दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २२

 

पुनर्जन्म और अन्य लोक;

कर्म, जीव और अमरता

 

अस्माल्लोकात्पेत्य; एतमन्नमयमात्मानमुपसक्रम्य; एतं प्राणमयमात्मान-

मुपसक्रम्य, एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रभ्य; एतं विज्ञानमयमात्मान-

मुपसंक्रम्य; एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य; इमांल्लोकान्कामान्नी

कामरूप्यनुसञ्चरन् ।

 

इस जगत् से जाते समय वह भौतिक आत्मा में संक्रमण करता है,

प्राणमय आत्मा में संक्रमण करता है, मनोमय आत्मा में संक्रमण

करता है, ज्ञानमय आत्मा में संक्रमण करता है, आनंदमय आत्मा में

संक्रमण करता है । वह इन लोकों में अपनी इच्छा के अनुसार

विचरता है ।

तैत्तिरीय उपनिषद् ३. १०. ५

 

अथो खल्वाहु: काममय एवायं पुरुष इति,

स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति,

यत्क्रतुर्भवति तत्कर्म कुरुते,

यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते...

तदेव सक्त: सह कर्मणैति लिङ्ग मनो यत्र निषक्तमस्थ ।

प्रागत्तं कर्मणस्तस्य यत्किञ्चह करोत्ययम् ।

तस्माल्लोकात्युनरैयस्मै लोकाय कर्मणे ।।

 

वस्तुतः वे कहते हैं कि सचेतन पुरुष कामनामय है परंतु जैसी

उसकी कामना होती है वैसी ही इच्छा होती है और जैसी उसकी

इच्छा होती है वैसा ही वह कर्म करता है, और जैसा उसका कर्म

होता है, वह उसीके फल को प्राप्त करता है... कर्म से चिपका

हुआ वह अपने सूक्ष्म शरीर में वहां वहां जाता है जहां जहां उसका

मन चिपका होता है और तब कर्म के अंततक, वह यहां जो भी

कर्म करता रहा है उसका अंत करके, वह उस लोक से इस लोक

में कर्म के लिये वापिस आता है ।

बृहदारण्यक उपनिषद् ४.४.५. ६

 

  उपनिषद् के कथन में व्यक्त इस दृष्टि के अनुसार इस जीवन का कर्म परलोक के जीवन द्वारा समाप्त हो जाता है जहां उसके परिणामों की परिपूर्ति होती है और जीव नये कर्मों के लिये पृथ्वी पर लौट आता है । इस लोक में जन्म, कर्म, जीव का अन्य लोकों में संक्रमण और उसका यहां फिर से लौट आना -इन सबका कारण जीव की अपनी चेतना, इच्छ और कामना ही है ।

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 गुणान्वयो य: फलकर्मकर्ता

कृतस्थ तस्यैव स चोपभोक्ता ।...

प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभि ।।...

सङ्कल्पाङा्करसमन्वितो य:

बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव... दृष्ट: ।।

बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।

भागो जीव: स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ।

नैष स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसक:,

द्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

 

गुणों से सज्जित, कर्मों का कर्ता और उनके परिणामों का रचयिता,

वह अपने कर्मों का फल पाता है। वह जीवन का स्वामी है और

अपनी यात्रा में अपने कर्मों के अनुसार गति करता है । उसमें भाव

और अहं है, वह अपनी बुद्धि और अपनी आत्मा के गुणों से जाना

जाता है, बाल की नोक के सौवें भाग से भी छोटा जीवित सत्ता का

वह जीव अनंतता के योग्य है । वह न नर है न नारी और न ही

नपुंसक है। वह जिस शरीर को अपनाता है उसीके साथ एक हो

जाता है ।

श्वेताश्वतर उपनिषद् ५.७- १०

 

मर्तासः सन्तो अमृतत्वमानशुः ।।

 

मर्त्य होते हुए उन्होंने अमरता प्राप्त की ।

ऋग्वेद १. ११० .४

 

 

 

 

     पुनर्जन्म के बारे में हमारा पहला निष्कर्ष यह रहा है कि जीव का उत्तरोत्तर पार्थिव शरीरों में जन्म लेना पार्थिव प्रकृति में अभिव्यक्ति के मूल अर्थ और प्रक्रिया का अनिवार्य परिणाम है । लेकिन इस निष्कर्ष से अन्य समस्याएं और परिणाम पैदा होते हैं जिन्हें स्पष्ट करना जरूरी है । यहां पहला प्रश्न पुनर्जन्म की प्रक्रिया का उठता है । अगर वह प्रक्रिया तुरंत उत्तरोत्तर जन्म की नहीं है, जिसमें मृत्यु के बाद तुरंत जन्म नहीं होता, जिससे एक ही व्यक्ति के जीवनों की अविच्छिन्न धारा बनी रहे, यदि बीच में अंतराल आते हों तो इससे यह प्रश्न उठता है कि जो अन्य लोक इन अंतरालों के दृश्य बनते होंगे उनमें जाने और पृथ्वी-जीवन में वापिस आने का विधान और प्रक्रिया क्या है । तीसरा प्रश्न है स्वयं आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया और उन परिवर्तनों के बारे में जिन्हें जीव को अपने जन्म-जन्मांतर की यात्रा में, अपने अभियान की भूमिकाओं में से गुजरते हुए अनुभव करना है ।

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अगर भौतिक विश्व ही एकमात्र अभिव्यक्त जगत् होता या वह एक बिल्कुल ही अलग जगत् होता तो विकसनशील प्रक्रिया के अंश के रूप में पुनर्जन्म एक शरीर से दूसरे शरीर में देहांतरण के सीधे अनुक्रमतक सीमित रहता, मृत्यु के तुरंत बाद किसी अंतराल की संभावना के बिना नया जन्म होता -जीव की यात्रा एक अनिवार्य, यांत्रिक जड़-पद्धति के अविच्छिन्न अनुक्रम में एक आध्यात्मिक परिस्थिति होती । तब जीव जड़ से स्वतंत्र न होता, वह सदा यंत्र, शरीर के साथ बंधा रहता और अपने अभिव्यक्त जीवन के सातत्य के लिये उसपर आश्रित रहता । लेकिन हमने देखा है कि मृत्यु के बाद और अगले जन्म से पहले अन्य लोकों में जीवन होता है, एक ऐसा जीवन जो पार्थिव जीवन का, पुराने जीवन का अनुवर्ती और उसके अगले पड़ाव का उपक्रम होता है । अन्य लोक हमारे जगत् के सहवर्ती हैं, वे एक जटिल तंत्र के अंश हैं और सदा भौतिक जगत् पर क्रिया करते रहते हैं, जो उनकी अंतिम और सबसे निचली अवस्था है, वे उसकी प्रतिक्रियाओं को ग्रहण करते, एक गुप्त संसर्ग और आदान-प्रदान को स्वीकार करते हैं । मनुष्य इन भूमिकाओं के बारे में सचेतन हो सकता है, अमुक अवस्थाओं में अपनी चेतन सत्ता को उनमें प्रक्षिप्त भी कर सकता है, आंशिक रूप से जीवन-काल में और यह अनुमान किया जा सकता है कि शरीर के विघटन के बाद पूरी संपूर्णता से कर सकेगा । तब सत्ता के अन्य जगतों या लोकों में प्रक्षेपण की ऐसी संभावना इतने पर्याप्त रूप में वास्तविक हो जाती है कि वह अपनी चरितार्थता को व्यावहारिक रूप से जरूरी बना देती है । अगर मनुष्य को शुरू से ही आत्म-स्थानांतरण की ऐसी शक्ति प्राप्त हो तो मानव रूप में पार्थिव जीवन के तुरंत बाद शायद अटल नियम के रूप में उसे चरितार्थ होना चाहिये और अगर मनुष्य केवल क्रमश: प्रगति के द्वारा ही वहांतक पहुंचता हो तो ऐसा अंततक होना चाहिये । क्योंकि यह संभव है कि आरंभ में वह इतने पर्याप्त रूप से विकसित न हो कि अपने प्राण या अपने मन को बृहत्तर प्राणमय लोकों या मनोमय लोकों में ले जा सके और एक पार्थिव शरीर से दूसरे में तुरंत देहांतरण को ही अपने स्थायित्व की एकमात्र वर्तमान संभावना स्वीकार करने के लिये बाधित हो ।

 

     जन्म-जन्मांतर के बीच अंतराल होने और अन्य लोकों में जाने की आवश्यकता दो कारणों से होती है : मनुष्य की मिश्र प्रकृति की मनोमय और प्राणमय सत्ताओं में इन लोकों के प्रति सजातीयता के कारण आकर्षण होता है और परिपूर्ण जीवन- अनुभव को आत्मसात् करने के लिये, जिसे त्यागना है उसे धीरे- धीरे निकालने और नये पार्थिव अनुभव तथा नये शरीर- धारण की तैयारी करने के लिये अंतयल की उपयोगिता या आवश्यकता होती है । लेकिन आत्मसात् करने की अवधि की यह आवश्यकता और हमारी सत्ता के सजातीय भागों के लिये अन्य लोकों का यह आकर्षण तभी प्रभावकारी हो सकता है जब मानसिक और प्राणिक व्यक्तित्व अर्द्ध-

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पशु भौतिक मानव में पर्याप्त रूप से विकसित हो जाये; तबतक उनका अस्तित्व नहीं भी हो सकता या सक्रिय हुए बिना रह सकता है । जीवन के अनुभव इतने सरल या प्रारंभिक होंगे जिन्हें आत्मसात् करने की जरूरत नहीं और प्राकृतिक सत्ता इतनी अनगढ़ होगी कि जटिल आत्मसात् करने की प्रक्रिया के लिये सक्षम न हो । उच्चतम भाग भी इतने पर्याप्त रूप से विकसित न होंगे कि वे अपने-आपको सत्ता के उच्चतर लोकोंतक उठा सकें । अन्य लोकों के साथ ऐसे संबंधों के बिना एक ऐसे पुनर्जन्म की परिकल्पना हो सकती है जो सतत देहांतरण को ही स्वीकार करे । यहां अन्य लोकों का अस्तित्व और अन्य लोकों में अंतरात्मा की यात्रा वास्तविक नहीं होते, या किसी भी अवस्था में तंत्र के आवश्यक भाग नहीं होते । एक और परिकल्पना हो सकती है जिसमें यहं यात्रा सबके लिये आवश्यक नियम है और तुरंत पुनर्जन्म नहीं होता । अंतरात्मा को नये जन्म और नये अनुभव की तैयारी के लिये अंतराल की जरूरत होती है । इन दोनों परिकल्पनाओं के बीच समझौता भी संभव है । हो सकता है कि देहांतरण उस समय का पहला प्रचलित नियम हो जब अंतरात्मा उच्चतर लोकों के जीवन के लिये अपरिपक्व हो और अन्य लोकों में गमन परवर्ती विधान हो । एक तीसरी अवस्था भी हो सकती है, जिसकी ओर कभी-कभी संकेत दिया जाता है कि अंतरात्मा इतनी सुविकसित हो, उसके प्राकृतिक अंग आध्यात्मिक रूप से इतने सजीव हों कि उसे अंतराल की जरूरत ही न हो बल्कि वह तुरंत, अंतर्विराम की अवधि में देर लगाये बिना अधिक तेज विकास के लिये पुनर्जन्म ले सकती है ।

 

     धर्मों से चले हुए प्रचलित विचारों में, जो पुनर्जन्म को मानते हैं, एक असंगति है जिसे, जैसा कि प्रचलित मान्यताओं में होता है, सुसंगत बनाने के लिये कोई कष्ट नहीं उठाया गया है । एक ओर यह मान्यता है कि, जो काफी अस्पष्ट लेकिन काफी व्यापक है कि मृत्यु के बाद तुरंत या लगभग तुरंत दूसरा शरीर धारण कर लिया जाता है । दूसरी ओर यह प्रचलित पुराना धार्मिक अंध-विश्वास है कि मृत्यु के बाद स्वर्ग या नरक में, या हो सकता है, अन्य लोकों या सत्ता की स्थितियों में जीवन होता है जिसे जीव ने इस भौतिक जीवन में अपने पाप या पुण्य द्वारा प्राप्त किया या कमाया है । धरती पर लौटना केवल तभी हो सकता है जब वह पाप और पुण्य क्षीण हो जाये और जीव दूसरे पार्थिव जीवन के लिये तैयार हो जाये । यह असंगति लुप्त हो जायेगी यदि हम एक परिवर्तनशील गति को स्वीकार करें जो विकास की उस अवस्था पर निर्भर है जहां जीव प्रकृति में अपनी अभिव्यक्ति में पहुंच गया हो । तब सब कुछ पार्थिव जीवन की अपेक्षा उच्चतर स्थिति में प्रवेश करने की उसकी क्षमता की मात्रा पर निर्भर होगा । लेकिन पुनर्जन्म की सामान्य धारणा में आध्यात्मिक विकास का विचार स्पष्ट नहीं होता । यह केवल इस बात में निहित होता है कि जीव को ऐसे बिंदुतक पहुंचना है जहां वह पुनर्जन्म की

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आवश्यकता का अतिक्रमण करने और अपने शाश्वत उद्गम में लौट जाने के योग्य हो जाये । लेकिन अगर कोई क्रमिक और श्रेणीबद्ध विकास न हो तो उस बिंदुतक अस्त-व्यस्त और टेढ़े-मेढ़े रास्ते से भी पहुंचा जा सकता है जिसका विधान आसानी से निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता । प्रश्न का निश्चित समाधान चैत्य खोज-बीन और अनुभव पर निर्भर है । यहां हम केवल इस बात पर विचार कर सकते हैं कि क्या वस्तुओं के स्वभाव में या विकसनशील प्रक्रिया के तर्क में इन दोनों में से किसी गति के लिये स्पष्ट या गुप्त आवश्यकता है -एक शरीर से दूसरे शरीर में संचार या अपने-आपको मूर्त रूप देनेवाले चैत्य तत्त्व के नये जन्म-ग्रहण के लिये विलम्ब या अंतराल की जरूरत है ।

 

