैं और वह स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से अपने जगत् का स्वामी बनने की अभीप्सा करता है । अतः समस्त व्यक्तिगत जीवन का बढ़ता हुआ आवेग है स्वयं अपनी शक्ति को पाना, अपने जगत् का ज्ञाता और स्वामी बनना । यह आवेग वैश्व जीवन में भगवान् की बढ़ती हुई आत्माभिव्यक्ति का एक सारभूत तत्त्व है ।

 

    परंतु यद्यपि प्राण शक्ति है और वैयक्तिक प्राण के विकास का अर्थ होता है वैयक्तिक शक्ति का विकास फिर भी उसके विभक्त वैयक्तिक प्राण और शक्ति होने का तथ्य ही उसे अपने जगत् का वास्तव में स्वामी होने से रोकता है । क्योंकि उसका अर्थ होगा 'सर्वशक्ति' का स्वामी होना; एक विभक्त और व्यष्टि-रूप चेतना

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के लिये, जो विभक्त और व्यष्टिभावापन्न और इस कारण सीमित शक्ति और सीमित इच्छावाली होती है, सर्व-शक्ति का स्वामी होना असंभव बात है । केवल सर्व-इच्छा ही ऐसी हो सकती है और यदि व्यक्ति को ऐसा होना ही हो तो वह सर्व-इच्छा के साथ फिर से एक होकर और इस तरह सर्व-शक्ति के साथ एक होकर ही ऐसा कर सकता है नहीं तो वैयक्तिक देह में स्थित वैयक्तिक प्राण को सदा-सर्वदा अनिवार्य रूप से अपनी सीमितता के इन तीन चिह्नों के -मृत्यु कामना और असमर्थता के आधीन रहना होगा ।

 

    वैयक्तिक प्राण पर मृत्यु आरोपित होती है इन दोनों के द्वारा; उसके अपने अस्तित्व की जो अवस्थाएं हैं उनके, और अपने-आपको विश्व में अभिव्यक्त करनेवाली सर्व शक्ति के साथ उसके जो संबंध हैं उनके द्वारा । क्योंकि वैयक्तिक प्राण उस ऊर्जा की एक विशेष क्रीड़ा है जो एक रूप-विशेष का निर्माण और संरक्षण करने, उसे ऊर्जित करने और अंत में उसकी उपयोगिता पूरी हो जाने पर, उसे विलीन करने के लिये विशेष रूप से बनी है । यह रूप-विशेष उन असंख्य रूपों में से एक है जो सभी, उनमें से हर एक, अपने-अपने स्थान, समय और क्षेत्र में समग्र विश्व-लीला में योगदान दे रहा होता है । शरीरस्थ प्राण की ऊर्जा को विश्वस्थ बाहरी ऊर्जाओं के आक्रमणों को सहना पड़ता है, उन्हें अपने भीतर खींचना और उनका भक्षण करना होता है और वे रूयं उसे भी हमेशा निगलती रहती हैं । उपनिषद् के अनुसार समस्त जड़ पदार्थ अन्न है और भौतिक जगत् का यह सूत्र है कि ''खानेवाला खाता हुआ स्वयं खाया जाता है ।'' शरीर में संगठित प्राण सदा इस संभावना की ओर खुला रहता है कि उससे बाहर का प्राण आक्रमण करके उसे छिन्न-भिन्न कर दे या उसकी भक्षण करने की क्षमता के अपर्याप्त होने या उचित रूप में पूरी न होने के कारण, या भक्षण की क्षमता और बाहर के प्राण के लिये भोजन देने की क्षमता या आवश्यकता के बीच ठीक संतुलन न होने के कारण वह अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाये और उसे खा लिया जाये या वह अपने-आपको फिर से नया करने में असमर्थ हो जाये और इसलिये क्षीण हो जाये या टूट-फूट जाये । तब उसे नये निर्माण या फिर से नया बनने के लिये मृत्यु की प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है ।

 

