Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २१
प्राण का आरोहण
प्र देवत्रा ब्रह्मणे गातुरेत्वपो अच्छा मनसो न प्रयुक्ति ।
अग्ने दिवो अर्णमच्छा जिगास्यच्छ देवाँ ऊचिषे धिष्ण्य ये ।
या रोचने परस्तात्सुर्यस्य यश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आप : ।।
शब्द का मार्ग देवों की ओर ले जाये, मन की क्रिया के द्वारा अप (जल) की ओर ले जाये; हे अग्नि, तू द्युलोक के समुद्र की ओर जाता है, देवों की ओर जाता है, तू लोक-लोक के देवों का, सूर्य से ऊपर ज्योति-प्रदेश में रहनेवाले जल और नीचे रहनेवाले जल का मेल कराता है ।
ऋग्वेद १०. ३०. १; ३. २२. ३
तृतीयं धाम महिष: सिषासन्त्सोमो विराजमनु राजति ष्टुप् ।
चमूषच्छयेन: शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् ।
अपामूर्मि सचमान: समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ।।
आनंद-प्रभु तृतीय धाम पर विजय पाता है । वह विश्वात्मा के अनुसार रक्षा करता और शासन करता है । बाज़ की तरह, चील की तरह वह पात्र पर बैठ जाता और उसे ऊपर उठाता है । वह ज्योति को खोजनेवाला चौथे धाम (तुरीय) को अभिव्यक्त करता और उस सागर से चिपट जाता है जो उन जलों की महातरंगे है ।
ऋग्वेद ९.९६. १८, १९
इदं विण्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । संर्ह्ममस्य पांसुरे ।।
त्रीणि पदा वि चक्रमे विण्णुर्गोपा अदाभ्यः अतो धर्माणि धारयन् ।।
विष्णो: कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इत्रस्य युज्य: सखा ।।
तद्विष्णो: परमं पद सदा पश्यन्ति सूरय: । दिवीव चक्षराततम् ।।
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांस: समिन्धते । विष्णोर्यत् परमं पदम् ।।
तीन बार विष्णु ने कदम उठाये और प्राथमिक धूल से ऊपर उठाये अपने पद को आगे बढ़ाया । रक्षक और अदम्य विष्णु ने तीन पद भरे है और वह परे के लोक से उनके धर्मों को धारण करते हैं । विष्णु के कर्मों का निरीक्षण करो और देखो उसने उन धर्मों को कहां से अभिव्यक्त किया । वह विष्णु का परम पद है जिसे ऋषि सदा द्युलोक में फैले चक्षु के रूप में देखते हैं । उसे विप्रगण, प्रबुद्धगण ज्वाला के रूप में प्रदीप्त करते हैं... विष्णु के परम पद को भी... ।
ऋग्वेद १.२२. १७-२१
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हम देख आये हैं कि जैसे सीमितता, अज्ञान और द्वंद्वों का जनक विभक्त मर्त्य मन अतिमानस का, स्वयंप्रकाश दिव्य चेतना का अपने ही प्रकटत: निषेध के साथ --जहां से हमारे जागतों का आरंभ हुआ है --अपने प्रथम व्यवहारों में एक अंधकारमय रूप है वैसे ही प्राण भी जब वह हमारे जड़-भौतिक विश्व में अवचेतन रूप से स्थित, उसमें निमग्न और बंदी बने विभाजनकारी मन की एक ऊर्जा के रूप में प्रकट होता है, प्राण जो कि मृत्यु क्षुधा और असमर्थता के जनक के रूप में प्रकट होता है, वह भी उस दिव्य अतिचेतन शक्ति का ही केवल एक अंधकारमय रूप है जिसकी उच्चतम अवस्थाएं हैं अमरता, संतुष्ट आनंद और सर्वशक्तिमत्ता । यह संबंध उन महान् वैश्व प्रक्रियाओं का रूप निर्धारित कर देता है जिनके हम एक भाग हैं । वह हमारे क्रम-विकास की प्रथम, मध्यवर्ती और अंतिम अवस्थाएं निर्धारित कर देता है । प्राण की प्रथम अवस्थाएं हैं विभाजन, शक्ति द्वारा परिचालित अवचेतन इच्छा जो इच्छा