     इस तथ्य से कि भिन्न-भिन्न जगत्-तत्त्व एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं और एक तरह से एक-दूसरे पर आश्रित हैं, और इस तथ्य का हमारे आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया पर जो असर होना चाहिये इससे अन्य लोकों में जीवन की एक तरह की अर्द्ध- आवश्यकता, एक गतिशील और व्यावहारिक न कि मूलभूत आवश्यकता पैदा होती हैं । लेकिन पृथ्वी का अधिक खिंचाव या आकर्षण या विकसनशील प्रकृति की प्रबल भौतिकता कुछ समय के लिये इस आवश्यकता का प्रतिकार कर सकती है । हमारा यह विश्वास कि आरोही जीव मानव शरीर में आता और इस रूप में बार-बार जन्म लेता है और इसके बिना वह मानव विकास को पूरा नहीं कर सकता, तर्कणाशील बुद्धि के दृष्टिकोण से इस आधार पर आश्रित है कि जीव का पार्थिव जीवन की ऊंची-से-ऊंची श्रेणियों में प्रगतिशील रूप से संक्रमण और एक बार मानव स्तरतक पहुंच जाने के बाद बार-बार मानव शरीर लेना -प्रकृति के विकास के लिये आवश्यक अनुक्रम है । स्पष्ट है कि धरती पर एक संक्षिप्त-सा जीवन विकास के उद्देश्य के लिये अपर्याप्त है । मानव पुनर्जन्म की पहली अवस्थाओं की शृंखला में, प्राथमिक मानवता की अवधि में, पहली दृष्टि में बारंबार तुरंत होनेवाले देहांतरण की अमुक संभावना रहती है, संगठित प्राण-ऊर्जा के अवसान या निष्कासन पर उसके परिणाम-स्वरूप भौतिक विघटन होने पर, जिसे हम मृत्यु कहते हैं, जब पहला शरीर विलीन हो जाता है तो नये जन्म में तुरंत नये मानव रूप की पुनरावृत्ति की संभावना रहती है । लेकिन विकसनशील प्रक्रिया की कौन-सी आवश्यकता तुरंत होनेवाले पुनर्जन्मों को बाधित करती है ? स्पष्ट है कि यह केवल तभीतक अनिवार्य होगा जबतक चैत्य व्यक्तित्व -प्रच्छन्न आंतरात्मिक सत्ता नहीं बल्कि प्राकृतिक सत्ता में आंतरात्मिक रूपायन -कम विकसित हो, उसकी वृद्धि अपर्याप्त हुई हो, इतने अपर्याप्त रूप से रूपायित हो कि कह, इस जीवन की मानसिक, प्राणिक और शारीरिक वैयक्तिकता के अविच्छिन्न सातत्य पर निर्भर होकर ही रह सकता हो । वह अभीतक अपने-आपमें बने रहने में, अपने पिछले मानसिक रूपायन और प्राणिक रूपायन को त्यागने और उपयोगी अंतराल के बाद नये

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रूपायन रचने में असमर्थ होता है । वह अपने प्राथमिक अनगढ़ व्यक्तित्व को सुरक्षित बनाये रखने के लिये तुरंत उसे एक नये शरीर में स्थानांतरित करने के लिये बाधित होगा । यह बात संदेहास्पद है कि क्या ऐसे किसी पूर्णतः अपर्याप्त विकास को ऐसी सत्ता पर आरोपित करना उचित होगा जो इतने प्रबल रूप में व्यष्टिभाव को प्राप्त कर चुकी है कि वह मानव चेतनातक जा पहुंची है । अपनी निम्नतम सामान्यता में भी मानव व्यष्टि एक ऐसी अंतरात्मा है जो एक सुनिश्चित मानसिक सत्ता के द्वारा कार्य करती है, उसका मन चाहे जितना कुगठित क्यों न हो, चाहे जितना सीमित और बौना क्यों न हो, भौतिक और प्राणिक चेतना में चाहे जितना बंद और अपने-आपको अपने निम्नतर रूपायनों से अलग करने में अक्षम या अनिच्छुक क्यों न हो । फिर भी हम यह मान सकते हैं कि नीचे की ओर को इतने जोर का आकर्षण होता है जो सत्ता को तेजी करने के लिये बाधित करता है कि वह भौतिक जीवन को तुरंत फिर से शुरू करे क्योंकि उसका स्वाभाविक रूपायन सचमुच किसी और चीज के लिये उपयुक्त नहीं है या किसी उच्चतर स्तर के लिये अजनबी है । या फिर उसका जीवन-अनुभव इतना संक्षिप्त और अपूर्ण हो सकता है कि अंतरात्मा को उसे जारी रखने के लिये तुरंत पुनर्जन्म लेना पड़े । प्रकृति की प्रक्रिया की जटिलता में अन्य आवश्यकताएं, प्रभाव या कारण भी हो सकते हैं जैसे पार्थिव कामना की प्रबल इच्छा जो अपनी पूर्ति के लिये दबाव डाले जो एक नये शरीर में व्यक्तित्व के उसी आग्रही रूप को तुरंत देहांतरण के लिये बाधित करे । चैत्य सत्ता एक बार अपने विकास-चक्र में मानव स्तरतक जा पहुंचे तो देहांतरण की वैकल्पिक प्रक्रिया की सामान्य धारा होगी, 'व्यक्ति' का केवल एक नये शरीर में ही नहीं, व्यक्तित्व के एक नये रूपायन में पुनर्जन्म ।

 

     क्योंकि, जैसे-जैसे आंतरात्मिक व्यक्तित्व का विकास होता है उसे अपने प्रकृति- रूपायन पर काफी अधिकार होना चाहिये और भौतिक शरीर के सहारे के बिना बने रहने के लिये और साथ ही भौतिक लोक और भौतिक जीवन में रोकनेवाली अतिशय आसक्ति पर विजय पाने के लिये काफी आत्माभिव्यक्ति करनेवाला मानसिक और प्राणिक व्यक्तित्व होना चाहिये । वह उस सूक्ष्म शरीर में बने रहने के लिये काफी विकसित होगा जिसके बारे में हम जानते हैं कि वह आंतरिक सत्ता का विशेष कोष या गिलाफ है और उचित सृक्ष्म-भौतिक आधार है । जीव-पुरुष या चैत्य सत्ता बनी रहती है और अपनी यात्रा पर मन और प्राण को साथ लिये रहती है । वह अपने जड़ आवास में से सूक्ष्म शरीर में चली जाती है, अत: पारगमन के लिये दोनों को पर्याप्त रूप से विकसित होना चाहिये परंतु मनोमय जीवन और प्राणमय जीवन के स्तरों में स्थानांतरण का अर्थ है पर्याप्त मात्रा में रूपायित और विकसित मन और प्राण भी विघटित हुए बिना इन उच्चतर लोकों में जा सकें और कुछ समय के लिये वहां रह सकें । अगर ये शर्तें पूरी हो जायें, एक काफी

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विकसित चैत्य व्यक्तित्व और सूक्ष्म शरीर हो और काफी विकसित मानसिक और प्राणिक व्यक्तित्व हो तो तुरंत नया जन्म लिये बिना चैत्य पुरुष की उत्तरजीविता प्राप्त हो जायेगी और अन्य लोकों का खिंचाव क्रियाशील हो जायेगा । लेकिन अपने- आपमें इसका अर्थ होगा उसी मनोमय और प्राणमय व्यक्तित्व के साथ धरती पर लौट आना और नये जन्म में कोई स्वतंत्र विकास न होगा । चैत्य पुरुष का व्यक्तीयन इतना पर्याप्त होना चाहिये कि जैसे वह पिछले शरीर पर निर्भर नहीं रहता उसी तरह पिछले मन और प्राण के रूपायनों पर आश्रित न रहे बल्कि उन्हें भी काल में छोड़कर नये अनुभवों के लिये नये रूपायनों की ओर बढ़े । पुराने रूपों को त्यागने और नये तैयार करने के लिये अंतरात्मा को कुछ समय के लिये दो जन्मों के बीच, पूरी तरह उस भौतिक जगत् से भिन्न किसी स्थान पर रहना ही होगा जिसमें हम विचरण करते हैं क्योंकि यहां अशरीरी आत्मा के लिये कोई रहने का स्थान नहीं है । अगर पार्थिव सत्ता के सूक्ष्म कोष हों, जो हों तो पृथ्वी के परंतु जिनका स्वरूप मानसिक या प्राणिक हो तो वस्तुत: वहां कुछ समय के लिये पड़ाव हो सकता है । लेकिन फिर भी, यदि जीव पार्थिव जीवन के अभिभूत करनेवाले आकर्षण से लदा नहीं होता तो उसके वहां लम्बे समयतक ठहरने का कोई कारण नहीं होता । भौतिक शरीर के बाद व्यक्तित्व के उत्तरजीवन का अर्थ होता है अतिभातिक जीवन; और यह सत्ता के किसी ऐसे स्तर पर ही हो सकता है जो चेतना की विकसनशील अवस्था के लिये उचित हो, या अगर विकास न हो तो वह जीव के किसी अस्थायी दूसरे गृह में हो सकता है जो जीवन और जीवन के बीच यात्रा में उसका स्वाभाविक स्थान होगा । अगर यह उसका मौलिक जगत् हो, जहां से वह भौतिक प्रकृति में लौट कर नहीं आता, तो और बात है ।

 

     तो फिर अतिभौतिक में अस्थायी आवास कहां होगा ? जीव का दूसरा निवास- स्थान कहां होगा ? ऐसा लग सकता है कि उसे मानसिक जगतों में, मानसिक भूमि पर होना चाहिये । एक तो इस कारण कि मनोमय सत्ता, मनुष्य पर जब शारीरिक आकर्षण की बाधा न रहे तो, जीवन में पहले से ही सक्रिय उस लोक का आकर्षण प्रबल होगा और दूसरे इसलिये कि स्पष्ट रूप से मानसिक लोक को मनोमय सत्ता का सहज और उचित आवास होना चाहिये । लेकिन मनुष्य की सत्ता की जटिलता के कारण यह अपने-आप नहीं हो जाता, उसका एक प्राणिक और साथ ही मानसिक जीवन होता है -बहुधा मानसिक भाग की अपेक्षा प्राणिक अधिक प्रबल और प्रमुख होता है  -और मनोमय सत्ता के पीछे एक अंतरात्मा होती है जिसका वह प्रतिनिधि है । और इसके अलावा जगत्-जीवन के बहुत-से लोक और स्तर हैं और जीव को अपने स्वाभाविक आवासतक पहुंचने के लिये उनमें से गुजरना होता है । स्वयं भौतिक लोक में या उसके निकट अधिकाधिक सूक्ष्मता के लोक माने जाते हैं जिन्हें प्राणिक और मानसिक स्वरूपवाले भौतिक उपप्रदेश माना

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जा सकता है । ये एक ही साथ आवृत करनेवाले और भेदनेवाले स्तर हैं जिनके द्वारा उच्चतर लोकों और भौतिक लोक में आदान-प्रदान होता है । जबतक उसकी मानसता पर्याप्त रूप से विकसित न हो, जबतक वह मुख्य रूप से मानसिक और प्राणिक क्रियाशीलता के भौतिक रूपों में सीमित है, तबतक मानसिक सत्ता के लिये यह संभव है कि वह इन निचली भूमियों में पकड़ी जाये और यहां पर उसे देर लगे । यह भी हो सकता है कि वह एक जन्य से दूसरे जन्म के बीच वहां पूरी तरह आराम करने के लिये बाधित हो । लेकिन यह सम्भाव्य नहीं है, यह केवल तभी और उसी हदतक हो सकता है जब और जहांतक उसकी अपनी क्रियाशीलता के पार्थिव रूपों के लिये आसक्ति इतनी अधिक हो कि वह स्वाभाविक उर्ध्वमुखी गति को पूरा होने से रोक दे या उसमें बाधा डाले । क्यांकि जीव की मृत्यु के परे की अवस्था धरती पर उसकी सत्ता के विकास के साथ किसी-न-किसी तरह मिलती-जुलती होनी चाहिये क्योंकि यह परे का जीवन मर्त्यता में किसी अस्थायी अधोमुखी स्खलन में से मुक्त ऊर्ध्वगामी पुनरागमन न होकर एक सामान्य बार-बार आनेवाली परिस्थिति है जो भौतिक जीवन में आध्यात्मिक विकास की कठिन प्रक्रिया में सहायता करने के लिये हस्तक्षेप करती है । मानव प्राणी पृथ्वी पर अपने विकास में अस्तित्व की उच्चतर भूमियों के साथ नाता जोड़ता है और जन्म- जम्मान्तर के बीच इन लोकों में उसके निवास पर इस संबंध का प्रबल प्रभाव होना ही चाहिये । वही उसकी मरणोपरान्त अवस्था का निश्चय करेगा और यह ठीक करेगा कि उसके अनुसार उसके आत्मानुभव का स्थान, अवधि और स्वरूप क्या होगा ।

 

    यह भी हो सकता है कि वह कुछ समय के लिये अन्य लोकों के उन उप- प्रान्तों में लम्बे समयतक ठहरे जिनका निर्माण मर्त्य शरीर में रहते हुए उसकी अभ्यासगत मान्यताओं या उसकी अभीप्साओं के प्रकार ने किया हो । हम जानते हैं कि वह इन श्रेष्ठतर भूमिकाओं के बिंब बनाता है जो प्रायः उनके कुछ तत्वों के मानसिक अनुवाद होते हैं । वह अपने बिंबों को एक प्रणाली या तंत्र के रूप में, वास्तविक जगतों के आकार के रूप में खड़ा करता है । वह बहुत प्रकार के कामना-जगत् भी बनाता है जिनमें वह प्रबल आंतरिक वास्तविकता का भाव जोड़ देता है । हो सकता है कि ये रचनाएं इतनी प्रबल हों कि उसके लिये एक कृत्रिम मरणोपरांत परिवेश बना दें जिसमें वह भटकता रह सकता है । क्योंकि मानव मन की बिंब बनाने की शक्ति, उसकी कल्पना, जो उसके भौतिक जीवन में ज्ञान-अर्जन और जीवन-सृजन के लिये एकमात्र और अनिवार्य सहायक है, वह एक उच्चतर सोपान में एक सृजनात्मक शक्ति बन सकती है जो मनोमय सत्ता को कुछ समय अपने ही बिंबों में रहने योग्य बनाती है -जबतक कि अंतरात्मा के दबाव से वे विघटित न हो जायें । ये सभी रचनाएं बृहत्तर प्राण-रचनाओं की प्रकृति की हैं,

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उनमें उसका मन बृहत्तर मानसिक और प्राणिक जगतों की वास्तविक परिस्थितियों में से कुछ को अपने भौतिक अनुभव की अभिधा में अनूदित कर देता है जिन्हें भौतिकता के परे की अवस्था में विस्तृत, दीर्घीकृत और आकर्षित किया गया हो । वह इस अनुवाद द्वारा भौतिक सत्ता के प्राणिक हर्ष और प्राणिक दुःख अतिभौतिक परिस्थितियों में ले जाता है जिनमें उन्हें अधिक क्षेत्र, परिपूर्णता और सहिष्णुता प्राप्त होती है । अत: उन रचनात्मक पर्यावरणों को, जबतक उनका कोई अतिभौतिक आवास है, अस्तित्व के प्राणिक या निचले मानसिक स्तरों का परिशिष्ट माना जाना चाहिये ।

