Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ३
दो नकार
२ --संन्यासी का प्रतिवाद
सर्वं ह्येतद् ब्रह्म अयमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्यात् ।।
... अव्यवहार्यम्. अलक्षणम् अचित्त्वम्... प्रपञ्चोपशमम् ।।
यह सभी ब्रह्म ३, यह आत्मा ब्रह्म है और यह आत्मा चतुष्पाद है ।... सब संबंधों से परे, अलक्षण, अचिच्य, जिसमें सब कुछ, सारा प्रपंच, निश्चल निश्चेष्ट है ।
मांडूक्योपनिषद् २.७.
और उसके भीं परे कुछ है ।
क्योंकि वैश्व चेतना की दूसरी ओर एक चेतना है जिसे हम पा सकते हैं । वह और भी अधिक परे की हैं । वह केवल अहं के परे नहीं, स्वयं विश्व के भी परे है । उसके आगे विश्व ऐसा दिखलायी देता है जैसे एक अमित पृष्ठभूमि के आगे एक छोटा-सा चित्र । वह चेतना विश्व के क्रियाकलाप को समर्थन देती है, या शायद केवल सह लेती है । वह 'जीवन' को अपनी बृहत्ता के आलिंगन में बांध लेती है या फिर अपनी असीमता से उसे त्याग देती है ।
यदि जड़वादी अपने दृष्टिबिंदु से यह आग्रह करने में युक्तिसंगत है कि जड़ ही एकमात्र सद्वस्तु है, सापेक्ष जगत् ही वह एकमात्र वस्तु है जिसके बारे में हम किसी तरह निश्चित हो सकते हैं और इसके परे पूरी तरह अज्ञेय है, चाहे वह वस्तुतः अस्तित्वहीन, मन का स्वप्न, वास्तविकता से नाता तोड़ते हुए विचार की कपोल कल्पना न भी हो तो भी बिल्कुल अज्ञेय है; तो इसी तरह परात्पर का अनुरागी संन्यासी भी अपने दृष्टिकोण से इस बात पर आग्रह करने में युक्तिसंगत है कि शुद्ध आत्मा ही सद्वस्तु है, ऐसी एकमात्र वस्तु है जो परिवर्तन और जन्म-मरण से मुक्त है और सापेक्षिक जगत् मन और इन्द्रियों की रचना है, एक स्वप्न है, विशुद्ध और शाश्वत ज्ञान से पीछे हटते हुए मानस का उल्टे अर्थों में अमूर्तकरण है ।
इन दोनों में से किसी भी चरम सिद्धांत के बारे में तर्क या अनुभव द्वारा ऐसा कौन-सा औचित्य सिद्ध किया जा सकता है जिसे समान रूप से अकट्य युक्ति द्वारा और उतने ही सार्थक अनुभव द्वारा दूसरे छोर के लिये प्रमाणित न किया जा सकता हो ? जड़ जगत् की पुष्टि भौतिक इन्द्रियों के अनुभव के द्वारा की जाती है । ये इन्द्रियां अपने-आप किसी अभौतिक चीज को या ऐसी चीज को देखने में अक्षम हैं जो स्थूल जड़ के रूप में व्यवस्थित न हो, इसलिये वे हमें विश्वास दिलाना चाहती
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हैं कि अतींद्रिय अवास्तविक है । अपने शारीरिक अंगों की इस गंवारू और भद्दी भूल को दार्शनिक तर्क के क्षेत्र में ले आने से मूल्य में कोई वृद्धि नहीं हो जाती । स्पष्ट ही उनका दावा निराधार है । इस जड़ जगत् में भी ऐसी चीजों का अस्तित्व है जिन्हें स्थूल इन्द्रियां नहीं जान पातीं । फिर भी अतींद्रिय को निश्चित रूप से भ्रम या भ्रांति मानकर अस्वीकार करने का आधार वह ऐंद्रिय संस्कार है कि जो स्थूल रूप से ग्राह्य है वही सद्वस्तु है । लेकिन यह मान्यता अपने-आपमें एक भ्रांति है । यह अस्वीकृति जिस बात को प्रमाणित करना चाहती है, सदा उसीको मानकर चलती है अतः इसमें एक गोले में चक्कर लगाती रहनेवाली युक्ति का दोष है । निष्पक्ष युक्तिसंगत विचार के लिये इसका कोई मूल्य नहीं रहता ।