के रूप में नहीं बल्कि भौतिक ऊर्जा की मूक ललक के रूप में प्रकट होती है, और रूप और उसके परिवेश के बीच होनेवाले आदान-प्रदान पर शासन करनेवाली यांत्रिक शक्तियों के प्रति जड़ अधीनता की असमर्थता; यह निश्चेतना और ऊर्जा की अंधी किंतु सशक्त क्रिया भौतिक विश्व का वह रूप है जिस रूप में भौतिक वैज्ञानिक उसे देखता है और वस्तुओं के संबंध में उसकी यह दृष्टि विस्तारित होकर यह रूप ले लेती है कि यही मूलभूत अस्तित्व का समग्र रूप है, यह तो जड़ भौतिक की चेतना है और जड़ भौतिक जीवन का सुस्थापित रूप है । लेकिन वहां अब एक नया संतुलन आ जाता है, नयी अवस्थाएं हस्तक्षेप करती हैं, जो उस अनुपात में बढ़ती जाती हैं जिसमें प्राण अपने-आपको इस रूप से मुक्त करता और सचेतन मन की ओर विकसित होता है । प्राण की मध्यवर्ती अवस्थाएं हैं मृत्यु और पारस्परिक भक्षण, क्षुधा और सचेतन कामना, सीमित अवकाश और क्षमता का भान और वृद्धि, विस्तार, विजय और आधिपत्य के लिये संघर्ष । ये तीनों अवस्थाएं विकास क्रम की उस भूमिका के आधार हैं जिसे पहले-पहल डार्विन के सिद्धांत ने मानव ज्ञान के आगे स्पष्ट किया । क्योंकि मृत्यु का व्यापार जीवित रहने के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है, क्योंकि मृत्यु केवल एक नकारात्मक अवस्था है जिसमें जीवन अपने-आपको अपने-आपसे छिपाता और अपनी भावात्मक सत्ता को अमरता की खोज के लिये प्रलोभित करता है । क्षुधा और कामना का व्यापार तृप्ति और सुरक्षा की स्थितितक पहुंचने के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है क्योंकि कामना केवल एक उद्दीपक है जिसके द्वारा जीवन अपनी भावात्मक सत्ता को अतृप्त क्षुधा के निषेध की ओर से सत्ता के आनंद पर पूर्ण अधिकार की ओर उठने के लिये प्रलोभन देता है । सीमित सामर्थ्य का व्यापार विस्तार, प्रभुता और अधिकार-अपने ऊपर अधिकार (स्वराज्य) और परिवेश पर विजय (साम्राज्य) -के लिये संघर्ष को अपने अंदर लिये रहता है ।
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चूंकि सीमाबंधन और त्रुटि केवल ऐसे निषेध हैं जिनके द्वारा प्राण अपनी भावात्मक सत्ता को प्रलोभित करता है कि वह उस पूर्णता को प्राप्त करे जिसके लिये वह शाश्वत काल से समर्थ है । जीवन के लिये जो संघर्ष है वह केवल बचे रहने के लिये ही संघर्ष नहीं है, वह अधिकार और पूर्णता की प्राप्ति के लिये भी संघर्ष है । क्योंकि केवल परिवेश को न्यूनाधिक रूप से कब्जे में कर लेने पर ही, चाहे अपने-आपको उसके अनुकूल बनाकर या उसे अपने अनुकूल बनाकर, चाहे उसे स्वीकार और संतुष्ट करके या उसे जीतकर और बदलकर ही उत्तर-जीविता प्राप्त की जा सकती है और यह भी उतना ही सच है कि अधिकाधिक पूर्णता ही निरंतर स्थायित्व का, स्थायी उत्तरजीविता का आश्वासन दे सकती है ।
किंतु जब वैज्ञानिक मन ने यह देखे बिना कि एक नया तत्त्व आ गया है जिसके होने का एकमात्र कारण यही है कि वह यांत्रिक तत्त्व को अपने आधीन कर ले, यांत्रिक विधान को प्राण पर लागू करना शुरू किया जो जड़ तत्त्व में अस्तित्व और छिपी हई यांत्रिक चेतना के लिये ही था तब डारविन के सूत्र का उपयोग प्राण के आक्रामक तत्त्व को, व्यक्ति के प्राणिक स्वार्थ, आत्म संरक्षण की सहज वृत्ति और उसकी प्रक्रिया, आत्म प्रस्थापन और आक्रमणशील जीवन को बहुत