Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २२
प्राण की समस्या
सर्वायुषमुच्चते ।।
यही वह है जिसे वैश्व प्राण कहते हैं ।
तैत्तिरीय उपनिषद् २.३
ईश्वर: सर्वभूतनां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यत्न्त्रारूढानि मायया ।।
ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं और सबको अपनी
माया की चरखी पर चढ़ा कर घुमाते है
गीता १८,६१
सत्यं ज्ञानमनत्तं ब्रह्म । यो वेद... ।
सोऽअश्रुते सर्वान्कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चिता ।।
जो सत्य, ज्ञान और अनन्त स्वरूप ब्रह्म को जानता है वह सर्वज्ञ
ब्रह्म के साथ सभी काम्य पदार्थो का भोग करता है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् २.१
हम देख आये हैं कि प्राण किन्हीं विशेष वैश्व परिस्थितियों में एक ऐसी चित्-शक्ति का फूट निकलना है जो अपने स्वरूप में अनन्त, निरपेक्ष, निर्बंध, अपने एकत्व और आनन्द को अविच्छेद्य रूप से अधिकार में किये हुए है । यह सच्चिदानन्द की चित्-शक्ति है । इस वैश्व प्रक्रिया की मुख्य परिस्थिति, जहांतक कि वह अनन्त सत् की विशुद्धता और अविभक्त ऊर्जा की आत्मवत्ता से अपने बाहरी रूपों में भिन्न है, अज्ञान के तम से धुंधले पड़े हुए मन की विभाजक शक्ति है । अविभक्त शक्ति की इस विभाजित क्रिया से द्वंद्वों का, विरोधों का आभास होता है जो सच्चिदानन्द के स्वरूप का खण्डन करता-सा प्रतीत होता है । इन चीजों का अस्तित्व मन के लिये तो एक स्थायी सत्य की तरह है लेकिन मन के पर्दे के पीछे छिपी दिव्य वैश्व चेतना के लिये एक बहुमुखी सद्वस्तु के गलत प्रतिरूप की तरह है । इसी कारण जगत् प्रतिरोधी सत्यों के संघर्ष का रूप धारण कर लेता है जिनमें से हर एक सत्य अपनी पूर्ति के लिये सचेष्ट है और हर एक को अपनी पूर्ति करने का अधिकार प्राप्त है और इसलिये जगत् अनेक समस्याओं और पहेलियों का रूप लिये हुए है जिन्हें सुलझाना है क्योंकि इस सारी अस्तव्यस्तता के पीछे छिपा हुआ एक सत्य है और एक ऐक्य है जो समाधान के लिये और समाधान के द्वारा जगत् में अपनी अनावृत अभिव्यक्ति के लिये दबाव डाल रहा है ।
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मन को यह समाधान ढूंढ़ निकालना है लेकिन केवल मन को ही नहीं । यह समाधान जीवन में, व्यक्ति की क्रिया में तथा व्यक्ति की चेतना में भी होना चाहिये । चेतना ने शक्ति-रूप से जगत् की गतिविधि और उसकी समस्याओं का सृजन किया है । शक्तिरूप में चेतना को ही अपनी बनायी हुई समस्याओं का समाधान करना और जगत् की गतिविधि को उसके गुप्त अभिप्राय और विकसनशील सत्य की अनिवार्य पूर्ति तक ले जाना है । लेकिन इस जीवन ने क्रमश: तीन रूप धारण किये हैं । पहला है भौतिक रूप -यह एक डूबी हुई चेतना है जो अपनी ही ऊपरी आत्म-अभिव्यंजक क्रिया में और शक्ति के प्रतिनिधि रूपों में छिपी रहती है क्योंकि क्रिया में स्वयं चेतना दृष्टि से ओझल हो जाती है और रूप में खो जाती है । दूसरा है प्राणिक रूप -यह एक उभरती हुई चेतना है जो जीवन की शक्ति और रूप की वृद्धि, क्रियाशीलता एवं क्षय की प्रक्रिया के रूप में अर्द्ध-प्रकट होती और अपनी प्रारम्भिक कारा से अर्द्ध मुक्त होती है । वह प्राणिक लालसा और संतुष्टि या विकर्षण के रूप में शक्ति का स्पन्दन तो होता है परन्तु अपने अस्तित्व और अपने वातावरण के ज्ञान के रूप में प्रकाश का स्पन्दन पहले-पहल उसमें होता ही नहीं, और बाद में होता है तो अपूर्ण रूप से । तीसरा है मानसिक रूप -यह एक उभरी हुई चेतना है जो जीवन के तथ्य को मानसिक बोध के और मानसिक प्रतिक्रिया से युक्त इन्द्रिय ज्ञान के और विचार के रूप में प्रतिबिंबित करती है जब कि नये विचार के फलस्वरूप यह जीवन का तथ्य बनने की कोशिश करती है, सत्ता के आन्तरिक जीवन को बदलती है और बाहरी जीवन को उसके अनुरूप बदलने की चेष्टा करती है । यहां मन में चेतना क्रिया में और अपनी ही शक्ति के रूप की कारा से मुक्त हो जाती है लेकिन अब भी वह क्रिया और रूप की स्वामिनी नहीं बन पाती क्योंकि वह व्यष्टि-चेतना के रूप में उभरी है इसलिये अपनी समग्र क्रियाओं की एक आंशिक गति से ही अभिग होती है ।