यही नहीं कि ऐसी भौतिक वस्तुएं हैं जो अतींद्रिय हैं बल्कि अगर प्रमाण और अनुभूति का सत्य की परख के लिये कोई मूल्य है तो ऐसी इन्द्रियां भी हैं जो अतिभौतिक१ हैं और वे केवल शारीरिक इन्द्रियों की सहायता के बिना भौतिक जगत् की वास्तविकताओं को ही नहीं जान पातीं बल्कि अन्य अतिभौतिक चीजों के साथ भी हमारा संपर्क स्थापित कर सकती हैं । ये अतिभौतिक चीजें अन्य जागतों की भी हो सकती हैं, यानी स्थूल जड़ जिसमें कि हमारे सूर्य और पृथिवियां निर्मित हुए प्रतीत होते हैं, उससे भिन्न प्रकार के तत्त्वों पर आधारित सचेतन अनुभवों से संगठित जगतों की भी हो सकती हैं ।
आज जब कि जड़ भौतिक जगत् के रहस्यों पर ऐकान्तिक तन्मयता की जरूरत नहीं रही, मानव अनुभूति और विश्वास ने विचार के आरंभ से हमेशा जिसका समर्थन किया है वह सत्य वैज्ञानिक शोध के नवजात रूपों द्वारा समर्थित हो रहा है । ऐसे प्रमाण बढ़ते जा रहे हैं जिनमें से अति स्पष्ट और बाह्य प्रमाणों को दूरबोध का नाम दिया गया है । इसकी तथा इसके सजातीय तथ्यों की ज्यादा समयतक उपेक्षा नहीं की जा सकती । इसमें अपवाद हैं ऐसे मन जो भूतकाल की चमकदार सीपियों में बंद हैं, ऐसे लोग जिनकी बुद्धि अपनी तीक्ष्याता के बावजूद अपनी अनुभूति और अन्वेषण के क्षेत्र में सीमित है या फिर वे लोग जो पिछली शताब्दियों के छोड़ें हुए सूत्रों की पुनरावृत्ति को और मृत या मृतप्राय: बौद्धिक मतवादों को सावधानीपूर्वक बनाये रखना ही बोध और तर्कबुद्धि मान लेते हैं ।
यह सच है कि विधिवत् अन्वेषण को अतिभौतिक वास्तविकताओं की जो झांकी प्राप्त हुई है वह अभीतक अपूर्ण और अनिश्चित है क्योंकि जिन उपायों का उपयोग किया गया है वे अभीतक अधकचरे और त्रुटिपूर्ण हैं । लेकिन कम-से-कम यह तो पता लगा ही है कि ये पुन: -अन्वेषित सूक्ष्म इन्द्रियां शारीरिक इन्द्रियों के क्षेत्र सें बाहर के भौतिक तथ्यों के बारे में सच्ची साक्षियां हैं । तो हमारे पास कोई कारण नहीं कि जब वे चेतना के भौतिक संगठन के क्षेत्र के बाहर के अतिभौतिक तथ्यों की बात
१सूक्ष्म शरीर में रहनेवाली सूक्ष्म इन्द्रियां जो सूक्ष्म दृष्टि और अनुभव के साधन होती हैं ।
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कहें तो हम उन्हें झूठे साक्षी कहकर उड़ा दें । अन्य सभी साक्षियों की भांति, स्वयं भौतिक इन्द्रियों के साक्ष्य की भांति तर्कबुद्धि द्वारा उनकी साक्षी का भी नियंत्रण, उनकी जांच-पड़ताल और व्यवस्था करनी होगी और उन्हें ठीक तरह से अनूदित और संबंधित करना होगा, उनके क्षेत्र का, नियमों और प्रक्रियाओं का निश्चय करना होगा । परंतु अनुभूति के विशाल क्षेत्रों के सत्य की, जिसके विषय अधिक सूक्ष्म तत्त्व में रहते हैं और स्थूल भौतिक पदार्थ की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म साधनों से देखे जा सकते हैं, उतनी ही प्रामाणिकता है जितनी भौतिक जगत् के सत्य की । परे के लोकों का अस्तित्व है : उनकी अपनी वैश्व लय है, महान् रेखाएं और रचनाएं हैं, अपने स्वयंभू नियम और समर्थ ऊर्जाएं हैं, उनके ज्ञान के अपने उचित और प्रदीप्त साधन हैं । यहां हमारे भौतिक जीवन और भौतिक शरीर पर वे अपना प्रभाव डालते हैं, यहां भी वे अपनी अभिव्यक्ति के साधन व्यवस्थित करते, अपने संदेशवाहक और साक्षी नियुक्त करते हैं ।
