Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १५
परम ऋत-चित् (सत्य-चेतना)
सुशुप्तस्थान एकीभूत: प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्...
एष सर्वेश्वर एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनि: सर्वस्य ।।...
अतिचेतन की सुषुप्ति में विराजमान वह 'एक', जो कि घनीभूत-प्रज्ञा है, आनंदमय है और 'आनंद' का भोक्ता है... वही सर्वशक्तिमान् है, वही सर्वज्ञ है, वही अंतर्यामी है, वही सबका उत्स है ।
माण्डूपनिषद् ५. ६
अतः हमें सबको अपने अंदर धारण करनेवाले, सबके मूल, सबकी परिपूर्ति करनेवाले इस अतिमानस को 'दिव्य सत्ता' का स्वभाव मानना चाहिये, निश्चय ही उसके निरपेक्ष स्वयंभू रूप में नहीं बल्कि उसके क्रिया-रूप में, स्वयं अपने जगतों के प्रभु और स्रष्टा के रूप में दिव्य सत्ता का स्वभाव मानना चाहिये । जिसे हम भगवान् कहते हैं उसका सत्य यहीं है । स्पष्ट ही यह वह अत्यधिक व्यक्तिरूप और सीमित देव नहीं है, मनुष्य का ही एक बढ़ा-चढ़ा और अतिशायी रूप नहीं है जैसी कि सामान्य पाश्चात्य अवधारणा है, कारण, वह अवधारणा सृजनात्मक अतिमानस और अहंकार के बीच के एक विशेष संबंध की बहुत अधिक मानवीय प्रतिमा खड़ी कर लेती है । निस्संदेह हमें देव के सगुण या सवैयक्तिक रूप का बहिष्कार नहीं करना चाहिये क्योंकि निर्वैयक्तिक या निर्गुण रूप सत्ता का केवल एक पक्ष है । भगवान् सर्व सत्ता हैं, फिर भी वही एकमात्र सत् हैं, एकमात्र सचेतन सत्ता हैं फिर भी हैं तो सत्ता ही । बहरहाल, अभी-अभी हमारा इस पक्ष से संबंध नहीं है । हम दिव्य चेतना के निर्वैयक्तिक मनोवैज्ञानिक सत्य को पूरी तरह समझने की चेष्टा कर रहे हैं । इसे ही हमें एक विस्तृत और सुस्पष्ट अवधारणा के रूप में स्थापित करना है ।
'ऋत-चित्' सारे विश्व में हर जगह एक ऐसे व्यवस्था करनेवाले आत्मज्ञान के रूप में उपस्थित है जिसके द्वारा एकमेव अपने अनंत संभाव्य बहुत्व के अंदर सामंजस्यों को अभिव्यक्त करता है । इस व्यवस्था करनेवाले आत्मज्ञान के बिना अभिव्यक्ति एक चलायमान अस्त-व्यस्तता होगी, ठीक इस कारण कि संभाव्यताएं अनंत हैं और यदि उन्हें अपने-आपपर छोड़ दिया जाये तो वह अनियंत्रित, अपरिबद्ध संयोग का ही एक खेल होगा । यदि केवल अनंत संभाव्यता ही होती जिसमें निर्देशनकारी सत्य का और सामंजस्यपूर्ण आत्म-दृष्टि का धर्म न होता, विकास के लिये छितराये गयें वस्तुओं के बीज में ही पहले से निर्धारित करनेवाला
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भाव न रहता तो जगत् असंख्य, आकारहीन, चकरायी हुई अनिश्चितता के सिवा कुछ न होता । परंतु जो ज्ञान सृजन करता है -चूंकि वह जो कुछ बनाता या उन्मुक्त करता है वह सब उसके अपने रूप और अपनी शक्तियां हैं, उनसे अलग कुछ नहीं --अपनी सत्ता में सत्य और विधान की उस दृष्टि का स्वामी होता है जो हर एक संभाव्यता पर शासन करती है और उसके साथ-ही-साथ उसमें अन्य संभाव्यताओं और उनके बीच संभव सामंजस्यों की आंतरिक अभिज्ञता रहती है । वह ज्ञान इस सबको पूर्व-चित्रित रूप में सामान्य निर्धारणकारी सामंजस्य में धारण किये रहता है । यह सामंजस्य विश्व के संपूर्ण व लयबद्ध भाव में उसके जन्म और आत्म-कल्पना के क्षण से ही रहता है अतः वह सामंजस्य अपने घटकों की पारस्परिक क्रीड़ा द्वारा अनिवार्य रूप से क्रियान्वित होगा । वह जगत् में धर्म का स्रोत और संरक्षक है, कारण वह धर्म मनमाना बिल्कुल नहीं हैवह आत्म-स्वभाव की अभिव्यक्ति है जिसका निर्धारण सत्य-संकल्प के उस बाध्यकारी सत्य से होता है जो हर वस्तु अपने आरंभ में होती है । अत: आरंभ से ही समस्त विकास अपने आत्म-ज्ञान में और हर क्षण अपनी आत्म-क्रिया में पूर्वनिश्चित है । हर क्षण वह ठीक वही होता है जो उसे अपने आदि अंतर्निहित सत्य के द्वारा होना चाहिये, इसी आदि अंतर्निहित सत्य के द्वारा उसकी ओर गति कर रहा है जो उसे अगले क्षण होना चाहिये; अंत में वह वही होगा जो उसके बीज में समाया हुआ था और अभिप्रेत था ।