मानव जीवन की सभी कठिनाइयों और जटिलताओं का मूल यहीं है । मनुष्य यह मानसिक सत्ता है । यह मानसिक चेतना मानसिक शक्ति के तौर पर काम करती हुई एक प्रकार से उस वैश्व शक्ति और प्राण से परिचित है जिसका वह एक भाग है लेकिन उसे उसकी सार्विकता या अपनी ही सत्ता की समग्रता का पूर्ण ज्ञान नहीं है इसलिये वह सामान्य जीवन या स्वयं अपनी सत्ता की समग्रता के साथ सचमुच प्रभावकारी ढंग से, प्रभुता की विजयी गति के साथ व्यवहार करने में असमर्थ है । वह जड़ भौतिक पदार्थ को जानने की कोशिश करता है ताकि वह भौतिक वातावरण का स्वामी बन सके, वह प्राण को जानना चाहता है ताकि प्राणिक जीवन का स्वामी बन सके, वह मन को जानना चाहता है ताकि मानसिकता की अंधेरी गति का स्वामी हो सके जिसमें वह पशु की तरह आत्मचेतना के प्रकाश की एक हल्की धारा नहीं, बढ़ते हुए ज्ञान की अधिकाधिक ज्वाला बन सके । इस भांति वह अपने-
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आपको जानना चाहता है ताकि अपना स्वामी बन सके, संसार को जानना चाहता है ताकि संसार का स्वामी बन सके । यह उसके अन्दर सत् की प्रेरणा है, यही चित् का, जो कि वह है, प्रयोजन है, यही शक्ति का, जो कि उसका प्राण है, अन्तर्वेग है, और यही उन सच्चिदानन्द की गुप्त इच्छा है जो व्यक्ति के रूप में एक ऐसे जगत् में प्रकट होते हैं जिसमें वे अपने-आपको व्यक्त करते पर फिर भी अपने-आपको नकारते प्रतीत होते हैं । तो ऐसी अवस्थाओं को पाना, जिनमें इस अन्तर्वेग की पूति हो, यही समस्या है जिसका समाधान पाने के लिये मनुष्य को अवश्य ही सतत परिश्रम करना है और इसके लिये वह अपनी सत्ता के स्वभाव के ही द्वारा और अन्तस्थ देव के द्वारा बाध्य किया जाता है और जबतक समस्या का समाधान नहीं हो जाता, अन्तर्वेग की पूर्ति नहीं हो जाती तबतक मानवजाति अपने श्रम से छुटकारा नहीं पा सकती । या तो मनुष्य को अपनी परिपूर्ति करके अपने अन्दर विराजमान भगवान् को संतुष्ट करना चाहिये या अपने अन्दर से एक नयी और अधिक महान् सत्ता को जन्म देना चाहिये जो उन्हें संतुष्ट करने में अधिक सक्षम हो । या तो स्वयं उसे दिव्य मानव बनना होगा या अतिमानव के लिये स्थान छोड़ना होगा ।
यह परिणाम, वस्तुएं जैसी हैं उन्हींसे युक्तियुक्त रूप में निकलता है, क्योंकि मनुष्य की मनोमय चेतना जड़ भौतिक के अंधकार में से चूंकि पूरी तरह उभरी हुई पूरी प्रबुद्ध चेतना नहीं है बल्कि इस महान् ऊर्ध्वगति में वह केवल एक अवस्थामात्र है इसलिये सृष्टि का यह विकासक्रम, जिसमें कि मनुष्य प्रकट हुआ है, वहीं नहीं रुक सकता जहां वह इस समय है । वह या तो उसके अन्दर अपनी वर्तमान अवस्था के परे जायेगा या फिर मनुष्य को ही पार कर जायेगा यदि उसमें स्वयं आगे जाने की शक्ति न रहीं तो । जो मानसिक भाव जीवन का तथ्य बनने की कोशिश कर रहा है उसे तबतक बढ़ते जाना होगा जबतक कि वह अस्तित्व का संपूर्ण सत्य न बन जाये, जबतक कि वह अपने-आपको एक-पर-एक चढ़ें आवरणों सें मुक्त कर उद्धासित न कर ले और चेतना के प्रकाश में प्रगतिशील रूप से परिपूर्ण और शक्ति में आनन्दमय रूप से परिपूर्ण न बन जाये । क्योंकि शक्ति और प्रकाश के इन्हीं दो पदों में और इन्हींके द्वारा सत् अपने-आपको अभिव्यक्त करता है, क्योंकि सत् अपने स्वरूप में चित् और शक्ति है । किन्तु तीसरे चरण, जिसमें ये दोनों घटक मिलते और एक हो जाते हैं और अंततः परिपूर्ण होते हैं वह है स्वयंभू सत्ता का परिपूरित आनन्द । हमारे जैसे विकसनशील जीवन के लिये इस अनिवार्य चरम सिद्धि का अर्थ होना चाहिये उस आत्मा को पाना जो स्वयं जीवन के आविर्भाव के समय उसमें बीज रूप में निहित थी और उस आत्मप्राप्ति के द्वारा वे सम्भाव्यताएं पूरी तरह क्रियान्वित हो जायेंगी जो इस जीवन को जन्म देनेवाली चित्-शक्ति की क्रिया में निहित थीं । हमारे मानव-अस्तित्व में इस
