दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ६

 

द्वस्तु और विश्व-माया

 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या

ब्रह्म सत्य है जगत् मिथ्या

 

                        विवेकचूड़ामणि श्लोक २०

 

अस्मान्मायी सजते विश्वमेतत् ।

तस्मिंश्चान्यो मायया संनिरुद्ध: ।।

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।

 

मायी (माया का स्वामी) अपनी माया से इस जगत् का सृजन

करता है । उसके अंदर एक और निरुद्ध है । उसकी माया को

प्रकृति और मायी को सबका महेश्वर मानना चाहिये ।

                                                                            श्वेताश्वतर ४.९, १०

 

पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम् ।

उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।

 

पुरुष ही वह सब है जो अब है, जो हुआ है और जो अभी होने

को है । वह अमरता का स्वामी है और जो कुछ अन्न से बढ़ता है

वह वही है ।

                                        ऋग्वेद १०, ९०, २

                                                                                        श्वेताश्वतर ३. १५

 

वासुदेव: सर्वम्

सब कुछ वासुदेव है ।

                                                गीता ७-११

 

   किंतु अभीतक हमने अनुसंधान के क्षेत्र के सामने के भाग का एक हिस्सा ही साफ किया है; पीछे के आंगन में पूरी समस्या हल किये बिना पड़ी है । यह समस्या है जिस आद्य चेतना या शक्ति ने विश्व का सृजन किया है या कल्पना से निर्माण किया है या उसे अभिव्यक्त किया है उसका स्वरूप कैसा है और उसके साथ हमारे जगत्-ज्ञान का क्या संबंध है । सारांश में, क्या यह जगत् भ्रम की परम शक्ति द्वारा हमारे मन पर आरोपित चेतना की एक सनक या सत्ता का एक सच्चा रूपायण है जिसे हम अभीतक अज्ञानमय परंतु बढ़ते हुए ज्ञान के साथ अनुभव करते हैं । और सच्चा प्रश्न केवल मन या वैश्व स्वप्न या वैश्व संभ्रम का नहीं है जो मन से पैदा होता है । प्रश्न है सद्वस्तु के स्वरूप का, उसमें जो सृजनात्मक क्रिया होती है या उसपर

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आरोपित की जाती हैं उसकी प्रामाणिकता का, उसकी या हमारी चेतना में सचमुच की अंतर्वस्तु की उपस्थिति या अनुपस्थिति का तथा उसके या हमारे विश्व का अवलोकन करने का । हमने सत्ता के सत्य के बारे में जो स्थापना की है, मायावाद की ओर से यह उत्तर दिया जा सकता है कि यह सब वैश्व माया की सीमाओं में प्रामाणिक और सच्चा हो सकता है । यह वह पद्धति, वह व्यावहारिक यंत्र है जिससे माया काम करती और अपने-आपको अज्ञान में बनाये रखती है लेकिन विश्व-तंत्र के सत्य, संभावनाएं तथ्य केवल भ्रम में ही सच्चे और यथार्थ हैं, उस जादुई घेरे के बाहर उनकी कोई वैधता नहीं है । वे टिकाऊ और शाश्वत वास्तविकताएं नहीं हैं । सभी अस्थायी आकृतियां हैं चाहे वे ज्ञान के कार्य हों चाहे अज्ञान के । यह स्वीकार किया जा सकता है कि ज्ञान माया के भ्रम का, अपने-आपसे बच निकलने के लिये, मन में अपने-आपको नष्ट करने के लिये एक उपयोगी यंत्र है । आध्यात्मिक ज्ञान अनिवार्य है; लेकिन एकमात्र सच्चा सत्य, ज्ञान और अज्ञान के समस्त द्वंद्वों के परे एकमात्र स्थायी वास्तविकता है शाश्वत संबंध-रहित निरपेक्ष या आत्मा, शाश्वत शुद्ध सत् । यहां सब कुछ सद्वस्तु के बारे मे मन की कल्पना और मनोमय पुरुष के अनुभव पर निर्भर है; क्योंिद्वस्तु के बारे मे मन की कल्पना या अनुभूति के आधार पर ही अन्यथा एक समान सामग्री -विश्व के तथ्यों, व्यक्तिगत अनुभव, परम परात्पर की उपलब्धि--का अर्थ लगाया जायेगा । समस्त मानसिक ज्ञान तीन तथ्यों पर निर्भर होता है -ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय । इन तीनों या इनमें से किसी की वास्तविकता को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है । तब प्रश्न यह उठता है कि इनमें से अगर कोई वास्तविक है या हैं तो कौन-से और किस हदतक और किस तरह से ? अगर तीनों को वैश्व माया के उपकरणों के रूप मे त्याग दिया जाये तो परिणामस्वरूप अगला प्रश्न उठता है : क्या उनके बाहर कोई सद्वस्तु है अगर है तो सद्वस्तु और माया मे क्या संबंध है ?

 

   ज्ञेय की, विषयगत विश्व की वास्तविकता को स्वीकार करना और ज्ञाता व्यक्ति और उसकी ज्ञान प्राप्त करनेवाली चेतना की वास्तविकता को अस्वीकार करना या घटा देना संभव है । जड़तत्त्व को एकमात्र वास्तविकता माननेवाले सिद्धात के अनुसार चेतना एक ज-ऊर्जा की जतत्त्व मे केवल एक क्रियामात्र है, मस्तिष्क के कोषाणुओं का स्राव या स्पंदन है, स्थूल अंगों द्वारा प्रतिरूपों का ग्रहण और मस्तिष्क का प्रत्युत्तर है, ज के संपर्को के प्रति ज की प्रतिवर्त क्रिया या प्रतिक्रिया है । अगर इस मान्यता की कठोरता को कुछ शिथिल भी कर दिया जाये और चेतना की कोई और व्याख्या कर ली जाये फिर भी यह एक अस्थायी और उद्भूत व्यापार से ब कर नहीं है, चिरस्थायी सद्वस्तु नहीं है । ज्ञाता व्यक्ति अपने-आपमें शरीर और मस्तिष्क से बढ़कर कुछ नहीं है जो ऐसी यांत्रिक प्रतिक्रियाओं के लिये सक्षम है जिन्हें हम चेतना का सामान्य नाम देते हैं, व्यक्ति का केवल सापेक्ष

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मूल्य और अस्थायी वास्तविकता है । लेकिन स्वयं ज अगर अवास्तविक, उद्भूत, या केवल ऊर्जा का व्यापार निकले, जिसकी अब संभाव्यता दीख रही है तो ऊर्जा ही एकमात्र सद्वस्तु रह जाती है । ज्ञाता, उसका ज्ञान और उसका ज्ञेय विषय ऊर्जा के ही केवल व्यापार हैं । लेकिन ऐसी ऊर्जा जिसे अधिकार मे रखनेवाला कोई पुरुष या सत्ता न हो, आपूर्ति करनेवाली कोई चेतना न हो, बस हो केवल मौलिक रूप से शून्य मे काम करती हुई एक ऊर्जा -क्योकि जिस ज-भौतिक क्षेत्र को हम देखते हैं वह अपने-आपमें एक सृजन है -यह अपने-आपमें एक मानसिक रचना और अवास्तविकता मालूम होती है, या वह गति का कुछ समय के लिये अव्याख्येय उद्भव हो सकती है जो किसी भी समय प्रपंच की रचना बंद कर सकती है । तब एकमात्र अनंत का शून्य ही स्थायी और वास्तविक होगा । बौद्ध सिद्धांत कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय कर्म की ही रचना हैं, कर्म के किसी वैश्व तथ्य की प्रक्रिया हैं, उसने ऐसे निष्कर्ष को संभव बनाया क्योकि इसका तर्क-संगत परिणाम हुआ असत् या शून्य का दृ प्रतिपादन । वस्तुत: यह संभव है कि जो क्रियारत है वह ऊर्जा नहीं बल्कि चेतना है । जैसे ज-पदार्थ अपने-आपको ऊर्जा में बदल लेता है, जिसे हम उसके अपने रूप मे नहीं बल्कि उसके परिणामों और क्रियाओं में देख सकते हैं, उसी तरह ऊर्जा को भी चेतना की क्रिया मे बदला जा सकता है जिसे हम स्वयं उसके रूंप में नहीं बल्कि उसके परिणामों और क्रियाओं में पकड़ सकते हैं । लेकिन अगर यह माना जाये कि यह चेतना उसी तरह शून्य में काम करती है तो हमारे सामने वही निष्कर्ष आता हैं कि यह क्षणिक प्रपंचात्मक भ्रमों का सृजन करनेवाली और अपने-आप भ्रममूलक है । शून्य, एक अनंत शून्य, एक आद्य असत् ही स्थायी सद्वस्तु है । लेकिन ये निष्कर्ष बाधित करनेवाले नहीं हैं क्योकि इस चेतना के पीछे, जो केवल अपनी क्रियाओं मे हीं ग्राह्य है, एक अदृश्य आद्य सत् हो सकता है । तब उस सत् की चित्-शक्ति वास्तविकता हो सकती है । उसके सृजन भी जो सत्ता के अत्यणु पदार्थ से बने हैं, जो पदार्थ इन्द्रिप्यों के लिये अगोचर है और ज-पदार्थ के रूप मे, ऊर्जा की क्रिया की किसी अवस्था मे उनके सामने प्रकट होता है, वे  सृजन भी वास्तविक होंगे और इसी तरह ज-जगत् में आद्य सत् की सचेतन सत्ता के रूप मे उभरनेवाला व्यक्ति भी । यह आद्यद्वस्तु एक वैश्व आध्यात्मिक सत्ता, एक वैश्व देव हो सकती है या उसकी कोई और स्थिति हो सकती है । बहरहाल किसी भी दशा मे विश्व कोई भ्रम या प्रतिभास मात्र न होकर सच्चा विश्व होगा ।

 

   मायावाद के शास्त्रीय सिद्धांत में एकमात्र परम आध्यात्मिक सत् को ही एकमेव सद्वस्तु माना जाता है । तत्त्वतः वह आत्मा है परंतु वे प्राकृतिक सत्ताएं, जिनकी वह आत्मा है, वे केवल क्षणिक आभास हैं । अपनी निरपेक्षता मे वह सभी चीजों का आधार है परंतु उस आधार पर खड़ा विश्व या तो असत् है या आभास या फिर

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किसी अवास्तविक तरीके से वास्तविक, यह वैश्व भ्रांति है । क्योकि सद्वस्तु एकमेवाद्वितीयमू है, वह शाश्वतता मे अक्षर है । वह एकमात्र सत् है । उसके सिवा कुछ नहीं है । इस सत् के कोई सच्चे संभवन नहीं हैं । वह नाम, लक्षण, रूप, संबंध और घटना से शून्य है और सदा ऐसा ही रहेगा । अगर उसमें कोई चेतना है तो वह उसकी अपनी निरपेक्ष सत्ता की शुद्ध चेतना है । तब फिर उस सद्वस्तु और माया मे क्या संबंध है ? किस रहस्य या चमत्कार द्वारा माया का संभवन होता है ? वह कैसे प्रकट होती है ? काल मे कैसे हमेशा बनी रहती है ?

 

   चूंकि एकमात्र ब्रह्म सत्य है अतः केवल ब्रह्म की चेतना या शक्ति ही वास्तविक खष्ट्री या वास्तविकताओं की स्रष्ट्र हो सकती है । लेकिन चूंकि शुद्ध और निरपेक्ष ब्रह्म के सिवा और कोई वास्तविकता हो ही नहीं सकती, अतः ब्रह्म की कोई सच्ची सृजनात्मक शक्ति नहीं हो सकती । अगर ब्रह्म-चेतना वास्तविक सत्ताओं, रूपों और घटनाओं के बारे मे अभिज्ञ हो, उसका मतलब होगा संभवन का, विश्व की आध्यात्मिक और ज-भौतिक वास्तविकता का सत्य जिसे परम सत्य का अनुभव नकारता और रद्द करता है और जिसके साथ न्याय-संगत रूप से उसका मेल नहीं बैठता । माया की सृष्टि है सत्ताओं, नाम, रूप, घटना और वस्तुओं का प्रस्तुतीकरण । ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें सच्चा मानना असंभव है । ये एकमेव सत् की अनिर्देश्य शुद्धि के विपरीत हैं । तब माया वास्तविक नहीं होती, वह अस्तित्वहीन होती है : माया अपने-आपमें भ्रम है और अनगिनत भ्रमों की जननी है फिर भी इस भ्रम और उसकी क्रियाओं मे किसी तरह का अस्तित्व है इसलिये उन्हें किसी तरह से वास्तविक होना चाहिये । और फिर विश्व का अस्तित्व शून्य मे नहीं है, वह इसलिये है क्योकि उसे ब्रह्म पर आरोपित किया गयो है । वह एक तरह से एकमेव सद्वस्तु पर आधारित है । हम खुद भ्रम के वश उसके रूप, नाम, संबंध और घटनाएं ब्रह्म पर आरोपित करते हैं, सभी चीजों के बारे मे ब्रह्म के रूप में अभिज्ञ होते हैं और इन सब अवास्तविकताओं मे से सद्वस्तु को देखते हैं । तो माया में एक वास्तविकता है । वह एक ही साथ वास्तविक और अवास्तविक है, सत् और असत् है या यूं कहें वह न तो वास्तविक है न अवास्तविक; यह एक विरोधाभास हैं, एक अतिबौद्धिक पहेली है । तब फिर यह रहस्य क्या है ? या क्या इसका हल हो ही नहीं सकता ? ब्रह्म-सत्ता मे हस्तक्षेप करने के लिये यह भ्रम कैसे आता है ? माया की इस अवास्तविक वास्तविकता का स्वरूप क्या है ?

 

   पहली दृष्टि मे हम यह मानने के लिये बाधित होते हैं कि ब्रह्म को किसी-न-किसी तरह माया का ज्ञाता होना चाहिये क्योकि ब्रह्म एकमात्र सद्वस्तु है, अगर वह ज्ञाता नहीं है तो भ्रम को देखता कौन है ? और किसी ज्ञाता का तो अस्तित्व ही नहीं है । जो व्यक्ति हमारे अंदर प्रतीयमान साक्षी है वह अपने-आप प्रतिभासी और अवास्तविक है, माया की एक सृष्टि है । लेकिन अगर ब्रह्म ज्ञाता है तो यह कैसे

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संभव है कि भ्रम क्षण भर के लिये भी बना रह सके क्योकि ज्ञाता की सच्ची चेतना आत्मा की चेतना है, पूरी तरह से अपनी ही शुद्ध आत्म-सत्ता की अभिज्ञता है । यदि ब्रह्म जगत् को और वस्तुओं को सत्य-चेतना से देखता है तो उन सबको भी वही और वास्तविक होना चाहिये लेकिन चूंकि वे शुद्ध आत्म-सत्ता नहीं हैं, अच्छे-से-अच्छे रूप में देखें तो उसके रूप मात्र हैं और आभासी अज्ञान के द्वारा दिखायी देते हैं अतः यह वास्तविकतावादी समाधान संभव नहीं है । फिर भी हमें कम-से-कम अस्थायी रूप से स्वीकार करना होगा कि विश्व एक तथ्य है, कि असंभवता को ऐसी चीज के रूप मे मानना होता है जो है क्योकि माया मौजूद है और उसके कामों में स्थायित्व है और वे आत्मा को अपनी वास्तविकता के भाव से अभिभूत करते हैं, फिर ये भाव चाहे जितने मिथ्या क्यों न हों । तो हमें इस आधार पर पहेली का सामना करना और उसका समाधान करना होगा ।

 

   अगर माया किसी तरह से वास्तविक है तो यह निष्कर्ष अपने-आपको आरोपित करता है कि ब्रह्म, सद्वस्तु ही उसी तरीके से माया का ज्ञाता है । माया ब्रह्म की भेद करनेवाली ज्ञान-शक्ति हो सकती है । क्योकि माया-चेतना की शक्ति जो उसे एकमात्र आध्यात्मिक आत्मा की सच्ची चेतना से अलग करती हैं वह भेद की उसकी सृजनात्मक दृष्टि है । या माया कम-से-कम -अगर हम यह मान लें कि भेद की सृष्टि माया-शक्ति का सारतत्त्व नहीं, बल्कि परिणाम मात्र हैं -ब्रह्म चेतना की कोई शक्ति है । क्योकि केवल चेतना ही भ्रम को देख सकती या बना सकती है और ब्रह्म को छोड़कर कोई दूसरी आद्य या आरंभ करनेवाली चेतना नहीं हो सकती, लेकिन चूंकि ब्रह्म भी शाश्वत रूप में आत्म-अभिज्ञ है इसलिये ब्रह्म-चेतना की दोहरी स्थिति होनी चाहिये, एक मात्र सद्वस्तु के बारे मे सचेतन हो, दूसरी उन अवास्तविकताओं के बारे मे सचेतन हो जिन्हें वह अपनी सृजनात्मक दृष्टि से किसी प्रकार की प्रतीयमान सत्ता देती है । ये अवास्तविकताएं सद्वस्तु के पदार्थ से बनी हुई नहीं हो सकतीं क्योकि तब तो उन्हें भी वास्तविक होना चाहिये । इस दृष्टि से हम उपनिषद् का यह प्रतिपादन स्वीकार नहीं कर सकते कि जगत् परम सत् मे से बना हैं, शाश्वत सत् का संभवन, उपज या रचना है । ब्रह्म विश्व का उपादान कारण नहीं है, हमारी प्रकृति, -हमारी आत्मा के विपरीत -आध्यात्मिक पदार्थ मे से नहीं बनी है, वह माया की अवास्तविक वास्तविकता मे से निर्मित है । लेकिन इसके विपरीत हमारी आध्यात्मिक सत्ता उस पदार्थ से बनी है और वस्तुतः ब्रह्म है । ब्रह्म माया के ऊपर है । लेकिन साथ ही वह अपनी सृष्टियों का ऊपर से और माया के भीतर से भी ज्ञाता है । यह दुहरी चेतना ही अपने-आपको एक वास्तविक शाश्वत ज्ञाता, एक अवास्तविक ज्ञेय और एक ऐसे ज्ञान की, जो अवास्तविक ज्ञेयों की अर्द्ध वास्तविक स्रष्टी है, पहेली के एकमात्र सत्याभासी समाधान के रूप मे प्रस्तुत करती है

 

   अगर यह द्विविध चेतना न हो, अगर माया ब्रह्म की एकमात्र सचेतन शक्ति है

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तो दो मे से एक चीज सच्ची होनी चाहिये; एक तो यह कि शक्तिरूपिणी माया की वास्तविकता यह है कि वह ब्रह्म-चेतना की आत्मनिष्ठ क्रिया है जो उसकी नीरवता और अतिचेतन निश्चलता मे से उभरकर ऐसे अनुभवों मे से गुजर रही है जो वास्तविक हैं क्योकि वे ब्रह्म-चेतना के अंश हैं लेकिन अवास्तविक इसलिये हैं कि उसकी सत्ता का भाग नहीं हैं या माया ब्रह्म की वैश्व कल्पना की शक्ति है जो उसकी शाश्वत सत्ता मे समाविष्ट है और शून्य मे से ऐसे नाम, रूप और घटनाओं का सृजन कर रही है जो किसी तरह से वास्तविक नहीं हैं । उस हालत में माया वास्तविक होगी परंतु उसके कार्य पूरी तरह से काल्पनिक, शुद्ध रूप से मनगढ़न्त होंगे । लेकिन क्या हम कल्पना को ही शाश्वत की एकमात्र गतिशील या सर्जक शक्ति के रूप मे प्रतिपादित कर सकते हैं ? कल्पना अज्ञानमय चेतनावाली आशिक सत्ता के लिये आवश्यक है क्योकि उसे कल्पनाओं और अटकलों द्वारा अपने अज्ञान की पूर्ति करनी होती है, लेकिन एकमात्र सद्वस्तु की एकमात्र चेतना मे ऐसी गति के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता जिसके पास अवास्तविकताओं के निर्माण का कोई कारण नहीं होता क्योकि वह हमेशा शुद्ध और अपने-आपमें पूर्ण होती है । यह देखना मुश्किल है कि ऐसी एकमात्र सत्ता को, जो अपने सारतत्त्व मे पूर्ण है, अपनी शाश्वतता मे आनंदमय है, जिसमें अभिव्यक्त करने के लिये कुछ भी नहीं है, जो कालहीन रूप से पूर्ण है, उसकी सत्ता मे ऐसी कौन-सी चीज हो सकती है जो उसे अवास्तविक देश और काल की सृष्टि करने और उसे हमेशा के लिये मिथ्या प्रतिरूपों और घटनाओं के कभी समाप्त न होनेवाले वैश्व प्रदर्शन से भरने के लिये प्रेरित या राजी करे । तर्क की दृष्टि से यह समाधान अमान्य है ।

