दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

ABOUT

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

THEME

philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
English
 PDF    philosophymetaphysics
Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
Translator:   Ravindra  PDF    LINK

अध्याय १९

 

सप्तधा अज्ञान से सप्तधा ज्ञान की ओर

 

 अज्ञानभू सप्तपदा ज्ञभू सप्तपदैव हि ।।

 

अज्ञान की भूमि में सात पद हैं, ज्ञान की भूमि में भी सात पद हैं ।

महोपनिषद ५.१

 

इमां धियं सप्तशीर्ष्णी पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत् ।

तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्य:...... ।

ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवसत्रासो असुरस्य वीरा: ।

विप्रं पदमङि्गरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त: ।।

...... अश्मन्मयानि नहना व्यस्यनु ।

बृहस्पतिरभिकनिक्रदद् गा:..... ।।

अवो द्वाभ्यां पर एकया गा गुहा तिष्ठन्तीरनृतस्थ सेतौ ।

बृहस्पतिस्तमसि ज्योतिरिच्छदुस्रा आकर्वि हि तिस्र आव: ।।

विभिद्या पुर शयथेमपाचीं निस्रीणि साकमुदधेरकृत्तत् ।

बृहस्पतिरुषसं सूर्य गाम् अर्कं विवेद स्तनयत्रिव द्यौ: ।।

 

उसने ऋत् से उत्पन्न सात सिरोंवाली विशाल धी को पाया । उसने

चतुर्थ लोक का सृजन किया और वैश्व बन गया... द्युलोक के

पुत्रों, सर्वशक्तिमान् के वीरों ने ऋजु विचार का चिंतन करते हुए,

 सत्य को वाणी देते हुए ज्योति के लोक की स्थापना की और यज्ञ

के पहले धाम की कल्पना की.. बृहस्पति ने बाह्य शिलाएं गिरा

दीं और ज्योतिर्मय गोयूथों का आह्वान् किया... उन गोयूथों का जो

गुप्त रूप से नीचे के दो लोकों और ऊपर के एक लोक के बीच

मिथ्यात्व पर छाये सेतु पर खड़े हैं, अंधेरे में प्रकाश की इच्छा करते

हुए वे किरणयूथ को ऊपर ले आये और उन्होने तीनों लोकों को

अनावृत कर दिया और उस नगरी को, जो घात में छिपी थी, छिन्न-

भिन्न कर दिया । तीनों को समुद्र में से काटकर निकाला और उषा

तथा सूर्य, ज्योति तथा ज्योति-जगत् का आविष्कार किया ।

ऋग्वेद १०. ६७.१- ५

 

बृहस्पति: प्रथमं जायमानो महो ज्योतिष: परमे व्योमन् ।

सप्तास्यस्तुविजातो रवेण वि सप्तरश्मिरधमत् तमांसि ।।

 

बृहस्पति -जिनके बहुत-से जन्म हैं, जिनके सात वाक्-मुख हैं,

जिनकी सात रश्मियां हैं -महाज्योति के परम व्योम में, अपने प्रथम

जन्म में, अपने निनाद से तम को छिन्न-भिन्न कर देते हैं ।

ऋग्वेद ४. ५०.

७१६


समस्त विकास तत्त्वतः अभिव्यक्त सत्ता में चेतना की शक्ति का उन्नयन हैं ताकि उसे, जो अभीतक अनभिव्यक्तहै, उसकी अधिक तीव्रतातक उठाया जा सके, जड़ से प्राण में, प्राण से मन में और मन से आध्यात्म में । हमारी मानसिक में से आध्यात्म और अतिमानसिक अभिव्यक्तितक, अभीतक अर्द्ध-पाशविक मानवता में से दिव्य सत्ता और दिव्य जीवनतक वृद्धि के लिये यही तरीका होना चाहिये । हमारी चेतना की, उसके द्रव्य, उसकी शक्ति और उसकी संवेदनशक्ति की एक नयी आध्यात्मिक ऊंचाई, विस्तार, गहराई, सूक्ष्मता, तीव्रता प्राप्त करनी होगी, हमारी सत्ता की एक उन्नति, विस्तार, नमनीयता, पूर्ण क्षमता प्राप्त करनी होगी और मन को और जो कुछ मन से नीचे है उस सबको उस विशालतर सत्ता में ग्रहण करना होगा । किसी भावी रूपांतर में विकास के धर्म, विकसनशील प्रक्रिया के तत्त्व में कुछ हेर-फेर तो होगा पर मौलिक परिवर्तन नहीं, वह ज्यादा बड़े पैमाने पर मुक्त गति में राजोचित रूप से चलता रहेगा । उच्चतर चेतना में या सत्ता की उच्चतर स्थिति में परिवर्तन ही धर्म का, समूची उच्चतर तपस्या का और योग का पूरा-पूरा लक्ष्य और प्रक्रिया नहीं है, वह हमारे जीवन की प्रवृत्ति और उसके श्रम के कुल-योग में पाया जानेवाला गुप्त प्रयोजन भी है । हमारे अंदर का जीवन-तत्त्व सतत रूप से मन, प्राण और शरीर -जो उसे पहले से प्राप्त हैं -के स्तरों पर अपने-आपको प्रतिष्ठित करने और अपनी पूर्णता प्राप्त करने की चाह तो करता ही है, साथ ही वह परे जाने के लिये .स्वतः -चालित रहता है और इन लाभों को रूपांतरित करके उन्हें प्रकृति में सचेतन पुरुष को उन्मुक्त करने का साधन बनाता है । अगर हमारा कोई एक भाग, बुद्धि, हृदय, इच्छा या प्राणिक कामना-पुरुष ही अपनी अपूर्णता और जगत् से असंतुष्ट होकर यहांसे दूर हो जाने का प्रयास करता है, और सत्ता की किसी बड़ी ऊंचाई में, जाना चाहता है, बाकी सारी प्रकृति को अपनी देख-भाल आप करने या मर-मिटने के लिये छोड़कर संतुष्ट हो सकता है तो पूर्ण रूपांतर का ऐसा परिणाम चरितार्थ नहीं होगा, अंतत: यहां तो नहीं ही होगा । लेकिन यह हमारे जीवन की सर्वांगीण प्रवृत्ति नहीं है । हमारे अंदर प्रकृति का एक श्रम यह है कि वह हमें पूर्ण रूप से लेकर, अभीतक जो कुछ उसने यहां विकसित किया है उससे ऊपर के सत्ता के तत्त्व में चढ़ जाये, लेकिन उसकी पूर्ण इच्छा यह नहीं है कि इस आरोहण में अपने-आपको नष्ट कर डाले ताकि वह उच्चतर तत्त्व ऐकांतिक रूप से प्रकृति के वर्जन और विलोपन द्वारा प्रतिष्ठित हो सके । चेतना की शक्ति को इतना उठाना कि वह मानसिक, प्राणिक और शारीरिक साधन-विनियोग से उठकर अध्यात्म के सार और शक्ति में चली जाये वस्तुत: अनिवार्य है लेकिन वह न तो एकमात्र उद्देश्य है न करने योग्य संपूर्ण वस्तु ।

 

    हमारी पुकार होनी चाहिये अपनी सारी सत्ता की नयी ऊंचाई पर रहने के लिये, लेकिन उस ऊचाईतक पहुंचने के लिये अपने क्रियाशील अंगों को प्रकृति के

