दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
Hindi Translation
  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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philosophymetaphysics

दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय १२

 

सत्ता का आनंद--समाधान

 

           तद्ध तद्वर्न नाम तद्वनमित्युपासितवयम्

 

           उस तत् का नाम है आनंद, हमें आनंद के रूप मे ही उसकी पूजा और खोज करनी चाहिये ।

                                                           केनोपनिषद् -४.६

 

 

इस धारणा मे कि सत्ता का अविच्छेद्य, नीचे छिपा दुआ एक आनंद हैं, सभी बाहरी या सतही संवेदन उसके भावात्मक, अभावात्मक, या तटस्थ खेल हैं, उसी असीम अगाध की लहरें और झाग हैं, हम उस समस्या का सच्चा समाधान पाते हैं जिसकी हम परीक्षा कर रहे हैं । वस्तुओं की आत्मा एक अनंत, अविभाज्य सत्ता है । उस सत्ता का मौलिक स्वभाव या सामर्थ्य आत्म-सचेतन सत्ता की एक असीम, अक्षय शक्ति है और फिर उस आत्म-चेतना का निजी स्वभाव या स्वयं अपना ज्ञान सत्ता का एक असीम अविच्छेद्य आनंद है । यह आत्म-सत्ता रूपहीनता मे और सभी रूपों मे, अनंत और अविभाज्य सत्ता की शाश्वत अभिज्ञता में और सांत विभाजन की नानारूप प्रतीतियों मे अपने आत्मानंद को सतत रूप से बनाये रखती है । हमारी अंतरात्मा अपनी ही सतही आदतों और अपने आत्मसचेतन अस्तित्व के विशेष तौर-तरीकों की दासता मे से विकास द्वारा बाहर आने पर जैसे जतत्त्व की प्रतीयमान निश्चेतना मे उस अनंत, चित्-शक्ति को पाती है जो सतत, अचल, चिंतनशील है, उसी तरह ज पदार्थ की संवेदनहीनता में वह एक अनंत सचेतन आनंद को पाती है जो अविचल, उल्लसित, सर्वग्राही है और उसके साथ तालमेल बिठाती है । यह आनंद उसका स्वयं अपना आनंद है, यह आत्मा सबके अंदर उसकी स्वयं अपनी आत्मा है लेकिन आत्मा और वस्तुओं की हमारी साधारण दृष्टि के लिये, जो केवल सतहों पर जागती और घूमती है, यह प्रच्छन्न, गूढ़ और अवचेतन रहता है । और जैसे वह सब रूपों मे है उसी तरह सब अनुभूतियों मे भी रहता है फिर चाहे वे सुखद हों या दुःखद अथवा उदासीन । वहां भी प्रच्छन्न, गूढ़ू और अवचेतन रहकर वही चीजों को अस्तित्व मे रहने के लिये बाधित करता है । यही जीवन के साथ उस चिपके रहने का, बने रहने की उस अतिप्रबल इच्छा का कारण है जो अपने-आपको प्राण मे आत्म-संरक्षण की सहजवृत्ति के, भौतिक मे जड़तत्त्व की अविनश्वरता के और मन मे अमरता के भाव के रूप मे अनूदित करती है । यही रूप जगत् को उसके आत्म-विकास की सभी स्थितियों मे सहारा देता है । और यहांतक कि इस आत्म-विकास मे जो कभी-कभी अपने-आपको

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मिटा देने का वेग आता है वह भी उसीका एक उल्टा रूप है, सत्ता की किसी दूसरी स्थिति के लिये आकर्षण और परिणामस्वरूप वर्तमान स्थिति के प्रति जुगुप्सा है । आनंद ही अस्तित्व है, आनंद ही सृष्टि का रहस्य है, आनंद ही जन्म का मूल है, आनंद ही जीवन में बने रहने का कारण है। आनंद ही जन्म का अंत है और वह है जिसमें सृजन समाप्त होता है । उपनिषद् का कहना है, ''आनंद से ही समस्त जीव जन्म लेते हैं, आनंद से ही जीवित रहते और बढ़ते हैं, और आनंद में ही प्रयाण कर जाते हैं ।''

 

    जब हम मूल सत् के इन तीन पहलुओं पर नजर डालते हैं जो वास्तव में एक परंतु हमारी मानसिक दृष्टि के लिये तीन हैं, जिन्हें केवल आभास में ही, विभक्त चेतना के व्यापार में ही, अलग किया जा सकता है तो हम प्राचीन दर्शनों के मतभेद के सूत्रों को उनके उचित स्थान पर बिठा सकते हैं, ताकि वे मिलकर एक बन जायें और उनका चिरकालीन वाद-विवाद समाप्त हो जाये । क्योंकि अगर हम जगत्-सत्ता को केवल उसके प्रतीयमान रूप में और शुद्ध, अनंत, अविभाज्य, अविकार सत् के साथ उसका जो संबंध है केवल उस रूप में देखें तो हमें उसे माया रूप में देखने, वर्णन करने और अनुभव करने का अधिकार हो जाता है । अपने मूल रूप में माया का अर्थ था समग्र बोध रखने और सबको अपने अंदर धारण करनेवाली चेतना जो सबका आलिंगन करने, मापने और सीमित करने में समर्थ हो और इसीलिये रूपों को गढ़ने में समर्थ है । यह वही चेतना है जो रूप-रेखा बनाती, नापती, अरूप के अंदर रूप ढालती, मानसिक रूप देती, अज्ञेय को ज्ञेय बनाती प्रतीत होती, ज्यामिति के रूप देती और असीम को परिमेय बनाती प्रतीत होती है । बाद में यह शब्द ज्ञान, कौशल और बुद्धिमत्ता के मूल अर्थ से हटकर चालाकी, धोखेबाजी या भ्रम के निंदात्मक अर्थ में चलने लगा और दर्शन शास्त्रों में इसका प्रयोग इंद्रजाल या भ्रम के अर्थ में होने लगा ।

