दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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भाग दो

 

ज्ञान और आध्यात्मिक विकास


 

 

अध्याय १५

द्वस्तु और पूर्ण ज्ञान

 

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग् ज्ञानेन... ।

 

इस आत्मा को सत्य द्वारा और पूर्ण ज्ञान द्वारा प्राप्त करना होगा ।

मुण्डकोपनिषद् ३. १. ५

 

...समप्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ।।

... यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्तित्त्वत: ।।

 

सुनो तुम मुझे मेरे समग्र रूप में कैसे जानोगे.. जो जिज्ञासु सिद्धि

पा चुके हैं उन्में से भी कोई विरला ही मुझे मेरी सत्ता के संपूर्ण

सत्य में जानता है ।

गीता ७.१, ३

 

तो यह है अज्ञान का मूल, यह है उसका स्वभाव और ये हैं उसकी सीमाएं । उसका मूल है ज्ञान का परिसीमन, उसका विशिष्ट लक्षण है सत्ता का अपनी समग्रता और संपूर्ण सद्वस्तु से अलग होना, उसकी सीमाएं चेतना के इस पृथक्कारी विकास के द्वारा निर्धारित हैं क्योंकि वह हमें अपनी सच्ची आत्मा और वस्तुओं की सच्ची आत्मा और संपूर्ण प्रकृति से ओझल कर देता और हमें प्रतीयमान बाहरी अस्तित्व में रहने के लिये बाधित करता है । संपूर्णता की ओर लौटना या प्रगति करना, परिसीमा का लोप, पृथकता का विघटन, सीमाओं का अतिक्रमण, हमारी मूलभूत और संपूर्ण वास्तविकता को फिर से पा लेना -इन्हें अवश्य ज्ञान की ओर आंतरिक मोड़ का चिह्न और अज्ञान का विपरीत विशिष्ट लक्षण होना चाहिये । सीमित और पृथक्कारी चेतना के स्थान पर सारभूत और समग्र चेतना आनी चाहिये जो आत्मा और सत् के मूल सत्य और समग्र सत्य के साथ एकात्म हो । समग्र ज्ञान एक ऐसी चीज है जो पहले से ही समग्र सद्वस्तु में मौजूद है, यह कोई नयी या अभीतक असत् वस्तु नहीं है जिसका मन को सृजन करना, प्राप्त करना, आविष्कार करना हो, उसे सीखना या बनाना हो, बल्कि इसे खोजना या उघारना हैं । वह एक ऐसा सत्य है जो आध्यात्मिक उद्यम के लिये अपने-आप व्यक्त रहता है क्योंकि वह हमारी गहनतर और विशालतर आत्मा में ढका हुआ रहता है । वह हमारी आध्यात्मिक चेतना का पदार्थ है और उसके प्रति अपनी बाहरी आत्मा में भी जागकर हमें उसपर अधिकार करना है । एक पूर्ण आत्म-ज्ञान है जिसे हमें पुनः प्राप्त करना है और चूंकि वैश्व आत्मा भी हमारी आत्मा है इसलिये यह आत्म-ज्ञान विश्व-ज्ञान भी होता है । एक ऐसा ज्ञान है जिसे मन द्वारा सीखा और निर्मित किया जा सकता है और उसका मूल्य है लेकिन जब हम ज्ञान और अज्ञान की बात करते हैं तो हमारा मतलब उससे नहीं होता ।

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   संपूर्ण आध्यात्मिक चेतना अपने भीतर सत्ता की सभी अवस्थाओं का ज्ञान लिये रहती है । वह बीच की सभी अवस्थाओं में से होती हुई उच्चतम का निम्नतम के साथ नाता जोड़ती है और अविभाज्य संपूर्ण को प्राप्त करती है । वस्तुओं के उच्चतम शिखर पर वह अनिर्वचनीय परमार्थ तत्त्व की ओर खुलती है क्योंकि निरपेक्ष की आत्म-अभिज्ञता के सिवा वह और सब के लिये अतिचेतन है । हमारी सत्ता के सबसे निचले छोर पर वह उस निश्चेतना को देखती है जिसमें से हमारे विकास का आरंभ होता है; लेकिन साथ ही वह उन गहराइयों में अपने अंदर अंतर्लीन एकमेव और सर्व के बारे में अभिज्ञ होती है, वह निश्चेतना में प्रच्छन्न चेतना को अनावृत करती है । इन दो छोरों के बीच घूमती हुई व्याख्यात्मक और रहस्योद्घाटन करनेवाली उसकी दृष्टि बहु में एक की अभिव्यक्ति का अन्वेषण करती है, सांत चीजों की असमता में अनंत की समता का, शाश्वत काल में कालातीत शाश्वतता की विद्यमानता का अनुसंधान पाती है । उसका यह देखना ही उसके लिये विश्व के अर्थ को प्रकाशित करता है । यह चेतना विश्व को लुप्त नहीं करती, वह उसे अपने साथ लेती है, वह उसे उसका छिपा हुआ अर्थ देकर उसका रूपांतर करती है । वह व्यक्तिगत सत्ता को लुप्त नहीं करती, वह व्यक्तिगत सत्ता और प्रकृति को उनका सच्चा अर्थ बतलाकर और उन्हें दिव्य सद्वस्तु से और दिव्य प्रकृति से अपना अलगाव मिटाने की क्षमता देकर रूपांतरित करती है ।

 

   पूर्ण ज्ञान को पहले से ही पूर्ण सद्वस्तु मान लिया जाता है क्योंकि सत्-चित् की शक्ति ही अपने-आपमें सद्वस्तु की चेतना है लेकिन हमारी चेतना की स्थिति और गति के अनुसार, उसकी दृष्टि, उसके बल, उसकी ग्रहण-शक्ति के अनुसार सद्वस्तु के बारे में हमारे भाव और अनुभव बदलते रहते हैं । वह दृष्टि और बल तीव्र, ऐकांतिक हो सकते हैं या विस्तीर्ण, सर्वग्राही और व्यापक । यह बिलकुल संभव हैं -और हमारे विचार के लिये और आध्यात्मिक उपलब्धि की एक उच्च दिशा के लिये, अपने क्षेत्र में यह एक प्रामाणिक गति है -कि हम अनिर्वचनीय निरपेक्ष को प्रतिष्ठापित करें, उसके एकमात्र सद्वस्तु होने पर जोर दें, व्यष्टि-सत्ता और विश्व-सृष्टि का अपनी आत्मा के लिये निषेध और लोप करें, उन्हें अपने सद्वस्तु विषयक भाव और अनुभव से निकाल बाहर करें । व्यक्ति की सद्वस्तु है निरपेक्ष ब्रह्म, विश्व की सद्वस्तु है निरपेक्ष ब्रह्म । व्यक्ति एक आभास, विश्व में एक कालिक प्रतीति है, स्वयं विश्व एक आभास हैं, एक बृहत्तर और अधिक जटिल कालिक प्रतीति । ज्ञान और अज्ञान, ये दोनों परिभाषाएं केवल इस प्रतीति की चीजें हैं । निरपेक्ष अतिचेतनातक पहुंचने के लिये दोनों का अतिक्रमण जरूरी है । उस परम परात्परता में अहंकार- चेतना और विश्व-चेतना दोनों लुप्त हो जाती हैं और रह जाता है केवल निरपेक्ष । क्योंकि निरपेक्ष ब्रह्म केवल अपने तादात्म्य में निवास करता है और समस्त अन्य-ज्ञान के परे है । वहां ज्ञाता और ज्ञात का विचारमात्र और इस कारण उस ज्ञान का

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भी लोप हो जाता है जिसमें वे दोनों मिलकर एक हो जाते हैं । उसका अतिक्रमण हो जाता है और वह अपनी प्रामाणिकता खो बैठता है, इसलिये मन और वाणी के लिये निरपेक्ष ब्रह्म हमेशा अगम्य रहता है । हमने जो दृष्टि प्रस्तुत की है उसके विपरीत या उसके पूरक स्वरूप - अज्ञान की दृष्टि अपने-आपमें दिव्य ज्ञान की या तो एक सीमित या अंतर्ग्रस्त क्रिया है, सीमित है अंशतः सचेतन में और अंतर्ग्रस्त है निश्चेतन के अंदर -हम वस्तुओं के सोपान के इस दूसरे छोर से कह सकते हैं कि ज्ञान अपने-आप केवल एक उच्चतर अज्ञान ही है क्योंकि वह उस निरपेक्ष सद्वस्तुतक नहीं पहुंच पाता जो अपने लिये स्वयं सिद्ध परंतु मन के लिये अज्ञेय हैं । यह निरपेक्षवाद आध्यात्मिक चेतना में विचार के सत्य और परम अनुभव के सत्य के साथ मेल खाता है लेकिन अपने-आपमें वह आध्यात्मिक विचार का सब कुछ नहीं है जो पूर्ण और व्यापक हो और वह परम आध्यात्मिक अनुभूति की संभावनाओं को निःशेष नहीं कर देता ।

 

   सद्वस्तु चेतना और ज्ञान के बारे में निरपेक्षवाद का दृष्टिकोण प्राचीनतम वेदान्त के एक पार्श्व पर आधारित है लेकिन यह उस विचार- धारा का सब कुछ नहीं है । उपनिषदों में, प्राचीनतम वेदान्त के अपौरुषेय शास्त्रों में हम निरपेक्ष की स्थापना पाते हैं, शुद्ध, अनिर्वचनीय परात्पर का अनुभव-प्रत्यय पाते हैं, लेकिन साथ ही उसके विरोध में नहीं, उसके उपपरिणाम रूप में वैश्व दिव्यता की स्थापना, वैश्व आत्मा का अनुभव-प्रत्यय और विश्व में ब्रह्म की संभूति भी पाते हैं । समान रूप से हम व्यक्ति में दिव्य सद्वस्तु का प्रतिष्ठापन भी पाते हैं, यह भी अनुभव-प्रत्यय है, यह एक आभास के रूप में नहीं बल्कि वास्तविक संभूति के रूप में समझ में आता है । परात्पर निरपेक्ष के सिवा सभी को नकारनेवाले एकमात्र परम ऐकांतिक प्रतिष्ठापन की जगह हम एक व्यापक प्रतिष्ठापन पाते हैं जो अपने दूरतम निष्कर्षतक जा पहुंचता है । सद्वस्तु और ज्ञान का यह प्रत्यय, जो एक ही दृष्टि में वैश्व और निरपेक्ष को आच्छादित कर लेता है, मूल रूप से हमारी दृष्टि के साथ मेल खाता है क्योंकि इसका यह अर्थ निकलता है कि अज्ञान भी ज्ञान का एक आधा ढका हुआ भाग है और जगत्-ज्ञान आत्म-ज्ञान का एक भाग है । ईशोपनिषद् निरपेक्ष की सभी अभिव्यक्तियों की एकता और सत्यता पर जोर देता है, वह सत्य को किसी एक पहलूतक सीमित रखने से इंकार करता है । ब्रह्म चल भी है और अचल भी, आंतरिक भी है और बाह्य भी, वह सब जो समीप है और वह सब जो दूर है, चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से हो या देश और काल के विस्तार में । वही सत् और सर्व-संभूति है, वह शुद्ध और नीरव है, रूपहीन और क्रियाहीन है, कवि और मनीषी है जो जगत् और उसकी वस्तुओं की व्यवस्था करता है, वह एक है जो सर्व बन जाता है, जिसका हम सारे जगत् में अनुभव करते हैं, वही सबमें फैला है और वह भी जिसमें वह निवास करता है । उपनिषद् का कथन यह है कि पूर्ण और