 

     लेकिन सच्चे प्राणिक लोक भी हैं -मौलिक रचनाएं, व्यवस्थित विकास, वैश्व प्राण-तत्त्व के स्वाभाविक आवास, वैश्व प्राणिक अणिमा जो स्वयं अपने क्षेत्र और अपनी प्रकृति में काम करते हैं । अपने दो जन्मों के बीच की यात्रा में कुछ समय के लिये मनुष्य को उन प्रभावों की मुख्य रूप से प्राणिक स्वभाववाली शक्ति रोके रख सकती है जिन प्रभावों ने उसके पार्थिव जीवन को आकार दिया था, क्योंकि ये प्रभाव प्राणिक जगत् के मूल वासी हैं और उनकी पकड़ मनुष्य को कुछ समय के लिये अपने प्रदेश में रोके रखेगी । वह उसकी पकड़ में रखा जा सकता है जिसकी पकड़ में वह अपनी भौतिक सत्ता में भी था । जीव का उप-प्रदेशों या स्वयं अपनी रचनाओं में निवास चेतना की भौतिक से अतिभौतिक की यात्रा का एक अस्थायी पड़ाव मात्र हो सकता है । उसे इन रचनाओं में से अतिभौतिक प्रकृति के सच्चे लोकों में जाना पड़ता हैं । वह एकदम परलोक के जगतों में प्रवेश कर सकता है या पहले अस्थायी पड़ाव के रूप में सूक्ष्म-भौतिक अनुभव के किसी क्षेत्र में रह सकता है जिसका परिवेश उसे भौतिक जीवन की परिस्थितियों का दीर्घीकरण मालूम हो, परंतु होगा ऐसी अधिक स्वतंत्र अवलोक अवस्थाओं में जो सूक्ष्मतर माध्यम के लिये उपयुक्त हों; और मन या प्राण या सूक्ष्मतर शारीरिक जीवन की किसी प्रकार की सुखद पूर्णता में हो । अनुभव के इन सूक्ष्म भौतिक लोकों और प्राण जगतों के परे मानसिक या आध्यात्मिक मानस लोक भी हैं और ऐसा लगता है कि जीव की उनतक जन्म-जन्मान्तर की पहुंच है और जिनमें वह अपनी जन्म-जन्मान्तर की यात्रा जारी रख सकता है । लेकिन यह बहुत संभव नहीं मालूम होता कि अगर इस जीवन में पर्याप्त मानसिक या आंतरात्मिक विकास नहीं दुआ है तो वह सचेतन रूप से वहां निवास करे । क्योंकि सामान्यत: यह स्तर ऐसे उच्चतम स्तर होने चाहियें जिनमें विकसनशील सत्ता जन्य-जन्मान्तर के बीच निवास कर सकती है क्योंकि जो सत्ता के सोपान पर मानसिक सीढ़ी के पार नहीं गया है वह किसी अतिमानसिक या अधिमानसिक अवस्थातक न जा सकेगा और अगर सत्ता इतनी विकसित हो गयी है कि वह मानसिक स्तर को लांघकर उतनी दूरतक पहुंच जाये तो उसके लिये यह संभव न होगा कि वह लौट सके जबतक कि भौतिक विकास यहां पर जड़-भौतिक में

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अधिमानसिक या अतिमानसिक जीवन की व्यवस्था विकसित न कर दे ।

 

     लेकिन फिर भी यह संभव नहीं है कि मनोमय लोक मृत्यु के बाद की यात्रा के अंतिम स्वाभाविक स्थल हों; क्योंकि मनुष्य पूरा-पूरा मानसिक नहीं है, मृत्यु और जन्म के बीच यात्रा करनेवाला मन न होकर अंतरात्मा, चैत्य पुरुष हैं । और मनोमय सत्ता उसकी आत्माभिव्यक्ति के चित्र में केवल एक प्रमुख तत्त्व है । अतः शुद्ध चैत्य-अस्तित्व के लोक में कोई अंतिम शरण-स्थल होना चाहिये जहां अंतरात्मा पुनर्जन्म के लिये प्रतीक्षा करे । वहां वह अपने विगत अनुभव और जीवन की ऊर्जाओं को आत्मसात् कर सकती है और अपने भविष्य के लिये तैयारी कर सकती है । सामान्यत: सामान्य रूप से विकसित मानव सत्ता, जो मानसिकता की पर्याप्त शक्तितक उठ चुकी हो, उससे आशा की जा सकती है कि वह अपने चैत्य निवास की ओर यात्रा करते हुए इन सभी लोकों में से, सूक्ष्म भौतिक, प्राणिक और मानसिक में से गुजर चुकी होगी । हर पड़ाव पर वह निर्मित व्यक्तित्व के ढांचे के उन अंशों से पिंड छुड़ाती और उन्हें निश्शेष करती है जो अस्थायी और सतही थे, जो पिछले जन्म की चीजें थीं । वह मानसिक कोष और प्राणिक कोष को उसी तरह छोड़ती जायेगी जैसे उसने पहले से शारीरिक कोष को छोड़ दिया है । लेकिन व्यक्तित्व का सारतत्त्व और उसके मानसिक, प्राणिक और भौतिक अनुभव प्रच्छन्न स्मृति में या भविष्य के लिये एक गतिशील सामर्थ्य के रूप में बने रहेंगे । लेकिन अगर मन का विकास अपर्याप्त हो तो यह संभव है कि वह सचेतन रूप से प्राण के स्तर के परे न जा सके और सत्ता या तो वहां से पीछे आ जाये, अपने प्राणिक स्वर्गों या नरकों से पृथ्वी पर लौट आये या जैसा कि अधिक संगत होगा कि वह अगले जन्म के पहले की तैयारी के लिये एक तरह की चैत्य आत्मसात्करण की नींद में चली जाये; उच्चतर भूमियों में जागने के लिये एक विशेष विकास अनिवार्य होगा ।

 

     फिर भी यह सब गतिशील संभावना की बात है, यद्यपि व्यवहार में यह संभावना आवश्यकता तक जा पहुंचती है, यद्यपि अंतस्तलीय अनुभवों के अमुक तथ्यों के कारण यह उचित ठहरती है फिर भी यह तर्कशील मन के लिये अपने- आपमें पूरी तरह निश्चायक नहीं है । हमें यह पूछना है कि क्या जन्म-जन्मान्तरों के अंतरालों की कोई अधिक अनिवार्य आवश्यकता बाकी है, या कम-से-कम कोई इतनी अधिक गतिशील शक्ति रखनेवाली आवश्यकता है जिससे अकट्य निष्कर्ष निकल सकें । उच्चतर भूमिकाओं ने पृथ्वी के विकास में जो निश्चायक भाग लिया है और उनके तथा विकसनशील आंतरात्मिक चेतना के बीच उस भाग ने जो संबंध स्थापित किया है उसमें हमें ऐसी एक आवश्यकता मिल सकती है । हमारा विकास बड़ी हदतक पार्थिव स्तर पर होनेवाली उनकी श्रेष्ठतर परंतु प्रच्छन्न क्रिया द्वारा होता है । सब कुछ निश्चेतना या अवचेतना में समाया हुआ है लेकिन संभाव्यता में, ऊपर

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से होनेवाली क्रिया ही आविर्भाव को अवश्यंभावी बनाने में सहायता करती है । भौतिक प्रकृति में हमारा विकास जिन मानसिक और प्राणिक रूपों के अनुक्रम को ग्रहण करता है उसे रूप देने और निर्धारित करने के लिये उस क्रिया का जारी रहना जरूरी है, क्योंकि ये प्रगतिशील गतियां निश्चेतन या जड़ और अज्ञानी भौतिक प्रकृति के प्रतिरोध के विरुद्ध न तो अपना पूर्ण संवेग पा सकती हैं और न अपने तात्पर्यों को काफी विकसित कर सकतीं हैं; यह हो सकता है तो केवल सतत यद्यपि अपने ही स्वभाव की उच्चतर अतिभौतिक शक्तियों में गुह्य आश्रय द्वारा । यह आश्रय, इस अवगुण्ठित सहयोग की क्रिया मुख्य रूप से हमारी अंतस्तलीय सत्ता में होती है ऊपरी सतह पर नहीं -वहां से हमारी चेतना की सक्रिय शक्ति प्रकट होती है, और वह जो कुछ उपलब्ध करती है उसे वह सदा संग्रह करने, विकसित करने और अधिक बलवान् रूपों में फिर से प्रकट होने के लिये अंतस्तलीय सत्ता में भेजती रहती है । हमारी बृहत्तर गुह्य सत्ता और हमारे सतही व्यक्तित्व के बीच की यह पारस्परिक क्रिया उस द्रुत विकास का मुख्य रहस्य है जो मनुष्य में तब सक्रिय हो उठता है जब वह एक बार जड़ में डूबे हुए मन की निम्नतर भूमिकाओं के परे चला जाता है ।

 

     जन्म-जन्मान्तर के बीच की अवस्था में इस आश्रय का बना रहना जरूरी है क्योंकि नव-जन्म, नव-जीवन का अर्थ यह नहीं है कि विकास को ठीक वहीं से लिया जाये जहां वह पिछले जन्म में रुका था, वह केवल हमारे पिछले सतही व्यक्तित्व और प्रकृति के रूपायन को दोहराना और जारी रखना नहीं है । पिछली विशेषताओं और प्रयोजनों को आत्मसात् करना, त्यागना और मजबूत करना होता है और उनकी पुनर्व्यवस्था की जाती है, अतीत के विकासों का नया विन्यास होता है और भविष्य के प्रयोजनों का चयन होता है जिनके बिना नया आरंभ फलप्रद नहीं होता और न ही वे विकास को आगे बढ़ाते हैं, क्योंकि प्रत्येक जन्म एक नया आरंभ होता है, वह भूतकाल से विकसित तो अवश्य होता है परंतु वह अतीत का यांत्रिक ढंग से जारी रहना नहीं है । पुनर्जन्म एक सतत पुनरावृत्ति नहीं है बल्कि एक प्रगति है, विकसनशील प्रक्रिया का तंत्र है । इस पुनर्व्यवस्था का कुछ अंश, विशेष रूप से व्यक्तित्व के भूतकाल के सबल स्पन्दनों का त्याग, केवल मृत्यु के बाद पहले के मानसिक, प्राणिक और शारीरिक प्रेरणाओं के दबाव को निःशेष कर देने से ही हो सकता है । और इस आंतरिक मुक्ति को पाने के लिये या बाधाओं को हल्का करने के लिये उन भूमिकाओं पर काम करना होगा जो उन प्रेरणाओं के उपयुक्त हों जिन्हें त्यागना या और किसी तरह निबटाना हो, उन भूमिकाओं पर निष्पन्न करना होगा जिनकी अपनी प्रकृति उसी प्रकार की हो क्योंकि जीव उन्हीं भूमिकाओं पर उन क्रियाओं को जारी रख सकता है जिनका चेतना में से समापन और त्याग करना है ताकि वह एक नये रूपायन में चला जाये । यह भी संभव है ।

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कि समाकलन करनेवाली भावात्मक तैयारी हो और नये जीवन के स्वरूप का निश्चय स्वयं अंतरात्मा अपने निजी आवास में, चैत्य विश्राम के लोक में जाकर करे, जहां वह अपने अंदर सब कुछ खींच ले और विकास में नये पड़ाव की प्रतीक्षा करे । इसका अर्थ होगा अंतरात्मा के सूक्ष्म भौतिक, प्राणिक और मानसिक लोकों में से क्रमश: चैत्य निवास-स्थान की ओर यात्रा जहां से वह अपनी पार्थिव यात्रा पर लौट आयेगी । इस तरह तैयार की गयी सामग्री का पार्थिव एकीकरण और विकास, पार्थिव-जीवन में उसका कार्यान्वयन, इस जन्म-जन्मान्तर के बीच आश्रय का परिणाम होगा और नवजन्म परिणामी क्रियाशीलता का क्षेत्र होगा, शरीरस्थ आत्मा के व्यष्टिगत विकास में एक नया मैदान या सर्पिल मोड़ होगा ।

 

     क्योंकि, जब हम कहते हैं कि जीव धरती पर अनुक्रमिक रूप से भौतिक, प्राणिक, मानसिक और आध्यात्मिक सत्ता को विकसित करता है तो हमारा यह मतलब नहीं होता कि वह इन्हें बनाता है और यह कि पहले उनका अस्तित्व ही न था । इसके विपरीत वह जो करता है वह है अपनी आध्यात्मिक सत्ता के इन तत्वों को भौतिक प्रकृति के जगत् द्वारा आरोपित परिस्थितियों में अभिव्यक्त करना । यह अभिव्यक्ति आगे की ओर के व्यक्तित्व के ढांचे का रूप ले लेती है जो आंतरिक जीव का भौतिक अस्तित्व की परिभाषाओं और संभावनाओं में अनुवाद है । वस्तुतः हमें इस पुराने विचार को स्वीकारना चाहिये कि मनुष्य के अंदर न केवल भौतिक पुरुष है जिसके साथ उचित प्रकृति लगी है, बल्कि प्राणिक, मानसिक, चैत्य, अतिमानसिक और परम आध्यात्म पुरुष भी है और उनकी या तो समस्त या अधिकांश उपस्थिति या शक्ति उसके अंतस्तलीय में छिपी हुई है या उसके अतिचेतन भागों में सुप्त और अरूपायित रहती है । उसे उनकी शक्तियों को अपनी सक्रिय चेतना में आगे लाकर अपने ज्ञान में उनके प्रति जागना है । परंतु उसकी सत्ता की इन शक्तियों में से हर एक अपने निजी अस्तित्व के लोक के संपर्क में, रहती है और सबकी जड़ें वहां होती हैं । उनके द्वारा जीव को ऊपर से आते हुए निर्माता प्रभावों के प्रति अंतस्तलीय आश्रय मिल पाता है, एक ऐसा आश्रय जो हमारे विकास के साथ-साथ अधिकाधिक सचेतन होता जाता है । तो यह तर्क-संगत है कि हमारे सचेतन विकास में उनकी शक्तियों के विकास के अनुसार ही उनका जन्म-जन्मान्तर के बीच का वह आश्रय होना चाहिये जिसे यहां पर हमारे जन्म की यह प्रकृति और उसका विकसनशील उद्देश्य और प्रक्रिया जरूरी बनाते हैं । उस आश्रय की परिस्थितियां और अवस्थाएं जटिल होनी चाहियें, वैसी अनगढ़ और कटे-कटाये सरल रूपवाली प्रकृति की नहीं जिनकी कल्पना प्रचलित धर्म करते हैं । लेकिन उसे अपने-आपमें शरीरस्थ आत्म-जीवन की प्रकृति और उसके उद्गम का अनिवार्य परिणाम माना जा सकता है । सब कुछ एक घना बुना हुआ जाल है,

