Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय १९
प्राण तथा जीवन
प्राणो हि भूतानामायुः तस्मात्सर्वायुषमुच्यते ।
प्राण-शक्ति ही सब भूतों का जीवन है इसी कारण उसे जीवन का विश्व-तत्त्व कहा जाता हैं ।
तैत्तिरीयोपनिषद् २,३
तो हम देख पाते हैं कि मन, जो कि हमारे मानव अस्तित्व को बनानेवाले निम्न तीन तत्त्वों में सबसे ऊंचा है, वह अपने दिव्य मूल रूप में क्या है और उसका सत्य-चेतना के साथ क्या संबंध है । वह दिव्य चेतना की एक विशेष क्रिया है बल्कि यूं कहें कि वह सारी सृजनकारी क्रिया की अंतिम लड़ी हैं । मन ही पुरुष को यह क्षमता प्रदान करता है कि वह अपने विभिन्न रूपों और विभिन्न शक्तियों के संबंधों को एक-दूसरे से अलग रख सके । वह ऐसे आभासी भेदों की रचना करता है जो सत्य-चेतना से गिरे हुए व्यष्टि-जीव के आगे मूलगत विभाजन का रूप ले लेते हैं और उस आदि विकृति द्वारा वह समस्त परिणामगत विकृतियों का जनक बन जाता है, ये विकृतियां हमें, अज्ञान में रहनेवाली अंतरात्मा के जीवन के लिये स्वाभाविक, विपरीत द्वंद्वों और विरोधों के रूप में जान पड़ती हैं । लेकिन जबतक मन अतिमानस से अलग नहीं हो जाता तबतक वह विकृतियों और मिथ्यात्वों को नहीं, वैश्व सत्य की विभिन्न क्रियाओं को सहारा देता है ।
इस भांति मन एक सृजनकारी वैश्व साधन प्रतीत होता है लेकिन अपनी मानसिकता के बारे में सामान्यतः हमारी जो धारणा है वह ऐसी नहीं है । हम तो बल्कि उसे प्रधानत: बोध प्राप्त करनेवाला एक अंग समझते हैं, उन चीजों का बोध प्राप्त करनेवाला एक अंग जो जड़तत्त्व में काम कर रही शक्ति ने पहले से बना रखा है । और जो मौलिक सृजन हम उसमें स्वीकार करते भी हैं वह, शक्ति ने जड़तत्त्व में जो रूप पहले से विकसित कर रखे हैं, उन रूपों से नये-नये संयोजन बनाने भर का गौण सृजन है । लेकिन भौतिक विज्ञान की नवीनतम खोजों की सहायता से जिस ज्ञान को हम अब फिर से प्राप्त कर रहे हैं उसने हमें यह बतलाना शुरू कर दिया है कि इस शक्ति और इस जड़ तत्त्व में एक अवचेतन मन कार्य कर रहा है जो निश्चय ही अपने आविर्भाव के लिये उत्तरदायी है । पहले प्राण के रूप में और फिर स्वयं मन के रूप में, पहले वनस्पति-जीवन एवं प्रारंभिक पशु की स्नायविक चेतना में और फिर विकसित पशु और मनुष्य की सदा विकसनशील मानसता में आविर्भाव के लिये उत्तरदायी होता है । और जैसा कि हम
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पहले ही पता लगा चुके हैं कि जड़ केवल शक्ति का द्रव्य-रूप ही है उसी तरह हमें यह भी पता चलेगा कि भौतिक शक्ति मन का ऊर्जा-रूप भर है । जड़ शक्ति वस्तुत: इच्छा-शक्ति की एक अवचेतन क्रियामात्र है, इच्छा-शक्ति हमारे अंदर उसमें कार्य करती है जो हमें प्रकाश मालूम होता है, यद्यपि सच कहा जाये तो वह अर्द्ध-प्रकाश से बढ़कर नहीं है, और भौतिक शक्ति उसमें कार्य करती है जो हमें बुद्धिहीनता का अंधकार मालूम होता है; तथापि ये दोनों वस्तुत: और सार रूप में एक हैं, जैसा कि जड़वादी विचार ने वस्तुओं के गलत या निचले छोर से इस तथ्य को सहजप्रेरणावश सदा महसूस किया है और जैसा कि शिखर से काम करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान ने इस तथ्य को बहुत पहले ही खोज लिया था । इसलिये हम कह सकते हैं कि एक अवचेतन मन या बुद्धि ने ही शक्ति को अपने चालक बल, अपने कार्यकारी स्वभाव या अपनी प्रकृति के रूप में प्रकट करते हुए इस भौतिक जगत् का सृजन किया है ।
लेकिन चूंकि जैसा कि हमने अब जान लिया है, मन कोई स्वतंत्र या मौलिक सत्ता न होकर केवल सत्य-चेतना या अतिमानस की अंतिम क्रिया हैं अतः जहां कहीं मन है वहां अतिमानस को होना ही चाहिये । अतिमानस या सत्य चेतना ही वैश्व अस्तित्व का वास्तविक सृजनात्मक माध्यम है । यहांतक कि जब मन अपने मूल स्रोत से अलग होकर अपनी अंधकारमय चेतना में होता है तब भी अतिमानस की वह विशालतर गति वहां मन की क्रियाओं में सदा विद्यमान रहती है । वह उन्हें अपने उचित संबंध बनाये रखने के लिये बाधित करती है, उनके अंदर से उन अनिवार्य परिणामों को विकसित करती है जिन्हें वे अपने अंदर धारण किये रहती हैं, उचित बीज से उचित वृक्ष उत्पन्न करती है, यहांतक कि वह जड़ शक्ति जो इतनी अनगढ़, तामसिक और अंधकारभरी चीज है उसकी क्रियाओं को भी ऐसा परिणाम पैदा करने के लिये बाधित करती है कि उनसे विधान का, व्यवस्था का, सही संबंधों का जगत् बने, न कि जैसा कि अन्यथा हुआ होता, टकराते संयोगों का और अव्यवस्था का जगत् । स्पष्ट ही, यह व्यवस्था और उचित संबंध केवल सापेक्षिक ही हों सकते हैं, वे वह परम व्यवस्था और परम ऋत नहीं हो सकते जिनका राज्य तब होता यदि मन अपनी चेतना में अतिमानस से पृथक् न हुआ होता; यह क्रम-विन्यास, यह व्यवस्था ऐसे परिणामों के कारण है जो विभाजनकारी मन की क्रिया के, उसके पृथक्कारी विरोधों की रचना के, उसके एक ही सत्य के द्वयात्मक विरोधी पहलुओं के लिये उचित और स्वाभाविक है । भागवत चेतना अपने इस द्वयात्मक या विभाजित प्रतिरूप के भाव की कल्पना करके और उसे क्रिया में केलकर उसे वहां से सत्य-भाव में लाती है और वहांसे विभिन्न संबंधों के अपने अवर सत्य या अनिवार्य परिणाम को -पीछे स्थित संपूर्ण सत्यचेतना की नियामिका क्रिया के द्वारा -व्यावहारिक रूप में जीवन-सत्व में प्रकट