अधिक विस्तृत करने के लिये किया गया । क्योंकि प्राण की यह पहली दो अवस्थाएं अपने भीतर एक नये तत्त्व का और एक नयी अवस्था का बीज लिये रहती हैं जिसे उसी अनुपात में बढ़ना चाहिये जिसमें मन प्राणिक सूत्र के द्वारा जड़ द्रव्य में से अपने निजी विधान में विकसित होता है । और सभी चीजों को तब और भी ज्यादा बदलना चाहिये जैसे प्राण ऊपर, मन की ओर विकसित होता है उसी तरह मन ऊपर अतिमानस और आत्मा की ओर विकसित होता है । चूंकि बने रहने के लिये संघर्ष का और नित्यता की ओर आवेग का खंडन करता है मृत्यु का विधान, ठीक इसी कारण व्यष्टि-जीवन अपनी रक्षा की अपेक्षा अपनी जाति की नित्यता को बनाये रखने के लिये बाधित और प्रयुक्त होता है । परंतु इसे वह दूसरों के सहयोग के बिना नहीं कर सकता और सहयोग तथा पारस्परिक सहायता का तत्त्व, दूसरों की चाह, पत्नी, पुत्र, मित्र, सहायक एवं सहचयि दल की चाह, साहचर्य का सचेतन संसर्ग एवं आदान-प्रदान का आचरण --ये वे बीज हैं जिनमें से प्रेम का तत्त्व खिलता है । हम यह बात मान लेते हैं कि पहले-पहल प्रेम स्वार्थपरता का ही केवल एक विस्तारित रूप होता है और विस्तारित स्वार्थपरता का यह रूप विकास की उच्चतर अवस्थाओं में भी कायम रह सकता और प्रबल बना रह सकता है जैसा कि वह अभीतक कायम और प्रबल बना हुआ है । फिर भी जैसे-जैसे मन विकसित होता है और अपने-आपको अधिकाधिक पाता जाता है, वह जीवन के, प्रेम के और परस्पर सहायता के अनुभव से इस बोध पर आता है कि प्राकृत व्यक्ति सत्ता का एक गौण पद है और वह विश्व सत्ता के सहारे ही रहता है । एक बार यह मालूम
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हो जाये और मनोमय सत्तावाले मनुष्य को यह अनिवार्य रूप से मालूम होता है तो उसकी भावी नियति निश्चित हो जाती है क्योंकि तब वह एक ऐसे बिंदु पर जा पहुंचता है जहां से मन इस सत्य की ओर खुलना शुरू कर सकता है कि स्वयं उसके परे भी कोई चीज है । उस क्षण से उसका विकास, चाहे कितना भी अस्पष्ट और धीमा क्यों न हो, उस श्रेष्ठतर किसी चीज की ओर, आत्मा की ओर, अतिमानस की ओर, अतिमानवता की ओर अवश्यंभावी रूप से पूर्व-निर्दिष्ट हो जाता है ।
अतः प्राण अपने स्वभाव द्वारा एक तीसरी भूमिका, आत्माभिव्यक्ति की एक तीसरी श्रेणी के पदों में आने के लिये पहले से ही निर्दिष्ट है । अगर हम प्राण के इस आरोहण का निरीक्षण करें तो हम देखेंगे कि इसके वास्तविक विकास की अंतिम अवस्थाएं, वे अवस्थाएं जिन्हें हमने इसकी तीसरी भूमिका कहा है, अवश्य ही ऊपर से देखने में, इसकी पहली अवस्थाओं के एकदम विपरीत और विरोधी मालूम होंगी, परंतु असल में, वे उन पहली अवस्थाओं की ही परिपूर्ति, उन्हींका रूपांतरित रूप होती हैं । प्राण का आरंभ होता है जड़ द्रव्य के चरम विभाजनों और कठोर रूपों के साथ, और इस कठोर विभाजन का ही ठीक प्रतिरूप है परमाणु, जो कि समस्त भौतिक रूपों का आधार है । परमाणु जब अन्यों के साथ संयुक्त हुआ रहता है तब भी उन सबसे पृथक् बना रहता है और किसी भी साधारण शक्ति के वश मरण या विघटन स्वीकार नहीं करता, वह प्रकृति के संयोजन के तत्त्व के विरोध में अपने अस्तित्व को निखारता हुआ पृथक् अहं का भौतिक प्ररूप है । लेकिन प्रकृति में एकत्व भी उतना ही सबल तथ्य है जितना विभाजन । सचमुच तो वही प्रधान तत्त्व है जिसका एक