दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय २०

 

पुनर्जन्म का दर्शन

 

 अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिण:...

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहूणाति नरोऽपराणि ।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवम जन्म मृतस्य च ।...

 

शरीरस्थ आत्मा जो शाश्वत है, उसके इन शरीरों का एक अंत

है... । वह न तो जन्म लेता है न मरता है और न ऐसा है कि

एक बार हो गया तो आगे न होगा । वह अज, नित्य, शाश्वत और

पुराण है, शरीर का हनन होने पर भी उसका हनन नहीं होता । जैसे

आदमी अपने पुराने कपड़े उतार फेंकता है और नये-नये पहन लेता

है उसी तरह शरीरस्थ सत्ता अपने शरीरों को त्यागकर नये-नये

शरीरों को धारण करती है । जो जन्मा है उसकी मृत्यु निश्चित है और

जो मरता है उसका जन्म भी ध्रुव है ।

गीता २. १८, २०, २२, २७

 

. . .आत्मविवृद्धिजन्म

कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही स्थानेषु रूपाण्यभिसंप्रद्यते ।।

स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।...

 

आत्मा का जन्म होता है; उसकी वृद्धि होती है । अपने कर्मों के

अनुसार शरीरस्थ आत्मा उत्तरोत्तर नाना-स्थानों पर जन्म लेती है ।

अपनी प्रकृति के गुणों की शक्ति के अनुसार वह बहुत-से स्थूल

और सूक्ष्म रूप धारण करती है ।

श्वेताश्वतर ५.११, १२

 

    भौतिक जगत् का पहला आध्यात्मिक रहस्य है जन्म, और मृत्यु है दूसरा जो जन्म के रहस्य को दोगुना चकरानेवाला बना देता है; क्योंकि जीवन, जो अन्यथा अस्तित्व का एक स्वयंसिद्ध तथ्य होता, वह भी इन दोनों के कारण रहस्य बन जाता है । ये दोनों उसके आरंभ और अंत मालूम होते हैं फिर भी हजारों तरीकों से यह प्रकट कर देते हैं कि वे इन दोनों में से एक भी नहीं हैं बल्कि जीवन की एक गुह्य प्रक्रिया में मध्यवर्ती पड़ाव हैं । पहली दृष्टि में ऐसा लग सकता है कि जन्म व्यापक

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मृत्यु में जीवन का सतत विस्फोट, जड़ पदार्थ की वैश्व निष्पाणता में निरंतर परिस्थिति है । ज्यादा नजदीक से परीक्षा करने पर यह अधिक संभव लगने लगता है कि जीवन कोई ऐसी चीज है जो जड़ में अंतर्निहित है या उस ऊर्जा की निहित शक्ति है जो जड़ का सृजन करती है लेकिन वह प्रकट होने योग्य तभी होती है जब उसे अपने विशिष्ट व्यापार को अभिपुष्टि के लिये और उचित आत्म-संगठन के लिये आवश्यक परिस्थितियां मिल जायें । लेकिन जीवन के जन्म में कुछ और भी है, जो आविर्भाव में भाग लेता है -एक ऐसा तत्त्व है जो जड़ भौतिक नहीं है, किसी अंतरात्मा की ज्वाला का प्रबल उभार, आत्मा का प्रथम स्पष्ट स्पंदन है ।

 

    जन्म की सभी ज्ञात परिस्थितियां और परिणाम पहले से मान लेते हैं कि कोई अज्ञात अतीत रहा है, और एक विश्वव्यापकता का संकेत मिलता है, जीवन के टिके रहने की इच्छा और मृत्यु में एक अनिर्णायकता मिलती है जो अज्ञात भविष्य की ओर संकेत करती है । जन्म से पहले हम क्या थे और मृत्यु के बाद क्या होंगे ये ऐसे प्रश्न हैं जिनमें एक का उत्तर दूसरे पर निर्भर होता है । मानव बुद्धि शुरू से इन्हें अपने आगे रखती आयी है और अभीतक किसी अंतिम समाधान में विश्राम नहीं कर पायी है । वस्तुत: बुद्धि मुश्किल से ही इनका कोई अंतिम उत्तर दे सकती है क्योंकि उसे स्वभावत: व्यक्ति या जाति की भौतिक चेतना और स्मृति द्वारा दी गयी सामग्री के परे होना चाहिये । लेकिन यही तो वह एकमात्र सामग्री है जिसके साथ कुछ-कुछ विश्वास के साथ परामर्श करने का अभ्यास रहता है बुद्धि को । सामग्री की इस दरिद्रता और अनिश्चिति में वह एक परिकल्पना से दूसरी पर जाती रहती है और बारी-बारी से हर एक को निष्कर्ष कहती है । और फिर समाधान वैश्व गतिविधि के स्वभाव, उद्गम और उद्देश्य पर निर्भर रहता है । जैसे हम इनका निश्चय करेंगे उसी तरह हमें जन्म, जीवन और मृत्यु, जीवन-पूर्व और जीवन-पश्च्यात् के बारे में निष्कर्ष निकालना होगा ।

 

     पहला प्रश्न यह है कि क्या पूर्व और पश्चात् शुद्ध रूप से भौतिक और प्राणिक हैं या किसी तरह से अधिक मुख्य रूप में मानसिक और आध्यात्मिक ? अगर, जैसा कि जड़वादी कहते हैं, जड़ ही विश्व का तत्त्व होता, अगर वस्तुओं का सत्य वरुण के पुत्र भृगु के बतलाये हुए पहले सूत्र में पाया जाता, जो उसने शाश्वत ब्रह्म का ध्यान करके कहा था, ''अन्न (जड़तत्त्व) हीं शाश्वत है, क्योंकि सभी सत्ताएं अन्न से उत्पन्न हुई हैं और अन्न से ही जीती हैं, अन्न में ही सभी सत्ताएं प्रयाण करती और उसीमें लौट जाती हैं''  तो फिर और प्रश्नों की संभावना ही न रहती । हमारे शरीरों का पूर्व होगा विभिन्न भौतिक तत्त्वों में से बीज और भोजन के उपादान द्वारा शायद गुह्य परंतु सदा जड़- भौतिक ऊर्जाओं के प्रभाव तले उनके घटकों का संचय, और हमारी सचेतन सत्ता का पूर्व होगा -आनुवंशिकता या किसी और भौतिक-प्राणिक या भौतिक-मानसिक क्रिया द्वारा वैश्व जड़-भौतिक में तैयारी, जिसमें

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उसकी क्रिया विशेष होती है और व्यक्ति की रचना उसके माता-पिता के शरीरों द्वारा बीज, ''जीन'' और ''क्रोमोज़ोम'' द्वारा होती है । शरीर का पाश्च्यत होगा भौतिक तत्त्वों में विघटन और मानवजाति के सामान्य मन और जीवन में उसकी क्रियाओं के कुछ प्रभावों की उत्तरजीविता के अतिरिक्त सचेतन सत्ता का पश्च्यात होगा जड़- भौतिक में पुनः पतन । यह अंतिम एकदम भ्रामक उत्तरजीविता ही हमारी अमरता का एकमात्र अवसर होगी । लेकिन चूंकि जड़ की विश्वव्यापकता के बारे में यह नहीं माना जा सकता कि वह मन के अस्तित्व की काफी व्याख्या कर सकती है और वस्तुतः स्वयं जड़ की व्याख्या अब जड़ से नहीं की जा सकती क्योंकि वह स्वयंभू नहीं मालूम होता, इसलिये हमें सरल और प्रत्यक्ष समाधान से अन्य परिकल्पनाओं में वापिस फेंक दिया जाता है ।

 

     इनमें से एक पुराना, धार्मिक और रूढ़िगत रहस्य यह है कि भगवान् जो निरंतर अपनी सत्ता के अंदर से अमर अंतरात्माओं का सृजन करते रहते हैं या यह मान लिया जाये कि अपने ''श्वास'' या प्राण-शक्ति द्वारा जड़-प्रकृति में या उन शरीरों में, जिनकी उन्होंने रचना की है, उनमें प्रवेश करके भीतर से आध्यात्मिक तत्त्व द्वारा उन्हें जीवित कर देते हैं । श्रद्धा के रहस्य के रूप में इसे माना जा सकता है और इसकी खोज-बीन करने की जरूरत नहीं क्योंकि श्रद्धा के रहस्य प्रश्न और जांच के परे रहने चाहियें । लेकिन तर्क-बुद्धि और दर्शन के लिये उसमें विश्वासोत्पादकता की कमी है और वह चीजों की ज्ञात व्यवस्था में ठीक नहीं बैठती । क्योंकि इसमें दो विरोधाभास उलझे हुए हैं जिनपर विचार करने से पहले उनका अधिक औचित्य सिद्ध करने की जरूरत है । पहला तो है हर घड़ी ऐसी सत्ताओं का जन्म जिनका काल में आरंभ तो है पर काल में अंत नहीं है, और इसके अलावा जो शरीर के जन्म के साथ पैदा तो होती हैं पर शरीर की मृत्यु के साथ समाप्त नहीं होतीं । दूसरे, यह मान्यता कि मिश्रित धर्मों गुणों, अवगुणों, क्षमताओं, त्रुटियों, स्वभाव के तथा अन्य लाभ-हानि, जिन्हें द्वारामनुष्यों ने वृद्धि के द्वारा बनाया तो नहीं है बल्कि जिन्हें उनके लिये एक मनमाने आदेश द्वारा -अगर आनुवंशिकता के नियम द्वारा नहीं -बनाया गया है और जिसके लिये और जिसके पूरे पक्के उपयोग के लिये उनका स्रष्टा उन्हें जिम्मेदार ठहराता है ।

 

     कम-से-कम अस्थायी रूप से हम कुछ चीजों को दार्शनिक युक्ति की उचित मान्यताएं मान सकते हैं और उचित रूप से उन्हें अप्रमाणित करने का भार उनसे इंकार करनेवाले पर डाल सकते हैं । इन आधार तत्त्वों में से एक सिद्धांत यह है कि जिसका कोई अंत नहीं है उसका निश्चित रूप से कोई आदि भी न रहा होगा । वह सब, जिसका आरंभ होता है या जिसका सृजन होता है, उसका अंत उस प्रक्रिया की समाप्ति से होता है जिसने उसका सृजन किया और जो उसको बनाये हुए है या वह जिस सामग्री के मिश्रण से बना है उसके विघटन से या वह जिस