    केवल यही नहीं, बल्कि, अगर फिर से उपनिषद् की भाषा में कहें तो, प्राण-शक्ति शरीर का अन्न है और शरीर प्राण-शक्ति का अन्न । दूसरे शब्दों में, हमारे अंदर की प्राण-शक्ति एक साथ दो काम करती है, वह वह द्रव्य प्रदान करती है जिससे रूप बनता है, सदा संरक्षित रहता और नया-नया होता रहता है, और साथ ही वह जिस द्रव्यमय रूप को इस तरह बनाती और अस्तित्व में बनाये रखती है उसे निरंतर खर्च भी करती रहती है । अगर इन दोनों क्रियाओं के बीच संतुलन अपूर्ण हो या बगड़ जाये या प्राण- शक्ति की विभिन्न लहरों की व्यवस्थित क्रीड़ा

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बिगड़ जाये या अपनी धुरी से हिल जाये तो रोग और क्षय हस्तक्षेप कर विघटन की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं । और सचेतन स्वामित्व के लिये जो संघर्ष है वह अपने-आपमें ही, और यहांतक कि मन की वृद्धि भी प्राण के संरक्षण को अधिक कठिन बना देते हैं । क्योंकि रूप से प्राण-ऊर्जा की मांग बढ़ती जाती है । यह मांग आपूर्ति की मूल व्यवस्था से बहुत अधिक होती है और वह आपूर्ति और मांग के मूल संतुलन को भंग कर देती है; इससे पहले कि एक नया संतुलन स्थापित हो, बहुत-से ऐसे विकारों का प्रथम प्रवेश हो चुका होता है जो सामंजस्य और जीवन की दीर्घ विद्यमानता के प्रतिकूल होते हैं । इसके अतिरिक्त स्वामित्व के लिये किया जानेवाला प्रयास वातावरण में सदा उसीके अनुरूप प्रतिक्रिया पैदा करता है । वातावरण पहले ही से ऐसी शक्तियों से भरा रहता है जो अपनी परिपूर्ति चाहती हैं, अत: ऐसी सत्ता के प्रति असहिष्णु रहती हैं जो उनपर स्वामित्व स्थापित करना चाहे, वे उसके विरुद्ध विद्रोह करती और उसपर आक्रमण करती हैं । उस अवस्था में भी वह संतुलन भंग हो जाता है, एक अधिक तीव्र संघर्ष पैदा हो जाता है । स्वामित्व करनेवाला प्राण चाहे जितना प्रबल हो जबतक वह या तो असीम न हो जाये या अपने वातावरण के साथ एक नया सामंजस्य स्थापित करने में सफल न हो जाये तबतक वह सदा प्रतिरोध करके विजय नहीं पा सकता बल्कि एक दिन अवश्य ही पराजित और विघटित कर दिया जाता है ।

 

    लेकिन इन सब आवश्यकताओं के अतिरिक्त स्वयं शरीरधारी प्राण की प्रकृति और लक्ष्य की एक मूलभूत आवश्यकता है और वह है सांत आधार पर अनंत अनुभूति को खोजने की । और चूंकि रूप यानी आधार अपने गठन के ही कारण अनुभूति की संभावना को सीमित कर देता है अत: ऐसा केवल उसे विघटित कर और नये-नये रूप खोज कर ही किया जा सकता है । क्योंकि अंतरात्मा जब एक बार क्षण और क्षेत्र पर केंद्रित होकर अपने-आपको सीमित कर लेती है तो अपनी अनंतता को फिर से पाने के लिये उसे अनुक्रम के नियम का सहारा लेना पड़ता है । वह क्षण के साथ क्षण को जोड़कर एक कालिक अनुभव का संचय करती है, इसीको वह अपना अतीत कहती है । उस काल में वह उत्तरोत्तर क्षेत्रों में से, उत्तरोत्तर अनुभवों या जीवनों में से, ज्ञान, सामर्थ्य, भोग का उत्तरोत्तर संचय करती हुई आगे बढ़ती है और इन सब चीजों को वह काल के अंदर अपनी पुरानी कमाई के रूप में अवचेतन या अतिचेतन स्मृति में संजोये रहती है । इस प्रक्रिया के लिये रूप का परिवर्तन अनिवार्य है और व्यक्तिगत शरीर में अंतर्लीन अंतरात्मा के लिये रूप के परिवर्तन का अर्थ है शरीर का विघटन । यह विघटन भौतिक विश्व में सर्व-प्राण के विधान और उसकी बाध्यता के आधीन होता है, रूप के लिये द्रव्य-पूर्ति और उस द्रव्य पर की जानेवाली मांग का जो विधान है उसके और एक दूसरे को हड़पनेवाले जगत् में अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये शरीरस्थ प्राण के