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करती है । क्योंकि जगत् में विधान या सत्य का स्वरूप यही है कि जो कुछ सत्ता में समाया हुआ है, स्वयं वस्तु के सार और स्वरूप के अंदर उपस्थित है, उसके स्वभाव और स्वधर्म में छिपा हुआ है उसे दिव्य ज्ञान की दृष्टि के अनुसार कार्यान्वित और बाहर प्रकट करे । अंत:प्रकाशक थोड़े-से शब्दों में ज्ञान-जगत् को अपने अंदर समा रखनेवाले उपनिषद् के अद्भुत सूत्रों में कहें तो '' कविर्मनीषी परिभू: स्वयमभूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्य: '' (ईशोपनिषद् ८) -स्वयंभू ने ही सर्वत्र संभूति में आते समय द्रष्टा और मनीषी-रूप में सभी चीजों को, जो कुछ वे हैं उसके सत्य के अनुसार, सनातन काल से यथोचित क्रम में व्यवस्थित किया है ।
फलस्वरूप, हम जिस त्रिलोक में निवास करते हैं, यानी मन, प्राण और शरीर के जगत् में, वह केवल अपने उपलब्ध विकास की वर्तमान अवस्था में ही त्रिविध है । जड़तत्त्व में अंतर्लीन जीवन विचारशील और मानसिक रूप से सचेतन जीवन के रूप में प्रकट हुआ है । लेकिन मन के अंदर और इसी कारण जीवन और जड़ तत्त्व के अंदर भी अतिमानस अंतर्लीन है जो अन्य तीनों का आदि कारण और शासक है । इसे भी उभरना चाहिये । हम जगत् के मूल में बुद्धि की खोज करते हैं क्योंकि बुद्धि ही वह उच्चतम तत्त्व है जिससे हम अभिज्ञ हैं और वही हमें लगता है कि हमारी समस्त क्रिया और रचना का नियंत्रण करता और उनका कारण बताता है । अतः यदि विश्व में कोई चेतना है तो हम मान लेते हैं कि वह बुद्धि या मानसिक चेतना ही होगी । लेकिन बुद्धि अपनी क्षमता की सीमा में अपने-आपसे श्रेष्ठतर सत्ता के एक सत्य की क्रिया का अवलोकन करती, उसे प्रतिबिंबित करती तथा व्यवहार में लाती है । अत: जो शक्ति पीछे रहकर काम करती है उसे उस सत्य के अनुरूप चेतना का एक और ही श्रेष्ठतर रूप होना चाहिये । हमें इसके अनुसार, अपनी धारणा को सुधारना होगा और यह प्रस्थापना करनी होगी कि इस भौतिक विश्व की रचना किसी अवचेतन मन या बुद्धि ने नहीं बल्कि अंतर्लीन अतिमानस ने की है । और वह अतिमानस शक्ति के अंदर अवचेतन रूप से विद्यमान उसकी जो ज्ञानात्मिका इच्छा है उसके प्रत्यक्षत: सक्रिय एक विशेष रूप के तौर पर मन को अपने आगे रखता है और सत्ता के सत्त्व के अंदर अवचेतन रूप से विद्यमान जो जड़ शक्ति या इच्छा है उसे अपने कार्यान्वित करनेवाले स्वभाव या प्रकृति के रूप में व्यवहार में लाता है ।
लेकिन हम देखते हैं कि यहां पर मन शक्ति के एक विशिष्टीकरण के रूप में अभिव्यक्त हुआ है जिसे हम जीवन का नाम देते हैं । तब फिर जीवन है क्या और उसका अतिमानस के साथ, सच्चिदानंद की उस परम त्रयी के साथ, जो सत्य-संकल्प या सत्य चेतना द्वारा विश्व में सक्रिय है, क्या संबंध है ? त्रयी के किस तत्त्व से उसका जन्म होता है ? या सत्य या आभास की किस दैवी या अदैवी
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आवश्यकता के कारण वह अस्तित्व में आता है ? शताब्दियों से यह प्राचीन पुकार गूंजती आ रही है कि जीवन एक अशुभ है, एक भ्रम, प्रलाप और पागलपन है जिसमें से भागकर हमें शाश्वत सत्ता में विश्राम लेना है । क्या यह ऐसा है और अगर है तो क्यों ? शाश्वत ने क्यों अपने-आपपर या अपनी विकराल छलनामयी माया के द्वारा अस्तित्व में लाये गये जीवों पर मनमौजी ढंग से यह अशुभ आरोपित किया है, यह प्रलाप या पागलपन लादा है ? या फिर इसकी जगह क्या यह कोई दिव्य तत्त्व है जो अपने-आपको यूं प्रकट करता है, क्या शाश्वत के आनंद की कोई शक्ति ही है जिसे प्रकट होना था और जिसने देश और काल में जीवन के कोटि- कोटि रूपों के, जिनसे ब्रह्मांड के अगणित लोक भरे पड़े हैं, इस सतत विस्फोट में अपने-आपको उंडेल दिया है ?
जब हम जड़ तत्त्व को आधार बनाकर पृथ्वी पर प्रकट होनेवाले जीवन का अध्ययन करते हैं तो देखते हैं कि वह तत्त्वतः एक वैश्व ऊर्जा का ही रूप है, उसकी भावात्मक और अभावात्मक धारा या क्रियाशील गति, उस शक्ति की सतत क्रिया या लीला है जो रूपों का निर्माण करती, सतत उद्दीपन की धारा के द्वारा उनमें ऊर्जा का संचार करती और उनके उपादान के विघटन और पुनर्नवीकरण की अविरत प्रक्रिया द्वारा उनमें स्थायित्व लाती है । इससे ऐसा दिखलायी देगा कि हम जीवन और मृत्यु के बीच जो स्वाभाविक विरोध बना लेते हैं वह हमारी मानसिकता की एक भूल है, उन मिथ्या विरोधों में से एक है जो आंतरिक सत्य के लिये मिथ्या है जब कि ऊपरी व्यावहारिक अनुभूतियों के लिये प्रामाणिक और मान्य है । हमारी मानसिकता इन प्रत्यक्ष रूपों के धोखे में आकर सदा उन्हें वैश्व ऐक्य में लाती रहती है । जीवन की एक प्रक्रिया होने के सिवा मृत्यु की कोई और वास्तविकता नहीं है । उपादान का विघटन और उपादान का पुनर्नवीकरण, रूप का संरक्षण और रूप का परिवर्तन --ये जीवन की सतत प्रक्रिया हैं । मृत्यु केवल तेजी से होनेवाला विघटन है जो जीवन के परिवर्तन की आवश्यकता और रूपात्मक अनुभूतियों में विभिन्नता के अधीन है । यहांतक कि शरीर की मृत्यु में भी जीवन का अंत नहीं हो जाता । केवल जीवन के एक रूप की सामग्री को तोड़ा जाता है ताकि वह जीवन के दूसरे रूपों के लिये सामग्री के तौर पर काम आ सके । इसी तरह हम निश्चित हो सकते हैं कि प्रकृति के अविकरी विधान में अगर शारीरिक रूप में मानसिक या चैत्य ऊर्जा है तो वह भी नष्ट नहीं होती, केवल एक रूप से दूसरा रूप धारण करने के लिये, पुनर्जन्म की किसी प्रक्रिया द्वारा या नये शरीर में अंतरात्मा को प्रतिष्ठित करने के लिये अलग हों जाती है ।