७१७


अनिर्धारित पदार्थ में फेंक देने की जरूरत नहीं और न ही इस मुक्ति देनेवाली हानि को पूरा करने के लिये आध्यात्म पुरुष की आनंदमय निष्क्रियता में जा गिरना है । यह तो हमेशा ही किया जा सकता है और इसमें बहुत विश्राम और स्वाधीनता की प्राप्ति होती है लेकिन स्वयं प्रकृति हमसे जिस चीज की आशा करती है वह यह है कि हम जो कुछ हैं वह सारा-का-सारा आध्यात्मिक चेतना में उठ जाये और आत्मा की अभिव्यक्त और बहुमुखी शक्ति बन जाये । प्रकृति के अंदर सत्ता का पूर्ण उद्देश्य है पूर्ण रूपांतर; प्रकृति की स्वयं अपना अतिक्रमण करने की वैश्व प्रेरणा का निहित अर्थ यही हैं । इसी कारण प्रकृति की प्रक्रिया अपने-आपको एक नये तत्त्व में उठानेतक सीमित नहीं है; नयी ऊंचाई कोई संकीर्ण, तीव्र शिखर नहीं है । वह अपने साथ विस्तार लाती है और जीवन का एक विशालतर क्षेत्र प्रतिष्ठित करती है जिसमें नये तत्त्व की शक्ति काफी खेल सके और अपने आविर्भाव के लिये स्थान पा सके । ऊपर उठने और फैलने की यह क्रिया नये तत्त्व की मूलभूत क्रीड़ा में यथा-संभव अधिक-से-अधिक प्रसारतक सीमित नहीं होती, इसमें जो उससे भी नीचे है उसे उच्चतर मूल्यों में ले लिया जाता है । दिव्य या आध्यात्मिक जीवन अपने अंदर केवल रूपांतरित और आध्यात्म-भावापन्न मानसिक, प्राणिक और भौतिक जीवन को ही नहीं लेगा बल्कि वह उन्हें क्रीड़ा की ऐसी संभावना प्रदान करेगा जो उससे बहुत अधिक विस्तृत और पूर्ण होगी जो उन्हें अपने स्तर पर बने रहने से प्राप्त होती । हमारे अपना अतिक्रमण करने से हमारे मानसिक, प्राणिक और भौतिक जीवन के नष्ट होने की जरूरत नहीं है और न ही वे आध्यात्मिक-भावापन्न होने से कम या क्षीण होते हैं । वे अधिक समृद्ध और महान् अधिक शक्तिशाली और अधिक पूर्ण हो सकते और होते हैं । दिव्य परिवर्तन से उनके लिये ऐसी संभावनाएं खुल जाती हैं जो आध्यात्म-भावापन्न न होने की अवस्था में उनके लिये व्यावहारिक और कल्पनागम्य न होतीं ।

 

    यह विकास, यह उन्नयन, विस्तरण और समाकलन की प्रक्रिया स्वभावत: सप्तधा अज्ञान में से पूर्ण ज्ञान की ओर परिवर्धन और आरोहण है, उस अज्ञान का मर्म आधारगत है । वह अपने-आपको परिणत करता है हमारी संभूति के सच्चे स्वरूप के बारे में बहुविध अज्ञान में, अपनी समग्र आत्मा के बारे में अनभिज्ञता में, जिसकी चाबी है हम जिस स्तर पर निवास करते हैं, उसके द्वारा और हमारी प्रकृति के वर्तमान प्रधान तत्त्व द्वारा परिसीमन । हम जिस लोक में निवास करते हैं वह जड़-भौतिक लोक है । हमारी प्रकृति में इस समय प्रधान तत्त्व है ऐंद्रिय मन के साथ मानसिक बुद्धि जो अपने सहारे और पीठिका के रूप में जड़ तत्त्व पर आश्रित है । परिणामत: मानसिक बुद्धि और उसकी शक्तियों की उस भौतिक अस्तित्व के साथ तल्लीनता, जैसा कि उसे इन्द्रियों के द्वारा दिखलाया जाता है और उस प्राण के साथ तल्लीनता जैसा कि वह प्राण और भौतिक के बीच समझौते के रूप में

७१८


रूपायित हुआ है; यह मूलभूत अज्ञान की विशेष छाप है । यह स्वाभाविक भौतिकवाद या भौतिक-भावापन्न प्राणवाद, अपने उद्गम के साथ हमारा नत्थी होना, वह एक ऐसे आत्मनियंत्रण का रूप है जो हमारी सत्ता के क्षेत्र को संकीर्ण करता है और मानव सत्ता पर बहुत आग्रह करता है । यह उसके भौतिक अस्तित्व की पहली आवश्यकता है लेकिन बाद में आदिम अज्ञान उसे एक ऐसी जंजीर बना देता है जो उसके ऊपर उठनेवाले हर कदम पर बाधा देती है, इस भौतिक-भावापन्न मानसिक बुद्धि द्वारा आत्मा की संपूर्णता, शक्ति और सत्य के इस परिसीमन में से बाहर निकल आने का प्रयास और भौतिक प्रकृति के आगे अंतरात्मा की इस अधीनता में से निकलने का प्रयास हमारी मानवजाति की सच्ची प्रगति की ओर पहला कदम है । क्योंकि हमारा अज्ञान संपूर्ण नहीं है, वह चेतना का परिसीमन है । यह वह पूर्ण अविद्या नहीं हैं जो विशुद्ध जड़ अस्तित्वों में उसी अज्ञान की मुहर है, जिनका केवल लोक ही जड़ भौतिक नहीं है बल्कि जिनका प्रधान तत्त्व भी जड़ भौतिक है । यह एकांगी, सीमित करनेवाला, विभाजक और बड़ी हदतक मिथ्या करनेवाला ज्ञान है । उस सीमा-बंधन और मिथ्यात्व में से बाहर निकलकर हमें अपनी आध्यात्मिक सत्ता के सत्य में विकसित होना चाहिये ।

 

    जीवन और जड़-भौतिक के साथ यह तन्मयता शुरू में ठीक और जरूरी है क्योंकि मनुष्य को जो पहला कदम उठाना है वह है इस भौतिक को अच्छे-से-अच्छी तरह जानना और इसपर अधिकार करना -जहांतक वह अपने ऐंद्रिय मन से प्राप्त होनेवाले अनुभव पर अपने विचार और बुद्धि का प्रयोग करते हुए कर सकता है । लेकिन यह एक प्रारंभिक कदम है । अगर हम यहीं रुक जाएं तो हम कोई वास्तविक प्रगति न कर पाएंगे । हम जहां थे वहीं होंगे और हमने सिर्फ हिलने- डुलने के लिये कुछ भौतिक स्थान प्राप्त कर लिया है और सापेक्ष ज्ञान और अपर्याप्त, अस्थिर आधिपत्य को प्रतिष्ठित करने के लिये अपने मन के लिये अधिक शक्ति प्राप्त कर ली है ओर भौतिक शक्तियों और सत्ताओं की भीड़ के बीच धक्कमधक्का करने और चीजों को धकियाने की सामर्थ्य प्राण-कामना के लिये हमने पा ली है । भौतिक विषयगत ज्ञान का अधिकतम विस्तार, चाहे वह दूरतम सौरमंडलों और धरती तथा सागर की गभीरतम परतों और जड़-भौतिक द्रव्य और ऊर्जा की सूक्ष्मतम शक्तियों का आलिंगन भी क्यों न कर ले, वह हमारे लिये तात्त्विक लाभ नहीं है, वह एकमात्र चीज नहीं है जिसे प्राप्त करने की हमें सबसे अधिक आवश्यकता है । इसीलिये भौतिक विज्ञान की चमकती हुई विजयों के बावजूद जड़वाद का शास्त्र अपने-आपको अंत में एक व्यर्थ और असहाय मत सिद्ध करता है और यहीं कारण है कि भौतिक विज्ञान अपनी सभी उपलब्धियों के बावजूद, चाहे वह आराम प्राप्त कर ले लेकिन मानवजाति के लिये सुख और सत्ता की पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकता । हमारा सच्चा सुख हमारी संपूर्ण सत्ता के सच्चे