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मुक्तिदाता ज्ञान वह है जो न तो आत्मा का बहिष्कार करता है और न उसकी सृष्टियों का । मुक्त आत्मा इन सबको स्वयंभू की संभूतयों की तरह देखता हैं । वह आंतरिक दृष्टि से और ऐसी चेतना से देखता है जो विश्व को अपने अंदर देखती है, उस तरह नहीं जैसे सीमित और अहंकारमय मन बहिर्मुखी होकर अपने-आपसे भिन्न वस्तु की तरह देखता है । वैश्व अज्ञान में रहना अंधापन है । लेकिन अपने-आपको ज्ञान की ऐकांतिक निरपेक्षता में बंद कर लेना भी अंधापन है । ब्रह्म को युगपत् रूप में, ज्ञान और अज्ञान के रूप में जानना, युगपत् रूप में, परम अवस्था को संभवन और असंभवन रूप में प्राप्त करना, परात्पर और वैश्व आत्मा की प्राप्ति को एक साथ जोड़ना, अलौकिक में आधार पाना और लौक्कि में आत्म-अभिज्ञ अभिव्यक्ति पूर्ण ज्ञान है, यही अमरता पर अधिकार है । अपने पूर्ण ज्ञान के साथ यह समस्त चेतना दिव्य जीवन की नींव रखती है और उसकी प्राप्ति को संभव बनाती है । इसका यह अर्थ है कि निरपेक्ष की निरपेक्ष यथार्थता कोई कठोर अनिर्देश्य एकत्व न होगी, न ही एक ऐसी अनंतता जो उन सबसे रिक्त हो जो केवल बहु और सांत के वर्जन द्वारा प्राप्य स्वयंभू सत्ता नहीं है बल्कि कोई ऐसी चीज है जो इन परिभाषाओं के परे, वस्तुत: हर भावात्मक और अभावात्मक वर्णन के परे है । समस्त इतिवाद और नेतिवाद उसी के व्यंजक रूप हैं और हम परम इति और परम नेति दोनों के द्वारा निरपेक्षतक पहुंच सकते हैं ।

 

   तो, एक ओर, सद्वस्तु के रूप में, जिसे हमारे सामने प्रस्तुत किया गया है, हम पाते हैं एक निरपेक्ष स्वयंभू शाश्वत एकमेव आत्म-सत्ता को और नीरव और निष्क्रिय आत्मा या अनासक्त निश्चल पुरुष की अनुभूति द्वारा हम इस लक्षणहीन और संबंधहीन निरपेक्ष की ओर बढ़ सकते हैं और सर्जक शक्ति की क्रियाओं .को अस्वीकार कर सकते हैं, चाहे वह भ्रमात्मिका माया हो या रचना करनेवाली प्रकृति । हम विश्व-भ्रांति के चक्करों में से निकल कर शाश्वत शांति और नीरवता में जा सकते हैं, अपने व्यक्तिगत अस्तित्व से पिंड छुड़ा सकते हैं और अपने-आपको उस शुद्ध सत् के अंदर खो या पा सकते हैं । दूसरी ओर हम पाते हैं एक संभवन को जो सत् की एक सच्ची गति है और सत् और संभवन दोनों एक ही निरपेक्ष सद्वस्तु के सत्य हैं । पहली दृष्टि एक ऐसी तत्त्वदार्शनिक धारणा पर आधारित है जो हमारे विचार में आनेवाले इस परम बोध को, हमारी चेतना में आनेवाले इस ऐकांतिक अनुभव को निरूपित करती है कि वह निरपेक्ष एक ऐसी सद्वस्तु है जो सभी संबंधों और निर्धारणों से रिक्त है, जो अपने निष्कर्ष-स्वरूप एक तर्कसम्मत और व्यावहारिक आवश्यकता आरोपित करती है कि सापेक्षाताओं के जगत् को अवास्तविक सत्ता का मिथ्यात्व मानकर, असत् या कम-से-कम एक निम्नतर और क्षणभंगुर, कालिक और व्यावहारिक स्वानुभव मानकर अस्वीकार किया जाये और आत्मा को उसकी मिथ्या अनुभूतियों या निम्नतर रचनाओं से मुक्त करने के लिये

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उस जगत् को चेतना में से काट दिया जाये । दूसरी दृष्टि निरपेक्ष के बारे में इस धारणा पर आधारित है कि निरपेक्ष को न तो इति भाव से न नेति भाव से सीमा में बांधा जा सकता है । वह सभी संबंधों के परे है, इसका अर्थ यह है कि वह किन्हीं सापेक्षताओं से बंधा नहीं है या उसकी सत्ता की शक्ति को उनसे सीमित नहीं किया जा सकता, उसे हमारी सापेक्ष धारणाओं द्वारा बाधा या सीमित नहीं किया जा सकता चाहे वे उच्चतम हों या निम्नतम, भावात्मक हों या अभावात्मक । वह न तो हमारे ज्ञान से बंधा है न हमारे अज्ञान से, न हमारी सत् की धारणा से न हमारी असत् की धारणा से । लेकिन उसे संबंधों को धारण करने, पोषण करने, सृजन करने या संबंधों को अभिव्यक्त करने में असामर्थ्य द्वारा भी सीमित नहीं किया जा सकता । इसके विपरीत अपने-आपको एकता की अनंतता में और बहुत्व की अनंतता में अभिव्यक्त करने की शक्ति को उसकी निरपेक्षता का अंतर्निहित बल, चिह्न, परिणाम माना जा सकता है और यह संभावना अपने-आपमें वैश्वत्ता की काफी व्याख्या है । निःसंदेह, निरपेक्ष को अपने स्वभाव में संबंधों का जगत् प्रकट करने के लिये बाधित नहीं किया जा सकता लेकिन उसे किसी जगत् को अभिव्यक्त न करने के लिये भी बाधित नहीं किया जा सकता । वह अपने-आपमें निरी रिक्तता नहीं है क्योंकि रिक्त निरपेक्ष निरपेक्ष न होगा । रिक्त या शून्य के बारे में हमारी धारणा, उसे जानने या पकड़ पाने में हमारी मानसिक अक्षमता का धारणात्मक चिह्न है । जो कुछ है और जो कुछ हो सकता है उसकी किसी अनिर्वचनीय सार सत्ता को वह अपने अंदर धारण किये रहता है और चूंकि वह इस तात्त्विकता और इसकी संभावना को लिये रहता है इसलिये उसे अपनी निरपेक्षता की किसी विधि से या तो स्थायी सत्य या उसके अंतर्निहित सत्य को भी ग्रहण किये रहना चाहिये चाहे वह सुप्त ही क्यों न हो । वह हमारे या जगत् के अस्तित्व के लिये जो कुछ मूलभूत है उसे साध्य वास्तविकता के रूप में धारण किये रहेगा । जब यह साध्य वास्तविकता वास्तविक बन जाती है या जब यह स्थायी सत्य अपनी संभावनाओं का विस्तार करता है तो हम उसे अभिव्यक्ति कहते हैं और जगत् के रूप में देखते हैं ।

 

   तो निरपेक्ष के सत्य की धारणा या उपलब्धि में विश्व के सत्य के त्याग या विलोप का कोई अंतर्निहित अवश्यंभावी परिणाम नहीं होता । अनिवार्य रूप से अवास्तविक जगत् के किसी-न-किसी तरह, भ्रांति की अनिर्वचनीय शक्ति द्वारा अभिव्यक्त होने, निरपेक्ष ब्रह्म के उससे अलग रहने, उसपर दृष्टि न रखने, उसे उसी तरह प्रभावित न करने की -जैसे वह स्वयं उससे प्रभावित नहीं होता -यह धारणा अपनी तह में तत् को सीमित करने के लिये हमारी मानसिक चेतना की अक्षमता का तत् पर अध्यारोप हैं । जब हमारी मानसिक चेतना अपनी सीमाओं को पार कर जाती है तो रास्ता भटक कर ज्ञान के साधन खो बैठती है और निष्क्रियता और अवसान की ओर प्रवृत्त होती है । साथ ही अपनी पहले की अंतर्वस्तुओं पर

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से उसकी पकड़ ढीली हो जाती या छूट जाना चाहती है । जो एक बार उसके लिये वह सब था जो वास्तविक है, उसकी वास्तविकता की धारणा नहीं रहती । हम सदा के लिये अनभिव्यक्त के रूप में कल्पित निरपेक्ष परब्रह्म पर, जो कुछ हमारे लिये अवास्तविक बन गया है या हमें अवास्तविक प्रतीत होता है, तदनुरूप अक्षमता या पृथकता आरोपित करते हैं । उसे हमारे मन के अपने समापन या आत्मनिर्वापन की तरह अपनी शुद्ध निरपेक्षता के स्वभाव के कारण इस प्रतिभासी अभिव्यक्ति के जगत् के साथ सभी संबंधों से रहित, जो उसे वास्तविकता देता है, उसके गतिशील अनुरक्षण और समर्थक प्रज्ञान के लिये अयोग्य होना चाहिये । या अगर इस तरह का कोई प्रज्ञान है तो उसे एक ऐसा अस्ति होना चाहिये जो नास्ति, एक जादुई माया है । लेकिन यह मानने का कोई बाध्यकारी कारण नहीं है कि यह खाई बनीं ही रहनी चाहिये । हमारी सापेक्ष मानव चेतना किस चीज में सक्षम है या नहीं है, यह संपूर्ण क्षमता की कसौटी या उसका मानक नहीं है । उसकी धारणाओं को निरपेक्ष आत्म-अभिज्ञता पर लगू नहीं किया जा सकता । जो हमारे मानसिक अज्ञान के लिये अपने-आपसे बच निकलने के लिये जरूरी है वह निरपेक्ष के लिये जरूरी नहीं भी हो सकता, उसे अपने-आपसे बचने की आवश्यकता नहीं है, उसके लिये जो ज्ञेय है उसे जानने से इंकार करने की जरूरत नहीं होती ।

 

