दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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  Ravindra

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Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.

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दिव्य जीवन

Sri Aurobindo symbol
Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Sri Aurobindo Birth Centenary Library (SABCL) The Life Divine Vols. 18,19 1070 pages 1970 Edition
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Sri Aurobindo

Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.

Hindi Translations of books by Sri Aurobindo दिव्य जीवन 1047 pages 1992 Edition
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अध्याय ११

 

सत्ता का आनंद --समस्या

 

           को ह्येवान्यात्क.. प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ।

 

           यदि अस्तित्व का आनंद उस आकाश जैसा न होता जिसमें हम निवास करते हैं तो कौन जी सकता या श्वास ले सकता ?

                                                                                               तैत्तिरीयोपनिषद् २.७

 

           आनन्दाइध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवत्ति आनन्द प्रयन्त्यभिसंविशत्तीति ||

 

           ये सभी भूत 'आनंद' से ही पैदा होते हैं, 'आनंद' में ही निवास करते हैं और बढ़ते हैं और 'आनंद' में ही लौट जाते हैं ।

                                                                                           तैत्तिरीयोपनिषद ३.६

 

किंतु यदि हम यह मान भी लें कि यह शुद्ध सत्ता, यह ब्रह्म, यह सत् वस्तुओं का निरपेक्ष आदि, अंत और आधान है और ब्रह्म में एक अंतर्निहित आत्म-चेतना है जिसे उसकी सत्ता से अलग नहीं किया जा सकता और वह अपने-आपको ऐसी चेतना की गति की शक्ति के रूप में प्रक्षिप्त करता है जो शक्तियों, रूपों और जगतों का निर्माण करनेवाली है, फिर भी हमारे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है कि ''ब्रह्म जो पूर्ण निरपेक्ष, अनंत है, जिसे किसी चीज की जरूरत नहीं, कोई कामना नहीं वह अपने अंदर रूपों के इन जगती का निर्माण करने के लिये चेतना की शक्ति को आखिर क्यों प्रक्षिप्त करता है ?'' क्योंकि हमनें इस समाधान को तो एक ओर रख दिया है कि वह अपनी शक्ति के स्वभाव से सृजन करने के लिये बाधित है, अपनी गति और रूपायन की शक्यताओं के कारण रूपों में विचरने के लिये विवश है । यह सच है कि उसमें यह शक्यता है लेकिन वह उससे सीमित, बाधित या विवश नहीं है । वह स्वतंत्र है । तब यदि गति करने और सदा स्थिर रहने, अपने-आपको रूपों में प्रक्षिप्त करने और रूपायन की शक्यता को अपने अंदर ही बनाये रखने के लिये स्वतंत्र होते हुए भी वह अपनी गति और रूपायन की शक्ति में रस लेता है तो इसका बस, एक ही कारण हो सकता है--वह है आनंद ।

 

    यह प्राथमिक, अंतिम और शाश्वत सत् जैसा कि वेदांतियों ने उसे देखा है एक कोरी सत्ता नहीं है और न ही एक ऐसी सचेतन सत्ता, जिसकी चेतना अनगढ़ शक्ति या बल हो । वह ऐसा सचेतन सत् है जिसकी सत्ता की अभिधा, जिसकी चेतना की अभिधा ही आनंद है । जैसे निरपेक्ष सत् में कोई शून्यता, कोई निश्चेतना की

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रात्रि, कोई त्रुटि नहीं हों सकती, यानी शक्ति की चूक या उसका अभाव नहीं हो सकता--क्योंकि इनमें से कोई एक चीज भी हो तो वह निरपेक्ष या परम न रहेगा--इसी तरह कोई दुःख-दर्द या आनंद का नकार भी नहीं हो सकता । सचेतन सत् की निरपेक्षता सचेतन सत् का असीम आनंद है, ये दोनों एक ही चीज के अलग-अलग नाम हैं । समस्त असीमता, समस्त अनंतता, समस्त निरपेक्षता शुद्ध आनंद है । हमारी सापेक्ष मानवजाति को भी यह अनुभव है कि सारे असंतोष का अर्थ है सीमा का, एक बाधा का होना, --संतोष प्राप्त होता है किसी रोक रखी गयी चीज के प्राप्त होने से, सीमा के अतिक्रमण और बाधा पर विजय से । यह इसलिये है कि हमारी मौलिक सत्ता निरपेक्ष है जिसे अपनी अनंत और असीम आत्म-चेतना और आत्म-शक्ति पर पूरा अधिकार है । इस आत्मवत्ता का ही दूसरा नाम है आत्मानंद । और जिस अनुपात में सापेक्ष आत्मवत्ता के नजदीक आता है, वह संतोष की ओर बढ़ता और आनंद को छू लेता है ।

