Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics, expounding a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth.
Sri Aurobindo's principal work of philosophy and metaphysics. In this book, Sri Aurobindo expounds a vision of spiritual evolution culminating in the transformation of man from a mental into a supramental being and the advent of a divine life upon earth. The material first appeared as a series of essays published in the monthly review Arya between 1914 and 1919. They were revised by Sri Aurobindo in 1939 and 1940 for publication as a book.
अध्याय २७
सत्ता के सप्त तंतु
पाक: पृच्छामि मनसाविजानन् देवानामेना निहिता पदानि ।
वत्से बष्कयेऽधि सप्त तन्तून् वि तत्निरे कवय ओतवा उ ।।
अपने मन के अज्ञान में, मैं देवों के इन पदों से पूछता हूं जो भीतर
निहित हैं । सर्वज्ञ देवों ने एक वर्ष के शिशु को लिया है और
उन्होनने उसके चारों ओर कपड़ा बनाने के लिये सात सूत बुने हैं ।
ऋग्वेद १.१६४.५
प्राचीन द्रष्टाओं ने सत्ता के जिन सात महान् तत्त्वों को समस्त विश्व-जीवन के आधार और सप्तगुण प्रणाली के रूप में निर्धारित किया था उनकी छान-बीन के द्वारा हम विकास और प्रतिविकास की भूमिकाओं को देख आये हैं और जिस ज्ञान तक पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं उसके आधार तक पहुंच गये हैं । हमने निर्धारित किया है कि विश्व के अंदर जो कुछ है उसका मूल, आधान, प्रथम और अंतिम सत् तत्त्व है परात्पर और अनंत सत् चित् और आनंद का त्रिविध तत्त्व जो दिव्य पुरुष का स्वरूप है । चेतना के दो पहलू हैं -ज्योतिर्मय और कार्य-साधक, आत्म- अभिज्ञता की अवस्था और शक्ति तथा आत्म-शक्ति की अवस्था और शक्ति जिसके द्वारा सत्-पुरुष अपने-आपको चाहे निष्क्रिय अवस्था में या सक्रिय गति में, स्व-प्रतिष्ठित रखता है । क्योंकि अपनी सर्जक क्रिया में वह सर्वशक्तिमान् आत्मचेतना के द्वारा उस सबको जानता है जो उसके अंदर छिपा है और एक सर्वदर्शी आत्म-ऊर्जा द्वारा अपनी शक्यताओं के विश्व को पैदा करता और उसपर शासन करता है । सर्व-सत् की इस सृजनात्मक क्रिया की ग्रंथि चौथे मध्यवर्ती तत्त्व अतिमानस या सत् भाव में मिलती है जिसमें दिव्य ज्ञान आत्म-सत्ता और आत्म-अभिज्ञता के साथ एक रहता है और एक क्रियागत इच्छा उस ज्ञान के साथ पूर्ण रूप से एकतान होती है क्योंकि वह अपने-आप अपने द्रव्य और स्वभाव में आत्म-चेतन स्वयंभू और ज्योतिर्मय क्रिया में गतिशील है । ज्ञान और इच्छा निर्भ्रांत रूप से वस्तुओं की गति, रूप और विधान को ठीक-ठीक उनके स्वयंभू सत्य के अनुसार और उसकी अभिव्यक्ति के तात्पर्यों के साथ सामंजस्य में विकसित करते हैं ।
सृष्टि एकत्व और बहुत्व के दोहरे तत्त्व पर निर्भर रहती और गति करती है । यह भाव और शक्ति और रूप की बहुविधता है जो मौलिक ऐक्य की अभिव्यक्ति है और शाश्वत ऐक्य बहुविध लोकों का आधार और वास्तविकता है जो उनकी लीला को संभव बनाता है । अतः अतिमानस विज्ञान और प्रज्ञान की दोहरी कर्मशक्ति