७१९


विकास में, अपनी संपूर्ण सत्ता के समस्त क्षेत्र में विजय पाने और बाह्य और उससे भी अधिक आंतरिक पर, गुप्त और साथ ही प्रकट प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व पाने में है । हमारी सच्ची संपूर्णता, हम जिस लोक से शुरू करते हैं उसीपर अधिकाधिक बड़े-बड़े चक्कर बनाने से नहीं बल्कि उसके अतिक्रमण से आती है । इसी कारण प्राण और जड़तत्त्व में पहली आवश्यक नींव के बाद हमें अपनी चेतना की शक्ति को ऊंचा, गहरा, विस्तृत और सूक्ष्म बनाना होगा । पहले हमें अपनी मानसिक सत्ताओं को मुक्त करना और अपने मानसिक जीवन की अधिक स्वतंत्र, अधिक सूक्ष्म और अधिक उदात्त क्रीड़ा में प्रवेश करना होगा । क्योंकि हमारा सच्चा जीवन भौतिक की अपेक्षा मानसिक अधिक होता है, क्योंकि हम अपनी यांत्रिक या अभिव्यंजक प्रकृति में भी प्रधान रूप से मन हैं जड़ तत्त्व नहीं, भौतिक होने की अपेक्षा मानसिक प्राणी अधिक हैं । मानव पूर्णता और स्वाधीनता की ओर पहली संक्रमणात्मक गति है पूर्ण मनोमय पुरुष में विकास । वह सचमुच पूर्ण नहीं बनाती, अंतरात्मा को स्वतंत्र नहीं करती लेकिन वह हमें जड़-भौतिक और प्राणिक तम्मयता में से एक कदम उठाती और अज्ञान की पकड़ को ढीला करने की तैयारी करती है ।

 

    अधिक पूर्ण मानसिक सत्ताएं होने में हमारा लाभ यह है कि हम अधिक सूक्ष्म, उच्च और विस्तृत जीवन, चेतना, शक्ति और सत्ता के सुख और आनंद की संभावना के नजदीक पहुंचते हैं । हम जिस अनुपात में मन के सोपान पर चढ़ते हैं, हमारे अंदर इन चीजों की अधिक शक्ति आती हैं । साथ-ही-साथ हमारी मानसिक चेतना अपने लिये अधिक अंतर्दर्शन और शक्ति, सूक्ष्मता और नमनीयता प्राप्त कर लेती है और हम स्वयं भौतिक और प्राणिक सत्ता के अधिक भाग को आलिंगन में ले सकते हैं ताकि उसे ज्यादा अच्छी तरह जानें, उसका ज्यादा अच्छा उपयोग करें, उसे ज्यादा उदात्त मूल्य, विशालतर क्षेत्र, अधिक उन्नीत क्रिया, विस्तृत क्रम और उच्चतर परिणाम दें । मनुष्य अपनी प्रकृति की विशिष्ट शक्ति में मनोमय सत्ता है लेकिन अपने आविर्भाव के प्रथम चरणों में वह ज्यादा मानस-भावापन्न पशु ही है जो पशु की भांति अपने शारीरिक जीवन में ही तल्लीन है । वह अपने मन का उपयोग प्राण और शरीर के उपयोगों, हितों, कामनाओं के लिये उनके सेवक और मंत्री के रूप में करता है, अभीतक प्रभु और स्वामी के रूप में नहीं । जैसे-जैसे वह अपने मन में विकसित होता है और जिस अनुपात में उसका मन अपने आत्मतत्त्व और स्वाधीनता की, प्राण और शरीर के अत्याचारों के विरुद्ध स्थापना करता है उसी अनुपात में अपने महत्त्व में भी बढ़ता है । एक ओर मन अपने विमोचन द्वारा प्राण और शरीर पर नियंत्रण रखता और उन्हें प्रदीप्त करता है, दूसरी ओर शुद्ध मानसिक लक्ष्य, तल्लीनताएं और ज्ञान की खोज मूल्य पाना शुरू करते हैं । निम्नतर नियंत्रण और तन्मयता से मुक्त होकर मन प्राण के अंदर एक शासन, उन्नयन, सुरुचि, अधिक सूक्ष्म संतुलन और सामंजस्य लाता है । प्राणिक और भौतिक गतिविधियों

७२०


को एक दिशा दी जाती है और व्यवस्था में रखा जाता है । मानसिक-साधन के द्वारा जितना संभव हो उन्हें रूपांतरित करके सिखाया जाता है कि वे बुद्धि के यंत्र बनें, प्रबुद्ध इच्छा, नैतिक अंतर्दर्शन और सौंदर्यग्राही बुद्धि के आज्ञाकारी बनें । यह जितना अधिक प्राप्त किया जा सके जाति उतनी ही अधिक सचमुच मानव, मानसिक सत्ताओं की जाति बनती है ।

 

    यूनानी विचारकों ने जीवन के इसी अंतर्दर्शन को सामने रखा था । इस आदर्श के सूर्यालोक में खिले फूलों ने यूनानी जीवन और संस्कृति को इतना महान् आकर्षण दिया है । परवर्ती काल में यह अंतर्दर्शन लुप्त हो गया और जब वह वापिस आया तो वह बहुत ही घटा हुआ, अधिक गंदले तत्त्वों से मिला हुआ था; एक ऐसे आध्यात्मिक आदर्श की अस्तव्यस्तता जिसे बुद्धि ने अधूरे रूप में ही पकड़ा है और जिसे जीवन के व्यवहार में बिल्कुल चरितार्थ नहीं किया गया है लेकिन जो अपने अनुकूल और प्रतिकूल मानसिक और नैतिक प्रभावों के साथ उपस्थित रहता है और जिसके विरोध में अपनी अबाध आत्मतुष्ट गति को न पा सकनेवाली एक प्रबल, अमित, प्राणिक प्रवृत्ति का दबाव पड़ता रहा है । यह अस्तव्यस्तता मन के प्रभुत्व और जीवन के सामंजस्य, उपलब्ध सौंदर्य और संतुलन के मार्ग में आड़े आयी । जीवन के एक ज्यादा बड़े क्षेत्र और उच्चतर आदर्शों की ओर एक उन्मीलन तो प्राप्त हो गया परंतु एक नये आदर्शवाद के तत्त्व क्रिया में केवल प्रभाव के रूप में प्रसारित किये गये । वे न तो उसपर प्रभुता पा सके न उसे रूपांतरित कर सके और अंत में आध्यात्मिक प्रयास, जिसे गलत तरीके से समझा गया और चरितार्थ न किया गया, वह एक ओर फेंक दिया गया, उसके नैतिक प्रभाव बच रहे लेकिन अवलंब देनेवाले आध्यात्मिक तत्त्व से वंचित होकर क्षीण होते हुए निष्प्रभाव हो गये । प्राणिक प्रेरणा भौतिक बुद्धि के अत्यधिक विकास की सहायता पाकर जाति की तन्मयता बन गयी । पहला परिणाम था अमुक प्रकार के ज्ञान और निपुणता की प्रभावशाली वृद्धि । सबसे हाल का परिणाम है संकटमय आध्यात्मिक अस्वस्थता और बहुत बड़ी अव्यवस्था ।

 

    क्योंकि स्वयं मन काफी नहीं है, उसकी बुद्धि की बड़ी-से-बड़ी क्रीड़ा भी केवल एक सीमित अर्द्ध-ज्योति होती है । भौतिक जगत् का सतही मानसिक ज्ञान और भी अधिक अपूर्ण पथ प्रदर्शक है । विचारशील पशु के लिये यह काफी हो सकता है लेकिन ऐसी मानव सत्ताओं की जाति के लिये नहीं जो आध्यात्मिक विकास को गर्भ में लिये हैं । केवल भौतिक विज्ञान और बाहरी ज्ञान द्वारा भौतिक वस्तुओं का सत्य भी पूरी तरह नहीं जाना जा सकता और न ही हमारे जड़-भौतिक अस्तित्व के उचित उपयोग की खोज की जा सकती है या भौतिक और यांत्रिक प्रक्रियाओं पर अधिकार पा लेन से ही इसे संभव बनाया जा सकता है । जानने के लिये, उचित उपयोग करने के लिये हमें भौतिक प्रपंच और प्रक्रिया के परे जाना होगा, हमें