अपनी निजी सत्ता के मौलिक सत्य के अनुसार जगत् का यह विकास और उसको यह प्रगति काल के एक अनुक्रम को, देश में संबंध को और देश में संबंधित वस्तुओं की नियमित क्रिया-प्रतिक्रिया को सूचित करता है और इस क्रिया-प्रतिक्रिया को काल का अनुक्रम कार्य-कारण-भाव का रूप दे देता है । तत्त्वज्ञानी के अनुसार देश और काल का अस्तित्व यथार्थ नहीं केवल काल्पनिक है । लेकिन चूंकि केवल ये ही नहीं बल्कि सभी चीजें सचेतन सत्ता द्वारा अपनी ही चेतना में अपनाये गये रूपमात्र हैं इसलिये यह भेद बहुत महत्त्व नहीं रखता । काल और देश वही एक सचेतन सत्ता है जो अपने-आपको विस्तार मे -आत्मनिष्ठ रूप से काल और वस्तुनिष्ठ रूप से देश के रूप में देख रही है । इन दोनों श्रेणियों के बारे में हमारी मानसिक दृष्टि माप के भाव से निर्धारित होती है जो मन की विश्लेषणात्मक, विभाजनकारी गति की क्रिया में अंतर्निहित है । मन के लिये काल एक गतिशील विस्तार है जिसे वह भूत, वर्तमान और भविष्य के अनुक्रम से मापता है, जिसमें मन अपने-आपको किसी विशेष बिंदु पर रखकर वहां से आगे और पीछे देखता रहता है । देश एक स्थाणु विस्तार है जिसे मन पदार्थ की विभाज्यकता से मापता है, और उस विभाज्य विस्तार में मन अपने-आपको किसी बिंदु-विशेष पर खड़ा करता है और वहां से अपने चारों ओर के पदार्थ की स्थिति को देखता है ।
वस्तुत: मन 'काल' को घटना से ओर देश को जड़तत्त्व द्वारा मापता है । परंतु
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यह भी संभव है कि शुद्ध मानसिकता में घटना की गति और द्रव्य की स्थिति की अवहेलना करके चित्-शक्ति की उस शुद्ध गति का अनुभव किया जाये जो 'देश' और 'काल' का निर्माण करती है । तो ये दोनों चेतना की उस वैश्व शक्ति के दो पक्ष मात्र होते हैं जो अपनी गुंथी हुई क्रिया-प्रतिक्रिया में उस शक्ति की स्वयं अपने ऊपर होती हुई क्रिया के ताने-बाने हैं । और मन से उच्चतर चेतना भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को एक ही दृष्टि में देख सकेगी । यह उनमें समायी हुई नहीं बल्कि उनको अपने अंदर समाये होगी, और अपने अवलोकन बिंदु के लिये काल के किसी क्षणविशेष पर स्थित नहीं होगी । इस चेतना के लिये काल एक शाश्वत वर्तमान के रूप में अपने-आपको प्रस्तुत कर सकता है । साथ ही यह चेतना देश के किसी बिंदु-विशेषपर टिकी हुई नहीं है बल्कि सभी बिंदुओं और क्षेत्रों को अपने भीतर समाये हुए है, देश भी अपने-आपको एक आत्मनिष्ठ-काल से कम आत्मनिष्ठ नहीं --और अविभाज्य विस्तार के रूप में प्रस्तुत कर सकता है । किन्हीं विशेष क्षणों में हम एक ऐसी अविभाज्य दृष्टि से अभिज्ञ हो जाते हैं जो अपने अपरिवर्तनशील आत्मचेतन एकत्व के द्वारा विश्व के परिवर्तनों को धारण किये रहती है । लेकिन अब हमें यह न पूछना चाहिये कि वहां अपने परात्पर सत्य में देश और काल की अंतर्वस्तुएं अपने-आपको किस तरह प्रस्तुत करेंगी क्योंकि हमारा मन इसकी धारणा नहीं कर सकता, --और यहांतक कि वह तो इस बात से भी इंकार करने के लिये तैयार है कि उस अविभाज्य के पास जगत् को जानने की कोई ऐसी संभावना हो सकती है जो हमारे मन और हमारी इन्द्रियों के तरीके से भिन्न हो ।