 

   दूसरा समाधान, शुद्ध रूप से आत्मनिष्ठ अवास्तविक वास्तविकता का भाव उस भेद से शुरू होता है जिसे मन भौतिक प्रकृति मे आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ अनुभवों मे करता है क्योकि मन को केवल उसी चीज के पूरी तरह और ठोस रूप से वास्तविक होने का निश्चय होता है जो वस्तुनिष्ठ हो । लेकिन ऐसा भेद ब्रह्म-चेतना मे मुश्किल से ही हो सकता है क्योकि यहां न तो विषयी है न विषय या स्वयं ब्रह्म ही अपनी चेतना का एकमात्र संभव विषयी और एकमात्र संभव विषय है । ब्रह्म के लिये कोई भी चीज बाह्य रूप से विषयगत नहीं हो सकती क्योकि ब्रह्म के सिवाय कुछ है ही नहीं । इसलिये यह विचार कि चेतना की एक आत्मनिष्ठ क्रिया ने एकमात्र सत्य वस्तु से भिन्न या उसे विकृत करनेवाले मिथ्या कल्पनाओं के जगत् को बनाया है, हमारे मन द्वारा ब्रह्म पर आरोपित किया गया दीखता है । यह शुद्ध और संपूर्ण सद्वस्तु पर अपनी अपूर्णता की रूप-रेखा आरोपित करता है जिसे सचमुच परम सत्ता की अनुभूति पर आरोपित नहीं किया जा सकता । दूसरी ओर ब्रह्म की चेतना और सत्ता मे भेद प्रामाणिक नहीं हो सकता जबतक कि ब्रह्म-चेतना और ब्रह्म-सत्ता दो अलग-अलग सत्ताएं न हों -चेतना अपने अनुभव सत्ता के

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शुद्ध सत् पर आरोपित करती हो लेकिन उसे छूने, उसे प्रभावित करने या उसे भेदने में असमर्थ हो । तो ब्रह्म चाहे परम एकमात्र आत्म सत्ता के रूप में हो या माया में वास्तविक-अवास्तविक व्यक्ति की आत्मा के रूप में, वह अपनी सत्य- चेतना द्वारा अपने ऊपर आरोपित इन भ्रमों के बारे में अभिज्ञ होगा और उन्हें भ्रम के रूप में ही जानेगा । केवल माया-प्रकृति की कुछ ऊर्जा या उसके अंदर की कोई चीज स्वयं अपने अन्वेषणों से भ्रम में पड़ेगी या सचमुच भ्रम में न पड़कर भी इस तरह व्यवहार करेगी या अनुभव करेगी मानों वह भ्रम में है । यह द्विविधता वह अवस्था है जो हमारी अज्ञान में स्थित चेतना में तब बनती है जब वह अपने-आपको प्रकृति के कामों से अलग कर लेती है और अपने अंदर आत्मा से इस रूप में अभिज्ञ होती है कि वही एकमात्र सत्य है और बाकी सब अनात्मा और अवास्तविक है, लेकिन सतह पर उसे इस तरह अभिनय करना पड़ता है मानों बाकी भी वास्तविक हो । लेकिन यह समाधान ब्रह्म के एकमात्र और अविभाज्य शुद्ध सत् और उसकी शुद्ध अभिज्ञता को नकारता है । वह आकाररहित एकत्व में द्वैत की सृष्टि करता है जो अपने सार में सांख्य के दृष्टिकोण के दो तत्त्वों के द्वै--पुरुष और प्रकृति, आत्मा और प्रकृति से भिन्न नहीं है । तो हमें इन समाधानों को अमान्य कहकर एक ओर रख देना चाहिये या फिर हम अपनी सद्वस्तु विषयक पहली दृष्टि में हेर-फेर करें और यह मानें कि उसमें चेतना की बहुविध स्थिति की शक्ति या सत् की बहुविध स्थिति की शक्ति है ।

 

  लेकिन फिर यदि हम द्वैत चेतना को स्वीकार कर लें तो उसकी व्याख्या ज्ञान-अज्ञान की दोहरी शक्ति के रूप में नहीं की जा सकती जो परम सत्ता के लिये भी उसी तरह वैध है जैसे विश्व में हमारे लिये । क्योंकि हम यह बिलकुल नहीं मान सकते कि ब्रह्म माया के जस भी आधीन है । क्योंकि उसका अर्थ होगा कि शाश्वत की आत्म-अभिज्ञता को बादल की तरह घेरे हुए अज्ञान का कोई तत्त्व हैं । यह तो शाश्वत सद्वस्तु पर हमारी अपनी चेतना की सीमाओं को आरोपित करना होगा; ऐसा अज्ञान जो अभिव्यक्ति के समय चेतना की किसी गौण क्रिया के परिणाम-स्वरूप और विश्व की एक दिव्य योजना और उसके विकासीय अर्थ के एक भाग के रूप में घटित हो या हस्तक्षेप करे । यह तो एक बात है और उसकी न्याय-संगत रूप से कल्पना की जा सकती है । निरर्थक अज्ञान या सद्वस्तु की मौलिक चेतना में शाश्वत भ्रम एक और चीज है जिसकी आसानी से कल्पना नहीं की जा सकती । यह एक ऐसी उग्र मानसिक रचना प्रतीत होती है जिसकी निरपेक्ष के सत्य में मान्यता पाने की कोई संभावना नहीं । ब्रह्म की द्विविध चेतना को किसी भी तरह अज्ञान नहीं होना चाहिये बल्कि होना चाहिये एक ऐसी आत्म-अभिज्ञता जो उन भ्रमों के विश्व को खड़ा करने के लिये ऐच्छिक संकल्प के साथ सहवर्ती है जो सामने की दृष्टि के आगे रहते हैं और एक ही साथ आत्मा और भ्रमात्मक जगत् के बारे में अभिज्ञ

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रहते हैं ताकि न तो विभ्रम रहता है और न उसकी वास्तविकता का कोई भाव । विभ्रम केवल मायामय जगत् में ही होता है और जगत् में आत्मा या ब्रह्म लीला का भोग अपने-आप अलग-थलग और अछूता रहकर या तो उसमें मुक्त रूप से भाग लेकर या साक्षी रूप में करता है; जो लीला अपना जादू केवल उस प्रकृति-मन पर चलाती है जिसे माया अपनी क्रिया के लिये बनाती हैं । लेकिन इसका तो यह अर्थ होगा कि शाश्वत अपने शुद्ध निरपेक्ष सत् से संतुष्ट नहीं होता, उसे सृजन करने की आवश्यकता होती है ताकि वह सारे काल में अपने-आपको नाम, रूप और घटनाओं के नाटक में व्यस्त रख सके । एकमात्र होने के कारण उसे अपने-आपको बहु के रूप में देखने की जरूरत होती है, शांति, आनंद और आत्म-ज्ञान होने के कारण मिश्रित ज्ञान और अज्ञान, सुख और दुःख, अवास्तविक सत्ता और उस अवास्तविक सत्ता से मुक्ति के अनुभव या चित्रण के रूप में देखने की इच्छा होती है । क्योंकि माया द्वारा निर्मित व्यष्टिगत सत्ता के लिये मुक्ति होती है, शाश्वत को छुटकारा पाने की जरूरत नहीं होती और लीला हमेशा के लिये अपने चक्र चलाती रहती है । या अगर जरूरत नहीं होती है तो इस तरह सृजन करने की इच्छा होती है या इन विपरीतों की ललक या स्वचालित क्रिया होती है । लेकिन अगर हम सद्वस्तु के लक्षण-स्वरूप शुद्ध सत् की एकमात्र शाश्वतता का ख्याल रखें तो आवश्यकता, इच्छा, ललक या स्वचालकता सभी समान रूप से असंभव और अबोध्य होता है । यह एक तरह की व्याख्या है लेकिन है ऐसी व्याख्या जो रहस्य को न्याय और बोध के परे छोड़ देती है क्योंकि शाश्वत की यह क्रियाशील चेतना उसके निश्चल और वास्तविक स्वभाव का प्रत्यक्ष विरोध है । निश्चय ही सृजन करने या अभिव्यक्त करने की इच्छा या शक्ति तो उसमें है ही लेकिन अगर यह ब्रह्म की इच्छा या शक्ति है तो वह केवल सद्वस्तु की वास्तविकताओं के सृजन या उसकी सत्ता की कालातीत प्रक्रिया की काल की शाश्वतता में अभिव्यक्ति हो सकती है; क्योंकि यह बात अविश्वसनीय मालूम होती है कि सद्वस्तु की एकमात्र शक्ति अपने से विपरीत वस्तु की अभिव्यक्ति के लिये हो या भ्रमात्मक विश्व में असत् पदार्थों के सृजन के लिये हो ।

 

   अभीतक पहेली का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला है; लेकिन हो सकता है कि हम माया और उसके कार्यों को किसी प्रकार की वास्तविकता मानने की भूल कर रहे हैं, वह तली में चाहे जितनी भ्रामक क्यों न हो । सच्चा समाधान इसीमें है कि उसका और उनकी अवास्तविकता के रहस्य का साहस के साथ सामना किया जाये । ऐसा लगता है कि नितांत अवास्तविकता की कल्पना मायावाद के किन्हीं प्रतिपादनों या उसके पक्ष में दी गयी युक्तियों में की गयी है । इससे पहले कि हम विश्वास के साथ उन समाधानों की जांच करें जो विश्व की सापेक्ष या आंशिक वास्तविकता पर आश्रित हैं, हमें समस्या के इस पक्ष के बारे में विचार करना

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होगा । वस्तुतः एक ऐसी तर्कधारा है जो इस समस्या को अलग छोड़कर उससे छुटकारा पा लेती है । उसका कथन है कि भ्रम कैसे पैदा हुआ, ब्रह्म की शुद्ध सत्ता में विश्व कैसे बना हुआ है, ये प्रश्न ही अवैध हैं । इस समस्या का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि विश्व असत् है, माया अवास्तविक है, ब्रह्म एकमात्र सत्य है, सदा के लिये एकाकी और स्वयंभू है । ब्रह्म पर किसी भ्रमात्मक चेतना का असर नहीं होता, उसकी कालातीत वास्तविकता में किसी विश्व का आविर्भाव नहीं हुआ । कठिनाई से इस तरह बचना या तो निरर्थक कुतर्क, शाब्दिक तर्क की कलाबाजी, तर्क-बुद्धि का शब्दों और विचारों के खेल में अपना सिर छिपाना और एक यथार्थ और चकरानेवाली दुःसाध्य कठिनाई को देखने या हल करने से इंकार करना है या फिर इसका अर्थ बहुत अधिक है क्योंकि परिणामस्वरूप यह माया और ब्रह्म के सारे संबंध से पिंड छुड़ा लेता है, यह प्रतिपादित करके कि माया अपने बनाये हुए विश्व के साथ स्वतंत्र, निरपेक्ष अवास्तविकता है । अगर किसी वास्तविक विश्व का अस्तित्व ही नहीं है, एक वैश्व भ्रम का अस्तित्व है तो हम यह खोज करने के लिये बाधित हैं कि वह कैसे अस्तित्व में आया या वह कैसे बना हुआ है, सद्वस्तु के साथ उसका क्या संबंध या असंबंध है ? माया के अंदर हमारे अस्तित्व का, उसके चक्रों के प्रति हमारी अधीनता और उससे हमारी मुक्ति का क्या अर्थ है ? क्योंकि इस दृष्टि में हमें यह मानना होगा कि ब्रह्म माया या उसके कार्यों का ज्ञाता नहीं है, स्वयं माया ब्रह्म चेतना की शक्ति नहीं है : ब्रह्म अतिचेतन है, स्वयं अपनी शुद्ध सत्ता में डूबा हुआ हैं या केवल अपनी निरपेक्षता के बारे में सचेतन है, उसका माया के साथ कोई संबंध नहीं है । लेकिन उस हालत में या तो माया एक भ्रम के रूप में भी नहीं रह सकती या द्विविध सत्ता या दो सत्ताएं होंगी -एक शाश्वत वास्तविक अतिचेतना या सिर्फ अपने बारे में सचेतन और दूसरी भ्रमात्मक शक्ति जो मिथ्या विश्व की रचना करती और उसके बारे में सचेतन होती है । हम फिर से द्विधा में जा फंसते हैं और हमारे शूलारोहण से बचने की कोई संभावना नहीं दिखायी देती, सिवाय इसके कि हम यह मान लें कि चूंकि सारा दर्शन माया का अंग है अतः सारा दर्शन भी भ्रम है । समस्याएं तो प्रचुर हैं परंतु कोई निष्कर्ष संभव नहीं है । क्योंकि हमारा जिस चीज से सामना हो रहा है वह है शुद्ध निश्चल, अक्षर सद्वस्तु और एक भ्रमात्मक गतिशीलता, दोनों एक-दूसरे से एकदम विपसरीत हैं और उनके परे ऐसा कोई महानतर सत्य नहीं जिसमें उनका रहस्य मिल सके और उनके विरोध समन्वयकरी समाधान पा सकें ।

 

   अगर ब्रह्म द्रष्टा नहीं है तो व्यष्टिगत सत्ता को द्रष्टा होना चाहिये । लेकिन इस द्रष्टा को किसी भ्रम ने बनाया है और यह अवास्तविक है । दृश्य जगत् भ्रम का बनाया हुआ और अवास्तविक है, देखनेवाली चेतना अपने-आप भ्रम और इस कारण अवास्तविक है । लेकिन यह हर चीज को अर्थ से वंचित कर देता है ।

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हमारा आध्यात्मिक अस्तित्व और माया से हमारी मुक्ति और उसी तरह हमारा कालिक अस्तित्व और माया में डूबा रहना समान रूप से अवास्तविक और महत्त्वहीन है । यह संभव है कि हम कम अनन्य दृष्टि अपनाएं और कहें कि ब्रह्म के रूप में ब्रह्म का माया के साथ कोई संबंध नहीं, वह शाश्वत रूप में समस्त भ्रम या भ्रम के साथ किसी व्यापार से मुक्त है लेकिन व्यष्टिगत ज्ञाता के रूप में ब्रह्म, या यहां समस्त सत्ता की आत्मा के रूप में, माया में प्रविष्ट हुआ है और व्यक्ति के अंदर उससे अपने-आपको खींच सकता है और व्यक्ति के लिये यह खींच लेना बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है । लेकिन यहां ब्रह्म पर एक दोहरी सत्ता आरोपित की गयी है और जो चीज वैश्व भ्रम की है उसपर वास्तविकता आरोपित की जा रही है -वास्तविकता आरोपित की जा रही है माया के अंदर ब्रह्म की व्यष्टिगत सत्ता पर क्योंकि सर्वात्मा के रूप में ब्रह्म आभासी रूप में भी बद्ध नहीं है और उसे माया से छुटकारा पाने की जरूरत नहीं है । और फिर अगर बंधन अवास्तविक है तो मुक्ति का कोई महत्त्व नहीं हो सकता और बंधन तबतक वास्तविक नहीं हो सकता जबतक माया और उसका जगत् वास्तविक न हो । माया की नितांत अवास्तविकता गायब हो जाती है और बहुत व्यापक बल्कि शायद एकमात्र व्यावहारिक और कालिक वास्तविकता को जगह देती है । इस परिणाम से बचने के लिये कहा जा सकता है कि हमारा व्यक्तित्व अवास्तविक है । ब्रह्म अपने-आपको व्यक्तित्व की कल्पना में अपने प्रतिबिंब से खींच लेता है और उसका समापन हमारा छुटकारा, हमारी मुक्ति है । लेकिन सर्वदा मुक्त ब्रह्म न तो बंधन से कष्ट पा सकता है न मुक्ति से लाभ, और प्रतिबिंब, व्यक्तित्व की कल्पना-सृष्टि ऐसी चीज नहीं है जिसे मुक्ति की जरूरत हो । प्रतिबिंब, कल्पना-सृष्टि, माया के भ्रामक दर्पण में एक बिंब मात्र को सचमुच बंधन से कष्ट नहीं हो सकता और न ही वास्तविक मुक्ति से लाभ । अगर यह कहा जाये कि यह सचेतन प्रतिबिंब या कल्पना-सृष्टि है इसलिये सचमुच दुःख पा सकती और मुक्त होने पर आनंद में प्रवेश कर सकती है तो यह प्रश्न उठता है कि यह किसकी चेतना है जो इस कल्पना-सृष्टि के अस्तित्व में दुःख पाती है -क्योंकि एकमेव सत् को छोड़कर और कोई वास्तविक चेतना नहीं हो सकती अतः फिर से एक बार ब्रह्म के लिये दोहरी चेतना प्रतिष्ठित हो गयी, एक सचेतन या अतिचेतन चेतना जो भ्रम से मुक्त है और दूसरी ऐसी चेतना जो भ्रम के आधीन हैं, और इस तरह फिर से हमने माया के अंदर अपने जीवन और अनुभव की किसी वास्तविकता को प्रमाणित कर दिया । क्योंकि अगर हमारी सत्ता ब्रह्म की है, हमारी चेतना ब्रह्म की चेतना में से कुछ है, उसके साथ चाहे जो विशेषण क्यों न लगे हों, वह उस हदतक वास्तविक है --और अगर हमारी सत्ता वास्तविक है तो विश्व की सत्ता क्यों नहीं ?