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भांति समायी हुई शक्यता है सच्चिदानन्द जो वैयक्तिक और वैश्व जीवन के एक विशेष सामंजस्य और एकीकरण में अपने-आपको सिद्ध कर रहे हैं ताकि मानव जाति एक सार्वभौम चेतना में, सार्वभौम शक्ति की गति में, सार्वभौम आनन्द में उस परात्पर 'कुछ' को व्यक्त करेगी जिसने अपने-आपको चीजों के इस रूप में ढाला है ।
समस्त प्राण अपने स्वभाव के लिये अपनी उपादान-चेतना की मूलभूत स्थिति पर निर्भर होता है क्योंकि जैसी चेतना होगी शक्ति भी वैसी ही होगी । जहां चेतना अनन्त, अविभक्त रूप से एक और अपनी क्रियाओं और रूपों से तब भी अतीत होती है जब कि वह उन्हें आलिंगित, अनुप्राणित, संगठित और कार्यान्वित कर रही होती है जैसी कि सच्चिदानन्द की चेतना है, तो वहां शक्ति भी वैसी ही होगी : अपने क्षेत्र-विस्तार में अनन्त, अपनी क्रियाओं में अविभक्त रूप से एक, अपनी शक्ति और आत्म-ज्ञान में परात्पर । जहां चेतना वैसी हो जैसी भौतिक प्रकृति की है यानी डूबी हुई, अपने-आपको भूली हुई, अपनी ही शक्ति के प्रवाह में बहती हुई जिसमें ऐसा लगता है कि वह कुछ जानती ही नहीं -यद्यपि इन दोनों तत्त्वों के बीच शाश्वत सम्बन्ध का स्वरूप ऐसा है कि जो प्रवाह उसे बहा ले जाता है, उसे वास्तव में वह स्वयं निर्धारित करती है -वहां शक्ति भी वैसी ही होगी; निश्चेतन और निश्चेतन की विकट दानवी गति होगी जिसे पता नहीं उसमें क्या समाया हुआ है । देखने में लगता है कि वह यान्त्रिक रूप से, एक प्रकार की अटल आकस्मिकता, अनिवार्यत: सुखद संयोग द्वारा अपने-आपको परिपूर्ण कर रही है जब कि वह सचमुच सदा ही ऋत और सत्य के विधान का ही निर्दोष रूप से पालन करती है जिसे उसके लिये उसकी गति में गुप्त रूप से स्थित परम चित्-पुरुष की इच्छा ने निर्धारित किया है । जहां चेतना अपने-आपमें विभाजित हो, जैसे मन में है, अपने-आपको विभिन्न केन्द्रों में सीमित रखती हो, अन्य केन्द्रों में क्या है और उनके साथ उसका क्या सम्बन्ध है यह जाने बिना हर एक को अपनी पूर्ति के लिये आगे बढ़ने को प्रवृत्त करती हो, वस्तुओं और शक्तियों को उनके यथार्थ एकत्व में नहीं बल्कि ऊपर से दीखनेवाले विभाजन और पारस्परिक विरोध में ही जानती हो तो वहां शक्ति भी वैसी ही होगी । यह वैसा ही जीवन होगा जैसा हम जी रहे हैं और अपने चारों ओर देखते हैं । यह व्यष्टिगत जीवनों का संघर्ष और गुंथन होगा जिसमें हर एक औरों के साथ अपने सम्बन्ध को जाने बिना बस, अपनी ही पूर्णता की खोज में रहता है, इसमें विभाजन और विरोध करनेवाली या मतभेद से भरी शक्तियों का संघर्ष या कठिन समझौता होगा । और मन में यह विभक्त विरोधी या विभिन्न विचारों का मिश्रण, आघात और द्वंद्व और समझौता होगा जो विचार एक-दूसरे की आवश्यकता के ज्ञान तक नहीं पहुंच सकते और न ही पीछे स्थित उस 'एकत्व' के तत्त्वों के रूप में अपना स्थान ले सकते हैं जो उनके द्वारा अपने-आपको प्रकट कर रहा है और जिसमें उनके विसंवादों का अन्त होगा । लेकिन जहां चेतना वैविध्य और एकत्व
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दोनों को अधिकार में लिये रहती है और एकत्व वैविध्य को अपने अन्दर धारण करता और नियन्त्रित करता है, जहां वह एक ही साथ 'सर्व' के धर्म, सत्य और ऋत तथा व्यष्टि के धर्म, सत्य और ऋत से परिचित रहती है और दोनों पारस्परिक ऐक्य में सचेतन रूप से सुसमन्वित हो जाते हैं, जहां चेतना का समग्र स्वभाव है कि एकमेव अपने-आपको बहु के रूप में जानता है और बहु अपने-आपको एकमेव के रूप में जानते हैं, वहां शक्ति का स्वभाव भी उसी प्रकार का होगा । वह एक ऐसा जीवन होगा जो सचेतन रूप से एकत्व के धर्म का पालन करेगा और साथ ही वैविध्य में प्रत्येक वस्तु को उसके अपने नियम और कर्म के अनुसार परिपूर्ण करेगा । वह ऐसा जीवन होगा जिसमें सभी व्यष्टि एक साथ अपने-आपमें और एक-दूसरेमें ऐसे रहेंगे जैसे बहु जीवों में एक ही चिन्मय पुरुष हो, बहु मन के अन्दर चेतना की एक ही शक्ति हो, बहु जीवनों में क्रियारत एक ही शक्ति का आनन्द हो, बहु हृदयों और शरीरों में आनन्द की एक ही वास्तविकता अपने-आपको परिपूर्ण कर रही हो ।
