Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय ४
सर्वव्यापक सद्वस्तु
असन्नेव स भवति असद ब्रह्मेति वेद चेत् ।
अस्ति ब्रह्मेति चेदवेद सन्तमेनं ततो विदु: ।।
यदि कोई उसे असद् ब्रह्म के रूप में जानता है तो वह केवल असत् बन जाता है । यदि कोई जानता है कि ब्रह्म 'है' तो वह जीवन में सत् के रूप मे जाना जाता है ।
तैत्तिरीय उपनिषद् २.६.
चूंकि हम दोनों के दावों को स्वीकार करते हैं, शुद्ध आत्मा के दावे को कि वह हमारे अंदर अपनी पूर्ण स्वाधीनता के साथ अभिव्यक्त हो और वैश्व जड़तत्त्व के दावे को भी कि वह हमारी अभिव्यक्ति का ढांचा और निमित्त बने, हमें एक ऐसे सत्य की खोज करनी होगी जो इन विरोधियों में पूरी तरह मेल बैठा सके और दोनों को जीवन में अपना उचित भाग और विचार में अपना प्राप्य औचित्य दे सके और दोनों में से किसीको अपने अधिकार से वंचित न करे, दोनों में से किसीके परम सत्य को अस्वीकार न करे । इस सत्य से ही उसकी भूलें, यहांतक कि उसकी अतिशयोक्तियों की ऐकांतिकता भी सतत बल पाती है । क्योंकि जहां कहीं कोई ऐसा चरम कथन होता है जो मानव मन को बहुत जोर से आकर्षित करता है तो हम निश्चित रूप से यह मान सकते हैं कि हम किसी निरी भ्रांति, अंधविश्वास या निर्मूल भ्रम के आगे नहीं खड़े हैं, बल्कि हमारे आगे कोई परम सत्य छद्मवेश में खड़ा है और हमारी निष्ठा की मांग करता है और अगर हम उससे इंकार कर दें या उसका बहिष्कार कर दें तो वह अपना बदला लेगा । यही संतोषजनक समाधान की कठिनाई है और यही समाधान की निश्चयात्मकता में कमी का कारण है । निश्चयात्मकता की यह कमी आत्मा और जड़ तत्त्व के बीच सभी कामचलाऊ समझौतों में पायी जाती है । समझौता एक व्यापार है, दो संघर्षरत शक्तियों में हितों का एक सौदा होता है, यह सच्चा मेल-मिलाप नहीं होता । सच्चा मेल-मिलाप हमेशा परस्पर समझ से आता है जो किसी प्रकार का घनिष्ठ ऐक्य लाता है । अतः आत्मा और जड़ तत्त्व के यथासंभव अधिक-से-अधिक ऐक्य द्वारा ही हम उनके उस सत्यतक पहुंच पायेंगे जो उनका मेल-मिलाप कराता है और इसी तरह व्यक्ति के आंतरिक जीवन और बाह्य सत्ता में सामंजस्यपूर्ण व्यवहार के लिये सबलतम आधार पर पहुंचेंगे ।
हम देख आये हैं कि वैश्व चेतना में एक ऐसा मिलन-स्थल है जला आत्मा के
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लिये जड़ तत्त्व वास्तविक हो जाता है और जड़ तत्त्व के लिये आत्मा वास्तविक हो जाती है । सामान्य अहंकारी मानसिकता में मन और प्राण अलगाव के उपकरण, एक ही अज्ञेय सद्वस्तु के सकारात्मक और नकारात्मक तत्त्वों के बीच कृत्रिम कलह करवानेवाले मालूम होते हैं । वैश्व चेतना में मन और प्राण का यह रूप नहीं रह जाता, वहां वे मध्यवर्ती होते हैं । वैश्व चेतना में पहुंचकर मन एक ऐसे ज्ञान से प्रदीप्त होता है जो एक साथ 'एकता' और 'बहुलता' के सत्य को देख लेता