परिणामस्वरूप यह प्रतिपादन किया जा सकता है कि एक ही सर्वव्यापी प्राण या सक्रिय ऊर्जा है जो भौतिक विश्व के इन सभी रूपों का सृजन करती है । भौतिक रूप तो उसकी बाह्यतम क्रिया मात्र है । प्राण नष्ट नहीं हो सकता, वह शाश्वत है ।
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चाहे विश्व का सारा रूप ही नष्ट हो जाये तब भी उसका अपना अस्तित्व बना रहेगा और वह पहले विश्व की जगह एक और विश्व बनाने में सक्षम होगा । निश्चय ही यदि कोई उच्चतर शक्ति उसे या वह स्वयं ही अपने-आपको विश्राम की अवस्था में न रोक रखे तो वह अनिवार्य रूप से सृजन करता चला जायेगा । उस दशा में प्राण और कुछ नहीं, बस वह शक्ति है जो जगत् में रूपों का निर्माण करती, उनका संरक्षण करती और उनका विनाश करती है । प्राण पृथ्वी के रूप में भी अपने-आपको उतना ही अभिव्यक्त करता है जितना पृथ्वी पर आनेवाली वनस्पति में और वनस्पति की जीवनी-शक्ति को या एक दूसरे को निगलकर अपने अस्तित्व को बनाये रखनेवाले प्राणियों एवं पशुओं में । यहां समस्त अस्तित्व वैश्व जीवन है जो जड़-पदार्थ का रूप धारण करता है । हो सकता है कि इस प्रयोजन के लिये, अवमानसिक संवेदन और मानसभावापन्न प्राण के रूप में उभरने से पहले, उसने जीवन-प्रक्रिया को भौतिक प्रक्रिया में छिपा रखा हों, पर फिर भी सभी दशाओं में वह होगा वह-का-वही सृजनकारी जीवन-तत्त्व ही ।
तथापि यह कहा जा सकता है कि जीवन से हम जो मतलब समझते हैं वह यह नहीं है । हमारा मतलब वैश्व शक्ति के उस परिणाम विशेष से होता है जिसके साथ हम परिचित हैं, जो अपने-आपको पशु और वनस्पति में तो प्रकट करता है पर धातु पत्थर या गैस में नहीं, जो पशु के कोषाणु में तो क्रिया करता है पर शुद्ध भौतिक अणु में नहीं । अतः अपने आधार के बारे में निश्चित होने के लिये हमें यह जांच करनी होगी कि शक्ति की क्रीड़ा के जिस परिणाम विशेष को हम जीवन कहते हैं उसका यथार्थ स्वरूप क्या है और निष्प्राण वस्तुओं में शक्ति की क्रीड़ा का जो दूसरा परिणाम है जो, हम कहते हैं कि जीवन नहीं है, उससे वह किस तरह भिन्न है । हम तुरंत देखते हैं कि यहां धरती पर शक्ति की क्रीड़ा के तीन प्रदेश हैं । पहला है प्राचीन वर्गीकरण के अनुसार पशु-जगत् जिसमें हमारी भी गिनती है, दूसरा है वनस्पति-जगत् और तीसरा है विशुद्ध जड़-जगत् जो, हमारी मान्यता के अनुसार, जीवन-रहित है । हमारे अंदर का जीवन वनस्पति के जीवन से किस तरह भिन्न है ? और वनस्पति का जीवन जीवन-रहित जगत् से, उदाहरणार्थ प्राचीन भाषा में धातु व खनिज कहे जानेवाले जगत् से अथवा भौतिक विज्ञान द्वारा खोजे गये नये रासायनिक जगत् से किस तरह भिन्न है ?
साधारणत: जब हम जीवन की बात करते हैं तो हमारा मतलब प्राणी व पशु के जीवन से होता है जो हिलता-डुलता है, सांस लेता है, खाता, अनुभव करता और कामना करता है । अगर हम वनस्पति में जीवन की बात करते हैं तो वास्तविकता से कहीं अधिक यह प्रायः एक रूपक ही रहा है क्योंकि यह माना जाता था कि वनस्पति जीवन एक जैविक घटना न होकर शुद्ध रूप से भौतिक प्रक्रिया है । विशेष रूप से हमने जीवन का संबंध श्वासोच्छूवास के साथ जोड़ा हुआ है । श्वास
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ही जीवन हैं, यह हर भाषा में कहा गया है और अगर हम 'जीवन के श्वास' के बारे में अपनी कल्पना बदल दें तो यह सूत्र बिल्कुल ठीक है । लेकिन यह स्पष्ट है कि सहज गति या चलना-फिरना, सांस लेना, खाना जीवन की प्रक्रियाएं मात्र हैं, अपने-आपमें स्वयं जीवन नहीं हैं । ये तो उस सतत प्रचोदनकारी ऊर्जा को पैदा करने या मुक्त करनेवाले साधन हैं जो हमारी जीवन-शक्ति है । और वे विघटन और पुनर्नवीकरण की फिर से नया बनाने की उस प्रक्रिया के साधन हैं जिनके द्वारा वह शक्ति हमारे ठोस पार्थिव जीवन को संभाले रखती है परंतु हमारी जीवन-शक्ति की ये प्रक्रियाएं हमारे श्वासोच्छूवास और हमारे पोषण के साधनों से भिन्न अन्य तरीकों से भी जारी रखी जा सकती हैं । यह एक प्रमाणित तथ्य है कि मानव जीवन तब भी शरीर में बना रह सकता है और पूर्ण चेतना के साथ बना रह सकता है जब श्वासोच्छूवास और हृदय की गति को तथा अन्य स्थितियों को, जो पहले जीवन के लिये अनिवार्य मानी जाती थीं, कुछ समय के लिये रोक दिया जाये । तथ्यों सहित, ऐसे नये प्रमाण सामने लाये गये हैं जिनसे यह प्रस्थापित होता है कि वनस्पति में, जिसमें किसी भी सचेतन प्रतिक्रिया को मानने से हम अब भी इंकार कर सकते हैं, उसमें भी कम-से-कम ऐसा भौतिक जीवन तो है ही जो हमारे जीवन के साथ मेल खाता है और अपने ऊपरी गठन में भले अलग हो फिर भी तत्त्वतः हमारे जीवन की तरह ही व्यवस्थित है । अगर यह बात सच साबित हो जाये तो हमें अपनी पुरानी, सरल एवं मिथ्या कल्पनाओं को एकदम बुहार कर बाहरी रूपों और लक्षणों के परे जाकर मामले की जड़तक पहुंचना होगा ।
हाल ही में कुछ ऐसी खोजें१ हुई हैं जिनके निष्कर्षों को यदि स्वीकार कर लिया जाये तो उनसे अवश्य ही जड़तत्त्व में जीवन की समस्या पर अत्यधिक प्रकाश पड़ेगा । एक महान् भारतीय भौतिक विज्ञानी ने ध्यान खींचा है कि उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया जीवन के अस्तित्व का अचूक चिह्न है । इस वैज्ञानिक की दत्त-सामग्री से वनस्पति-