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द्वारा आगे बढ़ता है । तात्त्विक ऐक्य से चलता हुआ यह परिणामगत बहुत्व की ओर जाता है । वह सभी चीजों को अपने अंदर इस तरह समाविष्ट करता है मानों स्वयं वह अपने बहुविध रूपों को धारण किये हुए 'एक' है और सभी वस्तुओं का अलग-अलग प्रज्ञान स्वयं अपने अंदर इस तरह पाता है मानों वे उसकी इच्छा और ज्ञान के विषय हैं । जब कि उसकी मौलिक आत्म-अभिज्ञता के लिये सभी चीजें एक ही सत्ता, एक चेतना, एक इच्छा, एक ही आत्मानंद हैं और चीजों की सारी गति एक और अविभाज्य गति है, वह अपनी क्रिया में एकत्व से बहुत्व की ओर और बहुत्व से एकत्व की ओर चलता है । तब वह उनके बीच एक व्यवस्थित संबंध और एक ऐसा विभाजन बनाता है जिसका आभास होता है परंतु उसमें कोई बाधित करने वाला सत्य नहीं होता । यह एक सूक्ष्म विभाजन होता है जो अलग नहीं करता बल्कि अविभाज्य के अंदर एक सीमांकन और निर्धारण होता है । अतिमानस वह दिव्य विज्ञान है जो लोकों का सृजन, शासन और उनको धारण करता है : वह वह गुप्त प्रज्ञा है जो हमारे ज्ञान और हमारे अज्ञान दोनों को धारण किये रहती है ।
हमने यह भी जान लिया है कि मन, प्राण और जड़ तत्त्व इन तीन उच्चतर तत्त्वों के त्रिविध रूप हैं जो, जहां तक हमारे विश्व का संबंध है, अज्ञान के तत्त्व के आधीन, एकमेव की अपनी विभाजन और बहुत्व की लीला में, ऊपरी तल पर आभासी आत्म-विस्मृति के आधीन रहकर कार्य कर रहे हैं । वास्तव में ये तीनों दिव्य चतुष्टय की गौण शक्तियां हैं । मन अतिमानस की एक गौण शक्ति है जो विभाजन के दृष्टिकोण में स्थित है । वह वहां सचमुच अपने पीछे रहनेवाले एकत्व को भूल जाता है हालांकि वह अतिमानस से फिर से प्रकाश पाकर उस एकत्व तक लौट जाने में समर्थ होता है । इसी तरह प्राण सच्चिदानंद के ऊर्जा पक्ष की गौण शक्ति है, वह मन के द्वारा बनाये गये विभाजन के दृष्टिकोण से रूप और सचेतन ऊर्जा की लीला को कार्यान्वित करता है, जड़ पदार्थ सत्ता के पदार्थ का वह रूप है जिसे सच्चिदानंद की सत्ता अपने-आपको अपनी चेतना और शक्ति की इस प्रपंचात्मक क्रिया के आधीन करते समय धारण करती है ।
इनके अतिरिक्त एक चौथा तत्त्व भी है जो मन, प्राण और शरीर की ग्रंथि में अभिव्यक्त होता है जिसे हम अंतरात्मा या पुरुष कहते हैं । इसके दो रूप होते हैं : एक सामने कामना-पुरुष जो वस्तुओं पर अधिकार करने और उनका मजा लेने के लिये कोशिश करता है और दूसरा पीछे जो कामना-पुरुष से पूरी तरह या बड़ी हदतक छिपा रहता है । यह है सच्ची चैत्य सत्ता जो आत्मा के अनुभवों का वास्तविक भंडार है । हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह चौथा मानव तत्त्व अनंत आनंद का, तीसरे दिव्य तत्त्व का प्रक्षेप और उसकी क्रिया हैं । लेकिन यह क्रिया इस जगत् में होनेवाले अंतरात्मा के विकास-क्रम की अवस्था के आधीन और
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हमारी चेतना के अनुरूप होती है । जैसे भगवान् का अस्तित्व स्वभावत: अनंत चेतना और उस चेतना की स्व-शक्ति है उसी तरह उसकी अनंत चेतना का स्वभाव भी शुद्ध और अनंत आनंद है । आत्मवत्ता और आत्म-अभिज्ञता उसके आत्मानंद का सार हैं । विश्व भी इस दिव्य आत्मानंद की लीला है और उस लीला का आनंद पूरी तरह से वैश्वात्मा को प्राप्त रहता है परंतु व्यष्टि में अज्ञान और विभाजन की क्रिया के कारण यह अन्तस्तलीय और अतिचेतन सत्ता में रुका रहता है । हमारी सतह पर वह नहीं रहता और वैश्व और परात्पर की ओर व्यष्टिगत चेतना के विकास द्वारा उसे खोजकर पाना और अधिकार में करना होता है ।