 

    फिर भी ब्रह्म का आत्मानंद उसकी निरपेक्ष आत्म-सत्ता की स्थिर और गतिहीन स्थिति से सीमित नहीं है । जैसे उसकी चेतना की शक्ति अपने-आपको अनंत परिवर्तनों के साथ अनंत रूपों में प्रक्षिप्त करने में समर्थ है उसी तरह उसका आत्मानंद भी अपने उस अनंत प्रवाह और परिवर्तन में गति करने, वैचित्र्य और आह्लाद पाने में समर्थ है जिसके प्रतिरूप हैं ये असंख्यासंख्य विश्व । अपने आत्मानंद की अनंत गतियों और वैचित्र्यों को खुली छूट देना और उनका रस लेना ही उसकी विस्तृत या सर्जक लीला का उद्देश्य है ।

 

    दूसरे शब्दों में कहें तो जिसने अपने-आपको रूपों में प्रक्षिप्त किया है वह सत् चित् और आनंद की त्रयी सच्चिदानंद है जिसकी चेतना स्वभाव से सर्जक या यूं कहें आत्माभिव्यक्ति करनेवाली शक्ति है जो अपनी आत्मसचेतन सत्ता के व्यापारों और रूपों में अनंत वैचित्र्यों लाने और उन वैचित्र्यों के आनंद का अनंत रूपों में भोग करने में समर्थ है । इसका मतलब यह हुआ कि जितनी चीजों का अस्तित्व है, वे जो कुछ भी हैं वे उसी सत् से अपनी सत्ता पाती हैं, उसी सचेतन शक्ति से चेतना पाती हैं और उसीसे सत्ता का आनंद पाती हैं । जैसे हम सभी चीजों को एक ही अक्षर सत्ता के क्षर रूप, एक ही अनंत शक्ति के सांत परिणाम पाते हैं उसी भांति हम देखेंगे कि सभी चीजें आत्म-सत्ता के एक ही अपरिवर्तनशील और सर्वग्राही आनंद की परिवर्तनशील आत्माभिव्यक्तियां हैं । हर चीज में, जिसका अस्तित्व है, एक सचेतन शक्ति निवास करती है । उसका अस्तित्व और वह जो कुछ है वह सब उस सचेतन शक्ति के बल पर ही है । इसी तरह जो भी चीज यहां है उसमें सत्ता का आनंद विराजता है और उसका अस्तित्व और वह जो कुछ है वह उस आनंद के बल पर ही है ।

 