 

   अंतत: समाधान के रूप में यह कहा जा सकता है कि द्रष्टा व्यक्ति और दृश्य

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विश्व अवास्तविकता हैं लेकिन माया ब्रह्म पर अपने-आपको आरोपित करके किसी प्रकार की वास्तविकता प्राप्त कर लेती है और वह वास्तविकता विश्व-माया में व्यक्ति और उसके अनुभव में चली जाती है । वह अनुभव उस व्यक्ति के लिये तबतक बना रहता है जबतक व्यक्ति भ्रम के आधीन रहे । लेकिन तब, यह अनुभव किसके लिये प्रामाणिक है, जबतक वह अनुभव रहता हैं तबतक यह वास्तविकता किसके लिये रहती है, मुक्ति, निर्वाण या निवृत्ति द्वारा किसके लिये उस अनुभव का अवसान होता है ? क्योंकि एक भ्रमात्मक अवास्तविक सत्ता वास्तविकता ओढ़कर वास्तविक बंधन का दुःख नहीं पा सकती और न ही परिहार या आत्म-विलोपन की वास्तविक क्रिया द्वारा उससे बच निकल सकती है । उसके अस्तित्व की प्रतीति किसी वास्तविक आत्मा या सत् को ही हो सकती है लेकिन उस दशा में वह वास्तविक आत्मा किसी-न-किसी तरह या कुछ मात्रा में माया के आधीन जरूर होनी चाहिये । उसे या तो ब्रह्म की ऐसी चेतना होना चाहिये जो अपने-आपको माया के जगत् में प्रक्षिप्त करती है और फिर माया से निकलती है या फिर उसे उस ब्रह्म की कोई ऐसी सत्ता होना चाहिये जो अपने अंदर से कुछ, अपनी वास्तविकता माया में डाल देती और फिर माया में से निकाल लेती है । या यह माया फिर है क्या जों अपने-आपको ब्रह्म पर आरोपित करती है ? वह अगर पहले ही से ब्रह्म में मौजूद नहीं होती, शाश्वत चेतना या शाश्वत अतिचेतना की एक क्रिया नहीं है तो फिर वह आती कहां से है ? उस भ्रम के चक्रों को शाश्वत ब्रह्म के खिलवाड़ के लिये छायामयी कठपुतलियों का नाच होने के सिवा, कालपट पर कठपुतलियों का खेल होने के सिवा और किसी वास्तविकता या महत्त्व की प्राप्ति तभी हो सकती है जब सद्वस्तु की कोई सत्ता या चेतना ही उस भ्रम के परिणामों में से गुजरे । इस तरह हमें फिर से इसी निष्कर्ष की ओर लौटना पड़ता है कि ब्रह्म की द्विविध सत्ता है, द्विविध चेतना है, उसमें से एक भ्रम में अंतर्ग्रस्त है और दूसरी भ्रम से मुक्त है और उसमें माया के लिये सत्ता के सत्य का कुछ प्रपंच है । विश्व में हमारे जीवन का कोई समाधान नहीं हो सकता अगर उस जीवन और स्वयं विश्व में कोई वास्तविकता न हो -भले वह वास्तविकता आंशिक, सीमित और कृत्रिम क्यों न हो । लेकिन एक आद्य, वैश्व और मूलतः निराधार भ्रम की वास्तविकता भी क्या हो सकती है ? एकमात्र संभव उत्तर यह है कि यह रहस्य बुद्धि से परे अव्याख्येय और अनिर्वचनीय है ।

 

   फिर भी इस कठिनाई के दो उत्तर संभव हैं -अगर हम संपूर्ण अवास्तविकता के विचार से पिंड छुड़ा लें और एक प्रतिबंध और समझौता स्वीकार कर लें । अगर हम उपनिषदों में दिये गये निद्रा और स्वप्न-सृष्टि के वर्णन को भ्रमात्मक आत्मनिष्ठ जगत्-अभिज्ञता के भाव में स्वीकार कर लें तो एक ऐसी आत्मनिष्ठ भ्रमात्मक चेतना के लिये आधार मिल सकता है जो सत् का अंश है । वहां यह प्रतिपादन है कि

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आत्मा रूप ब्रह्म चतुष्पाद है । आत्मा ब्रह्म है और जो कुछ है सब ब्रह्म है लेकिन जो कुछ है वह आत्मा ही है जिसे आत्मा अपनी सत्ता की चार स्थितियों में देखती है । शुद्ध आत्म-स्थिति में ब्रह्म के बारे में न तो चेतना और न अचेतना -जैसा हम समझते हैं -का प्रतिपादन किया जा सकता है, यह अतिचेतना की स्थिति है जो आत्म-सत् में, आत्म-नीरवता में या आत्मानंद में तल्लीन होती है या वह एक मुक्त अतिचेतन की स्थिति है जो अपने अंदर सभी चीजों को धारण किये या उन्हें आधार दिये रहती है परंतु अपने-आप किसी में अंतर्ग्रस्त नहीं होती । लेकिन सुषुप्ति सत्ता (पुरुष) की एक प्रकाशमय अवस्था भी है, चेतना की राशि है जो समस्त वैश्व सत् का उद्गम है । यह गहरी सुषुप्ति की अवस्था ही, जिसमें फिर भी सर्वशक्तिमान् प्रज्ञा विद्यमान है, बीज-स्थिति या कारण-स्थिति है जिसमें से सारा विश्व उभरता है । यह और स्वप्न-पुरुष जो सभी सूक्ष्म, आत्मनिष्ठ या अतिभौतिक अनुभूतियों का आधान है और जाग्रत् पुरुष जो सभी भौतिक अनुभवों का सहारा है, इन्हें माया का पूरा क्षेत्र माना जा सकता है । जैसे गाढ़ निद्रा में आदमी स्वप्नों में चला जाता है जहां वह नाम, रूप, संबंध, घटना की स्वनिर्मित अस्थायी इमारतें देखता है और जाग्रत् अवस्था में भौतिक चेतना की अधिक स्थायी दीखनेवाली फिर भी अस्थायी रचनाओं को बहिर्मुख होकर देखता है, इस तरह जीव भी राशिभूत चेतना की अवस्था में से बाहर निकलकर अपनी आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ वैश्व अनुभूतियों का विकास करता है । लेकिन जाग्रत् स्थिति इस आदि और कारण निद्रा से सचमुच जागना नहीं हैं । वह चेतना के विषयों के सूक्ष्म आत्मनिष्ठ स्वप्नों के अनुभव के विपरीत उनकी निश्चयात्मक वास्तविकता के स्थूल, बाहरी, वस्तुनिष्ठ अनुभव में केवल पूरी तरह से उभरना है । सच्चा जागरण है दोनों, आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ, चेतना से और संचित कारण प्रज्ञा से अन्य सभी चेतनाओं से श्रेष्ठतर अतिचेतना में निवर्तन क्योंकि सारी चेतना और अचेतना माया है । यहां, हम कह सकते हैं कि माया वास्तविक है क्योंकि वह आत्मा को आत्मा का अनुभव है, आत्मा की कोई चीज उसके अंदर प्रवेश करती है, उसपर उसकी घटनाओं का प्रभाव होता है क्योंकि वह उन्हें स्वीकार करती है, उनपर विश्वास करती है । ये उसके लिये वास्तविक अनुभव होते हैं, उसको सचेतन सत्ता की रचनाएं होते हैं लेकिन वह अवास्तविक है क्योंकि यह निद्रा-अवस्था, स्वप्नावस्था है, अंतत: क्षणिक जाग्रत् अवस्था है, अतिचेतन सद्वस्तु की सच्ची अवस्था नहीं है । यहां स्वयं सत्ता का सचमुच द्विभाजन नहीं है लेकिन उसी एक सत् की बहुविध स्थिति है । यहां ऐसी कोई आद्या द्विविध चेतना नहीं है जिसमें यह लक्षित हो कि असत् में से भ्रमात्मक वस्तुओं की सृष्टि करने की इच्छा असृष्ट में हुई, अपितु एक ही सत् अतिचेतना और चेतना की अवस्थाओं में है और इनमें से प्रत्येक का आत्मानुभव का अपना-अपना स्वरूप है । किंतु यद्यपि निचली अवस्थाओं में वास्तविकता है फिर भी वे ऐसे आत्मनिष्ठ आत्म-रचनाओं के निर्माण और अवलोकन में मर्यादित हैं

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जो सत् नहीं हैं । वह एकमेव आध्यात्म पुरुष अपने-आपको बहु के रूप में देखता है लेकिन यह बहुविध-सत्ता भी आत्मनिष्ठ है, उसमें चेतना की स्थितियों की बहुलता है लेकिन यह बहुलता भी आत्मनिष्ठ है । यथार्थ सत्ता के आत्मनिष्ठ अनुभव की एक यथार्थता तो है परंतु कोई वस्तुनिष्ठ विश्व नहीं है ।

 

   फिर भी यह ध्यान देने योग्य है कि वास्तव में उपनिषदों में कही भी यह नहीं कहा गया है कि त्रिविध स्थिति भ्रम की रचना है या अवास्तविकता की सृष्टि है । हमेशा यही प्रतिपादित किया गया है कि यह सब जो है -यह विश्व जिसे हम अभी माया द्वारा बनाया हुआ मान रहे हैं -ब्रह्म है, सद्वस्तु है । ब्रह्म ये सब सत्ताएं बन जाता है, सभी सत्ताओं को आत्मा के अंदर, सद्वस्तु के अंदर देखना चाहिये और सद्वस्तु को उनमें देखना चाहिये । सद्वस्तु को हमें ऐसे देखना चाहिये मानों वास्तव में ये सब सत्ताएं सद्वस्तु ही हैं क्योंकि सिर्फ इतना ही नहीं कि आत्मा ब्रह्म है, बल्कि सब कुछ आत्मा है, यह सब जो कुछ भी है ब्रह्म है, सद्वस्तु है । यह प्रबल दृढ़ोक्ति भ्रमात्मक माया के लिये कोई स्थान नहीं छोड़ती । लेकिन फिर भी उनका बार-बार यह अस्वीकार करना कि अनुभव करनेवाली आत्मा के सिवा या उससे भिन्न और भी कुछ है, उनके द्वारा कुछ विशेष शब्दावलियों का व्यवहार और चेतना की अवस्थाओं में दो का सुषुप्ति और स्वप्न कहकर वर्णन -इनका यह अर्थ लगाया जा सकता है मानों उन्होंने वैश्वद्वस्तु पर दिये गये जोर को रद्द कर दिया है । ये उद्धरण मायावादी विचार के लिये द्वार खोल देते हैं और इन्हें उस प्रकार के हठीले सिद्धांत का आधार बनाया गया है । अगर हम चतुष्पाद अवस्था को आत्मा का एक रूपक मानें, जब वह अपनी अतिचेतन अवस्था में से निकलकर, जहां न कोई विषयी है न विषय, ज्योतिर्मय समाधि में चली जाती है जिसमें अतिचेतना घनीभूत चेतना बन जाती है जिसमें से सत्ता की आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ स्थितियां उभरती हैं, तब हमें, वस्तुओं के बारे में अपनी दृष्टि के अनुसार भ्रमात्मिका सृष्टि की संभव प्रक्रिया या सर्जनकारी आत्मज्ञान और सर्वज्ञान की प्रक्रिया मिलती है ।

 

   वस्तुत: उपनिषदों में आत्मा की तीन निचली अवस्थाओं का जो वर्णन मिलता है -सर्वज्ञ प्रज्ञा, सूक्ष्म का द्रष्टा और स्थूल जड़ सत्ता का द्रष्टा (प्रज्ञानघन,

 

   प्रज्ञा : -वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य पूरे निश्चय के साथ कहते हैं कि पुरुष की दो भूमिकाएं या अवस्थाएं हैं जो दो लोक हैं और स्वप्न में आदमी दोनों को देख सकता है क्योंकि स्वप्न की स्थिति दोनों के बीच की है, यह दोनों का मिलन-स्थल है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वह चेतना की एक अंतर्लीन अवस्था की बात कर रहे हैं जो अपने अंदर भौतिक और अतिभौतिक लोकों के संपर्क को लिये रह सकती है । स्वप्नहीन स्थिति का वर्णन गहरी नींद और समाधि दोनों पर लागू होता है जिसमें आदमी उस घनीभूत चेतना में प्रवेश करता है जो अपने अंदर सत्ता की समस्त शक्तियों को लिये रहती है लेकिन सब उसके अंदर दबी हुई और केवल उसीपर केन्द्रित रहती हैं और जब सक्रिय होती हैं तो ऐसी चेतना में जहां सब कुछ आत्मा है । स्पष्ट है कि यह ऐसी अवस्था है जो हमें आत्मा के उन उच्चतर स्तरों में प्रवेश कराती है जो सामान्यत: अभी हमारी जाग्रत सत्ता के लिये अतिचेतन हैं ।

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प्रविविक्तभुक् और स्थूलभुक्) उसके आधार पर निर्णय करें तो यह सुषुप्ति अवस्था और यह स्वणावस्था हमारी जाग्रत् अवस्था के पीछे और परे रहनेवाली अतिचेतन और अंतस्तलीय अवस्थाओं के लिये आलंकारिक नाम प्रतीत होते हैं । उन्हें ये नाम इसलिये दिये गये हैं, उनका ऐसा चित्रण इसलिये किया गया है क्योंकि स्वप्न और निद्रा द्वारा -या फिर समाधि द्वारा, जिसे हम एक तरह का स्वप्न या निद्रा कह सकते हैं -सतही मानसिक चेतना सामान्यतः विषयगत वस्तुओं के प्रत्यक्ष दर्शन से निकल कर आंतरिक अंतस्तलीय और उच्चतर अतिमानसिक या अधिमानसिक अवस्था में चली जाती है । उस आंतरिक अवस्था में वह अतिभौतिक वास्तविकताओं को स्वप्न या सूक्ष्म दर्शन के प्रतिलेख रूपों में देखती है या उच्चतर अवस्था में वह घनीभूत चेतना में खो जाती है लेकिन वह उसका कोई विचार या बिंब नहीं पा सकती । हम इस अंतस्तलीय और अतिचेतन अवस्था से होते हुए आत्मसत्ता की उच्चतम स्थिति की परम अतिचेतना में जा सकते हैं । अगर हमारा संक्रमण स्वप्न-समाधि या निद्रा-समाधि द्वारा न होकर इन उच्चतर अवस्थाओं में आध्यात्मिक जागरण के द्वारा हो तो हम उन सबमें एक सर्वव्यापक सद्वस्तु के बारे में अभिज्ञ होते हैं । तब भ्रमात्मक माया के प्रत्यक्ष दर्शन की जरूरत नहीं रहती । केवल मन से परे संक्रमण का अनुभव रहता है जिसके कारण विश्व के बारे में हमारा मानसिक ढांचा प्रामाणिक नहीं रहता और अज्ञानी मानसिक ज्ञान के स्थान पर एक और वास्तविकता आ जाती है । इस संक्रमण में सत्ता की सभी अवस्थाओं के बारे में एक साथ समन्वित और एकीकृत अनुभूति में जाग्रत् रहना और हर जगह सद्वस्तु को देखना संभव होता है लेकिन अगर हम ऐकांतिक एकाग्रता की समाधि द्वारा एक रहस्यमय निद्रा-स्थिति में डुबकी लगायें या एकाएक, जाग्रत् मन की उस अवस्था में पहुंच जायें जो अतिचेतन की है तो मार्ग में मन विश्व-शक्ति और उसकी रचनाओं की अवास्तविकता के बोध की पकड़ में आ सकता है । तब वह आंतरिक रूप से उन सबका विलोप करके परम अतिचेतना में चला जाता है । यह अवास्तविकता का बोध और यह ऊपर की ओर संक्रमण, माया द्वारा निर्मित जगत् के विचार को आध्यात्मिक औचित्य प्रदान करता है । परंतु यह परिणाम अंतिम नहीं है क्योंकि इसका अधिक्रमण करनेवाली एक बृहत्तर और पूर्णतर निष्पत्ति आध्यात्मिक अनुभव के लिये संभव है ।

 

   माया के जैसे ये सब और अन्य समाधान हमें संतुष्ट नहीं कर पाते क्योंकि उनमें कोई निश्चयात्मकता नहीं होती । वे मायावादी सिद्धांत की अनिवार्यता को प्रतिपादित नहीं करते जो कि मायावाद की मान्यता के लिये अनिवार्य है । वे एक ओर शाश्वत सद्वस्तु के अनुमानित सच्चे स्वरूप और दूसरी ओर विश्व-भ्रम के विरोधाभासी और विपरीत स्वभाव के बीच की खाई को नहीं पाटते । अधिक-से-अधिक एक ऐसी प्रक्रिया की ओर संकेत दिया जाता है जो दो विरोधियों के सह-अस्तित्व को

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धारणागम्य और बोधगम्य बनाने का दावा करती है । लेकिन उसमें निश्चिति की ऐसी कोई शक्ति या प्रबोधक विश्वासोत्पादकता नहीं होती जो प्रभावकारी रूप से इस असंभाव्यता को दूर कर दे कि उसकी स्वीकृति बुद्धि के लिये अनिवार्य हो जाये । वैश्व माया का सिद्धांत एक मौलिक विरोध, समस्या या रहस्य से पिंड छुड़ाने के लिये, जिसका किसी और तरह से हल किया जा सकता था, एक और विरोध खड़ा कर देता है, एक नयी समस्या और रहस्य को ले आता है जो अपने तत्त्व में ही ऐसा है जिसका मेल नहीं बिठाया जा सकता और जिसका कोई हल नहीं है । कारण, हम एक ऐसी निरपेक्ष सद्वस्तु की धारणा या अनुभूति से शुरू करते हैं जो अपने स्वभाव से ही शाश्वत रूप में एक, विश्वातीत, स्थिर, अचल, अक्षर, अपने शुद्ध सत् के बारे में आत्म-अभिज्ञ है तथा हम विश्व के प्रपंच, गतिशीलता, गति, क्षरता, मौलिक शुद्ध सत् में हेर-फेर, विभेद और अनंत बहुलता की धारणा या अनुभूति से शुरू करते हैं । इस प्रपंच से पिंड छुड़ा ने के लिये उसे एक सतत भ्रम, माया घोषित कर दिया जाता है; लेकिन यह चीज परिणामतः एकमेव की चेतना की परस्पर विरोधी दोहरी स्थिति को एकमेव की सत्ता की आत्म-विरोधी दोहरी स्थिति का निराकरण करने के लिये ले आती है । एकमेव की बहुलता के आभासी सत्य को यह धारणात्मक मिथ्यात्व स्थापित करके रद्द कर दिया जाता है कि उस एक ने अवास्तविक बहुलता का सृजन किया है । एक जो सदा-सर्वदा अपने शुद्ध सत् के बारे में अभिज्ञ है, अपने-आपकी एक चिरस्थायी कल्पना या भ्रममूलक रचना को आश्रय दिये रहता है जिसमें मूढ़ और दुःखी आत्मज्ञानहीन सत्ताओं की अनंत बहुलता है और जिन्हें एल-एक करके आत्मज्ञान की ओर जागना और अपने व्यक्तित्व का अवसान करना होगा ।

 

   एक उलझन के समाधान-स्वरूप एक और उलझन देखकर हमें यह संदेह होना शुरू होता है कि हमारा आधार-वाक्य ही कहीं अपूर्ण रह गया - भूल नहीं, बल्कि एक पहला विवरण और अनिवार्य आधारमात्र । हम सद्वस्तु को इस रूप में देखने लगते हैं कि वह शाश्वत ऐक्य, स्थिति, शुद्ध सत्ता का अक्षर सार है जो अपनी शाश्वत गतिशीलता, गति, अनंत बहुलता और भिन्नता को अवलंब देता है । ऐक्य की अक्षर स्थिति अपने अंदर से क्रिया, गति और बहुत्व को बाहर लाती है । ऐसी क्रिया, गति और बहुत्व शाश्वत और अनंत एकत्व को रद्द नहीं करते बल्कि शाश्वत और अनंत एकत्व को और भी उभारते हैं । अगर ब्रह्म की चेतना अपनी स्थिति या क्रिया में द्विविध बल्कि बहुविध हो सकती है तो कोई कारण नहीं दीखता कि क्यों ब्रह्म अपनी सत्ता की द्विविध स्थिति अपनाने या बहुविध वास्तविक आत्मानुभव करने में असमर्थ हो । तब वैश्व चेतना सृजनात्मक भ्रम न होकर निरपेक्ष के किसी सत्य का अनुभव होगी । अगर इसे कार्यान्वित किया जाये तो यह व्याख्या अधिक व्यापक और आध्यात्मिक रूप से अधिक उर्वर और हमारे आत्मानुभवों के दोनों छोरों में मिलन कराने में अधिक समन्वयकारी सिद्ध हो सकती है और कम-से-कम

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उस विचार से तो कम तर्क-संगत न होगी जो यह मानता है कि एक शाश्वत सद्वस्तु चिरकालतक ऐसे सनातन भ्रम को आधार देती है या अनंत बहुसंख्यक अज्ञानी और दुःखी लोगों के लिये ही वास्तविक है जो एक-एक करके माया के अंधकार और कष्ट से मुक्ति पाते हैं और उनमें से हर एक अलग-अलग, माया में ही अपना आत्म-विलोपन करता है ।

 