गौण पद है विभाजन । अतः प्रत्येक विभक्त रूप को एक-न-एक ढंग से यांत्रिक आवश्यकता के द्वारा, बाध्यता के द्वारा, सहमति या प्रलोभन के द्वारा अपने-आपको एकत्व के तत्त्व के आधीन कर देना होता है । अतः यदि प्रकृति अपने ही प्रयोजनों के लिये, अपने संयोजनों के लिये एक दृढ़ आधार पाने और रूपों का निश्चित बीज पाने के लिये सामान्यत: परमाणु को विघटन द्वारा गलने की प्रक्रिया का विरोध करने देती है तो भी वह उसे इस बात के लिये बाधित करती है कि वह एकत्रीकरण द्वारा विलयन की प्रक्रिया में सहायक हो । परमाणु जैसा कि वह प्रथम समूह है, वह समूहात्मक ऐक्यों का प्रथम आधार भी है ।
जब प्राण अपनी दूसरी भूमिका में पहुंचता है, उस भूमिका में जिसे हम जीवनी-शक्ति कहते हैं तो विपरीत व्यापार प्रमुख हो जाता है और प्राणिक अहं का भौतिक आधार विघटन के लिये सहमत होने को बाधित हो जाता है । उसके अवयव छिन्न-भिन्न कर दिये जाते हैं ताकि एक प्राण के तत्त्व अन्य प्राणों की तात्त्विक रचना में प्रवेश करने के काम आ सकें । अभीतक यह भली-भांति नहीं
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जाना जा सका है कि प्रकृति में यह विधान कहांतक फैला है और निस्संदेह तबतक जाना भी नहीं जा सकता जबतक हमारे पास मानसिक जीवन और आध्यात्मिक सत्ता का उतना ही यथार्थ विज्ञान न हो जितना कि हमारा भौतिक जीवन और जड़ भौतिक पदार्थ का वर्तमान विज्ञान है । फिर भी हम मोटे तौर पर देख सकते हैं कि केवल हमारे स्थूल शरीर के तत्त्व ही नहीं बल्कि हमारी सृक्ष्मतर प्राणिक सत्ता के, हमारी जीवन-ऊर्जा के, हमारी कामना-ऊर्जा के, हमारी शक्तियों, प्रबल प्रयासों एवं भावावेशों के तत्त्व भी हमारे जीवन-काल में और हमारी मृत्यु के बाद औरों की प्राण-सत्ता में प्रवेश करते रहते हैं । एक प्राचीन गुह्य विद्या हमें बतलाती है कि भौतिक (अन्नमय) शरीर के समान ही हमारा एक प्राणिक शरीर भी होता है और यह भी मृत्यु के बाद छिन्न-भिन्न हो जाता और अपने-आपको अन्य प्राणिक शरीरों के निर्माण के लिये दे देता है । हमारी प्राणिक ऊर्जाएं हमारे जीवन-काल में भी अन्य सत्ताओं की ऊर्जाओं के साथ निरंतर मिश्रित होती रहती हैं । ऐसा ही विधान हमारे मानसिक जीवन और अन्य सभी मननशील प्राणियों के मानसिक जीवन के साथ जो संबंध है उसपर लागू होता है । मन पर मन के आघात के परिणामस्वरूप निरंतर विघटन, छितराव और पुनर्निर्माण होता रहता है, तत्त्वों का आदान-प्रदान और संलयन होता रहता है । सत्ता के साथ सत्ता का परस्पर आदान-प्रदान, परस्पर संमिश्रण और परस्पर संलयन -यही प्राण की अपनी प्रक्रिया है, उसका स्वधर्म है ।
तो, प्राण में हम दो तत्त्व पाते हैं, एक तो पृथक् अहं की अपनी विशिष्टता बनाये रखने और अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने की आवश्यकता या इच्छा और दूसरा है औरों के साथ अपने-आपको मिला देने की बाध्यता जिसे प्रकृति उसपर आरोपित करती है । भौतिक जगत् में प्रकृति पहले तत्त्व के आवेग पर बहुत बल देती है क्योंकि उसे स्थायी अलग-अलग रूप बनाने होते हैं । चूंकि उसकी पहली और सबसे अधिक कठिन समस्या है ऊर्जा के सतत प्रवाह और गतिशीलता के अंदर तथा अनंत के ऐक्य के अंदर पृथक् रूप से बने रहनेवाले व्यक्तित्व जैसी किसी चीज को और उसके लिये स्थायी रूप को बना