अतः अगर हम चाहें तो सात की जगह आठ१ तत्त्व रख सकते हैं और तब हम देखेंगे कि हमारी सत्ता दिव्य सत्ता का एक तरह का अपवर्तन है जो आरोहण और अवरोहण के विपरीत क्रम में इस तरह आयोजित है :
सत् जड़ या अन्न
चित्-शक्ति प्राण
आनंद चैत्य पुरुष या अंतरात्मा
अतिमानस मन
भगवान् वैश्व सत्ता में शुद्ध सत् से चित्-शक्ति और आनंद की लीला तथा अतिमानस के सृजनात्मक माध्यम द्वारा उतरते हैं । हम जड़ से विकसनशील प्राण, अंतरात्मा और मन तथा अतिमानस के ज्योतिर्मय माध्यम द्वारा दिव्य सत्ता की ओर चढ़ते हैं । परार्द्ध और अपरार्द्ध दोनों की गांठ वहां है जहां मन और अतिमानस बीच में एक पर्दा रखते हुए आपस में मिलते हैं । मानव जाति में दिव्य जीवन की शर्त्त है उस पर्दे का भेदन करना क्योंकि, उस भेदन के द्वारा निम्नतर सत्ता की प्रकृति में उच्चतर के ज्योतिर्मय अवतरण के द्वारा और निम्नतर सत्ता के उच्चतर सत्ता की प्रकृति में बलपूर्वक आरोहण द्वारा मन अपनी दिव्य ज्योति को सर्वधारक अतिमानस में फिर से पा सकता है, अंतरात्मा अपने दिव्य स्व को सब पर अधिकार रखने वाले सर्वानंद में प्राप्त कर सकती है, प्राण अपनी दिव्य शक्ति को सर्वशक्तिमान् चित्-शक्ति की लीला में फिर से अधिकार में ला सकता है और जड़ मानों दिव्य सत्ता के रूप में अपनी दिव्य स्वाधीनता की ओर खुल सकता है । और अगर इस विकास का, जिसका यहां इस समय मुकुट और सिरमौर मानव प्राणी है, उसका अगर कोई लक्ष्य है और वह लक्ष्य निरुद्देश्य चक्कर लगाने और उस चक्कर में से वैयक्तिक मुक्ति पाने के अलावा कुछ और है, और अगर इस प्राणी की -केवल यहीं यहां ऐसा प्राणी है जो आत्मा और जड़ के बीच इस रूप में अवस्थित है कि उसके पास उनके बीच मध्यस्थता करने की शक्ति है -अनंत
१वैदिक ऋषि सात किरणों की बात कहते हैं पर कभी-कभी आठ, नौ, दस और बारह की भी ।
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शक्यताओं का कुछ अर्थ है और वह अर्थ वैश्व प्रयास से निराश और विरक्त होकर जीवन के भ्रम से परम जागरण और उसके पूर्ण परित्याग के अलावा कुछ और है तो इस जीव में ऐसा प्रकाशमय और शक्तिशाली रूपांतर और भगवान् का आविर्भाव ही वह ऊंचा उठा हुआ लक्ष्य और परम अभिप्राय होगा ।
लेकिन ऐसी मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक अवस्थाओं की ओर मुड़ने से पहले, जिनमें यह रूपांतर एक तात्त्विक संभावना से बदलकर क्रियात्मक शक्यता बन जाये, हमें बहुत कुछ सोचना होगा । क्योंकि हमें केवल सच्चिदानंद के भौतिक जगत् में अवतरण के सारभूत तत्त्व को ही नहीं देखना होगा, जिन्हें हम पहले ही देख आये हैं, बल्कि यहां पर उसकी व्यवस्था की विशाल योजना और चित्-शक्ति की अभिव्यक्त सामर्थ्य की क्रिया और उसके स्वभाव को भी देखना होगा जो उन परिस्थितियों पर शासन करते हैं जिनमें हमारा निवास है । अभी हमें पहले यह देखना है कि हमने जिन सात या आठ तत्त्वों की परीक्षा की है वे समस्त वैश्व सृष्टि के लिये जरूरी हैं और हमारे अंदर -इस 'वर्ष भर के बच्चे में' जो कि हम अभी तक हैं, क्योंकि हम अभी तक विकासशील प्रकृति के वयस्क होने से दूर हैं -व्यक्त या अव्यक्त रूप से मौजूद हैं । उच्चतर त्रयी समस्त अस्तित्व और