इन चारों अवस्थाओं में पहली चेतना और शक्ति के बीच इस सारे प्रगतिशील सम्बन्ध का मूल है, वह उनकी सच्चिदानन्द में संतुलन-स्थिति है जहां वे दोनों अभिन्न रूप से एक हैं कारण वहां शक्ति सत्ता की चेतना ही है जो अपने-आपको क्रियान्वित करती हुई भी अपने चेतना-स्वरूप को नहीं खोती । इसी तरह चेतना सत्ता की ज्योतिर्मय शक्ति है जो अपने और अपने आनन्द के बारे में नित्य अभिज्ञ रहती हुई भी परम प्रकाश और परम आत्मवत्ता की शक्ति के स्वरूप को नहीं खोती । दूसरा सम्बन्ध है भौतिक प्रकृति का । यह सत्ता की जड़ जगत् में संतुलन-स्थिति है जो सच्चिदानन्द का स्वयं अपने ही द्वारा महा-निषेध है क्योंकि यहां शक्ति का चेतना से प्रकटत: पूर्ण पार्थक्य है, सर्व-शासक और निर्भ्रान्त निश्चेततन का ऊपर से सत्य प्रतीत होनेवाला चमत्कार है । यह निश्चेतन है तो केवल एक मुखौटा ही लेकिन इसे आधुनिक विज्ञान ने भूल से वैश्व 'देव' का सच्चा चेहरा मान लिया है । तीसरा सम्बन्ध है सत्ता की मन और प्राण में सन्तुलन-स्थिति, जिस प्राण को हम इस निषेध में से उभरते हुए उसके द्वारा चकित और मनुष्य के चकरानेवाले आविर्भाव के साथ लगी हजारों समस्याओं से संघर्ष करते हुए पाते हैं । यह मनुष्य भौतिक विश्व के सर्वशक्तिमान् निश्चेतन में से प्रकट हुआ अर्ध शक्तिमान् सचेतन सत्ता है और इस संघर्ष की न तो अधीनता स्वीकार कर लेने से अंत हो जाने की कोई सम्भावना दीखती है और न ही विजयी समाधान का कोई स्पष्ट ज्ञान या अंतर्बोध ही मिलता है । चौथा सम्बन्ध है सत्ता की अतिमानस में संतुलन स्थिति । यह वह परिपूर्ण सत्ता है जो अंतत: सम्पूर्ण निषेध में से उभरती हुई आंशिक स्वीकृति के द्वारा उत्पन्न उन सभी जटिल समस्याओं को हल कर देगी । यह उसे अवश्य ही एकमात्र संभव मार्ग से हल करेगी, यह उस सबको, जो उस महा-
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निषेध के मुखौटे के पीछे सम्भाव्यता के रूप में वहां छिपा हुआ था और विकास-क्रम के तथ्य के रूप में अभिप्रेत था, उसे उसकी परिपूर्णतातक पहुंचाकर पूर्ण प्रस्थापना के द्वारा हल करेगी । वही यथार्थ मानव का यथार्थ जीवन है जिसकी ओर यह आंशिक जीवन और आंशिक रूप से अचरितार्थ मानवता बढ़ने का प्रयास कर रहीं है । हमारे अन्दर जो तथाकथित निश्चेतन है उसमें तो यह पूरे-पूरे ज्ञान और मार्गदर्शन के साथ प्रयास कर रही है लेकिन हमारे सचेतन भागों में धुंधले और संघर्षरत पूर्व-ज्ञान के साथ, अनुभूति के अंशों के साथ, आदर्श की झांकियों के साथ, सत्य-प्रकाश और सत्य-ज्ञान की झलकों के साथ प्रयास कर रही है जिन्हें हम कवि, पैगम्बर, ऋषि, परात्परवादी, रहस्यवादी, विचारक और मानवजाति के महान् मनीषियों और महान् आत्माओं में पाते हैं ।
हमारे सामने जो तथ्य इस समय उपस्थित हैं उनसे हम देख सकते हैं कि मन और प्राण की अपनी वर्तमान दशा में मनुष्य के अन्दर चेतना और शक्ति की जो अपूर्ण संतुलन-स्थिति है उससे आनेवाली कठिनाइयां, मुख्य रूप से तीन हैं । पहली, वह अपनी ही सत्ता के केवल एक छोटे-से भाग को जानता है । वह केवल अपने सतही मन, अपने सतही प्राण और अपने सतही शरीर को ही जानता है और वह भी सम्पूर्णतः नहीं । नीचे उसके अवचेतन और उसके अन्तस्तलीय मन की, उसके अवचेतन और उसके अन्तस्तलीय प्राणावेगो की, उसकी अवचेतन शारीरिकता की विशाल तरंगें हैं, यानी उसका वह बड़ा भाग जिसे वह नहीं जानता और जिसे वह नियन्त्रित