 

    जगत् माया है । जगत् इस अर्थ में अवास्तविक नहीं है कि उसका किसी तरह का कोई अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि अगर वह आत्मा का स्वप्न भर होता तब भी वह उसमें स्वप्न की तरह निवास करता, उसके लिये वर्तमान में वास्तविक होता, भले अंतत: अवास्तविक होता । हमें यह भी न कहना चाहिये कि जगत् इस अर्थ में अवास्तविक है कि उसका कोई शाश्वत अस्तित्व नहीं । क्योंकि यद्यपि विशिष्ट जगत् या विशिष्ट रूप भौतिक रूप में विघटित हो सकते हैं और हो भी जाते हैं, और मानसिक रूप से अभिव्यक्ति की चेतना से अनभिव्यक्ति की चेतना में चले जाते हैं, फिर भी स्वयं 'रूप' और 'जगत्' अपने-आपमें शाश्वत हैं, वे अनिवार्य रूप से अनभिव्यक्ति में से अभिव्यक्ति में लौट आते हैं । उनमें शाश्वत स्थायित्व न सही शाश्वत पुनरावर्तन तो है ही, वे अपने समूचे रूप में और आधार में शाश्वत अपरिवर्तनशीलता और अपने पहलुओं में तथा आभास में शाश्वत परिवर्तनशीलता

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लिये रहते हैं । ना ही हमें इस बात का कोई निश्चय है कि काल में कभी ऐसा समय था या कभी ऐसा समय होगा जब शाश्वत चिन्मय सत्ता में विश्व का कोई रूप, सत्ता की कोई क्रीड़ा उसके आगे प्रतिबिंबित न होती हो । हमें तो बस यह अंतर्भासात्मक बोध होता है कि हम जिस जगत् को जानते हैं वह उस तत् में से प्रकट हो सकता और होता है और उसीमें लौट जाता हैं, यह गति सदा चलती रहती है ।

 

    फिर भी जगत् माया है क्योंकि वह अनंत सत् का सारभूत सत्य नहीं है बल्कि सिर्फ आत्मचेतन सत्ता की एक सृष्टि है, शून्य में बनी सृष्टि नहीं है, असत् में असत् से बनी सृष्टि नहीं है बल्कि यह शाश्वत सत्य में और स्वयंभू सत्ता के सनातन सत्य में से बनी है । उसका आधान, मूल और उपादान है सारभूत, वास्तविक सत्ता, उसके रूप 'तत्' के सचेतन स्वानुभव की भूमिका में उसीकी अपनी सर्जनात्मिका चिन्मय शक्ति द्वारा निश्चित किये गये उसके परिवर्तनशील रूपायन हैं । वे अभिव्यक्त होने में समर्थ हैं, अनभिव्यक्त रहने में समर्थ हैं, अन्य रूपों में अभिव्यक्त होने में भी समर्थ हैं । अगर हम चाहें तो उन्हें अनंत चेतना की भ्रांतियां कह सकते हैं, इस प्रकार हम अपने भ्रांति और अक्षमता के आधीन रहने के मानसिक बोध की छाया को धृष्टता के साथ उसपर फेंकेंगे जो 'मन' से अधिक महान् होने के कारण मिथ्यात्व और भ्रांति की अधीनता के परे है । लेकिन यह देखते हुए कि सत्ता का सार और उपादान झूठा नहीं है और हमारी विभक्त चेतना की सभी भूलें और विकृतियां अविभाज्य आत्म-चेतन सत्ता के किसी सत्य का प्रतिनिधित्व करती हैं, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि जगत् 'तत्' का तत्त्विक सत्य नहीं है बल्कि उसकी निर्बाध अनेकरूपता और अनंत सतही परिवर्तनशीलता का प्रपंचात्मक सत्य है, उसकी आधारभूत, अपरिवर्तनशील एकता का सत्य नहीं ।

 

    दूसरी ओर यदि हम जगत्-सत्ता को केवल चेतना और चेतना की शक्ति के संबंध में देखें तो हम उसे शक्ति की एक ऐसी गति के रूप में देख सकते, उसका वर्णन और अनुभव कर सकते हैं जो किसी गुप्त इच्छा की आज्ञा का पालन कर रही है या वह जिस चेतना के अधिकार में है या जो उसे देख रही है उसकी किसी आवश्यकता द्वारा आरोपित है । तब यह प्रकृति की, यानी कार्यकर्त्री शक्ति की क्रीड़ा है जो पुरुष को यानी साक्षी और भोग करनेवाली सचेतन सत्ता को संतुष्ट करने के लिये हो रही है, या फिर यह पुरुष की लीला है जो शक्ति की गतिविधियों में प्रतिबिंबित हो रही है और वह अपने-आपको इनके साथ एकात्म कर रहा है । तो जगत् वस्तुओं की जननी की क्रीड़ा है जो अपने-आपको नित्य अनंत रूपों में ढालने के लिये प्रवृत्त और अनुभवों को शाश्वत रूप से व्यक्त करने के लिये उत्सुक है ।