अस्तित्व की लीला का उद्गम और आधार है । और सारे विश्व को उसकी सद्वस्तु की अभिव्यक्ति और क्रिया होना चाहिये । कोई विश्व सत्ता का ऐसा रूप नहीं हो सकता जो निरपेक्ष नास्ति और शून्य में से उठ खड़ा हुआ हो और अपनी रूप-रेखा प्रस्तुत कर रहा हो और एक असत् रिक्तता के आगे खड़ा हो । उसे या तो अनंत सत्ता में, जो सभी रूपों के परे है, एक रूप होना चाहिये या वह स्वयं सर्व सत्ता हो । वस्तुत: जब हम अपने-आपको वैश्व सत्ता के साथ एक कर देते हैं तो हम देखते हैं कि वह एक ही साथ दोनों चीजें है । यानी वह सर्व-सत्ता है जो अपने-आपको देश और काल के रूप में अपनी कल्पना के अनुसार आत्म-प्रसारण के छन्दों की अनंत शृंखला में रूपायित करता है । इसके सिवा हम देखते हैं कि यह वैश्व क्रिया या कोई भी वैश्व क्रिया इन सभी रूपों और गतियों को उत्पन्न और नियमित करनेवाली सत्ता की एक अनंत शक्ति की क्रीड़ा के बिना असंभव रहती है और उसी तरह वह शक्ति एक अनंत चेतना की क्रिया सूचित करती है या वह शक्ति अपने-आप ही वह क्रिया होती है क्योंकि वह अपने स्वभाव से एक वैश्व इच्छा है जो सभी संबंधों को निर्धारित करती और अपनी ही अभिज्ञता की विधि से उनका प्रज्ञान प्राप्त करती है । अगर उस वैश्व अभिज्ञता-विधि के पीछे विज्ञान चेतना न होती तो वह यह निर्धारण और प्रज्ञान-प्राप्ति न कर पाती । सत्-पुरुष के विकसित होते हुए आत्म-रूपायण या आत्म -संभूति में, जिसे हम विश्व कहते हैं, सत्ता के संबंधों का आरंभ, उनका धारण, उनका निर्धारण और प्रतिबिंबन उस विज्ञान चेतना से ही, उस वैश्व अभिज्ञता-विधि के साथ ही होते हैं ।
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अंत में, चूंकि चेतना इस तरह सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् है, ज्योतिर्मय रूप से अपने ऊपर अधिकार रखती है और यह पूरा-पूरा ज्योतिर्मय अधिकार अपने स्वरूप में आनंद अवश्य होता है क्योंकि वह इसके सिवा कुछ नहीं हो सकता, अतः एक बृहत् वैश्व आत्मानंद को वैश्व सत्ता का कारण, सार-तत्त्व और लक्ष्य होना चाहिये । प्राचीन ऋषि कहते हैं, ''यदि यह जीवन के आनंद का सबको घेरे रहनेवाला आकाश, जिसमें हम निवास करते हैं, न होता, अगर वह आनंद हमारा आकाश न होता तो कोई सांस न ले पाता, कोई जी न सकता'' । यह आत्मानंद अवचेतन हो सकता है, सतह पर खोया हुआ-सा मालूम हो सकता है लेकिन केवल इतना ही जरूरी नहीं है कि वह हमारी जड़ों में हो बल्कि समस्त सत्ता को आवश्यक रूप से उसे खोजने और पा लेने के लिये एक अन्वेषण और उसतक पहुंचने का प्रयास होना चाहिये । और विश्व के अंदर प्राणी जिस अनुपात में अपने-आपको पाता है, चाहे इच्छा और शक्ति में हो या प्रकाश और ज्ञान में, सत्ता और विस्तार में हो या प्रेम और स्वयं आनंद में, उसे गुप्त आनंद की किसी चीज की ओर जागना चाहिये । ज्ञान द्वारा सत्ता का आनंद, उपलब्धि का आनंद, इच्छा और शक्ति या सृजन-शक्ति द्वारा अधिकार करने का आनंदातिरेक, प्रेम और हर्ष में मिलन का उल्लास, विस्तृत होते हुए जीवन की उच्चतम अवस्थाएं हैं क्योंकि वे स्वयं अस्तित्व का सार-तत्त्व हैं, चाहे वह उसकी जड़ों में छिपा हो या अभी तक अदृष्ट ऊंचाइयों में -तो जहां कहीं वैश्व सत्ता अपने-आपको अभिव्यक्त करती है इन तीनों को उसके पीछे या उसके भीतर होना चाहिये ।