है और उनकी पारस्परिक क्रियाओं के सूत्र को पकड़ लेता है, दिव्य सामंजस्य में अपनी सभी असंगतियों की व्याख्या और उनका समाधान पा लेता है और संतुष्ट होकर भगवान् और जीवन के बीच उस परम मिलन का माध्यम बनना स्वीकार करता है जिसकी ओर हम बढ़ रहे हैं । जड़ तत्त्व सिद्धि प्राप्त करते हुए विचार और सूक्ष्म बनी हुई इन्द्रियों के आगे अपने-आपको आत्मा के आकार और शरीर के रूप में--आत्मा के रचनात्मक विस्तार--के रूप में प्रकट करता है । आत्मा अपने- आपको इन्हीं सहमत माध्यमों द्वारा जड़ तत्त्व की अंतरात्मा, सत्य और सारतत्त्व के रूप में प्रकट करती है । दोनों एक दूसरे को दिव्य, वास्तविक और तत्त्वत: एक मानते और स्वीकार करते हैं । इस प्रकाश में यह प्रकट होता है कि मन और प्राण परम चेतन-सत्ता के युगपत् रूप से रूप और साधन हैं, जिनके द्वारा वह सत्ता अपने-आपको जड़ भौतिक रूप के अंदर प्रसारित करती और उसमें निवास करती है और उसी रूप के अंदर अपनी चेतना के बहुविध केंद्रों में अपने-आपको अनावृत करती है । मन अपनी आत्मपूर्ति तब पाता है जब वह सत्ता के उस सत्य का शुद्ध दर्पण बन जाता है जो अपने-आपको विश्व के प्रतीकों में प्रकट करता है और 'प्राण' अपनी आत्मपूर्ति तब पाता है जब वह वैश्व जीवन के अंदर क्रिया- कलापों और नित नये रूपों मे भगवान् के पूर्ण आत्म-रूपायण के लिये सचेतन रूप से अपनी शक्ति की ऊर्जाओं को अर्पित कर देता है ।
इस धारणा के प्रकाश में हम देख सकते है कि जगत् के अंदर मनुष्य के लिये ऐसा दिव्य जीवन संभव है जो विश्व और पृथ्वी के क्रम-विकास के लिये एक जीता-जागता अर्थ और बोधगम्य अभिप्राय प्रकट करता हो, एक ही साथ भौतिक विज्ञान का औचित्य सिद्ध करता हो, और मानव अंतरात्मा को भगवान् में रूपांतरित करके सभी उच्च धर्मों के महान् आदर्श स्वप्न को चरितार्थ करता हो ।
तब फिर उस नीरव, निष्क्रिय, शुद्ध, स्वयंभू आत्मतृप्त आत्मा के बारे में क्या होगा जिसने अपने-आपको हमारे आगे संन्यासी के स्थायी औचित्य के रूप में प्रस्तुत किया था । यहां भी परस्पर मेल न खानेवाला विरोध नहीं बल्कि सामंजस्य को ही प्रकाशदायक सत्य होना चाहिये । नीरव और सक्रिय ब्रह्म पृथक्, विरोधी और असंगत सत्ताएं नहीं हैं जिनमें से एक वैश्व माया का विरोध करती है और दूसरी समर्थन । वह एक ही ब्रह्म है जिसके दो पक्ष हैं, सकारात्मक और नकारात्मक, और
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हर-एक दूसरे के लिये जरूरी है । इस नीरवता में से ही शाश्वत रूप से, जगतों का सृजन करनेवाला 'नाद' निकलता है । क्योंकि नाद उसे प्रकट करता है जो 'नीरवता' में स्वतः छिपा दुआ है । शाश्वत निष्क्रियता ही शाश्वत दिव्य सक्रियता की पूर्ण स्वाधीनता और शक्तिमत्ता को असंख्य वैश्व मंडलों में संभव बनाती है । क्योंकि उस क्रियाशीलता के समस्त संभवन अपनी ऊर्जाएं और विभिन्नता तथा सामंजस्य की असीम सामर्थ्य अक्षर ब्रह्म के निष्पक्ष समर्थन से पाते हैं और स्वयं अक्षर ब्रह्म की अपनी गतिशील प्रकृति की इस अनंत उर्वरता को दी गयी स्वीकृति से प्राप्त करते हैं ।