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कार्य के लिये अस्तित्व में आया था उसकी समाप्ति से । अगर इस नियम में कोई अपवाद है तो वह जड़तत्त्व में आध्यात्मिक तत्त्व के अवतरण द्वारा जो जड़ को भागवत तत्त्व से अनुप्राणित कर देता है या उसे अपनी ही अमरता प्रदान करता है । लेकिन जिस आत्मा का इस तरह अवतरण होता है वह अपने-आप अमर होती है, उसकी रचना या सृष्टि नहीं होती । अगर अंतरात्मा शरीर को अनुप्राणित करने के लिये बनायी गयी होती, अगर वह अस्तित्व में आने के लिये शरीर पर निर्भर होती तो शरीर के गायब हो जाने के बाद उसके बने रहने के लिये कोई कारण या आधार न होता । स्वभावत: यह मानना होगा कि श्वास या शक्ति जो शरीर को अनुप्राणित करने के लिये दी गयी थी वह अपने अंतिम विघटन पर अपने स्रष्टा के पास लौट जायेगी । यदि इसके विपरीत वह अमर शरीरधारी सत्ता के रूप में बनी रहे तो कोई सूक्ष्म या चैत्य शरीर होना चाहिये जिसमें वह बनी रहती है और यह काफी हदतक निश्चित है कि यह चैत्य शरीर और उसका निवासी अपने जड़वाहक से पूर्ववर्ती रहे होंगे । यह मानना असंगत मालूम होता है कि मूल रूप में उनकी रचना इस संक्षिप्त से मर्त्य रूप में बसने के लिये की गयी थी । एक अमर सत्ता सृष्टि में ऐसी क्षणभंगुर घटना का परिणाम नहीं हो सकती । अगर अंतरात्मा बनी तो रहती है परंतु अशरीरी अवस्था में, तो अपने अस्तित्व के लिये उसकी मौलिक निर्भरता शरीर पर न रही होगी; वह जन्म से पहले उसी तरह विदेह आत्मा के रूप में रही होगी जैसे वह मृत्यु के बाद अशरीरी रूप में बनी रहती है ।

 

     फिर हम यह मान सकते हैं कि जहां हम काल में विकास की अमुक अवस्था देखते हैं वहां यह जरूरी है कि उस अवस्था का कोई भूत भी रहा होगा । अतः, अगर अंतरात्मा इस जीवन में व्यक्तित्व के कुछ विकास को लेकर प्रवेश करती है तो उसने यहां या कहीं और, पहले जीवनों में उसे तैयार किया होगा । या अगर वह पहले से तैयार किये हुए जीवन और व्यक्तित्व को ही ले लेती है, जिसे स्वयं उसने तैयार नहीं किया है, शायद जिसे किसी भौतिक, प्राणिक या मानसिक आनुवंशिकता ने तैयार किया हो तो स्वयं उसे उस जीवन और व्यक्तित्व से एकदम स्वतंत्र होना चाहिये, कोई ऐसी चीज होना चाहिये जो केवल आकस्मिक रूप से मन और शरीर के साथ जुड़ी हुई है और इसलिये इस मानसिक या शारीरिक जीवन में जो कुछ किया या विकसित किया जाये उससे वास्तव में प्रभावित नहीं होती । अगर अंतरात्मा वास्तविक और अमर है, सत् की कोई निर्मित सत्ता या आकृति नहीं है तो उसे शाश्वत, भूतकाल में अनादि और भविष्य में अनंत भी होना चाहिये, लेकिन अगर वह शाश्वत हो तो या तो उसे परिवर्तनहीन आत्मा होना चाहिये जिसपर जीवन और उसकी अवस्थाओं का कोई प्रभाव न हो या फिर कालातीत पुरुष, एक शाश्वत और आध्यात्मिक पुरुष जो काल में एक बदलते हुए व्यक्तित्व की धारा को व्यक्त या प्रवर्तित कर रहा हो । अगर वह ऐसा पुरुष है तो वह व्यक्तित्व की इस धारा

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को जन्म और मृत्यु के जगत् में एक के बाद एक शरीर धारण करके ही -संक्षेप में प्रकृति के रूपों में निरंतर या बार-बार जन्म लेकर ही -अभिव्यक्त कर सकता है ।

 

     लेकिन अगर हम शाश्वत जड़ द्वारा सभी चीजों की व्याख्या को रद्द भी कर दें तो भी अंतरात्मा की अमरता और शाश्वतता अपने-आपको तुरंत स्थापित नहीं कर देतीं क्योंकि हमारे आगे यह परिकल्पना भी है कि एक आद्य एकत्व है जिससे सभी चीजों का आरंभ हुआ, जिससे उनका जीवन है और जिसमें उनका अवसान होता है, उसी एकत्व की किसी शक्ति से अस्थायी या प्रतीयमान जीव की सृष्टि हुई है । एक ओर हम कुछ आधुनिक विचारों या खोजों के आधार पर यह सिद्धांत बना सकते हैं कि एक वैश्व निश्चेतना एक अस्थायी अंतरात्मा का सृजन करती है जो एक ऐसी चेतना है जो अपनी संक्षिप्त-सी लीला समाप्त करके बुझ जाती और निश्चेतना में लौट जाती है । या कोई शाश्वत संभूति हों सकती है जो अपने-आपको वैश्व प्राण-शक्ति में जड़ के रूप में अभिव्यक्त करती है, जिसकी क्रियाओं के एक ओर विषयगत उद्देश्य के रूप में होता है जड़-तत्त्व और दूसरी ओर विषयीगत उद्देश्य के रूप में मन । प्राण-शक्ति के इन दो व्यापारों की क्रिया-प्रतिक्रिया मानव जीवन का निर्माण करती है । दूसरी ओर वह पुरानी परिकल्पना है कि एक एकमात्र अतिचेतन है, एक शाश्वत, अविकार्य शुद्ध सत् है जो व्यावहारिक मन और जड़-तत्त्व के इस जगत् में माया द्वारा व्यक्तिगत आंतरात्मिक-प्राण के भ्रम को रचता या प्रवेश करने देता है -और ये दोनों अंतत: अवास्तविक हैं -भले वे अस्थायी और व्यावहारिक वास्तविकता का रूप हों या उन्हें धारण कर लें -एक अविकार्य शाश्वत आत्मा या आध्यात्म पुरुष ही एकमात्र सत्ता है । या फिर शून्य या निर्वाण का बौद्ध सिद्धांत है और किसी तरह उसपर शाश्वत कर्म या क्रमिक संभूति की ऊर्जा, कर्म लाद दिये गये हैं जो संस्कारों, विचारों, स्मृतियों, संवेदनों, कल्पनाओं की सतत अविच्छिन्नता द्वारा निरंतर आत्मा या अंतरात्मा का भ्रम पैदा करते हैं । जीवन-समस्या पर अपने प्रभाव के रूप में ये तीनों व्याख्याएं व्यावहारिक रूप से एक ही हैं क्योंकि वैश्व क्रिया के प्रयोजनों के लिये अतिचेतन भी निश्चेतन का पर्याय है । वह केवल अपने अविकार्य स्वयंभू रूप के बारे में अभिज्ञ हो सकता है । व्यष्टिगत सत्ताओं के जगत् की माया द्वारा सृष्टि इस स्वयम्भू पर एक आरोपण है । शायद वह चेतना की एक प्रकार की आत्मलीन निद्रा, सुषुप्ति में घटित होता है जिसके अंदर से समस्त सक्रिय चेतना और व्यावहारिक संभूति के सभी परिवर्तन उभरते हैं; जैसे आधुनिक सिद्धांत में हमारी चेतना एक अस्थायी विकास है जो निश्चेतन में से उभरती है । इन तीनों सद्धांतों में प्राणी की प्रतीयमान अंतरात्मा या आध्यात्मिक व्यक्तित्व शाश्वत के अर्थ में अमर नहीं है बल्कि काल में उसका आदि भी है और अंत भी । वह माया

 

      मण्डूकोपनिषद् में प्राज्ञ, गभीर सुषुप्ति में स्थित आत्मा वस्तुओं की स्वामी और स्रष्टा है ।

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या प्राकृतिक शक्ति या वैश्व कर्म की रचना है जो अतिचेतन या निश्चेतन से आती है और इस कारण अस्तित्व में अस्थायी है । इन तीनों में पुनर्जन्म या तो अनावश्यक है या भ्रामक है । वह या तो भ्रम के पुनरावर्तन द्वारा दीर्घ किया जाता है या वह संभूति के जटिल यंत्र-विन्यास के इतने चक्रों के बीच एक और घूमता हुआ चक्र है । या पुनर्जन्म को यह कहकर अलग कर दिया जाता है कि कोई सचेतन सत्ता, जो निश्चेतन से अचानक प्रकट हो गयी हो, वह बस एक ही जन्म की मांग कर सकती है ।

 

     इन दृष्टियों से चाहे हम शाश्वत सत्ता को प्राणिक संभूति मानें या अक्षर, अविकार्य आध्यात्मिक सत्ता या नाम-रूपहीन असत् जिसे हम अंतरात्मा कहते हैं, वह चेतना के व्यापारों की बदलती हुई राशि या धारामात्र है जो वास्तविक या भ्रामक संभूति के सागर के अस्तित्व में आ गयी है और वहां अपना अस्तित्व समाप्त भी कर देगी -या हो सकता है, वह कोई अस्थायी, आध्यात्मिक अधःस्तर है, अतिचेतन शाश्वत की एक सचेतन छाया है जो अपनी उपस्थिति से आभासों की राशि को सहारा देती है । यह शाश्वत नहीं है, उसकी अमरता है संभूति में कम या अधिक सातत्य । वह कोई वास्तविक या सदा उपस्थित पुरुष नहीं है जो आभासों की धारा या राशि को सहारा देता और उसका अनुभव करता है । जो उन्हें सहारा देता, जो वास्तव में हमेशा उपस्थित है वह या तो एक शाश्वत संभूति है या एकमेव शाश्वत और निर्वैयक्तिक सत् या ऊर्जा की अपनी क्रिया में लगी हुई निरविच्छिन्न धारा । इस तरह की परिकल्पना के लिये जरूरी नहीं है कि कोई ऐसी चैत्य सत्ता हो जो हमेशा वह की वही बनी रहे और तबतक शरीर के बाद शरीर, रूप के बाद रूप धारण करती चले जबतक कि अंत में, जिस आद्य अंतर्वेग ने यह चक्र चलाया था उसे रद्द करनेवाली किसी प्रक्रिया द्वारा विघटित न हो जाये । यह बिलकुल संभव है कि जैसे-जैसे कोई रूप विकसित होता हैं, उस रूप के साथ मेल खाती हुई चेतना भी विकसित हो और जब रूप विघटित हो तो उसके सदृश चेतना भी विघटित हो जाये । वह एकमेव जो सब को रूप देता है वही सदा के लिये बना रहता है । या जैसे शरीर जड़-तत्त्व के सामान्य तत्त्वों में से इकट्ठा होता है और अपना जीवन जन्म से शुरू करता और मृत्यु से समाप्त करता है उसी तरह चेतना भी मन के सामान्य तत्त्वों में से विकसित हो और समान रूप से जन्म से शुरू और मृत्यु से समाप्त हो । यहां भी वह एकमेव, जो माया द्वारा या किसी और तरीके से वह शक्ति देता है जो तत्त्वों का सृजन करती है, वह एकमात्र वास्तविकता है जो नित्य हैं । अस्तित्व की इन परिकल्पनाओं में से किसी में भी पुनर्जन्म न तो कोई नितांत आवश्यकता है न उसका अनिवार्य परिणाम ।