हमें जो अनुभव करना है और जिसकी हम कुछ हदतक धारणा बना सकते हैं वह है वह अखंड दृष्टि, वह सर्वसमावेशी अवलोकन जिसके द्वारा अतिमानस काल के अनुक्रमों और देश के विभाजनों को आलिंगन में लेता और एकताबद्ध करता है । और पहली बात यह कि अगर कालानुक्रम का यह तत्त्व न होता तो कोई परिवर्तन या प्रगति न होती । पूर्ण सामंजस्य सदा अभिव्यक्त रहता, एक तरह के शाश्वत क्षण में वह अन्य सामंजस्यों के साथ सहकालीन रहता, भूत से भविष्य की ओर होनेवाली गति के रूप में उनका अनुक्रमिक न होता पर हम तो उसकी जगह यह पाते हैं कि विकसित होते हुए सामंजस्य का एक सतत अनुक्रम है जिसमें पहले के स्वर में से एक और स्वर निकलता है जो अपने अंदर उसे छिपा लेता है जिसका वह स्थान लेता है । और यदि इस आत्माभिव्यक्ति का अस्तित्व विभाज्य देश के तत्त्व के बिना होता तो रूपों का कोई परिवर्तनशील संबंध न हो पाता, या शक्तियों में आपस में घात-प्रतिघात न होता । सबका अस्तित्व तो होता परंतु कुछ भी क्रियान्वित न होता --जैसे एक वैश्व कवि या स्वप्न-द्रष्टा के मन में सब चीजें अनंत आत्मनिष्ठ पकड़ में रहती हैं वैसे देशातीत आत्म-चेतना पूर्णतया आत्मनिष्ठ हो सब चीजों को अपने अंदर समाये रहती, लेकिन सबके द्वारा एक अनिर्दिष्ट वस्तुगत
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आत्म-विस्तार में अपने-आपको न बांट पाती । या फिर अगर केवल काल ही यथार्थ होता तो उसके अनुक्रम शुद्ध ऐसा विकास होते जिसमें संगीत की क्रमागत स्वर-लहरियों के समान या काव्य की क्रमागत रूपकमाला के समान एक स्वर में से दूसरा स्वर आत्मनिष्ठ रूप में स्वतंत्र सहजता के साथ निकलता जाता । परंतु इसकी जगह हमें उन रूपों और शक्तियों की शक्ल में, जो सर्वाधारक देशीय विस्तार में एक-दूसरे के साथ संबंधों में स्थित हैं, काल द्वारा क्रियान्वित होता हुआ एक सामंजस्य दिखायी देता है; वस्तुओं और घटनाओं की शक्तियों और रूपों का एक सतत अनुक्रम मिलता है, जब हम जीवन पर दृष्टि डालते हैं ।
काल और देश के क्षेत्र में विभिन्न संभाव्यताएं मूर्त होती, स्थान पाती और संबद्ध रहती हैं, हर एक की अपनी शक्तियां और संभावनाएं होती हैं जो दूसरी शक्तियों और संभावनाओं का सामना करती हैं और परिणामस्वरूप काल के अनुक्रम मन के सामने इस भांति प्रकट होते हैं मानों वस्तुएं एक स्वतःस्फूर्त अनुक्रम में नहीं, बल्कि आघात और संघर्ष के द्वारा कार्यान्वित हो रही हैं । वास्तव में, वस्तुएं अंदर से स्वतः -स्फूर्त रूप में कार्यान्वित होती हैं, बाह्य आघात और संघर्ष तो उस विस्तृत क्रिया के केवल सतही पक्ष हैं । क्योंकि अखंड और समग्र का आंतरिक और अंतर्निहित विधान, जो निश्चित रूप से सामंजस्य है, उन भागों तथा रूपों के बाहरी तथा प्रक्रियागत विधान पर शासन करता है जो सदा टकराते हुए प्रतीत होते हैं । और अतिमानसिक दृष्टि के लिये सामंजस्य का यह अधिक विशाल और अधिक गभीर सत्य सदैव उपस्थित रहता है । जो चीज मन को असंगति प्रतीत होती है, क्योंकि वह हर चीज को अपने-आपमें अलग-अलग रूप में देखता है, वही चीज अतिमानस के लिये एक व्यापक, सदा उपस्थित, सदा विकसनशील सामंजस्य का तत्त्व होती है क्योंकि वह सभी चीजों को बहुत्वमय एकत्व में देखता है । इसके अतिरिक्त मन केवल एक निर्दिष्ट काल और देश को ही देख पाता है, और उसमें बहुत-सी संभावनाओं को अस्तव्यस्त रूप में पड़ी देखता है और समझता है कि वे सब न्यूनाधिक रूप से उस काल और देश में चरितार्थ हो सकती हैं । दिव्य अतिमानस देश और काल के पूरे विस्तार को देखता है और मन की समस्त सभावनाओं को, और ऐसी भी बहुत-सी संभावनाओं को जिन्हें मन नहीं देख पाता, उन सबको वह बिना किसी मूल के, बिना टटोले या चकराये अपने आलिंगन में ले सकता है क्योंकि वह हर संभाव्यता को उसकी अपनी शक्ति, मूलभूत आवश्यकता और दूसरों के साथ सही संबंधों के रूप में जानता है और उस संभाव्यता की क्रमिक और अंतिम दोनों उपलब्धियों के समय, स्थान और परिस्थितियों को भी जानता है । मन के लिये यह संभव नहीं है कि वह चीजों को अविचल रूप से और पूर्ण रूप में देख सके लेकिन परात्पर अतिमानस का तो यह स्वभाव ही है ।