७२१


जानना होगा कि उसके भीतर और उसके पीछे क्या है क्योंकि हम केवल शरीरस्थ मन ही नहीं हैं, एक आध्यात्म पुरुष, आध्यात्म तत्त्व और प्रकृति का आध्यात्म लोक भी हैं । हमें अपनी चेतना की शक्ति को उसीके अंदर उठाना है, उसीके द्वारा और अधिक विस्तार से, विश्व-व्यापी और अनंत रूप से, अपनी सत्ता के क्षेत्र को, अपने कार्यक्षेत्र को बढ़ाना है और उसके द्वारा अपने निचले जीवन को ऊपर उठाना और महत्तर उद्देश्यों और विशालतर योजना के लिये जीवन के आध्यात्मिक सत्य के प्रकाश में उपयोग में लाना है । हमारे मन का परिश्रम और प्राण का संघर्ष तबतक किसी समाधानतक नहीं पहुंच सकते जबतक कि हम निम्नतर प्रकृति के दुराग्रही नेतृत्व के परे नहीं चले जाते, अपनी प्राकृतिक सत्ता को आध्यात्म पुरुष की सत्ता और चेतना में समाविष्ट नहीं कर देते, अपने प्राकृत उपकरणों का आध्यात्म पुरुष की शक्ति द्वारा उसके आनंद के लिये उपयोग करना नहीं सीख लेते । तभी मूलभूत अज्ञान, हमारी सत्ता की वास्तविक रचना का अज्ञान, जिससे हम कष्ट पा रहे हैं, हमारी सत्ता के और संभूति के सच्चे और प्रभावशाली ज्ञान में बदल सकता है । क्योंकि हम जो हैं वह है आध्यात्म पुरुष जो वर्तमान अवस्था में मुख्य रूप से मन और गौण रूप से प्राण और शरीर का उपयोग कर रहा है, जड़ पदार्थ हमारा मौलिक क्षेत्र है लेकिन हमारी अनुभूति का एकमात्र क्षेत्र नहीं, लेकिन यह केवल वर्तमान की बात है । हमारा अपूर्ण मानसिक यंत्र-विन्यास हमारी संभावनाओं की इति नहीं है क्योंकि हमारे अंदर सुषुप्त या अदृश्य और अपूर्ण रूप से सक्रिय अन्य तत्त्व भी हैं जो मन के परे और आध्यात्मिक प्रकृति के नजदीक हैं, अधिक प्रत्यक्ष शक्तियां और प्रकाशमान यंत्र है, एक उच्चतर स्थिति है, हमारे वर्तमान भौतिक, प्राणिक और मानसिक जीवन के क्षेत्रों से अधिक बड़े गतिशील क्रियाओं के अन्य क्षेत्र हैं । ये हमारे पद, हमारी सत्ता के अंग बन सकते हैं । ये हमारी वर्द्धित प्रकृति के तत्त्व, शक्तियां और यंत्र हो सकते हैं । लेकिन उसके लिये आध्यात्म सत्ता में एक अस्पष्ट या उल्लासपूर्ण आरोहण से या उसकी अनतताओं के स्पर्श से आकारहीन उल्लास पाकर संतुष्ट हों जाना काफी नहीं है । जैसे प्राण विकसित हुआ है, जैसे मन विकसित हुआ है उसी तरह उनके तत्त्व को भी विकसित होना होगा, अपने यंत्र को संगठित करना और संतोष प्राप्त करना होगा । तब हमें अपनी सत्ता का सच्चा संघटन प्राप्त होगा और हम अज्ञान पर विजय पा लेंगे ।

 

    संघटनात्मक अज्ञान पर विजय तबतक पूरी नहीं हो सकती, पूर्णतः क्रियाशील नहीं हो सकती जबतक कि हम अपने मनोगत अज्ञान पर भी विजय न पा लें क्योंकि दोनों एक साथ बंधे हैं । हमारा मनोगत अज्ञान हमारे आत्म-ज्ञान की उस छोटी-सी लहर या हमारी उस सत्ता की ऊपरी धारा के साथ सीमित है जो सचेतन जाग्रत् पुरुष है । हमारी सत्ता का यह भाग रूपहीन या केवल अर्द्ध-रूपायित गतियों का मौलिक प्रवाह है जो स्वचालित सातत्य में चलता रहता है, जिसे एक सक्रिय

७२२


सतही स्मृति और निष्क्रिय अंतस्थ चेतना काल के क्षण- क्षण के अपने प्रवाह में सहारा देती और एक साथ रखती है । हमारी तर्क-बुद्धि और साझेदार तथा साक्षी बुद्धि उसे संगठित करती और उसकी व्याख्या करती है । उसके पीछे हमारे गुप्त पुरुष की गुह्य सत्ता और ऊर्जा होती है जिसके बिना बाह्य चेतना और क्रियाशीलता का अस्तित्व ही न रहता और न वह कार्य कर पाती । जड़-द्रव्य में केवल एक सक्रियता अभिव्यक्त होती है -वस्तुओं के बाहरी भाग में, हम बस उतना ही तो जानते हैं -वह निश्चेतन होती है क्योंकि जुड़-तत्त्व के अंदर निवास करनेवाली चेतना गुप्त ओर अंतस्तलीय होतीं है जो निश्चेतन रूप और अंतस्थ ऊर्जा में अव्यक्त रहती है । लेकिन हमारे अंदर चेतना अंशत: अभिव्यक्त, अंशतः जाग्रत् हो गयी है । लेकिन यह चेतना बाड़े से घिरी और अपूर्ण है, वह अपने अभ्यासगत आत्मसीमांकन से बंधी और एक सीमित चक्र के भीतर चक्कर लगाती है - अपवाद तब होता है जब हमारे अंदर की रहस्यमयता से प्रकाश की कौंध, सूचनाएं या लहरें उठे जो उन रचनाओं की सीमाओं को तोड़ दें और उनके परे बह चलें या चक्र को विस्तृत करें । लेकिन ये यदा-कदा के आगमन हमें अपनी वर्तमान क्षमताओं से बहुत आगे विस्तृत नहीं कर सकते, वे हमारी स्थिति में क्रांति लाने के लिये पर्याप्त नहीं हैं । यह तभी हो सकता है जय हम उच्चतर अविकसित प्रकाश और शक्तियों को -जो हमारी सत्ता में संभाव्यता हैं -उसके अंदर ला सकें और उन्हें सचेतन और सामान्य रूप से सक्रिय कर सकें । इसके लिये हमें अपनी सत्ता के उन क्षेत्रों से मुक्त रूप से खींच सकना चाहिये जो इनका आवास हैं लेकिन जो अभी हमारे लिये अवचेतन बल्कि गुप्त रूप से अंतश्चेतन या परिचेतन या फिर अतिचेतन हैं । या इससे भी आगे और यह भी हमारे लिये संभव है -हमें भीतर की ओर डुबकी या नियंत्रित भेदन द्वारा अपने इन आंतरिक या उच्चतर भागों में प्रवेश करना और वापस अपने साथ वहां के गुप्त रहस्यों को सतह पर ले आना चाहिये । या अपनी चेतना का और भी अधिक मौलिक परिवर्तन पा कर हमें ऊपर सतह पर नहीं, अपने भीतर जीना सीखना चाहिये और उन आंतरिक गहराइयों में रहना और वहां से कार्य करना सीखना चाहिये - और वह भी एक ऐसी अंतरात्मा से जो प्रकृति की स्वामी बन गयी है ।