   

      १ बौद्ध मत में पुनर्जन्म अनिवार्य है क्योंकि कर्म इसके लिये बाधित करता है । ऊपर से आखाच्छिन्न मालूम होनेवाली चेतना की कड़ी आत्मा नहीं, कर्म है क्योंकि चेतना तो क्षण-क्षण बदलती रहती है । चेतना की प्रतीयमान अविच्छिन्नता है परंतु कोई वास्तविक अमर आत्मा नहीं जो जन्म लेती हो और शरीर की मृत्यु में से गुजरते हुए एक और शरीर में जन्म लेती है ।

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     वस्तुतः हम एक बहुत बड़ा भेद पाते हैं क्योंकि पुराने सिद्धांत वैश्व प्रक्रिया के एक अंग के रूप में पुनर्जन्म का समर्थन करते हैं और आधुनिक सिद्धांत उसे अस्वीकार करते हैं । आधुनिक विचार हमारे अस्तित्व के आधार के रूप में भौतिक शरीर से आरंभ करता है और वह इस जड़-भौतिक विश्व को छोड़कर अन्य किसी लोक की वास्तविकता नहीं स्वीकार करता । वह यहां जो देखता है वह है मानसिक चेतना जो शारीरिक जीवन के साथ लगी हुई है । वह अपने जन्म में पिछले व्यक्तिगत जीवन का कोई चिह्न नहीं दिखलाती और अपने अंत में परवर्ती व्यक्तिगत अस्तित्व की कोई निशानी नहीं छोड़ती । जन्म से पहले जो था वह है अपने प्राण के बीज के साथ जड़-भौतिक ऊर्जा या अधिक-से-अधिक प्राण-शक्ति की ऊर्जा जो माता-पिता द्वारा संचारित बीज में, रहती है और उस तुच्छ वाहन में अतीत के विकासों का रहस्यमय अंत: -संचार करती हुई इस अद्धृत रीति से बने नये वैयक्तिक मन और शरीर को एक विशेष मानसिक तथा शारीरिक छाप देती है । मृत्यु के बाद जो बनी रहती है वह वही जड़-ऊर्जा या प्राण-शक्ति है जो संतान में संचारित बीज में टिकी होती है और उसके साथ चलनेवाले मानसिक तथा शारीरिक जीवन में आगे के विकास केलिये सक्रिय रहती है । हमारा कुछ भी बचा नहीं रह जाता, सिवाय उसके जिसे हम इस तरह दूसरों में संचारित कर देते हैं या जिसे ऊर्जा ने अपने पूर्ववर्ती और चारों ओर के कर्म द्वारा व्यक्ति का रूप दिया है, जिसे वह ऊर्जा जन्म या वातावरण द्वारा अपने जीवन और कर्मों के परिणाम-स्वरूप अपने परवर्ती कर्म में ले सकती है; जो कुछ संयोग द्वारा या भौतिक विधान द्वारा दूसरे व्यक्तियों के मानसिक और प्राणिक घटकों और वातावरण की रचना करने में सहायक हो, केवल वही बचा रह सकता है । मानसिक और भौतिक; दोनों व्यापारों के पीछे शायद एक वैश्व प्राण है जिसकी हम व्यष्टिभावापन्न, विकासशील और आभासी संभूतियां हैं । यह वैश्व प्राण एक वास्तविक जगत् और वास्तविक सत्ताओं का सृजन करता है लेकिन इन सत्ताओं में सचेतन व्यक्तित्व एक शाश्वत या स्थायी अंतरात्मा या अतिभौतिक पुरुष की चेतना का चिह्न या आकार नहीं है या कम-से-कम उसका ऐसा होना जरूरी नहीं है । सत्ता के बारे में इस सूत्र के अंदर ऐसी कोई चीज नहीं है जो हमें एक ऐसी चैत्य सत्ता पर विश्वास करने के लिये बाधित करे जो शरीर की मृत्यु के बाद भी बनी रहे । यहां वस्तुओं की योजना के अंग-स्वरूप पुनर्जन्म को स्वीकार करने का न कोई कारण दिखायी देता है न अवकाश ।

 

     लेकिन अगर हमारे ज्ञान की वृद्धि होने पर इस बात का पता लगे, जिसका पूर्वाभास हमारे कुछ अन्वेषण और अनुसंधान देते हुए मालूम होते हैं, कि हमारे अंदर मानसिक सत्ता या चैत्य सत्ता की शरीर पर निर्भरता इतनी अधिक पूर्ण नहीं है जितना हम केवल भौतिक जीवन और भौतिक विश्व की सामग्री का अध्ययन करके

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स्वभावत: मान लेते हैं, तो क्या होगा ? और क्या होगा अगर यह पता लगे कि मानव व्यक्तित्व शरीर की मृत्यु के बाद भी बचा रहता है और अन्य लोकों तथा इस जड़-विश्व के बीच विचरण करता है । तब अस्थायी सचेतन सत्ता के प्रचलित आधुनिक विचार को अपने-आपको विस्तृत करना और एक ऐसे जीवन को स्वीकार करना होगा जिसका क्षेत्र भौतिक विश्व से अधिक विस्तृत हो और ऐसे निजी व्यक्तित्व को भी स्वीकार करना होगा जो भौतिक शरीर पर निर्भर न हो । हो सकता है कि उसे फिर से व्यावहारिक रूप में ऐसे सूक्ष्म रूप या शरीर के पुराने विचार को अपनाना पड़े जिसमें चैत्य सत्ता का निवास हो । अपने साथ मानसिक चेतना को लिये हुए चैत्य या अंतरात्मा की सत्ता, और अगर कोई ऐसी मौलिक अंतरात्मा न हो तो विकसित और अविच्छिन्न मानसिक व्यक्ति, मृत्यु के बाद भी इस सूक्ष्म निरविच्छिन्न रूप में बना रहेगा, जो या तो उसी के लिये हो -या तो जन्म से पहले या स्वयं जन्म द्वारा या जीवन के बीच बनाया गया हो । क्योंकि या तो चैत्य सत्ता अन्य लोकों में एक सूक्ष्म रूप में पहले से निवास करती है और वहां से संक्षिप्त से पार्थिव प्रवास के लिये उसके साथ आती है या अंतरात्मा इस जड़-विश्व में ही विकसित होती है और उसके साथ प्रकृति की प्रक्रिया में चैत्य शरीर विकसित हो जाता है और मृत्यु के बाद अन्य लोकों में अथवा यहीं पर पुनर्जन्म द्वारा बना रहता है । ये दो विकल्प संभव हैं ।

 

     हो सकता है कि अब जो ''हम'' हैं उस वृद्धिशील व्यक्तित्व को एक विकसनशील वैश्व प्राण ने पृथ्वी पर विकसित किया हो, मानव शरीर में प्रवेश करने से पहले ही, मनुष्य के सृजन से पहले हमारे अंदर की अंतरात्मा निचले जीवन-रूपों में विकसित हुई हो । उस हालत में हमारा व्यक्तित्व पहले पशु-रूपों में निवास कर चुका है और सूक्ष्म शरीर एक नमनीय रूपायण होगा जो एक जीवन से दूसरे जीवन में ले जाया जाता है और अंतरात्मा जिस किसी शरीर में निवास करे, वह अपने-आपको उसके अनुकूल बना लेता है । या विकसनशील प्राण उत्तरजीविता में सक्षम व्यक्तित्व रचने में सक्षम होगा, लेकिन केवल मानव रूप में, जब उसका निर्माण हो जाये । यह मानसिक चेतना की आकस्मिक वृद्धि की शक्ति से ही हो सकता है और उसी समय एक सूक्ष्म मानसिक पदार्थ का कोष भी विकसित हो सकता है और इस मानसिक चेतना को व्यष्टिभाव देने में सहायक हो सकता है और तब यह अंतःशक्ति की तरह काम करेगा, ठीक उसी तरह जैसे अपने संगठन द्वारा स्थूल-भौतिक रूप एक ही साथ पशु-मन और प्राण को व्यष्टि-भाव और आवास देता है । पहली मान्यता के अनुसार हमें यह मानना होगा कि पशु भी अपने भौतिक शरीर के विघटन के बाद बना रहता है और उसमें भी किसी प्रकार का आंतरात्मिक रूपाका होता है जो मृत्यु के बाद धरती पर अन्य पशु-रूपों को और अंत में मानव-शरीर को धारण करता है । क्योंकि इस बात की संभावना कम

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ही है कि पशु की अंतरात्मा धरती के पार जाकर भौतिक से इतर प्राण-लोकों में प्रवेश करती है और तबतक यहां निरंतर लौटती रहती है जबतक कि वह मानव जन्म के लिये तैयार न हो जाये । पशु का सचेतन व्यक्ति-भाव इतना पर्याप्त नहीं लगता कि वह इस तरह के स्थानान्तरण को सह सके या अपने-आपको अन्य लोकों के जीवन के अनुकूल बना सके । और दूसरी मान्यता के अनुसार भौतिक शरीर की मृत्यु के बाद जीवन की अन्य अवस्थाओं में बचे रहने की शक्ति विकास की मानव-अवस्था के साथ ही आयेगी । अगर वस्तुतः अंतरात्मा प्राण द्वारा विकसित, ऐसा निर्मित व्यक्तित्व नहीं है बल्कि एक स्थायी, अविकसनशील वास्तविकता है और पार्थिव जीवन और शरीर ही जिसका आवश्यक क्षेत्र है तो पुनर्जन्य के सिद्धांत को फीसगोरस (पाइथागोरस) के देहान्तरण के अर्थ में स्वीकार करना होगा । लेकिन अगर वह अविच्छिन्न रूप से विकसित होती हुई सत्ता है जो पार्थिव अवस्था के पार जाने में सक्षम है तब तो अन्य लोकों में जाने और पार्थिव जन्म में लौट आने का भारतीय विचार संभव, और बहुत अधिक शक्य बन जाता है । लेकिन वह अनिवार्य न होगा क्योंकि तब यह माना जा सकता है कि मानव व्यक्तित्व एक बार अन्य लोकों में पहुंचने योग्य हो जाये तो फिर यह जरूरी नहीं है कि वह वहां से लौटे, स्वभावतः किसी बड़े बाधित करनेवाले कारण के अभाव में उस उच्चतर लोक में ही वह अपना जीवन बिताना चाहेगा जहातक वह उठ गया है, उसने अपने पार्थिव विकास का समापन कर दिया होगा । धरती पर लौट आने के वास्तविक प्रमाण मिलने पर ही कोई अधिक बड़ी मान्यता आवश्यक होगी और मानव रूपों में बारम्बार पुनर्जन्म को मानना अनिवार्य होगा ।

 