   एक है अव्यक्त अज्ञेय, फिर है व्यक्त ज्ञेय जो हमारे अज्ञान के लिये अंशत: व्यक्त है किंतु जो दिव्य ज्ञान उसे अपने अंदर अनंत रूप से धारण किये है उसके लिये पूर्णत: व्यक्त है । अगर यह सच है कि न तो हमारा अज्ञान और न उच्चतम और विशालतम मानसिक ज्ञान हमें अज्ञेय की पकड़ दे सकते हैं तो यह भी सच है कि हमारे ज्ञान और हमारे अज्ञान द्वारा तत् ही अपने-आपको विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करता है; क्योंकि वह अपने से भिन्न किसी चीज को व्यक्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसके सिवा किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं हों सकता । अभिव्यक्ति की इस विभिन्नता में वह एकत्व है और उस विभिन्नता द्वारा हम एकत्व को छू सकते हैं । लेकिन फिर भी, इस सह-अस्तित्व को स्वीकार करते हुए भी संभवन के बारे में यह अंतिम निर्णय कर देना और दण्डज्ञा पारित करना, उसे त्याग कर निरपेक्ष सत् मे लौटने का निश्चय करना संभव रहता है । यह दण्डज्ञा निरपेक्ष की वास्तविक वास्तविकता और सापेक्ष विश्व की आंशिक और भ्रामक वास्तविकता के भेद पर आधारित हो सकतीं है ।

 

   क्योकि ज्ञान के इस उन्मीलन में एक और बहु की दो कोटियां हैं; जैसे सांत और अनंत, संभूत और असंभूत या सर्वदा सत्, रूप ग्रहण करनेवाला और रूप न ग्रहण करनेवाला, आत्मा और जड़-तत्त्व, परम अतिचेतन और निम्नतम निश्चेतना । इस द्वैत-बोध में और इससे छुटकारा पाने के लिये हमारे लिये यह मार्ग खुला है कि हम एक कोटि के अधिकृत क्षेत्र को ज्ञान कहें और दूसरे को अज्ञान । तब

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हमारे जीवन का चरम लक्ष्य होगा संभवन की निम्नतर वास्तविकता से हटकर सत् की महत्तर वास्तविकता की ओर जाना, अज्ञान से ज्ञान की ओर छलांग और अज्ञान की अस्वीकृति, बहु में से एक में, सांत में से अनंत में, साकार में से निराकार में, जड़-भौतिक विश्व के जीवन में से आत्मा में, हमारे ऊपर निश्चेतना की पकड़ में से अतिचेतन सत् में प्रयाण । इस समाधान में यह मान लिया जाता है कि हमारी सत्ता की दो कोटियों में से प्रत्येक में एक स्थिर विरोध है, चरम असमाधेयता है । या अगर दोनों ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति के साधन हैं तो निम्नतर मिथ्या और अपूर्ण सूत्र है, एक ऐसा साधन है जिसकी असफलता अवश्यंभावी है, मूल्यों की एक ऐसी पद्धति है जो हमें अंतत: संतुष्ट नहीं कर सकती । बहुलता की अस्तव्यस्तता से असंतुष्ट, वह जो उच्चतम प्रकाश, शक्ति और आनंद प्रकट कर सकती है उसके बारे में तिरस्कार के साथ हमें उस परे की निरपेक्ष एकाग्रता और स्व-स्थिति की ओर जाना होगा जिसमें सारा आत्म-वैविध्य समाप्त हो जाता है । हमपर अनंत का जो दावा है उसके कारण हम हमेशा के लिये सांत के बंधनों में रहने या उसमें संतोष, विशालता और शांति पाने में असमर्थ हैं । हमें व्यक्तिगत और वैश्व प्रकृति के सभी बंधन तोड़ने होंगे, सारे मूल्यों, प्रतीकों, प्रतिरूपों, आत्म-परिभाषाओं को और असीमेय की सीमाओं को तोड़ना होगा और अपनी अनंतता से सदा संतुष्ट रहनेवाली आत्मा में समस्त क्षुद्रता और विभाजन को खो देना होगा । रूपों से विरक्त होकर, उनके मिथ्या और क्षणिक आकर्षण से मोहभंग के कारण, उनकी भागती हुई अस्थिरता और पुनरावर्तन के व्यर्थ चक्करों से थककर और हतोत्साह होकर हमें प्रकृति के चक्रों में से स्थायी सत् की रूपहीनता और लक्षणहीनता में जाना होगा । जड़तत्त्व और उसकी स्थूलतासे लज्जित होकर, प्राण की निष्प्रयोजन हलचल और कष्ट से अधीर होकर, मन की लक्ष्यहीन दौड़-भाग से थककर या उसके समस्त लक्ष्य और उद्देश्य की व्यर्थता के बारे में निश्चित होकर हमें अपने-आपको आत्मा के शाश्वत विश्राम और शुद्धि में मुक्त करना होगा । निश्चेतना है निद्रा या कारागार, सचेतन है ऐसे प्रयासों का चक्र जिनका अंतिम परिणाम है कुछ भी नहीं या स्वप्न का भटकना । हमें अतिचेतन में जागना चाहिये जहां रात्रि का सारा अंधेरा और अर्द्ध-प्रकाश शाश्वत के स्वतः -प्रकाशित आनंद में समाप्त हो जाता है । शाश्वत ही हमारी शरण है, बाकी सब मिथ्या मूल्य, अज्ञान और उसकी भूल-भुलैया, आभासी प्रकृति में जीव की किंकर्त्तव्यविमूढ़ता है ।

 

   हमारी ज्ञान और अज्ञान की धारणा इस निषेध को और उन विरोधों को अस्वीकार करती है जिनपर यह आधारित है । वह एक ज्यादा बड़े, भले वह ज्यादा कठिन भी हो, समाधान की ओर इशारा करती है । क्योंकि हम देखते हैं कि ये एक और बहु, रूप और रूपहीन, सांत और अनंत की प्रतीयमान विरोधी परिभाषाएं वास्तव में इतनी विरोधी नहीं हैं जितनी एक-दूसरे की पूरक । ब्रह्म के एक के बाद

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एक बदलनेवाले मूल्य नहीं हैं, जो अपनी सृष्टि में सदा अपने-आपको बहुलता में पाने के लिये एकत्व को खोता और अपने-आपको बहुलता में पाने में असमर्थ होकर फिर से एकत्व को पाने के लिये उसे खो देता है, बल्कि ये दोहरे और साथ-साथ चलनेवाले मूल्य हैं जो एक-दूसरे की व्याख्या करते हैं, ये ऐसे परस्पर-विरोधी नहीं हैं जिनमें मेल बैठाना आशा के परे हो बल्कि एक ही सद्वस्तु के दो चेहरे हैं जो एक-एक को अलग-अलग परख कर नहीं बल्कि एक साथ दोनों की उपलब्धि द्वारा हमें उसतक पहुंचा सकते हैं -यद्यपि यह अलग-अलग परखना भी ज्ञान की प्रक्रिया का एक न्याय्य बल्कि अनिवार्य कदम या भाग हो सकता है । ज्ञान निस्संदेह एकमेव का ज्ञान है, सत् की उपलब्धि है । अज्ञान सत् की आत्म-विस्मृति है, बहु में पृथक्ता का अनुभव और संभूतियों की भली-भांति न समझी गयी भूल-भुलैया में निवास या चक्कर लगाना है । लेकिन संभूति में जो जीव है वह ज्ञान में वर्द्धित होकर, सत् की अभिज्ञता में बढ़कर इसका इलाज करता है । वह सत् बहुलता में ये सब सत्ताएं बन जाता है क्योंकि उनका सत्य पहले से ही उसकी कालातीत सत्ता में मौजूद है । ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान ऐसी चेतना है जिसे एक ही साथ दोनों पर एक-सा अधिकार है । इनमें से किसी एक की ऐकान्तिक खोज सर्वव्यापक सद्वस्तु के सत्य के एक पहलू को दृष्टि से ओझल कर देती है । सभी संभूतियों से परे सत् की प्राप्ति हमारे लिये वैश्वत्ता के आसक्ति और अज्ञान के बंधनों से मुक्ति लाती है और उस मुक्ति द्वारा संभूति और वैश्व त्ता पर मुक्त अधिकार आता है । संभूति का ज्ञान ज्ञान का एक भाग है, वह अज्ञान की तरह केवल इसलिये क्रिया करता है क्योंकि हम उसके अंदर बंद होकर -अविद्यायामू अन्तरे-निवास करते हैं, सत्ता के ऐक्य को प्राप्त किये बिना -जो उसकी नींव, उसका उपादान, उसकी आत्मा, उसकी अभिव्यक्ति का कारण है -जिसके बिना यह संभव न होता ।

 

   वस्तुत: ब्रह्म केवल सभी संबंधों से परे अलक्षण एकत्व में ही नहीं बल्कि विश्व-जीवन की बहुलता में भी एक है । वह पृथक्कारी मन की क्रियाओं से अभिज्ञ होता है लेकिन अपने-आप उससे सीमित नहीं होता । वह बहु में, संबंधों में, संभूति में अपने ऐक्य को उसी आसानी से पाता है जितनी आसानी से बहु से, संबंधों से, संभूति से अलग होने में । हमें भी उसके एकत्व को पूरी तरह पाने के लिये उसे विश्व के अनंत आत्म-वैविध्य में पाना होगा क्योंकि यह वहां है क्योंकि सब वही है । बहु की अनंतता अपनी व्याख्या और अपना औचित्य तभी पाती है जब वह एक की अनंतता में समायी हुई और उसके अधिकार में हो और साथ ही एक की अनंतता अपने-आपको बहु की अनंतता में उंडेलती और उसे अपने अधिकार में करती है । यह है मुक्त पुरुष की, अपने निजी अमर आत्म-ज्ञान को अधिकार में रखनेवाले चिन्मय पुरुष की दिव्य शक्ति -अपनी ऊर्जाओं को प्रवाहित करने के योग्य होना और साथ ही अपने-आपको उसमें खो न देना, उसके उलट-फेरों और