किंतु अनंत सद चित् और आनंद अगर इस चौथे पद, अतिमानस या दिव्य विज्ञान को अपने में धारण या विकसित न करें और अपने में से प्रकट न करें तो उन्हें अपने-आपको दृश्य सत्ता में प्रकट करने की जरूरत ही न हो और अगर वे प्रकट हो ही जायें तो वैश्व सत्ता न होती बल्कि बिना किसी निश्चित व्यवस्था या बिना संबंध के रूपों की अनंतता होती । हर एक विश्व में ज्ञान और इच्छा की शक्ति होनी चाहिये जो अनंत संभाव्यता में से निश्चित संबंध निर्धारित करती है, बीज में से परिणाम को विकसित करती है, वैश्व विधान के सब सबल छन्दों को प्रकट करती और लोकों को उनके अमर और अनंत द्रष्टा तथा शासक की तरह देखती और शासित करती है ।१ यह शक्ति स्वयं सच्चिदानंद के सिवा और कुछ नहीं है; यह ऐसी किसी चीज का सृजन नहीं करती जो उसकी अपनी आत्म-सत्ता में न हो और इस कारण समस्त वैश्व और वास्तविक विधान बाहर से आरोपित की हुई चीज न होकर भीतर से आता है, समस्त विकास आत्म-विकास है । सभी बीज और परिणाम वस्तुओं के सत्य का बीज हैं और उस बीज का परिणाम उसकी संभाव्यताओं में से निश्चित होता है । इसी कारण कोई भी विधान निरपेक्ष नहीं है
१ कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: । ईशोपनिषद् ८
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क्योंकि केवल अनंत ही निरपेक्ष है और हर चीज अपने अंदर अपने निश्चित रूप और धारा से एकदम परे अंतहीन संभाव्यताओं को समाये रखती है । ये रूप और धारा केवल भीतर की अनंत स्वाधीनता से निःसृत होनेवाले भाव द्वारा आत्म-परिसीमन से निर्धारित होते हैं । आत्म-परिसीमन की यह शक्ति अनिवार्य रूप से असीम सर्व-सत्ता में अन्तर्लीन रहती है । अनंत अनंत न होगा अगर वह बहुविध सान्तताओं को धारण न कर सके । निरपेक्ष निरपेक्ष न होगा यदि वह ज्ञान, शक्ति और इच्छा में और सत्ता की अभिव्यक्ति में आत्म-निर्धारण की असीम सामर्थ्य से वंचित हों । तो यह अतिमानस सत्य या सत्य-संकल्प है जो समस्त वैश्व शक्ति और सत् में अन्तर्लीन है; यह जरूरी है ताकि वह अपने-आप अनंत रहता हुआ अभिव्यक्ति के संबंध, क्रम और विस्तृत दिशाओं को निर्धारित, संयोजित और धारण कर सके । वैदिक ऋषियों की भाषा में जैसे सत् चित् और आनंद अनाम के तीन सबसे महान् नाम हैं उसी तरह अतिमानस चौथा१ नाम है । यह तत् के अवरोहण में और हमारे आरोहण में चौथा है ।
लेकिन मन, प्राण और जड़ पदार्थ, निचली त्रयी भी वैश्व सत्ता के लिये अनिवार्य है । यह जरूरी नहीं है कि ये उस रूप में, उस क्रिया या उन परिस्थितियों में हों जिन्हें हम धरती पर या इस जड़ विश्व में जानते हैं बल्कि किसी प्रकार की क्रिया में हों वह चाहे जितनी पुकाशमान्, चाहे जितनी शक्तिशाली, चाहे जितनी सूक्ष्म क्यों न हो । क्योंकि मन तत्त्वतः अतिमानस की वह क्षमता है जो नापती, सीमित करती है, जो एक विशेष केन्द्र निश्चित करती और वहां से वैश्व गतिविधि और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया को देखती हैं । मान लें कि किसी लोक विशेष में, किसी स्तर या वैश्व व्यवस्था में, जरूरी नहीं कि मन सीमित हो पर जो सत्ता मन का एक गौण क्षमता के रूप में उपयोग करती है, उसके लिये जरूरी नहीं कि वह वस्तुओं को अन्य केन्द्रों या दृष्टिकोणों से देखने में असमर्थ हो या सबके वास्तविक