 

     १ तैत्तिरीय उपनिषद्

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एक विकास और पारस्परिक क्रिया है जिसकी कड़िया सचेतन-शक्ति ने अनंत की इन सांत क्रियाओं के क्रियाशील तर्क के अनुरूप अपने हेतुओं के सत्य का अनुसरण करते हुए गढ़ी हैं ।

 

     अगर पुनर्जन्म के बारे में और जीव की अस्तित्व के अन्य लोकों में कुछ समय के लिये यात्रा के बारे में यह दृष्टि ठीक है तो पुनर्जन्म और मृत्यु के बाद का जीवन दोनों ही, पुनर्जन्म और मृत्यु के बाद की परलोक यात्रा के बारे में चिर-प्रचलित विश्वास जो रंग भरता है उससे बिलकुल ही भिन्न अर्थ ले लेते हैं । सामान्यत: पुनर्जन्म के दो पक्ष माने जाते हैं : तत्त्वदार्शनिक और नैतिक । एक तो आध्यात्मिक आवश्यकता का पक्ष, एक वैश्व न्याय और नैतिक अनुशासन का । इस दृष्टि से या इस प्रयोजन से यह माना जाता है कि जीव का व्यष्टिगत अस्तित्व है -वह धरती पर कामना और अज्ञान के परिणामस्वरूप है । उसे तबतक पृथ्वी पर रहना होगा या बार-बार यहां आना होगा जबतक कि वह कामना से थक न जाये और अपने अज्ञान के तथ्य और सच्चे ज्ञान के प्रति जाग्रत् न हो जाये । यह कामना उसे हमेशा नये शरीर में लौटने के लिये बाधित करती है । वह जबतक बोध पाकर मुक्त न हो जाये उसे सदा जन्म के घूमते चक्र का अनुसरण करते रहना पड़ेगा । फिर भी वह हमेशा धरती पर बना नहीं रहता बल्कि हमेशा धरती और अन्य लोकों के बीच अदल-बदल करता है । वे लोक स्वर्ग हो सकते हैं या नरक जहां वह अपने पाप और पुण्य के क्रिया-कर्मों के कारण संचित गुण, अवगुणों के भंडार को समाप्त करता है और फिर धरती पर किसी तरह के पार्थिव शरीर में लौट आता है, कभी मनुष्य, कभी पशु और कभी वनस्पति में भी । इस नये शरीर- धारण की प्रकृति और उसके भाग्य का निर्णय जीव के पिछले कर्मों द्वारा स्वचालित रूप में निर्धारित किया जाता है । अगर पिछले कर्मों का योगफल अच्छा हो तो जन्म उच्चतर कोटि में होता है, जीवन सुखी या सफल और बिना रहस्यमय ढंग से भाग्यवान् होता है और अगर बुरा हो तो प्रकृति के निचले रूप हमारा आवास बन सकते हैं और अगर मानव जन्म हो तो दुःखी, असफल, कष्ट और दुर्भाग्य से भरा होगा । अगर हमारे पिछले कर्म और चरित्र मिश्रित थे तो प्रकृति एक अच्छे लेखापाल की तरह हमारे पिछले व्यवहार की कोटि और मूल्यों के अनुसार मिश्रित, सुख-दुःख का, सफलता-असफलता का, विरलतम सौभाग्य और कठोरतम दुर्भाग्य का ठीक-ठीक भुगतान करती है । साथ ही पिछले जन्म की प्रबल निजी इच्छा या कामना भी हमारे नये अवतार का निर्णय कर सकती है । बहुधा प्रकृति के इन पुरस्कारों को गणित का रूप दिया जाता है क्योंकि माना यह जाता है कि हमें अपने कुकर्मों के लिये ठीक-ठीक दण्ड मिलना चाहिये । हमने जो कुछ किया है या नुकसान पहुंचाया है उसका प्रतिरूप या उसके समान भोग हमें अवश्य सहना पड़ेगा । कर्म-विधान का 'दांत के बदले दांत' वाला अटल विधान बहुधा प्रचलित

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है । क्योंकि वह विधान एक गणितज्ञ है जो अपना गिनतारा लिये बैठा है साथ ही एक न्यायाधीश है जो अतीत में किये गये अपराधों और उपापराधों के लिये दण्ड-विधान लिये है । यह बात भी देखने लायक है कि इस पद्धति में पाप और पुण्य के लिये दोहरा दण्ड और दोहरा पुरस्कार है । पापी को पहले नरक में यातना दी जाती है और बाद में उन्हीं पापों के लिये यहां अगले जन्म में पीड़ा दी जाती है और पुण्यात्मा या अतिनैतिक को पुरस्कार-स्वरूप स्वर्गिक आनंद मिलता है और बाद में उन्हीं पुण्यों और सुकृतों के लिये उसे एक नये पार्थिव-जीवन में दुलराया जाता है ।

 

     ये बहुत संक्षिप्त प्रचलित धारणाएं हैं जो दार्शनिक बुद्धि को पांव रखने का स्थान भी नहीं देतीं और जीवन के सच्चे अर्थ की खोजका कोई समाधान नहीं देतीं । एक ऐसा विशाल लोक-निकाय जो अज्ञान के चक्र पर बिना किसी अंत के घूमते रहने के लिये सुविधा के रूप में हो, जिसका एकमात्र समाधान उसमें से बाहर निकल आने का अंतिम अवसर हो -यह कोई ऐसा जगत् नहीं है जिसके अस्तित्व के लिये कोई वास्तविक कारण हो । एक ऐसा जगत् जो केवल पाप-पुण्य की पाठशाला का काम दे और केवल पुरस्कार और दंड की व्यवस्था के लिये बना हो वह हमारी बुद्धि को बहुत आकर्षित नहीं करता । हमारे अंदर अंतरात्मा या आध्यात्म पुरुष, अगर वह दिव्य, अमर या स्वर्गिक है, तो उसे यहां केवल इस तरह की अनगढ़ और आद्य नैतिक शिक्षा पाने के लिये पाठशाला में नहीं भेजा जा सकता । अगर वह अज्ञान में प्रवेश करता है तो इसका यह कारण होगा कि उसकी सत्ता का कोई बड़ा तत्त्व या संभावना है जिसे अज्ञान के द्वारा क्रियान्वित करना है, इसके अलावा यदि वह अनंत की कोई सत्ता है जो किसी वैश्व प्रयोजन के कारण जड़- भौतिक के अंधकार में धंसी है और उसके भीतर आत्म-ज्ञान में विकसित हो रही है तो यहांपर उसका जीवन और उस जीवन का अर्थ छोटे बच्चे को लाड़-प्यार से या चाबुक द्वारा धार्मिक मार्ग पर लाने से बढ़कर कुछ और होना चाहिये । उस एक स्वारोपित अज्ञान में से निकलकर स्वयं अपनी पूर्ण आध्यात्मिक महिमा में विकास और अंत में अमर चेतना, ज्ञान, बल, सौंदर्य, दिव्य शुद्धि और शक्ति में प्रवेश करना चाहिये और इस तरह के आध्यात्मिक विकास के लिये यह कर्म का विधान बहुत ज्यादा बचकाना है । यहांतक कि अगर अंतरात्मा ऐसी चीज है जिसका सृजन किया गया है, एक शिशु-सत्ता है जिसे प्रकृति से सीखना और अमरता में विकसित होना है तो यह किसी आद्य, बर्बर न्याय की दिव्य संहिता से नहीं बल्कि विकास के विशालतर विधान द्वारा होना चाहिये । कर्म का यह विचार मनुष्य के उस प्राणिक मन के छोटे से भाग की रचना है जो जीवन के छोटे-मोटे नियमों, कामनाओं और सुख-दुखों में व्यस्त रहता और उनके घटिया मानकों को विश्व के विधान और लक्ष्य के रूप में खड़ा करता है । विचारशील मन के लिये ये धारणाएं मान्य नहीं हो सकतीं । उनपर हमारे मानव अज्ञान द्वारा गढ़ी रचना की छाप बहुत स्पष्ट होती है ।

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     लेकिन इसी समाधान को बुद्धि के उच्चतर स्तरतक उठाया जा सकता है, बड़े सत्याभास और वैश्व सिद्धांत का रंग दिया जा सकता है । क्योंकि पहले तो वह इस अकट्य आधार पर खड़ा हो सकता है कि प्रकृति की सभी ऊर्जाओं का अपना स्वाभाविक परिणाम होना चाहिये, अगर कुछ का परिणाम वर्तमान जीवन में नहीं दिखायी देता तो हो सकता है कि परिणाम में देर लग रही है, उसे हमेशा के लिये नहीं रोक दिया गया है । हर व्यक्ति अपने कर्मों और कृत्यों की फसल काटता है, उसको प्रकृति की ऊर्जाओं द्वारा किये गये कार्यों के फल और जो वर्तमान जीवन में दिखायी नहीं देते उन्हें किसी अगले जन्म के लिये उठा रखा गया होगा । यह सच है कि व्यक्ति की ऊर्जाओं और उसके कर्मों का फल स्वयं उसे नहीं बल्कि उसके जाने के बाद औरों को प्राप्त हो, यह तो हम हमेशा होते हुए देखते हैं -वस्तुत: यह तो मनुष्य के अपने जीवन-काल में भी होता है कि उसकी ऊर्जाओं के फल और लोग काटें लेकिन यह इस कारण है कि प्रकृति में जीवन की एकात्मता और उसका सातत्य है और व्यक्ति चाहने पर भी केवल अपने लिये नहीं जी सकता । लेकिन अगर व्यक्ति के पुनर्जन्म द्वारा उसके अपने जीवन का सातत्य है, केवल सामुदायिक जीवन और वैश्व जीवन का ही सातत्य नहीं है अगर उसमें सदा विकसनशील आत्मा, प्रकृति और अनुभव है तो यह अनिवार्य है कि उसके लिये भी उसकी ऊर्जाओं की क्रिया भी सहसा न कट जाये बल्कि उसे उनका परिणाम अपने सतत विकंसनशील जीवन में कभी भुगतना पड़े । मनुष्य की सत्ता, प्रकृति, जीवन की परिस्थितियां उसकी अपनी भीतरी और बाहरी क्रियाओं का परिणाम हैं, कोई आकस्मिक और अव्याख्येय चीज नहीं हैं, उसने अपने-आपको जो बनाया है वह वही है, पूर्व मानव आज जो मानव है उसका पिता था और आज का मानव भविष्य में होनेवाले मानव का पिता है । हर सत्ता जो बोती है वही काटती है, वह जो करती है उसका लाभ उठाती है, वह जो करती है उसका दुःख भोगती है, यह कर्म का, प्रकृति-ऊर्जा के कार्य का विधान और शृंखला है और यह चीज हमारे जीवन, प्रकृति, चरित्र और क्रिया की समय शक्ति को सार्थकता देती है जो जीवन की अन्य परिकल्पनाओं में नहीं पायी जाती । इस सिद्धांत के अनुसार यह स्पष्ट है कि मनुष्य के विगत और वर्तमान कर्म उसके भावी जन्म, उसकी घटनाओं और परिस्थितियों का निर्णय करेंगे क्योंकि इन्हें भी उसकी ऊर्जाओं का फल होना चाहिये । भूतकाल में वह जो कुछ था, उसने जो कुछ किया उसे ही उस सबका स्रष्टा होना चाहिये जो वह वर्तमान में है और अनुभव करता है और जो कुछ वह वर्तमान में है और कर रहा है उसे भविष्य में जो कुछ वह होगा और जो अनुभव करेगा उसका स्रष्टा होना चाहिये । मनुष्य स्वयं अपना स्रष्टा है, वह अपनी नियति का भी स्रष्टा है । यह सब पूरी तरह तर्क-सम्मत है और जहांतक चलता है निरपवाद है और कर्म-सिद्धांत को एक तथ्य के रूप में वैश्व मशीन के अंग के

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रूप में स्वीकार किया जा सकता है; क्योंकि यह इतना स्पष्ट है -एक बार पुनर्जन्म को स्वीकार कर लिया जाये तो -कि यह व्यावहारिक रूप से निर्विवाद है ।

 

     फिर भी इस पहले प्रस्ताव के दो संशोधन हैं जो कम व्यापक और प्रामाणिक हैं और एक संदेहात्मक संकेत ले आते हैं; क्योंकि वे भले अंशत: सच्चे हों फिर भी उनमें अतिशयोक्ति होती है और वे एक गलत दृश्य प्रस्तुत करते हैं क्योंकि उन्हें कर्म के समग्र भाव के रूप में रखा जाता है । पहला यह कि जैसा ऊर्जाओं का स्वरूप हो वैसा ही फल का स्वरूप होना चाहिये -शुभ का परिणाम शुभ ही आना चाहिये और अशुभ के अशुभ परिणाम होंगे । दूसरा यह कि कर्म का मूल शब्द है न्याय अत: शुभ कर्मों को सुख और सौभाग्य का फल देना चाहिये और अशुभ कर्मों को दुःख, दैन्य और दुर्भाग्य के फल देने चाहियें । चूंकि ऐसा कोई वैश्व न्याय होना चाहिये जो जीवन में प्रकृति की तात्कालिक और दृश्य क्रियाओं पर किसी तरह से नजर रखता और नियंत्रण रखता है लेकिन जीवन में तथ्य हमें जैसे दिखायी देते हैं उनमें वह प्रत्यक्ष नहीं है, अत: उसे प्रकृति के अदृष्ट व्यवहारों की समष्टि में उपस्थित और स्पष्ट होना चाहिये । वह सूक्ष्म और मुश्किल से दिखायी देनेवाला किंतु मजबूत और दृढ़ प्रच्छन्न धागा होना चाहिये जो प्रकृति के अपने जीवों के साथ अन्यथा असंगत व्यौरों को एक साथ रखता है । अगर यह पूछा जाये कि सिर्फ कर्मों का, सिर्फ शुभ और अशुभ कर्मों का ही परिणाम क्यों होना चाहिये तो यह माना जा सकता है कि शुभ या अशुभ विचारों, संवेदनों, क्रियाओं के इन सबके अनुरूप परिणाम होंगे परंतु चूंकि कर्म जीवन का बड़ा भाग है और वह मनुष्य के सत्ता-विषयक मूल्यों की कसौटी और रूपायित करने की शक्ति होता है, चूंकि मनुष्य अपने विचारों और भावनाओं के लिये हमेशा उत्तरदायी नहीं होता, क्योंकि वे प्रायः अनैच्छिक होते हैं लेकिन वह जो कुछ करता है उसके लिये स्वयं उत्तरदायी है या उसे उत्तरदायी मानना चाहिये क्योंकि वह उसके चुनाव के अधीन होता है, अत: मुख्य रूप से उसके कर्म ही उसके भाग्य का निर्माण करते हैं । वे उसकी सत्ता और उसके भविष्य के, मुख्य या सबसे अधिक बलशाली निर्णायक होते हैं । यही कर्म का संपूर्ण विधान है ।