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विभिन्नताओं की असीमता और अंतहीनता से हारकर पीछे न लौट पड़ना और साथ ही उसकी विभिन्नताओं से अपने-आप विभक्त न होना । आत्मा के सांत आत्म- वैचित्र्य, जिनमें मन आत्मज्ञान को खोकर फंस जाता है और विभिन्नताओं में बिखर जाता है -ये अनंत के निषेध नहीं, उसकी अंतहीन अभिव्यक्तियां हैं, उनका कोई और अर्थ या जीने का कारण नहीं है । अनंत भी अपनी सीमाहीन सत्ता का आनंद पाते हुए भी विश्व में अपने अनंत आत्म-सीमांकन में उसी असीमता का आनंद पाता है । दिव्य सत् अनंत रूप धारण करने में असमर्थ नहीं है क्योंकि वह तत्त्वतः सभी रूपों के परे है और न ही उन्हें धारण करके वह अपनी दिव्यता ही खोता है, बल्कि वह उनमें अपनी सत्ता का आनंद और अपने देवत्व की महिमा उंडेलता है । यह स्वर्ण केवल इसी कारण स्वर्ण होना बंद नहीं हो जाता कि वह अपने-आपको नाना प्रकार के गहनों का रूप देता और नाना प्रकार के मूल्यों और सिक्कों में अपने-आपको ढालता है । न ही पृथ्वी-शक्ति जो इन सभी रूपायित भौतिक अस्तित्व का सार तत्त्व है, अपनी निर्विकार दिव्यता इस कारण खोती है कि वह अपने-आपको बसने लायक जगतों में ढालती, पहाड़ों और खाइयों के रूप देती और रसोईघर और गृहस्थी के बरतनों के आकार या हथियारों और इंजनों में कठोर धातु के आकार देने देती है । जड़ तत्त्व -स्वयं पदार्थ, चाहे वह सूक्ष्म या घन, मानसिक हो या भौतिक-आत्मा का रूप और शरीर है और अगर उसे आत्मा की आत्माभिव्यक्ति का आधार न बनाया जा सकता तो उसका सृजन कभी किया ही न जाता । जड़-भौतिक विश्व की प्रतीयमान निश्चेतना अपने अंदर उस सबको अंधेरे रूप में धारण किये रहती है जो प्रकाशमान अतिचेतन में शाश्वत रूप में अपने-आप प्रकट रहता है । उसे काल में प्रकट करना प्रकृति का धीमा, सोद्देश्य आनंद और उसके युग-चक्रों का लक्ष्य है ।

 

   लेकिन वास्तविकता के बारे में अन्य धारणाएं भी हैं, ज्ञान के स्वरूप के बारे में भी और धारणाएं हैं जो विचार की मांग करती हैं । एक यह विचार है कि जो कुछ अस्तित्व रखता है वह मन की व्यक्तिनिष्ठ रचना है, चेतना की बनावट है और चेतना से मुक्त, स्वयंभू विषयनिष्ठ वस्तु का भाव एक श्रांति है क्योंकि हमारे पास ऐसी स्वयंभू स्वतंत्र वस्तुओं का न तो कोई प्रमाण हैं और न हो सकता है । यह दृष्टि हमें इस दृढ़ कथन की ओर ले जा सकती है कि सृजनात्मक चेतना ही एकमात्र सद्वस्तु है या फिर समस्त अस्तित्व को ही अस्वीकार कर दिया जाये और असत् या निर्ज्ञान शून्य ही एकमात्र सद्वस्तु के रूप में प्रतिष्ठित हो जाये । क्योंकि एक दृष्टि में चेतना द्वारा रची गयी चीजों की कोई तात्त्विक वास्तविकता नहीं है,वे केवल ढांचे हैं । जो चेतना उनका निर्माण करती है वह भी अपने-आपमें केवल अनुभवों का प्रवाह भर है जो संबंध और सातत्य का रूप धारण कर लेता है और सतत काल का संवेदन पैदा करता है, किंतु वास्तव में इन चीजों का कोई स्थायी

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आधार नहीं है, वे वास्तविकता का आभास मात्र हैं । इसका यह अर्थ होगा कि वास्तविकता समस्त आत्म-सचेतन सत्ता और उस सबका जो सत्ता की गतिविधि का उपादान है, इन दोनों का एक ही साथ शाश्वत अभाव है । ज्ञान का अर्थ होगा निर्मित विश्व के आभास से उसकी ओर लौट आना । दोहरा और संपूर्ण आत्म-निर्वापन होगा, पुरुष का लोप और प्रकृति का समापन या निर्वापन क्योंकि सचेतन पुरुष और प्रकृति, यही दो हमारी सत्ता के दो चरण हैं और उनमें वह सब समा जाता है जिसे हम सत्ता कहते हैं और इन दोनों का अभाव है पूर्ण निर्वाण । तब जो कुछ वास्तविक है उसे या तो निश्चेतना होना चाहिये जिसमें यह प्रवाह और ये रचनाएं प्रकट हो जातीं हैं या फिर आत्मा या सत्ता के समस्त भाव के परे अतिचेतना होना चाहिये । लेकिन विश्व के बारे में यह दृष्टि वस्तुओं के आभास के लिये तभी ठीक है जब हम यह मानें कि हमारा सतही मन ही चेतना का सब कुछ है । उस मन के क्रिया-कलाप के वर्णन के रूप में यह बिलकुल ठीक है । वहां निस्संदेह सब कुछ एक प्रवाह और एक अस्थायी चेतना के निर्माण जैसा दीखता है । परंतु यह दृष्टि सत्ता के समस्त विवरण के रूप में तब नहीं ठहर सकती यदि कोई श्रेष्ठतर और गभीरतर आत्म-ज्ञान और जगत्-ज्ञान हो, तादात्म्य द्वारा प्राप्त एक ज्ञान हो, एक ऐसी चेतना हो जिसके लिये यह ज्ञान सामान्य हो और ऐसा सत् हो जिसके लिये यह चेतना सतत आत्म-अभिज्ञता हो । क्योंकि तब आत्मपरक और वस्तुपरक दोनों ही उस चेतना के लिये वास्तविक और घनिष्ठ हो सकते हैं, दोनों उसके अपने अंश, उसके व्यक्तित्व के पार्श्व, उसकी सत्ता के लिये प्रामाणिक हो सकते हैं ।

 

   दूसरी ओर, अगर निर्माणकर्ता मन या चेतना वास्तविक है और एकमात्र वास्तविकता है तो जड़-भौतिक सत्ताओं और वस्तुओं के विश्व का कोई अस्तित्व हो सकता है परंतु यह शुद्ध रूप से चेतना द्वारा अपने अंदर से बनी आत्मपरक रचना होगी जिसे वही बनाये रखती है और अपनी समाप्ति पर वह उसीमें घुल-मिल जायेगी । क्योंकि अगर और कुछ नहीं है, कोई तात्त्विक जीवन या सत् नहीं है जो सर्जक शक्ति को सहारा दे, और न कोई सहारा देनेवाला अभाव या शून्य ही है तो स्वयं इस चेतना को, जो हर चीज का सृजन करती है, एक सत्ता या पदार्थ होना चाहिये या इसमें सत्ता या पदार्थ होना चाहिये; अगर वह रचनाएं बना सकती है तो वे स्वयं उसके पदार्थ में से निर्मित या उसकी अपनी सत्ता के रूप होने चाहियें । जो चेतना किसी सत् की नहीं या स्वयं सत् नहीं है उसे अवास्तविकता, शून्य या शून्य में अनुभूतिक्षम शक्ति होना चाहिये जो शून्य से बनी अवास्तविक रचनाएं खड़ी करती है -यह एक ऐसी स्थापना है जिसे तबतक आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता जबतक अन्य सभी अमान्य सिद्ध न हो जायें । तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे हम चेतना के रूप में देखते हैं उसे अवश्य कोई पुरुष या सत्ता होना चाहिये जिसके चेतना-पदार्थ में से ही सब कुछ रचा गया है ।

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   लेकिन अगर हम इस तरह चेतना और सत्ता की दोहरी वास्तविकता पर वापिस लौट आते हैं तो हम या तो वेदांत के अनुसार एक आद्य पुरुष या सांख्य की तरह पुरुषों की बहुलता को मान सकते हैं जिसके आगे चेतना या कोई ऐसी ऊर्जा, जिसपर हम चेतना आरोपित करते हैं, अपनी रचनाएं प्रस्तुत करती है । अगर पृथक् आद्यत्ताओं की बहुलता ही वास्तविक है तो, चूंकि हर एक अपनी-अपनी चेतना में एक अलग जगत् होगा या अलग जगत् का सृजन करेगा अतः एक ही अभिन्न विश्व में उनके संबंधों की व्याख्या करना कठिन होगा । जैसे सांख्य विचार के अनुसार एक प्रकृति बहुत-से समान पुरुषों का अनुभव-क्षेत्र है उसीके अनुरूप एक चेतना या एक ऊर्जा होनी चाहिये जिसमें वे पुरुष एक अभिन्न मन द्वारा रचे हुए विश्व में मिलते हैं । वस्तुओं के बारे में इस सिद्धांत में फायदा यह है कि आत्माओं की बहुलता, वस्तुओं की बहुलता और उनके अनुभव की विभिन्नता में एकता की व्याख्या हो जाती है और साथ-ही-साथ व्यष्टि-सत्ता की अलग आध्यात्मिक प्रगति और नियति वास्तविक हो जाती है । लेकिन अगर हम यह मान लेते हैं कि एक चेतना या एक ऊर्जा अपने बहुत सारे रूपों की रचना करते हुए और अपने जगत् में सत्ताओं की बहुलता को समाये हुए है तो एक आद्यत्ता को मानने में कोई कठिनाई नहीं है जो अपने-आपको सत्ताओं की बहुलता में अवलम्ब देती या प्रकट करती है -जो उसके एक-अस्तित्व की अंतरात्माएं या आध्यात्मिक शक्तियां हैं । इसका यह अर्थ होगा कि सभी वस्तुएं चेतना के सभी आकार उस सत्-पुरुष के आकार होंगे । तब यह पूछना होगा कि क्या यह बहुलता और ये आकार एकमेव सद्वस्तु की वास्तविकताएं हैं या केवल निरूपित करनेवाले व्यक्तित्व और प्रतिबिंब मात्र हैं या फिर मन के द्वारा तत् को निरूपित करने के लिये रचे गये प्रतीक या मूल्य हैं । यह बड़ी हदतक इसपर निर्भर होगा कि क्या मन ही, जैसा कि हम उसे जानते हैं, क्रिया कर रहा है या कोई गहनतर और विशालतर चेतना काम कर रही है, मन जिसका सतही यंत्र, उसके आरंभ का कार्यवाहक, उसकी अभिव्यक्तियों का साधन है । अगर पहली बात ठीक है तो मन द्वारा रचा और देखा गया विश्व केवल आत्मनिष्ठ, प्रतीकात्मक या प्रतिरूप वास्तविकता ही हो सकता है । अगर दूसरी बात ठीक है तो विश्व और उसकी स्वाभाविक सत्ताएं और वस्तुएं एकमेव सत्ता की सच्ची वास्तविकताएं उसकी सत्ता के रूप और शक्तियां हो सकती हैं जिन्हें उसकी सत्ता की शक्ति ने अभिव्यक्त किया है । मन वैश्वद्वस्तु और उसकी सृजनात्मक चित्-शक्ति, शक्ति, प्रकृति, माया की अभिव्यक्तियों के बीच केवल एक व्याख्याता या दुभाषिया होगा ।

 

   यह स्पष्ट है कि हमारी सतही बुद्धि की प्रकृतिवाला मन सत्ता की गौण शक्ति ही हों सकता है क्योंकि उसपर अक्षमता और अज्ञान की मुहर यह दिखाने के लिये लगी रहती है कि वह आद्या स्रष्ट्री नहीं बल्कि ब्यूत्पन्न है । हम देखते हैं कि वह जिन चीजों को देखता है उन्हें वह जानता या समझता नहीं है । उसे उनपर अपने-