किंतु जगत् हमारी अनुभूति के लिये ढांचे मात्र हैं और इन्द्रियां अनुभूतियों के यंत्र और सुविधाएं । चेतना ही आधारभूत तथ्य है, वैश्व साक्षी है जिसके लिये जगत् क्षेत्र है और इन्द्रियां यंत्र हैं । ये लोक और उनके विषय अपनी वास्तविकता के लिये इस साक्षी का समर्थन जोहते हैं; क्योंकि जगत् एक हो या अनेक, भौतिक हो या अतिभौतिक, उनके अस्तित्व के बारे में हमारे पास इसके अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है । यह तर्क किया जाता है कि यह संबंध केवल मानव स्वभाव और उसकी विषय-जगत् की ओर दृष्टि की विशेषता नहीं है, यह तो सत्ता का अपना धर्म ही है । समस्त गोचर सत्ता एक अवलोकन करनेवाली चेतना और एक सक्रिय विषय-वस्तु से बनी है और 'साक्षी' के बिना 'कर्म' हो ही नहीं सकता क्योंकि विश्व केवल उस चेतना में या उस चेतना के लिये अस्तित्व रखता है जो अवलोकन करती है, उसकी कोई स्वतंत्र वास्तविकता नहीं है । इसके उत्तर में यह तर्क दिया गया है कि जड़ भौतिक जगत् एक शाश्वत स्वयंभू के अस्तित्व का रस लेता है । मन और प्राण के प्रकट होने से पहले इसका अस्तित्व था और तब भी बना रहेगा जब वे गायब हो जायेंगे और जब उनके क्षणिक प्रयासों और सीमित विचारों से सूर्यमंडल की शाश्वत और अचेतन लय में विघ्न पड़ना बंद हो जायेगा । यूं देखने में यह एकदम तत्त्वदर्शन का भेद मालूम होता है परंतु इसका व्यावहारिक महत्त्व बहुत है । यह जीवन के बारे में मनुष्य के समूचे दृष्टिकोण को निश्चित करता है, वह निश्चय करता है कि मनुष्य अपने प्रयासों के लिये कौन-सा लक्ष्य चुनेगा और अपनी शक्तियों को किन क्षेत्रों में सीमित करेगा क्योंकि यह वैश्व सत्ता की वास्तविकता और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानव जीवन के मूल्य का प्रश्न उठाता है ।
अगर हम जड़ भौतिकवादी निष्कर्षों को काफी दूरतक ले जायें तो व्यक्ति और जाति के जीवन की ऐसी अर्थहीनता और असारतातक जा पहुंचते हैं जो
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युक्तिसंगत रूप से हमारे आगे दो विकल्प रखती है, एक तो यह कि व्यक्ति इस क्षणभंगुर जीवन से जितना अधिक छीन सके छीन ले, जैसा कहा जाता है, अपना जीवन जीने के लिये उद्विग्रतापूर्ण प्रयास करे या व्यक्ति और जाति की उद्वेगरहित और लक्ष्यहीन सेवा करे, यह जानते हुए कि व्यक्ति स्नायविक मानसिकता की एक क्षणभंगुर कल्पना है और जाति 'भौतिक जड़पदार्थ' के नियंत्रित स्नायविक ऐंठन का जस ज्यादा समयतक टिकनेवाला सामूहिक रूप । हम किसी भौतिक ऊर्जा की प्रेरणावश कर्म करते या भोग करते हैं । यही ऊर्जा हमें जीवन की संक्षिप्त भ्रांति या किसी नैतिक आदर्श और मानसिक चरितार्थता की ज्यादा उदात्त भ्रांति द्वारा ठगती है । जड़वाद भी आध्यात्मिक अद्वैतवाद की तरह एक ऐसी माया पर आ पहुंचता है जो है भी और नहीं भी है --है, क्योंकि वह उपस्थित और बाध्यकारी है । वह नहीं है क्योंकि वह अपनी क्रियाओं में आभासी और क्षणिक है । दूसरी ओर अगर हम बाहरी जगत् की अवास्तविकता पर बहुत अधिक जोर दें तो एक दूसरे रास्ते से वैसे ही परंतु अधिक तीक्ष्ण निष्कर्ष पर आ पहुंचते हैं --व्यष्टिगत अहं के मिथ्यात्व की छाप और मानव जीवन की अवास्तविकता और उद्देश्यहीनता । इस प्रतीयमान जीवन के निरर्थक जंजाल से बचने का एकमात्र युक्तियुक्त उपाय होता है असत् में या संबंधरहित निरपेक्ष में लौट जाना ।