    विश्व के आरंभ के बोर में प्राचीन वेदांत के इस मत का सामना मानव मन में

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दो प्रबल नकारों से होता है, दुःख की भावमय और संवेदनात्मक चेतना और अशुभ की नैतिक समस्या । क्योंकि अगर जगत् सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति है, केवल सत् की नहीं जो साथ-ही-साथ चित्-शक्ति भी है --इतना तो आसानी से माना जा सकता है, --वरन् ऐसे सत् की जो अनंत आत्मानंद भीं है तो फिर विश्व भर में उपस्थित दुःख, कष्ट और पीड़ा की व्याख्या कैसे की जाये ? क्योंकि हमें तो यह जगत् सत्ता के आनंद का जगत् नहीं बल्कि कहीं अधिक दुःख का जगत् मालूम होता है । निश्चय ही जगत् के बारे में यह दृष्टि अतिशयोक्तिपूर्ण और भ्रामक है । अगर हम उसे तटस्थ होकर देखें और केवल यथार्थ और भावुकताहीन मूल्यांकन के लिये देखें तो हम पायेंगे कि अस्तित्व के सुख का कुल--योग--आभास और व्यक्तिगत उदाहरणों के बावजूद--अस्तित्व के दुःख के कुल-योग से बहुत बढ़-चढ़कर है । और यह कि सक्रिय हो या निष्क्रिय उपरितल पर हो या अधःस्थ, सत्ता का यह सुख ही प्रकृति की साधारण अवस्था है और दुःख एक विपरीत घटना है जो उस साधारण को कुछ समय के लिये स्थगित कर देती है या उसपर छा जाती है । लेकिन इसी कारण दुःख का न्यूनतर कुलयोग हमारे ऊपर ज्यादा तीव्रता से असर डालता है और प्रायः सुख के अधिक बड़े कुलयोग के ऊपर मंडराता रहता है । ठीक इसी कारण कि सुख सामान्य है हम उसका मूल्य नहीं समझते और मुश्किल से ही उसे देख पाते हैं जबतक कि वह अपने अधिक तीव्र रूप में, सुख की लहरों या हर्ष और उल्लास के शिखर पर नहीं आ जाता । हम इन्हीं चीजों को आनंद कहते हैं और उसीकी खोज करते हैं और सत्ता का सामान्य संतोष जो किसी घटना या विशिष्ट कारण या पदार्थ के बिना भी सदा वहां बना रहता है हमें इस भांति प्रभावित करता है मानों वह कोई तटस्थ वस्तु हो जो न सुख है न दुःख । यह वहां बना रहता है, यह एक बड़ा व्यावहारिक तथ्य है क्योंकि इसके बिना आत्म-संरक्षण की प्रबल वैश्व सहज वृत्ति नहीं होगी, किंतु हम इसकी खोज में नहीं हैं अतः हम इसे अपने भावुक और संवेदनात्मक लाभ-हानि के हिसाब में नहीं गिनते । इस हिसाब में हम एक ओर केवल निश्चित सुखों को रखते हैं और दूसरी ओर असुविधा और कष्ट को । पीड़ा हमें ज्यादा तीव्र रूप से प्रभावित करती है क्योंकि वह हमारी सत्ता के लिये अस्वाभाविक है, हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति के विपरीत है और उसका अनुभव हमारी सत्ता पर एक आघात के रूप में, हम जो कुछ हैं और होना चाहते हैं उसपर एक हमले और बाहरी आक्रमण के रूप में होता है ।

 

    फिर भी दुःख की असामान्यता या उसके न्यूनाधिक कुलयोग का दार्शनिक प्रश्न पर कोई असर नहीं पड़ता । उसकी उपस्थितिमात्र ही समस्या को खड़ा कर देती है । जब कि सब कुछ सच्चिदानंद है तो फिर दुःख-दर्द का अस्तित्व ही कैसे हो सकता है ? यही है वास्तविक समस्या । यह प्रायः और भी उलझ जाती है जब विश्व के

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बाहर एक व्यक्तिगत भगवान् की धारणा को लेकर एक मिथ्या प्रश्न उठ खड़ा होता है और नैतिक कठिनाई के रूप में एक दूसरा आंशिक प्रश्न सामने आता है ।

 

    यह तर्क किया जा सकता है कि सच्चिदानंद भगवान् है, एक सचेतन सत्ता है जो विश्व का निर्माता है । तो फिर भगवान् ने ऐसा जगत् कैसे बनाया जिसमें वह अपने ही बनाये हुए प्राणियों पर दुःख दागते हैं, कष्ट का समर्थन करते हैं और अशुभ को स्वीकृति देते हैं ? भगवान् सर्व-शिव हैं तो फिर दुःख और अशुभ की रचना किसने की ? अगर हम कहें कि दुःख एक कसौटी या अग्नि--परीक्षा है तो हम नैतिक समस्या का हल नहीं करते, हम एक अनैतिक या निर्नैतिक भगवान् पर आ पहुंचते हैं जो शायद एक अच्छा जगत्-कारीगर तो है, चालाक मनोवैज्ञानिक भी है परंतु शुभ और प्रेम का भगवान् नहीं है जिसकी हम पूजा कर सकें, वह केवल शक्ति और सामर्थ्य का भगवान् है जिसके विधान के आगे हमें झुकना ही होगा और जिसकी सनकों को संतुष्ट करने की हम आशा कर सकते हैं । क्योंकि जो जांच या अग्निपरीक्षा के लिये उत्पीड़न का आविष्कार करता है वह या तो जान-बुझकर क्रूरता करने या फिर नैतिक असंवेदनशीलता का अपराधी ठहरता है और अगर वह नैतिक सत्ता है भी तो अपने ही बनाये हुए प्राणियों की उच्चतम नैतिक वृत्ति के हिसाब से नीचा ठहरता है । और अगर इस नैतिक कठिनाई से बचने के लिये हम यह कहें कि दुःख नैतिक अशुभ का अनिवार्य परिणाम और स्वाभाविक दंड है --लेकिन यह एक ऐसी व्याख्या है जो जीवन के तथ्यों के साथ भी तबतक मेल नहीं खाती जबतक कि हम कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत को न स्वीकार कर लें जिसके अनुसार जीव अब अपने अन्य शरीरों में किये गये पिछले जन्मों के पापों के लिये कष्ट पाता है --फिर भी हम नैतिक समस्या की जो असली जड़ है उससे पिंड नहीं छुड़ा सकते कि उस नैतिक अशुभ को किसने और क्यों और कहां से बनाया जिसने दुःख और कष्ट के परिणाम को अपरिहार्य बना दिया ? अगर यह देखते हुए कि नैतिक अशुभ वास्तव में किसी मानसिक रोग या अज्ञान का एक रूप है, यह प्रश्न उठता है कि इस विधान या अनिवार्य संबंध को किसने या किस चीज ने बनाया जो एक मानसिक रोग या अज्ञान के कर्म को इतनी भीषण प्रतिक्रिया और ऐसे चरम और दानवी उत्पीड़नों से दंडित करता है ? कर्म का अटल विधान एक परम नैतिक और व्यक्तिगत 'देव' के साथ मेल नहीं खाता इसीलिये बुद्ध के स्पष्ट तर्क ने किसी स्वतंत्र और सर्वशासक व्यक्तिगत भगवान् के अस्तित्व से ही इंकार कर दिया । उन्होंने घोषणा की कि समस्त व्यक्तित्व अज्ञान की सृष्टि और कर्म के आधीन है ।