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आप कोई अधिकार नहीं है । उसे मेहनत करके निर्मित ज्ञान और नियंत्रण करनेवाली शक्ति को प्राप्त करना होता है । अगर ये चीजें मन की अपनी रचनाएं होतीं, उसकी आत्म-शक्ति का सृजन होतीं तो यह प्रारंभिक असामर्थ्य न होता । हो सकता है कि यह इस कारण हो कि व्यष्टिगत मन में केवल एक बाहरी और ब्यूत्पन्न शक्ति और ज्ञान होते हैं, और एक होता है वैश्व मन जो पूर्ण सर्वज्ञता से संपन्न और सर्वशक्तिमत्ता के लिये सक्षम होता है लेकिन मन, जैसा कि हम उसे जानते हैं, उसकी प्रकृति है ज्ञान की खोज करनेवाला अज्ञान । वह अंशों का जाननेवाला और विभाजनों का कार्यकर्ता है जो कुलयोग पर आने की कोशिश करता है, टुकड़ो को इकट्ठा करके पूर्ण बनाना चाहता है । उसे वस्तुओं का सार-तत्त्व या उनकी समग्रता प्राप्त नहीं होती । इन्हीं गुण-धर्मोंवाला वैश्व मन शायद अपनी विश्वात्मकता की शक्ति से अपने विभाजनों का कुल-योग जानता हो फिर भी उसमें मूलभूत ज्ञान का अभाव रहेगा और मूलभूत ज्ञान के बिना सच्चा संपूर्ण ज्ञान असंभव है । मूलभूत और संपूर्ण ज्ञान रखनेवाली चेतना, जो सारतत्त्व से समग्र की ओर जाती है और समग्र से अंशों में, वह मन नहीं होगी । वह होगी पूर्ण ऋत-चेतना जिसे अंतर्निहित आत्म-ज्ञान और जगत्-ज्ञान पर स्वतः अधिकार प्राप्त हो । हमें वास्तविकता की आत्मनिष्ठ दृष्टि को इस आधार से देखना चाहिये । यह सच है कि चेतना से स्वतंत्र वस्तुनिष्ठ वास्तविकता के जैसी कोई चीज नहीं है लेकिन साथ ही वस्तुनिष्ठता में भी एक सत्य है और वह यह है कि वस्तुओं की वास्तविकता किसी ऐसी चीज में निवास करती है जो उनके अंदर रहती है और हमारा मन उनकी जो व्याख्या करता है उससे और अपने अवलोकन के आधार पर बनायी गयी अपनी रचनाओं से स्वतंत्र है । ये रचनाएं ही विश्व के बारे में मन द्वारा बनाये गये आत्मनिष्ठ रूप या आकार हैं लेकिन विश्व और उसकी वस्तुएं केवल रूप या आकार नहीं हैं, तत्त्वत: वे चेतना की रचनाएं हैं, बल्कि एक ऐसी चेतना की रचनाएं हैं जो सत्ता के साथ एक है, जिसका उपादान सत् का उपादान है और जिसकी रचनाएं भी उसी उपादान की बनी और इस कारण वास्तविक हैं । इस दृष्टि सें जगत् शुद्ध रूप से चेतना का आत्मनिष्ठ सृजन नहीं हो सकता । वस्तुओं के आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ सत्य दोनों ही वास्तविक हैं । वे एक ही सद्वस्तु के दो पक्ष हैं ।

 

   हम अपनी मानव भाषा के सापेक्ष और सांकेतिक शब्दों का उपयोग करें तो एक अर्थ में सभी चीजें ऐसे संकेत हैं जिनके द्वारा हमें उस तत् की ओर जाना और उसके निकट पहुंचना है जिसके द्वारा हमारा और सभी चीजों का अस्तित्व है । एकत्व की अनन्तता एक प्रतीक है और बहु की अनन्तता दूसरा प्रतीक है । और फिर चूंकि बहु में से हर एक चीज एकत्व की ओर संकेत करती है, चूंकि हर चीज, जिसे हम सांत कहते हैं, एक प्रतिनिधि-रूप, एक रूप-सीमाग्र, एक छाया-चित्र है जो अनंत के किसी अंश का आभास देता है इसलिये विश्व में जो कुछ

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अपना सीमांकन रूपायनों में करता है -उसकी सभी वस्तुएं घटनाएं भाव- रूपायण, प्राण-रूपायण -उनमें से हर एक अपनी बारी में एक संकेत, सूत्र और प्रतीक है । हमारे आत्मनिष्ठ मन के लिये सत् की अनंतता एक प्रतीक है और असत् की अनंतता दूसरा प्रतीक है । निरपेक्ष परब्रह्म की अभिव्यक्ति के दो ध्रुव हैं; निश्चेतन की अनंतता और अतिचेतन की अनंतता । इन दोनों ध्रुवों के बीच हमारा अस्तित्व और हमारा एक-दूसरे की ओर जाना, अव्यक्त की इस अभिव्यक्ति को अधिकाधिक हस्तगत करना, उसकी सतत व्याख्या, हमारे अपने अंदर उसकी आत्मनिष्ठ रचना है । अपनी आत्म-सत्ता के ऐसे उन्मीलन से हमें ब्रह्म की अनिर्वचनीय उपस्थिति के बारे में सचेतन होना होता है, स्वयं अपने और जगत् के, जो कुछ है और जो कुछ नहीं है उस सबके बारे में हम इस तरह सचेतन होते हैं कि ये उसका अनावरण हैं जो अपने-आपको अपने शाश्वत और निरपेक्ष आत्म- प्रकाश के सिवा और किसी के आगे पूरी तरह अनावृत नहीं करता ।

 

   लेकिन चीजों को देखने की यह विधि मन की उस क्रिया से आती है जब वह सत् और बाहरी संभूति के बीच संबंध की व्याख्या करता है । यह अभिव्यक्ति के किसी सत्य के साथ मेल खानेवाले क्रियाशील मानसिक निरूपण के रूप में मान्य है लेकिन साथ ही यह शर्त रहती है कि वस्तुओं के ये प्रतीकात्मक मूल्य स्वयं वस्तुओं को गणित के सूत्रों की तरह केवल सार्थक संकेत या अमूर्त प्रतीक या मन के द्वारा ज्ञान के लिये प्रयोग में लाये जानेवाले अन्य संकेत नहीं बनाते क्योंकि विश्व में रूप और घटनाएं सद्वस्तु की सार्थक वास्तविकताएं हैं, वे तत् की आत्माभिव्यंजनाएं सत् की गतियां और शक्तियां हैं । हर एक रूप इसलिये हैं क्योंकि वह उस तत् की किसी शक्ति का प्रकटन है जो उसके अंदर निवास करता है । प्रत्येक घटना सत् के किसी सत्य के चरितार्थ होने की अपनी गतिशील प्रक्रिया में एक गति है । यही सार्थकता मन के व्याख्यात्मक ज्ञान को, विश्व की उसकी आत्मनिष्ठ रचना को प्रामाणिकता देती है । हमारा मन मुख्यतः द्रष्टा और व्याख्याकार है, गौण और अमौलिक रूप से स्रष्टा है । समस्त मानसिक आत्म-निष्ठता का वस्तुत: यही मूल्य है कि वह अपने अंदर सत् के किसी ऐसे सत्य को प्रतिबिंबित करती है जो प्रतिबिंब से स्वतंत्र अपना अस्तित्व रखता है, चाहे वह स्वतंत्रता अपने-आपको भौतिक विषय-निष्ठता के रूप में प्रस्तुत करे या ऐसी अतिभौतिक वास्तविकता के रूप में जो मन के लिये तो ग्राह्य है परंतु भौतिक इन्द्रियों के लिये अग्राह्य । तो मन विश्व का पहला रचयिता नहीं है । वह एक मध्यवर्ती शक्ति है जो सत्ता की कुछ वास्तविकताओं के लिये मान्य है । एक अभिकर्ता, एक मध्यवर्ती के रूप में वह संभावनाओं को तथ्य बनाता है और इस तरह सृजन में उसका भाग है, लेकिन वास्तविक स्रष्ट्री है परात्पर और वैश्व आत्मा में अंतर्निष्ठ एक चेतना, एक ऊर्जा ।

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द्वस्तु और ज्ञान के बारे में इससे एकदम उल्टी एक दृष्टि है जो वस्तुनिष्ठ सद्वस्तु को ही एकमात्र सम्पूर्ण सत्य और वस्तुनिष्ठ ज्ञान को ही एकमात्र पूरी तरह विश्वास-योग्य ज्ञान मानती है । यह दृष्टि इस भाव से शुरू होती है कि भौतिक सत्ता ही एकमात्र आधारभूत सत्ता है, वह चेतना, मन, अंतरात्मा या जीव को, यदि जीव या अंतरात्मा का कोई अस्तित्व है, वैश्व क्रिया में रत वैश्व ऊर्जा के एक अस्थायी परिणाम के दरजे में उतार देती है । जो कुछ भौतिक और वस्तुनिष्ठ नहीं है उसकी वास्तविकता उससे कम होती है जो भौतिक और वस्तुनिष्ठ पर निर्भर होती है । उसे वास्तविकता का पासपोर्ट पाने से पहले भौतिक मन के आगे वस्तुनिष्ठ साक्षी या भौतिक या बाह्य वस्तुओं के सत्य के साथ अपना मान्य और प्रमाणनीय संबंध स्थापित करके औचित्य सिद्ध करना होगा । लेकिन यह स्पष्ट है कि यह समाधान अपनी कठोरता में नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि उसमें कोई संपूर्णता नहीं है । वह जीवन की केवल एक दिशा को, यहांतक कि केवल एक प्रदेश या अंचल को देखता है और बाकी सबको बिना व्याख्या, बिना अंतर्गत वास्तविकता और बिना किसी सार्थकता के छोड़ देता है । अगर उसे आखिरी छोरतक धकेला जाये तो वह विचार, प्रेम, साहस, प्रतिभा, महानता, अंधकार और संकटभरे जगत् का सामना करते हुए और उसपर अधिकार पानेवाली मानव आत्मा और मन की वास्तविकता को ज्यादा निचला और आश्रित, यहांतक कि सारहीन और क्षणभंगुर वास्तविकता मान लेगा । और पत्थर और 'प्लम पुडिग' (मिष्टान्न) को अधिक श्रेष्ठ वास्तविकता । क्योंकि इस दृष्टि में ये चीजें, जो हमारी आत्मनिष्ठ दृष्टि में इतनी महान् हैं, इस दर्शन के लिये केवल इतनी ही सार्थक हैं कि ये एक वस्तुनिष्ठ भौतिक जीवन के प्रति एक वस्तुनिष्ठ भौतिक सत्ता की प्रतिक्रियाएं हैं । ये तभीतक मान्य हैं जबतक ये वस्तुनिष्ठ वास्तविकताओं के साथ व्यवहार करती और उनपर अपना प्रभाव डालती हैं । यदि अंतरात्मा का कोई अस्तित्व है तो वह केवल वस्तुनिष्ठ रूप से वास्तविक जगत्-प्रकृति की एक घटना मात्र है । इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि वस्तुनिष्ठ तभी मूल्य पाता है जब उसका अंतरात्मा के साथ संबंध हो । वह काल में अंतरात्मा की प्रगति के लिये एक क्षेत्र, एक अवसर, एक साधन है । वस्तुनिष्ठ की रचना आत्मनिष्ठ की अभिव्यक्ति के लिये क्षेत्र के रूप में की गयी है, वस्तुनिष्ठ जगत् आत्मा के संभवन का एक बाहरी रूप भर है । वह प्रथम रूप और आधार की तरह है लेकिन वह सार-तत्त्व, सत्ता का मुख्य सत्य नहीं है । आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ एक ही अभिव्यक्त सद्वस्तु के दो आवश्यक पार्श्व हैं जिनका मूल्य समान है । वस्तुनिष्ठ के प्रदेश में भी चेतना की अतिभौतिक वस्तु को स्वीकृति का उतना ही अधिकार है जितना भौतिक वस्तुनिष्ठता को । उसे अनुभव से पहले ही आत्मनिष्ठ भ्रांति या भ्रम कहकर एक ओर नहीं किया जा सकता ।