 

     लेकिन पहले हमें यह देखना होगा कि कर्म-विधान या उसकी शृंखला एक बाहरी यंत्र है और उसे विश्व की जीवन-क्रिया के एकमात्र या उच्चतम निर्धारक के श्रेष्ठ पद पर तबतक नहीं उठाया जा सकता जबतक कि स्वयं विश्व अपने स्वरूप में पूरी तरह यांत्रिक न हो । वस्तुत: बहुत-से लोग मानते हैं कि सब कुछ विधान और प्रक्रिया है और विश्व में या इसके पीछे कोई सचेतन सत्ता या इच्छा नहीं है । अगर ऐसा है तो यह रहा एक विधान और एक प्रक्रिया जो हमारी मानव तर्क-बुद्धि को और हमारे उचित और न्याय के मानसिक मानकों को संतुष्ट कर सकती है । उसमें पूर्ण सममिति का सौंदर्य और सत्य है और कार्य में गणितीय यथार्थता है । लेकिन

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सब कुछ विधान और प्रक्रिया ही नहीं है । सत्ता और चेतना भी है, वस्तुओं में केवल एक यंत्र ही नहीं है बल्कि उनमें आत्मा भी है । केवल प्रकृति और विश्व का विधान ही नहीं, एक वैश्व आत्मा भी है, प्राकृतिक प्राणी में केवल मन, प्राण और शरीर की प्रक्रिया ही नहीं है बल्कि एक अंतरात्मा भी है । अगर ऐसा न होता तो जीव का पुनर्जन्म भी न होता और न ही कर्म-विधान के लिये कोई क्षेत्र होता । लेकिन अगर हमारी सत्ता का आधारभूत सत्य यांत्रिक न होकर आध्यात्मिक है तो फिर हम ही, हमारी अंतरात्मा ही मौलिक रूप से अपने विकास का निर्णय करती है और कर्म-विधान उन प्रक्रियाओं में से एक हो सकता है जिनका वह इस उद्देश्य के लिये उपयोग करती है । हमारी आत्मा, हमारे आध्यात्म पुरुष को अपने कर्म से बड़ा होना ही चाहिये । विधान तो है पर साथ ही आध्यात्मिक स्वतंत्रता भी है । विधान और प्रक्रिया हमारे जीवन के एक पक्ष मात्र हैं और उनका शासन हमारे बाहरी मन, प्राण और शरीर पर है क्योंकि ये बहुधा प्रकृति की यांत्रिकता के आधीन होते हैं, लेकिन यहां भी उनकी यांत्रिक शक्ति केवल शरीर और जड़तत्त्व पर निर्बाध रहती है । प्राण के व्यापार के आते ही विधान अधिक जटिल और कम कठोर हो जाता है, प्रक्रिया अधिक नमनीय और कम यांत्रिक हो जाती है और यह चीज और भी अधिक बढ़ती है जब अपनी सूक्ष्मता के साथ मन का हस्तक्षेप होता है, आंतरिक स्वाधीनता हस्तक्षेप करना शुरू कर देती है और हम जितना ही अंदर जाते हैं, उतना ही अधिक अंतरात्मा की चुनाव की शक्ति का अनुभव होने लगता है क्योंकि प्रकृति विधान और प्रक्रिया का क्षेत्र है परंतु जीव, पुरुष अनुमति देनेवाला ''अनुमता'' है और अगर वह सामान्य रूप से केवल साक्षी रहना पसंद करता है और अपने-आप स्वीकृति देता चलता है तो वह चाहे तो अपनी प्रकृति का स्वामी, ईश्वर बन सकता है ।

 

     इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि भीतरी आध्यात्म पुरुष कर्म के हाथ में एक कठपुतली है, इस जीवन में अपने पिछले कर्मों का दास है । सत्य कम कठोर और अधिक नमनीय होना चाहिये । अगर इस जन्म में पिछले जन्म के कुछ कर्मों के परिणाम प्रतिपादित होते हैं तो यह चैत्य पुरुष की रजामंदी से ही हो सकता है, वह अपने पार्थिव अनुभव की नयी रचना की अध्यक्षता करता है और केवल बाहरी आवश्यक प्रक्रिया को नहीं बल्कि एक प्रच्छन्न इच्छा और पथ-प्रदर्शन को भी स्वीकृति देता है, वह प्रच्छन्न इच्छा यांत्रिक नहीं आध्यात्मिक है, पथ-प्रदर्शन एक ऐसी प्रज्ञा से आता है जो यांत्रिक क्रियाओं का उपयोग तो करती है पर उनके आधीन नहीं है । आत्माभिव्यक्ति और अनुभव वे चीजें हैं जिन्हें अंतरात्मा शरीर में जन्म लेकर खोजती है । इस जीवन की आत्माभिव्यक्ति और अनुभव के लिये जो कुछ जरूरी है, चाहे वह पिछले जन्मों के यांत्रिक परिणाम के रूप में हस्तक्षेप करे या परिणामों का स्वतंत्र संकलन हो, चाहे एक सातत्य या नूतन वृद्धि हो, भविष्य के

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सृजन के लिये जो भी साधन हो उसकी रचना होगी क्योंकि मूल तत्त्व विधान की यांत्रिकता का कार्यान्वयन नहीं, वैश्व अनुभव द्वारा प्रकृति का विकास है ताकि वह अंतत: अज्ञान में से बाहर निकल सके । अत: दो तत्त्व होने चाहियें; यंत्र के रूप में कर्म और साथ ही मन, प्राण और शरीर द्वारा उपयोक्ता के रूप में काम करनेवाली प्रच्छन्न चेतना और आंतरिक इच्छा । नियति, चाहे शुद्ध रूप से यांत्रिक हो या हमारे द्वारा निर्मित, हमारी बनायी हुई शृंखला हो, जीवन का केवल एक उपकरणमात्र है । सत्ता और उसकी चेतना और इच्छा और भी अधिक महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं । भारतीय ज्योतिष में, जो जीवन की सभी परिस्थितियों को कर्म मानता है, उन्हें अधिकतर पूर्वनिर्धारित या ग्रहों के आलेख में निर्दिष्ट मानता है; उसमें भी सत्ता की ऊर्जा और शक्ति की व्यवस्था की गयी है जो इस तरह लिखे भाग के किसी अंश या बड़े भाग को बदल या रद्द कर सकता है, यहांतक कि कर्म के अधिक-से- अधिक अनिवार्य तथा शक्तिशाली बंधनों के सिवाय अन्य सबको रद्द कर सकता है । संतुलन का यह हिसाब बुद्धिसंगत है लेकिन इस गणना में हमें यह तथ्य भी जोड़ना होगा कि नियति सरल नहीं जटिल है, जो नियति हमारी भौतिक सत्ता को बांधती है तभीतक या उसी हदतक बांधती है जबतक कि कोई अधिक बड़ा विधान हस्तक्षेप न करे । कर्म हमारे भौतिक भाग की चीज है । यह हमारी सत्ता का भौतिक परिणाम है लेकिन हमारी सतह के पीछे अधिक स्वतंत्र प्राण-शक्ति, अधिक स्वतंत्र मानसिक शक्ति है जिसकी और ही ऊर्जा होती है, जो और ही नियति का निर्माण कर सकती है और उसे प्राथमिक योजना में हेर-फेर करने के लिये ला सकती है । जब अंतरात्मा और आध्यात्म पुरुष का आविर्भाव होता है, जब हम सचेतन रूप से आध्यात्मिक सत्ता बन जाते हैं तो वह परिवर्तन हमारी भौतिक नियति के आलेख को रद्द कर सकता या पूरी तरह नया रूप दे सकता है । तब कर्म को या कम-से-कम कर्म के यांत्रिक विधान को परिस्थितियों के और पुनर्जन्म के और हमारे भावी विकास के समूचे तंत्र के रूप में एकमात्र निर्धारक नहीं माना जा सकता ।

 

     लेकिन यही सब कुछ नहीं है; क्योंकि विधान के इस निरूपण में अत्यधिक सरलीकरण और सीमित तत्त्व के मनमाने चुनाव की भूल रह जाती है । कर्म सत्ता की ऊर्जा का परिणाम है लेकिन यह ऊर्जा बस एक ही प्रकार की नहीं है । आध्यात्म पुरुष की चित्-शक्ति अपने-आपको नाना प्रकार की ऊर्जाओं में प्रकट करती है : मन की आंतरिक क्रियाएं हैं, प्राण की क्रियाएं कामना, वासना, आवेग और चरित्र की क्रियाएं हैं, इन्द्रियों और शरीर के क्रिया-कलाप, सत्य और ज्ञान की खोज, सौंदर्य की खोज, नैतिक शुभ या अशुभ की खोज, शक्ति, प्रेम, आनंद, सुख, सौभाग्य, सफलता, हर्ष, सब प्रकार के प्राणिक संतोष, प्राण की अभिवृद्धि, व्यष्टिगत या सामुदायिक उद्देश्य की खोज, शारीरिक स्वास्थ्य, बल, क्षमता, संतोष

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की खोज । यह सब मिलकर जीवन में आत्मा के बहुविध अनुभव और बहुमुखी क्रियाओं का बहूत अधिक जटिल कुल-योग बना देता है और किसी एक सिद्धांत के लिये उसकी विभिन्नता को एक ओर नहीं खिसकाया जा सकता और न ही उसे नैतिक शुभ और अशुभ के एक द्वित्त के बहुत-से विभागों में ठूंसा जा सकता है । अत: नीतिशाशास्त्र, नैतिकता या सदाचार के मानव मानकों को बनाये रखना वैश्व विधान की सर्वोपरि तल्लीनता या कर्म की क्रिया निर्धारक सिद्धांत नहीं हो सकता । अगर यह सच है कि जो ऊर्जा काम में लगायी जा रही है उसका स्वभाव ही उसके परिणाम या फल की प्रकृति का निर्धारण करेगा तो ऊर्जा की प्रकृति में ये जितने विभेद हैं उन सबको हिसाब में लेना होगा -और हर एक का उचित परिणाम होना चाहिये । सत्य और ज्ञान को खोजनेवाली ऊर्जा की अपने स्वाभाविक परिणाम के रूप में प्राप्ति होनी चाहिये -उसका पुरस्कार या पारिश्रमिक, अगर तुम यूं कहना चाहो, -सत्य में वृद्धि, ज्ञान में वृद्धि । मिथ्यात्व के लिये काम में लायी गयी ऊर्जा का परिणाम होगा प्रकृति में मिथ्यात्व की वृद्धि और अज्ञान में अधिक गहरी डुबकी । सौंदर्य की खोज करनेवाली ऊर्जा का परिणाम होगा सौंदर्य-बोध में वृद्धि, सौंदर्य का भोग या अगर इस दिशा में निर्देशित किया जाये तो जीवन और प्रकृति के सौंदर्य और सामंजस्य में वृद्धि । भौतिक स्वास्थ्य, बल और क्षमता की खोज को बलवान् पुरुष या सफल व्यायामी की रचना करनी चाहिये । जो ऊर्जा नैतिक शुभ की खोज में लगायी गयी हो उसका परिणाम या पुरस्कार या पारिश्रमिक होगा सद्‌गुण में वृद्धि, नैतिक वृद्धि का सुख या सरल और स्वाभाविक शुभ की उज्ज्वल प्रसन्नता और सन्तुलन तथा शुद्धि, जब कि विपरीत ऊर्जाओं का दण्ड होगा अशुभ में और भी गहरी डुबकी, और प्रकृति का अधिक असामंजस्य और विकार और अति हो जाये तो आध्यात्मिक ''महती विनष्टि'' । शक्ति या अन्य प्राणिक उद्देश्यों के लिये आगे लायी गयी ऊर्जा इन परिणामों पर शासन करने की क्षमता की वृद्धि या प्राणिक बल और प्रचुरता के विकास की ओर ले जायेगी । प्रकृति में वस्तुओं का यही सामान्य विन्यास है । अगर उससे न्याय की मांग की जाये तो निश्चय ही यह न्याय है कि प्रयोग में लायी गयी ऊर्जा और सामर्थ्य को प्रकृति का समुचित उत्तर अपने ही प्रकार से मिले । वह तेज व्यक्ति को दौड़ का पुरस्कार देती है, वीर, बलवान् और निपुण को युद्ध में विजय देती है, सक्षम बुद्धिवाले गम्भीर जिज्ञासु को ज्ञान । ये चीजें वह सुस्त या दुर्बल या कौशलहीन या मूढ़ व्यक्ति को केवल इस कारण न देगी कि वह धर्म-परायण या आदरणीय है । अगर वह जीवन की इन दूसरी शक्तियों की चाह करता है तो उसे उनके योग्य बनना होगा और ठीक तरह की ऊर्जा बाहर लानी होगी । अगर प्रकृति इससे भिन्न तरह से करती तो उसे अन्याय का दोषी ठहराया जा सकता था । इस पूर्णतया उचित और स्वाभाविक व्यवस्था के लिये उसे अन्याय का दोषी ठहराने का कोई कारण नहीं या उससे भावी

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जीवन में उसके बकाया का शोध करने की मांग करने का कोई कारण नहीं, जिससे भले आदमी को स्वाभाविक पुरस्कार के रूप में अपने गुणों के बदले ऊंचा पद, बैंक में बहुत सारी पूंजी, सुखी, सरल या सुसज्जित जीवन मिले । यह पुनर्जन्म की सार्थकता या कर्म के वैश्व विधान के लिये पर्याप्त आधार नहीं हो सकता ।

 