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पारस्परिक सतत आघात-प्रतिघात और संघर्ष का जो सिद्धांत है उसक आधीन होता है, और यही मृत्यु का विधान है ।

 

    तो यही मृत्यु की आवश्यकता और उसका औचित्य है, वह प्राण का न-कार नहीं उसकी एक प्रक्रिया है । मृत्यु आवश्यक है क्योंकि रूप का सतत परिवर्तन ही वह एकमात्र शाश्वतता है जिसके लिये सांत जीवित पदार्थ अभीप्सा कर सकता है और अनुभूति का सतत परिवर्तन वह एकमात्र अनंतता है जहांतक सजीव शरीर में अंतर्लीन रहनेवाला ससीम मन पहुंच सकता है । ऐसा नहीं होने दिया जा सकता कि रूप का यह परिवर्तन केवल इतना भर ही रहे कि जन्म और मृत्यु के बीच हमारे शारीरिक जीवन को बनानेवाला जो रूप-प्रकार है वही सतत रूप से नया-नया होता रहे क्योंकि जबतक रूप-प्रकार ही न बदले और अनुभव करनेवाला मन देश, काल और वातावरण की नयी परिस्थितियों में बने नये रूपों में न डाला जाये तबतक अनुभव का वह आवश्यक वैविध्य संपन्न नहीं हो सकता जिसकी मांग देश और काल में रहनेवाले जीवन का स्वभाव करता है । और विघटन से एवं जीवन को जीवन के द्वारा हड़प लिये जाने से होनेवाली मृत्यु की केवल यह प्रक्रिया और यह स्वाधीनता का अभाव, बाध्यता, संघर्ष, पीड़ा तथा अनात्म प्रतीत होनेवाली किसी चीज के प्रति अधीनता, केवल ये चीजें ही हैं जिनके कारण यह आवश्यक और हितकारी परिवर्तन हमारी मर्त्य मानसिकता को भीषण और अवांछनीय प्रतीत होता है । निगल लिये जाने, तोड़ दिये जाने, नष्ट कर दिये जाने या जबर्दस्ती हटा लिये जाने की जो यह भावना है वही मृत्यु का दंश है और इसे यहांतक कि यह विश्वास भी कि मृत्यु के बाद व्यक्ति का जीवन बना रहता है पूरी तरह मिटा नहीं पाता ।

 

    लेकिन यह प्रक्रिया उस पारस्परिक भक्षण के लिये जरूरी है जिसे हम जड़ भौतिक में प्राण के प्रारंभिक विधान के रूप में देखते हैं । उपनिषद् का कहना है कि प्राण क्षुधा है और क्षुधा मृत्यु है और इस सुधा के द्वारा जो कि मृत्यु है 'अशनाया मृत्यु:' भोतिक जगत् की रचना की गयी है । क्योंकि यहां प्राण भौतिक पदार्थ को सांचे के रूप में स्वीकार करता है और भौतिक पदार्थ सत्पुरुष ही है जो अनंत रूप से विभाजित हुआ है और अंनतरूप से अपने-आपको एकत्रित करना चाह रहा है । अनंत रूप से विभाजन और अनंत रूप से एकत्रीकरण के इन दो आवेगों के बीच विश्व का भौतिक अस्तित्व बना है । अपने संरक्षण और अपनी वृद्धि के लिये व्यष्टि का, सजीव परमाणु का जो प्रयत्न है वही कामना का सारा भाव है । अधिकाधिक सर्वालिंगनकारी अनुभूति, एक सर्वाधिक आलिंगनकारी अधिकार, अवशोषण, आत्मसात्करण और उपभोग के द्वारा शारीरिक, प्राणिक, नैतिक और मानसिक वृद्धि ही सत्ता का अनिवार्य, मूलभूत और अमिट आवेग है । यह सत्ता एक बार विभक्त हो जाने और व्यक्तिभाव धारण कर लेने पर भी हमेशा गुप्त रूप से अपनी सर्वालिंगनकारी, सर्वभोक्ता या सर्वाधिपति अनंतता के बारे में