नहीं कर सकता बल्कि वही उसे जानता और उसे नियन्त्रित करता है । कारण, सत्ता, चेतना और शक्ति चूंकि एक ही हैं, इसलिये हमें अपनी सत्ता के उतने ही भाग पर थोड़ा-बहुत सच्चा अधिकार प्राप्त हो सकता है जितने के साथ हम आत्म-अभिज्ञता के द्वारा एकात्म होते हैं । शेष भाग अवश्य ही अपनी उस चेतना के द्वारा ही शासित होता है जो हमारे सतही मन, प्राण और शरीर के लिये अन्तस्तलीय है । फिर भी चूंकि ये दोनों (सतही और अन्तस्तलीय) अलग-अलग गतियां न होकर एक ही गति हैं, इसलिये हमारे अधिक बड़े और अधिक समर्थ भाग को हमारे छोटे और कम समर्थ भागपर समग्र रूप में शासन और नियन्त्रण करना चाहिये, इसीलिये हम अपनी सचेतन सत्ता में भी अवचेतन और अन्तस्तलीय द्वारा शासित होते हैं । और हमारी आत्म-प्रभुता और हमारे आत्मनिदेशन में भी हम उसके केवल यंत्र भर हैं जो हमें अपने अन्दर निश्चेतन प्रतीत होता है ।
प्राचीन प्रज्ञा का यही तात्पर्य था जब उसने कहा कि मनुष्य यह कल्पना करता है कि वह स्वेच्छा से कार्य करता है लेकिन वास्तव में प्रकृति उसके सभी कर्मों को निर्धारित करती हैं और प्रज्ञावान् भी अपनी-अपनी प्रकृति का अनुसरण करने के लिये बाधित होते हैं । किन्तु प्रकृति हमारे अन्दर विराजमान 'पुरुष' की चेतना की सर्जक शक्ति है और वह पुरुष अपनी प्रतिलोम क्रिया और स्वयं अपना प्रतीयमान
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निषेध है, इसलिये उन्होंने उस पुरुष की प्रतिलोम सृजन-शक्ति को माया या ईश्वर की भ्रम पैदा करनेवाली शक्ति का नाम दिया और कहा कि सभी भूतों के हृदय में बैठे हुए ईश्वर सब भूतों को अपनी माया द्वारा मानों यंत्र पर चढ़ाकर घुमाते हैं । तो यह स्पष्ट है कि मनुष्य अपनी सत्ता का स्वामी तभी बन सकता है जब वह मन से परे जाकर ईश्वर के साथ आत्म अभिज्ञता में एक हो जाये, और चूंकि निश्चेतन में या स्वयं अवचेतना में यह संभव नहीं, चूंकि फिर से अपनी गहराइयों में, निश्चेतना की ओर डुबकी लगाने से कोई लाभ नहीं, यह ऐक्य पूरी तरह प्रतिष्ठित हो सकता है उस गहराई में उतरने से जहां ईश्वर आसीन हैं, उस जगह चढ़ने से जो अभी तक हमारे लिये अतिचेतन है यानी अतिमानस में चढ़ने से । क्योंकि वहां उच्चतर और दिव्य माया में, अपने धर्म और सत्य रूप में, उस सबका सचेतन ज्ञान रहता है जो अवचेतन में अपरा माया द्वारा निषेध की अवस्थाओं में -जो कि प्रस्थापना का रूप लेना चाह रहा है -कार्य करता है । क्योंकि यह निम्न प्रकृति उस चीज को कार्यान्वित करती है जिसकी उच्चतर प्रकृति में इच्छा की जाती है और जो वहां ज्ञात होती है । भागवत ज्ञान की यह भ्रामक शक्ति, जो संसार में रूपों की सृष्टि करती है, वह उसी ज्ञान की सत्य शक्ति द्वारा शासित होती है जो रूपों के पीछे के सत्य को जानती है और जिसके लिये ये रूप कार्य कर रहे हैं उस प्रस्थापना को हमारे लिये तैयार रखती है । यहां का असम्पूर्ण और प्रतीयमान मानव वहां पूर्ण और वास्तविक मानव को पायेगा । यह पूर्ण मानव उन स्वयंभू के साथ, जो अपने विश्व-विकास और विश्व-यात्रा के सर्वज्ञ प्रभु हैं, पूर्णतः एकात्म होकर सम्पूर्ण रूप से आत्म-चेतन प्राणी बनने में सक्षम होगा ।
दूसरी कठिनाई यह है कि मनुष्य अपने मन, अपने प्राण और अपने शरीर में वैश्व सत्ता से पृथक् हो गया है इसलिये जैसे वह अपने-आपको नहीं जानता उसी तरह, बल्कि उससे भी बढ़कर अपने साथी मनुष्यों को जानने में असमर्थ है । वह उनके बारे में अनुमान, परिकल्पना, निरीक्षण और सहानुभूति की एक अपूर्ण क्षमता, एक अनगढ़ मानसिक रचना बना लेता है, परन्तु यह तो ज्ञान नहीं है । ज्ञान तो केवल सचेतन तादात्म्य द्वारा ही आ सकता है क्योंकि वही एकमात्र सच्चा ज्ञान है -सत्ता की आत्म-अभिज्ञता । हम अपने-आपको बस उतना ही जानते हैं जितना सचेतन रूप से आत्म-अभिज्ञ रहते हैं, बाकी छिपा रहता है । इसी तरह हम जिसके साथ अपनी चेतना में एक हो जाते हैं उसीको जान सकते हैं, और वह भी उसी हदतक जहांतक उसके साथ एक हो सकें । अगर ज्ञान के साधन परोक्ष और अपूर्ण हों तो जो ज्ञान प्राप्त होगा वह भी परोक्ष और अपूर्ण होगा । यह ज्ञान हमें अनुमान पर आधारित कुछ अनाड़ीपन के साथ, यद्यपि मन की दृष्टि से वह काफी कुछ पूर्णता ही होगी, कुछ एक सीमित व्यावहारिक उद्देश्यों, आवश्यकताओं और सुख-सुविधाओं को पा लेने की सामर्थ्य प्रदान करेगा और जिसे हम जानते हैं उसके