१ये विचार, जिस रूप में वे यहां प्रस्तुत किये गये हैं, हाल की वैज्ञानिक खोजों के आधार पर जड़ में जीवन के स्वरूप और प्रक्रिया को समझाने के लिये हैं, उसके प्रमाण के रूप में नहीं । भौतिक विज्ञान और तत्त्व ज्ञान (चाहे वह शुद्ध बौद्धिक चिंतन पर आधारित हो या जैसा कि भारत में रहा है, आध्यात्मिक दृष्टि और आध्यात्मिक अनुभव पर आधारित हो) प्रत्येक की खोज का अपना-अपना क्षेत्र और अपनी-अपनी पद्धति है । जैसे भौतिक विज्ञान अपने निष्कर्षों को तत्त्व ज्ञान पर नहीं लाद सकता उसी तरह तत्त्व ज्ञान भी अपने निष्कर्षों को भौतिक विज्ञान पर आरोपित नहीं कर सकता । फिर भी अगर हम इस तर्कसिद्ध विश्वास को मान लें कि पुरुष और प्रकृति की सभी अवस्थाओं में सादृश्यों का तंत्र रहता है जो उनके आधार में रहनेवाले सामान्य सत्य को प्रकट करता है तो यह कल्पना करना न्यायसंगत होगा कि भौतिक विश्व के सत्य विश्व में क्रियाशील रहनेवाली शक्ति की प्रकृति और प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं, लेकिन संपूर्ण प्रकाश नहीं क्योंकि भौतिक विज्ञान अपनी खोज के क्षेत्र में अनिवार्य रूप से अपूर्ण रहता है और उसके पास इस शक्ति की गुह्य गतियों को जानने का कोई सूत्र या संकेत नहीं होता ।
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जीवन के व्यापार पर ही विशेष रूप से प्रकाश पड़ा है और उसकी सभी सूक्ष्म प्रवृत्तियों तक का चित्रण सामने आया है लेकिन हमें यह न भूलना चाहिये कि मूल प्रश्न की विवेचना में जीवन-शक्ति के उसी प्रमाण को, अर्थात् उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया को, जो कि जीवन की भावात्मक स्थिति है और उसकी अभावात्मक स्थिति, जिसे हम मृत्यु कहते हैं, इन्हींको उसने वनस्पति की तरह धातु में भी पुष्ट किया है । निश्चय ही उतनी प्रचुरता के साथ नहीं, निश्चय ही इस रूप में नहीं कि यह दिखलाया जा सके कि जीवन का गठन दोनों में तत्त्वतः एक समान है । लेकिन यह संभव है कि अगर ठीक तरह के और पर्याप्त सूक्ष्मतावाले यंत्रों का आविष्कार किया जा सके तो धातु और वनस्पति-जीवन में समानता के और अधिक बिंदुओं का पता लग सके और अगर यह सिद्ध भी हो जाये कि ऐसा नहीं है तो इसका यह अर्थ हो सकता है कि उसी प्रकार का या किसी भी प्रकार का जीवन-गठन तो वहां पर नहीं है फिर भी हो सकता है कि प्राणिक शक्ति का आदि रूप वहां हो । लेकिन अगर धातु में जीवन उपस्थित है, वह अपने लक्षणों में चाहे जितना प्रारंभिक क्यों न हो, तो हमें यह मानना पड़ेगा कि धरती या धातुओं के सजातीय अन्य जड़ पदार्थों में भी जीवन, शायद अंतर्लीन या प्रारंभिक और तात्त्विक रूप में विद्यमान है । अगर हम अपनी खोज को और आगे जारी रख सकें और वहीं रुक जाने के लिये बाधित न हों जहां हमारी खोज के वर्तमान साधन विफल हो जाते हैं तो प्रकृति के बारे में अपने सुनिश्चित अनुभव के आधार पर हमें निश्चय है कि इस प्रकार जारी रखी गयी खोजें अंत में हमारे आगे यह प्रमाणित कर देंगी कि धरती और उसमें बनी धातु के बीच या धातु और वनस्पति के बीच कहीं कोई विच्छेद या कोई कठोर सीमारेखा नहीं है और संश्लेषण की इस खोज को और जारी रखने पर प्रमाणित होगा कि धरती या धातु को बनानेवाले तत्त्वों या अणुओं के और उनसे बनी धातु या धरती के बीच भी कोई व्यवधान या कठोर सीमारेखा नहीं है । इस क्रमबद्ध अस्तित्व का हर कदम अगले कदम की तैयारी करता है और अपने अंदर उस चीज को लिये रहता है जो आनेवाले कदम पर प्रकट होगी । जीवन या प्राण सभी जगह है चाहे गुप्त हो या प्रकट, गठित हों या प्रारंभिक, अंतर्लीन हो या विकसित, लेकिन है वह वैश्व, सर्वव्यापी और अविनश्वर, केवल उसके रूप और संगठन भिन्न-भिन्न होते हैं ।
हमें यह याद रखना चाहिये कि उद्दीपन के प्रति भौतिक अनुक्रिया हमारे हिलने-डुलने और श्वासोच्छूवास की तरह जीवन का एक बाहरी संकेत है । परीक्षण करनेवाला एक विशिष्ट उद्दीपन का प्रयोग करता है और सुस्पष्ट अनुक्रियाएं प्राप्त होती हैं जिन्हें हम परीक्ष्य पदार्थ में जीवन-शक्ति के संकेतों के रूप में तुरंत जान सकते हैं । लेकिन पौधा अपने सारे जीवन में, अपने आस-पास से निरंतर आ रहे अनेक उद्दीपनों के प्रति निरंतर अनुक्रिया कर रहा होता है । इसका मतलब है कि
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उसके अंदर एक सतत रूप से संरक्षित शक्ति विद्यमान है जो अपने इर्द-गिर्द से आ रहे शक्ति के दबावों के प्रति अनुक्रिया करने में समर्थ है । कहा जाता है कि इन परीक्षणों ने वनस्पति या अन्य सजीव संरचनाओं में प्राण-शक्ति के विचार को नष्ट कर दिया है, लेकिन जब हम कहते हैं कि वनस्पति पर किसी उद्दीपन का प्रयोग किया गया है तो उसका अर्थ होता है कि उस पदार्थ की ओर कोई अर्जित शक्ति या सक्रिय गति को भेजा गया है और जब हम कहते हैं कि उसकी अनुक्रिया हुई है तो उसका मतलब होता है कि सक्रिय गति और संवेदनशील स्पंदन करने में समर्थ एक ऊर्जित शक्ति उस आघात का प्रत्युत्तर देती है । वहां एक स्पंदनशील ग्रहणशीलता और अनुक्रिया होती है और साथ ही बढ़ने और बने रहने की इच्छा होती है जो इस बात का संकेत है कि सत्ता के उस रूप में चित्-शक्ति का एक अवमानसिक, एक प्राणिक-भौतिक संगठन छिपा है । तो तथ्य यह प्रतीत होता है कि जैसे विश्व में एक सतत क्रियात्मक ऊर्जा गतिशील है जो कम या ज्यादा, सूक्ष्म या स्थूल अलग-अलग जड़ रूप धारण करती है, वैसे ही हर जड़ शरीर या पदार्थ में, वनस्पति, पशु या धातु में वही सतत क्रियात्मक शक्ति संचित और क्रियाशील रहती है । इन दोनों का एक विशेष आदान-प्रदान ही हमारे आगे उस तथ्य को प्रस्तुत करता है जिसे हम जीवन-संबंधी विचार के साथ जोड़ते हैं । यही वह क्रिया है जिसे हम ऊर्जा की क्रिया के रूप में पहचानते हैं और जो अपने-आपको इस तरह अर्जित कर लेती है वही है प्राण-शक्ति । 'मानस-ऊर्जा', 'जीवन-ऊर्जा', 'भौतिक-ऊर्जा' ये एक ही 'जगत्-शक्ति' की विभिन्न गतिधाराएं हैं ।