   मायावाद के आधार पर समस्या का दूसरा संभव उत्तर शंकर के दर्शन से मिलता है जिसे विशिष्ट मायावाद कहा जा सकता है । यह उत्तर असाधारण रूप से प्रभावशाली शक्ति और व्यापकता के साथ प्रस्तुत किया गया है, इससे हम इस समाधान की ओर पहला कदम भरते हैं । क्योंकि यह दर्शन माया की एक सीमित वास्तविकता प्रतिपादित करता है, वह उसे वस्तुत: अनिर्वचनीय और अव्याख्येय रहस्य कहता है पर साथ ही हमारे सामने एक युक्तिसंगत समाधान भी प्रस्तुत करता है जो पहली दृष्टि में हमारे मन को संतप्त करनेवाले द्वंद्व का पूरी तरह संतोषजनक समाधान उपस्थित करता है । वह विश्व की स्थायी और सबल वास्तविकता का हमें जो बोध होता है और जीवन तथा विश्व-प्रपंच की निर्णयहीनता, अपर्याप्तता, व्यर्थता, क्षणभंगुरता और निश्चित अवास्तविकता का जो बोध होता है इनकी व्याख्या करता है । क्योंकि यहां हम वास्तविकता की दो भूमिकाओं में किया गया भेद देखते हैं, परात्पर और व्यावहारिक, निरपेक्ष और प्रपंचात्मक, शाश्वत और कालिक --इनमें से पहली है ब्रह्म की शुद्ध सत्ता की वास्तविकता, निरपेक्ष, विश्वातीत और शाश्वत और दूसरी है माया के अंदर ब्रह्म की वास्तविकता -वैश्व, कालिक और सापेक्ष । यहां हम अपने और विश्व के लिये वास्तविकता पा लेते हैं क्योंकि व्यष्टिगत आत्मा वास्तव में ब्रह्म है । यह ऐसा ब्रह्म है जो व्यक्ति-रूप से माया के क्षेत्र में आभासी रूप में उसके आधीन मालूम होता है और अंत में सापेक्ष और आभासी व्यक्ति को उसकी शाश्वत और सच्ची सत्ता में मुक्त कर देता है । सापेक्षताओं के कालिक क्षेत्र में हमारा ऐसे ब्रह्म का अनुभव भी प्रामाणिक है जो सर्व सत्ता बन गया है, ऐसा शाश्वत जो वैश्व और व्यष्टिगत बन गया है । सचमुच यह माया के अंदर माया से मुक्ति की ओर गति का बीच का कदम है । विश्व भी और उसके अनुभव भी कालगत चेतना के लिये वास्तविक हैं और वह चेतना भी वास्तविक है । लेकिन तुरंत वास्तविकता के स्वरूप और मर्यादा का प्रश्न उठता है क्योंकि हो सकता है कि विश्व और हम वास्तविक हों, भले निचली कोटि के हों, या वे आंशिक रूप में वास्तविक हों और आंशिक रूप से अवास्तविक या वे अवास्तविक वास्तविकता हों । अगर वे सचमुच सच्ची वास्तविकता हैं तो माया के किसी सिद्धांत के लिये कोई स्थान नहीं रहता, तब कोई भ्रमात्मक सृष्टि नहीं रहती । अगर वे आंशिक रूप से वास्तविक और आंशिक रूप से अवास्तविक हैं तो दोष किसी ऐसी चीज में होगा जो गलत है, या तो वैश्व आत्म-अभिज्ञता में या स्वयं हमारे अपने-आपको

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और विश्व को देखने में, जो सत्ता की भ्रांति, ज्ञान की भ्रांति, जीवन की क्रिया की भ्रांति पैदा करता है । लेकिन वह भ्रांति केवल अज्ञान या मिश्रित ज्ञान और अज्ञान ही हो सकती है और तब जिस चीज की व्याख्या की जरूरत है वह आद्य वैश्व भ्रम नहीं बल्कि सृजनात्मक चेतना में या शाश्वत और अनंत की गतिशील क्रिया में अज्ञान का हस्तक्षेप है । लेकिन अगर हम और विश्व अवास्तविक वास्तविकता हैं, अगर परात्पर चेतना के लिये इस सब की सत्ता का कोई सत्य नहीं है और जैसे ही हम माया के अपने विशेष क्षेत्र से बाहर पांव रखते हैं इनकी आभासी वास्तविकता समाप्त हो जाती है तो एक हाथ से दी गयी सुविधा दूसरे हाथ से छीन ली जाती है क्योंकि जिस चीज को सत्य मान लिया गया था उसके बारे में पता लगता है कि वह तो हमेशा भ्रम ही थी । माया और विश्व और हम वास्तविक और अवास्तविक दोनों हैं लेकिन वास्तविकता अवास्तविक वास्तविकता है जो केवल हमारे अज्ञान के लिये वास्तविक है और किसी भी सच्चे ज्ञान के लिये अवास्तविक ।

 

   यह देख पाना मुश्किल है कि जब हमारी और विश्व की वास्तविकता एक बार मान ली गयी तो वह अपनी सीमाओं में सच्ची वास्तविकता क्यों न हो । यह माना जा सकता है कि अभिव्यक्त की अपेक्षा अभिव्यक्ति अपनी सतह पर ज्यादा प्रतिबद्ध वास्तविकता होगी । हम कह सकते हैं कि हमारा विश्व ब्रह्म की लयों में एक है और सारगत सत् को छोड़कर पूर्ण वास्तविकता नहीं है लेकिन यह इस बात के लिये काफी कारण नहीं है कि उसे अवास्तविक कहकर एक तरफ रख दिया जाये । निःसंदेह जो मन अपने-आपको अपने-आपसे और अपनी रचनाओं से अलग खींच लेता हैं उसे ऐसा ही अनुभव होता है लेकिन यह इसलिये होता है क्योंकि मन अज्ञान का यंत्र है । जब वह अपने-आपको अपनी रचनाओं से, विश्व के अज्ञानभरे और अपूर्ण चित्र से पीछे खींच लेता है तो वह यह मानने के लिये प्रेरित होता है कि वह उसकी अपनी कल्पनाओं और रूपायणों से बढ़कर कुछ नहीं है, निराधार और अवास्तविक है । उसके अज्ञान और परम सत्य तथा ज्ञान के बीच की खाई उसे परात्पर सद्वस्तु और वैश्व वास्तविकता के बीच सच्चे संबंध का पता लगाने से रोकती है । चेतना के उच्चतर स्तर पर यह कठिनाई लुप्त हो जाती है, संबंध स्थापित हो जाता है, अवास्तविकता का भाव पीछे हट जाता है और भ्रम का सिद्धांत व्यर्थ और अनुपयुक्त हो जाता है । यह चरम सत्य नहीं हो सकता कि परम चेतना विश्व की परवाह नहीं करती या उसे एक कल्पना मान लेती है जिसे वह अपने-आप काल में वास्तविक के रूप में लिये रहती है । विश्व का अस्तित्व तभी हो सकता है जब वह विश्वातीत पर आधारित हो । कालगत ब्रह्म का कालातीत शाश्वत के ब्रह्म के लिये कुछ अर्थ होना चाहिये अन्यथा वस्तुओं में कोई जीव या आत्मा न होती और इस तरह कालिक अस्तित्व के लिये कोई आधार न होता । लेकिन विश्व अंततः अवास्तविक होने के लिये अभिशप्त है क्योंकि वह शाश्व

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नहीं क्षणिक है । वह सत्ता का मरणशील रूप है जो रूपहीन अमर पर आरोपित किया गया है । यह संबंध मिट्टी और मिट्टी से बने घड़े के सादृश्य से चित्रित किया जा सकता है । घड़ा और दूसरे उसी तरह बने हुए रूप नष्ट होकर वास्तविकता में, मिट्टी में जा मिलते हैं । वे केवल क्षणभंगुर रूप हैं । जब वे गायब हो जाते हैं तो बच रहती है रूपहीन, सारतत्त्व मिट्टी, और कुछ नहीं । लेकिन यह सादृश्य दूसरी तरफ की बात ज्यादा विश्वासोत्पादक ढंग से कह सकता है । घड़ा इस अधिकार से वास्तविक है कि वह मिट्टी के पदार्थ से बना है जो वास्तविक है, वह भ्रम नहीं है और जब उसे मूल मिट्टी में मिला दिया जाता है तब भी यह नहीं सोचा जा सकता कि उसका पिछला अस्तित्व अवास्तविक या भ्रम था । संबंध मौलिक वास्तविकता और आभासी अवास्तविकता का नहीं है बल्कि एक मौलिक, -और अगर हम मिट्टी से अदृश्य पदार्थ और उसके घटक आकाश की ओर पीछे जायें, एक शाश्वत और अनभिव्यक्त --परिणामी और आश्रित, कालिक और अभिव्यक्त वास्तविकता का है । और फिर पार्थिव पदार्थ या आकाशीय पदार्थ के लिये घड़े का रूप शाश्वत संभावना है और जबतक पदार्थ का अस्तित्व है रूप हमेशा अभिव्यक्त हो सकता है । रूप गायब हो सकता है लेकिन वह केवल अभिव्यक्ति से अनभिव्यक्ति में चला जाता है । एक जगत् गायब हो सकता है लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि जगत् की सत्ता क्षणभंगुर आभास है । इसके विपरीत हम यह मान सकते हैं कि अभिव्यक्ति की शक्ति ब्रह्म में अंतर्निहित है और काल की शाश्वतता में या तो लगातार या शाश्वत पुनरावृत्ति में कार्य करती रहती है । वैश्व विश्वातीत परात्परता से भिन्न सद्वस्तु की श्रेणी है लेकिन यह जरूरी नहीं कि उसे किसी तरह से असत् या उस परात्पर के लिये अवास्तविक माना जाये । क्योंकि यह शुद्ध बौद्धिक धारणा कि केवल शाश्वत ही वास्तविक है, चाहे हम उसे इस अर्थ में लें कि वास्तविकता सतत स्थिति पर निर्भर है या यह कि केवल कालातीत ही सत्य है, एक भावात्मक भेद या मानसिक रचना है; यह सारगर्भित और पूर्ण अनुभव पर बंधनकारी नहीं है । कालातीत शाश्वतता अनिवार्य रूप से काल के अस्तित्व को रद्द नहीं कर देती । केवल शाब्दिक रूप से ही उनका संबंध विरोध का है, वस्तुतः अधिक संभावना तो यह है कि उनका संबंध निर्भरता का है ।

 

   इसी भांति उस तर्क को मानना भी कठिन है जो निरपेक्ष की गतिशीलता को रद्द करता है, अर्थात् जो वस्तुओं के व्यावहारिक सत्य पर अवास्तविक वास्तविकता का कलंक लगा देता है क्योंकि वह व्यावहारिक है । कारण, आखिर व्यावहारिक सत्य कोई एकदम अलग चीज तो है नहीं जो आध्यात्मिक सत्य से बिलकुल अलग और असंबद्ध हो । वह आत्मा की ऊर्जा या सक्रिय क्रियाशीलता का एक स्पंदन है । निःसंदेह दोनों के बीच भेद तो करना ही चाहिये लेकिन पूरे विरोध का भार केवल इस आधार तत्त्व पर खड़ा हो सकता है कि शाश्वत की सच्ची और समग्र सत्ता

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नीरव और प्रशांत स्थिति ही है । लेकिन उस अवस्था में हमें यह निष्कर्ष निकालना होगा कि निरपेक्ष में कुछ भी क्रियाशील नहीं है और समस्त क्रियाशीलता भगवान् और शाश्वत की परा प्रकृति के विरुद्ध है । लेकिन अगर किसी प्रकार की कालिक या वैश्व वास्तविकता का अस्तित्व है तो यह जरूरी है कि निरपेक्ष की कोई शक्ति उसका कोई अंतर्निहित क्रियाशील सामर्थ्य होगा जो उसे अस्तित्व में लाया हो । यह मानने का कोई कारण नहीं कि निरपेक्ष की शक्ति भ्रमों को उत्पन्न करने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकती । इसके विपरीत जो शक्ति सृजन करती है उसे तो सर्व-शक्तिमान् और सर्वज्ञ चेतना की शक्ति होना चाहिये । पूर्णत: यथार्थ के सृजन भी यथार्थ होने चाहियें भ्रांति नहीं और चूंकि वह एकमेव सत् है इसलिये वे आत्म-सृजन शाश्वत की अभिव्यक्ति के रूप होने चाहियें, आदि शून्य में से माया द्वारा बनाये गये शून्य के रूप नहीं -चाहे वह शून्य सत्ता हो या शून्य चेतना ।

 

   विश्व को वास्तविक स्वीकार करने से इंकार के आधार में यह धारणा या अनुभूति है कि सद्वस्तु अक्षर, अलक्षण तथा निष्क्रिय है और उसकी उपलब्धि ऐसी चेतना द्वारा होती है जो अपने-आप नीरवता की स्थिति में आ गयी हो और निश्चल हो । विश्व गतिशील क्रिया-शक्ति का परिणाम है । यह सत्ता की शक्ति है जो अपने-आपको बाहर क्रिया में प्रक्षिप्त कर रही है, कार्यरत ऊर्जा है, चाहे वह ऊर्जा धारणात्मक हो या यांत्रिक, चाहे वह आध्यात्मिक, मानसिक, प्राणिक या भौतिक क्रिया-शक्ति हो । इस तरह हम उसे स्थिर, अचंचल शाश्वत सद्वस्तु से उल्टा, या आत्म-स्खलन अतएव अवास्तविक मान लेते हैं । परंतु धारणा के रूप में विचार की इस स्थिति की कोई अनिवार्यता नहीं है, ऐसा कोई कारण नहीं है कि क्यों हम सद्वस्तु के बारे में यह धारणा न बनायें कि वह एकसाथ निष्क्रिय और सक्रिय दोनों ही है । यह मानना पूरी तरह युक्तिसंगत है कि सद्वस्तु की सत्ता की शाश्वत स्थिति अपने अंदर सत्ता की शाश्वत शक्ति को समाये हुए है और इस शक्तिमत्ता में अवश्य ही कर्म तथा गति की शक्ति होगी, क्रियाशीलता होगी । सत्ता की स्थिति और सत्ता की गतिशीलता दोनों ही सत्य हो सकती हैं । ना ही इसका कोई कारण है कि क्यों वे युगपत् न हों, इसके विपरीत युगपत्ता अपेक्षित है क्योंकि समस्त ऊर्जा को, समस्त सचल क्रिया को, यदि उसे प्रभावी या सृजनशील होना है तो उसे अपना आधार स्थिति पर या स्थिति के सहारे रखना पड़ता है नहीं तो किसी भी सृष्ट चीज में घनता न होगी, केवल एक सतत चक्कर होगा जो कोई रूप न लेगा । सत्ता के गतिक्रम के लिये सत्ता की स्थिति, सत्ता का रूप जरूरी है । चाहे ऊर्जा प्रारंभिक वास्तविकता हो, जैसा कि जड़ भौतिक जगत् में मालूम होता है तब भी उसे अपनी स्थिति, स्थायी रूप, सत्ताओं का टिकाऊपन निर्मित करना पड़ता है ताकि वह अपने कार्य में सहारा पा सके । स्थिति अस्थायी हों सकती है, वह सतत गतिक्रम द्वारा निर्मित और रक्षित उपादान का संतुलन और साम्यावास्था ही हो ऐसा हो सकता है लेकिन

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जबतक वह बनी हुई हैं वह वास्तविक है और जब वह समाप्त हो जाती है तब भी हम यही मानते हैं कि वह कोई वास्तविक चीज थी । क्रिया के लिये सहारा देनेवाली कोई स्थिति हो यह स्थायी विधान है और उसकी क्रिया काल की शाश्वतता में सतत रहती है । जब हम ऊर्जा की इस सारी गति और रूपों की इस सृष्टि के आधार में रहनेवाली स्थायी सद्वस्तु की खोज कर लेते हैं तो निःसंदेह हमें यह प्रत्यक्ष होता है कि बने हुए रूपों की स्थिति केवल थोड़े समय के लिये है; गतिक्रम की एक-सी निरंतर क्रिया और आकृति में क्रियाशीलता की स्थायी रूप से पुनरावृत्ति होती है जो सत्ता के पदार्थ को अपने स्थायी रूप में बनाये रखती है । लेकिन यह स्थिरता तो बनायी हुई है और एकमात्र स्थायी और स्वयंभू स्थिति तो शाश्वत सत्ता की है जिसकी ऊर्जा ने रूपों को खड़ा किया । लेकिन इस कारण हमें यह निष्कर्ष न निकाल लेना चाहिये कि अल्पकालिक रूप अवास्तविक हैं क्योंकि सत्ता की ऊर्जा वास्तविक है और उसके द्वारा बनाये गये रूप सत्ता के रूप हैं । बहरहाल, सत्ता की स्थिति और सत्ता की शाश्वत क्रियाशीलता दोनों वास्तविक हैं । वे युगपत् हैं । स्थिति क्रियाशीलता के कर्म को अनुमति देती है और कर्म स्थिति को रद्द नहीं करता । इसलिये हमें इस निष्कर्ष पर आना चाहिये कि शाश्वत स्थिति और शाश्वत गति दोनों ही उस सद्वस्तु के सत्य हैं जो स्थिति और गति दोनों के परे है । चल और अचल ब्रह्म दोनों एक ही सद्वस्तु हैं ।

 

   लेकिन अनुभव से हमें पता चलता है कि सामान्यतः हमारे लिये प्रशांतता ही शाश्वत और अनंत की स्थिर उपलब्धि लाती है । निश्चल नीरवता या स्थिरता में हमें सबसे अधिक दृढ़ता के साथ किसी 'ऐसी' चीज का अनुभव होता है जो उस जगत् के पीछे है जिसे हमारा मन और हमारी इन्द्रियां हमें दिखलाती हैं । हमारी विचार की ज्ञानात्मक क्रिया, हमारी प्राण और सत्ता की क्रिया सत्य को, वास्तविकता को ढके हुए प्रतीत होती हैं । वे सांत को पकड़ सकती हैं, अनंत को नहीं । वे शाश्वत सद्वस्तु के साथ नहीं अल्पकालीन वास्तविकता के साथ व्यवहार करती हैं । तर्क किया जाता है कि यह इस कारण है कि समस्त क्रिया, समस्त सृजन, समस्त निर्देशक प्रत्यक्ष-दर्शन सीमित करता है वह सद्वस्तु को पकड़ता या उसका आलिंगन नहीं करता और जब हम सद्वस्तु की अविभाज्य और अनिर्देश्य चेतना में प्रवेश करते हैं तो उसकी रचनाएं गायब हो जाती हैं । ये रचनाएं शाश्वत में अवास्तविक हैं, काल में वे चाहे जितनी वास्तविक क्यों न हों या प्रतीत होती हों । कर्म अज्ञान की ओर, सृष्ट और सांत की ओर ले जाता है । गतिक्रम और सृजन अक्षर सद्वस्तु का, शुद्ध, असृष्ट सत् का निषेध है । लेकिन यह तर्क पूरी तरह प्रामाणिक नहीं है क्योंकि वह प्रत्यक्ष-दर्शन और क्रिया को केवल उस रूप में देखता है जिस रूप में जगत् और उसकी गति हमारे मानसिक ज्ञान में है, लेकिन वह तो चीजों के बारे में उसकी काल में स्थान बदलती हुई गति से हमारी सतही सत्ता का अनुभव है । यह दृष्टि अपने-आप सतही, खंडित और परिसीमित है,