पाना और बनाये रखना, अतः परमाणुमय जीवन में वैयक्तिक रूप आधार के रूप में टिका रहता है तथा औरों के साथ अपने ऐसे समूहात्मक रूपों का अधिक या कम दीर्घ जीवन पाता है जो प्राणिक और मानसिक व्यष्टि रूपों का आधार बनेंगे । लेकिन जैसे ही प्रकृति अपने उत्तरवर्ती व्यापारों के सुरक्षित संचालन के लिये पर्याप्त दृढ़ता पा लेती है वह प्रक्रिया को पलट देती है । व्यष्टि रूप नष्ट हो जाता है और इस तरह विघटित रूप के तत्त्वों से समष्टि-प्राण संवर्धित होता हैं । फिर भी यह चरमावस्था नहीं हो सकती । वह तो तभी पायी जा सकती है जब दोनों तत्त्वों को सामंजस्य में लाया जाये, जब व्यष्टि अपनी वैयक्तिकता की चेतना को बनाये रख सके और फिर भी अपनी परिरक्षित स्थिति के संतुलन को खोये बिना और चिरायु बने रहने की स्थिति में बाधा डाले बिना दूसरों के साथ घुल-मिल सके ।
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इस समस्या के संबंध में हम पहले से ही मान लेते हैं कि मन का पूरा आविर्भाव हो चुका है क्योंकि प्राण-सत्ता में सचेतन मन के बिना कोई समीकरण नहीं हो सकता, केवल कुछ समय के लिये एक अस्थायी, समतोलता आ सकती है जिसका अंत शरीर की मृत्यु में, व्यक्ति के विघटन और उसके तत्त्वों के विश्व में बिखर जाने से होता है । भौतिक जीवन की प्रकृति इस विचार का निषेध करती है कि किसी व्यष्टि रूप को बने रहने, और इसलिये व्यष्टि जीवन को जारी रखने की अंतर्निहित क्षमता प्राप्त हो जो उसके घटक परमाणुओं को प्राप्त है । केवल मनोमय पुरुष ही, अंतर की चैत्य ग्रंथि के सहारे, जो निगूढ़ अंतरात्मा को व्यक्त करती या व्यक्त करना शुरू करती है, भूतकाल को भविष्य के साथ, एक सातत्य की धारा में जोड़ने के अपने सामर्थ्य द्वारा टिके रहने की आशा कर सकता है । रूप का खंडित होना इस धारा को स्थूल स्मृति में तो खंडित कर सकता है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह उसे स्वयं मनोमय पुरुष से भी मिटा दे, यहांतक कि यह भी संभव है कि मनोमय पुरुष एक संभावित विकास के द्वारा शरीर के जन्म-मरण के द्वारा बनायी गयी भौतिक स्मृति की खाई को पाट दे । आज की वस्तुस्थिति में भी, शरीरस्थ मन के वर्तमान अपूर्ण विकास में भी, मनोमय पुरुष शारीरिक जीवन के परे फैले हुए भूत और भविष्य के बारे में सचेतन होता है । वह उस व्यक्तिगत भूत के और उन व्यक्तिगत जीवनों के बारे में अभिज्ञ हो जाता है जिन्होंने उसके इस जीवन को रचा है और जिनका कि वह समुन्नत और आपरिवर्तित प्रतिरूप है और उन भावी व्यक्तिगत जीवनों के बारे में भी अभिज्ञ हो जाता है जिन्हें वह अपने अन्दर से रच रहा है । साथ ही वह ऐसे भूत और भावी जीवन-समुच्चय के बारे में भी सचेतन होता है जिसमें उसका सातत्य एक रेशे की भांति है । यह चीज जो भौतिक विज्ञान के लिये आनुवंशिकता की भाषा में स्पष्ट है, मानसिक सत्ता के पीछे विकास करनेवाली अन्तरात्मा के लिये चिरस्थायी व्यक्तित्व की भाषा में और तरह से स्पष्ट होती है । अन्तरात्मा की चेतना को अभिव्यक्त करनेवाला मनोमय पुरुष ही इसलिये सतत वैयक्तिक जीवन और सतत सामुदायिक जीवन की ग्रंथि हैं, उसीमें उनका ऐक्य और सामंजस्य सम्भव होते हैं ।