 

    सचमुच इतने तीक्ष्णा रूप में रखी गयी समस्या केवल तभी उठती है जब हम एक ऐसे व्यक्तिगत भगवान् को मानते हैं जो विश्व से इतर है, स्वयं विश्व नहीं है । एक ऐसा भगवान् जिसने अपने प्राणियों के लिये शुभ और अशुभ, दुःख और कष्ट

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की रचना की लेकिन अपने-आप उनसे ऊपर, अप्रभावित रहता है, जो कष्टपीड़ित, संघर्षरत जगत् को देखता रहता है, उसपर शासन करता और अपनी इच्छा चलाता है । अथवा यदि वह अपनी इच्छा नहीं चलाता या यदि अपनी सहायता के बिना या अपर्याप्त सहायता से जगत् को एक अटल विधान द्वारा परिचालित होने देता है तब वह भगवान् नहीं है, सर्व-शक्तिमान्, सर्व-शिव और सर्व-प्रेममय नहीं है । विश्व से इतर नैतिक भगवान् के आधार पर बना कोई भी मत अशुभ और दुःख-दर्द की --अशुभ और दुःख-दर्द के सृजन की--व्याख्या नहीं कर सकता, सिवाय इसके कि वह इसकी एक ऐसे असंतोषजनक छल से व्याख्या करे जिससे प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर न देकर उससे बचा जाये या फिर स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से मैनिकी मत को मान ले जो ईश्वर के कार्यों के औचित्य को सिद्ध करने या उन्हें क्षम्य बताने के प्रयास में व्यावहारिक रूप से स्वयं भगवान् को ही रद्द कर देता है । लेकिन ऐसा भगवान् वेदांतियों का सच्चिदानंद नहीं है । वेदांत का सच्चिदानंद तो एकमेवाद्वितीयम् है, जो कुछ भी है वह वही है, सर्वं खल्विदं ब्रह्म । तो फिर यदि अशुभ और दुःख का अस्तित्व है तो स्वयं भगवान्, सभी भूतों के अंदर शरीर धारण करनेवाले भगवान् ही अशुभ और दुःख को धारण करते हैं । तब समस्या एकदम बदल जाती है । अब प्रश्न यह नहीं रहता कि भगवान् ने अपनी सृष्टि के लिये ऐसे दुःख और अशुभ की रचना कैसे की जो उन्हें प्रभावित नहीं करते, जिनसे वे अस्पृष्ट हैं, बल्कि अब प्रश्न यह उठता है कि उस एकमेवाद्वितीयम्, अनंत, सत्-चित्-आनंद ने अपने अदंर ऐसी चीज को कैसे घुसने दिया जो आनंद नहीं है, जो उसका निश्चित रूप से नकार है ।

 