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समग्र नहीं, वस्तुओं के आतंरिक भाव में डुबकी लगानेवाली नहीं । वस्तुत: हम देखते हैं कि यह जरूरी नहीं है कि कर्म बंधन या परिसीमन करे बशर्ते कि हम इस क्षणगत ज्ञान से निकल कर शाश्वत के ज्ञान की स्थिति में चले जायें जो सच्ची चेतना का धर्म है । कर्म मुक्त आदमी को न तो बांधता है न सीमित करता है, कर्म शाश्वत को न तो बांधता है न सीमित करता है; बल्कि हम और आगे जाकर कह सकते हैं कि कर्म हमारी अपनी सच्ची सत्ता को बिलकुल नहीं बांधता या सीमित करता । कर्म का हमारे अंदर के आध्यात्मिक पुरुष या चैत्य सत्ता पर ऐसा कोई असर नहीं होता । वह केवल सतह पर बने व्यक्तित्व को ही बांधता या सीमित करता है । यह व्यक्तित्व हमारी आत्म-सत्ता की एक अल्पकालीन अभिव्यक्ति है, उसका एक बदलता हुआ रूप है, उसीके बलपर जीने में समर्थ है और अपने पदार्थ और अस्तित्व की रक्षा के लिये उसीपर आश्रित है -यह अल्पकालीन है पर अवास्तविक नहीं । हमारे विचार और कर्म हमारी अपनी अभिव्यक्ति के साधन हैं और चूंकि अभिव्यक्ति अपूर्ण और विकसनशील है, चूंकि वह काल में हमारी स्वाभाविक सत्ता का विकास है अतः विचार और कर्म विकसित होने में, बदलने में, अपनी सीमाओं को बदलने और बढ़ाने में उसकी सहायता करते हैं, साथ-ही-साथ सीमाएं बनाये रखने में भी सहायता करते हैं, उस अर्थ में सीमित करते और बांधते हैं । वे अपने-आपमें आत्म-प्रकाशन के अपूर्ण प्रकार हैं लेकिन जब हम अपने अंदर सच्ची आत्मा और पुरुष में लौटते हैं तो कर्म और प्रत्यक्ष-दर्शन की सीमाओं से न कोई परिसीमन रहता है न बंधन । दोनों का उद्गम आत्मा की चेतना की अभिव्यक्तियों और उसकी शक्ति की अभिव्यक्तियों के रूप में होता है जब कि वह अपनी प्राकृत सत्ता के स्वतंत्र आत्म-निर्देशन के लिये, आत्मोन्यीलन के लिये, जो स्वयं असीम है, ऐसी किसी चीज की कालिक संभूति के लिये क्रिया करती है । परिसीमन, जो विकसनशील आत्म-निर्देशन के लिये आवश्यक परिस्थिति है, अगर वह सत्ता के सारतत्त्व या उसकी समग्रता को बदले तो वह आत्मा का निराकरण या आत्मा से, सद्वस्तु से स्खलन और इस कारण स्वयं अवास्तविक हो सकता है । वह यदि किसी अनात्म-शक्ति से निकलनेवाले विजातीय अध्यारोप द्वारा हमारे जागतिक जीवन के अंतरतम साक्षी और स्रष्टा-चेतना को आच्छन्न कर देता हो या किसी ऐसी वस्तु का निर्माण करता है जो सत्-पुरुष की आत्म-चेतना या संभूति-इच्छा के विरुद्ध हो तो यह आत्मा के लिये बंधन अतः अवैध होगा । परंतु सत्ता का सार समस्त कर्म और रूपायण में एक-सा रहता है और स्वतंत्रता से स्वीकार की गयी सीमाएं सत्ता की समग्रता को क्षीण नहीं करतीं । वे सीमाएं बाहर से आरोपित नहीं, अपने-आप स्वीकार की गयीं और स्वारोपित हैं । वे काल की गति में हमारी समग्रता की अभिव्यक्ति के साधन हैं; वस्तुओं की ऐसी व्यवस्था हैं जिसे हमारी आंतरिक आध्यात्मिक सत्ता ने बाहरी प्राकृत-सत्ता पर

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आरोपित किया है, सदा स्वतंत्र आत्मा पर आरोपित बंधन नहीं हैं । अतः प्रत्यक्ष दर्शन और कर्म के परिसीमन से यह परिणाम निकालने की जरूरत नहीं कि गति अवास्तविक है या आत्मा की अभिव्यक्ति, रूपायण या आत्म-सृजन अवास्तविक है । यह वास्तविकता की कालिक व्यवस्था है, फिर भी है सद्वस्तु की वास्तविकता, कुछ और नहीं । जो कुछ क्रियाशीलता में, गति में, कर्म में, सृजन में है ब्रह्म है, संभवन सत्ता की एक गति है । काल शाश्वत की अभिव्यक्ति है । सब कुछ एक सत् है, एक चेतना है, अनंत बहुलता में भी एक है और उसका परात्पर सद्वस्तु और अवास्तविक वैश्व माया के विरोधों में द्विभाजन करने की जरूरत नहीं ।

 

   शंकर के दर्शन में हम एक संघर्ष की उपस्थिति का अनुभव करते हैं, एक ऐसा विरोध जिसे उसकी शक्तिशाली बुद्धि ने पूरी शक्ति के साथ व्यक्त किया है और अंतिम रूप से हल करने की जगह कौशल के साथ व्यवस्थित किया है -निरपेक्ष परात्पर और अंतरतम सद्वस्तु के बारे में तीव्र रूप से अभिज्ञ अंतर्भास और एक सबल मानसिक बुद्धि जो जगत् को तीक्ष्ण और प्रबल युक्ति-संगत बुद्धि से देखती है, इन दोनों के बीच का संघर्ष । मनीषी की बुद्धि प्रपंचात्मक जगत् को बुद्धि के दृष्टिकोण से देखती है । वहां तर्क-बुद्धि ही निर्णायक और अधिकारी है और कोई अतिबौद्धिक प्रमाण उसके विरुद्ध नहीं ठहर सकता । लेकिन प्रपंचात्मक जगत् के पीछे एक परात्पर सद्वस्तु है जिसे केवल अंतर्भास ही देख सकता है । वहां तर्क- बुद्धि, कम-से-कम सांत, विभाजनकारी, सीमित बुद्धि अंतर्भासात्मक अनुभव के आगे नहीं ठहर सकती, वह दोनों का संबंध भी नहीं जोड़ सकती और इसलिये वह विश्व के रहस्य को हल भी नहीं कर सकती । तर्क-बुद्धि को प्रपंचात्मक सत्ता की वास्तविकता को स्वीकारना पड़ता है, उसके सत्यों को वैध मानना पड़ता है लेकिन वे केवल उसी प्रपंचात्मक सत्ता में वैध होते हैं । यह प्रपंचात्मक सत्ता वास्तविक है क्योंकि वह शाश्वत सत्ता, सद्वस्तु का कालिक आभास है । लेकिन वह स्वयं वह सद्वस्तु नहीं है और जब हम इस आभास से सद्वस्तु की ओर जाते हैं तो भी उसका अस्तित्व रहता है लेकिन वह हमारी चेतना के लिये प्रामाणिक नहीं रहता अत: वह अवास्तविक होता है । शंकर इस प्रत्याख्यान को, इस विरोध को ले लेते हैं जो हमारी मानसिक चेतना के लिये तब सामान्य होता है जब वह दोनों पक्षों के अस्तित्व के बारे में अभिज्ञ होती और उनके बीच में खड़ी होती है । वे उसका हल करते हैं तर्क-बुद्धि को इस रूप में बाधित करके कि वह अपनी सीमाओं को जाने जिनमें, उसके अपने विश्व-प्रदेश के अन्तर्गत उसका अक्षुण्ण प्रभुत्व उसके लिये बना हुआ है और परात्पर सद्वस्तु के बारे में अंतरात्मा के अंतर्भास के मामले में चुप रहे, चुपचाप उसे मान ले और माया द्वारा निर्मित और मन पर आरोपित सीमाओं से अपने बच निकलने का समर्थन ऐसे तर्क से करे जो अंत में सारे वैश्व प्रापंचिक और युक्ति-युक्त व्यावहारिक वस्तुओं के महल को ढा देता है । विश्व के

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अस्तित्व की जिस व्याख्या से यह परिणाम लाया जाता है, वह यह प्रतीत होती है -अथवा हम उसे अपनी समझ में इस तरह अनूदित कर सकते हैं क्योंकि इस गहन और सूक्ष्म दर्शन के भिन्न-भिन्न प्रतिपादन हुए हैं -कि एक परात्पर है जो सदा स्वयंभू और अक्षर रहता हैं और एक जगत् है जो केवल आभासी और कालिक है । शाश्वत सद्वस्तु आभासी जगत् के संबंध में अपने-आपको आत्मा और ईश्वर के रूप में प्रकट करती है । ईश्वर अपनी प्रपंचात्मक सृजन-शक्ति, माया द्वारा इस जगत् का कालिक प्रपंच के रूप में सृजन करता है और शुद्ध सद्वस्तु में, अस्तित्व न रखनेवाली चीजों के आभास को माया हमारी मानसिक धारणात्मक और इन्द्रिय-बोधात्मक चेतना के माध्यम से अतिचेतन या शुद्ध रूप में आत्म-चेतन सद्वस्तु पर आरोपित करती है । ब्रह्म, सद्वस्तु प्रपंचात्मक जगत् में जीवित व्यक्ति की आत्मा के रूप में प्रकट होता है लेकिन जब व्यक्ति का व्यक्तित्व अंतर्भासी ज्ञान द्वारा विघटित होता है तो प्रपंचात्मक सत्ता आत्म-सत्ता में मुक्त हो जाती है; वह फिर माया के आधीन नहीं रहती, व्यक्तित्व की प्रतीति से मुक्ति पाकर सद्वस्तु में निर्वाण पा लेती हैं लेकिन जगत् ईश्वर की मायिक सृष्टि के रूप में आदि-अंतहीन बना रहता है ।

 

   यह एक ऐसी व्यवस्था है जो आध्यात्मिक अंतर्भास और तर्क बुद्धि तथा इन्द्रियों से प्राप्त सामग्री का एक-दूसरे के साथ संबंध जोड़ देती है और हमारे लिये उनके विरोध में से निकलने के लिये एक रास्ता खोल देती है, यह आध्यात्मिक और व्यावहारिक फल है लेकिन यह कोई समाधान नहीं ३ । यह विरोध को लुप्त नहीं करता । माया वास्तविक और अवास्तविक है । जगत् केवल भ्रम नहीं है क्योंकि उसका अस्तित्व हैं और वह काल में वास्तविक है परंतु अंतत: परात्पर रूप से वह अवास्तविक सिद्ध होता हैं । इससे एक अस्पष्टता पैदा होती है जो अपने परे जाती है और उस सबका स्पर्श करती है जो शुद्ध स्वयंभू सत्ता नहीं है । इस तरह ईश्वर, यद्यपि वह माया के भ्रम में नहीं है और माया का स्रष्टा हैं, फिर भी वह ब्रह्म का एक आभास ही मालूम होता है, चरम सद्वस्तु नहीं । वह केवल कालिक जगत् के संबंध में वास्तविक है जिसका वह सृजन करता है । व्यक्तिगत आत्मा का भी वही अस्पष्ट लक्षण है । अगर माया अपनी क्रियाओं से एकदम हाथ खींच ले तो ईश्वर, जगत् और व्यक्ति बिलकुल न रहेंगे लेकिन माया शाश्वत है, ईश्वर और जगत् काल में शाश्वत हैं, व्यक्ति तबतक टिका रहता है जबतक वह ज्ञान द्वारा अपने-आपको समाप्त नहीं कर देता । इन आधारों पर हमारे विचार को एक अनिर्वचनीय अतिबौद्धिक रहस्य की धारणा में शरण लेनी पड़ती है जिसका समाधान बुद्धि के पास नहीं है । लेकिन इस अस्पष्टता के सामने, वस्तुओं के आरंभ और विचार की प्रक्रिया के अंत में असमाधेय रहस्य को स्वीकार कर लेने से हमें यह संदेह होने लगता है कि बीच की कोई कड़ी गुम है । ईश्वर अपने-आपमें माया का प्रपंच नहीं

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है । वह वास्तविक है, तब उसे परात्पर के सत्य की अभिव्यक्ति होना चाहिये या उसे स्वयं परात्पर होना चाहिये जो ऐसे विश्व के साथ व्यवहार कर रहा है जो स्वयं उसीकी सत्ता में अभिव्यक्त हुआ है । अगर जगत् जस भी सच्चा है तो उसे भी परात्पर के किसी सत्य की अभिव्यक्ति होना चाहिये क्योंकि केवल उसी में कोई वास्तविकता हो सकती है । अगर व्यक्ति में आत्मान्वेषण की और परात्पर शाश्वतता में प्रवेश की शक्ति है और उसकी मुक्ति का इतना अधिक महत्त्व है तो वह इस कारण हो सकता है कि वह भी परात्पर की वास्तविकता है, उसे व्यक्तिगत रूप से अपनी खोज करनी है क्योंकि उसके व्यक्तित्व में भी उसका अपना कुछ सत्य परात्पर में है जो उससे छिपा हुआ है, जिसे उसे खोज निकालना होगा । यह आत्मा का और जगत् का अज्ञान है जिसे जीतना है, यह किसी भ्रम या व्यक्तित्व और जगत्-अस्तित्व की कल्पना नहीं हैं ।

 

   यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे पसत्पर अतिबौद्धिक है और केवल अंतर्भासात्मक अनुभव और उपलब्धि से ही पकड़ में आ सकता है उसी तरह विश्व का रहस्य भी अतिबौद्धिक है । उसे ऐसा होना चाहिये क्योंकि वह परात्पर सद्वस्तु का आभास है और अगर वह कुछ और होता तो बौद्धिक तर्क द्वारा असमाधेय न होता । लेकिन अगर ऐसा है तो हमें खाई को पाटने और रहस्य में प्रवेश करने के लिये बुद्धि के परे जाना होगा । विरोध को हल किये बिना छोड़ देना अंतिम समाधान नहीं हो सकता । बौद्धिक तर्क ही ब्रह्म, आत्मा, ईश्वर, व्यष्टि-जीव, परम चेतना या अतिचेतना और मायिक जगत् चेतना की विरोधी या विभाजक धारणाओं की रचना करके एक प्रतीयमान विरोध को साकार करता और चिरस्थायी बनाता है । अगर केवल ब्रह्म का अस्तित्व है तो इन सबको ब्रह्म होना चाहिये और ब्रह्म-चेतना में इन धारणाओं के विभाजन को समाधानकारी आत्म-दृष्टि में गायब हो जाना चाहिये । लेकिन हम उनके सच्चे ऐक्यतक बौद्धिक तर्क के परे जाकर और आध्यात्मिक अनुभव द्वारा यह पता लगाकर ही पहुंच सकते हैं कि वे कहां मिलते और एक होते हैं और उनकी आभासी विषमता की आध्यात्मिक वास्तविकता क्या है । वस्तुत: ब्रह्म-चेतना में विषमताओं का अस्तित्व नहीं रह सकता । उन्हें हमारे ब्रह्म-चेतना में जाने के कारण एकता में मिलकर एक हो जाना चाहिये । बौद्धिक तर्क के विभाजन एक वास्तविकता के साथ मेल खा सकते हैं लेकिन वह होनी चाहिये बहुविध एकत्व की वास्तविकता । बुद्ध ने अपनी भेदन करती हुई तार्किक बुद्धि को अंतर्भासात्मक दृष्टि के साथ जगत् के उस रूप में लगाया जिसे हमारा मन और इन्द्रियां देखती हैं, और उसकी रचना के सिद्धांत और सभी रचनाओं से छुटकारे के मार्ग का पता लगाया लेकिन इससे आगे जाने से इंकार कर दिया । शंकर ने अगला कदम उठाया और अति-बौद्धिक सत्य को देखा जिसे बुद्ध ने यह कहकर पर्दे के पीछे रखा था कि वह चेतना की रचनाओं को रद्द करने के द्वारा प्राप्त हो सकता है परंतु वह तर्क-बुद्धि की खोज के क्षेत्र के परे है । शंकर ने

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जगत् और शाश्वत सद्वस्तु के बीच खड़े होकर देखा कि जगत् का रहस्य अंततः अति-बौद्धिक है, वह हमारी बुद्धि के लिये धारणातीत या अनिर्वचनीय होना चाहिये लेकिन उन्होंने जगत् के उस रूप को भी प्रामाणिक माना जो बुद्धि और इन्द्रियों को दिखायी देता है अतः उन्हें एक अवास्तविक वास्तविकता की स्थापना करनी पड़ी क्योंकि उन्होंने इससे भी आगे का एक और कदम नहीं लिया । क्योंकि जगत् के वास्तविक सत्य को जानने के लिये, उसकी वास्तविकता को जानने के लिये उसे अतिबौद्धिक अभिज्ञता से देखना चाहिये, उस अतिचेतना की दृष्टि से देखना चाहिये जो जगत् के सत्य को बनाये रखती और उसका अतिक्रमण करती है और चूंकि उसका अतिक्रमण करती है इसलिये उसे उसके सत्य में जानती है, उस चेतना की दृष्टि द्वारा नहीं जो अतिचेतना के अंदर बनी रहती और जिसका वह अतिक्रमण करती है और इसलिये उसे नहीं जानती और जानती है तो केवल उसके आभास से । यह नहीं हो सकता कि उस स्वयंभू परम चेतना के लिये जगत् एक अबोधगम्य रहस्य है या यह उसके लिये एक भ्रम है जो पूरी तरह भ्रम भी नहीं है, एक वास्तविकता है जो साथ-ही-साथ अवस्तिावक है । भगवान् के लिये विश्व के रहस्य का कोई दिव्य भाव होना चाहिये । उसमें वैश्व सत्ता का कोई ऐसा अर्थ या सत्य होना चाहिये जो उस सद्वस्तु के लिये प्रकाशमान है जो अपनी विश्वातीत फिर भी अंतर्व्यापी अतिचेतना द्वारा उसे धारण करती है ।

 

   यदि केवल सद्वस्तु का ही अस्तित्व है और सब कुछ सद्वस्तु है तो जगत् को भी सद्वस्तु से बाहर नहीं किया जा सकता, विश्व भी वास्तविक है । अगर वह अपने रूप और शक्तियों में उस सद्वस्तु को प्रकट नहीं करता जो वह है, अगर वह देश और काल में केवल स्थायी और फिर भी परिवर्तनशील गति मालूम होता है तो यह इसलिये नहीं कि वह अवास्तविक है, या वह तत् हर्गिज नहीं है बल्कि इसलिये कि वह काल में तत् की प्रगतिशील आत्माभिव्यक्ति है, एक अभिव्यक्ति, विकसनशील आत्मविकास है जिसे हमारी चेतना अभीतक उसकी समग्रता या मूल अर्थ में नहीं देख पाती है । इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि वह तत् है भी और तत् नहीं भी है -क्योंकि वह समस्त सद्वस्तु को अपनी आत्माभिव्यक्ति के किसी रूप के द्वारा या रूपों के योगफल के द्वारा प्रकट नहीं करता, फिर भी उसके सभी रूप उसी सद्वस्तु के उपादान और सत्ता के रूप होते हैं । सभी सांत अपने आध्यात्मिक सारतत्त्व में वही 'अनंत' हैं और अगर हम पर्याप्त गहराई से उनके अंदर देखें तो वे अंतर्भास के आगे उसी 'अभिन्न' और उसी  'अनंत' को अभिव्यक्त करते हैं । वस्तुतः यह प्रतिपादित किया जाता है कि विश्व अभिव्यक्ति नहीं हो सकता क्योंकि सद्वस्तु को अभिव्यक्ति की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अपने लिये सदा-सर्वदा अभिव्यक्त रहती है लेकिन समान रूप से यह भी कहा जा सकता है कि सद्वस्तु को आत्मभ्रम की या किसी तरह के भ्रम की जरूरत नहीं है, एक मायामय विश्व

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बनाने की जरूरत नहीं है । निरपेक्ष को किसी चीज की जरूरत नहीं हो सकती फिर भी हो सकता है कि अपने-आपको कार्यान्वित करनेवाली परम शक्ति की ऐसी प्रेरणा हो जिसे टाला नहीं जा सकता, आत्म-सृजन की कोई अनिवार्यता हो जो निरपेक्ष की अपने-आपको काल में देखने की शक्ति से पैदा हुई हो -वह उसकी स्वाधीनता का दमन नहीं करती, उसके लिये बाध्यकारी नहीं है बल्कि उसकी आत्म-शक्ति की एक अभिव्यक्ति है, उसकी संभूत होने की इच्छा का परिणाम है । यह अनुल्लंध्य प्रेरणा हमारे आगे सृजन की इच्छा के रूप में, आत्माभिव्यक्ति की इच्छा के रूप में अपने-आपको प्रदर्शित करती है लेकिन इसे ज्यादा अच्छी तरह इस रूप में प्रदर्शित किया जा सकता है कि यह निरपेक्ष की सत्ता की शक्ति है जो अपने-आपको क्रिया के अंतर्गत अपनी शक्ति के रूप में प्रदर्शित करती है । अगर निरपेक्ष शाश्वत कालातीतता में अपने लिये स्वयं-सिद्ध है तो वह काल की शाश्वत गति में अपने लिये आत्माभिव्यक्त भी हो सकता है । अगर विश्व केवल एक आभासी वास्तविकता है तो भी वह ब्रह्म की अभिव्यक्ति या आभास है । चूंकि सब कुछ ब्रह्म है अतः आभास और अभिव्यक्ति वही चीज होने चाहियें । उनकी अवास्तविकता का अभियोग निष्प्रयोजन धारणा है, निरर्थक है और अनावश्यक पेचीदगी पैदा करता है क्योंकि जिस किसी भेद की आवश्यकता हैं वह वस्तुत: पहले ही से काल और कालातीत शाश्वत की धारणा में और अभिव्यक्ति की धारणा में मौजूद है ।