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और फिर यदि हम जगत्-सत्ता को शाश्वत सत्-पुरुष के आत्मानंद के साथ संबंध की दृष्टि से देखें तो हम उसका इस रूप में अवलोकन, वर्णन और अनुभव कर सकते हैं कि यह एक लीला हैं, बच्चे के आनंद, कवि के आनंद, अभिनेता के आनंद और यांत्रिक के आनंद के रूप में यह वस्तुओं की आत्मा का एक खेल हैं, जो आत्मा चिर युवा और चिर अक्षय है, और अपने-आपको अपने ही अंदर आत्म-सर्जन और आत्म-रूपायन के अहैतुक आनंद के लिये बनाती और फिर-फिर बनाती रहती हैं -वही खेल है, वही खिलाड़ी है और वही खेल का मैदान भी है । शाश्वत और स्थाणु अर्थात् अपरिवर्तनशील सच्चिदानंद के साथ संबंध की दृष्टि से सत्ता की क्रीड़ा के इन तीन सामान्यीकरणों का आरंभ माया, प्रकृति और लीला की तीन धारणाओं से होता है । ये हमारे दर्शन शास्त्रों में परस्पर विरोधी दर्शनों के रूप में देखने में आते हैं परंतु वस्तुतः ये एक-दूसरे के साथ पूरी तरह संगत हैं, और जीवन तथा जगत् की संपूर्ण दृष्टि के लिये अपनी समग्रता में एक-दूसरे के पूरक और एक-दूसरे के लिये आवश्यक हैं । बिल्कुल प्रत्यक्ष दृष्टि में यह जगत् जिसके हम भाग हैं, 'शक्ति' की एक गति है, लेकिन जब हम उस 'शक्ति' के बाहरी रूप को भेद लेते हैं तो वह सर्जनशील चेतना की एक स्थिर लेकिन फिर भी सदा परिवर्तनशील लय सिद्ध होती है जो सदा स्वयं अपनी अनंत और शाश्वत सत्ता के प्रपंच-विषयक सत्यों को अपने अंदर उछालती और प्रक्षिप्त करती रहती है । और यह लय अपने सारतत्त्व में अपने कारण और प्रयोजन में ऐसी सत्ता के अनंत आनंद की लीला है जो हमेशा अपने अनगिनत आत्म-निरूपणों में व्यस्त रहती है, विश्व को समझने के लिये यह तिहरी या त्रिविध दृष्टि हमारा आरंभबिंदु होनी चाहिये ।

 

    तो चूंकि संभूति के अनंत और परिवर्तनशील आनंद में शाश्वत और अपरिवर्तनशील सत्ता के आनंद का गति करना ही सारी चीज की जड़ है तो हमें एक अविभाज्य सचेतन सत्ता की धारणा करनी होगी जो हमारे सभी अनुभवों के पीछे है और उन्हें अपने अविच्छेद्य आनंद से सहारा देती है और हमारी संवेदनात्मक सत्ता में सुख, दुःख और उदासीन तटस्थता के परिवर्तनों को अपनी गतिविधि द्वारा संपन्न करती है । वह हमारी वास्तविक आत्मा हैं । त्रिविध स्पंदनों के आधीन रहनेवाला मनोमय पुरुष हमारी वास्तविक आत्मा का केवल प्रतिरूप हो सकता है जिसे वस्तुओं की उस संवेदनात्मक अनुभूति के लिये आगे रखा गया है जो इस विश्व के साथ बहुविध संपर्क की प्रतिक्रिया और उत्तर में हमारी विभक्त चेतना की पहली लय है । यह एक अपूर्ण उत्तर है, एक उलझा हुआ और विस्वर लय है जो हमारे अंदर सचेतन सत्ता की संपूर्ण और एकताबद्ध लीला की तैयारी करता और उसकी भूमिका बनाता है । यह वह सच्ची और संपूर्ण समस्वरता नहीं है जो हमें तब मिल सकती है जब हम सभी विभिन्नताओं में उस एकमेव के साथ

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एक बार सामंजस्य पा लें और निरपेक्ष एवं वैश्व स्वरलहरी के साथ अपने-आपको समस्वर कर लें ।

 

    अगर यह दृष्टि ठीक है तो कुछ परिणाम अपने-आपको अनिवार्य रूप से आरोपित करते हैं । पहली बात तो यह कि चूंकि अपनी गहराइयों में हम स्वयं वह एकमेव हैं, चूंकि अपनी सत्ता की वास्तविकता में हम अविभाज्य सर्व-चेतना हैं और इस कारण अविच्छेद्य सर्वानंद हैं अतः हमारी संवेदनात्मक अनुभूति का सुख, दुःख और उदासीनता के तीन स्पंदनों में विन्यास हमारे उस सीमित भाग का एक ऊपरी संयोजन ही हो सकता है जो हमारी जाग्रत् चेतना में सबसे ऊपर है । इसके पीछे हमारे अंदर कुछ होना चाहिये -जो हमारी बाहरी चेतना से कहीं अधिक विशाल, गभीर और सच्चा है -जो निष्पक्ष भाव से सब अनुभूतियों में आनंद लेता है । वही आनंद गुप्त रूप से बाहरी मनोमय पुरुष को सहारा देता है और उसे इस योग्य बनाता है कि वह संभवन की सभी उत्तेजित गतिविधियों में समस्त श्रम, दुःख और अग्निपयरीक्षाओं के बीच डटा रहे । हम जिसे अपना-आपा कहते हैं वह तो केवल ऊपरी सतह पर कांपती हुई किरण है, उसके पीछे है समस्त विशाल अवचेतना और विशाल अतिचेतन जो इन समस्त सतही अनुभूतियों से लाभ उठाता है और उन्हें अपनी इस बाहरी सत्ता पर आरोपित करता है जिसे वह जगत् के संपर्को के आगे एक तरह के संवेदनात्मक आवरण के रूप में प्रकट करता है । वह स्वयं पर्दे में रहकर इन संपर्कों को ग्रहण करता और उन्हें अधिक सच्ची, गहरी, आधिपत्यशाली, सृजनशील अनुभूतियों के मूल्यों में आत्मसात् करता है । वह उन्हें अपनी गहराइयों में से बल, चरित्र, ज्ञान, आवेग के रूप में वापिस सतह पर भेजता है जिनकी जड़ें हमारे लिये रहस्यमय बनी रहती हैं क्योंकि हमारा मन सतह पर ही घूमता और कांपता है, उसने अपनी गहराइयों में केंद्रित होना और जीना नहीं सीखा है ।