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सचेतन रहती है । उस प्रच्छन्न चेतना को पाने का आवेग वैश्व भगवान् की प्रेरणा है, प्रत्येक व्यक्तिगत प्राणी में रहनेवाली शरीरधारी आत्मा की लालसा है । यह अनिवार्य, संगत और हितकर है कि वह उसे बढ़ती हुई वृद्धि और विस्तार द्वारा पहले प्राण की अवस्थाओं में पाना चाहे । भौतिक जगत् में ऐसा केवल वातावरण को हड़प कर, दूसरों को या दूसरों के अधिकार में जो कुछ हो उसे आत्मसात् कर अपने-आपको वर्धित करने से किया जा सकता है और यह आवश्यकता ही क्षुधा के सभी रूपों को सार्वभौम रूप से उचित ठहराती है । फिर भी जो औरों को हड़पता है वह हड़पा भी जायेगा क्योंकि भौतिक जगत् में आदान-प्रदान का, क्रिया-प्रतिक्रिया का, सीमित सामर्थ्य और इस कारण अंतिम श्रांति और मरण का विधान सारे जीवन को परिचालित करता है ।

 

    सचेतन मन में आकर वह चीज जो अवचेतन जीवन में अभीतक केवल प्राणिक क्षुधामात्र थी, वह अपने-आपको उच्चतर रूपों में बदल लेती है । प्राणिक भागों में जो चीज सुधा थी वही मानसभावापत्र जीवन में कामना की ललक बन जाती है और बुद्धि या चिंतनप्रधान जीवन में इच्छाशक्ति का आयास बन जाती है । कामना की इस गति को तबतक जारी रहना चाहिये और वह जारी रहेगी जबतक व्यक्ति पर्याप्त रूप में इतना विकसित नहीं हो जाता जिसके परिणामस्वरूप वह अब अंत में स्वराट् बन जाये और अनंत के साथ बढ़ते हुए ऐक्य के द्वारा इस विश्व का सम्राट् बन जाये । कामना वह उत्तोलक है जिसके द्वारा दिव्य प्राण तत्त्व जगत् में अपने अस्तित्व को दृढ़तया प्रस्थापित करने के उद्देश्य को पूरा करता है और जड़ता के हित में कामना को नष्ट करने का प्रयास दिव्य प्राण तत्त्व का निषेध है, अस्तित्वेच्छा को नकारना है जो निश्चय ही अज्ञान है क्योंकि वैयक्तिक अस्तित्व का अंत कोई तबतक नहीं कर सकता जबतक कि वह अनंत न बन जाये । कामना का भी ठीक अंत तभी हो सकता है जब वह अनंत की कामना हो जाये और अपने-आपको अनंत में पूर्ण ऐश्वर्यमय आनंद में एक दिव्य परिपूर्ति और एक अनंत संतुष्टि से तप्त कर ले । तबतक कामना को एक-दूसरे को हड़पनेवाली क्षुधा के प्रकार से निकल कर एक-दूसरे को देने के, परस्पर आदान-प्रदान के अधिकाधिक हर्षयुक्त यज्ञ के प्रकार की ओर प्रगति करनी होती है --व्यक्ति अपने-आपको अन्य व्यक्तियों को देता है और बदले में उन्हें पाता है, निम्नतर अपने-आपको उच्चतर को और उच्चतर निम्नतर को देता है ताकि वे दोनों एक-दूसरे में परिपूर्ण हो सकें, मानव अपने-आपको भगवान् को देता है और भगवान् मानव को, व्यक्ति के अंदर जो सर्व है वह अपने-आपको विश्व में स्थित सर्व को देता है और दिव्य प्रतिदान के रूप में अपना उपलब्ध विश्वत्व पाता है । इस भांति क्षुधा के विधान को क्रमश:, अपना स्थान प्रेम के विधान को, विभाजन के विधान को अपना स्थान ऐक्य के विधान को और मृत्यु के विधान को अपना स्थान अमरता के विधान को देना