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यह अतिमानस अपने सब रूपों को, जिन्हें उसकी सचेतन शक्ति रचती है, अपनी सचेतन दृष्टि में केवल समाये ही नहीं रहता बल्कि वह उनमें अंत:स्थ उपस्थिति और अंत:स्फूरणात्मक प्रकाश के रूप में व्याप्त भी रहता है । वह विश्व के हर रूप और हर शक्ति में उपस्थित रहता है, यद्यपि रहता है प्रच्छन्न रूप में । यही प्रभुत्व के साथ और सहज रूप से रूप, शक्ति और क्रिया का निर्धारण करता है । वह जिन विभिन्नताओं को बाधित करता है उन्हें सीमित भी करता है । वह जिस ऊर्जा का उपयोग करता है उसे एकत्र करता, विघटित करता और परिवर्तित भी करता है और यह सब उन प्रथम१ धर्मों के अनुसार किया जाता है जिन्हें उसके आत्मज्ञान ने रूप की उत्पत्ति के साथ ही, शक्ति के आरंभबिंदु पर ही निश्चित कर दिया था । वह सभी चीजों के अंदर उसी तरह आसीन है जैसे भगवान् सब प्राणियों के हृदय में आसीन हैं; -वे भगवान् जो सबको अपने माया-बल से यंत्रारूढ़ की भांति घुमा रहे है२ । वह सबके अंदर है और सबको अपने आलिंगन में लिये हुए है उस दिव्य द्रष्टा की भांति जिसने सनातन काल से वस्तुओं को नानाविध रूपों में, प्रत्येक वस्तु को ठीक उसके अनुसार जो वह है, व्यवस्थित और आयोजित किया है ।३
अतः प्रकृति में हर चीज, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव, चाहे वह मन से आत्म-सचेतन हो या आत्म-सचेतन न हो, अपनी सत्ता और अपनी क्रियाओं में, अपने भीतर रहनेवाली दृष्टि और शक्ति द्वारा शासित होती है । यह हमारे लिये अवचेतन या निश्चेतन भले हो, क्योंकि हम उसके बारे में सचेतन नहीं हैं, परंतु अपने लिये निश्चेतन नहीं है बल्कि गहरे और वैश्व रूप में सचेतन है । अत: ऐसा लगता है कि हर चीज, चाहे उसमें बुद्धि न भी हो, बुद्धि के काम करती है क्योंकि वह अपने अंदर बैठे दिव्य अतिमानस के सत्य-भाव का अनुसरण या तो वनस्पति एवं पशु की भांति अवचेतन रूप से या मनुष्य की भांति अर्द्धचेतन रूप से करती है । परंतु यह मानसिक बुद्धि नहीं है जो सभी चीजों को अनुप्राणित और संचालित करती है, बल्कि यह सत्ता का आत्म-अभिज्ञ सत्य है जिसमें आत्म-ज्ञान आत्म-सत्ता से अभिन्न है । यही ऋत-चित् है, इसे चीजों के बारे में सोचना नहीं पड़ता बल्कि वह उन्हें ऐसे ज्ञान के साथ कार्यान्वित करता है जो अपने-आपको चरितार्थ करनेवाली एकमेवाद्वितीय 'सत्ता' की निर्दोष आत्म-दृष्टि और और-निवारणीय शक्ति के अनुरूप होता है । मानसिक बुद्धि सोच-विचार करती है क्योंकि वह चेतना की
१ यह वैदिक मुहावरा है । देवता प्रथम धर्मो के अनुसार कार्य करते हैं जो आद्य और इसलिये परम धर्म हैं और जो वस्तुओ के सत्य का विधान हैं ।
. २ ईश्वर: सर्वमृतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।।, गीता १८.६१
३ कविर्मनिषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छश्वतीभ्य:- समाप्य: । ईशोपनिषद् ८
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केवल विचार-विमर्श करनेवाली एक शक्ति है जो जानती तो नहीं, पर जानना चाहती है । वह काल में अपने से ऊंचे ज्ञान का क्रमश: अनुसरण करती है, एक ऐसे ज्ञान का अनुसरण जो सदा उपस्थित रहता है, जो अखंड और समग्र है, जो काल को अपनी पकड़ में रखता है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान को एक ही दृष्टि में देख लेता है ।