केन्द्र से या वैश्व आत्म-प्रसारण में देखने में अक्षम हो फिर भी अगर वह भागवत क्रिया के अमुक प्रयोजनों के लिये अपने-आपको सामान्य रूप से अपने दृढ़ दृष्टिबिंदु में स्थिर करने में असमर्थ है, यदि केवल वैश्व आत्म-प्रसारण या अनंत केन्द्र हों जिनमें प्रत्येक को निर्धारित या मुक्त भाव से सीमित करनेवाली क्रिया न हो तो कोई विश्व न होगा, केवल एक सत् रहेगा जो अपने अंदर अनंत रूप से चिंतन कर रहा होगा जैसे कोई स्रष्टा या कवि सृजन के निर्धारक कार्य की ओर बढ़ने से पहले स्वतंत्र रूप से, लचीलेपन से नहीं, चिंतन करता है । अस्तित्व के अनंत सोपान में कहीं-न- कहीं ऐसी अवस्था का अस्तित्व अवश्य होगा, लेकिन जब हम विश्व कहते हैं तो हमारा मतलब उससे नहीं होता । उसमें चाहे जैसी व्यवस्था क्यों न हो, वह होगी
१ 'तुरीय स्विद्ं, ''कोई चौथा'', इसीको 'तुरीयं धाम', सत्ता का चौथा धाम या पद भी कहा गया है ।
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एक तरह से अनिश्चित, ढीली व्यवस्था, जैसी व्यवस्था अतिमानस संबंधों के निर्धारित विकास, मापन और पारस्परिक क्रिया के कार्य की ओर बढ़ने से पहले कर सकता है । उस माप और क्रिया-प्रतिक्रिया के लिये मन आवश्यक है । लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने-आपको अतिमानस की एक गौण क्रिया के सिवा कुछ और माने या संबंधों की क्रिया-प्रतिक्रिया को अपने-आप बंदी बने हुए अहंकार के आधार पर उस रूप में विकसित करे जिसे हम पार्थिव प्रकृति में सक्रिय देखते हैं ।
मन एक बार अस्तित्व में आ जाये तो प्राण और द्रव्य रूप भी आ जाते हैं क्योंकि प्राण केवल शक्ति और क्रिया का, चेतना के अनेक नियत केन्द्रों से ऊर्जा के संबंध और परस्पर-क्रिया का निर्धारण मात्र है । यह जरूरी नहीं है कि ये केन्द्र स्थान और काल के नियत हों, वे एक वैश्व सामंजस्य को सहारा देनेवाले शाश्वत के आत्मा-रूपों या सत्ताओं के निरंतर सह-अस्तित्व में नियत हो सकते हैं । हम जिस जीवन को जानते हैं या जिसकी कल्पना कर सकते हैं, उससे वह जीवन बहुत ज्यादा भिन्न हो सकता है लेकिन तत्त्वतः यह वही तत्त्व काम में लगा होगा जिसे हम यहां जीवन-शक्ति के रूप में चित्रित देखते हैं -यह वह तत्त्व है जिसे प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वायु या प्राण का नाम दिया था । यह विश्व में वह प्राण-द्रव्य, सद्वस्तुमय इच्छा और ऊर्जा हैं जो सत्ता के नियत रूप और कर्म तथा सचेतन क्रियाशक्ति में कार्यान्वित होती है । हो सकता है कि द्रव्य भी हमारे जड़ शरीर के बोध और हमारे दृष्टिकोण से बहुत भिन्न हो, उससे बहुत अधिक सूक्ष्म, अपने आत्म-विभाजन और पारस्परिक प्रतिरोध के नियम में बहुत कम कठोरता से बांधनेवाला हो । हो सकता है वहां शरीर या रूप कारागार न होकर उपकरण मात्र हों; फिर भी विश्व की क्रिया-प्रतिक्रिया के लिये रूप और द्रव्य का कुछ निर्धारण हमेशा आवश्यक रहेगा, भले वह केवल मानसिक शरीर हो या कोई ऐसी चीज हो जो अधिक-से-अधिक स्वतंत्र मानसिक शरीर से भी अधिक ज्योतिर्मय, अधिक सूक्ष्म हो और अधिक सामर्थ्य और स्वतंत्रता के साथ क्रिया करती हो ।