मनुष्य भी तभी पूर्ण होता है जब वह अपने अंदर ब्रह्म की निरपेक्ष स्थिरता और निष्क्रियता को पा लेता है और उसके द्वारा उसी दिव्य सहनशीलता और उसी दिव्य आनंद द्वारा मुक्त और अक्षय क्रियाशीलता को सहारा देता है । जिन्होंने अपने अंदर 'स्थिरता' को पा लिया है, वे सदा उसकी निश्चल नीरवता में से जगत् में काम करनेवाली ऊर्जाओं के अविरल प्रवाह को उमड़ते हुए देख सकते हैं । अतः यह कहना 'निश्चल नीरवता' का सत्य नहीं है कि वह अपने स्वभाव से वैश्व क्रियाशीलता का त्याग है । इन दोनों स्थितियों की ऊपर से दीखनेवाली पारस्परिक विषमता सीमित मन की भ्रांति है जो स्वीकृति और अस्वीकृति के तीक्ष्ण विरोधों और अचानक एक छोर से दूसरे छोर तक जाने का अभ्यस्त है । वह ऐसी व्यापक चेतना के बारे में सोचने में असमर्थ है जो इतनी विस्तृत और इतनी प्रबल है कि दोनों को एक साथ आलिंगन में ले ले । नीरवता जगत् का त्याग नहीं करती, उसे सहारा देती है । या यूं कहें कि वह समान निष्पक्षता के साथ क्रियाशीलता और क्रियाशीलता से निवृत्ति को सहारा देती है और इनके मेल-मिलाप को भी स्वीकृति देती है जिसके द्वारा अंतरात्मा सभी क्रियाओं के बावजूद मुक्त और शांत रहती है ।
लेकिन एक चरम निवृत्ति भी है, एक असत् भी है । प्राचीन शास्त्र का कहना है, ''असद्वा इदमग्र आसीत् ततो वै सदजायत'' --आरंभ में सब असत् था उसीसे सत् का जन्य हुआ (तैत्तिरीय उपनिषद् २.७.) । तब निश्चय ही वह फिर से असत् में डूब जायेगा । यदि अनंत निर्विशेष सत् सब प्रकार के वैशिष्ट्य और बहुविध उपलब्धियों की सभी संभावनाओं को अनुमति देता है तो क्या असत् प्रारंभिक स्थिति और एकमात्र चिर सद्वस्तु होने के नाते, वास्तविक विश्व की सभी संभावनाओं का निषेध और त्याग नहीं कर देता ? ऐसी हालत में कुछ बौद्ध मतों का 'शून्य' ही संन्यासी का सच्चा समाधान हो जायेगा । अहं की तरह आत्मा भी भ्रामक प्रातिभासिक चेतना की एक भावमूलक रचना रह जायेगी ।
लेकिन हम फिर से यही देखते हैं कि शब्द हमें ठग रहे हैं, हम उस सीमित मानसिकता के तीक्ष्ण विरोधों से धोखा खा रहे हैं, जो शाब्दिक भेदों पर मुग्ध भाव से निर्भर रहती है मानों वे पूरी तरह से परम सत्य को निरूपित करते हों और जो