तो यह हैं दिव्य अतिमानस का प्रथम क्रियाशील तत्त्व । यह एक वैश्व दृष्टि है जो सर्वधारक, सर्वव्यापक और सबके अंदर निवास करनेवाली है । चूंकि यह सत्ता में और स्थितिशील आत्म-अभिज्ञता में सब चीजों को आत्मनिष्ठ, कालातीत, देशातीत जानती है अतः यह सभी वस्तुओं को क्रियाशील ज्ञान में समाविष्ट करती और काल और देश में उनके वस्तुनिष्ठ आत्म-रूपायन पर शासन करती है ।
इस चेतना में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय भिन्न-भिन्न सत्ताएं नहीं, वरन् मूलत: एक ही हैं । हमारी मानसिकता इन तीनों में भेद करती है क्योंकि भेद किये बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती । अपने उचित साधन और क्रिया का मौलिक विधान खोकर वह गतिशून्य और निष्क्रिय बन जाती है । अतः जब मैं अपने-आपको मानसिक रूप से देखता हूं तब भी मुझे यह भेद करना पड़ता है । मैं हूं -ज्ञाता के रूप में हूं जिस चीज को मैं अपने अंदर देखता हूं उसे मैं अपने ज्ञान का विषय मानता हूं जो मेरा अपनापन है भी और नहीं भी है, ज्ञान वह क्रिया है जिसके द्वारा मैं ज्ञाता और ज्ञेय में नाता जोड़ता हूं । परंतु इस क्रिया की कृत्रिमता, उसका शुद्ध रूप से व्यावहारिक और उपयोगितावादी गुण स्पष्ट है । यह स्पष्ट है कि वह वस्तुओं के आधारभूत सत्य को व्यक्त नहीं करती । वास्तव में, मैं ज्ञाता, एक चेतना हूं जो जानती है, ज्ञान वही चेतना है, मैं ही हूं जो क्रियाशील है, ज्ञेय भी मैं ही हूं उसी चेतना का एक रूप या गति । ये तीनों स्पष्ट रूप से एक सत्ता, एक गति हैं, वह सत्ता, वह गति अविभाज्य है यद्यपि विभक्त-सी प्रतीत होती है, वह अपने रूपों में बंटी हुई नहीं है यद्यपि ऐसा लगता है कि उसने अपने-आपको बांट रखा है और प्रत्येक में अलग-अलग रूप से स्थित है । परंतु यह एक ऐसा ज्ञान है जिसपर मन पहुंच सकता है, तर्क से पहुंच सकता है, अनुभव से पहुंच सकता है परंतु आसानी से इसे अपनी बौद्धिक क्रियाओं का व्यावहारिक आधार नहीं बना सकता । और जिस चेतना को मैं अपना स्व कहता हूं उसके दृष्टिकोण से बाहर की चीजों के बारे में कठिनाई दुर्लंध्य हो उठती है । वहां ऐक्य को अनुभव करना भी एक असाधारण प्रयास है, और उसे बनाये रखना, लगातार उसके अनुसार कार्य करना तो एक ऐसा नवीन और विजातीय कर्म होगा जो वस्तुत: मन के अपने क्षेत्र का नहीं है । मन अधिक-से-अधिक उसे एक अवगत सत्य के रूप में पकड़े रख सकता है ताकि वह उससे अपनी सामान्य क्रियाओं को, जो अभीतक विभाजन पर आधारित हैं ठीक कर सके, सुधार सके, कुछ-कुछ उसी तरह जैसे बौद्धिक रूप से हम जानते हैं कि
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धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है और इस ज्ञान के द्वारा हम उस कृत्रिम और भौतिक रूप से व्यावहारिक व्यवस्था को, जिसमें हमारी इन्द्रियां यह मानने पर आग्रह करती हैं कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर गति करता है, नष्ट तो नहीं करते पर सुधार लेते हैं ।