 

    हमारा वह भाग जिसे हम असल में अवचेतन कह सकते हैं -क्योंकि वह मन और सचेतन प्राण से नीचे, अवर और धुंधला है -उसमें केवल हमारी शारीरिक सत्ता के गठन के भौतिक और प्राणिक तत्त्व आते हैं जो मानसिकभावापन्न नहीं हैं, न तो मन उनका अवलोकन करता है न उनकी क्रिया मन के नियंत्रण में है । उसमें वह मूक गुह्य चेतना भी सम्मिलित है जो क्रियाशील तो है पर हमें उसका बोध नहीं होता, जो कोषाणुओं और स्नायुओं और समस्त शारीरिक पदार्थ में कार्य करती और उनकी प्राण-प्रक्रिया और स्वचालित अनुक्रियाओं का मेल बैठाती है । उसके अंदर निमज्जित ऐंद्रिय मन की वे नीचे-से-नीची क्रियाएं भी आ जाती हैं जो अधिकतर

७२३


पशु और वनस्पति-जीवन में क्रियाशील हैं । हम अपने विकास में इस तत्त्व की किसी बड़ी संगठित क्रिया की आवश्यकता को पार कर आये हैं लेकिन वह तत्त्व हमारी सचेतन प्रकृति के नीचे डूबा हुआ और धुंधले रूप से काम करता है । यह धुंधली क्रियाशीलता मन के एक छिपे हुए और अवगुंठित उपस्तरतक जाती है जिसमें भूतकाल के संस्कार और वह सब जिसे सतही मन से त्याग दिया गया है, डूब जाता है और वहां सोया रहता है और नींद में या मन की अनुपस्थिति में उभर सकता है । वह स्वप्न के रूप में, यांत्रिक मन की क्रियाओं के रूप या संकेत, स्वचालित प्राणिक अनुक्रिया या अंतर्वेग के रूप में, भौतिक असामान्यता के रूप या स्नायविक विक्षोभ के रूप में, अस्वस्थता, रोग, असंतुलन के रूप में उभर सकता है । सामान्यतः हम अवमानस में से उतना ही ऊपर ले आते हैं जिसकी हमारे जाग्रत् ऐंद्रिय मन और बुद्धि को अपने प्रयोजन के लिये जरूरत हो । उन्हें इस भांति ऊपर लाते समय हमें उनके स्वभाव, उद्गम और क्रिया की अभिज्ञता नहीं होती और हम उन्हें उनके निजी मूल्यों में नहीं बल्कि अपनी जाग्रत् मानव इन्द्रिय और बुद्धि के मूल्यों में अनूदित करके समझते हैं । परंतु अवमानस का उभार, मन और शरीर पर उसके प्रभाव, अधिकतर स्वचालित, बिना बुलाये और अनैच्छिक होते हैं क्योंकि हमें अवचेतन का कोई ज्ञान नहीं है और इस कारण उसपर नियंत्रण भी नहीं है । केवल अपने लिये असामान्य अनुभव के द्वारा, बहुधा बीमारी या संतुलन में किसी बड़बड़ के कारण हम अपनी शारीरिक सत्ता और प्राण-शक्ति के मूक जगत् में, मूक किंतु बहुत सक्रिय जगत् की किसी चीज के बारे में अभिज्ञ हो सकते हैं या अपनी सतह के नीचे स्थित यांत्रिक अवमानवीय भौतिक और प्राणिक मन की गुप्त क्रियाओं के बारे में सचेतन हो सकते हैं -यह एक ऐसी चेतना है जो है तो हमारी पर हमारी लगती नहीं क्योंकि वह हमारी ज्ञात मानसिकता का भाग नहीं हैं । यह और इससे बहुत अधिक अवचेतना में छिपा रहता है ।

 

    अवचेतन में उतरने से इस क्षेत्र में अन्वेषण करने से कोई लाभ न होगा क्योंकि यह असंगति, निद्रा, जड़ समाधि या समुर्च्छित निष्क्रियता में डुबकी होगी । मानसिक जांच या अंतर्दृष्टि हमें इन प्रच्छन्न क्रियाओं के बारे में कुछ परोक्ष और रचनात्मक विचार दे सकती है लेकिन हमें अपनी अवचेतन भौतिक, प्राणिक और मानसिक प्रकृति के रहस्यों की प्रत्यक्ष और संपूर्ण अभिज्ञता तभी मिल सकती है और उसके रहस्यों पर तभी अधिकार हो सकता है जब हम अंतस्तल में पीछे की ओर खिंच जायें या अतिचेतन में आरोहण करें और वहांसे इन धुंधली गहराइयों को देखें या हम अपना विस्तार करें । यह अभिज्ञता, यह नियंत्रण अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि अवचेतना चेतना बनने की प्रक्रिया में निश्चेतना है । वह हमारी सत्ता के निम्न भागों और गतिविधियों का सहारा और जड़ है । हमारे अंदर वह सब जो कुछ चिपका रहता है और बदलने से इंकार करता है, हमारे बुद्धिहीन

७२४


विचार का यांत्रिक आवर्तन, हमारे अनुभव, संवेदन, अंतर्वेग, झुकाव का सतत दुराग्रह, हमारे चरित्र की असंयत दृढ़ता -अवचेतना इन सबको सहारा और पोषण देती है । हमारे अंदर जो कुछ पाशविक और नारकीय है उसकी विश्राम-गुफा अवचेतना के घने जंगल में होती है । उसमें घुसना, प्रकाश लाना और नियंत्रण स्थापित करना किसी उच्चतर जीवन की संपूर्णता के लिये, प्रकृति के किसी संपूर्ण रूपांतर के लिये अनिवार्य है ।

 

    हमारी सत्ता के संघटन में वह भाग, जिसे हमने अंतश्चेतन और परिचेतन कहा है, और भी अधिक प्रभावशाली और कहीं अधिक मूल्यवान् तत्त्व है । उसमें एक आंतरिक बुद्धि और आंतरिक ऐंद्रिय मन, आंतरिक प्राण यहांतक कि आंतरिक सूक्ष्म-भौतिक सत्ता की विशाल क्रिया भी आ जाती है जो हमारी जाग्रत् चेतना को संभाले और आलिंगन में लिये रहती है, जिसे आगे नहीं लाया जाता, जो आधुनिक परिभाषा में अंतस्तलीय है । लेकिन जब हम इस छिपे हुए पुरुष में प्रवेश कर पाते और उसका अन्वेषण करते हैं तो हम देखते हैं कि हमारा जाग्रत् बोध और बुद्धि अपने अधिकांश में उसमें से संकलन है जो हम गुप्त रूप से हैं या हो सकते हैं, वह हमारी वास्तविक, हमारी प्रच्छन्न सत्ता का बहिर्मुख और बहुत कटा-छंटा और गंवारू बना हुआ संस्करण है या उसकी गहराइयों में से ऊपर उछाला दुआ तत्त्व है । हमारी सतही सत्ता निश्चेतन में से इस अंतस्तलीय की सहायता से विकास द्वारा, पृथ्वी पर हमारे वर्तमान मानसिक और भौतिक जीवन के उपयोग के लिये बनायी गयी है । यह जो पीछे है वह एक ऐसी रचना है जो निश्चेतन और प्राण तथा मन के विशालतर क्षेत्रों के बीच मध्यस्थता करती है, इन क्षेत्रों का सृजन अंतर्लयात्मक अवरोहण के द्वारा हुआ हैं और इनके दबाव ने जड़ भौतिक में मन और प्राण के विकास में सहायता की है । भौतिक जीवन के प्रति हमारी सतही अनुक्रियाओं के पीछे इन अवगुंठित भागों की एक क्रियाशीलता का सहारा रहता है और ये प्रायः उन्हीं भागों की अनुक्रियाएं होती हैं जो सतही मानसिक अनुवाद में बदल जाती हैं । लेकिन हमारी मानसिकता और प्राण का वह बड़ा भाग भी, जो बाहरी जगत् के प्रति अनुक्रिया नहीं है बल्कि अपने ही लिये जीता हैं या जड़ सत्ता को अपने अधिकार में लाने या उसका उपयोग करने के लिये अपने-आपको उसपर प्रक्षिप्त करता है, जो हमारा व्यक्तित्व है, वह उस प्रबल अंतश्चेतना गुप्तता से आनेवाली शक्तियों, प्रभावों, उद्देश्यों का परिणाम और उनका मिश्रित निरूपण है ।