     निःसन्देह हमारे जीवन में एक बहुत बड़ा अंश होता है जिसे नियति या सौभाग्य कहते हैं जो हमारे प्रयत्नों के परिणामों में बाधा देता या बिना प्रयास के या घटिया ऊर्जा को पुरस्कार देता है; नियति की इन सनकों के गुप्त कारण की -या अनेक कारणों की; क्योंकि सौभाग्य की जड़ों के विविध कारण होते हैं -निःसन्देह उनकी आंशिक रूप में खोज हमारे प्रच्छन्न भूतकाल में करनी होगी; लेकिन इस सरल से समाधान को स्वीकार करना कठिन है कि सौभाग्य पूर्व-जन्म के विस्मृत पुण्य-कर्मों का पुरस्कार और दुर्भाग्य किसी पाप या अपराध का बदला है । अगर हम यहां पर किसी धर्मात्मा को दुःख-कष्ट झेलते देखते हैं तो यह मानना मुश्किल होता है कि यह सद्‌गुणों की मूर्ति पूर्व-जन्म में दुष्ट थी और अब नये जन्म द्वारा अनुकरणीय परिवर्तन के बावजूद उस समय के किये गये पापों का भुगतान कर रही है । या अगर दुष्ट विजयी होता है तो क्या हम आसानी से यह मान सकते हैं कि अपने पिछले जन्म में वह सन्त था जिसने अचानक एक गलत मोड़ लें लिया लेकिन अब भी अपने पिछले सद्‌गुणों का नकद भुगतान पा रहा है । एक जीवन से दूसरे जीवन के बीच इस तरह का पूर्ण परिवर्तन संभव होते हुए भी बहुधा सम्भाव्य नहीं है । लेकिन नये विपरीत व्यक्तित्व को पिछले जन्म के पुरस्कारों या दण्डों से लाद देना निष्प्रयोजन और शुद्ध रूप से यांत्रिक प्रक्रिया मालूम होता है । ये और ऐसी कई अन्य कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं और सह-संबंध का यह अति सरल तर्क उतना मजबूत नहीं है जितना वह दावा करता है । जीवन और प्रकृति के अन्याय के हर्जाने के रूप में कर्म-फल का यह विचार इस परिकल्पना के लिये दुर्बल आधार है, क्योंकि वह छिछले और उथले मानव संवेदन और मानक को वैश्व विधान के अर्थ के रूप में प्रस्तुत करता है और अप्रामाणिक तर्क पर आधारित है । कर्म- सिद्धांत का कोई और, अधिक सबल आधार होना चाहिये ।

 

     जैसा बहुधा होता है यहां भी भ्रांति इस बात से आती है कि हम ऐसे मानक को, जो हमारे मानव मन की रचना है, अधिक विशाल, स्वतंत्र और अधिक व्यापक वैश्व बुद्धि पर आरोपित करते हैं । जो क्रिया कर्म-विधान की मानी जाती है उसमें प्रकृति के बनाये हुए अनेक मूल्यों में से केवल दो को, नैतिक शुभ और अशुभ, पाप और पुण्य तथा प्राणिक- भौतिक शुभ और अशुभ, बाहरी सुख-दुःख, बाहरी सौभाग्य और दुर्भाग्य का, चुना जाता है । माना यह जाता है कि उनके बीच समीकरण होना चाहिये, एक को दूसरे का पुरस्कार या दण्ड होना चाहिये, यही उसे प्रकृति के गूढ़ न्याय में मिलनेवाला अंतिम अनुमोदन होता है । स्पष्ट है कि यह

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विन्यास हमारे अंगों में रहनेवाली सामान्य प्राणिक-भौतिक कामनाओं के दृष्टिकोण से बना है क्योंकि सुख, सौभाग्य वह है जिसे हमारी प्राणिक सत्ता का निचला भाग सबसे अधिक चाहता है, दुर्भाग्य और दुःख वह है जिनसे वह बहुत अधिक घृणा और भय करता है । उससे जब यह नैतिक मांग की जाती है कि वह अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करे, अनिष्ट न करने के लिये आत्म-संयम करे और जो शुभ है उसे करने के लिये आत्म-प्रयास करे तो वह एक ऐसे सौदे को, एक ऐसे वैश्व-विधान को स्वीकार कर लेता है जो उसके कठोर आत्म-संयम का बदला दे और जो दण्ड के भय से आत्म-त्याग के कठोर पथ से चिपके रहने के लिये उसका सहायक होता है । लेकिन सच्ची नैतिक सत्ता को शुभ का मार्ग अपनाने और अशुभ का मार्ग त्यागने के लिये पुरस्कार और दण्ड की पद्धति की जरूरत नहीं होती । उसके लिये पुण्य अपने-आप अपना पुरस्कार है, पाप अपने साथ अपना दण्ड अपनी निजी प्रकृति के विधान से पतन के दुःख के रूप में लाता है, यही सच्चा नैतिक मानक है । इसके विपरीत पुरस्कारों और दण्डों की पद्धति शुभ के नैतिक मूल्यों को एकदम भ्रष्ट कर डालती, पुण्य को स्वार्थ में, अपने हित के लिये व्यापारिक सौदेबाजी में बदल देती है और अशुभ से बचने के उचित हेतु के स्थान पर एक निम्नतर हेतु को रख देती है । मनुष्यों ने पुरस्कार और दण्ड के नियम को एक सामाजिक आवश्यकता के रूप में खड़ा किया है ताकि जाति को हानि पहुंचानेवाली वस्तुओं को रोका जा सके और उसके लिये सहायक वस्तुओं को प्रोत्साहन दिया जा सके । परंतु इस मानव युक्ति को वैश्व-प्रकृति के व्यापक विधान या परम सत्ता के विधान या जीवन के परम विधान के रूप में खड़ा करना सन्देहास्पद मूल्य की प्रक्रिया है । यह मानव है और साथ ही बचकाना भी कि हम अपने अज्ञान के अपर्याप्त और संकीर्ण मानदण्डों को वैश्व-प्रकृति की विशालतर और अधिक जटिल क्रियाओं पर या उस परम प्रज्ञा और परम शुभ की क्रिया पर लागू करें जो हमें हमारी आंतरिक सत्ता द्वारा हमारे अंदर धीरे- धीरे काम करनेवाली आध्यात्मिक शक्ति द्वारा अपनी ओर खींचती या उठाती है, हमारी बाहरी प्राणिक प्रकृति पर प्रलोभनों अथवा दबाव के विधान द्वारा नहीं । अगर अंतरात्मा बहुविध और जटिल अनुभव द्वारा विकास में से गुजर रही है तो कर्म के किसी भी विधान को या ऊर्जा की क्रिया और उत्पादन के किसी भी प्रतिदान को उस अनुभव के साथ मेल खाने के लिये जटिल होना चाहिये, वह सरल और स्वल्प बनावट का नहीं हो सकता या अपने प्रभाव में कठोर और एकदेशीय नहीं हो सकता ।

 

     साथ ही इस सिद्धांत को तथ्य के एक आंशिक सत्य के रूप में -आधारभूत या व्यापक रूप में नहीं -स्वीकार किया जा सकता है । क्योंकि, यद्यपि ऊर्जा की क्रिया की रेखाएं स्पष्ट और स्वतंत्र हैं, वे मिलकर या एक-दूसरे पर क्रिया कर सकती हैं, लेकिन अनुरूपता के किसी कठोर नियम के अनुसार नहीं । यह संभव है

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कि प्रकृति के प्रतिदानों की समग्र पद्धति में प्राणिक-भौतिक शुभ और अशुभ तथा नैतिक शुभ और अशुभ के बीच संबंध या पारस्परिक क्रिया का कोई तंतु प्रवेश कर जाता है; विभिन्न द्वंद्वों के बीच एक सीमित अनुरूपता और मिलन-स्थली हो लेकिन ऐसी संगति नहीं जिसे अलग न किया जा सके । हमारी अपन। बदलती हुई ऊर्जाएं, कामनाएं गतिविधियां अपनी क्रिया में मिली-जुली रहती हैं और मिश्रित परिणाम ला सकती हैं । हमारा प्राणिक अंश पुण्य के लिये, ज्ञान के लिये, हर बौद्धिक, सौंदर्यपरक, नैतिक या भौतिक प्रयास के लिये ठोस और बाहरी पुरस्कार की मांग करता है । वह पाप के लिये, यहांतक कि अज्ञान के लिये भी दण्ड पर दृढ़ विश्वास रखता है । यह संभव है कि यह एक संगत विश्व-क्रिया की रचना करे या उसके अनुरूप हो क्योंकि हम जैसे हैं प्रकृति हमें उसी रूप में लेती है और कुछ हदतक अपनी गतिविधियों को हमारी आवश्यकताओं या हमारी उससे मांगों के अनुकूल बनाती है । अगर हम अपने ऊपर अदृश्य शक्तियों की क्रिया को स्वीकार कर लें, तो हो सकता है कि प्राण-प्रकृति में भी ऐसी अदृश्य शक्तियां हों जो चित्-शक्ति के उसी लोक की हों जिसका हमारी सत्ता का यह भाग है ऐसी शक्तियां जो उसी योजना के अनुसार या उसी शक्ति-प्रेरणा से चलती हों जिससे हमारी निचली प्राणिक प्रकृति चलती है । बहुधा देखा जा सकता है कि जब कोई स्वाग्रही प्राणिक अहंकार अपने मार्ग पर बिना संयम के, बिना झिझके, जो कुछ उसकी इच्छा, कामना का विरोध करे उसे कुचलता चला जाता है तो वह मनुष्यों में अपने विरुद्ध घृणा, विरोध और बेचैनी, स्वयं अपने विरुद्ध प्रतिक्रियाओं का समूह उठाता चलता है जिनका परिणाम उसी समय या बाद में आ सकता है और वैश्व प्रकृति में और भी अधिक भयंकर विरोधी प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं । यह ऐसा होता है मानों प्रकृति का धैर्य, उसकी अपना प्रयोग किये जानें के लिये सहमति चुक गयी हों । बलवान् प्राणिक मनुष्य का अहं जिन शक्तियों को पकड़ कर अपने काम में लगाता था वही शक्तियां विद्रोह करके उससे उल्टी हो जाती हैं, जिन्हें उसने रौंदा था वे उठ खड़ी होती हैं और उसके पतन के लिये शक्ति पा लेती हैं । मनुष्य की धृष्ट प्राण-शक्ति आवश्यकता के सिंहासन पर लात मारती है और चकनाचूर हो जाती है या दण्ड का लंगड़ा पैर अंत में सफल अपराधीतक जा पहुंचता है । उसकी ऊर्जाओं के प्रति यह प्रतिक्रिया उसपर एकदम न आकर अगले जीवन में आ सकती है या वे उसके लिये निष्कर्षों का वह भार बन सकती हैं जिसे वह इन शक्तियों के क्षेत्र में अपनी वापसी में उठाता है । यह छोटे या बड़े पैमाने पर हो सकता है, छोटी-सी प्राणिक सत्ता और उसकी छोटी भ्रांतियों और उसी तरह इन बड़े उदाहरणों में हो सकता है । क्योंकि सिद्धांत वही होगा । हमारे अंदर मनोमय सत्ता शक्ति के अपव्यवहार द्वारा सफलता खोजती है जिसे प्रकृति स्वीकार तो कर लेती है परंतु अंत में उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया करती है और विरोधी प्रतिफल को

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पराजय, दुःख और असफलता के वेश में पाती है । लेकिन कारणों और परिणामों की इस छोटी धारा को ऊंचा उठाकर एक अपरिवर्तनशील निरपेक्ष विधान के या परम सत्ता की क्रिया के समस्त वैश्व नियम के पदतक चढ़ा देना वैध नहीं है, ये विश्व के अंतरतम या परम सत्य और भौतिक प्रकृति की निष्पक्षता के बीच के मध्यवर्ती प्रदेश की चीजें हैं ।

 

     बहरहाल प्रकृति की प्रतिक्रियाएं सारतत्त्व में पुरस्कार या दण्ड के रूप में अभिप्रेत नहीं हैं; यह उनका आधारभूत मूल्य नहीं है, बल्कि यह स्वाभाविक संबंधों का अंतर्निहित मूल्य है और जहांतक वह आध्यात्मिक विकास पर प्रभाव डालता है, अंतरात्मा के वैश्व प्रशिक्षण में अनुभव के पाठों का मूल्य है । अगर हम आग को छू लें तो वह जलाती है लेकिन इस कार्य-कारण संबंध में दंड का कोई सिद्धांत नहीं है । यह संबंध और अनुभव का पाठ है । तो हमारे साथ प्रकृति के सभी व्यवहारों में वस्तुओं का एक संबंध है और उसके साथ मेल खाता हुआ अनुभव का एक पाठ है । वैश्व ऊर्जा की क्रिया जटिल होती है और वे ही शक्तिया परिस्थितियों के अनुसार, सत्ता की आवश्यकता के अनुसार, क्रिया में लगी वैश्व शक्ति के इरादे के अनुसार भिन्न रूप में क्रिया कर सकतीं हैं । हमारा जीवन केवल अपनी ऊर्जाओं से ही नहीं बल्कि दूसरों की ऊर्जाओं से और वैश्व-शक्तियों से प्रभावित होता है । और इस सारी विशाल परस्पर-क्रीड़ा के परिणामों का निश्चय किसी एक सर्व-शासक नैतिक विधान के एकमात्र तत्त्व से नहीं किया जा सकता जिसका ध्यान ऐकान्तिक रूप से वैयक्तिक मानव सत्ताओं के गुणों और दोषों, पाप- पुण्य पर रहता हो । और न ही सौभाग्य या दुर्भाग्य, हर्ष-शोक, सुख-दुःख और दैन्य को इस रूप में माना जा सकता है कि उनका अस्तित्व प्राकृत सत्ता के लिये शुभ और अशुभ के चुनाव में प्रेरक और निवारक के रूप में ही है । जीव अनुभव, व्यक्तिगत सत्ता की वृद्धि के लिये पुनर्जन्म में प्रवेश करता है । हर्ष और शोक, दुःख-दर्द, सौभाग्य-दुर्भाग्य उस अनुभव के भाग हैं, उस विकास के साधन हैं । यहांतक कि स्वयं अंतरात्मा दारिध्र, दुर्भाग्य और कष्ट को अपने विकास में सहायक, तेजी के साथ विकास में उद्दीपक के रूप में स्वीकार कर सकती है और समृद्धि, सम्पदा और सफलता को अपने आध्यात्मिक प्रयास में शिथिलता के प्रेरक और संकटकारी समझ कर त्याग सकती है । निश्चय ही सुख और सुख लानेवाली सफलता मानव-जाति की एक उचित मांग है । यह प्राण और जड़-भौतिक के आनंद के एक फीके प्रतिबिंब या एक स्थूल प्रतिरूप को पकड़ने के लिये प्रयत्न है । लेकिन ऊपरी सुख और भौतिक सफलता, वे हमारी प्राणिक प्रकृति के लिये चाहे जितने वांछनीय हों, वे हमारे जीवन के मुख्य उद्देश्य नहीं हैं । अगर यही इरादा होता तो वस्तुओं के विश्व-विधान में जीवन और तरह से व्यवस्थित होता । पुनर्जन्म की परिस्थितियों का सारा रहस्य अंतरात्मा की एकमात्र सबसे बड़ी आवश्यकता,