 

    हमारे सामान्य जीवन में यह सत्य हमसे छिपा रहता है या कभी-कभी हम उसकी धुंधली झांकी भर पा जाते हैं या उसे अपूर्ण रूप से पकड़ पाते और उसकी धारणा बना सकते हैं । लेकिन अगर हम अपने भीतर रहना सीख लें तो हम निश्चित रूप से अंदर की इस भागवत उपस्थिति के प्रति जाग उठते हैं जो हमारी अधिक वास्तविक आत्मा है । यह एक ऐसी उपस्थिति है जो गभीर, स्थिर, आनदपूर्ण और शक्तिशाली है, जगत् इसका स्वामी नहीं । यह उपस्थिति, स्वयं प्रभु भले न हो, अंदर के प्रभु का विकिरण अवश्य है । हमें उसका इस रूप में भान होता है कि वह अंदर रहती हुई प्रतीयमान और ऊपरी सत्ता को सहारा और सहायता देती और उसके सुखों और कष्टों पर इस तरह मुस्कराती है जैसे कोई किसी छोटे बच्चे की भूलों और आवेशों पर मुस्कराता है । और हम अपने अंदर लौट सकें और अपने-आपको अपनी ऊपरी अनुभूति के साथ नहीं, बल्कि भगवान्

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की उस ज्योतिर्मय उपच्छाया के साथ एकात्म कर सकें तो हम जगत् के संपर्कों के प्रति भी उसी वृत्ति को बनाकर रह सकते हैं और शरीर, प्राणिक सत्ता और मन के सुख-दुःखों से अपनी सारी चेतना में पीछे हटकर हम उन्हें ऐसी अनुभूतियों के रूप में ग्रहण कर सकते हैं जिनका स्वरूप ऊपरी होने के कारण हमारी अंतःस्थ और वास्तविक सत्ता को नहीं छूता या उसपर अपने-आपको आरोपित नहीं करता । इस भाव को पूरी तरह अभिव्यक्त करनेवाली संस्कृत परिभाषा में कहें तो मनोमय के पीछे एक आनंदमय है, सीमित मनोमय के पीछे एक बृहत् 'आनंदमय पुरुष' है । मनोमय आनंदमय की एक छाया-प्रतिमा और विक्षुब्ध प्रतिबिंब भर है । हमारा अपना सत्य भीतर रहता है, सतह पर नहीं ।

 

    फिर सुख, दुःख और उदासीनता का यह त्रिविध स्पंदन बाहरी है, हमारे अधकचरे विकास की व्यवस्था और परिणाम है इसलिये उसमें कोई निरपेक्षता या अनिवार्यता नहीं हो सकती । हमारे ऊपर ऐसी कोई वास्तविक बाध्यता नहीं है कि हम किसी संपर्क-विशेष की ओर लौटें, किसी विशेष सुख, दुःख या उदासीनता की प्रतिक्रिया के रूप में प्रत्युत्तर दें । बाध्यता केवल आदत की होती है । हमें किसी संपर्क-विशेष से सुख या दुःख होता है क्योंकि हमारी प्रकृति ने ऐसी आदत डाल ली है, क्योंकि ग्रहणकर्ता ने इस संपर्क के प्रति वैसा सतत संबंध बना लिया है । यह हमारी सामर्थ्य में है कि बिल्कुल उल्टे प्रत्युत्तर दें, जहां कष्ट होता था वहां सुख का और जहां सुख होता था वहां दुःख का प्रत्युत्तर दें । और यह भी समान रूप से हमारी सामर्थ्य में है कि अपनी बाहरी सत्ता को इस बात का अभ्यस्त कर दें कि वह सुख, दुःख और उदासीनता की यांत्रिक प्रतिक्रियाओं की जगह अक्षर आनंद का वह सहज प्रत्युत्तर दे जहां हमारे अंदर स्थित सच्चे और विशाल 'आनंद-पुरुष' का सतत अनुभव है । और यह ऊपरी सतह की अभ्यस्त प्रतिक्रियाओं को गहराई में प्रसन्न और अनासक्त भाव से ग्रहण करने की अपेक्षा अधिक बड़ी विजय तथा कहीं अधिक गहरी और अधिक संपूर्ण आत्मवत्ता है । क्योंकि वह आधीनता के बिना स्वीकृति, अनुभूतियों के अपूर्ण मूल्यों को स्वाधीनता से दी गयी मान्यता नहीं है बल्कि यह आत्मवत्ता हमें अपूर्ण को पूर्ण में, मिथ्या मूल्यों को सच्चे मूल्यों में बदलने की योग्यता देती है । वह है मानसिक सत्ता द्वारा अनुभव किये गये द्वंद्वों की जगह आत्मा द्वारा लिया गया वस्तुओं का सच्चा लेकिन सतत आनंद ।