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इन असहिष्णु विभेदों के भाव में ही हमारी अतिमानसिक अनुभूतियों को अनूदित करती है । असत् केवल एक शब्द है । जब हम उस तथ्य को जांचते हैं जिसका यह प्रतिनिधित्व करता है तो हमें पूरा-पूरा यह विश्वास नहीं रहता कि अनंत आत्मा की अपेक्षा इस परम असत् के, मन की भावमूलक रचना के अधिक होने की कोई संभावना है । इस असत् से हमारा मतलब है कोई ऐसी चीज जो इस जगत् में रहते हुए हमारी विशुद्धतम धारणा और अत्यंत अमूर्त एवं सूक्ष्म अनुभूति जिस अंतिम छोर तक जा सकती है उसके भी परे जो कुछ है वह है । तो यह असत् भावात्मक धारणा से परे 'कुछ' है । हम शून्य या असत् की कल्पना इसलिये करते हैं ताकि हम जो कुछ जानते और सचेतन रूप से हैं उसका नेति नेति की प्रक्रिया से अतिक्रमण कर सकें । वस्तुतः जब हम कुछ दर्शन-शास्रों के 'शून्य' का निकट से अध्ययन करें तो देखने लगते हैं कि वह एक ऐसा शून्य है जो 'सर्व' या अनिर्वचनीय 'अनंत' है, वही एकमात्र सच्ची सत्ता है । लेकिन वह मन को रिक्त लगता है क्योंकि मन केवल सांत रचनाओं को ही पकड़ सकता है ।१
और जब हम कहते हैं कि असत् में से सत् प्रकट हुआ तो देखते हैं कि हम काल की भाषा में उसकी बात कर रहे हैं जो काल के परे है । क्योंकि शाश्वत शून्य के इतिहास में वह कौन-सी चमत्कारी तारीख थी जब उसके अंदर से सत् का जन्म हुआ या वह समान रूप से विकट तारीख कब आयेगी जब यह अवास्तविक सर्वनित्य शून्य में फिर से जा मिलेगा ? यदि सत् और असत् दोनों को स्वीकार करना है तो यह मानना होगा कि दोनों एक साथ रहते हैं । वे दोनों एक दूसरे में मिलना स्वीकार नहीं करते पर एक दूसरे को रहने देते हैं । चूंकि हमें काल की भाषा में बोलना है इसलिये कहना होगा दोनों शाश्वत हैं । शाश्वत सत्ता से यह कौन मनवायेगा कि उसका अस्तित्व ही नहीं है, केवल शाश्वत असत् का ही अस्तित्व है ? सभी अनुभूतियों को अस्वीकार करके भला हम ऐसा समाधान कहां पायेंगे जो सभी अनुभूतियों की व्याख्या कर सके ?
शुद्ध सत् है 'अज्ञेय' का अपने-आपको समस्त वैश्व जीवन के मुक्त आधार के रूप में प्रस्थापित करना । हम इसके विपरीत प्रस्थापना को, समस्त वैश्व जीवन से मुक्ति को अर्थात् वास्तविक जीवन की ऐसी समस्त भावात्मक उपाधियों से मुक्ति को असत् कहते हैं जिनकी चेतना विश्व में अपने लिये रचना कर सकती है, इनमें
१एक और उपनिषद् असत् से सत् की उत्पत्ति को असंभव कहकर अस्वीकार कर देता है, उसका कहना है कि सत् की उत्पत्ति सत् से ही हो सकती है । लेकिन अगर हम असत् को अस्तित्वहीन शून्य के स्थान पर ऐसे 'क' के रूप में लें जो हमारी सत्ता के अनुभव या भाव से परे है --इस रूप में यह अर्थ अद्वैतवादी के 'निर्विशेष ब्रह्म' और बौद्धों के शून्य पर भी लग सकता है --तो असंभावना विलीन हो जाती है क्योंकि तत् भली-भांति सत्ता का स्रोत हो सकता है फिर चाहे वह धारणात्मक या रचनात्मक माया द्वारा हो या अपने भीतर से अभिव्यक्ति या सृष्टि द्वारा ।