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विकास की आवश्यकता, अनुभव की आवश्यकता के इर्द-गिर्द केन्द्रित है जो उसके विकास की धारा पर शासन करती है । बाकी सब आनुषंगिक है । वैश्व- जीवन वैश्व-न्याय की विशाल प्रशासन-व्यवस्था नहीं है जिसका यंत्र-विन्यास पुरस्कार और दण्ड का कोई विश्व-विधान हो या जिसके केन्द्र में कोई दिव्य विधायक या न्यायाधीश बैठा हो । हम उसे पहले-पहल प्रकृति की ऊर्जा की एक महान् स्वचालित गति के रूप में देखते हैं और उसमें चेतना की आत्म-विकसनशील गति का आविर्भाव होता है । अतः यह उस आध्यात्म पुरुष की गति है जो प्रकृति की ऊर्जा की गति में स्वयं अपनी सत्ता को कार्यान्वित करता है । इस गतिधारा में पुनर्जन्म का चक्र चलता है और उस चक्र में अंतरात्मा, चैत्य पुरुष, जो कुछ उसके विकास के अगले चरण के लिये, उसके अगले व्यक्तित्व-निर्माण के हेतु आवश्यक अनुभवों के अगले समूह के लिये आवश्यक है उस सबकी अपने लिये तैयारी करता है, या उस सबको दिव्य प्रज्ञा या वैश्व चित्-शक्ति. उसके लिये और उसकी क्रिया के द्वारा तैयार करती है । यह भूत, भविष्य और वर्तमान ऊर्जाओं के अविच्छिन्न प्रवाह में से आत्मा के हर नये जन्म, हर नये चरण के लिये आयोजित और व्यवस्थित होता है । यह नया जन्म, नया चरण, चाहे वह आगे की ओर हो या पीछे की ओर या अभी चक्र में ही हो, हमेशा प्रकृति में अपने नियत आत्मोन्मीलन की ओर सत्ता के विकास में एक चरण होता है ।

 

     यह बात हमें पुनर्जन्मसंबंधी साधारण धारणा के एक और तत्त्वतक ले आती है जो स्वीकार करने योग्य नहीं है क्योंकि वह स्पष्ट रूप से भौतिक मन की भ्रांति है -यह विचार कि स्वयं अंतरात्मा एक सीमित व्यक्तित्व है जो जन्म-जन्मांतरतक अपरिवर्तित बना रहता है । अंतरात्मा और व्यक्तित्व के बारे में यह बहुत अधिक सरल और छिछला विचार भौतिक मन की अपने इस एक जीवन के बाहरी आत्म- रूपायन से परे देख सकने की अक्षमता से पैदा होता है । उसकी धारणा में पुनर्जन्म में जो वापिस आता है उसे केवल वही आध्यात्म पुरुष, वही चैत्य सत्ता ही नहीं बल्कि प्रकृति का वही रूपायन होना चाहिये जो पिछले जन्म में शरीर के अंदर निवास करता था । शरीर बदलता है, परिवेश भिन्न है लेकिन सत्ता का रूप, मन, स्वभाव, चरित्र, विन्यास, प्रवृत्तियां वही की वही बनी हैं । अपने नये जीवन में जॉन स्मिथ वही जनि स्मिथ है जो वह अपने पिछले अवतार में था । अगर ऐसा होता तो पुनर्जन्म का कोई आध्यात्मिक उपयोग या अर्थ न होता, क्योंकि यह उसी छोटे-से व्यक्तित्व का, उसी छोटे मानसिक और प्राणिक रूपायन का काल के अंततक पुनरावर्तन होता रहता । अपनी वास्तविकता की पूर्ण महिमातक विकसित होने के लिये शरीरस्थ सत्ता के लिये केवल नया अनुभव ही नहीं, बल्कि नया व्यक्तित्व भी अनिवार्य है; उस एक ही व्यक्तित्व की पुनरावृत्ति तभी उपयोगी हो सकतीं है जब उसके अनुभव के अपने विन्यास में कोई चीज अधूरी रह गयी हो जिसे सत्ता के

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 उसी ढांचे में, मन की उसी रचना में और ऊर्जा की उसी रूपायित सामर्थ्य के साथ क्रियान्वित करने की जरूरत हो । लेकिन साधारणत: यह बिलकुल व्यर्थ होगा । जो अंतरात्मा जॉन स्मिथ हो चुकी है उसे हमेशा जॉन स्मिथ बने रहने से न तो कोई लाभ होगा न उसकी परिपूर्ति होगी । वह हमेशा उसी स्वरूप, हित, पेशे और उन्हीं आंतरिक और बाह्य गतिविधियों के प्रकारों को दोहराते रहने से कोई वृद्धि और पूर्णता न पायेगी । हमारा जीवन और पुनर्जन्म हमेशा वही आवर्तक दशमलव बना रहेगा । वह विकास न होकर शाश्वत पुनरावर्तन का निरर्थक सातत्य होगा, अपने वर्तमान व्यक्तित्व के साथ हमारी आसक्ति इस तरह के सातत्य की, पुनरावर्तन की मांग करती है । जॉन स्मिथ हमेशा के लिये जॉन स्मिथ बना रहना चाहता है । लकिन स्पष्ट है कि यह मांग अज्ञानमय है और अगर इसे संतुष्ट किया जाये तो वह परिपूर्ति नहीं कुण्ठा होगी । हम सदा बाहरी पुरुष के परिवर्तन, प्रकृति की सतत प्रगति, आध्यात्म सत्ता के विकास द्वारा ही अपने अस्तित्व को न्यायोचित ठहरा सकते हैं ।

 

     व्यक्तित्व एक अस्थायी मानसिक, प्राणिक, भौतिक रूपायन है जिसे सत्ता, वास्तविक पुरुष, चैत्य सत्ता सतह पर सामने लाती है । वह अपनी स्थायी वास्तविकता में आत्मा नहीं है । हर बार जब पुरुष धरती पर लौटता है तो वह एक नया रूपायन तैयार करता है, एक नयी व्यक्तिगत प्रमात्रा तैयार करता है जो उसको सत्ता के नये अनुभव के लिये, नये विकास के लिये उपयुक्त हो । जब वह शरीर से निकलता है तो वह कुछ समय के लिये वही प्राणिक और मानसिक रूप बनाये रखता है लेकिन ये रूप या कोष विलीन हो जाते हैं और जो चीज रखी जाती है वह है पिछली प्रमात्रा के आवश्यक तत्त्व जिनमें से कुछ का नये जन्म में उपयोग होगा और कुछ का नहीं । हो सकता है कि पिछले व्यक्तित्व का आवश्यक रूप, बहुत से तत्त्वों में से एक तत्त्व, उसी पुरुष के बहुत से व्यक्तित्वों में से एक व्यक्तित्व के रूप में बना रहे, लेकिन पृष्ठभूमि में, सतही मन, प्राण और शरीर के पर्दे के पीछे अन्तस्तलीय में बना रहे और वहां से नये रूपायन में उससे जिस चीज की आशा की जाती है वह देता रहे; लेकिन वह अपने-आपमें वही समस्त रूपायन न होगा या प्रकृति के पुराने अपरिवर्तित प्ररूप का कोई नया निर्माण न कर रहा होगा । यह भी हो सकता है कि सत्ता की नयी प्रमात्रा या सत्ता का नया ढांचा एकदम विपरीत लक्षण और स्वभाव दिखलाये, उसमें एकदम भिन्न क्षमताएं और बहुत भिन्न प्रवृत्तियां हों क्योंकि हो सकता है कि प्रच्छन्न सम्भाव्यताएं प्रकट होने के लिये तैयार हों या कोई ऐसी चीज हो जो क्रिया में तो आ चुकी थी पर थी प्रारंभिक; हो सकता है कि उसे पिछले जन्म में रोके रखा गया हो जिसे कार्यान्वित करने की जरूरत थी लेकिन उसे बाद के लिये प्रकृति की सम्भावनाओं के अधिक उपयुक्त मेल के लिये रोक लिया गया हो । निश्चय ही समस्त भूतकाल अपने तेजी

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से बढ़ते हुए संवेग और संभाव्यताओं के साथ भविष्य के रूपायन के लिये मौजूद है लेकिन सारा-का-सारा प्रकट रूप में उपस्थित और सक्रिय नहीं है । अतीत में रूपायनों की जितनी अधिक विविधता रही होगी और जिनका उपयोग किया जा सकता है, अनुभवों की संचित रचनाएं उतनी ही समृद्ध, बहुसंख्यक रहेंगी, ज्ञान, शक्ति, क्रिया, चरित्र, विश्व के प्रति बहुविध प्रतिक्रिया की क्षमता के लिये उनके अनिवार्य परिणाम को सामने लाया जा सकता है और नये जन्म में उनका सामंजस्य बिठाया जा सकता है । जितने अधिक अवगुंठित व्यक्तित्व, मानसिक, प्राणिक और सूक्ष्म भौतिक, सतह पर नवीन व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने के लिये मिलेंगे, वह व्यक्तित्व उतना ही बड़ा और समृद्ध होगा; वह विकास की पूरी की हुई मानसिक अवस्था में से निकल कर उससे परे की किसी वस्तु की ओर संभव संक्रमण के उतने ही अधिक निकट होगा । इस प्रकार की जटिलता और एक ही व्यक्ति में अनेक व्यक्तित्वों का इकट्ठा होना व्यष्टिगत विकास में बहुत ज्यादा विकसित भूमिका का चिह्न हों सकता है जहां बलवान् केन्द्रीय सत्ता होती है जो सबको एक साथ रखती है और प्रकृति की समस्त बहुमुखी गति का सामंजस्य तथा एकीकरण करने के लिये कार्य करती है । लेकिन अतीत का यह प्रचुर रूप से ग्रहण व्यक्तित्व का पुनरावर्तन न होकर एक नयी रचना और विशाल परिपर्ति होगा । पुनर्जन्म का अस्तित्व अपरिवर्तनशील व्यक्तित्व के सतत नवीकरण या दीर्घीकरण के लिये मशीन नहीं है बल्कि प्रकृति में आध्यात्मिक सत्ता के विकास के लिये साधन-स्वरूप है ।

 

     यह स्पष्ट है कि पुनर्जन्म की इस योजना में, हमारा मन पूर्व जन्मों की स्मृति को जो मिथ्या महत्त्व देता है वह एकदम से गायब हो जाता है । अगर वास्तव में पुनर्जन्म की व्यवस्था पर पुरस्कार और दण्ड का शासन होता, अगर जीवन का सारा प्रयोजन बस इतना ही होता कि शरीरस्थ आत्मा को अच्छा और नैतिक बनने का पाठ पढ़ाये -यदि यह मान लिया जाये कि कर्म के विधान का सारा उद्देश्य यही है और वह वैसा नहीं है जैसा कि इस प्रस्तुतीकरण में दीखता है, यानी सुधार के भाव या अर्थ के बिना पुरस्कार और दण्ड का यांत्रिक विधान नहीं है -तब स्पष्ट है कि मन को अपने नये जीवन में अपने अतीत के जन्मों और कर्मों की समस्त स्मृति से वंचित करना एक बड़ी मूर्खता होगी, अन्याय होगा । क्योंकि, इससे पुनर्जात सत्ता यह अनुभव करने के हर अवसर से वंचित रह जाती है कि उसे पुरस्कार या दण्ड क्यों मिल रहा है या उसे पुण्य का जो लाभ दिया जा रहा है और पाप की जो लाभहीनता उसपर लादी जा रही है उसके पाठ से कोई लाभ उठाने से वंचित रह जाता है । यहांतक कि चूंकि ऐसा लगता है कि जीवन उल्टा ही पाठ पढ़ाता है क्योंकि वह देखता है कि भले लोग अपनी भलाई के कारण दुःख भोगते हैं और दुष्ट अपनी दुष्टता के कारण फलते-फूलते हैं -तो ज्यादा संभावना यह है कि वह इस विकृत भाव में ही निष्कर्ष निकाले क्योंकि उसे अनुभव के निश्चित और

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अविच्छिन्न परिणाम की याद नहीं है जो उसे बतला सके कि भले आदमी के कष्ट उसके पिछले दुष्कर्मों के कारण और पापी की समृद्धि उसके विगत पुण्यों की भव्यता के कारण है । अत: प्रकृति की इस व्यवस्था में प्रवेश करनेवाले किसी भी बुद्धिमान और विवेकी जीव के लिये अन्ततोगत्वा पुण्य ही सबसे अच्छी नीति है । यह कहा जा सकता है कि भीतर चैत्य सत्ता याद रखती है लेकिन ऐसी गुप्त स्मृति का सतह पर कोई प्रभाव या मूल्य न होगा । या यह कहा जा सकता है कि जब वह शरीर से निकलने के बाद अपने अनुभवों का सिंहावलोकन करके उसे आत्मसात् करती है तब जो कुछ घटित हुआ है उसे वह अनुभव करती और अपना पाठ सीखती है । लेकिन यह बीच-बीच में आनेवाली स्मृति बहुत प्रकट रूप में अगले जन्म में कोई सहायता नहीं देती क्योंकि हममें से अधिकतर लोग पाप और भ्रांति में लगे रहते हैं और अपने पिछले अनुभवों की शिक्षा से लाभ उठाने के कोई स्पष्ट चिह्न नहीं दिखाते ।

 

     लेकिन अगर विकसित होते हुए वैश्व अनुभव द्वारा सत्ता का सतत विकास ही अर्थ है और नये जन्म में नये व्यक्तित्व की रचना ही उसकी पद्धति है तो पिछले जन्म या जन्मों की स्थायी या पूरी स्मृति एक जंजीर और बड़ा विघ्न ही हो सकती है । वह एक ऐसी शक्ति होगी जो पुरानी प्रकृति, चरित्र और मुख्य कार्य को जारी रखेगी और नये व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास और उस व्यक्तित्व के नये अनुभवों के निरूपण में बाधा डालनेवाला बहुत बड़ा भार होगी । पिछले जीवन, घृणा, विद्वेषों, आसक्तियों, संबंधों की स्पष्ट और विस्तृत स्मृति भी इसी तरह एक बहुत बड़ी असुविधा होगी क्योकि वह पुनर्जात सत्ता के लिये सतही भूत की एक व्यर्थ पुनरावृत्ति और अनिवार्य अवस्थिति, आत्मा की गहराइयों में से अपनी नयी संभावनाओं को बाहर लाने के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा होगी । यदि वस्तुत: चीजों को मानसिक रूप में सीख लेना ही विषय का मर्म होता, अगर यही हमारे विकास की प्रक्रिया होती तो स्मृति का बहुत महत्त्व होता । लेकिन वस्तुत: चैत्य व्यक्तित्व की वृद्धि होती है, प्रकृति की वृद्धि होती है और यह होता है हमारी सत्ता के पदार्थ में आत्मसात् होने के द्वारा, भूतकाल की ऊर्जाओं के सारगत परिणामों के सर्जनशील और प्रभावी आत्मसात् होने के द्वारा । इस प्रक्रिया में सचेतन स्मृति का कोई महत्त्व नहीं है । जैसे वक्ष सूर्य, वर्षा तथा पवन की क्रिया के अवचेतन या निश्चेतन आत्मसात्करण तथा पार्थिव तत्त्वों की तल्लीनता द्वारा बता है इसी भांति सत्ता अपनी अतीत की संभूति के परिणाम और भावी संभूति की सम्भाव्यताओं के उत्पादन के अन्तर्लीन या अन्तश्चेतन आत्मसात्करण और समावेश से वृद्धि पाती है । जो विधान हमें पिछले जन्मों की स्मृति से वंचित करता है वह वैश्व प्रज्ञा का विधान है और विकास के उद्देश्य की सहायता करता है, उसमें बाधा नहीं देता ।