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चाहिये । विश्व में क्रिया करती हुई कामना की आवश्यकता इसीलिये है । यही है उसकी सार्थकता, यहीं है उसकी चरम अवस्था और आत्म-परिपूर्ति ।

 

    प्राण के द्वारा धारण किया दुआ मृत्यु का यह मुखौटा जैसे अपने अमरत्व की प्रस्थापना करना चाह रहे सांत की चेष्टा का परिणाम है, वैसे ही कामना भी काल में अनुक्रम की और देश में विस्तार की अवस्थाओं में, सांत के सांचे के अंदर अपने अनंत आनंद को, सच्चिदानंद के आनंद को उत्तरोत्तर प्रस्थापित करने के लिये प्राण में व्यष्टिरूप बनी सत्-पुरुष की शक्ति का आवेग है । वह आवेग कामना के जिस मुखौटे को धारण करता है वह सीधे प्राण के तीसरे व्यापार के, उसकी असमर्थता के विधान से आता है । प्राण एक अनंत शक्ति है जो सांत की शर्तों में क्रिया कर रही है । अनिवार्य रूप से सांत के अंदर उसकी स्पष्ट व्यक्तिगत क्रिया में सर्वत्र उसकी सर्वशक्तिमत्ता को अवश्य ही एक सीमित सामर्थ्य और आंशिक अक्षमता के रूप में प्रकट होना और कार्य करना चाहिये यद्यपि व्यष्टि की प्रत्येक क्रिया के पीछे चाहे वह कितनी ही दुर्बल, कितनी ही व्यर्थ, कितनी ही लड़खड़ाती हुई क्यों न हो, अनंत सर्वसक्षम शक्ति की समग्र अतिचेतन और अवचेतन उपस्थिति विद्यमान रहती है, पीछे की उस उपस्थिति के बिना विश्व में कोई छोटी-से-छोटी गति भी नहीं हो सकती । उसकी वैश्व क्रिया की समष्टि में हर क्रिया और गति सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञता के उस आदेश से ही होती है जो चीजों में छिपे अतिमानस के रूप में कार्य करता है । लेकिन व्यष्टिरूप प्राण शक्ति स्वयं अपनी चेतना के लिये सीमित और अक्षमता से भरी होती है क्योंकि उसे न केवल वातावरण बनानेवाली अन्य व्यक्तिभावापन्न प्राण शक्तियों की राशि के विरुद्ध काम करना पड़ता है बल्कि उसीके साथ स्वयं अनंत प्राण के नियंत्रण और निषेध के अधीन भी रहना पड़ता है जिसकी संपूर्ण इच्छा और दिशा के साथ उसकी अपनी इच्छा और दिशा का तुरंत मेल नहीं बैठता । अत: शक्ति का सीमित होना, असामर्थ्य का व्यापार व्यष्टिरूप और विभक्त प्राण के तीन गुणों में से तीसरा है । दूसरी ओर अपने-आपको बढ़ाने और सबपर अधिकार करने का आवेग बना रहता है और अपने-आपको अपनी वर्तमान शक्ति या सामर्थ्य की सीमा से मापना तथा सीमित करना न तो इसमें है और न इसके लिये अभिप्रेत ही है । परिणामत: अधिकार करने के आवेग और अधिकार करने की शक्ति के बीच जो खाई है उसीसे कामना का उदय होता है क्योंकि अगर वहां इस तरह का कोई अंतर न होता, अगर शक्ति हमेशा अपने विषय पर अधिकार पा लेती, हमेशा आसानी से अपना उद्देश्य पूरा कर लेती तो कामना अस्तित्व में ही न आ पाती, वहां होती बस केवल एक ऐसी लालसारहित शांत, आत्मवान् इच्छा जैसी कि भगवान् की इच्छा है ।