यहांतक कि जब हमें यह लगता है कि कोई रूप मर गया है तब भी यह शक्ति उसमें संभाव्यता के रूप में मौजूद रहती है यद्यपि उसकी जीवन-शक्ति की साधारण क्रियाएं स्थगित हो जाती हैं और स्थायी रूप से समाप्त होने को होती हैं । कुछ सीमाओं के अंतर्गत जो मर चुका है उसे फिर से जीवित किया जा सकता है, अभ्यासगत क्रियाओं को, अनुक्रिया एवं सक्रिय ऊर्जा के संचार को फिर से चालू किया जा सकता है और इससे यह प्रमाणित होता है कि हम जिसे जीवन कहते हैं वह वहां शरीर में अभीतक मौजूद था, छिपा हुआ था यानी अपनी रोजाना की आदतों में, अपनी साधारण भौतिक क्रिया-कलाप की आदतों, अपने स्नायविक व्यापार और अनुक्रिया की आदतों, पशु में अपनी सचेतन मानसिक अनुक्रिया की आदतों में सक्रिय नहीं था । यह मानना कठिन है कि जीवन नाम की एक विशिष्ट सत्ता है जो शरीर के अंदर से पूरी तरह बाहर निकल गयी है और जब उसे लगता है कि कोई रूप को उद्दीपित कर रहा है तो फिर से उसमें वापिस चली आती है -लेकिन कैसे ? क्योंकि उसे शरीर के साथ जोड़नेवाली कोई चीज तो वहां है ही नहीं ? स्तंभ जैसे रोगों में हम देखते हैं कि जीवन के बाहरी भौतिक चिह्न और व्यापार स्थगित हो जाते हैं फिर भी मानसिकता आत्मवान् और सचेतन रहती है,
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यद्यपि वह स्वाभाविक शारीरिक अनुक्रियाओं को प्रेरित करने में असमर्थ रहती है । निश्चय ही तथ्य यह नहीं होता कि मनुष्य भौतिक रूप से तो मृत पर मानसिक रूप से जीवित रहता है या यह कि शरीर में से प्राण तो निकल गया परंतु मन बचा हुआ है । होता केवल यह है कि सामान्य भौतिक क्रिया-कलाप तो स्थगित हो जाते हैं परंतु मन तब भी सक्रिय बना रहता है ।
इसी तरह समाधि के कुछ प्रकारों में शारीरिक और बाहरी मानसिक क्रिया-कलाप दोनों स्थगित हो जाते हैं । लेकिन बाद में अपनी क्रियाएं फिर से शुरू कर देते हैं । कुछ दशाओं में तो बाहरी उद्दीपन के द्वारा पर अधिकतर भीतर से ही अपनी क्रियाशीलता की ओर सहज रूप में लौटते हैं । वस्तुत: होता यह है कि सतही मन-शक्ति अवचेतन मन में और सतही प्राण-शक्ति अंत: -सक्रिय प्राण में अंदर खींच ली जाती है और संपूर्ण मनुष्य ही या तो अवचेतन सत्ता में जा गिरता है या फिर वह अपने बाहरी जीवन को अवचेतन में खींच लेता है जब कि उसकी आंतरिक सत्ता अतिचेतन में ऊपर उठ जाती है । लेकिन मुख्य बात हमारे लिये इस समय यह है कि शरीर में जीवन की सक्रिय ऊर्जा को बनाये रखनेवाली शक्ति ने--वह चाहे जो कुछ क्यों न हों --अपनी बाहरी क्रियाओं को तो बेशक स्थगित कर दिया होता है पर फिर भी सुघटित शरीर-रचनावाले द्रव्य को अनुप्राणित कर रही होती है । एक ऐसी स्थिति आती है जब स्थगित क्रियाओं को फिर से सक्रिय करना संभव नहीं रहता और यह तब होता है जब या तो शरीर पर कोई ऐसी चोट पहुंचायी गयी हो जो उसे बेकार या अपनी अभ्यासगत क्रियाओं के लिये असमर्थ बना दे या, ऐसी चोट के अभाव में, जब विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाये यानी जब वह 'शक्ति' जिसे जीवन-क्रिया को नया करते जाना चाहिये, वह इर्द-गिर्द की शक्तियों के दबाव के प्रति एकदम निष्क्रिय और जड़ हो जाये, उन शक्तियों के प्रति जिनके अनेक उद्दीपनों के साथ वह सतत आदान-प्रतिदान करने की अभ्यस्त थी । तब भी शरीर में प्राण रहता है लेकिन ऐसा प्राण जो केवल रूपायित द्रव्य को विघटित करने की प्रक्रिया में ही व्यस्त रहता है ताकि वह अपने तत्त्वों में चला जाये और उनके साथ मिलकर नये रूप गढ़ सके । वैश्व शक्ति मे विद्यमान 'इच्छा' जो रूप को एक साथ बांधकर रखे हुए थी, अब उस संरचना से अपने-आपको पीछे खींच लेती है और उसके बदले छितराव की प्रक्रिया का साथ देने लगती है । ऐसा न होनेतक शरीर की वास्तविक मृत्यु घटित नहीं होती ।
तो जीवन वैश्व शक्ति की गतिशील क्रीड़ा है, इस शक्ति में मानसिक चेतना और स्नायविक प्राण-शक्ति किसी-न-किसी रूप में या कम-से-कम अपने तत्त्व में सदा अंतर्निहित रहती है अतः वे अपने-आपको हमारे जगत् में भौतिक पदार्थ के रूपों में प्रकट और संघटित करती हैं । इस शक्ति की यह जीवन-क्रीड़ा विभिन्न रूपों के, जिन्हें उसने बनाया है और जिनमें वह अपना सतत सक्रिय कंपन बनाये
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रखती है, उनके बीच उद्दीपन और उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया के आदान-प्रदान के रूप में अपने-आपको अभिव्यक्त करती है । हर एक रूप सर्वव्यवहार्य शक्ति के श्वास और ऊर्जा को सतत रूप से अपने अंदर लेता और फिर बाहर निकालता रहता है । प्रत्येक रूप उसीको अपना आहार बनाता और उसीसे अपना पोषण पाता है । ऐसा वह विभिन्न उपायों से करता है, या तो परोक्ष रूप से संचित ऊर्जावाले अन्य रूपों को अपने अंदर लेकर या फिर सीधे ही बाहर से प्राप्त शक्तिमय धाराओं को आत्मसात् करके । यह सारा प्राण का ही खेल है लेकिन हम उसे मुख्य रूप से तभी पहचान सकते हैं जब उसका संगठन इतना पर्याप्त हो कि हम उसकी अधिक बाहरी और जटिल गतियों को देख सकें और विशेषत: वहां जहां वह हमारे अपने संघटन में स्थित प्राणिक ऊर्जा के स्नायविक रूप से मिलता-जुलता हो । यही कारण है कि हम वनस्पति में जीवन की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिये काफी तैयार रहते हैं क्योंकि जीवन का स्पष्ट दीखनेवाला व्यापार वहां उपस्थित है, -और यह तब और भी आसान हो जाती है अगर यह दिखलाया जा सके कि वनस्पति स्नायविकता के ऐसे लक्षण प्रकट करती है और ऐसा प्राणिक संगठन रखती है जो हमारे लक्षणों और संगठन से बहुत भिन्न नहीं है, --लेकिन हम इसे धातु, धरती और रासायनिक परमाणु में मानने को अनिच्छक रहते हैं जहां इन दीखनेवाले विकासों का पता लगा सकना काफी कठिन होता है या प्रकट रूप में उनका अस्तित्व ही नहीं होता ।