फिर भी हम अपने सामान्य भौतिक जीवन के तथ्यों के आधार पर तर्क-वितर्क करके इस प्रश्न का समाधान नहीं कर सकते क्योंकि उन तथ्यों में हमेशा अनुभव का एक ऐसा अंतराल रहता है जो सभी तर्क-वितर्क को अनिर्णयात्मक बना देता है । साधारणत: हमें न तो व्यक्तिगत शरीर से अनिरुद्ध वैश्व मन या अतिमन का कोई निश्चित अनुभव होता है और न ही दूसरी ओर अनुभव का कोई ऐसा दृढ़ निर्धारण ही हो पाता है जो इस बात में हमारा समर्थन करे कि हमारे अंदर रहनेवाली आत्मा भौतिक ढांचे पर ही निर्भर है और व्यष्टिगत शरीर के परे न तो जी सकती है न अपने-आपको विस्तारित कर सकती है । इस पुराने झगड़े का फैसला केवल हमारी चेतना के क्षेत्र के विस्तार से या हमारे ज्ञान के यंत्रों में एक अप्रत्याशित वृद्धि से ही हो सकता है ।
हमारी चेतना का विस्तार संतोषजनक हो इसके लिये उसे अनिवार्यत: आंतरिक रूप में वैयक्तिक से वैश्व जीवन में बढ़ना चाहिये । क्योंकि यदि किसी 'साक्षी' का अस्तित्व है तो वह इस जगत् में उत्पन्न देहधारी मन नहीं हो सकता बल्कि वह वैश्व चेतना होगी जो विश्व को आलिंगन में लेती है और उसके सभी कार्यों में अंतर्वर्ती प्रज्ञा के रूप में प्रकट होती है । उसके लिये जगत् या तो वास्तविक और शाश्वत रूप में उसकी अपनी क्रियाशील सत्ता का रूप होता है या फिर वह उससे ज्ञान की क्रिया या सचेतन शक्ति की क्रिया द्वारा उत्पन्न होता और उसमें विलीन हो जाता है । व्यवस्थित मन नहीं बल्कि वह जो स्थिर और शाश्वत है, जो जीवित पृथ्वी और
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जीवित मानव शरीर को समान रूप से आच्छादित करता है, जिसके लिये मन और इन्द्रियां गौण यंत्र हैं, वही वैश्व जीवन का 'साक्षी' और उसका प्रभु है ।
ज्ञान के अधिक नमनीय यंत्रों की संभावना की भांति मानव जाति में वैश्व चेतना की संभावना को भी आधुनिक मनोविज्ञान धीरे-धीरे स्वीकारने लगा है यद्यपि उसके मूल्य और उसकी शक्ति को मानते हुए भी उसकी गणना भ्रम में ही की जाती है । पूर्व के मनोविज्ञान में इसे हमेशा वास्तविकता और हमारी आत्मगत प्रगति का लक्ष्य माना गया है । इस लक्ष्य की ओर संक्रमण का सार है हम पर अहं-भाव द्वारा आरोपित सीमाओं का अतिक्रमण तथा समस्त जीवन और प्रतीत होनेवाले समस्त निर्जीव में जो आत्मज्ञान गुप्त रूप से व्याप्त है उसमें कम-से-कम कुछ भाग लेना, और अधिक-से-अधिक की बात हो तो उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना ।