 

    और फिर अंतस्तलीय अपने-आपको आच्छादित करनेवाली चेतना में प्रसारित करता है जिसके द्वारा वह वैश्व मन से,वैश्व प्राण से, वैश्व सूक्ष्म जड़ शक्तियों से हमारे ऊपर प्रवाहित होती हुई लहरों, लहरों के चक्करों के आघात प्राप्त करता है । ये सतह पर हमारे लिये अगोचर हैं लेकिन हमारा अंतस्तलीय पुरुष इन्हें देखता और प्रवेश देता है और उन्हें ऐसे रूपायनों में बदल देता है जो हमारे जाने बिना प्रबल रूप से हमारे जीवन पर प्रभाव डाल सकते हैं । अगर भीतरी सत्ता को बाहरी

७२५


सत्ता से अलग करनेवाली इस दीवार को भेदा जाये तो हम अपनी वर्तमान मानसिक ऊर्जाओं और प्राणिक क्रियाओं के स्रोतों को जान सकेंगे और उनके साथ व्यवहार कर सकेंग और उनके परिणामों को भोगने की जगह उनपर नियंत्रण कर सकेंगे । लेकिन, यद्यपि इस प्रकार भेदने और भीतर देखने या मुक्त संचार द्वारा हम उसके बड़े भागों को जान सकते हैं लेकिन केवल सतही मन के परदे के पीछे और भीतर जाकर और भीतरी मन, भीतरी प्राण और अपनी सत्ता की अंतरतम आत्मा में निवास करने से ही हम पूरी तरह आत्म-अभिज्ञ हो सकते हैं -इसके द्वारा और हमारी जाग्रत् चेतना जिस स्तर पर रहती है, मन के उससे उच्चतर स्तर में उठकर ही हम आत्म-अभिज्ञता पा सकते हैं । हमारी वर्तमान विकास की स्थिति अभीतक बाधाग्रस्त और विकृत है, अंदर निवास करने के परिणाम-स्वरूप उसकी वृद्धि और पूर्ति होगो लेकिन उसके परे विकास तभी हो सकता है जब हम उसके बारे में सचेतन हो सकें जो अभी हमारे लिये अतिचेतन है, जब हम आध्यात्म सत्ता के स्वधाम की ऊंचाइयों पर चढ़ सकें ।

 

    हमारी वर्तमान अभिज्ञता के वर्तमान स्तर के परे अतिचेतन में मानसिक सत्ता के उच्चतर लोक और साथ ही अतिमानसिक और शुद्ध आध्यात्म सत्ता भी अंतर्गत हैं । उन्मुख विकास में सबसे पहला अनिवार्य चरण होगा अपनी चेतना की शक्ति को मन के उन उच्चतर भागों में उठाना जिनसे हम अब भी, स्रोत जाने बिना, अपनी मानसिक गतिविधियों का एक बड़ा भाग ग्रहण करते हैं, विशेषकर उनका जो विशालतर शक्ति और प्रकाश के साथ आती हैं -अंतःप्रकाशात्मक, प्रेरणात्मक और अंतर्भासात्मक । इन मानसिक ऊंचाइयों पर, इन विशालताओं में अगर चेतना वहांतक पहुंचने और अपने-आपको वहां बनाये रखने और केंद्रित करने में सफल हो जाये तो आध्यात्म पुरुष की प्रत्यक्ष उपस्थिति और शक्ति की कोई चीज -यहांतक कि वह चाहे जितनी गौण और परोक्ष क्यों न हो -अतिमानस की कोई चीज अपने-आपको पहले-पहल प्रकट कर सकती, प्राथमिक रूप से अभिव्यक्त हो सकती और हमारी निम्नतर सत्ता के प्रशासन में हस्तक्षेप कर सकती और उसे नये सांचे में ढालने में सहायता कर सकती है । उसके बाद उस फिर से ढाली गयी चेतना के बल पर हमारे विकास का मार्ग ज्यादा ऊंची बढ़ाई द्वारा उठ सकता है और मन के परे अतिमानस और परम आध्यात्म प्रकृति में पहुंच सकता है । अभी हमारे लिये जो अतिचेतन मानसिक स्तर हैं उनमें वास्तविक आरोहण या उनमें सतत या स्थायी निवास के बिना, उनकी ओर खुलने, उनके ज्ञान और प्रभावों के ग्रहण से, एक हदतक हमारे वर्तमान सहज और मनोगत अज्ञान से पिंड छुड़ाकर अपने बारे में आध्यात्मिक सत्ता के रूप में अभिज्ञ होना और अपने सामान्य मानव जीवन और चेतना को, भले अधकचरे रूप में ही सही, आध्यात्म बनाना संभव है । इस विशालतर, अधिक आलोकमय मानसिकता से सचेतन संदेश और पथ-

७२६


प्रदर्शन मिल सकता है और उसकी प्रकाश देनेवाली और रूपांतर करनेवाली शक्तियों को ग्रहण किया जा सकता है । यह सुविकसित या आध्यात्मिक दृष्टि से जाग्रत् मानव सत्ता की पहुंच में है लेकिन यह प्रारंभिक चरण से बढ़कर न होगा । पूर्ण आत्म-ज्ञान, समग्र चेतना और सत्ता की शक्तितक पहुंचने के लिये हमारे सामान्य मन के लोक से ऊपर चढ़ना जरूरी है । अभी इस प्रकार का आरोहण एक तन्मय अतिचेतना में संभव है लेकिन यह हमें निश्चल या आनंद-मग्न समाधि के उच्चतर स्तरोंतक ही ले जा सकता है । अगर उस उच्चतम आध्यात्मिक सत्ता के नियंत्रण को हमार जाग्रत् जीवन में लाना है तो नयी सत्ता के, नयी चेतना के विशाल क्षेत्रों में, कार्य की नयी संभाव्यताओं में सचेतन उन्नयन और विस्तार होना चाहिये । हमारी वर्तमान सत्ता, चेतना, क्रियाओं को -जहांतक संभव हो पूरी तरह लेकर -उनका दिव्य मृल्यों में रूपांतरण होना चाहिये, जिससे हमारे मानव जीवन का रूपांतर सिद्ध होगा । क्योंकि प्रकृति के आत्म-अतिक्रमण की पद्धति में जहां कहीं कोई आमूल परिवर्तन हो वहां ये तिहरी गतियां होती हैं - आरोहण, क्षेत्र और आधार का विस्तरण, एकीकरण ।

 