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साथ सम्बन्धों का एक अपूर्ण और अस्थिर सामंजस्य ले आयेगा, पर उसके साथ पूर्ण सम्बन्धोंपर पहुंचना तो केवल सचेतन एकात्मता के द्वारा ही हो सकेगा । इसलिये हमें केवल प्रेम से पैदा हुई सहानुभूति या मानसिक ज्ञान से पैदा होनेवाली समझ ही नहीं, अपने साथी प्राणियों के साथ सचेतन ऐक्य पर पहुंचना चाहिये, यह मानसिक ज्ञान हमेशा ऊपरी सतह के जीवन का ज्ञान होता है इसलिये अपने-आपमें अपूर्ण और उनके अन्दर और हमारे अन्दर जो अवचेतन और अन्तस्तलीय है उसमें से अज्ञात और अनियन्त्रित के प्रवाह के कारण निषेध और अवसाद के अधीन रहेगा । हमें अपने साथी प्राणियों के साथ सचेतन एकत्व में पहुंचना होगा । लेकिन यह सचेतन एकात्मता तभी स्थापित हो सकती है जब हम उसमें प्रवेश करें जिसमें हम उनके साथ एक हैं यानी वैश्व सत्ता में और विश्व सत्ता की परिपूर्णता सचेतन रूप से केवल वहां अस्तित्व रखती है जो हमसे अतिचेतन है यानी अतिमानस में क्योंकि यहां हमारी सामान्य सत्ता में उसका अधिकांश अवचेतन रहता है अतः उसे मन, प्राण, शरीर की इस सामान्य सन्तुलन-स्थिति में नहीं पाया जा सकता । निम्नतर सचेतन प्रकृति अपनी सभी क्रियाओं में अहंकार से बंधी रहती है, व्यष्टिभाव के खूंटे से तिहरी जंजीर से बंधी रहती है । एकमात्र अतिमानस ही विविधता के बीच एकत्व पर अधिकार रखता है ।
तीसरी कठिनाई है विकासशील सत्ता में शक्ति और चेतना के बीच विभाजन । पहले तो वह विभाजन है जिस स्वयं क्रम-विकास ने अपने तीन उत्तरोत्तर रूपायनों - भौतिक, प्राण और मन -में खड़ा किया है जिनमें हर एक के काम करने का अपना विधान है । प्राण शरीर के साथ लड़ता रहता है, वह उसे बाधित करके अपनी सीमित सामर्थ्य से जीवन की कामनाओं, आवेगों, तुष्टियों और मांगों की तृप्ति करने की कोशिश करता है, लेकिन यह किसी अमर दिव्य शरीर के लिये ही संभव है । और शरीर -अत्याचारपीड़ित और दास बना हुआ शरीर, कष्ट पाता और सदा प्राण की मांगों के विरुद्ध मूक विद्रोह करता रहता है । मन बाकी दोनों के साथ युद्ध करता है और कभी प्राणिक अनुरोधों पर लगाम लगाता और शरीर के ढांचे को प्राण की कामनाओं, आवेगों और हाक-हांककर थका देनेवाली ऊर्जाओं से बचाने की कोशिश करता है । वह प्राण पर भी अधिकार करने की कोशिश करता है और उसकी ऊर्जा का उपयोग अपनी लक्ष्य-सिद्धि के लिये, मन की अपनी क्रियाओं के अधिकाधिक उल्लास के लिये, मानसिक, सौंदर्यग्राही, भावमय उद्देश्यों की पूर्ति के लिये और मानव जीवन में उन्हें चरितार्थ करने के लिये करता है । प्राण भी देखता है कि वह दास बन गया है और उसका दुरुपयोग हो रहा है । वह अपने ऊपर डटे हुए अज्ञानी अर्द्ध बुद्धिमान् अत्याचारी के विरुद्ध प्रायः ही विद्रोह करता रहता है । यह हमारे अंगों का ऐसा संघर्ष है जिसका सन्तोषजनक समाधान मन के बस का नहीं है क्योंकि उसे एक ऐसी समस्या से पाला पड़ता है जो उसके लिये असाध्य है,
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वह है मर्त्य प्राण और शरीर में अमरता पाने की अभीप्सा । वह या तो समझौते के एक लंबे क्रम तक पहुंच सकता है या फिर जड़वादी के साथ हमारी प्रतीयमान सत्ता की मर्त्यता की अधीनता को स्वीकार करता हुआ या संन्यासी अथवा धार्मिक व्यक्ति की तरह पार्थिव जीवन का परित्याग और तिरस्कार करता हुआ जीवन के अधिक सुखद और अधिक आरामदेह क्षेत्रों में आश्रय लेकर समस्था से पिंड छुड़ा सकता है । किंतु सच्चा समाधान है मन के परे ऐसे तत्त्व को पाने में जिसका धर्म है अमरता और उसके द्वारा अपने जीवन की मर्त्यता पर विजय पाना ।