परंतु अतिमानस तो ऐक्य के इस सत्य से संपन्न होता ही है और सर्वदा मूलतः इसीके अनुसार कार्य करता हैं जब कि मन के लिये यह गौण या प्रयत्न से प्राप्त चीज है और यह उसके देखने का अपना स्वाभाविक तरीका नहीं है । अतिमानस विश्व को और उसके अंतर्गत समस्त वस्तुओं को अपने-आपके रूप में देखता है, और इसे वह देखता है ज्ञान की एक अविभाज्य क्रिया में, एक ऐसी क्रिया में जो ज्ञान का ही प्राण, उसकी आत्म-सत्ता की ही गति है । अतः यह समग्र बोधात्मक दिव्य चेतना अपने इच्छा पक्ष में वैश्व जीवन के विकास का उतना निर्देशन या शासन नहीं करती जितना शक्ति की क्रिया से उसे अपने अंदर परिपूर्ण करती है । यह शक्ति की क्रिया ज्ञान की क्रिया से और आत्म-सत्ता की गति से अलग नहीं की जा सकती । वस्तुत: यह एक और अभिन्न क्रिया है । क्योंकि हम देख ही चुके हैं कि वैश्व शक्ति और वैश्व चेतना एक हैं -वैश्व शक्ति वैश्व चेतना की ही क्रिया है । इसी तरह दिव्य ज्ञान और दिव्य इच्छा भी एक हैं । वे सत्ता की एक ही आधारभूत गति या क्रिया हैं ।
सर्वसमावेशी अतिमानस की यह अविभाज्यता ही वह सत्य है जिसपर सतत रूप से हमें अपना आग्रह रखना चाहिये, यदि हमें विश्व को समझना है और अपनी विश्लेषणात्मक मानसिकता की प्रारंभिक भूलों से बचना है । अतिमानस की यह अविभाज्यता अपनी एकता को कुछ भी कम किये बिना समस्त बहुविधता को अपने में समाये हूए है । वृक्ष बीज में से विकसित होता है जो पहले से ही बीज में समाया हुआ था और बीज वृक्ष में से आता है । एक अटल विधान, कभी परिवर्तित न होनेवाली एक प्रक्रिया अभिव्यक्ति के उस रूप के -जिसे हम वृक्ष कहते हैं -स्थायित्व को प्रबल रूप से बनाये रखती है । मन इस व्यापार को, वृक्ष के इस जन्म, जीवन और पुनरुत्पादन को, अपने-आपमें एक चीज मानता है और उसके आधार पर उसका अध्ययन, वर्गीकरण और उसकी व्याख्या करता है । वह वृक्ष की व्याख्या बीज से और बीज की व्याख्या वृक्ष से करता है । और प्रकृति के एक विधान की घोषणा कर देता है । लेकिन इससे वह कुछ भी समझा नहीं पाता । वह केवल एक रहस्य की प्रक्रिया का विश्लेषण और आलेखन भर करता है । मान लो कि मन किसी गुप्त सचेतन शक्ति को आत्मा के रूप में देख भी ले जो उसके रूप की सच्ची सत्ता है और बाकी सब कुछ उसी शक्ति की निश्चित क्रिया और अभिव्यक्ति भर है तब भी उसका झुकाव यही मानने की ओर रहता है कि रूप एक पृथक् सत्ता है जिसकी प्रकृति का अपना पृथक् विधान है और विकास की
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अपनी पृथक् प्रक्रिया है । पशु में और सचेतन मानसिकतावाले मनुष्य में यह पृथक्ता का भाव उसे यह मानने के लिये प्रेरित करता है कि वह भी एक पृथक् सत्ता, एक सचेतन कर्ता है और अन्य सभी रूप उसकी मानसिकता के पृथक् विषय हैं । इस उपयोगी व्यवस्था को, जो जीवन के लिये आवश्यक हैं और उसकी समस्त क्रियाओं का पहला आधार है, इसे मन यथार्थ तथ्य मान लेता है और यहीं से अहंकार की समस्त भ्रांति का आरंभ होता है ।
लेकिन अतिमानस और तरह से काम करता है । वृक्ष और उसकी प्रक्रिया वह न होते जो वे हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व ही न होता, अगर वृक्ष का एक पृथक् अस्तित्व होता । रूप जो कुछ हैं वे वैश्व सत्ता की शक्ति से ही हैं, वे जिस रूप में विकसित होते हैं वैसे वे उस सत्ता के तथा उसकी अन्य सब अभिव्यक्तियों के साथ जो संबंध है उसके फलस्वरूप ही विकसित होते हैं । उनकी प्रकृति का पृथक् विधान वैश्व विधान और समस्त प्रकृति के सत्य का विनियोग मात्र है, उनका विशेष विकास सामान्य विकास में उनका जो स्थान है उसके द्वारा ही निर्धारित होता है । वृक्ष बीज की या बीज वृक्ष की व्याख्या नहीं करता । विश्व दोनों की व्याख्या करता है और भगवान् विश्व की व्याख्या करते हैं । अतिमानस जो एक ही साथ बीज, वृक्ष और सब वस्तुओं में व्याप्त है, और उनमें वास करता है, वह उस अधिक महान् ज्ञान में निवास करता है जो अविभाज्य और एक है यद्यपि अतिमानस की अविभाज्यता और एकता पूर्णत: निरपेक्ष न होकर परिवर्तित रहती है । इस व्यापक ज्ञान में सत्ता का कोई स्वतंत्र केंद्र नहीं होता, कोई व्यष्टिगत पृथक् अहं नहीं होता जैसा कि हम अपने अंदर देखते हैं । सारा विश्व उसकी आत्म-अभिज्ञता के लिये समभाव से विस्तार है जो एकत्व में एक, बहुत्व में एक, सभी परिस्थितियों में और सर्वत्र एकरूप है । यहां सर्व और एक एक ही सत्ता हैं । व्यष्टिगत सत्ता सब सत्ताओं के साथ और एकमेव सत्ता के साथ अपने तादात्म्य को न तो खोती है और न खो सकती है क्योंकि वह तादात्म्य अतिमानसिक ज्ञान में अंतर्निहित है, अतिमानसिक स्वयं-प्रकाश का एक अंग है ।