 

    मन की चीजों में सुख-दुःख की प्रतिक्रियाओं की इस निरी अभ्यासगत सापेक्षता को देखना कठिन नहीं है । वस्तुत: हमारी स्नायविक सत्ता को इन चीजों में अमुक निश्चितता का, निरपेक्षता के झूठे संस्कार का अभ्यास है । उसके लिये विजय, सफलता, सम्मान, सब प्रकार का सौभाग्य आदि अपने-आपमें निरपेक्ष रूप से सुखद चीजें हैं और उन्हें उसी तरह आनंद पैदा करना चाहिये जैसे शक्कर को

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मीठा होना चाहिये । पराजय, असफलता, निराशा, अपमान, सब प्रकार का दुर्भाग्य आदि अपने-आपमें निरपेक्ष रूप से अप्रिय चीजें हैं और उन्हें दुःख पैदा करना चाहिये जैसे नागदमनी (नीम) का स्वाद कड़वा होना ही चाहिये । उसकी दृष्टि में इनसे भिन्न प्रतिक्रियाओं का होना तथ्य से भटक जाना, असाधारण और अस्वस्थ चीज है, क्योंकि स्नायविक सत्ता आदतों की दासी होती है और उसे प्रकृति ने प्रत्युत्तरों के सुनिश्चित सातत्य, अनुभूतियों की समरूपता और जीवन के साथ मनुष्य के संबंधों की सुनिश्चित योजना बनाये रखने के लिये, अपने-आपमें एक साधन के तौर पर बनाया है । दूसरी ओर मनोमय सत्ता आजाद होती है क्योंकि वह एक ऐसा साधन है जिसे प्रकृति ने नमनीयता और वैविध्य, परिवर्तन और प्रगति के लिये बनाया है । वह तभीतक अधीन रहती है जबतक कि वह आधीन रहना पसंद करे, मन की एक आदत की जगह दूसरी आदत में रहना चाहे या जबतक अपने-आपको अपने स्नायविक यंत्र के अधिकार में रहने दे । वह पराजय, अपमान या हानि के कारण दुःखी होने के लिये बाधित नहीं है, वह इन चीजों और सभी चीजों का सामना पूर्ण उदासीनता के साथ, यहांतक कि पूरी प्रसन्नता के साथ कर सकती है । अतः आदमी देखता है कि वह जितना ही स्नायुओं और शरीर के आधीन रहने से इंकार करता है, जितना ही भौतिक और प्राणिक भागों की उलझनों में से अपने- आपको खींच लेता है उतना ही अधिक वह स्वाधीन होता है । तब वह बाहरी स्पर्शों का दास न रहकर जगत् के प्रति अपने प्रत्युत्तरों का स्वामी बन जाता है ।

 

    इस वैश्व सत्य को भौतिक सुख-दुःख पर लागू करना अधिक कठिन होता है क्योंकि यह तो स्वयं स्नायुओं और शरीर का क्षेत्र है, जो हमारे अंदर उसका केंद्र और आसन है जिसका स्वभाव ही है बाहरी संपर्कों और बाहरी दबाव से शासित होना । तथापि, हमें यहां भी सत्य की झलकें मिल जाती हैं । हम यह तथ्य देखते हैं कि आदत के अनुसार एक ही भौतिक संबंध सुखद या दुःखद हो सकता है, केवल भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों या विकास के भिन्न-भिन्न स्तरों पर हम यह तथ्य देख सकते हैं कि बहुत उत्तेजना या उच्च भावोत्कर्ष के समय मनुष्य उन्हीं संपर्कों के तले कष्ट के प्रति शारीरिक रूप से उदासीन या अचेतन रहता है जो सामान्य रूप से तीव्र यंत्रणा या वेदना पहुंचाते । कई अवस्थाओं में, कष्ट का संवेदन तब वापिस आ जाता है जब स्नायुएं फिर से अपना अधिकार जमा लेती हैं और मनुष्य की मानसिकता को तकलीफ पाने की आदत की बाध्यता की याद दिलाती हैं । लेकिन इस आदत की बाध्यता की ओर लौटना अनिवार्य नहीं है, यह बस एक आदत है । हम देखते हैं कि सम्मोहन के मामले में न केवल यह कि सम्मोहित व्यक्ति को सफलता के साथ घाव या वेधन के दर्द का अनुभव करने से केवल तभीतक नहीं रोका जा सकता जबतक वह उस असाधारण स्थिति में रहे बल्कि जब वह जाग जाये तब भी उसे

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आदत के अनुसार पीड़ा की प्रतिक्रिया में लौटने से उसी सफलता के साथ रोका जा सकता है । इस व्यापार का कारण बहुत सरल है । इसका कारण यह है कि सम्मोहक व्यक्ति उस जाग्रत् चेतना को स्थगित कर देता है जो स्नायविक अभ्यासों की गुलाम है । वह गहराई में स्थित अंतर्लीन मानसिक सत्ता से समर्थन मांग सकता है । यह आंतरिक मनोमय पुरुष, अगर इच्छा करे तो, स्नायुओं का और शरीर का स्वामी होता है । लेकिन यह स्वाधीनता जो सम्मोहन द्वारा असामान्य रूप से तेजी के साथ, सच्चा अधिकार पाये बिना परायी इच्छा-शक्ति से मिलती है, यही स्वाधीनता सामान्य रूप से, धीमे-धीमे, सच्चे अधिकार के साथ, अपनी निजी इच्छा-शक्ति द्वारा मिल सकती है जिससे मानसिक सत्ता की शरीर की अभ्यासगत स्नायविक प्रतिक्रियाओं पर आंशिक या पूर्ण विजय साधित हो सके ।