लेकिन साथ ही हमारे अन्दर प्रकृति की शक्ति और सचेतन सत्ता के बीच आधारभूत विभाजन भी है जो इस असमर्थता का मौलिक कारण है । न केवल मानसिक, प्राणिक, और भौतिक सत्ताओं के बीच परस्पर विभाजन है बल्कि उनमें से हर एक अपने-आपमें भी विभक्त है । शरीर का सामर्थ्य उसके भीतर रहनेवाली सहज प्रवृत्तिमय आत्मा या सचेतन सत्ता से यानी भौतिक पुरुष से कम है; प्राणिक शक्ति का सामर्थ्य आवेगमय आत्मा से, प्राणिक सचेतन सत्ता से या उसके अन्दर स्थित पुरुष से कम है; मानसिक ऊर्जा का सामर्थ्य उसके अन्दर रहनेवाली बौद्धिक तथा भावनामय आत्मा से, मनोमय पुरुष से कम है । क्योंकि अन्तरात्मा वह आन्तरिक चेतना है जो अपनी पूर्ण आत्मसिद्धि के लिये अभीप्सा करती है इसलिये वह सदा ही तात्कालिक व्यक्तिगत रूपायन से आगे निकल जाती है और वह शक्ति, जिसने रूपायन में अपनी एक विशिष्ट स्थिति अपनायी है, वह अन्तरात्मा द्वारा हमेशा उसके लिये धकेली जाती है जो उस स्थिति विशेष के लिये असामान्य है, उससे परे है । इस भांति हमेशा धकेले जाने के कारण उसे उत्तर देने में बहुत कष्ट होता है और वर्तमान क्षमता से अधिक क्षमता की ओर विकसित होते हुए तो और भी अधिक । इस पुरुष-त्रयी की मांगों को पूरा करने में वह उद्विग्र हो जाती है और सहज वृत्ति को सहज वृत्ति के विरुद्ध, आवेग को आवेग के विरुद्ध, भाव को भाव के विरुद्ध, विचार को विचार के विरुद्ध खड़ा करने में, कभी इसको संतुष्ट करने, उसको नकारने, फिर पछताने और जो किया जा चुका है उसपर वापिस आने, व्यवस्था करने, क्षतिपूर्ति करने और फिर से व्यवस्था करने के लिये बाधित होती है । यह अनन्त कालतक चलता रहता है परन्तु एकत्व के किसी तत्त्व तक नहीं पहुंचता । और फिर मन में जो चित्-शक्ति है जिसे सामंजस्य और एकता लानी चाहिये वह न केवल ज्ञान और इच्छा शक्ति में सीमित है बल्कि ज्ञान और इच्छा में प्रायः विरोध और वैषम्य रहता है । एकत्व का तत्त्व ऊपर अतिमानस में रहता है क्योंकि केवल वहीं समस्त विविधताओं में सचेतन एकत्व है । केवल वहीं इच्छा शक्ति और ज्ञान समान और संपूर्ण सामंजस्य में रहते हैं । वहीं चेतना और शक्ति अपने दिव्य समीकरण तक पहुंचती हैं ।
मनुष्य विकास करता हुआ जितना ही आत्म-सचेतन और यथार्थतः विचारशील
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प्राणी बनता जाता है उतना ही वह अपने अंगों के इस सम्पूर्ण विरोध और वैषम्य के बारे में तीव्र रूप में अभिज्ञ होता जाता है और वह अपने मन, प्राण और शरीर का सामंजस्य, ज्ञान, इच्छा-शक्ति और भावना का सामंजस्य, अपने सभी अंगों का सामंजस्य खोजता है । कभी-कभी यह कामना एक ऐसे कामचलाऊ समझौते पर पहुंच कर ही रुक जाती है जो अपने साथ एक सापेक्ष शांति ले आता है । लेकिन समझौता मार्ग पर एक पड़ाव ही हो सकता है क्योंकि भीतर आसीन देव अन्तत: ऐसे पूर्ण सामंजस्य से कम में संतुष्ट न होंगे जो हमारी बहुमुखी शक्यताओं के सर्वांगीण विकास को अपने अन्दर लिये हुये न हो । इससे कम तो समस्या का समाधान नहीं, उसे टालना होगा । या फिर वह केवल एक अस्थायी समाधान होगा जो आत्मा के सतत आत्म-संवर्धन और आरोहण में एक विश्रामस्थल के जैसा होगा । इस प्रकार का पूर्ण सामंजस्य आवश्यक शर्तों के रूप में पूर्ण मानसिकता, प्राणशक्ति की पूर्ण क्रीड़ा और पूर्ण भौतिक जीवन की मांग करता है । लेकिन जो मूलतः है ही अपूर्ण उसके अन्दर हम पूर्णता का तत्त्व और पूर्णता की शक्ति कहां पायेंगे ? मन की जड़ें विभाजन और परिसीमन में हैं, वह हमें यह त्तत्त्व नहीं दे सकता और न प्राण और शरीर ही यह दे सकते हैं, वे विभाजनकारी और सीमाकारी मनकी ऊर्जा और उसका ढांचा हैं । पूर्णता का तत्त्व और पूर्णता की शक्ति हैं तो अवचेतन में परन्तु हैं अपरा माया के आच्छादन या आवरण में लिपटे हुए, वे एक मूक पूर्वाभास की तरह, अनुपलब्ध आदर्श के रूप में उभर रहे हैं । अतिचेतन में वे खुले हुए प्रतीक्षा करते हैं, शाश्वत रूप में उपलब्ध होते हैं लेकिन फिर भी हमारे आत्म-अज्ञान के पर्दे से हमसे पृथक् रहते हैं । तो हमें सामंजस्यकारी शक्ति और ज्ञान की खोज ऊपर करनी होगी न कि अपनी वर्तमान अवस्था में और न ही उससे नीचे ।