 

   वस्तुत: आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता स्वतंत्र वास्तविकताएं नहीं हैं । दोनों एक

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दूसरे पर निर्भर हैं । वे ऐसी हैं कि सद चेतना के द्वारा, अपने-आपको ऐसे देख रहा हों जैसे विषयी विषय को देखता है और वही सत् अपने-आपको अपनी चेतना के आगे ऐसे प्रस्तुत कर रहा हो जैसे विषय विषयी के आगे । अधिक एकांगी दृष्टि किसी ऐसी चीज को ठोस रूप में वास्तविक नहीं मानती जिसका अस्तित्व केवल चेतना में है या ज्यादा ठीक तरह से कहें तो किसी ऐसी चीज को वास्तविक नहीं मानती जिसकी आंतरिक चेतना या इन्द्रिय तो साक्षी देती हो परंतु जिसके लिये बाहरी भौतिक इन्द्रियां आधार या प्रमाण न देती हों । लेकिन बाहरी इन्द्रियां तभी प्रामाणिक साक्षी दे सकती हैं जब वे विषय के बारे में अपने विवरण को चेतना के आगे रखती हैं और वह चेतना उनके विवरण को महत्त्व देती है, उसकी बाह्यता में अपनी भीतरी अंतर्भासात्मक टीका जोड़ देती और युक्तियुक्त समर्थन द्वारा उसका औचित्य ठहराती है । क्योंकि इन्द्रियों की साक्षी हमेशा अपने-आपमें अधूरी होती है, पूरी तरह प्रामाणिक नहीं होती और निश्चय ही अंतिम नहीं होती क्योंकि वह अपूर्ण और सदा भूल-भ्रांति के अधीन होती है । निश्चय ही हमारे पास विषयनिष्ठ विश्व को जानने के लिये आत्मनिष्ठ चेतना के सिवा कोई और साधन नहीं है और स्वयं भौतिक इन्द्रियां उसके यंत्र हैं । जगत् जैसा न केवल उस चेतना को बल्कि उसके अंदर दिखायी देता है, वैसा ही वह हमारे लिये भी होता है । अगर हम इस वैश्व दर्शक की साक्षी को आत्मनिष्ठ या अतिभौतिक विषयों के लिये सच्चा नहीं मानते तो इसका कोई पर्याप्त कारण नहीं है कि हम भौतिक विषयों के लिये उसकी साक्षी को सच्चा मानें । अगर चेतना के भीतरी या अतिभौतिक विषय अवास्तविक हैं तो पूरी संभावना हैं कि वस्तुनिष्ठ भौतिक विश्व भी अवास्तविक हो । हर मामले में समझ, विवेक और सत्य की जांच जरूरी है; लेकिन आत्मनिष्ठ और अतिभौतिक के लिये सत्य की जांच की पद्धति उस पद्धति से भिन्न होनी चाहिये जिसे हम भौतिक और बाहरी वस्तुओं के लिये सफलतापूर्वक काम में लाते हैं । आत्मनिष्ठ अनुभवों को बाहरी इन्द्रियों के साक्ष्य के सामने प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । उसके देखने के अपने मानक हैं और सत्य की जांच के लिये अपने आंतरिक तरीके हैं । इसी तरह अपने स्वभाव के कारण अतिभौतिक वास्तविकताओं को भौतिक या ऐन्द्रिय मन के न्याय के आगे तबतक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता जबतक कि वे अपने-आपको भौतिक में प्रक्षिप्त न करें । और तब भी वह निर्णय प्रायः अपूर्ण होता या सावधानी की मांग करता है । उनकी जांच अन्य इन्द्रियों द्वारा ही और ऐसी विधि द्वारा की जा सकती हैं जो उनकी अपनी वास्तविकता और उनकी प्रकृति पर लागू हो ।

 

   वास्तविकता की अलग-अलग श्रेणियां हैं, विषयगत और भौतिक तो केवल एक श्रेणी है । भौतिक या बाहरी मन के लिये यह विश्वासोत्पादक है क्योंकि यह इन्द्रियों के आगे प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट होता है जब कि आत्मनिष्ठ और अतिभौतिक के लिये उस मन के पास पग-पग पर भूल कर सकनेवाले खंडित चिह्नों, तथ्यों

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और निष्कर्षों के सिवा ज्ञान का कोई साधन नहीं है । हमारी आत्मनिष्ठ गतिविधियां और आंतरिक अनुभूतियां घटनाओं का उतना ही वास्तविक क्षेत्र हैं जितनी कोई भी बाहरी भौतिक घटनाएं, लेकिन अगर व्यक्तिगत मन प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा स्वयं अपने व्यापारों को जान भी सके तो भी वह इस बारे में अजान रहता है कि औरों की चेतना में क्या हो रहा है, वह बस उतना ही जान सकता है जो उसके अपने अनुरूप हो या फिर ऐसे चिह्नों, सामग्री, अनुमान द्वारा ही जान सकता है जो उसका बाहरी अवलोकन उसे दे सके । अत: मैं भीतरी तौर पर अपने लिये वास्तविक हूं लेकिन औरों का अदृश्य जीवन, जहांतक वह मेरे अपने मन, प्राण और इन्द्रियों पर टकोर नहीं लगाता, वहांतक मेरे लिये परोक्ष वास्तविकता ही है । मनुष्य के भौतिक मन की यह सीमा है और यह उसके अंदर केवल भौतिक पर पूरी तरह विश्वास करने की आदत डाल देती है और जो कुछ उसके अपने अनुभव के साथ मेल नहीं खाता, उसकी समझ के क्षेत्र का नहीं है या उसके अपने मानक या सुप्रतिष्ठित ज्ञान के कुलयोग के अनुकूल नहीं है वह उस सब पर संदेह करता और उन्हें चुनौती देता है ।

 

   हाल में इस अहं-केन्द्रित वृत्ति को ज्ञान के एक मान्य मानक के स्थानतक उठा दिया गया है । उसे प्रकट या अप्रकट रूप से एक स्वयंसिद्ध सूक्ति के रूप में रखा जाता है कि प्रामाणिक होने के लिये समस्त सत्य को हर आदमी के व्यक्तिगत मन, तर्क और अनुभव के आगे पेश करना चाहिये या फिर किसी सार्वजनिक या सार्वभौम अनुभव द्वारा उसकी जांच होनी या कम-से-कम उसे जांच किये जाने योग्य होना चाहिये । लेकिन स्पष्ट है कि यह वास्तविकता और ज्ञान का एक मिथ्या मानक है क्योंकि इसका अर्थ होता है सामान्य या औसत मन और उसकी सीमित क्षमता और अनुभव की प्रभुता और अतिप्राकृतिक या साधारण औसत बुद्धि के परे की चीजों को छोड़ देना । अपनी चरम अवस्था में व्यक्ति का हर चीज के बारे में निर्णय करने का दावा अहं-केन्द्रित भ्रांति, भौतिक मन का अंध-विश्वास, व्यापक रूप में स्थूल और भद्दी भूल है । उसके पीछे सत्य यह है कि हर मनुष्य को अपनी क्षमता के अनुसार अपने-आप सोचना, अपने-आप जानना चाहिये लेकिन उसका मूल्यांकन इस शर्त पर प्रामाणिक हो सकता है कि वह सीखने और विशालतर ज्ञान की ओर खुलने के लिये हमेशा तैयार रहे । यह तर्क किया जाता है कि भौतिक मानकों और व्यक्तिगत या वैश्व सत्य की जांच के सिद्धांत को त्याग देना बहुत बड़ी प्रवंचना की ओर ले जायेगा और बिना जांचे हुए सत्य की स्वीकृति और आत्मनिष्ठ स्वैरविहार ज्ञान के क्षेत्र की ओर ले जायेगा । लेकिन ज्ञान की खोज में भ्रांति, भ्रम, अपने व्यक्तित्व और आत्मनिष्ठता का प्रवेश हमेशा उपस्थित रहते हैं और भौतिक या विषयगत पद्धति और मानक उनका बहिष्कार नहीं करते । भ्रांति की संभाव्यता खोज करने के प्रयत्न से इंकार करने के लिये कोई कारण नहीं है और आत्मनिष्ठ

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खोज जांच की आत्मनिष्ठ पद्धति से, अवलोकन और सत्यापन के द्वारा ही होनी चाहिये । अतिभौतिक की खोज में उपयुक्त साधनों और विधियों को विकसित करना, मानना और जांचना ही होगा जो उन साधनों और विधियों से भिन्न हों जिनसे हम भौतिक चीजों के घटकों और भौतिक प्रकृति में ऊर्जा की प्रक्रियाओं की परीक्षा करते हैं ।

 