एकत्व की उस विस्तृत समता में सत्ता विभक्त और वितरित नहीं होती । वह समानता के साथ आत्म-विस्तृत, अपने विस्तार को 'एक' के रूप में सब जगह व्यापक किये हुए रूपों की विभिन्नता में 'एकमेव' के रूप में निवास करते हुए, सब जगह, एक साथ एक और सम ब्रह्म है । क्योंकि देश और काल में सत्ता के इस विस्तार और इस व्याप्ति और अंतर्निवास का घनिष्ठ संबंध उस निरपेक्ष एकत्व के साथ है जिससे वह आयी है, उस निरपेक्ष अविभाज्य के साथ जिसमें न कोई केंद्र है न परिधि, है बस कालातीत, देशातीत एकमेव । अविस्तृत ब्रह्म में एकत्व की जो घन एकाग्रता है उसे आवश्यक रूप से विस्तार में भी इस समव्यापक एकाग्रता के द्वारा, सब वस्तुओं में इस अविभक्त व्याप्ति के द्वारा, इस विश्वव्यापी अवितरित
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अंतर्निवास के द्वारा, इस एकता के द्वारा अपने-आपको अनूदित करना होगा जिसे बहुत्व की कोई क्रीड़ा नष्ट या क्षीण न कर सके । ''ब्रह्म सब चीजों में है, सब चीजें ब्रह्म में हैं, सब चीजें ब्रह्म हैं'' यह व्यापक अतिमानस का त्रिसूत्र है, आत्माभिव्यक्ति का एक ही सत्य है जिसके तीन पहलू हैं, जिन्हें वह अपनी आत्मदृष्टि में आधारभूत ज्ञान के रूप में इकट्ठा और अविच्छेद्य रखता है जहां से वह विश्वलीला की ओर आगे बढ़ता है ।
परंतु तब मानसिकता और मन, प्राण और भौतिक द्रव्य के त्रिविध रूपों में विद्यमान इस निम्नतर चेतना के संगठन का -जो हमारी दृष्टि में विश्व है, -मूल क्या है ? कारण, चूंकि वे सभी चीजें जिनका अस्तित्व है, आवश्यक रूप से सर्व-समर्थ अतिमानस की क्रिया से निकली हैं, उसके तीन आदि तत्त्वों, सत् चिच्छक्ति और आनंद पर होनेवाली क्रिया से उत्पन्न हुई हैं अतः सृजनात्मक 'ऋत-चित्' में कोई ऐसी क्षमता होगी जो इस तरह क्रिया करती है कि है इन नये तत्त्वों में मन, प्राण और भौतिक द्रव्य की इस निचली त्रिमूर्ति में ढल जाते हैं । इस क्षमता को हम सृजनात्मक ज्ञान की द्वितीय अनुपूरक शक्ति में पाते हैं, उसकी बहिःक्षिप्त, सम्मुखस्थ और बहिर्बोधात्मिका चेतना की शक्ति में पाते हैं । इसमें ज्ञान अपने-आपको संकेंद्रित करके अपने कार्यों से पीछे हट जाता है ताकि उनका अवलोकन कर सके । और जब हम संकेंद्रीकरण की बात करते हैं तो हमारा मतलब, हम अभीतक चेतना के जिस समभाव संकेंद्रण की बात कहते आये हैं, उससे भिन्न एक अ-समरूप संकेंद्रण से होता है जिसमें आत्म-विभाजन का आरंभ या उसका गोचर आभास होता है ।
सबसे पहले 'ज्ञाता' अपने-आपको ज्ञान में विषयी के रूप में संकेंद्रित रखता है और अपनी चेतना की 'शक्ति' को इस तरह देखता है मानों वह सारे समय उससे निकल कर उसके अपने-आपके रूप के अंदर जाती रहती हो, उसमें क्रिया करती और फिर लौट आती हो और फिर से निरंतर निःसृत होती रहती हो । आत्म-परिवर्तन की इस एक ही क्रिया से वे सभी व्यावहारिक भेद उत्पन्न होते हैं जिनपर विश्व की सापेक्ष दृष्टि और सापेक्ष क्रिया आधारित है । एक व्यावहारिक भेद की रचना ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के बीच, परमेश्वर, उनकी शक्ति और शक्ति की संतानों और क्रियाओं के बीच, भोक्ता, भोग और भोग्य के बीच, आत्मा, माया और आत्मा की संभूतियों के बीच की गयी है ।