     फिर भी यह जरूरी नहीं है कि विकसनशील प्राणवादी सिद्धांत अपने-आपको आध्यात्मिक बना ले, उसके लिये जरूरी नहीं है कि वह अंतरात्मा की वास्तविक सत्ता या उसकी अमरता या शाश्वतता को स्वीकार करे । वह अब भी यहीं मान सकता है कि व्यक्तित्व वैश्व प्राण की प्राणिक चेतना और भौतिक रूप और शक्ति की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा एक प्रतीयमान सृजन है लेकिन दोनों की एक दूसरे पर अधिक विस्तृत, अधिक परिवर्तनशील और सूक्ष्मतर क्रिया द्वारा । उसका इतिहास उससे भिन्न है जो पहले संभव मान लिया गया था । वह एक प्रकार के प्राणमय बौद्ध मत पर भी पहुंच सकता है जो कर्म को तो स्वीकार करे परंतु करे एक वैश्व प्राण-शक्ति की क्रिया के रूप में । वह उसके एक परिणाम के रूप में यह तो स्वीकार करेगा कि व्यक्तित्व का प्रवाह मानसिक संस्कार-संयोग द्वारा पुनर्जन्म में अविच्छिन्न रूप से चलता है, लेकिन वह इस बात को अस्वीकार कर सकता है कि व्यक्ति की कोई वास्तविक आत्मा होती है या सतत सक्रिय प्राणिक संभूति से भिन्न कोई और शाश्वत सत्ता है । दूसरी ओर, हों सकता है कि विचार के उस भोड़ का अनुसरण करते हुए जो अब जस बल पाता जा रहा है, वह यह स्वीकार करे कि कोई वैश्व आत्मा या विश्वव्यापी आध्यात्म-सत्ता ही आद्य सद्वस्तु है

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और प्राण उसकी शक्ति या अभिकर्ता है । इस तरह वह आध्यात्मभावापन्न प्राणिक अद्वैत पर पहुंच सकता है । इस सिद्धांत में भी पुनर्जन्म का विधान संभव होगा पर अनिवार्य नहीं । वह एक प्रतीयमान तथ्य हो सकता है, जीवन का एक यथार्थ विधान हो सकता है लेकिन वह सत्ता के सिद्धांत का तर्क-संगत परिणाम और उसका अनिवार्य निष्कर्ष न होगा ।

 

     बौद्ध मत की तरह मायावाद का अद्वैत भी एक माने हुए विश्वास से -अतीत के ज्ञान से मिले हुए भंडार के एक भाग से शुरू हुआ जो कहता है कि अतिभौतिक लोक और जगत् हैं और उनके तथा हमारे जगत् के बीच आदान- प्रदान होता है जिससे मानव व्यक्तित्व का पृथ्वी के परे जाना और पृथ्वी पर वापिस आना निर्धारित होता है -यह खोज कुछ कम प्राचीन मालूम होती है । बहरहाल, उनके विचार के पीछे एक व्यक्तित्व के पूर्व और पश्चात् का प्राचीन प्रत्यक्ष ज्ञान, बल्कि अनुभव या कम-से-कम एक लंबी परंपरा थी जो केवल भौतिक विश्व के अनुभवतक सीमित न थी क्योंकि उन्होंने पहले से ही अपने और जगत् के बारे में एक ऐसी दृष्टि को आधार बनाया था जो पहले ही से अतिभौतिक चेतना को प्राथमिक व्यापार और भौतिक सत्ता को गौण और अधीनस्थ व्यापार मानती थी । इस सामग्री के चारों ओर शाश्वत सद्वस्तु की प्रकृति और प्रतीयमान संभूति के उद्गम का निर्धारण करना था । अतः वे इस जगत् से उन जगतों मे व्यक्तित्व के स्थानांतरण को स्वीकार करते थे और मानते थे कि वह फिर से पृथ्वी पर जीवन के रूपों में वापिस आयेगा । लेकिन इस तरह जिस पुनर्जन्म को स्वीकार किया गया था वह बौद्ध मत के अनुसार नहीं, बल्कि वास्तविक आध्यात्मिक पुरुष का जड़-अस्तित्व के रूपों में वास्तविक पुनर्जन्म था । परवर्ती अद्वैत में आध्यात्मिक वास्तविकता तो थी लेकिन उसका प्रतीयमान व्यक्तित्व और इस कारण उसका जन्म और पुनर्जन्म एक वैश्व माया के भाग थे, वैश्व माया के भ्रामक किंतु सार्थक सर्जन थे ।

 

     बौद्ध विचार ने आत्मा के अस्तित्व से इंकार किया और पुनर्जन्म का अर्थ केवल विचारों, संवेदनों और क्रियाओं की अविच्छिन्नता ही हो सकता था जिनसे एक काल्पनिक व्यक्ति की रचना होती थी, जो विभिन्न लोकों के बीच विचरण करता था । उदाहरण के लिये विचारों और संवेदनों के विभिन्न संगठित लोकों के बीच क्योंकि वस्तुत: प्रवाह की सचेतन अविच्छिन्नता ही आत्मा के और व्यक्तित्व के आभास का सृजन करती है । अद्वैत मायावाद में जीवात्मा को, यहांतक कि व्यक्ति की वास्तविक आत्मा को भी स्वीकार किया जाता था ।  हमारी सामान्य भाषा और विचारों को दी गयी यह सुविधा अंत में प्रतीयमान ही निकलती है क्योंकि पीछे पता

 

     इस दृष्टि के अनुसार आत्मा एक है, वह बहु नहीं हो सकती, अपना गुणन नहीं कर सकती, अतः कोई सच्चा व्यक्ति नहीं हो सकता, अधिक-से-अधिक एकमेव सर्वव्यापक आत्मा हो सकती है जो प्रत्येक मन और शरीर को ''मैं'' के विचार से अनुप्राणित करती है ।

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लगता है कि सचमुच कोई वास्तविक और शाश्वत व्यक्ति है ही नहीं न ''मैं'' है न ''तुम'' । इसलिये व्यक्ति की कोई वास्तविक आत्मा नहीं हों सकती, यहांतक कि कोई सच्ची वैश्वात्मा भी नहीं हो सकती, केवल एक ऐसी आत्मा हो सकती है जो विश्व से अलग- थलग, सदा अजन्मी, सदा निर्विकार, प्रपंच के परिवर्तनों से अप्रभावित हो । जन्म, जीवन, मृत्यु व्यक्तिगत और वैश्व अनुभवों की समस्त राशि, अंत में चलकर एक भ्रम और अस्थायी आभास रह जाते हैं, उससे अधिक कुछ नहीं । बंधन और मुक्ति भी ऐसे ही भ्रम रह जाते हैं, कालिक आभास के अंग । वे केवल अहंकार के, जो स्वयं महान् भ्रम की सृष्टि है, भ्रामक अनुभवों की सचेतन अविच्छिन्नता रह जाते हैं और उस अविच्छिन्नता और चेतना का उस तत् की अति-चेतना में समापन रह जाते हैं जो अकेला ही था, है और हमेशा रहेगा, या जिसका काल से कोई संबंध नहीं, जो सदा अज, कालातीत और अनिर्वचनीय है ।

 

     इस तरह जहां वस्तुओं की प्राणिक दृष्टि में एक वास्तविक विश्व है और वैयक्तिक जीवन की वास्तविक यद्यपि संक्षिप्त और अल्पकालीन संभूति है, यद्यपि कोई सदा बना रहनेवाला पुरुष नहीं है तब भी वह संभूति हमारे व्यक्तिगत अनुभव और क्रिया को काफी महत्त्व देती है -क्योंकि ये सचमुच वास्तविक संभूति में प्रभावकारी होते हैं -परंतु मायावाद के सिद्धांत में इन चीजों का कोई वास्तविक महत्त्व या सच्चा असर नहीं होता । ये केवल स्वप्न-निष्कर्ष जैसा होता है । क्योंकि मोक्ष भी वैश्व स्वप्न या भ्रांति में भ्रांति को पहचान लेने और व्यष्टिगत मन और शरीर की समाप्ति से ही प्राप्त होता है । वास्तव में न कोई बद्ध है न मुक्त क्योंकि एकमात्र अस्तित्ववान् आत्मा अहं के इन भ्रमों से अछूती रहती है । इस सर्व-विनाशकारी निष्फलता से बचने के लिये -जो तर्कर्सगत परिणाम होगा --हमें इस स्वप्न-निष्कर्ष की एक व्यावहारिक सत्यता माननी होगी, वह सचाई अंत में चाहे जितनी मिथ्या क्यों न मालूम हो । हमें अपने बंधन और मुक्ति को बहुत महत्त्व देना होगा, भले व्यक्तिगत जीवन प्रतिभास मात्र क्यों न हो और उस एकमात्र वास्तविक आत्मा के लिये ये बंधन और मुक्ति दोनों ही असत् क्यों न हों और असत् होने के अतिरिक्त और कुछ न हों । माया के अत्याचारी मिथ्यात्व को दी गयी इस अनिवार्य सुविधा के अनुसार जीवन और अनुभव का एकमात्र सच्चा महत्त्व उस अनुपात में होगा जिसमें वे वैश्व भ्रम के अंत के लिये, जीवन के नकार के लिये और व्यक्ति के आत्म-विलोपन के लिये तैयारी करते हैं ।

 

     फिर भी, यह अद्वैतवादी सिद्धांत की एक चरम दृष्टि और परिणाम है और उपनिषदों से शुरू होनेवाला प्राचीन अद्वैत वेदांत इतनी दूरतक नहीं जाता । वह शाश्वत की एक वास्तविक और कालिक संभूति को, अत: वास्तविक विश्व को स्वीकार करता हैं । व्यक्ति भी पर्याप्त वास्तविकता धारण कर लेता है क्योंकि हर

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एक व्यक्ति वह शाश्वत है जिसने नाम और रूप धारण कर लिया है और वह उसके द्वारा जन्म की अभिव्यक्ति में हमेशा घूमते हुए भवचक्र पर बैठकर जीवन के अनुभवों को अवलंब देता है । व्यक्ति की कामना इस चक्र को गति में रखती है और मन के शाश्वत आत्मा के ज्ञान से मुड़कर कालिक संभूति में तल्लीन होने के द्वारा पुनर्जन्म का प्रभावकारी कारण बनती है और इस कामना और अज्ञान की समाप्ति के साथ व्यक्ति के अंदर शाश्वत व्यक्तिगत व्यक्तित्व के परिवर्तनों और अनुभवों से अपने-आपको अलग खींचकर अपनी कालातीत, निर्वैयक्तिक अक्षर सत्ता में चला जाता है ।

 