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पूर्णत: अमूर्त और पूर्णतः तुरीय अवस्थाएं भी आ जाती हैं । वह उन्हें अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति के रूप में अस्वीकार नहीं करता, वह अस्वीकार करता है समस्त अभिव्यक्ति द्वारा या किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति द्वारा अपने सीमांकन को । असत् सत् को अनुमति देता है जैसे निश्चल नीरवता क्रियाशीलता को अनुमति देती है । इस युगपत् प्रस्थापना और निषेध द्वारा, जो एक दूसरे के अंतकारी नहीं बल्कि सभी विपरीतताओं की तरह एक दूसरे के परिपूरक हैं, सचेतन आत्म-सत्ता की एक सद्वस्तु के रूप में और परे स्थित अज्ञेय की भी उसी 'सद्वस्तु' के रूप में युगपत् अभिज्ञता जाग्रत् मानव आत्मा के लिये प्राप्य हो जाती है । इसी तरह बुद्ध के लिये यह संभव हुआ कि निर्वाण की स्थिति पाकर भी जगत् में प्रबल रूप से कार्य कर सके । वे अपनी आंतरिक चेतना में निर्वैयक्तिक रहे परंतु अपने कार्य में, जहांतक हमें मालूम है, पृथ्वी पर रहनेवालों में सबसे अधिक सशक्त और परिणाम लानेवाले व्यक्तित्व थे ।
जब हम इन चीजों पर विचार करते हैं तो हमें यह प्रत्यक्ष दीखने लगता है कि हम जिन शब्दों का उपयोग करते हैं वे स्वाग्रही उग्रता में कितने कमजोर और स्पष्टता में कितने उलझानेवाले और भ्रामक हैं । हमें यह भी प्रत्यक्ष होने लगता है कि हम ब्रह्म पर जो सीमाएं आरोपित करते हैं वे व्यष्टिगत मन की अनुभूति की संकीर्णता से आती हैं । यह मन अपने-आपको अज्ञेय के एक ही पक्ष पर केंद्रित कर बाकी सबको तुरंत अस्वीकार और तिरस्कृत कर देता है । हमारी हमेशा यह वृत्ति रहती है कि हम निरपेक्ष के बारे में जो धारणा बना सकें या जो जान सकें उसे बड़ी कठोरता के साथ अपनी विशेष सापेक्षता की भाषा में अनूदित करें । हम अपने निजी मतों और आंशिक अनुभूतियों के अहं को दूसरों के मतों और आंशिक अनुभूतियों के विरुद्ध खड़ा करके बड़े आवेग के साथ विभेद और समर्थन करते हुए एकमेवाद्वितीयमू की प्रस्थापना करते हैं । ज्यादा बुद्धिमानी इसमें है कि प्रतीक्षा करें, सीखें, बढ़े और चूंकि हम आत्म-पूर्ति के लिये उन चीजों के बारे में बोलने के लिये बाधित हैं जिन्हें कोई मानव भाषा व्यक्त नहीं कर सकती, सर्वाधिक विस्तृत, सर्वाधिक नमनीय और सर्वाधिक उदार प्रस्थापना को खोजकर उसके ऊपर सबसे अधिक विशाल और व्यापक सामंजस्य का आधार रखें ।
तो हम यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्ति की चेतना के लिये यह संभव है कि ऐसी अवस्था में प्रवेश करे जिसमें ऐसा लगता है कि सापेक्ष सत्ता लुप्त हो चुकी है और आत्मा भी अपर्याप्त धारणा मालूम होती है । निश्चल नीरवता के परे की निश्चल नीरवता में चले जाना संभव है लेकिन यह हमारी संपूर्ण चरम अनुभूति नहीं है और न ही एकमात्र और सबका बहिष्कार करनेवाला सत्य । क्योंकि हम देखते हैं कि यह निर्वाण या आत्म-निर्वापन हमारी अंतस्थ अंतरात्मा को पूर्ण शांति और मुक्ति देता है पर साथ ही यह बाहर व्यवहार में कामना रहित परंतु प्रभावकारी क्रिया के