    आधी नैतिक कठिनाई, कठिनाई का वह रूप जिसका उत्तर नहीं दिया जा सकता, गायब हों जाती है । अब वह मुश्किल नहीं उठती, अब उसे पेश नहीं किया जा सकता । दूसरों के साथ क्रूरता जब कि मैं अछूता रहूं या बाद में रो-धोकर या देरी से दया दिखाकर उसमें भाग लूं यह एक चीज है और स्वयं अपने ऊपर दुःख को आरोपित करना दूसरी चीज है जब कि मैं ही एकमात्र सत्ता हूं । फिर भी जरा-से हेर-फेर के साथ नैतिक कठिनाई को वापिस लाया जा सकता है । सर्वानंदमय निश्चित रूप से सर्व-शुभ और सर्व-प्रेममय हैं, फिर सच्चिदानंद में अशुभ और कष्ट रह कैसे सकते हैं जब कि वह कोई यांत्रिक सत्ता नहीं, बल्कि स्वतंत्र और सचेतन सत्ता है जो अशुभ और दुःख को दोषी ठहराने और त्याग देने में भी समर्थ है ? हमें यह मानना होगा कि इस रूप में प्रस्तुत किया गया प्रश्न भी मिथ्या है क्योंकि वह एक आंशिक कथन के शब्दों का उपयोग इस तरह करता है मानों वे संपूर्ग पर लागू होते हों । क्योंकि हम शुभ और प्रेम के जिन विचारों को सर्व-आनंदमय

 

    तीसरी शताब्दी में मैनिकियस ने फारस में यह मत चलाया था कि हर चीज की उत्पत्ति दो प्रधान तत्त्वों, अंधकार और प्रकाश, से हुई है ।

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की धारणा में ले आते हैं वे वस्तुओं की दैतात्मक और विभाजनात्मक धारणा से आये हैं । उनका संपूर्ण आधार है प्राणी और प्राणी के बीच का संबंध, फिर भी हम उन्हें ऐसी समस्या पर हठपूर्वक लागू करते हैं जो इस धारणा से उल्टी, 'एक' को ही सर्व मानकर चलती है । पहले हमें यह देखना होगा कि यह समस्या अपने आदिम शुद्ध रूप में, विभिन्नता में एकता के आधार पर कैसी दीखती है या उसका समाधान कैसे हो सकता है । तभी हम निरापद रूप से उसके अंगों और विकासों के बारे में, उदाहरण के लिये विभाजन और द्वैत पर आधारित प्राणी और प्राणी के बीच संबंधों के बारे में विचार कर सकते हैं ।

 

    अगर हम अपने-आपको मानव कठिनाई और मानव दृष्टिकोण से सीमित न करें बल्कि समग्र को देखें तो हमें मानना होगा कि हम किसी नैतिक जगत् में नहीं रह रहे । सारी प्रकृति पर नैतिक अर्थ आरोपित करने का मानव विचार का प्रयास स्वेच्छा से और हठपूर्वक अपने-आपको भ्रांति में डालनेवाली उन क्रियाओं में से एक है, मनुष्य के उन दयनीय प्रयासों में से एक है जिसमें वह सभी चीजों में अपने-आपको, अपनी सीमित अभ्यासगत सत्ता को पढ़ने की कोशिश करता हैं और उनका मूल्यांकन ऐसे दृष्टिकोण से करता है जिसे स्वयं उसने विकसित किया है और यह बड़े प्रभावकारी ढंग से वास्तविक ज्ञान और संपूर्ण दृष्टितक पहुंचने से उसे रोकता है । भौतिक प्रकृति नैतिक नहीं है । जो नियम उसपर शासन करता है वह ऐसी बंधी हुई निश्चित आदतों का समन्वय है जो शुभ और अशुभ का हिसाब नहीं करता । उसे केवल शक्ति से मतलब है, उस शक्ति से जो सृजन करती है, जो व्यवस्था और संरक्षण करती है, उस शक्ति से जो बिना नैतिक विचार के निष्पक्ष भाव से, अपने अंदर स्थित रहस्यमय 'इच्छा' के अनुसार अस्तव्यस्त करती और नष्ट करती है, अपने रूपायनों और आत्मविघटन में उसी 'इच्छा' की मूक संतुष्टि के अनुसार चलती हैं । पाशविक और प्राणिक प्रकृति भी निर्नैतिक है यद्यपि जैसे-जैसे वह प्रगति करती है, वह उस कच्ची सामग्री को प्रकट करती है जिसमें से उच्चतर पशु नैतिक आवेग को विकसित करता है । हम शेर को इसलिये दोषी नहीं ठहराते कि वह अपने शिकार को मारकर खा जाता है और न ही तूफान को इसलिये दोष देते हैं कि वह विनाश करता है या आग को इसलिये कि वह बहुत कष्ट देती और मार डालती है । तूफान, आग और शेर में जो सचेतन शक्ति है वह अपने-आपको दोष नहीं देती, धिक्कारती नहीं । दोष देना और धिक्कारना, बल्कि यूं कहें अपने-आपको दोष देना और धिक्कारना सच्ची नैतिकता का आरंभ है । जब हम दूसरों को तो बुरा-भला कहते हैं परंतु वही नियम अपने ऊपर लागू नहीं करते तब हम सच्चे नैतिक न्याय की बात नहीं करते; बल्कि हमारे लिये नैतिकता ने जिस भाषा को विकसित किया है, उसका उपयोग हम उन चीजों में अपनी भावुकतापूर्ण जुगुप्सा या नापसंदगी प्रकट करने के लिये करते हैं जो हमें नाराज करती या चोट पहुंचाती हैं ।