     लेकिन व्यक्ति की यह वास्तविकता बिलकुल कालिक है । उसका कोई स्थायी आधार नहीं है, काल में सतत पुनरावर्तन भी नहीं है । यद्यपि विश्व के इस विवरण में पुनर्जन्म महत्त्वपूर्ण वास्तविकता है फिर भी वह व्यक्तित्व और अभिव्यक्ति के उद्देश्य के बीच संबंध का कोई अनिवार्य निष्कर्ष नहीं है क्योंकि ऐसा लगता है कि शाश्वत की जगत्-सृजन की इच्छा को छोड़कर अभिव्यक्ति का और कोई उद्देश्य नहीं है और इसका समापन उस इच्छा के पीछे हट जाने से ही हो सकता है । यह वैश्व इच्छा अपने-आपको पुनर्जन्म के यंत्र और उसे बनाये रखनेवाली व्यक्ति की इच्छा के बिना भी कार्यान्वित कर सकती है; क्योंकि उसकी कामना मशीन का एक स्प्रिंग ही हो सकती है, वह स्वयं वैश्व अस्तित्व का कारण या उसकी आवश्यक अवस्था नहीं हो सकती क्योंकि इस दृष्टि में व्यक्ति अपने-आप सृष्टि का परिणाम है, संभूति से पहले अस्तित्व में नहीं रहा है । तब सृजन की इच्छा प्रत्येक नाम और रूप में कुछ समय के लिये वैयक्तिकता धारण करके बहुत-से अस्थायी व्यक्तियों के एक ही जीवन द्वारा अपने-आपको संपादित कर सकती है । उस एक चेतना का प्रत्येक बनी हुई सत्ता के प्रकार के अनुरूप एक आत्म-रूपायण हो सकता था लेकिन यह भी हो सकता था कि हर बार वह प्रत्येक व्यक्तिगत शरीर के भौतिक रूप के प्रकट होने के साथ शुरू होता और उसकी समाप्ति के साथ-ही-साथ वह भी समाप्त हो जाता । जैसे लहर के बाद लहर आती है उसी तरह व्यक्ति के बाद व्यक्ति आता रहता और समुद्र हमेशा एक-सा बना रहता;   सचेतन सत्ता का प्रत्येक

 

     भारतीय विचार के बारे में अपनी पुस्तक में डा० श्वायटजर यह प्रतिपादित करते हैं कि उपनिषदों की शिक्षा का ठीक-ठीक अर्थ यही था और पुनर्जन्म बाद का अन्वेषण है परंतु प्रायः सभी उपनिषदों में कई महत्त्वपूर्ण स्थल ऐसे हैं जो निश्चित रूप से पुनर्जन्म का प्रतिपादन करते हैं । बहरहाल उपनिषद् यह स्वीकार करते हैं कि मृत्यु के बाद व्यक्तित्व बना रहता है और अन्य लोकों में जाता है, जो इस व्याख्या के साथ मेल नहीं खाता । अगर यहां शरीर-धारण की हुई आत्माओं के अन्य लोकों में बने रहने की और बह्म में मुक्ति की अन्तिम नियति पाने की बात है तो पुनर्जन्म अपने-आपको आरोपित कर देता है और फिर यह मानने का कोई कारण नहीं कि यह बाद की परिकल्पना है । स्पष्ट है कि लेखक पाश्चात्य दर्शन के संपर्क से प्रभावित होकर प्राचीन वेदांत के सूक्ष्म और जटिल विचार में केवल सर्वेश्वरवाद को ही पढ़ पाया ।

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रूपायन वैश्व में से उभरता, दिये हुए समयतक प्रवाहित होता और फिर नीरवता में वापिस डूब जाता । इस प्रयोजन के लिये व्यष्टिभावापन्न चेतना की आवश्यकता प्रकट नहीं है जो स्थायी रूप से अविछिन्न हो, जो नाम के बाद नाम और रूप के बाद रूप धारण करती जाये और विभिन्न लोकों में आगे-पीछे गति करती रहे, और यहांतक कि संभावना के रूप में भी यह अपने-आपको प्रबल रूप से आरोपित नहीं करती । ऐसी विकसनशील प्रगति के लिये तो और भी कम अवकाश है जिसका एक रूप से दूसरे उच्चतर रूपतक अनिवार्य रूप से अनुसरण किया जाये जैसा कि पुनर्जन्म की ऐसी परिकल्पना अनिवार्य रूप से मानती है जो जड़ में आत्मा के अन्तर्लयन और विकास को हमारी पार्थिव सत्ता का महत्त्वपूर्ण सूत्र मानती है ।

 

     इस बात की कल्पना की जा सकती है कि शाश्वत ने अपने-आपको सचमुच शरीर में अभिव्यक्त करने या यूं कहें छिपाने का चुनाव किया हो । हो सकता है कि उन्होने ऐसा व्यक्ति होने या प्रकट होने की इच्छा की हो जो जन्म से मृत्यु और मृत्यु से नवजीवन में स्थायी और पुनरावर्ती मानव और पशु-जीवन के चक्र में चलता रहे । एकमेव व्यष्टिभावापन्न सत्ता अपनी मौज के अनुसार या कर्म के परिणामों के किसी विधान के अनुसार संभूति के विभिन्न रूपों में तबतक गुजरती रहेगी जबतक बोध के द्वारा, एकत्व की ओर लौटने के द्वारा उस विशिष्ट व्यक्तिभाव में से एकमात्र और अभिन्न के अपने-आपको खींच लेने के द्वारा अंत न आ जाये । लेकिन ऐसे चक्र में कोई ऐसा मौलिक या अंतिम निर्धारक सत्य न होगा जो उसे कुछ महत्त्व दे सके । ऐसी कोई चीज न होगी जिसके लिये वह जरूरी हो । वह शुद्ध रूप से लीला होगी । लेकिन अगर एक बार यह स्वीकार कर लिया जाये कि आत्मा ने अपने-आपको निश्चेतना में अंतर्लीन कर लिया है और वह अपने- आपको व्यक्तिगत सत्ता में विकसनशील श्रेणियों द्वारा अभिव्यक्त कर रही है तो सारो प्रक्रिया सार्थक और सुसंगत हो उठती है और व्यक्ति का उत्तरोत्तर आरोहण इस वैश्व सार्थकता का प्रधान स्वर बन जाता है और शरीर में अंतरात्मा का पुनर्जन्म संभूति के सत्य का स्वाभाविक और अनिवार्य परिणाम तथा उसका अंतस्थ विधान बन जाता है । आध्यात्मिक विकास के क्रियान्वयन के लिये पुनर्जन्म एक अनिवार्य यंत्र है । यह भौतिक विश्व में ऐसी अभिव्यक्ति के लिये एकमात्र संभव प्रभावकारी परिस्थिति है, एकमात्र संभव गतिशील क्रिया-पद्धति है ।

 

     जड़-भौतिक में होनेवाले विकास के बारे में हमारी व्याख्या यह है कि विश्व एक परम सद्वस्तु की स्वयं अपना सृजन करनेवाली प्रक्रिया है जिसकी उपस्थिति आध्यात्म सत्ता को चीजों का पदार्थ बना देती है -सभी चीजें आध्यात्म सत्ता में शक्तियां और अभिव्यक्ति के साधन और रूप हैं । एक अनंत सत् एक अनंत चेतना, एक अनंत इच्छा और शक्ति, सत्ता का अनंत आनंद ही विश्व की प्रतीतियों के पीछे गुप्त सद्वस्तु है । उसके दिव्य अतिमानस या विज्ञान ने वैश्व क्रम की

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व्यवस्था की है लेकिन की है परोक्ष रूप से, तीन अवर और सीमित करनेवाले पदों के द्वारा जिनके बारे में हम यहां पर सचेतन हैं -मन, प्राण और जड़-तत्त्व । जड़ विश्व अभिव्यक्ति की नीचे की ओर डुबकी की सबसे निचली अवस्था है, इस त्रिक सद्वस्तु की अभिव्यक्त सत्ता का अपने बारे में एक प्रतीयमान निर्ज्ञात में अन्तर्वलयन है जिसे हम अब निश्चेतना कहते हैं, लेकिन शुरू से ही इस निर्ज्ञानता में से उस अभिव्यक्त सत्ता का फिर से प्राप्त आत्म-अभिज्ञता में विकास अनिवार्य था । वह अनिवार्य था क्योंकि जो कुछ अंतर्लीन है उसे विकसित होना ही चाहिये, क्योंकि वह वहां पर केवल एक सत्ता, अपने प्रतीयमान विपरीत के अंदर छिपी शक्ति के रूप में ही नहीं है -और ऐसी हर शक्ति को अपने अंतरतम स्वभाव के अनुसार अपने-आपको जानने, अपने-आपको चरितार्थ करने, अपने-आपको क्रीड़ा में मुक्त करने के लिये प्रेरित होना चाहिये -लेकिन यह उसकी वास्तविकता है जो उसे छिपाती है, यह वह आत्मा है जिसे निर्ज्ञान ने खो दिया है और इसलिये जिसे खोजना और फिर से पाना ही उसका समस्त गुप्त अर्थ, उसकी क्रिया का अविच्छिन्न प्रवाह होगा । सचेतन वैयक्तिक सत्ता के द्वारा ही यह पुन: -प्राप्ति संभव है । उसीके अंदर विकसनशील चेतना संगठित होती और अपनी सद्वस्तु की ओर जागने योग्य बनती है । व्यक्तिगत सत्ता का असीम महत्त्व, जो उसके सोपान पर चढ़ने के साथ-साथ बढ़ता जाता हैं, वह ऐसे विश्व का सबसे अधिक अनोखा और महत्त्वपूर्ण तथ्य है जिसका आरंभ चेतना और व्यक्तित्व के बिना एक अभेद्य निर्ज्ञान से हुआ । यह महत्त्व तभी उचित सिद्ध हो सकता है यदि व्यक्ति के रूप में आत्मा, वैश्व सत्ता या आत्मा से कम वास्तविक न हो और दोनों ही शाश्वत की शक्तियां हों । इसी भांति व्यक्ति की वृद्धि की और उसकी स्वयं अपनी खोज की आवश्यकता को वैश्व आत्मा और चेतना की और परम सद्वस्तु की खोज की शर्त के रूप में समझाया जा सकता है । अगर हम इस समाधान को स्वीकार कर लें तो स्थायी व्यक्ति की वास्तविकता पहला परिणाम बनती है और उस पहले निष्कर्ष से अन्य परिणाम आता है कि किसी प्रकार का पुनर्जन्म एक संभव यंत्र न रहकर, जिसे चाहे माना जाये या न माना जाये, एक आवश्यकता बन जाता है, हमारे जीवन की मूल प्रकृति का अनिवार्य परिणाम बन जाता है ।

 

     क्योंकि तब किसी ऐसे भ्रामक या अस्थायी व्यक्ति को मान लेना काफी नहीं रहता जिसे हर रूप में चेतना की लीला ने रचा हो, तब वैयक्तिकता के बारे में यह कल्पना नहीं की जा सकती कि वह शरीर के आकार में चेतना की लीला की संगिनी है, जो आकार के बाद बना भी रह सकती है और नहीं भी, जो आत्मा के मिथ्या सातत्य को एक रूप से दूसरे रूपतक, एक जीवन से दूसरे जीवनतक जारी रख सकती है और नहीं भी रख सकती, लेकिन निश्चय ही उसे ऐसा करने की जरूरत नहीं है । ऐसा लगता है कि हम इस जगत् में पहले यही देखते हैं कि बिना