 

   वह एक चीज जिसका वर्णन अवास्तविक वास्तविकता कहकर किया जा सकता है वह है पृथक्ता का व्यक्तिगत बोध और सांत की अनंत में स्वयंभू विषय के रूप में कल्पना । यह धारणा, यह बोध व्यावहारिक रूप से सतही व्यक्तित्व कई क्रियाओं के लिये जरूरी हैं और प्रभावकारी हैं और अपने प्रभाव के नाते उचित सिद्ध होते हैं अत: वे उसकी सांत तर्क-बुद्धि और सांत अनुभव के लिये वास्तविक हैं । लेकिन एक बार हम सांत चेतना से तात्त्विक और अनंत की चेतना में पीछे हट जायें, आभासी में से सत्य पुरुष में हट जायें तो भी सांत या व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है परंतु रहता है अनंत की सत्ता और शक्ति और अभिव्यक्ति के रूप में; उसकी कोई स्वतंत्र या पृथक् वास्तविकता नहीं होती । व्यक्तिगत वास्तविकता के लिये व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पूरी पृथक्ता की जरूरत नहीं है और न ही है उसके उपादान हैं । दूसरी ओर, अभिव्यक्ति के इन सांत रूपों का गायब होना, स्पष्ट रूप से, समस्या का एक अंग है लेकिन जो अपने-आपमें उन्हें अवास्तविकता का दोषी नहीं ठहराता । यह गायब होना अभिव्यक्ति से केवल पीछे हटना हो सकता है । कालातीत की वैश्व अभिव्यक्ति कालक्रम में होती है अतः उसके रूप सतह पर अपने प्राकट्य में अल्पकालीन होंगे लेकिन वे अपनी अभिव्यक्ति की तात्त्विक शक्ति में शाश्वत हैं क्योंकि वे चीजों के सार में और जिस सारभूत चेतना से आते हैं उसमें निहित और शक्यता के रूप में सदा धारित रहते हैं । कालातीत चेतना

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हमेशा उनकी स्थायी शक्यता को कालिक तथ्य के पदों में बदल सकती है । जगत् अवास्तविक होता यदि वह स्वयं और उसके रूप सत्ता के उपादान-रहित बिंब होते या चेतना की कल्पनाएं होते जिन्हें सद्वस्तु ने अपने सामने शुद्ध कल्पना के रूप में उपस्थित किया है और फिर वे सदा के लिये नष्ट हो जाते । लेकिन अगर अभिव्यक्ति या अभिव्यक्ति-शक्ति शाश्वत हैं, अगर सब कुछ ब्रह्म की, सद्वस्तु की सत्ता है तो यह अवास्तविकता या भ्रम, वस्तुओं का या उस विश्व का, जिसमें वे प्रकट होते हैं, आधारभूत लक्षण नहीं हो सकते ।

 

   वैश्व सत्ता के भ्रम या अवास्तविकता होने के अर्थ में माया का सिद्धांत जितनी कठिनाइयां हल करता है उनसे ज्यादा नयी पैदा कर देता है । वास्तव में वह सत्ता की समस्या हल नहीं करता बल्कि उसे हमेशा के लिये असमाधेय बना देता है । क्योंकि चाहे माया अवास्तविकता हो या अवास्तविक वास्तविकता, अंततः इस सिद्धांत में व्यर्थ बना देनेवाली विनाशकारी सरलता रहती है । स्वयं हम और यह विश्व शून्यत्व में खो जाते हैं या बस कुछ समय के लिये ऐसा सत्य बनाये रखते हैं जो कल्पना से कुछ ही बढ़कर है । माया के शुद्ध अवास्तविकता के सिद्धांत में समस्त अनुभूति, समस्त ज्ञान और साथ ही समस्त अज्ञान, जो ज्ञान हमें मुक्त करता है और उसी प्रमाण में जो अज्ञान हमें बांधता है, जगत् की स्वीकृति और जगत् की अस्वीकृति एक ही भ्रम के दो पक्ष हैं क्योंकि स्वीकार करने या इंकार करने के लिये कुछ है ही नहीं, स्वीकार करने या इंकार करनेवाला कोई नहीं है । सारे समय केवल अक्षर, अतिचेतन सद्वस्तु का अस्तित्व था, मुक्ति और बंधन केवल आभास थे, कोई वास्तविकता नहीं । जगत्-सत्ता के साथ सारा लगाव एक भ्रम है लेकिन मुक्ति के लिये पुकार भी भ्रम की एक अवस्था है । वह कुछ ऐसी चीज है जिसका सृजन माया में हुआ था, जो अपनी मुक्ति द्वारा माया में समाप्त हो जाती है लेकिन इस शून्यीकरण की विनाशकारी प्रगति को आध्यात्मिक मायावाद द्वारा निर्धारित सीमा पर रुकने के लिये बाधित नहीं किया जा सकता क्योंकि अगर विश्व में वैयक्तिक चेतना के सभी अनुभव भ्रम हैं तो इस बात का क्या भरोसा कि उसकी आध्यात्मिक अनुभूतियां भी भ्रम नहीं हैं जिनमें परम सत् के अंदर आत्मानुभव में तल्लीनता भी भ्रम नहीं है जिसे हमारे लिये पूर्ण वास्तविकता माना जाता है । क्योंकि, अगर विश्व असत्य है तो हमारी वैश्व चेतना की अनुभूति, वैश्व आत्मा, ब्रह्म की इन सब सत्ताओं के रूप में या सभी सत्ताओं की आत्मा के रूप में, सबके अंदर एकमेव और एकमेव के अंदर सबके रूप में अनुभूति की कोई सुदृढ़ नींव नहीं रह जाती क्योंकि वह अपने किसी पाद पर, भ्रम पर, माया की रचना पर ही टिका है । उस पाद को, विश्व-पाद को ढह जाना होता है क्योंकि वे सब सत्ताएं जिन्हें हमने ब्रह्म-रूप में देखा, भ्रम थीं, तब फिर उस दूसरे पाद, शुद्ध आत्मा, नीरव, स्थिर या निरपेक्ष सद्वस्तु की हमारी अनुभूति के बारे में ही क्या

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भरोसा क्योंकि वह भी हमारे पास मोह, विभ्रम में ढले मन और भ्रम द्वारा बनाये गये शरीर के रूप में आती है ? अभिभूत करनेवाली स्वतः -सिद्ध विश्वसनीयता, उपलब्धि या अनुभूति में पूर्ण प्रामाणिकता एकमात्र वास्तविकता या एकमात्र अंतिमता का अकाट्य प्रमाण नहीं है : क्योंकि सर्व-व्यापक दिव्य पुरुष, वास्तविक जगत् के स्वामी के अनुभव जैसी अन्य आध्यात्मिक अनुभूतियों में भी उसी विश्वसनीय प्रामाणिकता और अंतिमता के लक्षण होते हैं । जो बुद्धि एक बार अन्य सभी चीजों की अवास्तविकता पर विश्वास करने की हदतक पहुंच गयी है उसके लिये एक और कदम आगे बढ़ाकर आत्मा और समस्त सत् की वास्तविकता से इंकार करना संभव है । बौद्धों ने यह अंतिम कदम उठाया और आत्मा की वास्तविकता से इस आधार पर इंकार किया कि वह भी अन्य चीजों के समान ही मन की रचना है । उन्होंन न केवल भगवान् बल्कि शाश्वत आत्मा और निर्गुण ब्रह्म को भी तस्वीर में से निकाल दिया ।

 

   मायावाद का कट्टर सिद्धांत हमारे जीवन की किसी समस्या का समाधान नहीं करता । वह केवल व्यक्ति को बाहर निकलने का रास्ता दिखाने के लिये समस्या को काटकर फेंक देता है । इसके चरम रूप और परिणाम में हमारी सत्ता और उसके कर्म शून्य और अनुमोदनहीन हो जाते हैं । हमारी सत्ता के अनुभव, अभीप्सा और प्रयास अपनी सार्थकता खो देते हैं । एक अनिर्वचनीय और संबंधरहित सत्य और उसकी ओर उन्मुख होने को छोड़कर जो कुछ भी है वह सब सत्ता का भ्रम हो जाता है, एक विश्वव्यापी भ्रम का अंग और अपने-आप भी भ्रम । तब ईश्वर, हम और विश्व माया की कपोल-कल्पनाएं बन जाते हैं क्योंकि ईश्वर माया के अंदर ब्रह्म का प्रतिबिंब ही तो है और स्वयं हम एक भ्रमात्मक व्यक्तित्व में ब्रह्म के प्रतिबिंब भर हैं । जगत् ब्रह्म की अनिर्वचनीय स्वयंभू सत्ता पर एक अध्यारोप मात्र है । अगर भ्रम के बीच भी सत्ता की कुछ वास्तविकता को स्वीकार कर लिया जाये, उस अनुभव और ज्ञान की कुछ प्रामाणिकता मानी जाये जिसके द्वारा हम आत्मा में बढ़ते हैं तो यह शून्य कम उग्र हो जाता है । लेकिन यह तभी हो सकता है जब कालिक की कोई प्रामाणिक वास्तविकता हो और उसमें हुए अनुभव वास्तव में वैध हों और तब उस हालत में हम जिसके सामने हैं वह कोई भ्रम नहीं है जो अवास्तविक को वास्तविक मान रहा है बल्कि एक अज्ञान हैं जो वास्तविक को गलत समझ रहा है । अन्यथा अगर वे सत्ताएं ब्रह्म जिनकी आत्मा है, वे भ्रमात्मक हैं, तो उसकी आत्मता प्रामाणिक नहीं है, वह भ्रम का भाग है, आत्मा की अनुभूति भी भ्रम है; सोऽहं की अनुभूति एक अज्ञानभरी धारणा से दूषित हो जाती हैं क्योंकि अहं तो है ही नहीं केवल तत् है । ब्रह्मास्मि के अनुभव में दोहरा अज्ञान है क्योंकि वह एक चिन्मय शाश्वत को, एक विश्व-प्रभु को, एक वैश्व सत्ता को मानता है लेकिन अगर विश्व में कोई वास्तविकता नहीं है तो ऐसी कोई चीज संभव ही नहीं है, जीवन का सच्चा समाधान किसी ऐसे सत्य पर ही खड़ा हो सकता है जो हमारे

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अस्तित्व और जगत् के अस्तित्व की व्याख्या करता हो, उनके सत्य की, उनके संबंध के सत्य की संगति हर चीज के उद्गम-स्वरूप जो भी परात्पर सद्वस्तु हो उसके साथ बैठाता हो, लेकिन इससे यह ध्वनित होता है कि व्यक्ति और विश्व में कुछ वास्तविकता है, एक सत् और समस्त अस्तित्वों के बीच, सापेक्ष अनुभव और निरपेक्ष के बीच कोई सच्चा संबंध है ।

 

   मायावाद संसार की समस्या की गांठ को सुलझाता नहीं, उसे काट देता है । यह समाधान नहीं पलायन है । संभूति के इस जगत् में देहधारी सत्ता के लिये आत्मा का पलायन पर्याप्त विजय नहीं है । यह प्रकृति से अलगाव पैदा करता है, हमारी प्रकृति की मुक्ति और परिपूर्णता नहीं लाता । यह अंतिम परिणाम केवल एक तत्त्व को संतुष्ट करता है, सत्ता के केवल एक अंतर्वेग को उदात्त करता है और बाकी सबको माया की अवास्तविक वास्तविकता की द्वाभा में अवहेलना से नष्ट होने के लिये छोड़ देता है । जैसे भौतिक विज्ञान में, उसी तरह तत्त्व-दार्शनिक विचार में वह व्यापक और अंतिम समाधान ही सबसे अच्छा होगा जो सबको अपने अंतर्गत करता और अपने हिसाब में लेता है ताकि अनुभव का प्रत्येक सत्य समग्र में अपना स्थान पा ले; संभवत: वह ज्ञान उच्चतम ज्ञान होगा जो समस्त ज्ञान की सार्थकता को प्रकाशित करता, पूर्ण और सुसमंजस बनाता हो, हमारे अज्ञान और भ्रम का उपचार करता हो, उनकी व्याख्या करता हुआ उनके आधारभूत, हम यहांतक कह सकते हैं कि उन्हें उचित सिद्ध करनेवाले कारण को भी खोज निकालता हो । यही वह चरम अनुभव है जो सारे अनुभव को एक परम और सर्व-समन्वयकारी एकता के सत्य में इकट्ठा करता है । मायावाद विलोपन द्वारा एकीकरण करता है । वह उस एक परम विलयन के सिवा सभी ज्ञान और अनुभव को वास्तविकता और सार्थकता से वंचित कर देता है ।

 

   लेकिन यह विवाद शुद्ध बुद्धि के क्षेत्र की चीज है और इस तरह के सत्यों की अंतिम परख तर्क-बुद्धि से नहीं बल्कि आध्यात्मिक प्रकाश से होती है जिसे प्रमाणित करता है आत्मा का स्थायी तथ्य । अकेली एक ही निर्णायक आध्यात्मिक अनुभूति तार्किक बुद्धि द्वारा खड़े किये गये तर्कों और निष्कर्षों के पूरे भवन को ढा सकती है । यहां मायावाद बहुत ठोस भूमि के आधार पर खड़ा है; क्योंकि, यद्यपि वह अपने-आप एक मानसिक निरूपण से बढ़कर कुछ नहीं है लेकिन वह जिस अनुभूति को दर्शन के रूप में सूत्रबद्ध करता है वह बहुत अधिक सशक्त और अंतिम प्रतीत होनेवाली आध्यात्मिक उपलब्धि है । जब विचार निस्तब्ध हो जाता है, मन अपनी रचनाओं से हाथ खींच लेता है, हम शुद्ध आत्म-स्थिति में चले जाते हैं जो वैयक्तिकता के समस्त भाव से रहित, समस्त वैश्व अंतर्वस्तुओं से रिक्त होती है, तब वह अनुभव हमारे ऊपर सद्वस्तु की ओर जागृति की महान् शक्ति के साथ आता है । उस समय यदि अध्यात्म-भावापन्न मन व्यष्टि और विश्व पर नजर डालता

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है तो संभव है कि उसे वे भ्रम, स्वयंभू की एकमात्र वास्तविकता पर मिथ्या रूप से अध्यारोपित नाम, रूप और गतियों का आयोजन मालूम हों । या आत्मा का भाव भी अपर्याप्त हो जाता है; ज्ञान और अज्ञान दोनों शुद्ध चेतना में गायब हो जाते हैं और चेतना शुद्ध अतिचेतन सत् की समाधि में डुबकी लगा लेती है । या सत् भी समाप्त हो जाता है, यह उसके लिये बहुत सीमित करनेवाला नाम है जो एकमात्र रूप से हमेशा के लिये जीता है; तब केवल रहता है एक कालातीत शाश्वत, देशातीत अनंत, निरपेक्ष की पूर्णता, नाम-रहित शांति, अभिभूत करनेवाला एकमात्र विषयहीन आनंद । निश्चय ही इस अनुभूति के प्रामाणिक होने के बारे में कोई संदेह नहीं है, यह अपने-आपमें पूर्ण है । जिस अभिभूत करनेवाली निर्णायक निश्चयता के साथ - एकात्म्यप्रत्ययसारम्-यह अनुभूति अध्यात्म-साधक की चेतना को पकड़ लेती है उससे इंकार नहीं किया जा सकता । लेकिन फिर भी समस्त आध्यात्मिक अनुभव अनंत का अनुभव है और वह विविध मार्ग लेता है और उनमें से कुछ -केवल यही नहीं -भगवान् और निरपेक्ष के इतने नजदीक हैं, उनकी उपस्थिति की वास्तविकता से इतने अधिक भरे हुए हैं या जो कुछ उनसे निचले स्तर का हो उससे मुक्ति की शांति और अनिर्वचनीय शांति से इतने भरपूर रहते हैं कि वे अपने साथ अभिभूत करनेवाली अंतिम, निर्णायक निश्चयात्मकता का भाव लिये रहते हैं । परम सद्वस्तुतक पहुंचने के सैंकड़ों रास्ते हैं और अपनाये गये मार्ग के स्वरूप के अनुसार ही उस चरम अनुभूति का स्वरूप होगा जिसके द्वारा मनुष्य उस तत् तक पहुंचेगा जो अनिर्वचनीय है, जिसके बारे में मन को कोई विवरण नहीं दिया जा सकता और न जिसे वाणी द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है । इन सब निश्चयात्मक पराकाष्ठाओं को उस एक 'अंतिम' का उपान्तिम माना जा सकता है । ये वे सीढ़ियां हैं जिनसे होकर अंतरात्मा मन की सीमाओं को लांघ कर निरपेक्ष में जा पहुंचती है । तो क्या शुद्ध अचल स्वयंभू में चले जाने की उपलब्धि या व्यक्ति या विश्व का यह निर्वाण उपान्त्यों में से एक है या वह अपने-आप अंतिम और संपूर्ण उपलब्धि है जो हर यात्रा के अंत में है और सभी अपने से कम अनुभूतियों का अतिक्रमण करती और उन्हें रद्द कर देती है ? उसका दावा है कि वह हर अन्य ज्ञान के पीछे स्थित है, उसका अतिक्रमण करती, उसे रद्द और निरस्त कर देती है । अगर वास्तव में ऐसा है तब उसकी अंतिमता को निश्चायक मान लेना होगा । लेकिन इस दावे के विरोध में यह दावा किया जाता है कि एक महत्तर नेति या महत्तर इति के द्वारा और भी आगे यात्रा करना संभव है -आत्मा का असत् में निर्वाण संभव है अथवा हम वैश्व चेतना की अनुभूति और एक सत् में जगत्-चेतना के निर्वाण की अनुभूति, इस दोहरी अनुभूति में से गुजर कर एक महत्तर दिव्य मिलन और ऐक्य में पहुंच सकते हैं जो इन दोनों उपलब्धियों को अपनी बृहत् समग्र सद्वस्तु में धारण किये हुए है । कहा जाता है कि द्वैत और अद्वैत के परे तत्

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है जिसमें दोनों एक साथ धारित हैं और अपने से परे के सत्य में अपना सत्य पा लेते हैं । एक ऐसा पूर्णता लानेवाला अनुभव जो सभी संभव लेकिन अपने से कम अनुभवों का अतिक्रमण और निष्कासन करता हुआ आगे बढ़ता है, निरपेक्ष की ओर एक कदम के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । एक ऐसा परम अनुभव जो सभी आध्यात्मिक अनुभवों के सत्य को प्रतिष्ठित और समाविष्ट करता है, हर एक को उसका अपना परम पद प्रदान करता है, समस्त ज्ञान और अनुभव को एक परम सद्वस्तु में पूर्ण करता है । हो सकता है कि वह और भी आगे का एक कदम हो जो सभी वस्तुओं का विशालतम आलोककारी और रूपांतरकारी सत्य और साथ ही उच्चतम अनंत परात्परता भी हो । परम सद्वस्तु-स्वरूप ब्रह्म वह है जिसे जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है (यस्मिन् विज्ञाते सर्वं विज्ञात भवति) लेकिन मायावादी समाधान में वह ऐसा तत् है जिसे जान लेने पर सब कुछ अवास्तविक और अबोध्य रहस्य हो जाता है । इस अन्य अनुभव में सद्वस्तु के ज्ञात होने पर सब कुछ अपना सच्चा अर्थ पा लेता है, शाश्वत और निरपेक्ष के संबंध में अपना सत्य पा लेता है ।