इसी तरह जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता है वैसे-वैसे उसे जगत् के साथ अपने सम्बन्ध को शासित करनेवाले विरोध और अज्ञान की तीव्र रूप में अभिज्ञता होती जाती है, और यह उसके बारे में तीव रूप से असहिष्णु हो उठता है और वह सामंजस्य, शान्ति, आनन्द और एकत्व के तत्त्व को पाने के लिये अधिकाधिक जोर लगाता है । यह भी उसे ऊपर से ही मिल सकता है । क्योंकि केवल तभी जब एक ऐसे मन का विकास हो जाये जो दूसरों के मनों का वैसा ही ज्ञान रखता हो जैसा उसका अपना है, और जो हमारे पारस्परिक अज्ञान और गलतफहमियों से मुक्त हो, जब ऐसी इच्छाशक्ति का विकास हो जाये जो दूसरों की इच्छा-शक्ति को अनुभव करती और उनके साथ एकात्म हो जाती हो, जब ऐसे भावुक हृदय का विकास हो जाये जो दूसरों के भावों को अपने ही भावों की भांति अपने अन्दर रखता हो, जब एक ऐसी प्राण-शक्ति का विकास हो जाये जो दूसरों की ऊर्जाओं को अपनी ही ऊर्जाओं की भांति अनुभव करती और स्वीकार करती हो और अपनी ही ऊर्जाओं
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की भांति उनकी भी परिपूर्ति करना चाहती हो, जब एक ऐसे शरीर का विकास हो जाये जो बन्दीगृह की दीवार और जगत् के विरुद्ध आत्म-रक्षा न हो, परन्तु यह सब 'ज्योति' और 'सत्य' के विधान के अन्तर्गत हो -ये 'ज्योति' और 'सत्य' हमारे और दूसरों के मनों, इच्छा-शक्तियों, भावों और प्राणिक ऊर्जाओं की भटकनों और भूलों से, अत्यधिक पाप और मिथ्यात्व से परे होंगे -केवल तभी आध्यात्मिक और व्यावहारिक दृष्टि से मनुष्य का जीवन अपने साथी प्राणियों के साथ एक हो सकता और व्यष्टि अपनी वैश्व आत्मा को फिर से पा सकता हैं । अवचेतन को यह सर्वमय जीवन प्राप्त है और अतिचेतन को भी, लेकिन वहां ऐसी अवस्थाओं में प्राप्त है जो इसे आवश्यक बना देती हैं कि हमारी गति ऊर्ध्वमुखी हो । कारण उन देव की ओर नहीं जो ''निश्चेतन समुद्र में छिपे हुए हैं, जहां अंधकार अंधकार में लिपटा हुआ है''१ बल्कि उन देव की ओर जो शाश्वत ज्योति के समुद्र में, हमारी सत्ता के उच्चतम आकाश में आसीन हैं,२ उनकी ओर आदिकाल में शुरू हुआ यह संवेग बढ़ रहा है और यह विकासमान आत्मा को ऊपर की ओर बढ़ाता हुआ हमारी मानव जाति के स्तर तक ले आया है ।
यदि जाति को कहीं रास्ते में ही नहीं गिर जाना और विजय को उत्सुक प्रसविनी दिव्य माता की किन्हीं और नयी सृष्टियों के लिये नहीं छोड़ देना है तो उसे इस आरोहण के लिये अभीप्सा करनी चाहिए । निश्चय ही यह आरोहण प्रेम, मानसिक प्रकाश, अधिकार और आत्मदान की प्राणिक प्रेरणा के ही रास्ते से होगा, किन्तु उसे और भी परे अतिमानस के एकत्व की ओर ले जायेगा जो उनका अतिक्रमण और उनकी पूर्तिr करता है । मानव जाति को अपने चरम श्रेय और मुक्ति की खोज अपने मानव जीवन को, अपनी सत्ता और उसके सारे अंगों में उन एकमेवाद्वितीय के साथ और सबके साथ सचेतन एकत्व की अतिमानसिक उपलब्धि के आधार पर प्रतिष्ठित करके करनी होगी । इसीको हमने जीवन के 'परमदेव' की ओर आरोहण में उसकी चतुर्थ भूमिका कहा है ।
१तम आसीत् तमसा गूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलम्-ऋग्वेद १०.१२९.३
२या रोचने परस्तात्सूर्यस्य यश्चावस्तादुपतिष्ठन्त आप: ।-ऋग्वेद ३.२२.३ वे जल जो कि सूर्य से ऊपर ज्योनिर्मय लोकों में हैं और वे जो कि नीचे रहते हैं ।
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