 

    अगर व्यक्तिगत शक्ति अज्ञान से मुक्त मन की ऊर्जा होती तो इस प्रकार की सीमितता के, इस तरह की कामना के हस्तक्षेप की कोई जरूरत न होती । क्योंकि

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जो मन अतिमानस से पृथक् नहीं हुआ है, जो दिव्य ज्ञानात्मक मन है उसे प्रत्येक क्रिया के अभिप्राय, क्षेत्र और अनिवार्य परिणाम का ज्ञान रहेगा, उसमें लालसा या संघर्ष न होंगे । वह अपने-आपमें सीमित उतनी ही शक्ति निःसृत करेगा जितनी तात्कालिक उद्देश्य के लिये जरूरी हो । यहांतक कि वर्तमान के परे की चीजों के लिये प्रयास करते हुए भी, ऐसी गतियों का प्रवर्तन करते हुए भी जिनसे तात्कालिक सफलता निश्चित नहीं है वह कामना या सीमितता के परावर्ती न होगा । क्योंकि भगवान् की असफलताएं भी उनकी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता की ही क्रियाएं होती हैं जो कि अपनी वैश्व क्रिया-प्रवृत्तियों में से सभीके आरंभ करने का ठीक समय और परिस्थिति, उनके उतार-चढ़ाव और उनके तात्कालिक एवं अंतिम परिणामों को जानती हैं । ज्ञानात्मक मन दिव्य अतिमानस के साथ एक-स्वर होने के कारण इस ज्ञान और इस सर्वनिर्धारक शक्ति में भाग लेगा । परंतु जैसा कि हम देख आये हैं, व्यष्टिरूप प्राण-शक्ति यहां व्यष्टिरूप एवं अज्ञ मन की ऊर्जा है, उस मन की जो अपने अतिमानस के ज्ञान से च्युत हो गया है । अतः प्राण के अंदर उसके संबंधों के लिये असमर्थता जरूरी है और वस्तुओं का जैसा स्वरूप है उसमें अनिवार्य है । क्योंकि एक अज्ञ शक्ति की व्यवहारगत सर्वशक्तिमत्ता, भले ही वह सीमित क्षेत्र में ही क्यों न हो, अकल्पनीय चीज है, कारण, उस क्षेत्र में ऐसी शक्ति भागवत सर्वज्ञ सर्वशक्तिमत्ता के कार्य-कलाप के विरुद्ध अपने-आपको खड़ा कर देगी और वस्तुओं के नियत प्रयोजन को अस्त-व्यस्त कर देगी --यह एक असंभव वैश्व स्थिति है । अत: प्राण का पहला विधान है सीमित शक्तियों का संघर्ष और उस संघर्ष द्वारा सहज प्रवृत्तिगत या सचेतन कामना के परिचालक वेग के अधीन उनकी सामर्थ्य की वृद्धि । जैसा कि कामना के साथ है, वैसा ही संघर्ष के साथ है : इसे पारस्परिक रूप से सहायक ऐसी बलपरीक्षा में, भ्रातृ-शक्तियों के ऐसे सचेतन मल्लयुद्ध में समुन्नत हो जाना होगा जिसमें जीतनेवाला और हारनेवाला या यूं कहें कि ऊपर से क्रिया द्वारा प्रभाव डालनेवाला और नीचे से प्रतिक्रिया द्वारा प्रभाव डालनेवाला दोनों समान रूप से लाभ उठाते और दोनों संवर्धित होते हैं । और फिर इसे भी अंत में भागवत आदान-प्रदान का सुखद आघात, प्रेम का दृढ़ आलिंगन बन जाना होगा जो कि संघर्ष की विक्षुब्ध पकड़ का स्थान ले ले । अभीतक तो संघर्ष आवश्यक और हितकर आरंभ है । मृत्यु, कामना और संघर्ष विभक्त जीवन की त्रयी हैं, वैश्व आत्म-प्रस्थापन के अपने प्रथम प्रयास में दिव्य प्राण-तत्त्व द्वारा धारण किया गया त्रि-रूप मुखौटा हैं ।

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