 

    मन और शरीर की पीड़ा प्रकृति यानी कार्यरत दिव्य शक्ति का एक साधन है जो उसके ऊर्ध्वमुखी विकास में एक निश्चित संक्रमणकालीन उद्देश्य के लिये सहायक होता हैं । व्यष्टि की दृष्टि से जगत् एक लीला और बहुविध शक्तियों का एक जटिल आघात है । इस जटिल लीला के बीच व्यष्टि शक्ति की परिमित मात्रा से सीमित रूप में रचित सत्ता के रूप में रहता है । वह उन अनगिनत प्रहारों के प्रति खुला रहता है जो उस रचना को, जिसे वह अपना-आपा कहता है घायल, पंगु, खंडित या विघटित कर सकते हैं । पीड़ा अपने स्वभाव में किसी खतरनाक या हानिकर संपर्क से स्नायविक या शारीरिक रूप से पीछे हटना है, यह उस चीज का एक भाग है जिसे उपनिषद् जुगुप्सा कहते हैं यानी एक सीमित सत्ता का उससे खिंचाव जो उसका अपना स्व नहीं है, जो उसके साथ सहानुभूतिपूर्ण या सामंजस्ययुक्त नहीं । यह 'परायों' से आत्म-रक्षा करने की प्रवृत्ति है । इस दृष्टिकोण से यह प्रकृति का उसकी ओर एक संकेत है जिससे बचना चाहिये अथवा यदि सफलतापूर्वक न बचा जा सके तो, जिसका उपचार करना चाहिये । पीड़ा का अस्तित्व शुद्ध भौतिक जगत् में तबतक नहीं आता जबतक कि उसमें प्राण का प्रवेश न हो, क्योंकि तबतक यांत्रिक उपाय ही काफी होते हैं । उसका व्यापार तब शुरू होता है जब प्राण अपनी दुर्बलता और जड़तत्त्व पर अधूरे अधिकार के साथ मंच पर प्रकट होता है, यह प्राण के अंदर मन की वृद्धि के साथ-साथ बढ़ता जाता है । उसका व्यापार तबतक चलता रहता है जबतक मन प्राण और शरीर में बंधा रहता है, जिनका वह उपयोग करता है । वह अपने ज्ञान और क्रिया के साधनों के लिये उनपर निर्भर रहता है, उनकी सीमाओं और उन सीमाओं से उत्पन्न अहमात्मक आवेगों और उद्देश्यों के आधीन रहता है । लेकिन अगर जब मनुष्य का मन मुक्त, अहं-शून्य, अन्य सभी सत्ताओं और वैश्व शक्तियों की लीला के साथ सामंजस्य साधने में सक्षम हो जायेगा तब कष्ट का उपयोग और व्यापार कम होने लगेगा और अंत में उसके अस्तित्व का कोई प्रयोजन ही नहीं रहेगा और वह प्रकृति की

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एक परंपरागत वृत्ति के रूप में, अपनी उपयोगिता समाप्त हो जाने के बाद भी बनी रहनेवाली आदत के रूप में, उच्चतर के अभीतक अधूरे संघटन में निम्नतर के डटे रहने के रुप में रह सकेगा । जड़तत्त्व की अधीनता और मन की अहंकारपूर्ण सीमाओं पर अंतरात्मा की नियत विजय में पीड़ा का अंततः विलोपन एक अनिवार्य बिंदु होगा ।

 