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साथ सुसंगत भी है । शायद बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक सार यही था कि भीतर पूर्ण निश्चल निर्वैयक्तिकता और शून्य स्थिरता को रखते हुए बाहरी रूप से प्रेम, सत्य और शील (नीति परायणता) आदि शाश्वत सत्यों के कार्यों को करना संभव है । भौतिक जन्म के कष्ट और दुःखों से छुटकारे का तुच्छ आदर्श नहीं बल्कि अहंकार और व्यक्तिगत कर्मों की शृंखला से तथा परिवर्तनशील रूप और भाव के साथ तादात्म्य से ऊपर उठना ही बुद्ध की शिक्षा का सार था । बहरहाल, जैसे पूर्ण मानव अपने अंदर नीरवता और क्रियाशीलता को एक करेगा उसी तरह पूर्णत: सचेतन अंतरात्मा जीवन और जगत् पर अपनी पकड़ खोये बिना असत् की पूर्ण स्वाधीनता पुनः प्राप्त कर लेगी । इस प्रकार वह भागवत 'अस्तित्व' का सतत चमत्कार अपने अंदर फिर से दोहरायेगी, विश्व के अंदर फिर भी उसके परे बल्कि मानों, स्वयं अपने-आपसे भी परे दोहरायेगी । इससे विपरीत अनुभूति केवल यही हो सकतीं है कि व्यक्ति के अंदर मानसिकता असत् पर केंद्रित हो जाये और परिणामस्वरूप व्यक्ति वैश्व क्रियाशीलता को भूल जाये और निजी रूप से अपने- आपको उससे खींच ले । फिर भी यह क्रियाशीलता शाश्वत सत्ता की चेतना में तो चलती ही रहेगी ।
इस तरह वैश्व चेतना में आत्मा और जड़ में मेल बैठाने के बाद हम परात्पर चेतना में सभी की अंतिम स्वीकृति (इति) और उसके निषेध (नेति) का मेल देखते हैं । हम यह पाते हैं कि सभी प्रस्थापनाएं अज्ञेय के अंदर स्थिति या गति के अभिकथन हैं और उनके अनुरूप सभी नकार या नेतियां स्थिति और गति दोनों से और दोनों के अंदर उसकी मुक्ति के अभिकथन हैं । हमारे लिये अज्ञेय 'ऐसा कुछ' है जो हमारे लिये सर्वोत्कृष्ट या सर्वोच्च, अद्भुत और अनिर्वचनीय है और जो सदा अपने--आपको हमारी चेतना के आगे रूप देता रहता है और फिर सदा ही अपने बनाये हुए रूपों से बच निकलता है । यह चीज वह किसी दुष्टात्मा या मनमौजी जादूगर की तरह नहीं करता जो हमें मिथ्यात्व से अधिक बड़े मिथ्यात्व की ओर, फिर सभी चीजों के अंतिम निषेध की ओर ले जाता हो । वह यहां भी हमारी प्रज्ञा से परे 'परम प्रज्ञ' की तरह काम करता है जो हमें वास्तविकता से और भी गहरी और विस्तृत वास्तविकता की ओर ले जाता है जबतक कि हम उस गहरी से गहरी और विशाल से विशाल वास्तविकता को न पा जायें जिसके कि हम योग्य हैं । सर्वव्यापी सद्वस्तु ब्रह्म है, न कि डटी रहनेवाली भ्रांतियों का सर्वव्यापी कारण ।
इस भांति यदि हम अपने सामंजस्य के लिये एक भावात्मक आधार स्वीकार कर लेते हैं --और सामंजस्य इसके सिवा किस आधार पर खड़ा हो सकता है ? --तो अज्ञेय के विभिन्न धारणात्मक रूपों को, जिनमें से हर एक किसी धारणातीत सत्य का प्रतिनिधि है, उन सबको जहांतक हो सके हमें इस दृष्टि से देखना चाहिये कि उनका आपस में क्या संबंध है और जीवन पर उनका क्या प्रभाव पड़ता है । उन्हें