    ऐसा कोई भी विकासात्मक परिवर्तन आवश्यक रूप से हमारे वर्तमान संकीर्ण करनेवाले कालिक अज्ञान के परित्याग से जुड़ा होना चाहिये । क्योंकि इतना ही नहीं कि हम काल के मुहूर्त से मुहूर्ततक जीते हैं, बल्कि हमारी सारी दृष्टि वर्तमान शरीर के एक जन्म और मृत्यु के बीच के जीवनतक ही सीमित है । जिस तरह से हमारी दृष्टि भूतकाल में दूरतक पीछे नहीं जाती, उसी तरह वह भविष्य में आगे भी नहीं बढ़ती । इस तरह हम अपनी भौतिक स्मृति से और वर्तमान जीवन में एक क्षणभंगुर दैहिक रूपायन की अभिज्ञता से बंधे होते हैं । लेकिन हमारी कालिक चेतना का सीमाबंधन घनिष्ठ रूप से आश्रित है हमारी मानसिकता के उस जड़- भौतिक स्तर और जीवन के साथ तन्मयता पर जिसमें वह वर्तमान काल में कार्य कर रहीं है । सीमाबंधन आत्मा का नियम नहीं है बल्कि हमारी अभिव्यक्त प्रकृति की अभीष्ट प्रथम क्रिया के लिये एक अस्थायी व्यवस्था है । अगर तन्मयता को जरा ढीला कर दिया जाये या एक ओर कर दिया जाये और मन का विस्तार संपन्न किया जाये, आंतरिक और उच्चतर सत्ता में अंतस्तलीय और अतिचेतन के लिये उन्मीलन पैदा किया जाये तो काल में हमारे निरंतर अस्तित्व और उसके परे शाश्वत अस्तित्व को उपलब्ध करना संभव है । अगर हम अपने आत्मज्ञान को उचित केंद्र में लेना चाहें तो यह जरूरी है क्योंकि अभी हमारी समस्त चेतना और क्रिया आध्यात्मिक दृष्टि की भ्रांति के कारण दूषित है जो हमें अपनी सत्ता के स्वभाव, उद्देश्य और परिस्थितियों के उचित अनुपात और संबंध को देखने से रोकती है । अधिकतर धर्मों में अमरता पर विश्वास को इतना अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान इसलिये दिया गया है कि शरीर के साथ तादात्म्य और उसके भौतिक स्तर पर तल्लीनता से

७२७


ऊपर उठने के लिये यह स्वतः -सिद्ध आवश्यकता है । लेकिन दृष्टि की इस भूल को मृल्त: बदलने के लिये केवल विश्वास ही काफी नहीं है । काल में अपनी सत्ता का आत्म- ज्ञान तभी आ सकता हैं जब हम अपनी अमरता की चेतना में निवास करें । हमें काल में अपनी स्थायी सत्ता और कालातीत सत्ता दोनों के ठोस बोध की ओर जागना होगा ।

 

    अपने आधारभूत अर्थ में अमरता का अर्थ शारीरिक मृत्यु के बाद केवल व्यक्ति की किसी तरह की उत्तरजीविता नहीं है । हम अपनी आत्म-सत्ता की शाश्वतता के कारण अमर हैं, जिसका न आदि है न अंत । हम जिन भौतिक जन्मों और मरणों में से गुजरते हैं उनके समस्त अनुक्रम के बावजूद इस और अन्य जगतों में हमारे बारी-बारी से आनेवाले जीवनों के परे आत्मा का कालातीत जीवन ही सच्ची अमरता है । निःसंदेह इस शब्द का एक गौण अर्थ है जिसका अपना सत्य है क्योंकि इस सच्ची अमरता के आनुषंगिक रूप में, हमारे कालिक जीवन और अनुभूति का, भौतिक शरीर के विलय के बाद भी, एक निरंतर सातत्य और जीवन से जीवनतक, लोक से लोकतक अस्तित्व बना रहता है; परंतु यह हमारी उस कालातीतता का स्वाभाविक परिणाम है जो यहां अपने-आपको शाश्वत काल में सातत्य के रूप में प्रकट करती है । कालातीत अमरता की प्राप्ति अ-जन्य और अ- संभूति में आत्मा के ज्ञान से और हमारे अंदर अव्यय आध्यात्म सत्ता के ज्ञान से होती है । काल-अमरता की सिद्धि जन्म और संभूति में आत्मा के ज्ञान से आती है और वह मन, प्राण और शरीर के सभी परिवर्तनों के बीच अंतरात्मा के सदा एकरूप रहने के भाव में अनूदित होती है । यह भी कोई उत्तरजीविता मात्र नहीं है, यह है काल की अभिव्यक्ति में अनूदित कालातीतता । पहली उपलब्धि के कारण हम जन्म-मृत्यु की शृंखला की धुंधला बनानेवाली अधीनता से मुक्ति पाते हैं, यह अनेक भारतीय साधना-प्रणालियों का परम लक्ष्य है । पहली उपलब्धि के साथ दूसरी भी जुड़ जाये तो हम उचित ज्ञान के साथ, अज्ञान के बिना, अपने कर्मों की शृंखला के बंधनों के बिना, काल-शाश्वतता के अनुक्रम में मुक्त रूप से आत्मा के अनुभव पा सकते हैं । हों सकता है कि कालातीत अस्तित्व का अनुभव अपने- आपमें शाश्वत काल में चिरस्थायी पुरुष के उस अनुभव का सत्य लिये न हो, अपने-आपमें मृत्यु की उत्तरजीविता का अनुभव अब भी हमारी सत्ता के प्रारंभ या अंत को संभव बना सकता है लेकिन दोनों ही उपलब्धियों में, उन्हें जब सत्य के एक पहलू और दूसरे पहलू के रूप में देखा जाये तो सचेतन रूप से शाश्वत में निवास करना और वर्तमान तथा कालानुक्रम के बंधन में न रहना ही परिवर्तन का सार है, तो शाश्वतता में रहना दिव्य चेतना और दिव्य जीवन की पहली शर्त है । सत्ता की आंतरिक शाश्वतता को अधिकार में रखना और वहांसे संभवन के पथ और प्रक्रिया पर नियंत्रण करना दूसरी क्रियाशील शर्त है । इसका व्यावहारिक परिणाम है स्वाधिकार और स्वराज्य । ये परिवर्तन तभी संभव हैं जब हम अपनी

७२८


समाविष्ट करनेवाली जड़-भौतिक तन्मयता में से अपने-आपको खींच लें और मन तथा आत्मा के उच्चतर और आंतरिक लोकों में निरंतर निवास करें -लेकिन इसके लिये शारीरिक जीवन का त्याग या उसकी अवहेलना जरूरी नहीं है । क्योंकि हमारी चेतना का अपने आध्यात्मिक तत्त्व में उन्नयन क्षण- क्षण के हमारे अल्पकालिक जीवन से हमारी अमर चेतना के शाश्वत जीवन में ऊपर बढ़ने और पीछे की ओर हटने से संपन्न हो सकता है, ये दोनों गतियां आवश्यक हैं । लेकिन उसके साथ ही काल में हमारे चेतना के परिसर और क्रिया के क्षेत्र का विस्तार होता है और हमारे मानसिक, हमारे प्राणिक और हमारे दैहिक अस्तित्व को भी ऊपर उठा लिया जाता है और उनका उच्चतर उपयोग होता है । हमारी सत्ता के एक ज्ञान का उदय होता है जो शरीर के ऊपर आश्रित चेतना के रूप में नहीं बल्कि उस शाश्वत आध्यात्म पुरुष के रूप में आता है जो सभी लोकों और सभी जीवनों का विभिन्न आत्मानुभवों के लिये उपयोग करता है । हम उसे एक आध्यात्मिक सत्ता के रूप में देखते हैं जिसे सतत आंतरात्मिक जीवन प्राप्त होता है, जो अपने क्रिया-कलाप को उत्तरोत्तर भौतिक जीवनों के द्वारा सदा विकसित करती रहती है, एक ऐसी सत्ता जो स्वयं अपनी संभूति का निर्धारण करती है । उस ज्ञान में, जो केवल भावगत न होकर स्वयं द्रव्यतक में अनुभूत होता है, यह संभव होता है कि हम अंधी कर्म-प्रवृत्ति के दास न रहकर स्वामी के रूप में रह सकें । हम केवल अपने अंतस्थ भगवान् के अधीन रहते हुए अपनी सत्ता और स्वभाव के स्वामी बन सकें ।