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    यह जुगुप्सा या नापसंदगी नैतिकता का प्राथमिक उत्स है परंतु अपने-आपमें नैतिक नहीं है । हरिण को शेर से जो भीति होती है, या किसी बलवान् प्राणी को अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले पर जो क्रोध आता है वह सत्ता के व्यष्टिभूत आनंद की, अपने ऊपर संकट लानेवाले के प्रति प्राणिक जुगुप्सा है । मन की प्रगति में यह अपने-आपको परिष्कृत करके प्रतिकूलता, नापसंद और अस्वीकृति में अनूदित कर लेती है । जो चीज हमें जोखिम में डालती और चोट पहुंचाती है उसके लिये अस्वीकृति और जो चीज हमें प्रसन्न और संतुष्ट करती है उसकी स्वीकृति यह दोनों परिष्कृत होकर हमारे लिये, समाज के लिये, अपने से भिन्न औरों के लिये, अपने समाज से भिन्न समाजों के लिये भले और बुरे के रूप में और अंत में शुभ के लिये सामान्य स्वीकृति और अशुभ के लिये सामान्य अस्वीकृति का रूप ले लेती है । परंतु आद्योपांत इस चीज का आधारभूत स्वभाव वह-का-वही बना रहता है । मनुष्य चाहता है आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विकास, दूसरे शब्दों में कहें तो अपने अंदर सत् की चित्-शक्ति की प्रगति-तत्पर लीला । यह उसका आधारभूत आनंद है । जो कुछ उस आत्माभिव्यक्ति, आत्म-विकास पर, उसकी प्रगतिशील आत्मा के संतोष पर चोट करता है वही उसके लिये अशुभ होता है, जो कुछ सहायता करता, अनुमोदन करता, ऊपर उठाता, बढ़ाता और उदात्त बनाता है वही उसका शुभ होता है । बस, इतना है कि उसकी आत्म-विकास के बारे में धारणा बदलती जाती है, अधिक ऊंची, अधिक विस्तृत होती जाती है, अपने सीमित व्यक्तित्व का अतिक्रमण करना, औरों को अपने आलिंगन में ले लेना, सभीको अपने क्षेत्र में आलिंगित कर लेना शुरू कर देती है ।

 

    दूसरे शब्दों में, नैतिकता विकासक्रम में एक अवस्था है । जो चीज सभी अवस्थाओं में समान है वह है आत्माभिव्यक्ति के लिये सच्चिदानंद की प्रेरणा । यह प्रेरणा पहले निर्नैतिक होती है, फिर पशु में अवनैतिक होती है, फिर बुद्धिमान् पशु में नैतिकता-विरोधी भी हो जाती है क्योंकि वह हमें दूसरों को ऐसी चोट पहुंचाने की स्वीकृति देती है जो अगर हमारे ऊपर आती तो हम स्वीकृति न देते । इस मामले में मनुष्य अब भी केवल अर्द्ध-नैतिक ही है । और जैसे हमसे नीचे सब कुछ अवनैतिक है, हो सकता है कि जो हमारे ऊपर है, जहां अंतत: हम जा पहुंचेंगे, वह अतिनैतिक हो, --उसमें नैतिकता की जरूरत न रहे । नैतिक प्रेरणा और वृत्ति जो मानवजाति के लिये इतनी महत्त्वपूर्ण है, एक साधन है जिसके द्वारा वह निश्चेतना पर आधारित निम्नतर सामंजस्य और वैश्वात्मकता में से, जिसे प्राण आकर वैयक्तिक असंगतियों के रूप में छिन्न-भिन्न कर देता है, संघर्ष करती हुई एक ऐसे उच्चतर सामंजस्य और वैश्वात्मकता की ओर ले जाती है जो सभी सत्ताओं के साथ सचेतन ऐक्य पर आधारित है । उस लक्ष्य पर पहुंचकर इस साधन की फिर कोई आवश्यकता या कोई शक्यता भी न रह जायेगी, क्योंकि वे गुण और विरोध जिनपर