   किसी सामान्य पूर्वधारणा या प्रागनुभव के कारण जांच-पड़ताल करने से इंकार करना रूढ़िवाद है और ज्ञान के विस्तार में उतना ही हानिकर है जितना वह धार्मिक रूढ़िवाद जिसने यूरोप में वैज्ञानिक शोध के विस्तार का विरोध किया था । बड़ी-से- बड़ी आंतरिक खोजें, आत्म-सत्ता की अनुभूति, वैश्व चेतना, मुक्त आत्मा की आंतरिक स्थिरता, मन का मन पर सीधा असर, चेतना का अन्य चेतना के साथ या उसके विषयों के साथ प्रत्यक्ष संबंध द्वारा वस्तुओं का ज्ञान, कुछ भी मूल्य रखनेवाली अधिकतर आध्यात्मिक अनुभूतियां - इन्हें सामान्य मानसिकता की अदालत के सामने नहीं पेश किया जा सकता जिसे इन चीजों का कोई अनुभव नहीं और जो अपने अनुभव के अभाव या अक्षमता को ही उनके अप्रामाणिक या न होने का प्रमाण मान लेती है । भौतिक अवलोकनों पर आधारित सूत्रों, सामान्य सिद्धांतों और आविष्कारों के भौतिक सत्य को इस तरह न्यायालय के आगे रखा जा सकता है लेकिन वहां भी सचमुच समझ सकने और निर्णय कर सकने से पहले क्षमता के प्रशिक्षण की जरूरत हैं । हर अप्रशिक्षित मन सापेक्षता के गणित को या अन्य कठिन वैज्ञानिक सत्यों को न तो समझ सकता है न उनके परिणाम और पद्धति की प्रामाणिकता के बारे में फैसला कर सकता है । सत्य प्रमाणित होने के लिये समस्त वास्तविकता और सभी अनुभवों के लिये निःसंदेह यह जरूरी है कि उसी या वैसे ही अनुभव द्वारा उनकीं जांच-पड़ताल की जा सके । इस प्रकार, वस्तुत: सभी मनुष्यों को आध्यात्मिक अनुभूति हो सकती है, वे उसका अन्ततक अनुसरण कर सकते और अपने अंदर उसकी जांच कर सकते हैं -लेकिन तभी जब वे उसकी योग्यता पा लें, या उन आंतरिक विधियों का अनुसरण कर सकें जिनके द्वारा उस अनुभव और जांच-पड़ताल को संभव बनाया जाता है । एक क्षण के लिये इन स्पष्ट और प्रारंभिक सत्यों पर विचार करना जरूरी है क्योंकि इसके विपरीत विचार मानव मानसिकता के वर्तमान काल में बहुत प्रधान रहे हैं -वे अब पीछे हट रहे हैं -और संभव ज्ञान के विशाल क्षेत्र के विकास के मार्ग में रोड़ा बन कर रहे हैं । मानव आत्मा के लिये यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि वह आंतरिक या अंतस्तलीय वास्तविकता की, आध्यात्मिक और जो अब भी अतिचेतन वास्तविकता है उसकी गहराइयों में गोता लगाने के लिये स्वतंत्र रह सके और भौतिक मन और उसके विषयनिष्ठ बाहरी घनत्वों के संकरे क्षेत्र में अपने-आपको बंद न कर ले । क्योंकि केवल इसी मार्ग से उस अज्ञान से छुटकारा पाकर, जिसमें हमारी

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मानसिकता निवास करती है, मुक्ति मिल सकती है और संपूर्ण चेतना में, एक सच्ची और पूर्ण आत्मोपलब्धि में और आत्मज्ञान में अभिगमन हो सकता है ।

 

   पूर्ण ज्ञान चेतना और अनुभव के सभी संभव क्षेत्रों के अन्वेषण और अनावरण की मांग करता है । क्योंकि प्रकट सतह के पीछे हमारी सत्ता के आत्मनिष्ठ क्षेत्र हैं । इनकी थाह लेनी है और जो कुछ पता चले उसे समग्र वास्तविकता के क्षेत्र में सम्मिलित कर लेना होगा । आध्यात्मिक अनुभव का आंतरिक क्षेत्र मानव चेतना का एक बहुत बड़ा क्षेत्र हैं । उसकी गहरी-से-गहरी गहराइयों और अधिक-से-अधिक विस्तृत प्रसारोंतक पहुंचना होगा । अतिभौतिक उतना ही वास्तविक है जितना कि भौतिक । उसे जानना पूर्ण ज्ञान का एक भाग है । अतिभौतिक के ज्ञान को रहस्यवाद और गुह्य विद्या के साथ जोड़ दिया गया है और गुह्य विद्या को अंध-विश्वास और ऊटपटांग भ्रांति कहकर अवैध ठहराया गया है । लेकिन गुह्य भी सत्ता का एक अंग है । सच्चे गुह्यवाद का अर्थ अतिभौतिक वास्तविकताओं में शोध से अधिक कुछ नहीं है और सत्ता तथा प्रकृति के छिपे हुए नियमों और जो सतह पर नहीं दिखायी देता, उसका अनावरण है । वह मन और मानसिक ऊर्जा के गुप्त विधानों की, प्राण और प्राणिक ऊर्जा के गुप्त विधानों की, सूक्ष्म भौतिक और उसकी ऊर्जाओं के गुप्त विधानों की खोज का प्रयत्न -उस सब की खोज का प्रयत्न है जिसे प्रकृति में सतह पर दिखायी देनेवाली क्रियाओं में प्रस्तुत नहीं किया है । वह प्रकृति के इन गुप्त सत्यों और शक्तियों के उपयोग को इस तरह आगे बढ़ाता है कि मानव आत्मा का प्रभुत्व मन की सामान्य क्रियाओं, प्राण की सामान्य क्रियाओं और हमारे भौतिक जीवन की सामान्य क्रियाओं के परे बढ़ सके । आध्यात्मिक प्रदेश में, जो सतही मन के लिये उस हदतक गुह्य है जहां वह सामान्य को पार करके सामान्य से परे के अनुभवों में प्रवेश करता है, वहां केवल आत्मा और जीव का अन्वेषण ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक चेतना के उद्धार करनेवाले, अनुप्राणित करनेवाले और मार्ग-दर्शक प्रकाश की और आत्मा की शक्ति की, ज्ञान के आध्यात्मिक मार्ग, क्रिया के आध्यात्मिक मार्ग की खोज करना भी संभव होता है । इन चीजों को जानना और उनके सत्यों और उनकी शक्तियों को मानव जाति के जीवन में उतारना उसके विकास का एक आवश्यक अंग है । स्वयं विज्ञान अपने ढंग से गुह्य विद्या है क्योंकि वह ऐसे सूत्रों को प्रकाश में लाता है जिन्हें प्रकृति ने छिपा रखा है । वह प्रकृति की ऊर्जाओं की उन प्रक्रियाओं को मुक्त करने के लिये, जिन्हें प्रकृति ने अपनी सामान्य प्रक्रियाओं में सम्मिलित नहीं किया है, और प्रकृति की गुह्य शक्तियों और प्रक्रियाओं को, भौतिक जादू के एक विस्तृत क्षेत्र को संगठित करके मनुष्य की सेवा में नियोजित करने के लिये अपने ज्ञान का उपयोग करता है । क्योंकि सत्ता के गुप्त सत्यों के, प्रकृति की गुप्त शक्तियों और प्रक्रियाओं के उपयोग से भिन्न न कोई जादू है न हो सकता है । यह

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भी पता लग सकता है कि भौतिक ज्ञान की पूर्ति के लिये अति-भौतिक ज्ञान आवश्यक है क्योंकि भौतिक प्रकृति की प्रक्रियाओं के पीछे अतिभौतिक तत्त्व, ऐसी मानसिक, प्राणिक या आध्यात्मिक शक्ति और क्रिया होती है जो ज्ञान के किन्हीं भी बाहरी साधनों के लिये अगोचर होती है ।

 

  विषयनिष्ठ वास्तविकता की एकमात्र या मूलभूत प्रामाणिकता पर समस्त आग्रह जड़-तत्त्व की आधारभूत वास्तविकता के भाव पर आधारित होता है । लेकिन अब यह स्पष्ट है कि जड़-तत्त्व किसी भी तरह से आधारभूत वास्तविकता नहीं है; वह ऊर्जा की रचना है । यह भी संशयास्पद होता जा रहा है कि स्वयं इस ऊर्जा की क्रियाओं और रचनाओं की व्याख्या उन्हें किसी गुप्त मन या चेतना की शक्ति की गतियां कहने के सिवा किसी और तरह से की जा सकतीं है क्या ? उसकी रचना, प्रक्रियाएं और चरण उसके सूत्र हैं, अतः अब जड़-पदार्थ को एकमात्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना संभव नहीं है । विश्व-सत्ता की भौतिक व्याख्या एक ऐकान्तिक संकेन्द्रण का, सत्ता की एक ही गति पर तन्मयता का परिणाम थी । ऐसे ऐकान्तिक संकेन्द्रण का अपना उपयोग होता है और इस लिये उसकी अनुमति दी जा सकती है । हाल में उसने अपने औचित्य को भौतिक विज्ञान के बहुत से बड़े और असंख्य सूक्ष्म आविष्कारों द्वारा प्रमाणित किया है । लेकिन सत्ता की सारी समस्या का हल ऐकान्तिक, एकपक्षीय ज्ञान पर आधारित नहीं हो सकता । हमें केवल इतना ही नहीं जानना है कि जड़-पदार्थ और उसकी प्रक्रियाएं क्या हैं बल्कि यह भी कि मन और प्राण क्या हैं और क्या हैं उनकी प्रक्रियाएं और साथ ही आत्मा और जीव और जड़-भौतिक सतह के पीछे जो कुछ है उस सबको भी जानना चाहिये । तभी हमें वह ज्ञान मिल सकता है जो समस्या के समाधान के लिये पर्याप्त रूप से पूर्ण हो । इसी कारण जीवन के बारे में वे दृष्टियां जो मन या प्राण में प्रमुख रूप से तल्लीनता से आती हैं और जो मन या प्राण को ही आधारभूत वास्तविकता मानती हैं, उनमें स्वीकार किये जाने लायक विस्तृत आधार नहीं है । ऐकान्तिक संकेन्द्रण की ऐसी तल्लीनता हमें ऐसी सफल छानबीन की ओर ले जा सकतीं है जो मन और प्राण पर बहुत प्रकाश डालती है परंतु उसका वह परिणाम समस्या का पूरा समाधान नहीं हो सकता । यह भली-भांति हो सकता है कि मुख्य या ऐकान्तिक रूप से अंतर्लीन सत्ता पर संकेन्द्रण, जो सतही सत्ता को अंतर्लीन सत्ता की एकमात्र वास्तविकता को अभिव्यक्त करने के लिये प्रतीकों की केवल एक पद्धतिमात्र मानता है, अंतर्लीन और उसकी प्रक्रियाओं पर प्रबल प्रकाश डाले और मानव सत्ता की शक्तियों के विस्तार को बहुत अधिक बढ़ा दे, लेकिन वह अपने-आपमें कोई पूर्ण समाधान न होगा और न हमें सद्वस्तु के पूर्ण ज्ञान की ओर सफलता से ले जायेगा । हमारी दृष्टि में आत्मा या आध्यात्म जीव ही सत्ता की आधारभूत वास्तविकता है । लेकिन अगर इस मूलभूत तत्त्व पर ऐकान्तिक संकेन्द्रण