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किसी सातत्य के एक व्यक्ति का स्थान दूसरा व्यक्ति लेता है, रूप विलीन हो जाता है, मिथ्या या भंगुर व्यक्तित्व उसके साथ विलीन हो जाता हैं जब कि वैश्व ऊर्जा या कोई वैश्व सत्ता ही सदा के लिये बनी रहती है । हो सकता है कि वैश्व अभिव्यक्ति का यही संपूर्ण तत्त्व हों । लेकिन अगर व्यक्ति स्थायी वास्तविकता है, शाश्वत का एक शाश्वत भाग या शाश्वत शक्ति है, अगर उसकी चेतना का विकास ही वह साधन है जिसके द्वारा वस्तुओं के अंदर आत्मा अपनी सत्ता को प्रकट करती है तो विश्व अपने-आपको शाश्वत बहु के साथ, सच्चिदानंद की सत्ता में शाश्वत ''एक'' की लीला की अनुकूलित अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट करता है । तब हमारे व्यक्तित्व के सभी परिवर्तनों के पीछे सुरक्षित, अपने परिवर्तनों की धारा को धारण किये हुए एक सच्चा व्यक्ति, एक वास्तविक आध्यात्मिक व्यक्ति, एक सच्चा पुरुष होना चाहिये । विश्वत्व में प्रसारित ''एक'' हर सत्ता में उपस्थित है और अपने- आपको अपने इस व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित करता है । व्यक्ति के अंदर वह अपनी पूर्ण सत्ता को समस्त विश्वत्व के साथ एकत्व द्वारा प्रकट करता है । साथ ही वह व्यक्ति में अपनी परात्परता को उस शाश्वत के रूप में प्रकट करता है जिसके अंदर समस्त वैश्व एकत्व आधारित है । आत्माभिव्यक्ति की यह त्रयी, बहुविध एकात्म की अपूर्व लीला, माया का यह जादू या अनंत की सत्ता के सचेतन सत्य का यह परिवर्तनशील चमत्कार, वह ज्योतिर्मय अंतःप्रकाश है जो धीमे विकास द्वारा आदिम निश्चेतना में से प्रकट होता है ।

 

     अगर अपने-आपको पाने की जरूरत न होती बल्कि केवल सच्चिदानंद की सत्ता की इस लीला का शाश्वत भोग होता -और ऐसा शाश्वत भोग चिन्मय अस्तित्व की कुछ चरम अवस्थाओं का स्वभाव होता है - तो विकास और पुनर्जन्म की क्रिया जरूरी न होती । लेकिन इस एकत्व का पृथक्कारी मन के अंदर अंतर्लयन हो गया है । आत्म-विस्मृति में एक ऐसी डुबकी लगी है जिसके कारण पूर्ण एकत्व का सदा उपस्थित भाव खो गया है और पृथक्कारी भेद की लीला -जो केवल आभासी हैं, क्योंकि भेद में वास्तविक एकत्व पीछे की ओर पूरा-का-पूरा बना रहता है -एक प्रधान वास्तविकता के रूप में सामने आती है । भेद की इस लीला ने अपने विभाजन का चरम बोध, विभाजक मन के शरीर के रूप में अवक्षिप्त होने से पाया है जिसमें वह अपने बारे में एक पृथक् अहं के रूप में सचेतन होता है । आभासी निर्ज्ञान में सच्चिदानंद के सक्रिय आत्म-सचेतन अंतर्लयन द्वारा जड़-भौतिक के पृथक्कारी रूपों के जगत् में विभाजन की इस लीला के लिये घन और ठोस नींव डाली गयी है । निर्ज्ञान के अंदर यह नींव ही विभाजन को सुरक्षित बनाती है क्योंकि वह अनिवार्य रूप से ऐक्य की चेतना की ओर लौटने का विरोध करती है । यद्यपि यह प्रभावकारी रूप से बाधक है फिर भी यह आभासी और समाप्य है क्योंकि उसके अंदर, उसके ऊपर, उसे आश्रय देती हुई एक सर्व-

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सचेतन आत्मा है और यह पता चलता है कि प्रतीयमान निर्ज्ञान केवल रूपायनकारी और सृजनात्मक जड़ प्रक्रिया की निमग्रता में अगाध डुबकी द्वारा आत्म-विस्मृति में समाधिस्थ चेतना का एक केन्द्रीकरण, उसकी ऐकान्तिक क्रिया ही है । इस तरह से रचे गये आभासी विश्व में पृथक्कारी रूप उसकी समस्त जीवन-क्रिया का आधार और प्रारंभ-बिंदु बन जाता है, अतः व्यष्टिगत पुरुष को एकमेव के साथ अपने वैश्व संबंध चरितार्थ करने के लिये इस भौतिक जगत् में अपने-आपको रूप पर आधारित करना, एक शरीर धारण करना होता है, भौतिक-जगत् में प्राण, मन और आत्मा के विकास के लिये उसे शरीर को अपना आधार और अपनी नींव और अपना आरंभ-बिंदु बनाना चाहिये । इस शरीर-ग्रहण को हम जन्म कहते हैं और यहां पर उसीके अंदर आत्मा का विकास और व्यक्ति और वैश्व तथा अन्य व्यक्तियों के बीच संबंधों का खेल हो सकता है । बस इसीमें हमारी सचेतन सत्ता के क्रमिक संवर्धन द्वारा भगवान् के साथ और भगवान्में जो कुछ है उसके साथ ऐक्य के परम पुनर्लाभ की ओर विकास हो सकता है । हम भौतिक-जगत् में जिसे जीवन कहते हैं उसका सारा योगफल है अंतरात्मा की प्रगति और वह शरीर में जन्म से शुरू होती है, वही उसका अवलम्ब, उसकी क्रिया की स्थिति और उसकी विकसनशील स्थायित्व की स्थिति है ।

 

     तो जन्म पुरुष की भौतिक स्तर पर अभिव्यक्ति की एक आवश्यकता है । परंतु उसका जन्म, चाहे वह मानव जन्म हो या कोई और, इस जगत्-व्यवस्था में कोई अकेला संयोग या अंतरात्मा का भौतिक में अचानक सैर-सपाटा नहीं हो सकता जिसकी तैयारी करनेवाला कोई अतीत या परिपूर्ति करनेवाला भविष्य न हो । प्रतिविकास और विकास के जगत् में, केवल भौतिक रूप के ही नहीं, बल्कि प्राण और मन से आत्मा की ओर जानेवाली सचेतन सत्ता के जगत् में, मानव शरीर में इस प्रकार एकाकी जीवन-धारण व्यष्टिगत अंतरात्मा के अस्तित्व का नियम नहीं हो सकता । यह बिलकुल निरर्थक और परिणामहीन व्यवस्था या एक सनक होगी जिसके लिये यहां वस्तुओं के स्वभाव और पद्धति में कोई जगह नहीं है । यह एक विपरीत उग्रता होगी जो आध्यात्म पुरुष की आत्माभिव्यक्ति की लय को भंग कर देगी । इस तरह की व्यष्टिगत आत्म-जीवन के नियम की विकसनशील आध्यात्मिक प्रगति में घुस-पैठ उसे कारण बिना कार्य और कार्य बिना कारण बना देगी । वह एक खंडित वर्तमान होगा जिसका न भूत है न भविष्य । व्यक्ति के जीवन में भी सार्थकता की वही लय होनी चाहिये, प्रगति का वही नियम होना चाहिये जो वैश्व जीवन में है । उस लय में इसका स्थान भटकते हुए उद्देश्यहीन हस्तक्षेप का नहीं हो सकता, उसे वैश्व प्रयोजन का एक स्थायी माध्यम होना चाहिये । हम इस प्रकार की  व्यवस्था में एकाकी आविर्भाव को, मानव शरीर में अंतरात्मा के एकमात्र जन्म को, जो उसके लिये इस तरह का पहला और अंतिम अनुभव होगा, यह कह कर नहीं

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समझा सकते कि अन्य लोकों में उसका एक पूर्व अस्तित्व था और अनुभव के अन्यान्य क्षेत्रों में एक और भविष्य उसके सामने है । क्योंकि यहां धरती पर जीवन, भौतिक-विश्व में जीवन, एक लोक से दूसरे लोकतक अंतरात्मा के भटकने के लिये कोई आकस्मिक अड्डा नहीं है और न हो सकता है । यह एक महान् और धीमा विकास है, और जैसा कि हम अब जानते हैं, उसे अपने विकास के लिये काल के अनगिनत अंतरालों की जरूरत है । स्वयं मानव-जीवन एक क्रमिक सोपान में एक अवस्था है जिसके द्वारा विश्व में गुप्त आध्यात्म पुरुष धीरे- धीरे अपने प्रयोजन को विकसित करता और अंतत: शरीर में बढ़ती हुई और ऊपर बढ़ती हुई व्यष्टिगत आत्म-चेतना द्वारा उसे कार्यान्वित करता है । यह आरोहण केवल ऊपर चढ़ती हुई व्यवस्था में पुनर्जन्म के द्वारा ही हो सकता है । केवल एक बार इसमें आ जाना और कहीं अन्यत्र, किसी और रेखा में प्रगति करना, यह इस विकसनशील जीवन- पद्धति में ठीक नहीं बैठता ।

 

     मानव अंतरात्मा, मानव व्यक्ति कोई मुक्त रूप से भटकनेवाला, मनमौजी या लापरवाही के साथ अपनी स्वच्छन्द पसंद के अनुसार एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भटकनेवाला नहीं है या अपनी उन्मुक्त और सहज रूप से बदलनेवाली क्रिया या क्रिया का परिणाम नहीं है । यह शुद्ध आध्यात्मिक मुक्ति के बारे में एक प्रदीप्त विचार है जिसका सत्य परलोकों में या अंतिम मुक्ति में हो सकता है लेकिन शुरू में यह पार्थिव जीवन या भौतिक-विश्व के जीवन का सत्य नहीं है । इस जगत् में मानव जन्म अपने आध्यात्मिक पक्ष में दो तत्त्वों का मिश्रण है; आध्यात्मिक-पुरुष और व्यक्तित्व की अंतरात्मा । पहला मनुष्य की शाश्वत सत्ता है और दूसरा उसकी वैश्व और परिवर्तनशील सत्ता । आध्यात्मिक, निर्वैयक्तिक पुरुष की हैसियत से वह अपनी प्रकृति और अपनी सत्ता में सच्चिदानंद की स्वतंत्रता के साथ एक है जिसने यहां पर आत्मिक अनुभूति के किसी चक्कर के लिये निर्ज्ञान में अंतर्लीन होना स्वीकार किया या चाहा, यह अनुभव इसके बिना असंभव होता । वह गुप्त रूप से उसके विकास की अध्यक्षता कर रहा है । व्यक्तित्व की अंतरात्मा की हैसियत से वह स्वयं प्रकृति के रूपों में आत्मानुभूति के लम्बे विकास का एक भाग है । स्वयं उसके विकास को वैश्व विकास के नियमों और उसकी रेखाओं का अनुसरण करना पड़ता है । आध्यात्म पुरुष के रूप में वह परात्पर के साथ एक है जो विश्वगत और विश्वव्याप्त है । अंतरात्मा के रूप में वह युगपत् रूप में जगत् के अंदर अपने-आप अभिव्यक्त सच्चिदानंद के विश्वत्व के साथ एक और उसका अंग हैं । उसकी अपनी अभिव्यक्ति को वैश्व अभिव्यक्ति की भूमिकाओं में से गुजरना होगा, उसके आंतरात्मिक अनुभवों को विश्व में ब्रह्म-चक्र के चक्करों का अनुसरण करना होगा ।