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न तो अलग-अलग और न ऐकांतिक रूप से और न इस तरह देखना चाहिये कि वे और सभी अभिकथनों को नष्ट कर दें या अनुचित रूप से घटा दें । सच्चा अद्वैत वह है जो सभी चीजों को एकमेव ब्रह्म के रूप में स्वीकार करता है और उसके अस्तित्व को दो विषम सत्ताओं- -शाश्वत सत्य और शाश्वत मिथ्या, ब्रह्म और अब्रह्म, आत्मा और अनात्मा, वास्तविक आत्मा और अवास्तविक होते हुए भी शाश्वत माया--में विभक्त नहीं करता । अगर यह सच है कि केवल आत्मा का अस्तित्व है तो यह भी सच होना चाहिये कि सब कुछ आत्मा ही है, और अगर यह आत्मा, भगवान् या ब्रह्म कोई असहाय अवस्था, परिमित शक्ति और सीमित व्यक्तित्व नहीं है बल्कि आत्मसचेतन 'सर्व' है तो उसमें अभिव्यक्ति के लिये कोई अच्छा सुसंगत कारण होना चाहिये । उस कारण को खोजने के लिये हमें इस प्राक्कल्पना को लेकर चलना होगा कि जो कुछ अभिव्यक्त हुआ है उसमें सत्ता की कुछ शक्ति, कुछ बुद्धिमत्ता और सत्य है । जगत् में जो असंगति और प्रतीयमान अशुभ है उन्हें उनके क्षेत्र में स्वीकार करना ही होगा लेकिन विजेता के रूप में उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिये । मानव जाति की यह बुद्धिमत्ता है कि वह अपनी गहरी से गहरी सहजवृत्ति में सदा ही जगत् की अभिव्यक्ति के अंतिम सूत्र को किसी शाश्वत परिहास या माया में नहीं बल्कि एक परम प्रज्ञा के रूप में, किसी सर्वसर्जक और अजेय अशुभ में नहीं बल्कि एक गुप्त और अंतत: विजयी शुभ में, अंतरात्मा के निराश होकर अपने महान् साहसिक कार्य से मुंह मोड़ लेने में नहीं बल्कि अंतिम विजय और परिपूर्ति में खोजती है ।
क्योंकि हम यह नहीं मान सकते कि परम अद्वितीय 'सत्ता' अपने से बाहर की या अपने से भिन्न किसी चीज द्वारा बाधित की जाती है क्योंकि ऐसी किसी चीज का अस्तित्व ही नहीं है । हम यह भी नहीं मान सकते कि वह अनिच्छा के साथ अपने भीतर की किसी ऐसी आंशिक चीज के आगे झुक जाती है जो उसकी समग्र सत्ता के विरुद्ध है, उसके द्वारा स्वीकृत भी नहीं है फिर भी उसके लिये बहुत ज्यादा मजबूत है क्योंकि यह दूसरे शब्दों में उसी विरोध को खड़ा करना होगा कि एक तो 'सर्व' है और दूसरा 'सर्व' से भिन्न कुछ और । अगर हम यह भी कहें कि विश्व केवल इस कारण बना हुआ है कि आत्मा अपनी पूर्ण निष्पक्षता के साथ सभी चीजों को समान रूप से सहन करती है, सभी वास्तविकताओं और सभी संभावनाओं को उदासीनता के साथ देखती है, फिर भी यह मानना होगा कि कोई ऐसी चीज है जो अभिव्यक्ति के लिये इच्छा करती है और उसे सहारा देती है । यह चीज 'सर्व' के सिवाय और कुछ नहीं हो सकती । ब्रह्म सभी चीजों में अखंड है और जगत् में जिस किसी चीज की इच्छा की गयी है वह अंततः ब्रह्म की ही इच्छा होती है । हमारी सापेक्ष चेतना विश्व में अशुभ, अज्ञान और पीड़ा से घबड़ा कर या चकराकर ब्रह्म को अपनी तथा अपने कर्मों की जिम्मेदारी से बचाने के लिये