 

   सभी सत्य, वे भी जो संघर्षरत मालूम होते हैं, उन सबकी प्रामाणिकता होती है लेकिन उन्हें किसी विशालतम सत्य में समाधान पाने की आवश्यकता होती है जो उन्हें अपने अंदर ले लेता है । सभी दर्शनों का अपना मूल्य है -और कुछ नहीं तो इस कारण कि वे आत्मा और विश्व को आध्यात्म सत्ता की बहुविध अभिव्यक्ति के अनुभव के विशेष दृष्टिकोण से देखते हैं और ऐसा करते समय किसी ऐसी चीज पर प्रकाश डालते हैं जिसे अनंत में जानना जरूरी है । सभी आध्यात्मिक अनुभूतियां सच्ची हैं परंतु वे किसी उच्चतम और अधिक-से-अधिक विस्तृत वास्तविकता की ओर इशारा करती हैं जो उनके सत्य को स्वीकार करती और उसका अतिक्रमण करती है । हम कह सकते हैं कि यह सभी सत्यों और अनुभूतियों की सापेक्षता का चिह्न है क्योंकि दोनों ही ज्ञाता और अनुभव करनेवाले मन तथा सत्ता की अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि के अनुसार अलग-अलग होते हैं । कहते हैं कि हर एक आदमी का अपने-अपने स्वभाव के अनुसार अपना धर्म होता है । इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि हर एक आदमी का अपना दर्शन होता है, देखने की अपनी दृष्टि होती है, जीवन का अपना अनुभव होता है, यद्यपि कुछ ही लोग उसे रूप दे सकते हैं । लेकिन एक और दृष्टि-बिंदु से यह विभिन्नता अनंत के विभिन्न पक्षों की अनंतता को प्रमाणित करती है । हर एक एकांगी झलक पाता है या एक या अधिक पक्षों की पूरी झांकी पाता है या अपने मानसिक या आध्यात्मिक अनुभव में उससे संपर्क करता या उसमें प्रवेश करता है । एक अमुक अवस्था में ये सब दृष्टिकोण मन के लिये अपनी निश्चितता एक विशाल उदारता या जटिल सहनशील अनिश्चित में खोने लगते हैं या उसमें से और सब झड़ सकते हैं

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और अपना स्थान परम सत्य या एकमात्र चित्ताकर्षक अनुभूति को दे देते हैं । तब यह संभावना रहती है कि उसने जो कुछ देखा, सोचा है या जिसे उसने अपना या विश्व का अंग माना है उस सबको अवास्तविक अनुभव करने लगे । उसके लिये यह 'सर्व' एक वैश्व अवास्तविकता या बहुविध खंडित वास्तविकता बन जाता है जिसमें एकीकरण का कोई तत्त्व नहीं होता । जब वह ऐसे चरम अनुभव की नेतिपरक शुद्धता में प्रवेश करता है तो उससे सब कुछ झड़ जाता है और रह जाता है बस निश्चल नीरव निरपेक्ष । लेकिन चेतना से और आगे जाने के लिये कहा जा सकता है और नयी आध्यात्मिक दृष्टि के प्रकाश में उस सबको देखने के लिये कहा जा सकता है जिसे वह पीछे छोड़ आयी है, वह निरपेक्ष के सत्य में सभी चीजों के सत्य को फिर से प्राप्त कर सकती है । वह तत् की एक दृष्टि में -दोनों ही जिसकी आत्माभिव्यक्तियां हैं -निर्वाण की नेति और वैश्व चेतना की इति का समाधान कर सकती है । मन से अधिमन के ज्ञान की ओर जाते हुए यह बहुविध ऐक्य एक महत्त्वपूर्ण अनुभव है । सारी अभिव्यक्ति एक अभिन्न और महान् सामंजस्य का रूप धारण कर लेती है जो अपनी चरम पूर्णतातक तब पहुंचती है जब अंतरात्मा अधिमानस और अतिमानस के बीच की सीमा-रेखा पर पहुंचकर समग्र दृष्टि से जीवन को मुड़कर देखती है ।

 

   यह कम-से-कम एक ऐसी संभावना है जिसकी हमें छान-बीन करनी चाहिये और वस्तुओं के इस दृष्टिकोण को उसके अंतिम परिणामतक ले जाना चाहिये । सत्ता की पहेली की व्याख्या के रूप में महत् विश्व-भ्रम की संभावना पर विचार करना जरूरी था क्योंकि चीजों के बारे में यह दृष्टि और अनुभूति सबल रूप से मन के आरोहण के सर्पिल चक्र के अंत में अपने-आपको तब प्रस्तुत करती है जब वह टूटने या समाप्त होने के बिंदु पर पहुंचता है । लेकिन एक बार जब यह निश्चित हो गया कि वह अंतिम सत्य के लिये बारीकी और सचाई से की गयी जांच का अवश्यंभावी अंत नहीं है तो हम उसे एक ओर रख सकते हैं या उसकी ओर तभी देख सकते हैं जब विचार और तर्क के अधिक नमनशील मार्ग की किसी दिशा के संबंध में जरूरत पड़े । मायावादी समाधान को छोड़कर जो बाकी रहता है अभी हमारी दृष्टि उसी समस्या पर एकाग्र रह सकती है -वह है ज्ञान और अज्ञान की समस्या ।

 

   सब कुछ इस प्रश्न पर निर्भर है कि 'सद्वस्तु क्या है' ? हमारी ज्ञानात्मक चेतना सीमित, अज्ञानी और सांत है । वास्तविकता के बारे में हमारी धारणाएं इस सीमित चेतना में जीवन से संपर्क करने की हमारी विधि पर निर्भर हैं और हो सकता है कि वह आद्या और अंतिम चेतना जिस तरह देखती है उससे बहुत भिन्न हों । सारभूत सद्वस्तु आभासी वास्तविकता जो उसपर आधारित रहती है और उसमें से उठती है और दोनों की सीमित और प्रायः भटकानेवाली अनुभूति या धारणा जो हमारे ऐन्द्रिय अनुभव तथा तर्क-बुद्धि से पैदा होती है -इनमें भेद करना जरूरी है । हमारी

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इन्द्रियों के लिये धरती सपाट है और सबसे अधिक तात्कालिक और व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये, एक सीमातक, हमें ऐन्द्रिय वास्तविकता का ही अनुसरण करना चाहिये और इस सपाटपन के साथ ऐसे व्यवहार करना चाहिये मानों वह एक तथ्य हो । लेकिन सच्ची तथ्यगत वास्तविकता में धरती का सपाटपन अवास्तविक है और वस्तुओं में तथ्यगत वास्तविकता के सत्य की खोज करनेवाले भौतिक विज्ञान को यूं व्यवहार करना पड़ता हैं कि वह लगभग गोल है । व्योरे की बहुत-सी चीजों में विज्ञान को दृश्य वस्तुओं के वास्तविक सत्य के बारे में इन्द्रियों की साक्षी का खंडन करना पड़ता है लेकिन फिर भी हमें इन्द्रियों के दिये हुए ढांचे को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि वस्तुओं के साथ वे जो व्यावहारिक संबंध हमारे ऊपर आरोपित करती हैं उनकी वास्तविकता के प्रभाव के रूप में प्रामाणिकता है और उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती । हमारी तर्क-बुद्धि इन्द्रियों पर आश्रित होते हुए और उनका अतिक्रमण करते हुए वास्तविकता और अवास्तविकता के बारे में अपने ही माप-दंड या धारणाएं बनाती है, लेकिन अवलोकन करनेवाली तार्किक बुद्धि के दृष्टिकोण के अनुसार इन माप-दंडों में भेद होता है । भौतिक वैज्ञानिक, जो आभासी जगत् में खोज कर रहा हो, वह विषयगत और आभासी वास्तविकता और उसकी प्रक्रियाओं के आधार पर नियम और मानक खड़े करता है । हो सकता है कि उसकी दृष्टि में मन जड़-तत्त्व का आत्मनिष्ठ परिणाम लगे और आत्मा तथा पुरुष अवास्तविक लगें । बहरहाल उसे यूं व्यवहार करना होता हैं मानों केवल जड़ और ऊर्जा का ही अस्तित्व है और मन एक ऐसी स्वाधीन भौतिक वास्तविकता का, जिसपर मानसिक प्रक्रियाओं का या वैश्व बुद्धि की उपस्थिति या हस्तक्षेप का प्रभाव नहीं होता, अवलोकन भर करता है । मनोवैज्ञानिक स्वतंत्र रूप से मानसिक चेतना और मानसिक निश्चेतना में खोज करता हुआ, वास्तविकताओं के एक और क्षेत्र का पता लगा लेता है जो अपने स्वरूप में आत्मनिष्ठ है, जिसके अपने नियम और अपनी प्रक्रियाएं हैं । उसे ऐसा लग सकता है कि मन वास्तविक की चाबी है, जड़ केवल मन के लिये एक क्षेत्र है और मन से भिन्न आत्मा कोई अवास्तविक वस्तु है । लेकिन इससे आगे भी खोज चलती है जो आत्मा और पुरुष के सत्य को ऊपर लाती है और वास्तविक के बारे में एक ज्यादा बड़ी व्यवस्था की स्थापना करती है जिसमें हमारे आत्मनिष्ठ मन की वास्तविकताओं और वस्तुनिष्ठ भौतिक वास्तविकताओं, दोनों के बारे में हमारी दृष्टि पलट जाती है और इस कारण वे हमें आभासी, गौण, आत्मा के सत्य और पुरुष की वास्तविकता पर निर्भर मालूम होती हैं । वस्तुओं की इस ज्यादा गहरी खोज में मन और जड़ पदार्थ वास्तविक की निम्नतर कोटि का रूप धारण करने लगते हैं और आसानी से अवास्तविक मालूम हो सकते हैं ।

 

   यह स्थिति सापेक्षता के सिद्धांत के कारण हिल गयी है लेकिन वैज्ञानिक तथ्य के परीक्षण और समर्थन के लिये इसे व्यावहारिक रूप से बना रहना चाहिये ।

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जो बुद्धि सांत चीजों के साथ व्यवहार करने की अभ्यस्त है वही ऐसे बहिष्कार करती है । वह समग्र को खंडों में काटती और समग्र के किसी एक खंड को इस तरह ले सकती है मानों वह पूर्ण वास्तविकता हो । यह उसके कार्य के लिये जरूरी है क्योंकि उसका काम है सांत के साथ सांत रूप में व्यवहार करना । हमें व्यावहारिक प्रयोजनों के लिये और सांत के साथ बुद्धि के व्यवहार के लिये उसके दिये हुए ढांचे को स्वीकार करना चाहिये क्योंकि वह वास्तविकता के प्रभाव के रूप में प्रामाणिक है इसलिये उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । जब हम आध्यात्मिक की अनुभूतितक पहुंचते हैं जो अपने-आपमें समग्र है या समग्र को अपने अंदर धारण करता है तो हमारा मन वहां भी अपनी खंड-खंड करनेवाली तर्क-बुद्धि और सांत संज्ञान के लिये जरूरी परिभाषाएं लेकर पहुंचता है । वह सांत और अनंत के बीच, पुरुष और उसके आभासों या अभिव्यक्तियों के बीच भाग करनेवाली रेखा खींच देता और कुछ को वास्तविक और कुछ को अवास्तविक की उपाधि दे देता है । लेकिन जीवन के सभी प्रांतरों को अपने आलिंगन में लेनेवाली आद्या और परम चेतना, एक सर्वांगीण दृष्टि से समग्र को, उसकी आध्यात्मिक तात्त्विक वास्तविकता में और आभासी को उस वास्तविकता के आभास या उसकी अभिव्यक्ति के रूप में देखेगी । अगर यह महत्तर आध्यात्मिक चेतना वस्तुओं में केवल अवास्तविकता और आत्मा के सत्य के साथ पूर्ण रूप से असम्बद्धता देखती तो -अगर वह स्वयं ऋत-चित् हो तो -उसके पास सदा-सर्वदा इन्हें सतत या बार-बार आनेवाले जीवन में बनाये रखने का कोई कारण न होता । अगर वह उनको इस तरह बनाये रखती है तो इसका कारण यह है कि वे आत्मा की वास्तविकताओं पर आधारित हैं । लेकिन निश्चित रूप से, जब इस तरह समग्र रूप से देखा जाता है तो आभासी वास्तविकता का रूप उससे भिन्न होगा जैसा सांत सत्ता की तर्क-बुद्धि और इन्द्रियों से दिखायी देता है । उसमें एक और ही अधिक गहरी वास्तविकता, एक और महत्तर सार्थकता, जीवन की गतिविधियों की एक अन्य और सूक्ष्मतर और अधिक जटिल प्रक्रिया होगी । सांत बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा निर्मित वास्तविकता के मापदंड और विचार के समस्त रूप महत्तर चेतना को एकांगी रचनाएं मालूम होंगे जिनमें सत्य का एक तत्त्व और भ्रांति का एक तत्त्व होगा । अतः इन रचनाओं को एक साथ वास्तविक और अवास्तविक कहा जा सकता है लेकिन स्वयं आभासी जगत् इस तथ्य के कारण अवास्तविक या अवास्तविक-वास्तविक नहीं बन जायेगा । वह आध्यात्मिक रूपवाली एक और वास्तविकता धारण कर लेगा । सांत अपने-आपको अनंत की एक शक्ति, गति और प्रक्रिया के रूप में प्रकट करेगा ।

 

   द्या और चरम चेतना अनंत की चेतना होगी और निश्चित रूप से वैविध्य के बारे में उसकी दृष्टि एकत्वमय होगी, वह होगी एक अविभाज्य समग्र-दृष्टि जो सर्वांगीण, सब कुछ स्वीकार करनेवाली, सबको आलिंगन में भरनेवाली और सर्व-

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निर्धारक होने के कारण सबका विवेक करनेवाली होगी । वह चीजों का सारतत्व देखेगी और सभी रूपों और गतियों को उस तात्त्विक सद्वस्तु के आभास और परिणाम के रूप में, उसीकी सत्ता की शक्ति की गतियों और रूपायणों के रूप में देखेगी । बुद्धि की धारणा है कि सत्य को सभी विरोधों के संघर्षों से खाली होना चाहिये । अगर ऐसा है, तो चूंकि आभासी जगत् सारभूत ब्रह्म के विपरीत है या विपरीत प्रतीत होता है इसलिये उसे अवास्तविक होना चाहिये, चूंकि व्यष्टिगत सत्ता वैश्व और परात्पर दोनों से उल्टी है इसलिये उसे अवास्तविक होना चाहिये । लेकिन सांत पर आधारित तर्क-बुद्धि को जो चीजें विपरीत दीखती हैं, हो सकता है कि वे अनंत पर आधारित दृष्टि या महत्तर तर्क-बुद्धि के लिये विरोधी न हों । हमारा मन जिन चीजों को विरोधी देखता है, हो सकता है कि वे अनंत चेतना के लिये विरोधी न होकर एक-दूसरे की पूरक हों । सारतत्त्व और सारतत्त्व का आभास एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं । आभास सारतत्त्व को अभिव्यक्त करता है, सांत अनंत का विरोधी नहीं, एक परिस्थिति है, व्यक्ति वैश्व और परात्पर की आत्माभिव्यक्ति है, उसकी विपरीतता या उससे एकदम अलग कोई चीज नहीं है, यह केंद्रित और चयनात्मक वैश्व है । वह परात्पर के साथ अपनी सत्ता के सारतत्त्व और अपनी प्रकृति के सारतत्त्व में एक है । इस एकत्वमूलक और व्यापी दृष्टि में, सत्ता के रूपहीन सार में जो रूपों की बहुलता को लिये रहता है या अनंत की ऐसी स्थिति में जो अनंत के गतिक्रम को सहारा देती है या ऐसे अनंत एकत्व में जो अपने-आपको सत्ताओं के पहलुओं और शक्तियों तथा गतियों के बदुत्व में प्रकट करता है, इनमें आपस में कोई विपरीतता नहीं है क्योंकि वे एक की ही सत्ताएं उसीके पहलू गतियां और शक्तियां हैं । इस आधार पर जगत्-सृष्टि पूर्णतया स्वाभाविक, सामान्य और अनिवार्य गति है जो अपने-आपमें कोई समस्या नहीं खड़ी करती क्योंकि वह ठीक वही है जिसकी हम अनंत की क्रिया से आशा करते हैं । सारी बौद्धिक समस्या और कठिनाई खड़ी होती है सांत बुद्धि से जो काटती, अलग करती हुई, अनंत की शक्ति को उसकी सत्ता के विरोध में, उसकी क्रियाशीलता को उसकी स्थिति के विरोध में, उसके स्वाभाविक बहुत्व को उसके मूलगत एकत्व के विरोध में खड़ा करती है, आत्मा को खंडित करती और आत्मा को प्रकृति के विरोध में लाती है । अनंत की जगत्-प्रक्रिया को और शाश्वत की काल-प्रक्रिया को सचमुच समझने के लिये चेतना को इस सांत बुद्धि और सांत बोध के परे, एक वृहत्तर बुद्धि और आध्यात्मिक भाव में जाना चाहिये जो अनंत की चेतना के संपर्क में हो और अनंत के तर्क के प्रति अनुकूल हो । यह तर्क स्वयं सत्ता का तर्क है और अनिवार्य रूप से उसकी अपनी वास्तविकताओं की आत्म-क्रिया से उठता है । इस तर्क के चरण विचार के चरण न होकर स्वयं जीवन, के चरण हैं ।

 

   लेकिन कहा जा सकता है कि जिस चीज का वर्णन किया गया है वह तो

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केवल वैश्व चेतना है, लेकिन निरपेक्ष भी तो है, निरपेक्ष को सीमित नहीं किया जा सकता । चूंकि वैश्व और व्यष्टि निरपेक्ष को सीमित और विभाजित करते हैं इसलिये वे अवास्तविक होने चाहियें । निःसंदेह यह स्वयंसिद्ध है कि निरपेक्ष को सीमित नहीं किया जा सकता न तो रूप द्वारा न अरूप द्वारा, न एकत्व द्वारा न बहुत्व द्वारा, न तो अचंचल स्थिति द्वारा और न क्रियाशील सचलता द्वारा । अगर वह रूप को अभिव्यक्त करता है तो रूप उसे सीमित नहीं कर सकता, अगर वह बहुत्व को अभिव्यक्त करता है तो बहुत्व उसका विभाजन नहीं कर सकता, अगर वह गति और संभवन को अभिव्यक्त करता है तो न तो गति उसे व्याकुल कर सकती है न संभवन उसे बदल सकता है । जैसे वह आत्म-सृजन द्वारा निःशेष नहीं हो सकता उसी तरह उसे सीमित भी नहीं किया जा सकता । जड़ भौतिक वस्तुओं में भी अपनी अभिव्यक्ति की तुलना में यह श्रेष्ठता होती है । मिट्टी उससे बने हुए बरतनों से सीमित नहीं होती और न वायु उन आधियों से जो उसमें चलती हैं और न ही सागर उन तरंगों से जो उसकी सतह पर उठती हैं । परिसीमन का यह संस्कार केवल मन और इन्द्रियों की चीज है जो सांत को इस तरह देखते हैं मानों वह स्वतंत्र सत्ता है जो अपने-आपको अनंत से अलग रखती है या कोई ऐसी चीज है जिसे परिसीमन ने उसमें से काट दिया है । यह संस्कार ही प्रमात्मक है और न तो सांत न अनंत भ्रमात्मक हैं क्योंकि दोनों में से कोई भी इन्द्रियों या मन के संस्कारों पर आश्रित नहीं है । वे अपने अस्तित्व के लिये निरपेक्ष पर आश्रित हैं ।

 