प्रेम के साथ साहचर्य उसका गुप्त तत्व है और उसका उभरता दुआ शिखर है प्ररूप, इस नये सम्बन्ध की शक्ति और इसी कारण जीवन की तीसरी स्थिति में विकास का शासक तत्त्व । व्यक्तित्व की सचेतन परिरक्षा और साथ ही दूसरे व्यक्तियों के संग आदान-प्रदान की, आत्म-दान और सम्मिलन की सज्ञान अंगीकृत आवश्यकता एवं चाह प्रेमतत्त्व के व्यापार के लिये जरूरी हैं क्योंकि इन दोनों में से एक को भी यदि हटा दिया जाये तो प्रेम-व्यापार समाप्त हो जाता है, फिर उसका स्थान चाहे कोई भी चीज क्यों न ले । निःसन्देह प्रेम की पूर्ति आत्म-बलिदान द्वारा या ऐसे आत्म-बलिदान द्वारा करना जिसमें आत्म-विनाश का भ्रम होने लगे,
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मानसिक सत्ता का एक भाव और आवेश है लेकिन यह चीज प्राण की इस तीसरी भूमिका से परे के विकास की ओर इशारा करती है । यह तीसरी भूमिका वह अवस्था है जिसमें प्रगति करते हुए हम उस अवस्था के परे उठ जाते हैं जहां एक दूसरे को निगलकर ही जिन्दा रहने के लिये संघर्ष चलता और उस संघर्ष में योग्यतम ही टिका रहता है । क्योंकि वहां पारस्परिक सहायता द्वारा उत्तरजीविता और पारस्परिक अनुकूलन, आदान-प्रदान और संलयन द्वारा आत्म-परिपूर्णता आती है । जीवन सत्ता का आत्म-प्रस्थापन है, यहांतक कि वह अहं का विकास और उत्तरजीविता है, परन्तु ऐसी सत्ता का जिसे अन्य सत्ताओं की अपेक्षा है, ऐसे अहं का जो अन्य अहंभावों के साथ मिलना और उन्हें अपनेमें मिला लेना और उनके जीवन में समाविष्ट हो जाना चाहता है । जो व्यक्ति और समूह साहचर्य के विधान को और प्रेम के विधान को, समान सहायता, दयालुता, स्नेह, मैत्री और एकता बनाये रखने के विधान को सर्वाधिक विकसित करेंगे, जो अपने स्वत्व को बनाये रखने और एक-दूसरे के लिये अपने-आपको दे डालने में अधिकतम सफल समन्वय स्थापित करेंगे, परस्पर आदान-प्रदान द्वारा समूह व्यक्ति को और व्यक्ति समूह को बढ़ाये साथ ही व्यक्ति व्यक्ति को और समूह समूह को बढ़ाये, ऐसा जो करेंगे वे ही विकास की इस तीसरी भूमिका में बाद तक टिके रहने के लिये योग्यतम होंगे ।
प्राण का अपनी तीसरी भूमिका की ओर यह आत्मविकास मन की१ बढ़ती हुई प्रधानता का द्योतक है जो भौतिक जीवन पर अपने निजी विधान को क्रमश: अधिकाधिक लागू करता जाता है । अपनी अधिक सूक्ष्मता के कारण मन को अन्यों को अपने अन्दर ले लेने, उन्हें भोगने या आयत्त करने और बढ़ने के लिये दूसरों को हड़पने की जरूरत नहीं होती बल्कि वह जितना अधिक देता है उतना ही अधिक पाता और बढ़ता है, और जितना ही अधिक वह अपने-आपको दूसरों में मिलाता है उतना ही वह दूसरों को अपने अन्दर मिलाकर अपना क्षेत्र-विस्तार कर लेता है । भौतिक प्राण अपने-आपको बहुत अधिक देकर अपनेको निःशेष कर डालता है और बहुत अधिक निगलकर आत्मविनाश कर लेता है । लेकिन यद्यपि मन मन जिस अनुपात में जड़ भौतिक के विधान का सहारा लेता है उतना ही उसे इस सीमितता को सहना पड़ता है, फिर भी, दूसरी ओर, जिस अनुपात में वह अपने निजी विधान में प्रगति करता जाता है, उतनी ही उसकी प्रवृत्ति इस सीमितता को
१ यहां मन के उस रूप की बात कही जा रही है जिस रूप में वह जीवन में, प्राण-सत्ता में, हृदय के द्वारा सीधी क्रिया करता हैं । प्रेम -एक सापेक्ष तत्त्व के रूप में, अपने निरपेक्ष रूप में नहीं -प्राण का तत्व है, मन का नहीं, लेकिन वह अपने-आपको पा तभी सकता है और स्थायी बनना तभी शुरू होता है जब मन उसे अपने ही आलोक में समो लेता है । जिसे शरीर और प्राणिक भागों में प्रेम कहा जाता है वह अधिकतर क्षुधा का ही रूप है जिसमें स्थायित्व नहीं होता ।