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यह आधारित है, स्वभावतः अंतिम समन्वय में घुल-मिलकर गायब हो जायेंगे ।

 

    तब फिर अगर नैतिक दृष्टिकोण बहुत महत्त्वपूर्ण फिर भी अस्थायी तौर पर एक विश्वात्मकता से दूसरीतक काम आनेवाला मार्ग ही है तो हम उसका उपयोग विश्व की समस्या के पूर्ण समाधान के लिये नहीं कर सकते बल्कि उसे उस समाधान में एक तत्त्व के रूप में ही मान सकते हैं । इससे उल्टा करना विश्व के सभी तथ्यों को झुठलाने का, एक अस्थायी दृष्टि और वस्तुओं की उपयोगिता की अर्द्धविकसित दृष्टि के अनुकूल बनाने के लिये अपने पीछे और अपने परे विकास के सारे अर्थ को झुठलाने का खतरा मोल लेना होगा । जगत् के तीन स्तर हैं, अवनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक । हमें उसे खोजना है जो तीनों में समान हो क्योंकि तभी हम समस्या का समाधान कर सकेंगे ।

 

    हम देख आये हैं कि जो सबमें समान है वह है सत् की चित्-शक्ति की संतुष्टि जो अपने-आपको रूपों में विकसित कर रही है और उस विकास में अपना आनंद खोज रही है । यह स्पष्ट है कि चित्-शक्ति ने आत्मसत्ता की इस संतुष्टि या आनंद से ही शुरू किया था क्योंकि यही उसके लिये स्वाभाविक है । वह इसीके साथ चिपकी रहती और इसीको वह अपना आधार बनाती है । परंतु वह अपने लिये नये रूपों की खोज करती है और उच्चतर रूपों की ओर जाते हुए रास्ते में दुःख और कष्ट का तत्त्व घुस आता है जो उसकी सत्ता के मौलिक स्वभाव के विपरीत मालूम होता है । यह और केवल यही है मूल समस्या ।

 

    हम इसका समाधान कैसे करें ? क्या हम यह कहें कि चीजों का आदि-अंत सच्चिदानंद नहीं है बल्कि आदि-अंत शून्य है, एक ऐसा तटस्थ शून्य जो अपने-आपमें कुछ नहीं है परंतु अपने अंदर सत् या असत् की, चेतना या निश्चेतना की, आनंद या निरानंद की सभी संभाव्यताओं को समाये हुए है । हम चाहें तो इस उत्तर को स्वीकार कर लें लेकिन इसके द्वारा जहां हम सब कुछ की व्याख्या करना चाहते हैं वहां किसी चीज की भी व्याख्या नहीं कर पाते, बस हर चीज का समावेश भर कर लेते हैं । एक ऐसा शून्य जो सभी संभाव्यताओं से भरा हो, शब्दों और वस्तुओं का यथासंभव अधिक-से-अधिक विरोध है । इस तरह हम एक छोटे-से विरोध की व्याख्या एक बड़े विरोध से करते हैं, वस्तुओं के परस्पर-विरोध को उनकी चरम सीमातक पहुंचा कर करते हैं । शून्य रिक्तता है जिसमें कोई संभाव्यताएं नहीं रहतीं, सभी संभाव्यताओं के तटस्थ अनिर्धारण की स्थिति ही महान् 'अव्यवस्था' है । हमने बस, इतना ही किया कि 'अव्यवस्था' को 'शून्य' में बिठा दिया परंतु यह नहीं समझाया कि वह वहां आयी कैसे । तो हम अपनी सच्चिदानंद की मूल धारणा पर वापिस आयें ओर देखें कि उसके आधार पर अधिक संपूर्ण समाधान संभव है या नहीं ।

 

    पहले हमें यह बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिये कि जैसे, जब हम वैश्व