 

     भौतिक विश्व के निर्ज्ञान में वस्तुओं में अंतस्थ वैश्व आध्यात्म पुरुष अपने प्रकृति-पुरुष को भौतिक रूपों के जड़, प्राण, मन और आत्मा के क्रमिक सोपान में

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विकसित करता है । पहले वह जड़ रूपों में गुप्त अंतरात्मा के रूप में प्रकट होता है जो ऊपरी सतह पर पूरी तरह निर्ज्ञान के अधीन रहती है । वह एक अंतरात्मा के रूप में विकसित होता है जो है तो गुप्त पर ऐसे प्राणिक रूपों में प्रकट होने की तैयारी में है जो निर्ज्ञान और चेतना के आंशिक प्रकाश के बीच -जो हमारा अज्ञान है -की सीमा पर खड़े होते हैं । वह और आगे विकसित होता है, पाशविक मन में प्रारंभिक रूप से सचेतन अंतरात्मा के रूप में और अंत में मनुष्य के अधिक बाह्य रूप से सचेतन लेकिन, अभीतक पूर्णतया सचेतन आत्मा के रूप में नहीं । चेतना हमारी सत्ता के गुह्य भागों में सब जगह बनी रहती है, विकास होता है अभिव्यक्त होनेवाली प्रकृति में । इस विकसनशील प्रगति का एक वैश्व पक्ष होता है और एक व्यष्टिगत पक्ष । वैश्व अपनी सत्ता की श्रेणियों को और अपने विश्वत्व की व्यवस्थित परिवर्तनशीलता को अपनी सत्ता के विकसित रूपों के क्रम में विकसित करता है । व्यष्टिगत अंतरात्मा इस वैश्व-क्रम की रेखा का अनुसरण करती है और आध्यात्म- पुरुष के विश्वत्व में जो कुछ तैयार हो गया है उसे अभिव्यक्त करती है । वैश्व-मानव या मानव-जाति में वैश्व-पुरुष मानव-जाति के अंदर उस शक्ति को विकसित कर रहा है जो मानव-जाति में नीचे से बढ्ती आयी है और अतिमानस और आध्यात्म-पुरुषतक चढ़ती जायेगी, और मनुष्य के अंदर वह परम देव बन जायेगी जो अपनी सच्ची और समग्र आत्मा और अपनी प्रकृति की दिव्य सार्विकता के बारे में अभिज्ञ है । व्यष्टि ने विकास की इस रेखा का अनुसरण किया होगा, मानव विकासतक आने से पहले उसने अंतरात्मा के अनुभव का जीवन के निचले रूपों में अधिष्ठातृत्व किया होगा । जिस भांति एकमेव अपने विश्वत्व में वनस्पति और पशु के निचले रूप धारण करने में समर्थ था, उसी तरह व्यष्टि, जो अब मानव है, अपनी सत्ता की पूर्व-स्थितियों में उन्हें धारण करने में समर्थ रहा होगा । अब वह मानव-अंतरात्मा प्रतीत होता है, आध्यात्म-पुरुष ने मानवता के भीतरी और बाहरी रूप को धारण करना स्वीकार कर लिया है लेकिन जैसे वह अपने पहले के धारण किये हुए वनस्पति या पशु-रूपों से सीमित न था उसी तरह वह इससे सीमित नहीं है । वह इससे प्रकृति के एक उच्चतर सोपान में, एक महत्तर आत्माभिव्यक्ति में जा सकता है ।

 

     इसके विपरीत मानना तो यह मान लेना होगा कि जो आत्मा अब मानव अंतरात्मा के अनुभव का अधिष्ठातृत्व करती है वह मूल रूप से मानव मानसिकता और मानव शरीर से बनी और उसीके कारण अस्तित्व रखती है और उससे अलग होकर नहीं रह सकती । वह कभी उसके ऊपर या उसके नीचे नहीं जा सकती । वस्तुतः तब यह मानना ज्यादा युक्तिसंगत होगा कि वह अमर नहीं है बल्कि मानव मन और शरीर के विकासक्रम में प्रकट होने से अस्तित्व में आयी है और उनके लुप्त होने से लुप्त हो जायेगी । लेकिन शरीर और मन आत्मा के स्रष्टा नहीं हैं,

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आत्मा मन और शरीर का सृजन करती है, वह अपनी सत्ता में से इन तत्त्वों को विकसित करती है, वह इनमें से सत्ता में विकसित नहीं होती, वह उनके तत्त्वों का मिश्रण या उनके मिलन का परिणाम नहीं है । अगर ऐसा लगता है कि वह मन और शरीर में से विकसित होती है तो इसका कारण यह है कि वह अपने-आपको धीरे- धीरे उनमें प्रकट करती है, इसलिये नहीं कि वह उनके द्वारा रची गयी है या वह उनके सहारे जीती है । वह जैसे-जैसे अभिव्यक्त होती है, वे उसकी सत्ता की अधीनस्थ स्थितियों के रूप में प्रकट होते हैं और अंत में उन्हें उनकी वर्तमान अपूर्णता में से निकाल कर आत्मा के दृश्य रूपों और यंत्रों के रूप में रूपांतरित करना है । आत्मा के बारे में हमारी धारणा यह है कि वह नाम-रूप से नहीं बनी है बल्कि वह अपनी आत्म-सत्ता की विभिन्न अभिव्यक्तियों के अनुरूप नानाविध शारीरिक और मानसिक रूप धारण करती है । वह यहां क्रमिक विकास द्वारा ऐसा करती है । वह क्रमिक रूपों और चेतना के क्रमिक स्तरों को विकसित करती है, क्योंकि वह इसके लिये बाधित नहीं है कि हमेशा एक ही रूप धारण करे, कोई दूसरा नहीं या एक ही प्रकार की मानसिकता रखे जो उसकी एकमात्र संभव, आत्मनिष्ठ अभिव्यक्ति हो । अंतरात्मा मानसिक मानव जाति के सूत्र से बंधी हुई नहीं है । न तो वह उसके साथ शुरू हुई थी न उसके साथ समाप्त होगी । उसका एक पूर्व-मानव अतीत था, उसका एक अतिमानव भविष्य है ।

 

     हम प्रकृति और मानव प्रकृति का जो कुछ देखते हैं वह व्यष्टिगत अंतरात्मा में एक रूप से दूसरे रूप में तबतक जन्म लेने के संबंध में इस दृष्टि को उचित ठहराता है जबतक कि वह अभिव्यक्त चेतना के मानव स्तरतक न पहुंच जाये, जो अबतक उच्चतर स्तरोतक उठने के लिये उसका यंत्र है । हम देखते हैं कि प्रकृति एक अवस्था से दूसरी अवस्थातक विकसित होती है और प्रत्येक अवस्था में अपने अतीत को लेकर उसे अपने नये विकास के द्रव्य में रूपांतरित कर देती है । हम देखते हैं कि मानव-प्रकृति की बनावट भी ऐसी ही है । पृथ्वी का समस्त अतीत उसके अंदर है, उसमें जड़ का एक तत्त्व है जिसे प्राण ने अपना लिया है, प्राण का एक तत्त्व है जिसे मन ने अपना लिया है, मन का एक तत्त्व है जिसे आत्मा ले रही है । मानव जाति में पशु अभीतक उपस्थित है । मानव सत्ता की प्रकृति पहले से ही एक जड़ और प्राणिक अवस्था को मान लेती है जिसने उसके मन में उभरने को संभव बनाया, एक पाशविक अतीत को मान लेती है जिसने उसकी जटिल मानवता के प्रथम तत्त्व को गढ़ा है और हम यह न कहें कि यह इसलिये है कि जड़-प्रकृति ने विकास द्वारा उसके प्राण और शरीर को तथा उसके पशु-मन को विकसित किया और उसके बाद इस तरह रची हुई देह में एक अंतरात्मा का अवतरण हुआ । इस विचार के पीछे एक सत्य है लेकिन वह सत्य नहीं जिसकी ओर यह सूत्र इंगित करता है क्योंकि यह अंतरात्मा और शरीर के बीच, अंतरात्मा और प्राण के बीच,

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अंतरात्मा और मन के बीच एक खाई मान लेता है जब कि उसका अस्तित्व नहीं है । अंतरात्मा के बिना कोई शरीर नहीं है, ऐसा कोई शरीर नहीं है जो अपने-.आप अंतरात्मा का रूप न हो । जड़ अपने-आपमें आत्मा का द्रव्य और शक्ति है और अगर वह कुछ और होता तो उसका अस्तित्व ही न होता, क्योंकि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं हो सकता जो ब्रह्म का उपादान या शक्ति नहीं है; अगर जड़- पदार्थ ऐसा है तब प्राण और मन को और भी ज्यादा स्पष्ट और निश्चित रूप में ऐसा ही होना चाहिये और आध्यात्म पुरुष की उपस्थिति से आत्म-युक्त होना चाहिये । अगर जड़ और प्राण पहले ही आत्मयुक्त न हुए होते तो मनुष्य प्रकट ही न होता या एक हस्तक्षेप अथवा संयोग के रूप में होता, क्रमविकास के एक भाग के रूप में नहीं ।

 