इसका मतलब यह निकलता है कि जहां कहीं विश्व है, जहां आरंभ में भले एक ही तत्त्व दिखायी देता हो, चाहे शुरू में यही लगता हो कि वही वस्तुओं का एकमात्र तत्त्व है और जगत् में प्रकट होनेवाली बाकी सभी चीजें उसीके रूपों और परिणामों से बढ़कर और कुछ न दीखती हों और अपने-आपमें वैश्व अस्तित्व के लिये जरूरी न हों, तो सत्ता के द्वारा प्रकट किया गया यह चेहरा उसके वास्तविक सत्य का केवल भ्रांतिमय मुखौटा या आभास ही हो सकता है । जहां विश्व में एक तत्त्व ही अभिव्यक्त हो वहां बाकी सब भी केवल उपस्थित और निष्क्रिय रूप से छिपे नहीं रहते बल्कि गुप्त रूप से सक्रिय भी रहते हैं । किसी भी लोक को ले लें, तो उसकी सत्ता के क्रम और सामंजस्य ऐसे हो सकते हैं कि ये सातों तत्त्व
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क्रियाशीलता की कम या अधिक मात्रा में खुले रूप से उपस्थित हों । हो सकता है कि किसी और लोक में वे सब एक में अंतर्लीन हों और वह उस लोक के विकास का प्राथमिक या आधारभूत तत्त्व बन जाये । लेकिन जो अंतर्लीन है उसका विकास जरूरी है । सत्ता की सातगुनी शक्ति का विकास, उसके सप्तविध नाम की उपलब्धि ऐसे किसी भी लोक की नियति होगी जो देखने में एक ही शक्ति के अंदर सबके अंतर्निहित होने से आरंभ होता है ।१ इसलिये वस्तुओं की प्रकृति के अनुसार जड़-भौतिक विश्व अपने छिपे हुए प्राण में से प्रकट प्राण को, अपने छिपे हुए मन से प्रकट मन को विकसित करने के लिये बाधित था और उसी वस्तुस्थिति के अनुसार वह अपने अंदर छिपे अतिमानस में से प्रकट अतिमानस को और अपने अंदर छिपी आत्मा में से सच्चिदानंद की त्रिविध महिमा को अवश्य विकसित करेगा । एकमात्र प्रश्न यह है कि क्या पृथ्वी उस आविर्भाव का मंच बनेगी या मानव सृष्टि इस भौतिक मंच पर या कहीं और, काल के विशाल चक्रों के इस आवर्तन में या किसी अन्य में उस आविर्भाव का वाहन और उपकरण बनेगी ? प्राचीन ऋषि मनुष्य की इस संभावना पर विश्वास करते थे और इसे उसकी दिव्य नियति मानते थे । आधुनिक विचारक इसके बारे में सोचता तक नहीं और अगर सोचे भी तो या तो उसका प्रतिवाद करेगा या उसपर संदेह । अगर वह अतिमानव का अंतर्दर्शन पाता भी है तो मन या प्राण के बढ़े-चढ़े रूप में । वह किसी और आविर्भाव को नहीं स्वीकार करता, इन तत्त्वों के परे और कुछ नहीं देखता, क्योंकि अभीतक इन्होंने ही हमारी सीमा और हमारी परिधि को बनाया है । इस प्रगतिशील जगत् में, इस मानव प्राणी के लिये, जिसमें दिव्य चिनगारी चेतायी गयी है, वास्तविक बुद्धिमत्ता उच्चतर अभीप्सा रखने में है बजाय अभीप्सा को अस्वीकार करने अथवा ऐसी आशा रखने में जो अपने-आपको ऊपर से दीखनेवाली संभावनाओं की उन संकरी दीवारों में घेर लेती और सीमित करती है, जो हमारी बीच की प्रशिक्षण शालाएं ही हैं । वस्तुओं की आध्यात्मिक व्यवस्था में हम अपनी दृष्टि और अभीप्सा को जितना ही ऊंचा प्रक्षिप्त करेंगें उतना ही ऊंचा सत्य हमपर उतरना चाहेगा क्योंकि यह सत्य पहले ही से हमारे अंदर मौजूद है और अभिव्यक्त प्रकृति में जो आवरण उसे छिपाये हुए है उससे छुटकारा पाने के लिये पुकार रहा है ।
१ हम जिस किसी लोक को लें उसमें अन्तर्लयन आवश्यक नहीं है । एक मुख्य तत्त्व के आगे औरों का गौण स्थान हो सकता है, हो सकता है कि और सब उस एक में ही समाविष्ट रहें । ऐसी हालत में उस लोक-व्यवस्था के लिये विकास जरूरी नहीं है ।
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