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चेतना की बात करते हैं तो हमारा मतलब मनुष्य की जाग्रत् मानसिक चेतना से भिन्न, किसी अधिक सारभूत और अधिक विशाल चीज से होता है, उसी भांति जब हम सत्ता के वैश्व आनंद की बात करते हैं तो हमारा मतलब मानव व्यक्ति के सामान्य भावमय और संवेदनात्मक सुख से भिन्न, अधिक सारभूत और अधिक विशाल चीज से होता है । सुख, हर्ष और आनंद, मनुष्य जिस रूप में इन शब्दों का उपयोग करता है, वे सीमित और नैमित्तिक गतियां हैं, जो कुछ-एक अभ्यासगत कारणों पर निर्भर होती हैं, और अपने विरोधी तत्त्वों दुःख-दर्द की तरह, जो इन्हींकी तरह समान रूप से सीमित और नैमित्तिक हैं, अपने-आपसे भिन्न किसी और पृष्ठभूमि से निकलती हैं । सत्ता का आनंद वैश्व है, असीम और स्वयंभू है । वह किन्हीं विशेष कारणों पर निर्भर नहीं है । वह सब पृष्ठभूमियों की पृष्ठभूमि है जिसमें से सुख, दुःख और अन्य अधिक तटस्थ अनुभूतियां निकलती हैं । जब सत्ता का आनंद अपने-आपको संभूति के आनंद के रूप में प्रकट करना चाहता है तो वह शक्ति की गति के रूप में स्पंदित होता है और गति के विभिन्न रूप अपनाता है जिनमें सुख-दुःख सकारात्मक और नकारात्मक धाराएं हैं । यह आनंद जड़तत्त्व में अवचेतन, मन के परे अतिचेतन होता है और मन तथा प्राण में, संभूति में उभरकर, गति की बढ़ती हुई आत्मचेतना में अपने-आपको चरितार्थ करना चाहता है । उसकी प्राथमिक अभिव्यक्तियां द्विविध और अशुद्ध होती हैं, वे सुख-दुःख के ध्रुवों के बीच गति करती हैं किंतु उसका लक्ष्य होता है विषयों तथा कारणों से मुक्त, सत्ता के स्वयंभू परम आनंद की विशुद्धता में आत्माभिव्यक्ति । जैसे सच्चिदानंद वैश्व सत्ता को व्यक्ति में और रूपातीत चेतना को शरीर और मन के रूपों में चरितार्थ करने के लिये बढ़ता है वैसे ही यह आनंद भी विशेष अनुभवों और विषयों के प्रवाह में वैश्व, स्वयंभू और विषय-रहित आनंद की ओर बढ़ता है । जिन विषयों की अभी हम क्षणिक संतोष और सुख के उद्दीपक कारण समझकर आकांक्षा करते हैं, मुक्त और आत्मवान् होकर हम इनकी आकांक्षा नहीं करेंगे बल्कि तब हम उनके मालिक होंगे और तब वे हमारे लिये आनंद के निमित्त न होकर ऐसे आनंद को प्रतिबिंबित करनेवाले होंगे जो हमेशा अस्तित्व रखता है ।

 

    अहंकारमय मानव सत्ता में, जिसमें मनोमय पुरुष जड़तत्त्व के धुंधले खोल में से उभरा होता है, सत्ता का आनंद तटस्थ, आधा छिपा हुआ और अभीतक अवचेतन की छाया में रहता है । वह मुश्किल से ही किसी ऐसी छिपी हुई उर्वर भूमि से अधिक कुछ होता है जो खूब फल रही कामनारूपी विषैली रूखड़ियों से और हमारी अहंकारभरी सत्ता के दुःख और सुख के उतने ही विषैले फूलों से ढकी होती है । जब हमारे अंदर गुप्त रूप से काम करती हुई दिव्य चित्-शक्ति इन रूखड़ियों को लील लेगी, ऋग्वेद के रूपक के अनुसार जब भगवान् की अग्नि धरती के बीजांकुरों को भस्म कर डालेगी तब इन दुःखों और सुखों की जड़ में

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छिपा हुआ उनका कारण और उनकी गुप्त सत्ता, आनंद का रस, नये-नये रूपों में, कामना के रूप में नहीं बल्कि स्वयंभू संतुष्टि के रूप में उभरेगा जो मर्त्य सुख के स्थान पर अमर के आनंदोल्लास को स्थापित कर देगा । और यह रूपांतर संभव है क्योंकि सुख की तरह कष्ट भी संवेदन और भावावेश की उपज है और अपने सार तत्त्व में सत्ता का वह आनंद है जिसे वे खोजते तो हैं परंतु प्रकट करने में असफल रहते हैं,--असफल रहते हैं विभाजन, आत्म-अज्ञान और अहंकार के कारण ।

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