क्या इस अंतर को वास्तविक विभेद की कोटितक उठा देने में कोई औचित्य है ? उदाहरण के लिये हमारे जीवन और वनस्पति के जीवन में क्या फर्क है ? हम देखते हैं कि पहला भेद तो यह है कि हमारे अंदर चलने-फिरने की क्षमता है, जिसका स्पष्टतः जीवन-शक्ति के सारतत्त्व के साथ कोई संबंध नहीं, दूसरा यह कि हमारे अंदर सचेतन संवेदन की क्षमता है, जहांतक हमें मालूम है, यह क्षमता वनस्पति में अभीतक विकसित नहीं हुई है, हमारी स्नायविक अनुक्रियाओं के साथ अधिकतर सचेतन संवेदन की मानसिक अनुक्रिया लगी रहती है, यद्यपि ऐसा हमेशा या पूरी तरह कदापि नहीं होता, उनका मन के लिये और साथ ही स्नायु-संस्थान तथा स्नायुओं की क्रिया से उत्तेजित शरीर के लिये एक मूल्य होता है । ऐसा मालूम होता है कि वनस्पति में भी स्नायविक संवेदन के लक्षण हैं, इन संवेदनों में वे भी हैं जो हमारे अंदर सुख-दुःख, जागना-सोना, प्रसन्नता-उदासी और थकान के रूप में अनूदित होते हैं, और उसका शरीर स्नायविक क्रिया से भीतर से आंदोलित होता है लेकिन वहां मानसिक रूप से सचेतन संवेदन की प्रत्यक्ष उपस्थिति का कोई चिह्न नहीं होता । परंतु संवेदन संवेदन है चाहे वह मानसिक रूप से सचेतन हो या प्राणिक रूप से संवेदनशील और संवेदन चेतना का एक रूप है । जब कोई संवेदनशील वनस्पति किसी संपर्क से सिकुड़ती है तो ऐसा लगता है कि वह
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स्नायविक ढंग से प्रभावित हुई है, कि उसके अंदर कोई चीज उस संपर्क को नापसंद करती और उससे दूर खिंच जाना चाहती है । एक शब्द में कहें तो वनस्पति में अवचेतन संवेदन है, यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम देख चुके हैं कि, हमारे अंदर उसी प्रकार की अवचेतन क्रियाएं होती हैं । मानव-संरचना में यह सर्वथा संभव है कि इन अवचेतन बोधों और संवेदनों को उनके हो चुकने और स्नायु-संस्थान पर उनका प्रभाव पड़ना बंद हों चुकने के बहुत बाद भी सतह पर लाया जा सके । दिन दूने बढ़ते हुए अनेकों प्रमाणों ने यह अकाटय रूप से सिद्ध कर दिया है कि हमारे अंदर एक अवचेतन मन विद्यमान है जो सचेतन मन से बहुत अधिक विशाल है । वनस्पति में कोई ऊपरी रूप से जागरूक मन नहीं है जिसे अवचेतन संवेदनों के मूल्यांकन के प्रति जगाया जा सके, केवल यह तथ्य वस्तु-व्यापार की तात्त्विक एकात्मता में कोई भेद नहीं लाता । जब व्यापार एक ही हों तो वे जिस वस्तु को प्रकट करते हैं वह भी एक ही होनी चाहिये और वह वस्तु है, अवचेतन मन । और यह बिल्कुल संभव है कि धातु में अवचेतन इन्द्रिय-मन की प्राण-क्रिया एक अधिक प्रारंभिक अवस्था में विद्यमान हो, हालांकि धातु में स्नायविक अनुक्रिया से मिलता-जुलता कोई शारीरिक आंदोलन नहीं होता । लेकिन शारीरिक आंदोलन के अभाव से धातु में प्राण-शक्ति की उपस्थिति में उसी तरह कोई वास्तविक फर्क नहीं पड़ता जैसे पौधे में शरीर के चलने-फिरने का अभाव उसकी प्राण-शक्ति की उपस्थिति के लिये कोई तात्त्विक अंतर नहीं लाता ।
शरीर में जो चेतन है वह जब अवचेतन या जो अवचेतन है जब वह सचेतन बन जाता है तब क्या होता है ? वास्तविक अंतर वहां अपने कर्म के किसी एक अंश में सचेतन शक्ति की तल्लीनता का, उसके कम व अधिक ऐकांतिक संकेंद्रण का होता है । संकेंद्रण के कुछ रूपों में, हम जिसे मानसिकता कहते हैं, यानी प्रज्ञान या बहिर्मुख चेतना, वह सचेतन रूप में क्रिया करना लगभग या पूरी तरह बंद कर देती है, -फिर भी शरीर, स्नायुओं और ऐंद्रिय मन का कार्य अलक्षित रूप से किंतु बिना रुके पूरी तरह चलता रहता है; यह सब कुछ अवचेतन हो जाता है, केवल एक क्रिया या क्रिया-धारा में मन ज्योतिर्मय रूप से सक्रिय रहता है । जब मैं लिखता हूं तो लिखने की भौतिक क्रिया अधिकांश में या कभी-कभी पूरी तरह अवचेतन मन के द्वारा की जाती है । जैसा कि हम कहते हैं, शरीर निश्चेतन रूप में कुछ स्नायविक गतियां करता रहता है, मन केवल उसी विचार के प्रति जाग्रत् होता है जिसमें वह व्यस्त हो । निःसंदेह, ऐसा हो सकता है कि सारा मनुष्य ही अवचेतन में डूब जाये, पर फिर भी अभ्यासगत क्रियाएं मन की क्रियासहित चलती रहें, जैसा कि नींद के बहुत से व्यापारों में होता है या वह अतिचेतन में ऊपर उठ सकता है और फिर भी शरीर में अंतर्लीन मन से सक्रिय रहता है जैसा कि समाधि के कुछ व्यापारों में होता है । तो यह स्पष्ट है कि वनस्पति के संवेदन और हमारे संवेदन में
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बस यही फर्क है कि वनस्पति के अंदर विश्व में अपने-आपको अभिव्यक्त करनेवाली सचेतन शक्ति अभीतक जड़-पदार्थ की निद्रा में से पूरी तरह उभरी नहीं है, उस तल्लीनता से बाहर नहीं आयी है जो कार्य करनेवाली शक्ति का अतिचेतन ज्ञान में स्थित क्रिया के उद्गम से पूरी तरह विच्छेद करती है और इसीलिये वह उन क्रियाओं को अभी अवचेतन रूप से करती है जिन्हें वह तब सचेतन रूप से करेगी जब वह मनुष्य के अंदर अपनी तल्लीनता से बाहर जायेगी और अपनी ज्ञान-आत्मा के प्रति, भले परोक्ष रूप में ही, जाग्रत् होना शुरू कर देगी । वह ठीक वही चीजें करती है परंतु करती है एक अलग तरीके से और चेतना की दृष्टि से अलग मूल्यों के साथ ।