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किया जाये, मन, प्राण और जड़-तत्त्व की सारी वास्तविकता का बहिष्कार कर दिया जाये, इतना ही माना जाये कि वे आत्मा पर अध्यारोप हैं या आत्मा से पड़नेवाली निःसार छायाएं हैं तो इससे एक स्वतंत्र और मूलगत आध्यात्मिक उपलब्धि के लिये तो सहायता मिल सकती है लेकिन विश्व-जीवन और व्यष्टि जीवन के सत्य के पूरे और प्रामाणिक समाधान के लिये नहीं ।

 

  तो पूर्ण ज्ञान जीवन के सभी पक्षों के सत्य का ज्ञान होना चाहिये -दोनों अलग-अलग भी और प्रत्येक के सर्व के साथ संबंध में भी और सर्व के संबंध का आत्मा के सत्य के साथ संबंध में भी ज्ञान । हमारी वर्तमान अवस्था है अज्ञान और बहुमुखी खोज, वह सभी वस्तुओं के सत्य को खोजती है लेकिन -जैसा कि और सभी की व्याख्या करनेवाले मूलभूत सत्य के संबंध में, सभी चीजों के आधार में बसी सद्वस्तु के संबंध में मानव मन की परिकल्पनाओं के आग्रह और विभिन्नताओं से स्पष्ट है -वस्तुओं के आधारभूत सत्य को, उनकी आधारभूत वास्तविकता को निश्चित रूप से किसी युगपत् आधारभूत और वैश्वद्वस्तु में पाना चाहिये । यही है जिसे एक बार पा लिया और अपन लिया जाये तो सब कुछ की व्याख्या हो जाती है क्योंकि 'यस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।' आधारभूत सद्वस्तु को निश्चित रूप से समस्त सत्ता का सत्य, व्यष्टि का सत्य, विश्व का सत्य, समस्त विश्वातीत का सत्य होना चाहिये और उसे इन सबको समाये रखना चाहिये । मन इस प्रकार की सद्वस्तु को खोज रहा है और जड़-तत्त्व से ऊपर हर चीज को यह जानने के लिये परख रहा है कि कहीं यही चीज 'वह' न हो, इसमें वह गलत अंतर्भास पर नहीं चल रहा । सारी आवश्यकता इस बात की है कि जांच को उसके अंतिम छोरतक ले जाया जाये और अनुभव के उच्चतम अंतिम स्तरोंतक को जांचा जाये ।

 

  लेकिन चूंकि हम अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़ते हैं अतः हमें पहले अज्ञान की गुप्त प्रकृति और उसके पूरे विस्तार की खोज करनी पड़ी । सामान्यत: हम जिस अज्ञान में, भौतिक, देशीय और कालिक विश्व में अपने पृथगात्मक जीवन की परिस्थिति के कारण निवास करते हैं, यदि हम उसपर नजर डालें तो देखते हैं कि हम चाहे जिस दिशा में उसे देखें या उसके पास जायें वह अपने अधिक अंधेरे पक्ष में एक बहुमुख आत्म-अज्ञान में ही परिणत हो जाता है । हम उस निरपेक्ष के बारे में अज्ञ हैं जो समस्त सत् और संभूति का स्रोत है । हम सत् के आंशिक तथ्यों को, संभवन के कालिक संबंधों को सत्ता का पूरा सत्य मान लेते हैं -यह है प्रथम और आद्य अज्ञान । हम देशातीत, कालातीत, अचल और अक्षर आत्मा के बारे में अज्ञ हैं । हम देश और काल में वैश्व संभूति की निरंतर सचलता और परिवर्तनशीलता को ही अस्तित्व का सारा सत्य मान लेते हैं -यह दूसरा वैश्व अज्ञान है । हम अपनी वैश्व आत्मा, वैश्व अस्तित्व, वैश्व चेतना के बारे में समस्त सत्ता और

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संभूति के साध अपने अनंत ऐक्य के बारे में अज्ञ हैं । हम अपनी सीमित अहंकारमयी मानसिकता, प्राणिकता और दैहिकता को ही अपनी सच्ची आत्मा मान लेते हैं और बाकी सब चीजों को अनात्मा मानते हैं -यह तीसरा अहंकारमय अज्ञान है । हम काल में अपनी शाश्वत संभूति के बारे में अज्ञ हैं । हम काल के इस छोटे-से विस्तार में तुच्छ-से देश के क्षेत्र में अपने छोटे-से जीवन को अपना आदि, मध्य और अंत मान लेते हैं -यह चौथा कालिक अज्ञान है । हम इस संक्षिप्त-से कालिक संभवन में भी अपनी विशाल और जटिल सत्ता के बारे में अज्ञ रहते हैं, उसके बारे में अज्ञ रहते हैं जो हमारे अंदर हमारी सतही संभूति से अतिचेतन, अवचेतन, अंतश्चेतन, परिचेतन है । हम अपनी सतही संभूति को ही, जिसके साथ उसके प्रकट रूप में मानस-भावापन्न अनुभवों का छोटा-सा चयन होता है, अपनी समस्त सत्ता मान लेते हैं -यह पांचवा मनोवैज्ञानिक अज्ञान है । हम अपनी संभूति के सच्चे गठन के बारे में अज्ञ हैं । हम मन या प्राण या शरीर या इनमें से किन्हीं दो या तीनों को अपना सच्चा तत्त्व या हम जो कुछ हैं उसका पूरा व्योरा मान लेते हैं और उसे आंख से ओझल कर देते हैं जो उनका गठन करता है और अपनी गुह्य उपस्थिति द्वारा उनका निर्णय करता है और जो अपने-आप उभर कर प्रभुत्वशाली रूप से उनकी क्रियाओं का निर्धारण करने के लिये अभिप्रेत है -यह छठा मूलभूत अज्ञान है । इन सभी अज्ञानों के परिणाम-स्वरूप हम जगत् में अपने जीवन के सच्चे ज्ञान, शासन और भोग को खो बैठते हैं, हम अपने विचार, इच्छा, संवेदन, क्रिया के बारे में अज्ञ रहते हैं, हर बिंदु पर जगत् के प्रश्नों पर गलत या अपूर्ण प्रतिक्रिया करते हैं, भ्रांतियों और कामनाओं, प्रयासों और असफलताओं, दुःख और सुख, पाप और लड़खड़ाहट की भूल-भुलैया में भटकते रहते हैं, टेढ़ी-मेढ़ी गैल का अनुसरण करते हैं और बदलते हुए लक्ष्य को अंधे की तरह टटोलते हैं -यह सातवां, व्यावहारिक अज्ञान है ।

 

  निश्चित रूप से अज्ञान के बारे में हमारी धारणा ज्ञान के बारे में धारणा को निर्धारित करेगी । चूंकि हमारा जीवन ऐसा अज्ञान है जो एक ही साथ ज्ञान से इंकार करता और उसकी खोज करता है, अतः वही धारणा मानव-प्रयास के लक्ष्य और वैश्वद्यम के उद्देश्य को भी निर्धारित करेगी । तब पूर्ण ज्ञान का मतलब होगा, सप्तविध अज्ञान से जो कुछ छूट जाता है या जिसकी वह अवहेलना करता है उसकी खोज द्वारा सप्तविध अज्ञान का निरसन, हमारी चेतना के अंदर सप्तविध आत्म-अंत: -प्रकटन । इसका अर्थ होगा निरपेक्ष का सभी चीजों के मूल के रूप में ज्ञान, आत्मा का ज्ञान, आध्यात्म पुरुष का ज्ञान, सत् का ज्ञान और विश्व के बारे में यह ज्ञान कि वह आत्मा की संभूति है, सत् की संभूति है, आत्मा की अभिव्यक्ति है, जगत् के बारे में यह ज्ञान कि वह हमारी सच्ची आत्मा की चेतना में हमारे साथ एक है और इस भांति अहं के पृथगात्मक भाव और जीवन द्वारा जगत् के साथ

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हमारे विभाजन को निरस्त करते हुए हमारी चैत्य सत्ता का और मृत्यु तथा पार्थिव सत्ता के परे, काल में उसके अमर सातत्य का ज्ञान; सतह के पीछे हमारी विशालतर और आंतरिक सत्ता का ज्ञान, हमारे मन, प्राण और शरीर का भीतर की आत्मा के साथ और ऊपर अतिचेतन आध्यात्मिक और अतिमानसिक सत्ता के साथ सच्चे संबंध में ज्ञान; और अंत में हमारे विचार, इच्छा और क्रिया के सच्चे सामंजस्य और सच्चे उपयोग का ज्ञान और हमारी समस्त प्रकृति का आध्यात्म पुरुष, आत्मा, दिव्य पुरुष और समग्र आध्यात्मिक सद्वस्तु की सचेतन अभिव्यक्ति में परिवर्तन ।

 

   लेकिन यह कोई बौद्धिक ज्ञान नहीं है जिसे हमारी वर्तमान चेतना के ढांचे में सीखा और पूरा किया जा सके । उसे एक अनुभूति, संभवन, चेतना का परिवर्तन, सत्ता का परिवर्तन होना चाहिये । यह चीज संभवन के विकसनशील स्वरूप को और इस तथ्य को ले आती है कि हमारा मानसिक अज्ञान हमारे विकास में एक अवस्था मात्र है । तो पूर्ण ज्ञान केवल हमारी सत्ता और प्रकृति में विकास द्वारा ही आ सकता है और इसका अर्थ होगा काल में एक धीमी प्रक्रिया, जैसी अन्य वैकासिक रूपांतरों में हुई है । लेकिन इस अनुमान के विरुद्ध यह तथ्य है कि अब विकास सचेतन हो गया है और यह एकदम जरूरी नहीं है कि उसकी पद्धति और उसके चरण वैसे ही हों जैसे तब थे जब वह अपनी प्रक्रिया में अवचेतन था । चूंकि पूर्ण ज्ञान चेतना के परिवर्तन का ही परिणाम होगा इसलिये उसे किसी ऐसी प्रक्रिया से पाया जा सकता है जिसमें हमारी इच्छा और प्रयास का भाग हो, जिसमें वे खोज कर सकें और अपने चरण और प्रक्रिया का उपयोग कर सकें । हमारे अंदर उसकी वृद्धि एक सचेतन आत्म-रूपांतर द्वारा हो सकती है । तो यह देखना जरूरी है कि विकास की इस नयी प्रक्रिया का संभावित विधान क्या होगा और पूर्ण ज्ञान की वे कौन-सी गतिविधियां हैं जिन्हें उसमें निश्चित रूप से उभरना चाहिये -या दूसरे शब्दों में उस चेतना का स्वभाव क्या होगा जिसे दिव्य जीवन का आधार होना चाहिये और उस जीवन का रूपायण या रूप-धारण कैसे होगा जिससे वह भौतिक रूप ले सके या जैसा कि हम कह सकते हैं कि वह सिद्धि पा सके ।

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