उस चेतना में प्रवेश करके हम, उसीकी तरह, वैश्व सत्ता में निवास करते रह सकते हैं । वहां हमारी चेतना की सभी अवस्थाएं और हमारे इन्द्रियानुभव भी बदलने लगते हैं और हम इस बात को जान पाते हैं कि जड़तत्त्व एक अखंड सत्ता है और शरीर उसकी रचनाएं हैं जिनमें वह एक सत्ता अपने अविभक्त शरीर में अपने--आपको भौतिक रूप से अन्य सब रूपों में विभक्त करती है और फिर भौतिक उपायों से अपनी सत्ता के इन बहुविध बिंदुओं में संबंध स्थापित करती है । हम मन का भी इसी तरह अनुभव करते हैं और प्राण का भी, कि अपने बहुत्व के अंदर वही एक सत्ता है, जो प्रत्येक क्षेत्र में वहांकी गतिविधि के उपयुक्त साधनों द्वारा अपने-आपको विभक्त करती और फिर से एक कर देती है । और अगर हम चाहें तो हम और आगे बढ़ सकते हैं और बहुत-सी जोड़नेवाली अवस्थाओं को पार करके अतिमानस के बारे में अवगत हो सकते हैं जिसकी वैश्व क्रिया सभी न्यूनतर क्रियाकलाप की चाबी है । केवल इतना ही नहीं कि हम इस वैश्व सत्ता के बारे में सचेतन होते हैं बल्कि उसी तरह, उसके अंदर सचेतन होते हैं, अपने संवेदनों में उसे ग्रहण करते हैं और अभिज्ञता के साथ उसमें प्रवेश करते हैं । हम उसके अंदर उसी तरह रहते हैं जैसे पहले अहं-भाव में रहते थे, सक्रिय, जिस शरीर-रचना को हम अपना-आपा समझते हैं उससे भिन्न अन्य प्राणों, अन्य शरीरों और अन्य मनों के साथ अधिकाधिक संपर्क में, अधिकाधिक एक होकर रहते हैं । केवल अपनी ही नैतिक और मानसिक सत्ता पर या औरों की आत्मनिष्ठ सत्ता पर ही नहीं बल्कि भौतिक जगत् और उसकी घटनाओं पर भी, हमारी अहंकारपूर्ण क्षमता के लिये जो संभव था, उसकी अपेक्षा भगवान् के निकटस्थ उपायों द्वारा परिणाम उत्पन्न होते हैं ।
यह वैश्व चेतना उस मनुष्य के लिये वास्तविक है जिसका इसके साथ संपर्क हो चुका है या जो उसीके अंदर निवास करता है, यह स्थूल भौतिक वास्तविकता से भी बढ़कर वास्तविक है; अपने-आपमें वास्तविक, अपने प्रभावों और कार्यों में वास्तविक है । और जैसे यह उस जगत् के लिये वास्तविक है जो उसीकी अपनी
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समग्र अभिव्यक्ति है, उसी तरह यह जगत् भी उसके लिये वास्तविक है, लेकिन एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में नहीं । क्योंकि उस उच्चतर और कम बाधाओंवाली अनुभूति में हम देखते हैं कि चेतना और सत्ता एक दूसरे से अलग नहीं हैं बल्कि सारी सत्ता परम चेतना है । समस्त चेतना अपने-आपमें स्वयंभू और शाश्वत है । वह अपने कार्यों में वास्तविक है, न तो वह स्वप्न है न क्रमविकास । जगत् वास्तविक इसीलिये है क्योंकि वह केवल चेतना में निवास करता है, जिसका कारण यह है कि वह 'चिच्छक्ति' है जो 'सत्' के साथ एक है, जिसने उसकी रचना की है । रूप धारण करनेवाली स्वयंप्रकाशित शक्ति से भिन्न रहकर भौतिक रूप का अपने ही अधिकार में कोई अलग अस्तित्व है यह मान्यता वस्तुओं के सत्य के विरुद्ध दिग्भ्रम, दुःस्वप्न और असंभव मिथ्यात्व होगी ।
लेकिन यह चिन्मय 'सत्' जो अनंत अतिमानस का सत्य है वह विश्व से अधिक है और स्वतंत्र रूप से अपनी अनिर्वचनीय शाश्वतता में भी रहता है और साथ ही वैश्व सामंजस्यों में भी । संसार 'तत्' सें जीवित है, 'तत्' संसार से जीवित नहीं है और जैसे हम वैश्व चेतना में प्रवेश कर सकते हैं और वैश्व जीवन के साथ एक हो सकते हैं उसी प्रकार हम जगत् का अतिक्रमण करनेवाली चेतना में प्रवेश कर सकते हैं और समस्त वैश्व जीवन से ऊपर उठ सकते हैं । और तब वही प्रश्न उठता है जो पहले हमारे मन में आया था, क्या यह अतिक्रमण आवश्यक रूप से त्याग है ? इस विश्व का विश्वातीत के साथ क्या संबंध है ?