अब यह धारणा करना संभव होता जा रहा है कि स्वयं परमाणु में कुछ ऐसी चीज है जो हमारे अंदर इच्छा और कामना बन जाती है, वहां एक आकर्षण और विकर्षण है जो, चाहे देखने में दूसरी चीज लगे, तत्त्वत: वही चीज है जो हमारे अंदर पसंद और नापसंद हैं, परंतु वे जैसा कि हम कहते हैं, अचेतन या अवचेतन हैं । इच्छा और कामना का यह तत्त्व प्रकृति में सब जगह प्रत्यक्ष है और यद्यपि इसपर अभीतक पर्याप्त रूप में ध्यान नहीं दिया गया है वे, अवचेतना या निश्चेतना कह लो, के साथ संबद्ध और वस्तुत: उसकी अभिव्यक्ति हैं या फिर पूरी तरह अंतर्निहित संवेदन और बुद्धि हैं जो समान रूप से व्यापक हैं । जड़ द्रव्य के हर परमाणु में उपस्थित होने के नाते यह सब आवश्यक रूप से, उन परमाणुओं के सम्मिलन से बनी हर चीज में उपस्थित रहता है । और वे परमाणु में इसलिये उपस्थित होते हैं क्योंकि वे उस शक्ति में विद्यमान होते हैं जो परमाणु की रचना और संघटना करती है । वह शक्ति मूलतः वेदांत की चित्-तपसू या चित्-शक्ति है, सत्-चित् की अंतर्हित चित् शक्ति है जो अपने-आपको वनस्पति में अवमानसिक संवेदन से भरी स्नायविक-ऊर्जा के रूप में, प्राथमिक पशु रूपों में कामना-संवेदन और कामना-इच्छा के रूप में, विकसनशील पशु में आत्म-सचेतन बोध और शक्ति के रूप में और मनुष्य में, इन सबसे बढ़कर, मानसिक इच्छा और ज्ञान के रूप में प्रकट करती है । प्राण वैश्व ऊर्जा का एक आरोहण-क्रम है जिसमें निश्चेतना से चेतना की ओर संक्रमण संपन्न किया जाता है । वह उस ऊर्जा की एक मध्यवर्ती शक्ति है जो जड़-तत्त्व में अंतर्हित या डूबी हुई रहती है, उसकी अपनी शक्ति ही उसे अवमानसिक सत्ता में उन्मुक्त करती है और अंत में मन के आविर्भाव के द्वारा वह अपनी सक्रियता की पूर्ण संभावना में उन्मुक्त हों जाती है ।
अन्य सभी विचारों को छोड़कर, यदि हम विकासवाद के प्रकाश में उन्मज्जन की बाहरी प्रक्रिया को ही देखें तो भी यह निष्कर्ष एक युक्तिसंगत आवश्यकता के रूप में अपने-आपको बलपूर्वक स्थापित करता है । यह स्वतः -सिद्ध है कि वनस्पति में विद्यमान जीवन, चाहे वह पशु में विद्यमान जीवन से भिन्न रूप में गठित हो,
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फिर भी वह हैं वही शक्ति जिसके चिह्न हैं : जन्म, वृद्धि और मृत्यु बीज द्वारा प्रसार, ह्रास, रोग या हिंसा द्वारा मृत्यु, बाहर से पोषक तत्त्वों के ग्रहण द्वारा भरण-पोषण, प्रकाश और ऊष्मा पर निर्भरता, प्रजनन और वंध्यता, यहांतक कि सोने, जागने की अवस्थाएं ऊर्जा और प्राणिक ओज का ह्रास, बाल्यावस्था से प्रौढ़ता और वृद्धावस्था की ओर गमन । इसके अतिरिक्त वनस्पति में प्राण-शक्ति के सार-तत्त्व होते हैं और इसीलिये वह पशु-जीवन के लिये स्वाभाविक आहार है । अगर यह मान लिया जाता है कि वनस्पति में स्नायुतंत्र है और वह उत्तेजकों के प्रति अनुक्रियाएं करती है, जो अवमानसिक या विशुद्ध प्राणिक संवेदनों का प्रारंभ या उनकी अंतर्धारा हो तो तादात्म्य और भी अधिक हो जाता है, फिर भी स्पष्ट रूप से यह जीवन-विकास की एक अवस्था ही हैं जो पशु-जीवन और निष्प्राण जड़ द्रव्य के बीच मध्यवर्ती अवस्था है और ठीक इसी चीज की आशा की भी जानी चाहिये थी यदि प्राण एक ऐसी शक्ति हो जो जड़-द्रव्य में से प्रस्कृटित होती और मन में पराकाष्ठातक पहुंचती हो और अगर ऐसा है तो हम यह मानने के लिये बाध्य हैं कि वह पहले ही से स्वयं जड़तत्त्व में मौजूद होती है, जड़ अवचेतना या निश्चेतना में अंतर्लीन या अंतर्निहित होती है क्योंकि वह भला और कहां से उभर सकती है ? जड़ तत्त्व के अंदर प्राण का विकास यह मानकर चलता है कि वह उसके अंदर पहले ही से अंतलींन था जबतक कि उसके स्थान पर हम यह न मान लें कि यह एक नयी सृष्टि है जो किसी जादुई अनोखे ढंग से प्रकृति में लायी गयी है । अगर ऐसी बात है तो उसे ऐसा सृजन होना चाहिये जो शून्य से निकला हो या उसे ऐसी भौतिक क्रियाओं का परिणाम होना चाहिये जिसके लिये स्वयं क्रियाओं में कोई कारण न हो या उनमें ऐसा कोई तत्त्व न हो जिसे उनका सजातीय कहा जा सके । यह भी कल्पना की जा सकती है कि यह ऊपर से, जड़-भौतिक जगत् के ऊपर के किसी अतिभौतिक स्तर से अवतरण हो, पहली दो मान्यताओं को मनमानी कल्पनाएं कहकर उड़ा दिया जा सकता है लेकिन अंतिम व्याख्या संभव और सचमुच कल्पना में आने लायक है । वस्तुसंबंधी गुह्य ज्ञान की दृष्टि से यह सच है कि भौतिक विश्व से ऊपर के किसी प्राण के दबाव ने यहां पर प्राण के आविर्भाव में सहायता की है । लेकिन यह व्याख्या इस बात का बहिष्कार नहीं करती कि प्राण का प्रथम आविर्भाव स्वयं जड़तत्त्व में से ही प्राथमिक और आवश्यक क्रिया के रूप में हुआ क्योंकि भौतिक लोक के ऊपर किसी प्राण जगत् या प्राण लोक की उपस्थिति मात्र के कारण जड़ पदार्थ में प्राण नहीं उभर आता जबतक कि वह प्राणिक स्तर 'सत्' की अनेक श्रेणियों और शक्तियों में से अवतरित होता हुआ एक रचनात्मक स्तर न हो जो निश्चेतना में उतर आया हो और परिणामस्वरूप किसी भावी विकास और उन्नज्जन के लिये जड़-भौतिक में अंतर्निहित हो गया हो । इस प्रश्न का बहुत अधिक महत्त्व नहीं हैं कि इस अंतर्लीन प्राण के चिह्न जड़ वस्तुओं में