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जीतने की होती है और वह जिस अनुपात में भौतिक परिसीमा को जीत लेता है, उतना ही उसके लिये देना और पाना एक हो जाते हैं । क्योंकि अपने ऊर्ध्वमुखी आरोहण में वह विभिन्नता में सचेतन एकता के नियम की ओर बढ़ता है और यही अभिव्यक्त सच्चिदानन्द का दिव्य विधान है ।
प्राण की प्रथम भूमिका की द्वितीय अवस्था है अवचेतन इच्छा जो दूसरी भूमिका में जाकर क्षुधा और सचेतन कामना बन जाती है, - सुधा और कामना, ये सचेतन मन के पहले बीज हैं । प्राण का तीसरी भूमिका में विकास, जो साहचर्य और प्रेम की वृद्धि द्वारा होता है, कामना के विधान को नष्ट नहीं करता बल्कि उसे रूपान्तरित करता और परिपूर्ण बनाता है । प्रेम का अपना स्वरूप है अपने-आपको दूसरों को देने और बदले में दूसरों को पाने की कामना करना । यह प्राणी-प्राणी के बीच लेन-देन का एक व्यापार है । भौतिक प्राण अपने-आपको देना नहीं चाहता, वह केवल पाना-ही-पाना चाहता है, यह सच है कि वह अपने-आपको देने के लिये बाधित होता है क्योंकि जो प्राण केवल लेता ही जाता है और देता नहीं वह निश्चय ही अनुर्वर होकर मुरझा जायेगा और नष्ट हो जायेगा -यदि सचमुच इस तरह का जीवन यहां या किसी अन्य लोक में पूरी तरह सम्भव हो तो भी -लेकिन वह बाधित होता है, वह चाहता नहीं, वह प्रकृति की अवचेतन प्रेरणा का पालन करता है, सचेतन रूप से उसमें भाग नहीं लेता । यहांतक कि जब प्रेम हस्तक्षेप करता है तब भी शुरू में आत्मदान परमाणु में स्थित अवचेतन इच्छा के यान्त्रिक स्वरूप को ही काफी हदतक बनाये रखता है । स्वयं प्रेम भी शुरू में सुधा के विधान का पालन करता है और दूसरों से पाने और वसूल करने में ही मजा लेता है न कि दूसरों को देने और उनके प्रति समर्पित होने में । इसे तो वह मुख्यतः अपनी कामना की वस्तु को पाने के लिये अवश्यंदेय मूल्य के रूप में ही स्वीकार करता है । किन्तु यहां वह अपने सच्चे स्वरूप तक नहीं पहुंच पाया है । उसका सच्चा विधान है समान लेन-देन का व्यापार स्थापित करना जिसमें देने का आनन्द लेने के आनन्द के बराबर होता है और अन्त में जाकर तो वह और भी अधिक होता जाता है । लेकिन यह तब होता है जब चैत्य ज्वाला के दबाव से चरम ऐक्य की परिपूर्ति के लिये वह सहसा अपने-आपसे भी परे निकल जाता है और इसलिये उसे यह अनुभव करना होता है कि जो पहले अनात्म दीखता था वह उसके अपने व्यक्तित्व से भी बढ़कर महान् और प्रिय आत्मा है । अपने जीवन-मूल में प्रेम का धर्म है दूसरों में और दूसरों के द्वारा अपने-आपको चरितार्थ करने और परिपूर्ण बनाने का आवेग, औरों को समृद्ध करके अपने-आपको समृद्ध करने का आवेग, औरों पर अधिकार करने और उनसे अधिकृत होने का आवेग, क्योंकि किसी और के अधिकार में आये बिना वह स्वयं अपने ऊपर पूरा-पूरा अधिकार नहीं पा सकता ।