क्योंकि विश्वातीत के द्वार पर खड़ी है वह शुद्ध, पूर्ण आत्मा जिसका उपनिषदों में इस प्रकार वर्णन है कि जो प्रकाशमय और शुद्ध है, जो जगत् को सहारा तो देती है (ईशानो भूतभव्यस्य) पर रहती है निष्क्रिय (अनेजत्), वह ऊर्जा की स्नायुओं से रहित (अस्नाविरं), द्वैत के दोष से मुक्त, भेद के व्रणों से रहित, केवल, एक, अभिन्न, संबंध तथा बहुत्व की प्रतीति से मुक्त है --यह वेदांती अद्वैतवाद का शुद्ध आत्मन् निच्छिय ब्रह्म, 'परमं निश्चलं' है । जब मन इन द्वारों से सहसा और बिना मध्यवर्ती संक्रमण के आगे बढ़ता है तो वह जगत् की अवास्तविकता का और निश्चल नीरवता की एकमात्र वास्तविकता का भाव पाता है जो उन सर्वाधिक सशक्त और विश्वासदायक अनुभूतियों में से एक है जिन्हें मानव मन पाने में सक्षम है । यहां इस विशुद्ध आत्मा के बोध में या उसके पीछे स्थित असत् के बोध में हमें एक और नकार का आरंभबिंदु मिलता है जो दूसरे छोर पर जड़वादी नकार का समकक्ष है । परंतु यह अधिक पूर्ण, अधिक सुनिश्चित है । जो व्यक्ति या समाज अरण्यवास के लिये उसकी प्रबल पुकार सुनते हैं उनपर इसका प्रभाव अधिक संकटपूर्ण होता है। यह है संन्यासी का नकार ।
जड़तत्त्व के विरुद्ध आत्मा का यह विद्रोह तब से भारतीय मानस पर अधिकाधिक आधिपत्य जमाये है जब से बौद्ध धर्म ने लगभग दो हजार वर्ष पहले
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प्राचीन आर्यजगत् का संतुलन बिगाड़ा था । ऐसी बात नहीं है कि वैश्व माया का भाव ही भारतीय विचार का सब कुछ है, अन्य दार्शनिक निरूपण, अन्य धार्मिक अभीप्साएं भी हैं । ऐसी बात भी नहीं है कि इन दो छोरों के बीच परम ऐकांतिक दर्शनों के द्वारा मेल साधने के प्रयास नहीं किये गये । लेकिन सभी महान् 'नकार' की छाया में पले हैं और सभी के लिये जीवन का चरम लक्ष्य रहा है संन्यासी का चोला । जीवन के बारे में साधारण धारणा बौद्धमत की कर्म-शृंखला के सिद्धांत से ओत-प्रोत है और उसके बाद आनेवाले बंधन और मुक्ति के, जन्म द्वारा बंधन और जन्म से छुटकारे द्वारा मुक्ति के, विरोधी-भाव से भरी रही है । इसलिये सभी आवाजें इस महान् सहमति में एक हो जाती हैं कि स्वर्ग का राज्य हमारे इस द्वंद्वात्मक जगत् में नहीं हो सकता, वह इसके परे होगा फिर चाहे वह शाश्वत वृन्दावन१ के सुख में हो, चाहे उच्चतर ब्रह्मलोक२ के आनंद में या समस्त अभिव्यक्तियों के परे अनिर्वचनीय निर्वाण३ में या फिर जहां सभी पृथक् अनुभूतियां अनिर्वचनीय 'सत्' के निराकार एकत्व में खो जाती हैं वहां हो । और बहुत शताब्दियों से तेजस्वी साक्षियों, संतों और आचार्यों की विराट् सेना ने जिनके नाम भारतीय स्मृति के लिये पवित्र हैं, जिनका भारतीय कल्पना पर अधिकार रहा है, उन्होंने हमेशा यही साक्षी दी है, उसी सुदूर और उच्च आह्वान को उभारा है कि त्याग ही ज्ञान का एकमात्र मार्ग है, भौतिक जीवन को स्वीकारना अज्ञानी का कर्म है, जन्य की समाप्ति मानवजीवन का उचित उपयोग है और आत्मा की पुकार का अर्थ है जड़तत्त्व से विरक्ति ।