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पाये जा सकते हैं, चाहे वे अभीतक असंगठित या प्रारंभिक अवस्था में ही क्यों न हों, या वहां ऐसा कोई चिह्न नहीं है क्योंकि यह अंतर्ग्रस्त प्राण पूर्ण निद्रा की अवस्था में है । जो भौतिक ऊर्जा संहत करती, रूप देती और विघटन करती है वह वही शक्ति है जो अपनी ही एक अन्य भूमिका में जीवन-शक्ति के रूप में अपने-आपको जन्म, वृद्धि और मृत्यु में प्रकट करती है१ । जैसे सोयी हुई अवचेतना में बुद्धि के कार्यों को करने के नाते वह अपने-आपको उसी शक्ति के रूप में प्रकट करती है जो एक और भूमिका में मन की स्थिति को पा लेती है । उसका स्वरूप ही यह दिखा देता है कि वह अपने अंदर मन और प्राण की अभीतक अनुन्मुक्त शक्तियों को समोये हुए है, यद्यपि अभीतक उनके स्वाभाविक संगठन या प्रक्रिया में नहीं ।
तो प्राण अपने-आपको सभी जगह, परमाणु से लेकर मनुष्यतक में, सारतः इसी एक ही रूप में प्रकट करता है । परमाणु में सत्ता की अवचेतन सामग्री और गति समायी रहती है, वही पशु में चेतना के रूप में उन्मुक्त होती है, वनस्पति-जीवन इस विकास में एक बीच की भूमिका होता है । वस्तुत: प्राण चित्-शक्ति की वैश्व क्रिया है जो जड़द्रव्य पर और उसके अंदर अवचेतन रूप में कार्य करती है । यह वही क्रिया है जो रूपों या शरीरों का सृजन, संरक्षण, विनाश करती और पुनः सृजन करती है । यह स्नायविक शक्ति की क्रीड़ा द्वारा यानी उद्दीपक ऊर्जा के आदान-प्रदान की लहरों के द्वारा उन शरीरों में सचेतन संवेदन जगाने का प्रयास करती है । इस क्रिया में तीन स्थितियां आती हैं । निम्नतम, जिसमें स्पंदन अभीतक जड़तत्त्व की निद्रा में पूरी तरह अवचेतन रहता है जिससे वह पूरी तरह यंत्रवत् प्रतीत होता है । मध्यवर्ती, जिसमें वह ऐसी अनुक्रिया करने में सक्षम हो जाता है जो अभीतक होती तो अवमानसिक ही हैं पर उस छोरतक आ जाती है जिसे हम चेतना कहते हैं । उच्चतम, जिसमें प्राण सचेतन मानसिकता को एक मानसिक बोधगम्य संवेदन का रूप दे देता है जो इस संक्रमण में इन्द्रिय-मन और बुद्धि के विकास के लिये आधार बन जाता है । मध्यवर्ती स्थिति में ही जड़ तत्त्व और मन से भिन्न प्राण का विचार हमारी पकड़ में आता है परंतु वास्तव में वह सभी स्थितियों में एक ही है और सदा मन और जड़ तत्त्व के बीच एक मध्यवर्ती भूमिका
१प्राण का जन्म, वृद्धि और मृत्यु अपने बाहरी रूप में संहति, रूपायन और विघटन की वही प्रक्रिया है यद्यपि अपनी आंतरिक प्रक्रिया और अभिप्राय में उससे बहुत अधिक है । यहांतक कि चैत्य पुरुष भी शरीर में आत्म प्रतिष्ठा करते समय, यदि इन चीजों के बारे में गुह्य ज्ञान की दृष्टि ठीक है, तो ऐसी ही बाहरी प्रक्रिया का अनुसरण करता है क्योंकि अंतरात्मा केंद्रक के नाते अपने मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोषों के तत्वों को और उनकी अंतर्वस्तुओं को जन्म के लिये अपनी ओर खींचती और उन्हें संहत करती है, काल में उन रूपों को बढ़ाती है और जाते समय इन संहत रूपों को फिर से छोड़ देती और विघटित कर देती है । और ऐसा करते हुए वह अपनी आंतरिक शक्तियों को तबतक के लिये अपने अंदर खींच लेती है जबतक कि नया जन्म लेते समय फिर से इसी मूल प्रक्रिया की पुनरावृत्ति न करने लगे ।
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बना रहता है, जो जड़ का तो उपादान है और मन से अनुप्राणित रहता है । यह चित्-शक्ति की ऐसी क्रिया है जो न तो जड़ द्रव्य का रूपायण मात्र है और न मन की कोई ऐसी क्रिया है जिसके प्रज्ञान का विषय हो जड़ पदार्थ और रूप; बल्कि यह चित्-सत्ता का एक ऊर्जायन है जो जड़ द्रव्य के रूपायण का कारण और आधार है और सचेतन मानसिक प्रज्ञान का मध्यवतीं उद्गम और आधार है । प्राण, चित्-सत्ता का यह मध्यवर्ती ऊर्जायन होने के नाते सत्ता की उस सर्जक शक्ति के एक रूप को संवेदनात्मक क्रिया और प्रतिक्रिया में उन्मुक्त करता है जो अपने ही द्रव्य में लीन रहकर अवचेतन या निश्चेतन रूप से क्रिया कर रही थी । यह सत्ता की उस बहिर्दृष्टि चेतना को, जिसे मन कहा जाता है, आधार प्रदान करता और क्रिया में उन्मुक्त करता है और उसे एक क्रियात्मक उपकरण प्रदान करता है ताकि वह केवल अपने रूपों पर ही नहीं बल्कि प्राण और जड़ द्रव्य के रूपों पर भी क्रिया कर सके, मन और जड़तत्त्व के बीच मध्यवर्ती तत्त्व होने के नाते वह उन दोनों के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान करता, उन्हें जोड़ता और सहारा देता है । आदान-प्रदान का यह साधन प्राण अपनी उस स्पंदनशील स्नायविक ऊर्जा की सतत धाराओं के द्वारा प्रदान करता है जो मन को बदलने के लिये रूप की शक्ति को संवेदन के रूप में लेकर चलती है और जड़ तत्त्व को बदलने के लिये मन की शक्ति को इच्छा के रूप में वापिस लाती है । जब हम प्राण की बात करते हैं तो हमारा मतलब इसी स्नायविक ऊर्जा से होता है । भारतीय दर्शन में इसे प्राण या प्राण-शक्ति कहा गया है । परंतु स्नायविक ऊर्जा उसका केवल वह रूप है जिसे वह प्राणी में धारण करता हैं । वही प्राणिक ऊर्जा नीचे परमाणु तक सभी रूपों में विद्यमान रहती है क्योंकि वह सारतः सर्वत्र एक ही है और सर्वत्र यह चित्-शक्ति की एक ही क्रिया है । यह शक्ति अपने ही रूपों के द्रव्यगत अस्तित्व को सहारा देती और उसे आपरिवर्तित करती है । इस शक्ति के साथ-साथ इन्द्रिय और मन गुप्त रूप से सक्रिय रहते हैं, परंतु पहले वे रूप में अंतर्लीन रहते और प्रकट होने की तैयारी करते हैं और अंत में अपने अंतर्लयन में से बाहर उभर आते हैं । यह है सारे भौतिक विश्व को अभिव्यक्त करने और उसमें निवास करनेवाले सर्वव्यापक प्राण का संपूर्ण अर्थ ।
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