दूसरे, ज्ञान में संकेंद्रित यह सचेतन 'आत्मा' यह 'पुरुष' जो अपने अंदर से निःसृत शक्ति का या अपनी 'प्रकृति' का अवलोकन और उसपर शासन करता है, अपने प्रत्येक रूप में अपने-आपको दोहराता है । अपनी चेतना की शक्ति के कार्यों में उसके साथ-साथ रहता है और वहां आत्मविभाजन की क्रिया को फिर से प्रस्तुत करता है जिससे इस बहिर्बोधात्मिका चेतना का जन्म होता है । प्रत्येक रूप के अंदर
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यह पुरुष अपनी प्रकृति के साथ रहता और चेतना के उस कृत्रिम और व्यावहारिक केंद्र से दूसरे रूपों में अपने-आपको देखता है । सभीके अंदर वही 'आत्मा' है, वही दिव्य सत्ता है । केंद्रों का गुणन चेतना की बस, एक व्यावहारिक क्रिया है जिसका उद्देश्य है विभिन्नता की, पारस्परिकता की, पारस्परिक ज्ञान की, शक्ति के पारस्परिक आघात की, पारस्परिक भोग की क्रीड़ा को आरंभ करना, ऐसी विभिन्नता की जो तात्त्विक एकता पर आधारित हो, ऐसी एकता पर जो विभिन्नता के व्यावहारिक आधार पर प्राप्त हो ।
सर्वव्यापी अतिमानस की इस नयी स्थिति के बारे में हम कह सकते हैं कि यह वस्तुओं के एकत्वमय सत्य से और उस अविभाज्य चेतना से एक और विचलन है जो विश्व-सत्ता के लिये आवश्यक ऐक्य का अविच्छेद्य रूप से निर्माण करती है । हम देख सकते हैं कि और जस आगे बढ़कर यह चीज सचमुच अविद्या, महान् अज्ञान बन सकती है जो बहुत्व को आधारभूत वास्तविकता मानकर चलती है और वास्तविक ऐक्यतक लौटने के लिये उसे अहंकार के मिथ्या ऐक्य से शुरू करना पड़ता है । हम यह भी देख सकते हैं कि एक बार व्यष्टिगत केंद्र को निर्णायक बिंदु के रूप में, ज्ञाता के रूप में स्वीकार कर लिया जाये तो मानसिक संवेदन, मानसिक बुद्धि और मन की इच्छा-क्रिया और उसके परिणाम आये बिना नहीं रह सकते । किंतु हमें यह भी देखना है कि जबतक आत्मा अतिमानस में कार्य करती है तबतक अविद्या का आरंभ नहीं होता, तबतक ज्ञान और क्रिया का क्षेत्र ऋन-चित् ही रहता है, तबतक एकत्व ही आधार रहता है ।
क्योंकि आत्मा अभीतक अपने-आपको सबके अंदर एक और सभी चीजों को अपने अंदर और अपनी संभूतियां मानती है; प्रभु अभीतक अपनी शक्ति को अपना ही रूप जानते हैं जो क्रियारत है और हर एक सत्ता को आत्मा में और रूप में स्वयं अपना-आपा ही मानते हैं । अभी भी यह उन्हींकी अपनी सत्ता है, चाहे बहुत्व में है, जिसके साथ वे लीलामय लीला करते हैं । चेतना का जो एक वास्तविक परिवर्तन हुआ है वह है असमरूप संकेंद्रण और शक्ति का बहुविध वितरण । चेतना में एक व्यावहारिक भिन्नता तो दृष्टिगोचर होने लगी है परंतु चेतना का कोई तात्त्विक भेद या अपने बारे में उसकी अपनी दृष्टि में कोई वास्तविक विभाजन नहीं हुआ है । ऋत-चित् अब ऐसी स्थिति पर आ गया है जो हमारी मानसिकता को तैयार तो करती है लेकिन अभीतक हमारी मानसिकता नहीं बनी है । मन को अपने उद्गम स्थान पर पकड़ने के लिये हमें इसीका अध्ययन करना चाहिये, उस बिंदु पर पकड़ने के लिये, जहां उसका ऋत-चित् की उच्च और बृहत् विशालता से स्खलन होता है और वह विभाजन और अविद्या में जा पड़ता है । अभीतक हम जिस सुदूर सिद्धि को बुद्धि की अपनी अपर्याप्त भाषा में व्यक्त करने का कठोर प्रयत्न करते रहे हैं, उसकी अपेक्षा, सौभाग्यवश, यह प्रज्ञान-चेतना हमारे ज्यादा नजदीक है, हमारी मानसिक क्रियाओं की पूर्व छाया है इस कारण हमारी पकड़ के लिये अधिक आसान है । यहां जिस व्यवधान को पार करना है वह कम दुष्कर है ।
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