     तब हम आवश्यक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मानव जन्म एक ऐसी भूमिका है जहां अंतरात्मा को पुनर्जन्मों के एक लंबे क्रम में पहुंचना चाहिये, कि वह अपनी पहले की तैयारी की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर, पृथ्वी पर प्राण के निम्नतर रूपों को पा चुकी है; प्राण ने भौतिक तत्त्व, शरीर के आधार पर भौतिक विश्व की जो शृंखला गूंथी है वह उस पूरी शृंखला में से गुजर चुकी है । तब अगला प्रश्न उठता है कि क्या एक बार मानवता पा लेने के बाद भी पुनर्जन्मों का यह अनुक्रम जारी रहता है ? अगर ऐसा है तो कैसे, किस क्रम में या किन विकल्पों के साथ ? और पहले हमें यह पूछना होगा कि क्या एक बार मानव जन्म पाकर भी अंतरात्मा पशु-जन्म और शरीर की ओर वापिस जा सकती है ? यह इस तरह पीछे हटना है जिसे पुनर्जन्म के पुराने लोकप्रिय सिद्धांतों ने सामान्य गति माना है । यह असंभव मालूम होता है कि वह पूरी तरह वापिस जाये क्योंकि पशु जीवन से मानव जीवन में आने का अर्थ है चेतना का एक निर्णायक परिवर्तन, ठीक वैसा ही निर्णायक जैसे वनस्पति की प्राणिक चेतना का पशु की मानसिक चेतना में परिवर्तन । यह निश्चय ही असंभव है कि प्रकृति द्वारा किये गये ऐसे निर्णायक परिवर्तन को अंतरात्मा पलट दे और उसके अंदर स्थित आध्यात्म पुरुष का निर्णय मानों शून्य बन जाये । यह केवल ऐसी मानव अंतरात्माओं में ही संभव हो सकता है, अगर यह मान लें कि उनका अस्तित्व है, जिनमें निर्णायक परिवर्तन नहीं हुआ है, ऐसी अंतरात्माओं में जो इतनी दूरतक विकसित हो चुकी हैं कि मानव शरीर को बना सकें, धारण कर सकें या उसपर कब्जा कर सकें लेकिन इतनी विकसित नहीं हुई हैं कि अपनी प्राप्ति को सुरक्षित रख सकें, जो कुछ उन्होंने पाया है उसमें सुरक्षित रह सकें और चेतना के मानव प्रारूप के प्रति निष्ठावान् रह सकें । या अधिक-से-अधिक यह हो सकता है कि कुछ पाशविक प्रवृत्तियां इतनी अधिक उग्र हों कि वे अपनी जाति से एकदम पृथक् संतुष्टि की मांग करें, एक प्रकार का आंशिक पुनर्जन्म, मानव आत्मा द्वारा एक ढीले रूप में पाशविक रूप का ग्रहण जो जल्दी

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ही अपनी सामान्य प्रगति में लौट जाये । प्रकृति की गति हमारे लिये हमेशा इतने पर्याप्त रूप में जटिल होती है कि हम सिद्धांत की हठधर्मी द्वारा इस संभावना से इंकार नहीं कर सकते और अगर यह तथ्य हो तो उस अतिरंजित लोक-विश्वास के पीछे यह किंचित् सत्य हो सकता है जो लोक-विश्वास यह मानता है कि जो अंतरात्मा एक बार मानव-शरीर में निवास कर चुकी है उसके लिये पशु-योनि में जन्म लेना उतना ही सामान्य और संभव होगा जितना मानव पुनर्जन्म । लेकिन जो अंतरात्मा एक बार मनुष्य बनने में समर्थ हो चुकी है उसके लिये चाहे पशु-योनि में वापिस जाना संभव हो या न हो, सामान्य नियम तो नये मानव रूपों में पुनरावर्तन ही होगा ।

 

     लेकिन मानव जन्मों का अनुक्रम क्यों ? एक ही क्यों नहीं ? उसी कारण से जिसने मानव जन्म को पिछले अनुक्रम का, पिछले ऊर्ध्वमुख सोपान का चरम उत्कर्ष-बिंदु बना दिया है -आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता के कारण ही ऐसा होना चाहिये । क्योंकि अंतरात्मा ने केवल मानवतातक विकसित होकर ही, उसे जो कुछ करना था उसकी इतिश्री नहीं कर ली, अभी उसे उस मानवता को उसकी उच्चतर संभावनाओं में विकसित करना है । यह तो स्पष्ट ही है कि जो अंतरामा किसी कैरिबी (एक नरभक्षी जंगली जाति) या अशिक्षित आदिम मानव में या पैरिस के गुंडे या अमरीका के डाकू में बसी है उसने मानव जन्म की आवश्यकता को निःशेष नहीं कर लिया है, उसने अपनी सभी संभावनाएं विकसित नहीं की हैं, न ही मानवता का पूरा अर्थ ही सिद्ध किया है, वैश्व मानव में सच्चिदानंद का पूरा भाव कार्यान्वित नहीं किया है और न ही गतिशील उत्पादन और प्राणिक भोग में व्यस्त प्राणिक-यूरोपीयन या घरेलू और आर्थिक जीवन के अज्ञानमय चक्कर में फंसे एशियाई किसान में बसी अंतरात्मा ने ही यह प्राप्ति कर ली है । हमें उचित रूप से यह शंका भी हो सकती है कि क्या अफलातून (प्लेटो) या शंकराचार्य भी मनुष्य के अंदर आत्मा के मुकुट के चिन्ह्य और इस कारण उसके प्रस्फुटन के अंत हैं ? हम यह मानने के लिये प्रवृत्त हो सकते हैं कि ये लोग सीमा हो सकते हैं क्योंकि ये और इन जैसे लोग हमें वे उच्चतम बिंदु मालूम होते हैं जहांतक मनुष्य का मन और उसकी अंतरात्मा पहुंच सकें लेकिन यह हमारी वर्तमान संभावना का भ्रम हो सकता है । हो सकता है कि इससे भी ऊंची या कम-से-कम इससे भी विशाल संभावना हो जिसे भगवान् अब भी मनुष्य के अंदर चरितार्थ करना चाहते हों और अगर ऐसा है तो वहांतक पहुंचने और द्वार खोलने के लिये इन उच्चतम अंतरात्माओं द्वारा बनायी गयी सीढ़ियों की जरूरत थी । बहरहाल, व्यक्ति के लिये मानव-जन्म की पुनरावृत्ति पर इति लिखने से पहले कम-से-कम इस वर्तमान उच्चतम बिंदुतक तो पहुंचना ही होगा । मनुष्य अपने अज्ञान और तुच्छ जीवन से, जो वह अपने मन और शरीर में है, उस ज्ञान और विशाल दिव्य जीवन की ओर बढ़ने के लिये अभिप्रेत है जिसे वह आध्यात्म सत्ता के प्रस्फुटन द्वारा पा सकता

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है । इससे पहले कि वह निश्चित रूप से और हमेशा के लिये कहीं अन्यत्र चला जाये, कम-से-कम उसके अंदर आध्यात्म पुरुष को खिलना होगा, उसे अपनी वास्तविक आत्मा का ज्ञान और आध्यात्मिक जीवन-यापन तो प्राप्त करना ही होगा । इस प्रारंभिक उत्कर्ष के आगे मानव-जीवन में आध्यात्म सत्ता का विशालतर पुष्पण भी हो सकता है जिसके हमें अभीतक पहले संकेत ही मिले हैं । मनुष्य की अपूर्णता प्रकृति का अंतिम शब्द नहीं है लेकिन उसकी पूर्णता भी आध्यात्म पुरुष का अंतिम शिखर नहीं है ।

 

     यह संभावना निश्चिति बन जाती है यदि बुद्धि, जो मनुष्य द्वारा विकसित मन का वर्तमान प्रमुख तत्त्व है, उच्चतम  त्त्व न हो । यदि स्वयं मन के अंदर ऐसी अन्य शक्तियां हैं जो मानव व्यष्टि के उच्चतम प्रारूपों को भी अपूर्ण रूप से प्राप्त हैं तो विकास की रेखा को लंबा करना और परिणाम-स्वरूप उन्हें देह प्रदान करने के लिये पुनर्जन्म की चढ़ती हुई रेखा का होना अनिवार्य है । अगर अतिमानस भी चेतना की शक्ति है जो यहां विकास में छिपी हुई है तो पुनर्जन्म की रेखा वहां भी नहीं रुक सकती, वह अपने आरोहण में तबतक नहीं रुक सकती जबतक मन का स्थान अतिमानसिक प्रकृति न ले ले और एक शरीरधारी अतिमानसिक व्यक्ति पार्थिव जीवन का नेता न बन जाये ।

 

     तो पुनर्जन्म पर विश्वास करने के लिये यही तर्कसंगत और दार्शनिक आधार है । अगर पार्थिव प्रकृति में कोई विकसनशील तत्त्व है और साथ ही विकसनशील प्रकृति में जन्मी व्यष्टिगत अंतरात्मा की वास्तविकता है तो यह अनिवार्य तर्कसंगत निष्कर्ष है । अगर कोई अंतरात्मा नहीं तो एक यांत्रिक विकास हो सकता है जिसमें अनिवार्यता या सार्थकता न हो और जन्म इस अनोखी परंतु अर्थहीन मशीन का अंग-मात्र हो । अगर व्यक्ति केवल एक अस्थायी रूपायन है जिसका अथ और इति शरीर के साथ ही है तो विकास सर्व-आत्मा या वैश्व सत्ता का एक खेल हो सकता है जो इस संभवन में उच्च से उच्चतर जाति की ओर अपनी अधिकाधिक संभावना की प्रगति के द्वारा चढ़ता जाता है या अपने उच्चतम सचेतन तत्त्व की ओर जाता है; पुनर्जन्म का अस्तित्व ही नहीं रहता और उस विकास के यंत्र-विन्यास के लिये उसकी जरूरत नहीं रहती । या अगर वह सर्व-सत् अपने-आपको एक स्थायी किंतु मायामय व्यक्तित्व में प्रकट करता है तो पुनर्जन्म एक संभावना या मायिक तथ्य बन जाता है लेकिन उसकी कोई विकसनशील आवश्यकता नहीं रहती और न ही आध्यात्मिक आवश्यकता होती है । वह उस माया को पुष्ट करने और उसे उसकी अंतिम काल-सीमातक बढ़ाने के लिये एक साधनमात्र होता है । अगर कोई व्यष्टिगत अंतरात्मा या पुरुष है जो शरीर पर निर्भर नहीं है, जो शरीर में निवास करता और अपने प्रयोजन के लिये उसका उपयोग करता है तो पुनर्जन्म की संभावना शुरू होती है, लेकिन अगर प्रकृति में अंतरात्मा का विकास नहीं है तो वह

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आवश्यक नहीं है । व्यष्टिगत शरीर में व्यष्टिगत अंतरात्मा की उपस्थिति एक क्षणिक व्यापार, एक एकाकी अनुभूति हो सकता है जिसका न भूत है न भविष्य, उसके भूत-भविष्य कहीं और हो सकते हैं । लेकिन अगर इस विकसनशील शरीर और उस शरीर में निवास करनेवाली अंतरात्मा में वास्तविक और सचेतन व्यष्टि है, चेतना का विकास है तो यह स्पष्ट है कि प्रकृति में उस अंतरात्मा की उत्तरोत्तर प्रगतिशील अनुभूति ही चेतना के इस विकास का रूप लेती है । यदि ऐसा हो तो पुनर्जन्म स्वतः -सिद्ध रूप में उस विकास का आवश्यक अंग, उसका एकमात्र संभव यंत्र है । यह इतना ही जरूरी है जितना कि स्वयं जन्म क्योंकि उसके बिना जन्म परिणामहीन प्राथमिक चरण होगा या एक ऐसी यात्रा का आरंभ-बिंदु होगा जिसमें अगले चरण नहीं हैं, कोई प्राप्ति-स्थान नहीं है । पुनर्जन्म ही शरीर में एक अपूर्ण सत्ता के जन्म को पूर्णता का वचन और आध्यात्मिक सार्थकता देता है ।

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