 

     विगत जन्मों की स्मृति के अभाव को गलती से, अज्ञान के कारण पुनर्जन्म के

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तथ्य का खण्डन मान लिया जाता है । क्योकि अगर इस जीवन में ही अपने भूत की सब स्मृतियां बनाये रखना कठिन है, अगर वे प्रायः पृष्ठभूमि में चली जाती हैं या बिलकुल मिट जाती हैं, अगर हमारी बाल्यावस्था की कोई स्मृति नहीं रहती और फिर भी स्मृति की इस सारी रिक्तता के बावजूद हमारा अस्तित्व रह सकता है और हम बढ़ सकते हैं, यदि मन पिछली घटनाओं कीं पूरी तरह भूल सकता है, स्वयं अपने व्यक्तित्व को भी भूल सकता है, फिर भी वह की वही सत्ता बनी रहती है, और एक दिन खोयी हुई स्मृति वापिस आ सकती है तो स्पष्ट है कि अन्य लोकों में जाने और वहां से नये शरीर में नये जन्म के जैसा आमूल परिवर्तन सामान्यत: सतही या मानसिक स्मृति को पूरी तरह मिटा दे लेकिन इससे अंतरात्मा का व्यक्तित्व या प्रकृति की वृद्धि मिट न जायेगी । सतही मानसिक स्मृति का यह मिटना और भी अधिक निश्चित और पूरी तरह अनिवार्य हो जाता है यदि उसी सत्ता का नया व्यक्तित्व और नया यंत्र-विन्यास हो जो पुराने का स्थान ले ले, एक नया मन, नया प्राण, नया शरीर । यह आशा नहीं की जा सकती कि नया मस्तिष्क अपने अंदर पुराने मस्तिष्क के धारण किये हुए बिंबों को लिये रहेगा । नये प्राण या मन से यह मांग नहीं की जा सकती कि जो पुराने मन या प्राण विघटित किये जा चुके हैं और जिनका अस्तित्व नहीं है उनके मिटे हुए संस्कारों को बनाये रखें । निःसंदेह अंतस्तलीय सत्ता याद रख सकती है क्योकि उसे सतह की अक्षमताओं से कष्ट नहीं होता लेकिन सतही मन उस अंतस्तलीय स्मृति से कटा हुआ रहता है जिसमें पिछले जन्मों के स्पष्ट संस्कार या स्पष्ट याद हो सकती है । यह विच्छेद जरूरी है क्योकि नया व्यक्तित्व जो अंतर में है, उसके साथ कोई सचेतन प्रसंग न रखकर ही बाहरी सतह पर बनता है । जैसा हमारी बाहरी सत्ता के समस्त शेष भाग के साथ होता है, हमारे सतही व्यक्तित्व का निर्माण भी भीतरी क्रिया से होता है, लेकिन उस क्रिया के बारे में वह सचेतन नहीं होता । उसे लगता है कि वह आत्म-निर्मित, बना बनाया या वैश्व प्रकृति की ऐसी क्रिया द्वारा बनाया गया है जिसे ठीक तरह समझा नहीं गया । लेकिन फिर भी कभी-कभी इन लगभग अलंध्य बाधाओं के बावजूद, पिछले जन्मों की स्मृति के कुछ अंश रह जाते हैं, कुछ थोड़े से उदाहरण ऐसे भी हैं जिनमें बाल-मानस के अंदर आश्चर्यजनक रूप से ठीक और पूरी स्मृति पायी जाती है । और अंत में सत्ता के विकास के अमुक स्तर पर जब अंतर बाह्य पर प्रभुत्व पाना शुरू करता है और सामने आता है तो कभी-कभी विगत जन्म की याद ऐसे उभरने लगती है मानों किसी डूबे हुए स्तर से आ रही हो; लेकिन किसी घटना या परिस्थिति के ठीक-ठीक व्योरे की अपेक्षा वर्तमान जीवन में सत्ता के निर्माण में प्रभावकारी पिछले जन्म के व्यक्तित्वों के उपादान और बल के बोध के रूप में अधिक आसानी से आती है । यद्यपि ठीक-ठीक व्योरा भी किन्हीं अंशों में आ सकता है या एकाग्रता द्वारा अंतस्तलीय दृष्टि, किसी गुप्त स्मृति अथवा हमारे

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आन्तरिक सचेतन पदार्थ से प्राप्त किया जा सकता है लेकिन प्रकृति के लिये उसके सामान्य कार्य में इस व्योरेवार स्मृति का बहुत कम महत्त्व है और वह उसके लिये कम ही व्यवस्था करती है या बिलकुल नहीं करती । उसे सत्ता के भावी विकास की रचना की चिंता रहती है, भूत को पीछे हटा दिया जाता है, पर्दे के पीछे रखा जाता है । और उसका उपयोग केवल वर्तमान और भविष्य के लिये सामग्री के गुह्य स्रोत के रूप में किया जाता है ।

 

     अगर व्यक्ति और व्यक्तित्व की इस धारणा को मान लिया जाये तो इससे उसी समय अंतरात्मा की अमरता के बारे में हमारे प्रचलित विचारों में भी हेर-फेर करना होगा क्योकि साधारणत: जब हम अंतरात्मा के अमर अस्तित्व पर जोर देते हैं तो उसका मतलब होता है मृत्यु के बाद एक सुनिश्चित अपरिवर्तनशील व्यक्तित्व का बना रहना जो था और जो शाश्वत कालतक सदा एकरस बना रहेगा । हम जिसके लिये उत्तरजीविता और अमरता के अतिमहान् अधिकार की मांग करते हैं वह वही अपूर्ण, क्षणिक और बाहरी  ''मैं'' होता है जिसे प्रकृति स्पष्टत: अस्थायी रूप मात्र मानती है जो संरक्षण के अयोग्य है । लेकिन मांग अत्यधिक है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । क्षणिक अहं उत्तरजीविता के योग्य केवल तभी हो सकता है जब वह बदलने के लिये राजी हो, वह अपने-आप न बना रहे बल्कि कुछ और, महत्तर, उत्तम, ज्ञान में अधिक प्रकाशमय, शाश्वत आतरिक सुन्दरता की प्रतिमा के रूप में अधिक बढ़ा हुआ, प्रच्छन्न आध्यात्म पुरुष के दिव्यत्व की ओर अधिक प्रगतिशील हो । हमारे अंदर वही प्रच्छन्न आत्मा या आध्यात्म पुरुष का दिव्यत्व अमर है क्योकि वह अजन्मा और शाश्वत है । उसकी प्रतिनिधि अंतस्थ चैत्य सत्ता, हमारे भीतर का आध्यात्मिक व्यक्ति वह पुरुष है जो हम हैं । इस समय का ''मैं'' वर्तमान जीवन का ''मैं'' इस आतरिक व्यक्ति का रूपायन, एक अस्थायी व्यक्तित्व मात्र है । वह हमारे विकसनशील परिवर्तन के अनेक चरणों में से एक चरण है और वह अपना सच्चा उद्देश्य तब पूरा करता है जब हम उसके परे जाकर, अधिक दूर के चरणतक जा पहुंचें जो हमें चेतना और सत्ता की उच्चतर कोटि के ज्यादा नजदीक ले जाता है । अंतःपुरुष मृत्यु के बाद बना रहता है, उसी तरह जैसे वह जन्म से पहले होता है; क्योंकि यह सतत उत्तरजीविता हमारे कालातीत आध्यात्म पुरुष की शाश्वतता का काल की भाषा में व्यक्त होना है ।

 

     हमारी उत्तरजीविता की सामान्य मांग हमारे मन, हमारे प्राण यहांतक कि हमारे शरीर के लिये भी ऐसी ही उत्तरजीविता चाहती है । शरीर के पुनरुज्जीवन का मत इस अंतिम मांग का प्रमाण देता है । यही अमरता प्रदान करनेवाले अमृत या किसी जादुई साधन, कीमिया था विज्ञान द्वारा शरीर की मृत्यु पर भौतिक विजय पाने के मनुष्य के युग-युग पुराने प्रयास के मूल में है । लेकिन यह अभीप्सा तभी सफल हो सकती है जब मन, प्राण या शरीर भीतर निवास करनेवाले आध्यात्म पुरुष की अमरता या दिव्यता का कुछ अंश धारण कर लें । कुछ ऐसी परिस्थितियां होती हैं जिनमें आतरिक मनोमय पुरुष के प्रतिनिधि बाह्य मनोमय व्यक्तित्व का

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त्तरजीवन संभव होता है । यह तब हो सकता है जब हमारी मानसिक सत्ता सतह पर इतने प्रबल रूप से व्यक्तित्व पा ले और आतरिक मन तथा आतरिक मानसिक पुरुष के साथ इतनी एक हो जाये और साथ ही नमनीयता के साथ शाश्वत की प्रगतिशील क्रिया की ओर इतनी खुल जाये कि अंतरात्मा को प्रगति करने के लिये मन के पुराने रूप को विघटित करने और एक नया रूप बनाने की जरूरत न रहे । सतह पर प्राण के भी ऐसे ही व्यष्टीकरण, एकीकरण और उन्मीलन के द्वारा ही हमारे अंदर प्राण के अंश का, बाहरी प्राणिक व्यक्तित्व का, प्राण-पुरुष का, जो भीतरी प्राणमय सत्ता का प्रतिनिधि है, उत्तरजीवन संभव है । तब जो वास्तव में होगा वह यह है कि भीतरी आत्मा और बाहरी मनुष्य के बीच की दीवार गिर जायेगी और भीतर से स्थायी मनोमय और प्राणमय सत्ता, अमर चैत्य सत्ता के मानसिक और प्राणिक प्रतिनिधि जीवन पर शासन करेंगे । हमारी मानसिक-प्रकृति और प्राण-प्रकृति तब अंतरात्मा की लगातार प्रगतिशील अभिव्यक्तियां होंगी, केवल ऐसे आनुक्रमिक रूपायनों की समष्टि नहीं जिनके केवल सार-तत्त्व का संरक्षण किया गया हो । तब हमारा मानसिक व्यक्तित्व और प्राणिक व्यक्तित्व विघटन के बिना जन्म-जन्मांतर तक बने रहेंगे । इस अर्थ में वे अमर होंगे, आग्रही रूप से जीवित रहेंगे, तादात्म्य के अपने भाव में निरन्तर बने रहेंगे । स्पष्टत: यह अंतरात्मा की, मन और प्राण की निश्चेतना पर और भौतिक प्रकृति के सीमांकनों पर एक बड़ी विजय होगी ।

 

     लेकिन ऐसा उत्तरजीवन केवल सूक्ष्म शरीर में टिक सकता है; जीव को अपने स्थूल रूप को फिर भी त्यागना होगा, अन्य लोकों में जाना और लौटकर नया शरीर धारण करना होगा । सामान्यत: सूक्ष्म शरीर के मनोमय कोष और प्राणमय कोष का त्याग कर दिया जाता है लेकिन जाग्रत् मनोमय पुरुष और प्राणमय पुरुष उन्हें सुरक्षित रखकर नये जन्म में उनके साथ लौटेंगे और अतीत से निर्मित और वर्तमान तथा भविष्य में पिछले मन और प्राण की स्थायी सत्ता का स्पष्ट और अविच्छिन्न बोध रखेंगे । लेकिन स्थूल शरीर, जो भौतिक-जीवन का आधार है, इस परिवर्तन में भी सुरक्षित न रहेगा । शारीरिक सत्ता केवल तब बनी रह सकतीं है जब ह्रास और विघटन के स्थूल कारणों को किसी साधन से जीता जा सके और साथ ही जब उसे अपनी रचना और क्रिया में इतना नमनीय और प्रगतिशील बनाया जा सके कि भीतरी पुरुष  की प्रगति उससे जिस किसी परिवर्तन की मांग करे तो वह उसके

 

     यदि विज्ञान, चाहे भौतिक विज्ञान या गुह्य विज्ञान, शरीर के अनिश्चित कालतक बने रहने की आवश्यक परिस्थितियां या साधन ढूं निकाले फिर भी यदि शरीर अपने-आपको इस तरह अनुकूलित न कर सके कि वह आतरिक विकास के लिये अभिव्यक्ति का उपयुक्त यंत्र हो जाये तो अंतरात्मा उसे त्यागने और किसी नये शरीर में जाने का कोई रास्ता निकाल लेगी । मृत्यु के भौतिक या स्थूल कारण ही उसके एकमात्र या सच्चे कारण नहीं होते । उसका सच्चा अंतरतम कारण है एक नयी सत्ता के विकास के लिये आध्यात्मिक आवश्यकता ।

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अनुकूल हो सके । उसे इस योग्य होना होगा कि वह अंतरात्मा के साथ उसकी आत्म-अभिव्यक्तिशील व्यक्तित्व की रचना में, उसकी गुप्त आध्यात्मिक दिव्यता के लम्बे उन्मीलन में और मन के दिव्य मानस या आध्यात्मिक जीवन के धीमे रूपांतर के साथ कदम मिला सके । इस त्रिविध अमरता की सिद्धि -आध्यात्मिक सत्ता की स्वरूपसिद्ध अमरता को और मृत्यु के बाद के चैत्य उत्तरजीवन को पूर्ण करती हुई प्रकृति की अमरता -पुनर्जन्म की अंतिम परिणति और जड़ के राज्य की नींवतक में जड़- भौतिक निश्चेतना तथा अज्ञान पर विजय पाने की महत्त्वपूर्ण सूचना हो सकती है । लेकिन सच्ची अमरता फिर भी अध्यात्म-सत्ता की शाश्वतता होगी । शारीरिक उत्तर जीविता केवल सापेक्ष हो सकेगी, इच्छा-मृत्यु हो सकेगी । यह यहां पर मृत्यु और जः पदार्थ पर आत्मा की विजय का कालिक चिह्न होगा ।

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