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एक विरोधी तत्त्व, माया या मार, या सचेतन शैतान या स्वयंभू अशुभ तत्त्व को खड़ा करती है । प्रभु और आत्मा बस एक ही है, बहु है उसके प्रतिरूप और उसकी संभूतियां ।
तो अगर जगत् स्वप्न या माया या भूल है तो ऐसा स्वप्न है जिसकी इच्छा और उत्पत्ति 'आत्मा' की समग्रता में हुई थी, आत्मा से केवल इसकी इच्छा और उत्पत्ति ही नहीं हुई, बल्कि वही इसका सतत धारण और पोषण भी करती है । और फिर यह ऐसा स्वप्न है जिसका अस्तित्व सद्वस्तु में है और वह जिस पदार्थ से बना है वह भी वही 'सद्वस्तु' है । क्योंकि ब्रह्म ही जगत् का उपादान, उसका आधार और उसका आधान है । जिस सोने से पात्र बना है वह अगर सच्चा हो तो हम यह कैसे मान सकते हैं कि स्वयं पात्र मृगमरीचिका है । हम देखते हैं कि स्वप्न, माया आदि शब्द भाषा के खेल हैं, हमारी सापेक्ष चेतना के अभ्यास हैं । वे किसी सत्य को, बल्कि एक महान् सत्य को प्रदर्शित करते हैं लेकिन वे उसका गलत प्रदर्शन भी करते हैं । जैसे 'असत्' केवल शून्य से कुछ भिन्न निकलता है वैसे ही हम पाते हैं कि 'स्वप्न' भी मन के आभास और विभ्रम से भिन्न कुछ है । दृश्य घटना कोई छायामूर्ति नहीं है, दृश्य घटना एक 'सत्य' का सारवान् रूप है ।
तो हम एक ऐसी सर्वव्यापक सद्वस्तु की धारणा से शुरू करते हैं जिसके एक छोर पर असत् और दूसरे छोर पर विश्व एक दूसरे का विलोपन करनेवाले नकार नहीं हैं, बल्कि ये दोनों एक ही सद्वस्तु की विभिन्न स्थितियां हैं, उसकी चित और पट प्रस्थापनाएं हैं । विश्व में इस सद्वस्तु की उच्चतम अनुभूति बतलाती है कि वह केवल एक सचेतन 'सत्ता' ही नहीं है बल्कि परम 'प्रज्ञा' और 'शक्ति' तथा स्वयंभू 'आनंद' भी है; और विश्व के परे कोई अन्य अज्ञेय सत्ता, कोई परम, अनिर्वचनीय आनंद है । अतः हमारा यह अनुमान करना भी उचित है कि इस विश्व के द्वंद्वों की भी व्याख्या जब आज की तरह सम्वेदनात्मक और आंशिक धारणाओं के द्वारा न करके हमारी स्वतंत्र बुद्धि और अनुभूति के द्वारा की जायेगी तो इनका समाधान भी उन्हीं उच्चतम अवस्थाओं में हो जायेगा । जबतक हम द्वंद्वों के दबाव तले श्रम करते रहते हैं तबतक निश्चय ही इस बोध को बनाये रखने के लिये सदा श्रद्धा का सहारा लेना होगा । लेकिन ऐसी श्रद्धा जिसे उच्चतम 'तर्कबुद्धि', विशालतम और सर्वाधिक धैर्यशील चिंतन अस्वीकृत नहीं बल्कि प्रस्थापित करते हैं । वास्तव में (श्रद्धा का) यह पंथ मानवजाति को उसकी यात्रा में तबतक सहायता देने के लिये दिया गया है जबतक कि वह विकास के ऐसे स्तर पर न आ जाये जब श्रद्धा ज्ञान और पूर्ण अनुभूति में परिवर्तित हो जाये और 'प्रज्ञा' का औचित्य उसके कर्मों से सिद्ध हो ।
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