एक ऐसे युग में जिसे संन्यास-भावना से सहानुभूति नहीं है --और बाकी सारे संसार में संन्यासी का समय लद चुका या लदता प्रतीत होता है --ऐसे समय इस महान् प्रवृत्ति को प्राणिक ऊर्जा का ह्रास मान लेना आसान है कि एक प्राचीन जाति, जिसने एक समय मानव प्रगति में बहुत भाग लिया था वह अपने भार से थक गयी । मानव ज्ञान और मानव प्रयास के योगफल में अपना बहुमुखी योगदान देकर श्रांत हो गयी । लेकिन हमने देखा है यह संन्यास भाव जीवन के एक सत्य से, सचेतन सिद्धि की उस अवस्था से सादृश्य रखता है जो हमारी संभावना के उच्चतम शिखर पर स्थित है । व्यवहार में भी मानव पूर्णता के अंदर संन्यास भाव एक अनिवार्य तत्त्व है । उसके पृथक् समर्थन से भी तबतक नहीं बचा जा सकता जबतक कि मानवजाति दूसरे छोर पर अपनी बुद्धि और अपनी प्राणिक आदतों को सतत दुराग्रही पशुत्व की दासता से मुक्त नहीं कर लेती ।
१ वृन्दावन गो-लोक -शाश्वत 'सुंदरता' और आनंद का वैष्णव स्वर्ग ।
२ ब्रह्मलोक--अनिर्वचनीय में पूरी तरह लुप्त हुए बिना अंतरात्मा सच्चिदानन्द की जिस उच्चतम स्थितितक पहुंच सकती है ।
३ निर्वाण--जिस सत्ता को हम जानते हैं, जरूरी नहीं है कि समस्त सत्ता का विलयन, अहं, कामना और अहंकार-जनित कर्म और मानसिकता का विलयन ।
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वस्तुत: हमें एक ज्यादा बड़ी और ज्यादा पूर्ण प्रस्थापना की खोज है । हम देखते हैं कि भारतीय संन्यास-आदर्श के महान् वेदांती सूत्र ' एकमेवाऽद्वितीयम् को उतने ही आदेशात्मक दूसरे सूत्र 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' के प्रकाश में अच्छी तरह नहीं देखा गया है । मनुष्य की भगवान् की ओर ऊपर उठती हुई आवेगपूर्ण अभीप्सा को भगवान् की उस नीचे उतरती हुई गति के साथ अच्छी तरह मिलाकर नहीं देखा गया है जिसमें भगवान् शाश्वत रूप से अपनी अभिव्यक्ति को बांहों में लेंने के लिये नीचे झुकते हैं । जिस तरह आत्मा के अंदर उसके सत्य को अच्छी तरह समझा गया है उसी तरह जड़ तत्त्व के अंदर उसके अर्थ को नहीं समझा गया । संन्यासी जिस सद्वस्तु को खोजा करता है उसे उसकी पूरी ऊंचाई पर ग्रहण तो किया गया है लेकिन प्राचीन वेदांतियों की तरह उसके पूर्ण विस्तार और व्यापक अर्थ में नहीं । फिर भी अपनी पूर्णतर प्रस्थापना में हमें शुद्ध आध्यात्मिक आवेग के महत्त्व को कम न करना चाहिये । जैसा कि हम देख आये हैं जड़वाद ने भगवान् के उद्देश्यों की कितनी बड़ी सेवा की है उसी भांति हमें संन्यास द्वारा की गयी जीवन की और भी अधिक बड़ी सेवा को स्वीकार करना चाहिये । हम भौतिक विज्ञान के सत्यों को और उसकी वास्तविक उपयोगिताओं को अंतिम सामंजस्य में सुरक्षित रखेंगे, चाहे उसके वर्तमान रूपों में से बहुतों को या सबको नष्ट करना या एक ओर क्यों न रख देना पड़े । प्राचीन आर्यों से हमें जो पैतृक संपत्ति मिली है, वह आज चाहे जितनी घटिया और क्षीण क्यों न हो गयी हो, उसके प्रति हमें और भी अधिक धार्मिक निष्ठा के साथ उचित संरक्षण की भावना रखनी चाहिये ।
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