 

     और साथ ही हम अहंकारात्मक अज्ञान से भी पिंड छुड़ा लेते हैं; क्योंकि जबतक हम किसी भी बिंदु पर उसके साथ बंधे हैं तबतक दिव्य जीवन या तो अप्राप्य या आत्माभिव्यक्ति में अधूरा रहेगा । क्योंकि अहंकार हमारे सच्चे व्यक्तित्व का इस प्राण, इस मन, इस शरीर के साथ सीमित करनेवाले तादात्म्य द्वारा अन्यथाकरण है । वह अन्य अंतरात्माओं से पृथक्करण है जो हमें अपने व्यक्तिगत अनुभव में बंद कर देता है और हमें वैश्व सत्ता के रूप में जीने से रोकता है । यह हमारा उन भगवान् से पृथक्करण है जो हमारी उच्चतम आत्मा हैं, जो सभी सत्ताओं में एक आत्मा हैं और हमारे अंदर के दिव्य निवासी हैं । जब हमारी चेतना आत्मा की गहराई, ऊंचाई और विस्तार में बदलती है तो वहां अहंकार बचा नहीं रह सकता; वह इतना छोटा और कमजोर है कि उस विशालता में नहीं रह सकता; उसके अंदर घुल जाता है क्योंकि वह सीमाओं के कारण जीता और उन सीमाओं के क्षय के कारण समाप्त हो जाता है । सत्ता पृथग्भूत व्यक्तिगत चेतना की कारा को तोड़कर बाहर निकलती और वैश्व बन जाती है, एक विश्व-चेतना का रूप धारण कर लेती है जिसमें वह सब सत्ताओं की आत्मा, आध्यात्म पुरुष, प्राण, मन, शरीर के साथ अपना तादात्म्य कर लेती है । या फिर वह ऊपर की ओर अचानक प्रकट हो जाती है और अपनी वैश्व या वैयक्तिक सत्ता से स्वतंत्र स्वयंभू की अनंतता और

७२९


शाश्वतता के चरम शिखर पर जा पहुंचती है । अहंकार पृथक्ता की दीवार को खोकर वैश्व विशालता में ढह जाता है या आध्यात्मिक व्योम की ऊंचाइयों पर श्वाश न ले सकने के कारण शून्य में जा गिरता है । अगर प्रकृति के अभ्यास के कारण उसकी गतिविधियों में से कुछ बच भी जाये तो वह भी झड़ जाता है और उसके स्थान पर निर्वैयक्तिक-वैयक्तिक दृष्टि, अनुभूति और क्रिया आ जाती है । अहंकार का यह लोप अपने साथ हमारे सच्चे व्यक्तित्व का, हमारी आध्यात्मिक सत्ता का विनाश नहीं लाता क्योंकि वह तो सदा से वैश्व और परात्पर के साथ एकात्म था; लेकिन एक रूपांतर होता है जो पृथक्कारी अहंकार के स्थान पर उस पुरुष को ले आता है जो वैश्व सत्ता का सचेतन चेहरा और आकृति, विश्व प्रकृति में विश्वातीत भगवान् का स्वरूप और शक्ति होता है ।

 

    उसी गति में, आत्मा के अंदर उसी जाग्रति में, वैश्व अज्ञान का विघटन होता है क्योंकि हमें अपना ज्ञान अपने कालातीत, अक्षर आत्मा के रूप में होता है जो अपने-आपको विश्व में और विश्व के परे स्वप्रतिष्ठ किये रहता है । यह ज्ञान काल में दिव्य लीला का आधार बन जाता है, एक और बहु में, शाश्वत ऐक्य और शाश्वत बहुत्व में संगति बैठाता, अंतरात्मा को भगवान् के साथ फिर से एक करता और विश्व में भगवान् का अन्वेषण करता है । इसी उपलब्धि के द्वारा हम सभी परिस्थितियों और संबंधों के उद्गम के रूप में निरपेक्षतक पहुंच सकते हैं, जगत् को अपने अंदर एक परम विशालता में और उसके आधार पर सचेतन निर्भरता में उसे अधिकार में कर सकते, उसे पाकर इस तरह ऊंचा उठा सकते हैं और उसके द्वारा उन परम मूल्यों को सिद्ध कर सकते हैं जिनका अभिसरण निरपेक्ष में होता है । अगर हमारे आत्मज्ञान को इस तरह अपने सभी तत्त्वों में पूर्ण बना लिया जाये तो हमारा व्यावहारिक अज्ञान जो अपनी पराकाष्ठा में अपने-आपको गलत क्रिया, कष्ट, मिथ्यात्व, भूल-भ्रांति के रूप में प्रकट करता है और जो जीवन की सभी अस्तव्यस्तताओं और असंगतियों का कारण है, वह अपना स्थान आत्मज्ञान की सम्यक् इच्छा को दे देगा और उसके मिथ्या और अपूर्ण मूल्य सत्य चित्-शक्ति और आनंद के दिव्य मूल्यों के आगे से हट जायेंगे । क्योंकि सम्यक् चेतना, सम्यकू क्रिया और सम्यक् सत्ता, -हमारी तुच्छ नैतिकताओं के अधूरे मानव अर्थ में नहीं बल्कि दिव्य जीवन की विशाल और ज्योतिर्मय गति में, -के लिये शर्ते हैं भगवान् के साथ ऐक्य, सभी सत्ताओं के साथ ऐक्य, ऐसा जीवन जो भीतर से शासित और अंदर से बाहर की ओर रूपायित होगा, जिसमें समस्त विचार, इच्छा और क्रिया का स्रोत वह आध्यात्म पुरुष होगा जो ऐसे सत्य और दिव्य विधान द्वारा काम करेगा जिनकी रचना अज्ञान के मन ने नहीं की है, जो स्वयंभू और अपनी आत्म-परिपूर्ति में सहज है । उसका रूप इतना विधान का नहीं है जितना स्वयं अपनी चेतना में, अपने ज्ञान की मुक्त, ज्योतिर्मय, नमनीय, स्वचालित प्रक्रिया में कार्य करते हुए सत्य का ।

७३०


     ऐसा लगता है कि सचेतन आध्यात्मिक विकास का यही तरीका और यही परिणाम होगा : अज्ञान के जीवन का ऋत्-चिन्मय पुरुष के दिव्य जीवन में रूपांतर, मनोमय से आध्यात्मिक और अतिमानसिक सत्ता के जीवन-छंद में परिवर्तन, सप्तधा अज्ञान में से सप्तधा ज्ञान में आत्म-विस्तार । यह रूपांतर प्रकृति की उस ऊर्ध्वमुखी प्रक्रिया की स्वाभाविक पूर्ति होगा जब कि वह चेतना की शक्तियों को एक तत्त्व से उच्चतर तत्त्व में इस हदतक ऊंचा उठाती जाती है कि ऊंचे-से-ऊंचा तत्त्व, आध्यात्म तत्त्व उसके अंदर प्रकट और प्रमुख हो जाये, जब कि वह निचले लोकों पर की वैश्व और व्यष्टिगत सत्ता को उसके अपने सत्य में लेती है और सबका रूपांतर आध्यात्म-पुरुष की सचेतन अभिव्यक्ति में कर देती है । सच्चे व्यक्ति का, आध्यात्मिक सत्ता का आविर्भाव होता है, जो वैयक्तिक फिर भी वैश्व है, वैश्व फिर भी आत्मातीत है; तब जीवन वस्तुओं का रूपायन और पृथक्कारी अज्ञान द्वारा रची गयी सत्ता की क्रिया नहीं प्रतीत होता ।

७३१










Let us co-create the website.

Share your feedback. Help us improve. Or ask a question.

Image Description
Connect for updates