   निरपेक्ष अपने-आपमें बुद्धि द्वारा अपरिभाष्य, वाणी के लिये अनिर्वचनीय है, उसके पास अनुभव द्वारा जाना होता है । उसके पास जीवन के पूरे-पूरे निषेध द्वारा जाया जा सकता है मानों वह परम असत् एक रहस्यमय अनंत शून्य हो । उसके पास हमारे जीवन के समस्त मूलगत तत्त्वों को पूरी तरह स्वीकार करके जाया जा सकता है, ज्योति और ज्ञान के परम पद के द्वारा, प्रेम या सौंदर्य के परम पद द्वारा, शक्ति के परम पद द्वारा, शांति और नीरवता के परम पद द्वारा जाया जा सकता है । उसके पास सत्ता या चेतना के या सत्ता की शक्ति के या सत्ता के आनंद के अनिर्वचनीय परम पद द्वारा या जिस परम अनुभूति में ये सारी चीजें अनिर्वचनीय ढंग से एक हो जाती हैं उस अनुभूति द्वारा जाया जा सकता है क्योंकि हम ऐसी अनिर्वचनीय स्थिति में प्रवेश कर सकते हैं और उसमें इस तरह डुबकी लगाकर, मानों जीवन के एक प्रकाशमय रसातल में डुबकी लगाकर, एक ऐसी अतिचेतना में पहुंच सकते हैं जिसे निरपेक्ष का द्वार कहा जा सकता हैं । ऐसा माना जाता है कि व्यक्ति और विश्व को नकार करके ही हम निरपेक्ष में प्रवेश कर सकते हैं । लेकिन वस्तुत: व्यक्ति को केवल अपने छोटे पृथक् अहंकारमय अस्तित्व को ही नकारना चाहिये । वह अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व को उदात्त करके विश्व को अपने अंदर लेकर और उसका अतिक्रमण करके निरपेक्षतक पहुंच सकता है । या फिर वह पूरी

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तरह से अपना निषेध कर सकता है लेकिन इस तरह भी व्यक्ति ही अपना अतिक्रमण करके निरपेक्ष में प्रवेश करता है । वह अपनी सत्ता का परम सत्ता या अतिसत्तातक उदात्तीकरण करके, अपनी चेतना का परम चेतना या अतिचेतना में उदात्तीकरण करके, अपने और सत्ता के समस्त आनंद का परम आनंद या अति आनंद में उदात्तीकरण करके भी निरपेक्ष में प्रवेश पा सकता है । वह एक ऐसे आरोहण द्वारा भी जा सकता है जिसमें वह वैश्व चेतना में प्रवेश करता है, उसे अपने अंदर धारण करता है और अपने-आपको सत्ता की ऐसी अवस्था में पहुंचा सकता है जिसमें एकत्व और बहुत्व अभिव्यक्ति की परम स्थिति में पूर्ण सामंजस्य तथा एकता में हैं । उस स्थिति में सब कुछ प्रत्येक में है और प्रत्येक सब में, और सब कुछ किसी निर्धारक व्यक्तीकरण के बिना उस एक में है क्योंकि वहां गतिशील तादात्म्य और पारस्परिकता पूर्ण हो जाते हैं । इति के मार्ग पर अभिव्यक्ति की यह स्थिति निरपेक्ष के सबसे अधिक नजदीक है । निरपेक्ष को चरम नेति भाव से और चरम इति भाव से, बहुत-सी विधियों से प्राप्त किया जा सकता है । उसके इस विरोधाभास की व्याख्या बुद्धि के आगे तभी की जा सकती है जब वह निरपेक्ष एक ऐसा परम सत् हो जो हमारे सत्ता-संबंधी भाव और अनुभव से इतना अधिक ऊंचा हो कि वह हमारे द्वारा किये जानेवाले निषेध के भी समरूप हो सके, हमारी असत् की धारणा और अनुभूति के भी समरूप हो सके लेकिन साथ ही, चूंकि जिसका भी अस्तित्व है वह तत् है, उसकी अभिव्यक्ति की श्रेणी चाहे कोई-सी क्यों न हो, वह अपने-आप सभी वस्तुओं का परम है और उसतक परम इति और परम नेति के द्वारा पहुंचा जा सकता है । निरपेक्ष वह अनिर्वचनीय 'क्ष' है जो उस सबसे बढ़-चढ़कर, उसके मूल में, अंतर्निहित और सारभूत है जिसे हम सत् या असत् कह सकते हैं ।

 

   हमारा पहला आधार वाक्य यह है कि निरपेक्ष परम सद्वस्तु है लेकिन सवाल यह है कि बाकी सब जिसका हम अनुभव करते हैं वह वास्तविक है या अवास्तविक ? कभी-कभी सत्ता और अस्तित्व में भेद किया जाता है और यह माना जाता है कि सत्ता वास्तविक है लेकिन अस्तित्व या जो चीज अभिव्यक्त होती है वह अवास्तविक है । लेकिन यह बात तभी टिक सकती है जब असृष्ट शाश्वत और सृष्ट अस्तित्वों के बीच कठोर भेद, कोई विच्छेद और अलगाव हो । तब केवल असृष्ट सत्ता को ही वास्तविक माना जा सकता है । यह निष्कर्ष तब नहीं टिक सकता यदि जिसका अस्तित्व है वह सत् का रूप, सत् का पदार्थ हो । वह तभी अवास्तविक हो सकता हैं यदि वह असत् का रूप हो जिसकी सृष्टि शून्य में से हुई हो । हम जीवन की जिन अवस्थाओं में से गुजरते हैं और निरपेक्ष में प्रवेश करते हैं उनका अपना सत्य होना चाहिये क्योंकि असत्य और अवास्तविक सद्वस्तु की ओर नहीं ले जा सकते । साथ ही जो कुछ निरपेक्ष से पैदा होता है, जिसे शाश्वत समर्थन देता है, अनुप्राणित करता और अपने अंदर अभिव्यक्त करता है उसकी भी एक

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वास्तविकता होनी चाहिये । एक है अनभिव्यक्त और एक है अभिव्यक्ति लेकिन सद्वस्तु की अभिव्यक्ति को अपने-आप वास्तविक होना चाहिये । एक है कालातीत और दूसरी है काल में वस्तुओं की प्रक्रिया; लेकिन काल में कोई भी चीज तबतक नहीं प्रकट हो सकती जबतक कि उसकी नींव कालातीत सद्वस्तु में न हो । अगर मैं और मेरी आत्मा वास्तविक हैं, मेरे विचार, भाव सब प्रकार की शक्तियां, जो उसीकी अभिव्यंजनाएं है, अवास्तविक नहीं हो सकतीं । मेरा शरीर जो एक ऐसा रूप है जिसे वह अपने अंदर प्रकट करता है और साथ ही जिसके अंदर वह निवास करता है वह शून्य या द्रव्यहीन छाया नहीं हो सकता । समाधानकारी व्याख्या एक ही हो सकती है कि कालातीत शाश्वतता और काल शाश्वतता शाश्वत और निरपेक्ष के दो पहलू हैं और दोनों वास्तविक हैं, लेकिन वास्तविकता के अलग-अलग क्रमों में । जो कालातीत में अनभिव्यक्त है वह अपने-आपको काल में अभिव्यक्त करता है । हर चीज जिसका अस्तित्व है, वह अभिव्यक्ति के अपने क्रम में वास्तविक है और शाश्वत की चेतना उसे इसी तरह से देखती है ।

 

   समस्त अभिव्यक्ति सत्ता पर निर्भर है लेकिन साथ ही चेतना और उसकी शक्ति या मात्रा पर भी क्योंकि चेतना की जैसी स्थिति होगी वैसी ही सत्ता की स्थिति होगी । निश्चेतन भी अंतर्निहित चेतना की स्थिति और शक्ति है जिसमें सत्ता अनभिव्यक्ति की एक अन्य तथा विरोधी स्थिति में डुबकी लगाती है या असत् के अनुरूप होती है ताकि उसके अंदर से भौतिक विश्व में सब कुछ प्रकट हो । इसी भांति अतिचेतन भी ऐसी चेतना है जिसे सत्ता की निरपेक्ष स्थिति में उठा लिया गया है, क्योंकि एक अतिचेतन स्थिति है जिसमें चेतना प्रकाशमय रूप में सत्ता के अंदर अंतर्निहित मालूम होती है और ऐसा लगता है कि वह अपने बारे में अनभिज्ञ है । सत्ता की समस्त चेतना, सत्ता का समस्त ज्ञान, आत्मदृष्टि, शक्ति उसी अंतर्निहित स्थिति में से उभरते मालूम होते हैं या उसीमें प्रकट होते हैं । हमारी दृष्टि में यह उम्मज्जन न्यूनतम वास्तविकता में उभरता मालूम हो सकता है परंतु वस्तुत: अतिचेतना और चेतना दोनों एक ही सत् हैं और उनकी दृष्टि उसी सत् पर रहती है । परम की एक ऐसी स्थिति भी है जिसमें सत्ता और चेतना में कोई फर्क नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां वे इतनी ज्यादा एक हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । लेकिन सत्ता की यह परम स्थिति सत्ता की शक्ति की भी और इसलिये चेतना की शक्ति की भी परम स्थिति है क्योंको सत्ता की शक्ति और चेतना की शक्ति वहां एक है और उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । साश्वत सत्ता का शाश्वत चेतना-शक्ति के साथ यह एकीकरण ही परम ईश्वर की स्थिति है और उसकी सत्ता की शक्ति निरपेक्ष की क्रियात्मक शक्ति है । यह स्थिति विश्व का निषेध नहीं है, वह अपने अंदर समस्त वैश्व सत्ता के सार और शक्ति को लिये रहती हैं ।

फिर भी अवास्तविकता विश्व-जीवन का एक तथ्य है और अगर सब कुछ ब्रह्म

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या सद्वस्तु है तो हमें सद्वस्तु के अंदर इस अवास्तविकता का लेखा-जोखा देखना होगा । अगर अवास्तविक सत्ता का तथ्य नहीं है तो उसे चेतना की क्रिया या रूपायण होना चाहिये । तो क्या चेतना की कोई ऐसी अवस्था या श्रेणी नहीं है जिसमें उसकी कृतियां या रचनाएं पूरी तरह या आंशिक रूप में अवास्तविक हों ? अगर इस अवास्तविकता की जिम्मेदारी किसी आद्य वैश्व भ्रम पर नहीं थोपी जा सकती तब भी स्वयं विश्व में अज्ञान के भ्रम की शक्ति है । यह मन की सामर्थ्य में है कि वह ऐसी चीजों की कल्पना करे जो वास्तविक नहीं हैं, उसकी सामर्थ्य में यह भी है कि वह ऐसी चीजों की रचना कर ले जो वास्तविक नहीं हैं, या पूरी तरह से वास्तविक नहीं हैं । स्वयं अपने और विश्व के बारे में उसकी दृष्टि एक ऐसी रचना है जो न तो पूरी तरह वास्तविक है न पूरी तरह अवास्तविक । यह अवास्तविकता का तत्त्व शुरू कहां होता है और कहां रुकता है और उसका कारण क्या है और कारण और परिणाम दोनों को हटाने से क्या फल निकलता है ? अगर सारा वैश्व जीवन अपने-आपमें अवास्तविक न भी हो तो क्या यह वर्णन इस अज्ञान के जगत् पर लागू नहीं किया जा सकता जिसमें हम निवास करते हैं, इस जगत् पर जो सदा परिवर्तनशील, जन्म-मरण, अवसाद और कष्ट का जगत् है । क्या इस अज्ञान को हटा देने से वह हमारे लिये उस जगत् की वास्तविकता को समाप्त नहीं कर देगा जिसकी उसने रचना की है अथवा क्या उसमें से बाहर निकल जाना ही स्वाभाविक और एकमात्र हल नहीं है ? यह बात तब मान्य होती अगर हमारा अज्ञान शुद्ध रूप से अज्ञान होता, जिसमें सत्य या ज्ञान का कोई तत्त्व न होता । लेकिन तथ्य यह है कि हमारी चेतना सत्य और मिथ्या का मिश्रण है । उसकी क्रियाएं और रचनाएं निरी कल्पनाएं या निराधार रचनाएं नहीं हैं । वह जो रचनाएं खड़ी करती है, वस्तुओं को या विश्व को जो रूप देती है वह उतना वास्तविकता और अवास्तविकता का मिश्रण नहीं होता जितना कि वास्तव की अर्द्ध-अवधारणा और अर्द्ध-अभिव्यंजना होता है और चूंकि समस्त चेतना शक्ति है अतः उसमें सृजन की संभावना रहती है, हमारे अज्ञान का परिणाम होता है गलत सृजन, गलत अभिव्यक्ति, गलत क्रिया या सत्ता की गलत रूप से कल्पित और गलत दिशा में निर्देशित ऊर्जा । समस्त जगत्-सत्ता अभिव्यक्ति है लेकिन हमारा अज्ञान एकांगी, सीमित और अज्ञानी अभिव्यक्ति का अभिकर्ता है । वह अभिव्यक्ति मूल सत्-चित्-आनंद का अंशतः प्रकाशन और अंशत: छद्मवेश है । अगर यह वस्तु-स्थिति स्थायी है और इसे बदला नहीं जा सकता, अगर हमारे जगत् को सदा इसी चक्कर में घूमना है, अगर कोई अज्ञान यहां सभी चीजों और कर्मों का कारण है, उनकी कोई अवस्था या परिस्थिति नहीं तब तो अवश्य ही व्यक्तिगत अज्ञान का अंत केवल व्यक्ति के जगत् सत्ता से बच निकलने से ही हो सकेगा और वैश्व अज्ञान का अंत जगत्-सत्ता का विनाश होगा । लेकिन अगर इस जगत् के मूल में कोई विकसनशील तत्त्व है, अगर हमारा अज्ञान

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ज्ञान की ओर विकास करता हुआ अर्द्ध-ज्ञान है तो भौतिक प्रकृति के बीच हमारे जीवन का एक और लेखा, एक और परिणाम, एक और आध्यात्मिक फल संभव हो जाता है, इह लोक में एक महत्तर अभिव्यक्ति संभव हो जाती है ।

 

   अवास्तविकता के बारे में हमारी जो धारणाएं हैं उनमें एक और भेद करना होगा ताकि हम अज्ञान की समस्या के साथ व्यवहार करते हुए भ्रम की एक संभावना से बच सकें । हमारे मन या उसके एक भाग में वास्तविकता का एक व्यावहारिक मानदंड है । वह तथ्य और यथार्थता के मानक के लिये आग्रह करता है । जो कुछ जीवन का तथ्य है वह उसके लिये वास्तविक है लेकिन उसके लिये यथार्थ की यथार्थता या वास्तविकता इस जड़ विश्व में, पार्थिव जीवन के गोचर तथ्योंतक ही सीमित है । लेकिन पार्थिव या जड़ भौतिक जीवन एक आंशिक अभिव्यक्ति मात्र है । वह सत् की उन संभावनाओं का तंत्र है जो वास्तविकता का रूप ले चुकी हैं, वह उन सब दूसरी संभावनाओं को छोड़ नहीं देता जो अभीतक वास्तविक नहीं बनी हैं या यहां वास्तविक नहीं बनी हैं । काल के अंदर अभिव्यक्ति में नयी वास्तविकताएं उभर सकती हैं, सत्ता के वे सत्य जो अभीतक चरितार्थ नहीं हुए हैं अपनी संभावनाओं को सामने ला सकते हैं और भौतिक और पार्थिव जीवन में तथ्य बन सकते हैं । सत्ता के अन्य सत्य भी हैं जो अतिभौतिक हो सकते हैं और अभिव्यक्ति के किसी और क्षेत्र में हो सकते हैं जो यहां चरितार्थ नहीं हुए हैं फिर भी हैं वास्तविक । यहांतक कि जो कहीं भी, किसी भी विश्व में वास्तविक नहीं हुए हैं, वे भी सत्ता के सत्य, सत्ता की संभाव्यता हो सकते हैं और उन्हें इस कारण अवास्तविक नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे अभीतक जीवन के रूप में प्रकट नहीं हुए हैं । लेकिन हमारा मन या उसका यह भाग अपने व्यावहारिक अभ्यास या वास्तविक की धारणा पर आग्रह करता है जो केवल तथ्य और यथार्थ को ही सत्य मानता है और बाकी सबको अवास्तविक मानने के लिये प्रवृत्त होता है । तो इस मन के लिये एक ऐसी अवास्तविकता है जो शुद्ध रूप से व्यावहारिक स्वरूपवाली है । यह अवास्तविकता उन वस्तुओं के निरूपण में रहती है जो अपने-आपमें अनिवार्यत: अवास्तविक नहीं हैं लेकिन जो हमारे द्वारा अभीतक चरितार्थ नहीं की गयी हैं या हम उन्हें वर्तमान परिस्थितियों में या अपनी सत्ता के वास्तविक जगत् में चरितार्थ नहीं कर सकते । यह सच्ची अवास्तविकता नहीं है । यह अवास्तविक नहीं बल्कि अनुपलब्ध है, सत्ता का अवास्तविक नहीं, केवल वर्तमान या ज्ञात तथ्य का अवास्तविक है । और फिर एक ऐसी अवास्तविकता है जिसके मूल में मानस-बोध और इन्द्रिय-बोध है जो वास्तविक के बारे में भ्रांत मानस बोध और इन्द्रिय-बोध का परिणाम है । यह भी सत्ता की अवास्तविकता नहीं है और न उसका सत्ता की अवास्तविकता होना जरूरी है, यह अज्ञान द्वारा परिसीमन के कारण चेतना की एक मिथ्या रचना है । हमारे अज्ञान की ये तथा अन्य गौण गतियां समस्या का हार्द नहीं

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हैं क्योंकि उसका आधार यहां, हमारी चेतना और जगत्-चेतना का एक अधिक सर्वसामान्य रोग है । समस्या वैश्व अज्ञान की है । क्योंकि जीवन के बारे में हमारी सारी दृष्टि और हमारा सारा अनुभव चेतना के एक ऐसे परिसीमन से बाधित है जो केवल हमारे लिये ही नहीं है बल्कि भौतिक सृष्टि के आधार में मालूम होता है । आद्या और चरम चेतना की जगह, जो वास्तविकता को समग्र रूप में देखती है, हम यहां पर एक सीमित चेतना को सक्रिय देखते हैं या फिर आंशिक और अपूर्ण सृष्टि या वैश्व गतिक्रम को देखते हैं जो सदा निरर्थक परिवर्तन के निरंतर चक्कर में घूमता रहता है । हमारी चेतना अभिव्यक्ति के केवल एक भाग या भागों को देखती है -बशर्ते कि वह अभिव्यक्ति हो -और उसके साथ या उनके साथ ऐसा व्यवहार करती है मानों वे अलग-अलग सत्ताएं हों । हमारे सारे भ्रम और भ्रांतियां एक सीमित पृथकात्मक अभिज्ञता से आते हैं जो अवास्तविकताओ का सृजन करती है या वास्तविक की गलत धारणा बनाती है । लेकिन समस्या तब और भी ज्यादा गूढ़ हो जाती है जब हम देखते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा भौतिक जगत् सीधा, किसी आद्य सत् और चित् से नहीं बल्कि निश्चेतना की स्थिति और प्रतीयमान असत् से उठ रहा है । हमारा अज्ञान स्वयं एक ऐसी चीज है जो मानों कठिनाई और संघर्ष के साथ निश्चेतना में से प्रकट हुआ है ।

 

   तो रहस्य यह है -समग्र सत्ता की असीम चेतना और शक्ति इस परिसीमन और पृथक्ता में कैसे आयी ? यह कैसे संभव दुआ ? और अगर उसकी संभावना को स्वीकार किया जाये तो उसका सद्वस्तु में क्या औचित्य और क्या सार्थकता है ? यह रहस्य आद्य भ्रम का नहीं बल्कि अज्ञान और निश्चेतना के मूल का और आद्य चेतना या अतिचेतना के साथ ज्ञान और अज्ञान के संबंधों का है ।

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