    यह विलोपन संभव है क्योंकि अपने-आपमें सुख-दुःख दोनों ही तरंगें हैं, एक अपूर्ण है दूसरी विकृत, परंतु हैं दोनों ही सत्ता के आनंद की लहरें । इस अपूर्णता और इस विकृति का कारण है सीमित करने और मापनेवाली माया द्वारा सत्ता का अपनी चेतना में आत्मविभाजन और परिणामत: व्यक्ति द्वारा संपर्कों को वैश्व रूप में ग्रहण करने की जगह अहंकारमय और खंडशः रूप में ग्रहण करना । वैश्व आत्मा के लिये सभी चीजें और सभी संपर्क अपने अंदर आनंद का सार लिये रहते हैं जिसका सबसे अच्छा वर्णन संस्कृत के सौंदर्य-शास्त्र के शब्द रस के द्वारा होता है जिसका अर्थ एक ही साथ किसी चीज का द्रव या सार और स्वाद होता है । चूंकि हम अपने साथ संपर्क में आनेवाली वस्तु का सारतत्त्व नहीं ढूंढ़ते, केवल यही देखते हैं कि वह संपर्क हमारी कामनाओं और भयों, हमारी लालसाओं और अनिच्छाओं पर कैसा प्रभाव डालता है, इसीलिये वह रस दुःख और कष्ट, अपूर्ण एवं क्षणिक सुख या उदासीनता अर्थात् सारतत्त्व को ग्रहण करने में नितांत अक्षमता का रूप ले लेता है । अगर हम मन और हृदय में पूरी तरह अनासक्त हो सकें, और उस अनासक्ति को स्नायविक सत्ता पर आरोपित कर सकें तो रस के इन अधूरे और विकृत रूपों का क्रमिक विलोपन संभव होगा और सत्ता के अविच्छिन्न आनंद का सच्चा सारभूत स्वाद हमारी पहुंच के भीतर होगा । इस विविधतापूर्ण किंतु वैश्व आनंद को पाने की कुछ क्षमता हमें, जैसा कि कला और काव्य में होता है, चीजों को सौंदर्यबोध की दृष्टि से लिये जाने पर मिलती है, जिससे हम उनमें करुण, भयानक, यहांतक कि वीभत्स-रस का भी आनंद ले सकते हैं । इसका कारण यह है कि हम उस समय तटस्थ, उदासीन रहते हैं, हमें केवल वस्तु और उसके सारतत्त्व का ख्याल रहता है, अपना या आत्मारक्षा (जुगुप्सा) का नहीं । निश्चय ही, संपर्कों की यह सौंदर्यबोधात्मक ग्रहणशीलता शुद्ध आनंद का यथार्थ चित्र या प्रतिबिंब नहीं है, वह आनंद तो अतिमानसिक और सौंदर्यबोधातीत है । क्योंकि वह दुःख, भय, वीभत्सता और जुगुप्सा को उनके कारणों समेत समाप्त कर देता है जब कि सौंदर्यबोध उन तत्त्वों को स्वीकार करता है । किंतु यह प्रवृत्ति अपने-आपको अभिव्यक्त कर रही, वस्तुओं मे स्थित वैश्व 'आत्मा' के बढ़ते हुए आनंद की एक अवस्था का आंशिक और अपूर्ण रूप से निरूपण करती है और हमारी प्रकृति के एक भाग में अहंकारभरे संवेदन से अनासक्ति की उस अवस्था में और उस वैश्व वृत्ति में हमारा प्रवेश कराती है जिसके द्वारा 'अंतरात्मा' वहां सामंजस्य और सौंदर्य

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को देखती है जहां हम, विभक्त सत्ताएं अस्तव्यस्तता और असंगति का अनुभव करते हैं । पूर्ण मुक्ति हमें तभी मिल सकती है जब हमारे सभी भागों में ऐसी ही मुक्ति आ जाये, वैश्व सौंदर्यबोध, ज्ञान का वैश्व दृष्टिकोण, सभी चीजों से वैश्व अनासक्ति आ जाये और साथ ही हमारी स्नायविक और भावमय सत्ता में सबके लिये सहानुभूति भी रहे ।

 

    दुःख का स्वरूप है हमारे अंदर स्थित चित्-शक्ति की जीवन के आघातों का सामना करने में असफलता जिसके परिणाम सिकुड़ना और जुगुप्सा हैं । और दुःख की जड़ है उस ग्रहण और स्वायत्त करनेवाली शक्ति की असमानता जिसका कारण है अहंभाव द्वारा हमारा आत्म-परिसीमन । और यह अहंभाव हमारी सच्ची 'आत्मा' के, सच्चिदानंद के प्रति अज्ञान का परिणाम है । अतः दुःख का विलोपन करने के लिये पहले जुगुप्सा, सिकुड़ने और संकुचित होने के स्थान पर तितिक्षा को, अर्थात् जीवन के सभी आघातों का सामना करने, उन्हें सहने और उनपर विजय पाने की वृत्ति को लाना होगा । इस सहनशीलता और विजय से हम एक ऐसी समानता की ओर बढ़ते हैं जो सभी संपर्कों के प्रति या तो एक-सी उदासीनता या एक-समान प्रसन्नता होती है । और फिर इस समता को एक मजबूत नींव पानी होगी, अहंकारभरी चेतना के स्थान पर, जो सुख-दुःख भोगती है, सच्चिदानंद-चेतना को प्रतिष्ठित करना होगा जो सर्वानंद है । सच्चिदानंद-चेतना विश्वातीत और विश्व से अलग-थलग हो सकती है और इस सुदूर आनंद की अवस्था के लिये जो मार्ग है वह है एक-समान उदासीनता का । यह है संन्यासी का मार्ग । अथवा सच्चिदानंद--चेतना एक ही साथ विश्वातीत और विश्वव्यापक हो सकती है और इस उपस्थित तथा सर्वांलिंगनकारी आनंद की अवस्था के लिये जो मार्ग है वह है समर्पण का और विश्वचेतना में अहं को खो देने तथा सर्वव्यापी समरस आनंद को प्राप्त करने का । यह प्राचीन वैदिक मुनियों का मार्ग है । किंतु सुख के अपूर्ण स्पर्शों और दुःख-दर्द के विकृत स्पर्शों के प्रति उदासीनता अंतरात्मा के आत्मसंयम का पहला सीधा और स्वाभाविक परिणाम है और उनका समरस आनंद में परिवर्तन तो साधारणत: बाद में ही आता है । त्रिविध स्पंदनों का सीधा आनंद में रूपांतर संभव तो है पर मनुष्य के लिये कम सरल है ।

 

    तो वेदांत के पूर्ण सिद्धांत के अनुसार विश्व के बारे में जो दृष्टिकोण है वह इसी प्रकार का है । एक अनंत, अविभाज्य सत् अपनी शुद्ध आत्म-चेतना में सर्वानंद है । वह अपनी आधारभूत शुद्धि में से निकलकर शक्ति के, जो कि चेतना है उसके, वैचित्र्यपूर्ण खेल में, प्रकृति की गतिविधि में चला जाता है । यहीं माया का खेल है । भौतिक विश्व के आधार में सत्ता का आनंद शुरू में आत्म-समाहित, आत्म-लीन और अवचेतन रूप में रहता है । फिर वह तटस्थ गति की महान् राशिं के रूप में उभरता है लेकिन यह वह चीज नहीं होती जिसे हम संवेदन कहते हैं । उसके बाद