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परमाणविक जीवन की अपने पर अधिकार पाने में जड़ असमर्थता, मूर्त व्यष्टि की अनात्म के प्रति अधीनता, प्राण की प्रथम भूमिका की चीज है । सीमितता का बोध और अधिकार पाने, आत्म और अनात्म दोनों पर प्रभुत्व पाने के लिये संघर्ष दूसरी भूमिका का रूप है । यहां भी तीसरी भूमिका में ले जानेवाला विकास प्रथम भूमिका की अवस्थाओं में ऐसा रूपान्तर ले आता है जिससे उसकी परिपूर्णता साधित हो और ऐसा सामंजस्य लाता है जिसमें वे ही अवस्थाएं फिर से लौट आती हैं, जब कि देखने में वे उनकी विरोधी लगती हैं । साहचर्य के द्वारा और प्रेम के द्वारा अनात्म अब एक बड़े आत्म के रूप में स्वीकार किया जाने लगता है और इसलिये उसके विधान और आवश्यकता के प्रति सज्ञान रूप से अंगीकृत आत्मसमर्पण का भाव बनने लगता है जिससे कि व्यष्टि को अपने अन्दर मिला लेने के समष्टि-जीवन के अंतवेंग की पूर्ति होती है; और फिर व्यष्टि द्वारा दूसरों के जीवन पर और वह जो कुछ दे सकता हैं उसपर इस तरह अधिकार है मानों वह उसका अपना हो । इससे वैयक्तिक अधिकार के विरोधी अंतर्वेग की पूर्ति होती है । न ही व्यष्टि और संसार के बीच, जिसमें कि वह रहता है, पारस्परिकता का यह सम्बन्ध तबतक सुव्यक्त या पूर्ण या सुरक्षित हो सकता है जबतक कि व्यष्टि-व्यष्टि के बीच और समष्टि-समष्टि के बीच पारस्परिकता का वही सम्बन्ध स्थापित न हो जाये । आत्म-प्रस्थापन एवं स्वतंत्रता के, जिनके द्वारा मनुष्य अपने-आपको पाता है, साहचर्य, प्रेम, भ्रातृभाव व मैत्रीभाव के साथ, जिनमें वह अपने-आपको दूसरों को देता है, सामंजस्य बिठाने के मनुष्य के सब कठिन प्रयास और सुसमंजस संतुलन, न्याय, पारस्परिकता व समानता के उसके आदर्श जिनके द्वारा वह दो विरोधियों के बीच समतोलता लाता है -ये सब वास्तव में ऐसे प्रयत्न हैं जो प्रकृति की प्राथमिक समस्या को, स्वयं प्राण की ही समस्या को सुलझाने के लिये अपनी दिशाओं में अनिवार्यत: पूर्वनिर्धारित हैं । समस्या को सुलझाने के लिये जड़द्रव्य में स्थित प्राण के मूल में ही पाये जानेवाले दो विरोधियों के बीच संघर्ष का समाधान करना होगा । समाधान की कोशिश मन के उच्चतर तत्त्व को लाकर की गयी है, केवल वही तत्त्व अभीष्ट सामंजस्य के रास्ते का पता लगा सकता है यद्यपि स्वयं सामंजस्य ऐसी शक्ति में ही पाया जा सकता है जो अभीतक हमसे परे है ।
क्योंकि, जिन तथ्यों को लेकर हम चले हैं यदि वे सही हैं तो, पथ के अंततक, अपने गंतव्यतक पहुंचा तभी जा सकता है जब मन अपने-आपको पारकर उसमें चला जाये जो मनसातीत है, चूंकि मन उस मनसातीत की ही एक निम्नतर अवस्था और उसीका एक यंत्र है प्रथम तो रूप और व्यक्तिभाव में अवतरण के लिये, दूसरे उस सद्वस्तु में पुन: आरोहण के लिये जिसे रूप आकार प्रदान करता है और व्यक्तिभाव प्रतिरूपित करता है । इसलिये प्राण की समस्या का पूरा-पूरा समाधान केवल साहचर्य, आदान-प्रदान और प्रेम की मूर्ति के द्वारा या केवल मन और हृदय
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के विधान के द्वारा पाया जाना बहुत संभव नहीं लगता । यह पाया जायेगा प्राण की चतुर्थ भूमिका के द्वारा जिसमें बहु की शाश्वत एकता चरितार्थ होगी आत्मा के द्वारा और जिसमें प्राण के समस्त व्यापारों का सचेतन आधार न तो पहले की तरह शरीर के विभाजनों में होगा न प्राण के आवेगों एवं क्षुधाओं में, न मन के समष्टिकरणों एवं अपूर्ण सामंजस्यों में और न ही इन सबके संयोजन में होगा बल्कि वह होगा आत्मा की एकता और स्वतंत्रता में ।
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