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 मन और अहं की वृद्धि के साथ वही आनंद ख्य, दुःख और उदासीनता के त्रिविध स्पंदन के रूप में प्रकट होता है । इसका आरंभ रूप में स्थित चेतना की शक्ति के परिसीमन और उसके वैश्व शक्ति के आघातों के प्रति खुले रहने से होता है जिन्हें वह अपने से विजातीय और अपनी मात्रा और प्रमाण के साध अ-सुस्वर पाती है । और अंत में सच्चिदानंद अपनी सृष्टियों में पूर्ण रूप से और सचेतन रूप से उभर आते हैं और यह वैश्वभाव, समता, आत्मवत्ता और प्रकृति पर विजय के द्वारा साधित होता है । संसार का यही क्रम और यहीं उसकी गतिधारा है ।

 

    तब अगर यह पूछा जाये कि एकमेव ऐसी गति में आनंद क्यों लेता है तो इसका उत्तर इस तथ्य में है कि उस सत् की अनंतता में सभी संभाव्यताएं छिपी हुई हैं और यह कि सत्ता का आनंद--अपनी अक्षर सत्ता में नहीं, बल्कि अपनी क्षर संभूति में--यथार्थतः अपनी इन संभावनाओं को विविध रूप से चरितार्थ करने में ही है । और यहां इस विश्व में, जिसके कि हम एक भाग हैं, जिस संभावना को चरितार्थ किया जाता है उसकी शुरूआत इस प्रकार होती है कि सच्चिदानंद उस तत्त्व में जा छिपते हैं जो उनका विरोधी मालूम होता है और उस विरोधी तत्त्व की शर्तों में से ही उन्हें अपने-आपको खोज निकालना होता है । अनंत सत् प्रकटत: असत् में अपने-आपको खो देता है और सांत अंतरात्मा के रूप में उभरता है । अनंत चेतना एक सुविशाल, निर्विशेष निश्चेतना की प्रतीति के रूप में अपने-आपको खो देती है और सतही, सीमित चेतना के रूप में उभरती है । अनंत आत्म-निर्भर शक्ति अपने-आपको परमाणुओं की अस्त-व्यस्तता के आभास में खो देती है और अस्थिर संतुलनवाले एक जगत् के रूप में उभरती है । अनंत आनंद प्रकटत: संवेदनशून्य जड़तत्त्व के रूप में अपने-आपको खो देता है और विविध प्रकार के दुःख, सुख और तटस्थ भावों के तथा प्रेम, घृणा और उदासीनता के विस्वर लय के रूप में उभरता है । अनंत एकता अपने-आपको विविधता की अस्तव्यस्तता के आभास में खो देती है और ऐसी शक्तियों एवं सत्ताओं की विषमता के रूप में प्रकट होती है जो एक-दूसरे पर अधिकार करने, एक-दूसरे को लुप्त कर देने या निगल जाने के द्वारा एकता की खोज करती हैं । ऐसी इस सृष्टि-रचना में वास्तविक सच्चिदानंद को उभरना है । मनुष्य को, व्यष्टि को वैश्व सत्ता बनना और उसकी तरह रहना है । उसकी सीमित मानसिक चेतना को ऐसी अतिचेतन एकता में विस्तार पाना है जिसमें प्रत्येक सर्व का आलिंगन करता है । उसके संकीर्ण हृदय को अनंत का आलिंगन सीखना है और अपनी वासनाओं और असंगतियों के स्थान पर वैश्व प्रेम को लाना है । उसके परिसीमित प्राण को समस्त विश्व से अपने ऊपर आनेवाले आघातों के समतुल्य और वैश्व आनंद के योग्य बनना है । उसके भौतिक शरीरतक को अपने-आपको इस रूप में जानना है कि वह कोई अलग अस्तित्व नहीं है बल्कि जो अविभाज्य शक्ति सब कुछ है, वह उसके सारे प्रवाह के साथ एक है

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और उसे अपने अंदर धारण किये हुए है । उसकी सारी प्रकृति को परम सत्-चित्-आनंद में एकत्व, सामंजस्य और 'सर्व के अंदर एकत्व' का व्यक्ति में प्रतिरूप तैयार करना है ।

 

    इस सारी लीला के बीच जो छिपी वास्तविकता है वह है सदा अस्तित्व का वही एक और समरस आनंद । व्यक्ति के उदय से पहले अवचेतन निद्रा के आनंद में वही है । व्यक्ति को केंद्र बनाकर अर्द्ध-चेतन स्वप्न की भूल-भुलैया में अपने--आपको पाने का जो संघर्ष है, उसमें जितने विविध प्रकार के उलटफेर, विकार, परिवर्तन और प्रत्यावर्तन हैं उन सबके आनंद में भी वही है । और शाश्वत अतिचेतन आत्मवत्ता में, जिसके प्रति मनुष्य को जागना होगा और वहां एक और अविभाज्य सच्चिदानंद के साथ एक होना होगा, उसमें भी वही है । यह एकमेव, प्रभु और सर्व की वह लीला है जो भौतिक विश्व के बारे में बौद्धिक दृष्टिकोण से अपने-आपको हमारे मुक्त और प्रबुद्ध ज्ञान में प्रकट करती है ।

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